[[प्रतापरुद्रयशोभूषणम् Source: EB]]
[
[TABLE]
श्रीः।
श्रीविद्यानाथकृतं
प्रतापरुद्रयशोभूषणं
श्रीमन्मल्लिनाथसुतकुमारस्वामिविरचित-
रत्नापणाख्यटीकया समेतं
राजनगरस्थशिक्षकशिक्षणालयस्य मुख्याधिकारिणा बी. ए. इत्युपाह्वेनमुम्बापुरीस्थ-
विश्वविद्यालयस्याकार्यवाहकयशस्करपारिषद्यपदं प्राप्तेन मुम्बापुरीस्थएल्-
फिन्स्टनाख्यविद्यामन्दिरस्य पुण्यपत्तनस्थडेकनाख्यविद्या-
मन्दिरस्य च कादाचित्केन गीर्वाणभाषाध्यापकेन
त्रिवेद्युपपदधारिणा
प्राणशंकरसूनुना कमलाशंकरेण त्रिवेदी संशोधितं
स्वनिर्मिताङ्ग्लभाषाभूमिकाटिप्पणीभ्यां च सनाथीकृतं
भामहालंकारयुक्तपरिशिष्टसमन्वितं च।
तच्च
मुम्बापुरीस्थराजकीयग्रन्थमालाधिकारिणा
शाके १८३१ वत्सरे १९०९ ख्रिस्ताब्दे
Ed S
K.P. Triadi
प्राकाश्यं नीतम्।
————
प्रथमा आवृत्तिः।
Deltt of Public distraction
(ग्रन्थस्यास्य विषये सर्वेऽधिकाराः राजकीयग्रन्थमालाधिकारिणामेव। )
(Sanskit Prakrit Series No.65)
मूल्यं रूपकैकादशकम्।
Govt. Central Press,
Bombay 1909 A.D.
Contents.
Critical Notice of the Manuscripts of the Pratâparudrayaśobhúshaṇa, the Ratnâpaṇa
and the Ratnaśâṇa.
I.-VI.
INTRODUCTION.
VII.—XXXVIII.
| नायकप्रकरणम् |
| मङ्गलम् |
| ग्रन्थप्रयोजनम् |
| नायकगुणनिरूपणम् - |
| नायकगुणा |
| महाकुलीनता |
| औज्ज्वल्यम् |
| महाभाग्यम् |
| औदार्यम् |
| तेजस्विता |
| वैदग्ध्यम् |
| धार्मिकत्वम् |
| महामहिमत्वम् |
| पाण्डित्यम् |
| नायकस्वरूपम् |
| यशःप्रतापाभ्यां सुभगत्वम् |
| धर्मकामार्थतत्परत्वम् |
| धुरीणता |
| गुणाढ्यत्वम् |
| नायकविशेषाः |
| धीरोदात्तः |
| धीरोद्धतः |
| धीरललितः |
| धीरशान्तः |
| शृङ्गारविषयनायकाः |
| अनुकूलः |
| दक्षिणः |
| धृष्टः |
| शठः |
| नायिकानुकूलने नायकसहायाः |
| पीठमर्दः - विटः- चेटः- विदूषकः |
| शृङ्गारनायिकाः |
| स्वाधीनपतिका |
| वासकसज्जिका |
| विरहोत्कण्ठिता |
| विप्रलब्धा |
| खण्डिता |
| कलहान्तरिता |
| प्रोषितभर्तृका |
| अभिसारिका |
| नायिकानां नायकानुकूलने सहायाः— दूत्यः-दासी-सखी-कारुः-धात्रेयी-प्राति-वेशिनी-लिङ्गिनी-शिल्पिनी |
| नायिकाप्रकाराः |
| मुग्धा |
| मध्या |
| प्रौढा |
| संग्रह श्लोकः |
| Appendix to नायकप्रकरणम्-संग्रहश्लोकविवरणम् |
| काव्यप्रकरणम् |
| काव्यस्वरूपम् |
| शब्दार्थविभागः |
| शब्दवृत्तयः |
| अभिधा– लक्षणा- व्यञ्जना |
| गौणवृत्तिः - लक्षणाप्रभेदः |
| लक्षणा - |
| सादृश्यनिबन्धना |
| सारोपा |
| साध्यवसाना |
| संबन्धनिबन्धना |
| जहद्वाच्या—अजहद्वाच्या |
| वृत्तयः — रचनाश्रिताः रसावस्थानसूचकाः |
| कैशिकी - आरभटी - सात्वती -भारती |
| रीतयः- वैदभीप्रभृतयः |
| अभिधाप्रकाराः - |
| रूढिपूर्विका |
| योगपूर्विका |
| लक्षणास्वरूपम् - |
| जहल्लक्षणा |
| अजहल्लक्षणा |
| सारोपा लक्षणा |
| साध्यवसानलक्षणा |
| व्यञ्जनावृत्तिः- तत्प्रकारश्च |
| शब्दशक्तिमूला व्यञ्जना |
| अर्थशक्तिमूला व्यञ्जना |
| उभयशक्तिमूला व्यञ्जना |
| कैशिक्यादिवृत्तिस्वरूपम् |
| कैशिकी |
| आरभटी |
| भारती |
| सात्वती |
| मध्यमारभटी |
| मध्यमकैशिकी |
| रीतिवृत्तिभेदः |
| रीतिस्वरूपम् |
| रीतिप्रकाराः |
| वैदर्भीरीतिः |
| गौडीरीतिः |
| पाञ्चालीरीतिः |
| शय्या |
| पाकः - |
| द्राक्षापाकः |
| नारिकेलपाकः |
| काव्यविशेषाः - |
| ध्वनिः |
| गुणीभूतव्यङ्ग्यम् |
| चित्रम् - |
| शब्दचित्रम् |
| अर्थचित्रम् |
| उभयचित्रम् |
| ध्वनिविशेषाः - |
| अर्थान्तरसंक्रमिताविवक्षितवाच्यध्वनेरुदाहरणम् |
| अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यध्वन्युदाहरणम् |
| अर्थशक्तिमूलस्य |
| वस्तुना वस्तुध्वनेरुदाहरणम् |
| वस्तुनालंकारध्वन्युदाहरणम् |
| अलंकारेण वस्तुध्वन्युदाहरणम् |
| अलंकारेणालंकारध्वन्युदाहरणम् |
| कविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलस्य |
| वस्तुना वस्तुध्वनेरुदाहरणम् |
| वस्तुनालंकारध्वनेरुदाहरणम् |
| अलंकारेण वस्तुध्वनेरुदाहरणम् |
| अलंकारेणालंकारध्वनेरुदाहरणम् |
| कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलस्य |
| वस्तुना वस्तुध्वनेरुदाहरणम् |
| वस्तुनालंकारध्वनेरुदाहरणम् |
| दश रूपकाणि |
| वस्तु- प्रख्यातम्-उत्पाद्यम्-मिश्रम् |
| रूपकभेदकानि |
| रूपकसामग्री |
| संधयः विभागाश्च मुख-प्रतिमुख- गर्भ-विमर्श - निर्वहण |
| अर्थप्रकृतीनां पञ्चानामवस्थानां च समन्वयः संधिः |
| अवस्थापञ्चकम् - |
| आरम्भः |
| प्रयत्नः |
| प्राप्त्याशा |
| नियताप्तिः |
| फलागमः |
| बीजादिपञ्चकम् - |
| बीजम् |
| बिन्दुः |
| पताका |
| प्रकरिका |
| कार्यम् |
| मुखसन्धेर्लक्षणम् |
| मुखसन्धेरङ्गानि |
| अङ्गनामानि तत्स्वरूपं च |
| प्रतिमुखसन्धेः स्वरूपम् |
| तदङ्गानि |
| गर्भसन्धेः स्वरूपमङ्गानि च |
| विमर्शसन्धेः स्वरूपमङ्गानि च |
| निर्वहणसन्धेः स्वरूपमङ्गानि च |
| संधिप्रयोजनानि |
| इतिवृत्तविभागः- सूच्यमसूच्यं च |
| असूच्यप्रकाराः- दृश्यं श्राव्यं च |
| सूच्यस्य सूचनाक्रमविभागाः- |
| विष्कम्भ - चूलिका-अङ्कास्यम् प्रवेशः अङ्कावतारणम् |
| विष्कम्भस्वरूपम् |
| चूलिकास्वरूपम् |
| अङ्कास्यस्वरूपम् |
| प्रवेशकस्वरूपम् |
| अङ्कावतारस्वरूपम् |
| अङ्कस्वरूपम् |
| आमुखस्वरूपम्- प्रस्तावना |
| आमुखाङ्गानि |
| कथोद्धातः |
| प्रवर्तकम् |
| प्रयोगातिशयः |
| वीथ्यङ्गानि त्रयोदश |
| तेषां स्वरूपम् |
| दशरूपकस्वरूपम् |
| नाटकम् |
| नान्दी |
| प्रकरणम् |
| भाणः |
| प्रहसनम्- शुद्धं वैकृतं संकीर्णं च |
| डिमः |
| व्यायोगः |
| समवकारः |
| वीथी |
| अङ्कः |
| ईहामृगः |
| साङ्गनाटकोदाहरणम् |
| प्रथमोऽङ्कः (कल्याणस्वप्नः) |
| नान्दी-उदाहरणम् |
| रङ्गप्रसाधनम् |
| संप्रार्थनम् |
| भारतीवृत्तिः |
| प्ररोचना |
| त्रिगतम् |
| अलंकारेणालंकारध्वनेरुदाहरणम् |
| अलंकारेण वस्तुध्वनेरुदाहरणम् |
| शब्दशक्तिमूलध्वनिप्रकाराः |
| अलंकारध्वनिः. |
| वस्तुध्वनिः |
| उभयशक्तिमूलध्वनिः |
| असंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यध्वनिप्रकाराः |
| गुणीभूतव्यङ्ग्यकाव्यप्रकाराः |
| अगूढम् |
| अपरस्याङ्गम् |
| वाच्यसिद्ध्यङ्गम् |
| अस्फुटम् |
| संदिग्धम् |
| तुल्यप्राधान्यम् |
| असुन्दरम् |
| काक्वाक्षिप्तम् |
| चित्रभेदनिर्देशः |
| महाकाव्य स्वरूपम् |
| तत्तद्विभागाः |
| गद्यमयम्-पद्यमयम्-उभयमयम् (चम्पू ) |
| उपकाव्यम् |
| आख्यायिका |
| क्षुद्रप्रबन्धाः- |
| उदाहरणम् |
| चक्रवालकम् |
| भोगावली |
| बिरुदावली |
| तारावली |
| नाटकप्रकरणम् |
| नाट्यस्वरूपम् |
| नृत्यस्वरूपम् |
| छलनम्- उदाहरणम् |
| नालिका-उदाहरणम् |
| अवलगितम् -उदाहरणम् |
| उद्धात्यकम्-उदाहरणम् |
| प्रपञ्चः-उदाहरणम् |
| वाक्केलिः-उदाहरणम् |
| अधिबलम् -उदाहरणम् |
| गण्डम् -उदाहरणम् |
| अवस्यन्दितम्-उदाहरणम् |
| असत्प्रलापः-उदाहरणम् |
| व्याहारः-उदाहरणम् |
| मृदवम्-उदाहरणम् |
| प्रवर्तकम् -उदाहरणम् |
| प्रयोगातिशयः -उदाहरणम् |
| प्रस्तावना-उदाहरणम् |
| उपक्षेपः-उदाहरणम् |
| परिकरः-उदाहरणम् |
| परिन्यासः-उदाहरणम् |
| विलोभनम्-उदाहरणम् |
| युक्तिः-उदाहरणम् |
| प्राप्तिः-उदाहरणम् |
| सभाषणम्-उदाहरणम् |
| विधानम्-उदाहरणम् |
| परिभावना-उदाहरणम् |
| उद्भेदः-उदाहरणम् |
| भेदः-उदाहरणम् |
| मुखसंधिः-उदाहरणम् |
| द्वितीयोऽङ्कः (विजययात्राविलासः) - |
| बिन्दुः- उदाहरणम् |
| विलासः-उदाहरणम् |
| परिसर्पः-उदाहरणम् |
| प्रतिमुखसन्धिः-उदाहरणम् |
| प्रवेशकः- उदाहरणम् |
| विधूतम्-उदाहरणम् |
| शमः-उदाहरणम् |
| नर्म-उदाहरणम् |
| नर्मद्युतिः-उदाहरणम् |
| प्रगमः-उदाहरणम् |
| निरोधः-उदाहरणम् |
| वज्रम्-उदाहरणम् |
| पर्युपासनम्-उदाहरणम् |
| पुष्पम्-उदाहरणम् |
| उपन्यासः-उदाहरणम् |
| वर्णसंहारः-उदाहरणम् |
| तृतीयोऽङ्कः - (वीररुद्रविजयः) - |
| अङ्कास्यम्- " |
| गर्भसंधिः- " |
| अभूताहरणम्- " |
| अनुमानम्- " |
| मार्गः- " |
| रूपम्- " |
| उदाहृतिः- " |
| क्रमः- " |
| संग्रहः- " |
| तोटकम्- " |
| अधिबलम्- " |
| उद्वेगः- " |
| पताका- " |
| संभ्रमः- " |
| आक्षेपः- " |
| चतुर्थोऽङ्कः- (त्वरितमहोत्सवः) - |
| विमर्शसंधिः- " |
| अपवादः- " |
| संफेटः-उदाहरणम् |
| विद्रवः-उदाहरणम् |
| द्रवः-उदाहरणम् |
| शक्तिः-उदाहरणम् |
| प्रवेशकः-उदाहरणम् |
| द्युतिः-उदाहरणम् |
| प्रसङ्गः-उदाहरणम् |
| छलनम्-उदाहरणम् |
| व्यवसायः-उदाहरणम् |
| विरोधनम्-उदाहरणम् |
| प्ररोचना-उदाहरणम् |
| विचलनम्-उदाहरणम् |
| आदानम्-उदाहरणम् |
| पञ्चमोऽङ्कः– (प्रतापरुद्रराज्याभिषेकः) - |
| अङ्कावतरणम् -(प्रतापरुद्रराज्याभिषेकः) |
| निर्वहणसंधिः-(प्रतापरुद्रराज्याभिषेकः) |
| संधिः-(प्रतापरुद्रराज्याभिषेकः) |
| विरोधः-(प्रतापरुद्रराज्याभिषेकः) |
| प्रथनम्-(प्रतापरुद्रराज्याभिषेकः) |
| निर्णयः-(प्रतापरुद्रराज्याभिषेकः) |
| परिभाषणम्-(प्रतापरुद्रराज्याभिषेकः) |
| प्रसादः - उदाहरणम् |
| आनन्दः-उदाहरणम् |
| समयः-उदाहरणम् |
| कृतिः-उदाहरणम् |
| आभाषणम्-उदाहरणम् |
| पूर्वभावः-उदाहरणम् |
| उपगूहनम्-उदाहरणम् |
| संहृतिः-उदाहरणम् |
| प्रशस्तिः-उदाहरणम् |
| रसप्रकरणम्-उदाहरणम् |
| रसस्वरूपम् |
| रसविशेषाः |
| स्थाविभावाः |
| विभावः - आलम्बनः- उद्दीपनः |
| अनुभावः |
| सात्त्विकाः-स्तम्भादयः |
| व्यभिचारिभावाः-निर्वेदादयः |
| शृङ्गाराभासः |
| व्यभिचारिभावानां चातुर्विध्यम् |
| स्थायिभावानां स्वरूपम् - |
| रतिः |
| हासः |
| शोकः |
| क्रोधः |
| उत्साहः |
| भयम् |
| जुगुप्सा |
| विस्मयः |
| शमः |
| आलम्बनविभावः- उदाहरणम् - |
| उद्दीपनविभावः-उदाहरणम् |
| अनुभावः-उदाहरणम् |
| सात्त्विकाः- उदाहरणम् - |
| स्तम्भः-उदाहरणम् |
| प्रलयः-उदाहरणम् |
| रोमाञ्चः-उदाहरणम् |
| वेपथुः-उदाहरणम् |
| स्वेदः-उदाहरणम् |
| विवर्णता-उदाहरणम् |
| अश्रु-उदाहरणम् |
| बैस्वर्यम्-उदाहरणम् |
| व्यभिचारिभावाः-उदाहरणम् - |
| निर्वेदः-उदाहरणम् |
| ग्लानिः-उदाहरणम् |
| शङ्का-उदाहरणम् |
| असूया-उदाहरणम् |
| मदः-उदाहरणम् |
| श्रमः-उदाहरणम् |
| आलस्यम्-उदाहरणम् |
| दैन्यम्-उदाहरणम् |
| चिन्ता-उदाहरणम् |
| मोहः-उदाहरणम् |
| स्मृतिः-उदाहरणम् |
| धृतिः-उदाहरणम् |
| व्रीडा-उदाहरणम् |
| चपलता-उदाहरणम् |
| हर्षः-उदाहरणम् |
| आवेगः-उदाहरणम् |
| जडता-उदाहरणम् |
| गर्वः-उदाहरणम् |
| विषादः-उदाहरणम् |
| औत्सुक्यम्-उदाहरणम् |
| निद्रा-उदाहरणम् |
| अपस्मारः-उदाहरणम् |
| सुप्तिः-उदाहरणम् |
| विबोधः-उदाहरणम् |
| अमर्षः-उदाहरणम् |
| अवहित्था-उदाहरणम् |
| उग्रता-उदाहरणम् |
| मतिः-उदाहरणम् |
| व्याधिः-उदाहरणम् |
| उन्मादः-उदाहरणम् |
| मरणम्-उदाहरणम् |
| त्रासः- उदाहरणम् |
| वितर्कः-उदाहरणम् |
| शृङ्गारचेष्टाः- उदाहरणम् - |
| भावः-उदाहरणम् |
| हावः-उदाहरणम् |
| हेला-उदाहरणम् |
| माधुर्यम्-उदाहरणम् |
| धैर्यम्-उदाहरणम् |
| लीला-उदाहरणम् |
| विच्छित्तिः-उदाहरणम् |
| विलासः -उदाहरणम् |
| विभ्रमः-उदाहरणम् |
| किलकिञ्चितम्-उदाहरणम् |
| मोट्टायितम्-उदाहरणम् |
| कुट्टमितम्-उदाहरणम् |
| विव्वोकः-उदाहरणम् |
| ललितम्-उदाहरणम् |
| कुतूहलम्-उदाहरणम् |
| चकितम्-उदाहरणम् |
| बिहृतम्-उदाहरणम् |
| हसितम्-उदाहरणम् |
| शृङ्गारस्य द्वादशावस्याः- |
| चक्षुःप्रीतिः- उदाहरणम् |
| मनःसङ्गः-उदाहरणम् |
| संकल्पः-उदाहरणम् |
| प्रलापः-उदाहरणम् |
| जागरः-उदाहरणम् |
| कार्श्यम्-उदाहरणम् |
| अरति-उदाहरणम् |
| व्रीडात्यागः-उदाहरणम् |
| ज्वरः-उदाहरणम् |
| मूर्च्छा- उदाहरणम् |
| शृङ्गारस्य प्रकाराः |
| संभोगः |
| विप्रलम्भः- अभिलाषहेतुकः |
| विप्रलम्भः- ईर्ष्याहेतुकः |
| विप्रलम्भः-विरहहेतुकः |
| विप्रलम्भः-प्रवासहेतुकः |
| रसाभासः - उदाहरणम् |
| भावोदयः- उदाहरणम् |
| भावशमः-उदाहरणम् |
| भावसन्धिः-उदाहरणम् |
| भावशवलता-उदाहरणम् |
| शृङ्गारकरुणसंकरः-उदाहरणम् |
| रौद्रबीभत्ससंकरः-उदाहरणम् |
| रसविषयको विचारः- रसवदा |
| द्यलंकारविचारः |
| दोषप्रकरणम् |
| दोषसामान्यलक्षणम् |
| पदगतदोषाः |
| तत्स्वरूपम् |
| अप्रयुक्तम्-उदाहरणम् |
| अपुष्टार्थम्-उदाहरणम् |
| असमर्थम्-उदाहरणम् |
| अनर्थकम्-उदाहरणम् |
| नेयार्थकम्-उदाहरणम् |
| च्युतसंस्कारम् -उदाहरणम् |
| संदिग्धम्-उदाहरणम् |
| अप्रयोजकम्-क्लिष्टम् |
| गूढार्थम् -ग्राम्यम्-अन्वार्थम् |
| अप्रतीतिकम् -अन्वार्थम् |
| विरुद्धमतिकृत् -अन्वार्थम् |
| अश्लीलम्-अमङ्गलकरम् |
| व्रीडाकरं- जुगुप्साप्रतीतिकरम् |
| परुषम्-जुगुप्साप्रतीतिकरम् |
| वाक्यदोषाः स्वरूपम्-जुगुप्साप्रतीतिकरम् |
| शब्दहीनम्-जुगुप्साप्रतीतिकरम् |
| क्रमभ्रष्टम्-जुगुप्साप्रतीतिकरम् |
| अर्थक्रमभङ्गः-जुगुप्साप्रतीतिकरम् |
| शब्दक्रमभङ्गः-जुगुप्साप्रतीतिकरम् |
| विसन्धि-जुगुप्साप्रतीतिकरम् |
| पुनरुक्तिमत्-जुगुप्साप्रतीतिकरम् |
| व्याकीर्णम्-जुगुप्साप्रतीतिकरम् |
| वाक्यसंकीर्णम्-जुगुप्साप्रतीतिकरम् |
| अपूर्णम्-जुगुप्साप्रतीतिकरम् |
| वाक्यगर्भितम्-जुगुप्साप्रतीतिकरम् |
| भिन्नलिङ्गम्-भिन्नवचनम् |
| अधिकोपमम्-भिन्नवचनम् |
| न्यूनोपमम्-भिन्नवचनम् |
| भग्नच्छन्दः-भिन्नवचनम् |
| यतिभ्रष्टम्-भिन्नवचनम् |
| अशरीरम्-भिन्नवचनम् |
| अरीतिकम् -भिन्नवचनम् |
| विसर्गलुप्तम्-भिन्नवचनम् |
| अपदस्थसमासम्-भिन्नवचनम् |
| वाच्यवर्जितम्-भिन्नवचनम् |
| समाप्तपुनरात्तकम्- पतत्प्रकर्षम् |
| सबन्धवर्जितम्-पतत्प्रकर्षम् |
| अधिकपदम्-पतत्प्रकर्षम् |
| भग्नप्रक्रमम्-पतत्प्रकर्षम् |
| अर्थदोषाः-स्वरूपम्- |
| अपार्थम् उदाहरणम्- |
| व्यर्थम्-उदाहरणम् |
| एकार्थम्-उदाहरणम् |
| ससंशयम्-उदाहरणम् |
| अपक्रमम्-उदाहरणम् |
| भिन्नम्-उदाहरणम् |
| अतिमात्रम्-उदाहरणम् |
| परुषम्-उदाहरणम् |
| विरसम्-उदाहरणम् |
| हीनोपमम्-उदाहरणम् |
| अधिकोपमम्-उदाहरणम् |
| अतुल्योपमम्-उदाहरणम् |
| अप्रसिद्धोपमम्-उदाहरणम् |
| हेतुशून्यम्-उदाहरणम् |
| निरलंकृति-उदाहरणम् |
| अश्लीलम्-उदाहरणम् |
| विरुद्धम् -उदाहरणम् |
| सहचरभ्रष्टम्-उदाहरणम् |
| गुणप्रकरणम् |
| गुणनिरूपणम् |
| श्लेषः- उदाहरणम् |
| प्रसादः-उदाहरणम् |
| समता-उदाहरणम् |
| माधुर्यम्-उदाहरणम् |
| सौकुमार्यम् -उदाहरणम् |
| अर्थव्यक्तिः-उदाहरणम् |
| कान्तिः-उदाहरणम् |
| औदार्यम्-उदाहरणम् |
| उदात्तता-उदाहरणम् |
| ओजः-उदाहरणम् |
| सुशब्दता-उदाहरणम् |
| प्रेयः-उदाहरणम् |
| और्जित्यम्-उदाहरणम् |
| समाधिः-उदाहरणम् |
| विस्तरः- उदाहरणम् |
| संमितत्वम्-उदाहरणम् |
| गाम्भीर्यम्-उदाहरणम् |
| संक्षेपः-उदाहरणम् |
| सौक्ष्म्यम्-उदाहरणम् |
| प्रौढिः-उदाहरणम् |
| उक्तिः-उदाहरणम् |
| रीतिः-उदाहरणम् |
| भाविकम्-उदाहरणम् |
| गतिः-उदाहरणम् |
| गुणानामर्थगतत्वम् |
| गुणानां संघटनाश्रयत्वमेव- |
| शब्दालंकारप्रकरणम् |
| अलंकारस्वरूपनिरूपणम् |
| गुणालंकारभेदः |
| अलंकारविभागः- शब्दालंकाराः- |
| अर्थालंकाराः- उभयालंकाराः |
| अर्थालंकाराणां चातुर्विध्यम्- |
| तत्रान्तरविभागः |
| अलंकारकक्ष्याविभागः |
| अलंकाराणां परस्परवैलक्षण्यम् |
| शब्दालंकारनिरूपणम्- |
| छेकानुप्रासः- |
| वृत्त्यनुप्रासः- |
| यमकम्- |
| पुनरुक्तवदाभासः- |
| लाटानुप्रासः - |
| चेत्रालंकारः |
| अष्टदलपद्मबन्धः-उदाहरणम् |
| चक्रबन्धः-उदाहरणम् |
| नागबन्धः-उदाहरणम् |
| अर्थालंकारप्रकरणम्- |
| उपमा |
| उपमालक्षणम् |
| उपमाविभागाः- पूर्णा- लुप्ता- |
| वाक्यगा पूर्णा श्रौती-उदाहरणम् |
| समासगा पूर्णा श्रौती-उदाहरणम् |
| तद्धितगा पूर्णा श्रौती-उदाहरणम् |
| वाक्यगा पूर्णा आर्थी-उदाहरणम् |
| समासगा पूर्णा आर्थी-उदाहरणम् |
| तद्धितगा पुर्णा आर्थी-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मा वाक्यगा श्रौती-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मा समासगा श्रौती-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मा वाक्यगा आर्थी-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मा समासगा आर्थी-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मा तद्धितगा आर्थी-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मेवादिः कर्मक्यचा लुप्ता-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मेवादिराधारक्यचा लुप्ता-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मेवादिः कर्मणमुल्लुप्ता-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मेवादिः कर्तृणमुल्लुप्ता-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मेवादिः क्विपा लुप्ता-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मीवादिःकर्तृक्यचा लुप्ता-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मेवादिः कर्तृक्यङा लुप्ता-उदाहरणम् |
| अनुक्तोपमाना वाक्यगा लुप्ता-उदाहरणम् |
| अनुक्तोपमाना समासगा लुप्ता-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मोपमाना वाक्यगा लुप्ता-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मोपमाना समासगा लुप्ता-उदाहरणम् |
| अनुक्तेवादिः समासगा लुप्ता-उदाहरणम् |
| अनुक्तधर्मेवाद्युपमाना समासगा लुप्ता-उदाहरणम् |
| साधारणधर्मोपादानविशेषाः |
| धर्मस्य सकृन्निर्देशः |
| वस्तुप्रतिवस्तुभावेन द्विधा |
| निर्देशः |
| बिम्बप्रतिबिम्बभावः |
| समस्तवस्तुविषया |
| एकदेशविवर्तिनी |
| मालोपमा |
| अनन्वयः |
| उपमेयोपमा |
| स्मरणम् |
| रूपकम् |
| सावयवम्- |
| समस्तवस्तुविषयम् |
| एकदेशविवर्ति |
| निरवयवम्- |
| केवलम् - |
| मालारूपम्- |
| परम्परितम् |
| श्लिष्टकेवलपरम्परितम्- |
| श्लिष्टमालापरम्परितम्- |
| अश्लिष्टकेवलपरम्परितम् |
| अश्लिष्टमालापरम्परितम् - |
| अश्लिष्टमालापरम्परितं वैधर्म्येण |
| परिणामः |
| सामानाधिकरण्येन- |
| वैयधिकरण्येन- |
| संदेहः |
| शुद्धः- |
| निश्चयगर्भः- |
| निश्चयान्तः |
| भ्रान्तिमान् |
| अपह्रुतिः |
| अपह्नुत्यारोपः |
| आरोपापह्नवः |
| छलादिपदैरसत्यत्वप्रतिपादनम् |
| उल्लेखः |
| रुच्यर्थयोगाभ्याम् |
| श्लेषेण |
| उत्प्रेक्षा |
| स्वरूपं- विभागाश्च |
| उपात्तगुणनिमित्तजातिभावस्वरूपोत्पेक्षा- उदाहरणम् |
| उपात्तक्रियानिमित्तजातिभावस्वरूपोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| अनुपात्तनिमित्तजातिभावस्वरूपोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| उपात्तगुणनिमित्तजात्यभावस्वरूपोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| अनुपात्तनिमित्तजात्यभावस्वरूपोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| जातिहेतूत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| जात्यभावहेतूत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| जातिफलोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| जात्यभावफलोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| क्रियास्वरूपोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| क्रियाभावस्वरूपोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| क्रियाहेतूत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| क्रियाभावहेतूत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| क्रियाफलोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| क्रियाभावफलोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| गुणस्वरूपोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| गुणाभावस्वरूपोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| गुणहेतूत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| गुणाभावहेतूत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| गुणफलोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| गुणाभावफलोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| द्रव्यस्वरूपोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| द्रव्यस्वरूपाभावोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| द्रव्यहेतूत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| द्रव्याभावहेतूत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| द्रव्यफलोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| द्रव्याभावफलत्वोत्प्रेक्षा-उदाहरणम् |
| अतिशयोक्तिः |
| भेदेऽभेदः - उदाहरणम् |
| अभेदे भेदः-उदाहरणम् |
| संबन्धेऽसंबन्धः -उदाहरणम् |
| असंबन्धे संबन्धः-उदाहरणम् |
| कार्यकारणयोः पौर्वापर्यरूपा-उदाहरणम् |
| सहोक्तिः- |
| विनोक्तिः- अरम्यता- रम्यता |
| समासोक्तिः- |
| श्लिष्टविशेषणेन |
| साधारणविशेषणेन |
| औपम्यगर्भविशेषणेन |
| व्यवहारसमारोपः-चतुर्विधः- |
| लौकिके वस्तुनि लौकिकव्यवहारसमारोपः- |
| लौकिके वस्तुनि शास्त्रीयव्यवहारसमारोपः- |
| शास्त्रीये वस्तुनि शास्त्रीयव्यवहारसमारोपः- |
| शास्त्रीये वस्तुनि लौकिकव्यवहारसमारोपः- |
| समासोक्तिश्लेषविशेषः |
| वक्रोक्तिः |
| काका |
| श्लेषेण |
| स्वभावोक्तिः |
| व्याजोक्तिः |
| मीलनम् |
| सहजेनागन्तुकतिरोधानम् |
| आगन्तुकेन सहजतिरोधानम् |
| सामान्यम् |
| तद्गुणः |
| अतद्गुणः |
| विरोधः |
| स्वरूपम् - प्रकाराः |
| जातेर्जात्या क्रियया च- उदाहरणम् |
| जातेर्गुणद्रव्याभ्याम्-उदाहरणम् |
| क्रियायाः क्रियया-उदाहरणम् |
| क्रियाया गुणद्रव्याभ्याम्-उदाहरणम् |
| गुणस्य गुणेन |
| गुणस्य द्रव्येन- |
| द्रव्यस्य द्रव्येन- |
| अश्लेषेण विरोधः- |
| विशेषः- प्रकारत्रयम् |
| **अधिकः-**प्रकारद्वयम् |
| **विभावना-**विशेषोक्तिः- |
| असंगतिः |
| विचित्रम् |
| अन्योन्यः |
| विषमः - प्रकारत्रयम् |
| समः |
| **तुल्ययोगिता-**प्रकारद्वयम् |
| दीपकम् - |
| आदिदीपक्रम् |
| मध्यदीपकम् |
| अन्तदीपकम् |
| प्रतिवस्तूपमा |
| साधर्म्येण |
| वैधर्म्येण |
| दृष्टान्तः |
| साधर्म्येण |
| वैधर्म्येण |
| **निदर्शना-**प्रकारद्वयम् |
| व्यतिरेकः |
| श्लेषः |
| केवलप्राकरणिकयोः- |
| अप्राकरणिकयोः- |
| प्राकरणिकाप्राकरणिकयोः- |
| परिकरः |
| आक्षेपः |
| उक्तविषये वस्तुनिषेधः |
| उक्तविषये कथननिषेधः |
| वक्ष्यमाणविषये कथननिषेधः |
| अंशोक्तावंशान्तरस्य निषेधः |
| आक्षेपान्तरम् |
| व्याजस्तुतिः |
| निन्दया स्तुतिः |
| स्तुत्या निन्दा |
| अप्रस्तुतप्रशंसा- |
| सारूप्येण- |
| सामान्याद्विशेषप्रतीतिः |
| विशेषाद्विशेषप्रतीतिः |
| कार्यात् कारणप्रतीतिः |
| कारणात् कार्यप्रतीतिः |
| पर्यायोक्तम् |
| प्रतीपम्- प्रकारद्वयम् |
| अनुमानम् |
| काव्यलिङ्गम् |
| हेतोर्वाक्यगतत्वम् |
| हेतोःपदार्थगतत्वम् |
| अर्थान्तरन्यासः |
| कार्यकारणभावेन |
| सामान्याद्विशेषसमर्थनम् |
| विशेषात् सामान्यसमर्थनम् |
| यथासंख्यम् |
| अर्थापत्तिः |
| परिसंख्या |
| शाब्दवर्जनीया प्रश्नपूर्विका |
| आर्थवर्जनीया प्रश्नपूर्विका |
| शाब्दवर्जनीया अप्रश्नपूर्विका |
| आर्थवर्जनीया अप्रश्नपूर्विका |
| **उतरम्-**प्रकारद्वयम् |
| विकल्पः |
| समुच्चयः- एकः |
| गुणसमुच्चयः भिन्नविषयः |
| क्रियासमुच्चय भिन्नविषयः |
| क्रियासमुच्चयः एकविषयः |
| गुणक्रियासामस्त्येन समुच्चयः |
| समुच्चयः- द्वितीयः |
| समाधिः |
| भाविकः |
| प्रत्यनीकम् |
| व्याघातः |
| पर्यायः |
| सूक्ष्मः |
| उदात्तः |
| परिवृत्तिः |
| समेन समा |
| न्यूनेनाधिका |
| अधिकेन न्यूना |
| कारणमाला |
| एकावली |
| स्थापनेन |
| अपोहनेन |
| मालादीपकम् |
| सारः |
| मिश्रालंकारप्रकरणम् |
| संसृष्टिः |
| शब्दालंकारसंसृष्टिः |
| अर्थालंकारसंसृष्टिः |
| उभयसंसृष्टिः |
| संकरः |
| अङ्गाङ्गिभावसंकरः |
| विजातीयसंकरः |
| एकवचनानुप्रविष्टसंकरः |
| संदेहसंकरः |
| रत्नशाणः |
| नायकप्रकरणम् |
| काव्यप्रकरणम् |
| Notes |
| Nâyaka-Prakaraṇa |
| Kâvya-Prakaraṇa |
| Nâṭaka-Prakaraṇa |
| Rasa-Prakaraṇa |
| Dosha-Prakaraṇa |
| Guṇa-Prakaraṇa |
| Śabdalaṅkâra-Prakaraṇa |
| Arthâlaṅkâra-Prakaraṇa |
| Mis’râlaṅkâra-Prakaraṇa |
| Appendix I. (Readings of T" and T’’’.) |
| Appendix II. (Readings of V.) |
| Variants in Ratnâpaṇa |
| Appendix III. |
| An Alphabetical List of the Kârikâs and the verses occurring in the Pratâparudriya |
| Appendix IV. |
| Names of Works and Authors and other Proper Names worth noting, occurring in the Pratâparudriya, alphabetically arranged |
| Appendix V. |
| Quotations in the Pratâparudrîya arranged alphabetically |
| Appendix VI. |
| Names of authors and Works found in the Ratnâpaṇa alphabetically arranged |
| Appendix VII. |
| Quotations in the Ratnâpaṇa, alphabetically arranged |
| Appendix VIII. |
| Containing Bhâmaha’s work on Poetics ( Kâvyâlaṇkâra ) as under |
| प्रथमः परिच्छेदः— |
| मङ्गलम्-कवित्वस्तुतिः-कवित्वहेतुः-काव्यस्योपादेयता-दुष्काव्य-निन्दा-अकवित्वकुकवित्वभेदः - सौशव्द्यम् - अर्थव्युत्पत्तिः |
| काव्यलक्षणम्-तद्भेदाः- गद्यम्-पद्यम् -संस्कृतम्- प्राकृतम्-अपभ्रंशः- वृत्तदेवादिचरितशंसि-उत्पाद्यवस्तु- कलाश्रयम्-शास्त्राश्रयम्-सर्गबन्धः - अभिनेयार्थम् - आख्यायिका कथा-अनिबबद्धम्- सर्गबन्धादिलक्षणानि- वैदर्भम्- गौडीयम् - |
| नेयार्थम् - क्लिष्टम्-अन्यार्थम्- अवाचकम्- अयुक्तिमत्- गूढशब्दाभिधानम्- न प्रयोज्यान्येतानि एतल्लक्षणानि सोदाहरणानि- |
| वाग्दोषाः- श्रुतिदुष्टम् - अर्थदुष्टम्- कल्पनादुष्टम्- श्रुतिकष्टम्-लक्षणोदाहरणानि - |
| संनिवेशविशेषाद् दुरुक्तमपि शोभाकरम्- |
| द्वितीयः परिच्छेदः— |
| माधुर्यम्- प्रसादः - ओजः- |
| अनुप्रासः - ग्राम्यो लाटीयश्च- |
| यमकम् - आदियमकम् - मध्ययमकम् - अन्तयमकम्-यमकावली- समस्तपादयमकं च- |
| यमकलक्षणम्- सुयमकम्- |
| प्रहेलिका- तन्निन्दा |
| रूपकम्-समस्तवस्तुविषयमेकदेशविवर्ति च- |
| दीपकम्-आदिदीपकम्-मध्यदीपकम् - अन्तदीपकम् |
| उपमा- प्रतिवस्तूपमा- |
| निन्दोपमा - प्रशंसोपमा- आचिख्यासोपमा-मालोपमा- एषां भेदानां निरर्थकता- |
| मेधाव्युदिता उपमादोषाः - हीनता - असंभवः- लिङ्गवचोभेदः - विपर्ययः उपमानाधिकत्वम्-उपमानासदृशता- |
| आक्षेपः- वक्ष्यमाणविषयः उक्तविषयश्च- |
| अर्थान्तरन्यासः - व्यतिरेकः - विभावना - समासोक्तिः- |
| अतिशयोक्तिः - अनया विना नालंकारत्वम्- |
| हेतुसूक्ष्मलेशानां नालंकारत्वम्- |
| वार्ता- यथासङ्ख्यम्- उत्प्रेक्षा- अतिशयोक्तिः- इत्थं स्वयंकृतनिदर्शनैरलंकाराभिधानम्- |
| तृतीयः परिच्छेदः— |
| प्रेयः-रसवत्-ऊर्जस्विन्-पर्यायोक्तम्- |
| उदात्तं द्विप्रकारम्- श्लिष्टम्- श्लिष्टरूपकयोर्भेदः - सहोक्तिनिर्दिष्टम्-उपमानिर्दिष्टम्-हेतुनिर्दिष्टम्- |
| अपह्नुतिः- विशेषोक्तिः- विरोधः- तुल्ययोगिता - अप्रस्तुतप्रशंसा- व्याजस्तुतिः - निदर्शना-उपमारूपकम्- उपमेयोपमा सहोक्तिः- परिवृत्तिः अर्थान्तरन्यासवती - ससन्देहः - अनन्वयः- उत्प्रेक्षावयवः - संसृष्टिः- भाविकत्वम्- तद्धेतवः- चित्रोदात्ताद्भुतार्थत्वं कथायाः स्वभिनीतता शब्दानाकुलता च-आशीः- |
| चतुर्थः परिच्छेदः — |
| एकादशानां दोषाणां संकीर्त्तनम् - |
| पदलक्षणम्-वाक्यलक्षणम्-शब्दनित्यानित्यत्वम्- |
| अपार्थम्- व्यर्थम्- एकार्थम् (अन्यमते पुनरुक्तम्) - शब्दपुनरुक्तस्य भयादिषु न दोषत्वम्- संशयलक्षणम्-ससंशयम्- कमलक्षणम्-अपक्रमम्-शब्दहीनम् - यतिलक्षणम्-यतिभ्रष्टम्- भिन्नवृत्तम् - विसन्धि- देशविरोधि - कालविरोधि - कलाविरोधि-लोकविरोधि- न्यायविरोधि-आगमविरोधि- |
| पञ्चमः परिच्छेदः— |
| हेतुन्यायलवोच्चयः शास्त्राद्विभ्यत उपच्छन्दाय- |
| शब्दवाच्यन्यायकलानां काव्याङ्गत्वम्- सत्त्वादीनां प्रमाणजत्वम्- |
| प्रमाणे- प्रत्यक्षम्- अनुमा- प्रत्यक्षलक्षणम् -अनुमानलक्षणम्-पक्ष-लक्षणम्-प्रतिज्ञालक्षणम्- |
| प्रतिज्ञाहीनं दुष्टम्- तदर्थविरोधिनी प्रतिज्ञा-हेतुविरोधिनी प्रतिज्ञा-सिद्धान्तविरोधिनी प्रतिज्ञा- सर्वागमविरोधिनी प्रतिज्ञा-प्रसिद्धधर्मा प्रतिज्ञा - प्रत्यक्षबाधिनी प्रतिज्ञा- |
| हेतुलक्षणम् - हेत्वाभासः - दृष्टान्तः- जातयः- |
| काव्यसंश्रयं न्यायलक्षणम्- प्रतिज्ञालक्षणम्-प्रतिज्ञायाश्चतुर्विधत्वम् - धर्मसंश्रया- अर्थसंश्रया- कामसंश्रया-कोपसंश्रया-धर्मविरोधिनी- अर्थवाधिनी - कामबाधिनी - कोपबाधिनी-सन्धाहेतुः - अज्ञानकृतः - संशयकृतः - विपर्ययकृतः - दृष्टान्तः-शुद्धदृष्टान्तः- अर्वाचीननिबन्धनस्य पदस्यासाधुत्वम्-वक्रार्थशब्दोक्तेर्वाचामलंकारत्वम्-अपरमतम् - |
| षष्ठः परिच्छेदः— |
| व्याकरणस्यार्णवत्वेन निरूपणम् - शब्दरत्नाधिगमार्थं तस्य पारगमनमावश्यकम्-शब्दलक्षणम्-स्वशक्त्या प्रवर्तनं मुख्यो न्यायः- अन्योक्तानुवादिनां निन्दा - |
| अन्यमते शब्दलक्षणम्-स्फोटवादिनां निन्दा - अन्यापोहस्य शब्दार्थत्वमिति मतस्य निराकरणम्- |
| शब्दानां चतुर्विधत्वम्- (द्रव्यकियाजातिगुणभेदेन) -यदृच्छाशब्दः- शब्दानामनियत्ता-साध्वसाधुशब्दविवेकः- |
| एतानि न प्रयोक्तव्यानि - अप्रयुक्तं दुर्बोधमपेशलं ग्राम्यमपार्थकमप्रतीतं शिष्टैरुक्तमित्येव च न तन्त्रान्तरसाधितं च्छान्दसं च- |
| क्रमागतं श्रुतिसुखमर्थ्यं च वाच्यम्- |
| इष्ट्योपसङ्ख्यानाच्च सिद्धं वाच्यं न तु योगविभागजम्- |
| बृद्धिपक्षादीनां प्रयोगः श्रेयान् - |
———————
CRITICAL NOTICE
OF
THE MANUSCRIPTS OF THE PRATAPÂRUDRA-
YAŚOBHÛSHAṆA AND THE RATNÂPAṆA.
—————————————————
The present edition of Vidyânâtha’s Pratâparudrayaśobhûshaṇa is based upon the following manuscripts:—
1 A manuscript in the Tanjore Palace Library. complete and correct and wants only a few lines at the end. It is a palm-leaf manuscript in Telugu characters and is neatly written on both sides. It contains 78 leaves. Some pages contain six, and some, seven lines. It was written about Śalivâhana Śaka 1650. The colophon at the end is—**इति विद्यानाथमहोपाध्यायकृतौ प्रतापरुद्रयशोभूषणं प्रतापरुद्रीयं नामालंकारशास्त्रं समाप्तम्.**The palm leaves are about 20 inches in length and 1½ inches in breadth. Some of them are a little worm-eaten in the middle and much in the corners. There is an ornamental border on each side. It is designated T'.
2 A manuscript in the Raghunâtha Temple Library, Jammu, Kâshmîr. A copy of this was secured for me by Śâstrî Gaṅgâdhar P. Gokulchandra. It is a generally correct manuscript and gives very good variants. It is in Nâgarî characters and consists of 258 pages. Each page contains 7 lines and each line has 49 letters. The manuscript is dated Vikramasaṁvat 1830. It is marked R.
3 Manuscripts in the Government Oriental Library, Madras, Six of them are collated.
-
A palm-leaf manuscript, written in Grantha characters in 238 pages of 6 or 7 lines each, and 52 letters to a line. It is by appearance about 70 years old. It is an original, correct manuscript, purchased for the library before 1893 A.D. It is designated M.
-
It is a paper manuscript, written in Telugu characters in 192 pages of 25 lines each and having about 22 letters in a line. It is copied for the library. It is not correct throughout, but it is complete. It is designated M_(1.)
-
It is a palm-leaf manuscript in Telugu characters, of 141 years. Each page has 6 lines and each line 80letters. It is incomplete and stops in the 8th Prakaraṇa. The end of the manuscript is जयन्ति वीररुदस्य रणप्राङ्गणकेलयः। एवमष्टाविधस्यापि वाक्यसमासगतत्वे षोडशभेदाः॥ It is designated M₂.
-
It is a palm-leaf manuscript in Telugu characters. It contains 190 pages of 6 lines each. Each line has 75 letters. It is by appearance more than one hundred years old. It is an original and presented to the Library in 1893-94 A. D. from the North Arcot District. It contains the following Prakaraṇas : —
1, 2 (incomplete), 4, 5, 6, 7 and 8. It is designated M₃.
-
It is a palm-leaf manuscript in Telugu characters in 93 pages of 7 lines each and 55 letters to a line. It is by appearance about 75 years old. It is a correct manuscript, but incomplete. On the first fly-leaf it is stated that the manuscript belongs to Chakravarti Desikalu. It is designated M₄. It wants 1, 2, 7 and 8 Prakaraṇas,
-
A palm-leaf manuscript in Telugu characters. It has 150 pages with 8 lines to a page and 50 letters to a line. It is by appearance about 50 years old. It is incomplete, 7and 8 Prakaraṇas being wanting. It is designated M₅.
-
Two printed editions, a lithograph copy printed at Poonâ, designated P. and a Telugu printed edition of the year 1888, designated T. The Telugu printed edition contains the Ratnâpaṇa also.
-
In addition to these, I have also consulted two other manuscripts of the Tanjore Palace Library and a manuscript lent to me by my friend S. P. V. Raṅgânatha Swamî of Vizagpattam. As copies from Tanjore were secured after the text was prepared and sent to the press, their variants are given in an Appendix. They are numbered 5348 and 5350 by Dr. Burnell.
No. 5348 is a paper manuscript, written on European paper in Nâgarî characters and contains 109 folios. Some pages contain 9, some 10and others 11lines. It was written about 1750 A. D. It is a carefully correct copy and gives many good readings. It is designated T’.
No. 5350 is also a paper manuscript, written on Goa or Venice paper and contains 128 folios. Each page has 7 lines till folio 16 and then 8 lines till the end. It was written about 1750 A. D. The copy seems to have been prepared in the northern parts. A few lines are injured by damp. It is designated T’. It is written in Devanâgari characters.
The manuscript, lent to me by my friend Śâstrî Raṅganâtha Swâmi of Vizagpattam, was also secured after a portion of the text was printed off. The variants in it are therefore given in an Appendix. The manuscript is a palm-leaf one of 161 leaves (362 pages) with 5 to 8 lines on each page and about 75 letters to a line. The characters are Ândhra. It is designated V.
The text of the Ratnâpaṇa is based upon the following manuscripts:—
- A manuscript, numbered 10473, in the Tanjore Palace Library and two others in the same library, numbered 10474 and 10475. All the three manuscripts have been consulted. They are all written on palm-leaves in Telugu.
No. 10473 consists of 152 leaves with 6 or 7 lines on each side. It is a little worm-eaten. It was written about 1700 A. D. It is marked t1.
It begins thus :—
श्रीगणेशाय नमः। प्रतापरुद्रीयम्। श्रीगणेशाय नमः।
ॐ सीताभगवत्यै नमः। कल्याणानि तनोतु &c.
It ends as under:—
इति श्रीपदवाक्य &c. श्रीअभयाम्बिके नमः॥
वान्ततप्युवलनवाचकुललुनक। तप्युगेलिगिनेनितगिनयेउल। बेलयुनश्चरमुलुवरुसतो बेदुण्डिनुकपुलनबारुसुरचिरमुगा॥ मङ्गलमाह। श्री साम्बमूर्तये नमः। श्री रामचन्द्राय नमः। श्री सरस्वत्यै नमः। शुभमस्तु। वेदव्यासाय नमः। श्री गुरुभ्यो नमः॥ श्री …जयतु। श्रीकृष्णार्पणमस्तु॥
No. 10474 has 217 pages with 5 or 6 lines on each page. It is much worm-eaten in the beginning. It is designated t1.
It opens thus :—
श्री गणेशाय नमः। श्री प्रतापरुदीयम्। ॐ सीताभगवत्यै नमः। कल्याणानि &c. and has the same end as No. 10473.
No. 10475 is a beautifully written manuscript, containing about 100 leaves with 7 lines on each side, It breaks off at the fourth Prakaraṇa, near the end. The first leaf is numbered 64 and successive numbers are given to the following leaves, the last one being 160. It is certified to be a beautifully written manuscript of about 1650 A, D., much more correct than the others, by Dr. A. C. Burnell, in his classified index to the Sanskrit manuscripts in the library. It is marked_t.
The last two manuscripts appear older than the first. The last is the oldest of all and is perfectly correct.
The dates, ascribed by Dr. Burnell to the first and the last, are C. 1700 and C. 1650 respectively.
No. 10473 is a true copy of No. 10474.
Doshaprakaraṇa and Guṇaprakaraṇa are not commented upon in Nos. 10473 and 10474.
- Manuscripts in the Government Oriental Manuscripts Library, Madras.They are three. The first is complete, but incorrect in many places, particularly in the beginning. It is designated m.
The second is a palm-leaf manuscript in Grantha characters. It contains 285 leaves and 7 to 10 lines on each side. It is marked m₁.
The third is also a palm-leaf manuscript in Grantha characters of 470 pages with 6 to 8 lines on each page. At the end of the third Prakarana the copyist adds the following date:—
Sunday, the 17th of Śråvaṇa month of Ananda year. It appears thus to be 150 years old.
In addition to these manuscripts of the commentary, a printed Telugu edition, consulted for the text and marked T. as shown above, is also collated and another edition printed at Trivandrum, marked p.
Copies of the manuscripts from Madras were obtained through my friend P. Varadachâri in the Government Oriental Library, Madras, and those from Tanjore, through my friend Prof. A. Râdhâkrishṇa Aiyer of Pudukotâ. The Tanjore manuscripts were very carefully copied and compared by Mr. A. R. Tirumalachariar and his cousin Venkatachariar, B. A.
In addition to the above, the manuscript lent to me from his ‘Arsha Library’ by my friend, Śâstrî S. P. V. Raṅganâthaswâmî of Vizagpattam, designated V. as shown above, was also consulted. It contains the commentary also. The variants in it are given in an Appendix.
The text of the Ratnaśâṇa, another commentary on the Pratâparudriya, is based upon a palm-leaf manuscript in Grantha characters, lent to me by my friend S. P. V. Raṅganâthaswâmî of Vizagpattam. It goes only up to the end of the 2nd or Kâvyaprakaraṇa. It is given at the end of the work.
———————
INTRODUCTION.
——————
The Pratâparudrayaśobhúshaṇa: Its Contents**—**The Pratâparudrayaśobhúshaṇa, or the Pratâparudrîya as it is called in short, by Vidyânâtha, is a work on poetics on the lines of the Kâvyaprakâśa of Mammața and of the Ekâvalî of Vidyâdhara, published with the Tarala by me in the Bombay Sanskrit Series, No. 63. It is divided into nine Prakaraṇas. The first Prakaraṇa deals with the qualities essential in the hero or Nâyaka of a work and is therefore called Nâyakaprakaraṇa. The author justifies the production of his work by stating that though old writers on poetics have treated different branches of the subject, none of them have described a Nâyaka with it and that the greatness of compositions and their authors depends upon the representation of merits of the hero or the Nâyaka described in them.It is on this account that the very first Prakaraṇa deals with the qualities essential in the hero of a work. Having mentioned them in general and described their characteristics with illustrations, the author divides the Nâyaka into Dhîrodâtta, Dhîroddhata, Dhîralalita and Dhîraiânta and speaks of them with their sub-divisions. Then follows the treatment of the Nâyikás or heroines with their divisions and characteristics. The second Prakaraṇa is the Kâvyaprakaraṇa. It describes the nature of a Kâvya or poetry, treats of varieties of Sabda (word) and Artha (sense), the Vrittis and the Ritis or styles of dramatic composition favourable to the development of different sentiments and prevalent in different parts of the country, the Śayyâ or the repose of words in their mutual favourableness, the Pâka or the maturity or profundity of sense, divi-
sions and sub-divisions of a Kâvya with instances of the chief of them, and varieties of compositions, such as Akhyâyikâ, Kathâ, Champú, Udâharaṇa, Bhogâvaliand others. The third Prakaraṇa deals with the varieties of Rúpakas or compositions that can be represented on the stage, their characteristics and points of difference, takes up Nâṭaka (drama) which is the most important of them, divides its plot into five parts (Sandhis), treats of the Sandhis and their subdivisions and gives a model drama illustrative of all its characteristics and describing Pratâparudra, how he ascended the throne and established himself firmly on it by the conquest of kings in different directions. The fourth Prakaraṇa is the Rasaprakaraṇa. It mentions Rasas or poetic sentiments, their theories, characteristics and divisions. The next two Prakaraṇas, the Doshaprakaraṇa and the Guṇaprakaraṇa, deal with Doshas (demerits) and Guṇas (merits) in compositions with their varieties; while the last three Prakaraṇas describe Alaṅkâras or figures, those of Śabda, Artha and both and are therefore called Śabdâlaṅkaraprakaraṇa, Arthâlaṅkâraprakaraṇa and Miśrâlankâraprakaraṇa. It will be thus seen that the work covers a wider range of subjects than the Kâvyaprakâśa and the Ekâvali, since it deals with all the subjects of poetics and dramaturgy. A later work, Sâhityadarpaṇa of Viśvanâtha, goes over the same ground as the present one.
The striking feature of the book is, as mentioned before, the glorification of Pratâparudra. All the instances, given in illustration of different points, therefore panegyrise Pratâparudra and the work is appropriately designated Pratâparudrayaśobhúshaṇa-Adornment of the Glory of Pratâparudra. Its title is similar to that of Nañjarâjayaśobhúshaṇa of Narasimhakavi. The Ekâvalî and the Alaṅkâra- mañjishâ of Purohita Devaśaṅkara Nâhânâbhâi of Râner are similar works, in which illustrations go to glorify the
Narasiṁha of Utkala and the Peshwâs, Mâdhavarâo the first and his uncle Raghunâtharâo respectively.
Works that quote the Pratâparudrayaśobhúshaṇa-The work is quoted very frequently by Mallinâtha in his commentaries on the Mahâkâvyas, in his ¹Sañjivinî on the Kumârasambhava and the Meghadûta, the ²Ghaṇṭâpatha on the ³Kirâtârjuniya, the ⁴Sarvaṅkashâ on the S’iśupalavadha, the
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1 Vide the Nirṇayasâgara Press edition of the Kumârasambhava, p. 3(where the definition of तुल्ययोगिता is quoted), p. 14 (where the definition of निदर्शना is quoted), pp. 22 and 41 (where the definition of स्वभावोक्ति is quoted), p. 24 (उपमा, the reading there is वाच्यं चैकपदोपमा for वाच्यं चेदेकदोपमा ), p. 48 (प्रतिवस्तूपमा), p. 124 (the definition of संक्षेप Guna, the reading there is परिकीर्तितः for परिकीर्त्यते ), and p. 145 (for सात्त्विकभाव the reading there is स्तम्भप्रलपरोमाञ्चाः for स्तम्भः प्रलयरोमाञ्चौ).
2 Vide Prof. K. B. Pâṭhak’s edition of the Meghaḍûta, p. 6 (where the definition of विषम is qnoted), p. 9 ( अर्थान्तरन्यास), p. 30 (भाविक, the readings there are अतीतानागतं यत्र प्रत्यक्षत्वेन लक्ष्यते for अतीतानागते यत्र प्रत्यक्षे इव लक्षिते ), pp. 57-8 ( अनुकूलनायक and स्वाधीनपतिका ).
3 Vide the Benares edition of the Kirâtârjuniya 1887, p.6 (काव्यलिङ्ग), pp. 30 and 121 ( अतिशयोक्ति, the reading on p. 121 is विवप्यन्युपवाध्यते for विषप्युपनिवध्यते ), p. 44 (विशेषोक्ति, the reading there is तत्सामग्र्यामनिवृत्तिः for तत्सामग्र्यामनुत्पत्तिः), p. 81 (विभावना), p. 86 (पर्यायोक्ति, the reading there is प्रस्तुतत्वेन संबन्धः for प्रस्तुतत्वेन संवद्धम्), pp. 64, 210 (स्वभावोक्ति, the reading on p. 64 is स्वभावोक्तिरलंकारो for स्वभावोक्तिरसौचारु), p. 86 (निदर्शना), pp. 93, 205 ( तद्गुण, the readings there are ºदन्योत्कृष्टगुणाश्रयात् and दन्योत्कृष्टगुणग्रहात् for ºदन्योत्कृष्टगुणाहृतिः ), p. 112 ( अर्थापत्ति, the variants there are अन्यथा for अन्यदा and कैमुत्येन यतः for कैमुत्यन्यायतः), p. 127 (विषम, the variants are विरुद्धकार्योत्पत्तिश्च and विरूपघटना वा स्यात्, the text of the घण्टापथ there is incorrect), p. 128 (सामान्य), p. 129 (मीलन ) p. 146 (तुल्ययोगिता ), P 170 (पर्याय, the reading there is पर्यायालंकृतिर्द्विधा).
4 Vide pp. 25, 91 (विषम v. 1 वा स्यात् for चासौ, मता for त्रिधा), pp. 52, 481 (अप्रस्तुतप्रशंसा, v. 1 सारूप्याद्विनियन्त्रिता p. 52 for सारूप्यादिनियन्त्रिता. On p. 481 the quotation is exactly as in the text of the प्रतापरुद्रीय), P 57 (पर्यायोक्त, v. 1. संबन्धात् पर्यायोक्तः स उच्यते for प्रस्तुतत्वेन संबद्धं तत् पर्यायोक्तमुच्यते), p. 72 (दीपक, v. 1 च for तु and साम्ये तु for सामस्त्ये), p. 78 (उत्प्रेक्षा, v. 1 अन्यदेवोपतर्कितम् for अन्यत्वेनोपतर्कितम् andप्रकृते for प्रकृतं ), pp. 92 272, 329,
Sarvapathina¹ on the Bhaṭṭikâvya². Nowhere in these numerous instances has Mallinâtha, however, mentioned the name of the work or its author. It may be owing to the fact that the work and the author were very popular in the
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389, 536 ( सामान्य ), p. 94 ( तुल्ययोगिता ), pp. 109, 504 ( तद्गुण, v. 1. °दन्योत्कृष्टगुणग्रहः and °दन्योत्कृष्टगुणाश्रयात् ), pp. 125, 294 (विभावना ), pp. 152, 530 (परिवृत्ति) pp. 182 and 294 ( मीलन pp. 189, 275 ( कलहान्तरिता नायिका) p. 208 (भ्रान्तिमान्, v. 1 विधेये for विषये ), p. 218 ( मध्यमा नायिका ), p. 214 (प्रौढा ), pp. 216, 291 ( मुग्धा.v.1. लज्जापिहितमन्मथा for लज्जाविजितमन्मथा), PP. 219,591 (सम, on p. 591 it is called समान, the reading there is समानालंकृतिर्योगे for सा समालंकृतिर्योगो ), p. 224 ( अर्थापत्ति and पर्याय ). pp. 227, 320 (स्वभावोक्ति ), p. 288 ( संदेह ), pp. 239, 400 (सहोक्ति, v. 1 रिहेष्यते for °रितीष्यते ), pp. 256, 294, 418. (विशेषोक्ति), p. 275 (विरहोत्काष्ठिता नायिका v. 1. चिरं प्रत्युरनालोके for चिरयत्यधिकं कान्ते ), p. 277 ( प्रत्यनीक ), p. 281 (सूक्ष्म), p. 291 (समुच्चय), p. 310 ( श्रम अनुभाव, v.1. श्वासस्वेदातिभूमिकृत् for जातः स्वेदातिभूमिकृत् ), p. 296 ( एकावली. v.1. विशेषकत्वकथनº for विशेषणत्वकथनº ), p. 80p (असंगति, v.1. स्पादसंगतिः for सत्यसंगतिः ) p. 309 ( अतद्गुण, v.1. वतद्रूप for ‘वसद्रूप° ), pp. 331 and 391 ( उदात्त ), p. 381 ( खण्डिता, v. 1 खण्डितेयां कषायिता for कुपिता खण्डिता मता ). p. 352 ( व्यतिरेक, v.1. अविकाल्पत्वº for आधिक्याल्पत्व° ), p. 381 ( कुतूहल, v. 1. परिकीर्तितम् for परिकीर्त्यते ), p. 382 (विभ्रम, v. I. विजोयये for ‘विपर्ययः ), p. 397 (दृष्टान्त, v. 1 सामान्यधर्मवाक्योक्तेः for सामान्यधर्मो वाक्यज्ञैः P. 418 ( परिसंख्या, v. 1 °त्रैकधायदा for °त्रैकदा यदि ), pp. 421, 581 ( सौक्ष्म्य, V. 1. °संकल्परूपत्वं for °संजल्परूपत्वं ).
1Vide Appendix III. and the foot-notes there in my edition of the Bhattikârya, Bombay Sanskrit Series, No. I.VII.The quotations there are definitions of the figures, भाविक, निदर्शना, विरोध, यथासंख्य भ्रान्तिमान, पर्यायोक्तअर्थान्तरन्यास, विशेषोक्ति, अपह्नुति, उपमेयोपमा, तुल्ययोगिता, दीपक, व्यतिरेक, दृष्टान्त, एकावली, आक्षेप, संदेह, सहोक्ति, सम, स्वभावोक्ति, and काव्यलिङ्ग, of the नायिका’s— कलहान्तरिता, विप्रलब्धा, खण्डिता, of the अनुभाव’s— विषाद, and स्तम्भ, of सात्त्विकभाव’s and of सौशब्द्य.
2 Works like the Pratâparudrîya are thus condemned in साहित्यरत्नाकर of धर्मसूरिः—अलंक्रियाःपूर्वतरैः प्रणीताः प्रयोजिताः काश्चन नायकेन। कैश्चित्तु कुर्क्षिमरिमिर्तिबदाः क्षोदीयसा काश्चननायकेन॥In the commentary on this by मल्लादिलक्ष्मणसूरि the following is found: तर्हिसनायकाः प्रतापरुद्रीयादिप्रबन्धाः प्रथन्त एवेत्याशङ्क्याह कैश्रिदिति। कुर्क्षिंमरिभिः स्वोदरपूरकैः धनमात्रलोलुपैरित्यर्थः। केश्चिद्विद्यानाथादिभिस्तु क्षोदीयसा क्षुद्रतरेण। तरलीकृतकाचानां तारद्वारयर्ष्टानामिव तासामपि चाह्वयत्वादग्राह्यत्वम्।
southern parts of India and were widely known to the learned circle. Prof. M. Seshagiri S’âstrî, M. A., states that the work is even now very popular in southern India and is studied by every Sanskrit student1. The Pratâparudriya is also quoted by Viśveśvara Paṇdita in the *Alaṅkârakaustubha2*and by Appa Díkshita in the Chitramimâṁsâ3, pp. 56-8 (where the definition of परिणामis quoted, प्रकृतस्योपयोगि स्यात्is the reading there). The instance,एषशाम्यति वस्तापो राजपादनिषेवया।कण्टकद्रुममूलेषु वातस्तं शमयेत् कथम्॥, ascribed to Vidyânâtha on p. 58, is not found in the प्रतापरुद्रीय, p. 84 and p. 87, where Vidyânâtha’s method of the division of उत्प्रेक्षाis mentioned."). A verse in honour of Virarudra or Pratâparudra is found in the Kuvalayânanda of Appayya Dîkshita— कतिपयदिवसैःक्षयं प्रयायात् कनकगिरिः कृतवासरावसानः। इति मुदमुपयाति चक्रवाकी वितरणशालिनि वीररुद्रदेव॥, given as an instance of संबन्धातिशयोक्ति.
Vidyânâtha.—Pratâparudrayaśobhushaṇa is the only known work of the author. Dr. Aufrecht ascribes Pratâparudrakalyâṇa also to him; but it is only a part of the Pratâparudriya, comprehended in the third prakaraṇa4, and is simply a model drama composed to illustrate the characteristics of a Naṭaka, its Sandhis and their divisions.
Vidyânâtha’s Age.—The age of the author is easily settled from the internal evidence that the work affords and from
inscriptions of the Kâkatiya kings of Ekaśilâ¹ or Oraṅgal. We will consider them in order and then compare them.
The internal evidence.—The age of Vidyânâtha is very easily settled from the internal evidence of the work. That he has panegyrised Pratâparudra so much that the very name of the work is called after him, that the glorification of the hero of a work is given as the principal cause of the greatness and fame of the work and its author and that all the instances given in illustration of the properties of poetry and its inherent characteristics, are in honour of Pratâparudra are all clear indications of the fact that he lived in the time of Pratâparudra. As regards Pratâparndra, we learn much from the work itself apart from his own inscriptions and those of his predecessors. He was a Kâkatîya king or Kâkati Virarudra and was so called because he worshipped a Goddess called Kâkati5, also Ratnaśâṇa, p. 485.”), which is explained as Durgâśakti, a tutelary deity of his family installed in the Ekaśilâ town. Ekaśilânagarî was the capital of the Andhra or Trilinga*6.”)*country, so called on account of the three famous liṅgas of Sitiaila, Kâleśvara7 and Drâkshârama8. The river
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Dr. Burnell says that Warangal (Worangal) is a Muhammadan and corrupt way of writing ‘Orakkal’ which means ‘one rock’ and is thus rendered एकशिला in Sanskrit.
The word ‘Orangal’ is variously spelt as Voraṅgalla, Voraṅgōlu, Orangalla, Orangðla, Võruvakalla, Voravakalli, Vide Robert Sewell’s Sketch of the Dynasties of Southern India,’ p. 82. In the Telugu Chronicle (Madras Journal for 1881, p. 238) we find the form ‘Oragalla’, *Single Rock’ which tallies with the Sanskrit word ‘Ekaśilâ. Vide foot-note, Ind. Ant. Vol. XXL, pp. 197 et sequentia.
Gotamî and Hanumadachala were near the capital. Durgâdevî is described as the tutelary deity of the Kâkatîya family. Pratâparudra is also called Vîrarudra or Rudra. He was son of Mahâdeva and Munmuḍior Mummaḍambâ. Vidyânâtha states that he was called Pratâparudra, because he was as brilliant as the sunand Vîrarudra, because he was an incarnation of Vishņu, being son of Mummuḍi in Kaliyuga, designated Râma in Tretâ and S’auri in Dwapara. He encouraged learningand was himself learned. His warriors are called Andhrakshamâbhṛidbhaṭâs.He had a boar as a sign on his bannerand his enemies are described as propitiating him by wearing a mark of a boar on their bosom. He is described as having borne the title of Chalamartigaṇḍa.
Further, the drama, called Pratâparudrakalyâna, given as a portion of the Nâṭakaprakaraṇa, supplies the following main points of information regarding Pratâparudra and the family of the Kâkatiya kings:-Svayambhú (S’iva) is described as the family-deity instructing all the members of the family in their duties. He is also described as having manifested himself in a dream to king Rudra who, though daughter of king Gaṇapati, was designated by Gaṇapati by a male name. Her real name, as given by the commentator Kumârsvâmin, was Rudrâmbâ. She succeeded Gaṇapati on the throne of Ekaiilâ. She was, as mentioned above, called Rudra or Rudradeva and her greatness is shewn by the fact that her mother was Umd herself, known among the people as Somâ, and father God S’iva himself, Ganapati, Lord of Pramatha and other Gaṇas. In the dream which Rudradeva had, God S’iva, manifesting himself, praised the greatness of Pratâparudra and advised Rudradeva to place the burden of the kingdom upon the shoulders of the prince, his grandson, who had been adopted by him as his son by His command. The prince then sets out for the conquest of directions before he is installed as Yuvarâja or crown prince. In his expedition of conquest he first sets out for the east and conquers the Kalingas. He then goes southwards and vanquishes the Pânḍyas. He next marches towards the west and conquers it. Then crossing the Narmadâ, he starts northwards. There the Aṅgas, the Vaṅgas and the Mâlavas combine and oppose him. The leaders of the
army of Pratâparudra challenge them, speaking in derision of them9.”). Here are mentioned the Gurjars, the Lampâkas, the Vaṅgas, the Konkaṇis, the *Huṇas10*and the Mahârâshṭras. Further on are named the following kings11.”):—
Kings of Chola12, Kâshmîr, Nepâl, Suhma13, Kamboja14, Sevaṇa, Gauḍa, Lâta, Siṁhala,Karṇâta, Bhoja, Kerala, Pâṅchâla, Kikața and Kâmpila.
Sevaṇa, jewel of the kings of the Yâdava family, all powerful and mighty as he was, is described as having run away on having heard the war-drum of Pratâparudra. He is in another place described as one whose retreats, when he was insulted by the soldiers of Pratâparudra, were known by
Further, the drama, called Pratâparudrakalyâna, given as a portion of the Nâṭakaprakaraṇa, supplies the following main points of information regarding Pratâparudra and the family of the Kâkatiya kings:-Svayambhú (S’iva) is described as the family-deity instructing all the members of the family in their duties. He is also described as having manifested himself in a dream to king Rudra who, though daughter of king Gaṇapati, was designated by Gaṇapati by a male name. Her real name, as given by the commentator Kumârsvâmin, was Rudrâmbâ. She succeeded Gaṇapati on the throne of Ekaiilâ. She was, as mentioned above, called Rudra or Rudradeva and her greatness is shewn by the fact that her mother was Umd herself, known among the people as Somâ, and father God S’iva himself, Gânapati, Lord of Pramatha and other Gaṇas. In the dream which Rudradeva had, God S’iva, manifesting himself, praised the greatness of Pratâparudra and advised Rudradeva to place the burden of the kingdom upon the shoulders of the prince, his grandson, who had been adopted by him as his son by His command. The prince then sets out for the conquest of directions before he is installed as Yuvarâja or crown prince. In his expedition of conquest he first sets out for the east and conquers the Kalingas. He then goes southwards and vanquishes the Pânḍyas. He next marches towards the west and conquers it. Then crossing the Narmadâ, he starts northwards. There the Aṅgas, the Vaṅgas and the Mâlavas combine and oppose him. The leaders of the
army of Pratâparudra challenge them, speaking in derision of them9.”). Here are mentioned the Gurjars, the Lampâkas, the Vaṅgas, the Konkaṇis, the *Huṇas10*and the Mahârâshṭras. Further on are named the following kings11.”):—
Kings of Chola12, Kâshmîr, Nepâl, Suhma13, Kamboja14, Sevaṇa, Gauḍa, Lâta, Siṁhala,Karṇâta, Bhoja, Kerala, Pâṅchâla, Kikața and Kâmpila.
Sevaṇa, jewel of the kings of the Yâdava family, all powerful and mighty as he was, is described as having run away on having heard the war-drum of Pratâparudra. He is in another place described as one whose retreats, when he was insulted by the soldiers of Pratâparudra, were known by
the Gautamî river. This means that the Yâdava king had crossed the Gautamî river, near the capital Ekaśilâ, beyond which his kingdom evidently lay, and was obliged by the commander of Pratâparudra’s army to cross it back. This Yâdava king was Râmachandra or Râmadeva, 6th king of the Yâdavas of Devagiri, whose dates are S’aka 1193-1231 A. D. (1271-1309).
It is stated in the Pratâpakalyâṇa that Gaṇapati established an image of God Gaṇapeśvara.
The genealogy of Pratâparudra, as shown by the drama under the Nâtakaprakaraṇa, is as under :—
1 Gaṇapati (married Somâ).
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2 Rudrâmbâ (known as Rudra ).
\।
Mummaḍambâ (married Mahâdeva).
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3 Pratâparudra.
The following additional information is supplied by the inscriptions of Pratâparudra and his ancestors :—
(1) The Conjeveram Sanskrit and Tamil inscription of Pratâparudra records that his general Muppiḍi installed a certain Mânavîra as Governor of Kânchî. The inscription is dated S’aka era (1238 A. D. 1316). In 1316 Conjeveram was thus tributary to Pratâparudra, who is called Kâkatiya Mahâmaṇḍala Chakravartin of Ekaśilânagarî.
(2) Another inscription of Pratâparudra is found at Jambukeśvara temple near Trichinopoly. It mentions Manma Gaṇḍagopâla as his subordinate, whose latest known date is
S’aka-saṁvat 1221 (A. D. 129915. Vide Epi. Ind., Vol. VIL, pp. 128-32.”)) from an inscription at Nellore.
(3) Three other inscriptions of Pratâparudra are found at Bezvâḍa, Warangal and Palivela. They are dated respectively S’aka-saṁvat 1220, (A. D. 1298, 1235), (A. D. 1313 and 1239), (A. D. 131716)
(4) The Anmakoṇḍ17 Sanskrit and Telugu inscription of the Kâkatiya Mahâmaṇḍaleśvara Rudradeva-His capital was Anmakoṇḍa, at a short distance from Woraṅgal. The inscription is dated S’aka-saṁvat 1084 (A. D. 1162). Its object is to record that Mahâmaṇḍaleśvara Rudradeva of the Kâkatya or Kâkatiya family set up at his capital the images of God Rudra, the God Vâsudeva and the God Sûrya. The following is the genealogy furnished by the inscription:—
Tribhuvanamalla.
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Prola or Prolerâja.
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Rudra Deva.
Prola is described in the inscription as having imprisoned in war Tailapadeva18 to S’aka 1084 (A. D. 1162).”), ornament of the Châlukyas, defeated a king Govinda and given his kingdom to king Udaya and conquered Guṇḍa, lord of the city of Mantrakúta. In his time Anmakoṇḍa was besieged by Jagaddeva, who was repulsed and put to flight. Rudradeva conquered a certain Domma and had a powerful opponent in king Bhtna who was
defeated by Rudradeva and had to fly to a forest. His kingdom was bounded by Śrtśaila19 on the south, the kingdom of the Western Chalukyas on the west and the region of Malyavan on the north.
(5) The Gaṇapeśvaram20 Sanskrit and Telugu inscription of the time of the Kâkatiya Gaṇapati is dated S’aka-saṁvat 1153 (A. D. 1231). It is engraved on a pillar in front of the Durgâmbâ temple at Ganapeśvaram, a village in the Masulipatam tâlukâ of the Kṛishṇa district. Besides giving the information about Prola found in the Anmakoṇḍa inscription, it records that Prola married Muppaladevî and had two sons, Rudra and Mahâdeva. Rudra succeeded his father Prola and was succeeded by Mahâdeva. Gaṇapati was the son of the latter by Bayyâmbikâ. He defeated the kings of Chola, Kaliṇga, Sevaṇa, Karṇâṭa and Lâṭa and married Nâramâ (Nârâmbhâ) and Peramâ (Peramâmbâ), the elder sisters of Jâya (Jâyana), chief of his elephant troop21.
(6) The Conjeveram (Ekâmranâtha temple) inscription of Gaṇapati and his minister and general, Sâmanta Bhoja, is dated S’aka-saṁvat 1172 (A. D. 1250). The S’aiva temple of Ekâmranâtha is the largest of all temples at Kâñchî (Conjeveram) and the inscription is engraved on its wall. In this Gaṇapati traces his descent from the sun; his successors that are mentioned being Betmarâja (Tribhuvanamalla), Prodarâja, Rudradeva, and Mahâdeva. Prodarâja is stated to have constructed a lake which he called Jagattkesari-tatâka after his surname Jagatîkesarin22. Gaṇapati is stated to
have conquered the Yâdava king Siṁhana and the Kalinga king and to have reduced kings of Lâṭa and Gauḍa to his submission¹. Siṁhaṇa’s (Siṅghana’s) father Jaitrapâla or Jaitugi is represented to have killed Rudradeva, Gaṇapati’s uncle, as appears from the Paiṭhaṇ grant of the Yâdava king, Râmachandra, who ruled from S’aka-saṁvat 1193 to 1231, (A.D. 1271 to 1309) and also from an introduction to Hemâdri’s Vratakhaṇḍa.23 The same Paiṭhaṇ grant shows that Gaṇapati was a contemporary of both Jaitugi I. and Siṅghaṇa II.
(7) The Yenamadala24 fragmentary Sanskrit and Telugu inscription of the Kâkatîya Princess Gaṇapâmbâ is dated S’aka-saṁvat 1172 (A. D. 1250). It gives Mâdhava as the name of Prola’s son. This Mâdhava lost his life in a battle²,Gaṇapâmbâ or Gaṇapâmbikâ was the daughter of Gaṇapati.
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1. यदुदयकृतचेतोरिंखणः सिंहणो यत्रतुलसुभटधाटीदत्तमङ्गः कलिङ्गः।
अपि च यदुपसेदाजीविनौलाटगौडौगणपतिनृपतेः क (:) श्लाघते विक्रमाय॥
V. 14 of the inscription,
दीक्षित्वा रणरङ्गदेवयजने प्रोदस्तशस्त्रस्रुवः
श्रेणीभिर्जगतीपतीन् हुतवता येन प्रतापानले।
त्रैलिङ्गाधिपतेः पशोविंशसनं रौद्रस्य रौद्राकृतेः
कृत्वा पुरुषमेचयज्ञविधिना लब्धस्त्रीलोकीजयः॥ St. 41.
2. जातो माघवभूपतिर्गुणगिरिस्तस्मान्महीवल्लभात्
यस्सुप्तासुमहाहवे गजवधूकुंमद्वयस्योपरि।
प्रख्याताप्सरसस्तनद्वयतटे प्राबोधि योधाग्रणीः
लोके ख्यातविशालनिर्मलयशावीरश्रियामाश्रयः॥ V. 5.
Taylor states that Gaṇapati, making war against the Devagiri ruler who had killed his uncle Mahâdeva, conquered that chief and took his daughter named Rudramaderi to be his wife.’ Vide Ind. Ant., Vol. XXI, p. 197 ff. But the Introduction to Hemâdri’s Vratakhṇḍa states otherwise. Vide v. 41 quoted above,
She married Beta, son of a chief. After the death of her husband she lived a pîous life and built a temple Beteśvara in memory of her lord. The inscription was made in the lifetime of her father Gaṇapati.
(8) The last25 inscription worth noting is the Chebrolu inscription of Jâya in Sanskrit verse and Telugu prose. It is engraved on a pillar in the Nâgeśvara temple at Chebroluin the Kṛishṇa district. It gives the genealogy of king Gaṇapati whose descent is traced from the sun. Manu was son of the Sun, his son was Ikshvâku who was followed by Sagara, Kakutstha, Dilîpa, Daśaratha and Râmachandra. In this family was born Durjaya, the earliest historical ancestor of Gaṇapati. Then follow the names of Beta (Betma), Prola, Rudra, Mahâdeva and Gaṇapati who is described as having borne the biruda of Chhalamattigaṇḍa¹ Jaya or Jâyana was the chief of the elephant-troop of Gaṇapati and was presented by him with the city of Shaṇmukha or Tâmprapurî.
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1. एषां वंशे रघूणां क्षितिपतिरभवद्दुर्जयः शौर्यकेलि-
स्फूर्ज्जद्भूमा ततोऽभूत् प्रतिकरटिघटाशातनो चेतराजः।
चक्रे विक्रान्तवाहुस्तदनु वसुमतीपालनं प्रोलभूप-
स्तत्पुत्रो रुद्रदेवस्तदुपरि च नृपोत्तंसरत्नं बभूव॥८॥
ततस्तत्सोदर्यः स्वभुजधूतसाम्राज्यमहिमा
महादेवक्षोणीरमण इति गीतस्त्रिभुवने।
अभूत् सेवानप्रक्षितिपतिशिरोमण्डनमणि-
प्रमाभियंत्पादाम्बुरुहमकरन्दव्यतिकरः॥९॥
अधगणपतिदेवः प्रादुरासीदमुष्मात्
सुरतरुंरिव सिंधोःसाध्यविश्राणनश्रीः।
विहरति फणिमर्तुः श्वासखेदादपेता
सुरमिमलयजार्द्रेयद्भजेभूतधात्री॥१०॥
मन्त्री कार्यनिरूपणे प्रियमुद्दद्विस्रंभसंभाषणे
काव्यारंभविधौकविः सहचरः संगीतसंपादने।
कर्त्ता शिल्पकलाकलापविषये संप्रेषणे किङ्करो
युद्धे यश्छलमत्तिगंडतृपतेरग्रेसरोवर्तते ॥ ११॥
The genealogy of the Kâkatîya kings gathered from the inscriptions is then as under :—
1 Betma, surnamed Tribhuvanamalla
\।
2 Prola, surnamed Jagatikesarin, (married Muppaladevi).
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\।
3 Rudra.
4 Mahâdeva.
A. D. 1162
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5 Gaṇapati or Gaṇapa.
(married Nâramâ and
Peramâ).
A. D. 1231, A. D. 1250.
\।
Gaṇapâmbâ or Gaṇapâm-
bikâ, (married Beta).
A. D. 1250.
The drama Pratâparudrakalyâṇa gives Somâ as the name of Gaṇapati’s wife and his daughter who appears in the drama as Rudradeva¹ is styled Rudrâmbâ by the commentator
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अथैकदा दक्षिणदिक्क्षितीशान्
विजित्य वीरो विनिवर्तमानः।
मध्येपथंताम्रपुरीप्रयासी-
ञ्चंचत्पताकाछलमत्तिगंडः॥१९॥
It will be seen that the biruda her &given isछलमत्तिगण्ड. In the text it is found as चलमतिगण्ड and in one place चलमत्यंगण्ड which is also the reading of the Ratnaśâṇa. Vanapati bore the biruda चलमत्तिगण्ड.
1 “It was in her reign that Marco Polo, the Venetian, visited the east coast of India. He records (Ynle’s edit., ii. 295) not only that a woman had been reigning over that country for forty years, but that ‘she had administered her realm as well as ever her husband (In the Nâṭaka she is called daughter) did or better; and as she was a lover of justice, of equity, and of place, she was more beloved by those of her kingdom than ever was lady or lord of theirs before”. Vide “ImperialGazetter of India’, Vol. II., p. 341.
Kumârasvâmin. She thus becomes the 6th ruler and Pratâparudra her grandson, the 7th ruler of the Kakâtiya family,
6 Rudrâmbâ (known as Rudra),
\।
Mummadambâ, (married Mahâdeva).
\।
7 Pratâparudra.
A. D. 1316, A. D. 1299,
A. D. 1298, A. D. 1313, A.D. 1317.
The dates assigned to Pratâparudra by Robert Sewell in his ‘Sketch of the Dynasties of Southern India’ are 1295 to 1323 A. D. In the Catalogue of Sanskrit Manuscripts in the India Office, and in the Report on Sanskrit Manuscripts by M. S’eshagiri S’âstrî the dates of his reign are 1268 to 1319 A. D26. In 1303 the Mehomedans invaded the kingdom of Waraṅgul but were forced to retreat. In 1310 they invaded it again under Mâlik Kâfur and compelled Pratâparudra to pay tribute. But in 1316 he threw off the yoke and made himself independent. In 1321 Mahmad Taghlakh sent an army under his son Ulughkhan to conquer Woraṅgal. This attempt was unsuccessful, but in 1323 another attempt was made and it succeeded. Worangal was captured and Pratâparudra was imprisoned and sent to Delhi. He was succeeded by his son Krishṇa who, though at first victorious in repulsing the Mehomedans from his kingdom with the help of other Hindu states, was finally defeated by the Mehomedans. In 1424 the king of Woraṅgal was slain by Ahmad Shah Bahmani. In 1538 war broke out again. In this the Warangal Raja lost his son and between this year and 1543 the empire was incorporated in a Bahmani kingdom of the Kutub Shâhi dynasty27.
The Commentator—the commentator is Kumârasvâmin Somaptihin, son of Kolâchala Mallinâtha about whose date and works I have said fully in my Introduction to the Bhaṭṭikâvya and the Ekâvalî. The word ‘Ratnâpaṇa’**, as the commentary is called, is explained by the commentator himself as a market-place where are sold jewels of poetic sentiment, poetic merits, figures &c. collected together by Vidyânâtha after they have been sharpened on the grindstone consisting of the expression of the merits of a nâyaka the very mention of whose name brings merit; and the appreciating and the fortunate are requested to purchase the gems by giving for them the price of their favour. The commentary bespeaks a very wide reading and knowledge on the part of Kumârasvâmin, though it does not show the critical acumen of his father. To the student of poetics, however, it is very useful; for it abounds with quotations and elucidates the text very well.
¹Another genealogy of Kumârasvâmin is given in the Introduction to the commentary called Padayojanâ by Venkaṭanârâyaṇa on Champúrâmâyaṇa. It is as under:-
Mallinâtha.
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Kapardin.
\।
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\।
\।
Mallinâtha.
Peddubhaṭṭa.
\।
Kumârasvâmin.
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1
कोलचल्मान्वयाब्बीन्दुर्मल्लिनाथो महायशाः।
शतावधानविख्यातः वरिरुद्राभिवर्षितः॥
मल्लिनाथात्मजः श्रीमान् कपर्दी मन्त्रकोविदः।
अखिलश्रौतकल्पस्य कारिकावृत्तिमातनोत्॥
कपर्दितनयो श्रीमान् मञ्जिनाथोग्रजः स्मृतः।
द्वितीयस्तनयो धीमान् पेद्दुभट्टो महोदयः॥
महोपाध्याय आख्यातः सर्वदेशेषु सर्वतः।
मातुलेपकृतौदिव्ये सर्वज्ञेनाभिवर्षितः॥
गणाधिपप्रसादेन प्रोचे मन्त्रगणान् बहून्।
नैषधज्योतिषादीनां व्याख्याताभूज्जगद्गुरुः॥
पेद्दुभट्टसुतः श्रीमान् कुमारस्वामिसंज्ञिकः।
प्रतापरुद्रीयाख्यानव्याख्याता विद्वदग्रिमः॥
It may be noted that Kolachalma is given here as the name of the family. The same word occurs at the end of each Kâṇḍâ as इति श्रीमत्कोलचज्मान्वय&c. Vide Report of Sanskrit Manuscripts in Southern India by Dr. E. Hulizsch, No. III, pp. 39-40.
This genealogy cannot be accepted in face of the one given by Kumârasvâmin himself in his introduction to the Ratnâpaṇa. Venkaṭanârâyaṇa was seventh in descent from Kumârasvâmin and his evidence cannot therefore be accepted to be as trustworthy as that of Kumârasvâmin himself.
The Ratnaśâṇa is another commentary on the work. I have been able to secure it on the first two Prakaraṇas only. It is more explanatory than critical and borrows much from the Ratnâpaṇa. The name of the author is not known, but he has composed another work called Hemantatilakabhâṇa28.
The English notes are explanatory and critical and avoid the ground already covered in my notes to the Ekâvalî to which references are made.
The Appendices are prepared with great care and will be useful to those engaged in research work. Quotations are verified as far as possible and their places with variants indicated in foot-notes. The last appendix contains, as promised in my introduction to the Ekâvalî¹,the work of Bhâmaha, an
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1 Vide p. xxxi, of the Introduction of the Ekâvalî, B.S.S. No. 63.
कुमारस्वामिन्.
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\।
महादेव. Three other sons.
\।
शंभु.
\।
भास्कर.
\।
नागेश्वर.
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कौण्डुभट्ट.
\।
नागेश्वरयज्वन्. (married नरसक्का).
\।
वेंकटनारायण.
old Âlaṇkârika, whose work is not still published. The text of the work of Bhâmaha, published in the last appendix, is based upon the transcript of a manuscript of the work in the Mahârâjâ’s Sanskrit Library at Trivandrum, secured by me through my friends, Pandit Govindadâs of Benares and Śâstrî Gaṇapati, Principal, Mahârâjâ’s Sanskrit College, Trivandrum, and upon another transcript secured from the Go- vernment Oriental Library of Madras. The latter seems to be a copy of the former. I tried very hard to secure another manuscript of the work from Kâshmir and other parts of India, but I could not get any. The foot-notes in this Appendix indicate the places, ascertained with great care, where quotations of Bhâmaha’s work are found. They will show how widely Bhâmaha is quoted. He is quoted in the Kâvyaprakâśa of Mammaṭa, in the Dhvanyâloka by Ânandaardhana, in the Lochana by Abhinavagupta, in the
Jayamosigald on the Râvaṇaradha or the Bhaṭṭkâvya, in the commentary on Udbhaṭâlaṅkarasârasaṅgraha by
Pra
tiśâren
durâja, in the Sarvapathîna by Mallinâtha on the Bhaṭṭikâvya, in his tîkâ on Kâvyânuiâsana by Hemachandra, in the Chitramîndâsâ by Appayya Dîkshita, by Vallabha in the Subhâshitavalî, by Vidyâdhara in his Ekâvali29, in the Alaṅkârakaustubha by Viśveśvara Paṇḍita, in the Yamakaratnâkara (Introduction I. 33) by Śrîvatsâṅkamiśra30, in Râjânakaruyyaka’s Alaṅkârasarvasva31, in the Súktikarṇâ-
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नरसक्कारूपवध्वाश्चश्रीनागेश्वरयज्वनः।
नारायणेन पुत्रेण कोलचल्मान्वयेंदुना॥
चंपूनारायणाख्यस्य प्रवन्धस्यापहारिणः।
विवृतिः क्रियते प्रेम्णा यथामति समासतः॥
mṛita32, in the commentary by Namisâdhu on Rudraṭa’s Kâvyâlankâra1, and in the Arthadyotanikâ¹ by Râghavabhaṭṭa on the Abhijñanaśâkuntala. In the last, however, quotations seem wrongly ascribed to Bhâmaha². He is mentioned in the text also with reverence33.
Udbhaṭa or Bhaṭṭodbhaṭa, who lived in the reign of king Jayâpâda (A. D. 779-813) has written a commentary called Bhâmahavivaraṇa’ on the work of Bhâmaha as appears from the commentary of Pratihârendurâja on Udbhaṭâlaṅkârasâra-
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1Vide p. 2 ‘दण्डिमेधाविरुद्रभामहादिकृतानि सन्त्येवालंकारशास्त्राणि, and ‘भामहादिमतेन त्वर्थान्तरन्यास एव ‘अर्थद्वयस्य न्यासः सोऽर्थान्तरन्यासः’ इति तदीपलक्षणात् p. 116. The definition of अर्थान्तरन्यास ascribed to भामहis not, however, found given here in the work of भामहVide p. २१९. V. ७१.
2 The following quotations are found by me:— क्षेमं सर्वगुरुदत्ते मगणो भूमिदेवतः इति भामहोक्तेः। Vide p.4; ‘तल्लक्षणमुक्तं भामहेन—‘पर्यायोक्त प्रकारेण यदन्येनाभिधीयते वान्यवाचकयक्तिम्यां शून्येनावगमात्मना॥ इति। उदाहृतं च इयग्रीववधस्पं पद्यम्यं प्रेक्ष्य चिरस्यापि निवासप्रीतिरुञ्झिता । मदेनैरावणमुखे मानेन हृदये दरेः॥ इति Vide p. 9. It may be noted that the definition of पर्यायोक्त as given by Râgharabhaṭṭa is found in Udbhațálankárasárasaṅgraha with slight verbal modifications (There it is— पर्यायोक्तं यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते वाच्यवाचकवृत्तिभ्यां शून्येनावगमात्मना) and that the instance यं प्रेक्ष्य’ &c. is found in the Kâvyaprakâsa.
नोपमानं तिङन्तेन इति भामहोक्तेः। Vide p. 18.
This quotation is not found in the text of Bhâmaha. It is found in the Kâvyâdarśa 2.227. 88 आप्तभाषित (नोपमानं तिङन्तेनेत्यतिक्रम्याप्तभाषितम्॥).
In another place Bhâmaha’s work is called ‘Âkara’ अत एव सर्वालंकाराणामतिशयोक्तिगर्भत्वमाकरे दर्शितम्—“नालंकारोऽनया विना” इति। Vide p. 11.
saṅgraha¹
, from the commentary on Kâvyânuśdsana
by Hemachandra²
and from Abhinavagupta
’s
Lochana
3
.
A critical survey of Bhâmaha’s work is out of place in this Introduction. When more manuscripts of the work are found, the text will be correctly settled and more light will be thrown upon many points on which at present nothing can be said with certainty. At present, it is sufficient to note that Bhâmaha is a very old Âlaṅkârika and his work shows that he was son of Rakrilagomin, that he has dealt with five topics by six Parichchhedas or chapters in his work-(1) Kâvyaśartra or the body of poetry (by sixty verses), (2) Alaṅkâras or figures of speech (by one hundred and sixty verses), (3) Doshas or demerits in composition (by fifty verses), (4) Nyâyanirṇaya or settling the logic of poetry (by seventy verses) and (5) Śabdaśuddhi
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1 विशेषोक्तिलक्षणे च भामहविवरणे भट्टोद्भटेन एकदेशशब्द एवं व्याख्यातोयथेहस्माभिर्निरूपितः। तत्र विशेषोक्तिलक्षणम्— एकदेशस्य दिगमे या गुणान्तरसंस्तुतिः। विशेषप्रधनायासौविशेषोक्तिमता यथा॥ इति. This definition of विशेषोक्ति is found in the text of Bhâmaha’s work. It is wrongly ascribed to Udbhaṭa by Colonel Jacob in his ‘Notes on Alaṅkâra Literature Part I. p. 287 (Journal of the Royal Asiatic Society, April 1897).
2 एतेन ‘रसवद्दर्शितस्पष्टशृङ्गारादिरसोदयम्। स्वशब्दस्थायिसंचारिविमावाभिनयास्पदम्॥ इत्येतद्द्व्याख्यानावसरे यद्भट्टोद्भटेन ‘पञ्चरूपा रसाः’ इत्युपक्रम्य ‘स्वशब्दाः शृङ्गारादेवांचकाः शृङ्गारादयः शब्दाः’ इत्युक्तं तत्प्रतिक्षिप्तम्। Vide हेम’s काव्यानु०, pp. 110-111.
The first half only of the verse रसदद्दर्शित°is found in the text of Bhâmaha printed in the Appendix, while the whole of it is found in Udbhaṭâlaṅkâranârasaṅgraha. The explanation of the verse quoted from Bhaṭṭodbhaṭa is found in Pratihârendurâja’s commentary.
3 भामहोक्तं ‘शब्दश्छन्दोभिधानार्थः’ इत्यभिधानस्य शब्दाद्भेदं व्याख्यातुं भट्टोद्भटो बभाषे—‘‘शब्दानामभिधानमभिधाव्यापारो पुरुषोगुणवृत्तिश्च” इति। Vide ध्वन्या०, P. 10.
or grammatical purity (by sixty verses) and that he has named in his work Ramaśarman34 and his work Achyutottara, Medhâvin35, *Śakhavardhana36*and his work Râjamitra37 and Ratnâharaṇa38. Of the authors and the works named by Bhâmaha, Medhavin alone is known; since he is named and quoted by Namisâdhu in his commentary on Rudraṭa’s Kavyâlankâra39.
From the materials at present available, it cannot be conclusively settled whether Bhâmaha was anterior or posterior to Daṇḍin, though Prof. M. T. Narasiṁhiengar, B. A., has, in his paper on Bhâmaha published in the Journal of the Royal Asiatic Society’ (July 1905), argued the priority of Daṇḍin to Bhâmaha and thinks he has made out a conclusively strong case in favour of the priority of Daṇḍin on the following grounds40 Mr. Pâṭhak says that Bhâmaha is prior to Daṇḍin, but I believe we have conclusive evidence now to prove that the reverse is the case”):—
(1) Bhâmaha criticizes Daṇḍin, though Dandin is not expressly mentioned by him.
(2) Bhâmaha follows Daṇḍin.
(3) Bhâmaha quotes half of the verse given by Daṇḍin as an instance of Prahelikâ The authorship of this verse is ‘indubitable. Śârigadhara who is always very careful in
tracing stanzas to their original sources, specifically ascribes this verse to Daṇḍin’. Daṇḍin’s full verse is
विजितात्मभवद्वेषि गुरुपादहतो जनः।
हिमापहामित्रधरैर्व्याप्तं व्योमाभिनन्दति॥
Bhâmaha’s verse is
हिमापहामित्रधरैर्व्याप्तं व्योमेत्यवाचकम्।
साक्षादरुढं वाच्येऽर्थे नाभिवानं प्रतीयते॥
Let us examine each of these arguments very carefully and it will be found that none of them is conclusive. There is so much borrowing in Sanskrit literature that it cannot be said who borrows from whom unless there are other arguments to support the contention. Had it not been, as shewn above, clear that Udbhața flourished after Bhâmaha, it would have been doubtful to decide who has borrowed from whom; for most of the definitions of Alankâras are almost the same in both these works¹. Indeed, such instances of borrowing may be multiplied to any extent from Sanskrit literature. Moreover, a vast field of literature is still unpublished and difficult to find even. Nothing is for instance known about Śâkhavardhana and Râmaśarman and their works named by Bhâmaha. Both Daṇḍin and Bhâmaha may have borrowed from some ancient writer. The points of similarity noted are for the same reasons no conclusive evidence. In some
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1
Vide the definitions of ससंदेह(My notes to the EkâvalÎ, pp. 564-65), अपह्नुति (Vide My notes on the EkâvalÎ, p. 575), उत्प्रेक्षा (Notes on the EkâvalÎ, p. 585), अतिशयोक्ति(Notes on the Ekâ. p. 589), सद्दोक्ति(Notes, pp. 610),अप्रस्तुत्प्रसंशा(Notes, pp. 631-32), पर्यायोक्त(first half of the verse, (notes, p. 639), आक्षेप(Notes, pp. 647-48). विरोध (Notes, pp.649-50) विभावना(Notes, p. 653), यथासङ्घ्य (Notes, p. 683) There are many otherpoints of similarity in the two works as in the reasons assigned for the figure, two of which are the same in both (Vide Notes, p. 710), in considering रसand भावas expressed and not suggested (Notes, p. 712), in the omission of the treatment of भ्रान्तिमत्as an Alaṇkâra (Vide Notes p. 569) &c.
cases it is not clear who is criticizing whom. Take for instance the case of Kathâ and Âkhyâyikâ. They are distinguished from each other by many writers on poetics— such as by Abhinavagupta in the Lochana41, in the Agnipurâṇa, in the Kâvyânuśâsana by Hemachandra, by Rudrata in his*Kâvyâlaṅkara*, in the Mandâramarandachampú by Śrikrishṇa, by Vâgbhața in the Kâvyânusâsana and by Viśvanâtha in his Sâhityadarpaṇa41. Bhâmaha too distinguishes between them; and many writers who preceded Bhâmaha and Daṇḍin both and whose works are not available, may be presumed to have distinguished between them; because the word किल(किल इति ऐतिह्ये) in Daṇḍin’s Kâvyâdarśa ‘तयारोख्यायिका किल&c.’ shews that the distinction between आख्यायिकाand कथा, mentioned there, is traditional. Indeed, the fact that Bhâmaha distinguishes between them and that Daṇḍin criticizes those who distinguish between them, the points of distinction mentioned by Daṇḍin being the same as those found in Bhâmaha’s work, would rather lead one to presume that Bhâmaha preceded Daṇḍin. The last line of Bhâmaha in his treatment of Kathâ, viz. ‘स्वगुणाविष्कृतिं कुर्यादभिजातः कथं जनः’ (How can a highborn person declare his own merits) simply explains why in a Kathâ the narrator is other than the hero (अन्यैः स्वचरितं तस्यां नायकेन तु नोच्यते’ - In a Kathâ the hero does not narrate his own story, but it is narrated by another), just as Daṇḍin’s line स्वगुणाविष्किया दोषो नात्र भूतार्थशंसिनः’ (in an Âkhyayikâ, the declaration of one’s own merits is no fault, because it simply mentions the true thing) explains, by stating a reason, what is given in the preceding line तयोराख्यायिका किल नायकेनैव वाच्या (of these two Kathâ and Âkhyâyikâ, the latter should be
narrated by the hero alone). Similarly, the fact that गतोऽस्तमर्कःwhich is called bad poetry (किंकाव्यम्) by Bhâmaha and good poetry (साध्वेव) by Daṇḍin may by stretch of reasoning be argued to prove that Daṇḍin is criticizing Bhâmaha and is thus posterior to him; while the probability is that the verse is old and traditional, that old writers on poetics who preceded Bhâmaha and Daṇḍin have recognized it as an instance of an Alaṅkâra (वार्तामेनां प्रचक्षते), that some may have called it bad poetry and that these people may have been in the mind of Daṇḍin.
It will thus be seen that the first two grounds on which Daṇḍin’s priority to Bhâmaha is based by Prof. M. T. Narasiṁhiengar, B. A., do not afford any conclusive proof. Let us now consider the last argument, the existence of half the versed ‘हिमापहामित्रधैरेर्व्याप्तं व्योम’ in both the works, which Prof. Narasimhiengar remarks is by itself sufficient to conclusively prove the posteriority of Bhâmaha’ It is said that the instances given by Daṇḍin in his Kâvyadarśa are generally his own and that Śârṅgadhara ascribes the verse in question to Daṇḍin. Now लिम्पतीव तमोऽङ्गानि&c. in the Kâvyadarśa is evidently from the Mṛichchhakaṭika and thus shows that all the instances in the Kâvyadarśa are not Daṇḍin’s own, unless we hold with Dr. Pischel that of the three works ascribed to Daṇḍin in the well-known verse of Râjaśekhara42, the third is Mṛichchhakaṭika itself. This is, however, a bold assertion and is not generally accepted. Indeed, it is doubtful whether Daṇḍin, the author of Daśakumâracharita, is the same Daṇḍin that is the author of Kâvyadarsa***;* for the two works are widely divergent in style and purity of language. It is also to be borne in mind that a Prahelikâ is an artificial and laboured composition and instances of it are more likely to be borrowed from old
writers than composed by Daṇḍin himself. Thus both Bhâmaha and Daṇḍin may have borrowed the verse in question from an old work. Again, ‘गतोऽस्तमर्को भातीन्वुर्यान्ति वासाय पक्षिणः’found in the Kâvyâdarśa (2-244) is found also in Bhâmaha whose words ‘वार्तामेनां प्रचक्षते’ show that the instance is from old works on poetics and that old writers call this Vârtâ. Thus, though the generality of instances in the Kâvyâdarśa is Daṇḍin’s own production, there are some instances which are not his. Further, to consider the verse विजितात्मभवद्वेषि as Daṇḍin’s production on the strength of Śârṅgadhara’s having ascribed it to him in his collection is also not safe; because Śârṅgadhara is not faultless in tracing stanzas to their original sources; since the well-known stanza वितरति गुरुः प्राज्ञे विद्यांयथैव तथा जडे &c. which occurs in Bhwabhûti’s Uttararâmacharita is ascribed by Śârṅgadhara to Kâlidasa43. It will thus be seen that the evidence on which Prof. Narasiṁhiengar has settled the priority of Daṇḍin to Bhâmaha is not conclusive and that the subject requires further materials before it can be conclusively and satisfactorily settled which of the two writers is prior to the other.
Though, as shewn above, it cannot be conclusively proved whether Bhâmaha is prior or posterior to Daṇḍin, the following points afford a strong presumptive evidence in favour of the priority of Bhâmaha to Daṇḍin:—
(a) Old writers on poetics are mentioned as भामहादयः Bhâmaha’s work is called Âkara, and the epithet पूर्वor प्राचीनis applied to Bhâmaha^(1). There is only one case noticed by
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Vide पूर्वेभ्योभामहादिम्यः in the text, Náyâkaprakaraṇm, भामहादयः in Vidyâdhara’s Ekâvuli p. 30 (यत् पुनरलंकारकोटिनिविष्टत्वं वस्तुध्वनेरुदभावयन्भामहादयस्तदपि विचारविधुरम्), भामहोद्भटप्रभृतयश्चिन्तनालंकारकाराः in Alaṅkirâsareasa, p. 3, भामहादिमतेनin Rudrata’s Kâvyâlaṅkara p. 116, and अत एव सर्वालंकाराणामतिशयोक्तिगर्भत्वमाकरे दर्शितम्- ‘नालंकारोऽनया विना’ इति।in Arthadyotanikâ by Râghaṇabhatta on the Abhijṅinasâkuntala,
me in which Daṇdin is mentioned before Bhâmaha by Rudraṭa, but the prior mention of दण्डिन् by Rudrața is no conclusive evidence in favour of his priority to Bhâmaha; for it may be as well argued that the same author has भामहादिमतेनin another place, where the views of Bhâmaha and Daṇdin about Arthantaranyâsa being the same, Rudraṭa might have said दण्ड्यादिमतेन, had he thought Daṇdin to be prior to Bhâmaha.
(b) Daṇḍin’s numerous divisions of Upamâ, Rûpaka, Âkshepâ and Vyatireka as well as his detailed treatment of S’abdalankaras in a separate chapter lend colour to the presumption of his belonging to a later age than Bhâmaha, whose divisions of Alankaras are not minute and who does not attach much importance to S’abdalankaras.
A close comparison of the treatment of Kâthâ and Akhyâyikâ by Bhâmaha and Daṇḍin shews clearly that a distinction between Kathâ and Âkhyâyikâ was acknowledged by writers prior to Daṇḍin and as Bhâmaha acknowledges it, there is a possibility of his having lived before Daṇḍin. Moreover, as the differentiating points between Kathâ and Âkhyâyikâ, attacked by Daṇḍin, are the same as those given by Bhâmaha, there is a strong presumption of Daṇḍin’s attacking ¹Bhâmaha.
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1 Vide p. 211 and Kâvyâdaria 1-28-28 and my notes, pp. 25-26. In this connection the following verses deserve special attention:—
कन्याहरणसंग्रामविप्रलम्भोदयादयः।
सर्गबन्धसमा एव नैते वैशेषिका गुणाः॥
कविभावकृतं चिह्नमन्यत्रापि न दुष्यति। काव्या० १-२९-२०.
Here एवand अपिhave been used pointedly and levelled against the distinctive characteristics given by Bhâmaha.
(d) In the beginning of the 4th Parichchheda Bhâmaha enumerates eleven Doshas. Daṇdin enumerates the first ten Doshas in the same words and states that the Doshas are ten only, that the eleventh Dosha which is the same as mentioned by Bhâmaha is hard to judge and that there is no fruit in troubling one’s self about it44. This too favours the presumption of Bhâmaha’s priority to Daṇdin.
(e) गतोऽस्तमर्कः&c. which Bhâmaha calls bad poetry is called good composition by Dandin by the words साध्वेव,which seem clearly aimed against those who call it असाधु, and as Bhâmaha calls it किंकाव्यम्, this is also a presumption in favour of the priority of Bhâmaha to Daṇdin.
(f) The instance of the figure called प्रेयः is the same in the works of both Daṇdin and Bhâmaha, viz.अद्य या मम गोविन्द&c. It is highly probable that Daṇdin has borrowed this from Bhâmaha; for while the former does not acknowledge he source where he has borrowed as in लिम्पतीव तमोऽङ्गानि &c., the latter acknowledges the source where he has borrowed verses from others, as Râjamitra, Achyutottara &c. Moreover, Bhâmaha distinctly states at the end of the 2nd Parichchheda that the instances of the figures of speech given by him are his own composition45.
(g) काव्यान्यपि यदीमानि व्याख्यागम्यानि शास्त्रवत् &c. (II. 20), found also in the Bhaṭṭikâvya, is ascribed to Bhâmaha by Śrivatsâṅkamiśra of the tenth century A. D. This places Bhâmaha
before Bhaṭṭi. Moreover, authors like Râmaśarman and Sâkhavardhana and works like Achyutottara, Ratnâharana, Râjamitra and Aśmakavaṁśa are mentioned by Bhâmaha; but nothing is known about them, nor are they found quoted elsewhere. This would place Bhâmaha in very ancient times and justify the epithet of पूर्वapplied to him by old writers on poetics and the respect in which he was held by authors like Mammaṭa and Abhinavagupta.
Prof. K. B. Pâṭhak brought to my notice that he had found the reference alluded to by Bhâmaha46, viz., the justification of the compound वृत्रहन्ता, in Jinendrabuddhi’s Kâsikâvivaraṇapañjikâ and that Bhâmaha is consequently posterior to Jinendrabuddhi who flourished about the eighth century of the Christian era. If this is proved, it would be a very strong ground in favour of the priority of Daṇdin to Bhâmaha. I thereupon tried to verify the reference in question and am indebted to the learned Śâstrî A. Anantâchârya of the Archæological Department, Mysore, for an extract from Jinendrabuddhi’s Kâśikâvivaraṇapañjikâ, in question, given in the foot-note, which shews that there is no reference toवृत्रहन्ताin it. Moreover47 ‘कर्तृकर्मणोः कृति’ (इति) कर्तरि षष्ठी। तत्प्रयोगे कर्तरि षष्ठी नास्ति तेनैव कर्तुरमितित्वात्। किमर्थं तर्हि तृचो ग्रहणमित्याह। तस्मात् तृजुग्रहणमेतदिति । इक्षुभक्षिकां मे धारयसि इति।”), a mere mention of
Nyâsakâra by Bhâmaha cannot place Bhâmaha after the time of Jinendrabuddhi or eighth century after Christ; for Jinendrabuddhi is not the only Nyâsakâra; many Nyâsakâras are mentioned in the Dhâluvritti of Mâdhavâcharya48:—क्षेमेन्द्रन्यास, न्यासोद्योत, बोधिन्यास, वृत्तिन्यास, शाकटायनन्यास. A Nyâsa by one Vinîtakîrî is quoted by Srîvatsâṅkamiśra of the tenth century A. D. in his Yamakaratnâkara, Âivâsa I. Again, Mâdhava in treating of the use of the root सातिquotes the opinion of one Jinendra against that of Bodhinyása49. This opinion, when compared with that of Jinendrabuddhi in his Kâśikavivaraṇapañjikâ, as I learn from Śâstri Anantâchârya who has got a manuscript of the work with him, leaves room for the inference that the Jinendra of Madhava’s quotation must be different from the Jinendrabuddhi of Vivaraṇapañjikâ. The same Sâstrî informs that there was another Nyâsakâra who lived in
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पूर्ववत् ण्वुच्। अत्र इक्षुशब्दात् कृद्योगे कर्मणि षष्ठी। मे इति। कर्तरि कृद्योग एव। उभयप्राप्तौ कर्मणि’ इत्येतत्र प्रवर्तते। अकाकारयोः प्रयोगे नेति वक्तव्यम्’। इति प्रतिषेधवचनात्॥
कर्तरि च — इतरत्र व्यभिचाराभावादिति। तृचि अयं रूपसामर्थ्यात् अकस्य विशेषणार्थम्। कर्तृग्रहणमित्यत्र हेतुः। सम्भवे व्यभिचारे (?) सति विशेषणविशेष्यभावो भवति। न च तृच् कर्तरि व्यभिचरति। तस्य कर्तर्येव विधानात्। अवस्तु व्यभिचरति। तस्य भावेपि विधानात्। अतः सामर्थ्यात् तस्यैव कर्तृग्रहणं विशेषणं न तृचः। अपां स्रष्टेति। अपामिति कर्मणि षष्ठी। स्रष्टेति नश्चादिसूत्रेण षत्वम्। ‘सृजिदृशोर्झल्यमकीति (ºकीतीति) अमागमः। नतु चेत्यादि याजकादिषु पाठात् भवितव्यमेवात्र समासेनेत्यभिप्रायः। संबन्धिशब्दस्येत्यादि। परिहारः। पायक इति। आतो युक्। अथ किमर्थं सानुवन्धस्योच्चारणम्। तृजिति तृनो निवृत्त्यर्थं। नैतदस्ति। तद्योगे न लोकाव्ययनिष्ठेत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात्। एवं तर्थ (हिं) तदेव ज्ञापकं भविष्यति। तद्योगे क्वचित् षष्ठी भवतीति। तेन भीष्मः कुमाराणां भयशोकस्य हन्ता इत्येवमादि सिद्धं भवति।
the fifth century A. D. The title Pâjyapâda was given to him on account of his learning, his real name being Devananda. He was called Jinendrabuddhi on account of his having seen the Jain light. He is said to have written a treatise on surgery, another on Yoga, a Nyâsa on Pâṇini, and an independent grammar called Jinendravyakaraṇa. A copy of this Nyasa is reported to be available at Delhi.*
Bhâmaha was a Brahmin on the following grounds and not a Bauddha as represented by Prof. M. T. Narasîṁhiengar B. A.:—
(a) He was, as he himself tells us, son of Rakrila Gomin. Gomin is explained by Naighaṇṭukas as a contraction of Go-
sudy, a caste designation added after the names of Brahmins throughout Kâshmîr and northern India and corresponding to the Âcharya of the south50.
(b) Performers of soma-sacrifice are praised by him51.
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For all this information on Nyâsakaras and on certain other points regarding Bhâmaha’s priority to DaṇdiaI am indebted to the learned Śâstri A.Anantâcharya of the Mysore Archeological Department who took great pains to supply me with all this information and to whom I take this opportunity of expressing my sincere thanks for is troubles on my account. जैनेन्द्रव्याकरणकर्ता जिनेन्द्रबुद्धस्तु पूज्यपादापरनामा किष्टीयपञ्चमशतक आसीत्। कर्णाटकशब्दानुशासनव्याख्याने जैनेन्द्रोऽपि “आरैगौवदेङोचित्यनन्तरं इकस्ताविति तच्छब्दप्रायुङ्क्तभगवान् देवनन्दः” इत्याह॥
Vide Mâdhariya Dhatueṛitti Intro., p. १९. Devananda is called Devanandin in Auf, Cat. Cat.
(c) There are frequent allusions to the stories of the Râmåyaṇa and the Mahâbhârata52.
(d) Râma, Śiva, Vishṇu, Pârvatî, and Varuṇa are mentioned in the work53.
(e) There is no reference to incidents in the life of Buddha or to Bauddha heroes. Sarvajña, mentioned by Bhâmaha, is not simply a synonym of Buddha, but is given by Amara as an epithet of Śiva also54.
(f) Bhâmaha rejects ‘Anyâpoha’ as a Śabdârtha55.
(g) Bhâmaha mentions a person studying the Vedas like a Brahmin56.
In conclusion, I trust that the great trouble take in placing the work of an old Alaṅkârika
maha ore Sanskrit scholars, defective as it is, being prepared from only two manuscripts of it which were available, will be appreciated by them.
P. R. Training College,
Ahmedâbâd.
K. P. TRIVEDI.
18th February 1909.
अथ
श्रीविद्यानाथकृतप्रतापरुद्रयशोभूषणं
श्रीमल्लिनाथसुतकुमारस्वामिकृतरत्नापणोपेतम्।
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अथ काव्यप्रकरणम्।
विद्याकैरवकौमुदीं श्रुतिशिरःसीमन्तमुक्तामणिं।
दारान् पद्मभुवस्त्रिलोकजननीं वन्दे गिरां देवताम्।
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कल्याणानि तनोतु कश्चन पुमानर्धाङ्गदन्तावलो
गण्डाभोगविलोलुपानलिगणान् कर्णाञ्चलैश्चालयन्।
यत्पादाम्बुरुहावलम्बशरणाः पूर्वे पुमांसस्त्रय-
स्त्रैलोक्यस्थितिसर्गसंहृतिविधौ निर्विघ्नसिद्धोद्यमाः॥१॥
अस्तु
कल्याणदं दिव्यं वस्तु नारीनरात्मकम्।
स्वोपज्ञं वाङ्मयं यस्य विहारगृहवेदिका॥२॥
वाणीं काणभुजीमजीगणदवासासीच्च वैयासिकी-
मन्तस्तन्त्रमरंस्त पन्नगगवी
गुम्फेषु चाजागरीत्।
वाचामाचकलद्रहस्यमखिलं यश्चाक्ष57पादस्फुरां
लोकेऽभूद्यदुपज्ञमेव विदुषां सौजन्यजन्यं यशः॥३॥
त्रिस्कन्धशास्त्रजलधिं
चुलुकीकुरुते स्म यः।
तस्य श्रीमल्लिनाथस्य तनयोऽजनि तादृशः॥४॥
यत्पादाब्जनमस्क्रियाः सुकृतिनां सारस्वतप्रक्रिया-
बीजन्यासभुवो भवन्ति कवितानाट्यैकजीवातवः॥१॥
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कोलचलपेद्दयार्यः प्रमाणपदवाक्यपारदृश्वा यः।
व्याख्यातनिखिलशास्त्रः प्रबन्धकर्त्ता च सर्वविद्यासु॥५॥
तस्यानुजन्मा
तदनुग्रहाप्त-
विद्योऽनवद्यो
विनयावनभ्रः।
स्वामी विपश्चिद्वितनोति टीकां
प्रतापरुद्रीयरहस्यभेदीम्॥६॥
पुण्यश्लोकगुणोक्तिशाणकषणा
दुत्तेजनां लम्भितं
संजग्राह रसादिर
त्ननिचयं विद्याधिनाथः पुरा।
सोऽहं तद्व्यवहारहेतुमधुना कंचित् करोम्यापणं
तत्रानुग्रहमूल्यतोऽभिलषितं
क्रीणन्तु धन्या जनाः॥७॥
यद्यन्निगूढमखिलं शक्त्या तत्तत् प्रकाश्यते।
नामूलं लिख्यते किंचिन्नानपेक्षितमुच्यते॥८॥
अथ
तत्रभवान् विद्यानाथनामा महाकविरलंकारशास्त्रमारभमाण
स्तस्याविघ्नपरिसमाप्तये प्रचयगमनाय
च’मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि शास्त्राणि प्रथन्ते’
इत्यादि भगवद्भाष्यकार
वचनम् ‘आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम्’
इत्याशीराद्यन्यतमस्य58 प्रबन्धमुखलक्षणत्वप्रतिपादकमाचार्यदण्डिवाक्यं
चप्रमाणयन् बृद्धाचारपरिप्राप्तं विशिष्टेष्टदेवता
नमस्कारलक्षणं
मङ्गलमन्तेवा
स्यनुग्रहायादौनिबध्नाति। विद्येति। विद्या
वेदवेदाङ्गादयः।
‘अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसान्यायविस्तरः।
पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश॥’
इति59 स्मरणात्। ता एव कैरवाणि कुमुदानि तेषां कौमुदीं चन्द्रिकां निखिलविद्योल्लासकारणभूतामित्यर्थः। श्रुतीनां शिरांस्युपनिषद60 एव शिरांसि मूर्धानः। तत्र सीमन्तमुक्तामणिं केशमार्गाभरणायमानां वेदान्तवेद्यामित्यर्थः। अथास्यालौकिकस्वरूपमाह। दारानिति। ‘दाराः पुंसि च61 भूम्न्येव62’ इत्यभिधानाद्बहुत्वं पुंस्त्वं च। त्र्यवयवो लोकस्त्रिलोकः। शाकपार्थिवादित्वान्मध्यमपदलोपी63 समासः। लोकत्रयसमुदायोऽत्र त्रिलोकशब्देन विवक्षितः। तस्य जननीमिति षष्ठीसमासः। अन्यथा ‘तद्धितार्थ—’ इत्यादिना समाहारसमासे अकारान्तोत्तरपदत्वेन स्त्रीत्वात् ‘द्विगोः’ इतीकारे त्रिलोकीति स्यात्। अत एव64 ‘द्विगोर्लुगनपत्ये’ इत्यत्र “त्र्यवयवा विद्या त्रिविद्या। तामधीते वेत्ति वा65 त्रैविद्यः। न तु तिस्रो विद्या अधीत इत्यण्प्रत्ययनिमित्तः ‘तद्धितार्थ— इत्यादिना समासः। अत एवाण्प्रत्ययस्य66 लुगभावः” इत्याह भगवान् भाष्यकारः। इत्थं नमस्कर्त्तव्यदेवताया वैशिष्ट्यमुक्त्वा स्वग्रन्थारम्भोपयोगित्वेनेष्टत्वं सूचयति67। यत्पादेति। पादावब्जे इवेत्युपमितसमासः। न तु पादावेवाब्जे इति रूपकसमासः। तथा सत्यब्जयोः प्राधान्येन तत्र68नमस्कारायोगात्। सारस्वतप्रक्रियाः काव्यनाटकादिवाङ्मयविशेषास्तासां बीजं कारणभूतः69 शक्तिप्रतिपाद्यापरपर्यायः संस्कारविशेषः। तदेव बीजमङ्कुरकारणं तस्य न्यासभुवः आवापभूमयः कवितानाट्यस्यैकजीवातवो मुख्यजीवनौषधानि अविच्छेदहेतव इत्यर्थः। अत्र70नमस्कारात् कविताकारणभूतः71 संस्कारो जायते संप्रदायाविच्छेदश्च भवतीति भावः। नमस्क्रिया इति बहुवचनं तासां भक्तिश्रद्धातिशयपूर्वकत्वं द्योतयति। तथाविधानामेव श्रेयस्करत्वात्। तथा च श्रुतिः—‘भूयिष्ठां ते नमउक्तिं विधेम’ इति। अत्रोपमारूपकविशेषाणां तिलतण्डुलवत् परस्परनैरपेक्ष्यात् संसृष्टिः। तदुन्नयनप्रकार72स्त्वलंकारप्रकरणे व्यक्तीभविष्यतीत्युपरम्यते। ग्रन्थादौ वायुबीजस्य वकारस्य क्षेमंकरस्य73 भूदेवताकस्य मगणस्य चोपादानाद्वर्णगणादिशुद्धिरस्त्येवेति सर्वमवदातम्॥१॥
पूर्वेभ्यो भामहादिभ्यः सादरं विहिताञ्जलिः।
वक्ष्ये सम्यगलंकारशास्त्रसर्वस्वसंग्रहम्॥२॥
चिरेण चरितार्थोऽभूत् काव्यालंकारसंग्रहः।
प्रतापरुद्रदेवस्य कीर्त्तिर्येन प्रकाश्यते॥३॥
रसप्रधानाः शब्दार्था गुणालंकारवृत्तयः।
रीतयश्चेयती शास्त्रप्रमेयं काव्यपद्धतिः॥४॥
यद्यप्यसौ प्रबन्धेषु प्राचां साधु निरूपिता।
तथाप्यस्याः समं नेतुर्नोदाहरणमादृतम्॥५॥
_____________________________________________________________
अथालंकारशास्त्रप्रणेतृप्रमाणपूर्वकं
वक्ष्यमाणमर्थंप्रतिजानीते। पूर्वेभ्य इति।
यद्यपि रसालंकाराद्यनेकविषयमिदं शास्त्रं तथापि छत्रिन्यायेनालंकारशास्त्रमुच्यते। तत्र सर्वस्वं रसादिप्रमेयं संगृह्यते संक्षिप्यते येनासावलंकारशास्त्रसर्वस्वसंग्रहः
प्रारिप्सितो
ग्रन्थस्तं सम्यग् विशदं वक्ष्य इति योजना। संक्षेपवैशद्याभ्यां रसादिसर्वप्रमेयप्रतिपादनात् सर्वोत्कृष्टः स्वग्रन्थ इति
सूचितं भवति॥२॥
संप्रत्यलंकारशास्त्रस्य लोकोत्तरवर्ण्यलाभेनोत्कर्षमाह।
चिरेणेति॥३॥
शास्त्रसर्वस्वसंग्रह इत्युक्तं तद्विभजते। रसेति। रसप्रधाना रसजीविता इत्यर्थः। यद्यपि वस्त्वलंकाररसात्मना त्रिविधस्यापि व्यङ्ग्यस्य जीवितत्वमुत्तरत्र वक्ष्यति तथापि
स्वात्ममात्रविश्रान्तत्वेन प्राधान्याद्रसस्यैव मुख्यं जीवितत्वम्। वस्त्वलंकार
व्यङ्ग्ययोस्तु
सर्वथारसपर्यवसानेनाप्राधान्यात् तदभावेऽपि वाच्यादुष्कृष्टत्व
साम्येनौपचारिको जीवितत्वव्यवहार इति न कश्चिद्विरोध इति ध्वनिलोचनरहस्यम्। गुणादयो वक्ष्यमाणलक्षणाः। अनुक्तसमुश्चयार्थश्चशब्दः शय्यापाकावाकर्षति ॥४॥
काव्यस्वरूपनिरूपणे सत्यप्युदाहरणार्हनायकनिरूपणाभावात् प्राचां प्रबन्धेष्वपकर्ष इत्याह। यद्यपीति। असौ काव्यपद्धतिः॥५॥
पुण्यश्लोकस्य चरितमुदाहरणमर्हति।
न कश्चित्तादृशः पूर्वैः प्रबन्धाभरणीकृतः॥६॥
प्रबन्धानां प्रबन्धृृणामपि कीर्त्तिप्रतिष्ठयोः।
मूलं विषयभूतस्य
नेतुर्गुणनिरूपणम्॥७॥
यथा रामगुणवर्णनं रामायणवल्मीकजन्मनोर्महाप्रतिष्ठा
कारणं
महापुरुष
वर्णनेन श्रेयस्करी प्रबन्धस्थितिः। यथा वेदशास्त्र
पुराणादेर्हितप्राप्तिरहितनिवृत्तिश्च तथा सदाश्रयात् काव्यादपि।
इयान् विशेषः।
काव्यात् कर्त्तव्यताधीः सरसान्यत्र
न तथा। तथा हि
यद्वेदात्
प्रभुसंमितादधिगतं शब्दप्रधानाच्चिरं
यच्चार्थप्रवणात् पुराणवचनादिष्टं सुहृत्संमितात्।
_____________________________________________________________
अत एव
प्रबन्धृृणामप्यपकर्ष इत्याह पुण्येति। चरितोदाहरणे कर्तृकर्मणी॥६॥
तन्निरूपणे तु महानुभयेषामुत्कर्ष इत्याह। प्रबन्धानामिति। प्रबन्धृृणां प्रवन्धकर्त्तॄणाम्॥७॥
तत्र दृष्टान्तमाह। यथा रामेति। उत्तमगुणवर्णनेनैव प्रबन्धनिर्माणमनेकश्रेयोहेतुरित्याह।
महापुरुषेति।
अतउत्तमगुणवर्णनमवश्यकर्त्तव्यमिति भावः। अथ स्वाग्रन्थ
प्रतिपाद्यस्य वेदादिवत् पुरुषार्थपर्यवसायितामाह।
यथेति। सन्नुत्तमनायक आश्रयो
वर्ण्यत्वेन यस्य तस्मात्। अभ्युच्चयमाह। इयानिति। उक्तमर्थमुपपादयति तथा हीत्यादिना। प्रत्यक्षाद्यविषयमिष्टप्राप्त्युपायं ज्योतिष्टोमादिकमनिष्टपरिहारोपायं
कलञ्जभक्षणवर्जनादिकं
च येन विदन्ति स वेदः। तदुक्तम्-
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न
बुध्यते।
एन74ं विदन्ति वेदेन तस्माद्वेदस्य वेदता’
कान्तासंमितया यया सरसतामापाद्य काव्यश्रिया
कर्त्तव्ये कुतुकी बुधो विरचितस्तस्यै स्पृहां कुर्महे॥८॥
ततः काव्यं दृष्टादृष्टफलजनकतया
बहूपयुक्तम्।
तथा चोक्तं काव्यप्रकाशे
काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परनिर्वृत्तये कान्तासंमिततयोपदेश
युजे॥
प्रसिद्धं चैतन्महाप्रबन्धेषु
परिव
ड्ढइविण्णाणं संभाविज्जइ जसो विसप्पंति गुणाः।
सुब्बइ
सुपुरुसचरिअं किं
तज्जेणण हरंति
कव्वालावा॥
यत्र
पुनरुत्तमपुरुषचरितं न निबध्यते
_____________________________________________________________
इति। तस्मात् प्रभुसंमिताद्राज
तुल्यात्। कुतः। शब्दप्रधानात् वाङ्मात्रेण प्रभुरिव वेदोऽपि विधिनिषेधबलेन पुंसां प्रवर्त्तको निवर्त्तकश्च । प्रभुर्विपक्षे दण्डयति वेदस्तु प्रत्यवायं जनयतीति
शब्दप्रधानत्वमिति भावः। प्रत्यवायजनकत्वं च वेदस्य स्वरवर्णयोरन्यथोच्चारणेऽपि दुरितश्रवणादन्यथानुष्ठानेऽननुष्ठाने वा कैमुति
कन्याय
सिद्धम्। अध्ययनविधेः फलवदर्थावबोधपर्यन्तत्वादिति वेदितव्यम्। चिरं
मीमांसापेक्षया कृच्छ्रेणेत्यर्थः। यत् कर्त्तव्याकर्त्तव्यरूपमधिगतं प्रमितम्। अर्थप्रवणादर्थवाद
बहुलत्वेनार्थप्रधानात्। पुराणादिकं न वेदवदेवं कुर्यान्नैवं कुर्यादिति
प्रवर्त्तकं निवर्त्तकं वा विधिनिषेधवलेन किं तु तन्न्यक्कारेण पूर्वपुरुषचरितस्तुतिनिन्दामुखेन रागद्वेषावु
त्पाद्य मित्रवत् प्रवृत्तिनिवृत्तिहेतुभूतमतोऽस्यार्थप्रधानत्वमित्यवगन्तव्यम्। अतः सुहृत्संमितात् पुराणवचनाच्च यदि-
ष्टमभिरुचितं तस्मिन्नित्यध्याह्रियते। यत्तदोर्नित्यसंबन्धात्। कान्ता
संमितया यया। कवयते वर्णयतीति कविः। तस्य कर्म काव्यम्। ब्राह्मणादित्वात् ष्यञ्प्रत्ययः। तच्च पङ्कजादिवद्रूढत्वाद्रसोल्लसितशब्दार्थ
संघटनात्मकमेव न कर्ममात्रम्। तस्य श्रिया विलासेन।
सरसतामापाद्य उत्कण्ठाजननेनाभिमुखीकृत्येत्यर्थः। कर्त्तव्ये गुर्वाज्ञाकरणादौ। बुधो विद्वान् न तु पामरः। कुतुकी रागवान् विरचितः। उभयत्राप्यकारप्रश्लेषादकर्त्तव्ये परदारहरणादावकुतुकी द्वेषवांश्चेति लभ्यते। यथा कामिनी कटाक्षवीक्षणादिविलासैरेव कामिनमावर्जयन्ती ममेदमभिलषितं कुरु
अनभिलषितं मा कुर्वित्यनुक्त्वैव सर्वंसंपादयति तथा काव्यश्रीरपि
व्यज्जनव्यापारमात्रपरत्वेनोपसर्जनीभूतशब्दार्थतया शब्दार्थप्रधानाभ्यां प्रभुसुहृत्संमिताभ्यां वेदपुराणाभ्यां विलक्षणा सती सहृदयहृदयाल्हादकारिणा
व्यञ्जनव्यापारेणैव रामादिवद्वर्त्तितव्यं न तु रावणादिवदिति पुंसः कर्त्तव्ये प्रवर्त्तयति निवर्त्तयति चाकर्त्तव्यादित्यस्याः कान्तासंमितत्वमवगन्तव्यम्।
एतेनास्याः सरसतापादनेन प्रवर्त्तकत्वाद् भयानुनयपुरस्सरं प्रवर्त्तकाभ्यां वेदपुराणाभ्यां विशेषो विवक्षित इति
बोद्धव्यम्। अतस्तल्लक्षणाय प्रयतामह इत्याह।
तस्यै स्पृहां कुर्मह इति। ‘स्पृहेरीप्सितः’ इति संप्रदानत्वाच्चतुर्थी। एतेन पुरुषार्थोपदेशः काव्यस्य प्रयोजनं तद्युक्तं काव्यं विषयस्तज्ज्ञानं प्रयोजनमुभयोः साध्यसाधनभावः संबन्धो जिज्ञासुरधिकारी
त्यनुबन्धचतुष्टयं सूचितम्॥८॥
न
ह्युक्तविशेष एवात्र प्रयोजनं किं तु कीर्त्त्यादिकमपि संभवतीत्याह। तत इति। ततः सप्रयोजनत्वात् बहुप्रयोजनसाधनत्वादुपादेयमिति भावः। अत्र बृद्धसंवादमाह।
तच्चोक्तमित्यादिना। कृद्विद्युजशब्दाः भावे
सपंदादित्वात् क्विवन्ताः। अत्र यशोऽर्थानर्थप्रतीकाराः द्वयोरपि। व्यवहारोपदेशौ तु सहृदयस्यैव। निवृतिकाले कविरपि सहृदय एवेति निवृतिर्द्वयोरपि॥
परिड्ढईति।
परिवर्धते विज्ञानं संभाव्यते
यशो विसर्पन्ति गुणाः।
श्रूयते
सुपुरुषचरितं किं तद्येन न हरन्ति काव्यालापाः॥
तत्
परित्याज्यमेव।
तन्मूला
चेयंस्मृतिः
काव्यालापांश्च वर्जयेदिति। न केवलं
काव्यजातस्यायं पन्थाः
शास्त्रजातस्यापि
तदाश्रयत्वेन महान्
लाकादरः।
तथा हि। वैशेषिकादेरीश्वरप्रतिष्ठापकतया
जगत्पूज्यता।
महाभारतादीनामपि
महापुरुषगुणवर्णनपरतयैव विश्वातिशायित्वम्। किं बहुना। वेदान्ता अपि
ब्रह्मप्रतिपादकतयैव परमुकृष्यन्ते।
_____________________________________________________________
न हरन्तीत्यत्र मन इति शेषः।
विडप्पन्ति गुणाः। ‘अर्जेर्विडप्पः’ इति कर्मणि विडप्पादेश इति
त्रिविक्रमभोज
राजौ। किं बहुना। चतुर्वर्गव्युत्पत्तिरप्यत्रैव भवतीति भावः। तथापि परनिवृतिरेवेह मुख्यं फलमिति रहस्यम्। अन्यथा काव्यस्य कान्तासंमितत्वविशेषो न
स्यात्। तदुक्तं लोचने। चतुर्वर्गव्युत्पत्तेरपि चानन्द एव
पार्यन्तिकं मुख्यं फलमिति। ननु
‘काव्यालापांश्च वर्जयेत्’ इति निषेधाद्विफलोऽयं प्रयास इत्याशङ्क्य स्मृतेरन्यविषयत्वमाह। यत्र पुनरिति। अन्यथा रामायणादेरपि हेयत्वप्रसंगादिति भावः। काव्ये कैमुतिकन्यायेनोत्तमपुरुषवर्णनस्यावश्यकत्वं प्रतिपादयितुं शास्त्रजातस्यापि तत्परत्वमाह। न केवलमित्यादिना। ईश्वरप्रतिष्ठापकतयेति। अङ्कुरादिकं सकर्त्तृकम्। कार्यत्वात्। घटवत्। इत्यादिप्रमाणैरिति भावः। अत्र ’ कर्त्तरिच’ इति निषेधात् ‘याजकादिभिश्च’ इति षष्ठीसमासो द्रष्टव्यः। तस्याकृतिगणत्वात्। यद्वा शेषषष्ठीसमासः। तस्यैतन्निषेधाभावात्। एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम्। भारतादीनामपि
शासनत्वाच्छास्त्रत्वेन निर्देशः। ननु चिदेकरसतया
निर्धर्मकस्य ब्रह्मणः प्रतिपादकेषु वेदान्तेषु गुणवत्पुरुषवर्णनं नास्तीति चेन्नैष दोषः। ब्रह्मण्यानन्दादी-
‘अथातो
धर्मजिज्ञासा’ इत्युपक्रममाणेन सूत्रकृता महर्षिणापि पुरु-
_____________________________________________________________
नामौपाधिकानां
विद्यमानत्वात्। तदुक्तं पञ्चपादिकायान्। ‘आनन्दो विषयानुभवो नित्यत्वं चेति
तद्धर्माः’ इति। अथवा
सच्चिदानन्दस्य ब्रह्मणो निर्गुणस्यापि निर्दोषत्वमेव गुणः।
यथाह माघः। ‘अपदोषतैव विगुणस्य गुणः’ इति। तदेतदभिप्रेत्याह। किं बहुनेति। न चेदं माघवचनमब्रह्मपरमिति वचनीयम्। तथा हि
'
अविभाव्यतारकमदृष्टहिम-
द्युतिबिम्बमस्तमितभानु नभः।
अवसन्नतापमतमिस्रमभा-
दपदोषतैव विगुणस्य गुणः॥’
इति।
अत्र प्राकरणिकसन्ध्यानभःप्रतिपादनात् प्रतीयमानस्याप्राकरणिकस्य ‘न तत्र सूर्यो भाति न
चन्द्रतारकम्’, ‘को मोहः कः शोकः’ इत्याद्यु
पनिषदर्थसनाथस्याकाशपर्यायनभःशब्दार्थस्य
ब्रह्मणोऽर्थान्तरन्यासेन निर्गुणस्य निर्दोषत्वमेव गुण इति विवक्षितत्वात्। पदार्थविवेचनप्रपञ्चः पुनरस्मन्महोपाध्याय
विरचितमाघव्याख्याने सर्वकषाख्याने द्रष्टव्यः।
निरीश्वरवादिनामपि मीमांसकानां गुणधौरेयधर्मप्रतिपादनादेव गुणवत्पुरुषवर्णनपर्यवसायित्वमित्याह। अथात इति। अथ वेदाध्ययनानन्तरम्। अतो वेदस्य विवक्षितार्थत्वाद् धर्मस्य जिज्ञासा कर्त्तव्येति
संक्षेपतः सूत्रार्थः। महर्षिणा जैमिनिनेति शेषः। धर्मो नाम श्रेयःसाधनभूतो यागादिरेव नापूर्वमात्मनिष्ठम्। तदुक्तम्।
‘श्रेयःसाधनता यत्र द्रव्यादौ
विधितो भवेत्।
तस्यैव धर्मता ज्ञेया धर्मस्तत्साधनं यतः॥’
षाश्रितस्य
गुणश्रेष्ठस्य धर्मस्य
जिज्ञासाद्वारा
महापुरुषगुणवर्णनमेव
शास्त्रप्राणा इत्युररीकृतम्। तत्तन्न्यायनिरूपणपरस्यापि प्रबन्धराशे
र्महापुरुषगुणवर्णनं हेम्नः परमामोदः।
अतश्च
प्रतापरुद्रदेवस्य गुणानाश्रित्य निर्मितः।
अलंकारप्रबन्धोऽयं सन्तः कर्णोत्सवोऽस्तु वः॥९॥
काकतीयनरेन्द्रस्य यशो
भूषयितुं कृता।
विद्यानाथकृतिश्चेयं स्वयं तेन विभूष्यते ॥१०॥
_____________________________________________________________
इति। ‘अपूर्वं च यागादेरवान्तरव्यापारः शक्तिर्वा’ इति
भाट्टः। तन्मताश्रयणे धर्मस्यापूर्वद्वारा
पुरुषाश्रितत्वं गुणत्वं चौपचारिकम्। प्राभाकरास्तु यागादि
व्यतिरिक्तं स्थिरकार्यं लिङ्गादिवाच्यमपूर्वमेव
धर्म इति प्रतिपेदिरे। तन्मते पुनस्तस्यात्मनिष्ठत्वं
गुणत्वं च संप्रतिपन्नमेवेति सुष्टूक्तं
पुरुषाश्रितस्य
गुणश्रेष्ठस्येति। उररीकृतमङ्गीकृतम्। नन्वेतच्छास्त्रं न्यायनिरूपणपरं न पुरुषगुणवर्णनपरमित्याशङ्क्य तस्यापि पुरुषगुणधर्मनिरूपणार्थत्वात् तत्रैव पर्यवसानमन्यथा वैफल्यमित्याशयेनाह। तत्तन्न्यायेति।
उक्तमर्थमुपसंहरन् स्वग्रन्थस्य विद्वत्परिग्रहमाशास्ते।
अतश्चेति। वर्ण्यप्रबन्धयोरुभयोरुत्कृष्टत्वादन्योन्यमुपस्कार्योपस्कारकभाव इत्याह। काकतीयेति। काकतिर्नाम दुर्गाशक्तिरेकशिलानगरेश्वराणां कुलदेवता सा
शक्तिर्भजनीयास्येति काकतीयः। ‘वृद्धाच्छः’ इति शैषिकच्छप्रत्ययः।
अत्रप्रबन्धमहिम्ना वर्ण्योपस्कारे
बृद्धसंवादमाह।
तदुक्तं दण्डिनेति। अत्र
बिम्बशब्दः कर्त्तृवाची। वाङ्मयादर्शः कर्म। अत्र नलनहुषाद्य
संनिधानेऽपि तद्यशोबिम्बप्रतिष्ठाया वाङ्मयादर्शाधीनत्वोक्तेः प्रबन्धमहिम्ना प्रतिपाद्योत्कर्षं इति भावः। केषुचित् कोशेष्वेतत् पद्यं प्रतिपाद्यमहिम्ना प्रबन्धो-
दण्डिनापि प्रतिपादितम्।
‘आदिराजयशोबिम्बमादर्शे प्राप्य वाङ्मयम्।
तेषामसंनिधानेऽपि न स्वयं पश्य नश्यति ॥’
सूक्तैव प्रतिपाद्यमहिम्ना प्रबन्धमहत्ता। तदुक्तं प्राचा भामहेन।
'
उपश्लोक्यस्य माहात्म्यादुज्ज्वलाः75 काव्यसंपदः।
इति। प्रतिपादितं
चोद्भटेन।
‘गुणालंकारचारुत्वयुक्तमप्यधिकोज्ज्वलम्।
काव्यमाश्रयसंपत्त्या मेरुणेवामरद्रुमः॥
इति।
रुद्रभट्टेनापि कथितम्। ‘उदारचरितनिबन्धना प्रबन्धप्रतिष्ठा’ इति। प्रपञ्चितं
च साहित्यमीमांसायाम्। ‘नायकगुणग्रथिताः सूक्तिस्रजः
सुकृतिनामाकल्पमाकल्पन्ति’ इति।
निरूपितं च भोजराजेन।
‘कवेरल्पापि वाग्वृत्तिर्विद्वत्कर्णावतंसति।
नायको यदि वर्ण्येत लोकोत्तर
गुणोत्तरः॥’
इति।
तत्रैते नायकगुणाः।
_____________________________________________________________
त्कर्षपरग्रन्थमध्ये लेखकदोषाल्लिखितं तत्तु’गौर्गौः
कामदुधा सद्भिः’
इत्येतत्पद्यपूर्वोत्तरश्लोकपर्यालोचनयास्मदुक्तार्थावधारणादुपेक्षणीयम्। अथ वर्ण्यमहिम्ना प्रबन्धोपस्कारे
भामहादिसंवादमाह।
सूक्तैवेत्यादिना। नायकेति। नायको रामादिस्तरलश्च। गुणाः शौर्यादयस्तन्तवश्च। आकल्पवदाचरन्ति आकल्पन्ति। ‘सर्वप्रातिपदिकेभ्यः क्विब्वा वक्तव्यः’ इति क्विप्। अनेन कर्णावतंसतिर्व्याख्यातः। एवमवश्यं लोकोत्तरगुणो नायकः काव्ये
वर्ण्य इत्युक्तम्। ते गुणाः क इत्याकाङ्-
महाकुलीनतौज्ज्वल्यं महाभाग्यमुदारता।
तेजस्विता
विदग्धत्वं धार्मिकत्वादयो
गुणाः॥११॥
पूर्वशास्त्रानुसारेण कतिचित् कथिता इमे।
प्रतापरुद्रदेवस्य गुणा वाचामगोचराः॥१२॥
अथैतेषां स्वरूपमुदाहरणं च।
तत्र
महाकुलीनता नाम कुले महति संभवः।
** यथा**
तादृङ्मध्यमलोकभाग्यविभवादिन्द्रादिवृन्दारकैः
क्षोण्यां क्रीडितुमिच्छुभिश्चिरतरं संप्रार्थितः पद्मभूः।
अत्यर्केन्दुकुल
प्रशस्तिमसृजद्यं काकतीयान्वयं
तस्मिन् संप्रति वीररुद्रवपुषा जागर्त्ति लक्ष्मीपतिः॥१३॥
** अथौज्ज्वल्यम्।**
रूपसंपन्नदेहत्वमौज्ज्वल्यं परिकीर्त्त्यते।
** यथा**
मुरारेर्यः पूर्वे जलनिधिसुतायामुदभव-
न्महादेवाज्जातः स पुनरवनीभृद्दुहितरि।
_____________________________________________________________
क्षायां पूर्वशास्त्रानुसारेण कतिचन गुणान्
गणयति।
तत्रेत्यादिना। अथैतेषां यथोद्देशक्रमं लक्षणोदाहरणे प्रदर्शयति। महाकुलीनतेत्यादिना। ‘महाकुलादञ्खञौ’। इत्यत्रान्यतरस्यांग्रहणानुवृत्त्या खञ्प्रत्ययः॥११ । १२॥
उदाहरति। तादृगिति। अत्र भूलोकस्य स्वर्गातिशायि वैभवं काकतीयनरेद्राणामिन्द्रादिसादृश्यं च व्यज्यते॥१३॥
औज्ज्वल्यमाह। रूपेति। कुण्डलमुक्ताहारनूपुराङ्गदादिचतुर्विधभूषणाभावेऽपि भूषितवदवभासमान आकारविशेषो रूपम्। तदुक्तं भावप्रकाशे।
‘आवेध्यारोप्य
विक्षेप्यबन्धनीयैरभूषितम्।
यद् भूषितमिवाभाति तद्रूपमिति कथ्यते॥’
वपुष्मान् कामोऽयं जयति जगतीभाग्य
विभवैः
प्रतापश्रीरुद्रः स्वयमिति मनीषा मृगदृशाम्॥१४॥
अथ महा
भाग्यम्।
विश्वंभराधिपत्यं यत्तन्महाभाग्यमुच्यते॥
यथा
सेवानम्रनरेन्द्रमौलि
विलसद्रत्नांशुनीराजितं
राज्यश्रीप्रथमावतारपदवीमारुह्य सिंहासनम्।
क्षोणीं रक्षति विक्रमैरनुपमैः प्रत्यर्थिपृथ्वीपति-
श्लाघालङ्घनजाङ्घिकैर्गुणनिधिः श्रीवीररुद्रो नृपः ॥१५॥
अथौदार्यम् !
यद्विश्राणनताच्छील्यमौदार्यंतन्निगद्यते।
यथा
_____________________________________________________________
इति। उदाहरति। मुरारेरिति। महादेवान्महादेवनामकान्महाराजात्। अवनीभृद्दुहितरि राजपुत्र्याम्। ईश्वरात्
पार्वत्यामिति च ध्वन्यते। अत्र मदनत्वोप्रेक्षया रूपसंपत्तिरुक्ता॥१४॥
महाभाग्यमाह। विश्वंभरेति। विश्वं बिभर्त्तीति विश्वंभरा। ‘संज्ञायां भृतॄवृजि
—’ इत्यादिना खश्प्रत्यये मुमागमः। तस्या आधिपत्यं सार्वभौमत्वामित्यर्थः। उदाहरति। सेवेति।
प्रथमोऽवतारोऽवतरणम्। ‘अवे तॄस्त्रोर्घञ्
’ इत्यत्र प्रायेणग्रहणानुवृत्तेरसंज्ञायामपि घञ्प्रत्ययः। तस्य पदवीं सिंहासनस्य राज्यलक्ष्मीप्रथमचिह्नत्वादिति भावः। प्रत्यर्थिपृथ्वीपतीनां श्लाघाया उत्कर्षस्य लङ्घने। जङ्घया चरन्तीति जाङ्घिकाः शीघ्रगामिनः। ‘चरति’ इति ठक्। दुष्टनिग्रहशिष्ट
परिपालनाभ्यामखिलक्षोणीसंरक्षणादस्य महाभाग्यम्॥
वदान्यो नान्योऽस्ति त्रिजगति समो रुद्रनृपते-
र्गुणश्रेणीश्लाघा
पिहितहरिदीशान
यशसः।
समन्तादुद्भूतैर्द्विरद
मदगन्धैः सुरभयः
क्रियन्ते तद्विद्वज्जन
मणिगृह
प्राङ्गणभुवः॥१६॥
अथ तेजस्विता।
जगत्प्रकाशकत्वं यत्तेजस्वित्वं तदुच्यते।
यथा
सदा तेजोभानौ स्फुरति जयिनः काकतिविभो-
ररिक्ष्माभृत्कान्ताचिकुरतिमिराहंकृतिमुषि।
प्रकाशव्युत्पत्तिर्भवति जरदुद्दामतमसा-
मसूर्यंपश्यानामवधिगिरिपाश्चात्यदृषदाम्॥१७॥
अथ
वैदग्ध्यम्।
——————————————————————————————————
औदार्यमाह। यदिति। तच्छीलस्य भावस्ताच्छील्यम्। विश्राणने ताच्छील्यमिति शिवभागवतवत् समासः।
उदाहरति। वदान्य इति। त्रयाणां जगतां समाहारस्त्रिजगदिति ‘तद्धितार्थ—’ इत्यादिना द्विगुः। गुणश्रेणीश्लाघया गुणोत्कर्षेण पिहितं तिरस्कृतं हरिदीशानानां दिक्पतीनां यशो येन तस्य। अग्र
समृद्धवस्तुवर्णनादुदात्तालंकारः॥१६॥
तेजस्वित्वमाह। जगदिति। उदाहरति। सदेति। जयिनो जयशीलस्य।काकतिदेवतोपासको विभुः काकतिविभुः।
मध्यमपदलोपी समासः। अरिक्ष्माभृत्कान्ताचिकुराः शत्रुराजस्त्रीकुन्तला एवतिमिरं तस्याहंकृतिमुषि गर्वनिर्वापके। प्रियवियोजनेन तन्निवर्त्तकत्वादिति भावः। तेजोभानौ सदा न दिवैव स्फुरति सतीति
भावलक्षणा सप्तमी। जरन्ति
जीर्णानि प्रकाशविरहाद् घनीभूतानीत्यर्थः। ‘जीर्यतेरतृन्’ इति भूते अतृन्प्रत्ययः। तान्युद्दामानि
बहुलानितमांसि यासां तासां तथोक्तानाम्। न सूर्यंपश्यन्तीत्यसूर्यंपश्याः। ‘असूर्यलला-
कृत्यवस्तुषु चातुर्यंवैदग्ध्यं परिकीर्त्त्यते76।
यथा
चातुर्यंकिमु वर्ण्यते गुणनिधेः श्रीवीररुद्रप्रभो-
र्यत्रान्योन्यविरुद्धयोरपि महद्वाणीश्रियारोजर्वम्।
_____________________________________________________________
टयोर्दृशितपोः’ इति खश्प्रत्ययः। ‘अरुर्द्विषत्—’ इत्यादिना मुमागमः। ‘उपपदमतिङ्’ इति समासः। अत्र नञः सूर्यकर्मिकया दृशिक्रियया संबन्धो न तु सूर्यस्थया सत्तया। अतोऽसूर्यमित्यसमर्थसमासः। तथापि साधुरेव। यदाह भगवान् भाष्यकारः। ‘अवश्यं कस्यचिन्नञ्समासस्यासमर्थस्य गमकस्य साधुत्वं वक्तव्यमसूर्यंपश्यानि मुखानीति’। तासामवधिगिरेः लोकालोकपर्वतस्य पाश्चात्यदृपदामप्रकाशप्रदेशवर्त्त्युपलानां प्रकाशव्युत्पत्तिः प्रकाशज्ञानम्। यद्वा। अयं प्रकाशशब्दवाच्य इति शृङ्गग्राहिकया
संग्रहः। अत्र सूर्यप्रकाशरहितयो
रपि देशकालयोरतिवेलप्रकाशजननाल्लोकोत्तरमस्य तेजस्वित्वमिति भावः॥१७॥
वैदग्ध्यमाह। कृत्येति। कृत्यवस्तुषु कर्त्तव्यार्थेषु चातुर्ये प्रयोगकौशलम्। उदाहरति। चातुर्यमिति। यत्र विद्या न तत्र श्रीर्यत्र श्रीर्नसरस्वतीति न्यायेनान्योन्यविरुद्धयोरपि वाणीश्रियोर्यत्र वीररुद्रे महदार्जवं सौहार्दमेकत्रावस्थानमिति यावत्। अस्तीति गम्यते। अस्तिर्भवन्तिपरोऽप्रयुज्यमानोऽप्यस्तीति
महाभाष्यकारवचनात्। उक्तन्यायस्तु वीररुद्रव्यतिरिक्तनिर्गुणभूपालविषय इत्यर्थः। आभ्यां श्रीवाणीभ्याम्। सहेति शेषः। अत्र सहादिशब्दाप्रयोगेऽपि तदर्थगम्यतायां ‘वृद्धो यूना’ इति
ज्ञापनात् तृतीया। सदृशैः स्वस्वशीलोचितैरुपचारैः प्रियाचरितसत्कारविशेषैर्ललितां हृष्टामित्यर्थः।
तदुक्तं भावप्रकाशे।
‘उपचारो यथासत्त्वं स्त्रीणामल्पोऽपि हर्षदः।
महानप्यन्यथायुक्तो नैव तुष्टिकरो भवेत्॥’
इति। उपचारलक्षणमपि तत्रैव।
‘वासोऽङ्गरागाभरणमाल्यशय्यासनादिषु।
यत्र यत्र स्पृहा तत्तद्देशकालानुकूल्यतः॥
अत्यादरेण सत्कार उपचार इतीरितः॥’
** **इति। आभ्यामित्यत्राप्रधाने तृतीयाविधानेऽपि श्रीवाण्योः शाब्द एवोपसर्जन-
किं चाभ्यां सदृशोपचार
ललितां तत्तादृशैरुत्सवै-
र्निःसापत्न्यमिमां
भुवं स नृपतिर्धत्ते दिशां जित्वरः॥१८॥
अथ धार्मिकत्वम्।
धर्मैकायत्त
चित्तत्वं
धार्मिकत्वमुदीर्यते।
यथा।
परिहासेऽप्यनौचित्यं स्वप्नेऽप्यन्यवधूकथाम्।
शत्रावप्यगुणारोपं काकतीन्द्रो न मृष्यति ॥१९॥
आदिग्रहणान्महामहिमत्व
पाण्डित्यप्रभृतयः।
तन्महामहिमत्वं स्याद्या पुनर्देवतात्मता।
यथा
कौसल्यासीत् प्रथमजननी देवकी च द्वितीया
विष्णोर्माता तदनुमहिता
मुन्मुडी वा तृतीया।
_____________________________________________________________
भावो न त्वार्थः। सह शाखया प्रस्तरं प्रहरतीत्यत्र प्रहरणे शाखाप्रस्तरयोरिव तयोर्भुवश्च समप्रधानभावोपपत्तेः। अन्यथानौचित्यादिति रहस्यम्। अतस्तिस्रोपि सदृशोपचारसंतुष्टा इति भावः। तां भुवम्। स नृपतिः। तत्तादृशशब्दयोः स्वरूपप्रकारस्मारकयोः खञ्जकुब्जादिवद्विशेषणसमासः। वक्तुमशक्यैरित्यर्थः। उत्सवैः हर्षोत्पादकव्यापारैः। ‘उत्सूते हर्षमित्येष उत्सवः
परिकीर्त्तितः’ इति तत्रैवोक्तेः। मिथो विरुद्धानामेतासामन्योन्यानुरा
गजननेन वशीकरणाद्वैदग्ध्यमुक्तम्। वितरणविद्वद्गोष्टीप्रजारञ्जनादिभिः '
श्रीवाण्यौ धरणीं च
निर्विरोधं पोषयतीति77 भावः ॥१८॥
धार्मिकत्वमाह। धर्मेति। धर्मे चरत्यासेवत इति धार्मिकः। सकृत्कृतधर्मो न धार्मिकः’ इति वृत्तिकारः। तस्य भावस्तत्त्वम्। उदाहरति। परिहास इति। अनौचित्यमन्यद्रव्यव्याभिलाषानृतभाषणादिहेतुकमित्यर्थः। परिहासादावप्यनौचित्यादिकमसहमानस्य धार्मिकत्वं किमु वक्तव्यमिति भावः॥१९॥
यस्त्रेतायां रघुपतिरभूद् द्वापरे शौरिरासीत्
त्रातुं क्षोणीं स जयति कलौ वीररुद्रावतारः॥२०॥
अत्र गरुडध्वजात्मकतया महामहिम
तोक्ता।
पाण्डित्यम्।
सर्वविद्याधिकत्वं यत् पाण्डित्यं तदुदाहृतम्।
यथा।
गोष्ठीभिः परितोषयन् बुधगणान् षड्दर्शनीसीमभिः
सत्सारस्वतमार्गदर्शन80चणैः सूक्तैः कवीन् प्रीणयन्।
संगीतोपनिषद्रहस्यपिशुनैरातोद्ययोग्यक्रमै81-
र्धिन्वन् संसदि वैणिकान् विहरते82 श्रीकाकतीन्द्रो नृपः॥२१॥
_____________________________________________________________
आदि83ग्रहणसंगृहीतेषु महामहिमत्वमाह। तदिति। उदाहरति। कौसल्येति। कोसलस्यापत्यं स्त्री कौसल्या ‘वृद्धेत्कोसलाजादाञ्ञ्यङ्
’ इति ञ्यङ्प्रत्यये टाप्। तद्देवकीत्वमनु पश्चाद् देवकीत्वानन्तरमित्यर्थः। ‘अनुर्लक्षणे’ इति कर्मप्रवचनीयत्वात् तद्योगे84 द्वितीया। महिता पूज्यमाना। ‘मतिबुद्धि—’ इत्यादिना वर्त्तमाने क्तः। अत्र विष्ण्वतारत्वेन देवतात्मकत्वान्महामहिमत्वम् ॥ २०॥
पाण्डित्यमाह। सर्वेति। उदाहरति। गोष्ठीभिरिति। षण्णां दर्शनानां पाणिन्यादिप्रस्थानानां समाहारः षड्दर्शनी।
‘पाणिनेर्जैमिनेश्चैव व्यासस्य कपिलस्य च।
कणादस्याक्षपादस्य85 दर्शनानि षडेव86 हि॥
इत्याहुः87। द्विगुत्वाद् ङीप्। सा सीमा गोचरो यासां ताभिस्तयोक्ताभिर्गोष्ठीभिः शास्त्रप्रसङ्गैः। सत्सारस्वतमार्गस्य सत्कवितामार्गस्य दर्शनं प्रकाशनम्। दृशेर्ण्यन्ताल्ल्युट्। तेन वित्तैस्तच्चणैः। ‘तेन वित्तश्चुञ्चुप्चणपौ’ इति चणप्प्रत्ययः। संगीतोपनिषद्रहस्यपिशुनैर्नाट्यवेदमर्मोद्घाटकैः। आतोद्ययोग्यक्रमैस्ततादिचतु-
अथ नायक
गुणनिरूपणानन्तरं
नायकस्वरूपं
निरूप्यते।
यशःप्रतापसुभगो धर्मकामार्थतत्परः।
धुरंधरो गुणाढ्यश्च नायकः
परिकीर्त्तितः॥२२॥
यशःप्रतापाभ्यां सुभगत्वं यथा।
धर्मालम्बसमुच्छ्रितां त्रिभुवनस्यैकातपत्रश्रियं
धत्ते काकतिवीररुद्रनृपतेः स्फारं यशोमण्डलम्।
_____________________________________________________________
र्विध
वाद्योचितपरिपाटीभिः। वीणा शिल्पमेषां वैणिकाः। तान् धिन्वन् प्रीणयन्। अत्र विभोः सर्वविद्याविशारदत्वाद
खण्डं पाण्डित्यमिति भावः। प्रभृतिग्रहणाद्विनीतत्वादयो ये दशरूपकोक्तास्ते तत्रैव द्रष्टव्याः। यथासंभवमेते स्त्रीपुंससाधारणा गुणाः पुरुषमात्रनियतास्त्वन्येऽपि शोभादयः। तदुक्तम्।
‘शोभा विलासो माधुर्यंगाम्भीर्यं स्थैर्यतेजसी।
ललितौदार्यमित्यष्टौ सात्त्विकाः पौरुषा गुणाः।’ इति॥२१॥
तेऽपि तत्रैव द्रष्टव्या इत्युपेक्ष्य नायकलक्षणं प्रतिजानीते। अथेति। लक्षयति। यश इति। गुणैः पूर्वोक्तैः साधारणैर्महाकुलीनतादिभि
रसाधारणैः शोभादिभिश्चाढ्य इत्येतावदेव सामान्यलक्षणम्। नयति प्राप्नोति वृत्तं फलं चेति नायक इति व्युत्पत्या प्रबन्धव्यापी फलवानित्यपि विशेषो द्रष्टव्यः। चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थ
स्सन्नुत्तममध्यमाधमभेदेन त्रिविधो नायक इतीमं विभा
गमाकर्षति। तेनोक्तसकलगुणसंपन्नः प्रबन्धव्यापिफलशिरस्कव्यापार उत्तमः। कतिपयगुणहीनो मध्यमः। बहुगुणहीनोऽधम इति विवेकः। अत्र धार्मिकत्वादय इत्यादिग्रहणसंगृहीतानां यशःप्रतापादीनां गुणाढ्यपदेनैवोपात्तानामपि पुनरुपादानमेतेषां सर्वेष्वपि नायकेष्वावश्यकत्वमभिव्यञ्जयितुमिति रहस्यम्। सत्समाख्या यशः। कोशदण्डजं तेजः प्रतापः। धर्मादयः प्रसिद्धाः। धूरेव धुरा। ‘टाबन्तत्वं हलन्तानाम्’ इति वचनाट्टाप्। तां धारयतीति धुरन्धरः। ‘संज्ञायां भृतॄवृजि—’ इत्यादिना खश्प्रत्ययः। '
खित्यनव्ययस्य’ इति ह्रस्वः। ‘अरुर्द्विषद्—’ इत्यादिना
मुमागमः ॥२२॥
तत्र यथायोगमुदाहरति। धर्मेति। धर्म एवालम्बो दण्डस्तस्मिन् समुच्छ्रितां विस्तारिताम्। त्रिभुवनस्येति समाहारद्विगुः। पात्रादित्वान्नस्त्रीत्वम्। स्फारं
छायेवास्य नभस्थली कुवलयश्यामेय
मालोक्यते
तन्मन्ये नियतं प्रतापतपनस्तस्योपरि द्योतते॥२३॥
धर्मकामार्थतत्परत्वं यथा।
धर्मोऽर्थ इव पूर्णश्रीरर्थो धर्म इव स्थितः।
कामस्ताविव तौ काम इव
रुद्रनरेश्वरे॥२४॥
धुरीणता
यथा।
गायन्तीरनुमोदते निजवधूः शेषः शिरः कम्पनै-
र्लक्ष्मीं प्रीणयतेऽद्य कच्छपपतिर्वक्षस्थलीदर्शनात्।
दिङ्नागाश्च करेणुकाशुचमपाकुर्वन्त्यनुव्रज्यया
दोष्णा
काकतिवीररुद्रनृपतौ विश्वंभरां बिभ्रति॥२५॥
_____________________________________________________________
प्रभूतम्। अत्र त्रिभुवनोल्लङ्घिनः कीर्त्तिमण्डलातपत्रस्योपरि प्रतापतपनः प्रकाशत इत्युत्प्रेक्षणादर्वाचीनसूर्यादिमहसां छत्राधःखचितमणिगणवदवभासमानत्वं कीर्त्तिप्रतापयोश्चन्द्रसूर्याधिकत्वं च व्यज्यते ॥२३॥
धर्म इति। अत्र धर्मार्थयोः पर्यायेणोपमानोपमेयभावादुपमेयोपमालंकार इति वक्ष्यति। एतेनानयोरन्योन्यमेव
सादृश्यं न
त्वेतत्सदृशोऽन्यः कोऽपीति व्यज्यते। एवमुत्तरार्धेऽपि योज्यम् ॥२४॥
धुरीणतेति। ‘सःसर्वधुरात्’ इत्यत्र ‘स्वः’ इति योगविभागात् स्वप्रत्ययः। गायन्तीरिति। स्वभर्तृभारावतरणसंतोषभराद्वीररुद्रकीर्त्तिमेवेति भावः। कच्छपपतिरादिकूर्मावतारो हरिरपोढभारत्वादालिङ्गनार्थं वक्षस्थलीदर्शनात्। दृशेर्ण्यन्ताल्ल्युट्। लक्ष्मीं प्रीणयते। प्रीञ्तर्पणे इत्यस्माद्धातोश्चोरादिकाण्णिचि ‘धूञ्प्रीञोर्नुग्वक्तव्यः’ इति नुक्। अनुब्रज्यया रन्तुमनुधावनेन। ‘व्रजयजोर्भावे क्यप्’ इति क्यप्। करेणुकाशुचं विप्रलम्भजनिताम्। अद्येति सर्वत्र संबध्यते। शेषादयो भुवं बिभ्रति शेषादींस्तु कूर्मराज इत्यागमः। शेषादिभरणीयां विश्वंभरां वीररुद्रो भुजेनैकेन विभर्तीति
विश्वंभरातिशायि धुरन्धरत्वमस्योक्तम्॥२५॥
गुणाढ्यत्वं यथा।
मुखैः सहस्रेण फणी वदेच्चेत्
करैः सहस्रेण लिखेद्विवस्वान्।
नेत्रैः सहस्रेण हरिश्च पश्येत्
स्थाने गुणान्
काकतिवंशभर्त्तुः॥२६॥
अथ नायकविशेषा निरूप्यन्ते।
उदात्त उद्धतश्चैव ललितः शान्त इत्यपि।
धीरपूर्वा इमे पूर्वैश्चत्वारो नायकाः स्मृताः॥२७॥
तत्र सर्वरससाधारणाश्चत्वारो नायकाः
धीरोदात्तधीरोद्धतधीरललित
धीरशान्ताः।
तेषां स्वरूपमुदाहरणं च।
_____________________________________________________________
मुखैरिति। करैरित्यत्रांशुहस्तयोरभे
दाध्यवसायाल्लेखनसाधनत्वं विज्ञेयम्। वदेदित्यादौ ‘अर्हे कृत्यतृचश्च’ इत्यर्हार्थे
लिङ्प्रत्ययः। शेषादय एवास्य गुणानामभिवदनादीन्यर्हन्ति। तथा चेद्युक्तमिति वाक्यार्थः। असंख्येया गुणा इति भावः। सहस्रेणेत्यत्र संख्येयबाहुल्येऽपि ‘विंशत्याद्याः सदैकत्वे संख्याः संख्येयसंख्ययोः’ इत्यमर
वचनादेकत्वमवगन्तव्यम्॥२६॥
अथ धीरोदात्तादयश्चत्वारो नायकाः सर्वरससाधारणास्तेषामेव शृङ्गाराश्रयतयानुकूलादिभेदेन प्रत्येकं चतुर्विधाना
मुत्तमादिभेदेन पुनः प्रत्येकं त्रैविध्ये
अष्टाचत्वारिंशद्भेदाः। धीरोदात्तादिशब्दाश्च महावीरचरितादिमहाप्रबन्धेष्वेकस्यानेकरूपाभिधानेन वत्सवृषभमहोक्षादिशब्दवदवस्थावाचिनो न जातिवाचिन इति प्रतिपादितं
दशरूपके
तत्र कतिचिल्लक्षणोदाहरणाभ्यां प्रदर्श्यन्ते। अथेत्यादिना।
उदात्त इति। धीरपूर्वा उदात्तादय इत्युक्तेर्धीरशब्दपूर्वा उदात्तादिशब्दा इत्युक्तं स्यात्। अतोऽत्र शब्दपरेणार्थलक्षणा कथंचित् कल्प्या॥२७॥
महासत्त्वोऽतिगम्भीरः कृपावानविकत्थनः।
प्रतापरुद्रवद्धीरो धीरोदात्तः स संमतः॥२८॥
यथा
संदिग्धे कृपया मृदुः क्षणमरीन् हन्तुं धृतासिः पुरः
शौर्यश्रीप्रणयप्रशंसिषु नमद्भ्रुर्लज्जते वन्दिषु।
आकारान् सुखरोषहर्षपिशुनान्
वक्रे न धत्ते मनाक्
त्रैलोक्यातिशयालुकीर्त्ति
सुभगः श्रीवीररुद्रो नृपः॥२९॥
___________________________________________________________
अत्र धीरोदात्तादीनां सर्वरससाधारण्येऽपि यथाक्रमं वीररौद्रशृङ्गार
शान्तप्रधानत्वं वक्ष्यमाणविशेषलक्षणपर्यालोचनया विज्ञेयमिति रहस्यम्। तत्र धीरोदात्तमाह। महासत्त्व इति। क्रोधाद्यनभिभूतान्तःकरणो महासत्त्वः। अयमेव धीर इत्याहुः। अत्रत्यधीरशब्देन तु उद्योगादेरचलितत्वलक्षणः स्थिरः शास्त्रचक्षुर्वाभिधीयते इति न पौनरुक्त्यम्। सत्यपि विकारे सावहित्थो गम्भीरः।
परदुःखापहरणेच्छुः कृपावान्।
आत्मश्लाघाविहीनोऽविकत्थनः। ‘अनुदात्तेतश्च हलादेः’ इति युच्। एवंगुणको यः प्रतापरुद्रवद्वर्त्तते स धीरोदात्त इति योजना। एवं च
सर्वोत्कर्षेण वृत्तिरौदार्यमिति फलितम्। अत्र स्थैर्यादिसामान्यगुणानां विशेषलक्षणेषूपादानं तत्रावश्यकत्वसूचनार्थम्। उदाहरति। संदिग्ध इति। कृपया मृदुर्न तु कातर्येणेत्यनेन महासत्त्वतोच्यते। क्षणमल्पकालमेव। पश्चातु
हन्त्येवेति स्थैर्यम्। पुरः स्थितानरीन् न तु पलायितानिति धार्मिकत्वम्। शौर्येति। बन्दिविहितप्रशंसाकर्णनेनैव लज्जमानस्यात्मश्लाघा तु दूरत एवेत्यविकत्थनत्वम्। नमद्भ्रुत्वं लज्जानुभावः। इष्टानुभवजन्य आनन्दः सुखम्। सापराधविषयोऽमर्षो रोषः। इष्टलाभजन्यो मनःप्रसादो हर्षः। तेषां पिशुनान् सूचकानाकारानक्षिनिमीलनभ्रुकुटिमुखरागादीन् वक्रे मनागीषदपि न धत्त इत्यवहित्थया गाम्भीर्यम्। त्रयो लोकास्त्रैलोक्यं तदतिशयालुरिति मधुपिपासुप्रभृतित्वात् द्वितीयासमासो दृष्टव्यः। शीङ्गो वक्तव्यादालुच्प्रत्ययः। अत्र स्थैर्यधार्मिकत्वकीर्त्तयः साधारणा गुणाः कृपादयस्तु विशेषा इति विवेकः॥२८ / २९॥
दर्पमात्सर्यभूयिष्ठश्चण्डवृत्तिर्विकत्थनः।
मायावी सुलभक्रोधः स धीरोद्धत उच्यते ॥३०॥
यथा।
रे रे
गुर्जर जर्जरोऽसि समरे
लम्पाक किं कम्पसे
वङ्ग त्वङ्गसि किं मुधा बलरजः कीर्णोऽसि किं कोङ्कण।
हूण प्राणपरायणो भव महाराष्ट्रापराष्ट्रोऽस्यमी
योद्वारो वयमित्यरीनभिभवन्त्यन्ध्रक्षमाभृद्भटाः॥३१॥
अत्र भटानां धीरोद्धतत्वम्।
निश्चिन्तो धीरललितः कलासक्तः
सुखी मृदुः।
यथा।
शौर्योष्मा निरवग्रहः प्रतिनृपाः सर्वेऽपि नम्रीकृताः
पातिव्रत्यमुपैति भूरियमयं नाथः स्वयंभूः शिवः।
___________________________________________________________
धीरोद्धतमाह। दर्पेति। दर्पः शौर्यादिमदः। मात्सर्यमसहनसूयेति यावत्। ताभ्यां भूयिष्ठश्चण्डवृत्तिः रौद्रः। विकत्थन आत्मश्लाघापरः। मन्त्रादिवलेनाविद्यमानवस्तुप्रकाशकः केवलवञ्चको वा मायावी। उदाहरति। रे रे इति। ‘हीनसंबोधने तु रे’ इत्यमरः। तस्य प्रतिवाक्य
मावर्त्त्यमानस्य ‘वाक्यादेरामन्त्रितस्यासूयासम्मतिकोपकुत्सनभर्त्सनेषु’ इति यथायोगमसूयाद्यर्थेषु द्विर्भावः। अत्र ‘स्वरितमाम्रेडिते—’ इत्यादिना प्राप्तस्य प्लुतस्य
सर्वतः साहसमनिच्छता विभाषा वक्तव्येति पाक्षिकः प्रतिषेधः। शास्त्रत्यागः साहसमिति हरदत्तः। अत्र गुर्जरादिवाक्येषु यथायोगमुद्भावितैर्दर्पमात्सर्यादिभिर्योद्धारो वयमित्यात्मश्लाघया
चान्ध्रक्षमाभृद्भटानां धीरोद्धतत्वम्॥३०।३१॥
धीरललितमाह। निश्चिन्त इति। सुतसचिवादि
विनिहितयोगक्षेमतया चिन्ताविरहितो निश्चिन्तः। अत एव
कलासु गीतादिष्वासक्तः। सुखी भोगप्रवणः। शृङ्गारप्रधानत्वात्
सुकुमाराकारो मृदुः। उदाहरति। शौर्येति अत्रा-
धीरोऽयं युवराज
एष वहति श्रीवीररुद्रो धुरं
सर्वामित्यनुमोदते प्रतिकलं
श्रीकाकतीन्द्रो
विभुः ॥३२॥
धीरः शान्तः प्रसन्नात्मा धीरशान्तो
द्विजादिकः।
यथा।
वीरं
रुद्रनृपालरत्नमभितः प्राप्तोदयं मोदते
संख्यावद्गण एष पूषणमिव प्रत्यग्रमब्जाकरः।
उन्मीलत्कमलाविहारवसतिर्भूत्वा विकासैर्निजै-
र्विश्वामोदमुदञ्चयन्नविरतं दोषावसानोत्सुकः ॥३३॥
अत्र विप्राणां धीरशान्तत्वम्।
अथ शृङ्गारविषयाश्चत्वारो नायका
इमे।
अनुकूलो दक्षिणश्च
धृष्टः शठ इति
स्मृताः ॥३४॥
___________________________________________________________
नर्गलशौर्यादिभिर्दैवानुकूल्येन युवराजधुरन्धरत्वेन च निश्चिन्तः सकलकलासुखमनुभवतीति वीररुद्रकुलज्येष्ठस्य धीरललितत्वम्॥३२॥
धीरशान्तमाह। धीर इति। विवेचकः क्लेशसहिष्णुर्वा धीरः। शमप्रधानः शान्तः। हृष्टान्तःकरणः प्रसन्नात्मा। द्विजादिक इत्यादिग्रहणाद्वणिक्सचिवौ विवक्षितौ। ‘सामान्यगुणयुक्तस्तु धीरशान्तो द्विजादिकः’ इति केचित्। उदाहरति। वीरमिति। संख्या ज्ञानं तद्वतां विदुषां गणः
संख्यावद्गणः। प्राप्त उदयोऽभिवृद्धिरन्यत्रोदयाचलो येन तं तथोक्तम्। प्रत्यग्रमुभयत्राभिनवम्। उन्मीलन्त्या उल्लसन्त्याः कमलायाः संपत्तेरन्यत्र लक्ष्म्या विहारवसतिः। विकासैरुत्सवादिभिरन्यत्र दलविश्लेषैः। विश्वस्यामोदं हर्षमन्यत्र गन्धविशेषमुदञ्चयन् उद्बोधयन्। दोषावसानं पापोपशमः। अन्यत्र दोषाया रात्रेरवसानं प्रभातम्। ‘दोषा रात्रिमुखे रात्रावत्रानव्ययमप्यसौ’ इति विश्वः। तत्रोत्सुक इति। अत्र दोषावसानेत्यादौधैर्यशान्त्योर्विश्वामोदमित्यादौ प्रसादादेश्चप्रतिपादनात् विप्राणां धीरशान्तत्वम्॥३३॥
अथ शृङ्गारनायकानां यथाक्रममुद्देशलक्षणोदाहरणानि दर्शयति। अथेत्यादिना॥३४॥
एषां स्वरूपमुदाहरणं
च।
एकायत्तोऽनुकूलः स्यात्
एकस्यां नायिकायां
विशेषानुरक्तोऽनुकूलो88 नायकः।
यथा।
किं नामाचरितं तपः सखि भुवा यस्याः पतिर्गीयते
वीरो रुद्रनृपः क्व तत् सुचरितं तस्य प्रिया स्यां यतः।
जाने मानिनि मा विषीद पुरतः
प्रख्याप्य नाम स्थिरां
त्वां रत्नाकरमेखलां त्वयि
सदा सक्तं विधास्ये नृपम्॥३५॥
अत्र
प्रतापरुद्रस्य क्षोण्यां विशेषानुरागो व्यज्यते येन वध्वा स्थिरा रन्ताकरमेखलेति
तन्नामग्रहणेन
स्नेहप्रख्यापनं क्रियते।
तुल्योऽनेकत्र दक्षिणः॥
अनेकासु
नायिकासु अवैषम्येण स्नेहानुवर्ती
दक्षिणो
नायकः।
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तत्रानुकूलमाह। एकेति। सत्स्वपि नायिकान्तरेष्विति शेषः। तदेवाह एकस्यामिति। एकजानिरेवानुकूलो यथा रामादिरित्यन्ये। उदाहरति। किमिति। नायिकावाक्यमेतत्। भुवा कयाचिन्नायिकया। नामेति संभावनायाम्। यतः सुचरितात्। अथ सखी नायिकामाह। जान इति। नायकघटनोपायमिति
शेषः।’ अनुपसर्गात् ज्ञः’ इत्यात्मनेपदम्। नामेति कुत्सायाम्। अनुरागोत्पादनार्थे सपत्नीनामसाम्येन नायिकाप्रकाशनस्य कुत्सितत्वात् ‘नाम प्रकाश्यसंभाव्यकुत्साभ्युपगमेषु च ’ इति विश्वः। अत्र राज्ञो भूमौ विशेषानुरागोऽन्यत्र न तथेत्यानुकूल्यम् ॥३५॥
यथा
नर्मोक्तेन निमन्त्रिता
स्मरकलाकेलीषु काचिन्मया
साकूतेन विलोकनेन हृदयं कस्यैचिदाविष्कृतम्।
कस्याश्चित् प्रहितः
प्रसाधनविधिर्टूतीकीाण क्व वा
गच्छामीत्यनुचिन्तयैव नृपतेरासीत् प्रभाता निशा॥३६॥
तथा च
वाणीं मुखेन नेत्राभ्यां श्रियं दोष्णा च मेदिनीम्।
मानयंस्तुल्यतां धत्ते तासु
रुद्रनरेश्वरः॥३७॥
व्यक्तापराधो गतभीः स धृष्ट इति कथ्यते।
यथा
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दक्षिणमाह। तुल्य इति स्नेहेनानुवर्त्तते ताच्छील्येन स्नेहानुवर्त्ती। उदाहरति। नर्मेति। अग्राम्य इष्टजनावर्जनरूपः परिहासो नर्म। केलीष्विति विषयसप्तमी। स्वाभिमतभावप्रकाशको
दृग्विकार आकूतम्। तदुक्तम्।
‘आकूतं तद्यत्र भावः
सोऽप्यभीष्टो विभाव्यते’ इति। प्रसाधनविधिः स्रक्चन्दनाभरणादिः। प्रभातेति। प्रभातप्रायेत्यर्थः। अत्र वाक्यत्रये यथाक्रममुक्तिविशेषेण कलाविनोदस्य विलोकनविशेषेण वक्षस्स्थलाविष्करणस्य करेणुवशीकरणस्य च सूचनाद्वाणीलक्ष्मीवसुन्धराः प्रतीयन्ते। अत्राप्रभातमनिश्चितगन्तव्यतया चिन्ताकुलत्वेनास्य समानुरागत्वप्रतीतेर्दक्षिणोऽयं नायकः॥३६॥
उदाहरणान्तरमाह। वाणीमिति। अत्र वाण्यादीनां वाच्यत्वान्मुखादि शब्दैर्नर्मोक्त्यादीनां प्रतीयमानत्वाच्च
पूर्वोदाहरणाद् भेदः। स्त्रीलिङ्गमहिम्नाप्रतीयमानलौकिकनायिकाभेदाध्यवसायेन वाण्याद्यनुरागेऽपि न शृङ्गारनायकूनोभङ्गप्रसङ्गः ॥३७॥
राज्यश्रीपरिभोगशंसि भवतः सर्वाङ्गमालोक्यते
कस्तत्राविनयोऽस्ति साहसमिदं तन्नाम
मय्यर्पितम्।
जाने त्वां बहुवल्लभं किमपरं वक्तव्यमल्पा वयं
तस्यां प्रेम तवाधिकं
वसुमतीया नाम किं जल्पितैः॥३८॥
गूढविप्रियकृच्छठः।
नायिकामात्रविदित89विप्रियकारी
शठः।
यथा
दृष्ट्या पश्यसि केवलं न मनसा वाचा प्रियं भाषसे
नो भावेन भुजान्तरं प्रकटयस्यग्रे न चाभ्यन्तरम्।
ज्ञातं काकतिनाथ भूस्तव परं प्राणेश्वरी ध्यायतो
मादृक्षेषु विडम्बनैव तदलं व्यर्थैर्वहिः संभ्रमैः॥३९॥
———————————————————————————————————————————————
धृष्टमाह। व्यक्तेति। उदाहरति। राज्येति। राज्यश्रीस्तन्नाम्नीकाविन्नायिका राज्यलक्ष्मीश्च। तत्पक्षे सर्वांङ्गं सप्ताङ्गानि। अल्पा दरिद्राः। नामेति प्रसिद्धौ। जल्पितैः किं जल्पितसाध्यं नास्तीत्यर्थः। गम्यमानसाधनक्रियापेक्षया करणत्वात् तृतीया। ‘न केवलं श्रूयमाणैव क्रिया निमित्तं कारकभावस्य अपि तु गम्यमानापि’ इति न्यासोद्योतवचनात्।
बहुशश्चैतदुक्तं तातपादैः संजीविन्यादौ। धनपरा राजानो न वाल्लभ्यपरा इति नायिकाभिप्रायः। अतः रुयन्तरसंभोगप्रकाशनाद् गोत्रस्खलनाच्चापराधाभिव्यक्तिर्निभीकत्वं चेत्यस्य धृष्टत्वम्।
अन्यासंभोगचिह्नैःकुपितत्वादियं खण्डिता। ‘अधीरा परुषैर्वाक्यैः
खेदयेद्वल्लभं रुपा’ इति लक्षणादधीरा च॥३८॥
शठमाह। गूढेति। उदाहरति। दृष्ट्येति। अत्र दर्शनप्रियभाषणयोश्च
क्षुर्वागिन्द्रियकरणत्वाव्यभिचारादेव90 सिद्धेर्दृष्ट्या वाचेति च पुनरुपादानस्य तात्पर्यनिषेधार्थकत्वान्न पौनरुक्त्यम्। भूः परं भूरेव। ध्यायतश्चिन्तयतोऽन्यासक्तस्येत्यर्थः। मादृक्षेषु जनेष्विति शेषः। दृशेः क्सप्रत्ययो
वक्तव्यः। अत्र नायिकामात्रविदितभावशून्यदर्शनादिविधानादस्य शठत्वम्। नायिका त्वधीरमध्या॥३९॥
अत्र
तत्तन्नायकविषयतया
काकतीश्वराणामुदाहरणेन
एषांनायिकानुकूलने
पीठमर्दविटचेटविदूषकाः
सहायाः।
किंचिदूनः पीठमर्द एकविद्यो विटः स्मृतः।
संधानकुशलश्चेटो
हास्यप्रायो विदूषकः॥४०॥
स्पष्टमेषामुदाहरणम्।
अथाष्टविधाः शृङ्गारनायिकाः।
स्वाधीनपतिका चैव तथा वा
सकसज्जिका।
विरहोत्कण्ठिता चैव विप्रलब्धा च खण्डिता॥४१॥
कलहान्तरिता चैव तथा प्रोषितभर्त्तृका।
तथाभिसारिका चेति क्रमाल्लक्षणमुच्यते॥४२॥
———————————————————————————————————————————————
वीररुद्रगुणवर्णनप्रतिज्ञाभङ्गं परिहरति।
अत्रेति॥ अथ शृङ्गारनायकस्य नायिकासंबन्धनियमात् तदनुकूलने सहायानाह। एषामिति। क्रमेणैषां लक्षणमाह। किंचिदित्यादि। प्रधानेतिवृत्तनायकादीषन्न्यूनगुणः प्रासङ्गिकेतिवृत्तनायकः किंचिदूनशब्देन विवक्षितः। तदुक्तम्।
‘पतः कानायकस्त्वन्यः पीठमर्दोविचक्षणः।
तस्यैवानुचरो भक्तः किंचि
दुनस्तु तद्गुणैः॥’
इति। स च सुग्रीवमकरन्दादिः। नायकोपयोगिगीतादिविद्यानामेकविद्याभिज्ञो विटः कलहंसादिः। वाक्याङ्गवेषविकारादिना हास्यकारी विदूषकः॥४०॥
अथ संभावितनायकसामान्यगुणयोगिनी नायिकेति सामान्यलक्षणं सिद्धवत्कृत्य तद्विशेषाः कतिचिल्लक्षणोदाहरणाभ्यां निरूप्यन्ते। अथेत्यादिना॥४१-४२॥
प्रियोपलालिता नित्यं स्वाधीनपतिका मता।
यथा
प्रियां सर्वेसहां तैस्तैर्विशेषैरुपलालयन्।
प्रतापरुद्रनृपतिः प्रतिक्षणमवेक्षते॥४३॥
प्रियागमनवेलायां मण्डयन्ती मुहुर्मुहुः।
केलीगृहं तथात्मानं
सास्याद्वासकसज्जिका॥४४॥
यथा
स्वतेजसा परिष्कृत्य प्रधानागारमुत्कया।
श्रियाभिषेकवेलायां वीररुद्रः
प्रतीक्षितः॥४५॥
———————————————————————————————————————————————
तत्रस्वाधीनपतिकामाह। प्रियेति। अध्युपरि इनः स्वामी यस्यासाबधीनः आयत्तः। ‘अधीनो निघ्नआयत्तः’ इत्यमरः। स्वस्मिन्नधीनः स्वाधीनः। यद्वा स्वस्मिन्नधिकृतमधीति वा विगृह्य ‘सप्तमी शौण्डैः’ इति समासः। ‘अषडक्ष—‘इत्यादिना अध्युत्तरपदान्नित्यः खप्रत्ययः। सुरतसुखास्वादलोभेनासन्नत्वात् स्वाधीन आयत्तः पतिर्यस्याः सा तथोक्ता। उदाहरति। प्रियामिति। सर्वे सहत इति सवैसहा नाम काचिन्नायिका। ‘संज्ञायाम्—
‘इत्यादिना खशप्रत्यये मुमागमः। विशेषैर्वासोऽङ्गरागादिभिरुपलालयन्नवेक्षत इत्यनेनास न्नायत्तरमणत्वप्रतीतेरियं स्वाधीनपतिका। नायकस्त्वनुकूलः। भूपरिपालने नित्य
जागरूकोऽयमित्यपि गम्यते॥४३॥
वासकसज्जिकामाह। प्रियेति। वासके वासवेश्मनि भोगोपकरणैः
सज्जा सन्नद्धा सैव वासकसज्जिका। ‘स्त्रीणां वारस्तु वासकः’ इति पक्षे वासके
वारदिवसे सज्जयति सज्जीकरोति
हर्षेण केलीगृहादिकमिति वासकसज्जिका। अयमेव पक्षो विद्यानाथस्य विवक्षितः। उदाहरति। स्वेति। परिष्कृत्यालंकृत्य उत्कयोन्मनसा उत्कण्ठितयेत्यर्थः। ‘उत्क उन्मनाः’ इति निपातनात् साधुः। अत्र
क्रीडागारेपरिष्कारादिभिरियं वासकसज्जिका। अत एवोदात्तापि तदुक्तम्।
चिरयत्यधिकं कान्ते
विरहोत्कण्ठितोन्मनाः।
यथा
न शङ्कान्या तादृग्गुणपरिमले रुद्रनृपतौ
कया वा गोष्ठ्यासौ चिरयति सखीभिर्न सुलभः।
समानेतुं कान्तं व्रज
मदनबद्धोऽञ्जलिरयं93
यतो विष्वद्रीचः किरति किरणांस्त्वत्प्रियसखः॥४६॥
क्वचित् संकेतमावेद्य दयितेनाथ वञ्चिता।
स्मरार्त्ता विप्रलब्धेति
कलाविद्भिः
प्रकीर्त्त्यते॥४७॥
यथा
गच्छाग्रेसखि का प्रियागमकथा प्राप्तो निशीथः परं
संकेतालय मोक्ष्यसे मम
वृथा जातोऽश्रुभिः पङ्किलः।
———————————————————————————————————————————————
‘उदात्ता केशवासोऽङ्गमाल्यभूषासु सादरा।
शय्याभवनसंस्कारपरिबर्हसमेधिनी॥
इति॥४४-४५॥
विरहोत्कण्ठितामाह। चिरयतीति। अव्यलीक इति शेषः। अत एव’चिरयत्यव्यलीका
तु’ इति धनिकेनोक्तम्। अनपराधप्रियविलम्बेनोन्मना विरहोत्कण्ठितेत्यर्थः। उदाहरति। नेति। अन्या शङ्का नायिकान्तरासक्तिरूपेत्यर्थः। अत एवानपराध इति भावः। तादृगिति। ‘त्यदादिषु—’ इत्यादिना क्विन्
प्रत्ययः। ‘आ सर्वनाम्नः’ तद आत्वम्। अत्र दृश्यर्थाभावेनासत्यप्यवयवार्थे तैलपायिकादिवत् व्युत्पत्तिर्द्रष्टव्या। अत एवाह वृत्तिकारः। ‘तादृशादयो रूढिशब्दाः’ इति। भाष्ये तु कर्मकर्त्तरि व्युत्पत्तिर्दर्शिता। ‘तमिव पश्यन्ति जनाः सोऽयं स इव दृश्यमानस्तमिवात्मानं पश्यति’ इति। गोष्ठया संगीतादिप्रसङ्गेन। अत एवासौ धीरललितो नायकः। त्वत्प्रियसखश्चन्द्रः। विष्वद्रीचः सर्वतोदिक्कान्। ‘ऋत्विक्—’ इत्यादिना क्विन् प्रत्यये ‘विष्वग्देवयोः—’ इति टेरद्र्यादेशः॥४६॥
विप्रलब्धामाह। क्वचिदिति। उदाहरति। गच्छेति। आगमनसमय इवा-
यद्वा
रुद्रनरेश्वरे प्रियतमे राज्यश्रियो वल्लभे
भारत्या
दयिते भुवः कृतपदाः प्रायो वयं वञ्चिताः॥४८॥
नीत्वान्यत्र निशां प्रातरागते प्राणवल्लभे।
अन्यासंभोगचिह्नैस्तु
कुपिता खण्डिता मता॥४९ ॥
यथा
रात्रिर्यामत्रयपरिमिता वल्लभास्ते सहस्रं
मार्गासक्त्या मम गृहमपि प्रातरेवागतोऽसि।
किं कर्त्तव्यं वद
नृपतिभिर्वीक्षणीया हि
सर्वाः
को वा दोषस्तव पुनरहं काममायासयित्री॥५०॥
———————————————————————————————————————————————
धुना पुरो गन्तुमशक्ताह। अग्रे गच्छ इति। निशीथः परमर्धरात्र एव प्राप्तः। न तु प्रियः। हे
संकेतालय त्वंमोक्ष्यसे। नाद्यापि संकेतस्थानं मोक्तुं शक्नोमीति भावः। अश्रुभिर्न तु सुरतश्रमजलादिना पङ्किल इत्यनेन द्वारदेशं प्रति यातायाते सूच्येते। अन्यथा पङ्किलत्वाभावात्।
अथ प्रियमुद्दिश्य न चायं तवापराधः किं तु बहुवल्लभे त्वय्यासक्ताया ममैवेत्याह। यद्वेति। नाहमेकैव त्वया वञ्चिता किं त्वनुमन्तारः सख्यादयः सर्वेऽपि मदीया इत्याह। वयमिति। अत एव न ममेत्येकवचनप्रक्रमभङ्गः। अत्र भारत्या दयिते भुव इति पाठः साधीयान्। क्षितिनायक इति समासपाठे
व्यासप्रक्रमभङ्गः। अत्र संकेतमावेद्य दयितेन वञ्चिता सती कामातुरेतीयं विप्रलब्धा ॥४७।४८॥
खण्डितामाह। नीत्वेति ।उदाहरति। रांत्रिरिति। आद्यन्तयामार्धयोरकुण्ठितसंचारत्वेनारात्रित्वाभिमानात् त्रियामेति व्यवहारः। सहस्रमिति ‘विंशः त्याद्याः सदैकत्वे सर्वाः संख्येयसंख्ययोः’ इत्येकत्वम्। तथापि मार्गासक्त्या न तु मदुद्देशेन। प्रातरेव विहारानर्हसमय एवेति भावः। अत एवागमनप्रयोजनं पृच्छति। किमिति। यद्वा नैवान्यत् प्रयोजनं प्रजापालनपराणां नृपाणामिस्याह। नृपतिभिरिति। किं तु तवैवं
प्रयासजननात् कियहा पापं ममैवं जीवन्त्या इति चिन्तयामीत्याह।
को वेति।
तत्र प्रातरागतस्य प्रेयसो अन्यासङ्गविकारदर्शनात् कुपितेयं खण्डिता। ’ वक्ति सोत्प्रासवक्रोक्त्या धीरमध्या कृतागसम्’ इति लक्षणात् धीरमध्या च। नायकस्तु धृष्टः ॥४९।५०॥
कोपात्
प्रियं
पराणुद्य पश्चात्तापसमन्विता।
कलहान्तरिता नाम
सूरिभिः परिकीर्त्तिता॥५१॥
यथा
तह तह अणुणअंतो94 पिओ तुएहिअअरोसकलुसेण।
अवहीरिदो
ण
मुणिओ राएति
विओअवेअणं
सहसु॥५२॥
देशांन्तरगते कान्ते खिन्ना प्रोषितभर्त्तृका॥
यथा
त्रैलोक्यप्रथमानकीर्तिमहसः श्रीवीररुद्रप्रभोः
सेवार्थे चिरयत्सु काकतिपुरे भूपेषु यद्योषितः।
———————————————————————————————————————————————
कलहान्तरितामाह। कोपादिति। प्रियं प्रणामादिना प्रसादनपरमित्यर्थः। तदुक्तम्—
‘सत्यवागार्जवरतिरुपकुर्वन् प्रियं वदन्।
भजते यः स्वयं प्रीतः प्रियः स भवति स्त्रियाः॥’
इति। कलहे सति सुखेनान्तरिता कलहान्तरिता। उदाहरति। तहेति। तथा तथा अनुनयन् प्रियस्त्वया हृदयरोपकलुषेण। अवधीरितो न ज्ञातो राजेति
वियोगवेदनां सहस्व॥’
मुणइति। ‘जाणमुणौज्ञः’ इति जानातेर्मुणादेशः। विसूरणमिति खिदेविंसूर इति विसूरादेश इति कोशान्तरे। तथा तथेत्यनेन पुनः पुनः प्रणामादिर्द्योत्यते। अत्र तादृशं राजानं प्रियमनादृत्य किमर्थमधुना दूयस इति हृदयोपालम्भादियं कलहान्तरिता। नायकस्तूत्तमः। ‘कामतन्त्रेषु निपुणः क्रुद्धानुनयकोविदः’ इत्यादिलक्षणात्॥ ५१।५२ ॥
प्रोषितभर्त्तृकामाह। देशेति। कान्त इति।
‘कथाभिः कमनीयाभिः काम्यैर्भोगैश्च सर्वदा।
उपचारैश्च रमयेद्यः स कान्त इतीरितः॥
द्वारासक्तदृशो नयन्ति दिवसान् व्युष्टाशया च क्षपा-
स्तद्ध्यानप्रतिबद्धसान्द्रपुलकव्याकीर्णकामेषवः॥५३॥
कान्ताभिसरणोद्युक्तास्मरार्त्ता साभिसारिका॥
यथा95
संभ्रमैरलमल्पज्ञे प्रेयानस्तु महीपतिः।
करेणुस्थां न पश्यामि न शृणोभ्यभिसारिकाम्॥५४॥
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इत्युक्तलक्षण इत्यर्थः। उदाहरति। त्रैलोक्येति। व्युष्टं प्रभातम्। तद्ध्यानप्रतिबद्धाः प्रियचिन्ताप्ररूढाः सान्द्रपुलका एवं व्याकीर्णकामेषवः
कीलितकामबाणा यासां तास्तथोक्ताः। अत्र चिन्ताजागरादिप्रतिपादनत्वात् खिन्नत्वेनेयं प्रोषितभर्त्तृका॥५३॥
अभिसारिकामाह। कान्तेति। कान्तस्य कर्मणो भर्त्तुर्वाभिसरणे96 उद्युक्ता। अत एवोक्तम्।
‘स्मरार्त्ताभिसरेत् कान्तं सारयेद्वाभिसारिका।’
इति। सारयेदिति दूत्यादिमुखेनेति शेषः। उदाहरति। संभ्रमैरिति। कान्ताभिसरणाय करेणुमानयेति कयाचिदुक्ते संख्या वचनमेतत्। अथवा नैव करेणुस्थाभिसरणं दृष्टचरं श्रुतचरं वेत्याभाणकमुखेन सखी नायिकायाः प्रकटाभिसरणं वारयति। अल्पं जानात्यल्पज्ञे मुग्धे। अत्र ’ आतोऽनुपसर्गे कः’ इति कप्रत्ययो न तु ‘इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः’ इत्यादिना। अत एवाह भगवान् कात्यायनः। ‘आकारादनुपपदात् कर्मोपपदो विप्रतिषेधेन’ इति। एतच्च संजीविनीसर्वङ्कपादावसकृदुक्तं तातपादैः। अत्र कान्ताकर्मकाभिसरणमुक्तम्। एवं कान्तकर्त्तृकाभिसरणेऽप्युदाहार्यम्। एतासां च
चिन्तानिश्वासस्वेदाश्रुवैवर्ण्यग्लान्यभूषणैः।
युक्ताः षडन्त्या द्वे चाद्ये क्रीडौज्ज्वल्यप्रहर्षितैः॥
इत्युक्तदशविकारा द्रष्टव्याः॥५४॥
एतासां97 नायकानुकूलने सहायाः
दूत्यो दासी सखी
कारुर्धात्रेयी
प्रातिवेशिनी।
लिङ्गिनी शिल्पिनी
स्वा च सहायाः परिकीर्त्तिताः॥५५॥
ऐतासां स्वरूपमुदाहरणं
चस्पष्टम्।
कामशास्त्रप्रसिद्धाः पद्मिनीचित्रिणीप्रभृतयो
जातिविशेषाः ॥’
संक्षेपेण
नायिका त्रिविधा। मुग्धा
मध्या
प्रौढा चेति।
उदयद्यौवना मुग्धा
लज्जाविजितमन्मथा।
लज्जामन्मथमध्यस्था मध्यमोदितयौवना॥
स्मरमन्दीकृतव्रीडा प्रौढा संपूर्णयौवना॥५६॥
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अथासां
दूतीराह। दूत्य इति। दासी कर्मकरी। सखी स्नेहनिबन्धना। कारू रजक्यादिः। धात्रेयी उपमातृसुता। प्रातिवेशिनी समीपगृहवर्त्तिनी। लिङ्गिनी परिव्राजिका। शिल्पिनी चित्रकारादिस्त्री। स्वा स्वयं चेति दूत्यः सहाया नायकानुकूलने इति शेषः। स्वा चेति स्त्रीलिङ्गे मूलं मृग्यम्। ‘स्वो ज्ञातावात्मनि स्वं त्रिष्वात्मीये स्वोऽस्त्रियां धने’ इति नपुंसकत्वेनाभिधानात्। अथवा स्वा स्वकीया बान्धवस्त्रीति यावत्। तदुक्तं सर्वज्ञसोमेश्वरेण।
भगिनी स्यालिका वापि मातुलस्याथवा सुता।
एता भवन्ति दूत्यस्तु बान्धवस्त्रीति संज्ञिताः॥
इति॥५५॥
पद्मिन्यादीनां जातिवाचित्वं न मुग्धादिवदवस्थावाचित्वमित्याह। पद्मिनीति। प्रभृतिग्रहणाच्छङ्खिनीहस्तिन्यौ गृह्येते। लक्षणादिकमेतासां कामशास्त्र एव द्रष्टव्यम्। इत्थं स्वाधीनपतिकाद्यवस्थाष्टकमुक्त्वा तदाश्रयभूतानेकनायिकामध्ये मुग्धादित्रयं लक्षणोदाहरणाभ्यां प्रदर्शयति। संक्षेपेणेत्यादिना॥
यथाक्रममुदाहरणानि।
मुग्धे यन्मनसोऽपि गोप्यमखिलं
तन्मह्यमावेद्यते
किं
याकाचिदहं तव प्रियसखी प्रच्छाद्य किं ताम्यसि।
आसक्तिस्तव
वीररुद्रनृपतावाशास्यते किं भवे-
दित्याल्यां प्रणयैकवाचि सुतनुर्दत्तोत्तरा
व्रीडया॥५७॥
मध्या यथा
लीलाविभ्रमपूर्वरङ्गमुदितं तारुण्यमेत्य त्रपा—
नेपथ्यान्तरविम्बितस्मरकलालास्यप्रपञ्चश्रियः।
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तत्र मुग्धामुदाहरति। मुग्ध इति। या काचिदनाप्ता किम्। नेत्यर्थः।
अनुक्तेऽपि तव मनोरथं जानामीत्याह। आसक्तिरिति। अस्तीति शेषः। आशास्यत इत्येकं वाक्यम्। यः सर्वाभिरभिलष्यत इत्यर्थः। यद्वा रुद्रनृपतौ तवासक्तिराशास्यते अस्माभिरपेक्ष्यत इत्यर्थः। आङः शासु इच्छायामित्यस्माद्धातोः कर्मणि यक्। किं भवेदिति संप्रश्ने लिङ्। अत्राभिरूप्यादिगुणयोगसूचकेन सुतनुशब्देन प्रथमयौवनस्य दत्तोत्तरा
ब्रीडया इत्यनेन लज्जाविजितमन्मथत्वस्य च प्रतीतेरियं मुग्धा।
‘आभिरूप्यमकाठिन्यमङ्गानां चातिमार्दवम्।
एवमादिगुणावस्था प्रथमे यौवने भवेत्॥’
इत्युक्त्वा ‘कृताधराङ्गसंस्कारा सखीकेलीषु लालसा’ इत्यादिना
तच्चेष्टाश्चोक्ताः।
तच्चाल्यां प्रणयैकवाचीत्यनेन सूच्यते ॥५६-७.
मध्यामुदाहरति। लीलेति। पूर्वरङ्गो नाम
नाट्यादौ कर्त्तव्यो रङ्गप्रसाधनाख्यः कर्मविशेषः। तदुक्तम्—
‘यन्नाट्यवस्तुनः पूर्वं रङ्गविघ्नोपशान्तये।
कुशीलवाः प्रकुर्वन्ति पूर्वरङ्गः स कीर्त्तितः॥’
सख्यः पश्यत काकतीयनृपतौ भावानुबन्धोज्ज्वलः
कोऽप्यस्यास्तरलभ्रुवो विजयते शृङ्गारनाट्यक्रमः॥५८॥
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इति। लीलाविभ्रमाणामयत्नलब्धविलासानां पूर्वरङ्गं तारुण्यस्य विलासहेतुत्वेन तत्पूर्वभावित्वात् पूर्वरङ्गत्वेन रूपणम्। यद्वा लीलाविभ्रमा एवं पूर्वरङ्गो यस्य तत् तारुण्यमेव रङ्गस्थलमिति गम्यते। त्रपैव नेपथ्यं नीहारावरणसदृशी यवनिका। अत एव तस्यान्तरे बिम्बिता स्मरकला कामोद्दीपनं सैव लास्यप्रपञ्चश्रीर्
यस्यास्तथोक्ताया लज्जामन्मथमध्यस्थाया इत्यर्थः। लास्यलक्षणं तु संगीतचूडामणौ।
‘शृङ्गाररसभूयिष्ठैर्भूरिभावतरङ्गितैः।
अङ्गैरनङ्गसर्वस्वैः शोभातिशयशालिभिः॥
अन्वितो नृत्तभेदो यस्तल्लास्यमिति कथ्यते॥’
इति। बिम्बग्रहणोचितनेपथ्यं तदन्तरे नर्त्तनं च। तत्रैवोक्तं कुण्डलिनृत्तप्रस्तावे
‘नीरन्ध्रा तत्र कर्तव्या स्निग्धा यवनिकादिमा।
अपरे द्वे यवनिके नीहारावरणोपमे॥
प्रेक्षकाणां वितन्वाना नयनानन्दकन्दलम्।
नेपथ्यान्तरिता भूत्वा नर्त्तकी नृत्तमाचरेत्॥’
इति। भावस्य रत्याख्यस्थायिभावस्यानुबन्धो विच्छेदाभावः। सजातीयविजातीयैरतिरस्कार इत्यर्थः। अथवा भावानां सात्त्विकसंचारिणामनुबन्धः कल्लोलवदसकृदनुवर्त्तनं तेनोज्ज्वलो मनोहरः नाट्यपक्षे भावो नाम व्यापारविशेषः। तदुक्तम्।
‘बागङ्गसत्त्वाभिनयैर्मुखरागोपशोभितैः।
भावयन्नान्तरं भावं व्यापारो भाव इष्यते॥’
इति। कोऽप्यनिर्वचनीयशृङ्गार एव
नाट्यंनर्त्तनं तस्य क्रमः। पश्यतेत्यस्य वाक्यार्थः कर्म॥५८॥
प्रौढा यथा
सहेलं पश्यन्त्याः प्रकृतिसुभगं रुद्रनृपतिं
तदा98त्वप्रत्युद्यद्विविधललिताटोपमधुरम्।
रसप्रादुर्भावाद्युगपदुदयत्सात्त्विकमहो
मृगात्क्ष्यास्तारुण्ये कुसुमशरशिल्पं विजयते॥५९॥
भेदान्तरं
यथासंभवमुदाहार्यम्।99
गुणालंकाराणां रसमहति काव्ये विलसितं
स्फुरच्छव्दार्थाभ्यां तदपि हृदयानन्दि भवति।
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प्रौढामुदाहरति। सहेलमिति। प्रकृत्या मधुरं प्रियदर्शनम्। व्यक्तशृङ्गारसूचकोऽन्तःकरणविकारो हेला। तत्सहितं यथा भवति तथा पश्यन्त्याः अत एव तदात्वे तत्काले प्रियदर्शनसमय इत्यर्थः। प्रत्युद्यन्ति उत्पद्यमानानि विविधानि च ललितानि कर्णकण्डूयनकुचविमर्दनादिकोमलाङ्गविन्यासाः।
‘सुकुमाराङ्गविन्यासो ललितं परिकीत्यते ‘
इति लक्षणात्। तेषामाटोपेन मधुरमिति स्मरमन्दीकृतव्रीडत्वमुच्यते। रसस्य शृङ्गारस्य प्रादुर्भावादुदयानुभावादित्यर्थः।
‛उत्पन्नारतिरेकत्र प्रथमं दर्शनादिभिः।
हृदारभ्मानुभावेन शृङ्गारं विशिनष्टि सा॥’
इति वचनात्। कुसुमशरशिल्पं कामकलाकौशलम्। अत्र दयितावलोकनकाले अङ्गादौ सातिशयविशेषकथनाद्विलासः।
‘तत्कालीनो विशेषस्तु विलासोऽङ्गक्रियादिषु।’
इति लक्षणात् ॥५९॥
विस्तरभयादस्माभिरुपेक्षितानां धीराद्यवस्थानामुदाहरणानि स्वयमेव द्रष्टव्यानीत्याह। भेदान्तरमिति। अत्रायं नायिकासंग्रहः।
तयोरप्युन्मेषः स्रवदमृतमाधुर्यसुभगः
परं
पुण्यश्लोकं चरितमनुबध्नन्
विजयते॥६०॥
इति
श्रीविद्यानाथकृतौ प्रतापरुद्र
यशोभूषणेऽलंकारशास्त्रे नायकप्रकरणं
समाप्तम् ॥१॥
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‘स्वान्या साधारणा
चैवमुग्धा मध्या प्रगल्भिका।
आद्यैकधा त्रिधान्ये द्वे धीराधीरोभयात्मना॥
ज्येष्ठा कनिष्ठा भेदेन ते एव द्विविधे पुनः॥
अन्या कन्या परोढा च वेश्या त्वेकेति पोडश॥
स्वाधीनपतिकाद्यष्टावस्थाभिस्ताः समन्विताः॥
प्रत्येकमष्टधा मुख्या मध्या हीनेति तास्त्रिधा।
इत्येवं नायिकावस्थाः समुद्राष्टाग्नि(३८४) सम्मिताः॥
विरहोकण्ठिता चैव विप्रलब्धाभिसारिका।
इत्यवस्थात्रयं प्राहुः केचित् कन्यापरोढयोः॥
चतुःपञ्चाशदधिकत्रिशत्यासां
तदा भवेत्॥’
इत्थं प्रसक्तमनुप्रसक्तं च परिसमाप्य परमप्रकृतं पुण्यश्लोकगुणवर्णनमुपस्कूर्वन्नुपसंहरति। गुणेति। पुण्यः श्लोको यशो यस्मिंस्तत् पुण्यश्लोकम्। ‘पद्ये यशसि च श्लोकः’
इत्यमरः॥६०॥
इति पदवाक्यप्रमाणपारावारपारीण
श्रीमहोपाध्यायकोलचलमल्लिनाथसूरिसूनुना विश्वजनीनविद्यस्य विद्वन्मणेः
पेद्दयार्यस्यानुजेन
कुमारस्वामिसोमपीथिना विरचिते प्रतापरुद्रीयव्याख्याने
रत्नापणाख्याने
नायकनिरूपणं नाम प्रथमं
प्रकरणम्।
Appendix to नायकप्रकरण।
(Giving the portion found in M₁, P. and T.)
एष संग्रहश्लोकः। उपस्कारहेतूनां गुणालंकाराणां सदृशेऽलंकार्ये सति चरितार्थत्वम्। यस्यालंकाराश्रयत्वं तदेव लोकन्यायेनालंकार्यम्। तेन गुणालंकाराणां काव्यमेवाश्रयभूतमिति तदेवालंकार्यम्। रसादेरलंकार्यत्वोक्तिः प्राधान्येनात्मन इव हारनूपुराद्यलंकार्यत्वम्। जीवितभूतत्वाद्रसादेः काव्यात्मता। क्वचिद्रसस्य प्राधान्यम्। क्वचिदलंकारस्य प्राधान्यम्। क्वचिद्वस्तुनः प्राधान्यं च।
रसप्राधान्यं यथा।
ईषदङ्कुरितविभ्रमचारौ
देहपल्लवितकान्तिनि तन्व्याः।
यौवने मुकुलितस्तनमात्रे
पुष्पितश्च फलितश्च मनोभूः॥६१॥
एतत् कांचिद्वालामालोक्य संस्पृहस्य प्रतापरुद्रस्य वचनम्।
अत्रशृङ्गाररसो व्यज्यते॥
अलंकारप्राधान्यं यथा।
कीर्त्तौ प्रतापरुद्रस्य विहरन्त्यां
दिगन्तरम्।
लोकालोकतटाः शश्वद्द्रवच्चन्द्रोपलाङ्किताः॥६२॥
अत्र चन्द्रकान्तकुट्टिमानां
लोकालोकतटानां रुद्रदेवकीर्त्तौ
चन्द्रिकाबुद्ध्याशश्वद् द्र
वोऽभूदिति भ्रान्तिमदलंकारो व्यज्यते। व्यङ्ग्याव
स्थायामलंकारस्यापि प्राधान्यमस्त्येव॥
वस्तुप्राधान्यं यथा।
अवतरति वीररुद्रे
काकतिवशे त्रिलोकमहनीये।
त्यक्त्वा दुग्धपयोधिं तल्पफणीशः स्वमन्दिरं प्राप्तः॥६३॥
अत्र तल्पफणीशः
दुग्धाब्धिंविहाय स्वगृहं प्राप्त इत्यनेन क्षीरसमुद्रे
हरिर्नास्तीति व्यज्यते। अनेन पुरुषोत्तमः प्रतापरुद्ररूपेण काकतीयकुले बर्त्तत इति वस्तु व्यज्यते। इति त्रिविधं व्यङ्ग्यप्राधान्यम्॥
काव्यं समाश्रित्य गुणालंकाराणां विलासः। तच्च काव्यं शब्दस्फुरणेनार्थस्फुरणेन
तदुभयस्फुरणेन च सहृदयहृदयानन्दि भवति॥
शब्दस्य स्फुरणं नाम
प्रौढबन्धस्य डम्बरः।
यो
बन्धाडम्बर आरभट्यां
प्रतिपादयिष्यते तच्छब्दस्फुरणम्।
यथा
क्षोणीरक्षणदक्षिणाः क्षतजगत्क्षोभाद्दुरीक्ष्यक्रमाः
क्षुद्रक्षत्रियपक्षशिक्षणविधौ प्रोत्क्षिप्तकौक्षेयकाः।
उद्दामोद्यमनस्य रुद्रनृपतेर्दोर्दण्डयोश्चण्डयो-
र्गर्जहुर्जनगर्वपर्वत100भिदादम्भोलयः केलयः॥६४॥
अचुम्बितार्थसंपत्तिरर्थस्फुरणमुच्यते101॥
यथा
खग्गेजुज्झविजिम्भिए
रिवुमहीणाहांजलिं विविअं
पेक्खंतो
जंअलच्छिवासकमलं मण्णंति विष्णाणिणः।
मण्णे वीरपंआवरुद्दविहुणो जण्णेसु घेत्तुं उणो
सिठ्ठीए
रिपुजीविआइ विहिणो
पत्तस्य पीठंबुअम्॥६५॥
उभयस्फुरणं यथा
उद्यद्वृंहितगर्जितै102र्द्विपघटाकादम्बिनीडम्बरैः
क्षोणीभृत्कटकोपरोधपटुभिः सद्यः स्फुरद्दिक्तटाः।
प्रावृट्संभ्रमशंसिनो
रिपुवधूबाष्पोद्भवं दुर्दिनं
कुर्वन्तश्चल103मर्त्त्यगण्ड104नृपतेर्जैत्रप्रयाणोद्यमाः॥६६॥
एवंविधशब्दार्थस्फुरणाभ्यां काव्यस्य चारुत्वम्। शब्दार्थयोरपि
पुण्यश्लोका105नुवर्णनेन सहृदयहृदयानन्दित्वम्। अतो
नायकस्यैव काव्ये प्राधान्यम्।
कुलाचारयशः शौर्यश्रुतशीलादिवर्णनम्।
क्रियते नेतुरेवं
यत्तद्यत्र बहुसंमतम्॥६७॥
अथवा प्रतिपक्षस्य वर्णयित्वा
बहून् गुणान्।
तज्जयान्नायकोत्कर्षकथनं106 च
क्वचिन्मतम्॥६८॥
यथाक्रममुदाहरणम्।
तत्त्वं यस्य परः पुमानवतरो यस्यान्वयः काकति-
क्ष्मापानां चरितं च यस्य भुवनक्षेमंकरप्रक्रमम्।
श्लाघायस्य लघूकृतामरतरुस्वर्धेनुचिन्तामणिः
सोऽयं विश्वधुरंधरो विजयते श्रीवीररुद्रो नृपः॥
यत्तेजः प्रतिपक्षभूपविहरद्गर्वान्धकारातपो
यद्दोरर्गलविक्रमस्त्रिजगतीशुद्धान्तदौवारिकः।
सोऽप्यासीद्युधि
सेवणक्षितिपतिः सन्नाहभेरीध्वनिं
श्रुत्वा रुद्रनरेश्वरस्य महतो भीतः
प्रलापाकुलः॥७०॥
एवंविध107वर्णनमुत्पाद्यनायके न घटते। तस्य
सर्वलोक108प्रसिद्ध्यर्थं कुल
व्यपदेशादयोवर्णयितुमेवोचिताः। स्वतः सिद्धे तु नायके द्वैविध्यमपि संभवति। तस्य कुलव्यपदेशादीनां लोकप्रसिद्धत्वात् कविभिर्वलवत्
प्रतिपक्षविजयवर्णनं109 युक्तम्।
स्वतः सिद्धोत्पाद्यत्यभेदेन
नायकद्वैविध्यमपि संभवति।
तत्र
धीरोद्धते यथा रौद्रो वर्ण्यते
बाह्यसंभ्रमैः।
यथा च धीरललिते शृङ्गारो बहुभावकृत्॥७१॥
न धीरोदात्तविषये तथा वर्णनमिष्यते।
कार्यतो रससंपूर्त्तिस्तस्मिन्नप्युचितक्रमा॥७२॥
हास्यादीनां तथान्येषां रसानामपि
वर्णनम्।
मन्दोद्यमानुभावं स्याद्धीरोदात्ते
तु नेतरि॥७३॥
सर्वनायकातिशयत्वाद्धीरोदात्तस्य
तद्विषयत्वाद्धि
प्रबन्धानामतिश्लाघ्यास्पदत्वम्॥
———————
अथ
काव्यस्वरूपं निरूप्यते।
गुणालंकारसहितौ शब्दार्थौदोषवर्जितौ।
गद्यपद्योभयमयं काव्यं काव्यविदो विदुः॥१॥
अदोषौ सगुणौ सालंकारौ शब्दार्थौ काव्यमिति काव्यसामान्यलक्षणम्।
शब्दार्थौ मूर्त्तिराख्यातौ जीवितं व्यङ्ग्यवैभवम्।
हारादिवदलंकारास्तत्र स्युरुपमादयः॥२॥
श्लेषादयो गुणास्तत्र शौर्यादय इव स्थिताः।
आत्मोत्कर्षावहास्तत्र स्वभावा इव रीतयः॥३॥
शोभा110माहार्यकीं111 प्राप्ता वृत्तयो वृत्तयो यथा।
पदानुगुण्यविश्रान्तिः शय्या शय्येव संमता॥४॥
रसास्वादप्रभेदाः स्युः पाकाः पाका इव
स्थिताः।
प्रख्याता लोकवदियं सामग्री
काव्यसंपदः॥५॥
———————————————————————————————————————————————
अथ प्रासङ्गिकं नायकस्वरूपं निरूप्य प्रकृतं काव्यस्वरूपनिरूपणं प्रतिजानीते। अथेति। काव्यसामान्यलक्षणमाह। गुणेति। अत्र गद्यपद्येत्यादिना काव्यस्य त्रेधा विभागो दर्शितः। शेषं लक्षणम्। अतस्तदेव निष्कृप्याह। अदोषाविति। अत्र सूत्रे प्रथममनुपात्तस्यापि दोषवर्जनस्यादौ व्याख्यानमल्पोऽपि दोषः प्रमादादिनाप्यनुपेक्ष्य इति द्योतयितुम्। तदुक्तं दण्डिना—
‘तदल्पमपि नोपेक्ष्यं काव्ये दुष्टं कथंचन।
स्याद्वपुः सुन्दरमपि श्वित्रेणैकेन
दुर्भगम्॥’
इति। ‘एको हि दोषो गुणसंनिपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः’॥ इति तु काव्यव्यतिरिक्तविषयमिति
द्रष्टव्यम्॥१॥
अथ वक्ष्यमाणलक्षणशब्दार्थादिकाव्यसा
मग्र्यांशरीरादिलोकसामग्रीमारोपयति। शब्दार्थावित्यादि। स्वभावा जातिप्रयुक्तधर्माश्चेष्टादयः। आहार्यकीं कृत्रिमाम्। वृत्तयो वर्त्तनानि। पदानामानुगुण्यं पदविनिमयासहिष्णुत्वम्। रसः शृङ्गारादिरास्वाद्यते येन गार्म्भीर्येण तस्य विशेषाः रसास्वादप्रभेदाः २-५॥
वाचकलक्षकव्यञ्जकत्वेन
त्रिविधं शब्दजातम्। वाच्यलक्ष्यव्यङ्
म्यत्वेनार्थजातमपि त्रिविधम्।
तात्पर्यार्थो
व्यङ्ग्यार्थ एव
नपृथ-
——————————————————————————————————————
अथ यथायोगं विवेचयन् आदौ तावच्छब्दार्थौविभजते। वाचकेत्यादिना। क्रमेणाभिधालक्षणाव्यञ्जनाव्यापारैरर्थावबोधकाः शब्दा वाचकलाक्षणिकव्यञ्जकाः। तैरेव बोध्या अर्था वाच्यलक्ष्यव्यङ्या इति विवेकः। ननु चतुर्थे तात्पर्यार्थे जाग्रति कथमर्थत्रैविध्योक्तिरित्याशङ्क्य तस्य तृतीयेऽन्तर्भाव इत्याह। तात्पर्यार्थ इति। अत्र वक्तृबुद्धिसंनिधापितो वाक्यावगम्यो वाक्यार्थो रसादिरूपस्तच्छब्देनोच्यते। तस्मिन् परास्तत्परास्तदासक्तास्तद्विषया इत्यर्थः। तेषां भावस्तात्पर्यम्। नन्वभिहितानां पदार्थानामर्थाभिधायिनां वा पदानां विशिष्टार्थप्रत्यायनशक्तिस्तात्पर्यमिति मतभेदेन मीमांसका वर्णयन्ति। अतस्तन्मते देवदत्त गामानयेत्यादौ
देवदत्तकर्त्तृकगोकर्मकानयनरूपो विशिष्टार्थ एव व्यङ्ग्यत्वविधुरस्तात्पर्यादवगतत्वात् तात्पर्यार्थ इत्युच्यते कथमस्य व्यङ्ग्येऽन्तर्भाव इति चेत् सत्यम्। न हि तावन्मात्रे कविसंरम्भविश्रान्तिः काव्यशब्दानामन्वयव्यतिरेकाभ्यां प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयभूतस्य प्रधानस्य प्रयोजनान्तरस्यासम्भवात्। किं तु तदर्थन्यक्कारेण प्रतीयमाने सामाजिकानन्दा
स्वादफले रसादावर्थान्तरे। अतः स एव तात्पर्यार्थः। तत्प्रत्यायकपदार्थशक्तिरेव
तात्पर्यमिति कविसमये। तच्च नाभिधा। स्वार्थे
संकेताभावात्। नापि लक्षणा। मुख्यार्थबाधाद्यभावात्। अतो वक्ष्यमाणलक्षणस्य व्यञ्जनस्यैवेदं नामान्तरकरणमिति तदर्थस्य व्यङ्ग्यार्थत्वमेवेति भावः। तर्ह्यत्र संसर्गरूपो वाक्यार्थः कथं प्रतीयत इति चेत् तार्किकाणामिव वाक्यमहिम्ना न
पुनस्तात्पर्येणेति ब्रूमः। अत एव ते वर्णयन्ति। आकाङ्क्षादिमत्त्वे सति पदानां पदार्थानां वा समन्वयशक्तिर्वाक्यं तद्धलायातो वाक्यार्थः। तात्पर्यार्थस्तु परिणतिविरसं पनसफलं
परिणतिसुरसमाम्रफलमित्यादि112 निन्दाप्रशंसादिवाक्येषु
ग्भुतः।
अभिधालक्षणाव्यञ्जनाख्यास्तिस्रः113 शब्दवृत्तयः।
गौणवृत्ति-
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हानोपादानादिरूप एव नान्यः। तात्पर्यमिति भावाभिप्रायाद्यपरपर्यायम्। उद्देशो नाम वक्तृधर्मो न मीमांसकानामिव वाक्यधर्म इति। तदेतदुदयनाचार्यैः कुसुमाञ्जलौ ‘उद्देश एव तात्पर्यम्’ इत्येतच्छ्लोकव्याख्यानावसरे प्रतिपादितम्। यद्वा वैयासिकदेवताधिकरणे अर्थान्तराभावे संसर्ग एव तात्पर्यार्थः तत्सद्भावे तत्रैव प्रतीतिविश्रान्तेः स एव तात्पर्यार्थो न संसर्ग इति प्रतिपादितं तद्वदत्रापि द्रष्टव्यम्। काव्ये संसर्गमात्रविश्रान्तिर्न संभवतीत्युक्तम्। तर्हि ‘अव्यङ्ग्यमपरं स्मृतम्’ इति काव्यप्रकाशवचनस्य का गतिरिति चेन्नैप दोषः। अव्यङ्ग्यमित्यत्रानुदरा कन्येतिवन्नञीपदर्थत्वेनास्फुटव्यङ्ग्यत्वस्य विवक्षितत्वात्। तदुक्तमलंकारसुधानिधौ—
‘अनुल्वणत्वाद्व्यङ्ग्यानामव्यङ्ग्यं चित्रमीरितम्।
व्यङ्ग्यस्यात्यन्तविच्छेदः काव्ये कुत्रापि
नेष्यते॥’
इति। एवं च सति प्राचीनालंकारशास्रकाराणां संसर्गरूपवाक्यार्थस्य तात्पर्यार्थत्वेन प्रतिपादनं मतान्तराभिप्रायेणेति द्रष्टव्यम्। अत एवोक्तं काव्यप्रकाशे **’**तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित्’ इति। उक्तं च सुधानिधौ। ‘अस्मन्मतं तात्पर्यव्यापारापेक्षं न भवति’ इति। विद्याधरेणाप्युक्तम्। ‘तात्पर्ये नाम व्यापारान्तरं परैरभ्युपगतम्’ इति। तस्माद्व्यञ्जनापरपर्यायमेव तात्पर्ये कविभिरङ्गीकृतं नान्यदिति सिद्धम्। अत एवोक्तं भावप्रकाशे—
‘अतो
ध्वन्याख्यतात्पर्यगम्यमानत्वतः स्वतः।
काव्ये रसालंक्रियादिर्वाक्यार्थो भवति स्फुटम्॥
इति। उक्तं च ध्वन्याचार्यैः। ’ यत्त्वभिप्रायविशेषरूपं व्यङ्ग्यं शब्दार्थाभ्यां प्रकाश्यते तद्भवति विवक्षितं तात्पर्येण प्रकाश्यमानम्’ इति। वृत्तयोऽपि त्रिविधा इत्याह। अभिधेति। गौणवृत्तिर्लक्षणातो भिन्नेति
प्रभाकराः। तद्युक्तम्। तस्या लक्षणायामन्तर्भावादित्याह। गौणवृत्तिरिति। गुणनि
रपि लक्षणाप्रभेद एव।
संबन्धानुपपत्तिमूलत्वात्। यथाग्निर्माणवक
इत्यत्राग्निसादृश्य114विशिष्टमाणवकप्रतिपत्तिर्विवक्षिता। तथैव गङ्गायां
घोषइत्यत्र गंगासंबन्धविशिष्टतीरप्रतिपत्तिर्विवक्षिता। गंगासंबन्ध
स्योपलक्षणत्वे घोषगतपवित्रत्वाद्यसिद्धेः। अत एव सादृश्यनिबन्धना
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मित्ता वृत्तिर्गौणवृत्तिरित्यर्थः। अत्र हेतुमाह। संबन्धेति। लक्षणाया अपि तथात्वादिति भावः। मुख्यार्थयोगः संबन्धः। तद्वाधोऽनुपपत्तिः। अग्निर्माणवक
इत्यत्राग्निलक्षितपैङ्गल्यादिगुणसामान्ययोगः115 संबन्धः। अनग्नावग्निशब्दप्रयोगोऽनुपपत्तिः। अत्रोभयनिष्ठस्य गुणसामान्यरूपस्य गुणविशेषरूपस्य वा सादृश्यस्य संबन्धरूपत्वम्। तस्य चोभयनिरूपणीयत्वसाधर्म्येणोपचारात्। तदुक्तं
वाक्यपदीये—
‘सादृश्यमात्रं सामान्यं द्विष्टं कैश्चित् प्रतीयते।
गुणभेदोऽप्यभेदेन द्विवृत्तिर्वा विवक्षितः॥’
इति। ननु गौण्यां यथा संबन्धस्य लक्ष्यविशेषणत्वेनान्वयो न तथा लक्षणायाम्। अतः कथमनयोः संबन्धमूलकत्वसाम्यमित्याशङ्क्य लक्षणायामपि संबन्धस्य विशेषणत्वं सद्दष्टान्तमाह। यथाग्निरिति। अत्र सादृश्यस्य माणवकनिष्ठत्वात् तस्य तद्विशिष्टत्वम्। अन्यत्र
गङ्गाशब्दबोध्यत्वहेतुकप्रवाहप्रतीति116विषयत्वमेव तीरस्यापि गङ्गासंबन्धविशिष्टत्वम्। एवं च स्त्रोतस्तीरयोरेकशब्दबोध्यत्वेन तादात्म्यप्रतीतेः स्रोतोधर्मा अत्यन्तपावनत्वादयस्तीरे प्रतीयन्त इति प्रयोजनसिद्धिः। एवमनङ्गीकारे तदसिद्धिरेव बाधिकेत्याह।
गङ्गासंबन्धस्येति। उपलक्षणत्व इति नेदं समुद्रादितीरं किं तु गङ्गातीरमिति गङ्गासंबम्धमात्रप्रतीतावित्यर्थः। घोषगतेति। तीरद्वारेति भावः। तथा सति गङ्गातीरे घोष इति मुख्यशब्दाभिधानाल्लक्षणाया भेदो न स्यादिति हृदयम्। न च मा भूद्भेद इति वक्तुं युक्तम्। तथा सति मुख्ये संभवति गौणस्यान्याय्यत्वात्
सर्वसंप्रतिपन्ना लक्षणैवोत्सीदेदिति। अनेन
संबन्धानुपपत्तिप्रयोजनानां117त्रयाणां118
लक्षणाबीजत्वमुक्तम्। तस्या विभागमाह। अत एवेति। निमित्तभे-
संबन्धनिबन्धना चेति
द्विविधा लक्षणा।
संबन्ध119निबन्धना120जहद्वाध्याजहद्वाच्या चेति
द्विविधा। सादृश्यनिबन्धना सारोपा
साध्यवसाया चेति
द्विधा। एवं
लक्षणा चतुर्विधा। कैशिक्यारभटीसात्वती भारती
चेति रचनाश्रितत्वेन
रसावस्थान121सूचकाश्चतस्रो वृत्तयः।
तथोक्तं दशरूपके
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दादित्यर्थः। अत्र
सादृश्यशब्देनारोपाध्यवसाय122हेतवोऽन्येऽपि कार्यकारणभावादयः संबन्धा उपलक्ष्यन्ते। संबन्धशब्देन तद्व्यतिरिक्ता गोबलीवर्दन्यायेनोच्यन्ते। द्वयोरपि प्रत्येकं द्वैविध्यमाह। संबन्धेत्यादि। अत्र यद्यपि
सारोपसाध्यवसाययोः सादृश्यनिमित्तत्वे गौणत्वं गौर्वाहीको गौरयमित्यादौकार्यकारणभावादिसंबन्धान्तरनिमित्तत्वे तु शुद्धत्वमायुर्धृतमायुरेवेदमित्यादौ एवं चातुर्विध्ये जहदजहल्लक्षणाभ्यां सह षोढा लक्षणेति काव्यप्रकाशकारस्तथापि मुख्यार्थस्य हानोपादानारोपाध्यवसायलक्षणोपाधिवशाच्चातुर्विध्यमेव लक्षणायाः। आयुर्धृतमायुरेवेदमित्यादावपि गौणत्वस्यैव सुकल्पत्वाच्च। तदुक्तमलंकारचूडामणौ।’ यत्र वस्त्वन्तरे वस्त्वन्तरमुपचर्यते स गौणोऽर्थः। यत्र न तथा स लक्ष्य इति विवेकः’ इति। कुशलप्रवीणादिशब्दानां
तु साक्षात् संकेतविषयत्वेन मुख्यत्वान्न रूढिहेतुकत्वं लक्षणाया इत्याचार्यहेमचन्द्रः। रूढिपक्षाश्रयणे तु प्रयोजनलक्षणापेक्षं चातुर्विध्यमिति विज्ञेयम्। ननु कैशिक्यादिवृत्तीनां विद्यमानत्वात् कथं तिस्रः शब्दवृत्तय इत्याशङ्क्य शब्दसंदर्भाश्रितत्वात्तासामशब्दवृत्तित्वमित्यभिप्रायेणाह। कैशिकीति। रसाद्यनुगुणत्वेनौचित्यवानर्थव्यापारः कैशिक्यादिः। तादृश एवं शब्दव्यापारो वै
दर्भ्यादिः। तदुक्तं ध्वन्याचार्यैः।
‘रसाद्यनुगुणत्वेन व्यवहारोऽर्थशब्दयोः।
"
औचित्यवान् यस्ता एव वृत्तयो द्विविधाः स्थिताः॥’
इति। एवं कैशिक्यादीनामर्थप्राधान्येऽपि नान्तरीयकाणां शब्दानां यथायोगं
कैशिक्यारभटी चैव
सात्वती भारती तथा।
चतस्रो वृत्तयो ज्ञेया रसावस्थानसूचकाः॥
इति123।
रचनाया अपि रसव्यञ्जकत्वं प्रसिद्धम्।
रसाननुगुणवर्णरचनाया दोषत्वमुक्तम्। वैदर्भीप्रभृतयो रीतिविशेषा न वृत्तिष्वन्तर्भूताः।
तत्र संकेतितार्थगोचरः शब्दव्यापारोऽभिधा। सा द्विविधा रूढिपूर्विका योगपूर्विका चेति।
रूढिपूर्विका यथा।
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वैदर्भ्यादिसापेक्षत्वस्य
धनिकादिभिः प्रतिपादनाद्रचनाश्रितत्वमित्यनुसंधेयम्। कैशिक्यादीनां रसव्यञ्जकत्वस्य रचनाधीनत्वात् तस्यास्तथात्वमन्वयव्यतिरेकाभ्यां दर्शयति। रचनाया अपीति। प्रसिद्धमिति।
काव्यादाविति शेषः। तदुक्तम्।
“यस्त्वलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यो ध्वनिर्वर्णपदादिषु।
वाक्ये संघटनायां च स प्रबन्धेऽपि
दीप्येते॥’
इति। यद्यपि विभावादीनामेव रसव्यञ्जकत्वं रचनादीनां तु विभावादिसहकारित्वमेव अत एवोक्तं लोचने। ‘सहकारित्वमेवाभिधातुं संघटनायामित्यादौ सप्तमीनिर्देशः’ इति तथाप्यौपचारिकं रसव्यञ्जकत्वमिति बोद्धव्यम्। दोषत्वमिति ’ रसस्य स्याद्विरोधाय वृत्त्यनौचित्यमेव च’ इति वचनाद्रसभङ्गहेतुत्वादिति भावः। अथ प्रसंगाद्वैदर्भ्यादीनां वक्ष्यमाणं कैशिक्याद्यनन्तर्भावमधुना प्रतिजानीते। वैदर्भीप्रभृतय इति। अथोद्देशक्रमानुसारेणाभिधालक्षणमाह।
तत्रेति। संकेतः शब्दार्थयोः संबन्धावधारणं स कृतो यस्य स
संकेतितोऽर्थो124जातिगुणक्रियाद्रव्यात्मकः केवलजातिर्जात्यालिङ्गितव्यक्तिरन्यापोहो वा मतभे दात्।
सार्वपयीनाः खलु कवयो भवन्ति। विशेषणद्वयेन व्यञ्जनचेष्टयोः क्रमेण व्युदासः। लक्षणायास्तु द्वयोरन्यतरेणेति विवेकः। लक्ष्येऽपि संकेतोऽस्तीत्यन्वि ताभिधानवादिनः। तन्मते शब्दव्यापारपदेनैवेति विशेषः। अशब्दव्यापारो लक्षणेति वक्ष्यते। अभिधां विभजते। सेति। रूढिरश्वकर्णादिवदवयवार्थाभावेन समुदायप्रसिद्धिः। तदुक्तमाचार्यैः।
तपोविशेषैः प्रथितैः प्रजानां
शुभैश्चरित्रैर्जगतीमहिष्याः।
भाग्यैः प्रभूतैर्भुवनस्य चास्य
विभर्ति राज्यं वरवीररुद्रः ॥६॥
अत्र सर्वे शब्दा रूढाः। योगपूर्विका यथा।
राज्ञिरुद्रनराधीशे रञ्जयत्यखिलाः प्रजाः।
भूरन्वर्था वसुमती रत्नगर्भा स्थिरेति च ॥७॥
अत्र
वसुमती125रत्नगर्भेत्येवमादयो यौगिकाः।
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‘असत्स्ववयवार्थेषु
योऽन्यत्रार्थे प्रयुज्यते।
तत्रानन्यगतित्वेन समुदायः प्रसिध्यति।’
इति। योगः प्रोक्षण्यादौ प्रकृष्टोक्षणकरणत्वादिवदवयवप्रसिद्धिः। आद्यामुदाहरति। तप इति। तपोविशेषैः कृच्छ्रचान्द्रायणादिभिः। जगतीमहिष्या भूकान्तायाः शुभैश्चरित्रैः पुरन्ध्रीसाध्यैर्गोरीव्रतादिभिरस्य भुवनस्य मध्यमलोकस्य
भाग्यैरदृष्टपरिपाकैः। अत्र
तपःप्रभृतिनिमित्तभेदाद्विच्छित्तिविशेषं126 वक्तुं मध्यमलोक एव समष्टिव्यष्टिभ्यामाश्रितः प्रजापृथिवीव्यतिरिक्तमध्यमलोकासंभवादिति द्रष्टव्यम्। अत्र तपःप्रभृतीनामवयवार्थाभावाद्रूढंत्वे न कोऽपि विवादः। प्रजादिशब्दानामवयवार्थसद्भावेन
यौगिकत्वेऽपि रूढिर्योगमपहरतीति शब्दशकिस्वाभाव्यादर्थान्तरे प्रयोगनिवारणान्निर्मन्थ्यपङ्कजादिवद्रूढत्वमभिमतमेवेत्याशयेनाह। अत्र सर्व इति॥
द्वितीयामुदाहरति। राज्ञीति। अत्र वसुमत्यादिशब्दानां
धनवत्ता127द्यवयवार्थसद्भावाद्यौगिकत्वमित्याह। अत्रेति॥
लक्षणां लक्षयति। वाच्येति। वाच्यार्थानुपपत्त्या मुख्यार्थबाधेन हेतुना तत्संबन्धिनि मुख्यार्थसंबन्धे विषये आरोपितः शब्दव्यापारो
लक्षणेत्यर्थः। अत्र
वाच्यार्थानुपपत्त्या128
तत्संबन्धिन्यारोपितः शब्दव्यापारो लक्षणा।
तत्र129 जहल्लक्षणा यथा।
जेतुः काकतिभूभर्त्तुराकर्ण्य पटहध्वनिम्।
सामन्तनगराण्युच्चैराक्रोशन्ति समन्ततः॥८॥
अत्र130
नगराण्याक्रोशन्तीति
वाच्यस्यानन्वयः।
अचेतनानामाक्रोशा131संभवात्132।
अजहल्लक्षणा यथा।
पत्युः काकतिनाथस्य
पादपीठीमनारतम्।
स्फुरद्रत्नप्रभाजालैरलंकुर्वन्ति मौलयः॥९॥
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यद्यंपि स्वार्थे प्रत्याय्योपरतव्यापारस्य शब्दस्य पुनर्व्यापारान्तरायोगादर्थ एव लक्षक इत्यर्थव्यापारो लक्षणा तथापि वाच्यधर्मो वाचक उपचर्यत इति लक्षणायाः शब्दवृत्तित्वव्यवहार इति विज्ञेयम्। अत्र
तावत् पूर्वोक्तविभागक्रमेण जहल्लक्षणामुदाहरति। जेतुरिति। अत्राक्रोशसिद्ध्यर्थेनगरशब्दः स्वार्थेहित्वा तद्वासिनः प्राणिनो लक्षयतीत्येषा जहल्लक्षणा। तत्रत्यप्राणिमात्रभयप्रतीतिः प्रयोजनम्। मुख्यार्थबाधं व्यनक्ति। अत्रेति॥
अजहल्लक्षणामुदाहरति। पत्युरिति। पादपीठीमिति। अल्पं पीठं पीठी। गौरादित्वात् ङीप्। अत एवोक्तममरकोशे।
‘स्त्री स्यात् काचिन्मृणाल्यादिर्विवक्षापचये यदि।’
इति। बाहुल्यप्रतीतिः प्रयोजनम्। लक्ष्ये लक्षणं योजयति। अत्रेति। नृपतय इति। मौलिसहिता
एवेत्यर्थः। एवं चात्रापि स्वार्थेहित्वैव तद्विशिष्टार्थान्तरल-
अंत्रालंकरणसिद्ध्यर्थे
मौलिभिरा
श्रयभूता
नृपतयो लक्ष्यन्ते।
सारोपलक्षणा यथा।
मन्थानाचलमूलमेचकशिलासंघट्टनश्यामिका-
कारं यत्तुहिनद्युतौ स्फुरति तत् सारङ्गमाचक्षते।
मन्ये नन्विह वीररुद्रनृपतेः कीर्तिश्रिया निर्जित-
स्तन्मुद्राङ्कवराहमिन्दुरुरसा विभ्रत् समुज्जृम्भते॥१०॥
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क्षणेति सिद्धम्।
स्वार्थापरित्यागे तु स्वार्थाोशेऽभिधा अंशान्तरे तु लक्षणा चेत्येकस्य शब्दस्यैकदा वृत्तिद्वयापत्तेः। तर्हि जहदजहल्लक्षणयोरभेद इति चेत् सत्यम्। किं त्वत्राभिधातः प्रच्याव्य स्वार्थस्यापि लक्ष्यत्वेन स्वीकारादजहत्स्वार्थेति व्यपदेशः। अन्यत्र तु तदपि नास्तीति जहत्स्वार्थेति। तदुक्तं तातपादैरेकावलीतरले तन्त्रवार्त्तिकव्याख्याने सिद्धाञ्जनेच—
‘स्वार्थत्यागे समानेऽपि सह तेनान्यलक्षणा।
यत्रेयमजहत्स्वार्था जहत्स्वार्था तु तं विना॥’
इति। नन्वर्थ एव लक्षक इत्युक्तं तथा
सत्यजहत्स्वार्थायाः स्वार्थांशे वृत्तिविरोध इति चेन्नैष दोषः। केवलस्वार्थस्य लक्षकत्वं तत्सहितस्यान्यस्य लक्ष्यत्वमिति भेदसद्भावादित्येतदपि
तत्रैबोक्तमित्यलमावालसुलभैः प्रसङ्गै॥
सारोपलक्षणामुदाहरति। मन्थानेति। मन्धानो मन्यदण्डस्तदचलो मन्थानाचलो मन्दराद्रिरित्यर्थः।
‘मन्थानं मन्दरं कृत्वा ‛
नेत्रं कृत्वा च
वासुकिम्।’
इति
विष्णुपुराणात्। तस्य मूलोपलेषु संघट्टनेन
बासुकि133संघर्षणेन134 या श्यामिका कालिमा तदाकारमतिनीलमित्यर्थः। तन्मुद्रेति। वराहध्वजत्वात् काकतीश्वरस्येति भावः। लोके केनचिज्जितस्तन्मुद्रामुरसा विभर्तीति प्रसिद्धिः।
अत्र129कुरङ्गस्य
वराहात्मकत्वं प्रतीयते। अत्र विषयविषयिणौ विविञ्चन्नारोपं दर्शयति। अत्रेति॥
अत्र
चन्द्रस्य
कलङ्क
रूपे कुरङ्गे वराहत्वमारोप्यते।
विषयविषयिणोरभिहितयोरभेदप्रतिपत्तिरारोपः।
विषयनिगरणेनाभेदप्रतिपत्तिरध्यवसायः।
साध्यवसानलक्षणा यथा।
काकतीयकुलाम्भोधेः प्रभवत्येष चन्द्रमाः।
कृतः कुवलयोल्लासो येनोदयमुपेयुषा॥११॥
अत्र प्रतापरुद्रश्चन्द्रतयाध्यवसीयते।
काकतीयकुलाम्भोधे
रित्यारोपश्च॥
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भेदान्तर135सांकर्यशङ्कानिरासार्थमारोपलक्षणमाह। विषयेति। विषवः प्रकृतो माणवकादिः। विषय्यप्रकृतो वह्न्यादिः। तयोरभिहितयोरपह्नुतभेदतया सामानाधिकरण्येनोक्तयोरित्यर्थः। एतेनाध्यवसायाद्भेद उक्तः। प्रसङ्गात् तस्यापि लक्षणमाह। विषयेति। विषयस्य निगरणमत्यन्तापलापस्तेनाभेदप्रतिपत्तिर्विषयिण इति सामर्थ्याल्लभ्यते। न चायं जहल्लक्षणाभेदः। अत्र सादृश्यादिनिबन्धनस्य वस्त्वन्तरे वस्त्वन्तरोपचारस्य विद्यमानत्वात्। साध्यवसायलक्षणामुदाहरति। काकतीयेति। उदयमभ्युदयं पूर्वपर्वतं चोपेयुषा प्राप्तवता। कुवलयोल्लासो भूमण्डलाह्लादः कैरवविकासश्च। अत्रैष चन्द्रमा इत्येतच्छब्देन चन्द्र एव पुरोवर्त्त्यभेदाध्यवसायेनेदन्तया विशिष्यते। न तु राजा विवक्ष्यते। अन्यथा सारोपत्वप्रसङ्गात्। अतस्तादृशचन्द्र एवं
निगीणंविषयतया ऐकरस्येन प्रतीयते। सर्वमेतन्मनसि निधायाह। अत्रेति। लक्षणान्तरयोगे विच्छित्तिविशेषोऽस्तीत्यभिप्रायेणाह। काकतीयेति॥
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अथ व्यञ्जनावृत्तिः।
अन्वितेषु पदार्थेषु वाक्यार्थोपस्कारार्थमर्थान्तरविषयः शब्दव्यापारो व्यञ्जनावृत्तिः।
सा
त्रिविधा।
शब्दार्थोभयशक्तिमूलत्वेन136।
तत्र
शब्दशक्तिमूला यथा।
वाहिन्यः काकतीन्द्रस्य सर्वतोमुखसंभ्रमाः।
कुर्वन्त्युद्यत्कबन्धाढ्यं प्रतिपक्षबलार्णवम्॥१२॥
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व्यञ्जनावृत्तेर्लक्षणमाह। अन्वितेष्विति। पदार्थेषु पदैरभिहितेषु। अन्वितेष्वाकाङ्क्षादिवशान्मिथः संबद्धेषु सत्सु। समन्वयशक्त्या वाक्यार्थे प्रतीत इत्यर्थः। यद्वार्थप्रकरणादिना प्राकरणिकार्थपर्यवसितेष्वित्यर्थः। एतेनाभिधान्वयशक्त्योः सति संभवे लक्षणायाश्चानन्तरभावी व्यञ्जनाव्यापार इति सूचितम्। लक्षणा तु समन्वयशक्तिसमर्पितान्वयविधुरीकरणधुरीणत्वादन्वयशक्त्यनन्तरभाविन्येवेत्यवोचन्नभिनवगुप्ताचार्यपादा। वाक्यार्थस्य काव्यशरीरभूतस्योपस्कारार्थेशोभार्थे व्यङ्ग्यरहितस्य
काव्यस्यानात्म
कशरीरवदचारुत्वादिति भावः। वाच्यलक्ष्याभ्यामन्योऽर्थोऽर्थान्तरं व्यङ्ग्यं तद्विषयः शब्दव्यापारः। अत्र शब्दग्रहणमर्थस्याप्युपलक्षणार्थम्। अज्ञातार्थस्य शब्दस्य विशिष्टस्य शब्दानभिधेयस्य चार्थस्य व्यञ्जकत्वायोगादुभयव्यापारत्वाभ्युपगमात्। किं तु शब्दार्थशक्तिमूलयोर्यथायोगमेकस्य प्राधान्यमितरस्य सहकारित्वमुभयशक्तिमूलेऽपि तत्तदंशयोरेवमेव विभागो द्रष्टव्यः। व्यञ्जनावृत्तिं विभजते। सा
त्रिविधेति। अत्रानेकार्थस्य शब्दस्यार्थप्रकरणादिभिरप्रकृतार्थवाचकत्वे निवारितेऽपि तत्प्रतीतिर्यत्प्रसादलब्धा सा शब्दशक्तिमूला। वक्तृबोद्धव्यादिवशात् सहृदयानामर्थान्तरप्रतीतिहेतुर्वाच्याद्यर्थव्यापारोऽर्थशक्तिमूला। उभयसंबन्धे तूभयशक्तिमूलेति विवेकः।
तत्र शब्दशक्तिमूलामुदाहरति। वाहिन्य इति। नदीपक्षे सर्वतोमुखस्योदकस्य संभ्रमो यासां ता इति व्यधिकरणो बहुव्रीहिः। अर्शआदित्वाद्वा मत्वर्थीयोऽच्प्रत्ययः। सर्वमन्यत् स्वयमेव व्याचक्षाणो
व्यञ्जनावृत्तेः शब्द-
अत्र137
वाहिनीसर्वतोमुखकबन्धशब्दा138नामर्थप्रकरणादिना
सैन्यसर्वव्यापित्वलूनमस्तकदेहपराणां वाचकत्वे नियन्त्रितेऽपि शब्दशक्तिमूला
नदीजलप्रति139पत्तिर्यथा140 जायते सा व्यञ्जनावृत्तिः।
प्राकरणिका
शक्नोत्यप्राकरणि
कार्थप्रतिपत्ति कर्त्तुमप्राकरणिकार्थस्यापि वाक्यार्थशोभार्थेवक्तुर्विवक्षितत्वात्।
अन्य143तस्तदप्रती144तेर्व्यञ्जनाख्यं145व्यापारान्तरं शब्दस्यैव कल्प्यते। नात्र
लक्षणावृत्तिः संभवति। वाच्या-
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शक्तिमूलत्वं विविनक्ति। अत्रेत्यादिना। वाहिनीसर्वतोमुखकबन्धशब्दानामिति। अनेकार्थानामिति शेषः। अर्थः प्रयोजनम्।
प्रकरणं प्रस्तावः। आदिग्रहणादर्थनिर्णायकाः संयोगादयो गृह्यन्ते। तदुक्तं वाक्यपदीये।
‘संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्ये विरोधिता।
अर्थः प्रकरणं लिङ्गं शब्दस्यान्यस्य संनिधिः॥
सामर्थ्यमौचिती देशः कालो व्यक्तिः स्वरादयः।
शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः॥’
इति। एतेषामुदाहरणप्रपञ्चः
काव्यप्रकाशिकादौ द्रष्टव्यः। वाचकत्वेऽप्रकृतनदीजलवाचकत्वे इत्यर्थः। नियन्त्रिते निवारिते सत्यपि यतस्तत्प्रतिपत्तिर्जायते सा शब्दशक्तिमूला व्यञ्जनावृत्तिरिति योजना। अन्यथोद्देश्यविधेयभाववैपरीत्यापत्तेः। नन्वभिधा लक्षणा वा प्रसिद्धैवाप्रकृतेऽर्थान्तरेऽपि प्रवर्त्ततां किमप्रसिद्धेन
व्यञ्जना146व्यापारेणेत्याशङ्क्य क्रमेण दूषयति। प्राकरणिकेत्यादिना। ननु मा भूदप्रकृतार्थप्रतीतिर्यदर्थेव्यापारान्तरकल्पनेत्यत आह। अप्राकरणिकेति। व्यङ्ग्यरहितस्य
काव्य147त्वस्यैवाभावादिति भावः। शब्दान्वयव्यतिरेका
नुविधायकत्वात्148 शब्दस्यैवायं व्यापार इत्याह। अन्यत इति। अन्यतः शब्दव्यतिरिक्तादित्यर्थः। अथ लक्षणां प्रतिक्षिपति। नात्रेति। तत्र मुख्यार्थबाधाभाव एव हेतुरित्याह। वाच्येति। नन्वेकस्मिन् वाक्ये व्यापारभेदेनानेकार्थप्र-
नुपपत्त्यभावात्। नात्र
व्यापारद्वयेनार्थप्रतिपादने वाक्यभेदः।
प्रयोक्तु149र्विवक्षापरतन्त्रत्वाल्लोकिकवाक्यानाम्॥
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तिपादने वाक्यभेददोषः स्यादित्यत आह। नात्रेति। अत्र हेतुमाह। प्रयोक्तुरिति। पौरुषेयवाक्यानां प्रयोक्तृपरतन्त्रत्वाच्छ्वेतो धावतीत्यादिवदनेकार्थत्वं न दोषायेति भावः। ननु
शब्दशक्तिमूले ध्वनौ प्रकृताप्रकृतौ द्वावप्यर्थौवाच्यौ। तत्राप्रकृतार्थाभिधाने वाक्यस्यासंबन्धार्थाभिधायित्वं मा प्रसाङ्क्षीदिति प्रकृतस्वाप्रकृतेन सहोपमारूपणादिकं व्यङ्ग्यतया कल्प्यते। तच्च व्यङ्ग्यमन्यथासिद्धं चेच्छ्वेष एव। यथा
भ्रमिमरतिमलसहृदयतां प्रलयं मूच्छौतमः शरीरसादम्।
मरणं च जलदभुजगजं प्रसह्य कुरुते विषं वियोगिनीनाम्॥
इत्यत्र जलवाचिना विषशब्देनाप्रकृतगरलार्थाभिधाने यदसंबन्धार्थाभिधायकत्वं तज्जलदभुजगेति वाच्येन रूपकेणैव निराकृतमिति व्यङ्ग्यस्यावकाशाभावाच्छ्वेष एवायमित्युक्तं ध्वन्याचार्यैः। तद्वदत्रापि वाहिन्यादिशब्दानामर्थान्तरानभिधाननिबन्धनस्य प्रतिपक्षवलार्णवमिति रूपकेणैव निराकरणाच्छ्वेष एब युज्यते।
किंचालंकारसर्वस्वकारोऽपि विद्वन्मानसहंसो वीर इत्यत्र राज्ञो हंसत्वेन रूपणं मानसमेव मानसं सर इत्यर्थद्वयप्रतिपादकस्य श्लेषस्य निमित्तम्। अतोऽत्र रूपकमेव। भ्रमिमरतिमित्यादौ तु विषशब्दस्य गरलार्थाभिधानं भ्रम्यादिकार्याष्टकनिबन्धनं न पुनर्जलदभुजगेति रूपकहेतुकम्। अतः श्लेष
एवायं न रूपकमित्यवोचत्। अत एवोक्तं तद्व्याख्याने चक्रवर्तिना—
‘रूपकं
पूर्वसंसिद्धं श्लेषमुत्थापयेद्यदि।
तदा रूपकमेव स्यादन्यथा श्लेष इष्यते॥’
इति। तन्मतावलम्बने तु वाहिन्यादिशब्दानामर्थान्तराभिधाने निमित्तान्तराभावाद्रूपकहेतुत्वाच्च रूपकालंकारतैवोचिता। अतः पक्षद्वयेऽपि न
ध्वनित्व
शङ्कावकाश इति चेत् सत्यमप्रकृतार्थस्य तेन सहोपमादेरलंकारस्य च व्यङ्ग्यत्वमिति केचित् तदुक्तं काव्यप्रकाशे। ‘शब्दशक्तिमूले तु अभिधाया नियन्त्रणेनानभिधेयस्वार्थान्तरस्य तेन सहोपमादेरलंकारस्य च निर्विवादं व्यङ्ग्यत्वम्’ इति। अत
एवासाविदमेवोदाहरणं प्रयुज्य व्यङ्ग्यभाविनोरर्थान्तरालंकारयोर्मध्येऽलंकारस्य
अर्थशक्तिमूला
श्रुत्वा काकतिभूभर्त्तुः क्षोणीपाणिग्रहोत्सवम्।
अङ्गुष्ठेनालिखन् भूपाः
पादपीठीं नताननाः ॥१३॥
———————————————————————————————————————————————
जलदभुजगेति रूपकेणाभिहितत्वादप्रकृतगरलार्थेऽभिधायाःकुण्ठीभावाद् व्यञ्जनाव्यापारविषयत्वेनार्थान्तरमेव व्यङ्ग्यम्। तच्च वाच्यस्य जलदभुजगेति रूपकस्य साधकत्वाद्वाच्यसिद्ध्यङ्गंनाम गुणीभूतव्यङ्ग्यमित्यवोचत्। तद्वदत्रापि वाहिन्यादिशब्दगम्यस्य नद्याद्यर्थान्तरस्य प्रतिपक्षबलार्णवमिति रूपकसाधकत्वात् पूर्वोक्तमेव गुणीभूतव्यङ्ग्यं भविष्यतीति न दोषः। नन्वेवमपि ध्वन्युदाहरणप्रस्तावे मध्यमकाव्योदाहरणं किमर्थेक्रियत इति चेदस्तु तद्वा तादृग्वा कोऽन्यत्र विशेषः। व्यङ्ग्यसामग्रीमात्रप्रदर्शनपराणामस्माकमुभयत्र प्रयोजनसिद्धेः। उत्तममध्यमविवेकः पुनरुत्तरत्र भविष्यति। नन्वेवमपि शान्ति कर्माणि वेतालोदयः यदत्र द्वयोरप्यर्थयोः प्राकरणिकत्वेनाप्राकरणिकत्वेनोभयविधत्वेन च त्रिविधः श्लेषः। तत्र तृतीयं भेदमनङ्गीकुर्वतः काव्यप्रकाशकारस्य मतेऽर्थान्तरमस्तु व्यङ्ग्यम्। अभिमतोभयश्लेषस्य भवतः पूर्वापरविरोधः स्यात्। यदुत्तरत्र भवानेव ब्रवीति।
नीराजयन्त्यन्ध्रपुरीरमण्यः
प्रदीपजालैर्वरवीररुद्रम्।
चन्द्रानना गोत्रपतिं रजन्य-
स्तारागणैर्मेरुमिव स्फुरद्भिः॥
इत्यत्रोभयश्लेष इति। न च शब्दशक्तिमूलध्वनेरनवकाशत्वम्। यत्र विशेषस्यापि श्लिष्टत्वं तत्र तस्यावकाशसंभवात्। यथा
राजमौलिरसौ भाति रुद्रदेवो जगत्पतिः।
इति। एवं च सतीहान्यथोदाहरणं परीक्षकप्रतिभापरीक्षार्थमेवेत्यलमतिप्रसङ्गेन॥
अर्थशक्तिमूलामुदाहरति। श्रुत्वेति। अत्र नताननत्वादेरनुभावस्यानेककार-
अत्र भूपा विषण्णा इत्यर्थशक्त्या व्यज्यते। न
चार्थशक्तिमूले व्यञ्जनेऽनुमानशङ्का।
व्यङ्ग्यव्यञ्जक152योरविनाभावाभावात्।
नम्राननत्वादिकार्यस्यानेककारणकत्वात्।
नियतकारणप्रतीति
र्विवक्षानुगृहीताच्छब्दादेव। किं चैकस्मादेव व्यञ्जकात्
तत्तत्प्रतिपत्तु153र्विवक्षानुसारेणानेकव्यङ्ग्यार्थ154प्रतीतिरनुमानपरिपाटीविरुद्धा। न चाभिधावृत्तिः संकेतितार्थ
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णकत्वसंभावनया झटिति कारणविशेषाप्रतीतौ वीररुद्रविभोर्धरणिपरिणयश्रवणानुसारेण विषाद एवं विश्रान्तेस्तस्य संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यत्वम्। शब्दनियमानपेक्षणादर्थशक्तिमूलत्वं चेत्यभिप्रायेणाह अत्रेति। तर्ह्यसंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्योरसादिध्वनिरित्यस्य का गतिः। अत्र स्थायिभावव्यभिचारिभावविभावानुभाववशादाशुभाविनी रसाभिव्यक्तिः सैव गतिरिति रहस्यम्। तदुक्तमभिनवगुप्ताचार्यैः। ‘यद्यपि रसभावादिरर्थो ध्वन्यमान एव भवति न वाच्यः
कदाचिदपि तथापि न सर्वोऽसंलक्ष्यक्रमस्य विषयः’ इत्यादिना। अत एव ध्वनिकारोऽपि
‘एवंवादिनि देवर्षौ पार्श्वे पितुरधोमुखी।
लीलाकमलपत्राणि गणयामास पार्वती॥’
इत्यत्रोदाहरणे
लज्जाख्यं व्यभिचारिभावमनुरणनव्यङ्ग्यत्वेनावोचत्॥
व्यञ्जनव्यापारस्यानुमानत्वमङ्गीचकार महिमभट्टस्तन्मतं दूषयति। न चेति
अर्थशक्तिमूल इति। अर्थोऽभिधेयः स च वस्त्वलंकारध्वन्योर्वस्त्वलंकाररूपो रसादिध्वनौ तु विभावादिरूपश्चेति विवेकः। तन्मूले तत्सामर्थ्याक्षिप्त इत्यर्थः। अत एवोक्तं लोचने।
वाच्यसामर्थ्याक्षिप्त इति भेदत्रयव्यापकं सामान्यलक्षणम्’ इति। अनुमानत्वाभावे व्या
प्त्यभावो हेतुरित्याह। व्यङ्ग्येति।
तत्रापिहेतुमाह। नम्रेति। नम्राननत्वादिहेतोर्गुरुनमस्कारादावनैकान्तिकत्वाद्
व्याप्त्यभाव इति भावः। तर्ह्यत्रविषादैक
विषयप्रतीतिः कुत इत्यत आह। नियतेति। शब्दस्वरूपप्रकाशनेच्छा शब्देनार्थप्रकाशनेच्छा चेति द्विविधा विवक्षा। वाच्यो व्यङ्ग्यश्चेति द्विविधः प्रतिपाद्यः। चतुष्टयं चेदं शब्दानां विषयः। तत्र विवक्षाद्वयमनुमेयम्। प्रतिपाद्यद्वयं शाब्दमिति विवेकः। तदेतत् सर्वे ध्वन्याचार्यैः
एव तस्याः परिचय
इति गमनिका।
उभयशक्तिमूला यथा।
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ग्रपञ्चेन प्रतिपादितम्। ‘द्विविधो हि विषयः शब्दानामनुमेयः प्रतिपाद्यश्च’ इत्यादिना। तत्र शब्देनार्थप्रकाशनेच्छालक्षणया विवक्षयानृगृहीतात्
तत्सहायादित्यर्थः। शब्दादिति। व्यञ्जकादित्यर्थः। दूषणान्तरमाह। किं चेति। यथास्तमेति गभस्तिमानित्युक्ते संध्यावन्दनविक्रेयवस्तूपसंहरणाभिसरणाद्यनेकार्थप्रतीतिर्यथाक्रमं विप्रवणिक्कामुकादीनामुत्पद्यते तथा वह्निमानयं प्रदेशो धूमवत्त्वादित्युक्ते न कस्याप्यर्थान्तरप्रतीतिरिति व्यङ्ग्यानुमेययोर्विलक्षणत्वादनुमानत्वं व्यञ्जनस्य विरुद्धमिति भावः॥
मीमांसकाः पुनरभिधैव प्रतीयमानेऽपि प्रवर्त्तत इत्याहुस्तन्मतं दूषयति। न चेति। कुत इत्यत आह। संकेतितेति। आनन्त्यव्यभिचाराभ्यां प्रतिव्यक्ति संकेतानुपपत्तेः सामान्यरूपाणां केवलपदार्थानां संकेतगोचरत्वम्। ततस्तेषामाकाङ्क्षादिवशात् मिथोऽन्वये तत्संसगंरूपो वाक्यार्थो लक्ष्यमाणः समुल्लसतीति भाट्टः। तदुक्तम्। ‘तस्मात् पदैरभिहितैः पदार्थैर्लक्षणया वाक्यार्थः प्रतिपाद्यते’ इति। अतस्तन्मतेऽपि स्वार्थसंसर्गरूपतया संनिकृष्टवाक्यार्थाभिधानेऽप्यसमर्थानां पदानामर्थान्तरत्वेन विप्रकृष्टस्य व्यङ्ग्यस्याभिधानं दूरापास्तमिति व्यञ्जनोपादानमेव समञ्जसमिति भावः। तदुक्तम्।
‘विशेषरूपं वाक्यार्थमपदार्थमपीच्छता।
व्यक्तिरिष्टाभिधातोऽन्याभिहितान्वयवादिना155॥”
इति।
प्राभाकराः पुनरन्वयव्यतिरेकाभ्यां प्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्तस्य वाक्यस्यैव प्रयोगयोग्यत्वात् तदन्तर्वर्त्तिनामेव पदानां पदार्थविशेषान्वितस्वार्थसंकेतपक्षे प्रतिवाक्यं
स्वार्थस्य विशेषरूपत्वाद्वाक्यान्तरेष्वस्यार्थस्यैतद्वाचकमिति प्रत्यभिज्ञानुपपत्तेः पदार्थान्तरसामान्यान्विते स्वार्थे संकेतः। विशेषव्युत्पत्तिस्तु संबद्धानां पदार्थानां विशेषरूपत्वात् भविष्यतीत्याहुः। तन्मतेऽपि विशिष्टार्थाभिधायिनो वाक्यस्य स्वार्थसंनिकृष्टपदार्थाभिधानेऽप्यसमर्थस्य कुतो विप्रकृष्टार्थान्तराभिधानशङ्का। अतस्तेषामपि व्यञ्जनमवश्यमेष्टव्यमिति भावः। तदुक्तं काव्यप्रकाशे।
विजितारिपुरो मूर्त्तौ
विलसत्सर्वमङ्गलः।
राजमौलिरसौ
भाति रुद्रदेवो जगत्पतिः॥
अत्र156 विजितारिपुर इत्यर्थशक्तिमूलत्वं विलसत्सर्वमङ्गलो
राजमौलिरिति
शब्दशक्तिमूलत्वमित्युभयशक्तिमूलत्वम्157।
अत्र प्रतापरुद्रशङ्करयोरुपमालंकारध्वनिः॥
अथ
कैशिक्यादीनां स्वरूपं
निरूप्यते।
८
अंत्यर्थसुकुमारार्थसंदर्भा कैशिकी मता।
अत्युद्धतार्थसंदर्भा वृत्तिरारभटी
स्मृता॥१५॥
ईषन्मृद्वर्थसंदर्भा भारती वृत्तिरिष्यते।
ईषत्प्रौढार्थसंदर्भा
सात्वती वृत्तिरिष्यते॥१६॥
तत्र
अत्यन्तसुकुमारौ द्वौ शृङ्गारकरुणौ मतौ।
अत्युद्धतरसौ रौद्रवीभत्सौ परिकीर्त्तितौ ॥१७॥
हास्यशान्ताद्भुताः किंचित्सुकुमाराः प्रकीर्त्तिताः।
ईषत्प्रौढौ समाख्यातौ रसौ वीरभयानकौ॥१८॥
यत्र शृङ्गारकरुणावतिकोमलेन
‘संदर्भेण वर्ण्येते तत्र
कैशिकी”।
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‘अनन्वितोऽर्थोऽभिहितान्वये पदार्थान्तरमात्रेणानितस्त्वन्विताभिधानेऽन्वितविशेषस्त्ववाच्य एवेत्युभयमतेऽप्यपदार्थ एव वाक्यार्थः’ इत्यादि सर्बेमनसि निधायाह। इयतीति। गमनिका गम्यते ज्ञायतेऽनयेति गमनी गतिः। अल्पा गमनी गमनिका। करणे ल्युटि टित्त्वात् ङीपि “अल्पे” इति कनि च**“केऽणः”** इति ह्रस्वः॥
उभयशक्तिमूलामुदाहरति। विजितेति। अत्र प्रकृते निर्जितारातिनगरोऽ-
यत्र रौद्रबीभत्सावतिप्रौढेन संदर्भेण प्रतिपाद्येते तत्रारभटी।
यत्रनातिसुकुमारा हास्यशान्ताद्भुता नातिसुकुमारेण संदर्भेण
संग्रथ्यन्तेतत्र भारती। यत्र
नातिप्रौढौ वीरभयानकौ
नातिप्रौढेन संदर्भेण
निर्वाह्येते तत्र
सात्वती।
कैशिकी यथा।
जितमदनविलासं काकतीयान्वयेन्दुं
नरपतिमनिमेषं द्रष्टुमाशंसिनीनाम्।
सपदि विरचितासीदङ्गनानामपाङ्गै-
र्दिवि कुवलयदामश्यामला तोरणश्रीः॥१९॥
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न्यत्र त्रिपुरान्तकः। मूर्त्तौ विलसत्सर्वमङ्गलः कल्याणमूर्त्तिरित्यर्थः। अन्यत्र पार्वतीपरिच्छिन्नार्धदेह इत्यर्थः। राजमौली
रोजोत्तमः। अन्यत्र चन्द्रशेखरः। अर्थशक्तिमूलत्वमिति। शब्दपरिवृत्तिसहिष्णुत्वादिति भावः। अत्र प्रतीयमानेनाप्रकृतेन शङ्करेण प्रकृतस्य राज्ञ उपमानोपमेयभावो यथेवादिवाचकाप्रयोगात् गम्यत इत्याशयेनाह। प्रतापेति॥
अथ संग्रहकारिकोद्देशक्रमप्राप्तौगुणालंकारौ बहुवक्तव्येनोपेक्ष्य सूचीकटाहन्यायेनादौ तावद्वृत्तिशब्दवाच्यत्वसाम्यात् शब्दवृत्तिनिरूपणानन्तरं कैशिक्यादिस्वरूपनिरूपणं प्रतिजानीते। अथेत्यादिना। गतार्थमेतत्॥
कैशिकीमुदाहरति। जितेति। जितमदनविलासमित्यनेन सूचितैर्लोकोत्तररूपयौवनाद्युद्दीपनविभावैर्नरपतिमङ्गनानामिति चालम्बनविभावैरनिमेषं द्रष्टुमाशंसिनीनां कामिनीनामित्यौत्सुक्यादिव्यभिचारिभावैर्दिवि कुवलयेत्युपमाभूषितैरपाङ्गैरित्यनुभावैश्चासंयुक्तकोमलवर्ण
संदर्भसहकृतैः प्रतीयमानो रससार्वभौमः शृङ्गारः काकतीयान्वयेन्दुं नरपतिं चेति विशेषणद्वयसूचितमहाकुलीनतादिगुणगरिमगम्भीरविदग्धनायकविषयतया परिपोषातिभूमिमनुभवतीत्यत्रेयं कैशिकी॥
आरभटी यथा।
खङ्गाघात158निकृत्तशात्रवशिरोनिष्ठ्यूतरक्तच्छटा-
जालैरु159द्भटशस्त्रघट्टनभवत्स्फारस्फुलिङ्गोत्करैः।
स्त्यानासृक्पिशितास्थिखण्डविकट160स्थूलोज्ज्वलाङ्गारकै-
रुच्चण्ड161श्चलमर्तिगण्डनृपतेः क्रोधाग्निरायोधने॥२०॥
भारती
यथा।
औन्नत्यं महदन्यदेव महितः कोऽप्येष गंभीरिमा
काप्यन्या सरणिः प्रतापयशसोरन्यैव
बाह्वोःप्रथा।
सर्वं नूतनमेव रुद्रनृपतेर्जाने न तन्निर्मितौ
सामग्री
चतुराननस्य कियती
कीदृक्क्रमा कल्पिता॥२१॥
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आरभटीमुदाहरति। खङ्गेति। अत्र लालादिनिरसनवाचिना निष्ठयूतशब्देनोपचारान्निर्गमनमात्रमुच्यते इति चारुत्वातिशयः। तदुक्तं दण्डिना।
‘निष्ठ्यूतोद्गीर्णवान्तादि गौणवृत्तिव्यपाश्रयम्।
अतिसुन्दरमन्यत्र ग्राम्यकक्ष्यां विग्राहते॥’
इति। स्त्यानं घनीभूतमसृक् येषां पिशितास्थिखण्डानामिति बहुबीहिः। चलमर्तिगण्डेति शौर्यातिशयसूचकं विरुदनाम। अत्र खङ्गादिशस्त्रोल्लासादिसूचितो रौद्रो रक्तमांसादिसूचितो बीभत्सश्च परस्परं प्रधानोपसर्जनभावमापन्नौ
परुषवर्णविकटबन्धेन प्रतिपाद्येते॥
भारतीमुदाहरति। औन्नत्यमिति। अत्र सर्वत्र यथाक्रमं किमन्यशब्दावनिर्वचनीयत्वलोकोत्तरत्वप्रतिपादकौ। अत एव रुद्रनृपतेः संबन्धि सर्वमौन्नत्यादिकं नूतनमेव सामग्रीति ब्राह्मणादिप्यञन्तात् सामग्र्यशब्दात् स्त्रियां ङीष्प्रत्ययो वैकल्पिकः षित्करणसामर्थ्याल्लभ्यते। तदुक्तं वामनेन। ‘प्यञः षित्करणादीकारो बहुलम्’ इति। जाने इति। **“अनुपसर्गात् ज्ञः”**इत्यात्मनेपदम्। अत्र संयुक्तमृदुवर्णबन्धेनाद्भुतरसप्रतिपादनात् भारती॥
सात्वती यथा।
दूरादाकर्ण्य विश्वप्रसृमरमहसो वीररुद्रस्य जैत्र-
प्रस्थानारम्भभेरीनिनदमरिनृपाः पूर्णकर्णज्वरार्त्ताः।
आरुह्याद्रीन् विशन्तो
गहनमतिमहत्कण्टकाकृष्टकेशा162-
स्त्रायध्वं मुञ्चतेति प्रतिनृपतिधिया पादपान् प्रार्थयन्ते॥२२॥
मध्यमारभटी त्वन्या तथा मध्यमकैशिकी ।
वृत्ती इमे उभे सर्वरससाधारणे
मते
॥२३॥
मृद्वर्थेऽप्यनतिप्रौढबन्धा मध्यमकैशिकी।
शृङ्गारकरुणयोरतिसुकुमारयोरल्पप्रौढत्वं163 न दूष्यते। किं त्वतिप्रौढ
संदर्भो
नेष्यते।
प्रतिकूल164वर्णरूपदोषापत्तेः॥
मध्यमारभटी प्रौढेऽप्यर्थे नातिमृदुक्रमा ॥२४॥
अतिप्रौढयोरपि रौद्रवीभत्सयोरीषन्मृदुबन्धो न
दूष्यते।
अतिमृदुसंदर्भस्तु
विरुद्धः।
———————————————————————————————————————————
सात्वतीमुदाहरति। दूरादिति। विश्वप्रसृमरमहसो विश्वव्यापितेजसः।
“सृघस्यदः क्वरच्”। जैत्रयात्रारम्भभेरीझाङ्काराकर्णनेनैव कान्दिशीकानामरिभूपतीनां दूरत एव समरकथेति भावः। अत्र विकटबन्धपरुपवर्णसंदर्भेण भयानकप्रतिपादनात् सात्वती॥
अथ मतान्तरानुसारेण सर्वरससाधारणं वृत्तिद्वयमाह। मध्यमेति। अनयोः क्रमेणेपत्कोमलेषत्प्रौढयोरतिप्रौढातिकोमलरसानुप्रवेशो न विरोधायेति व्युत्कमेण प्रतिपादयति। मृद्वर्थ इत्यादिना। न
दूष्यत इत्येतदध्याहृत्य व्याचष्टे। शृङ्गारेति। किं तर्हि दुष्टमित्याकाङ्क्षायामाह। किं त्विति। विपक्षे दण्डमाह। प्रतिकूलेति। रसाननुगुणत्वं प्रातिकूल्यम्। एतद्वैपरीत्यं मध्यमारभव्यामित्याह। मध्यमेति।
मध्यम
कैशिकी यथा।
आसन्नेऽपि महोत्सवे कथमितस्त्यक्त्वा प्रवासं
व्रजे-
धिंग् धिक् साहसमावयोर्विघटनं
को वा विधिः
काङ्क्षति।
इत्थं स्वप्ननिवारितप्रियतमप्रस्थानबुद्धिस्ततो
बुद्ध्वामूर्च्छति काकतीयनृपते त्वद्वैरिनारीजनः॥२५॥
मध्यमारभटी यथा।
मांसकीकससंकीर्णाः
प्रसरदुधिरापगाः।
वसाकर्दमिता
युद्धे भुवोऽन्ध्रसुभटैः कृताः॥२६॥
एवं
रसान्तरेष्वप्युदाहरणं द्रष्टव्यम् ॥
वैदर्भ्यादिरीतीनां
शब्दगुणाश्रिता
नामर्थ
विशेषनिरपेक्षतया केवलसं-
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मध्यमकैशिकीमुदाहरति। आसन्न इति। त्यक्त्वा महोत्सवमिति शेषः। इतः सर्वसौभाग्यनिधेर्निवासादित्यर्थः। कथं प्रवासं व्रजेः। गर्हितमेतदिति भावः।“विभाषा कथमि लिङ् च” इति गर्हायां लिङ्। धिग्धिगिति “नित्यवीप्सयोः” इत्याभीक्ष्ण्ये द्विरुक्तिः। को वा विधिरिति। न त्वमेवं साहसिक इति भावः। त्वद्वैरिनारीजनस्त्वया वियोजितभर्त्तृक इति शेषः। अत्रेपत्प्रौढसंदर्भेण शृङ्गारसंकीर्णः करुणो रसः प्रतिपाद्यते॥
मध्यमारभटीमुदाहरति। मांसेति। अत्रेषत्मृदुसंदर्भेण बीभत्सः प्रतिपाद्यते॥
अथ वैदर्भ्यादीनां मतभेदेन वृत्तिशब्दवाच्यत्यसाम्यात् कैशिक्याद्यनन्तरं तन्निरूपणं चिकीर्षुः प्रथमं तावत्तदन्तर्भावं वारयति। वैदर्भ्यादीति। तत्स्वरूपमाह। शब्दगुणाश्रितानामिति। माधुर्यादिपरतन्त्राणामित्यर्थः। यद्यपि स
हृदयहृदयानामाह्लादकः शृङ्गारादिधर्मो माधुर्यं चित्तविस्ताररूपदीप्तिजनको रौद्रादिधर्म ओजः शुष्केन्धनानलबदमलजलवद्वा यथायोगं
सहसा सहृदयहृदयव्यापी सर्वरसधर्मः प्रसादस्तथापि तेषां शब्दगुणत्वमात्मधर्मस्य शौर्यादेराकार धर्मत्व-
दर्भसौकुमार्यप्रौढत्वमात्रविषयत्वात्165 कैशिक्यादिभ्यो भेदः।
संदर्भस्यातिमृदुत्वमसंयुक्तकोमलवर्णबन्धत्वम्। अतिप्रौढत्वं परुषवर्णविकटबन्धत्वम्। संयुक्तमृदुवर्णेष्वीपम्मृदुत्वम् \।
अविकट166बन्धपरुष167वर्णेष्वीषत्प्रौढत्वम्॥
अथ रीतीनां स्वरूपमुदाहरणं च।
रीतिर्नाम
गुणाश्लिष्ट168
प
दसंघटना मता।
सा169
त्रिधा। वैदर्भी गौडी पाञ्चाली चेति।
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मिवौपचारिकम्। तदुक्तं ध्वन्याचार्यैः। ‘शब्दधर्मत्वं चैषामन्याश्रितत्वेऽपि शरीराश्रितत्वमिव शौर्यादीनाम्’ इति। तदाश्रितत्वं
तासां काव्यप्रकाशे
‘माधुर्यव्यञ्जकैर्वर्णैरुपनागरिकेष्यते।
ओजः प्रकाशकैस्तैस्तु परुषा
कामेला परैः।
केषांचिदेता वैदर्भीप्रमुखा रीतयो मताः॥’
इति। फलितमाह। अर्थविशेषेति। माधुर्यादिपर्यवसितत्वेन शृङ्गारादिनिरपेक्षत्वादित्यर्थः। वैदर्भ्यादीनां रसाश्रितमाधुर्यादिशब्दधर्मपरत्वं कैशिक्यादीनां तु साक्षादेव रसपरत्वमिति महान् भेद इति भावः। तदुक्तं ध्वन्याचार्यैः।
‘शब्दतत्त्वाश्रयाः काश्चिदर्थतत्त्वाश्रयाः पराः’
इति।
टवर्गवर्जिताः स्पर्शाः स्वस्ववर्गान्त्यशेखराः।
लघुरेफणकारौ च
‘कोमलाः परिकीर्त्तिताः॥
रेफेण यस्य कस्यापि योग आद्यतृतीययोः।
स्वोत्तराभ्यां तुल्ययोर्वा
परुषाष्टगणः शषै॥
इति कोमलवर्णपरुषवर्णसंग्रहः। यद्वा शब्दः पदरचनात्मकः। तद्गुणा ओजःप्रसादादयः। यदाह वामनः। ओजःप्रभृतयो बन्धगुणाः’ इति॥
अथ रीतिसामान्यलक्षणमाह। रीतिरिति।
गुणाश्लिष्टपदसंघटना माधुर्यादिपरतन्त्रशब्दसंदर्भ इत्यर्थः। यद्वा ओजःप्रसादादिविशिष्टपदरचनेत्यर्थः॥
वन्धपारुष्यरहिता शब्दकाठिन्यवर्जिता।
नातिदीर्घसमासा च वैदर्भीरीतिरिष्यते ॥२७॥
यथा
काकतीयनरेन्द्रस्य कीर्त्तिचन्दनचर्चनम्।
दिगङ्गना वितन्वन्ति वतंसीकृततद्गुणाः ॥२८॥
यथा
वा
वितरणगुणलीलातोषिताशेषलोके
विभवति नरनाथे
काकतीयान्वयेन्दौ।
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विदर्भादिदेशीयविदग्धजनपरिग्रहेण वैदर्भ्यादिसंज्ञकानामेतासां विशेषलक्षणानि विषयव्याप्त्यर्थे प्रत्येकमुदाहरणद्वयं च क्रमेणाह। बन्धेति। बन्धपारुष्यं दुःसन्धिकृतं शब्दकाठिन्यं परुषवर्णारब्धम्। नञर्थस्य नशब्दस्यातिदीर्घसमासेत्यनेन “सुप्सुपा” इति समासः। एतेनात्रासमासा मध्यमसमासा च विवक्षितेति बोद्धव्यम्। तदुक्तम्।
‘अवृत्तिर्मध्यवृत्तिर्वामाधुर्ये घटना तथा।’
इति। उदाहरति। काकतीयेत्यादि। वतंसीकृतेत्यत्र
‘वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः’
इति वचनादकारलोपः। वितरणेति। विभवति प्रभौ सति। क्षितिसुरजना ब्राह्मणजनास्तेषां समूह इति जनशब्दान्तात् “ग्रामजन–” इत्यादिना तल्प्रत्ययः। “खण्डिकादिभ्यश्च” इत्यत्र सामूहिकेषु तदन्तविधिरस्तीति ज्ञापनात्। अत्रोदाहरणद्वयेऽपि कोमलवर्णैरल्पसमासैर्मृदुबन्धेन च कीर्त्त्यौदार्यासद्युद्दीपनविभावव्यङ्ग्यशृङ्गारगताह्लादकत्वलक्षणमाधुर्यप्रतिपादनाद् वैदर्भी रीतिः।
अत्र यद्यपि कीर्तिचन्दनचर्चनमित्यादौ
रेफसंयोगः तोषिताशेपेत्यादौ शकारपकारौ चेत्येवमल्पशः परुषवर्णाः सन्ति तथापि न माधुर्यभङ्गः। अत एवानन्दवर्धनाचार्यैः
‘शषौ च रेफसंयोगष्टवर्गश्चापि भूयसा।
विरोधिनः स्युः शृङ्गारे तेन वर्णा रसच्युताः॥’
इत्यत्र भूयसेत्युक्तम्। एवमुत्तरत्राप्यूहनीयम्॥
सुरतरुगणनायां कामधेनुप्रसंगे
क्षितिसुरजनतेयं
वीतकौतूहलासीत्॥२९॥
ओजः कान्तिगुणोपेता गौडीया रीतिरिष्यते।
यथा।
प्रचण्डतरदोर्दण्डखण्डितारातिमण्डलः।
विभर्त्त्युर्वीधुरां गुर्वी
प्रभवन्नान्ध्रभूपतिः॥३०॥
यथा वा।
उद्यद्दोःस्तम्भ
खङ्गत्रुटदरिमुकुटाटोपसंजातराहु-
भ्रान्तिभ्रश्यत्पतङ्गाभयकरणचणस्फारनासीररेणुः।
आन्ध्रक्ष्मा170भर्त्तुरासीदधिकरणधुरा भिन्नमत्तेभकुम्भ-
प्रोद्यन्मुक्तौघतारानिकरपरिवृताः171 स्वर्वधूवक्त्रचन्द्राः172॥३१॥
——————————————————————————————————————
गौडीयामाह। ओज इति। ओजः शब्देन समासभूयस्त्वमुच्यते। कान्ति शब्देन चोद्भटपदत्वम्। उदाहरति। प्रचण्डेति।
उर्वीधुरां भूभारम्। “ऋक्पुरब्धूर—” इत्यादिना समासान्तोऽच्प्रत्ययः। उद्यदिति। अत्र खङ्गोत्कृत्त प्रतिभटमुकुटेषु स्वर्भानुभ्रान्त्या कान्दिशीकस्य भानोरभयकरणचणत्वं नासीररेणोरुत्प्रेक्ष्यते। तेनास्य सूर्यास्तमयप्रतीतिजनकं तन्मण्डलावरणं गम्यते। ततश्च वीरवरणोत्सुकतया समागताप्सरोमुखानां चन्द्रत्वेन
दलितेभकुम्भयुगलोद्गलितमौक्तिकानां तारात्वेन च रूपणाद्रणधुराया रजनीत्वं गम्यते। न चाने- कनिशानाथकथनं दोषाय वीररुद्रविक्रमविह्वलीकृतचेतसां तद्वैरिवीराणां तथात्वेन प्रतीतेः। अत्र परुषवर्णसंदर्भेण समासभूयस्त्वेन च रौद्ररसगतदीपकत्वलक्षणौजः प्रतिपादनाद्गौडीया॥
पाञ्चाली
रीतिर्वैदर्भी
गौडीरित्युभयात्मिका॥
यथा।
जेतुः काकतिवीररुद्रनृपतेर्जैत्रप्रयाणोत्थिते
क्षोणीरेणुभरे
नभस्यतिभृशं भूविभ्रमं विभ्रति।
जाता मर्त्त्यनदी
विशंकटतटी दीर्घा वियद्दीर्घिका
गाढं गूढतमा च गौतमनदी पातालगङ्गायते॥३२॥
यथा च।
स्थाने तच्चलमर्त्तिगण्डनृपते त्वत्खङ्गभोगी द्विषत्-
प्राणैर्यत् परितोषमेति सततं किं त्वेतदत्यद्भुतम्।
पीतेन प्रतिपक्षपार्थिवयशःक्षीरेण गौरत्विषं
यत् संवर्धयति
त्रिलोकभरितां त्वत्कीर्तिलक्ष्मीसुधाम्॥३३॥
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पाञ्चालीमाह।
पाञ्चालीति। उदाहरति। जेतुरिति। नभस्यन्तरिक्षे भूविभ्रमं भूभावं विभ्रति सति। वियद्दीर्घिका मन्दाकिनी विशङ्कटाभ्यां विशालाभ्यां तटीभ्यां दीर्घा सती
मर्त्त्यनदी भागीरथी जाता। तथा गूढतमा रजोमयभूमेरधो वर्त्तमाना गौतमनदी पातालगङ्गायते भोगवती भवतीत्यहो महदद्भुतमिति भावः। स्थान इति। सर्पाणां
वांताहारत्वात् खड्गोरगस्य द्विषत्प्राणपरिपुष्टत्वं नाद्भुतमिति भावः। तर्हि किमद्भुतमित्याकाङ्क्षायामेतदित्याह। पीतेनेति। ‛पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवृद्धये’ इति लोकप्रसिद्धम्। अत्र पुनरधिकतरसुधातृद्धय इति महदद्भुतमिति भावः। त्रिलोकभरितामिति। त्र्यवयवो लोकस्त्रिलोकः। शाकपार्थिवादित्वान्मध्यमपदलोपी समासो न द्विगुरिति प्रतिपादितं
प्रथमश्लोके त्रिलोकजननीमित्यत्र। अत्रोदाहरणद्वयेऽपि पूर्वोक्तरी
तिसङ्कर्येणाद्भुतरसप्रतिपादनात् पाञ्चाली॥
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अथ शय्या।
या पदानां परान्योन्यमैत्री शय्येति कथ्यते।
यथा।
दातुः काकतिवंशमण्डनमणेर्निःसीमविश्राणन-
श्लाघालङ्घितकल्पपादपगुणप्रौढेरगाधौजसः।
बिभ्रच्छारदकौमुदीपरिमलं सामन्तसीमन्तिनी-
गण्डाभोगनिरूढ173पाण्डिमधुरां174 धत्ते यशः प्रायशः॥
अत्र पदविनिमयासहिष्णुत्वाद्वन्धस्य पदानुगुण्यरूपा
शय्या॥
अथ पाकः।
अर्थगम्भीरिमा पाकः स द्विधा हृदयंगमः।
द्राक्षापाको
नारिकेलपाकश्च
प्रस्फुटान्तरौ॥३५॥
द्राक्षापाकः स कथितो वहिरन्तः स्फुरद्रसः।
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अथ रीतयश्चेयतीत्यत्र चशब्दसमुच्चितयोः शय्यापाकयोर्मध्ये शब्दधर्मत्वसाम्यात् रीत्यनन्तरं शय्यामाह। या पदानामिति। परा उत्कृष्टा
अन्योन्यमैत्री175विनिमयासहिष्णुत्वमित्यर्थः176। अत एवास्य रीतिभ्यो भेद इति भावः। उदाहरति। दातुरिति। गतार्थमेतत्। लक्ष्ये लक्षणं योजयति। अत्रेति॥
परिशेषात् पाकमाह। अर्थेति। अर्थस्य शृङ्गारादेर्गम्भीरिमा आस्वाद्यमानताविशेष इति षष्ठीसमासः। “पूरणगुण—” इत्यादिना निषेधस्तु “तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वात्” ‘तद्यत्नगौरवं प्रसज्येत’ इत्यादि पाणिनिशबरस्वामिप्रमुखमहापुरुषप्रयोगदर्शनादनित्यः इति पदमञ्जरीकारः।
यथा।
स्मरस्मेरान्
मन्दस्मितमधुरसौरभ्यसुभगान्
मनाग्व्रीडाजाड्यान् प्रणयरसकल्लोलभरितान्।
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द्राक्षापाकमुदाहरति। स्मरेति। विषयमात्रविश्रान्तिविरहिणो विशृङ्खलवृत्तित्वमदमन्थरत्वादिगुणशीलाः स्मेराः। तदुक्तं भावप्रकाशे—
‘अपरिच्छिन्नविषयं मदमन्थरमीलितम्।
स्फुर
द्भ्रुपक्ष्मतारं यत् तत् स्मेरमिति कथ्यते॥’
इति। ते च स्मरप्रधानाः स्मरस्मेराः मन्दस्मिता हासगर्भाः संभोगौत्सुक्यसूचकाः मधुराः संतापहराः सौरभ्येण पद्मिनीजातेरस्याः स्मितनिमित्तेन सुभगाश्च ये तथोक्ताः
‘कटाक्षैर्हासगर्भैस्तु संभोगौत्सुक्यभावना।
शीतलीक्रियते तापो येन तन्मधुरं स्मृतम्॥
इति चोक्तेः नायिकायाः प्रौढत्वान्मनागल्पं व्रीडाजाड्यंयेषां ते तथोक्ता अत एव स्वानुकूल्यप्रकाशकाः। तदुक्तं
‘सव्रीडालोकनेनैव स्वानुकूल्यप्रकाशनम्’
इति।
‘विस्रम्भे परमां काष्टामारूढे दर्शनादिभिः।
येनान्तरङ्गं द्रवति स स्नेह इति कथ्यते॥’
इत्युक्तलक्षणः स्नेहः प्रणयशब्देन विवक्षितः। स एव रसो द्रवद्रव्यं तस्यान्तरङ्गवारिधिवास्तव्यकल्लौलैर्महोर्मिभिर्भरिताः प्रेमदायिन इत्यर्थः। ‘द्रवीभूतं मनो यत्र दर्शने प्रेमदायिनः’ इति लक्षणात्। कृतानेकस्कन्धाः प्रियदृष्टिप्रतिघातेनौत्सुक्यभरेण च यथाक्रममासारप्रसाराभ्यामङ्गीकृततरङ्गभङ्गिका इत्यर्थः। अत एवैते सोत्सुकास्तरङ्गिताश्च। तदुक्तम्
‘सोत्सुकं तद्यदालोक्य भूयो भूयोऽवलोकनम्।
कल्लोल इव यः कान्तिविच्छेदस्तत् तरङ्गितम्॥’
इति। मनसिजसहस्राणि सृजतः विरक्तस्यापीति भावः। यद्दर्शने विरक्तोऽपि क्षुभ्यते तत् समन्मयम्’ इति
लक्षणादेते समन्मथा उच्यन्ते। एवंविधान्
कृतानेकस्कन्धान् मनसिजसहस्राणि सृजतः
कटाक्षान् वामाक्षी किरति परितो रुद्रनृपतिम्॥३६॥
स
नारिकेलपाकः स्यादन्तर्गूढरसोदयः।
यथा।
लीलाविभ्रमपूर्वरङ्गमुदितं तारुण्यमेत्य त्रपा-
नेपथ्यान्तरबिम्बितस्मरकलालास्यप्रपञ्चश्रियः।
सख्यः पश्यत काकतीयनृपतौ भावानुबन्धोज्ज्वलः
कोऽप्यस्यास्तरलभ्रुवो विजयते शृङ्गारनाट्यक्रमः॥३७॥
अत्र न
द्रागर्थप्रतीतिः। एवं वस्त्वलंकारप्रतीतावपि द्रष्टव्यम्।
पाकान्तराणि
यथासंभमुह्यानि॥
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कटाक्षान् वामाक्षी मनोहरनयना रुद्रनृपतिं परितः सर्वतः किरति। “अभितः परितः—” इत्यादिना द्वितीया। कटाक्षलक्षणं तु संगीतरत्नाकरे
‘यद्गतागतविश्रान्तिवैचित्र्येण विवर्त्तनम्।
तारकायाः कलाभिज्ञास्तं कटाक्षं प्रचक्षते॥’
इति। अत्रैवं सम्मर्दसहिष्णोः शृङ्गारस्य
पाठसमयेऽप्यास्वाद्यमानत्वाद177न्तर्बहिश्चस्फुरणं द्रष्टव्यम्॥
नारिकेलपाकमुदाहरति। लीलेति। विस्तरेण व्याख्यातमेतन्नायिकाप्रकरणे मध्यमोदाहरणप्रस्तावे। लक्ष्ये लक्षणं योजयति। अत्रेति। एवं व्याख्यानसापेक्षत्वान्न द्रुतमर्थप्रतीतिरित्यर्थः। द्राक्षापाकनारिकेलपाकावर्थस्य द्रुतविलम्बितप्रतीत्योः परां कोटिमारूढौ। अतस्तदन्तरालवर्त्तिन्या
मध्यप्रतीतेरनेकविधत्वात् तदनुसारेण कदलीरसालादिपाकाः स्वयमूह्या इत्याह। एवमिति॥
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अथ काव्यविशेषाः।
व्यङ्ग्यस्य प्राधान्याप्राधान्याभ्यामस्फुटत्वेन च त्रिविधं काव्यम्। व्यङ्ग्यस्य प्राधान्ये उत्तमं काव्यं ध्वनिरिति व्यपदिश्यते। अप्राधान्ये
मध्यमं गुणीभूतव्यङ्ग्यमिति गीयते। व्यङ्ग्यस्यास्फुटत्वेऽधमं काव्यं चित्रमिति
गीयते।
ध्वनिर्यथा।
स्वामिन् गोत्रमहीधरान् किमधुना नीचैर्विधत्से कुतो
गाधानम्बुनिधीन करोषि कुरुषे किं दिक्पतीनल्पकान्।
इत्थं पार्श्वचरानुलापमखिलं न्यक्कृत्य धर्मैषिणा
सृष्टः पद्मभुवा गुणैकवसतिः श्रीवीररुद्रो नृपः॥३८॥
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इत्थं काव्यसामग्रीं निरूप्य तद्भेदा निरूप्यन्ते। अथेत्यादिना। तेषां सामान्यतः स्वरूपनिरूपणपूर्वकं विभागमाह। व्यङ्ग्यस्येति। प्राधान्यादिनिमित्त
वशादुत्तमादिकाव्यानां ध्वन्यादिसंज्ञाप्रवृत्तिरित्याह। व्यङ्ग्यस्य प्राधान्य इत्यादिना। यथा लोके कस्यचिद् वस्तुनः संज्ञानार्थेप्रदीपादाविव व्यङ्ग्यार्थमेव वाच्यवाचकवैचित्र्यादौ महाकविप्रवृत्तेर्व्यङ्ग्यस्य मध्ये विश्रान्तिविरहेण स्वपर्यन्तं सहृदयहृदयाकर्षणाच्चतस्य प्राधान्यमित्यनुसन्धेयम्। तद्विरुद्धमप्राधान्यम्। तच्च व्यङ्ग्यस्य चारुत्वापकर्षोपाधिकृतं न स्वाभाविकमिति गुणीभूतव्यङ्ग्यमित्यत्र च्विप्रत्ययेन सूच्यते। अधमकाव्यस्यास्फुटव्यङ्ग्यत्वेन नीरसत्वात् केवलवाच्यवाचकवैचित्र्याश्रयत्वेनालेख्यप्रख्यत्वाच्चित्रशब्दवाच्यत्वम्। तच्च शब्दार्थालंकारयोर्व्याससमासाभ्यां निबन्धने
शब्दचित्रमर्थचित्रमुभयचित्रमिति
त्रधां
विभिद्यते॥
तत्र ध्वनिमुदाहरति। स्वामिन्निति। अल्पकानत्यल्पान्। अनुलापं
मुहुर्भाषामसकृत्कथनमिति यावत्। धर्मैषिणा न तु
कुलाचलाद्योपमैषिणा। गुणैक-
अत्र प्रतापरुद्रस्य
कुलशै178लातिशायिसमुन्नतत्वमतिसमुद्रगाम्भीर्यं179लोकपालाधिकमैश्वर्ये
च
व्यज्यते। तथा
कुलशिखरि
पयोधिलोकपालनिर्माणसंरम्भातिशायी
सर्व
विलक्षण
काकतीयनिर्माणविभव180ंइति
च
व्यज्यते॥
गुणीभूतव्यङ्ग्यं यथा।
प्रत्यग्रप्रसरत्प्रतापविभवव्याप्ताखिलाशान्तरे
विश्वत्रातरि वीररुद्रनृपतौ सिंहासनाध्यासिनि।
आस्थानीं
समुपागतैर्नृपतिभिस्तास्तास्तथा दर्शिता-
श्चेष्टा याभिरमुष्य
काकतिविभोर्दृष्टिः कृपार्द्रीकृता॥३९॥
अत्र
प्राप्ताभिषेक181महोत्सवस्य
प्रतापरुद्र
महाराजस्याग्रे
शरणार्थिनां182पार्थिवानां
तथाविध183कार्पण्योक्तिपुनः184 पुनः
प्रणामादि
व्यङ्ग्यं तास्ताश्चेष्टा दर्शिता इति वाच्यादनतिशायि
इति
गुणीभूतव्यङ्ग्यता।
चित्रं त्रिविधम्।
शब्दचित्रमर्थ185चित्रमुभयचित्रं चेति।
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बसतिर्न पुनरचलादिवदेकैकगुणाधारः। अन्रोन्नत्यादिव्यङ्ग्यस्यागूढत्वाद्यपकर्षनिमित्ताभावात् प्राधान्येनोत्तमकाव्यत्वमेवेत्यभिप्रायेणाह। अत्रेति॥
गुणीभूतव्यङ्ग्यमुदाहरति। प्रत्यग्रेति। अत्र कार्पण्यवचनादिचेष्टाविशेषरूपव्यङ्ग्यस्य याभिरमुष्येत्यादिवाक्येनोक्तप्रायत्वादगूढत्वेन न चारुत्वातिशय इत्याह। वाच्यादनतिशायीति॥
शब्दचित्रं यथा।
क्षोणीरक्षणदक्षिणाः क्षतजगत्क्षोभा
दुरीक्ष्यक्रमाः
क्षुद्रक्षत्रियपक्षशिक्षणविधौ प्रोत्क्षिप्तकौक्षेयकाः।
उद्दामोद्यमनस्य रुद्रनृपतेर्दोर्दण्डयोश्चण्डयो-
र्गर्जद्दुर्जनगर्वपर्वतभिदा दम्भोलयः केलयः॥
अर्थचित्रं यथा।
खग्गे
जुज्झविजिम्भिए
रिवुमहीणाहांजलिं बिंबिअं
पेक्खतो
जअलच्छिवासकमलं मण्णंति विण्णाणिणः।
मण्णे
वीरपआवरुद्दविहुणो जण्णेसु घेत्तुं उणो
सिठ्ठीए
रिवुजीविआइ
विहिणो जत्तस्स
पीठंबुअं॥४१॥
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शब्दचित्रमुदाहरति। क्षोणीति।
दुरीक्ष्यक्रमाः अभ्यासजनितलाघवातिशयेन दुरवबोधायुधप्रयोगपरिपाटीकाः। क्षुद्रक्षत्रियपक्षो राजपार्श्वबलम्। कौक्षेयकः खङ्गः। “कुलकुक्षि—” इत्यादिना शैषिको ढकञ्प्रत्ययः। यदैतत्सूत्रं भाष्यकारो न ममृषे तदा “इतिकुक्षि–” इत्यादिना ढञ्। स्वार्थिकः कप्रत्ययः। अत्र दोर्दण्डक्रीडानामशनित्वरूपणं गर्वाणां पर्वतत्वरूपणे हेतुः। अतः परस्परितं रूपकम्। तस्मिन् सत्यपि कवेर्वृत्त्यनुप्रास एवाभिनिवेशाच्छब्दचित्रस्यैव प्राधान्यमर्थचित्रस्य तु गुणभाव एवेति नोभयचित्रत्वमस्येति भावः॥
अर्थचित्रमुदाहरति। खङ्गेति।
खङ्गे युद्धविजृम्भिते रिपुमहीनाथाञ्जलिं विम्बितं
पश्यन्तो जयलक्ष्मीवासकमलं मन्यन्ते विज्ञानिनः।
मन्ये वीरप्रतापरुद्रविभोर्जन्येषु ग्रहीतुं पुनः
सृष्ट्यै रिपुजीवितानि विधेर्यातस्य पीठाम्बुजम्॥
जन्येषु युद्धेषु यातस्य गच्छतः। पत्तस्येति पाठे प्राप्तस्येति छाया। लच्छिवासेत्यत्र लक्ष्मीशब्दस्य ‘
दिहौ मिथः सः’ इति पाक्षिको ह्रस्वः। घेत्तुं उणो इत्यत्र
उभयचित्रं यथा।
विद्यासमुद्रे भुवनैकभद्रे
प्रतापरुद्रे
जितवैरिभद्रे।
रक्षाविनिद्रे धृतशौर्यमुद्रे
कान्तेव पृथ्वी रमते गुणार्द्रे॥
—————————————————————————————————————————————
‘तुमुतव्यक्त्वासु ग्रहेः’ इति तुमुन्प्रत्यये ग्रहेर्घेरादेशे धेत्तुमिति सिद्धम्। तस्योत्तरपदेन सन्ध्यभावः। ‘पदयोः सन्धिर्वा ’ इति विकल्पितत्वात्। वीरपआवेत्यत्र ‘वा समासे’ इति समासे विकल्पाद् द्वित्वाभावः। जत्तस्सेति वर्त्तमानापदेशेन परासुवैरिप्राणसंग्रहणलम्पटस्य कमलभुवः
कमलोपवेशना186वकाशाभावः प्रतीयते। अत्र प्रतापरुद्रखङ्गप्रतिबिम्बिते रिपुनृपाञ्जलौ लयलक्ष्मीवासकमलत्वमारोप्य तदपह्नवेनार्थसिद्धेन ब्रह्मासनकमलत्वप्रतिपादनादपह्नबालङ्कारः। अत्रैव क
वेरभिनिवेशादस्यार्थचित्रत्वम्। वृत्त्यनुप्रासे तु गुणभाव एवेति नात्राप्युभयचित्रत्वमिति भावः॥
उभयचित्रमुदाहरति। विद्येति। अत्रोभयत्र कवेरभिनिवेशादुभयचित्रत्वमित्यभिप्रायेणाह। अत्रेति। यद्यप्येतत् प्राचीनालंकारकारैर्नोदाहृतं तथाप्यन्यतरप्राधान्येनेतरभेदद्वयवदुभयप्राधान्येनास्यापि
सुवचत्वादविरोधः। किं च
‘पादाम्बुजं भवतु वो विजयाय मञ्जु-
मञ्जीरशिञ्जितमनोहरमम्बिकायाः॥’
इत्यत्रोपमानुप्रासयोरन्योन्यनिरपेक्षत्वेन समप्रधानभावयोः संसृष्टिमङ्गीकुर्बाणैः पूर्वैरेवोभयचित्रमप्यङ्गीकृतमिति विज्ञेयम्। नन्वेषूदाहरणेषु यथायोगं विभावानुभावविशेषकथनेन वीरशृङ्गारयोः पर्यवसानात् कथमधमत्वम्। सत्यम्। शब्दार्थालंकारयोरेव कविविवक्षाविषयत्वाद् विद्यमानोऽपि रसो दिवा चन्द्र
प्रकाशवन्न प्रतीयते। तदुक्तं काव्यालोके
‘रसभावादिविषयविवक्षाविरहे सति।
अलंकारनिबन्धो यः स चित्रविषयो मतः॥’
इति।
अत्रानुप्रासोपमाभ्यां187 चित्रता॥
अथ188 ध्वनिविशेषा निरूप्यन्ते।189
अत्र190 ध्वनेर्लक्षणाभिधामूलत्वेनाविवक्षितवाच्यविवक्षितान्यपरवाच्याख्यौ प्रथमं द्वौ191 भेदौ। अविवक्षितवाच्यस्यार्थान्तरसंक्रमितात्यन्ततिरस्कृतवाच्यतया द्विविधस्य वाक्यपदगतत्वेन द्वैविध्ये चातुर्विध्यम्। विवक्षितान्यपरवाच्यस्य संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यासंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यतया द्वौ भेदौ। संलक्ष्यक्रमर्व्यङ्ग्ये शब्दशक्तिमूले192 वस्त्वलंकाररूपतया द्वैविध्ये वाक्यपदगतत्वेन चातुर्विध्यम्।——————————————————————————————————————
एवं त्रिविधमपि काव्यं सामान्यतो निरूप्य तत्रोत्तमकाव्यं प्रपञ्चयितुं प्रतिजानीते। अथेति। विभजते। अत्रेति। अविवक्षितं व्यङ्ग्येन न्यग्भावितं वाच्यं यत्र सोऽविवक्षितवाच्यः। अन्यपरं व्यङ्ग्यपरं राजतात्पर्येण राजपुरुषसेवनवद्193 व्यङ्ग्यपरत्वेनैव विवक्षितं विवक्षितान्यपरं तथाभूतं वाच्यं यत्र स विवक्षितान्यपरवाच्यः। तत्र लक्षणामूलं चतुर्धा विभजते। अविवक्षितेति। तत्रार्थान्तरसंक्रमितवाच्ये वाच्यस्योपपद्यमानत्वेऽपि तावतानुपयोगादजहल्लक्षणामूलत्वम्। अत्यन्ततिरस्कृतवाच्ये वाच्यस्यानुपपन्नत्वात्194 जहल्लक्षणामूलत्व-मिति विवेकः। संक्रमितेति णिचा व्यञ्जनसहकारिवर्गस्यायं प्रभाव इति सूच्यते। अभिधामूलं विभजते। विवक्षितेति। संलक्ष्यः स्फुटसंवेद्यः क्रमो व्यङ्ग्यव्यञ्जकयोर्यत्र स संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यः। यत्र व्यञ्जकस्य विभावादेर्व्यङ्ग्यस्य च रसादेः सन्नपि क्रमो निशितसूच्या शतपत्रपत्रशतवेधवदाशुभावित्वान्न195 लक्ष्यते सोऽसंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यः। तत्राद्यस्य शब्दार्थोभयशक्तिमूलत्वेन त्रैविध्यं सिद्धवस्कृत्याद्यं चतुर्धा विभजते। संलक्ष्येति। जातिगुणादिरूपोऽर्थोवस्तु। तदेव
अर्थशक्तिमूले संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्येऽर्थस्य196 स्वतःसंभवित्वेन197। कविप्रौढोक्ति198सिद्धत्वेन कविनिवद्धोक्तिसिद्धत्वेन199 च त्रैविध्यम्200। त्रिविधस्य वस्त्वलंकाररूपतया201 द्वैविध्ये षडि्वधत्वम्202। षडि्वधस्यापि व्यङ्ग्यव्यञ्जकतया203 द्वैविध्ये द्वादशविधत्वम्। द्वादशविधस्यापि प्रबन्धगतत्वेन वाक्यगतत्वेन पदगतत्वेन च204 त्रैविध्ये षट्त्रिंशत्प्रकारोऽर्थशक्तिमूलोऽनुरणन-
——————————————————————————————————————
विच्छित्तिविशेषयुक्तमलंकारः। द्वितीयः षट्त्रिंशत्प्रकार इत्याह। अर्थशक्तिमूल इत्यादिना। अर्थस्य मूलभूतस्य व्यञ्जकस्येत्यर्थः। यो न केवलं साहित्यमात्रसिद्धः किं तु लोकेऽप्यौचित्येन संभाव्यते स स्वतःसंभवी। यः पुनरसन्नपि लोके कविना प्रतिभामात्रेण संभाव्य संपाद्यते स कविप्रौढोक्तिसिद्धः। कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धस्तु कविनिबद्धोक्तिसिद्ध205 इति त्रयाणां विवेकः। षड्विधस्येति। व्यञ्जकस्येति भावः। व्यङ्ग्यव्यञ्जकतयेति। व्यङ्ग्ययोर्वस्त्वलंकाररूपयोर्व्यञ्जकतयेत्यर्थः। तथा चोक्तं काव्यप्रकाशे
‘अर्थशक्त्युद्भवोऽप्यर्थोव्यञ्जकः संभवी स्वतः।
प्रौढोक्तिमात्रात् सिद्धो वा कवेस्तेनोदितस्य वा॥
वस्तु वालंकृतिर्वेति षड्भेदोऽसौ व्यनक्ति यत्।
वस्त्वलंकारमथवा तेनायं द्वादशात्मकः॥’
इति। हेमचन्द्रस्तु प्रौढोक्तिमन्तरेण स्वतःसिद्धस्याप्यकिंचित्करत्वात् सिद्धत्वमेव206 सर्वत्रेति स्वतःसंभवित्वादिभेदत्रयं207 नाङ्गीचकार। अनुरणनेति। घण्टादेः प्रथमस्वनान्तरभावी208 स्निग्धः209 स्वनोऽनुरणनम्। तत्सादृश्यात् संलक्ष्यक्रमव्यङ्- ग्यस्त्रिविधोऽप्यनुरणनध्वनिरुच्यते। तत्र
‘विच्छित्तिशोभिनैकेन भूषणेनेव भामिनी।
पदद्योत्येन सुकवेर्ध्वनिना भाति भारती॥’
इति ध्वन्याचार्यवचनात् पदगतेष्वपि रम्यत्वमस्तीति वेदितव्यम्210। तृतीय-
ध्वनिः। उभयशक्तिमूलो वाक्यगतत्वेनैकविध एव। एवं संल क्ष्यक्रमव्यङ्ग्य-ध्वनेरेकच-त्वारिंशद्भेदाः। असंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यो211 रसादिध्वनिः प्रबन्धवाक्यपदपदैकदेशरचनावर्णगतत्वेन षड्विधः। एवं विवक्षितान्यपरवाच्यध्वनेः सप्तचत्वारिंशद्भेदाः। अविवक्षितवाच्यभेदैश्चतुर्भिः सह ध्वनेः प्रथमं शुद्धा एकपञ्चाशद् भेदाः। तेषां212 प्रत्येकमेकैकस्यैकैकेन संबन्धे प्रथमभेदस्यैकपञ्चाशद् भेदाः। द्वितीयस्य213 पञ्चाशद् भेदाः। तृतीयस्यैकोनपञ्चाशद्214 भेदाः। अनेन215 क्रमेणोत्तरोत्तरस्यै-216
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माह। उभयशक्तीति। एकावध एवति। प्रकारवैचित्र्यकल्पनस्य दुःशकत्वादिति217 भावः। अनुरणनध्वनिभेदान् क्रोडीकृत्याह। एवमिति। एकश्च चत्वारिंशच्च एकचत्वारिंशदिति द्वन्द्वः। ‘सर्वो द्वन्द्वो विभाषयैकवद्भवति’ इत्येकवद्भावः। ‘लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वाल्लिङ्गस्य ’ इति भाष्यका-रवचनाजनपदादिशब्दवन्न पुंसकत्वाभावः। नापि भेद्यलिङ्गत्वम्। विंशत्यादीनां नवत्यन्तानाममरकोशे ‘तासु चानवतेः स्त्रियः’ इति नियमेन स्त्रीलिङ्गताभिधानात्। यद्वा एकोत्तरा चत्वारिंशदिति मध्यमपदलोपी समासः। एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम्। द्वितीयमभिधामूलध्वनिं विभजते। असंलक्ष्येति। रसादीनामानन्त्येन तद्भेदकल्पनस्याशक्यत्वात् तद्द्योतकप्रबन्धादिकृतो218 रसादेः पोढा विभाग इत्याह। प्रबन्धेति। सर्वानपि ध्वनिभेदान् संकलय्याह। एवमिति। शुद्धा ध्वन्यन्तरासंबद्धा इत्यर्थः। मिश्रभेदानाह। तेषामिति। तेषां शुद्धानामित्यर्थः। ननु लक्षणामूलध्वनेरभिधामूलध्वनिसंबन्धे यथैको मिश्रभेदस्तथैवाभिधामूलध्वनेर्लक्षणामूलध्वनिसंबन्धे भेदान्तरं भविष्यति। एवमेकपञ्चाशतोऽपि भेदानां विचार्यमाणे एकोत्तरशतषट्काधिकसहस्रद्वयसंख्याकमिश्रभेदसंभवादैकैकन्यूनताश्रयणेन षड्विंशत्युत्तरशतत्रयाधिकसहस्रसंख्यावलम्बनमयुक्तमिति चेत् सत्यम्। भेदद्वयेऽपि तस्यामुना संबन्धोऽमुष्य वा तेनेति संबन्धिप्रतिसंबन्धिनोरुच्चारणव्यत्यासमात्रं न पुनश्चमत्कारविशेषः। अतस्तेषां यथायोगं मिथोऽन्तर्भाव एवेति युक्तमेवोक्तम्। तदेतदाह। अविवक्षितवाच्यस्येति। विषयव्याप्त्यर्थं ध्वन्यन्तरेऽप्यन्तर्भावं दर्शयति। अनेनैवेति। भूयो विभागमाह। तस्यापीति। ध्वन्योः संदेहा-
कैकभेदपरित्यागे षड्विंशत्युत्तरशतत्रयाधिकसहस्रसंख्याका मिश्रभेदाः। अविवक्षितवाच्यस्य219 विवक्षितान्यपरवाच्यसंबन्धे यो भेदस्तस्मिन्नेवान्तर्भूतो विवक्षितान्यपरवाच्यस्याविवक्षितवाच्यसंबन्धे220 भेदो न पृथग्भूतः। अनेनैव क्रमेण वस्तुध्वनेरलंकारध्वनिसंबन्धभेदो221ऽप्यलंकारध्वनेर्वस्तुध्वनिसंबन्धान्न222 पृथग्भूत इति पूर्वपूर्वस्योत्तरोत्तरसंबन्धे एकैकभेदन्यूनता ज्ञेया। तस्यापि मिश्रणस्य223त्रिरूपेण संकरेणैकरूपया संसृष्टया च पुनश्चतुर्धायोजने चतुरुत्तरशतत्रयाधिकपञ्चसहस्राणि भेदाः।224
शुद्धाश्चन्द्रशरा मिश्रा ऋतुनेत्रानलेन्दवः।
संसृष्टिसंकरायत्तास्त्वब्धिस्वाग्निशराभिधाः॥
तत्र225 शुद्धानामेकपञ्चाशद्भेदानां नामधेयानि कथ्यन्ते। पदगतार्थान्तरसंक्रमिताविवक्षितवाच्यध्वनिः।१। वाक्यगतार्थान्तरसंक्रमिताविव क्षितवाच्यध्वनिः।२। पदगतात्यन्ततिरस्कृताविवक्षितवाच्यध्वनिः॥३॥ वाक्यगतात्यन्ततिरस्कृताविवक्षितवाच्यध्वनिः।४। पदगतशब्दशक्तिमूलसंलक्ष्यक्रमवस्तुध्वनिः226।५। पदगतशब्दशक्तिमूलसंलक्ष्यक्रमालंकारध्वनिः।६। वाक्यगतशब्दशक्तिमूलसंलक्ष्यक्रमवस्तुध्वनिः ।७। वाक्यगतशब्दशक्तिमूलसंलक्ष्यक्रमालंकारध्वनिः। ८। पदगतस्वतःसिद्धार्थ-
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स्पदत्वेनानुग्राह्मानुग्राहकभावेनैकव्यञ्जकानुप्रवेशेन च त्रिरूपेणेत्यर्थः। संकरवत् सापेक्षत्वाभावात् संसृष्टेरेकरूपत्वं द्रष्टव्यम्। फलितां संख्यामाह। चतुरुत्तरेति। न्यूनाधिकसंख्याव्यवच्छेदार्थमुक्तामेव संख्यां227 संकेतभाषया क्रोडीकृत्याह। शुद्धा इति। अत्राङ्कप्रस्तारो व्युत्क्रमेण द्रष्टव्यः। चन्द्र एकः। शराः पञ्च। ऋतवः षट्। नेत्रे द्वे। अनलास्त्रयः। इन्दुरेकः। अब्धयश्चत्वारः। खं शून्यं बिन्दुरित्यर्थः। अग्नयस्त्रयः। शराः पञ्च। तर्हि किंनिमित्तं काव्यप्रकाशकारोऽन्तर्भावयातयामानपि कतिचिद् भेदान् संगृह्य चतुरुत्तरचतुःशतीयुतायुतसंख्या-
शक्तिमूलो228 वस्तुना वस्तुध्वनिः।९। पदगतस्वतःसिद्धार्थशक्तिमूलोवस्तु229नालंकारध्वनिः।१०। पद्गतस्वतःसिद्धार्थशक्तिमूलो229ऽलंकारेणालंकारध्वनिः।११।पदगतस्वतःसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेण230 वस्तुध्वनिः।१२। वाक्यगतस्वतः सिद्धार्थशक्तिमूलो वस्तुना वस्तुध्वनिः।१३। वाक्यगतस्वतःसिद्धार्थशक्तिमूलो वस्तुनालंकारध्वनिः।१४। वाक्यगतस्वतः सिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेणालंकारध्वनिः।१५।वाक्यगतस्वतःसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेण वस्तुध्वनिः। १६।प्रबन्धगतस्वतःसिद्धार्थशक्तिमूलो वस्तुना वस्तुध्वनिः।१७। प्रबन्धगतस्वतःसिद्धार्थशक्तिमूलो वस्तुनालंकारध्वनिः।१८। प्रबन्धगतस्वतःसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेणालंकारध्वनिः।१९। प्रबन्धगतस्वतःसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेण वस्तुध्वनिः। २० । पदगतकविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलो231 वस्तुना वस्तुध्वनिः।२१। पदगतकविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलो231 वस्तुनालंकारध्वनिः। २२ । पदगतकविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेणालंकारध्वनिः।२३। पदगतकविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेण वस्तुध्वनिः।२४। वाक्यगतकविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलो वस्तुना वस्तुध्वनिः।२५।वाक्यगतकविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलो232 वस्तुनालंकारध्वनिः।२६। वाक्यगतकविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेणालंकारध्वनिः।२७। वाक्यगतकविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेण वस्तुध्वनिः।२८।प्रबन्धगतकविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलो233 वस्तुना वस्तुध्वनिः।२९।प्रबन्धगतकविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलो234 वस्तुनालंकारध्वनिः। ३० ।
प्रबन्धगत कविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेणालंकारध्वनिः।३१।प्रबन्धगतकविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेण235 वस्तुध्वनिः।३२।——————————————————————————————————————
न् संसृष्टिसंकरायत्तभेदानजीगणत् । को वेद किं वात्र236 निमित्तं तत् पुनस्त एव तत्रभवन्तो विदांकुर्वन्तु । अस्माभिस्तु ’ युक्तियुक्तं वचो ग्राह्यं न तु पुरुषगौरवात्’ इति न्यायसरणिरनुसरणीयेति विद्यनाथहृदयम्237॥
पदगतकविनिबद्धोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलो238 वस्तुना वस्तुध्वनिः।३३।पदगतकविनिबद्धोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलो238 वस्तुनालंकारध्वनिः।३४।पदगतकविनिबद्धोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेणालंकारध्वनिः।239३५। पदगतकविनिबद्धोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेण239 वस्तुध्वनिः।३६। वाक्यगतकविनिबद्धोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलो239 वस्तुना वस्तुध्वनिः।३७। वाक्यगतकविनिबद्धोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलो239 वस्तुनालंकारध्वनिः।३८। वाक्यगतकविनिबद्धोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेणालंकारध्वनिः238।३९।
वाक्यगतकविनिबद्धोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेण वस्तुध्वनिः।४०।प्रबन्धगतकविनिबद्धोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलो240 वस्तुना वस्तुध्वनिः।४१। प्रबन्धगतकविनिबद्धोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलो240 वस्तुनालंकारध्वनिः। ४२।प्रबन्धगत कविनिबद्धोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेणालंकारध्वनिः।४३। प्रबन्धगतकविनिबद्धोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलोऽलंकारेण वस्तुध्वनिः।४४।प्रबन्धगतासंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यो रसादिध्वनिः241। ४५। वाक्यगतासंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्योरसादिध्वनिः241। ४६। पदगतासंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यो रसादिध्वनिः242 M.")। ४७। पदैकदेशगतासंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यो रसादिध्वनिः243 M.")। ४८। रचनागतासंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यो रसादिध्वनिः243 M.")। ४९। वर्णगतासंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यो रसादिध्वनिः। ५०। वाक्यगतोभयशक्तिमूलो ध्वनिः। ५१।
तत्र244 दिङ्मात्रमुदाहियते।
अर्थान्तर245संक्रमिताविवक्षितवाच्यध्वनिर्यथा।
मूर्धानो यूयमास्माकाः246 किमित्यौन्नत्यमिच्छथ247।
इति प्रतापरुद्रस्य248 प्रणताः प्रतिपार्थिवाः॥ ४३ ॥
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अथ प्रतिपत्तिसौकर्यार्थं शुद्धभेदानां प्रतिज्ञापूर्वकं नामानि कथयति। तत्रेति। गतार्थमेतत्।
अत्र कतिपयोदाहरणप्रदर्शेनेनेह कुशलानां भेदान्तराणि सुबोधानीत्यभिप्रायेणाह249। तत्र दिङ्मात्रमिति। उदाहरति। मूर्धान इति। आस्माका अस्म-
अत्र250 आस्माका इति सर्व251दैन्यभूमयो252 वयमीदृशानामस्माकं253 संबन्धिन254इत्यर्थान्तरसंक्रमितवाच्यता255।
अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यो256 यथा।
विशदिमविलिप्तवियतो धवलिमपरिपूरिताखिलाशान्ताः।
विहरन्ति यशः पूरा गौराः श्रीकाकतीन्द्रस्य॥ ४४ ॥
अत्र विशदिमविलिप्तवियत257 इत्यन्ततिरस्कृत258वाच्यम्259। अनेनैव क्रमेण वाक्यगतत्वेनाप्युदाहार्यम्।————————————————————————————————————————————————
दीयाः। “युष्मदस्मदोः260” इत्यण्प्रत्यये “तस्मिन्नणि च” इत्यास्माकादेशः। अत्रास्माकप्रकृत्यास्मच्छब्देनास्मदर्थमहित्वैव तावतानुपयोगाद् दैन्यविशिष्ठोऽस्मदर्थः सामान्यविशेषभावसंबन्धेन लक्ष्यत इत्याह। सर्वदैन्येति। व्यङ्ग्यं पुनर्वीररुद्रवैरिणां वैनतेयसंनिधाने वाताशिनामिव विक्रमविमुखत्वमित्येतदभिसंधायाह। अत्रेति॥
विशदिमेति। अत्र विशदिमधवलिम्नोर्विषयभेदान्मिथो261 न पौनरुक्त्यम्। अनयोर्वियद्विलेपनदिगन्तपरिपूरणविधानार्थत्वेनानुवाद्यत्वाद्विधेयेन गौरा इत्यनेनापि न पौनरुक्त्यमिति विज्ञेयम्। अत्र विलिप्तपदं मूर्त्तोचितस्य विलेपनस्यामूर्त्ते वियत्यनुपपद्यमानत्वात् स्वार्थपरित्यागेनोपरञ्जनातिशयं कार्यकारणभावसंबन्धेन लक्षयदाकाशे प्रकाशाधिक्यं व्यनक्तीत्यभिप्रायेणाह। अत्रेति। अनेनै-
अथार्थशक्तिमूलो262 वस्तुना वस्तुध्वनिर्यथा।
अब्दानृतून् विना मासान् शुक्लपक्षान् विना तिथीन्263।
रात्रीर्विनापि264 काङ्क्षन्ते265 काकतीयरिपुस्त्रियः266॥ ४५ ॥
अत्र ऋतुप्रभृतीनां मन्मथोद्दीपकत्वात्267 तदभावो रिपुस्त्रीभिराकाङ्क्ष्यत268 इति प्रतीयते। तेन तासां प्रियवियोगरूपं269 वस्तु व्यज्यते। अनेन प्रतापरुद्रस्य सर्वे270 शत्रवो निहता इति वाच्यादतिशयः271। तथा272 प्रियविरहविधुराः शत्रुस्त्रियः कतिपयवत्सरान्273;॰संवत्सरान् M4.”) जीविताशया प्रथममृतूनामभावं274 वाञ्छन्ति275। अनन्तरं276 तानपि गमयितुमशक्ताः277 कतिपयमासेषु
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बेति वाक्यगतत्वमेवात्र भेदकमिति भावः। अत्र जहदजहल्लक्षणयोर्वस्तुमात्रं व्यङ्ग्यम्। तच्च शब्दैकव्यापाराद् व्यञ्जनादेव। अन्यथा लक्षणाया एवानुपादेयत्वप्रसङ्गादिति द्रष्टव्यम्। तदुक्तं काव्यप्रकाशे-
‘यस्य प्रतीतिमाधातुं लक्षणा समुपास्यते।
फले शब्दैकगम्येऽत्रव्यञ्जनान्नापरा क्रिया॥’
इति।
शब्दशक्तिमूलापेक्षया भेदबाहुल्येन बहुवक्तव्यत्वादर्थशक्तिमूलानादावुदाहर्त्तु माह। अथेति। अब्दानिति। अत्र ऋत्वाद्यभावाकाङ्क्षाया वाच्यत्वेऽपि तस्याः कामोद्दीपकत्वहेतुकत्वं व्यङ्ग्यमेवेत्यभिप्रायेणाह। अत्रेति। तस्य व्यङ्ग्यमाह। तेनेति। तेनानन्तरोक्तव्यङ्ग्येनेत्यर्थः। तस्यापि व्यङ्ग्यमाह। अनेनेति। प्रियवियोगेनेत्यर्थः। व्यज्यत इत्यनुषज्यते। एवमुत्तरोत्तरव्यङ्ग्य एव कविसंभ्रमविश्रान्तेस्तस्य वाच्यादुत्कर्षो येनास्य ध्वनिव्यपदेश इत्याह। इति वाच्यादिति। किं च प्रथमकक्ष्यायां प्रतीयमानस्य ऋत्वाद्यभावाकाङ्क्षालक्षणस्य वस्तुनो व्यञ्जकवस्तुत्रैविध्यात् त्रैविध्यमित्याह। तथेत्यादिना॥
प्राणान् धारयितुमुद्युक्ता278 ज्योत्स्नावतां पक्षाणां विनाशं वाञ्छन्ति। अनन्तरंमासानप्य-पनेतुमपारयन्त्यः279 कतिपयतिथिषु280 जीविताशया रात्रीणामसृष्टि281मभिलषन्तीति282 बहुवस्तु283 वस्तुना व्यज्यते।
वस्तुनालंकारध्वनिर्यथा।
दृष्ट्वाकाकतिवीररुद्रनृपतेः कीर्त्तिंजगद्व्यापिनीं
वस्तुं वाञ्छति शंभुरत्र शयितुं लक्ष्मीपतिः284 काङ्क्षति।
स्नातुं धावति285 दिव्यतापसगणः संवर्धितुंवार्धय-
श्चेष्टन्ते सविलासमभ्रमुरपि स्प्रष्टुं शनैरीहते॥ ४६ ॥
अत्र हरस्य कैलासभ्रान्तिः हरेः क्षीरोर्णवभ्रान्तिरिति286 भ्रान्तिमदलंकारो व्यज्यते॥
अलंकारेण287 वस्तुध्वनिर्यथा।
प्रतापरुद्रस्य रणे कृपाणः
सद्यः समुद्यद्रुधिरारुणश्रीः।
आलम्बते रोषकषायितस्य
कालीकटाक्षस्य विजृम्भितानि॥
अत्रालम्बत288 इति निदर्शनालंकारेण सकलरिपुक्षयः क्षणात् कृत289 इति वस्तु व्यज्यते॥
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दृष्ट्वेति। अत्र कीर्त्ती शंभुप्रभृतीनां निवासाकाङ्क्षादिलक्षणेन वस्तुना तेषां यथाक्रमं कैलासक्षीरोदम-न्दाकिनीचन्द्राभ्रमातङ्गभ्रान्तिरूपो भ्रान्तिमदलंकारो व्यज्यते। तदेतदाह। अत्र हरस्येति। अत्र व्यङ्ग्यस्य प्राधान्येनालंकार्यत्वेऽपिब्राह्मणश्रमणन्यायेन प्रत्यभिज्ञानबलादलंकारव्यपदेशो न विरुध्यते। एवमन्यत्राप्यलंकारध्वनौ वेदितव्यम्॥
प्रतापेति। कषायितस्यारुणीकृतस्य। अत्र कृपाणस्य चण्डिकाकटाक्षविजृम्भितालम्बनासंभवाद्विजृम्भि-तानीव विजृम्भितानीति सादृश्याक्षेपादसंभवद्वस्तुसंबन्धरूपो निदर्शनालंकारः॥
अलंकारेणालंकारध्वनिर्यथा।
काकतीयविभोः कीर्त्तिपुण्डरीके विजृम्भिते।
धत्ते मधुकरक्रीडां तमालश्यामलं नभः॥ ४८ ॥
अत्र कीर्त्तिपुण्डरीके नभोभ्रमरक्रीडां धत्त इति निदर्शनालंकारेणाश्रयाश्रयिणोरनानुगुण्यरूपोऽधिका290लंकारो291 व्यज्यते। आश्रयस्य कीर्त्तिपुण्डरीकस्य वैपुल्यं भ्रमरसादृश्यप्रतिपादनेनाल्पत्वं नभसः प्रतीयते।एषु स्वतः सिद्धार्थशक्तिमूलत्वम्।292
अथ293 कविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलो294 वस्तुना वस्तुध्वनिर्यथा।
श्रावं श्रावं खुरलिविहरत्कार्तिकेयेषुजात-295
च्छिद्रच्छद्मश्रवणपदवीचारिणीं चारणौघैः।
शश्वद्गीतां भुवनमहितां काकतीन्द्रस्य296 कीर्त्ति
क्रौञ्चक्ष्माभृद्भवति297 महतो298 विस्मयान्निश्चलाङ्गः॥ ४९ ॥
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काकतीयेति। पूर्ववन्निदर्शनालंकारः। अनानुगुण्यरूप इति। आधारस्य नभसोऽल्पत्वादाधेयस्य यशसोऽधिकत्वाच्चेति भावः। तच्च व्यज्यत इत्याह। आश्रयस्येति। एषु स्वतः सिद्धेति। व्यञ्जकस्य लोकसिद्धार्थत्वादिति भावः॥
अथ कविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलेषु वस्तुना वस्तुध्वनिमुदाहरति। श्रावं श्रावमिति। श्रावं श्रावं पुनः पुनः श्रुत्वेत्यर्थः। “आभीक्ष्ण्ये णमुलि नित्यवीप्सयोः” इति द्विर्भावः। खुरलिर्मल्लादिसाधनशाला। तत्र विहरतः क्रीडतः कार्त्तिकेयस्य कृत्तिकापत्यस्य स्कन्दस्येपुणा शरेण जातं यच्छिद्रं तस्य छद्मना व्याजेन या श्रवणपदवी। बहिर्निर्गतं वाणरन्ध्रमेव श्रवणसरणिर्बभूवेति भावः। तत्र चरति ताच्छील्येन तां तथोक्ताम्। पुरा किल कार्त्तिकेयः खुरलीविहरणवेलायां परशुरामस्पर्धया क्रौञ्चगिरिं ददारेति प्रसिद्धिः। भुवनानां महितां पूज्यमानामिति शेषषष्ट्या निष्ठान्तेन समासः। अत एव " क्तेन च पूजायाम् " इत्यादिषु कारकषष्ट्या एव समासनिषेध इति हरदत्तः। अत्र क्रौञ्चाद्रेर्निश्च-
अत्र प्रतापरुद्रस्य299 कीर्तिः स्थावराणामपि विस्मयकारिणीति वस्तु300व्यज्यते॥
वस्तुनालंकारध्वनिर्यथा।
वीररुद्रभटान् दृष्ट्वा जयलक्ष्मी301वृतान् रणे302।
कर्षन्त्यरिवधूकेशान् कानने कण्टकिद्रुमाः॥ ५०॥
अत्र जयलक्ष्मीसमालिङ्गितान्303 वीररुद्रभटान्304 दृष्ट्वा समदनाइव कण्टकिद्रुमाःशत्रुवधूकेशान्305कर्षन्तीवेत्युत्प्रेक्षा306 व्यज्यते।
अलंकारेण वस्तुध्वनिर्यथा।
ओसरइ307 सहीहि समं लज्जा308वहुआए सिढिलमाणाए।
अप्पग्गहण309भयेण310 व311सविहगए मणोहरे312 दइए॥ ५१॥
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लाङ्गत्वे विस्मयादिवेति हेतोरुत्प्रेक्षणादुत्प्रेक्षालंकारो व्यञ्जकाप्रयोगाद् गम्यः। एवमलंकारे सत्यपि कौञ्चक्ष्माभृदिति वस्त्वेव स्थावराणामपि विस्मयकारिणी कीर्त्तिरिति वस्तु व्यनक्ति पुनरलंकारभागः। अतो वस्तुना वस्तुध्वनेरेवेदमुदाहरणम्॥
वीररुद्रेति। निगदव्याख्यानमेतत्॥
ओसरईति। त्वोदवापोता इत्यपशब्दस्यौकारः।
अपसरति सखीभिः समं लज्जा वध्वाः शिथिलमानायाः।
आत्मग्रहणभयेनेव सविधगते मनोहरे दयिते313॥
भयेण वेत्यत्र314 ‘इवस्य पिवमिवतिबद्वा’ इति वशब्दस्य केवलो वकारो हेतूत्प्रेक्षाव्यञ्जकः॥——————————————————————————————————————
छाया।
अपसरति सखीभिः समं लज्जावध्वाः शिथिलमानायाः।
आत्मग्रहणभयेनेव सविधगते मनोहरे दयिते॥
अत्रोत्प्रेक्षयालिङ्गनं315 वस्तु व्यज्यते॥
अलंकारेणालंकारध्वनिर्यथा।
अभयं याचमानानां काकतीयेन्द्रविद्विषाम्।
रक्षां नाङ्गीकरोतीववनं शाखाग्रकम्पनैः316॥ ५२ ॥
अत्र नाङ्गीकरोतीवेत्युत्प्रेक्षया प्रतापरुद्रशत्रुभ्यो रक्षणं कर्त्तुं वनमपि317विभेतीवेत्युत्प्रेक्षा व्यज्यते ॥
कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलो318 वस्तुना वस्तुध्वनिर्यथा।
जह तह319 व320 होदु अज्जा321णरणाह322 करेहि रक्खणं ससिणो।
जं ताएकडरवुक्का323 आणत्ता324 M.”) तं मसीकादुं॥ ५३ ॥
अत्र विरहातुरा325 आर्या चन्द्रिकामसहमाना रोषोज्ज्वलितया326 कटाक्षोल्कया चन्द्रं मषीकरोति सरक्षणीय327 इत्यनेन वस्तुना328 इतः परं सा329जीवितं धारयितुमशक्ताधुनैव330 त्वया331 समागन्तव्यमिति वस्तु332 व्यज्यते॥——————————————————————————————————————
अभयमिति333। अत्र क्रियोत्प्रेक्षयोर्व्यङ्ग्यव्यञ्जकभाव इत्याह अत्रेति॥
अथ कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धार्थेषु वस्तुना वस्तुध्वनिमुदाहरति। जह तह वेति334। ’ नवाच्ययो335 दातादौ’ इति ह्रस्वः। यथा तथा वाभवत्वार्या नरनाथ कुरु रक्षणं शशिनः। यत्तया कटाक्षोल्का आज्ञापिता तं मषीकर्त्तुम्।336 विलम्बितागमनं प्रियं प्रति विदग्धदूती337वचनमेतत्॥
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छाया।
यथा तथा वा भवत्वार्या नरनाथ कुरु रक्षणं शशिनः।
यत्तया कटाक्षोल्का आज्ञप्ता तं मषीकर्त्तुम्॥
वस्तुनालंकारध्वनिर्यथा।
कस्त्वं शुभ्राखिलाङ्गश्चरसि ननु यशो वीररुद्रस्य वर्त्ते338
कोऽयं ते दीप्तदेहः339 स्फुरति परिसरे मत्सुहृत्तत्प्रतापः340।
प्रच्छाद्यालं341 स्फुरद्भिः कुमुदसरसिजैः ख्यापितं वः342स्वरूपं
सोमार्कौ स्वागतं वामवधिगिरिरहं343 कल्पितो निस्तमस्कः॥५४॥
अत्र प्रतापरुद्रयशःप्रतापयोः सोमार्कसादृश्यप्रतीते344रुपमा व्यज्यते ॥ अलंकारेणालंकारध्वनिर्यथा।
उवह345 हला वहुआए346 तह आरूढो347 वि णिभ्भरो माणो।
णिवइसमाअम348संभमसंजाअभएव्व349 ओसरइ॥ ५५ ॥
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कस्त्वमिति। अत्र प्रथमार्धे लोकालोकवीररुद्रयशसोः प्रश्नोत्तरवाक्यानि चत्वारि। द्वितीयार्धमेकं लोकालोकवाक्यं मत्सुहृदिति। उभयोरेकजन्यत्वादिति भावः। मे सुहृदिति क्वचिदपपाठो लेखकदोषात्। युष्मदस्मदादेशानां पदात् परत्वनियमात्। अत्र तु वाक्यादित्वेन तदभावादिति। अत एवोक्तम्। ‘समानवाक्ये निघातयुष्मदस्मदादेशा वक्तव्याः’ इति। प्रच्छाद्यालमिति। न प्रच्छादनीयमित्यर्थः। “अलंखल्वोः " इति क्त्वाप्रत्यये ल्यबादेशः। ख्यापितं व इत्यत्र द्वित्वेऽभिधेये व इति पाक्षिकं बहुवचनम्। ‘युष्मदि गुरावेकेषाम् ’ इति जयादित्यवचनात्। निस्तमस्को बाह्यभागेऽपीति भावः ॥
उवहेति। उवहेति पश्यतेत्यर्थेऽव्ययम्। हलेति च सख्याह्लाने। ‘वा सख्यामामि हलाहल’ इति। भओब्बेत्यत्र ‘मिवतिवविवव्वल इवार्थ’ इतीवार्थे द्वित्वं प्राप्तो
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छाया।
पश्यत हला वध्वास्तथारूढोपि निर्भरो मानः।
नृपतिसमागमसंभ्रमसंजातभय इवापसरति॥
अत्रोत्प्रेक्षया प्रियप्रार्थनां विनैव मानिनीमनः प्रसन्नमिति350 विभावनालंकारो व्यज्यते॥
अलंकारेण वस्तुध्वनिर्यथा।
अप्राप्य सेवावसरं नाथ कान्तावृतस्य ते।
त्वत्कीर्त्तिसेवमानेव351 श्यामा सर्वाङ्गपाण्डुरा॥ ५६ ॥
अत्र सेवमानेवे352त्युत्प्रेक्षया सर्वथा स्वीकार्यत्वादिरूपं353 वस्तु354 व्यज्यते॥ एवं प्रबन्धादिगतत्वेन यथासंभवमुदाहरणानि द्रष्टव्यानि विस्तरभयादिह नोक्तानि॥
अथ शब्दशक्तिमूलध्वनिः355। स च वस्त्वलंकारगतत्वेन356 द्विविधः। तथा चोक्तम्
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वकारः। पश्यत हला वध्वस्तथा रूढोऽपि निर्भरो मानः। नृपतिसमागमसंभ्रमसंजातभय इवापसरति॥ विभावनालंकार357 इति। अकारणकार्योत्पत्तेस्तल्लक्षणत्वादिति भावः॥
अप्राप्येति। श्यामायौवनवतीति। अत्र विरहपाण्डिम्नः कीर्त्तिसेवाहेतुकत्वमुत्प्रेक्ष्यते॥
अवशिष्टा अर्थशक्तिमूला अन्यत एव द्रष्टव्या इत्याह। एवमिति। अत्रानुक्तौ हेतुमाह। विस्तरेति। उक्तोदाहरणावहितचेतसामुदाहरणान्तरावगमस्य सुलभत्वात् पुनस्तदुपादानं ग्रन्थगौरवमेवावहेदिति शब्दप्रपञ्चपरं विस्तरशब्दं प्रयुञ्जानस्य हृदयम्। “प्रथने वावशब्दे " इति घञ्प्रतिषेधादप्प्रत्ययः। स तु शब्दस्य विस्तरः’ इत्यमरः॥
शब्दशक्तिमूलध्वनेर्द्वैविध्ये वृद्धसंवादमाह। तथा चोक्तमिति। यद्यप्यलं-
‘अलंकारोऽथ वस्त्वेव शब्दाद्यत्रावभासते।
प्रधानत्वेन सज्ञेयः358 शब्दशक्त्युद्भवो द्विधा॥’
इति। तत्रालंकार359ध्वनिर्यथा।
एसो सच्चं360राआ361 सामा खु तुमं समाअमो362 दोण्णं363।
किं364 उण ण पदोसकहा365 दीसइएदं366 खु अच्चंरिअं367॥
अत्र प्रकरणेन कान्तानृपवाचकाभ्यां श्यामाराजशब्दाभ्यां निशाचन्द्रप्रतीतेरुपमा व्यज्यते॥——————————————————————————————————————
कारोऽपि वस्स्वेव तथाप्यलंकारो विचित्रं वस्तु इतरत्तुशुद्धमिति प्रतिपादयितुं वस्त्वेवेत्येवकारः॥
एष सत्यं राजा श्यामा खलु त्वं समागमो द्वयोः।
किं पुनर्न प्रदोषकथा दृश्यत एतत्खल्वाश्चर्यम्।’368
एसो इति। नायिकां प्रति सखीवाक्यमेतत्। समागम इति। युज्यते इति शेषः। प्रदोषो दोषः369 कालविशेषश्च। अत्र श्यामाराजशब्दवाच्ययोः कान्तानृपयोः प्रकृतयोरप्रकृतनिशाचन्द्राभेदाध्यवसायेन प्राप्तस्य प्रदोषस्य कालविशेषलक्षणस्य प्रतिषेधेन विरोधः प्रतीयते। तद्द्योतकमाश्चर्यपदम्370। परिहारस्तु दोषनिषेधादिति विरोधाभासोऽलंकारः। व्यङ्ग्यं विविनक्ति। अत्रेति। अनेकार्थपदगुम्फनमहिम्ना कवेरर्थान्तरं विवक्षितमेव प्रतीयते। तस्यासंबन्धत्वपरिहाराय प्रकृतेनौपम्यं कल्पनीयम्। तेन व्यङ्ग्यस्योपमालंकारस्य श्लिष्टशब्दान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वाच्छन्दशक्तिमूलत्वमिति भावः॥——————————————————————————————————————
छाया371
एष सत्यं राजा श्यामा खलु त्वं समागमो द्वयोः।
किं पुनर्न प्रदोषकथा दृश्यते एतत्खल्वाश्चर्यम्॥
कान्तारवाससंतप्ताः संशृणुध्वं हितादितः372।
कुरुध्वमधुना राजपादसेवां नरेश्वराः॥५८॥
अत्र राजपादसेवामिति373 शब्दशक्त्या प्रकृतस्य प्रतापरुद्रस्य प्रतीतिः प्रकरणाज्जायते। अनेन प्रतापरुद्रस्य सेवा कर्त्तव्या किमरण्यवासेन संतप्ता374 इति वस्तु व्यज्यते॥
उभयशक्तिमूलध्वनि375र्यथा।
जिष्णुरेष भुजस्तम्भजृम्भमाणाद्भुतायुधः376।
मुञ्चन्तु377 क्ष्माभृतः सर्वे निजपक्षविजृम्भितम्॥५९॥
अत्र378 क्ष्माभृतो निजपक्षविजृम्भितं मुञ्चन्तु377 जिष्णुरेष इत्यत्र शब्दशक्तिमूलता। भुजस्तम्भजृम्भमाणाद्भुतायुध इत्यत्रार्थशक्तिमूलता॥
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कान्तारेति। हितादाप्तादितोऽस्मान् मत्त इत्यर्थः। संशृणुध्वमित्यत्र379 कर्मणो हितोपदेशस्या-विवक्षितत्वादकर्मकत्वम्। तदुक्तम्—
‘धातोरर्थान्तरे वृत्तेर्धात्वर्थेनोपसंग्रहात्380।
प्रसिद्धेरविवक्षातः कर्मणोऽकर्मिका क्रिया॥’
इति। अत एव “समो गम्पृच्छि—” इत्यादिनात्मनेपदम्। अत्र प्रकरणादनुगृहीतस्य राजपदस्य महिम्ना प्रतापरुद्रसेवा कर्त्तव्या नैवं दुःखमनुभवितव्यमिति वस्तु व्यज्यत इत्याह। अत्रेति॥
जिष्णुरिति। जिष्णुर्जयशील इन्द्रश्च। अद्भुतायुधं खङ्गादिकं वज्रायुधं च। क्ष्माभृतो राजानः पर्वताश्च। पक्षा बलानि गस्तश्च। शब्दशक्तिमूलतेति। शब्दपरिवृत्तिसहिष्णुत्वाभावादिति भावः। अर्थशक्तिमूलतेति। तत्सहिष्णुत्वादिति भावः। अयं तु वाक्यगत एव॥
असलंक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यो रसादिध्वनिः381। तथा चोक्तं शृङ्गारतिलके।
‘रसभावतदाभासभावशान्त्यादिरक्रमः।
भिन्नो रसाद्यलंकारादलंकार्यतया स्थितः॥’
इति। रसभावोदाहरणस्वरूपनिरूपणप्रपञ्चो382 रसप्रकरणे383 भविष्यति॥
गुणीभूतव्यङ्ग्यं384 मध्यमं385 काव्यमष्टविधम्।
तथा चोक्तं काव्यप्रकाशे386
‘अगूढमपरस्याङ्गं वाच्यसिद्धयङ्गमस्फुटम्।
संदिग्धतुल्यप्राधान्ये काक्वाक्षिप्तमसुन्दरम्॥’
इति। कामिनीकुचकलशवद्गूढ387स्यैव चमत्कारित्वाद388गूढव्यङ्ग्यं389 मध्यमं काव्यम्। यथा
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असंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यस्य रसादिध्वनित्वे संमतिमाह। रसभावेति। तदाभासा रसभावाभासाः। आदिग्रहणेन भावोदयभावसंधिभावशवलत्वानि गृह्यन्ते। अक्रमः असंलक्ष्यक्रम इत्यर्थः। न चात्र रसवदाद्यलंकारशङ्का कार्येत्याह। भिन्न इति। तत्र हेतुमाह। अलंकार्यतयेति। प्रधानतयेत्यर्थः। रसा-दीनामङ्गभाव एवालंकारत्वात्। तदुक्तम्।
‘प्रधानेऽन्यत्र वाक्यार्थे यत्राङ्गं तु रसादयः।
काव्ये तस्मिन्नलंकारो रसादिरिति मे मतिः॥’
इति। उदाहरणमुत्तरत्र भविष्यतीत्याह। रसेति॥
अथ मध्यमकाव्यस्योक्तलक्षणत्वाद्विभागमाह। गुणीभूतेति। संवादव्याजेनोद्दिशति। अगूढमित्यादिना। गूढस्यैवेति। सर्वमभ्यर्हितं द्रव्यं प्रच्छादनमपेक्षते ’ इति न्यायादिति भावः। व्यङ्ग्यस्य द्रुतप्रतीतावगूढत्वं मध्यमप्रतीतौ गूढत्वं विलम्वितप्रतीतावस्फुटत्वम्। तत्राद्यन्तयोर्मध्यमत्वं मध्यमस्योत्तमत्वं चेति विवेकः॥
औन्नत्यं यदि390 वर्ण्यते शिखरिणः क्रुध्यन्ति नीचैः कृता391
गाम्भीर्यं यदि कीर्त्त्यते392 जलधयः क्षुभ्यन्ति गाधीकृताः।
तत्त्वां वर्णयितुं विभेमि यदि वा जातोऽस्म्यगस्त्यः स्थित-
स्त्वत्पार्श्वे गुणरत्नरोहणगिरे393 श्रीवीररुद्रप्रभो॥ ६०॥
अत्र394 यदि वा जातोऽस्म्यगस्त्यः स्थित395 इत्यनेन जलनिधि396पर्वतेभ्यो न विभेमीति व्यङ्ग्यमत्रागूढम्397॥
अपरस्याङ्गं यत्र रसादे रसादिरङ्गं398 तदपि गुणीभूतव्यङ्ग्यमे399व।
यथा।
वीतव्रीडमपास्तमौन400मुदयद्वैस्वर्यमाविर्भवत्401-
स्वेदं402 निर्भरगात्रवेपथुमिलन्मूर्च्छं गलद्वाष्पकम्।
संजातप्रलयं च काकतिमहीनाथ स्मरोद्वेजिता
भूपाः शैलगुहासु यान्ति विजनं भीत्या समालिङ्गिताः॥ ६१॥
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अगूढमुदाहरति। औन्नत्यमिति। वामनीकृतविन्ध्याचलश्चुलुकीकृतसिन्धुसलिलश्चकुम्भसंभव इति महती प्रथा। अतोऽगस्त्योऽस्मीत्यनेन शैलसमुद्रेभ्यो न विभेमीति व्यङ्ग्यस्य वाच्यायमानत्वादगूढमित्याह। अत्रेति॥
अपरस्याङ्गमिति। अनयोर्विवक्षितावर्थौक्रमेणाह। यत्रेति। अत्र प्रथमादिशब्देन भावादयो वाक्यार्थीभूतो वाच्यश्च गृह्यन्ते। द्वितीयादिशब्देन च भावादयोऽनुरणनं च गृह्यन्ते। तेन यत्राङ्गिनो रसभावादेर्वाच्यस्य वा रसभावादिरनुरणनं वाङ्गत्वेन निबध्यते तदपराङ्गमित्यर्थः। उदाहरति। वीतव्रीडमिति। एकत्रोटत्क्रोशनादन्यत्रालापाञ्च403 मौनत्यागः। वैस्वर्यंगद्गदभाषित्वम्। मूर्च्छा शून्येन्द्रियत्वम्। प्रलयो नष्टचेतता। शैलगुहास्वित्यत्रापिशब्दोऽनुक्तोऽपि सामर्थ्याल्लभ्यते। अतस्तत्रापि विजनं कञ्चन कोणप्रान्तं प्रविशन्तीति भावः।
अत्र शृङ्गाररसस्य404 भयरसाङ्गत्वम्405। 406
वाच्यसिद्धयङ्गं407 यथा।
करालः काकतीन्द्रस्य करवालनवाम्बुदः408.")।
धारया शमयत्युग्रं409 also is noticed.”) प्रतापज्वलनं द्विषाम्410॥ ६२॥
अत्र411 जलधारा व्यङ्ग्या सा च करवालनवाम्बुद इत्यत्र412 वाच्यभूतस्य रूपकस्य413 सिद्धिकृदिति गुणीभूतम्414॥————————————————————————————————————— अत्र प्रस्तुतविशेषणसाम्यादप्रस्तुतनायकधर्मप्रतीतेः समासोक्तिः। अत्रान्यपोपकत्वेनाङ्गस्यापि शृङ्गारस्य वर्ण्यमानत्वेन प्राधान्यात् तद्वशेन गुणीभूतव्यङ्ग्यमित्येव व्यपदेशो न पुनरङ्गीभूतभयानकरसापेक्षया ध्वनिरिति। अत एवोक्तं काव्यप्रकाशे। ’ क्वचित् केनचिद् व्यवहारः ’ इति। एवमपराङ्गान्तरमुदाहार्य्यम्॥
तृतीयं भेदमाह। वाच्येति। वाच्यस्य सिद्धेरुत्पत्तेरङ्गमिति व्युत्पत्यैव स्वतः-सिद्धस्य वाच्यस्योपोद्वलकादपराङ्गादस्य भेदो दर्शित इति वेदितव्यम्। उदाहरति। कराल इति। अत्र जलधारा व्यङ्ग्येत्यभिधायाः प्रकरणात् खड्गधारायामेव नियन्त्रणादिति भावः। अत एव न श्लेष इत्युक्तं। वाहिन्यः काकतीन्द्रस्येत्येतद्व्याख्यानावसरे। रूपकस्य सिद्धिकृदिति। यतो रूपकं स्वनिर्वाहाय प्रतीयमान-जलधारामपेक्षते। अन्यथा करवाल एव नवाम्बुदः करवालो नवाम्बुद इवेति वा रूपकोपमितसमासयोः संदेहः स्यात्। न चात्र प्रयुज्यमानस्य करालत्वस्योपमितसमासबाधकत्वम्। केवलकरवालविशेषणत्वा-ङ्गीकारेण समानधर्मत्वाभावात्। न चास्तु नाम संदेह इति वाच्यम्। साधकबाधकाभाव एव तस्यालं-कारत्वादिति॥
अस्फुटं यथा।
वीररुद्रकृपाणस्य महिमा कोऽप्यनङ्कुशः415।
प्रसूते कीर्त्तिगङ्गां416 यः पीत्वा द्विपदसृङ्नदीम्417॥ ६३॥
अत्र कृपाणस्य जह्नोराधिक्य418प्रतिपादनाद् व्यतिरेकः परमस्फुटः419 प्रतीयते॥
संदिग्धं420 यथा।
काकतिक्ष्मापतेर्दृष्टि421रनुरागतरङ्गिता।
लग्ना कल्हारमालेव वध्वास्तुङ्गे कुचद्वये422॥ ६४॥
अत्रालिङ्गनेच्छायां वाक्यविश्रान्तिरथवा स्तनमण्डलालोक423 एवेति424संदेहः॥
तुल्यप्राधान्यं यथा।
नृपाः प्रतापरुद्रस्य निषेवध्वं पदाम्बुजे425।
अन्यथास्य मनस्तादृक्प्रसादं426 कलुषायते॥ ६५॥
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अस्फुटमुदाहरति। वीररुद्रेति। जहुः पीतामेव नदीं पुनरजीजनदयं पुनरन्य-थेत्युपमानादुपमेयस्याधिक्यलक्षणस्य व्यतिरेकस्य विलम्बेन प्रतीतेरस्फुटमित्याह। अत्रेति॥
संदिग्धप्राधान्यमुदाहरति। काकतीति। अत्रालिङ्गनेच्छारूपव्यङ्ग्यस्य चमत्कारकारित्वात् प्राधान्यमुत वाच्यस्येति संदेहात् संदिग्धप्राधान्यमत्रेत्याशयवानाह। अत्रालिङ्गनेति॥
तुल्यप्राधान्यमुदाहरति। नृपा इति। अकलुषं कलुषं भवति कलुषायते। लोहितादित्वात् क्यष्प्रत्ययः। वा क्यषः"इत्यात्मनेपदम्। सर्वत्र कविना व्यञ्जनैकप्रवणेन भाव्यम्। अत्र तु427 वाच्यस्य व्यङ्ग्येन सह समप्राधान्यसंपादनात् गुणीभाव इति भावः। प्राधान्यस्य संदेहसादृश्ययोः सहृदय एव प्रमाणम्। उद्धतैरन्यथापि वक्तुं शक्यत्वादित्युक्तं भट्टगोपालेन॥
अत्र प्रतापरुद्रस्य पादसेवा428 यदि त्यज्यते तदानीं429 नगरेषु430 वासो दुर्लभ इति व्यङ्ग्यार्थस्य431 वाच्यस्य च समं432 प्राधान्यम्॥
असुन्दरं433 यथा।
‘एअसिलामहिलाणं सोऊण434 णरेंददंसणामोअं435।
गुरुअणनिअंतिआए436 बहुआए सामलं वअणं॥ ६६ ॥
अत्र नरेन्द्रदर्शननिमित्तं हर्षमुत्पश्यन्त्या वध्वा मुखं श्यामलमिति वाच्यस्यैव चारुत्वम्। गुरुजननियन्त्रिताहं नरेन्द्रं437 द्रष्टुं न गतवत्यस्मि इति व्यङ्ग्यार्थस्याचारुत्वम्॥
यत्र438 काक्वार्थान्तरमाक्षिप्यते तदपि439 गुणीभूतव्यङ्ग्यमेव।
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सप्तममुल्लङ्घ्य बुद्धिस्थत्वादष्टमं भेदमुदाहरति। असुन्दरमिति। एतेनैतेपामुद्देशक्रमो न विवक्षित इति सूच्यते। एअसिलेति।
एकशिलामहिलानां श्रुत्वा नरेन्द्रदर्शनामोदम्।
गुरुजननियन्त्रिताया वध्वाः श्यामलं वदनम्॥’440
अत्र गुरुजनपराधीना क्वाचिदेकशिलामहिलानां नरेन्द्रसंदर्शनसंतोषमहालाभंश्रुत्वा441 मलिनमुखाभूदिति वाच्यस्यातिचारुत्वादात्मनस्तदलाभरूपस्य व्यङ्ग्यस्यासुन्दरत्वमित्याह। अत्र नरेन्द्रेति॥
अवशिष्टं भेदमाचष्टे। यत्र काक्वेति। काकुर्नाम शब्दधर्मः। तत्प्रयोगे सर्वत्र शब्दस्पृष्टत्वेन व्यङ्ग्यस्य गुणीभाव एव। तदुक्तं लोचने। ‘काकुयोजनायां सर्वत्र गुणीभूतव्यङ्ग्यतैव’ इति। काव्यप्रकाशकारस्तु ‘गुरुः खेदं
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छाया।
एकशिलामहिलानां श्रुत्वा नरेन्द्रदर्शनामोदम्।
गुरुजननियन्त्रिताया वध्वाः श्यामलं वदनम्॥
यथा।
पिअसहि कहेहि अहिआ स्वोणी लच्छी सरस्साई मज्झा442।
जां443 बहु मण्णइ सो444 णरणाहो गुणविसेसण्णो445॥ ६७ ॥
अत्र क्षोणी मदधिकेति446 काकुकल्पनयाधिका न भवतीति व्यज्यते447॥
चित्रं तु काव्यं शब्दार्थालंकार448चित्रतया बहुविधं तत्प्रपञ्चोऽप्यलंकारप्रकरणे भविष्यति449।———————————————————————————————————————————————
खिन्ने मयि भजति नाद्यापि कुरुषु’ इत्यादौ क्वचित् काकोः प्रश्नमात्रपर्यवसानाद् व्यङ्ग्यस्य मयि न योग्यः खेदः कुरुषु योग्य इत्येवंरूपस्य गुणीभावानौचित्येन प्राधान्यात् ध्वनित्वमप्यङ्गीचकार। उदाहरति। पिअसहीति।
प्रियसखि कथयाधिका क्षोणी लक्ष्मीः सरस्वती मत्तः।
यां बहु मन्यते स नरनाथो गुणविशेषज्ञः॥450
‘मइमममहमज्झङसौ ’ इति पञ्चम्येकवचनेऽस्मदो मज्झादेशः। ‘ङसेर्लुक् ’ इति वैकल्पिको लुक्। शित्त्वत् पूर्वस्य दीर्घः। अत्राधिक्यनिषेधस्य वाचकाभावात् केवलवाच्यसामर्थ्यलभ्यत्वेन451 व्यङ्ग्यत्वम्। तस्य च काकुसंस्पर्शाद्452गूढत्वकृतचारुत्वातिशयभङ्गेन गुणीभूतत्वमेव। तदेतत् सर्वंमनसि निधायाह।
अत्रेति।
अधमकाव्यप्रपञ्चोऽलंकारप्रकरणे भविष्यतीत्याह। चित्रं त्विति॥
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छाया।
प्रियसखि कथयाधिका क्षोणी लक्ष्मीः सरस्वती मत्तः।
यां बहु मन्यते स नरनाथो गुणविशेषज्ञः453॥
अथ454 महाकाव्यादयः प्रबन्धा निरूप्यन्ते।
नगरार्णवशैलर्त्तुचन्द्रार्कोदयवर्णनम्।
उद्यानसलिलक्रीडामधुपानरतोत्सवाः455॥
विप्रलम्भो विवाहश्च कुमारोदयवर्णनम्।
मन्त्रद्यूतप्रयाणानि456 नायकाभ्युदया अपि॥
एतानि यत्र वर्ण्यन्ते तन्महाकाव्यमुच्यते457॥
एतेषाम458ष्टादशानां वर्ण्यानां यैः कैश्चिदूनमपीष्यते। तत्त्रिविधम्। गद्यमयं पद्यमयमुभयमयं चेति।
अपादः पदसंघातो459 गद्यं पद्यं चतुष्पदम्।
गद्यकाव्यं कादम्बर्यादि। पद्यकाव्यं रघुवंशादि460।
असर्गबन्धमपि यदुपकाव्यमुदीर्यते।
असर्गबन्धरूपं सूर्यशतकादि।
गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते।
वक्त्रं चापरवक्त्रं च सोच्छ्वासत्वं461 च भेदकम्।
वर्ण्यते यत्र काव्यज्ञैरसावाख्यायिका462 मता॥
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पूर्वं प्रबन्धानां ध्वन्याश्रयत्वमुक्तं तत्स्वरूपस्य लक्षणमन्तरेण दुर्ज्ञेयत्वात्463तन्निरूपणं प्रतिजानीते। अथेति। तत्र महाकाव्यलक्षणमाह। नगरेत्यादिना। एतञ्चसर्गनिबन्धचतुर्वर्गफलचतुरोदात्तनायकत्वादीनामुपलक्षणम्। तत्प्रपञ्चस्तु काव्यादर्शे द्रष्टव्यः। चम्पूकाव्यं दमयन्त्यादि। आख्यायिका नाम गद्यकाव्यविशेषः। तल्लक्षणमाह। वक्त्रमिति। उच्छ्वासः सर्गादिरिव परिच्छेदभेदः।
यत्र464 वक्त्रापरवक्रनामानौ वृत्तविशेषौ वर्ण्यते सोच्छ्वासपरिच्छिन्नाख्यायिका हर्षचरितादि।’
अथ465 क्षुद्राः466 प्रबन्धा निरूप्यन्ते।
येन केनापि तालेन गद्यपद्यसमन्वितम्।
जयत्युपक्रमं467 मालिन्यादिप्रासविचित्रितम्468॥
तदुदाहरणं नाम विभक्त्यष्टकसंयुतम्469॥
तत्रादौ470 जयत्युपक्रमं मालिन्यादिवृत्तरम्यं471 पद्यं निवध्यते472। अनन्तरमपि चेत्युपक्रमाण्यष्टवाक्यानि सप्रासानि सतालानि प्रतिविभक्ति निबध्यन्ते। अनन्तरं473 विभक्त्याभासास्तदुदाहरणम्474।———————————————————————————————————————————————
भेदकमिति। कथाया इति शेषः। तदुक्तमभिनवगुप्ताचार्यैः। ’ आख्यायिकोच्छ्वा सादिना वक्रापरवक्त्रादिना युक्ता। कथा तु तद्विरहिता’ इति। दण्डिना पुनरुभयोर्नाममात्रभेदो न जातिभेद इत्युपपादितम्। ‘तत्कथाख्यायिकेत्येका जातिः संज्ञाद्वयाङ्किता’ इत्यादिना। वक्त्रंनामाष्टाक्षरपादो मात्रावृत्तविशेषः। अपरवक्रमर्धसमवृत्तभेदः। उभयोर्लक्षणं तु वृत्तरत्नाकरे
‘वक्त्रंनाद्यान्नसौ स्यातामब्धेर्योनुष्टुभि ख्यातम्’
‘अयुजि ननरला गुरुः समे तदपरवक्रमिदं नजौ जरौ॥’
इति।
अथ क्षुद्रप्रबन्धेषूदाहरणस्य लक्षणमाह। येन केनेति। तालेन चञ्चत्पुटादिना गद्यैःक्रमेण कलिकोत्कलिकापरपर्यायैर्विभक्तिविभक्त्याभासाङ्कितैर्वाक्यैः पद्यैःप्रतिवाक्यमादौ तत्तद्वाक्यसमानविभक्तिकनायकनामाङ्कितैः श्लोकैश्च समन्वितम्। मालिनी नाम वृत्तविशेषः। ‘ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः’ इति लक्षणात्। अत्र लक्षणस्य न्यूनत्वाद्वर्त्तमानपदानां च संकीर्णत्वादुभयं वारयन् व्याचष्टे। यत्रेत्यादिना। तत्र संबोधनविभक्तिरष्टमी। प्रबन्धान्ते सर्वविभक्त्यङ्कितो नवमश्लोकश्वेत्यादिविशेषाणां साक्षिश्लोकाः साहित्यचिन्तामणौ द्रष्टव्याः। अन्ते कविप्रबन्धनामाङ्कितं पद्यविशेषं कुर्यात्। तदुक्तम्
संबोधनविभक्त्यायत् प्रचुरं पद्यपूर्वकम्।
विभक्तपुनराकृष्टशब्दं स्याच्चक्रवालकम्॥
आद्यन्तषद्यसंयुक्ता संस्कृतप्राकृतात्मिका।
अष्टभिर्वा चतुर्भिर्वा वाक्यैः स्कन्धसमन्विता॥
प्रतिस्कन्धं भिन्नवाक्यरीतिर्देवनृपोचिता।
सर्वतो देवशब्दादिरेषा भोगावली मता॥
वर्ण्यमानाङ्कविरुदवर्णनप्रचुरोज्वला।
वाक्याडम्वरसंयुक्ता सा मता बिरुदावली॥
———————————————————————————————————————————————
‘
अन्तेऽनुष्टुभमार्योवा कविकृत्याख्ययान्विताम्।
कुर्याञ्चाटुप्रवन्धानामयं साधारणो विधिः॥’
इति।
चक्रवाललक्षणमाह। संबोधनेति। पद्यपूर्वकमित्यनेन गद्यानां कलिकात्वेनानुप्रवेश उक्तः। विमुक्तः सन् पुनराकृष्टो विमुक्तपुनराकृष्टः। स्नातानुलिप्तादिवत् पूर्वकालसमासः। तथाभूतः शब्दो द्वित्राक्षरपदं यस्य तत् तथोक्तम्। शृङ्खलितदलाद्यन्तपदमित्यर्थः। अत्र गद्यपद्ययोरावृत्त्यादिकमन्यतो द्रष्टव्यम् तदुक्तम्।
‘ओजस्विपदभूयिष्ठमाद्यन्ताशीःसमन्वितम्।
चतुर्धा वाष्टधा वृत्तं चक्रवालं प्रचक्षते॥’
इति।
भोगावलीमाह। आद्यन्तेति। स्कन्धः परिच्छेदभेदः। अत्र भोगोपकरणोद्यानवसन्तनायकगुणादिवर्णनं प्रायेण कर्त्तव्यम्॥
विरुदावलीमाह। वर्ण्यमानेति। अत्र स्वविक्रमकुलक्रमागतविरुदवर्णनातिरिक्तं भोगावलीवत् द्रष्टव्यम्॥
ताराणां संख्यया पद्यैर्युक्ता475 तारावली मता।
एवं कविप्रौढोक्तिसिद्धाः क्षुद्राः प्रबन्धा476 यथासंभवमूह्याः। अथैषामु477दाहरणानि विस्तरभयादिह नोक्तानि॥
इति श्री478विद्यानाथकृतौ479 प्रतापरुद्रयशोभूषणेऽलंकार480शास्त्रे काव्यप्रकरणं समाप्तम्481॥ २॥
————————————————————————————————————————————————
तारावलीमाह। ताराणामिति। संख्यया सप्तविंशत्येत्यर्थः॥
नन्वन्येऽपि चतुरुत्तरचतुर्भद्रादिचाटुप्रबन्धाः किमिति म लक्ष्यन्ते इत्यत्राह। एवमिति। उदाहरणानुक्तौ हेतुमाह। अथेति।
इति पदवाक्यप्रमाणपारावारपारीणश्रीमहोपाध्यायकोलाचलमल्लिनाथसूरिसूनुना482 विश्वजनीनविद्यस्य विद्वन्मणेः पेद्दयार्यस्यानुजेन कुमारस्वामिसोमपीथिना483विरचिते प्रतापरुद्वीयम्याख्यानेरत्नापणाख्याने484काम्यस्वरूपनिरूपणं नामद्वितीयं485 प्रकरणम्486॥
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अथ487 नाट्यप्रधानाः488 प्रबन्धा निरूप्यन्ते।
तत्र489 नाट्यस्वरूपं निरूप्यते490।
चतुर्विधैरभिनयैः सात्त्विकाङ्गिकपूर्विकैः491।
धीरोदात्ताद्यवस्थानुकृतिर्नाट्यंरसाश्रयम्॥
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अथ श्राव्यप्रबन्धनिरूपणानन्तरं492 नाटकादिदृश्यप्रबन्धनिरूपणं प्रतिजानीते अथेति।अभिनयत्यभिव्यनक्ति493 पदार्थानित्यभिनयः। पचाद्यजन्तः।
‘अभिपूर्वस्तु नीञ्धतुराभिमुख्यार्थनिर्णये।
यस्मात् पदार्थान् नयति तस्मादभिनयः स्मृतः॥’
इति। तैश्चतुर्विधैः। तत्र परगतसुखदुःखभावनया भावितान्तःकरणत्वं सत्त्वम्। ततो भवा भावाः सात्त्विकाः स्तम्भादयः। तदभिनयोऽनिमेषनयनत्वादिः। अङ्गं हस्तादि। तद्व्यापारः पताकादिराङ्गिकाभिनयः। पूर्वशब्देन वाचिकाहार्याभिनयौ गृह्येते। अत्र पाठ्यापरपर्यायं काव्यनाटकरूपं वाचिकम्। तदभिनयो रसोचितरागानुषङ्गादिः।
‘आहार्याभिनयो नाट्योचितालंकारधारणम्।’
अभिनयादिलक्षणं तु संगीतचूडामणौ।
‘अभिव्यञ्जन् विभावानुभावादीन् नाटकाश्रयान्।
उत्पादयन् सहृदये रसज्ञानं निरन्तरम्॥
अनुकर्त्तृस्थितो योऽर्थोऽभिनयः सोऽभिधीयते।
आङ्गिको वाचिकश्चैव सात्त्विकाहार्यकाविति॥
स चतुर्धा कृतस्तज्ज्ञैराङ्गिकोऽङ्गक्रियोच्यते।
रागानुषङ्गि यद्वाक्यं नाट्येतद्वाचिकं स्मृतम्।
सत्त्वक्रिया सात्त्विकं494 स्यादाहार्यो भूषणादिकम्॥’
इति। धीरोदात्तादिनायकानामवस्था धीरोदात्तादयः। अनियतत्वादवस्थात्वमेव तेषां न जातित्वमित्युक्तं नायकप्रकरणे। तासामनुकृतिरनुकरणं चतुर्विधाभिनयेनाभिनेयतादात्म्यापत्तिरित्यर्थः। रसाश्रयमिति। वक्ष्यमाणक्रमेण वाक्यार्थीभूतरसविषयमित्यर्थः। अतोऽत्र वाक्यार्थाभिनय इति वेदितव्यम्। नट अव-
भावाश्रयं तु नृत्तं स्यान्नृत्यं ताललयान्वितम्495।
ऐषा496 दशरूपकोक्ता प्रक्रिया। नृत्तनृत्ययो497र्नाटकाद्यङ्गत्वादिह498 स्वरूप499निरूपणं कृतम्। तथोक्तं दशरूपके
मधुरोद्धतभेदेन तद्द्वयं द्विविधं पुनः।
लास्यताण्डवरूपेण500 नाटकाद्युपकारकम्॥
तेन नाट्येन501 दश रूपकाणि भवन्ति।———————————————————————————————————————————————
स्पन्दन इत्यस्माद्धातोरपञ्चलनार्थाण्ण्यत्प्रत्यये नाट्यमिति व्युत्पत्त्या सात्त्विकाभिनयबाहुल्यं सूच्यते। प्रसङ्गान्नृत्यनृत्तयोर्लक्षणमाह। भावेति। भावाः पदार्थीभूता विभावाद्या आश्रया विषयत्वेन यस्य तद् भावाश्रयम्। अत एवात्र पदार्थाभिनयो द्रष्टव्यः। नृतेर्गात्रविक्षेपवाचिनो निष्ठान्तादर्हार्थे यति नृत्त्यमिति व्युत्पत्त्या आङ्गिकाभिनयबाहुल्यं सूच्यते। अत एव नाट्याद्भेदद्योतकस्तुशब्दः। रसविषयं सात्त्विकबहुलं नाट्यम्। भावविषयमाङ्गिकबहुलं मार्गापरपर्यायं नृत्यमिति विवेकः। नृत्तमिति। गीतादिपरिमाणावच्छेदः। कालविशेषस्तालश्चञ्चत्पुटादिः। तदुक्तम्।
‘कालो लध्वादिमितया क्रियया संमितो मितिम्।
गीतादेर्विदधत्तालः स च द्वेधा बुधैः स्मृतः॥
इति। लयोऽपि
‘तालान्तरालवर्त्ती यः कालोऽसौ लयनाल्लयः।’
इत्युक्तलक्षणः कालविशेषः। एतदुभयाश्रयं देश्यापरपर्यायं नृत्तमित्यर्थः।
अस्य स्वकपोलकल्पितत्वं परिहरति। एषेति। नृत्येति क्वचिदद्वान्तरपदार्थाभिनयेन शोभाहेतुकत्वेन च नाटकादावुपयोगात्तदङ्गत्वमिति विज्ञेयम्। तदेतत्संवादव्याजेनानयोः पुनर्द्वैविध्यमाह। मधुरेति। मधुरं लास्यमुद्धतं ताण्डवमित्यर्थः। तेनेति। नृत्यनृत्तोपकृतेनेत्यर्थः502। दश रूपकाणीति। नाटिकासट्टकादीनामत्रैवान्तर्भावादिति भावः। तत्प्रकारस्तु दशरूपके द्रष्टव्यः।
नाटकं सप्रकरणं503 भाणः प्रहसनं डिमः।
व्यायोगसमवाकारौ वीथ्यङ्केहामृगा इति504॥ २॥
नाट्याश्रयत्वेनाभेद इति शङ्का न युज्यते।
वस्तुनेतृरसास्तेषां रूपकाणां हि भेदकाः॥ ३॥
वस्तु त्रिविधम्। प्रख्यातमुत्पाद्यं मिश्रं चेति। तथोक्तं505 दशरूपके506।
‘प्रख्यातोत्पाद्यमिश्रत्वभेदात् तत्त्रिविधं मतम्।’
इति507।—————————————————————————————————————————————
नाट्याभेदेऽपि वस्त्वादिभेदाद्रूपकभेद इत्याह। नाट्याश्रयत्वेनेति। वस्तु कथाशरीरम्। तस्येतिवृत्तमिति नामान्तरम्। तदुक्तं भावप्रकाशे।
‘वस्तु यत् स्यात् प्रबन्धस्य शरीरं कविकल्पितम्।
इतिवृत्तं तदेवाहुर्नाट्याभिनयकोविदाः॥’
इति। तद् द्विविधम्। आधिकारिकं प्रासङ्गिकं चेति। तत्राधिकारः फलस्वाम्यं तद्वानधिकारी। अधिकारेणाधिकारिणा वा निर्वृत्तमाधिकारिकं प्रधानम्। यथा रामायणे सीतारामवृत्तान्तः। प्रसङ्गेन निर्वृत्तं प्रासङ्गिकमङ्गभूतम्। तत्तु द्विविधम्। पताका प्रकरी चेति। तत्र दूरानुवर्त्तिनी कथा पताका। यथा सुग्रीवादिवृत्तान्तः। अल्पानुवर्त्तिनी प्रकरी। यथा जटायुश्रमणादिवृत्तान्तः508।
एवमेकमाधिकारिकं द्विविधं प्रासङ्गिकमिति त्रैविध्यं सिद्धवत्कृत्य पुनस्त्रैविध्यमाह। वस्तु त्रिविधमित्यादि। प्रख्यातं महावीरचरितादि। उत्पाद्यं मालतीमाधवीयादि। मिश्रमुत्तररामचरितादि। एवमाधिकारिकपताकाप्रकरीणांप्रत्येकं509 प्रख्यातादिभेदभिन्नत्वेन त्रैविध्ये वस्तुनो नवविधत्वं विज्ञेयम्। एतदेवा-
इतिहासनिबन्धनं प्रख्यातम्। कविकल्पितमुत्पाद्यम्। संकरायत्तंमिश्रम्510।एवमादिवस्तुभेदान्नायकभेदाद्रू511पकाणां परस्परं भेदः। तथा हि। नाटके प्रख्यातमितिवृत्तम्। धीरोदात्तो512 नायकः। शृङ्गारवीररसयोरन्यतरस्य513 प्राधान्यम्514। अन्येषां रसानामङ्गत्वेनानुप्रवेशः515। प्रकरण उत्पाद्यमितिवृत्तम्। धीरशान्तो नायकः। शृङ्गारस्यैव516 प्राधान्यम्।भाणे517 धूर्त्तविटो नायकः।उत्पाद्यमितिवृत्तम्। शृङ्गारवीरयोः सूचनामात्रसारता। प्रहसने कल्प्यमिति518वृत्तम्। पाषण्डप्रभृतयो519 नायकाः।519हास्यरसः520 प्रधानम्520। डिमे प्रख्यातमितिवृत्तम्। देवगन्धर्वराक्षसपिशाचादयो521 धीरोद्धता522 नायकास्ते523 षोडश। रौद्ररसः प्रधानम्। हास्यशृङ्गारयो524रनुप्रवेशः। व्यायोगे प्रख्यातमितिवृत्तम्। धीरोद्धतो नायकः।वीररसः प्रधानम्। समवाकारे525 देवासुरादयो द्वादश नायकाः। वीररसः प्रधानम्। कल्पितमितिवृत्तं प्रसिद्धं526 वा। वीथ्यां कल्पितमितिवृत्तम्। ‘धीरोद्धतो527नायकः। शृङ्गाररसस्य528 सूचनामात्रसारता। अङ्के529
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भिप्रेत्याह। एवमादिवस्तुभेदादिति530। दिव्यमर्त्त्योभयात्मना वस्तुनः पुनरपि त्रैविध्याङ्गीकारे तद्वदन्येऽपि बहवो भेदाः कल्पयितुं शक्यन्त एव। लक्ष्येषु ते स्वयमेवोहनीया इति विस्तरभिया531 नेह पृथग्व्युत्पाद्यन्ते।
वस्त्वादयो रूपकभेदका इत्युक्तम्। तद्विविनक्ति। तथा हीत्यादिना। स्पष्टोऽर्थः।
प्रख्यातमितिवृत्तम्। प्राकृतजनो नायकः। करुणरसः प्रधानम्। ईहामृगे मिश्रमितिवृत्तम्। धीरोद्धतो नायकः। शृङ्गाररसस्याभासत्वम्532।
अथैतेषां सामग्री निरूप्यते। तत्र पञ्च सन्धयः। तथोक्तं533 दशरूपके।
मुखं प्रतिमुखं गर्भः सावमर्शोपसंहृतिः।
इति534।
संधिर्नामैकेन प्रयोजनेनान्वितानां कथानामवान्तरप्रयोजनसंबन्धः535। तत्रारम्भबीजसंबन्धो मुखसंधिः। यत्न536बिन्दुसंबन्धः प्रतिमुखसंधिः। प्राप्त्याशापताकयोः संबन्धो गर्भसंधिः। नियताप्तिप्रकर्योः संबन्धो
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बस्त्वादिभेदाद्रूपकभेदो निरूपितः। अधुना वस्त्वेकदेशविशेष537भूतसंध्यादिस्वरूपं निरूपयति। अथेत्यादिना। तत्र संमतिव्याजेन संधीनां विभागमाह। मुखमिति। सावमर्शा अवमर्शसहिता उपसंहृतिर्विमर्शो निर्वहणं चेत्यर्थः। एतेषां सामान्यलक्षणमाह। सन्धिरिति। प्रयोजनमत्र त्रिवर्गरूपं फलं तच्च धर्मार्थकामेष्वेकैकस्य स्वव्यतिरिक्ताभ्यां द्वाभ्यामुपसर्जनाभ्यां व्यासेन समासेन च संबन्धे कैवल्ये च द्वादशविधम्। तदुक्तम्।
‘फलं त्रिवर्गस्तच्छुद्धमेकानेकानुबन्धि च’
इति। तेनैकेन मुख्येनान्वितानामितिवृत्तखण्डानामवान्तरैकप्रयोजनसंबन्धः संधिरित्यर्थः। तदुक्तम्।
‘एककार्यान्वितेष्वत्र कथांशेषु प्रयोगतः।
अवान्तरैककार्यस्य संबन्धः संधिरिष्यते॥’
इति। अथावस्यार्थप्रकृतिसंबन्धे मुखादिसंधयो जायन्त इत्याह। तत्रेति538। अत्र संमतिमाह। अर्थेति। अर्थप्रकृतयः प्रयोजनसिद्धिहेतव इति केचित्। कथाशरीरकारणानीति भोजराजादयः539। तद्विशेषाः पूर्वोक्ता बीजादयः540 पञ्च। फलसिद्धये स्वीक्रियमाणस्य नायकव्यापाररूपस्योपायस्य पूर्वोक्ता आरम्भादयः पञ्चावस्था भवन्ति। तदुक्तम्।
विमर्शसंधिः। फलागमकार्यसंबन्धो541 निर्वहणसंधिः। तथा चोक्तं542दशरूपके।
बीजबिन्दुपताकाख्य543प्रकरीकार्यलक्षणाः।
आरम्भयत्नप्राप्त्याशानियताप्तिफलागमाः॥
अर्थप्रकृतयः पञ्च पञ्चावस्थासमन्विताः।
यथासंख्येन जायन्ते मुखाद्याः पञ्च संधयः॥
इति।
आरम्भादीनां लक्षणं निरूप्यते।
औत्सुक्यमात्रमारम्भः फललाभाय भूयसे।
प्रयत्नस्तु फलाप्राप्तौ544 व्यापारोऽतित्वरान्वितः॥ ४ ॥
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‘अवस्थाः पञ्च कार्यस्य प्रारब्धस्य फलार्थिभिः545।’
इति। तदेतदुभयसंबन्धे पञ्च संधयो जायन्त इत्यर्थः। तत्र साधनत्वाद् बीजस्यादावुपक्षेपः। साध्यत्वात् कार्यस्यान्ते। अविच्छेदार्थे बिन्दोस्तयोर्मध्ये। पताकाप्रकर्योस्तु बीजकार्ययोर्मध्ये यथायोगं निवेश इति विज्ञेयम्। तत्र पताकाया विकल्पमाह कोहलः546। तन्मते पताकास्थाने
‘अपताके निवेशः स्याद्विन्दोर्बीजस्य वा क्वचित्।’
इति भावप्रकाशोक्तोविशेषो द्रष्टव्यः। अवस्थानामुद्देशक्रमः सामर्थ्यलब्धः स्पष्ट एव।
अवस्थापञ्चकं क्रमेण लक्षयति। औत्सुक्येति। कालाक्षमत्वलक्षणोऽभिलाषप्रकर्ष औत्सुक्यम्। मात्रशब्दो वक्ष्यमाणप्रयत्नादिव्यवच्छेदकः। फलस्य त्रिवर्गरूपस्य लाभाय न पुनः क्षुद्रस्य। अत्र फलगतं भूयस्त्वं लाभे उपचर्यते। नायकव्यापारस्य स्वरूपात्किञ्चिदुच्छूनत्वमारम्भ इत्यर्थः। आरम्भादीनां सर्वेषां नाटक एवोदाहरणं भविष्यतीति लक्षणमात्रमत्र परीक्ष्यते। प्रयत्नस्त्विति। फलाप्राप्ताविति सतिसप्तमी। फलप्राप्ताविति पाठे विषयसप्तमी। कार्यसंपाद-
उपायापायशङ्काभ्यां प्राप्त्याशाकार्यसंभवः।
अपायाभावतः कार्यनिश्चयो नियताप्तिका॥
समग्रफलसंपत्तिः फलागम उदाहृतः॥ ५ ॥
अथ बीजादिपञ्चकं547 निरूप्यते।
स्तोकोद्दिष्टः कार्यहेतुर्बीजं विस्तार्यनेकधा।
अवान्तरार्थविच्छेदे548 विन्दुरच्छेदकारणम्549 ॥ ६ ॥
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नयोग्यता प्रयत्न इत्यर्थः। उपायेति। उपायेनापायशङ्कया च कार्यस्य संभवः। संभावनाप्रतिबन्धकोपनिपातेन शङ्क्यमानत्वं प्राप्त्याशेत्यर्थः। नियताप्तिं लक्षयति। अपायेति। प्रतिपक्षनिवृत्त्या कार्यनिश्चयो नियताप्तिरित्यर्थः। समग्रेति। बाधकबाधनेन फलपर्यन्तत्वादार्थ्यंफलागम इत्यर्थः।
अथार्थप्रकृतिपञ्चकं क्रमेण लक्षयति। स्तोकेति। स्तोकोद्दिष्टः स्वल्पोपक्षिप्तः अनन्तरमनेकधा मूलस्कन्धशाखापलाशादिवन्नायकोपनायकप्रतिनायकभेदेन बहुधा विस्तारी कार्यस्य त्रिवर्गरूपस्य फलस्य यो हेतुस्तद्वीजमिव बीजम्। तच्च क्वचिदात्माधीनसिद्धेर्नायकस्यात्मोत्साहात्मकं क्वचिदमात्याधीनसिद्धेस्तदुत्साहात्मकं क्वचिदुभयाधीनसिद्धेरुभयोत्साहात्मकं चेति द्रष्टव्यम्। अत्रामात्यगतोऽप्युत्साहो याजकव्यापारो यजमानस्येव नायकस्यैव फलं जनयतीति बोद्धव्यम्। अवान्तरेति। अवान्तरार्थैरवान्तरप्रयोजनैर्विच्छेद550सामर्थ्यात् परमप्रयोजनस्येति भावः। तदविच्छेदकारणं बिन्दुः। तदुक्तं भावप्रकाशे।
‘फले प्रधाने विच्छिन्ने बीजस्थावान्तरैः फलैः।
तस्याविच्छेदको हेतुर्विन्दुरित्याह कोहलः॥
प्रतिपाद्यकथाङ्गं स्यात् पताकाव्यापिनी551 कथा।
अव्यापिनी552 प्रकरिका कार्यं निर्वाहकृत् फले॥ ७ ॥
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इति। प्रतिपाद्येति। प्रतिपाद्यकथायाः फलोद्देशप्रवृत्तत्वेन प्रधानभूताया रामादिनायकव्यापाररूपाया अङ्गं तत्संबन्धित्वादिति भावः। तदुक्तमाचार्यैः
‘प्रधानं फलसंबन्धि तत्संबन्ध्यङ्गमिष्यते।’
इति। तथाभूता कथा सुग्रीवाद्युपनायकव्यापाररूपा पताका व्यापिनीत्यनेन प्रकरीव्यवच्छेदः। ननु पताकायामपि पृथक्फलमिच्छन्ति शारदातनयादयः। सुग्रीवादीनां तथा दर्शनात्। नैतन्न्यायसहम्। अङ्गानां प्रधानफलेनैव फलवत्त्वनियमादिति चेन्नैष दोषः। दध्नेन्द्रियकामस्येत्यादावङ्गभूतानामपि दध्यादीनां फलसंबन्धाङ्गीकारात्। नन्वङ्गप्रधानफलयोरेकाश्रयत्वं दृष्टान्ते दार्ष्टान्तिके तु न तथेति वैषम्यमिति चेन्मैवम्। फलसंतुष्टस्यैवानुचरस्यार्थक्रियाकारित्वेन तत्फलस्यापि स्वामिफलत्वाभिमानात्। अव्यापिनीति। लघुः प्रकरः प्रकरी। गौरादित्वाद् ङीष्। तदुक्तम्।
‘स्त्री स्यात् काचिन्मृणाल्यादिर्विवक्षापचये यदि।’
इति। यथा पुष्पादिप्रकरः परेषामेव वेदिकादीनां शोभायै भवति एवमृतुवर्णनजटायुश्रमणादिवृत्तान्तरूपा प्रकर्यपि प्रधानस्यैव फलं जनयति न पुनः स्वस्येति ग्रन्थान्तरोक्तोविशेषो द्रष्टव्यः। अव्यापिनीति। विशेषनिषेधस्तु पताकोक्तप्रतिपाद्यकथाङ्गत्वमात्राभ्यनुज्ञापर इति द्रष्टव्यम्। कार्यमिति। प्रधानफलनिर्वाहकोऽन्तिमः कथावयवः कार्यमित्यर्थः।
इत्थमवस्था अर्थप्रकृतयश्च निरूपिताः। तदुभययुगलपञ्चकसमन्वयसंभूतसं-
अथ553 मुखं निरूप्यते।
मुखं बीजसमुत्पत्तिर्नानार्थरससंभवा।
अङ्गानि द्वादशैतस्य बीजारम्भसमन्वयात्॥ ८ ॥
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धिपञ्चकलक्षणं क्रमेणाह। मुखमित्यादिना। एतदेव लक्षणं दशरूपकादावप्युक्तम्। तत्र नानाभूतानामर्थानां प्रयोजनानां रसानां च हेतुर्बीजसमुत्पत्तिर्मुस्वसंधिरिति कश्चिद् व्याचष्टे। नानार्थशब्दस्य रसविशेषणत्वमङ्गीकृत्यानेकप्रकारप्रयोजनरसहेतुरित्यन्यः। मतद्वयेऽपि सर्वेष्वपि रूपकेषु लक्षणानुगतिलाभायार्थशब्दस्य त्रिवर्गव्यतिरिक्तं प्रयोजनजातं विवक्षितम्। अत एवोक्तमुभाभ्यां तेनात्रिवर्गफले प्रहसनादौ रसोत्पत्तिहेतोरेव बीजत्वमिति। भावप्रकाशकारस्तु
‘यथा कामोपयोग्यत्र शृङ्गारो दृश्यते रसः।
अर्थोपयोगी वीरः स्याद्रौद्रोऽपि स्यात् क्वचित् क्वचित् ॥
रक्षारूपेण धर्मार्थोपयोगी करुणो भवेत्।
अद्भुतोऽपि मनः प्रीतिप्रदत्वात् काम्यसाह्यकृत्॥
ते भयानकबीभत्सहास्याः काव्येषु योजिताः।
तत्तन्नेतृमनोवृत्तिवशात् प्रायस्रिवर्गगाः॥’
इत्यनेन शृङ्गारादीनां यथायोगं त्रिवर्गोपयोगित्वमङ्गीचकार तन्न। तन्मतेऽनेकविध554त्रिवर्गलक्षणप्रयोजनकरसहेतुत्वं विवक्षितम्। लक्षणानुगतिरपि सुलभैव। यदत्र युक्तं तद् ग्राह्यम्। अङ्गानामुत्पत्तिमाह। अङ्गानीति।
बीजारम्भानुगुण्येन मुखसंधेरङ्गानि प्रयोक्तव्यानि।
उपक्षेपः परिकरः परिन्यासो555.”) विलोभनम्।
युक्तिः प्राप्तिः समाधानं विधानं परिभावनम्॥
उद्भेदभेदकरणान्यन्वर्थानि यथाक्रमम्556.")॥९॥
यथाक्रममेषां557 स्वरूपं निरूप्यते।
बीजन्यास उपक्षेपः। बीजस्य बहूपकरणं558 परिकरः। बीजनिष्पत्तिः परिन्यासः। बीजगुणवर्णनं विलोभनम्। बीजानुकूलसंघट्टनप्रयोजन559विचारो युक्तिः। बीजसुखागमः प्राप्तिः। बीजसंनिधानं समाधानम्। बीजसुखदुःखहेतुर्विधानम्। बीजविषयाश्चर्यावेशः560 परिभावनम्561। गूढबीजप्रकाशनमुद्भेदः। बीजानुगुणप्रोत्साहनं भेदः। बीजानुगुणप्रस्तुतकार्यारम्भः करणम्562। एतानि द्वादश मुखसंधेरङ्गानि। एतेषां मध्ये उपक्षेपपरिकरपरिन्यासयुक्त्युद्भेदसमाधानानामावश्यकत्वम्।
अथ प्रतिमुखम्563।
लक्ष्यालक्ष्यस्य बीजस्य व्यक्तिः प्रतिमुखं मतम्।
विन्दुप्रयत्नानुगमादङ्गान्यंस्य त्र564योदश॥१०॥
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उद्दिशत्युपक्षेप इति। अन्वर्थानीति। न पृथक् लक्षणापेक्षेति भावः।
तथापि मन्दबुद्ध्यनुग्रहार्थमुपक्षेपादीनां क्रमेण लक्षणं प्रतिजानीते। यथाक्रममेषामिति565। कण्टकशोधनमङ्गलक्षणानां यथायोगमुदाहरणप्रदेश एव करिष्यामः। मिथः प्रयोगक्रमो न विवक्षित इति वक्ष्यामः।
अथ साङ्गंप्रतिमुखसंधिमाह। लक्ष्येति। केनचिदंशेन लक्ष्यत्वमपरेणांशेनालक्ष्यत्वं चेत्यर्थः। प्रत्यङ्कनिबद्धकार्यानुकूलानेकप्रयोजनमध्ये कतिपयनिष्पत्ति-
बिन्दुप्रयत्नानुगुण्येन प्रतिमुखसंधेरङ्गानि प्रयोक्तव्यानि।
विलासः परिसर्पश्च विधूतं शमनर्मणी।
नर्मद्युतिः प्रगमनं विरोधः566 पर्युपासनम्॥
वज्रं पुष्पमुप567न्यासो वर्णसंहार इत्यपि॥ ११॥
एषां568 स्वरूपं निरूप्यते।
संभोगविषय569मनोरथो विलासः। दृष्टनष्टपदार्थानुसरणं परिसर्पः।अनिष्टवस्तुविक्षेपो विधूतम्570। अरत्युपशमनं शमः। परिहासवचनं नर्म। अनुरागोद्घाटनोत्था प्रीति571र्नर्मद्युतिः। उत्तरोत्तरवाक्यैरनुरागबीजप्रकाशनं प्रगमनम्। छद्मनाहितागमननिरोधनं विरोधः572। इष्टजनानुनयः पर्युपासनम्। प्रमुख573निष्ठुरवचनं वज्रम्। अनुरागप्रकाशनविशिष्ट574वचनंपुष्पम्।575 अनुरागहेतुवाक्यरचनोपन्यासः। चतुर्वर्णनि576वर्णनं वर्णसंहारः।ऐतेषां577 मध्ये परिसर्पप्रगम578नेवज्रोपन्यासपुष्पाणां प्राधान्यम्।
अथ गर्भसंधिः।
गर्भस्तु दृष्टनष्टस्य वीजस्यान्वेषणं मुहुः।
अस्याप्त्याशा579पताकानुगुण्येनाङ्गोपकल्पनम्॥ १२॥
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र्लक्ष्यत्वं कतिपयानिष्पत्तिरलक्ष्यत्वं चेति मतान्तरम्। तादृशस्य बीजस्य व्यक्तिः प्रकाशनं प्रतिमुखमिति।
अथ साङ्गं गर्भसन्धिमाह। गर्भ इति। प्रतिमुखसन्धौ लक्ष्यालक्ष्यतया दृष्टनष्टस्य बीजस्यापायशङ्कानुवृत्त्या विच्छेदानुवृत्तेर्मुहुः पौनःपुन्येनान्वेषणं गर्भसंधिरिति। अत्र पताकया वैकल्पिकत्वात् तदभावपक्षेऽपि प्राप्त्याशा नियतैव।पताकास्थाने तु बीजबिन्दोरन्यतरस्य निवेश इत्यनुपदमेवोक्तम्।
पताकाप्राप्त्याशानुगुण्येन580 गर्भसंघेरेङ्गानि581 कल्पनीयानि।582
अभूताहरणं583 मार्गों रूपोदाहरणक्रमाः584।
संग्रहश्चानुमानं च तोटकाधिवले585 तथा॥
उद्वेगसंभ्रमाक्षेपाद् द्वादशाङ्गान्यनुक्रमात्॥ १३॥
एषां586 स्वरूपं निरूप्यते।
प्रस्तुतोपयोगिछद्माचरणमभूताहरणम्। तत्त्वार्थानुकीर्त्तनं587 मार्गः।वितर्कप्रतिपादनवाक्यं588 रूपम्। प्रस्तुतोत्कर्षाभिधानमु589दाहृतिः। ‘संचिन्तितार्थप्राप्तिः590 क्रमः। प्रस्तुतोपयोगिसामदान591वचनं592 संग्रहः। लिङ्गादभ्यू593हनमनुमानम्। रोषसंभ्रमवचनं तोटकम्। इष्टजनाभिसंधानम594धिबलम्। अपकारिजनाद् भयमुद्वेगः। शंकात्रासौ च संभ्रमः। इष्टार्थोपायानुसरणमाक्षेपः। एतेषां मध्येऽभूताहरणमार्गतोटकाधिबलाक्षेपाणां प्राधान्यम्।
अथ विमर्शसंधिः।
गर्भसंधौप्रसिद्धस्य बीजार्थस्यावमर्शनम्।
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अथ साङ्गं विमर्शसंधिमाह। गर्भसंधाविति। येन केनापि हेतुना क्रोधव्यसनादिनार्थस्यावमर्शनं पर्यालोचनं क्रोधव्यसनादिजन्यौ गर्भनिर्भिन्नबीजार्थसंबन्धः फलप्राप्त्यवसायात्मको विचारनिर्णयो विमर्श इत्यर्थः। तदुक्तम्।
‘गर्भनिर्भिन्नबीजार्थसंबन्धो व्यसनादिजः।
विचारनिर्णयो यस्तु स विमर्श इति स्मृतः॥’
इति।
हेतुना येन केनापि विमर्शः संधिरिष्यते।
नियताप्तिप्रकर्युक्तेरङ्गान्यत्र595 त्रयोदश॥ १४॥
नियताप्तिप्रकर्यानुगुण्येन विमर्शसंधेरङ्गानि प्रयोक्तव्यानि।
तत्रापवादः संफेटो596 विद्रवद्रवशक्तयः।
द्युतिः प्रसङ्गश्चलनं व्यवसायो निरोधनम्597॥
प्ररोचनं598 विचलनमादानं तु599 त्रयोदश॥ १५॥
एतेषां स्वरूपं निरूप्यते।
दोषप्रख्यापनमपवादः। रोषसंभाषणं संफेटः600। बधबन्धा601दिकं विद्रवः। गुरुतिरस्कृतिर्द्रवः। विरोधशमनं शक्तिः। तर्जनोद्वेजने द्युतिः। गुरुकीर्त्तनं प्रसङ्गः। उपमानं602 चलनम्602। स्वशक्तिप्रशंसनं व्यवसायः।क्रोधसंरब्धानामन्योन्यविक्षेपो निरोधनम्603। सिद्धवद्भादिश्रेयःकथनं प्ररोचनम्। स्वगुणाविष्करणं विचलनम्। कार्यसंग्रह604 आदानम्।
अथ निर्वहणसंधिः।
बीजवन्तो मुखाद्यर्था विप्रकीर्णा यथायथम्।
ऐकार्थ्यमुपनीयन्ते यत्र निर्वहणं हि तत्॥१६॥
फलाप्तिकार्यानुगुण्यादङ्गान्यस्य605 चतुर्दश॥
फेलाप्तिकार्यानुगुण्येन निर्वहणसंधेरङ्गानि चतुर्दश प्रतिपादनीयानि।606
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अथ साङ्गं607 निर्वहणसंधिमाह। वीजवन्त इति। संसर्गे मतुप्। बीजयुक्ता इत्यर्थः। यथायथं यथास्वं विप्रकीर्णा निजस्थानेषूपन्यस्ता इत्यर्थः। एको मुख्योऽर्थः प्रयोजनं येषां तेषां भावस्तत्त्वम्। यत्र बीजयुक्ता मुखसंध्याद्यर्थाः परमप्रयोजन608संबन्धं लभन्ते स निर्वहणसंधिरित्यर्थः। अत्रोपक्षेपादिषु यत्र क्वचन कार्यकारणभावसद्भावस्तत्रैव क्रमोऽङ्गीकर्त्तव्यो न त्वन्यत्र। वस्तुस्वरूपविचारे क्रमाङ्गीकारे कारणाभावाल्लक्ष्येषु व्युत्क्रमदर्शनाच्च। तदुक्तम्।
संधिर्विरोध ग्रथनं निर्णयः परिभाषणम्609।
प्रसादानन्दसमयाः कृत्याभाषोपगूहनम्610॥
पूर्वभावोपसंहारौ611 प्रशस्तिश्च चतुर्दश612॥ १८॥
एतेषां स्वरूपं निरूप्यते।
बीजोपशमनं613 संधिः। कार्यमार्गणं614 विरोधः। कार्योपक्षेपणं ग्रथनम्। बीजानुगुणकार्यप्रख्यापनं निर्णयः। मिथोजल्पनं परिभाषा। पर्युपासनं प्रसादः। वाञ्छितार्थप्राप्तिरानन्दः। दुःखप्रशमनं समयः। लब्धस्थिरीकरणं कृतिः। प्राप्तकार्यानुमोदनमाभाषणम्615। अद्भुतार्थप्राप्तिरूपगूहनम्। इष्टकार्यदर्शनं पूर्वभावः। कार्यार्थोपसंहृतिः616 संहारः। शुभशंसनं प्रशस्तिः।
एवं चतुःषष्ट्यङ्गसमन्विताः पञ्च सन्धयः प्रतिपादिताः। एतेषां षट् प्रयोजनानि संभवन्ति617। विवक्षितार्थप्रतिपादनम्। गोप्यार्थगोपनम्। प्रकाश्यार्थप्रकाशनम्। अभिनयरागसंमृद्धिः618। चमत्कारित्वम्। इति-
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‘वस्तुनेतृरसादीनामानुगुण्येन योजयेत्।
विवक्षितोऽत्र नाङ्गानां क्रम इत्येव निर्णयः॥’
इति। न च तेषां प्रधानवस्तुसंबन्ध एव निबन्धनीय इति वाच्यम्। अन्यथापि दोषाभावात्। तदुक्तं नाटकप्रकाशे
‘उपक्षेपादयः प्रबन्धेष्वाधिकारिका वा प्रासङ्गिका वा प्रयोक्तव्या यथा संदर्भस्य शोभायै भवन्ति ’ इति।
विभज्य लक्षितानि संध्यङ्गानि संख्यया संकलय्योपसंहरति। एवं चतुःषष्टीति। तत्राङ्गानां प्रयोजनमाह। एतेषामिति। अभिनयरागसमृद्धिरिति। अभिनयदर्शनेन सामाजिकमनोरञ्जनसमृद्धिरित्यर्थः। नन्वेतेषां प्रयोजनकथ-
वृत्तविस्तरश्चेति। तत्रेतिवृत्तं सूच्यमसूच्यं चेति द्विविधम्619 असूच्यमपि620 द्विविधम्। दृश्यं श्राव्यं621 च। तत्र सूच्यस्य सूचनाक्रमः पञ्चविधः।तथोक्तं622 दशरूपके
‘विष्कम्भचूलिकाङ्कास्यप्रवेशाङ्कावतारणैः।’
इति।
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नमनुपपन्नम्। अङ्गानां प्रधानफलेनैव फलवत्त्वनियमादिति न वाच्यम्। तस्यादृष्टफलवत्त्वे623 नियतत्वात्623। एतत्तु दृष्टं फलम्। तदुक्तं शृङ्गारप्रकाशे
‘अङ्गानां षड्विधं ह्येतत् दृष्टं शास्त्रे प्रयोजनम्।’
इति। प्रयोजनानामेतेषां लक्ष्येषूदाहरणमूहनीयमित्युपेक्ष्य पुनरपि वस्तुनो द्वेधा विभागमाह। तत्रेतिवृत्तमिति। द्वितीयं द्वेधा विभजति। असूच्यमिति।
तत्र
‘नीरसोऽनुचितस्तत्र संसूच्यो वस्तुविस्तरः।
दृश्यस्तु मधुरोदात्तरसभावनिरन्तरः॥’
इत्याद्ययोर्व्यवस्था दृष्टव्या। श्राव्यं चेत्यत्र चशब्दः श्राव्यगतावान्तरभेदाननुक्रमश्राव्यभेदं च समुच्चिनोति। श्राव्यं च सर्वश्राव्यं नियतश्राव्यं चेति द्विधा। एतेषां द्वितीयं624 च624 जनान्तिकमपवारितं624 चेति624 द्विधा624। एतेषां लक्षणं तु
‘सर्वश्राव्यं प्रकाशं स्यादश्राव्यं स्वगतं मतम्॥’
‘त्रिपताककरेणान्या625नपवार्यान्तरा कथाम्।
अन्योन्यामन्त्रणं यत् स्यात्तजनान्ते जनान्तिकम्॥’
‘रहस्यं कथ्यतेऽन्यस्य परावृत्त्यापवारितम्।’
इति। त्रिपताकग्रहणं626 पताकस्याप्युपलक्षणार्थम्549। तदुक्तं तद्वेदिभिः।
‘त्रिपताकः पताकश्च गण्डश्रोत्रं गतः करः।
जनान्तिके रहस्ये च दोषे श्रवसि कीर्त्तितः॥’
इति। लक्षणं त्वनयोः संगीतरत्नाकरे।
एतेषां627 स्वरूपं निरूप्यते।
वृत्तवत्तिष्यमाणानां कथांशानां निदर्शकः628।
संक्षेपार्थस्तु विष्कम्भो मध्यपात्रप्रयोजितः629॥ १९ ॥
स द्विविधः। शुद्धः संकीर्णश्चेति। केवल630संस्कृतप्रायः शुद्धः। संस्कृतप्राकृतमिश्रितः631 संकीर्णः।
अथ चूलिका।
अन्तर्यवनिका632संस्थैश्चूलिकार्थस्य सूचना॥ २० ॥
यत्र नेपथ्यगतैः पात्रैरर्थः सूच्यते सैवचूलिका633।——————————————————————————————————————
‘तर्जनीमूलसंलग्नकुञ्चिताङ्गुष्ठको भवेत्।
पताकः संहताकारः प्रसारिततलाङ्गुलिः॥
स634 एव त्रिपताकः स्याद्वक्रितानामिकाङ्गुलिः॥’
इति। विष्कम्भेत्यादि श्लोकशेषः पुनः
‘अर्थोपक्षेपकैः सूच्यं पञ्चभिः प्रतिपादयेत्।’
इति। प्रथमाङ्के प्रस्तावनानन्तरं विष्कम्भं कुर्यादिति भोजराजः। अन्यत्राङ्कद्वयमध्ये इत्यन्ये।मतद्वयमप्यङ्गीकृत्य तल्लक्षणमाह। वृत्तेति। वृत्तवर्त्तिप्यमाणानां कथांशानां निदर्शकः भूतभाविकथासूचक इत्यर्थः। संक्षेपार्थः संक्षेपैकप्रयोजनः। मध्यपात्रेणैकेनानेकेन वा635प्रयोजितः। तत्रैकमध्यपात्रोऽनेकमध्यपात्रश्चेति शुद्धो636द्विविधः। नीचमिश्रस्तु637 संकीर्ण एकविधः। तदुक्तम्।
‘एकानेककृतः शुद्धः संकीर्णो नीचमध्यमैः।’
इति। तत्र संकीर्णेऽपि मध्यपात्रसंभवात् तत्प्रयोजितत्वं न विहन्यते। अत ए638वं नायकपात्रप्रवेश इति वेदितव्यम्।
चूलिकां लक्षयति। अन्तरिति। अन्तःप्रधाना यवनिका अन्तर्यवनिका तत्र संस्था येषां तैर्यवनिकान्तर्वर्त्तिभिरप्रविष्टरङ्गैरित्यर्थः। विशेष्यमध्याहृत्य व्याचष्टे। यत्रेति।
अथाङ्कास्यम्।
अङ्कान्तपात्रैरङ्कास्यमुत्तराङ्कार्थसूचना639॥ २१ ॥
यत्र पूर्वाङ्कान्तपात्रै640रुत्तराङ्कार्थः641 सूच्यते तदङ्कास्यम्।
अथ प्रवेशकः642।
वृत्तवर्त्तिष्यमाणानां कथांशानां निदर्शकः628।
प्रवेशकस्तु नाद्येऽङ्के643 नीचपात्रप्रयोजितः॥ २२॥
नीचपात्रप्रयुक्तः644 प्रवेशकः आद्येऽङ्के न युक्तः अथाङ्कावतारः।
यत्र स्यादुत्तराङ्कार्थः पूर्वाङ्कार्थानुसंगतः।
असूचिताङ्कपात्रं तदङ्कावतरणं मतम्॥
एभिः सूच्यं सूचयित्वा दृश्यमङ्कैःप्रदर्शयेत्॥२३॥
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अङ्कास्यं लक्षयति। अङ्कान्तेति645। यत्र कुत्राप्यङ्कान्तपात्रैरिति शङ्काङ्कुरमुत्पाटयन् व्याचष्टे। यत्र पूर्वेति।
प्रवेशकं लक्षयति। वृत्तेति। नीचपात्रैश्चेटीप्रमुखैरेकेन द्वाभ्यां बहुभिर्वा मध्यमासंकीर्णैर्वृत्तवर्त्तिष्यमाणानां पूर्वोत्तराङ्कशेषाणामेवेत्यर्थः। अत एवास्य विष्कम्भवत् प्रथमेऽङ्के न प्रवेश इत्याह। नाद्येऽङ्के इति।
अङ्कावतारं लक्षयति। यत्र स्यादिति। पूर्वोत्तराङ्कार्थयोर्विष्कम्भादिविच्छेदेन न भाव्यमिति भावः। असूचितेति। पूर्वाङ्कवर्त्तिनामेव पात्राणामत्रानुप्रवेशान्न तत्सूचनमिति भावः।
अङ्काभ्यन्तरभावित्वमङ्कास्याङ्कावतारयोः।
भवेदङ्कवहिर्भावो विष्कम्भे च प्रवेशके॥
उभयं चूलिकायां तु यथायोगमिति स्थितिः॥
इति।646
तत्राङ्कस्वरूपं647 निरूप्यते।
प्रत्यक्षनेतृचरितो648 विन्दुव्यक्तिपुरस्कृतः।
अङ्को नानाप्रकारार्थसंविधानरसाश्रयः॥ २४॥
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दृश्यमङ्कैःप्रदर्शयेदित्युक्तम्। तत्र कीदृशोऽङ्क इत्याकाङ्क्षायामाह। तत्राङ्केति। प्रत्यक्षं रङ्गप्रवेशेन साक्षान्निर्दिश्यमानं नेतृचरितं नायकव्यापारो यत्र स तथोक्तः। बिन्दुब्यक्तिपुरस्कृतः बिन्दुसूचनार्थे परिच्छिन्न इत्यर्थः। नानाप्रकारार्थानामनेकावान्तरप्रयोजनानां संविधानानां कथासंनिवेशविशेषादीनां
‘रसानामङ्गभूतानामङ्गिनो वा रसस्य च।
न चातिरसतो दूरं वस्तु विच्छिन्नतां नयेत्॥
रसं वा न तिरोदध्याद् वस्त्वलंकारलक्षणैः॥’
इत्युक्तरीत्या परस्परानुपमर्दिनामाश्रयः। अत्राङ्के
‘दूराध्वानं वधं युद्धं राज्यदेशादिविप्लवम्।
संरोधं भोजनं स्नानं सुरतं चानुलेपनम्॥
अम्बरग्रहणादीनि प्रत्यक्षाणि न निर्दिशेत्।
नाधिकारिवधः क्वापि त्याज्यमावश्यकं न च॥
अधिकारिवधस्यापि क्वचित् स्यात् कल्पनार्हता।
अर्वाक् प्रकारात् स पुनः प्रत्युज्जीविष्यते यदि॥
नायकस्य यदेकाहचरितप्रतिपादकः।
एकप्रयोजनाश्लिष्टस्तत्रैवासन्ननायकः॥
विदूषकादिभिः पात्रैर्बोज्यस्त्रिचतुरैरपि।
समस्तपात्रनिष्कामावसानोऽङ्कोऽभिधीयते॥’
इत्यादि प्रतिपादिता प्राचीनालङ्कारिकपद्धतिरनुसरणीया।
एवं सूच्यासूच्यवस्तुखण्डप्रतिपादकमङ्कविष्कम्भादिकं स्वरूपतो निरूपितम्। अथ सर्वस्यापि काव्यार्थस्य सूचिका भारती वृत्तिर्निरूपणीया। तस्याश्चत्वार्यङ्गानि। आमुखं प्ररोचना वीथिः प्रहसनं चेति। तत्र वीथिप्रहसनयोः प्रायेण प्रबन्धादावनुदाहरणेन कृताकृतत्वाद्दशरूपकमध्ये649 प्राधान्येनापि पठितत्वाच्च
अथामुखं निरूप्यते।
सूत्रधारो नटीं ब्रूते मारिषं वा विदूषकम्।
स्वकार्यप्रस्तुताक्षेपिचित्रोक्त्यायत्तदामुखम्॥ २५ ॥
प्रस्तावना वा650तत्र स्यात् कथोद्धातः प्रवर्त्तकम्651।
प्रयोगातिशयश्चेति त्रीण्यङ्गान्यामुखस्य हि652॥ २६ ॥
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तल्लक्षणं प्राचीनालंकारमार्गेण तत्रैव भविष्यतीत्युपेक्ष्याल्पवक्तव्यां प्ररोचनामुदाहरणसमय एव दर्शयिष्यन् संप्रति साङ्गस्यामुखस्य स्वरूपनिरूपणं प्रतिजानीते। अथेति। तत्र पुरुषविशेषप्रयोज्यः संस्कृतप्रधानो वाग्व्यापारो भारती। प्रस्तुतार्थप्रशंसनेन श्रोतॄणां प्रवृत्त्युन्मुखीकरणं प्ररोचना। तदुक्तम्।
‘भारती संस्कृतप्रायो वाग्व्यापारो नराश्रयः653।
उन्मुखीकरणं तत्र प्रशंसातः प्ररोचना॥’
इति। आमुखविशेषः प्रस्तावनेति केचित्। प्रस्तावनाविशेष आमुखमित्यपरे। अस्यैव पर्यायः प्रस्तावनेति दशरूपककारः। तन्मतानुसारेण लक्षणमाह। सूत्रधार इति। द्वावत्र सूत्रधारौ। एकः पूर्वरङ्गविधायकः। इतरस्तु नटस्थापकाद्यपरपर्यायः पूर्वसूत्रधारसदृशगुणाकृतिः प्रस्तावनाप्रवर्त्तकः। अत्र तु नटीमारीषादिसंभाषणादयमेव विवक्षितः। अस्य गृहिणी नटी। मारीषः पारिपार्श्विकः। नर्मसचिवो विदूषकः। एतेषां लक्षणानि भावप्रकाशे।
‘आसूत्रयन् गुणान् नेतुः कवेरपि च वस्तुनः।
रङ्गप्रसाधनप्रौढः सूत्रधार इहोदितः॥
चतुरातोद्यभेदज्ञा तत्कलासु विशारदा।
करणाभिनयज्ञा च सर्वभाषाविचक्षणा॥
नटानुयोक्त्री कृत्येषु नटस्य गृहिणी नटी।
भरतेनाभिनीतं यो भावं नानारसाश्रयम्॥
परिष्करोति पार्श्वस्थः स भवेत् पारिपार्श्विकः।
तदात्वप्रतिभो नर्मचतुर्भेदप्रयोगवित्॥
वेदविन्नर्मवादी यो नेतुः स स्याद्विदूषकः॥’
एषामङ्गानां स्वरूपं निरूप्यते।
स्वेतिवृत्तसमं वाक्यमर्थं वा यत्र सूत्रिणः।
गृहीत्वा प्रविशेत् पात्रं कथोद्धातो द्विधैव सः॥ २७ ॥
प्रस्तूयमानकालस्य गुणवर्णनया स्वतः।
प्रविशेत् सूचितं पात्रं यत्र तत् स्यात् प्रवर्त्तकम्॥ २८ ॥
एषोऽयमित्युपक्षेपात् सूत्रधारप्रयोगतः।
पात्रप्रवेशो यत्रायं654 प्रयोगातिशयो मतः॥ २९ ॥
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इति। स्वकार्यमभिमतरूपकप्रयोगेण परिषदाराधनात्मकं प्रस्तुतं काव्यार्थरूपं वस्त्वादिचतुष्टयं तदाक्षेपिण्या उभयप्रतिपादिकयेत्यर्थः। अत एव चित्रोक्त्या नाट्यादिकं यद् व्रूते तदामुखमित्यर्थः। तदुक्तम्।
‘पूर्वरङ्गं विधायादौ सूत्रधारे विनिर्गते।
प्रविश्य तद्वदपरः काव्यार्थ655ेस्थापयेन्नटः॥
दिव्यमा656र्त्त्येेस तद्रूपो मिश्रमन्यतरस्तयोः।
सूचयेद्वस्तु बीजं वा मुखं पात्रमथापि वा॥’
इति। स्थापको दिव्यं वस्तु दिव्यो भूत्वा मार्त्त्येवस्तु मर्त्त्यो भूत्वा मिश्रं वस्तूभयोरन्यतरो भूत्वा सूचयेदित्यर्थः।
अथामुखाङ्गत्रये कथोद्धातं लक्षयति। स्वेति। पात्रं कर्त्तृ। सूत्रिणः सूत्रधा रस्य वाक्यमर्थं वाक्यार्थं वा। प्रवर्त्तकं लक्षयति। प्रस्तूयमानेति। कालस्य ऋतुं कंचिदुपादायेति वचनप्राप्तस्य शरद्वसन्तादेर्गुणवर्णनया आसन्नप्रवेशपात्रसाम्येनेति भावः।
‘प्रकटितरामाम्भोजः कौशिकवाग्लक्ष्मणानन्दी।
सुरचापनमनहेतोरयमवतीर्णः शरत्समयः॥
इत्यत्र रामलक्ष्मणविश्वामित्राणां शरद्वर्णनसाम्येन प्रवेशकथनात् प्रवर्त्तकम्। प्रयोगातिशयं लक्षयति। एष इति। एतदिदमोरन्यतरशब्दप्रयोगेणोपक्षेपादित्यर्थः।
वीथ्यङ्गान्यामुखाङ्गत्वादुच्यन्तेऽत्र657 स्वभावतः।
उद्धात्यकावलगिते प्रपञ्चत्रिगते छलम्॥ ३० ॥
वाक्केल्यधिवले गण्डमवस्यन्दितनालिके658।
असत्प्रलापव्याहारमृदवानि659 त्रयोदश॥ ३१ ॥
एषां स्वरूपं निरूप्यते।
गूढार्थपदपर्यायमालारूपेण प्रश्नोत्तरमालारूपेण660 वोद्धात्यकं661 द्विविधम्। अवलगितमपि द्विविधम्। अन्यकार्यच्छद्मना662 अन्यकार्यकरणम्।अन्यकार्य663प्रसङ्गात्664 प्रकृतकार्यसिद्धिश्च665। असद्भूतं मिथः स्तोत्रं प्रपञ्चः666।————————————————————————————————————
नन्वनन्तरमुद्धात्यकादीनि वीथ्यङ्गान्युच्यन्ते कथं तेषामामुखे संगतिरित्याशङ्क्योभयेषामङ्गा-नामभेदादविरोध इति संगमयन्नाह। वीथ्यङ्गानीति। न चैवं वीथ्यामुखयोरङ्गिनोर्नाममात्रभेद इति शङ्कनीयम्। वीथ्यां कथोद्धातादिविशेषाङ्गविकलत्वं सूत्रधारादिसंबन्धवैधुर्यमुद्धात्यकादिसर्वाङ्गावश्यकत्वं पाक्षिकप्राधान्यं च। आमुखे पुनरेतद्वैरूप्यमित्यनयोरत्यन्त667विलक्षणत्वात्। अथ साधारणाङ्गान्युद्देशपूर्वकं लक्षयति। उद्धात्यकेत्यादिना।
अन्योन्यालापो गूढार्थपदं ततः पर्यायश्चेत्येवमेका माला। प्रश्नोत्तरं चेतिद्वितीया668। द्वेधावलगितमित्याह। अन्यकार्येति। पूर्वत्र प्रकृतकार्यसिद्धेः प्रयत्नपूर्वकत्वमुत्तरत्र प्रासङ्किकत्वं चेत्यर्थः। असद्भूतं पारदार्याद्विप्रसंगेन दुष्टम्। पूर्वाचार्यास्तु स्तोत्रं669 हास्येन विशिंषन्ति।
पूर्वरङ्गे नटादिसल्लापोऽत्र670 तु साम्यादनेकार्थयोजनं त्रिगतम्। प्रियसदृशैर्वाक्यै671 “)रप्रियैर्विलोभनं672 छलम्673। साकाङ्क्षस्यापि वाक्यस्य निवर्त्तनमुक्तिप्रयुक्ति674र्वाक्केलिर्द्विधा675। स्पर्धयान्योन्यवाक्याधिक्यमाधेबलम्। सहसोदितं प्रस्तुतविरोधि गण्डम्। रसवशादुक्तान्यथाव्याख्यानमवस्यन्दितम्676। सोपहासनिगूढार्थ677प्रहेलिका नालिका।असंबन्धकंथाप्रायः678
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‘असद्भूतं मिथः स्तोत्रं प्रपञ्चो हास्यकृन्मतः।’
इति। त्रिगतं द्विविधम्। तत्रैकं पूर्वरङ्गाङ्गर्मपरमामुखाङ्गमिति679 विविञ्चन्नुभयोः क्रमेण लक्षणमाह। पूर्वरङ्ग इति। नटादिसल्लाप इत्यत्रादिग्रहणान्मारिषसूत्रधारौगृह्येते। तदुक्तं भावप्रकाशे पूर्वरङ्गप्रस्तावे।
‘सूत्रधारो नटश्चैव तथा वै पारिपार्श्विकः।
सल्लापं यत्र कुर्वन्ति तदेव त्रिगतं स्मृतम्॥’
इति। अत्र त्विति प्रस्तावनायाम्। साम्यादिति। शब्दसाम्यादित्यर्थः। तदुक्तं दशरूपके।
श्रुतिसाम्यादनेकार्थयोजनं त्रिगतं त्विह।
नटादित्रितयालापः पूर्वरङ्गे तदिष्यते॥’
इति। छलं व्यक्तम्। साकाङ्क्षस्येति। निवर्त्तनमुपरि प्रस्तुतमोन्नमः शिवायेतिवदिति भाव। उक्तः प्रत्युक्तिरुक्तिप्रत्युक्तिः। अत्र द्विस्त्रिरिति शेषं प्राञ्चः पूरयन्ति। अन्योन्यवाक्येति। परस्परसामर्थ्यप्रकाशकवाक्याधिक्यमित्यर्थः। सहसोदितमविमृश्योक्तं प्रस्तुतविरोधि गण्डम्। अर्थभेदेन प्रस्तुतोपयोगि गण्डमिति केचित्। तदुक्तम्। ‘गण्डः प्रस्तुतसंबन्धि भिन्नार्थं सहसोदितम् ’ इति। ‘रसवशादित्युक्तेन सम्बध्यते न तु व्याख्यानेन। सोपहासेति। निगूढो गोपितो—————————————————————————————————————
कुलशोकहरं कुमारमेकं कुहनाभैरवपारणोन्मुखाभ्याम्।
उपहूय कृतादरं पितृभ्यामुपरि प्रस्तुतर्मोनमः शिवाय’॥
इति महेश्वरानन्दे
प्रलापोऽसत्प्रलापः। अन्यार्थ680ंहास्यलोभकरं वचनं681 व्याहारः। दोषाणां गुणत्वप्रतिपादनं मृदवम्682। एतेषां683 मध्ये यथासंभवंकानिचित्684 प्रस्तावनायां प्रयोक्तव्यानि।
अथ685 दशरूपकाणां686 स्वरूपं687 निरूप्यते। तत्र
साङ्गैर्मुखप्रतिमुखगर्भमर्शो688पसंहृतैः।
पूर्वं प्रकृतिरन्येषामाधिकारिकवृत्तवत्॥ ३२ ॥
———————————————————————————————————
बाह्य आभ्यन्तरो वा मुख्यार्थो यत्र सा तथोक्ता। अत एव अन्तर्लापा बहिर्लापा चेति द्विविधा प्रहेलिका। तदुक्तं विदग्धमुखमण्डने।
‘व्यक्तीकृत्य कमप्यर्थं स्वरूपार्थस्य गोपनात्।
यत्र बाह्यान्तरावर्थौकथ्येते सा प्रहेलिका॥’
इति। प्रलाप इति रसस्वप्नोन्मादशैशवादिप्रयुक्त इति शेषः। अत एव नायमसंगतिर्नाम वाक्यदोषः। अन्यार्थमित्यर्थान्तरोद्देशेन हास्यप्रलोभकारीत्यर्थः। दोषाणामिति। वैपरीत्यस्याप्युपलक्षणमेतत्। तदुक्तम्
‘दोषा गुणा गुणा दोषा यत्र स्युर्मृदवं हि तत् '
इति। एतेषामङ्गानां कार्त्स्न्येन प्रयोगनिर्बन्धो नास्तीत्याह। एतेषामिति।
रूपकोपाद्धातरूपां प्रस्तावनां निरूप्य संप्रति रूपकस्वरूप689निरूपणं प्रतिजानीते। अथेति। तत्र सर्वप्रकृतित्वेन प्रधानस्य नाटकस्य स्वरूपमाह। साङ्गैरिति। यत्रेत्थमिदं कर्त्तव्यमिति कृत्स्नाङ्गसमेतप्रधानोपदेशः सा प्रकृतिः। यथा दर्शपूर्णमासादिः। कृत्स्नाङ्गोपदेशाभावेऽन्यतः सिद्धाङ्गाकाङ्क्षायां तद्वदिदं कर्त्तव्यमिति अतिदेशेन यत्रानुपदिष्टाङ्गपरिपूरणं सा विकृतिः। यथैन्द्राग्नादिः। तद्वदत्रापि संधिपञ्चकाङ्गादिकृत्स्नोपदेशेन परिपूर्णत्वादातिदेशिकाङ्गयोगेन विकृतिभूतानां प्रकरणादीनां नाटकं प्रकृतिः। तदेतदाह। प्रकृतिरन्येषामिति। फलस्वाम्यमधिकारः। तद्वानधिकारी।अधिकारेणाधिकारिणा वा निर्वृत्तमाधि-
बीरशृङ्गारयोरेकः प्रधानं यत्र वर्ण्यते।
प्रख्यातनायकोपेतं नाटकं तदुदाहृतम्॥ ३३॥
तत्र नान्दीस्वरूपं690 निरूप्यते।
अर्थतः शब्दतो वापि मनाक्691 काव्यार्थसूचनम्।
यत्राष्टभिर्द्वादशभिरष्टादशभिरेव वा॥
द्वाविंशत्या पदैर्वापि सा नान्दी परिकीर्त्त्यत692े॥ ३४॥
—————————————————————————————————————कारिकं प्रधानम्। वृत्तशब्देनात्र प्रख्यातमुचितं चेति वृत्तं विवक्षितं तद्युक्तमित्यर्थः। प्रधानमित्यनेन रसान्तराणामङ्गत्वेनानुप्रवेशः सूच्यते। प्रख्यातो रामायणादिप्रसिद्धः नायको धीरोदात्तो राजर्षिर्दिव्यो वा। तदुपेतं नाटकम्। एवमेवोक्तं दशरूपके।
‘अभिगम्यगुणैर्युक्तोधीरोदात्तः प्रतापवान्।
कीर्त्तिकामो महोत्साहस्राय्यास्नाता महीपतिः॥
प्रख्यातवंशो राजर्षिर्दिव्यो वा यत्र नायकः।
तत् प्रख्यातं विधातव्यं वृत्तमत्राधिकारिकम्॥
यत्तत्रानुचितं किंचिन्नायकस्य रसस्य वा।
विरुद्धं तत् परित्याज्यमन्यथा वा प्रकल्पयेत्॥’
इति।
पूवेरङ्गो नाम नाटकादौ कर्तव्यः प्रत्यूहपरिषन्थी कर्मविशेषः। तदुक्तम्693।
‘यन्नाट्यवस्तुनः पूर्वं रङ्गविघ्नोपशान्तये।
कुशीलवाः प्रकुर्वन्ति पूर्वरङ्गः सकीर्तितः694॥’
इति। तस्य प्रत्याहारादीनि द्वाविंशतिरङ्गानि तन्मध्येऽवशं कर्त्तव्या नान्दी। तदुक्तं वादरायणेन
“यद्यप्यङ्गानि भूयांसि पूर्वरङ्गस्य नाटके।
तथाप्यवश्यं कर्त्तव्यानान्दी विघ्नोपशान्तये695॥”
नाटकादिरूपकाणामादौ विहितं पद्यं696 नान्दीत्युच्यते। वेणीसंहारेऽष्टादशपदा697 नान्दी। अनर्घराघवे698 द्वादशपदा। बालरामायणे द्वाविंशतिपदा। कैश्चिन्नान्द्यां पदनियमो नाभ्युपगतः699। नान्द्यन्तरं प्रविष्टेन सूत्रधारेण रङ्गप्रसाधनपुरःसरं भारतीवृत्त्याश्रयणेन700 श्लोकैः काव्यार्थः सूचनीयः। तथोक्तं दशरूपके
‘रङ्गं प्रसाध्य मधुरैः श्लोकैः काव्यार्थसूचकैः।
ऋतुं कंचिदुपादाय भारतीं वृत्तिमाश्रयेत्॥’
इति701।
एषा प्रक्रिया नाटकस्यैव मुख्या।
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इति। अतस्तत्स्वरूपं निरूप्यत इत्याह। तत्र नान्दीति
‘चन्द्रनामाङ्किता प्रायो मङ्गलार्थपदोज्ज्वला।
आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वा प्रकल्प्यते॥’
इत्यादि विशेषोऽप्यत्र द्रष्टव्यः। असाधारणत्वमस्या निवारयन् व्याचष्टे। नाटकादीति। स्पष्टमन्यत्।
अनन्तरकर्त्तव्यमाह। नाद्यन्तरभिति। सूत्रधारेण द्वितीयेन। रङ्गप्रसाधनं नाम सभापतावुपविष्टे रङ्गप्रविष्टसाम्प्रदायिकसंपादितो यवनिकापगमाविर्भूतपात्र विशेषप्रकीर्णपुष्पाञ्जलिपरिष्कृतो नृत्तगीतवाद्यविशेषप्रयोगः केवलगीतवाद्यविशेषप्रयोगो गीतादेरेकैकशः प्रयोगो वा। एतच्च
‘संगीतज्ञैर्बुधैः सार्धं नायके प्रेक्षके स्थिते।
प्रविश्य रङ्गभूमिं ते तिष्ठन्तः सांप्रदायिकाः॥’
इत्यादिना संगीतरत्नाकरे प्रपञ्चितम्702। तदपेक्षायां तत्रैव द्रष्टव्यम्। भारत्या लक्षणमुक्तम्। अत्रार्थे संवादमाह। रङ्गमिति703। अत्र स्वोक्तिसंवादवाक्यगतयोः काव्यार्थसूचनभारतीवृत्त्याश्रयणयोरुद्देश्यविधेयभाववैरूप्यं फलभेदाभावान्न दोषायेति द्रष्टव्यम्।
‘नाटकेऽङ्का न कर्त्तव्याः पञ्चन्यूना दशाधिकाः।’
इति। अम्याः सामग्र्या असाधारणत्वमाह। एषेति। मुख्या नियतेत्यर्थः।
अथ प्रकरणम्।
उत्पाद्येनेतिवृत्तेन धीरशान्तप्रधानकम्।
शेषं नाटकतुल्याङ्गं भवेत् प्रकरणं हि तत्॥३५॥
अथ भाणः।
भारतीवृत्तिभूयिष्ठं704 शौर्यसौभाग्यसंस्तवैः।
सूच्येते वीरशृङ्गारौ विटेन निपुणोक्तिना॥३६॥
कल्पितेनेतिवृत्तेन धूर्त्तचारित्रवर्णनम्।
एकोऽङ्को मुखनिर्वाहौ यत्र भाणः स संमतः॥३७॥
_____________________________________________________________
प्रकरणं लक्षयति। उत्पाद्येनेति। इति वृत्तेनोपलक्षितं शेषं705 वस्तु। नाटकतुल्यान्यङ्गान्यामुखादीनि यत्र तत् तथोक्तम्। अयमतिदेशो यथायोगमुत्तरत्राप्यनुषञ्जनीयः। धीरशान्तप्रधानकमित्यत्र प्रधानग्रहणमुद्देष्टव्यधर्मान्तरसूचकम्। तानि च दशरूपके
‘अथ प्रकरणे वृत्तमुत्पाद्यं लोकसंश्रयम्।
अमात्यविप्रवणिजामेकं कुर्याच्च नायकम्॥
धीरप्रशान्तं सापायं धर्मकामार्थतत्परम्।
शेषं नाटकवत् संधिप्रवेशकरसादिकम्॥’
विपदन्तरितार्थसिद्धिः सापायः। किं च
‘त्रेधात्र नायिका ज्ञेया कुलस्त्रीगणिकोभयम्।
तद्वशाद्रूपकं त्रेधा तृतीयं धूर्त्तसंकुलम्॥
गणिका प्राकृतं ब्रूते कुलस्त्री संस्कृतं तथा।’
इति। विकृत्यन्तरापेक्षया संध्यादीनां प्रकर्षेण करणात् प्रकरणम्॥
भाणं लक्षयति। भारतीति। शौर्यसौभाग्ययोः संस्तवैः धूर्त्ता द्यूतकारादयस्तेषां चारित्रं स्वेनान्येन वानुभूतमिति शेषः। स्पष्टमन्यत्।
अथ प्रहसनम्।
यत्र सन्ध्यङ्गवृत्त्यङ्गवर्णनं706.”) भाणवन्मतम्।
हास्यो रसः प्रधानं स्याद्भवेत् प्रहसनं हि तत्॥३८॥
तत् त्रिविधम्। शुद्धं वैकृतं707 संकीर्णं चेति। तत्र708 शुद्धम्।
पाषण्ड709विप्रप्रभृतिचेटीचेटसमाकुलम्710।
वेषभाषादिसहितं शुद्धं हास्यवचोऽन्वितम्॥३९॥
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‘एकपात्रप्रयोज्येऽस्मिन्कुर्यादाकाशभाषितम्।
अन्येनानुक्तमप्यन्यो वचः श्रुत्वेव711 यद्वदेत्॥
इति किं भणसीत्येतद् भवेदाकाशभाषितम्।
लास्याङ्गदशकं चात्र योज्यं गेयपदादिकम्॥
भावप्रकाशिकाद्येषु तत्प्रपञ्चः परीक्ष्यताम्712।
अत्रोपरम्यतेऽस्माभिरतिविस्तरभीरुभिः713॥
यत्रैक एव विटः स्वकृतं परकृतं वा भारतीवृत्तिभूयिष्ठं भणति स भाणः।
प्रहसनं लक्षयेति। यत्रेति। हास्यवचःप्रचुरत्वादिदं प्रहसनमुच्यते। तत्र शाक्य714श्रोत्रियादिवेषभाषाविशिष्टं शुद्धम्। विटकामुकवृद्धकञ्चुकिप्रमुखवचोवेषानुकारि वैकृतम्। वीथ्यङ्गविशिष्टं धूर्त्तचेष्टितसंकुलं संकीर्णम्। तदेतत् त्रिविधं विभज्य क्रमेण लक्षयति। तच्चेत्यादिना। तत्र शुद्धमाह। पाषण्डेति715। पाषण्डाः716 शाक्यादयः। विप्रा जातिमात्रोपजीविनोऽत्यन्तमृजवो वा। प्रभृतिपदेन तादृशा एव वैश्यादयो गृह्यन्ते। चेट्यादयो लक्षितचराः प्रधानभूतहास्यरसविभावभूतैरेतैः समाकुलम्। वेषभाषादिसहितमिति। अर्थादेतेषामेवेति गम्यते। विकृ-
अथ वैकृतम्717।
कामुकादिवचोवेषैः718 षण्डकञ्चुकितापसैः।
प्रहासाभिनयप्रायं वैकृतं719 तत् प्रकीर्त्त्यते॥४०॥
अथ संकीर्णम्।
यद्वीथ्यङ्गैः समाकीर्णैः720 संकीर्णं721 धूर्त्तसंकुलम्॥४१॥
अथ डिमः।
यत्र वृत्तं722 प्रसिद्धं स्याद्वृत्तयः कैशिकीं विना।
नेतारो देवगन्धर्वयक्षरक्षोमहोरगाः॥४२॥
भूतप्रेतपिशाचाद्याः षोडशात्यन्तमुद्धताः।
हास्यशृङ्गाररहिता रसा रौद्र723प्रधानकाः॥४३॥
चत्वारोऽङ्का संधयश्च चत्वारो मर्शवर्जिताः।
मायेन्द्र724जालसंग्रामसूर्यचन्द्रग्रहादयः725॥
शेषं नाटकवत् सर्वं स डिमः726 परिकीर्त्यते॥४४॥
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तमाह। अथेति। कामुकादयो भुजङ्गाद्याः। तेषां वचोवेषौ येषां तैस्तथोक्तैः। तथा पाषण्डकञ्चुकितापसैस्तद्वेषभाषायुक्तैरेवान्वितमिति शेषः। संकीर्णमाह। यदिति। वीथ्यङ्गैरुद्धत्यकादिभिः। धूर्त्ताश्चोरद्यूतकरादयः।
डिमं लक्षयति। यत्रेति। प्रसिद्धं वस्तु त्रिपुरदाहादयः। वृत्तयः कैशिकीवर्जास्तिस्रः रसादीप्ता एव। अत एवोक्तम्।
‘शृङ्गारहास्यविधुरै रसैर्दीप्तैर्निरन्तरः’
इति। अतः शान्तरसस्य प्रसक्तिरेव नास्तीति भावः। रौद्रः स्थायित्वेन प्रधानं येषां ते रौद्रप्रधानकाः। मर्शो विमर्शः। मायादयोऽनुभावाः। तत्र मायेन्द्रजालयोर्लक्षणं भावप्रकाशे
अथ व्यायोगः।
यत्र727 ख्यातेतिवृत्तं स्यादुद्धतो नायको मतः।
गर्भावमर्शराहित्यं डिमवद्रसपोषणम्॥
एकवासरकार्यं च स व्यायोगो महारणः॥४५॥
अथ समवकारः728।
यथामुखं नाटकवत् संधयो मर्शवर्जिताः।
नेतारो द्वादश पृथक्फला देवासुरादयः॥४६॥
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‘सद्रूपोद्भावना माया स्वत एवासतः पुरा।
अथवान्यपदार्थानामन्यथा कृतिरेव वा॥
अदेशकालपारोक्ष्यं परोक्षस्यैव वस्तुनः।
मन्त्रौषधादिभिः सोऽयमिन्द्रजाल इतीरितः॥’
इति। चन्द्रग्रहादय इत्यत्रादिशब्देनोल्कानिर्घातादयो गृह्यन्ते। गतमन्यत्। डिमः सङ्घात इति नायकसंघातव्यापारात्मकत्वात् डिम इति धनिकः।
व्यायोगं लक्षयति। यत्रेति। शान्तशृङ्गारहास्यरहिता रौद्रप्रधानकाः षड्रसाः कैशिकीवर्जमितरवृत्तयश्चेत्येतड्डिमवद्रसपोषणमित्यतिदेशेन लभ्यते। अस्त्रीनिमित्तोऽत्र महारणः। तदुक्तम्।
‘अस्त्रीनिमित्तसंग्रामो जामदघ्न्यजयोर्यथा।
इति। व्यायुज्यतेऽस्मिन् बहवः पुरुषा इति व्यायोगः।
समवकारं729 लक्षयति। यत्रेति। शेषं नाटकतुल्याङ्गमित्यतिदेशानुषङ्गादेवानुपदिष्टा मुखाद्यखिलाङ्गलाभेऽप्यत्रामुखं नाटकवदित्यतिदेशो रूपकाणामिदमावश्यकमिति सूचनायेति द्रष्टव्यम्। एककार्याणामपि नायकानां पयोधिमथने सुधालक्ष्मीप्रमुखफल730भेदं दृष्ट्वाह। नेतार इति। वीरप्रधाना इत्यनेन शृङ्गारादी-
वीरप्रधानाश्च रसास्त्रयोऽङ्कास्तेषु च क्रमात्।
वस्तुस्वभावदैवादिकृताः स्युः कपटास्त्रयः॥४७॥
पुररोधरणाग्न्यादिनिमित्ता विद्रवास्त्रयः।
धर्मार्थकामानुगुणास्तिस्रः श्रृङ्गाररीतयः ॥४८॥
प्रथमेऽङ्के निबद्धव्या कथायामत्रयावधिः।
यामावधिर्द्वितीयेऽङ्के731 तृतीयेऽङ्केऽर्धयामिका॥
असौ समवकारः स्याद्वीथ्यङ्गैः कैश्चिदन्वितः॥४९॥
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नामङ्गत्वेनानुप्रवेशः। अत एवात्र मन्दकैशिक्यो वृत्तयश्चेति गम्यते। त्रयोऽङ्का इति। प्रथमेऽङ्के मुखप्रतिमुखयोर्द्वितीये गर्भस्य तृतीये निर्वहणस्य च निबन्धो द्रष्टव्यः। अङ्कत्रये कपटविद्रवशृङ्गारत्रिकाणां त्रयाणां क्रमेण निबन्ध इत्याह। तेषु च क्रमादिति। कपटो नाम मोहः। तदुक्तं भावप्रकाशे
‘कपटस्य स्वरूपं तु भ्रमो मोहात्मकः स्मृतः’
इति। स च निमित्तानुरोधेन त्रिविध इत्याह। वस्तुस्वभावेति।
‘वस्तुस्वभावकपटः क्रूरसत्त्वादिसंभवः।
दैविकः कपटो वह्निवर्षवातादिसंभवः॥
शत्रुजः कपटस्तत्र संग्रामादिसमुद्भवः॥
कपटजन्यं पलायनं बिद्रवः। सोऽपि कपटवत् त्रिविध इत्याह। पुररोधेति। पुररोधरणादिनिमित्तोऽरिकृतो विद्रवः। अग्न्यादिनिमित्तो दैविको विद्रवः। व्यालब्याघ्रादिनिमित्तो वस्तुस्वभावकृतो विद्रवः। व्रतादिजनितः कामो धर्मशृङ्गारः। महाराज्याद्यर्थप्राप्तिहेतुरर्थशृङ्गारः। परदारसुरापानादिसुखललितः कामशृङ्गारः। अङ्कत्रयवर्त्तिनो वस्तुनः कालनियममाह। प्रथमेऽङ्के इत्यादि। यथालाभमुद्धात्यकादीनामनुप्रवेश इत्याह। वीथ्यङ्गैरिति। समन्तादवकीर्यन्तेऽस्मिन्नर्था इति समवकारः। शेषं स्पष्टम्॥
अथ वीथी।
यत्र भाणवदङ्गानां क्लृप्तिर्वृत्ति732स्तु कैशिकी।
शृङ्गारः733 परिपूर्णत्वात् सूचनीयोऽतिभूयसा॥
उद्धात्यकादीन्यङ्गानि734 सा वीथी वीथिवन्मता॥५०॥
अथाङ्कः।
यत्रेतिवृत्तं प्रख्यातं प्रधानं करुणो रसः।
स्त्रीणां विलासो वाग्युद्धं नेतारः प्राकृता नराः॥
भाणवत् संधिवृत्त्यादि स उत्सृष्टोऽङ्क735संज्ञितः॥५१॥
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वीथीं लक्षयति। यत्रेति। एकोऽङ्को मुखनिर्वाहावित्यादिको भाणवदित्यतिदेशलभ्यः736। विशेषमाह। वृत्तिरित्यादिना। शृङ्गारोऽतिभूयसा सूचनीय इत्यनेन रसान्तराणामत्यल्पशः सूचनं गम्यते। उद्धात्यकादीनि प्रस्तावनायामुक्तानि। यत्रैवं सामग्री सा वीथी। वीथि737वदङ्गानां मार्गवत् पङ्क्तिवद्वा मता। एकपात्रेण पात्रद्वयेन वा योगोऽत्रान्यतोऽवगन्तव्यः। इदमप्यत्रानुसंधेयम्।
‘अस्यां प्रायेण लास्याङ्गदशकं योजयेन्न वा।
सामान्या परकीया वा नायिकात्रानुरागिणी॥
वीथ्यङ्गप्रायवस्तुत्वान्नोचिता कुलपालिका।
लक्ष्यमस्यास्तु विज्ञेयं माधवीवीथिकादिकम्।’
इति।
अङ्कं लक्षयति। यत्रेति738। इतिवृत्तं प्रख्यातमुत्पाद्यं वेति केचित्। प्राकृतादिव्यतिरिक्ताः अत एव शारदातनयेनोक्तम्।
‘दिव्यैरयुक्तः पुरुषैः शेषैरन्यैः समन्वितः’
इति। सुगममन्यत्। य एवंविधः सोऽयं पुत्रादीनामिव प्राकृतनायकादीनामाश्रयत्वादङ्क इति संज्ञितः। अयमङ्को नानाप्रकारेति लक्षणमुल्लङ्घ्य सृष्टत्वादुत्सृष्ट इत्युच्यते। अत एवोत्सृष्टिकाङ्क इति नाटकान्तर्गताङ्कव्यवच्छेदार्थमिति धनिको व्याचष्ट।
अथेहामृगः।
मिश्रमीहामृगे वृत्तं चतुरङ्कं739 त्रिसन्धिकम्740।
मर्त्त्यदिव्यौ च नियमान्नायकप्रतिनायकौ॥५२॥
धीरोद्धतौ स्त्रियं दिव्यां741 हर्त्तृकामौ742 च कामुकौ743।
अवधं युद्धमन्योन्यमाभासरसयोस्तयोः॥५३॥
एष प्रक्रिया दशरूपकोक्तरीत्यनुसारेण744।
तत्र745 साङ्गं नाटकमु746दाह्रियते।
भद्रां कौतुकवेदिमागतवतोरन्योन्यमासेदुषोः
शैलैर्मेरुहिमाचलप्रभृतिर्भिर्देवैर्हरीन्द्रादिभिः।
व्याप्तां747 पार्श्वयुगे पुरोऽम्बुजभुवा पश्चाच्च मेनादिभिः
साध्वीभिः शिवयोरपाङ्गसरणिर्वैवाहिकी पातु वः748॥१॥
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ईहामृगं लक्षयति। मिश्रमिति। गर्भावमर्शरहितास्त्रयः संधयो यस्मिंस्तत् त्रिसन्धिकम्। आभासरसयोरनुरागशून्यनायिकानुरक्तत्वादिति भावः। अत एवोक्तं दशरूपके
‘दिव्यस्त्रियमनिच्छन्तीमपहारादिनेच्छतः’
इति ।
अवधं युद्धमजायुद्धकल्पमित्यर्थः। गतमन्यत्। मृगवदलभ्यां नायिकां नायकोऽस्मिन् ईहते इति ईहामृगः। अस्या रूपकसामग्र्याः स्वोन्मेष749मूलत्वं वारयति। एषेति।
केवलोद्देशलक्षणाभ्यां रूपकसामग्र्या दुर्ग्रहत्वाद्रूपकान्तराणामेतदुदाहरणेनोदाहृतकल्पत्वं हृदि निधाय जिज्ञासुजनानुग्रहार्थं नाटकमात्रमत्रोदाह्रियत इति प्रतिजानीते। तत्रेति।
अथ साङ्गं750 नाटकमुदाहर्त्तुमारभमाणो विद्यानाथस्तत्प्रत्यूहपरिपन्थिनः पूर्वरङ्गस्य प्रधानाङ्गभूतामाशीरूपमङ्गलान्वितां नान्दीमादा751वुदाहरति। भद्रामिति। भद्रां
एषा द्वाविंशतिपदा752 नान्दी। अस्यां विवाह753प्रवृत्तयोः शिवयोः754 वर्णनया सकलनरेन्द्रपरिवृतस्य755प्रतापरुद्रस्य काकतीयलक्ष्मी756प्राप्तिर्नाटकप्रयोजनरूपा किंचिदर्थशक्त्या सूच्यते757।
देयात्758 सिद्धिं महालक्ष्मीर्जगद्रक्षाधुरन्धरा।
विष्णुवक्षःस्फुरन्मालाविहितालयतोरणा॥२॥
एषा च नान्दी प्रतापरुद्रराज्यलक्ष्मीमङ्गलविधिलक्षणा।
नान्द्यन्ते सूत्रधारः(समन्तादवलोक्य सहर्षम्)।
कथमासूत्रित एव समन्ततो759 रङ्गमङ्गलविधिः।
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विचित्रवितानमणितोरणादिपरिष्कारेण मङ्गलाम्। पार्श्वयुगे वधूवरप्रत्यासन्नैर्मेरुहरिप्रभृतिभिर्व्याप्ताम्। पुरोभागेऽम्बुजभुवा याज्ञिकेन ब्रह्मणा। तदुक्तं श्रीकण्ठलीलायां कल्याणकाण्डे
‘दाता महीभृतां नाथो होता देवश्चतुर्मुखः।
वरः पशुपतिः760 साक्षात् कन्या विश्वारणिस्तथा॥’
इति। मेना हिमाचलमहिषी। तदादिभिः साध्वीभिः पुरन्ध्रीभिः पश्चाद्भागे व्याप्तां कौतुकवेदिं विवाहोत्सववितर्दिकामागतवतोः प्राप्तयोरन्योन्यमासेदुषोर्यथा मिथः संस्पर्शस्तथासीनयोरित्यर्थः। यथास्थानमुपविश्यान्वारब्धायामित्यापस्तम्बस्मरणात्। शिवयोः पार्वतीपरमेश्वरयोः। ‘पुमान् स्त्रिया’ इत्येकशेषः। विवाहे भवा वैवाहिकी। अपाङ्गसरणिरन्योन्यदर्शनमित्यर्थः। इदमपि तत्रैवोक्तम्।
‘देवोऽपि देवीमालोक्य सलज्जां हिमशैलजाम्।
न तृप्यति नतापाङ्गी सा च देवं वृषध्वजम्॥’
इति। स वः पात्विति संबन्धः। लक्ष्येण लक्षणं योजयत्येषेति।
नान्द्यन्त इति। नान्दीं प्रयुज्य पूर्वसूत्रधारे विनिर्गत इत्यर्थः। सूत्रधार इति द्वितीयो नटाख्य इत्यर्थः। रङ्गप्रविष्ट इति शेषः। इदमनुपदमेव रङ्गं प्रसाध्येत्यादिना तत्कृत्यमुक्तं तदाह। समन्तादिति। सहर्षं सूचनमात्रादेव सांप्र-
तथाहि
आविष्कुर्वन्ति मुरजाः सर्वतः शब्दमाधुरीम्।
सङ्गीतोपनिषद्विद्यां761 वीणाः प्रस्तावयन्त्यमूः॥३॥
एतद्रङ्गप्रसाधनम्762।
सप्रार्थनम्763-
भूभृत्सुतामहादेवौ पितरौ यस्य विश्रुतौ।
नरनागाकृतिः श्रीमान् स देवः श्रेयसेऽस्तु वः॥४॥
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दायिकैः सन्नद्धमानद्धादिकमिति सप्रसादमित्यर्थः। त्रिविधं रङ्गप्रसाधनमुक्तम्। तत्र द्वितीयमुदाहरति। आविरिति। शब्दानां वाद्यविशेषाणां माधुरीं श्रोत्रप्रियत्वम्। माधुर्यशब्दात् व्यञन्तात् ङीष्प्रत्यये ‘यस्य’ इति यलोपे माधुरीति सिद्धम्। अत एवाह वामनः। ‘ष्यङः षित्क764रणादीकारो बहुलम्’ इति। सङ्गीतोपनिषत् संगीतरहस्यम्। तामेव विद्याम्। उभयत्र मौरजिका वैणिकाश्च लक्ष्यन्ते।
अथ श्लोकैः काव्यार्थसूचकैरित्यादिना भारतीवृत्त्याश्रयणमुक्तम्। तदुदाहरति। भूभृदिति। यस्य देवस्य भूभृत्सुतामहादेवौ पार्वतीपरमेश्वरौ पितरौ मातापितराविति विश्रुतौ। ‘पिता मात्रा’ इत्येकशेषः। कदाचिल्लीलया गौरीगिरीशौ गजाकारेण विहरमाणौ गजाननमजीजनताम्। तदुक्तं स्कन्दपुराणे।
‘प्रशस्तमत्तमातङ्गवपुर्भूत्वाथ भूतपः।
भ्रममाणो वने तस्मिन् क्रीडां स्वीकृतवान् विभुः॥
तामालोक्य महादेवी महेशेच्छानुवर्त्तिनी।
करिणीरूपमास्थाय तेन सा विचचार ह॥’
इत्यादिना। एकस्मिन्नर्थे नरस्येतरस्मिन् करिणश्चाकृतिर्यस्य सोऽयं नरनागाकृतिः। तथापि श्रीमान् रमणीयः। स देवो गणेशो वः सामाजिकानां श्रेयसेऽस्त्विति वाच्यार्थः765। सूच्यार्थस्तु766 यस्य767 कथानायकस्य भूभृत्सुता राजपुत्री मुम्मडम्बा महादेवस्तन्नामको महाराजः पितराविति विश्रुतौ नरनागा नरश्रेष्ठाः। ‘सिंह-
(ऊर्ध्वमवलोक्य)-चिरादनुकूलेन कालेनापगतदुर्दिनानि दिङ्मुखानि। यतः।
विहरद्राजहंसश्रीर्विलसन्मित्रमण्डलः।
प्रसाधयति768 सन्मार्गं प्रसन्नः शरदागमः॥५॥
काव्यार्थसूचकाभ्यां श्लोकाभ्यामृतुसमाश्रणेन संस्कृतप्रायनराश्रितवाग्व्यवहार769रूपा भारती वृत्तिः770 कथिता।
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शार्दूलनागाद्याः पुंसि श्रेष्ठार्थगोचराः’ इत्यभिधानात्। उपमितसमासः। तदाकृतिः नलनहुषदिलीपा771दिसदृशः इत्यर्थः। स देवो राजा। ‘देवः सुरे772 धने राज्ञि’ इति विश्वः। अत्र द्वयोरप्यर्थयोर्वाच्यत्वाभावान्न श्लेषः। नापि शब्दशक्तिमूल उपमालंकारध्वनिः। संबन्धान्तरे संभवति सादृश्यमूलकत्वकल्पनानपेक्षणात्773। किं तु सूचकत्वसंबन्धाच्छब्दशक्तिमूलो वस्तुध्वनिः। अत एवोक्तमलंकारसर्वस्वे श्लेषालंकारप्रस्तावे। ‘यत्र सूचनव्यापारोऽस्ति तत्र शब्दशक्तिमूलो वस्तुध्वनिर्बोद्धव्यः’ इति।
ऋतुं कंचिदुपादायेतीममंशमुदाहरत्यूर्ध्वमित्यादिना। विहरन्ती राज्ञश्चन्द्रस्य हंसानां च श्रीर्यत्र774 स तथोक्तः। अन्यत्र राजहंसा राजश्रेष्ठास्तल्लक्ष्मीविहारभूमिरित्यर्थः। विलसत् प्रकाशमानं मित्रमण्डलं सूर्यमण्डलमन्यत्र सुहृत्समूहो यत्र स तथोक्तः। प्रसन्नः एकत्र मेघापगमादन्यत्र स्वभावाच्चेति भावः। सन्मार्गं नक्षत्रमार्गमन्यत्र साधुमार्गम्। प्रसाधयति भूषयति। अत्र प्रस्तुतशरद्विशेषणसाम्येनाप्रस्तुतराजसूचनात् समासोक्तिः। अत एवेदं गुणीभूतव्यङ्ग्यं न पुनः पूर्ववद् ध्वनिरिति बोद्धव्यम्। लक्ष्ये लक्षणं योजयति। काव्यार्थेति।
सविनयमुपसृत्य सभाभिमुखमञ्जलिं बद्ध्वा।
भो775 भो मध्यमभुवनभागधेयविवर्त्तस्यै776कशिलानगरपुण्यराशेः काकतीयकुलदेवतायाः स्वयंभूदेवस्य777 सेवार्थं778 सततमहोत्सवमासेदिवांसो विद्धांसः कलार्णवनाट्य779वेदाचार्यस्य780 पुत्रमभिनयदर्पणं मामभिमतरूपकप्रयोगानुज्ञया परमनुगृह्णीत।
(आकाशे कर्णं दत्त्वा) किं ब्रूथ।
यस्मिञ्ज781गन्मङ्गलमस्ति वस्तु
यस्मै स्वयंभूः782 स्पृहयत्यजस्रम्।
तच्छ्रोत्रयोर्लोचनयोः पथान्नः783
श्रृङ्गाटकं नाटकमाविरस्तु॥६॥
इति784।
(सहर्षम्) अस्मन्मनोरथसंवाद्येव परिषदादेशः। यत् प्रतापरुद्रच-
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अथ सामाजिकानुग्रहमाशास्ते। सविनयमित्यादिना। भागधेयविवर्त्तस्य785 भाग्यपरिपाकस्य। कलार्णवो नाम नाट्यवेदाचार्यः।
आकाशभाषितेन तदीयमुत्तरमाह। आकाश इति । तल्लक्षणं तु
‘किं ब्रवीष्येवमित्यादि बिना पात्रं ब्रवीति यत्।
श्रुत्वेवानुक्तमप्येकस्तत् स्यादाकाशभाषितम्॥
इति। यस्मिन्निति। स्वयंभूरीश्वरो यस्मै वस्तुने अजस्रं स्पृहयति। ‘स्पृहेरीप्सितः’ इति संप्रदानत्वाच्चतुर्थी। जगन्मङ्गलं तद्वस्तु यस्मिन्नाटकेऽस्तीति योजना। वाचिकाभिनयेन श्राव्यत्वादितराभिनयेन दृश्यत्वाच्चाह। श्रोत्रयोरित्यादि। शृङ्गाटकं चतुष्पथं तन्नाटकमाविरस्तु। इतिशब्द उत्तरसमाप्तौ।
संवादेन संतुष्यन्नुत्तरार्धमुद्घाटयति। सहर्षमित्यादि। अघटमानघटकं दैवा-
रितानुबन्धः786 सामाजिकानां मनसि वर्त्तते। अहो सर्वंसुघटितम787नुविधात्रा विधात्रा788। यतः
सभा स्वयंभूपरमेश्वरस्य
प्रतापरुद्रस्य गुणा महार्घाः।
अहं च नाट्यश्रुतिपारदृश्वा
सुधामुचस्तस्य कवेश्च वाचः॥७॥
प्रशं789सयाभिमुखीकरण790रूपा791 भारतीवृत्तेरङ्गं प्ररोचना792।
(सविमर्शम्793) कथमस्मत्प्रेयसी संगीतशारिका794 चिरयति795।
(प्रविश्य) नटी—(पुरोऽवलोक्य796 सस्पृहम्)—
किं भारईए797 सुब्बइ798 मंजीररवो799 सहाए800 विहरंतीए। अह801 संगीअसुइ ब्बा विण्णादं802 णट्टप्पमुहतूरणि803णादो804।_____________________________________________________________
नुकूल्यं जातमित्याह। अहो इति। सभा गुणग्राहिणीति भावः। महार्घा महामूल्याः। नटानामान्नायो नाट्यम्। ‘छन्दोगौक्थिक॰’ इति ञ्य805प्रत्ययः। तस्य श्रुतिशब्देन चूतवृक्षादिवत् समानाधिकरणसमासः। तस्याः पारं दृष्टवान् नाट्यश्रुतिपारदृश्वा। दृशेः क्वनिप्। सुधामुचोऽमृतवर्षिण्यः। प्ररोचनामुदाहरणे योजयति। प्रशंसयेति। प्रस्तुतार्थस्येति शेषः। अभिमुखीकरणरूपेति। सामाजिकानामिति शेषः।
’ प्रेक्षकाद्युन्मुखीकारः प्रस्तुतार्थप्रशंसया806 प्ररोचना807’
इति लक्षणात्।
किमिति। भारईए इत्यत्र एकारस्य ‘एदोतोः क्वचित् स्वरूपेण ह्रस्वः’ इति
ह्रस्वः। एवमन्यत्रापि वृत्तानुसारेण द्रष्टव्यम्। लक्ष्ये लक्षणं योजयति। एतदिति। प्रस्तावनाङ्गमित्यनेन पूर्वरङ्गाङ्गत्रिगतव्यवच्छेदः।
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छाया।
किं भारत्याः श्रूयते मंजीररवः सभायां विहरन्त्याः। अथ संगीतश्रुतिर्वा। विज्ञातम्। नाट्यप्रमुखतूर्यनिनादः।
एतत्साम्यादनेकार्थयोजनरूपं808 त्रिगतं प्रस्तावनाङ्गम्।
(अपसृत्य)— अज्ज इअंम्हि आणवेदु809 को णिओओ अणुचिट्ठीअदु810 त्ति।
सूत्रधारः—आर्ये
यद्गेहे कलकण्ठ811नादमधुरं812 गास्यामि गीतिं ध्रुवां
लास्यं चारुभिरङ्गहारललितैराविष्करिष्यामि यत्।
नाट्यं813 यत् किल रङ्गमङ्गलविधिं संपादयिष्याम्यहं
प्रागित्युक्तवती तदद्य निपुणे निर्व्यूढमेवं814 त्वया॥९॥
एतत् प्रियसदृशैरप्रियै815र्वाक्यैरुपालम्भना816च्छलम्817।
नटी—(सभयम्) णट्टसामग्गिं समग्गीकादुं818 विलंबिअं। सज्जीकिआ क्खु819 एसा केण उण रुव्वएण820 पओओ उअ821क्कमीअदु।
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इयमस्मि आज्ञापयतु को नियोगोऽनुष्ठीयतामिति।
सूत्रधारो बिलम्बवतीं नटीमुपालभते। यदिति। ध्रुवालक्षणं वक्ष्यामः। माधुर्ये गायनीविशेषगुणः। तदुक्तं शार्ङ्गदेवेन।
‘रूपयौवनशालिन्यो गायन्यो गातृवन्मताः।
माधुर्यधुर्यध्वनयश्चतुराश्चतुरप्रियाः॥
इति। चारुभिः प्रियदर्शनैः अङ्गहारेषु ललितैः ललितादिसुकुमाराङ्गहारैरित्यर्थः। ‘सप्तमी शौण्डैः’ इति बहुवचनेनाद्यर्थलाभः। लास्यं मृदुनर्त्तनम्। ‘लास्यं तु सुकुमाराङ्गं मकरध्वजवर्धकम्’ इति लक्षणात्। गास्यामीत्यादीनां स्थानिनोऽ-
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छाया।
1 आर्य इयमस्मि आज्ञापयतु को नियोगोऽनुष्ठीयतामिति।
2 नाट्यसामग्रीं समग्रीकर्तुं विलम्बितम्। सज्जीकृता खलु एषा केन पुना रूपकेण प्रयोग उपक्रम्यताम्।
सूत्रः—नन्विदमेव822 रूपयत्विति पत्रिकां ददाति।
नटी—(गृहीत्वा संस्कृतमाश्रित्य वाचयति।
तेजःपर्यायहरयोः किं किं संबोधनं मतम्।
किमाशीर्वादविषयो विद्यानाथकृतिश्च का॥१०॥
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स्मदोऽहमिति विशेषणं ध्रुवागानादीनामविलम्बसूचनार्थम्। अत्र ध्रुवागानादिकं सर्वं निर्वहामीति प्रागुक्तवत्या भवत्या सर्वमेवं निर्व्यूढमिति विपरीतलक्षणया न निर्व्यूढमिति लभ्यते। अत्र नर्त्तनोपयोगिकरपादादिकर्मविशेषः करणं823 पुष्पपटादि। तदुक्तं संगीतरत्नाकरे।
‘स्यात् क्रिया करपादादेर्विलासेनात्रुटद्रसा।
करणं नृत्तकरणं भीमवद्भीमसेनवत्॥’
इति। तत्समुदायसाध्यो नर्त्तनप्रयोगविशेषः। अङ्गानामुचितदेशप्रापणेन हरप्रियाङ्गप्रयोगत्वेन वाङ्गहार इत्युच्यते। तदुक्तम्।
‘अङ्गानामुचिते देशे हरणं सविलासकम्।
अनेककरणोत्पाद्यमङ्गहारोऽभिधीयते॥
यद्वा हारो हरस्यायं प्रयोगोऽङ्गैरिति824 स्मृतः॥’
इति।
ललितादिलक्षणं बह्वपेक्षमिह विस्तरभयान्न लिख्यत इत्यन्यतो दृष्टव्यम्।
नाट्यसामग्रीं समग्रीकर्तुं विलम्बितम्। सज्जीकृता खल्वेषा। केन पुना रूपकेण प्रयोग उपक्रम्यताम्।
संस्कृतमाश्रित्येति। पत्रिकागतस्य स्वभाषितत्वाभावात्। वाचयति पठति825। वचिरयं चौरादिकः। नालिकाख्यमङ्गं वक्तुं बहिर्लापां प्रहेलिकामाह। तेज
नटी—(समन्दस्मितम्)- णिगूढत्थं826 खु एदं छोआणं827 वअणं पडिभादि828। कीरिसं उत्तरं829 णिरूवेदु अज्जो।
सूत्र०— अयि सुव्यक्तमेतत्। प्रतापरुद्रकल्याणमिति प्रतीयत एव।
एषा निगूढार्था नालिका।
नटी—कहं कहाणाअअणामहेआणुबंधमणोहरं830 क्खु नाडअम्831। पआवोव832वदंकिअं तस्स833 रण्णो णाम कहं जाअंति पुच्छीअदि834।
सूत्र०—प्रिये श्रूयताम् ।
तं सुजातं समुद्वीक्ष्य क्षोण्यां रविमिवोदितम्।
प्रतापरुद्र इत्याख्यामकरोत् काकतीश्वरः॥११॥
अन्यच्च।
विष्णोर्विश्वैकवीरस्य काकतीयकुले स्थितम्।
अवतारममुं ज्ञात्वा वीररुद्रं प्रचक्षते॥१२॥
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इति। नालिकालक्षणे सोपहासलक्षणं835 कृताकृतमिति हृदयम्। अत एवोक्तम्। एषा निगूढार्था नालिकेति।
णिगूढत्थमिति। छेका विदग्धाः।
कथं कथानायकनामधेयानुवन्धमनोहरं खलु नाटकम्। अत्र कथमित्याश्चर्ये। प्रतापोपपदाङ्कितं तस्य राज्ञो नाम कथं जातमिति पृच्छ्यते। अत्र कथंशब्दः कारणवाची। ‘कारणेऽपि कथं तर्के विस्मये संपदुद्भवे’ इति भावप्रकाशवचनात्। सूर्यसदृशत्वात् प्रतापरुद्र इति संज्ञा संजातेत्युत्तरमाह। तमिति।
वीरावतारत्वात् वीररुद्रसंज्ञापि समभूदित्याह। विष्णोरिति।
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छाया।
1 निगूढार्थं खल्वेतच्छ्लोकस्य वचनं प्रतिभाति कीदृशमुत्तरं निरूपयत्वार्यः।
2 कथं कथानायकनामधेयानुबन्धमनोहरं खलु नाटकम्। प्रतापोपपदाङ्कितं तस्य राज्ञः कथं नामधेयं जातमिति पृच्छ्यते।
नटी—
लोआणं कण्णजुअलस्स भाअहेएण836 एदं णामजुअलं सुणीअदि। चिरस्स णट्टविज्जाणुवट्टणं फलिअं जेण लोअमंगलं काकइणरिंदचरिअं अभिणिज्जइ837।
एतन्नाट्यप्रसङ्गेन838 प्रकृतकार्यालगनाद839वलगितम्840।
सूत्र०—
अहो प्रज्ञासंवादोऽयमायुष्मत्याः यदियं कवीनां प्रश्नोत्तरमालिका। यथा किल
किं लोकश्रवसोर्भाग्यं841 मङ्गलश्रवणं मुहुः।
किं मङ्गलं प्रतापाङ्करुद्रस्य842 चरिताद्भुतम्843॥१३॥
एतत्प्रश्नोत्तरमालारूपमु844द्धात्यकम्।
नटी—
अज्जपरिवट्टणेण845 सव्वं संघटिअदि846।
सूत्र०—
आर्ये847
त्वया दारैरुदारश्रीर्नाट्यसंपदियं मम।
प्रबन्धलक्ष्मीरीत्येव विदर्भभणितिस्पृशा॥१४॥
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लोकानां कर्णयुगलस्य भागधेयेनैतन्नामयुगलं श्रूयते। अथावलगितस्य द्वितीयं भेदमुदाहरति। चिरस्सेति। प्रकृतकार्ये नाटकप्रयोगरूपम्।
अहो इति। प्रतापोऽङ्कश्चिह्नं यस्य रुद्रस्य तथोक्तस्य द्वितीय उद्घात्यकभेदोऽयमित्याह। एतदिति।
मिथः स्तोत्रमात्रमपि प्रपञ्चलक्षणं मत्वाह। आर्येत्यादिना। आर्यपरिवर्त्तनेन सर्वं संघट्यते। त्वयेति। दारैः कलत्रेण ‘भार्या848 जायाथ पुंभूम्नि दाराः’ इत्यमरः। विदर्भकविप्रिया भणितिर्विदर्भभणितिः तत्स्पृशा849 रीत्या वैदर्भ्या।
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छाया।
1 लोकानां कर्णयुगलस्य भागधेयेन एतन्नामयुगलं श्रूयते। चिरस्य नाट्यविद्यानुवर्त्तनं फलितं येन लोकमङ्गलं काकतिनरेन्द्रचरितमभिनीयते।
2 आर्यपरिवर्तनेन सर्वं संघट्यते।
एष850 मिथःस्तोत्ररूपः प्रपञ्चः।
नटी—
एआरिसगुणमहघ्घ851पआबरुद्दचरिअं852 अहिकरिअंतो853 तस्स कइणो संपुण्णो सरस्सईपसादो।
सूत्र०—
आर्ये एवमेव नन्वेषा कविभारत्योर्वाक्केलिः। यथा किल
मातर्भारति वत्स किं तव कृपां याचेऽद्य किं प्रस्तुतं
जिह्वा काकतिवीररुद्रनृपतेः स्तोत्राय सन्नह्यति।
ज्ञातं ते विहरन्तु वाग्लहरयः संध्यानटद्धूर्जटि854-
त्वङ्गन्मौलितरङ्गिणीकलकलारम्भप्रियंभावुकाः॥१५॥
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एतादृशगुणमहार्घप्रतापरुद्रचरितमधिकुवर्तस्तस्य कवेः संपूर्णः सरस्वतीप्रसादः।
कविभारत्योरुक्तिप्रत्युक्त्योस्त्रिरावृत्तिरूपां वाक्केलिमाह। मातरिति। अत्र मातृशब्देन कवेर्भारत्यां भक्तिविशेषो वत्सशब्देन तस्यास्तस्मिन् वात्सल्या855तिशयश्च सूच्यते। कविराह। तवेति। भारती प्रयोजनं पृच्छति। अद्येति। कविस्तदाह। जिह्वेति। भारतीस्मरणमभिनीयैवाह। ज्ञातं ते इति। प्रार्थनानिमित्तमिति शेषः। संध्यानटद्धूर्जटित्वंगन्मौलितरङ्गिणीकलकलारम्भस्य संध्याताण्डवप्रवृत्तखण्डपरशुदोधूयमानजटाजूटविजृम्भमाणजाह्नवीकल्लोलकोलाहलस्य प्रियाभवन्तीति प्रियंभावुकाः। तत्कल्पा इत्यर्थः। ‘कर्त्तरि भुवः’ इति खुकञ्प्रत्यये सुमागमः। बाग्लहरयो वाग्वैखर्यः856। विहरन्तु प्रवर्त्तन्ताम्। यदि ज्ञातमित्येकं वाक्यं तदा ‘समानवाक्ये निघातयुष्मदस्मदादेशा वक्तव्याः’ इति नियमाद् वाक्यान्तरवर्त्तिपदस्य निमित्तत्वायोगात् पदात् परस्य युष्मदो विधीयमानः ‘तेमयावेकवचनस्य’ इति तयादेशो न स्यात्।
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छाया।
एतादृशगुणमहार्घप्रतापरुद्रचरितमधिकुर्वतस्तस्य कवेः संपूर्णः सरस्वतीप्रसादः।
एषाऽन्योन्यसंलापरूपा वाक्केलिः।
नटी—
अम्हाणं एआरिसण857रिंदचरिआणुऊलो णट्टाडंबरो होइ858 ण वे त्ति सज्झसेण859 वेवइ मे हिअअम्।
सूत्र०—
(किंचित्860 सासूयम्) आः किमुच्यते। निरवद्या ननु861 मन्नाट्यविद्यासामग्री। कीदृशी पुनस्तव गीतियोग्यतया862 भविष्यति863।
नटी—
संगीअसारस्स महण्णवो864 उव्वेलिज्जइ865। अवहाणजाणयत्तं866 आरोहदु867 अज्जो।
एतदन्योन्यवाक्याधिक्यादधिबलम्।
सूत्र०—
चिरमवहित एवास्मि868। नन्वियमुपक्रम्यते ध्रुवा।
नटीकर्त्तृक869 ध्रुवा870गानप्रतिज्ञावचनं संभ्रमोदितमिति गण्डम्।
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अम्हाणमिति871।
सूत्रधारः स्वसामर्थ्यमाविष्कुर्वन्नाह। किंचिदित्यादि। आः कोपे। ननुरवधारणे। योग्यतया सामर्थ्येन कर्त्र्या।
नटी स्वसामर्थ्याधिक्यमाविष्करोति। संगीतेति। संगीतसारस्य महार्णव उद्वेल्यते प्रवर्ध्यते। अवधानयानपात्रमारोहत्वार्यः। अवहितो भवेत्यर्थः। अत एवाधिबलमिदमित्याह। एतदिति।
चिरमित्यादि872 गण्डान्तं स्पष्टम्।
सूत्रधारवाक्यं विडम्बयति सस्मितमिति। कथमार्यो ध्रुवां गायति।
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छाया।
1 अस्माकमेतादृशनरेन्द्रचरितानुकूलो नृत्याडम्बरो भवति न वेति साध्वसेन वेपते मे हृदयम्।
2 संगीतसारस्य महार्णव उद्वेल्यते। अवधानयानपात्रमारोहत्वार्यः।
नटी—
(सस्मितम्) कहं अज्जो धुअं873गाअइ।
सूत्र०—
अयि कथमर्धोक्त एव त्वरा874, नाट्यविद्येति शेषं न जिघ्रति।
एतदुक्तस्यान्यथायोजनरूपमवस्यन्दितम्875।
आर्ये नूनं ध्रुवागानोत्सुकं तव चेतस्तदारभ्यतां गीतिः876।
नटी—
(तथा करोति)
लच्छी सरस्सई अ877 धवलिअभुवणंतरा विराअंती878।
विलसंत879कुवलअसिरी राअस्स पसाहणं कुणइ880॥
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ध्रुवा नाट्यविद्येति मे विवक्षितम्। तदर्थोक्तमेव881 त्वमन्यथा मन्यस इत्याह। अयीति। त्वरा कर्त्री। ध्रुवागानोत्सुकमिति। अन्यथा तन्मयि नारोपयेरिति भावः।
नटी राज्यलक्ष्मीं शरत्कालसरसीं च प्रस्तुत्य प्रवृत्तां ध्रुवां गायति। लच्छीति882। इमा इयं लक्ष्मीः। शौक्ल्य883निमित्तत्त्वनिबन्धनेन यशसा धवलितानि भुवनान्तराणि लोकान्तराणि यस्याः सा तथोक्ता। विलसत्कुवलयश्रीः उल्लसदुर्वीमण्डलशोभा च राज्ञो नृपस्य प्रसाधनं करोति। अन्यत्र इयं सरसी धवलितं कालुष्यापगमेन निर्मलीकृतं भुवनान्तरमुदकमध्यं यस्याः सा तथोक्ता। विलसत्कुवलयश्रीरुल्लसन्नीलोत्पलसंपत्तिश्च। राज्ञश्चन्द्रस्य प्रसाधनं करोति। रूपकेषु तावन्मार्गाभिनयेन प्रावेशिकीप्रभृतयः पञ्च ध्रुवाः प्रयोक्तव्याः। तदुक्तम्।
‘ध्रुवाः पञ्च प्रयोक्तव्या रसाभिनयसिद्धये’
इति। तत्रेयमन्तरा नाम ध्रुवा। तल्लक्षणं तु भावप्रकाशे।
‘सर्वासामन्तरा वस्तुरसादिवशकल्पिता।
अन्तरा सा ध्रुवा ज्ञेया नाट्याभिनयरञ्जिनी॥’
इति।
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छाया।
1 कथमार्यो ध्रुवां गायति।
2 लक्ष्मीः सरस्वती च धवलितभुवनान्तरा विराजन्ती।
विलसत्कुवलयश्री राज्ञः प्रसाधनं कुरुते॥
सूत्र०—(आकर्ण्य सरसावेशम्)
गाढालिङ्गनसंमर्दप्रत्यक्षरगलत्सुधाम्।
ध्रुवां करोमि सर्वांङ्गे श्रोत्रैकामृतवर्षिणीम्॥१७॥
एष रसवशादसंगतार्थव्याहार884रूपोऽसत्प्रलापः।
नटी—(सोपहासम्) ¹सुउमारा क्खु एसा अज्जस्स णिद्दआलिंगणवेल्लणं885 ण सहइ।
एष हास्यलोभकरो व्याहारः886।
सूत्र०—(सव्रीडम्)
रसास्वादेन तरला ये माद्यन्ति विपश्चितः।
त एव भावुक्ता लोके भवन्ति हृदयालवः॥
एतद्दोषस्य गुणत्वारोपान्मृदवम्।
नटी—²अज्जो अणंतरकरणिज्जं णिरूवेदु887
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विशेषान्तराणि तत्रैव द्रष्टव्यानि। विस्तरभयादत्र न लिख्यन्ते।
रसप्रयुक्तं प्रलापमुदाहरति। गाढेति। पूर्वं श्रोत्रयोरेकं मुख्यममृतं वर्षति ताच्छील्येन तां तथोक्ताम्। संप्रति गाढालिङ्गनसंमर्देन प्रत्यक्षरं द्राक्षासदृक्षादशेषादपि वर्णात् गलत्सुधां सतीं ध्रुवां सर्वाङ्गे करोमि।
सूत्रिणोऽसत्प्रलापमुद्घाटयितुमाह। सोपहासमिति। सुकुमारा खल्वेषार्यस्य कर्त्तुर्निर्दयालिङ्गनस्य बेल्लनं888 क्षेपणं889 प्रेरणं प्रयोगमिति यावत्। न सहते। क्षिप प्रेरणे इत्यस्य धातोः ‘क्षिपेर्वेल्लः’ इत्यादिना बेल्लादेशः।
दोषं गुणीकरोति। रसेति। तरला रसलोला ये विपश्चितो विदग्धा रसास्वादेन माद्यन्ति परवशा भवन्ति त890 एवं लोके भावुकाश्चर्वणनिपुणाः सन्तो हृदयालवः सहृदया भवन्ति। ‘हृदयादालुजन्यतरस्याम्’ इत्यालुच्प्रत्ययः
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छाया।
1 सुकुमारा खल्वेषार्यस्य निर्दयालिङ्गनवेल्लनं न सहते।
2 आर्य अनन्तरकरणीयं निरूपयतु।
सूत्र०—
नन्वयमिदानीं सभापतिर्देवः891 स्वयंभूरुपश्लोक्यते।
सर्वाङ्गविलसत्सर्वमङ्गलालंकृताकृतेः।
रुद्रस्य महिमा भाति विश्वानुग्रहकारिणः॥१९॥
(नेपथ्ये)। भोः सत्यं सत्यम्। सर्वाङ्गविलसत्सर्वमङ्गलालंकृतिरेवायं892 रुद्र893 इति।
सूत्र०—
(सहर्षम्894) कथमुपक्रान्तमेवास्मद्वाक्यानुगुण्येन प्रस्तुतस्यानुगुणं कुशलैः कुशीलवैः यतः895 काकतीश्वरगुण896वर्णनयोग्यतया वचनमिवोपक्षिप्यते897।
अयं कथोद्धातः। इदमेव898 गुणवर्णनात् प्रवर्तकम्899।
(पुरोऽवलोक्य) कथमेतौ वैतालिकावित एवाभिवर्तेते।
_____________________________________________________________
येषां काव्यानुशीलनाभ्यासवशाद् विशदीभूते मनोमुकुरे वर्णनीयतन्मयी900भवनयोग्यता अत एव हृदय901संवादभाजः सहृदया इत्यभिनवगुप्ताचार्याः।
आर्योऽनन्तरकरणीयं निरूपयतु।
सूत्रधारोऽनन्तरकर्त्तव्यं प्रतिज्ञापूर्वकमाचरति। नन्वित्यादिना। सर्वाङ्गे विलसन्त्या सर्वमङ्गलया पार्वत्या अलंकृताकृतेरर्धाङ्गजानेरित्यर्थः। अत्र सर्वाङ्गव्यापिसमस्तमङ्गलालंकृतत्वलक्षणस्य वीररुद्रविषयार्थान्तरस्यानुगुणं सूत्रधारवाक्यमवलम्ब्य वचनमुपक्षिप्यते। नेपथ्य इति।
उक्तमर्थमुद्घाटयति। कथमिति। कुशीलवा नटविशेषाः।
‘भूमिकाभिरनेकाभिः कर्मवागङ्गचेष्टितैः।
यथा902प्रकृतिसंधानकुशलास्ते कुशीलवाः॥’
इति लक्षणात्। अत एवायं कथोद्धातभेद इत्याह। अयमिति।
एतच्छब्दोपक्षेपेण प्रयोगातिशयमुदाहरति। कथमेताविति।
वैतालिकलक्षणं तु भावप्रकाशे
एषोऽयमित्यु903पक्षेपात् प्रयोगातिशयः प्रस्तावनाङ्गम्।
तदेहि। आवामप्यनन्तर904करणीयाय सज्जीभवावः(इति निष्क्रान्तौ)
इति समग्राङ्गा905 प्रस्तावना।
(ततः प्रविशतः कांपिल्यकलूतकौ वैतालिकौ)।
प्रथमः—
(सहर्षम्)
योऽयं जातस्त्रिलोकीप्रथित906सुचरिते काकतीयान्ववाये907
यस्मै श्रेयांस्यजस्रं वितरति भगवान् देवदेवः स्वयंभूः।
यस्याज्ञा सर्वपृथ्वीपतिमुकुटमणिश्रेणिकेलीवयस्या908
सोऽयं भूपालमौलिर्जयति गुणमहान् रुद्रदेवो नरेन्द्रः॥२०॥
स्वयंभूदेवश्रेयोवितरणरूपवीजन्यासादुपक्षेपोऽङ्गम्909।
_____________________________________________________________
‘तत्तत्प्रहरकयोग्यै रागै910स्तत्कालवाचिभिः श्लोकैः।
सरभसमेव वितालं गायन् वैतालिको भवति॥’
इति। इति प्रस्तावना।
कथादौ विष्कम्भं कुर्यादिति मतमवलम्ब्य प्रस्तावना। वृत्तस्य वर्त्तिष्यमाणस्य च वीररुद्रचरितस्य निदर्शकं मध्यपात्रद्वयप्रयोजितं911 शुद्धविष्कम्भमुदाहरति। ततः प्रविशत इत्यादिना। इतः स्वप्नोपदेशपर्यन्तो वृत्तकथाभागः। तत्तोपक्षेपमुदाहरति। योऽयमिति। मणिमुकुटश्रेण्याः केलीवयस्या क्रीडासखी। सर्वैरपि भूपालैरस्याज्ञा शिरसा धार्यत इति भावः। योऽयमित्यत्रेदंशब्दः प्रसिद्धिमात्रपरो न तु यदृच्छापेक्षितार्थबोधकः। अन्यथोत्तरवाक्ये तच्छब्दप्रयोगानुपपत्तेः। यतोऽनुवाद्यवाक्यगतयच्छब्दसंनिहितानां तदेतदिदमदसां प्रसिद्धिपरत्वम्। एवं विधेयवाक्यगततच्छब्दसन्निहितानामेतदिदमदसामपि। तथैव लोकवेदयोः912 प्रयोगदर्शनादित्यादि बहुधा प्रपञ्चितमस्मन्महोपाध्यायमल्लिनाथसूरिणैकावलीतरले। अतः सोऽयमित्यत्राप्येवमेव द्रष्टव्यम्।
द्वितीयः913—
यो रुद्रो रजताचले स्थितिमगादर्धाङ्गनारिः पुरा
सोऽयं संप्रति काकतीश्वरकुले914 सर्वाङ्गनारिः915 स्थितः।
स्थाने यद्विष916मावलोकनकलामात्रेण भस्मीकृता-
न्यासन्वैरिपुराणि चित्रमधुना खड्गे विषं धार्यते917॥२१॥
प्रथमः—
सखे साधु समर्थितम्। अन्यथा कथमस्मै महाराजाय स्वप्ने कुलगुरुसदृशः918 स्वयंभूदेवस्तादृशीं श्रेयः919संग्रहकारिकामुपदिष्टवान्920।
स्वयंभूदेवप्रसादरूपस्य बीजस्य बहूपकरणात्921 परिकरः।
_____________________________________________________________
पुरा किल काकतिकुलसंभूते गणपतिनाम्नि महाराजे दुहितृमात्रसंताने कदाचिद् दैवयोगेन कालपरिपाकमुपेयुषि तन्महिषी रुद्रदेवी नाम राज्ञी बहूनि वर्षाणि तद्राज्यमकण्टकं परिपाल्य परिणता सती दौहित्रे प्रतापरुद्धे राज्यधुरां निदधे। तामिमां कथां मनसि निधायाह। यो रुद्र इति । अर्धाङ्गं नारी यस्यासावर्धाङ्गनारिः। समासान्तविधेरनित्यत्वज्ञापनाद् ‘नद्यृतश्च’ इति कबभावपक्षे ‘गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य’ इति ह्रस्वः। सर्वाङ्गेण नारी सर्वाङ्गनारी रुद्रदेवीरूपेण स्थित इत्यर्थः। तत्पुरुषत्वात् परवल्लिङ्गता। अथवात्रापि बहुव्रीहिः। प्रक्रियापि पूर्ववदेव। अवतारभेदादाकारभेदेऽपि तास्मन् रुद्रे पौरुषभेदाभावो नाश्चर्यावह इत्याह। स्थाने इति। यद्यतः विषमावलोकनं तृतीयदृष्टिः। अन्यत्र क्रोधदृष्टिः। तस्य922 कलामात्रेणांशमात्रेण वैरिपुराण्यसुरनगराणि ‘स तिस्रः पुरो भित्त्वैभ्यो लोकेभ्योऽसुरान् प्राणुदत’ इति श्रुतेरिति भावः। अन्यत्र शत्रुनगराणि। स्थाने युक्तमित्यर्थेऽव्ययम्। कैलासवासिनो रुद्रस्य कण्ठे विषं काकतिकुलवासिनस्तु स्त्रीरूपस्य खड्गे विषमिति महदेतदद्भुतमित्याह। चित्रमिति। ‘गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः’ इति भावः। अथ वर्त्तिष्यमाणकथाभागे परिकरमुदाहरति। सख इत्यादिना। संग्रहकारिका संग्रहश्लोकः923।
द्वितीयः**—**
(सविमर्शाश्चर्यम्) कथमवगतं राजरहस्यं वयस्येन।
प्रथमः**—**
सखे कस्य वा न विदितम्924। यत् सर्वस्मिन्नपि925 निजनगरे महोत्सवमादिशता रुद्रनरेश्वरेण926 कुलदेवतायाः स्वप्नोपदिष्टाः प्रसादविशेषाः927 प्रख्याप्यन्त एव।
कुलदेवताप्रसादरूपस्य बीजस्य928 प्रख्यापनेन परिनिष्पत्तेः929 परिन्यासः।
द्वितीयः**—**
अहो निरन्तरप्रसादोन्मुखता देवस्य। यथा काकतीयप्रसवेषु श्रेयांस्युत्तरोत्तरमनुबध्यन्ते।
वीजस्य श्रेयोनुबन्धरूपगुणख्यापनाद्वि930लोभनम्।
तदस्मिन्नेव महीयसि महे931 महीमण्डलाखण्डलं932 चलमर्त्तिगण्डमुपश्लोकयितुमावयो933रयमेवावसरः। तदेहि राजकुलं प्रविशावः।
प्रथमः**—**
वयस्य सांप्रतं पुरोधःप्रमुखानमात्यवृद्धानपि934 पुरस्कृत्य कल्याणस्वप्नक्रमं935 मीमांसमानो नृपति936रभ्यन्तरास्थानीमधितिष्ठति। तदावामपि तावदितो गत्वा यथावसरं प्रतीक्षावहे937।
( इति निक्रान्तौ)।
अयं938 शुद्धविष्कम्भकः।
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रुद्रनरेश्वरेण रुद्रदेव्या स्त्रीव्यक्तावपि पुंस्त्वेन निर्देशे स्ययमेवोपपत्तिं वक्ष्यति।
काकतीयप्रसवेषु काकतीयसन्तानेषु। अनुबध्यन्ते अविच्छेदेन संबध्यन्ते। महीयसि महे महोत्सवे। उद्दण्डपुरुषखण्डको वीरप्रकाण्डकश्चलमर्त्तिगण्ड इति विरुदशब्देनोच्यते।
वयस्येति। मीमांसमानो विचारयन्।
इति शुद्धविष्कम्भः।
(ततः939 प्रविशति यथानिर्दिष्टवेषो940 राजा चामरग्राहिणी च)।
राजा—
(सहर्षातिशयम्) अहो प्रसादातिशयः परमेश्वरस्य।
सोमार्काभिजनं तमद्य941 जयति श्रीकाकतीयान्वयः
पातिव्रत्यमुपैति सांप्रतममीष्वस्मासु विश्वंभरा।
अस्माभिर्निजदोःप्रसूतिमधुना धन्यामजो मन्यते
यत्कर्त्तव्यमुपादिशत् कुलपतिर्देवः स्वयंभूः स्वयम्॥२२॥
पुरोधसः—
महाराज भवादृशा एव परमर्हन्ति तादृशमहिम्नो942 देवस्य हितोपदेशान्943। अथवा। किमत्राभिनवम्। पुत्राणां हितोपदेशा944धिकारः पितुरेव। यदित्थं कथयन्ति तद्विदः945।
सैवोमा चेति निर्दिष्टा सोमा चेति प्रथामगात्।
तव माता शिवा साक्षाद्देवो गणपतिः पिता॥२३॥
मन्त्रिणः—
एवमेवैतत्। अन्यथा कथमीश्वरप्रसादादृते निरङ्कुशं स्त्रीव्यक्तिविशेषस्य लोकाधिपत्यम्। एवं मानुषशंभुना गणपतिमहाराजेनाभ्यन्तरस्यानुभव946महिम्नः सदृशमत्र पुत्र इति व्यवहारः कृतः। तदनुगुणा च रुद्र इत्याख्या947।
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अङ्कमारभते। तत इति। हर्षानुभावं प्रियभाषणमाह। सोमेति। अभिजनो वंशः। तं प्रसिद्धम्। अमीष्वेवमनुग्रहपात्रेष्विति भावः। अजो ब्रह्मा। निजदोःप्रसूतिं क्षत्रजातिम्। राजन्यो मनुष्याणामिति तस्या बाहुजत्वश्रवणात्। कुत इत्यत आह। यदिति।
रुद्राम्बायाः पितरौ सोमाम्बागणपतिदेवौ तयोरुमामहेश्वरात्मकत्वं लोकविदितं ततः स्वयंभूमहाराजयोः पितापुत्रभावोऽस्ति अतो हितोपदेशो युज्यत एव इत्याह। अथवेत्यादिना। सैवेति। सैव तव माता उमा चेति निर्दिष्टा सती लोकैरिति शेषः। सोमा चेति प्रथां प्रसिद्धिमगात्। परस्परसमुच्चयार्थौ चकारौ। पिता गणपतिस्तु साक्षात् प्रमथाधिपः शिवो देव इति तत्पित्रोः शिवयोश्च तादात्म्यमिति भावः।
अथामुष्या भविष्यति निरङ्कुशः प्रभाव इति विभाव्य948 महाराजो दुहितरं पुत्र इति व्याहृतवान्949 इत्याह। एवमिति। अभ्यन्तरस्यानुभवमहिम्नः दुहितृभावि-
पुरो०**—**
(सकौतुकम्950) कीदृशी देवस्य स्वप्नोपदेशपरिपाटी।
राजा**—**
( सादरम् ) इदं951 निवेद्यते।
कदाचित् कल्याणे रजनिसमये स्मेरवदनं
पुरः प्रादुर्भूतं सयुवतिवपुः साक्ष952निटिलम्953।
स्रवन्तीचन्द्राभ्यां महितमुकुटं प्रेक्ष्य किमपि
स्वयंभूदेवोऽसावहमिति954 हठोत्थानमभजम्॥२४॥
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माहात्म्यगोचराया अन्तःकरणवृत्तेरित्यर्थः। अत एवाह तत्रभवान् कविकुलशिरोमणिः कालिदासः। ‘सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृतयः।’ इति। अत्र दुहितरि। तदनुगुणा व्यवहारानुगुणा। रुद्र इति पुंस्त्वेन समाख्येत्यर्थः। प्राचामियं शैली यदयं व्यत्यासेन955 निर्देश इति। यथा स्त्रीव्यक्तौ शिखण्डीति पुंस्त्वेन व्यवहारः। यथा चेन्द्र956 पुमांसमपि श्रुतिरेव सुब्रह्मण्येति स्त्रीत्वेन निर्दिशति। तथा च षड्विंशब्राह्मणम्। ‘सुब्रह्मण्यौं सुब्रह्मण्यों सुब्रह्मण्योमिति स्त्रियमिव त्रिराह’ इति। एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम्।
स्वप्नोपदेशक्रममादरवशात् प्रतिज्ञापूर्वकं निवेदयति। राजेति। कदाचिदिति। कल्याणे शुभग्रहयोगादिना मङ्गले रजनिसमये957 स्मेरवदनं प्रसादोन्मुखत्वात्। स युवतिवपुरर्धाङ्गजानिरित्यर्थः958। साक्षनिटिलं भाललोचनसहितमित्यर्थः। उभयत्र बहुव्रीहिगर्भो बहुव्रीहिः। ‘बहुव्रीहौ सक्थ्यक्ष्णोः’ इति पजन्तः साक्षशब्दः। स्रवन्ती मन्दाकिनी। किमपि वक्तुमशक्यं वस्तु प्रेक्ष्य हठशब्देन959 चिरन्तनतटाकोदकाच्छादितहरितद्रव्यमुच्यते तदुत्सार्यमाणमपि स्वच्छन्दतो मुहुरुदकमाच्छादयतीति स्वच्छन्दव्यवहारो लक्ष्यत इत्युक्तमाचार्यैरुद्भिदधिकरणे। एवमत्र संभ्रमेणाप्याच्छादनसंभवात् संभ्रमो लक्ष्यत इति वदामः तेन हठोत्थानं संभ्रमोत्थानमिति वेदितव्यम्। स्वप्ने देवतादिदर्शने फलं दैवज्ञवल्लभे।
अनन्तरं स्वप्न एव
वपुषा तं नमस्कृत्य स्तुवन् सुनृतया गिरा।
स्वामिने कोकतीयानां960 रत्नासनमुपाहरम्॥२५॥
चामरग्राहिणी**—**
अहो देवस्स अणुसंधाणं जं सिविणे961 वि कुलसामिणो समाराहणम्।
पुरो०**—**
किमुच्यते। आविष्टभक्तयः खलु स्वयंभूदेवे962 काकतीयनरदेवाः। ततस्ततः।
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‘सुगन्धपुष्पाक्षतपूर्णकुम्भ-
शक्रध्वजच्छत्रमहीपतीनाम्।
उद्यद्दिनेशेन्दुसुहृत्सुराणां
सितद्विजादर्शसुवासिनीनाम्॥
सुवर्णधान्याब्जफलेग्रहीणां
भक्ष्यान्नरत्नाम्बरबाहनानाम्।
संदर्शनं श्रेष्ठमुशन्ति सन्तः
स्वप्ने मृतानां च सुचेष्टितानाम्॥’
इति। अभजमित्यनद्यतने लङ्। तेन चतुर्थयामादर्वाचीनः स्वप्न इति सूच्यते तत्फलस्य राज्यलक्ष्मीप्राप्तिरूपस्य विजययात्रया द्वित्रमासविलम्बसंभवात्। तदुक्तं बृहस्पतिमते स्वप्नाध्याये।
‘स्वप्नस्तु प्रथमे याने वत्सरेण विपच्यते।
द्वितीये चाष्टभिर्मासैस्त्रिभिर्मासैस्तृतीयके॥
अरुणोदयवेलायां दशाहेन963 फलं भवेत्।
गोविसर्जनवेलायां सद्यः स्वप्नफलं भवेत्॥’
इति। वपुषा नमस्कृत्य साष्टाङ्गं प्रणम्येत्यर्थः। ‘सत्यं प्रियं च वचनं यत् तत् सूनृतमुच्यते।’ नृतेर्मूलविभुजादित्वात् कप्रत्ययः। ‘अन्येषामपि’ इति सोर्दीर्घः।
आविष्टं भक्तिर्येषामिति लिङ्गसामान्ये नपुंसकपूर्वपदो बहुव्रीहिः। स्त्रीपूर्वप-
_____________________________________________________________
छाया।
अहो देवस्यानुसंधानं यत् स्वप्नेऽपि कुलस्वामिनः समाराधनम्।
राजा—
शय्याशिरस्थानकृतस्य पूर्ण-
कुम्भस्य तोयैः परिकल्प्य पाद्यम्।
अतीन्दुसारैर्मणिभिः किलाह-
मपूजयं दैवतमस्मदीयम्॥२६॥
** अथ च**964
विभुः स्वयंभूरवदच्छुचिस्मितां
गिरं स्ववामार्धवधूपलालिताम्।
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दत्वे भक्तिशब्दस्य प्रियादिपाठाद् ‘अप्रियादिषु’ इति निषेधेन ‘स्त्रियाः पुंवद्—’ इत्यादिना पुंवद्भावप्रतिषेधप्रसङ्गात्। अत एवाह वृत्तिकारः। ‘दृढभक्तिरित्येवमादिषु स्त्रीपूर्वपदत्वस्याविवक्षितत्वात् समाधेयम्’ इति। भोजराजस्तु ‘कर्मसाधनस्यैव भक्तिशब्दस्य प्रियादिपाठो न भावसाधनस्य। दृढभक्तिरित्यादौ तु भावसाधनत्वान्न कश्चिद्विरोधः’ इत्याह। प्रपञ्चितं चैतत्तातपादैः संजीविन्यादौ तत्र तत्रेत्यस्माभिरूपरम्यते। तस्मादत्रापि स्त्रीपूर्वपदो वा बहुव्रीहिरनुसंधेयः।
शय्याशिरःस्थाने पूर्णकुम्भस्थापनं मङ्गलार्थम्। तदुक्तं स्मृतिरत्नावल्याम्।
‘माङ्गल्यं पूर्णकुम्भं तु शिरःस्थाने निधाय च।
वैदिकैर्गरुडैर्मन्त्रै रक्षां कृत्वा स्वपेन्निशि॥’
इति। अतीन्दुसारैरत्युज्ज्वलैः। स्वप्ने देवतार्चने ‘सुरपूजोत्सवसेवा नैवेद्यं नृत्तगीतवाद्यं च’ इत्यादिना दैवज्ञवल्लभोक्तं महाफलं द्रष्टव्यम्। मणिपूजाफलं च965 पुष्पसारसुधानिधौ।
‘सुवर्णकुसुमैर्दिव्यैर्मणिविद्रुमविस्तृतैः।
राजतै रत्नसंभूतैरथवा चित्रवस्त्रकैः॥
येऽर्चयन्ति हरं966 भक्त्या नरास्ते स्युर्महेश्वराः॥’
इति।
पूजानन्तरं वृतमाह967। विभुरिति। स्ववामार्धवधूपलालितां पार्वत्यानुमोदिताम्। अभयदानशालिना प्रसादसूचकेनेत्यर्थः।
स्पृशन् करेणाभयदानशालिना
कृताञ्जलिं मां विनयानताननम्॥२७॥
यत् किल968
उन्मस्तकैर्मध्यमलोकभाग्यै-
स्तपोविशेषैरनघैः पृथिव्याः969।
सम्यक्फलैः सच्चरितैः प्रजानां
प्रतापरुद्रोऽयमिहावतीर्णः॥२८॥
वत्स काकतीयकुलप्रदीप
स्वीकृते पुत्रभावेन दौहित्रे प्राङ् ममाज्ञया।
अस्मिन्निधेहि धौरेये गुवीमुर्वीधुरामिति970॥२९॥
पुरो०—(सप्रमोदम्) महाराज काकतीयकुलयोगक्षेमविधानदक्षेण971 दाक्षायणीपतिना साक्षादेवमादिष्टम्। तवाप्ययमेव मनोरथः। प्रियंकरश्चायं महोत्सवः प्रजानाम्972। तदारोहतु प्रागतिसृष्टयौवराज्यस्य प्रतापरुद्रस्य भुजशिखरं सागरमेखला।
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उन्मस्तकैरुल्लङ्घितशिरस्कैरतिप्रभूतैरित्यर्थः। मध्यमलोकस्य भाग्यैरदृष्टपरिपाकैस्तपोविशेषैः कृच्छ्रचान्द्रायणादिभिः। सच्चरितैः स्वस्ववर्णाश्रमोचितव्यापारैः। अत्र भाग्यादिनिमित्तभेदात् विच्छित्तिविशेषं वक्तुं मध्यमलोक एव समष्टिव्यष्टिभ्यामाश्रितः। प्रजापृथिवीव्यतिरिक्तमध्य973लोकासंभवादिति द्रष्टव्यम्। एवं चास्मिन् राज्यं शासति सस्याकरादिसंपत्तिः प्रजासमृद्धिश्च प्रभवतीति फलितम्।
वत्सेति रुद्राम्बायाः पुंस्त्वेन संबोधनम्। प्राग् जन्मकाले। धुरं वहतीति धौरेयो धुरन्धरः। ‘धुरो यड्ढकञौ’ इति ढक्। ‘ऋक्पू—’ इत्यादिना समासान्तोऽप्रत्ययस्ततष्टाप्।
सप्रमोदमिति। अस्मिन्नर्थे विप्रतिपत्तेरभावादिति भावः। तदुक्तं बृहस्पतिमते।
इयं प्रयोजननिर्धारणरूपा युक्तिः।
ततस्ततः।
राजा**—**
तद्वचनमाकर्णयन्ती निर्भरहर्षविकस्वरलोचना मेदिन्यपि देवस्य पार्श्वे दृष्टा।
चामर०**—**
महाराअस्स हिअअमणुवट्टमाणाए974 वसुंधराए उइदो975 ख्खु हरिसाविभ्भावो976।
एषा स्वयंभूदेवस्य वचनाकर्णनेन मेदिन्याः सुखागमेन प्राप्तिः977।
राजा**—**
काकतीयकुलश्रेयसां978 देव एव प्रमाणमिति तस्याज्ञा मया979 शिरसि धृता। देवोऽपि सप्रसादातिशयमवलोक्यान्तर्हितोऽभूत्।
इदं मेदिनीप्राप्तिहेतोर्वीजस्य980 स्वयंभूदेवस्योपदेशाङ्गीकरणात् समाधानम्981।
मन्त्रिणः**—**
विश्वप्रियंकरः स्वप्नप्रत्ययः । किं तु काकतीयनरेन्द्र982वृद्धोचितमाचारमनुवर्त्तमानस्य देवस्य नगरनिवासवैमुख्यं983 तथा कुलधुरं-
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‘देवताश्च द्विजा गावः पितरो लिङ्गिनस्तथा।
यद्वदन्ति नरं स्वप्ने तत्तथैव विनिर्दिशेत्॥
इति। प्रियं करोतीति प्रियंकरः। ‘क्षेमप्रियमद्रेऽण् च’ इति खश्प्रत्ययः। अतिसृष्टं दत्तम्।
स्वप्नशेषमाह। तद्वचनमिति। महाराजस्य हृदयमनुवर्त्तमानाया वसुंधराया उचितः खलु हर्षाविर्भावः।
स्वप्ननिवेदनं निगमयति। काकतीयेति।
विश्वेति984। प्रियंकरादिशब्दा अनुपदमेवोक्ताः। धुरंधरशब्दस्तु नायकप्रकरणे। कुलामात्यमुख्येनेव पार्वतीवल्लभेनैवमुपदिष्टम्।
_____________________________________________________________
छाया।
महाराजस्य हृदयमनुवर्त्तमानाया वसुन्धराया उचितः खलु हर्षाविर्भावः।
धरस्य वीररुद्रस्य985 विश्वरक्षाक्षम986बाहुपरिध्रे राज्यधुराविश्रान्तिरिति विषादहर्षयोः सीमानं स्पृशत्यस्माकं987 मनः।
एतत्सुखदुःखहेतुभूतं988 विधानम्।
चामर०—
अच्चरिअं अच्चरिअं कुलामच्चमुहेणेव्व989 पव्वईवल्लहेण एवमुवदिट्ठम्।
इयं वीजविषयाश्चर्यरूपा परिभावना।
राजा—
(सहर्षातिशयम्990) (अमात्यान् प्रति)।
अयं काकतीयकुलश्रेयःकल्पलताप्ररोहः स्वयंभूदेवानुग्रहः सर्वेषामपि श्रवणमहोत्सवः क्रियताम्991।
एष बीजप्रकाशनादुद्भेदः।
मन्त्रिणः—
यदाज्ञापयति परमेश्वरः992।
राजा—
किमिदानीं कर्त्तव्यम्।
पुरो०- महाराज993 किमन्यत्994। सज्जीक्रियतां प्रतापरुद्रदेवस्य995 राज्याभिषेकसंभारः।
एष वीजानुगुणप्रोत्साहनरूपो भेदः।
मन्त्रिणः—
दिग्विजययात्रावशीकृतानां सर्वपार्थिवानां996 वर्गेणानीतैः
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अयं काकतीयेत्यादि। स्पष्टम्।
षड्विधानि मौलादिरूपाणि बलानि। ‘मौलं भृतं997 सुहृच्छ्रेणी द्विपदाटविकं बलम्’ इत्यमरकोशाभिधानात्। अत्र विष्कम्भादौ वैतालिकवाक्योपक्षिप्तस्याङ्ग-
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छाया।
आश्चर्यमाश्चर्यम्। कुलामात्यमुखेनैव पार्वतीवल्लभेनैवमुपदिष्टम्।
सकलतीर्थसलिलैः प्रकाशितं998 स्वयंभूदेवप्रसादं महाभिषेकमनुभवतु राजपुत्रः।
पुरो०—
उचितमनुमन्त्रितं मन्त्रिभिः।
राजा—
तर्हि जैत्रयात्रासाधनानि सज्जीक्रियन्तां षड्विधानि बलानि। अहमपि सज्जो भवामि999।
एष आरम्भः। इदं1000 बीजानुगुणारम्भरूपं1001 करणम्। एवमारम्भवीजसंबन्धरूपः साङ्गो1002 मुखसंधिः।
(नेपथ्ये) वैतालिकौ—
सुखाय माध्यन्दिनी संध्या भवतु देवस्य। यदिदानीं1003
लोकालोकगिरीन्द्रकन्दरतमःसंदोहदर्पापहं
त्वत्तेजःपटलं कियन्ति भुवनान्याक्रम्य संक्रीडते।
इत्यालोकनकौतुकीव शिथिलस्वीयाधिकारश्रमो1004
भास्वानेष समग्रदीप्तिरधुना व्योमाग्रमारोहति॥३०॥
अपि च।
उद्गायन्ति शरन्निशाकरकरस्तोमत्विषस्त्वद्गुणान्
क्रीडन्त्यो मलयादिचन्दनलताकुञ्जे भुजङ्गाङ्गनाः।
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वशादनुवर्त्तमानस्य बीजस्य नायकव्यापारस्य स्वरूपात् किंचिदुच्छूनत्वलक्षणारम्भसंबन्धान्मुखसंधिरित्याह। एवमिति।
मध्याह्नवर्णनमारभते। सुखायेति। लोके यत् किंचन विप्रकृष्टं वस्तु दिदृक्षवो वृक्षाग्रमद्रिशृङ्गं वारोहन्ति तत्समाधिमावर्त्तनविकर्त्तनस्याह। लोकालोकेति। संक्रीडते। ‘क्रीडोऽनुसंपरिभ्यश्च’ इत्यात्मनेपदम्। स्वीयाधिकारस्तमोपहतत्वलक्षणस्तन्निमित्तः श्रमः शिथिलो यस्य स तथोक्तः। एतच्च राजतेजस एव तद्भारोद्वहनादिति वेदितव्यम्। अत एवालोकनकौतुकीवेत्युत्प्रेक्ष्यते। तत्र निमित्तमुपादत्ते। अधुनेति।
उद्गायन्तीति। मलयाद्रिचन्दनलताकुञ्जे दिवा विहारदेशे इत्यर्थः। तदुक्तं भावप्रकाशे
पीत्वा तत्तदुदीर्णवर्णगलितां प्रत्यग्रधारां सुधां
वाताहारतया प्रभूतमयशः प्रक्षालयन्त्यो निजम्॥३१॥
आघ्राय किरणान् भानोर्यजुरामोदमेदुरान्।
यतन्ते कृतिनः सर्वे कर्त्तुं माध्याह्निकीः क्रियाः1007॥३२॥
राजा—( आकर्ण्य सर्वान् प्रति) साधयत यूयमभिमताचरणाय। अहमपि तावदभ्यन्तरं प्रविशामि1008।
(यथोचितमुत्थाय1009 परिक्रम्य निष्कान्ताः सर्वे)।
इति1010 कल्याणस्वप्नो नाम प्रथमोऽङ्कः।
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‘सरितं पुलिनं वेला कान्तारारामभूधराः।
लतागृहाणि चित्राणि शय्या किसलयाञ्चिता॥
दिवा विहारदेशाः स्युः।’ इति।
क्रीडन्त्यः निजरमणैरिति शेषः। तत्तदिति वीप्सायां द्विर्भावः। उदीर्णवर्णादुच्चारिताक्षरात्। गलितां गलन्तीमित्यर्थः। ‘मतिबुद्धिपूजार्थेभ्यश्च’ इत्यत्र चशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात्। अत एवाह वृत्तिकारः। ‘सुप्तशयितेत्येवमादयो वर्त्तमाने द्रष्टव्याः’ इति। इदमेव कवेर्विवक्षितम्। यदन्यत्र प्रत्यक्षरगलत्सुधामित्यवोचत्। अत एव प्रत्यग्रधारामतिरसामित्यर्थः।
आघ्रायेति। यजुरेवामोदः परिमलविशेषः तेन मेदुरांस्तन्मयानित्यर्थः। ‘यजुर्वेदे तिष्ठति मध्येऽह्नः’ इति श्रुतेः। ‘भञ्जभासमिदो घुरच्’। एतेन भानुकिरणानां पुष्पसमाधिसिद्धे1011 ज्ञात्वेत्यस्मिन्नर्थे आघ्राय इति पदं बोद्धव्यम्। मध्याह्ने कर्त्तव्या माध्याह्निकी। ‘कालाट्ठक्’ इति शैषिकष्ठक्प्रत्ययः।
इति1012 नाटकप्रकरणे प्रथमोऽङ्कः।
(नेपथ्ये) इदो इदो अज्जो।
(ततः प्रविशति वृद्धकञ्चुकी)
कञ्चुकी—(सहर्षम्) चिराय यौवनमतिशयानया चरितार्थया जरयानया संचरे1013। यया दीर्घायुषा प्रतापरुद्रमहाभिषेकमहोत्सव1014मनुभवितास्मि।
एष मध्याह्नवर्णनया विच्छिन्नस्य प्रकृतार्थस्य पुनरवमर्शाद्विन्दुः।
अपि च
पदे पदे स्खलन्तं मां वाचा गत्याथ1015 चेष्टया।
अवलोक्य हसन्नास्ते स्वामी रुद्रनरेश्वरः॥१॥
(सविमर्शाश्चर्यम्1016)
काकतीयनरेन्द्रस्य1017 राज्यश्रीर्मूलवेश्मनः।
युवराजगृहानद्य गवाक्षैः स्वैरमीक्षते॥२॥
एष राजलक्ष्म्याः1018 प्रतापरुद्रगताभिलाषाद्विलासः।
(पुरोऽवलोक्य)
कथमयं राजपुत्रपरिचारको दारकः ससंभ्रमं माम1019भिवर्त्तते।
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चूलिकामुदाहरति। नेपथ्य इत्यादिना। इत1020 इत आर्यः। ततः प्रविशतीति। नेपथ्यमेव न रङ्गमन्यथा चूलिकालक्षणभङ्गप्रसङ्गात्। यौवनमतिशयानयेति। अत्रैव पुरुषार्थलाभादिति भावः। जरया संचर इति। ‘समस्तृतीयायुक्तात्’ इत्यात्मनेपदम्। पुरुषार्थमाह। ययेति। अनुभवितास्मि1021। अनद्यतने लुट्। बिन्दुं योजयति। एष इति। इतोऽपि जरायाः श्लाघ्यत्वमेवेत्याह। पदे पद इति।
आर्य प्रणमामि। कथं कथमप्यनुमतम्।
_____________________________________________________________
छाया।
इत इत आर्यः।
(प्रविश्य) दारकः—
¹अज्ज पणमामि।
कञ्चुकी—
भद्र कल्याणास्पदं भूयाः। किमनुमतं राजपुत्रस्य दिग्विजयप्रस्थानं रुद्रनरेश्वरेण।
दारकः—
²कहं कहं वि अणुमदम्।
कञ्चुकी—
स्वनामानुगुणमिदं राजपुत्रस्य यत् सज्जीकृतसाधनं महाराजंसंपादोपग्रहणं1022 निवार्य स्वयमेव जैत्रयात्रायामुत्तिष्ठते1023।
दारकः—
³अज्ज अणणुहूद1024जुझ्झपरिस्समो जुवराओ। दुक्खरो खु दिअंतजओ कहं भविस्सदि1025।
कञ्चुकी—
भद्र निरङ्कुशाः स्वयंभूदेवस्य1026 प्रवृत्तयः1027। विष्णोरवतारः खल्वयं1028 वीररुद्रोऽप्यचिन्तित1029महिमा।
एष दृष्टनष्टबीजानुसरणरूपः परिसर्पः।
अत्र स्वप्नवृत्तान्तख्यापना1030ल्लक्ष्यस्य दिग्विजययात्रोद्यमेनालक्ष्यस्य बीजस्योद्भेद1031 इति प्रतिमुखसंधिरयम्।
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सपादोपग्रहमिति। सव्यदक्षिणपाणिभ्यां सव्यदक्षिणपादोपस्पर्शरूपो गुरुनमस्कारः पादोपग्रहः। तदुक्तं मनुना।
‘व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरोः।
सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन तु दक्षिणः॥’
इति। उत्तिष्ठते उद्युङ्क्ते। ‘उदोऽनूर्ध्वकर्मणि’ इत्यात्मनेपदम्।
आर्य अननुभूतयुद्धपरिश्रमो युवराजः। दुष्करः खलु दिगन्तजयः कथं भविष्यति।
भद्रेति। अत्र पूर्वाङ्के स्वप्नदृष्टस्य मध्याह्नवर्णनया नष्टस्य च बीजस्य स्वयंभूदेवप्रसादरूपस्य भद्र निरङ्कुशा इत्यनेनानुसर्पणात् परिसर्प इत्यर्थः। अत एवायं प्रतिमुखसंधिरित्याह। अत्रेति। उद्भेदः प्रकाशनम्। भद्रेत्यादिवाक्येनेति भावः।
_____________________________________________________________
छाया।
1 आर्य प्रणमामि।
2 कथं कथमपि अनुमतम्।
3 आर्य अननुभूतयुद्धपरिश्रमो युवराजः। दुष्करः खलु दिगन्तजयः कथं भविष्यति।
दारकाः—
¹एव्वं पदम्1032। अमाणुसो1033 खु सो पहावो1034।
कञ्चकी—
कुत्रेदानीं राजपुत्रः।
दारकः—
²काअईअकुल1035दुग्गादेवीसमाराहणेण1036 विअअपत्थाण1037मंगलं काऊण तत्थ हणुमदअलपेरंतबहि1038रुज्जाणे1039 णिवेसिअ1040खंधावारो अमच्चपरिवुदो1041 जुवराओ1042 चिट्टई ताअणुजाणीहि1043 मम तत्थ1044 पस्थाणम्1045।
कञ्चकी। भद्र साधय। अहमपि राजकुलं प्रविशामि।
(इति यथोचितं परिक्रम्य निष्कान्तौ)
इयं चूलिका1046।
प्रवेशकः1047।
(ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टः प्रतापरुद्रो1048 मन्त्रिणः परिजनश्च)।
प्रता०—
किं राज्येन शमोन्मुखं रचयता तातं कुलालम्बनं1049
किं चास्मिन् समुदाहरन्ति महतो दोषान् बहून् सूरयः।
_____________________________________________________________
एवमेतत्। अमानुषः खलु स प्रभावः। काकतिकुलदुर्गादेवीसमाराधनेन विजयप्रस्थानमङ्गलं कृत्वा तत्र हनूमदचलपर्यन्तवहिरुद्याने विनिवेशितस्कन्धावारोऽमात्यपरिवृतो युवराजस्तिष्ठति। तदनुजानीहि मम तत्र प्रस्थानम्। एवमेतदित्यादि स्पष्टम्। इयं चूलिका।
किमिति। तातं शमोन्मुखं विरक्तं रचयता राज्येन मय्यर्पितेन सतेति1050 शेषः। किं न मे किंचित् साध्यमस्तीति1051 भावः। न केवलमस्मिन् राज्ये पितृवियोगादिष्टहानिरनेकमहादोषसंभवादनर्थप्राप्तिश्रेत्याह। किं चेति। अत एवोक्तं महाभारते शान्तिपर्वणि भीमं प्रति युधिष्ठिरेण।
_____________________________________________________________
छाया।
1 एवमेतत्। अमानुषः खलु स प्रभावः।
2 काकतीयकुलदुर्गादेवीसमाराधनेन विजयप्रस्थानमङ्गलं कृत्वा तत्र हनुमदचलपर्यन्तबहिरुद्याने निवेशितस्कन्धावारः अमात्यपरिवृतो युवराजस्तिष्ठति तदनुजानीहि मम तत्र प्रस्थानम्।
धर्माध्वा च खिलीकृतोऽयमधुना कः संचरेदस्खलं-
स्तन्नेष्टं किल यौवराज्यमपि मे वाल्योत्सवे क्रीडतः॥३॥
तद्वयं महाराजभुजपरिघमसृणितेषु1052 दिगन्तेषु विजययात्राविनोदेन1053 विहरामहे।
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‘असंतोषोऽप्रमोदश्च मदो रागोऽप्रशान्तता।
बलमोजोऽभिमानश्च समुद्वेगश्च सर्वतः॥
एभिः1054 पाप्मभिराविष्टं राज्यं त्वमभिकाङ्क्षसि॥’
इति। नन्वेवं सति
‘यदह्ना कुरुते कर्म प्रजा धर्मेण पालयन्।
दशवर्षसहस्राणि तस्य भुङ्क्ते महत् फलम्॥’
इत्यादिना राज्ये महाफलप्रतिपादकमन्वादिवचनविरोधः स्यादित्याशङ्क्य तस्य गुणान्तरविषयत्वान्न विरोध इत्याशयेनाह। धर्माध्वेति। अयं यज्ञदानतपोज्ञानलक्षणः खिलीकृतः संप्रति पादमात्रावशिष्टत्वादिति भावः। अत एवोक्तं सूर्यसिद्धान्ते।
‘कृतादीनां व्यवस्थेयं धर्मपादव्यवस्थया।’
इति। आदिपुराणेऽप्युक्तम्1055।
‘न विद्वत्ता न शुद्धोऽर्थो न शुद्धिर्मनसः कलौ’
इति। अधुना कलिकाले अस्खलन्नप्रमत्तः कः संचरेत्। न कोऽपि संचरितुं शक्नुयादित्यर्थः। ‘शकि लिङ् च’ इति लिङ्। तृतीयाभावान्नात्मनेपदम्। तद्यौवराज्यमपि नेष्टं किल किमुत दुष्टं राज्यमिति भावः। मसृणितेषु निष्कण्टकीकृतेषु अत एव स्वस्य न प्रयास इति विनयोक्तिः।
एतद्राज्येऽनिच्छाभिधाना1056द्विधूतम्1057।
मन्त्रिणः—
राजपुत्र सर्वपथीनया1058 काकतीयान्वयभाग्यसंपदा1059 त्वां धुरंधुरं लब्ध्वा नरेन्द्रश्चिरमासक्तां धुरं शिथिलयितुमध्यवस्यति1060। आचारश्चायं काकतीश्वराणां1061 यद्धौरेये पुत्रे शमोन्मुखत्वम्। कुलस्वामिना स्वयंभुवाप्येवमेवानुशिष्टम्1062। अनतिक्रमणीया राजपुत्रेण गुर्वोर्गरीयसी खल्वा1063ज्ञा। कलिकालदोषशिथिल1064धर्मप्रतिष्ठां1065 निर्वोढुं वोढुं च महतीं महीधुरमवतीर्णस्य काकतीय1066विष्णोस्तवासाम्प्रतं1067 प्रत्याख्यातुम्।
प्रताप०—
स्वयंभूस्तात इत्येतावीश्वरौ दिव्यमानुषौ।
तयोरन्यतरो राजा युवराजोऽस्मि सर्वथा1068॥४॥
मन्त्रिणः—
राजपुत्र साधारणोऽयं विनयः1069 काकतीश्वराणां स्वयंभुवि1070 महाराजे।
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राजपुत्रेति1071। सर्वान् पथो व्याप्नुवन्त्या सर्वपथीनया। ‘तत्सर्वादेः’ इति खप्रत्ययः। आचारश्चेति।
‘धर्म्ये वर्त्मनि संस्थाप्य प्रजा वर्त्तेत धर्मवित्।
पुत्रसंक्रामितश्रीश्च वने वन्येन वर्त्तयेत्॥’
इति व्यासस्मरणात्। गुर्वोर्दिव्यमानुषयोर्गरीयसी गुरुतरा पूज्यतमेति यावत्। ‘प्रियस्थिर—
’ इत्यादिना गुरोर्गरादेशः। किं च धर्मसंस्थापनार्थमेवावतीर्णस्य विष्णुमूर्त्तेस्तवेदं दुष्परिहरमित्याह। कलिकालेति। प्रत्याख्यातुं परिहर्त्तुम्।
तर्हि तावत् स्वयंभूदेव एव महाराजोऽस्तु पूर्ववदेवाहं युवराज एवेति वचनभङ्ग्या राज्यमङ्गीकरोति। स्वयंभूरिति। अरत्युपशमाद् विषयद्वेषनिवृत्तेः। काकतिकुलवीरस्तत्रभवान् स्वयंभूदेवो धुरं धारयतु राजपुत्रः पुना राज्यश्रियमङ्के
एष प्रकृतविषयारत्युपशमाच्छमः।
परिजनः1072—
¹काकईअ1073कुलथ्थविरो1074 तत्तभवन्तो1075 सअंभूदेवो धुरं धारइदु1076 राअउतो उण रज्जसिरिं अंके आरोवेदु।
प्रताप०1077—
(समन्दस्मितं1078 परिजनमवलोकयति)
एतत् परिहासवचोरूपं1079 नर्म।
परि०—
²चिरेण चरिअत्था1080 मेइणी संवृत्ता। गोत्तगिरि1081सिहरणिठ्ठरविअड1082")सिलावसइबब्बरंगीए खोणीए होदु1083 वासो बाहुम्मि पआबरुद्दस्य। जह हरिचंदस्स भुए जह रहुणाहस्स बाहुफलअम्मि काअइलच्छीपइणो1084 बाहुम्मि तहा1085 मही रमदु1086")।
प्रता०—
(सबाहुस्फुरणमधोमुखस्तिष्ठति)
एषा परिजनवचोत्था1087 प्रीतिर्नर्मद्युतिः।
मन्त्रिणः—
राजपुत्रकाकतीयपुरुषोत्तमस्य तव1088 पाणिग्रहणाय स्पृहयन्ती राजलक्ष्मीर्विलम्बनं1089 न सहते।
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आरोपयतु। चिरेण चरितार्था मेदिनी संवृत्ता। गोत्रगिरिशिखरनिष्ठुरविकटशिलावसतिबर्बराङ्ग्याः क्षोण्या भवतु वासो बाहौ प्रतापरुद्रस्य। यथा हरिश्चन्द्रस्य भुजे यथा रघुनाथस्य बाहुफलके काकतिलक्ष्मीपतेर्बाहौ तथा मही रमताम्। एष समः।
सबाहुस्फुरणमिति। पुंसो दक्षिणबाहुस्कुरणं शुभनिमित्तमिति वक्ष्यते। नर्मवचनमनुरागबीजोद्घाटनम्।
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छाया।
1 काकतीयकुलस्थविरस्तत्रभवान् स्वयंभूदेवो धुरं धारयतु राजपुत्रः पुना राज्यश्रियमङ्के आरोपयतु।
2 चिरेण चरितार्था मेदिनी संवृत्ता। गोत्रगिरिशिखरनिष्ठुरविकटशिलावसतिबर्वराङ्ग्याः क्षोण्या भवतु वासो बाहौ प्रतापरुद्रस्य। यथा हरिश्चन्द्रस्य भुजे यथा रघुनाथस्य बाहुफलके काकतिलक्ष्मीपतेर्बाहौ तथा मही रमताम्।
परि०—¹विज्जावहूणं अहिअं दठ्ठूण पइम्मि1090 पणअविस्संभं।
खोणी लच्छी अ कहं विलंबिधं सहउ1091 जुबराए1092।
मन्त्रिणः—
इत्थमेव।
स्वतेजसा परिष्कृत्य प्रधानागारमुत्सुका1093।
प्रतीक्षतेऽथ राज्यश्रीर्युवराजसमागमम्॥७॥
एतस्मिन् मन्त्रिणां परिजनस्य च1094 वाक्यैर्बीजानुराग1095प्रकाशनात्1096 प्रगमः।
परि०—
²कहं अंतरिओ खु1097 एसो महूसओ1098 दिसाविजभजत्ताए।
एतद्दिगन्तयात्रया प्रकृतकार्यविलम्बनान्निरोधः।
मन्त्रिणः— (सावज्ञम्) कथं चिरयन्त्यन्ध्रचमूपतयः। अथवा किं तैः। वयमपि न केवलं मन्त्रशस्त्राः1099 किं तु बहुशः समरादाराधित1100स्वामिन एव।
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विज्ज्ञेति। विद्यावध्वा अधिकं दृष्ट्वा पत्यौ प्रणयविस्रम्भंम्। क्षोणी लक्ष्मीश्च कथं विलम्बितं सहतां युवराजे॥ बधूनां भर्त्तृबाल्लभ्यमवलोक्य सपत्न्यः समुत्सुका भवन्तीति भावः।
राज्यश्रियो वासकसज्जिकासमाधिमाह। स्वतेजसेति। गतार्थमेतत्।
कहमिति। कथमन्तरितः खल्वेष महोत्सवो दिग्विजययात्रया। निरोधनलक्षणे छद्मनेत्युक्तं तत् कारणमात्रोपलक्षणमिति दृष्टव्यम्।
सावज्ञमिति1101। समरमेवापदानमद्भुतकर्म तेनाराधितः स्वामिनः प्रसादिते-
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छाया।
1 विद्यावध्वा अधिकं दृष्ट्वा पत्यौ प्रणयविस्रम्भम्।
क्षोणी लक्ष्मीश्च कथं विलम्बितं सहतां युवराजे॥
2 कथमन्तरितः खल्वेष महोत्सवो दिग्विजययात्रया॥
एतन्निष्ठुर1102वचनरूपं वज्रम्।
(प्रविश्य) दौवारिकः। ¹जेदु जेदु जुअराओ1103। एदे खु चमूपइणो1104 पडिहारभूमिभाअ1105म्मि सज्जीकिअचउरंगबला वट्टन्ति।
मन्त्रिणः—
अचिरं भोः प्रवेशय।
दौवा०—
तथा(इति निष्कम्य सेनाधिपतिभिः1106 पुनः1107 प्रविष्टः)।
सेना०—
(यथोचितं प्रणम्य) स्वामिन् काकतीयकुलतिलक सर्वतोमुखाटोपा वाहिन्यः शौर्योदन्वन्तं भवन्तमनुप्राप्ता एव तदनुग्रहयालुना कटाक्षेण निरीक्ष्यन्ताम्।
एतदनुनयवचन1108रूपं पर्युपासनम्।
मन्त्रिणः—
राजपुत्र1109 तर्हि समारुह्यतां प्रतिपक्ष1110निवारणो वारणः।
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चराः। वज्रलक्षणे प्रत्यक्षग्रहणं केवलस्याप्युपलक्षणमित्याशयेनाह। एतन्निष्ठुरेति।
द्वारे नियुक्तो दौवारिको वेत्रधरः। ‘तत्र नियुक्तः’ इति ठक्। ‘द्वारादीनां च’ इत्यैजागमः।
स्वामिन्निति। जयतु जयतु युवराजः। एते खलु चमूपतयः प्रतिहारभूमिभागे सज्जीकृतचतुरङ्गबला वर्त्तन्ते। सर्वतोमुखाटोपाः सर्वतोदिक्संभ्रमा वा हियः सेनाः। शौर्योदन्वन्तमिति। रूपकबलादुदकसंभ्रमवत्यो नद्यश्चेति
ल- भो। अनुग्रहयालुनानुग्रहीत्रा कटाक्षेण अनुग्रहद्वष्ट्येत्यर्थः। ग्रह ग्रहणे इत्यस्माद्धातोरदन्ताच्चुरादिणिचि ‘स्पृहिग्रहि—‘ इत्यादिनालुच्प्रत्ययः। अतो लोपस्यस्थानिवत्त्वान्न लघूपधगुणः।
…जपुत्रेति। परिपन्थिप्रमाथिन्यः शत्रुघातिन्यः वरूथिन्यः सेनाः। प्रस्तूयतास्तिप्रस्थानारम्भ1111 एव नासीरैः सामन्तनगराण्याक्रम्यन्त इति सेनाबाहुल्यं सूच्यः।
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छाया।
1 जयतु जयतु युवराजः। एते खलु चमूपतयः प्रतीहारभूमिभागे सज्जीकृतचतुरङ्गचलार्तते।
आलोक्यन्तां1112 निरन्तरपरिपन्थिप्रमाथिन्यो1113 वरूथिन्यः। प्रस्तूयन्तां सेनापुरःसराक्रान्त1114सकलसामन्तनिजस्थानं प्रस्थानम्1115।
प्रताप०1077—
यथाभिरुचितममात्येभ्यः। (इति गन्धगजाभिरोहणं नाटयति)।
मन्त्रिणः—
करोदग्रेण महसा विष्वगाक्रमितुं1116दिशः।
आरोहति गजं वीररुद्रो1117 भास्वानिवोदयम्॥८॥
एतत् प्रकृतानुगुण्येन विशेषसंबन्धवचनं1118 पुष्पम्।
सर्वे युवराजहस्तिनं पुरस्कृत्य ससंबाधं किंचित् परिक्रामन्ति।
सेना०—
(सोत्साहप्रणामम्) स्वामिन्नितो दीयतां दृष्टिः।
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यथेति। गन्धोपलक्षितो गजो गन्धगजः। यद्यपि गजशास्त्रे त्रैवर्णिकजातिगजेषु गन्ध उक्तस्तथाप्यौचित्यादत्र क्षत्रियजातिरुच्यते। तदुक्तं
‘भद्रश्रीहरितालमुग्गुलुशिलागन्धोऽतिशूरो रणे
नानाशस्त्रनिपातवेगसहनः स्तम्बेरमः क्षत्रियः॥’
इति। अत्र शुभाशुभगन्धविभागस्तदभिव्यक्तिस्थानं च तत्रैवोक्तम्।
‘स्वेदे द्वारमले शुभाशुभकरं गन्धं सुधीर्लक्षयेत्
सेव्यो भूरुहलाजपाटलघृतप्रख्यः प्रशस्ताह्वयः1119।
एतस्मादपरः1120 शुभोऽयमुदितः सत्त्वेन रूपेण यो
युक्तः सोऽपि मतङ्गजः समुचितः कल्याण इत्युच्यते॥’
इति।
करेति। करेणोदग्रेणोद्धतेन महसा तेजसा भुजबलेनेत्यर्थः। अन्यत्र करैः किरणैः। उदयं पूर्वपर्वतम्। अत्र मन्त्रिणां वीररुद्रं प्रति रागप्रकाशविशिष्टवचनात् पुष्पं नामाङ्गमित्याह। एतदिति। प्रकृतानुगुण्येन बीजानुकूल्येत्यर्थः। विशेषबन्धो रागविशेषबन्ध इत्यर्थः।
धावत्पादातपादाहतिदलितमहीरन्ध्रनीरन्ध्रनिर्यद्-
धूलीजालाम्बुदान्तर्विलसदसिलताविद्युदुद्दामदीप्ताः।
उद्यन्निस्साणराण1121स्तनितपटपटद्दिक्तटाः प्रारभन्ते
प्रावृट्लक्ष्मीं ध्वजिन्यः करिकरटतटस्यन्दिदानाम्बुधाराः॥९॥
(अन्यतो निरूप्य)
बले चलति संभ्रमं प्रतिभये विजेतुं दिशः
पुरन्दरहरिज्जयव्यवसिताः सहायोद्धताः1122।
चलन्ति चिरमत्सराः शिखरिणो यथा दन्तिनो
भरावनमदुन्नमद्भुजगराजफक्कत्फणाः1123॥१०॥
परि०—
(विलोक्य साश्चर्यम्) महंतो खु एसो तिलंग1124सुभडाण1125मुट्ठाहो1126।
(संस्कृतमाश्रित्य1127)
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धावदिति। पदातीनां समूहः पादातम्। भिक्षादित्वादण्प्रत्ययः। निस्साणराणो निस्साणध्वनिः। राण इति। यद्यपि ‘वशिरण्योरुपसंख्यानम्’ इति कबभावे1128 घञ् बाधितः अत एवोक्तममरकोशे ‘रणकणः’ इति तथापि स्त्रावादिवत्1129 बाहुलको घन् दृष्टव्यः। पटशब्दादव्यक्तानुकरणात् ‘नित्यवीप्सयोः’ इति द्विर्भावे ‘सर्वप्रातिपदिकेभ्यः-’ इत्याचारे क्विप् कथंचित्1130 कल्पनीयः। ततो लटः शत्रादेशः। पटदित्यस्यैवानुकरणत्वे पूर्वावयवस्य तकाराभावश्चिन्त्यः। करटतटं गण्डस्थलम्।
सेनाङ्गेषु मतङ्गजसन्नाहमाह1131। बल इति। चिरमत्सराः पक्षच्छेदात् प्रभृति प्ररूढवैराः अत एव पुरन्दरहरिजयव्यवसिताः प्राचीविजयोद्युक्ता इत्यर्थः। इयन्तं कालं तूष्णीं स्थित्वेदानीं वैरनिर्यातने हेतुमाह। सहायोद्धता इति। यथा कस्यचिद्वस्तुनो भाराक्रान्तः कश्चन भागो नमति भागान्तरं तु न नमति।
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छाया।
1 महान् खल्वेष त्रिलिङ्गसुभटानामुत्साहः।
उद्यत्तोमरडामराः प्रतिपदप्रोत्क्षिप्तकौक्षेयकाः
स्वैरोद्गीर्ण1132मुसुण्ढयः1133 पटुतराकृष्टध्वनत्का1134र्मुकाः।
भ्राम्यद्भीमगदाः समग्रविहरत्प्रासाः स्फुरत्पट्टसाः1135
खेलन्त्यन्ध्रचमूभटाः सवपुषो रौद्रप्रकारा इव॥११॥
मन्त्रिणः—
हो तुरङ्गतरङ्गा1136स्त्रिलिङ्गाधिपतेः।
उत्क्षिप्योत्क्षिप्य पादौ रवितुरगशिरस्ताडनायैव पूर्वौ
पाश्चात्याभ्यां पदाभ्यामपि धरणिमवष्टभ्य संरम्भनुन्नाः1137।
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तद्वहन्तिभारा1138क्रान्तभूतलद्वारा भुजगराजस्य1139 केषांचित् फणानामवनमनमितरेषामु1140न्नमनं द्रष्टव्यम्1141। फक्कनमत्र संकोचः। फक्क नीचैर्गतावित्यस्माद्धातोर्लटः शत्रादेशः। अत्र यथा शब्दमाहात्म्याद्यद्यप्युपमा प्रतीयते तथाप्युपमानभूतानां विशिष्टशिखरिणामुपमेयदन्तिरूपतयाध्यवसानादु1142त्प्रेक्षायां पर्यवस्यतीत्युपमोपक्रमोत्प्रेक्षेयम्॥
महान् खल्वेष त्रिलिङ्गसुभटानामुत्साहः।
पत्तिसंपत्तिमाह1143। उद्यदिति। तोमरा दण्डविशेषास्तैर्डामरा भयंकराः कौक्षेयकाः खङ्गाः। ‘कुलकुक्षि—’ इत्यादिना ढकञ्प्र1144त्ययः। स्वैरोद्गीर्णमुसुण्ढयः स्वेच्छोद्यतदारुमयायुधविशेषाः। कर्मणे प्रभवतीति कार्मुकं धनुस्तद्विशेषो वा। गदाः प्रसिद्धाः। प्रासाः कुन्तापरपर्यायाः क्षेपणीया आयुधविशेषाः। तदुक्तं वृत्तिकारण। ‘अकर्त्तरि च कारके संज्ञायामित्यत्र प्रास्यत इति प्रासः’ इति। रौद्रप्रकारा रौद्रभेदाः। तोमरादीनामभिधानं वैजयन्त्याम्।
‘तोमरोऽस्त्री लोहडु1145लदण्डः कासूश्च सर्वला।’
‘हुलं द्विफलपत्राग्रम्।’ ‘मुसुण्ढी1146 स्याद् दारुमयी वृत्तायःकीलसंचिता।’ ‘कार्मुकं तु चतुर्हस्तम्।’ ‘पट्टसो लोहदण्डो यस्तीक्ष्णधारः क्षुरोपमः’ इति।
तुरङ्गसामग्रीमाह। उत्क्षिप्येति। पश्चिमपादाभ्यां भुवि स्थित्वा मुहुरग्रपादोत्क्षेपणमश्वानां पुरुषाख्यस्थानभेदः। तदुक्तम्।
‘मुहुः पश्चिमपादाभ्यां भुवि स्थित्वाग्रपादयोः।
ऊर्ध्वे प्रेरणया स्थानमश्वानां पुरुषः स्मृतः॥’
इति। अत्र पूर्वपादोत्क्षेपणस्य सूर्याश्वशिरस्ताडनफलकत्वमुत्प्रेक्ष्यते। उत्क्षिप्येति। ‘नित्यवीप्सयोः’ इति द्विर्भावः। पञ्चाद्भवौ पाश्चात्यो। ‘दक्षिणाप-
वालैर्व्याधूयमानैः प्रतिनृपतिहयोत्साहमुन्मार्जयन्तः
कामन्त्यश्वाः सहेल1147क्रमणपरिणमत्प1148ञ्चधाराप्रपञ्चाः॥१२॥
मन्त्रिणः (विलोक्य)—
अहो1149 विदलितपरबलमनोरथानां रथानां संभ्रमः। तथाहि
रथाः सरभसभ्रमन्निविड1150हेमनेमिक्षत-
क्षमातलसमुच्चलद्वहल1151धूलिजालाम्बुदैः1152।
तिरोहितमसूयया सपदि भानवीयं रथं
विधाय मुखरीभवन्त्यनिभृताक्षधूर्निस्वनाः1153॥१३॥
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श्चात्पुरसस्त्यक्’। संरब्धा संरम्भविषयीभूता सती नुन्नेत्यसंबन्धे संबन्धरूपातिशयोक्तिः। तां धरणिमवष्टभ्यालम्ब्यावलम्ब्य तत्र स्थित्वेत्यर्थः। सहेलक्रमणेन विनोदगत्या परिणमन्तः प्रयत्नं विना प्रवर्त्तमाना इत्यर्थः। धारा नामास्कन्दितादयो गतिविशेषाः1154 पञ्च। तदुक्तं वैजयन्त्याम्।
‘अश्वानां तु गतिर्धारा विभिन्ना सा च पञ्चधा।’
इति। ‘आस्कन्दितं धौरितकं रेचितं वल्गितं प्लुतम्। गतयोऽमूः पञ्च धाराः इत्यमरश्च। एतासामेवाश्वशास्त्रे संज्ञान्तरेणोक्तानां प्रत्येकं त्रैविध्ये पञ्चदशविधत्वम्। तदुक्तम्।
‘गतिः पुला चतुष्का च तद्वन्मध्यजवा परा।
पूर्णवेगा तथा चान्या पञ्च धाराः प्रकीर्त्तिताः॥
एकैका त्रिविधा धारा हयशिक्षाविधौ मता।
लघ्वी मध्या तथा दीर्घा ज्ञात्वैता योजयेत् क्रमात्॥’
इति। तदेतन्मनसि निधायाह। पञ्चधाराप्रपञ्चा इति॥
लोके कश्चिद्वीरभटः प्रतिभटमभिभूय गर्जति तत्समाधिमत्र भानुरथाभिभाविनां वीररुद्ररथानामाह। रथा इति। असूयया स्पर्धयेवेत्यर्थः। अक्षाणां
प्रताप1155०—
(सर्वतोऽवलोक्य1156 सप्रमोदम्) कथं समग्रसाधनानि सैन्यानि।
वृंहमाणगजाकीर्णा द्वेषमाणहयाकुलाः1157।
संक्रीडत्स्यन्दनाः क्ष्वेडाः1158 सुभटाः सैन्यसंपदः॥१४॥
मन्त्रिणः—
युवराजावलोकनादुद्वेलः1159 सैन्यसागरो वर्त्तते।
अभ्यापतन्तीरभितो महीभृद्वाहिनीर्बहूः।
काकतीयकुलाम्भोधि1160रेष स्वैरं ग्रसिष्यते1161॥१५॥
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चक्राधारकाष्ठानां धुरोऽग्राणि अक्षधुरः। ‘अक्षं रथाङ्ग आधारे’ इति वैजयन्ती। अनक्ष इति निषेधात् ‘ऋक्पुर -’ इत्यादिना न समासान्तः। निभृतो निश्चलो न भवतीत्यनिभृतो नित्यप्रवृत्त इत्यर्थः। तथाभूतोऽक्षधूर्निस्वनो येषां ते तथोक्ताः।
वृंहमाणेति। वृंहमाणा वृंहणशीलाः। ताच्छील्ये चानश् प्रत्ययः। न तु शानच्। वृहि शब्द इत्यस्य धातोः परस्मैपदित्वात्। अत एव भट्टमल्लः।
‘हेषते ह्रेषतेऽश्वानां हस्तिनां बृंहतीति च’
इति। संक्रीडत्स्यन्दनाः कूजद्रथाः। ‘क्रीडोऽनुसंपरिभ्यश्च’ इत्यत्र ‘समोऽकूजने’ इति नियमात् परस्मैपदम्। अत एवोक्तम्। ‘उत्सर्जति संक्रीडत्येतौ शकटकूजने’ इति। क्ष्वेडन्ते सिंहनादं कुर्वन्तीति क्ष्वेडाः। ञिक्ष्विदा स्नेहनमोचनयोरित्यस्माद्धातोः पचाद्यच्। पृषोदरादित्वाद्दकारस्य डकारः। कविकल्पद्रुमकारस्तु डान्त एवायं धातुरित्याह। धातूनामनेकार्थत्वादुक्तार्थलाभः। अत1162 एव ‘क्ष्वेडा तु सिंहनादः स्यात्’ इत्यमरः। क्ष्वेडदिति क्वाचित्कः शत्रन्तपाठोऽस्य धातोरनुदात्तेत्त्वादुपेक्षणीयः।
अभ्यापतन्तीरिति। महीभृद्वाहिनीः शत्रुभूपालसेनाः। अन्यत्र पर्वतप्रभवा नदीः। तदुक्तं मानसोल्लासे।
सेनापतयः—
यदादिशन्त्यमात्याः1163 इति। (सप्रणामं) विजययात्राकुतूहलिन्यो ध्वजिन्यः सांप्रतं युवराजस्यानां प्रतिपालयन्ति1164।
प्रताप1165०—
(सप्रसाद1166ममात्यानालोकयति)।
मन्त्रिणः—
(सोत्साहम्) प्रतिष्ठन्तां1167 प्राचीं प्रति सैन्यानि।
सेना०—
यथा1168दिशन्त्यमात्याः। (इति प्रस्थाननाटितकेन समन्तादवलोक्य सहर्षातिशयम्)
पवनेनानुकूलेन प्रसारितपटाञ्चलाः।
उद्युञ्जन्त इवाक्रष्टुं ध्वजाः सौत्रामणीं1169 दिशम्॥१६॥
(सर्वे1170 सुशकुन1171मभिनन्दन्ति)।
एष प्रस्थानानुगुण1172शकुनकथनादुपन्यासः1173।
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‘व्रजेदब्धिरिवाक्षोभ्यो1174 निगिरन्नरिवाहिनीः1175।
शूराणां सिंहनादैश्च हेषारावैश्च वाजिनाम्।
महारथमहाध्वानैर्मातङ्गघनगर्जितैः।’
इति।
सूत्राम्ण इन्द्रस्येमां सौत्रामणीं दिशं प्राचीं सुशकुनं शुभनिमित्तम्। ‘शकुनस्तु शुभाशंसिनिमित्ते शकुनः खगः।’ इति विश्वः। अनुकूलवायोः शुभनिमित्तत्वं च तत्रैव।
‘दक्षिणाक्षिपरिस्पन्दात् दक्षिणस्य भुजस्य च।
मनसश्च प्रसादेन स्वानुकूलानिलेन च॥
एवं निमित्तैर्निश्चित्य विजयं भूपतिर्व्रजेत्॥’ इति।
उपन्यासाख्यमङ्गं लक्ष्ये योजयति। एष इति। उपन्यासलक्षणेऽपि प्रकृतानुगुण्येनेत्येतदनुषज्यत इत्याशयेनाह। प्रस्थानानुगुणेति1176। बीजोपयोगित्वात्
प्रताप०1177—
(पुरोऽवलोक्य) कथं कराभ्यामुत्क्षिप्तसाक्षतकनकपात्रः समागत एव विप्रवरः।
विप्रः1178—
(सविनयमग्रतः1179 स्थित्वा प्राध्वं दक्षिणभुजमुद्यम्य) विजयतां1180 विजयतां वीररुद्रः। राजपुत्र स्वयंभूदेवमहोत्सवाद्यनन्तरमहीसुरवराशीर्वाद1181वासिताः काकतीयमहाराजेन प्रेषिताः खल्विमे मङ्गलाक्षताः।
प्रताप०1182—
(सप्रणामादरं गृहीत्वा तान् निजोत्तमाङ्गे1183 गजमूर्धनि1184 च निधाय)
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प्रस्थानस्य प्रकृतत्वम्। तदनुगुणस्य शकुनस्यानुरागहेतुभूतस्य कथनादुपन्यास इत्यर्थः।
विप्रविशेषप्रवेशं1185 सूचयति कथमिति।
सविनयमिति। प्राध्वमाशीर्वादानुकूल्येनोद्यम्य ‘आनुकूल्यार्थकं प्राध्वम्’ इत्यमरः। मकारान्तमव्ययं चैतत्। ननु यात्रायां कनकपात्रादिमङ्गलद्रव्यदर्शनं कार्यसिद्धिकरमस्तु। किं त्वेकस्मिन् ब्राह्मणे दृष्टे कार्यहानिरिति किंवदन्त्याः का गतिरिति चेन्नैष दोषः। तस्याः कृपणब्राह्मणविषयत्वात्। विशिष्ट1186ब्राह्मणदर्शने महाफलस्मरणात्। इदमपि तत्रैवोक्तम्।
‘पूर्णकुम्भे तथादर्शे दध्नि मद्ये तथामिषे।
मीने शङ्खे ध्वजे च्छत्रे चामरे चारुयोषिति॥
चापे मृगे भरद्वाजे फलपुष्पाक्षतेषु च।
वृषभे समदे नागे सितवाहे1187 द्विजोत्तमे॥
सुवर्णे दिव्यरत्ने च वीणायां पटहेऽपि च।
बद्धे चैकपशौ दृष्टे यात्रा भवति सिद्धिदा॥’
इति।
आमूलात् फलिता प्रसत्ति1188लतिका पत्युः स्वयंभूप्रभो-
राज्ञा क्षत्रियमौलिमण्डनमणेस्तातस्य सानुग्रहा।
विप्राशीर्वचनानि मन्त्रसुरभीण्याकाङ्क्षितान्यन्वहं
पौराणां च जयोत्तराणि तदमूरीषज्जयाः स्युर्दिशः॥१७॥
एष ब्राह्मणक्षत्रियादिवर्णकीर्त्तनाद्वर्णसंहारः1189।
मन्त्रिणः—
राजपुत्र1190 स्वभावनिरर्गलस्य1191 तव भुजार्गलयोरोजायितस्य कियती भूतलविजयविडम्बना।
परि०—
¹विअअलच्छीपाणिग्गहणसमअदिण्णा विअ1192 मङ्गलख्खदा जुवराअस्स1193 सीसे दीसंदि1194।
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वसन्तराजीयेऽप्युक्तम्।
‘धृतातपत्रः शुभशुक्लवासाः
पुष्पार्चितश्चन्दनचर्चिताङ्गः।
विप्रः शिखावान् कृतभोजनश्च
ददाति दृष्टः पथि सर्वसिद्धिम्॥’
इति। महोत्सवादीत्यादिशब्देन धेन्वादिदानं गृह्यते। तदुक्तं मानसोल्लासे।
‘ततः कृत्वा महापूजामुद्दिश्य कुलदेवताम्।
धेनुं भूमिं1195 हिरण्यं च विप्रेभ्यो विधिनार्पयेत्।
तदाशिषः समादाय नीराजितहयद्विपः॥’
इति1196।
आमूलादिति। संपूर्णः स्वयंभूप्रसाद इत्यर्थः। पौराणामाकाङ्क्षितानि मनोरथाः। नपुंसके भावे क्तः। जयोत्तराणि जयप्रधानानि। तत्तस्मादमूश्चतस्र एव दिशः ईषज्जयाः सुलभजया इत्यर्थः। ‘ईषद्दुर्—’ इत्यादिना खल्प्रत्ययः। दिग्विजये देवताप्रसादादिकं बृहतीफलभञ्जने महोपलप्रयोगमनुकरोतीति1197 भावः। अङ्गं योजयति। एष इति।
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छाया।
1 विजयलक्ष्मीपाणिग्रहणसमयदत्ता इव मङ्गलाक्षता युवराजस्य शीर्षे दृश्यन्ते।
विप्रः—राजपुत्र तत्तद्दिग्विजययात्रावार्त्ताहारिणः पुरुषा नातिचिरादेव प्रेषणीया1198 इति महाराजस्याज्ञा।
प्रताप०1199—शिरसि कृतस्तातस्य नियोगः। (अमात्यान् प्रति) कतिचन यूयं काकतीश्वर1200सेवार्थंनिवर्त्तध्वम्। कतिपये1201 विजययात्रापराः प्रवर्त्तध्वम्।
अमात्याः—(सप्रणामम्) यदाज्ञापयति युवराजः।
विप्रः—स्वस्ति विजयाय शिवाः पन्थानः सन्तु राजपुत्राय।
प्रताप०—(सप्रश्रयम्) भगवन्ननुजानीहि। वयमितः प्रतिष्ठामहे। (इति यथोचितं परिक्रम्य निष्कान्ताः सर्वे)।
इति1202 विजययात्राविलासो नाम द्वितीयोऽङ्कः।
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राजपुत्रस्येति। ओजःशब्दो वृत्तिविषये तद्वति वर्त्तते इति पदमञ्जरीकारः। अतस्तद्वतः सिंहशार्दूलादेरिवाचरितमोजायितं बलमित्यर्थः। ‘कर्त्तुःक्यङ् सलोपश्चेति क्यङन्ताद् भावे क्तः। ‘ओजसोऽप्सरसो नित्यम्’ इति नित्यः सलोपः।
स्वस्तीति। विजयलक्ष्मीपाणिग्रहणसमयदत्ता इव मङ्गलक्षता युवराजस्य शीर्षे दृश्यन्ते। विजयायेति क्रियाग्रहणाच्चतुर्थी। राजपुत्रायेति स्वस्तियोगे।
सप्रश्रयमिति। प्रतिष्ठामह इति।
‘समवप्रविभ्यः स्थः’ इत्यात्मनेपदम्।
इति1203 नाटकप्रकरणे द्वितीयोऽङ्कः।
(ततः प्रविशतो लेखहस्तौ1204 जाङ्घिकौ)।
एतत्पूर्वाङ्कान्तेन पात्रेण1205 विप्रेण निर्दिष्टयोः पात्रयोरुत्तराङ्के प्रवेशादङ्कास्यम्।
प्रथमः—(सानुबन्धाश्चर्यम्1206) अहो प्रतापरुद्रस्य महिमानुभावः। यस्य विजयमात्रासंभ्रमेणैव व्याकुलीकृतानि द्वयानामपि1207 भूभृतां1208 कटकानि1209।
द्वितीयः—वयस्य किमुच्यते
काकतीयप्रदीपोऽयमंशश्चातुर्भुजः स्वयम्।
यद्वज्रकवचायन्ते1210 प्रसादाश्च स्वयंभुवः॥१॥
एष स्वयंभूदेव1211प्रसादरूपस्य वीजस्यान्वेषणाद् गर्भसंधिः।
प्रथमः—(अध्वक्लममभिनीय पुरोऽवलोक्य1212) प्राप्तेयमन्ध्र1213नगरी। (किंचित्प्रवेशनाटितकेन समन्ततो1214 निरूप्य) अहो निरतिशयमौदार्यं रुद्रनरेश्वरस्य। यदेते वैतालिकाः सर्वे भोगावलीप्रमुखांश्चाटुप्रबन्धान् पठन्तः1215 स्वभाव1216रमणीयाः प्रतिरवेण पाठयन्तीव1217 ककुभः।
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तत इति। जङ्घया चरत इति जाङ्घिकौ वार्त्ताहरौ। अङ्कास्यं योजयति। एतदिति। महिमानुभावो महिमातिशयः। द्वयानां पर्वतानां राज्ञां च। कटकानि पर्वतनितम्बप्रदेशा राजधान्यश्च। ‘कटकं बलये सानौ राजधानीनितम्बयोः’ इति विश्वः।
काकतीयेति। चातुर्भुजो वैष्णवः। वज्रकवचायन्ते वज्रकवचवदाचरन्ति। ‘कर्त्तुःक्यङ् सलोपश्च’ इति क्यङ्प्रत्ययः। ङित्वादात्मनेपदम्। गर्भसंधिं योजयति। एष इति। बीजस्येति। प्रतिमुखसंधौ लक्ष्यालक्ष्यतया दृष्टनष्टस्येति शेषः। एतच्चान्वेषणादित्यनेन लभ्यते1218।
वैतालिकभोगावलीप्रमुखा उक्तलक्षणाः। पाठयन्तीति प्रतिदिशं प्रतिध्वनिरुत्पद्यत इत्यर्थः।
** द्वितीयः—(सम्यङ्1219निर्वर्ण्य सप्रत्यभिज्ञाश्चर्य1220मपवार्य1221) सखे पश्य1222 पश्य।**
सम्यङ्मागधवेषधारणतिरोभूता अपि क्ष्माभुजः1223
सूच्यन्ते प्रभुतारहस्यपिशुनैराविष्कृतैर्लक्षणैः।
हस्ताग्रैर्ध्वजचक्रलाञ्छिततलैर्वक्षस्थलैर्विस्तृतै-
राकारैरमनुष्यमात्रसुलभैर्वृत्तैरनीचैरपि॥२॥
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अपवार्येति। रहस्यकथनार्थमिति भावः। सम्यगिति। मागध1224लक्षणमुक्तम्।
‘राज्ञः पुरजनस्यापि मङ्गलाचारशंसिनः।
मान्यैर्मागधिकागीतैर्मागधा इत्युदीरिताः॥’ इति।
प्रभुतैव रहस्यं गूढं वस्तु मागधवेषतिरोहितत्वात् तेषामिति भावः। ध्वजचक्रग्रहणं राज्यसूचकरेखोपलक्षणार्थम्1225। तदुक्तं वराहसंहितायाम्।
‘चक्राड्यपरशुतोरणशक्तिधनुःकुम्भसन्निभा रेखाः।
कुर्वन्ति चमूनाथं मकरध्वजसन्निभा महीपालम्॥’
इति। वक्षोविस्तारफलमपि तत्रैव।
‘उरो ललाटं वदनं च पुंसां
विस्तीर्णमेव त्रितयं प्रशस्तम्।’
इति। वृत्तैर्जङ्घादाविति शेषः। ‘वृत्तजङ्घो भवेद् भूयो वृत्तलिङ्गो भवेद्धनी।’ इति वचनात्। अनीचैरुन्नतैः वक्षःप्रभृतिषु दीर्घैर्वाहनप्रभृतिषु। तदपि तत्रैवोक्तम्।
‘वक्षोऽथ कक्षौ नखनासिकास्यं
कृकाटिका चेति षडुन्नतानि॥
हनुलोचनबाहुनासिकं
स्तनयोरन्तरमत्र पञ्चमम्।
अतिदीर्घमिदं तु पञ्चकं
न भवत्येव नृणामभूभृताम्॥’
इति। अत एवामनुष्यमात्रसुलभैः भूपतिव्यतिरिक्तदुर्लभैरित्यर्थः॥
प्रथमः—नूनमेते प्रतापरुद्र1226समरपराङ्मुखा वक्षःस्थलविरचित1227वराहलक्ष्माणः प्राणत्राणार्थमनया रीत्या काकतीयमहाराजं प्रसादयितुम1228ध्यवस्यन्तीति तर्कयामि1229।
एतत् प्रस्तुतोपयोगिप्रतिराजच्छद्माचरणादभूताहरणम्। जाङ्घिकेन पुनस्तैर्लक्षणै1230र्नरेश्वराभ्यूहनादनुमानं च।
द्वितीयः—अहो विजययात्राश्रवणविशेष1231कुतूहलिता पौराणाम्। यदावामनुसरन्ति1232 पुनः पुनः प्रश्नमालाविधेयास्तत्1233 सखे प्रकाश्यतां प्रतापरुद्रस्य भुजयो1234र्विजयोदाहरणम्।
प्रथमः—(किंचिदुच्चैः) भो भोः श्रूयतां काकतीय1235कुलश्लाघाकामधेनुः प्रियोदन्तः1236।
जेत्रा काकतिवीररुद्रविभुना सर्वा दिशो निर्जिताः
क्ष्मापालाः करदीकृताः कृतमिदं निर्वीरमुर्वीतलम्।
यस्योद्यद्भुजवैभवं सरभसारोह1237द्विषत्कामिनी1238-
मञ्जीरध्वनिपूर्णकन्दरमुखै1239र्व्याकुर्वते पर्वताः॥३॥
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सूचितमर्थं द्रढयति। नूनमिति। अस्या अपि रीतेर्दास्यावान्तरभेदत्वादिति भावः। यदाहुः—
‘पद्यमङ्गुलिविच्छेदमुरोविन्यस्तमक्षरम्।
तन्नामकरणं चेति दास्यमेतच्चतुष्टयम्॥’
इति। शिष्टं स्पष्टम्। प्रियोदन्तः प्रियवार्त्ता। जेत्रेति। करदीकृताः बलिप्रदाः कृताः। अभूततद्भावे च्विप्रत्ययेनेयन्तं कालमजय्या अपि जिता इति लभ्यते। निर्वीरं प्रतिवीररहितम्। ये करं न प्रयच्छन्ति ते प्राणैरेव वियोजिता इत्यर्थः। ततः किं जातमत आह। यस्येति। व्याकुर्वते व्याचक्षते।
एष तत्त्वानुकीर्त्तनरूपो1240 मार्गः।
द्वितीयः—सखे नूनमेषु दिवसेषु काकतीयमहाराजो निरन्तरं पुरस्कृतपुरोधःप्रवरामात्यबृद्धो1241 युवराजविजयमाशंसमानो गमयति वासराणि।
प्रथमः—उचितमाचिन्तितं1242 वयस्येन।
द्वितीयः—(पुरोऽवलोक्य सहर्षम्)। कथमस्मदीयं वचनमाकर्ण्य नूनं महाराजाय निवेदयितुममात्यपुत्रः सहर्षसंभ्रमं राजकुलाभ्यन्तरं प्रविशति। तदावामपि प्रतीहारभूमिमध्यास्य काकतीश्वरावसरं प्रतिपालयिष्यावः। (इति परिक्रामतः)
एतद् वितर्कप्रतिपादनाद्रूपम्।
(ततः प्रविशत्यमात्यपुत्रः।)
अमा०—(सप्रमोदम्) अहो मम धन्यता यदीदृशानां महोत्सवानां निवेदयितास्मि संवृत्तः। यन्मया विज्ञापितैः श्रवणप्रियंकरैर्वात्तामृतैः स्वप्नसाक्षात्कृतादपि स्वयंभूदेवप्रसादात् प्रमोदयिष्यते काकतीयवृषा।°
एषोत्कर्ष1243रूपोदाहृतिः।
(पुरोऽवलोक्य) कथमयं महाराजः पुरोहितैरमात्यैरन्येन परिजनेन च परिवृतो महास्थानमधिरोहति1244। तदहमुपसर्पामि। (इति परिक्रामति)
(ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टो राजा मन्त्रिणश्च1245 पुरोधसश्च1246)।
राजा—(सविमर्शाश्चर्यम्1247) (अमात्यान् प्रति)—अहो शैशवेऽप्यु-
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अप्रियाणि प्रियाणि क्रियन्त एभिरिति प्रियंकराणि। ‘आढ्यसुभग—‘इत्यादिना रु्युन्प्रत्यये मुमागमः। काकतीयवृषा काकतीन्द्रः।
चितकारित्वं वत्सवीररुद्रस्य1248। यदस्मदनुरोधार्थमिमानमात्यान्1249 निवर्त्त्य स्वयमेव प्रस्थितः1250।
मन्त्रिणः—(सबहुमानम्) महाराज भवता खलु पितृमान् स1251 कुमारः।
पुरो०—विजयप्रस्थानात् प्रभृति नक्तन्दिवमुन्मिषन्ति कल्याणानि निमित्तानि1252। तद्विजिता एव दिशो राजपुत्रेण।
राजा—भवदाशिष1253 एव काकतीयकुलश्रेयांसि स्वयं प्रदुहते1254।
परि०—¹काअइअकुलस्स1255 किं णु ण संपुष्णं पुण्णेण जस्सि अवइण्णो1256 भुवणे1257क्कभेद्दो1258 पआबरुद्दो।
राजा—(सौत्सुक्यम्) कथं चिरयति वत्सस्य विजय1259श्रवणमहोत्सवः।
अमात्यपुत्रः (सविनयं1260 ससंभ्रममुपसृत्य सप्रणामम्)—देव मध्यमलोकपाल युवराजप्रेषितौ विजयवार्त्ता1261हारिणौ प्रघाणप्राङ्ग1262णमधिवसतः।
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भवता खलु पितृमानिति कारणगुणानां कार्ये संक्रान्तिरुचितैवेति भावः।
नक्तं च दिवा च नक्तन्दिवम्। ‘अचतुर—’ इत्यादिना सप्तम्यर्थवृत्त्योरव्यययोर्द्वन्द्वसमासो निपात्यते। कल्याणानि शुभनिमित्तानि उन्मिषन्त्युद्भवन्ति।
प्रदुहते। दुहतेः कर्मकर्त्तरि तङ्। ‘न दुह—’ इति यक्प्रतिषेधः। काकतिकुलस्य किन्नु न संपूर्णं पुण्येन यस्मिन्नवतीर्णो भुवनैकभद्रः प्रतापरुद्रः।
प्रघाणो वहिर्द्वारप्रकोष्ठकः। अगारैकदेशे प्रघणः प्रघाणश्च निपातितः। तत् प्राङ्गणमधिवसतः। ‘उपान्वध्याङ्वसः’ इति सकर्मकत्वम्।
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छाया।
1 काकतीयकुलस्य किं तु न संपूर्णं पुण्येन यस्मिन्नवतीर्णो भुवनैकभद्रः प्रतापरुदः।
एष संचिन्त्यमाना1263र्थप्राप्तिरूपः क्रमः1264।
(सर्वे सहर्षातिशयं1265 रूपयन्ति1266)।
मन्त्रिणः—भद्र शीघ्रं प्रवेशय।
अमात्य०—यदादिशन्ति1267 महामन्त्रिणः1268 (इति निष्क्रम्य सह ताभ्यां पुनः प्रविष्टः1269)
पुरुषौ (प्रणमन्तावुपसृत्य)—देव विश्वैकविजयिना पुत्रेण वर्धसे बाढमप्रमेयमहिमा प्रतापरुद्र1270भुजस्थेमा यच्छैशवेऽप्यतिशयिततरुणकाकतीय1271पराक्रमस्तस्य विक्रमः।
राजा—(सहर्षातिशयम1272मात्यानवलोक्य) मनोरथाभ्यामविचिन्तितोपगताभ्यां महार्घ्यं1273 पारितोषिकं प्रतिपाद्यताम्। द्विगुणी1274कृतहर्षयो1275रनयोर्मुखाद्वत्सस्य विजयलक्ष्मीपाणिग्रह1276णवृत्तान्तश्रवणमहोत्सवेन चरितार्थयामः श्रोत्रवृत्तिम्।
मन्त्रिणः—यदाज्ञापयति देवः(इति भौरिकमुखात् तथा कुर्वन्ति)
एष सामदानाचरणः1277 संग्रहः।
(पुरुषौ सप्रणामं गृहीत्वा मूर्ध्नि निधाय महाराजप्रसादमभिनन्दतः।)
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भूरि सुवर्णंतत्र नियुक्तो भौरिकः कनकाध्यक्षः।
नीराजना नाम राष्ट्रसमृद्धये शरत्कालकर्त्तव्यः शान्तिकर्मविशेषः। स च गजप्राधान्येनाश्वप्राधान्येन1278 च द्विविधः। तदुक्तं शौनकेन1279—
‘नवम्यामाश्वयुङ्मासे कार्त्तिकायामथापि वा।
हस्तिनीराजनं कुर्याद्राजा जनसमृद्धये॥
अश्वनीराजनं कुर्यादश्वानां हितकाम्यया।
तद्वच्चैवाश्वयुङ्मासे पूर्वपक्षे नृपोत्तमः॥’
मन्त्रिणः—भद्रावित एत्य युवराजविजयविहृतयः1280 पराक्रमपल्लविता महाराजसदसः कर्णपुरीक्रियन्ताम्।
पुरुषौ—सावधानमवधारयतु महाराजः।
प्रथमः—देव1281 देवस्य प्रसादेन वाजिनीराजनासमिध्यमानस्य वीतिहोत्रस्य विजयप्रदानेन1282 द्विगुणीकृतोदग्रप्रतापे1283 प्रतापरुद्रे प्रतिष्ठमाने
यात्रारम्भमहेष्वहंप्रथमिकानिर्यच्चभूडम्बर-
क्षुण्णक्षोणितलोत्थितेतिबहुले पांसौ वियद्व्यापिनि1284।
जेतव्याः सकला दिशः स्वविभुतामन्तः पिधायाधिक-
त्रासात्1285 क्वापि पलायिता इव दृशां नैवाभवन् गोचराः॥४॥
अनन्तरं च।
उद्वेल्लच्चतुरर्णवीकलकलो नायं चमूडम्बरो
नेदं दुन्दुभिगर्जितं त्रिपुरजित्कल्पान्तढक्का1286रवः।
इत्याटोपपटीयसीषु पुरतो धाटीषु भारानम-
च्छेषाशेषफणासु विस्मितमथ त्रस्तं दिगीशैरपि॥५॥
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इति। तत्र द्वितीयं प्रत्याह। वाजिनीराजनेति। वीतिहोत्रस्य हुतभुजः।
यात्रेति। महेषूत्सवेषु। अहं प्रथमोऽहं प्रथम इति यस्यां क्रियायामसावहंप्रथमिका। मयूरव्यंसकादित्वात् समासः। स्वार्थे कप्रत्ययः। स्वविभुतां निजव्यापकरत्वम्। अत्रानुपहितदिग्गतं विभुत्वं चोपहितास्वपि प्राच्यादिषूपचर्यते। अत्र सेनारजोव्याप्तिनिमित्तस्य दिशामदर्शनस्य भयनिमित्तपलायनहेतुकत्वोत्प्रेक्षणादुत्प्रेक्षालंकारः।
उद्वेल्लदिति। परितो धाटीषु
‘शत्रुदेशावमर्दाय सद्यः सुभटघोटकैः।
विजिगीषोः प्रवृत्तिर्या सा धाटीति निगद्यते॥’
इत्युक्तलक्षणासु। आटोपपटीयसीषु संरम्भपटुतरासु सर्वतोमुखसंभ्रमास्वित्यर्थः। इति विस्मितमित्यन्वयः। उद्वेलार्णवकोलाहलकल्पान्तपटहप्रणादकल्पयोश्चमूसं-
पुरोधसः1287—अहो निरङ्कुशमो1288जायितमन्ध्रचमूपतीनाम्1289।
द्वितीयः—अथ युवराजाज्ञया प्रथमं माघवनीं दिशं प्रचलितानि सैन्यानि।
रथेनाभिमुखं यान्तं वीररुद्रो विलोक्य माम्।
मृष्यते नायमित्यर्कः सैन्यरेणौ तिरोहितः॥६॥
मन्त्रिणः—ततस्ततः।
द्वितीयः—अनन्तरं सेनाग्रगैरेव पौरस्त्यान् क्षुद्रक्षत्रियान् निर्जित्य1290 सर्वपथीनेनाटोपेन पटीयसि1291 तस्मिन् महति बले प्रचलति1292
युद्धाय समनह्यन्त कलिङ्गाः स्फुटपौरुषाः।
माद्यद्द्विपघटोद्दामसंभ्रमाडम्बरोद्धताः॥७॥
तैः सार्धमन्ध्र1293चमूपतीनां पराक्रमघने1294 महत्यायोधने
पीत्वा मांसोपदंशं द्विरदगलगलद्रक्तमैरेयधारां
मत्तो मस्तिष्कलग्नैर्दलितनृपवपुःकीकसैः स्पष्ट1295दंष्ट्रः।
विभ्रद्रौद्रान्त्रमालां जनितजनभयो भैरवाकारघोरः
संग्रामोर्व्याः कलिङ्गैर्बलिविधिमकरोद्वीररुद्रस्य खङ्गः॥८॥
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भ्रमदुन्दुभिगर्जितयोरभूतपूर्वयोरेनुभवाद1296द्भुतमभूदित्यर्थः। अथ सैनिकाभिनिवेशदर्शनानन्तरं दिगीशैरिन्द्रादिभिरपि त्रस्तं किमुतान्यैरन्तरालवर्त्तिभिरिति भावः। उभयत्र भावे क्तः।
मघोन इन्द्रस्येमां माघवनीं1297 दिशं प्राचीम्। सैन्यरजसा सूर्ये तिरोहिते सत्युत्प्रेक्ष्यते। रथेनेति। मामर्कमयं वीररुद्रो न मृष्यते न सहते परिपन्थिबुद्ध्येति भावः।
पौरस्त्यान् प्राच्यान् सर्वान् पथो व्याप्नुवता सर्वपथीनेन।
युद्धायेति। माद्यद्द्विपानां घटाः संग्रामादौ सज्जनानि1298। ‘करिणां घटना घटा’ इत्यमरः। तासामुद्दामसंभ्रमेणाधिकाटोपेन डम्बरेण संग्रामपटहप्रणादेनोद्धताः।
युद्धे वीररुद्रस्य1299 खड्गस्य काल1300भैरवसमाधिमाह। पीत्वेति। मांसेनोपदश्य
पुरो०—मानुषवेषतिरोहितेनापि1301 काकतीयविष्णुना किंचिदाविष्कृतो निजप्रभावः।
मन्त्रिणः—(सहर्षातिशयाद्भुतम्1302) अहो पराक्रमातिभूमिः प्रतापरुद्रस्य।
परि०—¹सरिसं खु एदं जं महाराअरुद्दणरेस1303रणंदणेण किदव्यं1304 जं काअइकुलप्पसवाणं खमं जं कुलदेवदाए सअंभूदेवस्स प्पसत्तिविसेसाणं जुत्तं तं खु किअं जुवराएण।
राजा—(सप्रमोदगद्गदम्1305) ततस्ततः।
प्रथमः—अनन्तरं
छिन्नोद्यद्वैरिवीरप्रतिभट1306मुकुटाटोप1307संजातराहु-
भ्रान्ति1308भ्रश्यत्प1309तङ्गाभयकरपृतनारेणुवद्धान्धकारा।
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मांसोपदंशं मासमुपदंशं कृत्वेत्यर्थः। ‘उपदंशस्तृतीयायाम्’ इति णमुल्प्रत्ययः। मांसस्य दंशनक्रियाकर्मत्वेऽपि पानक्रियाकरणत्वात् तृतीयोपपदत्वम्। ‘तृतीयाप्रभृत्यन्यतरस्याम्’ इति विकल्पादुपपदसमासः। मस्तिष्कं नाम मस्तकस्थितो गोर्दापरपर्यायो भेदोविशेषः। तल्लग्नैः कीकसैरस्थिभिः सृष्टदष्ट्रः।
सदृशं खल्वेतत् यन्महाराजरुद्धनरेश्वरनन्दनेन कर्त्तव्यं यत् काकतिकुलप्रसक्तिविशेषाणां युक्तं तत्खलु कृतं युवराजेन।
छिन्नेति। प्रतिभयेन भयंकरेण मुकुटाटोपेन संजातया राहुभ्रान्त्या भ्रश्यतः क्लिश्यमानस्य पतङ्गस्य सूर्यस्याभयकरणेनाभयसाधनेन। मुकुटाच्छादकतया राहुभ्रान्तिनिवर्त्तकत्वेनेति भावः। चमूरेणुना बद्धान्धकारा अत एव संग्रामवेलाया रात्रित्वं प्रतीयते। तत्रेभकुम्भनिर्गता मुक्ता एव ताराः। अप्सरोमुखमेव चन्द्रोऽभूदित्याह। विहरदिति।
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छाया।
1 सदृशं खल्वेतत् यन्महाराजरुद्रनरेश्वरनन्दनेन कर्त्तव्यं यत् काकतिकुलप्रसवानां क्षमं यत् कुलदेवतायाः स्वयंभूदेवस्य प्रसक्तिविशेषाणां युक्तं तत् खलु कृतं युवराजेन।
आसीत् संग्रामवेला विहरदसिलतोद्भिन्न1310मत्तेभकुम्भ-
प्रोद्यन्मुक्तौघतारानिकर1311परिवृतस्वर्वधूवक्रचन्द्रा॥९॥
अनन्तरं युवराजाज्ञया
वृत्रारातिदिगन्तरालविजयप्रख्यातविक्रान्तयः
पारेपूर्वपयोधिकल्पितजयस्तम्भाः स्फुरत्ते1312जसः।
बेलाकाननवासिगीतविभवं देवस्य दोर्विक्रमं
शृण्वन्तो मुहुरन्ध्रसैन्यपतयः प्राप्ता दिशं दक्षिणाम्॥१०॥
तत्र च
मुनौ लोपामुद्रासुहृदि निकटस्थेऽपि महता
भवन्त्येता1313 नद्यः कलुषपयसः सैन्यरजसा।
इतीव व्योमाग्रे मलयपवनान्दोलितशिखाः
पताकाः1314 सोत्प्रासाः1315 प्रतिपदमनृत्यन्नतितराम्॥११॥
अनन्तरं पाण्ड्यप्रमुखान् दाक्षिणात्यान् क्षितीश्वरान्1316 काकतीय1317वीरः1318 स्वचमूपतिनिर्विशेषं संभाव्य तैः सह प्रतीचीं दिशं प्रचलितः1319।
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वृत्रेति। वृत्रारातिरिन्द्रः। तस्य दिक्पाची। पारं पूर्वपयोधेः पारेपूर्वपयोधि। ‘पारेमध्ये षष्ठ्या वा’ इत्यव्ययीभावः।
मुनाविति। लोपामुद्रासुहृदि मुनावगस्त्ये निकटस्थे समीपस्थेऽपि अगस्त्योदये नद्यो निर्मला भवन्ति। तदुक्तं वराहसंहितायाम्।
‘उदये च मुनेरगस्त्यनाम्नः
कुसुमायोगमलप्रदूषितानि।
हृदयानि सतामिव स्वभावात्
पुनरम्बूनि भवन्ति निर्मलानि॥’
इति। कालुष्यमिति। विरोधद्योतकोऽपिशब्दः। सोत्प्रासाः सोपहासाः। लोके कश्चित् प्रबलं कंचन विजित्य सोपहासमुन्नतस्थले चलच्छिखो नरीनर्त्ति। तद्वदिति भावः।
मन्त्रिणः—साधु1320 समाचरितमात्मनीनं पाण्ड्यैर्यत् पूर्वमेव देवस्य चरणमूलं प्राप्ताः1321। ततस्ततः।
द्वितीयः—तत्र च
पाश्चात्यानां ध्वजेषु स्थितमधिकभर1322स्रस्त1323दण्डेषु गृध्र-
व्रातैर्यच्चण्डतुण्डाहतिविहतपदेष्वाहत1324क्षिप्तपक्षैः।
अस्त्रं गारुत्मतं तत् समजनि विजयप्रार्थिनामन्ध्रसैन्य-
प्रष्ठानां1325 जन्यमन्यन्निज1326निबिडभुजादण्डकण्डूविडम्बः॥१२॥
अनन्तरं
जित्वा प्रतीचीमथ वीररुद्रः
प्रत्यर्थिनारीनयनाम्बुपूर्णाम्1327।
रेवां समुत्तीर्य गजानुबन्ध1328-
सेतुं विजेतुं गतवानुदीचीम्॥१३॥
तत्राङ्गवङ्गकलिङ्ग1329मालवप्रभृतयः सर्वे1330 भूपाला1331 मिलित्वा युद्धाय बद्धादराः पुरतः प्रादुरभवन्1332।
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साध्विति। आत्मने हितमात्मनीनम्। ‘आत्मविश्वजन—’ इत्यादिना खप्रत्ययः।
पाश्चात्यानामिति। पश्चाद्भवाः पाश्चात्याः। ‘दक्षिणापश्चात्पुरसस्स्यक्’। तेषां ध्वजेषु गृध्रवातैः स्थितमिति यत्तदेव गारुत्मतमस्रं समजनि। युद्धात् पूर्वं1333 गृध्रैरेव तत्फलं कृतमिति भावः। तदुक्तं वराहसंहितायाम्।
‘क्रव्यादकौशिककपोतककाककङ्कः
केतुस्थितैर्महदुशन्ति भयं नृपस्य।’
इति। अत्र क्रव्यादा गृध्रादय इति तद्व्याख्यातोत्पलपरिमलकारः। तर्हि पुनर्युद्धस्य किं फलमत आह। विजयेति। प्रष्ठानामग्रगामिनाम्। ‘प्रष्टोऽग्रगामिनि’ इति निपात्यते। जन्यं युद्धम्। कण्डूविडम्बः कण्डूयापनयनम्।
जित्वेति। क्त्वाप्रत्ययेनैवानन्तर्ये सिद्धे अथशब्दो विलम्बाभावसूचनार्थः। नयनाम्बुपूर्णांदुस्तरामित्यर्थः। तरणो1334पायमाह। गजानुबद्धसेतुमिति। रेवां नर्मदाम्।
मन्त्रिणः—अहो परमनात्मवेदितोदीच्यानां यत्प्रतापरुद्रस्या1335पि परिपन्थिनो भवन्ति1336।
राजा—ततस्ततः।
प्रथमः—अनन्तरं सममनीकिनीभि1337रापतन्ती1338भी राजकानि विलोक्य सगर्वमेवमु1339क्तं सेनापतिभिः
रे रे1340 गुर्जर1341 जर्जरोऽसि समरे लम्पाक किं कम्पसे
वङ्ग त्वङ्गसि किं मुधा बलरजःकाणोऽसि किं कोङ्कण।
हूण प्राणपरायणो भव महाराष्ट्रापराष्ट्रोऽस्यमी
योद्धारो वयमित्यरीनभिभवन्त्यन्ध्रक्षमाभृद्भटाः॥१४॥
एतद्रोषसंरब्धवचन1342रूपं1343 तोटकम्।
परि०—¹साहु साहु चमूबईणं वअणं। एदं भणि1344अ उण कीरिसं उवक्कंदं1345 तेहिं।
प्रथमः—किं कथ्यते1346। सैनिकानां निरुपमः पराक्रमः।
यस्तत्राभवदाहवस्तमखिलं जानाति भागीरथी
यात्याक्षीत्सुरभूयकारणनिजाहंकारमुच्छ्रङ्खलम्।
आराद्वीक्ष्य समग्रमन्ध्र1213सुभटप्रोद्घूर्णखड्गावली-
धारातीर्थमुपेत्य दिव्यनगरीमारोहतो भूपतीन्॥१५॥
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सममनीकिनीभिः सेनाभिः सह। राजकानि राजसमूहान्। ‘गोत्रोक्षा—’ इत्यादिना वुञ्प्रत्ययः। रे रे इति। व्याख्यातं नायकप्रकरणे। रोपसंबन्धवचनरूपमिति। रोषसंबन्धसंभ्रमवचनरूपमित्यर्थः।
साधु चमूपतीनां वचनम्। एतद् भणित्वा कीदृशमुपक्रान्तं तैः।
स्वात्मनि तनुत्यजामन्ते स्वयमेव दिव्यत्वं संपादयामीति स्वर्गङ्गाया योऽयं महानहंकारस्तन्निवारकोऽयं1347 महाहवस्तदतिशायिमहिमेत्यनुपमः सैनिकपराक्रम इत्याह। यस्तत्रेति। सुराणां भावः सुरभूयम्। ‘भुवो भावे’ इति क्यप्। अत्याक्षीत् त्यक्तवती। आरात् समीपे।
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छाया।
1 साधु साधु चमूपतीनां वचनम्। एतत् भणित्वा पुनः कीदृशमुपक्रान्तं तैः।
अनन्तरं तत्र तत्र1348 प्रlतीनात्मनः प्रतिपक्षभूपालानन्वेष्टु1349कामास्त्रिलिङ्गसैनिका1350स्तत्तद्देश1351वेषभाषादिकमाविष्कुर्वाणाः सर्वतः पर्यटन्ति1352 स्म। जीवग्राहं गृहीत्वा1353 समानयन्ति स्म युवराजान्तिकम्।
मन्त्रिणः—साधीयान् खलु सैनिकानामुद्यमः1354।
एतत् प्रकृतोपयोगित्वेन वचनादधिवलम्।
राजा—ततस्ततः।
द्वितीयः—अनन्तरं नरपतयो निजपरिजनेष्वप्यकृत1355विश्वासाः प्रतापरुद्रस्य पादभूलमेव शरणमुपगताः।
परिजनः—¹अहो1356 णरबइणं1357 जुझ्झका1358अरत्तणं।
एष भयप्रतिपादनादुद्वेगः।
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भयेन प्रच्छन्नवृत्तीन् पार्थिवान् प्रच्छन्नमार्गेणैवासाधयन्नित्याह। अनन्तरमिति। जीवग्राहं गृहीत्वेति। जीवतीति जीवः। इगुपधलक्षणः कप्रत्ययः। जीवन्तं गृहीत्वेत्यर्थः।
‘न च हन्यात् स्थलारूढं न क्लीबं न कृताञ्जलिम्।
न भीतं न परावृत्तं सतां धर्ममनुस्मरन्॥’
इति भीतवधे1359 निषेधस्मरणादिति भावः। ‘समूल—’ इत्यादिना णमुल्प्रत्ययः। कषादित्वादनुप्रयोगः।
इष्टजनातिसन्धानमधिबललक्षणम्। तत्रेष्टं प्रकृतोपयोगि। जनातिसंधानं वञ्चनमित्येवमर्थं1360 मत्वा योजयति। एतदिति। प्रकृतोपयोगि छद्माचरणमात्रमभूताहरणं तेन परवञ्चनमधिबलमित्यनयोर्भेद इति द्रष्टव्यम्।
अहो नरपतीनां साध्वसकातरत्वम्।
एष इति। भयप्रतिपादनादिति। अपकारिकृतभयप्रतिपादनादित्यर्थः।
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छाया।
1 अहो नरपतीनां युद्धकातरत्वम्।
प्रथमः—किमुच्यते कातर्यमिति।
अङ्गाः संगरभीरवः समभवंश्चोलाः पलायाकुलाः1361
काश्मीराः स्मरणीयविक्रमकथा हूणा निरीणश्रियः।
लम्पाका भयकम्पमानवपुषो1362 बङ्गा निरङ्गीकृता
नेपालाः परिपालनव्यसनिनः सुंह्याश्च1363 नीरंहसः॥१६॥
अपि च
काम्बोजाः क्षतकुम्भिनीपरिचयाः प्राप्तव्रणाः सेवणा
गौडाः पीडितविग्रहाः श्रितकुल1364ग्रावाङ्कणाः1365 कोङ्कणाः।
लाटाः पाटितमूर्त्तयः परिलसद्भी1366विह्वलाःसिंहालाः1367
कर्णाटाः परिपूर्णवेपथुभृतस्तन्द्रालवो मालवाः॥१७॥
किं च
भोजा व्यर्थभुजायुधाः क्षतनिजस्त्रीकेलयः केरलाः
पाण्ड्याः खण्डितविक्रमाः1368 प्रकटितहीजर्जरा गुर्जराः1369।
पाञ्चालाः प्रणतिप्रपञ्चितभिय1370श्चाटूत्कटाः1371 कीकटाः
काम्पिल्लाः1372 श्रितपल्लयः1373 कृतयशोभङ्गाः कलिङ्गा अपि॥१८॥
सर्वे हर्षातिशयं1374 नाटयन्ति।
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कातर्यमेव राज्ञां श्लोकत्रयेणाह। अङ्गा इत्यादिना। पलायः पलायनम्। तत्राकुलाः। ‘उपसर्गस्यायतौ’ इति लत्वम्। निरीणश्रियो गतसंपदः। रीणातेर्ल्लादित्वान्निष्ठानत्वम्। निरङ्गीकृताः निरवयवीकृताः। नीरंहसो निर्वेगाः।
काम्बोजा इति। कुम्भिनी भूमिः। तन्द्रालवोऽलसाः निरुद्योगा इत्यर्थः। ‘स्पृहिगृहि—‘इत्यादिना आलुच्प्रत्ययः।
भोजा इति। चाटूनि त्रायस्वेत्यादीनि प्रियवाक्यानि तैरुत्कटाः। श्रितपल्लयः प्राप्ताल्पग्रामाः।
परि०—¹अहो1375 वीररुद्दस्स अइसइदतिभुवणाई1376 जुझ्झाबदाणाई।
राजा—(सहर्षम्1377) महतीं प्रतिष्ठामारोपितं खलु काकतीयकुलं1378 विश्वैकविजयिना वत्सेन।
पुरोहितः—आमूलचूडं फलिताः प्रसक्तयः1379 काकतीयान्वयदेवतानाम्1380।
राजा—ततस्ततः।
प्रथमः—अनन्तरं सकलदिग्विजयसमुत्तेजिततेजोविलासः सर्वनरेश्वराणां तानि तान्युपायनानि स्वीकृत्य समग्रसैन्यैः1381 सपक्षै1382र्महीभृद्गणैराश्रितेन महता बलार्णवेन न्यवर्त्तत विश्वैकवीरो वीररुद्रः।
मन्त्रिणः—(सहर्षम्) कुत्रेदानीं राजपुत्रः।
द्वितीयः—संप्रति किंकुर्वाणराजलोकः सर्वानपि सेनापतीन् नगरं प्रस्थाप्य कतिपयमौलपरिवृतः काकतीयवीरः स्वैरं गोदावरीपरिसरारण्येषु मृगयाकुतूहली बिहरते।
मन्त्रिणः—(सविमर्शम्) महाराज नूनं त्वय्येव शासति वसुमतीं यौवराज्यमेव बहुमन्यते राजपुत्रः।
एषा प्रायाशा। दिग्विजयाकृष्टनरेश्वरवृत्तान्तस्य व्यापित्वात् पताका1383 निरूपिता।
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अहो वीररुद्रस्य अतिशयितत्रिभुवनानि युद्धावदानानि। आमूलचूडमामूलाग्रम्।
किंकुर्वाणराजलोकः किङ्करीभवद्राजवर्गः। मौलं मूलबलम्।
एषा प्राप्त्याशेति। राज्याभिषेकस्य मृगयालक्षणप्रतिबन्धकोपनिपातेन शङ्क्यमानत्वादिति भावः। पताकां योजयति। दिग्विजयेति।
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छाया।
1 अहो वीररुद्रस्यातिशयितत्रिभुवनानि युद्धावदानानि।
राजा—तदचिरमेव1384 युष्माभिरेवानेतव्यो वत्सः अनुनेतव्यश्च राज्याभिषेकाय।
मन्त्रिणः—यदाज्ञापयति देवः। (इति निष्कान्ताः)
नेपथ्ये—(ससंभ्रमम्) भो भो नागरिकाः1385 सत्वरमपसरत दूरम्1386। यदिदानीं
आलानं तरसा निपाट्य निगलान्युच्छिद्य धूताङ्कुशो
वेगोत्पाटितधूर्गतः1387 कटतदीनिर्यन्मदाम्बुस्रुतिः।
भ्रश्यत्पण्यपथं चलद्ग1388जहयं विभ्यज्जनौघं पुरं
विष्वग्व्याकुलयत्यमन्दरभसः1389 स्वैरं करि1390ग्रामणीः॥
एष शङ्कात्रासरूपः संभ्रमः।
राजा—(आकर्ण्य सस्मितम्) कथं व्याकुलयति कटकं करीन्द्रः।
पुरुषः—महाराज नूनमिदानीं नगरं प्रविशतां1391 नरेश्वरोपायनानां द्विपानां गन्धानिलेन संक्रुध्यन्1392 निरर्गलो जातः प्रधानहस्ती।
पुरो०—
पित्रा स्वयंभूपतिनोपदिष्टं
प्रतापरुद्रस्य महाभिषेकम्।
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आलानमिति। आलानं बन्धस्तम्भः। निगलानि शृङ्खलानि। पातितधूर्गतः पातिताधोरणः करिग्रामणीः राजप्रियो गाणपतिर्नाम राजश्रेष्ठः। भ्रश्यत्पण्यपथमित्यादौ शङ्कात्रासयोर्निरूपणात् संभ्रम इत्याह। एष इति।
कटकं नगरम्।
पित्रेति। गजास्यो गणेशः। अत्रेष्टार्थस्य महाभिषेकस्य निर्विघ्नमित्यनेन गणे-
निर्विघ्नमापादयितुं गजास्यः
करेणुराजाकृतिरभ्युपैति॥२०॥
एष गर्भबीजोद्भेदनादाक्षेपः1393।
राजा—(सहर्षम्) तर्हि वयमपि प्रमदवन1394द्वारप्रासादमारुह्य1395 गजेन्द्रमवलोकयिष्यामः(इत्युत्थाय परिक्रम्य1396 निष्क्रान्ताः सर्वे)।
वीररुद्रविजयो1397 नाम तृतीयोऽङ्कः।
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शप्रसादरूपोपायानुसरणादाक्षेपः। इष्टार्थोपायानुसरणमाक्षेप इति लक्षणात्। अत एवात्र गर्भबीजोद्भेदनादित्याह। तस्य प्राप्त्याशासंबन्धित्वेनैवंविधत्वादिति।
अन्तःपुरोचितं राज्ञोपवनं प्रमदवनम्। ‘ङ्यापोः—’ इति ह्रस्वः।
इति तृतीयोऽङ्कः।
ततः प्रविशति धात्री चेटी च।
धात्री—(सरोषम्) ¹हंजे एआरिससहस्स1398कज्जपज्जाउले1399 राअडले1400 महूसवे वि सअला वि रअणी केण समं तुए णीदा1401। ईरिसमहग्धाई1402ं भूसणा1403ईं1404कुदो1405 चोरिआई1406ं। कहं ण जाणिअं1407 तुए दासीए1408 उत्तीए1409। सअला दिसो1410 जऊण चउरंतसामंत1411परिवारो पआवरुद्दो णअरं पविठ्ठो। कुलदेवदाए पसत्तीए महाराअस्स अण्णाए1412 पुरोहिदाणं अणुरोहेण अमच्चाणं अणुवट्टणेण1413 पआणं भाअहेएण1414 खोणीए तवो1415विसेसेण अम्हारिसस्स परिअणस्स सुकअपरिपाएण1416 अभ्भुपगअमहारज्जाहिसेओ1417 जुवराओ1042 संजाओ1418। एव्वं वि एआइणीं1419 मं महूसवा1420उलिअं मोत्तूण1421 कहं1422 ठिदा1423।
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नीचपात्रद्वययुक्तं प्रवेशकं प्रारभते। तत इति। तत्र प्रतिहारप्रवेशात् पूर्वः कथाभागः पूर्वाङ्कशेषतया1424 वृत्तः। उत्तरस्तूत्तराङ्कशेषतया1424 वर्त्तिष्यमाण इति द्रष्टव्यम्। हञ्जे चेटि1425। ‘हण्डे हञ्जे हलाह्वाने नीचां चेटीं सखीं प्रति। ‘इत्यमरः। ईरिसेति1426। महार्घाणि महामूल्यानि। दास्याः पुत्र्या। ‘पुत्रेऽन्यतरस्याम्’ इति विकल्पादलुक्। सकला दिशो जित्वा चतुरन्तसामन्तपरिवारः प्रतापरुद्रो नगरं प्रविष्टः कुलदेवतायाः प्रत्यासत्या महाराजस्याज्ञया पुरोहि-
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छाया।
1 हञ्जे एतादृशसहस्रकार्यपर्याकुले राजकुले महोत्सवेऽपि सकलापि रजनी केन समं त्वया नीता। ईदृशमहार्घाणि भूषणानि कुतश्चोरितानि। कथं न ज्ञातं त्वया दास्याः पुत्र्या। सकला दिशो जित्वा चतुरन्तसामन्तपरिवारः प्रतापरुद्रो नगरं प्रविष्टः कुलदेवतायाः प्रसत्त्या महाराजस्याज्ञया पुरोहितानामनुरोधेनामात्यानामनुवर्त्तनेन प्रजानां भागधेयेन क्षोण्यास्तपोविशेषेणस्मादृशस्य परिजनस्य सुकृतपरिपाकेनाभ्युपगतमहाराजाभिषेको युवराजः संजातः। एवमप्येकाकिनीं मां मधूत्सवाकुलितां मुक्त्वा कथं स्थिता।
अनेन रोषवशान्नि1427यताप्तिप्रदर्शन1428मुखेन बीजस्यावमर्शाद्विमर्शसंन्धिः। चेटीगतदोषप्रख्यापनादपवादोऽङ्गम्1429।
चेटी—¹सामिणि अवराहं सहस्स1430। (इति पादयोः पतति)।
धात्री—(सभ्रूभङ्गम्) ²दासीए उत्ति1431 पटंचलेण1432 सप्पदंसणं पडिमज्जेसि1433 जं पणामेण ईरिसापराहं1434 सिढिलेसि1435 ।
एष रोषसंभाषणरूपः1436 संफेटः1437।
चेटी—³ईरिससहावेब्ब1438 तुमं। ता णिक्कारणकोविणीं1439 होदीं1440 अणुवट्टिउं1441 अहं ण1442 पज्जत्ता।
धात्री—(सरोषशिरःकम्प1443नम्1444) ⁴वक्कशील1445दुल्ललिए लूणकण्णासं1446
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तानामनुरोधेनामात्यानामनुवर्त्तनेन प्रजानां भागधेयेन क्षोण्यास्तपोविशेषेणास्मादृशस्य परिजनस्य सुकृतपरिपाकेनाभ्युपगत1447महाराजाभिषेको युवराजः संजातः। एवमप्येकाकिनीं मां महोत्सवाकुलितां मुक्त्वा कुत्र स्थिता।
विमर्शसंधिं योजयति। अनेनेति। अनेन ग्रन्थसंदर्भेणेत्यर्थः। प्रतिपक्षनिवृत्या कार्यनिश्चयो नियताप्तिः तस्याः प्रदर्शनमुखेन बीजस्य गर्भसंधौ प्रसिद्धस्यावमर्शनात् पर्यालोचनात्।
स्वामिन्यपराधं सहस्वेति। दास्याः पुत्रि पटाञ्चलेन सर्पदंशनं परिमार्जयसि यत् प्रणामेनेदृशापराधं शिथिलयसि। ईदृशस्वभावैव त्वं तन्निष्कारणकोपिनीं
_____________________________________________________________
छाया।
1 स्वामिनि अपराधं सहस्व।
2 दास्याः पुत्रि पटाञ्चलेन सर्पदंशनं परिमार्जयसि यत् प्रणामेनेदृशापराधं शिथिलयसि।
3 ईदृशस्वभावेव त्वम्। तत् निष्कारणकोपिनीं भवतीमनुवर्तितुमहं न पर्याप्ता।
4 वक्रशीलदुर्ललिते लूनकर्णनासां त्वां बध्वा कारागृहभाजनं करोमि।
तुमं बन्धिऊण1448 काराघरभाअणं करेमि। (इति बाहुबन्धनं नाटयति)
एष बन्धनरूपो1449 विद्रवः।
चेटी—(सभयकम्पम्) ¹सामिणि रक्खोहि रक्खेहि असरणं णिरवराहं इमं जणं। तुह अत्तिआए हिडिंबास्समं1450 गच्छंतीए अहं बलक्कारेण णीदा। तत्थ पडिऊलं देव्वं पसादअंतीए विलंबिदं1451। किं करेमि ।
धात्री—(सरोषहुङ्कारम्) ²एआरिसं राअउलमहूसअं उज्झिअ हिडिंबालअगंडसेलेसुं किंत्ति मत्तअं1452 ताडिस्सइ1453 मंदभाइणी1454।
एष गुरुतिरस्का1455ररूपो द्रवः1456।
चेटी—³सामिणि सहेहि विलंबिअं। तुए कादव्वं मंगलोवआरं1457
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भवतीमनुवर्त्तितुमहं न पर्याप्ता। वक्रशीलदुर्ललिते लूनकर्णनासां त्वां बध्वा कारागृहभाजनं करोमि। स्वामिनि रक्ष रक्ष अशरणं निरपराधमिमं जनम्। तव अत्तिकया ज्येष्ठभगिन्या। ‘अत्तिका भगिनी ज्येष्ठा’ इत्यमरः। हिडिम्बाश्रमं गच्छन्त्याहं बलात्कारेण नीता। तत्र प्रतिकूलं दैवं प्रसादयन्त्या विलम्बितं किं करोमि। एतादृशं राजकुलमहोत्सवमुज्झित्वा हिडिम्बालयगण्डशैलेषु किमिति मस्तकं ताढ्यते मन्दभागिन्या। स्वामिनि सहस्व सहस्व विलम्बितं त्वया कर्त्तव्यं मङ्गलोपचारं शीघ्रं निवर्त्तयामि। हञ्जेउत्तिष्ठ उत्तिष्ठ।
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छाया।
1 स्वामिनि रक्ष रक्ष अशरणं निरपराधमिमं जनम्। तवात्तिकया हिडिम्बाश्रमं गच्छन्त्यार्हःबलात्कारेण नीता। तत्र प्रतिकूलं दैवं प्रसादयन्त्या विलम्बितं किं करोमि।
2 एतादृशं राजकुलमहोत्सवमुज्झित्वा हिडिम्बालयगण्डशैलेषु किमिति मस्तकं ताडयिष्यति मन्दभागिनी।
3 स्वामिनि सहस्व विलंबितम्। तव कर्त्तव्यं मङ्गलोपचारं शीघ्रं निवर्त्तयामि।
सिघ्घं णिवत्तेमि1458। (इति वपुषा प्रणमति)
धात्री—(सप्रसादम्) ¹हंजे उठ्ठेहि1459।
एषा विरोधशमनरूपा शक्तिः।
चेटी—(सहर्षमुत्थाय हस्तावलम्बनं1460 दत्त्वा) ²इदो इदो तत्तहोदी1461।
धात्री—(किंचित् परिक्रम्य पुरोऽवलाक्य च) ³कहं एसो पडिहारप्पवरो1462 ससंभमं णिग्गओ1463 ता1464 पच्चासण्णो विअ महाहि1465सेअसमओ1466। तेण राअउत्तस्स मंगलणीराअणदीवरिछ्छोलिं1467 णिवत्तिदुं1468 अम्भंतरं पविसामो1469।
इति निष्क्रान्ते।
प्रवेशकः।
ततः प्रविशति प्रतीहारः।
प्रति०—(साटोपं परिक्रम्य द्वारि नरपतिकुलकलकलमसहमानः सावमानं कनकवेत्र1470लतामुद्यम्य)
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इत इतस्तत्रभवती। कथमेष प्रतीहारप्रवरो बृद्धप्रतीहारः ससम्भ्रमं निर्गतस्तस्मात् प्रत्यासन्न इव महाभिषेकसमयः। तेन राजपुत्रस्य मङ्गलनीराजनदीपरिञ्छोलिं दीपपक्तिं1471 निवर्त्तयितुमभ्यन्तरं प्रविशामः।
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छाया।
1 सखि उत्तिष्ठ।
2 इत इतस्तत्रभवती।
3 कथमेष प्रतीहारप्रवरः ससंभ्रमं निर्गतः तत्प्रत्यासन्न इव महाभिषेकसमयः। तेन राजपुत्रस्य मङ्गलनीराजनदीपरिञ्छोलिं निवर्त्तयितुमभ्यन्तरं प्रविशावः।
दन्ति1474व्यूहमुपायनीकृतममुं कुर्वन्तु पुर्या बहि-
र्यस्योद्यद्धनवृंहितैर्न घटिकाघण्टाध्वनिः1475 श्रूयते।
दूरे चास्तु रथाश्वमेतदखिलं यस्यातिसंमर्दतो
निष्क्रामत् प्रविशच्च नागरकुलं1476 न स्वैरमाचेष्टते॥१॥
एषा तर्जनोद्वेजनरूपा द्युतिः।
(किंचिदुच्चैः) भो भो कुलामात्यबृद्धाः प्रधानाधिकारिणो परिजनाः1477 पौराश्च शृणुध्वम्1478। एषा रुद्रदेवमहाराजस्याज्ञा1479। यथा किल
पूर्वैः काकतिवंशजैर्नृपतिभिः सम्यग्धृता1480 या चिरं
यस्या मानुषशम्भुना गणपतिक्षोणीभुजाभूत् प्रथा।
येयं मद्भुजया कुलाद्रिवसतिं विस्मारिता मेदिनी
सेयं संप्रति वीररुद्रभुजयोर्यातु प्रतिष्ठां स्थिराम्1481॥२॥
एष स्ववंशजानां कीर्त्तनाद्गुरुकीर्त्तनरूपः प्रसङ्गः।
(पुनः साटोपं परिक्रम्य) अधिकृताः किमिदानीमारभध्वम्1482। किमुपक्रान्तः स्वयंभूदेवसमाराधनविधिः। कश्चिद्दत्ताः पुरदेवताभ्यो बलयः। किमभ्यर्चिताः1483 सर्वे वर्ण1484बृद्धाः। कच्चित् प्रसाधिता1485 महाभिषेकवेदिः।
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तत इति। दन्तीति। रथाश्वमिति। सेनाङ्गत्वादेकवद्भावः। नागरकुलं पौरसमूहः। स्वैरमसंबाधेन।
संशृणुध्वमिति। संपूर्वाच्छृणोतेरविवक्षितकर्मकात् ‘समो गम्पृच्छि—’ इत्यादिनात्मनेपदम्। काकतिभूपतीनां भूपरिपालनमुदितोदितं भवतीत्याह। पूर्वैरिति। विस्मारितेत्यत्र ‘गतिबुद्धि—’ इत्यादिनाणि कर्त्तुःकर्मत्वम्। तस्मिन्नभिधेये कर्मणि क्तः। ‘ण्यन्ते कर्त्तुश्च कर्मणः’ इति वचनात्।
किं सज्जीकृतानि कनककलशेषु तीर्थ1486सलिलानि। कच्चिदभ्यर्णमुपनीतान्युत्तमोपकरणानि। किं मङ्गलमुहूर्त्तेकृतावधाना ज्योतिर्विदः। कच्चिदलंकृतास्त्रिलिङ्गनगरी कुरङ्गीदृशश्च1487। यदिदानीं वसुमतीपाणिग्रहणोचित1488मङ्गलाचार1489वेषः प्रतापरुद्रः काकतीयमहाराज्यलक्ष्मीमहान्तःपुरे1490 वर्त्तते। तत्त्वरध्वम्1491। (अन्यतो गत्वा सभ्रूक्षेपमवलोक्य) कथं राजानो न विरमन्ति। (किंचिदुपसृत्य) भो भो भूपा1492ला यथासुख1493माध्वम्1494। सज्जीकुरुध्वमुपायनजातम्। न वृथा संमर्दं सहते मम वेत्रयष्टिः।
एतदवमानरूपं छलनम्।
(समन्तादवलोक्य सगर्वातिशयम्) अहो तृणीकृतजगतां क्षितिभृतामुद्वेलं1495 संमर्दं निवारयतो मम1496 प्रभावः। अथवा काकतीयदौवारिकाणां लिखितपठितमेव1497 राजनिवारणम्।
एष स्वशक्त्याविष्करणरूपो व्यवसायः1498।
(प्रविश्य पटाक्षेपेण दौवारिकः)
दौवारिकः—(साक्षेपम्) अरे1499 केन खल्वसमयविदा1500 भूपतयो निवारिताः। महोत्सवदिदृक्षवः1501 सर्वे1502 प्रविशन्तु।
प्रथमः—(सरोषम्) अरे काकतीयकुलबृद्धप्रतीहारं मामसमयवेदिनमुदाहरति।
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उत्तमोपकरणानि छत्रचामरादीनि। अभ्यर्णमन्तिकम्। उपनीतानि समर्पितानि। लिखितपठितमाबाल्यादभ्यस्तं न नूतनं भवतीत्यर्थः। स्नातानुलिप्तादिवत् ‘पूर्वकाल—’ इत्यादिना समासः।
पटाक्षेपेण नेपथ्यापसरणेन सूचनं विनैव प्रविश्येत्यर्थः।
द्वितीयः—भवतु यो वा को वा भवान् प्रवेष्टव्या नरपतय इति महाराजस्याज्ञा1503।
एतत् प्रतीहारयोरन्योन्यरोषसंरब्धवचनरूपं1504 विरोधनम्1505।
प्रथमः—किमनेन समं शुष्ककलहेन। तावत् प्रधानागारद्वारवेदिकामध्यमध्यासीनं पुरोहित1506पुरस्कृतं युवराजमेवोपसर्पामि1507। (इति परिक्रामति)
द्वितीयः1508.")—अहमपि यथानिर्दिष्टमनुतिष्ठामि। (इति परिक्रामति)
(ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टः प्रतापरुद्रः पुरोधसो मन्त्रिणश्च)
पुरो०—काकतीयकुलतिलक युवराजेन भवता लीलयैव दिशो दश विजिताः सत्यममी1509 सम्य1510गद्य सत्याशिषो वयम्। किं770 च
अद्यान्वयः1511 काकतिभूपतीनां
प्राप्तस्त्रिलोकीप्रथितां प्रतिष्ठाम्1512।
राजन्वती भूरियमद्य जाता
वीतोपसर्गाः1513 सकलाः प्रजाश्च॥३॥
एषा सिद्धवद्भाविश्रेयःकथनात् प्ररोचना।
मन्त्रिणः—
सूर्यसोमान्वयामात्यमहत्ताद्याधरीकृता।
अस्माभिरधिकुर्वाणैः1514 काकतीयकुलस्थितिम्॥४॥
एतत् प्रकृतानुगुण1515प्रशंसनाद्विचलनम्।
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अभिषेकानन्तरकार्यं सिद्धवत् कृत्याह। अद्येति। राजन्वती सुराज्ञी। ‘राजन्वान् सौराज्ये’ इति निपातनात् साधुः। वीतोपसर्गा निरुपद्रवाः।
विचलनं1516 नाम स्वगुणाविष्करणं तत् प्रकृतानुगुण्येन विशिष्यन् योजयति। एतदिति।
पुरो०—राजपुत्र सज्जीकृतेयं महाभिषेकसामग्री काकतीयनरेश्वरा1517धिष्ठितं भद्रासनं भवदधिरोहणं प्रतीक्षते। तत् परिपालय स्वयंभूदेवानुगृहीतां1518 महाराजस्याज्ञाम्।
एतत् कार्यसंग्रहरूपमादानम्1519।
प्रताप०—तर्हि कुलदेवतां स्वयंभूदेवं नमस्कृत्य गुर्वाज्ञां1520 वोढुमिच्छामि।
पुरो०—सदृशोऽयमाचारः काकतीयकुलप्रदीपस्य भवतः। किं तु प्रत्यासीदति महाभिषेकसमयः। तदचिरेणैव विहिर्तकर्त्तव्येन1521 राजपुत्रेणागन्तव्यम्। वयमितः करणीयशेषं परिपालयामः।
प्रताप०—यथादिशन्ति1522 काकतीयकुलप्रत्याययितारः1523। (इत्युत्थाय यथोचितं परिक्रम्य निष्क्रान्ताः सर्वे)
इति1524 त्वरितमहोत्सवो नाम चतुर्थोऽङ्कः।
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राजपुत्रेति। भद्रासनमभिषेकोपयोगी पीठविशेषः। तदुक्तं वास्तुशास्त्रज्ञैः
‘श्लक्ष्णं षडङ्गुलोत्सेधं षोडशाङ्गुलविस्तृतम्।
द्वात्रिंशदङ्गु1525लायामं क्षीरदारुसमुद्भवम्॥
पद्माङ्कितं भवेद् भद्रपीठं स्नपनकर्मणि॥’
इति। एतत् सिंहासनमिति1526 वशिष्ठादयो व्यवहरन्ति।
प्रत्याययितारो विश्वासयितारः स्वाधीनत्वसम्पादका वा। पक्षद्वयेऽपि ग्राह्यवाच इत्यर्थः। प्रतिपूर्वादिणो ण्यन्तात् तृच्प्रत्ययः। ‘प्रत्ययोऽधीनशपथज्ञानविश्वासहेतुषु’ इत्यमरः। सर्वमन्यत् सुगमम्।
इति नाटकप्रकरणे चतुर्थोऽङ्कः।
ततः प्रविशन्ति ज्योतिर्विदः।
ज्योतिर्विदः—(ससंभ्रमं परिक्रम्य) भो भो त्वरध्वम्। कुत्र पुरोधसः कुत्र वा मन्त्रिणः। समानीयतां स्वयंभूदेवसमाराधनासक्तचित्त1527तया बिलम्बमानो राजपुत्रः। येन प्रत्यासन्नतरो वर्त्तते महाभिषेकमुहूर्त्तः।
एतदुत्तराङ्कस्य पूर्वाङ्कार्थानुसंगतत्वादङ्कावतरणम्1528।
(सविमर्शाश्चर्यम्) अहो विश्वातिशायिनी काकतीयकुलप्रतिष्ठा। यतः
आदेष्टा कुलदेवता स भगवान् यस्य स्वयंभूः शिवो
यं सज्जीकुरुते पराक्रमजितः क्षोणीपतीनां गणः।
यस्मै च स्पृहयत्यशेषजगती तं वीररुद्राकृते-
र्विष्णोर्वीक्ष्य महाभिषेचनविधिं नन्दन्ति सर्वे जनाः॥१॥
एष स्वयंभूदेवोपदेशनरेश्वर1529विजयप्रमुख1530संध्यादिबीजार्थानां महाप्रयोजनीभूतमहाभिषेकार्थतया योजनान्नि1531र्वहणसंधिः।
नूनमिदानीं1532 यदिदानीम् P1, M1.”)
स्वप्नेऽप्यासूत्रितामाज्ञां पालयन्तं कुलोद्वहम्।
न मान्त्यन्तर्मुदः शंभोर्विभोरप्यभिनन्दतः1533॥२॥
एष मुखसंधौ प्रसिद्धस्य स्वप्नोपदेशरूपस्य बीजस्योपगम1534सनात् संधिः।
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तत इति। ज्योतिर्विदो मौहूर्तिकाः। अत्र पूर्वाङ्कवर्त्तिभिर्मौहूर्तिकैरसूचितैरेवा1535त्रानुप्रविष्टैरभिहितस्याङ्कार्थस्य पूर्वाङ्कार्थानुगतत्वादङ्कावतरणमित्याह। एतदुत्तरेति। आदेष्टेति। अत्र बीजयुक्तानां मुखसंध्याद्यर्थानां परमप्रयोजनसंबन्धलाभात् निर्वहणसंधिरित्याह। एष इति।
स्वप्न इति। आसूत्रितां सूचितामप्याज्ञां पालयन्तमभिनन्दतोऽनुमोदमानस्य शंभोर्विभोर्व्यापकस्यान्तर्मुदो न मान्ति। अप्रमेयो विचित्रो हर्षोऽभूदित्यर्थः। संध्याख्यमङ्गं योजयति। एष इति। उपगमात् पुनरुपगमनादित्यर्थः।
** (किंचिदुच्चैः1536)**
कल्याणी सकलापि भूतसरणिः क्षेमप्रदा देवताः
स्नेहप्रस्रवनिर्भरा द्विजनुषामाशीर्गिरो जाग्रति।
आरूढाः पदमुन्नतं ग्रहगणाः श्रेयान् मुहूर्त्तः शुभो1537
नक्षत्राणि शिवंकराणि1538 शुभदाश्चान्ये निमित्तोदयाः॥३॥
** तद्वयमेव1539 राजपुत्रानयनाय प्रयतिष्यामहे।**
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कल्याणीति। भूतसरणिः पृथिव्यादिभूतसमूहः। कल्याण्यप्राप्तविकारतया शुभशंसिनीत्यर्थः। श्रेयःप्रस्रवेण श्रेयःसंपादनेन निर्भराः द्विजनुषां द्विजानामाशी1540र्गिरो जाग्रति नित्यं प्रवर्त्तन्त इत्यर्थः। ग्रहगणाः सूर्यादयः। उन्नतं पदमुच्चसंज्ञं स्थानम्1541। तदुक्तं वराहमिहिराचार्यैः1542।
‘अजवृषभमृगाङ्गनाकुलीरा झयवणिजौ च दिवाकरादितुङ्गाः।’
इति। आरूढाः प्राप्ताः। एतत्फलमुक्तं बृद्धवसिष्ठसंहितायाम्।
'
उत्पाददोषादिविवर्जितेऽह्नि
नराधिपानामभिषेक इष्टः।
मूलत्रिकोणस्वगृहोच्चमित्र-
गृहस्थितैर्वाथ तदंशसंस्थैः॥
शुभे विलग्ने सततं ग्रहेन्द्रा1543
दिशन्ति लक्ष्मीं विपुलां च कीर्त्तिम्॥
'
इति। मुहूर्त्तशब्देनात्र षड्वर्गरूपः कालविशेषो विवक्षितः। स च क्रूरसौम्यग्रहसंबन्धवशाद् द्विविधः। तदुक्तम्।
'
लग्नमर्धं तृतीयांशो नवांशो द्वादशांशकः।
त्रिंशांशश्चेति षङ्वर्गः क्रूरसौम्यवशाद् द्विधा॥
'
इति। तत्रायं सौम्य इत्याह। श्रेयानिति। शुभैः सौम्यग्रहैः श्रेयानतिप्रशस्त
इत्यर्थः। तदपि तत्रैवोक्तम्।
'
षड्वर्गो भवति सदा शुभखचरसमुद्भवः शुभदः।
पापसमुत्थस्त्वशुभस्तस्माद्बाह्यस्तु सौम्यषङ्वर्गः॥
'
इति। नक्षत्राणि रोहिण्यादीनि रोहिण्याद्यन्यतमनक्षत्रमित्यर्थः। एकदा बहूनामसंभवात्। शिवंकराणि क्षेमंकराणि। यद्यपि ‘मेघत्तिभयेषु कृञः’ इत्यत्र
एष प्रकृतकार्यमार्गणाद्व1544िरोधः।
(सत्वरं परिक्रम्य पुरोऽवलोक्य च1545 सहर्षसंभ्रमम्) नन्वागत एव प्रतापरुद्रः1546।
विप्रैर्मङ्गलसूक्तपाठमुखरैरालोकशब्दोद्यतै1547-
र्भूपालैः करसंभृतोपकरणैराप्तैरमात्यात्मजैः।
श्लाघ्यैर्वन्दि1548जनैर्दिगन्तविजय1549श्लाघासमुद्धोषणैः
स्त्रीवर्गैश्च यथोचितं परिवृतो नीराजनोद्योगिभिः॥४॥
तद्वयं चास्थानमेव गत्वा समुचितमाचरिष्यामः (इति परिक्रामन्ति)
(ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टः प्रतापरुद्रो मन्त्रिणश्च1550।)
मन्त्रिणः—(सविनयमग्रतो भूत्वा1551) काकतीयकुलतिलक इत इतः। इदं राज्यलक्ष्मीशुद्धान्तं1552 प्रधाना1553गारं प्रविशतु स्वामी। न विलम्बार्हा कुलदेवताया मनोरथाः।
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शिवंकरशब्दश्छन्दस्येव न भाषायामित्याह पदमञ्जरीकारः तथापि ‘क्षेमं करोऽरिष्टतातिः शिवतातिः शिवंकरः’ **इत्यमर1554**कोशमूलोऽयं प्रयोग इत्यनुसंधेयम्। निमित्तोदयाः दिक्प्रसादादयः।
विप्रैरिति। मङ्गलसूक्तानि ‘कनिक्रदज्जनुषं ममाग्ने वर्चो विहवेषु’ इत्येवमादीनि। आलोकशब्दा जयजयेत्येवमादयः। ‘आलोको बन्दिभाषणम्’ इति विश्वः। भूपा अपि वन्दिभ्रमभूमयो बभूवुरिति भावः। उपकरणानि छत्रचामरादीनि। बन्दिजनाः ‘बन्द्यभूभृद्गुणोत्कर्षश्रावकाः बन्दिनः स्मृताः’ इत्युक्तलक्षणाः।
शुद्धान्तप्रधानागारमन्तःपुरप्रधानगृहम्।
एतत् पट्टबन्धरूपकार्यस्योपक्षेपणाद्ग्1555रथनम्।
ज्योति०—(किंचिदुच्चैः) भो भो कुलामात्याः
सन्नह्यध्वमुपाहरध्वमुचितद्रव्याण्युपाध्वं सुरान्
संप्राप्तः सुमुहूर्त्त एष विजयी कल्याणसंपत्खनिः।
यस्मिन् प्राप्य1556 महाभिषेकविभवं क्षोणीं प्रलीनाखिल-
क्ष्मापालां चिरमन्वशाद्गणपतिर्भूभृत्कुलग्रामणीः॥५॥
एष ज्योतिर्विद्भिरनुभूतार्थ1557ख्यापनान्नि1558र्णयः।
परि०—¹कहं1559 पच्चासण्णे वि मुहूत्ते किं विलंबिअदि1560 महामच्चेहिं।
मन्त्रिणः—(उपसृत्य) नाथ किं विस्मृता1561 गुर्वाज्ञा नायमवसरो नरेश्वरविज्ञापनाकर्णनस्य। महास्थान्यामेवानु1562गृह्यन्ताममी।
प्रताप०—शिरसि धृतैव1563 खलु1063 तातस्या1564ज्ञा। किं तु नोपदिश्यते पुनरनन्तरकरणीयम्।
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पुरा खलु गणपतिमहाराजो यस्मिन् मुहूर्तेऽभिषेकमनुभूय समस्तां भुवमेकातपत्रां बुभुजे1565 एतादृशोऽयं मुहूर्त्तः संप्राप्तः। अतोऽवधानेन देवताराधनादिकं कर्त्तव्यमित्याह। सन्नह्यध्वमिति। सन्नह्यध्वं मुहूर्त्ते सावधाना भवतेत्यर्थः। उचितद्रव्याणि तीर्थकलशादीनि। सुरानुपाध्वमर्चयध्वम्। अत्रेदं पित्रादीनामप्युपलक्षणम्। यथाह वृद्धवसिष्ठः।
‘आशिषो वाचनं कृत्वा पूजयेच्च सुरान् पितॄन्।
आयुधानि च पट्टं च विप्रान् गन्धादिनार्चयेत्॥’
इति। अम्वशात्। शास्तेर्लङ्। अनुभूतार्थख्यापनादिति1566। अनुभूतस्य बीजानुगुणस्यार्थस्य ख्यापनादित्यर्थः।
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छाया।
1 कथं प्रत्यासन्नेऽपि मुहूर्त्तेकिं विलम्बते महामात्यैः।
एतत् प्रकृतानुगुण्येना1567न्योन्यपरिभाषणात्1568 परिभाषणम्।
पुरो०—(सविनयसंभ्रममुपसृत्य) स्वीकृतमहाभिषेकवेषः1569 कनकवेदिकामारोहतु प्रतापरुद्रः1570। देव1571 महाराजपर्यायेण1572 भवद्भुज1573शिखरमारोहतु1574 मेदिनी।
प्रताप०—तथा भवतु (इति वेदिकामारोहति)
नृपाः—(सप्रणामं मङ्गलवेदिकां परिवार्य) विजयतां1575 विजयतां काकतीयकुलस्वामी।
एष नरेश्वरपर्युपासनात् प्रसादः।
परि०—(विलोक्य सामोद1576कौतुकम्) ¹पुव्वपब्बअ1577कणअ1578साणुं सहस्सरस्सि विअ1579 सुमेरुकणअ1580तडं महेदो विअ1581 पख्खि1582चक्कवत्तिणं1583 चक्कधरो1584 विअ कणअवेदिं आरूढो पआवरुद्दो।
मन्त्रिणः—काकतीश्वर समारुह्यतां भद्रासनम्। अमी पुरोधसो महाभिषेकाय तीर्थसलिलपूर्णान्1585 कनककलशान् धारयन्ति।
प्रताप०—तथा भवतु (इति स्वयंभूदेवं काकतीयकुल1586वृद्धांश्च प्रणमन् सिंहासने समुपविशति)
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कथं प्रत्यासन्नेऽपि मुहूर्त्ते किं विलम्ब्यते महामात्यैः। पूर्वपर्वतकनकसानुं सहस्ररश्मिरिव सुमेरुकनकतटं महेन्द्र इव पक्षिचक्रवर्त्तिनं चक्रधर इव कनकवेदिकामारूढः प्रतापरुद्रः। त्रयीसमभिमन्त्रणसुरभीकृतसलिलान् वेदत्रयाभिमन्त्रितोदकानित्यर्थः। अभिषेकमुहूर्त्तसूचकं जयघण्टिकाध्वनिमाशीर्वादसाधुवादादिरूपतया संभावयति। प्रतापेत्यादि।
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छाया।
1 पूर्वपर्वतकनकसानुं सहस्ररश्मिरिव सुमेरुकनकतटं महेन्द्र इव पक्षिचक्रवर्त्तिनं चक्रधर इव कनकवेदिमारूढः प्रतापरुद्रः।
पुरो०—(त्रयीसमभिमन्त्रण1587सुरभीकृतसलिलान्1588 कनककलशानमात्यहस्तेष्वपि1589 निधाय सादरम्)
प्रतापरुद्रनृपते काकतीयकुलोचितैः।
प्रजानुरञ्जनैः क्षोणीं पालयाचन्द्रतारकम्॥६॥
(इत्याशीर्वादसाधुवादायमानं पाणिग्रहणकौतुकत्वरमाणमहाराज्य1590लक्ष्मीमञ्जीरशिञ्जिता1591नुमोदितं1592 स्वयंभूदेवप्रमोदाट्टहासोपबृंहितं1593 काकतीयकुलश्रेयःप्रस्तावनाडिण्डिमं चिरावलम्बितधरणीभारखिन्नानां फणिपति1594प्रभृतीनां प्रहर्षक्ष्वेडाविडम्बनं1595 धर्मप्रतिष्ठामङ्गलकाहलीकोलाहल1596मनोहरं महाभिषेकमुहूर्त्तप्रशंसिनं कनकजयघण्टिकानिनामनुसन्दधानाः सत्वरं प्रतापरुद्रमभिषिञ्चन्ति)
एष वाञ्छितार्थप्राप्तिरानन्दः।
एकतो वैतालिकाः—(सहर्षातिशयमुच्चैः)
हे लोकाः पिबत श्रवःप्र1597सृतिभिः1598 कल्याणवार्त्तामृतं
जातः काकतिवीररुद्रनृपते राज्याभिषेकोत्सवः।
अद्यारभ्य कलिः कृतः कृतयुगं1599 राजन्वती मेदिनी
देवाः पूर्णहविर्भुजस्तदधुना यूयं कृतार्थीकृताः॥७॥
_____________________________________________________________
अथ विश्वातिशायिमहिम्नो वीररुद्रस्य राज्याभिषेकमहोत्सवो विश्वप्रियंकर इत्याह। एकत इति। एकतः पुरत इत्यर्थः। श्रवःप्रसृतिभिः श्रवणचुलुकैः। कलिः कृतयुगं1600 कृतः परिपूर्णधर्मत्वादिति भावः। कुतः। राजन्वती सुराज्ञी। ‘राजन्वान् सौराज्ये’ इति निपातनात् साधुः। मेदिनीति ‘राजा कालस्य कारणमिति भावः’। पूर्णहविर्भुज इति। ‘यजेत राजा क्रतुभिर्विविधैराप्तदक्षिणैः’ इति विहितानुष्ठाना1601दिति भावः।
अन्यतो वैतालिकाः—
आरूढे वरवीररुद्रनृपतौ1602 सिंहासनं शासितुं
तस्याज्ञा1603 क्षितिपालमौलिवलभीः स्वच्छन्दमा1604रोहति।
लोकांस्त्रीनधिरोहतो निरवधी कीर्त्तिप्रतापौ हठा-
दारोहन्ति च विन्ध्यभूधरतटान् प्रत्यर्थिनः पार्थिवाः॥८॥
दक्षिणतो वैता०—
गायन्तीरनुमोदते1605 निजवधूः शेषः शिरःकम्पनै-
र्लक्ष्मीं प्रीणयतेऽद्य1606 कच्छपपतिर्वक्षस्थलीदर्शनात्।
दिङ्नागाश्च करेणुकाशुचमपाकुर्वन्त्यनुव्रज्यया
दोष्णा काकतिवीररुद्रनृपतौ विश्वंभरां विभ्रति॥९॥
उत्तरतो वैतालिकाः—
प्रस्थेभ्यः कुलभूभृतामपि हरिद्दन्तावलानां1607 महा-
कुम्भेभ्योऽपि फणाभृतामधिपतेर्मूध्नां सहस्रादपि।
कूर्मेन्द्रस्य च कर्परा1608दपि जगद्विख्यातसारोन्नतौ
बाहौ संप्रति वीररुद्रनृपतेः प्राप्तप्रतिष्ठा1609 मही॥१०॥
एष सर्व1610दुःखशमनात् समयः।
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अन्यत इति। पश्चादित्यर्थः। आरूढ इति। स्वच्छन्दमनर्गलम्। अनेनास्य1611 राज्ञः प्रभुशक्तिरुक्ता। तदुक्तं मानसोल्लासे।
‘आज्ञारूपेण या शक्तिः सर्वेषां मूर्धनि स्थिता।
प्रभुशक्तिर्हि सा ज्ञेया प्रभावमहितोदया॥’
इति। निरवधीति। सूर्याचन्द्रमसोः सीमाचल इव कीर्त्तिप्रतापयोरवधिभूतः कोऽपि नास्तीत्यर्थः। हठशब्दो व्याख्यातः। वीररुद्रे सिंहासनमेकमारूढे सति तदाज्ञायास्तत्कीर्त्तिप्रतापयोस्तत्परिपन्थिनां च ततोऽप्युन्नतानि बहून्यारोहणस्थानानि बभूवुरिति महदेतदद्भुतमिति भावः।
गायन्तीरिति। व्याख्यातमेतत्।
मन्त्रिणः—अहो प्रभावः काकतीयान्वयस्य। यदिदानीं
प्रतापरुद्रस्य महाभिषेक-
पयःकणा ये निपतन्ति राज्ञाम्।
प्रणामनम्रेषु शिरःसु तेषां
तैः कल्पितः1612 स्वस्वपदाभिषेकः1613॥११॥
पुरो०—काकतीयकुलोत्तंस राज्यलक्ष्मीसंवरण1614स्रगियमुत्तंसीक्रियताम्1615 (इति पट्टबन्धमाचरन्ति1616)
सर्वे—(सप्रमोदातिशयम्1617) प्रियं1618 नः प्रियं नः।
एषा प्रकृतकार्यस्थिरीकरणात् कृतिः।
मन्त्रिणः—(सर्वतोऽवलोक्य) कः कोऽत्र भोः। आनीयतां छत्रं चामरयुगलं च।
(प्रविश्य प्रधानप्रतीहारः)
प्रती०—यदाज्ञापयन्ति महामात्याः(इति परिक्रम्य तान्युपानयन्ति1619। प्रान्तवर्त्तिनो नरपतयोऽभ्येत्य तानि सादरं गृहीत्वा यथोचितमाचरन्ति)
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प्रस्थेभ्य इति। प्रस्थेभ्यः सानुभ्यः। कर्परात् पृष्ठास्थिकपालात्।
प्रतापेति। शरणागता महीपतयः महाभिषेकसमये स्वस्वपदेषु स्थापिता इति भावः।
उत्तंसीक्रियतां शिरोभूषणं क्रियताम्।
‘शुक्लमाल्याम्बरभृतः प्राङ्मुखस्य1620 महीपतेः।
पट्टं शिरसि बध्नीयात् सिंहासनगतस्य च॥’
इति वसिष्ठस्मरणात्। पट्टस्तु।
‘राज्ञां नवाङ्गु1621लायामो मध्येऽष्टाङ्गुलविस्तृतः।
चतुरङ्गुलविस्तारपार्श्वः स्वर्णमयः1622 शुभः॥
पट्टः पञ्चशिखो राज्यप्रजासौख्यसमृद्धये।’
इत्याद्युक्तलक्षणो द्रष्टव्यः।
कस्क इति। स्वन्तस्य किमो वीप्सायां द्विर्वचनम्। कस्कादित्वात् सत्वम्।
पुरो०—(सहर्षातिशयम्)
श्रूयन्ते बहवो महानृपतयः किं तैरनीदृक्क्रमै-
रीदृग्विश्वजनीनशौर्यगरिमा1623 जागर्त्ति कः क्ष्मातले।
बाल्यक्रीडितदिग्जयस्त्रिभुवन1624क्षेमंकरप्रक्रियः
किंकुर्वाणसमस्तभूपतिगणः श्रीवीररुद्रो यथा॥२॥
एतदखिलातिशायित्व1625मुखेन प्रकृतकार्यानुमोदनादाभाषणम्।
तदिदानीं खलु
यत् काकतीयनृपराज्यविलासचिह्नं
यच्छायया वसुमती विजहाति तापम्।
छत्रेण तेन कृतलक्ष्मणि वीररुद्रे
मुक्तातपत्रविभवाः सुहृदो द्विषश्च॥१३॥
_____________________________________________________________
श्रूयन्त इति। महानृपतयो नलनहुषादयः। ईदृक्क्रमो वीररुद्रसदृश1626परिपाटी तद्रहितैरनीदृक्रमैः। तत् कथमित्याशङ्क्य वीररुद्रे विशेषमाह। इदृगिति। विश्वस्मै जनाय हितो विश्वजनीनः शौर्यगरिमा यस्य स तथोक्तः नीतिपुरस्कृतपराक्रम इत्यर्थः। शौर्यगरिमाणमाह। बाल्येति। त्रिभुवनक्षेमंकरप्रक्रियः सम्यक्परिपालनेन प्रजाहितस्वभाव इत्यर्थः। यथाह मनुः।
‘संग्रामेष्वनिवर्त्तित्वं प्रजानां चैव पालनम्।
शुश्रूषा ब्राह्मणानां च राज्ञां श्रेयस्करं परम्॥
इति। न केवलं पराक्रमेण किं तु सामादिभिरपि त्रिभिरुपायैः सर्वोऽपि राजलोको वशीकृत इत्याह। किंकुर्वाणेति। तदुक्तम्।
‘एवं विजयमानस्य यस्य स्युः परिपन्थिनः।
तानानयेद्वशे सर्वान् सामादिभिरुपक्रमैः॥’
इति।
छत्रधारणं विशिनष्टि यदिति। यत् काकतीयकुलक्रमागतमित्यर्थः। यच्छाययेति। दुष्टनिग्रहशिष्टप्रतिष्ठापनयोरुपलक्षणम्। तेन सुहृदो मुक्तातपत्रविभवाः द्विषत्सु त्यक्तातपत्राश्चेत्युभयोपपादनम्।
एष राज्यप्राप्तिहेतुभूतच्छत्रारोपणरूप1627कार्यदर्शनात्1628 पूर्वभावः।
मन्त्रिणः—(सविनयमुपसृत्य) नाथ काकतीयलक्ष्मीपते सनाथाः सर्वाः प्रकृतयः सुराजानं त्वां दिदृक्षन्ते। तत् सांप्रतं महास्थानीं प्रसाधयतु देवः।
पुरो०—आचारोऽयं काकतीश्वराणां1629 यन्महाभिषेकानन्तरं प्रजानां योगक्षेमपरीक्षणम्1630।
राजा—यदाज्ञापयन्ति धर्मविदः(इत्युत्तिष्ठति1631)
काकतीयकुल1632बृद्धाः—(ससंभ्रममुच्चैः)
प्रक्रान्तमुर्वी1633पतिमौलिरत्नैः
कुर्वन्तु नीराजनमम्बुजाक्ष्यः1634।
प्रतापरुद्रस्य जगत्प्रदीप1635-
प्रतापनीराजितदिङ्मुखस्य॥१४॥
नृपतयः (शिरंस्वञ्जलिं1636 बद्ध्वा1637) अहो चरितार्था सांप्रतमास्माकी चक्षुष्मत्ता य या खल्बीदृगनु1638भूयते। यतः
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नाथेति। सुराजानमिति। ‘न पूजनात्’ इति न समासान्तः।
आचार इति। अलब्धलाभो योगः। लब्धपरिपालनं क्षेमः। तयोः। परीक्षणं विचारः।
अभिषेकानन्तरकर्त्तव्यं नीराजनमाह। काकतीयकुलवृद्धा इति। अम्बुजाक्षीविशेषणमेतत्। उच्चैरुन्नतम्। ‘अधः प्रवर्त्तयेद्धूपं दीपमूर्ध्वं प्रवर्त्तयेत्’ इति वचनादिति भावः। उर्वीश्वरमौलिरत्नैः प्रक्रान्तमिति। राज्ञां प्रणामानन्तरमित्यर्थः। प्रताप एव प्रदीपः तेन नीराजितानि दिङ्मुखानि येन तथोक्तस्य अत एव तत्फलं नीराजनमिहैवानुभूयते इति भावः।
नीराजयन्त्यन्ध्रपुरीरमण्यः1639
प्रदीपजालै1640श्चलमर्तिगण्डम्1641।
चन्द्राङ्गना गोत्रपतिं रजन्य-
स्तारा1642गणैर्मेरुमिव स्फुरद्भिः॥१५॥
सर्वे जयशब्दं कुर्वन्ति।
मन्त्रिणः—महाराज काकतीश्वर1643 सज्जीकृतं सिंहासनं1644 सर्वतः परिष्कृतमिदं महास्थानमण्डपं सनाथीक्रियताम्।
प्रती०—(ससंभ्रमं पुरोभूत्वा) देव इत1645 इतः।
(राजा सगौरवं परिक्रम्प महास्थान्यां सिंहासनमारोहति। सर्वे प्रणम्य यथार्हमु1646पविशन्ति)
प्रती०—(समयोचितं परिक्रम्य साभिमानं मूर्धाभिषिक्तान्1647 कनकवेत्रलतया निर्दिशन्)
कालिङ्गात्र निषीद कोङ्कणपते दूरे भवाङ्गेश्वर
प्रान्तं संश्रय मालवेन्द्र शनकैः स्वोपायनं प्रापय।
पाण्ड्याग्रे भव सेवणक्षितिपते पश्चाद्भवाद्यैव वः1648
स्वामी संप्रति1649 वीररुद्रनृपतिः सर्वान् क्रमादीक्षते1650॥१६॥
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अस्माकमियमास्माकी। ‘युष्मदस्मदोः’ इत्यण्प्रत्यये ‘तस्मिन्नणि च’ इत्यस्माकादेशः। चन्द्राननाः चन्द्रसदृशाननाः। अन्यत्र चन्द्र एवाननं यासां तास्तथोक्ताः। गोत्रस्य कुलस्य पतिम्। अन्यत्र गोत्राणां पर्वतानां पतिम्।
परिष्कृतं विचित्रवितानसुवर्णकलशादिना भूषितम्। सिंहासनलक्षणं मानसोल्लासे।
‘रुचिरेण सुवर्णेन निर्मितं रत्नरञ्जितम्।
अष्टभिः स्फाटिकैः सिंहैर्मूर्ध्नि तत् सुविराजितम्॥
अधः काञ्चनविन्यस्तरत्नवेदित्रयान्वितम्।
आस्थानमण्डपे राज्ञां सिंहासनमिदं परम्॥’ इति ।
नृपतयः प्रणम्य यथार्हमुपविशन्ति।
पुरो०—स्वस्ति काकतीयकुलावतीर्णाय सुपर्णकेतनाय1651 महामहिम्ने। अद्य सुप्रजसा काकतीयान्वयेन सनाथानि त्रीण्यपि जगन्ति।
शासितर्यविनीतानां नरेन्द्र त्वयि शासति1652।
मध्यस्थतास्य लोकस्य चिरेणान्वर्थतां गता॥१७॥
राजा—(सविनयम्) स्वयंभूदेव भोगाकुलानां1653 भवदाशीर्वादानां फलमिदं काकतीयकुलं यद्वर्द्धते1654।
मन्त्रिणः—राजन् प्रतापरुद्र
पूर्वेषां1655 काकतीयानां भागधेयविभूतयः।
एवंरूपा विवर्त्तन्ते1656 यत्कुलालम्बनं भवान्॥१८॥
पुरो०—न केवलं काकतीयानामेष पुण्यपरिपाकः अपि तु सर्वासामपि प्रजानाम्1657।
(प्रविश्य प्रतीहारः)
प्रती०—देव सर्वाः प्रकृतयो वर्णवृद्धान् पुरस्कृत्य प्रतीहारमध्यासते।
मन्त्रिणः—शीघ्रं प्रवेश्यन्ताम्1658।
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सौवर्णकेतनाय महिम्ने गरुडध्वजावतारायेत्यर्थः। सुप्रजसा शोभनसंतानेन। ‘नित्यमसिच् प्रजामेधयोः’ इत्यसिच्प्रत्ययः। शासितरीति। अविनीतानां दुष्टानां मित्राणाममित्राणां चेति भावः। अत एवेयन्तं कालं स्वर्गपातालमध्यवर्त्तित्वेन मध्यस्थस्य मध्यमलोकस्य। संप्रति पक्षपातराहित्येन माध्यस्थ्यमित्यन्वर्थतामित्यर्थः।
सर्वेषामिति। भागधेयविभूतयो भाग्यसंपदः। एवंरूपाः वीररुद्ररूपाः। विवर्त्तन्ते परिणमन्ति।
प्रती०—यदाज्ञा1659पयन्त्यमात्याः (इति निष्क्रम्य ताभिः सह प्रविशति1660)
(ततः प्रविशन्ति वर्णबृद्धाः1661।)
वर्णबृद्धाः—(सहर्षं राजानमवलोक्य)
वरः प्रतापरुद्रोऽयं वधूरेषा वसुंधरा।
तयोर्घटयिता देवः स्वयंभूः सदृशक्रमः1662॥
एष स्वयंभूस्वयं1663संधातृ1664त्वादद्भुतप्राप्तेरूप1665गूहनम्।
(सविनयमुपसृत्य) स्वामिन् विश्वंभरावल्लभ प्रतापरुद्र
सर्वाशीःफलविक्रमैक1666वसतेः किं वा तवाशास्महे
यद्वा विश्वविभौ1667 स्वयंभुवि शिवे नस्तन्वतामाशिषः।
किं चित्रं स विभुर्भवानपि समो1668 गौरीश्रियोर्वल्लभा-
वाचन्द्रार्कमिमां क्षमां1669 कृतयशोरक्षौ युवां रक्षतम्1670॥
मन्त्रिणः—स्वामिन्नेते स्वायंभुवाः सुधियः1671।
(राजा सादरं प्रणमति)
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वर इति। अत्र वसुन्धरावीररुद्रयोर्वधूवरयोः स्वयंभूदेवः स्वयमेव संघातेति अनुरूपघटनाद्भुतमिति भावः।
अथ स्वयंभूदेवे विदुषामाशीर्वादमाह। स्वामिन्निति। सर्वाशीःफलानामैश्वर्यादीनां विश्रमेण संकोचेनैकवसते मुख्याधारस्य सर्वाणि श्रेयांसि प्राप्तवतस्तवाशास्यं नास्तीत्यर्थः। तथाप्यवाससमस्तकामे स्वयंभुवि शिवेऽपि देवस्थानन्तभोगोऽस्त्वित्येवमाशिषः प्रयुञ्जानानामस्माकं तादृशे त्वय्यपि नैतदाश्चर्यमित्याह। यद्वेति। आशीर्वादप्रकारमाह। स विभुरिति।
अन्ये—(सहर्षातिशय1672मग्रतः स्थित्वा) महाराज1673 काकतीश्वर
यस्त्वद्गोत्रमहत्तरस्य जगतां त्रातुः स्वयंभूविभो-
स्तत्तादृक्चरिताद्भुतैर्महिमाभिः स्वीयैर्द्वितीयोऽभवत्।
देवोऽसौ गणपेश्वरः प्रतिकलं स्फार1674प्रसादोन्मुखो
नप्तुस्ते कुलमण्डनस्य1675 महतीं पुष्णातु राज्यश्रियम्1676॥२१॥
पुरो०—राजन्नेते गाणपतीश्वराः सूरयः1677।
(राजा सादरं नमस्करोति।)
अपरे—(सप्रश्रयप्रमोदम्) स्वामिंस्त्रिलिङ्गदेश1678परमेश्वर
यैर्देशस्त्रिभिरेष याति महतीं ख्यातिं त्रिलिङ्गाख्यया
येषां काकतिराजकीर्त्तिविभवैः कैलासशैलाः कृताः।
ते देवाः प्रसरत्प्रसादमधुराः श्रीशैलकालेश्वर-
द्राक्षारामनिवासिनः प्रतिदिनं1679 त्वच्छ्रेयसे जाग्रतु॥२२॥
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पुरा खलु काकतीयानां पूर्वो गणपतिमहाराजो स्वनामाङ्कितं1680 गणपेश्वरं नाम महेश्वरं प्रतिष्ठाप्य तस्य स्वकुलदेवतया1680 स्वयंभूदेवेन समं नानाविधवैभवं विधाय तत्र विद्वांसो बहवः स्थापिताः तेषामाशीर्वादमा1681ह। महाराजेति। यो गणपेश्वरस्तत्तादृक्चरितैरभिलषितप्रदानादिभिरद्धुतैः स्वीयमहिमभिः सामर्थ्यैस्त्वद्गोत्रमहत्तरस्य त्वत्कुलदेवतायाः स्वयंभूदेवस्य द्वितीयोऽभवत्। द्वावपि देवौ काकतिकुलयोगक्षेमधुरीणावित्यर्थः। असौ देवः। प्रतिकलं प्रतिक्षणम्। स्फारस्य प्रभूतस्य प्रसादस्योन्मुखः सन् राज्ञो देवस्य चाभेदोपचाराद्वीररुद्रस्य नप्तृत्वव्यवहारः। तस्य ते राज्यश्रियं पुष्णात्विति संबन्धः।
अथ नगरवासिनां विदुषामाशीर्वादमाह। यैरिति। त्रयो लिङ्गरूपाः श्रीशैलनाथादयो देवा यस्मिन् देशे स त्रिलिङ्गोऽन्ध्रदेश इत्यर्थः। द्राक्षारामेति। तत्रत्यानामारामाणां तद्भूयिष्ठत्वादिति प्रौढोक्तिः। वस्तुतस्तु दक्षसंबन्धित्वाद् द्राक्षाराम इति तन्नाम। तदुक्तं स्कन्द1682पुराणे भीमेश्वरखण्डे ‘दक्षस्यारामभूमित्वाद् द्राक्षारामोऽभिधीयते’ इति।
पुरो०—राजन्नेकशिलानगरवासिनो महाद्विजास्त एते1683।
(राजा यथोचितं वन्दते)
मन्त्रिणः—साधीयान् श्रीमतो वन्दनक्रमः1684 (इति सर्वानुपवेशयन्ति)
पुरो०—(सोल्लासम्) राजन्नेकशिलानगरीवल्लभ
साहस्त्रांशवमैन्दवं च महती ये द्वे कुले विश्रुते
ते जाते लघुनी गुणैर्विजयिनि श्रीकाकतीयान्वये।
भूपालेषु भवत्प्रतापयशसोः पूर्णाङ्कचन्द्रश्रियोः
प्राप्यानुग्रहमूर्जितेषु पुनरप्येते लभेते स्थितिम्॥२३॥
(राजा सर्वान् पश्यति) (पुरोहिता1685 यथार्हं1686 सर्वानुपवेशयन्ति)
प्रकृतयः—विजयतां विजयतां प्रतापरुद्रमहाराजः1687।
भूपाः सन्तु चिराय संश्रुणुमहे भास्वत्कुलालंकृती
रामोऽयं न जगाम लोचनपथं तेनैव खिन्ना1688 वयम्।
अद्य त्वां वर वीररुद्रनृपते तस्यावतारान्तरं
वीक्ष्यैवं चरितार्थतां सुमहतीमह्नाय1689 गाहामहे॥२४॥
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साहस्रेति। निर्मिते ब्रह्मणेति शेषः। लघुनी जाते निःसारे अभूताम्। अधुना भवत्प्रतापयशसोः पूर्णार्कचन्द्रश्रियोः सतोः भूपालेष्वनुग्रहं प्राप्य प्रबलविरोध1690जीवनस्य दुर्लभत्वं मत्वेति भावः। ऊर्जितेषु समृद्धेषु सत्सु। तत्समभिव्याहारादेते सोमसूर्यकुले पुनरपि स्थिति प्रतिष्ठां लभेते। मदनुग्रहस्य किमसाध्यमिति भावः।
भूपा इति1691। सन्तु नाम भूपाः1692 किं तैरसर्वगुणाढ्यैरिति वाक्यशेषः। न चात्रविप्रतिपत्तिरित्याह। चिराय संशृणुमहे इति। ‘समो गम्यृच्छि—’ इत्यादिनात्मनेपदम्। सर्वगुणाढ्योऽपि रामो न लोचनगोचरं गत इति खेदो रामावतारस्य तव दर्शनान्निवृत्त इति धन्यतामनुभवाम इत्याह। भास्वदिति।
अर्हणया पूजया।
मन्त्रिणः—स्वामिन् सांप्रतं1693 यथार्हमर्हणया माननीयाः पौराणां श्रेणयः।
राजा—(सानन्दौदार्यम्)
जागर्त्तु राजशब्दोऽयं ममैवाज्ञाफलैकभूः।
राज्योपभोगविभवः सर्वसाधारणो हि नः॥२५॥
सर्वे—(सप्रमोदम्) सदृशोऽयं प्रसादः काकतीयकुलतिलकस्य भवतः।
राजा—प्रसीदतु भगवान् स्वयंभूदेवः1694 (इति पुरोहितावर्जितकनककलशसलिलधारापुरःसरं सकल1695भोगसमग्रान्1696 ग्रामान् सप्रश्रयादरसत्कारं विप्रसात् करोति। अन्येषामपि नगरवासिनां यथाप्रभावं1697 संभावनामाचरति)
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जागर्त्त्विति। आज्ञा प्रभुशक्तिः निग्रहानुग्रहादिसामर्थ्यमित्यर्थः। तत्फलस्यानुग्रहादेरेकभूर्मुख्यनिवासः राज्ञ एवाज्ञाश्रयत्वादिति भावः। तदुक्तं मानसोल्लासे
‘अनुग्रहे निग्रहे च दाने चादानकर्मणि।
प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च ग्रहणे मोक्षणे तथा॥
स्वयं समर्थो यः सोऽयं राजा साज्ञा निरर्गला॥’
इति। एवशब्दो1698 भिन्नक्रमः। ममायं राजशब्द एव जागर्त्त्विति संबन्धः। राज्ञः कर्म राज्यम्। पुरोहितादित्वाद्यत्प्रत्ययः। आज्ञामात्रमेव मे1699 भूयादनुभवः पुनरस्माकं सर्वेषामिति वाक्यार्थः।
अथ पृथिव्यादिदानमाह। राजेति। प्रसीदतु भगवानिति परमेश्वरप्रीणनार्थ1700त्वाद्विमलं नाम चतुर्थमिदं दानमिति द्रष्टव्यम्। यथाह व्यासः
‘ईश्वरप्रीणनार्थत्वात् ब्रह्मवित्सु प्रदीयते।
चेतसा भक्तियुक्तेन दानं तद्विमलं शिवम्॥’
इति। सलिलधारापुरःसरमित्यत्रापस्तम्बः‘सर्वाण्युदकपूर्णानि दानानि’ इति। सकलभोगेति। भोगोपकरणसमग्रानित्यर्थः। प्रश्रयो विनयः। आदरः सत्कारः। तत्सहितं सात्त्विकमित्यर्थः। तदुक्तं व्यासेन।
नृपतयः—(सामात्यानुरोधमुत्थाय महार्घाणि गजतुरगरथाभरणविशेषरूपाण्युपायनानि1701 यथावकाशमुपनीय विरचिताञ्जलयः) स्वामिन् काकतीयमहाराज
त्रायस्वेत्यनुवाद एव भुवनत्राणैकवद्धव्रते
त्वद्भृत्या इति सिद्धसाधनमिदं विश्वैकनाथे त्वयि।
त्वद्गर्भे वसतिं गताः स्म इति च स्पष्टार्थमंशे1702 हरेः
कुक्षिस्थाखिलविष्टपस्य1703 सदृशं किं वात्र विज्ञाप्यते॥२६॥
(राजा सप्रसादममात्यानवलोकयति)
मन्त्रिणः—राजन्नेते सोमार्कवंश्या नरपतयो महतीमर्हणामर्हन्ति तेन स्वेषु स्वेषु पदेषु प्रतिष्ठापनीयाः प्रस्थापनीयाश्च।
राजा—तथा (इति यथोचितं नरपतीन् संभाव्य1704 प्रस्थानमादिशति)
(राजानः सहर्षातिशयं प्रणम्य काकतीश्वरकृपावलोकननिर्वर्त्तितप्रयाणमङ्गला1705 दिगन्तविहरणोद्यतया तदाज्ञया कृतसहाय्या1706 निष्क्रान्ताः)
प्रकृतयः—चिरमनुवर्त्तयितव्या1707 काकतीयनरेश्वर1708परिपालन1709परिपाटी महाराजेन (इति निष्क्रान्ताः)
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‘दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥’
इति। ग्रामान् विप्रसाद् ब्राह्मणाधीनान् करोति। ‘देये त्रा च’ इति सातिप्रत्ययः॥
त्रायस्वेति। भुवनत्राणपरायणे त्वयि भुवनान्तःपातिनामस्माकं परित्राणप्रार्थनं पुनरुक्तमेवेत्यर्थः। त्वद्भृत्या इति। विश्वैकनाथे त्वयि विश्वान्तर्वर्त्तिनामस्माकं भृत्या इति वचनं चर्वितचर्वणमेवेत्यर्थः। त्वद्गर्भ इति स्पष्टार्थम्। व्युत्पन्नं प्रति स्फीतालोकमध्यवर्त्तिनः कलशस्य कलशोऽयमिति कथनवदिति भावः। सदृशमुचितम्।
तदाज्ञया कृतसाहाय्या इति। तदाज्ञाकरा इत्यर्थः।
पुरो०—(साश्चर्यप्रत्यभिज्ञानम्)
चिह्नान्यस्य पदाब्जयोः पिशुनयन्त्युर्वीश्वरोपास्यतां
पाणी सूचयतः सचापकुलिशाबुद्वाहलीलां भुवः।
नेत्रे शारदपुण्डरीकविशदे1710 लीलावतारं हरे-
राख्यातस्तदतीह1711 सिद्धवचनं प्रत्यक्षमीक्षामहे॥२७॥
राजा—(सविनयव्रीडम्) किमसाध्यं स्वयंभूदेवमूर्त्त्यन्तराणां भूदेवतानां भवतामनुग्रहस्य।
पुरो०—(सादरम्1712) महाराज काकतीश्वरकुलवासना1713वासितया भवदुपासनया परं प्रसेदिवान् परःसहस्रप्रदानप्रमोदोन्मुखः1714 स्वयंभूनाथः किं ते भूयः प्रियमुपकरोतु1715।
एषा वाक्य1716समाप्तिरूपा संहृतिः1717।
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चिह्नानीति। पदाब्जयोश्चिह्नानि मांसलत्वादीनि। उर्वीश्वरोपास्यतां पिशुन यन्ति सूचयन्ति। तदुक्तं सोमेश्वरेण।
‘मांसलौ गूढगुल्फौ1718 च कूर्मपृष्ठसमावपि।
भवेतां चरणौ यस्य स भवेत् पृथिवीपतिः॥’
इति। पाणी सचापकुलिशौ धनुर्वज्ररेखासहितावित्यर्थः। तदप्युक्तम्। ‘चक्रासिचापवज्राभा रेखाः कुर्वन्ति भूपतिम्।’ इति। शारदपुण्डरीकरुचिनी नेत्रे पुण्डरीकाक्षावतारमाख्यातः कथयतः इति यत् पूर्वोक्तंसिद्धस्य कस्यचिदनागतविदः पुरुषस्य वचनमधुना प्रत्यक्षमीक्षामहे।
काकतीश्वरकुलवासनया वासितया कुलधर्मत्वेन प्राप्तयेत्यर्थः। भवदुपासनया परं प्रसेदिवानतिप्रसनः। अत एव परे सहस्रात् परःसहस्राः। ‘पञ्चमी—’ इति योगविभागात् समासः। राजदन्तादित्वात् सहस्रशब्दस्य परनिपाते पार-
राजा—(सप्रणामादरम्) काकतीयधुरायामवहित1719मेव1720 स्वयंभूदेवेन।
तथापीदमस्तु1721।
भूरस्तु संपन्नसमस्तसस्या
भूदेवताः पूर्णमनोरथाश्च।
भूपाश्च धर्मप्रवणैकचित्ताः
सर्वे जनाः सन्तु निरामयाश्च॥
एषा1722 शुभशंसनरूपा प्रशस्तिः।
(इति निष्कान्ताः सर्वे1723)
इति प्रतापरुद्रराज्याभिषेको नाम पञ्चमोऽङ्कः।
इति श्री1724विद्यानाथकृतौ प्रतापरुद्रयशोभूषणेऽलंकार1725शास्त्रे नाटकप्रकरणं समाप्तम्1726।
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स्करादित्वात् सुडागमः। तस्याविभक्तित्वात् विसर्जनीयाभावात् सत्वमेवेति दशटीकासर्वस्वकारः। ‘परश्शताद्यास्ते येषां परा संख्याः शताधिकात्’ इत्यमरः। तावतां1727 प्रसादानामुन्मुखः स्वयंभूनाथः।
प्रशस्तिसंज्ञकं मङ्गलमाह। भूरस्त्विति। सर्वमन्यत् सुगमम्।
इति नाटकप्रकरणे पञ्चमोऽङ्कः।
इति पदवाक्यप्रमाणपारावारपारीणश्रीमहोपाध्यायकोलचलमल्लिनाथसूरिसूनुना विश्वजनीनविद्यस्य विद्वन्मणेः पेद्दयार्यस्थानुजेन कुमारस्वामिसोमपीथिना विरचिते प्रतापरूद्रीयव्याख्याने रत्नापणाख्याने नाटकप्रकरणं1728 नाम तृतीयं प्रकरणम्॥
अथ1729 रसप्रकरणम्।
अथ सर्वेषां प्रबन्धानां जीवितभूतस्य1730 रसस्य स्वरूपं निरूप्यते।
विभावानुभावसात्त्विकव्यभिचारिसामग्रीसमुल्लसित1731स्थायिभावो1732 रसः।
तथा चोक्तं दशरूपके
‘विभावैरनुभावैश्च सात्त्विकैर्व्यभिचारिभिः।
आनीयमानः स्वादुत्वं स्थायी भावो रसः स्मृतः।’
इति ।
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दृश्यश्राव्यभेदेन द्विविधा अपि प्रबन्धा निरूपिताः। तेषामात्मभूतस्य रसस्य स्वरूपनिरूपणं प्रतिजानीते। अथेति। रससामान्यलक्षणमाह। विभावेति। वक्ष्यमाणलक्षणा विभावा1733दय एव सामग्री तया सरसकाव्यसंगृहीतया निपुणनटप्रदर्शितया वा सामाजिकभाव्यमानया समुल्लासित आस्वाद्यमानो निर्भरानन्दः संविद्रूपतां नीयमानः सन्नित्यर्थः। तदुक्तं भावप्रकाशे।
‘प्रकाशानन्दचिद्रूपां रसतां प्रतिपद्यते।
प्रकृष्यमाणो यो भावः स स्थायीति निगद्यते॥’
इति। एवंविधः1734 सामाजिकनिष्ठो रत्यादिस्थायिभावो1735 रस्यते स्वाद्यत इति व्युत्पत्त्या रस इत्युच्यते। तदुक्तम्।
‘रसतेः स्वादनार्थत्वाद्रस्यन्त इति ते रसाः।’
इति। उक्तार्थे वृद्धसंमतिमाह। विभावैरिति। व्यञ्जनादिसंवन्धादन्नस्येव विभावादिसमाश्रयणेन स्थायिभावस्यापि स्वादुत्वमित्यर्थः। तदुक्तम्।
‘व्यञ्जनौषधिसंयोगो यथान्नं स्वादुतां नयेत्।
एवं नयन्ति रसतामितरे स्थायिनं श्रिताः॥’
इति। अयं च रसोऽनुकार्ये रामादावुत्पन्नो रामाद्यभेदभावनया नटे प्रतीयत इत्युत्पत्तिवादिनो भट्टमल्लादयः। तादृशे नटे विभावादिभिरनुमितः सामाजिकैश्चर्व्यत इत्यनुमितिवादी श्रीशङ्कुकः। नटादिगतत्वपरिहारेण साधारणतयानुसंधीयमानः प्रकाशानन्दसंविद्रूपेण भोगापरनाम्ना भावकव्यापारेण1736 भुज्यत इति भुक्तिवादी भट्टनायकः। वक्ष्यमाणप्रकारेण सामाजिकाश्रयोऽभिव्यज्यत इत्यभिनवगुप्तादयः। अयमेव पक्षो यथायोगं पक्षान्तरनिराकरणपूर्वकमुत्तरत्र सिद्धान्तीकरिष्यते।
भावस्य स्थायित्वं नाम सजातीयविजातीयानभिभूततया1737 यावदनुभवमवस्थानम्1738।
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अथ स्थायिभावस्य लक्षणमाह। भावस्येति। इदमत्रानुसंधेयम्। काव्येनाभिनयेन वा निवेद्यमानरामादिसुखदुःखाद्यनुभवजनितवासनारूपः संस्कारापरपर्यायः सामाजिकमनोविकारो भावः। तदुक्तम्।
‘सुखदुःखादिभिर्भावैर्भावस्तद्भावभावनम्’
इति। तस्य भावकस्य भावश्चित्तं तस्य भावनं वासितत्वं तद्भावभावनम्। स तावद् द्विविधः। सन्निहितो व्यवहितश्चेति। तत्राद्यः पटं प्रति तन्तुवद्रसं प्रति आकारमात्रव्यवहितः स्थायिभाव इत्युच्यते तस्य साक्षाद्रसभावप्रतिपादनात्। तदुक्तम्।
‘प्रकृष्यमाणो यो भावो रसतां प्रतिपद्यते।
स एव भावः स्थायीति भरतादिभिरुच्यते॥’
इति। द्वितीयस्तु कुविन्दादिवद्भावान्तरव्यवहितो विभावादिः। तस्य स्थायिद्वारा रसोल्लासकत्वसमर्थनात्। एतेन सामाजिकमनोविकारविशेषोपाधिको ब्रह्मानन्दसब्रह्मचारिणो रसस्य सन्निहितपूर्वावस्था1739विशेषः स्थायिभाव इति फलितम्। अत एवोक्तमभियुक्तैः। ‘शृङ्गाराद्यनुभवयोग्यतया यदात्मनः सत्त्वं स भावः’ इति। न च भेद1740मात्रशङ्काकलङ्करहितस्य निरुपाधिकस्य सन्मात्रस्यावस्थासंबन्धः कथमिति शङ्कनीयम्। गगनमध्यमध्यासीनस्य सुधानिधेरुदकाद्युपाधिसंबन्धनिबन्धनचाञ्चल्यादिवदुपपत्तेः। एवंविधस्य भावस्येत्यर्थः। कस्यां चिन्नायिकायामनुरागस्य नायिकान्तरविषयानुरागः सजातीयः। अत्र1741 बीभत्सादिर्विजातीयः। तैरनभिभूततयातिरस्कृतत्वेनाविरुद्धत्वेनेति यावत्। एतच्च बृहत्कथामालतीमाधवादौ द्रष्टव्यम्। यथा लवणोदः स्वानुप्रविष्टं मधुरमपि नादेयमुदकं लवणयत्येवमन्यानप्यात्मनैक्यं नयतः स्थायिभावस्य कुतस्तैः सह विरोधवर्तितेति भावः1742। तदुक्तम्।
‘विरुद्धैरविरुद्धैर्वा भावैर्विच्छिद्यते न यः।
आत्मभावं नयत्यन्यान् स्थायीव लवणाकरः॥’
इति। यावदनुभवमिति। संस्कारात्मनोऽस्य1743 भावस्य सततं चिन्ता1744दिवदशेन
तथा1745 चोक्तं दशरूपके
‘सजातीयैर्विजातीयैरतिरस्कृतमूर्त्तिमान्।
यावद्रसं वर्त्तमानः स्थायीभाव उदाहृतः॥’
अथ1746 रसविशेषाः।
शृङ्गारहास्यकरुणा रौद्र1747वीरभयानकाः।
बीभत्साद्भुतशान्ताश्च रसाः पूर्वैः1748 प्रकीर्तिताः॥
एषां स्थायिभावाः1749।
रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा।
जुगुप्साविस्मयशमाः स्थायिभावा1750 नव क्रमात्॥
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प्रबोधादुत्पद्यमानो विजातीयप्रत्ययासंवलितः प्रियतमादिस्मृतिसंतानो विभावादिमहिम्ना यावत्तन्मयमिव करोति तावदवस्थानमित्यर्थः। तदुक्तम्।
‘अवस्थिताश्चिरं चित्ते संबन्धाच्चानुबन्धिभिः।
बर्धिता ये रसात्मानस्ते स्मृताः स्थायिनो बुधैः॥’
इति।
‘शृङ्गार एक एव रसः’ इति शृङ्गारप्रकाशकारः। ‘शान्तवर्जमष्टौ रसाः इति धनिकादयः। ‘शान्तवत्सलसहिता दश’ इत्यन्ये। एवमादिविप्रतिपत्तिलब्धन्यूनाधिकसंख्यानिवारणाय रसविभागमाह। शृङ्गारेति। पूर्वैरभिनवगुप्ताचार्यादिभिः। अत्र चतुर्वर्गमध्ये सर्वप्राणिसुलभस्य कामस्य सर्वहृदयंगमत्वात् प्रथमं शृङ्गारः। ततस्तज्जन्यत्वेन हास्यः। ततस्तद्विरोधित्वात् करुणः। ततस्तन्निमित्तभूतोऽर्थप्रधानो रौद्रः। ततोऽर्थकामयोर्धर्ममूलत्वात् धर्मप्रधानो वीरः। तस्य भीताभयप्रदानसार1751त्वात्तदनन्तरं भयानकः। ततस्तत्कारणभूतो बीभत्सः। वीराक्षिप्तभयानकाद्यनन्तरं वीररसफलभूतोऽद्भुतः। त्रिवर्गफल1752करसानन्तरं मोक्षफलकः शान्त1753 इत्येवमुद्देशक्रमोपपत्तिः।
अथ विभावः1754।
विभावः कथ्यते तत्र रसोत्पादनकारणम्1755।
आलम्बनोद्दीपनात्मा स द्विधा परिकीर्त्त्यते॥
रससमवायिकारणमालम्बनविभावः। इतरत्कारणजातमुद्दीपनविभावः। सचतुर्विधः1756। तथा चोक्तं शृङ्गारतिलके।
‘आलम्बनगुणश्चैव तच्चेष्टा तदलंकृतिः।
तटस्थश्चेति विज्ञेयश्चतुर्थोद्दीपनक्रमः1757॥
आलम्बनगुणो रूपयौवनादिरुदाहृतः।
तच्चेष्टा यौवनोद्भूतहाव1758भावादिका मताः1759॥
नूपुराङ्गदहारादि तदलंकरणं मतम्।
मलयानिलचन्द्रा1760द्यास्तदस्थाः परिकीर्तिताः॥’
अथानुभावः।
** कार्यभूतोऽनुभावः स्यात् कटाक्षादिः शरीरजः।**
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अथ रससामग्र्यां विभावस्य विभागं दर्शयन् लक्षणमाह। विभाव इति। तत्र विभावादिचतुष्टयमध्य इत्यर्थः। तत्र रसशब्देनात्र लौकिको रत्यादिभावः ओदनं पचतीत्यादिवद् भाविनीं वृत्तिमाश्रित्य व्यवह्रियते। मुख्यरसस्योत्पत्त्यभावात्। एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम्। लोके नायकाद्यालम्बनकारणं विशिष्टदेशकालाद्युद्दीपनकारणं च काव्यनाटकव्यापारजनितेन भाव्यत ज्ञायत इति1761 व्युत्पत्त्या लभ्यते। तदुक्तम्।
‘ज्ञायमानतया यत्र विभावो भावपोपकृत्।’
इति। शिष्टमुदाहरणसमये स्पष्टं भविष्यति।
अनुभावं लक्षयति। कार्येति। ननु कार्यत्वं नाम नियतोत्तरभावित्वं तच्चानुभावस्य किं रसापेक्षयोत स्थाय्यपेक्षया1762। नायः। विभावैरनुभावैश्चेति करणतृ-
परगतसुखादुःख1763भावनया1764 भविता1765न्तङ्करणं1766 सत्त्वं ततो भवाः सात्त्विकाः।
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तीयया तस्य पूर्वभावित्वप्रतीतेः। नियतपूर्ववर्त्तित्वलक्षणकारणविशेषत्वात् करणस्य। न चात्र तृतीयायाः कर्त्राद्यर्थान्तरं संभाव्यते। एवं चानुभावे सति रसो रसे सत्यनुभाव इत्यन्योन्याश्रयप्रसङ्गः स्यादिति। अत एव न द्वितीयः। न हि भावकमनोवस्थायिनः स्थायिनः1767 पूर्वभाविनां कामिनीकटाक्षभ्रूविक्षेपादीनां तत्कार्यत्वमिति। अतः स्थायित्वयोग्यस्य लौकिकस्य रत्यादेः कार्यभूतो योऽयं कटाक्षादिरभिनयादिद्वारा भावकमनःप्रतिविम्बितः सहृदयहृदयस्थितं रत्यादिभावमनुभावयति सोऽनुभाव इत्युच्यत इत्यर्थः। तदुक्तम्।
‘भ्रूविक्षेपकटाक्षादिविकारो हृदयस्थितम्।
भावं व्यनक्ति यः सोऽयमनुभाव इतीरितः॥’
इति।
अथ सात्त्विकानामपि कार्यभूतानां कटाक्षादिवत् भावसंसूचनात्मकत्वेनानुभावत्वे सिद्धेऽपि तेषां ब्राह्मणपरिव्राजकन्यायेन पृथगुपादानेऽसाधारणकारणमाह। परगतेति। अभिनयादिमुखेनान्यगतसुखदुःखादिभावनायामन्तःकरणस्यात्यन्तानुकूलत्वं सत्त्वमित्यर्थः। प्रत्ययार्थमाह। तत इति। सत्त्वेन निवृत्ता भावाः सात्त्विका इत्यर्थः। अनेनैवंविधेनैवान्तःकरणेन कटाक्षादयो भाव्यन्त इति तेषामनुभावतैव न सात्विकत्वमिति भावः। तदुक्तं भावप्रकाशे
‘परस्य सुखदुःखादेरनुभावेन चेतसः।
अत्यन्तेनानुकूल्येन येन तद्भावभावनम्॥
तत् सत्त्वं तेन निर्वृत्ताः सात्त्विका इत्युदीरिताः।
अनुभावत्वसामान्ये सत्यप्येषां पृथक्तया॥
लक्षणं सत्त्वजत्वाद्धि ते च स्तम्भादयः स्मृताः॥’
इति। अत्र1768 तद्भावभावनं नाम तन्मयत्वेनावस्थानम्। तदुक्तम्।
‘रामाद्याश्रितदुःखादेरनुभूतस्तदात्मनः1769।
सामाजिकस्य मनसो भावस्तद्भावभावनम्॥’
स्तम्भः प्रलयरोमाञ्चौ स्वेदो वैवर्ण्यवेपथू।
अश्रु वैस्वर्यमित्यष्टौ सात्त्विकाः परिकीर्त्तिताः॥
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इति। एवं च विभावादिदर्शनजन्या अनुरागनिर्वेदादिमनोवृत्तयो विभावादितन्मयीभवनरूपेण सत्त्वशब्दाभिधेयेन सामाजिकमनसोऽत्यन्तानुकूल्यजन्येनासाधारणकारणेनावस्थान्तरमापन्नाः सम्भादयो भावाः सात्त्विकभावा भवन्ति। ते च स्वकार्यभूतैरत एव सात्त्विकपदप्रतिपाद्यैर्बाह्यैर्जडैर्भौतिकैः शारीरैः सम्भादिभिरनुभावैः सूच्यन्ते। तथा च रतिनिर्वेदादिभावा एव सूचिता भवन्तीति फलितम्। तदुक्तमाचार्यहेमचन्द्रेण। ‘बाह्यास्तु स्तम्भादयः शरीरधर्मा अनुभावास्ते चान्तरालिकान् भावान् गमयन्तः परमार्थतो रतिनिर्वेदादिगमका इति स्थितम्’ इति। एवं च स्थायिसंचारिसङ्घ एव जीवस्य मनोमयावस्थां प्राप्य कार्यकारणरूपेण द्विविधं बाह्यमान्तरं1770 च सात्त्विकगणं संपादयतीति रहस्यम्।
केचिदयं मनोमयवर्त्ती रत्यादिगणः पञ्चभूतात्मकान्नमयक्षोभकतया1771 मनोमयतादात्म्यापन्नं सीदत्यस्मिन् मनोमय इति व्युत्पत्त्या सत्त्वगुणोत्कर्षात् साधुत्वाच्च सत्वशब्दाभिधेयं प्राणमयं प्रविष्टः सात्त्विकत्वमनुभवति। तच्च1772 प्राणस्य भूभागानुग्रहे स्तम्भः जलभागानुग्रहे बाष्पः तीव्रतेजोनुग्रहे स्वेदः वैपरीत्ये वैवर्ण्यमाकाशानुग्रहे प्रलयः। अनिलानुग्रहस्य मन्दमध्यमोत्कृष्टतया त्रैविध्ये क्रमेण रोमाञ्चवेपथुवैस्वर्याणीति वदन्ति। केचित् भावान्तरनैरपेक्ष्येण रसापरोक्षीकरणत्वलक्षणो1773 बलविशेषः सत्त्वं तज्जन्याः सात्त्विका इत्याहुः। अन्ये पुनरन्नमयप्राधान्येनाभिव्यक्तं च लक्षणसत्त्वजन्यत्योपाधेः कटाक्षादिसाधारण्येऽपि पङ्कजादिवद् योगरूढत्वेन स्तम्भादय एव सात्त्विका इत्याहुः। केचित्तु कणादशास्त्रप्रसिद्ध्या द्रव्यादित्रयवाचकार्थशब्दबदलंकारशास्त्रप्रसिद्ध्या1774 स्तम्भादिष्वेव सात्त्विकव्यवहार इति वर्णयन्ति। एवं प्राचामालंकारिकाणामनेकधा पारिप्लवं वर्त्तते। तद्यथा तथा वास्तु न तत्रास्माकमाग्रहः। किं तु स्तम्भादीनामनुभावान्तर्भावेऽपि केनचिद्विशेषेण पार्थक्यमित्येतदेवापक्ष्यत1775 इति। विशेषान्तराणि नरहरिसूरिविरचिते रसनिरूपणे द्रष्टव्यानि। विस्तारभीरुभिरस्माभिरुपरम्यते।
अथ व्यभिचारिभावाः।
निर्वेदग्लानिशङ्काख्यास्तथासूयामदश्रमाः1776।
आलस्यं चैव दैन्यं च चिन्ता मोहः स्मृतिर्धृतिः1777॥
व्रीडा चपलता हर्ष आवेगो जडता तथा।
गर्वो विषाद औत्सुक्यं निद्रापस्मार एव च॥
सुप्तिर्विवोधो1778ऽमर्षश्चाप्यवहित्थमथोग्रता1779।
मतिर्व्याधिस्तथोन्मादस्तथा मरणमेव च1780॥
त्रासश्चैव वितर्कश्च विज्ञेया व्यभिचारिणः।
त्रयस्त्रिंशदमी भावा रसस्य सहकारिणः॥
तथा चोक्तं काव्यप्रकाशे।
‘कारणान्यथ कार्याणि सहकारीणि यानि च।
रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाट्यकाव्ययोः॥
विभावाश्चानुभावाश्च1781 कथ्यन्ते व्यभिचारिणः॥’
इति।
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‘विशेषादाभिमुख्येन चरन्तो व्यभिचारिणः’
इत्युक्तदिशा व्यभिचारिशब्दव्युत्पत्यैव निर्वेदादीनां सामान्यलक्षणं सिद्धमिति सत्वा तेषां केवलं सामान्यतो विशेषतश्चोद्देशमाह। अथेति। रसस्य सहकारिण इति। कल्लोलाः सागरस्येव रत्यादेलौंकिकस्य परिपोषकतया सहकारिणः सन्तो नाट्यादौ व्यभिचारिण इत्युच्यन्त इत्यर्थः। तदुक्तम्।
‘मज्जन्तश्च निमज्जन्तः कल्लोलास्ते यथार्णवे।
तस्योत्कर्षे वितन्वन्ति यान्ति तद्रूपतामपि॥
तथा स्थायिनि निर्मग्ना ह्युन्मग्ना व्यभिचारिणः।
पुष्णन्ति स्थायिनं स्वांश्च तत्र यान्ति रसात्मताम्॥’
इति। उक्तेऽर्थेऽभियुक्तसंवादमाह। कारणानीति। स्थायिनः स्थायित्वयोग्यस्येत्यर्थः। अनुभावा उभयेऽपि गृह्यन्ते। ननु चेष्टालक्षणोद्दीपनविभावानां
लोके कार्यकारणसहकारिशब्दवाच्या1782 नायिकानायककटाक्षभुजाक्षेपनिर्वेदादयः काव्यनाट्ययोस्तु विभावानुभावव्यभिचारिशब्दव्यप-
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भावहावादीनां शृङ्गारकार्यतयानुभवत्वं प्रतीयते। कटाक्षभ्रुविक्षेपादीनामनुभावानामनुरागजनकत्वेन संभवत्येव विभावत्वम्। उक्तानामुभयेषां कल्लोलायमानतया रसपरिपोषणात् संचारितापि। समस्तसंचारिणामपि चिन्तादीनामनुरागकार्यतयानुभावत्वं। तद्दर्शनश्रवणाभ्यामनुरागातिशयजननाद्विभावत्वं चानुभूयते। तदुक्तं भावप्रकाशे।
‘विभावोऽप्यनुभावः स्यादनुभावोऽपि भाववत्।
तौ पुनश्चारिणौ स्यातां ते च तौ स्युः परस्परम्॥’
इति। अत्र परस्परशब्देन संचारिणामेव मिथोऽनुभावत्वं चेत्यादि द्रष्टव्यम् अतः कथं पूर्वोक्ता विभावादिव्यवस्थेति चेत् सत्यम्। कस्याश्चिदनुरागव्यक्तेर्यानि कार्यकारणसहकारीणि तानि तां प्रति तथैव न किंचिदपि साङ्कर्यमस्ति। व्यक्त्यन्तरापेक्षया तस्या एवाकारभेदापेक्षया वान्यथाभावे को विरोधः। यथैकस्य पुत्रापेक्षया पितृत्वं पित्रपेक्षया पुत्रत्वं च व्यवतिष्ठते। अतो विभावादीनामपि प्रतियोगिभेदादिभिः कल्पिताकारान्तराणां सांकर्यशङ्कानवकाशाद्विभावादिरुपता नियतैवेति सिद्धम्। एवं च विभावादिसामग्रीसंकोचे सति रसाभासत्वमित्यनुसंधेयम्।
‘ननून्मर्यादं1783 प्रवृत्तेनाङ्गरसेन बाधितः प्रधानरसो रसाभास्रः। तदुक्तं रसार्णवे।
‘अङ्गेनाङ्गी रसः स्वेच्छावृत्तिवर्द्धितसंपदा।
अमात्येनाविनीतेन स्वामीवाभासतां व्रजेत्॥’
इति। अङ्गरसस्य तृतीयांशानुप्रवेशो मर्यादोल्लङ्घनम्। तदुक्तं। भावप्रकाशे।
‘भागद्वयं प्रविष्टस्य प्रधानस्यैकभागतः।
रसानां दृश्यते यत्र तत्स्यादाभासलक्षणम्॥’
इति। तत्र हास्यादिभूयिष्ठाः शृङ्गारादय आभासीभवन्ति। अत्रैती संग्रहश्लोकौ।
देश्या भवन्ति। शृङ्गारवीररौद्राद्भुतानां लोकोत्तरनायकाश्रयत्वेन1784 परिपोषातिशयः1785। अत एव शृङ्गारस्य म्लेच्छादिविषयत्वेनाभासत्वम्। तथा चोक्तम्।
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‘हास्यो जुगुप्सा शृङ्गारहास्यौ शोकभयानकौ।
भयानको रौद्रवीरौ तथा शृङ्गारविस्मयौ॥
बीभत्सकरुणौ रौद्रशृङ्गारौ च यथाक्रमम्।
शृङ्गारादीनाप्रविश्य रसाभासान् वितन्वते॥’
इति। यद्यप्येवं नवानामपि रसानामाभासत्वं संभवति तथापि क्वचिद्विशेषम। भिब्यक्तुमारभते। शृङ्गारेति। शान्तस्याप्युपलक्षणमेतत्। लोकोत्तरनायकाश्रयत्वेनेति। धीरोदात्तादिनायकोत्तम1786विषयत्वेनेत्यर्थः। अत एवोक्तं लोचने। ‘धर्मयुद्धवीरप्रधानो धीरोदात्तः। वीररौद्रप्रधानो धीरोद्धतः। वीरशृङ्गारप्रधानो धीरललितः। दानधर्मवीरशान्तप्रधानो धीरशान्त इति चत्वारो नायकाः’ इति। अत्र वीररससमानयोगक्षेमत्वादद्भुतोपादानम्। यदाह मुनिः।
‘वीरस्य चैव यत् कर्म सोऽद्भुतः परिकीर्त्तितः’।
इति। विदग्धजनैकविषयो रसपरिपोषविशेष1787 इति भावः।
विपक्षे विरोधमाह। अत एवेति। इदमत्रानुसंधेयम्। यत्र विभावादिपरिपूर्त्तिस्तत्र मुख्यो रसः। तदुक्तं लोचने। ‘रसस्तु स एव यो यत्र मुख्यतया विभावानुभावव्यभिचारिसंयोजनोचितस्थायिप्रतिपत्तिकस्य प्रतिपत्तुः स्थाय्यंशे चर्वणप्रयुक्त एवास्वादप्रकर्ष’ इति। उदाहृतं च तत्रैव।
कृच्छादूरुयुगं व्यतीत्य सुचिरं भ्रान्त्वा नितम्बस्थले
मध्येऽस्यास्त्रिवलीतरङ्गविषमे निस्पन्दतामागता।
मद्दृष्टिस्तृषितेव संप्रति शनैरारुह्य तुङ्गौ स्तनौ
साकाङ्क्षं मुहुरीक्षते जललवप्रस्यन्दिनी लोचने॥
इति। अत्र हि नायिकाकारानुवर्ण्यमानस्यात्मप्रतिकृतिपवित्रितचित्रफलकावलोकनाद् वत्सराजस्य परस्परास्थाबन्धरूपो रतिस्थायिभावो विभावानुभावसंश्चारिसंयोजनावशेन1788 चर्वणारूद इति। एवं च यत्र विभावादिपरिपूर्त्त्यभावस्तत्रारो-
‘एकत्रैवानुरागश्चेत्तिर्य1789ङ्म्लेच्छगतोऽपि वा1790।
योधितो बहुसक्तिश्चेद्रसाभासस्रिधा मतः॥’
व्यभिचारिभावानामुदय1791प्रशाम्यदवस्थया परस्परविरुद्धरसाश्रितयोर्भावयोः1792 स्पर्धया संबन्धेनान्योन्योपमर्दकतया बहूनां समावेशेन च चातुर्विध्यम्। तथा चोक्तं दशरूपके
‘भावस्य शान्तिरुदयः संधिः शवलता1793 तथा।’
इति।
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पितो रसः। म्लेच्छादौ तथाभूतत्वाद्वसाभासत्वमिति भावः। उक्तार्ये संमतिमाह। एकत्रेति। अत्र एवेत्यवधारणेनान्यत्रानुरागात्यन्ताभावः सूच्यते। यथा रावणे सीतायाः। तेन स्त्रीपुंसयोरेकत्रानुरागे जातेऽन्यत्रानुरागप्रागभावे च विभावादिसंपूर्त्तिसंभावनया नैव रसाभासत्वमिति भावः। अन्यथा प्रथममजातानुरागे वत्सराजे जातानुरागाया रत्नावल्याः पूर्वानुरागस्याभासत्वप्रसङ्गात्। म्लेच्छास्तिरश्चामनाघ्रातवैदग्ध्यगन्धानामननुभूतविभावादिभावनामभिवदनव्यापारमात्रविलक्षणाः सहोदराः। अतस्तेषां द्वयानामपि समानयोगक्षेमत्वात् सहोपादानम्। अत एव शृङ्गाराभासस्य त्रैविध्योक्तिरपि। बहुसक्तिरनेकत्रानुरागः। अत्रापि मुखान्तरेण समानुरागफलाभावात् विभावाद्यपरिपूर्त्तिरिति भावः। पुंसोऽप्यनेकनायिकानुरागे रसाभासत्वमिति केचित्। तर्हि तन्मते दक्षिणनायकानुरागस्य सर्वसंप्रतिपन्नरसभावस्याभासत्वप्रसङ्ग इति चेन्मैवम्। तस्याप्येकस्यामेव गाढानुरागत्वात्। अन्यत्र तु क्वचिन्मध्यत्वं1794 क्वचिन्मन्दत्वमिति निश्चितम्। ‘तुल्योऽनेकत्र दक्षिणः’ इति लक्षणम्। पुनरनेकासु नायिकास्वनुवृत्तिमात्रपरत्वेन तुल्यत्वपरमिति द्रष्टव्यम्। अत्र पक्षद्वयेऽपि क्रमेण समानुरागाभावादविवेकादनेकानुरागाच्च रतेरारोपितत्वेन हास्यास्पदत्वात्तन्निबन्धनस्त्रिविधोऽयमाभास इति विवेकः। न वारोपितरसाभावात् तिर्यगादिषु कथं चमत्कार इति चेत् शुक्तिकारजतं गृहीत्वा प्रमोदमानं पृच्छ। प्रश्चात्कालीनबाधस्तु प्रपञ्चसत्यत्वाभिमानसमयसांसारिकव्यवहारस्येव तादात्विकचमत्कारस्य न विरोधीति रसाभासोऽप्युपादेय एवेत्यलं प्रपञ्चेन।
विभावादिमध्ये व्यभिचारिभावानामुदयाद्युपाधिचतुष्टयजन्यचमत्कारविशेपनिबन्धनं चातुर्विध्यमाह। व्यभिचारीति। अन्योन्योपमर्दकतयेति। स्व-
अथ1795 यथाक्रमं स्थायिभावानां1796 स्वरूपमुदाहरणं च1797।
तत्र संभोगविषय1798 इच्छाविशेषो रतिः।
यथा
शृङ्गारैकरसः स्मरोऽस्तु जगदानन्दैकनिष्पन्दभू-
रिन्दुस्तिष्ठतु विभ्रमैकवसतिर्जागर्त्तुपुष्पाकरः।
सन्त्वन्येऽपि गुणप्रसादितदिशः1799 किं तैरशेषोन्नतो1800
जातः काकतिवल्लभो मम पतिः कामस्य कामोत्सवः॥१॥
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स्ववाध्यानां बाधकत्वेनेत्यर्थो वक्ष्यमाणोदाहरणानुसारेण कल्पनीयः। रसाभासादीनामुदाहरणमुत्तरत्र भविष्यति।
अथ स्थायिभावेषूद्देशक्रमानुसारेण रतिं लक्षयति। तत्रेति। यूनोरन्योन्यानन्दजनकं दर्शनालिङ्गनादिकं कर्म संभोगः। तदुक्तं भावप्रकाशे।
‘कामोपचारः संभोगः कामः स्त्रीपुंसयोः सुखम्।
सुखमानन्दसंभेदः परस्परविमर्दतः॥
उपचारस्तदानन्दकारकं कर्म कथ्यते॥’
इति। तद्विषय इच्छाविशेषः स्पृहाद्यपरपर्यायः प्रमोदात्मा मनोवृत्तिविशेषो रतिरित्यर्थः। तदुक्तम्।
‘सम्पन्नैश्चर्यसुखयोरशेषगुणयुक्तयोः।
नवयौवनयोः श्लाघ्यप्रकृत्योः श्रेष्ठरूपयोः॥
नारीपुरुषयोस्तुल्या परस्परविभाविका।
स्पृहाह्वया चित्तवृत्ती रतिरित्यभिधीयते॥’
इति। स्पृहालक्षणमपि तत्रैवोक्तम्1801।
‘आत्मोपभोगकरणं स्पृशन्ती प्रियवर्त्मना।
या जहातीतरान् योगान् सा स्पृहेत्यभिधीयते॥’
इति। उदाहरति। शृङ्गारेति। जगतामानन्दस्यानन्दहेतोरेकस्याद्वितीयस्य निष्पन्दस्य मृष्टांशस्य भूः स्थानं गुणैराभिरूप्यादिभिः प्रसादिताः प्रसन्नीकृताः दृशो लोकदृष्ट्यो यैस्ते तथोक्ताः। गुणप्रसादितदिश इति पाठे गुणालंकृतदिशो दिगन्तविश्रान्तगुणा इत्यर्थः। अन्ये गन्धर्वगीर्वाणादयः। तैरेकैकगुणाश्रयैः। किं न
विकृति1802दर्शनादिजन्यो मनोविकारो1803 हासः।
यथा
बिभ्राणान् कबरीं1804 धृताञ्जनदृशः कृत्वा कुचौ कृत्रिमौ
स्त्रीवेषान्निशि काकतीन्द्रनगरे प्रच्छन्नरूपान् नृपान्।
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किमपि साध्यमित्यर्थः। अशेषोऽनन्तः सर्वाधिकः। अत्र कामस्यापि कामोत्सवः काकतिवल्लभो मम प्रेयानभूदिति वागारम्भेण स्वानुरक्तप्रियलाभजनितहर्षानुभावेन कस्याश्चिन्नायिकाया आलम्बनविभावभूताया प्रमोदता रतिरभिव्यज्यते। इयं च निसर्गादिनिमित्तभेदात् सप्तविधा। तत्र मदनेन्दुवसन्तादिवैराग्येण प्रियविषयप्रेम्णा चेयमभिमानमूलेति वेदितव्यम्। इदमेव1805 मम प्रियं नान्यदिति प्रत्यय एवाभिमान इत्याहुः। भेदान्तरोदाहरणप्रपञ्चस्तु रसार्णवे द्रष्टव्यः।
हासं लक्षयति। विकृतीति। आत्मनः परस्य वा ये वेषभाषाकारविकारविरुद्धालंकारास्पष्टभाषणकुञ्जत्वादयः तदर्शनश्रवणजन्यो मनोविकारो हासः। ‘स्वनहसोर्वा’ इति विकल्पाद् घञ्प्रत्ययः। अयमेव बाष्पाद्यनुभावो निद्रालस्यादिसहकृतश्चर्व्यमाणो हासे साधुरिति व्युत्पत्या हास्यो भवति। स चोत्तमादिषु1806 त्रिष्वेकैकयुगलक्रमेण षड्विधः। तदुक्तम्।
‘विकृताकृतिवाग्वेषैरात्मनो वा परस्य वा।
हासः स्यात् परिपोषेऽस्य हास्यस्त्रिप्रकृतिः स्मृतः॥’
इति।
‘स्मितमिह विकसन्नयनं1807 किंचिल्लक्ष्यद्विजं हसितम्।
मधुरस्वनं विहसितं साङ्गशिरःकम्पमुद्धसितम्॥
अपहसितं सास्राक्षं विक्षिप्ताङ्गं भवत्यविहसितम्।
द्वे द्वे हसिते चैषां ज्येष्ठे मध्येऽधमे क्रमशः॥’
इति।
उत्तमस्य स्वकीयपरकीयविकारदर्शनात् क्रमेण स्मितहसिते। मध्यमस्य विहसितोद्धसिते। अधमस्यापहसितातिहसिते इति। तत्राधमाश्रयमन्यदीयवेषविकारजन्यं हासमुदाहरति। विभ्राणानिति। कबरीः स्त्रीजनोचितान् केशपाशान्। ‘जानपदेषु—’ इत्यादिना ङीष्। अत्र बन्दीग्राहं गृहीतानत एवं पला-
दृष्ट्वा क्षौममपास्य वक्षसि कुचावाकृष्य नीवीस्पृशो
हा1808 हा कष्टमिति त्यजन्ति विपणिश्रेणीषु1809 धूर्त्ता विटाः॥२॥
इष्टजनवियोगादि1810नात्मनि दुःखातिभूमिः1811 शोकः।
यथा
धातर्निष्करुणोऽसि1812 शिक्षयसि किं वन्यां शरीरस्थितिं
तत्तादृग्विभवा गृहाः क्व नु गताः स्थानं मरुः कल्पितम्1813।
हा नाथाः पतिताः प्रतापनृपतिक्रोधा1814र्चिषीति द्विपद-
घोषाणां तदनूपमश्रुमिरहो जातं स्थलं मारवम्॥३॥
शत्रुकृतापकारेण1815 मनःप्रज्वलनं क्रोधः।
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यनपरतया स्त्रीवेषधारिणो वैरिभूपतीन् नीवीप्रदेशादिस्पर्शनेन पुमांस इति जानतां धूर्त्तविटानामालम्बनविभावानां परुषस्वनस्य हासस्य हीहीत्यनुकरणम्।
शोकं लक्षयति। इष्टेति। आदिग्रहणादनिष्टप्राप्तिर्गृह्यते। दुःखातिभूमिः दुःखप्रकर्षः। आद्यं शोकमुदाहरति। धातरिति। निष्करुणो नृशंसः। वन्यां फलमूलादिरूपाम्। तत्तादृग्विभवा नानाविधभोगोपकरणपरिपूर्णा इत्यर्थः। स्थानं मरुरिति पिपासायां यत्रोदकमपि दुर्लभमित्यर्थः। महारण्ये वा भर्त्तृभिः सह मृगमिथुनादिवद्यथाकथंचिद्वर्त्तामह इति विचारितेऽपि कथं वा कियान् वा नो दैवदुर्विपाकः। ते भर्त्तारोऽपि तत्कोधवह्नौ शलभतामलभन्तेति परिदेवितं हेति1816 शब्देन सूचयन् आह। हा नाथा इति। अनूपं जलप्रायम्। अत्र शत्रुस्त्रीणामालम्बनविभावानां भर्त्तृवियोगराज्यभ्रंशादिजनिता दुःखातिभूमिर्दैवोपालम्भसहितेन रोदनेन सूच्यते। अत्रोर्वीलुठनोरस्ताडनादयोऽनुभावाः। दैन्यमोहचिन्ताविषादादयो व्यभिचारिणश्च विशेषेणोपात्ताः करुणतामापादयन्ति।
क्रोधं लक्षयति। शत्रुकृतेति। शत्रुग्रहणं भृत्यादेरुपलक्षणार्थम्। तत्कृतेनापः चारेण वधावज्ञादिना प्रज्वलिता मनोवृत्तिः क्रोध इत्यर्थः। स च त्रिविधः क्रोधकोपो रोषश्चेति। तदुक्तं भावप्रकाशे।
यथा
रे रे शेवण1817 कस्तवायमनिदंपूर्वोऽद्य गर्यो महा-
नुत्तीर्णः1818 किल येन गौतमनदीं1819 प्राप्तोऽसि मृत्योर्मुखम्।
एषा काकतिवीररुद्र इति किं नाश्राषि सप्ताक्षरी
प्रक्षुभ्यत्प्रतिपक्षपार्थिवमहाभूतग्रहोच्चाटनी॥४॥
लोकोत्तरेषु कार्येषु1820 स्थेयान् प्रयत्न उत्साहः।
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“क्रोधः1821 कोपश्च रोपश्चेत्येष भेदस्त्रिधा मतः।”
इति। तत्रारातिवधादि1822पर्यन्तः क्रूरजनाश्रयः क्रोधः। अभ्यर्थनावधिर्वीरजनाश्रयकोपः। स्त्रीपुंसयोरन्योन्यविषयः पत्यायनपर्यन्तो रोषः। तत्रावज्ञामूलं क्रूरालम्बनं क्रोधमुदाहरति। रे रे इति। ‘वाक्यादेः—’ इत्यादिना कोपे द्विरुक्तिः। अयं पूर्वो यस्यासाविदंपूर्वः। स न भवतीत्यनिदंपूर्वः नूतन इत्यर्थः। अन्यधिक्कारेणात्मोत्कर्षो गर्वः। कुतोऽयं ते महानिदानीमभूतपूर्वो1823 गर्वः प्रादुरभूदित्यर्थः। येन गर्वेण गौतमनद्युत्तीर्णेत्यवज्ञा1824कथनम्। किलेत्यलीके। तेन वार्त्तामात्रामेत दिति भावः। तथापि तस्येदं कर्मणः फलमित्याह। प्राप्त इति। अवज्ञानिमित्तमाशङ्कते। एषेति। अन्यथा भूतग्रहादिकल्पानां वैरिभूपतीनां कल्पान्तकालरुद्रस्यास्यत्स्वामिनः काकतिवीररुद्रस्य नाममात्रमहामन्त्रं निशम्यैव कान्दिशीकचरः कथमद्यैवमुद्युङ्क्ते भवानिति भावः। क्रोधोऽयं विपक्षदर्शनादिविभावः कण्ठगर्जनदन्तघट्टनाद्यनुभावो गर्वामर्षादिव्यभिचारी चर्व्यमाणः सन् रौद्रो भवति।
उत्साहं लक्षयति। लोकेति। स्थेयानतिस्थिरः। विवक्षितकार्यविषयमौत्सुक्यमेवात्र स्थैर्यमिति भावः। ‘अहमेवंविध इत्येवंप्राणत्वेनाभिमानात्मक उत्साहः’ इति लोचनकारः। शारदातनयस्तु कार्यमात्रमङ्गीचकार। तदुक्तम्।
‘उत्साहः सर्वकृत्येषु सत्वरा मानसी क्रिया।
सहजाहार्यभेदेन स द्विधा परिकीर्तितः॥’
यथा
क्षुब्धंष्वन्धिषु संभ्रमात् त्रिभुवनग्रासेच्छया सर्वतः1825
सन्नद्धेष्वपि पर्वतेषु परितो गण्डोपलान् वर्षितुम्।
शक्ता एव वयं निवारणविधौ क्षुद्रक्षमाभृज्जये
श्लाघा1826 नः कियतीति काकतिविभोर्गर्जन्ति सैन्ये भटाः॥५॥
रौद्रसंदर्शनादिभिरनर्थाशङ्कनं1827 भयम्।
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इति। उदाहरति। क्षुब्धोष्विति। त्रिभुवनग्रासेच्छया कल्पान्तवदिति भावः। क्षुब्धेषु क्षुभितेष्वित्यर्थः। अत्र यद्यपि ‘क्षुब्धस्वान्त—’ इत्यादिना निपातनान्मन्थमात्रवाचौक्षुब्धशब्दः। तथा क्षुभितार्थत्वं कथंचित्सादृश्यात् कल्पनीयम्। समुद्राणां मन्थयोगवत् कालवैपम्येऽपि क्षोभसंभवात्। अत एवाह वृत्तिकारः। ‘कथं क्षुब्धः समुद्रः क्षुब्धा नदीत्येवमादावुपमानाद् भविष्यति’ इति। गण्डोपलान् गण्डशैलान् स्थूलोपलानित्यर्थः। अत्र वैरिभूपालविजयविपयः सहजोत्साहः समुद्रसंक्षोभपर्वतसंनाहनिवारणे वयमेव शक्ता इति वागारम्भेण व्यज्यते। अत्रात्मश्लाघान्यधिक्कारादिसंभवाद्धीरोद्धतोऽयं नायकः। तस्य वीररसेऽपि प्राधान्येनानुप्रवेशसंभवात्। तदुक्तं लोचने। ‘वीररौद्रप्रधानो धीरोद्धतः’ इति। अयमेव प्रतापविनयादिभिर्बिभावितः करुणायुद्धादिभिरनुभावितो गर्वहर्षादिभिर्भावितो वीररसो भवति। स च त्रिविधः। यथाह मुनिः।
‘दानवीरं युद्धवीरं धर्मवीरं तथैव च।
रसं वीरमपि प्राह ब्रह्मा त्रिविधसंमतम्॥’
इति। धर्मवीरस्थाने दयावीरमुक्त्वा त्रैविध्यमाह धनिकः। तत्र दानवीरो बलिजाभदध्यादिः। युद्धवीरो रामादिः। धर्मवीरो युधिष्ठिरादिः। दयावीरो जीमूतवाहनादिः। तत्र प्रस्वेदरक्ताक्षत्वाद्यनुभावराहित्ये युद्धवीरः। तत्साहित्ये रौद्र इति विवेकः।
भयं लक्षयति। रौद्रेति1828। आदिग्रहणाद्वौद्रशब्दश्रवणादयो गृह्यन्ते। तज्जन्यमनर्थाशङ्कनमनश्चाञ्चल्यरूपं भयमित्यर्थः। एतच्च स्त्रीनीचप्रभृतीनां स्वाभाविकमुत्तमानां कृतकमित्याहुर्हेमचन्द्रशारदातनयादयः। शिङ्गभूपालस्तु
यथा
दूरादाकर्ण्य1829 विश्वप्रसृमरमहसो वीररुद्रस्य जैत्र-
प्रस्थानारम्भभेरीनिनदमरिनृपाः पूर्णकर्णज्वरार्त्ताः।
आरुह्याद्रीन् विशन्तो गहनमतिमहत् कण्टकाकृष्टकेशा-
स्त्रायध्वं मुञ्चतेति प्रतिनृपतिधिया1830 पादपान् प्रार्थयन्ते॥६॥
अर्थानां दोषसंदर्शना1831दिभिर्गर्हणा जुगुप्सा।
यथा
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सर्वत्र कृतकमेवेति प्रत्यवदत्। अनेकविधमित्यन्ये। तत्र रौद्रश्रवणजन्यं भयमुदाहरति। दूरादिति। विश्वप्रसृमरमहसो विश्वव्यापिप्रतापस्य। सरतेः ‘सृघस्यदः’ इत्यादिना क्मरच्प्रत्ययः। कर्णज्वरार्त्ताः कर्णव्याधिपीडिताः बधिरीकृतकर्णी इत्यर्थः। तत्राप्यतिमहत् दुष्प्रवेशं गहनमरण्यं विशन्तः खदिरादिकण्टकाकृष्टकेशाः सन्तः व्याकुलान्तःकरणाः प्रतिपक्षबुद्ध्या पादपान् त्रायध्वमित्यादिभिर्दीनोक्तिभिः प्रार्थयन्ते। अत्र वैरिभूपालसमवेतो भयस्थायिभावो व्यज्यते। अयं च स्वोचितसामग्रीको भयानको भवति। तदुक्तम्।
‘विकृतस्वरसत्त्वादेर्भयभावो भयानकः।
स्वराङ्गवेपथुस्वेदशोषवैवर्ण्यलक्षणः1832॥
दैन्यसंभ्रमसंमोहत्रासादिस्तत्सहोदरः॥’
इति
जुगुप्सां लक्षयति। अर्थानामिति। रुधिरोद्वान्ताद्यहृद्यपदार्थश्रवणदर्शनादिजन्यो मनःसंकोचो जुगुप्सेत्यर्थः। अयमेव नासापिधाननिष्ठीवनाद्यनुभावो भयापस्मारादिसहकारी बीभत्सो भवति। स च विभावादिभेदात् क्षोभ उद्वेगश्चेति द्विधा। तदुक्तं भावप्रकाशे।
‘क्षोभात्मा रुधिरान्त्रादिदर्शनस्पर्शनादिजः।
उद्वेगात्मा कृमिच्छर्दिपूर्त्तिविष्ठादिजो1833 भवेत्॥’
विष्वङ्मस्तिष्कपङ्के महति निपतितो1834च्छूनमातङ्गदेह-
श्रेणीलब्धप्रचाराः1835 प्रवहदुरु1836वसामज्जरक्तप्रवाहाः1837।
राशीभूतास्थिकूटस्थपुटितनिकटा1838 निस्सरद्विस्रगन्धाः
कुर्वन्त्यायोधनोर्व्यो भयमवनिभृतां1839 वीररुद्रेण सृष्टाः॥७॥
अपूर्वार्थसंदर्शनाच्चित्तविस्तारो1840 विस्मयः।
यथा
औन्नत्यं1841 महदन्यदेव महितः कोऽप्येष गम्भीरिमा
काप्यन्या सरणिः प्रतापयशसोरन्यैव बाह्वोः प्रथा।
सर्वेनूतनमेव रुद्रनृपतेर्जाने न तन्निर्मितौ
सामग्री चतुराननेन कियती कीदृक्कमा कल्पिता॥८॥
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इति। वैराग्याद्युवतिगर्हासिद्धस्तृतीयो वीभत्स इत्याह धनिकः। तत्र क्षोभणं बीभत्समुदाहरति। विष्वङ्गिति। महति विष्वङ्मस्तिष्कपङ्के सार्वत्रिकमेदःकर्दमे पतिताः गन्तुमशक्त्या प्रहारैश्चेति भावः। तथा मृतत्वादुच्छूना विवृद्धाश्च तेषां मातङ्गानां देहश्रेणीषु लब्धः प्रचारो गोमायुप्रभृतीनां यासु तास्तथोक्ताः प्रवहन्तः प्रकर्षेण स्रवन्तः उरवोऽधिकाः वसादीनां वपादीनां प्रवाहाः स्त्रोतांसि यासु तास्तथोक्ताः। राशीभूतैरस्थिकूटैः कीकससमूहैः स्थपुटिता विकटीकृताः निकटाः प्रान्तदेशा येषु तास्तयोक्ताः। निःसरद्विस्रगन्धाः उद्भवदामगन्धाः। वीररुद्रेण सृष्टा आयोधनोर्व्यो युद्धभूमयः सर्वेषां भयं कुर्वन्ति।
विस्मयं लक्षयति। अपूर्वेति। लोकसीमातिवृत्तः पदार्थोऽपूर्वार्थः तद्दर्शनादिजन्यो मनोविस्तारो1842 विस्मय इत्यर्थः। अयमेवाकस्मिकमनोरथलाभालौकिकदर्शना1843दिविभावो नयनविस्तारसाधुवादाद्यनुभावो हर्षावेगादिसहकृतोऽद्भुतः। उदाहरति। औन्नत्यमिति। व्याख्यातचरमेतत्। (काव्यप्रकरणे संख्या १५)। अत्र किमन्यशब्दाभ्यामलौकिकत्वेन प्रतीयमानौन्नत्यादिविलोकनविभावो विस्मयः प्रतीयते।
शमो1844 वैराग्यादिना निर्विकारचित्तत्वम्।
यथा
किं लब्धं चतुराननेन महतीमायुःप्रथां गच्छता
लब्ध्वा संपदमप्यनन्यसुगमामिन्द्रेण1845 किं1846 वा कृतम्।
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शमं लक्षयति। शम इति। अत्रादिशब्देनेश्वरानुग्रहसत्सङ्गमादिकं गृह्यते। विकारा विषयाभिलाषादयः। तद्रहितचित्तत्वं वैराग्यादिजन्यतृष्णाक्षयाद्यपरपर्यायो निर्वेदाख्यो मनोविकारः शम इत्यर्थः। अयमेव यमनियमाद्यनुभावो धृतिनिर्वेदादिव्यभिचारी चर्व्यमाणः शान्तो भवति। उदाहरति। किमिति। महतीमायुःप्रथां चतुर्युगसहस्रमेकं दिनमित्यादिक्रमेण संवत्सरशतरूपामनन्यसुगमामसाधारणामित्यर्थः। अस्तान्तरुपप्लवा निरस्तकामक्रोधादयः। बाह्यं वातातपादिजन्यमित्यर्थः। उपप्लवं पीडाम्। अतिदीर्घमायुरत्युच्छ्रितमैश्वर्यं चेत्युभयमाशास्त्रं सर्वेषाम्। तत्सम्पादकेषु परमावधितया प्रसिद्धौ पितामहपुरुहूतावपि तृणाय मन्यमानानां वैराग्यातिभूमिलक्षणः शमः प्रतीयते। ननु ‘अष्टौ नाव्ये रसाः स्मृताः’ इति नियमान्नवमः शान्तरसो न भवतीति चेत् तर्हि त एवं प्रष्टव्याः। किं मुनिना शान्तस्थायिन एवानिरूपणात् तदभाव उत तत्सामग्रीवैधुर्यादाहोस्विदश्लाघ्यत्वादथवान्तर्भावाद्यद्वा पुरुषार्थाभावात्। नाद्यः। निर्वेद एव शान्तस्य स्थायिभाव इति मुनिनाङ्गीकृतत्वात्। तच्चानेकरससाधारणस्य व्यभिचारिणः सतोऽप्यमङ्गलप्रायत्वेऽपि सजातीयाग्रगण्यत्वं प्राधान्येन कंचिद्रसविशेषं प्रत्यसाधारणं स्थायित्वं बोधयितुमिति प्रतिपादनात्1847। तदुक्तं काव्यप्रकाशे। ‘निर्वेदस्यामङ्गलप्रायस्य प्रथममनुपादेयत्वेऽपि उपादानं व्यभिचारित्वेऽपि स्थायित्वाभिधानार्थम्। तेन निर्वेदस्थायिभावः शान्तोऽपि नवमोऽस्ति रसः’ इति। उक्तं च ध्वन्याचार्यैः। ‘तृष्णाक्षयसुखस्य यः परिपोषस्तलक्षणो रसः प्रतीयत एव’ इति। एतद्व्याख्यानव्याजेन लोचनेऽप्युक्तम्। ‘तृष्णानां विषयाभिलाषाणां सिद्धो यः क्षयः सर्वतो निवृत्तिरूपो निर्वेदः स एव सुखं तस्य स्थायिभूतस्य यः परिपोषस्तस्य चर्व्यमाणताकृतः स एव लक्षणं यस्य स शान्तो रसः प्रतीयत एव’ इति। न च निर्वेदस्तृष्णाक्षयात्मा शम-
इत्यास्तां तरुपल्लवाः सुकृतिनो नो जानते बाह्यम-
प्यद्योपप्लव1848मन्ध्रनाथतिलके विश्वंभरां बिभ्रति॥९॥
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पर्यायो न सुखरूप इति शङ्कनीयम्। वैयासिकानामविद्यानिवृत्तिवदस्यापि सुखरूपत्वसंभवात्। तदुक्तम्।
‘यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत् सुखम्।
तृष्णाक्षयमुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम्॥’
इति। न द्वितीयः। वैराग्यादिसामग्र्याः सुलभत्वात्। तथाहि वैराग्यपरमेश्वरानुग्रहप्राचीनकुशलपरिपाकसत्पुरुषसेवावेदान्तविचारादयो विभावाः। यमनियमादयोऽनुभावाः। राज्यधुरोद्वहनादयोऽपि शान्तस्य जनकादेरनुभावा इत्युक्तं लोचने। मतिस्मृतिचिन्ताधृतिवितर्कादयो व्यभिचारिण इति। न तृतीयः। रागद्वेषकलुषितान्तःकरणानामचर्वणीयत्वेनाश्लाघ्यत्वेऽपि वीतरागाणां तदभावात्। यदि कतिपयश्लाध्यत्वमात्रेण रसत्वात् प्रच्यवेत तर्हि वीतरागाणामश्लाघ्य इति शृङ्गारोऽपि प्रच्यवताम्। न चतुर्थः। न तावच्छृङ्गारादावन्तर्भावः संभवति। अप्रसक्तत्वात्। ननु दानाद्युपाधिना त्रिविधो वीरः। तदुक्तं मुनिना।
‘दानवीरं युद्धवीरं धर्मवीरं तथव च॥
रसं वीरमपि प्राह ब्रह्मा त्रिविधसंमतम्॥’
इति। अयं च धर्मप्रधानो वीर एवेति तत्रैवान्तर्भावः शान्तस्य संभावित इति चेन्न। उत्साहस्याहमेवंविध इत्येवंप्राणत्वेनाभिमानमयो वीरः सर्वाहंकारप्रशमैकरूपः शान्तः। एवमनयोरत्यन्तवैजात्यात्। तर्हि दयावीरेऽन्तर्भाव इति चेन्न। तस्याप्येवंविधत्वे शान्तस्यैव नामान्तरकरणमनैवंविधत्वे वीरप्रभेद एवेति। एवमप्यन्तर्भावाङ्गीकारे सर्वत्रैकरसस्य प्रसङ्गः। नापि पञ्चमः। चतुर्थपुरुषार्थस्य मुक्तेरेतदेकसाध्यत्वात्। तदुक्तं भावप्रकाशे1849।
‘सर्वप्रकारैः संपूर्णकामः संतुष्टमानसः।
प्राप्नोति मुक्तिं चरमे शान्तेनैव रसेन सः॥’
इति। लोचने चोक्तम्। ‘मोक्षफलत्वेन चायं परमपुरुषार्थनिध्नत्वात् सर्वरसेभ्यः प्रधानतमः स चायं शान्तरसः’ इति। तस्मान्नवैव रसा इति सिद्धम्। वत्सलादिरसान्तराणामन्तर्भावादिकमन्यतो द्रष्टव्यम्।
अथ शृङ्गारस्यालम्बनविभावो यथा।
लावण्यैकनि1850धिर्विधातृरचनाशिल्पप्रतिज्ञावधिः
शृङ्गारप्रतिभूर्विलासविपणिः कन्दर्पघण्टापथः1851।
नारीणामधिदेवता च तरुणी सेयं किमन्यैर्गुणै-
रस्या मन्मथमन्मथः प्रियतमः श्रीवीररुद्रो नृपः॥२०॥
उद्दीपनविभावो यथा।
उरोमात्रोत्सेधं भवदपि विलासैरभिनवै-
र्मृगाक्ष्यास्तारुण्यं त्रिभुवनमिदं व्याकुलयति।
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विभावानुभावादीनां प्रतिरसमसाधारणतया यथारसमुदाहर्त्तुमुचितत्वादादौ शृङ्गारमुदाहरिष्यमाणस्तदालम्बनमुदाहरति। लावण्येति।
‘मुक्ताफलेषु छायायास्तरलत्वमिवान्तरा।
प्रतिभाति यदङ्गेषु तल्लावण्यमिहोच्यते॥’
इति तल्लक्षणः कान्तिविशेषो लावण्यम्। तस्यैकस्वनिः। कदाचिदपि तत्र क्षीयत इति भावः। रचनाशिल्पमङ्गोपाङ्गसौष्ठवनिर्माणं तद्विषयप्रतिज्ञाया अवधिः। इतः परं विधाता प्रतिज्ञातुमपि न शक्नोति किमुत विधातुमिति भावः। शृङ्गारस्य प्रतिभूः।
‘स्वामिभृत्याधमर्णानां व्यवस्थापरिकल्पने1852।
अन्यो यः क्रियते शिष्टः प्रतिभूः स निगद्यते॥’
इति सोमेश्वरोक्तलक्षणः। यथा प्रतिभूरधमर्णाद्धनमुद्धरति तथेयमपि वैराग्याच्छुङ्गारमिति भावः। विलासानां विपणिः पण्यवीथिकाविलासापेक्षायामत्रैव संपाद्या इति भावः। कन्दर्पस्य घण्टापथो विस्रम्भविहार1853भूमिरित्यर्थः। सेयं प्रसिद्धा। तरुणी युवतिः। नारीणामधिदेवता च सर्वगुणाश्रयत्वेनोपास्यत्वादिति भावः। यदाहुः। ‘गुणाः पूजास्थानम्’ इति। गुणसामग्रीफलस्य प्रेयसो लाभात् किं गुणान्तरकथनेनेत्याह। किमन्यैरिति। अत्र लावण्यादीनामालम्बनगुणानामुद्दीपनविभावत्वेऽप्यालम्बनोपस्कारार्थमेवोपादानान्न तत्प्राधान्यम्।
उद्दीपनविभावमुदाहरति। उर इति। उरोमात्रे उत्सेध उच्छूनता यस्मिन्वयसि स्तनालवालस्थले किंचिदुन्नतमुर इति प्रतीतिर्जायते तदित्यर्थः। स्तनयो-
नाभोगस्फीतं यदि किल भवेत् का खलु कथा
भवित्री कि चान्यद्वि1854जितमखिलं पुष्पधनुषा॥११॥
भावो यथा।
स्मरस्मेरान्1855 मन्दस्मितमधुरसौरभ्यसुभगान्
मनाक् व्रीडाजाड्यान् प्रणयरसकल्लोलभरितान्।
कृतानेकस्कन्धान्मनसिजसहस्राणि सृजतः।
कटाक्षान् वामाक्षी किरति परितो रुद्रनृपतिम्॥१२॥
स्तम्भः1856 स्यान्निष्क्रियाङ्गत्वं रागभीत्यादिसंभवम्।
यथा।
‘काअइपुरट्ठिआ1857 पेखंतीओ1858णरिंद1859कंदप्पं।
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राभोगो विस्तारः। स्फीतं समृद्धम्। ‘स्फायः स्फी निष्टायाम्’ इति स्फीभावः। उदयदेव यौवनं जगन्मोहनं जायते। उदितं परिपूर्णं वा किमु वक्तव्यमिति भावः।
अनुभावमुदाहरति। स्मरेति। व्याख्यातमेतत् प्रसङ्गेन काव्यप्रकरणे। एव रसान्तरसंबन्धिनो विभावानुभावा यथायोगं स्वस्वरसप्रकरणे द्रष्टव्याः।
सात्त्विकानां सामान्यलक्षणप्रस्तावे बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वैविध्यमुक्तम्। तत्र बाह्यानां स्तम्भादीनां स्वरूपोदाहरणे वकुं प्रतिजानीते। अथेति। वक्ति। स्तम्भ इति। विषादविस्मयादिजन्यो जाड्य1860निष्कम्पत्वाद्यनुभावो विष्टब्धचेतनतया चेष्टाविघातः स्तम्भ इत्यर्थः। रागसंभवं स्तम्भमुदाहरति। काअईति। काकति पुरन्ध्र्य पश्यन्त्यो नरेन्द्रकन्दर्पम्। मदनशरोत्कीर्णाः कामबाणकीलिता इति। अत्र पश्यन्त्यो निश्चलाङ्ग्य इत्यनेन सत्यपि चैतन्ये निश्चेष्टत्वकथनात् स्तम्भ इति भावः।
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छाया।
1 काकतिपुरस्त्रियः पश्यन्त्यो नरेन्द्रकन्दर्पम्।
¹मअणसर1861क्किण्णाओ1862 विअ ट्टिआ1863 णिच्चलंगीओ।
प्रलयः सुखदुःखाद्यैर्गाढमिन्द्रियमूर्च्छनम्1864।
यथा।
²जिअमअणरूवसारो1865 सहि एसो वीररुद्दणिवचंदो।
जं दट्ठूण णिमज्जइ मुच्छाअं1866 इंदिअग्गामो॥१४॥
सुखाद्यतिशयाज्जाता रोमाञ्चो रोमविक्रिया1867।
रागरोषभयादिभ्यो वेपथुर्गात्रवेपनम्1868॥
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प्रलयं लक्षयति। प्रलय इति। सुखमदनिद्राप्रहारादिजन्यं दुःखाभिषङ्गाद्यनुभावं निश्चेतनतया नष्टचेष्टत्वं प्रलय इत्यर्थः। तदुक्तम्।
‘वाक्कायमनसां प्रायः प्रलयो नष्टचेष्टता।’
इति। सुखमूलं प्रलयमुदाहरति। जिएति। जितमदनरूपसारः सखि एष वीररुद्रनृपचन्द्रः। यं दृष्ट्वा निमज्जति मूर्च्छायामिन्द्रियग्रामः॥ सर्वाणीन्द्रियाणि स्वस्वव्यापारेभ्य उपरतानीत्यर्थः। अत एव निश्चेतनतया नष्टचेष्टत्वमिति भावः।
रोमाञ्चकम्पयोरुदाहरणलाघवार्थे युगपल्लक्षणमाह। सुखेत्यादि। सुखोत्साहभयविस्मयादिजन्यो गात्रसंस्पर्शोल्लसनाद्यनुभावो रोमोद्गमो रोमाञ्च इर्त्यथः। भयज्वरजरादिजन्यः स्फुरणाद्यनुभावो गात्रकम्पो वेपथुरित्यर्थः। सुसुखजन्ययो
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छाया।
1 मदनशरोत्कीर्णा इव स्थिता निश्चलाङ्ग्ग्यः।
2 जितमदनरूपसारः सखि एप वीररुद्रनृपचन्द्रः।
यं दृष्ट्वा निमज्जति मूर्च्छायामिन्द्रियग्रामः॥
द्वयोरुदाहरणं यथा।
‘दइआलिंगणणिम्भरकंपा1869 वह विओ1870अज्जिणंगी1871।
उग्गिरइ अंतर1872ठ्ठिद1873मअणसरे1874 पुलअछम्मेण॥१५॥
वपुर्जलोद्गमः स्वेदो रतिधर्मश्रमादिभिः1875।
यथा।
शृण्वती प्रियसंदेशं प्रेयसः काकतीशितुः।
स्मरराज्याभिषिक्तेव स्विन्नाङ्गी वामलोचना॥१६॥
विषादमदरोषादेर्वर्णान्यत्वं विवर्णता।
यथा।
णरणाह चंदधवले तुज्झ गुणे साहु सम्हरंतीए।
अंगार1876 पांडुराइ1877 दाणीं1878 जाआइ सामलंगीए1879॥१७॥
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रोमाञ्चकम्पयोरुदाहरणमाह। दइएति। दयितालिङ्गननिर्भरकम्पा च वधूर्वियोगजीर्णाङ्गी। अत एव। उद्गिरत्यन्तरस्थितमदनशरान् पुलकच्छद्मना। सरेत्यन्न’शस्येत्’ इत्येत्वम्।
स्वेदं लक्षयति। वपुरिति। निदाघश्रमहर्षव्यायामलज्जाभयक्रोधादिजन्यो बातेच्छाव्यजनग्रहणाद्यनुभावो वपुर्जलोद्गमः स्वेद इत्यर्थः। हर्षजन्यं स्वेदमुदाहरति। शृण्वतीति। प्रियसंदेशं स्वकुशलप्रेषणम्।
वैवर्ण्ये लक्षयति। विषादेति। कोपातपशीतभयादिजन्यं कार्श्यसौन्दर्यविप्लवाद्यनुभावं भिन्नवर्णत्वं वैवर्ण्यमित्यर्थः। विरहजन्यविषादमूलं वैवर्ण्यमुदाहरति। णरणाद्देति।
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छाया।
2 दयितालिङ्गननिर्भरकम्पा वधूर्वियोगजीर्णाङ्गी।
उद्गिरत्यन्तरस्थितमदनशरान् पुलकच्छद्मना॥
३ नरनाथ चन्द्रधवलान् तव गुणान् साधु संस्मरन्त्याः।
अङ्गानि पाण्डुराणि इदानीं जातानि श्यामलाङ्ग्याः॥
अश्रुनेत्रोद्भवं वारि दुःखरोषप्रहर्षजम्।
यथा।
वीररुद्रनृपाद् भीतं पाण्ड्यं मग्नं पयोनिधौ।
अन्वेष्टुमिव तद्योषिदश्रुधारापगायते॥१८॥
मतं1880 गद्गदभाषित्वं वैस्वर्यं प्रमदादिजम्।
यथा।
‘विअणंमि पिएण समं खाम1881क्खामाक्वरं1882 मणंतीए।
एको मुणइ1883 अणंगो अथ्थं1884 बहुआए भणिआणं॥१९॥
अथ व्यभिचारिणां1885 निर्वेदादीनां स्वरूपमुदाहरणं च।
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नरनाथ चन्द्रधवलांस्तव गुणान् साधु संस्मरन्त्याः।
अंगानि पाण्डुराणि इदानीं जातानि श्यामायाः॥
यण्हिं इदानीम्। श्यामाया युवतेः श्यामवर्णायाश्च।
अश्रूदाहरति। क्रोधहर्षभयजृम्भादिजन्यं नेत्रमार्जनाद्यनुभावं नेत्रजलमवित्यर्थः। दुःखमूलमश्रूदाहरति। वीरेति।
वैस्वर्येलक्षयति। मतमिति। हर्षशोकभयज्वरादिजन्यं स्वरवर्णस्थालित्याद्यनुभावं गद्गदभाषित्वं वैस्वर्यमित्यर्थः। हर्षमूलं वैस्वर्यमुदाहरति। विअणस्मीति। विजने सुरतसमये इत्यर्थः। प्रियेण समं क्षामक्षामाक्षरं भणन्त्याः सुखपारवश्यादिति भावः। एको जानात्यनङ्गोऽर्थेवध्वा भणितानाम्। त्रायस्व त्वं मे प्राणा अलमलं मा मेत्यादीनां दैन्यप्रेमालमर्थादिसमर्थानां वचनानामित्यर्थः। मुणइ इत्यत्र जानातेर्मुणादेशः। अत्र गद्वदवाक्यानां कामोद्दीपकत्वमतिमात्रमभूदिति परमो भावः॥
संचारिणां स्वरूपोदाहरणे क्रमेणाह। अथेत्यादिना। निर्वेदं लक्षयति।
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छाया।
1 विजने प्रियेण समं क्षामक्षामाक्षरं भणन्त्याः।
एको जानात्यनङ्गोऽर्थं वध्वा भणितानाम्॥
यथा।
दुःखेर्ष्यातत्त्वबोधादेर्निर्वेदो निष्फलत्वधीः।
तत्र चिन्ताश्रुनिश्वासदीनताः1886 संभवन्ति च॥
यथा
सहि कप्पूरेण किअं1887 किं कथ्थूरीए1888 मलअअं1889 ठाउ।
गुणसिसिरं जससुतहिं आणेहि पआवरुदणिअचंदं॥२०॥
अथ ग्लानिः।
ग्लानिर्वस्यापचयो वैवर्ण्यरतिकारणम्।
यथा।
‘तेल्लोक्कं वहइ महीतं धरइ भुओ पआवरुद्दस्स।
तं हिअपण घरंती साहसिआ1890 दुब्बलंगेम्हि॥२१॥
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दुःखेति। दुःखादिजनिता निष्फलत्वबुद्धिर्निर्वेद इत्यर्थः। अयं च विभावानुभावरसाङ्गत्वेन स्वातन्त्येण बहुधा संभवति। अतः तत्संग्रहार्थमादिशब्दः। अस्यानुभावानाह। तत्रेति। चशब्दाद्वैवर्ण्यादयो गृह्यन्ते। संचारिणामपि क्कचिदनुभावत्वं संभवतीत्युक्तम्। तत्र प्रियवियोगजन्यदुःखमूलं निर्वेदमुदाहरति। सहीति1891। प्रतापरुद्रं चेति। चशब्दोऽवधारणे। कर्पूराद्यतिरिच्यमानशैत्यसौरभ्ययोस्तत्रैव सुलभत्वादिति भावः।
उदाहरणान्तराण्यन्यतो द्रष्टव्यानीत्युपेक्ष्य ग्लानिं लक्षयति। ग्लानिरिति। क्षुत्पिपासानिधुवनादिप्रयासजनितो बलापचयो ग्लानिरित्यर्थः। वैवर्ण्यारतिग्रहणं क्षामाङ्गवचनक्रियाद्युपलक्षणम्। सुरतश्रान्तायाः प्रियगौरवोद्वहनप्रयासापादनमुत्कर्षन्त्याः कस्याश्चिद्दौर्बल्यमुदाहरति। तेल्लोक्कमिति। त्रयो लोकास्रैलोक्यं विश्वमित्यर्थः। चातुर्वण्यदित्वाद् प्यञ्प्रत्ययः। हृदयेन वक्षःस्थलेन साहसिकी
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छाया।
2 सस्रि कर्पूरेण कृतं किं कस्तुरिकया मलयजं तिष्ठतु।
गुणशिशिरं यशःसुरभिमानय प्रतापरुद्रनृपचन्द्रम्॥
३ त्रैलोक्यं वहति महीतां धरति भुजः प्रतापरद्रस्य।
तं हृदयेन धरन्ती साहसिकी दुर्बालङ्ग्यस्मि॥
अथ शङ्का।
अनिष्टाभ्यागमोत्प्रेक्षा शङ्का रोषादिकारणम्।
यथा।
¹ण मुणदु1892 अंण्णोत्ति मए हिअए1893 परिचओ पिअस्स किओ।
किं पअडंम्हि जणाणं सव्वंग्गिणेहिं1894 पुलपहिं॥२२॥
अथासूया।
परोत्कर्षासहिष्णुत्वमसूया परिकीर्तिता1895।
यथा।
²अहिआईइ1896 गुणेहिं रूबेण अ मज्झ किं मही अहिआ।
जं1897 तं पआबरुद्दो बहुमण्णइ भाअहेअं1898 तं॥२३॥
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स्वयं तन्वङ्गीति विदित्वापि प्रवृत्तत्वादिति भावः। सहसा बलेनाविमृश्य वर्त्तत इत्यस्मिन्नर्थे ‘ओजःसहोम्भसा वर्त्तते’ इति ठगन्तात् साहसिकशब्दात्कलोपे स्त्रियां नित्यईकारप्रत्यये प्राप्ते साहसिकीति रूपं गौरादौ तथाविधानात्। ‘पुंसो जातेर्जव1899’ इति विकल्पस्तु अप्राप्तनीलादिविषय इति साहसिकेत्याका रान्तपाठ उपेक्षणीयः।
शङ्कां लक्षयति। अनिष्टेति। परक्रौर्यादात्मदुर्णयाद्वानर्थप्राप्तेरभ्यूहनं शङ्केस्यर्थः। आदिग्रहणाद्वैवर्ण्यवैस्वर्यदिगवलोकनादयो गृह्यन्ते। उदाहरति। ण मुणद्विति। न जानात्वन्य इति मया हृदय एव परिचयःप्रियस्य कृतः। किं प्रकटास्मि जनानां सर्वाङ्गीणैः पुलकैः। मुग्धानां गूढानुरागस्य प्राकव्यमेवानर्थ इति भावः।
असूयां लक्षयति। परेति1900। गर्वदौर्जन्यमन्युजन्यं1901 परोत्कर्षासहिष्णुत्वमसूयेस्पर्थः। निन्दावज्ञाभ्रुकुव्यादयोऽनुभावाः। उदाहरति। अहीति। अभिजात्या गुणै रूपेण च मत्तः किं मही अधिका। यत्तां प्रतापरुद्रो बहुमन्यते भागधेयं तत्। अभिजातिः कुलम्। गुणाः दाक्षिण्यादयः। यत्र चतुर्विधाभरणराहित्येऽपि तत्साहित्येनेवाभासनं तद्रूपम्।
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छाया।
1 न जानात्वन्य इति मया हृदये परिचयः प्रियस्य कृतः।
किं प्रकटास्मि जनानां सर्वाङ्गीणैः पुलकैः॥
2 अभिजात्या गुणै रूपेण च मत्तः किं मही अधिका।
यत्तां प्रतापरुद्रो बहुमन्यते भागधेयं सत्॥
अथ मदः1902।
मदिरादिकृतो मोहहर्षव्यक्तिकरो1903 मदः1904।
यथा।
¹मणइ अ असंगदत्थं1905 हसइ अमंदं अ राअभरिअंछि1906।
पिअचिंतामइराए1907 परवसा1908 उवह सामंगी॥२४॥
अथ श्रमः।
श्रमः खेदोऽध्वरत्यादेर्जातः स्वेदातिभूमिकृत्।
यथा।
²आअच्छइ1909एव्व पिए1910 कीस करती1911 गआगआआसं।
तंमसि सेअजलेहिं सुंदरि लुलिअंगराआसि॥२५॥
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‘आवेध्यारोप्यविक्षेप्यबन्धनीयैरभूषितम्।
यद्भूषितमिवाभाति तद्रूपमिति कथ्यते॥’
इति लक्षणात्। अधिका किं न भवतीत्यर्थः। तथापि बहुमाने भागधेयमेव निमित्तमित्याह। यदिति।
मदं लक्षयति। मदिरेति। मोहो वैचित्यम्। हर्षः प्रसादः। मदिरादिजन्यो हर्षमोहसंकरो मद इत्यर्थः। अत्र वागङ्गस्खालित्यहसितरुदितादयो यथायोगमुत्तमादिष्वनुभावाः।
‘संमोहानन्दसंभेदो मदो मद्योपयोगजः।
अमुना चोत्तमः शेते मध्यो हसति गायति॥
अधमप्रकृतिश्चापि परुषं वक्ति रोदिति।’
इति साहित्यदर्पणे। उदाहरति। भणईति।
श्रमं लक्षयति। श्रम इति। अध्वसुरतादिजन्यः खेदः श्रम इत्यर्थः। स्वेद उपमर्दनादेरुपलक्षकः। उदाहरति। आअच्छईति।
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छाया।
1 भणति चासंगतार्थं हसत्यमन्दं च रागभरिताक्षी।
प्रियचिन्तामदिरया परवशा पश्यत श्यामाङ्गी॥
2 आगच्छत्येव प्रिये कस्मात्कुर्वती गतागतायासं।
ताम्यसि सेकजलैः सुन्दरि लुटिताङ्गरागासि॥
अथालस्यम्।
मन्दोद्यमत्वमालस्यं कर्त्तव्येषु प्रकीर्त्त्यते।
यथा।
आस्तां मृगाक्ष्या गृहकृत्यवार्त्ता
स्वाङ्गोपचारेष्वपि यत्नमान्द्यम्।
कर्त्तव्यमग्रे दयितस्य यत् स्या-
न्नूतं बलात्कारयति स्मरस्तत्॥२६॥
अथ दैन्यम्।
सत्त्वत्यागादनौद्धत्यं दैन्यं कार्पण्यसंभवम्।
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आलस्यं लक्षयति। मन्देति। गर्वश्रमादिना प्रयत्नमान्द्यमालस्यमित्यर्थः। अत्र जृम्भोपवेशनादयोऽनुभावाः। उदाहरति। आस्तामिति। गृहकृत्यवार्त्ता धूपवासनावितानसंविधानादिप्रसङ्गः स्वाङ्गोपचारेषु मृगमदानुलेपनमाल्यधारणमकरिकारचनादिषु यत्नमान्यं प्रयत्नशैथिल्यमुपचारकरणं पुनरतिदूरमिति भावः। अग्रे प्रियागमनसमये यत् कर्त्तव्यं प्रत्युद्रमनरभसाश्लेषप्रियभाषणादिकं तत् स्मरो बलात् बलमाश्रित्य कारयति। ल्यब्लोपे पञ्चमी। अत्र मन्दयत्न इति पाठे विधेयस्य मान्द्यस्य समासे गुणभूतत्वादविसृष्टविधेयांशं नाम दोषः स्यात्। नन्येकं संधित्सतोऽपरं प्रच्यवत इति न्यायेनाविमृष्टविधेयांशं परिहरतोऽनुशासनविरोधः स्यात्। ‘पूरणगुण—’ इत्यादिना गुणेन षष्ठीसमासप्रतिषेधात् इति चेन्मैवं मंस्थाः। संज्ञाप्रमाणत्वात् तद्यत्रगौरवं प्रसज्येत चन्दनगन्ध इत्यादिसूत्रभाष्यकारादिमहापुरुषप्रयोगदर्शनात् तत्स्थगुणेषु प्रतिषेधाभावात् पूरणगुणेति प्रतिषेधस्य पटस्य शुक्ल इत्माद्यतत्स्थगुणविपयत्वादिति। प्रपञ्चितं चैतदस्मदुपाध्यायैर्घण्टापथे ‘न च न स्वीकृतमर्थगौरवम्’ इत्येतद्व्याख्यानावसरे।
दैन्यं लक्षयति। सत्त्व इति। सत्त्वत्यागो दौर्गत्यादेरुपलक्षकः। तेन सत्त्व-
यथा।
¹आणेउं1912 णरणाहं गओ1913 क्तु सहिणो1914 जणो विलंबेइ।
मम्मह1915 णमामि चंदं सिक्खअ1916चिरेहि1917 ईसित्ति1918॥२७॥
अथ चिन्ता।
इष्टानभिगमाद्1919 ध्यानं चिन्ताशून्यत्वतापकृत्1920।
यथा।
²संण्णिहिअं1921 विअ1922 गुरुअणं ण अ पेख्खह पुछिआ वि णालबइ1923।
एसा वि मग्गइ गइं हिअअस्स पिआणुबंधस्स॥२८॥
अथ मोहः।
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त्यागदौर्गत्यादिजन्यं मनसोऽनौद्धत्यं दैन्यमित्यर्थः। कापण्यंवचनं देहवचनमालिन्याद्यनुभावानामुपलक्षकम्। उदाहरति। आणेदुमिति।
आनेतुं नरनाथं गतः खलु सखीजनो विलम्बते। मन्मथ नमामि चन्द्रंशिक्षय चिरय ईषदिति। चिन्तां लक्षयति। इष्टेति। अपेक्षितानवाप्तिमूलं ध्यानं चिन्तेत्यर्थः। शून्यतानिःश्वासतापादयोऽनुभावाः। उदाहरति। सण्णिहिअमिति।
सन्निहितमपि गुरुजनं न च पश्यति पृष्टापि नालपति।
एषापि मार्गति गतिं हृदयस्य प्रियानुबन्धस्य॥
अत्र प्रथमार्धेन शून्यत्वं द्वितीयार्धेन प्रियानवाप्तिमूलं ध्यानं चोच्यते।
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छाया।
1 आनेतुं नरनाथं गतः खलु सखीनां जनो विलम्बते।
मन्मथ नमामि चन्द्रं शिक्षय चिरय ईषदिति॥
2 सन्निहितमपि गुरुजनं न च पश्यति पृष्ठापि नालपति।
एषापि मार्गति गतिं हृदयस्य प्रियानुबन्धस्य॥
मोहस्तु मूर्च्छनं भीतिदुःखावेशानुचिन्तनैः।
यथा
कथमपि गमयित्वा वासरं दीर्घदीर्घे
विरचितनववेषा प्रेषयित्वाथ दूतीः।
चिरयति हृदयेशे प्रांशुभिश्चन्द्रपादै-
रभिहतसकलाङ्गी1924 मूर्च्छिता कोमलाङ्गी॥२९॥
अथ स्मृतिः।
पूर्वानुभूतविषयं ज्ञानं1925 स्मृतिरुदाहृता।
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मोहं लक्षयति। मोह इति। भीत्यादिभिर्वैचित्यं मोह इत्यर्थः। ‘मोहो विचित्तता भीतिदुःखवेगानुचिन्तनैः। घूर्णनागात्रपतनभ्रमणादर्शनादिकृत्’ इति साहित्यदर्पणे। तत्राज्ञानभ्रमोत्पातघूर्णनादर्शनादयोऽनुभावाः। उदाहरति। कथमिति। दीर्घदीर्घप्रियागमनार्थे कदा वा गभस्तिमानस्तमीयादिति प्रतीक्षणेनातिदीर्घमित्यर्थः। ‘प्रकारे गुणवचनस्य’ इति द्विर्भावः। वासरं कथमपि क्षणगणनया कथंचित् प्रयत्नगौरवेणेत्यर्थः।
‘ज्ञातहेतुविवक्षायामप्यादि कथमव्ययम्।
कथमादि तथाप्यन्तं यत्त्रगौरववाढयोः॥’
इत्यभिधानात्। गमयित्वा यापयित्वा। विरचितनववेषा विहितप्रियागमनसमयोचितशृङ्गारा सती। अथशब्दो विलम्बाभावसूचनार्थः। दूतीः पुङ्खानुपुङ्स्रतया प्रेषयित्वा हृदयेशे प्राणनाथे चिरयति विलम्बमाने सति कोमलाङ्गी अत एव प्रांशुभिरायतैश्चन्द्रपादैरिन्दुकिरणैः कशाकल्पैरभिहतसकलाङ्गी मूर्च्छिता। अनाथा पादैरभिहन्यमाना मूर्च्छन्तीति ध्वन्यते।
स्मृतिं लक्षयति। पूर्वेति। सदृशादृष्टचिन्ताद्यैः संस्कारोद्बोधे सति पूर्वानुभूताथविषयज्ञानं स्मृतिरित्यर्थः। अत्र भ्रून्नमनशिरःकम्पादयोऽनुभावाः। स्पर्श-
यथा
प्रतापरुद्रस्य भुजे वसन्त्या
क्षोण्या तपः कीदृशमर्जितं1926 स्यात्।
स्पृष्टं सकृद्येन मदीयमङ्गं
प्राप्नोति विष्वक् सुखवज्रलेपम्॥३०॥
अथ धृतिः।
धृतिश्चित्तस्य नैस्स्पृह्यं ज्ञाना1927भीष्टागमादिभिः1928।
यथा।
वीररुद्रनृपतौ हृदय त्वद्1929-
वल्लभे त्रिभुवनैकधुरीणे।
साधु साधु कृतकृत्यमसि त्वं
मन्यसे जगदशेषमसारम्॥३१॥
अथ व्रीडा।
चेतः संकोचनं1930 व्रीडानङ्गराग1931स्तवादिभिः।
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सुखस्मरणमुदाहरति। प्रतापेति। निबिडसुधालेपो1932 वज्रलेपः। अत्र कस्यचिन्मदङ्गस्य कादाचित्कः प्रियकरस्पर्शः सर्वाङ्गीणमविच्छिन्नं च सुखं जनयति। वीररुद्रभुजे नित्यनिवासाया भूमेः किमु वक्तव्यमिति भावः।
धृतिं लक्षयति। धृतिरिति। आदिग्रहणात् शक्त्यादयो गृह्यन्ते। ज्ञानादिभिर्निःस्पृहत्वं धृतिरित्यर्थः।
ज्ञानाभीष्टागमाद्यैस्तु संपूर्णस्पृहता धृतिः।
सौहित्यवचनोल्लाससहासप्रतिभादिकृत्॥
तैरेव1933 संतोषो धृतिरित्यन्ये। अव्यग्रभावादयोऽनुभावाः। उदाहरति। वीरेति। हे हृदय त्रयाणां भुवनानां समाहारस्त्रिभुवनम्। पात्रादित्वान्न स्त्रीत्वम्। धुरं वहतीति धुरीणः। ‘खःसर्वधुराद्’ इत्यत्र योगविभागात् खप्रत्ययः। साधुसाध्वित्याभीक्ष्ण्ये द्विर्भावः। अग्राभीष्टागमाद् धृतिः।
व्रीडां लक्षयति। चेत इति। अनङ्गनिमित्तो रागोऽनङ्गरागः। स्तवः स्तोत्रम्। आदिग्रहणादाचारभ्रंशादयः। चेतःसंकोचनं धार्ष्ट्याभावः। मदनाभि-
यथा।
तथासमालोकनकौतुकानां
मनोरथैरन्ध्र1934पुराङ्गनानाम्।
विलोकिते रुद्रनृपे भवन्ति
पर्यस्तपक्ष्माणि विलोचनानि॥३२॥
अथ चपलता1935।
चापलं त्वनवस्थानं रागद्वेषादिसंभवम्।
यथा।
दृष्ट्वा रुद्रनरेन्द्रं तरलतराक्षी विलासमृदुहासा।
कलयति मौक्तिकहारं स्पृशति च1936 कर्णोत्पलं बाला॥३३॥
अथ हर्षः।
प्रसत्ति1937रुत्सवादिभ्यो हर्षः स्वेदाश्रुकम्पकृत्1938।
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लाषादिर्मनः संकोचो व्रीडेत्यर्थः। अत्रान्तधनवैवर्ण्याधोमुखत्वादयोऽनुभावाः। उदाहरति। तथेति। अव्यासङ्गेनानिमिषेण च तृष्णानुगुणं दृष्ट्वा जन्मनो जीवितस्य नयनानां च साफल्यं संपादयाम इत्यादयोऽभिलाषा मनोरथाः। तैर्हेतुभिस्तथाभूतं गाढमालोकनकौतुकं दर्शनोत्कण्ठा यासां तासामन्ध्र1939पुराङ्गनानां विलोचनानि रुद्रनृपे विलोकिते सति पर्यस्तपक्ष्माणि सनिमेषाणि भवन्ति दृष्टिमपसारयन्तीत्यर्थः। अन्न नृपावलोकनानन्तरमेवानुरागोयाल्लजाभूदिति भावः।
चापलं लक्षयति। चापलमिति। रागद्वेषमात्सर्यादिमूलमनवस्थानं चापलमित्यर्थः। अत्रानुभावाः भर्त्सनपारुष्यस्वच्छन्दचरणादयः। अत्र रागमूलं चापलमुदाहरति। दृष्ट्वेति। बाला रुद्रनरेन्द्रं दृष्ट्वा तरलतराक्षी अतिलोलदृष्टिरित्यर्थः। विलासमृदुहासा विलासप्रधानमन्दस्मिता च। भवतीति शेषः। अत्र तरलदर्शनादिचेष्टाचतुष्टयमध्ये क्षणमप्येकत्र मनसोऽनवस्थानाच्चापलम्।
हर्षं लक्षयति। प्रसत्तिरिति। प्रियागमनपुत्रजननाद्युत्सवादिजनितो मनः-
यथा।
यत् पूर्वं सरसीषु पद्ममुकुलव्याजात् तपः संञ्चितं
वक्षोजौ युवयोस्तदद्य फलितं जातौ कृतार्थौ युवाम्।
दत्ता काकतिवल्लभेन भवतोरेषा स्ववक्षःस्थली-
कस्तूरीद्विगुणीभवत्परिमला कल्हारमाला यतः॥३४॥
अथावेगः।
इष्टानिष्टागमाज्जा1940त आवेगश्चित्तसंभ्रमः।
यथा।
निस्साणध्वनिमाकलय्य सहसा हेलाविहारोद्यतं
द्रष्टुं काकतिवीररुद्रनृपतिं प्रत्यग्रकौतूहलाः।
अर्घालम्बितमण्डनाः प्रतिपदं व्यत्यस्तभूषा जवा-
दारोहन्ति सुवर्णसौधवलभीशृङ्गाणि पौरस्त्रियः1941॥३५॥
अथ जडता।
जाड्यमप्रतिपत्तिः स्यादिष्टानिष्टागमोद्भवा।
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प्रसादो हर्ष इत्यर्थः। स्वेदादयोऽनुभावाः। उदाहरति। यदिति। अत्र कामिनी कुचौ संबोध्य तयोः प्रियदत्तस्वयंधृतकल्हारमालालाभजन्यधन्यत्वकथनव्याजेन स्वकीयं हर्षमाविष्करोति।
आवेगं लक्षयति। इष्टेति। प्रियादेरिष्टस्य राजविदुरवातवर्षादेरनिष्टस्य चागमात् जातश्चित्तसंभ्रम आवेग इत्यर्थः। अत्र हर्षशोकत्वरास्तम्भादयोऽनुभावाः। उदाहरति। निस्साणेति। अर्धालम्बितमण्डनाः एकस्मिन्नेव लोचनेऽञ्जनमेकस्मिन्नेव चरणे लाक्षाविलेपनमित्यादिक्रमेणेति भावः। प्रतिपदं प्रतिस्थानम्। व्यत्यस्तभूषा वैपरीत्येनामुक्ताभरणाः कण्ठादौ काङ्यादिकं कटितटादौ हारादिकं च धारयन्त्य इत्यर्थः।
जाढ्यं लक्षयति। जाड्यमिति। इष्टानिष्टागमोद्भूतमितिकर्त्तव्यतामूढत्वं जाड्यमित्यर्थः। अत्रानिमेपनयननिरीक्षणतूष्णींभावादयोऽनुभावाः। उदाहरति।
यथा।
समायाते नाथे1942 प्रमनसि1943 गृहान् रुद्रनृपतौ
वपुःसौन्दर्यश्रीविजितमदनोदारयशसि1944।
वधूरन्तस्तोषव्यतिकरवशान्नोपचरितुं
पुरस्तादालीनां प्रचलति1945 तथा नो विरमति॥३६॥
अथ गर्वः।
अन्यधिक्करणादात्मोत्कर्षो गर्वो बलादिजः।
यथा।
को वा शस्त्रग्रहणसमयो मादृशामीदृशानां1946
कीदृग्वैरं प्रतिधरणिभृत्खेटकीटेष्वमीषु।
इत्यावेश1947प्रतिभय1948भुजाटोपदुर्वारगर्वाः
संक्रीडन्ते1949 रणभुवि भटाः काकतीन्द्रस्य जेतुः॥३७॥
—————————————————————————————————————————————
समायात इति। सखीसमक्ष1950निमित्तलज्जाभरेणाच्छादितानुभावो हर्षोऽन्तस्तोपः। तस्य व्यतिकरः संबन्धः। अत्र नोपचरितुमित्यत्र नजो न चलति नो विरमतीत्युभयत्राप्यनुषङ्गः। तेनोभयत्र नञ्द्वयेन1951 लज्जासंभावितस्य चलननिषेधस्योत्कण्ठासंभावितस्य विरमणनिषेधस्य च निवृत्तिः सूच्यते। यथाह वामनः। ‘संभाव्यनिषेधनिवर्त्तने द्वौ प्रतिषेधौ’ इति। अत्रोत्कण्ठाप्रतापाभ्यां प्रियोपचारं प्रति प्रवृत्ति1952निवृत्त्योरुभयत आकर्षणान्नायिकायाः सर्वव्यापारप्रतिवन्धिनी सेयमुभयतः पाशा रज्जुरभूदिति भावः॥
गर्वेलक्षयति। अन्येति। बलैश्वर्याभिजनलावण्यादिजन्योऽन्यधिक्कारावज्ञानसविलासाङ्गवीक्षणाद्यनुभाव आत्मोत्कर्षाभिमानो गर्व इत्यर्थः। बलमूलं गर्वमुदाहरति। क इति। मादृशामतिसूर्यप्रतापानामिति भावः। शस्त्रग्रहणसमयः को वा लक्ष्याभावादायुधग्रहणावसरो नास्तीति भावः। ये पुनः पुरो वर्त्तन्ते प्रतिभटमानिनस्तेषु स्वद्योतकल्पेषु वैरवर्णनमपि लज्जावहमेवेत्याह। कीदृगिति। आवेश आग्रहः। संक्रीडन्ते नैव प्रयासमनुभवन्तीति भावः। ‘क्रीडोऽनुसंपरिभ्यश्च’ इति तङ्।
अथ विषादः।
विषादश्चेतसो भङ्ग उपायाभावचिन्तनैः1953।
यथा।
पेसेमि1954 मणेति1955 मुहा1956 तं मं मोत्तण1957 वल्लहे लग्गं।
मं उज्झिभ णो गच्छइमअणो सहि किं णु कादव्वं॥३८॥
अथौत्सुक्यम्।
कालाक्षमत्वमौत्सुक्यं मनस्तापत्वरादिकृत्।
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विषादं लक्षयति। विषाद इति। प्रारब्धकार्यभङ्गापराधपरिज्ञानविघ्नविषदादिभवः सत्त्वसंक्षयो विषाद इत्यर्थः। अयं चोपायान्वेषणवैमनस्यमुखशोषाद्यनुभावतारतम्यादुत्तमाद्याश्रयत्वेन त्रिविध इत्याहुः। तत्रोत्तमाश्रयं विषादमुदाहरति। पेसेमीति प्रेषयामि मन इति सुधा तम्मां मुक्ता वल्लभे लग्नम्। मामुज्झित्वा नो गच्छति मदनः सखि किं नु कर्त्तव्यम्। मन इति। नपुंसकत्वेनेदमन्यत्र रिरंसारहितमिति मत्वेति भावः। अत एवोक्तं पूर्वैः।
‘नपुंसकमिति ज्ञात्वा तां प्रति प्रेषितं मनः।
तत्तु तत्रैव रमते हताः पाणिनिना वयम्॥’
इति। अत्र किं कर्त्तव्यमित्युपायगवेषणगोचरवागारम्भसूचितया चिन्तया विपादो व्यज्यते।
औत्सुक्यं लक्षयति। कालेति। इष्टविरहरम्यवस्तुदिरक्षादिजन्यं मनस्तापत्व-
यथा।
¹अंधउर1958भामिणि1959जणो अंगाइ1960 पसाहिऊण तुबरंतो1961।
रुद्दणरिंदागमणे1962 विलंबिअं सहइ1963 किच्छेण1964॥३९॥
अथ निद्रा।
निद्रा चित्तनिमीलनम्।
यथा
²सिविणे1965 दिठ्ठं दइअं वहुआ1966 आलिंगिदु कउज्जोआ1967।
उवह1968 दरमीलिभच्छी गअणम्मि करे पसारेइ॥४०॥
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रानिःश्वासनिद्राद्यनुभावं कालाक्षमत्वमौत्सुक्यमित्यर्थः। उदाहरति। अंधेति। अन्ध्रपुरभामिनी1969जनोऽङ्गानि प्रसाध्य त्वरमाणः। रुद्रनरेन्द्रागमने विलम्बितं सहते कृच्छ्रेण॥ भामयत्यवश्यं कुप्यतीति भामिनी। भाम क्रोध इत्यस्माद्धातोश्रौरादिकादावश्यको णिनिः। यद्वा स्त्रीणां ललितकोपो भाम इति भोजराजः। तद्वती भामिनी। अत्र कृच्छ्रशब्दसूचितैश्चिन्तानवस्थानगात्रगौरवशय्याभिलाषाद्यनुभावैः प्रियदिदृक्षाविषयमौत्सुक्यं व्यज्यते।
निद्रां लक्षयति। निद्रेति। चित्तस्य निमीलनं बाह्येन्द्रियसंबन्धविरहः। चिन्तानैश्चिन्त्यव्यायामादिजन्यं जृम्भाङ्गभ1970ङ्गनेत्रनिमीलनाद्यनुभावं चित्तनिमीलनं निद्रेत्यर्थः। उदाहरति। सिविण इति। अत्रालीकप्रियालिङ्गनोद्योगादनवरतचिन्ताप्रतीतेस्तन्मूलेयं निद्रेति भावः। अत एवाहुः प्रशस्तपथवादाः। ‘यमर्थमादृतश्चिन्तयन् स्वपिति सैव चिन्तासन्ततिः प्रत्यक्षाकारा संजायते ’ इति।
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छाया।
1 अन्ध्रपुरभामिनीजनोऽङ्गानि प्रसाध्य त्वरमाणः।
रुद्रनरेन्द्रागमने विलम्बितं सहते कृच्छ्रेण॥
2 स्वप्ने दृष्टं दयितं वधूरालिङ्गितुं कृतोद्योगा।
पश्यत दरमीलिताक्षी गगने करौ प्रसारयति॥
अथापस्मारः।
आवेशो1971 दुःखमोहाद्यैरपस्मारोऽङ्ग1972तापकृत्।
यथा।
दृष्ट्वा स्वप्ने कुपितवचनं काकतीन्द्रक्षितीशं1973
हा हा रक्षेत्यसकलगिरः संभ्रमोत्थानभाजः।
धावन्त्यन्तर्वण1974भुवि लुठन्त्याह्वयन्त्यात्मबन्धू-
नाराद्भूतानपि रिपुगणा व्यस्तनामग्रहेण॥४१॥
अथ सुप्तिः।
सुप्तिर्निद्रासमुद्रेकः।
यथा।
विश्वैकरक्षाजुषि काकतीन्द्रे1975
निश्चिन्ततां प्राप्तवतो मुरारेः।
तत्कीर्त्तिचन्द्रातपवर्धितोऽपि
दुग्धाम्बुधिर्नैव भिनत्ति निद्राम्॥४२॥
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अपस्मारं लक्षयति। आवेश इति। अशुचित्वधातुवैषम्यभूतावेशादिजन्यो भूपातभ्रमणभुजास्फोट1976विकटोक्तिलालफेनाद्यनुभाव आवेशोऽपस्मार इत्यर्थः। उदाहरति। दृष्ट्वेति। कुपितवदनं भ्रुकुव्यादिना भयंकरमुखमित्यर्थः। अन्तर्वणभुवि वनमध्य1977 इत्यर्थः। ‘प्रनिरन्तर—’ इत्यादिना णत्वम्। आराद्भूतान् समीपस्थानपि। अत्र भयकार्यमोहमूलोऽपस्मारो दैन्यधावनप्रभृतिभिरनुभावैर्व्यज्यते।
सुप्तिं1978 लक्षयति। सुप्तिरिति1979। निश्वासो सनिश्चलत्वनेत्रनिमीलनाद्यनुभावो निद्रासमुद्रेकः सुप्तिरित्यर्थः1980। उदाहरति। विश्वेति। काकतीन्द्रे विश्वैकरक्षाजुषि त्रिभुवनैकत्राणपरायणे सति। जुषेः क्विप्। निश्चिन्ततां प्राप्तवतः अवतीर्णभारत्वादिति भावः। अत एव मुरारेः पयोधिवृद्धावपि निद्राभङ्गाभावात् सुषुप्तिरित्याह। तदिति।
अथ विबोधः।
विवोध1981श्चेतनावाप्तिर्जृम्भा1982क्षिपरिमार्गकृत्।
यथा
प्रतापरुद्रे नृपमौलिरत्ने।
विश्वंभरां रक्षति1983 शिक्षितारौ।
विजृम्भमाणाः परितः प्रजानां
भाग्यश्रियस्तत्क्षणमुन्मिषन्ति॥४३॥
अथामर्षः।
अमर्षः सापराधेषु चेतःप्रज्वलनं मतम्।
यथा।
अरे भूपाश्चापान् नप्नयत शिरांस्युन्नमयत
प्रवृत्ताः स्वस्त्रीणामहमहमिका वीरवरणे।
त्वरन्ते नः1984 खङ्गाः प्रतिदलन1985केल्यामिति भटा
रणाग्रे गर्जन्ति प्रकटितरुषो रुद्रनृपतेः॥४४॥
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विवोधं लक्षयति। विवोध इति। शब्दास्पर्शाहारपरिणामादिजन्या भुजोत्क्षेपाङ्गुलिविस्फोट1986जृम्भणाक्षिविमर्दनाद्यनुभावा चेतनावाप्ति1987र्विनिद्रत्वं विवोध इत्यर्थः। उदाहरति। प्रतापेति। विजृम्भमाणाः विवर्धमानाः जृम्भां कुर्वाणाश्च। उन्मिषन्ति उद्भवन्ति नेत्राण्युन्मीलयन्ति च। अत्रेत्थमर्थद्वयस्याभेदाध्यवसायादारोपितचेतनधर्माणां भाग्यसंपदामुन्निद्रत्वप्रतीतेर्विबोध इति भावः।
अमर्षे लक्षयति। अमर्ष इति। अधिक्षेपावमानादिना स्वापराधेषु मनःप्रज्वलनमभिनिविष्टत्वं प्रतिचिकीर्षेति यावत्। एवंविधेऽमर्षे स्वेदशिरःकम्पचिन्तोपायान्वेषणोत्साइतर्जनादयोऽनुभावा द्रष्टव्याः। उदाहरति। अरे इति। स्वस्त्रीणामप्सरसामन्योन्यं श्रेष्ठाहमित्यभिमानोऽहमहमिका। ‘अहमहमिका तु सा स्यात् परस्परं यो भवत्यहंकारः’ इत्यमरः। अहमिति विभक्तिप्रतिरूपकमव्ययं निपातितम्। तस्य वीप्सायां द्विरुक्तिः। संज्ञायां कन् प्रत्ययः। प्रतिदलनकेल्यां खण्डनक्रीडायाम्।
अथावहित्था।
हर्षाद्याकारसंगुप्तिरवहित्थेति कथ्यते।
यथा।
¹गोठ्ठिए1988 महिलाणं सोऊण1989 पआवरुद्धचरिआइ1990।
आलिहइ ओणअमुही1991 मुद्धा1992 चलणेण महिपुठ्ठं1993॥४५॥
अथोग्रता।
दृष्टेऽपराधे चण्डत्वमुग्रता तर्जनादिकृत्।
यथा।
प्रियमानीय मानिन्या विरहात्तिर्निवार्यताम्।
यदेतस्याः कटाक्षोल्कापातैरिन्दुर्मषीकृतः1994॥४६॥
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अवहित्यां लक्षयति। हर्षेति। भयब्रीडाकौटिल्यादिभिर्हर्षादिकार्याकारगोपनमवहित्येत्यर्थः। अत्र शून्यस्मितान्यथाकथनमिथ्याधैर्यकथाभङ्गादयोऽनुभावा ऊह्याः। उदाहरति। गोठ्ठीए इति। गोष्ठ्यां महिलानां श्रुत्वा प्रतापरुद्रचरितानि। आलिखत्यवनतमुखी मुग्धा चरणेन महीपृष्ठम्॥ अत्र काचन सुन्दरी प्रसङ्गादात्मानुरागप्रधानानि प्रियचरितानि श्रुत्वा प्रहर्षन्ती लज्जया मुखविकासादिसंगोपनार्थमधोमुखी महीमालिखतीत्यवहित्येति भावः। महिपठ्ठमिति। ‘पृष्ठेऽनुत्तरपदे’ इति नियमेनेत्वाभावाद् ‘ऋतोऽत्’ इत्यत्वम्। ‘दिहौ मियस्स’ इति महीकारस्य ह्रस्वः।
उग्रतां लक्षयति। दृष्ट इति। अपराधे पुत्रमित्रकलत्रादिद्रोहरूपे दृष्टे सति तर्जनोद्वेजनताडनबन्धनाद्यनुभावं चण्डत्वं क्रौर्यमुग्रतेत्यर्थः। कस्याश्चिद्विरहिण्याः सखी प्रियं प्रति दूतिकां प्रेषयति। प्रियमिति। अत्र संतापजननेन स्वापराधस्वेन्दोः कटाक्षज्वालाभिर्मषीकरणोद्यागादुप्रतेति भावः।
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छाया।
1 गोष्ठ्यां महिलानां श्रृत्वा प्रतापरुद्धचरितानि।
आलिखत्यवनतमुखी मुग्धा चरणेन महीपृष्ठम्॥
अथ मतिः।
तत्त्वमार्गानुसंधानादर्थ1995निर्धारणं मतिः।
यथा।
को1996 संसओ1997 महिअले चंदो1998 एव्व1999 वीररुद्दणरणाहो।
जस्स करप्पस्सादो अंगाइ1960 मिअंकरण्णंति2000॥४७॥
अथ व्याधिः।
मनस्तापाद्यभिभवाज्ज्वरादि2001र्व्याधिरिष्यते।
यथा।
प्रतापरुद्रस्य दिशां जिगीषोः
प्रत्यर्थिनारीजनदेहजन्मा2002।
स्मरज्वरोष्मा हिमवत्प्रदेशान्2003
स्मर्त्तव्यनीहारकथान् करोति॥४८॥
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मतिं लक्षयति। तत्त्वेति। नानाविधशास्त्रचिन्तोहापोहादिभ्योऽर्थनिश्चयो मतिरित्यर्थः। अत्र शिष्योपदेशसंशयच्छेदविदग्धव्यवहारमनःसंतोषादयोऽनुभावाः द्रष्टव्याः। उदाहरति। को संस्सअ इति। कः संशयो महीतले चन्द्र एव वीररुद्वनरनाथः। यस्य करस्पर्शादङ्गानि मृगाङ्करत्नन्ति॥ अत्र प्रियकरसंस्पर्शेऽङ्गानामिन्दुकिरणस्पर्शे2004 चन्द्रकान्तानामिव द्रवीभावादयं चन्द्र एवेत्यध्यवसायान्मतिः।
व्याधिं लक्षयति। मन इति। मनस्तापदोषवैषम्याद्यभिभवजन्मा शीतोष्णज्वरादिश्शीतालुतोष्णालुताद्यनुभावो व्याधिरित्यर्थः। विरहजन्यं तापज्वरमुदाहरति। प्रतापेति। दिशामिति शेषे2005 षष्ठी। ‘न लोक—’ इत्यादिना कारकषष्ट्याः प्रतिषेधात्। अत्रोष्णालुतया हिमवत्प्रदेशबासिनोऽपि शत्रुस्त्रीजनस्य हिमापेक्षेति महीयानयं तापज्वर इति भावः।
अथोन्मादः।
उन्मादस्तुल्यवर्त्तित्वं चेतनाचेतनेष्वपि।
यथा।
प्रतापरुद्रस्य जयप्रयाण2006-
भेरीध्वनौ मूर्च्छति दिङ्मुखेषु।
त्रासाकुला भ्रान्तिमुपेत्य वृक्षान्
पृच्छन्ति मार्गेरिपुभूमिपालाः॥४९॥
अथ मरणम्।
मरणं मरणार्थस्तु प्रयत्नः2007 परिकीर्त्तितः।
यथा।
‘पिअविरहं असहंती बहुआ णिअजीविअं2008 उवेक्खंती2009।
सेव्बइ जोह्गं2010 दख्खिण2011पवणस्स तपुं समप्पेइ2012॥५०॥
साक्षान्मरणस्यामङ्गलत्वान्नोदाहरणत्वमुचितम्।
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उन्मादं लक्षयति। उन्माद इति। भय2013संनिपातेष्टवियोगधननाशादिभिश्चित्तविभ्रान्तिरुमाद इत्यर्थः। अत्रा2014निमित्तस्मितासंबन्धप्रलापनिर्हेतुकधावनोपवेशनोत्थानरोदनादयोऽनुभावा भवन्ति। भयमूलमुन्मादमुदाहरति। प्रतापेति। स्पष्टमेतत्।
मरणं लक्षयति। मरणमिति। व्याध्यभिघाताभ्यां देहान्मनसोऽपायो हिक्काश्वासाद्यनुभावो मरणमित्यर्थः। धनिकहेमचन्द्रायनुसारेण साक्षात्तदुदाहरणस्यामङ्गलत्वात् तदुद्योगोऽत्र विषक्षित इत्याह। मरणार्थ इति। शारदातनयस्तु मरणेऽभिनयो नास्तीत्येतत् काव्ये न पठ्यत2015इत्याह। उदाहरति। पिएति। प्रियविरहमसहमाना वधूर्निजजीवितमुपेक्षमाणा। सेवते ज्योत्स्नां दक्षिणपवनस्य तनुं समर्पयति ॥ भस्मीकरणबुद्ध्येति भावः।
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छाया।
1 प्रियवरहमसहमाना वधूर्निजजीवितमुपेक्षमाणा।
सेवते ज्योत्स्नां दक्षिणपवनस्य तनुं समर्पयति॥
अथ त्रासः।
आकस्मिकभयाच्चितक्षोभस्त्रासः प्रकीर्यते2016।
यथा।
पणअकुविआचिरेण2017 वि बहुआ सोऊण2018 घणघणत्थणिअं2019।
दइअं सरअसवलिआ2020 आलिंगइ वेपमाणंगी2021॥५१॥
अथ वितर्कः।
संदेहात् कल्पनानन्त्यं2022 वितर्कः परिकीर्त्तितः2023।
यथा।
गुणैस्तत्रासक्तं मम हृदयमन्यन्नगणितं
सखीभिर्नालोचि2024 क्षितिपतिरसौ दुर्लभ2025 इति।
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त्रासं लक्षयति। आकस्मिक इति। अकस्मादेवाकस्मिकम्। विनयादित्वात्स्वार्थे ठक्प्रत्ययः। तकारान्तत्वात् ‘इसुसुत्कान्तात् कः’ इति कादेशः। अव्ययत्वाट्टिलोपः। तस्मात् भयात् भयहेतोरित्यर्थः। विद्युद्गर्जितभूकम्पादिजन्यः कम्पगात्रसंकोचरोमाञ्चमोहानुभावश्चेतश्चमत्कारस्रास इत्यर्थः। गर्जितमूलं त्रासमुदाहरति। पणएति। प्रणयकुपिताचिरेणापि वधूः श्रुत्वा धनघनस्तनितम्। दयितं सरभसवलिता आलिङ्गति वेपमानाङ्गी॥
वितर्कं लक्षयति। संदेहादिति। उपलक्षणं चैतत्। तेन संदेहविमर्शादिजन्योऽनेकधासंभावनात्मा2026 भ्रूक्षेपशिरःकम्पाद्यनुभावो वितर्क इत्यर्थः। उदाहरति। गुणैरिति। गुणैर्महाकुलीनतादिभिः। तत्र क्षितिपतौ। अन्यद्दौर्लभ्यादिकं न गणितं मदीयहृदयस्य कामान्धत्वादिति भावः। सखीभिरिति विवेकवतीभिरपीति भावः। ननु किं गतोदकसेतुबन्धेन इतः परं वा प्रियप्राप्तावुपायं चिन्त-
उपायः को वा स्यात्तदभिगमने मुह्यति मनः
कियान् कोऽयं कीदृक् कियदबधिरन्तर्व्यतिकरः॥५२॥
तत्र सात्त्विकानां व्यभिचारिणां चानेकरससाधारणत्वान्न विशेषमपेक्ष्योदाहरणं कृतम्। तथा2027 हि शृङ्गारे सर्वेषामनुप्रवेशः संभवति2028। हास्ये ग्लानिश्रमचपलत्वहर्षावहित्थानां संभवः। करुणे मदधृतिव्रीडाहर्षगर्वौत्सुक्योग्रताभिर्विनान्ये संभवन्ति। रौद्रे ग्लानिशङ्कालस्यदैन्यचिन्ताव्रोडावेगजडताविषादसुप्ति2029निद्रा2030पस्मारावहित्थाव्याघ्युन्मादशमाः2031 M.”) न संभवन्ति। वीरे रौद्रान्निर्वेदो2032ऽधिकः। भयानकेऽसूयामदधृतिव्रीडाहर्षगर्वनिद्रामुप्त्यमर्षा2033वहित्थोग्रतामतिभिर्विनान्ये संभवन्ति। बीभत्सेऽद्भुते च चिन्तात्रासादयो यथासंभवमूद्याः। शान्ते निर्वेदधृती संभवतः2034।
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याम इत्युक्ते सोऽपि न प्रतीयत इत्याह। उपाय इति। तत्र हेतुमाह। मुह्यति मन इति। मोहापगमानन्तरमुपायश्चिन्त्यतामित्याशङ्क्य इयत्तयेदृक्तयेदन्तया वा दुरवमगमत्वेन दुश्चिकित्सस्य मोहमहाव्याधेरानन्तर्यमपि दुर्लभमेवेत्याशयेनाह। कियानिति। गच्छता कालेन स्वयमेव मोहशान्तेः किं तया चिन्तयेत्याशङ्क्य कालावधिरपि दुरवबोध एवेत्याह। कियदवधिरिति। व्यतिकरो व्यसनं विपत्तिर्मोह इति यावत्। एवमत्र संदेहेन कल्पनानन्त्याद्वितर्क इति भावः।
ननु विभावादिवत् सात्विकसंचारिणामपि तत्तद्रसप्रस्ताव एव किमिति नोदाहरणं कृतमत आह। तत्रेति। व्यभिचारिणामनेकरससाधारणत्वमुपपादयति। तथाहीत्यादिना।
भावादयश्चित्तारम्भाः। लीलादयो गात्रारम्भाः। उभयेऽप्यनुभावाः। तदुक्तम्।
‘अनुभावश्चतुर्धा स्यान्मनोवाक्कायबुद्धिभिः।’
इति। एतेषां योषिदालम्बनचेष्टारूपाणां यौवनजन्यानामुद्दीपनविभावत्वमपि प्राचामाचार्याणां संमतम्। अतः संकीर्णस्वरूपाणामेतेषां प्रकरणनियमाभावेना-
अथ शृङ्गारचेष्टा निरूप्यन्ते।
भावो हावश्च हेला च माधुर्यं धैर्यमित्यपि।
लीला विलासो विच्छित्तिर्विभ्रमः किलकिञ्चितम्2035॥
मोट्टायितं कुट्टमितं विव्वोको ललितं तथा।
कुतूहलं च चकितं विहृतं हास इत्यपि॥
एवं शृङ्गारचेष्टाः स्युरष्टादशविधा मताः॥
तत्रासां2036 स्वरूपमुदाहरणं च।
अथ2037 भावः।
रसाभिज्ञानयोग्यत्वं भाव इसभिधीयते।
यथा।
रुद्दरेंदस्स2038 गुणे गाअइ बालत्तणम्मि2039 सविस्संभं2040।
लज्जेइ दरपुलइओ2041 जुवइजणो जोव्वणे गाउं2042॥५३॥
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यमेव स्वरूपनिरूपणावसर इत्यभिप्रायेणाह। अथेति। परिगणनादेवाष्टादशविधत्वे जातेऽपि कण्ठोतिर्मतान्तरेष्वेतेषामुच्चावचत्वमस्तीति सूचयितुम्। तत्प्रपञ्चस्तु भोजराजीयादिग्रन्थेषु द्रष्टव्यः।
तत्र भावं लक्षयति। रसेति। बाल्ययौवनर्सधावुत्पन्नशृङ्गारविषयः प्रथमोऽन्तःकरणविकारो भावः इत्यर्थः। तदुक्तम्
‘चित्तस्य विकृतिः सत्त्वं विकृते कारणे सति।
ततोऽल्पा विकृतिर्भावो बीजस्यादिविकारवत्॥’
इति। उदाहरति। रुद्देति। रुद्रनरेन्द्रस्य गुणान् गायति बालत्वे सविस्रब्धम्। लज्जते दरपुलकितो युवतिजनो यौवने गातुम्॥ अत्र यद्यपि ईषदर्थे दरशब्दोऽब्ययमिति त्रिविक्रमः तथापीषत्तमत्वमत्र विवक्षितम्। तेन दरपुलकितो दुर्लक्षपुलक इत्यर्थः।
अथ हावः।
ईषद्दृष्टविकारः2043 स्याद्भावो हावः प्रकीर्त्त्यते।
यथा।
अत्रैवेषत्पुलिकित इति2044।
अथ हेला।
सुव्यक्तविक्रियो भावो हेलेति प्रतिपाद्यते2023।
यथा।
मा2045 होदु कस्स वि फ्फुडं2046 इइ मुध्ये कुणोसि2047 वल्लहं हिअए2048।
घोसिज्जर2049 तुह भाओ2050 सव्वंगीणेहि2051 पुलएहि2052॥
अथ माधुर्यम्।
अभूषणेऽपि रम्यत्वं माधुर्यमिति कथ्यते।
यथा।
जितत्रैलोक्यलावण्या प्रकृत्या हरिणेक्षणा।
किं तु भूषयितुं धत्ते भूषणानीति मे मतिः॥५९॥
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हावं लक्षयति। ईषदिति। दरशब्दस्य मुख्यार्थ2053विवक्षायामिदमेवात्रोदाहरणमित्याह। अत्रैवेषदिति।
हेलां लक्षयति। सुव्यक्तेति। उदाहरति। मेति। मा भवतु कस्यापि स्फुटमिति मुग्धे करोषि वल्लभं हृदये। घोष्यते तव भावः सर्वाङ्गीणैः पुलकैः॥
माधुर्येलक्षयति। अभूषण इति। अत एवोक्तं दशरूपके। ‘सर्वास्वप्यवस्थास्वनुल्वणत्वं माधुर्यम्’ इति। उदाहरति। जितेति। प्रकृत्या स्वभावेनैव न तु प्रयत्नेनेति भावः। जितं त्रैलोक्यं येन तत् तथाभूतं लावण्यं पूर्वोक्तः कान्तिविशेषो यस्याः सा तथोक्ता। अत्र स्वाभाविकसौन्दर्यस्य प्रसाधनविधिनिःस्पृहत्वान्माधुर्यमिति भावः।
अथ धैर्यम्।
शीलाद्यलङ्घनं नाम धैर्यमित्यभिधीयते।
यथा।
कुलवहुआणं2054 ण जुज्जइ मज्जाआ2055लंघनं2056 खु2057 विसमे वि।
रुद्दणरिंदगुणा उण हिअअहराः किं णु कादव्वं॥५६॥
अथ लीला।
प्रियानुकरणं लीला वाग्भिर्गत्याथ चेष्टितैः2058।
यथा।
पेछ्छह2059 सहिअ2060 एसा लच्छी रण्णो पआवरुदस्स।
चरिआइ2061 अणुकणंती2062 रण्णीसु2063 पइब्वआ जाओ॥५७॥
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धैर्येलक्षयति। शीलेति। उदाहरति। कुलेति। कुलवधूनां न युज्यते मर्यादालङ्घनं खलु विषमेऽपि। रुद्रनरेन्द्रगुणाः पुनर्हृदयहराः किं नु कर्त्तव्यम्॥ विषमे विपद्यपि।
लीलां लक्षयति। प्रियेति। उदाहरति। पेच्छहेति। प्रेक्षय सख्य एषा लक्ष्मी राज्ञः प्रतापरुद्रस्य। चरितान्यनुकुर्वती राज्ञीषु पतिव्रता जाता॥ अत्र लक्ष्मीर्नाम काचिन्नायिका प्रियचिरतानुकरणाल्लीलावती जातेत्यर्थः। तस्याः पातिव्रत्ये हेतुत्वमुक्तं सर्वज्ञसोमेश्वरेण।
‘भुक्ते भुङ्क्ते या पत्यौ दुःखिते दुःखिता यदि।
मुदिते मुदितात्यर्थं प्रोषिते मलिनाम्बरा॥
सुप्ते पश्चात्तु या शेते पूर्वमेव प्रबुध्यते।
नान्यं कामयते चित्ते सा विज्ञेया पतिव्रता॥’
इति। राज्यलक्ष्मीरपि दानभोगादावत्यन्तमनुकूला राज्ञि निश्चलाभूदिति व्यज्यते।
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छाया।
1 कुलवधूनां न युज्यते मर्यादालङ्घनं खलु विषमेऽपि।
रुद्रनरेन्द्रगुणाः पुनर्हदयहराः किं तु कर्त्तव्यम्॥
2 प्रेक्षथ सख्य एषा लक्ष्मी राज्ञः प्रतापरुद्धस्य।
चरितान्यनुकुर्वती राज्ञीषु पतिव्रता जाता॥
अथ विच्छित्तिः।
विच्छित्तिरतिरम्यत्वं स्वल्पैरपि विभूषणैः।
यथा।
कस्स2064 कर केण किअं काअइपुरइछिआणं सुंदरं2065।
साहारण2066भूसाए2067 पिअसहि2068 तेल्लोक्क2069रमणिज्जं॥५८॥
अथ विलासः।
तात्कालिको विकारः स्याद्विलासो दयितेक्षणे।
यथा।
सहेलं2070 पश्यन्त्याः प्रकृतिसुभगं रुद्रनृपतिं
तदात्वप्रत्यु2071द्यद्विविधललिताटोपमधुरम्।
रसप्रादुर्भावाद्युगपदुदयत्सात्त्विकमहो
मृगाक्ष्यास्तारुण्ये2072 कुसुमशरशिल्पं विजयते॥
अथ विभ्रमः।
विभ्रमस्त्वरया काले भूषास्थानविपर्ययः।
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विलासं2073 लक्षयति। तात्कालिक इति। विलासो नेत्रभ्रुवक्रकर्मणां विशेष इत्यर्थः। उदाहरति। सहेलमिति। व्याख्यातमेतन्नायकप्रकरणे (५९) प्रौढोदाहरणप्रस्तावे।
विच्छित्तिं लक्षयति। विच्छित्तिरिति। उदाहरति। कस्सेति। कस्य कृते केन कृतं काकतिपुरन्ध्रीणां सौन्दर्यम्। साधारणभूषया यत्सखि त्रैलोक्यरमणीयम् ॥ साधारणभूषया स्रक्चन्दनताम्बूलादिन्प्नपि केन कृतमित्यनेन सौन्दर्यस्य विधातृशिल्पवैलक्षण्यं प्रतीयते। कस्य कृत इत्यनेन भोक्ता तदनुरूपो नोपलभ्यत इति।
विभ्रमं लक्षयति। विभ्रम इति। काले प्रियसमागमादिसमये। त्वरया मदनावेशादिसंभ्रमेणेत्यर्थः। भूषाणां हाराङ्गदादीनां स्थानविपर्ययः स्थानव्यत्यास
यथा।
¹सोऊण सहीमुहादो दिवसो2074 विरतोत्ति2075 संभमेण वहू।
हत्थेसु2076 णेउराइं2077 चरणेसु2078 कुणइ2079 वलआइ2080॥५९॥
अथ किलकिञ्चितम्2035।
रोषाश्रु2081हर्षभीत्यादेः संकरः2082 किलकिञ्चितम्2035।
यथा।
²गेह्वइ2083 णरणाहे2084 विअणंमि पडंचलं मिअछ्छीए।
वेवइ तणू विणच्चइ2085 भुउडी2086 अवि1999 गग्गआ वाआ2087॥६०॥
अथ मोट्टायितम्
मोट्टायितं स्यादिष्टस्य कथादौ भावसूचनम्2088।
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इत्यर्थः। उदाहरति। सोऊणेति। श्रुत्वा सखीमुखादिवसो विरत इति संभ्रमेण वधूः। हस्तयोर्नूपुरे चरणयोः करोति वलये॥ श्रुत्वा सखीमुखाद्दिवसो विरत इति प्रियासक्तचित्ततया स्वयं दिवसावसानमपि न जानातीति भावः। ततः संभ्रमेण वधूर्हस्तयोर्नूपुरे चरणयोर्वलये च2089 करोति।
किलकिञ्चितं लक्षयति। रोषेति। उदाहरति। गेण्ह इति। गृह्णति नरनाथे विजने पटाञ्चलं मृगाक्ष्याः। वेपते तनुर्विनृत्यति भ्रुकुव्यपि गद्गदा वाचः॥ अत्र भयादिविकाराणां कम्पादीनां मेलनात् किलकिञ्चितम्।
मोट्टायितं लक्षयति। मोट्टायितमिति। प्रियगुणकथनादौ2090 स्वाभिलाषप्रकटनं
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छाया।
1 श्रुत्वा सखीमुखाद्दिवसो विरत इति संभ्रमेण वधूः।
हस्तयोर्नपुराणि चरणयोः करोति वलयानि॥
2 गृह्णति नरनाथे विजने पटाञ्चलं मृगाक्ष्याः।
वेपते तनुरपि नृत्यति सुकुव्यपि गद्गदा वाचः॥
यथा।
¹महराइ2091 रुद्दणरवइचरिआइ2092 वहुए2093 T’.”) सुणतीए।
तणुगोवणेण पअडो2094 जह भाओ2095 ण तह2096 पुलएहिं॥६१॥
अथ कुट्टमितम्।
संमर्देऽपि सुखाधिक्यं रतौ कुट्टमितं मतम्।
यथा।
निर्मयादमनोभवोत्सवकथा2097विस्रम्भकर्णेजपै-
रङ्गैर्विस्मितमानसां प्रियसखीमालोक्य जातत्रपा।
वैयात्यं निजमात्मवल्लभकृतां रागान्धतां जानती
सद्यो नम्रमुखेन्दुरिन्दुवदना क्षोणीं लिखन्ती स्थिता॥६२॥
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मोट्टायितमित्यर्थः। उदाहरति। महुराईति। मधुराणि रुद्रनरपतिचरितानि वध्वाः शृण्वत्याः। तनुगोपनेन प्रकटो यथा भावो न तथा पुलकैः॥ पुलकानां प्रियगुणस्तुतिजनितमन्मथभावसूचकत्वं भावप्रकाशे।
‘गुणान्2098 वर्णयति स्वैरं वीक्षते भावमन्थरम्।
रोमाञ्चो गद्गदपदा वाक् स्वेदश्च कपोलयोः॥
विस्रम्भकथनं दूत्या तत्समागमचिन्तनम्।
एवंगुणस्तुतिभवा भावा मन्मथसूचकाः॥’
इति।
कुट्टमितं लक्षयति। संमर्द इति। केशाधरादिग्रहे सत्यपि बहिःप्रकोपजनको2099ऽन्तःसान्द्रानन्दत्वं कुट्टमितमित्यर्थः। उदाहरति। निर्मर्यादेति। निर्मर्यादो निर्दयप्रवृत्तो मनोभवोत्सवकेशाधरग्रहादिकामक्रीडेव कथावादस्तस्य विस्रम्भकर्णेजपैरुच्छृङ्खलत्वसूचकैर्नखदन्तपदादिद्वारेणेति2100 भावः। ‘स्तम्बकर्णयो रमिजपोः’ इत्यच्प्रत्यये ‘तत्पुरुषे कृति बहुलम्’ इति सप्तम्या अलुक्। वैयात्यं धाष्टर्थम्। आत्मवल्लभकृतां तत्संबन्धिनीमित्यर्थः। करोत्यर्थस्य धात्वर्थसामान्यत्वात् विशेषपर्यवसानम्। रागान्धतां विशृङ्खलविहारहेतुभूतामिति भावः।
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छाया।
1 मधुराणि रुद्रनरपतिचरितानि वध्वाः शृण्वत्याः।
तनुगोपनेन प्रकटो यथा भावो न तथा पुलकैः॥
अथ विव्वोकः।
मनाक् प्रियकथालापे विव्वोकोऽनादरक्रिया।
यथा।
लक्ष्मीः सद्मनि निर्भरं2101 विहरतां क्षोणीभुजालम्बन-
क्रीडां नैव जहातु किं च सततं वाणी मुखे खेलतु2102।
ज्ञातं2103 रुद्रनरेश्वरस्य बहुभिर्विज्ञातपूर्वैः प्रिय-
व्याहारैः कृतमेव दूति मदनश्चापाय संनह्यतु॥६३॥
अथ ललितम्।
सुकुमारोऽङ्गविन्यासो ललितं परिकीर्त्त्यते।
यथा।
पदन्यासक्रीडारणितमणिमञ्जीररशनं
सहेलं व्यावल्गत्करवलयनिक्वाण2104सुभगम्।
स्मितज्योत्स्नाबीचीतरलवचनं रुद्रनृपतेः
पुरन्ध्रीणामासदिनुरहसिसेवा2105विलसितम्॥६४॥
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अत्र लिखन्तीति वर्त्तमानापदेशेन तत्कारणभूताया लजाया अविरामः सूच्यते। अत्राभूतपूर्वसंभोगचिह्नसाक्षात्कारेण विस्मयमानां प्रियसखीं प्रेक्ष्याधुना मन्दाक्षमन्थरत्वेन ज्ञातचरकेशाधरादिग्रहदुःखतया तादात्म्यसुखातिभूमिसूचनात् कुट्टमितमिति भावः।
विब्वोकं लक्षयति। मनागिति। उपलक्षणमेतत्। तेन गर्वाभिमानादिना दयितेऽप्यनादरकरणं विब्वोक इत्यर्थः। उदाहरति। लक्ष्मीरिति। अयि सखि स्वय्यविरतकोपायां लक्ष्म्यादिनायिकासु नानाविधविहारैः प्रेयसीपदं लभमानासु तव पुनर्नावकाशो लभ्यते। प्रियो हि प्रियाणि कथयतीत्येवं प्रियप्रेषितया दूत्या कथिते मानग्रन्थिग्रथित2106हृदयतया मरणेऽपि कृतसंकल्पाया अनादृतप्रियकथाया नायिकाया वचनमेतत्। अत एवायं विब्वोक इति भावः।
ललितं लक्षयति। सुकुमारेति। उदाहरति। पदेति। अनुगतं रहोऽनुरहसमिति प्रादिसमासः। अनुगतं रहोऽस्मिन्निति बहुव्रीहिर्वेति पदमञ्जरीकारः। ‘अन्ववतप्ताद्रहसः’ इति समासान्तोऽच् प्रत्ययः। अत्रान्ध्रनायकपुरन्ध्रीणामे-
अथ कुतूहलम्।
कुतूहलं रम्यदृष्टौ चापलं परिकीर्त्त्यते2107।
यथा।
वीररुद्रमधिरूढसिन्धुरं द्रष्टुमन्ध्र2108नगरीपुरन्ध्रयः।
कुर्वते रचितसंक्रम2109त्वरा2110स्तुङ्गसद्मशिखराधिरोहणम्॥६५॥
अथ चकितम्।
चकितं भयसंभ्रमः2111।
यथा।
अविज्ञातायातं स्वमकथितमाल्यापि2112 हसितुं
हठादुत्पश्यन्त्याश्चकितचकितोदञ्चितदृशः।
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कान्तसेवायां मणिमञ्जीरा2113दिशिञ्जितमञ्जुलस्य करचरणविन्यासस्य क्रीडासहेलपदाभ्यामालापानां मन्दहासमधुरत्वकथनेन च सौकुमार्यप्रतिपादनाचल्ललितमिति भावः।
कुतूहलं लक्षयति। कुतूहलमिति। उदाहरति। वीरेति। अधिरूढसिन्धुरमारूढगजम्। रचितसंक्रमत्वराः कृतगतिवेगाः। उत्सृष्टलीलागतय इत्यर्थः। तुङ्गसद्मशिखराधिरोहणं हर्म्याग्रारोहणं कुतूहलात् कुर्वते।
चकितं लक्षयति। चकितमिति। उदाहरति। अविज्ञातेति। पश्चाद्भागे पादन्यासमान्येन अज्ञातं प्रियानवगतमायातं स्वस्यागमनं यस्य तं तथोक्तम्। हसितुं परिहसितुं परिहासार्थमित्यर्थः। आल्या सख्याप्यकथितं स्वमात्मानं हठाद्यदृच्छया उत्पश्यन्त्याः। आसीनैस्तिष्ठन्त ऊर्ध्वमवलोक्यन्त इति भावः। अत एव चकितचकिताश्चकितप्रकारा लज्जोत्कण्ठाभ्यामसकृदावृत्तनिमीलनोन्मीलिता इत्यर्थः। तथा उदञ्चिता ऊर्ध्वप्रसारितापाङ्गो2114 दृशो यस्यास्तथोक्तायाः। तल्लक्षणं भावप्रकाशे।
‘मीलनोन्मीलनावृत्तिर्यत्र तच्चकितं विदुः।
अपाङ्गयोरुर्ध्वभागावलोकनमुदञ्चितम्॥’
इति। विलासान् ‘तत्कालिको विकारः स्याद्विलासो दयितेक्षणे ‘इत्युक्तलक्ष-
विलासानुद्वेलानुदितमदनान् वीक्ष्य सुतनो-
स्तथैव प्रत्येतुं पुनरवनिपालः स्पृहयति॥६६॥
अथ विहृतम्।
विहृतं प्राप्तकालस्य वाक्यस्याकथनं ह्रिया।
यथा।
प्रतापरुद्रस्य भुजान्तरस्थां
कल्हारमालाममुना स्पृशेति।
स्तनद्वये पत्रलिपिं लिखन्तीं
सखीं वधूः पश्यति सामिमानम्॥
अथ हसितम्2115।
आकस्मिकं तु हसितं यौवनादिविकारजम्।
यथा
जह2116 जह हसइ मिअच्छी जौवणलच्छि2117, जीब्वणलब्छीए M,")सिख्खिआ2118 महुरं।
तह तह कुसुमेसुसरा विअसंति पिअस्स आसा अ2119॥
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णान् वीक्ष्य तथैवालिङ्गनादिसत्कारमनुभूयैवेत्यर्थः। पुनः प्रत्येतुं गत्वा पुनरागन्तुमित्यर्थः। सर्वोऽपि मदनमहोत्सवश्चकितसुखस्य पोडशीं कलां नार्हतीति भावः।
विहृतं लक्षयति। विहृतमिति। प्राप्तकालस्यावसरोचितस्येत्यर्थः। उदाहरति। प्रतापेति। भुजान्तरस्थितां वक्षःस्थिताम्। अमुना स्तनद्वयेन स्पृश आलिङ्गेत्यर्थः। इतीत्थमाशिषमुक्तेति शेषः। साभिमानं सखीवचनस्येष्टत्वात्सकृत्रिमकोपमित्यर्थः। पश्यति न पुनः किमपि स्रुते लज्जयेति भावः।
हसितं लक्षयति। आकस्मिकमिति। यौवनादिविकारजं न तु हास्यवद्द्वेषभावादिविकारजमित्यर्थः। अत एवाकस्मिकमहेतुकम्। व्याख्यातमेतत्। उदाहरेति। जहेति।
‘यथा यथा हसति मृगाक्षी यौवनलक्ष्म्या शिक्षिता मधुरम्।
तथा तथा कुसुमेषुशरा विकसन्ति प्रियस्य आशा च॥
अथ शृङ्गारस्याङ्कुरितत्वकुसुमितत्वफलितत्वहेतवो द्वादशावस्था निरूप्यन्ते।
चक्षुःप्रीतिर्मनःसङ्गः संकल्पोऽय प्रलापिता।
जागरः कार्श्यमरतिर्लज्जा2120त्यागोऽथ संज्वरः॥
उन्मादो मूर्च्छनं2121 चैव मरणं चरमं विदुः।
अवस्था द्वादश मताः कामशास्त्रानुसारतः2122॥
केचिद्दशावस्था2123 इति कथयन्ति।
आसां स्वरूपमुदाहरणं2124 च।
आदराद्दर्शनं चक्षुःप्रीतिरित्यभिधीयते।
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अत्र यौवनजन्येन मदनोद्दीपकेन मृगाक्षीहसितेन प्रियमनोरथः पृथुलीभवतीति भावः।
इत्थं रससामग्रीं निरूप्य शृङ्गारास्पदक्रमनिमित्तभूता द्वादशावस्था निरूपयति। अथेत्यादिना। शृङ्गारस्येति। सामर्थ्यादयोगाख्यविप्रलम्भशृङ्गारस्येत्यर्थः। कामशास्त्रानुसारत इत्यनेन अलंकारशास्त्रे संख्यासंज्ञादौ विशेषोऽस्तीति2125 सूच्यते। अत एवोक्तं भावप्रकाशे
‘दशधा मन्मथावस्था भवेद् द्वादशधापि वा।
इच्छोत्कण्ठाभिलाषाश्च चिन्तास्मृतिगुणस्तुती॥
उद्वेगोऽथ प्रलापः स्यादुन्मादो व्याधिरेव च।
जाढ्यं मरणमित्याद्ये द्वे कैश्विद्वर्जिते बुधैः॥’
इति। अन्ये तु
‘दृङ्मनःसङ्गसंकल्पा जागरः कृशता रतिः।
ह्रीत्यागोन्मादमूर्द्धान्ता इत्यनङ्गदशा दश॥’
इत्याहुः। तदेतदाह। केचिदिति।
आसां क्रमेण लक्षणोदाहरणे दर्शयति। आदरादित्यादिना। तत्र प्रत्यक्षचि-
यथा।
¹सहि एसो रुद्दणियो2126 णअणाण2127मतक्कि2128ओत्सओ2129 जाओ2130।
मअणो व2131 मुत्तिमंतो चंदो विअ मुक्कलंछणो पुण्णो॥६९॥
अथ मनःसङ्गः।
मनःसङ्गः प्रियतमे नित्यं चित्तस्य विश्रमः2132।
यथा।
²सइ2133 मह2134 मेणो2135 विलगइ2136 रुद्दणरेदम्मि2137 कीस कुविआओ2138।
तेणाहं वि विमुक्का2139 हलाओ2140 तुह्मेसु2141 का वत्ता॥७०॥
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त्रस्वप्नादौ सादरं प्रियदर्शनं चक्षुः प्रीतिरित्यर्थः। उदाहरति। सहीति। सखि एष रुद्रनृपो नयनयोरतर्कितोत्सवो जातः। मदन इव मूर्त्तिमान् चन्द्र इव मुक्तलाञ्छनः पूर्णः॥ अत्र राज्ञो नेत्रोत्सवत्वादिप्रतिपादनेन तद्दर्शनेऽत्यादरः प्रतीयते।
मनःसङ्गं लक्षयति। मन इति। सर्वदा प्रियविश्रान्तचित्तत्वं मनःसङ्ग इत्यर्थः। उदाहरति। सईति। सदा मम मनो विलगति रुद्रनरेन्द्रे कस्मात् कुपिताः। तेनाहमपि विमुक्ता सख्यो युष्मासु का वार्त्ता॥ सइ सदा। ‘इस्सदादिषु’ इति सूत्रेणात्राकारस्येकारादेशः। कस्मात् कुपिता यूयमिति शेषः। तेनाहमपि विमुक्ता संनिहितापीति भावः। सख्यो युष्मासु का वार्त्ता व्यवहितास्विति भावः। तस्मान्न मे युष्मदुपालम्भभाजनत्वमिति भावः।
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छाया।
1 सखि एष रुद्रनृपो नयनयोरतर्कितोत्सवो जातः।
मदन इव मूर्तिमान् चन्द्र इव मुक्तलान्छनः पूर्णः॥
2 सदा मम मनो विलगति रुद्रनरेन्द्रे कस्मात् कुपिताः।
तेनाहमपि विमुक्ता सख्यो युष्मासु का वार्त्ता॥
अथ संकल्पः।
संकल्पो नाथविषयो मनोरथ उदाहृतः।
यथा।
¹दरहसिअ2142गम्भिआई2143 सिणेह2144सिणिध्वाइ2145 राअमेरिआइ2146।
रुद्दणिवविलोइ2147आई2148 कहं2149; का पणु M.”) णु महंमि2150 णिवदंति2151॥७१॥
अथ प्रलापः।
प्रलापः प्रियसंश्लिष्ट2152गुणालाप उदाहृतः।
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संकल्प लक्षयति। सकल्प इति। उदाहरति। दरेति। दरहसितं मन्दस्मितं तद्गर्भितानि संभोगौत्सुक्यसूचकानीत्यर्थः। ‘कटाक्षैर्हासगर्भैस्तु संभोगौत्सुक्यभावना’ इति वचनात्। स्नेहस्निग्धानि रागभरितानि। स्नेहो नामार्द्रान्तःकरणत्वम्। तदुक्तम्।
‘मनसो यह्रवीभावो विषयेषु ममत्वतः।
भयशङ्कावसानात्मा स एव स्नेह उच्यते॥’
इति। तत्प्रकर्षो रागः। तदुक्तम्।
‘दुःखमप्यधिकं चित्ते सुखत्वेनैव रज्यते।
येन स्नेहप्रकर्षेण स राग इति कथ्यते॥’
इति। रुद्रनृपविलोकितानि कदा मयि निपतन्ति।
प्रलापं लक्षयति। प्रलाप इति। प्रियगुणस्तुतिः प्रलाप इत्यर्थः। उदाह-
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छाया।
1 दरहसितगर्भितानि लेहस्निग्धानि रागभरितानि।
रुद्रनृपविलोकितानि कथं नु मयि निपतन्ति॥
यथा।
¹तह णिउणो तह महुरो तह सुहओ2153 तह2154 सोम्मसभ्भाओ2155।
एको रुद्दणिवोविअ2156इदि गोठ्ठी पोढमहिलाणं॥७२॥
अथ जागरः।
जागरस्तु विनिद्रत्वम्2157।
यथा
²गमिअं कहं2158 T.; किह किह M.”) वि दिणं चंदादवदूसहा णिसा दीहा2159।
मअणो वि पुंखिअसरो णिद्दा वि णिओ2160 वि णो एइ2161॥७३॥
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रति। तहेति। तथा निपुणो विदग्धः कृत्यवस्तुषु चतुर इत्यर्थः। तथा मधुरः प्रियदर्शनः प्रियंवदो वा। तथा सुभगो गम्भीरगुणो नायकविशेषः। तल्लक्षणं वक्ष्यामः। तथा सौम्यस्वभावः सुशील एको रुद्रनृप एवेति गोष्ठी प्रौढमहिलानाम्। सर्वत्र तथाशब्दः पूर्वानुभवपरः। अत्र निपुणादिगुणयोगात् प्रतापरुद्र एवास्माकमभिगम्य2162 इति प्रौढाङ्गनाः प्रसङ्गं कुर्वन्तीति भावः। अत एवोक्तं भावप्रकाशे।
‘महोदयो महाभाग्यः कृतज्ञो रूपवान् युवा।
मानी सुशीलः सुभगो विदुग्धो वंशसंभवः॥
अहर्निद्रो मधुरवागभिगम्यो भवेत् स्त्रिय2163ः॥’
इति।
तथा निपुणस्तथा मधुरस्तथा सुभगस्तथा च सौम्यस्वभावः।
एको रुद्र नृप एवेति गोष्ठी प्रौढमहिलानाम्॥
रुद्दणिवो विअ रुद्रनृप एव। विअवेअ अवधारणे इत्यवधारणार्थे विअवेअ इत्येतौ शब्दौ निपातितौ।
जागरं लक्षयति। जागर इति। उदाहरति। गमिअमिति। गमितं कथं कथमपि दिनम् प्रियागमनप्रतीक्षणादिभिरिति भावः। चन्द्रातपदुःसहा निशा-
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छाया।
1 तथा निपुणस्तथा मधुरस्तथा सुभगस्तथा सौम्यस्वभावः।
एको रुद्रनृप एवेति गोष्ठी प्रौढमहिलानाम्॥
2 गमितं कथमपि दिनं चन्द्रातपदुःसहा निशा दीर्घा।
मदनोऽपि पुङ्खितशिरो निद्रापि नृपोऽपि नो एति॥
अथ कार्श्यम्।
कार्श्यमङ्गस्य तानवम्।
यथा।
चन्द्रास्ये कथमङ्गुलीयकमिदं केयूरितं ते सखि
प्रेम्णा प्रेयसि वैभवैः स खलु को भूमेः2164 सपत्नी यतः।
ज्ञातं मानिनि काकतीयनृपतौ सक्तासि सत्यं शुभे
श्यामाङ्गीं स खलु स्थिरां रमयते त्वा2165ं तां च शैलस्तनीम्॥७४॥
अथारतिः।
अन्यत्राप्रीतिररतिः।
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अत एव दीर्घा। मदनोऽपि पुंखितशरो नृपोऽपि निद्रापि नोपैति। स्वप्नसमागमस्यापि परिपन्थी जागरहतको जागर्त्तीति भावः।
कार्श्यमाह। कार्श्यमिति। उदाहरति। चन्दास्य इति। अङ्गुलीयकमिति। ‘जिह्वामूलाङ्गुलेश्छः’ इति छप्रत्यये स्वार्थिकः कन्प्रत्ययः। केयूरितमङ्गदीकृतमित्यर्थः। नायिकाह। सखीति। प्रेम्णां प्रेमादीनां प्रियविषयरत्यवस्थाविशेषाणामित्यर्थः। तदुक्तम्।
‘प्रेमा मानः प्रणयः स्नेहो रागोऽनुरागश्च।
अङ्कुरपल्लवकलिकाकोरकफलभोगभागयं क्रमशः॥’
इति। ‘सप्तमी शौण्डैः’ इति वदाद्यर्थलाभः। सखी प्रेमविषयं पृच्छति। स खलु कः इति। नायिकोत्तरमाह। भूमेरिति। यत इति। सार्वविभक्तिकस्तसिः। येनाहं भूमेः सपत्नी भवेयं स इत्यर्थः।
सखी नायिकाभिप्रायमुद्घाटयति। ज्ञातमिति। नायिकाङ्गीकरोति। आलीति। भूकल्पायास्तवापि सर्वथा तद्वदेवोपभोगो भविष्यति किमेतेन कार्श्येनेति सखी नायिकामुपलालयति। शुभ इति। श्यामाङ्गीं यौवमयुक्ताङ्गीमन्यत्र कृष्णाङ्गीम्। शैलस्तनीं शैलसदृशस्तनीमन्यत्र स्तनायमानशैलामित्यर्थः।
अरतिं लक्षयति। अन्यत्रेति। प्रियव्यतिरिक्तविषयवैराग्यमरतिरित्यर्थः।
यथा।
^(१)दूसेइ2166 चंदसिठ्ठिं2167णिंदइ2168 मलआ2169णिलस्स माहाप्पं2170।
ऊसवपरंमुही2171 सा सुहअ तुमं2172 किं णु मंतेसि॥७५॥
अथ व्रीडात्यागः2173।
यथा
^(२)लंघिअमहिलासमहं2174 तह भणिअं मअणदुब्विणीदाए।
जह सोऊण गुरुअणो ओसरइ विलज्जिओ दूरं॥७६॥
अथ ज्वरः।
तापाधिक्यं ज्वरो मतः।
यथा।
^(३)मोहसिसिरोवआरा वहुआ2175 विरहज्जरेण गरुएण2176।
दाणिं रुद्दणरेसर2177 कांखइ2178 तुह दंसणामिअअं2179, M.")॥७७॥
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उदाहरति। दूसेईति। दूषयति चन्द्रसृष्टिं निन्दति मलयानिलस्य माहात्म्यम्। उत्सवपराङ्मुखी सा सुभग त्वं किं नु मन्त्रयसे। सुभग त्वमिति। सुभगो नाम नायकविशेषः। तदुक्तम्।
‘सपत्नीनखदन्तादिचिह्नं यत्र न दृश्यते।
विस्मार्यमाणमानेर्ष्यः सुभगः सोऽभिधीयते॥’
इति। अत एवात्र विषयान्तराद्वैराग्यलिङ्गाभावेन प्रेमास्पदत्वं द्रष्टव्यम्।
लज्जात्यागमुदाहरति। लङ्घिएति। लङ्घितमहिलासमयं तथा भणितं मदनदुर्विनीतया। यथा श्रुत्वा गुरुजनोऽपसरति विलज्जितो दूरम्॥ लङ्घितमहिलासमयं सुरतव्यतिरिक्तकाले लज्जा स्त्रीसमयः । किं विलम्ब्यते चुम्बनादिकमिहेदानीमेव कर्त्तव्यमित्यादिकं तथाशब्दार्थः।
ज्वरं लक्षयति। तापेति। उदाहरति। मोहेति। मोघशिशिरोपचारा वधूर्विरहज्वरेण गुरुणा। इदानीं रुद्रनरेश्वर काङ्क्षति तव दर्शनामृतकम्॥
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छाया।
1 दूषयति चन्द्रसृष्टिं निन्दति मलयानिलस्य माहात्म्यम्।
उत्सवपराङ्मुखी सा सुभग त्वं किं नु मन्त्रयसि॥
2 लङ्घितमहिलासमयं तथा भणितं मदनदुर्विनीतया।
यथा श्रुत्वा गुरुजनोऽपसरति विलज्जितो दूरम्॥
3 मोघशिशिरोपचारा वधूर्विरहज्वरेण गुरुणा।
इदानीं रुद्रनरेश्वर काङ्क्षति तव दर्शनामृतम्॥
उन्मादमरणयोः प्रागेवोदाहरणं दर्शितम्2180।
अथ मूर्च्छा।
मूर्च्छा त्वभ्यन्तरे2181 वृत्तिर्वाह्येन्द्रियनिमीलनात्।
यथा।
¹चिंतअंतिए2182 णरेद्दं2183 दठ्ठुं हिअअठ्ठितं2184 मीअच्छीए।
करणाइ2185 बाहिराइं विसंति अभ्यंतरं वि सुण्णाए2186॥७८॥
अथ शृङ्गारः। स च द्विविधः। संभोगो विप्रलम्भश्च। ‘संयुक्तयोस्तु संभोगो विप्रलम्भो वियुक्तयोः’ इति शृङ्गारतिलके कथितम्2187। संभोगस्य परस्परावलोकन2188संभाषणालिङ्गनचुम्बनाद्यनेकव्यापारमयत्वेनानन्त्यादेकविधत्वेन गणना2189 कृता। यथा।
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अवस्थाद्वयं व्यभिचारिप्रस्ताव एवोदाहृतमित्याह। उन्मादेति। स्थायिभावसहकारित्वेनोपाधिना संचारित्वम्। रसास्वादनिमित्तत्वेनोपाधिना अवस्थात्वं चेति विवेकः।
मूर्च्छांलक्षयति। मूर्च्छेति। बाह्येन्द्रियाणां चक्षुरादीनां निमीलनं स्वस्वविषयग्रहणाभावः। अत एवाभ्यन्तरे अवृत्तिः शून्यान्तःकरणत्वमित्यर्थः। उदाहरति। चिन्ततीए इति। शून्यायाश्चिन्तया शून्यान्तःकरणाया इत्यर्थः। अत्र मूर्च्छाया मोहाख्यसंचारिसमानयोगक्षेमत्वेनोन्मादादिवदु2190दाहरणातिदेशार्हत्वेऽपि पृथगुदाहरणं चमत्कारविशेषद्योतनायेति द्रष्टव्यम्।
अथ रसविशेषानुदितो2191द्देशक्रमानुसारेण विभागपूर्वकं लक्षणोदाहरणाभ्यां दर्शयति। अथेत्यादिना। तत्र संभोगस्यावान्तरविभागाभावे हेतुमाह। संभोगस्येति।
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छाया।
1 चिन्तयन्त्या नरेन्द्रं द्रष्टुं हृदयस्थितं मृगाक्ष्याः।
करणानि बधिरानि विशन्ति अभ्यन्तरमपि शून्यायाः॥
रहःप्रत्यासन्ने हृदयदयिते2192 रुद्रनृपतौ
निवृत्ता मानाज्ञा विरलमपि लज्जाविलसितम्।
किमन्यत्ते गोप्यं बहिरबहिरानन्दमसृणः
स्मरावेशः कोऽपि प्रियसखि नृपेणैकयति माम्॥७९॥
विप्रलम्भः पुनर2193भिलाषेर्ष्या विरहप्रवासहेतुक2194त्वेन चतुर्विधः।
अभिलाषो नाम संभोगात् प्रागनुरागः।
यथा।
अन्योन्यभाषणमनङ्गविलासगोष्ठी
शय्या च सार्धमपदानि2195 मनोरथानाम्।
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उदाहरति। रह इति। रहःप्रत्यासन्ने विजनमुपगते हृदयदयिते प्राणवल्लभे मानः कोपविशेषः। ‘स्त्रीणामीर्ष्याकृतः कोपो मानोऽन्यासंगिनि प्रिये’ इति लक्षणात्। तस्याज्ञा तत्परवशत्वमित्यर्थः। लज्जाविलसितमपि विरलं निवृत्तमित्यर्थः। सुरतसमये स्त्रीणां प्रागल्भ्यभूषणत्वादिति भावः। अत्र विस्रम्भविहारविरोधिनोर्लज्जामानयोर्निवृत्तिकथनादुन्मर्यादो विमर्दः संवृत्त इति सूच्यते। तत्फलमाह। किमिति। अवक्तव्यं ते नास्तीत्यर्थः। बहिरबहिरानन्दमसृणः विगलितवेद्यान्तरत्वेनापरिच्छिन्नानन्दमय इत्यर्थः। अत एवालौकिकोऽयं स्मरावेशो दुर्निश्चयस्वरूप इत्याह। कोऽपीति। किं बहुना। तदानीमावयोः सामरस्यं समजनीत्याह। नृपेणेति। एकां करोति एकयति। एकशब्दात् ‘तत्करोति’ इति ण्यन्तात् ‘वर्त्तमानसामीप्याद्वर्त्तमानवद्वा’ इति वर्त्तमानप्रत्ययः। अत्र हृदयदयितपदोदितेनालम्बनविभावेन रहःशब्दसूचिंतैरुद्दीपनविभावैर्माननिवृत्तिव्यङ्ग्यैर्हर्षादिव्यभिचारिभिरनुक्तिसिद्धैःस्तम्भादिभिरनुभावैश्च परिपोषं प्राप्तः रत्याख्यः2196 स्थायीभावः शृङ्गारतामङ्गीचकारेति वेदितव्यम्।
विप्रलम्भं विभजते। विप्रलम्भ इति।
तत्राद्यं लक्षयति। अभिलाष इति। अयोगपूर्वानुरागाद्यपरपर्यायो विप्रलम्भविशेषोऽभिलाष इत्यर्थः। उदाहरति। अन्योन्येति। अन्योन्यभाषणमिष्टालापरूपं ततोऽनङ्गविलासगोष्टी नर्मकथाप्रसङ्ग इत्यर्थः। सार्धंशय्या सह शयनमित्यर्थः। ‘संज्ञायां समजनि—’ इत्यादिना क्यप् प्रत्ययः। अत्र यद्यपि शेर-
प्रेमानुबन्धमुदयद्बहुलानुरागं
लभ्येत रुद्रनृपतेरवलोकितं2197 वा॥८०॥
ईर्ष्या2198 नाम नायकस्यान्यासक्तिभवा चित्त2199विक्रिया।
तया विप्रलम्भो यथा।
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तेऽत्रेति अधिकरणव्युत्पत्त्या शय्याशब्दः खट्वापरो न शयनपरस्तथापि भृत्यादिशब्दवदत्रापि भावानुवृत्या भावार्थत्वमभिमेने2200 कविरित्यनुसंधेयम्। मनोरथानामपदान्यस्थानानि अविषया इत्यर्थः। मनोरथविषयमाह। प्रेमेति।
‘स प्रेमा यन्मिथो यूनोर्निरूढं भावबन्धनम्।’
इत्युक्तलक्षणेन प्रेम्णानुविद्धं युक्तं तथा उदयन्नुद्दीप्यमानो बहुलानुरागो यत्र तत् तथोक्तम्। ‘रागोऽनुवृत्तो विच्छिन्नमनुराग उदाहृतः’ इति। रतेरेवावस्थाविशेषाः प्रेमादय इत्युक्तं रसार्णवे
‘अङ्कुरपल्लवकलिकाप्रसूनफलभागयं क्रमशः।
प्रेमा मानः स्नेहः प्रणयो रागोऽनुरागश्च॥’
इत्युक्तेः। एतादृशमवलोकितं वा लभ्येत। प्रार्थनायां लिङ्।
ईर्ष्याविप्रलम्भं लक्षयति। नायकस्येति। स्वप्रियस्यान्यासक्तभावान्नायिकान्तरासक्तत्वाद्दर्शनश्रवणानुमानैरुपलब्धादिति शेषः। अन्यथेर्ष्यानुदयादिति भावः। चित्तविक्रिया ईर्ष्या मानरूपेत्यर्थः। अत एवोक्तंदशरूपके।
‘स्त्रीणामीर्ष्याकृतः कोपो मानोऽन्यासङ्गिनि प्रिये।
श्रुते वानुमिते दृष्टे ईर्ष्याकोपः स उच्यते॥’
इति। अत एवायमीर्षाविप्रलम्भः स्त्रीणामेव न पुरुषाणामिति द्रष्टव्यम्।
तदुक्तं हेमचन्द्रेण।
लक्ष्मीर्यस्य2201 विलोचनाब्जवसतिः सेर्ष्या त्वदालोकने2202
वाक्यस्यापि2203 सरस्वती न सहते साकं त्वया भाषणम्।
लीलाकर्षणविघ्नकृत् त्वयि मही बाहुस्थिता काकति-
क्षोणीन्द्रे न हि कैतवानि सुभगे मानेन किं ताम्यसि॥८१॥
विरहो नाम लब्धसंयोगयोर्नायिका2204नायकयोः केनचित् कारणेन पुनः समागम2205कालातिक्षेपः।
यथा।
अङ्गेषु जीर्णेषु विभूषणानां
व्यत्यासमार्गोऽपि मुहूर्त्तशोभी।
सख्यस्तदास्तां2206 परिकर्मरीति-
रानीयतां रुद्रनृपः किमन्यत्॥८२॥
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‘ईर्ष्या मानः स्त्रीणामेव’ इति। उदाहरति। लक्ष्मीरिति। अत्र नेत्राननबाहुवासिन्यः श्रीवाणीधरण्यो यथाक्रमं त्वदालोकनसंभाषणलीलाकर्षणानि प्रतिबध्नन्ति। काकतिनाथोऽयं पुनर्न तथा कितवस्तस्मान्न तत्र मानः कार्य इत्यर्थः। कैतवाभावोऽत्र नायकविशेषवाचिना सुभगशब्देन सूच्यते। तल्लक्षणमुक्तं भावप्रकाशे।
‘सपत्नीनखदन्तादि चिह्नं यत्र न दृश्यते।
विस्मार्यमाणमानेर्ष्यः सुभगः सोऽभिधीयते॥’
इति। अत एव भारविणाप्युक्तम्। ‘कः प्रिये सुभगमानिनि मानः’ इति।
विरहविप्रलम्भं लक्षयति। विरह इति। नायकयोः स्त्रीपुंसयोः। केनचित् कारणेनेति। अविद्यमान एवान्यासङ्ग इति भावः। नायकयोर्निर्निमित्तो विप्रयोगः प्रणयमानापरपर्यायो विरहविप्रलम्भ इत्यर्थः। तदुक्तं रसमञ्जर्याम्। ‘परस्परमाज्ञोल्लङ्घनं2207 प्रणयमानः इति। अयं पुनर्द्वयोरपि भवति। तत्र स्त्रीविरहमुदाहरति। अङ्गेष्विति। व्यत्यासमार्गः अङ्गुलीयकादीनां कटकादिस्थानेषु2208 धारणादिति भावः। मुहूर्त्तशोभी अनन्तरमतिकार्श्यसंभवेन तत्रापि तेषामनवस्थानादिति भावः। परिकर्मरीतिः प्रसाधनप्रकारः। किमन्यदिति कार्यान्तरस्य वृथा विलम्बनहेतुत्वादिति भावः। एवं पुंविरहेऽप्युदाहार्य्यम्।
यूनोर्देशान्तरवृत्तित्वं2209 प्रवासः।
तेन विप्रलम्भो यथा।
सेव्योऽस्तु रुद्रनृपतिर्निखिलैर्नृपालै-
रभ्युत्सवेषु2210 सुलभा न2211 हि वल्लभा नः।
इत्थं कलिङ्गसुदृशां विरहार्त्तितापा2212-
दङ्गानि यान्ति तनुतां दिवसा युगन्ति॥८३॥
रसाभासो यथा।
प्रासादगर्भवलभीषु कपोतपाल्यां
पारावतीं2213 रमणचुम्बितचञ्चुकोटिम्।
आविर्भवत्सुरतकूजित2214रक्तकण्ठी-
मालोक्य काकतिविभुः2215 स्मितमातनोति॥८४॥
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प्रवासबिप्रलम्भं लक्षयति। यूनोरिति। उदाहरति। सेव्य इति। निखिलेतरभूपालवद् वीररुद्रं स्वप्रिया अपि सेवन्तां नाम। अकिंचनैरप्यादरणीयेषूत्सवदिवसेष्वपि ते नो दुर्लभा अभूवन्निति दूयामहे इत्यर्थः। इत्थमनुलपन्तीनामिति शेषः। दिवसा युगन्ति युगकल्पा भवन्तीत्यर्थः। युगप्रातिपदिकादाचारक्विवन्ताद्वर्त्तमाने2216 लट्। रात्रयस्तु दुरतिवाहा एवेति भावः।
त्रिधा रसाभास इत्युक्तं तत्र तिर्यग्गतमुदाहरति। प्रासादेति। वलभीषु गोपानसीषु। कपोतपाल्यां विटङ्के च रमणचुम्बितचञ्चुकोटिमत एवाविर्भवत्सुरतकूजितामयत्रोद्यन्मणितां रक्तकण्ठीं मधुरस्वनाम्। अत्र तिरश्चोः पारावतयोः कलाकौशलाभावेन तदीयशृङ्गारस्य विभावादिपरिपूर्त्त्यभावादाभासत्वं द्रष्टव्यम्। रस एवायं नाभास इति केचित्। तदुक्तं विद्याधरेण। ‘विभावादिसंभवो हि रसं प्रति प्रयोजको न विभावादिज्ञानं ततश्च तिरश्चामप्यस्त्येव रसः’ इति। भेदान्तराणामुदाहरणमन्यतोऽवगन्तव्यम्।
भावोदयो यथा।
मुग्धे कस्तव वर्त्तते हृदि मनोजन्मैव नान्यः शपे
सख्यै2217 तस्य किमत्र कार्यमपरं किं जन्मसद्मादरः2218।
कोऽन्यस्तत्प्रतिबिम्ब एव निपुणे2219 जानासि2220 कामाधिकः
प्रेयानुद्रनृपस्तवेति कथिता नम्राननाभूद्वधूः॥८५॥
अत्र2221 लज्जाया उदयः।
भावशमो2222 यथा।
लक्ष्मीस्त्वं पुरुषोत्तमस्तव पतिः श्रीवीररुद्रो नृपः
सृष्ट्यामम्बुजविष्टरस्य2223 सदृशोर्योगश्चिरात् संभृतः।
तस्मात् कृत्रिममप्यसाम्प्रतमिदं वां वैमनस्यं मना-
गित्यालिं प्रणतां विलोक्य विकसद्वक्त्राम्बुजा मानिनी॥८६॥
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भावोदयमुदाहरति। मुग्ध इति। मुग्धे सुन्दरीति संबोध्य सखी पृच्छति। अथ नायिकोत्तरमाह। मनोजन्मेति। शपथविशेषेण सखीमत्र प्रत्याययति। शप इति। ‘शप उपालम्भने’ इत्यात्मनेपदम्। ‘वाचा शरीरस्पर्शनमुपालम्भः’ इति वृत्तिकारः। ‘श्लाघह्नुस्था-’ इत्यादिना सख्या इति संप्रदानत्वाच्चतुर्थी। पुनः सख्याह। तस्येति। अत्र मनसि। तस्य मनोभुवः। नायिका प्रतिवक्ति। अपरमिति। जन्मभूमिस्नेहादन्यत् किमपि नास्तीत्यर्थः। कामस्तावदास्तां द्वितीयः क इति सखी पृच्छति। कोऽन्य इति। तत्प्रतिविम्बादन्यः कोऽपि नास्तीत्युत्तरमाह। तदिति। पुनः सख्याह। निपुण इति। जानासि प्रतारणप्रकारमिति शेषः। नम्रानना लज्जयेति भावः।
भावशान्तिमुदाहरति। लक्ष्मीरिति। अम्बुजविष्टरस्य कमलासनस्य। सदृशोः समानयोः। तस्माद्वां युक्योर्वैमनस्यं मनागल्पं कृत्रिमं बाह्यमपीत्यर्थः। असाम्प्रतमयुक्तम्। यतो ‘न पुनरेति गतं चतुरं वयः’ इति भावः। इत्युक्त्वेति शेषः। प्रणतामालिं सखीं विलोक्य विकसद्वक्राम्बुजा भ्रुकुटिवैवर्ण्यादिकोपानुभावापगमादित्यर्थः। कोपः शान्त इति भावः।
भावसन्धिर्यथा।
प्रतापरुद्रस्य दिगन्तजैत्र-
यात्राप्रभूतैः पटहप्रणादैः।
प्रियानुलापैश्च तथा2226 भटानां
रोमाञ्चवर्मावृतमङ्गमासीत्॥८७॥
अत्र वीरशृङ्गारकृतयो2227र्हर्षयोः2228 संधिः।
भावशबलता यथा।
निन्दन्त्वत्र2229 कुलस्त्रियः प्रियतमो लभ्यः सुखं केन वा
भाग्येनानुमतं न किं गुरुजनैः का वा सखी प्रेष्यते।
किं लोकस्य भवेत् प्रसिद्धमचिरात् स्वच्छन्दमङ्कं कदा
रोक्ष्यामि स्थिरता कदा हृदि भवेद्यातव्य एव प्रियः॥८८॥
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भावसन्धिमुदाहरति। प्रतापेति। प्रियाणां प्रेयसीनामनुलापैरनुरागतरङ्गितैस्तत्कालोचितवचनाम्रेडितैश्च। अत्र परस्परविरुद्धवीरशृङ्गाराश्रितयोर्हर्षयोः स्पर्धया सम्बन्धकथनात् भावसंधिरेव चर्वणास्पदमित्यर्थः। तदेतदाह। अत्रेति।
भावशबलतामुदाहरति। निन्दन्त्विति। प्राप्तकाले लोट्। अद्य आत्मोपसरणावसर इत्यर्थः। अनेन कार्यकारणमूला लज्जा व्यज्यते। प्रियतम इति। अत्र प्रियसौलभ्ये किं वा भाग्यं निमित्तमित्यूहकथनाद् विमर्शमूलो वितर्कः। अनुमतमिति। अत्र किमर्थं वा गुरुजनानुमतिर्नाभूदिति कार्पण्योक्त्या दैन्यं ध्वन्यते। प्रियानयनार्थंका वा सखी प्रेष्यत इति सहायान्वेषणानुभावेन2230 प्रारब्धकार्यानिर्वहणरूपो2231 विषादो व्यज्यते। किमिति प्रसिद्धमिति स्वदुर्विनीतत्ववै2232भवमिति शेषः। अतस्तन्मूलानर्थोत्प्रेक्षालक्षणा शङ्केयमिति भावः। अचिरादिति। स्वः स्वकीयश्छन्दोऽभिप्रायो यस्मिन् कर्मणि तत् स्वच्छन्दं स्वेच्छयेत्यर्थः। अङ्कं प्रियस्येति शेषः। अत्र कालाक्षमत्वलक्षणमौत्सुक्यं प्रतीयते। स्थिरतेति। अत्र हृदयस्थैर्याकाङ्क्षया नैस्स्पृह्यलक्षणा धृतिरवधार्यते। यातव्योऽभिसरणीय एव प्रिय इत्यनेन तत्त्वनिर्धारणात्मिका मतिरिति। अत्र लज्जादीनामष्टानामपि भावानामन्योन्योपमर्दकतया समावेशाद् भावशबलतेस्यर्थः। अत्र लज्जा वित-
अत्रौत्सुक्यादीनां शवलता।
अथ रससंकरस्योदाहरणम्।
तत्र शृङ्गारकरुणयोः संकरो यथा।
आसन्नेऽपि महोत्सवे कथमितस्त्यक्त्वा प्रवासं व्रजे2233-
र्धिग् धिक् साहसमावयोर्विघटनं को2234 वा विधिः काङ्क्षति2235।
इत्थं स्वप्ननिवारितप्रियतमप्रस्थानबुद्धिस्ततो
बुद्ध्वा मूर्च्छति काकतीयनृपते त्वद्वैरिनारीजनः॥८९॥
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र्केण बाध्यते दैन्यं विषादेन शङ्का औत्सुक्येन धृतिर्मत्येत्येवमन्योन्यबाध्यबाधकभावेन द्वन्द्वशो भवन्ती भावशबलतां ततो गत्वा मतेरेव प्राधान्यमादधाना परमास्वादस्थानमित्यर्थः। तदेतदभिसंधायाह। अत्रेति। अत्रानादेरप्यौत्सुक्यस्यादित्वेनोपादानमन्येषामौत्सुक्यजीवितत्वसूचनार्थमित्यनुसंधेयम्। अत्र लज्जादीनामभिसरणविरोधित्वाद्बाध्यत्वम्। वितर्कादीनां तु तदभावाद् बाधकत्वमिति विवेकः। ननु ‘प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम्’ इति न्यायेन लज्जादीनां बाध्यानामनुपादानमेव श्रेय इति न शङ्कनीयम्। विरोधिनामपि रसादीनामाधिकारिकरसदार्ढ्यार्थमङ्गत्वेनोपनिबन्धनवदत्रापि तदुपादानस्य न्याय्यत्वात्। तदुक्तं ध्वन्याचार्यैः।
‘विवक्षिते रसे लब्धप्रतिष्ठे तु विरोधिनाम्।
बाध्यानामङ्गभावं वा प्राप्तानामुक्तिरच्छला॥’
इति। अत्रोक्त2236भावोदयादीनां राजानुगतविवाहप्रवृत्तभृत्यवत् कदाचिदङ्गित्वमप्यङ्गीक्रियते। तदुक्तं काव्यप्रकाशे।
‘मुख्ये रसेऽपि तेऽङ्गित्वं प्राप्नुवन्ति कदाचन’
इति।
भावमेलनप्रसङ्गाद्रसमेलनमप्युदाहर्त्तुं प्रतिजानीते। अथेति। तत्र शृङ्गारसंकीर्णेकरुणमुदाहरति। आसन्न इति। व्याख्यातमेतत् काव्यप्रकरणे2237 t.”) (पृ० ६२) मध्यकैशिक्युदाहरणे।
अथ2238 रौद्रबीभत्सयोः संकरो यथा।
पीत्वा मांसोपदंशं द्विरदगलगलद्रक्तमैरेयधारां
मत्तो मस्तिष्कलग्नैर्दलितनृपवपुःकीकसैः स्पष्ट2239दंष्ट्रः।
विभ्रद्रौद्रान्त्रमालां जनितजनभयो भैरवाकारघोरः
संग्रामोर्व्याः कलिङ्गैर्बलिविधिमकरोद्वीररुद्रस्य खङ्गः॥९०॥
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बीभत्ससंकीर्णं रौद्रमुदाहरति। पीत्वेति। व्याख्यातमिदमपि नाटके तृतीयेऽङ्के (पृ० १८२)। अत्रोदाहरणद्वये द्वयोः करुणरौद्रयोर्विश्रान्तिधामत्वेन चर्वणायां प्रथमभावित्वात् प्राधान्येनाङ्गित्वम्। शृङ्गारबीभत्सयोस्तदुपस्कारकत्वेना2240ङ्गत्वमिति विवेकः। अत एवोक्तं भावप्रकाशे।
‘रसाः कार्यवशात् सर्वे मिलन्त्येव परस्परम्।
प्रथमं यो रसः ख्यातः स प्रधानो भविष्यति॥’
इति। नन्वय2241मङ्गभूतो रसः परिपोषमप्राप्तः प्राप्तो वा। नाद्यः। रसत्वव्याघातात्। न द्वितीयः। उपस्कार्यत्वेनाङ्गत्वभङ्गात्। तस्मादयुक्ता रससंकरवाचोयुक्तिरिति चेन्मैवम्। परिपोषलाभेऽपि2242 कस्यचित् कदाचिदुपस्कारत्वेनाङ्गत्वाङ्गीकारात्। तदुक्तमभिनवगुप्ताचार्यैः। ‘संभूतान्यपि रसान्तराणि स्वविभावादिसामग्र्यां स्वावस्थायां यद्यपि लब्धपरिपोषाणि चमत्कारगोचरतां प्रतिपद्यन्ते तथापि स चमत्कारस्तावत्येव परितुष्यन् न विश्राम्यति किं तु चमत्कारान्तरमनुधावति’ इति। अङ्गाङ्गिभावे सर्वत्रेयमेव भङ्ग्यङ्गीकरणीया। तदुक्तमाचार्यैः।
‘गुणः कृतात्मसंस्कारः प्रधानमनुषज्यते।
प्रधानस्योपकारे हि तथा भूयसि वर्त्तते॥’
इति। तच्चाङ्गत्वं स्वाभाविकं रूपकादिबलादारोपितं चेत्यादिविशेषास्त्वन्यतो द्रष्टव्या इत्याशयेनाह। एवमिति।
एवमन्यदपि2243 यथासंभवमुदाहार्यम्।
अत्र रसो नायकाश्रय2244 एव। यदि परं निपुणनटचेष्टया तथाविधकाव्यश्रवणबलेन च सामाजिकैः साक्षाद् भाव्यते तदा परगतस्यापि रसस्य सम्यग्भावनया परत्र निरतिशयानन्दजननमविरुद्धम्। अथवा2245 मालत्यादिशब्देभ्यो योषिन्मात्रप्रतीतौ रावणादिशब्देभ्यः2246 शत्रुमात्रप्र-
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अयं2247 च रसो लौकिकालौकिकभेदेन द्विविधः। तत्राद्यः कदलीरसालादिफलास्वादजन्यानन्दसदृशः कार्यश्च। इतरो ब्रह्मानन्दसब्रह्मचारी नित्यश्च। तत्राद्यस्याश्रयमाह। अत्रेति। रसो लौकिको नायकोऽनुकार्यो रामादिराश्रयो यस्य स तथोक्तः। एवकारः आश्रयान्तरव्यवच्छेदार्थः। यद्येवं सामाजिकानां पौनःपुन्येनाभिनयावेक्षणकाव्यश्रवणकौतुकमुन्मत्तचेष्टितं स्यात्। अत आह। यदि परमिति।
‘शिल्पविन्नायकादीनां तादात्म्यापत्तिभावकः।
चतुर्धाभिनयाभिज्ञो नटो भाषादि2248भेदवित्॥’
इत्युक्तलक्षणस्य निपुणस्य नटस्य चेष्टयाभिनयेन तथाविधस्य गुणालंकारपरिष्कृतरसोल्लसितशब्दार्थसंघटनात्मकस्य काव्यस्य श्रवणबलेन समाजः सभा तत्र समवेताः सामाजिकाः रामादितन्मयीभवनयोग्यमनस्का भावकप्रेक्षकाद्यपरपर्यायाः सहृदया इत्यर्थः। संपूर्वादजेः समूहवाचिनो घञन्तात् ‘समवायान् समवैति’ इति ठक्प्रत्ययः। तैर्यदि परं साक्षाद् भाव्यते केवलं स्वसंबन्धित्वेनानुसंधीयते चेदित्यर्थः। तर्हि पुत्राद्यानन्ददर्शने पित्रादिवदत्राप्यानन्द उदेतीति भावः। अत एवोक्तं भावप्रकाशे।
‘यस्तुष्टौ तुष्टिमाप्नोति शोके शोकमुपैति च।
क्रोधे क्रुद्धो भये भीरुः स श्रेष्ठः प्रेक्षकः स्मृतः॥’
इति। न केवलं तत्र तावन्मात्रं किं तु विशेषोऽप्यस्तीत्याह। परगतस्येति। भावनाविशेषादानन्दविशेषो युक्त एवेति भावः। अथालौकिकरसस्याश्रयमाह। अथवेति। मालत्यादिशब्देभ्य इति। अभिनयवेलायां नटादिसमुच्चारितेभ्यो विशिष्टकाव्यगतेभ्य इत्यर्थः। योषिन्मात्रप्रतीतौ न तु मालत्यादिविशेषोल्लेखे-
तीतौ च स्मृत्यारूढेन तत्तद्योषिद्विशेषेणानुकार्येण2249 सामाजिकाश्रयत्व-
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नेत्यर्थः। एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम्। स्मृत्यारूढेनेति। सामान्यप्रतीतौ विशेष स्मरणमनयोरविनाभावमूलमित्यनुसंधेयम्।
ननु सामाजिकानां श्रूयमाणमालत्यादिविशेषपरिहारेण स्वाभिलषितनायिकास्मरणे किं प्रमाणमिति न शङ्कनीयम्। काव्यादौ विशेषाणामविवक्षितत्वात्। न हि महाकविभिर्वाल्मीकिप्रमुखैरिव ध्यानदृष्ट्या रामादीनामवस्थाः प्रातिस्विका निरूप्यन्ते किं तु रामादिकमाश्रयतया परिकल्प्य स्वप्रतिभाप्रभावलब्धाः सर्वसाधारणा इति। तदुक्तं षट्सहस्रीकारेण। ‘एभ्यश्च सामान्यगुणयोगेन रसा निष्पद्यन्ते’ इति। तर्हि तैरपि विशेषमात्रं विहाय सामान्यमेव किमिति नोपादीयत इति न वाच्यम्। विशेषोपादानेनैव श्रोतॄणामास्वादसंभवात्। तदुक्तम्।
‘क्रीडतां मृण्मयै2250र्यद्वद् बालानां द्विरदादिभिः।
स्वेच्छा हि स्वदते तद्वच्छ्रोतॄणामर्जुनादिभिः॥’
इति। योषिद्विशेषेणेति। नायकनयनान्तावलोकननिर्वेदादीनामप्युपलक्षणम्2251। योषिन्मात्रेण रसनिष्पत्तेरभावात्। ननु भवन्तु नाम स्मृताः स्त्रीपुंसादयः कथ तै रसनिष्पत्तिः कथं वा रसस्य सामाजिकाश्रयत्वमिति चेदिदमत्रानुसंधेयम्। सामाजिकास्तावत् पूर्वं लौकिकनायकानुरागाद्यनुमानेन संस्कृतहृदयाः काव्यादिशब्दमहिम्ना रामादीन् सामान्यात्मना स्वसंबन्धित्वेन भावयन्ति। ते च भाविता भावकमनोऽङ्गणे वर्त्तमानवदवभासन्ते। तदुक्तं भर्त्तृहरिणा।
‘शब्दोपहितरूपांस्तान् बुद्धेर्विषयतां गतान्।
प्रत्यक्षमिव कंसादीन् साधनत्वेन मन्यते॥’
इति। कंसादीनां प्रत्यक्षरूपमिव शब्दोपहितरूपमप्यर्थक्रियाकारीत्यर्थः। न2252 च सीतारामादीनां स्वस्त्रीपुंसतया भावनादनौचित्यम्। तेषां जनकदशरथतनयत्वादिविशेषपरित्यागेन स्त्रीपुंसमात्रानुवादित्वादित्युक्तत्वात्। ते च स्त्रीपुंसादयो लौकिका एव। काव्याभिनयमुखेन विभावादिपदाभिधानराज्याभिषिक्तभावकैर्भाव्यमानाः सन्तो मुद्रामुद्रितन्यायेन तदन्तःकरणप्रतिबिम्बिताः सामाजिकनिष्ठा भवन्ति। रत्यादयोऽपि लौकिका एवैवंविधाः सन्तः स्थायिभावसाम्रा-
मपि न विरुद्धम्। नटस्यानुकरणमात्रपरतया नैव रसाश्रययोग्यता। तस्य भावकत्वाभ्युपगमेऽपि2253 सामाजिकत्वमेव। अनुभावादीनां प्रकाशनं तु शिक्षाभ्यासपाटवेनैव घटते2254। एषु2255 रसादीनां2256 परस्परविरोधेऽपि कविप्रौढोक्तिसमाश्रयेणैकत्र समावेशो न विरुद्धः। विरोधक्रमः शृङ्गारतिलके कथितः।
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ज्यमूर्धाभिषिक्ता भवन्ति। तेऽमी विभावादयः सर्वेऽपि चित्रतुरगन्यायेन सम्यङ्मिथ्यासंशयसादृश्यप्रतीतिविलक्षणचर्वणादिशब्दवाच्यालौकिकशब्दप्रतीतिविषयत्वादलौकिका एव। तन्निष्पाद्यत्वेनालौकिकस्य रसस्य सामाजिकान्तःकरणप्रतिबिम्बितस्थायिपरिणामत्वात् सामाजिकाश्रयत्वम्। अस्मिन्नर्थे बृद्धसंवादः प्रकरणान्ते वक्ष्यते। तदेतदभिसंधायाह। सामाजिकाश्रयत्वमपि न विरुद्धमिति। अपिशब्दः पूर्वोक्तलौकिकपक्षं समुच्चिनोति। न पुनरलौकिकस्यैवाश्रयान्तरत्वमसंभावितत्वात्। आश्रयान्तरमाशङ्कमानस्तावदेवं प्रष्टव्यः। आश्रयः किमनुकार्योऽनुकर्त्ता वा। नाद्यः। अतीतत्वात्। न द्वितीयः इत्याह। नटस्येति। अनुकरणमात्रपरतयाभिनयाभिनिविष्टचित्तत्वेन। ननु कदाचिद्रामादितादात्म्यानुसंधानात् सामाजिकत्वमनुभवतो नटस्यानन्दपराधीनस्य कथमभिनयप्रकाशनमत आह। अनुभावादीनामिति। ननु तत्र तत्र रसान्तरसमावेशो न कथं प्रकृतरसभङ्गहेतुरत आह। रसानामिति। अपिशब्दोऽविरोधे2257। किमु वक्तव्यमिति भावः। प्रौढोक्तिसमाश्रयणेनेति। रसानां मिथोविरोधोऽस्तु मा वा। कस्यचिदङ्गित्वाङ्गीकारेणेतरेषां परिपोषाभावान्नास्ति विरोध इति कविसमयाश्रयणादित्यर्थः। तदुक्तं ध्वन्याचार्यैः।
‘अविरोधी विरोधी2258 वा रसोऽङ्गिनि2259 रसान्तरे।
परिपोषं न नेतव्यस्तदा स्यादविरोधिता॥’
इति। न केवलमविरोधः प्रत्युत तथाविधे विषये सहृदयानां प्रह्लादातिशय एवेत्यपि तत्रैवोकम्।
‘शृङ्गारबीभत्सरसौ तथा वीरभयानकौ।
रौद्राद्भुतौ तथा हास्यकरुणौ वैरिणौ मिथः॥’
रसाद्रसोत्पत्तिरपि संमता2260। तथोक्तं2261 शृङ्गारतिलके2262।
‘हास्यो भवति शृङ्गारात् करुणो रौद्रकर्मणः।
अद्भुतश्च तथा वीराद्वीभत्साच्च भयानकः॥’
व्यभिचारिभावानां तत्तद्रसानुगुण्यमेवं प्रतिपादितं शृङ्गारतिलके। तथाहि।
‘शङ्कासूयाभयं2263 ग्लानिर्व्याधिश्चिन्ता स्मृतिर्धृतिः।
औत्सुक्य2264विस्मयावेगा2265 व्रीडोन्मादौ मदस्तथा2266॥
विषादो जडतानिद्रावहित्था चापलं मृतिः।
इति भावाः प्रयोक्तव्याः शृङ्गारे व्यभिचारिणः॥
श्रमश्चपलता निद्रा स्वप्नो ग्लानिस्तथैव च।
शङ्कासूयाबहित्था च हास्ये भावा भवन्त्यमी॥
स्रंत्रासो मरणं दैन्यं ग्लानिश्चैव भयानके।
अपस्मारो विषादश्च भयं रोगो मृतिर्मदः॥
उत्साहश्चेति विज्ञेया भावा बीभत्ससंभवाः।
आवेगो जडता मोहो2267 हर्षणं विस्मयः स्मृतिः॥
इति भावा निबद्धव्या2268 रसज्ञैरद्भुते रसे।
दैन्यं चिन्ता तथा ग्लानिर्निर्वेदो जडता स्मृतिः॥
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एकत्र प्रबन्धे वा वाक्ये वा रसविरोधिक्रमं संमतिव्याजेनाह। शृङ्गारेति। प्रसंगाच्छृङ्गारादिभ्यो हास्यानामुत्पत्तिमाह। रसादिति। अत्र बाह्यार्थसंबन्धस्य यथायोगं सत्त्वरजस्तमोऽहंकारसहितस्य मनसो विकारविशेषाः शृङ्गारादयः। एतेभ्य एव सत्त्वरजस्तमोऽहंकारेषु यथायोगमावापोद्धारसहितेभ्यो हात्यादय उत्पद्यन्त इति नारदादयः। वासुकिनोक्तो विशेषो भावप्रकाशे द्रष्टव्यः।
अथ व्यभिचारिभावानां व्यवस्थामाह। व्यभिचारिभावानामित्यादिना।
व्याधिश्च करुणे वाच्या2269 भावा भावविशारदैः।
हर्षोऽसूया तथा गर्व उत्साहो मद एव च॥
चापल्यमुग्रता चैव2270 रौद्रे भावाः प्रकीर्त्तिताः।
अमर्षः2271 प्रतिबोधश्च वितर्कोऽथ मतिर्धृतिः॥
कोधोऽसूयाथ2272 संमोह आवेगश्चोपहर्षणम्2273।
गर्वो मदस्तथोग्रत्वं भावा वीरे भवन्त्यमी॥
रसः सर्वोऽपि संपूर्णस्तिरोधत्ते रसान्तरम्॥’
इति।
भारतीयोक्तप्रक्रियया यद्यप्येक एव रसस्तथापि महाकविप्रसिद्ध्या रससंकरः2274 स्वीक्रियते।
तत्र रसादेरप्राधान्ये रसवदाद्यलंकारा भवन्ति। रस2275निबन्धे2276 रसवदलंकारः। भावनिबन्धे2276 प्रेयोऽलंकारः। रसाभासभावाभासनिवन्धे2277 ऊर्जस्विदलंकारः2278। भावशान्तिनिबन्धे2279 समाहितमलंकारः2280। तथा भावोदयादयोऽपि।
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अथ रसवदाद्यलंकारविचारमारभते। रस इति। वाक्यार्थत्वेन प्रधानभूत इत्यर्थः। संपूर्णः स्वस्वविभावादिसामग्रीपरिपुष्टः। रसान्तरमङ्गभूतम्। महाकविप्रसिद्ध्येति। अङ्गभूतस्य विश्रान्तिविषयत्वाभावेन रसत्वाभावेऽपि महाकबिभी रसत्वेन व्यवहारादित्यर्थः। वस्तुतस्तु तदानीमलंकारत्वमेव रसादीनामपीति भावः। तदेव विविनक्ति। तत्रेत्यादिना। अत्र रसवदलंकारस्योदाहरणं यथा।
‘अयं स रशनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दनः।
नाभ्यूरुजघनस्पर्शी नीवीविस्रंसनः करः॥’
रणभुवि पतितं भूरिश्रवसो भुजं दृष्ट्वा तत्प्रेयसीनामयं विलापः। अत्राधिकारिकस्य करुणस्याङ्गभूतशृङ्गारोऽलंकारतामापद्यते। एवमन्यदप्युदाहार्यम्।
एतदलंकारसर्वस्वे प्रपञ्चेनोक्तम्।
‘रसभावतदाभासतत्प्रशमननिबन्धने2281 रसवत्प्रेयोर्ज2282स्विसमाहितानि। भावोदयभावशान्ति2283भावसंधिभावशबलताश्च पृथगलंकाराः’ इति।
** एतेषा2284मुदाहरणमलंकारप्रकरणे भविष्यति।**
गुणालंकारश्रीकृतपरिकरो भावविभवः
स्फुरत्प्रादुर्भावः क्रमगलितवेद्यान्तरमतिः।
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अथ प्रतिपत्तिसौकर्यार्थं रसस्वरूपं श्लोकत्रयेण संगृह्णाति। गुणेति। गुणालंकारग्रहणं वृत्तिरीत्यादीनामप्युपलक्षणार्थम्। तेषां श्रिया संपत्त्या कृतपरिकरो विशिष्टकाव्यप्रतिपादितविभावाद्यभिव्यक्त इत्यर्थः। अत एव स्फुरन्नुत्पद्यमानः प्रादुर्भावो रसोन्मुखत्वं यस्य स तथोक्तः। भावविभवो रत्यादिस्थायिभाववर्गः। प्रथमं तावत् काव्याभिनयाभिनिविष्टस्य सामाजिकस्य रसप्रादुर्भावसमये नटे रामादिप्रतीतिदाढ्यमुत्पद्यते2285। ततः सामाजिकानुकार्यहृदययो2286रभेदप्रतीतिः। ततः सामाजिकहृदयं नृत्तगीतादिनानाविधनाट्यधर्मेषु मज्जति2287। ततो वेद्यान्तरमतिर्विगलति। तदानीमलौकिको रसो योगिवेद्यब्रह्मानन्दसदृशः स्वयमेव चर्वणास्पदं भवति। यदाहुः।
‘पाठ्यादयध्रुवागानात् ततः संपूरिते रसे ।
तदास्वादभरैकाग्रो हृष्यत्यन्तर्मुखः क्षणम्॥
ततो निर्विषयस्यास्य स्वरूपावस्थितो निजः।
व्यज्यते ह्लादनिष्यन्दो येन तुष्यन्ति योगिनः॥’
इति। तदेतत् सर्वं मनसि निधायाह। क्रमगलितवेद्यान्तरमतिरिति। इयांस्तु विशेषः। ब्रह्मानन्दानुभवे वेद्यान्तरं किमपि न स्फुरति। रसास्वादे तु विभावादिव्यतिरिक्तवेद्यान्तरनिरास इति। तर्हि विभावादिप्रतीतावखण्डानन्दानुभवः कथमिति चेत् सत्यम्।
‘द्राक्षामधूकखर्जूरकाश्मर्यैः सह रूपकैः
तुल्यांशैः कल्पितं पूतं शीतं कर्पूरवासितम्॥
पानकं पञ्चसाराख्यं दाहतृष्णानिवर्त्तकम्॥’
इत्युक्तलक्षणनानारसकदम्बस्वरूपपानकरसन्यायेनेति ब्रूमः। नन्वानन्दमूले शूङ्गारादावस्तु नाम सुखास्वादः। शोकमूले पुनः करुणे कथमेतदित्याशङ्क्यानु-
सुखं वा दुःखं वा निबिडयतु2288 यूनोः सहृदये
त्वमन्दानन्दात्मा परिणमति पूर्णो रसभरः॥८८॥
रसो वाक्यार्थः सन् विलसति पदार्थाः पुनरमी
विभावाद्या यस्मिन् किल दधति विश्रान्तिमुचिताम्।
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कार्यविषयेयमास्वादवैचित्री न सामाजिकविषयेत्याह। सुखं वेति। अत्रास्य सूत्रस्य शाटकं वयेति न्यायेन भाविनीं वृत्तिमाश्रित्य लौकिको रत्यादिभावः श्लेषभङ्ग्या भावविभावशब्देनोच्यते। अयं यूनोः स्त्रीपुंसयोः सुखं लौकिकं शृङ्गारादौ दुःखं करुणे निबिडयतु दृढं करोतु। येषां काव्यानुशीलनाभ्यासवशाद् विशदीभूते मनोमुकुरे वर्णनीयतन्मयीभवनयोग्यता अत एव हृदयसंवादभाजः सहृदया इत्युक्तलक्षणे सहृदये तु पूर्णः पूर्वोक्तरीत्या विभावादिसमुल्लासितः सन्नित्यर्थः। रसभरस्य2289 पूर्णस्य भारत्वं युक्तमेवेति भावः। अमन्दानन्दात्म ब्रह्मानन्द इव निरतिशयसुखस्वरूपः परिणमति। ननु यद्ययमानन्दात्मकः कथं तर्हि भावकानां करुणात्मककाव्यश्रवणे तथाविधाश्रुधाराविर्भाव इति चेन्नैष दोषः। संभोगसमये स्त्रीणामधरदंशनादौ कृत्रिमदुःखानुभावसीत्कारवदत्राप्युपपत्तेः सुखेऽपि दुःखवदुपचारः कुट्टमितमिति तल्लक्षणात्। यद्यप्यस्यापि सहजदुःखात्मकत्वं स्यान्न कोऽपि सामाजिकस्तत्र प्रवर्त्तेत। ततश्च करुणैकरसानां रामायणादीनामुच्छेदप्रसङ्गः स्यात्। तस्माद्रसान्तरवत् करुणस्यापि आनन्दात्मकमेवेति निरवद्यम्। ननु रसास्वादे विशेषाभावात् कथं नवधा विभाग इति चेत् सत्यम्। यथैकस्य ब्रह्मानन्दस्य चन्द्रकान्तसोपानपङ्किप्रतिविम्बितचन्द्रबिम्बवदुपाधिभेदादनेकधा कल्पनं तद्वदत्रापि व्यञ्जकविभावादिभेदाद्वस्तुत एकस्यापि नानात्वमिति वेदितव्यम्।
अथैवंविधो रसः काव्यादौ केन कारणेन प्रतीयत इत्याकाङ्क्षायामाह। रस इति। वाक्यार्थ इति। कविसंरम्भविश्रान्ते रसस्यैव प्राधान्यादिति भावः। तदुक्तम्।
‘कवेर्विवक्षया यत्र प्राधान्यं परिकल्प्यते।
भवेत् स एव वाक्यार्थ इति निर्णीयते बुधैः॥’
इति। न चास्य पदार्थसंसर्गादिरूपवाक्यार्थवन्मतभेदेन वाच्यत्वं लक्ष्यत्वं वा संभवति। अभिधालक्षणयोरत्रानवकाशात्। तात्पर्यविशेषस्तु व्यञ्जनान्तर्भूत
ततो2290 भावा एक2291क्रमसमुदितान्योन्यविभवा
रसीभावं बिभ्रत्यथ2292 च पटतां तन्तव इव॥८९॥
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एवेति प्रतिपादितं काव्यप्रकरणे। अतोऽयं वाक्यार्थो व्यङ्ग्य एवेति वेदितव्यम्। अमी रसस्य2293 व्यञ्जका विभावाद्याः पुनः पदार्थाः। यद्यपि विभावादीनां स्वस्ववाक्यापेक्षया वाक्यार्थत्वं तदुक्तम्-
‘स्थायी वा सात्त्विको वापि संचारी वा क्वचित् क्वचित्।
भावो वाक्यार्थतामेति तत्तद्भावविशेषतः॥’
इत्यादिना तथापि रसं प्रत्यवान्तरव्यापारत्वात् पदार्थव्यवहारः। एवं च पदार्थस्थानीयभावादिप्रतीत्युत्तरकालीनस्फुरणतया रसो वाक्यार्थस्थानीय इति निष्कर्षः। रसं प्रति विभावादीनामवान्तरव्यापारत्वं निर्वहति। यस्मिन्निति। उचितां विश्रान्तिं दधति कारकज्ञापकभाववैलक्षण्येन व्यञ्जनध्वननचर्वणचमत्कारादिशब्दवाच्यरसगोचरज्ञानविशेषोपयोगित्वं भजन्त इत्यर्थः। अत एवोक्तं लोचने। ‘विभावादिरत्र न ज्ञापको नापि कारकः। अपि तु चर्वणोपयोगी’ इति। अत एवालौकिकत्वम2294स्येति भावः। एतच्चाघटितघटनसूचकेन किलशब्देन द्योत्यते। अत इति। विभावादिविश्रान्तेरित्यर्थः। भावाः स्थायिभावा एव क्रमेणाङ्कुरितकन्दलितपल्लवितत्वादिरूपेण समुदितोऽन्योन्यविभवः स्वस्वपरिपोषो येषां ते क्रमसमुदितान्योन्यविभवाः। यद्यप्यन्योन्यशब्दः कर्मव्यतीहारे द्विर्भावितस्तथाप्यौचित्यादुक्तार्थे योजनीयः। अथ च विभावादिसंनिधानान्तरमेवेत्यर्थः। चोऽवधारणे। अनेन व्यङ्ग्यव्यञ्जकयो रसविभावाद्योरस्त्येव क्रमः। किं तु शतपत्रपत्रशतव्यतिभेदवदाशुभावित्वान्न संलक्ष्यत इति सूचितं भवतीति भावः। बिभ्रति पूर्वं वासनामात्रावस्थायिनः स्थायिनो विभावादिमहिम्ना रसात्मना परिणमन्ति रसादिशब्दप्रतिपाद्यत्वं च भजन्त इत्यर्थः। तत्र दृष्टान्तमाह। पटतां तन्तव इति। तदुक्तम्।
‘यथा हि तन्तवो वेमतुर्यादिक्रिययान्विताः।
पटात्मना परिणता पटवाच्या भवन्ति ते॥
तथैव स्थायिनो भावा विभावादिभिरन्विताः।
रसात्मना परिणता रसवाच्या भवन्ति ते॥’
इति।
भावे स्थायिनि वर्धमानविभवे रत्यादिके सिंधुवत्
कल्लोला इव संभवन्ति विलयं चायान्ति भावा मुहुः।
निर्वेदाद्युपभोगभावितनिजास्वादातिरेको रसो
लोके स्यादनुकार्य एव कथितो नाट्ये तु सामाजिके॥९०॥
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अथ निर्वेदादीनां रसपोषकाणामवस्थानक्रममभिदधानः प्रतिपत्तिदार्ढ्यार्थेपूर्वोक्तमेव रसस्याश्रयं स्मारयति। भाव इति। वर्धमानविभवे विभावादिभिरिति भावः। यथार्णवे कल्लोला उत्पद्यन्ते विलीयन्ते च तद्वद्रत्यादिस्थायिभावे निर्वेदादयो निमज्जन्त्युन्मज्जन्ति चेति भावः। तदुक्तम्।
‘मजन्तश्च निमज्जन्तः कल्लोलास्ते यथार्णवे।
तस्योत्कर्षं वितन्वन्ति यान्ति तद्रूपतामपि॥
तथा स्थायिनि निर्मग्ना ह्युन्मग्ना व्यभिचारिणः।
पुष्णन्ति स्थायिनः स्वांश्च तन्नयन्ति रसात्मताम्॥’
इति। ततः किमत आह। निर्वेदेति। निर्वेदादीनामुपभोगेन चर्वणया भावित उत्पादितः निजः स्वगोचर इत्यर्थः। स्वस्मादभिन्नस्यापि स्वरूपस्य स्वेनैव विषयीकरणसंभवात्। यथाहुः। ‘आत्मानमात्मन्यवलोकयन्तम्’ इति। तथाभूतः स्वादातिरेकोऽलौकिकचमत्कारात्मा यस्य स तयोक्तः सन् रसोऽखण्डानन्दात्मको भवति। अयं च लोके स्यात् लौकिकश्चेदित्यर्थः। अनुकार्ये रामादावेव नान्यत्र। नाट्ये तु अलौकिकश्चेदित्यर्थः। सामाजिके कथित इति। अत्र रसो नायकाश्रय एवेत्यत्रेति शेषः। अत एवोक्तं लोचने। ‘स च न व्यतिरिक्तमाधारमपेक्षते2295 किं त्वनुकार्याभिन्नाभिमते नर्त्तके आस्वादयिता सामाजिकः तेन नाट्य एव रसा नानुकार्यादिषु’ इति। उक्तं च शारदातनयेन।
‘व्यापारेण च काव्यस्य तदीयाभिनयेन च।
रसात्मत्वं नीयमानः स्थायी स्वाद्यत्व2296मेष्यति॥
सामाजिकादिरेवास्य रसत्याश्रय उच्यते।
रसस्य वर्त्तमानत्वात् नानुकार्यस्य संभवः॥
अनुकार्यस्य रामादेः कालातिक्रमदर्शनात्।
नातिक्रान्तानुकार्यस्य रसोद्भावनया कविः॥
बध्नाति काव्यं यत् तस्माद्रसः सामाजिकाश्रयः॥’
इति श्रीविद्यानाथकृतौ प्रतापरुद्रयशोभूषणेऽलंकारशास्त्रे रसप्रकरणं समाप्तम्।
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इति। केचिदेतत् सामाजिकाश्रयत्वमारोपितं न तु मुख्यमित्याहुः। तदुक्तं महोपाध्यायनरहरिसूरिणा। ‘एवं सामाजिकसमवेततां रसस्याङ्गीकृत्यालौकिकता वर्णिता। परमार्थतः पुनः परिपूर्णाखण्डैकरसानन्दरूपपरमेश्वरपर्यायस्यास्य रसस्याधिकारचिन्ता कुतो वा। न सत्यानन्तानन्दात्मके ब्रह्मण्यपि पदमासादयेदिति विचारचतुरैरनादिकविभिरनाधारो रसः सामाजिकैः परं चर्व्यते विभावादिभिः परं व्यज्यते। योगिगम्यत्वमात्रेणेश्वरस्य योगिमनोनिवाससंवादवत् सामाजिकाधिकरणत्वारोपोऽपि सह्यत’ इत्यादिभिर्युक्तिभिः प्रतिपादितम्। अनधिकरणत्वमेव सिद्धान्तः। अत एवायं ब्रह्मानन्द एव। इयांस्तु विशेषः। ब्रह्मानन्दो योगगम्यः। अयं तु विभावाद्यनुसंधानगम्य इति। इदमपि तेनैवोक्तम्। ‘सर्वत्रैकैवानन्दव्यक्तिर्लौकिकं सुखमिति व्यवह्रियते। अलौकिकविभावाद्यभिव्यक्त्या कविसमयप्रसिद्ध्यनुसारादलौकिको रस इति कथ्यते। नानाविधविमलकर्मनिर्मलान्तःकरणेषु शमदमादिसाधनसंपन्नेषु श्रवणमनननिदिध्यासनपरेषु परमयोगिषु निर्विकल्पकसमाध्यभिव्यक्त्या ब्रह्मेति परमात्मेतीश्वर इति शब्द्यत’ इति। उक्तं च स्वात्मयोगप्रदीपे।
‘या स्थायिभावरतिरेव निमित्तभेदा-
च्छृङ्गारमुख्यनवनाट्यरसीभवन्ती।
सामाजिकान् सहृदयान्नटनायकादी-
नानन्दयेत् सहजपूर्णरसोऽस्मि सोऽहम्॥’
इति संक्षेपः।
इति पदवाक्यप्रमाणपारावारपारीणश्रीमहोपाध्यायकोलचल-
मल्लिनाथसूरिसूनुना विश्वजनीनविद्यस्य विद्वन्मणेः
पेद्दयार्यस्यानुजेन कुमारस्वामिसोमपीथिना
विरचिते प्रतापरुद्रीयव्याध्याने रत्नाप-
णाख्याने रसनिरूपणं नाम
चतुर्थं प्रकरणम्॥
अथ दोषप्रकरणम्।
अथ काव्यजीवितभूतरस2297निरूपणानन्तरं तदुपस्कारहेतूनां2298 गुणानां2299 सम्यग्विवेकाय दोषा निरूप्यन्ते।
दोषः काव्यापकर्षस्य हेतुः शब्दार्थगोचरः।
शब्दार्थमयत्वात् काव्यस्य तदपकर्षहेतुनामपि दोषाणां2300 शब्दगतत्वे नार्थगतत्वेन च द्वैविध्यम्। शब्दगतानामपि पदवाक्यगतत्वेन च द्वैविध्यम्। तत्र पदगतदोषाः2301 कथ्यन्ते2302।
अप्रयुक्तमपुष्टार्थमसमर्थं निरर्थकम्।
नेयार्थं च्युतसंस्कारं संदिग्धं चाप्रयोजकम्॥
क्लिष्टं गूढार्थकं ग्राम्यमन्यार्थं चाप्रतीतिकम्।
अविमृष्टविधेयांशं विरुद्धमतिकृत् तथा॥
अश्लीलं परुषं चेति दोषाः सप्तदश स्मृताः।
एषां स्वरूपं निरूप्यते।
यदप्रयुक्तं कविभिरप्रयुक्तं तदुच्यते।
प्रकृतानुपयुक्तार्थमपुष्टार्थं तदुच्यते॥
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रसनिरूपणानन्तरं तदुपस्कारहेतुभूतगुणालंकारनिरूपणे प्रसक्तेऽपि तदुल्लङ्घ्यमध्ये दोषनिरूपणं संगमयन् प्रतिजानीते। अथेति। गुणानामित्यलंकाराणामप्युपलक्षणम्। सम्यगिति। अन्यथा विवेकमात्रस्य प्ररूढत्वाभावादिति2303 भावः। तत्र2304 दोषसामान्यलक्षणमाह। दोष इति। रसापकर्षद्वारा काव्यापकर्षहेतुर्दोष इत्यर्थः। अत एवोक्तं काव्यप्रकाशे। ‘मुख्यार्थनिहतिर्दोषः’—इत्यादिना। शब्दार्थगोचर इत्येतद्विभागपरम्।
अत्र रसादिप्रतीतेर्विभावाद्यर्थमूलत्वाद् विभावादेश्च वाक्याधीनत्वात् वाक्यानां च पदार्थलब्धत्वात्2305 प्रथमभावितया तेषां तद् दोषनिरूपणं प्रतिजानीते। तत्र पदगतदोषा इति।
यथोद्देशमेतेषां लक्षणमाह। यदप्रयुक्तमित्यादिना। अभिधानादावाम्नात-
योगमात्रप्रयुक्तं यदसमर्थं तदुच्यते।
पादपूरणमात्रं2306 यत्तन्निरर्थकमुच्यते॥
स्वसंकेतप्रसिद्धार्थं2307 नेयार्थं परिकीर्त्त्यते।
शब्दशास्त्रविरुद्धं यच्च्युतसंस्कारमुच्यते2308॥
संदिग्धं तन्मतं यत्2309 स्यात् संदिग्धार्थप्रतीतिकृत्।
तदप्रयोजकं यत् स्यादविशेषविधायकम्॥
क्लिष्टं तदर्थावगतिर्दुरदूरायतो भवेत्।
प्रयुक्तमप्रसिद्धार्थे गूढार्थं परिकीर्त्त्यते॥
पामर2310व्यवहारैकप्रसिद्धं ग्राम्यमुच्यते।
यद्रूढिप्रच्युतं2311 नाम तदन्यार्थमुदाहृतम्॥
शास्त्रमात्रप्रसिद्धं2312 यदप्रतीतिकमुच्यते2313।
अविमृष्टविधेयांशं गुणीभूतविधेयकम्॥
विपरीतार्थधीर्यस्माद्विरुद्धमतिकृन्मतम्।
अश्लीलं यदमाङ्गल्य2314जुगुप्सातव्रीडधीकरम्॥
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मपि कविभिरनादृतमप्रयुक्तमित्यर्थः। योगमात्रप्रसिद्धंशास्त्रमात्र2315प्रसिद्धमित्यर्थः। मात्रशब्देन वाचकशक्तिविरहः प्रतिपाद्यते। स्वसंकेतप्रसिद्धार्थमिति। संकेतमात्राधीनार्थमित्यर्थः। च्युतः2316 संस्कारो व्याकरणकृतो यस्मात्तत् च्युतसंस्कारम्। विशेषविधायकं न भवतीत्यविशेषविधायकम्। दूरदूरा अतिदूरा व्यवहितेत्यर्थः। अप्रयुक्तमिति। यदुभयार्थं सदप्रसिद्धार्थे2317 प्रयुक्तं तद्रूढार्थमित्यर्थः। एतदेव निहतार्थमिति केचित्। रूढेः प्रसिद्धेः प्रच्युतं रूढिप्रच्युतम्। अन्यार्थमवाचकमित्यपरे। अविमृष्टः प्राधान्येनानिर्दिष्टो विधेयांशो यत्र तदविमृष्टविधेयांशम्। तदेवाह। गुणीभूतविधेयकमिति।
परुषं नाम तद्यत् स्याद्विहितं परुषाक्षरैः।
अत्र वन्यवृत्तीनां2318 शत्रुस्त्रीणां वचनेषु दोषा उदाहियन्ते।
अप्रयुक्तं यथा।
विमुखा दैवताः सर्वे2319 ते नो दुश्च्यवनादयः।
अरण्यगृहमेधिन्यो यैर्वयं हन्त कल्पिताः॥१॥
अत्र दैवता2320 इति पुल्लिङ्गप्रयोगः दुश्च्यवन इति चेन्द्रपरत्वेन कविभिर्न प्रयुक्तम्2321।
अपुष्टार्थं यथा।
व्यर्थाष्टार्धार्धबाहूनाममीषामीदृशां2322 दशाम्।
कथं2323 सहामहे धिग्धिक् कठिनं हन्त जीवितम्2324॥२॥
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यथायोगमुदाहरति। विमुखा इति। दैवता इति। ‘वृन्दारका दैवतानि पुंसि वा देवता’ इत्यमरः। दुःसहः च्यवनो मुनिरस्येति दुश्च्यवनः इन्द्रः। गृहेण पत्न्या गृहैर्वा मेधन्ते संगच्छन्त इति गृहमेधिनः गृहस्थाः तत्पत्न्यो गृहमेधिन्यः। ‘गृहं पत्न्यां गृहेऽपि च’ इति हलायुधः। मेधृ2325 संगमे चेत्यस्माद्धातोर्णिनिप्रत्ययः। अत्र दैवतदुश्च्यवनशब्दयोर्यथाक्रमं लिङ्गानुशासनशब्दानुशासनाम्नातयोरपि कवीनामनादराद् दुष्टत्वमित्याह। अत्रेति। एकैकोदाहरणविवक्षायां पददोषद्वयमेतत्। समुदायविवक्षायां तु वाक्यदोषोऽयम्। विरोधिनो दुश्च्यवनादिदैवता इत्युक्ते समासदोषः। अप्रयुक्तादीनां त्रैविध्यस्यापि काव्यप्रकाशकारादिभिरङ्गीकृतत्वादिति द्रष्टव्यम्। एवमुत्तरत्रापि यथासंभवमूहनीयम्।
व्यर्थेति। अष्टार्धार्धंद्वयं तद्विशिष्टा बाहवस्तथोक्ता इति मध्यमपद2326लोपी समासः। जीवितमिति धिक्शब्दयोगे द्वितीया। तस्य ‘नित्यवीप्सयोः’ इत्या-
अत्र व्यर्थवाहुद्वयानामिति विवक्षितेऽष्टार्धार्धबाहूनामित्यनुपयुक्तम्। एतदेवाविसृष्टविधेयांशस्योदाहरणम्2327। बाहुद्वयस्य वैयर्थ्ये विधेये तस्योपसर्जनत्वं प्रतीयते।
असमर्थं यथा।
विहाय वसुधामेनां चतुरम्बुधरावृताम्।
क्व नु गन्तव्यमस्माकं2328 मरणेऽप्यसुखा स्थितिः॥३॥
अत्र जलनिधिपर2329त्वेनाम्बुधरपदमसमर्थम्।
अनर्थकनेयार्थ2330च्युतसंस्कारसंदिग्धानि यथा।
विहाय च गृहांस्तान् वै व्यत्यस्तनववृत्तयः।
कदा भविष्यते वासः कटकेषु महीभृताम्॥४॥
अत्र वै इति निरर्थकम्। व्यत्यस्तनवशब्देन वनप्रतीतिः स्वसंकेतमात्रायत्तेति नेयार्थकम्। भविष्यते इति भवतेरात्मनेपदित्वं शब्दशास्त्र-
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भीक्ष्ण्ये द्विर्भावः। प्रकृतानुपयुक्ततां दर्शयति। अत्रेति। उदाहरणलाघवमाह। एतदेवेति। व्यर्थबाहुद्वयानामितीदमेवेत्यर्थः। अत्र दुर्दशाप्रस्तावे बाहूद्देशेन विधेयस्य वैयर्थ्यस्यान्यपदार्थप्रधानबहुव्रीहिबर्त्तिपदार्थत्वेन गुणीभावादधिमृष्टविधेयांशाख्यो दोष इत्यर्थः।
विहायेति। अत्राम्बुधरशब्दस्य समुद्रे शास्त्रप्रसिद्धिरेव न तु वाचकशक्तिः। अतोऽसमर्थत्वमित्याह। अत्रेति।
लाघवार्थमनर्थकादिचतुष्टयमेकेन श्लोकेनोदाहरति। विहाय चेति। अत्र वैशब्दद्योत्यस्य कस्यचिदप्यर्थस्यान्वयाभावात् पादपूरणमात्रप्रयोजकत्वेन निरर्थको वैशब्द इत्याह। अत्र वै इतीति। अत्र वाक्यसन्धेर्वैकल्पिकत्वादायादेशाभावः। यमकेषु निरर्थकं न दोष इत्युक्तं हेमचन्द्रेण। व्यत्यस्तनवेत्यत्र वर्णव्यत्यासेन वनप्रतीतिर्लक्षणयेति वक्तव्यम्। तस्यां च कुशलादिवन्न रुढिर्निमित्तम्। नापि गङ्गायां घोष इत्यादिवत् प्रयोजनं किं तु स्वसंकेतमात्रमतस्तत्राशक्तेयं लक्षणोपेक्षणीया।
‘निरूढा लक्षणाः काश्चित् सामर्थ्याभिधानवत्।
क्रियन्ते साम्प्रतं काश्चित् काश्चिन्नैव त्वशक्तितः॥’
इत्याचार्यैस्तस्या निषिद्धत्वात्। अतो नेयार्थमेतदित्याशयेनाह। व्यत्यस्तनवशब्देन वनप्रतीतिः ससंकेतमात्रायत्तेति। प्राप्त्यर्थस्यैव भवतेरात्मनेपदित्वं न सत्तार्थस्येति वैयाकरणाः। अतोऽस्य च्युतसंस्कारत्वमित्याह। भविष्यत इति।
विरुद्धमिति च्युतसंस्कृतिः2331। महीभृतां कटकेषु वास इत्यनेन राज्ञां सैन्येषु2332 वास उत पर्वतानां नितम्बेष्विति संदेहात् संदिग्धम्।
अप्रयोजकक्लिष्टे यथा।
हन्त वर्त्तामहे वज्रघटनात् प्राक् चलात्मसु।
नभस्वदशनारातिध्वजाग्रजविरोधिषु॥५॥
अत्र2333 नभस्वदशनाः सर्पास्तेषामरातिर्गरुडः2334 स एव ध्वजो यस्येति विष्णुस्तस्याग्रज इन्द्रस्तस्य विरोधिषु पर्वतेष्वित्यर्थप्रतीतेरतिदूरत्वात्2335क्लिष्टम्। पर्वतेषु वर्त्तनं दुःखावहमिति प्रकृते वज्रघटनात् प्राक् चलात्मस्विति पर्वतविशेषणस्यानुपयुक्तत्वादप्रयोजकम्।
गूढार्थग्राम्यान्यार्थानि यथा।
शोणिताब्जदृशः कामं क्षामगल्लकटिस्थलाः।
विदग्धहृदयाः शोकवह्निना राजकन्यकाः॥६॥
अत्र शोणितशब्दस्य रुधिरे प्रसिद्धस्य पाटलवर्णपरत्वेन प्रयोगाद्रूढार्थम्2336। गल्ल2337कटि2338शब्दौ कपोलजघनपरत्वेन ग्राम्यप्रयुक्तौ। विदग्धहृदया इति विशेषणं दग्धहृदयस्यावाचक2339त्वादन्यार्थम्
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संदिग्धमभिनीय दर्शयति। महीभृतामिति। अत्र भृञः पालनधारणार्थत्वानुशासनम्। ‘कटकं वलयं सानौ राजधानीनितम्बयोः’ इत्यभिधानं च संदेहबीजमिति भावः।
हन्तेति। व्युत्क्रमेण लक्षणं योजयति। अत्रेत्यादिना।
शाणितेति। ग्राम्यप्रयुक्तौ पामरव्यवहारमात्रप्रसिद्धावित्यर्थः। विपूर्वस्य दग्धशब्दस्य निपुणार्थत्वाद्दाहं प्रत्यवाचकत्वादन्यार्थमित्याह। विदग्धेति।
अप्रतीतिकं यथा।
मनूपदेशाः क्व गताः कुलाचार्यैरुदीरिताः।
अत्र मनुशब्दो मन्त्रपरत्वेन मन्त्रशास्त्रप्रसिद्ध इत्यप्रतीतिकम्।
** विरुद्धमतिकृद्यथा।**
अम्बिकारमणस्याङ्घ्रिसेवा व्यर्था2340 भवेत्2341 कथम्।
राज्ञामकार्यमित्राणां विनाशं समुपेयुषाम्॥७॥
अत्राम्बिकारमणशब्दान्मातृसंभोगकारिणः प्रतीतिः2342। अकार्यमित्रशब्दादकार्येषु मित्राणीति प्रतीतिः। वियोगदुःख2343परतया प्रयुक्ताद्वि2344 नाशशब्दान्नाशप्रतीतिरिति विरुद्धमतिकृत्।
अमङ्गलव्रीडाजुगुप्साप्रतीतिकरं त्रिविधमश्लीलं
यथा।
अभिप्रेतपदावासः कदा नः संभविष्यति।
नीचं साधनमेतेषां परोत्सर्गैकजीविनाम्॥८॥
अत्रा2345भिप्रेतपदावासशब्दात् प्रेतलोकपदा2346वासप्रतीतेरमङ्गलत्वम्2347। नीचं2348 साधनमित्यनेन तुच्छमेहनप्रतीतेर्व्रीडाकरत्वम्। परोत्सर्गैकजीविनामित्यत्रोत्सर्गशब्दादधोवा2349युप्रतीतेर्जुगुप्साकरत्वम्।
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अप्रतीतिकमुदाहरति। मनूपदेशा इति। यथा लोकमात्रप्रसिद्धं ग्राम्यं तथा शास्त्रमात्रप्रसिद्धमप्रतीतिकमित्यर्थः। कुलाचार्यैरित्यनेन संप्रदायशुद्धिः सूच्यते।
अम्बिकारमणस्येति। विनाशं वियोगदुःखमित्यर्थः। लक्ष्ये लक्षणं योजयति। अत्रेत्यादिना। कार्यं विना मित्राणि निरुपाधिकबन्धव इति विवक्षितेऽकार्येष्वनुचितकर्मसु मित्राणीति विरुद्धमतिकृदित्याह। अकार्येति।
अभिप्रेतेति। अभिप्रेतपदमिष्टस्थानम्। एतेषां स्वभर्तॄणाम्। नीचसाधनमल्पसैन्यम्। सहायसंपत्तिर्नास्तीत्यर्थः। ‘साधनं निर्वृत्तौ मदे सैन्ये सिद्धौषधे गतौ’ इति विश्वः। परोत्सर्गः परकर्तृकत्यागः। ‘उत्सर्गो वर्जने त्यागे’ इति विश्वः। त्रिविधमश्लीलं योजयति। अभिप्रेतेत्यादिना।
परुषं यथा।
कुतः कान्तारवृत्तीनां कार्त्तार्थ्यार्थित्वमस्ति2350 नः।
अत्र कार्त्तार्थ्यार्थित्वमिति परुषवर्णारब्धत्वम्।
अथ वाक्यदोषाः।
शब्दहीनं क्रमभ्रष्टं विसंधि पुनरुक्तिमत्।
व्याकीर्णं वाक्यसंकीर्णमपूर्णं वाक्यगर्भितम्॥
द्वे भिन्नलिङ्गवचने द्वे च न्यूनाधिकोपमे।
भग्नच्छन्दो यतिभ्रष्टमशरीरमरीतिकम्॥
विसर्गलुप्तमस्थानसमासं वाच्यवर्जितम्।
समाप्तपुनरात्तं च तथा संबन्धवर्जितम्॥
पतत्प्रकर्षमधिकपदं प्रक्रमभङ्गवत्।
चतुर्विंशतिरुच्यन्ते दोषा वाक्यसमाश्रिताः॥
एषां स्वरूपमुदाहरणं च।
शब्दशास्त्रहतं वाक्यं शब्दहीनं प्रकीर्त्त्यते2351।
यथा शत्रुवाक्येषु
न संशृणुमहे हन्त हितमाप्तैर्निमन्त्रितम्।
येन काकतिभूभर्त्तुः सेवां हित्वा हता वयम्॥९॥
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कुतः इति। कार्त्तार्थ्यार्थित्वं धन्यताभिलाषित्वम्। परुषैः करुणरसाननुगुणत्वेन श्रुतिकटुभिर्वर्णैः सरेफद्वितीयसंयोगादिभिरारब्धमित्यर्थः।
पददोषानन्तरं वाक्यदोषानुद्देशपूर्वकं लक्षणोदाहरणाभ्यां दर्शयति। अथेत्यादिना।
नेति। आप्तैर्निमन्त्रितमुपदिष्टं हितं न संशृणुमहे न समश्रौष्मेति वर्त्तमानसामीप्ये वर्त्तमानप्रत्ययेन हिताश्रवणराज्यभ्रंशयोरविरामः सूच्यते। ननु च्युतसंस्कारस्यैव शब्दहीनमिति संज्ञान्तरं न पुनः पृथग्दोषः। वाक्यगतत्वेन पार्थक्यस्य काव्यप्रकाशकारेण पदद्वये युगपदसाधुत्वासंभवेन परिहृतत्वादिति चेत्सत्यम्। यद्यप्येकपदमेवासाधु तथापि तदसाधुत्वं पदान्तरसमन्वयसापेक्षमिति वाक्यदोष एवायं न पददोषः किं तु कदा भविष्यते वास इत्यत्रापि पदान्तर-
अत्र हितं न संशृणुमहे इति पदद्वय2352प्रयोगे दोषाविष्काराद्वाक्यमेव दुष्टमिति न पददोषशङ्का। संपूर्वस्य शृणोतेरात्मनेपदत्वे2353 कर्मणोऽनुपादाननियमात्।
अथ क्रमभ्रष्टम्।
क्रमभ्रष्टं भवेदार्थः2354 शाब्दो2355 वा यत्र न2356 क्रमः।
यथा।
प्रभवे काकतीन्द्राय तुरगान् करिणो2357 यथा।
उपायनमकुर्वाणा2358 वयं दैवेन वञ्चिताः॥१०॥
अत्र करिणो यद्वा तुरगानिति वक्तव्ये व्युत्क्रमेणोक्तम्। तुरगापेक्षया करिणामुत्कृष्टत्वात्2359। अथवा2360 करिण इत्यर्थक्रमभङ्गः2361।
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संनिधानादेव दोषत्वावगमाद्वाक्यदोषत्वमेव केवलं भविष्यतेशब्दस्य लृटः शत्रादेशे चतुर्थ्येकवचने सत्यसाधुत्वासंभवादिति चेत् सत्यम्। वाक्यस्यैवात्र प्रयोगयोग्यत्वादावश्यकपदान्तरसंनिधाने यत्र वाक्यमात्रनिर्वाहस्तत्र पददोषः। यत्र पदान्तरविशेषसहकृतस्यैवासाधुत्वं यथा प्रकृते तत्र वाक्यदोषः। अन्यथा पददोषस्यैवाभावप्रसङ्गादिति तदेतत् सर्वं मनसि निधायाह। अत्र हितमित्यादि। आत्मनेपदित्व इति ‘समो गम्यृच्छि–’ इत्यादिनेति शेषः। कर्मणोऽनुपादाननियमादिति। अकर्मकाधिकारादिति शेषः। न च कर्माकाङ्क्षस्य शृणोतेः कथमकर्मकत्वमिति वाच्यम्। अविवक्षितकर्मकस्यैवात्राकर्मकत्वात्। तदुक्तम्।
‘धातोरर्थान्तरे वृत्तेर्धात्वर्थेनोपसंग्रहात्।
प्रसिद्धेरविवक्षातः कर्मणोऽकर्मिका क्रिया॥’ इति।
क्रमभ्रष्टमिति। तत्रार्थक्रमभ्रष्टमुदाहरति। प्रभव इति। लक्ष्ये लक्षणं योजयति। अत्रेति। दुर्लभत्वात् करिणां सुलभत्वाच्च तुरगाणामिति2362। ननु यवाग्वाग्निहोत्रं जुहोति यवागूं पचतीत्यत्र पाठक्रमानुपपत्तावर्थक्रमो यथा स्वीकृतस्तद्वदत्रापि यथायोगमन्वयोऽङ्गीक्रियतामिति चेत् सत्यम्। अपौरुषेये वेदवाक्ये यथा तथा वास्तु पुंवाक्ये तु श्रवणानन्तरमेव प्रयोक्तुस्तारतम्यानभिज्ञत्वप्रतीतेरन्वयविलम्बासहिष्णुत्वाद् दुष्टत्वमेवेत्यनवद्यम्।
शब्दक्रमभङ्गो यथा।
का नाम गणनास्मासु काकतीयस्य भूपतेः।
यशःप्रतापयोर्मग्नौ सूर्याचन्द्रमसावपि॥११॥
अत्र यशःप्रतापयोश्चन्द्रसूर्यौ मग्नाविति शब्दक्रमे उचिते तथा नोक्तम्। यशःप्रतापयोः सूर्याचन्द्रमसौ मग्नाविति समुदायद्वयान्वये यथायोगमर्थान्वये सिद्धे नार्थक्रमविरोधः अपि तु शब्दप्रयोग एव क्रमभङ्गः।
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शाब्दं क्रमभङ्गमुदाहरति। का नामेति। सूर्याचन्द्रमसाविति ‘देवताद्वन्द्वे च’ इत्यानङ्गादेशः। तत्र लोकवेदयोरितिप्रसिद्धसाहचर्याणामेव देवतावाचिनां द्वन्द्वस्य विवक्षितत्वान्न चन्द्रसूर्यावित्यत्रानङ्गादेशः। व्युत्क्रममभिव्यक्तुमुचितक्रमानुक्तिमभिनीय दर्शयति। अत्रेति। आद्यभेदसाङ्कर्यं परिहरति। यश इति। यशःप्रतापयोरित्येकःसमुदायः। सूर्याचन्द्रमसावित्यपरः। तदेतत् समुदायद्वयमुद्भूतावयवभेदम्। अन्यथा द्विवचनानुपपत्तेः। तस्यान्वये सतीति शेषः। यथायोग्यमर्थान्वये नार्थक्रमविरोध इति। अभिधानक्रमेणाभिधेयक्रमौचित्येऽपि कविसमयसिद्धोपमानोपमेयभावानुसारेण वर्त्तिपदार्थानां कीर्त्तिप्रभृतीनां व्युत्क्रमेणापि संबन्धेऽनन्तरोदाहरणवत् बाधकाभावात् नार्थक्रमभङ्ग इत्यर्थः। कुत्र तर्हि क्रमभङ्ग इत्याकाङ्क्षायामाह। अपि तु शब्दप्रयोग एवेति। यथासंख्यन्यायोल्लङ्घनादिति भावः। ननु द्वन्द्वसमासे वर्त्तिपदानि प्रत्येकं स्वसहचरितपदार्थान्तराण्यपि युगपदभिदधतीति वार्त्तिककारमतम्। तदुक्तम्। ‘युगपदधिकरणवचने द्वन्द्वः’ इति। तन्मते यशःशब्देनापि युगपद्यशःप्रतापावभिधीयेते प्रतापशब्देनापि। एवं सूर्याचन्द्रमसावित्यत्रापि द्रष्टव्यम्। तथा च मिथोऽन्वये शाब्दोऽपि क्रमभङ्गो न संभवतीति चेन्नैष दोषः। सर्वदा केवलपदानामेकैकार्थवाचकत्वाद्वर्त्तिपदानामपि मतभेदेन तथाभावात् प्रायेण सर्वेषामप्येवमेव व्युत्पत्तिः। अत्राप्यलौकिकानेकार्थवाचकत्वनिबन्धनमक्रमं बाधित्वा क्रमस्यैव जागरूकत्वात्। यदाह पदमञ्जरीकारः। ‘पाघ्राध्मेत्यादौ युगपदधिकरणवचनतायां द्वन्द्वेऽपि क्रमस्य प्रतीतेः स एव नियामकः’ इति।
अथ विसन्धि।
विसंहितो विरूपो वा यस्य संधिर्विसंधि तत्॥
यथा।
शौर्याणि ईदृशान्यासन् पृथ्वैश्वर्यं क्व वा गतम्॥
अत्र शौर्याणि ईदृशानीति विसन्धि। पृथ्वैश्वर्यमिति संधिवैरूप्यम्2363।
अथ पुनरुक्तिमत्।
शब्दार्थपौनरुक्त्ये2364 तु तद्वाक्यं पुनरुक्तिमत्।
यथा।
जीर्णकाननसंकीर्णे विन्ध्ये काननवृत्तयः॥
अत्र काननसंकीर्णे काननवृत्तय इति पुनरुक्तिमत्।
अथ व्याकीर्णम्।
व्याकीर्णं तद्विभक्तीनां व्याकीर्णे च2365 मिथोन्वये।
यथा।
सुखार्थिनो2366महीपाला वर्त्तध्वं काकतीशितुः।
आज्ञामुरसि विभ्राणाः शिरसि क्रोडमुद्रिकाम्॥
अत्र क्रोडमुद्रिकामुरसि शिरस्याज्ञां विभ्राणा इति संबन्धः2367।
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विसंहित इति। विगता संहिता वर्णानां परस्परसंनिकर्षो यत्र विसंहितः विश्लिष्ट इत्यर्थः। विरूपः कर्णकठोर इत्यर्थः। शौर्याणि ईदृशानि इत्यत्र सवर्णदीर्घाभावाद् विश्लेषः। न चात्र व्याकरणविरोधः वाक्यसंधेर्वैवक्षिकत्वात्। तदुक्तम्।
‘संहितैकपदे नित्या नित्या धातूपसर्गयोः।
नित्या समासे वाक्ये तु सा विवक्षामपेक्षते॥’ इति।
पुनरुक्तमाह। शब्दार्थपौनरुक्त्ये इति। शब्दमात्रपौनरुक्त्ये त्वलंकारत्वमर्थमात्रपौनरुक्त्ये दोषत्वं वक्ष्यति।
व्याकीर्णमिति। विभक्तीनां विभक्त्यन्तानां पदानामित्यर्थः। संकीर्णपदमेकवाक्ये व्याकीर्णमित्यर्थः। सुखार्थिन इति। क्रोडमुद्रिकां काकतीयध्वजवराहमुद्राम्। दास्यरूपत्वात् तद्धारणस्येति भावः। तदुक्तम्।
अथ वाक्यसंकीर्णम्।
वाक्यान्तरपदैः कीर्ण वाक्यसंकीर्णमुच्यते।
यथा।
मानेन महतास्माभिर्वने वक्त्रेन तिष्ठताम्।
विन्ध्यस्य जीवितं तन्नो जातमद्य तृणं कृतम्॥१३॥
अत्र महता मानेन2368 यत्तृणं वक्रेन कृतं तदद्य विन्ध्यस्य वने तिष्ठता नो जीवितं जातमिति वाक्यद्वयपदानामन्योन्यसंकीर्णता।
अथापूर्णम्।
अपूर्णं तद्भवेद्यत्र न2369 संपूर्णो क्रियान्वयः।
यथा।
शैलेष्वस्माकमावासो वन्यैः2370 सोच्छ्वासिता वयम्।
मृगैर्बन्धुमतश्चास्मान् पश्यन् धाता प्रमोदताम्॥१४॥
अत्र शैलवासान्2371 वन्यवृत्तीन् मृगबान्धवान् पश्यन्निति विवक्षित2372संबन्धो2373 न संपूर्णः।
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‘पद्यमङ्गुलिविच्छेद उरोविन्यस्तमक्षरम्।
तन्नामकरणं चेति दास्यमेतच्चतुष्टयम्॥’ इति
मानेनेति2374। अत्र वाक्यद्वयपदानां मिथः संकीर्णत्वाद्वाक्यसंकीर्णमित्याह। अत्रेति।
शैलेष्विति। वन्यैः कन्दमूलफलादिभिः। सोच्छ्वसिताः सप्राणाः। अत्र बन्धुमतश्चेति चशब्देनास्मदर्थविशेषणतया शैलवासवन्यवृत्ती2375 समुच्चीयेते। तत्र दर्शनक्रियाया अस्मदर्थद्वारा बन्धुमत इत्यनेनैव संबन्धो न शैलवासवन्यवृत्तिभ्यामिति क्रियान्वयापरिपूरणादपूर्णमित्याशयेनाह। अत्रेति।
अथ वाक्यगर्भितम्।
तद्वाक्यगर्भितं यस्य2376 मध्ये वाक्यान्तरं भवेत्।
यथा।
ज्ञात्वाप्यन्ध्रपुरीन्द्रस्य2377 क्रोधाग्निमतिदुःसहम्।
यद्वा न लङ्घ्यते दैवं तस्मिन्निपतिता वयम्॥१५॥
अत्रातिदुःसहं कोधाग्निं ज्ञात्वापि तस्मिन्निपतिता2378 वयमिति वाक्यमध्ये यद्वा न लङ्घ्यते दैवमिति वाक्यान्तरमनुप्रविष्टमिति वाक्यगर्भितत्वम्2379।
अथ भिन्नलिङ्गवचने।
यत्रोपमा भवेद्भिन्नवचना भिन्नलिङ्गका2380।
तद्भिन्नवचनं भिन्नलिङ्गं चाहुर्मनीषिणः॥
द्वयोरुदाहरणं यथा2381।
समुद्रा इव गम्भीरं मनो यादवभूभुजः।
गिरिणेवान्ध्रनृपतिध्वजिन्या2382 कलुषीकृतम्॥१६॥
अत्र समुद्रा इव गम्भीरमिति भिन्नवचनम्। गिरिणेव ध्वजिन्येति भिन्नलिङ्गकम्।
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तदिति। वाक्येन वाक्यान्तरेण गर्भितं संजातगर्भं वाक्यं वाक्यगर्भितमित्यर्थः। उदाहरणं स्पष्टम्। नन्वत्र वाक्यार्थस्यापि वाक्यान्तरगर्भितत्वेनोभयदोषत्वसंभवेऽपि वाक्यार्थप्रतीतावन्तरङ्गत्वेन प्राधान्याद्वाक्यदोषप्रायपाठ इत्यनुसंधेयम्। एवमन्यत्रापि यथासंभवमूह्यम्।
भिन्नलिङ्गभिन्नवचनयोर्लक्षणोदाहरणे2383 दर्शयति।
यत्रेत्यादिना। समुद्रा इव गम्भीरं मन इत्यत्रोपमानोपमेययोर्भिन्नलिङ्गत्वेऽपि मुखं चन्द्र इवेतिवत् सहृदयानामुद्वेगाभावाद् भिन्नवचनस्यैवेदमुदाहरणम्। अत एवोक्तं दण्ड्या2384चार्येण।
‘न भिन्नलिङ्गवचने न च न्यूनाधिके तथा।
उपमादूषणायालं यत्रोद्वेगो न धीमताम्॥’ इति।
तदेतन्मनसि निधायाह। अत्र समुद्रा इव गम्भीरमिति भिन्नवचनमिति।
अथाधिकन्यूनोपमे।
यत्रोपमानमधिकं न्यूनं वा स्याद्विशेषणैः।
तत्रा2385धिकोपमं पूर्वं न्यूनोपममतः परम्॥
यथाक्रममुदाहरणम्2386।
क्षामक्षाममुखाः कान्ताः कानने मालवेशितुः2387।
ग्रीष्मे नद्य इव म्लानपद्मोत्पलबिसाबिलाः॥१७॥
अत्र क्षामक्षाममुखानां2388 कान्तानामुपमानभूतासु नदीषु म्लानपद्मत्वमात्रं2389 वक्तव्यम्। म्लानोत्पल2390बिसाविला इत्यधिकम्2391।
न्यूनोपमं यथा।
हाराङ्गरागसुभगा नगरेषु यथा2392 वयम्।
तथैव2393 निर्झराकीर्णा विभान्ति धरणीभृतः॥१८॥
अत्र हारस्थाने निर्झरा उक्ताः। अङ्गरागस्थाने किमपि नोक्तमिति न्यूनोपमम्2394।
अथ भग्नच्छन्दोयतिभ्रष्टे।
छन्दोभग्नं वचो यत्र तद्भग्नच्छन्द उच्यते।
यत्र स्थाने यतिभ्रंशस्तद्यतिभ्रष्टमुच्यते॥
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यत्रेति। अत्रोपमाशब्दः करणव्युत्पत्त्योपमानवाची2395। तेनाधिकविशेषणोपमानमधिकोपमं न्यूनविशेषणोपमानं न्यूनोपमम्। तेन साधारणधर्माधिक्येऽधिकोपमं तन्न्यूनत्वे न्यूनोपममिति फलितम्। उभयोदाहरणं सुगमम्।
छन्दोभग्नमिति। भग्नं छन्दो वृत्तं यस्मिन् तच्छन्दोभग्नम्। यतिविच्छेद इति च्छान्दसाः। भ्रष्टा यतिर्यत्र तद्यतिभ्रष्टम्। उभयत्र ‘वाहिताभ्यादिषु’
यथा।
विन्ध्यारण्यकृतकुटुम्बरक्षणस्य
किं भद्रं भवति जनस्य मादृशस्य॥
अत्र विन्ध्यारण्येति तृतीयवर्णे2396 यतिभङ्गः। पादान्तवर्णस्य2397 गुरुत्वाभावाच्छन्दोभङ्गः।
अथाशरीरम्।
क्रियापदेन रहितमशरीरं प्रकीर्त्त्यते।
यथा ।
हन्त निष्करुणो धाता क्रीडितो मणिकुट्टिमे।
कानने कण्टकाकीर्णे स्थितान् पाण्ड्यशिशूनमृन्2398॥१९॥
अत्र क्रियापदं न विहितम्2399। एतदेवानन्वयाख्यं दूषणम्2400।
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इति परनिपातः। विन्ध्यारण्येति तृतीयवर्णे यतिभङ्ग इति। प्रहर्षिणीवृत्ते तृतीयदशमवर्णयोर्विच्छेदो विहितः। तदुक्तं वृत्तरत्नाकरे।
‘म्नौ ज्रौ गस्त्रिदशयतिः प्रहर्षिणीयम्।’ इति।
तत्र तृतीयवर्णे तदभावाद्यतिभ्रष्टं पादान्तवर्णस्य गुरुत्वाभावाच्छन्दोभङ्गश्चः। ननु क्वचिदवसानेऽपि लध्व्यन्त्यमिति वचनेन पादान्त्यलघोर्विकल्पेन गुरुत्वविधानादत्रापि गुरुत्वाङ्गीकारे न च्छन्दोभङ्ग इति चेत् सत्यम्। यत्रेन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रादौ पादान्तवर्णस्य लाक्षणिकगुरुत्वेऽपि श्राव्य2401भङ्गाभावस्तत्र मा भूच्छन्दोभङ्गः। प्रहर्षिणीवैतालीयवसन्ततिलकादौ तु वैपरीत्यादस्त्येव दोष इति प्राचीनाः।
क्रियापदेनेति। हन्तेत्यनुकम्पायाम्। पाण्ड्यशिशुनिति दर्शनक्रियापेक्षया कर्मणि द्वितीया। अत्र दर्शनक्रियानुपादानात्। आख्यातं साब्ययकारकविशेषणं वाक्यमिति वाक्यलक्षणाभावेन वाक्यत्वस्यैवाभावादशरीरं नाम दोष इत्याशयेनाह। अत्रेति। क्रियापदराहित्येनान्वयाभावाच्चानन्वय इत्यस्यैव नामान्तरं मतान्तरेणेत्याह। एतदेवेति।
अथारीतिकम्।
रसाननुगुणा रीतिर्यत्रारीति2402 तदुच्यते।
अखर्वगर्वदुर्वारदोरर्गलनिरर्गलाः।
हा बन्धुवर्गाः सर्वेऽपि कृन्तातातिथयः कृताः॥२०॥
अत्र करुणे2403ऽनुचितो2404 वर्णाडम्बरः।
अथ विसर्गलुप्तम्।
ओत्वलोपौ विसर्गस्यासकृल्लृप्तविसर्गकम्2405।
यत्र विसर्गो बहुधौत्वं लोपं वा प्राप्नोति तद्विसर्गलुप्तम्।
यथा।
व्यर्थो मनोरथो यातो2406 जातो वासो ध्रुवो मरौ।
म्लाना दीना2407 हता जीर्णा वनान्तेष्वीदृशा वयम्॥२१॥
अथास्थानसमासम्।
अपदस्थसमासं तत् समासो यत्र नोचितः।
यथा।
कुतो वैमुख्यमस्मासु ब्रह्मणः पुरुषात्मनः।
इत्युदग्रतरभ्राम्यद्भुकुटीकुटिलाननाः॥२२॥
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अरीतिकमिति। विरुद्धरीतिकमित्यर्थः। अखर्वेति। अत्र वर्णपारुष्यदीर्घसमासादिनिबन्धनाया गौडरीतेः करुणानुचिताया निबन्धनादरीतिकं नाम दोष इत्याशयेनाह। अत्रेति।
विसर्गलुप्तमिति। लुप्तविसर्गमित्यर्थः। ओत्वमिति। म्लाना इत्यादौ परम्परया विसर्जनीयस्थानिकस्य यकारस्य ‘लोपो व्योर्वलि’ इति लोपविधानात्लुप्तविसर्गत्वम्। व्यर्थो मनोरथ इत्यादौ यद्यपि विसर्जनीयस्य सत्वादिसंधिकार्यवशाद् गुणे सत्योत्वमेव न लोपः। तथापि विसर्गादर्शनाल्लुप्तविसर्गव्यवहार इति द्रष्टव्यम्। यदाहुराचार्याः। ‘अदर्शनं लोपः’ इति।
अपदस्थसमासमिति। अस्थानसमासमित्यर्थः। कुत इति। परुषात्मनः कठिनहृदयस्य वेधसे क्रुध्यतामिति ‘क्रुधदुह-’ इत्यादिना संप्रदानत्वाच्चतुर्थी।
अत्र वेधसे2408 क्रुध्यतां नृपाणामुक्तौ न समासः। किं तु कविवचने समास इत्यपदस्थसमासः।
अथ वाच्यवर्जितम्।
नोक्तं स्याद्यत्र वक्तव्यं तदाहुर्वाच्यवर्जितम्।
यथा।
दुर्दशां प्रतिपन्नानामस्माकं जीवितं मतम्॥
अत्र दुर्दर्शांप्रतिपन्नानामपीत्यपिशब्दो वक्तव्यो नोक्तः2409।
अथ समाप्तपुनरात्तकं पतत्प्रकर्षं2410 च।
समाप्य पुनरादाने समाप्तपुनरात्तकम्।
पतत्प्रकर्षं तत्माहुः प्रकर्षो यत्र विश्लथः॥
द्वयोरुदाहरणम्2411।
धावन्मृगेषु संभ्राम्यत्करिषूद्यत्तरक्षुषु।
विन्ध्यारण्येषु तिष्ठामः क्षुभ्यद्भल्लुक2412पङ्किषु॥२३॥
अत्र विन्ध्यारण्येषु तिष्ठामः इति समाप्य क्षुभ्यद्भल्लुकपङ्किष्विति पुनरादानात्2413 समाप्तपुनरात्तकम्। तथा भ्राम्यत्करिषूद्यत्तरक्षुषु धावन्मृगेष्विति वक्तव्ये न तथोक्तमिति पतत्प्रकर्षता।
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न समास इति। क्रोधव्यञ्जक इति शेषः। किं त्विति। कवेः समासव्यङ्ग्यस्य क्रोधस्याभावादिति भावः।
दुर्दशामिति। अत्र जीवितस्य हेयत्वं विवक्षितं तच्च दुर्दशां प्रतिपन्नानामपीत्यपिशब्दप्रयोग एव लभ्यते नान्यथा। अतस्तदभावाद्वाच्यवर्जिताख्योऽयं दोष इत्याह। अत्रेति।
समाप्येति। समाप्तस्य वाक्यस्य विशेषणद्वारा पुनरुपादाने समाप्तपुनरात्तम्। तदत्र योजयति। अत्रेति। पतत्प्रकर्षमपि योजयति। अथेति। तरक्षवो मृगादनाः। तदपेक्षया करिणां प्रकृष्टत्वात् पूर्वमुपादानम्। मृगाणां पुनरपकृष्टत्वात् पञ्चादेवोचितं तथापि मृगाणामादावुपादाने प्रकर्षभ्रंशात् पतत्प्रकर्षमिति भावः।
अथ संबन्धवर्जितम्।
संबन्धवर्जितं तत् स्याद्यत्रेष्टेनान्वयो हतः।
यथा
भद्रासनानि दृषदः छत्राणि च महीरुहः।
दुर्दशाराज्यमूर्धाभिषिक्ताः पुनरहो वयम्॥२४॥
अत्र राज्ये भद्रासनानि दृषद इत्यादिसंबन्धो नोक्तः।
अथाधिकपदम्।
यत्राधिकपदोक्तिः स्यात् तत्राधिकपदं मतम्।
यथा
विमुक्ता वल्लभैरेता वनान्ते गुर्जर2414स्त्रियः।
सुधांशुमण्डलाकाररूपक्रमविपाण्डुराः2415॥२५॥
अत्र सुधांशुमण्डलाकार2416 इत्येतावता परिपूर्णे2417 मण्डलाकारविपाण्डुरत्वे रूपक्रम2418 इत्यधिकम्2419।
अथ भग्नप्रक्रमम्2420।
प्रक्रान्तनियमत्यागे भग्नप्रक्रममिष्यते2421।
यथा।
गुहागृहाणि शवरा बान्धवा विन्ध्यभूः पुरी।
सरितो दीर्घिकाः कष्टमाक्रीडाः काननानि2422 नः॥२६॥
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संबन्धेति। संबन्धेनेष्टयोगेन वर्जितं संबन्धवर्जितम्। एतदेव केचिदभवन्मतयोगमाहुः। भद्रासनानीति। अत्र दुर्दशाराज्यशब्दः समासे गुणीभूत इति न तदर्थो भद्रासनादिभिः संबध्यत इत्याह। अत्र राज्य इति।
विमुक्ता इति। अत्राधिकमंशं विविनक्ति। अत्रेति। ‘व्याधैः सहोषितं विन्ध्ये हन्त वल्कलधारिभिः’ इत्यत्रास्माभिरिति पदस्य न्यूनत्वान्न्यूनपदं नाम दोषो द्रष्टव्यः।
बहुवचनप्रक्रमभङ्गमुदाहरति। गुहा इति।
अत्र बहुवचनतया2423 प्रथमं2424 प्रक्रम्य2425 विन्ध्यभूः पुरीत्येकवचनं2426 प्रक्रमभ्रष्टम्2427।
अथार्थदोषाः।
अपार्थं व्यर्थमेकार्थं ससंशयमपक्रमम्।
भिन्नं2428 चैवातिमात्रं च परुषं विरसं तथा॥
हीनाधिकोपमे स्यातामसदृक्षोपमं तथा।
अप्रसिद्धोपमं हेतुशून्यं च निरलंकृति॥
अश्लीलं च विरुद्धं च तथा सहचरच्युतम्।
एवमष्टादश प्रोक्ता दोषा अर्थसमाश्रयाः2429॥
एषां स्वरूपमुदाहरणं च।
समुदायार्थशून्यं चापार्थं[^2407] तत् परिकीर्त्त्यते।
यथा।
कुतः शुष्यदपो नद्यः का वार्त्ता चोलमण्डले।
फणाः सहस्रं शेषस्य भारः कति कुलाचलाः॥२७॥
अत्र न कश्चिद्वाक्यार्थः प्रतीयते।
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अथार्थदोषाणामुद्देशपूर्वकं लक्षणोदाहरणे दर्शयति। अथेत्यादिना।
समुदायार्थशून्यं वाक्यार्थशून्यम्। कुत इति। शुष्यदपाः शुष्यज्जलाः। ‘ऋक्पुर्—’ इत्यादिना समासान्ताप्रत्ययः। अत्र दशदाडिमादिवाक्यवदर्थशून्यत्वादपार्थत्वम्।
यत् प्रयोजनशून्यं स्यात्तद्2430 व्यर्थं परिकीर्त्त्येते।
यथा।
निर्मलं कुलमुद्वेलं शौर्यं वः प्रथितं यशः।
किमित्यन्ध्रपतेः पादपीठं पाण्ड्यैर्न2431 सेव्यते॥२८॥
अत्र निर्मलं कुलमित्यादिप्रशंसा सेवा कर्त्तव्येत्युपदेशे नोपयुज्यते। अथैकार्थम्।
उक्ताभिन्नार्थकं यत् स्यादेकार्थं तन्निगद्यते2432।
यथा।
विशीर्णं शतधा चेतो मूर्च्छितान् वीक्ष्य बालकान्।
शिशून् निश्चेतनान्2433 दृष्ट्वा खण्डितं शतशो2434 मनः॥२९॥
अत्र पूर्वोत्तरार्धयोरभिन्नार्थत्वम्।
अथ ससंशयम्2435।
वाक्यार्थसंशयो यत्र तत् ससंशयमिष्यते2436।
यथा।
करिकुम्मौ स्तनावद्य जयेतां2437 क्षामतां गतौ।
लता वपुःश्रियः स्त्रीणां हसन्तु2438 म्लानतां गताः॥३०॥
अत्र करिकुम्भयोः स्तनयोर्लतानां वपुःश्रियां2439 च कर्त्तृकर्मत्व2440संशयः।
अथापक्रमम्।
यत्र पूर्वापरीभावविहतिस्तदपक्रमम्2441।
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निर्मलमिति। अत्र राजसेवाविधावैश्वर्यादिलोभवत् कुलादिप्रशंसया निष्प्रयोजकत्वाद् व्यर्थमेतदित्याह। अत्रेति।
उक्ताभिन्नार्थमिति। पुनरुक्तार्थमित्यर्थः।
करिकुम्भाविति। अनर्घराघवे ‘विजयेतां रामलक्ष्मणौ कुम्भकर्णमेघनादौ’ इत्यत्र वैरिवाक्ये कर्त्तृकर्मसंदेहेऽपि न दोषः। नायकाभ्युदयसूचकतया तत्रैव कविसंरम्भविश्रान्तेः।
यथा।
हन्त व्यादाय वक्राणि निद्रान्त्यन्तर्वणं स्त्रियः।
तृणैस्तत्पतितैरस्मान् शिक्षयन्त्यस्तथाक्रमम्॥३१॥
अत्र निद्रोत्तरकालीनमुख2442व्यादानस्य पूर्वकालत्वमुक्तमित्यपक्रमत्वम्2443।
अथ भिन्नम्2444।
संबन्धवर्जितं यत् स्यात् तद्भिन्नं2445 परिकीर्त्त्यते।
यथा।
नूनं भालेषु लाटानां न2446 धात्रा लिखिता लिपिः।
यदस्माकं कुटुम्बानि विषीदन्ति2447 मरुस्थले॥३२॥
अत्र मरुस्थलनिवासविषादस्य2448 मालगत2449लिप्यभावस्य2450 च न संबन्धः।
अथातिमात्रम्।
यत् सर्वलोकातीतं तदतिमात्रं प्रकीर्त्त्यते2451।
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हन्तेति विषादे। व्यादाय विवृत्य। वनेष्वन्तर्वणम्। विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः। ‘प्रनिरन्तर्—’ इत्यादिना णत्वम्। तत्पतितैर्वक्रपतितैः। शिक्षयन्त्यस्तथाक्रममिति। तृणं ग्रसित्वा भवन्तोऽपि जीवन्त्वित्यस्मानुपदिशन्त्य इवेत्यर्थः। अत्र निद्रावक्रव्यादानयोर्लोके प्रसिद्धं पौर्वापर्यं विहतमितीदमपक्रममित्याह। अत्रेति। पूर्वकालत्वमुक्तमिति। ‘समानकर्त्तृकयोः पूर्वकाले’ इति विहितेन क्त्वाप्रत्ययेनेति शेषः। ननु वक्त्रं व्यादाय स्वपितीत्यत्र व्यादानस्य पूर्वकालत्वाभावात् क्त्वाप्रत्ययानुपपत्तिरिति चोदयित्वा2452नन्तरभाविस्वप्नापेक्षया पूर्वकालत्वसंभवान्नानुपपत्तिरिति परिहृतं महाभाष्ये। तथैव व्याख्यातं कैयटेन। यद्यपि स्वप्नक्षणानां व्यादानात् पूर्वकालता तथापि तद्व्यादानानन्तरभाविस्वप्नक्रियापेक्षं व्यादानस्य पूर्वकालत्वमस्तीति। अतः कथमत्र पौर्वापर्यविहतिरिति चेत् सत्यम्। व्यादानात् पूर्वकालीनस्वप्नक्रियापेक्षया पौर्वापर्यविघातादस्त्येवापक्रमदोषोऽत्रेति हृदयम्।
भिन्नलक्षणं संबन्धवर्जनं दर्शयति। अत्र मरुस्थलेति। प्रतीयमानस्तु हेतुहेतुमद्भावो न वास्तव इति भावः।
यथा।
मा भूदेकार्णवं विश्वमिति संकोचिताश्रुभिः।
अरण्ये हूणनारीभिरसंख्या निम्नगाः कृताः॥३३॥
अत्राश्रुभिर्जगदेकार्णवमित्यत्युक्तिः।
अथ परुषम्।
अतिक्रूरार्थसहितं परुषं2453 परिकीर्त्त्यते।
यथा।
दावानलेन्धनं सद्यः क्रियन्तामर्भका इमे।
अत्र फलानि याचमानान् शिशूनुद्दिश्यातिपरुषोक्तिः।
अथ विरसम्।
अप्रस्तुतरसं यत् तद्विरसं परिकीर्त्त्यते।
यथा।
चन्द्राननाः कटाक्षैर्नः पश्यतामृतवर्षिभिः।
शोचित्वालमिति क्लिष्टाः किरातैश्चोलसुभ्रवः॥३४॥
अत्र पुरुषवियोगवखिन्नानां2454 स्त्रीणां2455 वनचरैः संभोगप्रार्थनं2456 विरसम्।
अथ हीनोपमम्2457।
हीनं यत्रोपमानं स्यात् तद्धि हीनोपमं मतम्।
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मा भूदिति। एकार्णवभियाशुसंकोचेऽपि असंख्या नद्यः प्रवृत्ता इत्यतिमात्रालौकिकार्थप्रतिपादनादत्युक्तिरेवायं दोषो नातिशयोक्तिरलंकार इति भावः।
परुषमुदाहरति। दावानलेति। इमे फलानि याचमाना इत्यर्थः।
चन्द्रानना इति। शोचित्वालं न शोचितव्यमित्यर्थः। ‘अलंखल्वोः—’ इत्यादिना क्त्वाप्रत्यय इत्युक्त्वा क्लिष्टा क्लेशिताः। क्लिश्नातेः ‘उदितो वा’ इति विकल्पात् ‘यस्य विभाषा’ इति निषेधः। ‘क्लिशः क्त्वानिष्ठयोः’ इति विकल्पादिडभावः। संभोगप्रार्थनं विरसमिति। अनौचित्यप्रवृत्तत्वादिति भावः। तदुकं ध्वन्याचार्यैः।
‘अनौचित्यादृते नान्यद्रसभङ्गस्य कारणम्।’ इति।
हीनमिति। जात्या प्रमाणेन वेति शेषः। एवमधिकमित्यत्रापि द्रष्टव्यम्।
यथा।
शुनकैरिव सारङ्गा भवद्भिर्निहता2458 द्विषः।
क्व गतं पौरुषं तद्वः काननैकनिवासिनाम्॥३५॥
अत्र शुनकैरिव भवद्भिरिति न्यूनोपमम्।
अथाधिकोपमम्।
यत्रोपमानमधिकं तद् भवेदधिकोपमम्।
यथा।
अभी पारेसरस्तीरं बका निश्चलमूर्त्तयः।
महर्षय इवास्माभिरद्य सोपद्रवाः कृताः॥३६॥
अत्र बका महर्षय इवेत्यधिकोपमम्2459।
अथातुल्योपमम्2460।
यदतुल्योपमानं तद् भवेदसदृशोपमम्।
यथा2461।
एष विन्ध्याचलः सान्द्रकुञ्जोच्चलितनिर्झरः।
भालेक्षणस्फुरद्वह्निशिखाटोप इवेश्वरः॥३७॥
अत्र कुञ्जोच्चलितनिर्झरस्य विन्ध्याचलस्य2462 भालेक्षणस्फुरद्वह्नेरीश्वर2463स्य च मिथो न सादृश्यम्।
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अत एव पूर्वोक्ताभ्यां न्यूनाधिकोपमाभ्यामनयोर्भेदः2464। जातिहीनमुदाहरति। शकुनैरिति। प्रमाणहीनोदाहरणं तु स्फुलिङ्ग इव भानुमानित्यादौ द्रष्टव्यम्।
जात्यधिकमुदाहरति। अमी इति। पारे सरस्तीरस्य पारेसरस्तीरम्। ‘पारेमध्ये षष्ठ्या वा’ इत्यव्ययीभावः। प्रमाणाधिकोदाहरणं तु पातालमिव नाभिस्त इत्यादौ द्रष्टव्यम्। अत्र सर्वत्र साधर्म्येण चमत्काराय विवक्षितार्थस्य शकुनादिभिः प्रतिपत्तिपरिक्षोभणेन कदर्थीकरणादनौचित्येन दोषत्वमिति भावः। अत एवोक्तं काव्यप्रकाशे। ‘उपमानस्य जातिप्रमाणकृतं न्यूनत्वमधिकता वा तादृश्यनुचितार्थत्वं दोषः’ इति।
अथाप्रसिद्धोपमम्2465।
अप्रसिद्धोपमानं यदप्रसिद्धोपमं मतम्2466।
यथा।
बाष्पाम्बुस्विन्न2467नेत्राणि मुखान्यङ्ग मृगीदृशाम्।
हिमदूषितपत्राणि कुमुदानीव निर्मुदाम्॥३८॥
अत्र मुखानां कुमुदान्युपमानतया कविलोके2468 न प्रसिद्धानि।
अथ हेतुशून्यम्।
हेतुशून्यार्थकथनं2469 हेतुशून्यं प्रकीर्त्त्यते2470।
यथा।
मुधानुधावनं जातं मार्गेऽस्मिन् मौक्तिकाङ्किते2471।
अन्वेष्टुमन्यतो यामि पदवीयं न सुभ्रुवः॥४९॥
अत्र2472 सुभ्रुवः पदवीयं2473 न भवतीत्यत्र हेतुर्नोक्तः।
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यदिति। न ह्यत्र विन्ध्यविरूपाक्षयोस्तद्धर्मयोश्च वह्निनिर्झरयोः सादृश्यप्रसिद्धिरस्ति। न च धर्मिणोर्धर्मद्वारा सादृश्यं धर्मयोश्च धर्मिद्वारेति वाच्यम्। इतरेतराश्रयत्वप्रसङ्गात्। यथाह। ‘बधामि काव्यशशिनं विततार्थरश्मिम् इत्यत्र वामनः। ‘तदेवमितरेतराश्रयदोषो दुरुत्तरः’ इति। तदेतत् सर्वं मनसि निधायाह। अत्र कुञ्ज इति।
हेतोर्विनेति। हेतुना विनेत्यर्थः। ‘पृथग्विना-’ इत्यादिना पञ्चमी। मौक्तिकाङ्कित इति। कण्ठीरवाकृष्टकरिकुम्भादिगलितमौक्तिकाङ्कित इत्यर्थः। मुधानुधावनमिति प्रियालंकारमौक्तिकाङ्क्षित इति भ्रान्त्येति भावः। पदवीयं न भवतीति। अत्रेति शेषः। हेतुर्नोक्त इति। ‘अभ्युन्नता पुरस्तादवगाढा जघनगौरवात् पश्चात्’ इत्याद्युक्तलक्षणपदपङ्क्त्यभावादिरूपो हेतुर्नोक्त इत्यर्थः।
अथ निरलंकारः2474।
अलंकारेण रहितं निरलंकारमुच्यते2475।
यथा।
आघ्राय सुरभैर्योनिमुन्मुखैर्दीर्घमेहनैः।
महोक्षैर्लम्बमानाण्डैर्विष्वग्व्याकुलितं वनम्॥४०॥
अत्र न कश्चिदलंकारः। श्लाघ्यविशेषणाभावात् न स्वभावोक्तिः। यथाश्लीलम्।
अश्लीलार्थस्य कथनमश्लीलं परिकीर्त्त्यते।
अस्यापि पूर्वमेवोदाहरणम्2476।
अथ विरुद्धम्।
विरुद्धं देशकालादिविरुद्धं बहुधोच्यते।
यथा।
दिश्युत्तरस्यां नेदीयानुद्वेलो लवणार्णवः2477।
मरुदेशेऽपि गङ्गा नः पिपासां शमयिष्यति2478॥४१॥
अत्र दिश्युत्तरस्यां2479 लवणार्णव इति दिग्विरोधः। मरौ गङ्गेति देशविरोधः।
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आघ्रायेति। महोक्षैः पुङ्गवैः। ‘अचतुर—’ इत्यादिना निपातनात् साधुः। विच्छित्तिविशेषाभावादिति भावः। वर्ण्यमानवस्तुस्वभावस्तु ग्राम्यधर्मतया सहृदयश्लाघानधिरोहान्न स्वभावोक्तिबीजम्। तदुक्तं चक्रवर्त्तिना।
‘स्वभावोक्तिर्बुधोन्नेयवस्तुस्वाभाव्यवर्णनम्।’ इति। तदेतदाह। श्लाघ्यविशेषणाभावान्न स्वभावोक्तिरिति।
अश्लीलार्थस्येति। अश्लीलार्थस्यामङ्गलजुगुप्साब्रीडबुद्धिजनकस्येत्यर्थः। तत्र ब्रीडबुद्धिजनकस्य पूर्वमेवोदाहरणमित्याह। अस्यांपीति। अत्र पर्यायैरप्यस्यार्थस्य सुवचत्वात् पदविनिमयासहिष्णोः पददोषादश्लीलादमुष्य भेदः। इतरभेदद्वयस्योदाहरणं स्वयमूहनीयम्।
विरुद्धमिति। देशकालादीत्यादिशब्देन विद्यास्वभावादयो गृह्यन्ते। नेदीयानन्तिकतमः। अन्यथोत्तरदेशेऽपि लक्षयोजनव्यवहिते लवणोदस्य संभवेन विरोधाभावादिति भावः। शामयिष्यतीति। चुरादिणिच्युपधाबृद्धिः। शमयि-
अरण्यमहिषोदग्रविषाणोदरजन्मनाम्।
महत्यर्धेऽपि मुक्तानां स्त्रियो गुञ्जाविभूषणाः2480॥४२॥
अत्र महिषविषाणेभ्यो मुक्तानां जन्मेति लोकविरोधः। एवं विरोधान्तरमप्युदाहार्यम्।
अथ सहचरभ्रष्टम्2481।
मतं सहचरभ्रष्टमतुल्यानां निबन्धने2482।
यथा।
शान्त्या श्रुतं हिया नारी मन्मथेन रतोत्सवः।
श्रुतेन धिषणा वन्यवृत्त्या जीवन्ति शात्रवाः॥४३॥
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ष्यतीति पाठे चन्द्रमते मितात् ह्रस्वः। मरुदेश इति देशविरोधः। अरण्येति। अर्धे मूल्ये महत्यपि मुक्तामयानि विभूषणानि यासां ता मुक्ताविभूषणाः। गुञ्जाविभूषणा इति पाठान्तरम्। अत्र
‘करीक्षुजीमूतवराहशङ्ख-
मत्स्याहिशुक्त्युद्भववेणुजानि।
मुक्ताफलानि प्रथितानि लोके
तेषां तु शुक्त्युद्भवमेव भूरि॥’
इति वचनाद् गजादीनामेव मुक्ताकरत्वं प्रसिद्धं नान्येषाम्। तस्मान्महिषविषाणानां मुक्ताकरत्वं लोकविरुद्धमित्याह। अत्रेति। विरुद्धान्तरं विद्याविरुद्धादिकम्। यथा।
‘सदा स्नात्वा निशीथिन्यां सकलं वासरं बुधः।
नानाविधानि शास्त्राणि व्याचष्टे च शृणोति च॥’
अत्र रात्रौ स्नानं धर्मशास्त्रविरुद्धम्। एवमन्यदप्युदाहार्यम्।
शान्त्येति। श्रुतधिषणाभ्यां शान्तिश्रुतालङ्कृतत्वेन सर्वेषामत्यन्तोपादेयतया
अत्र श्रुतधिषणाभ्यां नारीरतोत्सवयोरपकृष्टत्वात् सहचरभ्रष्टम्। एव दोषान्तराणि2483 यथा संभवमूह्यानि2484। रसभावादीनां2485 स्वशब्दवाच्यता दुष्टैव॥
इति2486 श्री2487विद्यानाथकृतौ प्रतापरुद्रयशोभूषणेऽलंकारशास्त्रे दोषप्रकरणं समाप्तम्।
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सर्वोत्कृष्टाभ्यामित्यर्थः। नारीरतोत्सवयोर्लज्जामन्मथसमवेतयोः कतिपयोपादेयत2488व्यापकृष्टत्वादित्यर्थः। वन्यवृत्त्या जीवन्ति शात्रवा इत्येतत्तु सर्वापकृष्टत्वात्सर्वेभ्यः सहचरेभ्यो भ्रष्टमिति द्रष्टव्यम्। रसेति। भावाः संचारिभावाः। आदिग्रहणात् स्थायिभावा गृह्यन्ते तेषां स्वशब्दवाच्यता रसशृङ्गारादिसामान्यशब्दाभिधेयता दुष्टैवेति। रसप्रतीतेर्विभावादिप्रयोगान्वयव्यतिरेकानुविधानाद्रसादिशब्दप्रयोगेऽपि तदप्रतीतेश्च नित्यव्यङ्ग्यस्य रसादेर्वाच्यत्वं दुष्टमेवेति भावः। तदुक्तं काव्यप्रकाशे रसदोषप्रकरणे।
‘व्यभिचारिरसस्थायिभावानां शब्दवाच्यता।’
इति।
अत्रावाङ्मनसगोचरस्यापि ब्रह्मानन्दस्योपाधिवशाद् यथातथादिपद2489वाच्यत्वं न दोषः। एवं ब्रह्मानन्दसब्रह्मचारिणो रसस्यापि विभावाद्यनुसंधानानन्तरभाविनश्चर्व्यमाणस्य वाच्यत्वानुपपत्तावपि सहकारिवैकल्येऽपि परोक्षतया प्रतीयमानस्य रसस्य शृङ्गारादिशब्दवाच्यत्वे न कोऽपि दोष इति द्रष्टव्यम्।
इति पदवाक्यप्रमाणपारावारपारीणश्रीमहोपाध्यायकोलचलमल्लिनाथसूरिसूनुना विश्वजनीनविद्यस्य विद्वन्मणेः पेद्दयार्यस्यानुजेन कुमारस्वामिसोमपीथिना विरचिते प्रतापरुद्रीयव्याख्याने रत्नापणाख्याने दोषनिरूपणं
नाम पञ्चमं प्रकरणम्॥
अथ गुणा निरूप्यन्ते।
श्लेषः प्रसादः समता माधुर्यं सुकुमारता।
अर्थव्यक्तिरुदारत्वं तथा कान्तिरुदात्तता॥
ओजः सुशब्दता प्रेयानौर्जित्यमथ विस्तरः।
समाधिः सौक्ष्म्यगाम्भीर्ये2490 संक्षेपो भाविकं तथा॥
संमितत्वं तथा प्रौढी रीतिरुक्तिर्गति2491स्तथा2492॥
एषां2493 मध्ये केषांचिद् दोषपरिहारकत्वेन2494 गुणत्वम्। केषांचित् स्वत एवोत्कर्षहेतुत्वाद् गुणत्वम्। तत्र ये स्वत एव चारुत्वातिशयहेत2495वस्ते परमुत्कृष्टाः। दुष्टत्वपरिहार2496हेतूनां गुणत्वं न सर्वसंमतम्2497। ये तु दोषाभावतया2498 गुणत्वमिच्छन्ति तेषामेव सौकुमार्यादयो गुणत्वेन संमताः।
श्रुतिकटुरूप2499दोषनिराकरणाय सौकुमार्यं संमतम्2500। ग्राम्यदोषनिराकरणाय कान्तिः स्वीकृता। अपुष्टार्थनिराकरणायार्थ2501व्यक्तिर्मता2502। न्यूनाधिकपदनिराकरणाय2503 संमितत्वं मतम्। अनुचितार्थ2504निराकरणार्थ2505मुदात्तता स्वीकृता। विसंधि2506निराकरणार्थ2507मौर्जित्यं मतम्। पतत्प्रकर्षनिराकरणाय रीतिरिष्टा। क्लिष्टपरिहाराय प्रसादो मतः। अश्लीलपरि-
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इत्थं यथासंभवं दोषान् निरूप्य तत्प्रतिभटभूतगुणनिरूपणं प्रतिजानीते। अथेति। तत्र गुणास्त्रय इति भामहादयः। दशेति वामनादयः। चतुर्विंशतिरिति भोजराजः2508। तत्र भोजराजमते2509नोद्देशमाह। श्लेष इत्यादि।
एषां मध्ये केषांचिद्दोषपरिहारकत्वेन गुणत्वमिति। तथापि केषांचिन्मते उत्कर्षहेतुत्वात् काव्योत्कर्षहेतुत्वादिति भावः।
को दोषः केन गुणेन परिह्रियते इत्याकाङ्क्षायामाह। श्रुतिकटुरूपेत्यादिना।
हारार्थमुक्तिः स्वीकृता। च्युतसंस्कृति2510परिहारार्थं सौशब्द्यमिष्टम्। प्रक्रमभङ्गनिराकरणाय2511 समता मता। परुषदोष2512निवृत्त्यर्थंप्रेयान्2513 मतः। एवं यथासंभवं केषांचिद्दोषपरिहारकत्वेन2514 गुणत्वम्।
एषां गुणानां स्वरूपमुदाहरणं च।
मिथः संश्लिष्टपदता2515 श्लेष इत्यभिधीयते।
बहूनां पदानामेकपदवदवभासमानत्वं2516 श्लिष्टत्वम्2517।
यथा।
श्रीमत्काकतिवीररुद्रमखिलक्ष्मापालमौलिस्फुरन्-
माणिक्यद्युतिरञ्जिताङ्घ्रिमखिलप्रख्यातशौर्योदयम्।
विश्वत्राणविनिद्रमक्षयगुण2518ज्योत्स्नावितानावृत-
व्योमागारमनल्पवैभवममुं स्तोतुं2519 वयं नेश्महे॥१॥
अत्र पाठसमये पदानामेकवत्2520 प्रतिभासमानत्वात् श्लेषः।
अथ प्रसादः।
प्रसिद्धार्थपदत्वं यत् स प्रसादो निगद्यते।
यथा।
प्रतापरुद्रदेवोऽयं भाति लक्ष्मीपतिः स्वयम्।
येनास्य लोचने फुल्लपुण्डरीकमनोदरे2521॥२॥
अत्र झटित्यर्थसमर्पक2522पदत्वात् प्रसादः।
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एषां गुणानामिति। संघटनाश्रयत्वे सति चारुताहेतवो गुणा इति वक्ष्यमाणसामान्यलक्षणानामिति भावः। मिथ इति। संश्लिष्टानि मसृणानि पदानि यस्य तस्य भावस्तत्ता। निष्कर्षमाह। बहूनामिति। तदुक्तं वामनेन।
‘यत्रैकपदवद् भान्ति पदानि सुबहून्यपि।
अनालक्षितसन्धीनि स श्लेषः परमो गुणः॥’ इति।
उदाहरति। श्रीमदिति। अक्षयगुणज्योत्स्नेति। लौकिकचन्द्रिकाव्यतिरेकः। वितानमुल्लोचः।
प्रसादमुदाहरति। प्रतापेति। झटित्यर्थसमर्पकपदत्वादिति। व्यवहितार्थप्रत्यायकक्लिष्टविपर्ययोक्तिः।
अथ समता।
** अवैषम्येण भणनं समता सा निगद्यते।**
यथा।
वदान्यतरुमञ्जरीसुरभयः श्रवःपारणं
गुणा विदधते सतां जगति वीररुद्रप्रभोः।
सुधामधुरिमाधरीकरणचातुरीचुञ्चवो2523
वियच्चरतरङ्गिणीविहरदूर्मिमर्मस्पृशः॥३॥
** अत्र पादचतुष्टयेऽपि तुल्यभणनात्2524 समत्वम्।**
अथ माधुर्यम्।
** या पृथक्पदता वाक्ये तन्माधुर्यंप्रकीर्त्त्यते।**
** यथा।**
यशःश्रियः काकतिभूपतेर्दिशां
नितम्बबिम्बेषु दुकूलरीतयः।
उरोजयोर्मौक्तिकहारविभ्रमाः
शिरस्सु जातीकुसुमस्रगुज्ज्वलाः॥४॥
** अत्र वाक्ये पाठसमयेऽपि पृथक्पदत्वप्रतीतेर्माधुर्यम्।**
अथ सुकुमारत्वम्2525।
सुकुमाराक्षरप्रायं सौकुमार्यं प्रतीयते2526।
सुकुमारत्वं नाम सानुस्वारकोमलवर्णत्वम्2527।
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वदान्यतरवः कल्पवृक्षाः2528। तन्मञ्जर्य इव सुरभयो मनोहराः। श्रवःपारणं श्रोत्रसन्तर्पणम्। सुधामधुरिमाधरीकरणचातुरीचुञ्चवः2529 अमृतमाधुर्य्यन्यक्करणचातुर्यवित्ताः। वियच्चरतरङ्गिणीविहरदूर्मिमर्मस्पृशः मन्दाकिनीकल्लोलकल्पा इत्यर्थः। पादचतुष्टयेऽपि तुल्यवद्भणनादिति। अनेन प्रक्रमभङ्गः परिहृतः।
** यशःश्रिय इति**। दिशामित्यनेन स्त्रीप्रतीतेस्तासामधोमध्योर्ध्वदेशेषु नितम्बस्तनशिरोऽध्यवसायो युज्यते। उरोजयोरिति। ‘स्तनादीनां द्वित्वविशिष्टता जातिःप्रायेण’ इति वामनवचनात् द्विवचनोपपत्तिः। अत्र माधुर्ये पृथक्पदत्वं दीर्घसमासाभाव इति वामनः।
सुकुमारेति। सौकुमार्यमपरुषत्वमित्यर्थः।
यथा।
अमन्दानन्दनिष्यन्दसुन्दरीवदनेन्दुभिः2530।
नगरे काकतीन्द्रस्य दिवाप्याभाति चन्द्रिका॥५॥
अथार्थव्यक्तिः।
** यत्तु2531 संपूर्णवाक्यत्वमर्थव्यक्तिंवदन्ति ताम्।**
यथा।
भाग्यं मध्यमलोकनिघ्नमधुना येनास्य संरक्षिता
जातः खेलति वीररुद्रनृपतिर्निःसीमशौर्योदयः।
यद्वा त्रीण्यपि विष्टपानि दधते धन्यत्वमंशो हरे-
र्यत् साक्षादवतीर्य काकतिकुले स्वैरं समुज्जृम्भते॥६॥
** अत्रा2532र्थप्रतिपादने वाक्यस्य निराकाङ्क्षतया परिपूर्णत्वादर्थव्यक्तिः।**
अथ2533 कान्तिः।
** अत्युज्ज्वलत्वं वन्धस्य काव्ये कान्तिरितीष्यते।**
___________________________________________________________
** अर्थव्यक्तिरिति**। तद्धेतौ तत्त्वोपचारः। तदुक्तम्। ‘यत्रार्थव्यक्तिहेतुत्वं सोऽर्थव्यक्तिः स्मृतो गुणः।’इति। भाग्यमिति। मध्यमलोकनिघ्नं मध्यलोकाधीनम्। यद्वा त्रिविक्रमावतारस्य काकतिविभोः किमनेन संकोचेनेत्याह। यद्वेति। निराकाङ्क्षतया परिपूर्णत्वादित्यनेन क्रियापदराहित्यात् साकारङ्क्षत्वेनापरिपूर्णानामशरीरादीनां दोषाणां प्रत्युदाहरणत्वं दर्शितम्। न चापुष्टार्थनिराकरणायार्थव्यक्तिरिति पूर्वोक्तविरोधः परिपोषाभावलक्षणयोगेन तेषामप्यपुष्टार्थत्वात् प्रकृतानुपयुक्तार्थत्वलक्षणापुष्टार्थस्य तु निराकाङ्क्षत्वेन परिपूर्णस्य प्रकृतवैपरीत्याभावान्नास्ति प्रत्युदाहरणत्वमिति द्रष्ट2534व्यम्।
** अत्युज्ज्वलत्वमिति**। यदभावे चिरन्तनचित्रच्छायेव प्रबन्धच्छाया भवति तदौज्ज्वल्यं सैव कान्तिरित्यर्थः। तदुक्तम्।
‘औज्ज्वल्यं कान्तिरित्याहुर्गुणं गुणविपश्चितः।
पुराणचित्रस्थानीयं तेन वन्ध्यं कवेर्वचः॥’इति।
यथा।
जेतुः2535 काकतिवीररुद्रनृपतेर्जैत्रप्रयाणोत्थिते
क्षोणीरेणुभरे नभस्यतिभृशं2536 भूविभ्रमं विभ्रति।
जाता मर्त्त्यनदी विशंकटतटी2537 दीर्घा वियद्दीर्घिका
गाढं गूढतमा च गौतमनदी पातालगङ्गायते॥७॥
अथौदार्यम्।
** विकटाक्षरबन्धत्वमार्यैरौदार्यमिष्यते2538।**
यथा।
जग्ध्वा भूयांसि मांसान्यहमहमिकया बद्धगार्ध्यान् सपीत्या2539-
मस्रस्योच्चैस्तरास्थ्युत्कषणभवकटत्काररौद्राग्रदंष्ट्रान्।
संविभ्राणाः क्षपाटान्2540 द्विपगलित2541वसानिर्झरान्तर्नदीष्णान्
कुर्वन्त्यायोधनोर्व्योभयमवनिभृतामन्ध्रसैन्येन सृष्टाः2542॥८॥
___________________________________________________________
जेतुरिति काव्यप्रकरणे व्याख्यातम्।
औदार्यंनाम विकटाक्षरबन्धत्वं तच्च नर्त्तनबुद्ध्युत्पादकपदविन्यासः। तदुक्तम्।
‘विकटत्वं च बन्धस्य कथयन्ति ह्युदारताम्।
वैचित्र्यं न प्रपद्यन्ते यया शून्याः पदक्रमाः॥
पश्चादिव गतिर्वाचः पुरस्तादिव बस्तुनः2543॥’इति।
** जग्ध्वेति**। अन्योन्यंप्रति श्रेष्ठोऽहमित्यभिमानोऽहमहमिका। अहमिति विभक्तिप्रतिरूपकमव्ययं निपातितम्। तस्य वीप्सायां द्विरुक्तिः। संज्ञायां कन्प्रत्ययः। पृषोदरादिरिति सुभूतिचन्द्रः। गर्ध एवगार्ध्यम्। चातुर्वर्ण्यादित्यादौपम्यादिवत् स्वार्थे ष्यञ्प्रत्ययः। तद्वद्धं यैस्तान् बद्धगार्ध्यान्। समाना पीतिः सपीतिः। ‘सहपानं सपीतिः स्त्री तुल्यपानम्’इत्यमरः। ‘समानस्य च्छन्दसि—’इत्यादिना समानशब्दस्य सभावः। छान्दसत्वेऽपि वाणादिप्रयोगमहिम्ना लोकेऽपि न विरोध इत्याह दशटीका2544सर्वस्वकारः। ‘समानस्य च्छन्दसि—’ इत्यत्र समानस्येति योगविभागसामर्थ्यात् भाषायामपि सपक्षादिप्रयोगसिद्धि-
अथौदात्तता।
** श्लाघ्यैर्विशेषणैर्योगो यस्तु सा स्यादुदात्तता।**
यथा।
वृहंमाणगजाकीर्णा हेषमाणहयाकुला।
संक्रीडत्स्यन्दना क्ष्वेडभटा2545रुद्रविभोश्चमूः॥९॥
अथौजः।
** ओजः समासभूयस्त्वम्।**
यथा।
उद्दामद्विरदौघदानलहरीसौरभ्यलोभभ्रमद्-
भृङ्गश्रेणिनिबद्धझंकृति2546कलाबाचालितप्राङ्गणाः।
निःसीमप्रथमानभूमविभवारम्भप्रियंभावुका
मोदन्ते भुवि वीररुद्रनृपतेर्विद्वगृहश्रेणयः॥१०॥
___________________________________________________________
रित्याह वृत्तिकारः। पदमञ्जरीकारस्तु ‘योगविभागाङ्गीकारे तस्य नित्यत्वात् समानजातीयशब्दप्रयोगो न स्यात्। अस्ति च प्रयोगः। तस्मात् सपक्षादिशब्देषु सदृशार्थस्य सहशब्दस्य पक्षादिभिरस्वपदविग्रहे बहुव्रीहौ सहशब्दस्य ‘वोपसर्जनस्य’इति सभावः। **भाष्यवार्त्तिक2547**योश्च2547 योगविभागो नोपन्यस्तः’इत्यवोचत्। यदत्र युक्तं तद् ग्राह्यम्। अस्थ्युत्कषणमस्थिसंघर्षः। कटत्कारोऽनुकरणशब्दः। क्षपास्वटन्तीति क्षपाटाः नक्तंचराः भूतवेतालादयः। नद्यां स्नान्तीति नदीष्णाः कुशलाः। ‘सुपि—’इति योगविभागात् कप्रत्ययः। ‘निनदीभ्यां स्नातेः कौशले’इति षत्वम्।
** श्लाघ्यैरिति**।श्लाघ्यैरुचितैः बृंहणादीनां गजानामेवोचितत्वादिति भावः। वैपरीत्येऽनौचित्यमनेन परिहृतमित्यनुसंधेयम्। वृंहमाणेति चानशान्तोऽयं न शानजन्तः। वृंहेः परस्मैपदित्वात्। क्ष्वेडभटेति पचाद्यजन्तपाठो न क्ष्वेडद्भटेति शत्रन्तपाठः। तस्यात्मनेपदित्वादित्यादिप्रपञ्चेन व्याख्यातं नाटकप्रकरणे द्वितीयेऽङ्के। अनुचितार्थपरिहारकोऽयं गुणः।
उद्दामेति। वाचालानि कृतानि वाचालितानि शब्दायमानानीत्यर्थः। भूमविभवो महिमातिशयः। प्रिया भवन्तीति प्रियंभावुकाः2548। ‘कर्त्तरि भुवः खिष्णुच्खुकञौ’इति खुकञ्प्रत्ययः। अत्र वीररुद्रविदुषां गजान्तलक्ष्मीर्माहात्म्यं च प्रतिपाद्यते।
अथ सुशब्दता।
** सुपां तिङा च व्युत्पत्तिः सौशब्द्यं परिकीर्त्त्यते।**
यथा।
आशामण्डलकूलमुद्वह2549कथैरभ्रङ्कषैर्वैभवै
रक्षन् सुप्रजसः प्रजास्त्रिभुवनक्षेमङ्करप्रक्रियः।
दुष्टानां भुवि निप्रहर्न्तुमतुलै2550राढ्यंभविष्णुर्गुणै-
र्भूम्ना संचरतेऽद्य काकतिकुले रुद्रावतारो हरिः॥११॥
अथ प्रेयः।
** प्रेयः प्रियतराख्यानं चाटूत्त्या2551 यद्विधीयते।**
यथा।
___________________________________________________________
** सुपां तिङां चे**ति। सुबन्ततिङन्तविशेषाणामित्यर्थः। कूलमुद्वहन्तीति कूलमुद्वहाः कथा यैस्तैर्दिगन्तप्रसिद्धैरित्यर्थः। ‘उदि कूले रुजिवहोः’इति खश्प्रत्ययः। अभ्रं कपन्तीत्यभ्रंकपाः। तैरुत्कृष्टैरित्यर्थः। ‘सर्वकूलाभ्रकरीरेषु कपः’ इति खश्प्रत्ययः । वैभवैरैश्वर्यैः। शोभना प्रभा यासां ताः सुप्रजसः। ‘नित्यमसिच्प्रजामेधयोः’इत्यसिच्प्रत्ययः। प्रजा रक्षन्निति शतृप्रत्ययः। रक्षणेन हेतुनेत्यर्थः। अत एव त्रिभुवनक्षेमंकरप्रक्रियो विश्वजनीनव्यापार इत्यर्थः। ‘क्षेमप्रियमद्रे णच्’इति खश्प्रत्ययः। गुणैः शौर्यादिभिः। आढ्यो भवतीत्याढ्यंभविष्णुः। ‘कर्त्तरि भुवः’इति खिष्णुच्प्रत्ययः। दुष्टानां निग्रहन्तुम्। ‘जासिनिप्रहण—’इत्यादिना कर्मणि षष्ठी। भूम्ना महिम्ना संचरते। ‘समस्तृतीयायुक्तात्’इत्यात्मनेपदम्। इत्थमत्र सौशद्व्यंनाम गुणः। तस्य च्युतसंस्कारपरिहारार्थत्ववचनमयुक्तम्। अनभिहितगुणभावेनापशब्दाभावमात्रेण तत्परिहारसंभवात्। अत्र तु सकलसचेतश्चेतश्चमत्कारकारिविशिष्टपदप्रयोगेण चारुताहेतुत्वसंभवादस्त्येव स्वतन्त्रं गुणत्वमिति।
** प्रेय इति**। चाटूक्तौ प्रियोक्तौ। दाक्षिण्यं सरलत्वम्। दक्षता क्षिप्रकारिता। धौरेयता धुरन्धरत्वम्। ‘धुरो यड्ढकौ’इति ठक्प्रत्ययः। निष्ठुरोक्तिलक्षणपरुषप्रतिपक्ष्यं प्रेयस इत्युक्तम्।
दाक्षिण्यं त्वयि दक्षता त्वयि दया त्वय्युन्नतत्वं त्वयि
प्रागल्भ्यं त्वयि पौरुषं त्वयि कला संपत्त्वयि श्रीस्त्वयि।
औदार्यं त्वयि धीरता2552 त्वयि जगद्धौरेयता च त्वयि
श्रीमत्काकतिनाथ पालय भुवं वैरिञ्चकल्पान् शतम्2553॥१२॥
अथौर्जित्यम्।
** और्जित्यं2554गाढवन्धत्वम्2555।**
यथा।
क्षोणी2556रक्षणदक्षिणाः क्षतजगत्क्षोभा दुरीक्ष्य2557क्रमाः
क्षुद्रक्षत्रियपक्षशिक्षणविधौ प्रोत्क्षिप्तकौक्षेयकाः।
उद्दामोद्यमनस्य रुद्रनृपतेर्दोर्दण्डयोश्चण्डयो-
र्गर्जद्दुर्जनगर्वपर्वतभिदा दम्भोलयः केलयः॥१३॥
अथ समाधिः2558।
** समाधिरन्यधर्माणां2559 यदन्यत्राधिरोहणम्2560।**
यथा।
पृच्छन्ती दुग्धसिन्धुं कुशलमनुसरन्त्यादराच्छङ्करा2561दिं
चाटूक्त्यामानयन्ती मुहुरमरनदीं चन्द्रमग्रे हसन्ती।
वैधात्रीं यानहंसावलिमनुकृपया स्वागतं व्याहरन्ती
लोकेषु त्रिष्वमीषु प्रभवति महती वीररुद्रस्य कीर्त्तिः॥१४॥
___________________________________________________________
और्जित्यमिति। गाढबन्धत्वमिति विसन्धिवैलक्ष्येणेति भावः। क्षोणीर क्षणेत्यादि श्लोको व्याख्यातः काव्यप्रकरणे शब्दचित्रे।
पृच्छन्तीति। अत्र कुशलप्रश्नादेश्चेतनधर्मस्याचेतनायां कीर्त्तावधिरोपणात् समाधिः।
अथ विस्तरः।
** समर्थनप्रपञ्चोक्तिरुक्तस्यार्थस्य विस्तरः।**
यथा।
लोकेषु त्रिषु काकतीश्वरगुणान् स्तोतुं मुहुर्वीक्षितुं
श्रोतुं बह्वभिनन्दितुं च फणिनामेकः क्षमो नायकः।
यद्वक्राणि सहस्रमस्य कृतिनो यद्2562 द्वे सहस्रे दृश-
स्ता एव श्रुतयः फणा दशशतान्यत्यद्भुतान्दोलने2563॥१५॥
अथ2564 संमितत्वम्।
** यावदर्थपदत्वं तु संमितत्वमुदाहृतम्।**
यथा।
काकतीयनरेन्द्रस्य यश2565श्चन्दन2566चर्चनम्2567।
दिगङ्गना वितन्वन्ति वतंसीकृततद्गुणाः॥१६॥
___________________________________________________________
** समर्थने**ति। विस्तर इति समर्थनप्रपञ्चनस्य शब्दात्मकत्वेन ‘प्रथने वावशब्दे’इति घञः प्रतिषेधे ‘ऋदोरप्’इत्यप् प्रत्ययः। ’स तु शब्दस्य विस्तरः’इत्यमरः। लोकेष्विति। अभिनन्दितुमनुमोदितुम्। स्तोत्रादिषु फणिपतिसामर्थ्यं समर्थयते। यदिति। यस्मात् कारणादित्यर्थः। अत एवेदं न काव्यलिङ्गम्। हेतुवाचकविभक्त्यादेरश्रवण एव तस्योत्थानादिति।
यावदिति। यावन्तोऽर्था यावदर्थमिति तद्धितान्तेन विग्रहः। तदुक्तं हरदत्तेन।
‘यावदित्यव्ययं चास्ति तद्धितान्तश्च विद्यते।
अतो नित्यसमासेऽपि तद्धितान्तेन विग्रहः॥’इति।
‘यावदवधारणे’इत्यव्ययीभावः। यावदर्थं पदानि यस्य तस्य भावस्तत्त्वम्। अभिधेयापेक्षया यत्रैकमपि पदं न न्यूनं नाप्यधिकं तत्संभितमित्यर्थः। काकतीयेति। गतमेतत्।
** अथ गाम्भीर्यम्।**
** ध्वनिमत्ता तु गाम्भीर्यम्।**
** यथा।**
विषं कौक्षेयके गङ्गा कीर्त्तौदिग्वसनं रिपौ।
इन्दुर्मुखे च रुद्रस्य काकतीयस्य दृश्यते॥१७॥
** अत्र शंकरस्य कण्ठे विषं मौलौ गङ्गा कटि2568स्थले दिग्वस्त्रं शिरसि चन्द्र इति ध्वन्यते।**
** अथ संक्षेपः।**
** संक्षिप्तार्थाभिधानं यत् संक्षेपः परिकीर्त्त्यते।**
** यथा।**
वंशोऽस्ति काकतीयानां तत्रासन् बहवो नृपाः।
तेषां भाग्यविवर्त्तोऽयं2569 वीररुद्रो नरेश्वरः2570॥१८॥
** अत्रातिविस्तरकथनयोग्यार्थस्य संक्षेपो2571क्तेःसंक्षेपः।**
** अथ सौक्ष्म्यम्।**
** अन्तः संजल्प2572रूपत्वं शब्दानां सौक्ष्म्यमुच्यते।**
** यथा।**
अध्यधःपरिसंश्लिष्टाः2565 ष्ठा2573कृ2574ञ्भूधातवः सदा।
वर्त्तन्ते काकतीयेन्द्रे कर्त्तर्यन्यत्र कर्मणि॥१९॥
ध्वनिमत्त्वमुदाहरणे योजयति। अत्र शङ्करस्येति। वंश इति। भाग्यविवर्त्तोभाग्यपरिपाकः।
** अन्तरि**ति। समीचीनो जल्पः संजल्पः विवक्षितार्थः सोऽन्तःकृतो गर्भितो यत्र तद्रूपत्वमन्तःसञ्जल्परूपत्वं सौक्ष्म्यमित्यर्थः। अध्यधःपरिशब्दैः संश्लिष्टाः संबद्धाः प्राक्प्रयुक्ताभ्यादिशब्दा इत्यर्थः। ष्ठा गतिनिवृत्तौ। डुकृञ् करणे। भू सत्तायामित्येते धातवो ‘भूवादयो धातवः’इत्युक्तलक्षणाः शब्दविशेषाः ष्ठाकृञ्भूधातवः काकतीयेन्द्रे सदा कर्त्तरि वर्त्तन्ते। कर्त्तृवाचिन एव तिवादिप्रत्ययान् दधतीत्यर्थः। अन्यत्र कर्मणि कर्मवाचिनो यगादिप्रत्ययान् दधतीत्यर्थः। एतच्च
** अत्राधितिष्ठत्यधःकरोति परिभवतीत्यन्तःसंजल्प2575रूपत्वात् सौक्ष्म्यं भवति।**
** अथ प्रौढिः।**
** प्रौढिरुक्तेः परीपाकः।**
** यथा।**
बीप्सा पद्मभवस्य चन्द्रमुकुटस्यावृत्तिराम्रेडितं
दैत्यारेः प्रतिबिम्बनं सुरगिरेरिन्दोः समुत्तेजना2576।
कर्णादेः पुनरुद्भवः सुरतरोः सर्वस्वमाविष्क्रिया
स्वर्धेनोरिति तर्कयन्ति कवयः श्रीवीररुद्रप्रभुम्2577॥२०॥
** अथोक्तिः।**
** विदग्धभणितिर्या स्यादुक्तिं तां कवयो विदुः।**
** यथा।**
¹दिठ्ठा2578 कमलासत्ती रण्णो तुह सुहअ2579चित्तचरिअस्स।
भासन्तो वि2580 तुमं तं कुवलअलच्छिं पसाहेसि॥२१॥
___________________________________________________________
न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्येति नियमेन केवलधातोः प्रयोगाभावात् ‘लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः’इति प्रत्ययानामेव कर्त्तृकर्माभिमर्शनदर्शनाच्चेति2581 द्रष्टव्यम्। फलितमाह। अत्राधितिष्ठतीत्यादि।
** प्रौढिरि**ति। परीपाको वैचित्रीविशेषः। वीप्सेति। वीप्सा द्विर्भावः। निमित्तनैमित्तकयोरभेदोपचारात्। आम्रेडितं द्विस्त्रिरुक्तम्2582। प्रतिबिम्बनं प्रतिबिम्बः। समुत्तेजना2583 शाणोल्लीढत्वम्। सर्वत्र द्वितीयब्रह्मादिरूपत्वमित्यर्थः। अत्र वीररुद्रे विरिञ्चिवीप्साद्यारोपलक्षणवैचित्रीवशात् प्रौढिः।
** दिठ्ठे**ति। कमलासक्तिरेकत्र कमलायामन्यत्र कमलेष्वासक्तिः। कुवलयलक्ष्मीं भूमण्डललक्ष्मीमन्यत्रोत्पलसंपदम्। राज्ञश्चन्द्रस्यापि कमलासक्तिः भास्वतः सूर्यस्यापि कुवलयप्रसाधनमित्येवंरूपायां विदग्धभणितावश्लीलं परिह्रियते।
___________________________________________________________
छाया।
¹दृष्टा कमलासक्ती राज्ञस्तव सुभगचित्तचरितस्य।
भास्वानपि त्वं तां कुवलयलक्ष्मीं प्रसाधयसि॥
** अथ रीतिः।**
** यथोपक्रम2584निर्वाहो रीतिरित्यभिधीयते।**
षड् गुणान् सेवते राजा षड्रिपूनवमन्यते।
षड् दर्शनान्युपादत्ते षड् बलानि च वीक्षते॥२२॥
** अथ भाविकम्।**
** भावतो वाक्यवृत्तिर्या भाविकं2585 तदुदाहृतम्।**
** यथा।**
स्वामिंस्तात कुलोत्तंस वीररुद्र जगत्प्रभो।
पुत्रिणां धुरमेषोऽहं पुत्रेणारोपितस्त्वया॥२३॥
** अत्र प्रेमरूपभाववशात् स्वामिंस्तातेति वाक्यवृत्तिः2586।**
** अथ गतिः।**
** गतिर्नाम सुरम्यत्वं स्वरारोहावरोहयोः।**
** यथा।**
प्रकाश्ये त्रैलोक्ये सततमतुलैः काकतिविभो-
र्महोभिर्निःसीमैर्दिनकरकराटोपपटुभिः।
___________________________________________________________
षड् गुणान् सन्ध्यादीन्। ‘सन्धिर्ना विग्रहो यानमासनं द्वैधमाश्रयः। षड्गुणाः’इत्यमरः। षड् रिपून् कामक्रोधादीन्। षड् दर्शनानि पाणिनीयप्रभृतीन्युक्तानि।षड् बलानि मौलादीनि। तदुक्तं मौलेश्वरेण।
‘मौलं भृत्यं तथा मैत्रं स्त्रैणमाटविकं बलम्।
आमित्रमपरं षष्ठं सप्तमं नोपलभ्यते॥’इति।
अत्र पादचतुष्टयेऽप्यादौ षट्पदोपादानाद्यथोपक्रमनिर्वाहेण पतत्प्रकर्षपरिहारिणी रीतिर्द्रष्टव्या।
भावत इति। भावः प्रेमात्रास्तीति भाविकम्। स्वामिन्निति पुत्रं प्रति जनकस्योक्तिः। भाविकं योजयति। अत्र प्रेमेति।
गतिरिति। स्वराणामारोहो दीर्घाक्षरप्रायत्वम्। अवरोहो वैपरीत्यम्2587। प्रकाश्य इति। निःसीमैरिति सूर्यादितेजोव्यतिरेकोक्तिः। वीररुद्रतेजसि विश्वव्या-
तमः कृत्स्नं शोकज्वलदनलरोचिःपरिचयं2588
दधत्स्वप्युद्वेलत्यरिनृप2589मनःस्वेव2590 सततम्॥२४॥
** अत्र पूर्वार्धे दीर्घाक्षरप्रायत्वात् स्वरस्यारोहः। एतेषां2591 गुणानामर्थगतत्वमपि2592 केचिदिच्छन्ति। प्राचामाचार्याणां मतेन संघटनाश्रयत्वमेव2593 गुणानाम्। तदुक्तमलंकारसर्वस्वे। ‘संघटनाधर्मत्वेन शब्दार्थधर्मत्वेन च गुणालंकाराणां व्यवस्थानम्’2594इति। अनयैव भङ्ग्या गुणालंकाराणां सुनिरूपः2595 स्वरूपभेदः2596। अन्यथा स्वरूपभेदस्य दुर्निरूपत्वात्। काव्यशोभाकरत्वमेव गुणालंकारस्वरूपम्। तदुक्तं रुद्र भट्टेन2597।**
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पिनि तमसो वैरिहृदयान्येवावकाश इत्याह। तम इति। तत्राग्निसंनिधानेऽपि तमसो न बाध इत्याह। शोकेति। दधत्स्वपीत्यपिशब्दो विरोधसूचकः। दुःखिता मुह्यन्तीति परिहारः। उद्वेलति विजृम्भते। अत्र पूर्वार्ध इत्यनेनोत्तरार्धे ह्रस्वाक्षरप्रायत्वादवरोह इति द्रष्टव्यम्।
एतेषां गुणानां मतभेदेनार्थगतत्वलक्षणं विशेषमाह। एतेषामिति। तदुक्तं वामनेन।‘एत एवौजःप्रसादप्रभृतयो2598ऽर्थगुणाः’इति। स्वमतमाह। प्राचामिति। संघटनाश्रयत्वमेवेति। बहूनां पदानामेकपदवदवभास2599मानत्वादिलक्षणे श्लेषादावर्थगतत्वस्य दुर्घटत्वादिति भावः। अलंकारसर्वस्व इति। उद्भटादिमतानुवादत्वेने2600ति भावः। अनयैव भङ्ग्येति। संघटनाशब्दार्थरूपाश्रयभेदेनैवेत्यर्थः। अन्यथेति। आश्रयभेदाभाव इत्यर्थः। ननु कथमेतदुपपद्यते‘काव्यशोभायाः कर्त्तारो धर्मा गुणाः। तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः’इति वामनेन स्वरूपभेदस्योक्तत्वादिति चेत् नैतत् साधीयः। विकल्पासहत्वात्। इदं हि तद्दर्शनरहस्यम्। रीतिरात्मा काव्यस्य। रीतिश्च गुणविशिष्टपदरचना। सा वैदभ्यादिभेदेन त्रिविधा। तत्र सर्वगुणविशिष्टा वैदर्भी। कतिपयगुणविशिष्टे गौडीयापाञ्चाल्याविति। तत्र सर्वगुणानां मिलित्वा2601 काव्यशोभाहेतुत्वे गौडपाञ्चालरीत्योरव्याप्तिः। कतिपयानां काव्याशोभाहेतुत्वे
‘यो हेतुः काव्यशोभायाः सोऽलंकारः प्रकीर्त्त्यते।
गुणोऽपि तादृशो ज्ञेयो दोषः स्यात्तद्विपर्ययः॥’
अतो गुणानां संघटनाश्रयत्वमेव युक्तम्।
इति2602 श्री2603विद्यानाथकृतौ प्रतापरुद्रयशोभूषणेऽलंकारशास्त्रे गुणप्रकरण समाप्तम्।
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अद्रावत्र प्रज्वलत्यग्निरुच्चैः
प्राज्यः प्रोद्यन्नुल्लसत्येष धूमः।
इत्यादौपर्वतोऽग्निमानित्यादिशुष्कशास्त्रानुकूल्येन काव्यत्वरहितेऽप्योजःश्लेषा- दिसंभवेनातिव्याप्तिः स्यात्। तस्मान्नास्ति गुणानां तन्मते काव्यशोभाकरत्वम्। न च तन्मूलमलंकाराणां तदतिशयहेतुत्वमिति। स्वमतेऽभिमतसंमतिं च दर्शयति। यो हेतुरिति। उपसंहरति। अत इति। स्वरूपभेदाभावादित्यर्थः। संघटनाश्रयत्वमेव युक्तमिति। भेदकत्वेनेति भावः। एतच्चोद्भटादिमतमवलम्ब्यश्लेषादीनां माधुर्यादावनन्तर्भावमङ्गीकृत्योक्तम्2604। वस्तुतस्तु भामहादिमतेनान्तर्भावे श्लेषादिगुणानां रसधर्मत्वम्। अलंकाराणां तु शब्दार्थधर्मत्वमिति विद्यत एव स्वरूपभेद इति रहस्यम्। अत एव स्वयमेवोक्तवान् काव्यप्रकरणे।
हारादिवदलंकारास्तेऽनुप्रासोपमादयः।
श्लेषादयो गुणास्तत्र शौर्यादय इव स्थिताः॥
आत्मोत्कर्षावहा इति।
इति पदवाक्यप्रमाणपारावारपारीणश्रीमहोपाध्यायकोलचलमल्लिनाथसूरिसूनुना विश्वजनीनविद्यस्य विद्वन्मणेः पेद्दयार्यस्यानुजेन कुमारस्वामिसोमपीथिना विरचिते प्रतापरुद्रीयव्याख्याने रत्नापणाख्याने गुणनिरूपणं नाम षष्ठं प्रकरणम्॥
अलंकारस्वरूपनिरूपणम्।
अथ गुणनिरूपणानन्तरमलंकारा निरूप्यन्ते2605। अलंक्रियतेऽनेनेति चारुत्वहेतुरलंकारः। तथा चोक्तं काव्यप्रकाशे।
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परिशेषादलंकारनिरूपणं प्रतिजानीते। अथेति।
अत्रैतेऽलंकाराश्छेकानुप्रासवृत्यनुपासौ।
यमकं पुनरुक्तवदाभासो लाटोपलालितः प्रासः॥१॥
चित्रमथो उपमानन्वयोपमेयोपमास्मरणम्।
रूपकपरिणामौ द्वौ संदेहभ्रान्त्यपह्नबोल्लेखाः॥२॥
उत्प्रेक्षातिशयोक्ती तथा सहोक्तिर्विनोक्तिश्च।
उक्तीः समासवक्रस्वभावकव्याजपूर्विका विद्यात्॥३॥
मीलनसमानतदतद्गुणा2606विरोधो विरोधश्च।
अधिको विभावनाथो विशेषपूर्वोक्त्यसंगती स्याताम्॥४॥
विचित्रान्योन्यविषमाः समोऽथो तुल्ययोगिता।
दीपकं प्रतिवस्तूपमा दृष्टान्तो निदर्शना॥५॥
व्यतिरेकः श्लेषपरिकराक्षेपा मृषास्तुतिः।
अप्रस्तुतप्रशंसा च पर्यायोक्तं प्रतीपकम्॥६॥
अनुमानं काव्यलिङ्गं न्यासोऽर्थान्तरपूर्वकः।
यथासंख्यार्थापतने परिसंख्योत्तरं तथा॥७॥
वार्थचार्थौद्वौ समाधिर्भाविकं प्रत्यनीककम्।
व्याघातपर्यायसूक्ष्मा उदात्तः परिवृत्तिका॥८॥
हेतुमालैकावली च मालादीपकसारकौ।
संसृष्टिसंकरौचेति पञ्चसप्ततिरीरिताः॥९॥
रसवत् प्रेय ऊर्जस्वी समाहितमथोदयः।
भावस्य संधिः शावल्यं द्व्यशीतिरिति मे मताः॥१०॥
एतेषामलंकारशब्दव्युत्पत्त्या तत्सामान्यलक्षणलाभं मत्वाह। अलंक्रियतेऽनेनेति। अनियमेन रस इति शेषः। ‘अकर्त्तरि च कारके संज्ञायाम्’इति करणे घञ्प्रत्ययः। एतेनैतेषां गुणानामिव रसोपकारासंभवात् तेभ्यो वैलक्षण्यं
‘उपस्कुर्वन्ति2607 तं सन्तं2608 येऽङ्गद्वारेण संश्रिताः2609।
हारादिवदलंकारास्तेऽनुप्रासोपमादयः॥’इति।
यथा करचरणाद्यवयवगतैर्वलयनूपुरादिभिस्तदलंकारतया प्रसिद्धैरवयव्येवालंक्रियते तथा2610 शब्दार्थावयवगतैरनुप्रासोपमादिभिस्तत्तदलंकारतया2611 प्रसिद्धैरवयवीभूतं काव्यमुपस्क्रियते।
आश्रयाश्रयिभावेना2612लंकार्यालंकारभावो लोकवत्2613 काव्येऽपि2614 संमतः। चारुत्वहेतुत्वेऽपि गुणानामलंकाराणां चाश्रयभेदाद्भेदव्यपदेशः2615। संघटनाश्रया गुणाः शब्दार्थाश्रयास्त्वलंकाराः।
तत्र2616 प्रथमं शब्दार्थोभयगतत्वेन त्रैविध्यमलंकाराणाम्। अर्थालंकाराणां2617 चातुर्विध्यम्। केचित् प्रतीयमानवस्तवः। केचित् प्रतीयमानौपम्याः। केचित् प्रतीयमानरसभावादयः। केचिदस्फुटप्रतीयमाना इति।
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सूच्यते। अस्मिन्नेवार्थे वृद्धसंवादमाह। उपस्कुर्वन्तीति2618। येऽङ्गद्वारेण शब्दार्थयोरुत्कर्षाधानद्वारेण तमङ्गिनं रसं सन्तं विद्यमानमुपस्कुर्वन्तीत्यनेन रसाभावे चित्रकाव्ये शब्दार्थवैचित्रीमात्रपर्यवसायित्वमलंकाराणामिति सूच्यते। तेऽलंकाराः कण्ठादीनामुत्कर्षाधानद्वारेण हारादय इव संयोगवृत्त्या वर्त्तन्त इत्यर्थः। न केवलमेव सति रसेऽनुप्रासोपमादिभिः स्वाश्रयभूताः शब्दार्थाएवोपस्क्रियन्ते किं तु तदवयवीभूतं काव्यमपीत्येतल्लौकिकदृष्टान्तेनाह। यथेति। आश्रयाश्रयिभावेनेति। संयोगमूलेनेति शेषः। लोके मूलभूतः संयोगो मुख्यः। अत्र स्वनित्यत्वसाधर्म्यादौपचारिक इति भेदः। अथालंकारविभागं करिष्यमाणस्तदुपयोगितयोद्भटादिमतेनोक्तमेव गुणालंकारभेदमनुवदति। चारुत्वहेतुत्वेऽपीति।
इत्थमलंकारस्वरूपं निरूप्य तद्विभागमाह। तत्र प्रथममिति। शब्दालंकारा अनुप्रासादयः। अर्थालंकारा उपमादयः। उभयालंकारा लाटानुप्रासोभयसंसृष्ट्यादयः। एतेषां तुल्येऽपि काव्यशोभाहेतुत्वे शब्दार्थोभयालंकारब्यवस्थायामाश्रयाश्रयिभाव एव प्रमाणमित्यलंकारसर्वस्वकारः। अन्वयव्यतिरेकाविति काव्यप्रकाशकारः। रसभावादिर्व्यज्यत इति। गुणीभूतव्यङ्ग्यत्वेन प्रतीयत इत्यर्थः।
समासोक्तिपर्यायोक्त्याक्षेपव्याजस्तुत्युपमेयोपमानन्वयातिशयोक्तिपरिकराप्रस्तुतप्रशंसानुक्तनिमित्तविशेषोक्तिषु प्रतीयमानं वस्तु काव्योपस्कारतामु2619पयाति2620।
रूपकपरिणामसंदेहभ्रान्तिमदुल्लेखापह्नवोत्प्रेक्षास्मरणतुल्ययोगितादीपकप्रतिवस्तूपमादृष्टान्तसहोक्तिव्यतिरेकनिदर्शनाश्लेषेष्वौपम्यं गम्यते।
रसवत्प्रेयऊर्जस्विसमाहितभावोदयभावसंधि2621भावशवलतासु रसभावादिर्व्यज्यते2622।
उपमाविनोक्त्यर्थान्तरन्यासविरोधविभावनोक्तगुणविशेषोक्ति2623विषम2624समचित्रा2625धिकान्योन्यकारणमालैकावलीव्याघातमालादीपककाव्यलिङ्गानुमानसारयथासंख्यार्थापत्तिपर्यायपरिवृत्तिपरिसंख्याविकल्पसमुच्चयसमाधिप्रत्यनीकप्रतीपविशेषमीलन2626सामान्यासंगतितद्गुणातद्गुणव्याजोक्तिवक्रोक्तिस्वभावोक्तिभाविकोदात्तेषु सहृदयहृदयाह्लादि स्फुटं प्रतीयमानं नास्ति।
अत्रेत्थमलंकारकक्ष्याविभागः।
साधर्म्यं त्रिविधम्। भेदप्रधानमभेदप्रधानं भेदाभेदप्रधानं चेति। उपमानोपमेययोः स्वतो भिन्नत्वाच्छाब्दमेतन्न वास्तवम्।
रूपकपरिणाम2627संदेहभ्रान्तिमदुल्लेखापह्नवानामभेदप्रधानसाधर्म्यनिवन्धनत्वम्।
दीपकतुल्ययोगितादृष्टान्तनिदर्शना2628प्रतिवस्तूपमासहोक्तिप्रतीपव्यतिरेकाः भेदप्रधानसाधर्म्यनिबन्धनाः।
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चतुर्धा विभक्तेष्वलंकारेष्ववान्तरविभागं प्रतिज्ञापूर्वकमाह। अत्रेति। इत्थं वक्ष्यमाणप्रकारेण। कक्ष्याविभागः साधर्म्यविरोधादिमूलत्वेनालंकाराणां वर्गशो विभाग इत्यर्थः। एतदभेदप्रधानत्वं शाब्दमारोपितं न वास्तवं न स्वाभाविकम्।
उपमानन्वयोपमेयोपमास्मरणानां भेदाभेदसाधारणसाधर्म्यमूलता। उत्प्रेक्षातिशयोक्ती अध्यवसायमूले।
विभावनाविशेषोक्तिविषम2629चित्रा2630संगत्यन्योन्यव्याघातातद्गुणभाविकविशेषाणां विरोधमूलता।
यथासंख्यपरिसंख्यार्थापत्तिविकल्पसमुच्चयानां वाक्यन्यायमूलता।
परिवृत्तिप्रत्यनीकतद्गुणसमाधिसमस्वभावोक्त्युदात्तविनोक्तयो लोक2631व्यवहारमूलाः।
काव्यलिङ्गानुमानार्थान्तरन्यासानां तर्कन्यायमूलता2632।
कारणमालैकावलीमालादीपकसाराः शृङ्खलावैचित्र्यमूलाः2633।
व्याजोक्तिवक्रोक्तिमीलनान्यपह्नवमूलानि2634।
समासोक्तिपरिकरौ विशेषणवैचित्र्यमूलौ।
अथालंकारणां परस्परवैलक्षण्यं2635 निरूप्यते2636।
आरोपगर्भत्वेऽप्यारोप्यमाणस्य प्रकृतोपयोगानुपयोगाभ्यां परिणामरूपकयोर्भेदः।
आरोपविषयस्पारोप्यमाणरूपसंभवासंभवाभ्यामुल्लेखरूपकयोर्भेदः।
आरोपविषयस्य संदेहभ्रान्त्यपह्नवैः संदेहभ्रान्तिमदपह्नवानां2637 परस्परं भेदः2638।
साधर्म्यमूलत्वेऽपि तुल्ययोगितादीपकनिदर्शनाव्यतिरेकदृष्टान्तेभ्यः साधर्म्यस्य2639 वाच्यत्वादुपमानन्वयोपमेयोपमा भिद्यन्ते।
साधर्म्यस्य वाच्यत्वगम्यत्वाभ्यामुपमेयोपमाप्रतिवस्तूपमयोर्भेदः।
** वस्तुप्रतिवस्तुविम्बप्रतिविम्बभावाभ्यां प्रतिवस्तूपमादृष्टान्तयोर्भेदः।**
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अथालंकाराणामत्यन्तविवेकार्थं मिथो वैधर्म्यमाह। अथा2640लंकारणां परस्परवैलक्षण्यं निरूप्यत इत्यादिना। शिष्टमन्यदुदाहणप्रस्ताव एवस्पष्टीभविष्यतीति नेह विविच्यते।
प्रस्तुताप्रस्तुतानां व्यस्तसमस्तत्वाभ्यां2641 तुल्ययोगितादीपकयोर्भेदः।
उपमानस्य प्रसिद्धत्वाप्रसिद्धत्वाभ्यामुपमोत्प्रेक्षयोर्भेदः।
अर्थसाम्यशब्दसाम्याभ्यामुपमाश्लेषयोर्भेदः।
उपमानोपमेययो2642र्भेदाभेदाभ्यामुपमानन्वययोर्भेदः।
उपमानोपमेयभावस्य पर्याययौगपद्याभ्यामुपमेयोपमोपमयोर्भेदः।
अप्रस्तुतस्य वाच्यत्वगम्यत्वाभ्यामप्रस्तुतप्रशंसासमासोक्त्योर्भेदः।
वाच्यव्यङ्ग्ययोः प्रस्तुतत्वे2643 पर्यायोक्तिः। वाच्यस्याप्रस्तुतत्वेऽप्रस्तुतप्रशंसा।
व्यातिपक्षधर्मताद्यभावात् काव्यलिङ्गस्यानुमानाद्भेदः।
साधारणगुणयोगाद् भेदानुपलब्धौ सामान्यम्। उत्कृष्टगुणयोगान्न्यूनगुणतिरोधाने2644 मीलनम्2645।
अन्य2646व्यवच्छेदे2647 तात्पर्याभावादुदात्तालंकारस्य2648 परिसंख्यातो भेदः।
काकतालीयतया कार्यसाधने कारणान्तरोपनिपाते समाधिः।
अहमहमिकया कार्यसाधने बहूनां कारणानामुद्यमे द्वितीयः समुच्चयः2649।
निह्ववस्य वाच्यत्वगम्यत्वाभ्यामपह्नवव्याजस्तुत्योर्भेदः।
अन्येषां भेदः स्पष्ट एव। यद्यपि व्याजोक्तिवक्रोक्ति2650मलिनसामान्येषु कथंचित् सादृश्यमस्ति तथाप्यविवक्षितत्वान्न सादृश्यमूलेषु गणना।
शब्दालंकारा निरूप्यन्ते।
अथालंकारस्वरूपविभागानन्तरं शब्दार्थयोर्मध्ये शब्दस्यार्थंप्रत्यन्तरंगत्वात्2651 प्रथमं शब्दालंकारा निरूप्यन्ते।
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इत्थमलंकाराणां पीठिकां विधाय शब्दालंकारनिरूपणं प्रस्तौति। अथेति। तत्प्राथम्ये हेतुमाह। शब्दस्येति। अत्र शब्दप्रतीतिपूर्वकत्वादर्थप्रतीतेः शब्दस्य प्रतीतावन्तरङ्गत्वं तेन तस्य प्राधान्यात् प्राथम्यमिति भावः। प्रथमं तावच्छब्दा-
छेकानुप्रासः।
भवेदव्यवधानेन द्वयोर्व्यञ्जनयुग्मयोः।
आवृत्तिर्यत्र सबुधै2652श्छेकानुप्रास इष्यते॥
यत्राव्यवहितयोर्व्यञ्जनयुग्मयोर्द्वयोः पौनरुक्त्यं तत्र छेकानुप्रासः।
यथा
महीमहीनविभवे धत्ते क्षेमंकरे करे।
राजन्यजन्यविजयी राजा राजद्गुणोदयः॥१॥
वृत्त्यनुप्रासः।
एकद्विप्रभृतीनां तु व्यञ्जनानां यथा2653 भवेत्।
पुनरुक्तिरसौ नाम वृत्त्यनुप्रास इष्यते॥
यथा।
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र्थोभयगतत्वेन त्रिविधं पौनरुक्त्यम्। तत्राद्ये केवलस्वरपौनरुक्त्यस्य चारुताहेतुत्वाभावाद् व्यञ्जनमात्रपौनरुक्त्यम्। स्वरव्यञ्जनसमुदायपौनरुक्त्यं च चारुताहेतुः। तत्राद्यमपि संख्यानियमे छेकानुप्रासः। वैपरीत्ये वृत्त्यनुप्रास इति सर्वस्वकारः। तदनुसारेण छेकानुप्रासं लक्षयति। भवेदिति। रसाद्यनुगतः प्रकृष्टो न्यासोऽनुप्रासः। तदुक्तम्।
‘प्रकृष्टो वर्णविन्यासो रसाद्यनुगतो हि यः।
सोऽनुप्रासः स च छेकवृत्त्युपाधिगतो द्विधा॥’ इति।
गृहचराः पक्षिमृगादयश्छेका इति केचित्। विदग्धा इति सर्वस्वकारादयः। तदुपलालितोऽनुप्रासः छेकानुप्रासः। द्वयोरित्यत्र वीप्सा द्रष्टव्या। तेन यत्र द्वयोर्व्यञ्जनयुग्मयोरव्यवधानेनावृत्तिः स छेकानुप्रास इत्यर्थः। उदाहरति। महीमिति। अहीनविभवे फणीन्द्रसदृश इत्यर्थः। करे बाहौ। राजन्याः क्षत्रियाः। ‘राजश्वसुराद्यत्’इति यत्प्रत्ययः। जन्यं युद्धम्। अत्र पादचतुष्टयेऽपि व्यञ्जनयुग्मानामव्यवधानावृत्तेश्छेकानुप्रास इति द्रष्टव्यम्।
संख्यानियमेन छेकानुप्रासमुक्त्वान्यथा वृत्यनुप्रासमाह। एकेति। प्रभृतिग्रहणात् त्रिचतुरादिसंग्रहः। अत्रैकस्य व्यञ्जनस्य सकृदावृत्तौ वैचित्र्याभावात्
रे रे क्षुद्रमहीक्षितः2654 क्षणमितः श्रीकाकतिक्ष्मापते-
र्वीक्षध्वं ध्वजिनीं दुरीक्ष्य2655सुभटां प्रोक्षिप्तकौक्षेयकैः।
योत्स्यध्वे2656 यदि लभ्यमक्षयपदं कान्तारपक्षो वृथा
क्ष्माभृत्कुक्षिचरत्तरक्षुनिकरात्तत्रा2657त्मरक्षा कुतः॥२॥
यमकम्
यमकं पौनरुक्त्ये तु स्वरव्यञ्जनयुग्मयोः।
छेकानुप्रासे वृत्त्यनुप्रासे2658 च स्वरपौनरुक्त्यमानुषङ्गिकम्। यमके तु स्वव्यञ्जनयोरावृत्तिः2659। तस्यादिमध्यान्तगतत्वेन बहवो भेदाः। अत्र दिङ्मात्रमुदाह्रियते।
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सामर्थ्यादसकृदावृत्तिर्लभ्यते। द्वयोस्तु सकृदेव। अन्यथा छेकानुप्रासः स्यात्। व्यवधाने त्वसकृदावृत्तावपि न विरोधः। त्र्यादीनां तु सकृदसकृद्वा व्यवधानेनाव्यवधानेन वावृत्तिर्द्रष्टव्या। वृत्तिशब्देन वैदर्भ्यादयो विवक्षिताः। तदुपलक्षितानुप्रासो वृत्यनुप्रासः। उदाहरति। रे रे इति। योत्स्यध्वे हनिष्यध्वे यदि। युध संप्रहारे इत्यस्माद्धातोः कर्मणि लृट्। लभ्यमक्षयपदमिति।
‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ।
परिव्राड्योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः॥’
इति स्मरणादिति भावः। कान्तारपक्षोऽरण्यनिवासपक्षः। तरक्षुनिकरात् मृगादनयूयात् दुर्मरणकारणादरण्यनिवासाच्छुभोदर्कं2660 युद्धमरणमेव श्रेय इति भावः। अत्रासकृत्क्षकारावृत्त्या वृत्त्यनुप्रासः। एवमन्येऽपि भेदाः सूर्यशतकादौ द्रष्टव्याः।
व्यञ्जनमात्रपौनरुक्त्याश्रयमलंकारद्वयमुक्त्वा स्वरव्यञ्जनपौनरुक्त्याश्रयमलंकारमाह। यमकमिति। ननु महीमहीनविभव इत्यादौ छेकानुप्रासे ‘युधिष्ठिरं द्वैतवने वनेचरः’इत्यादावेकदा सादृश्यलक्षणे नृत्यनुप्रासे च स्वरपौनरुक्त्यसंभवात् कथं तत्र व्यञ्जनमात्रपौनरुक्त्यमित्याशङ्क्य परिहरति। छेकानुप्रास इति। अनुषङ्गादागतमानुषङ्गिकम्। अन्वाचयविशिष्टमभ्युच्चय इत्यर्थः। स्वरव्यञ्जनयुग्मयोरित्यत्र स्वरसहितव्यञ्जनेति मध्यमपदलोपी समासो विवक्षित इति व्याचष्टे। यमके त्विति। तच्च यम्यमानानां पादैकदेशानामादिमध्यमान्त-
प्रतापः काकतीन्द्रस्य महामहिमतेजसः।
श्रियं दधाति पद्मेष्ट2661महामहिमतेजसः॥३॥
पुनरुक्तवदाभासः।
यत्रार्थः प्रमुखे किंचिद् भासते पुनरुक्तवत्2662।
पुनरुक्तवदाभासोऽलंकारः स सतां मतः2663॥
यत्रार्थः पुनरुक्तवदाभासते अन्वयवेलायामन्यथा भवति स पुनरुक्तवदाभासोऽलंकारः। अर्थालंकारत्वेऽप्यस्य2664 शब्दपौनरुक्त्याश्रितत्वाच्छन्दालंकारप्रस्तावे लक्षणं कृतम्।
यथा।
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गतत्वेनानेकविधभित्याह। तस्येति। एतच्च श्लोकार्धपादयमकानामप्युपलक्षणम्। सर्वेऽप्येते भेदाश्चिरन्तनैरेव बहुधा प्रपञ्चिताः। गुरुत्वभीतत्वान्नेह2665 प्रपश्यन्ते। तत्रैकमुदाहरति। प्रताप इति। महान् महिमा आधिक्यं यस्य तेजसो महामहिमतेजसः काकतीन्द्रस्य प्रतापः। पद्मेष्टमहां पद्मप्रियोत्सवाम्। अहिमतेजसः उष्णांशोः श्रियं दधाति। अत्र द्वितीयपादस्य चतुर्थे यमनात् संदष्टयमकं नाम यमकभेदः। तदुक्तमन्यत्र। अत्र यम्यमानयोरुभयोः सार्थकत्वं ‘विहगाः कदम्बसुरभाविह गाः’इत्यत्रैकस्य सार्थकत्वमन्यस्या2666नर्थकत्वम्। कलयन्त्यनुक्षणमनेकलयम्’इत्यत्रोभयोरनर्थकत्वम्। एवं सर्वेष्वपि यमकेषु प्रकारत्रयं यथासंभवं द्रष्टव्यम्।
शब्दपौनरुक्त्याश्रितानलंकारानभिधायार्थपौनरुक्त्यमूलमलंकारमाह। यत्रेति। यत्रालंकारेऽर्थः प्रमुखे2667 प्रथमं पुनरुक्तवत् पुनरुतेन तुल्यमत एव किंचित् किमप्यनन्वितो भासते परमार्थतस्तु अन्यथा पर्यवस्यतीत्यर्थः। अर्थपौनरुक्त्यस्य प्ररूढदोषत्वात् तदेतन्निष्कृष्य व्याचष्टे। यत्रार्थ इत्यादिना। नन्वस्य शब्दालंकारप्रस्तावे का संगतिरत आह। अर्थेति। अर्थपौनरुक्त्यादेवार्थाश्रितत्वादर्थालंकारे सत्यपीत्यर्थः। शब्दपौनरुक्त्याश्रितत्वादिति। पर्यायशब्दाश्रितत्वादित्यर्थः। आम्रेडितशब्दवत् पर्यायशब्देष्वप्यर्थैकत्वसादृश्यादौपचारिकं शब्दपौ-
जिष्णुरिन्द्रः क्षितिभुजां श्रीपतिः पुरुषोत्तमः।
भास्वान् सूर्यस्फुरत्तेजाः काकतीन्द्रो विराजते॥४॥
अथोभयपौनरुक्त्यालंकारः कथ्यते।
लाटानुप्रासः।
शब्दार्थयोः पौनरुक्यं यत्र तात्पर्यभेदवत्।
स काव्यतात्पर्यविदां2668 लाटानुप्रास इष्यते॥
यत्र शब्दार्थयोस्तात्पर्यभेदमात्रं न स्वरूपभेदस्तत्र लाटानुप्रासः।
यथा।
गुणा गुणास्ते गण्यन्ते ये रुद्रनृपमाश्रिताः।
नीतिर्नीतिरसौ तस्य लक्ष्मीर्लक्ष्मीश्च कथ्यते2669॥५॥
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नरुक्त्यं दृष्टव्यम्। उदाहरति। जिष्णुरिति। जयशीलो जिष्णुः। क्षितिभुजामिन्द्रो राजाग्रणीः। श्रीपतिः समुद्रः। पुरुषोत्तमः पुरुषश्रेष्ठः। भास्वान् दीप्तिमान्। सूर्य इव स्फुरत्तेजाः स्फुरत्प्रतापः। तत्र जिष्णादीनामिन्द्रादिपर्यायप्रयोगेण प्रमुखे भासमानस्य पौनरुक्त्यस्योक्तप्रकारेणान्वयवेलायामन्यथा पर्यवसानात् पुनरुक्तवदाभास इति भावः।
केचित् पुनरेवमाहुः। ‘भाति सदानत्यागः स्थिरतायाम्’इत्यत्र सत्पुरुषप्रणामेन प्रकाशते स्थैर्ये पर्वतभूत इत्यस्यार्थस्य दानत्यागशब्दपरिवृत्ता2670वसंभवाच्छब्दालंकारोऽयम्2671। ‘तनुवपुः’इत्यत्र कृशाङ्ग इत्यस्मिन्नर्थे तनुशब्दपरिवृत्तौ2672 नायमलंकार इति शब्दाश्रयत्वं वपुःशब्दविपरिवृत्तौ नालंकारत्वहानिरित्यर्थाश्रयत्वम्। अत उभयालंकारोऽप्ययमिति। तदुक्तं काव्यप्रकाशे।
‘पुनरुक्तवदाभासो विभिन्नाकारशब्दभाक्।
एकार्थतैव शब्दस्य तथा शब्दार्थयोरयम्॥’इति।
शब्दार्थयोरेकैकपौनरुक्त्यमूलानलंकारानभिधायोभयपौनरुक्त्यमूलमलंकारं प्रतिज्ञापूर्वकमाह। अथेत्यादिना। शब्दार्थयोः पौनरुक्त्यं प्ररूढदोषः तद्व्यवच्छेदार्थं तात्पर्यभेदवदिति। अनेन यमकव्यावर्त्तकशब्दार्थयोः स्वरूपभेदाभावः फलित इति व्याचष्टे। यत्रेति। लाटजनोपलालितोऽनुप्रासो लाटानुप्रासः। न तु लाटदेशजन्यः कश्चनोपकारः काव्यस्य इति गोपालः। उदाहरति। गुणा
चित्रालंकारः पद्मबन्धादिः।
पद्माद्याकारहेतुत्वे वर्णानां चित्रमुच्यते2673।
आदिग्रहणाच्चक्रबन्धादयः।
तत्राष्टदलपद्मबन्धो यथा।
याता यस्यासमग्रा2674नतिमिह कनकास्थान2675सक्तासनाया
यानासकासनस्था सुखयतु कमलाभ्याससुज्ञानमाया।
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इति। असौ वीररुद्रसंबन्धिनी। अत्र द्वितीयगुणादिशब्दानामुत्कर्षलक्षणस्तात्पर्यभेदः। ‘अत्राब्जपत्रनयने नयने ‘निमील्य’ इत्यादौ2676 विभक्त्यादेरपौनरुक्त्येऽपि शब्दार्थपौनरुक्त्याल्लाटानुप्रासत्वम्। अत एवायं पदाश्रयः प्रातिपदिकाश्रयश्चेति द्वेधा लाटानुप्रास इति सर्वस्वकारः। उद्भटेनाप्युक्तम्।
‘स्वरूपार्थाविशेषेऽपि पुनरुक्तिः फलान्तरात्।
शब्दानां प्रकृतीनां वा2677 लाटानुप्रास इष्यते॥’इति॥
ननु युद्धेऽर्जुनोऽर्जुन इवेत्यत्रैकैकस्यैवोपमानोपमेयत्वलक्षणे अनन्वयालंकारेऽपि शब्दार्थपौनरुक्त्यसंभवाल्लाटानुप्रासत्वमेव किं नेष्यते। सत्यम्। यदप्यनन्वयेऽर्थपौनरुक्त्यमात्रं लक्षणं तथापि निर्देशप्रतिनिर्देशयोरैकरूप्याभावे पर्यायप्रक्रमदोषप्रसङ्गादानुषङ्गिकं शब्दपौनरुक्त्यम्। अत्र तूभयपौनरुक्त्यमप्यावश्यकमेवेति विषयभेदान्न कोऽपि विरोधः। तदुक्तम्।
‘अनन्वये च शब्दैक्यमौचित्यादानुषङ्गिकम्।
अस्मिंस्तु लाटानुप्रासे साक्षादेव प्रयोजकम्॥’इति।
चित्रं लक्षयति। पद्मेति। न च श्रावणानां वर्णानां पद्माद्याकारहेतुत्वं न घटत इति वाच्यम्। वर्णशब्देन तत्स्मारकाणां लिप्यक्षराणामाक्षेपात् तेषां मुख्यवर्णाभेदेन लोकव्यवहारा2678दस्य शब्दालंकारत्वम्। पद्मादिवन्धेषु कर्णिकादिस्थानविशेषेषु वर्णानां पौनरुक्त्यात् पौनरुक्त्यमूलालंकारानन्तर्यंच2679 दृष्टव्यम्। यातेति। कनकास्थाने सुवर्णमयसभामण्डपे सक्तं स्थितमासनं सिंहासनमयति प्राप्नोतीति कनकास्थानसक्तासनाया। अयतेः कर्मण्यण्प्रत्ययः। यानेषु तुरगादिष्वासक्ता-
या मानज्ञा सुसभ्या क्षितिपतितिलकं2680 ज्ञातिरक्ता सगेया
यागे सक्ता रतिज्ञा सुकृतिषु फलितग्रामसस्यायताया॥६॥
अष्टदलपद्मबन्धोऽयम्।
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न्यासनानि पल्ययनादीनि तत्र तिष्ठतीति यानासक्तासनस्था। राज्योपकरणेषु लक्ष्मीरस्तीत्यागमः। अभ्यासेन परिचयेनोपासनयेत्यर्थः। सुखेन ज्ञायते इति सुज्ञाना। ‘कृत्यलुटो बहुलम्’इति कर्मणि ल्युट्। माया स्वरूपवैचित्री यस्याः सा अभ्याससुज्ञानमाया। अनुपासकानां दुरवबोधस्वरूपेत्यर्थः। मानं पूजां जानातीति मानज्ञा। सभायां साधवः सभ्याः। ‘सभाया यः’इति यप्रत्ययः। ते शोभना यस्याः सा सुसभ्या। सम्पन्नस्यैव सभ्याश्रयत्वादिति भावः। जानन्तीति ज्ञाः विवेकिनः। ‘इगुपध—’इत्यादिना कप्रत्ययः। तत्रातिरिक्ता। गीयते इति गेयं गानं तेन सह वर्त्तत इति सगेया स्वनामाङ्कानेकगीतेत्यर्थः।
चक्रबन्धो यथा।
लक्ष्मीवीक्षितवैभवस्य जगतां नाथस्य भद्रश्रियो
दिक्ष्वारब्धनिजप्रतापजनितां भाकृद्धुरां यच्छतः।
नित्यं रुद्रजनाधिपस्य जयिनो भाति प्रकाशस्थिरा
राजत्पालनमोदितात्मनि भुजे योग्याश्रितत्वाद्धरा॥७॥
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यागे सक्ता संबद्धा। समृद्धस्यैव तत्राधिकारादिति भावः। रतिं स्वविषयाभिरतिंभक्तिं जानातीति रतिज्ञा। अत एव सुकृतिविषये2681 फलितैर्ग्रामसस्यैः कार्यैरायतो महान् अयः शुभावहो विधिर्यस्याः सा तथोक्ता। स्वभक्तानां ग्रामादिसंपादनेन प्रकटितस्वानुग्रहेत्यर्थः। एवंविधा या लक्ष्मीर्यस्य विभोरासमग्रामतिसंपूर्णामानतिं वश्यत्वं याता सा कमला लक्ष्मीस्तं क्षितिपतितिलकं वीररुद्रमिहैव लोके जन्मनि वा सुखयतु सुखवन्तं करोतु। अयमष्टदलपद्मबन्धः। उद्धारस्तु।
‘कर्णिकादि लिखेद्वर्णान् क्रमाद्दिक्षु विदिक्षु च।
सकर्णिकां सप्तदिक्षु विदिक्षु तु विकर्णिकान्2682॥
प्रवेशनिर्गमाभ्यां तु दिक्षु ते स्युश्चतुर्दश।
व्यवधानेन तानाद्ये दलेऽन्यत्र त्वनन्तरान्॥’इति।
चक्रबन्धमुदाहरति। लक्ष्मीति। कोशागारनियुक्तयेव लक्ष्म्या वीक्षितवैभवस्य विचारितैश्वर्यस्य। भद्रश्रियः कल्याणमूर्त्तेरित्यर्थः। आरब्धः संवर्धितः। भाकृद्धुरां भास्करभावं निजप्रतापेन दिक्षु सूर्यकृत्यं कुर्वत इत्यर्थः। राजत्पालनेन सम्यक्संरक्षणेन मोदितात्मनि सर्वैरनुमोदितस्वरूपे भुजे। अत एव योग्याश्रितत्वात् प्रकाशं व्यक्तत्वं स्थिरा निश्चितस्थैर्येत्यर्थः। धरा भूमिर्नित्यं भाति। उद्धारस्तु
‘बद्ध्यते षडरं चक्रं प्रत्यरं तन्नवाक्षरम्।
त्रयाणामपि पादानां दशमं कर्णिकाक्षरम्॥१॥
आदितः स्वस्वतुर्यारैस्रयः पादाश्चतुर्थगाः।
वर्णाः षष्ठान्त्यमारभ्य संपतन्ते2683ऽन्तिमाक्षरैः॥२॥
मध्ये द्वौ द्वौ विसंवादौ षडरेषु क्रमाद् भवेत्।
चतुर्थैःसप्तमैर्वर्णैर्वर्णनं कविवर्णयोः॥३॥’इति।
अत्र वै2684जनाथ2685कृति वीर2686रुद्रयश इति प्रतीयते।
चक्रबन्धोऽयम्।
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नागबन्धो यथा।
ओजस्ये रुद्रदेवे विभवति महिमत्याजितान्यप्रतापे
विद्यावर्येऽभिनेतर्युरुहरिचरितं विश्वविस्तारभाजि।
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नागबन्धमुदाहरति। ओजस्य इति। ओजो बलं तत्र साधुरोजस्यः प्रबलः। यद्वाहर्वाचिनौजस्यशब्देनाहस्करो लक्ष्यते तेन ओजस्ये सूर्यसदृशे इत्यर्थः। ‘ओजसोऽहनि यत्खौ’इति यत्प्रत्ययस्य च्छान्दसत्वेऽपि दूत्यशिवतातिबदस्य भाषायां प्रयोगो द्रष्टव्यः। महिमत्याजितोऽन्येषां प्रतापो येन तस्मिन् तथोक्ते। विद्याभिर्वेदवेदाङ्गादिभिर्वर्ये श्रेष्ठे उर्वधिकं हरिचरितमभिनेतर्यनुकुर्वतिविष्णु2687सदृश इत्यर्थः। ‘न लोक—’इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः। विश्वविस्तारं भरणीयत्वेन भजतीति विश्वविस्तार2688भाक्। तस्मिन् विभवति विभौसति अतिमलिनख्यातयो वैरिव्राताः शत्रुसंधा देहविद्धा रणे विद्धदेहाः सन्तो वन्यैर्जन्तुभिर्व्यालमृगेःसह क्षतिः क्षयः तद्वति। विविधे नानाविधदुःखभाजन इत्यर्थः। अवा-
वैरिव्राता भजन्ते2689 वनमतिमलिनख्यातयो2690 देहविद्धा
वन्यैरध्वन्यवारि क्षतिमति2691 विविधे जन्तुभिः स्थानभाजः2692॥८॥
नागबन्धोऽयम्।
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र्यनुदके अध्वनि मरुदेशे इत्यर्थः। ‘आपःस्त्री भूम्नि वार्बारि’इत्यमरः। स्थानभाजः स्थितिंप्राप्ताः सन्तो वनं भजन्ते सेवन्ते। उद्धारस्तु।
इति2693 श्री2694विद्यानाथकृतौ प्रतापरुद्रयशोभूषणेऽलंकारशास्त्रे शब्दालंकारप्रकरणं समाप्तम्।
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‘रेखाभ्यां चतुरश्राणि चतुष्कोष्ठानि कल्पयेत्।
रेखाद्वयान्तराले स्याद्यथाकोष्ठे गृहाष्टकम्॥१॥
विदिक्षु कुण्डलीकुर्यात् तद्रेखाग्रैर्यथाक्रमम्।
दिग्रेस्वाग्राणि बाह्यानि योजयेत् दिक्त्रये मिथः॥२॥
एकत्र तु फणापुच्छमेलनं कल्पयेत् तथा।
अन्तराण्यक्षयीकुर्यात्2695 संदशाः स्युर्यथा2696 मिथः॥३॥
वर्णावृत्तिस्थलान्यत्र कोष्ठकोणानि षोडश।
सन्दशानां चतुष्कं च कण्ठश्रेत्येकविंशतिः॥४॥
आवृत्तिर्युग्मवर्णानां नेतरेषामिह क्वचित्।
अर्केशानदशब्रह्मवर्णाः पादचतुष्कगाः॥५॥
आवर्त्तेरन्नैर्ऋतादिकुण्डलेष्वप्रदक्षिणम्2697।
यथैवं स्यात् तथा वर्णान् फणातो विन्यसेत् क्रमात्॥६॥
त्रिंशदष्टाविंशतिश्च षड्विंशतिरनुक्रमात्।
वेष्टनत्रितये वर्णाः समाप्तिस्तु गलाक्षरे॥७॥
एवमेतन्निधायान्तः संगृहीतं महात्मभिः॥
विदिक्स्थले कुण्डलितं2698 स्वमङ्गं2699
स्वेन त्रिरावेष्ट्य विभङ्गिभङ्गम्।
क्षिप्त्वा गले पुच्छमहेः स्थितस्य
पाठ्यः फणातः फणिबन्ध एषः॥८॥’ इति॥
इति पदवाक्यप्रमाणपारावारपारीणश्रीमहोपाध्यायकोलचलमल्लिनाथसूरिसूनुना विश्वजनीनविद्यस्य विद्वन्मणेः पेद्दयार्यस्यानुजेन कुमारस्वामिसोमपीथिना विरचिते प्रतापरुद्रीयव्याख्याने रत्नापणाख्याने शब्दालंकारनिरूपणं नाम सप्तमं प्रकरणम्॥
अथार्थालंकाराः।
तत्र प्रथममनेकालंकारबीजभूतत्वादुपमा निरूप्यते।
स्वतः सिद्धेन भिन्नेन संमतेन च धर्मतः।
साम्यमन्येन वर्ण्यस्य वाच्यं चेदेकदोपमा॥
यत्र स्वतः सिद्धेन स्वतो भिन्नेन सहृदयसंमतेनाप्रकृतेन सह प्रकृतस्य धर्मतः1348 सादृश्यमेकदा वाच्यं चेद् भवति तत्रोपमा। स्वतः सिद्धेनेत्यनेनोत्प्रेक्षाव्यावृत्तिः। उत्प्रेक्षायामप्रसिद्धस्याप्युपमानत्वसंभवात्
^(२)यथा
कीर्त्तिः काकतिवीररुद्रनृपतेः सिंहासनाध्यासिनः
प्राचां भूमिभुजां यशः पिदधती कोटीन्दुतुल्यद्युतिः2700।
रक्षादक्षिणराजलाभजनिता मन्दप्रमोदोत्थिता
त्रैलोक्याट्टहसप्रभेव ककुभां प्रान्तेषु विद्योतते॥१॥
अत्र2701 प्रभाशब्दो जातिवचनः त्रैलोक्याट्टहासप्रभायाः कविप्रौढोक्तिसिद्धत्वान्नोपमाशंकावकाशः।
स्वतो भिन्नेनेत्यनेनानन्वयव्यावृत्तिः। अनन्वय एकस्यैवोपमानोपमेयत्वसंभवात्।
तथा हि
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शब्दालंकारनिरूपणानन्तरमवसरप्राप्तत्वादर्थालंकारनिरूपणं प्रतिजानीते।अथेति। प्रथममुपमानिरूपणे निमित्तमाह। तत्रेति। अत्रार्थलंकारेष्वित्यर्थः। अनेकालंकारबीजभूतत्वादिति। वाच्यौपम्यानामनन्वयादीनां गम्यौपम्यानां च रूपकादीनामन्येषां च सादृश्यमूलानां मीलनादीनां निदानभूतत्वादि2702त्यर्थः। लक्षयति। स्वत इति। धर्मतो गुणक्रिययोरन्यतरेणेत्यर्थः। साम्यमित्यनेन कार्यकारणादिकयोरसंभवात् साधर्म्यादन्यवर्ण्यशब्दयोरुपमानोपमेयार्थत्वं द्रष्टब्यम्। अत्रानुषङ्गाध्याहारादिभिः शिष्टमंशं पूरयन् व्याचष्टे। यत्रेति।
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२. Portions from यथा कीर्त्तिः° to °शंकावकाशः, from तथा हि to स्वयम्, from यथा to °त्युपमेवेयम्, from तथा हि to श्लेष एव, from तथा हि to नोपमा, from धर्मोऽयंइव to °त्युपमेयोपमा, and from तथा हि to °न्नोपमाशङ्का are omitted in P. and M.
सन्तु लोके सुवर्णादिरत्नाकरसुधाकराः।
तथापि वीररुद्रोऽयं वीररुद्र इव स्वयम्॥२॥
संमतेनेत्यनेन न्यूनोपमादिव्यावृत्तिः2703।
यथा
उदन्वानिव गम्भीरः सुवर्णादिरिवोन्नतः।
दिङ्महेन्द्र इव क्षोणी2704धौरेयकाकतीश्वरः॥३॥
अत्र समुद्रसुवर्णादिदिग्गजानामुपमानत्वं2705 योग्यमित्युपमैवेयम्।
धर्मत इत्यनेन श्लेषालंकारवैलक्षण्यम्2706। श्लेषे शब्दसाम्यमात्रमभ्युपगतं न गुणक्रियासाम्यम्2707।
तथाहि
नीराजयन्त्यन्ध्रपुरीरमण्यः
प्रदीपजालैर्वरवीररुद्रम्।
चन्द्रानना गोत्रपतिं रजन्य-
स्तारागणैर्मेरुमिव स्फुरद्भिः॥४॥
अत्र प्रतापरुद्रं पुरस्त्रियो नीराजयन्ति मेरुं रजन्य इवेति नोपमा। गोत्रपतिमिति विशेषणार्थस्य साम्यासंभवात्2708। राजपक्षे गोत्रशब्देन2709 कुलप्रतीतिः मेरुपक्षे गोत्रशब्देन2710 पर्वतप्रतीतिः। तथा चन्द्रानना इति
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व्यावृत्त्यादिकं तु स्वयमेव व्यक्तीकरिष्यते।
** न्यूनोपमादी**ति। न्यूनविशेषणोपमानं न्यूनोपमम्। आदिग्रहणादधिकोपमादिसंग्रहः सहृदयसंमतिं दर्शयति। उदन्वानिति। ‘उदन्वानुदधौ च’ इति निपातनात् साधुः। धुरं वहतीति धौरेयो धुरन्धरः। ‘धुरो यड्ढको’ इति ढक्प्रत्ययः। क्षौण्या धौरेय इति शिवभागवत् समासः।
धर्मत इत्यनेन श्लेषालंकारवैलक्षण्यमिति। शब्दसाम्यमूलत्वात् तस्येति भावः।2711 व्यावर्त्त्यंश्लेषमूलमुदाहरति। नीराजयन्तीति। एवंविधस्थले शब्दसाम्येऽप्युपमैवेति काव्यप्रकाशकारः। तदुक्तम्।
स्त्रीपक्षे चन्द्र इव आननं यासामिति समासः। रात्रिपक्षे चन्द्र एवाननं यासामिति शब्दमात्रसाम्येन नोपमा2712प्राप्तिः। किं तु श्लेष एव।
अन्येन वर्ण्यस्य साम्यमित्यनेन प्रतीपालंकारो व्याव2713र्त्त्यते2714।
तथा हि
लोकोऽयमविशेषज्ञः किं कुर्मः कस्य कथ्यते।
यत् काकतिनरेन्द्रेण सुमेरुरुपमीयते॥५॥
अत्राप्रकृतस्य मेरोः प्रकृतेन राज्ञा सादृश्यमिति प्रतीपालंकारो नोपमा।
एकदा साम्यमित्यनेन उपमेयोपमाव्यवच्छेदः। उपमेयोपमायामुपमानोपमेययोरनेकधा साम्यप्रतिपादनम्।2715
धर्मोऽर्थ इव पूर्णश्रीरर्थो धर्म इव स्थितः।
कामस्ताविव तौ काम इव रुद्रनरेश्वरे॥६॥
अत्र धर्मोऽर्थ इव अर्थो धर्म इवेत्यनेकदा शब्दद्वयेन धर्मार्थकामानां सादृश्यं प्रतिपाद्यत इत्युपमेयोपमा।
वाच्यमित्यनेन
प्रतीयमानौपम्यानां रूपकसंदेहभ्रान्तिमदुल्लेखापह्न2716-
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‘सकलकलं पुरमेतज्जातं संप्रति सुधांशुविम्बमिव।’ इत्यादिशब्दमात्रसाम्येऽपि सा युक्तैवेति। अलंकारसर्वस्वकारः पुनरस्मिन्नेवोदाहरणे गुणक्रियासाम्यवच्छब्दसाम्यं नोपमाप्रयोजकमपि तूपमाप्रतिभोत्पत्तिहेतुः श्लेष एवावसेय इत्यवोचत्। विद्यानाथस्तु सर्वस्वकारश्रद्धालुतया श्लेष एवायं नोपमेत्याह अत्रेत्यादिना।
अन्येन वर्ण्यस्येति। उपमानोपमेयस्येत्यर्थः। लोकोऽयमिति। अत्रोपमानोपमेयभावस्य वैपरीत्यात् प्रतीपालंकार इत्याह। अत्रेति।
धर्म इति। अत्रैकदा साम्यस्य प्रथमार्धमेव प्रत्युदाहरणम्। तावतैवोपमेयोपमायाश्चरितार्थत्वात्। द्वितीयं पुनरभ्युच्चयः। तदेवाभिप्रेत्योक्तं धर्मार्थकामानामिति।
वतुल्ययोगितादीपकप्रतिवस्तूपमादृष्टान्तसहोक्तिव्यतिरेकनिदर्शनानां वैलक्षण्यम्।
तथा हि
प्रतापरुद्रनृपतेर्मण्डलाग्रविधुंतुदः।
अखण्डविक्रमोद्दामो ग्रसते राजमण्डलम्॥७॥
अत्र मण्डलाग्रविधुंतुदपदयोः सामानाधिकरण्यप्रयोगान्यथानुपपत्त्या सादृश्यं लक्ष्यत इति नोपमा किं तु रूपकालंकारः।
किमेष नवमो हरित्पतिरमन्दसंपत्पदं2717
किमेष दशमः प्रजापतिरपूर्वसर्गक्रमः।
किमेष हरिरुर्वरोद्धरणचञ्चु2718रेकादश-
श्चिरादिति विलोक्यते2719 जगति काकतीन्द्रो जनैः॥८॥
अत्र काकतीश्वरस्य2720 दिगीश्वरादीनां च परस्पराभेदप्रतीतेः संदेहनिबन्धनान्यथानुपपत्त्या सादृश्यमाक्षिप्यते। ततः संदेहालंकारः।
काकतीयविभोः कीर्त्तिविभवे व्याप्तरोदसि।
दिवापि चन्द्रिकाबुद्ध्याचकोरा यान्ति निर्वृतिम्॥९॥
अत्र कीर्त्तिविभवे चन्द्रिकाबुद्धिः चन्द्रिकासादृश्यं विना न संभवतीति सादृश्याक्षेपात् भ्रान्तिमदलंकारः।
लक्ष्मीनिवासगृहमित्यखिला नरेन्द्रा
शौर्यातिभूमिखनिरित्यरिवीरवर्गाः।
विद्याविहारपदवीति2721 च लब्धवर्णाः
श्रीकाकतीन्द्रनगरीमनिशं स्तुवन्ति॥१०॥
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वाच्यव्यवच्छेद्यतया साधर्म्यस्य गम्यत्वं केषुचिदलंकारेषु दर्शयति। तथाहीत्यादिना। उदाहरणश्लोका यथायोगं स्वस्वप्रकरणे एव व्याख्यास्यन्ते।
अत्र नगर्यांतत्तत्पदार्थतारोपः सादृश्यादृते2722 न संभवतीति सादृश्यकल्पनादुल्लेखालंकारः।
वीररुद्रस्य भूपालजयहोमं वितन्वतः2723।
धूमराजि2724रियं भाति न चमूरेणुरुत्थिता॥११॥
अत्रोत्थितां चमूरेणुमवलोक्य धूमपङ्किरित्यपह्नवेनारोपः सादृश्यमूल एवेति सादृश्या2725क्षेपादपह्नवः। एवं तुल्ययोगितादिष्वपि सादृश्यगम्यत्वान्नोपमाशङ्का। अतः सर्वेभ्यः साधर्म्यमूलेभ्यो विलक्षणेयमुपमा।
सा प्रथमं द्विधा। पूर्णा लुप्ता चेति। उपमानोपमेयसाधारणधर्मसादृश्यप्रतिपादकानां चतुर्णां2726प्रयोगे पूर्णा। एकस्य द्वयोस्त्रयाणां वा लोपे लुप्ता। पूर्णा द्विविधा2727। श्रौती आर्थी चेति। साक्षात्सादृश्यप्रतिपादकेवादिशब्दानां2728 प्रयोगे श्रौती। धर्मिव्यवधानेन सादृश्यप्रतिपादकानां सदृशसंकाशनी-
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उपमायाः स्वरूपमुक्त्वा विभागमाह। सा प्रथममिति। पूर्णामाह। उपमानेति। उपमीयते सदृशीक्रियते येनोत्कृष्टगुणेन तदुपमानं चन्द्रादि। उपमीयते यदपकृष्टगुणं तदुपमेयं मुखादि। साधारणो धर्मोगुणः क्रिया वा। सादृश्यप्रतिपादका यथेवादयः। चतुर्णामेतेषां कण्ठोक्कौपूर्णेत्यर्थः। कतिपयलोपे लुप्तेत्याह। एकस्येति। लोपे शास्त्रीये स्वारसिके च। तत्राद्यां विभजते। पूर्णेति। श्रुत्या सादृश्यप्रतिपादनात् श्रौती। अर्थतस्त्वार्थीत्यर्थः। श्रौतीं लक्षयति। साक्षादिति। आर्थी लक्षयति। धर्मिव्यवधानेनेति। सदृशाभिधान2729द्वारेत्यर्थः। ननु यथेवादिशब्दानां सदृशादि2730शब्दवत् सदृश्यविशिष्टार्थपरत्वाभावात् केवलसादृश्यपरत्वं वक्तव्यम्। तथा सति मुखं चन्द्रसादृश्यभित्यर्थः स्यात्। एवं च दशदाडिमादिवाक्यवदसम्बद्धमिदं भविष्यतीति चेत् सत्यम्।
काशप्रतीकाशादिशब्दानां प्रयोगे आर्थी। द्वे अपि वाक्यसमासतद्धितगतत्वेन2731 त्रिविधे2732। एवं पूर्णोपमा षट्प्रकारा। लुप्तोपमा एकोनविंशतिभेदा। ‘तेन तुल्यं क्रिया चेद्वतिः’ इति सदृशार्थे विहितस्य2733 वतेरुपादाने आर्थी। ‘तत्र तस्येव’ इतीवार्थे विहितस्य वतेरुपादाने श्रौती। अत एव सादृश्यार्थे विहितस्य वतेः प्रयोगे धर्मोपादान एवान्वयसौकर्यादनुक्तधर्मा तद्धितगा श्रौती2734 लुप्ता2735 नास्ति। कल्पवादिप्रयोगे त्वार्थ्येव2736।
अथोदाहरणानि2737।
वाक्यगा पूर्णा श्रौती यथा।
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यथा राज्ञः पुरुष इत्यत्र गुणभूतराजविशेषणभूता षष्टी अनुशासनबलादुभयनिष्टसंबन्धमात्रमभिदधानापि तद्द्वारा प्रधानभूतं पुरुषमप्याक्षिपति। तदुक्कं हरिणा।
‘द्विष्टोऽप्यसौ परार्थत्वात् गुणेषु व्यतिरिच्यते।
तत्राभिधीयमानः सन् प्रधानेऽप्युपयुज्यते॥’ इति।
एवमुपमानविशेषणभूता यथेवादयः शब्दाः श्रुत्या सादृश्यं2738बोधयन्तोऽपि शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् तात्पर्येण सादृश्यवति वर्त्तन्ते। एवं च यथेवादिशब्दानां श्रुत्या सादृश्यपरत्वात् तत्प्रयोगे श्रौती। सदृशादिशब्दानामर्थात् सादृश्यपरत्वात् तत्प्रयोगे स्वार्थीति विवेकः। तयोः पुनः प्रत्येकं त्रैविध्यमाह। द्वे इति। एकोनविंशतिभेदेति। वक्ष्यमाणप्रकारेणेति शेषः। वतिप्रत्ययभेदादुपमाभेद इत्याह। तेन तुल्यमित्यादिना। तत्र श्रौत्या2739विशेषमाह। अत एवेति। अतोऽस्मादेवान्वयसौकर्यादिति संबन्धः। कूर्मवदित्यादिवक्ष्यमाणोदाहरणे मेदिनीभानरूपस्य समानधर्मस्योपादान एवान्वयसौकर्यादन्यथा तदभावाच्च तद्वितगतायां श्रौत्यां धर्मोपादानमावश्यकमिति भावः। कल्पवादिप्रयोगे2740त्विति। ‘ईषदसमाप्तौ—’ इति विहितानां कल्पब्देश्यदेशीयर् प्रत्ययानां ‘विभाषा सुपः’ इति विहितस्य बहुच्प्रत्ययस्य च प्रयोग इत्यर्थः। आर्थ्येवेति। धर्मिव्यवधानेनैव सादृश्यप्रतिपादनादित्यर्थः।
उद्दामोद्यतविक्रमे कृतयुगे बाहौ ययातेर्यथा
त्रेतायां रघुनायकस्य महितख्यातौ भुजायां यथा।
दोर्दण्डे च युधिष्ठिरस्य विलसच्छौर्येयथा द्वापरे
विस्रब्धाद्य2741कलौतथैव रमते क्षोण्यन्ध्रभर्त्तुर्भुजे2742॥१२॥
समासगा पूर्णा श्रौती यथा।
भास्वानिवोद्यन्नुदयाद्रिलम्बी
भद्रासनस्थो वरवीररुद्रः।
उत्पश्यतामन्ध्रपुरीजनानां
नेत्राब्जजाड्यंशमयत्यशेषम्2743॥१३॥
अत्र भास्वानिवेति ‘इवेन सह2744 नित्यसमासः2745’ इति नित्यसमासः।
तद्धितगा पूर्णा श्रौती यथा।
कूर्मवच्छेषवद्गोत्रगिरिवद्दिङ्महेभवत्।
भुजे2746प्रतापरुद्रस्यधुरीणे भाति मेदिनी॥१४॥
वाक्यगा पूर्णार्थी2747 यथा।
‘तैस्तैर्मही2748पालनसंविधानै-
स्तैस्तैः प्रजारञ्जनवैभवैश्च।
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उद्दामेति। अत्र यथाशब्दप्रयोगादियं वाक्यगता2749 श्रौती च।
भास्वानिवेति। कथमियं समासगेत्याकाङ्क्षायामाह। ‘इवेन सह2750 नित्यसमासः’ इति। ‘इवेन सह समासो विभक्त्यलोपश्च पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च’ इति वार्त्तिकादिति शेषः।
कूर्मवदिति। ‘तत्र तस्येव’ इति सप्तमीसमर्थादिवार्थे वतिप्रत्ययः2751। अत एवेयं तद्धितगा श्रौती। धुरं वहतीति धुरीणे धुरन्धरे। ‘खः सर्वधुरात्’ इत्यत्र ‘खः’ इति योगविभागा2752त्खप्रत्ययः। ‘गाम्भीर्यगरिमा तस्य सत्यं गङ्गाभुजङ्गवत्’ इति तस्येवेति वतेरुदाहरणम्।
तैस्तैरिति। महीपालसंविधानैर्वापीकूपतडागादिनिर्माणैरित्यर्थः। प्रजारञ्जन-
विराजते संप्रति काकतीय2753-
लक्ष्मीपतिर्दाशरथेः समानः॥१५॥
समासगा पूणार्थी यथा।
तादृक्पालनसामर्थ्यसंपदा काकतीश्वरः।
हरिदीश्वरसंकाशः शास्ति मध्यमविष्टपम्॥१६॥
तद्धितगा पूर्णार्थी यथा।
हिमाचलवदौन्नत्ये गाम्भीर्ये क्षीरसिन्धुवत् ।
प्रतापे भानुवद् भाति वीररुद्रनरेश्वरः2754 ॥१७॥
एषूदाहरणे2755षूपमेयोपमान2756साधारणधर्मसादृश्यप्रतिपादकानि चत्वारि निबद्धानीति2757 पूर्णत्वम् ।
अथ लुप्तोपमाया उदाहरणानि।
अनुक्तधर्मा वाक्यगा श्रौती लुप्ता यथा ।
यथा रुचां स्वामिनि चकवाक्यो2758
यथा च नीहाररुचौ चकोर्यः ।
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वैभवैश्चोरादिनिवारण2759पूर्वकैः पालनविशेषैरित्यर्थः। अत्र दाशरथेः समान इति व्यासेन समानशब्दोपादानादार्थीयमुपमा वाक्यगता च ॥
तादृगिति। हरिदीश्वरेण दिक्पतिना सदृशो हरिदीश्वरसंकाश इति नित्यसमासः। ‘स्युरुत्तरपदे त्वमी। निभसंकाशनीकाशप्रतीकाशोपमादयः॥’इत्यमरकोशे निभादिशब्दानामुत्तरपदनियमात्। अत एव समासगतेयमार्थी।
हिमाचलवदिति। औन्नत्यादौ मेर्वादितुल्यं भातीत्यर्थः। अत्र ‘तेन तुल्यम्—’ इति विहितस्य वतेः प्रयोगादार्थीयं तद्धितगा। एषूदाहरणेषूपमानादिचतुरङ्गनिबन्धनात् पूर्णत्वमित्याह। एष्विति।
अथ लुप्तोदाहरणेषु प्रथमं धर्मानुपादाने पञ्चोदाहरणानि क्रमेणाह। यथेत्यादि। रुचां स्वामिनि सूर्ये। वीररुद्रे वर्त्तन्ते इति शेषः। अत्र प्रतापाह्लादसारस्थानां धर्माणामनुपादानम्।
यथा प्रसूनस्तबके भ्रमर्य-
स्तथा प्रजाः काकतिवीररुद्रे॥१८॥
अनुक्तधर्मा समासगा श्रौती लुप्ता यथा।
प्रतापरुद्रदेवस्य पादपीठीमनारतम्2760।
आराधयन्ति भूपालाः प्रणता देवतामिव॥१९॥
अनुक्तधर्मा वाक्यगा आर्थी लुप्ता यथा।
काकतिक्ष्मापतेर्जैत्रप्रस्थानपटहध्वनिम्।
तुल्यं दम्भोलिनिर्घोषैः श्रुण्वन्त्यरिमहीभृतः2761॥२०॥
अनुक्तधर्मा समासगा आर्थी लुप्ता यथा।
शश्वत् पुरीमेकशिलाभिधानां
वस्वोकसारा2762सदृशीमवेक्ष्य।
नमन्ति भूपा भुवि काकतीय2763-
राज्यप्रतिष्ठां बहुमन्यमानाः॥२१॥
अनुक्तधर्मा तद्धितगा आर्थी लुप्ता यथा।
प्रतापरुद्रनृपतेर्जगन्महित2764तेजसः
कन्दर्पकल्पमाकारं पश्यन्त्यन्ध्रपुरस्त्रियः2765॥२२॥
एषूदाहरणेषु धर्मस्यानुपादानम्2766।
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प्रतापेति। अत्र पादपीठीदेवतयोः समानो धर्मः सम्पत्प्रदत्वमनुक्तम्। अनुक्तधर्मा तद्धितश्रौती लुप्ता नास्तीत्युक्तम्।
काकतीति। दम्भोलिनिर्घोषैरशनिध्वनिभिस्तुल्यं तद्वत् भीषणमिति गम्यते।
शश्वदिति। वस्वोकसारासदृशीमलकासमानां वैभव इति नोक्तम्।
प्रतापरुद्धेति। कन्दर्पकल्पं कन्दर्पसदृशम्। रूपसंपदेति शेषः। ईषदसमाप्तौ कल्पप्प्रत्ययः। इयमेकलोपे लुप्ता पञ्चविधा।
अनुक्तधर्मेवादिः कर्मक्यचा लुप्ता यथा।
दुग्धार्णवीयत्यम्भोधीन्कैलासीयति भूधरान्2767।
प्रतापरुद्रदेवस्य यशोवैशद्यवैभवम्॥२३॥
अनुक्तधर्मेवादिराधारक्यचा लुप्ता यथा।
क्रीडाद्रीयति गोत्र2768शैलशिखरेष्वास्थानसद्मीयति2769
द्वीपेष्वधिषु दीर्घिकीयति हरित्स्वेकान्तगेहीयति।
उद्यानीयति सीमपर्वततटारण्ये सुपर्वाचले2770
प्रासादीयति वीररुद्रनृपतेः स्फारः प्रतापोदयः॥२४॥
अनुक्तधर्मेवादिः कर्मणमुल्लुप्ता2771 यथा।
पश्यन्त्यात्मजदर्शमिन्दुममरस्रोतस्विनीं सत्सरो2772-
दर्शं क्षीरपयोनिधिं प्रियसुहृद्दर्शंगिरिं राजतम्।
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अथ द्विलोपे लुप्तां2773 क्रमेणोदाहरति। दुग्धार्णवीयतीत्यादिना। अत्र ‘उपमानादाचारे’ इति क्यच्प्रत्ययः। ‘क्यचि च’ इतीकारः। धावल्यमत्र साधर्म्यंगम्यते। अम्भोधीन् दुग्धार्णवानिवाचरतीत्यत्र वाक्ये प्रक्रान्तं कर्मद्वयम्। तत्रोपमानकर्मणोऽन्तर्भूतत्वात् तदपेक्षयासावकर्मको धातुः। तदुक्तम्।
‘धातोरर्थान्तरे वृत्तेर्धात्वर्थेनोपसंग्रहात्।
प्रसिद्धेरविवक्षातः कर्मणोऽकर्मिका क्रिया॥’ इति।
कर्मान्तरापेक्षया तु सकर्मक एव। यथाह भगवान् भाष्यकारः। ‘द्वे ह्यत्र कर्मणी उपमानकर्मोपमेयकर्म चेति। उपमानकर्मान्तर्भूतमुपमेयेन कर्मणा सकर्मको भवति’ इति। एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम्।
क्रीडाद्रीयतीति। आस्थानसद्म सभामण्डपः। दीर्घिकाः क्रीडासरांसि। सीमपर्वतो लोकालोकः। सुपर्वाचलो मेरुः। क्रीडापर्वतादिष्विव कुलपर्वतशिखरादिष्वाचरतीत्यत्र सुखसाधनत्वं साधर्म्यं गम्यते। ‘अधिकरणाच्च’ इति वचनात् क्यच्प्रत्ययः। क्रीडाद्गीयतीत्यत्र ‘अकृत्सार्वधातुकयोः’ इति दीर्घः। अन्यत्र यथायोगं टिलोपे ‘क्यचि च’ इतीकारः।
पश्यन्तीति। आत्मजं पुत्रमिव दृष्ट्वा आत्मदर्शम्। एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम्।
लीलादर्पणदर्शमन्यदमलं2774 तारादिहारावली-
दर्शं खेलति वीररुद्रनृपतेः कीत्तिर्जगद्व्यापिनी॥२५॥
अनुक्तधर्मेवादिः कर्त्तृणमु2775ल्लुप्ता2776 यथा।
नृपेषु शिक्षावि धिदण्डचारं
कान्तासु पुष्पायुधधन्वचारम्।
प्रजासु चालम्बनयष्टिचारं
चरत्ययं रुद्रनरेन्द्रखड्गः2777॥२६॥
अनुक्तधर्मेवादिः क्विपा लुप्ता2778 यथा।
सुधाप्रवाहति सतामसतां कालकूटति।
वीररुद्रनरेन्द्रस्य गुणज्योत्स्नाविजृम्भितम्॥२७॥
इति दशो2779दाहराणानि। एषूदाहरणेषु द्वयोरनुपादानम्।
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‘उपमाने कर्मणि च’ इति णमुल्प्रत्यये कपादित्वात् सर्वत्र पश्यन्तीत्यनुप्रयोगः। अत्रात्मजसख्यादीनाभिन्दुमन्दाकिनीमुख्यानां चोपमानोपमेयभावे नैर्मल्यमेव साधर्म्यमूलमिति गम्यते।
नृपेष्विति। शिक्षाविधेर्दण्डः शिक्षाविधिदण्ड इति तादर्थ्येअश्वघासादिवत् षष्ठीसमासः। स इव चरित्वा तच्चारमिति ‘उपमाने कर्मणि च’इति चकारात् कर्त्तरि णमुल्। कपादित्वाच्चरतेरनुप्रयोगः। अत्र भीषणोद्दीपनविश्रामभूमित्वानां क्रमेण समानधर्मत्वमुन्नेयम्।
सुघेति। गुणज्योत्स्नाविजृम्भितं कर्त्तृ। सुधाप्रवाह इवाचरति सुधाप्रवाहति तद्वच्छ्लाध्यमित्यर्थः। कालकूटमिवाचरति कालकूटति तद्वदसह्यमित्यर्थः। ‘सर्वप्रातिपदिकेभ्यः क्विव्वाचारे’ इत्याचारे2780 क्विप्प्रत्ययः। अत्राचारस्य समानधर्मत्वं मन्यमानः काव्यप्रकाशकारस्तद्वाचकस्य क्विपः सर्वलोपादिवादिलोपाच्च द्विलोपः। क्यजादौ तु प्रत्ययश्रवणादेकलोप एवेत्याह। विद्यानाथस्तु कर्त्तरि क्यजादावस्तु नाम धर्मान्तरोद्भावना शक्तौ कथंचिदाचारः सामर्थ्यम्। कर्मणि क्यजादौ तूपमानोपमेयगतो धावल्यादिरेव समानधर्मो नाचारमात्रं तस्यान्यधर्मत्वादिति मन्यमानः क्यजादावपि द्विलोप इत्याह। एषूदाहरणेषु द्वयोरनुपादानमिति। एत-
अम्भोधीन् दुग्धार्णवीयतीत्यत्र कर्मक्यचि दुग्धार्णवानिव करोतीति गोत्रशिखरेषु2781 क्रीडाद्रीयतीत्याधारक्यचि2782 क्रीडाद्विष्विव वर्त्तत इति चन्द्रमात्मजदर्शं पश्यन्तीति कर्मणमुलि आत्मजमिव पश्यन्तीति शिक्षाविधिदण्डचारं चरतीति कर्त्तृणमुलि शिक्षाविधिदण्ड इव चरतीति इवशब्दोऽन्तर्गत इति तस्य लुप्तत्वम्।
अनुक्तधर्मीवादिः2783 कर्त्तृक्यचा लुप्ता यथा।
ज्योत्स्त्रीयन्ति सुधीयन्ति चन्दनीयन्ति सर्वतः।
प्रतापरुद्रनृपतेः शुभाः2784 कीर्त्तेर्महोर्मयः॥२८॥
अत्र कीर्त्तीनां स्वरूपमुपमेयम्।
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देव विविनक्ति। अम्भोधीनित्यादि। इवशब्दोऽन्तर्गत इति गम्यमानार्थ इत्यर्थः। एतद्यथोदाहरणमस्मदुद्घाटितधावत्यादिसाधारणधर्मस्याप्युपलक्षणम्। तस्य लुप्तत्वमिति। अप्रयुक्तत्वमित्यर्थः। यदाह कैयटः। ‘गम्यमानार्थस्याप्रयोग एव लोपः’ इति। क्विवन्तोदाहरणं तु सर्वसंप्रतिपन्नत्वान्न विवृतमिति द्रष्टव्यम्।
क्वचित् त्रिलोपे लुप्तामाह। अनुक्तेति। धर्मः समानधर्मोऽस्यास्तीति धर्मि उपमेयं तच्चेवादिश्चानुक्तौ यत्रासावनुक्तधर्मीवादिः। अनुक्तोपमेयेवादिरित्यर्थः। धर्मलोपस्तु प्रसिद्धः। कर्त्तृक्यचेति। यत्र क्यच्प्रत्यये प्रकृतिभूतस्योपमानस्य कर्मणः कर्त्तैवोपमेयं तेनेत्यर्थो द्रष्टव्यः। केवलकर्त्तृक्यच्प्रत्ययस्यैवाभावात्। तेन लुप्तामुदाहरति। ज्योत्स्नीयन्तीति। ज्योत्स्नामिवात्मानमाचरन्तीत्यन्नात्मन उपमेयस्येवादेः साधर्म्यस्य नैर्मल्यादेवानुपादानात् त्रिलोपे लुप्तेयमिति भावः। आचारसामर्थ्यवादिनां तु द्विलोप एव। तदुक्तं काव्यप्रकाशे। ‘क्याचीवाद्युपमेयौ’ इति। न च कीर्त्तिमहोर्मय इत्युपमेयोपादानम्। उपमानापेक्षया भिन्नविभक्तिकत्वात्। न चैतदनुसारेण ज्योत्स्त्रीयन्तीत्यत्र ज्योत्स्ना इवाचरन्तीति समानविभक्तिकत्वकल्पनमुपपद्यते। कर्त्तृक्यच्प्रत्ययस्यानुशासनविरुद्धत्वात्। न च शुभा इति समानधर्मोपादानम्। तस्याकर्त्तृभूतकीर्त्तिविशेषणत्वेन तत्रैवोपक्षीणत्वादित्यलमतिप्रसङ्गेन।
अनुक्तधर्मेवादिः कर्त्तृक्यङा यथा2785।
शेषायते महीं बोढुं कल्पशाखायते2786ऽर्थिनाम्।
प्रतापरुद्रदोर्दण्डः कालदण्डायते द्विषाम्॥२९॥
अनुक्तोपमाना वाक्यगा2787 लुप्ता यथा।
वदान्यो नान्योऽस्ति त्रिजगति समो रुद्रनृपते-
र्गुणश्रेणीश्लाघापिहितहरिदीशानयशसः।
समन्तादुद्भूतैर्द्विरदमदगन्धैः सुरभयः
क्रियन्ते यद्विद्वज्जनमणिगृहप्राङ्गणभुवः॥३०॥
अनुक्तोपमाना2788 समासगा लुप्ता यथा।
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पुनरपि धर्मेवादिलोपे लुप्तामाह। शेषायत इति। शेष इवाचरति इति शेषायते। ‘कर्त्तृः क्यङ् सलोपश्च’ इति क्यङ्प्रत्यये ङित्वादात्मनेपदम्। अत्रोपमानकर्तुरन्तर्भूतत्वादुपमेयकर्ता सकर्त्तृकत्वमिति भाष्यकारः। अत्र महीवहनलक्षणस्य साधर्म्यस्योपादानात् कल्पशाखायत इत्यादिकमेवोदाहरणम्। शेषायत इत्येतदेकलोपस्येति विवेकः। अत एवास्य प्रकरणादुत्कर्षः। अत एव कर्त्तृणमुलि क्विपि च समानधर्मस्योपादानानुपादानाभ्यां द्वैविध्यं दृष्टव्यम्। पुरुषव्याघ्र इत्यत्र सामान्याप्रयोग एव सामानाधिकरण्यात् समासः संभवति। तदुक्तं हरिणा2789।
‘व्याघ्रशब्दो यदा शौर्यात् पुरुषार्थेऽवतिष्ठते।
तदाधिकरणाभेदात् समासस्यास्ति संभवः॥
शूरशब्दप्रयोगे तु व्याघ्रशब्दो मृगे स्थितः।
भिन्नेऽधिकरणे वृत्तेस्तत्र नैवास्ति संभवः॥’ इति।
अतोऽत्र धर्मलोपादिवादेरभावाच्चानुक्तधर्मेवादिः समासगा लुप्तेत्यप भेदोऽत्रत्यपुस्तकेष्वभावादुन्नेयः।
उपमानानुक्तौ वाक्यसमासगतत्वेनोदाहरणद्वयं क्रमेणाह। वदान्य इति। गतमेतत्। रुद्रनृपतेः समो वदान्य इत्युपमेयवाचकसमानधर्माणां प्रयोगः। उपमानं नोक्तम्2790।
वीररुद्रसमो राजा नास्ति नास्त्येव भूतले।
यस्य धर्मानुबन्धेन कलिः कृतयुगीकृतः॥३१॥
अनुक्तधर्मोपमाना2791 वाक्यगा लुप्ता यथा।
लोके काकतिवीररुद्रनृपतेरुद्दामभूमश्रियः2792
कीर्त्त्या कार्त्तिककौमुदीघवलया तुल्यं न किंचित् क्वचित्।
यन्माधुर्यविजृम्भितक्षत2793विषां ग्रीवां विलोक्याधुना
कण्ठालिङ्गनमीशितुर्वितनुते नीरन्ध्रमद्रेः सुता॥३२॥
अनुक्तधर्मोपमाना2794 समासगा लुप्ता यथा।
प्रतापश्रीतुल्यं क्वचिदपि न भूतं न च भवन्
न भावि त्रैलोक्ये किमपि जयिनः काकतिविभोः।
यथा लोकालोकक्षितिधरतटेष्वर्कदृपदः
प्रकाशन्ते नक्तंदिवमुदितरोचिःपरिचयाः॥३३॥
पूर्वोदाहरणद्वये वदान्येति2795 राजेति शब्दाभ्यां वितरणशीलत्वं2796 प्रजारञ्जकत्वं2797 च साधर्म्यमुक्तम्।अनन्तरोदाहरणद्वये च2798 धर्मस्याप्य2799नुपादानम्2800। एषु चतुर्षुदाहरणेषु न प्रतीपालंकारशङ्का। उपमानस्याक्षेपा-
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वीररुद्रसम इति समासेनोपमेयवाचकयोः प्रयोगः। रञ्जनाद्राजेति साधर्म्यकथनम्।
पूर्ववद्धर्मोपमानानुक्तावुदाहरणद्वयमाह। लोक इति। कीर्त्त्या तुल्यं मधुरं वस्तु किमपि नास्तीत्यर्थः। अत एव साधर्म्योपमानयोरनुपादानम्। यन्माधुर्यविजृम्भितैः यस्याः कीर्त्तेमधुर्यातिशयैरित्यनेन साधर्म्यापादानमिति न शङ्कनीयम्। तस्य वाक्यान्तरगतत्वात्। किं तु माधुर्यमेव साधर्म्यं विवक्षितं न कौमुदीधवलत्वादिकमित्यनेन सूच्यते।
प्रतापेति। लोकालोकक्षितिधरतटेषु पाश्चात्येष्वपीति भावः। अर्कदृपदः सूर्यकान्ताः। देशतः कालतश्च परिच्छेदातीतत्वात् प्रतापश्रीतुल्यं नास्तीत्यत्रोपमेयवाचकयोरेवोपादानम्। एषूदाहरणेष्वाद्ययोरेकलोपमन्त्ययोश्च द्विलोपं विविनक्ति। पूर्वेति। अत्रोदाहरणचतुष्टये प्रतीपालंकारसाङ्कर्यंवारयति। एष्विति।
भावात्। उपमेयस्याधिक्याविवक्षणाच्च2801। यत्रोपमेयस्याधिक्यविवक्षयोपमानत्वमुच्यते2802 तत्रैव प्रतीपालंकारः2803।
अनुक्तेवादिः समासगा लुप्ता यथा।
असतामुष्णभानृष्णं सतां शीतांशुशीतलम्।
प्रतापरुद्रदेवस्य चरितं विश्वमङ्गलम्2804॥३४॥
अनुक्तधर्मेवाद्युपमाना समासगा लुप्ता यथा।
काकतीन्द्रो रणे भाति भीमसेनपराक्रमः।
किं त्वदुःशासनाः2805 सर्वे यस्य प्रत्यर्थिपार्थिवाः॥३५॥
अत्र भीमसेनस्य पराक्रम इव पराक्रमो यस्य स भीमसेनपराक्रम इति धर्मेवाद्युपमानलुप्ता2806।
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‘आक्षेप उपमानस्य कैमर्थक्येन कथ्यते।
यद्वोपमेयभावः स्यात् तत् प्रतीपमुदाहृतम्॥’
इति लक्षणानुसारेण द्विविधस्यापि प्रतीपस्येहानुप्रवेशाभावान्न तत्साङ्कर्यशङ्काकलङ्कावकाश इति भावः।
असतामिति। उष्णभानुरिवोष्णमुष्णभानूष्णमित्यत्र वाचकमात्रलोपादेकलोपे लुप्ता समासगा। सर्वस्यापि शब्दस्य शब्दान्तरसंबन्धेन विशेषवाचित्वादुष्णादिशब्दानां तथात्वेन सामान्यवचनत्वाभावेऽपि भाष्योक्तरीत्या समासात् पूर्वं सामान्यवचनत्वेन ‘उपमानानि सामान्यवचनैः’ इति समासः।
समासे त्रिलोपमुदाहरति। काकतीन्द्र इति। भीमसेनपराक्रम इव दुःसहः पराक्रमो यस्यासौ भीमसेनपराक्रमः। अत्र विशेषमाह। किं त्विति। दुःशासनो दुर्योधनानुजः तत्सहिता भीमसेनप्रत्यर्थिनः वीररुद्रवैरिणस्तु तद्ग्रहिता इति प्रातीतिकोऽर्थः। दुष्करं शासनं स्वविषयं येषां ते दुःशासनाः दुःसाध्याः। ते न भवन्तीत्यदुःशासनाः। सर्वेऽपि सुसाध्या इत्यर्थः। त्रिलोपं दर्शयति। अत्रेति। धर्मेवाद्युपमानलुप्ता इति। धर्मेवाद्योर्गम्यमानार्थत्वाल्लुप्तत्वम्। उपमानस्य तु वार्तिकादिति भावः। तथा हि ‘सप्तम्युपमानपूर्वपदस्य बहुव्रीहिर्वाच्य उत्तरपदलोपश्च’ इति वार्त्तिकम्। अस्यार्थः। सप्तम्यन्तं तावदास्ताम्। उपमानं पूर्वपदं।
इति लुप्तोपमा एकोनविंशतिप्रकारा2807।
अथ साधारणधर्मोपादाने द्वैविध्यम्। धर्मस्य सकृदुपमानोपमेयगतत्वेन निर्देशः। उभयगतत्वेन2808 पृथगुपादानं वा। पृथगुपादानं च वस्तुप्रतिवस्तुभावेन बिम्बप्रतिविम्वभावेन च2809द्विविधम्। एकस्यार्थस्य शब्द-
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यस्य समासस्य तस्य शब्दान्तरेण बहुव्रीहिः पूर्वसमासावयवस्योत्तरपदस्य च लोप इति। एतेनेदं फलितम्। अत्रोपमानशब्देन मुख्योपमानभूतस्य भीमसेनपराक्रमस्याश्रयो भीमसेनो लक्ष्यते। तत्पूर्वपदस्य भीमसेनपराक्रम इत्यस्य समासस्योपमेयवाचिना पराक्रमशब्देन बहुव्रीहिः। भीमसेनपराक्रम इव दुःसहः पराक्रमो यस्येति। ततः पूर्वसमासावयवस्योत्तरपदस्य मुख्योपमानपराक्रमशब्दस्य लोप इति। तेन धर्मेवाद्युपमानानां लोपात् त्रिलोपवती समासगा। अत्रायं संग्रहः।
समासगेवादिलोपे स्यादेका वृत्तिवाक्यगे।
द्वे लोप उपमानस्य वाक्यतद्धितवृत्तिगाः॥१॥
धर्मानुक्तौ पञ्च चैकलोपेऽष्टौ मिलिता भिदाः।
कर्माधारक्यचा2810 कर्मकर्त्रोश्च2811णमुला क्विपा॥२॥
क्यङाकर्त्तर्युपमितवृत्त्या चेवादिधर्मयोः।
अनुक्तौ सप्त धर्मोपमानलोपे समासगा॥३॥
वाक्यगा च द्विधेत्येवं द्विलोपे नव कीर्त्तिताः।
क्यचोपमानान्यलोपे स्यादेकान्या समासगा॥४॥
उपमेयान्यलोपे द्वे स्यातामेवं त्रिलोपगे।
लुप्ताभेदा मिलित्वा स्युरेवमेकोनविंशतिः॥५॥
पूर्णाभिः सह पड्भिस्तु भेदाः स्युः पञ्चविंशतिः।
द्वे श्रौत्यौ धर्मलोपेऽन्या आर्थ्यः सप्तदश स्मृताः॥६॥
कुत्रचित् कर्त्तृणमुलि तथाचारक्विपि क्यङि।
एकलोपे विलुप्ता स्याद्धर्मोपादानसंभवात्॥७॥ इति।
समानधर्मोपादाने सर्वभेदसाधारणं विशेषणमाह। अथेति। द्वितीयं द्वेधा विभजति। पृथगिति। तत्राद्यं लक्षयति। एकस्येति। द्वितीयं लक्षयति। द्वयो-
द्वयेनाभिधानं वस्तुप्रतिवस्तुभावः। द्वयोरर्थयोर्द्विरुपादानं बिम्बप्रतिबिम्बभावः। सकृन्निर्देशो यथा।
नृपाः2812 प्रणतमूर्द्धानः सेवन्ते काकतीश्वरम्।
असाधूनां विनेतारं गुरुं शिष्या इवाभितः॥३६॥
अत्र नरेश्वराणां शिष्याणां च प्रणतमूर्द्धान इति सकृदेव साधर्म्यमुक्तम्। तथासाधूनां विनेतारमिति राज्ञो गुरोश्च तुल्यधर्मत्वं2813 सकृदेषोक्तम्2814।
वस्तुप्रतिवस्तुभावेन द्विधा2815 निर्देशो यथा।
वंशोऽयं काकतीयानां वीररुद्रेण भूषितः।
अन्ववायः ककुत्स्थानां रामेणैव2816 परिष्कृतः॥३७॥
अत्र भूषितपरिष्कृतशब्दाभ्यामेकार्थप्रतीतेर्वस्तुप्रतिवस्तुभावः।
बिम्बप्रतिबिम्बभावो यथा2817।
स्फुरच्छ्रेतातपत्रश्रीः काकतीयनरेश्वरः।
हाटकाद्रिरिवाभाति शृङ्गसङ्गीन्दुमण्डलः2818॥३८॥
अत्र श्वेतातपत्रचन्द्रमण्डलयोः सादृश्येन काकतीन्द्रसुवर्णाचलयोः सादृश्यमिति बिम्बप्रतिविम्बभावः।
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रिति। द्वयोः सदृयोरिति शेषः। तेन धर्मापेक्षो वस्तुप्रतिबस्तुभावः। धर्म्यपेक्षस्तु बिम्बप्रतिबिम्बभाव इतिफलितम्2819। नृपा इति। अत्र समानधर्मस्य सकृन्निर्देशं योजयति। अत्रेति।
द्विधा निर्देश इति। उपमानगतत्वेनोपमेयगतत्वेन चेति भावः। वंश इति। परिष्कृत इत्यत्र ‘संपरिभ्यां करोतौ भूषणे’ इति सुडागमे पत्वम्। अत्र संबन्धिभेदेन भूषितपरिष्कृतशब्दाभ्यां समानधर्मकथनाद्वस्तुप्रतिवस्तुभावः।
स्फुरदिति। अत्र श्वेतातपत्रस्येन्दुमण्डलं प्रतिबिम्बतया निर्दिश्यते। काकतीन्द्रस्वर्णाचलयोः2820 स्वरूपतः सादृश्याभावाद्विशेषणसादृश्यनिबन्धनं विशेष्यसादृश्यमिति वक्तव्यम्। स एव बिम्बप्रतिबिम्बभाव इत्याह। अत्रेति।
अपरमपिद्वैवि2821ध्यमस्यालंकारस्य। समस्तवस्तुविषया एकदेशवर्त्तिनी चेति।
यथाक्रमं द्वयोरुदाहरणम्।
विभाति भूर्द्यौरिव काकतीन्द्र-
पुरी विराजत्यमरावतीव।
पौराः प्रथन्ते2822 त्रिदशा इवर्द्धि
धत्ते मरुत्वानिव वीररुद्रः॥३९॥
एषा
समस्तवस्तुविषया
।
एकदेशविवर्त्तिनी
यथा।
द्विपैश्चरद्भिर्धरणीधरैर्वा
तुरङ्गमश्रेणिभिरूर्मिभिर्वा।
नानायुधैर्व्यालजलग्रहैर्वा
बलं त्रिलिङ्गाधिपतेर्दुरापम्॥४०॥
अत्र त्रिलिङ्गाधिपतेर्बलं समुद्र इवेत्यर्थप्रतीतेरेकदेशविवर्त्तित्वम्।
मालारूपेणाप्ययमलंकारो
दृश्यते
।
यथा।
कुन्दति कुमुदति हंसति हारति हरति2823 क्षपाकरति2824।
कैलासति चयशः2825श्रीवैशद्यंवीररुद्रस्य॥४१॥
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प्रकारान्तरेण विभागमाह। अपरमिति। समस्तानि वस्तुन्यवयव्यवयवाश्चविषया यस्याः समस्तवस्तुविषया। अवयवावयविनोरेकदेशे वर्त्तत इत्येकदेशवर्त्तिनी। आद्यामुदाहरति । विभातीति। मरुत्वानिन्द्रः। ‘तसौ मत्वर्थे’ इति भसंज्ञायां पदकार्यं2826 न भवति। ‘झय’ इति मतोर्वत्वम्। इयमनेकेवोपमेति केचित्। इवशब्दान्तरप्रयोगे पौनरुक्त्यापत्तेरेकेनैबालमिति विद्याधरः।
द्वितीयामुदाहरति। द्विपैरिति। धरणीधरेर्मैनाकादिभिः। सर्वत्र वाशब्द इवार्थे। ‘वा स्याद्विकल्पोपमयोरेवार्थेऽपि समुच्चये’ इति विश्वः। त्रिलिङ्गाधिपतेरन्ध्रदेशाधीश्वरस्य। नाटके व्युत्पत्तिरुक्ता।
एकस्यैवोपमेयस्य बहूपमानोपादाने मालोपमा। तामुदाहरति। कुन्दतीति।
अत्रैकस्यो2827पमेयस्यानेकोपमानदर्शनात् मालात्वम्। उपमायां भेदाभेदसाधार2828णसाधर्म्यस्य प्रयोजकत्वम्। एवं भेदान्तरं यथासंभवमुदाहार्यम्2829।
अनन्वयालंकारः।
एकस्यैवोपमानोपमेयत्वेऽनन्वयो मतः।
यत्र द्वितीयसब्रह्म2830चारिनिवृत्त्यर्थमेकस्योपमानोपमेयभावो निवध्यते असावनन्वयालंकारः।
यथा।
सन्तु लोके सुवर्णाद्रिरत्नाकरसुधाकराः।
तथापि वीररुद्रोऽयं वीररुद्र इव स्वयम्॥४२॥
उपमेयोपमालंकारः।
पर्यायेण द्वयोस्तस्मिन्नुपमेयोपमा मता।
तस्मिन्नित्युपमानोपमेयत्वपरामर्शः2831।
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सर्वत्राचारे क्विप्प्रत्ययः। साधर्म्यं त्रिविधम्। भेदप्रधानभेदप्रधानं भेदाभेदप्रधानं चेति। तत्राद्यं व्यतिरेकादौ। द्वितीयं रूपकादौ। तृतीयमत्रेत्याह। उपमायामिति। यदाह भगवान् भाष्यकारः। ‘यत्रकिंचित्2832 सामान्यं कश्चिच्च2833 विशेषस्तत्रोपमानोपमेये भवतः’ इति। ‘भणितिरिव मतिर्मतिरिव चेष्टा चेष्टेव कीर्त्तिः’— इत्यादिरशनोपमादिकमन्यतो2834 द्रष्टव्यमित्याह। एवमिति॥
भेदाभेदसाधारणसाधर्म्यमूलेषूपमानन्तरं प्रतीयमानवस्तुकयोरेकवाक्याश्रयमनस्वयं लक्षयति। एकस्येति। एकस्यैवोपमानोपमेयभावानन्वयादन्वर्थेयं संज्ञा। वाच्याभिप्रायेणोपमेयस्यैव द्वितीयसदृशनिवृत्तिलक्षणव्यङ्ग्याभिप्रायेणोपमानत्वमन्वेतीत्यभिप्रायेण व्याचष्टे। यत्र द्वितीयेति। उदाहरति। सन्त्विति। उपमानभावानहैः किं तैरिति भावः॥
अनन्वयवैलक्षण्येन वाक्यभेदाश्रयमुपमेयोपमालंकारं लक्षयति। पर्यायेणेति। पर्यायो यौगपद्याभावः। द्वयोरुपमानोपमेययोः। तच्छब्दस्य प्रकृतानन्वयपरामर्शंवारयति। तस्मिन्निति। द्वयोरुपमानोपमेयभावविनिमये सत्युपमेयोपमालं-
यथा।
धर्मोऽर्थ इव पूर्णश्रीरर्थो धर्म इव स्थितः।
कामस्ताविव तौ काम इव रुद्रनरेश्वरे॥४३॥
स्मरणालंकारः।
सदृशानुभवादन्यस्मृतिः स्मरणमुच्यते।
यत्र सदृशस्य पदार्थस्यानुभवेन सदृशवस्त्वन्तरपरामर्शो जायते तत्र स्मरणालंकारः।
यथा।
राज्ञा प्रतापरुद्रेण पालितेयं वसुंधरा।
हरिश्चन्द्रनलादीनां प्राचां स्मरति भूभुजाम्॥४४॥
अत्र नलनहुषादितुल्यपालनप्रवीणतया2835 प्रतापरुद्रं रक्षितारं प्राप्तवत्याः मेदिन्याः पूर्वराजस्मरणम्2836।
भेदाभेदसाधारणसाधर्म्यनिबन्धनालंकाराः2837 प्रदर्शिताः।
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कार इत्यर्थः। उपमेयेनोपमा उपमेयोपमेत्यन्वर्थत्वम्। धर्म इति। अत्र वाक्यभेदेन द्वयोरेवोपमानोपमेयभावात् तृतीयसब्रह्मचारिनिवृत्तिलक्षणं वस्तु प्रतीयते। अत्र पूर्णश्रीरिति धर्मस्य साधारण्यं स च वस्तुप्रतिवस्तुनिर्देशेनापि दृश्यते।
सच्छायाम्भोजवदनाः सच्छायवदनाम्बुजाः।
वाप्योऽङ्गना इवाभान्ति यत्र वाप्य इवाङ्गनाः॥ इति।
भेदाभेदप्रधानेषु परिशेषात् स्मरणं लक्षयति। सदृशेति। व्याचष्टे। यत्रेति। अन्यशब्दार्थमाह। सदृशवस्त्वन्तरेति। ‘सदृशादृष्टचिन्ताद्या स्मृतिबीजस्य बोधका’ इति न्यायेन सदृशानुभवात् पूर्वानुभवजनितसंस्कारोद्बोधे सति सदृशवस्त्वन्तरस्मृतिः स्मरणालंकार इत्यर्थः। सादृश्यव्यतिरिक्तनिमित्तत्वेन ‘अत्रानुगोदं मृगयानिमित्तम्—’ इत्यादौ नायमलंकारः। न चेदमनुमानम्। अविनाभावाभावात्। उदाहरति। राज्ञेति। भूभुजामित्यत्र ‘अधीगर्थ—’ इत्यादिना कर्मणि षष्ठी।
अथ वृत्तानुकथनपुरःसरं प्रघटकसङ्गतिमाह। भेदाभेदेति। आरोपगर्भा
संप्रत्यारोप2838गर्भालंकारप्रस्तावः। तत्रापि प्राधान्यात् प्रथमं रूपकं निरूप्यते।
रूपकालंकारः।
आरोपविषयस्य स्यादतिरोहितरूपिणः।
उपरञ्जकमारोप्यमाणं तद्रूपकं मतम्॥
अनारोपमूलानां चोपमादीनां व्यावृत्तिः। अतिरोहितरूपिण इत्यनेन संदेहभ्रान्तिमदपह्नुतीनां2839 च व्यावृत्तिः। संदेहालंकारे2840 विषयस्य संदिह्यमानतया तिरोधानम्। भ्रान्तिमदलंकारे भ्रान्त्या विषयतिरोधानम्2841। अपह्नुत्यलंकारेऽपह्नवेनारोपविषयतिरोधानम्। उपरञ्जकमित्यनेन परि- णामालंकारव्यावृत्तिः। परिणामा2842लंकारे आरोप्यमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वेनान्वयो न प्रकृतोपरञ्जकत्वेन। अतः सादृश्यमूलेभ्यः सर्वेभ्यो2843 विलक्षणं रूपकम्।
तस्य प्रथमं त्रैविध्यम्। सावयवं निरवयवं परम्परितं चेति। साव-
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अभेदप्रधाना इत्यर्थः। तेषु रूपकस्य संगतिमाह2844। तत्रापीति। अभेदप्रधानेष्वित्यर्थः। प्राधान्यादिति। आरोपमूलालंकारबीजभूतत्वेनेति भावः2845। तस्य लक्षणमाह। आरोपेति। अन्यत्रान्यज्ञानमारोपः2846। तद्विषयस्य मुखादेरतिरोहितरूपिणः। अतिरस्कृतस्वरूपस्य। सर्वधनादित्वादिन् प्रत्ययः। आरोप्यमाणं चन्द्रादि। उपरञ्जकं ताद्रूप्यप्रतीतिमात्रजनकम्। आरोपस्य तावतैव चरितार्थत्वान्न पुनः परिणामवत् प्रकृतोपयोगान्तमारोपविवक्षेति भावः। यदेवंविधं तद्रूपकम्। प्रकृतमप्रकृतेन रूपवत् क्रियत इति लक्ष्यनिरुक्तिः। तदुक्तम्।
‘ततो विषयिरूपेण रूपवान् विषयो यतः।
आरोपणेन क्रियते तेनैतद्रूपकं मतम्॥’ इति।
विशेषणकृत्यमाह। अत्रारोपविषयस्येत्यादिना। तस्य विभागमाह। तस्य प्रथममित्यादिना। समस्तवस्तुविषयं लक्षयति। यत्रेति। आरोपविषय-
यवं द्विविधम्। समस्तवस्तुविषयमेकदेशविवर्त्ति च। निरवयवं द्विविधम्। केवलं मालारूपं2847चेति। परम्परितस्यापि श्लिष्टनिबन्धनत्वेनाश्लिष्टनिबन्धनत्वेन च द्वैविध्यम्। तयोरपि प्रत्येकं केवलमालारूपतया चातुर्विध्यम्। एवमष्टविधो रूपकालंकारः।
अथोदाहरणानि।
यत्रावयवानामवयविनश्च सामस्त्येन निरूपणं निवध्यते तत् समस्तवस्तुविषयं रूपकम्।
यथा।
यात्राप्रावृषि वीररुद्रनृपतेर्निस्साणधाराधरे2848
वैरिक्ष्मापतिगर्वपर्वतभिदाभीमं मुहुर्गर्जति।
शत्रुस्त्रीनयनाम्बुवृष्टिरसकृज्जातानयासर्वतो2849
वर्धन्ते2850 हरिदन्तरेषु जगदानन्दा यशःकन्दलाः॥४५॥
यत्रावयवनिरूपणादवयविनो निरूपणं गम्यते तदेकदेशविवर्त्ति रूपकम्।
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वदारोप्यमाणानामपि यत्रं शब्देनोपादानं तत् समस्तवस्तुविषयमित्यर्थः। उदाहरति। यात्रेति। अत्र यात्राप्रावृषीत्यादावयवरूपणम्। यशःकन्दला इत्यवयविनिरूपणम्। ननु यशांसि कन्दला इवेत्युपमितसमासः प्राप्नोति यशांस्येव कन्दला इति रूपकसमासोऽपि। उभयोः साधकबाधकाभावात् संदेहसंकर एवायं तेन रूपकमेवेति कथं निश्चीयते इति चेत् सत्यम्। जगदानन्दा इति सामान्यप्रयोगान्नो2851पमितसमासः किं तु मयूरव्यंसकादित्वाद्रूपकसमास एव तेन रूपकमेवेदं नोपमा। एवमुत्तरत्रापि साधकबाधकयोरुद्भावनं द्रष्टव्यम्।
एकदेशविवर्त्ति रूपकं लक्षयति। यत्रेति। उपलक्षणमेतत्। तेन यथायोगमवयवावयविनोरेकदेशस्य शाब्दत्वार्थत्वाभ्यामेकदेशविवर्त्ति रूपकमिति लक्षणं यथोदाहरणं द्रष्टव्यम्। अत एव आह काव्यप्रकाशकारः।
‘श्रौता आर्थाश्च ते यस्मिन्नेकदेशविवर्त्ति तत्’ इति। एकदेशे विशेषेण
यथा।
प्रासाधिता2852शावलयान्तरालः
शौर्याकरः काकतिवीररुद्रः।
विकस्वरैर्वासनया त्रिलोकीं
गुणप्रसूनैः सुरभीकरोति॥४६॥
अत्रावयवानां गुणानां प्रसूनत्वनिरूपणेन2853 नृपतेः कल्पशाखित्वं निरूप्यते। तस्मादेकदेशविवर्त्तित्वम्2854।
यथा वा2855।
मथिताद्वैरिवाराशेर्भुजामन्दरभूभृता2856।
राज्ञः प्रतापरुद्रस्य कीर्त्तिर्लोकान् धिनोत्यमून्॥४७॥
अत्र वैरिजनस्य वारां राशित्वनिरूपणेन2857 भुजस्य मन्दराद्रित्वनिरूपणेन2858 च जातायाः कीर्त्तेः सुधात्वम2859र्थादापतति लोकानाममरत्वं चेत्ये कदेशविवर्त्ति रूपकम्।
यत्रावयवनिरूपणमात्रे कविसंरम्भविश्रान्ति2860स्तन्निरवयवं रूपकम्। अवयविनिरूपणमात्रेऽपि तदेव।
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वर्त्तनादेकदेशविवर्त्तीत्यर्थः। उदाहरति। प्रसाधितेति। प्रसाधिताशावलयान्तरालो वशीकृतदिदङ्मण्डलः। विकस्वरैर्विकासिभिः। ‘स्थेशभास—’ इत्यादिना वरच्प्रत्ययः। अवयवरूपणादवयविरूपणं गम्यत इत्याह। अत्रेति।
उदाहरणान्तरमाह। मथितादिति। पूर्वोदाहरणे अवयवरूपणादवयविरूपणस्य गम्यत्वमत्र त्ववयवस्यापीति भेदः। ‘निरकासयद्रविमपेतवसु वियदालयादपरदिग्गणिका’ इत्यत्र रविशब्देन विटप्रतीतेरवयवैकदेशमात्रगम्यत्वेऽप्येकदेशविवर्त्तिरूपकत्वं द्रष्टव्यम्।
निरवयवं लक्षयति। यत्रेति। पूर्वत्रावयवमात्रेऽन्यत्रावयवान्तरे च रूपणा-
तत्र केवलं यथा।
यात्रारम्भविजृम्भमाणसुभटप्रेक्ष्वेडिता2861म्रेडितै-
र्निस्साणध्वनिभिः स्फुटं प्रतिदलद्रो2862दःकटाहान्तरैः।
क्षुब्धेष्वधिषु कम्पितेषु गिरिषु श्रुत्वैव मुञ्चन्त्यसून्
भीताः काकतिवीररुद्रनृपतेः प्रत्यर्थिनः पार्थिवाः॥४८॥
अत्र रोदसः कटाहत्वं2863 निरूप्यते।
मालानिरवयवं यथा।
राज्ञां मौलिविभूषणस्रगमला दिक्कुञ्जरश्रोत्रयोः
स्फारं चामरभूषणं धरणिभृच्छृङ्गेषु गङ्गासरित्।
व्योन्नः क्षोम2864वितानमुज्ज्वलतरं मुक्ताकलापो भुवः
स्फारः2865 काकतिवीररुद्रयशसां जागर्त्ति विस्फूर्जितम्॥४९॥
रूपकहेतुरूपकं परम्परितरूपकम्2866।
रूपकद्वयमात्रव्यवस्थितत्वान्न2867 समस्तवस्तुविषयेऽन्तर्भावि।
श्लिष्टकेवलपरम्परितं यथा।
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भावान्निरवयवमिति भावः। अत्रैकस्यारोपविषयस्यैकमेवारोप्यमाणं चेत् केवलम्। अनेकं चेद् माला चेति द्वेधा। तत्राद्यमुदाहरति। यात्रारम्भेति। प्रक्ष्वेडिताम्रेडितैः सिंहनादावृत्तिभिः। रोदो ब्रह्माण्डमेव कटाहः पात्रविशेषः क्षुब्धेषु क्षुभितेष्वित्यर्थः। व्याख्यातमेतद्रसप्रकरणे।
द्वितीयमुदाहरति। राज्ञामिति। गङ्गा भागीरथी। विस्फूर्जितं विजृम्भणम्। अत्रैकस्य यशसो माल्याद्यारोप्यमाणानेकत्वान्मालानिरवयवम्।
परम्परितं लक्षयति। रूपकेति। रूपकं हेतुर्यस्य तत् तथोक्तम्। अत एव परम्परास्य संजाता परम्परितमित्यन्वर्थम्। एकरूपकसापेक्षं रूपकं परम्परितमित्यर्थः। तेनानेकरूपकसापेक्षे समस्तवस्तुविषये नान्तर्भावोऽस्येत्याह। रूपक-
प्रतापवीररुद्रस्य मण्डलाग्रविधुन्तुदः।
अखण्डविक्रमोद्दामो2868 ग्रसते राजमण्डलम्॥५०॥
श्लिष्टमालापरम्परितं यथा।
पद्मोल्लाससहस्रभानुरसकृत्सन्मार्गचर्या वुधः
क्ष्माभृत्पक्षभिदाशनिः कुवलयालंकारराकाशशी।
नित्योद्यत्सुमनोविकाससुरभिः कल्याणसंपत्सुर-
क्षोणीभृद्भुवनाश्रयाम्बुधि2869रयं श्रीवीररुद्रो नृपः॥५१॥
अश्लिष्टकेवलपरम्परितं यथा।
काकतीयस्य दुग्धाब्धे2870र्यशो लीलामहोर्मयः।
दिक्कूलमुद्रुजाटोपाः2871 खेलन्त्यभ्रंकषोच्छ्रयाः2872॥५२॥
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द्वयेति। प्रतापेति। मण्डलाग्रः खड्ग एव विधुन्तुदो राहुः। राजमण्डलं क्षत्रियसमूह एवराजमण्डलं चन्द्रबिम्बम्। अत्र मण्डलाग्रविधुन्तुद इति रूपणं राजमण्डलमेव राजमण्डलमिति श्लिष्टरूपके निमित्तमेकमेवेति श्लिष्टकेवलपरम्परितम्।
पद्मेति। पद्माया लक्ष्म्या उल्लास एवपद्मानामुल्लासः। तत्र सहस्रभानुः सूर्यः। सन्मार्गः साधुमार्ग एव सन्मार्गोनक्षत्रमार्गः तत्र चर्यायां बुधः सौम्यः। क्ष्माभृत्पक्षो राजबल2873मेव क्ष्माभृत्पक्षाः। पर्वतपत्रा2874णि तद्भिदायामशनिः कुलिशम्। कुवलयस्य भूमण्डलस्यैव कुवलयानामुत्पलानामलंकारो राकाशशी पूर्णिमाचन्द्रः। सुमनोविकासो विद्वदाह्लाद एवसुमनोविकासः पुष्पविकासः तस्य सुरभिर्वसन्तः। कल्याणसंपन्मङ्गलसंपत्तिरेव कल्याणसंपदक्षयस्वर्णसमृद्धिः। ‘कल्याणमक्षयस्वर्णे कल्याणं मङ्गलेऽपि च’इति विश्वः। तस्याः सुरक्षोणीभृत् सुवर्णाचलः। भुवनं लोक एव भुवनमुदकं तदाश्रयस्याम्बुधिः। अत्र वीररुद्र एव सहस्रभानुरित्याद्यारोपपूर्वकस्य पद्मोल्लास एवपद्मोल्लासइत्यारोपस्य श्लेषनिबन्धनस्यानेकधा निबन्धनात् श्लिष्टमालापरम्परितम्।
काकतीयस्येति। दिशां कूलमुद्रुजतीति दिक्कूलमुद्रुजः आटोपो यासां तास्तथोक्ताः दिगन्तविश्रान्तसंभ्रमा इत्यर्थः। अभ्रं कपतीत्यभ्रङ्कप उच्छ्रग्रो यासां
अश्लिष्टमालापरम्परितं यथा।
दोराशीविषजिह्वया रिपुवनश्रेणीमहावात्यया
शौर्याग्रानलधूम्यया जयरमायोषाविलास2875भ्रुवा।
संहृष्यद्धरणीविलासशिखिनीसंवासयष्ट्याजगत्-
प्रासादार्गलया कृपाणलतया रुद्रो नृपः क्रीडति॥५३॥
अश्लिष्टमालापरम्परितं वैधर्म्येणापि संभवति2876। यथा।
त्रासान्धकारमध्याह्नाः कैतवातपरात्रयः।
जयन्ति वीररुद्रस्य रणप्राङ्गणकेलयः॥५४॥
एवमष्टाविधस्यापि वाक्यसमासगतत्वे2877न षोडशरूपकभेदाः संभवन्ति2878॥
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तास्तथोक्ताः। ‘उदि कूले रुजिवहोः’ ‘सर्वकूलाभ्र—’ इत्यादिनोभयत्र खश्प्रत्ययः। अत्र यशोलीलानां महोर्मित्वरूपणं काकतीयस्य दुग्धार्णवत्वरूपणाधीनमित्यश्लिष्टकेवलपरम्परितम्।
दोराशीविषेति। वातानां समूहों वात्या। धूमानां समूहो धूम्या। उभयत्र ‘पाशादिभ्यो यः’ इति यप्रत्ययः। विलासशिखिनी क्रीडामयूरी। अर्गलाविष्कम्भः। अत्र कृपाणलतायां जिह्वाद्यनेकरूपस्य भुजादीनामाशीविषाद्यारोपप्रतीक्षत्वाद2879श्लिष्टमालापरम्परितम्। सर्वत्र चात्र हेतुहेतुमद्भावोऽयमलंकारसर्वस्वकारमतेनोक्तः। काव्यप्रकाशकारस्तु विपरीतमवोचत्। यदत्रयुक्तं तद् ग्राह्यम्2880।
व्यतिरेकेणाष्येतत् संभवतीत्याह। अश्लिष्टेति। त्रास एवअन्धकारस्तस्य मध्याह्नाः। शक्तस्य तस्य त्रासासंभवादिति भावः। कैतवं कपटमेवातपस्तस्य रात्रयः। धर्मयोधित्वात् तस्येत्यर्थः2881। एतच्च मुखचन्द्र इत्यादौ समासगतं मुखमेव चन्द्र इत्यादौ वाक्यगतम्। अतः षोडशैते भेदाः। तत्रावशिष्टा भेदा अन्यतो द्रष्टव्या इत्याशयेनाह। एवमिति। आरोप्यमाणस्य धर्मित्वाल्लिङ्गसंख्ययोर्नैयत्येऽपि जटावल्कलालम्बिनः कपिलादावग्नय इत्यत्रैकस्य कपिलमुनेरनेकत्वमनेकविषयारोपात्। तदुक्तमलंकारसर्वस्वे। ‘अत्र चारोप्यमाणस्य धर्मित्वादाविष्टलिङ्गसंख्यानेकत्वेऽपि क्वचित् स्वतोऽसंभवत् संख्यायोगस्य विषयसंख्यानं प्रत्येकमारोपात्’ इति।
परिणामालंकारः।
आरोप्यमाणमारोप2882विषयात्मतया स्थितम्।
प्रकृतस्योपयोगित्वात्2883 परिणाम उदाहृतः॥
आरोप्यमाणं प्रकृतोपयोगीत्यनेन सर्वालंकारव्यावृत्तिः2884। तस्य सामानाधिकरण्यवैयधिकरण्याभ्यां द्वैविध्यम्।
सामानाधिकरण्येन परिणामो यथा।
शश्वत् प्रसाधनविधा2885नकृताभिलाषा
नम्रैर्भजन्ति मुकुटैरवनीपवर्गाः।
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रूपकालंकारात् प्रकृतोपयोगित्ववैधर्म्येण परिणामं लक्षयति। आरोप्यमाणमिति। प्रकृतस्योपयोगित्व इति विषयसप्तमी। प्रकृतोपयोगार्थमित्यर्थः। आरोप्यमाणं चन्द्रादिकम्। आरोपविषयात्मतया2886 मुखादितादात्म्येन।2887 मुखचन्द्रेण तापः शाम्यतीत्यत्र प्रकृतोपयोगान्तमारोपस्य विवक्षितत्वात्। वस्तुतो मुखस्यैव तापशान्तिनिमित्तत्वेन तादात्म्याभावे चन्द्रस्य प्रकृतोपयोगाभावादिति2888 भावः। अतः प्रकृतमनपह्नुतस्वरूपमेवारोप्यमाणात्मना परिणमतीति परिणामालंकार इत्यर्थः। एवं च यत्रारोपस्य ताद्रूप्यप्रतीतिमात्रपर्यवसायितया प्रकृतमपह्नुतस्वरूपमप्रकृतरूपापन्नं भवति तस्माद्रूपकात् परिणामस्य वैलक्षण्यं दर्शितम्। तदुक्तं चक्रवर्त्तिना।
‘विषय्याकारमारोप्य विषयस्थगनं यदा2889।
रूपकत्वं तदा तत्र रञ्जनेन समन्वयः॥
यदा तु विषयो रूपात् स्वस्मादप्रच्युतो भवेत्।
उपयुङ्क्ते पराकारं परिणामस्तदा मतः॥’ इति।
अस्य द्वैविध्यमाह। तस्येति। आद्यमुदाहरति। शश्वदिति। प्रसाधनविधानमलंकारविधिः। अत्रारोपेण प्रकृताज्ञातादात्म्यमापन्नाया अप्रकृतायाः
श्रीवीररुद्रनृपतेः ककुभां विजेतु-
राज्ञामयीं स्रजममन्दविलासलक्ष्मीम्॥५५॥
वैयधिकरण्येन परिणामो2890 यथा।
किरीटमाणिक्यमयूखजालै-
र्विधाय पुष्पाञ्जलिमर्चयन्ते।
फलार्थिनो रुद्रनरेन्द्रपाद-
पीठान्तसीमानमरिक्षितीशाः2891॥५६॥
समासोक्तावारोप्यमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वेऽप्यवाच्यत्वान्न परिणामेऽन्तर्भावः।
संदेहालंकारः।
विषयो विषयी यत्र सादृश्यात् कविसंमतात्।
संदेहगोचरौ स्यातां संदेहालंकृतिश्च सा॥
सा त्रिविधा। शुद्धा निश्चयगर्भा निश्चयान्ता चेति।
संदेहमात्रपर्यवसायिनी शुद्धा यथा।
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स्रजो मुकुटधारणात्मकप्रकृतोपयोगात् परिणामा2892लंकारः। अत्र विषयविषयिणो समानविभक्तिकत्वात् सामानाधिकरण्यम्।
किरीटेति। अत्र च पूर्ववत् परिणाम उद्भावनीयः। किं तु मयूखजालपुष्पाञ्जलयो विषयविषयिणोर्भिन्नविभक्तिकत्वात् वैयधिकरण्यमिति विशेषः। ननु प्रकृतोपयोगाविशेषात्2893 परिणामसमासोक्त्याको भेद इत्याशङ्क्यारोप्यमाणस्योपादानानुपादानाभ्यां भेद इत्याह। समासोक्ताविति।
आरोपगर्भेष्वनवधारणात्मकं संदेहालंकारं लक्षयति। विषय इति। कविसंमतादित्यनेन स्थाणुर्वा पुरुषो वेति संदेहस्यालंकारता व्यावर्त्यते। वर्ण्योत्कर्षार्थं कविप्रतिभोत्थापितः प्रकृताप्रकृतगोचरः संदेहः संदेहालंकार इत्यर्थः। तस्य त्रेधा
किमेष नवमो हरित्पतिरमन्दसंपत्पदं2894
किमेष दशमः प्रजापतिरपूर्वसर्गक्रमः।
किमेष हरिरुर्वरोद्धरणचञ्चु2895रेकादश-
श्चिरादिति विलोक्यते जगति वीररुद्रो जनैः॥५७॥
निश्चयगर्भा यथा।
कालाहिः किमयं मृणालमृदुलं भोगं स धत्ते पुनः
कालभ्रुकुटिरेष किं नु मुख एवोजृम्भते सा पुनः।
कालोग्रानलधूमपद्धतिरसौ किं सा2896 पुनर्धूयते
वातेनेति विकल्प्यते प्रतिभटै रुद्रस्य कौक्षेयकः॥५८॥
निश्चयपर्यवसाना यथा।
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विभागमाह। सेति। आद्यमुदाहरति। किमिति। हरित्पतिर्लोकपालः। प्रजापतिर्ब्रह्मा। उर्वरोद्धरणचुञ्चुः क्षोणीरक्षणदक्षः। अत्र संपदादिसादृश्याद्वीररुद्रलोकपालादिकोटिद्वयगोचरस्य संदेहस्य तावन्मात्रपर्यवसायित्वाच्छुद्धोऽयं संदेहभेदः। ननु नवमादिपदविरहे केवललोकपालादीनामारोप्यमाणत्वसंभवादस्तु संदेहः। नवमादिपदप्रयोगे तु लोकपालादीनां वीररुद्रत्वेन संभावनादुत्प्रेक्षेयं न संदेह इति चेत् सत्यम्। अस्तु संभावनमारोपो वा। यत्र कोटिद्वयावलम्बित्वं तत्र संदेह एवेति स्वमतम्। एवंविधस्थले केचिदुत्प्रेक्षाश्रयः संदेह इत्याहुः। उत्प्रेक्षा एव इत्यन्यइत्यादि सर्वमलंकारसर्वस्वे स्पष्टम्।
द्वितीयमुदाहरति । कालाहिरिति। भोगं सर्पशरीरम्। कालभ्रुकुटिरन्तकभ्रूभङ्गः। कालोग्रानलः प्रलयकालाग्निः। तस्य पद्धतिर्धूमरेखा। धूयते कम्प्यते। अत्र कौक्षेयकं कृष्णसर्पादिरूपतया संदिह्यसुकुमारशरीरा2897दिविशेषादर्शनेन सर्पादिनिषेधनिश्चयेऽपि कौक्षेयकनिश्चयाभावान्निश्चयगर्भोऽयं संदेहः।
किं कल्पद्रुममञ्जरीस्रज इमे किं वा पयोराशयः2898
स्वर्धेनोरथवा किमुज्ज्वलतराश्चिन्तामणिस्फूर्त्तयः।
किं वा सिद्धरसोर्मय2899श्चिरमिति व्यामृश्य निश्चिन्वते
सन्तः काकतिवीररुद्रनृपतेः स्मेराः कटाक्षा इति॥५९॥
भ्रान्तिमदलंकारः।
कविसंमतसादृश्याद्विषये पिहितात्मनि।
आरोप्यमाणानुभवो यत्र स भ्रान्तिमान् मतः॥
यथा।
काकतीयविभोः कीर्त्तिविभवे व्याप्तरोदसि।
दिवापि चन्द्रिकाबुद्ध्याचकोरा यान्ति निर्वृतिम्2900॥६०॥
अपह्नवालंकारः।
निषिध्य विषयं साम्यादन्यारोपे2901 ह्यपह्नुतिः।
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तृतीयमुदाहरति। किमिति। सिद्धरसोर्मयः सुधारसकल्लोलाः। व्यामृश्य कल्पद्रुममञ्जरीमाल्यादिरूपेण संदिह्य। स्मेराः स्मितप्रधानाः सानुग्रहा इत्यर्थः। कटाक्षा इति निश्चिन्वते। अत एव निश्चयान्तोऽयं संदेहः। वीररुद्रकरुणावलोकनविषयाः सर्वे समृद्धा जीवन्तीति भावः।
अयथार्थज्ञानत्वसाधर्म्यात् संदेहानन्तरं भ्रान्तिमन्तं लक्षयति। कवीति। पिहितात्मनि आच्छादितस्वरूपे। भ्रान्तिश्चित्तधर्मोऽस्यास्तीति भ्रान्तिमान्। कविप्रतिभोत्थापितः प्राकरणिकं प्रत्यप्राकरणिकत्वेनोपलम्भो भ्रान्तिमानित्यर्थः। एतेन सादृश्यमात्रनिबन्धनायाः शुक्तिरजतादिभ्रान्तेर्नालंकारत्वमिति दर्शितम्। दोषमूलायास्तु किमुतेति भावः। उदाहरति। काकतीयेति। व्याप्तरोदसि व्याप्तब्रह्माण्डे। अत्र कीर्त्त्योचन्द्रिकानुभवात् भ्रान्तिः।
सादृश्याद्वस्त्वन्तरप्रतीतिसाम्याद् भ्रान्तिमदनन्तरमपह्नुतिं लक्षयति। निषि-
तस्यास्त्रैविध्यम्। अपह्नुत्यारोपः आरोप्यापह्नवः छलादिशब्दै2902रसत्यत्वप्रतिपादनं च।
आद्यद्वयस्योदाहरणं यथा।
उद्वेल्लच्चतुरर्णवीकलकलो नायं चमूडम्बरो
नेदं दुन्दुभिगर्जितं त्रिपुरजित्कल्पान्तढक्का2903रवः।
इत्थं रुद्रनरेन्द्रधाटिषु महीभारावनम्रीभव-
च्छेषाशेषशिरस्सु विस्मितमथ भ्रष्टं2904 दिगीशैरपि॥६१॥
छलादिपदैरसत्यत्वप्रतिपादनं यथा2905।
सत्यं काकतिवीररुद्रघरणी2906नाथच्छलेन क्षितिं
पातुं मध्यमलोकपालपदवीं प्राप्तः स्वयंभूः शिवः।
नैवं चेद्विषमावलोकनकलामात्रेण भस्मीकृतै-
र्जातं वैरिपुरैः कथं कथमवाग्भूतं2907 च भूभृद्गणैः॥६२॥
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ध्येति। अन्यारोपे आरोप्यमाणप्रतीतावित्यर्थः। तस्यास्त्रैविध्यं विविनक्ति। अपह्नुत्यारोप इत्यादि2908। उद्वेल्लदित्यारोप्यापह्नवः। नेदं दुन्दुभिगर्जितमित्यपह्नुत्यारोपः। नरेन्द्रधाटिष्विति। कृदिकारः। तल्लक्षणं तु ‘शत्रुदेशावमर्दाय सद्यः सुभटघोटकैः। विजिगीषोः प्रवृत्तिर्या सा धाटीति निगद्यते॥’ इत्याहुः2909।
सत्यमिति। धरणीनाथच्छलेनेत्यत्र छलशब्देन नायं धरणीनाथः किं तु स्वयंभूः शिव इति राज्ञः सत्यत्वं प्रतिपाद्यते। तदेव समर्थयते। नैवमिति। विषमावलोकनं निग्रहदृष्टिः। अन्यत्र तृतीयनयनदृष्टिः। वैरिपुरैरसंख्यैः त्रिभिश्चकर्त्तृभिर्भस्मीभूतैः कथं जातं जज्ञे। भूभृद्गणैः राजसमूहैः। अन्यत्र र्भूभृता कैलासेन गणैः2910 प्रमथैश्च कथमवाग्भूतं न्यग्भूतमित्युभयत्र भावे क्तः। ईश्वरस्य गिरीशत्वात् प्रमथाधिपत्वाच्चेति भावः।
उल्लेखालंकारः।
अर्थयोगरुचिश्लेषैरुल्लेखनमनेकधा।
ग्रहीतृभेदादेकस्य स2911उल्लेखः सतां मतः॥
रुच्यर्थयोगाभ्यां2912 यथा।
लक्ष्मीनिवासगृहमित्यखिला नरेन्द्रा
शौर्यातिभूमिखनिरित्यरिवीरवर्गाः।
विद्याविलासपदवीति च लब्धवर्णाः
श्रीकाकतीन्द्रनगरीमनिशं स्तुवन्ति॥६३॥
श्लेषेण2913 यथा।
उग्रः सपत्नेषु गुणेषु भास्वान्
रामः प्रतीकेषु रणेषु भीमः।
लीलासु लक्ष्म्याः पुरुषोत्तमश्चे-
त्याचक्षते रुद्रनृपं कवीन्द्राः॥६४॥
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आरोपगर्भेषु परिशेषादुल्लेखं लक्षयति। अर्थेति। अर्थेन प्रयोजनेन योगोऽर्थित्वं लिप्सेति यावत्। रुचिरभिरतिः। श्लेषः प्रसिद्धः। एतैः समस्तैर्व्यस्तैर्वायथायोगं ग्रहीतृगतैरेकस्य वस्तुनो नानाधर्मयोगादनेकधोल्लेखनं निर्धारणमुल्लेखालंकार इत्यर्थः। सर्वालंकारव्यावर्त्तकेन ग्रहीतृभेदादित्यनेन विषयभेदोऽप्युपलक्ष्यते। लक्ष्मीति। शौर्यातिभूमेः पराक्रमातिशयस्य। खनिराकरः। लब्धवर्णा विद्वांसः। अत्रैकस्याः काकतीन्द्रनगर्याःसमुद्ध्यादिधर्मयोगान्नरेन्द्रादिग्रहीतृभेदेन रुच्यर्थयोगाभ्यां लक्ष्मीनिवासगृहादिरूपतयानेकधोल्लेखनादुल्लेखः।
उग्र इति। सपत्नेषु शत्रुषु उग्रः कपर्दी क्रूरश्च। गुणेषु भास्वान् सूर्य2914स्तेजस्वी च। प्रतीकेष्वङ्गेषु रामो दाशरथिरभिरामश्च। लक्ष्म्या लीलासु पुरुषोत्तमो विष्णुः पुरुषश्रेष्ठश्च। अत्र ग्रहीतृभेदाभावेऽपि सपत्नादिविषयभेदाच्छ्लेषेणोग्रत्वाद्यनेकधर्मोल्लेखनादुल्लेखः।
अथाध्यवसायगर्भमलंकारद्वयं निरूप्यते2915।
विषयविषयिणोरन्यतरनिगरणेनाभेदप्रतिपत्तिरध्यवसायः। स द्विविधः। विषयि2916निगरणेन विषय2917निगरणेन च।
उत्प्रेक्षा।
यत्रान्यधर्मसंबन्धादन्यत्वेनोपतर्कितम्2918।
प्रकृतं हि भवेत् प्राज्ञास्तामु2919त्प्रेक्षां प्रचक्षते॥
यत्रा2920प्रकृतगुणक्रियासंबन्धादप्रकृतत्वेन प्रकृतस्य संभावनं2921 सोत्प्रेक्षा2922। सा द्विविधा। वाच्या प्रतीयमाना च। संभावना2923प्रतिपादकानां नूनं-
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अभेदप्रतिपत्तेरविशेषेऽप्यारोपादध्यवसायस्योत्कृष्टत्वाच्चारोपमूलानन्तरमध्यवसायमूलालंकारप्रस्ताव इत्याशयेनाह। अथेति। मूलभूतमध्यवसायं निरूपयति। विषयेति। एकतरपरिशेषो मा भूदित्यन्यथा व्याचष्टे। स द्विविध इति। निगरणमसत्यत्वमित्यर्थः। अन्यथा विषयनिगरणेनाभेदप्रतिपत्तिरध्यवसाय इति सर्वसंप्रतिपन्नेन स्वयमपि पूर्वोक्तेनाध्यवसायलक्षणेन विरोधात्। यदा विषयिणोऽसत्यत्वं तदाध्यवसायः साध्यः। यदा विषयस्यासत्यत्वं तदाध्यवसायः सिद्ध इति विवेकः। तथा हि यदा चन्द्रादिविषयिगतं माधुर्यादिकं विषयभूते मुखादावुपनिबद्धं मुखं मुखत्वेन जानन्नेव नूनमिदं चन्द्र इति प्रयुङ्क्ते तदा विषयी चन्द्रो मुखत्वेनासत्यो निगीर्णः प्रतिभाति विषयस्तु परमार्थतः सत्य एव। एवं सत्यासत्ययोरभेदप्रतिपत्तेरभावान्नू2924नमादिशब्दैर्विपयिणोऽपि सत्यत्वसमर्थनादध्यवसायः साध्य इत्यत्राध्यवसायप्राधान्यम्। यदा तु मुखपदमनुक्त्वा चन्द्रोऽयमिति प्रयुङ्क्ते तदा वस्तुतोऽसत्यस्यापि विषयिणः सत्यता प्रतीयते। असत्यत्वनिमित्तस्य मुखपदप्रयोगस्याभावात्। विषयस्य वस्तुतः सत्यस्यापि अत्यन्तापलापादसत्याभिमतस्य निगीर्णत्वादध्यवसायः सिद्ध इत्यत्राध्यवसितप्राधान्यमित्यादि सर्वमलंकारसर्वस्वे तद्व्याख्यायां च संजीविन्यां प्रपञ्चितम्। तत् सर्वमनेनैव गतार्थमिति नेह विस्तरः क्रियते। तत्र साध्यावध्यवसायमूलामुत्प्रेक्षां लक्षयति। यत्रेति। अन्यदप्रकृतं तस्य धर्मो गुणक्रियादि2925रूपः। तत्संबन्धात् प्रकृतमन्यत्वेनाप्रकृतत्वेनोपतर्कितं संभावितं यत्र भवेत् तामुत्प्रेक्षां प्रचक्षत इत्यर्थः। तदेतद् व्याचष्टे। यत्रेति। तस्या विभागमाह। सेति। वाच्यां लक्षयति। संभावनेति।
ध्रुवं2926प्रायइत्येवमादीनां प्रयोगे वाच्या। अप्रयोगे तु2927 प्रतीयमाना। जातिक्रियागुणद्रव्याणां चतुर्णाम2928ध्यवसायविषयत्वे2929 सा द्विविधा प्रत्येकं चतुर्विधा2930। तेषां भावाभावरूपतया द्वैविध्येऽष्टविधा। अध्यवसायस्य गुणनिमित्तत्वेन क्रिया2931निमित्तत्वेन च द्वैविध्ये प्रत्येकं षोडशप्रकारा2932। निमित्तस्य वाच्यत्वगम्यत्वाभ्यां द्वैविध्यं वाच्योत्प्रेक्षायामेव। प्रतीयमानोत्प्रेक्षायामिवाद्यनुपादाने निमित्तस्य चाप्रयोगे उत्प्रेक्षाया निरवलम्बनत्वात्2933 । तथा जात्यादीनां स्वरूपेण फलरूपेण चाध्यवसाय2934विषयत्वे बहुविधत्वम्। वाच्योत्प्रेक्षायामपि हेतुफलयोरुत्प्रेक्षाविषयत्वे2935 निमित्तस्योपादानमेव। तथा हि। साध्ये2936ऽनुपात्ते साधनत्वेन निर्देशो नान्वयं पुष्णाति। तथा साधनेऽनुपात्ते साध्यत्वेन निर्देशोऽपि। तयोरन्योन्यापेक्षत्वात्2937। हेतूत्प्रेक्षायां फलं निमित्तम्। तस्यानुपादाने कं प्रति हेतुत्वं संगच्छते। फलोत्प्रेक्षायां साधनं निमित्तम्। तस्यानुपादाने कं प्रति फलत्वेन संघटेत2938।
यथा2939।
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अत्रादिशब्देन मन्ये शङ्के ध्रुवमित्यादीनां ग्रहणम्2940। जातिक्रियागुणद्रव्याणां गौश्चलति शुक्लो डित्थइत्येवमादीनामध्यवसायविषयत्वेनोत्प्रेक्षाविषयत्वेन द्विविधा वाच्या प्रतीयमाना च प्रत्येकं चतुर्विधेत्यष्टविधा जातेत्यर्थः। तेषां जात्यादीनाम्। अष्टविधेति। प्रत्येकमिति शेषः। निमित्तद्वैविध्येनास्या द्वात्रिंशद् भेदा भवन्तीत्याह। अध्यवसायस्येति। वाच्योत्प्रेक्षायां विशेषमाह। निमित्तस्येति। अन्यत्रैतदभावे हेतुमाह। प्रतीयमानेति।
प्रतापरुद्रनृपतेरपारे कीर्त्तिसागरे।
मग्ना दुरीशदुष्कीर्त्तिसङ्गादिव जगत्त्रयी2941॥६५॥
अत्रोत्प्रेक्षानिमित्तस्य मज्जनस्यानुपादाने सङ्गादिति हेतूत्प्रेक्षा न शोभामावहति।
यथा वा2942।
जयश्रीवासपद्मस्य विकासायेव भानुमान्।
प्रतिबिम्बमिषात् खड्गंप्रविशत्यन्ध्रभूभृजः॥६६॥
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‘महिलासहस्सभरिए तुह हिअअेसुहअ सामाअन्ती।
दिअहं अणण्णसरणा अंगं तणुअं वितणुए हि॥’
छाया
महिलासहस्रभरिते तव हृदये सुभग सा अमान्ती।
दिवसमनन्यशरणा अङ्गं तनुकं वितनुते हि॥
इत्यत्र महिलासहस्रभरिते तव हृदये अमान्तीत्युत्प्रेक्षा प्रतीयमाना इवादिप्रयोगाभावात्। तस्यामङ्गतनूकरणं निमित्तं यदि नोपादीयेत तदा तस्या निष्प्रमाणकत्वं स्यादित्यर्थः। प्रकारान्तरेण त्रैविध्यमाह। तथा जात्यादीनामिति। यदा जातिस्वरूपमुत्प्रेक्ष्यते तदा तस्य भावाभावरूपतया द्विविधस्योपात्तगुणक्रियानिमित्तभेदाच्चातुर्विध्यम्। निमित्तानुपादाने तु तत्कृतभेदाभावात् द्वैविध्यमेव। इत्थं पोढा जातिस्वरूपोत्प्रेक्षा। एवं क्रियागुणद्रव्याणां भेदकल्पने मिलित्वा चतुर्विंशतिस्वरूपोत्प्रेक्षाभेदाः। हेतुफलोत्प्रेक्षयोर्निमित्तोपादाननियमात् प्रत्येकं चातुर्विध्यमेवेति द्वात्रिंशत्। प्रतीयमानोत्प्रेक्षायां सर्वत्र निमित्तोपादाननियमात् निमित्तानुपादाननिबन्धनभेदाष्टकन्यूनत्वेऽष्टाचत्वारिंशद्भेदाः। एवं षण्णवतिभेदा इत्याशयेनोक्तम्। बहुविधमिति। वाच्योत्प्रेक्षायामपि हेतुफलोत्प्रेक्षयोर्निमित्तोपादाननियममुदाहरणमुखेन हृदयङ्गमीकर्त्तु2943मारभते। तथाहीत्यादिना2944। हेतूत्प्रेक्षायां फलं निमित्तम्। फलोत्प्रेक्षायां हेतुर्निमित्तम्। एवं च निमित्तनैमित्तिकयोरन्यतरोपादानेऽन्वयपोषाभावादुभयोपादाननियमे निमित्तोपादानं नियतमेवेति भावः। प्रतापेति। अस्पृश्यस्पर्शने स्नानस्य विहित्वादिति भावः।
जयश्रीत्यादि। स्पष्टम्।
अत्रोत्प्रे2945क्षानिमित्तस्य2946 भानुमत्प्रवेशस्या2947नुपादाने जयश्रीकमलविकासायेवेति फलोत्प्रेक्षणमसमीचीनम्। अतः स्वरूपोत्प्रेक्षायामेव निमित्तस्योपादानानुपादानाभ्यां द्वैविध्यम्। अतश्चेत्थं वाच्योत्प्रेक्षाया भेदगणना। उपात्तगुणनिमित्तजातिभावस्वरूपोत्प्रेक्षा।१। उपात्तगुणनिमित्तजात्यभावस्वरूपोत्प्रेक्षा।२। उपात्तक्रियानिमित्तजातिभावस्वरूपोत्प्रेक्षा।३। उपात्तक्रियानिमित्तजात्यभावस्वरूपोत्प्रेक्षा।४। अनुपात्तनिमित्तजातिभावस्वरूपोत्प्रेक्षा।५। अनुपात्तनिमित्त2948जात्यभावस्वरूपोत्प्रेक्षा।६। उपात्तगुणनिमित्तजातिभावहेतूत्प्रेक्षा।७। उपात्तगुणनिमित्तजात्यभावहेतूत्प्रेक्षा।८। उपात्तक्रियानिमित्तजातिभावहेतूत्प्रेक्षा।९। उपात्तक्रियानिमित्तजात्यभावहेतूत्प्रेक्षा।१०। उपात्तगुणनिमित्तजातिभावफलोत्प्रेक्षा।११। उपात्तगुणनिमित्तजात्यभावफलोत्प्रेक्षा।१२। उपात्तक्रियानिमित्तजातिभावफलोत्प्रेक्षा।१३। उपात्तक्रियानिमित्तजात्यभावफलोत्प्रेक्षा।१४। एवं चतुर्दश भेदा जात्युत्प्रेक्षा। अनेनैव क्रमेण गुणक्रियाद्रव्योत्प्रेक्षापि परिगणनीया। एवं च वाच्योत्प्रेक्षायाः षट्पञ्चाशद् भेदाः। प्रतीयमानोत्प्रेक्षायास्त्वष्टचत्वारिंशद् भेदाः। तत्र स्वरूपोत्प्रेक्षायामपि निमित्तोपादाननियमात् निमित्तस्य गम्यत्वे गुणरूपत्वेन क्रियारूपत्वेन च चारुत्वविशेषाभावादेक एव भेदो गण्यते2949। गुणक्रिययोरुत्प्रेक्षाविषयत्वमुत्प्रेक्षानिमित्तत्वं चाभ्युपगतम्। प्राचामलंकारप्रबन्धेषु षण्णवतिभेदोत्प्रेक्षेति गणनामात्रम्। चारुत्वातिशयस्तु षट्पञ्चाशत एव भेदानाम्2950। तत्र यथासंभवमुदाहरणानि।
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बुद्धिसौकर्यार्थंभेदगणनामाह। अतश्चेत्यादिना। निगदव्याख्यानमेतत्। प्रतीयमानोत्प्रेक्षाया भेदाष्टकन्यूनत्वे निमित्तमाह2951। अत्रेति। यथा निमित्तस्योपादाने निमित्तभेदाद्भेदस्तथानुपादाने नास्तीत्याह। निमित्तस्येति। गम्यत्वेनानुपादानादिति भावः। अत एव तत्र गुणक्रियारूपनिमित्त2952भेदनिबन्धनस्य विच्छित्तिविशेषस्यानुत्पन्नपुत्रनामकरणकल्पत्वात् एक एव भेदो गण्यत2953 इत्याह।
उपात्तगुणनिमित्तजातिभावस्वरूपोत्प्रेक्षा यथा।
कीर्त्तिः काकतिवीररुद्रनृपतेः सिंहासनाध्यासिनः
प्राचां भूमिभृतां2954 यशः पिदधती2955राकेन्दु2956तुल्यद्युतिः।
रक्षादक्षिणराजलाभजनितामन्दप्रमोदोत्थिता
त्रैलोक्याट्टहसप्रभेव ककुभां प्रान्तेषु विद्योतते॥६७॥
अत्र प्रभाशब्दो जातिवचनः। त्रैलोक्याट्टहसप्रभायाः कविप्रौढोक्तिसिद्धत्वान्नोपमाशङ्का2957।
उपात्तक्रियानिमित्तजातिभावस्वरूपोत्प्रेक्षा यथा।
वीरस्य रुद्रनृपतेः प्रियवल्लभस्य2958
राज्याभिषेकसलिलैः सरसीकृतायाः।
सद्यः समुच्छलितसान्द्रपरागरेखा-
क्षोण्याः प्रमोदपुलकारमञ्जरीव॥६८॥
अत्र पुलकाङ्कुरमञ्जरीवेत्युत्प्रेक्षायां सरसीकरणं क्रियारूपं निमित्तम्।
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गुणरूपत्वेनेत्यादि। गुणक्रिययोरिति। न तु जातिद्रव्ययोरिव केवलोत्प्रेक्षाविषयत्वमिति भावः। यथायोगमुदाहरति। कीर्त्तिरित्यादि। पिदधती आच्छादयन्ती। ‘वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः’ इत्यकारलोपः। अट्टहसोऽट्टहासः। ‘स्वनहसोर्वा’ इति पाक्षिकोऽप्रत्ययः। एषा प्रमोदगुणनिमित्ता जातिभावस्वरूपोत्प्रेक्षा। अत्राट्टहासप्रभायाः स्वतःसिद्धत्वेऽपि त्रिलोक्यसंबन्धित्वेन कविकल्पितत्वात् नोपमावकाश इत्याह। त्रैलोक्येति। अत एवात्रेवशब्दोऽपि संभावनावाचको नोपमावाचकः। तदुक्तं चक्रवर्त्तिना।
‘यदायमुपमानांशो2959 लोकतः सिद्धिमृच्छति2960।
तदोषमैव येनेवशब्दः साधर्म्यसूचकः॥
यदा पुनरयं लोकादसिद्धेः कविकल्पितः।
तदोत्प्रेक्षैव येनेवशब्दः संभावनापरः॥’ इति।
वीरस्येति। प्रिया वल्लभा प्रेयसी यस्य प्रियवल्लभस्य। पुलकमञ्जरीवेत्युत्प्रेक्षायामिति। जातिभावस्वरूपोत्प्रेक्षायामित्यर्थः। क्रियारूपमिति। निमित्तमिति शेषः।
अनुपात्तनिमित्तजातिभावस्वरूपोत्प्रेक्षा यथा।
प्रतापरुद्रस्य नखेन्दुकान्तिः
प्रणामभाजां पदयोर्नृपाणाम्।
ललाटलग्ना विधिनिर्मिताया
वर्णावलेर्वाचनदीपिकेव॥६९॥
अत्र दीपिकेवेति जातिवचना2961ज्जातिरुत्प्रेक्ष्यते2962।
उपात्तगुणनिमित्तजात्यभावस्वरूपोत्प्रेक्षा यथा।
प्रतापरुद्रस्य गुणामृतोर्मि-
धौता विराजन्त्यमलीकृताङ्गाः।
प्रक्षालितात्युद्धतभूमिपाला
खड्गाम्बुभिः स्वच्छतरा2963 भवन्ति2964॥७०॥
अनुपात्तनिमित्तजात्यभावस्वरूपोत्प्रेक्षा2965 यथा।
दिशां जेतुर्विश्वप्रथित2966महसो रुद्रनृपते-
र्जयप्रस्थानोद्यत्करितुरगसंमर्दजनितम्।
रजः कृत्वा2967 ग्रस्तप्रतिबलमसूर्यामिव दिवं
प्रतापाख्यानन्यान् दिशि दिशि विधत्ते दिनकरान्॥७१॥
अत्रासूर्यामिति जात्प्रभावः।
जातिहेतूत्प्रेक्षा2968 यथा।
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प्रतापरुद्रस्येति। अत्र वाचनदीपिकेवेति जातिभावस्वरूपोत्प्रेक्षायां निमित्तं नोपात्तम्।
दिशामिति। रजः कर्त्तृ। दिवमसूर्यामिव कृत्वेत्यत्र जात्यभावस्वरूपोत्प्रेक्षा अनुपात्तनिमित्ता।
उदारकीर्त्त्या2969भुजया प्रताप-
रुद्रस्य विश्वैकधुरन्धरस्य।
विश्वंभरा कोमलशय्ययेव
विस्मारिता गोत्रमहीध्रवासम्2970॥७२॥
अत्र शय्ययेवेति जातिहेतुत्वम्।
जात्याभावहेतूत्प्रेक्षा यथा।
भूमेरकल्पवृक्षत्वादिति धाता विचिन्तयन्।
सृष्टवान् काकतीशानां निर्व्याजत्यागवैभवम्2971॥७३॥
अत्राकल्पवृक्षत्वादिति जात्यभावस्य हेतुत्वम्।
जातिफलोत्प्रेक्षा यथा।
नूनं विश्वंभराभारस्तम्भीभवितुमायतौ2972।
वीररुद्रनरेन्द्रस्य भुजावाजानुलम्बिनौ॥७४॥
अत्र स्तम्भीभवितुमिति जातेः फलत्वम्।
जात्यभावफलोत्प्रेक्षा2973 यथा।
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उदारेति। उदाररीत्या उदारस्वभावया। गोत्रमहीध्रवासं कुलपर्वतनिवासम्। विस्मारितेति। ‘गतिबुद्धि—’ इत्यादिना अण्यन्तकर्त्र्याविश्वंभरायाः कर्मत्वं तस्मिन्नभिधेये कर्मणि क्तः। ‘ण्यन्ते कर्त्तुश्च कर्मणः’ इति वचनात्। अत्र शय्ययेवेति जातिभावहेतूत्प्रेक्षायाः पर्वतनिवासविस्मरणं निमित्तम्2974।
भूमेरिति। निर्व्याजं निरुपाधिकं त्यागवैभवमौदार्यातिशयो यस्य तं तथोक्तम्। काकतीशानं सृष्टवानिति फलं प्रत्यकल्पवृक्षत्वादिवेति जात्यभावहेतूत्प्रेक्षा।
नूनमिति। भुजयोराजानुलम्बित्वं पुरुषस्य भाग्यलक्षणम्। तदुक्तं नाटके तृतीयेऽङ्के। अत्राधारस्तम्भीभवितुमिति जातिभावफलोत्प्रेक्षायामायतत्वगुणो निमित्तम्।
पशूनवध्यानालोक्य शत्रवः काकतीशितुः।
प्रायेणामानुषत्वाय तृणवृत्तिं समाश्रिताः॥७५॥
अत्रा2975मानुषत्वायेति जात्यभावस्य फलत्वम्।
क्रियास्वरूपोत्प्रेक्षा यथा।
श्रीकाकतीयनृपतेर्द्विष2976दङ्गनानां
श्वासोर्मिभिः सपदि मर्मरितान्तरालाः।
तासां निवासविधये2977 कृतयाचनानां
प्रत्युत्तराणि दधतीव मरोर्वनान्ताः॥७६॥
क्रियाभावस्वरूपोत्प्रेक्षा यथा।
विमुखे सति काकतिक्षितीन्द्रे
वनसीमापि कठोरकण्टकाग्रा।
चिकुरेषु विकर्षति प्रतीशा2978-
नददानेव निजान्तरप्रवेशम्॥७७॥
अत्राददानेति क्रियाभावः2979।
क्रियाहेतुत्प्रेक्षा यथा।
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पशूनिति। अत्रामानुषत्वायेति जात्यभावफलोत्प्रेक्षायां तृणवृत्तिसमाश्रयणक्रिया निमित्तम्। एवमुत्तरत्रापि तादर्थ्यप्रतिपादकचतुर्थ्यादिश्रवणे फलत्वम्। तृतीयादिविभक्त्या सामर्थ्येन वा हेतुत्वं चेत्यादिकमूहनीयम्।
श्रीकाकतीयेति। मर्मरः पर्णध्वनिः। ‘अथ मर्मरः। स्वनिते वस्त्रपर्णानाम्’इत्यमरः। तद्वन्ति कृतान्यन्तरालानि येषां ते तथोक्ता इति गुणनिमित्तकथनं दानोत्प्रेक्षायाम्।
विमुख इति। प्रतीशान् प्रत्यर्थिभूपान्। चिकुरेषु केशेषु। निमित्तात् कर्मसंयोगे सप्तमी। विकर्षतीति क्रियादानाभावोत्प्रेक्षायां निमित्तम्। एवं निमित्तानुपादानेऽप्युदाहार्यम्।
राज्ञांगर्वाङ्कुरोद्भेदाः परिम्लाना दिने दिने।
काकतीन्द्रप्रतापार्कतीव्रोष्माभिभवादिव॥७८॥
अत्राभिभवादिति क्रियाहेतुत्वम्।
क्रियाभावहेतुत्प्रेक्षा2980 यथा।
कपोलफलकावस्याः कथं भूत्वा तथाविधौ।
अपश्यन्ताविवान्योन्यमीदृशीं क्षाम2981तां गतौ॥७९॥
क्रियाफलोत्प्रेक्षा यथा।
दम्भोलिसंरम्भमहाजिगोपः2982
प्रस्थानभेरीनिनदोऽन्ध्रभर्तुः।
लीनानिवान्वेष्टुमरातिवर्गान्
विगाहते शैलगुहान्तराणि॥८०॥
क्रियाभावफलोत्प्रेक्षा यथा।
सीमाद्रि2983कुञ्जेषु विहारभाजः
सिद्धाङ्गनाकल्पितचन्द्रिकार्घान्2984।
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राज्ञामिति। परिम्लानत्वमुत्प्रेक्षाफलम्। क्रियाहेत्वभावोत्प्रेक्षायाः प्रतिज्ञामात्रमेव नोदाहरणमत्र दृश्यत इत्यन्यतो लिख्यते।
कपालफलकावस्याः कथं भूत्वा तथाविधौ।
अपश्यन्ताविवान्योन्यमीदृशीं क्षामतां गतौ॥
इति।अत्र दर्शनक्रियाहेत्वभावोत्प्रेक्षा क्षामतागमननिमित्ता।
दम्भोलीति। महाजिर्महायुद्धमन्याभिभव इति यावत्। दम्भोलिसंरम्भमेव महाजिं गोपयत्याच्छादयतीति तथोक्तः तिरस्कृताशनिध्वनिरित्यर्थः। अन्वेष्टुमिवेति। अन्वेषणक्रियाफलोत्प्रेक्षा गुहान्तरगहनक्रियानिमित्ता।
सीमाद्रीति। सीमाद्विर्लोकालोकः। कल्पितश्चन्द्रिकाया इवार्थः पूजावि-
श्रीवीररुद्रस्य यशोविलासान्
गायन्त्यसंस्पृष्टुमिवान्धकारम्॥८१॥
अत्रासंस्पृष्टुमिति क्रियाभावस्य फलत्वम्।
गुणस्वरूपोत्प्रेक्षा यथा।
चकास्ति काकतीन्द्रस्य कृपालोकनविभ्रमः2985।
प्रकृतिष्वपि सर्वासु प्रसाद इव मूर्त्तिमान्॥८२॥
गुणाभावस्वरूपोत्प्रेक्षा यथा।
प्रतापरुद्रस्य महाभिषेक-
पयःकणैः शीतलिताखिलाङ्गा2986।
प्रशान्त2987भारार्त्तफणीन्द्रगाढ-
श्वासानिर्लोष्मेव विभाति पृथ्वी॥८३॥
अत्र प्रशान्तोष्मेति गुणाभावः।
गुणहेतुत्प्रेक्षा यथा।
जयश्रियामाश्रयतामुपैति2988
श्रीवीररुद्रस्य रणे2989 कृपाणः।
जयश्रियं वैरि2990महीपतीनां
समुत्सुको हर्त्तुमसूययेव॥८४॥
अत्रासूययेवेति गुणहेतुत्वम्2991।
गुणाभावहेतृत्प्रेक्षा यथा2992।
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धिर्येषां तान् तथोक्तान् चन्द्रिकासदृशानित्यर्थः। यशोगानस्यान्धकारासंस्पर्शः फलम्।
चकास्तीति। प्रकृतिषु प्रजासु प्रसादगुणस्य मृत्तिमद्विशेषणादुत्प्रेक्षालाभः। निमित्तमत्र नोक्तम्।
प्रतापेति। अन्यत्र धर्मिणि धर्म्यन्तरोत्प्रेक्षा। अत्र भूरूपे धर्मिण्युष्मप्रशान्तिलक्षणो धर्म उत्प्रेक्ष्यते तत्र शीतलाङ्गत्वं निमित्तमुपात्तम्।
जयेति। विशिष्टवस्तुसंग्रहो2993 लेशतोऽपि तस्यान्यत्रावस्थानं न सहत इति भावः। अत एवोपात्तनिमित्तेयं गुणहेतूत्प्रेक्षा।
जाता वयं संप्रति वीररुद्र-
नरेन्द्रगम्भीरिमगुल्फदध्नाः।
इत्यप्रमोदादिव जीवनेषु
मालिन्यमम्भोनिधयो भजन्ते॥८५॥
अत्राप्रमोदादिवेति गुणाभावस्य हेतुत्वम्।
गुणफलोत्प्रेक्षा यथा।
आशिषां विवधूम्राणां नैर्मल्यार्थमिवोत्सुकाः।
भुजङ्ग्यः काकतीन्द्रस्य गुणान् गातुं सुधामुचः॥८६॥
अत्र नैर्मल्यार्थमिति गुणस्य फलत्वम्2994।
गुणाभावफलो2995त्प्रेक्षा यथा।
अरण्यवासोचित2996बान्धवासु
मृगीष्ववैरार्थमिवाशरण्याः।
त्रिलिङ्गदेशेश्वरवैरिनार्यः
पराङ्मुखा लोचनविभ्रमेषु2997॥८७॥
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जाता इति। पार्श्वनिस्सृतौ पादग्रन्थी गुल्फौ तद्दध्नास्तत्प्रमाणाः। ‘प्रमाणे द्वयसच्—’ इत्यादिना दध्नच्प्रत्ययः। नरेन्द्रगम्भीरिम्णो गुल्फदध्नातदपेक्षयातिस्वल्पगाम्भीर्या इत्यर्थः। जीवनेषूदकेषु वृत्तिषु च मालिन्यं कार्ष्ण्यंक्लिष्टत्वं च भजन्ते। अत्राप्रमोदादिवेति गुणहेत्वभावोत्प्रेक्षाया न श्लेषो बाधकः किं त्वङ्गमेव। तदुक्तं रुचकेन। ‘एषार्थाश्रयापि धर्मविषये श्लिष्टशब्दहेतुका क्वचिद् दृश्यते’2998 इति। चक्रवर्त्तिनाप्युक्तम्। ‘क्वचिच्छ्लेषेण धर्मांशगतेनैषा न बाध्यते’ इति।
आशिषामिति। विपधूम्राणां विषमलिनानामाशिषां दंष्ट्राणाम्। ‘आशीरुरगदंष्ट्रायाम्’ इति विश्वः। गुणगाननिमित्तां गुणभावफलोत्प्रेक्षां योजयति। अत्रेति।
अरण्येति। शरणे रक्षणे साधुः शरण्यः। तद्रहिता अशरण्याः अनाथा
अत्रावैरार्थमिति गुणाभावस्य फलत्वम्।
द्रव्यस्वरूपोत्प्रेक्षा यथा।
न नित्यमस्मिन् परिपूर्णतेति2999
त्यक्त्वा नभः क्षोणितलावतीर्णः।
आनन्दयन्निन्दुरिव स्वधाम्ना
विभाति लोके नवकाकतीन्द्रः॥८८॥
द्रव्यस्वरूपाभावोत्प्रेक्षा यथा।
अनन्यसाधारणदानशौण्डे
सद्यःकृतार्थीभवदर्थिसार्थे।
श्रीकाकतीन्द्रे भुवि राजमाने
द्यौः पारिजातेन विनाकृतेव॥८९॥
अत्र दिवः पारिजाताभाव उत्प्रेक्ष्यः3000।
द्रव्यहेतुत्प्रेक्षा यथा।
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इत्यर्थः। अवैरार्थमिवेति। विलासविमुखा मृगाङ्गना विलासिनीर्विलोक्य वैरायन्ते तन्निषेधार्थमिवेत्यर्थः। विभ्रमविमुखत्वमत्र निमित्तम्।
नेति। अस्मिन् नभसि नवो गुणैरपूर्वः काकतीन्द्रः। अन्नेन्दोः क्षोणितलावतीर्णस्य कविकल्पितत्वादुत्प्रेक्षाविषयत्वमेकत्वाद् द्रव्यत्वं च।
अनन्येति। दानशौण्डो बहुप्रदः। ‘स्युर्वदान्यः स्थूललक्षदानशौण्डा बहुप्रदे’ इत्यमरः। अस्यानन्यसाधारणत्वमर्थाद् दान इति लभ्यते। उभयोः खञ्जकुब्जादिवद्विशेषणसमासः। यद्वा तादृशदाने शौण्डो मत्तः3001 निःसीमवितरणे निर्विचार इत्यर्थः3002। पारिजातस्तावदेक एव तस्य राजरूपतया भूलोके वर्त्तमानत्वात् कुतो दिवः पारिजात इति भावः।
प्रतापरुद्रदेवेन क्ष्माभृत्पक्षविजृम्भितम्।
समुन्मूलितमामूलादपरेणेव वज्रिणा॥९०॥
द्रव्याभावहेतुत्प्रेक्षा3003 यथा।
काकतीयप्रतापोष्मविलीनाङ्गेन3004 मेरुणा।
असुवर्णाचलेनेव विरिञ्चिर्व्याकुलीकृतः॥९१॥
अत्रासुवर्णाचलेनेति हेत्वभावः।
द्रव्यफलोत्प्रेक्षा यथा।
दुग्धार्णवशतायेव कैलासाचलकोटये3005।
नूनं प्रतापरुद्रेण यशो दिक्षु प्रसारितम्॥९२॥
अत्र दुग्धार्णवशतायेति फलत्वम्3006।
द्रव्याभावफलत्वोत्प्रेक्षा3007 यथा।
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प्रतापेति। क्ष्माभृत्पक्षविजृम्भितं वैरिभूपालबलविजृम्भणमन्यन्त्रपर्वतपक्षविजृम्भणम्। अत एवापरेणेव वज्रिणेति श्लेषाङ्गा द्रव्यहेतुत्प्रेक्षा। अत्रापरशब्दाप्रयोगे शब्दमात्रसाधर्म्याच्छ्लेष एव स्यात्। अथ सामर्थ्ये त्विन्द्वस्य सिद्धतया प्रतीतेरुपमैव। तत्प्रयोगे तु प्रकृतो राजैवापरवज्रित्वेनाध्यवसीयते तस्येवशब्देन साध्यत्वात् प्रतीतावप्युत्प्रेक्षैव। इवशब्दाप्रयोगे तु सिद्धत्वादभ्यवसायस्यातिशयोक्तिः। इवापरशब्दयोरुभयोरप्यप्रयोगे रूपकमित्यादिविशेषा यथासंभवमूहनीयाः।
काकतीयेति। विलीनाङ्गेन3008 द्रवीभूतावयवेन असुवर्णाचलेन सुवर्णाभावेनेत्यर्थः। अत्राभाववाचिनो नमः क्रियासापेक्षत्वेनासमर्थस्यापि ‘सुडनपुंसकस्य’ इति ज्ञापकात् क्वचित् समास इष्यते। यदाह कैयटः। ‘असमर्थनञ्समासस्य क्वचित् साधुत्वज्ञापनायानपुंसकस्येति प्रसज्यप्रतिषेध आश्रीयते’ इति।
दुग्धार्णवेति। नूनमित्येतत् द्वितीयोत्प्रेक्षासाधकम्।
वीररुद्रनरेन्द्रस्य जयप्रस्थानसंभवम्।
रजः पिहितदिग्गोलं3009 निराकाशमिवस्थितम्3010॥९३॥
अत्र निराकाशमित्याकाशाभावाय इत्यर्थः3011।
एवं भेदान्तरं यथासंभवमुदाहार्य्यम्।
इत्यौपम्यगर्भालंकार3012विवेकः3013।
अतिशयोक्त्यलंकारः।
विषयस्यानुपादानाद्विषय्युपनिवध्यते।
यत्र सातिशयोक्तिः स्यात् कविप्रौढोक्तिजीविता3014॥
यत्र3015 कविप्रौढोक्त्या विषयतिरोधानेन विषयी निबध्यते सातिशयोक्तिः। तस्याश्चातुर्विध्यम्। भेदेऽभेदः। अभेदे भेदः। संबन्धेऽसंबन्धः। असंबन्धे
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वीररुद्रेति। आकाशस्याभावो निराकाशम्। अर्थाभावेऽव्ययीभावः। ततश्चतुर्थ्या ‘नाव्ययीभावादतोऽम् त्वपञ्चम्याः’ इत्यम्भावः ‘कस्तुरीतिलकन्ति3016भालफलकेदेव्या मुखाम्भोरुहे’ इत्यादावुपमोपक्रमोत्प्रेक्षा। ‘यत्रोल्लसत्फेनततिच्छलेन मुक्ताट्टहासेव विभाति शिप्रा’ इत्यादो सापह्नवोत्प्रेक्षेत्यादिकं तु स्वयमूह- नीयमित्याह। एवमिति।
इत्थं साध्याध्यवसायमूलामुत्प्रेक्षां निर्णीय सिद्धाध्यवसायमूलामतिशयोक्तिं लक्षयति। विषयस्येति। यत्र विषय्यप्रकृतश्चन्द्रादिरुपनिबध्यते प्राधान्येनेति शेषः। कुतः। विषयस्य प्रकृतस्य मुखादेरनुपादानात् विषयिणा निगीर्णत्वादित्यर्थः। इदमत्रानुसंधेयम्। अध्यवसाये त्रयं संभवति। विषयो विषयी अध्यवसानव्यापारात्मकं स्वरूपं च। तत्र विषयस्य निगीर्णत्वेन स्वरूपप्रतिपत्तेरेवाभावादध्यवसाये न कुत्रापि प्राधान्यशङ्कावकाशः। नूनमादिशब्दैरध्यवसायेन व्यापारप्राधान्ये तूत्प्रेक्षा दर्शिता। नूनमादिशब्दाप्रयोगे विषयिण एव प्राधान्येऽध्यवसायस्य सिद्धत्वादतिशयोक्तिरिति। अत एवोक्तं रुचकेन3017। ‘अध्यवसितप्राधान्ये त्वतिशयोक्तिः’ इति। इदं रजतमित्यस्यातिशयोक्तिता मा भूदित्युक्तम्। कविप्रौढोक्तिजीवितेति। विभागमाह। तस्या इति। ननु पञ्च3018-
संबन्धश्चेति। कार्यकारणयोः पौर्वापर्यविपर्ययरूपा त्वनध्यवसायमूलत्वाद्व्यति3019रिक्तैव। किंतु प्रौढोक्ति3020मूलत्वादतिशयोक्तिरिति कथ्यते।
तत्र भेदेऽभेदो यथा।
स्थाने कल्पतरुर्जातः काकतीयमहोदधेः3021।
लक्ष्मीपतिरसौ चित्रं मर्त्त्यरूपमहोत्सवः3022॥९४॥
अत्र प्रतापरुद्रकल्पवृक्षयोरभेदाध्यवसायः।
अभेदे भेदो यथा।
औन्नत्यं महदन्यदेव महितः कोऽप्येष गम्भीरिमा
काप्यन्या सरणिः प्रतापयशसोरन्यैव बाह्वोः प्रथा।
सर्वं नूतनमेव रुद्रनृपतेर्जाने न तन्निर्मितौ
सामग्री चतुराननेन कियती कीदृक्क्रमा कल्पिता॥९५॥
अत्रौन्नत्यादेर्वास्तवभेदाभावेऽपि भेदः कल्पितः। स्वतःसिद्धकविप्रौढोक्ति3023सिद्धयो3024रौन्नत्ययोरभेदेपि भेदाध्यवसायः3025।
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मस्यातिशयोक्तिभेदस्य संभवात् कथं चातुर्विध्यमित्याशङ्क्याह। कार्यकारणयोरिति। काव्यप्रकाशकारोक्तवैषम्यं त्वस्मदुपाध्यायैरेकावलीतरले समाहितमिति नेह प्रपच्यते। क्रमेणोदाहरति। स्थान इति। कल्पतरोरुदधेरुत्पतिरुचिता किं तु लक्ष्मीसोदरस्यामत्यपयोगिनस्तस्येदमद्भुतमिति भावः।
औन्नत्यमिति। व्याख्यातमेतत्। अत्र राजमेर्वादिसंबन्धिनोरीवत्याद्योर्वास्तवाभेदेऽप्यन्यदेवेत्यादिना काल्पनिको भेदः प्रतिपाद्यत इत्याह। अत्रेति। तर्ह्यस्मिन् भेदे नाध्यवसायलक्षणानुगतिरत3026 आह। स्वत इति। स्वतः सिद्धं यदौन्नत्यं तदेवान्यदेवेति कविप्रौढोक्त्या सातिशयम्। अतः स्वतः सिद्धप्रौढोक्तिसिद्ध
संबन्धेऽसंबन्धो यथा।
शिला चिन्तारत्नं तरुरमरशाखी पशुरसौ
वियद्धेनुः सर्वंजगदपि तथा दोषविधुरम्।
न सृष्टिर्वैधात्री तदिह चतुरश्रीः कथमियं
स्पृशेद्देवं रुद्रं सकलगुण3027साम्राज्यनिलयम्॥९६॥
अत्र3028 विधातृसृष्टिसंबन्धेऽप्यसंबन्ध उक्तः। अतीतब्रह्मसृष्टिनेश्वरेणा3029त्राभेदाध्यवसायः।
असंबन्धे संबन्धो यथा।
ब्रह्मन् मेरुगिरौ कृतेऽपि किमिदं नैवंविधास्ते मुदः
स्वामिन् सत्यमधिक्रियाद्य फलिता यद्वीररुद्रः कृतः।
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योरौन्नत्ययोः फलरूपयोर्भेदेऽप्यभेदाध्यवसायो न पुनः फलिनोस्तयोर्वास्तवभेदे सत्यभेदाध्यवसायकल्पनायोगात्। तदुक्तं चक्रवर्त्तिना।
‘अभेदाध्यवसायो हि फलेऽतिशयनादिह।
न पुनः फलिनोस्तत्र भेदेऽभेदो न सिध्यति॥’इति।
किं च प्रथमोदाहरणेऽपि स्वतःसिद्धप्रौढोक्तिसिद्धवदान्यत्वयोरेवाभेदाध्यवसायो न राजकल्पवृक्षयोः। अन्यथैकत्र फलयोरध्यवसायोऽन्यत्र फलिनोरिति वैरूप्यप्रसङ्गात्। एवं च प्रतापरुद्रकल्पवृक्षयोरभेदाध्यवसाय इति यत् पूर्वमुक्तं तत् फलगताभेदाध्यवसायविषयमिति3030 द्रष्टव्यम्।
शिलेति। यथा चिन्तारत्नादिकं शिलात्वादिदोषदुष्टं तथा सर्वमपि जगदिति दुष्टेयं ब्रह्मसृष्टिः कथमनवद्यमशेषगुणमेनं संस्पृशेदिति रुद्रदेवस्य ब्रह्मसृष्टिसंबन्धेऽप्यसंबन्धकथनम्। अत्राप्यध्यवसायं संपादयति। अतीतब्रह्मसृष्टिनेति। अयं च स्वतःसिद्धप्रौढोक्तिसिद्धगुणातिशयाध्यवसायमूल इति द्रष्टव्यम्।
ब्रह्मन्निति। हरिवाक्यमेतत्। विरिञ्चिरुत्तरमाह। स्वामिन्निति। अधि-
मिथ्या किं नु विकत्थसे त्रिजगतस्त्राणाय3031 मत्प्रार्थितः
शंभुः क्ष्मामवतीर्णवानिति कथा जाता हरिब्रह्मणोः॥९७॥
अत्र हरिब्रह्मणो3032रेवंविधगोष्ठ्यसं3033बन्धेऽपि संबन्ध उक्तः। शंभुना सह काकतीन्द्रस्याभेदाध्यवसायः।
कार्यकारणयोः पौर्वापर्यविपर्ययरूपातिशयोक्तिर्यथा।
मातः कथं काकतिनाथदृष्टे3034-
रग्रेसराः कामशराः पतन्ति।
तद्रूपलावण्यजितः स्मरोऽपि
नूनं गतः किं करताममुष्य॥९८॥
अत्र कार्यभूतस्य स्मरशरपातस्य कारणभूतात् प्रियदृष्टिपातात् पूर्वकालत्वमुक्तम्।
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क्रिया जगत्सर्जनाधिकारः। विष्णुर्विरिञ्चिकथनमन्यथा करोति। मिथ्येति।अत्रालौकिकौन्नत्यादिगुणयुक्तमेनं ब्रह्मापि निर्मातुं न शक्नोतीति भावः। असंबन्धे संबन्धं योजयति। अत्रेति। पूर्ववदभेदाध्यवसाय इत्याह। शम्भुनेति738।
पञ्चमं भेदमुदाहरति। मातरिति। कामशरपीडामसहमानायाः कस्याश्चिन्मात्रा सह वचनम्। तस्य काकतीन्द्रस्य। अभूषणेऽपि भूषितवद्भासमान आकारो रूपं लावण्यं कान्तिविशेषः। अनयोर्लक्षणमुक्तम्। अमुष्य काकतीन्द्रस्य। कारणं पूर्वमपरं कार्यमिति सर्वत्र नियमः। कविप्रौढोक्त्या तद्विपर्ययोऽलंकार इत्याशयेनाह। अत्रेति।
‘अविरलबिलोलजलदः कुटजार्जुननीपसुरभिवनवातः।
अयमागच्छति कालो हन्त हताः पथिकगेहिन्यः॥’
इत्यादि कार्यकारणयौगपद्यमपि पौर्वापर्यविपर्यय एवेति द्रष्टव्यम्।
अथोक्तिसाम्यालंकारनिरूपणेऽतिशयोक्ति3035हेतुका सहोक्तिर्निरूप्यते।
सहोक्त्यलंकारः।
सहार्थेनान्वयो यत्र भवेदतिशयोक्तितः।
कल्पितौपम्यपर्यन्ता सा सहोक्तिरितीष्यते॥
यत्र भेदेऽभेदरूपतया कार्यकारणपौर्वापर्यविपर्ययरूपया चातिशयोक्त्या3036 एकस्य प्राधान्येनान्वयेऽपरस्य सहार्थेन संबन्धे उपमानोपमेयभावः कल्प्यते3037 तत्र सहोक्तिः। प्राकरणिकाप्राकरणिकविषयत्वादुपमानोपमेयभावस्य सहार्थसंबन्धेन3038 द्वयोरपि प्रकृतत्वान्न तदात्मता।
कार्यकारणपौर्वापर्यविपर्ययरूपातिशयोक्तिमूला सहोक्तिर्यथा।
अन्ध3039्रक्षमाभृत्सुभटासिधारा
रणेषु नीलोत्पलपत्रभासः।
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सहोक्तेःसंगतिमाह। अथेति3040। लक्षणमाह सहार्थेनेति। सहशब्दस्यार्थो यस्य तेन सहार्थेन तत्पर्यायेण चेत्यर्थः। ‘अनेन सार्धं बिहराम्बुराशेः’ इत्यादौ सहोक्तिमात्रस्यालंकारता मा भूदित्युक्तमतिशयोक्तित इति। अत्राकाङ्क्षितमंशमध्याहारादिभिः पूरयन् व्याचष्टे। यत्रेति। एकस्य प्राधान्येनान्वय इति। तथा पुत्रेण सहागतः पितेत्यादौ पितुरागमनादिना शाब्दः संबन्धस्तद्वदिति भावः । अपरस्य सहार्थेन संबन्ध इति। तत्रैव पुत्रादिवदिति भावः। उपमानोपमेयभावः कल्प्यत इति। ‘सहयुक्तेऽप्रधाने’ इत्यप्रधाने तृतीयाविधानात् तदन्तस्य गुणभावादुपमानत्वम्। अर्थादितरस्य प्राधान्यादुपमेयत्वं च कल्प्यत इत्यर्थः। अत एवात्र भेदप्रधानं साधर्म्य3041मिति द्रष्टव्यम्। सह शाखया प्रस्तरं प्रहरतीत्यत्र प्रहरणे शाखाप्रस्तरयोरिव शाब्द एवायं गुणप्रधानभावो न वास्तवः। पित्रा सहागतः पुत्र इत्यपि सुवचत्वात्। उपमानोपमेयभावश्चात्र काल्पनिको न वास्तव इत्यत्र निमित्तमाह। प्राकरणिकेति। तदात्मता अप्रकृतरूपता। उदाहरति। अन्ध्रेति। अत्र दिव्यमाल्यानीव खड्गधाराः कण्ठेषु
पतन्ति कण्ठेष्वरिभूपतीनां
साकं सुरस्त्रीजनमुक्तमाल्यैः॥९९॥
अत्र कृपाणपतनोत्तरकालभाविनो दिव्यमाल्यपतनस्य3042 सहकालत्वमिति3043 पौर्वापर्यविपर्ययः।
भेदेऽभेदरूपातिशयोक्तिमूलाश्लेषगर्भा3044भेदाध्यवसायरूपा चारुतातिशयहेतुर्यथा3045।
दिने दिने रुद्रनराधिपस्य
प्रतापलक्ष्मीरुदयं प्रयाति।
प्रकाशिताशेषदिगन्तराला
विवस्वता सार्धमनिन्द्यभासा॥१००॥
अत्रोदयं प्रयातीति श्लेषेणोदयपर्वताभ्युदयोरभेदाध्यवसायः।
अथ सहोक्तिप्रतिपक्षरूपा विनोक्ति3046र्निरूप्यते।
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पतन्तीत्येवं प्रतीयमानस्योपमानोपमेयभावस्य द्वयोः प्राकरणिकत्वात् वैवक्षिकत्वम्। कण्ठपतनसाधर्म्यस्य भेदप्रधानत्वं चोपमानोपमेययोः सहार्थप्रयुक्तगुणप्रधानभावनिबन्धनं चेत्याद्युन्नेयम्। अत्र कार्यकारणपौर्वापर्यविपर्ययरूपातिशयोक्तिमूलत्वमुपपादयति। अत्रेति3047।
दिने दिन इति। श्लेषभित्तिकाभेदाध्यवसायोऽत्र सहोक्तिमूलमित्याह। अत्रोदयमिति3048। ‘कुमुददलैः सह संप्रति विघटन्ते चक्रवाकमिथुनानि’ इत्यत्र श्लेषभित्तिकाभेदाध्यवसायो मूलम्। अत्र विघटनं संबन्धिभेदाद् भिन्नं न तच्छ्लिष्टत्वमित्याह सर्वस्वकारः। ‘उत्क्षिप्तं सह कौशिकस्य पुलकैः’इत्यादौइयं मालयापि दृश्यते। अत्र कर्मसाहित्यात् सहोक्तिः पूर्वत्र कर्त्तृसाहित्यादिति भेदः।
विनोक्त्यलंकारः।
विना संबन्धि यत् किंचिद्यत्रान्यस्य पराभवेत्3049।
अरम्यता रम्यता वा सा विनो3050क्तिरिति स्मृता3051॥
यत्र कस्यचिदसंनिधानाद्वस्तु रम्यमरस्यं वा भवेत् सा विनोक्तिः। सा द्विविधा अरम्यता रम्यता चेति।
अरम्यता3052 यथा।
प्रतापरुद्रदेवस्य गुणवर्णनया विना।
कीदृशी काव्यरचना संशृणुध्वं कवीश्वराः॥१०१॥
अत्र प्रतापरुद्रस्य गुणवर्णनं3053 विना काव्यश्रियोऽशोभनत्व3054मुक्तम्। अनेन काव्यशोभामिच्छद्भिः कविभिः3055 प्रतापरुद्र3056गुणा वर्णयितव्या इति विधिरेव प्रकाश्यते3057।
रम्यता3058 यथा।
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विनोक्तेः संगतिमाह। अथेति। लक्षणमाह। विनेति। यत्र संबन्धि यत् किंचिद्वस्तु विनान्यस्य प्रतिसंबन्धिनो रम्यता शोभनत्वमरम्यताशोभनत्वं वा पराभवेन्निवर्त्तेत सा विनोक्तिरित्यर्थः। फलितं व्याचष्टे। यत्रेति। रम्यमरम्यतारहितमरम्यं रम्यतारहितं वेत्यर्थः। व्याख्यानोक्तं व्युत्क्रमं परिहरन् विभजति। सेति। रम्यत्वाभावः अरम्यत्वाभावश्चेत्यर्थः। कस्मिंश्चित् सति कस्यचिद्रम्यत्वमरम्यत्वं वेति विधिमुखेनापि विच्छित्तिविशेषो नास्तीत्येवमभिधानमिति3059 द्रष्टव्यम्। तदुक्तम्।
‘सदसत्त्वनिवृत्तिश्चेन्निवृत्त्याम्यस्य वर्ण्यते।
तदा द्विधा विनोक्तिः स्याद्विधिरत्र फलं भवेत्॥’ इति।
आद्यमुदाहरति। प्रतापेति। कीदृशी रम्या न भवतीत्यर्थः। संशृणुध्वं व्याख्यातम्। अलंकारफलं विधिमाह। अनेनेति ।
कलापूर्णं नित्यं जयति जगतीन्दौ त्रिजगतो
वपुष्मत्यानन्दे विमलविभवे रुद्रनृपतौ।
बिना लक्ष्मप्रीत्या3060 प्रतिदिवसपूर्णंनिजतनुं
प्रकाशः स्यादिन्दुर्यदि दिवि भवेत् सोऽपि सुभगः॥१०२॥
अत्र प्रतापरुद्रे प्रकाशमाने चन्द्रमसः कलङ्केन विना3061 शोभनत्वमुक्तम्। सकलगुणशालिनः प्रतिपक्षस्य पुरस्तात् तादृशगुणवत्तयैव रम्यता नान्यथेति।
समासोक्त्यलंकारः।
विशेषणानां तौल्येन यत्र प्रस्तुतवर्त्तिना3062म्।
अप्रस्तुतस्य गम्यत्वे सा समासोक्तिरिष्यते॥
यत्र प्रकृतविशेषणसाम्यादप्रस्तुतं3063 गम्यते सा समासोक्तिः। तत् त्रिविधम्। श्लिष्टविशेषणसाम्यं साधारणमौपम्यगर्भंचेति।
श्लिष्टविशेषणेन यथा3064।
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द्वितीयमुदाहरति। कलेति। जगतीन्दौ भूलोकचन्द्रे रुद्रनृपतौकलापूर्णत्वादिविशेषणैः प्रतीयमानेन चन्द्रादुत्कर्षेण जयति सति इन्दुः कलङ्कराहित्येन नित्यं पूर्णः प्रकाशत इति प्रकाशः प्रकाशमानो दिवि यदि स्याद्भूलोके स्वेतत्संनिधानेन तथाविधोऽपि न शोभत इति भावः। स चन्द्रोऽपि सुभगो भवेदित्यशोभनत्वाभावकथनं तदेवाह। अत्रेति। सहोक्तिविनोक्त्योः सहार्थविनार्थयोरभावेऽपि तदर्थविवक्षायामुदाहरणमलंकारसर्वस्वादौ द्रष्टव्यम्।
उक्तिसाम्यात् समासोक्तिंलक्षयति। विशेषणानामिति। स्पष्टम्। समासेन संक्षेपेणार्थद्वयकथनात् समासोक्तिः। विशेषणसाम्यं विभजते। तदिति।3065 यत्र सकृदुच्चारितशब्देनार्थद्वयं प्रतीयते3066 तच्छ्लिष्टम्3067। यत्रोभयप्रवृत्तिनिमित्तैक्यं तत् साधारणम्। यत्रौपम्यगर्भसमासविशेषाश्रयणं तदौपम्यगर्भम्। तेन समासो-
सद्यो विश्लथमेखला3068पुलकितामृज्वीं तनुं व्रिभ्रती
रागादन्ध्रपतेः कृपाणलतिका गृह्नाति कण्ठेष्वरीन्।
तद्योगादनुरक्तभावविवशाः संमीलिताक्षाश्चिरं3069
शून्यान्तःकरणा भजन्ति खलु ते भावस्थितिं कामपि॥१०३॥
अत्र विश्लथमेखला3070पुलकितामिति श्लिष्टविशेषणमहिम्ना कृपाणलतिकाया नायिकात्वप्रतीतिः। अनुरक्तभावविवशा इत्यादिविशेषणद्वारा रिपूणां नायकत्वप्रतीतिः।
साधारणविशेषणेन यथा।
वीतव्रीडमपास्तमौनमुदयद्वैस्वर्यमाविर्भवत्-
स्वेदं निर्भरगात्रवेपथुमिलन्मूर्च्छंगलद्वाष्पकम्।
संजातप्रलयं च काकतिमहीनाथ स्मरोद्वेजिता3071
भूपाः शैलगुहासु यान्ति विजनं भीत्या समालिङ्गिताः॥१०४॥
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क्तिरपि त्रिविधा। तत्राद्यं भेदमुदाहरति। सद्य इति। विश्लथाप्रयोगानुकूला मेखला कण्ठरज्जुर्यस्यास्तां तथोक्तां शिथिलकाञ्चीगुणां च। पुलकाश्छाया अस्याः संजाताः पुलकिता रोमाञ्चिता च ताम्। ऋज्वीमकुटिलां रताववामां च। तद्योगात् कृपाणलतिकासंबन्धात्। अनुरक्तोऽनुवृत्तरक्तो भावः स्वरूपं येषां ते तथोक्ताः अत एव विवशाः परतशाः। अन्यत्र तद्योगान्नायिकासंबन्धादनुरक्तभावेनानुरक्तत्वेन विवशा मीलिताक्षाः सूर्च्छया सुखपारवश्याच्च। तथा शून्यान्तःकरणा गतमनसो विगलितवेद्यान्तःकरणाश्च। कामपि वक्तुमयोग्यां साक्षादुक्तावमङ्गलत्वेनाश्लीलत्वादिति भावः। भावस्थितिं षष्ठभावविकारं विनाशनिमित्तमित्यर्थः3072। अन्यत्र कामपि वक्तुमशक्यां3073 भावस्थितिं प्रेमानुबन्धं भजन्ति। अत्र श्लिष्टविशेषणसाम्यात् खड्गलतायामरिषु नायिकानायकव्यवहारसमारोप इत्याह। अत्रेति।
द्वितीयमुदाहरति वीतेति। व्याख्यातमेतत्। अत्र वीतव्रीडादिविशेषणानामुभयत्रैकार्थत्वं साम्यं तद्वलाद्भीरुणां शृङ्गारनायकव्यवहारसमारोप इत्याह।
अत्र शृङ्गारभयानकसाधारणविशेषणबलाद् भीत्या समालिङ्गिता इति नृपाणां3074 नायकत्वप्रतीतिः।
औपम्यगर्भविशेषणे3075न यथा।
भृतात्मगुण3076रत्नौघैः पूर्णः सौजन्यवारिणा।
प्रतापरुद्रनृपतिर्धत्ते विश्वंभराश्रियम्॥१०५॥
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अत्रेति। व्रीडव्यथादिधर्मसमारोपोऽत्र निमित्तम्। ‘द्यामालिलिङ्ग मुखमाशु दिशां चुचुम्ब’ इत्यत्रेक्षणाग्नौ युवनायकव्यवहारारोपे आलिङ्गनादिकार्यसमारोपः कारणम्। साधारणविशेषणसाम्ये धर्मकार्ययोरन्यतरारोपं विना व्यञ्जनव्यापारोद्भेदनेनाप्रकृतप्रतीतेरसंभवात्। एवं च द्विविधो भेदो द्विविधो जातः।
तृतीयमुदाहरति। भृतात्मेति। गुणा रत्नानीवेत्युपमितसमासस्य गुणा एव रत्नानीति रूपकसमासस्य च साधकबाधकाभावात् संदेहसंकरः। ततो गुणसदृशै रत्नैरिति मध्यमपदलोपी समासः। एवमुत्तरत्रापि। इत्थमौपम्यगर्भविशेषणसाम्येन प्रतापरुद्रे समुद्रव्यवहारप्रतीतेः समासोक्तिः। यत्रोपमासमासे साधकमस्ति यथा
दन्तप्रभापुष्पचिता3077 लोलाक्षी चारुहासिनी।
केशपाशालिवृन्देन सुवेषा हरिणेक्षणा॥
इत्यत्र सुवेषत्वं तत्रोपमासमासानन्तरं मध्यमपदलोपिसमासो द्रष्टव्यः।तथा च तृतीयभेदस्यापि द्वैविध्यं सिध्यतीत्येवं पञ्चप्रकारा समासोक्तिः। तदुक्तमलंकारसर्वस्वे। ‘तदेवं श्लिष्टविशेषणसमुत्थापितैका। साधारणविशेषणसमुत्थापिता धर्मकार्यसमारोपाभ्यां द्विधा। औपम्यगर्भविशेषणसमुत्थापिता तूपमासङ्करसमासाभ्यां द्विभेदा’ इति। यत्र ‘निरीक्ष्य विद्युन्नयनैः पयोद’ इत्यादौ निरीक्षणादिकं रूपके साधकमस्ति तत्रैकदेशविवर्त्तिरूपकमेव न समासोक्तिरित्यादिविशेषा अपि तत्रैव द्रष्टव्याः।
अत्र समासोक्तौसर्वत्र व्यवहारसमारोप एव3078 जीवितम्। स चतुर्विधः। लौकिके वस्तुनि लौकिकव्यवहारसमारोपः शास्त्रीयवस्तुव्यवहारसमारोपश्चेति द्विविधः। तथा शास्त्रीयवस्तुनि शास्त्रीयव्यवहारसमारोपः लौकिकव्यवहारसमारोपश्चेति। एवं चतुर्विधः।
यथाक्रममुदाहरणानि।
सप्ताङ्गस्फुर3079दुद्दामदानलक्ष्मीविराजितः।
प्रतापरुद्रो भद्रात्मा तनुते सार्वभौमताम्॥१०६॥
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विशेषान्तरमाह। अत्रेति। व्यवहारसमारोप एवेत्येवकारो रूपसमारोपव्यवच्छेदार्थः। तथा हि यदा विशेषणसाम्यादप्रस्तुतं प्रस्तुतविशेष्यत्वेन प्रतीयते न तु प्रयुज्यते तदा निष्प्रतियोगिकत्वेनापरित्यक्तस्वरूपस्य प्रस्तुतस्य राजादेर्विशेषणसाम्यावगमितेनाप्रस्तुतसमुद्रत्वादिधर्मेण विशिष्टतया प्रतीतेः व्यवहारसमारोपः। यदा त्वप्रस्तुतमपि विशेष्यं प्रयुज्यते तदा तत् प्रस्तुतमर्थं स्वेन रूपेण रूपवन्तं कृत्वा न्यग्भवति। प्रस्तुतमपि स्वरूपं परित्यज्याप्रस्तुतताद्रूप्यमुपगृह्णाति अतस्तत्र रूपकसमारोप एव। तदुक्तम्।
‘अप्रस्तुतं प्रतीतं चेद् भेदकांशैकसाम्यतः3080।
व्यवहारं समारोप्य प्रस्तुते न्यग्भवत्यथ॥
तेनाप्रस्तुतवृत्तान्तारोपेणाप्रस्तुतं स्वयम्।
संक्षेपेणोच्यते यस्मात् समासोक्तिरियं तदा॥
स्याद्विशेष्यांशसाम्यं चेत् प्रस्तुताकाररूपितम्।
भवेदप्रस्तुतं वेद्यं रूपकालंकृतिस्तदा॥’ इति।
अत्राप्रस्तुतस्य प्रतीयमानत्वाद् व्यवहारसमारोप एवेतिभावः3081। तं चतुर्धा विभजति। स इति। वस्तुनि जात्यादौ। क्रमेणोदाहरति। सप्ताङ्गेति। स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गबलानि सप्ताङ्गानि तद्गोचरया दानलक्ष्म्या त्यागवैभवेन विराजितः। अदेयमस्य किमपि नास्तीति भावः। अन्यत्र सप्ताङ्गानि करादीनि तत्र स्फुरन्त्या स्रवन्त्या दानलक्ष्म्या मदवैभवेन विराजितः। तदुक्तम्।
‘करात् कटाभ्यां भेद्राच्च नेत्राभ्यां च मदस्रुतिः’ इति पालकाव्ये। करात् नासारन्धाभ्यामित्यर्थः। भद्रात्मा मङ्गलमूर्त्तिः। अन्यत्र भद्रजातिः। तल्लक्षणं
अत्र लौकिके प्रकृतवस्तुनि लौकिकस्य सार्वभौमनामधेयस्य दिग्गजस्य व्यवहारप्रतीतिः3082।
तथा।
गुरुप्रमाणेन निजेन सद्य-
स्तिरस्कृतोद्यत्प्रतिपक्षहेतौ।
प्रतापरुद्रस्य समित्युदग्रे
खड्गेमहत्खण्डनपण्डितत्वम्॥१०७ ॥
अत्र लौकिके खड्गे3083तर्कशास्त्रप्रसिद्ध3084वस्तुव्यवहारसमारोपः3085।
तथा।
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मतङ्गज इति प्रतीयते। सर्वभूमेरीश्वरः सार्वभौमः। ‘तस्येश्वरः’ इत्यण्प्रत्ययः। अनुशतिकादित्वात् उभयपदवृद्धिः। तत्तां चक्रवर्त्तित्वम्। अन्यत्र सार्वभौमत्वं3086 दिग्गजविशेषत्वं तनुते। अत्र श्लिष्टविशेषणैः प्रकृतप्रतापरुदेऽप्रकृतभद्रगजव्यवहारसमारोपः।
लौकिके वस्तुनि शास्त्रीयव्यव3087हारसमारोपमुदाहरति। गुर्विति3088। गुरुणा श्रेष्ठेन प्रमाणेन ध्वजादिशुभायविशिष्टप्रमाणेनेत्यर्थः। आयुधानां3089 ध्वजाद्याया जयावहा इति तद्विदः। अन्यत्र प्रमाणेनानुमानेन तस्यैव कथासाधनत्वात्। गौरवं चास्य व्याप्तिपक्षधर्मतावैशिष्ट्यनिबन्धनं द्रष्टव्यम्। प्रतिपक्षस्य शत्रोः प्रतिवादिनश्च। हेतीरायुधं हेतुरनुमानं चेति। इकारयोकारयोः श्लेषः। उद्यदिति । शत्रा प्रयोग3090प्रारम्भ एवानयोः पराभव इति लभ्यते। समिति युद्धे सभायां च। खण्डनपण्डितत्वं विदारणकौशलम्। अन्यत्र दूषणनैपुण्यम्। अत्र विशेषणसाम्याद्वैतण्डिकः प्रतीयते।
अपूर्वार्थश्लाघागुरुभणितिसारस्यपदवी
श्रुतिग्राह्यं तत्त्वं किमपि कलयन्ती प्रतिपदम्3091।
प्रबन्धश्रीर्वीरक्षितिभुजि3092 कवीनां विजयते
वुधश्रेणी यस्यां निपुणमधिकर्त्तुं प्रभवति॥१०८॥
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शास्त्रीये वस्तुनि शास्त्रीयव्यवहारसमारोपमुदाहरति। अपूर्वेति। अपूर्वस्याचुम्बितस्यार्थस्य श्लाघया कथनेन गुरूणां श्लाघ्यानां भणितानां वाक्यानां यत् सारस्यमभिमुखीकरणयोग्यत्वं तस्य पदवी स्थानमित्यर्थः। पदे पदे प्रतिपदम्। श्रुतिग्राह्यं श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यम्। किमप्यनिर्वचनीयम्। तत्त्वं माधुर्यरूपम्। कलयन्ती धारयन्ती। श्रुतिकट्वादिदोषराहित्येन श्लेषादिगुणसाहित्येन च। स्रवत्सुधाम- धुरशब्दार्थशरीरेत्यर्थः। प्रबन्धश्रीः काव्यनाटकादिप्रबन्धलक्ष्मीः विजयते। यस्यां बुधश्रेणी विदग्धपरिषत् निपुणमधिकर्त्तुंरसमास्वादयितुं प्रभवति। अधिकारस्य फलस्वाम्यलक्षणत्वात् सहृदय एवात्राधिकारी नान्य इत्यर्थः। अपूर्वाणामर्थानां चोदनैकसमधिगम्यत्वेन प्रमाणान्तरागोचराणामग्निहोत्रादीनां श्लाघया कत्थनेन गुरूणां श्रेष्ठानां भणितानां विधिवाक्यानां यत् सारस्यमर्थवादप्रयुक्तं प्रवर्त्तनौन्मुख्यं तस्य पदवी स्थानं विद्यादिविचारसध्रीचीनेत्यर्थः। श्रुतिशब्देन श्रुत्येकदेशो गृह्यते। तेन श्रुतिग्राह्यं लिङ्गादिप्रत्ययवेद्यमत एव किमप्यलोकिकं तत्त्वं श्रेयःसाधनतारूपं धर्मम्। अत एवोक्तमाचार्यैः।
‘श्रेयःसाधनता ह्येषां नित्यं वेदात् प्रतीयते।
ताद्रूप्येण च धर्मत्वं तस्मान्नेन्द्रियगोचरः॥’इति।
पद्यते गम्यते प्रामाण्यादिकमेभिरिति पदानि न्यायाः। प्रतिपदं सहस्रेणापि न्यायैरित्यर्थः। कलयन्ती इतिकर्त्तव्यतारूपेण प्रतिपादयन्तीत्यर्थः। मीमांसेति गम्यते। तदुक्तमाचार्यैः।
‘धर्मे प्रमीयमाणे हि वेदेन करणात्मना।
इतिकर्त्तव्यताभागं मीमांसा पूरयिष्यति॥’इति।
यस्यां मीमांसायां बुधश्रेणिः निगमनिरुक्तादिविद्यानिष्णातविद्वत्सङ्घ एवाधिकर्त्तुं प्रभवति तस्यैवात्राधिकारादिति भावः। तदुक्तं जिज्ञासाप्रस्तावे।
अत्रालंकारशास्त्रीये वस्तुनि3093 तन्त्रशास्त्रप्रसिद्ध3094वस्तुव्यवहारसमारोपः तथा।
सालंकारा लसद्वर्णा सु3095गुणा रसनिर्भरा।
भावानुबन्धिनी भाति भारती काकतीश्वरे॥१०९॥
अत्रालंकारशास्त्रीये वस्तुनि3096 भारत्याख्ये लौकिकनायिकाव्यवहार3097समारोपः।
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‘जिज्ञासैकोपनीतस्य द्वितीया पठितश्रुतेः।
ज्ञातविद्यान्तरस्यान्या या मीमांसा पुरस्सरी॥’
इति। अथवा मतान्तरेणार्थान्तरं तु क्रियादिव्यतिरिक्तं स्थायिकार्यं प्रमाणान्तर गोचरमपूर्वम्। तदुक्तं शारिकानाथेन।
‘क्रियादिभिन्नं यत् कार्यं वेद्यं मानान्तरैर्न तत्।
अतो मानान्तरापूर्वमपूर्वमिति गीयते॥’ इति।
तदेवार्थोवाक्यार्थः। प्रधानत्वात्। तदुक्तम्।
‘कार्यस्यैव प्रधानत्वाद्वाक्यार्थत्वं च युज्यते।’ इति।
एवमादेः श्लाघा कत्थनम्। तत्प्रधानानां गुरुभणितानां निबन्धनविवरणादिप्रभाकरग्रन्थानां यत् सारस्यं प्रसन्नगम्भीरत्वं तस्य पदवी स्थानं तथाविधग्रन्थयुक्तेत्यर्थः। श्रुतिग्राह्यं3098 लिङादिवाच्यम्। एवं कार्यात्मके3099 ह्येते3100 व्युत्पद्यन्ते3101 लिङादय इति शारिकोक्तेःकिमप्यलौकिकं तत्त्वम्।
‘कार्यत्वेन नियोज्यं च स्वात्मनि प्रेरयन्नसौ।
नियोग इति मीमांसानिष्णातैरभिधीयते॥
इत्युक्तलक्षणनियोगापरपर्यायं धर्मं प्रतिपदं कलयन्तीत्यादि पूर्ववत्। लक्ष्ये लक्षणं योजयति। अत्रालंकारेति। तन्त्रशास्त्रमत्र भाट्टं प्रभाकरं चेत्युभयं विवक्षितम्।
शास्त्रीये वस्तुनि लौकिकव्यवहारसमारोपमुदाहरति। सालंकारेति। अलंकारैरुपमादिभिः। कटकादिभिश्च सहिता सालंकारा। लसद्वर्णा मधुराक्षरा मनोज्ञका-
समासोक्तौ विशेषणविशेष्ययोर्द्वयोरुपादानाभावाच्छ्लेषाद्विशेषः।
अन्येषामप्यलंकाराणामु3102क्तिसाम्येऽपि श्लेषगर्भत्वविशेषाद् वक्रोक्तिरुच्यते।
वक्रोक्यलंकारः।
अन्यथोक्तस्य वाक्यस्य काक्वाश्लेषेण वा भवेत्।
अन्यथा योजनं यत्र सा वक्रोक्तिर्निगद्यते3103॥
यत्र कयाचिद् विवक्षया केनचित्प्रयुक्तस्य3104 वाक्यस्यान्ये3105नविवक्षया3106न्यथा योजनान्या3107 क्रियते सा वक्रोक्तिः। उक्तिवक्रत्वे कथंचित् संभवत्यप्येवंविधलक्षणाभावात् सर्वालंकारेभ्यो भिद्यते3108।
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न्तिश्च। सगुणा श्लेषादिगुणयुक्ता गाम्भीर्यादिगुणयुक्ता च। रसेन शृङ्गारादिनानुरागेण च। निर्भरा पूर्णा। काकतीश्वरे विषये। भावोऽभिप्रायः प्रेमा च। तस्यानुबन्धो विच्छेदाभावः। तद्वती भारती वाणी। नायिका तु गम्यते। ननु यत्र श्लिष्टविशेषणसाम्यं तत्र श्लेष एवालंकारः कस्मान्न भवतीत्याह। समासोक्ताविति। अप्रकृतविशेष्यस्यापि पृथगुपादाने श्लेषः। तदभावादत्र न श्लेषत्वमिति भावः।
वक्रोक्तेः संगतिपूर्वं लक्षणमाह। उक्तिसाम्य इत्यादिना अन्यथोक्तस्येति। केनचिदिति शेषः। अन्यथा योजनमिति। अपरेणेति शेषः। तदेतद् व्याचष्टे। यत्रेति। सर्वेभ्यो भेदमाह। उक्तीति। वक्रत्वे वैचित्र्यम संभवत्यषीति। सर्वालंकारेष्विति शेषः। विच्छित्रमात्रवाचिनो वक्रशब्दस्योक्तिविशेषे पर्यवसानात्
काका यथा।
¹बहुबल्लहो खु2057 राआ3109 सहि तस्स सिरिंमि3110णिम्भरा3111सत्ती।
णूणा3112 सिरिएवि तुमं3113 अप्पाणं किं णु3114 लहुएसि॥११०॥
अत्र त्वमपि श्रियो न्यूनगुणा न भवसि3115। अतस्त्वय्यपि नृपतिरासक्त एवेति किमित्यात्मानं लघूकरोषीति काका प्रतीयते।
श्लेषेण यथा।
कस्ते सुन्दरि वर्त्तते हृदि सदा राजा किमिन्दुर्न हि
क्षोणीभृत्तिलकः सुमेरु3116रपि किं नो रुद्रदेवो विभुः।
ईशः किं सखि सत्यमात्थ सुभगे त्वं गोत्रसारोद्भवे-
त्याल्यां खल्वपहास3117वाचि विरहं किंचिद्वघूर्व्यस्मरत्॥१११॥
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सर्वविलक्षणत्वमिति भावः। काकुमूलां वक्रोक्तिमुदाहरति। वह्निति। अप्पाणमित्यत्र ‘आत्मनि पः’ इति सूत्रेणात्मशब्दे युक्तवर्णस्य पकारादेशः। अत्र प्रथमार्धे नायिकया संभावितस्यात्मन्यूनत्वस्य द्वितीयार्धे संख्यां3118 श्रियो न्यूनेत्यत्र काक्का निषेधयोजनाद् वक्रोक्तिः।
श्लेषमूलामुदाहरति। क इति। अत्र सखीनायिकयोरुक्तिप्रत्युक्तितया3119 नव वाक्यानि योजनीयानि। राजा नृपश्चन्द्रश्च। क्षोणीभृत्तिलको राजश्रेष्ठः पर्वतोतम। रुद्रदेवः प्रतापरुद्रो रुद्रश्च।सत्यमात्थ ब्रूषे। गोत्रसारोद्भवा सत्कुलप्रसूता पर्वतराजपुत्री च। अपहासप्रधाना वाचो यस्यास्तस्यामपहासवाचि विरहं वियोगदुःखं किंचिद् व्यस्मरत्।
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छाया।
1 बहुवल्लभः खलु राजा सखि तस्य श्रियां निर्भरासक्तिः।
न्यूना श्रियोऽपि त्वमात्मानं किं तु लघयसि॥
अथ स्वभावोक्तिः।
स्वभावोक्तिरसौ चारु यथावद्वस्तुवर्णनम्।
यत्र चारुतया वस्तुनो यथावद्वर्णनं निबध्यते सा3120 स्वभावोक्तिः।
यथा।
मदश्च्युता नर्त्तितकर्णताल-
मुद्धूतमूर्ध्ना त्रिपदस्थितेन।
लोलाग्रहस्तेन गजेन जातो
नित्योत्सवः काकतिवीररुद्रः3121॥११२॥
व्याजोक्त्यलंकारः।
अथो3122क्तिसाम्याद् व्याजोक्तिरुच्यते।
व्याजोक्तिः सा समुद्भूतं वस्तु यत्र3123 निगृह्यते।
यत्र प्रकाशं वस्तु साम्यगर्भत्वेन निगूहनार्हत्वात्3124 केनचिद् व्याजेन प्रच्छाद्यते व्याजोक्तिः।
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वक्रोक्तिविपर्ययेण स्वभावोक्तिं लक्षयति। स्वभावेति। यत्र चारु सम्यगग्राम्यम्। यथावदन्यूनातिरिक्तेण वस्तुनो वर्णक्रियासंस्थानरूपस्य वस्तुस्वभावस्य कविप्रतिभैकगोचरस्य वर्णनमसौ स्वभावोक्तिः। अत एवेदं ग्राम्यं नालंकार इत्युक्तं दोषप्रकरणे। उदाहरति। मदेति। मदश्च्युता मदस्राविणा नर्त्तितकर्णतालं यथा भवति तथा। उद्धृतमूर्ध्ना कम्पितकुम्भस्थलेन। त्रिभिः पदैः स्थितं स्थितिर्यस्य तेन त्रिपदस्थितेन। अग्रं चासौ हस्तश्चेत्यवयवावयविनोरभेदविवक्षायां विशेषणसमासः। यदाह वामनः। ‘हस्ताग्राग्रहस्तादयो गुणगुणिनोर्भेदाभेदात्’ इति। अत्र क्रियास्वभाववर्णनम्। एवं वर्णसंस्थानयोरुदाहार्यम्।
व्याजोक्तेः संगतिमाह। उक्तीति। लक्षणमाह। व्याजोक्तिरिति। व्याचष्टे। यत्रेति। प्रकाशं निगूढचरं कुतश्चिन्निमित्तात् प्रकटमित्यर्थः। अत्र वस्त्वन्तर-
क्षोणीपाणिग्रहणसमये संमदाद्रोमहर्षे
सर्वाङ्गीणे नृपतितिलकः काकतीयान्वयेन्दुः।
धीरोदात्तः शिशिरसलिलैः किं नु राज्याभिषेकः
कर्त्तव्यः स्यादिति मृदु हसन् वीक्षते मन्त्रिवृद्धान्॥११३॥
अत्र क्षोणीपाणिग्रहणजनितं3125 रोमहर्षं3126धीरोदात्ततया प्रतापरुद्रदेवेन महाभिषेकसलिलशैत्यव्याजेन प्रच्छादयता मन्त्रिणो वीक्ष्यन्ते।
मीलनालंकारः।
व्याजोक्त्युत्तरं किंचित्साम्यान्मी3127लनमुच्यते।
मीलनं वस्तुना यत्र वस्त्वन्तरनिगूहनम्॥
यत्र वस्तुना वस्त्वन्तरं प्रच्छादितं भवति स मीलनालंकारः। स द्विविधः। सहजेनागन्तुकतिरोधानमागन्तुकेन सहजतिरोधानं च3128।
यथाक्रममुदाहरणम्3129।
उग्रैः काकतिवीररुद्रनृपतेर्दोर्दण्डविस्फूर्जितै-
र्युद्धप्राङ्गणवर्जितेषु3130 पतिषु क्वापि प्रलीनात्मसु।
विष्वक्तीव्रतरस्मरज्वरजुषामङ्गे द्विषद्योषितां
संकान्तोऽपि न3131 लक्ष्यते पथि महानूष्मा चिरं मारवः॥११४॥
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प्रक्षेपरूपस्य व्याजस्य वचनाद् व्याजोक्तिरित्यर्थः। उदाहरति। क्षोणीति। सर्वाण्यङ्गानि व्याप्नोतीति सर्वाङ्गीणः। ‘तत्सर्वादेः’ इति खप्रत्ययः। अत्रनिगूढः क्षोणीपाणिग्रहणजन्यो हर्षो रोमहर्षेण प्रकाशितः सलिलशैत्येनाच्छाद्यत इत्याह। अत्रेति। धीरोदात्ततया गाम्भीर्येणाच्छादितस्यापि हर्षस्य मृदुहासेन पुनः प्रकाशनं लक्षणान्तः पातीति रहस्यम्।
मीलनं संगमयति। व्याजोक्तीति। लक्षयति। मीलनमिति। उत्कृष्टवस्तुनापकृष्टवस्तुनिगूहनं मीलनमित्यर्थः। अत एव गुणसामान्यनिबन्धनात् सामान्यदस्य भेद इति द्रष्टव्यम्। सहजेनागन्तुकतिरोधानमुदाहरति3132। उग्रैरिति। दोर्दण्डविस्फूर्जितैः भुजविजृम्भितैः। युद्धप्राङ्गणवर्जितेषु वर्जितयुद्धप्राङ्गणेष्वित्यर्थः। ‘वाहिताभ्यादिषु’ इति परनिपातः। लक्षणं योजयति। अत्रेति।
अत्र सहजेन रिपुकामिनीगतेन स्मरानलोष्मणा मार्गवशादागन्तुको मरूष्मा तिरोधीयते।
तथा।
प्रतापरुद्रस्य भुजप्रभावा-
दन्तर्भयाद्भूमिभुजामजस्रम्।
स्वेदाश्रुकम्पाद्युदयेऽप्यनङ्ग-
गोष्ठ्यां स्त्रियः प्रेम्णि न विश्वसन्ति॥११५॥
अत्र भयजनितेन कम्पादिनागन्तुकेन सहजस्य प्रेमजनितस्य कम्पादेस्तिरोधानम्।
सामान्यालंकारः।
सामान्यं गुणसाम्येन यत्र वस्त्वन्तरैकता।
यत्र3133कस्याऽपिगुणसाम्येन वस्त्वन्तरैकात्म्यं भवति स सामान्यालंकारः।
यथा।
कैलासदुग्धार्णवयानहंसे-
ष्वलक्षितेष्वन्ध्रनरेन्द्रकीर्त्तौ3134।
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आगन्तुना सहजतिरोधानमुदाहरति। प्रतापेति। भुजप्रभावात् पराक्रमात् भयहेतोः। अन्तर्गतं भयमन्तर्भयमाकारगोपनेनानभिव्यक्तमित्यर्थः। तस्माद्धेतोः भूमिभुजां संबधिनि प्रेम्णि विषये न विश्वसन्ति। प्रेममूलानामपि स्वेदादीनां भयानुभावत्वशङ्कयेति3135 भावः।
मीलनसाधर्म्यात् तदनन्तरं सामान्यं लक्षयति। सामान्यमिति। यत्र गुणसाम्यात् प्रस्तुतस्य वस्तुनोऽप्रस्तुतवस्त्वन्तरैकात्म्यं निवध्यते तत् समानगुणसंबन्धात् सामान्यमित्यर्थः। कैलासेति। प्रथमे पुमांसः शिवकेशववि-
त्रयः पुमांसः प्रथमे3136 स्मयन्ते
स्वसेवकान् संभ्रमतो विलोक्य॥११६॥
अत्र प्रतापरुद्रकीर्त्त्यांजगत्सु विजृम्भितायां कैलासप्रभृतीनां3137विमलवस्तूनां तदैकात्म्यम्।
तद्गुणालंकारः।
इतरगुणसंनिधानातिशयसाम्यात् तद्गुण उच्यते।
तद्गुणःस्वगुणत्यादन्योत्कृष्टगुणाहृतिः3138।
यत्र न्यूनं स्वगुणं विहाय संनिहितवस्तुनः सकाशादुत्कृष्टगुणः स्वीक्रियते स तद्गुणालंकारः।
यथा।
प्रतापरुद्रदेवाङ्घ्रिनखज्योत्स्नाविजृम्भितैः।
नमन्नृपतिमाणिक्यमौलयः3139 शुचयः कृताः॥११७॥
अत्र प्रणमतां भूपतीनां3140 पद्मरागमुकुटाः स्वां शोणप्रभां मुक्त्वा काकतिवीररुद्रपदनख3141ज्योतस्नागतं3142 धवलिमानमुद्वहन्ति स्म।
अतद्गुणालंकारः।
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रिञ्चाः। संभ्रमतः संग्राम्यतः क्वचिदप्यनवतिष्ठमानान् स्मयन्ते मन्दं हसन्ति। लक्षणं योजयति। अत्रेति।
तद्गुणं संगमयन् लक्षयति। तद्गुण इति। मीलने वस्त्वन्तरनिगूहनम्। इह पुनरनिगूहितस्थान्य3143गुणेनोपराग इत्यनयोर्भेद इति सर्वस्वकारहृदयम्3144। तस्याप्रकृतस्य गुणोऽत्रास्तीति तद्गुणः। उदाहरणं स्पष्टम्।
तत्प्रातिपक्ष्यादतद्गुणो निरूप्यते।
सति हेतावसद्रूपस्वीकारः3145 स्यादतद्गुणः।
अत्र संनिधानरूपहेतौ3146 सत्यप्यन्यगुणस्वीकारो नास्ति असावतद्गुणालंकारः।
यथा।
ईशानं समया जगत्यदति तल्लीलाट्टहासोज्जवले
दैत्यारिंपरितस्तदङ्गविलसन्नीलद्युतिद्योतिते3147।
ब्रह्माणं निकषा च3148तत्तुनुमिलत्स्वर्णप्रभाभास्वरे3149
पुष्णन् रुद्रनरेन्द्रकीर्त्तिविभवः स्वामेव शुभ्रां छविम्॥११८॥
अत्र हरिहर3150विरिञ्चीनां समीपवर्त्तिषु जगत्सु तत्तन्नानाप्रभासमग्रेष्वपि निरन्तरं विहरमाणस्य प्रतापरुद्रयशसो निरङ्कुशः स्वकीय एव धवलिमा विजृम्भते।
विरोधालंकारः।
अतद्गुणे3151 किंचित् प्रक्रान्तत्वाद् विरोधस्य विरोधालंकारो निरूप्यते।
आभासत्वे विरोधस्य विरोधालंकृतिर्मता3152।
यत्र प्रथममाभासतया प्रतीतो विरोधः पर्यवसाने परिह्रियते स विरोधालंकारः। तत्र जातेर्जात्यादिना सह विरोधे चत्वारो भेदाः। क्रियायाः क्रियागुणद्रव्यैः सह विरोधे त्रयो भेदाः। गुणस्य गुणद्र-
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अतद्गुणमाह। तत्प्रातिपश्यादित्यादिना। ईशानमिति। अत्रेशानादिसमीपवर्त्तिनि तत्तद्वर्णविशिष्टे जगति कीर्ति3153विभवः स्ववर्णमजहदेवाटतीत्यर्थः। अत एवातद्गुण इत्याह। अत्रेति। ईशानमित्यादौ ‘अभितः परितः—’ इत्यादिना द्वितीया।
विरोधं संगमयति। अतद्गुण इति। विरोधस्य सत्यपि संनिधानेऽन्यगुणस्वीकाराभावलक्षणस्येत्यर्थः। लक्षयति। आभासत्व इति। व्याचष्टे। यत्रेति। अत्र विशेषतो विभागमाह। तत्र जातेरिति। क्रियायास्त्रयो भेदा इति।
व्याभ्यां विरोधे द्वौ भेदौ। द्रव्यस्य द्रव्येण सह विरोधे एको भेदः। एवं दश विरोधाः।
जातेर्जत्याक्रियया च यथा।
पद्मा3154करोऽपि विलसति नितरामजडाशयोऽयमुर्वीशः।
विमलतरवारिधाराप्यासीद्वैरिक्षितीशतापकरी॥११९॥
अत्र पूर्वार्धे जात्योर्विरोधः। कमलाकरोऽप्यजडाशय इति विरोधात्। उत्तरार्धे जातिक्रिययोर्विरोधः। विमलतरवारिधारायाः संतापकरण3155विरोधात्। अत्र श्लेषमूलो विरोधः।
जातेर्गुणद्रव्याभ्यां विरोधो यथा।
अमदः सार्वभौमोऽपि भास्वानपि कलानिधिः।
वीररुद्रनरेन्द्रोऽयमद्भुतानां विहारभूः॥१२०॥
अत्र सार्वभौमोऽप्यमद इति जातिगुणयोर्विरोधः। भास्वानपि कला-
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जात्या सहैतस्या विरोधस्य जातेरेतया विरोधेन गतार्थत्वादिति भावः। एवं यथोत्तरमेकैकन्यूनता द्रष्टव्या। अत्रायं संग्रहः।
‘क्रमाज्जातिगुणद्रव्यक्रियाणां तत्तदादिभिः।
विरोधे दश भेदाः स्युश्चतुस्त्रिद्व्येकभेदतः॥’ इति।
पद्माकर इति। पद्माकरः सरोऽप्यजडाशय इति लडयोरभेदाज्जडाशयो जलस्थानं न भवतीति विरोधस्य लक्ष्मीनिवासोऽयममन्द3156बुद्धिरिति परिहारः। विमलतरा अतिनिर्मला वारिधारापि तापकरीति जातिक्रिययोर्विरोधस्य तरवारिरायुधविशेषस्तस्य धारा कोटिरिति परिहारः। सर्वत्रापिशब्दो विरोधद्योतकः। नायमौद्भटानामिव विरोधबाधकः श्लेषः किं तु श्लेषविरोधयोरङ्गाङ्गिभावेन संकर इत्याशयेनाह। अत्र श्लेषमूलो विरोध इति। उत्तरत्राष्येवंविधोदाहरणेष्वेवमेव विरोध इति3157 द्रष्टव्यम्।
अमद इति। सार्वभौमो दिग्गजोऽप्यमदो मदरहित इति जातिगुणयोर्विरोधः सर्वभूमीश्वरोऽपि निरहंकार इति परिह्रियते। भास्वान् सूर्योऽपि कला-
निधिरिति जातिद्रव्ययोर्विरोधः। कलानिधेरेकत्वादू द्रव्यत्वम्। अत्रापि श्लेषमूलता।
क्रियायाः क्रियाविरोधो यथा।
धर्मद्विषामर्थमुषां च भङ्ग-
मुत्पादयन्3158 काकतिवीररुद्रः।
त्रिवर्गसाधारणगोचरोऽपि
करोति कामद्विषि भावमार्द्रम्॥१२१॥
अत्र त्रिवर्गसाधारणवृत्तेर्धर्मार्थविरोधिषु भङ्गकरणं कामारौ3159स्नेहकरणं च विरुद्धम्।
क्रियाया गुणद्रव्याभ्यां विरोधो यथा।
एषजिष्णुविहारोऽपि गोत्रवात्सल्यलालसः।
करोति कमलोल्लासं राजाप्यन्ध्रनरेश्वरः॥१२२॥
अत्र जिष्णुविहारस्य गोत्रवात्सल्यमिति क्रियागुणयोर्विरोधः। कमलोल्लासं कुर्वन्नपि राजेति क्रियाद्रव्ययोर्विरोधः। अत्रापि श्लेषमूलतैव।
गुणस्य गुणेन विरोधो यथा।
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निधिश्चन्द्र इति जातिद्रव्ययोर्विरोधः तेजस्वी चतुःषष्टिकलाकुशल इति परिह्रियते।
धर्मद्विषामिति। त्रयाणां धर्मार्थकामानां वर्गस्त्रिवर्गः। ‘त्रिवर्गो धर्मकामार्यैः’ इत्यमरः। त्रिवर्गः साधारणो वैषम्यरहितः गोचरः सेव्यत्वेन विषयो यस्य स तथोक्तः। ‘न वाध्यतेऽस्य त्रिगुणः परस्परम्’ इति भावः। कामद्विषि कामपुरुषार्थद्वेषिणि स्मरहरे च। अत एव क्रिययोर्विरोधः समाधीयत इत्याह। अत्र त्रिवर्गेति। पूर्वत्र द्वयोरपि विरोधिनोः श्लिष्टत्वमत्र पुनरेकस्यैवेति विशेषः।
एष इति। जिष्णोरिन्द्रस्य बिहार इव विहारो व्यापारो यस्य स तथोक्तः। तथापि गोत्रवात्सल्यलालसः पर्वतानुरक्त इति क्रियागुणौविरुद्धौ। जयशीलव्यापारः कुलानुकूलवेति समाहितौ। राजा चन्द्रोऽपि कमलोल्लासं करोतीति विरोधस्य क्रियाद्रव्यगतस्य नृपतिर्लक्ष्मीविलासमिति परिहारः।
¹रज्जंतो भुवणमिअं राअेत्ति जए सलाह3160णिज्जो सि।
रुद्द णरिंद कहं सा3161रत्तादि अ पंडुरा3162 जाआ॥१२३॥
अत्र रक्तत्वपाण्डुरत्वयोर्विरोधः।
गुणस्य द्रव्येन विरोधो यथा।
ज्वलत्प्रतापरौद्रोऽपि काकतीयनरेश्वरः।
भूत्वा जैवातृको भाति शश्वद्विश्वप्रियंकरः॥१२४॥
अत्र प्रतापरौद्रोऽपि जैवातृक इति गुणद्रव्ययोर्विरोधः।
द्रव्यस्य द्रव्येन विरोधो यथा।
विभाति काकतीन्द्रोऽयं रुद्रोऽपि चतुराननः।
तथा च विष्णुरित्येष कथ्यते पुरुषोत्तमः॥१२५॥
एवं दश भेदा दर्शिताः।
अयमश्लेषेणापि भवति यथा।
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रज्जन्त इति3163। ‘न्तमाणौ शतृशानचोः’ इति शतन्तादेशः। सलाहणिजोसि—’ इत्यत्र ‘अः क्ष्माश्लाघयोः’ इति श्लाघाशब्दे युक्तवर्णस्य विप्रकर्षः। पूर्वस्याकारयुक्तता चेति वेदितव्यम्।
ज्वलदिति। प्रतापरुद्रोऽपि जैवातृकश्चन्द्र इति गुणद्रव्ययोर्विरोधः। जैवातृक आयुष्मानिति परिहारः।
विभातीति। रुद्रोऽपि चतुराननो ब्रह्मेति जिष्णुरिन्द्रोऽपि पुरुषोत्तमो विष्णुरिति च द्रव्ययोर्विरोधो रुद्र इति नामादिभिः प्रसिद्धैरर्थान्तरैः परिह्रियते।
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छाया।
1 रञ्जयन् भुवनमिदं राजेति यया श्लाघनीयोऽसि।
रुद्र नरेन्द्र कथं सा रक्तापि च पाण्डुरा जाता॥
स्वभावशिशिरा दृष्टिरपि काकतिभूपतेः3164।
सर्वाङ्गतापिनी जाता प्रतिपक्षमहीभृताम्3165॥१२६॥
अत्र स्वभावशिशिरापि तापिनीति विरोधः।
विशेषालंकारः।
अथ विरोधगर्भालंकारा निरूप्यन्ते।
आधाररहिताधेयमेकं चानेक3166गोचरम्।
अशेषवस्तुकरणं विशेषालंकृतिस्त्रिधा॥
यत्राधारमन्तरेणाधेयो निबध्यते स एको विशेषः। एकस्यानेकगोचरत्वे द्वितीयो विशेषः। प्रकृतादशक्य3167वस्त्वन्तरकरणे तृतीयः।
यथाक्रममुदाहरणानि।
नलनहुषदिलीपधर्मपुत्र-
प्रभृतिनरेश्वरसंश्रिता3168 यशश्रीः।
अतुदिनमधुनाप्युपेत्य3169 मैत्रीं
विलसति काकतिवीररुद्रकीर्त्त्या॥१२७॥
अत्र प्राचां भूपतीनामाधारभूतानां तिरोधानेऽप्याश्रितायाः कीर्त्तेरवस्थानम्3170।
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स्वभावेति। शैत्यसन्तापयोर्गुणयोरश्लिष्टयोर्विरोधो विषयभेदेन परिह्रियते। विरोधमूलेष्वनेकभेदं विशेषमाह। आधारेति। प्रसिद्धाधाररहितमाधेयमेकं परिमितं वस्तु युगपदेवानेकगोचरं तथा किंचिद् वस्त्वारभमाणस्तेनैव यत्नेनाशक्यवस्त्वन्तरमारभत इति त्रयो विशेषभेदाः। क्रमेणोदाहरति। नलेति। अधुनापि नलादीनामभावसमयेऽपीत्यर्थः। नलादिसदृशकीर्त्तिरयं राजेति भावः। योजयति। अत्रेति।
यथा च3171।
पश्यन्तो भयविह्वलाः प्रतिनृपाः पश्चात् पुरः पार्श्वयो-
रप्यन्तर्बहिरन्ध्रपार्थिवपतिं प्रोत्क्षिप्तकौक्षेयकम्3172।
निःसीमोल्वणधावनव्यतिकरप्रभ्रष्टदोरायुधाः
शैलाच्छैल3173मटन्ति कम्पविगलद्गा3174म्भीर्यशौर्यश्रियः3175॥१२८॥
अत्र भयभ्रान्तानां शत्रुनृपतीनां3176 प्रतापरुद्रनृपतिरेकोऽप्यनेकत्र प्रतीयते।
तथा च।
अपारकरुणानिधेः सदसि वीररुद्रप्रभोः
प्रसादमधुरक्रमा लगति यत्र दृष्टिर्जने।
अतीन्द्रमतिकिंनराधिपमशेषलोकोन्नतं
न किं किमधितिष्ठति त्रिभुवने स सर्वाधिकः॥१२९॥
अत्र साधारणो जनः प्रतापरुद्रदृष्टिप्रसादपात्रीकृतः किं किं न लभत इत्यशक्यवस्त्वन्तरकरणम्।
अधिकालंकारः।
आधाराधेयवैचित्र्यादधिकालंकारो निरूप्यते।
आधाराधेययोरानुरूप्याभावोऽधिको3177 मतः।
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पश्यन्त इति। धावनव्यतिकरः पलायनसंबन्धः। कम्पेति। कम्पेन विगलन्त्यौ मूर्त्तद्रव्यवत् पतन्त्यौ गाम्भीर्यशौर्यश्रियौ येषां ते तथोक्ता इत्यतिशयोक्तिः। योजयति। अत्रेति।
अपारेति। सदस्यास्थाने यत्र जने साधारणे प्रसादमधुरक्रमा प्रसन्नेत्यर्थः। दृष्टिर्लगति स जनः सर्वाधिको लोकोत्तरः सन्नलौकिकं वैभवमनुभवतीत्यर्थः। अत्र पृथग्जनेऽपि प्रसादमारभमाणा दृष्टिरष्टैश्वर्यविशिष्टतामारभते3178 किल किमुत विशिष्टे जन इत्यर्थापत्तिर्व्यज्यते।
संगतिपूर्वकमधिकं लक्षयति। आधारेत्यादिना। तस्य द्वेधा विभागमाह।
यत्राश्रयाश्रयिणोरानुरूप्यं नास्ति सोऽधिकालंकारः। स द्विविधः। आश्रयस्याल्पत्वमहत्त्वाभ्याम्।
प्रथमो यथा।
स्तोके ब्रह्माण्डखण्डे3179 विपुलतरतया स्वैरसंचारहेला3180
संकोचादेकराशीभवदतुलरुचौ3181 काकतीन्द्रस्य कीर्तौ।
एतैः प्रालेयपृथ्वीधररजतगिरिस्वर्णदीशीतभानु-
क्षीराम्भोराशिमुख्यैः प्रकटितमधुना तद्धनीभावरूपम्॥१३०॥
अत्राश्रयस्य रोधःकुहरस्या3182ल्पत्वम्। आश्रितस्य प्रतापरुद्रयशसो3183 वैपुल्यम्।
द्वितीयो यथा।
क्वापि क्वापि कलिङ्गमालवमहाराष्ट्राङ्गवङ्गादया
भूपास्तादृशसैन्यवैभवसमाक्रान्ताखिलाशान्तराः।
लीनाः काकतिवीररुद्रनृपतेर्व्यूहप्रपञ्चश्रिया3184
निःसीमे बलवारिधौ विद्यधते पूर्तिं न कोणेऽप्यहो॥१३१॥
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स इति। आद्यमुदाहरति। स्तोक इति। स्वैरसंचारस्य स्वेच्छाविहारस्य हेलाया विस्रम्भस्य संकोचात्। प्रालेयपृथ्वीधरादिभिस्तद्धनीभावरूपं प्रकटितम्। अत्राधारे ब्रह्माण्डेऽल्पतमे आधेयायाः कीर्त्तेराधिक्येन संचारसंकोचात् तत्र तत्र पिण्डीभूताः कीर्त्तिखण्डा एवामी न तु हिमाचलप्रभृतय इत्यनयोरानुरूप्याभावः।
द्वितीयमुदाहरति। क्वापीति। व्यूहानां मकरादिसंज्ञितानां सेनासंनिवेशविशेषाणां प्रपञ्चस्य श्रिया समृद्धया निःसीमे उद्वेले बलवारिधौ कलिङ्गमालवादिसेनाः सेवार्थमागताः सरित इव समुद्रे यत्र कुत्रापि कोणे विलीयन्त इत्यर्थः।
अत्राश्रयस्य3185 प्रतापरुद्रसैन्याम्बुधेर्वैपुल्यम्। आश्रितानामङ्गवङ्गक- लिङ्ग3186प्रभृति3187राजकानीकिनी3188नामल्पत्वम्।
अथ विभावनाविशेषोक्तिश्च।
कारणेन विना कार्यस्योत्पत्तिः3189 स्याद् विभावना।
तत्सामग्र्यामनुत्पत्तिर्विशेषोक्तिर्निगद्यते॥
यत्र प्रसिद्धकारणपरित्यागेन कार्यस्योत्पत्तिर्निगद्यते सा विभावना।
यत्र3190कारणसाकल्ये सत्यपि कार्यस्यानुत्पत्तिः सा विशेषोक्तिः।
यथा।
प्रतापरुद्रेण पराजितानां
प्रत्यर्थिनां विन्ध्यगुहागतानाम्।
तमांस्यरात्रीणि समुद्भवन्ति
तेजांसि घस्रेष्वपि नोद्भवन्ति3191॥१३२॥
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अत्राधारस्याधिक्यमाधेयस्याल्पत्वं च न प्रमाणविरुद्धं किं तु महोदनमध्ये भिक्षाकवल इव नानुरूपम्। अत एवोक्तम्। आधाराधेययोरानुरूप्याभाव इति।
अत्रानुरूप्यसारूप्यादधिकानन्तरं विभावनां तद्विपर्ययरूपां विशेषोक्तिं चोदाहरणलाघवार्थंयुगपल्लक्षयति कारणेनेत्यादिना। यदि कारणमात्रेण विना कार्योत्पत्तिरुच्यते तदा विरोधो दुष्परिहारः स्यात्। कारणान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् कार्यस्येत्यतस्तत्परिहारार्थमाह। प्रसिद्धेति। अत एव वैशिष्ट्येन कार्यस्य भावनाद् विभावना। साकल्य इति। कारणानामिति शेषः। अत्रादिविरोधपरिहारार्थं सामग्रीवैगुण्यमुन्नेयम्। विभावनायां कार्योत्पत्तौ3192विरोधःविशेषोक्तौ कारणसत्तायामि3193त्युभयविरोधानुप्राणिताद्विरोधादेकैकविराधानुप्राणितयोरनयोर्भेदः। उदाहरति। प्रतापेति। अविद्यमाना रात्रिः प्रसिद्धकारणं येषां तान्यरात्रीणि। तमांस्यन्धकारा मोहाश्च। घस्रेषु दिनेष्वपि। तेजांसि प्रकाशा
अत्र तमःप्रादुर्भावस्य प्रसिद्धकारणं रात्रिः। तयाविनापि तस्योत्पत्तिर्निबद्धा। अप्रसिद्धं कारणं शोकाद्यस्त्येव।तथाहस्सु3194 कारणेषु सत्स्वपि तेजसोऽनुत्पत्तिरिति।निष्प्रताप3195त्वादिनिमित्तमस्त्येव।
असंगत्यलंकारः।
कार्यकारणविरोधप्रस्तावादसंगतिरुच्यते।
कार्यकारणयोर्भिन्नदेशत्वे सत्यसङ्गतिः।
यत्रैकदेशवर्त्तिनोरपि कार्यकारणयोर्भिन्नदेशस्थितिनिबध्यते3196ऽसावसंगत्यलंकारः। यथा।
विभ्रत्युर्वीधुरां गुर्वी वीररुद्रनरेश्वरे।
भवन्त्यतितरां शश्वन्नम्राः3197 सामन्तमौलयः॥१३३॥
अत्र राज्ञि3198भूभारः शत्रुषु3199 नमनमिति।
विचित्रालंकारः।
विरोधप्रस्तावाद्विचित्रं निरूप्यते।
विचित्रं स्वविरुद्धस्य फलप्राप्त्यर्थमुद्यमः।
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विवेकाश्च। योजयति। अत्रेति। अत्र तमसां द्वैविध्येऽप्यभेदाध्यवसायादेकत्वम3200तिशयोक्त्या। सा चास्यामव्यभिचारिणीति न तद्वाधेनास्या उत्थानम्। अपि तु तदनुप्राणितत्वेनेत्यादिविशेषा अवान्तरभेदाश्च सर्वस्वे द्रष्टव्याः।
असंगतेः संगतिपूर्वकं लक्षणमाह। कार्येत्यादिना। धूमाऽग्न्यरिव कार्यकारणयोः समानदेशत्वं न्यायसिद्धं तदन्यथाकृतं चेदुचितसंगतिनिवृत्तेरसंगतिर्नामालंकारः। उदाहरति। विभ्रतीति। स्पष्टम्।
विचित्रं संगमयन् लक्षयति। विरोधेत्यादि। स्वस्य हेतोर्विरुद्धस्य विपरीतस्य फलस्याप्त्यर्थमुद्यम उत्साहो विचित्रालंकारः3201। न चेदं3202 विषमाद्यभे-
यत्र स्वविरुद्धफलप्राप्यर्थ3203मुद्योगः क्रियते स विचित्रालंकारः। यथा।
प्रतापरुद्रनृपतेरग्रे दूरान्नरेश्वराः।
अवरोहन्ति हस्तिभ्यस्तानारोढुमनर्गलम्॥१३४॥
अत्रारोढुमवरोहन्तीति विपरीतफलप्राप्त्यर्थे प्रयत्नः।
अन्योन्यालंकारः।
अथान्योन्यं निरूप्यते। तस्यापि विरोधमूलता।
तदन्योन्यं मिथो यत्रोत्पाद्योत्पादकता भवेत्।
** यत्र परस्परं क्रियाद्वारकमुत्पाद्योत्पादकत्वं तदन्योन्यालंकारः3204। यथा।**
आरोहता रुद्रनरेश्वरेण
विराजते काकतिराज3205पीठम्।3206
आरुह्य तेनोज्ज्वलरत्नभाजा
राजापि लक्ष्मीमधिकां विभर्त्ति॥१३५॥
अत्र प्रतापरुद्रभद्रासनयोरन्योन्यालंकारालंकार्यत्वम्।
विषमालंकारः।
अथ विरोधमूलो विषमालंकारः कथ्यते3207।
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देऽन्तर्भवति। इह हि स्वनिषेधो वैपरीत्यं गमयति। विषमे तु व्यत्यय इति भेदस्य रुचकेनोक्तत्वात्। उदाहरति। प्रतापेति। योजयति। अत्रेति। अन्येान्यं निरूपयति। अथेत्यादिना। विरोधमूलतेति संगतिकथनम्। क्रियाद्वारकमिति साक्षात् परस्परजन्यजनकभावस्य विरुद्धत्वादिति भावः। आरोहतेति। अत्रालंकारद्वारा रुद्रभद्रासनयोर्जन्यजनकभाव इत्याह। अन्नेति।
विरुद्धकार्यस्योत्पत्तिर्यत्रानर्थस्य वा3208भवेत्।
विरूपघटना चासौ विषमालंकृतिस्त्रिधा3209॥
यत्र कारणाद्विरुद्धकार्यस्योत्पत्तिस्तदेकं3210 विषमम्। अकार्यभूतस्यानर्थस्योत्पत्तिर्द्वितीयम् विरूपयोर्वस्तुनोः संघटने तृतीयम्3211।
प्रथमं यथा।
राज्ञः काकतिवीररुद्रनृपतेः स्वङ्गात् तमालप्रभा-
दुद्भूतां शरदिन्दुकान्तिधवलां कीर्त्तिश्रियं पश्यताम्3212।
लोकानां मुरवैरिपादकमलाज्जातां वियन्निम्नगां
श्रुत्वा संप्रति विस्मयाद्विरमति प्राप्तानुभावं मनः॥१३६॥
अत्र नीलवर्णात् खङ्गादिन्दुधवलस्य3213 यशसः समुत्पत्तिः।
** **द्वितीयं यथा।
आस्तां जयाशा रिपुभूपतीनां
संग्रामसीमानमुपागतानाम्।
प्रतापरुद्रस्य विलोकनेन
भ्रश्यन्ति जीवैः सममायुधानि॥१३७॥
अत्र समरोद्योगफलस्य3214 न केवलं जयस्या3215नुत्पत्ति3216र्यावज्जीवितभ्रशरूपानर्थोत्पत्तिरपि।
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संगतिपूर्वकं विषमं लक्षयति। विरुद्धेति। कारणविरुद्धकार्यस्येत्यर्थः। अनर्थस्य वेति। उत्पत्तिरिति शेषः। आद्यमुदाहरति। राज्ञ इति। अनुगतो भावो दार्ष्टान्तिकधर्मो यस्यासावनुभावो दृष्टान्तः प्राप्तानुभावमनुभूतदृष्टान्तं लोकानां मनो विस्मयात् विरमति। अद्वितीयमेव वस्तु विस्मयावहं न पुनः सद्वितीयमिति भावः। ‘जुगुप्साविराम—‘इत्यादिना विस्मयादिति पञ्चमी। योजयति। तत्रेति।
द्वितीयोदाहरणं स्पष्टम्।
तृतीयं यथा3217।
क्व भूपालास्तादृग्विभवमहनीयप्रकृतयः
क्व चेयं कान्तारस्थितिरशिववृत्त्येकनिलया।
इति प्रेक्षं प्रेक्षं वनभुवि रिपून् रुद्रनृपतेः
प्रतापं श्लाघन्ते शबरपुरवीराः प्रतिदिशम्॥१३८॥
** अत्र महानगरनिवासयोग्यानां राज्ञामशिवानां वनप्रदेशानां विरूपाणां संघटनम्।**
एवं विरोधगर्भालंकारा निर्णीताः।
समालंकारः।
अधुना विषमवैधर्म्यात् समं3218 निरूप्यते।
सा समालंकृतिर्योगो वस्तुनोरनुरूपयोः।
** यत्रान्योन्यानुरूपपदार्थसंघट्टना क्रियते स समालंकारः। यथा।**
विज्जाओ3219 सअलाओ3220 लच्छीएसमं पआवरुद्दमि3221।
संघटिऊण सुसरिसं3222 होइ कअच्छो3223 सअंबह्मा॥१३९॥
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तृतीयमुदाहरति। क्वेति। अशिववृत्तानाममङ्गलचरितानामेकनिलयः। प्रेक्षं प्रेक्षं पुनः प्रेक्ष्य। आभीक्ष्ण्ये णमुलि द्विर्भावः। दिशि दिशि प्रतिदिशम्। यथार्थेऽव्ययीभावः। ‘अव्ययीभावे चाशरत्प्रभृतिभ्यः’ इति समासान्तः।
अथ विरोधगर्भालंकारान् निगमयन्3224 समालंकारं संगतिपूर्वकं लक्षयति। एवमित्यादिना। विषमवैधर्म्यादिति। विषमतृतीयभेदवैधर्म्यादित्यर्थः। अयं चालंकारः संबन्ध्यमानवस्तुनोः श्लाघ्यत्वाश्लाघ्यत्वाभ्यां द्विविध इत्यनुसंधेयम्। विज्जाओ इति। ‘स्त्रियां शस इदोतौ’ इति स्त्रीलिङ्गे विद्याशब्दे वर्त्तमानस्य
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छाया।
1. विद्याः सकला लक्ष्म्या समं प्रतापरुद्रे।
संघटय्य सुसदृशं भवति कृतार्थः स्वयं ब्रह्मा॥
अत्र प्रतापरुद्र3225ेसकलविद्यानां3226 लक्ष्म्याश्च योगः।
तुल्ययोगितालंकारः।
** **अथ गम्यमानौपम्यालंकारवर्गप्रस्तावः3227।
प्रस्तुतानां तथान्येषां केवलं तुल्यधर्मतः।
औपम्यं गम्यते यत्र सा मता तुल्ययोगिता॥
यत्र केवलप्रस्तुतानां3228 केवलाप्रस्तुतानां वा समानधर्मसंबन्धादौपम्यं गम्यं3229 सा तुल्ययोगिता।
** प्रस्तुतानां यथा।**
भद्रासनाध्यासिनि वीररुद्रे
तत्कीर्त्तयश्च3230 द्विषदङ्गनाश्च।
अनारतं3231 भ्रान्तिविशेषभाजः
प्रतिक्षणं पाण्डुरतां3232 भजन्ते॥१४०॥
अत्र कीर्त्तीनां द्विषदङ्गनानां च प्राकरणिकत्वम्। पाण्डुरतां3232 भजन्त इति समानधर्मः।
** अप्राकरणिकानां यथा।———————————————————————————————————————————————————————**
शस ओदादेशः। अत्र श्लाघ्ययोः लक्ष्मीसरस्वत्योर्योगः। अश्लाध्ययोस्तु ‘धात्रा निम्बफलास्वादे काकलोको हि कल्पितः’ इत्यादौ द्रष्टव्यः।
गम्यौपम्यानलंकारान् प्रस्तौति। अथेति। तत्र प्रस्तुताप्रस्तुतव्यासाश्रयां तुल्ययोगितामाह। प्रस्तुतानामिति। केवलमित्युभयत्र संयोज्य व्याचष्टे। यत्रेति। तुल्यस्य योगोऽस्यां संजात इति तुल्ययोगितेत्यर्थः। सा च प्रस्तुतानामप्रस्तुतानां च प्रतिस्वं गुणेन क्रियया च संबन्धे चतुर्विधा। तत्र केवलप्रस्तुतविषयां गुणाश्रयामुदाहरति। भद्रासनेति।
कूर्मेन्द्रपन्नगाधीशा3233 हरित्करिकुलाद्रयः।
मिथो निःसारतां प्राप्ताः काकतीन्द्रे महीभृति॥१४१॥
अत्र कूर्मेन्द्रप्रभृतीनामप्राकरणिकत्वम्। निःसारतां प्राप्ता इति समानधर्म।
** अत्र गम्यमानौपम्यं वैवक्षिकं3234 न वास्तवम्।**
** दीपकालंकारः।**
** अथ दीपकम्।**
प्रस्तुताप्रस्तुतानां तु सामस्त्येतुल्यधर्मतः।
औपम्यं गम्यते यत्र दीपकं तन्निगद्यते॥
यत्र प्रस्तुताप्रस्तुतानां समस्तानामेव समानधर्मसंबन्धेनौपम्यं गम्यते तद्दीपकम्। तस्य धर्मस्यादिमध्यान्तगतत्वेन त्रैविध्यम्।
आदिदीपकं यथा।————————————————————————————————————————————————
अन्योदाहरणमाह। कूर्मेन्द्रेति। हरित्करिणो दिग्गजाः। एवमुभयत्र क्रियाश्रयत्वेनाप्युदाहार्यम्। ननु प्रस्तुताप्रस्तुतविषयस्यौपम्यस्य कथमत्रोपपत्तिस्तत्राह। अत्रेति। केवलप्रस्तुतेषु कस्यचिदुपमानत्वस्य केवलाप्रस्तुतेषु कस्यचिदुपमेयत्वस्य कल्प्यमानत्वादिति भावः।
अथ प्रस्तुताप्रस्तुतसमाश्रयं दीपकमाह। प्रस्तुतेति। अत्र प्रस्तुताप्रस्तुतानां सामस्त्यमत एवौपम्यं वास्तवमिति तुल्ययोगितातो विशेषः। गम्यत्वं पुनरस्य पूर्ववदत्रापि इवाद्यभावात्। प्राकरणिकाप्राकरणिकमध्ये कुत्रचिन्निविष्टः समानो धर्मः प्रश्वर्थानुष्टितः प्रयाजादिः पुरोडाशस्येवेतरांशस्योपकरोति। अत एव दीपसादृश्यात् दीपकमित्युच्यते। ‘संज्ञायां च’ इतीवार्थे कन्प्रत्ययः। तत्र3235 विशेषमाह। तस्येति। आदिमध्यान्तगतत्वेन आदिमध्यान्तवाक्यगतत्वेनेत्यर्थः।
भाइ3236 णलेण कअजुअं3237 रहुउलदीवेण सोरिणा तेता3238।
दावारो तबजणिणा कलिजुअं3239 वीररुद्देण॥१४२॥
अत्र नल3240रामधर्मपुत्रैः3241 कृतत्रेताद्वापाराः शोभन्ते तथा वीररुद्रेण कलियुगं शोभत इत्यौपम्यं गम्यते।
** मध्यदीपकं यथा।**
भाई3242रहिए3243 जलणिही राअइ3244 जोण्हाइ3245 पुष्णिमाअंदो3246।
सुत्तीए कमलभवो3247 कित्तीए3248 पआबरुद्दो
वि॥१४३॥
अत्र भागीरथ्यादिभिः समुद्रादयो यथा तथा कीर्त्त्याप्रतापरुद्रो राजत3249 इत्यौपम्यं गम्यते।
अन्तदीपकं3250 यथा।——————————————————————————————————————————————————
भाईति। रघुकुलदीपेन3251 रामेण। तपसो जनिरुत्पत्तिर्यस्य तेन तपोजनिना धर्मपुत्रेण। अत्र भातीति समानधर्मस्यादिवाक्यगतत्वादादिदीपकम्।
भाईरहिए इति। अत्र3252 राजत इत्यस्य द्वितीयवाक्यगतत्वान्मध्यदीपकम्।
सुरलोअं3253 सुरणाहो णरलोअं वीररुद्दणरणाहो3254।
फणिलोअं फणिणाहो रक्खइणिरुपद्दवोज्जेअं3255॥१४४॥
अत्र3256 यथा सुरलोकफणिलोकौ सुरनाथफणिनाथाभ्यां3257 रक्षितौ3258 तथा वीररुद्रेण3259 नरलोको रक्षित इत्यौपम्यं गम्यते।
** अथ पदार्थगतालंकारद्वयानन्तरं वाक्यार्थगतमलंकारद्वयं3260 निरूप्यते।**
प्रतिवस्तूपमालंकारः।
यत्र सामान्यनिर्देशः पृथग्वाक्यद्वये यदि।
गम्यौपम्याश्रिता सा स्यात् प्रतिवस्तूपमा मता॥
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सुरेति। अत्र3261 रक्षणस्यान्तवाक्यगतत्वादन्तदीपकम् एषूदाहरणेष्वनेककारकगतत्वेनैकक्रियादीपकम्। एवमनेकक्रियागतत्वेनैककारकमपि दीपकमस्ति। यथा।
‘साधूनामुपकर्त्तुं लक्ष्मीं द्रष्टुं विहायसा गन्तुम्।
न कुतूहलि कस्य मनश्चरितं च महात्मनां श्रोतुम्॥’ इति।
अनन्तरालंकारयोः संगतिमाह। अथेति। समानधर्मस्य पदार्थगतत्वात्। दीपकतुल्ययोगिते पदार्थगते। तन्निरूपणानन्तरं तदारब्धवाक्यार्थमूलालंकारद्वयमुच्यत इत्यर्थः। तत्रापि पूर्वोक्तरीत्यान्तरङ्गवस्तुभावमूलां प्रतिवस्तूपमामाह। यत्रेति। फलतो व्याचष्टे। यत्र वस्त्विति। गम्यौपम्ये इवाद्यप्रयोगादिति भावः। अन्यथेयमुपमैव स्यादिति हृदयम्। तेन प्रतिवस्तु प्रतिवाक्यार्थमुपमा
यत्र वस्तुप्रतिवस्तुभावेन सामान्यं वाक्यद्वये निर्दिश्यते तत्र गम्यौपम्या प्रतिवस्तूपमा। सा साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां द्विविधा।
प्रथमा यथा।
मन्थनाचल एवैकः क्षमः सिन्धुविलोडने।
प्रतापरुद्र एवैकः शक्तः शत्रुविलोडने॥१४५॥
अत्र3262 यथा समुद्रविलोडने मन्थनाचलः क्षमस्तथा शत्रुविलोडने प्रतापरुद्रः शक्त इत्यौपम्यं गम्यते।
द्वितीया यथा।
प्रतापरुद्र एवैकः पटीयान् जनरञ्जने।
चन्द्रादृते क्षमो नान्यश्चकारोपरितोषणे॥१४६॥
अत्र चंन्द्रेण3263 यथा चकोरपरितोषः3264 क्रियते तथा वीररुद्रेण जनरञ्जनं क्रियत इति वैधर्म्येणौपम्यं गम्यते।
दृष्टान्तालंकारः
** **अथ हष्टान्तः3265।
यत्र वाक्यद्वये3266 विम्बप्रतिविम्बतयोच्यते।
सामान्यधर्मो वाक्यज्ञैः स दृष्टान्तो निगद्यते॥
यत्र विम्बप्रतिविम्वभावेन सामान्यं3267 वाक्यद्वये निर्दिश्यते स दृष्टान्तालंकारः। सोऽपि साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां द्विविधः।
** आद्यो यथा।———————————————————————————————————————————————**
सामान्यं यस्यां सा प्रतिवस्तूपमा इत्यन्वर्थेयमजनि। तस्या द्वैविध्यमाह। साधर्म्येति। साधर्म्येणोदाहरति। मन्थानेति। अत्र संबन्धिभेदेन क्षमशक्तशब्दाभ्यां समानधर्मस्य कथनाद्वस्तुप्रतिवस्तुभावः।
वैधर्म्येणोदाहरति। प्रतापेति। पटीयानतिपटुः।
दृष्टान्तं लक्षयति। यत्रेति। द्वयोः सदृशयोरर्थयोरुपादानं विम्बप्रतिबिम्बभाव इत्युक्तम्। अत्रापीवाद्युपादाने पूर्ववदुपमैव स्यादिति द्रष्टव्यम्। दृष्टोऽन्तो
क्षोणीं विभ्रतु भूभृतः कतिपये कापि प्रतिष्ठा पुनः
स्वर्णार्द्रेर्दिगधीशवासनगरीसंदिग्धकुञ्जश्रियः।
राजानो जनरञ्जनं विदधतां श्रीवीररुद्रप्रभोः
कोऽप्यन्यो महिमा जगत्त्रयधुराधौरेयदोःशालिनः॥१४७॥
अत्र प्रतापरुद्रस्य मेरोश्च बिम्बप्रतिबिम्बभावादौपम्यं गम्यते।वैधर्म्येण यथा।
काकतीन्द्रकृपादृष्टिमात्राज्जाग्रति संपदः।
तावदब्जानि निद्रान्ति यावन्नोदेति भानुमान्॥१४८॥
अत्र यथा भास्वदुदयमात्रेण पद्मानि समुन्मिलन्ति तथा प्रेतापरुद्र3268दयाविलोकनमात्रेण संपदः संभवन्तीति वैधर्म्येण3269 बिम्बप्रतिबिम्बनम्।
निदर्शनालंकारः।
अथ3270 गम्यमानौपम्यप्रस्तावान्निदर्शनालंकारो निरूप्यते।
असंभवद्धर्मयोगादुपमानोपमेययोः।
प्रतिबिम्बक्रिया गम्या यत्र सा स्यान्निदर्शना॥
** यत्रोपमानधर्मस्योपमेयगतत्वेन निबद्धस्यान्वयासंभवात् तत्संबन्धार्थंविम्बप्रतिबिम्बकरणमाक्षिप्यते सैका निदर्शना। तद्विपर्यये द्वितीया निदर्शना।———————————————————————————————————————————————————**
निश्चयो यत्र स दृष्टान्त इत्यर्थः। साधर्म्येणोदाहरति। क्षोणीमिति। भूभृतः3271 पर्वताः दिगधीशानाभिन्द्रादीनां वासनगरीत्वेन संदिग्धाः संदेहविषयीकृताः कुञ्जश्रियो यस्य तस्य तथोक्तस्य। तत्र कुञ्जेष्वेव नगरबुद्धिरुदेतीति भावः। संपूर्वको दिहिः सकर्मकोऽपि दृश्यते। यथा ‘नानुपलब्धेन निर्णीतेऽर्थे न्यायः प्रवर्त्तते अपि तु संदिग्धे’ इति। जगत्त्रयधुरायां धौरेयाभ्यां धुरन्धराभ्यां दोर्भ्यां शालते ताच्छील्येन तथोक्तस्य। धौरेयशब्दो व्याख्यातः।
वैधर्म्येणोदाहरति। काकतीन्द्रेति।
निदर्शनायाः संगतिमाह। अथेति। अत्र बिम्बप्रतिबिम्बभावोऽभ्युच्चयः। लक्षणमाह। असंभवदिति। उपमानधर्मस्योपमेयगतत्वेनोपमेयधर्मस्योपमानगतत्वेन वा संबन्धासंभवादसंभवद्वाक्यार्थसंबन्धा निदर्शना द्विविधेत्यर्थः।
प्रथमा यथा।
रिपुतिमिरमुदस्यन् रत्नसिंहासनस्थ-
स्त्रिभुवनमहनीयः काकतीयक्षितीशः3272।
वहति भुवनविश्वोल्लासलीला3273मभिख्या-
मुदयशिखरिचूडाचुम्बिनस्तीव्रभानोः3274॥१४९॥
अत्र तीव्रभानोरभिख्यायाः प्रकृतेऽसंभवादभिख्यासदृशीमभिख्यां वहतीति प्रतिविम्वकरणाक्षेपः।
** उपमेयधर्मस्योपमानेऽसंभवाद्यथा।**
वीररुद्रनरेन्द्रस्य यशोवैशद्यसंपदः।
लक्ष्यन्ते क्षीरवाराशिलीलादर्पणमण्डले॥१५०॥
अत्र यशोवैशद्यस्य दुग्धार्णवेऽसंभवात्3275 सादृश्योपगमेन3276 बिम्बप्रतिबिम्बनं गम्यते।
** क्वचिन्निषेधवशादाक्षिप्तया प्राप्त्याविम्बकरणाक्षेपो यथा।**
काकतीन्द्रद्विषत्कान्ता धावन्त्यः प्रतिकाननम्।
षद्भ्यांमुञ्चन्त्यलाक्षाभ्यां स्थले रक्तोत्पलश्रियम्॥१५१॥
अत्र मुञ्चतीति3277 निषेधात् पूर्वेरक्तोत्पलश्रीप्राप्तिराक्षिप्ता।
व्यतिरेकालंकारः
** अथ व्यतिरेकः।**
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व्याचष्टे। यत्रेति। तद्विपर्यय इति।उपमेयधर्मस्योपमानगतत्वेनेत्यर्थः3278। रिपुतिमिरमिति। उदयशिखरिचूडाचुम्बिनः प्राचीनपर्वताग्रवर्त्तिनस्तीव्रभानोर्विश्वेाल्लासिलीलां लोकानन्दिस्वरूपामभिख्यां शोभांवहति। योजयति। अत्रेति।
वीररुद्रेति। अत्रोपमेयधर्मस्वोपमानेऽसंभवात् प्रतिविम्बक्रियाक्षेप इत्याह। अत्र यश इति।
अत्र च विशेषान्तरमाह। क्वचिदिति। काकतीन्द्रेति। अलाक्षाभ्यामलक्तकरहिताभ्याम्। पूर्वंराज्यसमय3279 इत्यर्थः। संभवद्वाक्यार्थसंबन्धापीयमन्यैरङ्गीकृता। तदुक्तम्।
भेदप्रधानसाधर्म्यमुपमानोपमेययोः।
आधिक्याल्पत्वकथनाद् व्यतिरेकः स उच्यते॥
** यत्रोपमानादुपमेयस्याधिक्येन न्यूनत्वेन वा प्रतिपादनेन भेदप्रधानं साधर्म्यमवगम्यते स व्यतिरेकालंकारः।**
** यथा।**
दिनकृति कुमुदैर्धृतो न रागः
शशिनि पराञ्चि3280परं सरोरुहाणि।
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‘अभवन् वस्तुसंबन्धो भवन् वा यत्र कल्पयेत्।
उपमानोपमेयत्वं कथ्यते सा निदर्शना॥’ इति।
** उदाहरणं तु**
‘चूडामणिपदे धत्ते यो देवं रविमागतम्।
सतां कार्यातिथेयीति बोधयन् गृहमेधिनः॥’ इति।
अत्र चक्रवर्ती व्याचक्रे3281। ‘बोधयन्निति कारीषोऽग्निरध्यापयतीति- वद्गिरिगृहमेधिनेाबोधनक्रियासमर्थान् करोतीति तत्समर्थाचरणे णिचः प्रयोगात् संभवति वस्तुसंबन्धः’ इति। ततस्तत्सदृशबोधनाक्षेपः। सैषासर्वापि पदार्थवृत्तिः।वाक्यार्थवृत्तिर्यथा।
‘त्वत्पादनखरत्नानां3282 यदलक्तकमार्जनम्।
इदं श्रीखण्डलेपेन पाण्डुरीकरणं3283 विधोः॥’ इति।
न चायं दृष्टान्तः। अत्र वाक्ययोः सापेक्षत्वात्। यत्र निरपेक्षवाक्यद्वये बिम्बप्रतिबिम्बभावः स दृष्टान्तः। यत्र सापेक्षवाक्यद्वये सोऽसौ निदर्शनेति महाननयोर्भेदः। अत्र मालावैचित्र्यमपि द्रष्टव्यम्।
अथ गम्यौपम्बप्रस्तावाद् व्यतिरेकं लक्षयति। भेदेति। भेदो वैलक्षण्यं तत्प्रधानं सामर्थ्यं गम्यत इत्यध्याहृत्य3284 व्याचष्टे। यत्रेति। उदाहरति। दिनकृतीति। रागोऽनुरागः। पराञ्चि प्रतिकूलानि। अयं तु कुवलयेन भूमण्डलेन3285
कुवलयकमलादृतप्रकाशः
प्रभवति विश्वसुहृत् प्रतापरुद्रः॥१५२॥
** अत्र रविशशिनोरसंभवेन3286 सर्वप्रियंकरत्वेनोपमेयभूतस्य प्रतापरुद्रस्याधिक्यं कुवलयकमलादृतप्रकाश इति3287श्लेषसमुत्थापितो व्यतिरेकः।**
श्लेषालंकारः।
** अथ श्लेषालंकारो निरूप्यते।**
प्रकृताप्रकृतोभयगतमुक्तं चेच्छब्दमात्रसाधर्म्यम्3288।
श्लेषोऽयं श्लिष्टत्वं सर्वत्राद्यद्वये नान्त्ये3289॥
यत्र केवलप्रकृतयोः केवलाप्रकृतयोश्च3290श्लेषः कथ्यते तत्र प्रकारद्वये विशेषणविशेष्यश्लिष्टता। प्रकृताप्रकृतविषयेऽन्त्यभेदे विशेषणमात्रश्लिष्टता। विशेषणविशेष्ययोरपि श्लिष्टत्वे शब्दशक्तिमूलध्वनिप्रसङ्गात्। के-————————————————————————————————————————————————
कमलया लक्ष्म्या च अभेदाध्यवसितैः कुवलयकमलैरादृतप्रकाश इत्युपमानादुपमेयस्याधिक्यकथनं श्लेषमूलम्। उपमानादुपमेयस्याल्पत्वपक्षे सहृदयानधिरोहादुदाहरणं नोक्तम्। भेदद्वयलक्षणं तु सर्वस्वकारानुसारादिति रहस्यम्। तदीयोदाहरणं तु काव्यप्रकाशकारः समदूषयत्। तत्प्रकारो व्यतिरेकः प्रपञ्चश्च तत्रैव द्रष्टव्यः। ‘उपमानाद्यदन्यस्य व्यतिरेकः स एव सः’ इति तल्लक्षणमेव साधीयः।
व्यतिरेकस्य श्लेषगर्भत्वात् तत्प्रसङ्गानन्तरं श्लेषं प्रतिज्ञापूर्वकं लक्षयति। अथेति। यत्र केवलप्रकृतयोः केवलाप्रकृतयोः प्रकृताप्रकृतयोश्च शब्दमात्रसाधर्म्यमुक्तं चेच्छ्लिष्टपदोषनिबन्धः कृतश्चेदित्यनेनोपमाब्यवच्छेदः। अयं श्लेषालंकारः। अन्नाद्यद्वये केवलप्रकृतश्लेषे केवलाप्रकृतश्लेषे चेत्यर्थः। सर्वत्र श्लिष्टत्वंविशेषणेषु विशेष्येषु च श्लेष इत्यर्थः। अन्त्ये उभयश्लेषे न सर्वत्र श्लिष्टत्वं किं तु विशेषणेष्वेवेत्यर्थः। विशेष्ययोरपि श्लिष्टत्वे शब्दशक्तिमूलध्वनिप्रसंगः। तदेतदाह। अत्रेति।ननूभयश्लेष एव विशेष्यश्लिष्टत्वे ध्वनिशङ्का नेतरभेदद्वय इत्यत्र किं
वलप्रकृतयोः केवलाप्रकृतयोश्चैकशब्द3291गोचरत्वेन3292 न ध्वनिशङ्का। तत्रार्थद्वय3293प्रतिपादने3294ऽप्रस्तुतत्वेन प्रस्तुतत्वेन वा वैषम्याभावादभिधैव समर्था। प्रस्तुताप्रस्तुतविषये तु अभिधायाः प्रस्तुतैकपरतन्त्रत्वादप्रस्तुतार्थप्रतिपत्तिर्व्यञ्जनव्यापारायत्तैव। तथा चोक्तं काव्यप्रकाशे।
‘अनेकार्थस्य शब्दस्य वाचकत्वे नियन्त्रिते।
संयोगाद्यैरवाच्यार्थधीकृद् व्यापृतिरञ्जनम्॥’ इति।
** तदेवं त्रिधा3295 श्लेषः।**
** तत्र केवलप्राकरणिकयोर्यथा।—————————————————————————————————————————————————————**
नियामकमत आह। केवलप्रकृतयोरिति। आद्यभेदद्वये विशेष्ययोरपि श्लिष्टत्वे अर्थद्वयस्य प्रस्तुतत्वाविशेषादप्रस्तुतत्वाविशेषाद्वा3296 अभिधाया अकुण्ठितसंचारित्वात्3297 प्रस्तुताप्रस्तुतौ3298 द्वावप्यर्थाै वाच्यावेव। अतो नाद्यभेदद्वये ध्वनिशङ्केति भावः। उभवश्लेषे कथं ध्वनेरवकाश इत्याकाङ्क्षायामाह । प्रस्तुताप्रस्तुतविषये त्विति। प्रकरणादिकं3299 प्रस्तुतार्थ एवाभिधां नियच्छति नाप्रस्तुतार्थे। अतस्तस्य न वाच्यत्वमिति भावः। ननु मा भूद् वाच्यत्वं व्यङ्ग्यत्वं तु कुतो लभ्यते इत्यत आह। अप्रस्तुतेति। अर्थान्तरस्य व्यञ्जनैकव्यापारविषयत्वे3300 वृद्धसंमतिमाह। अनेक इति। अनेकार्थस्याक्षादिशब्दस्य संयोगाद्यैः ‘संयोगो विप्रयोगश्च—’ इत्यादि वाक्यपदीयोक्तैरर्थनश्चायकैर्वाच्यत्वे नियन्त्रिते प्रस्तुतपरत्वेन3301नियमिते सति अवाच्यार्थधीकृदर्थान्तरप्रतीतिकृद् व्यापृतिरञ्जनं व्यञ्जनव्यापार इत्यर्थः। तदेवमिति। प्रकृताप्रकृतोभयगतत्वेनेत्यर्थः। अयं च श्लेषः प्रकारान्तरेणापि त्रिविधः। तथा हि जतुकाष्ठन्यायेन सभङ्गपदःशब्दश्लेषः। एकनालावलम्बिफलद्वयन्यायेनाभङ्गपदोऽर्थश्लेषः। उभयनिबन्धे तूभयश्लेष इति। काव्यप्रकाशकारः पुनरिममर्थश्लेषं शब्दश्लेषमेवोक्त्वान्यथार्थश्लेषमवोचत्।
राज्ञःपूजाविधिं धत्ते सकलोमाधवेतिथिः3302।
नीलकण्ठकलापाङ्के3303 स्फुरदब्जमणित्विषि॥१५३॥
अत्र पूजाविषयतया हरिहरयोः प्राकरणिकत्वम्।
अप्राकरणिकयोर्यथा।
सदृशः काकतीन्द्रोऽयं महाकुलमहीभृताम्।
शिरोगृहीतसन्मार्गस्फुरत्कटकसंपदाम्॥१५४॥
अत्र महाकुलानां हरिश्चन्द्रप्रभृतीनां कुलपर्वतानां चोपमानत्वेनाप्राकरणिकत्वम्।
** प्राकरणिकाप्राकरणिकयोर्यथा।**
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ताद्विवेकस्तु तत्रैव द्रष्टव्यः। केवलप्रकृतिश्लेषमुदाहरति। राज्ञइति। नीलकण्ठकलापाङ्के मयूरपिच्छचिह्नेस्फुरन्ती अब्जमणेः कौस्तुभस्य त्विड् यस्य तस्मिन् माधवेसकलस्तिथिः प्रतिपदादिः राज्ञः पूजाविधिं धत्ते। नीलः कण्ठो यस्यासौ नीलकण्ठः। कलाः षोडश पातीति कलापश्चन्द्रोऽङ्कः शेखरो यस्य स तथोक्तः। उभयोर्विशेषणसमासः तस्मिन् स्फुरन्ती अब्जमणेश्चन्द्रकान्तस्य त्विडिव त्विड्यस्य तस्मिन्नुमाधवे सकलातिथिः पूजाविधिं धत्ते। ‘तदाद्यास्तिथयोर्द्वयोः ‘इत्यमरः। सर्वेष्वपि तिथिषु हरिहरौ पूजनीयादित्यर्थः। सकलोमाधवेतिथिरित्यत्र सभङ्गपदत्वाच्छब्दश्लेषत्वम्। अन्यत्राभङ्गपदत्वादर्थश्लेषत्वं च यथासंभवं द्रष्टव्यम्।
केवलाप्रकृतश्लेषमुदाहरति। सदृश इति। शिरसा गृहीतो गौरवेण स्वीकृतः सन्मार्गः साधुमार्गो येषां ते तथोक्ताः। स्फुरन्त्यः कटकानामलंकाराणां संपदो येषां ते तथोक्ताः। उभयोर्विशेषणसमासः। महत् कुलं येषां ते महाकुलाः। ते च ते महीभृतो राजानो हरिश्चन्द्रादयः पर्वताश्च। शिरोभिः शिखरैर्गृहीतः सन्मार्गोनक्षत्रमार्गोयेषां ते तथोक्ताः। स्फुरन्त्यः सानुसंपदो येषां तेषां महतां कुलमहीभृतां कुलपर्वतानां च सदृशः॥
विजितारिपुरो मूर्त्ताैविलसत्सर्वमङ्गलः।
राजमौलिः प्रतापाङ्करुद्रो रुद्र इव स्थितः॥१५५॥
अत्रप्रतापरुद्ररुद्रयोःप्राकरणिकाप्राकरणिकत्वम्।
परिकरालंकारः।
[]3304विशेषणमूलवैचित्र्य3305मूलत्वात् परिकर उच्यते।
यत्राभिप्रायगर्भा स्याद्विशेषणपरम्परा।
तत्राभिप्रायविदुषामसौ परिकरो मतः।
यत्र विशेषणानि साभिप्रायाणि निबध्यन्ते3306 स परिकरालंकारः। यथा।
राज्ञोयादववंशपार्थिवमणेः प्रख्यातशौर्यश्रिय-
स्त्वङ्गत्तुङ्गतुरङ्गसैन्यमहतो मानैकवित्तस्य च।
सद्यो रुद्रनरेन्द्रनायकचमूनाथेन केनाप्यधि-
क्षिप्तस्याचरितानि सेवणपतेर्जानाति सा गौतमी॥१५६॥
** अत्र राज्ञइत्येवमादिविशेषणान्यभिप्रायगर्भाणि3307।—————————————————————————————————————————————————**
उभयश्लेषमुदाहरति। विजितेति। विजितारिपुरो निर्जितशत्रुनगरस्त्रिपुरान्तकश्च र्मूत्तौविलसन्ति सर्वाणि मङ्गलानि विलसन्ती सर्वमङ्गला पार्वती च यस्य सः। राजमौली राजश्रेष्ठश्चन्द्रशेखरश्च। अत्र रुद्रप्रतापरुद्रयोर्विशेष्ययोः पृथगुपादानमत उभयश्लेषः।
संगतिपूर्वकं परिकरं लक्षयति। विशेषणेति। अभिप्रायगर्भा व्यङ्ग्यगर्भा। व्यङ्ग्यस्य वाच्योन्मुखत्वेन वाच्यातिशायित्वाभावात् परिकर इत्यन्वर्थोऽलंकारः। उदाहरति। राज्ञइति। राज्ञो न तु यस्य कस्यचित्। यादववंशपार्थिवमणेर्महाकुलीनस्य न म्लेच्छस्य। प्रख्यातशौर्यश्रियोऽनेकधा विहितपराक्रमस्य न त्वनाघ्रातरणगन्धस्य। त्वङ्गत्तुङ्गतुरङ्गसैन्यमहतो नैकाकिनः। मानैकवित्तस्य न तु यथा कथंचित् प्राणपरायणस्य। सेवणपतेः केनाप्यन्ध्रचमूपतिना अधिक्षिप्तस्य सतः। आचरितान्यायुधसन्न्यासादीनि। सा कवलितसेवणपतिसर्वस्वा गौतमी जानातीत्येवं साभिप्रायविशेषणत्वम्। उत्प्रासगर्भाण्यभिप्रायगर्भाणीत्यर्थः।
आक्षेपालंकारः।
अथाक्षेपालंकारः।
विशेषबोधायोक्तस्य वक्ष्यमाणस्य वा भवेत्।
निषेधाभासकथनमाक्षेपः स उदाहृतः॥
यत्र विशेषप्रतिपत्त्यर्थमुक्तवक्ष्यमाणयोः प्राकरणिकयोर्निषेधाभासः कथ्यते स आक्षेपः3308। उक्तविषये वस्तु वा कथनं वा निषिध्यते। वक्षयमाणविषये कथनमेव निषिध्यते। तत्रापि सामान्यरूपेण प्रतिज्ञा3309 विशेषरूपेण निषेधः। अंशोक्तावंशान्तरस्य वा निषेधः। एवं चतुर्विधोऽयमाक्षेपः। क्रमेणैषामुदाहरणानि3310।
नरेन्द्रमौले3311 न वयं तव3312 संदेशहारिणः।
जगत्कुटुम्बिनः कश्चिन्नशत्रुरिति कथ्यते॥१५७॥
अत्र राजसन्धिविग्रहकारिणामुक्तौ न वयं संदेशहारिण इति वस्तुनिषेधः। स चानुपपद्यमानः संधिविग्रहकालोचितकैतववचनपरिहारेण तत्त्ववादित्वे3313 पर्यवसितः3314। सर्वजगत्पालकस्य तव शत्रुभावेन नालोकनीया राजानः किं तु भृत्यरूपेण संरक्षणीया इत्येवमादिविशेषमाक्षिपति।———————————————————————————————————————————————
गम्यत्वप्रस्तावात् परिकरानन्तरं विशेषगम्यत्वाश्रयमाक्षेपं लक्षयति। विशेषेति। यत्रोक्तस्य वक्ष्यमाणस्य वा प्राकरणिकत्वेन विधातुमिष्टस्य अत एव निषेधानर्हस्य यो निषेधो विशेषबोधार्थमभिधीयमानः सन्नाभासी भवति स आक्षेप इत्यर्थः। तस्य चतुर्था विभागमाह। उक्तविषय इत्यादिना। तत्रोक्तवस्तुविषयनिषेधमुदाहरति। नरेन्द्रेति। अजातशत्रोः किमर्थे संधिविग्रहकारिण इति भावः। वस्तुनिषेधं योजयति। अत्रेति। तत्फलं विशेषमाह। स चेति। संदेशहारिषु तत्त्वनिषेधोऽनुपपद्यमानः सन्नस्मदीया राजानो भृत्यरूपेण भरणीया इत्यादिविशेषं बोधयतीत्यर्थः।
कथननिषेधो यथा।
वयमशरणा इत्येषोक्तिः कथं घटते जगत्-
त्रितयशरणे त्रायस्वास्मानिति स्फुटमज्ञता।
सकलजनतारक्षादक्षे त्वयि प्रणता इति
त्रिभुवननमस्कार्ये सिद्धं प्रतापमहीपते॥१५८॥
अत्र वयमशरणा इत्येव3315मात्मोक्तिकथननिषेघादाभासरूपाद
वश्यं3316 परिपालनीयत्वादिविशेषः3317 प्रतीयते।
वक्ष्यमाणविषये सामान्यं3318 प्रतिज्ञाय कथननिषेधो यथा।
विज्ञापयामस्ते किंचित् काकतीयकुलोद्वह3319।
विज्ञाप्यते किमथवा सर्वज्ञे रक्षके त्वयि॥१५९॥
** विज्ञापयाम3320 इति सामान्यं3321 प्रतिज्ञाय कथननिषेधाभासात् सर्वथा वयं रक्षणीया इति विशेष आक्षिप्यते।**
** अंशोक्तावंशान्तरस्य निषेधो यथा।**
प्रतापरुद्रः स्वयमिद्धतेजा
दैवं च तद्विक्रमदत्तहस्तम्।
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कथननिषेधमुदाहरति। वयमिति। सर्वेषां नाथे रक्षके नमस्कार्ये च त्वयि दीप्यमाने। सर्वान्तर्भूतानामस्माकमशरणास्त्रायस्व प्रणता इत्यादीनि वचनानि व्यर्थानीत्यर्थः। योजयति। अत्रेति। वयमशरणा इत्येवमाद्युक्तिभिः यः कथननिषेधस्तस्मादाभासरूपादविषयप्रवृत्त्या निषेधस्य प्ररोहाभावादाभासत्वमिति भावः।
वक्ष्यमाणविषये सामान्यं प्रतिज्ञाय विशेषनिषेधमुदाहरति। विज्ञापयाम इति। अत्र प्रथमार्धे सामान्येन प्रतिज्ञा यत् द्वितीयार्धेवयं रक्षणीया इति विशेषबोधार्थेविशेषकथननिषेधादाक्षेपः।
अंशोक्तावंशान्तरनिषेधमुदाहरति। प्रतापेति। इद्धतेजाः समृद्धप्रतापः।
यूयं च तुलोपमसारभाज-
स्तद्युक्तमेवं यदि वा किमुक्तैः॥१६०॥
अत्र प्रतापरुद्रो महीयान् यूयमल्पा इत्यंशोक्त्यायदि वा किमुक्तैरित्यंशान्तरनिषेधाभासेन सर्वथा प्रणामैः प्रसादनीयोऽयं न तु3322प्रातिपक्ष्यमवलम्वनीयं3323 युष्माभिरिति शत्रुस्त्रीवचनभङ्ग्या विशेष आक्षिप्यते।
** समानार्थतयाऽनिष्टविध्याभासोऽप्याक्षेप3324इ3325त्यभ्युपगम्यते3326।**
** यथा चेष्टनिषेधस्यानुपपद्यमानतयाभासत्वं तथानिष्टविधेरप्यनुपपद्यमानतयाभासत्वम्।
यथा।**
नाथ प्रतापरुद्रस्य सेवां त्यजसि चेत्त्यज।
अरण्यगृहमेधिन्या रीतिरभ्यस्यते मया॥१६९॥
अत्रानिष्टभूतं3327 प्रतापरुद्रसेवात्यजनं3328 तद्रिपुकामिन्या विधीयते। सं3329 विधिरनुपपद्यमान आभासेपर्यवस्यति। अरण्यगृहमेधिन्या रीतिरभ्यस्यत इत्यनेन विध्याभास एव उपबृंहितः।
** व्याजस्तुत्यलंकारः।**
** अथ गम्यप्रस्तावाद् व्याजस्तुतिरुच्यते।——————————————————————————————————————————————————————**
दत्तहस्तमनुकूलम्। तुलोपमसारभाजो निःसारा इत्यर्थः। तदेवं युक्तमित्यंशोक्त्या किमुक्तैरित्यंशान्तरनिषेधः। तस्य व्यङ्ग्यं विशेषमाह। सर्वथेति।
आक्षेपान्तरमुपक्षिपति। समानेति। समानार्थतया समानन्यायतयेत्यर्थः तदेवाह। यथा चेति। अनुपपत्तिवशादिष्टनिषेधस्येवानिष्टविधेरप्याभासत्वादाक्षेपत्वमिति भावः। उदाहरति। नाथेति। अनिष्टविध्याभासं योजयति। अत्रेति।
अथ गम्यत्वप्रस्तावाद्वाच्याभासत्वप्रसङ्गेनाक्षेपानन्तरं व्याजस्तुतिं लक्षयति।
निन्दया वाच्यया यत्र स्तुतिरेवावगम्यते।
स्तुत्यावा गम्यते निन्दा व्याजस्तुतिरसौ मता॥
यत्र निन्दाकथनमुखेन स्तुतिर्गम्यते एका सा3330। यत्र स्तुतिमुखेन निन्दा3331 गम्यते सा द्वितीया व्याजस्तुतिः।
क्रमेण यथा।
काकतीयविभोः कीर्त्त्या3332 किं वाद्य धवलीकृतम्।
यत्तदीयारिवक्रेषु दृश्यते कालिमा महान्॥१६२॥
** स्तुत्यानिन्दा यथा।**
प्रतापरुद्रनृपतेरहो साहसिका द्विषः।
यद्विशन्त्युदधीन् शैलानारोहन्ति समन्ततः॥१६३॥
अप्रस्तुतप्रशंसालंकारः।
** अथ गम्यत्वप्रस्तावादप्रस्तुतप्रशंसोच्यते।**
अप्रस्तुतस्य कथनात् प्रस्तुतं यत्र गम्यते।
अप्रस्तुतप्रशंसेयं सारूप्यादिनियन्त्रिता3333॥
यत्र सारूप्येण सामान्यविशेषभावेन कार्यकारणभावेन वाप्रस्तुतकथनात्3334प्रस्तुतप्रतीतिस्तत्राप्रस्तुतप्रशंसा। अप्रस्तुतात् प्रस्तुतप्रतीति-3335——————————————————————————————————————————————————————
निन्दयेति। यत्र निन्दया स्तुत्या वा वाच्यया प्रमाणान्तरवाधितस्वरूपया यथाक्रमं स्तुतिनिन्दावगम्यते सा व्याजेन व्याजरूपा वा स्तुतिरिति द्विविधाप्यन्वर्था ब्याजस्तुतिरित्यर्थः। काकतीयेति। विशेषनिषेधे शेषाभ्यनुज्ञानमिति न्यायेनारिवक्रव्यतिरिक्तं विश्वं कीर्त्त्याधवलीकृतमिति निन्दया स्तुतिर्गम्यते।
प्रतापेति। अत्र शत्रूणां साहसप्रशंसया भीरुत्वं व्यज्यते।
स्तुतिप्रसङ्गाद्व्याजस्तुत्यनन्तरमप्रस्तुतप्रशंसामाह। अथेति। यद्यप्यप्रस्तुतमप्रस्तुतत्वादेव न कथनीयं तथापि प्रस्तुतार्थप्रतीत्यर्थत्वादविरोधः। तत्र गम्यागम्ययोः प्रस्तुताप्रस्तुतयोर्नियामकं संबन्धमाह। सारूप्येति। आदिग्रहणात् सामान्यविशेषभावः कार्यकारणभावश्च गम्यते3336। तेषामेवार्थान्तरप्रतीतिहेतुत्वात् तेन सामान्यं विशेषः कार्ये कारणं सरूपं च प्रस्तुतं स्वस्वप्रतियोगिनोऽप्रस्तुतस्य
रित्यनेन समासोक्तेर्व्यावृत्तिः। न च कार्यात् कारणप्रतीतावनुमानाविर्भावशङ्का। अनुमानालंकारे प्रत्याय्यप्रत्यायकयोर्द्वयोरपि3337 प्राकरणिकत्वाभ्युपगमात्3338। अनेन पर्यायोक्तस्य3339 व्यावृत्तिरपि। न चायं ध्वनिः। प्रतीयमानस्य वाच्यसिद्ध्यधङ्गत्वात्।
** तत्र सारूप्येण यथा।**
आशासु प्रशमितवासनोदयेभ्यः
किं लब्धं भ्रमरगणैर्जरत्तरुभ्यः।
पुन्नागो नवनवसौरभप्रसूनै-
रामोदं दिशति निवासमारभध्वम्॥१६४॥
** अत्र भ्रमरवृत्तान्तेनाप्रस्तुतेन सर्वानसंपूर्णविभवानुर्वीश्वरान्3340 विहाय सकलगुणपरिपूर्णः3341 सर्वजनानन्दी प्रतापरुद्र3342 एक एव सर्वेषां विदुषां सेव्य इति प्रस्तुतं प्रतीयते।**
** सामान्याद्विशेषप्रतीतिर्यथा3343।————————————————————————————————————————————————————————**
कथनात् प्रतीयतइति पञ्चाप्रस्तुतप्रशंसाभेदाः। न चेयं समासोक्तिः। तद्विपर्ययेण प्रवृत्तेरित्याह। अप्रस्तुतादिति। कार्यात् कारणप्रतीतिभेदस्यानुमानेऽन्तर्भावं वारयति। न चेति। अत एव पर्यायोक्तव्यावृत्तिरपीत्याह। अनेनेति। तत्राप्युभयोः प्रकृतत्वादिति भावः। व्यङ्ग्यमत्रालंकार्यमत आह। न चेति। तत्र हेतुमाह। प्रतीयमानस्येति। वाच्यसिद्ध्यङ्गत्वादप्रस्तुतस्य वाच्यत्वमेवायुक्तमिति कृत्वा प्रस्तुतं प्रतीयमानं तत्साधनत्वेनोपकरोतीति वाच्यसिद्ध्यङ्गंनाम गुणीभूतव्यङ्ग्यं न प्रधानमतो न ध्वनिरिति भावः। तत्र सारूप्येणोदाहरति। आशास्विति। प्रशभितवासनोदयेभ्यो निवर्त्तितपरिमलप्रचारेभ्यो जरत्तरुभ्यो जीर्णवृक्षेभ्यः। अत्राप्रस्तुतभ्रमरवृत्तान्तेन प्रस्तुतप्रतापरुद्रवृत्तान्तः
सारूप्येण प्रतीयते। साधर्म्येणेदमुदाहरणम्। वैधर्म्यादिनिबन्धनास्त्वन्यतो द्रष्टव्याः।
यशस्विनी पद्मभवस्य सृष्टि-
रुत्पादयित्री नृपशेखराणाम्3344।
तत्पालनाल्लालनभाग्ययोग्यो
जातश्चिरान्मध्यमलोक एषः॥१६५॥
** अत्र प्रतापरुद्रस्य गुणमहत्त्वे प्रस्तुते सामान्यमभिहितम्।**
** विशेषात्सामान्यप्रतीतिर्यथा3345।**
दठठुमणा3346 वि ण पेक्खइ3347ण भणइ वत्तुं3348 सकोऊहला3349 बि।
परिसासआ3350 वि ण3351प्पसइ वणिआए कीरिसी सि3352ढ3353्ढी॥१६६॥
** अत्र मुग्धानां संगमे महती लज्जेति सामान्ये प्रस्तुते विशेषोऽभिहितः।**
** कार्यात् कारणप्रतीतिर्यथा।**
गाधा इवार्णवा जाता नीचा इव महाद्रयः।
महीमवतरत्यस्मिन् काकतीयकुलेश्वरे3354॥१६७॥
** अत्रार्णवादीनां गाधत्वादिभिः कार्यसुतैरप्रस्तुतैः कारणभूतं प्रतापरुद्रगाम्भीर्यादि प्रतीयते।———————————————————————————————————————————————————————**
यशस्विनीति। अत्राप्रस्तुतराजसामान्यवृत्तान्तवर्णनया प्रस्तुतराजविशेषप्रतापरुद्रगुणमहिमप्रतीतिः।
दठ्ठुमणावीति। अत्र3355 दर्शनाद्युत्कण्ठायामप्यदर्शनादीनामप्रस्तुतानां लज्जाविशेषाणामुक्तया प्रस्तुतलज्जासामान्यप्रतीतिः। लज्जाकार्याणां लज्जात्वमौपचारिकम्।
गाधा इति। अत्राप्रस्तुतार्णवगाधादिकार्यवर्णनया प्रस्तुतप्रतापरुद्रगाम्भीर्यप्रतीतिः।
** रूपकहेतुत्वेन3356 तर्कानुमानवैलक्षण्यम्।**
** यथा।**
रजोधूमः सेनाव्यतिकरभवो3357 यत् प्रसरति,
स्फुलिङ्गा दृश्यन्ते भटघटितकौक्षेयकभुवः3358।
ततो मन्ये यात्राशुचिसमयजो रुद्रनृपतेः
प्रभूतः कोपाग्निर्दहति रिपुभूपालनगरीः3359॥१७२॥
काव्यलिङ्गालंकारः।
** अथ काव्यलिङ्गम्।**
** हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्गमुदाहृतम्।**
** यत्र हेतुर्वाक्यगतत्वेन पदगतत्वेन वा प्रतिपाद्यते तत्3360 काव्यलिङ्गम्।
यथा।**
प्रतापरुद्र इत्येषा कापि पञ्चाक्षरी शुभा।
हृदिस्यां बिभ्रतो भूपा वशीकुर्वन्ति संपदः3361॥१७३॥
** अत्र वाक्यार्थगतो हेतुः।**
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धर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं विपक्षाद् व्यावृत्तिरित्येतद्रूपत्रयसहितो हेतुः साधनम्। यत्र साध्यप्रतीतये साध्यं निर्दिश्यते सोऽनुमानालंकार इत्यर्थः। तर्कानुमानवैलक्षण्यं दर्शयति। रूपकहेतुकत्वेनेति। उदाहरति। रजोधूम इति। यात्रैव शुचिसमय आषाढमासो ग्रीष्म इत्यर्थः। अत्र क्रोधाग्नौसाध्ये रजोधूमः खड्गभुवः स्फुलिङ्गाश्च लिङ्गम्। सर्वसंप्रतिपन्ना3362 रूपत्रयसम्पन्नयोर्धूमाग्न्योरुपकगर्भत्वादनुमानालंकारत्वम्।
अनुमानप्रसङ्गादनन्तरं काव्यलिङ्गमाह। हेतोरिति। वाक्यार्थहेतुकं विशेषणगत्या पदार्थहेतुकं वा काव्यलिङ्गं द्विविधमित्यर्थः। काव्यग्रहणं तर्कवैलक्षण्यार्थम्। तेन व्याप्तिपक्षधर्मतादयो न क्रियन्त इति रुचकः। अत एवानुमानादस्य वैषम्यमिति लभ्यते। प्रतापेति। अत्र संपद्वशीकरणे वाक्यार्थे प्रतापरुद्र-पञ्चाक्षरीप्राशस्त्यलक्षणो वाक्यार्थों हेतुः।
पदार्थगतो यथा।
म्लानापि3363 भूभृतां भाललिपिरुच्छ्वसिता पुनः।
प्रतापरुद्रदेवाङ्घ्रिनखज्योत्स्नामृतोक्षिता3364॥१७४॥
अत्र पूर्वेपरिम्लानाया भूपाललिपेः पुनरुच्छ्वासे प्रतापरुद्रनरेन्द्रचरणनखच3365न्द्रिकासेचनं3366 हेतुः। तस्य विशेषणगतत्वात्3367 पदार्थगतत्वोक्तिः3368।
अर्थान्तरन्यासालंकारः।
** अथार्थान्तरन्यासः।**
कार्यकारणसामान्यविशेषाणां परस्परम्।
समर्थनं यत्र सोऽर्थान्तरन्यास उदाहृतः॥
** यत्र कार्यकारणभावेन सामान्यविशेषभावेन वा प्रकृतसमर्थनं क्रियते सोऽर्थान्तरन्यासः।—————————————————————————————————————————————————**
म्लानेति। अत्र शत्रुभूपालभाललिपेः पुनरुच्छ्वासे नरेन्द्रनखज्योत्स्नामृतोक्षितत्वपदार्थो हेतुः। यत्र नखज्योत्स्नामृतोक्षितत्वादिति त्वतलादिशिरस्कतया पदार्थस्य हेतुत्वेनोपादाने वाक्यार्थहेतुके हेतुत्वप्रतिपादकयच्छब्दादिप्रयोगे च नालंकारः। तथाहेतुहेतुमद्भावस्य लौकिकत्वेन विच्छित्तिविशेषाभावात्। यत्र तूपात्तस्य हेतुत्वं यथोदाहृते विषये तत्र न कश्विद्विरोध इति सर्वस्वरहस्यम्।तदेतन्मनसि निधायाह। तस्य विशेषणगतत्वात् पदार्थगतत्वोक्तिरिति।
क्वचित्काव्यलिङ्गसाम्यात् तदनन्तरमर्थान्तरन्यासं लक्षयति। कार्येति। व्याचष्टे। यत्रेति। प्रकृतसमर्थनमिति। समर्थनार्हत्वेनाभिहितस्य प्रकृतस्य यत् समर्थनमुपपादनं3369 न त्वपूर्वत्वेन प्रतीतिरित्यनुमानव्यवच्छेदः। समर्थ्यसमर्थकभावे समानेऽपि ताटस्थ्येन हेतुत्वात् काव्यलिङ्गाद् भेदः। ननु ताटस्थ्येन हेतुत्वं सामान्यविशेषभाव एव न3370 तु कार्यकारणभावे। अतस्तत्र का गतिरिति चेत् लक्षणान्तरमस्तु यथायोगमन्यत्र वान्तर्भवत्विति समाधेयम्। तदुक्तं चक्रवर्त्तिना।
कार्यकारणभावेन यथा।
भूपाः प्रतापरुद्रस्य नता भवत नोन्नताः।
उन्नतान् नमयत्येष नतानुन्नमयत्यसौ3371॥१७५॥
अत्र फलरूपेणौन्नत्येन नम्रत्वकारणं समर्थितम्।
सामान्याद्विशेषसमर्थनं यथा।
उद्वेजिता रुद्रनरेश्वरस्य
रणापदानैः प्रतिपक्षभूपाः।
विभ्रत्यमी चित्रमचेतनेभ्यो
भीतस्य सर्वे भयकारि नृनम्॥१७६॥
अत्र भीतस्य सर्वे भयकारीति सामान्यमचेतनेभ्यो रिपुमूपा3372 विभ्यतीति विशेषं समर्थयति।
विशेषात् सामान्यसमर्थनं यथा।
दुष्टोऽपि महतां संगाद्भवत्येव हि सज्जनः।
प्रतापरुद्रमभ्येत्य कलिः कृतयुगायते॥१७७॥
** अत्र प्रतापरुद्रसंगतिमहिम्नाकलिः कृतयुगसदृश इति विशेषेण सामान्यसमर्थनम्।——————————————————————————————————————————————————————**
‘अप्रतीतप्रतीतौ स्यादनुमानव्यवस्थितिः।
पदार्थाद्वाथ वाक्यार्थान्निर्देशे सति हेतुतः॥
समर्थनं प्रतीतस्य काव्यलिङ्गद्वयं मतम्।
भवेदर्थान्तरन्यासस्ताटस्थ्ये हेतुभावतः।
कार्यकारणभावे तु तस्योक्तं लक्षणान्तरम्॥’
इति। उदाहरति। भूपा इति। कार्येण कारणसमर्थनं योजयति। अत्रेति।
उद्वेजिता इति। रणैरेवापदानैरद्भुतकर्मभिः। सामान्येन विशेषः समर्थ्यत इत्याह। अत्र मीतस्येति।
दुष्टोऽपीति। अत्र विशेषेण सामान्यसमर्थनं योजयति। अत्र प्रतापेति।
कार्यकारणभावेऽपि कारणात् कार्यसमर्थनं काव्यलिङ्गेऽन्तर्भूतमिति तन्नेाक्तम्। अतः प्रकारत्रयमर्थान्तरन्यासस्य।
** तर्कन्ययमूलालंकारानन्तरं वाक्यन्यायमूलालंकारा निरूप्यन्ते।**
यथासंख्यालंकारः।
उद्दिष्टानां पदार्थानां पूर्वंपश्चाद्यथाक्रमम्।
अनूद्देशो भवेद्यत्र तद्यथासंख्यमिच्यते3373॥
** पत्र येन कमेणोद्दिष्टाः पदार्थास्तेनैव क्रमेणानुद्दिश्यन्ते तत्र यथासंख्यालंकारः।**
** यथा।**
गाम्भीर्यमौन्नत्यमनर्गलत्वं
प्रतापरुद्रे समवेक्ष्यधाता।
अम्भोनिधिष्वद्रिषु दिग्गजेषु
सृष्टिं प्रयासैकफलाममंस्त॥१७८॥
अर्थापत्यलंकारः।
** अथार्थापत्तिः।**
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कारणेन कार्यसमर्थनं काव्यलिङ्गेऽन्तर्भूतत्वान्नोदाहृतमित्याह। कार्येति। वैधर्म्याश्रयणे षड् भेदा द्रष्टव्याः।
तर्कपरिशुद्धवुद्धेरेव मीमांसायामधिकारात् तम्मूलानन्तरमेतन्मूलानां प्रस्ताव इत्याह। तर्केति। यथासंख्यं लक्षयति। उद्दिष्टानामिति। पूर्वंनिर्दिष्टा उद्दिष्टाः। पश्चान्निर्देशोऽनुद्देशः। तेनात्र पूर्वपश्चात्पदे स्फुटार्थे। व्याचष्टे। यत्रेति। आग्नेयादीनामग्नेरहं देव यज्ययेत्वाद्यनुमन्त्रणमन्त्रवद्यत्रोद्दिष्टकमेणानूद्देशः स यथासंख्यालंकार इत्यर्थः।
गाम्भीर्यमिति। समुद्रादिभ्योऽधिकमस्य गाम्भीर्यादिकमिति भावः। गाम्भीर्याद्युद्दिष्टक्रमेण समुद्रादीनामनुद्देशाद्यथासंख्यालंकारः। क्रमालंकारोऽयमिति केचित्।
एकस्य वस्तुनो भावाद्यत्र वस्त्वन्यदापतेत्3374।
कैमुत्यन्यायतः सा स्यादर्थापत्तिरलंक्रिया॥
यत्र कस्यचिदर्थस्य निष्पत्तौ तत्समानन्यायात् कैमुत्येनार्थान्तरमापतति सोऽर्थापत्तिरलंकारः। न चात्रानुमानशङ्का। कैमुत्यन्यायसंबन्धरूपत्वात्3375।
** यथा।**
समन्तादुद्वेलैर्विविधहयघाटीकलकलै-
र्जगत्यां क्रामन्नप्यजनि विधुरः सेवणपतिः।
मनाक् क्रोधोदञ्चत्भुकुटिकुटिले रुद्रनृपतौ
नृपाणामन्येषां विफलितरुपां कैव गणना॥१७९॥
** अपि च।**
त्रैलोक्यसारोऽपि सुवर्णशैलः
प्रतापरुद्रेण नृपेण तुल्यम्3376।
तुलां समारोढुमपूर्ण एव
महीभृतां का गणनेतरेषाम्॥१८०॥
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वाक्यविदामर्थापत्तिश्च न्याय इति कृत्वा संप्रत्यर्थापत्तिं लक्षयति। एकस्येति। यत्रैकस्य वस्तुनः कस्यचिदर्थस्य भावान्निष्पत्तेः। किमुतैव कैमुत्यम्। चातुर्वर्ण्यादित्वात् स्वार्थे ष्यञप्रत्ययः। तन्न्यायतोऽन्यद्वस्तु वस्त्वन्तरमापतेत् सार्थापत्तिः स्यादित्यर्थः। व्याचष्टे। यत्रेति। यथा दण्डभक्षणादपूपभक्षणमर्थादापतितं3377 तद्वत् कस्यचिदर्थस्य निष्पत्तौ तत्सामर्थ्यरूपात् समानन्यायादर्थान्तरमापतति सोऽर्थापत्त्यलंकार इत्यर्थः। अत एव सर्वस्वसूत्रं ‘दण्डापूपिकयार्थान्तरा-पतनमर्थापत्तिः’ इति। अनुमानान्तर्भावं वारयति। न चेति। उदाहरति। समन्तादिति। अत्र प्राकरणिकः सेवणपतिवृत्तान्तो नृपान्तरवृत्तान्तमप्राकरणिकमाक्षिपति।
त्रैलोक्येति। तुलां सादृश्यम्। महीभृतां राज्ञामद्रीणां च। अत्राक्षेप्याक्षेपक-
अथ प्रतापरुद्रापेक्षया मेरावप्यसारेऽन्येषां महीभृतामर्थादसारत्वं कैमुत्यादापतति।
परिसंख्यालंकारः।
** अथ परिसङ्ख्या।**
एकस्य वस्तुनः प्राप्तावनेकत्रैकदा यदि।
एकत्र नियमः सा हि परिसङ्ख्या निगद्यते॥
यदेकं वस्तु युगपदनेकत्र संभाव्यमानमेकत्रैव नियम्यते सा परिसंङ्ख्या। सा प्रथमं प्रश्नपूर्विका तदन्यथा चेति। तयोर्द्वयोर्वर्जनीयस्य शाब्दत्वार्थत्वाभ्यां द्वैविध्ये चातुर्विध्यम्।
तत्र।
शाब्दवर्जनीया प्रश्नपूर्विका यथा।
किं मण्डनं त्रैलोक्याः काकतितिलको न हाटकक्षितिभृत्3378।
स्तोतव्यः कः सुधियां रुद्रनरेन्द्रो न मन्दारः3379॥१८१॥
** आर्थवर्जनीया3380 प्रश्नपूर्विका यथा।—————————————————————————————————————————————————————**
योरुभयमहीभृद्धृत्तान्तयोरप्राकरणिकत्वम्। महीभृतामित्यत्र श्लेषो विशेषः। एवमप्राकरणिकस्य प्राकरणिकाक्षेपेऽप्युदाहार्य्यम्।
परिसङ्ख्यां लक्षयति। एकस्येति। एकस्य वस्तुनोऽनेकत्रैकदा युगपत्प्राप्तावन्यतो निवृत्यर्थमेकत्र नियमनं परिसङ्ख्येत्यर्थः। एतेन
‘विधिरत्यन्तमप्राप्ते नियमः पाक्षिके सति।
तत्र चान्यत्र च प्राप्ते परिसड्ख्येति गीयते॥’
इति मीमांसोत्त्कनियमपरिसङ्ख्ययोर्भेदो नालंकारिकैरङ्गीकृत इति द्रष्टव्यम्। परिवर्जनेन कस्यचिद्वर्जनेन कुत्रचित् सङ्ख्यानं वर्णनीयत्वेन गणनं परिसङ्ख्येत्यन्वर्थेयम्। तस्या विभागमाह। सेति। तयोरिति प्रश्नपूर्विकाप्रश्नपूर्विकयोरित्यर्थः। क्रमेणोदाहरति। किमिति। अत्र मण्डनत्वेन प्राप्तयोः काकतीन्द्रकनकाचलयोः कनकाचलं कण्ठोक्त्यावर्जयित्वा काकतीन्द्रे नियमनात् शाब्दवर्जनीया प्रश्नपूर्विका परिसड्ख्येत्यर्थः। एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम्।
किं वा क्षौमवितानं लोकानां काकतीयकुलकीर्त्तिः।
किं सौख्यं वसुमत्या रुद्रनरेन्द्रस्य भुजवासः॥१८२॥
अप्रश्नपूर्विका शाब्दवर्जनीया यथा।
रागो धर्मे न विषयसुखे संगतिः सत्सभायां
न स्त्रीगोष्ठ्यां व्यसनमनिशं नीतिशास्त्रे न3381चाक्षे।
कीर्त्य3382ोनित्यार्जनचतुरता नार्थजाते विनोदो
विद्याभ्यासे न च परिजने रुद्रदेवस्य राज्ञः॥१८३॥
आर्थवर्जनीया3383 अप्रश्नपूर्विका यथा।
भूरेव भुवनं देवः स्वयंभूरेव पार्थिवः।
प्रतापरुद्र एवैकशिलैव नगरी शुभा॥१८४॥
क्षोर्णी3384रुद्रनराधीशे रक्षति3385 क्षतविद्विषि3386।
बलिसद्मन्यहिभयं त्रिदिवे गोत्रभित्कथा॥१८५॥
** अलंकारस्यास्य श्लेषेण चारुत्वातिशयः।**
उत्तरालंकारः।
उत्तरात् प्रश्न उन्नेयो यत्र प्रश्नोत्तरे तथा।
बहुधा च निवध्येते3387 तदुत्तरमुदीर्यते॥
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किं वेति। अत्र वर्जनीयस्य चन्द्रिकादेरार्थत्वम्।
राग इति। अक्षे द्यूते। अत्र विषयसुखादि वर्जनीयं शाब्दम्। प्रश्नस्तु नास्ति।
भूरेवेति। न स्वर्गादिरित्यार्थवर्जनीया प्रश्नरहिता परिसङ्ख्या।
क्षोणीमिति। बलिसद्मनि पाताले। अहिभयं सर्पभयं। स्वपक्षप्रभवं भयं च। ‘महीभुजामहिभयं स्वपक्षप्रभवं भयम्’ इत्यमरः। त्रिदिवे गोत्रभित्कथाइन्द्रप्रसङ्गः कुलघातुकप्रसङ्गश्च। अत्राभ्युच्चयमाह। अलंकारस्येति।
परिसङ्ख्यायां प्रश्नप्रसङ्गात् तदनन्तरमुत्तरं लक्षयति। उत्तरादिति। यत्रोत्तरादुपनिबध्यमानः प्रश्न उन्नीयते तदेकमुत्तरम्। न चेदमनुमानम्। पक्षधर्मत्वादिनिर्देशाभावात्। तथा प्रश्नपूर्वकं लोकोत्तरमुत्तरं बहुधा निबध्यते तदप-
यत्रोत्तरान्निबध्यमानात् प्रश्न उन्नीयते तदेकमुत्तरम्। चारुत्वार्थमसकृल्लाेकोत्तरं प्रश्नप्रतिपादनपूर्वमुत्तरं द्वितीयमुत्तरम्।
** क्रमेण यथा।**
किमद्य व्युत्पत्तिस्तव3388 सुजनलोकव्यवहृता
यदद्य ज्ञातव्यं प्रभवति यदा रुद्रनृपतिः।
तदारभ्योन्मूर्धा जयति विशदो धर्मविभवो
महीदेवाश्चोद्यद्विविधविभवारम्भ3389मुदिताः॥१८६॥
अत्रप्रतापरुद्रो यदा भवति तदारभ्य3390 पूर्णा3391 धर्मप्रतिष्ठा महीदेवा अपि तथाविधसंतोषमाजः। किमधुना पृच्छसीत्युत्तरात् प्रतापरुद्रराज्ये किं3392 धर्मप्रतिपालनमस्ति किं सुखिनो मूसुरा इत्युन्नीयते3393 प्रश्नः।
** द्वितीयो यथा।**
किं3394 पु धणं कुलविज्जाको लाहो सज्जणेण सहवासो।
का णअरी एअशिला को राआ3109 वीररुद्दणरणाहो॥१८७॥
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रम्। सकृच्चारुत्वं नास्तीति बहुधा ग्रहणम्। नेयं परिसङ्ख्या। तद्वदत्र व्यव च्छेद्यव्यवच्छेदक- भावस्याविवक्षितत्वात्। क्रमेणोदाहरति। किमद्येति। सुजनलोकव्यवहृता साधुजनप्रसिद्धा व्युत्पत्तिर्धार्मिकत्वादिज्ञानं तवाद्यकिं पदद्य तब चज्ञातव्यं भवतीति शेषः। किं तदित्याकाङ्क्षायामाह। प्रभवतीति। प्रभुर्भवतीत्यर्थः। उन्मूर्धा परिपूर्णः। विशदो निर्मलो निरुपाधिक इत्यर्थः। महीदेवा ब्राह्मणाश्चउद्यद्भिर्विविधैर्विभवारम्भैरैश्वर्यविजृम्भणैर्मुदिताः। अत्रोत्तरात् प्रश्नोन्नयनं योजयति। अत्रेति।
द्वितीयमुदाहरति। किं ण्विति। अत्र व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकभावमविवक्षितत्वाद्वहुधा प्रश्नोत्तरनिबन्धनादुत्तरालंकारः।
वाक्यन्यायप्रस्तावाद्विकल्प3395 उच्यते।
विरोधस्तुल्य3396बलयोर्विकल्पालंकृतिर्मता।
यत्र तुल्यप्रमाणानुशिष्टयोर्विरुद्धयोर्द्वयोर्युगपत्प्राप्तौ एकस्यासंभवस्तत्र विकल्पः।औपम्याच्चारुत्वम्3397।
यथा।
भूपालाः3398 क्रियतां मूर्घ्नांधनुषां वा3399विनम्रता।
पादच्छायाङ्घ्रनाथस्य विन्ध्याद्रेर्वा निषेव्यताम्॥१८८॥
अत्र प्रतापरुद्रे प्रभवति राज्ञांसंधिविग्रहाभ्यां3400 तुल्यप्रमाणाभ्यां3401 शिरो नमनधनुर्नमने युगपदेव प्राप्ते तयोर्विरुद्धत्वाद्यौगपद्यासंभवे3402 विकल्पः।
समुच्चयालंकारः।
विकल्पप्रतिपक्षभूतः समुच्चयो निरूप्यते।
गुणक्रियायौगपद्यं समुच्चय उदाहृतः।
** यत्र गुणानां वैमल्यादीनां क्रियाणां च दर्शनादीनां युगपदस्थानं तत्र3403 समुच्चयालंकारः।————————————————————————————————————————————————————————**
विकल्पं संगतिपूर्वकं लक्षयति। वाक्यन्यायेत्यादिना। तुल्यप्रमाणविशिष्टत्वात्तुल्यबलयेारेकत्र युगपत्प्राप्तौ विरुद्धत्वाद्यौगपद्यासंभवे विकल्प इत्यर्थः। लौकिकविकल्पाद्वैलक्षण्यं दर्शयति। औपम्याच्चारुत्वमिति। भूपाला इति। पदच्छाया चरणच्छाया। अन्यत्र प्रत्यन्तपर्वतच्छाया। अत्र श्लेषोविशेषः। लक्षणं योजयति। अत्रेति।
समुच्चयस्य संगतिमाह। विकल्पेति। लक्षणमाह। गुणेति। व्याचष्टे। यत्रेति। यत्र गुणानां क्रियाणां च व्यस्तानां समस्तानां वा युगपदवस्थानं समु-
यथा।
प्रतापरुद्रनृपतौ भद्रासनमुपेयुषि।
सतां प्रसन्नं हृदयमसतां कलुषं मनः॥२८९॥
क्रियासमुच्चयो यथा।
पेच्छइ3404इमां3405 णरिन्दो पविसइमअणो अ3406गलइमाणो अ।
घुण्णइ मणो अ3407सुण्णं किं एदं उवह सहिआओ॥१९०॥
** एते भिन्नविषये उदाहरणे।**
** एकविषयत्वे यथा।**
त्रैलोक्यप्रथमान3408कीर्तिमहितश्रीवीररुद्रप्रभोः3409
सेवार्थे चिरयत्सु काकतिपुरे भूपेषु तद्योषितः।
द्वारं यान्ति विलोकयन्ति पुरतो निश्वासमातन्वते
शुष्यन्ति प्रलपन्ति यान्ति तनुतां मुह्यन्ति मूर्च्छन्ति च॥१९१॥
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श्वयालंकार इत्यर्थः। विषयभेदेन गुणसमुच्चयमुदाहरति। प्रतापेति। तथैव क्रियासमुच्चयमुदाहरति। पेच्छईति3410।
विषयभेदाभावेन क्रियासमुच्चयमुदाहरति। त्रैलोक्येति। तद्योषितः प्रोषितभर्त्तृकाः उत्कण्ठया द्वारं यान्ति पुरतो विलोकयन्ति यावद्दृष्टिः प्रसरतीनि भावः। निश्वासमातन्वते3411 प्रियमदृष्ट्वा चिन्तयेति भावः। ज्वरेण शुष्यन्ति मुह्यन्ति जढीभवन्ति इतिकर्त्तव्यतामूढमनसो भवन्तीत्यर्थः। यद्वा मोहमूर्च्छयोः संचार्य- वस्थाभेदेन भेदः। अत्रावस्थानामविवक्षितः क्रमः।
गुणक्रियासामस्त्येन3412 यथा।
देवे काकतिवीररुद्रनृपतौ जैत्रप्रयाणोन्मुखे3413
माद्यद्दन्तिचलत्पदाति3414विचलद्वाजिप्रधावद्रथम्।
विच्छायाननमाकुलाक्षमुदयत्कार्पण्यमाविर्भवत्-
कम्पं भ्राम्यति सर्वतः प्रतिवनं प्रत्यर्थिभूभृद्गणः॥१९२॥
द्वितीयः समुच्चयः।
खलेकपोतन्यायेन बहूनां कार्यसाधने।
कारणानां समुद्योगः स द्वितीयः समुच्चयः॥
यत्रैकं कार्यं साधयितुमहमहमिकया बहूनां कारणानामुद्यमः सोऽपि समुच्चय एव3415। युगपदनेकेषामवस्थानात्।
** यथा।———————————————————————————————————————————————————**
गुणक्रिययोः सामस्त्येन समुच्चयमाह। देव इति। माद्यद्दन्तीत्यादीनि चत्वारि प्रयाणक्रियाविशेषणानि। अत्र कम्पः क्रिया। अन्ये गुणाः।
समुच्चयत्वसाम्यात् द्वितीयसमुच्चयं लक्षयति। खलेकपोतेति। पुरा किल कुत्र खले लुब्धकेन प्रसारिते जाले चित्रग्रीवो नाम कश्चित् कपोतराजः सपरिवारो धान्यलोभादागत्य बद्धः परस्परं मन्त्रथित्वा सर्वेऽपि संभूय जालेन सहोढ्ढ़ीय लुब्धकादृश्यतां गत्वा कुत्रचित् प्रदेशे हिरण्यकनाम्नो मूषिकराजान्मित्रात् पाशच्छेदं लब्ध्वा सपरिवारः स्वगृहं प्रविष्ट इति पञ्चतन्त्रकथां मनसि निधायाह। खलेकपोतन्यायेनेति। यथा पाशच्छेदं प्रति सर्वेषां कपोतानामुद्यमः एवं कस्यचित् कार्यस्य साधने बहूनां कारणानामुद्यमे3416 सोऽपि समुच्चय एवेति। व्याचष्टे। यत्रेति। अहमहमिका व्याख्याता। समुच्चयत्वे हेतुमाह। युगपदिति। अस्यैव तत्करमिति संज्ञान्तरम्। तदुक्तम्।
शुभ्रं यशः शौर्यमहच्च वृत्तं
विद्यानवद्या विमलं कुलं च।
प्रतापरुद्रस्य नरेश्वरस्य
लोकोत्तरां रीतिमुदञ्चयन्ति3417॥१९३॥
अत्र यशःप्रभृतीनां लोकोत्तरकीर्त्तिसंपादने3418 प्रत्येकं हेतुत्वेऽपि युगपत्खलेकपोतन्यायसंबन्धः3419।
समाध्यलंकारः।
** अथ समाधिरुच्यते।**
एकस्मिन् करणे3420 कार्यसाधनेऽन्यत् परापतेत्।
काकतालीयनियतः3421 स समाधिरुदीर्यते॥
यत्रैकस्मिन् कारणे कार्यसाधनाय प्रवृत्ते काकतालीयतयान्यत् कारणमागत्य तत्कार्येसुकरं करोति स समाध्यलंकारः।
** यथा।**
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‘तत्सिद्धिहेतावेकस्मिन् यत्रान्यत् तत्करं भवेत्।’ इति। उदाहरति। शुभ्रमिति। सद्योगे चेदमुदाहरणम्। शुभ्रत्वेन शोभनस्य यशसो लोकोत्तररीतिसंपादने शौर्यमहत्तादिना शोभनैकवृत्तादिभिः समुच्चयात्। ‘दुर्वाराः स्मरमार्गणाः प्रियतमो दूरे मनोऽप्युत्सुकम्—’ इत्यादौ स्मरमार्गणानां दुर्वारत्वेनाशोभनानां तादृशैरेव प्रियतमादिभिः समुच्चय इत्यत्रासद्योगः। प्रियतमादीनां स्वतः शोभनवेऽपि विरहिविषयत्वेनात्राशोभनत्वं ज्ञेयम्। ‘शशी दिवसधूसरो गलितयौवना त्कामिनी’ इत्यादौ शशिनः शोभनस्यापि दिवसधूसरत्वादशोभनत्वेन सदसतस्तादृशैरेव कामिनीप्रभृतिभिः समुच्चय इति सदसद्योगोऽत्र दृष्टव्य इति त्रिविधेाऽयं समुच्चयः।
तत्करसादृश्यात् तदनन्तरं समाधिं लक्षयति। एकस्मिन्निति। व्याचष्टे। यत्रेति। केनचिदारब्धस्य कार्यस्य काकतालीयन्यायेन कारणान्तरेण समाधानात् समाधिरित्यर्थः। काकतालीयेति वृत्तिविषये काकतालशब्दौ काकतालसमवेतक्रियावाचिनौ। तेन काकागमनमिव तालपतनमिव काकतालमितीवार्थे ‘समा-
रणाङ्गणे रुद्रनरेन्द्ररोष-
शमाय राज्ञांविहितस्तुतीनाम्।
वक्रेषु यद्वायुवशात् पतन्ति
तृणानि देवस्य स पक्षपातः॥१९४॥
अत्र प्रतापरुद्रनरेन्द्रक्रोधशान्त्यर्थे3422 रणाग्रे प्रक्रान्तस्तुतीनां राज्ञां वक्रेषु वायुवशात् काकतालीयतया पतितैस्तृणैः कोपशान्तिलक्षणकार्यसुकरत्वम्3423।
** अथ लोकन्यायमूलालंकारा निरूप्यन्ते।**
भाविकालंकारः।
अतीतानागते3424 यत्र प्रत्यक्षे3425 इव लक्षिते।
अत्यद्भुतार्थकथनाद्भाविकं तदुदाहृतम्॥
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साच्च तद्विषयात्’ इति ज्ञापनात् सुप्सुपेति समासः। उभयत्रोपमेयं क्रमेणोभयत्र3426 देवदत्तागमनं दस्यूपनिपातश्च तेन देवदत्तदस्युसमागमः काकतालसमागमसदृश इति लभ्यते। ततः काकतालमिव काकतालीयमिति द्वितीयस्मिन्निवार्थे ‘समासाच्च तद्विषयात् ’ इति छप्रत्ययः। यथा पतता तालफलेन काकवधस्तद्वदुपनिपतितैर्दस्युभिर्देवदत्तस्य वध इत्यर्थः। यदाह भगवान् माष्यकारः। ‘एवं तर्हि द्वाविवार्थैा काकागमनमिव तालपतनमिव काकतालं काकतालमिव काकतालीयम्’ इति। तच्चव्याख्यातं कैयटेन। ‘तत्र काकागमनं देवदत्तागमनस्योपमानं तालपतनं दस्यूपनिपातस्य। तालेन तु यः काकस्य वधः स देवदत्तस्य दस्युना वधस्योपमानमिति वधादिः काकतालीयादिशब्दवाच्यः संपद्यते’ इति। तेन काकतालीयंनामातर्कितोपनतं चित्रीकरणमुच्यत इति वृत्तिकारः। एवं चानुपड्गिककारणान्तरस्य समाधेः समप्रधानसर्वकारणात् समुच्चयाद् भेद इति द्रष्टव्यम्। उदाहरति। रणाङ्गण इति। अत्र क्रोधशान्तौ स्तुतिः प्रधानकारणम्। वक्रे वायुवशात् तृणपतनं काकतालीयमिति समाधिः।
लोकन्यायमूलेषु चमत्कारातिशयनिदानं भाविकं लक्षयति। अतीतेति। अत्यद्भुतार्थकथनादिति। तथाविधशब्दसंदर्भेणेति शेषः। व्याचष्टे। यत्रेति।
यत्राद्भुतचरितोपवर्णनेन3427 भूतभाविनोर्वस्तुनोः प्रत्यक्षायमाणत्वं भवति स भाविकालंकारः। न च भूतभाविनोः प्रत्यक्षवदवभासो विरुद्धः। अत्यद्भुतवस्तुवर्णनया भाविकानां3428 हृदि भावनोदयात्। तथा3429 च भावनया पुनश्चेतसि3430 निदर्शनात् प्रत्यक्षायमाणत्वं घटत एव। यथा पान्थस्य3431 कामिनीभावनया3432 तस्याः प्रत्यक्षायमाणत्वम्। न चेयं स्वभावोक्तिः। तस्यां वस्तुस्वभावस्य यथावद्वर्णनया प्रत्यक्षायमाणता। इह त्वस्याद्भुतत्वेन। नापि रसवदाद्यलंकारः। तत्र विभावानुभावाद्यनुसंधानेन3433 रसादेर्भाव्यत्वम्। न त्वत्यद्भुतत्वेन। न चेयमुत्प्रेक्षा। अतीतानागतयोः प्रत्यक्षत्वेनाध्यवसायाभावात्। न3434 चायं भ्रान्तिमदलंकारः। भावनाया अभ्रा-न्तिरूपत्वात्। अतः सर्वोत्तीर्ण एवायमलंकारः3435।———————————————————————————————————————————————————————
भावः कवेरभिप्रायः श्रोतरि प्रतिबिम्बितत्वेनास्तीति भाविकम्। ननु संबन्धो वर्त्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना इति न्यायेन भूतभाविनोः प्रत्यक्षवदवभासो विरुद्ध इत्याशङ्क्य परिहरति। न चेति। तत्र हेतुमाह। अत्यद्भुतेति। भाविकानां सहृदयानां भावनोदयात् संस्कारोद्बोधात्। न चेदमयुक्तमित्याह। तथा चेति। भावनायाः पुनरिति भावनाविषयाणामत्यद्भुतवस्तूनामित्यर्थः। चेतसि सहृदयहृदये निदर्शनान्नितरां दर्शनात् आदरप्रत्ययेन धार्यमाणत्वादित्यर्थः। प्रत्यक्षायमाणत्वं घटत एवेति। यथा लौकिकानामिन्द्रियैर्वतमानसंबन्धार्थसाक्षात्कारः यथा वियोगिनामैकाग्र्यलक्षणया भावनयातीन्द्रियार्थसाक्षात्कारः तथा काव्यतत्त्वविदां काव्यतत्त्वगतात्यद्भुतत्वानुसंधानप्रयुक्तया भावनयातीतानागतार्थसाक्षात्कारो युज्यत एवेत्यर्थः। अत्र दृष्टान्तमाह। यथेति। पान्थस्य पथिकस्य विरहिण इत्यर्थः। ‘पथोऽण् नित्यम्’ इति णप्रत्ययः। कामिनीभावनया कामिनीध्यानेन तस्याः कामिन्याः प्रत्यक्षायमाणत्वम्। तदुक्तम्। ‘साक्षिगतस्साकलिकोऽयमद्वैतवाद’ इति। न चेदं स्वभावोक्तावन्तर्भवतीत्याह। न चेति। कुत इत्याकाङ्क्षायामुभयोर्वैषम्यमाह। तस्यामिति। वस्तुस्वभावस्य लौकिकवस्तुगतसूक्ष्मधर्मस्येत्यर्थः। यथावदन्यूनातिरिक्तत्वेन वर्णनया प्रत्यक्षायमाणता साधारण्येन हृदयसंवादिप्रतीतिविषयत्वमित्यर्थः। इह भाविके त्वत्यद्भुतत्वेन
यथा।
ध्वजाग्रे काकतीन्द्रस्य भाति क्रोडाकृतिर्हरिः।
मृद्विन्दुरिव दंष्ट्राग्रे यस्यालक्ष्यत मेदिनी॥१९५॥
** अत्राष्टादशद्वीपयुक्ताया मेदिन्या दंष्ट्राग्रे3436मृद्विन्दुरूपतेति अत्यद्भुतवर्णनया3437तथाविधभावनया प्रत्यक्षवत् प्रतीतिसंभवः।**
प्रत्यनीकालंकारः।
** अथ प्रत्यनीकालंकारः प्रतिपाद्यते।**
बलिनः प्रतिपक्षस्य प्रतीकारे सुदुष्करे।
यस्तदीयतिरस्कारः प्रत्यनीकं तदुच्यते॥
———————————————————————————————————————————————————————
लोकोत्तराणां वस्तूनां स्फुटतया ताटस्थ्येन प्रतीतिरिति भेद इत्यर्थः। अत एव रसवदादौ नान्तर्भाव इत्याह। नापीति। तत्र हेतुमाह। तत्रेति। विभावानुभावाद्यनुसंधानेन परमाद्वैतज्ञानवन्ममैवैते3438 शत्रोरेवैते तटस्थस्यैवेत इत्यादिविशेषपरिहारात् साधारण्येन सहृदयसंवादिप्रत्ययेनेत्यर्थः। रसादेर्भाव्यत्वं स्वाद्य- त्वमित्यर्थः। न त्वत्यद्भुतत्वेनेति। यथा भाविके भूतभाविनोरत्यद्भुतार्थयोः सर्वज्ञवत् ताटस्थ्येन प्रतीतिर्न साधारण्येन तद्वदत्र न भवतीत्यर्थः। नन्वत्र भूतभाविनोरप्रत्यक्षयोः प्रत्यक्षत्वेनाध्यवसायादिवादेरभावाच्च प्रतीयमानोत्प्रेक्षा कुतो न स्यादत आह। न चेयमुत्प्रेक्षेति। तत्र हेतुमाह। अतीतेति। न ह्यप्रत्यक्षं प्रत्यक्षत्वे-नाध्यवसीयते। किं तर्हि काव्यार्थविद्भिः प्रत्यक्षं दृश्यत इति नोत्प्रेक्षेति भावः। ननु भूतभाविनोः प्रत्यक्षत्वे भ्रान्तिमदलंकारः किं न स्यादत आह। न चायमिति। तत्र हेतुमाह। भावनाया इति। काव्यतत्त्वविदां भूतभाविवस्तुसाक्षात्कारसामग्री भावना तस्या अभ्रान्तरूपत्वात्। भ्रान्तिं रूपयति। जनयतीति।भ्रातिरूपा तस्या भावस्तत्त्वम्। तदभावाद् भ्रान्तिजनकत्वाभावादित्यर्थः। भूतभाविविषयत्वेऽपि भावनामहिन्नान प्रत्यक्षत्वहानिरिति भावः। कण्टकशोधनमुपसंहरति। अत इति। यदन्यदवशिष्टं तत्सर्वमलंकारसर्वस्वे द्रष्टव्यम्। उदाहरति। ध्वजाग्र इति। क्रोडाकृतिर्वराहाकृतिः। योजयति। अत्रेति।
लोकन्यायमूलप्रस्तावात् प्रत्यनीकं लक्षयति। वलिन इति। प्रतीकार इति। ‘उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम्’ इति दीर्घः। व्याचष्टे। यत्रेति। अनीकस्य
प्रबलस्य3439 यत्र प्रतिपक्षस्य प्रतीकारासामर्थ्यात् तदीयतिरस्कारो भवति तत् प्रत्यनीकम्।
** यथा।**
काकतीयपतिशौर्यमहोप्म-
न्यक्कृतस्वमहिमा वडवाग्निः।
तद्गभीरिमसनाभिमजस्रं
बाघते निधिमपां वहिरन्तः॥१९६॥
अत्र सादृश्यहेतुकं तदीयत्वमित्यलंकारत्वम्।
व्याघातालंकारः।
** अथ व्याघातः3440।**
येन यत् साधितं वस्तु तेनैव क्रियतेऽन्यथा।
अन्येन तदलंकारो व्याघात इति कथ्यते॥
** यद्वस्तु येन केनचित् कर्त्रा येन साधनेन साधितं तद्वस्तु तेनैव साधनेनान्येन कर्त्रा यदन्यथाक्रियते स व्याघातः।**
** यथा।**
काकतीयाभिजातोऽयं नाभिजाताधिकस्थितिः3441।
दोर्भ्यां लब्धोदयान् भूपांस्ताभ्यामनुदयान्3442 सृजन्॥१९७॥
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सैन्यस्य प्रतिनिधिः प्रत्यनीकं तत्तुल्यत्वादिदमपि प्रत्यनीकमित्यर्थः। प्रतिपक्षप्राबल्यप्रख्यापनमत्र प्रयोजनम्। काकतीयेति। तस्य काकतीयस्य गभीरिम्ना गाम्भीर्येण सनाभिंसहृदयं ‘ज्योतिर्जनपद—’ इत्यादिना समानशब्दस्थ सभावः। अस्या अलंकारत्वमाह। अत्रेति।
पूर्वयैव संगत्या व्याघातं लक्षयति। येनेति। येनोपायेन यद्वस्तु साधितं केनचित् कर्त्रेति शेषः। तेनैवोपायेनान्येन कर्त्रा तद्वस्त्वन्यथा क्रियते चेत् स व्याघातोऽलंकार इत्यर्थः। काकतीयेति। काकतीयाभिजातः काकतीयकुलोद्भूतो नाभिजातो ब्रह्मा ततोऽधिका स्थितिर्यस्य स तथोक्तः। दौर्भ्यामीश्वरबाहुभ्यां लब्धोदयान् भूपान् राजन्यान् ‘बाहू राजन्यः कृतः’ इति श्रुतेः। ताभ्यां दोर्भ्या-
अथ लोकन्यायमूलालंकारनिरूपण3443प्रस्तावात्3444 पर्यायालंकारो निरूप्यते।
पर्यायालंकारः।
क्रमेणैकमनेकस्मिन्नाधारे वर्त्तते यदि।
एकस्मिन्नथवानेकं पर्यायालंकृतिर्मता3445॥
यत्र क्रमादेकमनेकस्मिन्नाधारे वर्त्तते स एकः पर्यायः। न3446 चात्र विशेषालंकारः। तत्रैकस्यानेकत्र युगपद्वर्त्तनम्। अत्र क्रमेण। तथैकस्मिन्नाधारेऽनेकमाधेयं3447 स द्वितीयः पर्यायः। न चात्र समुच्चयालंकारः। तत्राप्येकत्रानेकेषां3448 युगपद्वर्त्तनम्3449।
क्रमेण यथा।
दंष्ट्रायां कुहनाकिटेर्भगवतो देवस्य शौरेः पुरा
पश्चान्मस्तकमण्डले फणभृतः पाताललोकेशितुः।
आद्योर्वीपतिशेखरस्य महतः श्रीकाकतीयप्रभो-
र्वाहौ विश्वधुरीणसारमहिते बद्धोत्सवा मेदिनी॥१९८॥
अत्रैकस्या मेदिन्याः क्रमादनेकत्र3450 वर्त्तनम्।
** द्वितीयः।————————————————————————————————————————————————————**
मनुदयानुदयरहितान् सृजन्निति निष्पादकस्य निष्पादितवस्तुव्याहतिहेतुत्वाद्व्याघातः।
व्याघाते वस्तुसाधनान्यथाकरणयोः क्रमिकत्वात् तत्प्रसङ्गेन पर्यायं लक्षयति। क्रमेणेति। एकस्यानेकत्र वर्त्तनमनेकस्यैकत्र वर्त्तनं चेति द्विधा पर्यायालंकारः। उभयस्य क्रमिकत्वाद्विशेषसमुच्चययोः क्रमेण व्यवच्छेदः। दंष्ट्रायामिति। कुहनाकिटेर्मायावराहस्य पाताललोकेशितुः फणभृतः शेषस्य। सर्वधुरां वहतीति सर्वधुरीणः। ‘खः सर्वधुरात्’ इति खप्रत्ययः। विश्वधुरीणेति पाठे अत्रैव ‘खः’ इति योगविभागात् खप्रत्ययः। एकस्यानेकत्र वर्त्तनं योजयति। अत्रेति।
येषां सुखे निजवधूसविधे नृपाणां
शौर्योक्तयः समभवन्नभिमानगर्भाः।
तेषां प्रतापनृपवीक्षणकातराणां
तत्रैव दीनवचनानि समुद्भवन्ति॥१९९॥
सूक्ष्मालंकारः।
अथ सूक्ष्मालंकारो निरूप्यते।
** असंलक्षितसूक्ष्मार्थप्रकाशः सूक्ष्म उच्यते।**
** विदग्धमात्रज्ञेयस्यार्थस्य यत्राकारेङ्गिताभ्यां3451 प्रकाशनं स सूक्ष्मालंकारः।**
दृष्ट्या3452 पश्यसि केवलं न मनसा वाचा प्रियं भाषसे
नो मावेन भुजान्तरं प्रकटयस्यग्रेन चाभ्यन्तरम्।
ज्ञातं काकतिनाथ सूस्तव परं प्राणेश्वरी ध्यायतो
मादृक्षेषु विडम्बनैव तदलं व्यर्थैर्वहिःसंभ्रमैः॥२००॥
** यथा3453 वा।**
—————————————————————————————————————————————————
येषामिति। निजवधूसविधे योषिन्मध्ये।अभिमानगर्भा गर्वगुम्फिताः। तत्रैव मुखे दीनवचनानि त्रायस्वेत्यादिवाक्यानि समुद्भवन्ति। अत्रैकस्मिन् मुखे शौर्योक्तीनां दीनवचनानां च क्रमेण वृत्तिः।
एकत्रानेकवृत्तिप्रसङ्गेनैकस्य संलक्षितत्वासंलक्षितत्वसंबन्धात् पर्यायानन्तरं सूक्ष्मं लक्षयति। असंलक्षितेति। असंलक्षितस्यस्थूलबुद्धीनामवेद्यस्य3454 सूक्ष्मस्येङ्गिताकाराभ्यां तीक्ष्णबुद्धिसंवेद्यस्यार्थस्य प्रकाशो विदग्धं प्रति प्रकाशनं यत्र स सूक्ष्मालंकार इत्यर्थः। व्याचष्टे। विदग्धेति। इङ्गिताकारयोर्लक्षणमाह चक्रवर्त्ती।
‘आकृतिव्यञ्जिताश्चेष्टा इङ्गितं बुद्धिकारिताः।
आकारः पुनराम्नातस्ता एवाबुद्धिकारिताः॥’
गुरुअणसविहम्मि3455 वहूदठ्ठुण णरेंदपेसिआं3456दूईं।
सव्वंगेसुसहासं कत्थूरिविलेवणं3457 कुणइ॥२०९॥
** अत्र कस्तूरीविलेपनेन तिमिरसमयः3458 संकेतकाल इति प्रकाशितम्।**
उदात्तालंकारः।
** अथोदात्तालंकारः3459।**
** तस्यापि लोकन्यायमूलतैवानन्तर्यकारणम्3460।
तदुदात्तं भवेद्यत्र समृद्धं वस्तु वर्ण्यते।**
यत्र महासमृद्धिशालिनो वस्तुनो वर्णनं क्रियते तत्रोदात्तालंकारः।
यथा।
——————————————————————————————————————————————————
तथा
‘तारापुटभ्रुदृष्ट्यादेर्विकारानिङ्गितं विदुः।
आकाराः सत्त्वजा भावा आद्या बुद्ध्यापरेऽन्यया॥’
इति। उदाहरति। गुर्विति। अत्र दूत्याः संकेतसमयजिज्ञासायां तदीयेन भ्रूभङ्गादिनेङ्गितेनोपलभ्य3461 प्रगल्भवध्वा रात्रिसमयः संकेतकाल इति कस्तूरीविलेपनेन प्रकाश्यते।
‘वक्रस्यन्दिस्वेदविन्दुप्रबन्धै-
र्दृष्ट्वा भिन्नं कुङ्कुमं कापि कण्ठे।
पुंस्त्वं तन्व्याव्यञ्जयन्ती वयस्या
स्मित्वा पाणौ खड्गलेखां लिलेख॥’
इत्यत्र स्वेदविन्दुनिमित्तकुङ्कुम भेदलक्षणाकारसूचितं पुरुषायितं पाणौ कृपाणलेखनेन पुरुषैकयोग्येन प्रकाश्यत इत्याकारनिबन्धनः सूक्ष्मः।
उदात्तमाह। अथेति। तस्य संगतिमाह। तस्येति। लक्षणमाह। तदिति। ब्याचष्टे। यत्रेति। महासमृद्धिशालिनः कविप्रतिभाप्राप्तैश्वर्यशालिन इत्यलौकि-
रम्यामेकशिलाभिधाननगरीमासेदिवांसो बुधाः
सौवर्णेषु गृहेषु रत्नरचितद्वास्तोरणेषु3462 स्थिताः।
आरुह्याङ्गणमेदिनीषु कलभान्3463क्रीडोत्सुकानर्भकान्
मोदन्तेयदवेक्ष्य रुद्रनृपतेस्तत्त्यागलीलायितम्॥२०२॥
————————————————————————————————————
कत्वकथनादलंकारत्वमिति। रम्यामिति। आसेदिवांसः प्राप्ताः। कलभान् बालगजान्। मोदन्त इति यत् तत् त्यागलीलायितं त्यागलीला। लोहितादिक्यपन्ताद् भावे क्तः। अङ्गभूतमहापुरुषचरितं चोदात्तम्। यथा।
‘तदिदमरण्यं यस्मिन् दशरथवचनानुपालनव्यसनी।
निवसन् बाहुसहायश्चकार रक्षःक्षयं रामः॥’
अत्रारण्ये वर्णनीयेरामचरितमङ्गत्वेन वर्णितमिति मतान्तरानुसारेण सर्वंस्वकारः। तथा हि यत्र रसादयो वाक्यार्थीभूतास्तत्र रसवदादयोऽलंकारा इत्यलंकारमात्ररसिका भामहादयः। तन्मते यथा वाक्यार्थीभावादङ्गभूतो रसादिः तथाङ्गभूतमहापुरुषचरितवर्णनात्मको द्वितीयोदात्त उपपद्यते। ध्वनिदर्शने तु काव्यात्मनो रसादेः प्राधान्यदशायामलंकार्यत्वादलंकारभावो नोपपद्यते। तदुक्तं ध्वन्याचार्यैः।
‘रसभावतदाभासभावशान्त्यादिरक्रमः।
ध्वनेरात्माङ्गिभावेन भासमानो व्यवस्थितः॥’ इति।
यत्र रसस्वरूपे वस्तुमात्रेऽलंकारतायोग्ये3464 वाक्यार्थीभावेन प्रधानेऽङ्गभूता रसादयस्तत्र रसवदाद्यलंकारा एव। तदपि तैरेवोक्तम्।
‘प्रधानेऽन्यत्र वाक्यार्थे यत्राङ्गत्वं रसादयः।
काव्ये तस्मिन्नलंकारो रसादिरिति मे मतिः॥’ इति।
तदा3465 द्वितीयोदात्तस्य विषय एव नास्तीति सर्वस्वहृदयम्। अत एव ध्वनिदर्शनानुसारी विद्यानाथोऽपि द्वितीयमुदात्तं नाङ्गीचकारेति रहस्यम्। नन्वेवं तर्हि रसवदादयः किमिति नाङ्गीक्रियन्त इति चेन्मैवम्। रसप्रकरण एव तत्स्वरूपनिरूपणात्। किं तूदाहरणमलंकारप्रकरणे भविष्यतीति प्रतिज्ञाय केन वाभिप्रायेणेह नोदाहृतम्। अस्माभिस्तु तत्रैव दिड्मात्रमुदाहृतमिति नेह पुनः प्रयत्यते।
अथ समानन्यायात्3466 परिवृत्तिर्निरूप्यते।
समन्यूनाधिकानां च यदा विनिमयो भवेत्।
साकं समाधिकन्यूनैः परिवृत्तिरसौ मता॥
समन्यूनाधिकानां समाधिकन्यूनैर्विनिमयः परिवृत्तिः। समेन समपरिवृत्तिर्न्यूनेनाधिकपरिवृत्तिरधिकेन न्यूनपरिवृत्तिश्चेति।
** समेन समपरिवृत्तिर्यथा।**
सुधारसमुचो वाचो दत्त्वा3467काकतिभूभुजे।
अतो लभन्ते कवयः सहस्रं गन्धसिन्धुरान्॥२०३॥
अत्र वचसां सिन्धुराणां च समत्वम्।
** न्यूनेनाधिक3468परिवृत्तिर्यथा।**
उपायनं गजाश्वादि कृत्वा सर्वेऽपि भूभुजः।
प्रतापरुद्रदेवस्य लभन्ते सुस्थिरां कृपाम्॥२०४॥
**अत्र त्यज्यमानादुपायनादेर्दीयमानस्य प्रतापरुद्रकृपाविलसितस्यैवाधिक्यम्3469। **
** अधिकेन न्यूनपरिवृत्तिर्यथा।**
प्रतापरुद्रस्य रणे जिताः प्रत्यर्थिभूभुजः।
दत्त्वा भूषां किरातेभ्यो लभन्ते वल्कलादिकम्॥२०५॥
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समृद्धिकार्यत्वात् विनिमयस्य तद्रूपां परिवृत्तिमुदात्तानन्तरं निरूपयति। अथेति। समानन्यायात्3470 लेाकव्यवहाररूपात्। समेति। किंचित् दत्त्वा कस्यचिदादानं विनिमयः। समस्य समेन न्यूनस्याधिकेनाधिकस्य न्यूनेन विनिमय इति त्रेधा परिवृत्तिः। समेन समपरिवृत्तिमुदाहरति। सुधेति। अतः काकतीन्द्रात्। गन्धसिन्धुरान् गन्धगजान्। लक्षणमुत्त्कंनाटकप्रकरणे।
न्यूनेनाधिकपरिवृत्तिमुदाहरति। उपायनमिति।
अधिकेन न्यूनपरिवृत्तिमुदाहरति। प्रतापेति।
अत्र त्यज्यमानादाभरण
जातादादीयमानस्य3471 वल्कलादे3472र्न्यूनत्वम्।
** कारणमालालंकारः।**
अथ शृङ्खलान्यायमूलालंकारा निरूप्यन्ते।
पूर्वंपूर्वंप्रति यदा हेतुः स्यादुत्तरोत्तरम्।
तदा कारणमालाख्यमलंकरणमुच्यते॥
यदा3473 पूर्वेंपूर्वेंक्रमेणोत्तरोत्तरं प्रति हेतुतां भजते स कारणमालाख्योऽलंकारः।
** यथा।**
विद्यया विनयोत्कर्षो विनयेन गुणार्जनम्।3474
गुणैः प्रजानुरागश्च क्रमोऽयं काकतीश्वरे॥२०६॥
यत्रोत्तरोत्तरेषां स्यात् पूर्वेंपूर्वेंप्रति क्रमात्।
विशेषणत्वकथनमसावेकावली मता॥
यत्र पूर्वं3475पूर्वंप्रति क्रमेणोत्तरोत्तरं विशेषणत्वं भजते स एकावल्यलंकारः।
** यथा।**
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अनन्तरालंकारचतुष्टयस्य संगतिमाह। अथेति। कारणमालां लक्षयति। पूर्वपूर्वमिति। प्रतिशब्दो भिन्नक्रमः। तेन पूर्वपूर्वस्योत्तरोत्तरहेतुत्वे कारणमालेत्यर्थः। तथा व्याचष्टे। यदिति। विद्ययेति। विद्यादयो विनयादीन् प्रति हेतवः।
ईपदेतद्वैपरीत्यादेकावलींलक्षयति। यत्रेति। पूर्वपूर्वं प्रत्युत्तरोत्तरस्य विशेषणत्वं स्थापनेनापोहनेन च द्वैविध्यमनुभवतीत्येकावलीं द्विधा करोति। आद्यमु–
प्रतापरुद्रनगरी सुजनैरुपशोभिता।
सुजनाः स्फीतविभवैर्विभवाः स्थैर्यशालिनः॥२०७॥
एतत्स्थापनेनोदाहरणम्।
** अपोहनेनापि भवति।**
** यथा।**
न तद्राज्यं प्रजा यत्र न भवन्त्यूर्जितश्रियः।
न ताः प्रजाः प्रभुर्यासां न स्वयं काकतीश्वरः॥२०८॥
मालादीपकालंकारः व।
यदा तु पूर्वपूर्वस्य संभवेदुत्तरोत्तरम्।
प्रत्युत्कर्षावहत्वं तन्मालादीपकमुच्यते॥
** यत्र पूर्वपूर्वस्योत्तरोत्तरगुणावहत्वं स मालादीपकालंकारः।
यथा।**
भाग्यभूमा महीं प्राप्तः काकतीन्द्रभुजं मही।
भुजः प्रतापमतुलं3476 प्रतापश्च जगत्त्रयम्॥२०९॥
सारालंकारः।
उत्तरोत्तरमुत्कर्षः सारालंकार उच्यते।
यथा।
जगत्सु वसुधा भाति तस्यामेकशिलापुरी।
काकतीयान्वयस्तत्र तस्मिन् रुद्रनरेश्वरः॥२०॥
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दाहरति। प्रतापेति। अत्र नगर्यादेः पूर्वपूर्वस्य सुजनाद्युत्तरोत्तरं स्थापनेन विशेषणत्वं भजते।
द्वितीयमुदाहरति न तद्राज्यमिति। अत्र राज्यादेः पूर्वपूर्वस्य प्रजाद्युत्तरोत्तरमपोहनेन विशेषणत्वं भजते।
पूर्वंपूर्वं
प्रत्युत्तरोत्तरस्योत्कर्षहेतुत्वेनैकावलीमुक्त्वोत्तरोत्तरं प्रति पूर्वपूर्वस्योत्कर्षहेतुत्वे मालादीपकमाह। यदेति। भाग्येति। अत्र भाग्यातिशयादिभिर्मह्यादीनामुत्कर्षः क्रमेण विधीयते।
परिशेषात् सारं लक्षयति। उत्तरोत्तरमिति। जगत्स्विति। अत्र जगद-
सकलभुवनसारभूतं प्रतापरुद्रं विषयीकुर्वतश्चिरादस्यालंकारस्य सारत्वमित्यन्वर्थाभिधानम्।
इति3477 श्रीविद्यानाथकृतौ3478 प्रतापरुद्रयशोमूषणेऽलंकारशास्त्रेऽर्थालंकारप्रकरणं समाप्तम्।
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पेक्षया वसुधाया उत्कर्षः। तदपेक्षया एकशिलाया इत्यादिक्रमेणोत्कर्षो रुद्रनरेश्वरे विश्राम्यति।
इति पदवाक्यप्रमाणपारावारपारीणश्रीमहोपाध्यायकोलचलमल्लि-
नाथसूरिसूनुना विश्वजनीनविद्यस्य विद्वन्मणेः पेद्दयार्यस्या-
नुजेन कुमारस्वामिसोमपीथिना विरचिते प्रतापरुद्री-
यव्याख्याने रत्नापणाख्याने अर्थालंकारनिरूपणं
नाम अष्टमं प्रकरणम्।
अथ मिश्रालंकारप्रकरणम्।
अथ संसृष्टिसंकरौ निरूप्येते।
यथा लौकिकानामलंकाराणां हिरण्मयानां मणिमयानां च पृथक् सौन्दर्यहेतूनामन्योन्यसंवन्धेन चारुत्वातिशयो दृश्यते तथैव काव्यालंकाराणां रूपकादीनां मिथः संबन्धेन सौन्दर्यातिशयः प्रतीयते। स च संबन्धो द्विविधः। संयोगरूपः समवायरूपश्चेति। संयोगे3479 तिलतण्डुलन्यायः। समवाये3480 क्षीरनीरन्यायः। तिलतण्डुलन्यायेन संसृष्टिः3481। क्षीरनीरन्यायेन संकरः3482। अनयौःपृथक्चारुत्वातिशयहेतुत्वादलंकारघुरन्धरत्वम्। न तु पूर्वोक्तालंकारशेषता। तत्र प्रथमं संसृष्टिर्निगद्यते।
संसृष्टिः।
तिलतण्डुलसंश्लेषन्यायाद्यत्र परस्परम्।
संश्लिष्येयुरलंकाराः सा संसृष्टिर्निरूप्यते॥3483
यत्र तिलतण्डुलन्यायेन परस्परसंबद्धा3484 रूपकादयो भवन्ति सा संसृष्टिः। सा त्रिविधा। शब्दालंकारगतत्वेनार्थालंकारगतत्वेनोभयालंकारगतत्वेन च।
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एकैकालंकारनिरूपणानन्तरं मिश्रालंकारनिरूपणं प्रतिजानीते। अथेति। उत्त्कानामलंकाराणां क्वचित् सहभावे किं3485 पार्थक्येन पर्यवसानमुतालंकारान्तरत्वमिति विचार्य लौकिकालंकारन्यायेनालंकारान्तरत्वं सिद्धान्तयति। यथेति। हिरण्मयानां सौवर्णानाम्। ‘दाण्डिनायन—’ आदिसूत्रेण निपातनात् साधुः। पृथङ्मिथः संवन्धाभावेऽपि सौन्दर्यहेतूनां मिथः संबन्धे चारुत्वातिशयस्तथैव रूपकादीनामित्यर्थः। सौन्दर्यातिशयहेतोरसंबन्धस्य द्वैविध्यमाह। स चेति। उत्कटभेदः संयोगरूपः। अनुत्कटभेदः समवायरूप इत्यर्थः। आद्ये तिलतण्डुलन्यायेन संसृष्टिः। द्वितीये क्षीरनीरन्यायेन संकरः। अनयोः पृथगुपादानं न पूर्वशेषत्वमित्यर्थः। तत्र प्रथममुत्कटभेदनिबन्धनां संसृष्टि लक्षयति। तिलेति।
शब्दालंकारसंसृष्टिर्यथा।
शुम्भत्संभ्रमगन्धसिन्धुरघुरानिर्दारितो3486र्वीतला-
स्त्वङ्गत्तुङ्गतुरङ्गमप्रतिभया द्राक्स्यन्दनस्यन्दनाः।
तीव्रारम्भ3487समुद्यदुद्भटभटाटोपस्फुरद्दिक्तटा
निःसीमाः प्रसरन्ति रुद्रनृपतेर्जैत्रप्रयाणोद्यमाः॥२११॥
अत्र च्छेकानुप्रासवृत्त्यनुप्रासयोः संसृष्टिः।
अर्थालंकारसंसृष्टिर्यथा।
काकतीय3488चमूर्धत्ते महिमानमुदन्वतः।
ग्रसते या द्विषद्भूपध्वजिनीस्तटिनीरिव॥२१२॥
अत्र निदर्शनोपमयोः संसृष्टिः।
उभयसंसृष्टिर्यथा।
प्रतापरुद्रदोर्दण्डो3489 मण्डलाग्रेण मण्डितः।
दृश्यते समरे वीरैरुत्फणः फणवानिव॥२१३॥
अत्र वृत्त्यनुप्रासोपमयोः संसृष्टिः।
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तस्यास्त्रेधा विभागमाह। सेति। शब्दालंकारसंसृष्टिमुदाहरति। शुम्भदिति। शुम्भत्संभ्रमा दीप्यमानसंरम्भा ये गन्धसिंधुरा गन्धगजाः तद्धुरया तद्भरेण निर्दारितं निर्भिन्नमूर्वीतलं येषु ते तथोक्ताः। त्वङ्द्भिः प्लवमानैस्तुङ्गतुरङ्गमैः प्रतिभया भयंकराः द्राक्स्यन्दना शीघ्रधावनाः स्यन्दना रथा येषु ते तथोक्ताः। अत्र धुरधुरा भटभटेत्यत्र च्छेकानुप्रासोऽन्यत्र वृत्त्यनुप्रासश्च संसृज्यते।
अर्थालंकारसंसृष्टिमुदाहरति। काकतीन्द्रेति। उदन्वतो महिमानं धत्त इत्यत्रासंभवद्धर्मयोगेन प्रतिविम्बकरणाक्षेपान्निदर्शना। तस्यास्तटिनीरिवेत्युपमायाश्च परस्परनैरपेक्ष्यात् संसृष्टिः।
उभयसंसृष्टिमुदाहरति। प्रतापेति।
अथ संकरो निरूप्यते।
क्षीरनीरनयाद्यत्र संबन्धः स्यात् परस्परम्।
अलंकृतीनामेतासां संकरः स उदाहृतः॥
यत्र नीरक्षीरन्यायेनालंकाराणां मिथः संबन्धो भवति स संकरः। तस्याङ्गाङ्गिभावेन संदेहेनैकवाचकानुप्रवेशेन च त्रैविध्यम्।
** तत्राङ्गाङ्गिभावसंकरो यथा।**
उद्यद्वृहितगर्जितैर्द्विपघटाकादम्बिनीसंभ्रमैः
क्षोणीभृत्कटकोपरोधपटुभिः प्रावृद्विहारा इव।
शत्रुस्त्रीबहला3490श्रुवृष्टिशमितक्ष्माचक्रतापोदया
यात्राः काकतिवल्लभस्य जगतामानन्दमातन्वते॥२१४॥
अत्र यात्राः प्रावृद्विहारा इवेत्युपमालंकारेण गजघटाकादम्बिनीत्य-
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संकरं लक्षयति। क्षीरेति। यत्रालंकाराणां क्षीरनीरन्यायादनुत्कटभेदः सम्बन्धः स संकर इत्यर्थः। तस्य त्रेधा विभागमाह। तस्येति। क्रमेणोदाहरति। उद्यदिति। क्षोणीभृत्कटकानां वैरिभूपालराजधानीनामन्यत्र पर्वतनितम्बानामुपरोधपटुभिर्निरोधनसमर्थैः। ‘कटकं वलये सानौ राजधानीनितम्ययोः’ इति विश्वः। शत्रुस्त्रीवहुलाश्रुवृष्ट्येव शमितः क्ष्माचक्रतापोदयो भूमण्डलसंतापातिशयोयासु तास्तथोक्ताः। दुष्टनिग्रहेण भूभारोऽवतरतीति भावः। सजातीयसंकरं योजयति। अत्रेति। उपमा प्रसाध्यत इति। रूपकत्वे द्विपघटारूपविपयस्थगने कादम्बिनीरूपोपमानं सैवास्य विशेषणत्वं नोपमेयस्य। अतोऽधिकोपमं नाम दोषः स्यात्। तस्मादुपमा प्रसाध्यत इति भावः। यात्राः प्रावृद्विहारा इवेत्यस्यानुग्राह्यत्वादङ्गित्वम्। द्विपघटाकादम्बिनीत्यस्या अनुग्राहकत्वादङ्गत्वम्। अतोऽङ्गाङ्गिभावेन संकरः। अन्योन्यं चमत्कारहेतुत्वाश्रयणेऽतिरामणीयकं द्रष्टव्यम्। तर्हि द्विपघटाकादम्बिनीत्यत्र केन समासेनोपमा लभ्यत इत्याकाङ्क्षा -
त्रोपमा प्रसाध्यत इति सजातीययोरङ्गाङ्गिभावः। कादाम्बिनीवद्विपघदेति समासाश्रयणात्। क्षोणीभृत्कटकोपरोधेत्यत्र श्लेषमूलातिशयोक्तिः।
** विजातीयसंकरो यथा।**
प्रतापरुद्रस्य कृपाणधारा
प्रत्यर्थिभालेषु पतन्त्यमन्दम्।
प्रक्षालनायेव कृतस्य धात्रा
तद्वर्त्तिनो दुर्लिपिकल्मषस्य॥२१५॥
अत्र प्रक्षालनायेवेत्युत्प्रेक्षया दुर्लिपिकल्मषस्येत्यत्र रूपकं प्रसाध्यत इति विजातीययोरङ्गाङ्गिभावः।
** एकवचनानुप्रविष्टसंकरो यथा।**
विजितारिपुरो मूर्त्तौ विलसत्सर्वमङ्गलः।
भुवि शंभुरिवाभाति काकतीयनरेश्वरः॥२१६॥
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यामाह। कादम्बिनीव द्विपघटेति। ‘उपमितं व्याघ्रादिभिः’ इति समासः। अभ्युञ्चयमाह। क्षोणीभृदिति। क्षोणीभृत्कटकशब्देन शत्रुराजधानीपर्वतनितम्बयोरभिधानाच्छ्लषमूलातिशयोक्तिरित्यर्थः3491। इयं च द्विपघटाकादम्बिनीत्यत्रोपमाया अङ्गं तेनातिशयोक्त्यनुगृहीतया तया यात्राः प्रावृद्धिहारा इवेत्युपमानुग्राह्यत इति फलितम्।
विजातीयसंकरमुदाहरति। प्रतापेति। कृपाणस्य धारा कोटिरुदकधारा च। अमन्दमनल्पम्। तद्वर्त्तिनः प्रत्यर्थिभालवर्त्तिनो दुर्लिपिरेव कल्मपं पङ्कं तस्य क्षालनायेवेति फलोत्प्रेक्षा। अत्र क्षालनयोग्यस्य कल्मषस्य प्राधान्यं रूपकेणैव लभ्यते नान्यथेत्युप्रेक्षया रूपकं प्रसाध्यत इति रूपकोत्प्रेक्षयोर्विजातीययोरन्योन्यसापेक्षत्वादङ्गाङ्गिभावेन संकरः।
एकवाचकानुप्रविष्टं संकरमुदाहरति। विजितेति। योजयति। अत्रेति।
अत्र विजितारीत्याद्यर्थसाम्यादुपमाविलसत्सर्वमङ्गल इति शब्दसाम्यात् श्लेषश्च शम्भुरिवेत्येकस्मिन्निवशब्देऽनुप्रविष्टौ।
** संदेहसंकरो यथा।**
जातः प्रतापरुद्रेन्दुः काकतीयान्वयाम्बुधौ।
धत्ते जनचकोराणां प्रसादज्योत्स्नयामृतम्3492॥२१७॥
** अत्र काकतीयकुलाम्बुधौ इत्यादौ रूपकोपमयोः संदेहसंकरः।अन्वय3493 एवाम्बुधिः काकतीयान्वयोऽम्बुधिरिवेति समासद्वयसंभवात्। न चात्र साधकं3494 बाधकं वा प्रमाणमन्यतरस्यास्तीति संदेह एव पर्यवस्यति। साधकबाधकसंभवे तु संदेहनिवृत्तिः।अत्र3495 साधकं यथा।**
प्रतापरुद्रनृपतेः3495 पारिजातात् समुद्भवाः।
वतंसयन्ति दिङ्नार्यो मधुरा कीर्त्तिमञ्जरीः॥२९८॥
——————————————————————————————————————————————
विजितारिपुर इत्यत्र शब्दपरिवृत्तिसहिष्णुत्वादर्थसाम्यम्। विलसत्सर्वमङ्गल इत्यत्र तदभावाच्छब्दस्वाम्यम्। तावुपमाश्लेषावेकस्मिन्निवशब्देऽनुप्रविष्टौ। तस्योभयोपकारित्वादिति भावः।
संदेहसंकरमुदाहरति। जात इति। योजयति। अत्र कुलाम्बुधावित्यादौ समासद्वयसंभवादिति। मयूरव्यंसकादीनां चाकृतिगणत्वाद्रूपकोपमितसमासद्वयसंभवादित्यर्थः। नन्वत्रामृतदानस्य चन्द्र एवप्रसिद्धत्वात् प्रतापरुद्र एवेन्दुरिति रूपकमेव नोपमेति चेन्मैवम्। औपचारिकस्यामृतदानस्य प्रतापरुद्रेऽपि संभवात्। उपमाया बाधकाभावात्। तेनात्र रूपकोपमयोः संदेह एव पर्यवस्यतीत्याह। न चेति। साधकमनुकूलं बाधकं प्रतिकूलम्। तत्सद्भावे संदेह एव निक्तर्त इत्यर्थः। तर्हि कुत्र साधकं कुत्र वा बाधकमित्याकाङ्क्षायां क्रमेण दर्शयति। प्रतापेति। प्रतापरुद्रनृपतिरूपात् पारिजातात्। वतंसयन्तीत्यत्र ‘वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः’ इत्यकारलोपः। अत्र वतंसीकरणं मञ्जी-
अत्र कीर्त्तय एव मञ्जर्य इति रूपकालंकारे वतंसयन्तीति साधकं प्रमाणम्।अवतंसीकरणे3496नाभेदप्रतीतिः3497।
बाधकं यथा।
काकतीन्द्रस्य निःसाणध्वनौ दिक्षु विजृम्भिते।
व्याकुलीकृतसत्त्वोऽभूत् प्रतिपक्षबलार्णवः॥२१९॥
अत्र प्रतिपक्षबलार्णव इत्युपमाया व्याकुलीकृतसत्त्व इति बाधकं प्रमाणम्। ‘उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे’ इत्यनुशासनेम सामान्यप्रयोगस्योपमाबाधकत्वात्। अतः पारिशेष्याद्रूपकालंकारः।
एवं यथासंभवमन्येषामलंकाराणां संसृष्टिसंकरौ बोद्धव्यौ तत्र तत्रप्रबन्धेषु3498।
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रेष्वेवानुगुणमिति रूपकपरिग्रहे साधकमित्याह। अत्रेति। तत्रोपद्वलकमाह। वतंसीकरणेनाभेदप्रतीतिरिति। न पुनरुपमायामिव भेदाभेदप्रतीतिरिति भावः।
बाधकं दर्शयति। काकतीन्द्रस्येति। दिक्षु निस्साणध्वनौ विजृम्भिते व्याप्ते सति प्रतिपक्षबलमेवार्णवो व्याकुलीकृतानि कलुषीकृतानि सत्त्वन्यन्तःकरणानि प्राणिनश्च यस्य स तथोक्तः। बाधकं योजयति। अत्रेति। प्रतिपक्षबलमर्णव इवेत्युपमितसमासस्य व्याकुलीकृतसत्त्व इति सामान्यप्रयोगत्वस्य बाधकत्वात् परिशेषाद् रूपकमेवेत्यर्थः। अलंकारान्तरसंकरसंसृष्टिप्रपञ्चः प्रबन्धान्तरेषु द्रष्टव्य इत्याह। एवमिति। विवेकिनामेतावतैवेतरदपि सुबोधमिति विस्तरभीरुभिरस्माभिरुपरम्यत3499 इति सर्वमवदातम्।
जगति निखिलविद्यासिंधुमुष्टिधयानां
परभणितिपरीक्षा3500 युज्यते सज्जनानाम्।
तदिह मम निबन्धे दूषणं3501 भूषणं वा
भवति यदि विदग्धैस्तद्ध्यवश्यं विसृश्यम्।
इति श्रीविद्यानाथकृतौ3502 प्रतापरुद्रयशोभूषणेऽलंकारशास्त्रे मिश्रालंकारप्रकरणं समाप्तम्3503। प्रतापरुद्रीयं नामालंकारशास्त्रं समाप्तम्3504।’
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इति पदवाक्यप्रमाणपारावारपारीणश्रीमहोपाध्यायकोलचलमल्लि-
नाथसूरिसूनुना विश्वजनीनविद्यस्य विद्वन्मणेः पेद्दयार्थस्या-
नुजेन कुमारस्वामिसोमपीथिना विरचिते प्रतापरु-
द्रीयव्याख्याने रत्नापणाख्याने मिश्रालंकार-
निरूपणं नाम नवमं प्रकरणम्॥
प्रतापरुद्रीयव्याख्या रत्नशाणः।
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वन्दे हयग्रीवमहं वलक्षं
यत्रावटुस्योच्चसटामिषेण।
अन्योन्यमन्तर्मिलितावशिष्टः
प्रालम्बते शुभ्रकलाकलापः॥१॥
वलक्षवर्णोज्ज्वलितस्वरूपो
विज्ञानदानैकनिदानभूतः।
सदेहशास्त्रौघ इवाश्ववक्रः
सारस्वतं मे दिशतु प्रबोधम्॥२॥
आचार्यमभिवाद्याहमातनिष्ये यथामति।
विद्यानाथकृतेर्व्याख्यां सन्तस्तन्वन्त्वनुग्रहम्॥३॥
न शब्दशास्त्रे न च तर्कशास्त्रे
न चान्यशास्त्रेष्वपि विश्रुतोऽहम्।
प्रतापरुद्रीयमनोज्ञपद्य-
व्याख्यां तु कुर्यामतिसाहसेन॥४॥
रत्नापणे विस्तरसाध्वसेन
मुक्त्वा पदं कोमलमन्यदेव।
व्याख्यायशङ्कापरिहारमार्गः
प्रदर्शितः प्राक्तनपण्डितेन॥५॥
ततो मया बालविबोधनाय
प्रतापरुद्रीयसुपद्यपङ्क्तेः।
प्रकाश्यते सर्वपदान्वयोऽत्र
न संभ्रमोऽन्यत्र ततः पृथक् मे॥६॥
विद्यानाथः कथमपि बहोराकराच्छास्त्रजालात्
संजग्राह प्रकृतिकठिने रत्नजालं करण्डे।
विद्वद्गोष्ठीहृदयरमणे रत्नशाणेऽधुनास्मि-
न्नन्तर्गूढद्युतिविलसितं तत् समुत्तेजयामि॥७॥
अथ तत्रभवान् विद्यानाथकविः प्रतापरुद्रयशोभूषणं नामालंकारशास्त्रं चिकीर्षुश्चिकोर्षिताविघ्नपरिसमाप्तिसम्प्रदायाविच्छेदरूपफलसाधनत्वात् ‘मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि शास्त्राणि प्रथन्ते’ इत्यादि भाष्यकारवचनाच्चेष्टदेवतानमस्काररूपमङ्गलमादौ निबध्नाति। विद्येति। विद्याः सकलशास्त्राण्येव कैरवाणि कुमुदानि तेषां कौमुदीं चन्द्रिकां कौमुदीमिव विद्यानां प्रकाशिकामित्यर्थः। श्रुतीनां वेदानां शिरांस्युपनिषद एवं शीर्षाणीति श्लिष्टरूपकम्। तेषु सीमन्तमुक्तामणि सीमन्ते केशवीभ्यां यो मुक्तामणिर्मुक्तामय आभरणविशेषः। ‘सीमन्तमस्त्रियां मस्तकेशवीध्याम्’ इत्यमरः। ललन्तिकाभरणायमानामित्यर्थः। पद्मान्नाभिकमलाद्भवतीति पद्मभूः। तस्य ब्रह्मणो दारान् जायाम्। ‘दाराः पुंसि च भूम्येव’ इत्यमरः।त्र्यवयवो लोकस्त्रिलोकस्तस्य जननीं गिरां वाचां देवतां सरस्वतीं देवीं वन्दे नमस्करोमि। स्वनमस्कारस्य साफल्यं सूचयितुं देवीनमस्कारान् विशिनष्टि। यदिति। पादावब्जे इवेत्युपमितसमासः। रूपकसमासे तु अब्जयोर्नमस्कारानुपयोगात्। यस्या वाग्देवतायाः पादाब्जयोर्नमस्क्रिया नमस्काराः सुकृतिनां पुण्यकृतां पुंसाम्। प्रकर्षेण क्रियन्त इति प्रक्रिया रचनाः। सरस्वतीनां वाचां संबन्धिन्यः सारस्वत्यः। ताश्च ताः प्रक्रियाश्च सारस्वतप्रक्रियाः। ‘गीर्वाग्वाणी सरस्वती’ इत्यमरः। तासां वाग्रचनानां बीजं कारणं प्रतिभापरपर्यायो बुद्धिविशेष इत्यर्थः। तदेव बीजमङ्करकारणं तस्य न्यासभुवो निक्षेपस्थानभूताः। सारवद्भूमौ निक्षिप्तं बीजं यथाङ्कुरयति तद्वद्देवीनमस्कारात् कविताकारणीभूतप्रतिभा जायत इत्यर्थः। कविताया नाव्यं नटनं प्रवृत्तिरिति यावत्। तस्यैकजीवातवो मुख्यजीवनौषधानि। ‘जीवातुर्जीवनौषधम्’ इत्यमरः। अस्मान्नमस्कारादेव जीवनौषधादिव सम्प्रदायाविच्छेदश्च भवतीत्यर्थः। भवन्तीत्यन्वयः। अत्रोत्तरवाक्ये यच्छब्दप्रयोगान्न तच्छब्दप्रयोगनिर्बन्धः। विद्याकैरवेत्यादिरूपकविशेषणम्। पादाब्जेत्युपमायाश्च परस्परापेक्षाभावात् संसृष्टिः। लक्षणानि त्वलंकारप्रकरणे स्पष्टीभविष्यन्ति।
इत्यमिष्टदेवतां नमस्कृत्य प्राचीनमहाकविनमस्कारपूर्वकं प्रारिप्सितग्रन्थारम्भं प्रतिजानीते। पूर्वेभ्य इति। भामहो नामालंकारशास्त्रप्रणेता। स आदिर्येषां ते तेभ्यः प्राचीनेभ्य इति चतुर्थी। सादरं यथा तथा विहितोऽञ्जलिर्येन सः।
‘तौ द्युतावञ्जलिः पुमान्’ इत्यमरः। अहमिति शेषः। अलंकारशास्त्रसर्वस्वं सर्वधनभूतं रसादिप्रमेयं तत् संगृह्यते संक्षिप्यते येन स तथोक्तः। अलंकारशास्रप्रतिपाद्यमानं रसादिप्रमेयं संक्षिप्य प्रतिपादको ग्रन्थस्तं सम्यक् वक्ष्ये।
ननु रसादीनामप्येतच्छास्त्रविषयत्वात् कथमस्यालंकारशास्त्रत्वमिति न शङ्कनीयम्। छत्रिन्यायेनालंकारत्वव्यपदेशात्। यद्वा प्रमाणादिपदार्थप्रतिपादकशास्त्रस्य न्यायप्राधान्याद्यथा न्यायशास्त्रत्वं तथालंकारप्राधान्यादलंकारशास्त्रत्वमिति बोध्यम्।
शास्त्रसर्वस्वसंग्रह इत्यत्रोक्तं रसादिप्रमेयं विभजते। रसेति। रसः शृङ्गारादिः प्रधानं येषां ते रसजीविता इत्यर्थः। शब्दार्थाः शब्दा वाचकादिरूपेण त्रिविधाः। ततो द्वन्द्वः। गुणाः प्रसादादयः। अलंकारा उपमादयः। वृत्तयः कैशिक्यादयश्च। त्रयाणां द्वन्द्वः। रीतयो वैदर्भ्यादयश्च। इयती एतावती। काव्यपद्धतिः रामायणादिकाव्यमार्गः। शास्त्रस्यालंकारशास्त्रस्य प्रमेयं विषयः प्रतिपाद्यमित्यर्थः। काव्योपयोगिरसादिकमनेन ग्रन्थेन निरूप्यत इति तात्पर्यार्थः।
संप्रति स्वग्रन्थस्य लोकोत्तरनायकलाभेनातिशयमाह। चिरेणेति। काव्यस्य ये अलंकारास्तेषां संग्रहः संग्राहको ग्रन्थः। चिरेण चिरस्य चरित आचरितोऽर्थः फलं यस्य स तथोक्तः सफलोऽभूत्। चरितार्थतामेव व्यनक्ति। प्रतापेति। येनालंकारसंग्रहेण प्रतापरुद्रदेवस्य प्रतापरुद्रस्य कीर्तिर्यशः प्रकाश्यते प्रकटीक्रियते। प्रतापरुद्रकीर्त्तिप्रकाशनादस्य सफलतेति भावः।
पूर्वग्रन्थानामपकर्षमाह। यद्यपीति। प्राचां पूर्वमहाकवीनां प्रबन्धेष्वलंकारशास्त्रेष्वसौ काव्यपद्धतिः साधु सम्यक् निरूपिता यद्यपि निरूपितैव। यद्यपि ते शङ्कानुत्पाद इति संप्रदायः। किं तु परं तु तथापीत्यर्थः। एतस्याः काव्यपद्धतेः प्रबन्धस्येत्यर्थः। सदृशमुदाहरणं नादृतमनादृतम्। काव्यानुरूपोदाहरणाभावात् पूर्वप्रबन्धेष्वपकर्ष इति भावः। तर्हि कीदृशमुदाहर्त्तव्यमित्याकाङ्क्षां जनयति। किं त्विति।
उदाहार्यमाह। पुण्येति। पुण्येन सुकृतेन श्लोक्यते श्लाध्यत इति पुण्यश्लोकः। सकलविद्यासुकृतशाली महापुरुषस्तस्य चरितं व्यापारः। उदाहरणमुद्धाटनमुद्दिश्यार्हति। स इव दृश्यत इति तादृशः सुकृती कश्चन पुमान् पूर्वैः
बहुशास्त्राद्यवलोकनादिति भावः। यशः कीर्त्तिः संभाव्यत उत्पद्यते। गुणाः सौशील्यादयोऽर्ज्यन्ते संपाद्यन्ते। सुपुरुषस्य पुण्यश्लोकस्य चरितं व्यापारः श्रूयते येन कारणेन काव्यस्यालापा रचना न हरन्ति। मन इति शेषः। मनोहरा न भवन्ति। तत्कारणं किं किमस्ति। नास्तीत्यर्थः। पूर्वोक्तफलसाधनत्वात् काव्यालापा मनोहरा एवेत्यर्थः। अतः काव्यमुपादेयमिति तात्पर्यार्थः।
‘काव्यालापांश्च वर्जयेत्’ इति निषेधस्मृतेर्गतिमाह। यत्रेति। यत्र पुनः यस्मिन् काव्ये तूत्तमः श्लोक्यत इत्युत्तमश्लोकस्तस्योत्तमोत्तमस्य चरितं न निबध्यते नोदाह्रियते तत्काव्यं परित्याज्यं परित्यक्तुं योग्यमेव। अत्र स्मृतिरस्तीत्याह। तदिति। स्मृतिश्च मुनिवचनमपि तदसत्काव्यं मूलं कारणं विषयो यस्याः सा। असत्काव्यविषयां स्मृतिमनुवदति। ‘काव्यालापांश्च वर्जयेत्’ इति। अन्यथा रामायणादेरप्युच्छित्तिः स्यादिति भावः। काव्ये कैमुत्यन्यायेनोत्तमपुरुषगुणवर्णनस्यावश्यकत्वं प्रतिपादयितुं शास्त्रेष्वपि सत्पुरुषगुणवर्णनमेवावश्यकमित्याह। केवलमिति। काव्यजातस्य केवलं काव्यसमूहस्यैवायं पन्थाः सत्पुरुषगुणवर्णनरूपमार्गो न भवत्यपि तु किं तु शास्त्रजातस्यापि सकलशास्त्राणामपीत्यर्थः। सतां सद्गुणानामाश्रयेणावलम्बनेन प्रतिपादनेन महानुत्कृष्टो लोकानां जनानामादरो यथोक्तार्थोयथा स्पष्टो भवेत् तथोच्यत इत्यर्थः। वैशेषिकादेर्विशेषपदार्थवादिनो वैशेषिकास्तेषां शास्त्रं वैशेषिकं तदादिर्यस्य तस्य। ईश्वरस्य ब्रह्मणः प्रतिष्टापकतया साधकतया। जगति लोके पूज्यता पूज्यत्वम्। अङ्कुरादिकं सकर्त्तृकं कार्यत्वाद् घटवदित्यादि नवानुमानैरिति भावः। महाभारतमादिर्येषां तेषाभितिहासानामपि। महापुरुषस्य धर्मराजादेर्गुणानां वर्णनं परं प्रधानं येषां तेषां भावस्तत्ता तयैव हेतुना विश्वातिशायित्वम्। बहुना किम्। बहूक्तिभिः प्रयोजनं नास्तीत्यर्थः। वेदान्ता अप्युपनिषदर्थप्रतिपादका ग्रन्था अपि ब्रह्मणः सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मेति ज्ञानादिगुणविशिष्टस्य ब्रह्मणः प्रतिपादकतयैव हेतुना परमत्यन्तमुत्कृष्यन्त उत्कृष्टा भवन्ति।
अथेति। अथातो धर्मजिज्ञासेति सूत्रमिति शेषः। उपक्रममाणेनोपक्रमं कुर्वता सूत्रकृता सूत्रकारेण महर्षिणा जैमिनिनापि पुरुषं महापुरुषमाश्रितस्य गुणश्रेष्ठस्य गुणोत्तमस्य धर्मस्य धर्मगुणस्य ज्ञातुमिच्छा जिज्ञासा तद्द्वारेण महापुरुषस्य पुरु
षोत्तमस्य गुणवर्णनमेव शास्त्रस्य प्रामाण्यात् प्रमाणत्वादावश्यकत्वादित्यर्थः तत्तदिति। नीयते प्रतिपाद्यत इति न्यायः स स न्यायस्तत्तन्न्यायस्तत्तद्विषयः। तस्य निरूपणं परं प्रधानं यस्य तत्कथाप्रतिपादकस्यापीत्यर्थः। प्रबन्धराशेः काव्यजातस्य महापुरुषगुणवर्णनं हेम्नः सुवर्णस्य परमामोद इवोत्कृष्टगन्ध इव। ततश्च महापुरुषगुणवर्णनस्यावश्यकत्वादेवेत्यर्थः।
प्रतापेति। प्रतापरुद्रदेवस्य गुणान् शौर्यादीनाश्रित्यावलम्ब्यायमलंकारप्रबन्धो निर्मितो रचितः। हे सन्तः सज्जना वो युष्माकं कर्णोत्सवः श्रोत्रयोरुत्सवोऽस्तु। आनन्दकरो भूयादित्यर्थः।
इयता ग्रन्थेन प्रतिपाद्यमहिम्ना प्रबन्धस्योत्कर्षमुक्त्वा स्वग्रन्थस्य विशेषमाह।काकतीयेति। काकतिर्नाम दुर्गाशक्तिरेकशिलानगरेश्वराणां कुलदेवता सा भक्तिर्भजनीया अस्येति काकतीयः। स चासौ नरेन्द्रश्च तस्य यशः कीर्त्ति भूषयितुमलंकर्त्तुमियं चिकीर्षिता विद्यानाथस्य कवेः कृतिः काव्यं स्वयं च स्वयमेव तेन यशसा विभूष्यत अलंक्रियते। अत्रकीर्त्तिग्रन्थयोरन्योन्यं भूप्यभूषणभावसद्भावादुत्कर्षं इति भावः।
प्रबन्धमहिन्ना प्रतिपाद्यातिशये वृद्धसंवादमाह। दण्डिनेति। दण्डिना कविनापि प्रतिपादितम्। प्रबन्धमहिम्ना प्रतिपाद्यमहत्त्वमिति शेषः। तदेवाह। आदीति। आदिराजानां नलनहुषादिपूर्वपुरुषाणां यशोबिम्बं कीर्त्तिमण्डलं वाङ्मयं वाक्प्रपञ्चमेवादर्शे दर्पणम्। व्यस्तरूपकम्। कर्म प्राप्य तेषां नृपाणामसन्निधानेऽपि स्वयं न नश्यति। वाक्यार्थः कर्म। अत्र नलाद्यसंनिधानेऽपि तद्यशोबिम्बावस्थितेः प्रवन्धाधीनत्वोक्तेः प्रबन्धमहिन्ना प्रतिपाद्योत्कर्ष इति भावः। अतः कीर्त्तिभूषणं स्वग्रन्थ इति तात्पर्यम्।
इतः परं प्रतिपाद्यमहिम्ना प्रबन्धमहत्तामाह। सूक्तैवेति। प्रतिपाद्यस्य वर्ण्यस्य महिम्ना सामर्थ्येन प्रबन्धस्य काव्यस्य महत्तोत्कर्षः सूक्ता सुष्टूक्तैव। प्राचा प्राचीनेन भामहेन। तत् पूर्वोक्तं प्रबन्धमहत्त्वमुक्तम्। उपश्लोक्यस्य वर्ण्यस्य माहात्म्यादतिशयात् काव्यसंपत् काव्यसंपत्तिरुज्ज्वला अतिशयिता। इत्येवमुक्तमिति पूर्वेणान्वयः।
उद्भटेन च तन्नामकेन काव्यकृता च प्रतिपादितम्। गुणेति। गुणाः प्रसादादयः। अलंकारा उपमादयः। तैश्चारुत्वं रुचिरत्वं तेन युक्तमपि काव्यम्। आश्रीयत इत्याश्रयस्तस्य वर्ण्यस्य संपत्त्या माहात्म्येनेत्यर्थः। अमरद्रुमः कल्पवृक्षः मेरुणा सुमेरुणेवाधिकोज्ज्वलमत्युज्ज्वलम्।
रुद्रदेवेनापि केनचित् कविना कथितम्। उदारेति। उदारस्य महतः। ‘उदारोदातृमहतोः’ इत्यमरः। तस्य चरितस्य निबन्धनाद्वर्णनात् प्रबन्धस्य प्रतिष्ठा स्थितिरतिशयो वा कथितेति पूर्वेणान्वयः। साहित्यमीमांसायां च तन्नामकग्रन्थे च प्रपञ्चितमुक्तम्। नायकेति। नायकस्य गुणाः शौर्यादयः। अत एव गुणाः सूत्राणीति श्लिष्टरूपकं तैर्ग्रथिता गुम्फिताः सूक्तय एव निर्दोषवचनान्येव स्रजो मालिकाः। सुकृतमेषामस्तीति सुकृतिनस्तेषां सुभगानाम्। आकल्पं कल्पपर्यन्तम्। आकल्पन्ते वेपायन्त अलंकारायन्ते। ‘आकल्पवेषो नेपथ्ये’ इत्यमरः।
निरूपितं च भोजराजेन। भोजराजेन निरूपितं च प्रतिपादितं च। कवेरिति। लोकोत्तरैः लोकश्रेष्ठैरनन्यसुलभैगुणैरुत्तरः श्रेष्ठो नायको वर्ण्येत यदि प्रतिपाद्येत चेत्। अल्पापि गुणालंकारादिभिर्न्यूनापि वाग्वृत्तिर्वाग्व्यापारः प्रबन्ध इति यावत्। विदुषां बुधानां कर्णावतंसति श्रोत्रालंकारो भवति। अतः स्वयं तेन विभूष्यते इति तात्पर्यम्। एवमवश्यं काव्ये लोकोत्तरगुणो नायको वर्ण्य इत्युक्तम्।
ते गुणाः क इत्याकाङ्क्षायामाह। तत्रेति। तत्र लोकोत्तरगुणेष्वेत अग्रत एव वक्ष्यमाणलक्षणा नायकस्य वर्ण्यस्य गुणाः। तन्नामान्येवाह। महाकुलीनतेति। स्वग्रन्थे प्रतिपाद्यमानानां प्रतापरुद्रगुणानां विशेषमाह। पूर्वेति। पूर्वशास्त्राणांसाहित्यमीमांसादिशास्त्राणां अनुसारेण कतिचित् कियन्त एवेमे गुणाः कथिता उक्ताः। प्रतापरुद्रदेवस्य गुणाः शौर्यादयो वाचां वचनानामगोचरा अविषया वक्तुमशक्या इत्यर्थः।
अथेति। अथ गुणोद्देशानन्तरं तेषां गुणानां स्वरूपं लक्षणमुदाहरणं च लक्ष्यं च। उच्यते इति शेषः। तत्राद्यंलक्षयति। महाकुलीनतेति। महत्युत्कृष्टे कुले वंशे संभव उत्पत्तिर्महाकुलीनता। नामेति प्रसिद्धा। उदाहरति। यथा।
यथा स्पष्टं भवति तथोच्यत इत्यर्थः। तादृगिति। स एव दृश्यत इति तादृक्। अनिर्वाच्यमित्यर्थः। मध्यमलोकस्य भूलोकस्य यद्भाग्यं तस्य विभवादतिशयाद्धेतोः। ‘भाग्यं कर्म शुभाशुभम्’ इत्यमरः। क्षोण्यां भूमौ क्रीडितुमिच्छुभिरिन्द्र आदिर्येषां तैर्वृन्दारकैर्देवैः। ‘वृन्दारका दैवतानि’ इत्यमरः। चिरतरं बहुकालं यथा तथा संप्रार्थितः पद्मभूर्ब्रह्मा। अर्केन्द्वोःसूर्याचन्द्रमसोः कुलयोर्वेशयोः प्रशस्तिं प्रशंसां प्रतिष्ठामतिक्रान्त इति तथोक्तम्। यं काकतीयानामन्वयं वंशमसृजत् सृष्टवान्। तस्मिन्नन्वये लक्ष्मीपतिर्विष्णुः संप्रतीदानीं वीररुद्रवपुषा प्रतापरुद्ररूपेण जागर्त्ति जागरूको भवति। अवतरतीत्यर्थः। सूर्येन्दुकुलातिशायित्वादस्य कुलस्य महत्त्वम्। तत्रावतीर्णत्वात् प्रतापरुद्रस्य ना विष्णुः पृथिवीपतिरिति न्यायात् लक्ष्मीपतिरेवासावित्युक्तमिति वेदितव्यम्। नन्वत्र क्षोणीविहरणेच्छुभिर्देवैर्याचितो ब्रह्मा सत्कुलं सृष्टवान्। तत्र प्रतापरुद्रेण विष्णुरवतीर्ण इत्युक्तम्। तथा च देवानां क्षोणीविहरणेच्छा कथं घटत इति चेदुच्यते। विष्ण्वतारं विना तेषामवलम्बाभावात् क्षोणीविहरणं न संभवति। तदवतारे तु यथेष्टविहरणं संभवतीति तदवतारो वर्णित इति। तथा च प्रतापरुद्रसंवन्धिनां देवांशसंभूतत्वं व्यज्यते। अत्र पद्मभुव इन्द्रादिप्रार्थनासंबन्धेऽपि तत्संबन्धोक्तेरतिशयोक्तिः।
अथ महाकुलीनतानिरूपणानन्तरमौज्ज्वल्यं नाम गुणः। निरूप्यत इति शेषः। एवमेवाथ महाभाग्यमित्यादावप्यन्वयो बोध्यः। रूपेति। रूपेणाकारविशेषेण संपन्नः संपूर्णो देहो यस्य स तस्य भावस्तत्त्वम्। लावण्यमिति यावत्। तदौज्ज्वल्यं नाम गुण इति परिकीर्त्त्यते। उदाहरति। मुरारेरिति। यः कामो मन्मथः पूर्वे पूर्वकाले मुरारेः श्रीकृष्णात् जलनिधिसुतायां रुक्मिणीरूपश्रीदेव्यामुद्भवदुत्पन्नः।
‘राघवत्वेऽभवत् सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनि’
इति विष्णुपुराणाद् रुक्मिण्या जलनिधिसुतात्वम्। स कामो जगत्या भूमेर्भाग्यविभवाद् भाग्यातिशयात् पुनर्भूयो महादेवात्तन्नामकान्महाराजात्। अवनीभृद्दुहितरि राजपुत्र्याम्। ईश्वरात् पार्वत्यामिति च ध्वन्यते। जात उत्पन्नः। अत एव वपुष्मान् प्रशस्तशरीरः सन् स्वयं साक्षादयं प्रतापश्रीरुद्रः प्रतापश्रीविशिष्टरुद्रः प्रतापरुद्रः। मध्यमपदलोपे समासः। प्रतापरुद्रोभूत्वा जयति
प्राचीनकविभिः प्रबन्धस्य स्वग्रन्थस्याभरणीकृतो न। अभूदिति शेषः। एतेन प्रबन्धृृणामपकर्ष उक्त इति न पौनरुक्तत्यम्।
सच्चरितनिबन्धने प्रबन्धप्रबन्धूणामुत्कर्षमाह। प्रबन्धेति। विषयभूतस्य प्रतिपादनीयस्य नेतुर्नायकस्य गुणनिरूपणं दानदाक्षिण्यादिगुणोदाहरणं प्रबन्धानां ग्रन्थानां प्रवन्धृणामपि तन्निर्मातॄणां कवीनां च कीर्त्तिर्यशः प्रतिष्ठा चिरावस्थानं तयोर्मूलं कारणम्।
अत्र दृष्टान्तमाह। यथेति। रामस्य दाशरथेर्गुणानां वर्णनम्। रामायणं काव्यम्। वल्मीकाज्जन्म यस्येति वल्मीकजन्मा वाल्मीकिः। तयोर्महाप्रतिष्ठाया कारणं यथा भवति तथैव मूलमिति पूर्वेणान्वयः। ‘काव्यालापांश्च वर्जयेत्’ इति प्रतिषेधपरिजिहीर्षयाह। महापुरुषस्योत्तमनायकस्य गुणवर्णने प्रबन्धस्थितिः प्रबन्धनिर्माणं श्रेयांसि करोतीति श्रेयस्करी। ‘काव्यं यशसेऽर्थकृते’ इत्याद्यालंकारिकवचनप्रामाण्यादस्य श्रेयःसाधनत्वम्। निषेधस्त्वसत्काव्यविषय इति तात्पर्यम्। काव्यस्य पुरुषार्थसाधनत्वं सदृष्टान्तमाह। यथेति। वेदः श्रुतिः। शास्त्रेति। शास्त्रं स्मृतिः पुराणानि चादिर्यस्य प्रबन्धस्य तस्मात्।आदिशब्देन गुरूपदेशादिर्विवक्ष्यते। हिते कर्त्तव्ये प्रवृत्तिरुद्वेगोऽहितान्निवृत्तिवानुद्वेगश्च यथा तथा सन्नुत्तमनायक आश्रयो वर्ण्यत्वेन यस्य तस्मात् काव्यादपि हितप्रवृत्तिरहितनिवृत्तिश्च भवतीत्यर्थः। ननु वेदादेरेव पुरुषार्थसिद्धिः किं काव्येनेत्याशङ्कय काव्यस्य विशेषमाह। काव्य इति। काव्ये इयान् एतावान् विशेषो भेदः। अस्तीति शेषः। काव्यादिति हेतौ पञ्चमी। कर्त्तव्यतायां कर्त्तव्यत्वे धीर्बुद्धिः सरसा रससहिता भवति। कर्त्तव्यार्थे काव्यादिच्छया प्रवर्त्तते। अन्यत्र वेदादौ तथा न सरसा भवतीत्यर्थः। अकरणे प्रत्यवायभिया प्रवर्त्तते न तु संतुष्टः प्रवर्त्तते। अयमेव विशेष इत्यर्थः। तथा हि। अयमेवार्थः प्रतिपाद्यत इत्यर्थः।
यदिति। प्रभुणा राज्ञा संमितः समः।‘सम्मितं समम्’ इत्यमरः। तस्माच्छब्दःप्रधानं प्रवर्त्तकं यस्य तस्माद्वेदात्। यदिष्टं कर्त्तव्याकर्त्तव्यरूपमभीष्टम्। अधिगतं ज्ञातम्। ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्था इति नियमात्। वाङ्मात्रेण प्रभुरिव वेदोऽपि विधिनिषेधवलेन हितेषु पुंसः प्रवर्त्तयति निवर्त्तयति चाकर्त्तव्येभ्यः विपक्षे राजा दण्डमिव वेदः प्रत्यवायं जनयति। अतः शब्दप्राधान्यमिति भावः।
अत्रार्थस्य प्राधान्यमात्रत्यागो न स्वरूपतः। तथात्वे तून्मत्तवाक्यवद्वेदस्याप्रवर्त्तकतैव स्यात्। अतोऽध्ययनं फलवदर्थावबोधनपर्यन्तमिति वेदितव्यम्। अर्थः प्रवणः प्रधानं प्रवर्त्तकं यस्य तस्मात्। अत एव सुहृत्संमितात् मित्रतुल्यात् पुराणवचनाच्च चिरं विचारापेक्षिततया कृच्छ्रेणेत्यर्थः। यदिष्टमधिगतम्। अर्थप्रधानं पुराणम्। एवं कुर्यान्मैवं कुर्यादिति विधिनिषेधवलेन प्रवर्त्तकं वा न भवति। किं तु पूर्वपुरुषचरितस्तुतिनिन्दामुखेन रागद्वेषावुत्पाद्य मित्रवत्प्रवृत्तिनिवृत्तिहेतुभूतम्। अतः पुराणमर्थप्रधानं सुहृत्संमितं चेति वेदितव्यम्। यत्तदोर्नित्यसंबन्धात् तस्मिन्नित्यध्याहारः। तस्मिन् कर्त्तव्ये कार्ये कान्तासंमिततया कामिनीतुल्यया यया काव्यश्रिया काव्यसंपदा सरसतां सरसत्वमुत्कण्ठामित्यर्थः। आपाद्यउत्पाद्य। बुधो विद्वान् पुमान् कुतुकी कौतुकवान् विरचितः। अकर्त्तव्येऽकुतुकी च च्छेदः। अकर्त्तव्ये अहिते अकुतुकी विरचितः। कर्त्तव्ये कुतुकीत्यनेन हितप्रवृत्तिः। अकर्त्तव्य इत्यनेनाहितनिवृत्तिश्चोक्तेति बोध्यम्। यथा कामिनी कटाक्षवीक्षणादिविलासैरेव कामिनमावर्जयन्ती सर्वे कार्ये कारयत्येवं काव्यश्रीरपि व्यञ्जनाव्यापारेणैव रामादिवद्वर्त्तितव्यं न रावणादिवदित्यर्थं द्योतयन्ती पुंसः कर्त्तव्ये प्रवर्त्तयति निवर्त्तयति चाकर्त्तव्यादितीदं काव्यं कान्तासम्मितम्। अतोऽस्याः सरसतापादनेन प्रवर्त्तकत्वाद्भयानुनयपूर्वकं प्रवर्त्तकाभ्यां बेदपुराणाभ्यां विशेषोऽस्तीति बोध्यम्। अतः काव्यनिर्माणाय प्रयतामह इत्याह। तस्यै काव्यश्रियै स्पृहामिच्छां कुर्महे। वयमिति शेषः।
तत इति। वेदाद्युपदेशाद्विशिष्टत्वाद्धेतोः काव्यं दृष्टस्यार्थादेरदृष्टस्य कीर्त्त्यादेः फलस्य प्रयोजनस्य जनकतयोत्पादकतया बह्वधिकं यथा तथोपयुक्तमुपयोग्युपादेयमित्यर्थः। अत्र वृद्धसंवादमाह। काव्यप्रकाशे ग्रन्थे। तथा च तथैवोक्तम्। अस्माभिर्यथोक्तं तथोक्तमित्यर्थः। काव्यं यशसे कीर्त्यैः। अर्थकृते अर्थप्रयोजनाय। अर्थार्थमित्यर्थः। व्यवहारस्य विदे ज्ञानाय। शिवेतराणामशुभानां क्षतथे नाशाय सद्यस्तदानीं परनिर्वृतय उत्कृष्टसुखाय। कान्तासंभिततया कान्तातुल्यत्वेनोपदेशयुजे योगाय। उपदेशार्थमित्यर्थः। भवतीति शेषः।
प्रसिद्धमिति। महाप्रबन्धेषु प्राचीनोत्कृष्टग्रन्थेषु। एतत् काव्यस्य कीर्त्त्यादिसाधकत्वं प्रसिद्धं च प्रसिद्धमेव। परिव…ति। छाया। विज्ञानं परिवर्धते
सर्वोत्कर्षेण वर्त्तत इति। एवं मृगदृशां स्त्रीणां मनीषा बुद्धिः। भवतीति शेषः। अत्र साक्षात् काम एवायमित्युत्प्रेक्षया रूपसंपत्तिरुक्ता।
अथ महाभाग्यम्। महच्च तद्भाभ्यं च महाभाग्यम्। लक्षणमाह। यद्विश्वंभराया भूमेराधिपत्यमधिपतित्वं तद् महाभाग्यमिति विशेषः। उच्यते। यथा सेवेति। सेवायां नम्राणां प्रणतानां नरेन्द्राणां राज्ञां मौलिषुकिरीटेषु विलसद्भिः स्फुरद्भीरत्नांशुभी रत्नकान्तिभिर्नीराजितं नीराजनां प्रापितम्। राज्यश्रियो राज्यलक्ष्म्याः प्रथमावतारस्य प्रथमप्रवेशस्य पदवीं मार्गभूतम्। सिंहासनस्य राज्यलक्ष्मीप्रथमचिह्नत्वादिति भावः। भद्रासनं सिंहासनमारुह्य। तत्र स्थित्वेत्यर्थः। गुणानां दानदाक्षिण्यादीनां निधिराकरः श्रीवीररुद्रो नृपः प्रतापरुद्रनृपतिः। प्रत्यर्थिपृथ्वीपतीनां शत्रुभूपालानां श्लाघाया उत्कर्षस्य लङ्घने जाङ्घिकैर्जङ्घया चरन्तीति जाङ्घिकाः शीघ्रगामिनस्तैः समर्थैरित्यर्थः। अत एवानुपमैः सादृश्यरहितैर्विक्रमैः पराक्रमैः क्षोणीं भुवं रक्षति। दुष्टनिग्रहशिष्टपरिपालनाभ्यां निखिलभूमण्डलसंरक्षणादस्य महाभाग्यमिति भावः।
अथौदार्यम्। लक्षणमाह। यदिति। तस्मिन् शीलं स्वभावो यस्य स तच्छीलस्तत्परतस्य भावस्ताच्छील्यं तत्परत्वमासक्तिरिति यावत्। विश्राणने वितरणे ताच्छील्यमिति शिवभागवतवत् समासः। यत् तदौदार्येनिगद्यत उच्यते। यथा। वदान्य इति। गुणश्रेणीनां गुणगणानां श्लाघयोत्कर्षेण पिहितमाच्छादितं तिरस्कृतं हरिदीशानामिन्द्रादिदिक्पतीनां यशः कीर्त्तिर्येन स तस्य रुद्रनृपतेः समस्तुल्यः। अन्यो वदान्योऽपरो दाता त्रिजगति त्रिलोके। लोकत्रयेऽपीत्यर्थः। नास्ति। अत्र हेतुमाह। यद्यस्मात् कारणाद् विद्वांस इति जनो विद्वजनस्तस्य मणिगृहाणां मणिमयमन्दिराणां प्राङ्गणभुवोऽङ्गणभूमयः। समन्तात् सर्वत्रोद्भूतैरुल्लसितैर्द्विरदानां गजानां मदगन्धैर्दानगन्धैः सुरभयो वासिताः क्रियन्ते। अत्रोत्तरवाक्यार्थेन पूर्ववाक्यार्थसमर्थनात् काव्यलिङ्गालङ्कारः।
अथ तेजस्विता। लक्षणमाह। जगदिति। यज्जगतां प्रकाशकत्वं प्रकाशकारित्वं तत् तेजस्वित्वमुच्यते। उदाहरति। सदेति। जयिनो जयशीलस्य काकतिविभोः काकतिदेवतोपासकविभोः। मध्यमपदलोपी समासः। प्रतापरुद्रस्यारिक्ष्माभृत्कान्तानां शत्रुभूपाङ्गनानां चिकुरः कुन्तला एवं तिमिरं तस्याहंकृतिमहंकारं मुष्णातीति तम्मुषि तस्मिन् तथोक्ते। तेजः प्रताप एव भानुः
सूर्यस्तस्मिन् सदा सर्वदा स्फुरति सति। जरन्ति जीर्णान्युद्दामाम्युत्कटानि तमांसि यासां तासाम्। कुतः। न सूर्येपश्यन्तीत्यसूर्येपश्यास्तासां सूर्यप्रकाशरहितानामवधिगिरेश्चक्रवालस्य पश्चात् भवाः पाश्चात्यास्तासां दृषदां शिलानां प्रकाशस्यालोकस्य व्युत्पत्तिर्विशेषेणोत्पत्तिः संभवो भवति। अत्र सूर्यप्रकाशरहितयारेपि देशकालयोरतिबेलप्रकाशजननादस्य तेजस्वित्वं लोकोत्तरमिति भावः। रूपकालंकारः।
अथ वैदग्ध्यम्। लक्षणमाह। कृत्येति। कृत्यवस्तुषु कर्तव्यार्थेषु चातुर्यं चतुरत्वं वैदग्ध्यं परिकीर्त्त्यते। यथा। उदाहरति। चातुर्यमिति। गुणनिधेः श्रीवीररुद्रप्रभोश्चतुर्ये किमु वर्ण्यते। अशक्यत्वात् किमपि न वर्ण्यत इत्यर्थः। अशक्यत्वमेव विशदयति। यत्रेति। यत्र विद्या न तत्र श्रीर्यत्र श्रीर्नतत्र विद्येति न्यायादन्योन्यं परस्परं विरुद्धयोरपि वाणीश्रियोः सरस्वतीलक्ष्म्योर्यत्र प्रतापरुद्रे महदार्जवमृजुत्वमेकत्रावस्थापनशक्तिरिति यावत्। अस्तीति शेषः। पूर्वोक्तन्यायस्तु निर्गुणजनविषय इति भावः। किं चाभ्यां सह श्रीवाणीभ्यां सदृशैः स्वोचितैरुपचारैः सत्कारविशेषैर्ललितां हृष्टामित्यर्थः। इमां भुवं ते तादृशा अनुपमास्तैरुत्सवैर्हर्षोत्पादकव्यापारैः। ‘उत्सूते हर्षमित्येष उत्सवः परिकीर्त्यते’ इति भावप्रकाशे। दिशां जिल्बरो जयशीलः स नृपतिः। समानः पतिर्यस्याः सा सपत्नी तस्या भावः सापत्म्यं विरोध इति यावत्। निःसापत्न्यमविरोधं यथा तथा धत्ते दधाति। आभ्यामित्यत्राप्रधाने तृतीयाविधानेऽपि शाब्द एवोपसर्जनभावो न त्वार्थः। सह शाखाप्रस्तरं प्रहरतीत्यत्रेव समप्रधानभावोपपत्तेः। अन्यथानौचित्यादिति बोध्यम्। अत्र मिथो विरुद्धानामेतासामन्योन्यानुरागजननेन वशीकरणाद्वैदग्ध्यमुक्तम्। वितरणविद्वद्गोष्ठीप्रजानुरञ्जनाभिः श्रीवाणीधरणीर्निर्विरोधं पोषयतीति भावः।
अथ धार्मिकत्वम्। लक्षणमाह। धर्मस्यैकं मुख्यं यथा तथा आयत्तमधीनं चित्तं यस्य तस्य भावस्तत्वं धार्मिकत्वमुदीर्यत उच्यते। उदाहरति। यथा। परिहास इति। काकतीन्द्रः परिहासेऽपि विहस्य वचनेऽप्यनौचित्यमौचित्याभावं स्वप्नेऽप्यन्यवध्वाः कथां गोष्ठीं शत्रौ रिपावप्यगुणस्य दुर्गुणस्पारोपं न मृप्यति न सहते। आरोपो नामासतो धर्मस्य स्थापनम्। परिहासादावप्यनौचित्यादिकमसहमानस्यास्य धार्मिकत्वं किमु वक्तव्यमिति भावः।
महाकुलीनतेत्यादि गुणोद्देशश्लोके आदिशब्दग्रहणादादिशब्दस्वीकारान्महामहिमा पाण्डित्यं च प्रभृतिरादिर्येषां गुणानां ते तथोक्ताः। निरूप्यन्त इति शेषः।
तत्र महामहिमलक्षणमाह। तदिति। देवता आत्मा अधिष्ठानं यस्य तस्य भावो देवतात्मता या देवांशसंभूतत्वं तन्महामहिमत्वम्। उच्यते इति शेषः। उदाहरति। कौसल्येति। विष्णोः प्रथमजनन्यादिमाता कौसल्यासीत्। देवकी द्वितीया मातासीत्। किं चेति चार्थः। तदनु पश्चान्महिता पूज्यमाना मुम्मडिम्या इति राजस्त्री सैव प्रतापरुद्रमाता तृतीया माताभूत्। तमेवार्थं विशदयति। य इति। यो विष्णुस्त्रेतायां त्रेतायुगे रघुपतिः श्रीरामोऽभूद्द्वापरे युगे शौरिः श्रीकृष्ण आसीत्। स विष्णुः कलौ युगे वीररुद्रस्यावतारो यस्य स रुद्ररूपेणावतीर्णः सन् जयति। अतो विष्णोर्मातृत्रयं सिद्धम्। महामहिमत्वं स्वयमेव विशदयति। अत्रेति श्लोके गरुढध्वजात्मकतया विष्ण्ववतारत्वेन महामहिमतोक्ता।
सर्वेति। सर्वाभिर्विद्याभिरधिकत्वं यत्तत्पाण्डित्यमुदाहृतमुक्तम्। उदाहरति। यथा गोष्ठीभिरिति। श्रीवीररुद्रो नृपः षण्णां दर्शनानां समाहारः पदर्शनी।
‘पाणिनेर्जैमिनेश्चैव व्यासस्य कपिलस्य च।
कणादस्याक्षपादस्य दर्शनानि षडेव हि॥’
इत्याहुः। सा सीमा गोचरो यासां ताभिस्तथोक्ताभिर्गोष्ठीभिः शास्त्रप्रसंगैर्बुधगणान् विद्वत्समूहान् संसदि सभायां परितोषयन् सतः श्रेष्ठस्य सारस्वतमार्गस्य कवितामार्गस्य दर्शनेन वित्तैर्दर्शनचणैर्दर्शनसमर्थैः सूक्तैः सुभाषितैः कवीन् प्रीणयन् संतोषयन्। संगीतोपनिषदः नाट्यवेदान्तस्य रहस्यपिशुनैर्मर्मसूचकैरातोद्यस्य ततादिचतुर्विधवाद्यस्य योग्यैरुचितैः क्रमैः परिपाटिभिः। ‘ततं वीणादिकं वाद्यमानद्धं मुरजादिकम्। वंशादिकं तु सुषिरं कांस्यतालादिकं घनम्। चतुर्विधमिदं वाद्यं वादित्रातोद्यनामकम्॥’ इत्यमरः। वैणिकान् वीणावादकान् धिन्वन् प्रीणयन् सन् विहरति। तत्र विभोः सर्वविद्याविशारदत्वादखण्डं पाण्डित्यमिति भावः।
अथेति। अथेत्यारम्भे। ‘मङ्गलानन्तरारम्भपश्न
कार्त्स्न्येष्वथो अथ’ इत्यमरः। प्रथममेव नायकगुणनिरूपणानन्तरं नायकस्वरूपं निरूप्यते। लक्षणोदाहरणाभ्यामिति शेषः। महापुरुषगुणवर्णनेत्प्रादिना गुणवर्णनस्यैव प्रबन्धोत्कर्षावहत्वेनोक्त-
त्वात्प्रथमतो गुणनिरूपणमिति वेदितव्यम्। लक्षणमाह। यशः कीर्त्तिः। कोशदण्डजं तेजः प्रतापस्ताभ्यां सुभगो धर्मकामार्थेषु तत्पर आसक्तो धुरन्धुरः समर्थो गुणैः कुलीनत्वादिभिराढ्यः पूर्णश्च। पुमानिति शेषः। नायकः परिकीर्त्तितः। यद्यपि गुणाढ्य इत्यनेनैव यशः प्रतापधर्मादीनामुपादानं भवति तथापि पुनरुपादानं तेषामावश्यकत्वद्योतनाय। उदाहरति। यशःप्रतापाभ्यां सुभगत्वं यथा। धर्मेति। काकतिवीररुद्रनृपतेः स्फारं प्रभूतं यशोमण्डलं कीर्त्तिमण्डलं त्रिभुवनस्य त्रिलोकस्य धर्म एवालम्बो दण्डस्तेन समुच्छ्रितामुद्धतामेकातपत्रस्याद्वितीयच्छत्रस्य श्रियं शोभां धत्त इति निदर्शना। प्रतापमाह। छायेति। कुवलयश्यामेन्दीवरनीलेयं परिदृश्यमाना नभस्थल्याकाशस्थल्यस्य छत्रस्यातपत्रस्य छायानातप इव लोक्यते दृश्यते। अत्र यदिति शेषः। उत्तरवाक्ये तच्छब्दप्रयोगात्। यद्यस्मात् कारणादालोक्यते तत्तस्मात् कारणात् तस्य छत्रस्योपरि भागे प्रताप एव तपनः सूर्यो नियतं यथा तथा द्योतते प्रकाशत इति मन्ये त्रिभुवनोपरि कीर्त्तिस्तदुपरि प्रताप इति महती यशःप्रतापसंपत्तिरुक्ता। धर्मकामार्थतत्परत्वं यथा। धर्म इति। रुद्रनरेश्वरे धर्मः पुण्यसंपादको गुणः सोऽर्थ इव द्रव्यरूपपुरुषार्थ इव पूर्णः श्रीर्यस्य स तथोक्तः स्थितः। अर्थो धर्म इव पूर्णश्रीः स्थितः कामो विषयेष्वभिलापस्ताविव धर्मार्थाविव पूर्णश्रीः समृद्धः। तौ धर्मार्थौकाम इव कामः पुरुषार्थ इव पूर्णश्रियौ स्थितावित्यन्वयः। अत्र धर्मार्थकामानां त्रयाणामपि समृद्धत्ववर्णनेन तुल्यवृत्तित्वं द्योतितम्। अत्र त्रयाणां परस्परसादृश्यवर्णनेनोपमेयोपमालंकारः। धुरीणता धुरन्धरत्वम्। यथा गायन्तीरिति। काकतिवीररुद्रनृपतौदोष्णा बाहुना विश्वंभरां भुवं बिभ्रति वहति सति शेषोऽनन्तो गायन्तीः स्वभर्तुभारावतरणात्। प्रतापरुद्रकीर्त्तिमिति शेषः। अद्येदानीमेवेति भावः। निजवधूः स्वजायाः शिरसां कम्पनैः श्लाघनैरनुमोदत अनुसृत्य तुष्यति। कच्छपपतिरादिकूर्मावतारो हरिरपि वक्षस्थल्या दर्शनात्। आलिङ्गनार्थमिति भावः। लक्ष्मीं श्रियं प्रीणयते संतोषयति। दिङ्गागाश्चदिग्गजाश्चानुब्रज्यया सुरतार्थमनुधावनेन करेणूनामिभीनां शुचं विरहजं दुःखम्। ‘मन्युशोकौ तु शुक् स्त्रियाम्’ इत्यमरः। अपाकुर्वन्ति परिहरन्ति। शेषादिभिर्भरणीयां विश्वंभरामयमेक एव विभर्त्तीति विश्वातिशायिधुरन्धरत्वमस्योक्तम्। मुखैरिति। फणीति सामान्यवाचकस्य विशेषपर्यवसानात् शेष इत्यर्थः। सहस्रेण मुखैः सहस्रसंख्याकैर्मुखै-
रित्यर्थः। सहस्रेणेत्यत्र ‘विंशत्याद्याः सदैकत्वे संख्याः संख्येयसंख्ययोः’ इत्यमरवचनादेकवचनत्वम्। एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम्। काकतिदेवताको वंशः काकतिवंशः। तद्भर्तुर्गुणान् शौर्यादीनिति सर्वत्र संबध्यते। वदेच्चेद्धूयाद्यदि। तथा विवस्वान् सूर्यः सहस्रेण करैरंशुभिरेव हस्तैरिति श्लिष्टरूपकमस्य लेखनसाधनत्वायोगाद्विलिखेच्चेत्। हरिरिन्द्रश्च। ‘इन्द्रो दुश्च्यवनो हरिः’ इत्यमरः। सहस्रेण नेत्रैः पश्येच्चेत्। स्थाने युक्तम्। ‘युक्ते द्वे सांप्रतं स्थाने’ इत्यमरः। शेषादय एव प्रतापरुद्रगुणस्तुत्यादिकं कुर्युश्चेद्युक्तम्। समर्थत्वात्। अन्येतु कर्त्तुमुद्युक्ताश्चेदयुक्तमिति वाक्यार्थः।
अथ नायकसामान्यनिरूपणानन्तरम्। उदात्तेति। उदात्तउद्धतो ललितः शान्त इति चत्वारः। धीरो धीरशब्दः पूर्व आदिर्येषां ते तथोक्ताः। इम उदात्तादयो नायकाः स्मृता उक्ताः। अत्र धीरशब्दपूर्वत्वमुदात्तादिशब्दानामेव न तु नायकानाम्। तथापि शब्दपरेणाप्यर्थलक्षणेति ‘देवपूर्वेगिरिम्’ ‘धनुरुपपदमस्मै वेदम्’ ‘हिरण्यपूर्वेकशिपुम्’ इत्यादौ मल्लिनाथेन
व्याख्यातम्। चैवादीनां पादपूरणादपूरणार्थत्वं द्रष्टव्यम्। श्लोकार्थेकविः स्वयमेव व्याकरोति। तत्रेति। तत्र नायकस्वरूपप्रकटनप्रस्तावे। सर्वरसानां शृङ्गारादिनवरसानां साधारणाः समाना धीरोदात्तादीनां सकलरसानुगुणत्वमनुकूलादीनां चतुर्णांतु नास्तीत्या शयेनोक्तम्।
क्रमेण चतुर्णां लक्षणान्याह। महदधिकं सत्त्वं सत्त्वगुणो यस्य स तथोक्तः क्रोधाद्यनभिभूतान्तःकरणोऽतिगम्भीरोऽगाधचित्तः कृपावान् परदुःखप्रहरणेच्छुरविकत्थन आत्मस्तुतिरहितो धियं रात्यादधातीति धीरो वत्सल एवंगुणको यः प्रतापरुद्रवत् प्रतापरुद्रतुल्यं वर्त्तते स धीरोदात्तो धीरोदात्तनामको नायकः संमतः। संदिग्ध इति। त्रैलोक्यमतिशयेन कीर्त्त्यासुभगः सुन्दरः श्रीवीररुद्रो नृपः। धृतोऽसि स्वङ्गंयेन सः। कृपया मृदुः न कातर्येणेत्यनेन महासत्त्वतोक्ता। क्षणमल्पकालमेवारीन्। पुरः स्थितानिति शेषः। हन्तुं संदिग्धे संदेहं गच्छति। क्षणमित्यनेन धैर्यमुक्तम्। पुर इत्यनेन न तु पलायितानिति धार्मिकत्वमुक्तम्। वन्दिषु स्तावकेषु शौर्यश्रियां शौर्यसंपत्तौ प्रणयं प्रेमाणं प्रतापरुद्रसंबन्धिनं प्रशंसन्त इति तथोक्तेषु सत्सु। नमन्ती सूर्यस्य स तथोक्तः सन्निति लज्जानुभावः। लज्जते लज्जितो भवति। स्तावकस्तुतावेव लज्जितस्यात्मस्तुतिर्दू-
रापास्तेत्यविकत्थनत्वमुक्तम्। सुखस्येष्टानुभवजन्यानन्दस्य रोषस्यामर्षस्य हर्षस्येष्टलाभजन्यमनःप्रसादस्य च पिशुनान् सूचकान्। ‘पिशुनौ खलसूचकौ’ इत्यमरः। आकारान् अक्षिनिमीलनादीन् वक्रे मनागीपदपि न धत्ते न विभर्त्ति। एतेनातिगम्भीरतोक्ता।
दर्पेति। यो नायको दर्पः शौर्यादिमदो मात्सर्यमसहनं ताभ्यां भूयिष्ठः प्रचुरः। चण्डा तीक्ष्णा वृत्तिर्व्यापारो यस्य स विकत्थन आत्माश्लाघापरः। मायावी केवलवञ्चकः। सुलभः क्रोधो यस्य सः। स नायको धीरोद्धत उच्यते। रे इति। रे रे इति हीनसंबोधनम्। ‘हीनसंबोधने तु रे’ इत्यमरः। रे रे इति सर्वत्र संबध्यते। रे रे घूर्जरदेशाधिपते। एवं देशवाचकलम्पाकादीनामपि तदधिपतयो वाच्याः। समरे युद्धे जर्जरः शिथिलगात्रोऽसि। हे लम्पाक किं किमर्थं कम्पसे वेपसे। हे वङ्गमुधा किं किमर्थेत्वङ्गसि त्वङ्गनमूर्ध्वोञ्चलनं करोषि। हे कोङ्कण वलस्य चतुरङ्गस्य रजसा परागेण काणोऽन्धोऽसि किम्। हे हूण प्राणाः परायणं प्रधानं यस्य तथोक्तो भव। महाराष्ट्र अपगतं राष्ट्रं यस्य स तथोक्तोऽसि। एतत् सर्वं कथमित्याकाङ्क्षायामाहुः। अमीति हस्तनिर्देशेनात्मदर्शनेन दुर्जयत्वं सूचितम्। वयं योद्धारो युद्धकारिण इत्युक्तरीत्यान्ध्रक्षमाभृत आन्ध्रदेशनायकस्य प्रतापरुद्रस्य भटा योधा अरीन् परिभवन्ति तिरस्कुर्वन्ति। अत्र रे रे इत्यादिना दर्पादिगुणप्रकाशनाद् भटानां धीरोद्धतत्वम्।
निश्चिन्त इति। कलासु गीतादिष्वासक्तः सुखी भोगप्रवणो मृदुः सुकुमाराकारो निश्चिन्तः सुतादिनिक्षिप्तयोगक्षेमतया चिन्तारहितो नायको धीरललित उच्यते। शौर्येति। शूरस्य युधि निर्भीकस्य भावः शौर्यं तस्योष्मा तापः। प्रताप इति यावत्। निर्गतोऽवग्रहः प्रतिबन्धको यस्मात् सः। यद्यपि ‘वृष्टिर्वर्षे तद्विधातेऽवग्राहावग्रहौ समौ’ इत्यमरकोशादवग्रहस्य वर्षप्रतिबन्धकवाचकत्वं तथापि ‘विब्वोकैर्बकसहवासिनां परोक्षैः’ इत्यादिमाघव्याख्याने विशेषवाचकस्यापि सामान्यवाचकत्वमिति निर्णीतं मल्लिनाथेन। तथैवात्रापि विशेषवाचकस्य सामान्यवाचकत्वं ध्येयम्। प्रतिनृपाः शत्रवः सर्वेऽपि नम्रीकृता वशीकृताः। इयं भूर्भूमिः पातिव्रत्यं पतिव्रतात्वं पत्युर्वशंवदत्वमुपैति प्राप्नोति। सर्वापि भूमिवंशीकृतेत्यर्थः। अयं स्वयंभूः स्वयंभूनामकः शिवो नाथः परिपालक एकशिलायां कश्चन शिवालयोऽस्ति। तस्य शिवस्य नाम स्वयंभूरिति। स एव रक्षक इति।
धीरः धैर्यवानयं युवराजः श्रीवीररुद्र एव सर्वो धुरं राज्यभारं वहति। नान्य इत्येवकारार्थः। इत्येवं विभुः समर्थः श्रीकाकतीन्द्रः काकतिकुलज्येष्ठः प्रतिकलं प्रतिक्षणमनुमोदते संतुष्यति। अत्र शौर्यादिभिर्दैवानुकूल्येन युवराजधुरंधरत्वेन च निश्चिन्तः सदा सुखमनुभवतीति काकतिकुलज्येष्ठो धीरललितः।
धीरो विवेचकः क्लेशसहिष्णुर्वां धीरः। शान्तः शान्तिप्रधानः। अतः प्रसन्न आत्मान्तःकरणं यस्य सः। द्विजादिकः पुमान् धीरशान्त इत्युच्यते। आदिशब्देन वणिक्सचिवौ विवक्षितौ। धीरमिति। एष संख्यावतां पण्डितानां गणः समूहो धीरं प्रत्यग्रंयथा तथा प्राप्त उदयोऽभिवृद्धिरुदयाचलश्च येन तम्। नृपालरत्नमभितः प्रतापरुद्राभिमुखं यथा तथेत्यर्थः। अब्जाकरः कमलाकरस्तामरसम्। पूषा सूर्यः। ‘विकर्त्तनार्कमार्त्तण्डमिहिरारुणपूषणः’ इत्यमरः। तमिव निजैः स्वीयैर्विकासैरुत्सवादिभिर्दलविश्लेपैश्चोन्मीलन्त्याः कमलायाः संपत्तेः। अन्यत्र लक्ष्म्याः। विहारवसतिः केलिस्थानं भूत्वा विश्वस्य प्रपञ्चस्यामोदं संतोषं गन्धविशेषं चोदञ्चयन् वर्धयन् दोषाणां पापानामवसान अन्ते नाशे। उत्सुकोऽन्यत्र दोषाया रात्रेरवसान अन्ते प्रभात उत्सुकः सन् मोदते। अब्जाकरस्याप्यन्तःसंज्ञासद्भावादौत्सुक्यं वर्त्तते चेतनत्वादन्यथा वृद्धिक्षयासंभवादिति। ‘अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः’ इति मनुवचनं च। अत्र प्राप्तोदयमित्यादिश्लेषानुप्राणितः पूषणमिवेत्युपमालंकारः। एकस्यैव नायकस्य धीरोदात्तादिशब्दवाच्यत्वं मारावस्थाभेदेनेति वेद्यम्।
अथ सर्वरससाधारणनायकनिरूपणानन्तरं शृङ्गारस्य प्रथमरसस्य विषया गोचराः। उद्दिशति। अनुकूल इति। स्मृत इति प्रत्येकं संबन्धः। अन्यथा बहुवचनापत्तेः।
उद्देशक्रमेण चतुर्णांलक्षणान्याह। एकायत्त एकस्यां नायिकायामासक्तोऽधीनः। एकासक्त इति वा पाठः। अमुमेवार्थमाह। एकस्यामिति। नायिकान्तरसद्भावेऽपीति भावः। किमिति। नायिका सखीमाह। हे सखि किं नाम किमभिधानं तपः भुवा भूदेव्या नायिकया चाचरितं कृतम्। भूतपःप्रश्नेहेतुमाह। धीरो रुद्रनृपो यस्या भुवः पतिर्भर्त्ता। इतीति शेषः। गीयते उच्यते। भूतपोनामग्रहणे तत्तपोऽहं करिष्यामीति तात्पर्यम्। इदानीं तव भाग्यात्तस्य पत्नी भवेत्याकाङ्क्षायामाह। क्केति। तत् सुचरितं सुकृतं क्वकुत्रास्ति। नास्ती-
त्यर्थः। यतः सुचरितात् तस्य प्रतापरुद्वस्य प्रिया स्यां भवेयं तत् क्वेत्यन्वयः। सख्याह। जाने। प्रियसंघटनोपायमिति शेषः। हे मानिनि मा विषीदविषादं मा गच्छ। त्वां रत्नानामाकरः खनिस्तथाभूता मेखला काञ्ची यस्यास्ताम्। भूपक्षे तु रत्नाकरः समुद्र एव मेखला यस्यास्ताम्। स्थिरां स्थैर्यवतीं भुवं च। पुरतः। अस्येति शेषः। प्रख्याप्याख्याय नृपं सदा त्वयि रक्तमनुरक्तं विधास्ये करिष्ये। ‘रसा विश्वंभरा स्थिरा’। ‘भूतधात्र्यब्धिमेखला’ इति चामरः। लक्ष्ये लक्षणानुगतिं दर्शयति। अत्रेति।
द्वितीयलक्षणमाह। तुल्येति। अनेकत्रानेकासु नायिकासु तुल्यस्तुल्यवृत्तिर्दक्षिणः। अमुमेवार्थमाह। अनेकास्विति। उदाहरति। नर्मेति। मया काचित् प्रिया स्मरकला मन्मथविद्यास्ता एव केल्यः सुरतक्रीडेत्यर्थः। तासु विषये। अग्राम्य इष्टजनावर्जनरूपः परिहासो नर्म तत्सहितमुक्तं वचनम्। भावे क्तः। तेन निमन्त्रिता आहूता स्वाकूतेन स्वाभिप्रायेण तत्सूचकेनेत्यर्थः। विलोकनेन कस्यैचित् नायिकायै हृदयं मन अभिलाष इत्यर्थः। आविष्कृतं प्रकटितम्। दूत्याः करेण साधनेन प्रसाधनविधिः प्रतिकर्मविधानमाभरणजातमिति यावत्। ‘प्रतिकर्म प्रसाधनम्’ इत्यमरः। कस्याश्चिन्नायिकायाः प्रहितः प्रेषितः। क्व वा नु कुत्र वा गच्छाम्यविलम्बेन गमिष्यामि। वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवत्प्रत्ययः। तत्तदुचितव्यापारेणानेकत्र भावप्रकाशनेनैकत्र गमनमनुचितमित्यनुचिन्तयैव विचारेणैव न तु गमनेनेत्येवकारार्थः। नृपते राज्ञो निशा रात्रिः प्रभाता प्रभातप्रायेत्यर्थः। आसीदित्यन्वयः। वीररुद्रस्यापि दक्षिणनायकत्वं वक्तुमुदाहरणान्तरमाह। वाणीमिति। वाणीं सरस्वतीं नायिकां च। मुखेन वक्रेण लक्षणया सल्लापेन। अन्यत्र नेत्राभ्यां श्रियं लक्ष्मी नायिकां च। दोष्णा बाहुना। मेदिनीं भुवं प्रियां च। मानयन् बहु मानयन् रुद्रनरेश्वरस्तासु वाणीश्रीमेदिनीषु तिसृषु नायिकासु च तुल्यतां तुल्यवृत्तित्वं धत्ते। अत्र महाभाग्यवतोऽस्य स्वमुखादिषु वाण्यादिसद्भाववर्णनेन वाण्यादिगतस्त्रीलिङ्गाक्षिप्तनायिकासु तिसृषु सल्लापावलोकनहस्तावलम्बनैस्तुल्यानुरागप्रकाशनादस्य दक्षिणत्वम्।
धृष्टलक्षणमाह। व्यक्तेति। यो व्यक्तोऽपराधो यस्य सः। गतभीर्निर्भीकश्च स नायको धृष्ट इति कथ्यते। राज्येति। राज्यश्रियो राज्यलक्ष्म्यास्तन्नाम्न्या नायिकायाश्च परिभोगमुपभोगं संभोगं च शंसतीति तथोक्तम्। हे राजन् भव-
तस्तव सर्वाङ्गं सप्ताङ्गानि समस्तशरीरं च।‘स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गबलानि च। राज्याङ्गानि’ इत्यमरः। आलोक्यते दृश्यते। तत्र दर्शनेऽविनयो दौष्टयं कः कीदृशो। नास्तीत्यर्थः। तस्या राज्यश्रियः सपत्न्या नाम मय्यर्प्यते निक्षिप्यत इति। यत इदमर्पणं साहसं न केवलं तत्संभोगसूचकावयवदर्शनं प्रत्युत तन्नाम्ना ममाह्नानं क्रियत इत्यतिसाहसमित्यर्थः। अहं त्वां ब…वल्लभाः प्रियतमा यस्य तं तथोक्तं जाने। बहुवल्लभत्वमेव व्यनक्ति। किमित्यादिना। ततोऽपरमन्यद्वक्तव्यं वाच्यं किं किमस्ति। नास्तीत्यर्थः। वयमल्पा दरिद्राः। या वसुमती नाम वसुमतीति प्रसिद्धा भूः। ‘वसुमती वसुधोवीं वसुन्धरा’ इत्याद्यमरकोशादिना। नायिका तु वसुमती धनवतीति प्रसिद्धा तस्यां तव प्रेम स्नेहः। अधिकजल्पितैर्वाक्यैः किम्। भाषितसाध्यं नास्तीत्यर्थः। प्रतापरुद्धस्यैकपत्नीव्रतस्य नायिकान्तरसंभोगवर्णनानौचित्यात् राज्यलक्ष्म्यादिषु स्त्रीलिङ्गमहिम्नानायिकान्तरत्वं परिकल्प्योह्रियतइति बोध्यम्। अत्र परिभोगप्रकाशनात् गोत्रस्खलनाच्चापराधाभिव्यक्तौतत्सकाशगमनान्निर्भीकत्वमित्यस्य द्रष्टव्यम्।
शठलक्षणमाह। गूढेति। गूढमन्यैरविज्ञातं यथा तथा विप्रियमपराधं करोतीति गूढविप्रियकृत् यः स शठः शठनायकः। दृष्ट्येति दृष्ट्या केवलं दृष्ट्यैव पश्यसि मनसान्तःकरणेन न पश्यसि वाचा प्रियं मनोहरं वचनं भाषसे। भावेनाभिप्रायेण नो भाषसे न वदसि। किं भुजान्तरं वक्षस्थलमग्रे पुरतः प्रकटयसि। आभ्यन्तरमन्तस्थितचित्तव्यापारं न च प्रकटयसि। हे काकतिनाथ ज्ञातम्। तव हृदयमिति शेषः। ध्यायतोऽन्तरालोचयतस्तव प्राणेश्वरी प्रेयसी भूः परं भूरेव मादृशेषु। जनेष्विति शेषः। विडम्बनैव अनुकरणमेव। तत् तस्मात् कारणाद व्यर्थैर्निरर्थंकैर्बहिःसंभ्रमैर्वाह्यसंरम्भैरलं पर्याप्तम्। बाह्यसंभ्रमान् मा कार्षीरित्यर्थः। अत्र दर्शनभाषणयोश्चक्षुर्वागिन्द्रिययोरभावे असंभवादेव पश्यसि भाषस इत्यनेन चारितार्भ्येदृष्टया वाचेति पुनरुपादाने तात्पर्यनिषेधार्थमिति न पौनरुक्त्यम्। अत्र नायिकामात्रविदितभावशून्यदर्शनादिविधानादयं शठः। वीररुद्रगुणवर्णनप्रतिज्ञाभङ्गं परिहरति। अत्रेति। रे रे घूर्जर शौर्योष्मा नर्मोक्तेनेत्यादिषु धीरोद्धतत्वात् तन्नायकविशेषत्वेन काकतीश्वराद्युदाहरणे वीररुद्रस्यैव वर्णनम्। तेषामन्योत्कर्षावहत्वादिति भावः।
पीठमर्दांदिनायकानुकूलनसहायलक्षणान्याह। किंचिदूनो न्यूनः पीठमर्दः। एका विद्या यस्य स एकविद्यो विटः। सन्धाने नायिकानायकयोः संघटने कुशलश्चेटः। हास्यकार्यनुवाक्यवेपविकारादिना परिहासको विदूषकः। स्मृत इति सर्वत्र संबन्धः।
शृङ्गारप्रधाना नायिकाः शृङ्गारनायिकाः। ता उद्दिशति। स्वाधीनपतिकेत्यादि। तथाभिसारिका चेत्यन्तेन। क्रमादुद्देशक्रमाल्लक्षणं तासामिति शेषः। उच्यते। प्रियेति। नित्यं प्रियेणोपलालिता या सा नायिका स्वस्मिन्नधीन आयत्तः पतिर्यस्याः सा स्वाधीनपतिका मतेत्यन्वयः। उदाहरति। प्रियामिति। सर्वे सहत इति सर्वेसहा तां प्रियां नायिकां प्रियामिष्टां भुवं च तैस्तैर्विशेषैर्वासोऽङ्गरागादिभिः सारकरणादिभिश्चोपलालयन् लालनं कुर्वन् प्रतापरुद्रनृपतिः प्रतिक्षणं क्षणे क्षणे अंवेक्षते। अवेक्षत इत्यनेनासन्नायत्तरमणत्वप्रतीतेः सर्वेसहायाः स्वाधीनपतिकात्वम्।
प्रियेति। प्रियस्यागमनवेलायामागमनसमये मुहुर्मुहुः केलिगृहं तथास्मानं स्वशरीरं च मण्डयन्त्यलंकुर्वती या सा नायिका बासकसज्जिका। वासके निवासस्थाने सजा सन्नद्धा सैव वासकसज्जिकेत्यन्वर्थसंज्ञा। ‘स्त्रीणां वासस्तु वासकः’ इति वचनात्। वासके वारे दिवसे सज्जयति सज्जीकरोति केलिगृहमिति वा। अमुमेव पक्षमवलम्ब्योदाहरति। स्वेति। प्रधानागारं प्रधानगृहं स्वतेजसा स्वप्रकाशेन परिष्कृत्यालंकृत्योत्कयोन्मनसोत्कण्ठितया श्रिया राज्यलक्ष्म्या नायिकया चाभिषेकवेलायां पट्टाभिषेकसमये वीररुद्रः प्रतीक्ष्यते निरीक्ष्यते। अत्र क्रीडागारपरिष्कारादिभिरियं राज्यलक्ष्मीर्वासकसज्जिका।
चिरयतीति। अव्यलीक इति शेषः। अनपराधे प्रिये कान्ते अधिकमत्यन्तं चिरयति सत्युन्मना उत्कण्ठिता। नेति। तादृग्गुणानामनिर्वचनीयगुणानां परिमलः प्रकाशो यस्य तस्मिन् रुद्रनृपतावन्या शङ्कान्याङ्गनासक्तिरूपो वितर्कः। नास्तीति शेषः। कया वा गोष्टया केनचित् संगीतादिप्रसङ्गेन चिरयति। अतोऽसौ धीरललित इति बोध्यम्। सखीभिर्वयस्याभिः सुखेन लभ्यत इति सुलभः सुखेन लभ्यः। न हि। मदन स्मर त्वंसमानेतुं व्रज। अहं बद्धोऽञ्जलिर्यया सा। नमस्करोमीत्यर्थः। अत्र हेतुमाह। यतो यस्मात् कारणात् तव प्रियसखश्चन्द्रो विष्वक् समन्ततोऽञ्चन्ति गच्छन्तीति विष्वग्द्यञ्चः। तान् सर्वतो-
दिक्कान् किरणान् किरति विसृजति ततस्त्वां नमस्करोमि कान्तं समानय। अन्यथा चन्द्रकिरणा दुःसहा इति भावः।
क्वचिदिति। क्वचित् कुत्रचित् स्थले सङ्केतं मर्यादामावेद्योक्त्वाथ पश्चात् दयितेन वञ्चिता वञ्चनां प्रापिता सती या स्मरेणार्त्तां सा विप्रलब्धेति सूरिभिः पण्डितैः परिकीर्त्तिता। गच्छेति। हे सखि त्वमग्रे पुरो गच्छ। आगमनसमय इवाधुना स्वयं पुरो गन्तुमशक्यत्वादिति भावः। प्रियस्यागमस्यागमनस्य कथा कथं का कीदृशी। इतः परं नागमिष्यतीत्यर्थः। तत्र हेतुमाह। निशीथोऽर्धरात्रः परमत्यन्तं प्राप्तः। कालातिक्रमान्नागमिष्यतीत्यर्थः। यद्वा प्रियागमकथा कीदृशी। न कार्येत्यर्थः। निशीथः परं निशीथ एव प्राप्तो न तु प्रियः। हे संकेतालय भो संकेतस्थान त्वं मोक्ष्यसे। मयेति शेषः। मोक्ष्यस इति भविष्यन्निर्देशेनयं नाद्यापि मोक्तुंशक्कोतीति द्योत्यते। मम वृथा व्यर्थैः। साध्यांशाभावादिति भावः। अश्रुभिर्नेत्रजलैर्न तु सुरतश्रमजलादिना पङ्किलः संभूतपङ्को जातः। न चायं तवापराधः किन्तु बहुवल्लभे त्वय्यासक्ताया ममैवेत्याशयेनाह। यद्वेति। यद्वेति पक्षान्तरे। प्रियागमनातिरिक्ते पक्ष इत्यर्थः। राज्यश्रियः प्रियतमे भारत्याः सरस्वत्या वल्लभे भुवो दयिते रुद्रनरेश्वरे विषये प्रायः प्राचुर्येण कृतं पदं व्यवसितं समागमयत्नो याभिस्ता वयं विप्रलब्धाः। नाहमेकैव वञ्चितापि तु कारकाः सर्वेऽपि सख्यादयोऽपीति द्योतयितुं वयमिति बहुवचनम्। राज्यश्रिय इत्यादिषु स्त्रीलिङ्गाक्षिप्तास्तिस्रोऽपि नायिका ध्येयाः।
नीत्वेति। अन्यत्र स्थलान्तरे निशां रात्रिं नीत्वा गमयित्वा प्रातः प्रातः काले प्राणवल्लभ आगते सत्यन्यस्याः संभोगस्य चिह्नैरङ्गरागादिलक्षणैर्या नायिका कुपिता सा खण्डिता मतोक्तेत्यर्थः। काचित् गृहमागतं प्रियं प्रत्याह। रात्रिरिति। रात्रिर्यामत्रयेण परिमिता परिच्छिन्ना। आद्यन्तयामयोरर्धयोरकुण्ठितसंचारत्वेनारात्रित्वाभिमानात् त्रियामेति व्यवहारः। ते तववल्लभाः प्रेयस्यः सहस्रं सहस्रसंख्याकाः। सन्तीति शेषः। मार्गस्यासत्त्याप्रत्यासत्त्या ममापि गृहं प्रातरेव प्रभात एव न तु रात्रावित्येवकारार्थः। आगतोऽसि। त्वत्प्रेयसीसहस्त्रसंदर्शनगमनमार्गेणैतस्य मत्सन्दर्शनस्यागमने प्रातरभूत्। अतस्तवापराधो नास्तीति प्रातीतिकार्थः। आ प्रभातं त्वत्प्रेयसीगृहेषु चरित्वा विहारानुचितकाल अत्रागमनं मद्वेदनायैवेति तात्पर्यार्थः। कर्त्तव्यं किं किमस्ति। नास्तीत्यर्थः। वद कुतः
नृपतिभी राजभिः सर्वा वल्लभा वीक्षणीया द्रष्टव्या हि। सर्वा द्रष्टव्या इत्यनेनेतराभिः सह स्वस्यापि दर्शनार्हत्वेन न तु तासामिव संभोगार्हतेति द्योत्यते। दोषो वा दोषोऽपि कः। नास्तीत्यर्थः। अहं पुनरहं तु तव काममत्यन्तमायासयित्र्यायासकारिणी। प्रत्युत ममैव दोषो यतो वक्रेण मार्गेण गत्वा मद्गृहपर्यन्तमतिश्रमेण त्वदागमनहेतुत्वान्ममेति हृदयम्। अत्र प्रातरागतस्य प्रियस्यान्यासंभोगचिह्नदर्शनात् कुपितेतीयं खण्डिता। वक्रोक्त्या कोपप्रकाशनात्।
कोपादिति। कान्तं कोपात् पराणुद्य निष्कास्य प्रियनिर्गमनानन्तरं या तापसमन्विता सा सूरिभिः कलहान्तरिता नामेति प्रसिद्धा परिकीर्त्तिता। काचित् स्वहृदयमुपालभते। तह तहेति। छायैव व्याख्यायते। हे हृदय रोषकलुषेण कोपक्षुभितेन त्वया तथा तथा तेन तेन प्रकारेणानुनयन्ननुनयं कुर्वन् प्रियोऽवधीरितस्तिरस्कृतः। राजेति स्वतन्त्र इत्यर्थः। न ज्ञातम्। भावे क्तः। ज्ञानं नास्तीत्यर्थः। वियोगे या वेदना पीडा तां सहस्व। अनेन महासंतापो द्योत्यते।
देशेति।
‘कथाभिः कमनीयाभिः काम्यैर्भोगैश्च सर्वथा।
उपचारैश्च रमयेद्यः स कान्त इतीर्यते॥’
इत्युक्तलक्षणे कान्ते देशान्तरगते सति खिन्ना खेदयुक्ता या सा प्रोषितभर्त्तृका। प्रोषितो देशान्तरगतो भर्त्तां यस्याः सेत्यन्वर्थसंज्ञा। त्रैलोक्येति। त्रैलोक्ये प्रथमानया वर्धमानया कीर्त्त्या महतः श्रीवीररुद्रप्रभोः सेवार्थं सेवायै भूपेषु काकतेर्देवतायाः पुरे काकतिपुरे एकशिलायां चिरयत्सु चिरं स्थितेषु सत्सु तेषा भूपानां योषितो द्वारेष्वासक्तालग्ना दृशो दृष्टयो यासां ता सत्यः। दिवसान् वासरान् नयन्ति गमयन्ति। तेषां पतीनां ध्यानेनाविच्छिन्नस्मृत्या प्रतिबुद्धा उत्पन्नाः सान्द्राः पुलका रोमाञ्चा एव व्याकीर्णां व्याप्ताः कामस्येपवो बाणा यासां तास्तथोक्ताः सत्यः व्युष्टं प्रभातं तत्राशया क्षपा रात्रीर्नयन्तीत्यन्वयः। अन्न चिन्ताजागरणादिप्रतिपादनात् खिन्नात्वेनेयं प्रोषितभर्त्तृका।
कान्तेति। कान्तस्य कर्मणोऽभिसरण अभिगमन उद्युक्ता। कुतः स्मरार्त्ता या साभिसारिका। संभ्रमैरिति। कान्ताभिसरणाय करेणुमानयेति वदन्तीं नायिकां प्रति सखीवचनमेतत्। अल्पं जानातीत्यल्पज्ञे मुग्धे संभ्रमैर्गजानयनादिसंभ्रमैरलम्। संरभं मा कुरु। महतः कान्तस्य सकाशं कथं निकृष्टावद्गमिष्यामीत्या-
शङ्क्याह। महीपती राजा प्रेयान् कान्तोऽस्तु। अभिसारिकां करेणुरूस्थांगजारोहिणीं न पश्यामि न शृणोमि च। कान्तमाहात्म्येनाभिसारिकायाः प्रकटगमनमुचितमिति भावः। दूत्य इति। दासी कर्मकरी। सखी स्नेहनिबन्धना। कारू रजक्यादिः। धात्रेयी उपमातृसुता। प्रातिवेशिनी प्रतिवेशोऽभिगृहं तत्रत्या। लिङ्गिनी परिव्राजिका कापालिका। शिल्पिनी चित्रकारस्री। स्वा स्वीया बान्धवस्त्रीत्यर्थः।
‘भगिनी स्यालिका वापि मातुलस्याथवा सुता।
एता भवन्ति दूत्यस्तु बान्धवस्त्रीति संज्ञिताः॥’
इति सोमेश्वरेणोक्तत्वात्। दूत्यः संधानकारिण्यः सहायाः परिकीर्त्तिताः। एतल्लक्षणोदाहरणादिकं पद्मिन्यादिजातिभेदश्चविस्तरभयान्नोच्यत इत्याशयेनाह। एतासामित्यादि जातिविशेषा इत्यन्तेन।
संक्षेपो नाम विविच्य वक्तव्यार्थस्य संकोचेनोक्तिः। तेन नायिकानां त्रैविध्यम्। तदेवाह। मुग्धेत्यादिना क्रमेण लक्षणोदाहरणानि। उदयदुदञ्चद् यौवनं यस्याः सा लज्जया त्रपया विजितोऽभिभूतो मन्मथो यस्याः सा। या सा नायिका मुग्धेति यत्तच्छब्दाध्याहारेण योजना। अथवोदयद्यौवना लज्जाविजितमन्मथा च स्त्री मुग्धेति लज्जामन्मथयोर्मध्यतीति तथोक्ता तुल्यलज्जास्मरेत्यर्थः। उदितमुत्पन्नं यौवनं यस्याः सा नायिका मध्यमा। स्मरेण मन्दीकृता व्रीडा यस्याः सा। संपूर्णे यौवनं यस्याः सा नायिका प्रौढा।
क्रमेणोदाहरणानि। मुग्ध इति। हे मुग्धे यदिष्टं मनसोऽपि किमुतान्यस्येत्यपिशब्दार्थः। गोप्यं गोप्तुं योग्यं तन्मह्यमावेद्यते। एतावत्पर्यन्तमिति शेषः। अहं या काचिदनाप्ता किम्। नेत्यर्थः। वद ब्रूहि। हृदिस्थमिति शेषः। हे प्रियसखि प्रच्छाद्यानुक्त्वा किं किमर्थेताम्यसि दूयसे। आच्छादने परितापं विना न किञ्चित् फलमस्तीति भावः। तवासक्तिर्वीररुद्रनृपतौ प्रतापरुद्र आशास्थत अभिलष्यत ऊह्यत इत्यर्थः। मयेति शेषः। पुनस्तदभिप्रायं ज्ञातुं पृच्छति। किं भवेदित्याल्यां सख्यां प्रणयेन विस्रम्भेणैका मुख्या वाक् यस्यां तस्यां सत्याम्। शोभनं तनुर्यस्याः सा मुग्धा व्रीडया दत्तमुत्तरं प्रतिवाक्यं यया स तथोक्ता। अभूदिति शेषः। प्रतापरुद्रगताभिलाषप्रश्नेन व्रीडोत्पत्तौ प्रत्युत्तरेणैव बीडयैव तदासक्तिर्ज्ञातेत्यर्थः।
लीलेति। पूर्वरङ्गो नाम रङ्गप्रसाधनाख्यः नाट्यादौ कर्त्तव्यः कर्मविशेषः। तदुक्तम्।
‘यन्नाठ्यवस्तुनः पूर्वे रङ्गविघ्नोपशान्तये।
कुशीलवाः प्रकुर्वन्ति पूर्वरङ्गः स कीर्त्तितः॥’
इति। लीलानायासस्तया विभ्रमा विलासा अयत्नसिद्धविलासा इत्यर्थः। ता एव पूर्वरङ्गो यस्य तत्। उदितमुत्पन्नं तारुण्यं तदेव रङ्गस्थलमिति गम्यते। अत एवैकदेशवर्त्ति रूपकम्। एत्य प्राप्य त्रपैव नेपथ्यं विहारसदृशयवनिका तस्यान्तर आभ्यन्तरे विम्बिताः प्रतिफलिताः प्रकाशमानाः स्मरकला मन्मथविकारास्ता एवलास्यप्रपञ्चस्य नृत्तविस्तारस्य श्रियः संपदो यस्यास्तस्याः। अस्या इति हस्तनिर्देशेनोक्तेः। तरले भ्रुवौ यस्यास्तस्याः स्त्रियः काकतीयनृपतौ भावस्य रत्याख्यस्यानुबन्धेनाविच्छेदेनोज्ज्वलः। भावानुबन्धेन व्यापारविशेषानुबन्धेनेत्यन्यत्र।
‘वागङ्गसत्त्वाभिनयैर्मुखरागोपशोभितैः।
भावयन्नान्तरं भावं व्यापारो भाव इष्यते॥’
इति। अत एव कोऽप्यनिर्वचनीयः शृङ्गार एव नाठ्यंतस्य क्रमो विजयते। हे सख्यः पश्यतेति वाक्यार्थः। अयमर्थः। यथा रङ्गप्रसाधनपूर्वकं रङ्गस्थलं गत्वा यवनिकान्तरे दृश्यमाननृत्तायाः पात्र्या अभिनयोज्ज्वलः साध्यक्रमः प्रकाशते तथा विलासपूर्वे यौवनमेत्य ब्रीडामिश्रितमन्मथविकारवत्यां प्रेमोज्ज्वलः शृङ्गारक्रमो विजयत इति।
सहेलमिति। प्रकृत्या स्वभावेन न त्वलंकारैः सुभगं रुद्रनृपतिम्। हेला नाम व्याक्तशृङ्गारसूचकोऽन्तःकरणविकारः। तत्सहितं यथा तथा परयन्त्या मृगाक्ष्यास्तारुण्ये यौवने।
… तत्काले। प्रियदर्शकभय इत्यर्थः। प्रत्युद्यन्त्युत्पद्यमानानि विविधानि ललितानिकर्णकण्डूयनकुचविमर्दनादिकोमलाङ्गविन्यासाः।
‘सुकुमाराङ्गविन्यासो ललितः परिकीर्त्तितः’
इति लक्षणात्। तेषामाटोपेनाडम्बरेणेति स्मरमन्दीकृतव्रीडत्वमुक्तम्। रसस्य शृङ्गारस्य प्रादुर्भावादुदयाद् युगपदेकदैवोदयन्तः सात्विका यस्मिंस्तत् कुसुमशरस्य मन्मथस्य शिल्पं कलाकौशलं विजयते। अहो इत्याश्चर्ये। सुभगदर्श-
नादेव मृगाक्ष्या ललितसात्त्विकादिजननेन स्मरकौशलमत्याश्चर्यकरमिति भावः। भेदान्तरं स्वीयात्वादिकं यथायोग्यमुदाहार्यम्। ग्रन्थान्तरेष्विति शेषः।
इत्थं प्रसक्तानुप्रसक्तं नायकादिस्वरूपनिरूपणं परिसमाप्य प्रकृतं पुण्यश्लोकगुणवर्णनमुपष्टुवन्नुपसंहरति। गुणेति। रसैः शृङ्गारादिभिर्महत्युज्ज्वले काव्ये गुणानां प्रसादादीनामलंकाराणामुपमादीनां विलसितं विलासः। भावे कः। विजयते। तदपि गुणादिविलसितमपि स्फुरद्भ्यां शब्दार्थाभ्यां हृदयमानन्दयतीति तथोक्तं मनोहरं भवति। स्रवदमृतमाधुर्यवत् सुभगो मनोहरः स्रवन्मधुरामृतसुभग इत्यर्थः। भावानयने द्रव्यानयनमिति न्यायात्। तयोः शब्दार्थयोरुन्मेषो विकासोऽपि परमुत्कृष्टम्। पुण्यः श्लोको यशो यस्य तच्चरितं चरित्रमनुबध्नन् वर्धते विजयते। उत्तमनायकचरितस्यैवोदाहर्त्तव्यत्वेन नायकस्वरूपनिरूपणम्। तत्प्रसक्त्या नायिकास्वरूपनिरूपणं च कृतम्। ततः स्वचिकीर्षितशास्त्रविषयाणामलंकाराणामाश्रयभूतकाव्यस्वरूपनिरूपणमिति सर्वमवदातम्॥
इति श्रीप्रतापरुद्रीयव्याख्याने रत्नशाणाख्याने
नायकप्रकरणम्॥
अथ काव्यप्रकरणम्।
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अथ काव्यप्रकरणं व्याख्यायते। अथेति। अथ नायकस्वरूपनिरूपणानन्तरं काव्यस्य कविकर्मणः शब्दार्थसंदर्भरूपस्य स्वरूपं निरूप्यते। लक्षणोदाहरणाभ्यां स्पष्टीक्रियते। काव्यलक्षणमाह। गुणेति। गुणैः प्रसादादिभिरलंकारैरुपमादिभिः सहितौ दोषवर्जितौ शब्दार्थौदोषरहितौशब्दार्थौ कर्म काव्यविदो विद्वांसः काव्यं विदुः। तदिति शेषः। तत् काव्यं गद्यपद्योभयमयम्। गद्यमयं पद्यमयमुभयमयं गद्यपद्यात्मकं चेत्यन्वयः। एककारिकायां काव्यसामान्यविशेषलक्षणसद्भावात्। तत्र सामान्यलक्षणं ग्रन्थरूपेण व्याख्यात्यदोषादित्यादिना।
काव्यसामग्र्याः कामिनीसाम्यं वर्णयति। शब्दार्थाविति। काव्यसंपदः काव्यलक्ष्म्याः शब्दार्थौ मूर्त्तिः शरीरमाख्यातावुक्तौ। व्यङ्ग्यवैभवं व्यङ्ग्यातिशयो जीवितमात्मा आख्यातम्। एवमुत्तरत्रापि लिङ्गादिविपरिणामेनान्वयः। अलंकारा उपमादयो हारादिवद् मुक्ताहारादिप्रायाः। तत्र शब्दार्थशरीरे श्लेषःश्लेषाख्यो गुण आदिर्येषां ते तथोक्ताः। गुणाः शौर्यादय इव शौर्यादितुल्याः स्मृताः। आत्मनः काव्यस्य जीवितस्य चोत्कर्षावहा अतिशयसंपादका रीतयः रीत्याख्याः शब्दसङ्घटनाधर्माः स्वभावाः प्रकृत्यपरनामका आत्मधर्मास्तत्तुल्याः। आहार्यकी कृत्रिमां शोभां प्राप्ता वृत्तयः कैशिक्यादयो वृत्तयो यथा वर्त्तनानीव। शौर्यादिशोभायाः कृत्रिमत्वमर्थविशेषोत्पाद्यत्वम्। लोकवर्त्तनशोभायाः कृत्रिमत्वं स्वजात्युपयोगि यागादिजन्यत्वमिति बोध्यम्। पदानां शब्दानामानुगुण्ये विनिमयासहिष्णुत्वे विश्रान्तिः विश्रमो यस्याः सा पदविनिमयासहिष्णुत्वरूपा। शय्या नाम शब्दधर्मः। अन्यत्र पदानां व्यवसितानां संभोगादिव्यापाराणामानुगुण्येनानुकूलत्वेन हेतुना विश्रान्ति सौख्यं यस्याः सा शय्येव शयनीयमिव संमता। रसस्य शृङ्गारादेरर्थस्य। आस्वाद्यते अनेनेत्यास्वादो गम्भीरिमा तस्य प्रभेदा विशेषरूपाः पाकाः। अन्यत्र रसस्य मधुरादेरास्वादो रुचिस्तस्य प्रभेदा येषु ते। पच्यन्त इति पाका अन्नानीव स्थिताः। एवं काव्यसंपद इयं सामग्री शब्दार्थादिसाधनसामग्री लोकवल्लोकस्येव कामिन्या इवेत्यर्थः।
तस्या एव हारशय्यादयश्चमत्कारकारकाः। अत एव काव्यसंपद इति स्त्रीलिङ्गत्वेन निर्देशः कृतः कविना। प्रख्याता प्रसिद्धा।
आदौकाव्यशरीरभूतशब्दार्थयोर्मध्ये शब्दं विभजते। वाचक्रेति। शब्दानां जातं समूहः। वाचकलक्षकव्यञ्जकत्वेन वाचकत्वेन लक्षकत्वेन व्यञ्जकत्वेन च। त्रिविधं त्रिप्रकारम्। अर्थं विभजते। अर्थानां जातमपि वाच्यलक्ष्यव्यङ्ग्यत्वेन वाच्यत्वेन लक्ष्यत्वेन व्यङ्ग्यत्वेन च त्रिविधम्। द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणो भावशब्दः प्रत्येकमभिसंधीयत इत्यत्र भावशब्दो भावार्थकशब्द इति संप्रदायः। ननु तात्पर्यार्थ इति चतुर्थेऽर्थे स्थितेऽर्थस्य कथं त्रैविध्यं तत्राह। तात्पर्येणाभिप्रायविशेषेण गम्योऽर्थस्तात्पर्यार्थः। स च व्यङ्ग्यान्तर्गत एव। व्यङ्ग्यान्तर्भूत एव। एवकारेण लब्धमेवार्थे कण्ठतो निषेधति। न पृथग्भूत इति। पृथग्भूतो न भवति। तात्पर्यमिति व्यञ्जनाया अपर नाम। तदर्थों… त्यर्थः। नान्य इति ध्वन्याचार्यैरुक्तम्। ‘यस्त्वभिप्रायविशेषरूपं व्यग्यं शब्दार्थाभ्यां प्रकाश्यते तद्भवति विवक्षितं तात्पर्येण प्रकाश्यमानम्’ इति। यथा चक्षुरादीन्द्रियेण घटाद्यर्थज्ञाने संयोगादिसंबन्धोऽपेक्षितस्तथा शब्देन त्रिविधेनार्थबोधने संबन्धोऽपेक्षितः।
स च संबन्धोऽभिधादिरूपः। अतस्तद्विभजनं करोति अभिधा लक्षणा व्यञ्जनेत्याख्याः यासां ताः शब्दवृत्तयः शब्दधर्मास्तिस्रस्त्रिप्रकारा इत्यर्थः। अभिधादीनां शब्दधर्मत्वं वाक्यानामाकाङ्क्षादिमत्त्वमिति वेदितव्यम्। वाचकशब्दोऽभिधावृत्त्या वाच्यार्थबोधकः। लक्षकशब्दो लक्षणावृत्या लक्ष्यार्थबोधकः। व्यञ्जकशब्दो व्यञ्जनावृत्त्या व्यङ्ग्यार्थबोधक इति विवेकः। गौणी वृत्तिरिति वृत्त्यन्तरवादिनां मतम्। निराकरोति। गौणवृत्तिर्गुणनिमित्ता
पैङ्गल्यादिगुणनिमित्ता वृत्तिलक्षणायाः प्रभेदविशेष एव न वृत्त्यन्तरमित्येवकारार्थः। तत्र हेतुमाह। संबन्धेति। संबन्धोऽनुपपत्तिश्च मूलं कारणं निमित्तं यस्यास्तस्या भावस्तत्त्वं तस्माल्लक्षणाया अपि तथात्वात् तत्रैवान्तर्भाव इति भावः। उभयोः संबन्धानुपपत्तिरग्निरित्यत्रास्ति। गौणवृत्तिमूलत्वमुदाहृत्य दर्शयति। यथेत्यादिना। माणवको बटुरित्युदाहरणे सादृश्येनाग्निगतपैङ्गल्यादिसाम्येन विशिष्टस्य माणवकस्य प्रतिपत्तिर्विवक्षिता वक्तुमिष्टा। तथैव गङ्गायां गङ्गाप्रवाहे घोषः पल्ली प्रतिवसति तिष्ठतीत्यत्रास्मिन् लक्षणावृत्त्युदाहरणे गङ्गासंबन्धस्य विशेषणभूतस्योपलक्षणत्वे यथाकथंचिद्विद्यमानत्वे घोषगतस्य पवित्रत्वादेर्धर्मस्यासिद्धेः।
तथा चोपलक्षणत्वं नाङ्गीकार्यम्। अङ्गीकारे तूभयोर्भेदः सिध्यति। तथा हि काकवद्देवदत्तगृहं पश्येत्यत्र गृहविशेषणस्य काकस्य यथाकथंचिद्विद्यमानत्वं तथा गङ्गासंबन्धस्य यथाकथंचिद्विद्यमानत्वे गौण्यां विशेषणस्याग्निसादृश्यस्य यथाकथंचिद्विद्यमानत्वसंभवात्। संबन्धस्य तथा विद्यमानत्वे गौणी। यथाकथंचिद्विद्यमानत्वे लक्षणा च संभवति। अनुपपत्तावित्येवं व्यवहारो माणवके पैङ्गल्यादेवी पवित्रत्वादेः सिद्ध्यर्थंतदसिद्धिरेव बाधिकेत्यलमनया शास्त्रिबोध्यप्रक्रियया। अत एव उभयोरभेदादेव हेतोः। सादृश्यं निमित्तं यस्याः सा सादृश्यनिबन्धना। संबन्धान्तरमन्यसंबन्धनिबन्धनं यस्याः सा चेत्येवंरीत्या लक्षणा द्वे विधे प्रकारौ यस्याः सा द्विविधा।अग्निर्माणवक इत्यादौ सादृश्यनिबन्धना। गङ्गायां घोष इत्यादी संबन्धान्तरनिबन्धना इत्यवगन्तव्यम्। द्वितीयां विभजते। संबन्धान्तरनिबन्धना जहत् परित्यजद् वाच्यम..यस्याः सा जहद्वाच्या। अजहदपरित्यजद् वाच्यं यस्याः सा अजहद्वाच्या चेति द्विधेत्यर्थः। सादृश्यनिबन्धना सारोपनिबन्धना आरोपसहिता साध्यवसाना अध्यवसानसहिता चेति द्विविधा। एवंरीत्या लक्षणा चतुर्विधा। आरोपाध्यवसानयोर्लक्षणे कविरत एव वक्ष्यति।
एवं शब्दार्थावुद्दिश्य ततः शब्दवृत्तीरभिधादीरुद्दिश्यार्थवृत्तीनां कैशिक्यादीनामुद्देशं करोति। कैशिक्यारभटी भारती सात्वती चेति चतस्रो वृत्तयो रसाद्यनुगुणत्वेनोचिता अर्थव्यापारा रचना पदसन्दर्भमाश्रिताः। कर्तरि क्तः। तत्तेन हेतुना रसावस्थानस्य शृङ्गाराद्यवस्थानस्य सूचका ज्ञापकाः। कोमलवर्णशब्दरचनायां शृङ्गारो वर्णितः। परुषवर्णपदरचनायां रौद्रो वर्ण्यत इत्यनुमीयत इत्यर्थः। प्रन्थान्तरसंवादमाह। तदुक्तमिति। कारिकार्थस्तु स्पष्ट एव। रससूचकत्वं कुत्रोक्तमित्याकाङ्क्षायामाह। रचनाया अपि सन्दर्भस्यैव रसव्यञ्जकत्वं प्रसिद्धम्। प्राचीनग्रन्थेष्विति शेषः। रसस्याननुगुणा अननुकूला वर्णा येषां शब्दानां तेषां शब्दानां रचनाया दोषकत्वं दुष्टकत्वमुक्तम्। एवमन्वयव्यतिरेकायां रचनाया रसव्यञ्जकत्वमिति बोध्यम्। वैदर्भी प्रभृतिरादिर्यासां ता रीतिभेदाः वृत्तिषु कैशिक्यादिषु नान्तर्भूताः।
अथाभिधादीनां लक्षणोदाहरणे दर्शयति। अत्राभिधादिमध्ये संकेतोऽस्माच्छब्दादयमर्थो बोद्धव्य इतीश्वरनिर्णीता शक्तिः सोऽस्य संजातः स चासावर्थश्च तद्गोचरः तत्प्रतिपादकः प्रकृतार्थपर्यवसायीत्यर्थः। शब्दव्यापारः शब्दधर्मोऽभिधा
अभिधेत्युच्यते। तां विभजते। रुढिरश्वकर्णादिपदे अवयवार्थाभावेन समुदायसिद्धिः पूर्विका प्रधानं यस्या साः रूढिपूर्विका। योगः पीताम्बर इत्यादिपदेऽवयवार्थसिद्धिः पूर्विका यस्याः सा चेति साभिधा द्विविधेत्यन्वयः। आद्यामुदाहरति। तप इति। प्रजानां प्रथितैः प्रसिद्धैस्तपोविशेषः कृच्छ्रचान्द्रायणादिभिर्जगतीमहिष्याः भूकान्तायाः शुभैर्भन्यैश्चरित्रैः पुरन्ध्रीसाध्यैर्गौरीव्रतादिभिरस्य भुवनस्य मध्यमलोकस्य प्रभूतैः प्रचुरैर्भाग्यैरदृष्टपरिपाकैश्च वरवीररुद्रो राज्यं विभर्तीति। अत्रास्मिन् श्लोके सर्वे प्रजादिशब्दा रूढाः। अवयवार्थाभावेन समुदायार्थवाचिनः। यद्यप्यत्र प्रजायन्त इति प्रजा इत्यवयवार्थो लभ्यते तथापि पङ्कजादिपदानामिवात्र रूढिरेवेति बोध्यम्। द्वितीयामुदाहरति। राज्ञाति। रञ्जयतीति राजा तस्मिन् रुद्रनराधीशेऽखिलाः प्रजा रञ्जयति सति भूर्वस्वस्यास्तीति वसुमती। रत्नानि गर्भे यस्याः सा रत्नगर्भा। स्थिरा शाश्वतीत्यादिव्युत्पत्त्यान्वर्था सार्थनाम्नी। अभूदिति शेषः। लक्ष्ये लक्षणसंगतिं दर्शयति। अत्रेत्यादिना। इत्येवं पदमेवमादिर्येषां ते शब्दा यौगिका योगेनावयवार्थलाभेनार्थबोधकाः।
लक्षणालक्षणमाह। वाच्येति। वाच्यार्थस्य मुख्यार्थस्य स्वसंबन्धिनि संवन्धवत्यारोपितो निवेशितः शब्दव्यापारो लक्षणा। गङ्गायां घोष इत्यत्र लक्षकं गङ्गापदम्। लक्ष्यार्थस्तीरम्। गङ्गाशब्दनिष्ठव्यापारो लक्षणेति ज्ञातव्यम्।
अत्र लक्षणासु जहल्लक्षणामुदाहरति। जेतुरिति। जेतुर्जयशीलस्य काकतिभूभर्त्तुःपटहध्वनिं भेरीध्वनिमाकर्ण्य सामन्तानां शत्रूणां नगराणि पुराणि समन्तन्तउच्चैस्तरमाक्रोशन्ति। अत्रोदाहरणे नगराण्याक्रोशन्तीत्येतद्रूपस्य वाच्यार्थस्याचेतनानां नगराणामाक्रोशासंभवादन्वयानुपपत्तिः। नगरशब्देन तत्रत्यजना नगरस्थजना आक्रोशन्तीत्यर्थः। संबन्धस्त्वाधाराधेयभावः। प्रयोजनं प्राणिमात्रस्य भयप्रतीतिः। पुररूपमुख्यार्थस्यात्यन्तं विसृष्टत्वादियं जहल्लक्षणा।
द्वितीयामुदाहरति। पत्युरिति। मौलयः किरीटाः पत्युर्नाथस्य काकतिनाथस्य पादपीठं सिंहासनान्तिकस्थितमल्पपीठं स्फुरद्धीरत्नप्रभाणां जालैः समूहैरनारतं सदालंकुर्वन्ति। ‘सततानारताश्रान्तसन्तताविरतानिशम्’ इत्यमरः। अत्र श्लोकेऽलंकरणसिद्ध्यर्थेमौलिभिराश्रयभूताः किरीटाधारभूता नृपतयो लक्ष्यन्ते लक्षणयोच्यन्ते। अत्र श्लोके मौलिशब्दो नगरवन्न स्वार्थे हित्वा स्वाधारप्रभृ-
तिबोधकः। किं तु स्वार्थेन सहैव तदर्थबोधकः। परस्परं विना परस्परस्यालंकरणाशक्तत्वात्। तस्मादियमजहद्वाच्या। अत्रापि संबन्धादिकमूह्यम्।
अथ सादृश्यनिबन्धनां सारोपां लक्षणामुदाहरति। मन्थानेति। मन्थानाचलो मन्थदण्डभूताचलो मन्दराद्रिः। ‘मन्थानं’मन्दरं कृत्वा योlत्क्रंकृत्वाथ वासुकिम्’ इति विष्णुपुराणात्। तस्य मूलेषु या मेचकशिलाः श्यामलशिलाः। ‘कालश्यामलमेचकाः’ इत्यमरः। तासां संघट्टनं चन्द्रोत्पत्तिसमये तन्मण्डलसंघर्षणं तेन श्यामिका नैल्यं तदाकारं तद्रूपम्। मन्धदण्डमूले नवनीतवन्मन्दराद्रिमूले चन्द्रमण्डलस्य लग्नत्वाद्विशिष्टशिलासंघर्षणं संभवतीति भावः। यन्नैल्यमिति शेषः। तुहिनं हिमं द्युतिर्यस्य तस्मिन् चन्द्रे। ‘तुषारस्तुहिनं हिमम्’ इत्यमरः। स्फुरति प्रकाशते तन्नैल्यं सारङ्गं कुरङ्गमाचक्षते वदन्ति। मुधेति शेषः। इहास्य वीररुद्रनृपतेः कीर्त्तिश्रिया यशस्सम्पदा निर्जित इन्दुस्तस्य नृपतेर्मुद्रा अङ्कं लक्षणं यस्य स चासौ वराहश्चतं तन्मुद्राङ्कवराहमुरसा वक्षस्थलेन विभ्रद् दधत् सन् समुज्जृम्भते। समुम्जृम्भणं प्राप्नोति खलु। इति वाक्यार्थः कर्म। मन्ये तर्कयामीति संबन्धः। अत्र श्लोके कुरङ्गस्येव रूपंयस्य स कलङ्कस्तस्मिन् वराहत्वमारोप्यते निर्धार्यते। लोके निर्जितो जेतुश्चिह्नं विभर्त्ति। प्रस्तुतयशसा जितश्चन्द्रः केतुभूतरुद्रवराहं बिभर्त्तीत्युत्प्रेक्षा। मन्य इति तद्वाचकशब्दः। कुरङ्गरूपे कलङ्क इति। कलङ्कस्य वराहस्य च सादृश्योक्तिः। अतः सादृश्यनिबन्धना सारोपलक्षणेति भावः।
आरोपाध्यवसानयोर्लक्षणेआह। विषयविषयिणोः प्रकृताप्रकृतयोरभिहितयोः स्वशब्दाभ्यामुल्लसितयोरभेदप्रतिपत्तिरभेदबुद्धिरारोपः। अत्र कलङ्कवराहौ विषयविषयिणावभिहितावित्यारोपलक्षणसंपत्तिरस्तीति बोध्यम्। अनुपदमेवाध्यवसायप्रसक्तयातल्लक्षणमाह। विषयस्य प्रकृतस्य निगरणेन परित्यागेन स्वशब्देनानुक्त्यैवेत्यर्थः। अभेदप्रतिप्रत्तिर्विषयिण इत्यर्थः। विषयिणोऽभेदबुद्धिरध्यवसायः। प्रकृतं विहायाप्रकृतमात्रमुक्तोभयोरभेदे वर्ण्यमानेऽध्यवसाय इत्यर्थः। साध्यवसाना अध्यवसानसहिता च सा लक्षणा च। सा यथा। काकतीयेति। काकतीयानां कुलमेवाम्भोधिस्तस्मादयं चन्द्रमाः प्रभवति जायते। उदयं वृद्धिमुदयपर्वतं चोपेयुषा प्राप्तवता। येन चन्द्रमसा कोःभवम्। ‘गोत्रा कुः पृथिवी पृथ्वी’ इत्यमरः। वलयं मण्डलं तस्योल्लासो विकासः कृतः। कुवल-
यानामुत्पलानामुल्लासः कृत इत्यन्वयः। अत्रोदाहरणे प्रतापरुद्रश्चन्द्रतयाध्यक्सीयतेऽध्यवसायमभेदं प्राप्यते।नन्वेष इत्यस्य पुरोवर्त्तिवाचकत्वेनैतच्छब्देन प्रतापरुद्र एवोच्यते। अतो विषयनिगरणं कथमिति चेदुच्यते। सर्वनामशब्दानां सामान्यवाचकत्वेन विशेषणत्वमेव न तु विशेष्यत्वम्। तथा च प्रकृतविशेष्यभूतप्रतापरुद्रवाचकपदाभावात् विशेषणभूताया एतत्तायाः प्रकृतविशेष्ये चन्द्रमस्येवान्वयोऽगत्याङ्गीकरणीयः। ततश्चैतच्छन्दस्य प्रतापरुद्रवाचकत्वाभावाद्विषयनिगरणं संभवति। अत एवोक्तं साहित्यरत्नाकरे—‘सिंहोऽयमित्यत्राध्यवसायः सिंहो देवदत्त इत्यत्रारोपश्च’ इति। काकतीयकुलाम्भोधेरित्यत्रारोपस्तल्लक्षणसद्भावादिति भावः।
अथ व्यञ्जनावृत्तेर्लक्षणमाह। अन्वितेषु इति। पदानां शब्दानामर्थेषु वाच्यार्थेष्वन्वितेषु निर्वाधमन्वयं प्राप्तेषु सत्सु वाक्यार्थस्य काव्यरूपस्योपकारार्थम्। अन्योऽर्थोऽर्थान्तरं वाच्यलक्ष्याभ्यामन्वोऽर्थो व्यङ्ग्य इत्यर्थः। तद्विषयः शब्दव्यापारो व्यञ्जनावृत्तिः। अभिधया प्रकृतार्थे नियमिते यया व्यङ्ग्यरूपोऽप्रकृतार्थः प्रतीयते सा व्यञ्जनेत्यर्थः। अत्र शब्दव्यापार इत्यर्थस्याप्युपलक्षणम्। अर्थस्यापि व्यञ्जकत्वाङ्गीकारेण व्यञ्जनायास्तस्यापि धर्मत्वात्। शब्दव्यञ्जकत्वेऽर्थस्य सहकारित्वम्। तस्य व्यञ्जकत्वे शब्दस्य सहकारित्वमिति ज्ञेयम्। तां विभजते। शब्दार्थोभयशक्तिमूलत्वेन। शब्दशक्तिमूलत्वेनार्थशक्तिमूलत्वेनोभयशक्तिमूलत्वेन च सा व्यञ्जना त्रिविधा। तत्र त्रिविधायां वृत्तौ शब्दशक्तिमूला यथा। वाहिन्यइति। सर्वतोमुखः सर्वस्याप्यप्रतिहत इति यावत्। तादृशः संभ्रम आघोषो यासां ताः। काकतीन्द्रस्य वाहिन्यो ध्वजिन्यः। प्रतिपक्षबलमेवार्णव इति रूपकसमासः। उद्यद्भिर्नदद्भिः कबन्धैरपमूर्धकलेवरैराढ्यंप्रभुं कुर्वन्तीति प्रकृतार्थः। अप्रकृतार्थस्तु सर्वतोमुखमुदकम् ‘कबन्धमुदकं पाथः पुष्करं सर्वतोमुखम्’ इत्यमरः। तस्य संभ्रमो यासां ता वाहिन्यः सद्यः प्रतिपक्षबलार्णवमुद्यता कबन्धोनोदकेनाढ्यं पूर्ण कुर्वन्तीति। लक्षणानुगतिं दर्शयति। अत्रेति। अत्रोदाहरणे अर्थः प्रयोजनम्। प्रकरणं प्रस्तुतत्वं तदादिर्यस्यार्थनिर्णायकस्य तेन सैन्यसर्वव्यापित्वलूनमस्तकदेहः परं प्रधानमर्था येषां तेषां वाहिन्यादिशब्दानां वाचकत्वे नियन्त्रिते निबद्धे निर्णीते सति शब्दशक्तिर्मूलं यस्याः सा। नदीजलयोः प्रतिपत्तिर्बोधो यया वृत्त्या जायते सा वृत्तिर्व्यञ्जना। अर्धप्रकरणादीनां लक्षणो-
दाहरणादिकं काव्यप्रकाशादौ द्रष्टव्यम्। विस्तरभयादुपरम्यते। नन्वभिधालक्षणयोरन्यतरैवात्र वृत्तिरस्तु किं व्यञ्जनारूपेण व्यापारान्तरेणेत्याशङ्क्य तदुभयदूषणद्वारा व्यञ्जनां द्रढयति। प्राकरणिकेति। प्राकरणिकेऽर्थे प्रकृतार्येपर्यवसिता पर्यवसानं प्रापिताभिधाप्राकरणिकार्थस्याप्रकृतार्थस्य प्रमितिं प्रतीतिं कर्त्तुे न शक्ता। नन्वप्रकृतार्थप्रतीतिर्मास्तु यदर्थंव्यापारान्तरकल्पनमित्याशङ्क्य तस्यावश्यकत्वे युक्तिं वदति। अप्राकरणिकार्थस्यापि वाक्यार्थोऽप्रकृतार्थस्तस्य शोभार्थं वक्तुः कवेर्विवक्षितत्वाद् वक्तुमिष्टत्वात्। अन्यतोऽन्यस्माच्छव्दव्यतिरिक्तात् प्रमाणात् प्रमितिकरणात् प्रतीतिसाधनात् तस्य प्रकृतार्थस्याप्रतीतेरस्फूर्तेः शब्दस्यैव व्यञ्जनाख्यं व्यापारान्तरं कल्प्यते। लक्षणां च निषेधति। नेति। अत्राप्रकृतार्थप्रतीतौ लक्षणा च वाच्यार्थानुपपत्त्यभावान्न संभवति। लौकिकवाक्यानां वेदव्यतिरिक्तपौरुषेयवाक्यानाम्। प्रयोक्तुःकवेः। वक्तुमिच्छा विवक्षा। तत्परतन्त्रत्वात्तदधीनत्वात्। अत्र वाहिन्य इत्याद्युदाहरणे व्यापारद्वयेनार्थस्य प्रतिपादन उक्तो वाक्यभेदः। अभिधया प्रकृतार्थप्रतिपादकमेकं वाक्यम्। व्यञ्जनयाप्रकृतार्थप्रतिपादकमेकं वाक्यमिति भेदो न भवति। एवं च दोषाभावादितरव्यापारसंभवाच्च व्यञ्जनाङ्गीकर्त्तव्येति भावः।
अर्थशक्तिर्मूलं यस्याः सा व्यञ्जनावृत्तिर्यथा। श्रुत्वेति। काकतिभूभर्त्तुःक्षोण्याः पाणिग्रहो विवाहः पट्टाभिषेक इत्यर्थः। तमेवोत्सवं श्रुत्वा भूपा नताननाः सन्तः पादपीठीमङ्गुष्ठेनालिखन्। अत्रोदाहरणेऽर्थशक्त्या मुखनमनरूपया भूपा विषण्णाः खिन्ना इत्यर्थो व्यज्यते। पर्वतो वह्निमान् धूमादित्यनुमाने धूमरूपहेतुना वह्निर्व्यज्यते एवमत्र नम्राननत्वरूपहेतुना तत्कारणभूतो विषादो व्यज्यते। तदत्रानुमानमेवेत्याशङ्क्य निषेधयति। नेति। अर्थशक्तिर्मूलं यस्य तस्मिन् व्यञ्जने प्रतीतावनुमानशङ्कानुमानं प्रमाणमिति संदेहः। न च कार्येति। व्यङ्ग्यं विषादो व्यञ्जको नम्राननत्वरूपार्थः। तयोरविनाभावः साहचर्यं तस्याभावात् न कार्येति पूर्वेणान्वयः। धूमानुमाने व्यङ्ग्यव्यञ्जकयोर्यत्र धूमस्तत्राग्निरिति साहचर्यमस्ति। प्रकृते तन्नास्ति। अत्र हेतुमाह। नम्राननत्वमादिर्यस्य तत्तस्य कार्यस्य। अनेकानि कारणानि यस्य तदनेककारणकं तत्त्वात् नम्राननत्वं न विषादमात्रकार्ये किन्तु लज्जादेरपीति भावः। तर्हि विषादरूपविवक्षितकारणप्रतीतिः कथमिति। अत्राह। नियतस्य विवक्षितस्य कारणस्य प्रतीतिर्वक्तुमिच्छा
विवक्षा शब्देनार्थप्रकाशनेच्छा। अनेन शब्देनायमर्थः सिध्येदितीच्छेत्यर्थः। तयानुगृहीतात् तत्सहायकत्वात् शब्दादेव भवति। दूषणान्तरमाह। किं चेत्यादिना। एकस्मादेव व्यञ्जकात् शब्दादर्थाद्वा तेषां तेषां व्यङ्ग्यार्थानामित्यर्थः। प्रतीतिर्वक्तुर्वाक्यप्रयोक्तुर्विवक्षाया अर्थप्रकाशनेच्छाया अनुसारेणानुवृत्त्या भवति। अत्रायं भावः। अस्तमेति गभस्तिमानिति केनचिदुक्ते तच्छ्रुत्वा मुनीनां सन्ध्यावन्दनकाल इत्यर्थः प्रतीतः। स्त्रीणां संभोगायालंकारकाल इत्यर्थः प्रतीत इति चोराणां चौर्यादेरिति चार्थः प्रतीतः। तदेतत् सर्वेव्यङ्ग्यजातं वक्तुस्तात्पर्यानुसारेण जातमिति चेत् किमित्यत्राह। एकेन हेतुनेति शेषः। अनेकव्यङग्यार्थप्रतीतिरनुमानस्य प्रमाणस्य परिपाठ्या मर्यादाया विरुद्धा विरोधिनी। एकेन हेतुनैकव्यङ्ग्यार्थप्रतीतिरनुमानमर्यादा शास्त्रे। काव्ये त्वेकस्माद्व्यञ्जकादनेकार्थप्रतीतिरङ्गीकृता हेतोरनैकान्तिकतायामपि स्वापेक्षितार्थप्रतीतिः स्वविवक्षानुसारेणैव भवति। अतो नानुमानशङ्केति भावः। व्यङ्ग्यार्थेऽप्यभिधैव प्रवर्त्तत इति मीमांसकमतम्। तन्निराकरोति। न चेति। अभिधावृत्तिर्न च व्यङ्ग्यार्थे प्रवर्त्तते। कुत इत्युक्ते तस्याभिधायाः संकेतितार्थः एव प्रकृतार्थ एव परिचयः प्रवृत्तिर्न व्यङ्ग्यार्थ इत्येवकारार्थः। गम्यत ज्ञायतेऽनयेति गमनिका। इयत्येतावतीति। अभिधादिज्ञानसाधनभूतोऽल्पो ग्रन्थः संक्षेपरूप एतावानित्यर्थः।
उभयोः शब्दार्थयोः शक्तिर्मूलं यस्याः सोभयशक्तिमूला। तामुदाहरति।विजितेति। विजितान्यरिपुराणि शत्रुपुराणि त्रिपुराणि च येन सः। मूर्तौ शरीरे। ‘मूर्त्तिः काठिन्यकाययोः’ इत्यमरः। विलसन्ति सर्वमङ्गलानि शुभानि शुभकरसामग्रीकचिह्नानि वा यस्य सः। अन्यत्र मूर्त्तौ विलसती सर्वमङ्गला पार्वती यस्य सः। ‘शर्वाणी सर्वमङ्गला’ इत्यमरः। राज्ञां मौलिः किरीटः किरीटभूतो मुख्य इत्यर्थः। राजा चन्द्रो मौलौ जटाजूटे यस्य स इत्यन्यत्र। ‘राजा प्रभौ नृपे चन्द्रे।’ ‘मौलिः किरीटधम्मिलौ’ इति चामरः। जगतां पतिरसौ रुद्रदेवः प्रतापरुद्रः शिवश्च भाति। अत्र श्लोके विजितारिपुर इत्यत्रार्थशक्तिमूलत्वम्। शत्रुपुर इत्यपि प्रयोग उभयार्थसिद्धेरिति भावः। विलसत्सर्वमङ्गलो राजा मौलिरित्यत्र शब्दशक्तिमूलत्वम्। सर्वमङ्गलादिपदाप्रयोगेन सर्वथा पुर इत्याद्यन्यपदप्रयोग उभयार्थसिद्ध्यभावादिति भावः। इत्येवमुभयशक्तिमूलः।
प्रतापरुद्रशंकरयोः प्रकृताप्रकृतयोरुपमालंकारस्य ध्वनेः प्रतीतिर्भवति। नन्वर्थशक्तिमूलोदाहरणे नतानना इत्यत्राभिधया वाच्यार्थबोधः। व्यञ्जनया विषण्णा इति व्यङ्ग्यार्थबोधःतदुक्तमुभयशक्तिमूलोदाहरणेऽभिधया विशिष्टप्रतापरुद्रबोधः। व्यञ्जनयोपमालंकारादिव्यङ्ग्यार्थप्रतीतिः। विशिष्टशिवरूपामकृतार्थः कथावृत्या स्फुरतीति चेदुच्यते। अप्रकृतार्थस्योपमालंकारादिव्यङ्ग्यार्थस्य व्यञ्जनावृत्या सहैव स्फुरणम्। तथा चोभयोरपि व्यङ्ग्यत्वम्। तदुक्तं काव्यप्रकाशे। ‘शब्दशक्तिमूले तु निमन्त्रणेनाभिधेयस्यार्थान्तरस्य तेन सहोपमादेरलंकारस्य च
निर्विकारं व्यङ्ग्यत्वम्’ इति।
अभिधादिनिरूपणानन्तरं कैशिक्यादीनां स्वरूपं निरूप्यते। अत्यन्तसुकुमारस्यातिमृदोरर्थस्य शृङ्गारादेः संदर्भोरचना यस्याः सा वृत्तिरिति शेषः। केशिमतेष्टा कैशिकी। कैशिकीवृत्तेरत्यन्तसुकुमारार्थसंदर्भत्वं लक्षणम्। अत्युद्धतेति। अत्युद्धतस्यात्युग्रस्यार्थस्य रौद्रादेः संदर्भोयस्याः सा वृत्तिरारभटी स्मृता। ईषन्मृदोरल्पमृदोरर्थस्य हास्यादेः संदर्भोयस्याः सा वृत्तिर्भारतीप्यते। ईषत्प्रौढस्य किञ्चिदुद्धतस्वार्थस्य वीररसादेः सन्दर्भोयस्याः सा वृत्तिः सात्वतीष्यते।
अत्यन्तसुकुमाराद्यर्थान् विशदयति। अत्रेत्यादिना। शृङ्गारकरुणौ द्वौ रसावत्यन्तसुकुमारौ मतौ। रौद्रबीभत्सावत्युद्धतरसौ परिकीर्त्तितौ। हास्यशान्ताद्भुतरसाः किञ्चित्सुकुमाराः शृङ्गारादिवन्नात्यन्तसुकुमाराः किं त्वीपन्मृदवः। वीरभयानकावीषत्प्रौढौ समाख्यातौ। वृत्तीनां रसावस्थानसूचकत्वात् शृङ्गाराद्यत्यन्तसुकुमाराद्यर्थानुगुणेनात्यन्तसुकुमारादिना संदर्भेण भवितव्यम्। तथा च रचनाभेदेनार्थः सूच्यत इत्याशयेनाह। यत्रेत्यादिना। यत्र लोके शृङ्गारकरुणावतिकोमलेन संदर्भेण रचनया वर्ण्येते तत्र कैशिकी कैशिक्याख्या वृत्तिः। यत्र श्लोके रौद्रबीभत्सावतिप्रौढेन संदर्भेण प्रतिपाद्येते तत्रारभटी वृत्तिः। यत्र नातिसुकुमारा अनतिसुकुमारा हास्यादयो नातिसुकुमारेण संदर्भेण वर्ण्यन्ते तत्र भारती वृत्तिः। यत्र वीरभयानकावनतिप्रौढेन संदर्भेण प्रतिपाद्येते तत्र सात्वती। तथा च रसानुगुणसंदर्भेण रससूचका वृत्तिरिति बोध्यम्।
कैशिकीमुदाहरति। जितेति। जितो मदनस्य विलासः सौन्दर्यातिशयो येन तं काकतीयानामन्वयस्तस्येन्दुं चन्द्रं नरपतिं प्रतापरुद्रम्। अनिमेषं निमेपरहितं यथा तथा द्रष्टुमाशंसिनीनामाशंसावतीनां प्रार्थयमानानामङ्गनानां वधू-
विशेषाणाम्। ‘विशेषास्त्वङ्गना भीरुः कामिनी वामलोचना’ इत्यमरः। अपाङ्गैः कटाक्षैः कुवलयदामवन्नीलोत्पलस्रगिव श्यामला तोरणस्य श्रीः शोभा दिव्याकाशे विरचिता कृतासीत्। अत्र शृङ्गाररसोऽतिकोमलसंदर्भेण वर्णितोऽतः कैशिकी वृत्तिः।
आरभटीमुदाहरति। स्वङ्गेति। आयोधने युद्धे। ‘युद्धमायोधनं जन्यम्’ इत्यमरः। चलानां रणभीतानां मर्त्वानां गण्ढःस्थूलोपलस्तद्वन्नाशकः। यत्र कुत्राप्यस्य पराजयाभावात् चलमर्त्यगण्ड इत्यभीरुतोपलब्धिः। तदुपलक्षितस्य नृपतेः प्रतापरुद्रस्येति मध्यपदलोपः। क्रोध एवाग्निःखङ्गघातेन खङ्गप्रहारेण निकृत्तेभ्यः शात्रवशिरोभ्यो निष्ठ्युता निर्गता रक्तच्छटा रक्तधारा एव ज्वाला येषां तैः। अत्र निष्ट्यूतेत्यत्र गौणार्थत्वान्न ग्राम्यतादोषः। तदुक्तं दण्डिना।
‘निष्ठ्युतोद्गीर्णवान्तादि गौणवृत्तिव्यपाश्रयम्।
अतिसुन्दरमन्यत्र ग्राम्यकक्षां विगाहते॥’ इति।
उद्भटा उद्धताः शस्त्रघट्टनभवाः परस्परशस्त्राघातजाताः स्फाराः स्फीताः स्फुलिङ्गोत्करा अग्निकणसमूहा येषां तैः। असूजोपलक्षितं पिशितं मांसमसूक्पिशितम्। स्त्यानं घनीभूतमसृक्पिशितं येषां तान्यस्थिखण्डानि शल्यशकलान्येव विकटा वक्राः स्थूलाः पृथुला उज्ज्वला जाज्वल्यमाना अङ्गारका अग्निखण्डास्तैरुच्चण्डः प्रचण्डस्तीक्ष्णः। भवतीति शेषः। अत्र क्रोधस्थायिको रौद्रोऽत्युद्धतसंदर्भेण वर्णित इत्यारभटी।
भारतीमुदाहरति। औन्नत्यमिति। रुद्रनृपतेर्महदौन्नत्यमन्यदेव। लोकनिर्माणकारणसामग्रीजन्यौन्नत्यं भिन्नमेव। महितः पूज्योऽत एव कोऽप्यनिर्वाच्य एषप्रतापरुद्रसंबन्धी गम्भीरिमा गाम्भीर्यम्। अन्य इति लिङ्गभेदेन योजना। प्रतापयशसोः काप्यनिर्वाच्या सरणिर्मार्गोऽन्या। वह्नीप्रथा प्रसिद्धिरन्यैव न तत्र संदेह इत्येवकारार्थः। अतः सर्वमेवौन्नत्यादिकार्यजातं नूतनमेव नवीनमेव। कारणसामग्रीनूतनत्वनिमित्तकमेवेदमौन्नत्यादिकार्यनूतनत्वमित्याशयेनाह। जान इति। तन्निर्मितौप्रतापरुद्रनिर्माणे चतुराननेन ब्रह्मणा कियती कियत्परिमाणा कीदृशी क्रमो यस्याः सा तथोक्ता। सामग्री कारणसामग्री कल्पिता संपादितेति वाक्यार्थः कर्म। न जाने। अत्राद्भुतरसोऽनतिसुकुमारेण संदर्भेण वर्णित इति भारती।
सात्वतीमुदाहरति। दूरादिति। विश्वे प्रपञ्चे प्रसृमरं व्यापनशीलं महः प्रतापो यस्य तस्य वीररुद्रस्य प्रस्थानारम्भे जैत्रयात्राप्रारम्भे यो भेरीनिनदस्तं दूरादेवाकर्ण्य पूर्णेन कर्णज्वरेण कर्णपीडयार्ता अरिनृपा अद्रीनारुह्यातिमहद् गहनं काननं विशन्तोऽत एव कण्टकैराकृष्टाः केशा येषां ते तथोक्ताः सन्तः प्रतिनृपतिधिया शत्रुराजबुद्धधा प्रतापरुद्रभटा एवागत्य केशेष्वाकर्षन्तीति भ्रान्त्येत्यर्थः।त्रायध्वं नो रक्षत मुञ्चतेति पादपान् प्रार्थयन्ते। अत्र भयानकरसोऽनतिप्रौढसंदर्भेण वर्णित इति सात्वती।
अथ मतान्तरसिद्धमखिलरससमानं वृत्तिद्वयमाह। मध्यमेति। मध्यमारभटीति। अन्या पूर्वोक्तारभटीभिन्ना वृत्तिस्तथा यथा मध्यमारभटी तथा मध्यमकैशिकी वृत्तिः। अस्तीति शेषः। उभे इमे पूर्वोक्ते वृत्ती मध्यमारभटीमध्यमकैशिक्यौ सर्वरसानां नवरसानां च साधारणे समाने मते। एतद्वृत्तिद्वयेन सर्वेऽपि रसा वर्णनीया इत्यर्थः।
मध्यमकैशिक्या लक्षणमाह। मृद्विति। मृद्वर्थे अतिसुकुमारशृङ्गाराद्यर्थे विषयेऽप्यनतिप्रौढः बन्धः संदर्भों यस्याः सा मध्यमकैशिकी। सुकुमारार्थस्य प्रौढसंदर्भेण वर्णनं दोष इत्याशङ्क्य वारयति। नेति। अतिसुकुमारयोः शृङ्गारकरुणयोः बन्धोऽल्पं यथा तथा प्रौढः संदर्भों न दुष्यति दुष्टो न भवति। तर्हि कीदृशो दुष्यतीत्याकाङ्क्षां जनयति। किं त्विति। अतिप्रौढः संदर्भः प्रतिकूलमर्थाननुगुणं वर्णनं संदर्भस्तद्रूपस्य दोषस्यापत्तेर्हेतोर्नेष्यते नेष्टः।
मध्यमारभटीलक्षणमाह। प्रौढार्थे विषये नातिमृदुरनतिमृदुः क्रमो यस्याः सा वृत्तिर्मध्यमारभटी। अतिप्रौढयोरपि रौद्रबीभत्सयोरीषन्मृदुरनतिमृदुर्बन्धो न दुष्यति। तत् किं त्वित्वर्थः। अतिमृदुसंदर्भो विरुद्धः। अत्रापि पूर्वोक्त्यैव प्रतिकूलेत्यादियुक्तिविवक्षितं भवति।
मध्यमकैशिकीमुदाहरति। आसन्न इति। महोत्सव आसन्ने सत्यपि त्यक्त्वा। महोत्सवमिति शेषः। इतः सकलसौभाग्यनिधेर्निवासात् प्रवासं प्रयाणं कथं ब्रजेर्गच्छेः। साहसं हठादुत्सवपरित्यागरूपसाहसं धिक् धिगिति निन्दायाम्। ‘धिङ्भिर्भर्त्सननिन्दयोः’ इत्यमरः। अभीक्ष्ण्यं निन्दार्हमित्यर्थः। अभीक्ष्ण्ये द्विरुक्तिः। आवयोस्तव मम च विघटनं वियोगं को वा विधिः किं वा दैवं काङ्क्षत्तीच्छति। न कोऽपीत्यर्थः। इत्थमेवं प्रकारेण हे काकतीयनृपते स्वप्ने सुप्त-
विज्ञाने निवारितस्य प्रियतमप्रस्थानस्य बुद्धिर्मतिर्यस्य तस्य। त्वद्वैरिनारीजनस्तव शत्रुस्त्रीजनः। त्वया वियोजितभर्त्तृक इति शेषः। ततः पश्चाद् बुद्ध्वाप्रबोधं प्राप्य मूर्च्छति। अत्रेषत्प्रौढसंदर्भेण शृङ्गारसंकीर्णः करुणरसः प्रतिपादित इति मध्यमकैशिकी।
मध्यमारभटीमुदाहरति। मांसेति। देशवाचिनान्ध्रशब्देन तदधिपतिः प्रतापरुद्रो लक्ष्यते। तस्य सुभटैर्योधैर्युद्धभुवः समरभूमयो मांसैः कीकसैरस्थिभिः। ‘कीकसं कुल्यमस्थि च’ इत्यमरः। संकीर्णो व्याप्तः प्रसरन्त्यो रुधिरापगा रक्तनद्यो यासु तास्तथोक्ता वसया हृन्मेदसा कर्दमिताः संजातकर्दमाः कृताः। अत्रेषन्मृदुसंदर्भेण बीभत्सरसः प्रतिपाद्यत इतीयं मध्यमारभटी। एवं रीत्या मध्यमकैशिकी मध्यमारभट्यो रसान्तरेष्वप्युदाहरणं द्रष्टव्यम्।
अथ रीतीनां स्वरूपोदाहरणे प्रदर्शयिष्यंस्तासां वृत्तिभ्यो भेदं निरूपयति। वैदर्भ्यादिरीतीनां शब्दगुणा माधुर्यादयस्तानाश्रितानां तत्परतन्त्राणामित्यर्थः। ननु माधुर्य नाम सहृदयहृदयाह्लादकशृङ्गारादिधर्म ओजश्चित्तविस्ताररूपो दीप्तिजनको रौद्रादिधर्मः प्रसादः शुष्केन्धनानलबदमलजलवद्वा यथायोगं सहसा
सहृदयहृदयव्यापी सर्वरसधर्मः। कथमेतेषां शब्दगुणत्वमिति चेत् सत्यम्। आत्मधर्मस्य शौर्यादेराकारधर्मत्वमिव रसधर्मस्य माधुर्यादेः शब्दधर्मत्वमौपचारिकम्। तदुक्तं ध्वन्याचार्यैः। ‘शब्दधर्मत्वं चैषामन्याश्रितशरीराश्रितत्वमिव शौर्यादीनामिव’ इति। रीतीनां माधुर्याद्याश्रितत्वं काव्यप्रकाशे कथितम्।
‘माधुर्यव्यञ्जकैर्वर्णैरुपनागरिकोच्यते।
ओजःप्रसादकैस्तैस्तु परुषा कोमला परैः॥
केषांचिदेषा वैदर्भीप्रमुखा रीतयो मताः॥ इति।
तासां वैदर्भ्यादीनां वैदर्भीप्रभृतीनामर्थविशेषे शृङ्गारादौ निरपेक्षतया अपेक्षारहिततया केवलमेकं संदर्भस्य सौकुमार्यं प्रौढत्वं च यत् तद्विषयत्वात् कैशिक्यादिभ्यो वृत्तिभ्यो भेदः। वैदर्भ्यादीनां रसाश्रितमाधुर्यादिशब्दधर्मपरत्वम्। कैशिक्यादीनां तु साक्षादेव रसव्यञ्जकत्वमिति महान् भेद इति भावः। तदुक्तंध्वन्याचार्यैः।
‘शब्दतत्त्वाश्रयाः काश्चिदर्थतत्त्वाश्रयाः पराः’। इति।
संदर्भसौकुमार्यादिकं विशदयति। संदर्भस्येति। संदर्भस्यातिमृदुत्वं नामासं-
युक्तानां संयुक्तव्यतिरिक्तानां कोमलानां वर्णानां बन्धः संबन्धो यस्य तस्य भावस्तत्त्वम्। असंयुक्तकोमलवर्णपदसंदर्भोऽतिमृदुरित्यर्थः। अतिप्रौढत्वं नाम परुषवर्णानां विकटो बन्धो यस्य तस्य भावस्तत्वम्। विकटपरुषवर्णपदसंदर्भोऽतिप्रौढ इत्यर्थः। संयुक्तमृदुवर्णेष्वीषन्मृदुत्वं भवति। अविकटपरुषवर्णबन्धेष्वीषत्प्रौढत्वम्। संयुक्तत्वं नाम स्वररहितव्यञ्जनानां संयोगः वर्णानां। कोमलत्वपरुपत्वे तु
‘टवर्गवर्जिताः स्पर्शाः स्वस्ववर्गान्त्यशेखराः।
लघुरेफणकारौ च कोमलाः परिकीर्त्तिताः॥
रेफेण यस्य कस्यापि योग आद्यतृतीययोः।
स्वोत्तराभ्यां तुल्ययोर्वा परुषाक्षरकौशषौ॥’ इति।
कोमलपरुषवर्णपदसंग्रहोक्तरीत्या ज्ञातव्ये।
अय रीतिनिरूपणं प्रतिजानीते। अथेति। अथ कैशिक्यादिनिरूपणानन्तरं रीतीनां स्वरूपं लक्षणमुदाहरणं चोच्यत इति शेषः। रीतिसामान्यलक्षणमाह। रीतिरिति। रीतिर्नाम गुणाश्लिष्टा माधुर्यादिगुणविशिष्टा पदसंघटना पदरचना मतेष्टा। तां विभजते। सेति। वैदर्भी विदर्भदेशीया विदर्भजनपरिगृहीता रीतिः। गौढदेशीयपरिगृहीता गौडी। पाञ्चालदेशीयपरिगृहीता पाञ्चाली। इत्येवं सा रीतिस्त्रिविधा।
वैदर्भीलक्षणमाह। बन्धेति। बन्धस्य पारुष्यं दुःसन्धिकृतपरूपत्वं तद्रहिता शब्दस्य काठिन्यं परुषवर्णारब्धत्वं तद्वर्जिता नातिदीर्घा अनतिदीर्घाः समासा यस्याः सा चासौ रीतिर्वैदर्भीष्यते।
उदाहरति। काकतीयेति। काकतीयनरेन्द्रस्य कीर्त्तिरेव चन्दनं मलयजं तस्य चर्चितमालेपनम्। भावे कः। दिश एवाङ्गना वतंसीकृता अवतंसीकृतास्तस्य नृपतेर्गुणाः शौर्यादयो यासां ताः सत्यो वितन्वन्ति कुर्वन्ति।
तथा च यथा पूर्वोदाहरणं तथैवोदाहरणान्तरमित्यर्थः। वितरणेति। वितरणं दानं तदेव गुणः स एव लीला क्रीडा तथा तोषितोऽशेषलोको येन सः। एतेन वितरणं लीलाप्रायत्वान्निर्बन्धपूर्वकं न भवतीति व्यज्यते। काकतीयानामन्वयस्येन्द्रौ चन्द्रे नरनाथे विभवति प्रभौ सतीयं क्षितिसुरा ब्राह्मणान्त एव जनता
जनसमूहः सुरतरुगणनायां कल्पतरुकथायां कामधेनोः प्रसङ्गे गोष्ट्यां वीतमपगतं कौतूहलं यस्याः सा आसीत्। प्रतापरुद्रे सकलाभीष्टप्रदातरि सति वैयर्थ्यात् कल्पवृक्षादावासक्तिर्नाभूदित्यर्थः। अत्रोदाहरणद्वयेऽपि कोमलवर्णैरल्पसमासैर्मृदुबन्धेन च कीर्त्त्यदार्योद्दीपनविभावनव्यङ्ग्यशृङ्गारगतोद्दीपकस्वलक्षणमाधुर्यप्रतिपादनाद्वैदर्भी रीतिः। ननु कीर्त्तिचर्चेत्यादौरेफसंयोगस्तोषिताशेषेत्यादौ शवर्णषकारौ चेत्यनेकपरुषवर्णसंभवात् कथं कोमलवर्णत्वमिति चेन्न।
‘शषौ च रेफसंयोगः टवर्गश्चापि भूयसा।
विरोधिनः स्युः शृङ्गारे तेन वर्णा रसश्र्युताः॥’ इति।
ध्वन्याचार्योक्तेर्भूयसेत्युक्तत्वान्न कोमलत्वभङ्गः। एवमुत्तरत्राप्यूहनीयम्।
गौडीमुदाहरति। ओजः समासभूयस्त्वं कान्तिरुद्भटपदत्वं त एव गुणौ ताभ्यामुपेता या रीतिः। सेति शेषः। गौडीष्यते। उदाहरति। प्रचण्डेति। प्रचण्डतरेण दोर्दण्डेन बाहुदण्डेन खण्डितमरातीनां शत्रूणां मण्डलं येन स समर्थः। आन्ध्रभूपतिर्गुर्वीमलध्वीमुर्वीधुरां भूभारं बिभर्त्ति। धुरेति समासान्त आकारः।
तथा च। उदाहरति। उद्यता दोःस्तम्भे यः खङ्गस्तेन निमित्तेन त्रुटतां दलतामरिमुकुटानां शत्रुकिरीटानामाटोपेनाडम्बरेण संजाता या राहुरिति भ्रान्तिस्तया भ्रश्यतो भयात् पलायमानस्य पतङ्गस्य सूर्यस्याभयस्य करणेन वित्तोऽभयकरणचणः स्फारो नासीरस्य सेनामुखस्य संबन्धी रेणुः परागो यस्याः सा तथोक्ता। आन्ध्रक्ष्माभर्त्तुरधिका विस्तृता रणधरा युद्धभूमिर्भिन्नेभ्यो दलितेभ्यो मत्तेभकुम्भेभ्यः प्रोद्यद्भिरुत्प्लवद्भिर्मुक्तौघा एव तारानिकरास्तैः परिवृता परिवेष्टिता स्वर्वधूवक्राण्येव चन्द्रा यस्याः सा आसीत्। अत्र खड्गनिकृन्तनोत्पतदरिमुकुटेषु राहुभ्रमेण कान्दिशीकस्य भानोः नासीररेणुकर्त्तृकाभयप्रदानसामर्थ्योत्प्रेक्षया सूर्यास्तमयप्रतीतिजनकसूर्यावरणं व्यज्यते। विदलितमत्तेभकुम्भोद्यतमुक्तानां तारात्वेन विवरणोत्सुकतया समागतस्वर्वधूवक्राणां चन्द्रत्वेन च रूपणाद् रणधराया रजनीत्वं च गम्यते। गजानां मुक्ताकरत्वं गजायुर्वेदे। ‘करीन्द्रजीमूतवराह’ इत्यादिना। न चात्रानेकनिशाकरकथनं दोषावहम्। प्रसिद्धचन्द्रस्यानेकत्वासंभवेऽपि वधूमुखचन्द्राणामनेकत्वसंभवात्। अत्र परुषवर्णसंदर्भेण समासभूयस्त्वेन च रौद्ररसगतोद्दीपकत्वलक्षणौजः प्रतिपादनात् गौडी।
पाञ्चालीमाह। पाञ्चालीति। वैदर्भी गौडीति च ये पूर्वोक्ते रीती तदुभयमात्मा स्वरूपं यस्याः सा। पाञ्चालानां संबन्धिनी रीतिः पाञ्चालीत्यर्थः। पूर्वोक्तोभय रीत्यात्मकत्वं पाञ्चाल्या लक्षणमित्यर्थः। उदाहरति। जेतुरिति। जेतुः काकतिवीररुद्रनृपतेर्जैत्रप्रयाणेषूत्थिते क्षोणीरेणुभरे भूपरागपुञ्जेनभस्याकाशेऽतिभृशमत्यन्तं भ्रूविभ्रमं भ्रूविलासं विभ्रति सति वियद्दीर्घिकाकाशगङ्गा विशंकटाभ्यां पृथुलाभ्यां तटाभ्यां दीर्घातिदीर्घासती मर्त्त्यनदी भागीरथी जाता। गाढं दृढं गूढतमा पराच्छादनादप्रकाशमाना गौतमनद्यपि गोदावरी तु पातालगङ्गायते भोगवतीव भासत इत्यर्थः। अत्र नभसि स्वर्नद्यां सत्यां भागीरथी पातालगङ्गेति कथनं युक्तम्। तद्विहाय गौतमनदीत्युक्तं किं तु गाढं गूढतमापि जह्नुतनयेति पाठपरिकल्पने जह्नुतनया भागीरथीत्युक्तिः समञ्जसेति प्रतिभाति।
स्थाने इति। हे चलमर्त्त्यगण्डनृपते त्वत्स्वङ्गएव भोगी सर्पोद्विषतां प्राणैः प्राणवायुभिः सततं परितोषमेति प्राप्नोतीति यत् तत् संतोषोपगमनं स्थाने युक्तम्। ‘युक्ते द्वे सांप्रतं स्थाने’ इत्यमरः। सर्पस्य वायुना तृप्त्युपगमनं नाश्चर्यकरं वाताशनत्वादिति भावः। तर्हि किमाश्रयमित्याकाङ्क्षांजनयति। किं तु परं तु स्वत्स्वङ्गभोगिपतिनाभ्यवहृतेन पीतवर्णेन च प्रतिपक्षपार्थिवानां शत्रुनृपाणां यश एवं क्षीरं पयस्तेन गौरत्विषं शुभ्रकान्तिं त्रिलोकभरितां लोकश्रयपूर्णोस्वत्कीर्त्तिलक्ष्मीरेव सुधा तां संवर्धयतीति यदेतत् सुधासंवर्धनमत्यद्भुतं महच्चित्रम्। ‘पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवृद्धये’ इति लोकप्रसिद्धिः। स्वङ्गभोगी त्वरियशः क्षीरं पीत्वा कीर्तिसुधां वर्धयति। कीर्त्तिसुधाजननरूपकार्यंप्रत्युपादानकारणीभूतपीतवर्णारियशःक्षीरेण साधनेन गौरवर्णकीर्त्तिसुधारूपं कार्यं जनयतीति च महदद्भुतमिति भावः। अत्रोदाहरणद्वये पूर्वोक्तरीतिद्वयसाङ्कर्येणाद्भुतरसप्रतिपादनात् पाञ्चाली।
अथ रीतयश्चेयतीत्यत्र चकारसंग्रहयोः शय्यापाकयोर्मध्ये शब्दधर्मत्वसाम्यात् शय्यां निरूपयति। येति। परमुत्कृष्टा पदानां सुप्तिङन्तानां यान्योन्यमैत्री। अत्र मैत्री नाम संहितासमये यत्समीपे स्थितस्य पदस्य तेनैवान्वयः सेति शेषः। सा मैत्री शय्येति कथ्यते। उदाहरति। दातुः काकतिवंशस्य मण्डनमणेर्निःसीमविश्राणनस्य निर्मर्यादं वितरणस्य श्लाघयोत्कर्षेण लङ्घितातिक्रान्ता कल्पपादपस्य गुणानां दानादीनां प्रौढिः प्रौढिमा येन तस्यागाधं गम्भीरमोजः प्रतापो
यस्य तस्य वीररुद्रस्य संबन्धि शारदकौमुद्याः शरत्कालचन्द्रिकायाः परिमलं सौभाग्यं विभ्रयशः प्रायशः प्राचुर्येण सामन्तसीमन्तिनीनां पतिवियोजितारिस्त्रीणां गण्डाभोगेषु यः पाण्डिमा तद्धुरां पाण्डिमभारं धत्ते तद्वद् भातीत्यर्थः।
अवशिष्टस्य पाकस्य लक्षणमाह। अर्थेति। अर्थस्य शृङ्गारादेर्गम्भीरिमास्वाद्यता पाकः। इत्युच्यत इति शेषः। स पाको द्विधा द्विप्रकारेण हृदयंगमो मनोहरो द्राक्षापाको नारिकेलपाकश्चेति प्रस्फुटमन्तरं भेदो ययोस्तौ। भवत इति शेषः। ‘अन्तरमवकाशावधिपरिधानान्तर्धिभेदतादर्थ्ये’ इत्यमरः।
तत्र प्रथमोद्दिष्टस्य द्राक्षापाकस्य लक्षणमाह। द्राक्षापाक इति। यः पाको बहिः पठनसमयेऽन्तरर्थविचारसमये च स्फुरन् स्फुरमाणो रस आस्वादो मनोहरत्वं यस्य स द्राक्षापाक इत्यन्वयः।
उदाहरति। स्मरेति। विषयमात्रविश्रान्तिविरहेण विशृङ्खलवृत्तित्वमन्दमन्थरत्वादिगुणशीलाः स्मेराः। तदुक्तं भावप्रकाशे।
‘अपरिच्छिन्नविषयं मदमन्थरमीलितम्।
स्फुरद्धुपक्ष्मतायुक्तं तत् स्मेरमिति कथ्यते॥’
स्मरप्रधानाश्च ते स्मेराश्च स्मरस्सेरास्तान् मन्दं स्मितं येषां ते। मधुराः संतापहराः सौरभ्येण पद्मिनीजातित्वादस्य स्मितनिमित्तेन परिमलेन सुभगास्तान्तथोक्तान्।
‘कटाक्षैर्हासगर्भेस्तु सुभगौत्सुक्यभावना।
शीतलीक्रियते तापो येन तन्मधुरं स्मृतम्॥’ इति।
चोक्तेर्नायिकायाः प्रौढत्वात् मनागल्पं व्रीडाजाढ्यं येषां ते तथोक्ताः। अत एव स्वानुकूल्यप्रकाशकाः। तदुक्तम्।
‘सव्रीडालोकनेनैव स्वानुकूल्यप्रकाशनम्’ इति।
‘विस्रम्भे परमां काष्टामारूढे दर्शनादिभिः।
येनान्तरङ्गं द्रवति स स्नेह इति कथ्यते॥’
इत्युक्तलक्षणः स्नेहः प्रणयशब्देन विवक्षितः स एव रसो द्रवद्रव्यं तस्यान्तरङ्गे बास्तव्यस्य कल्लोलैर्महातरङ्गैः ‘महत्सूल्लोलकल्लोलानि’ इत्यमरः। भरिताः प्रेमदायिन इत्यर्थः।
‘द्रवीभूतं मनो यत्र दर्शने प्रेमदायिनः।’ इति।
लक्षणात्। कृतानेकस्कन्धाः प्रकाण्डास्तरङ्गा यैस्ते प्रियदृष्टिप्रतिघातेनौत्सुक्यभरेणौत्सुक्यभरेण च यथाक्रममासारप्रसाराभ्यामङ्गीकृततरङ्गभङ्गीका इत्यर्थः। अत एवैते तरङ्गिताः सोत्सुकाश्च। तदुक्तम्।
‘सोत्सुकं तद्यदालोक्य भूयो भूयोऽवलोकनम्।
कल्लोल इव यत् कान्तेर्विच्छेदस्तत्तरङ्गितम्॥’
मनसिजानां स्मराणां सहस्राणि सृजतो विरक्तस्यापीति भावः।
‘यद्दर्शने विरक्तोऽपि क्षुभ्यते तत्समन्मथम्।’ इति
लक्षणात्। कटाक्षान् बामे रम्ये अक्षिणी यस्याः सा वामलोचना रुद्रनृपतिं परितः सर्वतः किरति क्षिपति। कटाक्षलक्षणं तु
‘यद्गतागतविश्रान्तिवैचित्र्येण विवर्त्तनम्।
तारकायाः कलाभिज्ञास्तं कटाक्षं प्रचक्षते॥’ इति।
अत्रैवं सम्मर्दसहिष्णोः शृङ्गारस्य पाठसमयेऽप्यास्वाद्यमानत्वात्तदन्तर्बहिश्च स्फुरणं द्रष्टव्यम्।
नारिकेलपाकलक्षणमाह। य इति शेषः। अन्तर्गूढः अन्तर्लीनः रसोदयो यस्य स पाको नारिकेलपाकः। उदाहरति। लीलेति। नायकप्रकरणे मध्यमाप्रस्तावे श्लोकोऽयं व्याख्यातः। अत्रास्मिन् श्लोके द्राक् शीघ्रमर्थस्य शृङ्गारस्य प्रतीतिः स्फुरणं न भवति। अतोऽत्र नारिकेलपाक इति बोध्यम्। द्राक्षापाके शीघ्रमर्थप्रतीतिर्नारिकेलपाके विलम्बेनार्थप्रतीतिः। तदुभयमुदाहृतमनतिद्राुतानतिविलम्बिता- र्थप्रतीतिभाजः कदलीरसालादिपाकाः स्वयमेवोह्या इत्याह। एवं प्रकारेण वस्तुनोऽलंकारस्य प्रतीतावप्युदाहरणं दृष्टव्यम्। पाकान्तराणि कदल्याद्यन्यपाकाश्च यथासंभवमुदाहार्याणि।
एवं काव्यसामग्रीं निरूप्य काव्यविशेषनिरूपणं प्रतिजानीते। अथेत्यादि। अथ वृत्त्यादिनिरूपणानन्तरं काव्यविशेषाः। निरूप्यन्त इति शेषः। व्यङ्ग्यस्य व्यङ्ग्ग्यार्थस्य प्राधान्यं वाच्यार्थमतिशय्य चमत्कारकारित्वम्। अप्राधान्यं वाच्यार्थानतिशयेन वाच्यपरं चमत्कारकारित्वं ताभ्यामस्फुटत्वेनास्फुरणेन च काव्यं त्रिविधम् \। त्रैविध्यमेवाह। व्यङ्ग्यस्य प्राधान्य उत्तमं काव्यम्। यत्र बाच्या-
तिशायि व्यङ्ग्यं तदुत्तमं काव्यमित्यर्थः। ध्वनिर्ध्वनिकाव्यमिति व्यपदिश्यते व्यवह्रियते। अप्राधान्येन मध्यमं काव्यं गुणीभूतं वाच्यानतिशायित्वादप्रधानभूतो व्यङ्ग्यो व्यङ्ग्यार्थो यस्मिन् तत्तथोक्तमिति गीयते। अस्फुटत्वेऽनभिव्यक्तौअधमं काव्यं चित्रमिति कथ्यते। शब्दार्थवैचित्र्याद्व्यग्याङ्ग्यानभिव्यक्तौ
चित्रप्रायत्वात् चित्रमिति तात्पर्यम्।
ध्वनिनामकमुत्तमं काव्यमुदाहरति। स्वामिन्निति। स्वामिन् ब्रह्मन् अधुना गोत्रमहीधरान् नीचैरनुन्नतान् ह्रस्वान् विधत्ते किम्। अम्बुनिधीन् गाधानुत्तानान् कुतो हेतोः करोषि। दिक्पतीन् दिगीशानल्पकानत्यल्पान् कुरुषे किम्। इत्थमखिलं पार्श्वचराणामनुजीविनामनुलापं मुहुर्भाषाम्। असकृत्कथनमिति यावत्। न्यक्कृत्य धिक्कृत्य धर्मैषिणा केवलपरेण पद्मभुवा ब्रह्मणा गुणानामौन्नत्यादीनामेकवसतिरेकालयः श्रीवीररुद्रो नृपः सृष्ट उत्पादितः। अत्र व्यङ्ग्यस्य वाच्यातिशायित्वं स्वयं विशदयति। अत्रेति। अत्रोदाहरणे कुलशैलानतिशेत इति तथोक्तम्। समुन्नतत्वमौन्नत्यम्। अतिसमुद्रं समुद्रातिशायि गाम्भीर्यम्। लोकपालेभ्योऽप्यधिकमैश्वर्ये च व्यज्यते। तथा कुलशिखरिलोकपालानां निर्माणे यः संरम्भः साधनसामग्रीसंपादनारम्भस्तदविशायी काकतीयस्य निर्माणसामग्र्या विभवः सर्वविलक्षण इति व्यज्यते। तथा च वाच्यार्थापेक्षया व्यङ्ग्यार्थस्यैव चमत्कारकारित्वात् वाच्यातिशायित्वमितीदं ध्वनिकाव्यमित्यर्थः।
मध्यमकाव्यमुदाहरति। प्रत्यग्रेति। प्रत्यग्रमभिनवं यथा तथा प्रसरता व्याप्नुवता प्रतापविभवेन व्याप्तमाक्रान्तमखिलाशानां सकलदिशामन्तरं येन तस्मिन् विश्वस्य त्रातरि रक्षके वीररुद्रनृपतौसिंहासनमध्यास्त इति तस्मिन् तथोक्ते सत्यास्थानं पट्टाभिषेकशालां समागतैर्नृपतिभिस्तास्ता नानाविधा इत्यर्थः। चेष्टा व्यापार इत्यर्थः। तथा तेन प्रकारेणानिर्वाच्यमित्यर्थः। दर्शिताः प्रकाशिता याभिश्रेष्टाभिरमुष्य काकतिविभोर्दृष्टिः कृपया आर्द्रीकृता रसवती। अत्रोदाहरणे प्राप्ताभिषेकमहोत्सवस्य प्रतापरुद्रस्याग्रेपुरोभागे शरणार्थिनां शरणं प्रार्थयमानानां पार्थिवानां तथाविधकार्पण्येन कृपणत्वेनोपलक्षितोक्तिः कार्यण्योक्तिः पुनः पुनः प्रणामः प्रार्थनं चादिर्यस्य तच्च व्यङ्ग्यं तास्ताश्चेष्टाइति वाच्याद् वाच्यार्थादनतिशायीति हेतोर्गुणीभूतं व्यङ्ग्यं यस्य तस्य भावस्तत्ता तथा चेदं मध्यमं काव्यमिति भावः।
अवशिष्टं चित्रं विभजते। चित्रमिति। चित्रं काव्यं त्रिविधम्। त्रैविध्यमेवाह। शब्देति। शब्दचित्रमर्थचित्रमुभयचित्रमिति। त्रिविधमिति पूर्वेणान्वयः।
शब्दचित्रमुदाहरति। क्षोणीति। क्षोणीरक्षणे दक्षिणा उदाराः। समर्थाइति यावत्। ‘दक्षिणे सरलोदारौ’ इत्यमरः। क्षतो जगतां क्षोभो याभिस्ता दुरीक्ष्योऽभ्यासलाघवातिशयेन दुरवबोधः क्रम आयुधप्रयोगपरिपाटी यासु ताः क्षुद्रक्षत्रियाणां पक्षस्य बलस्य शिक्षणस्य विधौविधाने प्रोत्क्षिप्त उद्धतः कौक्षेयकः करवालो यासु ताः। युद्धायोद्दामोद्यमनस्योच्छङ्खलाटोपस्य रुद्रनृपतेश्चण्डयोर्दोदण्डयोः केलयः क्रीडा गर्जतां दुर्जनानां गर्व एव पर्वतः तस्य भिदायां भेदने दम्भोलयोऽशनयो भवन्ति। ‘दम्भोलिरशनिर्द्वयोः’ इत्यमरः। अत्र केलिषु दम्भोलित्वरूपणं गर्भेपर्वतत्वारोपणे हेतुरिति परम्परितरूपकम्। अत्रानुप्रासेन शब्दचित्रता। यद्यप्यत्रार्थालंकारस्य रूपकस्य सद्भावादुभयचित्रत्वं तथापि कविविवक्षायाः केवलानुप्रास एव पर्यवसानात् शब्दचित्रत्वमिति भावः। शुद्धशब्दचित्रं तु मदीये हेमन्ततिलकभाणे। ‘चाद्वारावमपास्य चाखिलदिशा अध्यास्य वाद्याबलीभेद्याकाश… र्कोशिसुरराट्पद्यालिसंमोदितः। पद्यालीः क्वणयन् प्रसर्पदबलावद्याति भूपारवैः स्वाद्यानेकफलागमै रघुपतिः स्वोद्यानवाटीकुटीः॥’ इति।
अर्थचित्रमुदाहरति। खड्ग इति। युद्धविजृम्भिते खङ्गेबिम्बितं रिपुमहीनाथानामञ्जलिं युतकरद्वयम्। ‘तौ युतावञ्जलिः पुमान्’ इत्यमरः। पश्यन्तो विज्ञानिनो विद्वांसो मन्यन्ते मन्वते। अहं तु पूर्वोक्तिविशिष्टाञ्जलिं वीरप्रतापरुद्रविभोर्जन्येषु युद्धेषु पुनः पुनरपि सृष्टयै सर्जनाय रिपुजीविनानि ग्रहीतुं संग्रहीतुं यातस्य समागतस्य विधेर्विश्वसृजः पीठाम्बुजं मन्ये। ‘विरिञ्चिः कमलासनः’। ‘लक्ष्मीः पद्मालया पद्मा’ इति चामरः। अत्रोत्तरार्धे छन्दोभङ्गस्तु प्राकृतानुसारिच्छायात्वप्रयुक्त इति न दोषः। पाठान्तरकल्पनं साहसमिति बोध्यम्। अत्रापि यथाकथंचिदनुप्राससंभवेऽपि कवेरर्थचित्र एव तात्पर्यात् तस्यैवोदाहरणम्। शब्दचित्रं त्वप्रधानमिति भावः।
उभयचित्रमुदाहरति। विद्येति। शुद्धमर्थचित्रं तु मदीये हेमन्ततिलकभाणे।
‘आहृतबसुः प्रतीच्या भानुः क्षिप्तोऽपराब्धिजलमध्ये।
कथमपि पूर्वाब्धिगतो ध्रु… मुद्रो भुवनानाम्॥’
एकभद्रे मुख्यशुभे। जितानि वैरिणां भद्राणि येन तस्मिन्। धृता शौर्यमुद्रा येन तस्मिन्। रक्षायां विनिद्रे निद्रारहिते। अनलस इति यावत्। गुणैर्धमादिभिरार्द्रे प्रतापरुद्रे पृथ्वी कान्ता जाया रमते रज्यति इव। अत्रानुप्रासोपमाभ्यां शब्दार्थधर्माभ्यां चित्रता काव्यस्येति शेषः। नन्वत्रोदाहरणेषु यथायोगं विभावानुभावविशेषकथने वीरशृङ्गारयोः पर्यवसानात् कथमधमत्वमिति चेत् सत्यं शब्दार्थालंकारयोरेव कविविवक्षाविषयत्वाद्विद्यमानोऽपि रसो दिवा चन्द्रप्रकाशवन्न प्रतीयते। तदुक्तं काव्यलोचने।
‘रसभावादिविषयविवक्षाविरहे सति।
अलंकारनिबन्धो यः स चित्रविषयो मतः॥’ इति।
एवं त्रिविधमपि काव्यं सामान्यतो निरूप्य तत्रोत्तमं काव्यं प्रपञ्चयितुं प्रतिजानीते। अथेति। अथ काव्यसामान्यनिरूपणानन्तरं ध्वनिविशेषा उत्तमकाव्यभेदा निरूप्यन्ते। तानेव विभजते। अत्रेत्यादिना। अत्र ध्वनिप्रस्तावे ध्वनेरुत्तमकाव्यस्य लक्षणा चाभिधा च ते मूले कारणे यस्य तस्य भावस्तत्वेन हेतुना प्रथममविवक्षितं व्यङ्ग्येन न्यग्भूतं वाच्यं यस्य सोऽविवक्षितवाच्यः। अम्यत् वाच्यादम्यत् व्यङ्ग्यं परं प्रधानं यस्य तदन्यपरं विवक्षितमन्यपरं सत् वाच्यं यस्य स विवक्षितान्यपरवाच्योऽन्यपरत्वेन विवक्षितवाच्य इत्यर्थः। तौ इत्याख्या ययोस्तौ द्वौ भेदौ। अविवक्षितवाच्यध्वनिर्लक्षणामूलः। विवक्षितान्यपरवाच्यध्वनिरभिधामूल इति बोध्यम्। अविवक्षितवाच्यध्वनेरर्थान्तरसंक्रमितं चात्यन्ततिरस्कृतं च वाच्यं यस्य तस्य भावस्तत्ता तयार्थान्तरसंक्रमितवाच्यतयात्यन्त तिरस्कृतवाच्यतया चेत्यर्थः। अर्थान्तरे लक्ष्यार्थेसंक्रमितं प्रवेशितं वाच्यं यस्येति व्युत्पत्त्यायमजहल्लक्षणामूलः। अत्यन्ततिरस्कृतं भृशं न्यग्भूतं वाच्यं यस्येति व्युत्पत्त्यायं जहल्लक्षणामूलः। एवं द्विविधस्य ध्वनेर्वाक्यपद्गतत्वेन वाक्यगतत्वेन पदगतत्वेन च द्वैविध्ये सति चतस्रो विधा यस्य तस्य भावश्वातुर्विध्यम्। तेषां संख्याक्रमस्त्वग्रे कविनैव प्रकुप्यत इत्युपरम्यते। अभिधामूलध्वनिं विभजते। विवक्षितान्यपरवाच्यस्य ध्वनेः संलक्ष्यः स्फुटसंवेद्यः क्रमो व्यङ्ग्यव्यञ्जकयोः परिपाटी यस्य तत् तथाभूतं व्यङ्ग्यं यस्य स संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यः। असंलक्ष्योऽस्फुटवेद्यः क्रमो यस्य तदसंलक्ष्यक्रमं व्यङ्ग्यं यस्य सोऽसंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यः। यत्र व्यञ्जकस्य विभावादेर्व्यङ्ग्यस्य रसादेर्विद्यमानोऽपि क्रमो निशितसूच्या शतपत्र-
पत्रवेधवदाशुभावित्वान्न संलक्ष्यते सोऽसंलक्ष्यक्रम इत्यर्थः। संलक्ष्यक्रमप्यग्यासलंक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यतया तत्त्वेन हेतुना द्वौभेदौ। संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यध्वनिरसंलक्ष्यकमध्यङ्ग्यध्वनिश्चेत्युभौ भेदौ। संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्ये शब्दार्थोभयशक्तिमूलत्वेन त्रैविध्यं सिद्धवत्कृत्याह। संलक्ष्येति। शब्दशक्तिमूले संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्ये वस्त्वलंकाररूपतया वस्तुजातिगुणाद्यर्थस्तद्रूपत्वेनालंकार उपमादिस्तद्रूपत्वेन च वस्तुध्वनिरलंकारध्वनिरिति च द्वैविध्ये सति वाक्यपद्गतत्वेन चातुर्विध्यम्। अर्थशक्तिमूले संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्येऽर्थस्य मूलभूतस्य व्यञ्जकस्येत्यर्थः। स्वतो लोकतः संभवतीति स्वतःसंभवी तत्त्वेन लोकसिद्धत्वेन कवेः प्रौढोक्त्या प्रतिभाजन्योक्त्या सिद्धत्वेन कविनिवद्धेषु कविसमयसिद्धेष्वर्थेषु वक्तुर्विरच्यमानप्रकृतकृतिकर्तुः प्रौढोक्तत्या सिद्धत्वेन च त्रैविध्यम्। त्रिविधस्यार्थशक्तिमूलस्य प्रबन्धवाक्यपदगतत्वेन प्रबन्धगतत्वेन वाक्यगतत्वेन पदगतत्वेन त्रैविध्ये सति षडुत्तरा त्रिंशत् षदत्रिंशत् तावत्संख्याका प्रकारा यस्य स तथोक्तोऽर्थशक्तिमूलोऽनुरणनं घण्टादेः प्रथमस्वरानन्तरभाविस्वनोऽनुरणनं तत्सादृश्यात् संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यस्त्रिविधोऽप्यनुरणनध्वनिर्घण्टादेः स्वरानुसारी स्वनोऽनुरणनम्। व्यञ्जकानुसारि व्यङ्ग्यम्। तथा च साम्येन हेतुनास्य ध्वनेरप्यनुरणत्वमिति बोध्यम्। तृतीयमाह। उभयस्य शब्दार्थरूपस्य शक्तिर्मूलं यस्य स संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यध्वनिर्वाक्यगतत्वेन हेतुनैकविध एव। एवमुक्तरीत्या संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यध्वनेरेकोत्तरचत्वारिंशत्संख्याका भेदाः। एवमुत्तरत्र समासो द्रष्टव्यः। असंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्योरसादिः। आदिशब्देन भावादिर्विवक्षितः। तस्य ध्वनिस्तत्प्रधानं ध्वनिकाव्यमित्यर्थः। प्रबन्धगतत्वेन वाक्यगतत्वेन पदगतत्वेन पदैकदेशगतत्वेन रचनागतत्वेन वर्णगतत्वेन च षद्विधः। प्रबन्धादिपदानां गतपदेन प्रत्येकं संबन्धः। एवमुक्तरीत्या विवक्षितान्यपरवाच्यध्वनेरभिधामूलध्वनेः सप्तचत्वारिंशद्भेदाः। चतुर्भिरविवक्षितवाच्यस्य लक्षणामूलध्वनेर्भेदैः सह संख्याने प्रथममादौ शुद्धा मिश्रणव्यतिरिक्ता एकपञ्चाशद्भेदाः। तेषां शुद्धानां प्रत्येकमेकैकस्य पदगतार्थान्तरसंक्रमिताविवक्षितवाच्यध्वन्यादेरेकैकेन वाक्यगतार्थान्तरसंक्रमिताविवक्षितवाच्यध्वन्यादिना सह संबन्धे सति प्रथमभेदस्य पदगतार्थान्तरसंक्रमिताविवक्षितवाच्यध्वनेः पञ्चाशद्भेदाः। अथ स्वस्य स्वेनापि संबन्धे एकपञ्चाशद्भेदा इति बोध्यम्। द्वितीयस्य वाक्यगतार्थान्तरसंक्रमिताविवक्षितवाच्यध्वनेः पञ्चाशद्भेदाः। तृतीयस्य
वाक्यगतात्यन्ततिरस्कृताविवक्षितवाच्यध्वनेरेकोनपञ्चाशद्भेदाः। अनेन क्रमेण पूर्वोक्तरीत्योत्तरस्य प्रथमभेदाद्वितीयमुत्तरं तस्मादुत्तरं तृतीयम्। एवं द्वितीयादेरेकैको भेदः। द्वितीयस्य पञ्चाशदित्युक्तरीतिको भेदस्तस्य परित्यागे सति पडुत्तरा विंशतिः पड्विंशतिस्तदुत्तरं शतत्रयं तदधिकं सहस्रमिति संख्या येषां ते तथोक्ता मिश्रभेदा भवन्ति। ननु वाच्यगतार्थान्तरसंक्रमिताविवक्षितवाच्यध्वनेः पद्गतार्थान्तरसंक्रमिताविवक्षितवाच्यध्वनेः संबन्धे यथैको मिश्रभेदस्तेनैव पदगतार्थान्तरसंक्रमिताविवक्षितवाच्यध्वनिसंबन्धे अन्यो मिश्रभेदस्तथा चैकपञ्चाशतो भेदानां विचार्यमाण एकोत्तरशतषडधिकसहस्रयसंख्याकमिश्रभेदसंभवे एकन्युनताक्रमेण न्यूनसंख्याकमिश्रभेदकल्पनमनुचितमिति चेत् सत्यम्। भेदद्वयेऽपि प्रथमस्य द्वितीयेन संबन्धो द्वितीयस्य प्रथमेन संबन्ध इति संबन्धिप्रतिबन्धिनोच्चारणव्यत्यासमात्रं न पुनश्चमत्कारविशेषः। अतस्तेषां यथायोगं मिथोऽन्तर्भाव एवेति युक्तम्। अमुमेवाभिप्रायं व्यनक्ति। अविवक्षितान्यपरवाच्यध्वनिसंबन्धे यो भेदस्तस्मिन् भेद एवविवक्षितान्यपरवाच्यस्याविवक्षितवाच्येन संबन्धोऽन्तर्भूतः। पृथग्भूतो न भवति। अनेनैव क्रमेणोक्तरीत्या वस्तुध्वनेरलंकारध्वनिना संबन्धेन भेदोऽपि। अपिशब्दः समुच्चयार्थः। अलंकारध्वनेर्वस्तुध्वनिसंबन्धान्न पृथग्भूतः किं तु तत्रान्तर्भूत इत्यर्थः। विषयव्याप्त्यर्थमुक्तत्वान पुनरुक्तार्थता। इत्युक्तरीत्या पूर्वपूर्वस्य वाक्यगतार्थान्तरसंक्रमितवाच्यादेरुत्तरोत्तरसंबन्धे पदगतात्यन्ततिरस्कृतविवक्षितवाच्यादिसंबन्धे एकैकभेदस्य द्वितीयध्वन्यादेन्यूनता न्यूनसंख्याकता ज्ञेया। तस्य पूर्वोक्तस्यापि मिश्रणस्य संकीर्णध्वनेस्त्रीणि रूपाणि यस्य तेन संकरेणैकरूपया संकरवदुपाधिभेदाभावादेकविधया संसृष्टया च पुनर्भूयश्चतुर्धा चतुर्विधं योजने संबन्धे सति चतुरुत्तरं यच्छतत्रयं तदधिकानि पञ्चसहस्राणि भेदाः। संकरस्य त्रिरूपत्वं कथमित्याकाङ्क्षायामाह। अनुगृह्यत इत्यनुग्राह्यमनुप्राण्यम्। अनुगृह्णातीत्यनुग्राहकमनुप्राणकं तयोर्भावोऽङ्गाङ्गिभावः। संदेह इति लक्षणं नाम यस्य संकरस्य स च। ‘लक्षणं नाम्नि चिह्ने च’ इति विश्वः। एकव्यञ्जकेऽनुप्रवेशश्च। एते पूर्वोक्तास्तु संकरस्य भेदाः।
न्यूनाधिकसंख्याव्यवच्छेदार्थमुक्तामेव संख्यां गणितमर्यादया क्रोडीकृत्याह। शुद्धा इति। अङ्कानां वक्रतो गतिरिति गणितशास्त्रम्। पुस्तके विलेखनस्य व्यत्यासेन अङ्का निक्षेपणीयाः। उच्चारणं तु लौकिकरीत्या शुद्धा असंकीर्णा ध्वनि-
भेदाश्चन्द्र (१) शराः (५)। तथा च प्रथममेकं पङ्कं लिखित्वा पश्चात् पञ्च पङ्कं विलिख्य ऋजुरीत्योच्चारण एकपञ्चाशद्भेदा इति सिद्धं भवति। एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम्। मिश्राः संकीर्णा ऋतु (६) नेत्र (२) अनल (३) इन्दु (१) १३२६। संसृष्टेः संकरस्य चायत्तास्तु तदधीनास्तु तत्प्रयुक्तभेदवन्त इत्यर्थः। ध्वनयस्तु अब्धिः (४) खं शून्यं बिन्दुरित्यर्थः अग्निः(३) शराः (५) ५३०४ एतत्संख्याका भेदाः सिद्धा इत्यर्थः। तत्र ध्वनिभेदेषु शुद्धानामसंकीर्णानामेकपञ्चाशतो भेदानां नामधेयानि कथ्यन्ते। प्रतिपत्तिसौकर्यार्थमित्यर्थः।
पद्गतेत्यादिना ध्वनिरित्यन्तेन। तत्रार्थविचारो नास्तीति सर्वे विसृष्टम्। नाम्नामप्येकष..शद्भेदानां मध्ये कतिपयोदाहरणप्रदर्शनेऽपीह कुशलानां भेदान्तराणि सुबोधानीत्यभिप्रायेणाह। तत्र ध्वनिषु दिङ्मात्रमल्पमात्रमुदाह्रियते न त्वेकपञ्चाशद्भेदा इति भावः।
चतुर्विधेष्वविवक्षितवाच्यध्वनिषु पदवाक्यगतत्वादिभेदान् विहायार्थान्तरसंक्रमिताविवक्षितवाच्यध्वनिमुदाहरति। मूर्धान इति। हे मूर्धानो यूयमास्माका अस्माकं संबन्धिनः। किमिति केन हेतुना। औन्नत्यमुन्नतत्वमिच्छय इति। मनसि वदन्त इति शेषः। प्रतिपार्थिवाः प्रतापरुद्रस्य प्रणताः प्रणाममकुर्वन्। अत्रास्माका इत्यस्मत्संवन्धित्यं वाच्यम्। तत्प्रकृत्या सिद्धतयानुपपन्नं सदस्मदर्थेन सहैव राजसु सर्वदैन्यविश्रान्तिभूमित्वरूपार्थान्तरे संक्रमति। तस्मादजहल्लक्षणामूलोऽर्थान्तरसंक्रमितवाच्यध्वनिः। व्यङ्ग्यं तु प्रतापरुद्रवैरिणां तदग्रे गरुडाग्रे पन्नगानामिव युद्धवैमुख्यम्। तत् सर्बंमनसि निधायाह। अत्रेति। अत्रोदाहरणे सर्वदैन्यस्य विभ्रान्तिभूमयो विश्रामस्थानभूता दीनतयेत्यर्थः। वयमीदृशानां दीनतमानामस्माकं संबन्धिन इति रीत्या अर्थान्तरे दैन्यरूपात्यार्थेसंक्रमितं वाच्यमस्माकत्वरूपं यस्य तस्य भावस्तत्ता।
द्वितीयमुदाहरति। विशदिमेति। विशदिम्ना धावल्येन विलिप्तं कृतलेपनं व्याप्तमित्यर्थः। वियदाकाशं यैस्ते तथोक्ताः। धवलिम्नापरिपूरिता अखिला आशान्ता दिगन्ता यैस्ते। गौराः शुभ्राः काकतीन्द्रस्य यशसां पूराः परम्परा विहरन्ति विजृम्भन्ते। अत्र विलितेत्यत्र मूर्त्तद्रव्योचितस्य विलेपनस्यामूर्त्ते वियत्यसंभवात् स्वार्थपरित्यागेनोपरञ्जनातिशयस्याकाशे लक्षितत्वादत्यन्ततिरस्कृतवाच्यत्वमिति मनसि निधायाह। अत्रेति। अत्र विशदिमविलिप्सवियदिति-
स्थल अत्यन्ततिरस्कृतमतिन्यग्भूतं वाच्यं विलेपनरूपं यस्य तत्त्वम्। विषयभेदाद्विशदिमधवलिम्नोर्न पौनरुक्त्यम्। अनेन पूर्वोक्तेनैव क्रमेण वाक्यगतत्वेनाप्युदाहार्यम्। एतेनोदाहृतं पदगतमिति सूचितम्।
अर्थशक्तिमूलानां ध्वनीनां बाहुल्यात् तानेवादावुदाहरति। अध्दानिति। काकतीयस्य रिपुस्त्रिय ऋतून् विनाब्दान् संवत्सरान्। ‘संवत्सरो वत्सरोऽब्दो हायनः’ इत्यमरः। शुक्लपक्षान् विना मासान् रात्रीर्विना तिथीन् दिवसांश्चेत्यर्थः। आकाङ्क्षन्ते। अत्र वाच्यार्थस्य व्यङ्ग्यातिशायित्वं विशदयति। अत्र ऋतुप्रभृतीनां मदनस्योद्दीपकत्वात् तेषामृतुप्रभृतीनामभावो रिपुस्त्रीभिराकाङ्क्ष्यते प्रार्थ्यत इति प्रतीयते। अत्र ऋत्वभावाकाङ्क्षाया वाच्यत्वम्। ऋतूनामुद्दीपकत्वं व्यङ्ग्यम्। तेन व्यङ्ग्येन तासां स्त्रीणां प्रियवियोगरूपं वस्तु व्यज्यते। अत्र वस्तुशब्दो वाच्याद्यर्थयोरन्यतमार्थवाचकः। अनेन प्रियवियोगरूपवस्तुना प्रतापरुद्रस्य सर्वे शत्रवो निहता इति प्रतीयते इति वाच्याद्वाच्यार्थादतिशयः। व्यङ्ग्यार्थस्येति शेषः। इदमेव वस्तूद्दीपकवस्तुभेदेन भिन्नमित्यभिप्रायेणाह।तथेति। तथा प्रियविरहेण विधुराः कष्टाः शत्रुस्त्रियः कतिपयेषु वत्सरेषु जीविताशया प्रथममादौ ऋतूनामभावं वाञ्छन्ति। अनन्तरं तान् संवत्सरान् गमयितुं नेतुमशक्ताः कतिपयमासेषु प्राणान् धारयितुमुद्दुक्ताः सत्यो ज्योत्स्नावतां पक्षाणां विनाशं वाञ्छन्ति। अनन्तरं मासानप्यपनेतुमपारयन्त्योऽसमर्थाः कतिपयतिथिषु जीविताशया रात्रीणामप्यभावमेव समभिलपन्तीति रित्याबहुवस्तुना ऋत्वाद्युद्दीपकबहुवस्तुना बहुवस्तुभेदप्रयुक्तत्वाद्बहुविधं त्रिविधमिति यावत्। ज्योत्स्नारात्रिरूपोद्दीपकसामग्र्यास्त्रिविधत्वादिति भावः। वस्तु शत्रुनिहतिरूपं व्यज्यते। ऋत्वाद्यभावाकाङ्क्षारूपेण वस्तुना वाच्यार्थेन वस्तुना वस्तुध्वनिरितीदमुत्तमं काव्यम्।
दृष्ट्वेति। काकतिवीररुद्रनृपतेर्जगन्ति व्याप्नोतीति तथोक्तां कीर्त्ति दृष्ट्वा शंभुः शिवः। अत्र कीर्त्तौ वस्तुं स्थातुं वाञ्छति। अत्रेति सर्वत्र संबध्यते। लक्ष्मीपतिः श्रियः पतिः शयितुं शयनं कर्त्तुं काङ्क्षति। दिव्यानां नारदादिमुनीनां गणः स्नातुं स्नानं कर्त्तुं धावति त्वरया गच्छति। वार्धयः सागराः संवर्धितुं वृद्धिं गन्तुं चेष्टन्ते यतन्ते। अभ्रमुरैरावतभार्यापि सविलासं यथा तथा शनैः स्प्रष्टुमीहते इच्छति। ‘इच्छाकाङ्क्षास्पृहेहातृङ्वाञ्छालिप्सा’ इत्यमरः। अत्र शिवादीनां
क्रमेण कैलासक्षीराब्धिमन्दाकिनीचन्द्राभ्रमातङ्गभ्रान्तिरिति भ्रान्तिमदलंकारो व्यज्यत इत्याह। अत्रेति। अत्र हरस्य कैलासभ्रान्तिर्हरेः क्षीरार्णवभ्रान्तिरिति रीत्या भ्रान्तिमदलंकारो व्यज्यते। नन्वत्रालंकारस्य व्यङ्ग्यत्वं तस्य प्राधान्ये सत्यलंकार्यत्वमेव न ध्वनिकाव्यत्वमिति चेन्न। ब्राह्मणस्य श्रमणत्वे तस्य श्रमण इति व्यवहारे ब्राह्मणत्वहानिर्यथा न संभवति तथा प्रधान भूतव्यङ्ग्यार्थस्यालंकारव्यपदेशे न ध्वनिकाव्यत्वभङ्ग इति। एवमन्यत्राप्यलंकारध्वनौ द्रष्टव्यम्।
प्रतापेति। रणे सद्यः समुद्यता स्रवता रुधिरेणारुणश्रीर्यस्य स प्रतापरुद्रस्य कृपाणः स्वङ्गो रोपेण कषायितस्यारुणीकृतस्य काल्याः काल्याख्यदेवतायाः कटाक्षस्य दृष्टेर्विजृम्भितानि विजृम्भमाणानि। भावे कः। आलम्बते प्राप्नोति। अत्रालम्बत इति वाच्येन निदर्शनालंकारेण सकलरिपूणां क्षयो नाशः क्षणात्कृत इति वस्तु व्यज्यत इत्यलंकारेण वस्तुध्वनिः।
काकतीयेति। काकतीयविभोः कीर्त्तिरेव पुण्डरीकं सिताम्भोजं तस्मिन् विजृम्भिते विकसिते सति तमालवच्छयामलं नभो मधुकरस्य क्रीडां शोभां धत्ते। अत्र कीर्त्तिपुण्डरीकं मधुकरक्रीडां धत्त इति निदर्शनालंकारेण वाच्येनाश्रयाश्रयिणोराधाराधेययोरनानुगुण्यमानुगुण्याभावस्तदेव रूपं यस्य सोऽधिकालंकारो व्यज्यते। आनुगुण्याभावः कथमित्यत्राह। आश्रयस्य कीर्त्तिपुण्डरीकस्य वैपुल्यं भ्रमरेण सह सादृश्यप्रतिपादनात् नभसोऽल्पत्वं प्रतीयते। अत आनुगुण्याभावादधिकालंकारप्रतीतिरिति भावः। एषूदाहृतध्वनिषु स्वतः सिद्धार्थस्य शक्तिर्मूलं यस्येति तत्त्वम्।
अथ कविप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलेषु वस्तुना वस्तुध्वनिमुदाहरति। श्रावं श्रावमिति। खुरलिर्मल्लादिसाधनशाला। भाषान्तरे सा मुगरली। तत्र विहरतः कार्त्तिकेयस्य स्कन्दस्य इषुणा शरेण जातं यच्छिद्रं रन्ध्रं तस्य छद्म कपटं यस्य तस्य श्रवणस्य श्रोत्रस्य पदव्यां मार्गे चरतीति तथोक्ताम्। कुतः। चारणानामोधैर्वृन्दैः शश्वद्गीतां भुवनानां महितां पूज्यमानाम्। वर्त्तमाने क्तः। काकतीयस्य कीर्त्ति श्रावं श्रावं पुनः पुनः श्रुत्वा क्रौञ्चक्ष्माभृत् चक्रवालाचलो महतो विपुलात् विस्मयान्निश्चलं निभृतमङ्गं यस्य स तथोक्तो भवति। पुरा किल परशुरामस्पर्धया स्कन्दो वाणेन क्रौञ्चादि ददारेति प्रसिद्धिः। अत्र क्रौञ्चाद्वेर्निश्चलाङ्गत्वे विस्मयादिति हेतोरुत्प्रेक्षणादुत्प्रेक्षाव्यञ्जकाप्रयोगाद्गम्यता। एवमलंकारप्रतीतावपि क्रौञ्च-
क्ष्माभृदिति वस्त्वेव कीर्त्तिस्थावरविस्मयकारित्वरूपं वस्तु व्यनक्तीति वस्तुना वस्तुध्वनिरेवेति तात्पर्येणाह। अत्रेति।
वीररुद्रेति। रणे जयलक्ष्म्या जयश्रिया कान्तया च वृतान् वीररुद्रस्य भटान् योधान् दृष्ट्वा कानने कण्टकिद्रुमाः कण्टकयुक्तद्रुमा अरिवधूनां केशान्। प्रतापरुद्रस्येति शेषः। कर्षन्ति। आलिङ्गनार्थमिति भावः। अत्र जयश्रिया समालिङ्गितान् वीररुद्रभटान् दृष्ट्वा समदना इव मदनयुक्ता इव कण्टकिद्रुमाः शत्रुवधूकेशान् कर्षन्तीति वाच्येन वस्तुना समदनत्वोत्प्रेक्षा व्यज्यत इत्यलंकारध्वनिः।
अपसरतीति। शिथिलो नष्टो मानः। ‘स्त्रीणामीर्ष्याकृतः कोपो मान इत्यभिधीयते’ इत्युक्तलक्षणो यस्यास्तस्या वध्वा लज्जाया मनो हरतीति तथोक्ते दयिते पत्यौ सविधे समीपं गते सति आत्मनः स्वस्य ग्रहणे यद्भयं तेनेव सखीभिः समं सहापसरति। सख्यो लज्जा च गतेत्यर्थ। अत्रोत्प्रेक्षया भयेनेवेति हेतूत्प्रेक्षयालिङ्गनमादिर्यस्य तत्तथोक्तं वस्तु व्यज्यत इत्यलंकारेण वस्तुध्वनिः।
अभयमिति। वनमरण्यम्। अभयं रक्षणं याचमानानां काकतीयेन्द्रस्य विद्विषां रिपूणां संबन्धि संरक्षां शाखानां प्रकम्पनैर्नाङ्गीकरोतीव। यथा शिरः कम्पनरूपसंज्ञया नाङ्गीकारं प्रकटयति तद्वदिति भावः। अत्र नाङ्गीकरोतीवेत्युत्प्रेक्षया प्रतापरुद्रशत्रुभ्यो रक्षणं कर्त्तुं वनमपि विभेतीवेत्युत्प्रेक्षा व्यज्यते इत्यलंकारेणालंकारध्वनिः। यद्यप्यभयमिति श्लोको वस्तुनालंकारध्वन्युदाहरणानन्तरमेवोद्देशक्रमेण व्याख्येयस्तथापि दृश्यमानमूलपुस्तकलेखनक्रमेण व्याख्यातो रत्नापणे व्यक्त एवेति वेदितव्यम्।
कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलामुदाहरति। यथा तथेति। नायकं प्रति दूतीवाक्यमेतत्। आर्या मत्स्वामिनी यथा तथा वा मादृशावस्था वा भवतु। तदवस्थाया अल्पत्वानल्पत्वविचारो मा भवत्वित्यर्थः। हे नरनाथ शशिनश्चन्द्रस्य रक्षणं कुरु। तस्य का बाधेत्यत्राह। यद्यस्मात् कारणात् तयार्यया तं चन्द्रं मपीकर्त्तुं दग्धुं कटाक्षा एवोल्का निर्गतज्वाला आज्ञप्ताः प्रेषिता इत्यर्थः। चन्द्रमपीकरणात् पूर्वमेव त्वयागन्तव्यमित्यर्थः। अत्र विरहेणार्ता पीडिता आर्या चन्द्रिकामसहमाना सती रोपज्वलितया कटाक्षोल्कया चन्द्र मषीकरोति स रक्षणीय इत्यनेन वस्तुना वाच्येनेतः परं संजीवितुं प्राणान् धारयितुमशक्ता अधुनैव त्वया समागन्तव्यमिति व्यज्यत इति वस्तुना वस्तुध्वनिः।
क इति। इदं पद्यं चक्रवालप्रतापरुद्रयशसोः प्रश्नोत्तररूपम्। तत्रादौ चक्रवालस्य प्रश्नः। त्वं कः शुभ्रं धवलमखिलाङ्गं यस्य स सन् चरसि। ततः कीर्त्तेरूत्तरम्। ननु हे चक्रवाल। ‘प्रश्नावधारणानुज्ञानुनयामन्त्रणे ननु’ इत्यमरः। अहमिति शेषः। वीररुद्रस्य संबन्धि यशो वर्त्ते संचरामि। दीप्तः प्रकाशमानो देहो यस्य स ते तव परिसरे स्फुरति प्रकाशते। प्रकाशमानः क इति गिरिप्रश्नः। मम सुहृत् मित्रम्। एकजन्यत्वादिति भावः। तस्य राज्ञः प्रतापः प्रभावः। ‘स प्रतापः प्रभावश्च यत्तेजः कोशदण्डजम्’ इत्यमरः। अवशिष्टं वाक्यं प्रच्छाद्य स्वस्वरूपमिति शेषः। अलं प्रच्छादनं न कर्तव्यमित्यर्थः। स्फुरद्भिर्विकसद्भिः कुमुदैः सरसिजैश्च। वो युष्माकम्। पूज्यत्वबुद्ध्या बहुवचनमिति ज्ञेयम्। स्वरूपं ख्यापितमनुमितमित्यर्थः। हे सोमार्कौचन्द्रसूर्याविति संबोधनम्। वां युवयोः स्वागतं शोभनागमनमिति काकुः। स्वागतं किमित्यर्थः। स्वस्वरूपं कथयति। अवधीति। वामवधिगिरिश्वक्रवालाचलो निर्गतं तमो यस्मात् स निस्तमस्को विहितः कल्पितः कृतः। सूर्यप्रकाशरहितो बहिर्भागेऽपीतिभावः। अनेन प्रश्नोत्तररूपेण वस्तुना वाच्येनात्र प्रतापरुद्रयशःप्रतापयोः सोमाकंसादृश्यप्रतीतेरुपमालंकारो व्यज्यत इति वस्तुनालंकारध्वनिः।
पश्यतेति। इदं वधूमुद्दिश्य सखीनां सल्लापवचनम्। हलेति सखीसंबोधनम्। ‘हञ्जे हण्डे हलाह्याने नीचां चेटीं सखीं प्रति’ इत्यमरः। तथारूढस्तेन प्रकारेणोत्पन्नोऽत एव निर्भरो वध्वा नायिकाया मानो नृपतेः समागमेन यः संभ्रमस्तन्द्रा तेन संजातं भयं यस्य स तथोक्त इवापसरति निर्गच्छतीति। अत्र संजातभय इवेत्युप्रेक्षया प्रियप्रार्थनं विनैव मानिन्या मनः प्रसन्नं कोपरहितमिति विभावनालंकारः कारणं विना कार्योत्पत्तिरूपो व्यज्यत इत्यलंकारेणालंकारध्वनिः।
अप्राप्येति। इदं नायकं प्रति सखीवचनम्। हे नाथ नायक काम्ताभिर्वृतस्य ते तब सेवायामवसरमप्राप्य अनेकत्रासङ्गतत्वात् तवेति भावः। श्यामा नीला यौवनवती च। वधूस्तव कीर्ति सेवमानेव सर्वेष्वङ्गेष्ववयवेषु पाण्डुरा धवला भवतीति शेषः। धवलकीर्तिसेवनादङ्गधावल्यमिति भावः। अत्र सेवमानेवेत्युस्प्रेक्षया सर्वथा स्वीकार्यत्वमङ्गीकार्यत्वमादिर्यस्य तद्रूपं वस्तु व्यज्यते इत्यलंकारेण वस्तुध्वनिः। एवं प्रबन्धादिगतत्वेन यथासंभवमुदाहरणानि द्रष्टव्यानि। ग्रन्थान्तरेष्विति भावः। कुतोऽवशिष्टा ध्वनयो नोदाह्रियन्त इत्यत्राह। विस्तरेति।
‘स तु शब्दस्य विस्तरः’ इति भावः। इति कोशात् शब्दप्रपञ्चात् भयं तस्माद्धेतोरिह प्रबन्धे नोदाहृतानि। उक्तोदाहरणेषु सावधानचित्तानामुदाहरणान्तरगम्यत्वस्य सुलभत्वात् पुनस्तदुपादानं ग्रन्थगौरवमेवावहेदिति विस्तरशब्दप्रयोक्तुस्तात्पर्यम्।
तथार्थशक्तिमूलध्वनिर्निरूप्यते। स च स तु शब्दशक्तिमूलध्वनिर्वस्तुगतत्वेनालंकारगतत्वेन च द्विविधः। स्वोक्तौ वृद्धसंवादमाह तथा। यथास्माभिरुक्तं च पूर्वैरिति शेषः। यत्र श्लोके शब्दालंकारोऽथ अथवा वस्त्वेव वस्तुना अवभासते व्यज्यते प्रधानत्वेन शब्दप्रधानत्वेन। एतेनार्थस्याप्राधान्यम्। शब्दशक्त्या उद्भव उत्पन्नः स ध्वनिर्द्विधा वस्तुध्वनिरलंकारध्वनिरिति द्विविधो भवतीत्यर्थः।
अलंकारध्वनिमुदाहरति। एष इति। नायिकां प्रति सखीवाक्यम्। एष प्रकृतः प्रतापरुद्रःपुरोवर्ती राजा नृपतिश्चन्द्रश्च। त्वं श्यामा खलु यौवनमध्यस्था खलु रात्रिश्च। चेत् किमित्याकाङ्क्षायामाह। द्वयोर्युवयोः समागमः संगतिः। युज्यत इति शेषः। तर्हि किं न युज्यत इत्याकाङ्क्षायामाह। किं पुनः किं तु प्रकृष्टो दोषो मानादिस्तस्य कथा वार्त्तापि न दृश्यते प्रदोषो रजनीमुखं तस्य कथा प्रसक्तिरपीत्यन्यत्र। एतत् खलु प्रदोषादर्शनमेव आश्चर्यं चित्रम्। चन्द्ररात्र्योः समागमे रजनीमुखरूपप्रदोषप्रसक्तिरस्ति। राजश्यामयोर्युवयोः समागमे प्रदोषप्रसक्तिनांस्तीति चित्रमिति भावः। अत्र श्यामराजशब्दवाच्ययोः कान्तानृपयोरप्रकृतनिशाचन्द्राभेदाध्यवसायेन प्राप्तस्य प्रदोषस्य रजनीमुखरूपस्य प्रतिषेधेन विरोधः प्रतीयते। तद्द्योतकमाश्चर्यपदं परिहारस्तु दोषनिषेधादिति विरोधाभासः। अत्र करणेन प्रकृतत्वेन कान्तानृपवाचकाभ्यां श्यामाराजशब्दाभ्यां निशाचन्द्रप्रतीतेर्हेतोरुपमा व्यज्यते। अनेकार्थपदगुम्फनमहिम्ना कवेर्विवक्षितमेवार्थान्तरं प्रतीयते। तस्यासंबन्धत्वव्यवहाराय प्रकृतेनौपम्यं कल्पनीयम्। तेन व्यङ्ग्यस्योपमालंकारस्य श्लिष्टशब्दसद्भावे प्रतीतिस्तदभावे त्वप्रतीतिरिति हेतोरयं ध्वनिः शब्दशक्तिमूल इति भावः।
वस्तुध्वनिमुदाहरति। कान्तारेति। हे नरेश्वराः कान्तारवासेनारण्यवासेन संतप्ताः संतापं गताः। यूयमिति शेषः। हितादाप्तात् इत मत्त इत्यर्थः। संशृणुध्वं हितोपदेशमिति शेषः। अधुना राजपादसेवां प्रतापरुद्राद्विसेवां चन्द्रकिरणसेवां चेत्यन्यत्र। कुरुध्वं चन्द्रकिरणसेवायाः संतापनिवारकत्वात् सा कर्तव्या इत्यन्यो भावः। प्रतापरुद्धं शरणं प्राप्य बनवासजनितसंतापं त्यजतेत्येको भावः।
अत्र राजपादसेवामिति शब्दशक्त्या प्रकृतस्य प्रतापरुद्रस्य प्रतीतिः प्रकरणात् प्रकृतत्वाज्जायते। अनेनार्थेन प्रतापरुद्धसेवा कर्त्तव्या। अरण्यवासेन किं किमर्थे संताप इति वस्तु व्यज्यते।
उभयशक्तिमूलध्वनिमुदाहरति। जिष्णुरिति। भुजस्तम्भे जृम्भमाणमद्भुतं तारतम्यादिना विचित्रं पर्वतेष्वप्यकुण्ठितत्वाद्विचित्रमित्यन्यत्र। आयुधं स्वङ्गादि बज्रायुधं च यस्य स एष प्रतापरुद्रो जयशील इन्द्रश्च। अतो हे क्ष्माभृतो राजानः पर्वताश्च निजपक्षस्य युद्धमेव कुर्म इति स्वगतस्य स्वगरुतां चेत्यन्यत्र। विजृम्भितं जृम्भणं मुञ्चत त्यजत। वज्रिणः पुरतः पर्वतगरुद्विजृम्भणवत् प्रतापरुद्रस्य पुरतो भवतां विजृम्भणं व्यर्थमिति भावः। तथा चोपमा व्यङ्ग्यम्। तदुभयशक्तिमूलमित्याह। अत्रेति। क्ष्माभृत इत्यादिषु शब्दशक्तिमूलता। क्ष्माभृदादिशब्दान् विहाय नृपादिपदप्रयोगे अन्यार्थप्रतीतिनं भवति। एवं चौपम्यं न प्रतीयते तत्प्रयोगे प्रतीयते। तस्माच्छन्दशक्तिमूलत्वमिति भावः। भुजस्तम्भे विजृम्भमाणे त्वित्यत्र तत्सर्वं विहाय ‘करस्तम्भविलसच्चित्रहेतिकः’ इति प्रयोगेऽप्यन्यार्थप्रतीतेरर्थस्यैव शक्तित्वादर्थशक्तिमूलत्वमिति भावः।
एवं संलक्ष्यक्रममुदाहृत्यावशिष्टमसंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यमुदाहरति। असंलक्ष्येत्यादिना। असंलक्ष्यक्रमं व्यङ्ग्यं यस्य स रसादे रसभावादेर्ध्वनिः। वृद्धसंवादमाह। तथा चेति। शृङ्गारतिलके तथा अस्मदुक्तरीत्या। उक्तं च रसादी रसभावादिर्योऽलंकारस्तस्माद्भिन्नः। अक्रमोऽसंलक्ष्यक्रमो रसाः शृङ्गारादयोः। भावास्तदाभासाः रसाभासा भावाभासाश्च भावशान्तिश्वादिर्यस्य ध्वनेः स ध्वनिः। आदिशब्देन भावोदयादि गृह्यते। अलंकार्यमलंकारार्हेकाव्यमित्यर्थः। तत्तया कायस्वरूपेण स्थितः। रसादीनामङ्गत्वे अलंकारत्वं प्रधानत्वे काव्यत्वमिति भावः। रसभावानामुदाहरणस्य प्रपञ्चो बिस्तरो रसप्रकरणे भविष्यति। तत्रावश्यकत्वादत्र विसृष्टमिति भावः। एवं चोत्तमकाव्यं व्यङ्ग्यप्रधानं चतुरुत्तरशतत्रयाधिकपञ्चसहस्रभेदभिन्नमिति बोध्यम्।
अथ मध्यमकाव्यनिरूपणं प्रतिजानीते। गुणीभूतेति। गुणीभूतमप्रधानं वाच्यानतिशायि व्यग्ड्यं यत्र तद्गुणीभूतव्यङ्ग्यं काव्यं मध्यमम्। तन्मध्यमकाव्यम्। अष्टौ विधा यस्य तदष्टविधम्। पूर्वशास्त्रमनुवदति काव्यप्रकाशे तथा
उक्तं च। अगूढमिति। अगूढं यत्र व्यङ्ग्यं शीघ्रं प्रतीयते तत् काव्यमगूढम्। यत्रापरस्य रसादे रसादिरङ्गं भवति तदपरस्याङ्गम्। वाच्यस्य वस्त्वादेर्यासिद्धिस्तस्या यदङ्गं तद्वाच्यसिद्धयङ्गम्। यत्र व्यङ्ग्यं विलम्बेन प्रतीयते तदस्फुटम्। यत्र वाच्यार्थे व्यङ्ग्यार्थे च वाक्यविश्रान्तौ संदेहस्तत् संदिग्धम्। वाच्यार्थव्यङ्ग्यार्थयोर्यत्र तुल्यता तत्तुल्यप्राधान्यम्। काक्वाकाकुस्वरेण यत्र व्यङ्ग्यमाक्षिप्यते तत् काक्वाक्षिप्तम्। यत्र वाच्यस्यैव चारुतातिशयो न व्यङ्ग्यस्य तदसुन्दरम्। एवमष्टविधम्। व्यङ्ग्यस्य द्रुतविलम्बितप्रतीतौ मध्यमकाव्यम्। मध्यप्रतीतावुत्तमकाव्यमिति तात्पर्यम्। अगूढस्य मध्यमकाव्यत्वं सहेतुकमाह। कामिनीति। कामिनीकुचकलशवदुत्तरीयावृतस्त्रीस्तनवत् गूढस्यैव चमत्कारित्वादिति। मनोविकारजन्योऽनुकारवाचकश्चमदेव चमत्कारस्तत्कारित्वाद्धेतोरगूढे व्यङ्ग्ये मध्यमकाव्यमिति।
उदाहरति। औन्नत्यमिति। औन्नत्यं त्वदुन्नतत्वं वर्ण्यते यदि मयेति शेषः। शिखरिणो गिरयो नीचैः कृता वामनीकृताः। पराजिता इत्यर्थः। स्वदौन्नत्यस्य ततोऽप्यधिकत्वादिति भावः। गाम्भीर्ये कीर्त्यते यदि जलधयो गाधीकृता उत्तानीकृताः सन्तः क्षुभ्यन्ति क्षोभं यान्ति तत् तस्मात् गिरिक्रोधाद्विक्षोभरूपाद्धेतोस्त्वां वर्णयितुं बिभेमि। भीतिपक्षं विहाय तदभावपक्षमवलम्बते। यदि वेति। यद्वा गुणा एव रत्नानि तेषां रोहणगिरे उत्पत्तिस्थानभूतपर्वत श्रीवीररुद्रप्रभो त्वत्पार्श्चअगस्त्यो जातः कुम्भसंभवो भवन् स्थितोऽस्मि। अग्रागस्त्यो वामनीकृतविन्ध्यः परिपीतसमुद्र इति प्रसिद्धिः। तथा चक्षु तज्ज्ञेतृत्वादगस्त्यस्य कुम्भसंभवो भूत्वास्थितोऽस्मि। तत्रापि स्वत्पार्श्व इत्यनेन तेभ्यो न विभेमीति व्यङ्ग्यार्थोवाच्यार्थप्राय इत्यगूढमित्याह। अत्रेति। नन्वत्र कवेर्विन्ध्यमात्राभिभाविनः कुम्भसंभवस्य स्वरूपप्राप्तावपि सकलपर्वतेभ्यो भयनिवृत्तिः कथमिति चेत् सत्यम्। अखिलपर्वतशायिविम्जृभणस्य विन्ध्यस्याभिभवेनैव सर्वेऽपि पर्वता अभिभूता एवेति कवेरगस्त्यत्वे तनिवृत्तेरावश्यकत्वादिति।
द्वितीयमुद्दिशति। अपरस्याङ्गमिति। तल्लक्षणमाह। यत्रेति। यत्र काव्ये रसादेर्भयानकादे रसादिः शृङ्गारादिरङ्गं साधनं भवति तदपि गुणीभूतव्यङ्ग्यमेव। उदाहरति। वीतेति। काकतिमहीनाथ एव स्मरो मन्मथस्तेनोद्वेजिताः पीडिताः ‘उद्देगस्तिमिते क्लेशे भये मन्थरगामिनि’ इति विश्वः। भूपाः शत्रुभूपा व्रीडा त्रपा यस्मिन् तत्। एकत्र वैस्वर्यादन्यत्र प्रागल्भ्यादिति भावः। अपास्तो निरस्तो
मानः कुलाद्यभिमान ईर्षाकृतकोपश्च यस्मिंस्तत्। अत्रापि पूर्ववदेव हेतुद्वयं बोध्यम्। विकृतस्वरो विस्वरस्तस्य भावो वैस्वर्यम्। उदयद् वैस्वर्येगद्गदभाषित्वं यस्मिन् कर्मणि तत्। आविर्भवन् स्वेदो यस्मिन् कर्मणि तत्। निर्भरः पूर्णो गात्रवेपथुरङ्गकम्पो यस्मिन् कर्मणि तत्। मिलन्ती मूर्छा शून्येन्द्रियत्वं यस्मिन् कर्मणि तत्। गलन्याप्पो यस्मिन् कर्मणि तद्गलद्वाष्पकम्। संजातः प्रलयो नष्टचेष्टता यस्मिन् कर्मणि तत्। इत्येतदष्टकर्मालिङ्गनक्रियाविशेषणम्। एकत्र स्वेदादयः साध्वसदुःखाशयादिजन्या अन्यत्र सात्विकभावाः। तद्वक्ष्यति कविरेव वक्ष्यति। ‘स्तम्भः प्रलयरोमाञ्चः स्वेदो वैवर्ण्यवेपथू। अश्रु वैस्वर्यमित्यष्टौ सात्त्विकाः परिकीर्तिताः॥’ इति। भीत्या भयेन स्त्रीलिङ्गाक्षिप्तया कयाचित् प्रौढाङ्गनया च। तद्यथा मुग्धामध्यमयोः प्रियकर्मकालिङ्गनासंभवादिति भावः। समालिङ्गिताः सम्यग्युक्ताः। अन्यत्र गाढालिङ्गिताः सन्त इत्यर्थः। शैलगुहासु। अत्रापिशब्दाध्याहारोऽर्थसौकर्याल्लभ्यते। शैलगुहास्वपि विजनं जनरहितं देशं यान्ति। एकत्र प्राणपरित्यागार्थमन्यत्र रन्तुमिति भावः। अत्र प्रस्तुतक्रियाविशेषणसामर्थ्यादप्रस्तुतनायकवृत्तान्तप्रतीतेः समासोक्तिः। अत्र भयानकरसस्य प्रधानत्वादङ्गित्वं तस्य प्रतीयमानः शृङ्गाररसोऽप्रधानत्वादङ्गं भवतीत्याह। अत्रेति। शृङ्गाररसस्य भयरसं प्रत्यङ्गत्वं भयरसाङ्गत्वम्। भयानकरसस्य प्राधान्यमङ्गित्वम्। भयानकरसस्त्र प्राधान्यं कुत इत्यत्राह। अत्र श्लोके प्रतापरुद्रस्याधिक्यं प्रतिपाद्यं तच्च प्रतिपादनं च शत्रूणां भयप्रतिपादनेनैव न तु शृङ्गारसेनेत्येवकारार्थः। संभवतीति हेतोः प्राधान्यमिति पूर्वेणान्वयः।
तृतीयमुदाहरति। कराल इति। करालस्तीक्ष्णः काकतीन्द्रस्य करवालः खन्न एव नवाम्बुदो नवमेघ उग्रमुजवलं द्विषां प्रतापमेव ज्वलनमग्निंधारा कोटिः सैव जलधारेति श्लिष्टरूपकम्। शमयति नाशयतीत्यर्थः। अत्र जलधारारूपो व्यङ्ग्यार्थः करवालनवाम्बुद इति वाच्यस्य रूपकस्य निर्वाहक इति वाच्यसिद्धधङ्गम्। ननु करवालो नवाम्बुद इवेत्युपमितसमासः कथं न भवतीति चेदुच्यते। धारयेत्यत्रोपमितसमासस्य वक्तुमशक्यत्वेनोत्तरपदार्थप्रधानरूपरूपकसमासाश्रयणे जलधारायाः प्राधान्यम्। तथा च तदनुसारेण मेघस्य प्राधान्यसिद्धयर्थेतत्रापि रूपकमेवोचितम्। ननु ‘उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे’ एवोपमितसमासाङ्गीकारेणावः कराल इति समानधर्मस्य सत्त्वात् तस्यैव रूपक निर्वाहकत्वं
न तु जलधारारूपव्यङ्ग्यार्थस्येति चेत् सत्यम्। मध्यमकाव्यनिरूपणप्रस्तावे व्यङ्ग्यार्थस्य जलधारारूपस्य प्रतिपाद्यमानरूपकनिर्वाहकत्वे कविविवक्षा न तु समानधर्मस्य तन्निर्वाहकत्वे। कविविवक्षानुसारेणैवोदाहरणं द्रष्टव्यमिति शब्दचित्रोदाहरणस्थले दर्शितम्। किं च जयिनः काकतीन्द्रस्येति पाठे समानधर्मानुपादानेन जलधाराया रूपकनिर्वाहकत्वं निर्विवादमित्यलमतिप्रसङ्गेन। वाच्यसिद्धयङ्गत्वं लक्ष्ये कथयति। अत्रेति। अत्र जलधारा व्यङ्ग्या प्रतीयमाना। अभिधायाः प्रकरणात् स्वङ्गधाराया निर्वाहकादिति हेतोर्गुणभूतव्यङ्ग्यं मध्यमकाव्यम्।
अस्फुटमुदाहरति। वीरेति। वीररुद्रकृपाणस्यानङ्कुशोऽङ्कुशरहितः स्वतन्त्रो महिमा कोऽप्यनिर्वाच्यः। कुतः। यः कृपाणः द्विपदसृङ्गदं शत्रुरुधिरप्रवाहं पीत्वा कीर्तिरेव गङ्गा तां प्रसूते। जहुर्गङ्गां परित्वांगङ्गामेवाजीजनत्। खड्गस्तु रक्तनदीं पीत्वा गङ्गां सूत इत्युपमानादुपमेयस्याधिक्यरूपव्यतिरेकः। कवेराविष्करणं बिना बुद्धयारोहाभावाद्विलम्बेन प्रतीयते। ततोऽस्फुटं मध्यमकाव्यमित्याशयेनाह। अत्रेति। अत्र कृपाणस्य जन्हपेक्षयाधिक्यप्रतिपादनाद्व्यतिरेकोऽलंकारः। परमत्यन्तमस्फुटो विलम्बित इति यावत् प्रतीयते।
पञ्चममुदाहरति। काकतीति। काकतिक्ष्मापतेरनुरागेण तरङ्गिता संजाततरङ्गा तरङ्गवत् पुनः पुनः प्रेयमाणेत्यर्थः। दृष्टिस्तुङ्गे वध्वाः कुचद्वये कह्नारमालेव सौगन्धिकमालेव लग्ना।‘सौगन्धिकस्तु कह्नारम्’ इत्यमरः। अन्रालिङ्गनेच्छादिरूपस्य व्यङ्ग्यार्थस्य चमत्कारकारित्वात् प्राधान्यं वोत वाच्यस्य वेति संदेहात् संदिग्धं प्राधान्यमत्रेत्याशयेनाह। अत्रेति। अत्रालिङ्गनेच्छायां वाक्यस्य विश्रान्तिर्विश्रमः पर्यवसानमथवोत स्तनमण्डलस्यावलोकन एव वाक्यविश्रान्तिरित्यन्वयः। इति संदेहः।
षष्ठमुदाहरति। नृपा इति। हे नृपाः प्रतापरुद्रस्य पदाम्बुजे पादपद्मे निषेवध्वं सेवां कुरुध्वम्। अन्यथा सेवायां तादृग्दयादाक्षिण्यादिगुणवत्तया निरुपमं प्रसन्नं सदा कालुप्यरहितमस्य राज्ञो मनः कलुषायते कलुषीभवति। अत्र प्रतापरुद्धस्य पादसेवा त्यज्यते यदि तदानीं वो नगरेषु वासो वसतिर्दुलभ इति यो व्यङ्ग्यार्थस्तस्य वाच्यस्य मनः कालुष्यस्य च समप्राधान्यम्। सर्वत्र कविना व्यञ्जनैकप्रवणेन भवितव्यम्। अत्र तु वाच्यस्य व्यङ्ग्येन सह समप्राधान्यसंपादनाद्गुणीभूतव्यङ्ग्यत्वमिति भावः।
अगूढमित्यादिकारिकोक्तक्रमो वैवक्षिको न तु पौर्वापर्यकृत इति सूचयितुं सप्तममुल्लङ्घ्याष्टममुदाहरति। एकशिलायामिति। एकशिलायां पुर्वोया महिला वनितास्तासाम्। ‘वनिता महिला तथा।’ इत्यमरः। नरेन्द्रसंदर्शनेन य आमोदः संतोषस्तं श्रुत्वा गुरुजनेन संवादिना नियन्त्रिताया निवारिताया वध्वा वदनंश्यामलं मलिनं नृपानवलोकन विषादेनेति भावः। अत्र नरेन्द्रदर्शनं निमित्तं कारणं यस्य तं संतोपमपश्यन्त्या अननुभवन्त्या इति यावत्। वध्वा मुखं श्यामलमिति वाच्यस्यैव चारुत्वम्। गुरुजननियन्त्रिताहं नरेन्द्रं द्रष्टुं न गतवत्यस्मीति व्यङ्ग्यार्थस्य चारुत्वं चमत्कारकारित्वं नास्तीति शेषः।
अवशिष्टमुदाहरति। यत्र काव्ये काक्वाकाकुस्वरेणार्थान्तरमाक्षिप्यते आकृष्यते तदपि गुणीभूतव्यङ्ग्यमेव। उदाहरति। हे प्रियसखि कथय। प्रत्युत्तरमिति शेषः। क्षोणी लक्ष्मीः सरस्वती च मत्तः। अस्मच्छब्दात् पञ्चम्यर्थे तसिल्।अधिकेति। प्रत्येकमन्वयोऽन्यथा बहुवचनप्रसङ्गात् नाधिकेत्यर्थः। अधिका इति वा तथैतास्तिस्र इत्यध्याहारेणान्वयः। गुणविशेषान् जानातीति गुणविशेषज्ञः स नरनाथः यां बहुमनुते अधिकां मनुते अत्रोत्तरं कथयेति पूर्वेणान्वयः। अत्राधिक्यनिषेधस्य वाचकाभावात् केवलवाच्यसामर्थ्यलभ्यत्वेन व्यङ्ग्यत्वं तस्य च काकुस्पर्शात् गूढत्वकृतचारुतातिशयभङ्गेन गुणीभूतत्वमेवेदं सर्वेमनसि निधायाह। अत्रेति। अत्र क्षोणी मदधीनेति काकुकल्पनया काकुस्वरावलम्बनेनाधिका न भवतीति व्यज्यते।
अथ चित्रकाव्यस्य शब्दार्थोभयगतत्वेन पूर्वं त्रैविध्यं प्रदर्श्य संप्रति शब्दार्थालंकारवैचित्र्यादनेकविधत्वमस्तीत्याह। चित्रं त्विति। चित्रं काव्यं तु शब्दालंकारा वृत्त्यनुप्रासादयः। अर्थालंकारा उपमादयः। तैश्चित्रतया बहुविधं शब्दालंकारा यावन्तस्तावद्विधं शब्दचित्रम्। अर्थालंकारा यावन्तस्तावद्विधमर्थचित्रम् उभयचित्रं त्वेकविधम्। तेषां शब्दार्थालंकाराणां वंशो विस्तारोऽलंकारप्रकरणे व्यक्तीभविष्यति।
एवं काव्यसामान्यं निरूप्य महाकाव्यादिनिरूपणं प्रतिजानीते। अथेति। अथ काव्यसामान्यनिरूपणानन्तरं महाकाव्यमादिर्येषां ते तथोक्ताः प्रबन्धा निरूप्यन्ते। नगरेति। नगरस्यार्णवस्य शैलस्य ऋतोर्वसन्तादेश्चन्द्रार्कयोरुदये वर्णनं वर्णनाद्वयोक्तिः। उद्याने सलिले च क्रीडा मधुपानं रतोत्सवश्च तेषां द्वन्द्रः।
विप्रलम्भो वियोगो विवाहः कुमारोदयस्य वर्णनं च मन्त्रः पर्यालोचनं द्यूतं च प्रयाणमाजि युद्धम्। नायकाभ्युदयः प्रतिनायकोत्कर्षश्च इत्येतान्यष्टादश यत्र काव्ये वर्ण्यन्ते तन्महाकाव्यमुच्यते। अत्र यद्यपि स्थलद्वये वर्णनशब्दप्रयोगात्वर्ण्यन्त इत्यनेन पौनरुक्तयं प्रसज्येत तथापि कवीनां निरङ्कुशत्वादविवक्षितमिति सोढव्यम्। यद्वा उभयत्रापि वर्णनं यद्भवतीत्यन्वयं विधाय एतानीत्यनेन तदितरसंग्रहं कृत्वा वर्ण्यन्त इत्यन्वयो बोध्यः। एवं पूर्वोक्तानामष्टादशानां मध्ये यैः कैश्चिन्यूनं रहितमपि काव्यं महाकाव्यं महाकाव्यमिष्यते। तन्महाकाव्यं गद्यमयं पद्यमयमुभयमयं चेत्येवंप्रकारेण त्रिविधम्।
गद्यादिलक्षणान्याह। अपाद इति। अपादःपादरहितः पदसंघातः पदसमूहो गद्यम्। पद्यं चत्वारि पदानि पादा यस्य तत् पद्यम्। कादम्बरी आदिर्यस्य तत् गद्यकाव्यम्। पदकाव्यं रामायणादि। असर्गबन्धं सर्गबन्धरहितम्। तदपि तत्तूपकाव्यमुदीर्यते। असर्गबन्धं सूर्यशतकादि। गद्यपद्यमयं गद्यपद्योमयमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते। भोजरामायणादि। वक्रं वक्रनामकं वृत्तम्। अपरवक्रं तन्नामकं च वृत्तम्। भेदकं स्वर्गादिवत् परिच्छेदकम्। उच्छ्वास उच्छ्वासादिवद्विच्छेदकस्तेन सहितं सोच्छ्वासं तत्त्वं सोसत्त्वं लक्षणमुच्छ्वास इत्यर्थः। एतानि यत्र काव्ये वर्ण्यन्ते असावाख्यायिका। कारिकां ग्रन्थरूपेण व्याख्याति। अर्थः स्पष्टः। श्रीहर्षचरितायाख्यायिका।
महाकाव्यनिरूपणानन्तरं क्षुद्रकाव्यस्वरूपनिरूपणं प्रतिजानीते। अथेत्यादि। येनेत्याद्येकं प्रकरणम्। ग्रन्थस्य अकृतेऽपि व्याख्याने विस्तराद्विभ्यता कविनानुदाहृतत्वान्न स्फुटतरोऽर्थः प्रतीयते। ततोपि स एव यथामत्यर्थोद्रष्टव्यः।
इति प्रतापरुद्वीयव्याख्याने रत्नशाणाख्याने काव्यस्वरूपनिरूपणं
नाम द्वितीयं प्रकरणम्॥
N O T E S.
N
ÂYAKA-PRAKARANA.
४. पूर्वेभ्योभामहादिभ्यः—Bhamsha is one of the old Alamikarikas and is quoted in many works as can be seen in the foot-notes on his work given in one of the Appendices. His name is similarly mentioned first in Râjânakaruyyaka’s Alankârasarvasva—‘इद हि तावद्भामहोद्भटप्रभृतयश्चिरन्तनालंकारकाराः प्रतीयमानमर्थ वाच्योपस्कारकतयालंकारपक्षनिक्षिप्तं मन्यन्ते।’ p. 3.
चिरेण चरितार्थोऽभूत्—It will be seen that the Ratnas’ána gives this verse after the next verse रसप्रधानाः शब्दार्थाः &c.
१.६ यद्वेदात्प्रभुसंमिताधिगतम्—वेद iscalled प्रभुसंमित (like a lord ), पुराण, मुहत्संमित (like a friend) and काव्यश्री, कान्तासंमिता ( like a beloved ) on account of the anthoritative, friendly and delicate manner in which they advise people to secure good and avoid evil. of. the following from Vidyadhara’s Ekavali:—
शब्दप्रधानं वेदाख्यं प्रभुसंमितमुच्यते।
ईषत्पाठान्यधापाठे प्रत्यवायस्य दर्शनात्॥४॥
इतिहासादिकं शास्त्रं मित्रसंमितमुच्यते।
अस्यार्थवादरूपत्वात् कथ्यतेऽर्थप्रधानता॥५॥
ध्वनिप्रधानं काव्यं तु कान्तासम्मितमीरितम्।
शब्दार्थों गुणतां नीत्वा व्यञ्जनप्रवणं यतः॥६॥
परिवड्डुइ विण्णाणं—This is a stanza qnoted from सेतुबन्धमहाकाव्य of प्रवरसेन p. 9. It is also quoted by Mallinaths in the Tarala on the Ekávali of Vidyadhara. Vide my edition of the work in the Bombay Sanskrit Series p. 17.
विढप्पंति is the reading in the सेतुबन्ध instead of विसप्पंति. विदप्पंति means अर्ज्यन्ते, i. e. are obtained.‘अजेर्विढप्पः ८।४।२५१, Hemachandra’s Prakrita Grammar. For अर्ज्यतेthree forms are given by Hemachandra:—विढप्पइ, बिढविज्जइ and अज्जिज्जइ. cf.
जेहि विढप्पइकिती विढविज्जइजेहि उज्जलं नाणं।
अज्जिज्जइजेहि सिरी सब्वेहि वि तेहि झायव्वा॥
That is,
यैः अर्ज्यते कीर्तिः अर्ज्यते यैः उज्ज्वलं ज्ञानम्।
अर्ज्यते यैः श्रीः सर्वैरपि तैः ध्यातव्या॥
The adjective ध्यातव्या refers to श्रुतदेवी that manifested herself to Kumárapala. Vide कुमारपालचरितम् (B. S. Series ) p. 253, Canto VII. verse 88.
११. आदिराजयशोविम्बम् &e, is from Dandin’s Kavyādarśa, 1st Parichchheda, 5th verse.
उपश्लोक्यस्य माहात्म्यात् &c. is given as a verse of Bhâmaha. It is not, however, found in the mannscript copy of Bhâmaha with me.
गुणालंकारचारुत्वप्रयुक्तम् &c. is not found in उद्भटालंकारसारसंग्रह with the commentary of प्रतीहारेन्दुराज of which there is a manuscript in the Deccan College collection. It must be in a bigger work composed by him or in his commentary on Bhâmaha.
Udbhata was Sabhâpati of Jayâpida, king of Kâśmira who was son of Vappiya and who learned grammar from Kshirabdhi. cf. Râjatarngiṇi by Kalhaṇa.
‘शान्तेऽथ संग्रामापीडे कनीयान् वप्पियात्मजः।
राजा श्रीमान् जयापीडः प्रापराज्यं ततः क्रमात्॥ ४ तरङ्ग४०२ श्लो.
‘देशान्तरादागमय्य व्याचक्षाणः क्षमापतिः।
प्रावर्त्तयत विच्छित्रं महाभाष्यं स्वमण्डले॥
क्षीराभिधाच्छन्दविद्योपाध्यायात् संभृतश्रुतः।
बुधैः सह ययौ वृद्धिं स जयापीडपण्डितः॥’ ४-४८८-४८९.
विद्वान् दीनारलक्षेण प्रत्यहं कृतवेतनः।
भट्टोऽभूदुद्भटस्तस्य भूमिभर्तुः सभापतिः॥’ ४-४९५.
Udbhata has composed a commentary on Bhâmaha’s work, called Bhâmahavivarana to which reference is made by Pratihârendaraja in his commentary called U Ibhatalankârasarasangrahalaghuvritti as under:—
विशेषोक्तिलक्षणे च भामहविवरणे भट्टोद्भटेनएकदेशशब्द एवं व्याख्यातो यथेहास्माभिनिरूपितः।
रुद्रभट्टेनापि कथितम्—Radrabhṭṭa is different from Rudrata author of Kavyalankâra. Rudrabhaṭṭa is the author of Sringâratilaka.
प्रपञ्चितं च साहित्यमीमांसायाम्—साहित्यमीमांसा is a work on Alankâra quoted by Râjanaka Kuyyaka in his Alaṅkârasarvasva as under:—
एषा( उप्रेक्षा) च समस्तोपमाप्रतिपादकविषयेऽपि हर्षचरितवार्तिके साहित्यमीमांसायां च तेषु तेषु प्रदेशेषूदाहृता। इह तु ग्रन्थविस्तरमयान्न प्रपञ्चिता।p. 61 अलंकारसर्वस्व.
१२. महाकुलीनतोज्ज्वल्यम् &c.—The anthor enumerates a few of the qualities of the Nâyaka or hero. Different authors give different lists of his qualities.
Dâsarūpaka of Dhananjaya has the following in the 2nd Prakasa:—
‘नेता विनीतो मधुरस्त्यागी दक्षः प्रियंवदः।
रक्तलोकः शुचिर्वाङ्गी रूढवंशः स्थिरो युवा॥१॥
बुद्धयुत्साहस्मृतिप्रज्ञाकलामानसमन्वितः।
शूरो दृढञ्चतेजस्वी शास्त्रचक्षुश्चधार्मिकः।
भेदैश्चतुर्धाललितशान्तोदात्ताद्वतैरयम्॥२॥
Bhoja in his Sarasvatikanthâbharaṇa enumerates twelve qualities as under—
महाकुलीनतौदार्ये महाभाग्यं कृतज्ञता।
रूपयौवनवैदग्ध्यशीलसौभाग्यसंपदः॥
मानितोदारवाक्यत्वमदरिद्रानुरागिता।
द्वादशेति गुणानाहुर्नायकेष्वाभिगामिकान्’॥
5th Pari. ver. 23-24. Viśvanâtha in his Sahityadarpana gives eight Sättvika qualities as under:—
शोभा विलासो माधुर्ये गाम्भीर्यंधैर्यतेजसी।
ललितौदार्यमिल्यष्टौसत्त्वजाः पौरुषा गुणाः॥ 3rd Pari. ver. 89.
Also
त्यागी कृती कुलीनः सुश्रीको रूपयौवनोत्साही।
दक्षोऽनुरक्तलोकस्तेजोवैदग्ध्यशीलवान् नेता॥ 3rd Pari. ver. 64.
Rudrața gives the following sixteen qualities essential to a Náyaka:—
रत्युपचारे चतुरस्तुङ्गकुलो रूपवानरुङ् मानी।
अग्राम्योज्ज्वलवेषोऽनुल्वणचेष्टः स्थिरप्रकृतिः॥
सुभगः कलासु कुशलस्तरुणस्त्यागी प्रियंवदो दक्षः।
गम्यासु च विस्त्रम्भी तत्र स्यान्नायकः ख्यातः॥ काव्या० १२-७-८.
१३. श्लाघालङ्घनजाङ्घिकैर्गुणनिधिः श्रीवीररुद्रो नृपः—
The same expression श्लाघालङ्घनजाङ्घिक occurs in the following:—
शाणोत्कीर्णमिवोज्ज्वलद्युति पदं बन्धोऽधनारीश्वर—
श्लाघालङ्घनजाङ्घिको दिवि लतोद्भित्रेव चार्थोद्वतिः।
and also in
विश्वोल्लङ्घनजाङ्घिकीं वितनुते कीर्ति विधत्ते श्रियम्।
See my edition of Vidyânatha’s Ekavali. pp. 18 and 16. २१महासत्त्वोऽतिगम्भीरः—
Visvanâtha’s definition runs as under:—
अविकत्थनः क्षमावानतिगम्भीरो महासत्त्वः।
स्थेयान् निगूढमानो धीरोदात्तो दृढव्रतः कथितः॥३।६६
Dhanañjaya’s definition is exactly simila:—
महासत्त्वोऽतिगम्भीरः क्षमावानविकत्थनः।
स्थिरो निगूढाहंकारो धीरोदात्तो दृढव्रतः॥ दशरूप २।४
२२ दर्पमात्सर्यभूयिष्ठः—
cf. मायापरः प्रचण्डश्चपलोऽहंकारदर्पभूयिष्ठः।
आत्मश्लाघानिरतो धीरैधीरोद्धतः कथितः॥ साहि०६० ३।६७
दर्पमात्सर्यभूयिष्ठो मायाछद्मपरायणः।
धीरोद्धतस्त्वहंकारी चलश्चण्डो विकत्थनः॥ दश० २-५
निश्चिन्तो धीरललितः—
निश्चिन्तो मृदुरनिशं कलापरो धीरललितः स्यात्॥ साहि० ३।६८
निश्चिन्तो धीरललितः कलासक्तः सुखी मृदुः। दश०२-२
२३. धीरः शान्तः—
cf. सामान्यगुणैर्भूयान् द्विजादिको धीरप्रशान्तः स्यात्। साहि० ३।६९
सामान्यगुणयुक्तस्तु धीरशान्तो द्विजादिकः। दश० २३
The definitions of the four varieties of the hero of a poetic composition given in the text are, as will be seen, almost similar in language to those of Dhanañjaya in the Daśarúpa.
Bharata states that the धीरोद्धतhero is generally a god, the धीरललित, a king, the धीरादात्ते, a commander or a counsellor and the धीरप्रशान्त, a brahmin or a bania:—
देवा धीरोद्धता ज्ञेयाः स्युधींरललिता नृपाः।
सेनापतिरमात्याश्च धीरोदात्ताः प्रकीर्तिताः॥
ब्राह्मणा वणिजश्चैव प्रोक्ता धीरप्रशान्तकाः॥ नाव्यशा० २४।४-५
On these verses of Bharata the following gloss of Hemachandra given in his Kavyannsâsana and the remarks of Phanika in his Avaloka on Daśarúpa which seem to have been copied by Hemachandra making slight changes like धीरोद्धतादि for धीरललितादि are worth noting :—
देवा धीरोद्धता इति। अत्र दि ‘धीरोदात्तं जयति चरितं रामनामश्च विष्णोः’ इत्यादेदेर्शनाजनकप्रभृतीनां रामादीनां च न धीरललितत्वानुचितत्वमिति धीरललितत्वं राज्ञ एव वर्णनीयंनान्यस्य। सेनापत्यमात्ययोधींरोदात्तत्वमेव द्विजादीनां धीरप्रशान्तत्वमेवेत्येवंपरं व्याख्येयम्।’ काव्यानुशासन 7th अध्याय.
‘धीरललितादिशब्दाश्चयथोक्तगुणसमारोपितावस्थाभिधायिनो वत्स दोक्षादिवत्र जा या कश्चिदवस्थितरूपो ललितादिरस्ति। तत्त्वं हि महाकविप्रबन्धेषु विरुद्धानेकरूपाभिधानमसंगतमेव स्याज्जातेरनपायित्वात्। तथा च मवभूतिनेक एव जामदग्रचः
ब्राह्मणातिक्रमत्यागो भवतामेव भूतये।
जामदग्न्यश्च वो मित्रमन्यथा दुर्मनायते॥
इत्यादिना रावणं प्रति धीरोदात्तत्वेन।
कैलासोद्धार सारत्रिभुवनविजयौजित्यनिष्णातदोष्णः
पौलस्त्यस्यापि हेलोपहृतरणमदो दुर्दमः कार्तवीर्यः।
यस्य क्रोधात् कुठारप्रविघटित महास्कन्धवन्धस्थवीयो-
दोःशाखादण्डमुण्डस्तरुरिव विहितः कुल्यकन्दः पुराभूत्॥ महा०। २।१६
इत्यादिभिश्चरामादीन् प्रति प्रथमं धीरोद्धतत्वेन पुनः
पुण्या ब्राह्मणजातिरन्वयगुणः शास्त्रं चरित्रं च मे
येनैकेन हृतान्यमूनि हरता चैतन्यमात्रामपि।
एकः सन्नपि भूरिदोषगहनं सोऽयं त्वया प्रेयसा
वत्स ब्राह्मणवत्सलेन शमितः क्षेमाय दर्पमयः॥ महा० ४।२२
इत्यादिभिश्चधीरशान्तत्वेनोपवर्णितः। न चावस्थान्तरमिधानमनुचितम्। अङ्गभूतनायकानां नायकान्तरपेक्षया महासत्वोदरव्यवस्थितत्वात्। अङ्गिनस्तु रामादेरेकप्रबन्धोपातान् प्रत्येकरूपत्वादारम्भोपात्तावस्थातोऽवस्थान्तरोपादानमन्याय्यम्। यथोदात्तत्वामिमतस्य रामस्य छद्मना वालिवधादमद्दासत्त्वतया स्वावस्थापरित्याग इति। वक्ष्यमाणम् च दक्षिणाद्यवस्थानां ‘पूर्वी प्रत्यन्यया दृतः’ (in ‘दक्षिणः शठो धृष्टः पूर्वा प्रत्यन्यया दृतः’ ) इति नित्यसापेक्षत्वेनाविर्भावादुपात्तावस्थातोऽवस्थान्तराभिधानमाङ्गनोरथविरुद्धम्॥ अवलोक on दशरूप ३।५.
अथ शृङ्गारविषयाः—The four varieties of the hero might represent all the poetic sentiments. When they exhibit the śringåra or the erotic sentiment they are each further divided into four sab-varieties, अनुकूल, दक्षिण, घृष्ट and शठ. The following definitions of these sub-varieties represent their characteristics clearly:—
एवं स चतुर्धाम्यादनुकूलो दक्षिणः शठो घृष्टः।
तत्र प्रेम्णः स्थैर्यादनुकूलोऽनन्यरमणीकः॥
खण्डयति न पूर्वस्यां सद्भावं गौरवं भयं प्रेम।
अभिजातोऽन्यमना अपि नायौ यो दक्षिणः सोऽयम्॥
वक्ति प्रियमभ्यधिकं यः कुरुते विप्रियं तथा निभृतम्।
आचरति निरपराधवदसरलचेष्टः शठः स इति॥
कृतविप्रियोऽप्यशङ्को य स्यान्निर्भत्सितोऽपि न विलक्षः।
प्रतिपादितेऽपि दोषे वक्ति च मिथ्येत्यसौ धृष्टः॥
रुद्रट’s काव्यालंकार १२।९—१२
२७. किंचिदूनः पीठमर्दः—The assistance of a hero in secnring a mistress are पीठमर्द, विट, चेट and विदूषक. Of these पीठमर्दis a little short of a hero in his qualities. He is the hero of minor incidents in the plot of a drama, पताकानायक as he is called. Visvanatha defines him as under:—
दूरानुवर्तिनि स्यात् तस्य प्रासङ्गिकेतिवृत्ते तु।
किंचित्तदुणहीनः सहाय एवास्य पीठमर्दाख्यः॥ साहि० ३।७६
Makaranda in the Malatimâdhava and Sugriva in the Râmayana are such subordinate heroes.
विट and विदूषक are defined as under:—
संभोगहीनसंपद् विटस्तु धूर्तःकलैकदेशज्ञः।
वेशोपचारकुशलो वाग्मी मधुरोऽथ बहुमतो गोष्ट्याम्॥
कुसुमवसन्ताद्यभिघः कर्मवपुर्वेषभाषाद्यैः।
हास्यकरः कलहरतिर्विदूषकः स्यात् स्वकर्मज्ञः॥ साहि० ३।७८-७९
Rudrata describes पीठमर्द,विट and विदूषक as three नर्मसचिव’s or istants in amorous sports. Agnipurana also describes them ilarly:—
पीठमर्दोविटश्चैव विदूषक इति त्रयः।
शृङ्गारे नर्मसचिवा नायकस्यानुनायकाः॥
The sixteen varieties and sub-varieties of a hero are furor sub-divided into उत्तम, मध्यम and अधम by Visvanitha. There thus 48 divisions of a hero according to him :—
एषां च त्रैविध्यात् सर्वेषामुत्तममध्याधमत्वेन।
उक्ता नायकभेदाश्चत्वारिंशत् तथाष्टौ च॥ साहि० ३।७५
१३ कामशास्त्रसिद्धाः पद्मिनीचित्रिणीप्रभृतयो जातिविशेषाः—
पद्मिनी, चित्रिणी, शङ्किनी and इस्तिनी are defined as under in रतिमञ्जरीः—
भवति कमलनेत्रा नासिकाक्षुद्ररन्ध्रा
अविरलकुचयुग्मा चारुकेशी कृशाङ्गी।
मृदुवचनसुशीला गीतवाद्यानुरक्ता
सकलतनुसुवेशा पद्मिनी पद्मगन्धा॥
भवति रतिरसज्ञा नातिखर्वा न दीर्घा
तिलकुसुमसुनासा स्निग्धनीलोत्पलाक्षी।
घनकठिनकुचाढ्या सुन्दरी बद्धशीला
सकलगुणविचित्रा चित्रिणी चित्रवक्रा॥
दीर्घातिदीर्घनयना वरसुन्दरी या
कामोपभोगरसिका गुणशीलयुक्ता।
रेखात्रयेण च विभूषितकण्ठदेशा
संभोगकेलिरसिका किल शङ्खिनी सा॥
स्थूलाधरा स्थूलनितम्बबिम्बा
स्थूलाङ्गुलिः स्थूलकुचा सुशीला।
कामोत्सुका गाढरतिप्रिया च
नितान्तभोक्त्री खलु हस्तिनी स्यात्॥
उदययौवना मुग्धा—
The following are the definitions explaining fully characteristics of मुग्धा, मध्या and प्रौढा—
प्रथमावतीर्णयौवनमदनविकारा रतौ वामा।
कथिता मृदुश्चमाने समधिकलज्जावती मुग्धा॥
मध्या विचित्रसुरता प्ररूढस्मरयौवना।
ईषत्प्रगल्भवचना मध्यमव्रीडिता मता॥
स्मरान्धा गाढतारुण्या समस्तरतकोविदा।
भावोन्नता दरव्रीडा प्रगल्भाक्रान्तनायका॥ साहि० द० ३-९९-१०१
The following tree represents the sixteen divisions of नायिका. These sixteen varieties are each sub-divided in eight snb-varieties, according as they are स्वाधीनपतिका, वाससज्जिता, विरत्कण्ठिता, विप्रलब्धा, खण्डिता, कलहान्तरिता, प्रोषितभर्तृका अभिसारिका. Thus there are eight times sixteen or one hundred and twenty-eight varieties, each of which is again sub-divide into उत्तम, मध्यम and अबम, making up altogether 384 varietie
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The following definitions show the characteristics of मध्या धीरा and other sub-varieties:—
धीरा सोत्प्रासवक्रोक्त्या मध्या साश्रुकृतागसम्।
खेदयेद्दयितं कोपादधीरा परुपाक्षरम्॥ द० रू० २। १६
Thus when the hero is guilty, the middling patient heroine would pain him by her joking and ironical speeches, the middling impatient heroine, by harsh words through anger, while the middling heroine who is at once patient and impatient would pain the hero by her joking and ironical words accompanied by tears.
सावहित्यादरोदास्ते रतौ धीरेतरा क्रुधा।
सन्तर्ज्य ताडयेन्मध्या मध्याधीरेव तं वदेत्॥ द० रूप० २।१८.
The same idea is expressed more clearly by the following:—
प्रगल्भा यदि धीरा स्याच्छातत्रकोपाकृतिस्तदा॥
उदास्ते सुरते तत्रदर्शयन्त्यादरान् बहिः॥
धीराधीरा तु सोल्लुण्ठभाषितैः खेदयेदमुम्॥
तर्जयेत् ताडयेदन्या—साहि० दर्प० ३।१०४-५
Thus the mature patient heroine disguises her anger, shows ontward courtesy and remains indifferent about amorous sport; the mature impatient heroine goes to the length of scolding and beating the hero; while the mature heroine who is at once patient and impatient acts like the middling heroine who is at once patient and impatient and simply pains the hero by her ironical speeches.
३८. एष संग्रहश्लोकः—This refers to the verse गुणालंकाराणां रसपद्धति काव्ये विलसितम् &c. which summarizes what is mentioned before.
४०. श्रुत्वा रूद्रनरेश्वरस्य महतो भीतः प्रलापाकुलः—Another reading is पलाव्याकुलः which is undoubtedly the better of the two readings. It is not adopted because it was found only in T., the text printed in Teluga characters. It is found in one of the Mss. also, secured after the text was printed.
एवंविधवर्णनमुत्पाद्यनायके न घटते—स्वतःसिद्धोत्पाद्यत्वभेदेन नायकद्वैविध्यमपि संभवति—
A काव्य is divided into उत्पाद्य and अनुत्पाद्य according as it is partly or wholly the poet’s own creation or is founded upon a mythological or historical basis.
सन्ति द्विधा प्रबन्धाः काव्यकथाख्यायिकादयः काव्ये।
उत्पाद्यानुत्पाद्या महल्लघुत्वेन भूयोऽपि॥
तत्रोत्पाद्या येषां शरीरमुत्पादयेत् कविः सकलम्।
कल्पितयुक्तोत्पत्तिं नायकमपि कुत्रचित् कुर्यात्॥
पञ्जरमितिहासादिप्रसिद्धमखिलं तदेकदेशं वा।
परिपूरयेत् स्ववाचा यत्र कविस्ते त्वनुत्पाद्याः॥ काव्यालंकार १६।२—४.
Thus when the poet takes up a well-known hero and creates his history by his own imagination as in Maghakâvya or” when he creates the hero also as in Kadambari, the poem is उत्पाद्य. But when he takes a mythological story wholly or partly and describes it in his own language, enlarging upon it, as in Kiratarjuniya, the poem is अनुत्पाद्य.
A hero also is similarly called उत्पाद्य and अनुत्पाद्य or स्वयंसिद्ध according as he is the poet’s own creation, or a mythological or historical character.
——————
K
ĀVYAPRAKARANA.
४४-४५ गौणवृत्तिरपि लक्षणाप्रभेद एव—The Mimâmsakas look upon गौणी as a separate power of words; while the Naiyāyikas look upon it as a variety of लक्षणा. ‘शक्तिलक्षणाम्यामतिरिक्तैव गौणी वृत्तिरिति मीमांसकाः। सा च तदतिरिक्ता नेति नैयायिका आहुः।’ न्यायसिद्धान्त म० प्र०. अग्निर्माणवकः, which means Mânavaka, characterised by yellowness, brilliancy and other qualities of fire, is an instance of गौणी, while गङ्गायां घोषः, which means a shepherd’s hut on the bank of the Ganges, is an instance of लक्षणा. Vidyânatha proves that गौणी is not a separate वृत्ति, but a variety of लक्षणा; for both are based upon संबन्ध or connection of the principal meaning with the secondary or implied meaning and अनुपपत्ति or inapplication of the primary sense. In अग्निर्माणवकः the primary sense of अग्नि is inapplicable; for MAṇavaka is
not fire. In गङ्गायां घोषःऽimilarly the primary sense of गङ्गा viz., the current of the river, is inapplicable; for there can be no hut on it. Thus in गौणीand लक्षणा both there is अनुपपत्ति or मुख्यार्थवाद. In both there is संवन्ध or मुख्यार्थयोग. ln अग्निर्माणवकः अग्नि means अग्निसादृश्यविशिष्ट, characterised by the similarity of fire; similarly in गङ्गायां घोषः गङ्गायां means [गङ्गासंवन्वविशिष्टतीरे, or on the bank characterized by the connection of the Ganges. If, on the contrary, we understand गङ्गायांto mean गङ्गासंवन्धोपलक्षिततीरे, that is, on the bank marked (not invariably characterised, but marked now and then as Devadatta’s house by a crow), the purity, coolness &c., suggested by implication in the hut, on account of the bank being always characterized by the connection of the Ganges will not be proved and then there would be no difference between गङ्गायां घोषः and गङ्गातीरे घोषः,Bat a difference there undoubtedly is between the two expressions; for in the first the तीरis identified with the गङ्गाप्रावाहand the idea of purity, coolness &c. of the hut is suggested. While in the second no such idea is suggested. Therefore गङ्गायां घोषः does not mean गङ्गासंवन्धोपलक्षिततीरे घोषः, but गङ्गासंबन्धविशिष्टतीरे घोषः. Thas in गौणी and लक्षणा both, there is संबन्ध or rather विशेषणवैशिष्ट्यसंवन्ध and consequently there is no difference between लक्षणा and गौणी.
काकेन देवदत्तगृद्दम् is an instance of उपलक्षण प्रयोगकाले गृहे काकासत्त्वेऽपि यदाकदाचित् काकसमवधानेऽपि पूर्वोपस्थितकाकस्मरणेन देवदत्तगृहं विज्ञायते इति काकस्योपलक्षणत्वमिति बोध्यम्। न्या० को ० p. 151. In this sense उपलक्षण is synonymous with तटस्थलक्षणor that property of a thing which is distinct from its nature or by which it is recognized A crow is not always found on the house of Devadatta, and is not thus its distinguishing characteristics, but the house is recognized, because the crow is remembered to have been seen there.
५२-५४. वाहिन्यः काकतीन्द्रस्य—लौकिकवाक्यानाम्-
When in a verse notwithstanding that words have their expressed (वाच्य) sense restricted by context (प्रकरण) and other restricting agents of which a list is given by Hari in
in the verses ‘संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्य विरोधिता’ &c. another sense is conveyed by them, it is the suggested (व्यङ्ग्यः) sense and the verse, an instance of शब्दशक्तिमूलध्वनि. In the verse वाहिन्यः काकतीन्द्रस्य the sense of वाहिनीand कबन्धis restricted by context to an army and a headless trunk respectively. Another sense, however, namely a river and water comes out. This is due to another power of words called व्यञ्जना; and as this power in this case depends upon the very words वाहिनीand कबन्ध and would cease to exist with the substitution of synonymous words like नदी and जल, the व्यञ्जना or ध्वनि is शब्दशक्तिमूल. The expressive power of words (अभिधा) stops or ends when the sense bearing on the context is conveyed. It is not competent to convey the sense that has no bearing on the context and this sense is intended by the speaker to be conveyed to give a charm to the sentence. What then is the power that conveys this अप्राकरणिक sense? It is not अभिधा, as we have seen; for though it is competent to convey more than one meaning, संयोगः, or some other restricting agent limits the word to one particular sense. Nor can this power be called implication (लक्षणा), for there is no मुख्यार्थबाधor inapplication of the primary or expressed sense. The power therefore is व्यञ्जना. Nor can it be objected that because two powers अभिधा and व्यञ्जना are at work in conveying two senses, वाच्य and व्यङ्ग्य, there are two different: sentences unconnected with each other; for all human sentences or sentences other than the Vedas which are superhuman (अलौकिक) are dependent upon the desire of the speaker and the desire of the speaker is to convey the suggested sense,
The difference between शब्दशक्तिमूलध्वनि and शेष is dealt with in the अलंकारप्रकरण. According to Vidyanatha द्वेष is either प्रकृतविषय, or अप्रकृतविषय, or उभयविषय. That is, the two meanings conveyed are either both प्रकृत, or both अप्रकृत, or one of them प्रकृत and the other अप्रकृत. The last variety, viz., when one of the two meanings is प्रकृतिand the other अप्रकृत, is not accepted by Mammata, Vidyadhara and others as a variety of श्लेष.
Vidyadhara says, ‘कि चास्मिन् वाच्यत्वं विशेष्ययोस्तुल्ययोरेव’ (Vide Ekavalip. 259 ). This is regarded by them as श्लेषोपमा. Rayyaka accepts this kind of श्लेष and Vidyânatha follows Ruyyaka. Mallinâtha in his Tarala criticizes Ruyyaka as under:—
‘ननु विशेष्ययोः पृथङ्निर्देशे विशेषणमात्रसाम्ये प्रकृताकृतश्लेष इत्यन्यैरुक्तं किं नेष्यते। तत्रोपमादपिकाद्यलंकारान्तरावरोधे श्लेषस्य प्रतिभासमात्रसारत्वात्। ननु गुणकियासाम्यवच्छब्दसाम्यमुपमायां प्रयोजकमपि तूपमाप्रतिमोत्पत्तिहेतुः श्लेष एवायम्। अन्यथात्रापि विविक्तविषयालामात सर्वत्रैवास्य वाचः स्यात् ततो निरवकाशत्वात् सर्वालंकारापवादोऽयमित्यलंकारसर्वस्वकार इति चेन्न। पूर्वोक्तमेदद्वयेऽस्यावकाशत्वात्। न च तत्रापि तुल्ययोगितायङ्कावकाशः तत्र विशेष्यश्लेषाभावात्। तस्माद् द्विविध एव श्लेष इति सिद्धम्॥’
Jagannatha also accepts the third variety of श्लेष, viz. प्रकृताप्रकृतश्लेष. The difference between the third variety of श्लेष andशब्दशक्तिमूलव्यञ्जना is that in the latter the विशेष्य is also श्लिष्टand there is no expressed उपमा.
Compare
विजितारिपुरो मूर्तौविलसत्सर्वमङ्गलः।
राजमौलिः प्रतापाङ्करुदो रुद्र इव स्थितः॥
and
विजितारिपुरो मूर्तौविलसत्सर्वमङ्गलः।
राजमौलिरसौ भाति रुद्रदेवो जगत्पतिः
The first verse is an instance of प्रकृताप्रकृतश्लेष and the second is an instance of शब्दशक्तिमूलध्वनि. The first adjective विजितारिपुरः of the second illustrates अर्थशक्तिमूलध्वनि also as shown further on in the text.
५८ अत्यर्थसुकुमारार्थसंदर्भा कैशिकी मता—In regard to Vrittis and Ritis the render is referred to my notes on the Ekávalipp. 356-7 and 481-3. Vrittis are styles of dramatic composition and may be included under Annprasas of different sorts and are favourable to the development of different sentiments. They are like movements of the body in acting rendered artificially beantiful or graced by dress, ornaments, decorations &c.—‘शोमामाइार्यकी प्राप्ता वृत्तयो वृत्तयो यथा’ as Vidyadhara states. Their origin is explained as under by Bharata in his Natyas’astra:—
Once when Vishnu was asleep in the ocean on the snake, restraining all the worlds within himself by his Mâyâ, the demons Madhu and Kaiṭabha challenged him to fight, reviling him by their speech. Brahman, hearing their speeches of different kinds and their menaces, said, ‘Has dramatic acting commenced with speech? Kill him.’ Hearing what Brahman said, Vishṇn replied, Oh Lord! this speech is created by me with a purpose. Let them go on speaking; this speech will increase and become Bhârati. I shall kill the demons to-day’. Saying so, Vishṇu fonght with the demons, jesticulating his body in various ways. When Hari placed his feet on the ground, the earth felt a great burden (भार) and thus Bhârati was created there. By his movements brilliant, powerful (सत्त्वाधिकैः) and unconfused, Sâtvati was created. The various sportive movements by which he tied his hair (केश), gave rise to Kais’iki and his diverse modes of fighting, abounding in vehemance (संरम्भ) led to the creation of Ārabhati. The movements of Vishṇu were worshipped by Brahman with prayers suitable to them. When Madhu and Kaiṭabha were killed by Vishṇu, Brahman said to him, ‘Oh Lord! you have killed the demons by diverse, beantiful and clear movements of your body. Therefore in the discharge of all weapons, this mode of fighting in the world will be known as Nyâya. Because fighting was conducted by movements based on Nyâya, and arising from Nyâya, it will be called Nyâya.’ Then Brahman placed the Vrittis in the Vedas. Again in dramatic representations these were chosen, accompanied by various feelings and were called Vrittis. Produced from the Nâtyaveda and accompanied by vocal representations, they were thrown by me (Bharatamuni) in dramas at the command of Brahman for the purpose of the composition of poetry. (Vide Natyaśâstra, Ch. XX.)
Vrittis were thus movements of the body originally and then became movements of speech or styles of dramatic composition which are represented by such movements. The
following verse describes how the Vrittis arose from the different Vedas:—
ऋग्वेदाद्भारती वृत्तिर्यजुर्वेदात्तु सात्त्विकी।
कौशिकी सामवेदात्तु शेषा चाथर्वणात्तथा॥ २०—२४
कौशिकी derives its name from कौशिक, the sentiment of love, or केशिन् Krishna; आरभटी from आरम् which has the sense of सरम् or vehement beginning; सात्त्वती from सत्व or strength and भारती, from its being dear to भरतor actors. The following definitions from the Nâtyas’astra of Bharata explain their characteristics with derivations:—
या श्लक्ष्णनेपथ्यविशेषचित्रा स्त्रीसंयुता वा बहुनृत्तगीता।
कामोपभोगप्रभवोपचारा तां कैशिकीं वृत्तिमुदाहरन्ति॥
प्रस्तावपातप्लुतलङ्घितानि छेद्यानि मायाकृतमिन्द्रजालम्।
चित्राणि युद्धानि च यत्र नित्यं तां तादृशीमारभटीं वदन्ति।
आरभटप्रायगुणा तथैव बहुकपटवञ्चनोपेता।
दम्भानृतवचनवती त्वारभटी नाम विज्ञेया॥
या सात्त्वतेनेह गुणेन युक्ता न्यायेन वृत्तेन समन्विता च।
हर्षोत्कटा संहृतशोकभावा सा सात्त्वती नाम भवेत्तु वृत्तिः॥
या वाक्यप्रधाना पुरुषप्रयोज्या स्त्रीवर्जिता संस्कृतवाक्ययुक्ता।
स्वनामधेयेर्भरतैः प्रयुक्ता सा भारती नाम भवेत्तु वृत्तिः॥
The Vrittis in the above do not refer to mere dramatic style, but they also refer to dramatic machinery and representation of events on the stage.
६२-६३ वेदम्पादिरीतीनाम्— This shows the difference between Vrittis and Ritis. The former reside in sense, while the latter in words. The former go to develop various sentiments, while the latter residing in words independently of sense, simply bring about delicacy or arrogance of style. Both refer to styles of composition, but the Vrittis develop poetic sentiments, while the Ritis reside in Gunas and simply make the style soft or harsh by their nature; by particular kinds of letters and their arrangement and by particular kinds of constructions of words. Ritis bring about different kinds of poetic qualities or Ganas and are thus said to reside in them
६६. ओजः कान्तिगुणोपेता—Kânti is freedom from vulgar expressions used by rustics. It is defined as ‘औज्ज्वल्यम् कान्तिः’ ३।२।२५by Vámana. Mammata explains औज्ज्वल्यम् asग्राम्यपदाघटितत्वम्.
६७. या पदानां परान्योन्यमेैत्री—शप्या is the repose of words in their mutual favourableness like the repose of the body in a bed. The mutual friendship of words, so close that they cannot be replaced by their synonymes, constitutes what is called शप्या. It is thus the unchangeableness of words. In the stanza दातुः काकतिवंशमण्डनमणेः &c. the arrangement of words is such that their change would spoil the beauty of the poem. This therefore is शप्या.
In the Tarala on the Ekavali, Mallinâtha thus explains the word:—
पदानां परिवृत्तिवैमुख्यं विनिमयासहिष्णुत्वम्। एतदेव मैत्री शप्येति चारूपायते। यथास्मदीयश्लोके चन्द्रोदयवर्णने।
निशाकरकरस्पर्शान्निशया निर्वृतात्मना।
अमी स्तम्भादयो भावा व्यज्यन्ते रज्यमानया॥
अत्र निशादिपदस्थाने क्षपादिपदान्तरप्रक्षेपे पदानां परस्परमैर्त्रामङ्क॥ (Vide my edition of the Ekâvalipp. 22 and 23).
Mandaramaranda of S’rikrishnakavi gives the following definition of शप्याः—
सा शय्या कीर्तिता मैत्री या पदानां परस्परम्।
दाता जेता रणे त्राता भीतानां भाति भूपतिः॥
In Agnipurâna शप्याis taken as synonymous with मुद्रा which is given as one of the sabdalankaras.
शब्दालंकारमाहुरतान् काव्यमीमांसका विदः।
छाया मुद्रा तथोक्तिश्च युक्तिर्गुम्फनया सह॥
अभिप्रायविशेषेण कविशक्ति विवृण्वती।
मुत्प्रदायिनी सा मुद्रा सैव शय्यापि नो मते॥अग्नि पु० ३४२-१९, २६
The definition is very indefinite. No instance is given to show clearly what is meant.
अतिक्रान्तेन कुत्रापि यदर्थे वर्णयोः क्वचित्।
वाक्यार्थे वाक्ययोः क्वापि प्रकीर्णानां च दृश्यते॥ स० क० २-५४-५५
Bhoja in his Sarasvatikaṇthabharaṇa defines it as under. He also considers it as S’abdalankara.—
शय्येत्याहुः पदार्थानां घटनायां परस्परम्।
सा प्रक्रान्तेन कस्मिंञ्चिदप्रकान्तेन कुत्रचित्॥
Ratnes’vara in his Ratnadarpana explains it as under:—
किंचिदेकं वस्तु बुद्धौसमाधाय तदधिकारप्रबन्धरचनायामधिकस्यान्तरान्तराप्रकृते योजना शप्या।
Bhoja in his Sarasvatikanthâbharaṇa explains मुद्रा clearly, giving almost the same definition as the Agnipurâṇa:–
साभिप्रायस्य वाक्ये यद्वचसो विनिवेशनम्।
मुद्रां तां मुत्प्रदायित्वात् काव्यमुद्राविदो विदुः॥ स० क० २-४०.
Ratnadarpana on this is very good:—
यद्यपि संपूर्णमेव काव्यं वक्रभिप्रायप्रतिच्छन्दकभूतं उक्तं च ‘वक्रभिप्रायं सूचयेयुः’ इति तथापि नास्मिन्नितरसाधारणतया वाक्यार्थगोचरमभिप्रायमावेदयत्येव काव्यसनाधीकरणक्षमवक्त्रभिप्रायविशेषप्रतिरूपक एकदेशनिवेशो दृश्यते। अत एवाङ्गुलीयादिमुदेव मुद्रेत्युच्यते।… मुद्रैव पदादिप्रकाश्यष्वनिव्यवहारभूमिरन्येषाम्।
Thus according to Bhoja शप्याmeans the mutual arrangement of प्रस्तुत and अप्रस्तुत objects. It is brought about by the arrangement of प्रस्तुत with another प्रस्तुत matter, or of अप्रस्तुत matter with प्रस्तुतmatter, or by the formation of what is past by the power of memory, or by the formation of a word from letters, or of a sentence from sentences, or by the formation of matters of a mixed character, not existing in one place or at one time.
The following is given as an instance of प्रकान्तघटनाः—
स तथेति प्रतिज्ञाय विसृज्य कथमप्युमाम्।
ऋषीज्योतिर्मयान् सप्त सस्मार स्मरशासनः॥
सेयं सप्तर्षीणामागमनस्य प्रकान्तस्यैव घटना।
अप्रकान्तघटना is illustrated as under:—
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
निषादस्य च संवादमृषेः संवरणस्य च॥
सेयमप्रकान्तस्य निषादसंवरणसंवादस्य घटनादप्रकान्तघटना।
The following is an example of अतिकान्तघटनाः—
तस्य चक्रुश्चमत्कारं व्यतीतसमया अपि।
स्मितार्द्रमुकुलोद्भेदाः कदम्बवनराजयः॥
इयमतिक्रान्तस्यापि कदम्बवनराजीनामार्द्रमुकुलोद्भेदस्य विरहिमनश्चमत्कारकारिणो रामस्य स्मृतिद्वारेण घटनादतिकान्तघटना।
पदघटना and वाक्यघटना are illustrated as under:—
छिन्नेन पतता वहौयन्मुखेन हठात् कृते।
स्वेति हेति हरेणोक्तेस्वाहासीत् सैष रावणः॥
इयं स्वेति देति वर्णाम्पांस्वाहेति पदस्य घटितत्वात् पदघटना।
हंस प्रयच्छ मे कान्तां गतिरस्यास्त्वया हृता।
विभावितैकदेशेन देयं यदभियुज्यते॥
इयं पूर्वशास्त्रनिवद्वस्योत्तरार्धस्य तदर्थाननुयापिनापि प्रस्तुताथांविरुद्धेन पूर्वार्धेनकैवाक्यतयैव घटितत्वाद् वाक्यघटना।
Finally प्रकीर्णघटनाis beautifully illustrated by the following instance:—
एकि्कंहिं अच्छिहिं सावणु अण्णहिं भद्दवउ
माहउ महिअलसत्थरि गण्डत्थल सरउ।
अङ्गहिं गिह्मसुहन्छिइ तिलवण मग्गसिरु
मुद्विहिं मुहपङ्कअसरि आवासिउ सिसिरु॥
[ एकस्मिन्नक्ष्णि श्रावणोऽन्यस्मिन् भाद्रपदः
माधवो महीतललस्तरे गण्डस्थले शरत्।
अङ्गे ग्रीष्मः सुखासिका तिलवने मार्गशीर्षः
मुग्धाया मुखपङ्कजसरसि आवासितः शिशिरः॥ ]
अत्र श्रावणादीनामयुगपद्भावित्वेन विप्रकीर्णानां घटनादियं प्रकीर्णघटना॥
It will be seen that the शप्याas understood by our author Vidyanatha is less artificial and more charming than that of Bhoja. The last division, प्रकीर्णघटना, is according to later writers on rhetoric a kind of Atis’ayokti (अपोगेऽपि योगवाचका अतिशयोक्ति ).
अर्थगम्मीरिमा पाकः—पाक is depth of sense. It is of various sorts and these varieties are brought about by different tastes of different poetic sentiments like varieties of food.
Vidyâdhara describes it as under:—
पाकस्तु रसोचितशब्दार्थनिवन्धनम्। श्रवणसुवास्यन्दिनी पदव्युत्पत्तिः पाक इत्यन्ये। पदानां परिवृत्तिवैमुख्यं पाक इत्यपरे। ( Vide my edition of the Ekâvali, p. 22). The last alternative पदानां परिवृत्तिवैमुख्यम् constitutes शप्पा according to Vidyanatha.
Bhoja calls it प्रौढिand enumerates it as a शब्दगुण. He defines it as under:—
उक्तेः प्रौढः परीपाकः प्रोच्यते प्रौढिसंज्ञया। स० क० १-७७.
नालिकेरीपाकis thus explained by Ratnes’vara in the Ratnadarpana:—
नालिकेरफलं पक्कं त्वचि कठिनं शिरास्वविवृतकोमलप्रायं कपालिकायां कठिनतरं तथा कश्चित् संदर्भों मुखे कठिनस्तदनन्तरं मृदुप्रायस्ततः कठिनतरो नालिकेरपाक इत्युच्यते।
मृदकिापाक Or द्राक्षापाक is explained as under by the same commentator:—
यथा द्राक्षाफलं त्वच आरभ्यकोमलमन्तरा द्वित्रिचतुरास्थिसंपादितं किंचित्काठिन्यमेव कश्चित् संदर्भ उपक्रमोपसंहारयोः कोमल एव मध्ये कठिन एव। संयोगदिीर्घस्वरमात्र कृतमनाक्कठोरेभाव मृदीकापाक इत्युच्यते।
These explanations refer to प्रोढिas a शब्दगुण. The पाक in the text is connected with depth of sense. This kind of पाक is described by Bhoja at the end of the fifth Parichchheda as ander:—
पाकभक्तिष्वादावस्वाद्वन्ते स्वादु एद्वीकापाकः। आद्यन्तयोः स्वादु नारिकेलीरीतिपाकः। ५-२५१-२५२.
पाकान्तराणि यथासंभवमूद्यानि—Ratneśvara mentions one such पाक, viz. सहकारपाक and explains it as under:—
यद्वत्रपरिणतं सहकारफलमारम्भादेव कोमलमस्थानि तु कठोरप्रायमेवमपरः संदर्भोमुखादारम्प मृदुरन्तरे कठिनतरः सहकारपाक इत्युच्यते। यथा
कमलिनि कुशलं ते सुप्रभातं रथाङ्गाः
कुमुदिनि पुनरिन्दावद्वते त्वं रमेथाः।
सखि रजनि गतासि त्वं ततो जीर्णमुचै-
रिति तरलितपक्षाः पक्षिणो व्याहरन्ति॥
सुप्रतिद्व्युत्पत्तिलक्षणस्तु वार्ताकपाकः कैश्चिदुक्तः स तु सुशब्दतालक्षणगुण एवकविकल्पलताकारादिभिरुक्तो नीलकपित्थपाको नास्ति।
Therefore he says, तेऽमी त्रय पव शुद्रपाका व्यतिकरणन्मानस्तु भूयांसः।
अत्र ध्वनेर्लक्षणाभिधामूलत्वेना—वाक्यगतोमयशक्तिमूलो ध्वनिः—
For the different divisions of ध्वनिand their explanation the reader is referred to my notes on the subject in my edition of the Ekâvalipp. 413-419 and pp. 452 and 457-58 and pp. 464-5.
Vidyúdhara has divided असंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यध्वनि into रस, भाव, रसाभास, भावाभास, भावशान्ति, भावोदय, भावसंधिand भावशवलता. Vidyânatha calls असंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यध्वनि रसादिध्वनि, that is, रसध्वनि, भावध्वनि and so on and sub-divides each into six varieties according as the ध्वनि is found in प्रबन्ध, वाक्य, पद, पदेकदेश, रचना or वर्ण.
There are, as shown and enumerated in the text, 51 varieties of शुद्धध्वनि. In regard to मिश्रध्वनि, it is said that these 51 divisions should be connected with each other. The first with itself and with each of the following 50 divisions leads to 51 mixed varieties, the second with itself and each of the following leads to 50 mixed varieties, the third to 49 mixed varieties and so on. The first mixed with the second and the second with the first and so on lead to the same mixed varieties. These sub-divisions are therefore disregarded. Thus there are in all 1,326 sub-divisions and each of these sub-varieties being again sub-divided into four classes by संसृष्टि and संकर of three kinds ( by संदेह, अनुग्राह्यानुग्राहकत्व and एकव्यञ्जकानुप्रवेश ), the total comes 5,304.
Mammata, however, does not consider the sub-varieties omitted by Vidyânâtha (such as the combination of the first of the 51 pure varieties of ध्वनि with the second and the combination of the second with the first and so on) to be worth omitting. He has therefore 51x51x4 or 10,404 varieties of ध्वनिin all. Pradipa on this is worth reading. It is as under:—
‘अत्रावार्चीनाः—“गणनेयमयुक्ता। अग्रिमाग्रिमभेदस्य योजने एकैकभेदह्नासात्। तथा हि अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यस्यात्यन्ततिरस्कृतवाच्येन योजने यो भेदः स एवात्यन्ततिरस्कृतवाच्यस्यार्थान्तरसंक्रमितवाच्येन योजनायाम्। एवमन्यत्रापि। तस्मात्
‘एको राशिर्द्विधा स्थाप्य एकमेकाधिकं कुरु।
समार्धेनासमो गुण्य एतत् संकलित लघु॥’
इत्युक्तदिशा द्विपञ्चाशदर्धेन पड्विशत्या एकपञ्चाशतं गुणयेत्। तथा च ‘रसदस्राग्रिमेदिन्यः’ इति त्रयोदशशतानि षद्विशत्यधिकानि जायन्ते। योगाश्चतुःप्रकार इति तेषु चतुर्भिर्गुणितेषु ‘वेदाभ्रदहनेषवः’ इति पञ्चसहस्राणि चतुरधिकं शतत्रयं संकीर्णभेदा इत्येव ज्यायः” इति वदन्ति।
अत्र ब्रूमः—अनुभवसिद्धौ तावत् पुण्ड्रकादीक्षुरसेष्विव ध्वनिष्वपि हृद्यत्वातिशयानुशयौ। तथा चार्थान्तरसंक्रमितवाच्यस्य यत्रातिशयस्तत्रात्यन्ततिरस्कृतवाच्येन तद्योजनम्। यत्र तु तद्वैपरीत्यं तत्रात्यन्ततिरस्कृतवाच्यस्येतरेण योजनमिति व्यपदेशः। एवमन्यत्राप्यूह्मम्। एतदेव प्राधान्यमादाय गणना सौत्री। नन्वेवं यत्रोमयोस्तुल्यमेव चारुत्वं तत्र भेदान्तरं स्यादिति। मैवम्। अपकर्षाभावस्यातिशयपदेन विवक्षितत्वात् तत्रोभयमेदसंकरस्वीकारात्। एतादृशे चास्थाने पदालम्वनमात्रमेव महत् पौरुषानिति सहृदयभावमास्थायालोचनीयमिति।
९०. तथाचोक्तं शृङ्गारतिलके—
S’ringâratilaka is a work on poetics by Rudrabhața. There is a commentary on it called Rasatarangini by Gopalabhatta, mentioned in the commentary on p. 93.
९६. नगरार्णवशैलर्त्तुचन्द्रार्कौदयवर्णनम्—
Vidyânatha in describing a महाकाव्य follows Dandin as will be seen from the following description of it given in the Kávyādarśa:—
सर्गवन्धो महाकाव्यमुच्यते तस्य लक्षणम्।
आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम्॥
इतिहासकथोद्धृतमितरद्वा सदाश्रयम्।
चतुर्वर्गफलोपेतं चतुरोदात्तनायकम्॥
नगरार्णवशैलर्तचन्द्राकोदयवर्णनैः।
उद्यानसलिलक्रीडामधुपानरतोत्सवैः॥
विप्रलम्भैर्विवाहैश्च कुमारोदयवर्णनैः।
मन्त्रदूतप्रयाणाजिनायकाभ्युदयैरपि॥
अलंकृतमसंक्षिप्तं रसभावनिरन्तरम्।
सगैंरनतिविस्तीर्णैः श्रव्यवृत्तैः सुसंधिभिः॥
सर्वत्र भिन्नवृत्तान्तैरूपेतं लोकरञ्जकम्।
काव्यं कल्पान्तरस्थायि जायेत सदलंकृति॥
काव्या० १-१४–१९.
A comparison of the text with the above quotation will show clearly to what extent Sanskrit authors are open to the fault of plagiarism.
मन्त्रद्यूतप्रयाणाजि,° thongh not adopted in the text, being found only in one or two Mss. out of the Mss. consulted when the text, was settled, is a better reading than the one adopted in the text, as it is the reading in the Kavyadarśa. It appears to be the reading intended by the author, since he shews further on that he has enumerated 18 topics of description and this number cannot be made up unless आजिis adopted as the reading.
पतेषामष्टादशानां वर्ण्यनां यैः कैश्चिदूनमपीष्यते—
of. what is said by Dandin:—
न्यूनमप्यत्र यैः कैश्चिदङ्गैः काव्यं न दुष्यति।
यद्युपात्तेषु संपत्तिराराधयति तद्विदः॥ काव्या० १-२०
गद्यपद्यमयं &c.
Champú is an artificial composition in which the same subject is continued throngh prose and verse. भोजचम्पू or चम्पूरामायण attributed to Bhoja, भारतचम्पू or चम्पूभारत by Anantakavi, नलचम्पू, दमयन्तीचम्पू Or दमयन्तीकथा by Trivikramabhatta are some of the Champus.
The following are some of the varieties of a काव्य enumerated by Anandavardhana in his Dhvanyaloka:—
‘यतः काव्यस्य प्रभेदा मुक्तकं संस्कृतप्राकृतापभ्रंशनिवद्धं संदातनिकविशेषककलापककुलकानि पर्यावन्यः परिकथा खण्डकथासकलकथे सर्गबन्धोऽभिनेयार्थमाख्यायिकाकथेइत्येवमादयः।’ ध्वन्या० ३-७.
Of these मुक्तक is a single stanza complete in itself. The stanzas of Amarus’ataka are instances of मुक्तक. In Agniparaṇa it is thus defined:—
‘मुक्तकः श्लोक एवैकथमत्कारक्षमः सताम् । अग्नि० ३३७-३६.
मुक्तक is also one of the four varieties of गद्य thas defined by Visvanatha:—
वृत्तगन्धोज्झितं गद्यं मुक्तकं वृत्तगन्धि च।
भवेदुत्कलिकाप्रायं चूर्णकं च चतुर्विधम्॥
आद्यं समासरहितं वृत्तभागयुतं परम्।
अन्यद्दीर्घसमासाढ्यं तुर्ये चाल्पसमासकम्॥ साहि०६० ६-३३०-३२.
When two stanzas are connected grammatically, they form संदातनिकand three, four and five such stanzas form respectively विशेषक, कलापक and कुलक. Other writers call two stanzas forming a grammatical whole युग्म and three such stanzas संदातनिक.
द्वाभ्यां तु युग्मकं संदातनिकं त्रिभिरिष्यते।
कलापकं चतुर्भिश्च पञ्चभिः कुलकं मतम्॥
कुलक is the name given to five or more stanzas forming grammatical wholes. Some writers, however, use different words as under:—
एकः श्लोको मुक्तकं स्याद् द्वाभ्यां युगलकं स्मृतम्।
त्रिभिर्गुणवती प्रोक्ताचतुर्भिस्तु प्रभद्रकम्॥
बाणावली पञ्चभिः स्यात् षङ्भिस्तु करहाटकः॥
(Vide commentary on Kavyâdars’a by Premachandratarkavagis’a, which is a good commentary.
Stanzas on one topic form पर्यायवन्धन—‘अवान्तरक्रियासमाप्तावपि वसन्तवर्णनाद्येकवर्णनीयोद्देशेन प्रवृत्तः पर्यायवन्धः’लोचन on ध्वन्यालोक.
परिकथा–A continued description in varions ways regarding one of the four ends of existence—‘एकं च धर्मादिपुरुषार्थमुद्दिश्य प्रकारवैचित्रपेणानन्तवृत्तान्तवर्णनप्रकारा परिकथा’ लोचन on ध्वन्या०
पर्यायेण बहूनां यत्र प्रतियोगिनां कथाः कुशलैः।
श्रूयन्ते शूद्भकवज्जिगीषुभिः परिकथा सा तु॥
This is परिकथा according to Hemachandra. Vide काव्यानुश्चासन 8th Adhyaya at the end in his gloss.
खण्डकथा is a short tale forming a portion of the entire description as a खण्डकाव्य is a short poem, while सकलकथा is a com-
plete tale—एकदेशवर्णना खण्डकथा। समस्तफलान्तेतिवृत्तवर्णना सकलकथा। द्वयोरपि प्राकृतप्रसिद्धत्वाद् द्वन्द्वेन निर्देशः। लोचन on धन्या०.
Hemachandra defines it as under:—
ग्रन्थान्तरप्रसिद्धं यस्यामितिवृत्तमुच्यते विबुधैः।
मध्यादुपान्ततो वा सा खण्डकथा यथेन्दुमती॥ Vide 8th Adhyâya, gloss at the end.
Vámana divides गद्य into वृत्तगन्धि, चूर्ण and उत्कलिकाप्राय. ‘पातालतालुतलवासिषु दानवेषु’ is given as an instance of वृत्तगन्धि, becanse a part of वसन्ततिलका metre is recognized in it. चूर्ण is defined as अनाविद्धललितपदम् which means having delicate words and no big compounds. ‘अभ्यासो हि कर्मणां कौशलपावद्धति। न हि सकृन्निपातमात्रेणोदविन्दुरपि ग्रावणि निम्नतामादधाति. उत्कलिकाप्राय is the reverse of चूर्ण. कुलिशशिखरखरनखरप्रचयप्रचण्डचपेटापाटितमत्तमातङ्गकुम्भस्थलगलन्मदच्छाच्छुरितचारुकेसरममामुरमुखे केसरिणि’ is given as an instance of it. See काव्या० सू० of वामन. १।३।२२-२५.
आख्यायिका and कथा are explained in different ways by different writers:—आख्यायिका उच्छ्रासादिना वक्त्रापरवस्त्रादिना च युक्ता। कथा तद्विरहिता। उभयोरपि गद्यबन्धस्वरूपतया द्वन्द्वेन निर्देशः। लोचन on ध्वन्या०
कथायां सरसं वस्तु गद्यैरेव विनिर्मितम्।
क्वचिदत्र भवेदार्याक्वचिद्वक्त्रापवक्त्रके।
आदौ पद्यैर्नमस्कारः खलादेर्वृत्तकीर्तनम्॥
यथा कादम्बर्यादिः।
आख्यायिका कथावत् स्यात् कवेर्वेशानुकीर्तनम्।
अस्यामन्यकवीनां च वृत्तं पद्यं क्वचित् क्वचित्॥
कथांशानां व्यवच्छेदः आश्वास इति बध्यते।
आर्यावक्त्रापत्राणां छन्दसा येन केनचित्॥
अन्यापदेशेनाश्वासमुखे भाव्यर्थसूचनम्।
यथा हर्षचरितादिः। साहि० द० ६-३३२-३६.
In Agniparána the following is the description of आख्यायिका and कथाः—
कर्तृवंशप्रशंसा स्याद् यत्र गद्देन विस्तरात्।
कन्याहरणसंग्रामविप्रलम्भविपत्तयः॥
भवन्ति यत्र दीप्ताश्चरीतिवृत्तिप्रवृत्तयः।
उच्छ्वासैश्चपरिच्छेदो यत्र या चूर्णकोत्तरा।
वक्त्रं चापरवकं वा यत्र आख्यायिका स्मृता॥
श्लोकैः स्ववंशं संक्षेपात् कविर्वत्र प्रशंसति।
मुख्यस्यार्थावताराय भवेद् यत्र कथान्तरम्॥
परिच्छेदो न यत्र स्याद् भवेद्वा लम्बकैः क्वचित्।
सा कथा नाम तद्गर्भे निबध्नीयाञ्चतुष्पदीम्॥३३७-१३-१६.
Dandin criticises writers who make divergent distinctions between आख्यायिका and कथा and is of opinion that they both belong to the same class of prose compositions.
अपादः पदसन्तानो गद्यमाख्यायिका कथा।
इति तस्य प्रभेदौ द्वौ तयोराख्यायिका किल॥
नायकेनैव वाच्यान्या नायकेनेतरेण वा।
स्वगुणाविष्किया दोषो नात्र भूतार्थशंसिनः॥
अपि त्वनियमो दृष्टस्तत्राप्यन्यैरुदीरणात्।
अन्यो वक्ता स्वयं वेति कीदृग्वा भेदलक्षणम्॥
वक्रं चापरवत्र्त्रं च सोच्छ्वासत्वं च भेदकम्।
चिह्नमाख्यायिकायाश्चेत् प्रसङ्गेन कथास्वपि॥
आर्यादिवत् प्रवेशः किं न वक्त्रापरवकयोः।
भेदश्चदृष्टोलम्भादिरुच्छ्वासो वास्तु किं ततः॥
तत् कथाख्यायिकेसेका जातिः संज्ञाद्वयाङ्किता।
अत्रैवान्तर्भविष्यन्ति शेषाञ्चाख्यानजातयः॥ काव्या० १-२३-२८.
Thus according to Dandin कथा and आख्यायिका are synonymous and varieties such as खण्डकथा, परिकथा, कथानिका (‘भयानकं सुखपरं गर्भेच करुणो रसः। अद्भुतोऽन्ते सुकुमार्थो नोदात्ता सा कथानिका॥ अग्निपु० ३३७-२० ) and such other divisions are to be disregarded.
Dandin seems to be criticizing Bhâmaha as will seem from the following from Bhamaha’s work:—
प्रकृतानाकुलश्रव्यशब्दार्थपदवृत्तिना।
गद्येन युक्तोदात्तार्था सोच्छ्वासाख्यायिका मता॥
वृत्तमाख्यायते तस्यां नायकेन स्वचेष्टितम्।
वक्त्रं चापरवक्त्रं च काले भाव्यर्थशंसि च॥
कवेरभिप्रायकृतः कथानैः कैश्चिदङ्किता।
कन्याहरणसंग्रामविप्रलम्भोदयान्विता॥
न वक्त्रापरवक्त्राभ्यां युक्ता नोच्छ्वासवत्यपि।
संस्कृतं संस्कृता चेष्टा कथापत्रंशभाक् तदा॥
अन्यैः स्वचरितं तस्यां नायकेन तु नोच्यते।
स्वगुणाविष्कृतिं कुर्यादभिजातः कथं जनः॥
९७ येन केनापि तालेन—Udaharana is a sort of panegyric, part in prose and part in verse, begiuning with the word जयति, composed in the Malini and other metres and abounding in alliteration. It opens with a charming verse in Malini and other metres. Then follow eight sentences in all the cases including the vocative, abounding in Anuprâsas and with a proper beat of time and winding up with an account of the poet’s prodnction.
The word is used by Kâlidasa in his Vikramorvasiya— ‘चारणेभ्यस्त्वदीयं जयोदाहरणं श्रुत्वा’ and in the Raghuvans ‘a—जयोदाहरणं होर्गापयामास किन्नरान्’.
९८ भोगावली—The word is used by Mâgha in his Sisupalavadha 5-57 as under:—
स्पष्टं बहिःस्थितवतेऽपि निवेदयन्त-
श्चेष्टाविशेषविशेषमनुजीविजनाय राज्ञाम्।
वैतालिकाः स्फुटपदप्रकटार्थमुञ्चै-
र्भौगावलीःकलगिरोऽवसरेषु पठुः॥
वर्ण्यमानाङ्कविरुदवर्णनमचुरोज्ज्वला—
Darpanakâra defines विरुद्ध as गद्यपद्यमयी राजस्तुतिर्विरुदमुच्यते। साहि० द० ६-३३७.
९९ ताराणांसंख्ययापद्यैर्युक्ता—
Mandâramaranda of Krishṇa has the same definitions of उदाहरण, चक्रवालक, भोगावली, विरुदावलीं and तारावली as are fonnd in the text. Further, it mentions विश्वावली, रत्नावली and पञ्चाननावली and describes them as under:—
विश्वेषां संख्यया पद्यैर्युक्तो विश्वोदयो मतः।
रत्नानां संख्यया पर्यैर्युक्ता रत्नावली मता।
पद्यैश्च पञ्चभिर्युक्ता प्रोक्ता पञ्चाननावली ॥ 11th शे० बि० of म० म०.
The same work has the following remarks as regards the style to be adopted in these varieties of prose works:—
आख्यायिकायां शृङ्गारेऽप्युद्धता रचना मता।
कथायां नाटकादौ च न रौद्रेऽप्यधिकोद्धताः।
अन्येषु च प्रबन्धेषु रचना स्याद्यथोचितम्॥
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१०० चतुर्विधैरभिनयैः—Nâtya is the imitation of the conditions of heroes, ( Dhirodätta &c. ) and others by four kinds of representations, gestural (आङ्गिक ), vocal (वाचिक ), extraneous (आहार्य i. e., by dress, ornameats and decoration ) and internal ( सात्त्विक, i.e, by the manifestation of the eight feelings called सात्विकभाव’s described in the verse स्तम्बः स्वेदोऽथ रोमाञ्चः स्वरभङ्गोऽथवेपथुः। वैवर्ण्यमश्रु प्रलय इत्यष्टौसात्त्विकाः स्मृताः) and is full of poetic sentiment, It is fall of वाक्यार्थामिनय or representation of the meanings of sentences; for poetic sentiments are found in sentences and not words. It abounds in सात्त्विक अभिनय, Nritya is full of feelings known as भावand of पदार्थाभिनय, becanse feelings can be represented by words. It abounds in आङ्गिक अभिनय, Nritta is simple dancing without any representation, attended by ताल and लप, time in masic ताल is beating time in music. लप is either द्रुत (quick ), or मध्य ( middling ), or विलम्बित (slow ).
Dhauañjaya thus distinguishes between नाट्य, नृत्य and नृत्तः—
अवस्थानुकृतिर्नाट्यंरूपं दृश्यतयोच्यते।
रूपकं तत्समारोपाद् दशधैव रसाश्रयम्॥
अन्यद् भावाश्रयं नृत्यं नृत्तं ताललयाश्रयम्।
आद्यंपदार्थाभिनय मार्गों देशी तथा परम्॥ दश० १-७, ९.
Dhanika’s Avaloka on it is worth reading—काव्योपनिषद्वधीरोदात्ताद्यवस्थानुकारश्चतुर्विधाभिनयेनतादात्म्यापत्तिर्नाट्यम्। तदेव नाट्यंदृश्यमानतया रूपमित्युच्यते नीलादिरूपवत्। नटे रामाग्रवस्थारोपेण वर्तमानाद्रूपकं मुखचन्द्रादिवदित्येकस्मिन्नर्थे प्रवर्तमानस्य शब्दस्य इन्द्रः पुरन्दरः शक इतिवत् प्रवृत्तिनिमित्तमेदो दर्शितः। रसानाश्रित्य वर्तमानं दशप्रकारकम्।……..।रसाश्रयान्नाट्यद् भावाश्रयं नृत्यमन्यदेव। तत्र भावाश्रयमिति विषयभेदान् नृत्यमिति नृतेर्गात्रविज्ञेयार्थत्वेनाङ्गिकवाहुल्यात् तत्कारिषु च नर्तकव्यपदेशाल्लोकेऽपि चात्र प्रेक्षणीयरुमिति व्यवहारान्नाटकादेरन्यनृत्यम्। ………. नाटकादि च रसविषयम्’ रसस्य पदार्थभुतविभावादिकसंसर्गात्मकवाक्यार्थहेतुकत्वाद्वाक्यार्थाभिनात्मकत्वं रसाश्रयमित्यनेन दर्शितम्। नाट्यमिति च नटअवसन्दन इति नटेःकिंचिच्चलनार्थत्वात् सात्त्विक बाहुल्यम्। अत एव तत्कारिषु नटव्यपदेशः। यथा च गात्रविक्षेपार्थत्वे समानेऽप्यनुकारात्मकत्वेन नृत्तादन्यन्नृत्यं तथा वाक्यार्थाभिनयानकान्नाव्यात् पदार्थाभिनयात्मकमन्यदेव नृत्यमिति। ताल. श्चञ्चत्पुटादिः। लयो दुतादिः। तन्मात्रापेक्षेऽङ्गीविक्षेपोऽभिनयशून्यो नृत्तमिति। नृत्यं पदार्थांनिनयात्मक मार्ग इति प्रसिद्धम्। नृत्तं च देशति॥
अभिनय is thus explained by Bharata:—
अभिपूर्वस्तु णीञ्धातुः पुरा मुख्यार्थनिर्णये।
यस्मात् प्रयोगं नयति तस्मादभिनयः स्मृतः॥
विभावयति यस्माच्च नानार्थन् हि प्रयोगतः।
शाखाङ्गोपाङ्गसंयुक्तस्तस्मादभिनयः स्मृतः॥ नाट्य०-८-६-७.
Jestnral representation ( अङ्गिकाभिनय ) is called शाखा. It is subdivided into शारीरं मुखज and चेष्टाकृत. The six अङ्ग’s and the six उपाङ्ग’s are enumerated in the following stanza:—
तस्य शिरोहस्तोरःपार्श्वकटीपादतः षडङ्गानि।
नेत्रभ्रुनासाधरकपोलचित्रुकान्युपाङ्गानि॥
सात्त्विक भाव’s are perspiration, and others, enumerated above. They are so called because they are produced in a sympathetic heart by the complete oueness of the mind of the action with that of the character represented. Bharata thus explains it.—
किमन्ये भावाः सत्त्वेन नाभिनीयन्ते येनैते सात्त्विका उच्यन्ते। अत्रोच्यते—इह हि सत्वंनाम मनःप्रभवम्। तत्र समाहितमनस्त्वादुत्पद्यते। मनःसमाधानाच्च सद्यो निर्वृतिरिति। तस्य योऽसौस्वभावो रोमाञ्चाश्वादिकृतः स न शक्यतेऽन्यमनसा कर्तुमिति।लोकस्वभावानुकरणाश्च नाट्यस्य सत्त्वमीप्सितम्। को दृष्टान्तः। इह हि नाट्यधर्मप्रवृत्ताः सुखदुःखकृतो भावास्तथा सत्त्वविशुद्धाः कार्या यथा सरूपा भवन्ति। दुःखं नाम रोदनात्मकं तत्कथमदुःखितेन सुखं च प्रदर्षात्मकं तत् कथं दुःखितेनाभिनेयम्। एतदेवास्य सत्त्वं यद्दुःखितेन सुखितेन बाश्रुरोमाञ्चौ दर्शयितव्याविति कृत्वा सात्त्विका भावा इत्यभिव्याख्या।
It is similarly explained by Dhanika also. See my notes on the ‘Ekavali’ pp. 422-23. The Ratnâpana also explains it in the same way. The word is similarly explained in the text itself. p. 223.
१०४ संधिनमैिकेन प्रयोजनेनान्वितानाम्—
The plot of a drama is divided into five parts called sandhis, so named because they are like the joints of the dramatie body. It is defined as the connection of parts of the dramatic story joined together by their tending towards the same end, with an intermediate end. There are five leading sources of the accomplishment of the grand object in a drama. They are called अर्थप्रकृति’s, origins of the accomplishment of the grand object in a drama. There are five such sources, namely
बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी and कार्य ,बीज is the source of the principal object in a drama; it is a means for the accomplishment of the final aim, put forth a little, but developing in various ways; like a seed developing into a tree, while विन्दुis the source of an intermediate object. It is the sudden development of a secondary incident and supplies important elements in the development of the plot. When the main object of the drama seems cut off as it were by intermediate objects, विन्दुis the cause of its continuity. It spreads through the whole plot like a drop of oil in water. पताकाand प्रकरीare episodical incidents inserted in a drama to explain what follows. They form प्रासङ्गिक वस्तु or subsidiary and occasional plot; of these पताका is
a long and continuous episode such as the history of सुग्रीव in the Ramayana, while प्रकरीis a small episode that has no continuity, as the story of S’ravana in the Ramayana,
प्रासङ्गिकं परार्थस्य स्वार्थोयस्य प्रसङ्गतः।
सानुबन्धं पताकाख्यं प्रकरी च प्रदेशभाक्॥ दश० १-१३.
यद्वृत्तं हि परार्थं स्यात् प्रधानस्योपकारकम्।
प्रधानवञ्चकल्प्येत सा पताकेति कीर्तिता॥
फलं प्रकल्प्यते यस्याः पराथै केवलं बुधैः।
अनुबन्धविहीनं स्यात् प्रकरीमिति निर्दिशत्। नाट्य० १९-२३, २४.
कार्य is the denonement of a drama.
These five origins of the grand object are joined respectively with five conditions, viz., those of commencement, effort, hopefalness, certainty of success and the accomplishment of the end and thus arise five Sandhis, मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श and निर्वहण. In the g sandhi the seed of the dramatic action is laid; it grows and the growth leads to manifold objects and the representation of poetic sentiments. In the Ratnavali, for instance, the union of Vatsaraj’a with Sagarika is the grand object of the drama and its seed is the love of Vatsaraja and Sagarika. In the first act we have मुखऽandhi; for the seed is laid and developed. In the प्रतिमुखऽandhi the seed manifests itself in such a way that it is partly seen and partly not seen. We have the representation of प्रतिमुखऽandhi, for instance, in the
second Act of the Ratnavali. The seed of dramatic action, viz., the love between Vatsaraja and Sagarika, put forth in the 1st Act, is partly seen, having been known to Susangatâ and Vidushaka and partly unseen, being inferred by Vâsavadatta by the incident of the picture-tablet. The seed which has thus manifested itself and is lost has to be searched often and often. It is at one time secured though under great obstacles, it is then lost, again obtained and again lost. Thus it has to be searched frequently. There is no certainty of seenring it, though there is every hope for it. This constitutes what is known as गर्भसन्धि. It may or may not contain पताका or episodical incident. Bat it must show hopefulness of securing the end. It is so called; because it contains the fruit as it were within itself (फलस्य गर्भीकरणाद् गर्भ). As in the Ratnavalia hope of meeting Sagarika is engeudered in the king’s heart. It is, cut off, however, by the appearance of Vasavadatta. There is again hope and again disappointment. She was sought often and often, and though there is no certainty of getting her, still there is every hope for it. In the fourth or विमर्शऽandhi there is a determination to secure the end somehow or other; the means of accomplishing the grand object are more developed than in the गर्भऽandhi. There are however obstacles like the curse of a sage as in the S’akuntala or the fear of some one as the fear of Vasavadattà in the Ratnâvali; but there is a determination to secure the end and a deliberation as to how to do it. For instance, in the 4th Act of S’akuntals the curse of Durvâsas is an obstacle in the way of the accomplishment of the great aim of the play, and the whole account from the curse to her recognition by the king constitutes विमर्श or अवमर्शऽandhi. In the Ratnavali Vatsaraja shews his determination of having Sagarika at any risk even by falling into the flames to save her. In the last or निर्वहणऽandhi the seeds scattered here and there are focussed together and lead to the accomplishment of the great object of the drama. It is the final denonement, the last stage in which the action of the play is brought to a head.
The follwing are the notes of Dhanika on अर्थप्रकृति’s and व्यवस्था’s:—
अर्थप्रकृतयः प्रयोजनसिद्धिहेतवः। स्तोकोद्दिष्टः कार्यसाधकः पुरस्तादनेकप्रकारंविस्तारी हेतुविशेषो बीजवद्वीजम्।
यथा रत्नावल्यां वत्सराजस्य रत्नावलीप्राप्तिहेतुरनुकूलदैवो यौगन्धरायणव्यापारोविष्कम्मके न्यस्तः। यौगन्धरायणः। ‘कः संदेहः। द्वीपादन्यस्मादिति पठति’ इत्यादिना प्रारम्भेऽस्मिन् स्वामिनो वृद्धिहेतौ’ इत्यन्तेन। वेणीसंहारे द्रौपदीकेशसयमनहेतुर्भीमक्रोधोपचितयुधिष्ठिरोत्साहो वीजमिति। तत्र महाकार्यावान्तरकार्यहेतुभेदादनेकप्रकारमिति।
अवान्तरवजिस्य संज्ञान्तरमाइ ‘अवान्तरार्थविच्छेदे बिन्दुरच्छेदकारणम्’।
यथा रत्नावल्ल्यामवान्तरप्रयोजनानङ्गपूजापरिसमाप्तौकथार्थविच्छेदे सत्यनन्तरकार्यहेतुः ‘उदयनस्येन्दोरिवोद्भीक्षते।
सागरिका। ( श्रुत्वा ) कइंएसो सो उदयणणरिन्दो जस्त अहंतादेण दिण्णा’ इत्यादि। बिन्दुर्जले तैलविन्दुवत् प्रसारित्वात्।
दूरं यदनुवर्तते प्रासङ्गिकं सा पताका सुग्रीवादिवृत्तान्तवत्। पताकेवासाधारणनायकचिह्नवत् तदुपकारित्वात्। यदल्पंसा प्रकरी श्रवणादिवृत्तान्तवत्।
तस्येतिवृत्तस्य किं फलमित्याह—‘कार्य त्रिवर्गस्तत् शुद्धमेकानेकानुबन्धि च’। धर्मार्थकामाः फलम्। तत्र शुद्धमेकैकमेकानुबन्धं द्वित्र्यनुबन्धं वा।
अव्यवस्थापञ्चकमाह॥( ‘अवस्थाः पञ्च’ इत्यादिना ) इदमहं संपादयामीत्यष्यवसायमात्रमारम्भ इत्युच्यते।
यथा रत्नावल्यां
‘प्रारम्भेऽस्मिन् स्वामिनो वृद्धिहेतौ
दैवे चेत्थं दत्तहस्तावलम्बे।’
इत्यादिना सचिवायत्तसिद्धेवंत्सराजस्प कार्यारम्भो यौगन्धरायणमुखेन दर्शितः।
तस्य फलस्याप्राप्तापाययोजनादिरूपश्श्रेष्टाविशेषः प्रयत्नः।
यथा रत्नावल्यामालेख्याभिलेखनादिवत्सराजसमागमोपायः ‘तहावि णन्धि अण्णो दंसणुवाओत्ति जहातदा आलिहिअजधासमीहिअं कॅरिस्सं इत्यादिना प्रतिपादितः।
उपायस्यापायसङ्कायाञ्च भावादनिवारितैकान्ता फलप्राप्तिः प्राप्याशा।
यथा रत्नावल्यां तृतीयेऽङ्के वेषपरिवर्ताभिसरणादौ समागमोपाये सति वासवदत्तालक्षणापापशङ्काया ‘एवं जदिअआलवादाली विअआअच्छिअअण्णदो य णइस्सदि वासवदत्ता’ इत्यादिना दर्शितत्वादनिर्धारितैकान्ता समागमफलप्राप्तिरुक्ता।
अपायामावादववारितैकान्ता फलप्राप्तिर्नियताप्तिरिति।
यथा रत्नावल्यां विदूषकः—‘सागरिका दुक्करंजीविस्सदि इत्युपक्रम्य ‘किं ण उपाये चिन्तेसि।’ इत्यनन्तरं राजा—‘वयस्य देवीप्रसादनं मुक्त्वा नात्रोपायं पश्यामि’ इत्यनन्तराङ्कार्थबिन्दुनानेन देवीलक्षणापायस्य प्रसादनेन निवारणान्नियता फलप्राप्तिः सूचिता।
फलयोगमाह—‘समग्रफलसंततिः फलयोगो यथोदितः।’
यथा रत्नावल्यां रत्नावलीलाभचक्रवर्तित्वावाप्तिरिति॥
१०८ मुखंबीजसमुत्पत्तिः—The definition of मुख Sandhi is exactly the same as in Das’raupa, 1st Parichcheda, 23rd Kârikâ.
११० गर्भस्तु दृष्टनष्टस्य &c—Dhanika explains this very clearly in the following.
प्रतिमुखसन्धौलक्ष्यालक्ष्यरूपतया स्तोकोद्भिन्नस्य बीजस्य सविशेषोद्भेदपूर्वकः सान्तरायो लाभःपुनर्विच्छेदः पुनः प्राप्तिः पुनर्विच्छेदः पुनश्च तस्यैवान्वेषणं वारंवार सोऽनिर्धारितैकान्तफलप्राप्तशात्मको गर्भसन्धिरिति।
यथा रत्नावन्यां तृतीयेऽङ्के वत्सराजस्य वासवदत्तालक्षणापायेन तद्वेषपरिग्रहसागरिकाभिसरणोपायेन च विदूषकवचसा सागरिकाप्राप्त्याशा प्रथमं पुनर्वासवदत्तया विच्छेदः पुनः प्राप्तिः पुनर्विच्छेदः पुनरपायनिवारणोपायान्वेषणं ‘नास्ति देवप्रसादनं मुक्त्वान्य उपायः’ इत्यनेन दर्शितमिति॥
११२ बीजवन्तो मुखाद्यर्थाः—The definition of निर्वहण Sandhi given in the text is exactly the same as in the Das’arúpa.
१११ वृत्तवर्त्तिष्यमाणानाम्—The definitions of विष्कम्भ and चूलिका in the text are exactly in the wording of those in the Das’arupa.
११६ अङ्कान्तपात्रैरङ्कास्पम् &c.—अङ्कास्य or अङ्कमुख is where characters at the end of a preceding Act suggest the events that are to come in the succeeding Act. Vidyanatha follows Dhananjaya in explaining अङ्कास्प. ‘अङ्कान्तपात्रैरङ्कास्पं छित्राङ्कस्यार्थसूचनात्’ दश० १-५५. That is, characters at the end of the act cut short the story and suggest the introduction of another Act. Just as in the Viracharita at the end of Act II. Sumantra cuts off the story of S’atananda and Janaka and introduces the story of the next Act.
Vis’vanâtha explains it differently. He takes it to mean that part of an Act which intimates the subject-matter of all the Acts. It describes the germ as well as the end.
यत्र स्यादङ्क एकस्मिन्नङ्कानां सूचनाखिला।
तदङ्कमुखमित्याहुर्बीजार्थख्यापकं च तत्॥ सा० द० ६-५९-६०
As in the Mâlatimadhava in the beginning of the 1st Act Kamandaki and Avalokitâ suggest what part Bhurivasu and other characters are to play and the arrangement of the plot of the play.
यत्र स्यादुत्तराङ्कार्थः—Where the incidents described in two Acts are not interrupted by Vishkambhaka or such other cause, but where they are connected together and where the entrance of characters is not suggested, that is, where the same actors are found in both the Acts, there we have अङ्कावतार. Vis’vanatha defines it as under:—
अङ्कान्ते सूचितः पात्रैस्तदङ्कस्याविभागतः।
यत्राङ्कोऽवतरत्येषोऽङ्कावतार इति स्मृतः॥
That is, the next Act has its incidents suggested by characters at the end of the preceding Act and it comes down as it were as a special component part of the preceding Act. The instance given there is the sixth Act of S’akuntala which is suggested by actors at the end of the Fifth Act and which therefore comes down as it were as a special component of the Fifth Act.
Dhanaṅjaya calls the preceding Act as अङ्कावतारor leading to the following:—
अङ्कावतारस्त्वङ्कान्ते पातोऽङ्कस्याविभागतः। दश० १-५६.
That is, where the succeeding Act falls into the end of the last Act without any break.
The instance given there is the end of the 1st Act of the Mâlavikâgnimitra of Kalidâsa. There the examination of the musical teachers, Haradatta and Gáṇadass, suggested at the close of the 1st Act, is carried on in the 2nd Act; thus the thread of events is unbroken and the 2nd Act falls as it were as a part of the 1st Act.
Kâtayavema, a commentator on the Mâlavikâgnimitra, thus comments upon it:—अत्र नृत्यदर्शननिश्रयान्ते प्रथमाङ्कार्थे समाप्तेऽपि तमसमाप्यैवोसराङ्कादौ विष्कम्भादौ प्रतिपाद्यायाः संगीतरचनाया अत्रेवनिपातनादङ्कावतरण नामार्थोपक्षेपकमुक्तं भवति। तथा चोक्तम्—‘अङ्कावतारस्वङ्कान्ते पात्रेणाङ्कस्य सूचनात्’ इति।
In his commentary on the Mâlatimadhava Jagaddhara quotes a similar definitioa of अङ्कावतारः—
अङ्कावसाने यत्रैव भाविनोऽङ्कस्य सूच्यते।
वस्तुबीजमुपोद्वातैः सोऽङ्कावतार इष्यते॥
Vide Act I. तदत्र मगवती कामन्दकी नः शरणम्।
११९ स्वेतिवृत्तसमं वाक्यमर्थ वा—The प्रस्तावना or Introdaction in an Act is according to Vidyanatha who follows Dhanaṅjnya, of three kinds, कथोद्धात, प्रवर्तक and प्रयोगातिशय. In the first an actor takes up either the very words of the Sutradhara or their sense agreeing with the story of his life and enters the stage. In the second, called प्रवृत्तकin the Das’arupa, the entrance of an actor is suggested by the description of the qualities of the season of the year then prevalent. In the third an actor’s entrance is suggested by the words of the Sutradhara, such as ‘एषोऽयम्’ ( Here this one). The Sūtradhāra goes ont, hinting the entrance of a character and thus performing a part of an actor at the same time that he is performing his own.
The definitions of कथोद्धात and प्रयोगातिशय are the same as those in the Das’arūpa.
The notes of Dhanika on this are as under:—
कथोद्घातः—वाक्पं यथा रत्नावम्याम्—यौगन्धरायणः—द्वीपादन्यस्मादपि—’ इति। वाक्यार्थ यथा वेणीसंहारे
भीमः—निर्वाणवैरिदद्दनाः प्रशमादरीणाम्’—इत्यादि। ततोऽर्थेनाहभीमः—‘लाक्षागहानलविषान्नसभाप्रवेशैः’ इत्यादि।
प्रवृत्तकालसमानगुणवर्णनया सूचितपात्रप्रवेशः प्रवृत्तकम्। यथा
आसादितप्रकटनिर्मलचन्द्रहासः
प्राप्तः शरत्समय एष विशुद्धकान्तः।
उत्खाय गाढतमसं घनकालमुग्रं
रामो दशास्यभिव संभृतबन्धुजीवः॥
ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टोरामः।
अथ प्रयोगातिशयः। ‘एषोऽयमित्युपक्षेपात्’ इत्यादि।
यथा ‘पत्र राजेव दुष्यन्त इति।
१२० गूढार्थपदपर्यापमालारूपेण—प्रकृतकार्यसिद्धिश्च—
उद्धात्य or उद्भात्यक is of two kinds. In the first there is a dislogne which contains a series of words of which the sense is concealed and then their synonyms. In the second there is a series of questions and answers. Das’arupa has the same definition:—
गूढार्थपदपर्यायमाला प्रश्नोत्तरस्य वा।
यत्रान्योन्यं समालापो द्वेधोद्वात्यं तदुच्यते॥
Dhanika explains it as under:—
गूढार्थ पदं तत्पर्यायश्चेत्येवं माला प्रन्नोत्तरं चेत्येवं वा माला। द्वयोरुक्तिप्रत्युक्तौतद् द्विविमुद्रात्यकम्। तत्राद्यंविक्रमोर्वश्यां यथा—
**विदूषकः—**भो वअस्स को एसो कामो जेण तुमं पि दूमिज्जसे। सो किं पुरिसो आदु इरिथअत्ति।
**राजा—**मनोजातिरनाधीना सुखेष्वेव प्रवर्तते। स्नेहस्य ललितो मार्गः काम इत्यभिधीयते॥
**विदूषकः—**एवं पि ण जाणे।
**राजा—**वयस्य इच्छाप्रभवः सः।
**विदूषकः—**किं जो जे इच्छदि सो तं कामेदित्ति।
**राजा—**अथ किम्।
**विदूषकः—**ता जाणिदं जह अहं सूअआरसालाए भोअणं इच्छामि।
द्वितीयं यथा पाण्डवानन्दे—
काश्लाच्या गुणिनां क्षमा परिभवः को यः स्वकुल्यैः कृतः
किं दुःखं परसंश्रयो जगति कः श्वाघ्योय आश्रीयते।
को मृत्युर्व्यसनं शुचं जहति के यैर्निर्जिताः शत्रवः
कैर्विज्ञातमिदं विराटनगरे छन्नस्थितैः पाण्डवैः॥
उद्धान्यक is considered as one of the varieties of प्रस्तावना by Vis’vanatha. It is also given as one of the parts of वीथी. His definition, which is the same as Bharata’s, is—
पदानि त्वगतार्थानि तदर्थंगतये नराः।
योजयन्ति पदैरन्यैः स उद्धात्यक उच्यते॥
The instance given there is the following passage from the Mudrarakshasa in which Sutradhara’s speech is construed differently by Chânakya as he shews by the speech with which he enters the stage.
क्रूरग्रहः स केतुश्चन्द्रमसंपूर्णमण्डलमिदानीम्।
अभिभवितुमिच्छति बलात्—
is the Sutradhara’s speech on hearing which Chanakya ntters the following behind the curtain and enters the stage—
अग्रः क एष मयि जीवति चन्द्रगुप्तमभिभवितुमिच्छति।
अवलगित is also of two sorts:— 1. Doing one thing under the pretext of another as in the Uttararamacharita when Sitâ is sent to a forest under the pretext of satisfying her desire in pregnancy, Rama’s real object being to free himself from public slander. II. Accomplishment of the object aimed at while doing another thing. Dhanika gives the following instance for the second sort:—
द्वितीयं यथा छलितरामे—
** रामः—**लक्ष्मण तातवियुक्तामयोध्यां विमानस्थो नाहं प्रवेष्टुं शक्नोमि। तदवतीर्य गच्छामि।
कोऽपि सिंहासनास्याधः स्थितः पादुकयोः पुरः।
जटावानक्षमाली च चामरी च विराजते॥
इति भरतदर्शनकार्यसिद्धिः।
Vis’vanatha considers अवलगितalso as one of the varieties of प्रस्तावना besides considering it as a part of बीथी. His definition which is the same as Bharata’s is:—
यत्रैकत्र समावेशात् कार्यमन्यत् प्रसाध्यते।
प्रयोगे खलुं तज्ज्ञेयं नाम्नावलगितं बुधैः॥
His instance is
यथा शाकुन्तले—सूत्रधारो नटींप्रति ‘तवास्मि गीतरागेण’ इत्यादि। ततो राज्ञः प्रवेशः।
प्रपञ्च—The definition found in Sahityadarpana is ‘मिथोवाक्यमसद्भूतं प्रपञ्चो हास्यकृन्मतः’. The instance given there is the dialogue between विदूषकand चेटीin the Vikramorvas’iya Act. II.
त्रिगतम्—Vis’vanâtha gives the following instance from the Vikramorvas’iya:—
राजाः—
सर्वक्षितिभृतां नाथ दृष्टा सर्वाङ्गसुन्दरी।
रामा रम्ये वनान्तेऽस्मिन् मया विरहिता त्वया॥
(नेपथ्ये तथैव प्रतिशब्दः ) राजा—कथं दृष्टेत्याह.
Here the question is construed as an answer.
छलम्—The following from the Venisamhara is the instance given in the Das’arupa and the Sahityadarpana:—
कर्ता द्यूतच्छलानां जतुमयशरणोद्दीपनः सोऽभिमानी
राजा दुःशासनादेर्गुरुरनुजरातस्याङ्गराजस्य मित्रम्।
कृष्णाकेशोत्तरीयव्यपनयनपटुः पाण्डवा यस्य दासाः
क्वास्ते दुर्योधनोऽसौ कथयत पुरुषा द्रष्टुमभ्यागतौ स्वः॥
वाक्केलिः— Sport in words is of two kinds, when a sentence is left incomplete as in Vasanti’s speech in the Uttararamacharita the sentence त्वं जीवितं त्वमसिमे हृदयं द्वितीयम् &c. इत्यादिभिः प्रियरातेरनुरुप मुग्धां तामेव is left incomplete by the words शान्तमथवा किमिहोत्तरेण and when in a dialogue there are two or three speeches in which there is a pun upon words as in the following dialogue between Vidūshaka and Madanikâ:—
विदूषकः—भोदि मअणिए, एदं चच्चरिअं में पि शिक्खावेध।
मदनिका (विहस्य )—हृदास ण होदि एसा चचरी।
विदूषकः—ता किं क्खु एदं।
मदनिका—हदास दुबदीखंडं क्खु एदं।
विदूषकः ( सहर्षम् )—किं एदिणा खंडेण मोअआ करीअन्ति लहुआ वा।
मदनिका (विहस्य )—हृदास ण हि ण हि पठीअदि क्खु एदं॥
Vis’vanatha explains it somewhat differently. According to him when in a dialogne there are two or three replies such as would canse langhter, it is an instance of वाककेली. The following is the instance given by him:—
भिक्षो मांसनिषेवणं प्रकुरुषे किं तेन मद्यं विना
मद्यं चापि तव प्रियं प्रियमहो वाराङ्गनाभिः सह।
वेश्याप्यर्थरुचिः कुतस्तव धनं द्यूतेन चौर्येण वा
चौर्येद्यूतपरिग्रहोऽपि भवतो नष्टस्य कान्या गतिः॥
He gives other acceptations also of वाक्केलि—केचित् ‘प्रक्रान्तवाक्यस्य साकाङ्क्षस्यैव निवृत्तिवाक्केलिः’ इत्याहुः। अन्ये च ‘अनेकस्य प्रश्नस्यैकमुत्तरम्’।
अधिवलम्—Das’arupa gives the following instance:—
यथा वेणीसंहारे
अर्जुनः—
सकलरिपुजयाशा यत्र वद्धा सुतैस्ते
तृणमिव परिभूतो यस्य गर्वेण लोकः।
रणशिरसि निहन्ता तस्य राधासुतस्य
प्रणमति पितरौ वां मध्यमः पाण्डुपुत्रः॥
इत्युपक्रमे
** राजा—**
अरे नाहं भवानिव विकत्थनाप्रगल्भः। किं तु
द्रक्ष्यन्ति न चिरात् सुप्तं बान्धवास्त्वां रणाङ्गणे।
मद्गदाभिन्नवक्षोऽस्थिवेणिकाभङ्गभीषणम्॥
इत्यन्तेन भीमदुर्योधनयोरनोन्यवाक्यस्याधिक्योक्तिरचिबलम्।
गण्ड—It is an unexpected combination l of words in which the following speech is syntactically connected with the preceding and gives an opposite sense. The following are the instances:—
**रामः—**इयं गेहे लक्ष्मीरियममृतवत्तिर्नयनयोः—
किमस्या न प्रेयो यदि परमसह्यस्तु विरहः॥
प्रतीहारी (प्रविश्य)—देव उअत्थिदो।
**रामः—**अयि कः।
**प्रती०―**देवस्स आसण्णपरिचारओ दुम्मुहो।
or in the Mudrarakshasa:—
**राक्षसः—**तदपि नाम दुरात्मा चाणक्यवटुः।
दौवारिकः—( उपसृत्य ) जेदु।
**राक्षसः—**अतिसंधातुं शक्यः स्यात्।
**दौवा०—**अमच्चो।
or in the Venisaṁhara
** राजा—**
अध्यासितुं तव चिराज्जघनस्थलस्य
पर्याप्तमेव करभोरु ममोरुयुग्मम्॥
** कञ्चुकी** ( प्रविश्य पटाक्षेपेण संभ्रान्तः )–देव भग्नं भग्नम्—
(सर्वे सातङ्कं पश्यन्ति)
**राजा—**केन।
**कञ्चुकी—**भीमेन।
**राजा—**आः किं प्रलपसि।
कञ्चुकी (समयम् )—देव कथयामि सर्व॑म्।
भग्नं भीमेन भवतो मरुता रथकेतनम्।
अवस्यन्दितम्—Explaining in another way what is said under the influence of sentiments. Das’arupa defines it as under:—
रसोक्तस्यान्यथा व्याख्या यत्रावस्पन्दितं हि तत् \। Dhanika’s notes are:—
यथा छलितरामे
**सीता—**जाद कल्लं क्खु तुम्हेहिं अजुज्झाए गन्तव्यं। तहिं सो राआ विणएण णमिदन्वो।
**लवः—**अम्ब किमावाभ्यां राजोपजीविभ्यां भवितव्यम्।
**सीता—**जाद सो क्खु तुम्हाणं पिदा।
**लवः—**किमावयो रघुपतिः पिता।
सीता (साशङ्कम् )—जाद ण क्खु परं तुम्हाणं सअलाए ज्जेव पुहवीए इति।
नालिका—Nalika is Prahelika, in which the sense is concealed with a fun or jocnlar air about it. It is a sort of enigma
or a conundrum. Das’arūpa defines and illnstrates it as under:—
सोपहासा निगूढार्थी नालिकैव प्रहेलिका। यथा मुद्राराक्षसे।
**चरः—**हं हो बह्मण मा कुप्प किं पि तुह उअज्झाओ जाणादि किं पि अम्हारिसा
जणा जाणन्ति।
**शिष्यः—**किमस्मदुपाध्यायस्य सर्वज्ञत्वमपहर्तुमिच्छसि।
**चरः—**यदि दे उवज्झाओ सव्वं जाणादि ता जाणादु दाव कस्स चन्दो अणभिप्पेदोत्ति।
**शिष्यः—**किमनेन ज्ञातेन भवति इत्युपक्रमे
**चाणक्यः—**चन्द्रगुप्तादपरक्तान् पुरुषान् जानामि इत्युक्तं भवति।
Vis’vanâtha defines it in the same way:—
प्रहेलिकैव हांस्यन युक्ता भवति नालिका।
प्रहेलिका is a riddle, an enigmatic answer to a question, संवरकार्युत्तरम् as Visvanatha pnts it. ‘प्रहेलिका तु सा ज्ञेया वचः संवृतिकारि यत्—अभिप्रेतार्थसंवरणकारिवचनविन्यासः प्रहेलिकेति सामान्यलक्षणम्।Prahelikâ is thus enigma used with the object of exciting pleasure and laughter or that which conceals what the speaker wishes to conceal. The following is the instance given in the SahityaDarpara:—
यथा रत्नावल्याम्—
**सुसंगता—**सहि जस्स किदे तुमं आअदा सो इघ ज्जेवचिट्ठदि।
**सागरिका—**कस्स किदे अहं आअदा।
सुसंगता— णं क्खु चित्तफलअस्स।
अत्र त्वं राज्ञः कृते आगतेत्यर्थः संवृतः
Vidagdhamukhamandana of Dharmadása mentions two kinds of Prahelika—Arthi and S’abdi. The former, also called Bahirlāpika, is illustrated as under:—
तरुण्यालिङ्गितः कण्ठे नितम्बस्थलमाश्रितः।
गुरुणा संनिधानेऽपि कः कूजति मुहुर्मुहुः॥
The answer is ईषदूनजलपूर्णकुम्भः
S’abdi Prahelikâ or Antarlâpika is thus illustrated:—
सदारिमध्यापि न वैरियुक्ता
नितान्तरक्ताप्यसितैव नित्यम्।
यथोक्तवादिन्यपि नैव दूती
का नाम कान्तेति निवेदयाशु॥
The answer is सारिका.
Dandin mentions sixteen kinds of corrrect Prahelika and states that as the Doshâs are innumerable he has not thought it proper to give fourteen kinds of दुष्ट प्रहेलिका. The Prahelikâs are used in assemblies of learned men with the object of sport or creating pleasure or showing cleverness, or with the object of concealing what is intended to be concealed:—
क्रीडागोष्टीविनोदेषु तज्ज्ञैराकीर्णमन्त्रणे।
परव्यामोहने चापि सोपयोगाः प्रहेलिकाः॥
Mandaramaranda explains नालिका as ander:—
सोपहासनिगूढार्थमालिका नालिका मता।
अन्तर्लापा बहिर्लापा चेतीयं द्विविधा मता॥
प्रवह्निां च तां केचित् केचिदूचुः प्रहेलिकाम्॥
Bhoja divides प्रहेलिका into six kinds such as च्युताक्षरा, दत्ताक्षरा, च्युतदत्ताक्षरा and so on. Vide Sarasvatikanthâbharaṇa, 2nd Parichchheda.
The wordप्रहेलिकाis derived from हिल्to suggest some thing. प्राहिलतिअभिप्रायं सूचयतीति प्रहेलिका.
असत्प्रलाप—It consists mostly of irrelevant or incoherent speech caused by childhood, dream, madness and sentimentalism. Das’arupa defines it as under:—
असंबद्धकथाप्रायोऽसत्प्रलापो यथोत्तरः।
Dhanika comments upon it as under:—
ननु चासंवद्धार्थत्वेऽसंगतिर्नाम वाक्यदोष उक्तः। तत्र। उत्स्वमायितमदोन्मादरौश-वादीनामसंबद्धप्रलापितैव विभावः। यथा
अर्चिष्मन्ति विदार्य वक्रकुहराण्यासृक्कतो वासुके-
रङ्गुल्या विषकर्बुरान् गणयतः संस्पृश्य दन्ताङ्कुरान्।
एकं त्रीणि नवाष्ट सप्त षडिति प्रध्वस्तसंख्याक्रमा
वाचः क्रौञ्चरिपोः शिशुत्वविकलाः श्रेयांसि पुष्णन्तु वः॥
यथा च
हंस प्रयच्छ मे कान्तां…………………………..इत्यादि।
यथा वा
भुक्ता हि मया गिरवः स्नातोऽहं वह्निनापिवामि क्यित्।
हरिहरहिरण्यगर्भा मत्पुत्रास्तेन नृत्यामि॥
Beneficial speech nttered before a thoughtless person who does not accept it is also असत्प्रलाभaccording to Vis’vanatha—
अगृह्णतोऽपि मूर्खस्य पुरो यच्च हितं वचः।
यथा वेण्यां दुर्योधनं प्रति गान्धारीवाक्यम्।
व्याहार—It is hamorons and enticing speech for the sake of another. Dhananjaya thns defines it—**अन्यार्थमेव व्याहारो द्वास्यलोभकरं वचः।**Dhanika’s comment on it is as under:—
यथा मालविकाग्रिमित्रे (लास्यप्रयोगावसाने मालविका निर्गन्तुमिच्छति ) विदूषकः—मा दाव उपसमुदा गमिस्ससि (इत्युपक्रमे ) गणदासः—(विदूषकं प्रति) आर्य उच्यता यस्त्वया क्रममेदो लक्षितः। विदूषकः—पढमं पच्चुसे वम्हणस्स पूआ मोदि सा तएलड़िदा। (मालविका स्पर्यते ) इत्यादिना नायकस्य विश्रब्धनायिकादर्शनप्रयुक्तेन हास्यलोमकारिणा वचनेन व्याहारः।
** मृदव—**Representing merits as demerits and demerits as merits.
Dhananjaya’s definition of it is as under:—
दोषा गुणा गुणा दोषा यत्र स्युर्मृदवं हि तत्।
The following are the instances given by Dhanika:—
मेदश्छेदकृशोदरं लघु भवत्युत्थानयोग्यं वपुः–इत्यादौमृगयादोषस्य गुणीकारः।
यथा च।
सततमनिर्वृतमानसमायाससहस्रसंकुलक्लिष्टम्।
गतनिद्रमविश्वासं जीवति राजा जिगीषुरयम्॥
इति राज्यगुणस्य दोषीभावः।
उभयं वा
सन्तः सच्चरितोदयव्यसनिनः प्रादुर्भावद्यन्त्रणाः
सर्वत्रैव जनापवादचकिता जीवन्ति दुःखं सदा।
अव्युत्पन्नमतिः कृतेन न सता नैवासता व्याकुलो
युक्तायुक्तविवेकशून्यहृदयो धन्यो जनः प्राकृतः॥
१२२. आधिकारिकवृत्तवत्—वृत्त means the plot. It is also called इतिवृत्त or कथा. It is divided into आधिकारिक or principal and प्रासङ्गिक or subordinate, occasional. प्रासङ्गिक plot is either पताका or प्रकरी according as it is a long and continuons episode or a small one. Each of these kinds of plots, viz. आधिकारिक, पताका and प्रकरी, is snbdivided into three kinds, ख्यात or historical, कल्प्य or created by the poet and संकीर्ण or mixed, वस्तु is otherwise divided into सूच्य or suggestible, and असूच्य or not suggestible. सूच्य is further divided into श्राव्यand अश्राव्य and असूच्यinto अश्राव्य, दृश्य aud श्राव्य Of the there sub-varieties, अश्राव्य is a speech to one’s self. It is generally introduced in dramatic works by words like स्वगतम् or आत्मगतम् दृश्य is full of रस and भावpnt forth in a charming manner and श्राव्यis either सर्वश्राव्य, ( fit to be heard by all ), introduced by प्रकाशम् or नियतश्राव्य ( fit to be heard by restricted persons ), or आकाशभाषितम्. नियतश्राव्यis introdaced by जनान्तिकम् or अपवारितम् according as the communication is warded off from others by placing the hand with the अनामिकाfinger bent on the cheek or in a simple way without such a preparation. आकाशभाषित is a speech in the air as it were. It is a question addressed by a character on the stage to a character not on the stage and the reply to it is supposed to be given by the character which is not on the stage and is introduced by words like किं कथयसि or किं ब्रवीषि It is a device to prevent the introduction of a fresh character on the stage and is very largely used in Bhâna.
१२५ **भाणः—**Dhanika’s note on it is as under:—
धूर्त्ताश्चौरद्यूतकारादयस्तेषां चरितं यत्रैक एवं विटः स्वकृतं परकृतं वोपवर्णयति स भारतीवृत्तिप्रधानत्वाद्वाणः। एकस्य चोक्तिप्रत्युक्तयः आकाशभाषितैराशङ्कितोत्तरत्वेन भवन्ति। अस्पष्टत्वाञ्च वीरशृङ्गारौसौभाग्यशौर्योपवर्णनया सूचनीयौ।
विट is a companion of a prince in assisting him to secure his beloved. He is skilled in singing, music and poetry and is on nearly as familiar terms with his associate as विदूषक.
१२६ प्रहसनम्—A kind of low comedy. Visvanatha’s definition is as under:—
भाणवत् संधिसंध्यङ्गलास्याङ्गाङ्कौर्विनीर्मितम्।
भवेत् प्रहसनं वृत्तं निन्द्यानां कविकल्पितम्॥
वृत्यङ्ग—Another reading is लास्याङ्ग. The Vritti in भाण and प्रहसन is भारती and its parts are the following:—
भारती संस्कृतप्रायो वाग्व्यापारो नराश्रयः॥
तस्याः प्ररोचना वीथी तथा प्रहसनामुखे।
अङ्गान्यत्रोन्मुखीकारः प्रशंसातः प्ररोचना॥साहि० द० ६।२९-३०.
गेयपदं स्थितपाठ्यमासीनं पुष्पगण्डिका।
प्रच्छेदकस्त्रिगूढं च सैन्धवाख्यं द्विगूढकम्॥
उत्तमोत्तमकं चान्यदुक्तप्रत्युक्तमेव च।
लास्ये दशविधं ह्येतदङ्गमुक्तं मनीषिभिः॥ साहि० द० ६-२१२-१४
For their explanation see the same work.
१२७ डिमः—Hemachandra’s note on the word is:—‘डिमो डिम्बो विद्रव इति पर्यायास्तद्योगादयं डिमः’ काव्यानुशासन p. ३२२.
१२८-९ समवकार—The time for dramatic action in the three acts of this kind of composition is in other works measured by ‘Nâliká’ which is equivalent to two ‘Ghatis’ or 48 minutes.
द्विसन्धिरङ्कःप्रथमः कार्योद्वादशनालिकः।
चतुर्द्विनालिकावन्त्यौ नालिका घटिकाद्वयम्॥ दश० ३-५९.
वस्तु द्वादशनालीभिर्निष्पाद्यं प्रथमाङ्कगम्।
द्वितीयेऽङ्के चतसृभिर्द्वाभ्यामङ्के तृतीयके॥साहि० द० ६-२३८-९.
१३० अङ्क—It is called उत्सृष्टिकाङ्क by some. Visvanitha’s note on it is as under:—
इमं च केचित् ‘नाटकाद्यन्तः पात्यङ्कपरिच्छेदार्थमुत्सृष्टिकाङ्कनामानम्’ आहुः। अन्ये तु ‘उत्क्रान्ता विलोमरूपा सृष्टियत्रेत्युत्सृष्टिकाङ्कः’ यथा—शर्मिष्ठाययातिः।
**१३१ ईहामृगः—According to the definition in the text the hero and his antagonist should be invariably mortal and celestial. मर्त्य and दिव्य are not to be taken respectively with नायक and प्रतिनायक. The line is to be understood to mean that both the hero and his antagonist might be mortal or both might be divine or one of them a mortal and the other divine. But they should not be other than mortals and divines. The reading in the Das’arūpa is नरदिव्यावनियम नायकप्रतिनायकौ.’ Vis’vanatha’s reading is also the same:—‘नरदिव्यावनियतौ(v. ।. ºवनियमो) नायकप्रतिनायकौ.**Mandaramaranda has the same reading as in the text.
१४१ एष मिथः स्तोत्ररूपः प्रपञ्चः—प्रपञ्च as generally nnderstood and as defined by the anthor himself on p. 120 असद्भूतं मिथः स्तोत्रं प्रपञ्चः is matual praise which is objectionable, it being the praise of another’s wife. Here it is the praise of the husband by his wife and of the wife by her husband. So this sort of praise is not दुष्टor vicious. The author thus gives an instance of पप्रञ्चwhich does not conform to its definition given by him.
१४२. नटीकर्तृकध्रुवाज्ञानप्रतिज्ञावचनं—
Sūtradhara’s whole speech is नन्वियमुपक्रम्यते ध्रुवा नाट्यविद्या, Nati, however, does not stop to listen to the end; but having heard the speech up to भ्रुवा, she says कहंअज्जो घुअंगाअइ. This is an instance of गण्डin which the following word ध्रुवाwhich is syntactically intended to be connected with नाट्यविद्याis connected with the preceding उपक्रम्पतेand gives an opposite meaning. In verse 9 Sutradhara has mentioned the promise given by Nati to sing Dhruvâ (यद्गेहेकलकण्ठनादमधुरं गास्यामि गीतिं ध्रुवाम् ). ध्रुवा was thus to be sung by the Nati while Sutradhara is understood by her to mean नन्वियमुपक्रम्यते ध्रुवा मया. This is thus a sudden statement opposed to what is mentioned and thus satisfies the definition of गण्ड (सहसोदितं प्रस्तुतविरोधि गण्डम् ) given by Vidyänstha.
Dhruvâ is fully treated in the Natyas’âstra of Bharata in the 32nd chapter.
ध्रुवासंज्ञानि तानि स्युर्नारदप्रमुखैर्द्विजैः।
गीताङ्गानीह सर्वाणि विनियुक्तान्यनेकशः॥
या ऋचः पाणिका गाथा सप्तरूपाङ्गमेव च।
सप्तरूपप्रमाणं च तद्ध्रुवेत्यभिसंज्ञितम्॥
वाक्यवर्णा ह्यलंकारा यतयः पाणयो लयाः।
ध्रुवमन्योन्यसंबद्धा यस्मात् तस्माद्ध्रुवाः स्मृताः॥
** १४५ इदमेव गुणवर्णनात् प्रवर्तकम्**—The anthor departs a little from his own definition of प्रवर्तकम् Vide p. 119 and the notes there-on. Here we have a description of the merits not of the season of the year then prevalent, but of the Nayaka himself.
एतत् प्रस्तुतोपयोगिप्रतिराजच्छद्माचरणादभूताहरणम्—अमूताहरण is a subdivision of गर्भसंधि. It is utterance of nnreality, an utterance based on frand, अभूताहरणं छद्मas Dhananjaya defines it. Kings who retreat from the battlefield, vanquished by Pratāparadra, propitiate him to save their lives, by making marks of boars on their chests as a sign of subjugation. The marks of boars made on their breasts are not really speaking such marks, but they are marks of subjugation in disguise. Kings thus practise frand which is however useful to the action of the play which is meant to raise Prataparndra to ascendancy. The instance of अमूताहरण given by Dhanika is the fraud practised in the Ratnavali by Sagarika who goes to meet her lover Vatsaraja in the disguise of his queen Vasavadatta. Dhanika’s note on the word is as under:—
यथा रत्नावल्याम्।
साधु रे अमञ्चवसन्तअ साधु। अदिसइदो तपअमत्रो जोगन्धराअणो हमाएसन्धिविग्गह-चिन्ताएइत्यादिना प्रवेशकेन गृहीतवासवदत्तावेषायाः सागरिकाया वत्सराजाभिसरणं छद्म विदूषकसुसंगताकुप्तकाञ्चनमालानुवादद्वारेण द्वशिंतमित्यभूताहरणम्।
Vis’vanatha illustrates it by the frand practised by Yudhishthira in the Venisaṁhara:—
‘अश्वत्थामा हत इति पृथासूनुना स्पष्टमुक्त्वा
स्वैरं शेषे गज इति पुनर्व्याहतं सत्यवाचा॥
१८० एष संचिन्त्यमानार्थप्राप्तिरूपः क्रमः—क्रम is a division of गर्भसन्धि consisting in the acquisition of an object when it is being thought of. The king was thinking of the victory of Prataparudra when news actually came to him, declaring his complete victory.
Das’arúpa mentions another kind of क्रम as under:—
भावज्ञानमथापरे।
Dhaniku’s note on this is as follows:—
यथा रत्नावल्याम्।
राजा ( उपसृत्य ) प्रिये सागरिके
शीतांशुर्मुखमुत्पले तव दृशौ पद्मानुकारौकरौ
रम्भागर्भनिभं तवोरुयुगलं बाहू मृणालोपमौ।
इत्याह्लादकराखिलाङ्गि रभसान् निःशङ्कमालिङ्ग्य मा–
मङ्गानि त्वमनङ्गतापविधुराण्येह्येहि निर्वापय॥
इत्यादिना ‘इहतदप्यस्त्येव बिम्बाधरे’ इत्यन्तेन वासवदत्तया वत्सराजमावस्य ज्ञातत्वात्क्रमान्तरमिति।
Thus क्रम here consists in Vatsaraja’s love for Sagarikâ having been known to Vasavadattâ.
Visvanatha has a similar definition of क्रम—भावतत्त्वोपलब्धिस्तु क्रमः स्यात्। The instance given by him is from S’akuntala where Dushyanta comes to know the reality of S’akuntala’s love to him while she is composing a love-song—
यथा शाकुन्तले—
**राजा—**स्थाने खलु विस्मृतनिमेषेण चक्षुषा प्रियामवलोकयामि। तथा हि
उन्नमितैकभ्रूलतमाननमस्याः पदानि रचयन्त्याः।
पुलकाञ्चितेन कथयति मय्यनुरागं कपोलेन॥
सामदानाचरणः संग्रहः—साम= sweet words, प्रियवचनं सामसंग्रह is taking some person on one’s side, winning him overby the use of sweet words and gifts. The two messengers who brought news of Pratáparadra’s victory are won over, induced to describe the victory in detail by the use of sweet words and gifts.
Dhanika gives the following instance of it:—
यथा रत्नावल्याम्—
साधु वयस्य साधु इदं ते पारितोषिकं कटकं ददामीत्याभ्यां सामदानाभ्यां विदूषकस्य सागरिका समागमकारिणः संग्रहात् संग्रह इति।
** १८१ वीतिहोत्र**—Fire. वीति भक्ष्यंपुरोडाशादि हूयतेऽस्मिन्निति वीतिहोत्रः।
१८५ तवाङ्गवङ्गकलिङ्गमालवमूपतयः—Most of the Mss. have this reading, but कलिङ्कseems wrongly inserted. It is not found in
P. and T”. कलिङ्ग has already been conquered. Vide युद्धाय समनह्यन्त कलिङ्गाः स्फुटपौरुषाः p. 182.
१८६ एतद्रोपसंरव्यवचनरूपं तोटकम्—तोटक or त्रोटक as some put it is an angry and violent speech. Bharata defines it as संरम्भवचनप्रायं तोटकं त्विति संज्ञितम्. The instance given by Dhanika is a scene from the Ratuâvali where Vâsavadattâ having clearly perceived the king’s attachment to Sâgarikâ orders her maid-servant Kanchanamalika to bind Vidushaka and Sâgarikâin fetters and to take them away.
यथा रत्नावल्याम्—
वासवदत्ता (उपसृत्य )—अज्जउत्त वृत्तमिणं सरितमिणं। ( पुनः सरोषम् )–अज्जठत्त ठटठेहि। कञ्चणमाले एदेण ज्जेव पासेण बन्धिअ आणेहिएणं दुद्ठब्रह्मणं। एदं पि दुट्ठकण्णअं अग्गदो करेहि—
इत्यनेन वासवदत्तासंरब्धवचसा सागरिकासमागमान्तरायमतेनानियतप्रा-प्तिकारणं तोट. कमुक्तम्।
Another instance is given from the Venisaṁhara, viz. the angry speech between As’vatthâman and Karṅa, shewing hope of conquering the Pândavas.
यथा च वेणीसंहारे—
प्रयत्नपरिबोधितः स्तुतिभिरद्य शेषे निशाम्
इत्यादिना
धृतायुधो यावदहं तावदन्यैः किमायुधैः
इत्यन्तेन अन्योन्यं कर्णाश्वत्थाम्रोः संरब्धवचसा सेनामेदकारिणा पाण्डवविजयप्रा-त्पाचान्वितं तोटकमिति।
१८० एतत् प्रकृतोपयोगित्वेन वचनादधिवलम्—अधिवल is a part of गर्भसंधि, It is a deception practised on others with the purpose of accomplishing the object in hand. Kings who had concealed themselves through the fear of Prataparudra are found out by his men who assume the dress and speak the language of those kings with the object of inspiring them with confidence and thus detecting them.
अधिवल is defined by Bharata as ‘कपटेनाभिसंधानं ब्रुवतेऽधिवलं बुधाः’.
Dhanika gives the following instance from the Ratnavali:—
यथा रत्नावल्याम्—
काञ्चनमाला—भट्टिणि इअंसा चित्तसालिया ता वसन्तअस्स सण्णं करेमि (छोटिकांद-दाति)–
वासवदत्ताकाञ्चनमालाभ्यां सागरिकासुसंगतविषाभ्यांराजविदूषकयोरभिसन्धीयमानत्वाद-धिवलमिति।
** १९१ एष गर्भबीजोद्भेदनादाक्षेपः—आक्षेप**, otherwise known as क्षिप्ति, is defined by Bharata as गर्भस्योद्भेदनं यत् स्यात् क्षिप्तिरित्यभिधीयते. It is as Vidyânatha has defined it, the adoption of means for the accomplishment of the desired end. The object aimed at in this case is the coronation of Prataparadra and the means to attain it without any obstacles is the propitiation of God Ganapati. It lays open the germ of the plot lying concealed in the गर्भ Sandhi.
Dhanika gives the following instances:—
यथा रत्नावल्याम्—
राजा—
वयस्य देवीप्रसादनं मुक्त्वा नान्यमत्रोपायं पश्यामि।
पुनः क्रमान्तरे—सर्वथा देवीप्रसादनं प्रति निष्प्रत्याशीभूताः स्मः। पुनः—तत् किमिह स्थितेन। देवीमेव गत्वा प्रसादयामि—
इत्यनेन देवीप्रसादायत्ता सागरिकासमागमसिद्धिरिति गर्भबीजोद्भेदादाक्षेपः।
यथा च वेणीसंहारे—
सुन्दरकः—
अहवा किमेत्थदेव्वं उआलहामि तस्स क्खु पदं णिमच्छिदविदु-रवअणवीअस्स परिभूदपिदामहद्दिदोषदेसंकुरस्स सउणिप्पोच्छाहणारूढमूलस्स कूडवि-ससाहिणो पंचालीकेसरग्गहणकुसुमस्त फल परिणेमदि।
इत्यनेन वीजमेव फलोन्मुखतयाक्षिप्यते इत्यप्याक्षेपः।
१९४ एष गुरुतिरस्काररूपोद्रवः—Bharata calls it अभिद्रव also—गुरुव्यतिक्रमो यस्तु विज्ञेयोऽभिद्रवस्तु सः (V. 1. हि द्रवस्तु सः) Dhanika illnstrates it by a speech of Lava shewing contempt for Ramna from the Uttararamacharita—वृद्धास्ते न विचारणीयचरितास्तिष्ठन्तु हुं वर्तते &c.
१९५ एषा विरोधप्रशमनरूपा शक्तिः—शक्ति is a division of विमर्श Sandhi in which opposition to the accomplishment of the desired end which forms the action of the drama is allayed. Dhanika illustrates it by two instances, one from the Ratnâvali in which the king’s speech shews that the opposition made by Vâsavadattâ so long to his fulfilment of Sâgarikâ’s love is removed—
सव्याजैः शपथैः प्रियेण वचसा चित्तानुवृत्त्याधिकं
वैलक्ष्येण परेण पादपतनैर्वाक्यैः सखीनां मुहुः।
प्रत्यासत्तिमुपागता न हि तथा देवी रुदन्त्या यथा
प्रक्षाल्यैव तथैव बाष्पसलिलैः कोपोऽपनीतः स्वयम्।
and the other from the Uttararamacharita where Lava’s opposition to the army of Chandraketa is removed at the sight of Rama—
विरोधो विश्रान्तः प्रसरति रसो निर्वृतिधनः &c.
१९९ एतत् कार्यसंग्रहरूपमादानम्—
आदान consists in the collection of preparations for the accomplishment of the desired object. Dhanika gives the following illustrations from the Venisaṁhâra and the Ratnavali:—
यथा वेणीसंहारे—
भीमः—
ननु भोः समन्तपञ्चकसंचारिणः
रक्षो नाहं न भूतं रिपुरुधिरजलालाविताङ्गः प्रकामं
निस्तीर्णोरुप्रतिज्ञाजलनिधिगहनः क्रोधनः क्षत्रियोऽस्मि।
भो भो राजन्यवीराः समरशिखिशिखादग्धशेषाः कृतं व
स्नासेनानेन लीनैर्हृतकरितुरगान्तर्हितैरास्यते यत्॥
इत्यनेन समस्तरिपुवधकार्यस्य संगृहीतत्वादादानम्।
यथा च रत्नावल्याम्
सागरिका (दिशोऽवलोक्य ) - दिट्ठिआ समन्तादो पञ्चलिदा भअवं हुअवहो अज करिस्सदि दुक्खावसाणं—
इत्यनेनान्यपरेणापि दुःखावसानकार्यस्य संग्रहादादानम्।
२०२ एष प्रकृतकार्यमार्गणाद्विरोषः—This division of निर्वहण Sandhi is called निरोधor विशेष by Bharata and विबोध by Dhanaūjaya and Visvanatha.
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For the full and clear explanation of रस, भाव, रसाभास, भावाभास, विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी or संचारीभाव &e, the reasons why they are so called and the different theories of te the reader is referred to my notes on the Ekâvali on the third Unmesha in which the subject is dealt with by Vidyadhara.
२२०-१ भावस्य स्थायित्वं नाम—स्थायीभाव उदाहतः—
The following quotation from Bharata shews the mutual relation of रस and भावin dramatic representation:—
अत्राह— किं रसेम्पो भावानां निर्वृत्तिस्ताथ परस्परसंबन्धादेषाममिनिवृत्तिरिति। दृश्यते हि भावेभ्यो रसानामभिनिर्वृत्तिनंरसेभ्यो भावानाम्।
नानाभिनयसंबद्धान् भावयन्ति रसानिमान्।
यस्मात् तस्मादमी भावा विज्ञेया नाव्ययोक्तृभिः॥
न भावहीनोऽस्ति रसो न भावो रसवर्जितः।
परस्परकृता सिद्धिस्तयोरभिनये भवेत्॥
व्यञ्जनौषधिसंयोगो यथान्नं स्वादुतां नयेत्।
एवं भावा रसाश्चैव भावयन्ति परस्परम्॥
यथा बीजाद्भवेद्वृक्षो वृक्षात् पुष्पं फलं यथा।
तथा मूलं रसाः सर्वे ततो भावा व्यवस्थिताः॥
स्थायीभाव—The following is another verse which explains the nature of permanent feelings:—
विरुद्धा अविरुद्धा वा यं तिरोधातुमक्षमाः।
आनन्दाङ्कुरकन्दोऽसौ भावः स्थायीति संज्ञितः॥
The love of Naravâhanadatta for Madanamanjusha, which remains as strong as ever, with its vigour undiminished by his love for other heroines, as described in the Brihatkathâ and the love of Madhava for Malati described in the Mâlatimâdhava to have been as strong as ever, undiminished in the least by opposite feelings even in the cemetery are given by Dhanika as instances of स्थायी भाव.
यथा बृहत्कथायां नरवाहनदत्तस्य मदनमञ्जूषायामनुरागस्तत्तदवान्तराने कनायिकानुरा-गैरतिरस्कृतः स्थायी। यथा च मालतीमाधवे श्मशानाङ्के बीभत्सेन मालत्यनुरागस्याति-रस्कारो ‘मम हि प्राक्तनोपलम्भसंभावितात्मजन्मनः संस्कारस्थानवरतप्रयोगात् प्रताय-मानस्तद्विसदृशेः
प्रत्ययान्तरैरतिरस्कृतप्रवाहः प्रियतमास्मृतिप्रत्ययोत्यत्तिसन्तानस्तन्मयमिव करोत्यन्तर्वृत्ति-सारूप्यतश्चैततन्यम्’ इत्यादिनोपनिबद्धः।
२२१ अथ रसविशेषाः—
शृङ्गार, रौद्र, वीर and बीभत्स are the poetic sentiments which lead to the remaining sentiments as Bharata describes in his Natyaśastra:—
शृङ्गाराद्धि भवेद्धास्यो रौद्राच्च करुणो रसः।
वीराच्चैवाद्भुतोत्पत्तिर्बीभत्साच्च भयानकः॥
शृङ्गारानुकृतिर्यातु स हास्यस्तु प्रकीर्तितः।
रौद्रस्यैव च यत् कर्म स ज्ञेयः करुणो रसः॥
वीरस्यापि च यत् कर्म सोऽद्भुतः परिकीर्त्तितः।
बीभत्सदर्शनं यच्च ज्ञेयः स तु भयानकः॥
** २२८ एकत्रैवानुरागश्चेत्—**According to Vidyanatha, Visvanatha and other writers on poetics, feelings in animals do not constitute poetic sentiments, Vidyadhara in his Ekávali criticizes this view as ander:—
अपरे तु रसाभासंतिर्यक्षु प्रचक्षते तत्र परीक्षाक्षमम्। तेष्वपि विभावादिसंभवात्। विभावादिज्ञानशून्यास्तिर्यञ्चो न भाजनं भवितुमर्हन्ति रसस्येति चेन्न। मनुष्येष्वपि केषुचित्तधामतेषु रसविषयभावाभावप्रसङ्गात्। विभावादिसमवो हि रसं प्रति प्रयोजको न विभावादिज्ञानम्। ततश्च तिरश्चामन्यस्त्येव रसः॥
Mammata’s view appears to be the same as that of Vidyadhara. His definition of रसाभास and भावामास is तदाभासा अनौचित्यपवर्तिताः। ग्रीवाभङ्गाभिरामं मुहुरनुपतति स्पन्दने दत्तदृष्टिः &e. is given by him as an instance of भयानकरस.
**२४२ अथ व्यभिचारिणां निर्वेदादीनां स्वरूपमुदाहरणं च—**Feelings ( भाव ) are divided into permanent (स्थायी) and evanescent (संचारी or व्यभिचारी ). Those which leave a permanent impression in the mind even when they disappear are permanent. While those which are temporary and which disappear without having a permanent impression as soon as their causes disappear, are evanescent.
The following quotation from Hemachandra’s Kavyânus’asana well illustrates the nature of these feelings:—
भावयन्ति चित्तवृत्तय एवालौकिका वाचिकाद्यभिनयप्रक्रियारूढतया स्वात्मानं लौकिकदशायामनास्वाद्यमप्पास्वाद्यं कुर्वन्ति। यद्वाभावयन्ति व्याप्नुवन्ति सामाजिकानांमन इति भावाः स्थायिनो व्यभिचारिणश्च। तत्र स्थायित्वमेतावतामेव ( रत्यादीनामेव )।जात एव हि जन्तुरियतीभिःसंविद्भिः परीतो भवति। तथा हि दुःखद्वेषी मुखास्वादनलालसः सर्वोरिंरसया व्याप्तः स्वात्मन्युत्कर्षमानितया परमुपहसति। उत्कर्षापायशङ्कया शोचति। अपायं प्रति क्रुध्यति। अपायहेतुपरिहारे समुत्सहते विनिपाताद्विमेति किंचिदयुक्तत-याभिमन्यमानो जुगुप्सते। ततश्च परकर्तव्यवैचित्र्यदर्शनाद्विस्मयते। किंचिज्जिहासुस्तत्र वैराग्यात् प्रशमं भजते। न ह्येतञ्चितवृत्तिवासनाशून्यः प्राणी भवति ( Dharmadâsa well says—निर्वासनास्तु रङ्गान्तर्वेश्म कुड्याश्मसंनिभाः)। केवलं कस्यचित् काचिदधिका भवति चित्तवृत्तिः काचिदूना। कस्यचिदुचितविषयनियन्त्रिता कस्यचिदन्यथा। तत् काचिदेव पुरुषार्थोपयोगिनीत्युपदेश्या। तद्विभागकृतश्रोत्तमप्रत्यादिव्यवहारः।
ये पुनरमी नृत्यादयश्चित्तवृत्तिविशेषास्ते समुचितविभावामावाज्जन्ममध्ये न भवन्त्येवेति व्यभिचारिणः। तथा हि रसायनमुपयुक्तचेतोग्लान्यासस्यश्रमप्रभृतयो न भवन्त्येव। यस्यापि वाभवन्ति विभावबलात तस्थापि हेतुप्रक्षये क्षीयमाणाः संस्कारशेषतां नावश्यमुपवध्नन्ति। रत्यादयस्तु संपादितस्वकर्तव्यतया प्रलीनकल्पा अपि संस्कारशेषतां नातिवर्तन्ते। वस्त्वन्तरविषयस्य रत्यादेरखण्डनात्। यदाह पतञ्जलिः—‘न हि चैत्र एकस्यां स्त्रियां विरक्त इत्यन्यासु विरक्तः’ इत्यादि। तस्मात् स्थाविरूपचित्तवृत्तिसूत्रस्ता एवामी स्वात्मानमुदयास्तमयवैचित्र्पशतसहस्रचर्माणं प्रतिलभमानाः स्थायिनं विचित्रयन्तः प्रतिमासन्त इति व्यभिचारिण उच्यन्ते। तथा हि ग्लानोऽयमित्युक्ते कुत इति हेतुप्रश्रेनास्थापितास्य सूच्यते। न तु राम उत्साहशक्तिमानित्यत्र हेतुप्रनमाहुः। अत एव विमावास्तत्रोद्वाचकाः सन्तः स्वरूपोपरञ्जकत्वं विदधाना रत्युत्साहादेरुचितानुचित-त्वमात्रमवदन्ति न तु तदभावे ते सर्वथैव निरुपाख्याः। वासनात्मना सर्वजन्तूनां तन्मयत्वेनोक्तत्वात्। व्यभिचारिणां तु वविमावाभावे नामापि नास्ति।
In fact, व्यभिचारिभाव’s are like the waves in the ocean of स्थायिभाव’s—‘स्थायिन्युन्मग्ननिर्मग्राः कल्लोला इव वारिधौ’ while the स्थायिभाव’s are feelings not ent off by other feelings, consistent or inconsistent, but standing predominent and reducing other feelings to their own nature:—
‘विरुद्धैरविरुद्वैर्वा भावैर्विच्छिद्यते न यः।
आत्मभावं नयत्यन्यान् स स्थायी लवणाकरः॥’
Jagannâtha distinguishes between the two Bhâvas as under:—
तत्र आप्रबन्धं स्थिरत्वादमीषा भावानां स्थायित्वम्। न च चित्तवृत्तिरूपा-णामेरामाशुविनाशित्वेन स्थिरत्वं दुर्लभं वासनारूपतया स्थिरत्वं तु व्यभिचारिष्वतिप्र-सक्तमिति वाच्यम्। वासनारूपाणाममीषां मुहुर्मुहूरभिव्यत्तेरेव स्थिरपदार्थत्वात्। व्यभिचारिणां तु नैव तदव्यभिव्यक्तेर्विद्युदुद्योतप्रायत्वात्।
Bharata’s note on this is also worth reading:—
यदान्योन्यार्थसंभूतैर्विभावानुभावव्यञ्जितैरेकोनपञ्चाशता (८ स्थायिभाव+८ सात्विकभाव+३३ व्यभिचारिभाव ) भावैःसामान्यगुणयोगेनाभिनिष्पद्यन्ते रमास्तत्कथं स्थायिन एवं मात्रा रसत्वप्राप्नुवन्ति। उच्यते—यथ्म हि समानलक्षणास्तुल्यपाणिपादोद-रशरीराः समानाङ्गप्रत्यङ्गाः कुलविद्याकर्मशिल्पविचक्षणत्वाद्राजत्वमामुवन्ति तत्रैव चान्येत्य-बुदयस्तषोमेवानुचरा भवन्ति तथा विभावानुभावव्यभिचारिणः स्थायिभावानुपाश्रिता भवन्ति। बह्वाश्रयत्वात् स्वामिभूताः स्थायिनो भावाः। तत्स्थानीयपुरुषगुणमूता अन्ये भावास्तान् गुणतयाश्रयन्ते परिजनभूता व्यभिचारिणो भावाः। यथा नरेन्द्रो बहुजनपरिवारोऽपि स एव नाम लभते नान्यः सुमहानपि पुरुषस्तथा विभावानुभावव्यभिचारिपरिष्कृतः स्थायिभावो रसता लमते।
यथा नराणां नृपतिः शिष्याणां च यथा गुरुः।
एवं हि सर्वभावानां भावः स्थायी महानिह॥
Sach are the स्थायिभाव’s while the व्यभिचारिभाव’s disappear as soon as their function of nourishing the स्थायिभाव’s is discharged—
ये तूपकर्त्तुमायान्ति स्थायिनं रसमुत्तमम्।
उपकृत्य च गच्छन्ति ते मता व्यभिचारिणः॥
Vide note on स्थायीभाव p. 50
निर्वेद—निष्फलत्वचीः = Conscionsness of one’s being useless. It is equal to स्वावमाननम् (contempt of one’s self). Dhanañjaya’s definition of निर्वेद is
तत्त्वज्ञानापदीर्ष्यादेर्निर्वेदः स्वावमाननम्।
तत्र चिन्ताश्रुनिःश्वासवैवर्ण्योच्छ्वासदीनताः॥
Dhanika gives the following instances:—
तत्त्वज्ञानान्निर्वेदो यथा—
प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुघास्ततः किम् &e.
आपदो यथा
राज्ञो विपद् बन्धुवियोगदुःखं
देशच्युतिर्दुर्गममार्गखेदः
आस्वाद्यतेऽस्याः कटुनिष्फलायाः
फलं मयैतत् चिरजीवितायाः॥
ईर्ष्यातो यथा—
न्यक्कारो ह्ययमेव मे यदरयस्तत्राप्यसौ तापसः।
सोऽप्यत्रैव निहन्ति राक्षसकुलं जीवत्यहो रावणः॥ &e.
वीरशृङ्गारयोर्व्यभिचारी निर्वेदो यथा—
ये बाहवो न युधि वीरकठोरकण्ठ–
पीठोच्छलद्रुधिरराजिविराजितांसाः।
नापि प्रियापृथुपयोधरपत्रभङ्ग–
संक्रान्तकुङ्कुमरसाः खलु निष्फलास्ते॥
रसानङ्गः स्वतन्त्रो निर्वेदो यथा—
कस्त्वं भोः कथयामि दैवहतकं मां विद्धि शाखोटकं
वैराग्यादिव वक्षि साधु विदितं कस्माद्यतः श्रूयताम्। &e.
विभावानुभावरसाङ्गानङ्गभेदादनेकशाखो निर्वेदो निदर्शनीयः।
२४९ धृतिः—It is satisfaction obtained either through knowledge or acquisition of the desired object or power. The text gives an instance of the second kind. The following are the instances of the first and the third kinds:—
वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं च लक्ष्म्या
सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः।
स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला
मनसिच परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः॥
राज्यं निर्जितशत्रु योग्यसचिवे न्यस्तः समस्तो भरः
सम्यक्पालन पालिताः प्रशमिताशेषोपसर्गाः प्रजाः।
प्रद्योतस्य सुता वसन्तसमयस्त्वं चेति नाम्ना धृतिं
कामः काममुपैत्वयं मम पुनर्मन्ये महानुत्सवः॥
२५१ आवेगः—Harry and excitement arising from varions canses most of which are well enumerated with their Anubhavas in the Das’arupa and the Sahityadarpaṇa:—
आवेगः संभ्रमस्तत्र हर्षजे पिण्डिताङ्गता।
उत्पातजे स्रस्तताङ्गेधूमाद्याकुलताग्निजे॥
राजविद्रवजादेस्तु शस्त्रनागादियोज्नम्।
गजादेः स्तम्भकम्पादि पांस्वाद्याकुलतानिलात्॥
इष्टाद्धर्षाः शुचोऽनिष्टाज्ज्ञेयाश्चान्ये यथायथम्॥ साहि० द०३।१४४-४६
२५५ अपस्मारः—Loss of memory अपस्मारयति स्मरणं लोपयतीति अपगतः स्मारः स्मरणं यस्माद्वा अपस्मारः Dhanika and Visvanatha give the following instance from Magha in illustration of it:—
आश्लिष्टभूमिं रसितारमुच्चै–
र्लोलद्भुजाकारवृहत्तरङ्गम्।
फेनायमानं पतिमापगाना–
मसावपस्मारिणमाशशङ्के॥
Jagannâtha defines it as ग्रहविशादिश्चोत्पन्नो व्याधिविशेषोऽपस्मारः and states that the same disease and no other serves as a transient feeling in the sentiments of disgust and terror, while in other sentiments other diseases may serve as transient feelings व्याधित्वेनास्य कथनेऽपि विशेषाकारेण पुनः कथनं बीभत्सभयानकयोरस्यैव व्यारङ्गत्वं नान्यस्येति स्फोरणाय। विप्रलम्भे तु व्याध्यन्तरस्यास्यापि च। The following is the instance given by him :—
हरिमागतमाकर्ण्य मथुरामन्तकान्तकम्।
कम्पमानः श्वसन् कंसो निपपात महीतले॥
अत्र भयं विभावः। कम्पनिःश्वासपतनादयोऽनुभावाः।
**२६२ शृङ्गारचेष्टा—**What Vidyanatha calls amorous jestures is designated by Dhanika and Vis’vanâtha as ornaments of ladies ( योषिदलंकाराः ). They are thus described by Dhananjaya :—
यौवने सत्वजाः स्त्रीणामलंकारास्तु विंशतिः।
भावो हावश्चहेला च त्रयस्तत्र शरीरजाः॥
शोभा कान्तिश्चदीप्तिश्च माधुर्ये च प्रगल्भता।
औदार्ये धैर्यमित्येते सप्त भावा अयत्नजाः॥
लीलो विलासो विच्छित्तिर्विभ्रमः किलकिञ्चितम्।
मोट्टायितं कुष्टमितं विव्वोको ललितं तथा।
विहृतं चेति विज्ञेया दश भावाः स्वभावजाः॥
Vis’vanatha enumerates the following eight additional ornaments:—
मद, तपन, मौख्य, विक्षेप, कुतूहल, इसित, चकित, केलि.
Bhoja calls these ornaments Vilásas and defines and enumerates them as under:—
स्मृतीच्छायत्नजन्मानो मनोवाक्कायसंश्रयाः।
विलासा ये वरस्त्रीणां ज्ञेया लीलादयस्तु ते॥
लीला बिलासो विच्छित्तिर्विभ्रमः किलकिञ्चितम्।
मोट्टायितं कुष्टमितं विव्वोको ललितं तथा॥
विहृतं क्रीडितं केलिरिति स्त्रीणां स्वभावजाः।
हेला हावादयश्चान्ये ज्ञेयाः स्त्रीपुंसयोरपि॥
उपसंख्यानमेतेषामनुभावेषु मन्वते॥
Further on चेष्टा’s are enumerated as under:—
हेला हावश्च भावश्च व्याजो विस्रम्भभाषणम्।
चाटु प्रेमाभिसन्धानं परिहासः कुतूहलम्।
चकितं चेति निर्दिष्टावेष्टाः काश्चिद्विलासिनाम्।
शेषाणां विप्रलम्भादौरूपमाविर्भविष्यति॥
In the Mandaramaranda of Srikrishna these youthful graces are thns enumerated:—
भावो हावश्चहेला च कान्तिः शोभा प्रगल्भता।
लीला विलासो विच्छित्तिर्विभ्रमः किलकिश्चितम्॥
मोट्टायितं कुट्टमितं विव्वोको ललितं तथा।
चकितं विहृतं हासो दीप्तिधैर्य कुतूहलम्॥
माधुर्ये च तथौदार्यमिति त्र्यधिकविंशतिः।
कामिनीनामलंकारा यौवने परिकीर्तिताः॥
भाव—It is the first change worked in the mind by the sentiment of love. निर्विकारात्मकात् सत्त्वाद् भावस्तत्रायविक्रिया is the definition given in the Das’arupa. The following is an illustration of it:—
हरस्तु किंचित्परिलुप्तधैर्य–
श्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः।
उमामुखे विम्बफलाधरोष्ठे
व्यापारयामास विलोचनानि॥
It is thus capability of the mind to recognize a feeling. It is the first change brought about in the mind by the feeling of love. It is just like & spront that has germinated. When the change becomes a little perceptible, it is ; and when it is clearly perceptible, it is हेला.
भ्रूनेत्रादिविकारैस्तु संभोगेच्छाप्रकाशकः।
भाव एवाल्पसंलक्ष्यविकारो हाव उच्यते॥
हेलात्यन्तसमालक्ष्यविकारः स्यात् स एव तु॥
माधुर्यम्—
सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यं
मलिनमपि हिमांशोलक्ष्म लक्ष्मी तनोति।
इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी
किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्॥
is an instance of माधुर्यgiven in the Das’arúpa and the Sâhityadarpana.
२६४ धैर्य—
ज्वलतु गगने रात्रौ रात्रावखण्डकलः शशी &e.
is a very good instance of it from the Malatimâdhava in which Mâlati shews her firm resolution not to cross the bounds of chastity of conduct.
२६५विच्छित्ति—Gracefulness brought about even by a small ornament, or attire, or decoration.
Dhananjaya defines it as
आकल्परचनाल्पापि विच्छित्तिः कान्तिपोषकृत्।
The following is an instance given by Dhanika:—
कर्णार्पितो रोध्रकषायरूक्षे
गोरोचनाभेदनितान्तगौरे।
तस्याः कपोले परभागलाभाद्
वबन्ध चक्षूंषि यवप्ररोहः॥
विलास—Graceful changes in the body and its actions bronght about simultaneously by the play of love at the sight of the lover.
Dhananjaya’s definition of it is
तात्कालिको विशेषस्तु विलासोऽङ्गकियादिषु।
The following is an instance given by Dhanika from the Milâtimadhava:—
अत्रान्तरे किमपि वाग्विभवातिवृत्त-
वैचित्र्यमुल्लसितविभ्रममायताक्ष्याः।
तद् भूरिसात्त्विकविकारविशेषरम्य-
माचार्यकं विजयि मान्मथमाविरासीत्॥
Jagaddhara’s note on this verse is:—
इहश्लोके विलास उक्तः। यदाह—
दयितावलोकनादौ विशेषोऽक्रियासु यः।
शृङ्गारचेष्टासहितो विलासः समुदीरितः॥
विभ्रम—The definition of विभ्रम in the text is precisely the same that is given in the Das’arūpa.
**२६६ किलकिञ्चितम्—**It is amorous agitation, a fasion of anger, weeping, joy, fear and other feelings. The following from Naishadhacharita is a verse where the word is used:—
त्वयि वीर विराजते परं
दमयन्तीकिलकिञ्चितं किल।
तरुणीस्तन एव दीप्यते
मणिहारावलीरामणीयकम्॥ २-४४
The following instance is given in the Sarasvatikânthabharana of Bhoja:—
पाणिपाल्लवविधूननमन्तःसीत्कृतानि घनरोमविभेदाः।
योषितां रहसि गद्गदवाचामस्त्रतामुपययुमैदनस्य॥
In Act VII. of the Mâlatimâdhâva Madayantikâmanifests perspiration and other changes caused by love at the mention of Makaranda. Jagannâtha calls this किलकिञ्चितand quotes the following definition of it:—
यदन्तर्निहितस्याङ्गैः सव्यापारैर्मनोभुवः।
सव्रीडाविष्कृतिः स्त्रीणां तदाहुः किलकिञ्चितम्॥
मोट्टायितम्—Silent and involuntary suggestion of love when a lover is talked of. It is thus defined by उज्ज्वलनीलमणि—
कान्तस्मरणवार्त्तादौ हदि तद्भावभावतः।
प्राकट्यमभिलाषस्य मोट्टायितमुदीर्यते।
It is thus manifestation of love on the part of a woman in the absence of her lover when he is remembered or talked of.
सभ्रूविलासमथसोऽयमितीरयित्वा
सप्रत्यभिज्ञमिव मामवलोक्य तस्याः।
अन्योन्यभावचतुरेण सखीजनेन
मुक्तास्तदा स्मितसुधामधुराः कटाक्षाः॥
Jagaddhara’s note is:–भ्रुविलासेत्यनेन मोट्टायितमपि कटाक्षितम्।
Malati’s eagerness to hear an account of Mâdhava from Lavangikâ and her manifestation of love is an instance of मोट्टायित as Jagaddhara remarks—प्रियकथापरत्वे मोहायितमावोऽयम्। यदाह—
श्रुत्वा कथां प्रियजनस्य सखीमुखेभ्यः
कर्णोदरस्थितचलत्तनुतर्जनीकम्।
यत् साङ्गभङ्गमिह जृम्भितमङ्गनानां
मोट्टायितं तदुदितं कविभिः पुराणैः॥
२६८ विव्वोक—Affectation of indifference towards a lover when he is talked of. Magha has used the word in the sense of amorous jestures, dissociating from it the idea of indifference—
किं तावत् सरसि सरोजमेतदारा–
दाहोस्विन्मुखमवभासते युवत्याः।
संशय्य क्षणमिति निश्चिकाय कश्चि–
द्विव्वोकैर्वकसहवासिनां परोक्षैः॥
Mallinatha explains विब्वोक here by विलास and observes as ander:—
यद्यपि ‘विव्वोकोऽनादरक्रिया’ इत्युक्तं तथापि विशेषवाचिनां सामान्ये लक्षणेत्यदोषः।
ललित=Gracefulness of the use of limbs. Dhanika gives the following instance:—
सभ्रूभङ्गं करकिसलयावर्त्तनैरालपन्ती
सा पश्यन्ती ललितललितं लोचनस्याञ्चलेन।
विन्यस्यन्ती चरणकमले लीलया स्वैरयातै–
निःसङ्गीतं प्रथमक्यसा नर्तिता पङ्कजाक्षी॥
२०० विहतम्—Keeping silence through shame even when there is a proper occasion for speech.
वक्तव्यकालेऽप्यवचो व्रीडयाविहूतं मतम्। is the definition given by Vis’vanatha His instance is :—
दूरागतेन कुशलं पृष्टा नोवाच सा मया किंचित्।
पर्यश्रुणी तु नयने तस्याः कथयांबभूवतुः सर्वम्॥
२७१चक्षुःप्रीतिर्मनःसङ्गः &e.—
Vidyanâtha describes twelve conditions of love. Ten conditions are generally described by writers on poetics. Bharata omits the first two and gives the rest as under:—
अप्राप्तरतिभोगस्य नवस्त्रीरागजन्मनः।
दश स्थानानि कामस्य काममन्तर्विसर्पतः॥
अभिलाषोऽत्र प्रथमे द्वितीये चिन्तनं तथा।
अनुस्मृतिस्तृतीये च चतुर्थे गुणकीर्तनम्॥
उद्वेगः पञ्चमे ज्ञेयो विलापः षष्ठ उच्यते।
उन्मादः सप्तमे प्रोक्तो भवेद्वयाधिस्तथाष्टमे॥
नवमे जडता प्रोक्ता दशमे मरणं भवेत्॥
Bhartrihari seems to accept the first two conditions mentioned by Vidyânâtha as the following verse uttered by Kamandaki shews:—
पुरश्चक्षूरागस्तदनु मनसोऽनन्यपरता
तनुग्लानिर्यस्य त्वयि समभवद्यत्र च तव।
युवा सोऽयं प्रेयानिह सुवदने मुच जडतां
विधातुर्वैदग्ध्यं विलसतु सकामोऽतु मदनः॥
Jagaddhara’s note on the condition of love mentioned in the verse is as under:—
इहचक्षुरागादिकं कामावस्था। यदाह।
चक्षुःप्रीतिर्मनःसङ्गः संकल्पोत्पत्तिरेव च।
निद्राच्छेदस्तनुत्वं च व्यावृत्तिर्विषयान्तरात्॥
लज्जाप्रणाश उन्मादो मूर्छा मरणमेव च॥
These verses omit प्रलापिता and संज्वर mentioned in the text, like the verse दृङ्मनः सङ्गसंकल्पा जागरः कृशतारतिः quoted in the commentary.
Mandâramaranda makes up the number ten in another way, i. e. by omitting प्रलापिता and मूर्च्छन as under:—
अथ शृङ्गाराङ्कुरादिहेत्ववस्था दश ध्रुवे।
चक्षुःप्रीतिर्मनःसङ्गः संकल्पश्च प्रजागरः॥
अरतिः संज्वरः कार्श्येलज्जात्यागो भ्रमस्तथा।
ततश्चात्मजिहासा स्युरित्यनङ्गदशा दश॥
Bhoja in his Sarasvatikanthábharana mentions the same twelve conditions of love that are mentioned in the text—
चक्षुःप्रीतिर्मनःसङ्गः संकल्पोत्पत्तिसंततिः।
प्रलापो जागरः कार्श्यमरतिर्विषयन्तरे॥
लज्जाविसर्जनं व्याधिरुन्मादो मूर्छनं मुहुः॥
मरणं चेति विज्ञेयाः क्रमेण प्रेमपुष्टयः॥ ५ परि० ९९-१०१.
Dhanaṅjaya states that the conditions of love are really speaking endless—
दशावस्थत्वमाचार्यैः प्रायोवृत्त्या निदर्शितम्।
महाकविप्रबन्धेषु दृश्यते तदनन्तता॥
२७७ अथ शृङ्गारः स च द्विविधः—
The word शृङ्गारis derived as follows by Vis’vanâtha:—
शृङ्गं हि मन्मथोद्भेदस्तदागमनहेतुकः।
उत्तमप्रकृतिप्रायो रसः शृङ्गार इष्यते॥ साहि० ३-१८३.
शृङ्गार or the erotic-sentiment is first divided into संभोगःor enjoyment of love when the lover and the object of love are united and विप्रलम्भ or love in separation. Dhanaṅjaya gives three divisions—अयोग, विप्रयोग and संभोग, विप्रलम्भ is thus defined by Visvanatha:—यत्र तु रतिः प्रकृष्टा नाभीष्टिमुपैति विप्रलम्भोऽसौ. It is snbdivided into अभिलाषविप्रलम्भ, ईर्ष्याविप्रलम्भ, विरहविप्रलम्भand प्रवासविप्रलम्भ. अभिलाषविप्रलम्भ is the same as अयोग or पूर्वराग of other writers. When the lovers are not united even though they desire mutual union, we have अभिलाषविप्रलम्भ. अयोग is this defined:—
तत्रायोगोऽनुरागेऽपि नवयोरेकचित्तयोः।
पारतन्त्र्येण देवांद्वा विप्रकर्षादसङ्गमः॥
पूर्वराग may be answerving as between राम and सीता in which case it is called नीलीरागः, i. e. love as unchangeable as indigo or ontward (कुसुम्भराग ), comparable to the colour of safflower, or as darable as the colour of madder (मञ्जिष्ठाराग ). ईर्ष्याविप्रलम्भ is separation of lovers caused by jealousy. It is called मान by
other writers and subdivided into ईर्ष्यामान and प्रणयमान ईर्ष्यामान is caused by the jealousy of the beloved through her suspicion that her lover is attached to another lady. It is found in the beloved only and not in the lover. Dhanaṅjaya describes it as under:—
स्त्रीणामीर्ष्याकृतो मानः कोपो ऽन्यासङ्गिनि प्रिये।
श्रुते वानुमिते दृष्टे श्रुतिस्तत्र सखीमुखात्॥
उत्स्वप्रायितभोगाङ्कगोत्रस्खलनकल्पितः।
त्रिधानुमानिको दृष्टः साक्षादिन्द्रियगोचरः॥
Anger through jealousy arises in three ways, when the faithlessness of the lover is (1) either heard of by the beloved through her friends, or ( 2 ) inferred by her through her dreams or marks of enjoyment observed on the person of the lover or the lover’s mistake in the utterance of the name of his beloved, or ( 3 ) seen with her own eyes**. प्रणयमान** or love—anger arises in both the lover and the beloved and lasts till anger is over. Dhanika’s note on it is as under:—
प्रेमपूर्वको वशीकारः प्रणयस्तद्भङ्गो मानः प्रणयमानः। स द्वयोर्नायकयोर्भवति। तत्र नायकस्य यथोतररामचरिते—
अस्मिन्नैव लतागृहे त्वमभवस्तन्मार्गदत्तेक्षणः
सा हंसैः कृतकौतुका चिरमभूद्रोदावरीसैकते।
आयान्त्यापरिदुर्मनायितमिव त्वां वीक्ष्य बद्धस्तया
कातर्यादरविन्दकुड्मलनिभो मुग्धः प्रणामाञ्जलिः॥
Similarly it may be through anger arising in the beloved or in both.
प्रवासविप्रलम्भ may be cansed by the lover going ont on bansiness or throngh confusion or earse. The first, viz., कार्यप्रवासविप्रलम्म, may refer to the present, the past, or the future going of the lover and is thought of beforehand (बुद्धिपूर्वक) Confusion may arise from a calamity or human tffliction and separation thongh it is unexpected (अबुद्धिपूर्वक) Dhanaṅjaya describes it as under:—
कार्यतः संभ्रमाच्छापात् प्रवासो भिन्नदेशता।
द्वयोस्तत्राश्रुनिःश्वासकार्श्यलम्बालकादिता॥
स च भावी भवन् भूतस्त्रिधाद्यो बुद्धिपूर्वकः।
द्वितीयः सहसोत्पन्नो दिव्यमानुषविप्लवात्॥
स्वरूपान्यत्वकरणाच्छापजः संनिधावपि।
The following are the illustrations of वर्त्तमानप्रवास, भूतप्रवास and भविष्यत्प्रवासः—
प्रस्थानं वलयैः कृतं प्रियसखैरस्रैरजस्रं गतं
धृत्या न क्षणमासितं व्यवसितं चित्तेन गन्तुं पुरः।
यातुं निश्चितचेतसि प्रियतमे सर्वे समं प्रस्थिता
गन्तव्ये सति जीवित प्रियसुहृत्सार्थः किमु त्यज्यते॥
उत्सङ्गेवा मलिनवसने सौम्य निक्षिप्य वीणां
मद्नोत्राङ्कं विरचितपदं गेयमुद्रातुकामा।
तन्त्रीमार्द्रोनयनसलिलैः सारयित्वा कथंचिद्
भूयो भूयः स्वयमपि कृतां मूर्छनां विस्मरन्ती॥
यामः सुन्दरि याहि पान्थ दयिते शोकं वृथा मा कृथाः
शोकस्ते गमने कुतो मम ततो वाष्पं कथं मुञ्चसि।
शीघ्रं न व्रजसीति मां गमयितुं कस्मादियं ते त्वरा
भूयानस्य सह त्वया जिगमिषोर्जीवस्य मे संभ्रमः॥
Dhanika’s note on संभ्रमजप्रवास is as ander:—
उत्पातनिर्घातवातादिजन्यविप्लवात् परचक्रादिजन्यविप्लवाद्वाऽबुद्धिपूर्वक-त्वादेकरूप एव संभ्रमजः प्रवासः। यथोवंशीपुरूरवसोर्विक्रमोर्वश्याम्। यथा च कपालकुण्डलापहृतायां मालत्यां मालतीमाधवयोः।
Another kind of विप्रलम्भ, not described by Vidyânâtha is करुणविप्रलम्भ, separation caused by the death of the lover or the beloved expected to be united in another birth. It is defined by Visvanatha as nnder:—
यूनोरेकतरस्मिन् गतवति लोकान्तरं पुनर्लंभ्ये।
विमनायते यदेैकस्तदा भवेत् करुणविप्रलम्भाख्यः॥
** यथा कादम्बर्या पुण्डरीकमहाश्वेतावृत्तान्ते.**
This is considered by some to be करुणरसin the beginning and प्रवासविप्रलम्भ after a hope for union is cansed by आकाशवाणी as Dhanika says:—कादम्बर्यां तु प्रथमं करुण आकाशसरस्वतीवचनादूर्ध्वं प्रवासशृङ्गार एवेति।
Inप्रवासविप्रलम्भ the नायिका is प्रोषितभर्तृका, while in विरहविप्रलम्भ the नायिका is विरहोत्कण्ठिता.
The heroic sentiment is divided into दयावीर, युद्धवीर, दानवीर and धर्मवीरaccording as the heroism arises from mercy, warlike powers, charity or religion. जीमूतवाहन, रामचन्द्र, परशुराम and युधिष्ठिर are the heroes representing the four varieties in order.
Jagannâth is not in favonr of these divisions—वस्तुतस्तु बहवो वीररसस्य शृङ्गारस्येव प्रकारा निरूपयितुं शक्यन्ते। तथा हि प्राचीन एव ‘सपदि विलयमेतु’ इत्यादि पद्ये ‘मम तु मतिनं मनागपैतु सत्यात्’ इति चरमपादत्यत्यासेन पचान्तरतां प्रापिते सत्यवारस्यापि संभवात्। न च सत्यस्यापि धर्मान्तर्गततया धर्मवीररस एव तद्वीरस्याप्यन्तमांच इति वाच्यम्। दानदययोरपि तदन्तर्गततया तद्वीरयोरपि धर्मवीरात् पृथग्गणनानौचित्यात्।
Jagannâtha mentions similarly पाण्डित्यवीर, क्षमावीर and बलवीर,
** २८२. भावोदय—**On the meanings of भाव, भावोदय, भावसन्धि and भावशवलता, the reader is referred to my notes on the Ekevali P. p. 443-451.
** २८६-८८.** अत्र रसो नायकाश्रय एव—शिक्षान्यासपाटवेनैव घटते—Sentiment is either nataralsuch as is seen in the world ( लौकिक ), or supernatural, such as is not generally seen (अलौकिक ) Natural sentiment resides in the hero of a work and none else. If, however, the appreciative andience ( सामाजिक ) feels the sentiment directly by the acting of a very clever actor or by hearing a poem which is full of sentiment, then though the sentiment resides in the hero, as it is very well felt and enjoyed, there is no inconsistency in its producing snpernatural joy in the audience or the reader. This savours of the theory of Bhatta Lollata or the उत्पत्तिवादिन’s, i. e, those who hold that sentiment is produced in the hero ( अनुकार्य ) who is represented on the stage by the actor.
Vidyanâtha, being dissatisfied with this theory, introduces another by अथवा मालत्यादिशब्देभ्यः&e. or Mâlati, Sitâand such other words in dramas and poems are to be understood as representing women in general and Râvana and such other words are also to be taken as implying enemies in general. That is to say, therविभाव’s, the अनुभाव’s and the व्यभिचारिभाव’s are understood in the general form (the विभावMâlati is not under-
stood in the specific form of Mâlati, bnt in the general form of कामिनी) and without specific connection, as belonging to ourselves, or to our enemies, or to those who are neither friends nor enemies, as ममैवेते, शत्रोरेवैते, तटस्थस्यैवैते, or न ममैवते, न शत्रोरेवैते, न तटस्थस्थैवैते and are thus relished by the audience or the reader. Though the sentiment is really relished by a particular person, still at the time of relishing it he does not think that it is relished by himself alone ( अहमेव आस्वादयिता, ममैव विभावादयः एवंरीत्या आस्वाद्यमानाः) on account of the force of the विभाव’s &c. taken in their general character, but feels that it is relished by all persons of poetic sensibility. It is supernatural (अलौकिक), because in the world causes of joy and grief produce respectively joy and grief; while here all causes produce joy, the reader or the spectator feels joy even from seeing or reading the representation of the sentiment of grief (करुणरस ). ‘लोके हर्षशोककारणेम्योहर्षशोकावेव हि जायेते। अत्र पुनः सर्वेभ्य एव तेभ्यः सुखमित्यलौकिकत्वम्।’ ‘अलोकिकः लौकिकसामग्रीजन्यविलक्षणः। लौकिकसामग्रीजन्यस्तु एकस्यैव मुखाय तस्यापि पर्यन्ते वैरस्पायैवेति बोध्यम्।’.
Thus the poetic sentiment resides either in the hero of the poem or the play, or in the audience of the play, or the reader of the poem, but never in the actor who simply represents it. If it is held that he represents the sentiment so very well that he actually enjoys it, then he ceases to be an actor and becomes a spectator (सामाजिक). Though sentiment does not arise in him, still he is able to represent it very well because of the skill obtained by constant practice.
Vidyânâtha has not described the nature of the poetic sentiment so well as Vidyâdhara and other writers on poetics. The theory of the poetic sentiment accepted by the learned is the one propounded by Abhinavagupta which is thoroughly dealt with in the Kavyaprakâsa and in the Ekavall. See my notes on the Ekâvali.
२८८-८९ एषुरसादीनां परस्परविरोधेऽपि—वैरिणौमिथः—Of the poetic sentiments, some are consistent, while others are inconsistent. Jagannâtha thus describes their consistency and inconsistency:—
एतेषां परस्परं कैरपि सहाविरोधः कैरपि विरोधः। तत्र वीरशृङ्गारयोः शृङ्गारहास्ययोः वीराद्भुतयोः वीररौद्रयोः शृङ्गाराद्भुतयोश्चाविरोधः। शृङ्गारवीभत्सयोः शृङ्गारकरुणयोः वीरभयानकयोःशान्तरौद्रयोः शान्तशृङ्गारयोश्च विरोधः।
If two opposite poetic sentiments are to be described as existing together, then they should be so described that their opposition may disappear. Thus though the sentiments of heroism and fear are opposed to each other, they may be so dealt with that their opposition might disappear. For instance, the hero (नायक) may be described as actuated by valour, while his antagonist (प्रतिनायक ) may be described as actuated by fear. Or the opposition of sentiments might be removed by placing a friendly sentiment between them. This is what is called a bold assertion of the poet ( कविप्रौढोक्तिसमाश्रय ) in the text, Jagannâtha says, ‘यदि तु विरुद्वयोरपि रसयोरेकत्र समावेश इष्यते तदा विशेषं परिदृत्य विधेयः। तथा हि विरोधस्तावद् द्विविधः स्थितिविरोधो ज्ञानविरोधश्च। आद्यस्तदधिकरणावृत्तितारूपः। द्वितीयस्तज्ज्ञानप्रतिपद्धज्ञानकत्वलक्षणः। तत्राधिकरणान्तरे विरोधिनः स्थापने प्रथमो निवर्तते। यथा नायकगतत्वेन वीररसे वर्णनीये प्रतिनायके भयानकस्य।………। रमान्तरस्याविरोधिनः संधिकर्तुरिवान्तरालेऽवस्थापने द्वितीयोऽपिनिवर्त्तते। यथा मन्त्रिमिंतायामाख्यायिकायां कण्वाश्रमगतस्य श्वेतकेतोर्महर्षेः शान्तिरसप्रधाने वर्णने प्रस्तुते ‘किमिदमनाकलितपूर्व रूपं कोऽयमनिर्वाच्यो वचनरचनाया मधुरिमा’ इत्यद्भुतस्यान्तरव-स्थापनेन वरवर्णिनीं प्रत्यनुरागवर्णने।’.
Jagannâtha says that when the opposition of रस’s is talked of the word रस is to be understood in the sense of स्थायिभाव’s since when a रसis enjoyed the mind is lost in supernatural happiness as at the time when the Supreme Being ( पर बह्म) is contemplated and it knows nothing else ( विगलितवेद्यान्तर ). Moreover, रस never resides in the hero or his antagonist lint resides always in the anpreciative andience or reader (सामाजिक) ‘रसपदेनात्र प्रकरणे तदुपाधिः स्थायिभावो गृह्यते। रसस्य सामाजिकवृत्तित्वेन नायकाद्यवृत्तित्वादद्वितीयानन्दमयत्वेनाविरोधात्’.
२९१ गुणालंकारश्रीकृतपरिकरः—The splendid Bhâvas, the permanent feelings of the mind ( स्थायिभाव), attended by their eanses ( विभाव ), effects ( अनुभाव) and transient snbordinate feelings (व्यभिचारिभाव), and graced with a splendid paraphernalia of poetic merits ( Guṇas ) and poetic ornaments ( Alaṇkâras ), whose develop-
ment into poetic sentiment (Rasa) is badding forth, may cause happiness or misery to young men, but to the appeciative they develop themselves into a fall poetic sentiment which is enjoyed in such a way by them that the mind is wholly absorbed in them, feels excessive joy (even when the sentiment of grief is represented) and knows nothing else at the time than this enjoyment as on the occasion of the contemplation of the Supreme Being (परब्रह्म). Thus the relish of the
poetic sentiment is like the bliss of the contemplation of the Brahman, the only difference being that the former is acquired by the investigation of Vibhavas &c. (विभावाश्चनुसन्धान), while the latter by concentration of the mind (योग). Though the Vibhâvas &c. precede their development into Rasa and though there is thus a sequence (क्रम) between the Vibhâvas &c. which are saggesters of Rasa (व्यञ्जक) and Rasa which is suggested (व्यङ्ग्य), yet it is imperceptible as the perception of the Vibhâvas &c. so very quickly leads to the perception of the Rasa that the lapse of time and the sequence are not felt at all as in the case of a hundred leaves of a lotus, pierced by a needle. Though the leaves are not pierced at the same time, yet the difference of time is too small to be felt. Thus though there is a precedence of the Vibhâvas &c. to the Rasa, the perception of the Vibhâvas &c. and the Rasa follows so quickly that the seqûence is not felt at all and the poem becomes an instance of असंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यध्वनि.
२४ ९३ रसो वाक्यार्थः सन् विलसति—The poetic sentiment shines forth like the sense of a sentence, in which the Vibhâvas &c. are like the senses of words. As the senses of words have a proper termination in the sense of a sentence, so the Vibhâvas &c. end in the development of poetic sentiments. Thus the Vibhâvas themselves turn into poetic sentiments like threads turning into a piece of cloth and their mutual splendour is manifested by their successive development; and though there is a sequence between the Vibhâvas &c. and the Rasa, it is mperceptible as described above.
**ततो भावा एकक्रमसमुदितान्योन्यविभवाः—**Though this reading is adopted in the text owing to its being found in the majority of manuscripts, ततो भावाएवक्रमसमुदितान्योन्यविमशः is a better reading. It is found in M. also in T. and in the commentary Ratnapana.
२९४. भावे स्थायिनि वर्धमानविभवे—
In the permanent conditions of the mind, such as those of love and others, with their grace enhanced by the Vibhâvas &c., the transient attendant feelings (व्यभिचारिभाव’s) often arise and disappear, just as waves repeatedly burst forth and are absorbed in the ocean. Thus the permanent conditions of the mind are like the ocean and the transient feelings are like waves in them; and as waves are transformed into water, so do transient feelings turn into the state of the permanent feelings by their development. The poetie sentiment of which the relish is greatly increased by the enjoyment of self-disparagement (निर्वेद) and other transient feelings is found in the world in the hero that is represented, but in dramas and poems it is found in the appreciative audience or reader.
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२९६ दोषः काव्यापकर्षस्य हेतुः शब्दार्थेगोचरः—For the nature of Doshaand its divisions see my notes on the Ekavalipp. 484-85.
२९८ अप्रयुक्त—When a word is used, which, thongh sanctioned by a dictionary, is not sanctioned by the usage of poets, it constitutes the poetic defect, called अप्रयुक्त(not used by poets ). Mammata explains it as तथाभ्रातमपि कविमिर्नादृतम्. It is a Padadosha or word-defect, because it is connected with a word by positive and negative concomitance ( अन्वय and व्यतिरेक), existing as long as the word exists and disappearing when the word disappears. The word दैवताः, thongh sanctioned by Amara, is not used in this masculine form by poets, Similary दुश्रपवन is not used by poets in the sense of Indra.
Mammata remarks that though this poetic defect may come ander असमर्थ, it is treated separately in accordance with the nsage of previons writers (पद्यप्यर्थस्यैवाप्रयुक्तादयः केचन भेदाः तथाप्यन्यैरालंकारिकैर्विभागेन प्रदर्शिता इति भेदप्रदर्शनेनोदाह्रर्त्तव्या इति च विभज्योक्ताः ).
The defect अप्रयुक्तत्व is अनित्य (inconstant ); for in the figures श्लेष and यमक they cease to be defects. ‘अप्रयुक्तनिहतार्थो, श्लेषादावदुष्टौ’काव्य प्र० उ०
**अविमृष्टविधेयांश—**The reader is referred to my notes on the Ekávali for this defect.
**अपुष्टार्थ—**Words of which the sense is not useful to the subject in hand constitute this defect. Instead of using बाहुद्वय, अष्टार्धार्धबाहु is used. Though there is nothing wrong with the whole sense, there is no propriety in using अष्टार्धार्धfor द्वि. The word अष्टार्धार्धis not at all nseful to the subject in hand and hence the defect is called अपुष्टार्थ, words of which the sense is not developed or appropriate.
** २९९ असमर्थ—**Vidyânatha defines असमर्थता as a defect arising from a word being used in an etymological sense (यौगिकार्थ) which has not the sanction of usage. अम्बुधरis never used (रूढ) in the sense of the ocean, though it has that sense by etymology.
Mammaṭaexplains it thus—यत्तदर्थे पठ्यते न तत्रास्य शक्तिः, Thongh हन् is given in the Dhâtupâṭha in the sense of goiag (हन हिंसागत्योः), it is not used in that sense. सुरस्त्रोतस्विनीमेष हन्ति संप्रति सादरम् is therefore an instance of असमर्थ पददोष. The root हन् has the sense of going in words like पद्धति, जघन and जङ्घा, but not in other cases.
Namisâdhu mentions four kinds of असमर्थता—1 A root with a preposition used in a sense which it has without it; e. g. प्रस्थाin the sense of स्था; 2 A root used in a sense, which, though sanctioned by a dictionary, is not sanctioned by usage; e. g. हन्in the sense of going; 3 A word used in a sense which, though etymological, is not sanctioned by usage; e. g. जलभृत् in the sense of वारिधि; and 4 A word of which the sense is not clear; e. g. मेघच्छविमारुरोहाश्वम्, where it is said that the sense is not clear as a cloud has many colours. The last case however falls under संदिग्धता. The reverse of the first case, a root used in a sense which it conveys only when joined with a preposition, also constitutes the same defect as सृष्टused in the sense of उत्सृष्ट. The first case is called अवाचकby Mummata.
नेयार्थम्— A secondary power of words ( लक्षणा ) is resorted to when there is रूढि(usage) or प्रयोजन(reason or object for assuming the secondary power) sanctioning the implied sense. When it is resorted to in a case other than this, there is a poetic defect called नेयार्थता. Mammaṭa explains नेयार्थम् asनिषिद्धं लाक्षणिकम् In the instance विहाय च गृहांस्तान वै&e. व्यत्यस्तनववृत्तयः has the sense वनवृतयःwhich is arrived at by reversing the letters of the word नव and using the word so formed (वन) with वृतयःThe sense of वन from the word व्यत्यस्तनव is not लाक्षणिक, but based upon the poet’s own convention. The defect is therefore नेयार्थता. ‘नेयः न्यायपरिहारेण कवेः स्वेच्छया परिकल्पनीयः अर्थः यस्य तत्’
Bhâmaha defines it as under:—
नेयार्थे नीयते युक्तो यस्यार्थः कृतिभिर्बलात्।
शब्दन्यायानुपारूढः कथंचित् स्वाभिसंधिना॥
Bhoja’s definition is स्वसंकेतप्रकृप्तार्थे नेयार्थमिति कथ्यते। His instance is
मुखांशवन्तमास्थाय विमुक्तपशुपङ्क्तिना।
पङ्क्त्यनेकजनामध्रतुका जित उलूकजित्॥
Here मुखांशवन्तम् means हनुमन्तम्पशु means गो and throngh it, arrows. पङ्क्तिis equal to ten. अनेकज= द्विज, a word अनेकजनाम=चक्र. तद्भ=रथ. The whole means दशरथ तत्तुका=Lakshmaṇa.
च्युतसंकृति or solecism, grammatical defect, is called भ्रष्टसंस्कार in Maudâramaranda by S’rikṛishṇa and असाधुby Bhoja.
Bhoja’s instance is:—
भूमिभारभराक्रान्त बाधतिस्कन्ध एष ते।
तथा न बाधते स्कन्धो यथा वाधति बाधते॥
**३०० क्लिष्ट—**This defect is fonnd when the comprehension of sense is distant and the composition laboured or elaborate.
अप्रयोजक—When there is no propriety in the nse of a word. वज्रघटनात् प्राक् चलात्मसुas applied to पर्वतेषु has no propriety.
There seems not much difference between अपुष्टार्थताand अप्रयोजकता as in both the defects, the sense is not nsefal to the subject in hand (प्रकृते अनुपयुक्त). In the first defect, the sense of an adjective (as of अष्टार्धार्ध) is not entirely useless; but the particular words to convey it in a roundabout way are not required. Vidyânatha follows Bhoja whose definition of अपुष्टार्थ is:—यत्तु तुच्छाभिधेयं स्यादपुष्टार्थं तदुच्यते. His instance is:—
शतार्धपञ्चांशभुजो द्वादशार्धार्धलोचनः।
विंशत्यर्धार्धमूर्धा वः पुनातु मदनान्तकः॥
अत्र दशबाहुः, त्रिलोचनः, पञ्चवकः इति तुच्छमेवाभिधेयमतुच्छशब्दैरुक्तमित्यपुष्टार्थम्।
Ratnadarpaṇa says—स्तोकशब्दामिलभ्येऽर्थे बहुतरशब्दबहुलमित्यर्थः (अपुष्टार्थस्य ).
In the second, however, the sense of an adjective (चलात्मसु in the instance ) is entirely nseless.
गूढार्थ—When a word is nsed in an obscure sense, we have the defect called गूढार्थता. Mammaṭa calls it निहतार्थता. He explains निहत as यदुभयार्थमप्रसिद्धेऽर्थे प्रयुक्तम् which is the same as the definition of गूढार्थgiven by Vidyanâtha who follows Bhojaगूढार्थमप्रसिद्धार्थ प्रयोगं ब्रुवते बुधाः).
Ratnes’vara says:—यस्य पदस्य द्वावर्थौसिद्धश्चासिद्धश्चतत्रेदप्रसिद्धे प्रयुक्तं तदा गूढार्थम्।
अन्यार्थ—It is defined as **रूढिप्रच्युत–**dropped from the conventional use. Bhoja’s definition is the same—रूढिच्युतं पदं यत्तु तदन्यार्धमिति श्रुतम्। It is thns almost the same as असमर्थ. Mammata calls it अवाचक. A word is असमर्थ when it is not able to express the intended sense except by योग ( etymology). It is अन्यार्थ, when it conveys the intended sense by etymology, but has another sense viz., conventional. जलभृत् or अम्बुधर cannot express the intended sense of a clond except by etymology. It has however no other sense. It is therefore असमर्थ. विदग्ध in the sense of ‘greatly burnt’ is अन्यार्थ. It can convey this sense only by etymology, but it has another sense which is conventional, viz. ‘clear’. Bhoja’s instance is:—
विभजन्ते न ये भूपमालभन्ते न ते श्रियम्।
आवहन्ति न ते दुःखं प्रस्मरन्ति न ये प्रियाम्॥
** ३०१ अप्रतीतिक,** called अप्रतीत by Mammaṭa, is a word used in on technical sense, as मनु used in the sense of मन्त्रशास्त्रor आशय in the sense of वासना.
३०२ परुषम्—It is the same as श्रुतिकटु ( harsh to the ear) of Mammața and other writers.
**शब्दहीनम्—**It is the first of the defects in a sentence (वाक्यदोष), ennmerated by Vidyânâtha. In enumerating वाक्यदोष’s and defining them, Vidyânâtha follows Bhoja. हितं न संशृणुमहेis a violation of grammar, according to which संश्रुis Atmanepadi only when it is used intransitively. Mammata thinks that च्युतसंस्कार, असमर्थ and निरर्थक are only पददोष’s and that they can never be वाक्यदोष’s.
अपास्य च्युतसंस्कारमसमर्थेनिरर्थकम्।
वाक्येऽपि दोषाः सन्त्येते पदस्यांशेऽपि केचन॥ काव्य प्र० ७ ५२.
**३०४ क्रमभ्रष्टम्—**This defect arises from a break in the sequence of sense or words. प्रभवे काकतीन्द्राय&c. is an instance of the first sort. Here presents should be named in order of their value, a more valuable one being named before a less
valuable one. Elephants should be therefore mentioned before horses. The instances का नाम गणनास्वासुillustrate violation in the sequence of words. The moon has sunk in the ocean of Prataparadra’s glory and the sun in the ocean of his greatness. चन्द्रसूर्यौ is therefore the proper word instead of सूर्याचन्द्रमसौ-When tho groups यशःप्रतापयोः लग्नौand सूर्याचन्द्रमसौ are connected together grammatically, connection of sense is established according to appropriateness. There is thus no violation of the sequence of sense. But there is a violation of the sequence of words, because when groups containing the same number of words are connected together, words in each are generally to be taken in order ( यथासंख्यमनुदेशः समानाम् ). Bhoja’s definition and treatment of this Dosha is the samet—
क्रमभ्रष्टं भवेदार्थः शाब्दो वा यत्र तत्क्रमः॥
तुरङ्गमथ मातङ्गंप्रयच्छास्मैमंदालसम्।
कान्तिप्रतापौ भवतः सूर्याचन्द्रमसोः समौ॥
This Dosha corresponds to the Arthadosha called दुष्कर्म by Mammats. (e.g. विश्राणय तुरङ्गं मे मातङ्कं वा मदालसम् ) Mammaata’s Vâkyadosha called अक्रमंarises when a word is used in a place other than where it shonld be used. ‘**अक्रममविद्यमानः क्रमो यत्र तत्। यत्पदानन्तरं यत्पदोपादानमुचितं ततोऽन्यत्र तदुपादानं यत्रेत्यर्थः। प्रदीप e.g. द्वयं गतं संप्रति शोचनीयता समागमप्रार्थनया कपालिनः। कला च सा कान्तिमती कलावतस्त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकौमुदी॥**In this त्वं च is the proper arrangement of words. ‘एवं चायं दोषो निपातविषयः। यथा उपसंर्गाणां धातोः पूर्वमेव प्रयोगः। एवेत्यादीनां व्यवच्छेद्यानन्तरं पुनरादीनां व्यतिरेच्यादनन्तरमिवादीनामुपमानादनन्तरम्। एवं च ‘उद्वाहुरिव वामनः’ इत्यादावप्ययमेव दोषः। चादीनां समुच्चेयादनन्तरम्’ उद्योत
३०५ विसन्धि—सन्धि is संहिता, i. e close proximity of letters (वर्णानामतिशयितः संनिधिः). When letters are very close, they generally combine themselves into a new formation. Sometimes they remain as they are without combining. Grammar sanctions certain cases in which combination does not take place. They are cases of प्रगृह्यंvowels (i. e, ending ई, ऊ, एof dual forms of noans and verbs, ई of अमी, ending एof the Vedic form अस्मे, one vowel of indeclinables except आङ्, जो of अहो, ending ओof
vocative forms followed by the classical इति, the indeclinable ठfollowed by इति, the last two cases being optional. ‘इंदूदेद्विवचनं प्रगृह्यम्’, ‘अदसोमात्’, ‘शे’ ‘निपात एकाजनाङ्’, ‘ओत्’, ‘संबुद्धौ शाकल्यस्येतावनार्षे’ and ‘ठञः’), of प्लुतvowels, and of vowels which coming together by the optional dropping of and are not united as the dropping is असिद्ध (as in हरे+एहि=हर एहिor हरयेहि and similar instanes of ऐ, ओ and औ; and देवाः+इह=देवायिह or देवा इहand देवः+व= देवयिह or देव इह. In those cases the dropping of य्and व्is असिद्धby the Sutra पूर्वत्रासिद्धम्, In other words the लोपis to be supposed as not having taken place and so there is no combination of vowels).
विसंधि means the ugliness of Sandhi. It is brought about in three ways—(1) When there is no Sandhi, (2) When the Sandhi gives rise to the implication of an indecent idea and (3) When the Sandhi is harsh to the ear. ‘विसंधि संधेवेंरूप्यम्—विश्रेषोऽश्रीलत्वं कष्टत्वं च’. The first case, viz., विश्लेष, non-combination, is either ऐच्छिक(brought about by the will of the speaker according to the verse ‘संहितैकपदे नित्या’ &e. given in the commentary or (sanctioned by the rules of grammar as the non-combination of प्लुतand प्रगृह्यvowels or by the dropping ofnon-combination ofvowels by the dropping of य् and व्,which is असिद्ध). The आनुशासनिक विश्लेष is thus of twokinds, (1) प्रगृह्यहेतुक and and असिद्धिहेतुक, The ऐच्छिकnon-combination, even if it occurs once in a verse, constitutes the defect called विसन्धि; because being based only on the wish of the speaker it has no authority to stand upon and is thus unpleasant to the appreciative heart. The आनुशासनिकnon-combination, being authoritative, causes disgust to the appreciative reader only when it is repeated and thus causes बन्धशौथिल्य( looseness of construction). Vidyânâtha illnstrates ऐच्छिक non-combination by शौर्याणि ईदृशानिand विरूप or कष्ट संधिby **पृथ्वैश्वर्यम्.**The latter constitutes a defect by its harshness. The author does not give instances of आनुशासनिक non-combination or a combination. Instances of these are given in the Kavyaprakâs’a.
राजन् विभान्ति भवतश्चरितानि तानि
इन्दोर्द्यातिं दधति यानि रसातलेऽन्तः।
धीदोर्बले अतितते उचितानुवृत्ती
आतन्वती विजयसंपदमेत्य भातः॥
Here even the single non-combination of vowels in तानिand इन्दोः which is ऐच्छिक constitntes the defect विसन्धिः, while the repeated non-combination of vowels in धीदोर्बले and अतितते, and अतितते and उचितानुवृत्ती and उचितानुवृत्ती and आतन्वती which is आनुशासनिक constitutes the same defect. Similarly the same defect occurs when vowels are repeatedly not combined after the optional dropping of य् and व्. *संहितां न करोमीति स्वेच्छया सकृदपि दोषः प्रगृद्यादिहेतुकत्वे त्वसकृत्’ काव्य प्र०.
२०५—७व्याकीर्ण, वाक्यसंकीर्ण and वाक्यगर्मित–Of these, the first defect, न्याकीर्णता, arises when the grammatical connection of nominal or verbal forms is confonnded. In the verse मुखार्थिनो महीपालाः the intended grammatical connection is आज्ञा शिरसि विभ्राणाःand क्रोडमुद्रिकामुरसि विभ्राणाः; but it is confounded on account of improper arrangement of words. The second defect arises when words of one sentence are found mixed up in another sentence—‘यत्र वाक्यान्तरस्य पदानि वाक्यान्तरमनु-प्रविशन्ति’ काव्य प्र०. When a whole sentence is introduced, mixed up in the midst of another sentence. the defect गर्मितत्व arises—‘यत्र वाक्यस्य मध्ये वाक्यान्तरमनुप्रविशति’ काव्य प्र०
Bhojn’s definitions are—
व्याकीर्णे तन्मिथो यस्मिन् विभक्तीनामसंगतिः।
वाक्यान्तरपदैर्मिश्रं संकीर्णमिति तद्विदुः।
and वाक्यान्तरसगर्भं यत् तदाहुर्वाक्यगर्भितम्.
अपूर्णता—It is a defect arising from incomplete grammatical connection of a verb. In the instance शैलेष्वस्माकमावासः &e., अस्मान् is the object of पश्यन्. It has a qualifying attribute बन्धुमतः च used after बन्धुमतः shews that there are other attributes of अस्मान्. They are supplied by the first line but not given in such a form as can be connected with अस्मान्and hence with पश्यन् शैलवासान् and वन्यवृतीन्wonld be proper attributes that can.
be connected with अस्मान् and hence with पश्यन. As it is, ther is no क्रियान्वय pay or connection with a verbal form of the words in the first line and hence the defect अपूर्णता.
भग्रच्छन्दता and यतिभ्रष्टता correspond to हृतवृतता of Mammata who explains it as under:—
‘हतं लक्षणानुसरणेऽप्यश्रव्यम्, अप्राप्तगुरुभावान्तलघु, रसाननुगुणं च वृत्तं यत्र तत् इत्तवृत्तम्’
The first case constitutes यतिभ्रष्टता, and the second भग्रच्छन्दता. The third case of हतवृत्तताwhere the metre is opposed to the poetical sentiment is illustrated by the following:—
हा नृप हा बुध हा कविबन्धो
विप्रसह्स्रमाश्रय देव।
मुग्धविदग्धसभान्तररत्न
क्वासि गतः क्व वयं च तवैते॥
The metre here is दोधक which is snited to हास्यरस and not करुणरस which is the poetic sentiment represented in the verse.
‘करुणे मन्दाक्रान्तापुष्पिताग्रादीनामेवानुगुणत्वम्। शृङ्गारादौ पृथ्वीस्त्रग्धरादीनां वीरादौ शिखरिणीशार्दूलविक्रीडितानामानुगुण्यम्। हास्ये च दोधकस्य प्रतिपदविच्छेदित्वेनानुगु-ण्यमिति।’
Bharata’s note is:—
गुर्वक्षरप्रायकृतं बीभत्से करणे तथा।
कदाचिद्वीररौद्राभ्यां यदा धर्षणजे भवेत्॥
रूपदीपकसंयुक्तं नार्यावृत्तसमाश्रयम्।
शृङ्गारे तु रसे कार्ये काव्यं स्यान्नाटकाश्रयम्॥
उत्तरोत्तरसंयुक्तं तीरे काव्यं तु यद्भवेत्।
जगत्यातिजगत्यावा संस्कृत्या त्रीणि योजयेत्॥
तथैव युद्धसंफेटौ प्रकृत्यां संप्रयोजितौ।
करुणे शक्करी चैव तथा चातिधृतिः स्मृता॥
यद्वीरे कीर्त्यते छन्दस्तद्रौद्रे संप्रयोजयेत्।
शेषाणामर्थयोगेन छन्दः कार्ये तथा रसः॥ नाव्य० १६-१०५-१०९.
११० अरीतिकम्—It corresponds to प्रतिकूलवर्णम् of Mammata. Bhoja’s definition is:—
गुणानां दृश्यते यन्न श्लेषादीनां विपर्ययः।
अरीतिमदिति प्राहुस्तत्त्रिधैव प्रचक्षते॥
His treatment of this is long.
विसर्गलुप्तम् corresponds to उपहतलुप्तविसर्गम् of Mammate.
**अस्थानसमासम्—**In अपदस्यसमासम्, पद is equal to स्थान, When a compound is used in an inappropriate place, the defect is called अस्थानसमासता.
Mammata mentions another defect called अपद्स्थपद्ताwhich arises when a word is used in an inappropriate place, e. g. स्वजंन काचिद्विजहौ. This implies न काचित् किं तु सर्वाः while the intended sense is काचित् न विजहौ.न therefore should succeed काचित् and not precede it.
३११ वाच्यवर्जितम् corresponds to अनभिहितवाच्यम्. ‘कमपरापलवं मपिपश्यसि’ is an instance of this defect. Here अपि is omitted. ‘अवश्यवक्तव्यमनुक्तं यत्र’ काव्य प्र०.
पतत्प्रकर्षम्—The defect called पतत्प्रकर्षता occnrs, according to Vidyânâtha, where the excellence of the objects described drops down by their improper arrangement. In the verse धावन्मृगेषु &c, elephants should be mentioned first and deer last. But this order is not preserved, excellence of these objects has therefore dropped down. Hence this defect.
According to Mammața this defect arises when the excellence of style falls down. The instance given in the Kavyaprakâs’a is the following:—
कः कः कुत्र न घुर्घुरायितघुरीघोरो घुरेत् सूकरः
कः कः किं कमलाकरं विकमलं कर्तुकरी नोद्यतः।
के के कानि वनान्यरण्यमहिषा नोन्मूलयेयुर्यतः
सिंहीन्नेहविलासबद्भवसतिः पञ्चाननो वर्त्तते॥
The style here instead of rising and becoming more formidable by gradation in accordance with the gradation of boars, elephants and buffaloes, falls. Hence this defect.
३१२ संबन्धवर्जितम—When the intended grammatical connection does not come abont, we have संबन्धवर्जितत्व or अभवत्मतयोग as it is designated by Mammata. Vidyadhara calls it वाच्यावचनin the Ekávali. In the instance भद्रासनानि and छत्राणिare intended to be grammatically connected with दुदर्शाराज्येwith which, however, they cannot be connected, as it forms a subordinate part of a compound.
**अधिकपदम्—**This defective sentence is one in which there is a superfinons word. In स्फटिकाकृतिनिर्मलः, आकृति is superfinons. Similarly रूपक्रम् is superfluous in the instance given in the text.
Mammata mentions the opposite of this defect, viz., न्यूनपदत्व which arises by the want of a word in a sentence. In तथाभूतांदृष्ट्वानृपसदसि पाञ्चालतनयां बने व्याधैः सार्धं सुचिरमुषितं वल्कलधरैः &e. अस्माभिः is wanting and so इत्थं in the last line—गुरुः खेदं खिन्नेमयिभजति नाद्यापि कुरुषु.
**भग्नप्रकमम्—**For the nature of the defect भग्नप्रकम the reader is referred to my notes on the Ekavali pp. 495-99.
३१३ अपार्थम् &c.—Bhoja enumerates almost the same Doshas, the only difference being that Vidyânâtha has हेतुशून्यand सहचरच्युत which are not given by Bhoja.
३१४ व्पर्थम्—Mammata calls it अपुष्टार्थ.
एकार्थम्—This corresponds to पुनरुक्तार्थम् of Mammata.
अपक्रमम्—Vidyânâtha like Bhoja designates a defect in sense arising from a break of sequence अपक्रम. Mammața calls it दुष्कर्म. Bhoja’s definition is:—वाक्यं यत्तु क्रमभ्रष्टं तदपक्रममुच्यते His instance is
काराविऊण खउरं गामउलो मज्जिओ अ जिमिओ अ।
णक्खतत्तिहिवारे जोइसिअं पुच्छिउं चलिओ॥
Here the sequence of knowing the day, getting one’s self shaved, bathing and eating is broken.
३१५ भिन्नम्—Some Mss. read खिन्नम. Bhoja also has खिन्नम् and not भिन्नम्one of the Arthadoshas. But this definition
३२२ श्लेषः प्रसादः समता &e.—The definition of Ganas in general is:—
ये रसस्याङ्गिनो धर्मा शौर्यादय इवात्मनः।
उष्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः॥
Rasa is the soul of poetry and Gunas are the properties of Rasa as bravery and other qualities are of the soul. They reside there by intimate relation and are the causes of its excellence.
For the difference between Ganas and the Alankaras and the division of Gunas according to different anthors the reader is referred to my notes on the Ekavalf on the Guna Unmesha.
Bhâmaha accepts only three Gunas and deals with them as under:—
माधुर्यमभिवाञ्छन्तः प्रसादं च सुमेधसः।
समासवन्ति भूयांसि न पदानि प्रयुञ्जते॥
केचिदोजोऽभिधित्सन्तस्समस्यन्ति बहून्यपि।
यथा मन्दारकुसुमरेणुपिञ्जरितालका॥
श्रव्यं नातिसमस्तार्थे काव्यं मधुरमिष्यते।
आंविद्वदङ्गनाबालप्रतीतार्थे प्रसादवत्॥
Mammâta and Vidyadhara also accept only three Gunas. On this Udyotakāra’s note is worth reading:—
“श्लेषः प्रसादः समता माधुर्यं सुकुमारता। अर्थव्यक्तिरुदारत्वमोजःकान्तिसमाधयः॥ इति वैदर्भमार्गस्य प्राणा दश गुणा मताः।” इति वामनोक्तादेश शब्दगुणा अर्थगुणाश्चनेत्यर्थः। यतः सामाजिकानांनवरसज-यास्तिस्रोऽवस्थाः दुतिविस्तारो विकासश्चेति। तत्र शृङ्गारकरुणशान्तेभ्यो द्रुतिश्चित्तस्य वीररौद्रवीभत्सेभ्यो विस्तारस्तस्य हास्याद्भुतभया-नकेभ्योविकास इति। विकासश्चहास्ये वदनस्य अद्भुते नयनस्थ भयानके तापसंरणरूपी गमनस्य। स च क्वचिद दूत्या कचिद्विस्तारेण च युक्तः विभाववैचित्रयप्त्। प्रसादस्तु सर्वेषामाधिक्यकारीव्यवस्थात्रयरूपकार्यवैचित्र्यनियामकतया कारणत्रयमेव कल्प्यते कारणवैचित्र्येण त्रयाणामेव स्फुटमुपलम्भात्। अवान्तरगुणानामङ्गाङ्गिभावविषेणा-नन्त्यादस्फुटत्वात्रेति भावः।
There are, it is thus said, only three conditions of the mind, generated by nine poetic sentiments. They are दुति ( melting of the mind), विस्तार ( expansion or firing up of the mind) and विकास ( blooming or agitation of the mind ) दुति is explained as गलितत्वमिवthe melting, the dissolution as it were of the mind—‘शौर्यक्रोधाद्याहितदीप्तत्व-विस्मयासायादितविक्षेपपरित्यागेन चित्तस्याद्रताख्यो नेत्राम्बुपुलकादिसाक्षिके वृत्तिविशेषः’. विस्तार is expanding or firing up of the mind. It is explained as दीप्ति. ‘दीप्तिद्वेषवित्र्यासङ्गेन दुतिविरोधी कश्चन धर्मः सैव विस्तृतिः। स्रिग्वस्यापि सामाजिकचित्तस्य द्वेष्यात्मविषयविशेषसंपर्केणोष्णता यथा सूर्यकान्तस्य सूर्यरश्मिसंबन्धेन।’. विकास is the budding forth of the mind in the sentiments of Humour (हास्य) and Wonder (अद्भुत) and its agitation in the sentiment of Terror (भयानक). These states are sometimes mixed up and lead to varions conditions of the heart. These are too many and too indistinct to be considered as basis for new Ganas. There are therefore only three Gunas. The rest are either absence of Doshas or included in these three Ganas.
३२३ श्लेष—This Gaṇa ( Fnsion of Words into one) is found according to Vâmana and Bhoja in a composition where many grammatical forms ( पद’s) look as one owing to the imperceptibility of Sandhi as it is not harsh to the ear and to the letters belonging to the same organs of pronunciation. ‘एकपदवद्भासनं संधिसौष्टवादेकस्थानीयवर्णोपन्यासाञ्च।’. ‘अस्त्युत्तरस्यां दिवि देवतात्मा &c. and ‘उभौयदि व्योम्निपृथक्प्रवाहाचाकाशगङ्गापयसः पतेताम्’ &c. are given as instances of this Guna. This according to Mammata is included in ओजम्(Florridity).
प्रसाद—प्रसाद or lucidity arises when words selected in a composition are such as lead to the intended sense at once. Mammata’s definition is:—
श्रुतिमात्रेण शब्दात्तुयेनार्थप्रत्ययो भवेत्।
साधारणः समग्राणां स प्रसादो गुणो मतः॥
It is common to all poetic sentiments and all constructions (समग्राणां रसानांसंघटनानां च साधारणः) ‘श्रुतिमात्रेणार्थवाचकाः सर्व एव वर्णादयः
of it is जात्याद्युक्ताषनिर्व्यूढं खिन्नमाहुर्महाधियः. It means that a particular sort of description, shewing the nature of an object and so on, is not carried through. Ratnes’vara thus explains the significance of the term :—उपक्रान्तनिर्वाहाशक्तो लोके खिन्न इत्युच्यते.
३१६ परुषम—The instance given by Bhoja illustrates the Dosha very appropriately:—
खाहि विसं पिअ मुत्तं निज्जसु मारीअ पडउ दे वज्जम्।
दन्तक्खण्डिअथणआ खिविऊण सुअं सबइमाआ॥
This is the language used by a mother to her child that hurts her breasts by its teeth while sucking.
**३१८ हेतुशून्यम्—**It corresponds to निर्हेतु of Mammata.
३२० सहचरभ्रष्टम—It corresponds to सहचरभिन्नम् of Mammata.
Rasadoshâs are only slightly hinted in the text. They are fully treated in the Kavyaprakâs’a,
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प्रसादगुणस्य व्यञ्जकाः’. It does not thus require particular letters like माधुर्य.
३२४ समता or uniformity of style is not accepted as a Guṇs; because it is simply absence of defect. It is no excellence. Moreover, it sometimes becomes a defect, as when uniformity of style is preserved even though a change is required in it owing to the nature of the speaker or the object described. Mammata says—मार्गोमेदरूपा समता क्वचिद् दोषः। तथा हि
मातङ्गाः किमु वल्गितैः किमफलैराडम्बरैर्जम्बुकाः,
सारङ्गा ! महिषा! मदं व्रजथ किं शून्येषु शूरा न के।
कोपाटोपसमुद्भटोत्कटसटाकोटेरिभारेः पुरः
सिंधुध्वानिनि हुङ्कृते स्फुरति यत् तद्गर्जितं गर्जितम्॥
इत्यत्र सिंहाभिधाने मसृणमार्गत्यागो गुणः’
माधुर्यम् or sweetness is defined by Vidyanatha as consisting of grammatical forms appearing distinct on account of absence of Sandhi. The author follows Bhoja in thus defining it. Bhoja’s definition is the same:—या पृथक्पदता वाक्ये तन्माधुर्यमिति स्मृतम्, पदेषु संहिताभावात् पृथक्पदत्वेन माधुर्यम् is the explanation given by Bhoja. Mammata’s definition is:—आह्लादकत्वं माधुर्य शृङ्गारे दुतिकारणम्’. The Vritti runs as follows:—शृङ्गारे संभोगे। द्रुतिर्गलितत्वमिव। श्रव्यत्वं पुनरोजःप्रसादयोरपि। and also पृथकपदत्वरूपं माधुर्य भङ्ग्यासाक्षादुपात्तम्, Sweetness is thus that property which pours delight into the mind and melts it as it were in the erotic sentiment श्रव्यत्व, sweetness to the ear, the definition of माधुर्यby Bhâmaha, is not proper as it is found in ओजस् and प्रसाद also.
सौकुमार्यम्—It is delicacy of expression. A poem abounding in gentle letters has this merit. Delicacy of letters is explained as having gentle letters with Anusvâra, According to Mammata it is simply absence of a poetic defect called कष्टत्व (Difflenlty of Comprehension) or ग्राम्यत्व ( Vulgarism ). ‘कष्टत्वग्राम्पत्ययोर्दुष्टताभिधानात्तन्निराकरणेनापारुष्यरूपं सौकुमार्यम्’.
३२५ अर्थव्यक्तिः ( Clearness of sense) consists in a sentence being complete in all its limbs. Vidyanatha follows Bhoja
in thas defining it. वागर्थाविव संपृक्तौ&c. is the instance given by Bhoja Vámana’s definition is—अर्थव्यक्तिहेतुत्वमर्थव्यक्तिः. According to Mammața it is included in the Svabhâvokti Alankara. ‘अभिधास्यमानस्वभावोक्त्यलंकारेण वस्तुस्वभावस्फुटत्वरूपा अर्धव्यक्तिः स्वीकृता-’
कान्तिःis a merit arising from the gracefulness of style which comes from its being free from vulgarisms. Ratnesvara thus explains औज्ज्वज्य which is given as a synonym of कान्तिः—अप्रहतपदैरारम्भः संदर्भस्यैव कान्तिः तद्यथा—कुसुमस्य धनुरिति प्रहतं कौसुममित्य प्रहतम्। जलनिधाविति प्रहतमधिजलधीत्यप्रहतम्। गुरुत्वमिति प्रहृतं गौरवमित्यप्रहतमित्यादि। अत एव प्रहतशङ्का। चमत्कारित्वं तु सहृदयाह्लादकत्वम्। अस्ति हितुल्येऽपि वाचकत्वे पदानां कश्विदवान्तरो विशेषो यमधिकृत्य किंचिदेव प्रयुञ्जते महाकवयो न तु सर्वम्। यथा पल्लव इति वक्तव्ये किसलयमिति स्त्रीतिवक्तव्ये कान्तेति कमलमिति वक्तव्ये राजीवमित्यादि। एतदेव महाकविभिरुपेयते। According to Mammata it is included in either a ध्वनि or गुणीभूतव्यङ्ग्य poem.
३२६ औदार्यम्—When a sentence is arranged with words which read with stoppages, proceeding as if they are dancing, it constitutes औदार्य. Ratnes’vara’s note is:—विकटानि विशालानि। प्रभूतानीति यावत्। तथाभूतान्यक्षराणि दीर्घानुस्वारादिरूपाणि सहृदयसंवेदनीयानि। अत एव नृत्यतुल्यता। यथा हि नृत्येऽङ्गानामपादीनामाकुञ्चनप्रसारणक्रमेण रञ्जकत्वं तथात्रापि। According to Mammata it is included in भोजस्.
३२७ उदात्तता—The definition is the same as that given by Bhoja. It consists in having praiseworthy adjectives. It is thus the absence of a defect called अनुचितार्थ.
३२८ सौशब्द्यम—Elegance of nominal and verbal forms. Bhamaha says:—
सुपां तिङां च व्युत्पत्तिं वाचां वाञ्छन्त्यलंकृतिम्।
तदेतदाहुः सौशब्द्यंनार्थव्युत्पत्तिरीदृशी॥
It is thus freedom from च्युतसंस्कृति.
प्रेयः—Dandin and Bhâmsha consider this as an Alaṅkára. Dandin’s definition is almost the same–प्रेयः प्रियतराख्यानम्’ It is the reverse of the defect called परुष.
**३२९ और्जित्यम्—**It is compactness of construction. It is also freedom from a defect called fes. Bhoja’s definition is the same.
समाधिः—It consists in attributing the properties of one object to another. In the example पृच्छन्तीदुग्धसिन्धुम् &c. the properties of an animate object are attributed to an inanimate object. The author follows Bhoja whose definition is the same. Vâmana’s definition is different. It is आरोहावरोहनिमितं समाधिराख्यायते. It is thus slackness and closeness of style so arranged as to be charming. Mammala includes it in ओजम्.
२२० विस्तरः—A detailed corroberation of what is said constitutes विस्तर.Bhoja’s definition is व्यासेनोक्तिस्तु विस्तरः। Ratnes’vara’s note on it is:—‘यत्र स्तोकेऽपि वाच्ये वचनपरचमत्कारकारी तश्च स एव गुणकक्षाधिरोहणक्षम इति गुणेषु युक्तो विवेक्तुमत एवोक्तिंविशेष्यतया निर्दिशति।’.
संमितत्वम्—If a sentence contains just the necessary terms to convey the intended sense, neither less nor more, in other words, where there is equipoise of words and sense, it constitutes the merit called संमितव्यम्. Bhoja’s definition is the same.
His instance is:—
‘केचिद्वस्तुनि नो वाचि केचिद्वाचि न वस्तुनि।
वाचि वस्तुनि चाप्यन्ये नान्ये वाचि न वस्तुनि॥
अत्रार्थस्य पदानां च तुलाविधृतवत् तुल्यत्वेन संमितत्वम’
३३१ संक्षेपः—A short description sometimes adds charm to a poem. It then constitutes a merit, called संक्षेप. Bhoja’s definition is:—
‘समासेनाभिधानं यत् स संक्षेप उदाहृतः।’
The following is the instance given by him:—
‘स मारुतिसमानीतमहौषधिहतव्यथः।
लङ्कास्त्रीणां पुनश्चक्रेविलापाचार्यकं शरैः॥
अत्र कथाविस्तरप्रतिपाद्यस्यार्थस्य प्रकृतसंग्रामरसविच्छेदाशङ्कया लोकार्थमात्रात् संक्षेपः’ Ratnes’ vara’s note is:—अस्ति कश्चिद्विशेषो यत्र वाक्यसंकोचः प्रकृतौचितीवशेन चमत्कारकारणम.’
**सौक्ष्म्यम्—**Minuteness or snbtlety of sense.Ratnes’vara’s note is:—यथा करितुरगादिरूपकाणां पाषाणशिलादावभिव्यतमवस्थितौसूक्ष्मरूपतांतथा शब्दानां श्रयमाणानामपि। The instance given by Bhojn is:—
‘केवलं दधति कर्तृवाचिनः
प्रत्ययानिह न जातु कर्मणि।
धातवः सृजतिसंहृशास्तयः
स्तौतिरत्र विपरीतकारकः॥
अत्र श्रुतावगतवाक्यार्थस्य सृजति–संहरति-शास्ति–स्तूयते-इति शब्दानामन्तः संजल्प-रूपेण सूक्ष्मतया सूक्ष्मत्वम्.’
**प्रौढिः—**It is maturity of sense. पाक and some of its varieties are described in the Kavyaprakaraṇa. Vide notes on पाक there.
**उक्तिः—**Cleverness of speech. Bhoja’s definition is–‘विशिष्टा मणितियां स्वादुक्तिं तांकवयो विदुः। His illustration is:—
‘कुशलं तस्या जीवति कुशलं पृच्छामि जीवतीत्युक्तम्।
पुनरपि तदेव कथयसि मृतां नु कथयामि या श्वसिति॥
अत्र कुशलं तस्या इति पृष्टे कुशलमकुशलं चेति वक्तव्ये योऽयं जीवतीत्याद्युक्तिमङ्ग्य जीवितमात्रशेषताप्रतिपादनप्रकारः स काव्ये शब्दगुणेषूक्तिसंज्ञां लभते।’
३३४ तदुक्तमलंकारसर्वस्वे—The quotation is not found exactly as it is given in Alankarasarvasva, but the following occurs there:—
उद्भाटादिभिस्तु गुणालंकाराणां प्रायशः साम्यमेव सूचितम्। विषयमात्रेण भेदप्रतिपादनात् संघटनाधर्मत्वेन चेष्टेः। तदेवमलंकारा एव काव्ये प्रधानमिति प्राच्यानां मतम्।
As for the difference between the Ganas and the Alankaras, the reader is referred to my notes on the Ekávali PP. 472-475.
———————
३३७ उपस्कुर्वन्ति तं सन्तम् &c.—This verse, qnoted from the Kâvyaprakâs’a, gives the characteristics of Alaṅkâras as opposed to those of the Guṇas which are given in the preceding verse in the same Ullâsa (8 th ) by Mammaṭa, viz.
ये रसस्याङ्गिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः।
उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः॥
Vidyánâths in explaining the verse उपस्कुर्वन्ति तं सन्तम् &c. takes the अवयवी ( the sonl ) to be काव्यम् (the poem ), and does not explain the sense of तं सन्तम् .तम् here stands for रस (the poetic sentiment) which is the real soul of poetry as Mammața himself says in the preceding verse giving the nature of the Guṇas ( रसस्याङ्गिनः) and not for काव्यम् as Vidyanatha seems to take it. Mammata’s own gloss ( वृत्ति ) on the verse उपस्कुर्वन्ति तं सन्तम् is as under:—
यं वाच्यवाचकलक्षणाङ्गातिशयमुखेन मुख्यं रसं संभविनमुपस्कुर्वन्ति ते कण्ठाद्यङ्गानामुत्कर्षाधानद्वारेण शरीरिणोऽपि उपकारका हारादय इवालंकाराः। यत्र तु नास्ति रसस्तत्रोक्तिवैचित्र्यपर्यवसायिनः। क्वचित् सन्तमपि नोपकुर्वन्ति।
संश्रिताः seems to be the reading of Vidyânâtha as it is found in almost all the Mss. जातुचित्however is the reading of Mammaṭa as his वृत्ति shews. Similarly सततंinstead of तं सन्तम् may have been the reading of Vidyânâtha; though it is found only in R तं सन्तम्, bowever, is the correct reading as Mammata’s own gloss shews.
The difference between Gunas and Alaṅkâras as given by Mammata may be summarized as under:—
Guṇas.
Alaṅkâras.
1 गुणा रसस्य धर्माः। अलंकारा न रसस्य धर्माः।
2 गुणा रसं विना न अवतिष्ठन्ते। अलंकारा रसं विना अवतिष्ठन्ते।
3 गुणा अवश्यं रसमुपकुर्वन्ति। अलंकारा अवश्यं नोपकुर्वन्ति।
4 गुणा रसे साक्षादुपकारकाः। अलंकारा अङ्गद्वारेण रसे उपकारकाः।
Guṇas are thus the properties of Rasas. As, however, Rasa is suggested by words and their sense, the Guṇas may
in a secondary sense be called शब्दगुण’s. Letters, words and constrnctions are the suggesters of Gunas, प्रोक्ताः शब्दगुणाश्च ये। वर्णाः समासो रचना तेषां व्यञ्जकतामिताः॥ It is therefore that Vidyânâtha calls them संघटनाश्रयाःi. e. residing in constructions.
३४१-३४४ For the full treatment of अनुप्रास and यमक and their divisions, the student is referred to my notes on the Ekávali pp. 511-516.
छेकानुप्रास is the repetition of two or more pairs of consonants without any intervening consonant.
वृत्त्यनुप्रासis the repetition of one or more consonant. If only one consonant is repeated, it should be repeated more than once, if two are repeated, they may be repeated only once or more than once with intervening consonants; and if three or more consonants are repeated, they might be repeated once or more with or without invervening consonants.
लाटानुप्रासis the repetition of the same word in the same sense, but with a different import. Though in अनन्वय, there is a similar repetition of word and sense, the object of the poet is simply to shew that the उपमानand the उपमेयare the same, while he has no such object in लाटानुप्रास.
यमकis the repetition of a number of letters (two or more) in the same order, without a meaning or having different meanings.
पुनरुक्तवदाभास is the semblance of the repetition of sense which is really different. It is an Arthalankara according to Vidyânâtha, Vidyadhara ond Rájánakaruyyaka; but is given under S’abdalankaras according to the practice of old writers on poetics. According to Mammata, it is S’abdalankara, Arthâlankâra or Ubhayâlankâra according as it is connected with words, sense or both by invariable positive. and negative concomitance ( अन्वय and व्यतिरेक ).
चित्र—For the characteristics of this figure, its divisions (आकारचित्र, गतिचित्र, स्थानचित्र &c.) and the reason why it is called a verbal figure, see my notes on it in my edition of the Ekávali pp. 516-522.
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351 The classification of Arthâlaṅkâras according to Vidyânâtha and Vidyâdhara is given in my notes on the Ekâvali ( Vide pp. 526-527 ).
The following are the divisions of Upamâaccording to Vidyânâtha:—
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३५७इवेन सह नित्यसमासः—According to Udyotakâra the insertion of नित्यin the Vârtika is an interpolation. Vide my notes on the Ekavali p. 539.
** ३६० दुग्वार्णवीयत्यम्भोधीन्**—The वादिधर्मलुप्तोपमा when कर्मक्यच्, आचारक्यच् or क्यङ् is affixed is considered by Mammata, Vidyâdhara and other ancient writers on poetics as वादिलुप्ता. आचार or acting like some one which is included in the sense of क्यच् or क्यङ् being taken as the common property. On this the reader is referred to Jagannatha’s criticism on it given on pp. 542-43 of my notes on the ‘Ekavali’.
३६७ रामेणैव परिष्कृतः—रामेणेव is the correct reading, thongh found only in M. and T” given in the Appendix I.
३७१ आरोपविषयस्य—The following tree shews the divisions of Rūpaka according to Vidyânâtha:—
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३७७आरोप्यमाणº &e.—On the Parinâma Alaṅkâra the reader is referred to my full notes on it in my edition of the Ekávali pp. 452-456 and PP- 558-560.
In the instances given in the text, शश्चत्यसाधनविधानकृताभिलाषा &e. and किरीटमाणिक्यमयूखजालैः &c. the definition of Parináma as given
351 The classification of Arthálankaras according toVidyánátha and Vidyádhara is given in my notes on theEkâvali (Vide pp. 526-527).
The following are the divisions of Upamá according toVidyânâtha :—
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३५७ इवेन सह नित्यसमासः— According to Udyotakâra the insertion of नित्य in the Vârtika is an interpolation. Vide mynotes on the Ekâvalîp. 589.
३६० दुग्वार्णवीपत्यम्मोधीन्—The वादिधमेलुप्तोपमा when कर्मक्यच् आचारक्यच् or क्यङ् is affixed is considered by Mammaṭa, Vidyâdharaand other ancient writers on poetics as वादिलुप्ता, आचार or actinglike some one which is included in the sense of क्यच् or क्यङ्being taken as the common property. On this the reader isreferred to Jagannâtha’s criticism on it given on pp. 542-43 of my notes on the Ekâvali’.
३६७रामेणैव परिष्कृतः—रामेणेव is the correct reading, thoughfound only in M. and T” given in the Appendix I.
३७१ आरोपविषयस्य—The following tree shews the divisionsof Rūpaka according to Vidyânâtha:—
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३७७ आरोप्यमाण^(०)&c.— On the Pariṇâma Alaṅkára thereader is referred to my full notes on it in my edition of theEkâvalîpp. 452–456 and pp. 558-560.
In the instances given in the text, शश्वत्प्रसाधनविधानकृताभिलाषा &c. and किरीटमाणिक्यमयूखजालैः&c. the definition of Parinámaas given
by Vidyânâtha cannot be applied correctly unless प्रकृतोपयोगित्व or usefulness of the superimposition (आरोप) to the subject ofdescription (प्रकृतविषय) is taken to be the sabjugation of kingsand their obeisance to Pratāparudra. Unless the विषयिन् orआरोप्यमाण, in the two instances, स्रज् and पुष्पाञ्चालि respectively,assume the form of the आरोपविषय, आज्ञा and मयूखजाल, they cannotserve the main purpose in hand, viz., kings’ subjugation andobeisance.
The commentator explains the verses so as to apply thefigure Pariṇāma in the sense ‘अतः प्रकृतमनपह्नुतस्वरूपमेवारोप्यमाणात्मनापरिणमतीति परिणामालंकार इत्यर्थः’ (Vide commentary p. 377). This however, is the sense in which Pariṇâma is explained by
Vidyâdhara and not Vidyânâtha, unless we take आरोपविषयात्मतयास्थितम् as not connected with प्रकृतस्योपयोगित्वे or ^(०)त्वात्, but simplyqualifying आरोप्यमाणम् and explaining its nature (आरोप्यमाणं कीदृशम्।आरोपविषयात्मतयास्थितमारोप्यमाणम्), in which way of interpretationthe adjective आरोपविषयात्मतया स्थितम् becomes अपुष्टार्थ.
Instances given by Jagannātha and Appaya Dīkshitawho accept Pariṇāma are very clear.
‘विषयी यत्र विषयात्मतयैव प्रकृते प्रकृतोपयोगी न स्वातन्त्र्येण स परिणामः।
अत्र च विषयामेदो विषयिण्युपयुज्यते। रूपके तु नैवमिति रूपकादस्यभेदः।
अपारे संसारे विषमविषयारण्यसरणौ
मम भ्रामं भ्रामं विगलितविरामं जडमतेः।
परिश्रान्तस्यायं तरणितनयातीरनिलयः
समन्तात् संतापं हरिनवतमालस्तिरयतु॥
भगवदात्मतयैव तमालस्य संसारतापनिवर्त्तनक्षमत्वम्। मार्गआन्तजनसंतापहारकत्वाद्रमणीयशौभाधारत्वाच्च तमालो विषयितयोपात्तः॥’ रस० p. 248.
Vide also quotation from the चित्रमीमांसा on ‘प्रसन्नेन दृगब्जेना बक्षिते मदिरेक्षणा’ the instance of परिणाम given by Appadîkshita inmy edition of the Ekâvalîp. 454.
३८३ यत्रान्यवर्मसंबन्धाद्—On the meaning of अभ्यदसायand itstwo varieties as well as on the nature of the figure उत्प्रेक्षा, thereader may refer to my notes on this figure in my edition ofthe EkâvalÎpp. 576-585.
The following tree shows the classification of उत्प्रेक्षा :—
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Similar 14 divisions of क्रियाविषया उत्प्रेक्षा, गुणविषया and द्रन्यविषयाउत्प्रेक्षा, in all 56 divisions of वाच्योत्प्रेक्षा. Old writers on rhetoricdivided अनुपात्तनिमित्ता also into गुणनिमित्ता and क्रियानिमिता and thus had8 divisions of जातिविषया स्वरूपोत्प्रेक्षा. They divided जातिविषया हेतूत्प्रेक्षाand जातिविषथा फलोत्प्रेक्षा into similar 8 divisions each. Thusजातिविषया उत्प्रेक्षा falls into 24 divisions. There are 24 similar divisions of each of क्रियाविषया, गुणविषया and द्रव्यविषया उत्प्रेक्षा. Thus thetotal comes to 96 divisions. Vide Alaṅkârasarvasva p. 57which gives the following classification :—
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Of these 96 divisions, 56 alone are charming and thedivision of अनुपात्तनिमित्ता into गुणनिमित्ता and क्रियानिमित्ता is not logical.Therefore the text says:—‘चारुत्वातिशयस्तु षट्पञ्चाशत एव भेदानाम्’.
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Similar 12 divisions of क्रियाविषया, गुणविषया and द्रव्यविषया उत्प्रेक्षा,in all 48 divisions of प्रतीयमानोत्प्रेक्षा.
४१३–४ For the distinction between मीलित or मीलन and] सामान्यthe reader is referred to my notes on the Ekávali
pp.697–699.
४४९ कार्यकारणसामान्यविशेषाणाम्—Vidyânâtha follows Râjânakarayyaka in taking the cases where the cause is supported bythe effect or the effect by the cause as those of Arthântaranyâsa. Really speaking, however, they belong to Kâvyaliṅgaas Jagannâtha and Udyotakâra, Mammaṭa and Vidyâdharatake. Vide my notes on this figure in my edition of theEkâvalī pp. 632-636. The distinction between this figureand Kâvyaliṅga and between this figure and Dṛishṭânta isexplained in the same note.
My note on the Kâvyaliṅga figure in my edition of theEkâvalī pp. 676-682 also explains the difference between अर्थान्तरन्यास and कान्यलिङ्ग and also between काव्यलिङ्ग and अनुमान.
४५८ खलेकपोतन्यायेन— For the difference between the secondkind of Samuchchaya otherwise designated Tatkar, andSamâdhi the reader is referred to my notes on the EkâvalÎpp. 692-694.
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४७४ उद्यद्बृंहितगर्जितैः—This verse is given as an instance ofअङ्गाङ्गिभावसंकरor fusion of figures standing in the relation ofprincipal and subordinate. यात्राः प्रावृद्धिहाराइव is उपमा and it makesus decide that द्विपघटाकादम्बिनी is to be taken as उपमा and not रूपक.If the componnd is taken as मयूरव्यंसकादि and dissolved as द्विपघटा पद कादम्बिनी, the figure is रूपक; and if it be dissolved as द्विपपटा कादम्बिनी, it is उपमित समास and the figure is उपमा. If there is साधकवाचकाभाव or absence of what proves the figure to be उपमा or रूपक (उपमासाधक or रूपकसाचक) or disproves it to be either of them(उपमावाचक or रूपकवाचक), the figure is designated संदेहसंकर. Inthe present instance, however, Upamâप्रावृङ्गिहारा इवproves that द्विपघटाकादम्बिनी is to be taken as Upamā, far if it be taken as Rūpaka, कादम्बिनी becomes the predominant word in the compound and द्विपघटाbecomes subordinate to it; the word can inthat case be construed only with age, प्रावृङ्गिहाराः,that is, with theउपमान and not with यात्राः or the उपमेय. यात्रा प्रावृङ्गिहाराइव is theprincipal (अङ्गी) Upamâand द्विपघटा कादम्बिनीव is the subordinate(अङ्ग) Upamâ; and as they are similar figures, we have fusion of similar figures standing in the relation of principal andsubordinate.
Read lines 7 and 8 of the commentary as under :—
रूपकत्वे द्विपघटारूपविषयस्थगने कादम्बिनीमिरुपमानस्यैव सविशेषणत्वं नोपमेयस्य.
T. has the following reading.
रूपकत्वे द्विपघटारूपविषयस्थगने कादम्बिनीरूपोमानस्यैव सविशेषणत्वं नोपमेयस्य.
This. however, is not so good as the above which is thereading of M.
On the whole subject of Alaṅkâras and their varietiesand sub-varieties, their points of similarity and dissimilarityand the opinions of different writers on poeties there-onthe reader is referred to my notes on the Ekâvalî, Unmeshas VII. and VIII. where the treatment is full.
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APPENDIX I.
Readings of T” and T’” as compared with the text.
4 1. 4 प्रसार्यते T”’ for प्रकाश्यते.
„1. 6रीतयश्चेत्यमी सप्त प्रमेयं काव्यपद्धतिः T”.
„ 1. 8पतस्याः सदृशं किन्तु T” for तथाप्यस्याः समं नेतुः.
5. 1. 5तथा महापुरुषगुणवर्णनेन हि T” for महापुरुषगुणवर्णनेन.तदा महापुरुषगुणवर्णनेन हि T”’.
„ 1. 6वेदशास्त्रपुराणाद्येैर्हित’ T” and T”’ for वेदशास्त्रपुराणादेर्हितं^(०).
„ 1. 7तदा सदाभयात् कान्यादपि T” for तथा सदाश्रयात् काव्यादपि.
„ 1. 8 काव्यादितिकर्तव्यताचीः T”‘for काव्यात् कर्तव्यताचीः.
6.1. 3 दृष्टार्थफलजनकतया T”’ for दृष्टादृष्टफलजनकतया.
„ „ तच्चोक्तं T"for तथा चोक्तं.
„1. 8विसप्पंदि T” for विसप्पंति.
„ 1. 9किं तं जेण T” and T”’ for किं तज्ज्रेण.
„ „ „ हरंदि T” for हरंति.
„ „ „ After कव्वालावा T” has मन इति शेषः.
8 1. 1 तथा च स्मृतिः T” and तन्मूला च स्मृतिः T” for तन्मूला चेयं स्मृति
„ 1. 2काव्यस्यायं पन्थाः T” for काव्यजातस्यायं पन्थाः.
„ „ किं तु शास्त्रजातस्पापि T"and T”‘for शास्त्रजातस्यापि
„ 1. 2-3 सदाश्रयेण T” for तदाश्रयत्वेन.
„ 1. 3 यथा T” and T”‘for तथा हि.
10 1. 1 ^(०)पाश्रितगुणश्रेष्ठस्य T"and T’” for ^(०)पाश्रितस्य गुणश्रेष्ठस्य.
„ " जिज्ञासाद्वारेण TV”‘for जिज्ञासाद्वारा.
„ 2 शास्त्रस्य प्राण T"and शास्त्रस्य प्रमाण T’” for शास्त्रप्राणा.
„ 2 इत्युरीकृतम् T”’ for इत्युररीकृतम्.
„ 4प्रतापरुद्रस्य गुणान् पुण्यानाश्रित्य निर्मितः T”’.
„ 5 सतां कर्णोत्सवोऽस्तु वः T” for सन्तः कर्णोत्सवोऽस्तु वः.
11 1. 1-3 T"and T”‘have the portion from दण्डिनापि प्रतिपादितम्to नश्यति after सुकृतिनामाकल्पमाकल्पन्ति.
„ 1. 5काव्यपद्धतिः T”‘for काव्यसंपदः.
„ 1. 9 रुद्रदेवेनापि T”’ for रुद्रमङ्गेनापि
APPENDIX I.
11 1. 11 ^(०)मकल्पयन्ति T” and T”‘for ^(०)माकल्पन्ति.
„1. 14 ^(०)गुणाश्रयः T” for गुणोत्तर.
„ 1. 15महानायकगुणाः TV”’ for नायकगुणाः.
12 1.2मताः T"for गुणाः.
13 1.1 ^(०)भाग्यविभवात् T"for भाग्यविभवैः.
14 1.4क्रियन्ते यद्विद्वज्जन^(०)T” and T”‘for क्रियन्ते तद्विद्वज्जन^(०).
„ 1.6प्रचक्षते T”‘for तदुच्यते.
„ 1. 12विदम्बता T”‘for वैदग्ध्यम्.
16 1. I ^(०)ललितैःT”‘for ललिताम्.
„ 1. 2महीम् T” for भुवम्.
„ 1. 7मृष्यते T” for मृष्यति.
„1. 12 मुम्मडम्बा तृतीया T"and मुम्मदीया तृतीया T”’ for मुन्मुडीवातृतीया.
17 1. 3 T"and T”’ Omit अथ पाण्डित्यम्.
„ 1. 8 ^(०)मार्गवर्वनचणैः also is noticed by T” for ^(०)मार्गदर्शन चणैः
17 1. 10 विजयते T"and विहरति T”’ for विहरते.
18 1. 6 Tnotices सारंalso for स्फारम्.
191. 4धर्म इव त्वथि T"for धर्म इव स्थितः.
„ 1.6 धुरन्वरता T"for धुरीणता.
20 1. 2 वक्रैःT"for मुखैः.
„ „वदेत् फणी चेत् T”‘for फणीवदेत्रेत्.
21 1. 2 सतां मतः T"for स संमतः.
„ 1. 4मुहुः T”‘and T”‘for मृदुः and पुरा T” and T”’ for पुरः.
„ 1. 5. नतधूःT” for नमद्भूः.
„1. 6 सुखरोमहर्षपिशुनान् T”’ for सुखरोषहर्षपिशुनान्
„ 1. 7 ^(०)कीर्तिमहितःT"for ^(०)कीर्तिसुमगः T"notices कीर्तिविभवः also.श्रीरुद्रदेवो T"for श्रीवीररुद्रो.
22 1. 1 सर्वसामर्थ्य^(०)T"for दर्पमात्सर्य^(०). T”’ notices दर्पसामर्थ्य^(०)also.
„ 1. 4 घुर्जर T"for गुर्जर.
„ „ जर्झरोऽसि T"and T”’ for जर्जरोऽसि.
„ 1. 5 बलरजःकाणोऽसि T"and T”’ for बलरजः कीर्णोऽसि.
„ 1. 16 प्राणपरायणो T”’ for प्राणपरायणो.
APPENDIX I
22 1. 9 सुणैकभूः T"and T”‘for मुखी मृदुः.
23 1. 1 वीरोऽयं T”’ for वरिरोऽयं.
„ 1. 2नृपः T”’ for विभुः.
„ 1. 3द्विजो सतः T"and T”’ for द्विजादिकः.
„ 1.8 ^(०)न्नविकलं T"for ^(०)न्नविरतं.
„ 1. 10 इमे is dropped in T"and T”’.
„ 1. 11 स्मृतः T"and T”‘for स्मृताः.
24 1. 2तत्र पकायत्तो T” for पकायत्तो.
„ 1. 3 °नुकूलनायकः T"and T”’ for ^(०)नुकूलो नायकः.
„ 1. 6 यस्य प्रिया T”’ for तस्य प्रिया.
„ 1. 9वच्वाः T"and T”’ for वच्वा.
251. 2 कस्याश्रिदाविष्कृतम् T” for कस्यैचिदाविष्कृतम् T” notices कस्यैचिदा^(०) also.
„ 1. 6 यथा वा T"for तथा च.
26 1. 2 कश्चित्तेऽविनयोऽस्ति T”‘for कस्तत्राविनयोप्रस्ते.
26 1.6 ^(०)विदिताप्रियकारी शठनायकः T”’.
„ 1. 10प्राणेश्वरी T” for प्राणेश्वरी.
27 1. 1तत्तन्नायकपरतया T"for तत्तन्नायकविषयतया.
„ 1. 3विदूषकनामानः T” for विदूषकाः.
„ 1. 5. हासप्रायो T” and हास्यकारी T”‘for हास्यप्रायो.
29 1.10 संकेतालयमीक्षसे मम वृथा जाताश्रुमिः पङ्क्तिलम्। is also noticed by T”.
30 1. 2 भारत्याः क्षितिनायके T"and T”‘for भारत्या दयिते भुवः.
„ 1. 8 नृपतिभिः प्रेक्षणीया T”’ for नृपतिभिर्वीक्षणीया.
311. 4 अणुणयन्तो T” for अणुणअंतो and पियो T"for पिओ.
„ 1. 5. मुणिअं TV for मुणिओ. ओहीरिओ T” for अवहीरिदो.
„ „ रापात T” for रापति.
„ „ विसूरणवेअणं is also noticed by T” for ण मुणिभं रापति.
„ 1. 8 ^(०)कीर्तिमहतः T”’ and T"for ^(०)कीर्तिमहसः.
33 1. 1. आसांT"and T”’ for एतासां.
„ 1. 2दूती दासी सखी चैव धात्रेयी प्रतिवेशिनी T” and T”’.
„ 1. 4 एषां T”’ for एतासां.
„ 1. 4-5 चिन्निणीपद्मिनीप्रभृतयो T” and T”’ for पद्मिनीचित्रिणीप्रभृतयो.
„ 1. 5 त्रिधा T”’ for त्रिविधा.
34 1. 3 किं वा काचिदहं T” for किंया काचिदहं
T"noticesवद also for तव
पृच्छामि T”’ for प्रच्छाद्य.
APPENDIX I
.
34 1. 4 ^(०)वालक्ष्यते T”‘for ^(०)वाशास्यते.
„ 1. 6मध्यमा T"and T”’ for मध्या.
„ 1. 7 तारुण्यमत्र त्रपा is also noticed by T"for तारुण्यमेत्य त्रपा.
35 ^(०)ललितापाङ्गमधुरम् T"for ^(०)ललिताटोपमधुरम्.
36 यथासंभवमूह्यम्T”’ for यथासंभवमुदाहार्यम्.
Appendix to नायकप्रकरण pp. 38-41 is found in T”’.
38 1. 17 दिगन्तरे T”’ for दिगन्तरम्.
„ 1. 19 लोकालोकाचलतटानां T”’ for लोकालोकतटानां.
39 1. 1-2 काकतीयकुलेऽवतार T”’ for काकतीयकुले वर्तते.
„ 1. 3 काव्यमाश्रित्य T”’ for काव्यं समाश्रित्य.
„ 1. 4सहृदयाहृदयाह्लादिT”’ for सहृदयहृदयानन्दि.
„ 1. 5 प्रौढबन्धस्याडम्बरः T”’ for पौडबन्धस्य डम्ब्रः.
39 1. 6 तत्रशब्दस्फुरणम् T”’ for तच्छब्दस्फुरणम्.
„ 1. 8 ^(०)क्षोभा दुरीक्ष्यक्रमाःT”’ for
^(०)क्षोभाद्दुरीक्ष्यक्रमाः.
„ 1. 12 ^(०)मिष्यते T” for ^(०)मुच्यते.
„ 14 ^(०)विजुंभिप (विलंबिर) T"for विजिम्भिप.
„ 15 जयलच्छि^(०) T”’ for जअलल्छि?
„ 17रिपूजीविआइ T”‘for विजीतैविआइ.
„ 19’गर्जितैः करिघटा^(०) T”’ for गर्जितेंद्विपघटा^(०)
„ 20 स्फुरद्दिकतटैःT”’ for स्फुरद्दिक्तटाः.
„ 22 ^(०)अलमर्त्तिगण्ड^(०) T”’ for ‘अलमत्यंगण्ड०
49 1. 2 ईदृशपुण्यश्लोकचरितानुवर्णनेन T”’ for पुण्यश्लोकानुवर्णनेन.
„ 1. 6 गुणान् बहून् T”’ for बहून गुणान्
„ 1. 7 ^(०)वर्णन for कथनं is also noticed in T”’.
„ " मतं क्वचित् T”’ for क्वचिन्मतम्.
„ 1. 8 ^(०)मुदाहरणानि T”‘for ^(०)मुदाहरणम्.
„ 1. 9यस्यान्वये T”’ for यस्यान्वयः.
„ 1. 16पलाप्याकुलः T”’ for प्रलाप्याकुलः.
„ 1. 17 एवंवर्णनमुत्पाद्ये नायके T”’ for एवंविधवर्णनमुत्पाद्यनायके.
„ 1. 29 एवंविधस्वतः सिद्धत्वोत्पाद्यत्वभेदेन T”’ for स्वतःसिद्धोत्पाद्यत्वभेदेन.
„ 1. 21 तत्र च T”’ for तत्र
41 1. 2 बहुधा भवेत् T”’ which notices बहुभावकृत् also for बहुभावकृत्.
„ 1. 3 यथावर्णन^(०) T”’ for तथावर्णन^(०).
„ 1. 4 ^(०)प्यचितक्रमाः T”’ for प्युचितक्रमा.
„ 1. 5कौतेनम् T”’ for वर्णनम्.
„ 1. 6मन्दोद्यमानुभावः T”’ for मन्दोद्ययानुभावं.
„ 1. 7तद्विषयत्वं T”’ for तद्विषयकत्वादि.
APPENDIX I.
41 1. 7-8 ^(०)प्रतिशयास्पदत्वम् T”’ for ^(०)मतिसाध्यास्पदत्वम्.
T”‘has at the end of the additional portion the following—इति महोपाध्यायविद्यानाथकृतौ प्रतापरुद्रदेवयश्शोभूषणेऽलंकारशास्त्रे नायकप्रकरणं समाप्तम्।
42 1. 4 काव्यस्य सामान्य^(०) T” for काव्यसामान्य^(०).
„ 1.11 पदानुगुण^(०) T” for पदानुगुण्य^(०).
431. 2 तात्पर्यार्थोऽपि व्यङ्ग्यान्तर्गत एव T”, and T”’ has व्यङ्ग्यार्थंगत एव
45 1. 1 संबन्धानुपपत्तिमूलकत्वात् T’’ and T”’.
„ 1. 3 घोषः प्रतिवसतीत्यत्र T"and T”’ for घोष इत्यत्र.
46 1. 2 T"and T”’ omit द्विविधा.
„ 1. 2-3साध्यवसाना T” and T”’ for साध्यवसाया.
„1. 3-4 भारतीसात्वती T”’ for सात्वतीभारती.
„ 1 5 तथा चोक्तं T"and T”’ for तथोक्तं.
47 1. 3 T"T”’ drop इति.
„ 1. 4 वृत्तिध्वेवान्तर्भूताः T” for न वृत्तिध्वन्तर्भूतः.
„ 1. 5 अत्र T” for तत्र.
„ 1. 6 रूढिर्यथा T” and T”’ for रूढिपूर्विका यथा.
48 1.2शुद्धैश्चरित्रै^(०) T” for शुभैश्चरित्रै^(०).
„ 1. 4 नरवीररुद्रः T"for वरवीररुद्रः.
49 1. 9पादपीठ^(०) T"and T”’ for पादपीठी^(०).
51 1. 1 अङ्कवराह आरोप्यते T” for वराहत्वमारोप्यते.
„ 1. 4साध्यवसायलक्षणा T"and T”’ for साध्यवसानलक्षणा.
„ 1. 7-8^(०)रित्यारोपः T” for ^(०)रित्यारोपश्च.
52 1. 4त्रिधा T” for त्रिविधा.
53 1. 1 ^(०)कबन्धेति शब्दाना^(०) T” for ^(०)कबन्धशब्दाना^(०)
„ „ युद्धप्रकरणादिना T"and T”’ for अर्थप्रकरणादिना.
„ 1. 3 नदीजलप्रतीतिर्यथा जायते T"for नदीजलप्रतिपत्तिर्यथा जायते.
„ 1. 4 °मिधाशक्तिःT” for ^(०)मित्रा.
" „^(०)प्रतीर्ति T"and प्रमिर्ति T”’ for प्रतिपतिं.
„ 1. 6 लक्षणा T"for लक्षणावृत्तिः.
54 1. 2 ^(०)द्वौकिशब्दानाम् T”’ for द्वौकिकवाक्यानाम्.
55 1. 1 अथार्थशक्तिमूला T"and T”’ for अर्थशक्तिमूला.
„ 1. 3 पादपीठ T” for पादपीठीं.
56 1. 1विषण्णा जाता इत्य^(०) T”’ for विषण्णा इत्य^(०).
„ 1. 3 ^(०)कारणत्वात् T” and T”’ for ^(०)कारणकत्वात्.
„ „ ^(०)कारणप्रतिपत्ति^(०) T”’ for कारणप्रतीति^(०).
„ 1. 4 तत्तत्प्रतिपत्तिर्वतुर्विवक्षा’ T"T”’ for तत्तत्प्रतित्तुर्विवक्षा^(०)
APPENDIX I.
57 1. 1. इतीयती गमनिका T"and इतीयतीति गमनिका T”’ for इति गमेनिका
58 1. 2राजमौलिरिवाभाति T” and T”’ has राजमौलिरयं भाति for राजमौलिरसौ भाति.
„
- 3-4 राजमौलिरयमिति T”’ for राजमौलिरिति.
„
1. 4^(०)शक्तिमूलःT"and ^(०)शक्तिमूला T”’.
„
1. 4 T"and T”’ omit अत्र.
50 1.3अनतिप्रोडेन T"and T”’ for नातिप्रीडेन.
60 1. 2 ^(०)सान्द्रस्फुलिङ्गोकरैःT” and ^(०)सारस्फुलिङ्गोत्करैःT”’ for “स्फारस्फुलिङ्गोत्करैः.T"also notices^(०)सान्द्रस्फुलिङ्गोत्रयेः.
„
- 10 चतुराननेन T” and T”’ for चतुराननस्य.
61 1. 1 प्रसृमरपशसो T” and T”’ for ०प्रसृमरमहसो. T"notices^(०)प्रसृमरमहसो also.
„
1. 5 प्रतिनृपतिमिया T” and T”’ for प्रतिनृपतिधिया.
„
- 7 स्मृते T"for मते.
„
1. 9^(०)रम्पप्रौढसंदर्भोT"and T”’ for ^(०)रम्पप्रौढदत्वं.
„
- 12दुष्यति T” and T”’ for दूष्यते.
62 1.9T”’ drops द्रष्टव्यम्. - 3 ^(०)ष्वीषन्मृदुवर्णत्वम् T"for ष्वीषन्मुदुत्वम्.
„
1.3अविकटपरुषबन्धेष्वी’ T"for अविकटवन्वपरूषवर्णेष्वी”.
„
- 7त्रिविधा T” and T”’ for त्रिधा.
64 1.4 ^(०)चर्चिकाम् T” for चर्चनम्.
65 1. 6प्रभवन्नन्ध्रभूपतिः T” and T”’ for प्रमवन्नान्ध्रभूपतिः
„
1. 7 किं च T"and T”’ for यथा वा.
„
1. 10 ^(०)अन्ध्रT” and T”’ for आन्ध्र^(०).
„
- 11 परिवृतस्वबंधूवक्त्रचन्दा T"and T”’ for ^(०)परिवृताः स्वर्वधूवक्त्रचन्द्राः.
66 1. 3 ^(०)प्रयाणोत्सवे for प्रयाणोत्थिते is also noticed by T”.
„
1. 4 नमस्यनिभूतं T” and T”’ for नमस्यतिभूशं.
„
- 7 तथा च T"and T”’ for यथा च.
„
1. 11त्रिलोकमहितां T” and T”’ for त्रिलोकमरितां.
67 1.7गण्डाभोगनिगूढ^(०) T"and T”’ for गण्डाभोगनिरूढ?.
69 1.3 नारिकेरपाकः T"and T”’ for नारिकेलपाकः,
„
-
10 ^(०)मुदाहार्याणि T” and T”’ for मूह्यानि.
70 1.1T"and T”’ have निरूप्यन्ते after काव्यविशेषाः,
„ -
4 T"has काव्यं after मध्यमं,
„
" T” has व्यपदिश्यते for गीयते.
„
-
5 कथ्यते T"and T”’ for गीयते.
71 1. 1 कुलपर्वता^(०) T”’ for कुलशैला^(०).
„ -
3 सर्वविलक्षणः T” and T”’ for सर्वविलक्षण.
APPENDIX 1.
77 1. 3 काकतीयनरेन्द्रनिर्माण^(०) T”’ for ^(०)काकतीयनिर्माण^(०).
„
“T"and T”’ drop च.
„
- 10 प्रतापरुद्रदेवमद्दाराजस्याग्रे T” and T”’.
„
1. 11 ^(०)कार्यण्योक्तिः T” and T”‘for ^(०)कार्यण्योक्ति^(०).
„
„
प्रणामप्रार्थनादि T”’ for प्रणामादि.
72 1. 7 ^(०)विअंभिए T” for विजिम्मिए
„
„
रिठमहीमांहजलिं T"for रिवुमहीणाहांजलिं.
„
1. 10 रिठजीविभद्रे T"for रिदुजीविआई.
73 .1. 2 विजितारिभद्रे T"for जितवैरिभद्रे and जितवैरिरुद्रे in T’’’ for the same.
74 1. 1 विचित्रता T”’ for चित्रता.
„
1. 3 तत्र T"and T”’ for अत्र.
„
1. 6-7 संलक्ष्यासंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यतया द्वौ भेदौT”.
75 1. 2 कविनिबन्धोक्तिसिद्धत्वेन T"and T”’ for क्रविनिर्बद्धोक्तिसिद्धत्वेन.
77 1. 1 षड्विंशदुत्तर^(०)T” for षड्विंशत्युत्तर.
„
- 3-4 ^(०)स्याविनवक्षितसंबन्दो न पृथग्भूतः T”’ and ‘स्याविवक्षितवाच्यसंबन्धमदो न पृथग्भूतः T”.
„
1. 4-5 T”’ drops the sentence अनेनैवक्रमेण—पृथग्भूतः.
„
1. 6 Before त्रिरूपेण संकरणै^(०)T” Has तस्यापि मिश्रणस्य संदेहास्पदत्वेनानुग्राह्यानुकभावेन एकव्यञ्जकानुप्रवेशेन च.
„
„
^(०)णेकरूपतया T"for ^(०)णैकरूपया.
„
14 वाक्यगतात्यन्ततिरस्कृताविवक्षितध्वनिः T”.
79 1. 1-12 T"has ^(०)निबन्धोक्ति for ^(०)निबद्धोक्ति^(०)
„
- 17 वाक्यगतोभयशक्तिमूलो रसादिध्वनिः T”’.
Between Divisions 44 and 451.12-13 T”’ has एवमर्थशक्तिमूलषट्त्रिंशत्प्राकारः। शब्दशक्तिमूलश्चतुर्विधः। उभयशक्तिमूलो वाक्यगतत्वेन एकविध एव। एवं संलक्ष्यकमव्यङ्ग्यष्वनेरेकचत्वारिंशद् भेदाः। and after Division 48 1. 15. T”’ has एवं विवक्षितान्यपरवाच्यब्दनेःसप्तचत्वारिंशद्भेदाः अविवक्षितवाच्यैश्चतुर्भिः सह एकपञ्चाशद्भेदाः अत्र दिङ्मात्रमदाह्रियते।पदगतार्थान्तरसंक्रमिताविवक्षितवाच्यब्दनिर्यथा &c.
80 1. 1 वयमीदृशामस्माकं T"and T”’ for वयमीदृशानामस्माकं.
„
1. 2इत्यर्थान्तरसंक्रमिताविवक्षितवाच्यता T” and T”’.
„
1. 3 पदगतात्यन्ततिरस्कृतवाच्यो ध्वानिर्यथा T”’.
„
1. 4 मधुरिमपरिपूरिता^(०) T” and T”’ for धवलिमपरिपूरिता^(०). T” notices धवलिमपरिपूरिता^(०) also.
„
1. 6 ^(०)वाच्यत्वम् T” and T”’ for ^(०)वाच्यम्
81 1. 1T"drops अथ and T”’ has पदगतस्वतः सिद्धार्थशक्तिमूलो वस्तुनावस्तुध्वनिर्यथा.
APPENDIX I.
81 1. 2 तिथीःT” and T”’ for तिथीन्.
„
1. 3 काङ्क्षन्तिT"and T”’ for काङ्क्षन्ते.
„
-
6-7 T"notices प्रियवियोगविधुराः also.
„ -
7 कतिपयवत्सरजीविताशया T” for कतिपयवत्सरान् जीविताशया.
82 1. 2मासान् व्यपनेतु^(०) T"for मासानप्यपनेतु^(०).
„
1. 3 ^(०)मसृष्टिं समभिलषन्तीति T” and ^(०)मसृष्टिंवान्तीति T”’ for ^(०)मसृष्टिमभिलषन्तीति.
„
1. 6 T"notices लक्ष्मीपतिर्वाञ्छति also.
„
1. 9 भ्रान्तिदिव्यतापसादीनां भ्रान्तिरिति T”’.
„
1. 16अत्र कृपाणः कालीकटाक्षस्य विजृम्भितान्यालम्बत इति &c. T”.
83 1. 2 मधुकरक्रीडांT"for भ्रमरक्रीडां.
„
1. 8 T"drops अथ and has ^(०)शक्तिमूलो यथा.
„
1. 10 ^(०)श्रवणविवरे चारिणीं T”’ for ^(०)श्रवणपदवीचारिणीं.
„
1. 12 ^(०)क्ष्माभृद्वहति T” for क्ष्माभृद्भवति.
84 1. 1 प्रतापरुद्रकीर्तिः T"and T”’ for प्रतापरुद्रस्य कीर्तिः, स्मयकारिणी T” for विस्मयकारिणी.
„
-
1-2 वस्तुना वस्तु व्यज्यते T” and T”’ for वस्तु व्यज्यते.
„ -
6 जयलक्ष्मीसमानतान् T"which notices जयलक्ष्मीसमालिङ्गितान also.
„ -
7 कर्षन्तीत्युत्प्रेक्षा T” and T”’ for कर्षन्तीवेत्युत्प्रेक्षा.
„
1. 10 ^(०)भएणेव्व T”
for मयेण व.
„
“मणहरे T"for मनोहरे.
In the छाया of the Prākṛita verse ओसरड़ &c. दइप is explained as देवेor दयिते.
85 1. 1 ^(०)यालिङ्गनादिरूपं T"and T”’ for यालिङ्गनादि.
„
1. 5 ^(०)शत्रूणांT"for ^(०)शत्रुम्यो.
„
- 7 कविनिबन्धोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलवं यथा T"and कविनिवद्वार्थशक्तिमूलत्वंयथा T”’.
„
1. 8 वा होदु T"for च होदु.
„
1. 9जं तीए T for जं ताप.
„
„
कडरखुङ्काT"for कडखुक्का..
„
1. 12 त्वया गन्तव्यमिति T"for त्वया समागन्तव्यमिति
86 1. 3 दीप्रदेहः T” and T”’ for दीप्तदेहः.
„
„
दीप्रदेहस्तव परिसरे T”’ for दीप्तदेहः स्फुरति परिसरे.
„
- 4 आच्छाद्यालं T” and T”’ for प्रच्छाद्यति
„
" वांस्वरूपं Th for वः स्वरूपं.
„
1. 8हलाओ T"for हला.
„
1. 9 ‘संजादमयोन्य T”’ for संजालमएन्व
APPENDIX I.
87 1. 4 सौधकान्तावृतस्य T”‘for नायकान्तावृतस्य.
88 1. 3 मत्रालंकार^(०) T"and T”’ for तत्रालंकार^(०).
„
1. 5ण प्पदोस° T"for ण पदोस.
89 1. 1 संशृंणुध्वं हितार्थिनः T”, संशृणुष्वं हितानि वः is also noticed by T”.
91 1. 2 वर्न्यन्ते T"and T”’ for कीर्त्त्यन्ते.
92 1. 1शृङ्गारस्य T” and T”’ for शृङ्गाररसस्य
„
1. 5 इत्यस्य T"and T”’ for इत्यत्र.
„
1. 6 गुणीभूतव्यङ्ग्यम् T"and T”’ for गुणीभूतम्.
93 1. 2 कोऽप्यनन्तकः T"and कोऽप्यसंशयः T”’ for कोऽप्यनङ्कुशः.
„
1. 9स्तनमण्डलालोकन एवेति T” and T”’ for स्तनमण्डलालोक एवेति.
94 1. 2 समप्राधान्यम् T” and T”’ for समे प्राधान्यम्.
„
1. 4सोठण T” for सोडण.
„
" णरिंददंसणामोदं T"for णरेंददंसणामोअं.
„
1. 5गुरुअणणियन्तिआप् T”.
„
1.9मत्रापि T”’ for तदपि.
95 1. 1 अधिआ T"for अहिआ.
„
„
मञ्झे T"for मञ्झा.
„
„
जायो बहु T” for जा बहु.
„
1. 5 शब्दालंकारचित्रतया T” for शब्दार्थालंकारा चित्रतया.
96 1. 5 मन्त्रद्यूतप्रयाणाजिनायकाम्युदया अपि ॥ T"and T”’.
„
- 7 T"drops वर्ण्याना and has यैःकेैश्चिन्न्यूनमपीष्यते.
„
1. 13चम्पु^(०)T"for चम्पू.
„
1.14 सोच्छ्वासं पञ्चभेदकम् T"for सोच्छ्वासत्वं च मेदकम्.
97 1. 3क्षुद्रप्रबन्धा T” for क्षुद्राः प्रबन्धा.
„
1. 5 जयेत्युपक्रमं T” for जपत्युपक्रमं.
„
1. 7यत्रादौजयेत्युपक्रमं T"for तत्रादौजयत्युपक्रमं.
99 1. 2 अधैतेषा^(०) T” for अधैषा^(०)
„
1. 4 विद्यानाथकृतौT” for श्रीविद्यानाथकृतौT”’ has श्रीमहोपाध्यायविद्यानाथकृतौ.
100 1. 3 ^(०)पूर्वकः T"and T”’ for ^(०)पूर्विकैः.
101 1.1 ताललयाश्रयम् T"for ताललयान्वितम्.
„
1. 2 दशरूपकोक्रप्रक्रिया T” and T”’ for दशरूपकता प्रक्रिया.
„
„
नृत्यनृत्तयो^(०) T” and T”’ for नृत्तनृत्ययो^(०).
102 1. 2 T"notices व्यायोगसमवकारौद्वौ also for व्यायोगसमवाकारौ.
„
„
अपि T"for इति.
„
- 6पुनः T”’ for मतम्.
„
1. 7इति is dropped in T"and T”’
108 1.2मिश्रं चेति T” for मिश्रम्.
APPENDIX I
.
103 1. 3 शृङ्गारवरियो^(०) T” for शृङ्गारवीररसयो^(०)
„
-
5 शृङ्गाररसस्यैव^(०) T"for शृङ्गारस्यैव.
„ -
7पाषण्डतापसप्रभृतयो T"for पाषण्डप्रभृतयो.
„
1. 8 हास्यरसस्य प्राधान्यम् T”’ for हास्यरसः प्रधानम्
„
1. 8-9 °पिशाचराक्षसादयो T” and T”’ for ^(०)राक्षसपिशाचादयो.
„
9 धीरोद्वतनायकास्तेT” and T”’ forधीरोद्धता नायकास्ते.
„
„
रौद्ररसस्य प्राधान्यम् T”’ for रौद्ररसः प्रधानम्.
„
„
वीररसस्य प्राधान्यम् T”’ for वीररसः प्रधानम्.
„
„
समयकारे T"and T”’ for समवाकारे.
„
„
द्वादशविधा T” for द्वादश.
„
2 प्रधानः T”’ for प्रधानम्.
„
13 T"drops धीरोद्धतो नायकः.
104 1. 1 करुणो रसः T"and T”’ for करुणरसः.
„
7 ^(०)मैकेनैव T” for ^(०)मैकेन.
„
„
प्रयोजनेन संबन्धः T"for ^(०)प्रयोजनसंबन्धः.
106 1. 6 ^(०)विच्छेदो T” for “विच्छेदे.
107 1. 1 ^(०)कथाङ्गत्वात् पताका T”’ for ^(०)कथाङ्गंस्यात्.
109 1. 3 परिभावना T"for परिभावनम्.
„
1. 5 एतेषां स्वरूपं निरूप्यते T"for यथाक्रममेषां स्वरूपं निरूप्पते.
„
1. 6बहुकरणं T"for बहूपकरणं.
„
1. 15 बिन्दुप्रयत्नानुगुणान्यङ्गान्यस्य त्रयोदश T"बिन्दुप्रयत्नाभिगमान्यङ्गान्यस्य त्रयोदश T”’.
110 1. 3 निरोधः T” for विरोधः.
„
1. 7 विधूननम् T” and T”’ for विधूतम्.
„
1. 9प्रगम T"and T”’ for प्रगमनम्.
„
„
प्रतिमुख^(०) T” and T”’ for प्रमुख^(०).
„
10निरोधः T"for विरोधः
„
12 प्रगम^(०) T” and T”’ for प्रगमन^(०).
„
15 अन्यास्याशा^(०) T”’ for अस्पास्याशा^(०).
111 1. 1 ^(०)रङ्गानि द्वादश T"for ^(०)रङ्गानि.
„
-
- उद्वेगः संभ्रमाक्षेपौT” for उद्वेगसंभ्रमाक्षेपात्.
„
- उद्वेगः संभ्रमाक्षेपौT” for उद्वेगसंभ्रमाक्षेपात्.
1. 7 ^(०)प्रतिपादनं वाक्यं T” and T”’ for ^(०)प्रतिपादनवाक्यं.
„
1. 8 ^(०)समाधानवाक्यं T"and T”’ for ^(०)सामदानवचनं.
112 1. 1 ^(०)रुच्यते T”’ for ^(०)रिष्यते.
„
1. 2 ^(०)रङ्गान्यस्य T” and T”’ for रङ्गान्यत्र.
„
1. 4समेदो T” for संफेटो.
„
1. 5विरोधनम् T” and T”’ for निरोधनम.
APPENDIX I.
112 1. 6 प्ररोचना T"and T”’ for प्ररोचनं.
„
„
च T” and T"for तु.
„
1. 8 संभेदः T"for संफेटः.
„
„
पदबन्धादिकं T"and T"for वचबन्धादिकं.
„
1. 10 अवमानश्चलनम् T” and T”’ for उपमानं चलनम.
„
1. 11 विरोधनम् T"and T”’ for निरोधनम्.
„
1. 12 प्ररोचना T"and T”’ for प्ररोचनम.
113 1. 2 कृतिभांषोपगूहनम् T” and T”’ for कृत्याभाषोपगूहनम्.
„
1. 5 बीजोपगमनं T"and T”’ for बीजोपशमनं.
„
" विरोधः कार्यमार्गणम् T” and T”’ for कार्यमार्गण विरोधः
„
1. 9वाक्यार्थों T”’ for काव्यार्थो^(०).
„
1. 13 अभिनव^(०) T"and T”’ for अभिनय^(०).
„
„
चमत्कारकारित्वम् T"and T”’ for चमत्कारित्वम्.
114 1. 2 श्राव्यं चेति T"and T”’ for श्राव्यं च.
„
„
सूचनामात्रक्रमःT” for सूचनाक्रमः.
115 1. 4 स च द्विविधः T"andT"for स द्विविधः.
„
„
केवलं T” and T”’ for केवल.
116 1. 6 नान्द्यन्ते T”’ for नाद्येऽङ्के.
„
1. 7 नीचपात्रप्रयोजकः प्रवेशकः स चाद्येऽङ्के न युक्तः T”.
117 1. 1 अत्राङ्क० T” and T”’ for तत्राङ्क^(०).
„
1. 3 ^(०)संविधानसमाश्रयः T"and T”’ ^(०)संविधानरसाश्रयः.
118 1. 4 प्रवृत्तकम् T"and T”’ for प्रवर्त्तकम्
„
-
5प्रवृत्तकम् T"and T”’ for प्रवर्त्तकम्.
120 1. 2उद्भूत्यका^(०)T”’ for उद्घात्का^(०).
„ -
3 ^(_(०))मवस्कन्दित^(०) T"and T”’ for ^(०)मवस्यन्दित^(०).
„
1. 5 एतेषां T"and T”’ for एषां.
„
1. 8 अन्यप्रसङ्गात् T”’ and अन्यत्र सङ्गात् T” for अन्यकार्यप्रसङ्गात्.
121 1. 1 पूर्वरङ्गे नटादिभिः साम्यादनेकार्थयोजनं त्रिगतम् T"and T”’.
„
1. 4 °उक्तान्यथाख्यानमवस्कन्दितम् T” and ^(०)उक्तान्यथाख्यानमवस्यन्दितम् T”’.
121 1. 5°निगूढार्था प्रहेलिका T” and T”’ for “निगूढार्थप्रहेलिका नालिका.
122 1. 1 ^(०)लोमकरवचन T"and T”’ for लोमकरं वचनं.
„
1. 2 कतिचन T"and T”’ for कानिचन.
„
1. 5 ^(०)प्रतिमुखैर्गर्भ^(०) T"for ^(०)प्रतिमुखगर्भ.
„
1. 6 पूर्ण T” for पूर्व.
„
„
^(०)वृत्तिवृत्T"for ^(०)वृत्तवत्.
124 1. 1 पद्ये विहित T"for वहितं पद्यं.
Before वेणीसंहारे &c. T"has the following additional matter :—
किं च प्रसाधनं नान्दी।
नन्दी वृषः कोऽपि महेश्वरस्य रङ्गत्वमादी किल वे जगाम।
तद्रङ्गमुद्दिश्य कृतां पूजां नान्दीति तांनाट्यविदो वदन्ति॥
124 1. 8 नान्याः T"for नान्द्यां.
„
1. 3 After नाभ्युपगतः T” has—कालिदासेन वाक्यार्थः पदत्वेनाङ्गीकृतः॥ शाकुन्तलेऽष्टपदा।
„
1. 6 प्रसाद्य T"for प्रसाध्य.
„
1. 8 इति is dropped in T”.
125 1. 8 मुखनिर्वाहो T"for मुखनिर्वाहौ.
„
„
ससंभ्रमः T"for स संमतः.
126 1. 2 ^(०)नृत्याङ्ग^(०) T” for ^(०)वृत्यङ्ग^(०).
„
1.5 ^(०)चेटचेटीविटाकुलम् T” for ^(०)चेटीचेटसमाकुलम्.T”’ has ^(०)नटचेटीविटाकुलम्.
127 1. 1 विकृतम् T"for वैकृतम्.
„
- 2कामुकानां वचोवेषैः T”’ for कामुकादिवचोवेषैः.
„
1. 3विकृतं T”’ for वैकृतं.
„
1. 5समाकीर्ण T"and T”’ for समाकीर्णेः.
„
- 8यत्र गन्धर्व^(०) T"for देवगन्धर्व^(०).
„
1. 12मद्देन्द्र^(०) T” and T”’ for मायेन्द्र^(०).
128 1.6 यत्रामुखं T"and T”’ for यथामुखं.
129 1. 1 ^(०)स्त्रिषु T”’ for ^(०)स्तेषु.
„
1. 2 ^(०)दैवाधिकृताः T"and T”’ for दैवादिकृताः.
„
1. 5 निबद्धव्याः T"for निबद्धव्या.
130 1.4उद्भूत्यका^(०) T"for उद्धात्यका^(०).
„
1. 8 ^(०)ङ्कसंज्ञकः T"for ^(०)ङ्कसंज्ञितः.
131 1. 6 ^(०)प्रक्रियानुसारेण T"for ^(०)रीत्यनुसारेण.
132 1. 1द्वाविंशत्पदा T"for द्वाविंशतिपदा.
„
1. 2-3 ^(०)राज्यलक्ष्मी^(०) T” for ^(०)लक्ष्मी^(०).
„
1. 3 सूचिता T"for सूच्यते.
„
1. 4 जीयात् सिद्धमहालक्ष्मी^(०) T” for देयात् सिद्धिं महालक्ष्मी^(०).
134 1. 4 T"notices प्रकाशयति also for प्रसाधयति.
„
1. 5 वाक्यार्थ T”’ for काव्यार्थ^(०) .
„
-
6T"drops वृत्तिः.
135 1. 2 मध्यभुवन्^(०) T"for मध्यमभुवन^(०).
„ -
3T” and T”’ drop सेवार्थ.
„
1. 9नः श्रोत्रयो^(०) T” for तच्छ्रोत्रयो^(०)which is also noticed by T”.
„
9-10 प्रधानशृङ्गाटकं T”’ for पपान्नः शृङ्गाटकं.
135 1. 11T”‘has श्रुत्वा after इति.
„
12अस्मिन् T”’ for अस्मन्^(०).
136 1.8नायाति T"’ for चिरयति.
„
- 9सभाएT"for सभाए.
„
1-10संगीदसुई वा T"for संगीअमुइ ब्दा.
„
-
10^(०)तुज्झ^(०) T" for ^(०)तूर^(०).
137 1. 1 ^(०)प्रयोजनरूपं T" and T"’ for ^(०)योजनरूपं.
„ -
2 T"omits अज्ज.
„ -
6 T"has रम्यं for नाट्यं.
„ -
7 द्रागि^(०) T"’ for प्रागि^(०).
„
„
-
8 रूपलम्भाच्छलम् T" and T"’ for ^(०)रुपालम्भनाच्छलनम्.
„ -
9 नट्टसमम्गी T" for णट्टसामग्निं, T" notices सामग्गिं also.
„
„
सज्जीकादुं T"for समग्गीकादुं.
„
„
सज्जीकआ T"for सज्जीकिआ.
„
10 खु T" for क्खु.
„
„
रुव्वपण T" for रुव्वपण.
„
„
उवक्वमीअदु T" for उअक्वमीअवु.
138 1. 1नन्वियं T" and नन्वयमेव T"’ for नन्विदमेव.
" 1. 3 ^(०)सूर्यायहरयोः T"for पर्यायहरयोः.
" 1. 1छेआणं T"for छोआणं.
" 1. 5 ^(०)मणहरं T"for ^(०)मणोहरं.
" " खु T"for क्खु .
" 1. 5-6 पआवोक्वदकिदं T" for पआवोववदंकिअं.
" 1. 11 ^(०)र्विश्वैकविद्यस्य T"’ for र्विश्वैकवीरस्य.
140 1. 1 कण्णजुअलभाअधेएण T"for कण्णजुअलस्सभाअहेएण.
" 1. 1-2 मुणिअदि T"for मुणीअदि.
" 1. 3अमिणिज्जेइ T"for अमिणिज्जइ.
" 1. 4प्रकृतकार्यावलम्बना^(०) T" for प्रकृतकार्यालगना^(०).
" 1. 7लोके श्रवसो T"for लोकश्रवसो^(०).
" 1. 8प्रतापाङ्कं रुद्रस्प चरितं शुभम् T"’.
" 1. 8^(०)सुद्भूव्यम् T" for ^(०)मुद्धात्यकम्.
" 1. 10 अञ्अपरिअणेण T" for अज्जपरिववृणेण.
" " संघष्टिअदि T"for संघटिअदि.
141 1. 2 ^(०)महष्यं T" for ^(०)महष्य^(०).
" “^(०)चरिदम्भिT” for ^(०)चरिअं
" " महिअअरं T" for अहिकरिश्रंतो.
" 1.2-3 कईणो T"for कइणो.
142 1. 1 ^(०)सल्लारूपा T" and T"’ for ^(०)संलापरूपा.
„
- 2 होदिT" for होइ.
„
1. 3संदेहेण T" for सज्झसेण.
„
-
4-5 मे नाट्यविद्या^(०) T" and T"’ for मन्नाट्यविद्या०.
„ -
5कीदृश्या T"for कीदृशी.
„ -
6उब्बेलिज्जइं T"for ठब्बेलिज्जइ.
„
„
^(०)जाणवतं T" for ^(०)जाणयत्तं.
„
-
7आरोहेदुअअओT" for आरोहयुअज्जो.
„ -
10 ^(०)गीति^(०) T"for ^(०)गान^(०).
143 1. 1 अअओ T" for अज्जो.
„
1. 2 T" has सावधानम् before the speech.
„
„
त्वरया T"for त्वरा.
„ „
1. 4 ते चेतः T"and T"’ for तब चेतः.
„
„
संगीतकम् T" and T"’ for गीतिः.
„
1. 6 लच्छीसरसिअईमाघवलिअभुवणंतरा T" (लक्ष्मीः सरसिजसुषुमाधचचलितमुवनान्तरा)
„
1. 7 ^(०)कुवलय^(०) T"for ^(०)कुवलअ^(०),
144 1. 5 खु T"for क्खु.
„
„
अअअस्सT" for अज्जस्स.
„
- 6 ^(०)वेसण^(०) T" for वेल्लणं which is also noticed by T".
„
„
सहई T"for सहइ.
„
-
11 गुणत्वारोपणं T" and T"’ for गुणत्वारोपणात्.
„ -
12 अअओT" for अज्जो.
145 1. 4 ^(०)सर्वमङ्गलालङ्कृताकृति^(०)T"and T"’ for ^(०)सर्वमङ्गलालंकृति^(०).
„
1. 5 वीररुद्र T" and T"’ for रुद्र.
„
1. 7-8 काकतीयगुणवर्णनायोद्यतयोर्वेतालिकपोर्वचनमिवोपक्षिप्यते T".
„
„
^(०)मिहोपक्षिप्यते T"’ for ^(०)मिवोपक्षिप्यते.
„
9प्रवृत्तकम् T"for प्रवर्तकम्.
146 1. 3 समग्राङ्गप्रस्तावना T"for समग्राङ्गा प्रस्तावना.
„
1. 4 ^(०)कौलूतौT" for कलूतकौ.
„
-
9गुणनिधी रुद्रदेवो T"for गुणमहान् रुद्रदेवो which is also noticed
by T".
147 1. 5 धारितः is also noticed by T"’ for धार्यते.
„ -
8 बहूकरणात् T"for बहूपकरणात्.
143 1. 2 ^(०)विदितमिदम् T"and T"’ for विदितम्.
„ -
5 निष्पत्तेःT"for परिनिष्पत्तेः.
„ -
9 श्रेयोनुबन्धनगुणख्यानात् T"and T"’ for श्रेयोनुबन्धरूपगुणख्यापनात
143. 1 10 महोत्सवे T" and T"’ for महे.
„
„
मर्त्यमण्डला^(०)T" and T"’ for महीमण्डला^(०).
„
1. 14 प्रयतिष्यावहे T"and प्रतीक्षावःT"’ for प्रतीक्षावहे.
„
1. 15 T"and T"’ have परिक्रम्य before निष्कान्तौ.
„
1. 16 ^(०)विष्कम्भः T" and T"’ for ^(०)विष्कम्मकः.
149 1. 1. यथानिर्दिष्टो T"and T"’ for यथानिर्दिष्टवेषो.
„
1. 3 तदद्य T"’ for तमद्य.
„
-
7 तादृशमहामहिम्नो T" and T"‘for तादृशमहिम्नो.
„ -
8 हितोपदेशात् T" for हितोपदेशान्.
„ -
12 T"drops अन्यथा.
„ -
13 गणपतिना महाराजेन T" and T"’ for गणपतिमहाराजेन.
„
1. 14 अभ्यन्तरस्यानुभावस्य सदृशः पुत्र इति व्यवहारः कृतः T".
T"’ has अभ्यन्तरस्यानुभावमहिम्नः सदृशमत्र पुत्र इति व्यवहारः कृतः.
150 1. 4 साक्षिनिटिल T"and T"for साक्षनिटिलं.
151 1. 2 वपुषाहं नमस्कृत्य T"and T"’ for वपुषा तं नमस्कृत्य.
„
- 3 काकतीशाना T"and T"’ for काकतीयानां.
„
1. 4सिविणए वि T"for सिविणे वि.
„
-
7 ततः T"and T"’ for ततस्ततः.
152 1. 2 ^(०)स्थानगतस्य is also noticed by T"for ^(०)स्थानकुतस्य adopted
by it..
„ -
8 स्ववामाङ्गवधूपलालिताम् is also noticed by T".
153 1. 13 सर्वप्रकृतीनाम् T"and T"’ for प्रजानाम.
154 1. 7 मुखागमः T"for मुखागमेन.
„ -
9 ^(०)शयं मामवलोक्या^(०) T" for ^(०)शयमवलोक्या^(०).
„
1. 10 ^(०)स्योपदेशस्याङ्गीकरणात् T"for ^(०)स्पोपदेशाङ्गीकरणात्.
155 1. 1 ^(०)रक्षाक्षमे बाहुपरिधे T" for ^(०)रक्षाक्षमबाहुपरिधे.
„
„
^(०)रिति च विषाद^(०)T"for ^(०)रिति विषाद^(०).
„
1. 4 ०मुखेणेब्वT"for ^(०)मुहेणेव्व.
„
„
एव्व^(०)T"for एव^(०).
„
1. 11 काकतीयपरमेश्वरः T"and T"’ for परमेश्वरः.
„
-
13सज्जीक्रियन्तां T" for सज्जीक्रियतां.
„ -
14संभाराः T" for संभारः.
„ -
16राज्ञां T"for सर्वपार्थिवानां.
156 1.5सज्जीभवामि T" and T"’ for सज्जो भवामि.
„ -
6 बीजानुसरणारम्भरूपं T"’ for बीजानुगुणारम्भरूपं.
157 1. 5 माध्याह्निकीं क्रियाम् T" and T"’ for माध्याह्निकीः क्रियाः
„ -
8 T" has इति before यथाचितं and drops परिक्रम्य.
157 1. 9 इति is dropped by T".
„
„
T"’ closes the first Act as under—
इति विद्यानाथकृतौप्रतापरुद्रयशोभूषणेऽलंकारशास्त्रे कल्याणस्वप्नो नाम प्रथमोऽङ्कः॥
158 1. 4 ^(०)महाभिषेकोत्सव^(०) T"for ^(०)महाभिषेक महोत्सव^(०).
„
- 7 पुनरवमर्शो बिन्दुः T" and T"’ for पुनरवमर्शाद्विन्दुः.
„
1. 8 गत्या च T"and T"’ for गत्याथ.
„
1. 12T" hasकटाक्षैः for गवाक्षैः which is also noticed by it.
„
1. 13प्रतापरुद्रगमनाभिलाषा^(०) T"for प्रतापरुद्रगताभिलाषा^(०).
159 1. 1अअ्अT"for अज्ज.
„
1. 3 काकतीश्वरेण T" for रुद्रनरेश्वरेण.
„
1. 5 तन्नामानुगुण^(०) T"for स्वनामानुगुण^(०).
„
1. 6 सपादोपसंग्रहणं T"for सपादोपग्रहणं.
„
- 7 अञ्ञ T" for अज्ज.
„
„
अणणुभूद^(०) T"for अणणुहूद^(०).
„
1. 8 दिगन्तविजओ T" for दिअंतजओ..
„
1. 9 संपत्तयः T"and T"‘for प्रवृत्तयः.
„
„
वीर विष्णो^(०) T"and T"’ for विष्णो^(०).
„
12 ^(०)यात्रोद्यमनेना T" and T"’ for यात्रोद्यमेना^(०).
160 1. 3 काअइT"for काअईअ.
„
1. 5इट्ठइ T"for चिट्ठइ.
„
-
9T"and T"’ drop प्रवेशकः.
162 1. 1 राज्पेऽनभिलाषाद्विधूननम् T".
„ -
2-3 घुरंधरं त्वां T"for त्वां धुरंधरं.
„
1. 5. स्वयंभूदेवेन T"’ for स्वयंभुवा.
„
„
गुरो^(०) T"for गुर्वो^(०).
" 6 ^(०)शिथिला धर्म० T"for शिथिलधर्म^(०).
„
7महीधुरा^(०) T"for महीधुर^(०).
„
1. 8For प्रताप^(०) T"has रुद्रः (सानुरोचम्).
„
1. 9सर्वदा T"for सर्वथा.
1631. 2 काकइ T"for काकईअ.
„
-
2-3 घरइ T"for चारइवु.
„ -
3राजपुत्तो T"for राजठत्तो.
„ -
6 ^(०)णिच्छुर T"for ०णिठ्ठर^(०).
„
1. 8-9 ^(०)वइणो T" for ^(०)पइणो.
„
- 11वचनोत्या T"and ^(०)नर्मवचनोत्या T"’ for वच्चोत्था.
„
1. 13 राजलक्ष्मीनं विलम्बं सहते T"for राजलक्ष्मीविलम्बनं न सहते.
164 1. 1 विज्जाबहूपरिणअं T" for विज्जाबहूणं अहिअं.
164 1. 1 पिअंमि T’ for पइम्मि.
„
„
पणय^(०) T" for पणअ^(०).
„
-
2सहदु T"for सहठ.
„ -
4 ^(०)मत्कयाis also noticed by T"for ^(०)मुत्सुका.
„
1. 7 प्रगमनम् T"for प्रगमः.
„
-
8 T"drops एसो and has महूसदो for महूसओ.
„ -
11 मन्त्रकुशलाः T" and T"‘for मन्त्रशस्त्राः.
„
" समरापदानतोषितस्वामिन T"and समरापदानाराधितस्वामिन T"’.
165 1. 1 एतन्मन्त्रिनिप्रुरवचनानुरूपं वज्रम् T"and T"’.
„
-
2चमूवइणो T"for चमूपइणो.
„ -
5सेनापतिभिः समं T"for सेनाधिपतिभिः.
„ -
7तदनुग्राहयालुना T"for तदनुग्रहयालना.
„ -
10 T"drops राजपुत्र.
166 1. 1 विलोक्यन्तां T" for आलोक्यन्तां.
„
1. 2 ^(०)सामन्तविजयस्थानं T"for ^(०)सामन्तनिजस्थानं.
„
1. 3 गन्धगजारोहणं T".
„
I. 5रुद्रदेवो T"for वीररुद्रो.
„
1. 7विशेषवन्धवचनं T" for विशेषबन्धनवचनं.
167 1. 6संभ्रमप्रतिभये T" for संभ्रमं प्रतिभये.
„
- 7 ^(०)सहायोज्ज्वलाः is also noticed by T".
„
1.9 ^(०)भुजगराजभास्वत्फणाः T"and T"’ for ^(०)भुजगराजफक्वत्फणाः.
„
-
10 तिलंगमुहडाणमुच्छाहो T".
168 1. 2 स्वैरोद्धूर्ण^(०) T"and T"’ for स्वैरोद्गीर्ण^(०).
„ -
3 समग्रविसरत्प्रासाः T" and T"’ for समग्रविहरत्प्रासाः.
„
1. 4 सुवपुषो^(०)T" for सवपुषो.
„
- 5 तुरंगमतरंगा T" for तुरङ्गतरङ्गा^(०).
„
1.6 ^(०)स्ताडनायेव T"and T"’ for ^(०)स्ताडनायैव.
„
- 7 संरब्धनुन्नाम् T"and T"for संरमनुन्नाः.
169 1. 2 क्राम्यन्त्यर्श्वाःT"and T"’ for क्रामन्त्यश्वाः.
„
1.5°निचित^(०) T"for ^(०)निबिड^(०).
„
- 6°समुल्लसत् T" and T"’ for ^(०)समुच्चलत्
170 1. 4 क्ष्वेलत्सुमटाःT" and T"’ for क्ष्वेडाः मुभटाः.
171 1. 2 सप्रमोद^(०)T" for सप्रसाद^(०).
„ „
„
^(०)मवलोकयति T"and T"’ for ^(०)मालोकयति.
„
1. 5 यदादिशन्ति T" and T"’ for यथादिशन्ति.
„
1.10 ^(०)मुशकुन^(०) T"and T"’ for ^(०)शकुन^(०).
172 1. 4^(०)महोत्सवानन्तर^(०) T"and T"’ for ^(०)महोत्सवायनन्तर^(०).
172 1. 7 तान् गृहीत्वा T"
and T"’ for गृहीत्वा.
173 1. 1प्रपात्ति^(०)T"’ for प्रसत्ति^(०).
„
- 5ब्राह्मणादिचतुर्वर्णनिर्वर्णनाद्वर्ण^(०) T".
„
1. 8विजय^(०) T"for विअअ^(०).
„
„
^(०)समयादिण्णा T"for ^(०)समअदिण्णा.
174 1. 9 T"drops यथोचितं परिक्रम्य.
T"’ winds up the Second Act as under:—
इति विद्यानाथकृतौप्रतापरुद्रनाटकप्रकरणे विजययात्राविलासो नाम द्वितीयोऽङ्कः॥
175 1. 1 लेखकहस्तौT" and लेखिकहस्तौT"’ for लेखहस्तौ.
„
1. 4सानुसंधानाश्चर्यम् T"for सानुबन्धाश्चर्यम्.
„
„
महिमामहानुभावः T’’ for महिमानुभावः.
„
1. 5द्वयेषामपि T" which also notices द्वयानामपि of the text.
„
-
5-6 T"’ has समाकुली भूतानि सर्वेषामपि T"and T"’ व्याकुलीकृतानिafter कटकानि.
175 1. 2 यद्वज्रकवचीयन्ति T"for यद्वज्रकवचायन्ति.
„ -
11 T"’ has च after पुरोऽवलोक्य.
„ -
14 पाठयन्ति T" and T"’ for पाठयन्तीव.
-
1 T" has सर्व before सम्यङ्.
177 1. 1 T"has ^(०)लिखित^(०) for ^(०)विरचित^(०).
" 1. 5T"has तैस्तैः for तैः and drops च after ^(०)दनुमानं.
„ -
6 ^(०)कुतूहलिनां T"for ^(०)कुतूहलिता.
„
1.6-7 यथावदनुसरन्ति T" for यदावामनुसरन्ति.
„
1. 7 प्रश्नमालाविषय° T"for प्रश्नमालाविधेया^(०).
„
1. 9–10 °कामधेनोः T"for ^(०)कामधेनुः.
„
-
1 ^(०)भामिनी^(०)3T" for ^(०)कामिनी^(०.)
178 1. 8 तथावामपि T"’ for तदावामपि.
„ -
8-6 प्रतिपालयिष्यावहे T".
„
9परिक्रम्य निष्कान्ती T" for परिक्रामतः.
„
1.13 ^(०)प्रियंकरणैT"T"’ for ^(०)प्रियंकरै०.
„
„
^(०)र्वाक्यामृतैः T” and T"’ for ^(०)र्वार्त्तासृतैः.
„
- 14 ^(०)त्कर्षवचनरूपो^(०)T"and प्रस्तुतोत्कर्षवचनरूपो^(०) T"’ for ^(०)त्कर्षरूपो.
„
1. 15कथमयं च T" for कथमयं.
„
- 16^(०)मधितिष्ठति T" and T"’ for ^(०)मधिरोहति.
„
„
^(०)मनुसर्पामि T"for ^(०)मुपसर्पामि.
179 1. 2 T"adds विजिगीषुः before प्रस्थितः.
„
1. 3 T" drope स after पितृमान्.
„
- 5 T" and T"’ have कल्याणनिमित्तानि for कल्याणानि निमित्तानि.
179 1. 7प्रदुहन्ते T" and T"‘for प्रदुहते.
„ 1. 8 काकइ T"’ for काकइअ.
„ 1. I2सविनयसंभ्रम T".
„ 1. 13प्रवण^(०) T"and T"’ for प्रघाण^(०).
180 1. 2 T"and T"’ have निरूपयन्ति.
„ 1.5 यथादिशन्ति मन्त्रिणः T"and T"’.
„ 1. 6 T" drops पुनः.
„ 1. 8 हि क्रमः T"’ for विक्रमः.
„ 1. 9आलोक्य T" for अवलोक्य.
„ 1. 10^(०)पनताम्यां T"and T"’ for ^(०)पगताम्यां.
„ 1. 10ताम्यां T"before महार्ष्य.
„ „ महार्ह T"for महार्ष्य.
„ „ ^(०)प्रहर्षयो^(०) T" for ^(०)हर्षयो^(०).
„ 1. 11 ^(०)परिग्रह^(०) T"for ^(०)पाणिग्रहण^(०).
„ 1. 13 यथाज्ञापयति T"for यदाज्ञापयति देवः.
„ „ T" drops इति before भोरिक^(०).
„ „ T"’ has भौतिक^(०)for भौरिक^(०).
„ 1. 14 T"has सामदानरूपः and T"’ सामदानाचरणरूपः.
„ 1. 15 T"has सप्रश्नयप्रमाणं for सप्रमाणं.
181 1. 1 विजयवृत्तान्तमहोत्सवाः T" for ^(०)विजयविहतयः.
„ 1. 4 ^(०)समिन्ध्यमानस्य for ^(०)समिध्यमानस्य.
„ 1. 9 ^(०)त्रासाःT" and T"‘for ^(०)त्रासात्.
„ 1. 11 चमूसंभ्रमो T"for चमूडम्बरो.
182 1.1पुरोधाः T"for पुरोधसः.
„ „ ^(०)मन्त्रचमूपतीनामोजाधितम् T" and T"’.
„ 1. 4 ^(०)नाभिमुखायान्तं T" and T" for नाभिमुखं यान्तं.
„ 1. 7 विजित्य T"and T"’ for निर्जित्य.
„ 1. 9 चलति T"and T"’ for प्रचलति.
„ 1. 11 पराक्रमधने T" for पराक्रमधने.
„ 1. 14 ^(०)दान्त्रवालां T"for ^(०)दान्त्रमालां.
„ „ भैरवाकारधीरः T"for भैरवाकारघोरः.
1831. 3 ^(०)शयाश्रयम् T" for ^(०)शयाद्भुतम्.
„ 1. 5कादव्वं T"’ for किदवं.
„ 1. 6काकइ^(०) T" for काअइ^(०).
„ „पसति^(०) T" for प्पसत्ति?.
„ 1. 7 कअंT"’ for किअं.
„ 1. 8संमोदगद्गदंT"and T"’.
- 10 मित्रो^(०) T"’ for छिन्नो^(०).
„
„
^(०)प्रतिमय^(०) T"and T"’ for ^(०)प्रतिमट
„
1. 11 ^(०)रेणुबन्धा^(०) T"for ^(०)रेणुवद्धा^(०).
184 1.2 ^(०)प्रकर^(०) T"and T"’ for ^(०)निकर^(०).
„
„
^(०)परिवृतः T" for ^(०)परिवृत^(०).
„
-
11सोझासाः T"for सोत्प्रासाः.
„ -
12 ^(०)वीररुद्रः T"for ^(०)वीरः.
„ -
13प्रतिचलितः T"for प्रचलितः.
„
185 1. 5 ^(०)रेथेष्वातत^(०) T"’ for ^(०)पटेष्वाहत^(०).
„
-
7प्रस्थानारम्भजन्यं निजनिखिलभुजाडम्बकण्डूविडम्बः.
„ -
11 गजानुबद्ध^(०) T" and T" for गजानुबन्ध’
„ -
13 T" and T"’ drop कलिङ्ग and rightly as explainednotes.
„ -
14 प्रादुरभूवन् T"for प्रादुरभवन्.
186 1. 4 परापतन्ति राजकानि T"and T"’ for आपतन्तीमी राजकानि
„
1. 9 योद्धारो वयमन्ध्रसैन्यमुभटाः प्रत्यर्थिदावानलाः T".
„
- 10 ^(०)संबद्ध^(०) T"’ for ^(०)संरब्ध^(०).
T" has ^(०)द्रोषसंभ्रमवचनं and notices ^(०)द्रोषसंरब्धं वचनं.
„
1.11 इंरिसं T"for एदं.
„
मणी T' for मणिअ.
„
1.11-12 ठवक्कंतंT"‘for उदक्कंद.
187 1. 5 वंचना^(०) T"for वचना^(०).
„
-
8 ^(०)मुपागताः T"for ^(०)मुपगताः.
„ -
9णरवइणं सज्झसकाअरत्तणं T".
188 1. 1कातरत्वमिति T"and T"’.
„ -
2समरमीर्वाचोपरायाकुलाःT"for समभवंश्चोलाः पलायाकुलाः
„ -
4°तनवो T" for ^(०)वपुषो.
„
1. 5T"has सिंझाश्च and notices ^(०)सुंझाथ of the text, also.
„
-
7काम्भोजाः T"and T" for कांबोजाः
„ -
8ग्रामाङ्गणा रिङ्गणाः T"’ for ग्रावाङ्कणाः कोङ्कणाः.
„ -
9परिलसद्धीविहह्वलाः T".
„ -
10कर्नाटाः T" for कर्णाटाः.
„ -
13गूर्जराः T"for गुर्जराः.
„
1.15T" notices काम्पिल्याः and कांपीलाः also.
189 1. 1 T"has also साश्चर्यम् as stage direction after परि^(०).
„
„
^(०)हुवणाणि T" for मुवणाई.
„
„
जुझापदाणाणि T"for जुइझावदाणाई.
189 1. 5 आरूढमूलं T"’ for आमूलचूडं.
„
- 8तैस्तैः स्वपक्षै^(०)T" for सपक्षै^(०)
189 1. 11सांप्रतं T"for संप्रति.
„
1. 12 ^(०)मौलि° T"‘for ^(०)मोल^(०).
„
„
T"has भूत्वा after परिवृतः.
„
„
T"has स्वयं for स्वैरं.
„
1. 16 ख्यापितत्वात् T" and T"’ for व्यापित्वात्.
190 1. 1 तदचिरादेव T"for तदचिरमेव.
„
-
4 दूरं दूरम् T" and T"’ for दूरम्,
„ -
6विपाट्य T"and T"’ for निपाट्य
„ -
7 वेगोत्पातित^(०) T" for वेगोत्पाटित^(०).
„ -
8परीं T"for पुरं.
„
1. 9 ^(०)त्यमन्दरभसा T" and T"’ for स्यमन्दरमसः
„
„
करिग्राहिणी T"for करिग्रामणीः..
„
- 12 नरेन्द्रोपायनानांT" and T"’ for नरेश्वरोपायनानां.
„
1. 13 गन्धानिलाय T" and T"’ for गन्धानिलेन.
„
„
^(०)दन्ती T" and T"’ for ^(०)हस्ती.
191 1. 3 गर्भसन्धेर्बीजो^(०) T"and T"’ for गर्भबीजो^(०).
„
- 4द्वारंप्रासाद’ T" and T"’ for द्वारमासाद^(०).
„
1. 5 T"drops परिक्रम्य.
„
- 6 T"has इतिbefore free वीररुद्र^(०) and T"" winds up the Act thus’इति विद्यानाथकृती वीररुद्रविजयो नाम तृतीयोऽङ्कः॥
192 1. 3-4 ^(०)मम्बाई भूसणाइ कत्तो चोरिआइ T".
„
1. 4 मुणिअं T"for जाणिअं
„
„
पुत्तीएT"’ for उत्तीए.
„
- 4-5सअलाओ दिसाओ जेठण T"
„
1. 7 अणुदत्तणेण T" for अणुददृणेण
„
1. 7-8 अह्मारिसस्स T" for अम्हारिसस्स.
„
- 8 T"drops परिअणस्म.
„
„
अम्भुजगअमहाराजाहिसेओ T".
„
- 9 एआइणिं T"for एआइणीं.
„
„
मोतूण कहिं पत्थिदा T"
193 1. 2 ^(०)दपवादोऽयम् T"’ for ^(०)दपवादोऽङ्गम्.
„
1. 3 सहेहि T" for सहस्स.
„
1. 4 पडंचलेण T" for पटंचलेण.
„
1. 4-5 पडिमस्सेसि T"for पडिमज्जेसि.
„
- 5 ईरिसादराहंसिडिति T".
193 1. 6 संभेदः T" and T"’ for संफेटः.
„
-
7 ०सहावा एव्व T"for ^(०)सहावेव्व.
„ -
7 ^(०)कोइर्णी T" for ^(०)कोविणीं.
„
„
होर्दि T" for होदीं.
„
1. 9 ^(०)कम्पम् T" for ^(०)कम्पनम्.
„
„
वक्कसीलदुल्ललिदे T"
194 1. 1 बन्दीठण T" for बन्धिठण.
„
„
करेह्मि T" for करेमि.
„
-
3रक्खिहिरक्खिहि T".
„ -
4 प्रतिआएT"for बन्धिऊण.
„
„
हिडिंबस्सालयं T".
„
1. 5 दैवं T"for देव्वं.
„
„
पसादयंतीए ताप विलंबिअं किं करोह्मि T".
„
1. 7 हिडिंबालयगंडसेलेसु किंति मंत्थअंताडिज्जदि मंदभाअणीएT".
195 1. 4 इस्तावलम्बं T"for इस्तावलम्बनं.
„
„
तत्थहोदि T"for तत्तहोदि.
„
- 6णिग्गदो T"for णिग्गओ.
„
1. 7 मंगलणीराअणादीदपरिछोलिं णिवत्तेदुमव्यंतरं पदिसेमि T".
„
1.9इति निष्क्रान्ताः सर्वे T"
„
-
11प्रतीहारकः T"for प्रतीहारः.
„ -
12T"drops कुल.
196 1. 7जनाः T"for परिजनाः.
„ -
8.संशृणुध्वं T"for शृणुध्वं.
„
1. 9.सम्यग्धृतायाश्चिरं T"and सम्यक्कृतायाश्चिरं T"for सम्यग्धृतायो चिरं.
„
1.14 ^(०)मारमध्ये T" and T"’ for ^(०)मारमध्वम्,.
197 1. 3 कुरङ्गदृशश्च T" and मृगदृशश्चT"’ for कुरङ्गीदृशश्च.
„
1.5 T"and T"drop तत्.
„
1. 6-7 भो भो भूपाः यथावकाशमाध्वम् T" and T".
„
1. 10-11 क्षितिक्षिता^(०)T"and T"’ for क्षितिभृता^(०)
„
1. 15 अरेरे T"and T"’ for अरे.
„
- 16 महोत्सवं दिदृक्षमाणाः T"and T"’ for महोत्सवदिदृक्षवः.
„
1. 17 ^(०)प्रतिहारं T"and T"’ for प्रतीहारं.
198 1. 4 T"’ drops द्वार.
„
1.7यथादिष्ट^(०) T"for यथानिर्दिष्ट^(०).
„
1. 10 इत्यमी T" and T"’ for सत्यममी.
„
1. 17 ^(०)मात्यहस्ताद्यदवरीकृता T"’.
198 1. 18^(०)रिति कुर्वाणैःT’‘and T’’’ for रधिकुर्वाणैः.
199 1. 1-2 ^(०)नरेश्वरक्रमाधिष्ठितं T’‘and T’’’.
„
1. 2 चन्द्रासनं त्वदधिरोहणं T'''.
„
- 3 ^(०)संग्रहणरूप^(०) T’’’ for ^(०)संग्रहरूप^(०).
„
1. 4 रुद्रः T’‘and T’’’ for प्रताप^(०)
„
1. 5-6 ^(०)मिच्छसि T’‘for ^(०)मिच्छामि.
„
1. 9 प्रतिपालयामः T’‘for परिपालयामः.
„
1. 10 रुद्रः T’‘and T’‘for प्रताप^(०).
„
„
यदा^(०) T’‘and T’’’ for यथा^(०).
T’’’ winds up the Fourth Act thus इति विद्यानाथकृतौप्रतापरुद्रे नाटकप्रकरणेत्वरितमहोत्सवो नाम चतुर्थोऽङ्क॥
200 1. 2 त्वरध्वं त्वरध्वम् T’‘for त्वरध्वम्.
„
1. 12 ^(०)मुखसंध्यादि T" and T’’’ for ^(०)संध्यादि^(०).
„
- 16 ^(०)रस्याभिनन्दतः T’’’ for ^(०)रप्यमिनन्दतः.
201 1. 2 मूतसरणी T’‘for भूतसरणिः.
„
„
देवता T’’’ and T’’’ for देवताः
„
1. 3 श्रेयः प्रस्रव^(०) T’‘and T’’’ for स्रेहप्रस्रव^(०).
„
1. 6तत् सत्वरमेव T’’’ for तद्वयमेव.
202 1. 1 मार्गणान्निरोधः T" and T’’’ for मार्गणाद्विरोधः.
„
- 3 वीररुद्रः T’‘and T’’’ for प्रतापरुद्रः.
„
1. 8 ^(०)मेवोपगम्य T’‘and T’’’ for ^(०)मेव गत्वा.
„
-
9 रुद्रः T’‘for प्रतापरुद्रः. T’‘dropsमन्त्रिणश्च.
„ -
10 T’‘drops अग्रतो भूत्वा.
203 1. 2 T’’’ has श्रूयतां before कुलामात्याः.
„
1. 11 कृतैव T’’ and T’’’ for धृतैव.
204 1. 2 ससंभ्रमं सविनयमुपसृत्य T’‘and T’’’.
„
-
2 ^(०)समुचितवेषः T’‘and T’’’ for वेषः.
„ -
3रुद्रदेवमहाराजपर्यायः T’‘and T’’’ for प्रतापरुद्रः । देव महाराजपर्यायेण.
„ -
5 स्द्रः T’‘and T’’’ for प्रताप^(०).
„ -
9 समोद^(०) T’‘and T’’’ for सामोद^(०).
„
„
^(०)कणक^(०) T’‘for ^(०)कणअ^(०).
„
1. 10^(०)रस्सीव T’’ for रस्सि विअ.
„
„
महेंदोष T’‘for महेदो दिअ.
„
„
^(०)वट्टिणं T’‘for ^(०)वत्तिणं.
„
1.10-11 चक्कहरोच्वT" for चक्कधरो विअ,
„
- 12 T’’ has इदं before भद्रासनम्,
„
1. 14 रुद्रः T’‘for प्रताप^(०),
204 1.12 T"drops कुल.
205 1. 5 T"drops कौतुक.
„
- 7T"has क्ष्वेला for क्ष्वेडा.
„
„
T"and T"’ drop कोलाहल.
„
1.8 ^(०)शंसिनं T"for ^(०)प्रशंसिनं.
206 1. 2सति T"and T"’ for वर.
„
- 3 वलमि T"’ for वलमी.
„
„
स्वैरं T"for स्वच्छन्दं.
„
- 16 समः T"for समयः.
207 1. 6 ^(०)वरण^(०) T" and T"‘for ^(०)संवरण^(०.)
208 1. 3 ^(०)महिमा T"and T"‘for ^(०)गरिमा.
यः T"for कः.
„
1. 6 एतत् सवांतिशायित्वमुखेन T"’.
209 1. 6 ^(०)परिरक्षणम् T" and T"’ for परीक्षणम्.
„
- 13 शिरस्यञ्जालिं T"and T"’ for शिरस्स्वञ्जलिं.
210 1. 15 पश्चाद्व्रजाद्यैवT" and T"’ for पश्चाद्भवाद्यैव.
„
1. 16 क्रमादीक्षते T"and T’" for क्रमादीक्षते.
211 1. 6 वरानुकल्पितानां T"and वरानुकूलानां T"’ for भोगाकुलानां.
„
1. 7 यत् काकतीयक्षत्रियकुलं वर्धते T"and T"‘for काकतीयकुलं यद्वर्धते.
„
-
9 भागधेयानां काकतीयविभूतयः T"and T"’.
„ -
14 प्रतिहारभूमि^(०) T" and T" for प्रतीहार^(०).
212 1. 1 यथाज्ञा T" and T"’ for यदाज्ञा^(०).
„ -
6 स्वयंभूदेवस्य T"and T"for स्वयंभू^(०).
„
„
^(०)प्राप्ति^(०) T" and T"’ for ^(०)प्राप्ते^(०).
213 1. 3 ०द्वितीयोऽभवः T"for ^(०)र्द्वितीयोऽभवत्.
„
- 4प्रतिकलस्फार^(०) T" and T"’ for प्रतिकलः स्फार^(०).
„
1. 5गंणपतीश्वरसूरयः T" and T"’ for गाणपतीश्वराः सूरयः.
„
-
8 T" and T"’ drop देश.
„ -
12प्रतिदिशं T" and T"’ for प्रतिदिनं.
214 1.1स्वामिन् T"and T"’ for राजन्.
„
„
ते is dropped by T"and T"’.
„
-
3 श्रीमतामाशीर्वचनक्रमः (इति यथोचितं सर्वानुपवेशयन्ति) T"and T"’.
„ -
4 T"and T"’ drop सोल्लास.
215 1. 1 T" and T"’ drop अहंणया.
„ -
10यथाप्रधानं T" nnd T"’ for यथाप्रभावं.
„
1.1महार्हाणि T"and T"’ for महार्वाणि.
„
- 2^(०)विशेषोपायनानि T" and T"’ for ^(०)विशेषरूपाण्युपायनानि.
215 1. 14 कृतसहाया T"and T"’ for कृतसाहाय्या.
„
1.15-16 these lines are omitted in T".
217 1. 9 परः सहस्रप्रसादोन्मुखः T" and T"’.
„
1. 10 ^(०)मुदाहरतु T"and T"’ for ^(०)मुपकरोतु.
„
1. 11 वाक्यार्थ^(०) T"and T"’ for वाक्य^(०)
218 1. 1^(०)राज्यधुराया^(०) T"and T"’ for ^(०)धुराया^(०).
„
-
10 T" has simplyपञ्चमोऽङ्कः in place of इति प्रताप^(०)………ङ्कः।
219 1. 3 समुल्लसितः T"and T"’ for समुल्लसित^(०)
221 1. 2 सजातीयविजातीयै^(०)T" and T"’.
„- 5 ^(०)करुणरौद्र^(०) T" and T"’ for ^(०)करुणा रौद्र^(०).
„
- 5 ^(०)करुणरौद्र^(०) T" and T"’ for ^(०)करुणा रौद्र^(०).
-
7 स्थायीभावा प्रकीर्तिताः T"and T"’.
„1.9 स्थायीभावाः T"and T"’.
-
- 7तटस्थाश्चेति विज्ञेयाश्चतुर्बोद्दीपनक्रमाः T".
„
- 7तटस्थाश्चेति विज्ञेयाश्चतुर्बोद्दीपनक्रमाः T".
1. 9 ^(०)भावहावादिका मता T"
223 1. 1 भावितान्तःकरणत्वं T"and T"’ for भावितान्तङ्करणं.
225 1. 6 ह्यवहित्थ^(०)T" for ^(०)व्यवहित्थ^(०).
228 1. 2 योषितां T" and TV’ for योषितो.
„
1. 3
^(०)मुदयेन T" and T"’ for ^(०)मुदय^(०).
„
1. 4 T"drops भावयोः
229 1. 1 स्थायीभावानां T"and T"’ for स्थायिभावानां.
„
1. 5 सन्त्वन्ये च गुणप्रसाधितदिशः T"and T"’.
230 1. 1 विकृत^(०) T"and T"’ for विकृति^(०).
„
-
3कबरीर्भूताञ्जन^(०) T".
231 1. 2ही ही T"and T"’ for हा हा.
„ -
3दुःखातिशयः T" and T"’ for दुःखातिभूमिः
„ -
6कल्पितः T"and T"’ for कम्पितम्.
„ -
9^(०)पराधेन T" and T"’ for पकारेण.
232 1. 2सेवण T" and T"’ for शेषण.
„ -
3^(०)नुत्तीर्णां किल येन गौतमनदी T" and T"’.
233 1. 2सत्वरं T"for सर्वतः.
234 1. 2वीररुद्रस्येति पूर्वोक्तसात्वतीवृत्त्युदाहरणम् T".
235 1. 2प्रभवदुरु^(०) T"for प्रवददुरु^(०).
„ -
3 ^(०)विकटा T"for ^(०)निकटा.
„ -
5चित्तस्य विस्तारो T"for चित्तविस्तारो.
„ -
7औन्नत्यं महदन्यदित्यादि T".
236 1. 4 ^(०)मुलमा^(०) T" and T"’ for ^(०)मुगमा^(०).
238 1. 8 त्रिभुवनमपि T"’ for त्रिभुवनमिदं.
239 1.1 यदि खलु भवेत् का किलकथा T"’.
„
-
4 स्मरस्मेरान्–इत्यादि T".
T"‘and T"’ have the following hending before स्तम्भः स्यान्नि^(०) &c:—
अथ सात्विकानां स्वरूपमुदाहरणं च.
„ -
10 काकइपुरइत्थिभामो पेच्छंताओ T".
240 1. 1 मअणसरु^(०) T" for मअणसर^(०).
„
„
द्विआओवि T"for द्विआ.
„
- 5मुच्छाए T"for मुच्छाअं.
241 1. 2बहुआ T" for बहू.
„
„
^(०)खिण्णंगी T" for ^(०)ज्जिणंगी.
„
-
3 ^(०)द्विज^(०) T" for ^(०)ट्ठद^(०).
„ -
4श्रमादिजः T"for ^(०)श्रमादिभिः.
„
1. 11पाण्डुराइंT" for पाण्डुराइ.
„
„
एहिं T" for दाणीx.
„
- 11 सामाए T"for सामलंगीए.
242 1.5मदगद्गद^(०) T" and T"’ for मतं गद्गद^(०).
„
1. 8 एक्को T" forएको.
„
„
इत्थीए T" for बहुआण.
2431. 1 T" omits यथा.
„
1. 6 पआवरुद्दं अ T"for पआवद्दणिअचंदं.
„
- 11 दुब्बलंगेझि T"for दुब्लंगेम्हि.
244 1. 4 हिअअप्परिचओT".
„
„
कओ T" for किओ
„
1. 5 पअडंह्मि T" for पअडंम्हि.
„
-
9 अहिजाईए T"for अहिआईइ.
„ -
10 माअधेअंT"for माअहेअं.
245 1. 4मणइअसंग अमत्थं T".
„„
राअमरिअच्छी T".
„
1. 9 आगच्छइ T"for आअच्छइ.
„
„
करंतीT"for करेंती.
„
- 10 ^(०)राआसिं T" for ^(०)राआसि.
246 1. 5मन्दयत्नः T"’ for यत्नमान्द्यम्.
247 1. 1खु T"for क्खु .
„
„
सहिआजणो विलंबेदि T"
„
- 2चिर एहि T" for चिरेहि.
„
1. 7संणिहिदं वि T"for सण्णिहिअं विअ.
249 1. 7 ध्याना^(०) T" for ज्ञाना^(०).
250 1. 2 तथाप्रियालोकन^(०) T"’ for तथासमालोकन^(०).
„
1. 12 स्वेदादिकम्पकृत् T" and T"’.
251 1. 11 अर्धालम्बन^(०) T"for अर्धालम्बित^(०).
252 1. 3 ^(०)मदनोद्दामयशसि T" and T"’.
„
-
5न चलति तथा नोपरमति T"’.
-
2 उपायापायचिन्तनैःT" and T"’.
„ -
4 मणंति T"for मणेति.
254 1. 7 सिविणअ T" for सिविणे.
„
„
बहू आलिंगिडें T"for बहुआ आलिंगिदुं.
" 1.8 कर वसारेइ T" for करे पसारेइ.
255 1. 4 ^(०)क्षितीन्द्रं T" and T"’ for °क्षितीशं.
„
1.6रुदन्त्या^(०) T"’ for लुठन्त्या^(०).
256 1. 5विभ्रति T’ for शिक्षति.
„
-
11 ^(०)श्रापं T" and T"‘for^(०)आपान्.
257 1. 4 ^(०)चरिआई T" for ^(०)चरिआइ.
258 1. 4 ^(०)णरणाओ T" for ^(०)णरणाहो.
„ -
5 मिअंकरणंति T"( छा० मृगाङ्कुरत्नन्ति.)
259 1. 11 णिजजीविअं उदक्खंती T".
„- 12 जोद्गं T"for जोङ्गं.
260 1. 4बहू T"for बहुआ.
„
- 12 जोद्गं T"for जोङ्गं.
„
पुण्णघणत्यणिअं T"for घणघणत्यणिअं.
„
-
5दइदं सरमसवलीमा T"’.
261 1. 2कीदृक् कोऽयं T"for कोऽयं कीदृक्.
„ -
7 ^(०)त्रासान भवन्ति T"and ^(०)त्रासा न संभवन्ति T"’ for शमा न संभवन्ति.
262 1. 3किलकिञ्चितम् T" and T"’ for किलकिञ्चितम्.
„ -
11 ^(०)णरिंदस्स T" for ^(०)णरेंदस्स.
„ -
12दरपुलओ T"’ for दरपुलइओ.
„
„
गादुं T"for गाडं.
263 1. 2प्रकीर्तितः T"and T"’ for प्रकीर्त्यते.
„
1. 8फुटं इदि T"for फ्फुडं इइ.
„
„
कुणसि T"for कुणोसि.
„
1.9 घोसज्जइ T" for घोसिज्जइ.
„
„
भावो T"for भाओ.
„
„
सर्व्वगीणेहिं पुलएहिं T".
„
1. 11 माधुर्यमिह T"for माधुर्यमिति.
264 1. 4 ^(०)बहुआण T" for ^(०)बहुमणं.
„
„
लज्जाआलंघणं T"for मज्जाआलंघनं.
264 1. 5 हिअअहरा T"for हिअअहराः.
„ 1. 7गत्या च T"for गत्याथ.
„ 1. 9पेक्खह T" for पेच्छद.
„ „ सहिओ T" for सहिअ.
„ 1. 10 रण्णी खु T" for रण्णीमु.
265 1. 4 कअं T" for किअं.
„ „ इत्यिआणं T" for इच्छिआणं.
„ 1. 5 साधारणमसाएवि जंसहि T"(साधारणमूषयापि यत् सखि).
„ 1. 9 सहेलं पश्यन्त्याः प्रकृतिमुमगम्—इत्यादि.
266 1. 2 दिअहो विरओत्ति T" for दिवसो विरतोत्ति.
„ 1. 3 चलणेसु T"for चरणेसु.
„ „ वलआइं T" for बलआइ.
„ 1. 4-5 किलिकिञ्चितम् T"for किलकिञ्चितम्.
„ 1. 7 गेण्हंतेT" for गेह्णद.
„ 1. 8तणू तणूवि T" for तणूवि.
„ „ मुठडिवि T"for मुठडी अवि.
267 1. 2 ^(०)चरिआइं T"for चरिआइ.
„ „ बहू एणं T"for बहूप.
„ 1. 3 भावो T" for भाओ.
268 1.9सुकुमाराङ्गविक्षेपो T" which notices सुकुमाराङ्गविन्यासो also.
„ 1. 11 ^(०)रशना T"for ^(०)रशनं.
„ 1. 14 ^(०)दनुरहससेवा T"for दनुरहसिसेवा^(०).
269 1. 5 ^(०)चंक्रमत्वरा^(०)T" for ^(०)संक्रमत्वरा^(०).
270 1. 13 जोव्वणलच्छीए सिक्खिआ महुरंT".
271 1. 1 ^(०)स्याङ्कुरितत्वपङ्कवितत्वमितत्व^(०) T"
272 1. 2 रुद्दणिदो णअणा णं अतङ्किद्सवोT".
„ 1. 3 मअणो व्वT"for मअणो व.
„ „ चंदो व्व T"for चंदो विअ.
„ „ विमुक्कलंछणोपरिपुण्णो T".
„ 1. 5 विभ्रमः T" and T"’ for विभ्रमः.
„ 1. 7 मणं T" for मणो.
„ „ विलग्गई T"for विलगइ.
„ „ ^(०)णरेंदम्मि T" for ^(०)णरेदम्मि.
„ 1.8तेण वि विमुत्ता T".
273 1.4 ^(०)मरिआई T" for ^(०)मरिमाह.
„ 1. 5 रुहणिवपुल्लददाइं (कआ) काप णु मम्मि णिवडंति T".
274 1. 2 सुहवो T"for सुहओ.
274 1. 2 तह असोम्मसम्भावोT".
„
- 3 एक्को"T for एको.
„
„
रुद्दणिवोब्व T"for रुद्दणिवोविअ.
„
- 3 T"drops इदि.
„
„
गोठ्ठीए पोडमहिलाणं T".
„
5 विनिद्रत्वं विरहादिसमुद्भवम् T"and T"’.
„
- 7 किह किहवि T"for कहं वि.
„
„
चंदाअव^(०) T"for चंदादव^(०).
„
- 8 णिवोT" for णिओ.
„
„
वेइ T"for एइ.
275 1. 5मूमें T" and T"‘for भूमेः.
„
-
6 स्रक्तं मनस्ते शुभे noticed by T".
„ -
7 तां त्वां T"for त्वां तां.
276 1. 3 सुहएT"for सुहअ.
„ -
6 समंअ T"for बहुआ.
„ -
11बहूआ T" for बहुआ.
„
1 12कंखइ तुद्द दंसणामअंT".
277 1. 3त्वाम्यन्तरी वृत्ति^(०) T"for त्वम्यन्तरे वृत्ति^(०).
„
- 5 र्चितंतीए णरिंदंT".
„
„
हिअअठ्ठिअं T".
„
- 6 करणाई T"for करणाइ.
„
„
विस्संति T".
„
- 7 स द्विविधः T"for स च द्विविधः.
„
1. 9 परस्परालोकन^(०) T" and T"’ for परस्परावलोकन^(०).
279 1. 1 प्रेमानुबद्ध^(०)T".
„
-
3 नायकस्यान्यासक्तभावात्रितस्य विक्रिया ईर्ष्या T", TV"’ has चित्तविक्रिया-
280 1. 1 लक्ष्मीरस्य T"and T"’ for लक्ष्मीर्यस्य.
„ -
2वक्त्रस्थापि T"for वाक्पस्थापि.
„ -
4क्षोणीन्द्रेण T"for क्षोणीन्द्रे न.
281 1. 1 ^(०)वर्तित्वं T"and T"for ^(०)वृत्तित्वं.
„ -
5विरहातिपाता^(०) T"and T"’ for विरहात्तिंतापा^(०).
282 1. 3सख्ये T" and T"’ for सख्यै.
„ -
4 सभगेT"for निपुणे.
284 1. 4 आसन्ने महोत्सवे—इत्यादि
काकतीयनृपतेः प्रत्यर्थिनारीजनः इति मेदः T".
285 1. 5 खेलन्यायोधनोर्व्यात्रिभुवनजयिनो वीररुद्रस्य खङ्गः T".
285 After 1.5 T" has अत्र रौद्रबीमत्सयोः संकरः.
286 1. 2नायकाश्रित T"for नायकाश्रय.
„
-
4 अत एव T" for अथवा.
„ -
5 ^(०)शब्देस्योऽपि T" for ‘शब्देभ्यः.
287 1. 1 T"drops च.
288 1. 2T" drops अपि.
„ -
3 T" has ^(०)पाटवे न घटते for ^(०)पाटवेनैव घटते.
„
„
रसानांT"for एषु रसादीनां.
289 1. 2 वैरिणो T"for वैरिणौ.
„
-
8 ^(०)भयग्लानि^(०) T"for ^(०)भयं ग्लानि^(०).
„ -
9 औत्सुक्यंविस्मयो वेगो T".
„ -
17 मर्षणं T"for हर्षणं.
290 1. 9महाकविप्रसिद्धो T"for महाकविप्रसिद्ध्या.
„
1.12-13 रसाभासनिबन्धे ऊर्जस्थ्यलंकारः.
„
1.13-14 समाहतोऽलंकारः T".
291 1. .2 ^(०)प्रशमानां निबन्धे T"and ^(०)प्रशमानां निबन्धने T"‘for ^(०)प्रशमननिबन्धने.
„
„
^(०)प्रेय ऊर्जस्वि^(०) T"for ^(०)प्रेयोर्जस्वि^(०).
„
- 3 भावोदयभावसंधिभावशान्ति^(०) T".
„
1. 5-6 भावविभवस्फुरत्प्रादुर्भावः T".
292 1. 1 निबिडयति T".
„
- 4 ददति T"for दधति.
293 1. 1 अतो T" for ततो.
„
„
एव T"for एक.
T"winds up the Prakaraga thus:-
इति रसप्रकरणं समाप्तिमगमत् and T"’ has प्रतापरुद्रस्य रस^(०) &c.
296 1. 2 T" drops भूत.
„
-
7 पदगतवाक्यगतत्वेन T".
„ -
9 ^(०)मसमर्थमनर्थकम् T"’.
297 1. 4 ^(०)विरुद्धं हि च्युत T" and T"’.
„
„
^(०)मिष्यते T" for ^(०)मुच्यते.
„
- 9 पामरेषु प्रसिद्धं यत्तद्वाम्यमनुमन्यते T".
„
1. 11 शास्त्रमात्रप्रतीतं यदप्रतीतं तदुच्यते T".
„
-
14 आश्लीलं तदमङ्गल्यं T".
-
1 यस्माद्विहितं T" and T"’ for यत् स्पाद्विहितं.
„ -
4नस्ते T" and T"’ for ते नो.
„ -
6 दुश्चयवनादय इतीन्द्रपरत्वेन च कविभि^(०)T".
„
1. 9 ^(०)मद्दिशी T" and T"’ for ^(०)मीद्दशां.
299 1. 2 ^(०)विधेयांशस्याप्युदाहरणम् T".
„
-
6 क्व नु गन्तव्यमस्माभिररण्येऽप्यमुखा स्थितिः T".
300 1. 10 ^(०)ग्राम्यार्थान्यार्थानि T"and T"’.
„ -
11 कामक्षाम^(०) T"for कामं क्षाम^(०).
„ -
12 रुधिरप्रसिद्धस्य T"for रुचिरे प्रसिद्धस्य.
301 1. 3मन्त्रशास्त्रमात्रप्रसिद्ध T".
„ -
8प्रसिद्धा^(०) T"for प्रयुक्ता^(०).
„ -
14 अत्र प्रेतपदावासशब्दात् प्रेतलोकावासप्रतीतेरमङ्गलत्वम् T".
„
1.14-15 साधनं नीचमित्यनेन T".
„
1. 15 व्रीडाकरम् T".
302 1. 3 परुषवर्णात् परुषत्वम् T" and T"’ for परुषवर्णारब्धत्वम्.
„
1. 4 वाक्यदोषः T"for वाक्यदोषाः.
„
-
5 विसंधिः T"for विसन्धि.
„ -
14तदुच्यते T" for प्रकीर्त्यते.
-
- 2 श्रुधातो^(०) T" for शृणोते^(०).
„
- 2 श्रुधातो^(०) T" for शृणोते^(०).
1.5भवेदर्थे शब्दे वा T" for भवेदार्थः शाब्दो वा.
„
1. 8 ^(०)मकुर्वन्तो T"and T"’ for ^(०)मकुर्वाणा.
„
- 9 यथा तुरगा इति T"for यद्वा तुरगानिति.
304 1. 506 यथायोग्य^(०) T"for यथायोग^(०).
305 1. 1 विसन्धिः T"
for विसन्धि.
„
1.4पृष्ठ्यैश्वर्य T" for पृष्वैश्वर्यं.
„
- 5विसन्धिः T"for विसन्धि.
„
„
पृथ्वैश्वर्य क्व वा गतमिति वैरूप्यसंधिः T"’.
„
- 7 ^(०)
पौनरुक्तेT"for पौनरुक्त्ये.
„
-
8 पौनरुक्त्यम् T"for पुनरुक्तिमत्. T"also notioes पुनरुक्तम् whichis the reading of T".
„ -
10 तु T"for च.
„ -
12 मुखाधीना T"for मुखार्थिनो.
„ -
14T" drops विभ्राणा.
306 1. 5 जातमस्यT"and T"’ for जातमद्य.
„ -
6मानेनास्माभियंत् &cT".
„ -
13 शैलावासान् T"for शैलवासान्.
„
1.14-15 विवक्षितः संबोधनसंपूर्णः T"for विवक्षितसंबन्धोन संपूर्णः.
307 1. 2 यत्र T" and T"’ for यस्य.
„
-
4 ^(०)प्यन्ध्रनरेन्द्रस्य T"and T"’ for ^(०)प्यन्ध्रपुरीन्द्रस्य.
„ -
6तस्मिन् वयं पतिता इति T" and T"’ for तस्मिन्निपतिता वयमिति.
„ -
9 अथ भिन्नवचनम् T" for अथ मित्रलिङ्गवचने.
307 1. 10भिन्नलिङ्गिका T" for भिन्नलिङ्गका.
„
-
12 T"dropsयथा.
308 1. 3तत्रोपमाधिकं T"and T"’ for तत्राधिकोपम्.
„ -
8 म्लानोत्पलविता इत्यधिकम् T".
„ -
10 वयंयथा T" for यथा वयम्.
„ -
13 न्यूनोपमत्वम् T" for न्यूनोपमम्.
„ -
14 T"has यथा after मग्रच्छन्दोयतिभ्रष्टे.
309 1. 3 विन्ध्यारण्य इति T".
„ -
11 लिखितम् T"and T"’ for विहितम्.
310 1. 5 ^(०)नुचितम् वर्णााडम्बरम् T"’.
„ -
12 T" omits अथास्थानसमासम्.
„
1. 13अपदस्य T"for अपदस्थ.
311 1. 1 ब्रह्मणे कुप्यतां T"for वेधसे कुष्यतां.
„
1. 7 T"dropsवक्तव्यः.
„
-
8 अथ समाप्तपुनरात्तम् T".
„ -
9 पुनरादानं T"for पुनरादाने.
„ -
13 ^(०)द्भद्धूक^(०)T" for ^(०)द्भद्धुक^(०).
„ -
15 पुनरादानेन T"for पुनरादानात्.
312 1. 6 ^(०)संवन्धेनोक्तेः T"’ for गुर्जर^(०).
„
1. 10गूर्जर^(०) T"and T"‘for गुर्जर^(०).
„
1.12सुधांशुपाण्डुरा इत्येतावता T".
„
-
14 मग्रक्रमम् T"for मग्रप्रक्रमम्.
„ -
15 मग्रक्रममितीष्यते T".
313 1. 1अत्र बहुवचनतया प्रक्रमे विन्ध्यभूरित्येकवचनं क्रमभ्रष्टम् T"; T"’ hasthe same reading with this difference विन्ध्यभूः पूरि^(०).
„
1. 7 निरलंकृतिः T"for निरलंकृति.
„
- 11तदपार्थ T"and T"’ for चापार्थ तत्.
„
1. 13शुष्यदपा नद्यः T".
314 1. 5 ^(०)त्युपदेशान्नोपयुज्यते T".
„
1. 6T" drops अथैकार्थम्.
„
1. 10विचेतनान् T" for निश्चेतनान्.
„
„
लवशो T"for शतशो.
„
1. 13तत् संशयवदिष्यते T".
„
1. 16हसन्ति T for हसन्तु.
„
-
17स्तनयोश्च T" for स्तनयोः.
315 1.4 निद्रोत्तरकालभाविनो T" for निद्रोत्तरकालीन.
„- 8 फालेषु T" for भालेषु.
315 1. 9 निषीदन्ति T" for विषीदन्ति.
„
- 10 ^(०)निवासाद्विषादस्य T"‘for ^(०)निवासविषादस्य.
„
„
फाल T"for माल^(०).
„
„
^(०)लिपिभावस्य T" for ^(०)लिप्यभावस्य.
316 1. 13 चन्द्राननां T" for चन्द्राननाः.
„
1.14 श्रिष्टाः T"for क्लिष्टाः.
„
- 15 स्त्रीणां वचनैः संभोगप्रार्थना विरसा T";
स्त्रीणां वनचराणां संभोगप्रार्थनं विरसम् T"’.
317 1. 3 वध्वः T"for तद्ः.
„
1. 4 शुनकैरिव सारङ्गा T"for शुनकैरिव.
„
„
हीनोपमा TV for न्यूनोपमम्.
„
- 8 अमीषां सरसस्तीरं T".
„
1. 10 ^(०)त्यधिकोपमा T".
„
1. 11 T"drops अधातुल्योपमम्,
„
-
15 फाले T for माले.
„ -
16
विन्ध्यस्य फालेक्षणोञ्चलद्वह्नेरीश्वरस्य च T".
318 1. 1 अप्रसिद्धोपमानं यथा T".
„
1. 6 T"’ drops कवि.
„
-
7 T"drops अथ हेतुशून्यम्.
„ -
8 हेतोर्विनार्थकथनं हेतुशून्यं प्रचक्षते T".
-
1निरलंकार T"’.
-
2निरलंकार उच्यते T"’.
„
1.7T"drops अथश्रीलम्.
„
-
9अस्यापि पूर्वमुदाहरणं प्रदर्शितम् T".
„ -
10T"drops अथ विरुद्वम्.
„ -
15उत्तरस्यां दिशि T"for अथ दिश्युत्तरस्यां.
320 1. 3-4एवं विरुद्धान्तरमुदाहार्थ्यम्म् T".
„ -
6निबन्धनम् T"for निबन्धने.
„ -
9 शत्रवः T"for शात्रवः.
321 1. 2 ^(०)मुदाहार्याणि T"’ for ^(०)मूह्यानि.
„
„
रखमासादीनां T"for रसमावादीनां.
„
„
^(०)वाच्यतापि T"for ^(०)वाच्यता.
T" winds up the Prakarana thus: —
इति दोषप्रकरणं समाप्तम्,
322 1. 5 संकेतो T"for संक्षेपो.
„
- 9न सर्वैः संमतम् T" for न सर्वसंमतम्.
„
1. 11 मतम् T"for संगतम्.
322 1. 12 संमता T"for स्वीकृता.
„
- 13 ^(०)पददोषनिराकरणाय T"for T"’ for ^(०)पदनिराकरणाय.
„
„
^(०)निराकरणाय T"’ for °निराकरणार्थम्.
323 1. 1 च्युतसंस्कार^(०) T"for च्युतसंस्कृति^(०).
„
„
^(०)परिहाराय T"for ^(०)परिहारार्थ.
„
- 2 ^(०)निवृत्त्यर्थंT"for ^(०)निराकरणार्थं.
„
„
परुषनिवृत्यर्थं प्रेयो मतम् T"’.
„
-
4 स्वरूपं निरूप्यते उदाहरणं च T"’.
„ -
6 ^(०)मेकवदवमासमानत्वं T"’.
„ -
12 ^(०)मेकपदवत् T"for ^(०)मेकवत.
„
„
^(०)मासमानतया T".
„
„
श्रिष्टम् T"for श्लेषः.
„
18 अत्र झटित्यर्थसमर्पणपदत्वात् प्रसादः T".
324 1 4 श्रवःपारणां T"for श्रवः पारणं.
„
- 8 तुल्यवद्गणनात् समत्वम् T".
„
1. 10 माधुर्यं परिकीर्त्यते T" for तन्माधुर्यं प्रकीत्त्यते.
„
- 18 सौकुमार्यमुदीर्यते T"and सौकुमार्यं तदुच्यते T"’ for सौकुमार्यं प्रकीर्त्यते..
325 1. 1^(०)निष्पन्द^(०) T"and T"’ for ^(०)निष्यन्द^(०).
„
1. 5 यत्र T"and T"‘for यत्तु.
326 1. 2 जेतुः काकतिवीररुद्रनृपतेरित्यादि T".
„
- 7 ^(०)बन्धत्वमौदार्यं चेष्यते बुधैः T".
327 1. 2 यत्र T" for यस्तु.
„
1. 4 ^(०)भूमि^(०) T"for ^(०)भूम^(०).
328 1. 2 मुव्यक्तिःT" for व्युत्पत्तिः.
„
-
4 ^(०)मुद्वहरयैः T"for ^(०)मुद्रहकथै^(०).
„ -
6निष्पप्रहन्तु T" for निप्रहन्तु^(०).
„
1.9चाट्क्तौT"for चाटूक्त्या.
329 1. 3वीरता T" for धीरता.
„
-
6 ^(०)बन्वता T" for ^(०)बन्धत्वम्,
„ -
8क्षोणीरक्षणदक्षिणेत्यादि T".
„
1.13 ^(०)रन्यधर्मस्य T" for ^(०)रन्यधर्माणां.
„
„
^(०)धिरोपणम् T" for ^(०)धिरोहणम्,
330 1. 2समर्थेन T" for समर्थन.
„
- 4 स्तोतुर्मुहुT"for स्तोतुं मुहु^(०).
„
1. 9 यत् T"for तु.
„
1. 11 काकतीयनरेन्द्रस्येत्यादि.
331 1. 6 दिग्वसनं T" for दिग्वस्रं.
331 1. 9 परिकीर्तितः T"for परिकीर्त्यते.
„
-
11 काकतीयारूपस्तत्रा T"^(०).
„ -
12वीररुद्रनरेश्वरः T".
„- 13 ^(०)योग्यस्यार्थस्य T"’.
„
„
- 13 ^(०)योग्यस्यार्थस्य T"’.
संक्षेपोक्तिः T"for संक्षेपोक्तेः.
332 1. 1 ^(०)संजल्परूपत्वं तस्मात् सौक्ष्म्यं (T"’ has सूक्ष्मं) भवति T" and T"’.
„
I. 7विन्ध्याद्रेः T" for दैत्यारेः.
„
-
9श्रीकाकतीन्द्रप्रभुम्T".
„ -
13सुभअ^(०) T" for मुहल^(०),
„ -
14पसादेसि T"for पसाहेसि.
333 1. 2यथाक्रमेण निर्वाहो T"for यथोपक्रमनिर्वाहो.
„ -
4षड् दर्शनान्युपादाने T"and षड् दर्शनान्युपासन्ते T"’.
334 1. 3 स्वरारोहः T" for स्वरस्यारोहः.
„ -
8 काव्यशोमाकरत्वमेव गुणालंकाराणां स्वरूपमुक्तमुद्गटेन T".
T" winds up the Prakaraṇa thus:—
इति गुणप्रकरणं समाप्तम्.
337 1. 1 सर्वे T"for सन्तं.
„
- 4 तथैव T"for तथा.
„
„
^(०)स्तदलंकारतया T" for ^(०)स्तत्तदलंकारतया.
„
1. 6 काव्ये T"for काव्येऽपि.
„
-
7 द्विधाव्यपदेशःT" for मेदव्यपदेशः,
„ -
8 ^(०)लंकारवर्गस्य T"for ^(०)लंकारवर्गाणाम्.
338 1. 3 ^(०)मायाति T" for ^(०)मुपयाति.
„ -
6 T"drops भावसन्धि.
„
1. 8 ^(०)विभावनोक्तिनिमित्तविशेषोक्ति^(०) T" for ^(०)विर्भावनोक्तगुणविशेोक्ति^(०).
„
-
8-9 T"drops सम and has विचित्र for चित्र.
„9 ^(०)कावलि^(०) T"for ^(०)कावली^(०).
„
19 ^(०)निदर्शनादृष्टान्त^(०) T" for ^(०)दृशन्तनिदर्शना^(०).
„
„
^(०)प्रतीपसहोकि^(०) T" for ^(०)सहोक्तिप्रतीप^(०),
339 1. 8 ^(०)न्यासास्तकंन्यायमूलाः T".
„
-
12अत्रा^(०) T"for अधा^(०).
„ -
15 ^(०)वैलक्षण्यम् T"for र्भेदःः,
„ -
19 ^(०)भ्रान्त्यपह्नुतीना T" for ^(०)भ्रान्तिमदपह्णवानां.
„ -
20 साधारणधर्मस्य T" for साधर्म्यस्य.
340 1.4 उपमानोपमेययोश्च भेदा^(०) T".
„ -
5 ^(०)मुपमेयोपमानन्वययोर्भेदः T".
„
1. 7 1 T"has उभयोः before प्रस्तुतत्वे.
340 1. 14 द्विविधः T"for द्वितीयः.
„
1. 16 ^(०)मपह्नुति^(०)
T"for ^(०)मपह्नव^(०).
„
- 17 व्याजोक्तिमीलितसामान्येषु T".
„
1. 20-21 प्रत्यन्तरङ्गत्वेन T".
341 1. 6 ^(०)प्रभवे T"for ^(०)विभवे.
342 1. 2
दुरीक्ष^(०) T" for दुरीक्ष्य^(०).
„
1. 6पौनरुक्ते T"for पौनरुत्तये.
„
- 7-8यमके तु समस्वरयोर्व्यञ्जनसमुदायथोरावृत्तिः T".
343 1. 2पद्मेषु T" for पद्मेष्ट^(०).
344 1. 3 ^(०)पौनरुक्त्यलंकारः T"for ^(०)यौनरुक्त्यालंकारः.
„
-
7गुण्यन्ते T"for गण्यन्ते.
„ -
8गीयते T"for कथ्यते.
345 1. 5
समग्रां नति^(०) T" for समग्रानति.
348 1.
1
विद्यानाथकृतिः T" for वैजनाथकृति.
T" winds up the Prakaraṇ
a thus:—
इति शब्दालंकारप्रकरणम्.
351 1. 7 तत्रोपमानस्य कविकल्पितत्वेन लोकसिद्धत्वाभावात् T"‘उत्प्रेक्षायाममसि.
द्धस्या............ संभवात्.
„
-
8-14 Lines 8 to 14 are dropped in T".
„ -
17 and p. 352 1. 1-3are dropped in T".
352 1. 5दिङ्महेभ इव क्षोणीधौरेयः काकतीश्वरः T".
„
- 11नीराजयन्त्यन्ध्रपुरीरमण्. इत्यादि T".
353 1. 11 धर्मोऽयं इव पूर्णश्रीरिव्यादि T".
354 1. 10परस्परभेदेऽप्रतीते T"for परस्पराभेदप्रतीतेः.
„
1.16-17 न संघटत इति T"for न संभवति इति of the text which is alsonoticed by it.
„
- 17 सादृश्याक्षेये T".
355 1. 3वीररुद्रमद्दीपस्य जयह्मेमं वितन्वतःT".
„
1. 6-7सादृश्यस्य गम्यत्वा^(०) T"for सादृश्यगम्पत्वा^(०).
„
- 12 धर्मव्यवधानेन T"for धर्मिव्यवधानेन.
„
„
सदृशसंकाशप्रकाशादिशब्दानां T".
357 1. 3 दोर्दण्डेऽथ T"for दोर्दण्डे च.
„
- 10 अत्र मास्वानिवेति इवेन सह नित्यसमासः T".
„
1. 15 तैस्तैर्महीलोकनसंविधानैःT",
359 1. 11
वस्वौक^(०) TV for वस्वोक^(०).
360 1. 9 कर्मणमुला यथा T".
360 1. 10-11सत्सखीदर्श T"for सत्सरोदर्श.
361 1. 3कर्तृगमुला T"for कर्त्तृणमुल्लुप्ता.
„
1. 8 T"drops लुप्ता.
362 1. 1 T" drops इति of the करोति.
„
1.2 गोत्रशैलशिखरेषु T"for मोत्रशिखरेषु.
„
1. 6 T" drops लुप्ता.
„
1. 8 शुभ्राः T"for शुभाः.
363 1. 1कर्तृक्यङ् यथा T" for कर्तृक्यङायथा.
„
1. 5 वदान्यो मान्योऽस्तीत्यादि T".
364 1. 4 ^(०)भूरि^(०) T"for ^(०)भूम^(०).
„
-
6यन्माधुर्यविजृम्भितैःक्षतविषा T".
„- 8 अनुक्तधर्मोपमेया T"‘for अनुक्तधर्मोपमाना.
„
I. 13वदान्यो नान्योऽस्ति राजेति शब्दान्या T".
„1.14 T"drops च before साधर्म्यमुक्तम् and च of the अनन्तरोदाहरणद्वये
365 1. 1 उपमेयस्याधिक्यं न विवक्षितम् T"for उपमेयस्याधिक्याविवक्षणाच्च.
„ - 8 अनुक्तधर्मोपमेया T"‘for अनुक्तधर्मोपमाना.
1. 2 तत्र T"for तत्रैव.
„
- 10 द्युपमानं लुप्तम् T"for ^(०)द्युपमानलुप्ता.
366 1. 2 ^(०)धर्मोपादानैर्द्वेविध्यम् T".
„
1.4T" drops द्विविधम्.
367 1. 10रामेणेव T"for रामेणैव.
368 1. 9एकदेशवर्तिनी T"for एकदेशविवर्तिनी.
„
1.10द्विपैर्महद्भि^(०)T"which notices द्विपैश्चलद्भि^(०).
„
- 15 ^(०)रेकदेशवर्तित्वम् T" for °रेकदेशविवर्त्तित्वम्.
„
1. 18 हासति नीहारति क्षपाकरति T".
369 1. 1-2 भेदाभेदसाधारणस्य धर्मस्य.
„
1. 4अथानन्वयः T"for अनन्वयालंकारः.
„
-
6 ^(०)मेकस्यैवोपमानोपमेयभावः T".
370 1.2 धर्मोऽर्थ इव पूर्णश्रीरित्यादि.
„ -
5 सदृशानुभावादन्यस्मृतिः T".
„ -
6 सदृशपदार्थस्य^(०)T".
„ -
13निबन्धना अलंकारा दर्शिताः T".
371 1. 6 अत्रारोपविषयस्येत्यनेनाध्यवसायगर्भस्योत्प्रेक्षादेरनारोपमूलानामुपमादीनांव्यावृत्तिः T"for अनारोपमूलानां चोपमादीनां व्यावृत्तिः.
„ -
7 T"drops च.
„
1. 10 परिणामे T"for परिणामालंकारे.
„
- 11 सर्वेभ्यः सादृश्यमूलेभ्यः T"for सादृश्यमूलेग्यः सर्वेभ्यः.
„
1.12 विलक्षणमिदं रूपकम् T".
372 1. 1 ^(०)मेकदेशवर्ति T"‘for ^(०)मेकदेशविवर्त्ति.
„
1. 2 श्लिष्टाश्लिष्टनिबन्धनत्वेन द्वेविध्येT T"for श्लिष्टनिबन्धनत्वेनाश्लिष्टनिबन्धनत्वेन च द्वैविध्यम्.
„
- 9-10 ^(०)धाराधरैवैरि^(०) T"for ^(०)धाराधरे वेरि^(०).
373 1. 6 प्रसूननिरूपणेन T"for प्रसूनत्वनिरूपणेन.
„
1. 7 ^(०)वर्त्तित्वम् T"for ^(०)विवर्त्तित्वम्.
„
1. 10 जाता T"for राज्ञः.
„
1. 11 वारिवित्वरूपणेन T"for वारां राशित्वनिरूपणेन.
„
1.11-12 मन्दराद्रित्वरूपणेन T"for मन्दराद्रित्वनिरूपणेन.
„
1. 13^(०)वर्त्ति T"for ^(०)विवर्ति.
„
1. 14 यत्रावयविनिरूपणमात्रे T"for यत्रावयवनिरूपणमात्रे.
„
1. 15 अवयवमात्रनिरूपणेऽपि तथैव T"for अवयविनिरूपणमात्रेऽपि तदेव.
374 1. 2 ^(०)
प्रक्ष्वेलिता^(०) T" for ^(०)प्रवेशिता^(०).
„
1. 3 ^(०)द्रोधः^(०)T"for ^(०)द्रोदः^(०).
„
1. 11 स्फारंT"for स्फारः.
„
1. 12रूपके हेतुरूपकं परम्परितम् T".
„
1. 13पर्यवस्थितत्वादस्य न समस्तवस्तुविषयेऽन्तर्भावः T"’.
375 1.
7क्षोणीभूद्भवना^(०) T"for क्षोणीमृद्भुवना^(०).
„
„
रसो T"for ^(०)रेयं.
376 1. 3 ^(०)
योषिद्विलासधुना^(०) T"for ^(०)योषाविलासध्रुवा.
376 1. 1परिणामः T"for परिणामालंकारः.
378 1. 2 ^(०)विकासलक्ष्मीम् T"for ^(०)विलासलक्ष्मीम्.
„
1. 5 ^(०)मर्चयन्तः T"for ^(०)मर्चयन्ते.
„
1. 8 प्रकृतोपयोगे T" for प्रकृतोपयोगित्वे^(०).
379 1. 3 ^(०)द्धरणचुञ्चु^(०)T"for ^(०)द्धरणचुञ्चु^(०).
380 1. 2 ^(०)श्चिन्तामणेः स्फूर्तयः T"for ^(०)श्चिन्तामणिस्फूर्तयः.
381 1. 7 ^(०)शेषफणासु T" for ^(०)शेषशिरस्सु.
382 1. 7 ^(०)
विहारपदवी^(०) T" for ^(०)विलासपदवी.
„
1. 11 कामः T"for रामः.
383 1. 3 विषयनिगरणेन विषयिनिगरणेन च T"’.
„
1. 7 प्रकृतसंभावनमुत्प्रेक्षा T"for प्रकृतस्य संभावनंसोत्प्रेक्षा.
384 1. 2^(०)मध्यवसायविषयत्वेन T"for ^(०)मध्यवसायविषयत्वे.
„
1. 9 T"has यथा after तथाहि.
„
- 10-11 ^(०)रन्योन्यापेक्षितत्वात् T"for ^(०)रन्योन्यापेक्षत्वात्.
„
1. 11 फलनिमित्तत्वेन T"for फलं निमित्तम्.
„
1 .12संगच्छेत T"for संगच्छते.
„
1. 13 संघटते T"for संघटेत.
385 1. 5 यथा T"for यथा वा.
386 1. 1 इत्युत्प्रेक्षानिमित्तस्य मानुमतः T"for अत्रोत्प्रेक्षानिमित्तस्य मानुमत्^(०).
„
- 2स्वरूपेणोत्प्रेक्षाया^(०) T"for स्वरूपोत्प्रेक्षाया^(०).
„
1.15-16 प्रतीयमानोत्प्रेक्षा त्वष्टचत्वारिंशद्भेदा T".
387 1. 3 भूमिभुजां T"for भूमिभृतां.
„
- 4^(०)राज्य^(०) T"for ^(०)राज^(०).
„
1.7 ^(०)न्नोपमाशङ्कावकाशःT"for ^(०)न्नोपमाशङ्का.
„
-
11 समुच्छ्वसित T"for समुच्छसित^(०).
388 1. 11 खड्वाम्बुमिः संयति वीरवयोःT".
„ -
13 ^(०)प्रसृत^(०) T" for ^(०)प्रथित^(०).
389 1. 10 उपात्तगुणनिमित्तजातिभावफलोत्प्रेक्षा T"for जातिफलोत्प्रेक्षा.
„ -
14 उपात्तक्रियानिमित्तजात्यभावफलोत्प्रेक्षा T"for जात्यभावफलोत्प्रेक्षा.
390 1. 4 उपात्तगुणनिमित्तक्रियास्वरूपोत्प्रेक्षा T" for क्रियास्वरूपोत्प्रेक्षा.
" 1.9 उपात्तक्रियानिमित्तस्वरूपाभावोत्प्रेक्षा T"for क्रियाभावस्वरूपोत्प्रेक्षा.
„-
14 क्रियाया अभावः T"for क्रियाभावः.
„ -
15 उपात्तक्रियानिमित्तक्रियात्प्रेक्षा T"for क्रियाहेतूत्प्रेक्षा.
391 1.4-6 Lines 4 to 6 are omitted in T".
„ -
7 उपात्तक्रियानिमिता क्रियाहेत्वभावोत्प्रेक्षा T"for क्रियाफलोत्प्रेक्षा.
„ -
8दंमोलिसंरम्भमहं जिगीषुः T".
„
-
1. 12 उपात्तकियानिमित्तक्रियाभावकलोत्प्रेक्षाT"for क्रियाभावफलोत्प्रेक्षा.
„
-
14 ^(०)चन्द्रिकौधान् T" for ^(०)चन्द्रिकार्थान्.
392 1. 1 यशोविकारान् T"for यशोविलासान्.
„ -
4 अनुपात्तनिमित्तगुणस्वरूपोन्प्रेक्षा T" for गुणस्वरूपोत्प्रेक्षा.
„ -
7 उपात्तगुणनिमित्तगुणस्वरूपाभावोत्प्रेक्षा T"for गुणाभावस्वरूपोत्प्रेक्षा.
„ -
13 उपातक्रियानिमित्तगुणहेतूत्प्रेक्षा T"for गुणहेतूत्प्रेक्षा.
„ -
14 ^(०)सुपेतः T"for ^(०)मुपैति.
„
1.17 समुत्सुका T"for समुत्सुको.
„
- 18 उपात्तक्रियानिमित्तगुणहेत्वभावोत्प्रेक्षा T"for गुणाभावहेतूत्प्रेक्षा.
393 1. 6 उपात्तक्रियानिमित्तगुणफलोत्प्रेक्षा T"for गुणफलोत्प्रेक्षा.
„
1.10 उपात्तक्रियानिमित्तगुणाभावफलोत्प्रेक्षा T"for गुणाभावभलोत्प्रेक्षा.
„
-
- अरण्यवासार्जितबान्धवासुT".
394 1. 2 अनुपात्तनिमित्तद्रव्यस्वरूपोत्प्रेक्षा T"for द्रन्पस्वरूपोत्प्रेक्षा.
„
- अरण्यवासार्जितबान्धवासुT".
-
6 विभाति लोकानिह काकतीन्द्रः T".
„ -
7 अनुपात्तनिमित्तद्रव्यस्वरूपाभावोत्प्रेक्षा T"for द्रव्यस्वरूपाभावोत्प्रेक्षा.
„ -
12 उत्प्रेक्ष्यते T"for उत्प्रेक्ष्यः.
„ -
13उपात्तक्रियानिमित्तद्रव्यहेत्प्रेक्षाT" for द्रव्यहेतूत्प्रेक्षा.
395 1. 3 उपात्तक्रियानिमित्तद्रव्यत्वमावोत्प्रेक्षा T" for द्रव्याभावहेतूत्प्रेक्षा.
395 1.4काकतीन्द्र^(०) T"for काकतीय.
„
1. 7 उपात्तक्रियानिमित्तद्रव्यफलोत्प्रेक्षा T" for द्रव्यफलोत्प्रेक्षा.
„
- 8 दुग्धार्णवशतेनेव T"for दुग्धार्णवदशतायेव.
„
1. 11 उपात्तक्रियानिमित्तद्रव्यफलाभावोत्प्रेक्षा T"for द्रव्याभावफलत्वोत्प्रेक्षा.
396 1. 2 निराकाशमिवोत्थितम् T".
T"winds up the treatment of उत्प्रेक्षाas under— इति श्रीविद्यानाथकृतौप्रतापरुद्रेऽलंकारशास्त्रे औपम्यगर्भालंकाराः for इत्यौपम्यगर्भालंकारविवेकः.
„
-
6 अथातिशयोक्तिः T"for अतिशयोक्त्यलंकारः.
„ -
8^(०)जीवना T"for ^(०)जीविता.
397 1. 1 ^(०)विपर्ययरूपत्वेनाध्यवसाय^(०) T"for ^(०)विपर्ययरूपा त्वनध्यवसाय^(०).
„ -
5मर्त्त्यलोकमहोत्सवः T"for मर्त्त्यरूपमहोत्सवः.
„ -
8 औन्नत्यं महदन्यदेवेत्यादि T".
„ -
12 वास्तवामेदेऽपि भेदः T"for ^(०)वास्तव भेदाभावेऽपि भेदः.
„
„
कथितः T"for कल्पितः.
„
„
T" drops कवि after स्वतःसिद्ध and T"’ has ततः beforeस्वतः सिद्धः.
399 1. 3 हरिविञ्छ्यो^(०)T" for हरिब्रह्मणो^(०).
„
1.5 T"drops पौर्वापर्य.
400 1. 5-6 वातिशयोक्त्या T"for चातिशयोक्त्या.
„
-
7 परिकल्प्यते T"for कल्प्यते.
401 1. 3T"drops काल before भाविनो.
„ -
3-4 सहकालत्वमुक्तमिति T" for सहकालमिति.
„
1. 5-6 भेदेऽभेदरूपातिशयोक्तिः श्लेषगर्भाचारुत्वातिशयहेतुथा T".
„
- 10 ^(०)मनन्त्यमासा T"for ^(०)मनिन्यभासा.
402 1. 2 परापतत् T"and परापतेत् T"’ for पराभवेत्.
„
1. 3 रम्यतारम्यता वा स्यात् T"for अरम्यतारम्यता वा.
„
-
3 ^(०)रनुस्मृता T"for ^(०)रिति स्मृता.
„ -
4 रम्यतममरम्यतमं वा T" for रम्यमरम्यं वा.
„
1. 5 अरम्यता रम्यता चेति is dropped in T".
„
- 8 ^(०)रुद्रगुणवर्णनेन T"for ^(०)रुद्रस्य गुणवर्णनं.
„
„
काव्यश्रियामशोभनत्व^(०) T" for काव्यश्रियोऽशोमनत्व^(०).
„
-
9 कवीश्वरैः T"for कविभिः.
403 1. 3 प्राप्य T" for प्राप्त्या.
„ -
6तादृशगुणवत्तैव T"for तादृशगुणवत्तयैव.
„
1. 9 Before the KārikāT" has अथ समासोक्तिः.
„
-
10 सम्पत्वं T"for गम्यत्वे.
„ -
12विशेषणसाम्यं श्लिष्टं T"for श्लिष्टविशेषणसाम्यं.
404 1.1 विश्रथमेखलांT"for विश्लथमेखला.
„ 1. 3 संमीलिताक्षाः परं T".
„ 1. 4 विश्रयमेखलां T" for विश्लथमेखला.
„ 1. 9 व्रीतव्रीडमपास्तमौनमित्यादि T".
405 1. 1 भीतिसमालिङ्गिता T" for भीत्या समालिङ्गिता.
„ 1. 4 भूतात्मा T" for भूतात्म.
406 1. 1-2 स च चतुर्विधः T"for स चतुर्विधः.
„ 1. 2 लौकिकवस्तुनि T"for लौकिकंवस्तुनि.
„ 1. 3 शास्त्रीये वस्तुनि T" for शास्त्रीयवस्तुनि.
„ 1. 4 ^(०)समारोप इति T" for समारोपश्चेति.
407 1. 3यथावा T"for तथा.
„ 1. 9यथा च T" for तथा.
408 1. 2यथा च T"for तथा.
410 1. 2अन्येषामलंकाराणां is dropped in T"’.
„ 1. 7 कदाचित् T"‘for कयाचित्.
„ 1. 7-8 अन्यथा विवक्षया योजना क्रियते T" for विवक्षयान्यथा योजनान्या क्रियते.
„ 1. 9 वैलक्षण्यं T"for मिद्यते.
411 1. 2 सिरीप T"for सिरिमि.
„ „ णिम्भणारासत्तो T"for णिम्भरासत्ती.
„ 1. 3 णूण T"for णूणा.
„ „ सिरीएवि T"for सिरिणवि.
„ 1. 4 न्यूना न्यूनगुणा भवसि T"for न्यूनगुणा भवसि.
„ 1. 5 एवं T" for एवेति.
„ 1. 8 सुमेरुरयिT"for मुमेरुरपि.
412 1. 1अथ स्वभावोक्तिर्निरूप्यते T".
„ 1.3 यथावद्वस्तुवर्णनं T" for यथावद्वर्णनं.
„ 1. 6 त्रिपदि स्थितेन T" for त्रिपदस्थितेन.
„ 1. 10T"drops अथ.
„ 1. 11 यत्र वस्तु T" for वस्तु यत्र-
- 12 यत्र प्रकाशवस्तुनिगूहनाहर्षात् केनचिद् व्याजेन T".
413 1. 1 T"has यथा before the verse.
„ 1. 8 व्याजोक्त्या किंचित्साम्यान्निमीलनमुच्यते T".
„ 1. 10 प्रच्छन्नं T"for प्रच्छादितं.
„ 1. 11T"drops च.
„ 1. 13 ^(०)विष्फूर्जितैः T" for ^(०)विस्फूर्जितैः.
„ 1. 14 ^(०)तर्जितेषु T"for ^(०)वर्जितेषु.
414 1. 1-2 ^(०)दागन्तुकमारवोष्मा T"for ^(०)दागन्तुको मरूष्मा.
414 1. 7 श्रियः T"for स्त्रियः.
„
1. 12 यत्रैकस्प T"for यत्र कस्यापि.
415 1. 3 प्रतापरुद्रनरेन्द्रकीर्त्त्या T"for प्रतापरुद्रकीर्त्त्या.
„
1.13-14 काकतीन्द्रपादनखज्योत्स्नागतं T" for काकतिवीररुद्रपदनखज्योत्स्नागतं.
„
- 14 T"dropेस्म.
416 1. 3यत्र T" for अत्र.
„
„
^(०)रूपे हेतौTV for ^(०)रूपहेतौ.
„
1. 8 ^(०)भासुरे T"for ^(०)भास्वरे.
„
1. 11 प्रतापरुद्रनरेन्द्रयशसो T"for प्रतापरुद्रयशसो.
„
1. 17 विरोधेन T"for विरोधे.
417 1. 2विरोधभेदाः T"for विरोधः.
„
1. 3T"’ has विरोधः before यथा.
„
1. 6 कमलाशयो^(०)T"for कमलाकरो^(०).
418 1. 5 ^(०)भाषादयन् T" for ^(०)मुत्पादयन्.
„
1. 15 गुणेन गुणस्प विरोधो यथा T".
419 1. 1 भुवणमिमं T" for भुवणमिअं.
„
„
जअ T"for जए.
„
„
सिलाइणिज्जो T" for सलाहणिज्जो.
„
1.2जाया T"for जाआ.
„
1. 5 काकतीन्द्र^(०) T" for काकतीय^(०).
420 1. 1 ^(०)भूभुजः T" for भूपतेः.
„
1.2 ^(०)महीभुजाम् T"for ^(०)महीभृताम्.
„
- 9 प्रकृतस्याशक्य^(०) T"for प्रकृतादशक्य^(०).
„
1. 13 ^(०)भ्युपेत्य T"for ^(०)व्युपेत्य.
421 1. 8यथा च T" for तथा च.
422 1. 5 ^(०)दतनुरुचौT"for ^(०)दतुलरुचौ.
„
- 8 रोदःकुहर^(०) T" for रोचः कुहर^(०).
„
„
रोदः कुहक^(०) T"‘for रोधःकुहर^(०).
423 1. 1^(०)सेनाम्बुधे^(०)T"for ^(०)सैन्याम्बुधे^(०).
„
- 2^(०)प्रभृतीनां राजका^(०) T"for ^(०)प्रभृतिराजका^(०).
„
1. 3 अथ विभावनालंकारः T".
424 1. 1 T"drops अपि.
„
1. 2 T"has अप्रसिद्धकारणं T" for अप्रसिद्धं कारणं.
„
„
तथा घलेष्वहस्सु T" for तथाहस्सु.
„
- 3T" has अत्र before निष्प्रतापत्वादि^(०).
„
1.15तद्विरुद्ध स्यT" for स्वविरुद्धस्य.
„
„
फलस्याप्त्यर्थ^(०) T"for फलप्राप्त्यर्थ^(०).
425 1. 5 ^(०)प्राप्त्यर्थः T"for^(०)प्राप्त्यर्थ.
„ 1. 9तत्रान्योन्या^(०) T"for तदन्योन्या^(०).
„ 1. 12 ^(०)राज्यपीठम् T"for ^(०)राजपीठम्.
„1. 15 ^(०)रन्योन्यमलंकार्यालंकारकत्वम् T".
426 1. 3 विरुद्धकार्योत्पत्ति^(०) T" for विरुद्धकार्यस्योत्पत्ति^(०).
„ 1. 16 विजयस्या T" for जयस्या’.
427 1. 3 ^(०)वृत्त्यैकनिलया T"for ^(०)वृत्त्येकनिलया.
„
1. 4-5 रुद्रनृपतिप्रतापं T"for रुद्रनृपतेः प्रतापं.
„1. 8निरूपिताः T"for निर्णीताः.
„1. 15संघट्टिठण T"for संघटिऊण.
„ „सरिसं T"for सुसरिसं.
427 1. 15 कअत्यो T" for कअच्छो.
428 1. 1प्रतापरुद्रेण T"for प्रतापरुद्रे.
„ 1. 7गम्यते T"for गम्यं.
430 1. 1किअहुअं T" for कअजुअं.
„ „ तेत्ता T"for तेता.
„ 1. 2 दौवारो T"for दावारो.
„ 1. 3 अत्र यथा नल^(०) T"for अत्र नल^(०).
„ 1. 6 भाईरहीए T" for भाईरहिए.
„ „ रायइ T"for राअइ.
„ „ पुष्णिमाचंदो T"for पुण्णिमाअंदो.
„ 1. 7 अ T"for वि.
„ 1. 10अन्त्य^(०)T"for अन्त^(०).
431 1. 3T" drops अत्र.
„ 1. 4रक्ष्यते T"for रक्षितः.
„ 1. 5उच्यते T"’ for निरूप्यते.
432 1. 1तेन T" for तत्र.
„ 1. 11 यथा चन्द्रेण T"for अत्र चन्द्रेण यथा.
433 1. 8 ^(०)न्नोपेतिis also noticed by T".
„ 1. 17 T"drops निदर्शना.
434 1. 3काकतीश^(०) T"for काकतीय.
„1. 4महति T" for भुवन.
„ 1. 11T" drops बिम्ब.
„ 1. 12बिम्बप्रतिबिम्बकरणाक्षेपो T"for बिम्बकरणाक्षेपो.
435 1. 1 भेदप्रधानं साधर्म्य^(०) T"and भेदप्राधान्यं साधर्म्य^(०) T"’.
„1. 3 T" has वा. before न्यूनत्वेन.
436 1.9 T"drops केवलाप्रकृतयोश्च.
436 1. 11 विशेष्ययोरपि T” for विशेषणविशेष्ययोरपि.
436 1. 11 विश्लिष्टत्वे T” for श्लिष्टत्वे.
437 1. 2 T” drops दूय.
437 1. 4 तथोक्तं T” for तथाचोक्तं.
437 1. 6 संयोगादे^(०) T” for संयोगाद्यै^(०)’
437 1. 7 त्रिविधः T” for त्रिधा.
438 1. 1 ^(०)सन्मार्गः T” for सन्मार्ग.
439 1. 5 विशेषणवैचित्र्यमूलत्वात् T”
439 1. 14 ^(०)न्युत्प्रासगर्माणि T” for न्यभिप्रायगर्माणि.
440 1. 9 क्रमेण यथा T” for क्रमेणैषामुदाहरणानि.
441 1. 6 इत्येवमाद्युक्तिकथननिषेधाभासरूपादवश्यं परिपालनीयत्वाद्विशेषः प्रतीयते T”
441 1. 8 सामान्यप्रतिज्ञया विशेषकथननिषेधो यथा T”
441 1. 11-12 अत्र विज्ञापयाम इति कथनसामान्यप्रतिज्ञया विशेषकथननिषेधामासादय सर्वथा रक्षणीया इति विशेष आक्षिप्यते.
442 1. 4 T” drops तु.
442 1. 7 इत्युपगम्यते T” for इत्यभ्युपगम्यते.
442 1. 12 आरण्य^(०) T” for अरण्य^(०)’.
442 1. 13 प्रतापरुद्रस्य पादसेवात्यजनं T” for प्रतापरुद्रसेवान्यजन T”
442 1. 14 आमासत्वे T” for आभासे.
442 1. 17 गम्यत्व^(०) T” for गम्य^(०).
443 1. 3 सा एका T” for एका सा.
443 1. 4 निन्दाप्रतीतिः T” for निन्दा गम्यते.
443 1. 4 T” drops व्याजस्तुतिः.
443 1. 7 ^(०)चक्रेषु T” for वक्रेषु.
T" notices ^(०)वर्गेषु also.
444 1. 1 समासोक्तिव्यावृत्तिः T” for समासोक्तेर्व्यावृत्तिः.
444 1. 1-2 ^(०)वनुमानान्तर्मावशङ्का T” for ^(०)वनुमानाविर्मावशङ्का.
444 1. 3 पर्योयोक्तिव्यावृत्तिरपि T” for पर्यायोकस्य व्यावृत्तिरपि.
445 1. 7 पेच्छई T” for पेक्खइ.
445 1. 7 सकोदूहला T” for सकोउहला
445 1. 8 पस्तोमुआ T” for परिसास आ.
445 1. 8 पुस्सइ T” for प्पसइ.
445 1. 9 नवसंगमे T” for संगमे.
445 1. 13-14 प्रतापरुद्रस्य व्याप्तं गाम्मीर्यादि T” for प्रतापरुद्रगाम्भीर्यादि.
446 1. 5 कारणभूतप्रताप^(०) T” for कारणभूता प्रताप^(०).
446 1. 6 वाच्यस्य संभवा^(०) T” for वाच्यसंभवा^(०)
447 1. 2 प्रतीपः T” for प्रतीषम्,
447 1. 12 ^(०)रुपगीयते T” for ^(०)रूपमीयते.
448 1. 6 कोधाग्नि^(०) T” for कोपाग्नि^(०)
448 1. 10 वाक्यार्थगतत्वेन T” for वाक्यगतत्वेन.
448 1. 10 पदार्थगतत्वेन T” for पदगतत्वेन T”.
449 1. 3 रिपुम्लानाया T” for परिम्लानाया.
449 1. 3 भूपालभाललिपेः T” for भूपाललिपेः
450 1. 10 रिपुभूपतयो T” for रिपुभूपा.
451. 1. 13 T” notices अवेति also for अमस्त.
452 1. 1 ^(०)न्यथा पतेत् T” for ^(०)न्यदा पतेत्-
452 1. 13 तुल्याम् T” for तुल्यम्
453 1. 5 यदा T” for यदि.
453 1. 7 यदैकं T” for यदेकं.
453 1. 7 निगद्यते T” for नियम्यते.
453 1. 8 T” has द्विधा after प्रथमं.
453 1. 8 तदन्या चेति T” for तदन्यथा चेति.
453 1. 14 आर्थिकवर्जनीया यथा T” for आर्थवर्जनीया प्रश्नपूर्विका यथा.
454 1. 13 राज्ञि रुद्रनराधीशे रक्षके विजितद्विषि T”.
455 1. 4 किमस्ति T” for किमद्य.
455 1. 4 ^(०)व्यवहृतो T” for ^(०)व्यवहृता.
455 1. 8 प्रभवति T” for भवति.
455 1. 8 T” has पूर्णां after धर्मप्रतिष्ठा.
455 1. 9 इति प्रश्न उन्नीयते T” for इत्युन्नीयते प्रश्नः
456 1. 3 विरोधे तुल्य^(०) T” for विशेषस्तुल्य^(०)
456 1. 4-5 यत्र तुल्यप्रमाणविशिष्टवलयोर्युगपत्प्राप्तौ द्वयोर्विकल्पः औपम्यगमत्वाच्चारुत्वम् T”.
456 1. 10 T” drops तयोः
456 1. 14 दर्शनादीनां is dropped in T”. T” has स for तत्र.
457 1. 3 कलुषीकृतम् T” for कलुषं मनः.
457 1. 5 णरेंदो T” for णरिन्दो.
457 1. 6 मणं T” for मणो.
457 1. 7 भिन्नविषयत्वे T” for भिन्नविषये.
458 1. 10 T” has द्वितीयः before समुच्चयः
459 1. 4 कीर्त्ति T” for रीति’
459 1. 6 ^(०)न्यायेन संवन्धः T” for ^(०)न्यायसंबन्धः
460 1. 5 T” drops नरेन्द्र.
461 1. 4 पुनः पुनश्चेतसि दर्शनात् T” for पुनश्चेतसि निदर्शनात्.
461 1. 6 ^(०)स्वभावयथावद्वर्णनया T” for ^(०)स्वभावस्य यथावर्णतया.
461 1. 6-7 इद्द त्वत्यद्भुतत्वेन T” for इह त्वस्याद्भुतत्वेन.
^(461 1. 7 ०)द्युपसंधानेन T” for ^(०)द्यनुसंधानेन."
461 1. 7-8 रसवदवमासवत्त्वं T” for रसादेर्माव्यत्वम्.
462 1. 4 अद्भुतवर्णनया T” for अत्यद्भुतवर्णनया.
462 1. 5 ^(०)भावनायां T” for ^(०)भावनया
463 1. 1 यत्र प्रवलप्रतिपक्षस्य T” for प्रबलस्य यत्र प्रतिपक्षस्य.
463 1. 14 यदान्यथा^(०) T” for यदन्यथा^(०)
464 1 1-2 लोकन्यायमूलालंकारा निरूप्यन्ते T”.
464 1. 7 अत्र तु क्रमेण T” for अत्र क्रमेण.
464 1. 8 T” has वर्तते before स द्वितीयः पर्यायः
464 1. 9 तस्यानेकत्रा^(०) T” for तत्राप्येकत्रा^(०)
464 1. 9 T”. has अत्र तु क्रमेण after युगपद्वर्तनम्-
464 1. 11 कुहनाकिरे^(०) T” for कुहनाकिटे^(०).
464 1. 16 द्वितीयो यथा T” for द्वितीयः.
465 1. 9-13 The verse दृष्ट्या &c. is dropped in T”.
466 1. 1 णरिदपेसिअं T” for णरेंदपोसिआं.
466 1. 2 कत्तूरीविलेवणं T” for कत्थूरिविलेवणं.
468 1. 7 T” drops समेन.
468 1. 18 भजन्ते T” for लभन्ते.
469 1. 1 ^(०)जाताद्दीयमानस्य T” for ^(०)जातादादीयमानस्य
469 1. 1 ^(०)रल्पत्वम् T” for ^(०)न्यूनत्वम्.
469 1. 6 T” has प्रति after पूर्वं पूर्वं.
469 1. 6-7 कारणमालालंकारः T” for कारणमालाख्योऽलंकारः.
470 1. 2 सुजना स्फति T”.
470 1. 2 विभवा स्थेयं T”.
470 1. 14 प्रतापं च T” for प्रतापश्च.
470 1. 19 काकतीयकुलं तत्र T” for काकतीयान्वयस्तत्र.
471 1. 1 ^(०)श्चिराय तस्या^(०) T” for ^(०)श्चिरादस्या^(०)
471 1. 2 सार इत्थ^(०) T” for सारत्वमित्य^(०).
471 1. 3 T” drops श्री.
471 1. 3 अलंकारशाचे प्रतापरुद्रयशोभूषणे T”.
471 1. 4 समाप्तिमगमत् T” for समाप्तम्.
472 1. 2 ^(०)संकरा निरूप्यत्ते T” for ^(०)संकरौ निरूप्येते.
472 1. 9 ^(०)लंकाररूपता T” for ^(०)लंकारशेषता; The has पूर्वालंकाररूपता.
472 1. 10 ^(०)निरूप्यते T” for ^(०)निगद्यते.
473 1. 2 ^(०)निर्धारितो^(०) T” and ^(०)निर्वारितो^(०) T”. for ^(०)निर्दारितो.
473 1. 4 तीनारम्भरदसमुद्भटभटाटोप T”.
473 1. 9 द्विषद्भूपान् T”.
474 1. 2 अलंकृतीनामेवासां T”.
474 1. 5 ^(०)ङ्गाङ्गीभावेन एकवाचकानुप्रवेशेन संदेहेन च त्रैविध्यम् T”.
474 1. 6^(०)ङ्गाङ्गीभाव^(०) T”.
475 1. 1 ^(०)रङ्गाङ्गीभावः^(०) T”.
475 1. 2 ^(०)परोध इत्यत्र T”.
475 1. 9 ^(०)रङ्गाङ्गीमावः T”.
476 1. 1 अत्र विजितारिपुर इत्यत्रा^(०) T”.
476 1. 2 T has तौ after ^(०)नुप्रविष्टौ.
476 1. 5 जने चकोराणां T” for जनचकोराणां.
476 1. 5 प्रासादज्योत्स्निकामृतं T” and प्रसादज्योत्स्नया मुदम् for प्रसादज्योत्स्नयामृतम्.
476 1. 7 काकतीयान्वय एवाम्बुधिः अम्बुधिरिव काकतीयान्वय इति समासद्वयसंभवात् T”.
476 1. 9 साधकबाधकप्रमाणे संदेहनिवृत्तिः T”.
476 1. 9 तत्र T” for अत्र.
476 1. 10 परिज्ञानात् T” for पारिजातात्-
477 1. 6 अत्र प्रतिपक्षबलान्यर्णव इवेत्युपमायां व्याकुली^(०). T”.
477 1. 8 T” has एव after ^(०)द्रूपकालंकारः-
T" winds up the chapter as under:-
इति श्रीमन्महोपाध्यायविद्यानाथकृतौ प्रतापरुद्रयशोभूषणं नामालंकारशास्त्रं संपूर्णम् ॥
APPENDIX II.
Giving variations in reading in V. as compared with the text.
4 1. 8 पतस्याः सदृशं किं तु for तथाप्यस्याः समं नेतुः
6. 1. 10 ^(०)रुत्तमश्लोकचरितं.
10 1. 2 शाखप्रामाण्यमित्युररीकृतम्-
11 1. 11 ^(०)माकल्पन्त इति.
12 1. 2 मताः for गुणाः.
18 1. 6 धत्ते काकतिवंशमण्डनमणेः.
21 1. 2 उदाहृतः for स संमतः
24 1. 3 नायकः is dropped.
24 1. 10 स्नेहप्रकटनं
27 1. 1 तत्तन्नायकविशेषतया.
28 1. 9 प्रतीक्ष्यते.
33 1. 4 एतासां स्वरूपमुदाहरणं च कामशास्त्रे प्रतिपादितम्। प्रसिद्धाः पद्मिनीप्रसूतयो जातिविशेषाश्चत्वारः।
41 1. 7 नायकतिशायित्वाद्वीरोदात्तस्य.
45 1. 3 घोषः प्रतिवसतीत्यत्र.
45 1. 4 ^(०)पवित्रत्वाद्यसिद्धिः.
47 1. 3-4 ^(०)रचनाया अपि दोषत्वमुक्तम्.
49 1. 6-7 ^(०)माक्रोशासंभवात् तत्रत्या जना इत्यर्थः.
53 1. 3 अन्यतः प्रमाणात्तदप्रतीते^(०).
58 1. 7 अत्यन्तसुकुमारार्थ^(०)
77 1. 8 After भेदाः V. has अनुयाद्यानुग्राहकभावः संदेहलक्षणश्च एकव्यञ्जकानुप्रवेशश्च एते तु संकरभेदाः and then शुद्धाश्चन्द्रशरा &c.
80 1. 1 सर्वदैन्यविश्रान्तिभूमयो.
81 1. 1 अथ स्वतसिद्धार्थशक्तिमूलो.
90 1. 9 चमत्कारवत्वात्
92 1. 1 After the first line V. has भयानकरसस्याङ्गित्वं प्राधान्यं तत्प्रतापरुद्रस्याधिक्यं प्रतिपाद्य तच्छत्रूणां भयप्रतिपादनेन वा ।
97 1. 2 यथा हर्षचरितादि.
98 1. 4 पादैः for वाक्यैः.
101 1. 1 ताललयाश्रयम्।
103 1. 2 रसभेदात् for नायकमेदात्.
103 1. 6-7 शृङ्गारवीररसयोः सूचनामात्ररसता.
109 1. 7-8 बीजानुकूलप्रयोजनसंघट्टनविचारो युक्तिः
116 1. 3 यत्र पूर्वाङ्कगतपात्रै^(०).
119 1. 3 द्विधा मतः for द्वि धैव सः
119 1. 7 पात्रप्रयोगो यत्रायं.
120 1. 8 अन्यत्र सङ्गात् for अन्यकार्यप्रसङ्गात्
121 1. 1 नटादिसल्लापः प्रस्तावनायां साम्या^(०)
125 1. 6 सूच्यते वीरशृङ्गारो.
126 1. 4 प्राकृतं for वैकृतं.
126 1. 5 ^(०)चेटचेटीविटाकुलम्.
132 1. 4-6 The portion from देयात् to विधिलक्षणा is dropped in V.
132 1. 7 सप्रार्थनम् for सहर्षम्.
135 1. 8 लोचनयोः प्रधानं.
136 1. 1-7 मनसि वर्तते। एषा प्रशंसयाभिमुखीकरणरूपा &c.
136 1. 9 (पुरोऽवलोक्य) अहो सर्वं सुघटितं विधात्रा। यतः
सभास्वयंभूपरमेश्वरस्य………………………कवैश्चवाचः ।
** नटी—(सस्पृहम्)—किं भारईए &c.**
137 1. 7 निर्व्यूढमेव त्वया.
140 1. 8 ^(०)रुद्रस्य चरितं शुभम्.
146 1. 3 साङ्गा for समग्राङ्गा.
154 1. 9 सप्रसादातिशयं मामवलोक्या^(०)
178 1. 17 अहमुपसर्पामि for तदहमुपसर्पामि
190 1. 12 प्रथमः for पुरुषः.
192 1. 9 कर्हि for कहं.
195 1. 7 ^(०)दीपपङ्क्ति for ^(०)दीपरिञ्छोलिं.
196 1. 7 कुलामात्यवर्गाः.
200 1. 17 स्वतः सिद्धस्य for प्रसिद्धस्य.
203 1. 7 निर्णीतः for निर्णयः.
264 1. 9 पश्यत for प्रेक्षय.
265 1. 4 किण्णं for केण.
265 1. 4 for केन कृतं V. has कि न कृतं in the छाया.
286-7 1. 5 v. drops राषणादिशब्देभ्यः शत्रुमात्रप्रतीतौ.
289 1. 10 चापलं धृतिः.
298 1. 10 सहिष्यध्वे कथं.
299 1. 1 ^(०)बाहूनामित्यपृष्टम्॥
307 1. 13 मालवभूभुजः,
317 1. 9 महर्षय इव क्षुद्रैरद्य.
322 1. 7 Before एषां मध्ये &c. V. has the line चतुर्विंशतिरेते स्युर्गुणाः काव्यप्रकाशकाः।
324 1. 4 अमर्त्यतरु^(०) for वदान्यतरु^(०)
334 1. 3 Before एतेषां गुणाना &c. V. has उत्तरार्धे हस्ताक्षरतया स्वरस्यावरोहः।
337 1. 7-8 शब्दसंघटनाश्रया गुणाः.
338 1. 17 Before this line V. has अलंकाराणां परस्परवैलक्षण्यं निरूप्यते।
353 1. 7 अत्र प्रकृतस्प
354 1. 6 सामानाधिकरण्यस्य प्रयोगादन्यथा^(०).
354 1. 12 परस्परमेदप्रतीतेः.
386 1. 16-17 निमित्तस्य गम्यत्वेन.
395 1. 11 द्रव्याभावफलोत्प्रेक्षा यथा.
403 1. 6 पुरस्तादीदृग्गुणवत्तयैव.
407 1. 2 व्यवहारसमारोपः.
431 1. 5 पदार्थंगतालंकारनिरूपणानन्तरं.
442 1. 17 गम्यत्वप्रस्तावाद्.
456 1. 2 वाक्यन्यायमूलालंकारप्रस्तावाद्.
457 1. 8 एकविषयत्वे यथा क्रियासमुच्चयः.
474 1. 5 एकवाचकानुप्रवेशेन संदेहेन.
Variants in the Ratnâpaṇa in V. as compared with the text.
It begins with the second viz. Kavya Prakaraṇa
42 1. 16 ततस्तदेव निष्कृष्याह.
42 1. 17 दोषवर्जितन्वस्य व्याख्यान^(०)
42 1. 17-18 नाल्पोऽपि दोषः प्रमादादिनाप्युपेक्ष्यः.
42 1. 22 काव्यातिरिक्त^(०).
43 1. 3 विविचत्रादौ.
43 1. 4 ^(०)रर्थबोचकाः
43 1. 4 ^(०)
‘लक्षक^(०)
for ^(०)
लाक्षणिक^(०)
43 1. 6 अस्य for तस्य.
43 1. 10 ^(०)प्रत्यायक^(०) for ^(०)प्रत्यायन^(०)
43 1. 12 ^(०)स्तात्पर्यादागतत्वात्.
43 1. 18 मुख्यार्थे वाचकाभावात्.
43 1. 19 नन्वत्र for तर्ह्यत्र.
43 1. 23 निन्दाप्रशंसावाक्येषु.
44 1. 23 प्रभाकरः.
45 1. 7 सादृश्यसंबन्धरूपत्वम्.
45 1. 9 तस्योभय^(०).
45 1. 14 ^(०)सामान्य^(०) for ^(०)साम्य^(०).
45 1. 24 ^(०)स्सीदेदिति मावः । अनेन &c.
46 1. 6 व्यवसानहेतवो.
46 1. 8-9 साध्यवसानयोः
46 1. 13 आयुरेवेत्यादावपि.
46 1. 19 कौशिक्यादीति.
46 1. 23 ता एता for ता एव.
47 1. 8
^(०)स्तस्यास्तदाश्रितत्वं.
47 1. 23 शेषः for विशेषः
47 1. 25 उत्तप्राचार्यैः for तदुक्तमाचार्यैः.
48 1. 17 V. drops रूडिर्योगमपहरति
48 1. 18-19 ^(०)त्याशङ्क्याह
48 1. 23 मुख्यार्थसंबन्धविषये.
48 1. 23 आरोपितो निर्धारितः for आरोपितः
49 1. 13 ज्ञेयम् for विज्ञेयम्.
49 1. 13 तत्र for अत्र.
49 1. 16 तत्रेति.
50 1. 9 लक्षणत्वेन for लक्ष्यत्वेन.
50 1. 11 ^(०)रेकावल्या.
50 1. 15 तत्सहितान्यस्य.
50 1. 17-18 V. drops मन्थाचलः.
50 1. 19 कृत्वाथ वासुकिम्.
50 1. 20 इति पुराणात्.
51 1. 18 एकत्वेन for ऐकरस्येन.
51 1. 19 लक्षणान्तरायोगे.
52 1. 9-10 वाक्यार्थः प्रतीयत इत्यर्थः.
52 1. 12 ^(०)दन्वयशक्तिविधुरत्वादन्वय^(०).
52 1. 13 काव्यशरीरस्य.
53 1. 20 व्यङ्ग्यरहितस्य वाक्यस्य.
54 1. 7 सहोपमादिकं.
54 1. 13-14 ^(०)मर्थान्तराभिधान^(०.)
54 1. 23-24 ध्वनिशङ्काकलङ्कावकाशः.
54 1. 24-25 व्यङ्ग्यत्वमित्युच्यते.
54 1. 26 निर्विकारं for निर्विवादं.
55 1. 9 कोऽन्वत्र.
55 1. 12 यदन्यत्र for यदत्र.
55 1. 23 ^(०)परीक्षमेव.
56 1. 7 विशेषार्थ एव.
56 1. 7-8 शब्दशक्तिनियमनापेक्षणात्.
56 1. 9 स्थायिभावस्य व्याभिचारिभावगतविभावानुभाव^(०)
56 1. 25 ^(०)मनुमेयप्रतिपाद्यद्वयं.
57 1. 6-7
^(०)द्यनेककार्यप्रतीति^(०).
57 1. 14 V. drops पदार्थे.
57 1. 15 V. drops अतः.
57 1. 23 V. drops अस्य.
58 1. 17 पदार्थमात्रेणा^(०)
59 1. 20 V drops कामिनीनां.
60 1. 19-20 किमन्यशब्दाभ्यामनिर्वचनीयत्वलोकोत्तरत्वप्रतिपादकतयैव रुद्रनृपतेः &c.
63 1. 13-14 ^(०)निरपेक्षितत्वादित्यर्थः.
64 1. 18 जनपदान्तात्.
64 1. 22 चर्चेत्यादौ.
64 1. 22 ^(०)शेषेत्यत्र.
64 1. 22-23 त्येवमनेकशः.
65 1. 12 गोडीयामुदाहरति।
65 1. 16 V. drops अस्य after तेन.
- 19 वलितचेतसां.
66 1. 19 ^(०)भरितामित्यत्र.
67 1. 13 अथ रीतयश्चेत्यत्र.
68 1. 4 ^(०)विश्रान्तिविरहेण.
,, 1. 7
^(०)पक्ष्मतायुक्तं.
,, 1. 19 स एव रसो रसद्रवद्रव्यं.
,, 1. 20 V. drops वारिधि and महोर्मिभिः
,, 1. 27 समन्मथा इत्युच्यन्ते.
70 1. 14 सन्दर्शनार्थं for संज्ञानार्थं.
,, 1. 15 वाच्यवाचकादौ.
,, 1. 17 तस्य व्यङ्ग्यस्य.
,, 1. 20 निबन्धनेन.
,, 1. 23 न तु कुलाचाराद्युपरागिणा.
71 1. 16 कार्पण्यादिवचनचेष्टा.
72 1. 14 न मृष्येत for न ममृषे.
,, 1. 14-15 इत्यादिना स्वार्थे कन्प्रत्ययः.
73 1. 6 ग्रहे धेर्वादेशे.
,, 1. 8 समासे वेति.
,, 1. 12 ^(०)दस्यार्थस्य चित्रत्वम्.
74 1. 11-12 राजपुरुषसेवेव.
,, 1. 18 यत्र व्यङ्ग्ये for यत्र.
75 1. 9 V. drops संभाव्य.
,, 1. 10त्रयाणां विभाग इति विवेकः.
76 1. 17 प्रथममिति for एवमिति.
80 1. 15 विलिप्तेति पदं.
81 1. 10 तत्रैकव्यापाराद्
,, 1. 17 कामोद्दीपनहेतुकत्वं.
,, 1. 19 एवमुत्तरत्र व्यङ्ग्य एव.
,, 1. 20 ^(०)विश्रान्तिस्तस्य.
82 1. 20 तदेवाह.
,, 1. 20
प्राधान्येऽलंकार्यत्वेऽपि.
83 1. 13-14 आधेयस्य नमसोऽल्पत्वादाधारस्य यशसः
,, 1. 15एषु स्वतः सिद्धस्येति.
84 1. 16 ओववापयोरित्यप^(०)
,, 1. 19 भयेण वेत्यत्र इवेर्लोप इतीकारलोपः।
91 1. 22 कोणप्रान्तदेशं.
92 1. 19 केवलं करवाल^(०).
,,1. 20न चास्तूपमान संदेह इति
93 1. 15-16 ^(०)रस्फुटत्वमित्याह.
,, 1. 24 दुर्विदद्घै^(०) for उद्धतै^(०).
97 1. 19 सन्धिभिः for पद्यैः.
,, 1. 24
नवमश्चेत्यादिविशेषाणां.
98 1. 15 शृङ्खलिताद्यन्तपदमित्यर्थः।
100 1. 12 अत्र पूर्वापरपर्याय.
,, 1. 24-25 अनियतत्वादवस्थात्वमेतेषां
,, 1. 25 न सहजत्वं for न जातित्वं.
101 1. 13 ^(०)परिमाणावच्छेदकः.
105 1. 22 किञ्चिदूतत्वमारम्भः
107 1. 16 जटायुश्रमप्यादिवृत्तान्तरूपा.
108 1. 14 कामसाम्यकृत्.
,, 1. 18 तलक्षणानुगतिरपि.
111 1. 18 व्यसनादिभिः
114 1. 7 तस्यादृष्टफलविषयत्वात्.
120 1. 15 तदपरपयाय
124 1. 13 निरूपयन for निवारयन्
,, 1. 23 काव्यार्थसूचनमूत्रधारवृत्त्याश्रयणयो^(०)
,, 1. 23 ^(०)वैपरीत्य for ^(०)वैरूप्यं.
126 1. 10 लास्याङ्गं सकलं चात्र.
,, 1. 11 भावप्रकाशकाव्ये तु.
127 1. 17 त्रिपुरदाहादि.
128 1. 11 ^(०)मिन्द्रजालविधिः स्मृतः ।
132 1. 1-9 ^(०)मेरुमहेन्द्रप्रभृतिभिः शैलैर्देवैश्च व्याप्तां.
,, 1. 1C-11 शितिकण्ठमालायां for श्रीकण्ठमालाय.
,, 1. 23-24 इदमनुपदमेवोक्ता रङ्गं प्रसाध्ये.
133 1. 9 शब्दानां वाक्यविशेषाणां
133 1. 24 मुम्मुडीया for मुम्मडम्बा.
134 1. 9 ^(०)वाच्यत्वाभावाद्भेदः.
138 1. 20 पत्रिकार्थस्य.
139 1. 19 सूर्यप्रकाशसदृशत्वात्.
140 1. 18 मिथः स्तोत्रमपि.
144 1. 18 वेल्लनं प्रेङ्खनं प्रयोगमिति यावत्.
,, 1. 21 अत एव for त एव.
150 1. 15 रजनिसमये गोविसर्गादौ स्मेरवदनं.
153 1. 19 प्रजासंपत्तिश्च भवतीति.
161 1. 16 आदित्यपुराणे.
172 1. 22 चैकशवे दृष्टे.
176 1. 13 ^(०)कुन्त^(०) for ^(०)कुम्भ^(०)
177 1. 17 ^(०)विच्छेदं शिरोविन्यस्तमक्षरम् ।
179 1. 20 इति कर्मत्वम्-
181 1. 18 अत्रानुपहितदिगन्तव्यापकत्वं विभुत्वं.
181 1. 22 शत्रुदेशावमशांय.
195 1. 15 ^(०)दीपपङ्क्ति
198 1. 20 सिद्धमित्याह.
201 1. 25 ^(०)खेचरसमुद्भवः
208 1. 13 तदेव कथमित्याशङ्क्य.
208 1. 25 ^(०)शिष्टप्रतिपालनयो^(०)
213 1. 22 त्रिलिङ्गा आन्ध्रदेशा इत्यर्थः
214 1. 16-17 बलवद्विरोधेन जीवनस्य.
218 1. 13 तस्यामुक्तत्वात्
226 1. 5 संभवति संचारिणामपि.
227 1. 17 सद्घ्वनिस्तु स एव.
227 1. 24 नायिकाकारस्य वर्ण्यमानस्या^(०)
239 1. 14 प्रपञ्चेन for प्रसङ्गेन.
251 1. 22 कटितटादौ ग्रैवेयादिकं.
257 1. 15 ^(०)दात्मानुरागप्रकाशानि.
259 1. 14 ग्रहसंनिपातेष्टावियोग^(०)
267 1. 25 विशेषे पर्यवसानमित्यर्थः
267 1. 25 ^(०)हेतुभूतामित्यर्थः ।
269 1. 19 परिहसितुं परित्रासयितुमित्यर्थः ।
270 1. 18 मुजान्तरस्थां.
272 1. 16 अकस्मात् for कस्मात्.
279 1. 14 भावे क्तः after ^(०)मवलोकितं.
280 1. 25 न तु निरन्तरमतिकाश्यं^(०).
284 1. 17 लध्वप्रतिष्ठेऽपि
287 1. 8 गुणसामान्ययोगेन.
288 1. 6 चित्रतुरगादिन्यायेन.
288 1. 17 V. drops. न.
288 1. 19 परिपोषान्नास्ति
292 1. 27 पदार्थसंसर्गादिरूपवाक्यार्थत्वात्
295 1. 8 योगिमनोनिवासनिन्दावत.
304 1. 7 शब्दक्रमभङ्गमुदाहरति।
304 1. 24 दोषत्वं च वक्ष्यति ।
306 1. 21 क्रियापरिपूरणा^(०)
310 1. 21 हलि सर्वेषामिति लोपविधानात्.
334 1. 14 अत एवौजः &c. for एत एवौजः
335 1. 9 तत्तन्मते काव्यशोभाकरत्वम्.
335 1. 10 स्वमतेऽभिमति.
336 1. 7 चित्रमथाप्युपमा^(०).
336 1. 11 मौलनसामान्यतगुणातद्गुणविरोधो.
336 1. 16 पर्यायोक्तं प्रदीपकम्.
336 1. 27 रसोपस्कारत्वसंभवात्.
338 1. 21 विभक्तेष्वर्थालंकारेष्व^(०).
342 1. 11 अव्यवधाने त्यसकृदात्तावपि.
343 1. 11 काव्यगुरुत्वभूतत्वा^(०)
347 1. 21 उद्वारस्तु वक्ष्यते.
347 1. 22 विनस्येत् for बद्ध्यते.
347 1. 23 वर्णाः षष्ठांशमारभ्य.
350 1. 4 गृहादिकम्.
350 1. 15 त्रंशच्चाष्टाविंशतिश्च
351 1. 20 अनेकालंकारबीजत्वात्.
353 1. 16-17 इत्यादि शब्दसाम्येऽपि.
355 1. 17 स्वारसिके वा.
362 1. 23 कर्तृक्यच्प्रत्ययस्याभावात्
362 1. 24 तस्य कर्तृभूतविशेषणत्वेन.
363 1. 14-15 अतः कर्तृणमुलि.
365 1. 25 वार्तिकवशादिति भावः.
366 1. 13 वृत्तिवाक्यगा.
369 1. 16-17 कश्चित वस्तुविशेषः.
372 1. 18 उभयत्र साधकबाधकप्रमाणाभावात्.
376 1. 15 जिह्वाद्यनेकारोपस्य.
376 1. 15-16 ^(०)माशीविषाद्धारोपं प्रति निमित्तत्वात्.
376 1. 20 शक्तस्य तत्रासासंभवादिति भावः।
376 1. 21 कपिलादय.
377 1. 12 वस्तुताद्रूप्यं प्रति मुखस्यैव.
380 1. 23 सदृशवस्त्वेन्तरप्रतीतिसाम्यात्.
387 1. 19-20 अत एवात्रेवशब्दः संभावना^(०).
387 1. 22 साधर्म्यवाचकः.
391 1. 23 कल्पितश्चान्द्रिकेवार्थः
393 1. 15 तद्दध्नास्तत्प्रमाणा इत्यर्थः
398 1. 12 स्वतः सिद्धकविप्रोढोक्ति^(०).
401 1. 14-15 गुणप्रधानभावनिबन्धनत्वं च.
401 1. 19-20 न तु श्लिष्टत्व^(०).
403 1. 15 चन्द्रमुत्कर्षेण जयति सति.
403 1. 22 प्रतिपाद्यते for प्रतीयते.
404 1. 20 पष्ठं भावविकारं.
404 1. 22 खड्गलतायामरिषु च.
406 1. 17 तेनाप्रस्तुतवृत्तान्तारोपेण प्रस्तुतं स्वयम्।
407 1. 15 आयुधानां ध्वजायामाजयावहा
408 1. 9 श्रुतिकटुत्वादि.
408 1. 16 श्रुतिग्राह्यं लिङादिप्रत्ययवेद्य^(०).
409 1. 9 अथावयवान्तरेणार्थान्तरं तत्तक्रियादि^(०).
412 1. 15 यथावदन्यूनानतिरिक्तेण.
412 1. 23 शिवविष्णुविरिञ्चयः
417 1. 22 उत्तरत्राप्येवंविधविरोधोदाहरणेष्वे^(०)
420 1. 18 विरोधमूलेष्वनेकभेदं.
423 1. 20-21 अत्रापि विरोधपरिहारार्थं.
426 1. 18संगतिगर्भं विषमं.
433 1. 16 हरिहरौ पूजयतीत्यर्थः.
439 1. 22 न तु म्लेच्छस्य.
449 1. 13 अत्र for यत्र.
453 1. 15^(०)वृत्तान्तयोः प्राकरणिकत्वम्।
454 1. 23-24यत्रोत्तरादुपनिबद्धमानादनुपनिबद्धमानः प्रश्नः
455 1. 16 साधुजनव्यवस्थापिता.
458 1. 19 लुब्धकस्यादृष्टतां गत्वा.
463 1. 21अस्यालौकिकत्वमाह.
469 1. 20-21
विशेषणत्वस्थापनेना^(०).
469 1. 21वा for च.
472 1. 24-25 पृथगुपादानं पूर्वाविशेषद्योतनार्थं.
APPENDIX III.
An alphabetical list of the Kârikâs and the Verses occurring in the Pratâparudriya.
अ.
[TABLE]
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APPENDIX III.
An alphabetical list of the Kârikâs and the Verses occurring in the Pratâparudriya.
अ.
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[TABLE]
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APPENDIX IV.
Names of works and authors and other proper names worth noting, occurring in the Pratâparadrîya alphabetically arranged.
[TABLE]
[TABLE]
APPENDIX V.
Quotations in the Pratâparadrîya arranged alphabetically.
१ अगूढमपरस्याङ्गं वाच्यसिद्ध्यङ्गमस्फुटम्। &c. 90.
२ अथातो धर्मजिज्ञासा 9.
३ अनेकार्थस्य शब्दस्य वाचकत्वे नियन्त्रिते। 437.
४ अर्थप्रकृतयः पञ्च पञ्चावस्थासमन्विताः। &c. 105.
५ अलंकारोऽथ वस्त्वेव शब्दाद्यत्रावभासते। &c. 88.
६ आदिराजयशोविम्बमादर्शं प्राप्य वाङ्मयम्। &c. 11.
७ आलम्बनगुणश्चैव तच्चेष्टा तदलंकृतिः। &c. 222.
८ आलम्बनगुणो रूपयौवनादिरुदाहृतः। &c. 222.
९ इति भावा निवदव्या रसज्ञैरद्भुते रसे। &c. 289.
१० उत्साहश्चेति विज्ञेया भावा बीभत्ससंभवाः। & c. 289.
११ उदारचरितनिबन्धनां प्रवन्धप्रतिष्ठा 11.
१२ उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे 477.
१२ उपश्लोक्यस्य माहात्म्यादुज्ज्वलाः काव्यसंपदः। 11.
१४ उपस्कुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण संश्रिताः &c. 337.
१५ एकत्रैवानुरागश्चेत् तिर्यम्लेच्छगतोऽपि वा & 228.
१६ कवरेल्पापि वाग्वृत्तिर्विद्वत्कर्णावतंसति। &c. 11.
१७ कारणान्यथ कार्याणि सहकारीणि यानि च। &c. 225.
१८ काव्यं यशसेऽकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये। &c. 6.
१९ काव्यालापांश्च वर्जयेत् 8.
२० केशिक्यारमटी चैव सात्वती भारती तथा। &c. 47.
__________________________________________________________
१ का० प्र० ५।१.२ पू० मी०.३ का० प्र० २।१४.४ द० रू० १।२१.६ का० द० १।४.७-८ शृ० ति० of रुद्र०.९-१० शृ० ति०.११ By रुद्र०.१२ By पाणि०.१३ By भाम०१४ का० प्र० (उपकुर्वन्ति and जातुचित् for संश्रिताः are the readings there.)१५ Quoted in the तर० on the पकाव० of विद्यापo p. 105.१६ By मोज०.१० का० प्र० ४४ (विभावा अनुभावास्तत् कथ्यन्ते is the reading there.)१८. का० प्र० १।२.१९ Quoted by Mallinâtha in his अवतरणिका or introduction to commentaries on the Mahakâvyas.२० द० रू० ( not found in the printed edition of the दशरूपक, thoughascribed to it in the text )
२१ कोध्रोऽसूयाथ संमोह आवेगश्चोपहर्षणम्। &c. 290.
२२ गुणालंकारचारुत्वयुक्तमप्यधिकोज्ज्वलम्। &c. 11.
२३ चापल्यमुग्रता चैव रौद्रे भावाः प्रकीर्तिताः &c. 290.
२४ नायकगुणग्रथिताः सूक्तिस्रजः सुकृतिनामाकल्पमाकल्पन्ति 11.
२५ नपुराङ्गदहारादि तदलंकरणं मतम्। & c. 222.
२६ परिवड्ढइ विण्णाणं संभाविज्जइ जसो विसप्पति गुणा। &c. 6.
२७ प्रख्यातोत्पाद्यमिश्रत्वभेदात् तत्त्रिविधं मतम्। 102.
२८ वीजबिन्दुपताकाख्यप्रकरीकार्यलक्षणाः। &c. 105.
२९ भावस्य शान्तिरुदयः संधिः शवलता तथा। 228.
३० मधुरोद्धतभेदेन तद् द्वयं द्विविधं पुनः। &c. 101.
३१ मुखं प्रतिमुखं गर्मः सावमर्शोपसंहृतिः। 104.
३२ यो हेतुः काव्यशोभायाः सोऽलंकारः प्रकीर्त्यते। &c. 335.
३३ रङ्गं प्रसाध्य मधुरैः श्लोकैः काव्यार्थसूचकैः। & c. 124.
३४ रसभावतदाभासभावशान्त्यादिरक्रमः। &c. 90.
३५ रसभावतदाभासप्रशमननिबन्धने रसवत्प्रेयोर्जस्विसमाहितानि। भावोदयभावशान्तिभावसंधिमावशवलताश्च पृथगलंकाराः। 291.
३६ विभावैरनुभावैश्च सात्त्विकैर्व्यभिचारिभिः। &c. 219.
३७ विषादो जडता निद्रावहित्था चापलं मृतिः। &c. 289.
३८ विष्कम्भचूलिकाङ्कास्यप्रवेशाङ्कावतारणैः। 114.
३९ व्याधिन करुणे वाच्या भावाभावविशारदैः। &c. 290.
४० शङ्कासूयामयं ग्लानिर्व्याधिश्चिन्ता स्मृतिर्धृतिः। &c. 289.
४१ शृङ्गारवीभत्सरसौ तथा वीरभयानकौ। &c. 289.
४२ संयुक्तयोस्तु संभोगो विप्रलम्भो वियुक्तयोः। 277.
_____________________________________________________________
२१ शृ० ति०.२२ By उद्भ०.२३ शृ० ति०.२४ सा० मी०.२५ शृ० ति०.२६ सेतु० of प्र० से० p. 9.२७ द० रू० १।१५ (त्रेषापि तत् त्रिधा).२८ द० रू० १।१७, १।१८.२९ Ascribed to दशरूपक in the text, but not found there.३० द० रू० १।१०.३१ द० रू० १।२२ (मुखप्रतिमुखे reading there).३२ By रुद्रभट्ट.३३ द० रू० ३।४.३४ शृ० ति०.३५ अलं० स० pp. 185, 190 (तत्समाना निबन्धने and प्रेयर्जस्वि भावोदयो भावसंधिर्मावशवलता च पृथगलंकारः).३६ द० रू० ४।१ (स्वाद्यत्वं).३७ शृ० ति०.३८ द० रू० १।५२ (ङ्कास्याङ्कावतारप्रवेशकैः).३९ शृ० ति०.४० शृ० ति०.४१ शृ० ति०.४२ शृ० ति०.
APPENDIX V.
Quotations in the Pratâparadrîya arranged alphabetically.
१ अगूढमपरस्याङ्गं वाच्यसिद्ध्यङ्गमस्फुटम्। &c. 90.
२ अथातो धर्मजिज्ञासा 9.
३ अनेकार्थस्य शब्दस्य वाचकत्वे नियन्त्रिते। 437.
४ अर्थप्रकृतयः पञ्च पञ्चावस्थासमन्विताः। &c. 105.
५ अलंकारोऽथ वस्त्वेव शब्दाद्यत्रावभासते। &c. 88.
६ आदिराजयशोविम्बमादर्शं प्राप्य वाङ्मयम्। &c. 11.
७ आलम्बनगुणश्चैव तच्चेष्टा तदलंकृतिः। &c. 222.
८ आलम्बनगुणो रूपयौवनादिरुदाहृतः। &c. 222.
९ इति भावा निवदव्या रसज्ञैरद्भुते रसे। &c. 289.
१० उत्साहश्चेति विज्ञेया भावा बीभत्ससंभवाः। & c. 289.
११ उदारचरितनिबन्धनां प्रवन्धप्रतिष्ठा 11.
१२ उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे 477.
१२ उपश्लोक्यस्य माहात्म्यादुज्ज्वलाः काव्यसंपदः। 11.
१४ उपस्कुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण संश्रिताः &c. 337.
१५ एकत्रैवानुरागश्चेत् तिर्यम्लेच्छगतोऽपि वा & 228.
१६ कवरेल्पापि वाग्वृत्तिर्विद्वत्कर्णावतंसति। &c. 11.
१७ कारणान्यथ कार्याणि सहकारीणि यानि च। &c. 225.
१८ काव्यं यशसेऽकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये। &c. 6.
१९ काव्यालापांश्च वर्जयेत् 8.
२० केशिक्यारमटी चैव सात्वती भारती तथा। &c. 47.
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१ का० प्र० ५।१.२ पू० मी०.३ का० प्र० २।१४.४ द० रू० १।२१.६ का० द० १।४.७-८ शृ० ति० of रुद्र०.९-१० शृ० ति०.११ By रुद्र०.१२ By पाणि०.१३ By भाम०१४ का० प्र० (उपकुर्वन्ति and जातुचित् for संश्रिताः are the readings there.)१५ Quoted in the तर० on the पकाव० of विद्यापo p. 105.१६ By मोज०.१० का० प्र० ४४ (विभावा अनुभावास्तत् कथ्यन्ते is the reading there.)१८. का० प्र० १।२.१९ Quoted by Mallinâtha in his अवतरणिका or introduction to commentaries on the Mahakâvyas.२० द० रू० ( not found in the printed edition of the दशरूपक, though ascribed to it in the text )
२१ कोध्रोऽसूयाथ संमोह आवेगश्चोपहर्षणम्। &c. 290.
२२ गुणालंकारचारुत्वयुक्तमप्यधिकोज्ज्वलम्। &c. 11.
२३ चापल्यमुग्रता चैव रौद्रे भावाः प्रकीर्तिताः &c. 290.
२४ नायकगुणग्रथिताः सूक्तिस्रजः सुकृतिनामाकल्पमाकल्पन्ति 11.
२५ नपुराङ्गदहारादि तदलंकरणं मतम्। & c. 222.
२६ परिवड्ढइ विण्णाणं संभाविज्जइ जसो विसप्पति गुणा। &c. 6.
२७ प्रख्यातोत्पाद्यमिश्रत्वभेदात् तत्त्रिविधं मतम्। 102.
२८ वीजबिन्दुपताकाख्यप्रकरीकार्यलक्षणाः। &c. 105.
२९ भावस्य शान्तिरुदयः संधिः शवलता तथा। 228.
३० मधुरोद्धतभेदेन तद् द्वयं द्विविधं पुनः। &c. 101.
३१ मुखं प्रतिमुखं गर्मः सावमर्शोपसंहृतिः। 104.
३२ यो हेतुः काव्यशोभायाः सोऽलंकारः प्रकीर्त्यते। &c. 335.
३३ रङ्गं प्रसाध्य मधुरैः श्लोकैः काव्यार्थसूचकैः। & c. 124.
३४ रसभावतदाभासभावशान्त्यादिरक्रमः। &c. 90.
३५ रसभावतदाभासप्रशमननिबन्धने रसवत्प्रेयोर्जस्विसमाहितानि। भावोदयभावशान्तिभावसंधिमावशवलताश्च पृथगलंकाराः। 291.
३६ विभावैरनुभावैश्च सात्त्विकैर्व्यभिचारिभिः। &c. 219.
३७ विषादो जडता निद्रावहित्था चापलं मृतिः। &c. 289.
३८ विष्कम्भचूलिकाङ्कास्यप्रवेशाङ्कावतारणैः। 114.
३९ व्याधिन करुणे वाच्या भावाभावविशारदैः। &c. 290.
४० शङ्कासूयामयं ग्लानिर्व्याधिश्चिन्ता स्मृतिर्धृतिः। &c. 289.
४१ शृङ्गारवीभत्सरसौ तथा वीरभयानकौ। &c. 289.
४२ संयुक्तयोस्तु संभोगो विप्रलम्भो वियुक्तयोः। 277.
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२१ शृ० ति०. २२ By उद्भ०.२३ शृ० ति०.२४ सा० मी०.२५ शृ० ति०.२६ सेतु० of प्र० से० p. 9.२७ द० रू० १।१५ (त्रेषापि तत् त्रिधा).२८ द० रू० १।१७, १।१८.२९ Ascribed to दशरूपक in the text, but not found there.३० द० रू० १।१०.३१ द० रू० १।२२ (मुखप्रतिमुखे reading there).३२ By रुद्रभट्ट.३३ द० रू० ३।४.३४ शृ० ति०.३५ अलं० स० pp. 185, 190 (तत्समाना निबन्धने and प्रेयऊर्जस्वि भावोदयो भावसंधिर्मावशवलता च पृथगलंकारः).३६ द० रू० ४।१ (स्वाद्यत्वं).३७ शृ० ति०.३८ द० रू० १।५२ (ङ्कास्याङ्कावतारप्रवेशकैः).३९ शृ० ति०.४० शृ० ति०.४१ शृ० ति०.४२ शृ० ति०.
४३ सजातीयैर्विजातीयैरतिरस्कृतमूर्तिमान्। &c. 221.
४४ संत्रासो मरणं दैन्यं ग्लानिश्चैव भयानके। &c. 289.
४५ संघटनाधर्मत्वेन शब्दार्थधर्मत्वेन च गुणालंकाराणां व्यवस्थानम्। 334.
४६ हास्यो भवति शृङ्गारात् करुणो रौद्रकर्मणः। &c. 289,
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४२ द० रु०.
४५ अलं० स० p. 7. What is given there is: - उद्भटादिभिस्तु गुणालंकाराणां प्रायशः साम्यमेव सूचितम्। विषयमात्रेण भेदप्रतिपादनात्। संघटनाधर्मत्वेन चेष्टेः।
४४ शृ० ति०.
४६ शृ० ति०
APPENDIX VI.
Names of authors and works found in the Ratnâpaṇa alphabetically arranged.
[TABLE]
[TABLE]
[TABLE]
APPENDIX VII.
Quotations in the Ratnâpaṇa, alphabetically arranged.
१ अकर्तरि च कारके संज्ञायामित्यत्र प्रास्यत इति प्रासः।
२ अक्षं रथाङ्ग आधारे
३ अङ्काभ्यन्तरभावित्वमङ्कास्याङ्कावतारयोः।
भवेदङ्कवहिर्भावो विष्कम्भे च प्रवेशके॥
उभयं चूलिकायां तु यथायोगमिति स्थितिः॥
४ अङ्कुरपल्लवकलिकाप्रसूनफलभागयं क्रमशः।
प्रेमा मानः स्नेहः प्रणयो रागोऽनुरागश्च॥
५ अङ्गानामुचिते देशे हरणं सविलासकम्।
अनेककरणोत्पाद्यमङ्गहारोऽभिधीयते॥
यद्वा हारो हरस्यायं प्रयोगोऽङ्गैरिति स्मृतः॥
६ अङ्गानां षड्विधं ह्येतत् दृष्टं शास्त्रे प्रयोजनम्।
७ अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः।
पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश॥
८ अङ्गेनाङ्गी रसः स्वेच्छावृत्तिवर्धितसंपदा।
अमात्येनाविनीतेन स्वामीवाभासतां ब्रजेत्॥
९ अजवृषमृगाङ्गनाकुलीरा
झषवणिजौ च दिवाकरादितुङ्गाः॥
१० अतो ध्वन्याख्यतात्पर्यगम्यमानत्वतः स्वतः।
काव्ये रसालंक्रियादिर्वाक्यार्थो भवति स्फुटम्॥
११ अत्तिका भगिनी ज्येष्ठा।
१२ अत्र चारोप्यमाणस्य धर्मित्वादाविष्टलिङ्गसंख्यानेकत्वेऽपि क्वचित् स्वतोऽसंभवत्संख्यायोगस्य विषयसंख्यानं प्रत्येकमारोपात्।
१३ अत्रानुगोदं मृगयानिमित्तम्
१४ अत्राब्जपत्रनयने नयने निमील्य
१५ अथ प्रकरणे वृत्तमुत्पाद्यं लोकसंश्रयम्।
अमात्यविप्रवणिजामेकं कुर्याच्च नायकम्॥
धीरप्रशान्तं सापायं धर्मकामार्थतत्परम्।
शेषं नाटकवत् संधिप्रवेशकरसादिकम्॥
१६ अथ मर्मरः। स्वनिते वस्त्रपर्णानाम्।
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१ By वृत्ति०. २ वैज०. ४ रसा०. ६ शृ० प्र०. ८ रसा०. ९ By व० मि०. १० भा० प्र०. ११ अम० १।७।१५ १२ अलं० p. p. 39-40 (दाविष्टलिङ्गत्वेऽपि and विषयसंख्यात्वं), १३ र० वं० १४-३४ (मृगयानिवृत्तः is the reaping there). १५ द० रु० ३।३५-३६. १६ अम० १।६।२३-२४.
१७ अद्रावन्न प्रज्वलत्यग्निरुच्चैः
प्राज्यः प्रोद्यन्नुसत्येश्च धूमः।
१८ अधीते निघ्न आयत्तः।
१९ मध्यवसितप्राधान्ये त्वतिशयोक्तिः।
२० अधः प्रवर्त्तयेद्धूपं दीपमूर्ध्वं प्रवर्तयेत्।
२१ अनन्वये च शब्दैक्यमौचित्यादानुषङ्गिकम्॥
अस्मिंस्तु लाटानुप्रासे साक्षादेव प्रयोजकम्॥
२२ अनन्वितोऽर्थोऽभिहितान्वये पदार्थान्तरमात्रेणान्वितस्त्वन्विताभिधानेऽनन्वितविशेषस्त्ववाच्य एवेत्युभयमतेऽप्यपदार्थ एव वाक्यार्थः।
२३ अनुगतं रहोऽनुरहसमिति प्रादिसमासः। अनुगतं रहोऽस्मिन्निति बहुब्रीहिर्वा।
२४ अनुग्रहे निग्रहे च दाने चादानकर्मणि
प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च ग्रहणे मोक्षणे तथा॥
स्वयं समर्थो यः सोऽयं राजा साज्ञा निरर्गला॥
२५ अनुभावश्चतुर्धा स्यान्मनोवाक्कायबुद्धिभिः।
२६ अनुवणत्वाद् व्यङ्ग्यं चित्रमीरितम्।
व्यङ्ग्यस्यान्यन्तविच्छेदः काव्ये कुत्रापि नेष्यते॥
२७ अनेन सार्धं विहराम्बुराशेः
२८ अनौचित्याहृते नान्यद्रसमङ्गस्य कारणम्।
२९ अन्तेऽनुष्टुभमार्यां वा कविकृत्याख्ययान्विताम्।
कुर्याच्चाटुप्रबन्धानामयं साधारणो विधिः॥
३० अपताके निवेशः स्याद्विन्दोर्वीजस्य वा क्वचित्।
३१ अपदोषतैव विगुणस्य गुणः।
३२ अपरिच्छिन्नविषयं मदमन्थरमीलितम्।
स्फुरद्भूपक्ष्मतारं यत् तत् स्मेरमिति कथ्यते॥
३३ अपूर्वं च यागादेरवान्तरव्यापारः शक्तिर्वा।
३४ अप्रतीतप्रतीतौ स्यादनुमानव्यवस्थितिः॥
पदार्थाद्वाथ वाक्यार्थान्निर्देशे सति हेतुतः॥
समर्थनं प्रतीतस्य काव्यलिङ्गद्वयं मतम्।
भवेदर्थान्तरन्यासस्ताटस्थ्ये हेतुभावतः।
कार्यकारणभावे तु तस्योक्तं लक्षणान्तरम्॥
३५ अप्रस्तुतं प्रतीतं चेद् भेदकांशैकसाम्यतः।
व्यवहारं समारोप्य प्रस्तुते न्यग्भवत्यथ॥
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१७ It is found in the Tarala on the Ekavali p.146 and in का० प्र० ८. १८ अम० ३।१।१६. १९ By रुच०. २१ अलं० स० P. 24. २२ का० प्र० ५.(त्युभयनये) २३ हर०. २४ मान० २६ अलं० मु०. २७ र० वं० ५।७ २८ ध्व० लो० p. 145. ३० भा० प्र०. ३१ शि० व० ९।१२. ३२ मा० प्र०. ३२ By मट्ट. ३४ अ० सर्व० संजी० by वि० चक्र० (काव्यलिङ्गान्वयो मतः) ३५ अलं० सर्व० संजी० of वि० चक्र० व्यवहारसमारोपः “रियं ततः and भेद्यं for वेद्यं).
तेनाप्रस्तुतवृत्तान्तारोपेणाप्रस्तुतं स्वयम्।
संक्षेपेणोच्यते यस्मात् समासोक्तिरियं तदा॥
स्याद्विशेष्यांशसाम्यं चेत् प्रस्तुताकाररूपितम्।
भवेदप्रस्तुतं वेद्यं रूपकालंकृतिस्तदा॥
३६ अभवन् वस्तुसंबन्धो भवन वा यत्र कल्पयेत्।
उपमानोपमेयत्वं कथ्यते सा निदर्शना॥
३७ अभिगम्यगुणैर्युक्तो धीरोदात्तः प्रतापवान्।
कीर्तिकामो महोत्साहस्त्रय्यास्त्राता महीपतिः॥
प्रख्यातवंशो राजर्षिर्दिव्यो वा यत्र नायकः।
तत् प्रख्यातं विधातव्यं वृत्तमत्राधिकारिकम्॥
यत्तत्रानुचितं किंचिन्नायकस्य रसस्य वा।
विरुद्धं तत् परित्याज्यमन्यथा वा प्रकल्पयेत्॥
३८ अभिपूर्वस्तु णीञ्धातुराभिमुख्यार्थनिर्णये।
यस्मात् पदार्थान्नयति तस्मादभिनयः स्मृतः॥
३९ अभिव्यञ्जन् विभावानुभावादीन् नाटकाश्रयान्।
उत्पादयन् सहृदये रसज्ञान निरन्तरम्।
अनुकर्तृस्थितो योऽर्थोऽभिनयः सोऽभिधीयते।
आङ्गिको वाचिकश्चैव सात्त्विकाहार्यकाविति॥
स चतुर्था कृतस्तज्ज्ञैराङ्गिकोऽङ्गक्रियोच्यते।
रागानुषङ्गिं यद्वाक्यं नाट्ये तत्वाचिकं स्मृतम्।
सत्त्वक्रिया सात्विकं स्यादाहार्यो भूषणादिकम्॥
४० अभ्युन्नता पुरस्तादवगाढा जघनगौरवात् पश्चात्।
४१ अभेदाध्यवसायो हि फलेऽतिशयनादिह।
न पुनः फलिनोस्तत्र भेदेऽभेदो न सिध्यति॥
४२ अयं स रशनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दनः।
नाम्पूरुजघनस्पर्शी नीर्वाविस्रंसनः करः॥
४३ अर्थशक्त्युद्भवोऽप्यर्थो व्यञ्जकः संभवी स्वतः।
प्रौढोक्तिभावात् सिद्धो वा कवेस्तेनोदितस्य वा॥
वस्तु वालंकृतिर्वेति षड्भेदोऽसौ व्यनक्ति यत्।
वस्त्वलंकारमथवा तेनायं द्वादशात्मकः॥
४४ अर्थान्तराभावे संसर्ग एव तात्पर्यार्थः तत्सद्भावे तत्रैव प्रतीतिविश्रान्तेः स एव तात्पर्यार्थो
न संसर्गः।
४५ अर्थोपक्षेपकैः सूच्यं पञ्चभिः प्रतिपादयेत्।
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३७ द० रू० ३।२०-२२. ३८ भर० ना० शा० ८।६ (पुरा मुख्या प्रयोगं नयति). ३९ संगी० चूडा०. ४० अभि० शकु० ३. ४१ अलं० सर्व० संजी० of वि० चक्र० (‘सायोऽपि and स्तत्रामेदे भेदो न वाच्यते). ४२ Quoted in का० प्र०. ५. ४२ का० प्र० ४।३९-४१(स्तेनोम्भितस्य वा ) ४५ द० रु० १।५२.
४६ अवश्यं कस्यचिन्नञ्समासस्यासमर्थस्य यमकस्य साधुत्वं वक्तव्यमसूर्यपश्यानि
मुखानीति।
४७ अवस्थाः पञ्च कार्यस्य प्रारब्धस्य फलार्थिभिः।
४८ अवस्थिताश्चिरं चित्ते संबन्धाञ्चानुबन्धिभिः।
वर्धिता ये रसात्मानस्ते स्मृताः स्थायिनो बुधैः॥
४९ अविभाव्यतारकमदृष्टहिम-
द्युतिविम्बमस्तमितभानु नमः।
अवसन्नतापमतमित्वममा-
दपदोषतैव विगुणस्य गुणः॥
५० अविरलविलोलजलदः कुटजार्जुननीपसुरभिवनवातः॥
अयमागच्छति कालो हन्त हताः पथिकमेहिन्यः॥
५१ अविरोधी विरोधी वा रसोऽङ्गिनि रसान्तरे।
परिपोषं न नेतव्यस्तदा स्यादविरोधिता॥
५२ अवृत्तिर्मध्यवृत्तिर्वा माधुर्ये घटना तथा।
५३ अव्यङ्ग्यमपरं स्मृतम्।
५४ अश्वानां तु गतिर्धारा विभिन्ना सा च पञ्चधा।
५५ अष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः।
५६ असत्स्ववयवार्थेषु योऽन्यत्रार्थे प्रयुज्यते।
तत्रानन्यगतित्वेन समुदायः प्रसिध्यति॥
५७ असद्भूतं मिथः स्तोत्रं प्रपञ्चो हास्यकृन्मतः।
५८ असंतोषोऽप्रमोदश्च मदो रागोऽप्रशान्तता।
बलमोजोऽभिमानश्च समुद्वेगसर्वतः॥
एभिः पाष्मभिराविष्टं राज्यं त्वमभिकाङ्क्षति॥
५९ असमर्थनञसमासस्य क्वचित् साधुत्वज्ञापनायानपुंसकस्येति प्रसज्यप्रतिषेध आश्रीयते।
६० अस्तिभवतिपरोऽप्रयुज्यमानोऽप्यस्ति।
६१ अस्त्रीनिमित्तसंग्रामो जामदव्यजयो यथा।
६२ अस्मन्मतं तात्पर्यव्यापारापेक्षं न भवति।
६३ अस्यां प्रायेण लास्याङ्गदशकं योजयेन्न वा।
सामान्या परकीया वा नायिकात्रानुरागिणी॥
बीथ्यङ्गप्रायवस्तुत्वान्नोचिता कुलपालिका।
लक्ष्यस्यास्तु विज्ञेयं माधवीवीथिकादिकम्॥
६४ अहमहमिका सा तु स्यात् परस्परं यो भवत्यहंकारः।
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४६ महामा०. ४७ द० रू० १।१८. ४९ शिशु० व० ९-१२ ५२ ध्व० लो० ३।२४. ५३ का० प्र० १।५ (अव्यङ्ग्यं त्ववरं स्मृतम्) ५४ वैज०. ५५ भर० ना० शा० ६।१५. ५६ By आचार्य. ५७ द० रू० ३।१४ (असद्भूतमिधः &c.) ५८ म० भा० शा० प०. ५९ By कैय० on महाभा०. ६० महाभा० ६२ अलं० सुधा०. ६४ अम० २।८।१०१ (तु सा).
६५ अहमेवंविध इत्येवंप्राणत्वेनाभिमानात्मक उत्साहः।
६६ अः क्ष्माश्लाघयोः।
६७ आकारादनुपपदात् कर्मोपपदो विप्रतिषेधेन।
६८ आकूतं तद्यत्र मावः सोऽप्यभीष्टो विभाव्यते।
६९ आकृतिव्यञ्जिताश्चेष्टा इङ्गितं बुद्धिकारिताः।
आकारः पुनराप्रातस्ता एवाबुद्धिकारिताः॥
७० आक्षेप उपमानस्य कैमर्थक्येन कथ्यते।
यद्वोपमयभावैः स्यात् तत् प्रतीपमुदाहृतम्॥
७१ आख्यायिकोच्छ्वासादिना वक्रापरवक्रादिना युक्ता। कथा तु तद्विरहिता।
७२ आज्ञारूपेण या शक्तिः सर्वेषां मूर्धनि स्थिता।
प्रभुशक्तिर्हि सा ज्ञेया प्रभावमहितोदया॥
७३ आत्मोपयोगकरणं स्पृशन्ती प्रियवर्त्मना।
या जाहातितरान् भोगान् सा स्पृहेत्यभिधीयते॥
७४ आनन्दो विषयानुभवो नित्यत्वं चेति तद्धर्माः।
७५ आनुकूल्यार्थकं प्राध्वम् ।
७६ आपः स्त्री भूम्नि वा वारि।
७७ आमिरूप्यकाठिन्यमङ्गानां चातिमार्दवम् ।
एवमादिगुणावस्था प्रथमे यौवने भवेत्॥
७८ आत्मानमात्मन्यवलोकयन्तम्।
७९ आलोको वन्दिभाषणम्।
८० आवेध्यारोप्यविक्षेप्यबन्धनीयैरभूषितम्।
यद् भूषितामिवाभाति तद्रूपमिति कथ्यते॥
८१ आशिषो वचनं कृत्वा पूजयेच्च सुरान् पितॄन्।
आयुधानि च पट्टं च विप्रान् गन्धादिनार्चयेत्॥
८२ आशीरुरगदंष्ट्रायाम्।
८३ आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम्।
८४ आसूत्रयन् गुणान् नेतुः कवेरपि च वस्तुनः।
रसप्रसाधनप्रौढः सूत्रधार इहोदितः॥
चतुरातोद्यभेदज्ञा तत्कलासु विशारदा।
करणाभिनयज्ञा च सर्वभाषाविचक्षणा॥
नदानुयोक्री कृत्येषु नटस्य गृहिणी नटी।
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६५ लोच०( उत्साहो ह्यहमेवंविध इत्येवंप्राण इत्यर्थः) ६७. By काव्या०. ६९ अलं० सर्व० संजी० of विद्याचक्रवर्तिन् (व्यञ्जिता चेष्टा, इङ्गितं दुर्विकारतः आकार अन्तराप्रातस्ता एवादुर्विकारतः) ७१ लोच० (च युक्ता तु is dropped.) ७२ मान० ७४ पञ्च० ७५ अम० ३।४।४. ७६ अम० १।१०।३. ७९ विश्व० ८१ दू० वसि०. ८२ विश्व०. ८३ का० दू० १।१४. ८४ भा० प्र०.
भरतेनाभिनीतं यो भावं नानारसाश्रयम्॥
परिष्करोति पार्श्वस्थः स भवेत् पारिपार्श्विकः।
तदात्वप्रतिभो नमचतुर्भेदप्रयोगवित्॥
वेदविन्नर्मवादी यो नेतुः स स्याद्विदूषकः॥
८५ आस्कन्दितं धौरितकं रेचितं वल्गितं प्लुतम्।
गतयोऽमूः पञ्च धाराः ॥
८६ आहार्याभिनयो नाट्योचितालंकारवारणम्।
८७ इदमेव मम प्रियं नान्यादेति प्रत्यय एवाभिमानः।
८८ इवस्य पिवमिवतिवद्धा।
८९ इवेन सह नित्यसमासः।
९० इस्सदादिषु।
९१ ईश्वरप्रीणनार्थत्वात् ब्रह्मवित्सु प्रदीयते।
चेतसा भक्तियुक्तेन दानं तद्विमलं शिवम्॥
९२ ईशदर्थे दरशब्दोऽव्ययम्।
९३ ईष्या मानः स्त्रीणामेव।
९४ उत्क्षिप्तं सह कौशिकस्प पुलकैः।
९५ उत्पन्ना रतिरेकत्र प्रथमं दर्शनादिभिः।
हृदारम्भानुभावेन शृङ्गारं विशिनष्टि सा॥
९६ उत्पातदोषादिविवर्जितेऽहि नराधिपानामभिषेक इष्टः।
मूलत्रिकोणस्तोत्रमित्रगृहस्थितैर्वाथ तदंशसंस्थैः॥
शुभे विलग्ने सततं ग्रहेन्द्रा दिशन्ति लक्ष्मीं विपुलां च कीर्तिम्॥
९० उत्सर्जति संकीडत्येतौ शकटकूजने ।
९८ उत्सर्गो वर्जने त्यागे।
९९ उत्सूते हर्षमित्येष उत्सवः परिकीर्तितः।
१०० उदये च मुनेरगस्त्यनाम्नः कुसुमायोगमलप्रदूषितानि।
हृदयानि सतामिव स्वभावात् पुनरम्बूनि भवन्ति निर्मलानि॥
१०१ उदात्ता केशवासोऽङ्गमान्यभूषासु सादरा।
शय्याभवनसंस्कारपरिवर्हसमेधिनी॥
१०२ उद्देश व तात्पर्यम्।
१०२ उपक्षेपादयः प्रबन्धेष्वाधिकारिका या प्रासङ्गिका वा प्रयोक्तव्या यथा संदर्भस्य शोभायै भवन्ति।
१०४ उपचारो यथासत्त्वं स्त्रीणामन्योऽपि हर्षदः।
महानप्यन्यथा युक्तो नैव तुष्टिकरो भवेत्॥
१०५ उपमानस्य जातिप्रमाणकृतं न्यूनत्वमधिकता वा तादृश्यनुचितार्थत्वं दोषः।
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८५ अम० २।८।४८-४९. ८९ वार्तिक. ९१ By व्या०. ९२ By त्रिवि०. ९६ दू० वसि०. ९८ विश्व०. १०० व० सं०. १०२ कुसु० of उद०. १०३ नाट० प्र०. १०४ भा० प्र०. १०५ का० प्र० १० ( जातिप्रमाणगतन्यूनत्वमधिकता &c.)
१०६ उपमानाद्यदन्यस्य व्यतिरेकः स एव सः।
१०७ उरो ललाटं वदनं च पुंसां विस्तीर्णमेव त्रितयं प्रशस्तम्।
१०८ ऋतोऽत्।
१०९ एककार्यान्वितेष्वत्र कथांशेषु प्रयोगतः।
अवान्तरैककार्यस्य संबन्धः संधिरिष्यते॥
११० एकपात्रप्रयोज्येऽस्मिन् कुर्यादाकाशभाषितम्।
अन्येनानुक्तमप्यन्यो वचः श्रुत्वेव यद्वदेत्॥
इति किं भणसीत्येतद् भवेदाकाशभाषितम्।
लास्पाङ्गदशकं चात्र योज्यं गेयपदादिकम्॥
भावप्रकाशिकाद्येषु तत्प्रपञ्चः परीक्ष्यताम्।
अत्रोपरम्यतेऽस्माभिरतिविस्तरभीरुभिः॥
१११ एकानेककृतः शुद्धः संकीर्णो नीचमध्यमैः।
११२ को हि दोषो गुणसंनिपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः।
११३ एत एवौजःप्रसादप्रभृतयोऽर्थगुणाः।
११४ एदोतोः क्वचित् स्वरूपेण ह्रस्वः।
११५ एब्यश्च सामान्यगुणयोगेन रसा निष्पद्यन्ते।
११६ एवं तर्हि द्वादिवार्थौ काकागमनमिव तालपतनमिव काकतालमिव काकतालीयम्।
११७ एवंवादिनि देवर्षी पार्श्वे पितुरधोमुखी।
लीलाकमलपत्राणि गणयामास पार्वती॥
११८ एवं विजयमानस्य येऽस्य स्युः परिपन्थिनः।
तामानयेद्वशे सर्वान्सामादिभिरुपक्रमैः॥
११९ एवं सामाजिकसमवेतता रसस्याङ्गीकृत्यालौकिकता वर्णिता । परमार्थतः पुनः परिपूर्णाखण्डैकरसानन्दरूपपरमेश्वरपर्यायस्यास्य
रसस्याधिकारचिन्ता कुतो वा। न सत्यानन्तानन्दात्मके ब्रह्मण्यपि पदमासादयेदिति विचारचतुरैरनादिकविभिरनाधारो रसः
सामाजिकैः परं चर्व्यते विभावादिभिः परं व्यज्यते।
योगिगम्यत्वमात्रेणेश्वरस्य योगिमनोनिवाससंवादवत् सामाजिकाधिकरणत्वारोपोऽपि
सह्यते।
१२० एषार्थाश्रयापि धर्मविषये श्लिष्टशब्दहेतुका क्वचिद् दृश्यते।
१२१ ओजःप्रभृतयो बन्धगुणाः।
१२२ ओजसोऽसरसो नित्यम्।
१२२ ओजःशब्दो वृत्तिविषये तद्वति वर्तते।
१२४ ओजस्विपदभूयिष्ठमाद्यन्ताशीःसमन्वितम्।
चतुर्धा वाष्टधा वृत्तं चक्रवालं प्रचक्षते॥
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१०६ का० प्र० १०. १०७ द० सं० १११ दश० १/५३. ११२ कु० सं० ११३ वाम०’s काव्या० सू० २।१ (त एवौजःप्रभृतयोऽर्थगुणाः is the वृत्ति.) ११४ By पटसह० ११६ महाभा० ११७ Quoted in ध्व० लो० ११८ मनु० ७।११७. वंश for वंशे) ११९ By नर० सू० १२० By रुच०. १२१ वाम०’s अलं० सू० ३/१/४ (ओजःप्रसादश्लेषसमतासमाधिमाधुर्यसौकुमार्योदारतार्थव्यक्तिकान्तयो बन्धगुणाः) १२३ By हर०.
१२५ औज्ज्वल्यं कान्तिरित्याहुर्गुण गुणविपश्चितः।
पुराणचित्रस्थानीयं तेन वन्ध्यां कवेर्वचः॥
१२६ कटकं वलये सानौ राजधानीनितम्वयोः।
१२७ कटाक्षैर्हासगभैस्तु संभोगौत्सुक्यभावना।
शीतलीक्रियते तापो येन तन्मधुरं स्मृतम्॥
१२८ कथं क्षुध्बः समुद्रः क्षुध्वा नदीत्येवमादावुपमानाद् भविष्याति।
१२९ कथामिः कमनीयाभिः काम्यैर्भौगैश्च सर्वदा।
उपचारैश्च रमयेद्यः स कान्त इतीरितः॥
१३० कनिकञ्जनुषं ममाग्रे वर्चो विहवेषु।
१३१ कपटस्य स्वरूपं तु भ्रमो मोहात्मकः स्मृतः।
१३२ कः प्रिये सुभगमानिनि मानः।
१३३ करात् कटाभ्यां भेदाच्च नेत्राभ्यां च मदस्तुतिः।
१३४ करिणां घटना घटा।
१३५ करीक्षुजीप्रतवराहशङ्खमत्स्याद्विशक्त्युद्भववेणुजानि।
मुक्ताफलानि प्रथितानि लोके तेषां तु शुक्त्युद्भवमेव भूरि॥
१३६ कर्णिकादि लिखेद्वर्णान् क्रमाद्दिक्षु विदिक्षु च।
सकर्णिकान् सप्तदिक्षु विदिक्षु तु विकर्णिकान्॥
प्रवेशनिर्गमाभ्यां तु दिक्षु ते स्युश्चतुर्दश।
व्यवधानेन तानाद्ये दलेऽन्यत्र त्वनन्तरान्॥
१३७ कर्मसाधनस्यैव भक्तिशब्दस्य प्रियादिपाठो न भावसाधनस्य। दृढभक्तिरित्यादौ तु भावसाधनत्वान्न कश्चिद्विरोधः।
१३८ कलयन्त्यनुक्षणमनेकलयम्।
१३९ कल्याणमक्षयस्वर्णे कल्याणं मङ्गलेऽपि च।
१४० कवेर्विवक्षया यत्र प्राधान्यं परिकल्प्यते।
भवेत् स एवं वाक्यार्थ इति निर्णीयते बुधैः॥
१४१ कस्तूरीतिलकन्ति भालफलके देव्या मुखाम्भोरुहे।
१४२ कस्त्वं भोः कथयामि दैवहतकं मां विद्धि शाखोटकम्।
१४३ काकुयोजनायां सर्वत्र गुणीभूतव्यङ्ग्यतैव।
१४४ कामतन्त्रेषु निपुणः कुद्धानुनयकोविदः।
१४५ कामोपचारः संभोगः कामः स्त्रीपुंसयोः सुखम्।
सुखमानन्दसंभेदः परस्परविमर्दतः॥
उपचारस्तदानन्दकारकं कर्म कथ्यते॥
१४६ कारणेऽपि कथं तर्के विस्मये संपदुद्भवे।
१४७ कार्मुकं तु चतुर्हस्तम्।
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१२६ By विश्व०. १२८ By वृत्तिका०. १३१ भा० प्र०. १३३ पाल०. १६४ अम० २/८/१०७. १३७ By मोज०. १३८ शिशु० द० ४।३६. १३९ विश्व० १४२ Quoted in का० प्र०१० and ध्व० लो० ३. १४३ लोच० १४५ भा० प्र०. १४६ भा० प्र० १४७ वैज०
१४८ कार्यत्वेन नियोज्यं च स्वात्मानै प्रेरयन्नसौ।
नियोग इति मीमांसानिष्णातैरभिधीयते॥
१४९ कार्यस्यैव प्रधानत्वाद्वाक्यार्थत्वं न युज्यते।
१५० कालो लध्वादिभितया क्रियया संमितो मितिन्।
गीतादेर्दिदवत्तालः स च द्वेधा बुधैः स्मृतः॥
१५१ काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः। तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः।
१५२ काव्यालापांश्च वर्जयेत्।
१५३ काव्यग्रहणं तर्कवैलक्षण्यार्थम्। तेन व्याप्तिपक्षधर्मतादयो न क्रियन्ते।
१५४ किं ब्रवीष्येवमित्यादि विना पात्रं ब्रवीति यत्।
श्रुत्वेवानुक्तमप्येकस्तत् स्यादाकाशभाषितम्॥
१५५ कुमुददलैः सह संप्रति विघटन्ते चक्रवाकमिथुनानि।
१५६ कुशलप्रवीणादिशब्दानां तु साक्षात् संकेतविषयत्वेन मुख्यत्वान्न रुडिहेतुकत्वं लक्षणायाः।
१५७ कृच्छ्राद्रूयुगं व्यतीत्य मुचिरं भ्रान्ता नितम्वस्थले
मध्येऽस्यास्त्रिवलीतरङ्गविषमे निस्पन्दतामागता।
मद्दृष्टिस्तृषितेव संप्रति शनैराश्य तुङ्गौ स्तनौ
साकाङ्क्षं मुहुरीक्षते जललवप्रस्यन्दिनी लोचने॥
१५८ कृतादीनां व्यवस्थेयं धर्मपादव्यवस्थया।
१५९ कृताधराङ्गसंस्कारा सखीकेलीषु लालसा।
१६० को मोहः कः शोकः।
१६१क्यचि वाद्युपमेयौ।
१६२ क्रमाज्जातिगुणद्रव्यक्रियाणां तत्तदादिभिः।
विरोधे दश भेदाः स्युश्चतुस्त्रिद्व्येकभेदतः॥
१६३ कल्यादकौशिककपोतककाककङ्कैः केतुस्थितैर्मद्वदुशन्ति भयं नृपस्य।
१६४ कन्यादा गृध्रादयः।
१६५कियादिमित्रं यत् कार्यं वेद्यं मानान्तरैर्नं तत्।
अतो मानान्तरापूर्वमपूर्वमिति गीयते॥
१६६ कीडतां मृण्मयैर्यद्वद् बालानः द्विरदादिभिः।
स्वेच्छा हि स्वदते तद्वच्छ्रोतॄणामर्जुनादिभिः॥
१६७ कोधः कोपश्च रोषश्चेत्येष भेदस्त्रिधा मतः।
१६८ क्वचिद् केनचिद् व्यवहारः।
१५१क्वचिच्छ्लेषेण धर्माशगतेनैषा न बाध्यते।
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१५१ - वाम०॥ काव्या० सू० १।३।१२. २५३ - By रुच०. १५४ द० रू० १/६०. १५६ - By हेम०. १५७ लोच० p. 67 (कृच्छ्रेणोरू) १५८ - सू० सि० १६१ - का० प्र० १० (क्यचि वाद्युपमेयासे) १६३ - व० सं० १६४ - उत्प० परि० on व० सं० १६५ - By शारि०. १६७ - भा० प्र०. १६८ - का० प्र० ५. १६९ - ब्मलं० सर्व० संजी० of वि० चक० (धर्माङ्गं तैनेषा न च भाष्यते.
१७० क्षिप्रेर्वेशः।
१७१ क्षेमंकरोऽरिष्टतातिः शिवतातिः शिवंकरः
१७२ क्ष्वेडा तु सिंहनादः स्यात्।
१७३ क्षोभात्मा रुचिरान्त्रादिदर्शनस्पर्शनादिजः।
उद्वेगात्मा कृमिच्छर्दिपूर्तिविष्ठादिजो भवेत्॥
१७४ गण्डः प्रस्तुतसंवन्धि भिन्नार्थं सहसोदितम्।
१७५ गतिः पुला चतुष्का च तद्वन्मध्यजवा परा।
पूर्णवेगा तथा चान्यो पञ्च धाराः प्रकीर्तिताः॥
एकैका त्रिविधा धारा हयशिक्षाविधौ मता।
लध्वी मध्या तथा दीर्घा ज्ञात्वैता योजयेत् क्रमात्॥
१७६ गम्यमानार्थस्याप्रयोग एव लोपः।
१७७ गर्मनिर्भिन्नबीजार्थसंबन्धौ व्यसनादिजः।
विचारनिर्णयो यस्तु स विमर्श इति स्मृतः॥
१७८ गुणः कृतात्मसंस्कारः प्रधानमनुषज्यते।
प्रधानस्योपकारे हि तथा भूपसि वर्तते॥
१७९ गुणान् वर्णयात स्वैरं वीक्षते भावमन्थरम्।
रोमाञ्चो गद्गदपदा वाक् स्वेदश्च कपोलयोः॥
विस्रम्भकथनं दूत्या तत्समागमचिन्तनम्।
एवंगुणस्तुतिभवा भावा मन्मथसूचकाः॥
१८० गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः।
१८१ गुरुः खेदं खित्र मयि भजति नाद्यापि कुरुषु।
१८२ गृहे पक्ष्यां गृहेऽपि च।
१८३ गौर्गौ कामदुग्धा सद्भिः।
१८४ चकाब्जपरशुतोरणशक्तिधनुःकुम्भसंनिभां रेखाः।
कुर्वन्ति चमूनाथं मकरष्वजसन्निभा महीपालम्॥
१८५ चक्रासिचापवज्रामा रेखाः कुर्वन्ति भूपतिम्।
१८६ चन्दनगन्धः।
१८७ चन्द्रनामाङ्किता प्रायो मङ्गलार्थपदोज्ज्वला।
आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वा प्रकल्प्यते॥
१८८ चिन्तानिश्वासखेदाश्रुवैवर्ण्यग्लान्यभूषणैः।
युक्ताः षडन्त्या वै चाद्यै कीडोज्ज्वल्यप्रहर्षितैः॥
१८९ चित्तस्याविकृतिः सत्त्व विकृते कारणे सति।
ततोऽल्पा विकृतिर्भावो बीजस्यादिविकारवत्॥
१९० चिरयत्यव्यलीका तु।
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१७१ अम०. १७२ अम० २।८।१०७. १७३ भा० प्र०. १७४ द० रू० p. 118. १७६ कैय०. १७८ By आचार्य. Quoted in the का० प्र०, end of 7th Ullâsa, also quested in लोचन p. 171 (प्रतिपद्यते for अनुषज्यते) १८० उत्त० रा०. १८१ वेणीसंहार १८२ By हला०. १८४ व० सं०. १८६ म० भा०. १८९ द० रू०२/२३ (त्यव्यलीके तु)
१९१ चूडामणिपदे धत्ते यो देवं रविमागतम्।
सतां कार्यातिथेयीति बोधयन् गृहमेधिनः॥
१९२ छान्दसत्वेऽपि बाणादिप्रयोगमहिम्नालोकेऽपि न विरोधः।
१९३ जतुकाष्ठपायेन समङ्गपदः शब्दश्लेषः। एकनालावलम्बिफलद्वयन्यायेनाभङ्गपदोऽर्थश्लेषः। उभयनिबन्धेतूमयश्लेषः।
१९४ जिज्ञासैकोपनीतस्य द्वितीया पठितश्रुतेः।
ज्ञातविद्यान्तरस्यान्या या मीमांसापुरस्सरी॥
१९५ ज्ञानहेतुविवक्षायामप्यादि कथमव्ययम्।
कथमादि तथाप्यन्तं यत्नगौरवबाढयोः॥
१९६ ज्ञानाभीष्टागमाद्यैस्तु संपूर्णस्पृहता धृतिः।
सौहित्यवचनोल्लाससहासप्रतिभादिकृत्॥
१९७ ज्ञायमानतया यत्र विभावो भावपोषकृत्।
१९८ टवर्गवर्जिताः स्पर्शाः स्वस्ववर्गान्त्यशेखराः।
लघुरेफणकारौच कोमलाः परिकीर्तिताः॥
रेफेण यस्य कस्यापि योग आद्यतृतीययोः।
स्वोत्तराम्यां तुल्ययोर्वा परुषाष्टगणः शषौ॥
१९९ ततः कृत्वा महापूजामुद्देिश्य कुलदेवताम्।
धेनुं भूमिंहिरण्यं च विप्रेभ्यो विधिनार्पयेत्॥
तदाशिषः समादाय नीराजितहयद्विपः॥
२०० ततो विषयिरूपेण रूपवान् विषयो मतः।
आरोपणेन क्रियते तेनैतद्रूपकं मतम्॥
२०१ तत्कथाख्यायिकेत्येका जातिः संज्ञाद्वयाङ्किता।
२०२ तत्कालीनोविशेषस्तु विलासोऽङ्गक्रियादिषु।
२०३ तत्तत्प्रहरकयोग्यै रागैस्तत्कालवाचिभिः श्लोकैः।
सरमसमेव वितालं गायन् वैतालिको भवति॥
२०४ तत्र काक्कागमनं देवदत्तागमनस्योपमानं तालपतनं दस्यूपनिपातस्य। तालेन तु यः काकस्य वधः स देवदत्तस्य दस्युना वधस्पोपमानमिति वधादिः काकतालीयादिशब्दवाच्यः संपद्यते।
२०५ तदल्पमपि नोपेक्ष्यं काव्ये दुष्टं कथंचन।
स्याद्वपुः सुन्दरमपि श्वित्रेणैकेन दुर्भगम्॥
२०६ तदाद्यास्तिययो द्वयोः।
२०७ तदिदमरण्यं यस्मिन् दशरथवचनमनुपालयन् व्यसनी।
निवसन् वाहुसहायश्चकार रक्षःक्षयं रामः॥
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१९१ Quoted in अलं० स० and other works. १९२ दश० सर्व०. १९९ मान०.२०० अलं॰ सर्व० संजी० of वि० चक्र० ( यतः for मतः and क्रियया for कियते ).२०१ का० द० १।२८. २०३ मा० प्र०. २०४ By कैदo on महामा०. २०५ का० द० १।७.२०६ अम० १।४।१. २०७ Quoted in का० प्र० १०.
२०८ तदुत्सार्यमाणमपि स्वच्छन्दतो मुहुरुदकमाच्छादयतीति सच्छन्दव्यवहारो लक्ष्यते।
२०९ तदेवमितरेतराश्रयदोषो दुरुत्तरः।
२१० तद्यत्नगौरवं प्रसज्येत।
२११ तदेवं श्लिष्टविशेषणसमुत्थापितैका। साधारणविशेषणसमुत्थापिता धर्मकार्यसमारोपाम्यां द्विधा। औपम्यगर्भविशेषणसमुत्थापिता तूपमासंकरसमासाभ्यां द्विभेदा।
२१२ तमिव पश्यन्ति जनाः सोऽयं स इव दृश्यमानस्तमिवात्मानं पश्यति।
२१३ तस्मात् पदैरमिहितैः पदार्थैलंक्षणया वाक्यार्थः प्रतिपाद्यते।
२१४ तर्जनीमूलसंलग्नः कुञ्चिताङ्गुष्ठको भवेत्।
पताकः संहताकारः प्रसारिततलाङ्गलिः॥
स एव त्रिपताकः स्याद्वक्रितानामिकाङ्गुलिः॥
२१५ तत्सिद्विहेतादेकस्मिन् यत्रान्यत् तत्करं भवेत्।
२१६ तात्पर्यं नाम व्यापारान्तरं परैरभ्युपगतम्।
२१७ तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित्।
२१८ तादृश्यादयो रूढिशब्दाः।
२१९ तालान्तरालवर्तीयः कालोऽसौलयनाल्लयः।
२२० तामु चानवतेः स्त्रियः।
२२१ तुमुन्तव्यक्त्वासु ग्रहेः।
२२२ तुल्योऽनेकत्र दक्षिणः।
२२३ तृष्णाक्षयमुखस्य यः परिपोषस्तल्लक्षणो रसः प्रतीयत एव।
२२४ तृष्णानां विषयाभिलाषाणा सिद्धो यः क्षयः सर्वतो निवृत्तिरूपो निर्वेदः स एव सुखं तस्प स्थायिभूतस्य यः परिपोषस्तस्य चर्व्यमानताकृतः स एव लक्षणं यस्य स शान्तोरसः प्रतीयत एव।
२२५ तेनात्रिवर्गफले प्रहसनादो रसोत्पत्तिहेतोरेव बीजत्वमिति।
२२६ तोमरोऽस्त्रीलोहहुलदण्डः कासूश्चसर्वला।
२२७ त्रिपताकः पताकाश्चगण्डश्रोत्रं गतः करः।
जनान्तिके रहस्ये च दोषे श्रवसि कीर्तितः॥
२२८ त्रिवर्गों धर्मकामार्थैः।
२२९ त्रेधात्र नायिका ज्ञेया कुलस्त्रीगणिकोभयम्।
तद्वशाद्रूपकं त्रेधा तृतीयं धूर्तसंकुलम्॥
गणिका प्राकृतं ब्रूते कुलस्त्रीसंस्कृत तथा॥
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** **२१२ महामा०. २१६ एकाव०. २१७ का० प्र० २. २१८ वृत्तिका० २२२ अम० २।९।८४. २२३ ध्व० लो० p. 176. २२४ लोच० pp. 176-7 (विषयाणां, drops सिद्धः, निरोधः for निर्वेदः, तदेव, यः स्थायिभूतस्य परिपोषः, रस्यमानताकृतस्तदेव लक्षणं). २२६ वैज०, २२७ दश० धनि० p.12. २२८ अम० ३।७।५८, २२९ द० रु०
२३० त्र्यवयवा विद्या त्रिविद्या। तामधीते वेत्ति वा त्रैविद्यः। न तु तिस्रोविद्या अधीत इत्यण्प्रत्ययनिमित्तः ‘तद्धितार्थ—
’ इत्यादिना समासः। अत एवाण्प्रत्ययस्य लुगभावः।
२३१त्वत्पादनखरत्नानां यदलक्तकमार्जनम्॥
इदं श्रीखण्डलेपेन पाण्डुरीकरणं विधोः॥
२३२ दक्षस्यारामभूमित्वाद् द्राक्षारामोऽभिधीयते।
२३३ दक्षिणाक्षिपरिस्पन्दात् दक्षिणस्य भुजस्य च।
मनसश्चप्रसादेन स्वानुकूलानिलेन च॥
एवं निमित्तैर्निश्चित्य विजयं भुपतिर्व्रजेत्॥
२३४ दन्तप्रभापूष्पचिता लोलाक्षी चारुहासिनी।
केशपाशालिवृन्देन सुवेषाहरिणेक्षणा॥
२३५ दशधा मन्मथावस्था भवेद् द्वादशचापि वा।
इच्छोत्कण्ठाभिलाषाश्चचिन्तास्मृतिगुणस्तुती॥
उद्वेगोऽथ प्रलापः स्यादुन्मादो व्याधिरेव च।
जाड्यं मरणमित्याद्येद्वे कैश्चिद्वर्जिते बुधैः॥
२३६ दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं मतम्॥
२३७ दाता महीभूतांनाथो होता देवश्चतुर्मुखः।
वरः पशुपतिः साक्षात् कन्या विश्वारणिस्तथा॥
२३८ दानवीरं युद्धवीरं धर्मवीरं तथैव च।
रसं वीरमपि पाह ब्रह्मा त्रिविधसंमतम्॥
२३९ दाराः पुंसि च भूम्येव।
२४० दिव्यस्रियमानेच्छन्तीमपद्वारादिनेच्छतः।
२४१दिव्यैरयुक्तः पुरुषैः शेषेरन्यैः समन्वितः।
२४२ दिद्दौमिथःसः।
२४३ दुःखमप्यधिकं चित्ते मुखत्वेनैव रज्यते।
येन स्नेहप्रकर्षेण स राग इति कथ्यते॥
२४४ दुर्वाराः स्मरमार्गणाः प्रियतमो दूरे मनोऽप्युत्मुकम्।
२४५दूराध्यान् वधंयुद्धं राज्यदेशादिविप्लवम्।
संरोचं भोजनं स्नानंसुरतं चानुलेपनम्॥
अम्बरग्रहणादीनि प्रत्यक्षाणि न निर्दिशेत्।
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** **२३० महामा०. २३१ Quoted by राजानकरूप्यक and नागोजिभट्ट. २३२ स्क० पु०. २३३ मानसो०. २३५ मा० प्र०. २३६ By व्यास. २३७ श्रीक० ली०. २३८ ना० शा० of मर०. २३९ अम० २।६।६ (पुंभूम्निदाराः). २४० द० रू०. २४१By शा० त०. २४४ By शङ्कुक, quotedin का० प्र० १०. २४५ The first part is similar to दशरू० ३-३१-३२.
नाधिकारिवधः क्वापि त्याज्यमावश्यकं न च॥
अधिकारिवधस्यापि क्वचित् स्यात् कल्पनार्हता।
अर्वाक्प्रकारात् स पुनः प्रत्युज्जीविष्यते यदि॥
नायकस्य यदेकाहचरितप्रतिपादकः।
पकप्रयोजनाश्लिष्टस्तत्रैवासन्ननायकः॥
विदूषकादिभिःपात्रैर्योज्यस्त्रिचतुरैरपि।
समस्तपात्रनिष्कामावसानोऽङ्कोऽभिधीयते॥
२४६ दृङ्मनःसङ्गसंकल्पा जागरः कृशतारतिः।
म्हीत्यागोन्मादमूर्छान्ता इत्यनङ्गदशा दश॥
२४७ दृढभक्तिरित्येवमादिषु स्त्रीपूर्वपदत्वस्याविवक्षितत्वात् समाधेयम्।
२४८ देवः सुरे घने राज्ञि।
२४९ देवताश्च द्विजा गावः पितरो लिङ्गिनस्तथा।
यद्वदन्ति नरं स्वप्नेतत्तथैव विनिर्दिशेत्॥
२५० देवोऽपि देवीमालोक्य सलज्जां हिमशैलजाम्।
न तृप्यति नतापाङ्गी सा च देवं वृषध्वजम्॥
२५१ दोषा गुणा गुणा दोषा यत्र स्युर्मदवं हि तत्।
२५२ दोषा रात्रिमुखे रात्राक्त्रानव्ययमप्यसौ।
२५३ द्यामालिलिङ्ग मुखमाशु दिशां चुचुम्व।
२५४ द्रवीभूतं मनो यत्र दर्शने प्रेमदायिनः।
२५५ द्राक्षामधूकखर्जूरकाश्मयैः सह रूषकैः।
तुल्पांरौःकल्पितं पूतं शीतं कर्पूरवासितम्॥
पानकं पञ्चसाराख्यं दाहतृष्णानिवर्तकम्॥
२५६ द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलमेदिनौ।
परिव्राङ्योगयुक्तश्चरणे चाभिमुखो हतः॥
२५० द्विविधो हि विषयः शब्दानामनुमेयः प्रतिपाद्यश्च।
२५८ दिष्ठोऽप्यसौपरार्थत्वात् गुणेषु व्यतिरिच्यते।
तत्राभिधीयमानः सन् प्रधानेऽप्युपयुज्यते॥
२५९ द्वे ह्यत्र कर्मणी उपमानकर्मोपमेयकर्म चेति। उपमानकर्मान्तर्भूतमुपमेयेन कर्मण सकर्मको भवति।
२१० धर्मयुद्धवीरप्रधानो धीरोदात्तः। वीररौद्रप्रधानो धीरोद्धतः। वीरशृङ्गारप्रधानो धीरललितः। दानधर्मवीरशान्तप्रधानो धीरशान्त इति चत्वारो नायकाः।
२११ धर्मे प्रमीयमाणे हि वेदेन करणात्मना।
इतिकर्तव्यतामागं मीमांसा पूरयिष्यति॥
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** **२४६ Quoted by Mallinatha on किंरा० १०-४८. २४७ By वृत्तिका०, २४८ विश्व०. २४९ वृह० म०. २५० श्रीकण्ठ० २५१ द० रू० ३।१८. २५२ विश्व०. २५८ By भर्तृहरि. २६० लोच० p. 138. (धीरप्रशान्त). २६१ By आचार्य.
२६२ धर्म्ये वर्त्मनिसंस्थाप्य प्रजा वर्तेत धर्मवित्।
पुत्रसंक्रामितश्रीश्चवने वन्येन वर्त्तयेत्॥
२६३ धातोरर्थान्तरे वृत्तेर्धात्वर्थेनोपसंग्रहात्।
प्रसिद्धेरविवक्षातः कर्मणोऽकर्मिका क्रिया॥
२६४ धात्रा निम्बफलास्वादे काकलोको हि कल्पितः।
२६५ ध्रुवाः पञ्च प्रयोक्तव्या रसाभिनयसिद्धये।
२६६ धृतातपत्रः शुभशुक्लवासाः पुष्पार्चितश्चन्दनचर्चिताङ्गः।
विप्रः शिखावान् कृतभोजनश्चददाति दृष्टः पथि सर्वसिद्धिम्॥
२६० न केवलं श्रूयमाणैव क्रिया निमित्तं कारकमावस्य अपि तु गम्यमानापि।
२६८ न च न स्वीकृतमर्थगौरवम्।
२६९ न च हन्यात् स्थलारूढं न क्लीव नकृताञ्जलिम्।
न भीतं न परावृत्तं सतां धर्ममनुस्मरन्॥
२७० न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकम्।
२७१ ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः।
२७२ न पुनरेति गतं चतुरं वयः।
२७३ नपुंसकमिति ज्ञात्वा तां प्रति प्रेषितं मनः।
तत्तु तत्रैव रमते हताः पाणिनिना वयम्॥
२७४ न वाध्यतेऽत्रत्रिगुणः परस्परम्।
२७५ न भिन्नलिङ्गवचने न च न्यूनाधिके तथा।
उपमादूषणायालंयत्रोद्वेगो न धीमताम्॥
२७६ नवम्यामाश्वयुङ्मासे कार्त्तिकायामथापि वा।
हस्तिनीराजनं कुर्याद्राजा जनसमृद्धये॥
अश्वनीराजनं कुर्यादश्वानां हितकाम्यया।
तद्वच्चैवाश्वयुङ्मासे पूर्वपक्षे नृपोत्तमः॥
२७७ न वाच्ययो दातादौ।
२७८ न विद्वत्ता न शुद्धोऽर्थो न शुद्धिर्मनसः कलौ।
२७९ नाटकेऽङ्का न कर्तव्याः पञ्चन्यूना दशाधिकाः।
२८० नानुपलब्धे न निर्णीतेऽर्थे न्यायः प्रवर्तते अपि तु संदिग्धे।
२८१ नाम प्रकाश्यसंभाव्यकुत्साम्युपगमेषु च।
२८२ निरकासयद्रविमपेतवसुं वियदालयादपरदिग्गणिका।
२०३ निरीक्ष्य विद्युन्नयनैः पयोदः।
२८४ निरूडा लक्षणाः काश्चित् सामर्थ्यादभिधानवत्।
क्रियन्ते साम्प्रतं काश्चित् काश्चिन्नैव त्वशक्तितः॥
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२६२ By व्या०. २६६ वस० नाट्य० which is quoted by Mallingths on शिशु० २।८. २६० न्यासो०. २६९ मनु० ७।९२ and ९३ ( halves). २७५ काव्या० २।५१ (न लिङ्गवचने भिन्ने न हीनाधिकतापि वा ). २०६ By शौनक .२८० A न्याय.१८१ विश्व०. २८२ शिशु० ९-१०. २८४ Quoted in लोचन p. 53.
२८५ निर्वेदस्यामङ्गलप्रायस्य प्रथममनुपादेयत्वेऽपि उपादानं व्यभिचारित्वेऽपि स्थायित्वाभिधानार्थम्। तेन निर्वेदस्थायिभावः शान्तोऽपि नवमोऽस्ति रसः।
२८६ निष्ठ्यूतोद्रीर्णवान्तादि गौणवृत्तिव्यपाश्रयम्।
अतिसुन्दरमन्यत्र ग्राम्यकक्ष्यां विगाहते॥
२८० नीरन्ध्रातत्र कर्तव्या स्निग्धा यवनिकादिमा।
अपरे द्वे यवनिके नीहारावरणोपमे॥
प्रेक्षकाणां वितन्वाना नयनानन्दकन्दलम्।
नेपध्यान्तरिता भूत्वा नर्तकी नृत्तमाचरेत्॥
२८८ नीरसोऽनुचितस्तत्र संसूच्यो वस्तुविस्तरः।
दृश्यस्तु मधुरोदात्तरसभावनिरन्तरः॥
२८९ न्तमाणौशतृशानचोः।
२९० पट्टसो लोहदण्डो यस्तीक्ष्णधारः क्षुरोपमः।
२९१ पताकानायकस्त्वन्यः पीठमर्दों विचक्षणः।
तस्यैवानुचरो भक्तः किंचिद्वनस्तु तद्गुणैः॥
२९२ पदयोः सन्धिर्वा।
२९३ पद्यमङ्गुलिविच्छेद उरोविन्यस्तमक्षरम्।
तन्नामकरणं चेति दास्यमेतचतुष्टयम्॥
२९४ पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवृद्धये।
२९५ परः शताद्यास्ते येषां परा संख्या शतादिकात्।
२९६ परस्परमाज्ञोलङ्घनं प्रणयमानः।
२९७ परस्य सुखदुःखादेरनुभावेन चेतसः।
अत्यन्तेनानुकूल्येन येन तद्भावभावनम्।
तत् सत्वं तेन निर्वृत्ताः सात्त्विका इत्युदीरिताः।
अनुभावत्वसामान्ये सत्यप्येषां पृथक्तया।
लक्षणं सत्त्वजत्वाद्वि ते च स्तम्भादयः स्मृताः॥
२९८ पाम्राध्मेत्यादौ युगपदधिकरणवचनतायां द्वन्देऽपि क्रमस्य प्रतीतेः स एव नियामकः॥
१९९ पाठ्यादयधुवागानात् ततः संपूरिते रसे।
तदास्वादभरैकाग्रोदृष्यत्यन्तर्मुखः क्षणम्॥
ततो निर्विषयस्यास्य स्वरूपावस्थितो निजः।
व्यज्यते ह्लादनिष्यन्दो येन तुष्यन्ति योगिनः॥
३०० पादाम्बुजं भवतु वो विजयाय मञ्जुमञ्जीरशिञ्जितमनोहरमम्बिकायाः॥
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२८५ का० प्र० ४ (निर्वेदः स्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः ). २८६ काव्यादर्श १।९५ (ग्राम्यकक्षां). २८७ संगौ० चूडा०. २८८ दश० १।५९. २९० वैज०. २९५ अम० ३।१।६४. २९६ र० मं०. २९८ प० मं०. ३०० Quoted in का० प्र० १०.
३०१ पुनरुक्तवदाभासो विभिन्नाकारशब्दभाक्।
एकार्थनैव शब्दस्य तथा शब्दार्थयोरयम्॥
३०२ पूर्णकुम्भे तथादर्शे दध्निमद्ये तथामिषे।
मीने शङ्खे ध्वजे च्छत्रे चामरे चारुयोषिति॥
चाधे मृगे भरद्वाजे फलपुष्पाक्षतेषु च।
वृषभेसमदे नागे सितवाहेद्विजोत्तमे॥
सुवर्णे दिव्यरत्ने च वीणायां पटद्देऽपि च।
वद्धेचैकपशौदृष्टे यात्रा भवति सिद्धिदा॥
३०३ पूर्वरङ्गं विधायादौसूत्रधारे विनिर्गते।
प्रविश्य तद्वदपरः काव्यार्थेस्थापयेन्नटः॥
दिव्यमार्त्ये सतद्रूपो मिश्रमन्यतरस्तयोः।
सूचयेद्वस्तु बीजं वा मुखंपात्रमद्यापि वा॥
३०४ पृष्ठोऽनुत्तरपदे।
३०५ प्रकटितरामाम्भोजः कौशिकवाग्लक्ष्मणानन्दी।
सुरचापनमनहेतोरयमवतीर्णः शरत्समयः॥
३०६ प्रकाशानन्दचिद्रूपां रसतां प्रतिपद्यते।
प्रकृष्यमाणो यो भावः स स्थायीति निगद्यते॥
३०७ प्रकृष्टो वर्णविन्यासो रसाद्यनुगतो हि यः।
सोऽनुप्रासः स च च्छेकवृत्त्युपाधिगतो द्विधा॥
३०८ प्रकृष्यमाणो यो भावो रसतां प्रतिपद्यते।
स एव भावः स्थायीति भरतादिभिरुच्यते॥
३०९ प्रक्षालनाद्धिपङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम्।
३१० प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न वुध्यते।
एनं विदन्ति वेदेन तस्माद्वेदस्य वेदता॥
३११ प्रत्ययोऽधीनशपथज्ञानविश्वासहेतुषु।
३१२ प्रधानं फलसंवन्धि तत्संवन्ध्यङ्गमिष्यते।
३१३ प्रधानेऽन्यत्र वाक्यार्थे यत्राङ्गं तु रसादयः (यत्राङ्गत्वं)
काव्ये तस्मिन्नलंकारो रसादिरिति मे मतिः॥
३१४ प्रशस्तमत्तमातङ्गवपुर्भूत्वाथ भूतपः।
भ्रममाणो वने तस्मिन् क्रीडां स्वीकृतवान् विभुः॥
तामालोक्य महादेवी महेशेच्छानुवर्त्तिनी।
करिणीरूपमास्थाय तेन सा विचचार ह॥
३१५ प्राधान्यस्य संदेहसादृश्ययोः सहृदय एव प्रमाणम्।उद्वतैरन्यथापि वक्तुं शक्यत्वात्।
३१६ प्रेक्षकाद्युन्मुखीकारः प्रस्तुतार्थप्रशंसया प्ररोचना।
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३०१ का० प्र० ९ (॰शब्दगा, एकार्थतेव ). ३०३ द० रू० ३।१-३ (काव्यमास्थापयेन्नटः मर्त्ये) . ३०६ भा० प्र०. ३०९ A न्याय. ३११ अम० ३।३।१४७. ३१३ ध्व० लो० p 71.३१४ स्क० पु०. ३१५ By भ० गोपा०.
२१७ प्रेमा मानः प्रणयः स्नेहो रागोऽनुरागश्च।
अङ्कुरपल्लवकलिकाकोरकफलभोगमागयं क्रमशः।
३१८ फलं त्रिवर्गस्तच्छुद्धमेकानेकानुबन्धि च।
३१९ फले प्रधाने विच्छिन्ने बीजस्थावान्तरैः फलैः।
तस्याविच्छेदको हेतुर्विन्दुरित्याह कोद्दलः।
३२० बध्यते धडरं चक्रं प्रत्यरं तन्नवाक्षरम्।
त्रयाणामपि पादानां दशमं कर्णिकाक्षरम्॥
आदितः स्वस्वतुर्यारैस्त्रयः पादाश्चतुर्थगाः।
वर्णाः षष्ठान्त्यमारभ्य संपतन्तेऽन्तिमाक्षरैः॥
मध्ये द्वौ द्वौ विसंवादी षडरेषु क्रमाद् भवेत्।
चतुर्थैःसप्तमैर्वणैवर्णनं कविवर्णयोः॥
३२१ वध्नामि काव्यशशिनं विततार्थरश्मिम्।
३२२ बाहूराजन्यः कृतः।
३२३ वाह्यार्थसंवन्धस्य यथायोगं त्त्वरजस्तमोऽहंकारसहितस्य मनसो विकारविशेषा’ शृङ्गारादयः। एतेभ्य एव सत्त्वरजस्तमोऽहंकारेषु यथायोगमावापोद्धारसहितेम्यो हास्यादय उत्पद्यन्ते।
३२४ बाह्यास्तु स्तम्भादयः शरीरधर्माअनुभावास्ते चान्तरालिकान् भावान् गमयन्तः परमार्थतो रतिनिर्वेदादिगमका इति स्थितम्।
३२५ भगिनी स्थालिका वापि मातुलस्याथवा मुता।
एता भवन्ति दूत्यस्तु बान्धवस्त्रीति संज्ञिताः॥
३२६ मणितिरिव चेष्टा चेष्टेव कीर्तिः।
३२७ मद्रश्रीहरितालगुग्गुलशिलागन्धोऽतिशूरो रणे।
नानाशस्त्रनिपातवेगसहनः स्तम्बेरमः क्षत्रियः॥
३२८ भागद्वयं प्रविष्टस्य प्रधानस्यैकभागतः।
रसानां दृश्यते यत्र तत्स्यादाभासलक्षणम्॥
३२९ माति सदानत्यागः स्थिरतायाम्।
३३० भारती संस्कृतप्रायो वाग्व्यापारो नराश्रयः।
उन्मुखीकरणं तत्र प्रशंसातः प्ररोचना॥
२३२ भार्याजायाथ पूंभम्निदाराः।
३३२ मुक्ते मुङ्क्तेया पत्यौदुःखिते दुःखिता यदि।
मुदिते मुदितात्यर्थं प्रोषिते मलिनाम्बरा॥
सुप्तेपश्चात्तु या शेते पूर्वमेव प्रबुध्यते।
नान्यं कामयते चित्ते सा विज्ञेया पतिव्रता॥
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** **३१९ मा० प्र०. ३२१ वा०’s काव्या० सू० ४।२।१६ वृत्ति (ग्रध्नामि ). ३२४ का० शा० of हेम० p. 100. ( सात्त्विकान् भावान् for भावान् ). ३२५ By सोमे०. ३२८ मा० प्र०. १३१ अम० २।६।६. ३३२ By सोमे०.
३३३ भूमिकाभिरनैकाभिः कर्मवागङ्गचेष्टितैः।
यथा प्रकृतिसन्धानकुशलास्ते कुशीलवाः॥
२३४ भूयिष्ठां ते नमठक्तिं विधेम।
३३५ भ्रूविक्षेपकटाक्षादिविकारो हृदयस्थितम्।
भावं व्यनक्ति यः सोऽयमनुभाव इतीरितः॥
३३६ मइमममहमञ्झ ङसौ।
३३७ मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि शास्त्राणि प्रथन्ते।
३३८ मज्जन्तश्च निमज्जन्तः कल्लोलास्ते यथार्णवे।
तस्योत्कर्ष वितन्वन्ति यान्ति तद्रूपतामपि॥
तथा स्थायिनि निर्मग्ना हुन्मग्ना व्यभिचारिणः।
पुष्णन्ति स्थायिनंस्वांश्चतत्र यान्ति
रसात्मताम्॥
३३९ मनसो यद्द्रवीभावो विषयेषु ममत्वतः।
भयशङ्कावसानात्मा स एव स्नेह उच्यते॥
३४० मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा च वासुकिम्।
३४१ मरणेऽभिनयो नास्तीत्येतत्काव्ये न पठ्यते।
३४२ महिलासहस्समरिए तुइ हिअअ सुहअ सामअन्ती।
दिअहं अणण्णसरणा अंगं तणुअं वितणुए हि॥ p. 885.
३४३ महोदयो महाभाग्यः कृतज्ञो रूपवान् युवा।
मानी सुशीलः सुभगो विदग्धो वंशसंभवः॥
अहर्निद्रो मधुरवागभिगम्यो भवेत् स्त्रियः॥
३४४ महीभुजामहिमयं स्वपक्षप्रभवं भयम्।
३४५ माङ्गल्यं पूर्णकुम्भं तु शिरःस्थाने निधाय च।
वैदिकैर्गारुडैमंन्त्रै रक्षां कृत्वा स्वपेन्निशि॥
३४६ माधुर्यव्यञ्जकैर्वर्णैरूपनागरिकेष्यते।
ओजः प्रकाशकैस्तैस्तु परुषा कोमला परैः॥
केषांचिदेषा वैदर्भीप्रमुखा रीतयो मताः॥
३४७ माधुर्ये पृथक्पदत्वं दीर्घसमासाभावः।
३४८ मांसलौगूढगुल्फौच कूर्मपृष्ठसमावपि।
भवेतां चरणौ यस्य स भवेत् पृथिवीपतिः॥
३४९ मितात् ह्रस्वः।
३५० मिवतिवविवव्वल इवार्थे।
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३४० वि० पु०. ३४१ By शार० त०. ३४४ अम० २।८।३०. ३४५ स्मृ० रत्ना०. ३४६ का० प्र० ९ (°कोच्यते ). ३४७ वा०’s काव्या० सू० ३।१।२१ (समासदैष्यविनिवृत्तिपरं चैतत् ). ३४८ By सोमे०.३४९ चन्द्र.
३५१ मीलनोन्मीलनावृत्तिर्ग्रत्र तच्चकितं विदुः।
अपाङ्गयोरुर्ध्वभागावलोकनमुदञ्चितम्॥
३५२ मुक्ताफलेषु छायायास्तरलत्वमिवान्तरा।
प्रतिभाति यदङ्गेषु तल्लावण्यमिहोच्यते॥
३५३ मुख्यार्थनिहतिर्दोषः।
३५४ मुख्ये रसेऽपि तेऽङ्गित्वं प्राप्नुवन्ति कदाचन।
३५५ मुसुण्डी स्वाद् दारुमयी वृत्तायःकीलसंचिता।
३५६ मुहुः पश्चिमपादाभ्यां भुवि स्थित्वाग्रपादयोः।
अर्ध्व प्रेरणया स्थानमश्वानां पुरुषः स्मृतः॥
३५७ मोक्षफलत्वेन चायं परमपुरुषार्थनिघ्नत्वात् सर्वरसेभ्यः प्रधानतमः स चायं शान्तरसः।
३५८ मोहो विचित्तता मीतिदुःखवेगानुचिन्तनैः।
घूर्णनागात्रपतनभ्रमणादर्शनादिकृत्॥
३५९ मौलं भृतं मुद्वछ्रेणी द्विषदाटविक बलम्।
३६० मौलं भृत्यं तथा मैत्रं स्त्रैणमाटविकं बलम्।
आमित्रमपरं षष्ठं सप्तमं नोपलभ्यते॥
३६१ प्रौ ज्रौ गत्विदशयतिः प्रहर्षिणीयम्।
३६२ यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम्॥
३६३ यजुर्वेदे तिष्टति मध्येऽह्नः।
३६४ यजेत राजा क्रतुभिर्विविवैराप्तदक्षिणैः।
३६५ यत्त्वभिप्रायविशेषरूपं व्यङ्ग्यं शब्दार्थाम्यां प्रकाश्यते तद्भवति विवक्षितं तात्पर्येण प्रकाश्यमानम्।
३६६ यत्र किंचित् सामान्यं कञ्चिच्च विशेषस्तत्रोपमानोपमेये भवतः।
३६७ यत्र वस्त्वन्तरे वस्त्वन्तरमुपचर्यते स गौणोऽर्थः। यत्र न तथा स लक्ष्य इति विवकः।
३६८ यत्र सूचनव्यापारोऽस्ति तत्र शब्दशक्तिमूलो वस्तुध्वनिर्वोद्धव्यः।
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३५२ भा० प्र०. ३५३ का० प्र० ७ ( मुख्यार्थहतिर्दोषः ). ३५४ का० प्र० ४. ३५५ वैज० ३५७ लोच० p. 178 ( निष्ठितत्वात् for निम्नत्वात् and स चायमस्मदुपाध्यायभट्टतौतेन काव्यकौतुके अस्माभिश्च रुद्विवरणे बहुतरकृतनिर्णयः पूर्वप्रक्षसिद्धान्त इत्यलं बहुना. Of ग, however, the reading in the footnote there is the same as in the text viz, स चायं शान्तो रसः). ३५८ सा० द०. ३५९ अम०. ३६० By मौले०. ३६१ वृ० रत्ना०. ३६२ ध्व० लो० p. 176. ३६३ श्रुति. ३६५ ध्व० लो० p. 199. ३६६ भाष्य. Quoted also in अलं० स० pp. 25-26 with स विषयः सदृशतायाः as. Y.l. ३६७ अलं० चूडा० or का० शा० of हेम० p. 25.
३६९ यत्रार्थव्यक्तिहेतुत्वं सोऽर्थव्यक्तिः स्मृतो गुणः।
३७० यत्रैकपदवद्भान्ति पदानि सुबहून्यपि।
अनालक्षितसन्धीनि स श्लेषः परमो गुणः॥
३७१ यत्रोल्लसत्फेनततिच्छलेन मुक्ताट्टहासेव विभाति शिप्रा।
३७२ यथा कामोपयोग्यत्र शृङ्गारो दृश्यते रसः।
अर्थोपयोगी वीरः स्याद्रौद्रोऽपि स्यात् क्वचित् क्वचित्॥
रक्षारूपेण धर्मार्थोपयोगी करुणो भवेत्।
अद्भुतोऽपि मनःप्रीतिप्रदत्वात् कामसाह्यकृत्॥
ते भयानकबीभत्सहास्याः काव्येषु योजिताः।
तत्तत्रेतृमनोवृत्तिवशात् प्रायस्रिवर्गगाः॥
३७३ यथास्थानमुपविश्यान्वारब्धायाम्।
३७४ यथा हि तन्तवो वेमतुर्यादिक्रिययान्विताः।
पटात्मना परिणता पटवाच्या भवन्ति ते॥
तथैव स्थायिनो भावा विभावादिभिरन्विताः।
रसात्मना परिणता रसवाच्या भवन्ति ते॥
३७५ यदहा कुरुते कर्म प्रजा धर्मेण पालयन्।
दशवर्षसहस्राणि तस्य भुङ्क्ते महत् फलम्॥
३७६ यदायमुपमानांशो लोकतः सिद्धिमृच्छति।
तदोपमैव येनेवशब्दः साधर्म्यसूचकः॥
यदा पुनरयं लोकादसिद्धेः कविकल्पितः।
तदोत्प्रेक्षैव येनेवशब्दः संभावनापरः॥
३७७ यद्गतागतविश्रान्तिवैचित्र्येण विवर्त्तनम्।
तारकायाः कलाभिज्ञास्तं कटाक्षं प्रचक्षते॥
३७८ यद्दर्शने विरक्तोऽपि क्षुम्यते तत् सन्मन्मथम्।
३७९ यद्यपि रसभावादिरर्थो ध्वन्यमान एव भवति न वाच्यः कदाचिदपि तथापि न सर्वोऽसंलक्ष्यक्रमस्य विषयः।
३८० यद्यपि स्वप्नक्षणानां व्यादानात् पूर्वकालता तथापि तद्व्यादानानन्तरभाविस्वप्नक्रिपापेक्षं व्यादानस्य पूर्वकालत्वमस्ति।
३८१ यद्यप्यङ्गानि भूयांसि पूर्वरङ्गस्य नाटके।
तथाप्यवश्यं कर्तव्या नान्दी विघ्नोपशान्तये॥
३८२ यन्नाट्यवस्तुनः पूर्व रङ्गविघ्नोपशान्तये।
कुशीलवाः प्रकुर्वन्ति पूर्वरङ्गः स कीर्तितः॥
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३७२ मा० प्र०. ३७३ आप० प्र०. ३७६ अलं० सर्व० संजी० by वि० चक्र० (ºदसिद्धः). ३७७ संगी० रत्ना०. ३७१ लोच० pp. 102-03 ( सर्वोऽलक्ष्यक्रमस्य &c.). ३८१ By बाद०. ३८२ वसन्तराजीय quoted by Mallinâtha on माघ २।८.
३८३ यमकेषु निरर्थकं न दोषः।
३८४ यमर्थमादृतश्चिन्तयन् स्वपिति सैव चिन्तासन्ततिः प्रत्यक्षाकारा संजायते।
३८५ यस्तुष्टौ तुष्टिमाप्नोति शोके शोकमुपैति च।
क्रोधे क्रुद्धो भये भीरुः स श्रेष्ठः प्रेक्षकः स्मृतः॥
३८६ यस्त्वलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यो ध्वनिर्वर्णपदादिषु।
वाक्ये संघटनायां च स प्रबन्धेऽपि दीप्यते॥
३८७ यस्य प्रतीतिमाचातुं लक्षणा समुपास्यते।
फले शब्दैकगम्येऽत्र व्यञ्जनान्नापरा क्रिया॥
३८८ यावदित्यव्ययं चास्ति तद्वितान्तश्च विद्यते।
अतो नित्यसमासेऽपि तद्धितान्तेन विग्रहः॥
३८९ या स्थायिभावरतिरेव निमित्तभेदा-
च्छृङ्गारमुरूपनवनाट्यरसीभवन्ती।
सामाजिकान् सहृदयान्नटनायकादी-
नानन्दयेत् सहजपूर्णरसोऽस्मि सोऽहम्॥
३९० युक्तियुक्तं वचो ग्राह्मं न तु पूरुषगौरवात्।
३९१ युगपदधिकरणवचने द्वन्द्वः।
३९२ युधिष्ठिरं द्वैतवने वनेचरः।
३९३ युष्मदि गुरावेकेषाम्।
३९४ योगविभागाङ्गीकारे तस्य नित्यत्वात् समानजातीयशब्दप्रयोगो न स्यात्। अस्ति च प्रयोगः। तस्मात् सपक्षादिशब्देषु सदृशार्थस्य सहशब्दस्य पक्षादिभिरस्वपदविग्रहे बहुब्रीहौ सहशब्दस्य ‘वोपसर्जनस्य’ इति सभावः। भाष्यवार्तिकयोश्च योगविभागो नोपन्यस्तः। P. 327.
३९५ रणक्कणः।
३९६ रतेरेवावस्थाविशेषा प्रेमादयः।
३९७ रसतेः स्वादनार्थत्वाद्रस्यन्त इति ते रसाः।
३९८ रसस्तु स एव यो यत्र मुख्यतया विभावानुभावव्यभिचारिसंयोजनोचितस्थायिप्रतिपत्तिकस्य प्रतिपत्तुः स्थाप्यंशे चर्वणप्रयुक्त एवास्वादप्रकर्षः।
३९९ रसभावतदाभासभावशान्त्यादिरक्रमः।
ध्वनेरात्माङ्गिभावेन भासमानो व्यवस्थितः॥
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३८३ का० शा० of हेम० P. 136 ( यमकादौ निरर्थकत्वं न दोष इति केचित्). ३८४ प्रश० प० वा०. ३८५ भा० प्र०. ३८६ ध्व० लो० ३।२. ३८७ का० प्र० २. ३८८ By हरदत्त. ३८९ स्वा० यो० प्र० of अम० यो०. ३९१ By वार्तिककार. ३९२ किरा० १।१. ३९३ By जया०. ३९४ हर०. ३९५ अम० ३।२।८ ( रणः क्वणे ). ३९६ रसा०. ३९७ भाव० प्र०. ३९८ लोच० p. 67 ( रसध्वनिस्तु, योऽत्र, ºसंयोजनोदितº स्थाप्यशचर्दणाप्रयुक्त ). ३९९ ध्व० लो० २।३ (तत्प्रशान्त्यादिº).
४०० रसभावादिविषयविवक्षाविरहे सति।
अलंकारनिबन्धो यः स चित्रविषयो मतः॥
४०१ रसस्य स्याद्विरोधाय वृत्त्यनौचित्यमेव च।
४०२ रसाः कार्यवशात् सर्वे मिलन्त्येव परस्परम्।
प्रथम यो रसः ख्यातः स प्रधानो भविष्यति॥
४०३ रसाद्यनुगुणत्वेन व्यवहारोऽर्थशब्दयोः।
औचित्यवान् यस्ता एव वृत्तयो द्विविधाः स्थिताः॥
४०४ रसानामङ्गभूतानामङ्गिनो वा रसस्य च।
न चातिरसतो दूरं वस्तु विच्छिन्नतां नयेत्॥
रसं वा न तिरोदव्याद् वस्त्वकारलक्षणैः॥
४०५ रागोऽनुवृत्तो विच्छिन्नमनुरागे उदाहृतः।
४०६ राजा कालस्य कारणम्।
४०७ राज्ञः पुरजनस्यापि मङ्गलाचारशंसिनः।
मान्यैर्मागधिकागीतैर्मागधा इत्युदीरिताः॥
४०८ राज्ञां नवाङ्गुलायामो मध्येऽष्टाङ्गुलविस्तृतः।
चतुरङ्गुलविस्तारपार्श्वः स्वर्णमयः शुभः॥
पङ्कः पञ्चशिखो राज्यप्रजासौख्यसमृद्धये॥
४०९ रामाद्याश्रितदुःखादेरनुभूतस्तदात्मनः।
सामाजिकस्य मनसो भावस्तद्भावभावनम्॥
११० रुचिरेण सुवर्णेन निर्मितं रत्नरञ्जितम्।
अष्टभिः स्फाटिकैः सिंहैर्मूर्ध्नि तत् मुविराजितम्॥
अधः काञ्चनविन्यस्तरत्नवेदित्रयान्वितम्।
आस्थानमण्डपे राज्ञां सिंहासनमिदं परम्॥
४११ रूपकं पूर्वसंसिद्धं श्लेषमुत्थापयेद्यदि।
तदा रूपकमेव स्यादन्यथा श्लेष इष्यते॥
४१२ रूपयौवनशालिन्यो गायन्यो गातृवन्मताः।
माधुर्यधुर्यच्चनयश्चतुराश्चतुरप्रियाः॥
४१३ रेखाभ्यां चतुरश्राणि चतुष्कोष्ठानि कल्पयेत्।
रेखाद्वयान्तराले स्याद्यथा कोष्ठे गृहाष्टकम्॥
* * * * * *
विदिक्स्थले कुण्डलितं स्वमङ्गं
स्वेन त्रिरावेष्ट्य विभङ्गिभङ्गम्।
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४०० ध्व० लो० (called काव्यालोक by the commentator ) p. 221. ४०१ ध्व० लो० ३।१९. ४०२ भा० प्र०. ४०३ ध्व० लो० ३।३३ ( यस्ता एता and विविधा). ४१० मान०. ४११ अलं० सर्व० संजी० of विद्याचक्रवर्तिन्. ४१२ By शार्ङ्ग०.
क्षिप्त्वा गले पुच्छमद्देः स्थितस्य
पाठ्यः फणातः फणवन्ध एषः॥
४१४ लक्षणा तु समन्वयशक्तिसमर्पितान्वयविधुरीकरणधुरीणत्वादश्वयशक्त्यनन्तरभाविन्येव।
४१५ लग्नमर्ध तृतीयांशो नवांशो द्वादशांशकः।
त्रिंशाशश्वेति षड्वर्गः क्रूरसौम्यवशाद् द्विधा॥
४१६ लाटजनोपलालितोऽनुप्रासो लाटानुप्रासः। न तु लाटदेशजन्यः कश्चनोपकारः काव्यस्य।
४१७ लास्यं तु सुकुमाराङ्गं मकरध्वजवर्धकम्।
४१८ लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वाल्लिङ्गस्य।
४१९ वक्ति सोत्प्रासवक्तोक्त्या धीरमध्या कृतागसम्।
४२० वक्रस्यन्दिस्वेदबिन्दुप्रवन्धै-
दृष्ट्वा भिन्नं कुङ्कुमं कापि कण्ठे।
पुंस्त्वं तन्ध्या व्यजयन्ती वयस्या
स्मित्वा पाणौ खड्गलेखां लिलेख॥
४२१ वक्रं नाद्यान्नसौ स्थातामब्धेर्योऽनुष्टुमि ख्यातम्।
४२२ वक्षोऽय कक्षौ नखनासिकास्यं
कुकाटिका चेति षडून्नतानि॥
हनुलोचनवाहुनासिकं स्तनयोरन्तरमत्र पञ्चमम्।
अतिदीर्घमिदं तु पञ्चकं न भवत्येव नृणाममूभूताम्॥
४२३ वन्द्यभूभृद्गणोत्कर्षश्रावकाः वन्दिनः स्मृताः।
४२४ षष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयो।
४२५ वस्तुनेतृरसादीनामानुगुण्येन योजयेत्।
विवक्षितोऽत्र नाङ्गानां क्रम इत्येव निर्णयः॥
४२६ वस्तु यत् स्यात् प्रबन्धस्य शरीरं कविकल्पितम्।
इतिवृत्तं तदेवाहुर्नाट्यभिनयकोविदाः॥
४२७ वस्तुस्वभावकपटः क्रूरसत्त्वादिसंभवः।
दैविकः कपटो वह्निवर्षवातादिसंभवः।
शत्रुजः कपटस्तत्र संग्रामादिसमुद्भवः॥
४२८ वाक्कायमनसां प्रायः प्रलयो नष्टचेष्टता।
४२९ वागङ्गसत्त्वाभिनयैर्मुखरागोपशोभितैः।
भावयन्नान्तरं भावं व्यापारो भाव इष्यते॥
४३० वाचा शरीरस्पर्शनमुपालम्भः।
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** ** ४१४ लोच०. ४१६ By गोपा०. ४१८ भाष्य. ४२१ वृ० रत्ना०. ४२२ व० सं०. ४२४ Quoted by भट्टोजिदीक्षित in his सि० कौ०. ४२६ भा० प्र०. ४२७ भा० प्र०. ४३० वृत्तिका०.
४३१ वाच्यसामर्थ्याक्षिप्त इति भेदत्रयव्यापकं सामान्यलक्षणम्।
४३२ वा सख्यामामि इलाइल।
४३३ वा समासे।
४३४ वासोऽङ्गरागाभरणमाल्यशप्यासनादिषु।
यत्र यत्र स्पृहा तत्तद्देशकालानुकूल्यतः॥
अत्यादरेण सत्कार उपचार इतीरितः॥
४३५ वा स्याद्विकल्पोपमयोरेवार्थेऽपि समुच्चये।
४३६ विअवेअ व्यवधारणे।
४३७ विकटत्वं च बन्धस्य कथयन्ति ह्युदारताम्।
वैचित्र्यं न प्रपद्यन्ते यया शून्याः पदक्रमाः॥
पश्चादिव गतिर्वाचः पुरस्तादिव वस्तुनः॥
४३८ विकृतस्वरसत्त्वादेर्भयभावो भयानकः।
स्वराङ्गवेपथुस्वेदशोषवैवर्ण्यलक्षणः॥
दैन्यसंभ्रमसंमोहत्रासादिस्तत्सहोदरः॥
४३९ विकृताकृतिवाग्वेषैरात्मनो वा परस्य वा।
हासः स्यात् परिपोषेऽस्य हास्यस्त्रिप्रकृतिः स्मृतः॥
४४० विच्छित्तिशोभिनैकेन भूषणेनेव भामिनी।
पदद्योत्येन सुकवेर्ध्वनिना भाति भारती॥
४४१ विजयेतां रामलक्ष्मणौ कुम्भकर्णमेघनादौ।
४४२ विधिरत्यन्तमप्राप्ते नियमः पाक्षिके सति।
तत्र चान्यत्र च प्राप्ते परिसंख्येति गीयते॥
४४३ विभावादिरत्र न ज्ञापको नापि कारकः। अपि तु चर्वणोपयोगी।
४४४ विभावादिसंभवो हि रसं प्रति प्रयोजको न विभावादिज्ञानं ततश्च तिरश्चामस्त्येव रसः।
४४५ विभावोऽप्यनुभावः स्यादनुभावोऽपि भाववत्।
तौ पुनश्चारिणौ स्यातां ते च तौ स्युः परस्परम्॥
४४६ विरुद्धैरविरुद्धैर्वा भावैर्विच्छिद्यते न यः।
आत्मभावं नयत्यन्यान् स्थायीव लवणाकरः॥
४४. विवक्षिते रसे लब्धप्रतिष्ठे तु विरोधिनाम्।
वाध्यानामङ्गभावं वा प्राप्तानामुक्तिरच्छला॥
४४८ विशेषरूपं वाक्यार्थमपदार्थमपीच्छता।
व्यक्तिरिष्टामिधातोऽन्याभिहितान्वयवादिना॥
४४९ विशेषादाभिमुख्येन चरन्तो व्यभिचारिणः।
४५० विषप्याकारमारोप्य विषयस्थगनं यदा।
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४३१ लोच०. ४३५ विश्व०. ४४o ध्वo लोo p.130. ४४१ अ० रा०. ४.४४३ लोच०. ४४४ एकाव० p.106. ४४५ प्रा० प्र०. ४४६ द० रु० ५।३२(स स्थायी). ४४७ धन्या०. ४४९ द० रु० ४।३. ४५० अलं० सर्व० संजी० by वि० चक्र० (भजेत्).
रूपकत्वं तदा तत्र रञ्जनेन समन्वयः॥
यदा तु विषयो रूपात् स्वस्मादप्रच्युतो भवेत्।
उपयुक्ते पराकार परिणामस्तदा मतः॥
४५१ विसम्भे परमा काष्ठामारूढे दर्शनादिभिः।
येनान्तरङ्ग द्रवति स स्नेह इति कथ्यते॥
४५२ विहगाः कदम्बसुरमाविह गाः।
४५३ विंशत्याद्याः सदैकत्वे संख्याः (सर्वाः p. 30. ) संख्येयसंख्ययोः।
४५४ वीररौद्रप्रधानो धीरोद्धतः।
४५५ वीरस्य चैव यत् कर्म सोऽद्भुतः परिकीर्तितः।
४५६ वृत्तजङ्घो भवेद्भूपो वृत्तलिङ्गो भवेद्धनी।
४५७ वृन्दारका देवतानि पुंसि वा देवताः।
४५८ वैराग्यपरमेश्वरानुग्रहप्राचीनकुशलपरिपाकसत्पुरुषसेवावेदान्तविचारायो विभावाः।यमनियमादयोऽनुभावाः। राज्यधुरोद्वहनादयोऽपि शान्तस्य जनकादेरनुभावाः।
४५९ वैराग्याद्युवतिगर्हासिद्धस्तृतीयो वीभत्सः।
४६० व्यक्तीकृत्य कमप्यर्थं स्वरूपार्थस्य गोपनात्।
यत्र बाह्यान्तरावर्थो कथ्येते सा प्रहेलिका॥
४६१ व्यञ्जनौषधिसंयोगो यथान्नं स्वादुतां नयेत्।
एवं नयन्ति रसतामितरे स्थायिनं श्रिताः॥
४६२ व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरोः।
सव्येन सव्यः स्पष्टव्यो दक्षिणेन तु दक्षिणः॥
४६३ व्यभिचारिरसस्थायिभावानां शब्दवाच्यता।
४६४ व्याघ्रशब्दो यदा शौर्यात् पुरुषार्थेऽवतिष्ठते।
तदाधिकरणाभेदात् समासस्यास्ति संभवः॥
शुरशब्दप्रयोगे तु व्याघ्रशब्दो मृगे स्थितः।
भिन्नेऽधिकरणे वृत्तेस्तत्र नैवास्ति संभवः॥
४६५ व्यादानस्य पूर्वकालत्वाभावात् क्त्वाप्रत्ययानुपपत्तिरिति चोदयित्वानन्तरभाविस्वप्नापेक्षया पूर्वकालत्वसंभवान्नानुपपत्तिः।
४६६ व्याधैः सहोषितं विन्ध्ये हन्त वल्कलवारिभिः।
४६७ व्यापारेण च काव्यस्य तदीयाभिनयेन च।
रसात्मत्वं नीयमानः स्थायी स्वाद्यत्वमेष्यति॥
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४५२ शिशु० व० ४।३६. ४५३ अम० २।९।८३. ४५५ By भरत. ४५७ अम० १।१।९ .४५८ This is the substance of what is found in लोचo p. 177 ( तस्य च भवितव्यमेव प्राक्तनकुशलपरिपाकपरमेश्वरानुग्रहादध्यात्मरहस्यशास्त्रवीतरागपरिशीलनादिभिर्विभावैरितयतैव व्यभिचारिसद्भावः स्थायी च दर्शितः।). ४६० वि० मु० मं. ४६२ मनु० २।७२ ( च for तु ). ४६३ का० प्र० ७. ४६४ By भर्तृ०. ४६५ भाष्य. ४६७ By शार० त०.
सामाजिकादिरेवास्य रसस्याश्रय उच्यते।
रसस्य वर्तमानत्वात् नानुकार्यस्य संभवः॥
अनुकार्यस्य रामादेः कालातिक्रमदर्शनात्।
नातिक्रान्तानुकार्यस्य रसोद्भावनया कविः॥
बध्नाति काव्यं यत् तस्माद्रसः सामाजिकाश्रयः॥
४६८ व्रजेदब्धिरिवाक्षोभ्यो निगिरन्नरिवाहिनीः।
शूराणां सिंहनादैश्च हेषारावैश्च वाजिनाम्।
महारथमहाध्वानैर्मातङ्गघनगर्जितैः॥
४६९ शकुनस्तु शुभाशंसिनिमित्ते शकुनः खगः।
४७० शत्रुदेशावमर्दाय सद्यः सुभटघोटकैः।
विजिगीषोः प्रवृत्तियां सा धाटीति निगद्यते॥
४७१ शब्दतत्त्वाश्रयाः काश्चिदर्थतत्त्वाश्रयाः पराः।
४७२ शब्दधर्मत्वं चैषामन्याश्रितत्वेऽपि शरीराश्रितत्वमिव शौर्यादीनाम्।
४७३ शब्दशक्तिमूले तु अभिधाया नियन्त्रणेनानभिधेयस्यार्थान्तरस्य तेन सहोपमादेरलंकारस्य च निर्विवादं व्यङ्ग्यत्वम्।
४७४ शब्दोपहितरूपांस्तान् बुध्दैर्विषयतां गतान्।
प्रत्यक्षमिव कंसादीन् साधनत्वेन मन्यते॥
४७५ शशी दिवसधूसरो गलितयौवना कामिनी।
४७६ शषौ च रेफसंयोगष्टवर्गश्चापि भूयसा।
विरोधिनः स्युः शृङ्गारे तेन वर्णा रसच्युताः॥
४७७ शस्येत्।
४७८ शान्तवत्सलसहिता दर्श।
४७९ शान्तवर्जमष्टौ रसाः।
४८० शास्त्रत्यागः साहसम्।
४८१ शिवंकरशब्दश्छन्दस्येव न भाषायाम्।
४८२ शुक्लमाल्याम्बरभूतः प्राङ्मुखस्य महीपतेः।
पट्ट शिरसि बध्नीयात् सिंहासनगतस्य च॥
४८३ शोभा विलासो माधुर्य गाम्मीय स्थैर्यतेजसी।
ललितौदार्यमित्यष्टौ सात्त्विकाः पौरुषा गुणाः॥
४८४ शृङ्गार एक एव रसः।
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** **४६८ मान०. ४६९ विश्व०. ४७१ ध्व० लो०३।५३(अर्थतत्त्वत्युजोऽपराः). ४७२ध्व० लो०. ४७३का० प्र० ५. ४७४ By भर्तृ०. ४७५By भर्तृ०. ४७६ ध्व०लो० ३/३(शषौसरेफसंयोगौढकारश्चापि भूयसा। and रसच्युतः ). ४७९ By धनिक. ४८० By हर०. ४८१ By हर०. ४८२ By वसि०. ४८३ द० रु० २/९ (धैर्यतेजसी and सत्त्वजाः). ४८४ By शृं० प्र० कार.
शृङ्गाररसमूपष्ठिरिभावतराङ्गितैः।
अङ्गैरनङ्गसर्वस्वैः शोभातिशयशालिभिः॥
अन्वितो नृत्तभेदो यस्ताङ्गस्यमिति कथ्यते॥
४८६ शृङ्गारहास्यविधुरै रसैर्दीप्तैर्निरन्तरः।
४८७ शृङ्गाराद्यनुभवयोग्यतया यदात्मनः सत्त्वं स भावः।
४८८ श्रुतिसाम्यादनेकार्थयोजनं त्रिगतं त्विह।
नटादित्रितयालापः पूर्वरङ्गे तदिष्यते॥
४८९ श्रेयःसाधनता यत्र द्रव्यादौ विधितो भवेत्।
तस्यैव धर्मता ज्ञेया धर्मस्तत्साधनं यतः॥
४९० श्रेयःसाधनता ह्येषां नित्यं वेदात् प्रतीयते।
ताद्रूप्येण च धर्मत्वं तस्मान्नेन्द्रियगोचरः॥
४९१ श्रौता आर्थाश्च ते यस्मिन्नेकदेशविवर्ति तत्।
४९२ श्लक्ष्णंषडङ्गुलोत्सेधं षोडशाङ्गुलविस्तृतम्।
द्वात्रिंशदङ्गुलायामं क्षीरदारुसमुद्भवम्॥
पद्माङ्कितं भवेद् मद्रपीठं स्नपनकर्मणि॥
४९३ षड्वर्गो भवति सदा शुभखचरसमुद्भवः शुभदः।
पापसमुत्थस्त्वशुभस्तस्माद्वाह्यस्तु सौम्यषङ्वर्गः॥
४९४ ष्यञः धित्करणादीकारो बहुलम्।
४९५ संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्यं विरोधिता।
अर्थः प्रकरणं लिङ्ग शब्दस्यान्यस्य संनिधिः॥
सामर्थ्यंमौचिती देशः कालो व्यक्तिः स्वरादयः।
शब्दार्थस्थानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः॥
४९६ संहितैकपदे नित्या नित्या धातूपसर्गयोः।
नित्या समासे वाक्ये तु सा विवक्षामपेक्षते॥
४९७ सकलकलं पुरमेतज्जातं संप्रति सुधांशुबिम्बमिव।
४९८ सकृत्कृतधर्मो न धार्मिकः।
४९९ संगीतज्ञैर्वुधैः सार्ध नायके प्रेक्षके स्थिते।
प्रविश्य रङ्गभूमिं ते तिष्ठन्तः सांप्रदायिकाः॥
५०० संग्रामेष्वनिवर्तित्वं प्रजानां चैव पालनम्।
शुश्रूषा ब्राह्मणानां च राज्ञां श्रेयस्करं परम्॥
५०१ स च न व्यतिरिक्तमाधारमपेक्षते किं त्वनुकार्याभिन्नाभिमते नर्त्तके आस्वादायता सामाजिकः तेन नाट्य एव रसा नानुकार्यादिषु॥
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४८५ In सं० चूडा०. ४८८ द० रू० p. 117. ४९० By आचार्य. ४९१ का० प्र० १०. ४९२ By पा० शा०. ४९३ वृद्ध व० सं०. ४९४ वाम० ५।२।५६. ४९५ By भर्तृ० in वा० प०. ४९८ By वृत्तिकार. ४९९ संगीतरत्नाकर. ५०० मनु ७।८८. ५०१ लोच०.
५०२ सच्छायाम्भोजवदनाः सच्छायवदनाम्बुजाः।
वाप्योऽङ्गना इवाभान्ति यत्र वाप्य इवाङ्गनाः॥
५०३ सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः॥
५०४ स तु शब्दस्य विस्तरः।
५०५ सत्यवागार्जवरतिरुपकुर्वन् प्रियं वदन्।
भजते यः स्वयं प्रीतः प्रियः स भवति स्त्रियाः॥
५०६ सत्यं भयं च वचनं यत् तत् सूनृतमुच्यते।
५०७ सदसत्त्वनिवृत्तिश्चेन्निवृत्त्यान्यस्य वर्ण्यते।
तदा द्विधा विनोक्तिः स्याद्विधिरत्र फलं भवेत्॥
५०८ सदा स्नात्वा निशीथिन्यां सकलं वासरं बुधः।
नानाविधानि शास्त्राणि व्याचष्टे च शृणोति च॥
५०९ सदृशादृष्टचित्ताद्यास्मृतिबीजस्य बोधकाः।
५१० सद्रूपोद्भावना माया स्वत एवासतः पुरा।
अथवान्यपदार्थानामन्यथा कृतिरेव वा॥
अदेशकालपारोक्ष्यं परोक्षस्यैव वस्तुनः।
मन्त्रौषवादिभिः सोऽयमिन्द्रंजाल इतीरितः॥
५११ सपत्नीनखदन्तानि चिह्नं यत्र न दृश्यते।
विस्मार्यमाणमानेर्ष्यः सुभगः सोऽभिधीयते॥
५१२ सपीतिः स्त्री तुल्यपानम्।
५१३ सप्तम्युपमानपूर्वपदस्य बहुब्रीहिर्वाच्य उत्तरपदलोपश्च।
५१४ स प्रेमा तन्मिथो यूनोर्निरूडं भावबन्धनम्।
५१५ संपन्नैश्वर्यमुखयोरशेषगुणयुक्तयोः।
नवयौवनयोः श्लाघ्यप्रकृत्योः श्रेष्ठरूपयोः॥
नारीपुरुषयोस्तुल्या परस्परविभाविका।
स्पृहाङ्मया चित्तवृत्ती रतिरित्यभिधीयते॥
५१६ संभाव्यनिषेधनिवर्तने द्वौप्रतिषेधौ।
५१७ संभूतान्यपि रसान्तराणि स्वविभावादिसामग्र्यां स्वावस्थायां यद्यपि लब्धपरिपोषाणिचमत्कारगोचरतां प्रतिपद्यन्ते तथापि स चमत्कारस्तावत्येव परितुष्यन् न विश्राम्यति किं तु चमत्कारान्तरमनुधावति।
५१८ संमोहानन्दसमेदो मदो मद्योपयोगजः।
अमुना चोत्तमः शेते मध्यो हसति गायति॥
अधमप्रकृतिश्चापि परुषं वक्ति रोदिति॥
५१२ सरितः पुलिन बेला कान्ताराराममूधराः।
लतागृहाणि चित्राणि शय्या किसलयाञ्चिता॥
दिवा विहारदेशाः स्युः॥
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** **५०३ अभि० शा० of कालि०. ५०४ अम० ३।२।२२ (सच). ५११ भा० प्र०. ५१२ अम०२।९।५५. ५१३ By कात्या०. ५१६ By बाम० ५।१।९.५१७ लोच०. ५१८साहि० द०. ५१९ भा० प्र०.
५२० सर्वत्रैकैवानन्दव्यक्तिलौकिकं सुखमिति व्यवह्रियते। अलौकिकविभावाद्यभिव्यक्त्या कविसमयप्रसिद्ध्यनुसारादलौकिको रस इति कथ्यते। नानाविधविमलकर्मनिर्मलान्तःकरणेषु शमदमादिसाधनसंपन्नेषु श्रवणमननतिदिध्यासनपरेषु परमयोगिषु निर्विकल्पकसमाध्यभिव्यक्त्या ब्रह्मेति परमात्मेतीश्वर इति शव्द्यते॥
५२१ सर्वप्रकारैः संपूर्णकामः संतुष्टमानसः।
प्राप्नोति मुक्तिं चरमे शान्तेनैव रसेन सः॥
५२२ सर्वमश्यार्हितंद्रव्यं प्रच्छादनमपेक्षते।
५२३ सर्वश्राव्यं प्रकाशं स्यादश्रव्यं स्वगतं मतम्॥
त्रिपताककरेणान्यानपवार्यान्तरा कथाम्।
अन्योन्यामन्त्रणं यत् स्यात्तज्जनान्ते जनान्तिकम्॥
रहस्यं कथ्यतेऽन्यस्य परावृत्त्यापवारितम्॥
५२४ सर्वाव्युदकपूर्णानि दानानि।
५२५ सर्वासामन्तरा वस्तुरसादिवशकल्पिता।
अन्तरा सा ध्रुवा ज्ञेया नाट्याभिनपरञ्जिनी।
५२६ सर्वास्वप्यवस्थास्वनुल्वणत्वं माधुर्यम्।
५२७ सर्वो द्वन्दो विभाषयैकवद्भवति।
५२८ सव्रीडालोकनेनैव स्वानुकूल्यप्रकाशनम्।
५२९ सहकारित्वमेवाधातुंसंघटानायामित्यादौ सप्तमीनिर्देशः।
५३० सह शाखया प्रस्तरं प्रहरति।
५३१ साक्षिगतः साकलिकोऽयमद्वैतवादः।
५३२ सादृश्यमात्रंसामान्यं द्विष्ठं कैश्चित् प्रतीयते।
गुणभेदोऽप्यभेदेन द्विवृत्तिर्वाविवक्षितः॥
५३३ साधनं निर्वृत्तौमदे सैन्ये सिद्धीषधेगतौ।
५३४ साधूनामुपकर्त्तु लक्ष्मीं द्रष्टुं विहायसा गन्तुम्।
न कुतूहली कस्य मनंश्चरितंच महात्मनां श्रोतुम्॥
५३५ सामान्यगुणयुक्तस्तु धीरशान्तो द्विजादिकः।
५३६ सिंहशार्दूलनागाद्याः पुंसि श्रेष्ठार्थगोचराः।
५३७ सुकुमाराङ्गविन्यासो ललितंपरिकीर्त्त्यते।
५३८ सुखदुःखादिभिमांवैर्मावस्तद्भावभावनम्।
५३९ सुगन्धपुष्पाक्षतपूर्णकुम्भः शक्रध्वजच्छत्रमहीपतीनाम्।
उद्यद्दिनेशेन्दुसुहृत्सुराणां सितद्विजादर्शसुवासिनीनाम्॥
सुवर्णधान्याब्जफलेग्रहीणांभक्ष्यान्नरत्नाम्बरवाहनानाम्।
संदर्शनं श्रेष्ठमुशान्ति सन्तः स्वप्नेमृतानां च सुचेष्टितानाम्॥
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** **५२० By नर० सू०. ५२१ भा० प्र०. ५२२ A न्याय. ५२३ द० रू० १।५८।५९. ( त्रिपताका & स्पाज्जनान्ते तज्जनाº). ५२४ आप०. ५२६ द० रू०. ५२९ लोच० p. 131. ५३२ वा० प०. ५३३ विश्व०. ५३६ अम० ३।५९.५३९ By दैव० वल्ल०.
५४० सुप्तशयितेत्येवमादयो वर्तमाने द्रष्टव्याः।
५४१ सुब्रह्मण्यों सुब्रह्मण्यों सुब्रह्मण्यमिति स्त्रियमिव त्रिराह।
५४२ सुरपूजोत्सवसेवा नैवेद्यं नृत्तगीतवाद्यं च।
५४३ सुवर्णकुसुमैर्दिव्यैर्मणिविद्रुमविस्तृतैः।
राजतैरत्नसंभूतैरथवा चित्रवस्त्रकैः॥
येऽर्चयन्ति हरं भत्तया नरास्ते स्युमंहेश्वराः॥
५४४ सूत्रधारो नटश्चैव तथा वै पारिपार्श्विकः॥
सल्लापं यत्र कुर्वन्ति तदेव त्रिगतंस्मृतम्॥
५४५ सोत्सुकं तद्यदालोक्य भूयो भूयोऽवलोकनम्।
कल्लोल इव यः कान्तिविच्छेदस्तत् तरङ्गितम्॥
५४६ स्तनादीनां द्वित्वविशिष्टता जातिः प्रायेण।
५४७ स्त्रियां शस उदोतौ।
५४८ स्त्रीणामीर्ष्याकृतः कोपो मानोऽन्यासङ्गिनि प्रिये।
श्रुतेवानुमिते दृष्टे ईर्ष्याकोपः स उच्यते॥
५४९ स्त्रीणां ललितकोपो मामः।
५५० स्त्रीणां वारस्तु वासकः।
५५१ स्त्रीस्यात् काचिन्मृणाल्यादिर्विवक्षापचये यदि।
५५२ स्थायी वा सात्त्विको वापि संचारी वा क्वचित् क्वचित्।
भावो वाक्यार्थतामेति तत्तद्भावविशेषतः॥
५५३ स्मरार्त्ताभिसरेत् कान्तं सारयेद्वाभिसारिका।
५५४ स्मितमिह विकसन्नयनं किंचिल्लक्ष्यद्विजं हसितम्।
मधुरस्वनं विहसितं साङ्गशिरःकम्पमुद्धसितम्॥
अपहसितं सास्राक्षं विक्षिप्ताङ्गं भवत्यतिहसितम्।
द्वे द्वे हसिते चैषां ज्येष्ठे मध्येऽधमे क्रमशः॥
५५५ स्यात् क्रिया करपादादेर्विलासेनात्रुटद्रसा।
करणं नृत्तकरणं भीमवद्भीमसेनवत्॥
५५६ स्युरुत्तरपदे त्वमी।
निमसंकाशनीकाशप्रतीकाशोपमादयः॥
५५७ स्युर्वदान्यः स्थूललक्षदानशौण्डा बहुप्रदे।
५५८ स्वप्नस्तु प्रथमे यामे वत्सरेण विपच्यते।
द्वितीये चाष्टभिर्मासैस्त्रिभिर्मासैस्तृतीयके॥
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५४० By वृत्तिका०. ५४१ षड्वि० ब्रा०. ५४२ देव० वल्ल०. ५४३ पु० सा० सुधा०. ५४४ भा० प्र०. ५४६ वाम० ५।२।१७ (द्वित्वाविष्टा). ५४८ द० रू०. ५४९ भोज०. ५५१ अम०. ५५४ द० रु० ४-७०-७१ ( विकासि नयनं, ०द्विजं तु हसितं स्यात्, मधुरस्वरं, स्रशिरःकम्पमिदमुपहसितम् ).
५५० ५५० B1716. ५५८ ५६७ अम०
अरुणोदयवेलायां दशाहेन फलं भवेत्।
गोविसर्जनवलायां सद्यः स्वप्नफलं भवेत्॥
५५९ स्वभावोक्तिर्बुधोन्नेयवस्तुस्वाभाव्यवर्णनम्।
५६० स्वरूपार्थाविशेषेऽपि पुनरुक्तिः फलान्तरात्।
शब्दानां प्रकृतीनां वा लाटानुप्रास इष्यते॥
५६१ स्वान्या साधारणा चैव मुग्धा मध्या प्रगल्मिका।
आद्यैकधा त्रिधान्ये द्वे धीराधीरोमयात्मना।
ज्येष्ठाकनिष्ठाभेदेन ते एव द्विविधे पुनः।
अन्या परा परोढा च वेश्या त्वेकेति षोडश।
* * * * *
चतुःपञ्चाशदधिकत्रिशत्यासां तदा भवेत्॥
५६२ स्वामिभृत्याधमर्णानां व्यवस्थापरिकल्पने।
अन्यो यः क्रियते शिष्टः प्रतिभूः स निगद्यते॥
५१३ स्वार्थत्यागे समानेऽपि सह तेनान्यलक्षणा।
यत्रेयमजहत्स्वार्था जहत्स्वार्थातु तं विना॥
५६४ स्वेदे द्वारमले शुभाशुभकरं गन्धं सुधीलंक्षयेत्
सेव्यो भूरुहलाजपाटलघृतप्रख्यःप्रशस्ताहयः।
एतस्मादपरः शुभोऽयमुदितः सत्वेन रूपेण यो
युक्तः सोऽपि मतङ्गजः समुचितः कल्याण इत्युच्यते॥
५६५ स्वो ज्ञातावात्मनि स्वं त्रिष्वात्मीये स्वोऽस्त्रियां धने।
५६६ हण्डे हण्जे हलाह्वाने नीचां चेटीं सखीं प्रति।
५६७ हस्ताग्राग्रहस्तादयो गुणगुणिनोर्भेदाभेदात्।
५६८ हारादिवदलंकारास्तेऽनुप्रासोपमादयः।
श्लेषादयो गुणास्तत्र शौर्यादय इव स्थिताः॥
५६९ हास्यो जुगुप्सा शृङ्गारहास्यौशोकभयानकौ।
भयानको रौद्रवारौतथा शृङ्गारविस्मयौ।
बीभत्सकरुणौरौद्रशृङ्गारौच यथाक्रमम्।
शृङ्गारादीनाप्रविश्य रसाभासान् वितन्वते॥
५७० हीनसंबोधने तु रे।
५७१ हुलं द्विफलपत्राग्रम्।
५७२ हेषते हेषतेऽश्वानां वृंहतीति च।
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** **५५९ अलं० सर्व० संजी० by वि० चक्र०. ५६० By उद्भ०. ५६२ By सोमे०. ५६३ तर० on एकाव० p. 68 and सिद्धा० on त० वा by मल्लि०. ५६५ अम० ३।२१०.५६६ अम० १। ७।१५
वैज०. ५७२ By भ० म०.
The following are the names of works and authors quoted in the Ratnas’áṇa:—
| अमर. | मल्लिनाथ |
| काव्यप्रकाश. | विश्व. |
| काव्यलोचन (i. e. लोचन on ध्वन्यालोक) | विष्णुपुराण. |
| दण्डिन्. | साहित्यरत्नाकर. |
| ध्वन्याचार्य. | सोमेश्वर. |
| भावप्रकाश. | हेमन्ततिलकभाण by the author of the रत्नशाण himself. |
| भाष्यकार. | |
| मनु. |
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Abbreviations.
| अ० रा०= अनर्घराघव. | ध्व० लो०= ध्वन्यालोक. |
| अभि० शा०=अभिज्ञानशाकुन्तल. | नर० सू०=नरहरसूरि |
| अम०= अमरकोश. | नाट० प्र०=नाटकप्रकाश. |
| अम० यो०= अमरानन्दयोगीन्द्र. | ना० शा०= नाट्यशास्त्र. |
| अलं०सर्व०= अलंकार सर्वस्व. | न्यासोº= न्यासोद्योत. |
| अलं० सर्व० संजी०= अलंकारसर्वस्वसंजीवनी. | पञ्च०= पञ्चपादिका. a commentary on शारीरकसूत्रमाष्य by पादपद्माचार्य. |
| अलं०सु०= अलंकारसुधानिधि. | प० मं०= पदमञ्जरी, a commentary on काशिकावृत्ति by हरदत्त. |
| आप०= आपस्तम्ब. | पाणि०= पाणिनि. |
| उत्त० रा०= उत्तररामचरित. | पाल०= पालकाप्य (गजचिकित्सा). |
| उत्प० परि०= उत्पलपरिमल. | पु० सा० सुधा०= पुष्पसारसुधानिधि. |
| उद०= उदयनाचार्य. | पू० मी०= पूर्वमीमांसा. |
| उद्भ०= उद्भट. | प्र० स०= प्रवरसेन. |
| एकाव०= एकावली. | प्रश० प० वा०= प्रशस्तपथवाद. |
| कात्या०= कात्यायन. | बाद०= बादरायण. |
| कालि० = कालिदास. | म० गोपा०= भट्टगोपाल, author of रसिकरञ्जिनी,a commentary on रत्नमञ्जरी. |
| का० प्र०= काव्यप्रकाश. | भ० म०= भट्टमल्ल author of आख्यातचन्द्रिका and क्रियानिघण्टु. |
| का० द०= काव्यादर्श. | बृह० म०= बृहस्पतिमत. |
| का० लं० सू०= काव्यालंकारसूत्र. | भर०= भरत. |
| का० शा०= काव्यानुशासन. | भर्तृ०= भर्तृहरि. |
| कु० सं०= कुमारसंभव. | भाम०= भामह. |
| कुसु०= कुसुमाञ्जलि. | भा० प्र०= भावप्रकाश, a work on अलंकार by शारदातनय. |
| कैप०= कैयट. | भोज०= भोजराज. |
| गोपा०= गोपाल. | मल्लि०= मल्लिनाथ. |
| जया०= जयादित्य, author of the first four Adhyayas of काशिकावृत्ति, the rest being finished by वामन. | म० भा०= महाभारत. |
| त० वा०= तन्त्रवार्त्तिक. | महाभा०= महाभाष्य. |
| तर० =तरल. | मान०= मानसोल्लास or अभिलषितार्थचिन्तामणि, an encyclopedia by मूलोकमञ्चसोमेश्वरदेव who is said to have reigued 1127-1138. |
| त्रिवि०= त्रिविक्रम,a lexicographer. | मौले०= मौलेश्वर. |
| द० रू०= दशरूप. | र० वं०= रघुवंश. |
| दश० सर्व०= दशटीकासर्वस्व. | र० मं०= रसमञ्जरी. |
| दैव० वल्ल= दैवज्ञवल्लभ by नीलकण्ठ or श्रीपति. | रसा०= रसाणंवby सिंहमहीपति, nominal author, a Tanjore prince of the last century. |
| र० च०= रुचक. | शार्ङ्ग०= शार्ङ्गदेव. |
| लोच०= लोचन. | शिशु० व०= शिशुपालवध. |
| व० मि०= वराहमिहिराचार्य. | शृ० ति०= शृङ्गारतिलक by रुद्रमल्ल. |
| व०सं= बराहसंहिता or बृहत्संहिता of वराहमिहिर. | शृ० प्र= शृङ्गारप्रकाश. |
| वस० नाट्य०= वसन्तराजीयनाव्यशास्त्र (वंसन्तराज being king of कुमारगिरि and patron of काटयवेम quoted by मल्लिनाथ on माघ2-8). | श्रीक० ली०= श्रीकण्ठलीला. |
| वसि०= वसिष्ठ. | षटसह०= षट्सहस्रीquoted by Dhanika in his अवलोक on Dhanañjaya’s दशरूप. |
| वा० प०= वाक्यपदीय. | षड्भि० ब्रा०= षड्विंशब्राह्मण. |
| वाम०= वामन. | संगी० चूडा०= संगीतचूडामणि. |
| वा० शा०= वास्तुशास्त्रज्ञ. | संगी० रत्ना०= संगीतरत्नाकर by शार्ङ्गदेव. |
| वि० मु० मं०= विदग्धमुखमण्डन, enigmatology by the Baddhist धर्मदास. | साहि० द०= साहित्यदर्पण. |
| वि० चक्र०= विद्याचक्रवर्तिन्. | साहि० मी०= साहित्यमीमांसा by रुचक. |
| विश्व०= विश्वकोष of महेश्वर. | सिद्धा०= सिद्धाञ्जन. |
| वि० पु०= विष्णुपुराण. | सू० सि०= सूर्यसिद्धान्त by भास्कराचार्य. |
| वृ० रत्ना०= वृत्नरत्नाकर. | सोम०= सोमेश्वर. |
| वृत्तिका०= वृत्तिकार. | से० ब०= सेतुबन्ध. |
| वृ० वसि०=वृद्धवसिष्ठ. | स्क० पु०= स्कन्दपुराण. |
| वैज०= वैजयन्ती by यादवभट्ट. | स्मृ० रत्ना०= स्मृतिरत्नावली. |
| व्या०= व्यास. | स्वा० यो० प्र०= स्वात्मयोगप्रदीप, a commentary on स्वात्मयोग by अमरानन्दयोगीन्द्र. |
| शा० प०= शान्तिपर्वन्. | हर०= हरदत्त. |
| शार० त०= शारदातनय. | हला०= हलायुधकोष. |
| शारि० ना०= शारिकानाथ. | हेम०= हेमचन्द्र, pupil of देमचन्द्रसूरि, teacher of कुमारपाल, author of काव्यानुशासन and many other works. (A. D. 1092-1178). |
Containing Bhâmaha’s work on poetics, based upon two Mss., one deposited in the Mahârâjâ’s Sanskrit Library, Trivandrum, and the other which seems a transcript of the Ms. at Trivandrum is deposited in the Government Oriental Mss. Library, Madras. The former is designated T. It is written on palm leaves and is about five hundred years old. The ends of the palm-leaves are in many cases worn out. The latter is designated M. T. begins thus:— हरिः। श्रीगणपतये नमः। अविव्रमस्तु। श्रीमहाशरथिपादेभ्यो नमः॥M. has अविव्रमस्तु in the beginning.
श्रीः। भामहालंकारः॥
प्रणम्य सार्वंसर्वज्ञंमनोवाक्कायकर्मभिः।
काव्यालंकार इत्येष यथाबुद्धि विधास्यते॥१॥
धर्मार्थकाममोक्षेषु3505 वैचक्षण्यं कलासु च।
प्रीतिं करोति कीर्तिं च साधुकाव्यनिबन्धनम्॥२॥
अथनस्येव दातृत्वं क्लीबस्येवास्त्रकौशलम्।
अज्ञस्येव प्रगल्भत्वमकवेः शास्त्रवेदनम्॥३॥
विनयेन3506 विना का श्रीः का निशा शशिना विना।
रहिता सत्कवित्वेन कीदृशी वाग्विदग्धता॥४॥
गुरूपदेशादध्येतुं शास्त्रंजडधियोऽप्यलम्।
काव्यं तु जायते जातु कस्यचित् प्रतिभावतः॥५॥
उपेपुषामपि3507 दिवं सन्निबन्धविधायिनाम्।
आस्त एव निरातङ्कं कान्तं काव्यमयं वपुः॥६॥
रुणद्धिरोदसी चास्य यावत् कीर्तिरनश्वरी।
तावत् किलायमध्यास्ते सुकृती वैबुधं पदम्॥७॥
अतोऽभिवाञ्छता कीर्तिं स्थेयसीमा भुवः स्थितेः।
यत्नो विदितवेद्येन विधेयः काव्यलक्षणः॥८॥
शब्दश्छन्दोऽभिवानार्था3508इतिहासाश्रयाः कथाः।
लोको युक्तिः कलाश्चेति मन्तव्या काव्ययैर्वशी ? (मन्तव्याः काव्ययैर्हमी?)॥९॥
शब्दाभिधेये विज्ञाय कृत्वा तद्विदुपासनाम्।
विलोक्यान्यनिवन्धांश्चकार्यः काव्यक्रियादरः॥१०॥
सर्वथा पदमप्येकं न निगाद्यमवद्यवत्।
विलक्ष्मणा हि काव्येन दुःसुतेनेव निन्द्यते॥११॥
अकवित्वमधर्माण व्याधये दण्डनाय वा।
कुकवित्वं पुनः साक्षान्मृतिमाहुर्मनीषिणः॥१२॥
रूपकादिरलंकारस्तस्यान्यैर्वहुयोदितः।
न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनितामुखम्॥१३॥
रूपकादिमलंकारं3509.”) बाह्यमाचक्षते परे।
सुपां3510 तिङांच व्युत्पत्तिं वाचां वाञ्छन्त्यकृतिम्॥१४॥
तदेतदाहुः सौशब्द्यंनार्थव्युत्पत्तिरीदृशी।
शब्दाभिधेयालंकारभेदादिष्टं द्वयं तु नः॥१५॥
शब्दार्थौ सहितौ काव्यं गद्यं पद्यं च तद् द्विधा।
कयुतं3511 ? (संस्कृतं ?) प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति त्रिधा॥१६॥
वृत्तदेवादिचरितशंसि3512 चोत्पाद्यवस्तु च।
कलाशास्त्राश्रयं चेति चतुर्धा भिद्यते पुनः॥१७॥
सर्गबन्धोऽभिनेयार्थं तथैवाख्यायिकाकथे।
अनिवद्धं च काव्यादि तत् पुनः पञ्च चोच्यते॥१८॥
सर्गबन्धो महाकाव्यं महतां च महच्च यत्।
अग्राम्यशब्दमर्थ्य च सालंकारं सदाश्रयम्॥१९॥
मन्त्रदूत3513प्रयाणाजिनायकाभ्युदयैश्चयत्।
पञ्चभिः संधिभिर्युक्तं नातिव्याख्येयमृद्धिमत्॥२०॥
चतुर्वर्गभिधानेऽपि भूयसार्थोपदेशकृत्।
युक्तं लोकस्वभावेन रसैश्चसकलैः पृथक्॥२१॥
नायकं प्रागुपन्यस्य वंशवीर्यश्रुतादिभिः।
न तस्यैव वधं ब्रूयादन्योत्कर्षाभिधित्सया॥२२॥
यदि काव्यशरीरस्य न स व्यापितयेध्यते।
न चाभ्युदयभाक् तस्य मुधादौ ग्रहणं स्तवे॥२३॥
नाटकं द्विपदीशम्यारासकस्कन्धकादि यत्।
उक्तं तदभिनेयार्थमुक्तोऽन्यैस्तस्य विस्तरः॥२४॥
प्रकृतानाकु3514लश्रव्यशब्दार्थपदवृत्तिना।
गद्येन युक्तोदात्तार्था सोच्छ्वासाख्यायिका मता॥२५॥
वृतमाख्यायते तस्यां नायकेन स्वचेष्टितम्।
वक्रं चापरवक्रंच काले भाव्यर्थशंसि च॥२६॥
कवेरभिप्रायकृतैः कथा (थ? ) नैः कैश्चिदङ्किता।
कन्याहरण संग्रामविप्रलम्भोदयान्विता॥२७॥
न वक्रापरवक्राभ्यां युक्ता नोच्छ्वासवत्यपि।
संस्कृतं संस्कृता चेष्टा कथापभ्रंशभाक् तथा3515॥२८॥
अन्यैः3516 स्वचरितं तस्यां नायकेन तु नोच्यते।
स्वगुणाविष्कृतिं कुर्यादभिजातः कथं जनः॥२९॥
अनिबन्धं पुनर्गाथाश्लोकमात्रादि तत् पुनः।
युक्तं वक्रस्वभावोक्त्यासर्वमेवैतदिष्यते॥३०॥
वेदर्भमन्यदस्तीति मन्यन्ते सुधियोऽपरे।
तदेव च किल ज्यायः सदर्थमपि नापरम्॥३१॥
गौडीयमिदमेतत्तु वैदर्भमिति किं पृथक्।
गतानुगतिकन्यायान्नानाख्येयममेधसाम्॥३२॥
ननु चास्मकवंशादि वैदर्भमिति कथ्यते।
कामं तथास्तु प्रायेण संज्ञेच्छातो विधीयते॥३३॥
अपुष्टार्थमवक्रोक्ति प्रसन्नसृजुकोमलम्।
भिन्नंगेयमित्रेदं तु केवलं श्रुतिपेशलम्॥३४॥
अलंकारवदग्राम्यमर्थ्यं न्याय्यमनाकुलम्।
गौडीयमपि साधीयां वैदर्भमिति नान्यथा॥३५॥
न नितान्तादिमात्रेण जायते चारुता गिराम्।
वक्राभिधेयशब्दोक्तिरिष्टा3517 वाचामलंकृतिः॥३६॥
नेयार्थं क्लिष्टमन्यार्थमवाचक्रमयुक्तिमत्।
गुढशब्दाभिधानं च कवयो न प्रयुञ्जते॥३७॥
नेयार्थं नीयते युक्तो यस्यार्थः कृतिभिर्बलात्।
शब्दन्यायादपारूढः कथंचित् स्वाभिसंधिना॥३८॥
मायेव भद्रेति यथा सा चासाध्वी प्रकल्पना।
वेणुदाकेरिति च तान् नयन्ति वचनाद्विना॥३९॥
क्लिष्टं व्यवहितं विद्यादन्यार्थविगमे यथा ( दन्यार्थं विगमे यथा ? )
विजहुस्तस्य ताः शोकं क्रीडायां विकृतं च तत्॥४०॥
हिमापहामित्रधरैर्व्याप्तं3518.") व्योमेत्यवाचकम्।
साक्षादरूढं वाच्येऽर्थे नाभिधानं प्रतीयते॥४१॥
अयुक्तिमद्यथा दूता जलभृन्मात्रकेङ3519 तेषु च।") च ? (मारुतेन्दवः? )।
तथा भ्रमरहारीतचक्रवाकशुकादयः॥४२॥
भवाची व्यक्तवाचश्चदुरदेशविचारिणः।
कथं दूत्यं प्रपद्येरत्रिति युक्तया न युज्यते॥४३॥
यदि चोत्कण्ठया यत्तदुन्मत्त इव भाषते।
तथा भवतु भूम्नेदं सुमेधोभिः प्रयुज्यते॥४४॥
गुढशब्दाभिधानं च न प्रयोज्यं कथंचन।
सुधियामपि नैवेदमुपकाराय कल्पते॥४५॥
४असितर्तितुगद्विच्छित्स्वःक्षितांपतिरद्विदृक्।
अमिद्भिः शुभादृष्टैर्द्विषो जेध्नीयिषीष्ट वः॥४६॥
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४Given as an instance of कठोर composition by भोज in his सरस्वतीकण्ठामरण. १-३२— सौकुमार्यविपर्यासात् कठोर उपजायते। यथा असितर्ति &c.। अत्रातिकठोरत्वादसौकुमार्यं सुप्रतीतमेव।
Ratnes’vara’s commentary on the verse is as under:—
अमितर्तीति। ‘ऋ गतौ" इति धात्वनुसारादृनिवत्यं। असिता कृष्णा ऋतिर्वत्मंयस्प कृष्णवत्मांवह्निस्तस्य तुगपत्यम्। अद्रिच्छिदिति क्रौञ्चदारणत्वात्। स्वर्गे क्षियन्ति निवसन्ति ये देवास्तेषां पतिः सेनानीत्वात्। अद्विदृग्द्वादशलोचनत्वात्। स एवंभूतो भगवान् कुमारोऽमिद्भिरस्निग्धैरूक्षैःशुभ्रदृग्दृष्टैर्ववलाक्षिविलोकितैः सकोचनिभालने तारकाभागस्योध्वंतया नयनात्तथाभावो जातिर्वोयुष्माकं द्विधःशत्रूञ्जेध्नीयिषीष्ट। अत्यर्थं पुनःपुनर्वां वध्यादित्यर्थः।हन्तेर्पङिध्नीभावेआशीर्लिङि रूपम्। स्वतन्त्रस्य पदस्य श्रुतिकटुता पददोषः। इह तु पदानामतथाभावे तिंद्रिच्छिइत्यादीनावर्णाना परस्परसंनिधाने घटनैव कठोरेत्याह। अत्रातिकठारेत्वादिति।
श्रुतिदुष्टार्थदुष्टे च कल्पनादुष्टमित्यपि।
श्रुतिकष्टं तथैवाहुर्वाचां दोषं चतुर्विधम्॥४७॥
विड्वर्चोविष्ठितक्किन्न?च्छिन्नवान्तप्रवृत्तयः3520।
प्रचारधर्षितोद्रारविसर्गहृदयं वृताः ? (यन्त्रिताः ? )॥४८॥
हिरण्यरेताः संबाधः पेलवोपस्थिताण्डजाः।
वाक्काटवादयश्चेति श्रुतिदुष्टा मता गिरः॥४९॥
अर्थदुष्टं पुनर्ज्ञेयं यत्रोक्ते जायते मतिः।
असभ्यवस्तुविषया शब्दैस्तद्वाचिभिर्यथा॥५०॥
हन्तुमेव प्रवृत्तस्य स्तम्भस्य (स्तब्धस्य?) विवरैपिणः।
पतनं जायतेऽवश्यं कृच्छ्रेण पुनरुन्नतिः॥५१॥
पदद्वयस्य सन्धाने यदनिष्टं प्रकल्पते3521।
तदाहुः कल्पनादुष्टं सशौर्याभरणो यथा॥५२॥
यथाजिह्वददित्यादि श्रुतिकष्टं च तद्विदुः।
न तदिच्छन्ति कृतिनो गण्डमप्यपरे किल॥५३॥
संनिवेशविशेषात्तु दुरुक्तमपि शोभते।
नीलं पलाशमाबद्धमन्तराले स्रजामिव॥५४॥
किंचिदाश्रयसौन्दर्याद्धत्ते शोभामसाध्वपि।
कान्ताविलोचनन्यस्तं मलीमसमिवाञ्जनम्॥५५॥
आपाण्डुगण्डमेतत्ते वदनं वनजेक्षणे।
संगमात् पाण्डुशब्दस्य गण्डः साधु यथोदितम्॥५६॥
अनयान्यदपि ज्ञेयं दिशा युक्तमसाध्वपि।
यथा विक्लिन्नगण्डानां करिणामुदवारिभिः॥५७॥
मदक्लिन्नकपोलानां द्विरदामां चतुःशती।
यथा तद्वदसाधीयः साधीयश्चप्रयोजयेत्॥५८॥
एतद्भाह्यंसुरभिकुसुमं ग्राम्यमेतन्निधेयं
धत्ते शोभां विरचितमिदं स्थानमस्यैतदस्य।
मालाकारो रचयति यथा साधु विज्ञाय मालां
योज्यं काव्येध्ववहितधिया तद्वदेवाभिधानम्॥५९॥
इति भामहालंकारे प्रथमः परिच्छेदः॥
अथ द्वितीयः परिच्छेदः॥
माधुर्यमभिवाञ्छन्तः प्रसादं च सुमेधसः।
समासवन्ति भूयांसि न पदानि प्रयुञ्जते॥१॥
केचिदोजोऽभिचित्सन्तः समस्यन्ति बहुन्यपि।
यथा मन्दारकुसुमरेणुपिञ्जरिताटका॥२॥
भव्यं3522 नातिसमस्तार्थं काव्यं मधुरमिप्यते।
आविद्वदङ्गनाबालप्रतीतार्थं प्रसादवत्॥३॥
अनुप्रासः सयमको रूपकं दीपकोपमे।
इति वाचामलंकाराः पञ्चैवान्यैरुदाहृताः॥४॥
सरूपवर्णविन्यासमनुप्रासं3523 प्रचक्षते।
किं तया चिन्तया कान्ते नितान्तेति यथोदितम्॥५॥
ग्राम्यानुप्रासमन्यतु मन्यन्ते सुधियोऽपरे।
स लोलमालानीलालिकुलाकुलगलो बलः॥६॥
नानार्थवन्तोऽनुप्रासा न चाप्यसदृशाक्षराः।
युक्त्यानया मध्यमया जायन्ते चारवो गिरः॥७॥
लाटीयमप्यनुपासमिहेच्छन्त्यपरे यथा।
दृष्टिं दृष्टिसुखां धेहि चन्द्रश्चन्द्रमुखोदितः॥८॥
आदिमध्यान्तयमकं पादाभ्यासं तथावली।
समस्तपादयमकमित्येतत् पञ्चधोच्यते॥९॥
संदष्टकसमुद्रादेरत्रैवान्तर्गतिर्मता॥
आदौ मध्यान्तयोर्वास्यामि (दि ? ) ति पञ्चैव तद्यथा॥१०॥
साधुनासाधुना तेन राजताराजता भृता।
सहितं सहितं कर्तुं सङ्गतं सङ्गतं जनम्॥११॥
साधुस्संसाराद्विभ्पदस्मादसारात्
कृत्वा क्लेशान्तं याति वर्त्मप्रशान्तम्।
जातिं व्याधीनां दुर्दयानामधीनां
वाञ्छन्त्या यस्त्वं छिन्धि मुक्तानयस्त्वम्॥१२॥
न ते धीर्धीर भोगेषु रमणीयेषु संगता।
मुनीनपि हरन्त्येते रमणीयेषु सङ्गता॥१३॥
सितासिताक्षीं सुपयोधराधरां
सुसम्मदां व्यक्तमदां ललामदाम्।
घनाघना नीलघनाघनालकां
प्रियामिमामुत्सुकयन्ति यन्ति च॥१४॥
अमी नृपा दत्तसमग्रशासनाः
कदाचिदप्यप्रतिवद्धशासनाः।
कृतागसां मार्गभिदां च शासनाः
पितृक्रमाध्यसिततादृशासनाः॥१५॥
अनन्तरैकान्तरयोरेवं पादान्तयोरपि।
कृत्न्नंच सर्वपादेषु दुष्कृतं साधु तादृशम्॥१६॥
तुल्यश्रुतीनां3524 भिन्नानामभिधेयैः परस्परम्।
वर्णानां यः पुनर्वादो यमकं तन्निगद्यते॥१७॥
प्रतीतशब्दमोजस्वि सुष्टिपदसन्धि च।
प्रसादि स्वाभियानं च यमकं कृतिनां मतम्॥१८॥
नानाधात्वर्थगम्भीरा यमकव्यपदेशिनी।
प्रहेलिका सा द्युदिता रामशर्माच्युतोत्तरे॥१९॥
काव्यान्यपि3525 यदीमानि व्याख्यागम्पानि शास्त्रवत्।
उत्सवः सुधियामेव हन्त दुर्मेघसो हताः॥२०॥
उपमानेन3526 यत्तत्त्वमुपमेयस्य रूप्यते।
गुणानां समतां दृष्ट्वा रूपकं नाम तद्विदुः॥२१॥
समस्तवस्तुविषयमेकदेशविवर्ति च।
द्विधारूपकमुद्दिष्टमेतत्तच्चोच्यते यथा॥२२॥
सीकराम्भोमद3527सृजस्तुङ्गा जलददन्तिनः।
निर्यान्तो मदयन्तीमे शक्रकार्मुककारणम्॥२३॥
तडिद्वलयकक्ष्याणां वलाकामालभारिणाम्।
पयोमुचां ध्वनिर्धीरो दुनोति मम तां प्रियाम्॥२४॥
आदिमध्यान्तविषयं3528 त्रिधा दीपकमिष्यते।
एकस्यैव व्यवस्थत्वादिति तद्भिद्यते त्रिधा॥२५॥
अमूनि कुर्वतेऽन्वर्थांमस्याख्यामर्थदीपनात्।
त्रिभिर्निदर्शनैश्चेदं त्रिधा निर्दिश्यते यथा॥२६॥
मदो3529 जनयति प्रीतिं सानङ्गं3530मानभङ्गुरम्।
स प्रियासंगमोत्कण्ठां सासह्यांमनसः शुचम्॥२७॥
मालिनीरंशुकभृतः स्त्रियोऽलंकुरुते मधुः।
हारीतशुकवाचश्चभूघराणामुपत्यकाः॥२८॥
चीरीमतीररण्यानीः3531 सरित शुष्यदम्भ्रसः।
प्रवासिनां च चेतांसि शुचिरन्तं निनीषति॥२९॥
विरुद्धेनोपमानेन3532.") देशकालक्रियादिभिः।
उपमेयस्य यत् साम्यं गुणलेशेन सोपमा॥३०॥
यथेवशब्दौ सादृश्यमाहतुर्व्यतिरेकिणोः।
डुर्वाकाण्डमित्र श्यामं3533 तन्वी श्यामलता यथा॥३१॥
विना यथेवशब्दाभ्यां समासाभिहितापरा।
यथा कमलपत्राक्षी शशाङ्कवदनेति च॥३२॥
वतिनापि क्रियासाम्यं तद्वदेवाभिधीयते।
द्विजातिवदवीतेऽसौ गुरुवच्चानुशास्ति नः॥३३॥
समानवस्तुन्यासेन प्रतिवस्तूपमोच्यते।
यथेवानभिधानेऽपि गुणसाम्यप्रतीतितः॥३४॥
साधुसाधारणत्वादिर्गुणोऽत्र व्यतिरिच्यते।
स साम्यमापादयति विरोधेऽपि तयोर्यथा॥३५॥
कियन्तः सन्ति गुणिनः साधुसाधारणश्रियः।
स्वादुपाकफला नम्राः कियन्तो वाध्वशाखिनः॥३६॥
यदुक्तं त्रिप्रकारत्वं तस्याः कैश्चिन्महात्मभिः।
निन्दाप्रशंसाचिख्यासाभेदादत्राभिधीयते॥३७॥
सामान्यगुणनिर्देशात् त्रयमप्युदितं ननु।
मालोपमादिः सर्वोऽपि न ज्यायान् विस्तरो बुधा॥३८॥
हीनतासंभवो लिङ्गवचोभेदो विपर्ययः।
उपमानाधिकत्वं च तेनासदृशतापि च॥३९॥
त एत उपमादोषाः सप्त?मेधाविनोदिताः3534।
सोदाहरणलक्ष्मणोवर्ण्यन्तेऽत्र च ते पृथक्॥४०॥
स3535 मारुताकम्पितपीतवासा
विघ्नत् सलीलंशशिभासमब्जम्।
यदुप्रवीरः प्रगृहीतशार्ङ्ग—
सेन्द्रायुधो मेघ इवावभासे॥४१॥
शक्रचापग्रहादत्र दर्शितं किल कार्मुकम्।
वासःशङ्खानुपादानाद्धीनमित्यभिधीयते॥४२॥
सर्व सर्वेण सारूप्यं नास्ति भावस्य कस्यचित्।
यथोपपत्तिकृतिभिरुपमा सुप्रयुज्यते॥४३॥
अखण्डमण्डलःक्वेन्दुः क्वकान्ताननमद्युति।
यत्किञ्चित्कान्तिसामान्याच्छशिनैवोपमीयते॥४४॥
किं च काव्यानि नेयानि लक्षणेन महात्मनाम्।
दृष्टं वा सर्वसारूप्यं राजमित्रे यथोदितम्॥४५॥
सूर्याशुसंमीलितलोचनेषु3536 अत्र बहुत्वमुपमेयर्माणामुपमानात् न विशिष्टानामेव मुखानामुपमेयत्वात्। तादृशेष्वेव केकाविनाशस्य संभवात्।")
दीनेषु पद्मानिलनिर्मदेषु।
साध्व्यःस्वगेहेष्विव भर्तृहीनाः
केका विनेशुः3537 शिखिनां मुखेषु॥४६॥
निष्पेतुरास्यादिव3538 - ‘अत्रापि ज्वलन्त्योऽम्बुवाराः सूर्यमण्डलान्निष्पतन्त्योन संभवन्तीत्युपनिबध्यमानोऽर्थोऽनोचित्यमेव पुष्णाति।’") तस्य दीप्ताः
शरा धनुर्मण्डलमध्यभाजः।
जाज्वल्यमाना इव वारिधारा
दिनार्घभाजः परिवेषिणोऽर्कात्॥४७॥
शाखवर्धनस्य
कथं पातोऽम्बुधाराणां ज्वलन्तीनां विवस्वतः।
असंभवादयं पुक्त्या तेनासंभव उच्यते॥४८॥
तत्रासंभविनार्थेन कः कुर्यादुपमां कृती।
को नाम वह्निनौपम्यं कुर्वीत शशलक्ष्मणः॥४९॥
यस्यातिशयवानर्थः कथं सोऽसंभवो मतः।
इष्टं चातिशयार्थत्वमुपमोत्प्रेक्षयोर्यथा॥५०॥
पुञ्जीभूतमिव ध्वान्तमेष भाति मतङ्गजः।
सरः शरत्प्रसन्नाम्भो नभःखण्डमिवोज्झितम्॥५१॥
अथ लिङ्गवचोभेदादुच्येते सविपर्ययौ।
हीनाधिकत्वात् स द्वेधा त्रयमप्युच्यते यथा॥५२॥
अविगाह्योऽसि नारीणामनन्यमनसामपि।
विषमोपलभिन्नोर्मिरापगेवोत्तितीर्षतः॥५३॥
क्वचिदग्रे3539 Vide p.18 of अलंकार शेखर.")प्रसरता क्वचिदापत्य निघ्नता।
शुनेव सारङ्गकुलंत्वया भिन्नं द्विषां बलम्॥५४॥
अयं3540.") पद्मासनासीनश्चक्रवाको विराजते।
युगादौ भगवान् ब्रह्मा विनिर्मित्सुरिव प्रजाः॥५६॥
ननूपमीयते पाणिः कमलेन विकासिना।
अधरो विद्रुमच्छेदभासा विम्बफलेन च॥५६॥
उच्यते काममस्तीदंकिं तु स्त्रीपुंसयोरयम्।
विधिर्नाभिमतोऽन्यैस्तु त्रयाणामपि नेष्यते॥५७॥
स3541 पीतवासा प्रगृहीतशार्ङ्गो
मनोज्ञभीमं वपुराप कृष्णः।
शतहदेन्द्रायुधवान् निशायां
संसृज्यमानः शशिनेव मेघः॥५८॥
रामशर्मणः।
शशिनो ग्रहणादेतदाधिक्यं किल न ह्ययम्।
निर्दिष्ट उपमेयेऽर्थे वाच्यो वा जलदोऽत्र तु॥५९॥
न सर्वसारूप्यमिति विस्तरेणोदितो विधिः।
अभिप्रायात् कवेर्नात्र विधेया जलजे मतिः॥६०॥
आधिक्यमुपमानानां न्याय्यं नाधिकता भवेत्।
गोक्षीरकुन्दहडिनां विशुद्वया सदृशंयशः॥६१॥
एतेनैवोपमानेन ननु सादृश्यमुच्यते।
उक्तार्थस्य प्रयोगो हि गुरुमर्थं न पुष्यति॥६२॥
वनेऽथ3542. ‘यत्रोपमानोपमेययोः साम्यं नास्ति तद्सादृश्यम्— यथा वनेऽथ &c.। अत्र न किंचिद्दन्तिनां मयूराणां च ग्रहैः सारूप्यमस्तीति।") तस्मिन् वनितानुयायिनः
प्रवृत्तदानार्द्रकटामतङ्गजाः।
विचित्रवर्हाभरणाश्च बर्हिणो
वभुर्दिवीवामलविग्रहा ग्रहाः॥६३॥
ग्रहैरपि गजादीनां यदि सादृश्यमुच्यते।
तथापि तेषां तैरस्ति कान्तिर्वाप्युग्रतापि वा॥६४॥
इत्युक्त उपमाभेदो वक्ष्यते चापरः पुनः।
उपमादेरलंकाराद्विशेषोऽन्योऽभिधीयते॥६५॥
आक्षेपोऽर्थान्तरन्यासो व्यतिरेको विभावना।
समासातिशयोक्ती च षडलंकृतयोऽपराः॥६६॥
वक्ष्यमाणोक्तविषयस्तत्राक्षेपोद्विधा मतः।
एकरूपतया शेषा निर्देश्यन्ते यथाक्रमम्॥६७॥
प्रतिषेध3543 It is also found, quoted, with the name of the author in the Jayamaṅgalâ on Bhaṭṭi X. 37 (V. 1. द्विविधं यथा ).") इवेष्टस्य यो विशेषाभिधित्सया।
आक्षेप इति तं सन्तः शंसन्ति द्विविधं यथा॥६८॥
अहं3544. Also quoted by Hemachandra in his Kâvyâunsâsana P. 268 ( ºनाप्रियेण ते ).") त्वा यदि नेक्षेय क्षणमप्युत्सुका ततः।
इयदेवास्त्वतोऽन्येन किमुक्तेनाप्रियेण तु॥६९॥
स्वविक्रमाकान्तभुवश्चित्रं यन्न तवोद्धतिः।
को वा सेतुरलंसिन्धोर्विकारकरणं प्रति॥७०॥
उपन्यसनमन्यस्य3545 नविसाधुon रुद्रट’s काव्यालंकार VIII. 84. says भामहादिप्रतेन अर्थान्तरन्यास एव। अर्थद्वयस्य न्यासः सोऽर्थान्तरन्यासः’ इति तदीयलक्षणात्।") यदर्थस्योदितादृते।
ज्ञेयः सोऽर्थान्तरन्यासः पूर्वार्थानुगतो यथा॥७१॥
परानीकानि भीमानि विविक्षोर्नतव व्यथा।
साधु वासाधु वागामि पुंसामात्मैव शंसति॥७२॥
हिशब्देनापि हेत्वर्थप्रथनादुक्तसिद्धये।
अयमर्थान्तरन्यासः सुतरां व्यज्यते यथा॥७३॥
वहन्ति गिरयो मेघानभ्युपेतान् गुरूनपि।
गरीयानेव हि गुरून् विभर्त्ति प्रणयागतान्॥७४॥
उपमानवतोऽर्थस्य3546") यद्विशेषनिदर्शनम्।
व्यतिरेकं तमिच्छन्ति विशेषापादनाद्यथा॥७५॥
सितासिते पक्ष्मवती नेत्रे ते ताम्रराजिनी।
एकान्तशुभ्रश्यामे तु पुण्डरीकासितोत्पले॥७६॥
क्रियायाः3547. उद्भट’s definition of विभावना is exactly the same as भामह’s.") प्रतिषेधे या तत्फलस्य विभावना।
ज्ञेया विभावनैवासौ समाधौ मुलभे सति॥७७॥
अपीतमत्ताः शिखिनो दिशोऽनुत्कण्ठिताकुलाः।
नीपोऽविलिप्तसुरभिरभ्रष्टकलुषं जलम्॥७८॥
यत्रोक्ते3548 अग्रिपुराण has the same definition as is given in जयमङ्गला but has बुधैः for यथा. Also quoted without the name of मामद्द in ध्वन्यालोकलोचन p. 80 ( तत्समानैर्विशेषणैः V. 1.).")गम्यतेऽन्योऽर्थस्तत्समानविशेषणः।
सा समासोक्तिरुदिष्टा संक्षिप्तार्थतया3549 यथा॥७९॥
स्कन्धवानृजुव्यालः स्थिरोऽनेकमहाफलः।
जातस्तरुरयं चोच्चैः पातितश्चनभस्वता॥८०॥
निमित्ततो3550 उद्भट has यतु वचो and बुधाः for यथा.") वचो यत्तु लोकातिक्रान्तगोचरम्।
मन्यन्तेऽतिशयोक्तिं तामलंकारतया यथा॥८१॥
स्वपुष्पच्छविहारिण्या चन्द्रभासा तिरोहिताः।
अन्वमीयन्त भृङ्गालिवाचा सप्तच्छदद्रुमाः॥८२॥
अपां यदि त्वक् शिथिला च्युता स्यात् फणिनामिव।
तदा शुक्लांशुकानि स्युरङ्गेष्वम्भसि योषिताम्॥८३॥
इत्येवमादिरुदिता गुणातिशययोगतः।
सर्वैवातिशयोक्तिस्तु तर्कयेत् तां यथागमम्॥८४॥
१सैपा सर्वैव वक्रोक्तिरनयार्थोविभाव्यते।
यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलंकारोऽनया विना॥८५॥
हेतुश्च3551.")सूक्ष्मो लेशोऽथ नालंकारतया मतः।
समुदायाभिधानस्य वक्रोक्त्यनभिधानतः॥८६॥
३गतोऽस्तमर्कोभातीन्दुर्यान्ति वासाय पक्षिणः।
इत्येवमादि किं काव्यं वार्त्तामेनां प्रचक्षते॥८७॥
यथासंख्यमथोत्प्रेक्षामलंकारद्वयं विदुः।
संख्यानमिति मेधाविनोत्प्रेक्षाभिहिता क्वचित्॥८८॥
भूयसामुपदिष्टानामर्थानामसधर्मणाम्3552. उद्भट has the same definition as भामह.")।
क्रमशो योऽनुनिर्देशो यथासङ्ख्यं तदुच्यते॥८९॥
पद्मेन्दुभृङ्गमातङ्गपुंस्कोकिलकलापिनः।
वक्रक्रान्तीक्षणगतिवाणीवालैस्त्वया जिताः॥९०॥
अविवक्षितसामान्या3553,") किंच्चिच्चोपमया सह।
अतद्गणक्रियायोगादुत्प्रेक्षातिशयान्विता॥९१॥
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१ Found, quoted with the name of भामहin ध्वन्यालोक pp. 207-8 (V. 1. सर्वत्र for सर्वैव, सर्वैद however seems to be the reading of अभिनवगुप्त, Vide लोचन ). Found, quoted also in the काव्यप्रकाश X. (V. 1. सर्वत्र ). Also quoted by प्रेमचन्द्रतर्कवागीश on काव्यादर्श २।२२० (V. 1 सैव सर्वत्र ). Also found, quoted by Hemachandra in his Tika on the Kâvyâns’âsana, p. 267 (सैषा सर्वैव).
३ Found, quoted, in हेमचन्द्र’s काव्यानुशासन p. 17. Found also quoted without भामह’s name in जयमङ्गला on भट्टि X. 45 ( V. 1.ºमादिकं, ºमेत ). Also see काव्यादर्श २।२४४ where the first half is found. Also given by मम्मट in the काव्यप्रकाश 7 th उल्लास to indicate varieties of the व्यङ्ग्य according to the nature of the वक्तृ and the बोद्धृ.
किंशुक्रव्यपदेशेन3554. Also found in Bhoja’s Sarasvatîkanthabharaṇa in the Utprek shâprakarana as an instance of Utprekshopanna") तरुमारुह्यसर्वतः।
दग्धादग्धमरण्यान्याः पश्यतीव विभावसुः॥९२॥
स्वभावोक्तिरलंकार3555.") इति केचित् प्रचक्षते।
अर्थस्य तदवस्थत्वं स्वभावोऽभिहितो यथा॥९३॥
आक्रोशन्नाह्वयन्नन्यानाधावन् मण्डलै रुदन्।
गा वारयति दण्डेन डिम्भः सस्यावतारणीः॥९४॥
समासेनोदितमिदं घीखेदायैव विस्तरः।
असंगृहीतमप्यन्यदस्पृह्यमनया दिशा॥९५॥
स्वयंकृतैरेव निदर्शनैरयं
मया प्रक्लृप्ता खलु वागलंकृतिः।
अतः परं चारुरनेकधापरो
गिरामलंकारविधिर्विधास्यते॥९६॥
इति भामहालंकारे द्वितीयः परिच्छेदः।
अथ तृतीयः परिच्छेदः।
प्रेयो रसवदुर्जस्वि पर्यायोक्तं समाहितम्।
द्विप्रकारसमुदात्तं च भेदैः श्लिष्टमपि त्रिभिः॥१॥
अपह्नुतिंविशेषोक्तिं विशेषं तुल्ययोगिताम्।
अप्रस्तुतप्रशंसां च व्याजस्तुतिनिदर्शने॥२॥
उपमारूपकं चान्यदुपमेयोपमामपि।
सहोक्तिपरिवृती च ससन्देहमनन्वयम्॥३॥
उत्प्रेक्षावयवं चान्ये संसृष्टमपि चापरे।
भाविकत्वं च निजगुरलंकारं सुमेधसः॥४॥
प्रेयो गृहागतं कृष्णमवादीद्विदुरो यथा।
अद्य3556 या मम गोविन्द जाता त्वयि गृहागते॥
कालेनैषाभवेत् प्रीतिस्तवैवागमनात् पुनः॥५॥
रसवद्दर्शित3557 Uâbhâtâlaikârasaṅgraha has रसवद्दर्शितस्पष्टशृङ्गारादिरसोदयम्। स्वशब्दस्थापितं चारिविभाचाभिनयास्पदम्॥")स्पष्टशृङ्गारादिरसं यथा।
देवी समागमद्धर्ममस्करिष्यतिरोहिता॥६॥
ऊर्जस्वि कर्णेन यथा पार्थाय पुनरागतः।
द्विः संदधाति किं कर्णः शल्येत्यहिरपाकृतः॥७॥
पर्यायोक्तं3558 यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते।
उवाच रत्नाहरणे चैद्यंशार्ङ्गधनुर्यथा॥८॥
गृहेष्वध्वसु3559.") वा नान्नंभुञ्ज्महे य (द) धीतिनः।
न भुञ्जते द्विजास्तच्च रसदाननिवृत्तये॥९॥
समाहितं राजमित्रे यथा क्षत्रिययोषिताम्।
रामप्रसक्त्यैयान्तीनां पुरोऽदृश्यत नारदः॥१०॥
उदातं शक्तिमान् रामो गुरुवाक्यानुरोधकः।
विहायोपवनं राज्यं यथा वनमुपागमत्॥११॥
एतदेवापरेऽन्येन3560.") व्याख्यानेनान्यथा विदुः।
नानारत्नादियुक्तं यत् तत् किलोदात्तमुच्यते॥१२॥
चाणक्यो नक्तमुपयान्नन्दक्रीडागृहं यथा।
शशिकान्तोपलच्छन्नं विवेद पयसां गणैः॥१३॥
उपमानेन3561") यत् तत्त्वमुपमेयस्य साध्यते।
गुणक्रियाभ्यां नाम्ना श्लिष्टंतदभिधीयते॥१४॥
लक्षणं रूपकेऽपीदं लक्ष्यते काममत्र तु।
इष्टः प्रयोगो युगपदुपमानोपमेययोः॥१५॥
शीकराम्भोमदसृजस्तुङ्गा जलददन्तिनः।
इत्यत्र मेघकरिणां निर्देशः क्रियते समम्॥
श्लेषादेवार्थवचसोरस्य3562") च क्रियते भिदा॥१६॥
तत्3563 सहोक्त्युपमाहेतुनिर्देशात् क्रमशो यथा।
छायावन्तो गतव्यालाः स्वारोहाः फलदायिनः॥१७॥
मार्गद्रुमा महान्तश्चपरेषामेव भूतये।
उन्नता लोकदयिता महान्तः प्राज्यवर्षिणः॥
शमयन्ति क्षितेस्तापं सुराजानो घना इव॥१८॥
रत्नवत्त्वादगाधत्वात् स्वमर्यादाविलङ्घनात्।
बहुसत्त्वाश्रयत्वाच्च सदृशत्वमुदन्वता॥१९॥
अपह्णुतिरभीष्टा3564. Udbhaṭa has the sate definition as Bhâmaha, but has निवन्ध क्रियतेबुधैः for क्रियते चामिधायथा- ‘The first hall is quoted in ध्वन्यालोकलोचन also, p. 38, ºरमीष्टस्य &ºदर्थगतोपमा ).") च किञ्चिदन्तर्गतोपमा।
भूतार्थापह्ववादस्याः क्रियते चाभिया यथा॥२०॥
नेयं3565 Also found quoted with मामह’s name by बल्लम in सुभाषितावाले No. 1644 (मधुरास्वरा forमुखरा मुहुः and ºमाकृष्यमाणस्प) Also found, quoted in हेमचन्द्र’sकाव्यानुशासन P. 28 ( अयप्राकृष्यमाणस्य ).") विरौति भृङ्गाली मदेन मुखरा मुहुः।
अयमाक्रन्दमाणस्य कन्दर्पधनुषो ध्वनिः॥२१॥
एकदेशस्य3566 Also quoted without भामह’s name in जयमङ्गला on मट्टि X 68. ( संस्तुतिः ) Also quoted by प्रतिहारेन्दुराज on उद्भट’sकाव्यालंकारसारसंग्रह (ºसंस्तुतिः ) with मामह’s name.") विगमे या गुणान्तरसंस्थितिः।
विशेषप्रथनायासौ विशेषोक्तिर्मता यथा॥२२॥
स3567 Also quoted by हेमचन्द्र in his काव्यानुशासन P. 270.") एकस्त्रीणि जयति जगन्ति कुसुमायुधः।
हरतापि तनुं यस्य शंभुना न वलंहृतम्॥२३॥
[गुणस्य3568.") वा क्रियाया वा विरुद्धान्यक्रियाभिदा।
या विशेषाभिधानाय विरोधं तं विदुर्बुधाः॥२४॥
उपान्तरूढोपवनच्छायाशीतापि धूरसौ।
विदूरदेशानपि वः संतापयति विद्विषः॥२५॥
न्यूनस्यापि3569 विशिष्टेन गुणसाम्यविवक्षया।
तुल्यकार्यक्रियायोगादित्युक्ता तुल्ययोगिता॥२६॥
शेषो हिमगिरिस्त्वं च महान्तो गुरवः स्थिराः।
यदलङ्घित्तमर्यादाश्चलन्तीं बिभृथ3570 क्षितिम्॥२७॥
अधिकारादपेतस्य3571. It may have been quoted from some other work, asमामह’s प्रस्तुतप्रशंसा is not of three kinds.") वस्तुनोऽन्यस्य या स्तुतिः।
अप्रस्तुतप्रशंसेति सा चैवं कथ्यते यथा॥२८॥
प्रीणितप्रणयि स्वादु काले परिणतं बहु।
विना पुरुषकारेण फलं पश्यत शास्त्रिनाम्॥२९॥
दूराधिकगुणस्तोत्रव्यपदेशेन3572.") तुल्यताम्।
किञ्चिद्विधित्सोर्यानिन्दा व्याजस्तुतिरसौ यथा॥३०॥
रामः सप्ताभिनत् सालान् गिरिं क्रौञ्चं भृयूत्तमः।
शतांशेनापि भवता किं तयोः सदृशं कृतम्॥३१॥
क्रिययैव3573.") विशिष्टस्य तदर्थस्ये पदर्शनात्।
ज्ञेया निदर्शना नाम यथेववतिभिर्विना॥३२॥
अयं3574 मन्दद्युतिर्भास्वानस्तं प्रतियियासति।
उदयः पतनायेति श्रीमतो बोधयन् नरान्॥३३॥
उपमानेन3575.") तद्भावमुपमेयस्य साधयत्।
यां वदत्युपमामेतदुपमारूपकं यथा॥३४॥
समग्रगगनायाममानदण्डो स्थाङ्गिणः।
पादो जयति सिद्धस्त्रीमुखेन्दुनवदर्पणः॥३५॥
उपमानोपमेयत्वं3576.") यत्र पर्यायतो भवेत्।
उपमेयोपमां नाम ब्रुवते तां यथोदिताम्॥३६॥
सुगन्धि नयनानन्दि मदिरामदपाटलम्।
अम्भोजमिव वक्रं ते त्वदास्यमिव पङ्कजम्॥३७॥
तुल्युकाले क्रिये यत्र वस्तुद्वयसमाश्रये।
पदेनैकेन कथ्येते सहोक्तिः सा मता यथा॥३८॥
हिमपाताविलदिशो गाढालिङ्गनहेतवः।
वृद्धिमायान्ति यामिन्यः कामिनां प्रीतिभिः सह॥३९॥
विशिष्टस्य3577 यदादानमन्यापोहेन वस्तुनः।
अर्थान्तरन्यासवती परिवृत्तिरसौ यथा॥४०॥
प्रदाय वित्तमर्थिभ्यः स यशोधनमादित।
सतां विश्वजनीनानामिदमस्स्वलितं व्रतम्॥४१॥
उपमानेन3578 Also quoted in ध्वन्यालोकलोचन p. 107.") तत्त्वं च भेदं च वदतः पुनः।
ससन्देहं वचः स्तुत्यै ससन्देहं विदुर्यथा॥४२॥
किमयं शशी न स दिवा विराजते
कुसुमायुधो न धनुरस्य कौसुमम्।
इति विस्मयाद्विमृशतोऽपि मे मति-
स्त्वयि वीक्षते न लभतेऽर्थनिश्चयम्॥४३॥
यत्र3579. Also quoted with भामह’s name in the चित्रमीमांसा p 14 (विवक्षातो बदन्ति ) and without भामह’s name in the अलंकारकौस्तुम p. 23 of विश्वेश्वरपण्डित (ºविवक्षात वदन्ति ).") तेनैव तस्य स्यादुपमानोपमेयता।
असादृश्यविवक्षातस्तमित्याहुरनन्वयम्॥४४॥
ताम्बूलरागवलयं स्फुरहशनदीधिति।
इन्दीवराभनयनं तवेव वदनं तव॥४५॥
श्लिष्टस्यार्थेन3580") संयुक्तः किंचिदुत्प्रेक्षयान्वितः।
रूपकार्थेन च पुनरुत्प्रेक्षावयवो यथा॥४६॥
तुल्योदयावसान3581.")त्वाद्गतेऽस्तं प्रति भास्वति।
वासाय वासरः क्लान्तो विशतीव तमोगृहम्॥४७॥
वरा3582.") विभूषा संसृष्टिर्वह्वलंकारयोगतः।
रचिता रत्नमालेव सा चैवमुदिता यथा॥४८॥
गाम्भीर्यलाघववतोर्युवयोः प्राज्यरत्नयोः।
सुखसेव्यो जनानां त्वं दुष्टग्राहोऽम्भसां पतिः॥४९॥
अनलंकृतकान्तं ते वदनं वनजद्युति।
निशाकृतं प्रकृत्यैव चारोः का वास्त्यलंकृतिः॥५०॥
अन्येषामपि कर्त्तव्या संसृष्टिरनया दिशा।
कियदुद्धट्टितज्ञेभ्यः शक्यं कथयितुं मया॥५१॥
भाविकत्वमिति3583 प्राहुः प्रबन्धविषयं गुणम्।
प्रत्यक्षा इव दृश्यन्ते यत्रार्थाभूतभाविनः॥५२॥
३चित्रोदात्ताद्भूतार्थत्वं कथायाः स्वभिनीतता।
शब्दानाकुलता चेति तस्य हेतुं प्रचक्षते॥५३॥
आशीरपि3584.") च केषांचिदलंकारतया मता।
सौहृदय्याविरोधोक्तौ प्रयोगोऽस्याश्च तद्यथा॥५४॥
अस्मिञ्जहीहि सुहृदि प्रणयाभ्यसूया-
माश्लिप्य गाढममुमानतमादरेण।
विन्ध्यं महानिव घनः समयेऽभिवर्ष-
न्नानन्दजैर्नयनवारिभिरुक्षतु त्वाम्॥५५॥
शाश्ल्घमातङ्गविभिन्नसाला
हतप्रवीरा द्रुतभीतपौराः।
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३Found quoted in the Jayamaṅgala on the Bhaṭṭi XII. 1.
Quoted also in the Sarvapathîna by Mallinâtha, Bhatti XII. 1 ( The reading of the first half there is उदात्तार्थाद्भूतार्थत्वे कथायास्त्वभिनीतता ). It is also quoted by Pratihârendurâja in his commentary on Udbhata’s Kâvyâlaikârasârasaṅgraha—‘तदुक्तं माविकमुपक्रम्य भामहेन “चित्रोदात्ताद्भूतार्थत्वं कथायां स्वभिनीतता। शब्दानुकूलता चेति तस्य हेतून् प्रचक्षते” इति। स्वमिनीततेत्यमिनयादिद्वारेण शृङ्गारादिरसंवलितत्वं चतुर्वर्गोपायस्योक्तम्॥
The second half of the verse is found quoted by Ruyyaka in his Alaṅkârasarvasva—’ शब्दानुकूलता चेति तस्य हेतून् प्रचक्षते’ इति भामहीये Vide p. 183.
स्वत्तेजसा दग्धसमस्तशोभा
द्विषां पुरः पश्यतु राजलोकः॥५६॥
गिरामलंकारविधिः सविस्तरः
स्वयं विनिश्चित्य धिया मयोदितः।
अनेन वागर्थविदामलंकृता
विभाति नारीव विदग्धमण्डला॥१७॥
इति भामहालंकारे तृतीयः परिच्छेदः॥
अथ चतुर्थः परिच्छेदः।
अपार्थं3585 व्यर्थमेकार्थससंशयमपक्रमम्।
शब्दहीनं यतिभ्रष्टंभिन्नवृत्तं विसन्धि च॥१॥
देशकालकलालोकन्यायागमविरोधि च।
प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तहीनं दुष्टं च नेष्यते॥२॥
अपार्थमित्यपेतार्थं स चार्थः पदवाक्ययोः।
अर्थवान् वर्णसंघातः सुप्तिडन्तं पदं पुनः॥३॥
पदानामेव संघातः सापेक्षाणां परस्परम्।
निराकाङ्क्षं च तद्वाक्यमेकवस्तुनिबन्धनम्॥४॥
क्रमवृत्तिषु वर्णेषु सङ्घातादि न युज्यते।
बुद्धौतु संभवत्येतदन्यत्वेऽपि प्रतिक्षणम्॥५॥
धीरन्त्यशब्दविषयावृत्तवर्णाहितस्मृतिः।
वाक्यमित्याहुरपरे न शब्दाः क्षणनश्वराः॥६॥
अत्रापि बहु वक्तव्यं जायते तत्तु नोदितम्।
गुरुभिः किं विवादेन यथाप्रकृतमुच्यते॥७॥
समुदायार्थशून्यं यत्तदपार्थकमिष्यते।
दाडिमानि दशापूपाः पडित्यादि यथोदितम्॥८॥
विरुद्धार्थं मतं व्यर्थ विरुद्धं तूपदिश्यते।
पूर्वापरार्थव्याघाताद्विपर्ययकरं यथा॥९॥
सखि मानं प्रिये धेहि लघुतामस्य मा गमः।
भर्तुश्छन्दानुवर्त्तिन्यः प्रेम घ्नन्ति न हि स्त्रियः॥१०॥
उपासितगुरुत्वात् त्वं विजितेन्द्रियशत्रुषु।
श्रेयसो विनयाधानमधुना तिष्ठ केवलम्॥११॥
यदभिन्नार्थमन्योन्यं तदेकार्थं प्रचक्षते।
पुनरुक्तमिदं प्राहुरन्ये शब्दार्थभेदतः॥१२॥
नशब्दपुनरुक्तं तु स्थौल्यादत्रोपवर्ण्यते।
कथमाक्षिप्तचित्तः सन्नुक्तमेवाभिधास्यते॥१३॥
भयशोकाभ्यासूयासुहर्षविस्मययोरपि।
यथाह गच्छ गच्छेति पुनरुक्तं न तद्विदुः॥१४॥
अत्रार्थपुनरुक्तं यत्तदेवैकार्थमिष्यते।
उक्तस्य पुनराख्याने कार्यासंभवतो यथा॥१५॥
तामुत्कमनसंनूनं करोति ध्वनिरम्भसाम्।
सौधेषु घनमुक्तानां प्रणालीमुखपातिनाम्॥१६॥
श्रुतेः सामान्यधर्माणां विशेषस्यानुदाहृते॥
अप्रतिष्टं यदत्रैतज्ज्ञानं ( यदेकत्र तज्ज्ञानं ?) संशयं विदुः॥१७॥
ससंशयमिति प्राहुस्ततस्तज्जननं वचः।
इष्टं निश्चितये वाक्यं न वेलायेति (?) तद्यथा॥१८॥
व्यालवन्तो3586 दुरारोहा रत्नवन्तः फलान्विताः।
विषमा भूभृतस्तेभ्यो भयमाशु प्रमादिनाम्॥१९॥
यथोपदेशं क्रमशो निर्देशोऽत्र क्रमो मतः।
तदपेतं विपर्यासादित्याख्यातमपक्रमम्॥२०॥
विदधानौकिरीटेन्दु श्यामाभ्रहिमसच्छवी।
रथाङ्गशूले विभ्राणौ पातां वः शंभुशार्ङ्गिणौ॥२१॥
सूत्रकृत्पादकारेष्टप्रयोगाद्योऽन्यथा भवेत्।
समाप्तश्रावकाः सिद्धेः शब्दहीनं विदुर्यथा॥२२॥
स्फुरत्तडिद्वयिनो वितताम्भोगरीयसः।
तेजस्तिरयतः सौरं घनान् पश्य दिवाभितः॥२३॥
यतिश्छन्दोनि रूढानां3587 शब्दानां या विचारणा।
तदपेतं यतिभ्रष्टमिति निर्दिश्यते यथा॥२४॥
विद्युत्वन्तस्तमालासितवपुष इमे वारिवाहा ध्वनन्ति॥२५॥
गुरोर्लघोश्चवर्णस्य योऽस्थाने रचनाविधिः।
तत्र्पुनाधिकता वापि भिन्नवृत्तमिदं यथा॥२६॥
भ्रमति भ्रमरमाला काननेषून्मदासौ
विरहितरमणीकोऽई… स्वद्यगन्तुम्॥२७॥
कान्ते इन्दुशिरोरत्नेआदधाने उदंशुनी।
पातां वः शम्भुशर्वाण्याविति प्राहुर्विसन्ध्यदः॥२८॥
या देशे द्रव्यसंभूतिरपि वा नोपदिश्यते।
तत्तद्विरोधि विज्ञेयं स्वभावात् तद्ययोच्यते॥२९॥
मलये कन्दरोपान्तरूढकालागरुद्रुमे।
सुगन्धिकुसुमा नम्रा राजन्ते देवदारवः॥३०॥
पण्णामृतूनां भेदेन कालः पोदेव भिद्यते।
तद्विरोधकृदित्याहुर्विपर्यासादिदं यथा॥३१॥
उद्वदशिशिरासारान् प्रावृषेण्यान् नभस्वतः।
फुल्लाः सुरभयन्तीमे चूताः काननशोभिनः॥३२॥
कला संकलना प्रज्ञा शिल्पान्यस्याश्च गोचरः।
विपर्यस्तं तथैवाहुस्तद्विरोधकरं यथा॥३३॥
ऋषभात् पञ्चमात् तस्मात् सषइजं धैवतं स्मृतम्।
अयं हि मध्यमग्रामो मध्यमोत्पीडितर्षभः॥३४॥
इति सा धारितं मोहादन्यथैवावगच्छति।
अन्यास्वपि कलास्वेवमभिवेया विरोधिता॥३५॥
स्थास्तु जङ्गमभेदेन लोकं तत्त्वविदो विदुः।
स च तद्व्यवहारोऽत्र तद्विरोधकरं यथा॥३६॥
तेषां कटतटभ्रष्टैर्गजानां मदबिन्दुभिः।
प्रावर्त्तत नदी घोरा हस्त्यश्वरथवाहिनी॥३७॥
धावतां सैन्यवाहानां फेनवारि मुखच्युतम्।
चकार जानुदघ्नापान् प्रतिदिङ्मुखमध्वनः॥३८॥
न्यायः शास्त्रं त्रिवर्गोक्तिर्दण्डनीतिं च तां विदुः।
अतो न्यायविरोधीष्टमपेतं यद् तया यथा॥३९॥
विजिगीषुमुपन्यस्य वत्सेशं वृद्धदर्शनम्।
तस्यैव कृतिनः पश्चादभ्यधापा (च्चा?) रशून्यताम्॥४०॥
अन्तर्योधशताकीर्णं सालङ्कायन?नेत्र कम् ( ? )।
तथाविधं गजच्छद्मनाज्ञासीत् स स्वभूगतम्॥४१॥
यदि वोपेक्षितं तस्य सचिवैः स्वार्थसिद्धये।
अहो नुमन्दिमा तेषां भक्तिर्वा नास्ति भर्तरि॥४२॥
शरा दृढधनुर्मुक्ता मन्युमद्भिररातिभिः।
मर्माणि परिहृत्यास्य पतिष्यन्तीति कानुमा॥४३॥
हतोऽनेन मम भ्राता मम पुत्रः पिता मम।
मातुलो भागिनेयश्चरुपा संरब्धचेतसः॥४४॥
अस्यन्तो विविधान्याजावायुधान्यपराधिनम्।
एकाकिनमरण्यान्यां न हन्युर्वहवः कथम्॥४५॥
नमोऽस्तु तेभ्यो विद्वद्भ्यो येऽभिप्रायं कवेरिमम्।
शास्त्रलोकापास्यैवं नयन्ति नयवेदिनः॥४६॥
सचेतसो वनेभस्य चर्मणा निर्मितस्य च।
विशेषं वेद बालोऽपि कष्टं किं नु3588कथं नु तत्॥४७॥
आगमो धर्मशास्त्राणि लोकसीमा च तत्कृता।
तद्विरोधि तदाचारव्यतिक्रमणतो यथा॥४८॥
भूभृतां पीतसोमानां न्याय्ये वर्त्मनि तिष्ठताम्।
अलकरिष्णुना वंशं गुरौ सति जिगीषुणा॥४९॥
अभार्योढेन संस्कारमन्तरेण द्विजन्मना।
नरवाहनदत्तेन वेश्यावान् निशि पीडितः॥५०॥
न दूषणायायमुदाहतो विधि-
र्न चाभिमानेन कि प्रतीयते।
कृतात्मनां तत्त्वदृशां च मादृशो
जनोऽभिसंधि क इवावभोत्स्यते॥५१॥
इति भामहालंकारे चतुर्थः परिच्छेदः॥
अथ पञ्चमः परिच्छेदः॥
अथ प्रतिज्ञाहेत्वादिहीनं दुष्टं च वर्ण्यते।
समासेन यथान्यायं तन्मात्रार्थप्रतीतये॥१॥
प्रायेण दुर्बोधतया शास्त्राद्विभ्यत्यमेधसः।
तदुच्छन्दनायैप हेतुन्याय?लवोच्चयः3589॥२॥
स्वादुकाञ्यरसोन्मिश्रं3590.") शास्त्रमप्युपयुञ्जते।
मालीदमधवः पिवन्ति कटु भेषजम्॥३॥
न3591") स शब्दो न तद्वाच्यं3592 न स न्यायो न सा कला।
जायते यत्र काव्याङ्गमही भारो महान् कवेः॥४॥
सत्त्वादयः प्रमाणाभ्यां प्रत्यक्षमनुमा च ते।
असाधारणसामान्यविषयत्वं तयोः किल॥५॥
प्रत्यक्षं कल्पनापोढं ततोऽर्थादिति केचन।
कल्पनां नाम जात्यादियोजनां प्रतिजानते॥६॥
समारोपः किलैतावान् सदर्थालम्बनं च तत्।
जात्यायपोहे वृत्तिः क्व क्व विशेषः कृतश्च सः॥७॥
तदपोहेषु च तथा सिद्धा सा बुद्विगोचरा।
अवस्तुकं चेद्वितथं प्रत्यक्षं तत्त्ववृत्ति हि॥८॥
ग्राह्यग्राहकभेदेन विज्ञानांशी मतो यदि।
विज्ञानमत्र सादृश्याद्विशेषो स (स्य! ) विकल्पना॥९॥
अर्थादेवेति रूपादेस्तत एवेति न्यायतः।
अन्यथा3593 घटविज्ञानमन्येन व्यपदिश्यते॥१०॥
त्रिरूपाल्लिङ्गतो ज्ञानमनुमानं च केन च (केचन ? )।
तद्विदो नान्तरीयार्थदर्शनं चापरं विदुः॥११॥
विविधास्पदधर्मेण धर्मीकृतविशेषणः।
पक्षस्तस्य च निर्देशः प्रतिज्ञेत्यभिधीयते॥१२॥
तदर्थहेतुसिद्धान्तसर्वागमविरोधिनी।
प्रसिद्धधर्मा3594 प्रत्यक्षबाधिनी3595 चेति दुष्यति॥१३॥
तयैव हि तदर्थस्य विरोधकरणं यथा।
यतिर्मम पिता बाल्यात् सूनुर्यस्याहमौरसः॥१४॥
अस्यात्मा3596 प्रकृतिर्वेति ज्ञेया हेत्वपवादिनी।
धर्मिणोऽस्याप्रसिद्धत्वात्तद्धर्मोऽपि3597 न सेत्स्यति॥१५॥
शाश्वतोऽशाश्वतो वेति प्रसिद्धे धर्मिणि ध्वनौ।
जायते भेदविषयो विवादो वादिनोर्मिथः3598॥१६॥
स्वसिद्धान्तविरोधित्वाद्विज्ञेया तद्विरोधिनी।
कणभक्षो यथा शब्दमाचक्षीताविनश्वरम्॥१७॥
सर्वशास्त्रविरुद्धत्वात् सर्वागमविरोधिनी।
यथा शुचिस्तनुस्त्रीणि प्रमाणानि (न?) सन्ति वा॥१८॥
आकुमारमसंदिग्धधर्माहितविशेषणा।
प्रसिद्धधर्मेति मता श्रोत्रग्राह्योध्वनिर्यथा॥१९॥
प्रत्यक्षवाधिनी तेन प्रमाणेनैव बाध्यते।
यथा शीतोऽनलो नास्ति रूपमुष्णः3599 क्षपाकरः॥२०॥
सन् द्वयोः सदृशे सिद्धो व्यावृत्तस्तद्विपक्षतः।
हेतुस्त्रिलक्षणो ज्ञेयो हेत्वाभासो विपर्ययात्॥२१॥
सन् द्वयोरिति यः सिद्धः स्वपक्षपरपक्षयोः।
अभिन्नलक्षणः पक्षः फलभेदादयं द्विधा॥२२॥
परपक्षानुपादानं तद्वृत्तेश्चानुदाहृत्तौ।
कथमन्यतरासिद्धहेत्वाभासव्यवस्थितिः॥२३॥
साध्यधर्मानुगमतः सदृशस्तत्र यश्च सन्।
अन्योऽप्यसावेक इव सामान्यादुपचर्यते॥२४॥
विपक्षस्तद्विसदृशो व्यावृत्तस्तत्र यो ह्यसन्।
इति द्वयैकानुगतिर्व्यावृत्तिर्लक्ष्मसाधुता॥२५॥
साध्यसाधनधर्माभ्यां सिद्धो दृष्टान्त उच्यते।
तद्विपर्ययतो वापि तदाभस्तदवृत्तितः॥२६॥
साध्येन लिङ्गानुगतिस्तदभावे च नास्तिता।
ख्याप्यते येन दृष्टान्तः स किलान्यैर्द्विधोच्यते॥२७॥
दूषणन्यूनताद्युक्तिर्न्यूनं हेत्वादिनाथ च।
तन्मूलत्वात् कथायाश्चन्यूनं नेष्टं प्रतिज्ञया॥२८॥
जातयो दूषणाभासास्ताः साधर्म्यसमाधयः।
तासां प्रपञ्चोबहुधा भूयस्त्वादिह नोदितः॥२९॥
अपरं वक्ष्यते न्यायलक्षणं काव्यसंश्रयम्।
इदं तु शास्त्रगर्भेषु काव्येष्वभिहितं यथा॥३०॥
अथ नित्याविनाभावि दृष्टं जगति कारणम्।
कारणं चेन्न तत्रित्यं नित्यं चेत् कारणं न तत्॥३१॥
लक्ष्मप्रयोगदोषाणां?भेदेनानेकवर्त्मना3600।
सन्धादिसाधनं सिद्ध्यैशास्त्रेषुदितमन्यथा॥३२॥
तज्ज्ञैः काव्यप्रयोगेषुतत्प्रादुष्कृतमन्यथा।
तत्र लोकाश्चयंकाव्यमानस्तस्वदर्शिनः3601॥३३॥
असिसङ्काशमाकाशंशब्दोदूरानुपात्ययम्।
तदेववा (+पि?) सिन्धूनामहो स्थेमा महार्चिषः॥३४॥
रूपादीनां यथा द्रव्यमाश्रयो नश्वरीति या।
इष्टकार्याभ्युपगमं प्रतिज्ञां प्रतिजानते॥३५॥
र्थिकामकोपानां संश्रयात् सा चतुर्विधा।
जरामेष विधर्मीति प्रतिज्ञाय पितुर्यथा॥
तथैव पुरुणाभारि सा स्याद्धर्मनिबन्धनी॥३६॥
उपलप्स्येस्वयं सीतामिति भर्तृनिदेशतः॥
हनुमता प्रतिज्ञाय सा ज्ञातेत्यर्थसंश्रया॥३७॥
आहरिष्याम्यमूमद्य महासेनात्मजामिति।
कृत्वा प्रतिज्ञां वत्सेन हतेति मदनाश्रया॥३८॥
भ्रातुर्भ्रातृव्यमुन्मथ्य पास्याम्यस्यासूगाहवे।
प्रतिज्ञाय यथा भीमस्तच्चकारावशी रुषा॥३९॥
कार्योऽन्यत्र प्रतिज्ञायाः प्रयोगो न कथंचन।
परित्यागस्य कर्त्तव्यो नासां चतसृणामपि॥४०॥
प्रायोपवेशाय यथा प्रतिज्ञाय सुयोधनः।
राज्याय पुनरुत्तस्थाविति धर्मविरोधिनी॥४१॥
आहूतो न निवर्तेऽहं द्यूतायेति युधिष्ठिरः।
कृत्वा संधां शकुनिना दिदेवेत्यर्थवाधिनी॥४२॥
अद्यारभ्य निवत्स्यामि मुनिवद्वचनादिति।
पितुः प्रियाय यां भीष्मश्चके सा कामबाधिनी॥४३॥
अत्याजयद्यथा रामः सर्वक्षत्रवधाश्रयाम्।
जामदग्न्यं युधा जित्वा सा ज्ञेया कोपवाधिनी॥४४॥
अथाभ्युपगमप्राप्तिः सन्धाभ्युपंगमाद्विना।
अनुक्तमपि यत्रार्थादभ्युपैति यथोच्यते॥४५॥
किमिन्द्रियद्विषा3602ज्ञेयं को निराकृतयेऽरिभिः।
को वा गत्वरमर्थिभ्यो न यच्छति धनं लघु॥४६॥
किमत्ययं तु यः क्षेपः सौकर्यं दर्शयत्यसौ।
हेतुस्त्रिलक्ष्मैव मृतः काव्येष्वपि सुमेधसाम्॥४७॥
अन्वयव्यतिरेकौ हि केवलावर्थसिद्धये।
यथाभितो वनाभोगमेतदस्ति महत्सरः॥४८॥
कूजनात् कुरराणां च कमलानां च सौरभात्।
अन्यधर्मोऽपि तत्सिद्धिं संबन्धेन करोत्ययम्॥४९॥
धूमादभ्रङ्कषात् साग्नेःप्रदेशस्यानुमामिव।
अपृथक्कृतसाध्योऽपि हेतुश्चात्र प्रतीयते॥५०॥
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां विनैवार्थगतिर्यथा3603।
दीप्रदीपा निशा जज्ञे व्यपवृत्तदिवाकरा॥५१॥
हेतुप्रदीपदीपत्वमपवृत्तौ रवेरिह।
तस्यापि सुथियामिष्ठा दोषाः प्राशुदितास्त्रयः॥५२॥
अज्ञानसंशयज्ञानविपर्ययकृतो यथा।
काशा हरन्ति हृदयममी कुसुमसौरभात्3604॥५३॥
अपामभ्यर्णवर्त्तित्वादेते ज्ञेयाः शरारवः।
असौ शुक्लान्तनेत्रत्वाच्चकोर इति गृह्यताम्॥५४॥
तुल्यजातावदृष्टत्वात् साधयत्यचकोरताम्।
उक्तस्यार्थस्य दृष्टान्तं प्रतिबिम्बनिदर्शनम्॥५५॥
ननृपमानममेवास्तु न हेत्वनभिधानतः।
साध्यसाधनयोरुक्तिरुक्तादन्यत्र नेप्यते॥६६॥
सुखं पद्ममिवेत्यत्र किं साध्यं किं च साधनम्।
इति प्रयोगस्य यथा कलावपि भवानिह॥
श्रेयान् वृद्धानुशिष्टत्वात् पूर्वे कार्न्तयुगे यथा॥५७॥
यत्र दृष्टान्तमात्रेण व्यज्येते साध्यसाधने।
तमाहुः शुद्धदृष्टान्तं तन्मात्राविष्कृतेर्यथा॥५८॥
भरतस्त्वं दिलीपस्त्वं त्वमेवैलःपुरूरवाः।
त्वमेव वीरप्रद्युन्नस्त्वमेव नरवाहनः॥५९॥
कथमेकपदेनैव व्यज्येरन्नस्य ते गुणाः।
इति प्रयुञ्जते सन्तः केचिद्विस्तरभीरवः॥६०॥
पदमेकं परं साधु नार्वाचीननिबन्धनम्।
वैपरीत्याद्विपर्यासं कीर्त्तेरपि करोति तत्॥६१॥
अहृद्यमभिर्भेदं रसवत्त्वेऽप्यपेशलम्।
काव्यं कपित्थमामंवत् (?) केषांचित् सदृशं यथा॥६२॥
प्रजाजनश्रेष्ठवरिष्ठभूभृ—
च्छिरोर्चिताङ्घ्रेःपृथुकीर्तिधिष्ण्य।
अहिघ्नपद्मस्य जलारियान्न-
स्तवैव नान्यस्य सुतस्य वृत्तम्॥६३॥
अंशुमद्भिश्चमणिभिः फलनिम्नैश्चशास्त्रिभिः।
फुल्लैश्च कुसुमैरन्यैर्वाचोऽलंकुरुते यथा॥६४॥
शुभमरकतपद्मरागचित्रे
सफलसपल्लवभृरिचारुवृते।
‘बहुकुसुमविभूषिते स तस्थौ
सुरमुनिसिद्धयुते सुमेरुपृष्ठे॥६५॥
तदेभिरङ्गैर्भूप्यन्ते भूषणोपवनस्रजः।
वाचां वाक्रार्थशब्दफिरलंकाराय कल्पते॥६६॥
विरुद्धपदमस्वर्थ बहुपुरणमाकुलम्।
कुर्वन्ति काव्यमपरेव्यायताभीप्सया यथा॥६७॥
एलातक्कोलनागस्फुटवकुललताचन्दनस्पन्दनाड्य-
मृक्काकर्पूरचफागरुमनशिलाध्यामकाव्याप्ततीरः।
शङ्खब्राताङ्कलान्तस्तिमिमकरकुलाकीर्णवीचीप्रतानो
दघ्नेयस्याम्बुराशिः शशिकुमुदसुधाक्षीरशुद्धां सुकीर्तिम्॥६८॥
इति निमदितास्तास्ता वाचामलंकृतयो मया।
वहुविधकृतीर्दृष्ट्वान्येषां स्वयं परितर्क्यच।
प्रथितवचसः सन्तोऽभिज्ञाः प्रमाणमिहापरे
गुरुतरधियामस्वाराधं मनोऽकृतबुद्धिभिः॥६९॥
इति भामहालंकारे पञ्चमः परिच्छेदः।
अथ षष्ठः परिच्छेदः
सुत्राम्भसं पदावर्त्तं पारायणरसातलम्।
धातूणादिगणग्राहं ध्यानग्रहवृहत्प्लवम्॥१॥
धीरैरालोकितप्रान्तममेधोभिरसुयितम्।
सदोपभुक्तं सर्वाभिरन्यविद्याकरेणुभिः॥२॥
नापारयित्वा दुर्गाधममुंव्याकरणार्णवम्।
शब्दरत्नं स्वयंगममलंकर्त्तुमयं जनः॥३॥
तस्य चाधिगमे यत्नः कार्यः काव्यं विधित्सता
परप्रत्ययतो यत्तु क्रियते तेन का रतिः॥४॥
नान्यप्रत्ययशब्दा वाग…मुदे सताम्।
परेण धृतमुक्तेव सरसा कुसुमावली॥५॥
मुख्यस्तावदयं न्यायो यत् स्वशक्त्या प्रवर्त्तते।
अन्य सारस्वता नाम सन्त्यन्योक्तानुवादिनः॥६॥
प्रतीतिरर्थेषु यतस्तं शब्दं ब्रुवतेऽपरे।
धूमभासोरपि प्राप्ता शब्दतान्यानुमां प्रति॥७॥
नन्वकारादिवर्णानां समुदायोऽभिधेयवान्।
अर्थप्रतीतये गीतः शब्द इत्यभिधीयते॥८॥
प्रत्येकमसमर्थानां समुदायोऽर्थवान् कथम्।
वर्णानां क्रमवृत्तित्वान्न्याय्या नापि च संहतिः॥९॥
न चापि समुदायिभ्यः समुदायोऽतिरिच्यते।
दारुभित्तिभ्रुवोऽतीत्य किमन्यत् सद्म कल्प्यते॥१०॥
तस्मात् कूटस्थ इत्येषा शाब्दी वः कल्पना वृथा।
प्रत्यक्षमनुमानं वा यत्र तत् परमार्थतः॥११॥
शपथैरपि चादेयं वचो न स्फोटवादिनाम्।
नभ कुसुममस्तीति श्रद्दध्यात् कः सचेतनः॥१२॥
इयन्त ईदृशा वर्णा ईदृगर्थाभिधायिनः।
व्यवहाराय लोकस्य प्रागित्थं समयः कृतः॥१३॥
स कूटस्थोऽनपायी च नादादन्यश्चकथ्यते।
मन्दाः सांकेतिकानर्थान् मन्यन्ते पारमार्थिकान्॥१४॥
विनश्वरोऽस्तु नित्यो वा संबन्धोऽर्थेन वासता।
नमोऽस्तु तेभ्यो विद्वदभ्यः प्रमाणं येऽस्य निश्चितौ॥१५॥
अन्यापोहे3605नशब्दोऽर्थमाहेत्यन्ये प्रचक्षते।
अन्यापोहश्चनामान्यवा (प? ) दार्थावा (पा ? ) कृतिः किल॥१६॥
यदि गौरित्ययं शब्दः कृतार्थोऽन्यनिराकृतौ।
जनको गवि गोबुद्धेर्मृग्यतामपरो ध्वनिः॥१७॥
अर्थज्ञानफलाः शब्दा न चैकस्य फलद्वयम्।
अपवादविधिज्ञाने फले चैकस्य वः कथम्॥१८॥
पुरा गौरिति विज्ञानं गोशब्दश्रवणाद्भवेत्।
येनागोप्रतिषेधाय प्रवृत्तो गौरिति ध्वनिः॥१९॥
वर्णभेदादिदं भिन्नं वर्णाः स्वांशविकल्पतः।
के शब्दाः किं च तद्वाच्यमित्यहो वर्त्म दुस्तरम्॥२०॥
द्रव्यक्रियाजातिगुणभेदात् ते च चतुर्विधाः।
यदृच्छाशब्दमप्यन्ये डित्यादिं प्रतिजानते॥२१॥
नानाभाषाविषयिणामपर्यन्तार्थवर्त्तिनाम्।
इयत्ता केन वामीषां विशेषादवधार्यते॥२२॥
वक्रवाचां कवीनां ये प्रयोगं प्रति साधवः।
प्रयोक्तुं ये न युक्ताश्चतद्विवेकोऽयमुच्यते॥२३॥
नाप्रयुक्तं प्रयुञ्जीत चेतः संमोहकारिणम्।
तुल्यार्थत्वेऽपि हि व्रूयात् को हन्तिं गतिवाचिनम्॥२४॥
श्रोत्रादिं न तु दुर्बोधं न दुष्टादिमपेशलम्।
ग्राम्यं न पिण्डीशूरादिं न डित्थादिमपार्थकम्॥२५॥
नाप्रतीतान्यथार्थत्वं धात्वनेकार्थतावशात्।
न लेशज्ञापकाकृष्टसंहति ध्याति वा यथा॥२६॥
न शिष्टैरुक्तमित्येव न तन्त्रान्तरसाधितम्।
छन्दोवदिति चोत्सर्गान्नचापि च्छान्दसं वदेत्॥२७॥
क्रमागतं श्रुतिसुखं शब्दमध्यमुदीरयेत्।
अतिशेते ह्यलंकारमन्यं व्यञ्जनचारुता॥२८॥
सिद्धो यश्चोपसंख्यानादिष्ट्यायश्चोपपादितः।
तमाद्रियेत प्रायेण न तु योगविभागजम्॥२९॥
इयं चन्द्रमुखी कन्या प्रकृत्यैव मनोहरा।
अस्यां सुवर्णालंकार पुष्णाति नितरां श्रियम्॥३०॥
वृद्धिपक्षंप्रयुञ्जीत संक्रमेऽपि मृजेर्यथा।
म्रार्ज्ञन्त्यधररागंते एतन्तो वाष्पविन्दवः॥३१॥
सरुपक्षेषं तु पुमान् स्त्रिया यत्र च शिष्यते।
येथाह वरुण्याविन्द्रौभवौभर्वौमृडाविति॥३२॥
यथा पदयतीत्यादि णिच्प्रातिपदिकात्ततः।
णाविष्टवादितीष्ट्याच तथा कशयतीत्यपि॥३३॥
प्रयुञ्जीताव्ययीभावमदन्तं नाप्यपञ्चमी।
तृतीयासप्तमीपक्षेनालग्विपयमानयेत्॥३४॥
तिष्टद्रुप्रभृतौ वाच्यौ मक्तांदिवसगोचरौ।
यथा विद्वानधीतेऽसौ तिष्ठद्रु च वहद्रुच॥३५॥
शिष्टप्रयोगमात्रेण न्यासकारमतेन वा।
तृचा समस्तषष्ठीकं न कथंचिदुदाहरेत्॥३६॥
सूत्रज्ञापकमात्रेण वृत्रहन्ता यथोदितः।
अकेन च न कुर्वीत वृतिं तद्रमको यथा॥३७॥
पञ्चराजीति च यथा प्रयुञ्जीत द्विगुस्त्रियाम्।
नपुंसकं तत्पुरुषं पुरुहूतसभं यथा॥३८॥
सर्वेभ्यश्च भृशादिभ्यो वदेल्लुप्तहलंयथा।
प्रियोन्मनायते सा ते किं शठाभिमनायसे॥३९॥
तृतीयैकवचः3606षष्ठयामामन्तं च वदेत् क्विपि।
यथोदितं बलभिदा सुरुचां विद्युतामिव॥४०॥
असन्तमपि यद्वाक्यं तत्तथैव प्रयोजयेत्।
यथोच्यतेऽम्भसां भासा यशसामम्भसामिति॥४१॥
पुंस्त्रियां च क्वस्वन्तमिच्छन्त्यच्छान्दसं किल।
उपेयुषामपि दिवं यथा न व्येति चारुता॥४२॥
इभकुम्भनिभेवाला दधुषीकन्तुके (?) स्तनौ।
रतिस्वेदपरिश्रान्ता जहार हृदयं नृणाम्॥४३॥
शवलादिभ्योऽतितरां भाति णिज्विहितो यथा।
वलाकाः पश्य सुश्रोणि घनाञ्छवलयन्त्यमूः॥४४॥
शिशिरासारकणिकां सदृशस्ते तुकङ्गवत् (?)।
संवीजयति सुश्रोणि रतिस्वेदालसेक्षणाम्॥४५॥
एवं णिचः प्रयोगस्तु सर्वत्रालंकृतिः परा।
लिङ्गत्रयोपपन्नं च ताच्छील्यविषयं णिनिम्॥४६॥
तस्या हारी स्तनाभोगो वदनं हारि सुन्दरम्।
हारिणी तनुरत्यन्तं कियन्न हरते मनः॥४७॥
ताच्छील्यादिषु चेप्यन्ते सर्व एवात्र नादयः।
विशेषेण च तत्रेष्टा पुच्कुरज्वरजिष्णुचः॥४८॥
क्तिन्नन्तं च प्रयुञ्जीत संगतिः संहतिर्यथा।
शकारौ जागुरिष्टौ च जागर्याजागरा यथा॥४९॥
उपासने तिचषुचं नित्यमासेः प्रयोजयेत्।
ल्पुटं च कर्तृविषयं देवनो रमणो यथा॥५०॥
अणन्तादपि ङीविष्टो दक्ष्मीः पौरन्दरी यथा।
अण्महारजनाल्लाक्षारोचनाभ्यां तथा च ठक्॥५२॥
ङ्मुतुविष्टं च कुमुदाद्यथेयं भूः कुमुद्वती।
ठक् चापि तेन जयतीत्याक्षिकः शास्त्रिको यथा॥५२॥
हितप्रकरणेऽणं च सर्वशब्दात् प्रयुञ्जते।
ततच्छमिष्ट्3607या च यथा सार्वः सर्वीय इत्यपि॥५३॥
वदेदिमनिजन्तं च पटिमा उघिमा यथा।
विशेषेणेयसुन्निष्टो ज्यायानाप कनीयसीम्॥५४॥
द्वयसज्दन्नचाविष्टौ प्रमाणविषयौ यथा।
जानुदघ्नी सरिन्नारी नितम्बद्वयसं सरः॥५५॥
मतुत्प्रकरणे ज्योत्स्नातमिस्राशृङ्गिणादयः।
इनच्च फलवर्हाभ्यां फलिनो बर्हिणो यथा॥५६॥
इनिः प्रयुक्तः प्रायेण तथा ठंश्चमनीषिभिः।
तत्रापि मेखलामालामायानां सुतरां मता॥५७॥
अभ्यस्ताज्झेरदादेशे दधतीत्यादयोऽपि च।
रोदितिस्वपितीत्यादि सहेटा सार्वधातुकम्॥५८॥
अभ्यस्तेषु प्रयोक्तव्यमदन्तं च विदेः शतुः।
असौ दधदलंकारं स्रजं बिभ्रच्चशोभते॥५९॥
………… रं योगिनं वदेत्।
यथैतच्छ्याममाभाति वनं बनजलोचने॥६०॥
नैकत्रौकारभूयस्त्वं गतो यातो हतो यथा।
सावर्ण्यावत्सयोभस्य?ब्रूयान्नान्यत्र3608 पद्धतेः॥६१॥
सालातुरीयमतमेतदनुक्रमेण
को वक्ष्यतीति विरतोऽहमतो विचारात्।
शब्दार्णवस्य यदि कश्चिदुपैति पारं
भीमाम्भसश्चजलधेरिति विस्मयोऽसौ॥६२॥
विद्यानां सततमपाश्रयोऽपरासां
तासूक्तां न च विरुणद्धिकांश्चिदर्थान्।
श्रद्धेयं जगति मतं हि पाणिनीयं
माध्यस्थ्याद्भवति न कस्यचित् प्रमाणम्॥६३॥
अवलोक्य मतानि सत्कवीना-
मवगम्य स्वपिया च काव्यलक्ष्म।
सृजनावगमाय भामहेन
प्रथितं रकिलगोमिसूनुनेदम्3609॥६४॥
इति भामहालंकारे षष्ठःपरिच्छेदः।
षष्ठ्याशरीरं निणीतं शतषष्ठ्यात्वलंकृतिः।
पञ्चाशता दोषदृष्टिः सप्तत्या न्यायनिर्णयः॥
षष्ठ्याशब्दस्य शुद्धिस्यादित्येव वस्तुपञ्चकं
उक्तं षद्भिः परिच्छेदैर्भामहेन क्रमेण वः॥
श्रीदाशरथिपादेभ्यो3610नमः॥
———————
Addenda and Corrigenda
to
The Pratâparudrîya, the Ratnâpaṇs, and the Ratnas’âņa.
| Incorrect. | Correct. |
| काव्यप्रकरणम् | नायकप्रकरणम् |
| Headings from p. 3 to p. 37 should be नायकप्रकरणम् for काव्यप्रकरणम्. | |
| मीमांसान्यायविस्तरः | मीमांसा न्यायविस्तरः |
| कारणमतम् | कारणभूतम् |
| m. | M. |
| गुणाः | गुणा |
| लकादरः | लोकादरः |
| अस्तिर्भवन्तिपरो | अस्तिर्भवति परो |
| तदनुर्शाहता | तदनु महिता |
| करेणु- | करेण |
| वसुमतित्या | वसुमती या |
| न्यासोद्योतवचनात् | न्यासोद्योतवचनात् |
| शृणोम्यनिसारिकाम् | शृणोम्यभिसारिकाम् |
| No. 4 marked for the form should be No. 5. | |
| मृगावया | मृगाक्ष्या |
| पत्तस्य | पत्तस्स |
| मर्तगण्ड T. | ॰मर्तिगण्ड T., P. |
| प्रभाकराः | प्राभाकराः |
| तत्र संकेतितार्थगोचरः &c. should be in another pars. | |
| अथोद्देशक्रमानुसारेणामिभालक्षणमाह should be in another para. | |
| वक्तुर्विवक्षितत्वात् | |
| विशेषस्यापि | विशेष्यस्यापि |
| पदार्थान्तरमात्रेणानितº | पदार्थान्तरमात्रेणान्वितº |
| कुलाचलाद्योपमैषिणा | कुलाचलाद्युपमैषिणा |
| °भिदा दम्भोलयः | ºभिदादम्भोलयः |
| पत्तस्येति | पत्तस्सेति |
| तुमुन्तº | तुन्तº |
| एकावध एवति | एकविध एवेति |
| पुनश्चतुर्धायोजने | पुनश्चतुर्धा योजने |
| नभोभ्रमरकीडां | नमो भ्रमरक्रीडां |
[TABLE]
| Incorrect. | Correct. |
| त्वरा | त्वरा |
| कुणइ॥ | कुणइ॥१६॥ |
| तदर्थोक्तमेव | तदर्थोकमेव |
| तदर्थोक्त एव | तदर्धोक्त एव |
| तास्मन् | तस्मिन् |
| सयुवतिº | सयुवतिº |
| याने | यामे |
| सरितं | सरितः |
| प्रस्तूयन्तां | प्रस्तूयतां |
| ºगुग्गुलुº | ºगुग्गुलुº |
| लोहहुलदण्डः | ºलोहहुलदण्डः |
| ºदुलºt. | ºदुलºp |
| ºर्वाहनुप्रभृतिषु | ºवां हनुप्रभृतिषु |
| ºविच्छेदभूरोº | ºविच्छेद उरोº |
| र्वात्तामृतैः | र्वार्तामृतैः |
| T’. | प्रदुहन्ते T. |
| शौनकेन | शौनकेन |
| ºप्रसक्तिº | ºप्रसत्तिº |
| ºप्रसक्तिº | प्रसत्तिº |
| Drop कलिङ्ग | |
| पादमूलमेव | पादमूलभेद |
| प्रत्यासस्या | प्रसत्त्या॰ |
| मधूत्सवाº | महोत्सवाº |
| Read युवराजेन भवता-सत्याशिषो वयम्॥ as a verse. | |
| P’. | T’. |
| विहिर्तº | विहितº |
| ॰पगमनसनात् | पगमनात् |
| उत्पादº | उत्पातº |
| मेधत्तिº | मेधर्त्तिº |
| विलम्बाहां | विलम्बार्हाः |
| शिरःकम्पनै | शिरःकम्पनै- |
| तान्युपानयन्ति | तान्युपानयति. |
| यस्य | येऽस्य |
| After मुक्तातपत्रविभवाः insert मौक्तिकमयच्छत्रविभवाः | |
| द्विषत्सु | द्विषस्तु |
| शिरंस्वº | शिरस्स्वº |
| Incorrect. | Correct. |
| सौवर्णº | सौपर्णº |
| एष | एतत् |
| ºरूपगूहनम् | ºरूपगूहनम् |
| पूर्णाङ्क॰ | पूर्णाकं |
| मदनुग्रहस्य | महदनुग्रहस्य |
| संख्याः | संख्या |
| शताधिकात् | शतादिकात् |
| ºमुखाº | ºमुखº |
| ºव्यक्तं च लक्षणº | ºव्यक्तत्दलक्षणº |
| ºद्विशेषम | |
| लक्षणम् | पुनº |
| योगान् | भोगान् |
| ºप्रसादितº | ºप्रसावितº |
| प्रमोदता | प्रमोदात्मा |
| तत्कृतेनापः | तत्कृतेनाप- |
| क्रोधः | क्रोध- |
| पत्यायनº | प्रत्यायनº |
| क्षुब्धंष्वº | क्षुब्धेष्वº |
| तथा | तथापि |
| समुद्रः | समुद्रः |
| इत्यास्तां तरुº | इत्यास्ततरुº |
| ºमुखस्यैते | ºमुखस्यैतो |
| तथव | तथेव |
| पण्यवीथिका | पण्यवीथिका |
| काञइº&c. is a verse. | |
| एव | एवं |
| काकति | काकति- |
| अश्रुनेत्रोº | अश्रु नेत्रोº |
| महीतं | मही तं |
| महीतां | मही तां |
| अंण्णोत्ति | अंणोत्ति |
| चिन्ताशून्यत्वº | चिन्ता शून्यत्वº |
| प्रतीº | प्रतिº |
| संञ्चितं | सञ्चितं |
| शब्दाº | शब्दº |
| Incorrect. | Correct. |
| ºच्चित॰ | ºच्चित्त॰ |
| चित्तस्य विकृतिः | चित्तस्याविकृतिः |
| प्रियचिरताº | प्रियचिरताº |
| कर्थावाद॰ | कथा वाद॰ |
| ºमनाक् प्रियº | मनाक् प्रियº |
| क्षोणीभुजाº | क्षोणी भुजाº |
| ºमासदिº | ºमासीदº |
| कृशता रतिः | कृशतारतिः |
| विभुक्का | विमुक्का |
| Put-at the end of each line. | |
| वदाद्यर्थº | पदाद्यर्थº |
| ºष्यां विरहº | ºष्यांविरहº |
| विशेष | विशेष- |
| कथ | कथं |
| तत्रैवोक्तम् | तत्रैवोक्तम् |
| अमन्दानन्दात्मा | अमन्दानन्दात्मा |
| शब्दगतत्वे | शब्दगतत्वे- |
| ॰दूरायतो | ॰दूरा यतो |
| देवता | देवताः |
| वलयं | वलये |
| शाणितेति | शोणितेति |
| ºपदत्वे | ºपदित्वे |
| कीर्ण | कीर्ण |
| दक्केन | दक्के न |
| तिष्ठता | तिष्ठतां |
| संपूर्णो | संपूर्णः |
| गुहागृहाणि | गुहा गृहाणि |
| ºभियाशुº | ºभियाश्रुº |
| सुरभै | सुरभे |
| एव | एवं |
| ºवाच्यत्व | ºवाच्यत्वं |
| ॰तटी दीर्घा | ॰तटीदीर्घा |
| सपीतिः | सहपानं स पीतिः |
| क्ष्वेडमटा | क्ष्वेडद्भटा |
| तिङा | तिङां |
| निप्रहन्तुंº | निप्रहन्तुº |
| भिदा दम्भोलयः | भिदादम्भोलयः |
| Incorrect. | Correct. |
| गुणप्रकरण | गुणप्रकरणं |
| ºपमेयोपमोपमयोº | ºपमेयोपपमानन्दययोº |
| सकर्णिकां | सकर्णिकान् |
| मूर्तेः रित्यर्थः | मूर्तेरित्यर्थः |
| संदशाः | सदंशाः |
| ºजनिता मन्दº | ºजनितामन्दº |
| ºदधिकोप मादिसंग्रहः | ºदधिकोप- मादिसंग्रहः |
| उपमानोपº | उपमानेनोपº |
| After मुखं insert चन्द्र इवेत्यत्र मुखं | |
| At the end of the lines put- | |
| तारादिहारावली- | तारादि हारावली- |
| सर्वलोपº | सर्वलोपाº |
| कर्तृः | कर्तुः |
| प्रासाधिताº | प्रसाधिताº |
| Put- at the end of the lines. | |
| ºयंशो लीलाº | ºयंशोलीलाº |
| कपिलादावग्रय | कपिला दावग्रय |
| ºविषयिणो | ºविषयिणोः |
| ञ्जलयो विषयº | ञ्जल्योविषयº |
| राज्ञः सत्यत्वं | राज्ञोऽसत्यत्वं |
| षण्णवतिभेदा | षण्णवतिर्भेदा |
| After नियमात् put | |
| ºमन्यत्रपर्वतं | ºमन्यत्र पर्वत |
| परतशाः | परवशाः |
| पालकाव्ये | पालकाप्ये |
| ध्वजाद्याया | ध्वजाद्या या |
| Put - at the end of the line. | |
| प्रभाकरं | प्राभाकरं |
| इत्यादिना | इत्यादिना |
| वैचित्र्यम | वैचित्र्यम् |
| सख्यां | सख्या |
| तथा | यथा |
| द्रव्येन | द्रव्येण |
| विष्णु | जिष्णु |
| अशेषº | अशक्यº |
| Incorrect. | Correct. |
| ºभ्रश- | ºभ्रंश- |
| संबन्ध्यं | संबध्य॰ |
| इदोतौ | उदोतौ |
| द्वापाराº | द्वापराº |
| strike off | at the end of the line. |
| नानुपलब्धेन | नानुपलब्धे न |
| मुञ्चतीति | मुञ्चन्तीति |
| सकलातीथिः | सकला तिथिः |
| and ºस्तिथयोर्द्वयोः | ºस्तिथयो द्वयोः |
| साध्यं | साधनं |
| ºसंप्रतिपन्ना रूपº | ºसंप्रतिपन्नरूपº |
| विभ्यत्यमी | विभ्यत्यमी |
| एत्मशिला | एअसिला |
| ॰मावमविवक्षित | ॰भावस्याविवक्षित॰ |
| युगपदस्थानं | युगपदवस्थानं |
| Insert स after युगपदवस्थानं | |
| ºत्कामिनी | कामिनी |
| भ्रातिरूपा | भ्रान्तिरूपा |
| शब्दस्प | ॰शब्दस्य॰ |
| आद्योº | अद्योº |
| तारापुटभ्रूº | तारापुटभ्रूº |
| Put the Heading एकावल्यलंकारः before the line. | |
| ॰हेतोरसंबन्धस्य | ॰हेतोस्मंबन्धस्य |
| ºकादम्बिनीº | ºकादम्बिनीº |
| प्रसाध्यत | प्रसाध्यत |
| After ॰स्थगने read कादम्बिनीभिरुपमानस्यैव सविशेषणत्वं or कादम्बिनीरूपोपमानस्यैव सविशेषणत्वं | |
| कादम्बिनीवद्विपº | कादम्बिनीवद्विपº |
| ºदुपभाविलसत्º | ºदुपभा विलसत्º |
———————
]
-
“Vide Report on a Search for Sanskrit and Tamil Mss. for the year 1893, No. 2 of 1899, by Prof. M. S’eshagiri S’âstrî, M. A., pp. 82 and 88.” ↩︎
-
" Vide, the Alaṇkârakaustubha, p. 12, where Appayya Dikshita is attacked and Vidyânâtha justified by Visvesvara Paṇḍita. There the instance of द्रव्यस्वरूपोत्प्रेक्षा-न नित्यमस्मिन् परिपूर्णतेति &c. is also qnoted." ↩︎
-
“Vide pp. 7 and 8 (where the propriety of स्वतः सिद्धेन in विद्यानाथ’ definition of उपमाis questioned ↩︎
-
“Vide p. 139 of the text where the name of the Nâṭaka is given as प्रतापरुद्रकल्याण.” ↩︎
-
“Vide the commentary Ratnâpaṇa, p. 10, ficucin ’ काकतिनांम दुर्गाशक्तिरेकशिलानगरेश्वराणां कुलदेवता सा शक्तिभंजनीया अस्येति काकतीयः ↩︎
-
" Vide p. 213 (v. 22 ↩︎
-
“The temple at Kâlahasti in the North Areot District.” ↩︎
-
“In the Godâvari District.” ↩︎
-
“A nomadic non-Aryan tribe that established itself in the Punjab and along the Indus.” ↩︎ ↩︎
-
“The country of the Cholas corresponds to the modern province of Tanjor.” ↩︎ ↩︎
-
“Suhmudeśa lay to the west of Vaṅga or Eastern Bengal with its capital Tâmralipta, identified with modern Tumlook.” ↩︎ ↩︎
-
“(तत्राग्रजस्तुस्तो मन्मो गण्डगोपाल भूपतिः। प्रतापरुद्रमुपस्प प्रसादार्जितवैभवः ॥ ↩︎
-
“Vide Epi, Ind., Vol. VII., pp. 128-32.” ↩︎
-
“Vide Ind. Ant., Vol. XI., pp. 3-20.” ↩︎
-
“Taila III, who reigned from S’aka 1072 (A, D, 1150 ↩︎
-
“A hill in the Karnal District, to the north-east of it. It is sacred, having the image of Mallikârjuna, a Jyotirlinga on it.” ↩︎
-
" Vide Epi, Ind., Vol. III, p. 84 and Plate.” ↩︎
-
“Vide Ind. Ant., Vol. XXI, pp. 197 et sequentia.” ↩︎
-
“द्विपदुपट्टतदृप्पद्दन्तिमेकराशोनिरविशदच भूमिंभूपतिः प्रोडराजः। प्रतिनिधिमुदधीनां सञ्चयत् तोयसृष्टेरकृत जगति केसप्पाख्यया पस्तटाकम्॥ V. 9, of the inscription.” ↩︎
-
“Vide Dr. R. G. Bhâṇdârkar’s Early History of the Dekkan’,pp. 82 and 113-4.” ↩︎
-
" Vide Epi. Ind, Vol. III, p. 94.” ↩︎
-
“Vide Epi. Ind., Vol. V., p. 142.” ↩︎
-
“In his letter dated 26th July 1901, T. Gaṇapati S’âstrî of Trivandrum writes to me as follows :— शालिवाहन शकाब्दवत् प्रतापरुद्रदेवाब्दोऽवयत्यपञ्चाङ्गे नियमेन प्रख्याप्यते। तत्र वर्तमानः प्रतापरुद्राब्दः ६२४ तम इति लिखितः।” ↩︎
-
“Vide Robert Sewell’s Sketch of the Dynasties of Southern India’, p. 32 ff, and W. W. Hunter’s Imperial Gazetteer of India’, Vol. XIII, p. 521, New Edition Vol. XXIV., p. 358.” ↩︎
-
“Vide p. 521.” ↩︎
-
“यत् पुनरलंकारकोटिनिविष्टत्वं वस्तुध्वनेरुदभावयन् भामहादयस्तदपि विचारविधुरम् । p.30.” ↩︎
-
“This I have learnt from Śâstrî A. Anantâchârya, Archaeological Department, Mysore Government.” ↩︎
-
“इह हि तावद्भामहोद्भटप्रभृतयचिरन्तनालंकारकाराः प्रतीयमानमर्थ वाच्योपस्कारकतयालंकापक्षनिक्षिप्तं मन्यन्ते। P. 3.” ↩︎
-
“Vide Anfrecht’s ‘Catalogus Catalogorum.’” ↩︎
-
“Vide p.४.” ↩︎
-
“Vide 2-58, 2-19.” ↩︎
-
“Vide 2-40, 2-88.” ↩︎
-
“Vide 2-47.” ↩︎
-
“Vide 2-45, 3,10.” ↩︎
-
“Vide 3-8. This seems to be the name of a work.” ↩︎
-
“Vide p. 2 and p. 145.” ↩︎
-
“‘In his introduction to Karirâja-Mârga (p. 16 ↩︎
-
“त्रयोऽनयस्त्रयो वेदास्त्रयो देवास्त्रयो गुणाः। भयो दण्डिप्रवन्धाश्चत्रिषु लोकेषु विश्रुताः॥” ↩︎
-
“Vide Śârṅgadharapaddhati No. 414, pp. 61-62.” ↩︎
-
“इति दोषा दशैवेते वयां काव्येषु सूरिभिः॥ प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तहानिर्दोषो न वेत्यसौ। विचारः कर्कशः प्रायस्तेनालीडेन किं फलम्॥ काव्या० ३।२२६-२०.” ↩︎
-
“स्वयंकृतैरेव निदर्शनैर्मया प्रकॢप्ता खलु बागलंकृतिः । २-९६.” ↩︎
-
“Vide VI. 36-37. शिष्टप्रयोगमात्रेण न्यासकारमतेन वा। तूचा समस्तषष्ठीकं न कथंचिदुदाहरेत्॥ सूत्रज्ञापकमात्रेण वृत्रहन्ता यथोदितः।” ↩︎
-
“श्रीः स्थविरजिनेन्द्रबुद्धिकृत काशिकाविवरणपंचिका तृजकाभ्याम् भवतश्शायिका इत्यादी भावे पर्यायार्हणोत्पतिषु त्वुच्’। भवत इति (1 ↩︎
-
“Vide Introduction to Mâdharîya Dhâtueritti, Mysore Government Oriental Library Series. pp. १७- २०.” ↩︎
-
“Vide Mâdhaviya Dhâtueritti, १२२- " ↩︎
-
“This information was supplied to me by Śâstrî A. Anantâchârya of Mysore,” ↩︎
-
“Vide IV. 49.” ↩︎
-
“Vide III. 7,11,13 and V.” ↩︎
-
“Vide IV, 21,28; III. 23, 31; VI, 32,” ↩︎
-
“Vide Amarakoja १।१।१३ and १।१।१५” ↩︎
-
" Vide VI. 16.” ↩︎
-
“Vide II. 38.” ↩︎
-
“यज्ञाक्ष T.” ↩︎
- ↩︎
-
“इति मनुस्मरणात् m2” ↩︎
-
“102omits उपनिषद एव शिरांसि” ↩︎
-
" m2 has तु for च” ↩︎
-
“भग्नि च m.” ↩︎
-
“मध्यमपदलोपिसमासः m.” ↩︎
-
“इत एव m.” ↩︎
-
“वेतीति वा m. m1,m2” ↩︎
-
“प्रत्ययस्तस्य m. M1” ↩︎
-
“P,T, and t. have च before सूचयति” ↩︎
-
“m2omits तत्र.” ↩︎
-
“कारणमतम्m2” ↩︎
-
“तत्रm” ↩︎
-
“भूतसंस्कारो m.” ↩︎
-
“प्रकाश m1,m2” ↩︎
-
“m. drops क्षेमंकरस्य; hasm2 क्षेमकरस्य.” ↩︎
-
“एतंmmm” ↩︎
-
“दुज्ज्बला काव्यपद्धतिः P. T., दुज्ज्वला काव्यसंपद् M. " ↩︎
-
“परिकीर्तितम् P.” ↩︎
-
“तोषयतीति m. m” ↩︎
-
“अथis omitted in M” ↩︎
-
“R. omits अथ पाण्डित्यम्” ↩︎
-
“सूक्तिदर्शन’ R” ↩︎
-
“योगक्रमैः M.; गीतिक्रमैः M; Malso notices नीतिक्रमैः” ↩︎
-
“विजयते श्रीवीररुद्रः प्रभुः M., M, notices विजयते in place of विहरति, M, and Mhave श्रीवीररुद्रो नृपः विहरति T” ↩︎
-
“आदिग्रहणात् m.m m” ↩︎
-
“तद्योगात् m.” ↩︎
-
“स्याक्षपादश्चP” ↩︎
-
“षडेव तु m” ↩︎
-
“m. omitsइत्याहुः” ↩︎
-
“नुकूलनायकः M.” ↩︎
-
“विदिताप्रियकारकः M” ↩︎
-
“०देतत्सिद्धे०” ↩︎
-
“रुद्रस्य M.” ↩︎
-
“P.has तत्स- दृयाः पीठमर्दविटचेटविदूषकाः after this” ↩︎
-
“बद्धाञ्जलि M. M.” ↩︎
-
“अणुणयन्तो M; अणुणंतो R.” ↩︎
-
“Omitted in M.” ↩︎
-
“कर्तु T” ↩︎
-
“तास M. M; आसांT. T. " ↩︎
-
“तदा तु प्रत्यु’ R” ↩︎
-
“M M. closes the नायकप्रकरण at " ↩︎
-
“दुर्जरपर्वपर्वत’ M.” ↩︎
-
“स्फुरणमुच्यते " ↩︎
-
“जितेः करिपटा P. T.” ↩︎
-
“वर्तन्ते बल M” ↩︎
-
“मर्तगण्ड” ↩︎
-
“पुण्यश्लोकाचरितवर्णनेन P; पुण्यश्लोकचरितवर्णनेन T.” ↩︎
-
“वर्णनं T.” ↩︎
-
" एवं वर्णनाP.” ↩︎
-
“सर्व is dropped in P. and T” ↩︎
-
“वर्णना युक्ता P.” ↩︎
-
“शोमासाहायक M” ↩︎
-
“माहायिकी P. T.” ↩︎
-
“मिति निन्दा’ P.” ↩︎
-
“स्तिस्रोवृत्तपःR” ↩︎
-
“M. drops अग्नि” ↩︎
-
“सादृश्ययोगः m” ↩︎
-
“प्रवाहात्मकत्वप्रतीति P.” ↩︎
-
“प्रयोजनानामपि” ↩︎
-
“त्रयाणामपि m” ↩︎
-
" संवन्धान्तरनिबन्धना R., M” ↩︎
-
“T, Tinsert च after it.” ↩︎
-
“रसावस्थासूचका” ↩︎
-
“पाध्यवसान” ↩︎
-
“इति is dropped in M, M. M. M” ↩︎
-
“र्योऽत्र जाति m. T” ↩︎
-
“रत्नगर्भावसुमतीत्येवमादयो R., M, रत्नगमदयो M, M M.” ↩︎
-
“विशेषक m” ↩︎
-
“धनसत्तांt m” ↩︎
-
“वाच्यानुपपत्त्या M., M, M” ↩︎
-
“अत्र is omitted in M.” ↩︎
-
“माक्रोशस्यासं- . भवात् P. T.” ↩︎
-
“After this M, has तत्रत्या जना इत्यर्थः and Mतत्रत्या जना लक्ष्यन्ते” ↩︎
-
“वासुकी m.” ↩︎
-
“omits वासुकि” ↩︎
-
“P drops साकर्य” ↩︎
-
“मूलकत्वेन M, T. T” ↩︎
-
“तत्र T.” ↩︎
-
“शब्दादीनां युद्धप्रकरणा M शब्दानां युद्धप्रकरणा T” ↩︎
-
“प्राकरणिके न पर्यावासि M” ↩︎
-
“पर्यवसा यिना M” ↩︎
-
“प्रतिपत्तिर्याजायते P. T., Tप्रतिपत्ति- जायते BM प्रतिपत्तिरतो जायते M.” ↩︎
-
“तामिधाशक्तिः T” ↩︎
-
“तदन्यत R” ↩︎
-
“न्यतः प्रमाणात्तद M.; न्यतस्तव- स्तद M.” ↩︎
-
“व्यञ्जनाव्यापारा P.” ↩︎
-
“व्यञ्जन m” ↩︎
-
“काव्यवाक्य- त्वस्यैवा’, काव्यस्यैव m. " ↩︎
-
“विधायिक” ↩︎
-
“प्रयोक्तृविवक्षा P., M, T., T.” ↩︎
-
“व्यञ्जनवृत्ति M. M, drops व्यञ्जनावृत्तिः” ↩︎
-
“R. drope वृत्तिः” ↩︎
-
“व्यञ्जनयोः M” ↩︎
-
“तत्तव्प्रतीतिर्वक्तृM. M; तत्प्रतिपत्तुर्विवक्षा R; तत्तद्व्यपार्थप्रतीतिवक्तृविवक्षानु- सारेणमवति। इयमनेक’ P. T. T has the same reading, but it drops इयम् in इयमनेक” ↩︎
-
“प्रतिपत्तिरनुमान’ P. T. T.” ↩︎
-
“वादिनाम् P.” ↩︎
-
“Momits अत्र” ↩︎
-
“मूला M., M. " ↩︎
-
“खड्गापात” ↩︎
-
“‘ज्वाले’ M., M, M M " ↩︎
-
“विकटैःR” ↩︎
-
“स्त्रण्डजल T.” ↩︎
-
“बद्ध’ R.” ↩︎
-
“प्रौढसदमंतो न M.” ↩︎
-
“प्रतिकूलसंदर्भवर्णरूप P.” ↩︎
-
“विषयकत्वात् T” ↩︎
-
“अतिविकट M., M, M. MM” ↩︎
-
“बन्धis omitted in P. T. T” ↩︎
-
“वर्णसंघटना M, M, M M” ↩︎
-
“सा त्रिधा is omitted in M, M, M. M, M” ↩︎
-
“मन्त्र’ P. T., R, T” ↩︎
-
“परिवृतः P.” ↩︎
-
“चन्द्रः P” ↩︎
-
“निगूढ’ P. R” ↩︎
-
“धुरं P. T. T” ↩︎
-
“अन्योन्यस्य P. T.” ↩︎
-
“मयासहत्व m.” ↩︎
-
“वात् तदन्त’ P.” ↩︎
-
“‘शीला’ P.” ↩︎
-
“समुद्र गाम्भीर्य R” ↩︎
-
“वैभव T. T” ↩︎
-
“कृताभिषेक’ P.” ↩︎
-
“शरणार्थितानां M., MM. " ↩︎
-
“तथातिकापं P. R.” ↩︎
-
“पुरःसर for पुनः पुनः M., M, M M.” ↩︎
-
“Omitted in P., R. M. M, MMhas शब्दार्थोमयचित्रभेदेन after त्रिविधम् T.” ↩︎
-
“कमलोपवेशनाभावः m” ↩︎
-
" R. omits अत्र;अत्रोपमाप्रासाम्यामुमयचित्रता M; अत्रानुप्रासोपमायां M., M,” ↩︎
-
“T. has अथ ध्वनिविशेषाः as heading before it.” ↩︎
-
“कव्यन्ते निरूप्यन्ते च M.” ↩︎
-
" अथ M. M.” ↩︎
-
“भेदौदो P. , T.” ↩︎
-
" व्यङ्ग्यस्य M., M., M. ,मूलत्वे R.” ↩︎
-
“०सेवेव m.” ↩︎
-
" नुपपद्यत्वात्” ↩︎
-
“शतपत्रच्छेदवदासुविदित्वान्न m.” ↩︎
-
" °व्यङ्ग्यस्य M. " ↩︎
-
" °संभावितत्वेन M.” ↩︎
-
“R. drops कवि. " ↩︎
-
" °निबन्धनोति’ T.,T’, °निषद्भवप्रदोक्ति’ P.” ↩︎
-
" त्रैविध्ये M.” ↩︎
-
" वस्वलंकारतया R.” ↩︎
-
“षड्विधम् M., M.” ↩︎
-
“°व्यञ्जकभेदतया M., M, M.” ↩︎
-
“९ च is omitted in P. and R. " ↩︎
-
" कविनिवन्धनोक्ति° t., p.” ↩︎
-
" सिद्धमेव p.” ↩︎
-
" °संमवत्वा° p. , m.,” ↩︎
-
" प्रथमध्वननानन्तर°P.” ↩︎
-
“स्रिग्वस्वनो°P…स्रिग्वस्वनानन्तरभावी T " ↩︎
-
" विदितव्यम् P.” ↩︎
-
" व्यङ्ग्ये R., M5.,” ↩︎
-
" M. omits this sentence. " ↩︎
-
" द्वितीये R.; द्वितीयमेदस्य M.” ↩︎
-
“. तृतीये R., तृतीयभेदस्य M.” ↩︎
-
" अनेनैव M. M1, M4 M5." ↩︎
-
" णोत्तरोत्तरपरित्यागे M.. M4., M5. " ↩︎
-
“दुःशक्यत्वा m दुःशक्तत्वा m1” ↩︎
-
“तद्मेद्ये तत्प्रवत्रा P..” ↩︎
-
" °वाच्यस्य संबन्धे R. वाच्यस्य च संबन्धे M., M4 M5. " ↩︎
-
" ‘क्षितवाच्यसंबन्धभेदः M., M2. M4, M5, " ↩︎
-
" संबन्धेऽप्य’ R." ↩︎
-
" संवन्धभेदात् R." ↩︎
-
" After this M. and M2 have संदेहास्पदत्वेनानुग्राद्यानुग्राह मावेने कव्यञ्चकानुप्रवे- शेन इति." ↩︎
-
" After this M1 has अनुग्राव्यानुग्राहकभावः संदेहलक्षणकव्यञ्जकानुप्रवे- शीते तु संकरभेदाः " ↩︎
-
“७ अत्र P., M5.” ↩︎
-
“क्रमव्यङ्ग्यवस्तु M5.” ↩︎
-
" p. drops संख्या." ↩︎
-
" ॰मूल॰ M1 " ↩︎
-
" ॰मूल॰ M1; similarly ॰मूल॰ for ॰मूलो॰ althrough in M1. ४ कवि omitted in M2." ↩︎
-
“॰निबन्चोक्ति॰ T’,” ↩︎
-
“॰निबन्धोक्ति॰ T’.” ↩︎
-
" ॰निबन्धोक्ति॰ T" ↩︎
-
" ॰निबन्धोक्ति॰ T’." ↩︎
-
" वा तत्र P., T. " ↩︎
-
" विद्यानाथस्य हृदयम् P." ↩︎
-
" विद्रवतप्रौढोक्तिसिद्धा’ M1, M4 निबन्धनोक्ति’ M; ‘निबन्धार्थशक्ति M" ↩︎ ↩︎ ↩︎
-
“विद्रवतप्रौढोक्तिसिद्धा’ M1, M4 निबन्धनोक्ति’ M; ‘निबन्धार्थशक्ति M” ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎
-
“१ विद्रवतप्रौढोक्तिसिद्धा’ M1, M4 निबन्धनोक्ति’ M; ‘निबन्धार्थशक्ति M” ↩︎ ↩︎
-
" पदपदैकदेशमेदेन रचनागतासंलक्ष्यक्रम (for ४७-४८-४९ ↩︎
-
“अत्र M2.; अथ M1; तत्र is omitted in M5.” ↩︎
-
“५ पदगतार्थान्तर M.” ↩︎
-
" यूयमस्माकं M2.” ↩︎
-
" ॰त्योत्रत्यशालिनः M.” ↩︎
-
" M. notices देवस्य for रुद्रस्य." ↩︎
-
" सुबोधानीत्याइ p." ↩︎
-
" अत्रास्माकमिति M2. " ↩︎
-
“२ M5 omits सर्व” ↩︎
-
“३ दैन्यविश्रान्तिभूता ये वयं M1” ↩︎
-
“वयं तादृशाना P. " ↩︎
-
" संबन्धिनो पूर्णमित्यर्थं P. T. T” ↩︎
-
" ‘संकमिताविवक्षितवाध्यता T. T" ↩︎
-
" ७ " ↩︎
-
" धवलिम M." ↩︎
-
“९ तिरस्कृताविवक्षितवाच्यता M4. " ↩︎
-
" १० वाच्यत्वम् T. T. M1. M5” ↩︎
-
" स्मदोरन्यतरस्यां खर्च P. T." ↩︎
-
“मिश्रो is omitted in p.” ↩︎
-
" अतः स्वतः सिद्धार्थशक्तिमूलो M1." ↩︎
-
" तिथीः M., M1." ↩︎
-
" ॰विना च M., M1, M2." ↩︎
-
" काङ्क्षन्ति P. " ↩︎
-
" काकतीन्द्ररिपु॰ M., M1, M2." ↩︎
-
“कामोद्दीपकत्वात् P. T. T.” ↩︎
-
“राकाङ्क्षित R.” ↩︎
-
" ॰रूपवस्तु M1" ↩︎
-
“सर्वेऽपि M., M1 M2, सर्वशत्रवो M6 सर्वे is omitted in M5. " ↩︎
-
" वाच्यातिशयः M., M1, M2. " ↩︎
-
“तथा हि M4.” ↩︎
-
“॰वत्सजीवितेच्छया R. ॰वत्सरजीविताशया M. (M. notices वत्सरान् ↩︎
-
" मभावान् M. M2.” ↩︎
-
" आकाङ्क्षन्ति M4. " ↩︎
-
" तदनन्तर M1.” ↩︎
-
" गन्तुमशक्ताः R." ↩︎
-
" ॰मुद्यता R." ↩︎
-
“मासान्वाहयितु’ P.” ↩︎
-
“॰दिवसेषु R. " ↩︎
-
“४ रात्रीणामप्यसृष्टि॰ M5; रात्रीणां विसृष्टिं M1.” ↩︎
-
“५ ष्टिं संमभिलषन्ती R.” ↩︎
-
" वस्तुना बहुवस्तु P.” ↩︎
-
“लक्ष्मीपतिः काङ्क्षते R.; लक्ष्मीपतिर्वाञ्छति T.” ↩︎
-
" वाञ्छति R. " ↩︎
-
" क्षीराब्धि॰ M. M1. M2. M5." ↩︎
-
" R. and M1has अलंकारेणालंकारध्वनिः treated before अलंकारेण वस्तुध्वनि.." ↩︎
-
“अत्र is omitted in M., M1 M2 M4 M5. " ↩︎
-
" क्रियत M. M. M. ,M.” ↩︎
-
“१ रूपाधिका’ P.” ↩︎
-
“२ ‘धिकोऽलंकारो R.” ↩︎
-
“एषस्वतः सिद्धार्थशक्तिमूलश्च R.” ↩︎
-
" अथ is omitted in R., M., My Mo. Mos M, has पुनः for अथ." ↩︎
-
" मूलत्वेन M. M5मूलत्वं यथा R., M2 M4" ↩︎
-
" जातः R. M. M1 M2M5." ↩︎
-
“काकतीयस्य M.,M1, M2, M5.” ↩︎
-
" क्रुञ्च॰M." ↩︎
-
" महितोR." ↩︎
-
" प्रतापरुद्रकीर्त्तिः M1, M2; क्ष्मामृतो निबलाङ्गत्वेन वस्तुना स्थावराणामपि विस्मयकारिणी कीर्तिरिति M. " ↩︎
-
“वस्तु is omitted in M2. " ↩︎
-
“३ जयश्रिया M2.” ↩︎
-
“४ M5 has समावृतान् for वृतान् रणे.” ↩︎
-
" ‘वृतान् M4;समागतान्M5.” ↩︎
-
“वीरभटान् M5.” ↩︎
-
“शत्रुवधू is omitted in M5” ↩︎
-
“इव is omitted in M5” ↩︎
-
“अपसरइ P.” ↩︎
-
" लजा ‘T’,R" ↩︎
-
“११ अपगहण T’ अपगहण R.” ↩︎
-
“१२ भयण M.” ↩︎
-
“व्व P, M. " ↩︎
-
" मणहरे R.” ↩︎
-
“छाया is omittedin T. and p.” ↩︎
-
“भयेनेवेत्यत्र t.” ↩︎
-
“लिङ्गनरूपं वस्तु T, R. T, ‘लिङ्गनादिकं M., M2, M4, M5. लिङ्गनस्वरूपं M1 " ↩︎
-
" शाखाप्तं M1.” ↩︎
-
“३ वनमपि is dropped in R. " ↩︎
-
“कविनिवद्धर्थशक्तिमूलत्वं यथा R.; कविनिबन्धनोक्तिसिद्धार्थशक्तिमूलत्वेनयथा M.; कविनिबन्धनार्थशक्तिमूलं यथा M2: कविनिवद्धार्थशक्तिमूलं यथा M5” ↩︎
-
“जहR.” ↩︎
-
“वा T’ T.” ↩︎
-
“अआ R.” ↩︎
-
“करोहि णरणाहM1” ↩︎
-
“कडखोक्काM1, कडख्खिुक्काT. " ↩︎
-
“आखित्ता (छाया आक्षिप्ता ↩︎
-
“विरहार्त्ता M1” ↩︎
-
“रोषज्वलितया M1.” ↩︎
-
“सा रक्षणीया M., M1, M2 M4, M5. " ↩︎
-
“वस्तुना is omitted in M1,” ↩︎
-
" सा omitted in P. " ↩︎
-
" क्ताधुनाM1.” ↩︎
-
“१७ व्ययागन्तव्यं M., M1 M2M4, M5.” ↩︎
-
“१८ वस्तु omitted in M1.” ↩︎
-
“१९ अभयमिति is omitted in p” ↩︎
-
“जह तवेति P.” ↩︎
-
" नीवाध्यp.” ↩︎
-
" छाया is omitted in p. and T. " ↩︎
-
“दूती is omitted in t..” ↩︎
-
“कीर्तिः M2.” ↩︎
-
“दिव्यदेहः T’, T.; दीप्रदेहे R.” ↩︎
-
“मे सुह॰ M4.” ↩︎
-
“पृष्ट्वाद्यालं M.; आच्छाद्यालं T’,R., M2, M5, P.” ↩︎
-
“५ वा P., M1, M4.; त्वत्स्व॰R. " ↩︎
-
" ॰रयं R.” ↩︎
-
“साम्याञ्चन्द्रसूर्यप्रतीते॰ M4.” ↩︎
-
“उअवह R., पेख्ख M. M2; अवह M1.” ↩︎
-
“९ ओबहुए R; M., M2.” ↩︎
-
" तअहारुढो R.” ↩︎
-
“समागम M1.” ↩︎
-
“मओव T’; मओविव्व M., M1, M2” ↩︎
-
" मानिनीजनः प्रसन्न इति R, मानिनीमानः प्रस्कन्न इति M., M2 M4” ↩︎
-
" त्वत्कीर्तिः सावमानेव P." ↩︎
-
" सावमानेवे॰ P." ↩︎
-
“स्वीकार्यत्वं वस्तु M. M4” ↩︎
-
" वस्तु is omitted in R." ↩︎
-
" ॰मूलो ध्वनिः M1." ↩︎
-
“॰मूलत्वेन P. T. ॰लंकारत्वेन M1.” ↩︎
-
" This छाया is omitted in p. and T." ↩︎
-
" विज्ञेयः R.; संज्ञेयः M." ↩︎
-
" अत्रा॰M., M1, M2., M4 M5." ↩︎
-
" सं चं T’; सं च R." ↩︎
-
" राजा P., रायो T’, T. " ↩︎
-
“समाअमदोण्णं M4.” ↩︎
-
" दोहं R; दाप M.;दुष्णम् and दुष्णम् M1" ↩︎
-
“किं ण्णं M2.” ↩︎
-
" णपओस R., M., M1.णप्पदोस T." ↩︎
-
" ए अं for पदं ख M. " ↩︎
-
" अचरिअं R." ↩︎
-
" This छाया is omittedin T and, p; m. gives it after एसो इति।" ↩︎
-
“प्रकृष्टो दोषः m2•” ↩︎
-
" तद्विरोधसूचक॰ m." ↩︎
-
" M. has नित्यं राजा in छाया." ↩︎
-
“हितार्थिनः P. ; हितानि वः M4.” ↩︎
-
“पादसेवामिति M.” ↩︎
-
“‘निवासेन R., ॰सेवासंतप्ता M4” ↩︎
-
" ॰मूलो ध्वनि॰ M4." ↩︎
-
“माणोद्यतायुधः P.” ↩︎
-
“७ अत्र जिष्णुरित्यत्र M4.” ↩︎
-
" हितार्थिन इति पाठान्तरम् is inserted before it in p. and T." ↩︎
-
“प्राप्ते m1. ; वृत्ते धात्व॰p. T.” ↩︎
-
" रसध्वनिः R." ↩︎
-
“॰दाहरणं P., ॰दाहरणतत्स्वरूप॰ ‘T’.; ॰स्वरूपरस॰ M,; ॰दाहरणं तत्स्वरूप॰ T. " ↩︎
-
" रसे प्रकरणे R. रसभावप्रकरणे M4.” ↩︎
-
“Before this गुणी मतव्यङ्ग्यमष्टविधं निरूप्यते in T’. T. " ↩︎
-
“मध्यमकाव्य M1.,” ↩︎
-
" काव्यप्रकाशे is omitted in M2.” ↩︎
-
“॰कुचवद्गू॰ M4.” ↩︎
-
" ८ चमत्कारकारित्वात् R., M., T. " ↩︎
-
“९ गूढव्यङ्ग्यं यथा R.” ↩︎
-
“किमु M.” ↩︎
-
“नीचीकृताः M., M1, M4.” ↩︎
-
“वर्ण्यते R., M1, M2” ↩︎
-
“॰गिरेः M., M1, M4.” ↩︎
-
" उभयत्र R.; अत्र is omitted in M4," ↩︎
-
" ॰गस्त्य इत्यनेन R., M., M4; ॰गस्त्यः स्थितः M1." ↩︎
-
“जलधि॰M.” ↩︎
-
" व्यङ्ग्यमगूढम् M. M1." ↩︎
-
“९ ॰रङ्गं भवति M1.” ↩︎
-
" ॰भूतं P." ↩︎
-
" ॰मपास्तमान॰ P., T." ↩︎
-
" ॰माविर्भवेत् P., R." ↩︎
-
" ॰स्वादं M." ↩︎
-
" ॰लापनाञ्चm." ↩︎
-
“शृङ्गारस्य P., T, T’.” ↩︎
-
“भयरसाभासत्वम् M., M2., M4 .” ↩︎
-
“३ M1 has after this, भयरसस्य प्राधान्यत्वेऽत्र प्रतापरुद्रस्याधिक्यं प्रतिपाद्य तच्छत्रूणां भयप्रतिपादनेनैवेति; M6has भयरसस्य प्राधान्यं प्रतापरुद्रस्याधिक्यं प्रतिपाद्यम्। तत्र शत्रूणां भयप्रतिपादनेनैवेति।” ↩︎
-
“वाच्यसिद्ध्यङ्गत्वं R.” ↩︎
-
“नवाम्बुदाः M. ( नवाम्बुदः is niso noticed ↩︎
-
“शमयन्त्यु॰ M (शमयत्यु ↩︎
-
“द्विषा R.” ↩︎
-
“८ अत्र च P.” ↩︎
-
“इत्यस्य R., T’, T.” ↩︎
-
" वाच्यस्य रूपकस्य M., M1, M4, M5.; वाच्यभूतरूपकस्य R.” ↩︎
-
“गुणीभूतः M., गुणीभूतव्यङ्ग्यत्वम् R., गुणीभूतव्यङ्ग्यम् T’, T.” ↩︎
-
" ॰प्यनन्तकः T’.” ↩︎
-
“गङ्गाम्मःM4;” ↩︎
-
“३ नदी R.” ↩︎
-
“४ राधिक्ये M.” ↩︎
-
“५ ॰मस्फुटं M.” ↩︎
-
“संदिग्धप्राधान्यं M.” ↩︎
-
“क्ष्मामृतो दृष्टि° P.;काकतीयविमोदृष्टि°P.” ↩︎
-
“कुचे द्वये R.” ↩︎
-
“मण्डलावलोकन एव R., M., M1, M4” ↩︎
-
“१० एवेति वा M., M1,M4.,M5.” ↩︎
-
“पदाम्बुजं R.” ↩︎
-
" प्रसन्न M1." ↩︎
-
" p. drops तु." ↩︎
-
“सेवा P.; पादपूजा M., M4, M5.; यदि पादपूजा त्यज्यते M., M4, M5;: पादसेवा यदि व्यज्यते M1.,” ↩︎
-
“तदेदानीं P. " ↩︎
-
" नगरवासो M., M2. , M5. ,” ↩︎
-
“व्यङ्ग्यस्प M. , M4., M5.” ↩︎
-
“समप्राधान्यम् R.” ↩︎
-
" M4., has असुन्दरं यथा to चारुत्वम् before चित्रं तु काव्यं&e." ↩︎
-
“सोउणं T’.” ↩︎
-
" नरेंद्र॰ P., णरिंद M. , M1. ,M2. , M4. , M5." ↩︎
-
“९ णिअन्तिदार M., M1., M2. , M4. ,M5.” ↩︎
-
“नरेन्द्रं प्रतिद्रष्टुं R.” ↩︎
-
“११ अत्र M5.” ↩︎
-
" तत्रापि M. , M2., M4. , M5." ↩︎
-
“The छाया is not given in p. and T.” ↩︎
-
" दृष्ट्वा M2" ↩︎
-
“मज्ज P.” ↩︎
-
" या M1.;जं T’, जाओ M., M1., M2., M4.,M5." ↩︎
-
" सोअP." ↩︎
-
" विण M., M4.," ↩︎
-
" समधिकेति M." ↩︎
-
“वस्तु व्यज्यते T’. T.” ↩︎
-
“शब्दालंकार T., T’.” ↩︎
-
“व्यक्तीभविष्यति T., T’.” ↩︎
-
" This छाया is omitted in P. T." ↩︎
-
“लम्पव्यङ्ग्यत्वम् t.” ↩︎
-
“काकुस्पर्शाद् P.; काकुसंस्पशनाद् m1” ↩︎
-
“विशेषज्ञाम् M1.” ↩︎
-
“T. has महाकाव्योपकाव्यादिप्रबन्धनिरूपणम् as a heading before अथ &c.” ↩︎
-
“॰रतोत्सवः M., M1.” ↩︎
-
“॰प्रयाणाजि॰ M. T’, ॰प्रमाणाजि॰ M.” ↩︎
-
“मिष्यते M.” ↩︎
-
“पषा॰ R., T.” ↩︎
-
“पदसंदोहो R.” ↩︎
-
“रामायणादि M1.” ↩︎
-
" सोच्छ्वासं त्वथ R." ↩︎
-
“सारसाख्यायिका मता P.” ↩︎
-
“दुर्ज्ञानत्वात् m.” ↩︎
-
" The portion within १ and १ is omitted in P. T., T’." ↩︎
-
“T. hasक्षुद्रप्रवन्धनिरूपणम् as a heading before this. " ↩︎
-
“क्षुद्रप्रबन्धाः M1” ↩︎
-
“जयेत्युपक्रमं M., M1,M2, M4, M5.” ↩︎
-
“मालिन्यासादिप्रासचित्रितम् M. " ↩︎
-
“विभक्त्यष्टकसंमितम् M.;विभक्त्यष्टकसंयुतम् M2; विभक्त्यष्टाङ्ग॰ P., विभक्त्ताष्टक॰ R.” ↩︎
-
“यत्र जयेत्युपक्रमं M;यत्रादौT.” ↩︎
-
“M. drops वृत्त.” ↩︎
-
“निगद्यते R., M.” ↩︎
-
“तदनन्तरं M.” ↩︎
-
“विभक्त्याभास॰ P., R.” ↩︎
-
“युक्ता पद्यैस्ता॰ M., M1. M2., M4., M5.,” ↩︎
-
“क्षुद्रप्रबन्धा M., M1, M4,M5; सिद्धार्थाः प्रबन्धाः M5 " ↩︎
-
“अथेतेषा॰ P. T., T’.” ↩︎
-
“श्री is omitted in R, T. T’. M., M4.” ↩︎
-
“॰विरचिते T.‚ P.” ↩︎
-
“॰भूषणालंकार॰ R.” ↩︎
-
“समाप्तम् is omitted in R.,M4.; M1, has काव्यप्रकरणं नाम द्वितीयं प्रकरणं समाप्तम्; M2has इति काव्यप्रकरणम् ,P. has द्वितीयं before समाप्तम्” ↩︎
-
“॰सूनोः T’.” ↩︎
-
“॰सोमभट्टेनm.” ↩︎
-
" p. omits रत्नापणाख्याने.” ↩︎
-
“द्वितीयप्रकरणं समाप्तम् T. " ↩︎
-
“m1has समासंafter प्रकरणम्” ↩︎
-
“T. has प्रतापरुद्रीये सव्याख्याने नाटकप्रकरणम् and T’has नाटकप्रकरणम् before this.” ↩︎
-
“प्रधानकाः M.,M2.” ↩︎
-
“अथ M2.” ↩︎
-
“कथ्यते T’, M., M2.” ↩︎
-
“°पूर्वकैः R, T., T’.” ↩︎
-
“कान्य p, m1” ↩︎
-
“॰तिव्यनक्ति m.” ↩︎
-
“सात्त्विकः p., T.” ↩︎
-
“॰लयाश्रयम् T’,॰लपाश्रितम् M. M1, M2, M4;M. notices लयाश्रयम् also.” ↩︎
-
“.एषां M.M2.” ↩︎
-
“नृत्यनृत्तयो॰M., M1, M2,नृत्यनतनयो॰ M4” ↩︎
-
“नाट्याद्य॰P.;नाट्यकाङ्गत्वा॰ R., M., M., M2, M4.” ↩︎
-
“स्वरूप is omitted in P; उभयस्वरूप॰M, M2.” ↩︎
-
“॰भेदेन M., M2.” ↩︎
-
“नाटकानि दशरूपाणि R. " ↩︎
-
“॰नृतोपयोगिनेत्यर्थः m.” ↩︎
-
" संप्रकरणं R. M” ↩︎
-
“दश P., M. notices it;T. and T’ haveदश इति; M. has अपि forइति।” ↩︎
-
“तदुक्तं M1” ↩︎
-
“M2 omits दशरूपके.” ↩︎
-
“इति is omitted in P.” ↩︎
-
“श्रवणादि॰ m.” ↩︎
-
" p. omits प्रत्येकं.” ↩︎
-
" मिश्रं चेति T, T.” ↩︎
-
“भेदाद्रसमेदाञ्च M., मेदाद्रसभेदात् M.” ↩︎
-
“धीरोदतो M.” ↩︎
-
" रन्यतरप्राचान्यम् M. " ↩︎
-
“रन्यतरप्राचान्यम् M. " ↩︎
-
" त्वेन प्रवेश M.” ↩︎
-
" शृङ्गाररसस्यैव T.” ↩︎
-
" भाणे उत्पाद्यमितिवृत्तं धूर्त T. Tv." ↩︎
-
" ८ कल्पितमिति M., M, " ↩︎
-
“९ पाषण्डतामसप्रभूतयो M., पिशाचादयो धीरोद्धता नायकाः T,T.” ↩︎ ↩︎
-
" पिशाचराक्षसादयों P. राक्षसपिशाचप्रभृतयों M. " ↩︎
-
" P. drops धीरोद्धता; M ,has धीरशान्ता " ↩︎
-
“१३M., M, drop ते.” ↩︎
-
“शृङ्गारवीरयो P. T., TY.” ↩︎
-
" समबकरे M- " ↩︎
-
“प्रसिद्धं वा is omitted in M, M” ↩︎
-
“धीरोद्धतो नायकः dropped in R., M2” ↩︎
-
" M2,omits शृङ्गाररसस्य सूचनामात्रसारता " ↩︎
-
" अङ्के इतिवृत्तं प्रख्यातम् M., M, M" ↩︎
-
" पवमादिमेदादिति P" ↩︎
-
“२१ विस्तरमपान्ने P” ↩︎
-
“शृङ्कारस्याभासत्वम् R.” ↩︎
-
“२ तथा चोक्तं P., T.; तदुक्तं M1.” ↩︎
-
“३ P. omits इति.” ↩︎
-
" प्रयोजनेन संवन्धः P." ↩︎
-
“प्रयत्न॰ P. T.” ↩︎
-
“वस्त्वेकविशेष॰ p. " ↩︎
-
“अत्रेति m. " ↩︎
-
“९ भोजादयः-” ↩︎
-
“बीजे॰ P., T.” ↩︎
-
" कार्ययोः संबन्धोT’, T.” ↩︎
-
“यथोक्तं R.; तथोक्तं M., M2. M4. " ↩︎
-
" काख्याः T., T’.” ↩︎
-
“फलप्राप्त्यैP. फलोत्पत्तौ M4,” ↩︎
-
" फलार्थिनः p.” ↩︎
-
" दोहलः m." ↩︎
-
“बीजे पञ्चकं R.” ↩︎
-
" विच्छेदो M." ↩︎
-
" ॰विच्छेदे t, m., T." ↩︎
-
" पताकाव्यापिनी P." ↩︎
-
“आव्यापिनी P.” ↩︎
-
“M4 has अथ मुखादि पञ्च सन्धीनामङ्गानि निरूप्यन्ते। नानार्थरसनिष्पत्तिहेतुर्मुखमितीरितम्। बीजारम्भानुगुण्येन द्वादशाङ्कानि तस्य तु॥for अथ मुखं निरूप्यते— प्रयोक्तव्यानि” ↩︎
-
" तन्मते नैक॰ m. ॰तेनैकविध॰ P." ↩︎
-
“परिन्यासोऽपि लोभनम् M. (M. also notices the reading in the text ↩︎
-
" न्यङ्गानि द्वादशक्रमम् M. (M. also notices the reading in the text ↩︎
-
“एतेषां M., T.” ↩︎
-
“बहुलीकरणं M., M2 M4 बहूकरणम् M1. " ↩︎
-
“॰कूलसंघटन॰ T’, ॰कूलप्रयोजनसंघट्टना॰R. M. M4” ↩︎
-
“विषय आश्रर्या॰ M. M2 M4” ↩︎
-
" परिभावना P.” ↩︎
-
" कारणम् M., M2, M4” ↩︎
-
“प्रतिमुखसंधिःT, T’, M4” ↩︎
-
" ॰न्यत्र P., M1." ↩︎
-
“पतेषामिति for यथाक्रममेषामिति T., P.” ↩︎
-
“निरोधः M., M, M” ↩︎
-
“पुष्टमुप R " ↩︎
-
“एतेषां M., M M.” ↩︎
-
“विषये R.” ↩︎
-
“विधूननम् M. R.” ↩︎
-
" रागोद्घाटना प्रीति’ M., M 2” ↩︎
-
“निरोधःR., M., M” ↩︎
-
“प्रतिमुख P.” ↩︎
-
“M. and M drop विशिष्ट” ↩︎
-
" पुष्टम् R." ↩︎
-
“चतुर्वर्गवर्णनं” ↩︎
-
“एषां” ↩︎
-
“‘प्रगम’ R., M.” ↩︎
-
“अस्पाप्याशा R., M. dropsthe whole line” ↩︎
-
“शाभिगमाद् M. M2, M4” ↩︎
-
“रेङ्गानि द्वादश परिकल्पनीयानि R” ↩︎
-
“प्रयोक्तव्यानि T., M, M2,M4” ↩︎
-
“प्रभूताहरणं M2” ↩︎
-
“हरणे क्रमः M. M2 हरणं क्रमाः R.” ↩︎
-
“तोटकादिवले M.” ↩︎
-
“एतेषां M.;तेषां Mg” ↩︎
-
“तत्त्वानुकीर्तनं R., T’., M” ↩︎
-
“पादकं वाक्यं R. पादनं रूपम् T” ↩︎
-
“प्रस्तुतोत्तरक्षाभिधानं Tv” ↩︎
-
“संचितार्थप्राप्तिM, M2.” ↩︎
-
“समाधानवाक्यंM1” ↩︎
-
“वाक्यं P. T” ↩︎
-
“अङ्गादम्यू M2” ↩︎
-
“नातिसंधानम Tv” ↩︎
-
“न्यस्य M.” ↩︎
-
“संस्फेटः T” ↩︎
-
“विरोधनम् M. M " ↩︎
-
“प्ररोचना M,” ↩︎
-
“च M., M,” ↩︎
-
“संमेदः M.; संपोटः M” ↩︎
-
“पदवन्धा’ P. विधिबन्धाM.” ↩︎
-
“विरोचनम् M.” ↩︎
-
“संग्रहणं M” ↩︎
-
“न्यत्र M” ↩︎
-
“M. has एतेषां स्वरूपं निरूप्यते for फलाप्ति-प्रतिपादनीयानि " ↩︎
-
“साङ्गं is dropped in t.” ↩︎
-
“परप्रयोजनंm2” ↩︎
-
“प्रतिभाषणम् P.” ↩︎
-
“कृतिर्भाषोपगूहनेM., M1, M2, M4.” ↩︎
-
" पूर्वभावानुसंहारौM., M1, M2, M4.” ↩︎
-
" M. has इति after चतुर्दश and drops एतेषां स्वरूपं निरूप्यते.” ↩︎
-
" बीजोपगमन M1." ↩︎
-
“विरोधः कार्यमार्गणम् M.” ↩︎
-
" ॰मोदनं भाषणम् P." ↩︎
-
“वाक्यार्थो॰ P.” ↩︎
-
" भवन्ति for संभवन्ति P." ↩︎
-
" ॰समृद्धिःP." ↩︎
-
“M. has च instead of चेति द्विविधम् " ↩︎
-
" M. drops अपि.” ↩︎
-
" श्रव्यं P." ↩︎
-
" तदुक्तं M1. " ↩︎
-
" त्रिपताका॰P" ↩︎
-
“त्रिपताका॰ P.” ↩︎
-
“एषां P., M4” ↩︎
-
" प्रयोजनम् M2." ↩︎
-
" केवलं T." ↩︎
-
“॰मिश्रः M.,M2, M4;मिश्रस्तु M1.” ↩︎
-
“॰जवनिका॰ P. " ↩︎
-
" सा चूलिका M., T. " ↩︎
-
“p. omits this line” ↩︎
-
" वापि चोदितः m5” ↩︎
-
" शुद्धो is omitted in p. " ↩︎
-
" p. drops नीच॰—एकविधः " ↩︎
-
“पव नात्र नायक॰ T.” ↩︎
-
" ॰राङ्कस्य सूचना M.,M2 M4." ↩︎
-
“२ ॰ङ्कगतपात्रै॰ M1” ↩︎
-
“३ पंस्य सूचना P.” ↩︎
-
" प्रवेशः M1." ↩︎
-
“नाद्यङ्के P. " ↩︎
-
" योजकः आद्यङ्के न प्रयोक्तव्यः P., ॰युक्तप्रवेशकः आद्यङ्के न प्रयुक्तः M., M1, M2 M4. " ↩︎
-
" अङ्कान्तपात्रैरिति m.” ↩︎
-
" t. omitsइति." ↩︎
-
" तत्र is dropped in M.M2 M4 M1 has अत्र for it " ↩︎
-
“सहितो M.” ↩︎
-
“दशरूपमध्ये t.” ↩︎
-
“च for वाP” ↩︎
-
“प्रवर्त्तकः M1.” ↩︎
-
“तु or " ↩︎
-
“नद्य॰p.” ↩︎
-
" यस्यायं M. " ↩︎
-
“काव्यमास्था॰ P.” ↩︎
-
“मर्त्येp.,m2.” ↩︎
-
“दुच्यन्ते तत्स्वभावतः P.” ↩︎
-
“मवस्कन्दित’ M.” ↩︎
-
“मार्दवानि P " ↩︎
-
" प्रश्नोत्तररूपेणचो’ M.” ↩︎
-
“चोद्धात्यकं T.” ↩︎
-
" Before this T. has यत्रैकत्र समावेशात् कार्यमन्यत्र सिद्धयति । वस्तुनोऽन्यत्र वा यत्स्याद्विधावलगितं मतम् ।” ↩︎
-
“७ T’ drops कार्य.” ↩︎
-
“८ प्रसङ्गाप्रकृत M. " ↩︎
-
" श्रेति P. " ↩︎
-
" प्रपञ्चम् M. " ↩︎
-
“t. drops अत्यन्त.” ↩︎
-
“द्वितीया माला t.” ↩︎
-
“t. drops स्तोत्रं.” ↩︎
-
" नटादिभिः साम्यादनेका॰ P; नटादिशब्दसाम्यादनेका॰ M.” ↩︎
-
“२ P has पूर्वरङ्गाङ्गं प्रस्तावनाङ्गमिति तद् द्विविधम् before it and T. notices in a bracket ( विगतं द्विविधं पूर्वरङ्गाङ्गं प्रस्तावनाङ्ग चेति ↩︎
-
“३ रप्रियविलोभन M. " ↩︎
-
" चलनम् M.; छलनम् T’.” ↩︎
-
" ॰प्रयुक्तिरूपेण T. T’.” ↩︎
-
" ॰द्विविधा M1," ↩︎
-
" ॰मवस्पन्दितम् P. M1; ॰मवस्कन्दितम् M. " ↩︎
-
" ॰निग्द्यथां M., M2, M1, M4.. " ↩︎
- ↩︎
-
" ॰ङ्गंतत्र परमामुखाङ्ग॰ t. m2" ↩︎
-
“अन्यार्थहास्य॰ M. M2;अन्यार्थस्य M4” ↩︎
-
“॰करणवचनं M., M2. ‘करणं वचनं M2” ↩︎
-
" मृदुत्वम् P." ↩︎
-
" एषां M4" ↩︎
-
“कतिचन T’.” ↩︎
-
" अत्र P." ↩︎
-
“T’ and M1. drop दरा.” ↩︎
-
“स्वस्वरूपं M1” ↩︎
-
“॰गर्भामर्शो॰P.” ↩︎
-
" ॰स्वरूपं t." ↩︎
-
" नन्दि॰M." ↩︎
-
" मनागर्धस्य सूचनम् M1." ↩︎
-
" पतिकीर्तिताT., T." ↩︎
-
“तदुक्तम् isdropped in P.” ↩︎
-
" प्रकीर्तितः m." ↩︎
-
“विप्रप्रशान्तये m.” ↩︎
-
“पद्मं विद्धितं P.” ↩︎
-
“‘ष्टपदा नान्दी T.” ↩︎
-
“अनर्घ्यराघवे P.” ↩︎
-
“नापेक्षितः M, M” ↩︎
-
“भारतीप्रत्याश्रयेण M.” ↩︎
-
“P. omits इति” ↩︎
-
“प्रतिपादितम्” ↩︎
-
“रङ्गमिति is dropped in t. and m.” ↩︎
-
“‘भूयस्त्वं M, भूयिष्ठे M, M” ↩︎
-
“विशेषं t” ↩︎
-
“॰लास्याङ्ग॰ M. (M. notices ॰वृत्त्यङ्ग॰ also ↩︎
-
“विकृतं M.” ↩︎
-
“ततः M.” ↩︎
-
“पाखण्ड P.” ↩︎
-
“नटचेटविटाकुलम् P.; चेटचेटीविटाकुलम् M.; नटचेटीविटाकुलम् M.” ↩︎
-
" श्रुत्वेव t.m.” ↩︎
-
“प्रतीक्ष्यताम् t.m.” ↩︎
-
“॰भीतिभिः t.” ↩︎
-
“t. drops शक्य.” ↩︎
-
“॰पाखण्ड॰ P .” ↩︎
-
“पाखण्डाः P.” ↩︎
-
“विकृतम् M1. " ↩︎
-
“कामकोक्तवचोवेधैःP.; कामुकानां वचोवेषैः M1 , M2 " ↩︎
-
“विकृतं M1” ↩︎
-
“समाकीर्ण M1. M2. M3 M4, T. " ↩︎
-
“संकीर्णःP. " ↩︎
-
“वस्तु T, M1. M2. M3 M4,” ↩︎
-
“नाट्य for रौद्र M1 " ↩︎
-
“महेन्द्र’ P., M. " ↩︎
-
“ग्रहोदयाः M.” ↩︎
-
“डिमः स R.” ↩︎
-
“व्याख्यातमितिवृत्तं स्यादुद्धतो नाम नायकः। M " ↩︎
-
“समवाकारः T, M.” ↩︎
-
“समवाकार t.” ↩︎
-
“प्रमुख फल f. m.” ↩︎
-
“द्वितीयाङ्के P.” ↩︎
-
“कृत्यं वृत्तिस्तु P. " ↩︎
-
“शृङ्गारोऽपरि P.” ↩︎
-
“उद्घात्यादीनि चाङ्गानि R., M.” ↩︎
-
“उत्सृष्टाङ्क M. " ↩︎
-
“लक्ष्य t.,m " ↩︎
-
“वीथी P. " ↩︎
-
“चतुरङ्कत्रिसन्धिकम् T” ↩︎
-
“त्रिसन्ध्यकम् M. " ↩︎
-
“मेध्यां M1. " ↩︎
-
“हर्त्तृकाम M1” ↩︎
-
“कामुकीम् M1.” ↩︎
-
“प्रक्रियानुसारेण कथिता M1” ↩︎
-
“T and T’ have नाटकोदाहरणप्रारम्भः before this.” ↩︎
-
“साङ्गनाटक M. " ↩︎
-
“प्राप्ताम् M; व्याप्ता R. " ↩︎
-
“नः M1, M2.” ↩︎
-
“सामग्र्या रसोन्मेष P. " ↩︎
-
“Dropped in p. " ↩︎
-
“Dropped in t” ↩︎
-
“° पदी R. " ↩︎
-
“M. drops विवाह " ↩︎
-
“प्रवृत्तशिवयोः M1. " ↩︎
-
“॰परिकरस्य T.,T.” ↩︎
-
“काकतीयराज्यलक्ष्मी’ T.” ↩︎
-
“सूचिता M1., M2” ↩︎
-
“The portion from देयात् to लक्षणा is dropped in R., M2, M3, M4. M has दीयात् " ↩︎
-
“समन्तात् M1.” ↩︎
-
“प्रमुपतिः P1.” ↩︎
-
“द्विद्या R., M1., M. 2.” ↩︎
-
“प्रसाधनसमर्थनम् R.” ↩︎
-
“Dropped in R.; P has सहर्षम्; M. and T. have सप्रहर्षम् " ↩︎
-
“ष्यञि षित्क P.” ↩︎
-
“वाच्योऽर्थः t1, m.” ↩︎
-
“व्यङ्ग्यस्तु t1.” ↩︎
-
“मुम्मडीया. P. T. M.” ↩︎
-
“प्रसादयति R.” ↩︎
-
“वाग्व्यापार M1.” ↩︎
-
“दिलीप is dropped in t.” ↩︎
-
“सुरेश्वरे " ↩︎
-
“नपेक्षमाणत्वात् t.” ↩︎
-
“यस्य P.” ↩︎
-
“भो मध्यम R. " ↩︎
-
“‘विवर्तनस्यै’ P. " ↩︎
-
“‘देवस्य साम्बस्य सततमहोत्सवसेवार्थं समासे दिवांसो M., M1, M2, M3 follows the " ↩︎
-
“T1 and M1 omit सेवार्थ " ↩︎
-
“कलावर्णनं P; कलार्णवस्य नाट्य M.” ↩︎
-
“‘वेदाचार्याचार्यस्य M. " ↩︎
-
“अस्मिन् M., M1, M2 " ↩︎
-
“यस्मिन् स्वयंभूः R. " ↩︎
-
“प्रधानम् M1” ↩︎
-
“P. and R. omit इति " ↩︎
-
“विवत्तनस्य m.” ↩︎
-
“‘बन्धः प्रबन्धः R., T’, MG, ‘बन्धश्च प्रबन्धः M1.” ↩︎
-
“संघटितं P. " ↩︎
-
“धात्रा P., R.” ↩︎
-
“एषा प्रशं P, M, T.” ↩︎
-
“सनाभिमुखी P. साया अमि M1.” ↩︎
-
“रुपया M., M1” ↩︎
-
“प्ररोचना कथिता M1.” ↩︎
-
“सविमर्षम् R, सविस्मयम् P. " ↩︎
-
“सारिका P. " ↩︎
-
“नायाति T, M1,” ↩︎
-
“पुरावलोक्य M.” ↩︎
-
“मारदीए p.” ↩︎
-
“मुज्जइ P. " ↩︎
-
“रओ T.” ↩︎
-
“समाप M. " ↩︎
-
“अइवा M.” ↩︎
-
“ण विण्णादं M.” ↩︎
-
“तुज्झ M1, तुज R., तुम M.” ↩︎
-
“रओ P. " ↩︎
-
“ष्यञ् T.” ↩︎
-
“प्रशंसयो t.” ↩︎
-
“प्ररोचना is dropped in p.” ↩︎
-
“प्रयोजन M1. " ↩︎
-
“आणवेदु अज्जो P, R. drops आणवेदु.” ↩︎
-
“अणुचिठ्ठीपदु ति M., P. " ↩︎
-
“कलहंस R, M” ↩︎
-
“मथुरा M. " ↩︎
-
“रम्यं R. M., T. " ↩︎
-
“मेव P. " ↩︎
-
“‘सहरीवाक्यैरप्रियै’ M., M. R drops अप्रियैः " ↩︎
-
“रुपालम्भाच्छ’ M., " ↩︎
-
“च्छलम् ‘T’., M, T. " ↩︎
-
“सज्जीकालं P. M., समङ्गीकारम् M. " ↩︎
-
“खु T’, M.” ↩︎
-
“स्वरण T., M. " ↩︎
-
“उ M.; उप T, M.” ↩︎
-
“नन्वियमेव M. T., T1.” ↩︎
-
“करणं तु T m.; करणमलिपुष्पं t.” ↩︎
-
“योगोऽङ्गैरिति संस्मृतः m.” ↩︎
-
“वदति t.” ↩︎
-
“णिगूढं खु P. " ↩︎
-
“छेआणं R. com. " ↩︎
-
“पडिमाइT T2; पडिमाइ M. " ↩︎
-
“संबोधणउत्तरं P.” ↩︎
-
“मणुहरं P.” ↩︎
-
“णाडअम् M.” ↩︎
-
“पपदं T’, R., T.” ↩︎
-
“कहं तस्स रण्णो नाम जाअं M. " ↩︎
-
“पुंछीमदि T पुछीमदि P.” ↩︎
-
“विशेषण t.” ↩︎
-
“माअहेआदो P., माअषेपण M. " ↩︎
-
“अमिणिइज्जइ P, महिणिज्जइ T. " ↩︎
-
“R. omits पतन्नाट्य- गितम्. " ↩︎
-
“लम्बनाद P. " ↩︎
-
“लगितं द्वितीयम् T T1” ↩︎
-
“लोके श्रवसो भाग्यं M., R. " ↩︎
-
“प्रतापाकंरुद्रस्य M. " ↩︎
-
“चरितं शुभम् M. " ↩︎
-
“मालकारूप M. " ↩︎
-
“परिअणेण M; पण्णत्तणेण P. " ↩︎
-
“संपद्दआदि P. " ↩︎
-
“P. omits आर्ये. " ↩︎
-
“द्वाराः पुंसि च मन्येव t.” ↩︎
-
“t. has प्रवन्चलक्ष्मीरिव after ‘मणितिः-” ↩︎
-
“एष कविमिथः R. " ↩︎
-
“महध्ये P. R " ↩︎
-
“चरिय P, R. " ↩︎
-
“अहिरत्तस्स P. R अमिरत्तस्स M. " ↩︎
-
“धूर्जटेरिङ्ग P. " ↩︎
-
“वात्सल्यं t.” ↩︎
-
“वाग्दैखराः P.” ↩︎
-
“ईरिसणरेंद T. T. " ↩︎
-
“होई P. " ↩︎
-
“समइझसं P; संदेद्देण M. " ↩︎
-
“P. omits किंचित्. " ↩︎
-
“मे ननु नाट्य M, ननु मम नाट्य R. P. drops विद्या " ↩︎
-
“गीतिर्योग्यतया P.” ↩︎
-
“भविष्यते R.; M. " ↩︎
-
“महण्णओ P " ↩︎
-
“लब्बेलइ T, M. " ↩︎
-
“अहभाजाणवतं P.” ↩︎
-
“आरोहोदु P. " ↩︎
-
“एवाहमस्मि R. " ↩︎
-
“नटकृत P. " ↩︎
-
“क्रिया R. " ↩︎
-
“t. has after it अस्माकमीदृशनरेन्द्रचरितानुकूलो नाट्याडम्बरो भवति न वेति साध्वसेन वेपते हृदयम्।” ↩︎
-
“चिरतरामेत्यादि.” ↩︎
-
“धुवं T., T.” ↩︎
-
“सत्वरा M. " ↩︎
-
“मवस्कन्दितम् M. " ↩︎
-
“संगीतिः R. " ↩︎
-
“सरसी च इअं M. " ↩︎
-
“विरायन्ती M. " ↩︎
-
“विअसिअं M. " ↩︎
-
“कुरुप M. " ↩︎
-
“तदर्थोक्त एव t.” ↩︎
-
“इच्छीति t.” ↩︎
-
“सौकर्यं for शौक्ल्य t.” ↩︎
-
“व्यवहार M. " ↩︎
-
“पीडिअं P. ‘पेसणं M. " ↩︎
-
“व्यवहारः M. " ↩︎
-
“णिरूपेदु P. " ↩︎
-
“वेट्ठणं t” ↩︎
-
“omitted in t1.” ↩︎
-
“अत t.” ↩︎
-
“M. omits देवः " ↩︎
-
“सर्वाङ्गीणसर्वमङ्गला R., M., M2, M4” ↩︎
-
“वीररुद्र M. " ↩︎
-
“आगम्य सहर्षम् M4” ↩︎
-
“अतः R. " ↩︎
-
“काकतीयनरेश्वरगुण R.; काकतीयगुण M. " ↩︎
-
“वर्णने योग्य R., ‘वर्णनायोत्थितयोवैतालिकयोर्वचनमिवोपलक्ष्यते P.” ↩︎
-
“R. drops from इदमेव – प्रवर्त्तकम् " ↩︎
-
“प्रवृत्तकम् P., प्रवत्तकं च M. " ↩︎
-
“सन्मय t1. " ↩︎
-
“सहृदय t1” ↩︎
-
“यत्र t1.” ↩︎
-
“एतावित्युप M. " ↩︎
-
“आवामनन्तर’ ‘T’, अनन्तर M. " ↩︎
-
“समग्रा P. साङ्गम् M. " ↩︎
-
“‘विदित’ M. " ↩︎
-
“काकतीयान्वयेऽस्मिन् P. " ↩︎
-
“यस्याः R. M. " ↩︎
-
“न्यास उपक्षेपोऽङ्गी R " ↩︎
-
“रागैः omitted in t1. " ↩︎
-
“पात्रद्वययोजित t1” ↩︎
-
“केवल t1” ↩︎
-
“सखे किमुच्यते before the verse P, M. " ↩︎
-
“काकतीन्द्रमवने R. " ↩︎
-
“नारी M1.” ↩︎
-
“मद्विष’ R. " ↩︎
-
“धीयते P. " ↩︎
-
“सदृशं noticed by M. " ↩︎
-
“श्रियः P. " ↩︎
-
“‘मुपादिष्टवान् M1.” ↩︎
-
“बहुलीकरणात् P., बहूकरणात् M1. " ↩︎
-
“तस्याः t1 " ↩︎
-
“श्लोकम् t., t1” ↩︎
-
“विदितमिदम् T. " ↩︎
-
“अपि is dropped in P. " ↩︎
-
“नरेन्द्रण M. " ↩︎
-
“प्रसादनविशेषाः R. " ↩︎
-
“रूपवीजस्य M. " ↩︎
-
“निष्पत्तेः M., R. " ↩︎
-
“गुणाख्यानात् R., M. " ↩︎
-
“महामहे P.” ↩︎
-
“मर्त्त्यमण्डल M. " ↩︎
-
“M. drops आवयोः. " ↩︎
-
“R. drops अपि " ↩︎
-
“क्रममीमांसमानो M. " ↩︎
-
“नरपति M. " ↩︎
-
“प्रतीक्षावः P· प्रयतिष्यावः R. प्रयतिष्यावहे M.; प्रतीक्ष्यावहे M1.” ↩︎
-
“P. drops अयम्” ↩︎
-
“‘T’ has अंकारम्मः before ततः प्रविशति " ↩︎
-
“यथानिर्दिष्टो R. M., M1, M2.” ↩︎
-
“तदद्य P. M. " ↩︎
-
“महामहिम्नो R. " ↩︎
-
“हितोपदेशाय M. " ↩︎
-
“हितोपदेशः P. " ↩︎
-
“तत्त्वविदः P., R. " ↩︎
-
“भावस्य P. " ↩︎
-
“इति समाख्या R., M. " ↩︎
-
“संभाव्य t.” ↩︎
-
“व्यवहृतवान् t.” ↩︎
-
“अवलोक्य सकौतुकं R. " ↩︎
-
“इदानीं T” ↩︎
-
“साक्षि R. " ↩︎
-
“‘निटल T. " ↩︎
-
“‘वयमिति T” ↩︎
-
“लिङ्गव्यत्यासेन t.” ↩︎
-
“चेन्द्र P. " ↩︎
-
“रजनिसमये गोसर्गादौ t. रजनिसमये गोगर्मादौ t.” ↩︎
-
“जानीत्यर्थः t. " ↩︎
-
“हठ इत्यनेन t. t1.” ↩︎
-
“काकतीशाना M1. " ↩︎
-
“सण्णे वि P. " ↩︎
-
“स्वयंभूनरदेवे M2.” ↩︎
-
“साहसेन t.” ↩︎
-
“अपि च M1.” ↩︎
-
“Omitted in t.” ↩︎
-
“शिव t.” ↩︎
-
“वृत्तम् omitted in t.” ↩︎
-
“तत् किल M2” ↩︎
-
“पृथिव्याम् M. " ↩︎
-
“‘धुरामिमाम् M. " ↩︎
-
“दक्षिणेन P. " ↩︎
-
“सर्वप्रकृतीनाम् R.; महोत्सवश्चायं स्वप्रकृतीनाम् M.” ↩︎
-
“मध्यम t.” ↩︎
-
“मेहणीए P. " ↩︎
-
“उचिओ P. " ↩︎
-
“‘विम्भाओ P " ↩︎
-
“सुखागमनेन R.; सुखागमनप्राप्तिः T; सुखागमात् प्राप्तः M” ↩︎
-
“श्रेयसि P. " ↩︎
-
“शिरसि मया R. " ↩︎
-
“हेतुनीजस्य M. " ↩︎
-
“प्रधानम् M. " ↩︎
-
“नरेश्वर’ M.” ↩︎
-
“वैमुख्यं च तथा M, P, drops तथा " ↩︎
-
“t and t1 drop विश्वेति.” ↩︎
-
“प्रतापरुद्रस्य M1, " ↩︎
-
“क्षमे P. " ↩︎
-
“त्यस्माकीनं M. " ↩︎
-
“हेतुर्विधानम् P., ‘हेतुभूतममिधानम् M4.” ↩︎
-
“मुख्खेणेब्ब” ↩︎
-
“सहर्षातिशयः M. " ↩︎
-
“क्रियतामिति P. " ↩︎
-
“काकतीयपरमेश्वरः R.; काकतीयकुलेश्वरः M.” ↩︎
-
“P. and R omit महाराज.” ↩︎
-
“Omitted in M4 " ↩︎
-
“प्रतापरुद्धस्य R., M.” ↩︎
-
“राज्ञां for सर्वपार्थिवानां M. " ↩︎
-
“मौलभूतं t. " ↩︎
-
“प्रकाशित M.; प्रसादितः R. " ↩︎
-
“सज्जीभवामि R. " ↩︎
-
“इदं is omitted in M1.” ↩︎
-
“गुणानुरूपं R.” ↩︎
-
“साङ्गो is omitted in R.” ↩︎
-
“T omics यदिदानीम्, " ↩︎
-
“क्रमो M.” ↩︎
-
“यदिदानीं खलु M1.” ↩︎
-
“M. omits it " ↩︎
-
“माध्यह्निकीं कियाम M. " ↩︎
-
“प्रविशामीति P., M1.” ↩︎
-
“सर्वे यथोचितमुत्थाय परिक्रम्य निष्कान्ताः R., M.” ↩︎
-
“इति is dropped in P, T.” ↩︎
-
“सिद्धेः t. t1.” ↩︎
-
“t and t1. drop इति नाटकप्रकरणे.” ↩︎
-
“संचक्रे M. " ↩︎
-
“महाभिषेकोत्सव M. " ↩︎
-
“गत्या च R. " ↩︎
-
“सविमर्शम् M. " ↩︎
-
“कुलेन्द्रस्य M. " ↩︎
-
“लक्ष्म्या P. " ↩︎
-
“माम् is omitted in M and T.” ↩︎
-
“There is one इतः in t1.” ↩︎
-
“अनुभावितास्मि t1.” ↩︎
-
“संपदोपग्रहणं M. " ↩︎
-
“मुपतिष्ठते P. " ↩︎
-
“अणणुमूद M. " ↩︎
-
“भविस्सइ T’ " ↩︎
-
“देवप्रवृत्तयः T’.” ↩︎
-
“प्रसक्तयः M., T’.” ↩︎
-
“खल्वेष M.” ↩︎
-
“व्यचिन्त्य T’, M1,” ↩︎
-
“ज्ञापना’ M. " ↩︎
-
“बीजस्योत्पादनाद्भेद P., बीजस्य व्यक्ति M2.” ↩︎
-
“एवं णेदं P. " ↩︎
-
“अमाणसो M " ↩︎
-
“पहाओ P. " ↩︎
-
“काकइकुल M. " ↩︎
-
“दुग्गादेई P. " ↩︎
-
“पठ्ठाण P. " ↩︎
-
“हणुमन्तालय M.; हणुमन्तामल’ P. " ↩︎
-
“रुझ्झाणे P. " ↩︎
-
“णीवेसिअ M. " ↩︎
-
“परिवुअ P. " ↩︎
-
“ताणुजाणीहि P. " ↩︎
-
“तथ्य M., T’. " ↩︎
-
“पथ्याणम् M., T. " ↩︎
-
“P. drops इयं चूलिका " ↩︎
-
“R., and M. drop प्रवेशकः, " ↩︎
-
“राजा M. " ↩︎
-
“कुलालम्बिनं M. " ↩︎
-
“t. drops सता. " ↩︎
-
“साध्यमिति t.” ↩︎
-
“मसृणेषु M1.” ↩︎
-
“‘यात्राविनोदे M. " ↩︎
-
“एतैः t.” ↩︎
-
“आदित्यपुराणे t1. " ↩︎
-
“द्राज्येऽनभिलाषा R., M. " ↩︎
-
“द्विधूननम् M. M1. " ↩︎
-
“सार्वपथीनायाः M. " ↩︎
-
“संपदः M. " ↩︎
-
“°यितुं व्यवस्यति M.; ‘यितुं व्यवस्यते T” ↩︎
-
“काकतिनृपाणां M1; काकतीयाना M’” ↩︎
-
“मेवोपदिष्टं R. " ↩︎
-
“शिथिला R. " ↩︎
-
“नमं M1. " ↩︎
-
“काकतीयस्य P. " ↩︎
-
“स्तव न सांप्रतं P. ‘स्तव साम्प्रतं M " ↩︎
-
“सर्वदा R., M. " ↩︎
-
“नियमः M. " ↩︎
-
“स्वयंभुवि च M. " ↩︎
-
“t and t1 drop राजपुत्रेति.” ↩︎
-
“परिचारकाः M.” ↩︎
-
“काअइकुल R. M. " ↩︎
-
“‘कुलठेरो तत्त’ P. " ↩︎
-
“हवन्तो M. " ↩︎
-
“धारेयु T.; धरइ M. " ↩︎
-
“मन्दस्मितं M” ↩︎
-
“R. drope रूपम्. " ↩︎
-
“चरिदब्धा R.; चरिमथ्था M. " ↩︎
-
“M. omits गिरि.” ↩︎
-
“विअल R., बिदल M. (विपुल ↩︎
-
“होड R. " ↩︎
-
“वइणो M. " ↩︎
-
“तह M. " ↩︎
-
“रमइ M. ( रमते ↩︎
-
“नर्मवचनोत्था M.” ↩︎
-
“P. drops तब” ↩︎
-
“र्विलम्बं M, R. न विलम्बं M.” ↩︎
-
“वइम्मि M. " ↩︎
-
“सहदु M. " ↩︎
-
“जुअराप P. " ↩︎
-
“मुत्कया M.” ↩︎
-
“Omitted in T.” ↩︎
-
“बीजानुगुण M. " ↩︎
-
“‘प्रकाशात् M. T’. " ↩︎
-
“अंतरिअ P. अंतरीओ M.; अदरिओ T. अंतरितो ख्खु M1.” ↩︎
-
“मद्दामहूसअ P; महूसदो M.” ↩︎
-
“मन्त्रशास्त्राः R. M. " ↩︎
-
“समरापदानाराधित T.” ↩︎
-
“t. and t1 omit सावज्ञमिति.” ↩︎
-
“पद्मन्त्रिणा T. " ↩︎
-
“जुअराअ P. " ↩︎
-
“बइणो R., M. " ↩︎
-
“माप M. " ↩︎
-
“‘पतिमिः सह M” ↩︎
-
“P. drops पुनः " ↩︎
-
“एतदनुवचनरूपं M. " ↩︎
-
“M. drops राजपुत्र.” ↩︎
-
“प्रति पक्षवारणो M.” ↩︎
-
“प्रतिप्रस्थानां t. प्रतिप्रस्थानप्रारम्भ t1.” ↩︎
-
“निरीक्ष्यन्ता M. " ↩︎
-
“परिपन्धिन्यो वरूथिन्यः M. " ↩︎
-
“पुरःसरसंक्रान्त M” ↩︎
-
“M. omits प्रस्थानम् " ↩︎
-
“गाकामितुन्दिशः M.” ↩︎
-
“रुद्रदेवो M.” ↩︎
-
“विशेषवन्धवचनं R.; विशेषवन्धवचनं M.” ↩︎
-
“प्रशस्तस्तथा t1.” ↩︎
-
“दपरो शुमो t.” ↩︎
-
“साण P.” ↩︎
-
“सहायोदुराः P. " ↩︎
-
“भास्वत्कणाः M. " ↩︎
-
“तेलंग° P.” ↩︎
-
“मुहदाणं T” ↩︎
-
“मुस्साहो. " ↩︎
-
“M. has वाचयति after संस्कृतमाश्रित्य " ↩︎
-
“अपामावे t.” ↩︎
-
“स्वावादित्वात् P. " ↩︎
-
“Dropped in t1.” ↩︎
-
“सामग्रीमा t.” ↩︎
-
“स्वैरोद्धणं M. " ↩︎
-
“मुशंडय p.” ↩︎
-
“स्वनत् M1.” ↩︎
-
“पठ्ठिशाः P.” ↩︎
-
“तुरङ्गमातङ्गा M.” ↩︎
-
“संरब्धनुत्रोम् T” ↩︎
-
“भरा’ t.,” ↩︎
-
“t. has गजस्य for मुजगराजस्य” ↩︎
-
“‘मपरेषा t.” ↩︎
-
“च द्रष्टव्यम् t. " ↩︎
-
“रूपतयाम्भूहनादु P.” ↩︎
-
“अतिसंपत्ति P.” ↩︎
-
“द्धत् t.” ↩︎
-
“हुल t.” ↩︎
-
“मुघुण्डी t.” ↩︎
-
“सद्वेलं R., M.; सलीलं M1” ↩︎
-
“परिनमत्’ P. " ↩︎
-
“M omits अहो. " ↩︎
-
“न्निशित M.” ↩︎
-
“द्बहुल M. " ↩︎
-
“जालाम्बुधैः R., M. " ↩︎
-
“र्निस्वनः M. " ↩︎
-
“‘गतिभेदाः t.” ↩︎
-
“रुद्र R. " ↩︎
-
“सर्वतो विलोक्य B. " ↩︎
-
“द्वेषमाण R. M. " ↩︎
-
“क्ष्वेडत् P. क्ष्वेलत्सुमटाः M. " ↩︎
-
“दुद्वेगः M. " ↩︎
-
“बलाम्मोधि’ P. " ↩︎
-
“ग्रहिष्यते P. " ↩︎
-
“p. omits the portion from अत पद to अमरः” ↩︎
-
“R. and M. drop यदादिशन्त्यमात्याः इति. " ↩︎
-
“परिपालयन्ति P. पालयन्ति M1,” ↩︎
-
“रुद्रः M., T, M, R.” ↩︎
-
“प्रमोद P.” ↩︎
-
“प्रेष्यन्त P. " ↩︎
-
“यदा R, P. " ↩︎
-
“सौत्रामणिं M., सौत्रामणी दिशः R. " ↩︎
-
“सर्वा R. " ↩︎
-
“शकुन P. " ↩︎
-
“प्रस्थानाङ्ग P. " ↩︎
-
“सुशकुन’ M. ‘सुशकुनगुण T.” ↩︎
-
“वाक्षुब्धो t.” ↩︎
-
“निगिरत्परिवाहिनीम् t. ,t1 " ↩︎
-
“गुण इति P.” ↩︎
-
“रुद्रः M. " ↩︎
-
“प्रविश्य विप्रः R., T” ↩︎
-
“मग्रे P. " ↩︎
-
“जयतां M1. " ↩︎
-
“‘महीसुराशीर्याद M1.” ↩︎
-
“M. has for this राजपुत्रः स्वयं सप्रणामा " ↩︎
-
“तान्युत्तमाङ्गे M1.” ↩︎
-
“मूर्ध्नि M.” ↩︎
-
“विदूषक for ‘विशेष’ in t. " ↩︎
-
“शिष्ट for विशिष्ट t.” ↩︎
-
“सिते बाहे t., t1.” ↩︎
-
“प्रसक्ति R., M. " ↩︎
-
“क्षत्रियादिकीर्तनाद् P; क्षत्रियवर्णकीर्त्तनात् M.; क्षत्रियादिवर्णसंकीर्तनाद् M1.” ↩︎
-
“राजपुत्रस्य P. R.” ↩︎
-
“निसर्ग M4. " ↩︎
-
“इविअ M. " ↩︎
- ↩︎
-
“दीसन्ति R., M. " ↩︎
-
“धेनुमूमिं t., t1.” ↩︎
-
“इत्यादिना t., t1.” ↩︎
-
“मनुभवती t1.” ↩︎
-
“प्रेषयितव्या R. " ↩︎
-
“रुद्रः M.; राजा M1.” ↩︎
-
“काकतिनाथ° P.” ↩︎
-
“कतिचन M1.” ↩︎
-
“इति is dropped in P. T’ adds नाटकप्रकरणे after इति.” ↩︎
-
“द्वितीयोऽङ्कः in and t1.” ↩︎
-
“यन्त्रहस्तौ R. " ↩︎
-
“पूर्वाङ्कान्ते P; पूर्वाङ्कान्तपात्रेण M1” ↩︎
-
“सानुसंधानाश्चर्यम् T’.” ↩︎
-
“द्वयेषामपि R.” ↩︎
-
“महीभृताम् M1.” ↩︎
-
“कटाक्षाणि M. " ↩︎
-
“°कवचायन्ति P.” ↩︎
-
“देवस्य R., M. " ↩︎
-
“°वलोक्य च R.” ↩︎
-
“नाटितकेनासमन्ततो R. " ↩︎
-
“पठन्ति तैः R.” ↩︎
-
“स्वभावतो P. T.” ↩︎
-
“पाठयन्ति च R; पाठयन्ति M. " ↩︎
-
“लक्ष्यते P.” ↩︎
-
“सर्वं सम्यङ्° T’.” ↩︎
-
“सप्रतिज्ञाश्चर्य R.” ↩︎
-
“अपवार्य is omitted in P.” ↩︎
-
“पश्य for पश्य पश्य T’.” ↩︎
-
“क्ष्माभूतः R. " ↩︎
-
“मागधु is omitted in t, and t1.” ↩︎
-
“पलक्षकग्रहणार्थम् P.” ↩︎
-
“प्रतापरुद्रदेवस्य P. " ↩︎
-
“°लिखित° M.” ↩︎
-
“प्रसादयितुं is dropped in P.” ↩︎
-
“वितर्कयामि M. " ↩︎
-
“°स्तैस्तैर्लक्षणै° R. " ↩︎
-
“विशेष is omitted in P.” ↩︎
-
“यथावामनुपतन्ति R.; यतोऽनुसरन्ति M.” ↩︎
-
“प्रश्नमालया T; प्रश्नोत्तरमालया R.” ↩︎
-
“प्रतापरुद्रभुजयो P.” ↩︎
-
“प्रतापरुद्रभाषा° R.” ↩︎
-
“प्रियोदात्तः M. " ↩︎
-
“सरभसारोहं M. " ↩︎
-
“भामिनी for कामिनी M. " ↩︎
-
“°मुखा M.” ↩︎
-
“तत्त्वानुकीर्त्तनो M.” ↩︎
-
“°बृद्धवर्गो M1.” ↩︎
-
“मनुंचिन्तित° M.” ↩︎
-
“अत्रैषोत्कर्ष° T.” ↩︎
-
“महास्थानमण्डपमधितिष्ठति T. " ↩︎
-
“P. drops मन्त्रिणश्च पुरोधसश्च” ↩︎
-
“परिजनश्च R.” ↩︎
-
“°विमर्षा° R.” ↩︎
-
“वत्सस्य वीर° M. " ↩︎
-
“M. omits अमात्यान्” ↩︎
-
“जिगीषुः प्रस्थितः T.” ↩︎
-
“स dropped in P. and T.” ↩︎
-
“कल्याणनिमित्तानि P. " ↩︎
-
“भवतामाशिष° P. " ↩︎
-
“T. प्रादुर्भवन्ति M. " ↩︎
-
“काअइकुलस्स M.” ↩︎
-
“अवइणो P. " ↩︎
-
“भुवने° P. " ↩︎
-
“°मडो P. " ↩︎
-
“विजययात्रा° P. T.” ↩︎
-
“सविनयसंभ्रमं M.” ↩︎
-
“विजययात्रावात्तां° P.” ↩︎
-
“प्रान्त M.” ↩︎
-
“चिन्त्यमाना°P.” ↩︎
-
“रूपक्रमः R.” ↩︎
-
“सर्वे सहर्षातिशयं रूपयन्ति is omitted in M.; सर्वे हर्षातिशयम् R.” ↩︎
-
“निरूपयन्ति T’” ↩︎
-
“यथादिशन्ति M. " ↩︎
-
“मन्त्रिणः R. " ↩︎
-
“ताभ्यां सह प्रविष्टः P.” ↩︎
-
“प्रतापरुद्रस्य M. " ↩︎
-
“°पुराण° M.; तरुणकाकतीय is dropped in M. " ↩︎
-
“P. drops सहर्षातिशयम् " ↩︎
-
“महार्हम् R., M.; महार्घम् T.” ↩︎
-
“द्विगुणित° R. " ↩︎
-
“प्रहर्षयो° M. " ↩︎
-
“परिग्रह° M.” ↩︎
-
“सामदानरूपः M. सामदानाचरणरूपः T. समाधानाचरणरूपः M1.” ↩︎
-
“°न वाजि° t.” ↩︎
-
“शौनके t.” ↩︎
-
“°विभूतयः M., °व्याहृतयः R.” ↩︎
-
“R. has यथोचितमुपविश्य after प्रथमः-” ↩︎
-
“विजययात्राप्रदानेन R.; विजयप्रसादेन M.; विजयप्रदानात् M1.” ↩︎
-
“द्विगुणितदानप्रतापे R.” ↩︎
-
“जगद्व्यापिनि R. " ↩︎
-
“त्रासाः M.” ↩︎
-
“डक्का° M.” ↩︎
-
“पुरोहितः R.” ↩︎
-
“निरन्तर° M. " ↩︎
-
“°मन्ध्रचमूपतीनामोजायितम् M. R.” ↩︎
-
“विजित्य R. विच्छिद्य M.” ↩︎
-
“P. drops पटीयसि.” ↩︎
-
“चलति P., प्रचलिते R.” ↩︎
-
“°मान्ध्र° M.” ↩︎
-
“°घनमहत्या° R.” ↩︎
-
“सृष्ट° T. " ↩︎
-
“°रनुभावाद्° t.” ↩︎
-
“माघवतीं t1.” ↩︎
-
“सज्जानि P.” ↩︎
-
“वीररुद्रखड्गस्य t. t1” ↩︎
-
“t1 drops काल° " ↩︎
-
“तिरोभूतेनापि M.” ↩︎
-
“सहर्षाद्भुतम् P., सहर्षातिशयम् M.; सदर्षातिशयाद्भुतः R. " ↩︎
-
“°णरेस° P., R. " ↩︎
-
“कादव्वन् M-” ↩︎
-
“समोदगद्गदम् M. " ↩︎
-
“°वैरिभूप° M. " ↩︎
-
“°मकुटाटोप° M. " ↩︎
-
“भ्रान्त्या P. " ↩︎
-
“°त्रस्यत्° M.” ↩︎
-
“°दसिलतोद्विग्र° P.” ↩︎
-
“°प्रकर° P. " ↩︎
-
“°स्तम्भा स्फुरत्° M. " ↩︎
-
“वहन्ते ता P.; वहन्त्येता M.” ↩︎
-
“पृषत्काः R. " ↩︎
-
“सोल्लासाः M.” ↩︎
-
“काकतीश्वरं for क्षितीश्वरान् R.” ↩︎
-
“P and R have शरणमुपगतान् before काकतीयवीर.” ↩︎
-
“°वीररुद्रः M. " ↩︎
-
“प्रतिचलितः P.” ↩︎
-
“साधु साधु P. " ↩︎
-
“प्राप्तम् P. " ↩︎
-
“°भय° M. " ↩︎
-
“°त्रस्त° P. " ↩︎
-
“°ष्वातत°T.” ↩︎
-
“प्रेष्टानां P.” ↩︎
-
“°मन्त्यं निज° M.” ↩︎
-
“°पूर्णाः M. " ↩︎
-
“गजानुबद्ध° R.; गजानुबन्धं M.” ↩︎
-
“P. drops कलिङ्ग” ↩︎
-
“सर्वेऽपि R.M.” ↩︎
-
“भूपा P. " ↩︎
-
“प्रादुरभूवन् R.” ↩︎
-
“युद्धे तत्पूर्वं t.” ↩︎
-
“तारणो° t.” ↩︎
-
“°रुद्रस्य P. " ↩︎
-
“परिपन्थीमवन्ति R. M.” ↩︎
-
“अनीकीभिः समापततो राजलोकान् M., M1.” ↩︎
-
“°रापतन्ति T’.” ↩︎
-
“M. drops एवम्” ↩︎
-
“रे रे गुर्जर जर्जरोऽसीत्यादि R., रे रे पुर्जरा वयमान्ध्रसैन्यसुभटाः प्रत्यर्थिदावानलाः M.” ↩︎
-
“पूर्जर T.” ↩︎
-
“°संबन्धवचनम् T’” ↩︎
-
“M. omits रूपम्. " ↩︎
-
“मणि M. " ↩︎
-
“उवक्कन्तं M. " ↩︎
-
“किमुच्यते R.” ↩︎
-
“°न्निपातको t.” ↩︎
-
“°नन्वेष्टुं M.” ↩︎
-
“°सिलिङ्गाधिपतिसैनिकाः P.” ↩︎
-
“°देशिकाः M.” ↩︎
-
“R. omits पर्यटन्ति स्म " ↩︎
-
“ग्राहयित्वा p.” ↩︎
-
“बलसैनिकानाम् R.” ↩︎
-
“°परिजनेष्वकृत° T’” ↩︎
-
“अह्महे M.” ↩︎
-
“णरपसइसथ्थस्स M.” ↩︎
-
“सझ्झस° m.” ↩︎
-
" t. adds मनुना after मीतबधे” ↩︎
-
“धर्म t.” ↩︎
-
“प्रलापाकुलाः P. " ↩︎
-
“तनषो for वपुषो M. " ↩︎
-
“सिंह्माश्च ‘T’, सैंह्माश्चr is noticed by M. which has सुंह्माश्च” ↩︎
-
“°गिरि° M.” ↩︎
-
“ग्रावाङ्गणाः P.” ↩︎
-
“परिगलद्धी M.” ↩︎
-
“सिंहलाः P.” ↩︎
-
“विग्रहाः P.” ↩︎
-
“°घूर्जराः T.” ↩︎
-
“°धियः R.” ↩︎
-
“°भाट्क्तयः P. R.” ↩︎
-
“काम्पीलाः M., काम्पिल्याः T. P. " ↩︎
-
“श्रितवल्लयः M.” ↩︎
-
“सहर्षातिशयं M.” ↩︎
-
“अहद्दे M. " ↩︎
-
“°हुवणाई T’, M” ↩︎
-
“R. omits सहर्षम्.” ↩︎
-
“विश्वं विश्वैक° M. " ↩︎
-
“प्रसत्तयः P.” ↩︎
-
“काकतीयान्वयकुलदेव° M.; काकतीयकु°ल M.” ↩︎
-
“समग्रपक्षैः P. " ↩︎
-
“स्तैः R., स्वैः M. " ↩︎
-
“पताकारूपः M.” ↩︎
-
“तदध्वरादेव M. " ↩︎
-
“नागराः R. " ↩︎
-
“दूरं दूरं M " ↩︎
-
“वेगात्पातितमांगगः M.” ↩︎
-
“बलद्ग M. " ↩︎
-
“तरसा M. " ↩︎
-
“गज P. " ↩︎
-
“प्रविशन्न M.” ↩︎
-
“मन्वानिलाय क्रुध्यन् M.” ↩︎
-
“°बीजोत्पादना°’ P. बीजाक्षेपः M. " ↩︎
-
“प्रमदावन° R.” ↩︎
-
“°मधिरुह्य R.” ↩︎
-
“परिक्रम्य is omitted in R. and M. " ↩︎
-
“वीर is omitted in R. and M.” ↩︎
-
“°कज्जसइस्स° M. " ↩︎
-
“°पज्जाउलराअउलमहू° T’ " ↩︎
-
“राअउले वि M. " ↩︎
-
“णिदा P.” ↩︎
-
“महघ्घाई M., M1., महग्घाई P; महघ्घाइ T” ↩︎
-
“भूसणाइ P, भूसणाइ T’” ↩︎
-
“भूसणाइ P, भूसणाइ T” ↩︎
-
“कत्तो P.” ↩︎
-
“चोरिआई P; चोरिआइ T. " ↩︎
-
“मुणिअं M., विण्णादं T’.” ↩︎
-
“दासीपुत्तीप M1.” ↩︎
-
“पुत्तीप M. M1.” ↩︎
-
“सअलाओ दिसाओ M. M1,” ↩︎
-
“सामंद M., M1. " ↩︎
-
“आणाप M. " ↩︎
-
“अणुवठ्ठणेण P.” ↩︎
-
“माअवेएण M. " ↩︎
-
“तपो° M1.” ↩︎
-
“सकिदपरिवएण T’, मुअम्परिपाएण M2.” ↩︎
-
“°रज्जाहिसेअ P; रज्जाभिषेए M. " ↩︎
-
“संजाअ P.” ↩︎
-
“एआइणिं P.” ↩︎
-
“असवा° M. " ↩︎
-
“मोक्कूण M. " ↩︎
-
“कहिं M. " ↩︎
-
“ठिआ M.; थ्थिदा M1.” ↩︎
-
“t. and t1 have before हञ्जे हञ्जे चेटि " ↩︎
-
“t. and t1 have before this ईदृशमहापाणि भूषणानि कुतश्चोरितानि। कथं न ज्ञातं त्वया।” ↩︎
-
“रोषावेशात् M. " ↩︎
-
“°दर्शन° for प्रदर्शन° R. M. " ↩︎
-
“°दपवादोऽयम् M. " ↩︎
-
“सहेहित्ति P. M1. " ↩︎
-
“उत्ती T’. " ↩︎
-
“पडंचलेण T’ " ↩︎
-
“पडिमुज्जेसि M. " ↩︎
-
“°सापराअं M. " ↩︎
-
“सिढिरेसि P. " ↩︎
-
“सरोषभाषणरूपः M. " ↩︎
-
“संभेदः M. " ↩︎
-
“समावेब्ब M.” ↩︎
-
“कोइणीं M. " ↩︎
-
“भोदीं P. " ↩︎
-
“अणुवट्टिदुं T, अणुवेत्तिदुं M.” ↩︎
-
“न T’.” ↩︎
-
“कम्पं T’” ↩︎
-
“कम्पं T.” ↩︎
-
“शीले T’. " ↩︎
-
“°णासिअं T’.” ↩︎
-
“°पाकेन गमित° t.” ↩︎
-
“बंदिऊण M.” ↩︎
-
“संबन्धन° P.” ↩︎
-
“हिडिम्बस्समं T’” ↩︎
-
“बीलंविदं P.” ↩︎
-
“मछअं P; मथ्थअं M. " ↩︎
-
“ताडिज्जइ M. " ↩︎
-
“मन्दभाअणी P., मन्दमाइणीप् M.” ↩︎
-
“°तिरस्कृति P.” ↩︎
-
“विद्रवः T. " ↩︎
-
“मंगलप्पआरं P.” ↩︎
-
“णिवदेमि T’. " ↩︎
-
“उठ्ठेहि उठ्ठद्धि M.” ↩︎
-
“°बलम्बं P, M. " ↩︎
-
“तत्थहोदि M.” ↩︎
-
“पवरो P. " ↩︎
-
“णिग्गअ P, णिग्गइ M. " ↩︎
-
“तं P.” ↩︎
-
“महाभि° M. " ↩︎
-
“°समअ P. " ↩︎
-
“रिछोलिं P.” ↩︎
-
“णिवुत्तेदुं M.; णिवट्टेदुं T.” ↩︎
-
“पविसम्ह P. " ↩︎
-
“करकनक° M.” ↩︎
-
“दीपपद्धतिं P.” ↩︎
-
“नरप्रवराः M. " ↩︎
-
“P. has शृणुध्वम् after this.” ↩︎
-
“हस्ति° M " ↩︎
-
“घण्टारवः P. " ↩︎
-
“°दलं M. " ↩︎
-
“जनाः for परिजनाः P.” ↩︎
-
“संशृणुध्वम् M. " ↩︎
-
“रुद्रदेवस्याज्ञा T’, रुद्रनरेश्वरस्याज्ञा M.” ↩︎
-
“सम्यग्वृता R.” ↩︎
-
“चिराम् M. " ↩︎
-
“°भारमध्ये R., T’.” ↩︎
-
“किमर्चिताः P. " ↩︎
-
“M. omits वर्ण.” ↩︎
-
“प्रसादिता R.” ↩︎
-
“पुण्यतीर्थ° P.” ↩︎
-
“मृगीदृशश्च P.” ↩︎
-
“°परिग्रहणसमयोचित° M.” ↩︎
-
“°मङ्गलाचरण° M1” ↩︎
-
“लक्ष्म्या अन्तःपुरे M. R.” ↩︎
-
“M. drops तत्त्वरध्वम् " ↩︎
-
“भूपा M. " ↩︎
-
“यथावकाशं T’, M.” ↩︎
-
“मारमध्वम् T’.” ↩︎
-
“क्षितिक्षिताम् M.” ↩︎
-
“M. drops मम.” ↩︎
-
“°परिचितमेव M.” ↩︎
-
“विलासः M. " ↩︎
-
“अहो B., रे रे P.” ↩︎
-
“°विदुषा R. " ↩︎
-
“महोत्सवं दिदृक्षमाणाः R., M.” ↩︎
-
“सर्वेऽपि R.” ↩︎
-
“महाराजाज्ञा R.” ↩︎
-
“रूपं ts omitted in M.” ↩︎
-
“निरोधनम् R. " ↩︎
-
“°वेदिमध्यमप्यासीनपुरोहित° R.” ↩︎
-
“युवराजं वा उप° M. " ↩︎
-
“Omitted in M. (The whole speech of द्वितीयः is dropped ↩︎
- ↩︎
-
“सत्यमित्यमी सम्य° T’.” ↩︎
-
“किं चा° M. " ↩︎
-
“°प्रथितप्रतिष्ठाम् M.” ↩︎
-
“विलोपसर्गाः T’. " ↩︎
-
“°रिति कुर्वाणैः P. " ↩︎
-
“प्रतापानुगुण° P.” ↩︎
-
“विचलं नाम t.” ↩︎
-
“°नरेश्वरक्रमा° P.” ↩︎
-
“°देवपरिगृहीताम् R.” ↩︎
-
“°माधानम् P.” ↩︎
-
“गुर्वाज्ञामेदम् M.” ↩︎
-
“M. drops विहितकर्तव्येन.” ↩︎
-
“यदादिशन्ति P. " ↩︎
-
“°प्रत्यायितारः P., °कुलान्वयप्रत्याययितारः T, M. " ↩︎
-
“P. drops इति. T’. adds नाटकप्रकरणे after it” ↩︎
-
“द्विदशाङ्गु° P. " ↩︎
-
“मित्यपि t.,t1.” ↩︎
-
“P. drops चित्त.” ↩︎
-
“पूर्वाङ्कानुसंगत° P.; पूर्वार्थानुसंगत° M. पूर्वार्थानुगत° M1., पूर्वाङ्कार्थसंगत° R.” ↩︎
-
“देवनरेश्वर° R.” ↩︎
-
“°प्रमुखमुख° M1.” ↩︎
-
“M. drops योजनात्. " ↩︎
-
“(सोल्लासं ↩︎
-
“प्यभिनन्दिनः M.” ↩︎
-
“बीजस्योपगमात् P. R.” ↩︎
-
“t1 drops अत्र.” ↩︎
-
“T’ omits किंचिदुच्चैः” ↩︎
-
“मुहर्त्तः शुभैः M. " ↩︎
-
“शुभंकराणि R. " ↩︎
-
“तत्सत्वरमेव T’.” ↩︎
-
“द्विजन्मनामा° t, t1.” ↩︎
-
“°मुच्चकं स्थानम् t., t1.” ↩︎
-
“वराहसंहितायाम् t1.” ↩︎
-
“ग्रहेशाः t1.” ↩︎
-
“कृतकार्य° P.; कृतकार्यानुमार्गणात् R. " ↩︎
-
“R and M. omit च.” ↩︎
-
“एवायं वीररुद्रः M.” ↩︎
-
“°शब्दोदितैः R. " ↩︎
-
“सर्वैर्वन्दि° M. " ↩︎
-
“विजयैः R. " ↩︎
-
“M. drops मन्त्रिणश्च " ↩︎
-
“गत्वा M.” ↩︎
-
“°शुद्धान्तद्वारम् M. " ↩︎
-
“प्रधानम् R.” ↩︎
-
“इत्यामाणकमूलोऽयं t. t1.” ↩︎
-
“°कार्यस्य क्षेपणा° P., °कार्यस्योत्क्षेपणा° M., °कार्यप्रक्षेपणा° R. " ↩︎
-
“व्याप्य R. " ↩︎
-
“°निर्णीतार्थ° M. " ↩︎
-
“°ज्ञापनात् P.” ↩︎
-
“M. has श्रुत्वा before this as stage direction.” ↩︎
-
“विलंबीअदि P.” ↩︎
-
“किंचित् स्मृता P.” ↩︎
-
“महास्थान्यामनु° M1., P.” ↩︎
-
“कृतैव M. " ↩︎
-
“नाथस्य M1.” ↩︎
-
“बुभोज t., t1.” ↩︎
-
“अनुभूतख्यापनादिति t. t1.” ↩︎
-
“°गुणेन M.” ↩︎
-
“°कथनात् M. " ↩︎
-
“°महाभिषेकोचितवेषः R.” ↩︎
-
“रुद्रः R., रुद्रदेवः M.” ↩︎
-
“देव & c. is given in P. as the speech of नृपाः " ↩︎
-
“°पर्यायस्य M. " ↩︎
-
“तद्भुज° M. " ↩︎
-
“°मधिरोहत P.” ↩︎
-
“R gives विजयताम् once.” ↩︎
-
“समोद° M. " ↩︎
-
“°पब्बद° M.” ↩︎
-
“‘कडअ’ P. " ↩︎
-
“व्व P. " ↩︎
-
“कर्णिअ M.” ↩︎
-
“मर्हिदो ब्ब P; महन्दो विअ M. " ↩︎
-
“पछि P. " ↩︎
-
“वट्टिणं T’, वट्टणं M.” ↩︎
-
“चक्कहरणं° P. " ↩︎
-
“°पूर्णकनक° P.; R. " ↩︎
-
“R. and M drop कुल.” ↩︎
-
“मन्त्रेण P., M1, M4.” ↩︎
-
“°सलिलजान R. " ↩︎
-
“°हस्तेषु P.; हस्तेष्वेव M.” ↩︎
-
“P. drops प्रज्ञा” ↩︎
-
“°सिञ्जिता° P, R” ↩︎
-
“°तामोदितम् P., °तानुमोदिनं M. " ↩︎
-
“°प्रसादावृ° T.; °प्रमोदोपट्टंहितम् M.” ↩︎
-
“M. drops पति.” ↩︎
-
“विडम्बिनम् M., °विडम्बितम् T.” ↩︎
-
“R. and M. drop कोलाहल.” ↩︎
-
“श्रवप्र° P., M. " ↩︎
-
“प्रभृतिभिः P., R. " ↩︎
-
“कृतयुगो M. " ↩︎
-
“कृतयुगः t., t1.” ↩︎
-
“विविधानुष्ठाना° t., t1.” ↩︎
-
“सति M. " ↩︎
-
“शासितुस्तस्या° P., M. " ↩︎
-
“वलभिस्वच्छन्द° M.” ↩︎
-
“°रनुमोदताम् R.” ↩︎
-
“लक्ष्मीमद्य धिनोतु R.” ↩︎
-
“°दन्तावलीनाम् R.” ↩︎
-
“कूर्परा° P. " ↩︎
-
“°प्रतिष्ठाम् R.” ↩︎
-
“M. drops सर्वं” ↩︎
-
“t. and t1. have before this न कश्चिदप्यविधेयो भूपतिरस्तीति भावः।” ↩︎
-
“कल्पिताः R. " ↩︎
-
“°पदाभिषेकाः R.” ↩︎
-
“°वरण° P.; °स्वयंवरण° M. " ↩︎
-
“°मुत्तंसीयताम् R.” ↩︎
-
“°मारचयन्ति R.” ↩︎
-
“प्रमोदातिशयम् P.” ↩︎
-
“R. gives प्रियं नः once,” ↩︎
-
“तान्युपानयति P. " ↩︎
-
“प्राङ्मुखस्तु P.” ↩︎
-
“नृपाङ्गु° t., t1.” ↩︎
-
“कर्णमयः t., t1.” ↩︎
-
“°महिमा M. " ↩︎
-
“°जयत्रिभुवन° T.” ↩︎
-
“एतत्सर्वातिशायित्व° M.” ↩︎
-
“p. omits सदृश.” ↩︎
-
“°च्छत्रोपकरण° R, M1,” ↩︎
-
“°कार्यरूपदर्शनात् M.” ↩︎
-
“काकतीयेश्वराणाम् M.” ↩︎
-
“परिरक्षणम् T’. " ↩︎
-
“इत्युपतिष्ठति R.” ↩︎
-
“P. omits कुल.” ↩︎
-
“°मुर्वीश्वर° R.” ↩︎
-
“°मम्बुजाक्षाः R.” ↩︎
-
“जगत्प्रतिष्ठा M.; P has जगत्प्रतापप्रदीप°” ↩︎
-
“P. has शिरस्यञ्जलिम्.” ↩︎
-
“निधाय M.” ↩︎
-
“खल्वियमनु° M.” ↩︎
-
“°पुरो रमण्य R.” ↩︎
-
“P. has प्रवालजालैर्वरवीररुद्रम्.” ↩︎
-
“°र्वरवीररुद्रम् M1.” ↩︎
-
“रजन्यां तारा° P. " ↩︎
-
“काकतीयेश्वर R.” ↩︎
-
“°कृतसिंहा° R.” ↩︎
-
“R. has इतः once.” ↩︎
-
“यथाक्रममुप° R.” ↩︎
-
“मूर्धाभिषिक्तान् साभिमानम् T.” ↩︎
-
“पश्चाद्भाजाद्यैव वः M. " ↩︎
-
“स्वामी काकतिवीररुद्र° R. M. " ↩︎
-
“क्रमाद्वीक्षते R., M.” ↩︎
-
“सौपर्ण° T’. सौवर्ण्य°’ M.” ↩︎
-
“राजति M. " ↩︎
-
“°देवानुकूलानाम् R., ‘देववरानुकूलानाम् T’.” ↩︎
-
“यत्काकतीयमतिक्षत्रियं वर्द्धते T’., काकतीयक्षेत्रं यद्वर्धते R., यत्काकतीयक्षात्रं वर्धते M., काकतीयक्षात्रं यद्बर्धते M2” ↩︎
-
“सर्वेषां R. P.” ↩︎
-
“निवर्त्तन्ते R.” ↩︎
-
“सर्वासां प्रजानामपि P.” ↩︎
-
“प्रविश्यन्ताम् R.” ↩︎
-
“यथाज्ञा° M.” ↩︎
-
“पुनः प्रविशति P.” ↩︎
-
“वर्णवृद्धाः प्रजाश्च M.” ↩︎
-
“सदृशः क्रमः M.” ↩︎
-
“स्वयंभूदेवस्य R., M.” ↩︎
-
“विधातृ° P.” ↩︎
-
“°प्राप्तिरूप° R., P.” ↩︎
-
“°विभ्रमैक° T’, M.” ↩︎
-
“विश्वभुवि T’.” ↩︎
-
“सभौ M.” ↩︎
-
“P. and R. have भुबम्.” ↩︎
-
“रक्षताम् P.” ↩︎
-
“सूरयः M. " ↩︎
-
“सहर्षादर° R.” ↩︎
-
“P. drops महाराज.” ↩︎
-
“प्रतिकलस्फार° T’.” ↩︎
-
“°मण्डलस्य R.” ↩︎
-
“राज्यश्रिये R.” ↩︎
-
“तीश्वरसूरयः T’. गाणपेश्वराः R. " ↩︎
-
“M. drops, देश.” ↩︎
-
“प्रतिदिशम् R., M.” ↩︎
-
“°माशीर्वादप्रकार° t, t1.” ↩︎
-
“स्कान्द° t, t1.” ↩︎
-
“महाद्विजास्त्वेते T’,” ↩︎
-
“साधीयानाशीर्वादक्रमः R., T’.” ↩︎
-
“पुरोधसः T’, मन्त्रिणः पुरोऽवलोक्य M.” ↩︎
-
“यथोचितम् R., M.” ↩︎
-
“प्रतापरुद्रदेवमहा° M. " ↩︎
-
“दीना M1 " ↩︎
-
“वसुमतीम° R., M.” ↩︎
-
“°विरोधे t., t1.” ↩︎
-
“भूपाला इति, t., t1.” ↩︎
-
“भूपाला t., t1.” ↩︎
-
“T’. drops सांप्रतम्” ↩︎
-
“स्वयंभूनाथः T’, M.” ↩︎
-
“सर्व° M.” ↩︎
-
“°पुरःसरान् P.” ↩︎
-
“यथाप्रधानम् T; यथास्थानम् M. " ↩︎
-
“एकशब्दो t.” ↩︎
-
“t. and t1. drop मे.” ↩︎
-
“°प्रीणनार्थ यद्बह्म° t. t1.” ↩︎
-
“°विशेषाण्युपायनानि R.” ↩︎
-
“°मंशो P.” ↩︎
-
“°विष्टरस्य R.” ↩︎
-
“नृपतीन् यथोचितं संभाव्य P.,M.” ↩︎
-
“°मङ्गलया R. " ↩︎
-
“°साहाय्यका R.” ↩︎
-
“°मनुसर्त्तब्या M., R.” ↩︎
-
“काकतीश्वर° R.” ↩︎
-
“P. drops परिपालन.” ↩︎
-
“°रुचिनी R., M.” ↩︎
-
“°स्तदतीव P.” ↩︎
-
“सानन्दम् R. " ↩︎
-
“कुलवासनया पर प्रसे° R. " ↩︎
-
“°प्रसादप्रदानोन्मुखः R., T’. omits °प्रदान, प्रमोदप्रसादोन्मुखः M.; °प्रतादनप्रदानोन्मुखः M1; M. has पुरो०- राजन् सविनयप्रसादोन्मुखः स्वयंभूनाथः किमयमतःपरं प्रियमुपाहरतु” ↩︎
-
“°मुपहरतु R.” ↩︎
-
“वाक्यार्थ° R. " ↩︎
-
“सम्मूतिः, " ↩︎
-
“°गुल्मौ t, t1.” ↩︎
-
“°राज्यधुरा’° M1; °राज्यधुरायामाहितमेव M. " ↩︎
-
“M, drops एव " ↩︎
-
“°मस्तु मरत्ववाक्यम् M” ↩︎
-
“P. has this before तथापीदमस्तु.” ↩︎
-
“After this R. and M. have एवं साङ्गं नाटकमुदाहृतम्” ↩︎
-
“T drops श्री. " ↩︎
-
“भषणालंकारे R.” ↩︎
-
“तृतीयम् R. " ↩︎
-
“भवताम् P. " ↩︎
-
“रूपकनिरूपणम् t., t1.” ↩︎
-
“P. drops अथ रसप्रकरणम् " ↩︎
-
“जीवभूतस्य M. " ↩︎
-
“समुद्भासितः R. " ↩︎
-
“°स्थायी° P.” ↩︎
-
“°लक्षणविभावा° P.” ↩︎
-
“एवंविधसामाजिक° t., t1” ↩︎
-
“°स्थायी P. " ↩︎
-
“भावव्यापारेण p.” ↩︎
-
“°विजातीयरहिततया R.” ↩︎
-
“यावदनुभवावस्थानम् P.” ↩︎
-
“सन्निहितापूर्वावस्था° P.” ↩︎
-
“न च °वस्तुतो भेद° t. " ↩︎
-
“t. drops अत्र” ↩︎
-
“विरोधवार्तेति भावः t.” ↩︎
-
“संस्कारात्मनास्य P. " ↩︎
-
“संततचिन्ता° P.” ↩︎
-
“तथोक्तम् R., M. तदुक्तम् M1.” ↩︎
-
“R has अत्रैते स्थायिभावाः। रतिर्हासश्च - स्थायिभावाः प्रकीर्त्तिताः। शृङ्गारहास्य°.” ↩︎
-
“°करुणरौद्र° M.” ↩︎
-
“पूर्वैरुदाहृताः P.” ↩︎
-
“स्थायीभावा P.” ↩︎
-
“स्थायीभावा P. " ↩︎
-
“°रस° P. " ↩︎
-
“°फल° t. " ↩︎
-
“शान्तरस P” ↩︎
-
“M. drops विभावः” ↩︎
-
“°कारकः P.” ↩︎
-
“R drops स चतुर्विधः” ↩︎
-
“°द्दीपनः क्रमात् M.” ↩︎
-
“°हास° M.” ↩︎
-
“मता P.” ↩︎
-
“°चन्द्रार्का° P.” ↩︎
-
“इति विभाव इति t.” ↩︎
-
“स्थापिभावा° t.” ↩︎
-
“°सुखादि° P.” ↩︎
-
“°भावना° P.” ↩︎
-
“विभाविता° for भाविता° B.” ↩︎
-
“°न्तःकरणत्वम् T, M.” ↩︎
-
“स्थायिभावात् t.” ↩︎
-
“तत्र t.” ↩︎
-
“स्तदात्मना t.” ↩︎
-
“॰माभ्यन्तरं च t.” ↩︎
-
“॰न्नाम॰ t.” ↩︎
-
“तस्य t.” ↩︎
-
“॰करणलक्षणो P.” ↩︎
-
“॰प्रसिद्धा P.” ↩︎
-
“॰त्येतदेवास्माभिरपेक्ष्यम् t.” ↩︎
-
“मदः श्रमः M.” ↩︎
-
“धृतिः स्मृतिः R.” ↩︎
-
“स्वप्नप्रवोधो R.” ↩︎
-
“॰व्यवहित्या तधोग्रता M.” ↩︎
-
“वा R.” ↩︎
-
“विभावश्चानुभावश्च M.” ↩︎
-
“ननून्मदप्रवृत्तेना॰ t.” ↩︎
-
“॰वाच्यनायिका॰ M.” ↩︎
-
“॰नायकाश्रितत्वेन M.” ↩︎
-
“परितोषातिशयः R.” ↩︎
-
“॰नायकोत्तर॰ P.” ↩︎
-
“t. omits विशेष.” ↩︎
-
“संयोजनावेतचर्वणा t.” ↩︎
-
“॰वानुरागश्च तिर्यङ् P.” ↩︎
-
“च P.” ↩︎
-
“॰मुदयेन R.” ↩︎
-
“॰श्रितमाषयों॰ T.” ↩︎
-
“सवलता R.” ↩︎
-
“क्वचिदधन्यत्वम् P.” ↩︎
-
“The heading before अथ given by T is रत्यादिस्थायिभावलक्षणोदाहरणानि.” ↩︎
-
“स्थायीभावानाम् P.” ↩︎
-
“M. drops च.” ↩︎
-
“॰विषयेच्छा R.” ↩︎
-
“प्रसादितदृशः R., प्रसाधितादिशः P.” ↩︎
-
“॰रशेषैर्यतो M.” ↩︎
-
“तत्रैव t.” ↩︎
-
“विकृत॰ P.” ↩︎
-
“°विकासो M.” ↩︎
-
“कबरीः T. कबरीभूतो M.” ↩︎
-
“इदमेवाप्रियं नान्यदिति t.” ↩︎
-
“॰चोत्तमादीत्रष्वि t.” ↩︎
-
“विकासि नयनम् m.” ↩︎
-
“ही ही P. T.” ↩︎
-
“श्रेणीव R.” ↩︎
-
“दुःखादिरात्मनि R.” ↩︎
-
“॰नात्मदुःखाति॰ M.” ↩︎
-
“॰निष्करुणोऽथ M.” ↩︎
-
“कम्पितः M., T.” ↩︎
-
“॰नृपतेः क्रोधा॰ P.” ↩︎
-
“॰कृतापराधेन M.; ‘कृतापराध M.” ↩︎
-
“द्वाराब्देन M.” ↩︎
-
“सेवक T.” ↩︎
-
“॰नुत्तीणां T.” ↩︎
-
“नदी T.” ↩︎
-
“M. otnits कार्येषु.” ↩︎
-
“क्रोधस्तापन m.” ↩︎
-
“तत्र वधादि॰ P.” ↩︎
-
“॰मननुभूतपूर्वो m.” ↩︎
-
“गोतमी तीर्णेत्यवज्ञा m.” ↩︎
-
“सत्वरम् M. M.” ↩︎
-
“नः श्लाघा M. R.” ↩︎
-
“रनथंशङ्कनम् P.” ↩︎
-
“रौद्र इति P.” ↩︎
-
“दूरादाकर्ण्येत्यादि R.” ↩︎
-
“॰मिया M2.” ↩︎
-
“दोषदर्शना॰ P.” ↩︎
-
“॰शोफ॰ P.” ↩︎
-
“॰विष्ठादितो t.” ↩︎
-
“निपतितोद्धूरि॰ M.” ↩︎
-
“॰बद्ध॰ M.” ↩︎
-
“प्रसरदुरु॰ P.; प्रभवदुरु॰ M.” ↩︎
-
“॰रक्तमाज्जा॰ R.” ↩︎
-
“॰स्फुटितकरिकटा m.” ↩︎
-
“॰भवनिभूतो R.” ↩︎
-
“विकारों R. M.” ↩︎
-
“औन्नत्यं महदिन्यादि R.” ↩︎
-
“मनोविकारो P.” ↩︎
-
“॰लौकिकवस्तु॰ t.” ↩︎
-
“रामो नाम M1.” ↩︎
-
“॰मुलमामि॰ R.” ↩︎
-
“वा किम् M.” ↩︎
-
“प्रसादनात् t.” ↩︎
-
“॰प्यद्योपद्रव॰ R.” ↩︎
-
“p. drops भावप्रकाशे.” ↩︎
-
“लावण्यैकखानः T.” ↩︎
-
“॰घण्टारवः M.” ↩︎
-
“परिकल्पकः t.” ↩︎
-
“t. drope विद्वार.” ↩︎
-
“वान्यद् T.” ↩︎
-
“स्मरस्मेरानन्दस्मित॰ M.” ↩︎
-
“T has before this—सात्त्विकानां स्वरूपोदाहरणानि। अथ सात्त्विकानां स्वरूपोदाहरणं च.” ↩︎
-
“हिम P. ट्ठिओ M.” ↩︎
-
“अपेखंतीअ P; पेच्छतामो R.,M.” ↩︎
-
“णरेंद R. T.” ↩︎
-
“वाध॰ t.” ↩︎
-
“॰सरुक्किण्णाव्यो M.; ‘सरुकिण्णाओ T.” ↩︎
-
“°क्किण्णाम P.” ↩︎
-
“ट्ठिव्याव्य P.; ठ्ठिआव्यो M.” ↩︎
-
“॰र्बाढमिन्द्रियमूर्च्छितम् M.” ↩︎
-
“॰रुअ’ P.” ↩︎
-
“मुछाए P.” ↩︎
-
“विक्रियाः M.; विक्रमः M.” ↩︎
-
“॰कम्पनम् M.” ↩︎
-
“कंपा बहुआ P.; बहूल M.” ↩︎
-
“विव्यज P.” ↩︎
-
“खिप्णङ्गी M.” ↩︎
-
“अंतर॰ P.” ↩︎
-
“॰ठ्ठिअ॰ M.; ॰ठ्ठित T.” ↩︎
-
“॰मरान् M.” ↩︎
-
“॰श्रमादिजः T.” ↩︎
-
“अंगाई P.; अंगाई M.” ↩︎
-
“पांडुराई P; पांडुराई M.” ↩︎
-
“पह्वि M. T.” ↩︎
-
“सामाप M. T.” ↩︎
-
“मदगद्रद T.” ↩︎
-
“खामं T.” ↩︎
-
“क्खामाक्स्वरं M.” ↩︎
-
“जाण्णइ P., R.” ↩︎
-
“अदम् P.” ↩︎
-
“T has before this the following heading—व्यमिचारिभावानां स्वरूपोदाहरणे.” ↩︎
-
“॰वेवर्ण्योच्छ्वासदीनताः M., R.” ↩︎
-
“किं अं P. किदं T.” ↩︎
-
“कथ्युरिआ P.” ↩︎
-
“मलअजो T.” ↩︎
-
“साइसिई T.” ↩︎
-
“सदेति t. सहजकर्पूरेण कृतं किं कस्तूपां मलयजं तिष्ठतु गुणशिशिरमभिमानिनम्।” ↩︎
-
“जणदु P.” ↩︎
-
“हिअप्पपरिचओ M.” ↩︎
-
“॰गीणेहि T.” ↩︎
-
“परिकीर्त्यते M.” ↩︎
-
“अभिजाए T; अभिजाईर M.” ↩︎
-
“जतं M.” ↩︎
-
“माअहेयं M.” ↩︎
-
“जाते जवेति t.” ↩︎
-
“परीति t.” ↩︎
-
“॰मन्यजनम् t.” ↩︎
-
“दमः M. R.” ↩︎
-
“व्यतिकरो M.” ↩︎
-
“दमः M., R.” ↩︎
-
“अमगअव्यम् T.; असंगदथ्थम् M.” ↩︎
-
“॰अख्खी M.” ↩︎
-
“मदिराप M.” ↩︎
-
“परवहा M.” ↩︎
-
“आञछइ P.” ↩︎
-
“पिओ P.” ↩︎
-
“करती M.” ↩︎
-
“आणेदुं M.” ↩︎
-
“गदो खु T,; गओ खु M.” ↩︎
-
“सहीजणो T.; सहि आ अ णो M.” ↩︎
-
“वम्मह P.” ↩︎
-
“सिरुखअ M.” ↩︎
-
“चिर पहि P.” ↩︎
-
“उहरस्मि M.” ↩︎
-
“इष्टमुद्दिश्य यद् ध्यानम् M.” ↩︎
-
“॰मानसशून्यकृत् R.” ↩︎
-
“सण्णिहिदं M.” ↩︎
-
“पि P.; वि M.” ↩︎
-
“॰लवई P.” ↩︎
-
“॰सकलाङ्गा R.” ↩︎
-
“विषयज्ञानम् P, M.” ↩︎
-
“॰मर्ज्जितम् P.” ↩︎
-
“नाना॰ P. R.” ↩︎
-
“॰मादिषु P.” ↩︎
-
“त्वम् M.” ↩︎
-
“संब्रीडनम् T.” ↩︎
-
“॰मदराग R., M.” ↩︎
-
“निविडस्मुधा॰ t.” ↩︎
-
“पते॰ t.” ↩︎
-
“॰रान्ध्र॰ M.” ↩︎
-
“चापलम् M.” ↩︎
-
“R. drops च.” ↩︎
-
“प्रसक्ति॰ M.” ↩︎
-
“स्वेदादिकात् पृथक् R.; स्वेदादिकम्पकृत् M. M.” ↩︎
-
“॰मन्ध्र॰ P.” ↩︎
-
“इष्टामिगमना॰ M.” ↩︎
-
“पीराङ्गनाः M., R.” ↩︎
-
“कान्ते M.” ↩︎
-
“प्रमहासि R.” ↩︎
-
“मदनोद्दामयशसि M.” ↩︎
-
“न चलति M.” ↩︎
-
“॰स्मादृशानां पुरस्तात् P.” ↩︎
-
“इत्याटोप॰ R., इत्यादेशात् P.” ↩︎
-
“प्रतिभट॰ P.” ↩︎
-
“क्रीडन्ते ते P.” ↩︎
-
“॰समक्षे t.” ↩︎
-
“नद्रयेन t.” ↩︎
-
“वृत्ति t.” ↩︎
-
“उपायापायचिन्तनैः M., P.” ↩︎
-
“छाया। 1 प्रेषयामि मन इति सुधा तन्मां मुक्त्वा वल्लभे उग्रम्। मामुज्झित्वा नो गच्छति मदनः सखि किं नु कर्त्तव्यम्॥” ↩︎
-
“मणोत्तं T’; मणात॰ M.” ↩︎
-
“मुद्दात्तं P.” ↩︎
-
“मोकूण M.” ↩︎
-
“॰वुर॰ T.; आन्ध्रठर M.” ↩︎
-
“भामिणी M.” ↩︎
-
“तुवरेन्तो T.” ↩︎
-
“॰णरेंदा॰ T.” ↩︎
-
“सहह T.” ↩︎
-
“किछ्छेण T.” ↩︎
-
“सिविणइ M.” ↩︎
-
“बहूआ M.” ↩︎
-
“किउज्जोमा M.; किदोज्जोआ T.” ↩︎
-
“उपहदनिमी॰ M.” ↩︎
-
“भामिनि॰ t.” ↩︎
-
“जृम्मामङ्ग॰ t.” ↩︎
-
“आवेगो P.” ↩︎
-
“परमाराङ्ग॰ R.” ↩︎
-
“क्षितीन्द्रम् T’. M.” ↩︎
-
“॰स्यन्तर्दन॰ M.” ↩︎
-
“वीररुद्रे M.” ↩︎
-
“भुजास्फाट॰ t.” ↩︎
-
“अत्र शत्रूणां मयकार्य॰ t.” ↩︎
-
“मुप्तं लक्षपति t.” ↩︎
-
“सुप्तमिति t.” ↩︎
-
“सुप्तमित्यर्थः t.” ↩︎
-
“विभेदश्चे॰ R.” ↩︎
-
“॰वाप्तिजृम्भा॰ M.” ↩︎
-
“बिभ्रति M.” ↩︎
-
“त्वत्स्वङ्गाः M.” ↩︎
-
“प्रविदलन॰ T.” ↩︎
-
“स्फोट for विस्फोट t.” ↩︎
-
“चेतनाप्राप्ति॰ t.” ↩︎
-
“गोष्ठीए P.” ↩︎
-
“सोद्वण M.” ↩︎
-
“॰चरिआई P.” ↩︎
-
“औणइमुही M.” ↩︎
-
“मुध्या M.” ↩︎
-
“पठ्ठम् T; ॰पिठ्ठम् M.” ↩︎
-
“॰रिन्दी मषी कृता R.; ॰रिन्दुर्मद्दीकृतः M.” ↩︎
-
“॰दर्थे निधां M.” ↩︎
-
“छाया। 1 कः संशयो महीतले चन्द्र एव वीररुद्रनरनाथः। यस्य करस्पर्शादङ्गानि मृगाङ्करन्ति॥” ↩︎
-
“संशओ M.” ↩︎
-
“चंद P.” ↩︎
-
“मिव्यंकरअणंति T.” ↩︎
-
“॰ज्जराधि॰ M.” ↩︎
-
“॰संगअन्मा॰ R.” ↩︎
-
“हि वनप्रदेशान् M.” ↩︎
-
“॰संस्पर्रो t.” ↩︎
-
“शेषलक्षणा षष्ठी t.” ↩︎
-
“॰प्रयाणम् R.” ↩︎
-
“प्रयत्नस्तु प्रकीर्त्यते M,; प्रयत्नः परिकीर्त्त्यते M.” ↩︎
-
“निअ॰ P.” ↩︎
-
“उवंख्खती M.” ↩︎
-
“जोण्हं T’.” ↩︎
-
“दाहिण॰ P.” ↩︎
-
“समप्पेई P.; समप्पेहि M.” ↩︎
-
“ग्रद्द॰ t.” ↩︎
-
“तत्रा॰ t.” ↩︎
-
“कथ्यते t.” ↩︎
-
“प्रकीर्तितः M.” ↩︎
-
“छाया। 1 प्रणयकुपिताचिरेणापि वधूः श्रुत्वा घनघनस्तनितम्। दयितं सरभसवलिता आलिङ्गति वेपमानाङ्गी॥” ↩︎
-
“सोदूण M.” ↩︎
-
“॰थ्यणिदं M.; ॰धणिअं T’.” ↩︎
-
“सरइस॰ T’; सरभअ॰ M.; सरमस॰ M.” ↩︎
-
“वेवमाणंगी T’; वेपमाणागि P.” ↩︎
-
“कल्पनान्यत्व P.” ↩︎
-
“॰नारोचि T’.” ↩︎
-
“दुर्वच M.” ↩︎
-
“॰संभावितात्मा t.” ↩︎
-
“यथा हि M.” ↩︎
-
“P. drope संभवति.” ↩︎
-
“सुप्त॰ R.; सुषुप्ति॰ M.” ↩︎
-
“M. omits निद्रा,” ↩︎
-
“॰शमत्रासा न संभवन्ति T; ॰त्रासा न भवन्ति (i e. राम is dropped ↩︎
-
“रौद्राद्भुतनिर्वेदो M.” ↩︎
-
“T drops अमर्ष.” ↩︎
-
“॰धृतिसंभवः M.” ↩︎
-
“अत्रासाम् M.; आसाम् M.” ↩︎
-
“T’ omits अथ.” ↩︎
-
“छाया। रुद्रनरेन्द्रस्य गुणान् गायति बालत्वे सविस्रम्भम्। लज्जति दरपुलकितो युवतिजनो यौवने गातुम्॥” ↩︎
-
“बालतणम्मि M.” ↩︎
-
“विस्सग्मं T॰.” ↩︎
-
“॰वुलइओ T॰.” ↩︎
-
“गाई M.” ↩︎
-
“विकारस्तु भावो M.” ↩︎
-
“इत्यादि R.” ↩︎
-
“छाया। मा भवतु कस्यापि स्फुटमिति मुग्धे करोषि वल्लभं हृदये। घोप्यते तव भावः सर्वाङ्गीणैः पुलकैः॥” ↩︎
-
“कुहइ T.; पुढंअ M.” ↩︎
-
“कुणसि T॰; कूणसि M.” ↩︎
-
“हिइए P.” ↩︎
-
“उपसिज्जइ P.” ↩︎
-
“माअ P.; भावो M.” ↩︎
-
“॰गीणेर्हिP.” ↩︎
-
“॰एहिं P.; M.” ↩︎
-
“t. drops मुख्यार्थ.” ↩︎
-
“बहूआप M.” ↩︎
-
“लज्जाआ M.” ↩︎
-
“॰लधणं M.” ↩︎
-
“वाग्भिर्गत्यादिचेष्टितैः P.” ↩︎
-
“पेछह P.” ↩︎
-
“सहिओ T, M.” ↩︎
-
“चरिभाई P.” ↩︎
-
“॰कूणती M.” ↩︎
-
“रण्णी सु P.” ↩︎
-
“छाया। कस्य कृते केन कृतं काकतिपुरस्त्रीणां सौन्दर्यम्। साधारणभूषया प्रियसखि त्रैलोक्यरमणीयम्॥” ↩︎
-
“॰इथ्थिआणसुन्दरें T; ॰इन्धीआण सुन्दर M.” ↩︎
-
“साधारण॰ M.” ↩︎
-
“॰भूसाए वि M.” ↩︎
-
“जंसहि T; M.” ↩︎
-
“तेलोङ्क॰ T’.” ↩︎
-
“सहासं M.” ↩︎
-
“तदा तु प्रत्यु॰ R.” ↩︎
-
“॰स्तारुण्यं M.” ↩︎
-
“In the commentary the order of treatment is विभ्रम, विच्छित्ति and विलास.” ↩︎
-
“दिअहो M.” ↩︎
-
“विरओत्ति M.” ↩︎
-
“हत्ते M.” ↩︎
-
“णोअराई M.; णूपुराई P.” ↩︎
-
“चलणेसुM.” ↩︎
-
“कुलई P.; कूणह M.” ↩︎
-
“वलआई P.” ↩︎
-
“क्रोधाश्र॰ T.” ↩︎
-
“॰भीत्यादिसंकरः R.” ↩︎
-
“गेह्णति P.; गह्णन्ते M.” ↩︎
-
“काकइणादे T.; णरणाहो P.” ↩︎
-
“व्विणअइ P.” ↩︎
-
“मिठडी P.” ↩︎
-
“वाचा P.” ↩︎
-
“भावसुचितम् R.” ↩︎
-
“वलयति t.” ↩︎
-
“॰कथनाद्वय P.” ↩︎
-
“मदुराई P.” ↩︎
-
“चरिआई P.” ↩︎
-
“बहू पणं (वध्याः ननु ↩︎
-
“पकओ P.” ↩︎
-
“भावो M.” ↩︎
-
“तहा P.” ↩︎
-
“॰भवोद्भव॰ P.” ↩︎
-
“गुणान् न गणयति t.” ↩︎
-
“कोपने for प्रकोपजनको t.” ↩︎
-
“॰द्वारोति भावः t.” ↩︎
-
“सादरम् M.” ↩︎
-
“तिष्ठतु P.” ↩︎
-
“ख्यातम् M.” ↩︎
-
“°निकाण॰ M.” ↩︎
-
“॰दनुरभससेवा॰ R.” ↩︎
-
“॰गृहीत॰ t.” ↩︎
-
“परिकीर्त्तितम् R.” ↩︎
-
“॰मान्त्र॰ M.” ↩︎
-
“संभ्रम॰ P.” ↩︎
-
“॰ज्वरा R.” ↩︎
-
“भूयसंभ्रमः R.” ↩︎
-
“॰मल्पातिहसितम् R.; ॰मल्पोपहसितम् R.” ↩︎
-
“मणिमयमञ्जीरा॰ t.” ↩︎
-
“॰तापाङ्गाश्च t.” ↩︎
-
“हासः R.” ↩︎
-
“छाया। यथा यथा हसति मृगाक्षी यौवनलक्ष्मीशिक्षिता मधुरं। तथा तथा कुसुमेषुशरा विकसन्ति प्रियस्य आशा च॥” ↩︎
-
“जोब्वणलछ्छीप T, ( यौवनलक्ष्म्या ↩︎
-
“॰सिकिआ P.” ↩︎
-
“आ M.” ↩︎
-
“॰ब्रीडा R.” ↩︎
-
“मूर्छ्छना R.” ↩︎
-
“कामशास्त्रानुसारिमिः M.” ↩︎
-
“केचित्तु दशा॰ P.” ↩︎
-
“स्वरूपं निरूप्यते उदाहरणं च P.” ↩︎
-
“विशेषो नास्तीति॰ P.” ↩︎
-
“णिवो M.” ↩︎
-
“णअणस्स M.” ↩︎
-
“अतक्कि॰ M.” ↩︎
-
“॰ओस्सओ T’; असवो M.” ↩︎
-
“संजाओ M.” ↩︎
-
“ब्व. P.” ↩︎
-
“विभ्रमः R.” ↩︎
-
“सहि P.; सई M.” ↩︎
-
“मम P.” ↩︎
-
“मर्ण M.” ↩︎
-
“विलग्गाइ M.” ↩︎
-
“॰णरिदम्मि M.” ↩︎
-
“कुरिआसि P.M.” ↩︎
-
“विमुत्ता M.” ↩︎
-
“इलावो M.; सहिओ P.” ↩︎
-
“तुह्ममु M.” ↩︎
-
“॰हसिद॰ M.” ↩︎
-
“॰गम्मिणाई T.” ↩︎
-
“सिणह॰ M.” ↩︎
-
“॰सिणिधा॰ P.” ↩︎
-
“॰मरिआई P.” ↩︎
-
“रुद्दणिवलोड॰ M.” ↩︎
-
“॰दाई M.” ↩︎
-
“कइ आणु T’ ( कदा नु ↩︎
-
“मंममि T.” ↩︎
-
“॰ददि M.” ↩︎
-
“॰ससृष्ट॰ M.” ↩︎
-
“मुहवो M.” ↩︎
-
“तअ T.” ↩︎
-
“॰सभाओ P.; ॰सम्भावो M.” ↩︎
-
“पब्व P.” ↩︎
-
“विनिद्रत्वं विरहादिसमुद्भवम् T.” ↩︎
-
“कह कह वि (कथंकथमपि ↩︎
-
“द्दीदा P.” ↩︎
-
“णिदो M.” ↩︎
-
“वेद M.” ↩︎
-
“॰ममिगम्यते t.” ↩︎
-
“स्त्रिया t.” ↩︎
-
“भूमिः M.; मूर्मे P.” ↩︎
-
“तां त्वां च R., M.” ↩︎
-
“दुसअइ P.” ↩︎
-
“°दिठ्ठिं T.” ↩︎
-
“णिदह T.” ↩︎
-
“मणआ॰ P.” ↩︎
-
“माहाप्यं P.; माइप्पं M.” ↩︎
-
“परम्मुहा M.” ↩︎
-
“दुर्म M.” ↩︎
-
“लज्जात्यागः T.” ↩︎
-
“॰समअं M.” ↩︎
-
“वहूआ M.” ↩︎
-
“गुरूपण M.” ↩︎
-
“नरेसर॰ P.” ↩︎
-
“किंखइ M.” ↩︎
-
“दसणामअअं T. (मृतकम् ↩︎
-
“कृतम् T.” ↩︎
-
“त्वाम्यन्तरी T.” ↩︎
-
“चिततीए M.” ↩︎
-
“णरिंद M.” ↩︎
-
“॰त्थितं P.” ↩︎
-
“करणाई P.” ↩︎
-
“सुगाए T.” ↩︎
-
“P. drops कथितम्.” ↩︎
-
“परस्परालोकन॰ M.” ↩︎
-
“कथिता for गणना कुता M.” ↩︎
-
“drops वत्.” ↩︎
-
“t. drops दिता.” ↩︎
-
“हृदयनिहिते T.” ↩︎
-
“पुनः पुनर॰ P.” ↩︎
-
“॰प्रवासादिहेतुकः T.” ↩︎
-
“सार्धमपराणि M.” ↩︎
-
“रत्याख्यस्थायिभावः t.” ↩︎
-
“॰मवलोकनं वा M.” ↩︎
-
“नायकस्यान्यासत्किमया चित्तविक्रिया ईर्ष्या M.” ↩︎
-
“॰सक्तिभावाञ्चित्त॰ P.” ↩︎
-
“॰त्वमप्यमिमेने t.” ↩︎
-
“लक्ष्मीरस्य R.; M.” ↩︎
-
“तदालोकने R.” ↩︎
-
“वक्त्रस्था च P.; वक्त्रस्थापि M.” ↩︎
-
“॰संयोगनायिका॰ P.” ↩︎
-
“समागमे M१.” ↩︎
-
“सरूपस्तदानीम् M२.” ↩︎
-
“मानोङङ्घनम् t.” ↩︎
-
“॰स्थाने t.” ↩︎
-
“प्रवासो नाम यूनोर्देशान्तरवृत्तित्वम् P.” ↩︎
-
“॰रप्युत्सवेषु M.” ↩︎
-
“महिवल्लमा R.” ↩︎
-
“विराहातिपातात् M.” ↩︎
-
“पारावतीरमण॰ R.” ↩︎
-
“॰कूणित॰ R.” ↩︎
-
“चन्द्रवदना T.” ↩︎
-
“॰द्वर्त्तमानार्थे t.” ↩︎
-
“सख्येतस्य P.; R.” ↩︎
-
“जन्मसद्मादरात् M.; जन्मपद्माकरः M२.” ↩︎
-
“निपुणो P.” ↩︎
-
“जानामि R.” ↩︎
-
“तत्र M२.” ↩︎
-
“भावशान्तिर्यथा M.” ↩︎
-
“॰विष्टपस्य M.” ↩︎
-
“तत्र M.” ↩︎
-
“शमः M.” ↩︎
-
“तदा R., M.” ↩︎
-
“॰कृतहर्षयोः P.” ↩︎
-
“॰हर्षामर्धयोः M.” ↩︎
-
“निन्दन्त्वद्य T., M.” ↩︎
-
“॰पान्वेषणेनानुभावेन t.” ↩︎
-
“॰मूलो t.” ↩︎
-
“॰दुनीतिवैभव॰ t.” ↩︎
-
“ब्रजेद् P., M., M4, M5.” ↩︎
-
“कस्माद्विधिः P.” ↩︎
-
“काङ्क्षते R.” ↩︎
-
“t. drops उक्त.” ↩︎
-
“मध्यमकैशिक्यामुदाहरणे (काव्यप्रकरणे omitted ↩︎
-
“M. and R. drop this line and after having given the two verses R. has अत्र बीमत्सरौद्ररसयोः संकरः and M. has अत्र रौद्रबीमत्सरसयोः संकरः.” ↩︎
-
“सृष्ट॰ T.” ↩︎
-
“॰स्तदुपस्कारत्वेना॰ t.” ↩︎
-
“अय॰ p.” ↩︎
-
“॰लाभे P.” ↩︎
-
“एवमन्यदपि द्रष्टव्यम् R.” ↩︎
-
“नायिकाश्रित एव R. M.” ↩︎
-
“अत एव माल॰ T.” ↩︎
-
“॰शब्देभ्योऽपि T, M” ↩︎
-
“५ अयं च p.” ↩︎
-
“मावादि॰ P.” ↩︎
-
“M. drops अनुकार्येण.” ↩︎
-
“मृन्ययै॰ t.” ↩︎
-
“॰मप्युपलक्षकम् t.” ↩︎
-
“न तु P.” ↩︎
-
“T drops अपि.” ↩︎
-
“॰पाटवेन घटते M.” ↩︎
-
“T. and M. omit एषु.” ↩︎
-
“रसानाम् T.” ↩︎
-
“अपिशब्दादविरोधे t.” ↩︎
-
“अविरोधो विरोधो वा P.” ↩︎
-
“रसेऽङ्गिनि P.” ↩︎
-
“मता for संमता P. R.” ↩︎
-
“तथा चोक्तम् P.” ↩︎
-
“T. has तथा हि after शृङ्गारतिलके.” ↩︎
-
“मय॰ P.” ↩︎
-
“औत्सुक्यं विस्मयो वेगो R.” ↩︎
-
“॰विस्मयी वेगो M.” ↩︎
-
“रतिमंदः R.” ↩︎
-
“मोहोऽमर्षणम् M.” ↩︎
-
“निबोद्धव्या M.” ↩︎
-
“मावा वाच्या R.” ↩︎
-
“चेति P.” ↩︎
-
“अमषेञ्च वितकंञ्च प्रतिबोधमदौ धृतिः P.” ↩︎
-
“॰सूया च M२.” ↩︎
-
“॰श्चोपमर्षणम् R., M.” ↩︎
-
“संकराःस्वीक्रियन्ते M.” ↩︎
-
“P. hasअन्याङ्गत्वेन before this.” ↩︎
-
“॰भासनिबन्धने P.” ↩︎
-
“उर्जस्वी अलंकारः M.” ↩︎
-
“॰निमन्बने P.” ↩︎
-
“समाहितोऽलंकारः R., M.” ↩︎
-
“॰निवन्धे M.” ↩︎
-
“॰प्रेयोर्जस्वित् P.” ↩︎
-
“P. and M. drop भावशान्ति.” ↩︎
-
“तेषामु॰ M१. M२.” ↩︎
-
“॰मुत्पाद्यते t.” ↩︎
-
“॰कानुकार्ययो॰ p.” ↩︎
-
“निमज्जति t.” ↩︎
-
“निबिडयति P.” ↩︎
-
“रसमरः P.” ↩︎
-
“अतो P.” ↩︎
-
“एव M१.” ↩︎
-
“विभ्रत्यपि च M.” ↩︎
-
“रसव्यञ्जका t.” ↩︎
-
“एव न लौकिकत्व॰ P.” ↩︎
-
“॰मपेक्ष्य किं तु t.” ↩︎
-
“स्वादुत्वं t.” ↩︎
-
“M. omits मूत.” ↩︎
-
“॰भूतानाम् M4.” ↩︎
-
“P drops गुणानाम्.”
तत्र दोषसामान्यलक्षणम्। ↩︎
-
“॰हेतूनां दोषाणामपि M., P. drops दोषाणाम्.” ↩︎
-
“पदगता दोषाः M.” ↩︎
-
“चिन्त्यन्ते M.” ↩︎
-
“दित्यर्थः m.” ↩︎
-
“अत्र m.” ↩︎
-
“पदारब्बत्वात् m.” ↩︎
-
“॰मात्रार्थं तन्त्रिरर्थक॰ P.” ↩︎
-
“॰प्रकृप्त्यर्थम् P.” ↩︎
-
“°मिष्यते R. M.” ↩︎
-
“यस्मात् संदिग्धा॰ R.” ↩︎
-
“पामरेष्वपि यत् प्रायः प्रसिद्धं R.; पामरेषु प्रसिद्धं यत् तह्नास्यमनुमन्यते M.” ↩︎
-
“॰प्रस्थितम् R.” ↩︎
-
“॰प्रयुक्तम् M.; ॰प्रतीतं यदप्रती॰ T.” ↩︎
-
“यदप्रतीतं तदुच्यते R; यदप्रतीतमुदाहृतम् M.” ↩︎
-
“यदमङ्गल्यं R.; तदमङ्गल्यजु॰ M.” ↩︎
-
“p. drops मात्र.” ↩︎
-
“च्युतो यस्मात् m.” ↩︎
-
“न प्रसिद्धार्थे m.” ↩︎
-
“वनवृत्तीनाम् P. M.” ↩︎
-
“सर्वेऽतस्ते R.” ↩︎
-
“दैवतशब्दपुलिङ्गप्रयोगः R.” ↩︎
-
“प्रयुक्तः R.; M” ↩︎
-
“॰मीदृशीं R.” ↩︎
-
“सहिष्यध्वे कथं M.” ↩︎
-
“जीवनम् M.” ↩︎
-
“m. has before this ‘दारेष्वपि गृहः जाया च गृहिणी गृहाः’ इति विश्वामरहलायुधाः।.” ↩︎
-
“मध्यपद॰ m.” ↩︎
-
“॰विधेयांशस्याप्युदाहरणम् T,; M.” ↩︎
-
“॰मस्माभिररण्ये M.” ↩︎
-
“जलधि पर॰ T.” ↩︎
-
“नेयार्थक॰ T.” ↩︎
-
“च्युतसंस्कारः T.” ↩︎
-
“नगरेषु T.” ↩︎
-
“P. has अत्र पर्वतेषु वर्त्तनं……………प्रयोजकम्। नमस्वदशनाः……………क्लिष्टम् for अत्र नमस्वदर्शनाः……………क्लिष्टम्। पर्वतेषु वर्त्तनं………‘दप्रयोजकम्.” ↩︎
-
“ध्वजे P. ध्वजेषु M.” ↩︎
-
“पर्वतेष्वित्यतिदूरत्वात् P.” ↩︎
-
“गूढार्थः M.” ↩︎
-
“॰श्यामगल्ल॰ P.” ↩︎
-
“॰कटी॰ M.” ↩︎
-
“॰हृदयस्य वाचकत्वा॰ P., M.” ↩︎
-
“व्यर्थाभवत् कथम् M.” ↩︎
-
“कथं भवेत् P., M.” ↩︎
-
“॰कारिप्रतीतिः M.” ↩︎
-
“M. drops दुःख.” ↩︎
-
“प्रयुक्तविनाशमिति शब्दा॰ P., प्रसिद्धाद्विनाश॰ M.” ↩︎
-
“R. drops अत्र.” ↩︎
-
“R. and M. drop पद.” ↩︎
-
“॰रमङ्गलाङ्गत्वम् M.” ↩︎
-
“साधनं नीचमि॰ M.” ↩︎
-
“॰मित्यनेनाधोवायु॰ R.” ↩︎
-
“॰मीदृशाम् P.” ↩︎
-
“प्रकीर्तितम् R.” ↩︎
-
“पदद्वये P.” ↩︎
-
“शृणुधातोरात्मनेपदित्वे P.” ↩︎
-
“भवेदर्थः P. T.” ↩︎
-
“व्युक्रमः P.” ↩︎
-
“शब्दो वा P. T.” ↩︎
-
“करिणोऽथवा M, P.” ↩︎
-
“॰मकुर्वन्तो M.” ↩︎
-
“॰मुत्रैः कृष्टत्वात् R.” ↩︎
-
“T. drops अथवा.” ↩︎
-
“इत्यत्र क्रममङ्गः M.” ↩︎
-
“तुरङ्गाणामिति M.” ↩︎
-
“वैरूप्यम् M.” ↩︎
-
“पौनरुके P., R.” ↩︎
-
“तु R.” ↩︎
-
“यथामुखं मही॰ P.” ↩︎
-
“इति न संबन्धः P.” ↩︎
-
“मानेनास्माभिर्यत्तुणम् M.” ↩︎
-
“संपूर्णं न P.” ↩︎
-
“वन्यैश्चाश्वासिता वयम् M.” ↩︎
-
“शैलवनवृत्तीन् P.” ↩︎
-
“विवक्षितः R.” ↩︎
-
“॰संबन्धोपूर्णः M.” ↩︎
-
“मानसेति m.” ↩︎
-
“॰वृत्तिः समुश्चीयते m.” ↩︎
-
“अत्र T.” ↩︎
-
“॰प्यन्ध्ररेन्द्रस्य R., M.” ↩︎
-
“तस्मिन् वयं निपतिता R.” ↩︎
-
“वाक्यगर्भत्वम् P.; वाक्यगर्भितम् M.” ↩︎
-
“लिङ्गभिन्नता M.” ↩︎
-
“M. drops यथा.” ↩︎
-
“॰नृपतेर्ध्वजिन्या M., ॰नाथस्य ध्वजिन्या M.” ↩︎
-
“॰दाहरणम् m.” ↩︎
-
“दण्डिना m.” ↩︎
-
“अत्रा° R.” ↩︎
-
“द्वयोर्यथाक्रम॰ T.” ↩︎
-
“मागधेशितुः P.” ↩︎
-
“क्षाममुखानाम् R.” ↩︎
-
“॰पद्ममात्रम् R.” ↩︎
-
“म्लानपद्मोत्पल॰ P.” ↩︎
-
“इति न वक्तव्यम् M.” ↩︎
-
“वयंयथा R.” ↩︎
-
“सर्वतो निर्झरा॰ R.” ↩︎
-
“न्यूनोपमत्वम् M.” ↩︎
-
“॰त्त्योपमानोपमेयवाची P.” ↩︎
-
“P. drops तृतीयवर्णे.” ↩︎
-
“पदान्त्यवर्णस्य M.” ↩︎
-
“॰शिशूनपि P.” ↩︎
-
“निहितम् R.; लिखितम् M.” ↩︎
-
“॰नन्वयारूपदूषणम् R.” ↩︎
-
“श्रव्यत्व॰ m.” ↩︎
-
“यत्रारीतिकमुच्यते R.” ↩︎
-
“कारुण्ये M.” ↩︎
-
“॰नुचितं वर्णाडम्बरं विहितम् P.” ↩︎
-
“॰विसर्गकः M.” ↩︎
-
“जातो यतो वासो धृतो मरौ P.” ↩︎
-
“दीणां M.” ↩︎
-
“ब्रह्मणे M.” ↩︎
-
“॰शब्दे वक्तव्ये नोक्तः R.; ॰शब्दो नोक्तः P.” ↩︎
-
“॰रात्तकपतत्प्रकर्षे R.; ॰रात्तकम्। P.,M.” ↩︎
-
“॰रुदाहरणं यथा P.” ↩︎
-
“॰भल्लुक॰ M.” ↩︎
-
“पुनरादाने M.” ↩︎
-
“पूर्जर॰ T.” ↩︎
-
“विपाण्डराः M.” ↩︎
-
“सूचांशुपाण्डुरा M.; सुधांशुपांडुरा R.” ↩︎
-
“परिपूर्णमण्डला॰ M.” ↩︎
-
“मण्डलाकाररूपक्रम R.” ↩︎
-
“इत्यधिकः M.” ↩︎
-
“भप्रक्रम R.” ↩︎
-
“भग्नक्रममिहेष्यते P.” ↩︎
-
“काननीकृताः M.” ↩︎
-
“बहुवचनान्तपरतया T.” ↩︎
-
“प्रथमम् is dropped in R. and M.” ↩︎
-
“प्रक्रमे P.” ↩︎
-
“॰वचनोक्तेः T.” ↩︎
-
“क्रमभ्रष्टम् R.” ↩︎
-
“M. and M, hare खिन्नं.” ↩︎
-
“॰समाश्रिताः T.” ↩︎
-
“स्याद् व्यर्थ तत् P.” ↩︎
-
“पाण्ड्यो न सेवते M.” ↩︎
-
“॰देकार्थ च निगद्यते M.” ↩︎
-
“विचेतनान् T.” ↩︎
-
“लक्शो R., M.” ↩︎
-
“संशयः R.” ↩︎
-
“संशयवदिष्यते T. M.” ↩︎
-
“जायेताम् M.” ↩︎
-
“हसन्ति M.” ↩︎
-
“लतावपुःश्रियाग् M.” ↩︎
-
“॰कर्मत्वे M.” ↩︎
-
“॰भावाभावस्तत् स्यादपक्रपम् P.” ↩︎
-
“॰कालमाविनो मुख॰ R., M.” ↩︎
-
“॰त्यपक्रमम् R.” ↩︎
-
“खिन्नम् M. M.” ↩︎
-
“तत्खिन्नम् M., M.” ↩︎
-
“विचात्रा लिखिता M.” ↩︎
-
“निषीदन्ति M.” ↩︎
-
“मरुस्थले वासविषादस्य P.” ↩︎
-
“मालस्थलगत॰ P., T.” ↩︎
-
“॰लिपिमावस्य M.” ↩︎
-
“प्रकीर्तितम् M.” ↩︎
-
“वोवयित्वा॰ m.” ↩︎
-
“परुषः M.” ↩︎
-
“॰विप्रयोगखित्रानाम्” ↩︎
-
“R. drops स्त्रीणाम्,” ↩︎
-
“संग॰ P.” ↩︎
-
“हीनोपमा M., R.” ↩︎
-
“भवद्भिर्विहता T.” ↩︎
-
“॰त्यधिकोपमा R., M.” ↩︎
-
“॰सदृक्षोपमम् T.” ↩︎
-
“R. omita यथा.” ↩︎
-
“विन्ध्यस्य R.” ↩︎
-
“मालेक्षणोञ्चलद्वह्नेः R.” ↩︎
-
“न्यूनाधिकाम्यामनयोर्भेदः m.” ↩︎
-
“अप्रसिद्धोपमानं यया R.” ↩︎
-
“स्मृतम् T.” ↩︎
-
“॰क्लिन्न॰ T.” ↩︎
-
“M. omits कविलोके.” ↩︎
-
“हेतोर्विनार्थकथनम् M.; हेतुं विनार्थकथनम् M.” ↩︎
-
“प्रचक्षितम् T; प्रचक्षते M.” ↩︎
-
“मौक्तिकान्तिके P., R.” ↩︎
-
“अत्र पदवीयं न सुभ्रुव इत्यत्र P.” ↩︎
-
“पदवी न भवती॰ M.” ↩︎
-
“निरलकृतिः P., M.” ↩︎
-
“निरलकारमिष्यते R., निरलंकृतिरुच्यते P.” ↩︎
-
“॰वोदाहरणं प्रदर्शितम् T.” ↩︎
-
“लवणाम्बुधिः R.” ↩︎
-
“सामयिष्यति T.” ↩︎
-
“उत्तरस्यां दिशि R., M.” ↩︎
-
“मुक्ताविभूषणाः R., M.” ↩︎
-
“॰भ्रष्टः M.” ↩︎
-
“॰मतुल्यार्थनिबन्धने M.” ↩︎
-
“दोषान्तरम् M.” ↩︎
-
“॰मुदादार्याणि M.; ॰मुदाहार्यम् M.” ↩︎
-
“रसभावानाम् M.” ↩︎
-
“R. has इति दोषप्रकरणम् and M. दोषपकरणं समाप्तम् before this.” ↩︎
-
“T drops श्री.” ↩︎
-
“कतिपयोपादानतप॰ m.” ↩︎
-
“यदातदादिपद॰ m.” ↩︎
-
“॰गाम्भीर्यम् R.” ↩︎
-
“॰स्तथा गतिः ॥ M.” ↩︎
-
“After this line M. has चतुर्विंशतिरेते स्युर्गुणाः काव्यप्रकाशकाः ॥” ↩︎
-
“एतेषाम् R., M.” ↩︎
-
“॰परिहारद्वारेण M.” ↩︎
-
“अतिशयचारुत्वं M.; चारुत्वादिहेतव॰ R.” ↩︎
-
“दुष्टपरिहार॰ T.” ↩︎
-
“सर्वेः संमतम् R., M.” ↩︎
-
“दोषाभावतयापि R.; दोषाभावस्यापि M.” ↩︎
-
“P. and R. drop रूप.” ↩︎
-
“मतम् M.” ↩︎
-
“निवर्हणायार्थम॰ M.” ↩︎
-
“॰व्यक्तिः संमता M.” ↩︎
-
“॰निरासाय M.” ↩︎
-
“अनौचित्यद्दत्यै M.” ↩︎
-
“॰निराकरणायो॰ R.” ↩︎
-
“च्युतसंस्कारपरिहारार्थं सौशब्द्यमिष्टम् is found before this in P.” ↩︎
-
“॰निराकरणाय R., M.; ॰लोपायौ॰ M.; ॰निवृत्त्यर्थ॰ P.” ↩︎
-
“भोज m.” ↩︎
-
“भोजमेतेना॰ m.” ↩︎
-
“॰संस्कार॰ P.” ↩︎
-
“॰निवृत्यर्थ॰ R. M.” ↩︎
-
“परुषनिराकरणार्थं B.; परुषदोषनिरा करणाय M.” ↩︎
-
“प्रेयो मतः M.” ↩︎
-
“॰परिहारत्वेन R, M.” ↩︎
-
“मुश्लिष्टपदता M.” ↩︎
-
“॰पदत्वेन मासमानत्वम् P.; ॰पदत्वेनावभासमानत्वम् R.” ↩︎
-
“संश्लिष्टित्वम् P.” ↩︎
-
“॰मन्दयगुण॰ M.” ↩︎
-
“सोडुम् M.” ↩︎
-
“॰मेकवदवमासमानत्वात् T., ॰मेकवत् प्रतिभासमानात्या M. १२ ॰मनोरमे K.” ↩︎
-
“॰समर्पणात् P., ॰समर्पणपददान् M.” ↩︎
-
“॰श्लिष्ट॰ m.” ↩︎
-
“°चञ्चवो R” ↩︎
-
“तुल्यवद्भणनात् M.” ↩︎
-
“सुकुमारता T’.” ↩︎
-
“सौकुमार्यं तदुच्यते R.; सौकुमार्यमुदीर्यते M.” ↩︎
-
“°वर्णवच्चत्वम् P., R.” ↩︎
-
“कल्पद्रुमाः m.” ↩︎
-
“°चञ्चवः p.” ↩︎
-
“°वदनांशुभिःR.” ↩︎
-
“यत्र T.” ↩︎
-
" M. drops अत्र.” ↩︎
-
" R. has the treatment of औदार्य before that of कान्ति” ↩︎
-
" भावः m.” ↩︎
-
“दातुः M,” ↩︎
-
“नमस्पृशि भृश° R.” ↩︎
-
“°तटा P” ↩︎
-
“°मौदार्यंचेष्यते बुधैः R., M,” ↩︎
-
“समित्या P.” ↩︎
-
" पलादान् P.; फलादान M.” ↩︎
-
“°कलित°R.” ↩︎
-
“सैन्येशसृष्टाः T’.” ↩︎
-
“वस्तुतः m.” ↩︎
-
“दशमिका° m.” ↩︎
-
“क्ष्वेडद्भटा M.” ↩︎
-
“°झांकृति° R.” ↩︎
-
" प्रियभावुकाः P.” ↩︎
-
“°मिद्धमुद्धत°P.; °कूलमुद्रज° M.” ↩︎
-
“°निग्रहीतुममलै°P.” ↩︎
-
" चाटूक्तौP, R., M.” ↩︎
-
“वीरता P.” ↩︎
-
“ध्रुवम् R.” ↩︎
- ↩︎
-
“गाढवन्धत्वमौर्जित्यम् M.” ↩︎
-
“गर्जद्रुर्जरगर्वपर्वतमिदस्त्वद्वाहुविस्फूर्त्तयः इत्यादि M.” ↩︎
-
" दुरीक्ष°R.; °द्दुरीक्षT.;°द्दुरीक्ष्य°T’.” ↩︎
-
“In M. and R. समाधि is treated after विस्तर.” ↩︎
-
“°धर्मस्य T’” ↩︎
-
“°रोषणम् T’” ↩︎
-
“च्छाद्धाराद्रिंR.” ↩︎
-
“ये दे P.” ↩︎
-
" °शतान्यत्तत्कृतान्दोलने M.” ↩︎
-
“In R, M, and T’. the order of the Guṇas afterविस्तर is— सौश्म्य, गाम्भीर्यं, संक्षेप, माविक, संमितत्व, प्रौढि, रीति, व्यक्तिand गति” ↩︎
- ↩︎ ↩︎
-
“कोर्तिचन्दन°M.” ↩︎
-
“°चर्चितम् M.; °चर्चिकाम् M;” ↩︎
-
“कटीP.” ↩︎
-
“राज्ञां विवर्तोऽयम् M2, M4.” ↩︎
-
“वीररुद्रनरेश्वरः R,M2,M4.” ↩︎
-
“संक्षेपेणोक्तिः M2,M4.” ↩︎
-
“°सोज्ज्वल° P.” ↩︎
-
“°श्लिष्टा ष्ठा° P.” ↩︎
-
“.कृfor कृञ्P,;कृञिM2.” ↩︎
-
" सोज्ज्वल° P.” ↩︎
-
" समुत्तेजनम् P., T’, R.; समुत्तेजनात् M.” ↩︎
-
" श्रीकाकतीन्द्रप्रभुम् T’.” ↩︎
-
“दिठ्ठिंM2” ↩︎
-
“सुमअ M2.” ↩︎
-
“वासन्तो वि M2.” ↩︎
-
“कर्त्तृकर्माभिधानाच्चेति m.” ↩︎
-
" दिरुक्तम्m. " ↩︎
-
“संमुत्तेजनम् P.” ↩︎
-
" यथाक्रमेण T’” ↩︎
-
“°वृत्तिः स्याद् भाविकम् M2.” ↩︎
-
“वाक्यप्रवृत्तिः R.” ↩︎
-
“वैरूप्यम् m.” ↩︎
-
“परिचयान् M2” ↩︎
-
“°त्परनृप°P.” ↩︎
-
“°मनस्येव M2. M4.” ↩︎
-
“T’. has उत्तरार्चे अवरोहः and M2. has उत्तरार्धे ह्रस्वाक्षरतया स्वरस्यावरोहः " ↩︎
-
“M2. omits अपि.” ↩︎
-
“°मपि R.,T’.” ↩︎
-
" °काराणामवस्थानम् P., R.” ↩︎
-
“निरूपितः T’.;सुनिरूपितस्व° M2.” ↩︎
-
“स्वरूपे भेदः M4. " ↩︎
-
“स्वरूपमुक्तं रुद्रदेवेन R., M2” ↩︎
-
“प्रसादादयो m.” ↩︎
-
“°पदवदाभास°P.” ↩︎
-
“°नुसारत्वेने° m.” ↩︎
-
“मिलितत्वात् m.” ↩︎
-
“R and M. have इति गुणप्रकरणम् before this.” ↩︎
-
“T’. drops श्री.” ↩︎
-
“माधुर्यादावन्तर्भाव त्वाङ्गीकारेणोक्तम्। m.” ↩︎
-
“M. has अथालंकारं निरूप्यते. " ↩︎
-
“सामान्यतद्गुणा° m.” ↩︎
-
“उपकुर्वन्ति R. M.” ↩︎
-
“सन्ततम् P.; सततम् R.” ↩︎
-
“जातुचित् P.” ↩︎
-
“तथैवं R., M.” ↩︎
-
“°स्तदलंकारतया B., M.” ↩︎
-
“आश्रयाश्रयिभेदेना° P.” ↩︎
-
“लोके सत् T’.” ↩︎
-
“R and M. drop अपि.” ↩︎
-
“भेदव्यवहारः R.; भेदाद् व्यपदेश M.” ↩︎
-
“T’has अलंकारविभागः as heading before तत्र” ↩︎
-
“अर्थालंकारस्य R.;अर्थालंकारवर्गस्य T’.” ↩︎
-
“उपकुर्वन्तीति m.” ↩︎
-
“काव्योपस्करणमुपयाति R.; काव्योपस्कारमुपैति M. " ↩︎
-
“°मायाति T’.” ↩︎
-
“भावसंधिis dropped in R. and M.” ↩︎
-
" रसभावादि व्यज्यते R., M.” ↩︎
-
“°गुणनिमित्तविशेषोक्ति°P.” ↩︎
-
“°समविषम° P.” ↩︎
-
“°विचित्र°R. M.” ↩︎
-
“°निमीलन°T’. " ↩︎
-
“°संदेहपरिणाम° R.” ↩︎
-
“°निदर्शनादृष्टान्त° R.,M.” ↩︎
-
“M. drops विषम.” ↩︎
-
“°विचित्रा°R., M.” ↩︎
-
“T’. dropsलोक.” ↩︎
-
“°न्यासा तर्कन्यायमूलाः R., M. " ↩︎
-
" शृङ्खलान्यायमूलाः M.” ↩︎
-
“°मीलनानि निह्नवमूलानि M.” ↩︎
-
“°वैरूप्यं P.” ↩︎
-
“R. drops निरूप्यते.” ↩︎
-
“°दपह्नुतीनाम् M.” ↩︎
-
“परस्परभेदः R., M.” ↩︎
-
“साधारणधर्मस्य M., R.” ↩︎
-
" अत्रा° t.” ↩︎
-
“प्रस्तुताप्रस्तुतव्यस्तत्वसमस्तत्वाभ्याम् R. " ↩︎
-
“उपमानोपमेयोस्तु M.;उपमानोपमेययोश्च R. " ↩︎
-
“उभयोः प्रस्तुतत्वे R., M.” ↩︎
-
“Before this R. has उत्कृष्टगुणयोगाद् भेदानुपलब्धौसमम्.” ↩︎
-
“निमीलनम् R.; मेलनम् P. " ↩︎
-
“अन्यत्र व्यवच्छेदे R.” ↩︎
-
“°व्यवच्छेद° M.” ↩︎
-
“°त्तद्गुणालंकारस्य M.” ↩︎
-
“द्वितीयसमुच्चयः R.” ↩︎
-
“R.and M. drop वक्रोक्ति.” ↩︎
-
“प्रतीत्यन्तरङ्गत्वात् R.;प्रतीत्यन्तरङ्गगम्यात् M.” ↩︎
-
“°विबुधै°P.” ↩︎
-
“यदा R., P.” ↩︎
-
“महीभृतः M.” ↩︎
-
“दुरीक्ष° M. " ↩︎
-
“योत्स्यध्वम् R. " ↩︎
-
“°निकरस्तत्रा°P.” ↩︎
-
“P and R. drop वृत्त्यनुप्रासे च. " ↩︎
-
“स्वरव्यञ्जनसमुदाययो°M.” ↩︎
-
“°निवासजातोदर्के t.” ↩︎
-
“पद्मेष्टा° P.” ↩︎
-
“पुनरुक्तिवत् P.” ↩︎
-
“°भासः सोऽलंकारः सतां मतः R.” ↩︎
-
“P. dropsउपस्प. " ↩︎
-
“काव्यगूढसूतत्वान्नेह वितन्यन्ते m.2t.” ↩︎
-
" मितरस्या°t.” ↩︎
-
“प्रमुखम् P.” ↩︎
-
“°विदा M.” ↩︎
-
“गीयते M., M2.” ↩︎
-
“°विपरीतवृत्ता°m.” ↩︎
-
“°च्छब्दालंकार्योऽयम् P.” ↩︎
-
“°विपरीतबृत्तौ m.” ↩︎
-
" चित्रमिष्यते R.” ↩︎
-
“यस्या समग्रां M.” ↩︎
-
" कनकस्थान°P.” ↩︎
-
“निमीलितेत्यादौ t” ↩︎
-
“पदार्थानां वा t.” ↩︎
-
“लोके व्यवहारा° t.” ↩︎
-
“°कारानन्तरं च t.” ↩︎
-
“°तिलक° P.” ↩︎
-
“सुकृतिषु विषये p.,m.” ↩︎
-
“विदिताश्च विकर्शिकाःt.;विदिताश्चविकर्णिकाः m.” ↩︎
-
“संपदन्ते t., m.” ↩︎
-
“अत्र वै° R.; अत्र चक्रेवै° M” ↩︎
-
" वैद्यनाथ° M.” ↩︎
-
“°कृतिर्वीर°M.” ↩︎
-
“जिष्णुः t.” ↩︎
-
“बिस्तर. t.” ↩︎
-
“लभन्ते R.” ↩︎
-
“ख्यातिनो T’” ↩︎
-
“क्षितिमति P.” ↩︎
-
“विविधैर्जन्तुभिस्तान° P.” ↩︎
-
" R. has before this इति शब्दालंकाराः and M. इति शब्दालंकारप्रकरणम्. " ↩︎
-
“t. drops श्री.” ↩︎
-
“अन्तराण्यक्षरा कुर्यात् t.;अन्तराण्यक्ष्णिया कुर्यात् m.” ↩︎
-
“°यथायथम्t.” ↩︎
-
“°प्रदक्षिणैःt.” ↩︎
- ↩︎
-
“कुण्डलित्यत्वमङ्गम् P.” ↩︎
-
“राकेन्दुबिम्बद्युतिः M2.” ↩︎
-
“तत्र M2.” ↩︎
-
" निदानत्वात् t.” ↩︎
-
“न्यूनोपमाधिकोपमाव्यावृत्तिः M2; दुष्टोपमादिव्यावृत्तिः M.” ↩︎
-
" क्षोण्या M2.” ↩︎
-
“सुवर्णाद्रिसमुद्रदिगन्तगजानाम् R.” ↩︎
-
" श्लेषव्यावृत्तिः P.;श्लेषालंकारवैषम्यम् P.” ↩︎
-
“R. omits from श्लेषे to गुणक्रियासाम्यम्.” ↩︎
-
“साम्याभावात् R., M1” ↩︎
-
“गोत्रपक्षे राजशब्देन T’” ↩︎
-
“T’. drops गोत्रशब्देन” ↩︎
-
“शब्दसाम्यं नोपमाप्रयोजकमपि तूपमाप्रतिमोत्पत्तिहेतुः श्लेष एवावसेय इत्यवोचत्। विद्यानाथः सर्वस्वकारसिद्धान्तश्रद्वालुतया श्लेष एवायं नोपमेत्याह। अत्रेत्यादिनाt.” ↩︎
-
“°साम्ये नोपमा°R. " ↩︎
-
“प्रतीपव्यावृत्तिः M. " ↩︎
-
“M. adds प्रतीपे उपमेयस्योपमानत्वकल्पनात् सादृश्यं वर्ण्यते। " ↩︎
-
“R and T’, omit उपमेयोपमायामु°—प्रतिपादनम्.” ↩︎
-
“For प्रतीयमानो°—वैलक्षण्यम् P. has गम्यौपम्परूपकादेव्यावृत्तिः and M. has गम्यौपम्यस्य रूपकादेर्व्यावृत्तिः” ↩︎
-
“संपत्पदः M1, M2. " ↩︎
-
“°चञ्चुM1, M2., R.” ↩︎
-
“विलक्यंते M2.” ↩︎
-
“काकतीन्द्रस्य R.” ↩︎
-
“°बिहारबलभी°R.” ↩︎
-
“सादृश्यादिना R.” ↩︎
-
" वीररुद्र महीपाले जपहोमं वितन्वति M.” ↩︎
-
“धूमरेणु° R.” ↩︎
-
“सादृश्यस्यR. " ↩︎
-
" T’. and M. drop चतुर्णाम्.” ↩︎
-
“द्विधा R.” ↩︎
-
“R. dropsशब्दानाम्” ↩︎
-
“तादृशाभिधान° t.” ↩︎
-
“तादृशादि° t.” ↩︎
-
“वाक्य गतसमागततद्धितT’; वाक्यतद्धितसमास° R.” ↩︎
-
“R. has इति after it. " ↩︎
-
" R. drops सदृशार्थे विहितस्य.” ↩︎
-
“धर्मानुपादानेऽन्वयासंभवान्नानुक्तधर्मा तद्वितगा श्रौती। P. " ↩︎
-
“लुप्तापि P.” ↩︎
-
" चार्थ्येव P., M.” ↩︎
-
“तथोदाहरणानि t.” ↩︎
-
“सादृश्यवति वर्त्तन्ते t.” ↩︎
-
" श्रौत्यादिविशेष t.” ↩︎
-
“°प्रयोगेष्विति P.” ↩︎
- ↩︎
-
" भूभृद्भुजे P.” ↩︎
-
" त्यजलम् P. " ↩︎
-
" P and R drop सह.” ↩︎
-
“नित्यसमासो विभक्त्यलोपश्चेति P. " ↩︎
-
“प्रतापरुद्रस्य भुजे R” ↩︎
-
“वाक्यगता पूर्णार्थी T.” ↩︎
-
" तादृङ्गही’ for तैस्तैर्मही’ P.” ↩︎
-
" वाक्यगा t.” ↩︎
-
“t. drops सह. " ↩︎
-
“समान धर्मावतिप्रत्ययः t.” ↩︎
-
“विभागादिति P.” ↩︎
-
“काकतीयो P.” ↩︎
-
“काकतीयनरेश्वरः R.” ↩︎
-
" M. drops एषूदाहरणेषु— पूर्णत्वम्.” ↩︎
-
“°षूपमानोपमेय°R.” ↩︎
-
“निबन्धनानीति T’.” ↩︎
-
“चक्रवाका M. " ↩︎
-
“°ओरादिभ्यनिवारण°t.” ↩︎
-
“पादपीठमनारतम् P.” ↩︎
-
“शुण्वन्त्यन्ध्रमहीभृतः R.; शृण्वन्त्यरिमहीभुजः P.” ↩︎
-
" बस्वेकसारा T’.” ↩︎
-
" काकतीये P.” ↩︎
-
“°जगन्मोहित° R.; °र्जगन्महिम°P. " ↩︎
-
“पुरन्ध्रयःP.” ↩︎
-
“R and M. drop एषू—दानम्” ↩︎
-
“पर्वतान् R.” ↩︎
-
" हैमगोत्रशिरसिR.” ↩︎
-
“°पद्मयति P.,R.” ↩︎
-
“पूर्वाचले P., R. " ↩︎
-
" णमुला लुप्ता T’.” ↩︎
-
“सत्सखी° M, P., R.” ↩︎
-
“दिलोपलुप्ताम् t.” ↩︎
-
“°मन्यदखिलम् P., R.” ↩︎
-
“‘णमूला लुप्ता T’.” ↩︎
-
" M. drops लुप्ता. " ↩︎
-
“°नृपेन्द्रखड्ग M. " ↩︎
-
“M. omits लुप्ता.” ↩︎
-
“The portion from इतिदशो°to लुप्तत्वम् is omitted in P. and M.” ↩︎
-
" °चार इत्येके’T’.” ↩︎
-
“गोत्रशैलेषु M., M2.” ↩︎
-
“°त्याचारक्यचि M2.” ↩︎
-
“अनुक्तधर्मोपमेयेवादिः कर्मक्यचा लुप्ता यथा P.; अनुक्तधर्मोपमेवादिरूपमेयवयचा यथा M.” ↩︎
-
“कीर्णाः P., R.;पूर्णाः M.” ↩︎
-
“कर्तृक्यङा लुप्ता यथा T’.” ↩︎
-
“कल्पशाखीयते P. " ↩︎
-
“अनुक्तोपमेया P., R.; अनुक्तधर्मोपमानवाक्यगा M.” ↩︎
-
“अनुक्तोपमेया P., R.” ↩︎
-
“P. drops हरिणा.” ↩︎
-
" तु नोक्तम् t.” ↩︎
-
“°धर्मोपमेया P.” ↩︎
-
“°भूमस्पृशा P., °शुभ्रश्रियः M. " ↩︎
-
“°विजृम्भितैःक्षत°P. " ↩︎
-
“धर्मोपमेया P.” ↩︎
-
" वदान्यो नान्योऽस्तीति T’, M1, M2. " ↩︎
-
“॰शीलत्वप्रजा॰ T.,M.” ↩︎
-
“॰नुपादानमिति भेदः P.” ↩︎
-
“T’. drops it.” ↩︎
-
“धर्मस्य चानुपा° M1.” ↩︎
-
“°नुपादानमिति भेदः P.” ↩︎
-
“°स्याधिक्यं न विवक्षितम् M1., M2.” ↩︎
-
“°पमानस्याधिक्यमुच्यते M2.” ↩︎
-
“प्रतीपालंकारात् P.” ↩︎
-
“मङ्गलान्वितम् M1.” ↩︎
-
" किं तु दुःशासनाः P.” ↩︎
-
“धर्मोपमानेवादिः P.; धर्मेवाद्युपमानं लुप्तम्M1., M2.” ↩︎
-
“P. has दर्शिता for एकोनविंशतिप्रकारा.” ↩︎
-
" उभयगतत्वेन च पृथगुपादानम् P.;M2. drops उभयगतत्वेन.” ↩︎
-
“वा द्विधा T’.” ↩︎
-
" क्यचौt.” ↩︎
-
" कर्मलोपेऽटी मिलिता भिदाः ।” ↩︎
-
" भूपाः P.” ↩︎
-
" तुल्यत्वम् M2.” ↩︎
-
“सकृदेवोपात्तम् P.” ↩︎
-
“द्विविधो M2.” ↩︎
-
“रामेणेव M1.” ↩︎
-
“For यथा T’.has वस्तुतो भिन्नयोरप्युपमानोपमेयधर्मयोः परस्परसादृश्याद् भिन्नयोः पृथगुपादानं विम्वप्रतिविम्वभाव इत्यालंकारिकसमयः।” ↩︎
-
“°सङ्गममण्डलः M2.” ↩︎
-
“t. drops फलितम्.” ↩︎
-
" °सुवर्णाचलयो°t.” ↩︎
-
“अन्यद् द्वैवि° P.” ↩︎
-
“भजन्ते P.” ↩︎
-
“P. drops हरति M1. has नीहारति.” ↩︎
-
“सुधाकरोति M2” ↩︎
-
“यशसो वैशद्यम् M2” ↩︎
-
“पदकार्यं जत्वं t.” ↩︎
-
“अत्रैकदेशस्यो°M2.” ↩︎
-
“°प्रधान° P.” ↩︎
-
“मूह्यम् M2.” ↩︎
-
“°सदृश°P.” ↩︎
-
“नोपमेयप्रत्यवमर्शः M.” ↩︎
-
“क्वचित् t” ↩︎
-
" क्वचिच्च t.” ↩︎
-
“°शृङ्खलापमादित्व° t.” ↩︎
-
“°प्रवीणम् P.” ↩︎
-
“पूर्वजस्मरणम् M.” ↩︎
-
“°निदर्शनालंकारा R.” ↩︎
-
“संप्रत्याहायांरोप° P.” ↩︎
-
“°दपह्नुतिप्रमुखाणाम् P., °दपह्नुतिमूलानामेवमादीनां च M. " ↩︎
-
“संदेहालंकारस्य P.” ↩︎
-
" M. drops the portion from भ्रान्तिमद°— toपह्नवेनारोपविषयतिरोधानम्” ↩︎
-
“परिणामे R.” ↩︎
-
“सर्वेभ्यः सादृश्यमूलेभ्यः R., M.” ↩︎
-
“प्रसङ्गमाह t.” ↩︎
-
“°भूतत्त्वादिति भावः t.” ↩︎
-
" अन्यत्रान्यधर्मारोप आरोपः P., T.” ↩︎
-
" माला चेति P.” ↩︎
-
“°धाराधरैवंरि P.; ‘धाराधरो वैरि M.” ↩︎
-
“यथा सर्वतो M.” ↩︎
-
“वर्त्तन्ते P. " ↩︎
-
“°प्रयोगमवान्नो°P.” ↩︎
-
“प्रासादिता° P.” ↩︎
-
“प्रसूनत्वरूपणेन T’; प्रसूनैर्निरुपणेनM.” ↩︎
-
" °देकदेशवर्त्तिR.; °देकदेशवृत्तिM.; °देकदेशवर्त्तित्वम् M2.” ↩︎
-
“यथा च T’” ↩︎
-
“°र्भूजौमन्दरभूभृतौM2.” ↩︎
-
" वाराशित्वरूपणेन T’.; वारिधरत्वरूपणेन M2.” ↩︎
-
“°रूपणेन T’. M2.” ↩︎
-
“सुधात्वरूपणम्° M2.” ↩︎
-
“°विस्रम्म° M.” ↩︎
-
“प्रक्ष्वेलिता R.” ↩︎
-
“प्रविदलोद्रो° T’” ↩︎
-
" कटाहरूपत्वम्. " ↩︎
-
" क्षौम° M.” ↩︎
-
" स्फारम् M. " ↩︎
-
“°हेतुकं रूपकं परम्परितमिति बोध्यम् M2.” ↩︎
-
“व्यवस्थितत्वादस्य T’.” ↩︎
-
“°विक्रमोद्दण्डो M.” ↩︎
-
“°नाश्रयोऽम्बुधि° R.” ↩︎
-
" श्रीकाकतीयदुग्धाब्धे P., R.” ↩︎
-
“°मुद्धताटोपाः P. " ↩︎
-
" खेलन्त्युच्छृङ्खलोन्नयाःP., R.” ↩︎
-
" राजमण्डल° t.” ↩︎
-
“पर्वतपक्षा t.” ↩︎
-
“°योषिद्विलास° R.” ↩︎
-
“भवति P.” ↩︎
-
“°गतत्वेM.” ↩︎
-
“षोडश भेदा भवन्ति P.” ↩︎
-
“°प्रतिनिमित्तत्वाद°.” ↩︎
-
“तत्र युक्तं ग्राह्मम् t.” ↩︎
-
“तस्येति भावः t.” ↩︎
-
“°मारोप्य°M.” ↩︎
-
“प्रकृतस्योपयोगी स्यात् M.; प्रकृतस्योपयोगित्वे Com.” ↩︎
-
" °व्यवच्छेदः M. " ↩︎
-
“प्रसाधनविधौहि P.” ↩︎
-
“°विषयात्मकतया p.” ↩︎
-
“°तादात्म्येन स्थितम्। t.” ↩︎
-
“°योगादिति भावः t.” ↩︎
-
" यथा p.” ↩︎
-
“R. omits परिणामो, R. has this verse after यथा— प्रतिभटविजयाय प्रस्थितस्याग्रयायी प्रलपदद्दनरूक्षो वीररुद्रप्रतापः। समजनि भुजशौर्य वर्मखण्डः सहायः समिति विहरतस्ते साक्षिणोवीरलक्ष्मीः॥ अत्र प्रतापभुजशौर्यादयः अग्रयायिवर्मादिरूपेण परिणमन्तः शत्रुविजयदेतौ समरकाल उपयोगमुपगताः।” ↩︎
-
“°क्षितीन्द्राः P.” ↩︎
-
“परिणामः t” ↩︎
-
“°विशेषत्वंt.” ↩︎
-
“°रमन्दसंपत्प्रदः M.; °रमन्दसत्त्वास्पदम् P.” ↩︎
-
“°चञ्चु T’. com.” ↩︎
-
“वा M.” ↩︎
-
“सुकुमारादिशरी°P.” ↩︎
-
“यशोराशयः M.” ↩︎
-
“°सरोर्मय°P., R” ↩︎
-
“चकोरायन्ति वृत्तये M.” ↩︎
-
“या स्यादन्यारोपे T’.” ↩︎
-
“°पदै°P., R.” ↩︎
-
“°डक्का° M.” ↩︎
-
“त्रस्तम्M.” ↩︎
-
“यथा is dropped by R, T’.” ↩︎
-
" °रुद्रदेवधरणी’ T’ " ↩︎
-
" मवाग्जातम् R.” ↩︎
-
“इत्यादिना t.” ↩︎
-
“इत्याह t.” ↩︎
-
“भूभूतां कैलासादीनां गणैः t.” ↩︎
-
" उल्सेखश्चसतां मतः P” ↩︎
-
“अर्थयोगाभ्याम् R.” ↩︎
-
" श्लेषे R.” ↩︎
-
“p. omits सूर्यः” ↩︎
-
“°द्वयमुच्यते M., R.” ↩︎
-
“विषय°R.” ↩︎
-
" विषयि°R.” ↩︎
-
" °नोपदर्शितम् P.” ↩︎
-
“प्राज्ञास्ताम्M.” ↩︎
-
“P. drops यत्र.” ↩︎
-
“संभावना M.” ↩︎
-
“तत्रोत्प्रेक्षा M., संभावनमुत्प्रेक्षा P.” ↩︎
-
“संभवान° P.” ↩︎
-
“रसंभावात्t.” ↩︎
-
“t.. omits आदि.” ↩︎
-
“ध्रुवम् is dropped by R. and M.” ↩︎
-
“R. drops तु. " ↩︎
-
“P. drops चतुर्णाम्” ↩︎
-
" °विषयत्वेन P.” ↩︎
-
“चतुर्थी R.” ↩︎
-
“हेतुकिया° R.” ↩︎
-
“°प्रकाराः R.” ↩︎
-
“निरवलम्बनत्वापातात् M.” ↩︎
-
“वाच्यवसाय°R. " ↩︎
-
“°विषयत्वेन R.” ↩︎
-
“यथा साध्ये T’.” ↩︎
-
“°न्यापेक्षितत्वात् M.” ↩︎
-
“फलत्वं संघटते P.;फलत्वेन संघटते M.; फलवेन संघटनम् R.” ↩︎
-
“तथा हि R” ↩︎
-
“संग्रहः t.” ↩︎
-
“°भोगादिव जगत्त्रयी R.” ↩︎
-
“यथा T’; omitted in R. and M.” ↩︎
-
“हृदयं समीकर्तु° " ↩︎
-
" वाच्येत्यादिना” ↩︎
-
“इत्यत्रोत्प्रे° " ↩︎
-
" °निमित्तभूतस्य R.” ↩︎
-
“भानुमतः प्रवेशस्य M.; भानुमतः खड्गप्रवेशस्य R.” ↩︎
-
“P. has निमित्तक for निमित्त " ↩︎
-
" गम्यते T’” ↩︎
-
“षट्पञ्चाशदभेदानाम् P.” ↩︎
-
" निमित्तयोर्द्वयोरुपादाने t” ↩︎
-
“°क्रियानुपादाने निमित्त° t.” ↩︎
-
“गम्यत t.” ↩︎
-
“°भुजाम् R.” ↩︎
-
" यशोऽपिवती P” ↩︎
-
" कोटीन्दु° P., M., R” ↩︎
-
“°शङ्कावकाशः M., T’.” ↩︎
-
“प्रियमादधानैःT’” ↩︎
-
“°मुपमानार्थो t” ↩︎
-
“मिच्छति t.” ↩︎
-
“जातिवचनात् is omitted in P.” ↩︎
-
“जातिरुत्प्रेक्षा M.” ↩︎
-
“संयति वीरवर्याः M.” ↩︎
-
“After this M. has अत्र भूमिपाला इति जात्यभावः” ↩︎
-
“जात्यभावोत्प्रेक्षा M.” ↩︎
-
“°प्रसूत° T’. " ↩︎
-
" रजश्छिन्नं कृत्वा प्रति° R.” ↩︎
-
" M. has उपात्तकियानिमित्तजातिहेतूत्प्रेक्षाand similar whole expressions further on.” ↩︎
-
" रोत्या R. M., Com.” ↩︎
-
“°महीप्रवासम् R.” ↩︎
-
“°वंशं तत्त्यागवैभवम् M.” ↩︎
-
“°माययौP.” ↩︎
-
“जातिफलाभावोत्प्रेक्षा R” ↩︎
-
" फलं निमित्तम् t.” ↩︎
-
“drops this sentence, so does M.” ↩︎
-
" °नृपतिद्विष°P.” ↩︎
-
“निवासविषये M” ↩︎
-
" चिकुरे प्रविकर्षति प्रतीक्षा M.;चिकुरेषु विकर्षते प्रतीपा° P.” ↩︎
-
" क्रियाया अभावः R., M.; क्रियास्वरूपाभावः T’” ↩︎
-
“क्रियाहेतुत्वाभावो° R.; कियाहेत्वभावो° T’. Com notices the omission of this kind of उत्प्रेक्षा.” ↩︎
-
“°मीदृक्षाम् P.” ↩︎
-
“घोषः P. R.” ↩︎
-
“हेमाद्रि°P., M. " ↩︎
-
“चन्द्रिकार्थान्P.; चन्द्रिकौघान् M.” ↩︎
-
“°संभ्रमः R.” ↩︎
-
“°खिलाङ्गी R.” ↩︎
-
“प्रशीत° R.” ↩︎
-
“°मुपैतः R” ↩︎
-
" करे P., R. " ↩︎
-
“आयुःस्थिति वैरि° M. " ↩︎
-
“गुणस्य हेतुत्वम् R” ↩︎
-
" गुणहेत्वभावोत्प्रेक्षाR.” ↩︎
-
“°संग्रही t.” ↩︎
-
“गुणफलत्वम् P.” ↩︎
-
“गुणफलाभाबो°R.” ↩︎
-
“°वासार्जित°M.” ↩︎
-
" लोकनविभ्रमेषु P. " ↩︎
-
“उत्प्रेक्षायामपि धर्मविषये श्लिष्टशब्दहेतुत्वं क्वचित् दृश्यते t.” ↩︎
-
“परिपूर्णिमेति M.” ↩︎
-
" R. omitsउत्प्रेक्ष्यः; M. has पारिजाताभावादुत्प्रेक्ष्यः” ↩︎
-
" क्षौण्डोत्तमः t.” ↩︎
-
“दक्षिण इत्यर्थः t.” ↩︎
-
" द्रव्यद्देत्वभावोत्प्रेक्षा R., T’.” ↩︎
-
“°मलिनाङ्गेन T’” ↩︎
-
“कैलासशतकोटये P.” ↩︎
-
" द्रव्यस्यफलत्वम् T’.” ↩︎
-
" द्रव्य फलाभावोत्प्रेक्षा R.; उपात्तद्रव्यफलाभावोत्प्रेक्षा M.” ↩︎
-
“विलीनाङ्गत्वेन P.,” ↩︎
-
“दिक्कालम् R.” ↩︎
-
“°मिवोत्थितम् R.” ↩︎
-
" °त्वाकाशाभाव इत्यर्थः P., R.” ↩︎
-
“इति महामहोपाध्यायविद्यानाथकृतौऽलंकारशाखेऔपम्यगर्भालंकारः R., M.” ↩︎
-
“°विवेचनम् T’.” ↩︎
-
“°जीवितम् P., R. " ↩︎
-
“P.drops the portion from यत्र कवि॰ to शयोक्तिः” ↩︎
-
“°तिलकं ललाटफलके t.” ↩︎
-
“drope रुचकेन. " ↩︎
-
“पञ्चमस्याध्य° t.” ↩︎
-
“मूला R.; °रूपत्वेऽनध्यवसायमूलोक्तिस्तदव्यति°P. " ↩︎
-
" कविप्रौढोक्ति° R.” ↩︎
-
“°कुलोदधेः T’.” ↩︎
-
“चित्रं मर्त्त्यमहोत्सवः R.; मर्त्त्यरूपो महोत्सवः M.” ↩︎
-
“°वस्तवाभेदेऽपि भेदः कथितः। ततः स्वतःसिद्ध°M.;for the whole prose passage P. has °वास्तवाभेदेऽपि° भेदाध्यवसायः।” ↩︎
-
“°सिद्धयोरभेदाध्यवसायः M. " ↩︎
-
“°रौन्नत्ययोर्भेदेऽयभेदाध्यवसायः T’” ↩︎
-
" drops अतः.” ↩︎
-
“कमलगुण° R” ↩︎
-
" सिद्धेऽत्र R” ↩︎
-
“°सृष्टीनामीश्वरेण M.” ↩︎
-
" °ध्यवसाय संपादयति t.” ↩︎
-
“त्रिभुवनत्राणाय M.” ↩︎
-
“°विरिञ्च्यो° M.” ↩︎
-
“°गोष्ठ्यामसं°M” ↩︎
-
“काकतिवीरदृष्टेः M” ↩︎
-
“°निरूपणातिशयोक्ति°M” ↩︎
-
“°रूपयातिशयोक्त्या T’.” ↩︎
-
" प्रकल्प्यते P; परिकल्प्यते R., M.” ↩︎
-
“सहार्थेन संबन्धेन M.” ↩︎
-
“अन्ध्र° M.” ↩︎
-
“अथोक्तसंगति° t. " ↩︎
-
" साधनं साधर्म्य°t.” ↩︎
-
“दिव्यमालापतनस्य R.” ↩︎
-
“°कालत्वमुक्तमिति R.” ↩︎
-
“°रूपश्लेषगर्भा°P.” ↩︎
-
“°रूपातिशयोक्तिमूला यथा P.; °रूपत्वातिशयहेतुर्यथा M” ↩︎
-
“°रूपविनोक्ति°M” ↩︎
-
“अथेति t.” ↩︎
-
“अत्र कृपाणेति t.” ↩︎
-
“परापतेत् P., M. " ↩︎
-
“रम्यतारम्यता वा स्यात् सा विनोक्तिरिति स्मृता॥T’” ↩︎
-
“°रनुस्मृता M.;°विलोक्यताम् P.” ↩︎
-
“अरम्यतया M.” ↩︎
-
“°रुद्रगुणवर्णनेन R. M. " ↩︎
-
“°श्रियामशोभनत्व° T’., M.” ↩︎
-
“कवीश्वरैः R., M.” ↩︎
-
" प्रतापरुद्रस्य R., M.” ↩︎
-
“प्रकाशिता R.,M.” ↩︎
-
“रम्यतया M. " ↩︎
-
“°मभिधानमिति P.” ↩︎
-
“प्राप्य M.” ↩︎
-
“चन्द्रस्य विना कलङ्केन R” ↩︎
-
“°वर्णना R.” ↩︎
-
“°साम्यसाधारणाद°R.” ↩︎
-
" °विशेषणसाम्यं यथा T’.;°विशेषणे यथा M. " ↩︎
-
“तत्रेति। t.” ↩︎
-
“प्रतिपाद्यते t.” ↩︎
-
" तच्छ्लेषः t.” ↩︎
-
“°मेखलाम् M.” ↩︎
-
“संमीलिताक्षाः परम् M.” ↩︎
-
“मेखलाम् M.” ↩︎
-
“°नाथेन संतर्जिता T’ " ↩︎
-
" विनाशमित्यर्थः t.” ↩︎
-
“°मशक्यं P.” ↩︎
-
“R. drops नृपाणाम्.” ↩︎
-
" °विशेषणे M” ↩︎
-
" भूतः स्वगुण° P .; भूतात्मागुण° R.” ↩︎
-
“°पुष्पथवा t.” ↩︎
-
“°समारोपणमेव M” ↩︎
-
“सरागः स्फुर°P.; सप्ताङ्गः स्फुर R.” ↩︎
-
“भेदकांशोक्तिसाम्यतः P.” ↩︎
-
“भेदः t.” ↩︎
-
“दिग्गजस्य प्रतीतिः R.” ↩︎
-
" लौकिकखड्गे R.” ↩︎
-
“तर्कशास्त्रेप्रसिद्ध° M.” ↩︎
-
“°व्यवहारारोपः M2” ↩︎
-
" सार्वभौमता t.” ↩︎
-
" शास्त्रीयवस्तुव्यव°t.” ↩︎
-
“गुरुष्विति P.” ↩︎
-
“आयुषेषु t” ↩︎
-
" च्छब्दप्रयोग° t.” ↩︎
-
“प्रतिदिशम् M.” ↩︎
-
" क्षितिपति R. T’.” ↩︎
-
“°शास्त्रीयवस्तुनि R., P.;R drops अत्रालंकार.” ↩︎
-
“°सिद्ध P., R.” ↩︎
-
“सालंकारलसद्वर्णसुP. " ↩︎
-
“°शास्त्रीयवस्तुनिP. " ↩︎
-
“भारताख्यलौकिकव्यवहार° R” ↩︎
-
“वस्तुविगद्यम् for श्रुतिग्राह्मम् t.” ↩︎
-
“वाक्यात्मके t.” ↩︎
-
“त्वर्थे t.” ↩︎
-
" व्युत्पद्यन्ति t.” ↩︎
-
“अन्येषामलंकाराणाम् is omitted in R.” ↩︎
-
“°र्निरूप्यते T’, M.” ↩︎
-
“केनचिदुक्तस्य P.; केनचित्प्रयुक्त M.” ↩︎
-
“R omits अन्येन.” ↩︎
-
“°नान्यचाविवक्षया P., M” ↩︎
-
“M. drops अन्या.” ↩︎
-
“वैलक्षण्यम् M.” ↩︎
-
“सिरिषM.” ↩︎
-
" णिमिरा° P.” ↩︎
-
“नूणा T’.” ↩︎
-
“वि मं M.” ↩︎
-
" किं पु P.” ↩︎
-
" त्वमपि न्यूना न मदसिR.” ↩︎
-
" स मेरुR.” ↩︎
-
“खल्वुपहास P.” ↩︎
-
“संख्या t. " ↩︎
-
" प्रयुक्तिकतया t.” ↩︎
-
“omits सा.” ↩︎
-
" काकतिरुद्रदेवः R.” ↩︎
-
" R.omits अथ.” ↩︎
-
“यत्र वस्तु R.” ↩︎
-
“साम्पगर्भनिगृहनार्थम् P.” ↩︎
-
“°ग्रहणसमयजनितम् T’, °परिग्रहणजनितम् M.” ↩︎
-
“रोमहर्षणम् T’” ↩︎
-
“व्याजोक्त्या किंचित्साम्यात् M.” ↩︎
-
“T’. and M. omit it” ↩︎
-
“°मुदाहरणे P.” ↩︎
-
“°तर्जितेषु R.” ↩︎
-
" संक्रान्तो न हि P.” ↩︎
-
“°तिरोधानं लक्षयति t.” ↩︎
-
“यत्रैकस्य वस्तुनो T’” ↩︎
-
" कीर्त्त्याR” ↩︎
-
“भयमूलभावशद्भयेति t.” ↩︎
-
“त्रयस्तु देवाः प्रथमम् R.” ↩︎
-
“कैलासादिविमलवस्तूनाम् P.” ↩︎
-
“°गुणग्रहः M.” ↩︎
-
" °भौक्तिकाः R.” ↩︎
-
" भूमिपतीनाम् T’. " ↩︎
-
“॰पादनख॰ R.” ↩︎
-
“॰ज्योत्स्नाधवलिमानं भजति P.” ↩︎
-
" स्थान्यस्य t.” ↩︎
-
" कविहृदयम् t.” ↩︎
-
“हेतावद्गुणस्वीकार° R., P.” ↩︎
-
“°रूपे हेतौR” ↩︎
-
“°द्योतितः P.” ↩︎
-
“चरत्यनुमिलत् M.” ↩︎
-
“°भासुरे P.” ↩︎
-
“हरहरि°T’” ↩︎
-
“अतद्गुणेन T’.” ↩︎
-
" विरोधाभास इष्यते P. " ↩︎
-
“P. drops कीर्त्ति.” ↩︎
-
“कमला° P.” ↩︎
-
“संतापकारण° P.” ↩︎
-
“यं मन्द° t.” ↩︎
-
“t.drops विरोधइति” ↩︎
-
" मापादयन्P., R. " ↩︎
-
" कामद्विषि M2.” ↩︎
-
" सलाह°P. " ↩︎
-
“सा रताP.” ↩︎
-
“पंडरा P.” ↩︎
-
" t. has before this रञ्जयन् भुवनमिदं & c.” ↩︎
-
“°भूभुजः R., M.” ↩︎
-
“°महीक्षिताम् R. " ↩︎
-
" वानेक°R” ↩︎
-
“प्रकृतस्याशक्य° R.” ↩︎
-
“°संचिता R.” ↩︎
-
“°मधुनाप्यपैति R.” ↩︎
-
“कीर्त्त्याअवस्थानम् M2.” ↩︎
-
“यथा M.;तथा च R.” ↩︎
-
“°कौक्षेयकैःT’ " ↩︎
-
“°शैलाः शैल°M.” ↩︎
-
“°विलसद्° T’” ↩︎
-
“°शौर्यक्रियाःP., M. " ↩︎
-
“P. drope शत्रुनृपतीनाम्,” ↩︎
-
“°रुप्याभावेऽधिको° R.” ↩︎
-
“°विशिष्टतां विधत्ते t.” ↩︎
-
“°रङ्गे T’” ↩︎
-
“°लीला°R.” ↩︎
-
“भवदतनुरुचः M. " ↩︎
-
" रोदःकुहरस्य M.” ↩︎
-
“°रुद्रयशसो R.” ↩︎
-
“°श्रियो M., °श्रियाम् B.” ↩︎
-
" आश्रयस्य P.” ↩︎
-
“R drops कलिङ्ग” ↩︎
-
“°प्रभृतीनाम् P.” ↩︎
-
“°राजानीकिनी°R.” ↩︎
-
“°स्योत्पत्तिस्तु P. M. " ↩︎
-
“यत्र च कारणे P., M,” ↩︎
-
“नो भवन्ति M.” ↩︎
-
“वृत्तिविरोधः t.” ↩︎
-
“°सन्तानानामि°t.” ↩︎
-
“तपाहःसु रविकिरणेषु सत्स्वपि T’.” ↩︎
-
“अत्र निष्प्रताप० T’, M.” ↩︎
-
“निगद्यते R.” ↩︎
-
" चान्ये नम्राः T’.” ↩︎
-
" राज्ञो T” ↩︎
-
“अन्यत्र तु नमनम् R. अन्यत्र शत्रुषु नमनमिति T,,M.;” ↩︎
-
" मित्यतिशयोक्तिः . " ↩︎
-
" विचित्रम् t .” ↩︎
-
" चायम्” ↩︎
-
“०प्राप्त्यर्थः M.” ↩︎
-
“लंकारः कथ्यतेP.” ↩︎
-
“राज्यपीठम् M.” ↩︎
-
" ०पीठः R.” ↩︎
-
“M.omits कथ्यते.” ↩︎
-
“सा P.” ↩︎
-
“ºस्तथा R.” ↩︎
-
“ºस्योत्पत्तौ R.” ↩︎
-
“तृतीयं विषमम् M.” ↩︎
-
“पश्यता R.” ↩︎
-
“P.omits इन्दु.” ↩︎
-
“ºफलस्योत्पत्तौ न केवलं M., समरोद्योगस्य फलस्य न केवलम् R समरोद्योगेन केवलम् P.” ↩︎
-
“विजयº R, M,” ↩︎
-
“ºनृत्पत्तिः किं त्वायुचाज्जविभ्रंश R, " ↩︎
-
“यथा omitted in R.” ↩︎
-
“समालंकारो निरूप्यते T’. " ↩︎
-
“विज्जाए P.” ↩︎
-
“सअलाप P.” ↩︎
-
“पआवरुद्देम्मि P.” ↩︎
-
“मुरसरिस M.” ↩︎
-
“कअथ्यो M.” ↩︎
-
“निरूपयन् t.” ↩︎
-
“°रुद्रेण M.” ↩︎
-
“R drops सकल, " ↩︎
-
“°प्रस्तावना M.” ↩︎
-
“प्रस्तुतानां केवलाप्रस्तुतानाम्M.” ↩︎
-
“गम्यते T’.” ↩︎
-
“तत्कीर्त्तयस्तु M.” ↩︎
-
“अनारतभ्रान्ति° T’.” ↩︎
-
“°गाधीश P.” ↩︎
-
“न वास्तव किं तु वैवक्षिकम् T.” ↩︎
-
“p. drops तत्र” ↩︎
-
“1. भाति नलेन कृतयुगं रघुकुलदीपेन शौरिणा त्रेता। द्वापारस्तपोजनिना कलियुगं वीररुद्रेण॥” ↩︎
-
“किअजुअओ M.” ↩︎
-
“तेदा M.” ↩︎
-
“कलीजुअअं M.” ↩︎
-
“यथा नल° R,” ↩︎
-
“युधिष्ठिरैःR..” ↩︎
-
“भागीरथ्या जलनिधी राजते ज्योत्स्नया पूर्णिमाचन्द्रः श्रुत्या कमलभवः कीर्त्यां प्रतापरुद्रोऽपि॥,” ↩︎
-
“°रद्दीप M.” ↩︎
-
“रेहई P” ↩︎
-
“जोण्हइ P.” ↩︎
-
" चंदो T, M,” ↩︎
-
“°द्दवो T’.” ↩︎
-
“कितीए P.” ↩︎
-
“विराजत M.” ↩︎
-
“अन्त्यदीपकम् T’.” ↩︎
-
“t has before this भाति नलेन &c.” ↩︎
-
“Before this t. has भागीरथ्या जलनिधी &c.” ↩︎
-
“सुरलोकं सुरनाथो नरलोकं वीररुद्रनरनाथः। फणिलेाकं फणिनाथो रक्षति निरुपद्रवोद्वेगम्॥” ↩︎
-
" °नरनाथः P.” ↩︎
-
“णिरुवद्दवुज्जोअंM.” ↩︎
-
“T’.omits अत्र” ↩︎
-
“°फणिभ्याम् P.” ↩︎
-
“रक्ष्यत T’.” ↩︎
-
“रुद्रेण M.” ↩︎
-
“°द्वयमुच्यते R.” ↩︎
-
“Before this t. has सुरलोकं सुरनाथो &c.” ↩︎
-
“R and T’. drops अन्न " ↩︎
-
“यथा चन्द्रेण R, M” ↩︎
-
“°परितोषणम् T’.” ↩︎
-
“दृष्टान्तालंकारः T.” ↩︎
-
“वाक्यद्वय° R.” ↩︎
-
" साम्यम् M.” ↩︎
-
“प्रतापरुद्रमावविलोकन° R. प्रतापरुद्रावलोकन° M” ↩︎
-
“वेधर्म्येM.” ↩︎
-
“अत्र P.” ↩︎
-
“क्षोणीभूतःt.” ↩︎
-
“काकतीयः क्षितीशः P.” ↩︎
-
“°विश्वोल्लासिलीला° T’” ↩︎
-
“°लम्बिन° R, T’” ↩︎
-
“दुग्धार्णवादावसंभवात् P.” ↩︎
-
“तत्सादृश्यो° M.” ↩︎
-
“विमुञ्चतीति R. M.” ↩︎
-
“उपमानधर्मस्योपमेयगतत्वेनेत्यर्थः P. " ↩︎
-
“स्वराजथान्यामित्यर्थः t.” ↩︎
-
“परामिपरम् M.” ↩︎
-
“व्याचष्टे t.” ↩︎
-
“तत्पाद° t.” ↩︎
-
“पाण्डरी° p.” ↩︎
-
“इत्यभिप्रेत्य t.” ↩︎
-
“भूमण्डलेन is dropped in t.” ↩︎
-
“°रसंभादि° P. " ↩︎
-
“इत्युक्तमिति P.” ↩︎
-
“यच्छ्लेषमात्र° P.” ↩︎
-
“°नान्ते R., M.” ↩︎
-
“R.drops च” ↩︎
-
“°श्लेकार्थशब्द° R.” ↩︎
-
“°गोचरत्वे तु न R.,T” ↩︎
-
“अन्त्रार्थ T’.” ↩︎
-
“°प्रतिपादनेन M.” ↩︎
-
“त्रिविधः T’,M.” ↩︎
-
“°तत्वाविशेधात्र अभिधाया t.” ↩︎
-
“°व्यापारत्वात् t.” ↩︎
-
“प्रकृता प्रकृतैा t.” ↩︎
-
“प्रकरणार्थम् t.” ↩︎
-
“°व्यापरैकविषयत्वे t.” ↩︎
-
“प्रकृत° t.” ↩︎
-
“माधव P.” ↩︎
-
“°कलापान्ते P, °कलापाङ्गे M.” ↩︎
-
“वैचित्र्यात् B.” ↩︎
-
“°वैचित्र्यात् R.” ↩︎
-
“P. drops निवध्यन्ते " ↩︎
-
“°न्युयास’T M.” ↩︎
-
“आक्षेपालंकारः T’.” ↩︎
-
“P. drops प्रतिज्ञा विशेषरूपेण निषेधः.” ↩︎
-
“क्रमेण यथा R.” ↩︎
-
“°मौलेनं P.” ↩︎
-
“राजसंदेश° T.” ↩︎
-
" °वादित्वपर्व° M.” ↩︎
-
“पर्यवस्थितः T” ↩︎
-
“इत्याद्युक्तिकथन° R., " ↩︎
-
“°दवश्यपरि° R.” ↩︎
-
“परिपालकत्वादि° P.” ↩︎
-
“सामान्यप्रतिज्ञया विशेषनिषेधो यथा R.” ↩︎
-
“कुलोद्भव R.; महीपते° M.” ↩︎
-
“अत्र विज्ञापयाम R.” ↩︎
-
“कथनसामान्यप्रतिज्ञया R.” ↩︎
-
“T’. omits तु.” ↩︎
-
“प्रातिपक्ष्येणावलम्बनीयः P.” ↩︎
-
“समर्थतया R.” ↩︎
- ↩︎
-
“इत्युपगम्यते P. " ↩︎
-
“तत्रानिष्ट° M.” ↩︎
-
“प्रतापरुद्रपादसेवा° M.; प्रतापरुद्रस्य पादसेवा° T.” ↩︎
-
“स चविधि° T.” ↩︎
-
“R. and M. drop सा.” ↩︎
-
“निन्दाप्रतीतिः सा M.” ↩︎
-
“कीर्त्त्याम् P.” ↩︎
-
“सारूप्पादे नियन्त्रिता R.” ↩︎
-
“चा° M.” ↩︎
-
“°प्रतीतेः समा° P” ↩︎
-
“गृह्यते t.” ↩︎
-
“P. drope द्वयोः” ↩︎
-
“प्राकरिणकोपगमात् P.” ↩︎
-
“पर्यायोक्तेर्व्यावृत्ति° M.” ↩︎
-
“°नुर्वी.धरान M.” ↩︎
-
“सर्वगुण° R.” ↩︎
-
“प्रतापरुद्र एव सेव्य R.” ↩︎
-
“°प्रतिपत्तिर्यथा P.” ↩︎
-
“नृपशेखराणि R.; नृपवेखरस्य P.” ↩︎
-
“प्रतिपत्तिर्यथा P.” ↩︎
-
“द्रष्टुमना अपि न पश्यति न भणति वक्तुं सकुतूहलापि। स्पर्शाशयापि न स्पृशति वनितायाः कीदृशी सृष्टिः॥” ↩︎
-
“प्रक्खइ P.” ↩︎
-
“वक्तुम् M.” ↩︎
-
“सद्देाउद्दहादि M.” ↩︎
-
“णस्सूसआ विण छीदइM.” ↩︎
-
“णा च्छिदइP.” ↩︎
-
“सिड्डि P.” ↩︎
-
“सिढढिP.” ↩︎
-
“°कुलोद्वहेM-” ↩︎
-
" Before this t. has द्रष्टुमना अपि &c.” ↩︎
-
“हेतुकत्वेन R.” ↩︎
-
“मवोऽयं प्रस P.” ↩︎
-
“करकलितकौक्षे’ M.” ↩︎
-
“नगरीम् M.” ↩︎
-
“तत्र R.” ↩︎
-
“सन्ततम्” ↩︎
-
“संप्रतिपन्नरुपत्रय” ↩︎
-
“म्लाना महीभूताम् M,.” ↩︎
-
“°मृताङ्किता° R.” ↩︎
-
“°नखज्योत्स्ना° T.” ↩︎
-
“°सेवना M.” ↩︎
-
“विशेषणयोग्यत्वात् R.” ↩︎
-
“पदार्थगतत्वम् P.” ↩︎
-
“°मुपादानं t.” ↩︎
-
“P. drops न तु कार्यकारणभावे.” ↩︎
-
“नुन्नमयत्यपि P.” ↩︎
-
“रिपुमूपाला M. " ↩︎
-
“°मुष्यते” ↩︎
-
" वस्त्वन्यथा T’.” ↩︎
-
“°संबन्धि° P.” ↩︎
-
“तुल्यः R.” ↩︎
-
“°दाहतं t.” ↩︎
-
“°क्षितिभूतः R.” ↩︎
-
“मन्दरः क्षितिभूत् P.” ↩︎
-
“आर्थि° T’.; अर्थ° M., M…” ↩︎
-
“न चाखे R.; न कामे M;.” ↩︎
-
“धर्मे M.;” ↩︎
-
“आर्थि T.; अर्थ M., M.” ↩︎
-
“राशिरुद्र P.” ↩︎
-
“रक्षके P, M.” ↩︎
-
“जितविद्विधि P.” ↩︎
-
“निवर्त्तेते M.” ↩︎
-
“व्युत्पाद्यं तत्र P.” ↩︎
-
“°विविधारम्भ° M.” ↩︎
-
“तदाप्रभृति M.” ↩︎
-
“धर्मप्रतिष्ठा पूर्णा P, M.” ↩︎
-
“किम् is droppd in T’.” ↩︎
-
“इति प्रश्नद्वयमुत्रीयते R., इति प्रश्न उन्नीयते M.” ↩︎
-
“किं तुं धर्म कुलविद्या को लाभः सज्जनेन सहवासः। का नगरी एकशिला को राजा वीररुदनरनाथः॥” ↩︎
-
“काव्यन्यायमूलप्रस्तावात् R.; वाक्यन्यायमूलप्रस्तावात् M.” ↩︎
-
“विरोधे तुल्य° T’.” ↩︎
-
“औपम्यगर्भत्वा° M.” ↩︎
-
“भूपालैः M.” ↩︎
-
“चापि वा नतिः R. " ↩︎
-
“संधिविग्रहवाक्यास्याम् M., P.” ↩︎
-
“P.drops तुल्यप्रमाणाभ्याम्, T’.. has तुल्यबलप्रमाणाभ्याम्” ↩︎
-
“संमवेन P.” ↩︎
-
“स समु T’.” ↩︎
-
“प्रेक्षते इमां नरेन्द्रः प्रविशति मदनश्च गलति मानव। घूर्णति मनश्च शून्यं किमेतत् पश्यत सख्यः॥, पच्छइP.,पेक्खड़ R.” ↩︎
-
“इमं T.; अमं M.” ↩︎
-
“P. drops अ.” ↩︎
-
“असुंणP.” ↩︎
-
“°प्रथिमान° R” ↩︎
-
“°महतः M.” ↩︎
-
“t. After this t. has प्रेक्षते इमानरेन्द्र &c.” ↩︎
-
“विशसन° t.” ↩︎
-
“°सामस्त्ये R.” ↩︎
-
“°प्रणामेा° R.; °प्रमाणो° P.” ↩︎
-
“°पतत्पदाति° M.” ↩︎
-
“M. drops एव. " ↩︎
-
“t. omits कारणानाम्.” ↩︎
-
“कीर्तिमु° M.;” ↩︎
-
“°नीतिसंपा° T.” ↩︎
-
“°कपोतिकया संरम्मः M., °कपोतन्यायेन संरम्भः R.” ↩︎
-
“सति कार्यस्य R.” ↩︎
-
“°नियतम् P.” ↩︎
-
“°कोपशान्त्यर्थम् M.” ↩︎
-
“°कार्यस्य मुकरत्वम् R.” ↩︎
-
“अतीतानागतं यत्र R.” ↩︎
-
“प्रत्यक्षमिव लक्ष्यते R.” ↩︎
-
“क्रमेण देवदत्ता° t.” ↩︎
-
“°चरितोपवर्णनाद्भूत° P.” ↩︎
-
“माविकहदि P.” ↩︎
-
“अथ R.” ↩︎
-
“पुनः पुनश्चेतसिP.” ↩︎
-
“विटस्य M.” ↩︎
-
“भामिर्नी°T.” ↩︎
-
“°भावाद्युपाधित एव P.” ↩︎
-
“न च भ्रान्ति° P; न चेमं भ्रान्तिमदलंकाररीतिः M.” ↩︎
-
“R. omits एव.” ↩︎
-
“P. drops दंष्ट्राग्रे.” ↩︎
-
“अद्भुत° T’, M.” ↩︎
-
“°ज्ञानि° T.” ↩︎
-
“बलिनः P; प्रबलप्रतिपक्षप्रतीकारा R; M.” ↩︎
-
“व्याघातालंकारः T.” ↩︎
-
“‘ताधिका स्थितिः P.” ↩︎
-
“मनुदयं वहन् P.” ↩︎
-
“°मूलालंकारा निरूप्यन्ते M.;,” ↩︎
-
" प्रस्तावे पर्याय उच्यते R.” ↩︎
-
“°कृतिर्द्विधा R.” ↩︎
-
“नात्रालंकारे P.” ↩︎
-
“°नेकाधेयम् P.” ↩︎
-
“°प्यनेकस्यैकत्र P.” ↩︎
-
“°दूर्णनम् M. द्वर्तनमत्र क्रमेण। यथा T’.” ↩︎
-
“क्रमेणानकेत्र R.” ↩︎
-
" P. drops आकारेङ्गिताभ्याम्” ↩︎
-
“दृष्टया पश्यसि up to यथा वा is dropped in R.T’.,M. and M.” ↩︎
-
“M. dropsfrom यथा वा to इति प्रकाशितम्.” ↩︎
-
“मसंवेद्यस्य t.” ↩︎
-
“गुरुजनसविधे वधूर्दृष्ट्वा नरेन्द्रप्रेषितां दूतीम्। सर्वाङ्गेषु सहासं कस्तूरीविलेपनं करोति॥” ↩︎
-
“णरिदं T’.” ↩︎
-
“कत्थुरि° P. °विलेपण P.” ↩︎
-
“°कालः R.” ↩︎
-
“°कारः कथ्यते T’.” ↩︎
-
“लोकग्याय एव कारणम् P.; लोकन्यायमूलतैव कारणम् M.” ↩︎
-
“t. drops इङ्गितेन.” ↩︎
-
“°विहित° M.” ↩︎
-
“कलम° P.” ↩︎
-
" योग्यवाक्या° t.” ↩︎
-
“तद्वद् t.” ↩︎
-
“सामान्यन्यायमूला P. " ↩︎
-
“ददत् M. " ↩︎
-
“न्यूनाधिक° B. " ↩︎
-
“विलसितस्याविक्यम् T. " ↩︎
-
“°न्यायलोक° t. " ↩︎
-
“जाताद् दीयमानस्य P. " ↩︎
-
" वल्कलादेरल्पत्वम् T.” ↩︎
-
“यदा यदा T. " ↩︎
-
“गुणार्जितम् M. " ↩︎
-
“पूर्वपूर्वपरिक्रमादुत्तरो° M.” ↩︎
-
“°मखिलम् M.” ↩︎
-
“इत्यर्थालंकाराः R. " ↩︎
-
“T. drops श्री.” ↩︎
-
“संयोगो मिश्रतिलतण्डुलन्यायेन P. " ↩︎
-
“समवायस्तु मिश्रक्षीरनीरन्यायेन P. " ↩︎
-
“P. hasसंबन्धे before संसृष्टिः and संकरः” ↩︎
-
“°रूपता T.” ↩︎
-
“°निगद्यते P. " ↩︎
-
“परस्परम् R.” ↩︎
-
“p. drops it.” ↩︎
-
“°दोदारितो° P.” ↩︎
-
“तव्रारम्भमदत् R.,M. " ↩︎
-
“काकतीन्द्र T’,M.” ↩︎
-
“दोर्दण्डमण्ड° R.” ↩︎
-
“°बहुला° M. " ↩︎
-
“°ल्च्छेषः उमयोरभेदाध्यवसायाल्च्छेषमूला° t.” ↩︎
-
“ज्योत्स्नया मुदम् R., M.; ज्योत्स्रिकामृतम् P. " ↩︎
-
“काकतीयान्वय M. " ↩︎
-
“साधकबाधकप्रमाणयोर्हि संदेह एव पर्य° M, तत्र T’” ↩︎
-
“वतंसीकरणकर्मामेदप्रतीतेः P. " ↩︎
-
" प्रतिपत्तिः R. " ↩︎
-
“अलंकारेषु T. " ↩︎
-
“R. has at the end विद्यानाथकृतो वीररुद्रसत्कीर्तिमन्डनः। अलंकारप्रवन्धऽयं द्रष्टव्यः सर्वसूरिभिः।” ↩︎
-
" °विवक्षा T. " ↩︎
-
“रूपणं T.” ↩︎
-
" महोपाध्यायविद्यानाथºR., विद्यानाथमहोपाध्यायकृतौT.” ↩︎
-
" संपूर्णम् R.” ↩︎
-
" व्याख्यातं साकल्येनेदं काव्यलक्षणम्। तच्च परिष्कुर्वन्तु सहृदयधुरीणाः॥ P.” ↩︎
-
“This verse is found in ध्वन्यालोकलोचन, quoted without the anthor’s name on p. 12. The reading there is साधुकाव्यनिषेवणम् ºनिवश्वनम् is also noticed in the foot-note as found in क. and ख.” ↩︎
-
“Found, quoted without the author’s name in चित्रमीमांसा p. 83.” ↩︎
-
“a Found, quoted without the author’s name in लोचन p. 12.” ↩︎
-
“Quoted with Bhâmasha’s name in लोचन p. 10. The different readings are शब्दश्छन्दोभिधानार्थः and शब्दश्छन्दोभिधानार्थ. Only the 1st Pâda is quoted.” ↩︎
-
“Verses 13, 14 and 15 are quoted without the author’s name in the 6th Ullâsa of the Kâvyaprakâs’a (V. 1. there वनिताननम् ↩︎
-
“This half and the first half of verse 15 are quoted by S’rî Premachandra Tarkavâgis’a on Kâvyâdars’a. Vide p. 11 of his edition.” ↩︎
-
“of प्राकृतं संस्कृतं चैतदपभ्रंश इति त्रिधाquoted without uame by नमिसाधु on काव्यालंकार of उद्भट २-११.” ↩︎
-
“Quoted with the name of Bhâmaha in the commentary on उद्भटालंकारसारसंग्रह by प्रतीहारेन्दुराज.” ↩︎
-
“M. has मन्त्रि” ↩︎
-
“T. notices प्रसृता also.” ↩︎
-
“M. has तदा.” ↩︎
-
“This distinction between आख्यायिका and कथा given by भामहis criticized by दण्डिन् in his काव्यादर्श १-२३-२८. Vide my notes on the Kâvyasprakaran pp. २५-२६.” ↩︎
-
“Found, quoted in अभिनवगुप्त’s लोचन on ध्वन्यालोक P.208.” ↩︎
-
" हिमापहामित्रधरैव्याप्तं व्योम is found in Daṇḍin’s Kâvyadârs’a 8-120.(latter half ↩︎
-
“M. has जलमुन्मात्र (रु? ↩︎
-
" ºच्छिन्नक्लिन्नºM.” ↩︎
-
“प्रगल्भतेM.” ↩︎
-
“Found in the Sarvapathina, Mallinatha’s commentary on Bhaṭṭikâvya C. XI. L. The reading there is श्राव्यंfor श्रव्यं. It is also found in Jayamaṅgalâ on the same verse. The readings there are श्राव्यंand काव्ये. Found quoted with Bhâmaha’s name in his Tikâ on the Kavyânus’ana p. 201 तेन ‘श्रव्यं नातिसमस्तार्थशब्दंमधुरमिष्यते’ इति माधुर्यलक्षणत्वेन श्रव्यत्वं यद्भामहेनोक्तंतन्नयुक्तमित्यर्थः।” ↩︎
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“The first half of the verse is found quoted in the Jayamaṅgala on Bhaṭṭi X. I” ↩︎
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“Found, quoted in the Jayamaṅgalâ on the Bhaṭṭi kâvya X. 1 without the author’s name. The reading there is यमकं तन्निरूप्यते.” ↩︎
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“cf. व्याख्यागम्यमिदं काव्यमुत्सवः सुवियामलम् । हता दुर्मेचसश्चास्मिन् विद्वत्प्रियतया मया॥ भट्टि २२-३४.” ↩︎
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“Found in the Jayamaṅgalâ on the Bhaṭṭi kâvya X. 25 and also in the Agnipurâṇa without the author’s name. The reading there is तुल्यत्वं for यत्तत्त्वं” ↩︎
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“M. शीकराº.” ↩︎
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“Found in the Lochana p. 38 without the author’s name,” ↩︎
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“Found in the Lochana p. 40, quoted without the anthor’s name, Found in the Jayamaṅgalâ with the name of the author, Bhaṭṭi, C. X. 21. The readings there are प्रीतिमानन्दं & यत्प्रियासङ्गमोत्कण्ठामसह्यां.Vâmana also quotes a portion of it, though wrongly as मातङ्गमानभङ्गुरम् Vide the वृत्ति on ५।२।३८.” ↩︎
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“सानला M.” ↩︎
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“चरीमती M.” ↩︎
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“Found quote with the author’s name in the Jayamaṅgalâ on Bhaṭṭi X. 30. ( V. 1. गुणमात्रेण ↩︎
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“श्यामा M.” ↩︎
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“मेधाविन् or मेवाविरुद्रis named and quoted by नमिसाधु in his commentary on रुद्रट’s काव्यालंकार 1. 1 and X 24. Medhâvin gives seven defects of Upatuâ:– लिङ्गवचनभेदी हीनताधिक्यसंभवो विपर्ययोऽसादृश्यमिति सप्तोपमादोषाः।” ↩︎
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“Found, quoted by नमिसाधु on काव्यालंकार XI. 24. शशिमासि शङ्खम् is the reading there and is correct as appears from वासःशङ्खानुपादानाद्धीनमित्यभित्रीयते। ४२.” ↩︎
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“Found, quotel, without the author’s name in the वृत्ति on वामन काव्यालंकारसूत्र ४. २. १०. (V. 1. ºनिर्मलेषु and नर्मदेषु for ºनिर्मदेषु ↩︎
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“विनेदुः M.” ↩︎
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“Found, quoted in the काव्यप्रकाश X. ( V. 1. निपेतुः ↩︎
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“Found quoted in केशवमिश्र’s अलंकारशेखर (V. 1. क्वचिदापद्य ↩︎
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“Found quoted in the काव्यप्रकाश X. ( V. 1. देवाः for ब्रह्मा ↩︎
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“Found, quoted in the काव्यप्रकाश X.—‘अत्रोपमेयस्य शङ्कादेरनिर्देशे शशिनो ग्रहणमतिरिच्यते— इत्यविकपदम्।’” ↩︎
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“Found, quoted by नमिसाधुon रुद्रट’s काव्यालंकार XI. 24. (V. 1. वनिताविहारिणः प्रभिन्नदानाकटा ↩︎
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" Fonnd, quoted, without the author’s name in लोचन P. 36 (प्रतिषेधइवेष्टस्य यो विशेषामिधित्सया। वक्ष्यमाणोक्तविषयः स आक्षेपोद्विधामतः॥ ↩︎
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“Found, quoted in अभिनवगुप्त’s लोचन on ध्वन्यालोक p. 36 (V. L किमुक्तेनाप्रियेण ते ↩︎
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“Found, quoted, with the name of मामहin जयमङ्गला on भट्टि X.36 (V.1. उपन्यसनमर्थस्य प्रकान्तादपरस्य यत्। ↩︎
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“Found, quoted, with the name of भामहin जयमङ्गला on भट्टि X.39 (V.1. विशेषोत्पादनाद्यथा ↩︎
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" Found, quoted, with the name of भामह, in जयमङ्गला on भट्टिX. 40 (V. 1. प्रतिषेधेन तत्फलस्य विभावनात् & सान्वयं कथ्यते यथा for समाधौसुलभेसति ↩︎
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" Found, quoted with the name of भामह, in जयमङ्गला on भट्टिX. 41 (V. 1, यत्रोक्तेर्गम्यते and ºरुदिता for ºरुद्दिष्टा ↩︎
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“संक्षिप्तार्थायथा तथा M.” ↩︎
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“Found, quoted without the name of भामहin जयमङ्गला on भट्टिX. 42. (V. 1. यत्र वचो ↩︎
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“Found, quoted, with भामह’s name on काव्यादशं२।२३५ by प्रेमचन्द्र तर्कवागीश (V. 1. सूक्ष्मलेशौच, मताः समुदायाभिधेयस्य ↩︎
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“Quoted without the author’s ( भामह’sname in the जयमङ्गला on भट्टिX. 43. (V. 1. मुपदिष्टानां क्रियाणामथ कर्मणाम् ↩︎
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“Quoted, without भामह’s name in the जयमङ्गला on भट्टि X. 44. ( V. 1. ºसामान्यात, ºक्रियारोपादुत्प्रेक्षा ↩︎
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“Found, quoted with भामह’s name, by वल्लभin सुभाषितावली (No. 1546, ºमरण्यारयां ↩︎
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“Found, quoted, without भानह’s name in the जयमङ्गला on भट्टि X. 45 (V. 1. अर्थस्य तादवस्थ्ये च ↩︎
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“Found in the Kâvyâdars’a of Daṇḍin 2-276. Also quoted in the श्रित्रमीमांसाof अप्पय्यदीक्षित without the anthor’s narie P 42.” ↩︎
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“Quotel, without भामह’s name in the जयमङ्गला on भट्टि X. 47. (V. 1. दर्शित ↩︎
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“Quoted in the Jayamaṅgala on Bhaṭṭi X. 49 without Bhâmaha’s name.” ↩︎
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“Found, quoted with भामह’s name in ध्वन्यालोकलोचन p. 40 (V. 1. पदवीतिनौविप्रा न भुञ्जते तत्र ↩︎
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“Found, quoted withont भामह’s name in the जयमङ्गला on भट्टि X. 62. (V. 1. वाक्यार्थेनान्यथा, नानारत्नर्वियुक्त and नानारत्नवियुक्तं ↩︎
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“Quoted without भामह’s name in the जयमङ्गला on the भट्टि X 54 (क्रियागुणाभ्याV. 1. ↩︎
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“Quoted without भामह’s name in जयमङ्गला on भट्टि X 04 (V. 1. बचसोर्यस्यक्रमशोfor त्रिविधं. ↩︎
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“Quoted with भामह’s name in the commentary on उद्भटालंकारसारसंग्रह by प्रतीहारेन्दुराज” ↩︎
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" Quoted without मामह’s name in the जयमङ्गला on the भट्टि X. 57 ºरितिष्टात्र, ºपहवादेषा, क्रियतेऽस्या भिदा यथा ↩︎
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“Quted in ध्वन्यालोकलोचन p. 38 ( ºराकृष्यमाणस्य ↩︎
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“Quoted in लोचन p. 38 ( निगमे, ºसंस्कृतिः, ºक्तिरिति स्मृता ↩︎
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“Quoted in the ध्वन्यालोकलोचन p. 38 ( न हतं बलम् ↩︎
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“Found, quoted, withont भामह’s name in the जयमङ्गला on the भट्टिX. 63 ( गुणस्य च, ºक्रियाभिधा, विदुर्यथा ↩︎
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" Found quoted without भामह’s name in the जयमङ्गला on the भट्टि X. 16.” ↩︎
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“विभ्रति M.” ↩︎
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“Found, quoted in the ध्वन्यालोकलोचन p. 42 ( ºप्रशंसा सा त्रिविधा परिर्तिता ↩︎
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“Found, quoted, without मामह’s name in the जयमङ्गला on the भट्टि X. 59 ( तुल्यता, विधित्सया ↩︎
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" Found, quoted, without मामह’s name, in the जयमङ्गला on the भट्टि X. 69 (तदर्थस्य विशिष्टस्योº, and इष्टा for ज्ञेया ↩︎
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“Found, quoted with मामह’s name by प्रतीहारेन्दुराज in his commentary on उद्भटालकारसारसंग्रह. Also found quoted in ध्वन्यालोकलोचन p. 209.” ↩︎
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“Found, quoted without मामह’s name, in the जयमङ्गला on the भट्टि X. 60 ( उपमानस्य, रूपपन् for साथयत्, यो for यां ↩︎
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“Found, qnoted, without मामइ’s name, in the जयमङ्गला on the भट्टि X. 64 (धीरा for नाम ↩︎
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“Quoted without भामह’s name in the जयमङ्गला on the भट्टि X. 66.” ↩︎
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“Quoted without मामह’s name in the जयमङ्गला on the मट्टि X. 67. (मानोपमेयस्य तत्त्वं च वदतः पुनः ससन्देहवचः स्तुत्यै ↩︎
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“Quoted withont भामह’s name in the जयमङ्गला on the मट्टि X 68 (साहयस्याविवक्षात ↩︎
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“Found, quoted without भामह’’s name in जयमङ्गला on भट्टि X . 69 (किंचित्रोत्प्रेक्षयाº ↩︎
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“Found quoted in ध्वन्यालोकलोचन p. 41 ( तमोगुहाम् ↩︎
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" Found, quoted without मामह’s name in the जयमङ्गला on the मट्टि X.70 (परामिभूता, कथ्यते for उदिता ↩︎
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“Found, quoted without the author’s name, in the Jayamaṅgalâ on the Bhaṭṭi- kâvya XII. 1. Also, quoted without the name of the author, in the Sarvapathîna by Mallinâtha on the Bhatti XII. 1.” ↩︎
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“Quoted in the जयमङ्गला on the भट्टिX. 71 आशीरिति च, सौहदस्याº ↩︎
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“The first verse and the first half of the second is exactly the same in the Kâvyâdars’a of Danḍin. 3-125-126.” ↩︎
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“Quoted by हेमचन्द्र in his commentary on काव्यानुशासन p. 279.” ↩︎
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“ºधिरूढाना M.” ↩︎
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“तु. M.” ↩︎
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“°बलो° M.” ↩︎
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“Quoted with भामइ’s name in ध्वन्यालोकलोचन p. 182 ( वाक्यार्थमुपभुञ्जते ↩︎
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“Quoted without Bhâmaha’s name by Hemachandra in his Tikâ on the Kâvyânus’âsana p. 7 ( काव्याङ्गमद्दाभारो गुरुः कवेः ↩︎
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“°द्वाक्यं M.” ↩︎
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“अन्यदा T.” ↩︎
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“विरुद्धमां T.” ↩︎
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“°वादिनी M. " ↩︎
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“अस्यात्मा T.” ↩︎
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“°तदर्थोऽपि M.” ↩︎
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“वादिनो मिथः M.” ↩︎
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“कूप° M.” ↩︎
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“भेदेनानेन वर्त्मना M” ↩︎
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“T. notices °स्तत्त्वशंसिनः also.” ↩︎
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“ºद्विषां M.” ↩︎
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“विनैकार्यºM.” ↩︎
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“ºसौहृदात् M.” ↩︎
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“अन्यापोहे न शब्दोºM.” ↩︎
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“तृतीयैव चतुः षष्ठ्याº M.” ↩︎
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“ततश्चमिष्टया M.” ↩︎
-
“मूथान्नाºM.” ↩︎
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" वकिलº M.” ↩︎
-
“M. has शुभमस्तु.” ↩︎