[[रसचन्द्रिका Source: EB]]
[
रसचन्द्रिका
KASHI-SANSKRIT-SERIES
(HARIDAS SANSKRIT GRANTHAMALA)
53.
(Kavya Section No. 6.)
———
RASACHANDRIKA
BY
PARBATIYA PANDIT VISHWESWAR
PANDEYA
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EDITED BY
PANDIT VISHNU PRASAD BHANDARI
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Printed Published & sold by**
JAI KRISHNA DAS HARI DAS GUPTA
The Chowkhamba Sanskrit Series Office,
Vidya Vilas Press, North of Gopal Mandir Benares City
——–
1926.
हरिदास संस्कृत ग्रन्थ माला समाख्य
काशीसंस्कृतसीरिज़पुस्तकमालायाः
५३
काव्यविभागे (६) षष्ठं पुष्पम् ।
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पर्वतीय-पण्डितप्रवर - श्रीविश्वेश्वरपाण्डेय-
निर्मिता
रसचन्द्रिका।
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नेपालदेशीय –
पण्डितविष्णुप्रसाद भण्डारिणा
संशोधिता ।
————
प्रकाशकः –
जयकृष्णदास हरिदासगुप्तः,
चौखम्बा - संस्कृत - सीरिज - आफिस,
विद्याविलासप्रेस, गोपालमन्दिर के उत्तर फाटक,
बनारस सिटी ।
———
१९८३
भूमिका।
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इयं रसचन्द्रिका कूर्माचलदेशीय–पाण्डेयकुलभूषणपण्डितप्रवरश्रीविश्वेश्वरशर्मणः कृतिः। अदसीयमितिवृत्तं पूर्व मुद्रिताया एतन्निर्मिताया आर्यासप्तशत्या भूमिकायां यथाश्रुतं सन्निवेशितमस्ति। तत् तत एवावगन्तव्यमितिहासरसिकैर्धीमद्वरैः।
अयं च प्रबन्धो नायकनायिकादीनां परिष्कृतलक्षणनवीनप्रायोदाहरणरसादिनिरूपणादिभिः स्वसदृशानपरान् प्रबन्धानतिशेत इत्यत्र न बहुवचनप्रपञ्चनस्य प्रयोजनमस्ति, समास्वादितैतग्रन्थ कर्त्रपरकृतीनां कृतिनां सहृदयानां साकल्येन ग्रन्थावलोकनसमये स्वयमेव व्यक्तीभविष्यति।
दुर्लभप्रायं ग्रन्थरत्नमिदं मुमुद्रयिषुणा नैकविधामुद्रितचरप्रबन्धरत्नमुद्रणबद्धपरिकरेण श्रीहरिदासगुप्ततनूजेन श्रीजयकृष्णदासमहाशयेन शोधनकृते प्रार्थितोऽहं प्रावर्तिष्येतच्छोधनाय।
लब्धान्यादर्शपुस्तकानि-
एकं वाराणसीस्थपर्वतीयपन्तोपाह्वकेशवशास्त्रितनूजश्रीकृष्णानन्दसकाशात् शुद्धप्रायम्, अपरं वाराणसेयराजकीयपुस्तकालयात्शुद्धं, एकं च केनचित्पर्वतीयेन निर्मितया टीकयोपेतमपूर्णं नातिशुद्धमिति।
इत्थं पुस्तकत्रयाधारेण विषयसुचीशुद्धिपत्रप्राकृतपद्यच्छायादिभिरलङ्कत्य संशोधितेऽप्यत्र मदीयमतिदोषेण शीशकाक्षरयोजकदोषेण वा जातानि स्खलितानि क्षमिष्यन्ते गुणैकपक्षपातिभिः कोविदवरैरिति-
**१९८३ भाद्रशुक्ल
१५ भौमवासरे
प्रार्थयते-
विनीतो विदुषां विधेयो
नेपालदेशीयो विष्णुप्रसाद भण्डारी।**
श्रीरसचन्द्रिकाया
विषयानुक्रमणिका।
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| पृ० पं० | पृ० पं० |
| मङ्गलाचरणम् १ १ | ज्येष्ठाभेदेषु धीराया उदा० ,, ५ |
| पितुर्वन्दनम् ,, ५ | „अधीरायाउ० ,, ८ |
| ग्रन्थनिर्माणप्रयोजनम् ,, ७ | „ धीराधीराया उ० ,, ११ |
| नायकनायिकानिरूपणे कारणाभिधानम् ,, ९ | कनिष्ठाभेदेषु धीरायाउ० ,, १४ |
| नायिकायाः प्रथमं निरूपणे कारणम् ,, ११ | „अधीरायाउ० ,, १७ |
| नायिकायास्नैविध्यम् ,, १३ | „ धीराधीराया उ० ,, २ |
| स्वीयालक्षणम् ,, १६ | परकीयाया लक्षणम् ,, ४ |
| स्वीयोदाहरणम् २ २ | अस्या उदाह) ,, १४ |
| स्वीयायास्त्रैविध्यम् ,, १७ | अस्या गुप्तादिसप्तभेदाः ,, १८ |
| मुग्धाया लक्षणं तद्भेदाश्च | ,, १८ |
| सामान्योदाहरणम् ३ १० | आद्यायाउ० १० २ |
| अज्ञातयौवनाया उदाहरणम् ,, २४ | द्वितीयाया उ० ,, ७ |
| ज्ञातयौवनाया उदाहरणम् ४ ३ | तृतीयायाउ० ,, १२ |
| अस्या एव नवोढात्वंविश्रब्धनवोढात्वं च ,, ७ | विदग्धाया द्वैविध्यम् ,, १५ |
| नवोढाया उदाहरणम् ,, १५ | वाग्विदग्धाया उ० ,, १७ |
| विश्रब्धनवोढाया उदाहरणम् ५ ४ | क्रिया विदग्धाया उ० ११ २ |
| मध्याया लक्षणम् ,, ८ | लक्षितांया लक्षणम् ,, ६ |
| अस्या उदाह० ,, ९ | अस्या उदा० ,, ८ |
| प्रगल्भाया लक्षणम् ,, १३ | कुलटाया लक्षणम् ,, १० |
| अस्याउदाहरणम् ,, १५ | अस्या उदा० ,, १२ |
| मध्याधीराया उदा० ६ १४ | अनुशयानाया लक्षणम् ,, १६ |
| मध्याधीराया उदा० ,, १९ | अस्यास्त्रैविध्यम् ,, १७ |
| मध्याधीराधीराया उदा०२२ ,, २२ | आद्याया उ० ,, २० |
| प्रगल्भाधीराया उदा० ७ २ | द्वितीयाया उ० ,, २३ |
| „ अधीराया उदा० ,, ८ | तृतीयाया उ० १ २२ |
| „ धीराधीराया उदा० ,, १३ | मुदिताया लक्षणम् ,, ४ |
| धीरादिभेदाः स्वीयाया एवेति प्राचीन- | अस्या उदा० ,, ६ |
| मतप्रतिपादनम् ,, १७ | कन्यकाया उ० ,, ९ |
| एते भेदाः परकीयोदेरपीति नवीनमतप्र- | सामान्याया लक्षणम् ,, १२ |
| तिपादनम् ,, १९ | अस्या उदा० ,, १८ |
| ज्येष्ठाकानिष्ठयोर्लक्षणे ८ ३ | पुनरपि स्वीयादीनामन्यसम्भोगंदुःखि |
विषयानुक्रमणिका।
| ** पृ पं०** | ** पृ पं०** |
| ता, वक्रोक्तिगर्विता, मानवती चेति | कथनम् १९ २ |
| त्रैविध्यम् १३१ | वासकसज्जाया लक्षणम् „ ६ |
| अन्यसम्भोगदुःखिताया उ० „ ४ | मुग्धायाःस्वीयाया वासकसज्जाया उ०„ १३ |
| प्रेमगर्विता, सौन्दर्यगर्विता चेति | मध्यायाः स्वी० वांस० या उ० „ १८ |
| गर्विताभेदद्वयम् „ ८ | प्रगल्भायाः स्वी० वास० या उ०„ २३ |
| आद्याया उ० „ १० | परकीयाया वास या उ० २० ४ |
| द्वितीयाया उ० „ १३ | सामान्याया वास० या उ० „ ९ |
| प्रणयात् ईर्ष्यातश्चेति मान- | विरहोत्कण्ठिताया लक्षणम् „ १३ |
| द्वैविध्यकथनम् „१५ | विरहस्य लक्षणम् „ १८ |
| प्रणयमानस्य निरूपणम् „१९ | मुग्धायाः स्वीयायाविरहोत्कण्ठिताया उ० २३ |
| नायिका निष्ठप्रणयमानोदाह „२२ | मध्यायाः स्वी० विरहो० या उ० २१४ |
| नायक निष्ठप्रणयमानोदाह १४ २ | प्रगल्भायाः स्वी० विरहो० या उ०„ ९ |
| युगपदुभयनिष्ठमानोदा० „ ७ | परकीयाया विरहो० या „ १४ |
| ईर्ष्यामानप्रतिपादनम् „ ११ | सामान्याया विर० या० उ० „ १७ |
| अस्य लघुत्वादिनिरूपणम् „ १५ | स्वाधीनभर्तृकाया लक्षणम् „ २१ |
| लघोरुदा० „ २१ | मुग्धायाः स्वी० स्वाधीन ० या०२२७ |
| मध्यस्योदा० १५२ | मध्यायाः स्वी० स्वा० या उ० „ १० |
| गुरोरुदाह० „ ५ | प्रगल्भायाः स्वी० स्वा० या उ० „ १३ |
| पत्त्युरन्यासङ्गप्रत्यक्षोदा ० „ ८ | परकीयायाः स्वा० या उ० „ १६ |
| स्वप्नायितोदा० „ ११ | सामान्यायाः स्वा० या उ० „ १९ |
| भोगाङ्कदर्शनोदा० „१३ | कलहान्तरिताया लक्षणम् „ २१ |
| गोत्रस्खलनोदा० „ | मुग्धाय स्वी० कलहा० या उ० २३३ |
| पत्युरन्यासक्ति श्रवणोदा १६ ४ | मध्यायाः स्वी० कलहा० या उ० „ ८ |
| सामादिमाननिवृत्त्युपायषट्कप्रति- | प्रगल्भायाः स्वी० कलहा० यां० उ० १३ |
| पादनम् „ ९ | परकीयायाः कलहा० या उ० „१८ |
| साम्न उदा० „ १६ | सामान्यायाः कलहा० या उ० „ २३ |
| भेदस्योदा ० „ १९ | खण्डिताया लक्षणम् २४ ३ |
| दानस्योदा ० १७ २ | खण्डितालक्षणप्रतिपादकभरतवचन- |
| नतेरुदा० „ ७ | व्याख्यानम् „ ७ |
| उपेक्षाया उदा० „ १० | मुग्धायाः स्वी० खण्डिताया उ० „ २२ |
| रसान्तरस्योदा ० „ १३ | मध्यायाः स्वी० खण्डि० या उ० २५२ |
| उक्तभेदानां सङ्कलनेन चतुरधिकशतत्रय- | प्रगल्भायाः स्वी० खण्डि० या उ० „ ७ |
| त्वप्रदशर्नम् १८ १ | परकीयायाः खण्डिताया उ० „१० |
| दिव्यत्वादेर्भेदाप्रयोजकत्वप्रतिपादनम्„१३ | सामान्यायाः खण्डि० या उ० „ १५ |
| मुग्धाया धीरादिभेदानुपपत्तिपरिहारः„१७ | विप्रलव्धा या लक्षणम् „ १९ |
| परस्त्रियोः कन्यकोढयोर्भेदाष्टकमध्ये त्रिविधा- | मुग्धायाः स्वी० विप्र या उ० २३२ |
| वस्थावत्वमेवेति केषांचिन्मतस्य निरासः २० | मध्यायाः स्वी० विभ० या उ०. „ ७ |
| भरतोक्तवासकसज्जाद्यष्टविधभेद- | प्रगल्भायाःस्वी० विभ० या उ०. „१२ |
विषयानुक्रमणिका।
| ** पृ० पं०** | ** पृ० पं०** |
| परकीयाया विप्र० या उ० „ १५ | सङ्गमनाद्यस्याः कर्म „ ८ |
| सामान्याया विप्र० या उ० „ १८ | सङ्गमनोदा० „ ११ |
| प्रोषितभर्तृकाया लक्षणम् „ २२ | विरहनिवेदनोदा० „ १३ |
| मुग्धायाः स्वी० प्रोषि० या उ० २७ ७ | कुलभोगाद्याधिक्यकथनोदाह० „ २१ |
| मध्यायाः स्वी० प्रोषि० या उ० „ १० | नायकनिरूपणे कारणाभिधानम् ३४ १ |
| प्रगल्भायाः स्वी० प्रो० या उ० „ १५ | नायकस्य पत्यादित्रैविध्यम् „ २ |
| परकीयायाः प्रोषि० या उ० „ २० | पत्युर्लक्षणम् „ ३ |
| सामान्यायाः प्रोषि० या उ० २८ ४ | तदुदाहरणम् „ ५ |
| अभिसारिकाया लक्षणम् „ ८ | उपपतिलक्षणम् „ ७ |
| अभिसारिकापदेणिजर्थस्याविवक्षितत्वम्„ ११ | तदुदाहरणम् „ ९ |
| अत्र भरतवचनम् „ १४ | वैशिकलक्षणम् „ ११ |
| विद्यानाथोक्तिः „ २३ | तदुदाहरणम् „ १३ |
| भोजराजोक्तिः २९ २ | पत्युरनुकूलादिचतुर्विधत्वम् |
| मुग्धाभिसारिकाया उ० „ ९ | लक्षणं च „ १९ |
| मध्याया अभि० या उ० „ १४ | अनुकूलोदाहरणम् „ २२ |
| प्रल्भाभिसा० या उ० „ १९ | दक्षिणलक्षणम् ३५ ३ |
| परकीयाभिसा० या० उ० „ २४ | अस्योदाहरणम् „ ५ |
| सामान्याभिसारि० या उ० ३०५ | धृष्टलक्षणम् „ ९ |
| अन्धकाराभिसा० या उ० „ १० | तदुदाहरणम् „ ११ |
| ज्योत्स्नाभिसा या उ „ १५ | शठलक्षणम् „ १५ |
| दिवाभिसारिकाया उ० „ १८ | अस्योदाहरणम् „ १७ |
| एतासामुत्तममध्यमाधमभेदेन त्रैविध्यम्„ २२ | भरतोक्तचतुरादिभेदपञ्चकं तल्ल |
| उत्तमाया लक्षणम् ३१२ | क्षणानि च „ २२ |
| अस्या उदा० „ ६ | उत्तमोदाहरणम् ३६१९ |
| मध्यमाया लक्षणम् „ ११ | मध्यमोदा० „ २२ |
| अस्या उदा० „ १४ | अधमोदा० ३७ २ |
| अधमाया लक्षणम् „ १९ | मानिन उदा० „ ८ |
| अस्या उदा० „ २३ | वचनव्यङ्ग्यसमागमत्वेन चेष्टाव्यङ्ग्यस- |
| सख्या लक्षणम् „ २५ | मागमत्वेन च चतुरस्य द्वैविध्यम् „ १२ |
| मण्डनाद्यस्याः कर्म ३२ १ | आद्यस्योदाहरणम् „ १४ |
| मण्डनोदाइ० „ ४ | द्वितीयस्यो दा० „ १९ |
| उपालम्भोदाह० „ ९ | उदाहरणान्तरम् „ २४ |
| शिक्षोदाह० „ १२ | नायकाभासलक्षणम् ३८३ |
| परिहासोदाह० „ १७ | अस्योदाह० „ ५ |
| प्रियपरिहासोदा० „ २० | स्वभावस्यैवनायकभेदप्रयोजकत्वं न त्ववस्थाभेदस्येति व्यवस्थापनम् „ ९ |
| प्रियापरिहासोदा० „२५ | प्रोषितपतेरुदाह० „ १४ |
| दूत्या लक्षणम् ३ ३३ | उपपतेरुदाहरणम् „ १९ |
विषयानुक्रमणिका।
| ** पृ० पं०** | ** पृ० पं०** |
| उदाहरणान्तरम् „ २४ | संलक्ष्यक्रमध्वने मैदाः ५१ २ |
| वैशिकस्योदाह० ३९ ४ | अर्थशक्तिमूलध्वनेरष्टविधत्वम् „ ११ |
| नायकसहायानां पीठमर्दादीनां विद्याना- | कविनिवद्धवक्तृप्रौढौ क्ति सिद्वत्वेन भेदा- |
| थोक्तलक्षणानि „ १० | न्तरकल्पनस्य खण्डनम् „ १४ |
| साहित्यदर्पणोक्तान्येषां लक्ष० „ १४ | शब्दशक्तिमूलालङ्कारध्वनेरुदा०„ २१ |
| एतेषां व्यापारः „ २७ | शब्दशक्तिमूलवस्तुध्वनेरुदा० ५२ ७ |
| व्यापारोदाह० ४० २ | स्वतः सम्भविवस्तुनावस्तुध्वनेरु „ १५ |
| विटोदाह० „ ७ | स्वतः सम्भविवस्तुनाऽलङ्कारध्वनेरु०„१८ |
| अस्य सामान्यवनितायामपि सहायत्वम् ११ | स्वतः सम्भव्यलङ्कारेण वस्तुध्वनेरु०„ २२ |
| अस्योदाह „ १३ | स्वतः सं० अलङ्कारणालङ्कारध्वनेरु० ५३ ३ |
| चेटोदाहरणम् „ १७ | कविप्रौढोक्तिसिद्धवस्तुनावस्तुध्वनेरु०„७ |
| विदूषकोदा० „ २० | कवि० वस्तुनालङ्कारध्वनेरु० „ ११ |
| वृत्तिनिरूपणम् ४१ २ | कवि० अलङ्कारेण वस्तुध्वनेरु०„ १७ |
| शक्तिलक्षणम् „ ३ | कवि० अलङ्कारेणालङ्कारध्वनेरु०५४ २ |
| रूढादित्रिविधशब्द निरूपणम् „ ७ | उभयशक्तिमूलध्वनेरु० „ ७ |
| शक्ति ग्राहकप्रमाणप्रदर्शनम् „ २२ | अविवक्षितवाच्यध्वनेरु० „ १४ |
| लक्षणा तद्भेदाश्च ४२ ९ | अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यध्वनेरु० „ १९ |
| व्यज्जना निरूपणम् ४३ २० | विप्रलम्भे हरिहरोक्ता दशावस्थाः५५ ६ |
| ध्वनिस्तद्भेदाश्च „ २५ | अभिलाषस्य लक्षणमुदाहरणं च „ ११ |
| रसस्वरूपविषये भट्टलोल्लटादिमतम् ४४ १३ | उदाहरणान्तरम् „ १५ |
| „ श्रीशङ्कुकमतम् „ २१ | चिन्तालक्षणम् „ १९ |
| „ भट्टनायकमतम् ४५ १३ | उदाहरणम् ५६ २ |
| „ अभिनवगुप्तपादाचार्यमतम् ४६ ५ | उदाहरणान्तरम् „ ५ |
| रसस्य कार्यत्वज्ञाप्यत्वादिखण्डनम्४७१३ | स्मृतिलक्षणम् „ ७ |
| शङ्काररसनिरूपणम् ४८ १७ | एतदुदाहरणम् „ ११ |
| तद्भेदकथनम् „ २४ | उदाहरणान्तरम् „ १४ |
| सम्भोगशृङ्गारोदाहरणम् ४९ ४ | गुणकीर्तनलक्षणम् „ १८ |
| उदाहरणान्तरम् „ ९ | उदाहरणम् „ २२ |
| अभिलाषहेतुकविप्रलम्भोदा० „ १२ | उदाहरणान्तरम् ५७ २ |
| सङ्क्रमोत्तरकालीनविप्रलम्भोदा०„ १८ | उद्वेगलक्षणम् „ ६ |
| भावस्वरूपनिरूपणम् „ २० | उदाहरणम् „ १० |
| देवविषयरतेरुदा „ २२ | उदाहरणान्तरम् „ १३ |
| मुनिविषयरतेरुदा „ २५ | विलापलक्षणम् „ १७ |
| पुत्रविषयरतेरुदा० ५० २ | उदाहरणम् ५८ २ |
| व्यभिचारिण उदा० „ ८ | उदाहरणान्तरम् „ ५ |
| रसाभासोदा० „ १४ | उन्मादलक्षणम् „ ७ |
| भाषाभासोदा० „ १९ | कायिकोन्मादोदा० „ १४ |
विषयानुक्रमणिका।
| ** पृ० पं०** | ** पृ० पं०** |
| उदाहरणान्तरम् „ १७ | भयानकरसनिरूपणम् „ १० |
| वाचिकोन्मादोदा० „ २० | उदाहरणम् „ १२ |
| उदाहरणान्तम् ५९ २ | अस्य व्यभिचारिभावाः „ २० |
| व्यांधिलक्षणम् „ ४ | बीभत्सरसनिरूपणम् „ २२ |
| उदाहरणम् „ ८ | उदाहरणम् „ २४ |
| उदाहरणान्तरम् „ १३ | अस्य व्यभिचारिणः ६६ ७ |
| जडतालक्षणम् „ १७ | अद्भुतरसनिरूपणम् „ ९ |
| उदाहरणम् ६० ४ | उदाहरणम „ ११ |
| जातप्रायत्वेन वर्णनीयमरणोदा० „ १० | अस्य व्यभिचारिणः „ २० |
| उदाहरणान्तरम् „ १३ | शान्तरसनिरूपणम् „ २२ |
| आकांक्षितत्वेन वर्णनीयमरणोदा०„१६ | अष्टावेव रसा नाटये’ इत्युक्तेः खण्डन- |
| उदहरणान्तरम् „ १९ | पूर्वकं व्यस्थापनम् ६७ ५ |
| पूर्वरागलक्षणम् कुंडल „ २३ | निर्वेदस्य शान्ते स्थायित्वोपपादनम्„ १३ |
| श्रवणादितत्कारणम् ६१ १ | शान्तरसोदाहरणम् ६८ १० |
| श्रवणोदाहरणम् „ ४ | शान्तरसस्येव मायारसस्याप्याधिकस्या |
| इन्द्रजाले दर्शनोदा० „ ९ | शङ्कनम् „ १४ |
| चित्रे दर्शनोदा० „ १५ | तत्खण्डनम् ६९ ४ |
| साक्षाद्दर्शनोदा० „ २२ | व्यभिचारिणो लक्षणम् „ १० |
| स्वप्ने दर्शनोदा० इ ६२ २ | निर्वेदादित्रयस्त्रिंशद्व्यभिचारिणः „ १४ |
| हास्यरसनिरूपणम् „ ५ | मात्सर्यादी नामुक्तेष्ववान्तर्भावप्रदर्शनम् „ २२ |
| तदुदाहरणम् „ ७ | सहेतु निर्वेदस्वरूपकथनम् ७० ६ |
| तद्व्यभिचारिभावाः „ १३ | उदाहरणम् „ १३ |
| स्मितादीनां स्वरूपकथनम् „ १६ | ग्लानिनिरूपणम् „ १७ |
| करुणरसनिरूपणम् ६३ १ | उदाह „ २२ |
| उदाहरणम् „ ५ | शङ्का निरूपणम् „ २४ |
| तद्व्यभिचारिणः „ ९ | उदाहरणम् ७१ ७ |
| रैरौद्ररसनिरूपणम् „ ११ | असूया लक्षणम् „ ९ |
| उदाहरणम् „ १५ | उदाह* „ १६ |
| तयभिचारिभावाः „ २१ | सहतुसकार्यमदलक्षणम् „ २१ |
| वीररसनिरूपणम् „ २३ | उदाह० ७२ १० |
| दानवीरोदा० ६४ ७ | सहेतुसकार्यश्रमलक्षणम् „ १२ |
| दयावीरोदा० „ १० | उदाह० „ १९ |
| युद्धवीरोदा० „ १३ | आलस्यलक्षणम् „ २३ |
| धर्मवीरोदाहर० „ १९ | उदाह० ७३ ४ |
| व्यभिचारिभावाः „ २२ | दैन्यलक्षणम् „ ८ |
| रौद्रे क्रोधस्य स्थायित्वं वारे व्यभिचारि- | उदा० „ १० |
| त्वमिति कथनम् ५६ १ | चिन्तालक्षणम् „ १४ |
विषयानुक्रमणिका।
| ** पृ० पं०** | ** पृ० पं०** |
| उदा० „ १९ | मतिलक्षणम् „ १९ |
| मोहलक्षणम् ७४ १ | उदाह० „ २२ |
| उदाह० „ ९ | व्याधिलक्षणम् „ २४ |
| स्मृतिलक्षणम् „ १३ | उदाह० ८१ ४ |
| उदाह० „ २० | उन्मादलक्षणम् „ ८ |
| धृतिलक्षणम् ७५ ३ | उदाह० „ १७ |
| उदा० „ ११ | मृतिलक्षणम् „ १९ |
| व्रीडालक्षणम् „ १३ | उदाह० ८२ २ |
| उदाह० „ १३ | त्रासलक्षणम् „ ११ |
| चापललक्षणम् „ २० | उदाह० „ १४ |
| उदाह० ७६ ४ | तर्कलक्षणम् „ १८ |
| हर्षलक्षणम् „ ६ | उदाह० „ २० |
| उदा० „ ७ | स्तम्भाद्यष्टविधसात्त्विकभावानरूपणम्८३ ४ |
| आवेगलक्षणम् „ ९ | स्तम्भलक्षणम् „ १३ |
| उदाह० „ १७ | उदाह० „ १७ |
| जडतालक्षणम् „ १९ | स्वेदलक्षणम् „ १९ |
| उदाह० „ २४ | उदाह० „ २३ |
| गर्वलक्षणम् ७७ २ | रोमाञ्चलक्षणम् „ २४ |
| उदा० „ ५ | उदाह० ८४ ४ |
| विषादलक्षणम् „ ७ | स्वरभेदलक्षणम् „ ६ |
| उदाह० „ १३ | उदाह० „ ९ |
| औत्सुक्यलक्षणम् „ २५ | कम्पलक्षणम् „ ११ |
| उदाह० „ १८ | उदाह० „ १३ |
| निद्रालक्षणम् „ २२ | वैवर्ण्यलक्षणम् „ १८ |
| उदाह० ७८ ५ | उदाह० „ २२ |
| अपस्मारलक्षणम् „ ९ | अश्रुलक्षणम् ८५ १ |
| उदाह० „ १८ | उदाह० „ ५ |
| स्वप्नलक्षणम् „ २२ | प्रलयलक्षणम् „ ९ |
| उदाह० „ २५ | उदाह० „ १४ |
| प्रबोधलक्षणम् ७९ ४ | यौवनकालिकभावनिरूपणम् „ १७ |
| उदाह० „ १० | भाव-हाव-हेलानां विवेककरणम् „ २१ |
| अमर्षलक्षणम् „ १४ | लीला दिदशहा वजन्यचेष्टाविशेषाः८६ ८ |
| उदाह० „ २१ | भावोदाहरणम् „ १२ |
| अवहित्यालक्षणम् ८० २ | हावोदाह० „ १५ |
| उदाह० „ ८ | हेलोदाह० „ २० |
| उग्रतालक्षणम् „ १२ | लीलालक्षणम् „ २४ |
| उदाह० „ १५ | उदाह० ८७ २ |
विषयानुक्रमणिका।
| ** पृ० पं०** | ** पृ० पं०** |
| विलासलक्षणम् „ ६ | उदाह „ ११ |
| उदाह० „ ९ | शोभादिसप्तस्वाभाविकगुणाः „ १६ |
| विच्छित्तिलक्षणम् „ १३ | शोभालक्षणम् „ १९ |
| उदाह० „ १६ | रूपलावण्ययोर्लक्षणम् „ २२ |
| विभ्रमलक्ष० „ २० | शोभोदाह० १० ४ |
| उदाह० „ २३ | कान्तिलक्षणम् „ ८ |
| किलकिञ्चितलक्ष० ८८ २ | उदाह „ १० |
| उदाह० „ ५ | दीप्तिलक्षणम् „ १४ |
| मोट्टायितलक्ष० „ ७ | उदाह „ १६ |
| उदाह० „ १० | माधुर्यलक्ष० ९१ १ |
| कुट्टमितलक्ष=० „ १४ | उदाह „ ४ |
| उदाह० „ १७ | धैर्योदाह „ ९ |
| विश्वोकलक्ष० „ १९ | प्रागल्भ्यलक्ष „ ११ |
| उदाह० „ २२ | उदाह. „ १३ |
| ललितलक्ष० ८९ १ | औदार्यलक्ष० „ १५ |
| उदाह० „ ४ | उदाह „ १७ |
| विहृतलक्ष० „ ८ | ग्रन्थसमातिसूचकं पद्यम् „ २१ |
इति विषयानुक्रमणिका ।
—————
रसचन्द्रिकायाः शुद्धिपत्रम् ।
| अशुद्धम् | शुद्धम् | **पृ. ** | पं. |
| जानानाम् | जातानाम् (टि०) | १ | १ |
| कनिष्ठादिभेदेषु | कनिष्ठाभेदेषु | ८ | १३ |
| एस्य | एतस्य (टि०) | १५ | १ |
| पतिप्रसाद | पतिं प्रसाद (टि०) | १६ | ५ |
| वधू-रतः | वधूरतः | २० | २३ |
| मर्यादाय | मर्यादाप | २३ | १९ |
| परोपकारकत्वरूप | परोपकारकस्वरू० | ५२ | ४ |
| रुद्रदेवानाम् | रुद्रचन्द्रदेवानाम् | ६१ | ३ |
| मुञ्चन्ती | मुञ्चन्तीं | ६५ | १३ |
| विकर्तश्च | वितर्कश्च | ६९ | २० |
| साध्यात्वात् | साध्यत्वात् | ८३ | १२ |
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अथ
श्रीविश्वेश्वरपण्डितरचिता
रसचन्द्रिका।
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श्रीगणेशाय नमः।
तिर्यङ्मामात्रप्रवणनयनोपान्तदृश्यत्वलोभा-
दन्योन्यार्द्धावयवघटितं स्वाङ्गमाधायि याभ्याम्॥
तौ सद्रूपावपि जनकतां जन्यमात्रे भजन्तौ
देवावाद्यौ जगति जयतः प्रेमसीमायमानौ ॥ १ ॥
जयति (१) यथाजानानां वाग्जातसुजातपारिजातश्रीः।
श्री लक्ष्मीधरविबुधावतंसचरणाब्जरेणुकणः॥ २ ॥
सारासारविचारैकपरायणहृदां सताम्।
चमत्कारप्रकाराय क्रियते रसचन्द्रिका॥ ३ ॥
इह खलु नायकसमवेतायां रतौ नायिका विषयः नायिकासमवेतायां च (२) नायक इति विषयस्य रतावसाधारणकारणत्वमिति तौ निरूप्येते॥तत्र नियामकाभावाद्ग्रन्थभेदेन पौर्वापर्यानियमदर्शनेऽपि इच्छाया एव नियामकत्वादिह बहुवक्तव्यत्वात्प्रथमं नायिका निरूप्यते। सा त्रिविधा - स्वीया परकीया सामान्या चेति। तत्र पतिमात्रविषयकानुरागवती स्वीया।पतिश्च विवाहजन्यसंस्कारविशेषवान्। उभयानुरक्तायामतिव्याप्तिवारणाय
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(१) यथाजानानाम् = मूर्खाणाम् ।
(२) तथा च विषयत्व सम्बन्धावच्छिन्ननायिकानिष्ठरतिनिष्ठकार्यतानिरूपिता या तादात्म्य सम्बन्धावच्छिन्नकारणता तच्छालित्वं नायकत्वमिति नायकलक्षणं पर्यवसन्नम्। एवं नायिकालक्षणमप्यूह्यम्।
मात्रेति।सा यथा-
सञ्चारो रतिमन्दिरावधि सखीकर्णावधि व्याहृतं
चेतः कान्तसमीहितावधि महामानोऽपि मौनावधि।
हास्यं चाधरपल्लवावधि दृशोः कोणावधि प्रेक्षितं
सर्वंसावधि नावधिः कुलभुवांप्रेम्णः परं विद्यते॥
परं=केवलम्। अस्याश्चेष्टा-शीलसंरक्षणं कुलटादि संसर्गपरिहारः। स च “सकृदपि कुलटाभिर्योगिनीभिक्षुकीभि (१)र्नटविटघटिताभिः संसृजेन्मेलिकाभिः। (रतिर० भार्याधिकारे १० १२३लो०४) इति कामशास्त्रे, “न गणिकाधूर्त्ताभिसारिणीप्रवजिताप्रेक्षणिकामा. यामूलकुहककारिकादुःशीलादिभिः सहैकत्र तिष्ठेत्, संसर्गो हि चारित्रं दुष्यति” इति शङ्कस्मृत्यादौ चोक्तः। भर्तृसेवा तदानुकूल्यम् अहितान्निवर्त्तनं च । (२)
“पतिप्रियहिते युक्ता स्वाचारा विजितेन्द्रिया।
कुर्याच्छ्वशुरयोः पादवन्दनं भर्तृतत्परा॥
इति योगीश्वरोक्तेः। हितमायतिसुखमिति विज्ञानेश्वरः “तत्र निषिद्धोयुक्त प्रतिषेद्धव्यः प्रणामाद्यैः” इतिकामशास्त्रम्। सेयं त्रिविधा मुग्धा मध्या प्रगल्भा च। तत्र लज्जापे क्षापकर्षवद्रतिका मुग्धा। अपकर्षश्च द्विधा। स्वरूपेण तत्प्रतिबध्यव्यापारकत्वेन च। द्वितीयमपि द्वेधा। व्यापारे यावत्व-यत्किञ्चित्त्वयोर्विवक्षाभेदात्। आद्या अज्ञातयौवना। द्वितीया नवोढा।तृतीया विश्रब्धननवोढा । नवोढादिभेदद्वयं ज्ञातयौवनाया बो-
—————————————————–
(१) अत्र न च इति पाठः समीचीनो भवेत्। तस्य च संसृजेत् इत्यमेनान्वयः। अत्र मेलिकाभिः इत्यस्य वशीकारादिप्रयोगेण सं. मेलनकारिकाभिरित्यर्थः। रतिरहस्ये तु मौलिकीभिः इतिपाठः। तत्र मूलेन वशीकरणकर्मणा चरन्तीत्यर्थे ठक् प्रत्ययो बोध्यः।
(२) अस्य चेष्टेति पूर्वेणान्वयः।
नायिकाभेदेषु स्वकीया भेदाः।
ध्यम् । तथाच भरतः-
“पीनोरुगण्डजघनस्तनाघरं कर्कशं रतिमनोज्ञम्।
सुरतं प्रति सोत्साहं प्रथमं तद्यौवनं विद्यात्॥”
पीनपदं किश्चिदुपचयाभिप्रायम्।
“गात्रंपूर्णावयवं पीनौच पयोधरौ नतं मध्यम् ।
कामस्य सारभूतं यौवनमेतत् द्वितीयं तु॥”
इति तदुक्तेः। तथाच प्रथमयौवनस्य पूर्वापरावस्थाद्वयमत्राज्ञातज्ञातताभ्यां विवक्षित्वा भेदद्वयाभिधानम्।ज्ञानं च स्वनिष्ठं परनिष्ठं वेत्यत्र नाग्रहः।
सामान्योदाहरणं यथा-
उरःस्थलमदन्तुरं वचसि नाश्रिता चातुरी
विकारि न विलोकितंन च मुखे स्मितस्योद्गमः।
तथापि हरिणीदृशो वपुषि कापि कान्तिच्छटा
पटावृतमहामणिद्युतिरिवात्र संलक्ष्यते॥
यौवनस्य लेशमात्रेणाप्यनुदये रत्यालम्बनत्वे प्रमाणाभावात्किञ्चित्तदुन्मेषो मुग्धाया आवश्यकः। नायिकाविभाजकोपाधिमध्ये रत्यालम्बनदशायामसतो धर्मस्य परिगणनानर्हत्वात्। एतेन
**सुधायाः संध्रीची नच वचनवीची वरतनोः **
स्तनश्रीः कर्क्कन्धूफलमपि न बन्धूकृतवती।
न शीलं दृग्भङ्गी कलयति कुरङ्गीनयनयो-
स्तथापि श्रीरस्या युवजननमस्या विजयते ॥
इत्यादिकमपि व्याख्यातम्।
अज्ञातयौवना यथा मम-
व्युत्तिष्ठन्ते हृदयगतयो बालकेलीकलापा
नाप्यन्यस्मिन् सजति विषये लेशतोऽप्यात्मवृत्तिः।
एतल्कि स्यादिति नववधूरन्तरालोचयन्ती
धत्ते दोलामिव तरलताशालिनीमेव बुद्धिम्॥
ज्ञातयौवना यथा मम-
(१)जाता कुहूरुतरवा विहसन्मुखश्री
र्लब्धा तपःश्रवणसंयुतदृष्टिपाता।
अर्द्धोदयेसति पयोधरयोः प्रियस्ते
पुण्यं प्रकाशयतु तत्परिशीलनेन॥
इयमेव रतिकार्याभिभवसमर्थलज्जायोगात् नवोढा, लज्जायाः किश्चिदपकर्षे विश्रब्ध नवोदा, लज्जामदनयोः साम्ये तु मध्या वक्ष्यते। केचित्तु विश्रब्धनवोढाया मध्यमायामेवान्तर्भावमिच्छन्ति। तथाच विद्यानाथः-
उद्यद्यौवना मुग्धा लज्जा पिहितमन्मथा।
लज्जामन्मथमध्यस्था मध्यमोदितयौवना ॥
स्मरमन्दीकृतव्रीडा प्रौढा सम्पूर्णयौवना।इति ।
आद्या यथा मम -
नीता प्राणसमेन दृग्विषयतां सद्यः परावर्त्तते
तस्मिन्सन्निहिते बुभूषति भवत्यस्माद्विदूरात्पुनः।
—————————————————-
(१) नायिकां प्रति सख्या उक्तिः। अत्र कुहूः उत रवौ इहेति च्छेदः। उतेत्यानन्दे। सन्मुखश्रीः रवौ= रविवारे जाता तपसि माघे श्रवणनक्षत्रयुतः दृष्टं दर्शनमस्यास्तीति दृष्टी दृष्ट इत्यर्थः। पातःव्यतीपातो यस्यां सा। कुहूः=अमा लब्धा। एतेन
अमार्कपातश्रवणैर्युक्ता चेत्पौषमाघयोः।
अर्धोदयः स विज्ञेयः कोटिसूर्यग्रहैः समः॥”
इति स्कन्दपुराणाद्युक्तोऽर्थोदयाख्यो योगः सुचितः। यत्र स्नानादिना स्वर्गो भोगश्च जायते। पक्षे-कुहूरुतरवेत्येकं पदम्। कुहूरुतं कोकिलशब्दः तदिव रवो यस्याः विहसन्मुखश्रीः तपसा श्रवणसंयुतदृष्टिपातः कर्णान्तगतदृक्पातो यस्याः सात्वं प्रियेणेति शेषः। लब्धा। स्तनयोः अर्धाविर्भावे सति प्रियः तयोः=स्तनयोः परिशीलनेन मर्दनेन पुण्यम् अर्धोदयस्नानजं प्रकटीकरोतु। अर्धोदयस्नानकर्तॄणां त्वादृश्यः स्त्रियो भवन्तीति भावः।
नायिकाभेदेषु स्वकीयाभेदाः।
संयोगे विहितेऽपि तेन तनुते तस्माद्विभागं स्वयं
प्रायस्तत्प्रतिकूलमेव चरितं प्रीणाति वामभ्रुवः॥
द्वितीया यथा मम-
हस्तस्वस्तिकगोपितस्तनतटा सम्बद्धबिम्बाधरा
वक्षोदेशमिलन्मुखी दृढतरं लग्नोरुयुग्मा मिथः।
स्वप्नोद्भाविततद्विरोधिदयितव्यापाररोधोल्लस-
त्तद्यत्नेन धिनोति नूतनवधूप्रस्वापरीतिर्मनः ॥
(१) समप्रधानलज्जामदना मध्या। इयमेवातिविश्रब्धनवोढा।
(२) यथा जं जं सो णिज्झाअइ अनोआसं मह अणिमिसच्छो।
पच्छाएमि अ तन्तं इच्छामि अ तेण दीसन्तम्॥
अत्र नायकेन द्रष्टुमिष्यमाणस्याऽङ्गस्य आच्छादनेन लज्जायाः तेन दृश्यतामितीच्छया कामस्य च समं प्राधान्यम्। लज्जाभिभावकमदना प्रगल्भा।तस्याश्चेष्टा रतिप्रीतिरानन्दात्सम्मोहश्च।
आद्या यथा–
(३) आणासआइ देन्ती तह सुरए हरिमविअसितकवोला।
गोसेवि ओणअमुद्दी अह सत्ति पिआ ण सद्दहियो॥
द्वितीया यथा–
धन्यासि या कथयसि प्रियसङ्गमेऽपि
विश्रब्धचाटुकशतानि रतान्तरेषु ।
—————————————————-
(१) समप्रधानौ तुल्यप्रधानौ लज्जामदनौ यस्याः सा।तुल्यत्वं च परस्परनिष्ठप्रतिबन्धकतानिरूपितप्रतिवध्यताशालिव्यापारकत्वम्। तथा च लज्जाप्रतिबद्धमदनव्यापारकत्वे सति मदनप्रतिबद्धकिञ्चिल्लज्जा-व्यापारकत्वं मध्यात्वमिति फलितम्।
(२) यद्यत्स निभालयत्यङ्गोपाङ्गं ममानिमिषाक्षः।
प्रच्छादयामि च तत्तदिच्छामि च तेन दृश्यमानम्॥ इति च्छाया।
(३) आज्ञाशतानि ददती तथा सुरते हर्षविकसितकपोला।
प्रभातेऽप्यवनतमुखी अथ सेति प्रिया न श्रद्दध्मः॥ इति च्छाया।
नीवीं प्रति प्रणिहिते तु करे प्रियेण
सख्यः शपामि यदि किञ्चिदपि स्मरामि ॥
मध्या- प्रगल्भयोर्मानावस्थायां त्रयो भेदाः धीरा अधीरा धीराधीरा चेति। तदुक्तं दर्पणे-
“ते धीरा चाप्यधीरा च धीराधीरा च षड्विधे।
प्रियं सोत्प्रासचक्रोक्त्या मध्याधीरा दहेद्रुषा॥
धीराऽधीरा तु रुदितैरधीरा परुषोक्तिभिः।
प्रगल्भा यदि धीरा स्पाच्छन्नकोपाकृतिस्तदा॥
उदास्ते सुरते तत्र दर्शयत्यादरान्बहिः।
धीराधीरा तु सोल्लुण्ठभाषितैः खेदयेदमुम्॥
तर्जयेत्ताडयेदन्या” इति। (साहि० द० १०३)
अन्या अधीराप्रगलभेत्यर्थः।
मध्याधीरा यथा मम -
पलाशकुसुमानि ते वपुषि विभ्रते दृश्यतां
वहन्ति वदनानिला मलयजस्फुरत्सौरभाः।
इयं दयित ! माधवी मधुरता समाधीयते
ततो भवति मीयते कुसुमधन्वनः सौहृदम्॥
अधीरा यथा-
(१) तेण ण मरामि मण्णूहि पूरिआ जेण रेसुहअ।
तुग्गअमणा मरंती पुणोवि मा तुज्झ लग्गिस्सम्॥
धीराधीरा यथा-
(२) वाहोल्लफुरिअगंडाहराइ भणिअं विलक्ख हसिरीए।
अज्जवि कीस रूसिज्जइ सवहावत्थं गए प्पेम्मे॥
——————————————————-
(१) तेन न म्रिये मन्युभिः पूरिता येन रे सुभग !।
स्वगतमना म्रियमाणा पुनरपि मा त्वामेव लगिष्ये॥ इतिच्छाया।
(२) वाष्पार्द्रस्फुरितगण्डाधरया भणितं विलक्ष्य हसितया।
अद्यापि कुतो रुष्यते शपथावस्थां गते प्रेम्णि॥ इतिच्छाया।
नायिकाभेदेषु स्वकीया भेदाः।
प्रगल्भा यथा-
एकत्रासनसंस्थितिः परिहृता प्रत्युद्धमाद्दूरत-
स्ताम्बूलाहरणच्छलेन रभसाश्लेषोऽपि सम्बिघ्नितः।
आलापोऽपि न मिश्रितः परिजनं व्यापारयन्स्यान्तिके
कान्तं प्रत्युपचारतश्चतुरया कोपः कृतार्थीकृतः॥
अत्र सामानाधिकरण्यायनुपपादनद्वारकं रतौदास्यम् । तत्सत्त्वेऽपि यथा-
(१) जाणइ जाणावेउंअणुण अविद्दवि अमाणपरिसेसम्।
पइरिकम्पिवि विणआवलम्वर्ण सच्चिअ कुणंती॥
अत्रैकान्तादिसत्त्वेऽपि विनयालम्बनात्तत्।
अधीरा यथा-
कोपात्कोमललोलबाहुलतिकापाशेन बद्धा दृढं
नीत्वा वासनिकेतनं दयितया सायं सखीनां पुरः।
भूयो मैवमिति स्खलन्मृदुगिरा सञ्चिन्य दुश्चेष्टितं
धन्यो हन्यत एवं निह्नुतिपरः प्रेयान् रुदन्त्या हसन्॥
धीराधीरा यथा मम -
आलक्ष्यैव विपक्षपक्ष्मलदृशो वक्षोरुहाद्वक्षसि
प्राणेशस्य घनानुषङ्गि घुसृणं वक्रीबुभूषाजुषा।
उत्तंसोत्पलमुत्तरत्वरपरावृत्तिस्यदात् प्रस्खल-
न्नेत्रस्य प्रतियातनेव दयितं द्रष्टुं विसृष्टं रसात्॥
धीरादिभेदाः स्वयायामेव।परकीयादौ मानसस्वेऽपि नायकस्य नायकान्तरसम्भोगमभ्युपगम्यैव तत्रानुरक्तत्वादुक्तभेदप्रयोजकत्वाभावादिति प्राञ्च। नव्यास्तु स्वीयाया अपि नायकस्यान्यसम्भोगानभ्युपगमेनानुरागोत्पत्तौ मानाभावान्मानस्य सर्वत्र कादाचि-
——————————————————-
(१) जानाति ज्ञापयितुमनुनयविद्रावितमानपरिशेषम्।
पत्युरेकान्तेऽपि विनयावलम्बनं सत्यमिव कुर्वन्ती॥ इति च्छाया।
त्कतया निमित्तत्वोपपत्तेश्च परकीयादेरपि उक्तभेदाङ्गीकारो युक्त इत्याहुः। एताश्च ज्येष्ठाः कनिष्ठाश्चेति द्विधाः। परिणायकनिष्ठोत्कृष्टस्नेहविषयभूता ज्येष्ठा।तादृशापकृष्टस्नेहविषयभूता कनिष्ठा। ज्येष्ठाभेदेषु धीरा यथा-
(१) पुसिआ कण्णाहरणेंदणीलकिरणाहआ ससिमऊहाः।
माणिणिवअणम्मि सकज्जलसुसंकाइ दइएण॥
अधीरा यथा-
(२) हिअअम्मि वसास ण करोस अप्पिअं तहवि णेहपडिएहिं सङ्किज्जसि जुअइसहावगलिअधीरेहि अह्मेहिं॥
धीराधीरा यथा–
(३) णवि तह अणालांती हिअअं दूमेइ माणिणी अहिअं।
जह दूरबिअम्भिअगरुअरोससमज्झत्थवअणेहिं॥
कनिष्ठादिभेदेषु धीरा यथा-
(४) अणुणअ णाई कुविआउअऊहसु किं मुद्दा पमाएसि ।
तुह मण्णुसमुप्पाअएण माणेणवि ण कज्जम् ॥
अधीरा यथा–
(५) पिअविरहो अप्पिअदंसणं अ गरुआइ दोवि दुक्खाई।
जीआ तुमं कारिज्झसि तीअ णमो आहि आईए॥
—————————————————–
(१) प्रोञ्छिताः कर्णाभरणेन्द्रनीलकिरणाहताः शशिमयूखाः।
मानिनीवदने सकज्जलसुशङ्कया दयितेन ॥ इतिच्छाया।
(२) हृदये वससि न करोषि अप्रियं तथापि स्नेहपतिताभिः।
शङ्क्यसे युवतीस्वभावगलितधैर्याभिरस्माभिः ॥ इतिच्छाया ।
(३) नापि तथा अनालपन्ती हृदयं दुनोति मानिन्यधिकम् ।
वथ दूरविजृम्भितगुरुकरोषमग्नार्थवचनैः ॥ इतिच्छा० ।
(४) अनुनय नाथं कृपिता मुहुर्मुहुः किं प्रमाद्यसे।
तव मन्यूत्पादकेन मानेनापि न कार्यम् ॥ च्छा० ॥
(५) प्रियविरहोऽप्रियदर्शनं च गुरुणी द्वे अपि दुःखे।
यया त्वं कार्यसे तस्यै नमोऽस्त्वायत्यै॥
नायिकाभेदेषु परकीयाभेदाः।
धीराधीरा यथा-
(१)सा सुहअ अहिअगुणरूअसोहिरीआ मणिग्गुणाअहअं।
भण तीअ जो णसरिसो सो किं सब्बो जणो मरउ॥
इति स्वकीया।
——
परपरिणीतत्वे सति स्वानुरक्ता परकीया। स्वपदं यन्त्रिरूपि तं परकीयात्वं तत्परम्। परिणीतपदेन सामान्यायां परपदेन स्वकीयायामतिव्याप्तिनिरासः। नन्वेवं कन्यकायामव्याप्तिः।परोढाकन्यकाभेदेन परकीयाद्वैविध्यस्याभियुक्तैरङ्गीकारात्। नच स्वापरिणीतत्वं ससन्तार्थः। सामान्यायाम तिव्याप्तेः। सत्यम्। यथोक्ता कन्यका चेत्येतदन्यतरत्वं परकीयात्वमिति तात्पर्यात्। वस्तुतस्तु यद्विषयकानुरागत्त्वंज्ञानेन लोकानां तस्यां विगानं तदनुरक्तत्वं लक्षणं बोध्यम्।
यथा-
अनाहूतैवैत्य प्रगुणगुणलोभेन भवतः
समीहे सौभाग्यं तदिदमुपहासं प्रथयति।
विदग्ध ! त्वामेवं तदपि कथयाम्याचर तथा
यथा न स्वादालीकपटकरतालीपटुरवः॥
सा च गुप्ता विदग्धा लक्षिता कुलदानुशयाना मुदिता कन्यका चेति सप्तविधा। तदुक्तम्–
गुप्ताविदग्धाकुलटानुशयानादयस्तु याः।
परकीयासु सर्वासामन्तर्भावो निरूपितः॥
तत्र गुप्ता त्रिविधा।भूतभाविवर्त्तमानरतगोपनभेदात् ।
—————————————————-
(१) सा सुभग ! अधिकगुणरूपशोभिता मनाग्गुणा चाहम्।
भण किं तस्य यो न सहशः स सर्वो जनो म्रियताम्॥
आद्या यथा–
हंसैःशैवलमञ्जरीति कचरी चञ्चूभिराकर्षिता
वक्रेचन्द्रधिया चकार कुपिता (१) चक्री नखैराक्रमम्।
भृङ्गैः पङ्कजकोरकप्रतिधिया वक्षोरुहोऽपि क्षत-
स्तन्मातः ! करवै पुनर्न सरसीतोयावगाहोद्यमम्॥
द्वितीया यथा–
दृष्टिं हे प्रतिवेशिनि ! क्षणमिहाष्यस्मद्गृहे दास्यसि
प्रायेणास्य शिशोः पिता न विरसाः कौपीरपः पास्यति।
एकाकिन्यपि यामि तद्वरमितः स्रोतस्तमालाकुलं
नीरन्ध्रास्तनुमालिखन्तु जरठच्छेदा नलग्रन्थयः॥
तृतीया यथा–
(२)गहवइ गओह्मसरणं रक्खमु एअंति अडअणा भणिअ।
सहसागअस्स तुरिअं पइणो कण्ठं मिलाएइ॥
अत्र शरणागतोऽयमिति जारस्य मर्गे समर्पणम्। विदग्धा द्विविधा। वाग्विदग्धा क्रियाविदग्धा च।
आद्या यथा-
नाथो मे विपणिं गतो न गणयत्येषा सपत्नी च मां
त्यक्त्वा मामिंह (३)पुषिणीति गुरवः माता गृहाभ्यन्तरम्।
शय्यामात्रसहायिनीं परिजनः श्रान्तो न मां सेवते
स्वामिन्ना (४) गमलालनीय (५) रजनीं लक्ष्मीपते !रक्ष माम्॥
——————————————————
( १) चक्री=चक्रवाकी।
( २) गृहपतेगतोऽस्मच्छरणं रक्षस्वैनमिति स्वैरिणी भणित्वा। सहसागतस्य पत्युस्त्वरितं कण्ठे मेलयति॥ छा०।
( ३) पुष्पिणी = रजस्वला।
( ४) आगमलालनीय ! विष्णुपक्षे वेदस्तुत्य ! जारपक्षे आगमेन आगमनेन लालनीय !
(५) रजनीमिति रात्रिं व्याप्यर्थः। अत्यन्तसंयोगे द्वितीया।
नायिकाभेदेषु परकीयाभेदाः।
द्वितीया यथा-
नाथेऽनिशं निजनिवाससमीपनीप-
मुच्छेत्तुमादिशति संसदि सेवकेभ्यः।
खिन्ना वधूः सखि ! सदैव सदैवतोऽय-
मुक्त्वेति तं सपदि पूजयितुं प्रतस्थे ॥
अन्यैर्ज्ञातोपनायकानुरागा लक्षिता।
यथा-
(१) दिठ्ठीअजं ण दिठ्ठो सरलसहावाइ जं अणालविओ।
अआरो जंण कओ तंच्चिअ कलिअं छइल्लेहिं॥
(२) परिणीतत्वे सति अनेकानुरागिणी कुलटा।
यथा-
पृथ्वी तावत्रिकोणा नगनगरगिरिग्रामरुद्धं तदर्द्ध
तत्राप्यर्द्धं युवत्यः शिशुविगतवयोदूषितं यत्तदर्द्धम्।
त्याज्यास्तत्रापि पुत्रश्वशुरगुरुजनाः शेषवन्तः कियन्तो
मिथ्यावादो जनानां मुखरमुखरवः पुंश्चलीपुंश्चलीति॥
सङ्केतविघटनदुःखवत्यनुशयाना।सा च त्रिधा। स्वविरहितसङ्केतस्थाने नायकगमनज्ञानवती, सङ्केतस्थानस्य स्वरूपतो विघटनज्ञानवती’ भाविसङ्केतस्थानाभावशङ्कावती चेति।
आद्या यथा-
ग्रामतरुणं तरुण्या नवबञ्जुलमञ्जरीसनाथकरम्।
पश्यन्त्या भवति मुहुर्नितरां मलिना मुखच्छाया॥
द्वितीया यथा-
(३) वाहिता पडिवअणं ण देइ रूसेइ एक्कमेक्कस्स।
अज्जा कज्जेण विणा पलिप्पमाणे णईकच्छे॥
——————————————————
( १) दिष्ट्या यन्न दृष्टः सरलस्वभावया यदनालपितः।
उपचारो यन्त्र कृतस्तदपि च कलितं विदग्धैः॥
(२) का० रा० पु० पुस्तके ‘परिणीतत्वे सति’ इति नास्ति।
(३) व्याहृता प्रतिवचनं न ददाति रुष्यति एकमेकस्य।
आर्या कार्येण विना प्रदीप्यमाने नदीकच्छे॥ छा०
तृतीया यथा-
(१) किं रुअसि ओणअमुही धवलाअंतेसु शालिछेत्तेसु।
हरिआलमंडिअमुही णडिव्व शणवीडिआ जाओ॥
(२)प्रियप्राप्तिजन्यानन्दवती मुदिता
यथा-
(३) अलससिरमणी धुत्ताण आग्गिमो पुति घणसमिद्धिमओ।
इअ भणिएण णअंगी परफुल्लविलोअणा जाओ॥
कन्यका यथा-
आरोपिता शिलायामश्मेव त्वं स्थिरेति मन्त्रेण।
मग्नापि परिणयापदि जारमुखं वीक्ष्य हसितैव॥
इति परकीया ।
——-
वित्ताभाववता सहास्याः सम्भोगो मा भूदित्येतादृशेच्छाविषयत्वे सत्यनुरक्ता सामान्या। विषयत्वं चेच्छाविशेष्याभाव प्रतियोगिप्रतियोगित्वम्। भवति चोक्तेच्छा विशेष्योऽस्याः सम्भोगाभावः तत्र प्रतियोगी सम्भोगः तत्प्रतियोगित्वं चास्याम्।तादृशेच्छा च क्वचिद्वेश्यायाः क्वचित्तन्मात्रादेरिति नाव्याप्तिः।
यथा-
(४) क उव्वरिआ के उण ण वंचिआ के अलुत्तगुरुविहवा ।
णहराई बेसिणिओ गणणारेहा विअ वहन्ति॥
इति सामान्या ।
——
——————————————————–
( १) किं रोदिषि अवनतमुखी धवलायमानेषु शालिक्षेत्रेषु ।
हरिनालमण्डितमुखी नटीव शणवाटिका जाता ॥ छा०
( २) प्रियादि वत्यन्तं का० रा० पु० पुस्तके नास्ति ।
(३) अलसशिरोमणिर्धूर्तानामग्रिमः पुत्रि ! धनसमृद्धिमयः।
इति भणितेन नताङ्गी प्रोत्फुल्लविलोचना जाता ॥ छा०
( ४) के उर्वरिताः के पुनर्न वञ्चिताः के अलुप्तगुरुविभवाः।
नखराणि वेश्या गणनारेखा इव वहन्ति ॥ छा० ( १)
अत्र के उण इत्यंत्र के इह इति पाठः का०रा०पु० पुस्तके।
नायिकाभेदेषु प्रणयमानोदाहरणानि।
एताश्च तिस्रोऽपि अन्यसम्भोगदुःखिता, वक्रोक्तिगर्विता मानवती चेति त्रिविधा।
आद्या यथा-
निःशेषच्युतचन्दनं स्तनतटं निर्मुक्तरागोऽधरो
नेत्रे दूरमनञ्जने पुलकिता तन्वी तवेयं तनुः।
मिथ्यावादिनि ! दूति ! बान्धवजनस्याज्ञातपीडागमे !
वापींस्नातुमितो गतासि न पुनस्तस्याधमस्यान्तिकम्॥
गर्विता प्रेमगर्विता सौन्दर्य्यगर्विता च ।
आद्या यथा-
(१) हल्लफलल्हाणपसाहिआण मज्झे सवत्तीणं ।
अज्जाइ मज्जणाण(अरेण कहिअं व सौहगम्॥
द्वितीया यथा-
गर्वमसम्भाव्यमिमं लोचनयुगलेन किं वहसि भद्रे !।
सन्तीदृशानि दिशि दिशि सरस्सु ननु नीलनलिनानि॥
मानस्तु द्विधा। प्रणयादीर्ष्यातश्च। तदुक्तं दर्पणे-
“मानः कोपः स तु द्वेधामणयेर्ष्या समुद्भवः।
द्वयोः प्रणयमानः स्यात्प्रमोदे सुमहत्यपि॥
प्रेम्णः कुटिलगामित्वात्कोपो यः कारणं विना”।
प्रियापराधातिरिक्त हेतुजन्यः कोपः प्रणयमानः। द्वयोरिति कदाचिन्नायिकायाः कदाचिन्नायकस्येत्यर्थः।
आद्यो यथा-
(२) पशुपइणो रोसारुणपडिमासङ्केतगारीमुह अन्दम्।
महिअग्घर्षक अंविअ संझासलिलंजलिं णमह ॥
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( १) हास्द्रिफलस्नानप्रसाधितानां मध्ये सपत्नीनाम् ।
आर्याया मज्जनानादरेण कथितमिव सौभाग्यम् ॥
(२) पशुपते रोषारुणप्रतिमासङ्क्रान्तं गौरीमुखचन्द्रम् ।
गृहीतार्घपङ्कजमिव सन्ध्यासलिलाञ्जलिं नमत ॥
द्वितीय यथा-
अस्मिन्नेव लतागृहे त्वमभवस्तन्मार्गदत्तेक्षणः
सा हंसैः स्थिरकौतुका चिरमभूद्गोदावरीसैकते।
आयान्त्या परिदुर्मनायितमिव त्वां वीक्ष्य बद्धस्तया
कातर्यादरविन्दकुड्मलनिभो मुग्धः प्रणामाञ्जलिः॥
युगपद्यथा-
एकस्मिन् शयने पराङ्मुखतया वीतोत्तरं ताम्यतो-
रन्योन्यस्य हृदि स्थितेऽप्यनुनये संरक्षतोर्गौरवम्।
दम्पत्योः शनकैरपाङ्गवलनान्मिश्रीभवच्चक्षुषो-
र्भग्नो मानकलिः सहासरभसव्यासक्तकण्ठग्रहः॥
ईर्ष्यामानो यथा दर्पण-
“पत्युरन्यप्रियासङ्गे दृष्टेऽथानुमिते श्रुते।
ईर्ष्यामानो भवेत्स्त्रीणां तत्र त्वनुमितिस्त्रिधा॥
तत्स्वप्र्नायितभोगाङ्कगोत्रस्खलन सम्भवा।
अपरस्त्रीदर्शनादिजन्योऽल्पयत्नसाध्यत्वात् लघुः। गोत्रस्खलनादिजन्यः कष्टसाध्यत्वान्मध्यमः। परस्त्रीसम्भोगजन्यो बहुप्रयाससाध्यत्वाद्गुरुः। अयं चोत्सर्गः। गोत्रस्खलनादिजन्यस्थापि कचिद्गुरुत्वात् परस्त्रीभोगजन्यस्यापि मुग्धादौ लघुत्वात्।
लघुर्यथा-
(१) जो कहंवि मह सहीहिं छिदं लहिऊण पेसिओ हिअअम्।
सो माणो चोरिअकामुओव्व दिट्ठे पिए णठो।
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( १) यः कथमपि मम सखीभिरिछद्रं लब्ध्वा प्रवेशितो हृदयम् ।
स मानश्चोरितकामुक इव दृष्टे प्रिये नष्टः ॥
नायिकाभेदेषु ईर्ष्यामानोदाहरणानि।
मध्यो पथा-
(१) अवलंबिअ माणं परमुहीअ एतस्स माणिणि पिअस्स।
पुठ्ठिपुलउग्गमो तुह कहेइ समुहठ्ठिअं हिअअम्॥
गुरुर्यथा-
(२)णेउरकोटिविलग्गं चिउरं दइअस्स पाअपडिअस्स।
हिअअं पउत्थमाणं उम्मोअन्तिच्चिअ कहेइ॥
प्रत्यक्षं यथा-
विनयति सुदृशो दृशः परागं प्रणयिनि कौसुममाननानिलेन।
तदहितयुवतेरभीक्ष्णमक्ष्णोर्द्वयमपि रोषरजोभिरापुपुरे॥
स्वप्नायितं यथा-
एते लक्ष्मण ! जानकीविरहिणं मां पीडयन्त्यम्बुदा
मर्माणीव विघट्टयन्त्यलममी क्रूराः कदम्बानिलाः।
इत्थं व्याहतपूर्वजन्मचरितो यो वीक्षितो राधया
सेर्ष्यंशङ्कितया स वः सुखयतु स्वप्नायमानो हरिः॥
भोगाङ्कदर्शनं यथा-
तस्याः सान्द्रविलेपनस्तनतटप्रश्लेषमुद्राङ्कितं
किं वक्षश्चरणानतिव्यतिकरव्याजैन गोपाय्यते।
इत्युक्ते क्वतदित्युदीर्य्यसहसा तत्संप्रमार्ष्टुंमया
सा श्लिष्टा रभसेन तत्मुखवशात्तस्याश्च तद्विस्मृतम्॥
गोत्रस्खलनं यथा-
मयि व्यक्तं गोत्रस्खलनमपराधं कृतवति
प्रसान्नैवास्यश्रीर्लवमपि न भेदं गतवती।
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( १) अवलम्ब्य मानं पराङ्मुख्या एस्य मानिनि ! प्रियस्य।
** पृष्ठपुलकोद्गमस्तव कथयति सम्मुखस्थितं हृदयम्॥**
(२) नूपुरकोटिविलग्नं चिकुरं दयितस्य पादपतितस्य।
** हृदयं प्रोत्थित्तमानमुन्मोचयतीव कथयति ॥**
परं त्वस्या मन्युर्भयचकितदूतीविनिहितै-
रितः प्रत्यासन्नैरसरलदृगन्तैरभिहितः॥
श्रवणं यथा मम-
प्रणयरभसादाभासत्वस्पृशां परिशीलना-
त्पिशुनवचसामन्तः सञ्चिन्तनेन तदागसाम्॥
सितकररुचामाविर्भावा (१) ल्लसत्कुसुसुमायुध
स्फुरितरमणोत्कण्ठाः सम्पेदिरे मदिरेक्षणाः॥
माननिवृत्युपाया पथ-
“साम भेदोऽथ दानं च नत्युपेक्षे रसान्तरम।
तद्भङ्गाय पतिः कुर्य्यात् षडुपायानिति क्रमात् ॥
तत्र प्रियवचः साम भेदस्तत्सख्युपार्जनम्।
दानं व्याजेन भूषादेः पादयोः पतनं नतिः ॥
सामादौ तु परिक्षणे स्यादुपेक्षावधीरणम् ।
रभसत्रासहर्षादेः कोपभ्रंशो रसान्तरम् ॥
साम यथा-
(२) देसु अणुपसिअ एह्णिंपुणोवि सुलहाइंरोसिअव्वाई।
एसा मिअछि मिअलंछणुज्जला गलइ च्छणराई ॥
भेदो यथा-
(३) मा कुण पडिक्क्खसुहं अणुणेहि पई पसाअलौहिल्लम्।
अइ गरुअगहिअमाणे णपुत्ति! रासिव्व छिज्जिहिसि॥
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(१) विभाव्यविभावरीं विमतविधयो मोघाः सम्पेदिरे मदिरेक्षणे। इति पाठः का० रा० पु० पुस्तके।
(२) पश्यानुप्रसीद इदानीं पुनरपि सुलभानि रोषितव्यानि।
एषा मृगाक्षि मृगलाञ्छनोज्ज्वला गलति क्षणदा॥ छा०।
(३) मा कुरु प्रतिपक्षसुखमनुनय पतिप्रसादलुब्धम्।
अयि गुरुकगृहीतमाने न पुत्रि! रात्रिरिव क्षीणा भविष्यसि॥ छा०
दानं यथा-
न खलु वयममुष्य दानयोग्याः
पित्रति च पाति च यासकौरहस्त्वाम्।
विट ! विटपममुं ददस्वतस्यै
भवति पतः सदृशोश्चिराय योगः॥(मा०स०७ श्लो०५३)
सतिर्यथा-
(१) पाअपढिअ अहव्वे! किं दाणिं णोट्ठवेसि भर्तारम्।
एअंचिअअवसाणं दूरंमि गअस्स पेम्मस्स॥
उपेक्षा यथा-
स्वचरणपीडानुमितत्वन्मौलिरुजाविनीतमात्सर्य्या।
अपराद्धा सुभग ! त्वां स्वयमहमनुनेतुमायाता॥
रसान्तरं यथा-
विग्रहाच्च शयने पराङ्मुखी-
र्नानुनेतुमबलाः स तत्वरे।
आचकाङ्क्षघनशब्दविक्लवाः
ताः स्वयं प्रविशतीर्भुजान्तरम्॥(र०वं० स०१९ श्लो०३८)
असाध्यस्तु मानो रसाननुगुणत्वान्नप्रकृतोपयोगीति नात्रोपन्यस्तः। यथा -
(२) तह माणो माणघणाइ एमेअ दूरमणुबद्धो।
जह से अणुणीअ पिओ एक्कग्गामेच्च अपडत्थो॥
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(१) पादपतितमभद्रे किमिदानीं नोस्थापयसि भर्तारम् ।
एतावदेवावसानं दूरं गतस्य प्रेम्णः ॥ छा०
(२) तथा मानो मानधनाया एवमेव दूरमनुबद्धः।
यथाऽस्या अनुनीय प्रिय एकग्राम एव प्रोषितः ॥ छा०
इद्द मुग्धातावदेकैव। मध्या-प्रगल्भेधीरादिभेदेन षट्, ज्येष्ठा- कनिष्ठाभेदेन द्वादशेति त्रयोदश स्वीयामेदाः। परोढा कन्यका चेति परकीयाद्वैविध्यम्। सामान्या एकैवेति षोडश भेदाः। तासांच वक्ष्यमाणैरष्टभिर्भेदैरष्टाविंशत्यधिकशतं भेदाः। प्रबेकमुत्तमादिभेदत्रयेण शतत्रयं चतुरशीतिश्च भेदा भवन्ति।
तदुक्तं प्राचीनैः-
“त्रयोदशविधा स्त्रीया द्विविधा च पराङ्गना।
एका वेश्या पुनश्चाष्टावबस्थाभेदतो मताः॥
पुनस्ता त्रिविधाः सर्वां उत्तमाधममध्यमाः।
इत्थं शतत्रयंतासामशीतिश्चतुरुत्तरा॥
जातिकालवयोवस्थाभावकर्न्दर्पनायकैः।
इतरा अप्यसङ्ख्याता नोक्ता विस्तरभीतितः ॥ “
दिव्यादिभेदास्तु न सम्भवन्ति। दिव्यत्वादेर्यावद्द्रव्यभावित्वेन अवस्थात्वाभावात्। अवस्थाभेदादेव भेदस्य शास्त्रकारैः परिगणितत्वात्। तद्व्यवहारोल्लङ्घने च दिव्यत्वादिव्याप्यविद्याधरत्वादिनापि भेदापत्तावुन्मत्तकलहप्रसङ्गात्।
ननु मुग्धायास्तथाविधज्ञानसामग्री विरहाद्धीरादिभेदानुपपत्तिः। अत एव वक्ष्यमाणमेदाष्टकमध्येऽपि केचिद्भेदा अनुपपन्नाइति चेत्, सत्यम्। नवोढायां तदुपपत्तेः
केचित्तु-परस्त्रियौ कन्यकोढे सङ्केतारपूर्वंविरहोत्कण्ठिते पश्चाद्विदूषकादिभिः सहाभिसरन्त्यावभिसारिके कुतोऽपि सङ्केतस्थानमप्राप्तेनायके विमलब्धे इति त्रिविधे एव। तयोरस्वाधीनप्रिययोरवस्थान्तरानुपपत्तेरित्याहुः।तन्न, खण्डितादिभेदानामपि वक्ष्यमाणरीत्योपपत्तेः सख्यादिद्वारा प्रियागमनादिनिश्चये बाधकाभावादिति दिक्।
अष्टविधनायिकासु वासकसज्जिकाभेदाः।
अष्टभेदानाह-भगवान् भरतः-
तत्र वासकसज्जा च विरहोत्कण्ठितापि वा।
स्वाधीनभर्त्तृका वापि कलहान्तरितापि वा॥
खण्डिता विप्रलब्धा वा तथा प्रोषितभर्तृका।
तथाभिसारिका चैव इत्यष्टौ नायिकाः स्मृताः॥
वाशब्दः समुच्चयार्थः। प्रियसमागमननिश्चयजन्यसम्भोगसामग्रीसम्पादनपरा वासकसज्जा। तदुक्तं मुनिना-
“उचिते वासके या तु रतिसम्भोगलालसा ।
मण्डनं कुरुते दृष्टा सा वै वासकसज्जिका॥”
अत्रोक्तनिश्चयजन्यानन्दवत्वं लक्षणम्।मण्डनादिकं तु चेष्टेति रहस्यम्।
मुग्धा वासकसज्जा यथा सम-
मुग्धाक्ष्यादयितागमस्य दिवसं निर्णीय मानान्तरा-
न्मन्दाक्षातिशयात्मसाधनविधौ साक्षादपर्याप्तया ॥
पश्यत्येव सखीजने सुमनसामाकाङ्ख्या कैतवा-
स्कुञ्जान्तर्गमनादनायि वसनालङ्कारमुत्सारणम्॥
मध्या यथा मम-
सन्धत्ते श्रुतिसीम्नि गन्धफलिका गण्डस्थलालम्बिनीं
पिण्डालक्तककर्द्दमेन चरणाचारञ्जयत्यञ्जसा।
हैमान्याभरणानि कुङ्कुमरसार्द्रायां तनौ यच्छति
प्राप्याहर्दयितागमाधिकरणत्वेनावबुद्धं वधूः॥
प्रगल्भा यथा श्रीरुद्रचन्द्रदेवानाम्-
स्नात्वा वारिणि चन्दनैः सुरभिते धूपाकुले मालती-
पुष्पाणि प्रतिमुच्य केशनिचये कण्ठेऽपि पुष्पस्रजः।
भाले कुङ्कुमपत्रकं सुवसना कृत्वा स्थिता वासके
कान्तस्यानयनाय सौरभततीमादिश्य दूतीमिव॥
परकीया यथा मम-
निर्णीय प्रतिवेशिनां श्रुतिवशादभ्यागमं प्रेयसो
नन्दिन्यांसहसा विधाय कलहारम्भं विना हेतुना।
वारेऽपि प्रतिसुभ्रुवोगृहपतेः सस्नेहमात्मीयता-
मध्यारोप्य सुमध्यया तनुलतासंस्कार आरभ्यते॥
सामान्या यथा मम-
धत्ते लोभमिवंप्रसृत्वरतरं रत्नांशुजालं तनौ
दत्ते चाटुमिवातिरञ्जनकरं काश्मीरपङ्कद्रवम् ।
गृह्णीते शठतामिवानुपहतांजातीप्रसूनस्रजं
तत्रैवाहनिवारवामनयना विज्ञाय कान्तागमम् ॥
सङ्केतस्थाने प्रियानागमनहेतुचिन्ताव्याकुला विरहोत्कण्ठिता। अत्र तदनागमजन्यदुःखवत्त्वंलक्षणं तद्धेतुचिन्तादिकं तु चेष्टितमिति विवेकः। तदुक्तम्-
“अनेककार्य्यव्यासङ्गाद्यस्या नागच्छति प्रियः।
तस्यानागमदुःखार्त्ता विरहोत्कण्ठिता मता ॥”
विरहस्तु समानदेशस्थत्वे सति सम्भोगाभावः। सत्यन्तं प्रवासेऽतिव्याप्तिवारणार्थम्। न च सोऽपि लक्ष्य एवेति वाच्यम्। प्रोषितभर्तृकाया विरहोत्कण्ठितायाश्चभिन्नत्वेन मुनिना परिगणितत्वात् ।
मुग्धा विरहोत्कण्ठिता यथा मम-
अबिभ्रत्यासतं हृदयदयिते नूतनवधू-
रतः स्यादन्यस्यामिति परिकलय्य प्रतिपदम् ।
अष्टविधनायिकासु विरहोत्कण्ठिता भेदाः।
न धत्ते निश्वासंन च वहति वाष्पं नयनयो-
विधोर्बिम्बंवैभातिकमिव मुखं किन्तु बिभृते ॥
मध्या यथा -
अन्यत्र व्रजतीति का खलु कथा नाप्यस्य तादृक् सुहृ-
द्यो मां नेच्छति नागतश्च सहसा कोऽयं विधेः प्रक्रमः।
इत्यल्पेतरकल्पनाकवलितस्वान्ता निशान्तान्तरे
बालाऽऽवृत्त विवर्त्तनव्यतिकरा नाप्नोति निद्रां निशि ॥
प्रगल्भा यथा मम -
कामिन्याः सति बाधकस्य विरहे यावाननेहा प्रिय-
प्रत्यासत्तिधिया प्रतीक्षितुमभूदर्हो गते तावति।
अम्लायञ्छ्वसितैः स्रजः सुमनसां धारा दृशोरम्भसां
प्रामार्जन्घुसृणं कपोलतलतश्चुक्षोभ वक्षोरुहः॥
परकीया यथा-
(१) एहिसितुमंति णिमिसम्ब जग्गिअ जामिणीअ पढमद्धम् ।
सेसंसन्तावपरव्वसाइ बरिसंव चोल्लीणम् ॥
सामान्या यथा मम -
नोपायातः किमिति स भवेदिस्यमालोचयन्ती
रूपाजीवा बदनमरुतं सन्दधे चात्यजच्च।
अर्थस्योपस्थितिमथ सखीभाषिताद्वल्लभाच्च
प्रत्यादिक्षन्मुखमनुशयं मानसे च न्यधत्त॥
स्वसन्निधानत्यागेच्छाविरहविशिष्टवरलमा स्वाधीनभर्तृका।स्वपदं नायिकापरम् ।
(१) एष्यसि त्वमिति निमिषमिव जागरितं यामिन्याः प्रथमार्धम् ।
शेषं सन्तापपरवशया वर्षमिव चोन्नतिम्॥ छ। ०
तदुक्तम् -
“सुरतातिशयैर्बद्धो यस्याः पार्श्वगतः प्रियः
सामोदगुणसम्पन्ना भवेत्स्वाधीनभर्तृका॥
विचित्रोज्ज्वल नेत्रान्तःप्रमोदोद्योतितानना
उद।र्णशोभातिशया कार्य्या स्वाधीनभर्तृका॥”
मुग्धा स्वाधीनभर्तृका यथा-
“श्यामा विलोचनदरी बालेयं मनास सज्जन्ती।
लुम्पति पूर्वकलत्रं धूमलता भित्तिचित्रमिव॥”
मध्या यथा-
पुंसां दर्शय सुन्दरि ! मुखेन्दुमीषञ्चपामषाकृत्य।
जायाजित इति रूढाजनश्रुतिर्मेयशो भवतु ॥
प्रगल्भा यथा-
(१) अण्णमहिलाप्पस हे देव्वकरेसुअह्मदइअस्स।
पुरिसा एकंतरसा णहु दोसगुणेविआणन्ति ॥
परकीया यथा-
अस्तु म्लानिर्लोको लाञ्छनमपदिशतु हीयतामोजः।
सदपि न मुञ्चति स त्वां वसुधाच्छायामिव सुधांशुः ॥
सामान्या पथा-
कृत्रिमकनकेनेव प्रेम्णा मुषितस्य वारवनिताभिः।
लघुरिव वित्तविनाशक्लेशो जनहास्यता महती॥
प्रियानुनयानभ्युपगमजनितदुःखवती कलहान्तरिता।
तदुक्तम्-
ईर्ष्यालहसन्तप्तोयस्या नागच्छति प्रियः।
सामर्षवशसन्तप्ता कलहान्तरिता भवेत्॥
( १) अन्यमहिलाप्रसङ्गं हे देव कुरु अस्मद्दयितस्य।
पुरुषा एकान्तरसा न खलु दोषगुणौ विजानन्ति॥
अष्टविधनायिकासु कलहान्तरिताभेदाः।
अमर्षोऽत्र प्रियानुनवपत्याख्यानजन्यः स्वविषयको ग्राह्मः।
मुग्धा कलहान्तरिता यथा मम-
प्रत्यादिश्य रुषां वशादनुनयं भर्तुर्मरुत्यावह-
त्यामोदस्पृशि सिन्दुवारसुमनः सन्दोहदोलायितैः।
मुग्धाक्ष्यानुशयानयापि नवया न त्वन्यदातन्यते
श्वासेनागमि पद्मरागदलवन्मालिन्यमेवाधरः॥
मध्या यथा मम-
आदर्शंसमयेन दर्शितवति मातर्वयस्याजने
बह्वायस्पति यास्यतो विशदतां श्वासस्य रोधाय सा।
प्राणेशस्य तथा गिरामनुरीकारान्निधत्ते परम्
हेलामन्थरतारकाः प्रतिफलत्यात्मन्यजस्रं दृशः॥
प्रगल्भा यथा मम -
पचेलिपरसोदयं विदुषिचेलि ! मिथ्याग्रहा-
द्वहेलितवती तथा मदनहेलितप्तं प्रियम् ।
चलेऽलिकगतालका स्वकरकेलिपाथारुह-
प्रमेलितमुखी मृषा क्षितिमये ! लिखस्युन्मनाः ॥
परकीया यथा मम-
शीलं साधु मिमील यत्प्रणयतो लज्जा ममज्जाखिला
मर्यादाय विपर्ययं बहुमतो दुर्वारगुर्वादरः।
आसच्चापलमेव नापलपितं सोऽनुग्रहार्थ नम-
न्नापातप्रतिभासया बत मया पापेन नापेक्षितः ॥
सामान्या यथा मम-
साकूतं करवाणि पाणिकमले माणिक्यजं कङ्कणं
मानं स्रंसय हंसकं पदयुगे संसज्जयानि स्वयम् ।
वक्षोजे निदधानि दाम जनितं षाण्मासिकैर्मौक्तिकै-
रेवं सोऽनुनयन्मया हतधिया केलिं विना हेलितः ॥
अन्यसम्भोगचिन्हविशिष्टनायकदर्शनजन्यदुःखवती खण्डिता। तदुक्तम्-
“व्यासङ्गादुचिते यस्या वासके नागतः प्रियः।
तदनागमनार्तातु खण्डितेत्यभिसंज्ञिता॥”
व्यासङ्गो नायिकान्तरसम्भोगप्रसक्तिः। तत्पदम् अन्यसम्भोगाभावविशिष्टनायकपरम्। तस्यानागपनम् =अन्यसम्भोगचिम्हाभावविशिष्टमियागमनाभावः। स च सम्भोगचिन्हाभावरूपं यद्विशेषणं तदभावप्रयुक्त एव ग्राह्यः। आगमनस्यापि स्वरूपतो दुःखजनकत्वानुपपत्त्याआगमनदर्शनजन्येत्युक्तौ चागमनपदवैर्यर्थ्यात् सम्भोगचिन्हविशिष्टप्रियदर्शनजन्य दुःखवश्वं लक्षणं पर्यवसन्नम्। यथाश्रुतमुनिवचनव्याख्याने विरहोत्कण्ठितायामतिव्यतिरिति रहस्यम्।
स्यादेतत्। पराङ्गना सङ्गजन्यमानवत्याखण्डितायाश्च कथं भेद इति चेत्, अत्र केचित्हेतुदर्शनकाले खण्डिता सज्जन्यसम्भोगानुमितिकाले मानवतीत्याहुः।तन्न। तत्रापि सम्भोगानुमित्यैव ईर्ष्योत्पत्तेः। तस्मान्मानवती न भेदान्तरम्। षोडशानां प्रेमगर्विता सौन्दर्य्यगर्विता मानवती तित्रैविध्यस्याभियुक्तैरनुक्तत्वात्। किंतु उक्तभेदाष्टकस्यैवोदाहृतत्वात्।
मुग्धा खण्डिता यथा मम-
वीक्ष्य प्रियस्य रदनच्छदमन्यनारी-
विश्राणितं रदपदं दधतं विदूरात्।
सन्तप्तमीक्षणयुगं करकाधियेव
नासाग्रमौक्तिकमधि न्यपतत्प्रियायाः॥
अष्टविधनाविकासु खण्डिताभेदाः।
मध्या यथा मम -
नेतुर्नखक्षत मुदीक्ष्य कपोलभूमौ
किं नाम कुञ्चयसिसुभ्रु ! दृगञ्चलं त्वम्।
तत्तावकीनवदनाम्बुरुहस्थमेव
वैशद्यतः प्रतिफलत्प्रतिभाति तत्र॥
प्रगल्भा यथा -
(१) संवाहणसुहरसतोसिएण देतेण तुह करे लक्खम्।
चरणेन विक्कमाइव्वचरिअमणुवट्टिअं तिस्सा॥
परकीया यथा मम-
पश्यन्त्या सहजारुणं प्रणयिनो बिम्बाधरं सुभ्रुवा
प्रत्यूषेऽभिमुखस्य कज्जलतमोलेखाकलङ्काकुलम्।
वैमुख्यं सहसैव हन्त विहितं सावेगमुत्कम्पितं
प्रादुर्भावसमानकालिकतिरोभावं तु वाष्पंकृतम्॥
सामान्या यथा मम-
प्रातः प्रबालमणिना मणिमालया च
वीक्ष्य प्रसाधिततनुं तमुपेयिवांसम्।
तस्यापरावयववर्तिभिरर्द्धचन्द्रै-
र्वाराङ्गनाहृदयगा व्यगमंस्तदाशाः।
दत्तसङ्केतप्रियानवाप्तिजन्यदुःखवती विप्रलब्धा। तदुक्तम् -
यस्या दूतींप्रियः प्रेष्य दवा सङ्केतमेव वा।
नागतः कारणेनेह विप्रलब्धा तु सा स्मृता॥
—————————————————-
(१) संवाहनरसतोषितेन ददता तव करे लाक्षां (लक्षम्)।चरणेन विक्रमादित्यचरितमनुवर्तितं तस्याः॥ इति च्छाया। अत्र लक्खमिति पदं श्लेषेण लाक्षां सङ्ख्याविशेषं च प्रतिपादयति।
मुग्धा विप्रलब्धा यथा मम -
वयस्याभिर्नीता कथमपि निकुञ्जं नववधू-
रनायाते तस्मिन्नयनविषयत्वं प्रियतमे।
दधाने राजीवभ्रममनुसरत्यास्यमलिनां
कलापे निःशङ्कं दिशति विकृतामालिषु दृशम्॥
मध्या यथा मम -
सङ्केतगोचरमुपेत्य विलोचनस्य
सीमासु वल्लभतमं न निभालयन्ती।
श्वासं श्रमाभिनयनेन विजृम्भमाण-
व्याजेन वाष्पविसरं विदधाति बाला॥
प्रगल्भा यथा मम-
वानीरवने वल्लभविरहिणि पाणौ कपोलमुपधाय।
तद्वृत्तीन्पुलकानिव वामभ्रूरबिन्दुभिरमार्क्षीत्॥
परकीया यथा-
(१) आअण्णअइ अडअणा णिउंजहेहम्मि दिण्णसङ्केआ।
अग्गपअपेल्लिआणं मम्मरअं जुण्णपत्ताणम्॥
सामान्या यथा मम-
दीर्घत्वमागतवतो बहुजीवनस्य
मूलायितानविरतं हृदि धार्यमाणान्।
अप्रेक्ष्य वारयुवती दयितं निकुञ्जे
श्वासानिव व्यरहयद्रविणाभिलाषान्॥
प्रियप्रवासज्ञानजन्यदुःखवती घोषित भर्तृका।** तदुक्तम्-**
“गुरु कार्यान्तरवशाद्यस्यास्तु प्रोषितः प्रियः।
सा रूक्षालक केशान्ता भवेत्प्रोषितभर्तृका”
—————————————————–
(१) आकर्णयति स्वैरिणी निकुञ्जमध्ये दत्तसङ्केता।
अग्रपदप्रेरितानां मर्मरकं जीर्णपत्राणाम्॥ इ० छा०।
प्रोषितेति क्तप्रत्ययार्थो भूतत्वमतन्त्रम् । प्रवासस्य स्वरूपतो दुःखानुपपादकत्वात् । प्रवासज्ञानस्यैव तथात्वात् । भूतभविष्यत्प्रवासज्ञानस्यापि तदुपपत्तेः। तदुक्तं काव्यप्रदीपे- “वर्त्तमानवर्त्स्यन्तावपि स्वज्ञानद्वारा विप्रलम्भप्रयोजकाविति नाव्याप्तिः। प्रवासपदेन तज्ज्ञानलक्षणाद्वा” इति । अन्यथा प्रवसत्पतिका -प्रवत्स्यत्पतिकयोर्भेदान्तरत्वापत्तेः। न चेष्टापत्तिर्मुनिवचनविरोधात् ।
मुग्धा प्रोषितभर्तृका यथा-
**(१) हत्थेसुअ पाएसु अ अंगुलिंगणणाहि उअगआ दिअहा। **
एह्णिंउण केण गणिज्जउत्ति भणिउं रुअइमुद्धा॥
मध्या यथा मम -
विश्लेषतस्तव परिश्लथमम्बुजाक्ष्या
वक्षो विभिद्य विविशुर्मलयानिलाः किम् ।
यस्मात्तदव्यवहितोत्तरकालमेव
प्रादुर्भवन्ति नवनिश्वसितप्रवाहाः ॥
प्रगल्भा यथा-
भवद्भवनमागतं भ्रमितमीक्षिता नैव सा
कलामयकलावती कुतुकमेतदा लोकितम् ।
विधुर्वलति पल्लवेतडिदलिन्दमालम्बते
पतत्यचलयोस्तले कमलयोश्च मुक्तावलिः ॥
परकीया यथा मम -
आयातेऽपि महोत्सवे रतिपतेः पत्यौमुखप्रेक्षके-
ऽप्यावेशात्प्रतिवेशिनीषु विहितोत्साहासु भूषाविधौ ।
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(१)हस्तेषु च पादेषु च अङ्गुलिगणनाभिरुपगता दिवसाः।
इदानीं पुनः केन गण्यतामिति भणित्वा रोदिति मुग्धा ॥ इ० छि
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आलीभिर्विहितो बलादपि परिष्कारः कुरङ्गीदृशो
दूरस्थे दयितेऽनुकल्पविधिमत्काम्यप्रयोगायते ॥
सामान्या यथा मम-
अन्येन प्रहितेविटेन सरसं रायोऽतिबंहीयसो
दानस्याभ्युपपत्तिगर्भितमियंलेखं दृशोः कुर्वती ।
दूरस्थप्रथमाप्रियान्तिकमुपायातुं जनस्येच्छतो
वाष्पैराविलितं व्यनक्ति वदनं वेश्या गवाक्षाद्बहिः ॥
प्रियसमीपगमनोद्यमवती अभिसारिका । तदुक्तम्-
हित्वा लज्जां समाकृष्य मदेन मदनेन वा ।
अभिसारयते कान्तं सा भवेदभिसारिका ॥
णिजर्थोऽत्र न विवक्षितः। “कान्तार्थिनी तु या याति सङ्केतं साभिसारिका” इत्यमरोक्तेः। तद्व्याख्यायां यथोक्तवाक्यस्यैव क्षीरस्वामिनोपन्यासाच्च।
“वेश्यायाः कुलटाया वा प्रेष्याया वा प्रयोक्तृभिः।
एभिर्भावविशैषैस्तु कर्त्तव्यमभिसारणम् ॥
समदा मृदुचेष्टा च तथा परिजनान्विता ।
नानाभरणचित्राङ्गी गच्छेद्वेश्याङ्गनाशतैः ॥
संलीना स्वेषु गात्रेषु लज्जासन्नमितानना।
अवगुण्ठनसंवीता गच्छेत्तु कुलजाङ्गना ॥
मदस्खलितसंलापा विभ्रमोत्फुल्ललोचना ।
आविद्धगतिसञ्चारा गच्छेत्प्रेष्याङ्गना तथा” ॥
इति भरतेनोक्तत्वात् ।
“कान्ताभिसरणोद्युक्ता स्मरार्त्ता साभिसारिका”
इति विद्यानाथोक्तेश्च।
“या वल्लभागमनकालमपारयन्ती
सोढुं स्मरज्वरभरार्त्तिपिपासितेव ।
निर्याति वल्लभजनाधरपानलोभात्
सा कथ्यते कविवरैरभिसारिकेति” ॥
इति भोजराजोक्तेश्च ।
न च स्वीयाया अभिसारानुपपत्तिः सपत्न्यादिभयादुपपत्तेः।
मुग्धाभिसारिका यथा मम-
विधाय वरवर्णिनीमभिनवां कथंचित्सखी -
जनैः सह कृतः कृतप्रियतमाभिसारोत्सवाम् ।
हिया हृदि तिरस्कृतः स्पृशति तत्पतीपायित-
श्रमापनयनेच्छया बहिरिव प्रसूनाशुगः ॥
मध्या यथा-
उपविश मृदुतल्पे कल्पिते पल्लवौघै-
र्विरचय1 कचभारं स्रस्तमंसस्थलीषु।
इह हि मलयजन्मा मारुतोमन्दमन्दं
पिबतु तव कपोलालम्बिनः स्वेदबिन्दून् ॥
प्रगल्भा यथा मम–
बन्ध भ्रंशस्खलदलकभुनिर्गलद्वारिबिन्दु-
व्याजाल्लाजाञ्जलिमिवतडित्पातवह्नौक्षिपन्ती ।
वक्रं भर्तुर्ध्रुवमनिमिषं प्रेक्षमाणा मृगाक्षी
कुञ्जस्यान्तलसति पुनरारब्धपाणिग्रहेव ॥
परकीया यथा मम-
एता जाग्रति2 यातरोऽत्यवहितास्त्वत्पादरोपादरा
मिथ्यैव स्वपिति प्रतीपमहिला दीपः पुरो दीप्यते ।
हृद्वृत्त्याकृतमित्वरि ! त्वरितया किश्चित्प्रमाद्यत्वरि
व्रातः कातरता मृषा तरलता किंवा तदातन्यते ॥
सामान्या यथा मम-
अपद्मा श्रीरेषा प्रतिहतमनङ्गस्य ललितं
कुलस्त्रीणां शोको मदनवरवृक्षस्य कुसुमम् ।
सलीलं गच्छन्ती रतिसमयलज्जाप्रणयिनी
रतिक्षेत्रैरङ्गैः प्रियपथिकसार्थैरनुगता ॥
अन्धकाराभिसारिका यथा–
**“गन्तुं यदि व्यवसितासि घनान्धकारे **
नीलाञ्चलेन तनुमावृणु मुग्धशीले ! ।
विद्युल्लता यदि पथि प्रतिरोधिनी स्या-
दप्रावृतैव कनकद्रवगौरि ! गछेः ॥
ज्योत्स्नाभिसारिका यथा मम-
अवदातवेषवत्यां वरवर्णिन्यामभिसरन्त्याम् ।
समजनिनिशीथसमयेऽप्यौषसिकीवाखिला ज्योत्स्ना ॥
दिवाभिसारिका यथा–
सायं स्नानमुपासितं मलयजेनाङ्गं समालेपितं
यातोऽस्ताचलमौलिमम्बरमणिर्विश्रब्धमन्नागतिः।
आश्चर्य्यंतवसौकुमार्य्यमभितः क्लान्तासि येनाधुना
नेत्रद्वन्द्वममीलनव्यतिकरं शक्नोति तेनासितुम् ॥
एताः सर्वा अप्युत्तममध्यमाधमभेदेन त्रिधा। तदुक्तं भरतेन-
सर्वासामेवनारीणां त्रिविधा प्रकृतिः स्मृता ।
उत्तमा मध्यमा चैव तृतीया चाधमा स्मृता ॥
उत्तमा यथा–
या विप्रियेऽपि तिष्ठन्तं न वदत्यप्रियं प्रियम् ।
न चिरं कोपमायाति दोषान्प्रच्छादयत्यपि ॥
इत्यादि ।
यथा मम–
प्रियान्यव्यावृत्तिः परिजनभयं स्वस्थ विभुता
गुणा भासन्तेऽमी सखि ! यदपि माने बहुविधाः।
तथापि प्रारब्धप्रणयपरिपाटीषु विषया-
न्तराणां सञ्चारोऽनुपममपकर्षे ध्वनयति ॥
मध्यमा यथा–
ईर्ष्यातुरा वा निभृता क्षणक्रोधा च गर्विता ।
क्षणप्रसादना चैव सा नारी मध्यमा स्मृता ॥
यथा–
दृष्टे लोचनवन्मनाङ्मुकुलितं पार्श्वस्थिते वक्रवत्
न्यग्भूतं बहिरासितं पुलकवत्संस्पर्शमातन्वति ।
नीवीबन्धवदासितं श्लथतया सम्भाषमाणे ततो
मानेनापसृतं ह्रियेव सुतनोः पादस्पृशि प्रेयसि ॥
अधमा यथा-
अस्थानपरुषा या तु दुःशीला चातिमानिनी ।
परुषा प्रतिकूला च दीर्घरोषाधमा स्मृता ॥
इयमेव चण्डीत्युच्यते ।
यथा मम–
अनुनयति प्रेयसि यन्मानातिशंयस्त्वया कृतश्चण्डि !।
इदमेव शान्तिकर्मणि वेतालाभ्युदयमनुहरति ॥
स्त्रीत्वे सति अनुकूला सखी । अनुकूलत्वं- स्वनिष्ठप्रणय-
नायिकानिष्ठप्रणयविषयत्वम् । तस्याः कर्म मण्डनोपालम्भशिक्षापरिहासादि।
मण्डनं यथा–
प्रभाते पृच्छन्तीरवरहसवृत्तं सहचरी-
र्नवोढा न व्रीडामुकुलितमुखीयं सुखयति ।
लिखन्तीनां पत्राङ्कुरमनिशमस्यास्तु कुचयो-
श्चमत्कारं गूढं करजपदमासां कथयति ॥
उपालम्भो यथा-
सा सर्वतोऽनुरक्ता रागं गुञ्जेव न तु मुखे वहति ।
वचनपटोस्तव रागः केवलमास्ये शुकस्येव ॥
शिक्षा यथा मम-
मुग्धे ! कृत्रिमतद्व्यतिक्रमशतोपन्यासवैज्ञानिकै-
वार्ग्गुम्फान्परिकल्पितान् श्रवणयोस्त्वं माध्वनीनान् कृथाः।
एते प्रेमभराभिचारमनवो विश्रम्भविंस्रंसनाः
स्वोत्कर्षच्छिदुरा विपक्षरमणीसौभाग्यजन्माङ्कुराः ॥
परिहासो यथा-
स्मरशास्त्रमधीयाना शिक्षितासि मयैव यम् ।
अगोपि सोऽपि कृत्वा किं दाम्पत्यव्यत्ययस्त्वया ॥
प्रसङ्गात्प्रियपरिहासो यथा-
नक्तं रत्नमयूखपाटलमिलत्काकोलकोलाहल-
त्रस्यत्कौशिकमुक्तकन्दरतमाः सोऽयं गिरिः स्मर्यते ।
यत्राकृष्टकुचांशुके मयि रुषावस्त्राणि पत्राणि ते
चिन्वत्या वनदेवतास्तरुलतामुच्चैर्व्यधुः कौतुकात् ॥
प्रियापरिहासो यथा-
कस्त्वं शूली मृगय भिषजं नीलकण्ठः प्रियेऽहं
केकामेकां कुरु पशुपतिर्नैव दृष्टे विषाणे ।
स्थाणुर्मुग्धे ! न वदति तरुर्जीवितेशः शिवाया
गच्छाटव्यामिति हतवचाः पातु वः शूलपाणिः ॥
सङ्गमादिकुशला दूती । तथा च भरतेनोक्तम्-
प्रातिवेश्या सखी दासी कुमारी कारुशिल्पिनी ।
धात्री पाखण्डिका चैव दृत्यः स्त्रीक्षणिका तथा ॥
कारुपदं रजक्यादिपरम् । शिल्पिनी चित्रकारस्त्री ।
तथा-
तथा प्रोत्साहनं कार्यमनुरागानुकीर्तनम् ।
कुलभोगधनाधिक्यं कार्यं चैवाविकत्थनम् ॥
इत्यादि।
सङ्गमनं यथा-
पुरश्चक्षूरागस्तदनु मनसोऽनन्यपरता
तनुग्लानिर्यस्य त्वयि समभवद्यत्र च तव ।
युवा सोऽयं प्रेयानिह सुवदने ! मुञ्च जडतां
विधातुर्वैदग्ध्यं फलतु च सकामोऽस्तु मदनः ॥
विरहनिवेदनं यथा-
आलिङ्गनानि वचनामृतसेचनानि
वामाशयेन विधिनैव निवारितानि ।
आलोकनेऽपि यदि गोकुलनाथ! बाधा
राधा कथं हृदयसौष्ठवमादधातु ॥
कुलभोगाद्याधिक्यकथनं यथा-
मन्दाकिनीनन्दनयोर्विहारे देवे वरे देवरि माधवे च ।
श्रेयः श्रियां यातरि यच्च सत्यां तच्चेतसा भामिनि ! भावयस्व॥
इति नायिकानिरूपणं समाप्तम् ।
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नायिकानिष्ठरतौ विषयत्वान्नायकनिष्ठरतावाश्रयत्वाच्चनायकोऽपि निरूप्यते । स त्रिविधः। पत्यु-पपति- वैशिकभेदात् । विवाहजन्यसंस्कारवान् पतिः। न च स्वीयायामतिव्याप्तिः, पुंस्त्वे सतीत्यभिधेयत्वात् । यथा -
इयं वनी घनीभूतकुशाङ्कुरकरम्बिता ।
शिथिलं धेहि वैदेहि ! मदर्पितपदे पदम् ॥
तद्भिन्नत्वे सत्यनुरागविषय उपपतिः।
यथा-
प्राङ्गणकोणेऽपि निशापतिः सन्तापं सुधामयो हरति ।
यदि मां रजनिज्वर इव सखि ! स न निरुणद्धि गेहपतिः ॥
वेश्योपभोगरसिको वैशिकः।
यथा-
णन्देउ सुरअसतिह्णापराहाइं सअललोअस्स ।
बहुकइअवमग्गविणिम्मिआईं वेस्साण पेम्माइं ॥
यत्तु–
धीरोदात्तोधीरोद्धतस्तथा धीरललितश्च ।
धीरप्रशान्त इत्ययमुक्तः प्रथमं चतुर्भेदः ॥
इत्यन्यत्रोक्तम्, तदिह प्रकृतानुपयोगान्नोपन्यस्तम् । पतिश्चतुर्द्धा-अनुकूल-दक्षिण-धृष्ट - शठभेदात् तन्मात्रविषयकानुरागवाननुकूलः।
यथा-
इयं गेहे लक्ष्मीरियममृतवर्त्तिर्नयनयो-
रहस्यस्याः स्पर्शो वपुषि बहलश्चन्दनरसः।
_________________________________________________________________________
(१) नन्देयुः सुरतसतृष्णापराधानि सकललोकस्य । बहुकैतवमार्गविनिर्मितानि वेश्यानां प्रेमाणि ॥ इति च्छाया ।_________________________________________________________________________
अयं कण्ठे बाहुः शिशिरमसृणो मौक्तिकसरः
किमस्या न प्रेयो यदि परमसह्यस्तु विरहः ॥
अनेकविषयकतुल्यानुरागवान्दक्षिणः।
यथा–
स्नाता तिष्ठति कोशलाधिपसुता वारोऽङ्गराजस्वसु-
र्द्यूते रात्रिरियं जिता कमलया देवी प्रसाद्याद्यच ।
इत्यन्तःपुरसुन्दरीः प्रति मया विज्ञाय विज्ञापिते
देवेनाप्रतिपत्तिमूढमनसा द्वित्राः स्थितं नाडिकाः ॥
स्वतिस्कारयुक्तलज्जाशून्यत्वे सत्यनुरक्तो धृष्टः।
यथा–
(१)3 के तावत्कृता अथवा करोषि कार्य से सुभग ! एताभिः ।अपराधा न च लज्जितसाहसोत्तराः क्षम्यन्ताम् ।”) केदाव किआ अहवा करोसि काएसि सुहअ एदाहिं ।
अवराहा णअ लज्जिअसाहसुत्तआ स्वपिज्जन्तु ॥
रतिकपटशीलः शठः।
यथा–
कान्ते सागसि शायिते प्रियसखीवेषं विधायागते
भ्रान्त्यालिङ्ग्य मया रहस्यमुदितं तत्सङ्गमाकाङ्क्षया ।
मुग्धे ! दुष्करमेतदित्यतितरामुन्मुक्तहासं बला-
दालिङ्य च्छलितास्मि तेन कितवेनाद्य प्रदोषागमे ॥
एते भेदा उपपतेरपि बोध्याः। चतुरादिभेदा अपि मुनिनोक्ताः।
पुनरेव तु पुरुषगुणान् कामिततन्त्रे प्रवक्ष्यामि ।
चतुरोत्तमौ च मध्यस्तथाधमः सम्प्रवृत्तकश्चैव ॥
स्त्रीणां प्रयोगविषये ज्ञेयाः पुरुषास्त्विमे पञ्च ।
दुःखक्लेशसहिष्णुः प्रियवाग्दाता प्रसादने कुशलः ॥
रत्युपचारनिपुणो दक्षश्चतुरस्त्वसौ बोध्यः।
यो विप्रियं न कुरुते धीरोदात्तः प्रियंवदो मानी ॥
अज्ञातहृदयतत्वः स्मृतिमात्रज्ञेयः स तु ज्येष्ठः।
सर्वार्थं मध्यस्थो भावग्रहणं करोति नारीणाम् ॥
किश्चिद्दोषं दृष्ट्वा विरज्यते मध्यमः पुरुषः।
काले दाताह्यपमानितोऽपि न क्रोधमतितरामेति ॥
दृष्ट्वा व्यलीकमात्रं विरज्यते मध्यमोऽयमपि।
अपमानितोऽपि नार्या निर्लज्जं समुपसर्पति तथैव ॥
अन्यनरे सङ्क्रान्तामारूढस्नेहभावनया ।
अभिनवकृते व्यलीके प्रत्यक्षं रज्यते दृढतरं यः ॥
सुहृदापि वार्य्यमाणो विज्ञेयः सोऽधमो नाम ।
अविगणितभयामर्षो मूर्खः सततं प्रसक्तहासश्च॥
एकान्तदृढग्राही निर्लज्जः कामतन्त्रेषु ।
रतिकलहसंप्रहारे सुकर्कशः क्रीडनीयकः स्त्रीणाम्।
एवंविधो विधिज्ञैः प्रवृत्तको नाम विज्ञेयः ॥
इहाद्यन्तयोर्द्वितीयचतुर्थान्तर्भावादुत्तममध्यमाधमेति त्रैविध्यमेव पुरस्कृतमभियुक्तैः।
उत्तमो यथा-
तच्छ्रमस्तमदिदीक्षत क्षणं तालवृन्तचलनाय नायकम् ।
तद्विधा हि भवदैवतं प्रिया वेधसोऽपि विदधाति चापलम् ॥
मध्यमो यथा-
(१) लज्जाविदा सीलंअ खण्डिअं असईघोसणा दिण्णा ।
जस्स कए णं सहअरि ! सजेव्व जणो अजणो जाओ ॥
_____________________________________________________________________________
(१) लज्जापिता शीलं च खण्डितमसती घोषणा दत्ता ।
यस्य कृते ननु सहचरि ! स एव जनोऽजनो जातः।
_____________________________________________________________________________
अधमो यथा–
चतुरिमकलाकण्ठच्छेदो मनोभववञ्चनं
दृषदि मधुनो लिप्सा लोके विडम्बनमात्मनः।
उपरि परितः सङ्कल्पानां शिलाशतपातनं
सहचरि ! परीतापस्थानं जडे हृदयार्प्पणम् ॥
मानिनो मध्यमे चतुरस्य च उत्तमे अन्तर्भावः।
मानी यथा-
विरहविषमः कामो वामस्तनुं कुरुते तनुं
दिवसगणनादक्षः सोऽयं व्यपेतघृणो यमः।
त्वमपि वशगो मानव्याधेर्विचिन्तय नाथ हे
किसलयतनुर्जीवत्येवं कथं प्रमदाजनः ॥
चतुरो द्विधा-वचनव्यङ्ग्यसमागमश्चेष्टाव्यङ्ग्यसमागमश्चेति ।
आद्यो यथा–
उद्देशोऽयं सरसकदलीश्रेणिशोभातिशायी
कुञ्जोत्कर्षाङ्कुरितरमणीविभ्रमो नर्मदायाः।
किं चैतस्मिन् सुरतमुहृदस्तन्वि ! ते वान्ति वाता
एषामग्रे सरति कलिताकाण्डकोपो मनोभूः ॥
द्वितीयो यथा मम–
अवाप्यावस्थानं कथमपि मृगीचक्षुषि पुरो
गुरूणां दृग्भङ्ग्या मिलनसमयं जातु मनसि ।
अपन्हुत्य प्रेयान्किल किमपि सामाजिकजनान्
दृगम्भोजद्वन्द्वं परिमुकुलयन्नुत्तरितवान् ॥
यथा वा–
आघ्रातं कमलं प्रियेण सुदृशा स्मृत्वापनीतं मुखं
दत्तं विद्रुमकन्दुके नखपदं सीत्कृत्य गूढौ स्तनौ।
दत्ता चम्पकमालिकोरसि तया प्रोद्भिन्नरोमाञ्चया मीलल्लोचनमासितं चतुरयोर्दुरेऽपि पूर्णो रसः।
अनभिज्ञस्तु नायको नायकाभासः।
यथा मम–
साकूतं ग्रथिता दृशोः पथि यथाशोभं दृशोर्भङ्गयो
मन्दं कन्दलितं रदच्छदनयोरानन्दनं स्पन्दनम्।
निन्याते कुचकोरकौविशदतां विन्यासवैचित्र्यतो
वैचित्र्यं न तथापि चेत्तदितरा रीतिर्वरीवर्ति किम् ॥
स्यादेतत् । अवस्थाभेदादपि नायकभेदोऽस्तु इति चेत्, न । स्वभावादेव तद्भेदाङ्गीकारात् । प्रोषितप्रियाकत्वादेरनौचित्यसञ्जनकत्वात् । अत एव प्रोषितत्वं नायकभेदप्रयोजकतया अङ्गीकृतम् । तस्य नायिकाभेदत्वेनागणितत्वात्।
प्रोषितपतिर्यथा-
रात्रौ वारिभरालसाम्बुदरवोद्विग्नेनजाताश्रुणा
पान्थेनाथ वियोगदुःखपिशुनं गीतं तथोत्कण्ठया।
**आस्तां जीवितहारिणः प्रवसनालापस्य सङ्कीर्त्तनं **
मानस्यापि जलाञ्जलिः सरभसं लोके न दत्तो यथा ॥
उपपतिर्यथा मम–
**अप्रादुर्भवदस्रवारि कुचयोरीषत्परिस्पन्दन- **
**प्रत्येयमकृतातिरिक्तनियतश्वासावसीदद्गलम् । **
**लोकत्रासनियन्तृतान्तरपरावृत्तस्खलत्तारकं **
दृग्भङ्गं सुतनोः प्रतस्थुषि मयि ध्यायामि नायामिनम् ॥
यथा वा–
तीर्णा बाष्पपरम्परैव सरितां पूरेषु कः सम्भ्रमः
सोढा कातरदृष्टिरेव किपती वज्राभिघातव्यथा ।
नायकसहायाः पीठमर्दादयः।
श्वासा एव नतभ्रुवो न गणिताः के नाम झंझानिलाः
प्रेमैवायमपेक्षितो ननु सखे ! माणेषु को नो ग्रहः ॥
वैशिको यथा सम-
असङ्कुचितलोचनाञ्चलमनन्तरायीकृत-
स्तनावरणनीविकानिरसनप्रयत्नोदयम्।
तरङ्गितमनङ्गभूविविधभङ्गिविच्छित्तिभिः
स्मृतं सदपि रञ्जयज्जयति वारनारीरतम् ॥
एषां सहायश्चतुर्द्धा । पीठमर्द - विट- चेटक - विदूषकभेदात् ।
तथा च विद्यानाथः -
किञ्चिदूनः पीठमर्द एकविद्यो विटः स्मृतः।
सन्धाननिपुणश्चेटो हास्यप्रायो विदूषकः ॥
केचित्तुपीठमर्द्दस्यान्यत्रोपयोगो न शृङ्गारे । तदुक्तंदर्पणे-
दूरानुवार्त्तिनि स्यात्तस्य प्रासङ्गितिवृत्ते तु ।
किञ्चित्तद्गुणहीनः सहाय एवास्य पीठमर्द्दाख्यः ॥ (प०३का० ३९)
यथा रामादीनां सुग्रीवादयः।
शृङ्गारेऽस्य सहाया विटचेटविदूषकाद्याःस्युः।
भक्ता नर्मसु निपुणाः कुपितवधूमानभञ्जनाः शुद्धाः। (प०३का०४०)
आदिपदान्मालाकाररजकताम्बूलिकगान्धिकादयः।
सम्भोगहीनसम्पद्विटस्तु धूर्त्तःकलैकदेशज्ञः।
वेशोपचारकुशलो वाग्मी मधुरोऽथ बहुमतो गोष्ठ्याम्॥ (प.३का.४१)
चेटः प्रसिद्धः।
कुसुमवसन्ताद्यभिधः कर्मवपुर्वेशभाषाद्यैः।
हास्यकरः कलहरतिर्विदूषकः स्यात्स्वकर्मज्ञः ( प० ३का०४२)
इत्याहुः।
अन्ये तु पीठमर्दः स्वकल्पितवाग्भिः स्त्रियं समाधत्ते, विटस्तु कामशास्त्रोपायेनेत्याहुः। एतेषां नायकानुकूलाचरणं व्यापारः।
व्यापारी यथा-श्रीरुद्रचन्द्रदेवानाम्–
मानं त्यक्ष्यसि कान्तमेष्यसि पुनः सम्भावयिष्यस्थलं
भूषाः, पास्यसि वारुणीं रतिकलाकेलिं समारोक्ष्यसि ।
किञ्च त्वां विनिवेदयामि सरले ! मन्दानिलोल्लासिता
प्रालेयांशुकृतोदया मधुनिशा हस्तं गता हार्य्यते ॥
विटो यथा-
तरुणजनसहायश्चिन्त्यतां वेशवासो
विगणय गणिकात्वं मार्गजाता लतेव ।
वहसि हि धनहार्य्यंपण्यभूतं शरीरं
सममुपचर भद्रे ! सुप्रियं वाऽप्रियं वा ॥
अयं च सामान्यवनितायामपि सहायः।
यथा—
भवति वसन्तसेने !
साटोपकूटकपटानृतजन्मभूमेः शाठ्यात्मकस्य रतिकेलिकृतालयस्य ।
वेश्यापणस्य सुरतोत्सवसङ्ग्रहस्य दाक्षिण्यपुण्यसुखनिष्क्रयसिद्धिरस्तु॥
चेटो यथा-
दुईकज्जा अण्णपडिरोहं मा करेउ अअपत्ति।
उत्तंभे इव तुरिअं तिस्सा कण्णुप्पलं पुलहो ॥ (१)3 दूतीकार्याकर्णनप्रतिरोधं मा करोत्वयमिति । उत्तम्भयतीव त्वरितं तस्याः कर्णोत्पलं पुलकः ॥ छा० ॥”)
विदूषको यथा मम -
परिशिथिलय ग्रन्थींस्तावत् क्रुधोहृदयस्थिता-
निति विनयवत्याचक्षाणे तदा दयितां मयि ।
लघु परिमृषन्नात्मीयस्योपवतिगुणस्य तान्
विहसितमुखीं तामाधत्त क्षणेन विदूषकः ॥
इति नायकनिरूपणम् ।
ननु कोऽयं रसो नाम ? यदालम्बनमेतन्निरूपितमिति । तदुच्यते । अर्थोपस्थितिहेतुः पदस्य पदार्थेन सह सम्बन्धो वृत्तिः। सा त्रिविधा । शक्तिर्लक्षणा व्यञ्जना च । तत्रास्मात्पदादयमर्थो बोध्य इत्याकारकेच्छात्मकः सङ्केतः शक्तिः। स च गवादिपदे ईश्वरीयः । आधुनिकचैत्रादिपदे तत्तत्पुरुषीय इति नैयायिकाः। पदार्थान्तरं शक्तिरिति मीमांसकाः। शक्त्या प्रतिपादकः शब्दः शक्त इत्युच्यते । स त्रिविधः रूढो यौगिको योगरूढश्च। रूढो यथा- गवादावर्थे गौरित्यादिः। गमेर्डोरित्यौणादिकप्रत्ययस्य शक्त्यनङ्गीकारात् । अवयवार्थस्य तत्रानवबोधात् । यौगिको यथा-दण्डी पाचक इत्यादिः। प्रकृतिप्रत्ययार्थमर्यादया दण्डविशिष्टपाककर्त्रादेर्बोधात् । योगरूढो यथा- पङ्कजादिः। स हि अवयवशक्त्या पङ्कजनिकर्तृत्वेन रूपेण रुढ्या च पद्मत्वेन पद्मं बोधयति । तेन शैवाले स्थलकमले वा न तस्य मुख्यप्रयोगः किंतु लक्षणैव । अन्ये तु योगरूढपदात् क्वचिद्रूढ्यर्थमात्रबोधः क्षीराम्भोधिरित्यादौ । तत्राम्भोधिपदात्समुद्रत्वरूपेणैवान्वयबोधात् क्षीरनीरयोरभेदान्वयानुपपत्या निराधारत्वरूपेणान्वयबुद्धेरभावात् । क्वचिदवयवार्थमात्रबोधः। यथा कल्हारं पङ्कजमित्यादौ । तत्र पद्मत्वजातेरभावात् योगार्थस्यैवान्वय इत्याहुः। केचित्तुरूढयौगिकमपि चतुर्थभेदमाहुः यथा मण्डपादि । तद्धि कदाचिद्रूढ्यर्थमेव गृहविशेषमुपस्थापयति। कदाचिद्योगार्थमेव मण्डपानकर्त्तारं पुरुषमिति । रूढियोगार्थयोरभेदान्वयानत्वात् शक्तिग्राहकं च व्याकरणादि । तदुक्तम्-
शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोषाप्तवाक्याद्व्यवहारतश्च ।
वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ॥
व्याकरणाद्यथा ‘भू सत्तायाम्’ इत्यादौ । उपमानात् - ‘गोसदृशो गवयपदवाच्य’ इत्यादौ । कोषात्- “इन्द्रो मरुत्वान्मघवा” इत्यादौ । आप्तवाक्यात्- ‘अयं गवय’ इत्यादौ । व्यवहारत:-‘घटमानय’ इत्यादावव्युत्पन्नस्य व्युत्पन्नवृद्धकृतस्य कम्बुग्रीवादिमद्व्यक्तर्देशान्तरसंयोगादेर्ज्ञानात् । वाक्यस्य शेषात्- ‘यवमयश्च रुभर्वति’ इत्यादौ । म्लेच्छानां यवशब्दस्य कङ्गुषु व्यवहारेऽपि
वसन्ते सर्वसस्यानां जायते पत्रशातनम् ।
मोदमानाश्च तिष्ठन्ति यवाःकणिशशालिनः ॥
इत्यादेर्दीर्घशूके। **विवरणात्-**पचति पाकं करोतीत्यादेः पचादेः पाकादौ । सिद्धपदसान्निध्यात्- ‘इह सहकारतरौ मधुरं पिको रौति’ इत्यादौ बोध्यम् ।
शक्यसम्बन्धो लक्षणा । ‘मुखं चन्द्र’ इत्यादौ गौण्यां चन्द्रपदशक्यस्य चन्द्रस्य मुखे सम्बन्धः। गङ्गायां घोष इति शुद्धायां गङ्गापदशक्यस्य प्रवाहस्य तीरे संयोगः। सा द्विविधा । निरूढा प्रयोजनवती च । निरूढा यथा- ‘नीलः पट’ इत्यादौ लाघवाद्गुणमात्रशक्तानां नीलादिपदानां समवायसम्बन्धेन नीलादिमत्परत्वात् । द्वितीया द्विविधां गौणी शुद्धा च । शक्यस्य सादृश्यात्मकः सम्बन्धो गौणी, तदन्यसम्बन्धः शुद्धा । गौणी द्विविधा । सारोपा साध्यवसाना च । आद्या उपमानोपमेययोरुपादाने ‘मुखं चन्द्र’ इत्यादौ । द्वितीया उपमेयस्यानुपादाने ‘चन्द्रोऽयम्’ इत्यादौ । तत्राद्ये रूपकालङ्कारः, द्वितीये त्वतिशयोक्तिभेद इति विवेकः। तदुक्तं काव्यप्रकाशे-
सारोपान्या तु यत्रोक्तौ विषयी विषयस्तथा ।
विषय्यन्तः कृतेऽन्यस्मिन् भवेत्साध्यवसानिका ॥ (उ.२ का.११)
यस्मिन्नारोप्यते तद्विषयः, यदारोप्यते तद्विषयीति बोध्यम् ।यथा ‘चन्द्रो मुखम्’ इत्यत्र चन्द्रो मुखे आरोप्यते इति चन्द्रो विषयी मुखं विषय इति विषयिविषययोः पृथङ्र्निर्द्दष्टयोरभेदआरोपः। अप्रयुक्ते विषये विषय्यभेदस्त्वध्यवसानमिति विशेषः। आरोपे ताद्रूप्यं प्रतीयते अध्यवसाने तु मुखत्वादिवैधर्म्यानुपस्थित्या सर्वथैवाभेद इति विवेकः। शुद्धा पञ्चविधा । जहत्स्वार्था अजहत्स्वार्था जहदजहत्स्वार्था सारोपा साध्यवसाना चेति । जहत्स्वार्था यथा- गङ्गायां घोष इत्यादौ शक्यप्रवाहसंयोगिनस्तीरस्यैव इतरपदार्थान्वयेन प्रवाहरूपस्वार्थान्वयबर्हिर्भावात् । अत्र तीरस्य पावनत्वप्रतीतिः फलम् । एवम् “उपकृतं बहु तत्र किमुच्यते” इत्यादौ अपकारिणि उपकृतमित्यनन्वयात्स्वार्थविरुद्धस्यापकारादेर्विरोधसम्बन्धेन प्रतीतेः। अत्र स्वसाधुत्वमतीतिः फलम् । अजहत्स्वार्था यथा- ‘कुन्ताः प्रवेश्यन्ताम्’ इत्यादौ । भोजनाद्यर्थप्रतीतेः कुन्तादीनामनन्वयात्कुन्तादिपदस्य कुन्तादिमत्सु पुरुषेषु लक्षणा पुरुषादेर्भोजनाद्यर्थप्रतीतेः पुरुषसाहित्येन कुन्तादेरपि क्रियान्वय इत्यजहत्स्वार्था । अत्र तेषां निर्दयप्रहर्तृत्वं फलम् । जहदजहत्स्वार्था यथा-पटैकदेशदाहे पटो दग्धः पुष्पितं वनमित्यादौ । एकदेशरूपस्वार्थपरित्यागेन एकदेशान्तररूपस्वार्थपरत्वात् । अत्र भूयस्त्वादिप्रतीतिः फलम् । **सारोपा यथा-**आयुर्घृतमित्यादौ । अत्र जनकत्वं सम्बन्धः इतरवैलक्षण्यप्रतीतिः फलम् । साध्यवसाना यथा- आयुरेवेदमित्यादौ । आयुर्जनकत्वाव्यभिचारप्रतीतिः फलम् । तदेवं सप्तविधा फललक्षणेति सङ्क्षेपः।
गङ्गाया घोष इत्यादौ लक्षणया तीरादिबोधेऽपि शैत्यादि प्रतीतेस्तदसाध्यत्वात् । यया तत्प्रतीतिः सा व्यञ्जना । तदुक्तं काव्यप्रकाशे-
यस्य प्रतीतिमाधातुं लक्षणा समुपास्यते ।
फले शब्दैकगम्येऽव व्यञ्जनान्नापराक्रिया ॥ इति । (उ.२का.१४)
एतद्बोध्यश्चार्थो ध्वनिरित्युच्यते । स द्विविधः शक्तिमूलोक्षात्कारेण विषयीक्रियमाणो रत्यादिस्थायिभावो रसः। स्थायिनो भावकत्वव्यापारेण साधारणीकृतत्वात् सत्त्वादीनां त्रयाणामुद्रेके सुखदुःखमोहाः क्रमात्प्रकाशन्ते । उद्रेकश्च स्वेतरद्वया4 भिभव इति साङ्ख्यसिद्धान्तात् इति व्याचख्यौ।
**अभिनवगुप्तपादाचार्य्यास्तु-**व्यङ्ग्यव्यञ्जकभावरूपसम्बन्धपरतया व्याचख्युः। लोके कटाक्षादौ रतिव्याप्यत्वज्ञानवतां सामाजिकानामन्तःकरणे वासनारूपतया रत्यादिः प्रत्यवतिष्ठते स स्थायी । लोके रत्यादिकारणानि प्रमदादीनि, तत्कार्याणि शकटाक्षादोनि, निर्वेदादीनि सहकारीणि । तेषामेव काव्यादौ क्रमेण विभावानुभावव्यभिचारिशब्दैर्व्यवहारः। नचैवं नामभेदमकिञ्चित्करमिति वाच्यम् । विभावनानुभावनसञ्चारणव्यापारभेदस्वीकारात् । तेषां च ईषत्स्फुटस्फुटतरप्रकाशरूपत्वात् । तदुक्तम्–
विभावा अनुभावाश्च तथैव व्यभिचारिणः।
प्रतीयमानाः प्रथमं खण्डशो यान्त्यखण्डताम् ॥
लोके सम्बन्धिविशेषीयत्वेन गृह्यमाणे कान्तादौ कटाक्षादिलिङ्गकरत्यनुमितौ न चमत्कारः काव्यादौ वाक्यार्थबोधानन्तरं चमत्कारविशेष इत्यनुभवसिद्धत्वात् । एतेन शकुन्तलादीनां सामाजिकैरसम्बन्धात् कथं तेषां रसोद्बोध इति निरस्तम् । काव्यादौ तेषां साधारणीकरणमिति स्वीकारात् । “ता एव परिहृतविशेषारसहेतव” इति सूत्रकारोक्तेः। एवं हि स्थायिनोऽपि तद्बोध्यम् । प्रमातृविशेषनिष्ठत्वेन प्रतीयमानस्वरूपपरिमितत्वे रसस्वरूपानुपपत्तेः। स्वगतत्वेन रसादिप्रतीतौसभ्यानां वीडाभयाद्यापत्तेः। परगतत्वेनानास्वाद्यत्वप्रसङ्गात् । साधारणस्वीकारेणैव सर्वदोषपरिहारात् । एवं हि सति विभावादिभिः स्थायिन्यभिव्यज्यमाने चैतन्यानन्दस्वरूप आत्मा भासते। वेदान्तिमते ज्ञानमात्रे तद्भानस्वीकारात् । न च घटादिज्ञानेऽप्यानन्दोद्बोधापत्तिः। तत्र आनन्दांशे आवरणभङ्गाभावात् । अत्र सहृदयत्वविशेषस्यैव तद्भङ्गहेतुत्वात्। तथा च रत्याद्यवच्छिन्नं चैतन्यमावरणभङ्गादानन्दरूपतया प्रकाशमानं रसपदार्थः। विभावादिचर्वणाया रसव्यञ्जकत्वात्तन्निष्ठयोरावरणभङ्गनिष्ठयोर्वा उत्पत्तिविनाशयोरारोपाद्रस उत्पन्नो रसो नष्ट इत्यादिव्यवहारः। चैतन्यस्यात्मरूपतया उत्पत्तिविनाशानर्हत्वात् । चर्वणानिवृत्तौ च प्रकाशस्यावृतत्वाद्विद्यमानस्यापि स्थायिनो न प्रकाशः। तदुक्तम् - काव्यप्रकाशे “विभावादिचर्वणावधिः” इति । चर्वणा तु आवरणभङ्गो रत्याद्याकारान्तःकरणवृत्तिविशेषो वेति बोध्यम् । सत्यां वाभिव्यक्तौ विभावादिरपि विषयः। पानकरसन्यायेन चर्व्यमाण इत्युक्तेः। स चायं न कार्य्यः, विभावादिज्ञाननाशेऽपि रसानुभवप्रसङ्गात् । निमित्तनाशे कार्य्यनाशानङ्गीकारात् । रत्यवच्छिन्नचैतन्यस्य रसत्वात् । चैतन्यस्य कार्यत्वशङ्कानवताच्च। नापि ज्ञाप्यः, विभावादिजन्याभिव्यक्तिविशिष्टरसादेरेव सन्त्वात् । तस्य च विभावादिव्यक्तिपूर्वमसत्त्वात् । पूर्वसत एव घटादेरालोकादिनाभिव्यक्तिदर्शनात् । तद्ग्राहकं न निर्विकल्पकम् । विभावादिज्ञानस्य रसनिर्विकल्पकजननायोग्यत्वात् । निर्विकल्पकस्य जन्यज्ञानाजन्यत्वनियमात् । नापि सविकल्पकम् । विभावादिममूहालम्बनस्य रसत्वात्तेषां सम्बन्धग्रहाभावात् । न च स्वभिन्ननिर्विकल्पकाग्राह्यत्वेऽपि (१)5 अत्र किंचित् त्रुटितं भाति ।”) स्वप्रकाशकत्वात्स्वाविषयकत्वात् । इदं च युक्तयोगिज्ञानाद्विलक्षणम्। तस्यासन्मात्रविषयकत्वात् । अस्य च गुणालङ्काराद्यधिक विषयत्वात् । युञ्जानयोगिज्ञानादपि तथा।तस्य भेदावगाहित्वात्। लौकिकरत्यादिज्ञानादपि तथा । अस्य गुणालङ्काराद्यधिकविषयत्वात्। ननूभयग्राह्यत्वनिषेधे ग्राह्यत्वमेव न स्यादिति चेत् सत्यम् । लोकोत्तरत्वादभिव्यक्तेरिति दिक् । ननु —
रजनिरजनि चन्द्रिकावदाता मलयजसौरभमेदुरः समीरः।
कलमिह कलयन्ति चञ्चरीकास्तदनुनयः परिहारि मा प्रियस्य ॥
इत्यादावालम्बनविभावमात्रस्य,
शरकाण्डपाण्डुगण्डस्थलेयमाभाति परिमिताभरणा ।
माधवपरिणतपत्रा कतिपयकुसुमेवकुन्दलता ॥
इत्यादावनुभावमात्रस्य,
स्तिमितकुसुमितानामुल्लसद्भ्रूलतानां
मसृणमुकुलितानां प्रीतिविस्तारभाजाम् ।
प्रतिनयननिपाते किञ्चिदाकुञ्चितानां
विविधमहमभूवं पात्रमालोकितानाम् ॥
इत्यादौ सञ्चारमात्रस्य सत्त्वेऽपि रसानुभवाद्विभावादीनां प्रत्येकं रसाभिव्यञ्जकत्वात्सूत्रे द्वन्द्वे मिलितानामुपादानं कथमिति चेत्, सत्यम् । तत्राप्यन्तरेण द्वयोराक्षेपात् प्रत्येकमात्रस्य रसान्तरसाधारण्यात् । रतिर्यत्र स्थायी स शृङ्गारः। रतिश्च स्त्रीपुंसयोरन्योन्यालम्बनप्रेमाख्यश्चित्तवृत्तिविशेष इति रसगङ्गाधरः।
सजातीय विजातीयैरतिरस्कृतमूर्त्तिमान् ।
यावद्रसं वर्त्तमानः स्थायी भाव उदाहृतः ॥
भरतः -
यथा नराणां नृपतिः शिष्याणां गुरवो यथा ।
तथैव सर्वभावानां स्थायी भावो महानिह ॥
स द्विविधः सम्भोगो विप्रलम्भश्चतदुक्तम्-
अनुरक्तौ निषेवेते यत्रान्योन्यं विलासिनौ ।
दर्शनस्पर्शनादीनि स सम्भोगो मुदान्वितः ॥
यत्र तु रतिः प्रकृष्टा नाभीष्टमुपैति विमलम्भोऽसौ ।
(सा.द. प० ३ का० २१०।१८७) ।
सम्भोगो यथा-
गाढालिङ्गनपूर्वमेव मनसा द्यूते जितं चुम्बनं
तत्किञ्चित्परिरभ्य दत्तममुना प्रत्यर्पितं चानया ।
नैतत्तादृगिदं न तादृशामिति प्रत्यर्पणव्यग्रयो-
र्यूनोश्चुम्बनमेकमेव बहुधा रात्रिर्गता तन्वतोः ॥
यथा वा-
मुक्ताः पतन्ति भूमौ बालाः कलयन्ति केवलां मुक्तिम् ।
चुम्बत्यम्बरमवनीं विपरीते किं न विपरीतम् ।
विप्रलम्भो यथा-
**क्षामक्षामकपोलमाननमुरः काठिन्यमुक्तं स्तनं **
मध्यः क्लान्ततरः प्रकामविनतावंसौ छविः पाण्डुरा
शोच्या च प्रियदर्शना च मदनक्लिष्टेयमालक्ष्यते
पत्राणामिव शोषणेन मरुता स्पृष्टा लता माधवी ॥
अयमभिलाषहेतुकः। पूर्वसङ्गमस्यानुपजातत्वात् । सङ्गमोत्तरकालीनो यथा-
(१)6 अज्ज मए तेण त्रिणा अणुहूअसुहाइं सम्भरन्तीए ।
अहिणवमेहाण रवो णिसाभिओ बज्झपडहव्व ।
देवादिविषया रतिः प्राधान्येन व्यञ्जितो व्यभिचारी च भावः।
देवविषया रतिर्यथा-
अहं त्वकामस्त्वद्भक्तस्त्वं च स्वाभ्यनपाश्रयः।
नान्यथेहावयोरर्थो राजसेवकयोरिव ॥
मुनिविषया यथा-
भवत्सम्भावनोत्थाय परितोषाय मूर्च्छते ।
अपि व्याप्तदिगन्तानि नाङ्गानि प्रभवन्ति मे ॥
पुत्रविषया यथा-
आलक्ष्यदन्तमुकुलाननिमित्तहासै-
रव्यक्तवर्णरमणीयवचःप्रवृत्तीन् ।
अङ्काश्रयप्रणयिनस्तनयान्वहन्तो
धन्यास्तदङ्गरजसा मलिनीभवन्ति ॥
एवं राजादिविषयत्वेऽप्युदाहार्य्यम् ।
व्यभिचारी यथा–
श्लिष्टः कण्ठे किमिति न मया मूढया प्राणनाथ-
श्चुम्बत्यस्मिन्वदनविहृतिः किं कृता किं न दृष्टः।
नोक्तः कस्मादिति नववधूरन्तरालोचयन्ती
पश्चात्तापं वहति तरुणी प्रेम्णि जाते रसज्ञा ॥
एत एवानौचित्यप्रवृन्त्या आभासाः।
रसाभासो यथा-
शस्त्रीकृतस्तरुवरो हरिपुङ्गवेन
लङ्केन्द्रवक्षसिमृणालमृदुः पपात ।
तत्र स्थितैस्तु कुसुमैः कुसुमेषुरेनं
सीतावियोगविधुरं दृढमाजघान॥
भावाभासो यथा-
**मुखं यदि किमिन्दुना यदि चलाञ्चले लोचने **
किमुत्पलकदम्बकैर्यदि तरङ्गभङ्गी भ्रुवोः।
किमात्मभवधन्वना यदि सुसंयताः कुन्तलाः
किमम्बुरुहडम्बरैर्यदि तनूरियं किं श्रिया ॥
अत्र स्मरणमनौचित्यप्रवृत्तम् । एवं भावशान्ति
-तदुदयसन्धिभावशबलानामप्यलक्ष्यक्रमत्वं बोध्यम् ।
“रसभावतदाभासभावशान्त्यादिरक्रमः” ( उ० ४ का० २६) इति काव्यप्रकाशोक्तेः।
इत्य संल्लक्ष्यक्रमध्वनिः।
संल्लक्ष्यक्रमध्वनिस्त्रिविधः शब्दशक्तिमूलोऽर्थशक्तिमूल उभयशक्तिमूलश्च । तदुक्तम्–
“अनुस्वानाभसंल्लक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यक्रमस्तु7 यः।
शब्दार्थोभयशक्त्युत्थस्त्रिधा स कथितो ध्वनिः ॥ (का० प्र० उ० ४ का० ३७) ।
आद्योद्विविधः। व्यङ्ग्यस्य वस्त्वलङ्कारत्वभेदात् ।
“अलङ्कारोऽथ वस्त्वेव शब्दाद्यत्रावभासते ।
प्रधानत्वेन स ज्ञेयः शब्दशक्त्युद्भवो द्विधा” ॥ इत्युक्तेः। ( का० प्र० उ० ४ का० ३८)
द्वितीयस्त्वष्टविधः। व्यञ्जकार्थस्यालङ्कारत्ववस्तुमात्रत्वरूपेण द्विविधस्यापि लोकसिद्धत्वकविप्रोढोक्तिमात्रकल्पितत्वाभ्यां द्वैविध्येन चातुर्विध्यम् । व्यङ्ग्यस्यापि वस्त्वलङ्कारत्वभेदेन द्वैविध्यमिति विभागात् । यस्तु कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धत्वेनापि वस्त्वलङ्कारयोर्भेद उक्तः, सोऽत्र न पुरस्कृतः। कविनिबद्धवक्तृनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धत्वादिना भेदापत्तेः। तस्यापि कविनिबद्धत्वमविशिष्टमित्युक्तौ तु प्रथमस्यापि कविनिबद्धवक्तु र्लोकोत्तरवर्णनानिपुणत्वेन कवित्वानपायात् । तत्कल्पितस्यापि कविप्रतिभाकल्पितत्वदुर्वारत्वात् ।
शब्दशक्तिमूलोऽलङ्कारध्वनिर्यथा-
(२)8 लङ्कालयानां पुत्रक ! वसन्तमासैकलब्धप्रसराणाम् । आपीतलोहितानां विभेति जनः पलाशानाम् ॥") लंकालआणं पुत्तअ वसन्तमासेक्कलद्धपसराणम् ।
आपीतलोहिताणं वेहेइ जणो पलासाणम् ॥
अत्र पलाशादिपदानां राक्षसादिरूपद्वितीयार्थप्रतिपादकत्वमसङ्गतं माभूदित्यतः किंशुकपुष्पे राक्षमोपमा व्यज्यते । रूपकापेक्षया प्रथममतीतिकत्वात् । न च व्यङ्ग्यस्य प्राधान्यादलङ्कारत्वानुपपत्तिः तस्य परोपकारकत्वरूपत्वादिति वाच्यम् । रसापेक्षया गुणीभावेऽपि वाच्यापेक्षयैव प्राधान्याङ्गीकारात् ।
तादृशवस्तुध्वनिर्यथा–
यामि विधावभ्युदिते पुनरेष्यामीति यन्त्वेया कथितम् ।
जानात्युदन्तमात्रं नेदं तन्त्वेन मुग्धवधूः ॥
अत्रप्रवासोद्यमान्निवर्न्तस्वेति वस्तुरूपोऽर्थस्तच्छब्दमात्रगम्यः। स शब्दशक्तिमूलः। दैवादिपदोपादाने यथोक्तार्थानवबोधात् । तदर्थकपदान्तरप्रयोगेऽपि यो गम्यते सोऽर्थशक्तिमूल इतिविवेकः।
अथार्थशक्तिमूलानामुदाहरणम् । तेषु स्वतः सम्भावना
वस्तुना वस्तुध्वनिर्यथा-
राज्याभिषेकसलिलक्षालितमौलेः कथासु कृष्णस्य।
गर्वभरमन्थराक्षी पश्यति पदपल्लवं राधा ॥
इहमामेव प्रणंस्यतीति व्यज्यते । तेनैवालङ्कारस्य यथा-
(१)9 णीससिउक्कंपपुलइएहिं जाणंति णच्चिउं घण्णा ।
अह्मारिसिहिं दिट्ठे पिअम्मि अप्पावि वीसरिओ ॥
अत्र ता अधन्या अहं तु धन्येति व्यतिरेकः। तादृशालङ्कारेण वस्तुनो यथा-
(२)10सा तइ सहत्थदिण्णं अज्जवि रेसुहअ गन्धरहिअंबि ।
उव्वसिअणअरघरदेवएव्व णोमालिअं वहइ ॥
अत्र नगरदेवतेवेत्युपमया तस्या अवश्यादरणीयत्वम् । तेनैवालङ्कारस्य यथा-
एकैकशो युवजनं विलङ्घमानाक्षनिकरमिव तरला ।
विश्राम्यति सुभग ! त्वामङ्गुलिरासाद्य मेरुमित्र ॥ (१)11
अत्रोपमया युवान्तरापेक्षया तद्व्यतिरेकः।कविप्रौढोक्तिसिद्धेन वस्तुना वस्तुनो यथा-
लक्ष्मीनिःश्वासानलपिण्डीकृतदुग्धजलधिसारभुजः।
क्षीरनिधितीरविहगा यशांसि गायन्ति राधायाः ॥
अत्रोक्तार्थस्य कविमात्रकल्पितत्वात्तेन सपत्नीसौभाग्यं स्त्रीणामतिदुःसहमिति वस्तु । तेनैवालङ्कारस्य यथा-
(२)12 सा तुज्झ वल्लहा तं सि मज्झ वेसोसि तीअ तुज्झ अहं ।
बालअ फुडं भणामो पेम्मं किल बहुविआरांत्ति॥
अत्रसा तव वल्लभा त्वं मम वल्लभः द्वेष्योऽसि तस्यास्तवाहंद्वेष्याइतिवस्तुना मयित्वदनुरक्तायामपि न तवानुराग इति विशेषोक्तिस्तस्यां त्वदनुरागहीनायामपि त्वदनुराग इति विभावना च । तादृशेनालङ्कारेण वस्तुनो यथा मम-
**आथर्वणीमुपनिषद्विद्यामिव लब्धुमेष त्वाम्। **
शिरसा वहति भवत्पदनूपुररक्तोत्पलकलापम् ॥
तेनैवालङ्कारस्य यथा मम
उत्तंसितं किसलयं श्रवणाभरणारुणमणीनाम् ।
मिलनात्प्रथममशोकः पदपरिरम्भेण पुष्पितः पश्चात् ॥
अत्र हेत्वलङ्कारेण रक्तमणीनामशोकतादात्म्येन रूपकम् ।
यत्र केचिच्छब्दाःपरिवृत्तिसहाः केचित्तदसहाः स उभयशक्त्युत्थः। यथा मम-
पीताम्बरेण चपलान्तरात्मना घनतमालनीलेन ।
भवतामिव व्रतक्षतिरारम्भि न नाम कासां वा ।
अत्र तमालनीलेत्येतत्पदं परिवृत्तिसहं न त्वन्यानि । अयं भेदो वाक्यमात्रे । अन्ये तु पदे वाक्ये चेति विशेषः। एवं सङ्क्षिप्यप्रसङ्गादुक्ता ध्वनिविशेषाः। भेदान्तराण्याकरेषु द्रष्टव्यानि । विस्तरभयान्नात्र प्रपञ्चितानि इति दिक् ।
लक्षणामूलध्वनिद्वये अविवक्षितवाच्यो यथा-
(१)13 एकच्चिअधूआ गहवइस्त महिलत्तणं समुव्बहइ।
अणिमिसणअनो सकलो जीए देव्वीकओ ग्गामो ॥
अत्र महिलापदस्य प्रशस्तमहिलात्वेन रूपेण महिलायां लक्षणा लोकोत्तररूपवन्त्वं व्यङ्ग्यम् ।
अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यो यथा-
(२)14 आम असइह्म अह्मे पइवएण तुह मलिणिअं गोत्तम् ।
किं उण जणस्स जाएव्व चंडिलं ताण कामेमो ॥
अत्र पतिव्रतापदं तद्विरुद्धमसतीत्वं लक्षयति । त्वया मम दोषोद्भावनेऽपि मया तव दोषो नोद्भाव्यत इति स्वसाधुत्वं व्यङ्ग्यम् ।
यद्यप्युत्तरार्द्धे तद्दोष उद्भावितस्तथापि जनजायात्वरूपसामान्यधर्मपुरस्कारेणैवेति न दोषः। अयमत्र सङ्ग्रहः।
द्वौ शाब्दी शक्तिरष्टार्थी दव्युत्यैकं भेदमञ्चति ।
द्वौ लक्षणेत्यमी भेदाः प्राधान्येन त्रयोदश ॥ इति सङ्क्षेपः।
विप्रलम्भे दशावस्था हरिहरेणोक्ताः-
प्रथमे त्वभिलाषः स्याद्दिवितीये चिन्तनं भवेत् ।
अनुस्मृतिस्तृतीये तु चतुर्थे गुणकीर्त्तनम् ॥
उद्वेगः पञ्चमे प्रोक्तो विलापः षष्ठ उच्यते ।
उन्मादः सप्तमे ज्ञेयो भवेद्व्याधिस्तथाष्टमे ॥
नवमे जडता चैव मरणं दशमे भवेत् ।
तद्विषयकोत्कटेच्छा-अभिलाषः। यथा–
मनसि सन्तमिव प्रियमीक्षितुं नयनयोः स्पृहयान्तरुपेतयोः।
ग्रहणशक्तिरभूदिदमीययोरपि न सम्मुखवस्तुनि वास्तुनि ।
यथा वा-
सम्भूयैव सुखानि चेतसिपरं भूमानमातन्वते
यत्रालोकपथावतारिणि रतिं प्रस्तौति नेत्रोत्सवः।
यद्वालेन्दुकलोदयादवचितैः सारैरिवोत्पादितं
तत्पश्येयमनङ्गमङ्गलगृहं भूयोऽपि तस्या मुखम् ॥
तत्समागमोपायपर्यालोचनं चिन्ता । फलेच्छानन्तरमुपायेच्छोत्पत्तेरावश्यकत्वात् । तदुक्तम्–
केनोपायेन सम्प्राप्तः कथं वा स भवेन्मम ।
दूतीनिवेदितैर्भावैरिति चिन्तां विनिर्द्दिशेत् ॥
आकेकरार्द्धविप्रेक्षितानि रसनावलयपरामर्षः।
नींवीनाभ्योः सन्दर्शनं च कार्य्यंद्वितीये तु ॥
इदं पुरुषव्यापारस्याप्युपलक्षणम् । यथा -
किं तंवितइणणा अंजहसा आसंदि आहिवहुआहिं ।
काऊण उअरिविडिअं तुह दंशणलेहडापडिआ ॥ (१)
यथा वा-
त्वत्प्रापकात्त्रस्यति नैनसोऽपि त्वय्येव दास्येऽपि न लज्जते यत् । स्मरेण बाणैरतितक्ष्य तीक्ष्णैर्लूनः स्वभावोऽपि कियान्किमस्य ॥
तद्विषयकसंस्कारजन्यं ज्ञानं स्मृतिः। तदुक्तम्–
मुहुर्मुहुर्निश्वसितैर्मनोरथविवर्त्तनैः।
प्रद्वेष्या अन्य कार्याणामनुस्मृतिरुदाहृता ॥
यथा -
(१)15 पिअसंमरणपलोट्टंतवाहावाविणिवाअभी आए ।
दिज्जइ वंकग्गीआइ दीवओ पहिअजाआए ॥
यथा वा-
लीनेव प्रतिबिम्बितेव लिखितेवोत्कीर्णरूपेव च
प्रत्युप्तेव च वज्रलेपघटितेवान्तर्निखातेव च ।
सा नश्चेतसि कीलितेव विशिखैश्वेतोभुवः पञ्चभि-
श्चिन्तासन्ततितन्तुजालनिबिडस्यूतेव लग्रा प्रिया ।
तद्गुणानामुत्कर्षप्रतिपादनं गुणकीर्त्तनम् । यथोक्तम्-
अङ्गप्रत्यङ्गलीलाभिर्वाक्चेष्टाहसितेक्षणैः।
नास्त्पन्यः सदृशस्तेनेत्येतत्स्याद्गुणकीर्त्तनम् ॥
यथा-
तदद्य विश्रम्य दयालुरेधि मे
दिनं निनीषामिभवद्विलोकिनी ।
नखैः किलाख्यायि विलिख्य पत्रिणा
तवैव रूपेण समः स मत्प्रियः ॥
यथा वा-
सा रामणीयकनिधेरधिदेवता वा
सौन्दर्य सारसमुदायनिकेतनं वा।
तस्याः सखे ! नियतमिन्दुसुधामृणाल-
ज्योत्स्त्रादिकारणमभून्मदनश्चवेधाः ॥
विषयेष्वरतिः उद्वेगः। तदुक्तम्—
आसने शयने वापि न तिष्ठति न हृष्यति ।
नित्यमेवोत्सुका च स्यादुद्वेगस्थानमेव तत् ॥
यथा-
अपसारय घनसारं कुरु हारं दूर एव किं कमलैः।
अलमलमालि ! मृणालैरिति वदति दिवानिशं बाला ॥
यथा वा–
(१)16 परं जोह्णाउह्णागरलसरिसो चन्दनरसो
खदक्खारो हारो रअणिपवणा देहतवणा ॥
मुणाली वाणाली जलदि अ जलद्दातणुलदा
वरिठ्ठाजं दिठ्ठा कमलवअणा दीहणअणा ॥
तदनुध्यानजन्यो वचनव्यापारो विलापः। तदुक्तम्–
इह स्थित इहासीत इह चोपगतो मया।
इति तैस्तैर्विलपितैर्विलापं सम्प्रयोजयेत् ॥
उद्विग्रात्यन्तमौत्सुक्यादरत्या च विलापिनी
तत्तस्ततश्च भ्रमति विलापस्थानमाश्रिता ॥
यथा-
(१)17 अमअमअ गअणसेहर रअणीमुहतिलअ चंद दे छिवसु ।
छित्तो जेहि पिअअमो ममंवितेहिं चिअ करेहिं ।
यथा वा–
उन्मीलन्मुकुलकरालकुन्दकोषप्रश्च्योतद्धनमकरन्दगन्धबन्धो !!
तामीषत्प्रचलविलोचनां नताङ्गीमालिङ्गन्पवन ! मम स्पृशाङ्गमङ्गम् ॥
प्रियभावनाजन्यव्यापार उन्मादः। तदुक्तम्–
तत्संश्रयां कथां युङ्ले सर्वावस्थागतोऽपि हि ।
प्रद्वे— चापरान् पुंसो यत्रोन्मादः स उच्यते ॥
तिष्ठत्यनिमिषदृष्टिर्दीर्घंनिःश्वसिति गच्छति ध्यानम् ।
रोदिति विहारकाले नाट्यमिदं स्यात्तथोन्मादे ॥
स द्विधा । कायिक-वाचिकभेदात् ।
आद्यो यथा-
(२)18 माजूर पिआलिङ्गणसुण्णब्भमिरीपिआलिङ्गणसुण्णब्भमिरीण बाहुलइआणम् ।
तुह्णीअं कुरु ण्णेहं इमेण माणंसिणिमुहेण ॥
यथा वा
बिभेति रुष्टासि किलेत्यकस्मात्स त्वां किलोपैति हसत्यकाण्डे ।
यान्तीमिव त्वामनु यात्यहेतोः पृष्टस्त्वयेव प्रतिवक्ति मोघम् ॥
द्वितीयो यथा-
त्रिभागशेषासु निशासु च क्षणं निमील्य नेत्र सहसा व्यबुध्यत ।
क्व नीलकण्ठ ! व्रजसीत्यलक्ष्यवागसत्यकण्ठार्पितबाहुबन्धना ॥
यथा वा-
हृत्तस्य यन्मन्त्रयते रहस्त्वां तद्यक्तमामन्त्रयते मुखं यत् ।
तद्वैरिपुष्पायुधमित्रचन्द्रसख्यौचिती सा खलु तन्मुखस्य ॥
मदनपीडाजनितसन्तापादिविकारो व्याधिः। तदुक्तम्-
सामदानादिसंयोगैः काम्यैः सम्प्रेषणैरपि ।
सर्वैर्निराशीकरणाद्व्याधिः समुपजायते ॥
यथा-
(१)19 देहस्य दाहः स्मरणशरणा हासशोभा मुखे च । अङ्गानां पाण्डुभावो दिवसशशिकलाकोमलः किञ्च तस्याः नित्यं वाष्पप्रवाहाः सुभग ! तव कृते भवन्ति कुल्याभिस्तुल्याः ॥") णीसासा हारवल्लीसरिसपसरणा चन्दणुव्वेअकारी
चण्डो (दीहो) देहस्स दाहो सुमिरणसरणा हाससोहामुहम्मि ।
अंगाणं पण्डुभावो दिअहससिकलाकोमलो किञ्च तीए
णिच्चं वाहप्पवाहा सुहअ तुह कए होंति कुल्लाहितुल्ला ॥
यथा वा–
यदिन्दावानन्दं प्रणयिनि जने वा न भजते
व्यनत्यन्तस्तापं यदयमतिधीरोऽपि विषमम् ।
प्रियङ्गुश्यामाङ्गप्रकृतिरपि वा पाण्डुमधुरं
वपुः क्षामक्षामं वहति रमणीयश्च भवति ॥
जडता हीनचेष्टत्वमङ्गानां मनसस्तथा ।
इति दर्पणः।
तथाच भरतः –
पृष्टा न किञ्चिद्ब्रूते च न शृणोति न पश्यति ।
हाकष्टवाक्सतूष्णीका जडतायां गतस्मृतिः ॥
अकाण्डदत्तहुङ्कारा तथा प्रशिथिलाङ्गिका ।
श्वासग्रस्तानना चैवं जडताभिनये भवेत् ॥
यथा -
(१)20वअणे वअणे अ चलन्तसीससुण्णवहाणहुङ्कारम्
सहि ! देंती णीसासन्तरेसु कीस ह्म दूमेसि ॥
दर्पणे -
रसविच्छेद हेतुत्वान्मरणं नैव वर्ण्यते ।
जातप्रायं तु तद्वाच्यं चेतसाकाङ्क्षितं तथा ॥
आद्यं यथा–
अधिकः सर्वेभ्यो यः प्रियः प्रियेभ्यो हृदि स्थितः सततम् ।
स लुठति विरहे जीवः कण्ठेऽस्यास्त्वमिव सम्भोगे ।
यथा वा—
सव्यापसव्यत्यजनाद्विरुक्तैः पञ्चेपुवाणैः पृथगर्जितासु ।
दशासु शेषः खलु तद्दशा या तया नभः पुष्प्यतु कोरकेण ॥
द्वितीयं यथा–
अनलभावमियं स्वनिवासिनो न विरहस्य रहस्यमबुद्ध्यत ।
प्रशमनाय विधाय तृणान्यसून् ज्वलति तत्र तदुज्झितुमैहत ॥
यथा वा–
यदि प्रियावियोगेऽपि खिद्यते दीनदीनकम् ।
तदिदं दग्धमरणमुपयोगं क्वयास्यति ।
अज्ञाते विषये इच्छानुदयात् शाब्दं चाक्षुषं वा प्रियज्ञानम् ।
तदुक्तम्-
श्रवणाद्दर्शनाद्वापि मिथःसंरुढरागयोः।
दशाविशेषो योऽप्राप्तौ पूर्वरागः स उच्यते ॥
श्रवणं तु भवेत्तत्र दूतवन्दीसखी मुखात् ।
इन्द्रजाले च चित्रे च साक्षात्स्वप्नेऽपि दर्शनम् ॥
श्रवणं यथा श्रीरुद्रदेवानाम्-
यस्याकर्णनमात्रतोऽपि भवतोऽवस्थेयमीदृग्विधा
येनाङ्गे मलयानिलोऽपि भवति प्रायः करीषानलः।
हंहोमानस ! बालिश ! प्रतिपदं प्रत्याशमुद्रीविकां
कुर्वन् तं नयनातिथिं पुनरहो कर्त्तुंकिमाकाङ्क्षसि ॥
इन्द्रजाले दर्शनं यथा मम–
स्मेरस्वर्णसरोजकेसर शिखासन्दोहसन्देहकृ-
द्वासा वार्षिकवारिवाहशकलश्रीमानसीमाहरः।
तारुण्याधिगमोत्तरातिपतितानात्यन्तिकद्राघिमा-
नेहस्को नयनस्य संवननतां सख्याः समासादयत् ॥
इह रुक्मिण्या इन्द्रजाले श्रीकृष्णस्य।
चित्रे यथा–
शनैरशृण्वन्नवदन्नपश्यंश्चैव किञ्चन ।
तन्मयीभूय चित्रस्थ इवसोऽप्यभवच्चिरम् ॥
अत्र तापस्या लिखिताया मन्दारवत्याः सुन्दरसेनस्य ।
तस्थौ चित्रपटन्यस्तनिश्चलोत्फुल्ललोचना ।
अधिष्ठितेव सुप्तेवविनिद्रं लिखितेव च ॥
अत्र तल्लिखितस्य मन्दारवत्याः।
साक्षाद्यथा-
भूयो भूयः सविधनगरीरथ्यया पर्यटन्तं
दृष्ट्वा दृष्ट्वा भवनवलभीतुङ्गवातायनस्था ।
साक्षात्कामं नवमिव रतिर्मालती माधवं य-
द्गाढोत्कण्ठा लुलितलुलितैरङ्गकैस्ताम्पतीति ॥
स्वप्ने यथा-
तदाकर्ण्य वचस्तस्य तत्कन्यारूपदर्शने ।
अतृप्त एव सहसा प्रबुद्धोऽस्मि निशाक्षये ॥
मुक्ताफलध्वजस्य पूर्वजन्मानुभूतां पद्मावतीं स्वप्ने दृष्टवत इयमुक्तिः। प्रसङ्गाद्रसान्तराण्युदाहियन्ते । हासस्थायिभावो हास्यः।
यथा–
मम मअणमणंगं मम्महं बड्ढअन्ती-
शिशिअशअणके मे णिद्दअं पक्खिवंती ।
पसलसि भअभीदा पक्खलन्ती खलन्ती
मम वशमनुजादा लावणस्सेव कुन्ती ॥
अत्र यद्व्यापाराद्धासोत्पत्तिः स आलम्बनम्। अधरस्पन्दादिरनुभावः–
ग्लानिः शङ्का ह्यसूया च श्रमश्चपलता तथा ।
सुप्तं निद्रावहित्थं च हास्ये भावाः प्रकीर्तिताः॥ इति व्यभिचारिणः ॥
स्मितमथ हसितं विहसितमुपहसितापहसितातिहसितमिति ।
द्वौ द्वौ भेदौ स्यातामुत्तममध्याधमप्रकृतेः ॥
ईषद्विकसितैर्गण्डैः कटाक्षैः सौष्ठवान्वितैः।
अलक्षितद्विजं धीरमुत्तमानां स्मितं भवेत् ॥
उत्फुल्लानननेत्रं तु गण्डैर्विहसितैरथ ।
किञ्चिल्लक्षितदन्तं च हसितं तद्विधीयते ॥
आकुञ्चिताक्षिगण्डं यत्सस्वनं मधुरं तथा ।
कालागतं सास्यरागं तद्वै विहसितं भवेत् ॥
उत्फुल्लनासिकं यत्तु जिह्मदृष्टिनिरीक्षितम् ।
निकुञ्चिताङ्गकशिरं तच्चोपहसितं भवेत् ॥
अस्थानहसितं यच्च साश्रुनेत्रं तथैव च ।
उत्कम्पिताङ्गकशिरं तच्चापहसितं भवेत् ॥
शोकस्थायिभावः करुणः।
स्त्रीनीचप्रकृतिर्ह्येष शोकव्यसनसम्भवः।
धैर्येणोत्तममध्यानां नीचानां रुदितेन च ॥
यथा–
(१)21 जोच्चिअ जेऊण जमं दिट्ठो इछासुहं तुए जमलोओ।
दछिहसि कहं णु पत्थिअ ! एह्णिं तं च्चेअ सेसअणसामण्णम् ॥
अत्र रावण आलम्बनम् । तद्दशाविशेषदर्शनमुद्दीपनम् ।
परिदेवनादिरनुभावः।
निर्वेदश्चैव चिन्ता च दैन्यं ग्लान्यस्रमेवच ।
जडता मरणं चैव व्याधिश्च करुणे स्मृताः॥ इति व्यभिचारिणः।
क्रोधस्थायिभावो रौद्रः।
इति रौद्ररसो दृष्टो रौद्रवागङ्गचेष्टितः।
शस्त्रप्रहारभूयिष्ठ उग्रकर्मक्रियात्मकः ॥
यथा–
देशः सोऽयमरातिशोणितजलैर्यस्मिन् हृदाः पूरिताः
क्षत्रादेव तथाविधः परिभवस्तातस्य केशग्रहात् ।
तान्येवाहितशस्त्रघस्मरगुरुण्यस्त्राणि भास्वन्ति मे
यद्रामेण कृतं तदेव कुरुते द्रौणायनिः क्रोधनः ॥
अत्रापकारक आलम्बनम् । तदपराधज्ञानमुद्दीपनम् ।नेत्रारुण्यादिरनुभावः।
गर्वोऽया तथोन्माद आवेगो मद एव वा ।
क्रोधश्च जडता हर्षो रौद्रे तूग्रत्वमेव च ॥ इति व्यभिचारिणः।
उत्साहस्थायिभावो वीरः।
उत्साहाध्यवसायादविषादत्वादविस्मयामोहात् ।
विविधादर्थविशेषाद्वीररसो नाम सम्भवति ॥
स्थितिशौर्यबीर्य्यधैर्य्यैरुत्साहपराक्रमप्रभावैश्च।
वाक्यैश्चाक्षेपकृतैर्वीररसः सम्यगभिनेयः ॥
एष दानदयायुद्धधर्मरूपाणामुत्साहोपाधीनां भेदाच्चतुर्द्धा ।
आद्यो यथा-
जीवतावधि वनीपकमात्रैरर्थ्यमानमखिलैः सुलभं यत् ।
अर्थिनेपरिवृढाय सुराणां किं वितीर्य्यपरितुष्यतु चेतः ॥
द्वितीयो यथा–
स त्वं मदीयेन शरीरवृत्तिं देहेन निर्वर्त्तयितुं प्रसीद ।
दिनावसानोत्सुकबालवत्सा विमुच्यतां धेनुरियं महर्षेः ॥
तृतीयो यथा मम–
स्थितः सोऽहं मैत्रावरुणिकुशिकापत्यवशगः
प्रतीपस्य त्वादृश्यपि नृपदिलीपस्य कुलभूः।
चिरादस्माभिः किं न भवदवदानं श्रुतचरं
मनोऽध्यक्षीकर्त्तुं तव विभवमुत्कण्ठितमतः ॥
श्रीरामस्य खरं प्रत्युक्तिः।
चतुर्थो यथा–
यत्किञ्चनेदं वित्तमस्यां पृथिव्यां यद्देवानां त्रिदशानां परं यत् ।
प्राजापत्यं त्रिदिवं ब्रह्मलोकं नाधर्मतः सञ्जय ! कामयेऽहम् ॥
अत्र तत्तद्विषया आलम्बनानि अनुभावाः स्पष्टाः।
असम्मोहस्तथोत्साह आवेगो हर्ष एव च ।
अमर्षप्रतिबोधश्च क्रोधोऽसूया धृतिस्तथा ॥
गर्वश्चैव वितर्कश्च मतिश्चैव तथोग्रता ।
अमर्षोऽथ मदश्चैव वीरे भावा भवन्ति हि ॥ इति व्यभिचारिणः।
रौद्रे क्रोधः स्थायी अत्र तु व्यभिचारीति भेदः। नच विनिगमकाभावः। प्ररूढत्वाप्ररूढत्वयोस्तथात्वात् । तत्त्वंच बह्वल्पविभाजकत्वमित्यभियुक्ताः। तथा च
मुनिनोक्तम्-
सर्वेषां समवेतानां रूपं यस्य भवेद्बहु ।
स मन्तव्यो रसस्थायी शेषाः सञ्चारिणो मताः ॥
रत्नाकरेऽप्युक्तम्–
रत्यादयः स्थायिभावाः स्युर्भूयिष्ठविभावजाः।
स्तोकैर्विभावैरुत्पन्नास्त एव व्यभिचारिणः ॥
एवमन्यत्राप्यूह्यम् ।
भयस्थायिभावो भयानकः।
यथा–
घोरां नारकपालकुण्डलवतीं विद्युच्छटां दृष्टिभि-
र्मुञ्चन्ती विकरालदृष्टिमनलज्वालापिशङ्गैः कचैः।
दंष्ट्राचन्द्रकलाङ्कुरान्तरललज्जिह्वां महाभैरवीं
पश्यन्त्या इव मे मनः कदलिकेवाद्याप्यहो वेपते ॥
इह भयहेतुरालम्बनं ग्रहणोद्यमादिरुद्दीपनं मुखशोषादयोऽनुभावाः।
चरणहृदयकम्पैः स्तम्भनजिह्वाविलेहमुखशोषैः।
स्वस्तसविष णगात्रैरस्याभिनयः ससन्त्रासैः ॥
स्वेदश्च वेपथुश्चैव रोमाञ्चो गद्गदस्तथा ।
त्रासश्च मरणं चैव वैवर्ण्यंच भयानके ॥ इति व्यभिचारिणः।
जुगुप्सास्थायिभावो बीभत्सः।
यथा–
अन्त्रैः कल्पितमङ्गलप्रतिसराः स्त्रीहस्तरक्तोत्पल-
व्यक्तोत्तंसभृतः पिनद्धशिरसो हृत्पुण्डरीकस्रजः।
एताः शोणितपङ्ककुङ्कुमजुषः सम्भूय कान्तैः पिबन्त्यस्थिस्नेहसुराः कपालचषकैः प्रीताः पिशाचाङ्गनाः ॥
अनभिमतदर्शनेन च गन्धरसस्पर्शशब्ददोषैश्च ।
उद्वेजनैश्च बहुभिर्बीभत्सरसः समुद्भवति ॥
मुखनेत्रविकूणनया नासाप्रच्छादनावनमितास्यैः।
अव्यक्तपादपतनैर्बीभत्सः सम्यगभिनेयः ॥
अपस्मारस्तथोन्मादो विषादो मद एव च ।
मृत्युर्व्याधिभयं चैत्र भावा बीभत्ससंश्रिताः ॥ इति व्यभिचारिणः
विस्मयस्थायिभावोऽद्भुतः।
यथा-
**आक्षिप्तो जयकुञ्जरेण तुरगान्निर्वर्णयन्वल्लभान् **
**संगीतध्वनिना हृतः क्षितिभृतां गोष्ठीषु तिष्ठन् क्षणम् । **
सद्यो विस्मृतसिंहलेन्द्रविभवः कक्षा प्रदेशेऽप्यहो
द्वाःस्थेनैव कुतूहलेन महता ग्राम्यो यथाहंकृतः।
अत्र विभावादयः स्पष्टाः।
यत्त्वतिशयार्थयुक्तं वाच्यं शिल्पं च कर्मरूपं च ।
तत्संबद्धैरर्थैरसोऽद्भुतो नाम विज्ञेयः ॥
स्पर्शग्रहणोल्लासितैर्हाहाकारैश्च साधुवादैश्च ।
वेपथुगद्गदवचनैः स्वेदाद्यैरभिनयस्तस्य ॥
स्तम्भः स्वेदोऽथ मोहश्च रोमाञ्चो विस्मयस्तथा ।
आवेगो जडता हर्षो मूर्च्छा चैवाद्भुताश्रयाः। इति व्यभिचारिणः
काव्ये शान्तोऽपि रसोऽनुभवसिद्धत्वात् । तत्र निर्वेदः स्थायिभावः। तदुक्तम्-
न यत्र दुःखं न सुखं न चिन्ता न द्वेषरागौ न च काचिदिच्छा ।
रसः स शान्तः कथितो मुनीन्द्रैः सर्वेषु भावेषु शमप्रधानः ॥
अत एवायं नाट्येन सम्भवति गीतवाद्यादेस्तद्विरोधित्वात्अन्ये तु नाट्येऽपि स युक्तः। तद्गीतवाद्यादेस्तद्विरोधित्वानङ्गीकारात् । विषयचिन्तासामान्यस्य तद्विरोधित्वे पुराणश्रवणादेस्तद्विरोध्युद्दीपनस्यापि विरोधित्वमसङ्गात् । यत्तु-
शान्तस्य शमसाध्यत्वान्नटे च तदसम्भवात् ।
अष्टावेव रसा नाट्ये न शान्तस्तत्र युज्यते ॥ इति ।
तदप्यनुपयुक्तम् । नटे रसाभिव्यक्तेरनङ्गीकारात् । सामाजिकानां शमवत्त्वेतदभिव्यक्तौ बाधकाभावात् । नटे भयक्रोधाद्यभावेऽपि तल्लिङ्गानामिव शिक्षाभ्यासपाटवेन शान्तरसलिङ्गानामप्यभिनयोपपत्तेः। न चास्य रसत्वे सूत्रकारानुमतेरभावः, निर्वेदस्यामङ्गलप्रायस्य प्रथमनिर्द्देशो मुख्यत्वेन स्थायित्वलाभार्थ इतिकाव्यप्रकाशकारादिभिरुक्तत्वात् ।
मनु निर्वेदस्य स्वावमाननरूपस्य स्थायित्वानुपपत्तिः, शान्तस्य सर्वविषयपरिहारजनितात्ममात्रविश्रामानन्दरूपत्वात् ।
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम् ।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥
इत्युक्तेः। एतेन सर्ववृत्तिविरामोऽस्य स्थायीत्यपि निरस्तम् । अभावस्य तदयोगात् । नच चित्तव्यापारनिवृत्तिरूपत्वाच्छमस्यापि कथं स्थायित्वमिति वाच्यम् । निरीहावस्थायामात्मविश्रान्तेरेवात्र शमपदार्थत्वात् इति काव्यप्रदीपादिभिर्निरूपितत्वात् । एवञ्च कथं सूत्रसम्पतिलाभ इति चेत्, सत्यम्। तत्र निर्वेदो नाम दारिद्र्यन्यक्कारव्याध्यपमानोत्क्रुष्टक्रोधताडनेष्टजनवियोगतत्त्वज्ञानादिभिर्विभावैरुत्पद्यत इति सूत्रकारेणोक्तत्वात्, नित्यानित्यवस्तुविवेकरूपतत्त्वज्ञानजन्यस्य च निर्वेदस्य शृङ्गारादौव्यभिचारित्वानुपपत्त्यातत्स्थायित्वस्य तदनुमत-
त्वात् । तदुक्तम्–
स्थायी स्याद्विषयेष्वेव तत्त्वज्ञानाद्भवेद्यदि ।
इष्टानिष्टवियोगाप्तिकृतस्तु व्यभिचार्य्यसौ ॥ इति ।
विषयेष्वनुपादेयज्ञानस्य च निर्वेदपदार्थत्वात् “परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान्ब्राह्मणो निर्वेदमायात्” इति श्रुत्यादिसिद्धत्वात् । रागाभावमात्रस्य तथात्वे सुषुप्त्यादौ निर्विण्णत्वव्यवहारमसङ्गात् । आत्मनिर्विकल्पकस्य च काव्याद्यनुपपाद्यस्वात् । रसस्य विभावादिसमूहालम्बनरूपतायाः सर्वसिद्धत्वात् ।
यथा-
अहौवा हारे वा कुसुमशयने वा दृषदि वा
मणौ वा लोष्टे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा ।
तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्तु दिवसाः
क्वचित्पुण्येऽरण्ये शिव शिव शिवेति प्रलपतः ॥
केचित्तुनिवृत्तौ शान्त इव महत्तौ मायारसोऽपि युक्तः। तत्र रसोत्पत्तिर्नेति दुर्वचत्वात् । ननु स रतिरेवेति चेत्, मैवम् । स न तावत् शृङ्गार-हास्य-रौद्राणां व्यभिचारी, तद्वैरिणां बीभत्सकरुणाद्भुतानां तत्र सत्त्वात् । नापि बीभत्सकरुणाद्भुतानां तद्वैरिणां शृङ्गारहास्यराद्रौणामपि तत्र सत्त्वात् । नच माया सामान्यरसस्तद्विशेषास्त्वन्य इति वाच्यम् । शान्तस्य बहिर्भावापत्तेः, किन्तु प्रबुद्धमिथ्याज्ञानवासना रसः। मिथ्याज्ञानं स्थायिभावः, भोगार्जक धर्माधर्मा विभावाः, पुत्र-कलत्र-विजय-साम्राज्यादयोऽनुभावाः, विद्युद्वत्कादाचित्कप्रकाशा रत्यादयोऽष्टौ भावास्तत्र व्यभिचारिणः।
यथा–
वाटी लाटीदृगम्भोरुहरभसकरी वापिका कापि कान्ता
तल्पंचन्द्रानुकल्पं प्रकटयति मिथः कामिनां कामिनीतम् ।
रूपं कामानुरूपं मणिमयभवनं बन्धुरं बन्धुरङ्के
लोके लोकेश ! कस्य त्वमसि न भुवने सर्वदा सर्वदाता ॥
इत्याहुः। तच्चिन्त्यम् । शान्तरसस्याप्यविद्यातत्कार्यान्यतरविषयकत्वेन बहिर्भावस्थ शङ्कितुमनर्हत्वात् । मिथ्याज्ञानवासनायाश्च सर्वदापि प्रबुद्धत्वात् । काव्यादिभ्यो जायमानस्यविषयज्ञानमात्रस्य रसत्वापत्तेश्च । तत्र चमत्कारस्थाननुभूयमानत्वात्, व्यभिचारिस्थायिभावानां व्यवस्थानुपपत्तेश्चेति दिक् ।
अथ व्याभिचारिणो निरूप्यन्ते । विविधमाभिमुख्येन रसान् प्रति चरन्तीति व्यभिचारिणः। स्थाय्यनुकूलत्वे सति विभावानुभावभिन्नत्वं लक्षणम् । अनुकूलत्वं तु रसव्यञ्जकत्वे सति रसप्रतीतिविषयत्वम् । अतो रसकाव्यवाक्ये भावनायां वा नातिव्याप्तिः। ते च त्रयस्त्रिंशत् । तदुक्तम्–
निर्वेदग्लानिशङ्काख्यास्तथासूया मदः श्रमः।
आलस्यं चैव दैन्यं च चिन्ता मोहः स्मृतिर्धृतिः ॥
व्रीडाचपलताहर्षा आवेगो जडता तथा ।
गर्वोविषाद औत्सुक्यं निद्रापस्मार एव च ॥
सुप्तं विबोधोऽमर्षश्च अवहित्थं तथोग्रता ।
मतिर्व्याधिस्तथोन्मादस्तथा मरणमेव च ॥
त्रासश्चैव विकर्तश्च विज्ञेया व्यभिचारिणः।
त्रयस्त्रिंशदमी भावाः समाख्यातास्तु नामभिः ॥
त्रयस्त्रिंशदिति आधिक्यनिरासार्थम् । तेन मात्सर्योद्वेगदम्भेर्ष्याविवेकनिर्णयक्लैव्यक्षमाकुतुकोत्कण्ठाविनयसंशयधार्ष्ट्यानामाधिक्यमनाङ्क्यम् । मात्सर्यस्यासूयायामुद्वेगस्य त्रासे दम्भस्यावाहित्थे ईर्ष्याया अमर्षे विवेकनिर्णययोर्मतौ क्लैब्यस्य दैन्ये क्षमाया धृतौ कुतुकोत्कण्ठयोरौत्सुक्ये विनयस्य लज्जाया संशयस्य तर्के घायस्य चापले चान्तर्भावात् । एतेन छलस्य व्यभिचाय्यन्तरत्वमिति निरस्तम् । अवहित्यकुक्षावन्तर्भावात् । अवान्तर भेदस्प सतोऽप्यनादरणीयत्वात् । विभागे शास्त्रकारेच्छायाया एव नियामकत्वात् ।
तत्वज्ञानापदीर्थ्यादे निर्वेदः स्वावमाननम् ।
तदुक्तम्–
इष्टजनविप्रयोगाद्दारित्र्य व्याधितस्तथा शोकात् ।
परवृद्धिं दृष्ट्वा वा निर्वेदो नाम सम्भवति ॥
वाष्पपरिप्लुतनयनः पुनः पुनः श्वासदीनमुखनेत्रः।
योगीव ध्यानपरो भवति हि निर्वेदवान्पुरुषः ॥
यथा-
सन्तापो हृदये स्मरानलकृतः सम्प्रत्ययं सह्यतां
नास्त्येवोपशमो हि सम्प्रति पुनः किं त्वं मुधा ताम्यसि ।
यन्मूढेन मया तदा कथमपि प्राप्तो गृहीत्वा चिरं
विन्यस्तस्त्वयि सान्द्रचन्दनरसस्पर्शो न तस्याः करः ॥
रत्यायासकलाभ्यासाद्ग्लानिर्निष्प्राणतेव या ।
आधिव्याधिजन्यबलहानिजन्यो दुःखविशेष इवशब्दार्थः। एतेन बलहानिरेव ग्लानिरियपास्तम् । नाशस्य भावत्वानुपपत्तेः। नचायं श्रम एवेति वाच्यम्, तद्धेत्वभावादिति रसगङ्गाधरादयः। यथा -
अतितमां समपादि जडाशयं स्मितलवस्मरणेऽपि तदाननम् ।
अजनि पंरपाङ्गनिजाङ्गण भ्रमिकणेऽपि तदीक्षणखञ्जनः ॥
चिन्तावैकृव्यजनिका शङ्कानिष्टसमुन्नयः।
शंकासूयादिलक्षणोदाहरणानि
उन्नय उत्प्रेक्षा । तदुक्तम्
द्विविधा शङ्का कार्य्या आत्मसमुत्था च परसमुत्था च ।
या तत्र परसमुत्था सा ज्ञेया दृष्टिचेष्टाभिः ॥
कश्चित्प्रवेपिताङ्गस्तथोन्मुखो वीक्षते च पार्श्वानि ।
उरुसज्जमानकण्ठः श्यानास्यः शङ्कितः पुरुषः ॥
यथा मम—
पुलककुलकञ्चुकवृतं कपोलफलकं विलोकने तस्य ।
मुग्धे ! संवृणु वसनाञ्चलेन दृगवेक्षणेन कृतम् ॥
परोत्कर्षाक्षमाऽसूया गर्वदौर्जन्यमन्युजा ।
तदुक्तम्–
परसौभाग्येश्वरतामेधालीलासमुच्छ्रयं दृष्ट्वा ।
अभिनेतव्याऽसूया कृतापराधा भवेयुश्च ॥
भ्रुकुटिकुटिलोत्कटमुखैः सेर्ष्याक्रोधपरिवर्त्तनैश्चित्रैः।
गुणनाशनविद्वेषैस्तस्याः कार्य्यः सदाभिनयः ॥
यथा—
तच्चापमीशभुजपीडितसारमेव
प्रागण्यभज्यत भवांस्तु निमित्तमात्रम् ।
राजन्यकप्रधनसाधनमस्मदीय-
माकर्ष कार्मुकमिदं गरुडध्वजस्य ॥
संमोहानन्दसम्भेदः स्खलदङ्गवचोगतिः।
मधुपानादिजो ज्ञेयो मदो विविधभावकृत् ॥
तदुक्तम्—-
त्रिविधस्तु मदः कार्य्यस्तरुणो मध्यस्तथापकृष्टश्च ।
करणं पञ्चविधं स्यात्तस्याभिनये प्रयोगविदाम् ॥
कश्चिन्मत्तो गायति रोदिति कश्चित् तथा हसति कश्चित् ।
परुषवचनाभिधायी कश्चित्कश्चित्तथा स्वपिति ॥
उत्तमसत्वः शेते हसति च गायति च मध्यमप्रकृतिः।
परुषवचनाभिधायी रोदित्यपि वाधमप्रकृतिः ॥
स्मितमधुरवचनरागो हृष्टतनुः किंचिदाकुलितवाक्यः।
स्वप्रचारविरुद्धगतिस्तरुणमदस्तूत्तमप्रकृतिः ॥
स्खलिताघूर्णितनयनः स्रस्तव्याकुलितगात्रविक्षेपः।
कुटिलव्याविद्धगतिर्मध्यमदो मध्यमप्रकृतिः ॥
नष्टस्मृतिर्हतगतिश्छर्द्दितहिक्कादिकैः सुबीभत्सः।
गुरुसज्जमानकण्ठो निष्ठीवति चाधमप्रकृतिः ॥ इत्यादि ।
यथा—
(१) देइ विलासवईणं सुहे अ दुःक्खे अ पाअपडिअसब्भावा ।
अणवेक्खिअलज्जाईं सहिव्व वीसत्थजंपिआइंपसण्णा ॥
श्रमः खेदोऽध्वगत्यादोर्निद्राश्वासादिकृन्मतः।
तदुक्तम्-
अध्वगतिव्यायामान्नरस्य सञ्जायते श्रमो नाम ।
निःश्वासदर्शनस्वेदैस्तस्याभिनयः प्रयोक्तव्यः ॥
अस्य बलसत्वेऽपि जायमानत्वाच्छरीरव्यापारजत्वाच्च न ग्लानावन्तर्भावः।
यथा-
स्रस्तांसावतिमात्रलोहिततलौबाहू घटोत्क्षेपणात्
अद्यापि स्तनवेपथुं जनयति श्वासः प्रमाणाधिकः।
बद्धं कर्णशिरीषरोधि वदने घर्माम्भसां जालकं
बन्धे स्रंसिनि चैकहस्तयमिताः पर्याकुला मूर्द्धजाः ॥
श्रमादिजन्यमालस्यं पुरुषार्थेष्वनादरः।
____________________________________________________________________________
(१) ददाति विलासवतीनां सुखे च दुःखे च पादपतितसद्भावा ।
अनपेक्षितलज्जानां सखीव विश्रब्धजल्पितानि प्रसन्ना ॥
निर्वेदादिषु दैन्यचिन्तालक्षणोदाहरणानि
क्रियासु द्वेष इत्यर्थः। असामर्थ्याभावाद्विवेकशून्यत्वाभावाच्च ग्लानिजडताभ्यां भेदः।
यथा-
प्रबुद्धायाः प्रातर्लसदलसदोर्वल्लिवलयं
गलन्मल्लीदाम्नः शिथिलकबरीबन्धसमये ।
प्रियालोके घूर्णन्नयनमसृणस्निग्धमधुरो
मुखे जृम्भारम्भो जयति भृशमम्भोरुहदृशः ॥
दौर्गत्यादेरनौजस्यंदैन्यं मलिनतादिकृत्
यथा—
वेगं करोति तुरगस्त्वरितं प्रयातुं
प्राणव्ययान्न चरणास्तु तथा वहन्ति ।
सर्वत्र यान्ति पुरुषस्य चलाः स्वभावाः
खिन्नास्ततो हृदयमेव पुनर्विशन्ति ॥
ध्यानं चिन्ता हिताप्राप्तेः सन्तापादिकरी मता ।
तदुक्तम्-
सोच्छ्वसितैर्निःश्वासैः सन्तापैश्चैव शून्यहृदयतया ।
अभिनेतव्या चिन्ता मुदा विहीनैरधृत्या च ॥
यथा-
मालत्याः प्रथमावलोकदिवसादारभ्य विस्तारिणो
भूयः स्नेहविचेष्टितैर्मृगदृशो नीतस्य कोटिं पराम् ।
अद्यान्तः खलु सर्वथास्य मदनायासप्रबन्धस्य मे
कल्याणं विदधातु सा भगवती नीतिर्विपर्येतु वा ॥
न चायं वितर्क एवेति वाच्यम् । किं भविष्यतीति चिन्तायाः पूर्वं पश्चाद्वा तदुपपत्तेः। “वितर्कोऽस्याः पूर्वक्षणे पाश्चात्त्येवोपजायते’ इत्यभियुक्तोक्तेः।
मोहो विचित्तता भीतिदुःखावेगानुचिन्तनैः।
तदुक्तम्-
अस्थाने तस्करान्दृष्ट्वा त्रासनैर्वा पृथग्विधैः।
तत्प्रतीकारशून्यस्य मोहः समुपजायते ॥
व्यसनाभिघातपूर्ववैरानुस्मरणजो भवति मोहः ॥
सर्वेन्द्रिय सम्मोहात्तस्याभिनयः प्रयोक्तव्यः ॥
वस्तुतत्त्वानवधारिणी चित्तवृत्तिर्मोहः। शून्यताव्यवहिता सेति केचित् । यथा -
निवृत्तिः प्रत्येकं भवति करणानां स्वविषया
त्तथा सर्वाण्यत्र स्मृतिजनकतामेव दधति ।
अतस्मिंस्तद्भावं भजति च समस्तं त्वपरथा
कथङ्कारं सर्वं परिणमति कान्तामयमिदम् ॥
स्मृतिः पूर्वानुभूतार्थविषयं ज्ञानमुच्यते ।
तदुक्तम्-
अन्यतत्त्वमतिक्रान्तं यथामति विभावितम् ।
विस्मृतं च यथावृत्तं स्मरेयुः प्रीतमानसाः ॥
स्वास्थाभ्याससमुत्था श्रुतिदर्शनसम्भवा स्मृतिर्निपुर्णैः।
शिर उद्वाहनकम्पैर्भ्रूक्षेपैश्चाभिनेतव्या ॥
यथा–
(१)ण ठ्ठाणाहितिलन्तरं विचलिआ सुत्था णिअंवत्थली थोउव्वल्लवलीतरङ्गमुअरं कण्ठोतिरिच्छठ्ठिओ ।
_________________________________________________________________________
( १) न स्थानाद्धि तिलान्तरं विचलिता सुस्था नितम्बस्थली स्तोकोद्वेलवलीतरङ्गमुदरं कण्ठोऽतितिर्यक्स्थितः।
वेण्या पुनराननेन्दुचलने लब्धं स्तनालिङ्गनं जाता तस्याश्चतुर्विधा तनुलता तत् संचरन्तीव मे ॥
निर्वेदादिषु धृतिव्रीडाचापललक्षणोदाहरणानि
वेणीए उण आणणेन्दुबलणे लद्धं थणालिङ्गणं
जादा तीअ चउव्विहा तणुलदा तं संचलन्तीअ मे ॥
अभीष्टार्थस्य सम्प्राप्तौ स्पृहापर्याप्तता धृतिः।
सौहित्यवदनोल्लाससहासप्रतिभादिकृत् ॥
तदुक्तम्-
प्राप्तानामुपयोगः शब्दरसस्पर्शगन्धानाम् ।
अप्राप्तानामनुशोचनं च न भवेद्धृतिः सा तु
विज्ञानशौचसमुद्भवश्रुतिशक्तिसमुद्भवा धृतिः सद्भिः।
भयशोकविषादाद्यैरहिता तु सदा प्रयोक्तव्या ॥
यथा-
(१) मुहपेच्छओ पई से सावि हु सविसेसदंसणुम्मत्ता ।
दोवि कहत्था पुहइंअमहिलपुरिसं व मण्णन्ति ॥
सङ्कोचश्चेतसो व्रीडा वैवर्ण्याघोमुखत्वकृत्।
तदुक्तम्-
लज्जाघोगूढमुखो भूमिं च लिखन्नखांश्च परिकृन्तन् ।
वस्त्राङ्गुलीयकानांसंस्पर्शं व्रीडितः कुर्य्यात् ॥
यथा-
(२)णिहुअणसिप्पं तह सारिआइ उल्लाविअह्म गुरुपुरओ ।
जह तं वेलं माए ण आणिमो कहं वच्चामो ॥
वाक्पारुण्यकरी चित्तस्यावस्था चापलं मता ।
वाक्पारुष्यमिति वधबन्धनादेरप्युपलक्षणम् । तदुक्तम्-
______________________________________________________________________________
(१) मुखप्रेक्षकः पतिस्तस्याः सापि खलु सविशेषदर्शनोन्मत्ता ।
द्वावपि कृतार्थौपृथिवीममहिला पुरुषामिव मन्येते ॥
(२) निधुवनशिल्पं तथा सारिकयोल्लापिता स्म गुरुपुरतः।
यथा तस्यां वेलायां मातर्न जानीमः कथं वर्तामहे ॥
**अविमृष्टं यत्कार्यंपुरुषोऽज्ञानात्समाचरति । **
अविनिश्चितकारित्वात्स तु खलु चपलो बुधैर्ज्ञेयः ॥
यथा-
**कामस्तु बाणावसरं प्रतीक्ष्य पतङ्गवद्वह्निमुखं विविक्षुः। **
**उमासमक्षं हरबद्धलक्ष्यः शरासनज्यां मुहुराममर्श। **
**मनःप्रसादो हर्षः स्यादिष्टावाप्तिस्तवादिभिः। यथा - **
**स्मृतिभिन्नमोहतमसो दिष्ट्या प्रमुखे स्थितासि सुमुखि ! त्वम् **
**उपरागान्ते शशिनः समुद्गतो रोहिणीयोगः ॥ **
**आवेगो राजविद्रावरत्यादेः सम्भ्रमो मतः। **
तत्र विस्मरणं स्तम्भः स्वेदः कम्पः स्खलद्गतिः ॥
तदुक्तम्–
**इत्येषोऽष्टविधो ज्ञेय आवेगः संभ्रमात्मकः। **
स्थैर्य्येणोत्तममध्यानां नीचानां चोपसर्णात् ॥
अष्टविधः उत्पातवातवर्षाग्निकुञ्जरोद्भ्रमणप्रियश्रवणाप्रियश्रवणव्यसनभेदात् । एवं च सिंहाभियोगादेरप्युपलक्षणम् । यथा- अस्थानगामिभिरलङ्करणैरुपेता भूपःपदस्खलितनिन्हुतिरप्रसन्ना वाणीव कापि कुकवेर्मधुपानमत्ता गेहान्निपातबहुलैव विनिर्जगाम ॥
**अप्रतिपत्तिर्जडता स्यादिष्टानिष्टदर्शनश्रुतिभिः। **
अनिमिषनयननिरीक्षणतूष्णीम्भावादयस्तत्र ॥
मोहे चाक्षुषादेरनुत्पत्तिरेव । इह तु तदुत्पत्तावपि प्रकारविशेषावगाहनं बाहुल्याभावश्चेति विशेषः। यथा-
(१) पेछइअ लद्धलक्खं दीहं णीससइ सुण्णअं हसइ ।
____________________________________________________________________________
(१) प्रेक्षते लब्धलक्षं दीर्घंनिःश्वसिति शून्यं हसति ।
यथा जल्पति स्फुटार्थं तथास्या हृदयस्थितं किमपि ॥
निर्जवेदादिषुगर्वौत्त्सुकनिद्रालक्षणोदाहरणानि ।
जह जंपइअ फुडत्थं तह से हिअअठ्ठिअं किंपि ॥
गर्वोऽभिजनलावण्यधनैस्वर्यादिभिर्मत ।
सविलासाङ्गवीक्षाविनयावज्ञादिकृत्तु सः ॥
यथा-
धृतायुधोयावदहं तावदन्यैः किमायुधैः।
यद्वा न सिद्धमस्त्रेण मम तत्केन सेत्स्येते ॥
प्रारब्धकार्य्यासिद्ध्यादेर्विषादः सत्त्वसङ्क्षयः।
निःश्वासोच्छ्वासहृतापसहायान्वेषणादयः ॥
तदुक्तम्–
कार्य्यानिस्तरणकृतश्चौर्य्याभिग्रहणराजद्रोषाद्यैः।
दैवादिष्टो योऽर्थस्तदसम्प्राप्तौ विषादः स्यात् ॥
यथा-
मम प्राणाधिके तस्मिन्नङ्गानामीश्वरे हते ।
उच्छ्रवसन्नपि लज्जेऽहमाश्वासे तात ! का कथा ॥
कालाक्षमत्वमौत्सुक्यं रम्पेच्छारतिसम्भ्रमैः।
तत्रोच्छ्वासत्वराश्वासहृत्तापस्वेदविभ्रमाः ॥
यथा-
श्वस्तस्याः प्रियमाप्तुमुद्धुरधियो धीराः सृजन्त्या रया-
न्नम्रोन्नम्रकपोलपालिपुलकैर्वेतस्विनीरश्रुणः।
चत्वारः प्रहराः स्मरार्त्तिभिरभूत्सा या क्षपा दुःक्षपा
तत्तस्याः कृपपाखिलैव विधिना रात्रिस्त्रियामा कृता ।
मनःसम्मीलनं निद्रा विन्तालस्यश्रमादिभिः
तत्र जृम्भाङ्गभङ्गाक्षिमीलनोच्छ्रवसनादयः ॥
तदुक्तम्–
आलस्याद्दौर्बल्यात्क्लत्माच्छ्रमाच्चिन्तनात्स्वभावाञ्च ।
रात्रौ जागरणादपि निद्रा पुरुषस्य सम्भवति ॥
तां मुखगौरवगात्रप्रविलोलनपननिमीलनजडत्वैः।
जृम्भणगात्रविमर्द्दैरनुभावैरभिनयेत्प्राज्ञः ॥
यथा-
निःश्वासोऽस्य न शङ्कितः सुविशदस्तल्पान्तरे वर्त्तते
दृष्टिर्गाढनिमीलिता न विकला नाभ्यन्तरे चञ्चला ॥
गात्रं स्रस्तशरीरसन्धि शिथिलं शय्याप्रमाणाधिकं
दीपं वापि न घर्षयेदभिमुखं स्याल्लक्ष्यसुप्तं यदि ॥
मनःक्षेपस्त्वपस्मारो भूतावेशादिसम्भवः।
तदुक्तम्–
भूतपिशाचग्रहणानुस्मरणोच्छिष्टशून्यगृहगमनात् ।
कालान्तरातिपातादशुचेश्चभवत्यपस्मारः ॥
सहसाभूमौ पतनं प्रवेपनं वदनफेनमोक्षश्च ।
निःसंज्ञस्योत्थानं रूपाण्येतान्यपस्मारे ॥
न च व्याधित्वादेवास्य सङ्ग्रहे पृथगुपादानवैयर्थ्यमिति वाच्यम् । बीभत्सभयानकयोरेवास्य व्यभिचारित्वमित्येतदर्थत्वात् ॥
यथा मम–
वेगादुत्पत्य भूमौ विहितनिपतनाः पाण्डुरत्वं वहन्त्यः
फेनैर्विस्फार्यमाणैर्ध्वनिभिरनिभृतैर्भीतिमुद्भावन्त्यः ॥
तिर्यक्पश्चात्पुरस्तादपि पवनवशादव्यवस्थं व्रजन्त्यः
सद्योनद्यो दुरीक्षाघनसमयमयोद्भूतभूताभिभूताः ॥
स्वप्नो निद्रामुपेतस्य विषयानुभवस्तु यः
कोपावेगभयग्लानिसुखदुःखादिकारकः ॥
यथा श्रीरुद्रचन्द्रदेवानाम्-
पान्थः स्वप्नदशां गतः प्रियतमामालिङ्ग्यवक्रासवं
विर्वेदादिषु स्वप्नप्रबोधामर्षलक्षणोदाहरणानि
पातुं यावदियेष तावदसममैर्घेस्वनैर्बोधितः।
प्रागङ्के शयने ततोऽवनितले पर्येषयन्प्रेयसीं
भूतावेशमितः किलेतिसमयासीनैर्जनैः22 स्तम्भितः ॥
निद्रापगमहेतुभ्यः प्रबोधश्चेतनागमः।
जृम्भाङ्गभङ्गनयनोन्मीलनाङ्गावलोककृत् ॥
तदुक्तम्-
आहारापरिणामाच्छब्दस्पर्शादिभिश्च सम्भूतः।
प्रतिबोधस्त्वभिनयो जृम्भणपरिवेदनाक्षिपरिमर्दैः ॥
यथा–
प्रत्यग्रोन्मेषजिह्मा क्षणमनभिमुखी रत्नदीपप्रभाणा-
मात्मव्यापारगुर्वी जनितजललवा जृम्भणैः साङ्गभङ्गैः॥
नाङ्गाङ्गं मोक्तुमिच्छोः शयनमुरुफणाचक्रवालोपधानं
निद्राच्छेदाभिताम्रा चिरमवतु हरेर्द्दष्टिकेकरा वः ॥
अधिक्षेपापमानादेरमर्षोऽभिनिविष्टता
तत्र स्वेदशिरःकम्पनेत्ररागाङ्गविक्रियाः ॥
तदुक्तम्–
आक्षिप्तानां सभामध्ये विद्यैश्वर्यबलाधिकैः।
नृणामुत्साहसम्पन्नो ह्यमर्षो नाम जायते ॥
उत्साहाध्यवसानाभ्यामधोमुखविचिन्तनैः।
शिरःप्रकम्पस्वेदाद्यैस्तं प्रयुञ्जीत नाट्यवित्॥
यथा–
पितुर्मूर्ध्नि स्पृष्टे ज्वलदनलभास्वत्परशुना
कृतं यद्रामेण श्रुतिमुपगतं किन्न भवताम् ॥
किमद्याश्वत्थामा तदरिरुधिरासारविघसं
न कर्म क्रोधान्धः प्रभवति विधातुं रणमुखे ॥
लज्जाद्यैर्विक्रियायोगादवहित्थात्मविक्रिया ।
व्यापाररान्तरसङ्गित्ववदनानमनादिकृत् ॥
तदुक्तम् -
धार्ष्ट्यजैह्मादिसम्भूतमवहित्थं भयात्मकम्
तच्चाङ्गाभिनयैः कार्य्यंयाति चोत्तरभाषणात् ॥
यथा–
स्निग्धं वीक्षितमन्यतोऽपि नयने यत्प्रेषयन्त्या तया
यातं यच्च नितम्बयोर्गुरुतया मन्दं विलासादिव ॥
मा गा इत्यवरुद्धया यदपि सा सासूयमुक्ता सखी
तत्सर्वं किल मत्परायणमहो कामी स्वतां पश्यति23॥
अधिक्षेपावमानाद्यैश्चेतश्चण्डत्वमुग्रता ।
अत्र स्वेदशिरः कम्पतर्जनाताडनादयः ॥
यथा-
निर्वीर्य्यंगुरुशापभाषणवशात्किंमे तवेवायुधं
सम्प्रत्येव भयाद्विहाय समरं प्राप्तोऽस्मि किं त्वं यथा ॥
जातोऽहं स्तुतिवंशकीर्त्तनविदां किं सारथीनां कुले
क्षुद्रारातिकृताप्रियं प्रतिकरोम्यस्रेण नास्त्रेण किम् ॥
श्रान्तिच्छेदोपदेशाभ्यां शास्त्रादेस्तत्त्वधीर्मतिः।
स्मेरता धृतिसन्तोषौ बहुमानस्तथात्मनि ॥
यथा–
भव हृदय सावधानं सम्प्रति सन्देहनिर्णयो जातः।
आशङ्कसेयदग्निंतदिदं स्पर्शक्षमं रत्नम् ॥
विरहादेर्मनस्तापो व्याधिर्दुःस्थाङ्गतादिकृत् ।
ज्वरोऽत्र सशीतः सदाहश्च । काव्येषु द्वितीय एव । तस्य शीताभिलाषादयोऽनुभावाः।
यथा-
(१) विसव्व विसकन्दली विसहरव्व हारच्छडा
विसग्गिमिव अप्पणा किरइ तालवेंटाणिलो ।
तहाअ करणिग्गअं जलइ जंतधाराजलं
न चंदणमहो सही हरइ देहदाहं अ मे ॥
सन्निपातग्रहादिभ्य उन्मादश्चित्तविभ्रमः।
तदुक्तम्–
इष्टजनविभवनाशादभिघाताद्वातपित्तकफकोपात् ।
विविधाच्चित्तविकारादुन्मादो नाम सम्भवति ॥
अनिमित्तहसितरुदितोपविष्टगीतप्रधावितोत्क्रुष्टैः।
अन्यैर्विकारजातैरुन्मादं सम्प्रयुञ्जीत ॥
अस्य व्याधित्वेऽपि पृथगुपादानं व्याध्यन्तरापेक्षया वैचित्र्यविशेषसूचनार्थम् ।
यथा—-
(२) अवलंवह मासंकह माइगहलंघिआ परिब्भमइ।
अत्तत्थमज्जिउब्भतसुण्णहिअआ पहिअजाआ ॥
रोगादिभिः प्रागवस्था मरणस्य मृतिर्भवेत् ।
मुख्यस्य भावत्वानुपपत्तेः।
________________________________________________________________________________
(१) विषमिव विषकन्दली विषधर इव हारच्छटा
विषाग्निमिवात्मना किरति तालवृन्तानिलः।
तथा च करनिर्गतं ज्वलति यन्त्रधाराजलं
न चन्दनमहो सखि ! हरति देहदाहं च मे ॥
**(२) अवलम्बत माशङ्कत मातृग्रहलङ्घिता परिभ्रमति ।
अत्यर्थगर्जितोद्भ्रान्तशून्यहृदया पथिकजाया ॥ **
यथा —–
(१) सञ्जीवणोसढं विअ सुहस्स रक्खइ अणण्णवावारा ।
सासूणवब्भदंसणकंठठ्ठिअजीविअं सोह्णम् ॥
केचित्तु अत्र करुणं पठन्ति । तदयुक्तम् । दुष्टप्रहाणेच्छारूपतया चित्तवैक्लव्यरूपेण शोकेनैव गतार्थत्वात् दयावीरे स्थायित्वाच्च । न चान्यत्र सञ्चारित्वदर्शनार्थमंत्रोपादानमिति वाच्यम्।रत्यादेरपि तथात्वात् ।
शृङ्गारवीरयोर्हासो वीरे क्रोधस्तथा मतः।
शान्ते जगुप्सा कथिता व्यभिचारितया पुनः ॥
इति काव्यप्रदीपादयः।
औत्पातिकैर्मनः क्षोभस्त्रासः कम्पादिकारकः।
पूर्वापरविचारोत्थं भयं त्रासात्पृथग्भवेत्॥
यथा–
रेणुर्बाधांविधत्ते तनुरपि महतीं नेत्रयोरायतत्वा-
त्कम्पोऽल्पोऽप्यत्रपीनस्तनभरित उरः क्षिप्तहारं दुनोति ।
ऊर्वोः स्तम्भेऽपि जाते पृथुजघनभराद्वेपथुर्वर्द्धतेऽस्या
वास्या खेदं मृगाक्ष्याः सुचिरमवयवैर्दहस्ता करोति ॥
तर्कोविचारः सन्देहाद्भ्रूशिरोऽङ्गुलिनर्त्तकः
यथा–
भक्त्या नन्दकुलानुरागदृढपा नन्दान्वयालम्बिना
किं चाणक्यनिराकृतेन कृतिना मौर्य्येण सन्धास्यते ।
स्थैर्य्यंभक्तिगुणस्य वा विगणयन् किं सत्यसन्धोभवे-
दित्यारूढकुलालचक्रमिव मे चेतश्चिरं भ्राम्यति ॥
______________________________________________________________________
(१) सञ्जीवनौषधमिव सुखस्य रक्षत्यनन्यव्यापारा ।
साश्रुनवाभ्रदर्शनकण्ठस्थितजीवितं सोष्णम् ॥
एवं चित्तवृत्तिविशेषरूपान् रसविशेषव्यवस्थितान् व्यभिचारिणो निरूप्य शारीराः सर्वसाधारणाः सात्त्विका निरूप्यन्ते ।
ये त्विमे सात्त्विका भावा नानाभावसमाश्रयाः।
रसेषु तेषु सर्वे ते विज्ञेया नाट्ययोक्तृभिः।
इति मुनिनोक्तत्वात् । ते चाष्टभेदाः। तदुक्तम्—-
स्तम्भः स्वेदोऽथ रोमाञ्चः स्वरभङ्गोऽथ वेथुः।
वैवर्ण्यमश्रुप्रलय इत्यष्टौ सात्त्विका मताः ॥
एवं च जृम्भितस्य नवमभेदत्वमनुपादेयम् । महर्षिकृतविभागविरोधात् । अन्यथा कटाक्षादीनामपि तदापत्तेः। यत्त जृम्भायाः पुरुषेच्छानधीनत्वाद्वैषम्यमिति, तच्चिन्त्यम् ।रसभावादिदृष्टीनामपि मनोविकारमात्रसाध्यात्वात् । तत्र—
हर्षभयरोगविस्मयविषादमदरोषसम्भवः स्तम्भः।
निश्चेष्टो निष्प्रकम्पश्चस्थितशून्यजडाकृतिः
निःसंज्ञः स्तब्धगात्रश्च स्तम्भं स्वाभिनयेब्दुधः ॥
यथा
स्तम्भस्तथालम्भितमां नलेन भैमीकरस्पर्शमुदः प्रसादः।
कन्दर्पलक्षीकरणार्पितस्य स्तम्भस्य दम्भं स चिरं यथाऽऽपत् ॥
श्रमादिना दृश्यतामापन्नंगात्रजलं स्वेदः।
व्यजनग्रहणैर्वापि स्वेदापनयनेन च
स्वेदस्याभिनयो योज्यस्तथा वाताभिलाषतः ॥
यथा-
प्रारब्धनिधुवनैव स्वेदजलं कोमलाङ्गि ! किं वहसि ।
ज्यामर्पयितुं नमिता कुसुमास्त्रधनुर्लतेव मधु ॥
स्पर्शभयगीतहर्षक्रोधाद्रोगाच्च रोमाञ्चः।
**मुहुः कण्टकितत्वेन तथाङ्गाकुञ्चनेन च । **
रोमाञ्चस्त्वभिनेयोऽसौ गात्रसंस्पर्शनेन च ॥
यथा—-
**(१) जे णअस्स तिहुस्णस कंटआ जे कदंबकुसुमस्स केसरा । **
अज्ज तुज्ज्ञ करफंससङ्गिणो ते हुवंति मह अंगणिग्गदा ॥
**स्वरभेदो भयहर्षक्रोधजरारौक्ष्य रोगमदजनितः। **
स्वरभेदस्तथा चैव भिन्नगद्गदविस्वरैः।
यथा मम—
**निपीतवत्या मधु सन्दधानः प्रसूनधन्वानममन्दभावः। **
**क्षणेन मन्दाक्ष इवेन्दुमुख्याः स्वरोऽपि भङ्गं बिभरांबभूव ॥ **
शीतभयहर्षरोगस्पर्शजरासम्भवः कम्पः।
वेपनात्स्फुरणात्कम्पाद्वेपथुं सम्प्रयोजयेत् ॥
वेपनमवयवैकदेशस्य परिस्पन्दः, स्फुरणं निरवच्छिन्नोऽवयवस्पन्दः, कम्पः सकलशरीरस्पन्द इति भेदः।
यथा–
तुलेन तस्यास्तुलना मृदोस्तु कम्प्रास्तु सा मन्मथबाणवातैः।
**चित्रीयितं तत्तु नलो यदुच्चैरभूत्स भूभृत्पृथुवेपथुस्तैः ॥ **
**शीतक्रोधभयश्रमरोगक्लमतापजं च वैवर्ण्यम् । **
**मुखवर्णपरावृत्त्यानाडीपीडनयोगतः ॥ **
वैवर्ण्यमभिनेतव्यं प्रयत्नादङ्गसंश्रयम् ।
यथा–
**कुसुमचापजतापसमाकुलं कमलकोमलमैक्ष्यत तन्मुखम् । **
अहरहर्वहदभ्यधिकाधिकां रविरुचिग्लपितस्य विधोर्विधाम् ॥
__________________________________________________________________________
(१) ये नलस्य तीक्ष्णस्य कंटका ये कदम्बकुसुमस्य केशराः।
अद्य तव करस्पर्शसाङ्गिनस्ते भवन्ति मम अङ्गनिर्गताः ॥
नेत्रजलमश्रु । स्वेदलक्षणे नेत्रभिन्नत्वमवयवे विशेषणं बोध्यम् ।आनन्दामर्षाभ्यां धूमाञ्जनजृम्भणाद्भयाच्छोकात् ।
अनिमेषप्रेक्षणतः शीताद्रोगाद्भवेदस्रम् ॥
यथा–
वाष्पाम्भसा मृगदृशो विमलः कपोलः
प्रक्षालयते सपदि राजत एवं यस्मिन्
गण्डूषपेयमिव कान्त्यमृतं पिपासु–
रिन्दुर्निवेशितमयूखमृणालदण्डः ॥
चेष्टानिरोधः प्रलयः।
चेष्टा च प्रयत्नवदात्मसंयोगजन्या शरीरक्रिया । वाय्वादिसंयोगजन्यायां मृतशरीरक्रियायामतिव्याप्तिनिरासाय जन्यान्तम् । उर्ध्वज्वलनादिरूपाग्न्यादिक्रियावारणाय शरीरेति ।
यथा-
(१) वावारविसम्वाअं सअलावअवाण कुणइहअ लज्जा ।
सवणाण उणो गुरुअणपुरोविण णिरुंभइ णिओओ ॥
इति सात्त्विकभावनिरूपणम्
प्रसङ्गाद्यौवनकालीनभावा अपि निरूप्यन्ते ।
तव भरतः -
देहात्मकं भवेत्सत्त्वंसत्त्वाद्भावः समुत्थितः।
भावात्समुत्थितो हावो हावाद्धेला समुत्थिता ॥
अनभिव्यक्तो मानसो विकारो भावः, किञ्चिदभिव्यक्तोहावः, स्फुटतरमभिव्यक्तो हेलेति विवेकः।
बाह्यार्थालम्बनो यस्तु विकारो मानसो भवेत् ।
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(१) व्यापारविसंवादं सकलावयवानां करोतीह च लज्जा ।
श्रवणयोः पुनर्गुरुजनपुरोऽपि न निरुध्यते नियोगः ॥
भाव इत्युच्यते सद्भिस्तस्योत्कर्षो रसः स्मृतः ॥
इति हलायुधोक्तेः–
रसाभिज्ञानयोग्यत्वं भाव इत्यभिधीयते ।
ईषद्दृष्टविकारः स्वाद्भावो हावः प्रकीर्त्तितः ॥
सुव्यक्तविक्रियो भावो हेलेति परिकीर्त्त्यते।
इति विद्यानाथोक्तेश्च। हावजन्यचेष्टाविशेषाश्चतदनुमापकतया हावशब्देनोच्यन्ते । तदुक्तम्-
लीला विलासो विच्छित्तिर्विभ्रमः किलकिञ्चितम् ।
मोट्टायितं कुट्टमितं विव्वोको ललितं तथा ॥
विहृतं चेति सम्प्रोक्ता दश स्त्रीणां स्वभावजाः।
तत्र भावो यथा–
कथामसङ्गेषु मिथः सखीमुखात्तृणेऽपि तन्व्या नलनामनि श्रुते ।
द्रुतं विधूयान्यदभूयतानया मुदा तदाकर्णनसज्जकर्णया ॥
हावो यथा–
निराकूतैरेव प्रियसहचरीणां शिशुतया
वचोभिः पाञ्चालीमिथुनमधुना सङ्गमयितुम् ।
उपादत्ते नो वा रहयति न वा केवलमियं
कपोलौ कल्याणी पुलकमुकुलैर्दन्तुरयति ॥
हेला यथा–
विवृण्वती शैलसुतापि भावःमङ्गैःस्फुरद्बालकदम्बकल्पैः।
साचीकृता चारुतरेण तस्थौ मुखेन पर्यस्तविलोचनेन ॥
चेष्टासु आद्यचतुष्टयं नवमं च शारीराणि षष्ठसप्तमाष्टमदशमान्यान्तराणि, पञ्चममुभयसङ्कीर्णमिति विवेकः।
वागङ्गालङ्कारैः श्लिष्टैः प्रीतिप्रयोजितैर्मधुरैः।
इष्टजनस्यानुकृतिर्लीला ज्ञेया प्रयोगज्ञैः ॥
यथा मम-
निर्मायाभरणं मृणालवलयानाशीविषाणां गणा-
**न्मूर्द्धन्यप्युपधाय केतकदलं खण्डं सुधादीधितेः। **
**आलेपं हिमबालुकाभिरुररीकृत्याभितो भूतिभि- **
**स्तन्वानात्मनि नीललोहिततुलां देवी प्रदेयान्मुदम् ॥ **
**स्थानासनगमनानां हस्तभ्रूनेत्रकर्मणां चैव । **
उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टः स तु विलासः स्यात् ॥
यथा मम-
**कर्णोत्तंसपरिभ्रमन्मधुकरव्यासेघलक्ष्योल्लस- **
**स्पाणिव्यापृतिजन्यकर्मजमिथोयोगक्वणत्कङ्कणा । **
**हासारम्भभवद्विभागमधुरं मन्दं दशन्ती रदैः **
**श्रोत्रोपान्तविजृम्भमाणनयनं धन्यं वधूर्वीक्षते ॥ **
**माल्याच्छादनभूषणविलेपनानामनादरन्यासः। **
स्वल्पोऽपि परां शोभां जनयति यः सा तु विच्छित्तिः॥
यथा मम
**बाले ! किं वलयैरलं कुवलयैर्माल्यत्वमापादितैः **
**को वा स्यादनया गुणो रसनया तारेण हारेण किम् । **
**नीतेन श्रवणावतंसपदवीमेव प्रबालेन ते **
**सर्वत्रावयवे शिरीषजनुषा कान्तिर्निरीषत्कृता ॥ **
विविधानामङ्गानां वागङ्गाहार्यसत्त्वयुक्तानाम् ।
मदरागहर्षजनितो व्यत्यासो विभ्रमः प्रोक्तः ॥
यथा-
सितं वसनमर्प्पितं वपुषि नीलचोलभ्रमा-.
**न्मया मृगमदाशया मलयजद्रवः सेवितः। **
करेण परिबोधितः स्वजनशङ्कया दुर्जनः
परं परमपुण्यतः सखि ! न लम्बिता देहली ॥
स्मितहसितरुदितभयरोषमोहदुःखश्रमाभिलाषाणाम् ।
सङ्करकरणं हर्षादसकृत्किलकिञ्चितं प्रोक्तम् ॥
यथा–
आज्ञा काकुर्याञ्चाक्षेपो हसितं च शुष्करुदितं च ।
इति निधुवनपाण्डित्यं तस्या ध्यायन्न तृप्यामि ॥
इष्टजनस्य कथायां लीलाहेलाभिदर्शने चापि ।
तद्भावभावनाकृतमुक्तं मोट्टायितं नाम ॥
यथा–
मत्प्रस्तावमकुर्वति प्रियसखीवृन्देऽपि मन्दायते
प्रस्तावे सति निन्दिकैव पुलकप्राचुर्यपर्याकुला ।
ध्यायत्येव हि मां रहः पुनरहो दृष्ट्वापि नालोकते
बाले ! मानकलां बिभर्ति विपुलां प्रेमा तु हेमाचलः ॥
केशस्तनाधरग्रहणेष्वतिहर्षसम्भ्रमोत्पन्नम् ।
कुट्टमितं विज्ञेयं सुखेऽपि दुःखोपचारेण ॥
यथा–
पाणिरोधमविरोधितवाञ्छं भर्त्सनाश्च मधुरस्मितगर्भाः।
कामिनः स्म कुरुते करभोरूर्हारि शुष्करुदितं च रतेषु ॥
इष्टानां भावानां प्राप्तावभिमानगर्भसम्भूतः।
स्त्रीणामनादरकृतो विव्वोको नाम विज्ञेयः ॥
यथा-
असम्मुखालोकनमाभिमुख्यं
निषेध एवानुमतिप्रकारः ।
प्रत्युत्तरं मुद्रणमेव वाचो
नवाङ्गनानां नव एव पन्थाः ॥
करचरणाङ्गन्यासः सभ्रूनेत्रौष्ठसंयुक्तः।
सुकुमारविधानेन स्त्रीभिरितीदं स्मृतं ललितम् ॥
यथा श्रीरुद्रचन्द्रदेवानाम्-
धम्मिल्ले कुसुमोत्करं श्रवणयोः प्रत्यग्रफुल्लाम्बुजं
भाले कुङ्कुमपत्रकं च सरसं कण्ठे च मल्लीस्रजः।
गात्रे पद्मपरागशोभि वसनं विन्यस्य मीनेक्षणा
चित्तं क्षोभयति स्मरस्य पुरतो यान्ती पताकेव नः ॥
प्राप्तानामपि वचसां क्रियते यदभाषणं हिया स्त्रीभिः।
व्याजात्स्वभावतो वाप्येतत्समुदाहृतं विहृतम् ॥
यथा—
पटालग्ने पत्यौ नमयति मुखंजातविनया
हठाश्लेषं वाञ्छत्यपहरति गात्राणि निभृतम् ।
न शक्नोत्याख्यातुं स्मितमुखसखीदत्तनयना
हिया ताम्यत्यन्तः प्रथमपरिहासे नववधूः।
अथ स्वाभाविकगुणाः।
शोभा कान्तिश्च दीप्तिश्च तथा माधुर्यमेव च ।
धैर्य्यंप्रागल्भ्यमौदार्यमित्येते स्युरयत्नजाः ॥
तत्र –
रूपयौवनलावण्यैरुपभोगोपबृंहितैः
अलङ्करणमङ्गानां शोभेति परिकीर्तितम् ॥
रूपलावण्ययोर्लक्षणमन्यत्रोक्तम्–
अङ्गान्यभूषितान्येव कङ्कणद्यैर्विभूषणैः।
येन भूषितवद्भान्ति तद्रूपमिति कथ्यते ॥
मुक्ता फलेषु च्छायायास्तरलत्वमिवान्तरा ।
प्रतिभाति यदङ्गेषु तल्लावण्यमिति श्रुतम् ॥
काव्यप्रदीपादयस्तु -
अवयविनःसंस्थान सौष्ठवं लावण्यमित्याहूः।
यथा-
(१) तहा रमणवित्थरो जह ण माइ कंचीलदा
तहा सिहिणतुङ्गिमा जह ण एइ दिठ्ठी पअम् ।
**तहा णअणवड्ढिमा जह ण किंवि कण्णुप्पलं **
तहा अ मुहमुज्जलं दुससिणी जहा पुण्णिमा ॥
विज्ञेया च तथा कान्तिः शोभैवापूर्वमन्मथा ।
यथा-
(२) मंजिठ्ठीओठमुद्दा घणघसणसुवण्णुज्जला अंगलच्छी
दिठ्ठी बालिन्दुलेहाधवलिमजइणी कुन्तला कज्जलाहा ।
इत्थं विण्णाणलेहा विहरइ हरिणीचंचलच्छीअ तीए
कंदप्पोजअिदप्पो जुअजणजअणे वद्धलक्खो विभादि ॥
कान्तिरेवातिविस्तीर्णा दीप्तिरित्यभिधीयते ।
यथा मम शृङ्गारमञ्जर्य्याम्-
(३) धावइ पुरओ पुरओ मुहजोह्णाए तुह पवाहो ।
वअणावरणणिअंसणमज्झिममग्गप्पणालेण ॥
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(१) तथास्ति नितम्बविस्तरो यथा न माति काञ्चीलता
तथा स्तनतुङ्गता यथा नैति दृष्टिः पदम् ॥
तथा नयनवृद्धिता यथा न किमपि कर्णोत्पलं
तथा च मुखमुज्ज्वलं द्विशशिकी यथा पूर्णिमा ॥
(२) माञ्जिष्ठी ओष्ठमुद्रा घनघर्षणसुवर्णोज्ज्वला अङ्गलक्ष्मी
र्दृष्टिर्बालेन्दुलेखाधवलिमजयिनी कुन्तलाः कज्जलाभाः।
इत्थं विज्ञानलेखा विहरति हरिणीचञ्चलाक्ष्याश्च तस्याः
कन्दर्पोजीवदर्पो युवजनजयने बद्धलक्ष्यो विभाति ॥
(३) धावति पुरतः पुरतो मुखज्योतत्स्नायास्तव प्रवाहः।
वदनावरणनिरसनमध्यममार्गप्रणालेन ॥
सर्वावस्थाविशेषेषु दीप्तेषु ललिलेषु च ।
अनुल्वणत्वं चेष्टाया माधुर्यमिति संज्ञितम् ॥
यथा-
भ्रूभङ्गे सहसोद्गतेऽपि वदनं नीतं परां नम्रता-
मीषन्मां प्रति भेदकारि हसितं नोक्तं वचो निष्ठुरम् ।
अन्तर्वाष्पजडीकृतं प्रभुतया चक्षुर्न विस्फारितं
कोपश्च प्रकटीकृतो दयितया मुक्तश्च न प्रश्रयः ॥
धैर्यं यथा–
(१) चत्तरघरिणी पिअदंसणा अ तरुणी अ पडत्थपइआ अ ।
असईसहरिआ दुग्गाआ अ ण हु खण्डिअं सीलम् ॥
यथार्हप्रतिभानं प्रागल्भ्यम्—
यथा–
वृथा परीहास इति प्रगल्भता ननेतिच त्वादृशिवाग्विगर्हणा ।
भवत्यवज्ञा च भवत्यनुत्तरादतः प्रदित्सुः प्रतिवाचमस्मि ते ॥
स्थूललक्षत्वमौदार्य्यम् ।
यथा-
प्रातर्वर्णनयानया निजवपुर्भूषाः प्रसादानदा-
द्देवी वः परितोषितेति निहितामान्तःपुरिक्या पुरः।
सृता मण्डनमण्डलीं परिदधुर्माणिक्यरोचिर्मय-
क्रोधावेशसरागलोचनरुचा दारिद्र्यविद्राविणीम् ॥
श्रीमन्महीमहिततत्तदसीमधीम
न्मूर्द्धन्यताकलनसङ्गतधन्यताकः।
लक्ष्मीधरोऽयमुदसूत मुदं प्रसूतां
विश्वेश्वरस्य कृतिरस्य चिरस्य लोके ॥
इति श्रीपण्डितप्रकाण्डविश्वेश्वरपण्डितरचिता रसचन्द्रिका समाप्ता ।
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(१) चत्वरगृहिणी प्रियदर्शना च तरुणी च प्रोषितपतिका च ।
असतीसहचरी दुर्गता च न खलु खण्डितं शीलम् ॥
]
-
“नियमय इति पाठः का० रा० पुस्तके ।” ↩︎
-
" प्रतीपमहिला - सपत्नीइ त्वरि ! हे सखि ।” ↩︎
-
“बलवद्विजातीय संवलितत्वमभिभवः ।” ↩︎
-
“१ ↩︎
-
“अद्य मया तेन विना अनुभूतसुखानि स्मरन्त्या । अभिनवमेघानां रवो निशामितो वध्यपटह इव ॥” ↩︎
-
“क्रमव्यङ्ग्यस्थितिस्तु यः इति च पाठः ।” ↩︎
-
“(२ ↩︎
-
“निःश्वसितोत्कम्पपुलकितैर्जानन्ति नर्तितुं धन्याः । अस्मादृशीभिर्दृष्टे प्रिये आत्मापि विस्मृतः ।” ↩︎
-
“सा त्वया स्वहस्तदत्तामद्यापि रे सुभग ! गन्धरहितामपि । उद्वसितनगरगृहदेवतेव नवमालिकां वहति ॥” ↩︎
-
“अत्र युवजनपदेन स्पृहणीयत्वं द्योत्यते । अक्षाणां माला- मणीनां निकरं समुदायमिव एकैकशः= प्रत्येकं युवजनं विलङ्कमाना=गणयन्ती पक्षे उल्लङ्घयन्ती तरला अङ्गुलिः मेरुं=मालाप्रान्तमणिमिव हेसुभग ! त्वामासाद्य न विश्राम्यति नोल्लङ्घयिष्यतीत्यर्थः । एतादृशनायिकासक्तिर्न भाग्यं विनेतिव्यज्यते । मेरोरुल्लङ्घनं न कार्यमिति जापक सम्प्रदायः ।” ↩︎
-
“सा तव वल्लभा त्वमसि मम द्वेष्योऽसि तस्यास्तवाहम् ।बालक ! स्फुटं भणामः प्रेम किल बहुविकारमिति ।” ↩︎
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“एकैव युवती गृहपतेर्महिलात्वं समुद्वहति । अनिमिषनयनः सकलो यया देवीकृतो ग्रामः ॥” ↩︎
-
" आम असत्यः स्म वयं पतिव्रतेन तव मलिनितं गोत्रम् । किं पुनर्जनस्य जायेव चण्डित्वं तन्न कामयामः ॥” ↩︎
-
“प्रियसंस्मरणप्रवर्तमानवाष्पविनिपातभीतया । दीयते वक्रग्रीवया दीपकः पथिकजायया ।” ↩︎
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“परं ज्योत्स्ना उष्णा गरलसदृशश्चन्दनरसः क्षतक्षारो हारो रजनिपवना देहतपनाः । मृणाली बाणाली ज्वलति च जलार्द्रा तनुलता वरिष्ठा यद्दृष्टा कमलवदना दीर्घननया ॥” ↩︎
-
“अमृतमय ! गगनशेखर ! रजनीमुखतिलक ! चन्द्र ! त्वं स्पृश । स्पृष्टो यैः प्रियतमो ममापि तैरेव करैः ॥” ↩︎
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“मास्विद्यस्व प्रियालिङ्गनशून्यभ्रमणयोर्बाहुलतिकयोः । तूष्णीकं कुरु स्नेहमनेन मनस्विनीमुखेन ॥” ↩︎
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“निःश्वासा हारवल्लीसदृशप्रसरणाश्चन्दनोद्वेगकारी चण्डो (दीर्घो ↩︎
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“वचनंवचने च चलच्छीर्षशून्यावधानहुङ्कारम् । सखि ! ददती निःश्वासान्तरेषु कुतोऽस्मान्दूनयसि ॥” ↩︎
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“य इव जित्वा यमं दृष्ट इच्छासुखं यमलोकः । द्रक्ष्यसि कथं नु पार्थिव ! इदानीं तमेवाशेषजनसामान्यम् ॥” ↩︎
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" समयासीनैः समीपोपविष्ठैः ।” ↩︎
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“अत्र शकुन्तलानिष्ठमवाहित्थं न तु राजनिष्ठम्” ↩︎