[[उज्ज्वलनीलमणिः Source: EB]]
[
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KĀVYAMĀLĀ. 95
-
*
THE
UJJWALANILAMANI
BY
SHRĪ RŪPAGOSWĀMĪ
With the Commentaries of Jivagoswami and Vishvanatha Chakravarty.
_______________
EDITED BY
MAHĀMAHOPADHYĀVA PAŅDIT DURGĀPRASĀD
AND
WASUDEV LAXMAN S’ASTRĪ PANSIKAR.
________________
Second Edition.
_________________
PUBLISHED BY
PĀNDURANG JAWAJĪ,
PROPRIETOR OF THE “NIRNAYA SÂGAR”
BOMBAY.
__________
1932
[All rights reserved by the publisher.]
_______________
PUBLISHER:—Pandurang Jawaji, } at the Nirnaya-sagar Press
PRINTER:—Ramchandra Yesu Shedge, }26-28, Kolbhat Lane, Bombay.
[TABLE]
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भूमिका।
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श्रीमद्रूपगोस्वामी श्रीमज्जीवगोस्वामी च श्रीगौडमहाप्रभोः समसामयिकौ। श्रीगौडमहाप्रभोः श्रीगौरमहाप्रभोर्वा प्रादुर्भावकालः (१५३३ ख्रि० अ०) श्रीचैतन्यचन्द्रोदयाख्यस्य नाटकस्य भूमिकायां प्रतिपादित एवास्माभिः। अतः स एव (१५३३ A. D.) श्रीरूपगोस्वामिसत्ताकालः।
श्रीजीवगोस्वामिविषये च विश्वकोषनाम्नि महाकोषे यद्वर्णनमस्माभिरुपलब्धं तदत्र स्पृष्टं विलिखामः—
गौडसंप्रदायस्य प्रवर्तकेषु षट्सु गोस्वामिष्वन्यतमो जीवगोस्वामी १४४५ शकसंवत्सरे (१५२३ A. D.) जन्माग्रहीदिति वैष्णवदिग्दर्शिनी। मतान्तरे जन्मग्रहणकालः १४३५ । जन्मतिथिः पौषशुक्लतृतीया। मतद्वये विंशतिं वत्सरान् गृहे वासः, ततः पञ्चाशीतिवर्षाणि यावद्वृन्दावनवासः। तत्रैव च १५४० शककाले सायुज्यमोक्ष इति।
श्रीजीवगोस्वामिनः पिता वल्लभनामा। बाकलाचन्द्रद्वीपे, फतेयाबादनगरे, रामकेलिग्रामे चेति स्थानत्रयमेवासीद्विलासभूमिः स्वामिनोऽस्य। अस्य ज्येष्ठतातौ श्रीसनातनरूपगोस्वामिनौ हुसेनशाहमन्त्रिणावास्ताम्।
अस्य वंशपत्रम्—
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श्रीजीवगोस्वामिरचिता ग्रन्थास्त्वेते—
१ पट्संदर्भः
२ गोपालचम्पूः
३ गोविन्दबिरुदावली
४ हरिनामामृतव्याकरणम् (श्रीचैतन्याधीतव्याकरणस्य वृत्तिरूपम्)
५ धातुसूत्रमालिका
६ माधवमहोत्सवः
७ संकल्पकल्पभृङ्गग्रन्थः
८ उज्वलनीलमणिटीका
९ श्रीराधाकृष्णः (कश्चनवङ्गभाषामयो ग्रन्थो भवेत्)
१० भक्तिरसामृतसिन्धुः
११ वैष्णवतोषिणी
१२ भागवतसंदर्भः
१३ गोपालतापिनीटीका
१४ अग्निपुराणीयगायत्रीभाष्यम्।
१५ ब्रह्मसंहितोपनिषट्टीका चेति॥
द्वितीयष्टीकाकर्ता श्रीविश्वनाथचक्रवर्ती चानन्दचन्द्रिकायाः पर्यवसाने समुपलभ्यमानात्—
‘आश्विने शुक्लपञ्चम्यां वसुचन्द्रकलामिते।
शाके वृन्दावने पूर्णाभवदानन्दचन्द्रिका॥’
अस्माच्छ्लोकादेवं ज्ञायते यत् १६१८ शकसंवत्सर आसीदिति। नास्य विषये कोऽपि विशेषोऽस्माभिर्ज्ञातः।
पुस्तकस्यास्य मुद्रापणे वृन्दावनस्थैः श्रीमद्राधाचरणगोस्वामिमहानुभावैः परमं पुस्तकादिप्रेषणसाहाय्यमुररीकृतमिति धन्यवादार्पणेनैवानृण्यसंपादनं युक्तमिति न स्यादत्र संमतिः पाठकानाम्।
अस्मद्गुरुवर श्री६ श्रीमधुसूदनशर्मविद्यावाचस्पतिमहोदयानामप्येकमासीत्पुस्तकमत्र शोधने सहायरूपमिति निवेदयतः सहर्षं
**संशोधनकर्तारौ।**
______________
श्रीः॥
उज्ज्वलनीलमणेर्विषयानुक्रमः।
| **विषयः |
| मङ्गलाचरणम् |
| मधुरलक्षणम् |
| तत्र विभावेष्वालम्बनाः |
| तत्र कृष्णः |
| तस्य गुणाः |
| तत्र पतिः |
| अथोपपतिः |
| अथानुकूलः |
| धीरोदात्तानुकूलः |
| धीरललितानुकूलः |
| धीरशान्तानुकूलः |
| धीरोद्धतानुकूलः |
| अथ दक्षिणः |
| अथ शठः |
| अथ धृष्टः |
| इति नायकभेदाः |
| **अथ नायकसहायभेदाः |
| तत्र चेटः |
| अथ विटः |
| अथ विदूषकः |
| अथ पीठमर्दः |
| अथ प्रियनर्मसखः |
| तत्र स्वयंदूती |
| वंशी |
| आप्तदूती |
| इति नायकसहायप्रकरणम् |
| **अथ हरिवल्लभाः |
| तत्र स्वकीयाः |
| अथ परकीयाः |
| तत्र कन्यकाः |
| अथ परोढाः |
| तत्र साधनपराः |
| तत्र यौथिक्यः |
| तत्र मुनयः |
| अथोपनिषदः |
| अथायौथिक्यः |
| अथ देव्यः |
| अथ नित्यप्रियाः |
| इति हरिप्रियाप्रकरणम् |
| **अथ राधाप्रकरणम् |
| तत्र सुष्ठकान्तस्वरूपा |
| अथ धृतषोडशशृङ्गारा |
| अथ द्वादशाभरणाश्रिता |
| अथ वृन्दावनेश्वरीगुणाः |
| तत्र मधुरा |
| अथ नववयाः |
| अथ चलापाङ्गी |
| अथोज्ज्वलस्मिता |
| अथचारुसौभाग्यरेखाठ्या |
| अथ गन्धोन्मादितमाधवा |
| अथ संगीतप्रसराभिज्ञा |
| अथ रम्यवाक् |
| अथ नर्मपण्डिता |
| अथ विनीता |
| अथ करुणापूर्णा |
| अथ विदग्धा |
| अथ पाटवान्विता |
| अथ लज्जाशीला |
| अथ सुमर्यादा |
| अथ धैर्यशालिनी |
| अथ गाम्भीर्यशालिनी |
| अथ सुविलासा |
| अथ महाभावपरमोत्कर्षतर्षिणी |
| अथ गोकुलप्रेमवसतिः |
| अथ जगच्छ्रेणीलसद्यशाः |
| अथ गुर्वर्पितगुरुस्नेहा |
| अथ सखीप्रणयाधीना |
| अथ कृष्णप्रियावलीमुख्या |
| अथ संतताश्रवकेशवा |
| इतिवृन्दावनेश्वरीप्रकरणम् |
| **अथनायिकाभेदाः |
| तत्र मुग्धा |
| तत्र नववयाः |
| नवकामा |
| रतौ वामाः |
| सखीवशा |
| सव्रीडरतप्रयत्ना |
| रोषकृतबाष्पमौना |
| अथ माने विमुखी |
| तत्र मृद्वी |
| अक्षमा |
| अथ मध्या |
| तत्र समानलज्जामदना |
| प्रोद्यत्तारुण्यशालिनी |
| किंचित्प्रगल्भोक्तिः |
| मोहान्तसुरतक्षमा |
| माने कोमला |
| माने कर्कशा |
| तत्र धीरमध्या |
| अथाधीरमध्या |
| अथ धीराधीरमध्या |
| अथ प्रगल्भा |
| तत्र पूर्णतारुण्या |
| अथ मदान्धा |
| उरुरतोत्सुका |
| भूरिभावोद्गमाभिज्ञा |
| रसाक्रान्तवल्लभा |
| अतिप्रौढोक्तिः |
| अतिप्रौढचेष्टा |
| मानेऽत्यन्तकर्कशा |
| तत्र धीरप्रगल्भा |
| अधीरप्रगल्भा |
| धीराधीरप्रगल्भा |
| तत्राभिसारिका |
| तत्राभिसारयित्री |
| अथ ज्योत्स्न्यांस्वयमभिसारिका |
| तामस्याम् |
| अथ वासकसज्जा |
| अथोत्कण्ठिता |
| अथ खण्डिता |
| अथ विप्रलब्धा |
| अथ कलहान्तरिता |
| अथ प्रोषितभर्तृका |
| अथ स्वाधीनभर्तृका |
| तत्रोत्तमा |
| तत्र मध्यमा |
| तत्र कनिष्ठा |
| इति नायिकाभेदाः |
| अथ यूथेश्वरीभेदाः |
| तत्राधिकात्रिकम् |
| तत्रात्यन्तिक्यधिका |
| अथापेक्षिकाधिका |
| तत्राधिकप्रवरा |
| अथाधिकमध्या |
| अथाधिकमृद्धी |
| अथ समात्रिकम् |
| तत्र समप्रखरा |
| अथ सममध्या |
| अथ सममृद्वी |
| अथ लघुत्रिकम् |
| तत्रापेक्षिकलघुः |
| तत्र लघुप्रखरा |
| अथ लघुमध्या |
| अथ लघुमृद्वी |
| अथात्यन्तिकलघुः |
| इति यूथेश्वरीभेदाः |
| **अथ दूतीभेदाः |
| तत्र स्वयंदूती |
| स्वाभियोगत्रैविध्यम् |
| तत्र वाचिकः |
| तत्र कृष्णविषयः |
| तत्र साक्षात् |
| अथाक्षेपेण शब्दोत्थो व्यङ्ग्यः |
| अर्थोत्थः |
| अथ याञ्चा |
| अर्थोत्थः |
| परार्थयाञ्चाशब्दोत्थः |
| अर्थोत्थः |
| अथ व्यपदेशः |
| तेन शब्दोत्थः |
| अर्थोत्थः |
| अथ पुरःस्थविषयः |
| तत्र शब्दोत्थः |
| अर्थोत्थः |
| अथाङ्गिकाः |
| तत्राङ्गुलिस्फोटनम् |
| व्याजसंभ्रमादङ्गसंवृतिः |
| पदा भूलेखनम् |
| कर्णकण्डूतिः |
| तिलकक्रिया |
| वेशक्रिया |
| भ्रुवोर्धूतिः |
| सख्यामाश्लेषः |
| सखीताडनम् |
| अधरदंशः |
| हारादिगुम्फः |
| मण्डनशिञ्जितम् |
| दोर्मूलप्रकटनम् |
| कृष्णनामाभिलेखनम् |
| तरौ लताया योगः |
| अथ चाक्षुषाः |
| तत्र नेत्रस्मितम् |
| नेत्रार्धमुद्रा |
| नेत्रान्तभ्रमः |
| नेत्रान्तकूणनम् |
| साचीक्षा |
| वामदृक्प्रेक्षा |
| कटाक्षः |
| अथाप्तदूती |
| अथामितार्था |
| तत्रामितार्था |
| अथ निसृष्टार्था |
| अथ पत्रहारी |
| तत्र शिल्पकारी |
| दैवज्ञा |
| लिङ्गिनी |
| परिचारिका |
| धात्रेयी |
| वनदेवी |
| दूत्यद्वैविध्यम् |
| अथ सखी |
| तत्र कृष्णप्रियायां वाच्यम् |
| व्यङ्ग्यम् |
| अथ कृष्णे वाच्यम् |
| अथ व्यङ्ग्यम् |
| तत्र तत्प्रियायाः पुरः कृष्णे साक्षाद्व्यङ्ग्यम् |
| व्यपदेशेन व्यङ्ग्यम् |
| तत्प्रियायाः पश्चात्साक्षाद्व्यङ्ग्यम् |
| तत्र क्रियासाध्यम् |
| अथ वाचिकम् |
| तत्र वाच्यम् |
| अथ व्यङ्ग्यम् |
| तत्र शब्दमूलम् |
| अथार्थमूलम् |
| तत्र स्वपत्याद्याक्षेपेण |
| गोविन्दादेः प्रशंसया |
| देशादिवैशिष्ट्येन |
| इति दूतीभेदाः |
| **अथ सखीप्रकरणम् |
| तत्रात्यन्तिकाधिकात्रिकम् |
| तत्रात्यन्ताधिकप्रखरा |
| तत्रात्यन्ताधिकमध्या |
| अथात्यन्ताधिकमृद्वी |
| अथापेक्षिकाधिकात्रिकम् |
| तत्रापेक्षिकाधिकप्रखरा |
| अथाधिकमध्या |
| अथाधिकमृद्धी |
| अथ समात्रिकम् |
| तत्र समप्रखरा |
| अथ सममध्या |
| अथ सममृद्वी |
| अथ लघुत्रिकम् |
| तत्रापेक्षिकलघुः |
| तत्र लघुप्रखरा |
| तत्र वामा |
| तत्र मानग्रहे सदोद्युक्ता |
| मानशैथिल्ये कोपना |
| नायकाभेद्या |
| नायके क्रूरा |
| अथ दक्षिणा |
| तत्र माननिर्बन्धासहा |
| नायके युक्तवादिनी |
| नायकभेद्या |
| अथ लघुमध्या |
| अथ लघुमृद्वी |
| अथात्यन्तिकलघुः |
| तत्र नित्यनायिका |
| तत्र समक्षम् |
| तत्र साङ्केतिकम् |
| अथ वाचिकम् |
| तत्र मिथःपुरःकृष्णे वाचिकम् |
| कृष्णस्य पश्चात्सख्याम् |
| सख्याः पश्चात्कृष्णे |
| अथ हरेः परोक्षम् |
| तत्र सखीद्वारा |
| अथ व्यपदेशः |
| तत्र लेखव्यपदेशेन |
| उपायनव्यपदेशेन |
| निजप्रयोजनव्यपदेशेन |
| आश्चर्यदर्शनव्यपदेशेन |
| अथ नायिकाप्रायात्रिकम् |
| तत्राधिकप्रखरादूत्यम् |
| अथाधिकमध्यादूत्यम् |
| अधिकमृद्वीदूत्यम् |
| अथ द्विसमात्रिकम् |
| तत्र समप्रखरादूत्यम् |
| अथ सममध्यादूत्यम् |
| अथ सममृद्वीदूत्यम् |
| अथ सखीप्रायात्रिकम् |
| अथ लघुप्रखरादूत्यम् |
| अथ लघुमध्यादूत्यम् |
| अथ लघुमृद्वीदूत्यम् |
| तत्राद्या |
| तत्र द्वितीया |
| अथ नित्यसखी |
| तत्र तद्दूत्यम् |
| तत्र प्राखर्यस्य विपर्ययः |
| मार्दवस्य विपर्ययः |
| तत्र कृष्णे सखीप्रेमोत्कीर्तिः |
| तत्र सख्यां कृष्णप्रेमोत्कीर्तिः |
| तत्र तस्या गुणोत्कीर्तिः |
| तस्यां तस्य गुणोत्कीर्तिः |
| कृष्णे सख्या आसक्तिकारिता |
| तस्यां तस्यासक्तिकरिता |
| कृष्णस्याभिसारणम् |
| सख्या अभिसारणम् |
| कृष्णे सख्याः समर्पणम् |
| नर्म |
| आश्वासनम् |
| नेपथ्यम् |
| हृदयोद्घाटपाटवम् |
| छिद्रसंवृतिः |
| पत्यादेः परिवञ्चना |
| शिक्षा |
| अथ काले संगमनम् |
| अथ व्यजनादिना सेवा |
| अथ तयोर्द्वयोरुपालम्भः |
| सख्या उपालम्भः |
| अथ सदेशप्रेषणम् |
| अथ नायिकाप्राणरक्षाप्रयत्न |
| इति दूतीप्रकरणम् |
| **अथ सखीविशेषाः |
| तत्रासमस्नेहाः |
| तत्र हरौस्नेहाधिकाः |
| अथ प्रियसख्यां स्नेहाधिकाः |
| अथ समस्नेहाः |
| इति सखीविशेषप्रकरणम् |
| **अथ हरिवल्लभाः |
| तत्र सुहृत्पक्षः |
| अत्रेष्टसाधकत्वम् |
| अनिष्टबाधकत्वम् |
| अथ तटस्थः |
| अथ विपक्षः |
| इष्टहन्तृत्वम् |
| अनिष्टकारित्वम् |
| तत्र छद्म |
| अथेर्ष्या |
| अथ चापलम् |
| असूया |
| मत्सरः |
| अमर्षः |
| गर्वितम् |
| तत्राहंकारः |
| अभिमानः |
| तत्र कृष्णे स्वपक्षप्रेमाख्यानम् |
| स्वपक्षे कृष्णप्रेमाख्यानम् |
| दर्पः |
| उद्धसितम् |
| मदः |
| औद्धत्वम् |
| इति हरिवल्लभाप्रकरणम् |
| **अथ विभावेषूद्दीपनाः |
| तत्र गुणाः |
| तत्र मानसाः |
| अथ वाचिकाः |
| अथ कायिकाः |
| तत्र वयः |
| तत्र वयःसन्धिः |
| स कृष्णस्य |
| तन्माधुर्यम् |
| तत्प्रियाणाम् |
| तन्माधुर्यम् |
| अथ नव्यम् |
| तन्माधुर्यम् |
| अथ व्यक्तम् |
| तन्माधुर्यम् |
| अथ पूर्णम् |
| तन्माधुर्यम् |
| अथ रूपम् |
| अथ लावण्यम् |
| अथ सौन्दर्यम् |
| अथाभिरूपता |
| अथ माधुर्यम् |
| अथ मार्दवम् |
| तत्रोत्तमम् |
| तत्र मध्यमम् |
| तत्र कनिष्ठम् |
| अथ नाम |
| अथचरितम् |
| तत्र चारुविक्रीडा |
| तत्र रासः |
| कन्दुकक्रीडा |
| ताण्डवम् |
| वेणुवादनम् |
| गोदोहः |
| पर्वतोद्धारः |
| गोहूतिः |
| गमनम् |
| अथ मण्डनम् |
| तत्र वस्त्रम् |
| भूषा |
| माल्यानुलेपने |
| अथ संवन्धिनः |
| तत्र लग्नाः |
| तत्र वंशीरव |
| शृङ्गीरवः |
| अथ गीतम् |
| सौरभ्यम् |
| भूषणक्वणः |
| पदाङ्काद्याः |
| विपञ्चीनिक्वाणः |
| शिल्पकौशलम् |
| अथ संनिहिताः |
| तत्र निर्माल्याद्याः |
| अथ बर्हगुञ्जे |
| अद्रिधातुः |
| नैचिकीसमुदयः |
| लगुडी |
| वेणुः |
| शृङ्गिका |
| तत्प्रेष्ठदृष्टिः |
| गोधूलिः |
| वृन्दारण्यम् |
| तदाश्रिताः |
| तत्रखगाः |
| भृङ्गाः |
| मृगाः |
| कुञ्जाः |
| अथ लतादि |
| कर्णिकारः |
| कदम्बः |
| गोवर्द्धनः |
| रविसुता |
| रासस्थली |
| अथ तटस्थाः |
| तत्र चन्द्रिका |
| तत्र मेघः |
| विद्युत् |
| वसन्तः |
| शरत् |
| पूर्णसुधांशुः |
| गंधवाहः |
| खगाः |
| इत्युद्दीपनविभावाः |
| अथानुभावाः |
| तत्रालंकाराः |
| तत्र भावः |
| अथहावः |
| अथ हेलाः |
| अथायत्नजाः |
| तत्र शोभा |
| अथ कान्तिः |
| अथ दीप्तिः |
| अथ माधुर्यम् |
| अथ प्रगल्भता |
| अथौदार्यम् |
| अथ धैर्यम् |
| अथ स्वभावजाः |
| तत्र लीला |
| अथ विलासः |
| अथ विच्छित्तिः |
| अथ विभ्रमः |
| अथ किलकिञ्चितम् |
| अथ मोट्टायितम् |
| अथ कुट्टमितम् |
| अथ विव्वोकः |
| तत्र गर्वेण |
| तत्र मानेन |
| अथ ललितम् |
| अथ विकृतम् |
| तत्र ह्रिया |
| तत्र मानेन |
| तत्रेर्ष्यया |
| तत्र मौग्ध्यम् |
| तत्र चकितम् |
| इत्यलंकारविवृतिः |
| अथोद्भास्वराः |
| तत्र नीवीस्रंसनम् |
| उत्तरीयस्रंसनम् |
| धम्मिल्लस्रंसनम् |
| गात्रमोटनम् |
| जृम्भा |
| घ्राणफुल्लत्वम् |
| अथ वाचिका |
| तत्रालापः |
| अथ विलापः |
| संलापः |
| प्रलापः |
| अनुलापः |
| अपलापः |
| संदेशः |
| अतिदेशः |
| अथापदेशः |
| उपदेशः |
| निर्देशः |
| व्यपदेशः |
| इत्यनुभावाः |
| **अथ सात्त्विकाः |
| तत्र स्तम्भः स हर्षात् |
| भयात् |
| आश्चर्यात् |
| विपादात् |
| अमर्षात् |
| अथ स्वेदः स हर्षात् |
| तत्र भयात् |
| क्रोधात् |
| अथ रोमाञ्चःस आश्चर्यात् |
| हर्षात् |
| भयात् |
| अथ स्वरभङ्गः स विषादात् |
| विस्मयात् |
| अमर्षात् |
| हर्षात् |
| भीतेः |
| अथ वेपथुः स त्रासेन |
| हर्षेण |
| अमर्षेण |
| अथ वैवर्ण्यम् तद्विषादात् |
| रोषात् |
| भीतेः |
| अथाश्रु तद्धर्षात् |
| रोषात् |
| विषादात् |
| अथ प्रलयः स सुखेन |
| दुःखेन |
| अथैषु धूमायिताः |
| ज्वलिताः |
| अथ दीप्ताः |
| उद्दीप्ताः |
| इति सात्त्विकाः |
| अथ व्यभिचारिणः |
| तत्र निर्वेदः स महार्त्या |
| विप्रयोगेण |
| ईर्ष्यया |
| अथ विषादः स इष्टानवाप्तितः |
| प्रारब्धकार्यसिद्धिः |
| विपत्तितः |
| अपराधात् |
| अथ दैन्यं तद्दुःखेन |
| त्रासेन |
| अपराधेन |
| अथ ग्लानिः साभ्रमेण |
| आधिना |
| रतेन |
| अथ श्रमः सोऽध्वनः |
| नृत्यात् |
| रतात् |
| अथ मदः स मधुपानजः |
| अथ गर्वः स सौभाग्येन |
| रूपेण |
| गुणेन |
| सर्वोत्तमाश्रयेण |
| इष्टलाभेन |
| अथ शङ्का सा चौर्येण |
| अपराधात् |
| परक्रौर्यात् |
| अथ त्रासः स तडिता |
| घोरसत्त्वेन |
| उग्रनिस्वनेन |
| अथावेगः स प्रियदर्शनजः |
| प्रियश्रवणजः |
| अप्रियदर्शनजः |
| अप्रियश्रवणजः |
| अथोन्मादः स प्रौढानन्दात् |
| विरहात् |
| अथापस्मारः |
| अथ व्याधिः |
| अथ मोहः |
| विश्लेषात् |
| विषादात् |
| अथमृतिः |
| अथालस्यम् |
| अथ जाड्यम् तदिष्टश्रुत्या |
| अनिष्टश्रुत्या |
| इष्टेक्षणेन |
| अनिष्टेक्षणेन |
| विरहेण |
| अथ व्रीडा सा नवीनसंगमेन |
| अकार्येण |
| स्तवेन |
| अवज्ञया |
| अथावहित्था सा जैहयेन |
| जैहयलज्जाभ्याम् |
| दाक्षिण्येन |
| ह्रिया |
| ह्रीभयाभ्याम् |
| भयेन |
| गौरवदाक्षिण्याभ्याम् |
| अथ स्मृतिः सा सदृशेक्षया |
| दृढाभ्यासेन |
| अथ वितर्कः स विमर्शात् |
| संशयात् |
| अथ चिन्ता सा इष्टानवाप्त्या |
| अनिष्टाप्त्या |
| अथ मतिः |
| अथ धृतिः |
| उत्तमाप्त्या |
| अथ हर्षः सोऽभीष्टेक्षणेन |
| अभीष्टलाभेन |
| अथौत्सुक्यं तदिष्टेक्षास्पृहया |
| इष्टाप्तिस्पृहया |
| अथौग्र्यम् |
| अथामर्षःसोऽधिक्षेपात् |
| अपमानात् |
| अथासूया सा सौभाग्येन |
| गुणेन |
| अथ चापलं, तद्रागेण |
| द्वेषेण |
| अथ निद्रा सा क्लमेन |
| अथ सुप्तिर्यथा |
| अथ प्रवोधः |
| सख्या स्वस्नेहः |
| अथोत्पत्त्यादिदशाचतुष्टयम् |
| तत्रोत्पत्तिः |
| अथ सन्धिः तत्र सरूपयोः |
| अथ भिन्नयोः तत्रैकहेतुजयोः |
| अथ भिन्नहेतुजयोः |
| अथ शावल्यम् |
| अथ शान्तिः |
| इति व्यभिचारिणः |
| **अथ स्थायिभावप्रकरणम् |
| तत्राभियोगः |
| तत्र स्वेनाभियोगात् |
| परेणाभियोगात् |
| अथ विषयाः |
| तत्र शब्दात् |
| स्पर्शात् |
| रूपात् |
| रसात् |
| गन्धात् |
| अथ संबन्धः |
| अथाभिमानः |
| अथ तदीयविशेषाः |
| तत्र पदानि |
| अथ गोष्ठम |
| अथ प्रियजनः |
| अथोपमा |
| अथ स्वभावः |
| तत्र निसर्गः |
| अथ स्वरूपम् |
| तत्र कृष्णनिष्ठम् |
| अथ ललनानिष्ठम् |
| अथोभयनिष्ठम् |
| रतिः स्वभावजैव |
| तत्र साधारणी |
| अथ समञ्जसा |
| अथ समर्थाः |
| तत्र प्रेमा |
| तत्र प्रौढः |
| अथ मध्यः |
| अथ मन्दः |
| तत्राङ्गसङ्गे |
| विलोके |
| श्रवणे |
| आदिशब्देन स्मरणे |
| घृतस्नेहः |
| आदरः |
| अथ मधुस्नेहः |
| अथ मानः |
| तत्रोदात्तः |
| दाक्षिण्योदात्तः |
| वाम्यगन्धोदात्तः |
| अथ ललितः |
| तत्र कौटिल्यललितः |
| अथ नर्मललितः |
| अथ प्रणयः |
| अथ विस्रम्भः |
| यत्र मैत्रम् |
| अथ सख्यम् |
| तत्र सुमैत्र्यम् |
| अथ सुसख्यम् |
| अथ रागः |
| तत्र नीलिमा |
| तत्र नीलीरागः |
| अथ श्यामारागः |
| अथ रक्तिमा |
| तत्र कुसुम्भरागः |
| अथ माञ्जिष्ठरागः |
| अथानुरागः |
| तत्र परस्परवशीभावः |
| अप्राणिन्यपि जन्मलालसाभरः |
| अथ विप्रलम्भविस्फूर्तिः |
| अथ भावः |
| अथ महाभावः |
| तत्र निमेषासहता |
| आसन्नजनताहृद्विबोधनम् |
| कल्पक्षणत्वं यथा |
| तत्सौख्येऽप्यार्तिशङ्कया खिन्नत्वम् |
| मोहाद्यभावेऽपि सर्वविस्मरणम् |
| क्षणकल्पता |
| अथाधिरूढः |
| तत्र मोदनः |
| तत्र सकान्तस्य हरे क्षोभभरकारिता |
| प्रेमोरुसंपद्वतीवृन्दातिशयित्वम् |
| कान्ताश्लिष्टेऽपि हरौ मूर्च्छाकारित्वम् |
| असह्यदुःखस्वीकारात्तत्सुखकामता |
| ब्रह्माण्डक्षोभकारित्वम् |
| तिरश्चामपि रोदनम् |
| मृत्युस्वीकारात्सभूतैरपि तत्सङ्गतृष्णा |
| अथ दिव्योन्मादः |
| तत्रोद्धूर्णा |
| अथ चित्रजल्पः |
| तत्र प्रजल्पः |
| अथ परिजल्पितम् |
| अथ विजल्पः |
| अथोज्जल्पः |
| अथ संजल्पः |
| अथावजल्पः |
| अथाभिजल्पितम् |
| अथाजल्पः |
| अथ प्रतिजल्पः |
| अथ सुजल्पः |
| अथ मादनः |
| तत्रायोगेऽपीर्ष्या |
| इति स्थायिभावाः |
| **अथ शृङ्गारभेदः |
| तत्र विप्रलम्भः |
| तत्र पूर्वरागः |
| तत्र दर्शनम् |
| तत्र साक्षी |
| तत्र चित्रे |
| तत्र स्वप्ने |
| अथ श्रवणम् |
| तत्र वन्दिवक्रात् |
| तत्र दूतीवक्रात् |
| तत्र सखीवक्रात् |
| तत्र गीतात् |
| पूर्वरागहेतवः |
| तत्र संचारिणः |
| पूर्वरागत्रैविध्यम् |
| तत्र प्रौढः |
| दशावस्थाः |
| अथ लालसा |
| अथोद्वेगः |
| अथ जागर्या |
| अथ तानवम् |
| अथ जडिमा |
| अथ वैयग्र्यम् |
| अथ व्याधिः |
| अथोन्मादः |
| अथ मोहः |
| अथ मृतिः |
| अथ समञ्जसः |
| तत्र भिलाषः |
| अथ चिन्ता |
| अथ स्मृतिः |
| अथ गुणकीर्तनम् |
| अथ साधारणः |
| तत्राभिलाषः |
| तत्र कामलेखः |
| तत्र निरक्षरः |
| अथ साक्षरः |
| अथ माल्यार्पणम् |
| इति पूर्वरागप्रकरणम् |
| अथ मानः |
| तत्र सहेतुः |
| तत्र श्रवणम् |
| तत्र सखीमुखाद् |
| शुकमुखाद् |
| अनुमितिः तत्र भोगाङ्कः |
| तत्र विपक्षगात्रे भोगाङ्कदर्शनम् |
| प्रियगात्रे भोगाङ्कदर्शनम् |
| अथ गोत्रस्खलनम् |
| अथ स्वप्नः |
| हरेः स्वप्नायितम् |
| तत्र विदूषकस्य |
| अथ दर्शनम् |
| अथ निर्हेतुर्मानः |
| तत्र कृष्णस्य |
| तत्र कृष्णप्रियायाः |
| द्वयोरेव युगपद् |
| तत्र साम |
| अथ भेदः |
| तत्र भङ्ग्यास्वमाहात्म्यप्रकाशनम् |
| सख्यादिभिरुपालम्भप्रयोगः |
| अथ दानम् |
| अथ नतिः |
| अथोपेक्षा |
| अथ रसान्तरम् |
| तत्र यादृच्छिकम् |
| अथ बुद्धिपूर्वम् |
| मानलयः |
| तत्र देशवलेन |
| तत्र कालवलेन |
| तत्र मुरलीशब्देन |
| मानस्य त्रैविध्यम् |
| कृष्णे रोषोक्तयः |
| इति मानः |
| अथ विप्रलम्भः |
| प्रेमवैचित्र्यम् |
| अथ प्रवासः |
| तत्र बुद्धिपूर्वः |
| भावी |
| भवन् |
| भूत |
| सदेशप्रेषणम् |
| अथाबुद्धिपूर्वः |
| तत्र चिन्ता |
| अथ जागरः |
| अथोद्वेगः |
| अथ तानवम् |
| अथ मलिनाङ्गता |
| अथ प्रलापः |
| अथ व्याधिः |
| अथोन्मादः |
| अथ मोहः |
| अथ मृत्युः |
| प्रोक्तप्रेमभेदेषु दशानां वैविध्यम् |
| इति विप्रलम्भभेदप्रकरणम् |
| **अथ संयोगवियोगस्थितिः |
| रासादिविभ्रमैर्विरहाभावः |
| **इति संयोगवियोगस्थितिः |
| **अथ संभोगः |
| तत्र मुख्यः |
| तत्र संक्षिप्तः |
| तत्र नायकस्य |
| तत्र नायिकायाः |
| अथ संकीर्ण |
| अथ संपन्नः |
| तत्रागतिः |
| अथ प्रादुर्भावः |
| अथ समृद्धिमान् |
| इति मधुररसपरिपाकः |
| अथ गौणसभोगः |
| तत्र स्वप्ने संक्षिप्तः |
| तत्र स्वप्ने संकीर्णः |
| तत्र स्वप्ने संपन्नः |
| तत्र स्वाप्नसमृद्धिमान् |
| भावदशाः |
| तत्र संदर्शनम् |
| अथ जल्पः |
| तत्र वितथोक्तिः |
| अथ स्पर्शनम् |
| अथ वर्त्मरोधनम् |
| अथ रासः |
| अथ वृन्दावनक्रीडा |
| तत्र यमुनाजलकेलिः |
| अथ नौखेला |
| अथ लीलाचौर्यम् |
| तत्र वंशीचौर्यम् |
| अथ वस्त्रचौर्यम् |
| अथ पुष्पचौर्यम् |
| अथ घट्टः |
| अथ कुञ्जादिलीनता |
| अथ मधुपानम् |
| अथ वधूवेशधृतिः |
| अथ कपटसुप्तता |
| अथ द्यूतक्रीडा |
| अथ पटाकृष्टिः |
| अथ चुम्बः |
| अथाश्लेषः |
| अथ नखक्षतम् |
| अथ बिम्बाधरसुधापानम् |
| अथ संप्रयोगः |
| अथ प्रेयसीप्रणयोक्तयः |
| इति संभोगभेदप्रकरणम् |
विषयानुक्रमः समाप्तः।
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काव्यमाला।
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** श्रीमद्रूपदेवगोस्वामिविरचितः**
** उज्ज्वलनीलमणिः।**
श्रीविश्वनाथचक्रवर्तिविरचितया आनन्दचन्द्रिकाख्यया,
श्रीजीवगोस्वामिविरचितया लोचनरोचिन्याख्यया टीकया चालंकृतः।
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नायकभेदाः।
नामाकृष्टरसज्ञः शीलेनोद्दीपयन्सदानन्दम्।
निजरूपोत्सवदायी सनातनात्मा प्रभुर्जयति॥१॥
-
*
** आनन्दचन्द्रिका।**
स्विद्यन्दृगन्तचपलाञ्चलवीजितोऽपि क्षुभ्यन्स्वकान्तिनगरान्तरवासितोऽपि।
तृप्यन्मुहुःस्मितसुधां परिपायितोऽपि श्रीराधया प्रणयतु प्रमदं हरिर्नः॥
धीमज्जनप्रतिपदस्तुतशंकरालंकारावलिर्धनरसध्वनिसत्प्रसादा।
श्रीरूपवागभृतदिव्यनदी मदीयं चेतप्रविश्य दवथुं दरयत्वशेषम्॥
**
** तेभ्यः श्रीजीवगोस्वामिचरणेभ्यो नमो नमः।
सिन्धुकोटिगभीराणां मतं येषां कृपामृतम्॥
एका तदीयटीकायां कारिका संशयौघभित्।
अत्रैवोपरमोत्कर्षतेऽत्यत्र स्फुटमीरितम्॥
*
लोचनरोचिनी।
सनातनसमो यस्य ज्यायाज्श्रीमान्सनातनः।
श्रीवल्लभोऽनुज सोऽसौ श्रीरूपो जीवसद्गतिः॥
श्रीहरिभक्तिरसामृतसिन्धौ जाते पुरा दुरालोके।
उज्ज्वलनीलमणौ मम लोचनरोचिन्यसौ विवृतिः॥
** सा च—**
‘स्वेच्छया लिखितं किंचित्किंचिदत्र परेच्छया।
यत्पूर्वापरसंबद्धं तत्पूर्वमपरं परम्॥’
परकीयालक्षणे यन्महाभावस्य लक्षणे।
स्वजनार्यपथत्यागो वास्तवत्वेन संस्तुतः॥
_____________________
तेनैव हृषितो ग्रन्थस्यादिमध्यावसानतः।
दुर्गमत्वेऽप्युज्ज्वलत्वाद्व्याचिख्यासुरिमं मुहुः॥
तदीयचरणाम्भोजरज कारुण्यलेशभाक्।
यदत्र प्रलपाम्येतत्क्षमन्ता ते कृपाव्धयः॥
अथ सोऽयं निखिलसहृदयसमुदहृदयालंकारःसकलकविमण्डलाखण्डलो रसिकंमुकुटमणिरविरतपरमभागवतप्रसङ्गरङ्गसमुदित्वरप्रमोदभरपरवशतया परिवेषितभक्तिरसामृतो ग्रन्थकारः पुनरपि परमान्तरङ्गानतिप्रियसुहृदोऽनुरञ्जयन्, भक्तिरसामृतसिन्धावप्यलक्षितचरप्रायमतिरहस्यमुज्ज्वलरसमुज्ज्वलं नीलमणिमिव स्वहृदयसंपुटादुद्धटय्येव प्रदर्शयिष्यन्, स्वाभीष्टदैवतं श्रीभगवन्तं स्वाग्रजं च परमभागवतं सर्वोत्कृष्टतया तन्त्रेणैव स्तुवन् मङ्गलमाचरति—नामाकृष्टेति।प्रभुर्जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तत इयत एवात्र श्रीमदुज्ज्वलनीलमणिप्रकटीकरणमहासाहसेऽपि ममाध्यवसायो भवतीति भावः। ‘जयति व्रजराजनन्दनेन हि चिन्ताकलिकाभ्युदेति न’इतिवत्।जयत्यर्थेन तं प्रति प्रणतोऽस्मीति नमस्का–
*
तथा हि—अत्र स एव श्री रसामृतसिन्धुप्रकाशकःपूर्वं सर्वस्मादप्यपूर्वं उज्वलाख्यं रसं किंचिदेव विवृत्य कृतकृत्यता मन्यमानः सप्रति ‘पिबत भागवतं रसम्’इति न्यायेन व्यङ्ग्यव्यञ्जकयोरभेदं व्यञ्जयन्, उज्वलनीलमणिनामानं ग्रन्थं विधाय तं रसमतीव विवृण्वन् श्रीमन्निजदैवतमपि श्रीमन्तं निजगुरुमपि तन्त्रेण स्तुवन्प्रार्थयते—नामाकृष्टेति। तत्र निजदैवतपक्षे नाम्ना नाममात्रेणाकृष्टास्तत्तदवतारावतारिभक्तिरसिका येन सः। तथा शीलेन सुखभावेन सदा नित्यमेव श्रीमन्नन्दनामानं स्वपितरमुद्दीपयन्नुद्दीप्तभावं कुर्वन्।तथा निजरूपेण सौन्दर्येण सर्वेभ्य एवोत्सवदायी। तथा सनातनो नित्यआत्मा श्रीविग्रहो यस्य सः। प्रादुर्भावमात्रेण लब्धजन्मादिव्यवहार इति भावः। तथा तथारूपः प्रभुः सदा प्रभवनशीलत्वात्तथा मदीयसेव्यत्वादीश्वरो जयति निजोत्कर्षमात्रा–
रोऽपि व्यज्यते। ‘स्वापकर्षबोधनानुकूलव्यापारविशेषो नमस्कारः’इति न्यायात्। अत्र निजेष्टदैवतपक्षे नाम्नैवाकृष्टा रसज्ञा रसिकाः प्रतोष्यमाणत्वान्मुख्यत्वाच्च व्रजसुन्दर्यो येन सः। अथ चाविशेषेण रसज्ञमात्राकर्षणश्रुत्या स्वपर्यन्तसर्वावतारवृन्देषु स्वप्रेयसीपर्यन्तसर्वविधभक्तश्रेणीं च स्वमाधुर्येणैवाकृष्टवतोऽस्य सर्वोत्कर्षे योग्यताभिव्यञ्जिता। सदैव शीलेन ‘शुचौ तु चरिते शीलम्’इत्यभिधानात्स्वमङ्गलचरितेन नन्दं पितरमुद्दीपयन्नुद्दीप्तभावं कुर्वन्निति तद्वात्सल्यस्य विषयीभवन्नपि चरितेनोद्दीपनालम्बनो भवतीत्यर्थः। निजरूपेण स्वसौन्दर्येण सर्वेभ्य उत्सवदायी श्लेषेण निजस्येव रूपं येषां ते निजरूपाः सखायस्तेभ्यः, तथा निजाः स्वीया दासास्तेभ्यो रूपेण स्वदर्शनदानेनोत्सवदायी।सनातनात्मा सच्चिदानन्दविग्रह इति। क्रमेणोज्ज्वलवत्सलसख्यदास्यशान्तानां विषयालम्बनत्वमस्य व्यञ्जितमिति सर्वोत्कर्षः। तेषा यथापूर्वं श्रैष्ठ्यमित्युज्ज्वलरसस्यैव मुख्यत्वं तथा विषयनाममात्रेणैव तदाश्रयालम्बनाकर्षणात् सर्वतोऽपि प्रेमाधिक्येन लब्धेन तदीयस्थायिभावस्य मधुराख्याया रतेर्विततत्वं रतिप्रेमस्नेहमानप्रणयरागानुरागमहाभावावस्थानात् तत्रैव प्राकट्यात्। तथा रसज्ञा इति रसिकसामान्यनिर्देशेन तद्रसस्यास्पष्टीकरणात् रहस्यत्वं चेत्युत्तरश्लोके व्यक्तं भावि।पक्षे नामभि कृष्णादिनामभिराकृष्टा वशीकृता जिह्वा यस्य स इति यस्यास्तत्र प्रवर्तने स्वप्रयासलेशोऽपि नापेक्षित इति सर्वोत्कर्ष। शीलेन स्वभावेनैव सता साधूनां विदुषा चानन्दं उत्कर्षेणोद्दीपयन्। निजस्य स्वीयस्य रूपस्य मल्लक्षणजनस्य उत्सवदायी। सनातनो नाम आत्मा स्वरूपं यस्य सः। श्रीमन्महाप्रभुपक्षोऽप्यत्रान्तर्भाव्यः। स प्रथममेव व्याख्येयः। यथा सनातनस्य मदग्रजवर्यस्यात्मा सनातनस्तेन स्वीयदेहत्वेनाङ्गीकृत इति भावः। तथैव तच्चरितामृते कथापि। निजरूपै स्वीयमूर्त्यन्तरैरिव। श्रीमदद्वैतादिभिर्दामोदरस्वरूपादिभिश्च उत्कृष्टं सवं सकीर्तनप्राययज्ञं दातुं सर्वजनेषु समर्पयितुं शीलं यस्य सः‘यज्ञ सवोऽध्वरो याग’इत्यमर। तथा निजेन रूपेण रूपाख्येन स्वभक्तेन उत्सवदायीति ‘रूपस्तु स्वयमेव स’इति सरस्वतीकृतोऽ–
*
विर्भावयतादिति। जयतेस्त्वस्त्योस्त्यस्तिप्रयोगस्यैव विधानात्। श्रीगुरुपक्षे—नामभिःकृष्णादिभिराकृष्टा वशीकृता रसज्ञा जिह्वा यस्य स। तथा शीलेन सुखभावेन सतामानन्दमुद्दीपयन्।तथा निज आत्मानुगतो यो रूपस्तन्नामाहं तस्योत्सवदायी। तथा सनातनो नाम आत्मा विग्रहो यस्य सः। प्रभुरिति पूर्ववत् जय–
मुख्यरसेषु पुरा यः संक्षेपेणोदितो रहस्यत्वात्।
पृथगेव भक्तिरसराट् स विस्तरेणोच्यते मधुरः॥२॥
\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_
र्थोऽपि ज्ञेय॥१॥ भक्तिरसामृतसिन्धुतोऽस्य पार्थक्ये हेतुमाह—मुख्यरसेष्विति। शान्तादिषु सक्षेपेणोदित इत्यनेन विततत्वम्, रसराडित्यनेन मुख्यत्वं चेति एतदपि हेतुद्वयं व्यञ्जितम्। किंतु रहस्यस्यैव हेतुत्वेमुख्यत्वात्तदेव स्पष्टतयोक्तम्। तथा—‘निवृत्तानुपयुक्तत्वाद्दुरूहत्वादयं रसः।रहस्यत्वाच्च संक्षिप्य वितताङ्गोऽपि लिख्यते॥’ इति भक्तिरसामृतसिन्धौ रहस्यत्वेन अविवृतौ ये हेतवस्त्रय उक्तास्तेषु निवृत्तानुपयुक्तत्वंदुरूहत्वमिति हेतुद्वयं रहस्यत्व एवान्तर्भूतमिति नात्र पृथगुक्तम्। तथा शान्तदास्यवात्सल्येषु भक्तिबुद्ध्या उन्मुखाना उज्ज्वले तु स्थूलदृष्ट्या कामवुद्ध्या एवारुचिमता निवृत्तानां प्राकृतनिवृत्तमार्गपरलोकानामत्रानुपयुक्तत्वम्। अत एव तादृशैःस्थूलबुद्धिभिर्दुरुहत्वंचेति तेभ्योऽयमुज्ज्वलनीलमणिरेतन्मूल्यमजानभ्द्योऽनादरशङ्कया गोप्य एवेति॥२॥
*
*
तीति च॥१॥ तत्र ‘निवृत्तानुपयोगित्वाद्दुरूहत्वादयं रस। रहस्यत्वाच्च संक्षिप्य वितताङ्गोऽपि लिख्यते॥’इति ये प्रागविवृतौहेतवो दर्शितास्तेषु रहस्यत्वमेव मुख्यतया हेतुं वदन् संप्रति रहस्येव तदधिकारिण प्रति प्रकाशनीय इत्याह—***मुख्यरसेष्विति।*शान्तप्रीतिप्रेयोवत्सलोज्ज्वलनामसु मुख्येषुय पुरा रसामृतसिन्धौ संक्षेपेणोदित स एवोज्ज्वलापरपर्यायो भक्तिरसानां राजा मधुराख्यो रसःपुनरत्र उज्ज्वलनीलमणिनामग्रन्थे विस्तरेणोच्यते। पुरा संक्षेपेणोदितत्वे हेतुरतिरहस्यत्वादिति निवृत्तानां लौकिकादुज्ज्वलाख्यरसात्तत्साम्यम्। अनेन तु भागवतादपि तस्मात् पराङ्मुखानां शान्तप्रीतिवात्सल्यान्यतरभावत्वेन वा तत्पराङ्मुखानामनुपयुक्तत्वात्तेभ्यो गोप्य एवायं रस। तथा भागवते ये क्वेचित् तस्मिन् वहुमानिनोऽपि तत्पर्यालोचनाया न चतुरास्तैरपि दुरूहोऽयं रस इति तेभ्योऽपि गोप्य एव कार्य, किमुत विपयिभ्य इति रहस्यत्वमेवात्र मुख्यो हेतुरिति भावः। अत्र तु विस्तरेण वचने हेतुःरहस्यत्वादित्येव। कालदेशपात्रविशेषसवन्धेन रहस्यत्वंप्राप्येत्यर्थ। ल्यब्लोपे पञ्चमी स्यात्। यद्वा पृथगित्यनेनैव रहस्य इति व्यज्यते। तस्मात् ग्रन्थान्तरवत् यत्र कुत्रचित् नायं प्रकाशनीय
वक्ष्यमाणैर्विभावाद्यैः स्वाद्यतां मधुरा रतिः।
नीता भक्तिरसः प्रोक्तो मधुराख्यो मनीषिभिः॥३॥
** तत्र विभावेष्वालम्वनाः—**
अस्मिन्नालम्बनाः प्रोक्ताः कृष्णस्तस्य च वल्लभाः।
________________
तमेव भक्तिरसराजं लक्षयति—वक्ष्यमाणैरिति। विभावाद्यैः स्वोचितैर्विभावानुभावसात्त्विकसंचारिभि पूर्वग्रन्थ एव दर्शितलक्षणै कारणकार्यसहकारिभिः स्वाद्यतां नीता सती मधुरा रतिस्तन्नामा स्थायीभावो मधुराख्यो मधुरो नाम भक्तिरसोऽभवत्॥ विभावेषु आलम्बनोद्दीपनभेदतो द्विविधेषु मध्ये प्रथमालम्बना
*
इत्युपदिष्टम्॥२॥ अथ मधुराख्यं भक्तिरसराजमेव पूर्वोक्तानुपासनमनुवादेन लक्षयति—वक्ष्यमाणैरिति। पूर्वंहि सामान्यतो भक्तिरसःप्रोक्त। ‘विभावैरनुभावैश्च सात्विकैर्व्याभिचारिभिः। स्वाद्यत्वं हृदि भक्तानामानीता श्रवणादिभिः॥ एषाकृष्णरति स्थायीभावो भक्तिरसो भवेत्॥’ इत्यनेन विभावादयश्च प्रोक्ताः। ‘तत्र ज्ञेया विभावास्तु रत्यास्वादनहेतव। ते द्विधालम्बना एके तथैवोद्दीपनाःपरे॥ कृष्णश्च कृष्णभक्ताश्च बुधैरालम्वना मता।रत्यादेर्विषयत्वेन तथाधारतयापि च॥ तद्भावभावितस्वान्ता कृष्णभक्ता इतीरिताः।उद्दीपनास्तु ते प्रोक्ता भावमुद्दीपयन्ति ये॥ ते तु श्रीकृष्णचन्द्रस्य गुणाश्चेष्टा प्रसाधनम्॥’ इत्यादि। ‘अनुभावास्तु चित्तस्थभावानामनुबोधकाः। ते बहिर्विक्रियाप्राया प्रोक्ता उद्भास्वराख्यया॥ नृत्यं विलुठितं गानम्’इत्यादि। ‘भावैश्चित्तमिहाक्रान्तं सत्वमित्युच्यते बुधै। सत्वादस्मात्समुत्पन्ना ये भावास्ते तु सात्विका॥ ते स्तम्भुस्वेदरोमाश्चा स्वरभङ्गश्च वेपथुः। वैवर्ण्यमश्रुप्रलयावित्यष्टौ सात्विका स्मृता॥ अथोच्यन्ते त्रयस्त्रिंशद्भावा ये व्यभिचा रिणः। विशेषेणाभिमुख्येन चरन्ति स्थायिनं प्रति॥ वागङ्गसत्वसूच्या ये ते ज्ञेया व्यभिचारिण उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति स्थायिन्यमृतवारिधौ॥ ऊर्भिवद्वर्धयन्त्येनं यान्ति तद्रूपतां च ते। निर्वेदोऽथ विपादः’इत्यादि मधुराख्याया रतेर्लक्षणं चोक्तम्। ‘मिथो हरेर्मृगाक्ष्याश्च संभोगस्यादिकारणम्। मधुरापरपर्याया प्रियताख्योदिता रतिः॥ तदेवं तदेतन्मधुराख्यभक्तिरसलक्षणमपि व्याख्येयम्। ‘प्रोक्तो मधुराख्यः’इत्येव पाठःपूर्व–
** तत्र कृष्णो यथा—**
पदद्युतिविनिर्धुतस्मरपरार्धरूपोद्धति–
र्दृगञ्चलकलानटीपटिमभिर्मनोमोहिनी।
______________
उच्यन्ते—श्रीकृष्णो विषयालम्वनः।वल्लभ प्रेयस्य आश्रयालम्बना॥३॥ पदद्युतीति। पूर्वरागवतीं प्रणमन्तीं श्रीराधां प्रति पौर्णमास्या आशीर्वाद। पदस्यैकस्यापि द्युत्यैव विनिर्धूता एव स्मरपरार्धानामपि रूपोद्धतिः सौन्दर्यौद्धत्यं यया सत्यनेन अयं नेता सुरम्याङ्गइति पूर्वोक्तेषु अत्रापि वक्ष्यमाणेषु नायकगुणेषु आङ्गिकगुणा उपलक्षिताः। तथा तावत्संख्याककन्दर्पैरप्यशक्यं कर्मास्य चरणकिरण एवैकःकरोतीति द्योतिततया महापतिव्रता वृन्दापि क्षोभणया वैकुण्ठनाथकान्तापर्यस्तसर्वयुवतिचित्ताकर्षणं समर्थितमेव। ‘यद्वाञ्छया श्रीललिताचरत्तपो विहाय’इति, ‘देव्यो विमानगतय स्मरनुन्नसारा’इत्यादे। हा, मम साध्वीत्वमपगतमिति त्वया नानुतपनीयम्, सर्वासामपि तथाभावात् त्वद्दोषाभावात् भावोऽपि मयि नापलपनीय इति भावः। दृशोरञ्चलमेव रङ्गस्थलं तत्र सूच्यमाना शृङ्गारोपयोगिन्यः कला एव नट्यस्तासां पटिमान कथ्यमानः शृङ्गारोपकरणसकलवस्तुजाताभिनवप्रावीण्यानि नृत्यचातुर्याणि च तैर्मनसा प्रस्तुतत्वात् स्वप्रेयसीचित्तरूपसख्यानां मोहिनी तत्तदास्वादं प्रापय्य मोहयित्रीति। ‘विदग्धश्चतुर सुधी’इत्यादयो मानसा गुणा
*
*निर्देशस्य प्रतिनिर्देशाय कल्पते। न तु शृङ्गाराख्य इति॥३॥ **पदद्युतीत्यादि।*पदद्युतीत्यादिविशेषणाना श्रीकृष्ण एव विशेष्यत्वेन बोध्यते। तत्रैव तेषां विशेषणाना परावस्थायाःपर्यवसानात्। ‘अयमुदयति मुद्राभञ्जनः पद्मिनीनाम्’ इत्यादिवत्। अस्य हि उत्तमकाव्यत्वम्॥ दृगञ्चलेति। दशोर्या अञ्चलकला अपाङ्गविलासास्ता एव नट्यस्तासां पाठ्यमाना नटविद्याः प्रावीण्यानि तैर्जगन्मोहिनी। जगत्त्रय्येव सानुरागत्वात् भोग्यत्वाच्च युवतिरिव युवतिस्तस्याः किमुत तादृगनुरागार्हयुवतीना भाग्यस्य सिद्धिर्भाग्यस्य फलरूपाः। यद्वा जगत्त्रय्यां या युवतयो युवतिशब्दप्रयोगवलात्तादृगनुरागयोग्या स्त्रियस्तासां भाग्यसिद्धिरिति। कासांचित्स्पर्शनेन कासांचिद्दर्शनेन कासांचिच्छ्रवणेन च भाग्यं श्लाघितम्। ‘श्रुतमात्रोऽपि यःस्त्रीणां प्रसह्याकर्षते मनः। उरुगायोपगीतो वा पश्यन्तीनां कुतःपुनः॥ इति शुकोक्तेसिद्धिशब्दस्त्वणिमादावपि फलत्वेन व्याख्यातः।
स्फुरन्नवधनाकृतिः परमदिव्यलीलानिधिः
क्रियात्तव जगत्त्रयीयुवतिभाग्यसिद्धिर्मुदम्॥४॥
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व्यञ्जिताः। तथा दृगञ्चलकलाभिरेवात्र रसे सर्व मुख्यतया वक्ति किं पुनर्मुख्येन गौणतयेति वाचिका अपि सूचिताः। नवघनाकृतिरित्यनेन श्यामवर्णत्वं महारसवर्षित्वंस्वप्रेयसीरूपसौदामिनीघटाभिरञ्जितत्वं श्यामत्वाद्रसरूपत्वाच्च मूर्तशृङ्गाररसरूपत्वं च ध्वनितम्। परमदिव्येति परसंबन्धगा अतुल्यकेलीत्यादयोऽसाधारणाश्चत्वारो गुणाश्च व्यञ्जिताः। तथा चास्य शृङ्गारचेतस्याष्टिप्राकृतत्वान्निर्दूषणत्वं सर्वसंमानितत्वंच व्यञ्जितम्। जगत्त्रय्यांऊर्ध्वाधोमध्याग्रवर्तिसर्वलोकेषु या युवत्यस्तासां भाग्यस्य सिद्धिःफलरूपा तत्र कासांचिच्छ्रवणमात्रेण कासांचिद्दर्शनश्रवणाभ्यां कासांचिद्दर्शनालिङ्गनादिभिरपि इति तस्य सर्वसुखदत्वेऽपि विशेषतो युवतिषु सुखदत्वाधिक्याच्छान्त्यादिसर्वरसविषयीभूतत्वेऽपि मधुररसस्यैव विषयताधिक्यम्। यतः‘कामकेलिकलासक्तो रासलीलाविशारदः’ इत्यादिगुणविशिष्टःस शान्तदाससखिगुरुषुमध्ये न केनापि स्वीयरसविषयीकर्तु शक्यते। किच युवतीर्विना तेषां गुणानामसपद्यमानत्वाद्रसनीयत्वासंभवाच्च तस्यापि सर्वाभ्यः सकाशात्ता एव परमसुखदा इति तासामेव भाग्यं फलितत्वेनात्र पद्ये निर्दिष्टम्। ततश्चगौणत्वमुख्यत्वाभ्यां अङ्गाङ्गिभावेन स्थितानां रसानां श्रीकृष्णशृङ्गारस्यैवाङ्गित्वं व्यवस्थापितम्।अत्र ‘पदद्युति—’ इत्यादिविशेषणैरसाधारण्येन श्रीकृष्ण एव विशेष्यतया बोध्यते। ‘अयमुदयति मुद्राभञ्जनः पद्मिनीनाम्’इत्यादिवत्। नन्वत्र पद्ये शृङ्गाररसालम्बनरूपनायकस्य वर्णनात् माधुर्याख्यो गुण एव घटयितुमुचितो न पुनरोजआख्यम्। यदुक्तं काव्यप्रकाशे—‘आह्लादकत्वंमाधुर्य शृङ्गारे द्रुतिकारणम्’इति, ‘मूर्ध्निचर्गान्त्यगाः स्पर्शा अटवर्गा रणौ लघू। अवृत्तिर्मध्यवृत्तिर्वा माधुर्ये घटना मता॥’ इति, तथा ‘दीप्त्यात्मविस्तृतेर्हेतुरोजो वीर्यरसस्थिति’इति, ‘योग आद्यतृतीयाभ्यामन्त्ययोरेणतुल्ययोः।टादिः शषौ वृत्तिदैर्घ्यं गुम्फ उद्धत ओजसि॥”इति।उच्यते—अत्र पद्ये स्परपरार्धजेतृत्वम् तथा ‘लक्ष्यादिसर्वयुवतिचित्ताकर्षणलिङ्गेन श्रीकृष्णस्य वैकुण्ठनाथपर्यन्तसर्वनायकवृन्दविजेतृत्वं च दृश्यते पदद्युतीत्यादिभिर्विशेषणैरसमोर्ध्वगुणोद्गारिभिर्महाभटैरिवेति प्रकटस्यापि शृङ्गाररसस्य स्थितेस्तथा
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तवेति श्रोतारमुद्दिश्य प्रोक्तम्। एकत्वं च तच्छ्रवणाधिकारिवैरत्यात्॥४॥
अयं सुरम्यो मधुरः सर्वसल्लक्षणान्वितः।
बलीयान्नवतारुण्यो वावदूकः प्रियंवदः॥५॥
सुधीः सप्रतिभो धीरो विदग्धश्चतुरः सुखी।
कृतज्ञो दक्षिणः प्रेमवश्यो गम्भीरताम्बुधिः॥६॥
वरीयान्कीर्तिमान्नारीमोहनो नित्यनूतनः।
अतुल्यकेलिसौन्दर्यप्रेष्ठवंशीस्वनाङ्कितः॥७॥
इत्यादयोऽस्य शृङ्गारे गुणाःकृष्णस्य कीर्तिताः।
उदाहृतिरमीषां तु पूर्वमेव प्रदर्शिता॥८॥
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घंटना नासमञ्जसा’इति॥४॥ कैर्गुणैर्विशिष्टोऽयं मधुररसालम्वनो भवतीत्यपेक्षायामाह—अयमिति। अत्र सुरम्येत्यादिभिः पञ्चभिर्विशेषणैः कायिकगुणाः,वावदूकः प्रियंवद इत्येताभ्यां वाचिकाः॥५॥ सुधीरित्यादिभिश्चतुर्दशभिर्मानसाः॥६॥ वरीयस्त्वं सर्वजनमुख्यत्वम्, कीर्तिमत्त्वं सर्वलोकगीयमानत्वम्,नारीमोहनत्वंयुवतिमनोहारित्वम् नित्यनूतनत्वं द्रष्टृजनप्रतिक्षणचमत्कारिकत्वमित्येते चत्वारःपरसबन्धेन भवन्तीति परसंबन्धगाः। केलयश्च सौन्दर्यादि च प्रेष्ठाः प्रेयस्यश्च वंशीस्वनश्च तैरतुल्यैरङ्कितश्चिह्नित इत्येकेन चत्वारोऽसाधारणा गुणा उक्ता। यदुक्तम्—‘लीलाप्रेम्णा प्रियाधिक्यं माधुर्यं वेणुरूपयोः। इत्यसाधारणं प्रोक्तं गोविन्दस्य चतुष्टयम्p॥७’॥ उदाहृतिरिति। तत्र तत्र रागःसप्तसु अन्तषट्स्वपि शिशोरङ्गेष्वलं तुङ्गता’इत्यादि रसान्तरसंगतापि वक्तृवाच्यावस्थाभे–
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*तत्रपूर्वोक्तेषु गुणेषु रसेऽस्मिन् योग्यैर्गुणैर्विशिष्टतया तं दर्शयति—अयं सुरम्य इति। सुरम्य इत्यादिशब्दा केचित्पूर्वानुसारिणःकेचित्पूर्वरूपिण। तत्र पूर्वो यथा सुरम्य सुरम्याङ्गःमधुरो रुचिरः।‘रुचिरः’इत्येव वा पाठः।नवतारुण्यो वयसान्वितः॥५॥ सुधीर्बुद्धिमान्।सप्रतिभः प्रतिभान्वितः। धीरः सुपाण्डित्यः।गम्भीरताम्बुधिर्गम्भीरः॥६॥ नारीमोहनो नारीगणमनोहारी।**अतुल्येति। ‘*त्रिजगन्मानसाकर्षिमुरलीकलकुञ्चित’इति। अन्ये तु पूर्वरूपिण एव॥७॥ उदाहृतीति। उदाहृतिरिति तु प्रायिकमेव ‘सर्वसल्लक्षणान्वितः’ इत्यादिषुरसान्तरोदाहरणानि च तत्र दृश्यन्त इति। कि तु तानि वक्रन्तरादिकं
पूर्वोक्तधीरोदात्तादिचतुर्भेदस्य तस्य तु।
पतिश्चोपपतिश्चेति प्रभेदाविह विश्रुतौ॥९॥
तत्र पतिः—
उक्तः पतिः स कन्याया यः पाणिग्राहको भवेत्।
यथा—
‘रुक्मिणं युधि विजित्य रुक्मिणी द्वारकामुपगमय्य विक्रमी।
उत्सवोच्छलितपौरमण्डलः पुण्डरीकनयनः करेऽग्रहीत्॥१०॥’
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दांस्तांस्तानपेक्ष्यात्रापि रसे संगमयितुं शक्येति भावः॥८॥ अत्र रसे आलम्बनस्य नायकस्यास्य कियन्तो भेदा इत्यपेक्षायामाह—पूर्वोक्तेति। पूर्वोक्ता धीरोदात्तादयश्चत्वारो भेदा यस्य स तस्य श्रीकृष्णस्य इह रसे पतिश्च उपपतिश्चेति प्रभेदौ॥९॥ पतित्वं पुरसुन्दरीषु विप्राग्निसाक्षिकं प्रसिद्धमिति प्रथमं तत्रैव उदाहरति—रुक्मिणमिति। पद्यद्वयं द्रौपदी प्रति सुभद्रासख्याःकस्याश्चिदुक्तिः॥१०॥ अत्र पतित्वमात्रं व्यक्तम्, न तु मधुरो रसः, इत्यपरितुष्यन्नाह—
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प्रयुज्यात्रापि संगमनीयानीति भावः। यथा सर्वसल्लक्षणान्वितत्वे‘रागः सप्तसु हन्त षट्स्वपि हरेरङ्गेष्वलं तुङ्गता विस्तारस्त्रिषुखर्वता त्रिषु तथा गम्भीरता च त्रिषु।दैर्ध्यं पञ्चसु किं च पञ्चसु यतः सूक्ष्मत्वमान्ते यथा द्वात्रिंशद्वरलक्षणः स तु भवेदर्हस्तव श्रीमति॥’इति। तदेवमपि ‘पदद्युति–’इत्यादिना यत्सक्षिप्य वर्णितं तत्रैवैते गुणाःप्रवेशनीया।विस्तरभिया तु न विव्रियन्ते॥८॥ पूर्वोक्तधीरोदात्तेति। तथा हि—‘गम्भीरो विनयी क्षन्ता करुणः सुदृढव्रतः। अकत्थनो गूढगर्वोधीरोदात्तः सुसत्त्वभृत्॥ विदग्धो नवतारुण्यः परिहासविशारदः। निश्चिन्तो धीरललितः स्यात्प्रायः प्रेयसीवश॥ समप्रकृतिक क्लेशसहनश्च विवेचकः।विनयादिगुणोपेतो धीरशान्त उदाहृत॥ मात्सर्यवानहंकारी मायावी रोपणश्चल। विकत्थनश्च विद्वद्भिधीरोद्धत उदाहृतः॥ इति। पतिश्चोपपतिश्चेति। पति पुरवनितानाम्, द्वितीयो व्रजवनितानाम्। द्वितीयत्वं च यद्यप्यासां अवतारावसर एव प्रत्याययितुं न तु सर्वदा। वक्ष्यते हि स्वयमेव—‘लघुत्वमत्रयत्प्रोक्तं तत्तु प्राकृतनायके। न कृष्णे रसनिर्यासस्वादार्थमवृतारिणि॥’
यथा वा—
‘कलितयुगलभावः क्वापि वैदर्भ्यपुत्र्या
मखभुवि कृतदीक्षो दक्षिणार्थान्ददानः।
विहरति हरिरुच्चैःसत्यया दीयमानः
क्वचिदलमलसाङ्गःपुण्यके नारदाय॥११॥’
यथा वा—
‘कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः॥१२॥’
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मखभुवि कृतदीक्ष इत्यादिना गुरुविप्राग्निमन्त्रधर्माग्निसाक्षिकं रुक्मिण्यादिष्वेव सर्वथास्य पतित्वमिति व्यञ्जितम्। तत्रापि सत्यया दीयमान इति सत्यभामायाः सौभाग्याधिक्यं मदीयतामयस्नेहवत्या तया तस्या वशीकारात्। पुण्यके श्रीहरिवंशोक्ततन्नामव्रते। कथा तु तत्रैव ज्ञेया।अलसाङ्गइति सभोगशृङ्गारो व्यञ्जितः। त्वंमा ब्राह्मणाय दास्यसीति अधुना तु मया सह क्षणं रहति रमेति तत्प्रार्थनाहठात् स तया निष्पादितो ज्ञेयः॥११॥ प्रसिद्धं पतित्वमुदाहृत्य प्रच्छन्नपतित्वमाह—यथा वेति। तास्वेव मध्ये कियतीनां पतिभावः न तु सर्वासां
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इति प्राचां मतेनापि सगमयिष्यते। ‘नेष्टं यदङ्गिनि रसे कविभिःपरोढा तद्गोकुलाम्वुजदृशा कुलमन्तरेण। आशंसया रसविधेरवतारितानां कंसारिणा रसिकमण्डलशेखरेण॥” इति। किं च यदिदं स्कन्दपुराणमुपलक्ष्यागमप्रमाणेन लक्ष्यते—‘वृन्दारण्ये विहरता सदारासादिविभ्रमैः। हरिणा व्रजनारीणां विरहो नास्ति कर्हिचित्॥’इति, अत्र च अनादित एव तासां कृष्णेन संबन्धःकदाचिदपि नान्येनेति प्रतिपद्यते दूरतस्तावत्पत्यन्तरम्। येनासु तस्यौपपत्यं संभाव्यम्। तथाप्यवतारलीलामधिकृत्य कृतेऽत्र ग्रन्थे श्रीराधादिषुतदेवोपक्रम्य वक्तव्यमिति युक्तमेवपतिप्रतियोगित्वेनोपपतिश्चेत्यतिदिश्यते॥९॥१०॥ पुण्यके श्रीहरिवंशोक्ततन्नामव्रते। कथा तु तत्रैव ज्ञेया।अलसाङ्गोभावविशेषपारवश्यात्॥११॥ अवतारलीलायामपि कासुचिद्व्रजकुमारीषु व्यक्तपतिभावत्वं दर्शयति—*यथा वा **कात्यायनीति।*कियतीनामपि तद्भावयोग्यानां गोकुलकुमारीणा मध्ये याः
कन्यानाम्। वक्ष्यमाणप्रकारेण धन्यादीना तासां तूपपतिभाव एवाभूदिति भावः। एतद्वैविध्यं तासां ‘कात्यायनि महामाये’इति मन्त्रार्थस्य द्वैविध्यसंभवादवगम्यते। स चार्थश्च यथा—हे कात्यायनि, नन्दगोपसुतं मे पतिं कुरु।ननु ‘कुरु’इत्यनेन मय्येव किमिति तत्र स्वातन्त्र्यमर्प्यते। अहं तु तत्पितरौ तदर्थं प्रेरयिष्यामि मात्रं। तस्मात् कारयेति वा देहीति ता प्रयुज्यतामित्याशङ्क्यसवैकल्यमाह—हे महायोगिनीति। तेन सह योगस्त्वयैव शीघ्रं संपाद्यः, न तु पित्रादिव्यवधानोपद्रवेण। कालविलम्बस्यासहत्वादिति भावः। अधीश्वरीति। तत्र तव किमप्यशक्यं नास्तीति भाव। किंच हे महामाये इति मायया मत्पितरौ तथा मोहय यथा कदाचिदपि गोपान्तरेण मद्विवाहस्ताभ्यां न भाव्यते। श्रीकृष्णाङ्गसङ्गरहस्यं च ज्ञातुं न शक्यते इति कियतीभिःमृद्वीभिः परोढानां श्रीराधाचन्द्रावल्यादीनां श्रीकृष्णाभिसारादौ पतिश्वश्रुननान्द्रादियन्त्रणामालक्ष्य गोपान्तरेण स्वविवाहमनिच्छन्तीभिः श्रीकृष्ण एवं पतिभावं निश्चिन्वतीभिर्देवीपूजाकाले स्वस्वमनस्युपस्थापित इति तासु श्रीकृष्णस्य पतित्वमेव। तथा नन्दगोपसुतं मे देवि, पति कुरु।दीव्यति देवयतीति वा देवी। ग्रहादित्वाण्णिनिः। देवी चासौ पतिश्चेति तं क्रीडाप्रयोजनकं पतिं कुरु। नतु धर्मत पतिमित्यर्थः।श्रीकृष्णस्य संप्रत्यनुपनीतत्वेन विवाहायोग्यत्वात् परमोत्कण्ठावतीभिरस्माभिःकालविलम्बनस्यासहत्वाच्चेति भावः। हे महामाये हे महायोगिनीति पितृभ्यां गोपान्तरेण सहागामिनि काले मद्विवाहे निष्पादितेऽपि तान् पत्यादीन् मोहयित्वा तत्स्पर्शात्संरक्ष्य श्रीकृष्णेन सहैवाहं त्वयैव योजयितव्या। ततश्च विवोढा मे पतिमन्य एव भविष्यति। श्रीकृष्ण एव पतिरिति न कदाचित्क्षितिरित्यर्थस्तु अपराभिः प्रखराभिः श्रीराधादिपरोढागणसङ्गिनीभि श्रीकृष्णाङ्गसङ्गमात्रतात्पर्यवतीभिःकन्याभिःस्वस्वमनस्युद्भावित इति तासु श्रीकृष्णस्योपपतित्वमेवेति विवेचनीयम्। किं चायमेवार्थो भगवतोऽप्यभिप्रेत इत्यवगम्यते, तत्र व्रतान्ते ‘यातावला व्रजं सिद्धा’ इत्यनन्तरं ‘भविष्यामि पतिर्हि वः’इत्यनुक्त्वा ‘मयेमा रंस्यथ क्षपाः। यदुद्दिश्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः॥ इत्युक्तेः॥१२॥
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काश्चिदेवं संकल्पमाचेरुस्तास्वेव तासामेव न त्वन्यासां गृहस्थितानां पतिभावो हरावभूदित्येवार्थः। ‘याताबला व्रजं सिद्धा मयेमा रंस्यथ क्षपाः’इत्यनेन तासां सर्वासामेव सिद्धमनोरथत्वं स्वयमेव श्रीकृष्णेन स्वीकृतम्। वक्ष्यते च—‘अनूढाः कन्यकाः
इति संकल्पमाचेरुर्या गोकुलकुमारिकाः।
तास्वेव कियतीनां तु पतिभावो हरावभूत्॥१३॥
मूलमाधवमाहात्म्ये श्रूयते तत एव हि।
रुक्मिण्युद्वाहतः पूर्वं तासां परिणयोत्सवः॥१४॥
** अथोपपतिः—**
रागेणोल्लङ्घ्यन्धर्म परकीयाबलार्थिना।
तदीयप्रेमवसतिर्बुधैरुपपतिः स्मृतः॥१५॥
यथा पद्यावल्याम्—
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कियतीनां मध्ये या इति संकल्पमाचेरुःतास्वेव तासामेव पतिभावोऽभूदिति व्याख्याने पाठक्रमोल्लङ्घनंकियतीनामित्यस्य वैयर्थ्यं षष्ठ्यर्थे सप्तम्याश्चासिद्धेरिति दोषत्रयम्। तथाग्रे ‘याश्चगोकुलकन्यासुपतिभावरता हरौ’इत्युमाव्रतफलं ‘पिच्छावतंसी पति’इत्यादिना स्वकीयाप्रकरणे उमाव्रतपरा युक्ताः। अथ परकीया इति परकीयाधिकारे। तत्र दुर्गाव्रतपराःपरा एव कन्या धन्यादयो मता इति तद्व्रतपरा एव काश्चित्परकीया अप्युक्ता इति कात्यायनीव्रतपराणां द्वैविध्यमवश्यमेव व्याख्येयम्। तत्र ‘दुर्गाव्रतपरा कन्या धन्यादय’इत्येतत्पद्यं व्याख्यया स्वकीयास्वेव प्रक्षेप्तव्यमिति चेत् स्वकीयात्वस्य पौनरुक्त्यंपरकीयाप्रकरणे तत्पाठस्य वैयर्थ्यं स्यादित्यनुसंधेयम्॥१३॥ श्रूयते लोकपरम्परया, न तु तत्प्रमाणवचनं क्वापि प्राप्यत इति भावः॥१४॥ परकीया अवला एवार्थःप्रयोजनं तद्वता रागेण धर्मं उत्कर्षेण बुद्धिपूर्वकमेव लङ्घयन्।तदीयस्य परकीयावलासवन्धिनः
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प्रोक्ता’इत्याद्यन्ते ‘तत्र दुर्गाव्रतपराः कन्या धन्यादयो मताः’इति, ‘गान्धर्वरीत्या स्वीकारात्स्वीयात्वमिह वस्तुतः’ इति च॥१२॥१३॥ न केवलं पतिभाव एव किं तर्हि विवाहोऽपिजात इत्याह—मूलेति। श्रूयते इति परम्परयैव श्रवणं ज्ञाप्यते न तु साक्षादिति। तदेतच्च मा भून्नाम सिद्धा इति स्वीकारमयगान्धर्वविवाहेन श्रीमन्नन्दगोपसुतरूपपतिप्राप्तिसंकल्पस्यात्रैव सिद्धत्वादिति भावः॥१४॥ रागेणोल्लङ्घयन्धर्ममिति। साधारणस्योपपतेर्लक्षणमत्र यल्लिखितं तत्खलु
‘संकेतीकृतकोकिलादिनिनदं कंसद्विषः कुर्वतो
द्वारोन्मोचनलोलशङ्खवलयक्वाणंमुहुः शृण्वतः।
केयं केयमिति प्रगल्भजरतीवाक्येन दूनात्मनो
राधाप्राङ्गणकोणकोलिविटपिक्रोडेगता शर्वरी॥१६॥’
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प्रेम्णो वसतिर्वासस्थानमिति विशेषणाभ्याप्रेम्णः परम्पराविषयाश्रयत्वं व्यक्तम्॥१५॥ संकेतीकृतेति। पौर्णमासी प्रति वृन्दावचनम्। तत्र संकेतीकृतेति द्वारोन्मोचनेत्याभ्यां द्वयोरप्यौत्कण्ठ्येनोन्निद्रत्वंप्रच्छन्नकामुकत्वं च। तत्रापि प्रथमविशेषणेन श्रीराधाया हर्षोत्कर्ष। द्वितीयेन श्रीकृष्णस्य। पुनश्च केयं केयमित्यनेन हर्षप्रशमशङ्कोदयो द्वयोरेव। ततश्च मिथोदुर्लभता बहुवार्यते इति ताभ्यां च विवादोत्कण्ठ्यचापल्यान्यतिवर्धितानि। मुहुरिति कतिपयक्षणानन्तरं पुनरपि कोकिलादिनिनदद्वारोन्मोचनजरतीवाक्यानि तथा तथा भाववर्धकानीति ज्ञेयानि। शर्वरी रात्रिर्गता तथैव व्यतीतेत्यतो मयास्य दिवसे शीघ्रमेव कुञ्जगृहे संगमितौ तौ संप्रति क्रीडत इति द्योतितस्य संभोगशृङ्गारस्य परमोत्कर्ष प्रतिष्ठित। औपपत्यघटितबहुवार्यत्वादिगर्भेण नक्तंतनविप्रलम्भेनाति–
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कृष्णे तल्लक्षणस्य वास्तवत्वाभावात्तत्रातिदेश एव युज्यत इति विवक्षया स्वजनप्रेमवशावतारलीलावेशेन नित्यलीलामनुसधानस्य तस्य तासां च तादृशीनां लीलाशक्तिर्माययैव रसविशेषपरिपोषाय तासु परकीयात्वंप्रत्यायय्यतत्रौपपत्यं प्रत्यायितवतीति। दृश्यते च तादृशलीलावेशेन तस्य क्वचिदननुसंधानम्—‘इत्युक्त्वाद्रिदरीकुञ्जगह्वरेष्वात्मवत्सकान्। विचिन्वन्भगवान्कृष्णः सपाणिकवलो ययौ॥” इत्यादिषु॥१५॥ अथ यत् पद्यावलीसंगृहीतं संकेतीकृतेत्यादिकं कस्यचित्कवे पद्यमुदाहृतम्, तत्खलु तादृगौपपत्यरीतिप्रत्यायनायोत्प्रेक्षामात्रम्। ‘तत आरभ्य नन्दस्य व्रजःसर्वसमृद्धिमान्।हरेर्निवासात्मगुणै रमाक्रीडमभून्नृप॥’ इति सर्वसमृद्धिमतां सर्वेषामेव व्रजजनानां तादृशदरिद्रगृहस्थताव्यञ्जनानुपपत्तेः। ग्रन्थकृद्भिरपीदं पूर्वग्रन्थे श्रीविल्वमङ्गलवचनमत्र प्रमाणितमस्ति—‘चिन्तामणिश्चरणभूषणमङ्गनानां शृङ्गारपुष्पतरवस्तरवः सुराणाम्। वृन्दावनं व्रजधनं ननु कामधेनुवृन्दानि चेति मुखसिन्धुरहो विभृतिः॥ इति। वक्ष्यते च—‘अत्रापि सर्वथा श्रेष्ठे राधाचन्द्रावली उमे।यूथयोस्तु ययो सन्ति कोटिसंख्या मृगी–
अत्रैव परमोत्कर्षः शृङ्गारस्य प्रतिष्ठितः।
तथा च मुनिः—
बहु वार्यते यतः खलु यत्र प्रच्छन्नकामुकत्वं च।
या च मिथो दुर्लभता सा परमा मन्मथस्य रतिः॥१७॥
लघुत्वमत्र यत्प्रोक्तं तत्तु प्राकृतनायके।
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पोषणात्॥१६॥ अत्रैव औपपत्य एव। न तु दाम्पत्य एव इत्यर्थः। प्रतिष्ठितः प्रतिष्ठा प्राप्त॥ अत्र प्रथमं सर्वमूलभूतं सर्वोपजीव्यं मुनिवचनमेव प्रमाणयति—तथा च मुनिरिति। मुनिर्भरतः।बहु वार्यते यतो रतेर्हेतोः। बहुवारणं लोकतो धर्मतश्चेत्यर्थ। यत्र रतौ सत्यांप्रच्छन्नकामुकत्वं या च रतिर्मिथोदुर्लभतामयी सैव मन्मथसंबन्धिनी रति परमा उत्कृष्टा, अपरा अपकृष्टेत्यर्थ॥१७॥ तत्रान्येषामपि रसविदुषा ततोऽर्वाचीनानां वैमत्यंवस्तुतत्त्वदृष्ट्या नास्तीत्याह— लघुत्वमिति। अत्रोपपतौ यल्लघुत्वमुक्तं पूर्वाचार्यैस्तत्प्राकृतनायक एव तत्रैवौपपत्यस्य वैधर्म्यात्, तस्य च दूरदृष्टजनकत्वात्, तस्य च नरकपातनिदानत्वात्, पर्यवसाने दुःखमात्रोपादानत्वेन तस्य लघुत्वम्। तथा तत्तच्चेष्टितस्य काव्यनाट्यगतत्वेन उपादेयतया स्वादने ‘यदधर्मकृतः स्थानं सूचकस्यापि तद्भवेत्’इति न्यायाच्चर्वणदशाया सभ्यानामपि ताद्रूप्यापत्तेश्च विधर्मस्पर्शात्। न तु कृष्णे धर्माधर्मनियन्तृचूडामणीन्द्रे किमर्थं नोक्तम्। रसनिर्यासस्वादार्थ तेषा सभ्यतया
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दृशः॥’इति॥१६॥ अत्रैवेति। श्रीकृष्णेन सह व्रजसुन्दरीणामीदृशलीलाविशेष एव शृङ्गारस्य परमोत्कर्ष इत्यर्थः। कथं तत्राह—तथा च मुनिरिति।*मुनिर्भरत। किमाह मुनिस्तत्राह—**बहु वार्यते इति। यतो रते सकाशात् मिथुनं बहु निवार्यते, यत्र रतौ मिथुनस्य प्रच्छन्नकामुकता, या च रतिर्मिथो दुर्लभतामयी, सा मन्मथस्य सवन्धिनी रतिःपरमा मता। अयं तु ग्रन्थकृतां भाव*—स हि वार्यमाणत्वादिसद्भावेन रसोत्कर्षं स्थापयति तच्चात्रापि ‘ता वार्यमाणाः पतिभिः’इत्यादिना स्पष्टमेवास्तीति तन्मतेऽप्यस्त्यत्र रसोत्कर्ष इति॥१७॥ तत्राशङ्क्य समादधाति—लघुत्वमिति पद्येन। तत्राशङ्कानुवादो लघुत्वमत्र यत्प्रोक्तमिति। ननु ‘शृङ्गं हि मन्मथोद्भेदस्तदागमनहेतुकः।
न कृष्णे रसनिर्यासस्वादार्थमवतारिणि॥१८॥
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तद्विषयक एव स्वकर्तृको यो रसनिर्यासस्यास्वादस्तदर्थम्। यदि कृष्णेऽपि तैर्लघुत्वमुक्तं स्यात्तर्हि तेषां रसनिर्यासास्वादो निर्विषय एव स्यादिति भावः। कृष्णे कीदृशे। अवतारिणि अवतारमात्रस्यैव धर्माधर्मनियम्यत्वंनास्तीति श्रुतिस्मृतिप्रसिद्धम्, किमुत सर्वावतारमूलभूतस्य तस्यइति भावः। अयमर्थः—‘बहु वार्यते यतः खलु’इत्यादि भरतमुनिसमत्या, ‘वीमता दुर्लभत्वंच’इत्यादि रुद्रसंमत्या, ‘यत्र निषेधविशेषः’इत्यादि सहितासमत्या, ‘अनन्यशरणा स्वीया पणहार्या पणाङ्गना। तस्यास्तु केवलं प्रेमा तेनैषारागिणी मता॥’ इति शृङ्गारतिलकसमत्या च परोढोपपत्योरेव सकलसहृदयसाक्षिको रसनिर्यासास्वादो दृश्यते। ततश्च तयोरेव नायकोत्तमत्वे प्रसज्यमानेऽपि यद्लघुत्वमुक्तं तत्र कारणमधर्मस्य स्पर्श एव। स तु श्रीकृष्णे धर्माधर्मादिसमस्तवस्तुसृष्टिस्थितिसंहारकारकभ्रूविजृम्भमात्रस्यादिपुरुषस्यांशिनि स्वयं भगवति श्रीलीलापुरुषोत्तमे नरवपुषि तथैव तदीयमहाशक्तिसमुदायपरममुख्यतमायां ह्लादिनि शक्तौश्रीगोपिकारूपायां च नैव संभवेत्, तदा तदीयतत्तच्चरितास्वादकानामपि ‘विक्रीडितं व्रजवधूभिः’इति, ‘तद्वाग्विसर्गोजनताघविप्लवः’इति, ‘तदेव सत्यं तदुहैव मङ्गलम्’इत्यादिभिः सर्वोत्तममहाफलप्राप्तिश्रवणाच्च प्रत्युत तत्रैव नायकोत्तमत्वमेव प्रसञ्चितमिति। अत एवोक्तं ग्रन्थकृद्भिरेव नाटकचन्द्रिकायाम्—‘यत्परोढोपपत्यस्तु गौणत्वं कथितं बुधैः। तत्तु कृष्णं च गोपीश्चविनेति प्रतिपद्यताम्॥’अलंकारकौस्तुभकृद्भिरपि—‘अप्राकृते तु परोढरमणीरतिरेव सर्वोत्तमतया भूयसी श्रूयते न तस्यामनौचित्यप्रवर्तितत्वं अलौकिकसिद्धेर्भूषणमेव न तु दूषणमिति न्यायात्तर्कगोचरत्वाच्च’इति। यद्वा। कृष्णे कथंभूते। रसनिर्यासस्वादार्थं प्रपञ्चलोकगतस्वभक्तजनान् रसनिर्यास–
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उत्तमप्रकृतिप्रायो रस शृङ्गार इष्यते॥’ इत्यनर्वाचीननिरुक्तौ‘उत्तमप्रकृतिप्रायः’ इत्युक्तेकज्जलं शुचिपर्याये रसेऽस्मिन्नधर्ममयमौपपत्यभङ्गत्वाय नोचितः। ‘जारः पापपतिःसमौ’ इति त्रिकाण्डशेषादिदर्शनेन नामापि तस्य निन्दागर्भमेव लभ्यते। नाट्यालंकारशास्त्रयोस्तु तस्य न्यक्कारश्चश्रूयते। यदुक्तं तत्तन्मतं संगृह्य साहित्यदर्पणे—‘उपनायकसंस्थायां मुनिगुरुपत्नीगतायां च। बहुनायकविषयेहा रतौ च तथानुभवनिष्ठायाम्॥ प्रतिनायकनिष्ठत्वेतद्वदधमपात्रतिर्यगादिगते। शृङ्गारेऽनौ–
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मास्वादयितुं अवतारिणि। स्वादेश्चौरादिकाद्धेतुमण्ण्यन्ताद्धञ्। तस्य तु स्वकर्तृको रसनिर्यासस्वादः प्रकटलीलायामप्रकटलीलायां च सदैव वर्तत एव, ता एव जन्मादिलीला प्रपञ्चजनेषु कृपया दर्शिताश्चेत्प्रकटाः, ता एव तच्चक्षुर्भ्यस्तिरोहिता पिहिताश्चेदप्रकटा उच्यन्ते न तु प्रकटाप्रकटलीलयोःस्वरूपतः किंचन वैलक्ष्यमस्तीति। यदुक्तं भागवतामृते—‘अनादिमेव जन्मादिलीलामेव तथाद्भुताम्। हेतुना केनचित्कृष्णं प्रादुष्कुर्यात्कदाचन॥” इति, तत्र श्रीजीवगोस्वामिचरणानां तु यन्मतम्। स्वेच्छाभिमतमेतन्मे माननीयं न चेतरत्॥’ न चाप्रकटलीलायां सदा दाम्पत्यमेव, तथा तस्या एव लीलाया नित्यत्वं च परोढोपपतित्वं च प्रकटलीलायामेव कियन्ति दिनानि मायिकमेव न तु वास्तवमिति वक्तुं शक्यम्। सर्वलीलामुकुटमणिभूताया रासलीलाया अप्यादिमध्यावसानेषु परोढोपपतिभावमय्या मायिकत्वेऽनुपादेयत्वप्रसक्तेः। तथा हि—‘ता वार्यमाणा पतिभिः पितृभिर्भ्रातृवन्धुभि’ इत्यादीनि, ‘भ्रातरः पतयश्च वः’ इत्यादीनि, ‘यत्पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरङ्ग’इति प्रथमाध्याये। ‘तद्गुणानेव गायन्त्यो नात्मागाराणि संयरु’इति द्वितीये। ‘एवं मदर्थोज्झितलोकवेदस्वानां हि’इत्यादि चतुर्थे। ‘कृत्वा तावन्तमात्मानं यावतीर्गोपयोषितः। मन्यमानाः स्वपार्श्वस्थान्स्वान्स्वान्दारान्व्रजौकसः॥ इति पञ्चमे च श्रीशुकस्य श्रीभगवतस्तासां च वाक्यानि तस्या रासलीलायास्तद्भावमयत्वमेव प्रतिपादयन्ति न तु दाम्पत्यमयत्वम्। किं च तस्या मायिकत्वेन ‘अयं श्रियोऽङ्गउ नितान्तरतेःप्रसादः’ इत्यादिना प्रतिपादितो व्रजसुन्दरीणा लक्ष्म्यादितोऽप्युत्कर्षोऽप्यवास्तव एव स्यात्। तथा ‘लीलाप्रेम्णा प्रियाधिक्यम्’इत्याद्यसाधारण्यं श्रीकृष्णगुणस्यापि निष्प्रमाणकमेवापद्यते। न च केनापि क्वापि दाम्पत्यमयी रासलीला वर्णितास्ति। न च
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चित्यम्’इति, यत्तु कुत्राप्यौपपत्यवर्णनं दृश्यते, तत्खलु ‘नेष्टा यदङ्गिनिरसे कविभि परोढा’इति दर्शयिष्यमाणवृद्धमतप्रामाण्येनाङ्गिनि रसे तु न स्यात्, किं त्वङ्गेरसे सोपहासमेवेति गम्यते तत्पक्षं पुष्णता स्वयं श्रीकृष्णेन च—अस्वर्ग्यमयशस्यं च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम्।जुगुप्सितं च सर्वत्र ह्यौपपत्यं कुलस्त्रिय॥’ इत्यनेन जुगुप्सितत्वपर्यस्ता दोषा उक्ता। श्रीव्रजिदेवीभिरपि—‘नि स्वं त्यजन्ति गणिका जारा भुक्त्वारतां स्त्रियम्’इत्यनेन तथैवानुमतम्। श्रीपरीक्षितेनापीस्थमेवाक्षिप्तम्—‘आप्तकामो यदुपतिः कृतवान्वै जुगुप्सितम्’इति। तदेवमत्र
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भ्रमक्लृप्तान् औपपत्यमयानंशान्परित्यज्य एवं रासपञ्चाध्याय्यां रासलीला उपादेयेति वाच्यम्। ‘न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं विवुधायुषापि च’ इत्यादिपद्यानां परमप्रेमोत्कर्षप्रमापकाणामवास्तवप्रसक्तेः। न च ‘या माऽभजन्दुर्बलगेहशृङ्खलाः संवृश्च्य’इत्येतस्य भूतस्यांशस्य वास्तवत्वं विना तत्साधितस्य ‘न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं विवुधायुषापि च’ इत्यनेन व्यञ्जिततत्प्रेमहृतभगवद्वशीकारस्य वास्तवत्वं सिद्ध्येत्। अस्तु नाम वा परममायाविनो भगवतस्तत्तद्वचनं तदनुरञ्जनमात्रतात्पर्यकत्वात् अवास्तवमेव। किंतु परमसाधुवर्गमुकुटमणिना महाविज्ञेन श्रीमदुद्धवेन ‘आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्’इत्यर्धेन व्यज्यमाने पटुमहिष्यादिभ्योऽप्यासां प्रेममहोत्कर्षतया ‘दुस्त्यजं खजनमार्यपथं च हित्वा’इत्येष एव हेतुरुपन्यस्तः। स्वजनमार्यपथत्यागस्य प्रतीतिकत्वेन तस्य हेतुत्वस्याप्यवास्तवत्वात् साधितो महोत्कर्षश्चावास्तवः। तद्वक्ता उद्धवश्व भ्रान्त आपद्यते स्म। किंचानादिकालवृत्तोपासनाकयोरागमवेदपञ्चरात्राद्युक्तयोर्दशाष्टादशाङ्गयोर्महामन्त्रयोरर्थश्च परोढोपपतिभावमय एवावगम्यते, नहि ब्राह्मणीजनवल्लभाय दीयतामित्युक्ते ब्राह्मणीनां स्वीयात्वंप्रतीयते। यदि च प्रतीयते तर्ह्यञ्चेरेव, न तु व्याकरणालंकारादिबहुदृश्वभिर्विज्ञैः। तथा हि शब्दशक्तेरद्भुत एव स्वभावः हेयमस्य ब्राह्मणीति निर्विशेषणतयोक्तेर्ब्राह्मण्याःस्वीयात्वं प्रतीयते। अस्यैते ब्राह्मणीजना वल्लभास्तथा ब्राह्मणीजनानामयं वल्लभ इत्युक्ते परकीयात्वंअत्राभिज्ञहृदयमेव प्रमाणं ज्ञेयम्। अस्य ब्राह्मणीत्याद्यपि अपभ्रंशभापायामेव प्रयुज्यते न तु क्वापि वाक्यादिषु केनाप्यभियुक्तेन। तथाहि ब्राह्मणीति स्त्रीप्रत्ययः पुंयोगे जातौव आद्ये अस्येति इदंशब्दस्य पदैकदेशेनान्वयाभावात् ब्राह्मणान्तरत्वमेव स्त्रीप्रत्ययप्रकृत्यर्थस्य प्रतीयते।द्वितीये ब्राह्मणी ब्राह्मणजातिरस्येति षष्टी केन संबन्धेन। अत्र प्रकरणादिकमेव दाम्पत्यप्रत्यायकमिति चेत् देवमन्दिरादौ पूजाश्राद्धादिप्रस्तावे वा त्वमात्मना ब्राह्मणीमाकारय इत्युक्ते ब्राह्मण्या आचार्याणीत्वस्य प्रतीतिः। बाह्यपरिचर्यादौ दासीत्वस्य वात्सल्यप्रकरणे भगिन्यादित्वस्य स्वपुरस्थशयनगृहादी स्वीयभार्यात्वस्यैव निभृतकाननादौ स्वकीयात्वस्यापि संभवेत्। न च मन्त्रयोरेतादृशार्थत्वेकिंचिद्दूष–
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च लघुत्वं क्षुद्रत्वंजुगुप्सितत्वमिति यावद्व्याख्येयम्, अतो मुनिना भरतेनापि रत्नावलीनाटिकावद् ययातिचरितवञ्च दाम्पत्यमेव सपत्नादिकृतवार्यमाणत्वादिना
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णावहत्वमायातम्। अलौकिकत्वस्य भूषणमेतत्, नतु दूषणमित्युक्तेः। तथा तन्मन्त्रध्यानभूते गौतमीये श्रीगोपालस्तवराजे—‘विचित्रस्वरभूषाभिर्गोपनारीभिरावृतम्’इत्युक्तेर्नारीशब्दस्य परिणीतायामेव रूढेः। क्रमदीपिकायां च तन्मन्त्रमध्याहिकध्याने—‘गोगोपवनितानिकरैः परीतं सान्द्राम्बुदच्छवि सुजातमनोहराङ्गम्। ध्यायेत्’इत्याद्युक्तेश्च। किं च तत्रैव प्रातर्मध्याह्नसायाह्नादिषु तन्मन्त्रध्यानेषु ‘महानीलनीलाभमभ्यन्तरालम्’इत्यादिषु ‘समुद्धूषरारेः (?) स्थलं धेनुधूल्याः’इति, ‘महीभारभूतामहरातिमुख्यानलं पूतनादीन्निहन्तुं प्रवृत्तम्’इत्यादि, तथा ‘वन्दे तं देवकीपुत्रं सद्योजातं द्युसत्प्रभम्। पीताम्बरं करलसच्छङ्खचक्रगदाधरम्॥ एवं ध्यात्वा जपेन्मन्त्रम्’इति, ‘लम्बितं बालशयने रुदन्तं वल्लवीजनैः॥प्रेङ्खमाणम्’इति, ‘साशुचूषणनिर्भिन्नसर्वाङ्गांरुदतीं च ताम्’इति, ‘दारयन्तं वकं दोर्भ्याम्’इति, ‘कालीयस्य फणामध्ये दिव्यं नृत्यं करोति तम्’इति, ‘उद्दण्डवामदोर्दण्डधृतगोवर्धनाचलम्’इति, ‘अथवा गरुडारूढं बलप्रद्युम्नसंयुतम्। निजज्वरविनिस्पृष्टजराभिधृतमच्युतम्॥’इति, ‘द्वेषयन्तं रुक्मिबलौ द्यूतशक्तौ स्मरन्हरिम्’इत्यादीनां सर्वेषामेव जन्मोपक्रमाणां प्रकटलीलानामुक्तत्वात्तन्मन्त्रोपासकानामनादिकालपरम्परागतत्वात्तेषां ध्यानपाकदशायां तथा तथा साक्षात्कारादायत्यां तथा प्राप्तेश्च प्रकटलीलाया एव नित्यत्वंनिर्णीतम्। ‘जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः’इत्यग्रे ‘बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि’इत्यत्र भाष्यकृद्भिः श्रीरामानुजाचार्यचरणैरपि जन्मकर्मपरिकरादेरपि श्रुतिस्मृतिप्रमाणत्वं नित्यत्वेन दर्शितम्। श्रीमधुसूदनसरखतीपादैरपि ‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’इत्यग्रे‘दिव्यमप्राकृतम्’इति व्याख्यातम्। पिप्पलादशाखायां पुरुषवोधिनी श्रुतिश्व—‘एको देवो नित्यलीलानुरक्तो भक्तव्यापी भक्तहृयन्तरात्मा’इति। श्रीमद्विट्ठलनाथगोस्वामिचरणैरेवमेव गुणकर्मनामरूपादीनां विद्वन्मण्डननामस्वग्रन्थे प्रतिपादितम्। तद्यथा वृहद्वामनपुराणे गीयते उत्तरस्थानेऽखिले च। भृग्वादीन्प्रति ब्रह्मणो वाक्यानि—‘षष्टिं वर्षसहस्राणि’इत्युपक्रम्य पुनर्ब्रह्मवचनम्—‘प्राकृते प्रलये प्राप्ते व्यक्तेऽव्यक्तं गते पुरा। शिष्टे ब्रह्मणि चिन्मात्रे कालमायातिगेऽक्षरे॥ ब्रह्मानन्दमयो लोको व्यापी वैकुण्ठसंज्ञितः। निर्गुणोऽनाद्यनन्तश्च
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दाम्पत्ये रतिः प्रशस्ता भवतीत्येव मतं नोपपत्यरतिःप्रशस्ता स्यादिति। कथं तर्हि तद्वाक्येनौपपत्यरतिः प्रशस्यते। अत्र समाधानम्—तत्तु प्राकृतनायक
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वर्तते केवलेऽक्षरे॥ अक्षरं परमं ब्रह्म वेदानां स्थानमुत्तमम्। तल्लोकवासी [ हि जनः] स्तुतो वेदैः परात्परः॥ चिरं स्तुत्या ततस्तुष्टःपरोक्षः प्राह तान्गिरा। तुष्टोऽस्मि ब्रूत भो प्राज्ञा वरं यन्मनसीप्सितम्॥ श्रुतय ऊचुः—ब्रह्मेति पठ्यतेऽस्माभिर्यद्रूपं निर्गुणं परम्। वाङ्मनोगोचरातीतं ततो न ज्ञायते तु यत्॥ आनन्दमात्रमिति यद्वदन्तीह पुराविदः। तद्रूपं दर्शयास्माकं यदि देयो वरो हि नः॥ श्रुत्वैतद्दर्शयामास स्वं लोकं प्रकृतेः परम्। केवलानुभवानन्दमात्रमक्षरमध्यगम्॥ यत्र वृन्दावनं नाम वनं कामदुघैर्द्रुमैः। मनोरमं निकुञ्जाढ्यं सर्वर्तुरससंयुतम्॥ यत्र गोवर्धनो नाम सुनिर्झरदरीयुतः। रत्नधातुमयः श्रीमान्सुपक्षिगणसंकुलः॥ यत्र निर्मलपानीया कालिन्दी सरितां वरा। रत्नवद्धोभयतटी हंसपद्मादिसंकुला॥नानारासरसोन्मत्तं यत्र गोपीकदम्बकम्। तत्कदम्बकमध्यस्थः, किशोराकृतिरच्युतः॥ दर्शयित्वेति च प्राह ब्रूत किं करवाणि वः। दृष्टो मदीयो लोकोऽयं यतो नास्ति परं वरम्॥ श्रुतय ऊचुः—कन्दर्पकोटिलावण्ये त्वयि दृष्टे मनासि नः।कामिनीभावमासाद्य स्मरक्षुब्धान्यसंश्रयम्॥ यथा त्वल्लोकवासिन्यः कामतत्त्वेन गोपिकाः। भजन्ति रमणं मत्वा चिकीर्षाजनि नस्तथा॥ श्रीभगवानुवाच—दुर्लभो दुर्घटश्चैव युष्माकं सुमनोरथः।मयानुमोदितः सम्यक्सत्यो भवितुमर्हति॥ आगामिनि विरिञ्चौतु जाते सृष्ट्यर्थमुद्यते। कल्पं सारस्वतं प्राप्य व्रजे गोप्यो भविष्यथ॥ पृथिव्यां भारते क्षेत्रे माथुरे मम मण्डले। वृन्दावने भविष्यामि प्रेयान्वो रासमण्डले॥जारधर्मेण सुस्नेहं सुदृढं सर्वतोऽधिकम्। मयि संप्राप्य सर्वेऽपि कृतकृत्या भविष्यथ॥ ब्रह्मोवाच—श्रुत्वैतञ्चिन्तयन्त्यस्ता रूपंभगवतश्चिरम्। उक्तं कालं समासाद्य गोप्यो भूत्वा हरिं गताः॥’इति। व्याख्यातं च तैरेव—‘अत्र हि श्रुतिभिः सर्ववेदान्तप्रत्ययं गुणातीतं वाङ्मनोगोचरातीतं आनन्दैकरूपं यत्तव रूपं तत्प्रदर्शयेति प्रार्थितो भगवान् गोकुलं तत्स्थितं स्वरूपं लीलां तत्र क्रियमाणां च प्रदर्शितवानित्युच्यते। एतत्तदैव घटते यदि सर्ववेदान्तप्रत्ययत्वादिविशिष्टमेतद्भवेत्। एवं सति तन्नित्यता निष्प्रत्यूहा भवति। अपि च दशमस्कन्धे एव नामकरणप्रस्तावे सर्वज्ञेन श्रीगर्गाचार्येण निरूपितम्— ‘बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते। गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद
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इत्यादिना प्राकृतनायक इति कृष्णात् अपरनायक इत्यर्थः। कृष्णे त्वलघुत्वे हेतुः—रसनिर्यासेति। रसनिर्यासो रससारः। मधुररसविशेष इत्यर्थः॥
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नो, जनाः॥’इति। अत्र हि नाम्नां रूपाणां च बहूनामेव सन्तीति प्रयोगेण वर्तमानत्वं बाध्यते। तत्रापि गुणानामौदार्यादीनां कर्मणा कालीयदमनादीनामनुरूपाणां तेषां तथात्वंबोध्यते। अनुरूपत्वं तु तत्समययोग्याकारक्रियादिमत्त्वम्। तथाच गोवर्धनोद्धरणकर्मण्युत्थितत्वं उद्वाहुत्वंउद्धारणक्रियावत्त्वं सकलगोकुलजनाप्यायकत्वादिकत्वंच। तथा चैतादृशानां नाम्नां वर्तमानत्वं तदैव स्याद्यदि तत्प्रयोजकस्वरूपक्रियादीनां वर्तमानत्वं स्यात्। अन्यथा क्वचित्तत्क्रियानिवृत्तौ तत्प्रयुक्तं तन्नामापि तदा न स्यात्।’इत्यादि। अनन्तरं च—‘भगवन्नामानि तु अखण्डशब्दब्रह्मरूपाणि। यथा भगवत्स्वरूपे शरीरे लौकिकत्वभानं ग्राहकदोषात्तथा नामस्वपि। लौकिकशब्दत्वेन भानं तोद्दोषादेवेत्यादि तेन सर्वेषां स्वरूपवन्नाम्नामपि नित्यता मन्तव्या। ननु गुणकर्मणीति वचनात् गुणकर्मकरणानन्तरभाविनां नाम्नां कथं ब्रह्मत्वं तस्य तुत्रैकालिकावाधविषयत्वादिति चेत्, न। स्वरूपकर्माणामपि प्रादुर्भावेन तदनुरूपनाम्नामपि प्रादुर्भाव एव परं न तूत्पत्तिः। अन्यथा गोविन्दाभिषेकात् पूर्वमेव पूतनासुपय पानानन्तरं बीजन्यासं कुर्वत्यो व्रजवरवध्व‘क्रीडन्तं पातु गोविन्दः’इति गुणगाने च ‘गोविन्दवेणुमनुमत्तमयूरनृत्यम्’इति कथं वदेयुः। तेन यत्कर्मविशिष्टस्य यस्य रूपस्य यन्नाम तत्कर्मविशिष्टं तद्रूपं नित्यमेव। लोके परं तेषां भक्तानां तत्तद्रसानुभवार्थं क्रमेणाविर्भावः। कस्याप्यंशस्य कदाचिदाच्छादनमित्येव मन्तव्यम्।तेन भगवान् गोवर्धनमुद्धरन्नेव सदैव वर्तते इति। गोवर्धनोद्धरणधार इति क्रियानामाभ्यां सहितो गोवर्धनोद्धरणरूपः सदैव वर्तते। अत एव अद्यापि भक्तानां तथानुभवः। क्वचित्तथा प्रतिकृतौ भजनं तथा स्मरणं च। अन्यथाभूतस्य तथाभावनेनापराधः स्यात्। न तु प्रमोदहेतुर्भजनम्। ‘योऽन्यथा सन्तमात्मानम्’इति वाक्यात्। दृश्यते च तथा भजने प्रसादः। एवं सति रूपनामावश्यकत्वेन तत्कर्मानुरूपनामापि नित्यमेव।इति नोपचारगन्धशङ्कालेशोऽपि। श्रीमज्जीवगोस्वामिचरणैरपि श्रीभगवत्संदर्भे—‘न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा’इत्यत्र तथैव व्याख्यातम्। तद्यथा—स्वमायया स्वरूपशक्त्या। ननु प्राप्नोतीत्युक्ते कादाचित्कत्वमवगम्यते। तत्राह—अनुकालं नित्यमेव प्राप्नोति। कदाचिदपि न त्यजतीत्यर्थः।स्वरूपशक्तिप्रकाशितत्वस्य नित्य–
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एतदुक्तं भवति—अत्रावतारसमय एवौपपत्यरीतिःप्रत्यायिता। तदेतद्दर्शके प्राचां मतेऽपि ‘आशंसया रसविधेरवतारितानाम्’इति तस्यै तासामपि तदर्थमेव तासा–
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त्वस्य च मिथो हेतुहेतुमत्ता ज्ञेया। ननु कथं जन्मकर्मणो नियत्वम्, ते हि क्रिये क्रियात्वं च प्रतिनिजांशमप्यारम्भपरिसमाप्तिभ्यामेव सिध्यति। ते विना स्वरूपहान्यापत्तेः। नैषःदोषः। श्रीभगवति सदैवाकारानन्त्यात् प्रकाशानन्त्यात् जन्मकर्मलक्षणलीलानन्त्यात् अनन्तप्रपञ्चानन्तवैकुण्ठगततल्लीलास्थानतत्तल्लीलापरिकराणां व्यक्तिप्रकाशयोरानन्त्याच्च। यत एव सत्योरपि तत्तदाकारप्रकाशगतयोस्तदारम्भपरिसमाप्त्योरेकत्रैव जन्मकर्मणोरंशा यावत्परिसमाप्यन्ते न परिसमाप्यन्ते वा तावदेवान्यत्राप्यारब्धा भवन्तीत्येवं भगवति विच्छेदाभावान्नित्ये एव ते जन्मकर्मणी वर्तेते, तत्र ते क्वचित् किंचिद्वैलक्षण्येनारभ्येते।क्वचिदैकरूपेणेति ज्ञेयम्। विशेषणभेदाद्विशिष्टैक्याच्च। एक एवाकारः प्रकाशभेदेन पृथक्क्रियास्पदं भवतीति चित्रं वतैतदेकेन वपुषेत्यादौ प्रतिपादितम्, अतः क्रियाभेदात् तत्क्रियावत्सु प्रकाशभेदेष्वभिमानभेदश्च गम्यते। तथा सत्येकत्रैकत्र लीलाक्रमजनितरसोद्बोधश्च जायते। ननु कथं ते एव जन्मकर्मणी वर्तेते इत्युक्तम्। पृथगारब्धत्वादन्ये एव ते आस्ताम्। उच्यते—कालभेदेनोदितानामपि समानरूपाणां क्रियाणामेकत्वम्। यथा शंकरशारीरके द्विर्गौशब्दोऽयमुच्चारितः, न तु द्वौ गोशब्दाविति प्रतीतिनिर्णीतं शब्दैकत्वम्। तथैव द्विःपाकः कृतोऽनेनेति द्विधापाकः कृतोऽनेनेति प्रतीत्या भविष्यति। अतो जन्मकर्मणोरपि नित्यता युक्तैव। अत एवागमादावपि भूतपूर्वलीलोपासनाविधानं युक्तम्। तथा चोक्तं माधवभाष्ये—‘परमात्मसंबन्धिवेन नित्यत्वात्त्रिविक्रमादिष्वप्युपसंहार्यत्वं युज्यते’इति। अनुमतं चैतच्छ्रुत्यावगतं तद्भवञ्च भविष्यच्चेत्यनयैव। उपसंहार्यत्वमुपासनायामुपादेयत्वमित्यर्थः। अत्र तस्य जन्मनः प्राकृतात्तस्माद्विलक्षणत्वं प्राकृतजन्मानुकरणेन अविर्भावमात्रत्वंक्वचित्तदनुकरणेन वा। ‘अजायमानो बहुधा विजायते’इति श्रुतेरिति। अतो महाप्रलयादावपि
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मवतार इति निर्देक्ष्यते। तस्य तासां च तदर्थता श्रीब्रह्मणा चोक्ता—तत्प्रियार्थं संभवन्तु सुरस्त्रियः’इति। अत्र भारावतारणं देवादीनामिच्छया तदिदं तु औपपत्यं तु तस्य स्वेच्छयेति हि गम्यते। मधुरनाम्नो रसस्य निर्यासस्वादोऽपि दर्शितः श्रीशुकेन—‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’इति, ‘आत्मारामोऽप्यरीरमत्’इति, ‘सिषेच आत्मन्यवरुद्धसौरतः सर्वाः शरत्काव्यकथा रसाश्रया’इति च। अत्र रन्तुं मनश्चक इति स्वार्थक्रियाफलं आत्मनेपदेन व्यक्तमेव। अरीरमदित्यत्र स्वार्थक्रियाफलमेव परस्मैपदम्। ‘अणावकर्मकाञ्चित्तवत्कर्तृकात्’इति पाणिनि–
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जन्मकर्मलीलानां दुस्तर्कमहायोगशक्त्या तत्तल्लीलोपकरणसर्ववस्तुप्रत्यायनचातुर्यधुर्यया सेव्यमाने स्वयं भगवति लीलापुरुषोत्तमे ब्रह्ममोहनादावपि दर्शितदिव्यब्रह्माण्डकोटिविभूतौ सदैव नरलीलेनानुपपन्नत्वम्। अत्रोपपत्ति केचिदेवमाचक्षते—‘अस्या आवरिका शक्तिर्महामायाखिलेश्वरी’इत्यादि नारदपञ्चरात्रदृष्टे योगमायांशभूतैव मायाशक्तिरवगम्यते। सा च द्विविधा—जगत्सृष्ट्यर्था, कृष्णलीलार्था च। आद्यायाः कार्यमनित्यं महाप्रलये मायिकवस्तूनामभावदर्शनात्। द्वितीयायाः कार्यं तु सार्वदिकमेव महाप्रलयेऽपि विराजमानकृष्णलीलोपकरणभूतस्य मायिकब्रह्माण्डस्य मायिकषङ्गर्भकंसादिकस्य सत्त्वप्रतिपादनात् अत एव जन्मादिलीलाः कुरुपाण्डवादियुद्धपारिजातापहरणरुक्मिण्याहरणसुतलादिगमनगुरुपुत्र ब्राह्मणपुत्राद्यानयनलीलानामपि नित्यत्वं सिध्येदिति। अपि च लीलाया नित्यत्वप्रतिपादके ‘जयति जननिवासः’इत्यत्र पद्येऽपि ‘दोर्भिरस्यन्नधर्मम्’इति दोर्भिर्भुजानलैर्दोर्भिरिव दोर्भिरर्जुनादिभिर्वा अधर्म अस्यन्नित्यसुरमारणादिपर्यन्तायाः प्रकटाया एव लीलाया नित्यत्वं प्राप्तं प्रकटलीलायां श्रीकृष्णेन व्रजसुन्दरीणां विप्राग्निसाक्षिकः परिणयः केनापि क्वाप्यार्षे शास्त्रे नैव दृष्टः।दृष्टो वा स किं शुकसंमतो भवेत्। यतः‘प्रतीपमाचरद्ब्रह्मन्परदाराभिमर्शनम्। आप्तकामो यदुपतिः कृतवान्वै जुगुप्सितम्॥ किमभिप्राय एतन्नः संशयं छिन्धि सुव्रत’इति राजप्रश्ने भो राजन्, मा संशयिष्ठाः। श्रीकृष्णेन समये परिणीता एव। अतो नैताः परदाराः किं तु स्वीया एवेत्यकष्टमसमाधाय ‘धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्’इति, ‘कुशलाचरितेनैषामिह चार्थो न विद्यते’इति, ‘गोपीनां तत्पतीनां च सर्वेषां चैव देहिनाम्’ इति कष्टप्रायसिद्धान्तकरणात्। न च तदसंगतं मतम्।
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स्मरणात्। सौरतशब्देन च सुरतसंबन्धिभावहावादय एव उच्यन्ते। ‘एवं सौरतसंलापै’रिति श्रीरुक्मिणीविषयकश्रीकृष्णपरिहासप्रस्तावे तादृगर्थत्वात्, धातुविशेषरूपस्य तदर्थस्य कुत्राप्यश्रुतत्वाच्च। तदेवमात्मन्यवरुद्धेति मनसि निगूहिततद्भाव इत्येवार्थः। तदेवमपि सुरस्त्रीणां त्वत्र गौणत्वमेव। यतःश्रीदेव्या सुरस्त्रीणा कासांचिदप्यन्यासां वा अवतारा इति वक्तुं न शक्यम्। ‘नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्तरतेः प्रसादः स्वर्योषितां नलिनगन्धरुचां कुतोऽन्या’इति सर्वातिरिक्ततया श्रीमदुद्धवेन तासां कथनात्। ततस्ता सर्वतो विलक्षणा श्रीकृष्णस्यैव प्रियाः सुरस्त्रियस्तु तासां प्रियाणामुपयोगायैवेति लभ्यते। अत एव तत्प्रियार्थमित्येवोक्तम्, न तु तत्सुखार्थमिति। यद्यपि ‘श्रिय कान्ताः कान्तः परमपुरुषः’इति
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आर्षमपि शिष्टैराद्रियते। साम्वयुद्धादौ शार्ङ्गधनुःपातवसुदेववधादिचरितस्यानुपादेयत्वात्। तदपि ‘अनेकजन्मसिद्धानां गोपीनां पतिरेव वा।नन्दनन्दनः’इत्यागमोक्त एकःपतिशब्द एव गतिः कर्तव्यो दाम्पत्याभिलाषिभिरिति चेत्, श्रूयताम्। न हि पत्यादिशब्दानां परिणेतर्येव केवलं शक्तिःसर्वेषु रसग्रन्थेषु। अत्रापि नायिकाप्रकरणे स्वकीयास्वपि स्वाधीनपतिका स्वाधीनभर्तृकेत्यादि बहुशः प्रयोगदर्शनात्। यद्वा। अनेकैर्जन्मभिः सिद्धानां प्राप्तसंसिद्धीनां तथा न एकस्मिन्नपि जन्मनि सिद्धानाम्, अपि तु प्रतिजन्मन्येव प्रतिकृष्णावतार एव स्वत सिद्धानां इत्यर्थद्वयात्तासां साधनसिद्धानां नित्यसिद्धानां च सर्वासां तन्त्रेणैव यथोक्तिस्तथैव कासांचित्कन्यानां पतिः, अन्यासां सर्वासां उपपतिरिति तन्त्रेणैव पतिशब्दप्रयोगः, वेदेषूपवेदेषु च सर्वेषु पूजयितव्येषु सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम इतिवत्। न च सर्वासामपि तासांपतिरेवेति व्याख्यातुं शक्यम्, परदाराभिमर्शनमित्यादि श्रीभागवतवाक्यविरोधात्। अत्र एवकारेण तासामुपपतिरपि पतिरेव स्वस्वगृहपतौ पतित्वव्यवहाराभावादित्येपोऽर्थोऽप्यवगतः। अन्यथ एवकारस्य वैयर्थ्यमेव अवधारणस्याप्रसङ्गात्। अत एव वक्ष्यते—‘न जातु ब्रजदेवीनां पतिभिः सह संगम’इति। न च पतिरेव नत्ववतारलीलावद्भ्रमेणाप्युपपतिरित्यर्थ इति व्याख्यातुं शक्यम्।उक्तन्यायेनावतारगतानां सर्वासामेव लीलानां श्रीमज्जीवगोस्वामिचरणैरेव नित्यत्वेन व्यवस्थापितत्वात्। पादन्या–
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‘लक्ष्मीसहस्रशतसंभ्रमसेव्यमानम्’इत्यत्र च संहिताया खलु लक्ष्मीत्वेन ता निर्दिशति, तथापि पाण्डवेषु कुरुशब्दस्येव तासु लक्ष्मीशब्दस्य प्राचुर्यप्रयोगाभावात् पाण्डवशब्दस्येव गोपीशब्दस्यैव प्राचुर्येण प्रयोगात् पाण्डवैः कुरवो जिता इतिवत्, ‘नायं श्रियोऽङ्ग’इति प्रवर्तते। तदेवं श्रीमदुद्धववाक्ये ब्रजसंहितावाक्ये च तासां तेन नित्यसंबन्धापत्तेःपरकीयात्वंन संगच्छते। तदसंगतेश्चावतारे तथा प्रतीतिर्मायिक्येव। तथा च स्वयमेव ललितमाधवाख्ये नाटके दर्शितमेव पौर्णमासीगार्ग्योःसंवादे—‘गार्गी–णूणं गोअड्ढणादिगोएहिं चन्दावलीपहुदीणं उव्वाहो माआए निव्वाहिदो॥ पौर्णमासी—अथ किम्। पतिंमन्यानां वल्लवानां ममतामात्रावशेषिता तासु दारता। यदेभिः प्रेक्षणमपि तासां दुर्घटितम्॥’इत्यादि।तदेवं श्रीकृष्णेन तासां नित्यदाम्पत्ये सति परकीयात्वेच मायिके सति नश्यत्येवान्ततो मायिकमन्त्रतत्त्वनाशेऽनादित्वे च सति नित्यमेव स्यात्तद्रूपत्वे सति पूर्व–
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सैरित्यादौकृष्णवघ्व इति वधूशब्दस्तु स्त्रीमात्रपर एव, ‘वधूर्जाया स्नुषा स्त्री च’ इति नानार्थवर्गात्, ‘सा त्वां ब्रह्मन्नृपवधूः काममाशु भजिष्यति’इति तृतीयस्कन्धे कन्यायामपि प्रयोगात्। श्रीमद्भीष्मेण तु ‘प्रकृतिमगन्किलयस्य गोपवध्वः’इति तासां गोपनारीत्वमेवोक्तम्। ‘स वो हि स्वामी भवति’ इति श्रीगोपालतापिन्युक्तः स्वामिशब्दोऽपि न परिणेतृवाची, ‘स्वामिन्नैश्वर्ये’इति पाणिनिस्मरणात्। राजस्वामिकः पुरुष इति स्वस्वामित्वसंबन्ध इत्यादिषु वैयाकरणैरपि सर्वत्रैव प्रयोगात्। लोके हि यस्य हि यःस्वामी भवति स तस्य भोक्ता भवतीति प्रसिद्ध्या वस्तुतःस्वामित्वं नास्त्येव तत्पतीनामित्यादि विवेचनीयम्। यत्त्वेतद्ग्रन्थकारैरपिस्वकृतललितमाधवे ‘नटता किरातराजं निहत्य रङ्गस्थले कलानिधिना।समये तेन विधेयं गुणवति ताराकरग्रहणम्॥’इत्युक्त्या श्रीकृष्णेन श्रीराधायाः करग्रहणलक्षणो विवाह उक्त एव, स च समये द्वारकायामेव तस्याः प्राप्तसत्यभामात्वख्यातिकाया एव, न तु व्रजभूमौ साक्षात्तस्या एव। न चैकत्र निर्णीतः शास्त्रार्थो बाधकाभावे सत्यन्यत्र प्रीतिन्यायेन व्रजभूमावपि तस्या अपि करग्रहणं संभवेदिति वाच्यम्, अत्र ललितमाधव एव उपसंहारवाक्यस्य विद्यमानत्वात्। तच्च—‘याते लीलापदपरिमलोद्गारि वन्या परीता धन्या क्षोणी विल–
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रीत्या रसाभासःस्यादित्यतोऽवतारसमयस्यापरभागे व्यक्तीभवत्येव दाम्पत्यम्। स एवपर्यवसानसिद्धान्तश्च ललितमाधवप्रक्रिययात्र च निर्वाहयिष्यते। यतो बहुवर्णितविरहव्यावर्तनाय नित्यसंयोगमयसिद्धान्तमुक्त्वापि क्रमलीलारसस्तु तत्र न सिध्यतीत्यपरितुष्य संक्षिप्तसंकीर्णसंपन्नसमृद्धिमदाख्येषु चतुर्षु संभोगेषु फलरूपेषु विप्रलम्भान्तान्तराप्रतिघात्यस्य सर्वतः श्रेष्ठस्य समृद्धिमत उद्वाहपर्यन्तस्योदाहरणरूपतया तत्परिपाट्येवात्र प्रमाणीकरिष्यते। यथा तत्र महाविप्रलम्भान्ते श्रीराधां प्रति श्रीकृष्णवाक्यम्—‘तवात्र परिमृग्यतः किमपि लक्ष्म साक्षादियं मया त्वमुपसादिता निखिललोकलक्ष्मीरसि। यथा जगति चञ्चुता चणकमुष्टिसंपत्तये जनेन पतिता पुरः कनकवृष्टिरासाद्यते॥’इत्यादि। तस्मादुपपतीयमानत्वेनैवासावुपपतिरित्युपदिष्टः।वार्यमाणत्वाद्यंशेन लौकिकरसशास्त्रकृद्भिरपि स्तुतः। कितूत्तरत्र व्यक्त दाम्पत्ये विप्रलम्भाङ्गस्यौपपत्येभ्रमस्य समृद्धिमदाख्यसभोगरसपोषकत्वात्तस्मिंस्तु न लघुत्वं युक्तं किंतु महत्त्वमेवेत्याह—न कृष्ण इति। तत्र हेतुमाह—* रसनिर्यासेति। एतत्परिपाटीसद्भावाभावात् प्राकृतनायके एव, न तु श्रीकृष्णे*
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सति वृता माधुरी माधुरीभिः। तत्रास्माभिश्चटुलपशुपीभावमुग्धान्तराभिः संवीतत्वं कलय वदनोल्लासि वेणूविहारम्॥’ इति श्रीराधाप्रार्थनवाक्यम्। अत्र चटुलपशुपीभावमुग्धान्तराभिरित्यत्र चटुला या पशुप्यः पशुपस्त्रियस्तद्भावेन मुग्धानि विवेकशून्यान्यन्तःकरणानि यासां ताभिरिति स्त्रीणां चाञ्चल्यमुपपतित्वमेव व्यनक्ति। चञ्चलेयं स्त्रीत्युक्ते तथैव लोकप्रसिद्धेः स्वेषां परकीयात्वस्यैवाभीप्सितत्वं निर्धारितमिति अतस्तदनभीष्टं स्वीयात्वं व्रजे न व्याख्येयम्। एवमेव श्रीनारायणभट्टैरपि स्वकृतायां रसतरङ्गिण्यां तृतीय उल्लासे आलम्बनप्रकरणे तस्याः परकीयात्वमेवोक्तम्। यथा—‘शान्ते ब्राह्मण एव स्यात्प्रीते दासः प्रकीर्तितः। प्रेयसि स्युः सखायो हि यशोदा वत्सले स्मृता॥ मधुरे राधिका ज्ञेया हास्ये स्यान्मधुमङ्गलः। सखीयूथोऽद्भुते ज्ञेयो वीरे चारणगोवृषाः॥ करुणे वत्सवृक्षादिर्जटिलाद्यास्तु रौद्रके। गोवर्धनोऽभिमन्युश्च भयानक उदाहृतौ॥ तपस्विन्यादयो ह्यत्र बीभत्से परिकीर्तिताः। व्रजस्था नियता ज्ञेया आलम्बनविभावकाः॥’ इति। तत्रैवान्यत्र—‘न राधाभर्तारं क्वचिदपि च दृग्भिर्गृहगतं समद्राक्षीन्नित्यं तव सरसमूर्तिं विलिखति। तवाप्येतद्वक्षो वहति रुचिरां तत्प्रतिकृतिंततः कृष्ण प्रेम्णाहमपि विदधे दौत्यमखिलम्॥’इति, यच्चोक्तंतत्रैव ललितमाधवे—‘गोअड्ढणादिगोएहिं चन्दावलीपहुदीणं उव्वाहो माआए निव्वाहिदो।’इति, अत्रेदं प्रतिपद्यामहे—जगज्जीवमात्रस्यैव मायामध्यपतितस्य देहे अहंभावो देहोऽहमिति। दैहिकेषुपतिपुत्रादिषु
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वास्तवेनौपपत्येन लघुत्वशब्दवाच्यं निकृष्टत्वं घटते अपथ्यबुद्ध्यालोभ्यं पथ्यं भुक्तवति भुक्तपथ्यत्ववत्। तदेतत्तत्त्वमविद्वांस एवान्यथा मन्यमानास्तमपि तथोदाहरन्तीति भावः। किंच न चासां निवारणाद्युपाधिकमेव रतेर्वैशिष्ट्यं मतम्।अपि तु स्वाभाविकमेव। ‘योग एव भवेदेष विचित्रः कोऽपि मादनः।यद्विलासा विराजन्ते नित्यलीलासहस्रधा।’इति वक्ष्यमाणरीत्या निवारणाद्यभावेऽपि महाभावपराकाष्ठापन्नस्य मादनाख्यस्याप्यासु अङ्गीकरणात्। स्वाभाविकवैशिष्ट्येनास्या रतेःसमर्थेति नाम दर्शयिष्यते। न पुनः सैरन्ध्र्याइव साधारणीति श्रीमहिषीणामिव वा समञ्जसेति। लक्षणं चास्यास्तद्वदेव करिष्यते—‘स्वस्वरूपात्तदीयाद्वा जाता यत्किंचिदन्वयात्। समर्था सर्वविस्मारिगन्धा सान्द्रतमा मता॥’इति,‘रतिर्भावान्तिमां सीमां समर्थैव प्रपद्यते’ इति च। एवकारेण साधारणी समञ्जसा च निवारणादिनापि तादृशत्वं प्राप्नोतीति व्यज्यते। स्वाभाविकवैशिष्ट्येनैव हि
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ममता ममायं पतिर्ममायं पुत्र इति। एवं माययैव संबन्धः कल्पितः।व्रजस्थानां तु गोपगोपीपशुपक्षीप्रभृतीनां श्रीकृष्णलीलापरिकराणां मायातीतानां स्वदेहेष्वहंभावः स्वीयेषु च मातापित्रादिषुमातापित्रादिभावो न मायाकल्पितः, किं तु सच्चिदानन्दमय एव। यथा श्रीकृष्णस्य यशोदानन्दादिषु मातापित्रादिभावः, तथैव राधादीनां श्रीकीर्तिदावृषभान्वादिषु मातापित्रादिभावश्विदानन्दमय एव। अभिमन्युप्रभृतिषु पतिभावस्तु मायिक एव। चिद्रूपाणां श्रीराधादीनां चिद्रूपेषु पतिष्वभिमन्युप्रभृतिषु सार्वकालिकद्वेषान्यथानुपपत्त्या मध्ये पतिभावरूपा माया स्वांशभूता श्रीयोगमाययैव स्थापिता। प्राकृतीनां स्त्रीणां परिणेतृषु पतिभावस्य प्रापञ्चिकत्वादनित्यत्वम्, गोपीनां तु परिणेतृषुपतिभावस्य मायाकल्पितत्वेऽपि भगवल्लीलातन्त्रमध्यवर्तित्वात् मायायाश्चास्या योगमायानुमोदितत्वाच्च नित्यत्वमेवेति विशेष। मोहनं तु तासां योगमाययैव गुणातीतत्वान्न तु मायया। किं चात्र श्रीराधादिषु श्रीकृष्णस्य प्रेयसीभावस्य, कृष्णे तासां प्रेयोभावस्य च सच्चिदानन्दमयत्वे सति तासां स्वस्वपरिणेतृषु पतिभावस्य मायाकल्पितत्वस्यौचित्यमिति ग्रन्थकृतामाशयो द्रष्टव्यः। न तु तेषु पतिभावस्य मायिकत्वमेव तासां कृष्णभार्यात्वसाधकमिति मतमभिज्ञसंमतमिति। केचित्तु ‘ललितमाधवे मायाशब्देन योगमायैव उच्यते’इत्याहुः, तन्मते पतिभावोऽपि चिन्मय एव। तदपि द्वेषस्तयैव दुर्घटघटनापटीयस्या उपपादित इति। ये च राधायाःपरोढात्वममन्यमानाः कन्यात्वमेवाहुस्तन्मते तस्याः सर्वगोपीभ्यः सकाशान्निकर्ष एवोपपद्यते स्म न तूत्कर्षः। तथा हि भगवतो रुक्मिणीलक्ष्म्यादिप्रेयसीभ्योऽपि गोपीनामुत्कर्षः प्रेमोत्कर्षमूल एव। प्रेमतारतम्येन
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‘वाञ्छन्ति यद्भवभियो मुनयो वयं च’इति मुमुक्षुमुक्तभक्तानां ‘व्रजस्त्रियो यद्वाञ्छन्ति’इति श्रीमहिषीणामपि तत्र वाञ्छा संभवति निवारणाढेःपरमानभीष्टत्वात् किमुतौपपत्यस्य। तथा निवारणादिसाम्येऽपि तासां स्वस्वगणरतेर्जातिभेदेनैव वैशिष्ट्यस्यात्रैव निरूपयिष्यमाणत्वात्। तथा जिगीषूणां मत्तहस्तिनः पददुर्गार्गल इव निवारणादिकं तासां रतेः प्रवलता व्यञ्जयत्येव, न तु जनयति। अत एवोक्तम्—‘या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा’इति, ‘रागेणैवार्पितात्मानो लोकयुग्मानपेक्षिणा’इति स्वकीयालक्षणं तच्चानेन संवदते। यच्च ‘न विना विप्रलम्भेन’इत्यादिना, ‘नाहं तु सख्यो भजतोऽपि जन्तून्’इत्यादिना च विरहेण रतेः प्रकर्षः श्रूयते, तच्च प्राणिभेदानां जाठराग्नेरिव जातिभेदात् परप्रकर्ष उपलभ्यते। न हि
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तस्य वश्यत्वतारतम्यात् प्रेमोत्कर्षोवश्यत्वातिशयज्ञापक एव भवेत्। आसां च प्रेमोत्कर्षज्ञाने श्रीभगवता श्रीमदुद्धवेन च लोकधर्मोल्लङ्घनमेव हेतुरुपन्यस्तः। तच्च भगवद्वाक्यं यथा—‘एवं मदर्थोज्झितलोकवेदस्वानाम्’इति, ‘न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजाम्’ इति च। उद्धववाक्यं यथा—‘क्वेमाः स्त्रियः’इत्युपक्रम्य ‘नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्तरतेः प्रसादः’इति, ‘आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्याम्’इत्यादि च। यदि श्रीराधायाः कन्यात्वमेव तत्र च सति ‘नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः’इति श्रीकृष्णपतिभावान्न लोकवेदातिक्रमः। तत्र च सति तस्या भगवदुद्धवविषयत्वाभावात्प्रेमोत्कर्षः श्रीभागवतमते केन प्रकारेण ज्ञेय इत्यन्याभ्योऽपि परोढाभ्यो गोपीभ्यो निकर्षइति न तन्मतमस्मत्प्रभुसंमतम्। ननु च श्रीराधा हि कृष्णस्य स्वरूपभूता ह्लादिनी शक्तिरेव। तस्या वस्तुतःस्वीयात्वमेव न तु परकीयात्वंघटते।सत्यम्। राधाकृष्णावस्माभिरुपास्येते लीलाविशिष्टावेव न तु लीलारहितौ। लीलायाः शुकपराशरव्यासादिप्रोक्तत्वेऽपि श्रीशुकप्रोक्तैवास्माकं परमाभीष्टा।तस्यां च गोपीनां परकीयात्वदर्शनात् सर्वगोपीशिरोमणिः सापि परकीयैव। ननु दाम्पत्येन दुर्यशोनिबन्धनं न मनोदुःखं नापि श्वश्रूननान्दादिकं रुक्मिण्यादौ दृष्टम्। गोपीषु तु तत्तद्दृश्यत इत्येतदंशेन दुःखाधिक्यमेवासां रुक्मिण्यादिभ्यः सकाशादपकर्षहेतुरस्तु। मैवम्। रागानुरागमहाभाववतीनां व्रजदेवीनां यानि यानि यावन्त्येव लौकिकदुःखानि तानि तानि तावन्ति सुखान्येव भवन्ति। यद्वक्ष्यते—दुःखमप्यधिकं चित्ते सुखत्वेनैव व्यज्यते। यतस्तु प्रणयो–
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लङ्घनादिना हस्तिनामिव शशकानां तदग्निर्विकाशं प्राप्नोति। ततश्च यथैव कान्तारादिलङ्घने क्रियमाणैरेव या बुभुक्षा स्यात् सा यथा न प्रशाम्यते तथा निवारणादिनित्यतामयविरहमात्रजीवना रतिश्च। किंच तद्वत् कादाचित्कविरहेण कदाचित्प्रशस्यते इति च गम्यते। तस्मात् ‘बहु वार्यते’इत्यादि यल्लौकिकरसविदां मतमुत्थापितं तत्खलु तन्मतरागिणामप्यापातवोधनायेति। तत्र रसनिर्यासस्वादार्थमवतारिणीत्यनेन यदवतारादन्यदा न तादृशायाः स्वीकारः किंतु दाम्पत्यस्यैवेति लभ्यते। तत्र प्रमाणं च स्वयमङ्गीकरिष्यते। ‘आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभिः’ इत्यादौ‘निजरूपतया कलाभि’रिति निजरूपतया स्वीयतयेत्यर्थ। कलात्वेनैव निजरूपत्वे सिद्धे तत्तथैव सार्थकता स्यादिति। तथा च श्रीमद्दशार्णस्य नामव्याख्याने गौतमीयतन्त्रम्—‘अनेकजन्मसिद्धानां गोपीनां पतिरेव वा। नन्दनन्दन इत्युक्त–
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त्कर्षात्स राग इति कीर्त्यते॥” इति, अत एवाहुर्महाभावलक्षणव्याख्यायां श्रीमज्जीवगोस्वामिचरणाः। दुःखस्य परमकाष्ठा कुलवधूनां स्वयमपि परमसुमर्यादानां स्वजनार्यपथाभ्यां भ्रंश एव। नाग्न्यादिर्न च मरणम्। ततश्च तत्तत्कारितया प्रतीतोऽपि कृष्णसंबन्धःसुखाय कल्पते चेत्तर्ह्येव रागस्य परमेयत्ता। ततश्च तामाश्रित्यैव प्रवृत्तः सुरागो भावाय कल्पते। सा च आरम्भतो व्रजदेवीष्वेव दृश्यते। पटुमहिषीषु संभावयितुमपि न शक्यते। तदेवमेव ता एवोद्दिश्य उद्धवः सचमत्कारमाह—‘या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा’इति। अत्र तासामाश्रित्यैव प्रवृत्तोऽनुरागो महाभाव इति व्याख्यया रागस्य परमेयत्ता यदा भवेत् तदैव महाभावस्योदय इति महाभावोदयव्यञ्जिका रागपरमेयत्तैव। सा च रागपरमेयत्ता तदैव भवेत् यदा समस्तदुःखातिशयसीमारूपस्वजनार्यपथभ्रंशकरणशीलः कृष्णसंबन्धः सुखाय भवति, नान्यदा।’इति। अतोऽप्रकटलीलायां यदि वजनार्यपथभ्रंशकरणशीलत्वं श्रीकृष्णसंवन्धस्य नैवास्ति तदा रागस्यापि परमेयत्ता नास्ति तस्यामसत्यांमहाभावस्याप्यनुदय इति नैतत्समञ्जसम्। तस्मात्प्रकटायामप्रकटायां च लीलायां स्वजनार्यपथभ्रंशकरणमौपपत्यं तेषां स्वेच्छाभिमतं मतम्। अप्रकटलीलायां दाम्पत्यं तु परेच्छाभिमतं मतम्। अतः साधूक्तंतैरेव परमकृपालुभिः—‘स्वेच्छया लिखितं किंचित्किंचिदत्र परेच्छया। यत्पूर्वापरसंबद्धं
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स्त्रैलोक्यानन्दवर्धनः॥’ इति। अनेकजन्मसिद्धानामिति अनादिजन्मपरम्परागतावतारसिद्धानामित्यर्थः। ‘बहूनि मे व्यतीताति जन्मानि तव चार्जुन’इतिवत्। अनादिसिद्धवेदे हि तादृगुपासनापि दृश्यते। पतिरेव वेति नत्ववतारलीलावद्भ्रमेणापि उपपतिरित्यर्थः। तदेतत्पूर्वं ‘गोपीति प्रकृतिं विद्याज्जनस्तत्त्वसमूहकः इत्यादिना। अथवा गोपी प्रकृतिर्जनस्तदंशमण्डलमित्यादिना च त्रैगुण्यवत्तदुद्भवतत्त्ववर्गाश्रयस्य तथा चिच्छक्तितदंशमण्डलस्वामित्वस्य च प्रतिपादकं यन्निरुक्तिद्वयं कृतं तत्तु वेत्यनेन गौणीकृतम्।उत्तरपक्षस्यैव सिद्धान्तत्वात्। यथा वेदान्तसूत्रेषु—अहिकुण्डलवत् प्रकाशाश्रयवद्वा तेजस्त्वात् पूर्ववद्वे’त्यादिषु तद्वत्।नन्दनन्दन इति नत्वन्यः स कोऽपीत्यर्थः।कल्पे कल्पे तस्यैव श्रीमन्नन्दनन्दनतया व्यञ्जकत्वात्। त्रैलोक्यानन्दवर्धन इति शीलार्थेल्युट्प्रत्ययेनाद्यापि दर्शनश्रवणाभ्यां अन्तरङ्गबहिरङ्गभक्ताना ‘निवृत्ततर्षैरुपगीयमानात्’इत्यादिरीत्या सर्वेषामेवानन्दं वर्धयन् एव विराजमान इत्यर्थः। ‘जयति जननिवासः’इत्यादेः। तथा
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तत्पूर्वमपरं परम्॥’ इति। न चौपपत्येसाहित्यदर्पणकारस्यासंमतिरिति मेतच्यम्। ‘नातीव संमतत्वाद्भरतमुनेर्मतविवोधाच्च। साहित्यदर्पणीया न गृहीता प्रक्रिया भया प्रायः॥’इति नाटकचन्द्रिकोक्तेर्ग्रन्थकृद्भिरेव तन्मतस्यानङ्गीकारादिति। किं च गुरुविप्राग्निसाक्षिके व्रजसुन्दरीणां श्रीकृष्णेन परिणये व्यवस्थापिते सति उपक्रमतः सर्व एवोज्वलनीलमणिर्विपर्यस्तार्थ एव कृतः स्यात्। तथा हि—पत्नीभावाभिमानात्मेति समञ्जसालक्षणेन तासु प्रसक्तेन ‘रागेणैर्वार्पितात्मानो लोकयुग्मानपेक्षिताः’इत्यादिलक्षिते तासां स्वभावेऽपलापिते सति परसुन्दरीभ्य उत्कर्षे हीयमाने मूलभूतस्य स्थायिभावस्यैवाव्यवस्थायां सत्याम् ‘संकेतीकृतकोकिलादिनिनदम्’इति, ‘तत्रैव परमोत्कर्षः शृङ्गारस्य प्रतिष्ठितः’इत्यादिवाक्यैः कष्टकल्पनया संगमितैः कथय किं फलमिति। तत्तल्लक्षणोदाहरणादिकमापाततो बोधनार्थमेव, न तु ग्रन्थकृतां हार्दाभिप्रायसंबद्धमिति चेत्, तेषु, श्रीमन्निरवधिकरुणेषु परमभक्तसुहृद्वरेषु भङ्ग्याविप्रलिप्सुत्वारोप एवेत्यलं बहुविचारविलसितेनेति। ‘तिर्यग्योनिमवाप कर्मवशतो विष्णुः स चेत्युक्तिमच्छास्त्रं गारुडमत्यसह्यमपि न (नो) कस्यापि तत्संमतम्। व्यासो भागवतस्य तस्य च भवेत्कर्ता तदप्यादरादाराध्यः स गतिश्च तत्र नितरामागोऽस्ति केषामपि॥’गारुडवचनं च यथा—‘ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो
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श्रीगोपालतापन्यामपि तत्पतित्वमेव दुर्वाससा निश्चितम्। ‘स वो हि स्वामी भवति’इति। स्वामिशब्दश्चायं स्त्रीप्रसङ्गे पत्यावेव रूढः। ‘स्वामिनो देवृदेवरौ’ इत्यमरकोशात्। तदेतत्पतित्वं श्रीशुकोऽपि परोक्षवादविषयीकृत्यानन्दावेशेनोद्घाटितवान्। पादन्यासैरित्यादौ ‘कृष्णवध्व’इति। ‘तडित इव ता मेघचक्रे विरेजु’रिति दृष्टान्तः। स्वाभाविकपतित्वसंबन्धमेव दार्ष्टान्तिकेष्वपि दर्शितम्। तथा—‘धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्। तेजीयसां न दोषाय वह्नेःसर्वभुजो यथा॥’ इत्युपगमवादेनाङ्गीकृतेऽपि तासां तत्परदारत्वे परितोषमप्राप्य पुनस्तदपि खण्डयन् बादरायणिः सिद्धान्तमाह—‘गोपीनां तत्पतीनां च सर्वेषां चैव देहिनाम्। योऽन्तश्चरति सोऽध्यक्ष एष क्रीडनदेहभाक्॥’ इति। तत्र खलु बहिरङ्गान् प्रति अन्तर्यामित्वेन तत्खण्डनमयमर्थान्तरं प्रसिद्धमेव। अन्तरङ्गान् प्रति तु स्वभावसिद्धदाम्पत्यसाधकमर्थान्तरं तन्त्रेणाह—गोपीनां सर्वासामेव गोपजातिस्त्रीणां तत्पतीनां सर्वेषामेव गोपजातिषु पुरुषाणां किंबहुना सर्वेषामेव
तथा च प्राञ्चः—
शृङ्गाररससर्वस्वं शिखिपिच्छविभूषणम्।
अङ्गीकृतनराकारमाश्रये भुवनाश्रयम्॥१९॥
अनुकूलदक्षिणशठा धृष्टश्चेति द्वयोरथोच्यन्ते।
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महासंकटे। रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे॥” इति गरुडपुराणीयः श्लोको भगवत्संदर्भधृतो दृश्यः॥१८॥ व्यवस्थापितमेवार्थं प्राचीनमहानुभावपरमभक्तश्रीलीलाशुकमतेन द्रढयति—तथा चेति। शिखिपिच्छविभूषणत्वं गोपाङ्गनारमणस्यासाधारणो धर्मः।शृङ्गाररसः सर्वस्वं यस्येति बहुव्रीहिणा कृष्णः सोऽपि गतसर्वस्वोरड्कइति भवतीति व्यज्यते। शृङ्गाररसस्य सर्वस्वमिति तत्पुरुषेण शृङ्गाररसोऽपि तं विना स्वस्य वैयर्थ्यं जानातीति। स च शृङ्गार औपपत्य एव परमोत्कृष्टस्तत्र च तस्य श्रीकृष्णस्य लघुत्वे सति कथं तमेव श्रीलीलाशुक आश्रयते। यद्वा। तस्य लघुत्वे कुतःशृङ्गाररससर्वस्वीभूतत्वमित्यभिप्रायः। अङ्गी मुख्यस्तथाभूतीकृतो नराकारो येन तम्। ‘येन शुक्लीकृता हंसाः’इतिवत् च्वि। अन्ये वैकुण्ठनाथस्य देवाकारा मत्स्यकूर्माद्याकाराश्चएतदङ्गभूता इति भावः। भुवनान्येवाश्रयास्त्रिजगन्मोहनत्वादालम्बनीभूतानि यस्य तम्॥१९॥ द्वयो पत्युपपत्योः। वृत्त्या चेष्टया
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व्रजस्थानां देहिनां ये यथायथं स्वक्रीडनरूपा देहास्तद्भाक्। अन्तरिति प्रापञ्चिकानामन्तर्धानगतः सन् चरति सदा क्रीडति स एवाध्यक्षः कदाचित्तेषां प्रत्यक्षः सन् क्रीडति। तस्मादनादित एव ताभिःसमुचिताया रासादिक्रीडाया अविच्छेदात् परदारत्वं न घटत इति भावः। ‘स्वेच्छया लिखितं किचित्किंचिदत्र परेच्छया। यत्पूर्वापरसंबद्धं तत्पूर्वमपरं परम्॥१८॥ रसनिर्यासस्वादार्थमित्येव प्राचीनतदीयमहाभक्तश्रीलीलाशुकमतेन द्रढयति—***तथा च प्राञ्च इति।*भुवनाश्रयमपि अङ्गीकृतः स्वीकृत आत्मीयत्वेन व्यञ्जितो नराकारो न तु देवाकारो येन। यद्वा। स्वावतारेण स्वीकृता नरजातिर्येन तम्। तथा शिखिपिच्छविभूषणं गोपालाकारोचितवेषलीलादिकम्। किं च शृङ्गाररसस्य सर्वस्वरूपमाश्रयमित्यर्थः॥१९॥ तदेतदभिमतं अभिव्यज्य प्रकृतः श्रीकृष्णरूपमालम्बनमेव विवृण्वन् तस्य लीलाविशेषेषु वैशिष्ट्यमाह—अनुकूलेति। द्वयोः पत्युपपत्योः।
प्रत्येकं चत्वारो भेदा युक्तिभिरमी वृत्त्या॥२०॥
शाठ्यधार्ष्ट्ये परं नाट्यप्रोक्ते उपपतेरुभे।
कृष्णे तु सर्वं नायुक्तं तत्तद्भावस्य संभवात्॥२१॥
** तत्रानुकूलः—**
अतिरक्ततया नार्या त्यक्तान्यललनास्पृहः।
सीतायां रामवत्सोऽयमनुकूलः प्रकीर्तितः॥२२॥
राधायामेव कृष्णस्य सुप्रसिद्धानुकूलता।
तदालोके कदाप्यस्य नान्यासङ्गः स्मृतिं व्रजेत्॥२३॥
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॥२०॥ तत्तद्भावस्य पतित्वोपपतित्वरूपस्य। यद्वा शाठ्यधार्ष्ट्यादेः॥२१॥ नार्यामेकस्यामत्यनुरक्ततया हेतुना त्यक्ता अन्यललनाविषयिणी स्पृहा येन इति स्पृहामात्रस्यैव निषेधात् ललनान्तराभावपक्षो निरस्तः॥२२॥ तदालोके तस्या राधाया आलोके सति। तदुपलक्षणत्वात् श्रवणे स्मरणे च सतीत्यर्थः। अत एकपत्नीव्रतधरस्य श्रीरामस्य सीतायामानुकूल्यंसुघटमेव। अस्य पुनर्बहुवल्लभस्य तस्यामानुकूल्यं दुर्घटमपि तदितरसर्वप्रेमवतीविस्मारकतदीयपरमाद्भुतप्रेमातिशय एव घटयतीति द्योतयित्वा रासनिष्ठादप्यानुकूल्यादेतन्निष्ठस्यानुकूल्यस्य प्रेममूलकः परमोत्कर्षो ध्वनित इति। अत एव रासलीलायां तामादायान्तर्धाय दुःखिता अप्यन्यास्तेन दुःखितत्वेन नानुसंहिताः। इत्थमेव गीतम्—
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वृत्त्या चेष्टया॥२०॥ तदेवोपपादयति—***शाट्यधार्ष्ट्येपरं नाट्येति।*यद्यप्युपपतेरङ्गिनि रसे वर्णनीयता नास्तितथाप्यङ्गेऽस्तीति तथोक्तम्। तत्तद्भावस्य पतित्वोपपतित्वलीलाव्यञ्जकप्रेमविशेषस्य॥२१॥२२॥ राधायामेवेति। तदालोके तस्या आलोके सत्युपलक्षणत्वात् श्रवणे स्मरणे च सतीत्यर्थः। सार्वदिक्त्वाभावान्न श्रीरामसीतादृष्टान्तत्वं न पर्याप्तमिति न मन्तव्यम्। तस्यैकपत्नीव्रतधरस्य मनसाप्यन्यनारीस्पृहाया अन्याय्यत्वादनन्यगतेस्तदेकस्पृहत्वं न दुर्घटम्। तस्य तु सतीष्वप्यन्यबहुलवनितासु तस्या दर्शने सति तासां स्वस्मिन् परप्रेमवतीनां विस्मरणं दुर्घटम्, तथापि तज्जातमित्येवमत्रैवानुकूलस्य परमपर्या–
वैदग्धीनिकुरम्बचुम्बितधियः सौन्दर्यसारोज्ज्वलाः
कामिन्यः कति नाद्य बल्लवपतेर्दीव्यन्ति गोष्ठान्तरे।
राधे पुण्यवतीशिखामणिरसि क्षामोदरि त्वां विना
प्रेङ्खन्ती न परासु यन्मधुरिपोर्दृष्टात्र दृष्टिर्मया॥२४॥
** धीरोदात्तानुकूलो यथा—**
कुवलयदृशः संकेतस्था दृगञ्चलकौशलै–
र्मनसिजकलानान्दी1प्रस्तावनामभितन्वताम्।
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‘राधामाधाय हृदयेतत्याज व्रजसुन्दरीः’॥२३॥ वैदग्धीति वृन्दावचनम्।त्वां विना।तव विरहे सतीत्यर्थः। तेन तत्स्मरणव्यञ्जनया तदालोके इति लक्षणसंगतिः। प्रेङ्खन्ती चलन्ती॥२४॥ भक्तिरसामृतसिन्धौधीरोदात्तादय उदाहृता एव।संप्रति तद्भावमिश्राननुकूलादीनुदाहरति—धीरोदात्तेति। ‘गम्भीरो विनयी क्षन्ता करुणःसुदृढव्रतः।अकत्थनो गूढगर्वो धीरोदात्तः सुसत्त्वमृत्॥” इत्येवंलक्षणो धीरोदात्तश्चासौ अनुकूलश्चेति सः।कुवलयेति। राधामनुस्मरन्तं श्रीकृष्णं दूरादालोक्य चित्रा प्रति ललितायाः साश्वासवचनम्। नाटी नाट्यम्, प्रस्तावना तदर्थं संक्षेपव्यञ्जनामयी प्रथमा प्रवृत्तिः, तां अभि श्रीकृष्णदृष्टाभिमुखतया तन्वताम्।संकेतस्थाःश्रीकृष्णाभिमुखवर्त्मनिकटस्थकुञ्जान्संकेतास्पदीकृत्य तिष्ठन्त्यः। प्रस्तावनामिति। प्रस्तौ–
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प्तत्वं तदालोके इत्यनेन दर्शितम्। तथा च रासलीलायां तामादायान्तर्धाय दुःखिता अपि तास्तेन नानुसंहिताः।इत्थमेव गीतगोविन्दे—‘राधामाधाय हृदये तत्याज व्रजसुन्दरीः’इति च॥२३॥ तदेतदनुसृत्य स्वयमुपश्लोकयति—वैदग्धीति। तदिदं वृन्दावचनम्।त्वां विना तव विरहे सति परासुमुररिपोर्दृष्टिर्मया सदा तादृशलीलावनाधिष्ठात्र्यापि प्रेङ्खन्ती प्रकृष्टतया चलन्ती न दृष्टा॥२४॥ पूर्वं धीरोदात्तादय उदाहृता एव, संप्रति तदनुसारेण तत्तद्भावमिश्रादीन् उदाहरति—* धीरोदात्तानुकूलो यथेत्यादिभिः। तत्र कुवलयदृश इत्यत्रापि श्रीराधासखीं*
न किल घटते राधारङ्गप्रसङ्गविधायिता–
व्रतविलसिते शैथिल्यस्य च्छटाप्यघविद्विषः॥२५॥
** धीरललितानुकुलो यथा—**
गहनादनुरागतः पितृभ्यामपनीतव्यवहारकृत्यभारः।
विहरन्सह राधया मुरारिर्यमुनाकूलवनान्यलंचकार॥२६॥
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तेर्ण्यन्ताद्युटा। कन्दर्पकलानाट्यंमया प्रस्तुतीकृतमित्येकैकशस्तास्तं ज्ञापयित्वा तस्मात्स्वयमत्र नृत्य मां च नर्तयेति व्यञ्जयन्त्वित्यर्थः। अत्र श्रीकृष्णस्यगाम्भीर्यं परमचतुराभिरपि ताभिस्तच्चित्तवृत्तानवगाहात् ‘त्वां कलानाट्यरङ्ग एवं नर्तिष्यामि, किं तु गोसंभालनं संप्रत्यग्रत प्रदेशे आवश्यकम्, तस्मात् क्षणमात्रं तत्र मद्गमनमनुमन्यस्व’इति प्रत्येकं ताःप्रति दृगञ्चलेनैव ज्ञापनात्। विनयित्वम्। तदपि नानाभङ्गिभिर्विघ्नमेव कुर्वतीस्ताः प्रति कोपानुद्भवात् क्षन्तृत्वम्। तासां स्वविरहदुःसहदुःखानुसंधानात् करुणत्वम्। राधायामेव यो रङ्गस्तदीयकन्दर्पकलानाट्यसंबन्धी तत्रैव प्रकृष्टं सङ्गं नृत्यनर्तनासभ्यत्वलक्षणकृतेषु आसक्ति विधातुं शीलं यस्य तस्य भावस्तत्ता सैव व्रतं तस्य विलसिते अनुष्ठानविषये शैथिल्यस्य छटापि न घटते न संभवतीति सुदृढव्रतत्वम्। ‘हे श्रीराधे, सर्वगोपीप्रतारणपण्डितस्त्वय्येवाहमनुरागी’इति ता प्रति स्वप्रेमवश्यत्वस्य अकथनात् अकत्थनत्वम्। मादृशः प्रेमी सभोगसौख्यवान् सतीव्रतध्वंस्यपि सर्वधार्मिकश्लाघ्योऽन्यो नास्तीति गर्वस्याप्रकटनात् गूढगर्वत्वम्। अघविद्विष इति सुसत्त्वमृत्त्वम्। अनुकूलत्वं सर्वत्रैव स्पष्टमेव॥२५॥ गहनादिति। नान्दीमुखी प्रति पौर्णमास्या वचनम्।गह–
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प्रति वृन्दावचनम्। संकेतस्था श्रीराधिकाभिसारवर्त्मनि नानुकुञ्जान् संकेतास्पदीकृत्याधितिष्ठन्त्य। नाटीशब्देन नाट्यप्रबन्धविशेषा नाटिकोच्यते। प्रस्तावनाशब्देन तु तदर्थसंक्षेपव्यञ्जनामयो नटीनिर्दिष्ट प्रथमो भागः। कि चात्र न किल घटत इति संभावनामात्रज्ञेयभावत्वेन तस्य गम्भीरत्वम्। गाम्भीर्याच्चतस्यावश्यककृत्यविशेषव्याजमयसान्त्वनवचनेनैव क्रमशस्तास्त्यजति न तु रूक्षमुद्रयेति प्राप्तत्वाद्विनयित्वम्। तथापि तास्तत्र नानाभङ्गिभिर्विघ्नं कुर्वती प्रति कोपानुद्भावनात् क्षन्तृत्वम्। यतस्ता दुःखं न प्राप्नुवन्त्विति भावनाजातेऽपि करुणत्वम्। स्पष्टतया तथोक्ते
धीरशान्तानुकूलो यथा—
ब्रध्नोपास्तिविधौ तव प्रणयितापूरेण वेषं गते
क्ष्मादेवस्य कथं गुणोऽप्यघरिपौ द्रागद्य संचक्रमे।
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नात् निर्वक्तुमशक्यात्। ‘विदग्धो नवतारुण्य परिहासविशारदः। निश्चिन्तो धीरललितः स्यात्प्राय प्रेयसीवशः॥’ इति धीरललितलक्षणम्। अत्रापनीतेति निश्चिन्तत्वम्। विहरन्निति परस्मैपदप्रयोगेण प्रेयस्यानन्ददानतात्पर्यावगमात् प्रेयसीवशत्वम्। वर्तमानप्रयोगेण तयैव सह विहारानवच्छेदात् कान्तान्तरत्यागात् अनुकूलत्वम्। वनानीति बहुवचने एकत्र वने विहृत्य पुनरन्यत्र तिरोधाय स्थित्वातत्राप्यन्विष्यन्त्यातया स्वं दृष्टवत्या परिहसन्त्या विहृत्य पुनरन्यत्र तया तिरोदधत्या पुनस्तत्राप्यन्विष्यमाणया दृष्ट्या परिहसितया विहृत्य पुनरन्यत्रापि तथा तथा विलासाविष्कारात् परिहासविशारदत्वम्। अलंचकारेत्यलंपदेन विदग्धत्वं वैदग्ध्यमयविहारस्यैव तत्प्रदेशसाफल्यापादकत्वात् नवतारुण्यं तु सर्वत्रैवानुस्यूतम्॥२६॥ धीरशान्तेति। तल्लक्षणम्—‘समप्रकृतिक क्लेशसहनश्च विवेचक।विनयादिगुणोपेतो धीरशान्त उदीर्यते॥” इति। **ब्रध्नेति।**जटिलासनिधावपि राधाकर्णे विशाखोक्तिः।ब्रध्न सूर्यः। तव प्रणयितापूरेणेत्यादिना गुरुजनसंनिहिताया अपि तव त्यागाशक्तेस्त्वन्मात्रैकगतावस्मिन्नन्यालक्षितम्। किंचिदपाङ्गामृतमर्पयेति ध्वनि। तेन चानुकूलत्वं व्यक्तम्। वुद्धि पश्येति विवेचकत्वम्।दृष्टि क्षमोद्गारिणीति क्लेशसहत्वम्। स्वाभाविकचाञ्चल्यत्याग एवात्र
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*सुदृढव्रतत्वम्। विनयित्वादेव व्यक्तादात्मश्लाघित्वाभाववत्त्वलक्षणमकत्थनत्वम्। तथाप्यन्ततस्तु श्रीराधालक्षणपरमप्रेयसीलाभात् गर्वोवर्तत एवेति गूढगर्वत्वम्। ‘तत्र विघ्नशङ्कया झटिति गमनात् व्यक्तं सुसत्त्वमृत्त्वमिति धीरोदात्तत्वं व्यक्तम्। अनुकूलत्वं च तत्तत्सर्वपरित्यागपूर्वकतदतिसरणां स्पष्टमेव॥२५॥ **गहनेति।*नान्दीमुखी प्रति पौर्णमासीवचनम्। गहनादिति सम्यक् पर्यालोचयितुमशक्यत्वात्। ‘गहना कर्मणो गति’ इतिवत्। ‘गहनं गह्वरे दुःखे विपिने कलिलेऽपि च’ इति विश्वप्रकाशात्। अत्र यमुनाकूलवनान्यलंचकारेति विदग्धत्वंनवतारुण्यवत्त्वं चेति बोधितम्। पूर्वत्र विहारशोभावैचित्र्यापरत्वशोभातिशयदृष्ट्या तदलंकरणापत्तेः। विहरन्निति। परिहासरसस्य क्रोडीकृतत्वात् परिहासविशारदत्वं पितृभ्यां भारापनयनेनैव निश्चिन्तत्वं स्पष्टम्। आस्ता तावत् परमस्वैरलीलत्वेनैवेति भाव।
बुद्धिः पश्य विवेककौशलवती दृष्टिः क्षमोद्गारिणी
वागेतस्य मृगाक्षि रूढविनया मूर्तिश्च धीरोज्ज्वला॥२७॥
** धीरोद्धतानुकूलो यथा—**
सत्यं मे परिहृत्य तावकसखीं प्रेमावदातं मनो
नान्यस्मिन्प्रमदाजने क्षणमपि स्वप्नेऽपि संकल्पते।
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क्लेशः। राग इति विनयित्वं मूर्तिश्च। धीरेति शमप्रकृतिकत्वम्। अत्र तस्यात्मारामशिखामणित्वं व्रजप्रेम्णा यन्निह्नुतमस्ति तदेवात्र प्रकृतिशब्देन वाच्यम्। अत्र क्ष्मादेवस्य कथं गुण इति तेनाघरिपुरयमद्य ब्राह्मण इव दृश्यते ततश्चोपमायां सत्यां शान्तशृङ्गाररसयोरङ्गाद्विभावो न विरुद्ध्यते। यदुक्तं साम्येन वचनेऽपि चेति पूर्वग्रन्थ एव॥ २७॥ **धीरोद्धतेति।**तल्लक्षणम्—‘मात्सर्यवानहंकारी मायावी रोषणश्चलः।विकत्थनश्च विद्वद्भिर्धीरोद्धत उदाहृतः॥इति। सत्यमिति।कृष्णाभिसारमार्गस्थानां गोपीनां स्वामियोगान् तेन कृष्णेन च दृगन्ताद्यैर्मृपाकृततत्तदाश्वासान् दूरादेव दृष्टवतीं तस्य राधिकैकतानचेतस्त्वं ज्ञात्वापि वाम्यवशात् भो व्रजनगरीनागर, सांप्रतं मत्सखीं सुखयित्वा अद्य वर्त्मत्यक्ताः प्रतिश्रुतस्वविलासाःकामिन्योऽपि क्षणानन्तरं त्वया समाधेया इति नयनवदनग्रीवादिभङ्ग्यैव ब्रुवाणां ललितां प्रति तद्वचनम्। अत्र सत्यमित्यादिना संकल्पत इत्यन्तेन अनुकूलत्वम्। सारग्राहिणि सद्गुणगुरावित्याभ्यां अहंकारित्वं विकत्थनं
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यत्र पितृभ्यामन्यैः कार्यमाणं गोचारणादिकमपि स्वैरलीलत्वेनैवावगम्यते। न त्वन्यत्रैव भारत्वेन। तदुक्तम्—‘व्रजे विक्रीडतोरेवं गोपालच्छद्ममायया’इत्यत्र गोपालनमेव छद्म व्याजो यस्यां तथा मायया प्रतारणशक्त्या व्रजे विकीडतोरिति क्रीडैवाभीष्टं गोपालनं त्वन्यथापि स्यादिति भावः। राधया सह विहरन्नित्यपि विहारानवच्छेदप्राप्त्याप्रेयसीवशत्वं चेति धीरललितत्वंदर्शितम्। अविच्छेदविहारादनुकूलत्वमपीति धीरललितानुकूलत्वं स्पष्टमेव। तत्र धीरललितलक्षणे प्रायःशब्दस्तस्य वहिर्व्यक्तीकरणाभावादिति भावः॥२६॥ ब्रध्नेति। धीरशान्तानुकूत्वमत्रस्पष्टमेव।ब्रघ्न सूर्यः। एतदुपासना लीला श्रीराधायाः।चन्द्रावल्यास्तु चण्डिकोपासनारूपेति परंपरोपदेशलब्धम्। एवमुत्तरत्रापि ज्ञेयम्॥२७॥ सत्यं मे इति। हे गौरि, व्यलीकमप्रियं तत्र मुद्रा किं न्वित्यादिना मात्सर्यवत्वं
सारग्राहिणि गौरि सद्गुणगुरौ मुक्तव्यलीकोद्यमे
मुद्रां किं नु मयि व्यनक्षि ललिते गूढाभ्यसूयामयीम्॥२८॥
अथ दक्षिणः—
यो गौरवं भयं प्रेम दाक्षिण्यं पूर्वयोषिति।
न मुञ्चत्यन्यचित्तोऽपि ज्ञेयोऽसौ खलु दक्षिणः॥२९॥
यथा—
तथ्यं चन्द्रावलि कथयसि प्रेक्ष्यते न व्यलीकं
स्वप्नेऽप्यस्य त्वयि मधुभिदः प्रेम शुद्धान्तरस्य।
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च। मुक्तेति व्यलीकं त्वदप्रियं तस्योद्यमोऽपि मया मुक्तः पथि पथि ताश्चक्षुषापि न दृष्टास्तदपि त्वं मयि मिथ्यादोषमारोपयसीति मायावित्वं रोषणत्वं च। मुद्रां किं न्वित्यादिना मात्सर्यवत्त्वं व्यक्तम्॥२८॥ पूर्वयोषिति प्रथमं यस्यामासक्तिप्रसक्ती अभूतां तस्याम्। अन्यचित्तः अन्यस्यां तदुत्तरकालप्राप्ताया नवीनायां चित्तं यस्येति तत्रैवासक्त्याधिक्यं सूचितम्॥२९॥ तथ्यमिति। नान्दीमुखीवाक्यं त्वं सत्यं ब्रूषे। कित्वित्याक्षेपलब्धम्।व्यलीकं अप्रियम्। अपराध इत्यर्थः। तत्र हेतुः—प्रेमेति। शुद्धान्तरेण दाक्षिण्यं। सविनये इति गौरवम्। विनयकार–
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*
रोषणत्वंच। सारग्राहिणि सर्वसद्गुणगुरौ मुक्तव्यलीकोद्यमे मयीति अहंकारित्वं विकत्थनत्वं च। सत्यं मे इत्यादिना स्वधर्मगोपनवचसा मायावित्वम्। तेन क्वचित् स्खलनव्यञ्जकेन चलत्वमिति धीरोद्धतत्वम्। तत्रानुकूलत्वं च। क्वचित् च तदपराधभञ्जनाय वैयग्र्याल्लक्ष्यते॥२८॥ अथ प्रथमे दक्षिणलक्षणे तदिदं विचार्यते—‘दक्षिणे सरलोदारौ’इत्यमरकोशात् दक्षिणस्तावत् सरलः। स च पूर्वग्रन्थे ‘सौशील्यसौम्यचरितो दक्षिण कीर्त्यते वुधै’इति विशिष्य लक्षितः। सौशील्येन सुखभावरूपेण मनोधर्मेण सौम्यं सुकोमलं चरितं देहादिचेष्टा यस्य स इत्यर्थः। अत्र तु रसे तमपि विशिष्य लक्षयति—यो गौरवमिति। य खलु अन्यचित्तोऽपि पूर्वयोषिति गौरवादिकं न मुञ्चति स दक्षिणो ज्ञेय इत्यन्वयः। अत्र यो गौरवं भयं प्रेमेति सौशील्यमेव विशिष्य दर्शितम्। दाक्षिण्यं च विशिष्टस्य पूर्वग्रन्थोक्तसामान्यलक्षणांशस्य विशेषलक्षणेऽप्यपेक्षणीयत्वादत्र सौम्यचरितत्वमेव
श्रुत्वा जल्पं पिशुनमनसां तद्विरुद्धं सखीनां
युक्तः कर्तुं सखि सविनये नात्र विस्रम्भभङ्गः॥३०॥
यद्वा—
नायिकास्वप्यनेकासु तुल्यो दक्षिण उच्यते।
यथा दशरूपके—
स्नाता तिष्ठति कुन्तलेश्वरसुता वारोऽङ्गराजखसु–
र्द्युते रात्रिरियं जिता कमलया देवी प्रसाद्याद्य च।
इत्यन्तःपुरसुन्दरीः प्रति मया विज्ञाय विज्ञापिते
देवेनाप्रतिपत्तिमूढमनसा द्वित्राः स्थितं नाडिकाः॥३१॥
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णत्वेन भयं च॥३०॥ स्नातेत्यन्तःपुरचारिण्या दूत्याः कस्याश्चित् स्वसखीं प्रत्युक्तिः। स्नातेति।अद्य तस्या अङ्गसङ्गे धर्मशास्त्रमेव विधायकमिति भावः। अङ्गराजस्य स्वसुर्वार इति। अत्र व्यावहारिकी नीतिरेव विधायिकेति भावः। द्यूते इति। सा कमला त्वामद्य कथं हास्यतीति भावः। देवी रुक्मिणी प्रसादयितुमर्हति। अत्र त्वत्प्रेमैव प्रयोजकमिति भावः। इति विज्ञाय सर्वमौचित्यं ज्ञात्वैव। हे द्वारवतीनाथ, अन्त पुरसुन्दरीः प्रति अवधेहीति मया विज्ञापिते सति देवेन तेन अप्रतिपत्तिः समाधानासामर्थ्यं तथा मूढं मुग्धं मनो यस्य तेनेति तासु चतसृषु प्रेमतारतम्याभावःसूचितः॥३१॥ स्नातेति पद्यं पुरसुन्दरीषु कष्टेनैव
*
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वक्तव्यम्। तच्च मनोधर्मस्य गौरवादेरनुरूपमेव। न तु लक्ष्यं दक्षिणत्वम्। लक्षणाशपूर्णलक्षणयोरेकत्वानुपपत्तेःसति चैकत्वेपौनरुक्त्यस्य वैयर्थ्यापत्तेश्च। ततश्चायमर्थः—य खलु अन्यस्यां परमसद्गुणायां कस्यांचित्तदीयरागविशेषेण पश्चात् बद्धचित्तोऽपि पूर्वयोषिति गौरवमिश्रेण प्रेम्णा संततकृतभजनायां कस्यांचिदितरस्यां नत्वन्यस्यामिव शुद्धरागविशेषेणातीव रमयन्त्यां गौरवानुसारि गौरवमादरं तथा भयं प्रेमरत्यास्तस्याः स्वहेतुकप्रेमभङ्गेनानिष्टाशङ्कां तथा प्रेम तद्दुःखाशङ्कया प्रधानं स्नेहलक्षणं स्नेहलक्षणतया दाक्षिण्यं दाक्षिण्यशब्दोक्तसौम्यचरितत्वंच न मुञ्चति सोऽसौ दक्षिण इति। देवी रुक्मिणी। ‘रुक्मिणी द्वारवत्यां तु’इति पुराणप्रसिद्धत्वात्॥२९॥ दक्षिणस्य द्वितीये लक्षणे द्वारकागततत्प्रेयसीष्वप्युदाहरणं देवीशब्दोक्तश्रीरुक्मिणी–
** यथा वा—**
पद्मा दृग्भङ्गिरङ्गं कलयति कमला जृम्भते साङ्गभङ्गं
तारा दोर्मूलमल्पंप्रथयति कुरुते कर्णकण्डूं सुकेशी।
शैब्या नीव्यां विधत्ते करमिति युगपन्माधवः प्रेयसीभि–
र्भावेनाहूयमानो बहुशिखरमनाः पश्य कुण्ठोऽयमास्ते॥३२॥
अथ शठः—
प्रियं वक्ति पुरोऽन्यत्र विप्रियं कुरुते भृशम्।
निगूढमपराधं च शठोऽयं कथितो बुधैः॥३३॥
यथा—
स्वप्ने व्यलीकं वनमालिनोक्तं पालीत्युपाकर्ण्य विवर्णवक्त्रा।
श्यामाविनिःश्वस्य मधुत्रियामां सहस्रयामामिव सा व्यनैषीत्॥३४॥
\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_
संगमय्य अपरितुष्यन्नाह—यथा वेति। पद्मेति। पद्मादयः प्रायः समा एव समास्वेव प्रायेण दाक्षिण्यसंभवात्। बहुशिखरमना अनेकाग्रचित्तः॥३२॥ प्रियं वक्ति पुरोऽन्यत्रेति। अत्र विप्रियापराधयोरैक्यात् पौनरुक्त्यंस्यादिति न मन्तव्यम्। व्यावहारिकस्यापराधस्य दूरदृष्टजनकत्वाभावात् ऐहिकस्याभीप्सितस्य व्यवहारमात्रस्य विघातित्वमेवार्थः। तच्चापराधस्य तद्विषयीभूतत्वेन ज्ञातत्वेएव भवेन्नाज्ञातत्व इति। अतः परोक्षकृतस्याप्रियस्य विप्रयशब्दवाच्यत्वं तस्यैव ज्ञातत्वे अपराधत्वमिति उदाहरणे व्यक्तीभविष्यति॥३३॥ स्वप्ने इति। श्यामासख्या नान्दीमुखीं प्रत्युक्तिः। अत्र स्वप्ने व्यलीकं उक्तमित्यनेन जागरे तु त्वां विना अस्याःकदापि न हृदये दधामीति तेनोक्तमिति गम्यते। तच्च पुर प्रियवादित्वं एकं शठलक्षणं ततश्च प्रसादितायाः श्यामायाः संकीर्णसंभोगान्ते निद्राणस्य तस्य
*
*
साहित्यान्न संगच्छते इति मत्वा वृन्दावनस्थास्वेव समासु कासुचित्तत्तदुदाहरति—यथा वेति। एवमुत्तरयापि॥३०॥ विप्रियं यद्यत् वक्ति तस्य तस्य विरुद्धं। अपराधःअन्यमन्यमप्यतिक्रम। कि त्वेते पृथगेव लक्षणे दर्श्यते॥३१॥३२॥३३॥ तत्र विप्रियत्वोदाहरणम्—स्वप्न इति। तत्र भवतीं विना मम
यथा वा—
तल्पितेन तपनीयकान्तिना कृष्ण कुञ्जकुहरेऽद्य वाससा।
अभ्यधायि तव निर्व्यलीकता मुञ्च सामपटलीपटिष्ठताम्॥३५॥
अथ धृष्टः—
अभिव्यक्तान्यतरुणीभोगलक्ष्मापि निर्भयः।
मिथ्यावचनदक्षश्चधृष्टोऽयं खलु कथ्यते॥३६॥
यथा—
नखाङ्का न श्यामे घनघुसृणरेखाततिरियं
न लाक्षान्तःक्रूरे परिचिनु गिरेर्गैरिकमिदम्।
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पाल्या सह स्वाप्नसंभोगः स च श्यामाया परोक्ष इति अन्यत्र विप्रियकारित्वं द्वितीयम्। हे पालीति तज्ज्ञापकेन स्वप्नायितेन तस्यैव विप्रियस्य ज्ञातवत्वेनापराधत्वादपराधकारित्वं तस्य निगूढत्वंहे पालीति मात्रोक्त्याऊह्यमानत्वात्॥३४॥ अत्र प्रियोक्तिविप्रियकारित्वेगम्यमाने एव न स्पष्टं स्थूलधीर्वुध्यते इयत्र आह—यथा वेति। तल्पितेनेति। पद्मावाक्यम्। तल्पीकृतेनेति तस्य वासस्य अञ्जनादिरञ्जितत्वम्लानत्वाभ्यां निर्व्यलीकता निरपराधत्वमिति विपरीतलक्षणया अपराधकारित्वं तेन च परोक्षविप्रियकारित्वं मुञ्च।सामेति पुरःप्रियवादित्वम्। न चान्यापराधान्यथानुपपत्त्यैव परोक्षविप्रियकारित्वं सेत्स्यति लक्षणे किं तस्य पृथगुपादानेनेति वाच्यम्।विप्रियाचरणं विनापि कृत्रिमगोत्रस्खलनोत्थस्याप्यपराधस्य विदग्धमाधवसप्तमाङ्के दृष्टत्वात् इति॥३५॥३६॥ नखाङ्केति।
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स्वप्नेऽपि अन्यस्याःस्फूर्तिर्नास्तीति तेन स्वयमुक्तमासीदिति ज्ञेयम्॥३४॥ अपराधमुदाहरति—कल्पितेनेति॥३५॥३६॥ नखाङ्काइति। यद्यपि तच्छ्रीविग्रहे क्षतरूपास्तेन संभवन्ति यत्ते सुजातेति दृष्ट्या तास्तत्र तान्नार्पयन्ति च। किं तु कोमलमुद्रया नखादिना सपरिहास तद्गात्रं स्पृशन्ति मात्रं तथापि ये तदाभाषाः केचिद्वर्णा उदयन्ते ते च प्रतिनायकाभिस्तादृशतया न मन्यन्ते
धियं धत्से चित्रं बत मृगमदेऽप्यञ्जनतया
तरुण्यास्ते दृष्टिः किमिव विपरीतस्थितिरभूत्॥३७॥
उदात्ताद्यैश्चतुर्भेदैस्त्रिभिः पूर्णतमादिभिः।
द्वादशात्मा चतुर्विशत्यात्मा पत्यादियुग्मतः॥३८॥
नायकः सोऽनुकूलाद्यैः स्यात्पण्णवतिधोचितः।
नोक्तो धूर्तादिभेदस्तु मुनेः संमत्यभावतः॥३९॥
इति नायकभेदाः।
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खण्डितां श्यामां प्रति श्रीकृष्णस्योक्तिः। मृगमदेत्याघ्रायमाणात् सुगन्धिशिलाखण्डात् कस्तूरी मदधरे लग्नेति॥३७॥ उदात्ताद्यैर्धीरोदात्तधीरललितधीरोद्धतधीरशान्तैः पूर्णतमादिभिः पूर्णतमपूर्णतरपूर्णस्त्रिभिर्गुणितैर्द्वादश आत्मान स्वरूपाणि भेदा यस्य सः। पुनश्च पत्युपपतिभ्यां तत्र पूर्णतमस्य पतित्वोपपतित्वे स्पष्टे। पूर्णतरस्य कुब्जायामुपपतित्वं भावयोगात्तु सैरन्ध्री परकीयैव संमतेत्युक्तेः। रुक्मिण्याः पतित्वम्। ‘प्राप्य मथुरां पुरीं रम्यां सदा ब्रह्मादिसेविताम्। शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गरक्षिता मुसलादिभिः॥ यत्रासौ संस्थित कृष्णस्त्रिभि शक्त्या समाहितः। रामानिरुद्धप्रद्युम्नै रुक्मिण्या सहितो विभु॥’ इति गोपालतापन्युक्ते। पुराणान्तरेऽपि मथुरास्थस्यैव कृष्णस्य रुक्मिण्युद्वाहश्रवणात् उद्धवयाने नरेन्द्रकन्या उद्वाह्येति व्रजदेव्युक्तेः। तथा पूर्णस्यापि रुक्मिण्यादिसर्वपट्टमहिषीषु पतित्वम्। कुब्जादिषूपपतित्वम्। मथुरास्थसर्वजनानामेव द्वारकां प्रत्यानयनात्तत्र कुब्जादीनां स्थितिर्नानुपपन्ना॥३८॥ मुनेर्भरतस्य॥३९॥ इति नायकभेदविवृतिः॥
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तद्दृष्ट्या च कविभिर्वर्ण्यन्ते इति ज्ञेयम्। उदात्ताद्यैरित्युपपतित्वेपूर्णतमत्वमेव पतित्वे पूर्णतरत्वादिद्वयं च तत्र तत्र केनाप्यंशेनोन्नेयम्॥३७॥३८॥ नोक्त इति। पूर्वोक्तात् शठात् धूर्तस्य भेदः परार्थग्राहकवञ्चनादक्षवचनादित्वेन ज्ञेयम्॥३९॥ इति नायकभेदाः॥
सहायभेदाः।
अथैतस्य सहायाः स्युः पञ्चधा चेटको विटः।
विदूषकः पीठमर्दः प्रियनर्मसखस्तथा॥१॥
नर्मप्रयोगे नैपुण्यं सदा गाढानुरागिता।
देशकालज्ञता दाक्ष्यं रुष्टगोपीप्रसादनम्।
निगूढमत्रतेत्याद्याः सहायानां गुणाः स्मृताः॥२॥
तत्र चेटः—
संधानचतुरश्चेटोगूढकर्मा प्रगल्भधीः।
स तु भङ्गुरभृङ्गारादिकः प्रोक्तोऽत्र गोकुले॥३॥
यथा—
न पुनरिदमपूर्व देवि कुत्रापि दृष्टं
शरदि यदियमारान्माधवी पुष्पिताभूत्।
इति किल वृषभानोर्लम्भितासौ कुमारी
व्रजनवयुवराजव्याजतः कुञ्जवीथीम्॥४॥
अथ विटः—
वेषोपचारकुशलो धूर्तो गोष्ठीविशारदः।
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सहायास्ते किशोरा अपि ते पीठमर्दंविना क्लीबवत् पौरुषभावहीना एव लीलाशक्त्या संपादिता इति श्रीजीवगोस्वामिचरणानां व्याख्या॥१॥२॥३॥४॥
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- अथैतस्य सहायाः स्युरित्यौपपत्याभासलीलायामेव ज्ञेयाः। किंतु किशोरा अपि केलौक्लीबवत् पौरुषभावहीना एवैते मन्तव्याः॥१॥२॥३॥४॥ वेशोपचारकुशलत्वं कामतन्त्रकलावेदित्वं च दूत्योपयोग एव ज्ञेयं न तु सर्वत्र वृथात्वात्। भावान्तरस्पर्शित्वाभावाच्च। उदाहरणे तु तद्द्वयमुन्नेयम्। तच्च स्वरूपस्य*
कामतन्त्रकलावेदी विट इत्यभिधीयते।
कडारो भारतीबन्धुरित्यादिर्विट ईरितः॥५॥
यथा—
व्रजे सारङ्गाक्षीविततिभिरनुल्लङ्घ्यवचनः
सखाहं त्वद्बन्धोश्चटुभिरभियाचे मुहुरिदम्।
कलक्रीडद्वंशीस्थगितजगतीयौवतधृति–
स्त्वया युक्तः श्यामे न खलु परिहर्तुं सखि हरिः॥६॥
अथ विदूषकः—
वसन्ताद्यभिधो लोलो भोजने कलहप्रियः।
विकृताङ्गवचोवेषैर्हास्यकारी विदूषकः।
विदग्धमाधवे ख्यातो यथासौ मधुमङ्गलः॥७॥
यथा—
तुष्टेन स्मितपुष्पवृष्टिरधुना सद्यस्त्वया मुच्यता–
मारूढः कुतुकी विमानमतुलं मां गोकुलाखण्डलः।
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कामतन्त्रसंबन्धिन्यः कलाः स्त्रीवशीकारमोहनमन्त्रौषधादिप्रयोगा॥५॥ अनुल्लङ्घ्यवचन इति गोष्ठीविशारदत्वम्। कलेन मधुरास्फुटेन ध्वनिना क्रीडन्ती या वंशी तयेति भयप्रदर्शनेन कामतन्त्रकलावेदित्वं धूर्तत्वं च तस्य व्यञ्जितम्॥६॥७॥ हे मानिनि, इत्थं मनोरथेन मया अभ्यर्थ्यमानोऽपि तवाधरो यन्मदमीष्टदाने न प्रयतते तद्रागिषु मत्सरेषु नाश्रर्यमित्यर्थान्तरन्यासः। यतस्तत्सङ्गेनैव त्वमपि मात्सर्यवती मानिन्यभूरिति भाव। ‘रागोऽनुरागे मात्सर्ये क्लेशादौ लोहितादिषु’
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वेशान्तरेणाच्छन्नतयागमनात्कामतन्त्रीयमोहनमन्त्रादियोगाच्च॥५॥६॥ भोजने लोलः सतृष्णः। एतदादिकमप्युदाहरणान्तरेण ज्ञेयम्॥७॥ विमानं दिव्यरथरूपं पक्षे विगतमानम्। अत्र तन्नाद्भुतं रागिष्विति अर्थान्तरन्यासः।
इत्थं देवि मनोरथेन रभसादभ्यर्थ्यमानोऽप्यसौ
यज्ञे मानिनि नाधरः प्रयतते तत्राद्भुतं रागिषु॥८॥
यथा वा—
ममोपहरति स्वयं भवदभीष्टदेवो नम–
न्नवं कमलमुज्ज्वलं कमलबन्धुरुत्कण्ठया।
मया तु तदवज्ञया भुवि निरस्यते रुष्यता
न मानयसि मद्वचस्तदपि मानिनि त्वं कुतः॥९॥
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इति विश्वः। किमभ्यर्थनं तदाह—तुष्टेन त्वया हे अधर, स्मितपुष्पवृष्टिर्मुच्यतां क्रियताम्। मुच्यतामित्यनेन सा त्वयि वर्तते एव किंतु सा अन्तर्बद्धा स्थापिता इति सांप्रतं तव मानो नास्त्येवेति ध्वनिः। ततश्च तस्या कथं विफलं बन्धनं क्रियते। मोचनं क्रियताम्। सा वहिर्निःसरत्विति भावः। यतो गोकुलाखण्डलः पृथ्वीमण्डलेन्द्रः, पक्षे व्रजदेशस्य राजा।श्लेषेण स्वमाधुर्येण तव सर्वेन्द्रियप्रतिपालको मा विमानम्। दिव्यं रथमित्यर्थः।श्लेषेण विशिष्टज्ञानवन्तम्। ‘मन ज्ञाने’घञ्। आरूढः। अस्मिन्कर्मणि साहाय्यार्थमवलम्बमान इत्यर्थः।यद्वा तस्या हास्यप्रकाशार्थं वहन्नेवागत्येदं वक्ति। ‘विकृताङ्गवचोवेषैः’ इति लक्षणात्। श्लेषेण तदा विगतादरं विदूषकं इति स्वात्मनारोहणे हेतुरुक्तः। श्लेषेण विगतो मानो यतो भवति तद्यथा स्यादतुलं यथा स्यादेवं मां शोभां आरूढः। अतो रथारूढे राज्ञि पुष्पवृष्टिः परमशोभास्वीकारेण मानध्वंसिनि च स्मिताविष्कृतिश्च समुचितैवेति भावः। ततश्च तया स्मितं कृतमिति ज्ञेयम्॥८॥ मामसौ हासयितुं यतते तदहं न हसामीति हठिन्यां तद्वचनमनवधानायां प्रसङ्गान्तर एव मनो दधत्यांतद्वैफल्यमपि स्यादित्यत आह—यथा वेति। रुष्यता अकृतस्नान एव कमलमानैषीस्तदिदमपवित्रं जातम्। अतस्त्वामस्मात्परिचरणाद्दूरी–
*
*
रागिष्वित्यर्थःश्लेषमूलः।रागशब्दो हि ‘रागोऽनुरागे मात्सर्ये क्लेशादौ लोहितादिषु’इति विश्वप्रकाशे मात्सर्यलोहितयोः स्वीकृतत्वात् रागिपदं हि लोहितेऽधरे मात्सर्यवत्यर्थान्तरेऽपि वर्तते इति॥ ८॥९॥१०॥ ब्रूम इत्यादिना
** अथ पीठमर्दः—**
गुणैर्नायककल्पो यः प्रेम्णा तत्रानुवृत्तिमान्।
पीठमर्दःस कथितः श्रीदामा स्याद्यथा हरेः॥१०॥
** यथा—**
कालिन्दीपुलिने मुकुन्दचरितं विश्वस्य विस्मापनं
द्रष्टुं गच्छति गोष्ठमेव निखिलं नैकात्र चन्द्रावली।
ब्रूमस्तस्य सुहृत्तमाः स्वयममी पथ्यं च तथ्यं च ते
मा गोवर्धन मल्ल घट्टय मुधा गोवर्धनोद्धारिणम्॥११॥
** यथा वा—**
तवेयं श्रीदामन्प्रणतिरिह विस्रम्भयति मां
प्रसादो रुद्राण्याः किमिव चपलासु प्रसरति।
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करिष्यामीति क्रुध्यता॥९॥१०॥ **कालिन्दीति।**मदीयानपि दारानाकृष्य वनं नयति तदयमहमस्मै प्रतिफलं दास्यामीति विविधविरुद्धवल्गिनं गोवर्धनमल्लं प्रति श्रीदामवाक्यम्।ब्रूम इति वहुवचनेन वाक्यस्यास्य बहुवक्तृकत्वेन त्वया नाप्रामाण्यमाशङ्कनीयमिति। सुहृत्तमा इति। सख्यात्तदीयान्तःकरणधर्मस्य चन्द्रावल्यां निर्विकारित्वलक्षणस्य ज्ञानं ध्वनितम्। पथ्यमिति। अन्यथा बकारिष्टादीनिव त्वामसौ वधिष्यतीति। मा घट्ट्यकृष्णसर्पमिव मा चालय यद्यात्मनो भद्रमिच्छसीति। ‘घट्ट चलने’। मल्लेति। कंसस्याहं चाणूरादिसदृशो मल्ल इत्यपि माहं कृथा इति। **गोवर्धनोद्धारणमिति।**स्वस्य महापर्वतोद्धृतिक्षमताविष्कारेण त्वत्कंसमपि नासौ गणयतीति ध्वनितम्। अत्र शृङ्गारसख्यरौद्ररसेषु रौद्र एवाङ्गी।श्लेषेण त्वं गोवर्धनः स तु गोवर्धनोद्धारी सकुटुम्बस्य तवापि तदा रक्षितत्वादिति नीतिश्च ध्वनिता॥११॥ चन्द्रावल्याः पतिंमन्ये गोवर्धनमल्ले दण्डरूपोपायेन श्रीदाम्नः साहाय्यमुदाहृत्य तस्याः श्वश्र्वां भेदेनापि तस्य दर्श–
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बहुवचनेन तस्य नायकतुल्यगुणत्वादिकं व्यज्यते। गोवर्धनो नाम मल्लश्चन्द्रावल्याः पतिंमन्यः कश्चिदिति ललितमाधवप्रक्रिया॥११॥ तवेयमिति। तस्य
वने यान्तीं दुर्गार्चनघुसृणमाल्याङ्कितकरां
वधूं दृष्ट्वा शङ्केप्रथयति कलङ्कं खलजनः॥१२॥
** अथ प्रियनर्मसखः—**
आत्यन्तिकरहस्यज्ञः सखीभावं समाश्रितः।
सर्वेभ्यः प्रणयिभ्योऽसौ प्रियनर्मसखो वरः।
स गोकुले तु सुबलस्तथा स्यादर्जुनादयः॥१३॥
** यथा—**
प्रत्यावर्तयति प्रसाद्य ललनां क्रीडाकलिप्रस्थितां
शय्यां कुञ्जगृहे करोत्यघभिदः कन्दर्पलीलोचिताम्।
स्विन्नं वीजयति प्रियाहृदि परिस्रस्ताङ्गमुच्चैरभुं
क्व श्रीमानधिकारितां न सुबलःसेवाविधौ विन्दति॥१४॥
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यति—**यथा वेति। तवेयमिति।**स्ववधूं वने प्रहिणु वा गृहे रुन्धि वा मद्वयस्यात्तु निःशङ्कैवतिष्ठ, स त्वेनां न परिचिनोति। अपीति सत्यापयामि किं त्वाप्ततया ब्रवीमि। रुद्राण्या स्वभाव एवायं शश्वत्सेव्यमाना प्रसीदन्ती स्वसंपदं ददाति। सेवितचरी पुनः सेवामप्राप्य क्रुध्यन्ती धनधान्यपत्यादिकं भक्षयति चेति भाण्डरीमुखाच्छ्रुतमिति ब्रुवाणं श्रीदामानं प्रति भारुण्डावचनम्। चपलास्विति। मद्गृहे धनधान्यगवादिवृद्धान्यथानुपपत्त्या रुद्राण्याः प्रसादः। रुद्राणीप्रसादान्यथानुपपत्त्या वधूरियमचञ्चला साध्वेवेति ज्ञायत एवेति भावः। किंतु वने यान्तीमित्यादि॥१२॥१३॥ प्रत्येति। रूपमञ्जर्या सुबलविषयकभक्तिजनिका स्वसखी प्रत्युक्ति—स्विन्नंवीजयतीति। वहिः स्थित्वा यन्त्रव्य–
*
*
वृद्धावञ्चनया नायके प्रेमाधिक्यं व्यज्यते॥१२॥ सखीभावःश्रीकृष्णतत्प्रेयस्याः परंपरमेलनेच्छा तं समाश्रित इति तेन तस्य पुरुषभावश्चावृत इति भावः॥१३॥ स्विन्नं वीजयतीत्युदात्तालंकार एवायम्। स च वाच्यार्थासंभवेऽपि वस्त्वतिशयमात्रव्यञ्जकःक्वचिद्दृश्यते। यथा ‘तदश्रुणि नदी जाता’इत्यादौ। ततः‘शश्वद्वीजयति प्रियान्विततया स्विन्नाङ्गमेतं रहः’इति पाठान्तरं च न मूलकृतम्॥१४॥
** यथा वा—**
याभिः साचिदृगञ्चलेन चटुलं कंसारिरालिह्यते
दोर्द्वन्द्वेन कुचोपपीडमुरसि स्वैरं परिष्वज्यते।
एतस्याधरसीधुरुद्धुरतया सामोदमास्वाद्यते
किं जानासि सखे व्यधायि कतरद्गोपीभिराभिस्तपः॥१५॥
चतुर्विधाः सखायोऽत्र चेटः किङ्कर इष्यते।
पीठमर्दस्य वीरादावपि साहाय्यकारिता॥१६॥
हरिप्रियाप्रकरणे वक्ष्यन्ते यास्तु दूतिकाः।
अत्रापि ता यथायोग्यं विज्ञेया रसवेदिभिः॥१७॥
तत्र स्वयं यथा—
सखि माधवदृग्दूत्याः कर्मठता कार्मणे विचित्रास्ति।
उपधाशुद्धापि यया रुद्धा त्वं चित्रितेवासि॥१८॥
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जनेनेति ज्ञेयम्॥१४॥ अत्र सखीभावं समाश्रित्य इति। यद्यपि सख्यो हि स्वस्वयूथेश्वरीणां श्रीराधादीनामेव श्रीकृष्णाङ्गसङ्गसुखेन सुखिन्यो न तु स्वेषाम्। तदपि ताःसामान्यतो द्विधा भवन्ति प्रेमसौन्दर्यवैदग्ध्यादीनामाधिक्येन श्रीकृष्णस्यातिलोभनीयगात्रस्तेषां न्यूनत्वेन तस्यातिलोभनीयगात्र्यश्च।तत्र पूर्वाःश्रीकृष्णसुखानुरोधात् तत एव स्वयूथेश्वरीणामप्याग्रहाधिक्याच्च कदाचित् कृष्णाङ्गसङ्गस्पृहावत्यो
भवन्ति। ताश्च ललिताद्या परमप्रेष्टसख्यादय उत्तरास्तु तद्द्वयाभावात्कदापि कृष्णाङ्गसङ्गस्पृहावत्यो न भवन्ति। ताश्च कस्तूर्यादयो नित्यसख्यस्तत्र व्याख्यातलक्षणं पूर्वासां श्रीकृष्णाङ्गसङ्गस्पृहारूपमंशमुदाहर्तुमाह—यथा वेति।याभिरिति। सुवलं प्रति उज्ज्वलस्य साभिलाषोक्ति।कुचोपपीडं कुचाभ्यामुपपीड्य॥१५॥१६॥१७॥ तत्र स्वयमिति। स्वयं दूती इत्यर्थः।
*
*
याभिरिति। तदनुमोदनमेव न तु तत्स्पृहा सखीभावादेव॥१५॥१६॥१७॥ अत्र स्वयमिति। स्वयं दूतीत्यर्थः। कार्मणे वशीकरणौषधकर्मणि। उपधया धर्मादिपरीक्षणया॥१८॥ अवगृह्य अपहृत्येत्यर्थः।निसृष्टार्था विन्य–
वंशी यथा ललितमाधवे—
ह्रियमवगृह्य गृहेभ्यः कर्षति राधां वनाय या निपुणा।
सा जयति निसृष्टार्था वरवंशजकाकली दूती॥१९॥
आप्तदूती—
वीरावृन्दादिरप्याप्तदूती कृष्णस्य कीर्तिता।
वीरा प्रगल्भवचना वृन्दा चाटूक्तिपेशला॥२०॥
** यथा—**
विमुखी मा भव गर्विणि मद्गिरि गिरिणा धृतेन कृतरक्षम्।
मूढे समूढवयसं माधव माधाव रागेण॥२१॥
________________
**सखीति।**राधां प्रति विशाखोक्तिः। कार्मणे वशीकारौषधकर्मणि उपधया धर्मादिपरीक्षया शुद्धापि। ‘उपधा धर्माद्यैर्यत्परीक्षणम्’इत्यमर॥१८॥ ह्रियमिति।गार्गीवाक्यम्।अवगृह्य आच्छिद्य।वनाय वनं प्रापयितुम्। निसृष्टार्था विन्यस्तकार्यभारा॥१९॥२०॥ अत्र वंश्याः स्वानतिरिक्तत्वात् स्वयं त्वंनिसृष्टार्थत्वादाप्तदूतीत्वंच। अत एव ‘वृन्दावृन्दारिकामेलामुरल्याद्यास्तु दूतिकाः’इति गणोद्देशदीपिका। मद्गिरि मम वाक्ये। समूढवयसं सम्यग्धृतयौवनम्। तेन स यावदन्यस्यामासक्तो न भवति तावदाधावेति विलम्बानौचित्यं ध्वनितम्। गिरिणाधृतेनेति। ‘वीरवत्यःस्त्रियः’इति न्यायेन बलिष्ठत्वं द्योतितम्।
*
*
स्तकार्यभारा॥१९॥२०॥ विमुखी मा भवेति। वामायमानां पूर्वरागिणीं प्रति दूतीवचनम्। अमूढवयसं सुरूढयौवनं माधवं प्रति आधाव। समूढवयसमित्यनेन सत्वन्यस्यामासक्तो भविष्यत्येव त्वमेवानुतप्स्यसीति व्यञ्जितम्। एतद्व्यञ्जनायाः स्पष्टतार्थमेव मूढे इति प्रगल्भत्वमुक्तम्। प्रगल्भवचनत्वादेव वाक्यं समाप्तमपि रागेणेत्यनेन पुनर्गन्तुं स्थायिनिर्देशश्च कृत। तेन च माधव मा धाव मा धवं पतिं तुच्छमित्येतद्वाग्भङ्ग्यन्तरं व्यङ्ग्यं ज्ञापितमिति साक्षान्न वाच्यं कृतम्
वृन्दा सुन्दरि वन्दनं विदधती यत्पृच्छति त्वामसौ
चञ्चन्मञ्जुलखञ्जरीटनयने तत्रोत्तरं व्यञ्जय।
केयं भ्रूभुजगी तवातिविषमा वंभ्रम्यते यद्भिया
क्लान्तः कालियमर्दनोऽपि कुरुते नाद्य प्रवेशं व्रजे॥२२॥
अस्यासाधारणा दूत्यो वीराद्याः कथिता हरेः।
लिङ्गिन्यन्तास्तु वक्ष्यन्ते यास्ताः साधारणा द्वयोः॥२३॥
इति नायकसहायप्रकरणम्।
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हरिवल्लभाः।
** अथ हरिवल्लभाः—**
हरेः साधारणगुणैरुपेतास्तस्य वल्लभाः।
पृथुप्रेम्णां सुमाधुर्यसंपदां चाग्रिमाश्रयाः॥१॥
________________
भङ्ग्यातु स पूर्वं गिरिणा धृतेन कृतरक्षोऽभूत्। अद्य तु गिरिभ्यां धृताभ्यां कृतरक्षो भविष्यतीति समाश्वस्ताभिसरेति नर्म। माधवं लक्ष्मीकान्तम्। नारायणसम इति गर्गवाक्यात्। मा शोभा तस्याः पतिम्। भङ्ग्यातु हे मूढे, तिर्यङ्मुखी किं भावयसि मूढाना पश्वादीनामिव वयसा सह वर्तमानं धवं स्वपतिं मा आधावेति कठोरभाषित्वम्॥२१॥ **वृन्देति।**वृन्दोक्ति। भ्रूभुजगीत्यनया भुजग्यैव दष्टः क्लान्तः सन् वंभ्रम्यते इति तेन त्वमेव तत्र गत्वा स्वीयभ्रूभुजग्या पुनस्तं खकान्तं दष्टं कृत्वा सुस्थीकुरु। लोके हि भुजगजातिदष्टं जनं पुनर्दष्ट्वा यदि स्वविषं गृह्णाति तदैव स निरामयः स्यादिति प्रसिद्धिः॥२२॥ वीराद्या वीरा–वृन्दारिका–मेला–मुरल्याद्याःअसाधारणा अस्यैव न तु तासाम्। लिङ्गिन्यस्ताः शिल्पकारिणीदैवज्ञालिङ्गिन्य इति तिस्रः॥२३॥ इति नायकसहायभेदविवृतिः॥
साधारणगुणैः सुरम्याङ्गत्वसर्वसल्लक्षणत्वादिभिः॥१॥ कृतपुण्यपुञ्जेति।
*
॥२१॥ वृन्देति। वृन्दाया एव वचनम्॥२२॥ द्वयोःश्रीकृष्णतत्प्रेयस्योः॥२३॥ इति नायकसहाया॥
*** साधारणेति** यथासंभवं ज्ञेयम्॥१॥ उपसन्नयौवनगुरोरिति।*
यथा—
प्रणमामि ताः परममाधुरीभृतः कृतपुण्यपुञ्जरमणीशिरोमणीः।
उपसन्नयौवनगुरोरधीत्य याः स्मरकेलिकौशलमुदाहरन्हरौ॥२॥
स्वकीयाः परकीयाश्चद्विधा ताः परिकीर्तिताः।
तत्र स्वकीयाः—
करग्रहविधिं प्राप्ताः पत्युरादेशतत्पराः।
पातिव्रत्यादविचलाः स्वकीयाः कथिता इह॥३॥
यथा—
सुनिर्माणे धर्माध्वनि पतिपराभिः परिचिते
मुदा बद्धश्रद्धां गिरि च गुरुवर्गस्य परितः।
_________________
लीलाविष्टलोकप्रतीत्यनुसारेणोक्तिः। प्रणमामीति मथुराङ्गनानां प्रत्येकमुक्तिः। उपसन्नयौवनमेव गुरुस्तस्मादधीत्येत्यप्युपदिशति। कामिनीनां यौवनमद एव ललितानीति न्यायेनोक्तिर्वस्तुतस्तु तासां नित्यसिद्धैव सर्ववैदग्धी, स्वावसरं प्राप्य उदयते। दृष्टं चं तथा रासक्रीडायां गाननृत्यादिषु प्रावीण्यं तत्तच्छास्त्रकृद्भिरपि दुर्गमम्। उदाहरन् तस्याध्ययनस्य प्रयोगान्दर्शयामासुः॥२॥३॥ सुनिर्माण इति। द्रौपद्याः स्वसखीं प्रत्युक्तिः। सुनिर्माण इति नासौ परकीयाणामिव लोकशास्त्राभ्यामनिर्मितः पराभवप्रदः पन्था इति भावः। पतिपराभिः साध्वीभिः,न तु परकीयाभिरिव चोरिभिस्तासां शिष्टजनपरिचितस्य पथोऽनुशीलनाशक्तेः।धर्माध्वनीति प्रियसेवायां धर्मशास्त्रमपि प्रवर्तकमित्यैहिकपारत्रिकदोषमात्राभावः। न तु परकीयाणामिव रागमात्रमेव न तु शास्त्रमिति भावः। वस्तुतस्तु पादत्रयमिदं परकीयाणामेव प्रेमाधिक्यं द्योतयति। तच्च सुखाधिक्यमिति तासामेवो–
*
*
तासु तत्तद्वैदग्धीनां स्वाभाविकत्वादवसरं प्राप्य स्वत एवोदयमाचष्टे। दृष्टं च तथा रासक्रीडायां गाननृत्यादिषु सर्वतः प्रावीण्यम्। उदाहरन् तस्याध्ययनस्य प्रयोगान् दर्शयामासुः॥२॥ पातिव्रत्यात् शास्त्रोक्ततद्धर्मात्। पत्युरादेशतत्पराइति। पत्यसंमतिश्चेत् कंचिद्धर्माशमपि त्यज्यन्ते इत्यर्थः॥३॥ सुनिर्माण
गृहे याः सेवन्ते प्रियमपरतन्त्राः प्रतिदिनं
महिष्यस्ताः शौरेस्तव मुदमुदग्रां विदधतु॥४॥
यथा वा श्रीदशमे—
न त्वादृशीं प्रणयिनीं गृहिणी गृहेषु
पश्यामि मानिनि यया स्वविवाहकाले।
प्राप्तान्नृपानविगणय्य रहोवहो मे
प्रस्थापितो द्विज उपश्रुतसत्कथस्य॥५॥
तास्तु श्रीयदुवीरस्य सहस्राण्यस्य षोडश।
अष्टोत्तरशताग्राणि द्वारवत्यां सुविश्रुताः॥६॥
आसां सख्यश्च दास्यश्चप्रत्येकं स्युः सहस्रशः।
तुल्यरूपगुणाः सख्यः किंचिन्न्यूनास्तु दासिकाः॥७॥
तत्रापि रुक्मिणी सत्या जाम्बवत्यर्कनन्दिनी।
शैव्या भद्रा च कौशल्या माद्रीत्यष्टौ गणाग्रिमाः॥८॥
अत्रापि रुक्मिणीसत्ये वरीयस्यौ प्रकीर्तिते।
ऐश्वर्याद्रुक्मिणी तत्र सत्या सौभाग्यतो वरा॥९॥
तथा हि श्रीहरिवंशे—
कुटुम्बस्येश्वरी सासीद्रुक्मिणी भीष्मकात्मजा।
सत्यभामोत्तमा स्त्रीणां सौभाग्ये चाधिकाभवत्॥१०॥
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त्कर्षःफलित इति। अपरतन्त्रा इति। तद्गुरूणां प्रियसेवाविरोधित्वाभावात्तत्पारतन्त्र्यमप्यपारतन्त्रमित्यभिप्रायेणोक्तम्। उदग्रां श्रेष्ठाम्॥४॥ तासु मुख्यामुदाहर्तुमाह—यथा वेति। रहोवहःरहःसंदेशप्रापकः। मे इति सप्तम्यर्थे षष्ठी॥५॥
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*
*इति। सर्वगुणयुक्तं दोषरहितं च निर्माणं यत्र तस्मिन्। **अपरतन्त्रा इति।*गुरुवर्गस्य गिरि श्रद्धावत्य इत्युक्तत्वान्न तदधीनत्वनिषेधः। किंतु परकीयंमन्यास्विव श्रीकृष्णसंगमविरोधिजनाधीनत्वनिषेधः। तद्विरोधिजनस्यात्राभावात्। प्रतिदिनमिति न तु तद्वदत्र दुर्लभतत्सङ्गतेति भावः॥४॥ रहोवहःरहः–
पाद्मे च कार्तिकमाहात्म्ये तां प्रति श्रीकृष्णवाक्यम्—
न मे त्वत्तः प्रियतमा काचिद्देवि नितम्विनी।
षोडशस्त्रीसहस्राणां प्रिये प्राणसमा ह्यसि॥११॥
अनयोः सकलोत्कृष्टाः सख्यो दास्यश्चलक्षशः।
स्वीयाजातीयभावेन निखिला एव भाविताः॥१२॥
याश्चगोकुलकन्यासु पतिभावरता हरौ।
तासां तद्वृत्तिनिष्ठत्वान्न स्वीयात्वमसांप्रतम्॥१३॥
यथा—
आर्या चेदतिवत्सला मयि मुहुर्गोष्ठेश्वरी किं ततः
प्राणेभ्यः प्रणयास्पदं प्रियसखीवृन्दं किमेतेन मे।
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६॥७॥८॥९॥१०॥११॥ स्वीयाजातीयभावेन स्वीयाजातीयत्वेन। ‘जायन्ताच्छो बन्धुनि’इति स्वार्थिकश्छः। कृष्णेनाव्यूढा अपि ताः स्वकीया एवेत्यर्थः। एवमेकत्र निर्णीतः शास्त्रार्थोबाधकाभावेऽन्यत्रापि प्रयुज्यत इति न्यायेनानुक्तव्यवस्था अपि व्रजस्थानां परकीयाणां दास्यः परकीया एव। तत्रापि परोढानां श्रीराधादीनां दास्यः काश्चन श्रीवृषभान्वादिभिर्विवाहकाले दत्ताः कन्यका एव काश्चन तदन्या रूपमञ्जर्यादयः परोढा एव ज्ञेयाः। ‘बिम्बाधरे क्षतमनागतभर्तृकायाः’इति श्रीदासगोस्वाम्युक्तेः। अर्वाचीनानां साधकभक्तानां तु भावो यथारुचि यथासंप्रदायं वा फलिप्यतीति बोद्धव्यम्। अस्मिन्पतिभावे या वृत्तिस्तत्रैव निष्ठायासां तासां भावस्तत्त्वं तस्मात्। असांप्रतं अयोग्यं न भवतीति। यद्यपि करग्रहविधिं प्राप्ता इत्यत्र विधिपदोपादानाद्वैवाहिको विधिर्विप्राग्निसाक्षिक एव
*
*
संदेशप्रकाशकः। मे इत्यत्र सप्तम्यर्थे षष्ठी॥५॥६॥७॥८॥९॥१०॥११॥ स्वीयाजातीयभावेनेति। स्वीयानां या जातिःप्रकारस्तस्य हितानुकूलो यो भावस्तेनेत्येव व्याख्येयम्। ‘प्राक्क्रीताच्छः’इत्यधिकारे ‘तस्मै हितम्’ इत्यनेन छस्य विधानात्। न तु जातीयप्रत्ययान्तत्वेन व्याख्येयम्। ‘पुंवत्कर्मधारयजातीयदेशीयेषु’इति पुंवत्त्वप्राप्तेः। अन्तरङ्गेण रागेणैवार्पितात्मानो नतु
वैकुण्ठाटविमण्डलीविजयिचेद्वृन्दावनं तेन किं
दीव्यत्यत्र न चेदुमाव्रतफलं पिच्छावतंसी पतिः॥१४॥
गान्धर्वरीत्या स्वीकारात्स्वीयात्वमिह वस्तुतः।
अव्यक्तत्वाद्विवाहस्य सुष्टुप्रच्छन्नकामता॥१५॥
** अथ परकीया—**
रागेणैवार्पितात्मानो लोकयुग्मानपेक्षिणा।
धर्मेणास्वीकृता यास्तु परकीया भवन्ति ताः॥१६॥
यथा—
रागोल्लासविलङ्घितार्यपदवीविश्रान्तयोऽप्युद्धुर–
श्रद्धारज्यदरुन्धतीमुखसतीवृन्देन वन्द्ये हिताः।
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मुख्यो भवति, तदपि तासां गौणं स्वीयात्वमिति भावः॥१२॥१३॥१४॥ प्रच्छन्नकामतेत्युपलक्षणं मिथोदुर्लभत्वबहुवारणत्वादीनाम्। सुष्ठ्विति। पितृमात्रादिबन्धुभिः कन्यात्वेनैव प्रतीतानां तासां स्वपुरुषस्यापि परपुरुषायितत्वाद्भयलज्जाधिक्यात्परकीयाधर्म एव स्पष्टः। न च तासां भावस्य समञ्जसत्वमाशङ्कनीयम्। तल्लक्षणे पत्नीभावाभिमानात्मेत्युक्तत्वात्। पत्नीभावस्य विप्राग्निसाक्षिकविवाहभवत्वात्। ‘पत्युर्नोयज्ञसंयोगे’इति पाणिनिस्मरणात्॥१५॥ रागेणेत्यत्र श्रीमज्जीवगोस्वामिचरणानां व्याख्या।अन्तरङ्गेण रागेणैवार्पितात्मानो न तु बहिरङ्गेण विवाहप्रक्रियात्मकेन धर्मेण। तदेवं मिथुनीभावे तासां रीतिमुक्त्वा श्रीकृष्णस्याप्याह। धर्मेण विवाहात्मकेनैवास्वीकृत्य नाङ्गीकृत्य रागेण तु स्वीकृता इत्येषा॥१६॥ रागोल्लासेति। तद्दूत्यादिषु प्रथमप्रवर्त्यमाना नान्दीमुखीगार्गीप्रभृतीः प्रति पौर्णमास्या वचनम्। रागौत्कट्येन विलङ्घिता आर्यपदव्या विश्रान्ति–
*
*
बहिरङ्गेण विवाहप्रक्रियात्मकेन धर्मेण। तदेवं मिथुनीभावे तासां रीतिमुक्त्वा श्रीकृष्णस्याप्याह—‘धर्मेण विवाहात्मकेनैवास्वीकृता नानीकृताः, रागेण तास्तु स्वीकृता इत्यर्थः॥१२॥१३॥१४॥१५॥१६॥ श्रद्धारज्यदिति। वन्द्येति च तासां
आरण्या अपि माधुरीपरिमलव्याक्षिप्तलक्ष्मीश्रिय-
स्तास्त्रैलोक्यविलक्षणा ददतु वः कृष्णस्य सख्यः सुखम्॥१७॥
कन्यकाश्चपरोढाश्चपरकीया द्विधा मताः।
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रन्तसीमापि याभिस्ता। का नाम सा धर्मपदवी या ताभिर्न लङ्घितेत्यर्थः। एवंरूपा अपि श्रद्धया रज्यदनुरक्तीभवत् यत् अरुन्धतीमुखसतीवृन्दं तेन वन्द्यंपरमादरेण श्लाघ्यं ईहितं कुञ्जाभिसारादिचेष्टितं यासां ताः। न तु परमपतिव्रतानामपि तासामयमादरस्तद्भावस्पृहाजनितस्तद्विनाभूत एव। नाद्यः तासु श्रीकृष्णस्य मातृभाववत्त्वात्। नापि द्वितीयो निजभावप्रातिकूल्यदृष्ट्या दोषदर्शनसंभवात्। ‘मिथोभावस्य वैजात्येन भावो रोचते मिथः।अरोचकतयैवायमक्षान्ति जनयेत्पराम्॥’ इत्यत्रैवोक्तेः। सत्यम्। अत्रायं विवेकः—अरुन्धत्यादीनां वसिष्ठाद्येकमात्रनिष्ठचेतसां परमसुन्दरात् कस्मादपि पुरुषात्कदापि क्षोभो न संभवति। किंतु श्रीनारायणादपि न संभवतीति न शक्यते वक्तुं तस्येश्वरत्वात् सौन्दर्यमाधुर्यादिगुणोदधित्वात् अतर्क्ययोगमायत्वाञ्च, अरुन्धत्यादीनामीशितव्यकोटिगतत्वात्, रसास्वादचातुर्यवत्त्वात्, मायावैभवान्तःपातित्वाच्च। व्रजसुन्दरीणां तु व्रजेन्द्रनन्दनैकमात्रनिष्ठं चेतस्तस्मादपि स्त्रीकृतनारायणस्वरूपाद्विकृतं नाभूत्, वासन्तिकरासोत्सवे तथा प्रसिद्धेः। किमुत नारायणात् किमुततरां पुरुषान्तरादित्यादि सर्वमाभ्यन्तरं पातिव्रत्यं तासां स्वतोऽपि कोटिगुणितं सर्वज्ञतया ज्ञात्वैव ताभिस्ताः स्तूयन्त इति। माधुरीपरिमलेति। परिमलपदेन माधुरीणां वल्लित्वमारोपितम्। ततश्च ताः सत्यमाख्या (?) एव किं तु तासां गुणरूपमाहात्म्यानां माधुरीणां माधुरीवल्ल्यस्तथा अवर्धन्त यथा वैकुण्ठपर्यन्तमारुह्य स्वसौरभ्यैर्लक्ष्म्या अपि गर्वसंपदस्तिरस्कृत्य इति ततश्च एकमात्रनिष्ठचेत स्वरूपेण पातिव्रत्येनारुन्धत्यादयो जिता रूपगुणादिभिर्लक्ष्म्यादयश्चेति प्राकृताप्राकृतनायिकासु तासामसाधारण्यं ध्वनितम्॥१७॥ कन्यकाश्चेति। दुर्गाव्रतपरास्वेव मध्ये पूर्वोक्तयुक्त्या पतिभाववतीभ्योऽन्या
*
*
तास्वादर एव व्यज्यते न तु तासु श्रीकृष्णविषयको यो भावस्तदापत्तिः। तत्तत्परस्यादर एव विश्रान्ते। तद्भावे कान्तात्वाभिमानलक्षणे भक्तिसामान्यांशस्यैवानुभवात् न तु मधुराख्यरत्यंशस्य। तासु हि श्रीकृष्णस्य मातृभाव एवेति॥१७॥ कन्यकाश्चेति। सोऽयमवतारलीलादृष्ट्यैव व्यवहारोन तु वस्तुतः पूर्वं स्थापि–
व्रजेशव्रजवासिन्य एताः प्रायेण विश्रुताः॥
प्रच्छन्नकामता ह्यत्र गोकुलेन्द्रस्य सौख्यदा॥१८॥
** तथा हि रुद्रः—**
वामता दुर्लभत्वं च स्त्रीणां या च निवारणा।
तदेव पञ्चबाणस्य मन्ये परममायुधम्॥१९॥
** विष्णुगुप्तसंहितायां च—**
यत्र निषेधविशेषः सुदुर्लभत्वं च यन्मृगाक्षीणाम्।
तत्रैव नागराणां निर्भरमासज्यते हृदयम्॥२०॥
आः किं वान्यद्यतस्तस्यामिदमेव महामुनिः।
जगौ पारमहंस्यां च संहितायां स्वयं शुकः॥२१॥
** यथाह श्रीदशमे—**
कृत्वा तावन्तमात्मानं यावतीर्गोपयोषितः।
रराम भगवाँस्ताभिरात्मारामोऽपि लीलया॥२२॥
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ज्ञेयाः। प्रायेणेति। काश्चित्तदानीं देशान्तरात्समागत्यापि समातृका स्थिता इति ज्ञेयाः॥१८॥ तदेवेति। ‘नपुंसकमनपुंसकेन’इत्यादिना एकशेषनिषेधः शास्त्रीयो लौकिकश्च॥१९॥२०॥ आ इति। स्वकीयापक्षपुष्टिवादिनः प्रति कोपः। ‘आस्तु स्यात्कोपपीडयोः’इति विश्वप्रकाशः। जगौ नि शङ्कतयोच्चैरुच्चचार। स्वयं शुक इति। न हि शुकवाक्यादधिकं प्रमाणमस्तीति भावः॥२१॥ तावन्तमात्मानमिति। तासामेकामपि त्यक्तुमसमर्थ इत्यासक्त्या–
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*
तत्वात्। याः काश्चित् कन्यका अपि रागेण पतित्वोपपतित्वविचारशून्यतया रहस्तं भजन्ते ता अपि परकीयाः, प्रच्छन्नकामता तु सुखविशेषाय संपत्स्यते इति पूर्वदर्शिताभिप्रायेणाह—प्रच्छन्नेति॥१८॥ पूर्वाभिप्रायेणैव भरतवाक्यवत् विष्णुगुप्तवाक्यं च दर्शयति—तथा हि रुद्र इत्यादिना॥१९॥२०॥ तथापि परकीयाव्यवहारो वहुष्वनिष्टत्वान्न वर्णनीय इति नाशङ्क्यमित्याह— आः किंवेति। आः इति बहिर्मुखान्प्रत्यधिक्षेपः। ‘आस्तु स्यात्कोपपीडयोः’इति विश्वकोशः। किंवान्यद्वक्तव्यमित्यर्थः। यतोऽन्यस्य का वार्ता।
वर्तितव्यं शमिच्छद्भिर्भक्तवन्नतु कृष्णवत्।
इत्येवं भक्तिशास्त्राणां तात्पर्यस्य विनिर्णयः॥२३॥
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धिक्यं गोपानाम्। योषित इति तासां स्पष्टमेव परकीयात्वम्। ‘व्रजयोषितः’इति पाठेऽपि श्रीकृष्णेनापरिणीतत्वात् ‘धर्मव्यतिक्रमो दृष्टः’इत्यादि शुकसिद्धान्तैरपरिणेष्यमाणत्वाच्च परकीयात्वम्।ररामेति। संप्रयोगाभिधायकपदेन शास्त्रीयो निषेध उक्तः। परस्त्रीषुसंयोगस्यैव धर्मशास्त्रेष्वधर्मजनकत्वेन निषिद्धत्वात्परकीयात्वेन दुर्लभत्वंव्यक्तमेव। यावतीरिति। तावन्तमित्येताभ्यां निर्भरासक्तिश्च। आत्मारामोऽपीति। इत्यंभूतप्रेमाणो गोपयोषित इति भावः। ‘आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे इतिवत्॥ २२॥ ननु ‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः’इति नीतिर्लोकानां दुर्गतिरेवातः प्रसक्ता इत्यत आह—वर्तितव्यमिति। शं शुभं भक्तवत्। भक्तकर्तृकाचरणेन तुल्यमाचरणीयमित्यर्थः। ननु भक्तानां सिद्धानां साधकानां वाचारोऽनुसरणीयः। नाद्यः। सिद्धानां प्रायः कृष्णतुल्याचारत्वात्। तथा हि—‘यत्पादपङ्कजपराग–’इत्यत्र स्वैरं चरन्तीति। नापि द्वितीयः। साधकेषु मध्ये दुराचारा अपि गणिताः—‘अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्’इत्यादिभिः।मैवम्। वर्तितव्यमिति तव्यप्रत्ययेन भक्तिशास्त्रोक्ता ये विधयस्तद्वन्त एवात्र भक्ता भक्तशब्देनोक्ताःन तु कृष्णवत्॥२३॥
*
*
इदं वक्ष्यमाणमेव श्रीमहामुनिः शुको जगौ।अप्यर्थ एवशब्दः। चकारश्चाप्यर्थे॥ तदाह—यथेति। आत्मारामोऽपि भगवानपि ताभिः सह ररामेति ‘आत्मारामाश्चमुनयः’इत्यादी ‘इत्थंभूतगुणो हरिः’इति वदित्थंभूतगुणास्ता इति भावः।तत्राप्यावेशविशेषमाह—यावत्यो व्रजयोषितस्तावन्तमात्मानमेकस्यैव श्रीविग्रहस्य तावन्तं प्रकाशं लीलया तच्छक्त्याङ्गत्वेत्यर्थः॥२१॥२२॥ तदेवं परकीयात्वेन प्रतीतास्वपि श्रीकृष्णलीलायां रसवत्त्वे स्थापिते कश्चिदाशङ्कते। ननु शृङ्गाररसभावनायां यथावसरं नायकस्य नायिकायाश्च स्वाभेदेन स्फूर्तौजायमानायामेवान्येषां रसोद्बोधः स्यादिति रसविदां स्थितिः। भवतां त्वत्र रसे सुतरामेव श्रीकृष्णाभेदभावना दोषाय कल्पते। तस्मादलमेतद्रसनिरूपणार्थं तासां महिमवर्णनेनेति तत्राह—***वर्तितव्यमिति।*आस्तां तावदस्य रसस्य वार्ता, रसा–
रामादिवद्वर्तितव्यं न क्वचिद्रावणादिवत्।
इत्येष मुक्तिधर्मादिपराणां नय इष्यते॥२४॥
तथा च तत्रैव—
नैतत्समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः।
विनश्यत्याचरन्मौढ्याद्यथा रुद्रोऽब्धिजं विषम्॥२५॥
अनुग्रहाय भक्तानां मानुषं देहमाश्रितः।
भजते तादृशीः क्रीडा याः श्रुत्वा तत्परो भवेत्॥२६॥
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रामादिवदिति। तेषां सदाचारत्वात्। न च तदपि भक्तानां संमतमित्याह—मुक्तीति। ‘यो यद्धर्मः स एव सः’इति न्यायेन तेषां रामसायुज्यं युक्तमेवेति॥२४॥ इत्यस्योदाहरणमाह—नैतदिति॥२५॥ तदपि स्वैराचरणं भगवतो भक्तिहितार्थमेवेत्याह—अनुग्रहायेति। भक्तानामनुग्रहाय तादृशीः क्रीडा भजते याः श्रुत्वा मानुषं देहमाश्रित्य।मानुष इत्यर्थ। तत्परस्तदेकनिष्ठोभवेदिति मणिमन्त्रमहौषधानामिव शक्तिरिवेयं लीलायां यत्तदेकनिष्ठतामुत्पादयतीति नात्राविश्वासः कार्य इति भावः। यदुक्तम् ‘विक्रीडितं व्रजवधूभिः’इत्यत्र भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्येत्यादि। यद्वा। भवेदिति। विधिलिङा‘अहरहः संध्यामुपासीत’इतिवद्यच्छ्रवणानन्तरं तत्परश्चेन्न भवेत्तदा प्रत्यवायी भवेदिति। ‘को नाम लोके पुरुषार्थसारवित्पुराकथानां भगवत्कथासुधाम्।आपीय कर्णाञ्जलिभिर्भवापहामहो विरज्येत विना नरेतरम्॥” इति तृतीयोक्तौ प्रत्यवायश्रवणात्। कृष्णकथामात्रस्यापि श्रवणतत्परत्वयोर्नित्यत्वे सिद्धेऽपि रासकथायास्तदात्यन्तिक–
*
*
न्तरेऽपि श्रीकृष्णभावो नानुवर्तितव्य इत्यर्थः॥२३॥ नचान्येषामपि श्रीकृष्णसंबन्धिनि रसेऽस्मिंस्तथा संमतिः पापावहत्वावगमात्। किंतु रामादिवदित्यादिकं यत्तेषु प्रसिद्धं तच्च सदाचाराद्यंश एव ग्राहयतीत्याह—***रामादिवदिति।*तत्र मुक्तिपरैः शान्ताद्यंशो धर्मपरैः स्वधर्माद्यंशोऽर्थकामपरैर्नीत्यंशो ग्राह्य इति नयः परिपाटी कथ्यते॥२४॥ तद्वत्स्वैराचरणमपि दोषाय कल्पते किमुत तस्य कृष्णस्य तत्प्रेयसीविषयकतादृशतद्भावस्य च स्वाभेदेन भावनेति दर्शयति—तथा च तत्रैवेति॥२५॥ तल्लीलाया श्रुतायां भक्तानां तु तत्परतैव जायते न तु तद्भेदभावनेत्यत्र प्रमाणमाह—***अनुग्रहायेति।*स्वभाव एवायमेव तदीयानां
श्रीमुखेन तु माहात्म्यमासां प्राह स्वयं हरिः॥२७॥
यथा तत्रैव—
न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः।
या माभजन्दुर्जरगेहशृङ्खलाः संवृश्च्य तद्वः प्रतियातु साधुना॥२८॥
उद्धवोऽपि जगौ सुष्ठु सर्वभागवतोत्तमः॥२९॥
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मिति व्याख्येयम्। पञ्चाध्याय्याःश्रवणतत्परत्वयोर्नित्यत्वमिति॥२६॥ नन्वेषां भक्तानां भावो भाव्य एवं पावनत्वात्, गोपीनां भावस्त्वौपपत्यसाधारणदृष्टेरहृद्यत्वात्सदोष इवेति। तद्भावभावनायां केचन मन्दधियः संशेरत इत्यत आह— श्रीमुखेनेति। निरवद्या पूर्वोक्तरीत्या निर्दोषासंयुक्संयोगो यासां तासां वः स्वेनैव। साधु यत्कृत्यं न तु साधुत्वापादकेन केनचिद्वस्तुसंपर्केण साध्वित्यर्थः॥२७॥ **विवुधायुपापीति।**युष्माकं क्षणिकमपि साधुकृत्यमिति भावः। न पारये प्रतिकर्तुं शोधयितुमित्याक्षेपलब्धम्।या मा मामभजन्। संवृश्च्यपतिश्वश्रूश्वशुरपितृमातृभ्रात्रादिस्नेहबन्धुगन्धमपि दूरे परिहायेत्यर्थः।श्लेषेणापक्वयोगिन इव संवृश्च्यापि ताः पुनर्मानैवाभजन्नित्यर्थः। अहं तु पित्रोर्भ्रातरि स्वेषु बन्धुष्वपि स्निह्यामि च। युष्मान्भजामि चेत् ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजामि’इति स्वयं प्रतिज्ञातोऽपि च्युत इति मम प्रक्रियाया असंभव। व्यज्यमानोऽयमर्थ श्लेषेणापि लभ्यते। गेहशृङ्खलाः संवृश्च्यया युष्मान् अहं मा अभजम्। परसवर्णेन नकारदुकारयोः संयोगः। तत्तस्मात् वः साधुना साधुत्वेनैव तत्प्रतियातु प्रतिकृतं भवत्वित्यर्थः॥२८॥ ननु सदाचारं विना निःसंकोचा प्रवृत्ति प्रेक्षावता न स्यादित्यत आह—**उद्धवोऽपीति।**जगौ। ‘रंस्यन्निदं
*
*
लीलानामिति भाव। तदुक्तम्—‘विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णो’इत्यादौ ‘भक्तिं परा भगवति प्रतिलभ्य कामम्’इत्यादि॥२६॥ नन्वन्येषां भक्तानां भावो भाव्य एव पावनत्वात्। आसां तु भावः सदोष इव लभ्यते औपपत्यसाधारणदृष्टैरहृद्यत्वात्तत्राह— श्रीमुखेनेति॥ २७॥ ततस्तस्माद्वः साधुना साधुकृत्येनैव तत्साधुकृत्यं प्रतियातु। प्रत्युपकृतं भवत्वित्यर्थः। तस्मिन्नौपपत्यसाधारणदृष्टिर्बहिर्मुखानामेव जायते तान्प्रति तु नेदं शास्त्रं प्रकाश्यत इति भावः
यथा—
आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां
वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा
भेजुर्मुकुन्दपदवी श्रुतिभिर्विमृग्याम्॥३०॥
मायाकलिततादृक्स्त्रीशीलनेनानसूयुभिः।
न जातु व्रजदेवीनां पतिभिः सह संगमः॥३१॥
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जगौ’ इति मूले तथोक्तेः। तच्चगानं मत्कृर्तृकानुवृत्तिं सर्वे शृण्वन्त्वित्यभिप्रायः॥२९॥ चरणरेणुजुषामिति। इमायासामुपरि चरणौ विन्यस्यन्तीति। गुल्मादयोऽप्यतिक्षुद्रजातय एव ज्ञेयाः। समयश्च कृष्णाभिसारसंबन्धी ज्ञेयः। तदैव वर्त्मावर्त्मविवेकापगमात्तदुपरि पादन्याससिद्धेः। ननु त्वमपि श्रीकृष्णलीलापरिकरमुख्योऽसि किमन्यतो वैलक्षण्यमासां पश्यसीति तत्राह—या दुस्त्यजमिति। परमनिरुपाधित्वं प्रेम्ण उक्तम्। अन्यत्र रुक्मिण्यादिषु प्रेम्णि लोकधर्मावप्युपाधी इति तासां पादरजः प्रार्थितवान् उद्धव इति॥३०॥ ननु तासां परिणेतॄणां गोपानां किं समाधानं तत्राह—मायेति। अभिसारादिसमये मायाकल्पितासु तदाकारासु स्त्रीषु शीलनेन एत्य ‘अस्मद्गृहेषु वर्तन्ते’ इत्यभिमानेन हेतुना असूयामकुर्वद्भिः।मायया योगमाययैव, न तु बहिरङ्गया मायया। भगवतो धाम्निसिद्धपरिवारेषु च तस्या अधिकाराभावात्, तन्मोहितानां भगवद्वैमुख्यस्यावश्यंभावात्तेषां गोपानां तु भगवद्वैमुख्यमात्रादर्शनात्। ततश्च योगमायायाश्चिच्छक्तिवृत्तित्वात्। तत्कार्याणामपि नित्यसत्यत्वोचितत्वात्। सर्वमायिक–
*
*
॥२८॥ तन्महाभक्तैस्तु तच्छ्लाघ्यत एवेत्याह—उद्धवोऽपीति॥२९॥३०॥ ननु भवतु भगवतो वस्तुतस्तत्पतित्वमिति न दोषः। तथाप्यन्यं पतिं मन्यसे चेत्स पुनरसंभवो जुगप्साहेतुश्चेति कथमत्र रसावहत्वं स्यात्तत्राह—***मायेति।*शीलनं पाणिग्रहणादिरूपं तेन तत्तयाव्यभिचारिणा व्रजदेवीनाम्। ‘सहबलः स्रगवतंसविलासः सानुषु क्षितिभृतो व्रजदेव्यः’इत्युक्तदृशा व्रजे तत्तयातिप्रसिद्धानां तासां तामेव प्रसिद्धिमवलम्ब्य यौगिकार्थपुरस्कारेण पुरसंबन्धिनीनां रुक्मि–
** तथाहि श्रीदशमे—**
नासूयन्स्वलु कृष्णाय मोहितास्तस्य मायया।
मन्यमानाः स्वपार्श्वस्थान्स्वान्स्वान्दारान्व्रजौकसः॥३२॥
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प्रपञ्चनाशेऽपि तेषां पार्श्वस्थदाराणां तेषु स्वस्वभार्याभिमानस्य नित्यसत्यत्वमेव। ननु ‘मन्यमानाः स्वपार्श्वस्थान्’इति शुकोक्तिः।तच्च दाराणां स्वस्वपार्श्वस्थत्वमननं मायाकृततादृक्स्त्रीनिर्माणं विनापि योगमायया सुशक्यमेव।सत्यम्। रासाभिसारे ‘ता वार्यमाणाः पतिभिः’इत्यादौ पतिभिर्वारणम् अस्माभिः स्वस्वभार्या निवार्य स्वस्वगृहमानीता दृश्यन्त एवेति तत्प्रकारकमेव। तच्च तादृक्स्त्रीनिर्माणं विना न संभवेदियत उक्तम्—मायाकलिततादृक्स्त्रीति। ग्रन्थकारचरणैरिति। एवमेव ललितमाधवोक्तेर्गोपीनां गोपैर्विवाहस्य मायिकत्वेऽपि नित्यसत्यत्वमेव ज्ञेयम्। मन्यमाना इत्यभिप्रायमात्रं न तु मायाकल्पितानामपि तासां पतिभिः संभोग इति तासां तदाकारतुल्याकाराणामन्यसंभुक्तत्वस्यानौचित्यात्। अत एव स्वपार्श्वस्थानिति। न तु तल्पस्थानित्युक्तम्। तच्च समाधानं योगमाययैव तत्पतीनां पुंस्त्वेऽपि कामविकारानुद्भावनात्। अत एव तन्मात्रादिभिः प्रार्थितानामपि तेषां तेषां गोपानां गोपालानां शालिक्षेत्रादावेव शिशयिषा प्रायो न तु स्वगृहेष्वपि स्वीयतद्भावस्य प्राकट्याभावायेति ज्ञेयम्॥३१॥३२॥
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ण्यादीनामिव देवीनां तस्य पट्टराज्ञीनां पतिभिर्मायया पतितया विख्यापितैस्तैर्गोपैर्जातु कदाचिदपि न संगमः न पाणिग्रहणादिसंबन्ध इत्यर्थः। प्रायश्चित्तार्हः परशय्यायामपि तासां संबन्धो नास्ति किमुत तदनर्हेण परेण पाणिग्रहणमिति भावः॥३१॥ एतदेव प्रमाणयति—तथाहीति। नासूयन्नित्यस्यायमर्थः। तस्य श्रीकृष्णस्य मायया ये स्वे स्वेदारा विवाहसमयत एव मायारचिताः स्वस्वदाराः तान् स्वपार्श्वस्थान् मन्यमानाः जानन्तः श्रीकृष्णाय नासूयन्। तेन तासां तत्प्रेयसीनां यदा यदा तदेकव्रततालोपप्रसङ्गः स्यात्तदा तदा निजरचितास्तद्दारांस्तान् प्रति मायां प्रकटयामास तास्तु गोपयामासेति निजप्रेयसीस्वीकरणलक्षणे तद्गुणे ते दोषारोपं नाकुर्वन्नित्यर्थः। उभयासांमेदाज्ञानेऽपि तद्रचितत्वमेव हेतुरित्याह—मोहिता इति। तस्य माययेति मायायाः सदा परमसामर्थ्य तत्परत्वं च दर्शितम्। ततश्च तत्प्रियाणां तासां सदैव साहाय्यं सा कुर्यादेवेति
तत्र कन्यकाः—
अनूढाः कन्यकाः प्रोक्ताः सलज्जाः पितृपालिताः।
सखीकेलिषु विस्रब्धाःप्रायो मुग्धागुणान्विताः॥३३॥
तत्र दुर्गाव्रतपराः कन्या धन्यादयो मताः।
हरिणा पूरिताभीष्टास्तेन तास्तस्य वल्लभाः॥ ३४॥
यथा—
विस्रब्धा सखि धूलिकेलिषु पटासंवीतवक्षःस्थला
बालासीति न बल्लवस्तव पिता जामातरं मृग्यति।
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तत्र तासु परकीयासु मध्ये कन्यका लक्ष्यन्ते॥ तत्र तासु कन्यकासु मध्ये धन्यादयः कन्या दुर्गाव्रतपराःकिंतु पूर्वोक्तयुक्त्या कृष्णभार्याभिमानवतीभ्योऽन्या ज्ञेयाःपरकीयाप्रकरणमध्यपठितत्वात्। किं च ‘इति संकल्पमाचेरुर्या गोकुलकुमारिका’ इत्यत्र ‘या’इति पदोपादानात् मूलेऽपि ‘हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दव्रजकुमारिकाः’इत्युक्तेर्गोकुलस्य कुमारिका इत्युक्तेर्वृषभानुचन्द्रभानुव्रजकुमारिका बह्व्योऽपराः कात्यायनीव्रतमकुर्वाणा अपि स्थितास्ताश्च श्रीराधिकासङ्गिन्यःपरकीया ज्ञेयाः॥३३॥३४॥ **विस्रब्धेति।**ज्येष्ठभातृजायाया लब्धकृष्णादिसङ्गायाः
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साधु व्याख्यातं शीलितं पाणिग्रहणादिरूपमिति। तस्यां तु प्रक्रियायां रसावशेषसंपादने यथा कारणं तथा दर्शितम्, दर्शयिष्यते चेति। ‘शुश्रूषन्त्य पतीन्काश्चित्’इति तु ‘अन्तर्गृहगताःकाश्चित्’इत्याद्युक्तानां श्रीकृष्णं प्रति प्रस्थानाय लब्धविनिर्गमानां कासांचिदसिद्धदेहानां वृत्तम्। ‘दुहन्त्योऽभिययु’इत्यादि श्रीशुकवचने खलु ययुरिति प्रस्थितवत्य इत्येवार्थः। प्रस्थान एव हि तत्तत्क्रियापरित्यागः न तु प्राप्तौ। प्राप्तिस्त्वग्रे वक्ष्यते ‘आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः’ इति॥३२॥ सखीकेलिषु सखीभिः किंचिद्वयोधिकाभिर्नर्मपूर्वकं यद्यत्प्रवर्त्यते तत्र तत्रैव विस्रब्धाः॥३३॥ तत्र तासु कन्यकासु मध्ये दुर्गाव्रतपरा यासु गोकुलकन्यास्वित्यादिना दर्शिता धन्यादयः।पूरिताभीष्टाः ‘यात यूयं व्रजं सिद्धा मयेमा रंस्यथक्षपाः’इति दत्तवराः। तेनतस्य वल्लभास्तस्य स्वीयात्वमेव स्वस्मिन्मन्यमाना इत्यर्थः। स्वीयायामेव वल्लभादिशब्दस्य रूढत्वात्॥३४॥ विस्रब्धेति। ज्येष्ठभ्रातृजायावचनम्। विस्रब्धा। सखीकेलिष्विति शेषः।
त्वं तु भ्रान्तविलोचनान्तमचिरादाकर्ण्य वृन्दावने
क्रूजन्तीं शिखिपिच्छमौलिमुरलीं सोत्कम्पमाघूर्णसि॥३५॥
** अथ परोढाः—**
गोपैर्व्यूढाअपि हरेः सदा संभोगलालसाः।
परोढा वल्लभास्तस्य व्रजनार्योऽप्रसूतिकाः॥३६॥
यथा—
कात्यायनी कुसुमकामनया किमर्थ
कान्तारकुक्षिकुहरं कुतुकाद्गतासि।
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सपरिहासवाक्यम्। धूलिकेलिषु पटासंवीतवक्षःस्थलेत्यन्वयः। तथा वाला विस्रब्धासीति व्यवहितान्वयोऽनुप्रासानुरोधात् सोढव्यः।बल्लवो विशेषपरामर्षशून्यः॥३५॥ अप्रसूतिका इति। तासां पुष्पोद्गमाभावान्नित्यविलासार्थं योगमाययैव संपादितत्वात्॥३६॥ **कात्यायनीति।**श्रीचन्द्रावलीं प्रति पद्मावाक्यम्।
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यद्यपि धूलिकेलिष्वित्यादिकं मृग्यतीतिपर्यन्तमस्याः पूर्वावस्थामवलम्ब्य निर्दिष्टं तथापि ‘वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा’इति न्यायेन संगमनीयम्॥३५॥ परोढा इति। पूर्ववद्भ्रमानुवादा एव। अप्रसूतिका इति। अप्रसूतित्वे सति तासामालम्बनत्वं वैरूप्येण दूष्यते। ततश्च रसोऽपि दूष्यते। तत्सौरूप्यकारि सौरूप्यं ततोऽन्यूनप्रमाणत्वं च ‘मध्ये मणीनां हैमानां महामारकतो यथा’ इति, ‘तडित इव ता मेघचक्रे विरेजुः’इति च दृष्टान्तेन दर्श्यते। ‘सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरतः सर्वाः शरत्काव्यकथा रसाश्रयाः’इत्यनेन तथा रसवत्त्वमेवाङ्गीकृतम्। ततश्च ‘मातरः पितरः पुत्रा भ्रातरः पतयश्च वः’इति श्रीकृष्णवाक्यं तु तदीयभ्रातृपुत्रादीनपदिश्य परिहासमयमेव। वास्तवत्वे‘निन्दामि च पिबामि च’इति न्यायेन दोषावहमेव स्यात्। अत एव ‘दुहन्त्योऽभिययुः’ इत्यादौ‘पाययन्त्यः शिशून्पयः’इत्येव श्रीशुकवाक्यं न तु ‘पाययन्त्यः सुतान्स्तनम्’ इति। क्वचित्तद्विधेषु पुत्रादिव्यपदेशो दृश्यते यथा साम्बकृतलक्ष्मणाहरणे श्रीवलदेवमुद्दिश्य। ‘प्रतिगृह्यतु तत्सर्वं भगवान्सात्वतर्षभः। ससुतः सस्नुषः प्रगात्सुहृद्भिरभिनन्दितः’ इति॥३६॥ यथा—कात्यायनीति।
सद्यस्तनं स्तनयुगे तव कण्टकाङ्कं
पत्युः स्वसा सखि सशङ्कमुदीक्षतेऽसौ॥३७॥
एताः सर्वातिशायिन्यः शोभासाद्गुण्यवैभवैः।
रमादिभ्योऽप्युरुप्रेममाधुर्यभरभूषिताः॥३८॥
** तथा श्रीदशमे—**
नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्तरतेः प्रसादः
स्वर्योषितां नलिनगन्धरुचां कुतोऽन्याः।
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सद्यस्तनं सद्योभवं कण्टकाङ्कंकण्टकक्षतचिह्नम्॥३७॥३८॥ **‘उ’ इति।**विस्मये। अङ्गेवैकुण्ठनाथस्य वक्षसि वर्तमानाया अपि नितान्तरतेरपि श्रियो महालक्ष्म्या अपि नायं प्रसादः स्वर्योषितां सुतरां नास्ति। अन्या युवतिजातयः
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परिहासवचनत्वात्सद्यस्तनेत्यादिकं सहचर्या स्वयं वितर्क्यदूरस्थितापि पत्युः स्वसा सशब्दमुदीक्षत इति मिथ्यैवोक्तम्। तच्च सत्कुलकन्यानां तासां स्तनाद्युद्घाटनासंभवादेव॥३७॥ अथ तासां तदनन्ययोग्यत्वं तन्नित्यप्रेयसीत्वं च दर्शयन् पूर्वोक्तं मायामात्रव्यञ्जितान्यथात्वमेव द्रढयति—तथा चेति॥ नायंश्रियोऽङ्ग इति। पूर्वं ‘एताः परं तनुभृतः’ इत्यनेन मुमुक्षुमुक्तभक्तेभ्यस्तासां भावमाहात्म्यं दर्शितम्। तत्र ‘क्वेमाः स्त्रियः’ इत्यनेन हेतुविन्यासः कृतः॥ यस्मादतः खलु उपक्रमोपसंहारयोरस्य श्रीमदुद्धवस्य स्तोतुस्तासु महाभक्तेरेव दर्शनादत्रैव परमात्मनीति विशेषणदानेन गोपीनां तत्पतीनां चेति तद्व्यभिचारिताखण्डनया ‘या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा’ इत्यनेन श्रीकृष्णमात्रार्थलोकधर्मपरित्यागस्य निर्देक्ष्यमाणत्वेन तासां सदाचारस्यानुक्रमप्राप्ततादर्शनादर्थान्तरं तु न संभवति। किं त्वयमेवार्थः। इमा वनचर्यः श्रीवृन्दावनगताः स्त्रियः श्रीराधाद्याः क्व। एतादृशगाढतदासक्त्यभावाव्द्यभिचारदुष्टा सर्वा अप्यन्याः क्व। अत एवासु रूढभावाख्यो महाभावो वर्तते नत्वन्यासु। श्रीमान्मदीश्वरस्तु अविदुषस्तन्महिमादिकमननुभवतोऽपि साक्षाच्छ्रेयः सर्वश्रेष्ठं कुशलं तनोति। तेभ्यो विस्तार्य ददातीत्यर्थः। आसां तु ‘गोप्यस्तपः किमचरन्’इत्यादिदिशा परम–
रासोत्सवेऽस्य भुजदण्डगृहीतकण्ठ–
लब्धाशिषां य उदगाद्व्रजसुन्दरीणाम्॥३९॥
तास्त्रिधा साधनपरा देव्यो नित्यप्रियास्तथा।
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कुतः। दूरत एव परास्ता इत्यर्थः। अत्र ‘अङ्ग’ इति पदेन शोभासाद्गुण्यप्रेमप्रणयमाधुर्याणि लक्ष्म्याः सर्वतो विलक्षणानि सूचितानि। तानि विना विदग्धशिरोमणिना श्रीनारायणेन तस्याः स्ववक्षसि धारणायोगात्। नितान्तरतेरित्यनेन सौन्दर्यसौरभ्यसौस्वर्यसौकुमार्यसौरस्यवैदग्ध्यादीनि तेषामेव नयनादिभिरिन्द्रियैः संभुक्तत्वेरतित्वसिद्धेः। अत्रापि नितान्तेत्यनेनातिलावण्यमाधुर्योपाधिकानि सौभाग्यानि तानि विना रतेर्नितान्तत्वासंभवात्। नलिनगन्धरुचामित्यनेन पुनरपि सौरभ्यसौन्दर्यसौकुमार्यादीनि पिष्टपेषणतयोक्तानि स्पष्टत्वार्थम्॥३९॥ यूथे
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महिमस्वभावं तदीयरूपमनुभवन्तीनां ‘ता मन्मनस्का मत्प्राणाः’ इत्यादिदिशा आत्मात्मीयधारणं तदाशया कुर्वतीनामृण्येव स इति भावः। अथ तत्तदप्याक्षिप्याह—नायं श्रिय इति। उ विस्मये। अङ्गेश्रीवैकुण्ठनाथस्य चक्षुषि वर्तमानाया अपि नितान्तरतेरपि श्रीत्वेन प्रसिद्धायास्तत्प्रेयस्या नायं प्रसादः शोभा साद्गुण्यवैभवप्रेममाधुर्याणामौज्ज्वल्यं नास्तीति। तादृश्याः श्रियोऽपि संश्चेत्तर्हि स्वर्योषितां वैकुण्ठस्थितानां नलिनस्य तत्रत्यस्वर्णकमलस्येव गन्धो रुक् च कान्तिर्यासां तासां तदुपलक्षितसर्वाश्चर्यगुणानां सुतरां नास्तीति। तदेवं सति कुतोऽन्याः।अन्याः सर्वा अपि नारीजातयो दूरत एव परास्ता इत्यर्थः। न चायं तासु प्रसादः सदास्त्येव, निमित्तं प्राप्य तु प्रकटीभवतीत्याह—रासेति। अस्य तासां समीपे मादृशीव स्फुरतः। श्रीगोविन्दस्य भुजदण्डेन गृहीतः कण्ठो यासां ताश्च लब्धा श्रियश्च तासां तादृशीनां सतीनां य उदगान्नित्यमेव सन् प्रकटीबभूवेति। तदेवं तासां सर्वतो विलक्षणत्वेप्राप्ते सर्वविलक्षणस्यैव श्रीकृष्णस्य नित्यप्रियात्वं प्रतिपद्यते। ततश्च सर्वतो विलक्षणत्वादन्यथा श्रीकृष्णस्य परमभगवत्त्वं तथा आसामपि परमलक्ष्मीत्वम्। ततो युक्त एवान्यलक्ष्मीजय इति भावः। ततो यास्तु साधकमुनिचर्यादयो वक्ष्यन्ते ता पुनरत्र गौणत्वेन नोट्टङ्किता इति
तत्र साधनपराः—
स्युर्यौथिक्यस्त्वयौथिक्य इति तत्रादिमा द्विधा॥४०॥
तत्र यौथिक्यः—
यौथिक्यस्तत्र संभूय गणशः साधने रताः।
द्विविधास्ताश्चमुनयस्तथोपनिषदो मताः॥४१॥
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भवा **यौथिक्यः।**संभूय मिलित्वा साधने निरताः। किं गणशः गणेन गणेन गणेनेति अवान्तर्गणा अपि बहवस्तत्र यूथे तिष्ठन्तीत्यर्थः॥४०॥ मुनयइति। पाद्मोत्तरखण्डे यथा ‘पुरा महर्षयः सर्वे दण्डकारण्यवासिनः। दृष्ट्वारामं हरिं तत्र भोक्तुमैच्छन्सुविग्रहम्। ते सर्वे स्त्रीत्वमापन्नाः समुद्भूताश्च गोकुले।हरिं संप्राप्य कामेन ततो मुक्ता भवार्णवात्॥” इति। अनयोर्व्याख्या च श्रीजीवगोस्वामिचरणैः—रामं दृष्ट्वा केनाप्यंशेन सादृश्यादुद्दीप्तश्रीकृष्णविषयकप्राचीनभावाः सन्तस्ततोऽपि सुन्दरविग्रहं हरिं भोक्तुमैच्छन्मनसा वरयामासुः। ततश्च कल्पवृक्षस्येव तस्य साक्षात्किंचिदनुक्तवतोऽपि प्रसादात्ते सर्वे कासांचिदत्रान्यगोपीनां गर्भगततया स्त्रीत्वमापन्नास्तद्गर्भवतीषु तासु कथंचिच्छ्रीमन्नन्दगोकुलमागतासु तत्र समुद्भूता जाताः। ततश्च ताः कामेन जारबुद्धिमयेन महानुरागेण हरिं पूर्वपठितहरिशब्दोक्तं श्रीकृष्णमेव संप्राप्य निजान्तर्गृह एव प्रकटं लब्ध्वा भवार्णवान्मुक्ताःप्राकृतगुणमयं देहं परित्यज्याप्राकृतगुणमयदेहेन तत्सङ्गिन्यो
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ज्ञेयम्॥३८॥३९॥ तत्र मुनय इति। पाद्मोत्तरखण्डे खल्विदमुक्तम्—‘पुरा महर्षयः सर्वे दण्डकारण्यवासिनः। दृष्ट्वा रामं हरिं तत्र भोक्तुमैच्छन्सुविग्रहम्। ते सर्वे स्त्रीत्वमापन्नाः समुद्भूताश्च गोकुले। हरिं संप्राप्य कामेन ततो मुक्ता भवार्णवात्॥’ इति। अस्यार्थः। रामं दृष्ट्वा केनाप्यंशेन सादृश्यादुद्दीप्तश्रीकृष्णविषयकप्राचीनभावाः सन्तस्ततोऽपि सुन्दरविग्रहं हरिं श्रीकृष्णमेवोपभोक्तुमैच्छन् मनसा वरयामासुः। ततश्च कल्पवृक्षस्येव तस्य साक्षात् किंचिदप्यनुक्तवरोऽपि प्रसादान्ते सर्वे कासांचिदन्यत्रत्यगोपीनां गर्भगततया स्त्रीत्वमापन्नास्तद्गर्भवतीषुतासु कथंचिन्नन्दगोकुलमागतासु तत्र ताः समुद्भूता जाताः। ततश्च ताः कामेन जारबुद्धिमयेनापि महानुरागेण हरिं पूर्वपठितहरिशब्दोक्तं
तत्र मुनयः—
गोपालोपासकाः पूर्वमप्राप्ताभीष्टसिद्धयः।
चिरादुद्धरतयो रामसौन्दर्यवीक्षया॥४२॥
मुनयस्तन्निजाभीष्टसिद्धिसंपादने रताः।
लब्धभावा व्रजे गोप्यो जाताः पाद्म इतीरितम्॥४३॥
कथाप्यन्या किल बृहद्वामने चेति विश्रुतिः।
सिद्धिं कतिचिदेवासां रासारम्भे प्रपेदिरे॥
इति केचित्प्रभाषन्ते प्रकटार्थानुसारिणः॥४४॥
** अथोपनिषदः—**
समन्तात्सूक्ष्मदर्शिन्यो महोपनिषदोऽखिलाः।
गोपीनां वीक्ष्य सौभाग्यमसमोर्ध्वं सुविस्मिताः॥४५॥
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बभूवुरित्येषा। अत्र रामदर्शनेनोद्बुद्धा कृष्णविषयिणी रतिरिति सीतासंदर्शनेन गोपीविषयिणी भक्तिरपि लक्षणानुगतिदर्शनेनानुगम्य च स्मृतमिति तेषां रागानुगा एव भक्तिरनुगन्तव्या।यां विना गोपीत्वप्राप्त्यभावो व्याख्यास्यते॥४१॥ इति विश्रुतिः एवंप्रकारख्यातिका कथा।सिद्धिं चिन्मयदेहतया श्रीकृष्णसंभोगयोग्यरूपाम्। प्रकटार्थं अन्तर्गृहगताःकाश्चिदित्यस्य प्रथमप्रतीतमर्थमनुसर्तुं शीलं येषां ते। इल्यत्र प्रकटोऽपि अन्योऽर्थस्तत्पद्यस्य वैष्णवतोषिण्यादिव्याख्यातो वर्तत इति स तत्र तत्रैव द्रष्टव्यो विस्तरभयादत्र न लिखित इति॥४२॥
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श्रीकृष्णमेव सप्राप्य निजान्तर्गृह एव प्रकटं लब्ध्वा भवार्णवान्मुक्ताः प्राकृतं गुणमयं देहं परित्यज्याप्राकृतगुणमयदेहेन तत्सगिन्यो वभूवुरिति। तदुक्तमन्तर्गृहगताः काश्चिदिति मध्ये व्यवधानं त्विदं तासामुत्कण्ठावर्धनार्थया प्रारब्धरक्षयेति गम्यते॥४०॥४१॥ तदेतदाह—गोपालेति। कथापीत्यत्र विश्रुतिरेतद्रीतिकैव मुन्यन्तर्गता ज्ञेया। तासां मध्ये कतिचिदिति पाद्मोत्तरखण्डोक्ता इत्यर्थः। केचिदिति श्रेष्ठाइत्यर्थः। न केचिदपवर्गमपीतिवत्प्रकटार्थानुसारिणइति पुराणद्वयोक्ताना प्रकर्षेण भाषन्त इति च तन्मतमेव सर्वप्रतीतिविषय इति मतम्। तदा आस्तामर्थान्तरान्वेषणमिति भावः॥४२॥४३॥ ४४॥४५॥
तपांसि श्रद्धया कृत्वा प्रेमाद्या जज्ञिरे व्रजे।
बल्लव्य इति पौराणी तथौपनिषदी प्रथा॥४६॥
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॥४३॥४४॥४५॥ पौराणी—बृहद्वामनोक्ता।सा च यथा—‘कंदर्पकोटिलावण्ये त्वयि दृष्टे मनांसि नः। कामिनीभावमासाद्य स्मरक्षुब्धान्यसंशयम्। यथा त्वल्लोकवासिन्यः कामतत्वेन गोपिकाः।भजन्ति रमणं मत्वाचिकीर्षाजनिनस्तथा’ इति। तासामुपनिषदां प्रार्थनानन्तरं श्रीकृष्णवाक्यम्—‘दुर्लभो दुर्घटश्चैव युष्माकं सुमनोरथ। मयानुमोदित सम्यक्सत्यो भवितुमर्हति’ इति। तथा पाद्मेसृष्टिखण्डे गायत्री गोपीत्वंप्राप्तेत्याख्यायते। यथा गोपेषु भगवद्वर। ‘युष्माकं तु कुले चाहं देवकार्यार्थसिद्धये। अवतारं करिष्यामि भत्कान्ता तु भविष्यति’ इति ॥ औपनिषदी। ‘स्त्रिय उरगेन्द्रभोगभुजदण्डविषक्तधियो वयमपि ते समाः समदृशोऽङ्घ्रिसुधाः’इति श्रुति। तत्र प्रसिद्धानामुपनिषद्विशेषाणां मतेन गम्या।किंचात्र यथा त्वल्लोकवासिन्य इत्यनेन चिकीर्षाजनिनस्तथेत्यनेन समा इत्यनेन च तासां रागानुगा भक्तिर्द्योतिता। तदनन्तरम्—‘जारधर्मेण सुस्नेहं सुदृढं सर्वतोऽधिकम्। मयि संप्राप्य सर्वेऽपि कृतकृत्या भविष्यथ’ इति भगवद्दत्तेन तासु वरेण तल्लोकवासिनीनां नित्यसिद्धानामपि जारभाव एवावसीयते यथेति तासां प्रार्थनात्प्रार्थितप्रतिकूलार्थदानानौचित्यात्। ततश्च नित्यसिद्धाना जारभावमय्येव रागात्मिका भक्ति श्रुतिचरीणां तदनुगामिनी एव। यदुक्तम्—‘रागात्मिकामनुसृता या सा रागानुगोच्यते’ इति। उरगेन्द्रेत्यनन्तरं वयमपीत्यपिकारेण स्वेभ्योऽपि तासामादृतत्वव्यञ्जनया स्वेषां तदानुज्ञं च दर्शितं यदेव विना रागानुगात्वासिद्ध्या चिरं तप्ततपसोऽपि लक्ष्म्या गोपीत्वप्राप्त्यभाव। ‘श्रीःप्रेक्ष्य कृष्णसौन्दर्यं तत्र लुब्धाचरत्तपः’ इत्यादिना भागवतामृते स्पष्टमुक्तम्। ‘यद्वाञ्छया श्रीर्ललनाचरत्तप’ इति ‘नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्तरतेःप्रसाद’ इत्याभ्यातदर्थतपश्चरणतत्प्राप्त्यभावौ श्रीभागवतेऽपि व्यक्तौ। दण्डकारण्यवासिमुनीनां च गोपीत्वप्राप्त्याफलेन फलकारणमनुमीयते इति गोपालोपासकानां
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*पौराणीति।*बृहद्वामनरीतिमयीत्यर्थः। तथा वृन्दावनगतं श्रीकृष्णं प्रति तासां प्रार्थना—कन्दर्पकोटिलावण्ये त्वयि दृष्टे मनांसि नः।कामिनीभावमासाद्य स्मरक्षुब्धान्यसंश्रयम्।यथा तल्लोकवासिन्यः कामतत्वेन गोपिका। भजन्ति ‘रमणं मत्वा चिकीर्षाजनिनस्तथा’ इति। तत्र श्रीकृष्णवाक्यम्—‘दुर्लभो दुर्घट–
अथायौथिक्यः—
तद्भावबद्धरागा ये जनास्ते साधने रताः।
तद्योग्यमनुरागौघं प्राप्योत्कण्ठानुसारतः॥४७॥
ता एकशोऽथ वा द्वित्राःकाले काले व्रजेऽभवन्।
प्राचीनाश्चनवाश्चस्युरयौथिक्यस्ततो द्विधा॥४८॥
नित्यप्रियाभिः सालोक्यं प्राचीनाश्चिरमागताः।
व्रजेजाता नवास्त्वेता मर्त्यामर्त्यादियोनितः॥४९॥
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रागानुगैव तादृशसाधुसंगवशादनुमेया॥४६॥४७॥४८॥ अनुरागेऽयं रागानुगीयभजनौत्कट्यं न त्वनुरागस्थायिनं साधकदेहेऽनुरागोत्पत्त्यसंभवात् प्राचीनाः पूर्वपूर्वकल्पगतकृष्णावतारप्राप्तसिद्धयः। न वा एतत्कल्पगतकृष्णावतार एव सिद्धाः।चिरमागता इति। एतत्कल्पगतावतारात् पूर्वपूर्वकल्प एव सिद्धा अधुनातनकल्पेऽप्यनुवर्तन्ते भाविषु कल्पष्वेनुवर्तिष्यन्ते च मर्त्यामर्त्यादियोनितः। मनुष्यदेवगन्धर्वादिजन्मान्तरमित्यर्थ। यद्वा मर्त्या मानुष्यः अमर्त्या हरिण्याद्याः ‘हिरण्याङ्गीहरिद्वर्णा हरिणीगर्भसंभवा’ इति। बृहद्गणोद्देशदीपिकोक्तेः। एवमेव द्वैविध्यं यौथिकीनामपि केचिदाचक्षते। भाविनि रामवतारे रामसौन्दर्यदर्शित्वेन प्रसिद्धानां दण्डकारण्यवासिनां गोपालोपासकानां मुनीनामवश्यंभावित्वात्। न चैतत्कल्पवृत्तरामावतारगता एव ते मुनयो भाविन्यपि रामावतारे भवितुमर्हन्तीति वाच्यम्। एतत्कल्पवृत्तश्रीकृष्णावतार एव तेषां प्राप्तगोपिकारूपत्वेन सिद्धत्वात्सिद्धानां पुनः साधकत्वायोगात्। न च मैवं भविष्यन्ति मुनय इति वाच्यम्। भाविनि कृष्णावतारे रासारम्भे अन्तर्गृहगतानां कृष्णविरहेण
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श्चैव युष्माकं सुमनोरथः। मयानुमोदितःसम्यक्सत्योभवितुमर्हति’ इति। तथा पाद्मेसृष्टिखण्डे। गायत्री च गोपीत्वंप्राप्य श्रीकृष्णं प्राप्तवतीत्याख्यायते। यथा—गोपकन्या रूपतया जातायास्तस्या ब्रह्मणा परिणये तत्पित्रादिगोपेषु श्रीभगवद्वरः—‘मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरिञ्चये। युष्माकं तु कुले चाहं देवकार्यार्थसिद्धये। अवतारं करिष्यामि मत्कान्ता तु भविष्यति’ इति। औपनिषदी ‘स्त्रिय उरगेन्द्रभोगभुजदण्डविषक्तधियो वयमपि ते समाः समदृशोऽ–
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देहत्यागवतीनां गोपीनामवश्यंभावित्वात्। तास्तर्हि का भविष्यन्ति एतत्कल्पवृत्तमुनिचर्य एवेति चेन्न। तासां सिद्धदेहत्वेन पुनर्देहत्यागायोगात्। योगमाया एव देहत्यागं प्रत्याययतीति चेन्न। सिद्धा अपि देहं तत्यजुरिति प्रसिद्धेरपि जुगुप्सितत्वेन तथा तत्करणायोगात् तस्मात्साधकभक्तानामनन्तत्वात्। प्रतिकल्प एव ते मुनयोऽन्येऽन्य एव भवन्ति। त एव कृष्णावतारे नवीना मुनिचर्यो गोप्यःतासामेव काश्चिदन्तर्गृहगता देहं त्यजन्तीति। एवमुपनिषदामप्यानन्त्यात् प्रतिकल्पमन्यासामेव कृतसाधनानां सिद्धत्वे प्राचीना नवीना इति भेदद्वयमिति। यौथिकीनां भेदद्वयममन्यमाना अन्ये तु भाविनि कृष्णावतारे अयौथिक्य एव काश्चन सिद्धदेशीया लीलाशक्त्यैवान्तर्गृहगता देहत्यागवत्य करिष्यन्त इत्याहु। ननु ये इदानींतना रागानुरागीयसाधनवन्तो निष्ठारुच्यासक्त्यादिकक्षारूढतया कस्मिंश्चिज्जन्मनि जातप्रेमाणः स्युस्ते तर्हि भगवत्साक्षात्सेवायोग्यास्तद्देहान्तक्षण एव प्रपञ्चागोचरप्रकाशे तत्परिकरपदवीं प्राप्स्यन्ति किंवा प्रपञ्चगोचरकृष्णावतारसमये। अत्रोच्यते। साधकदेहे प्रेमपरिणामरूपाणास्नेहमानप्रणयादीनां स्थायिभावानाभाविर्भावसंभवात् गोपिकादेहेष्वेव नित्यसिद्धादिगोपीनां महाभाववतीनां सङ्गमहिम्ना दर्शनश्रवणस्मरणगुणकीर्तनादिभिस्ते अवश्यमेवोपपद्यन्ते। तेषामेवासाधारणलक्षणत्वात् तान्विना गोपीत्वस्यासिद्धेः। यदुक्तम्—‘गोपीनां परमानन्द आसीद्गोविन्ददर्शने। क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत्’ इति। अस्यार्थः। ननु गोप्यस्तावत्कारस्तत्राह। यासां येन कृष्णेन विना क्षणं युगशतमिवाभवत् ता गोप्यस्तासामेव परमानन्द इति। ‘त्रुटिर्युगायते’ इत्यादि चात्र क्षणस्य युगशतायमानत्वं महाभावलक्षणमिति। अत एव प्रपञ्चागोचरस्य वृन्दावनीयस्य प्रकाशस्य साधकानां प्रापञ्चिकलोकानां च तत्र प्रवेशादर्शनेन सिद्धानामेव प्रवेशदर्शनेन च ज्ञापितात्केवलसिद्धभूमित्वात्स्नेहादयो भावाः स्वसाधनैरपि न तूर्णं फलन्त्यतो योगमायया जातप्रेमाणो भक्तास्ते प्रपञ्चगोचरे वृन्दावनस्य प्रकाश एव श्रीकृष्णावतारसमये तत्प्रथमप्रापणार्थं लीयन्ते। तस्य साधकानां नानाविधकर्मिप्रभृतिप्रापञ्चिकलोकानां च सिद्धानाच तत्र प्रवेशदर्शनेनामितात्साधकसिद्धभूमित्वात्तत्रोत्पत्त्यनन्तरमेव श्रीकृष्णाङ्गसङ्गात्पूर्वमेव तत्तद्भावसिद्धार्थमिति। नन्वेतावन्तं दीर्घतमं दुष्पारं कालं तैःपरमोत्कण्ठैर्भक्तै क्व स्थातव्यम्।उच्यते। नात्र
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ङ्गिसरोजसुधाः’ इति श्रुतिस्त्वप्रसिद्धस्योपनिषद्विशेषस्य मतेन गम्या॥४७॥
** अथ देव्यः—**
देवेष्वंशेन जातस्य कृष्णस्य दिवि तुष्टये।
नित्यप्रियाणामंशास्तु या जाता देवयोनयः॥५०॥
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कालविलम्बलेशोऽपि ब्रह्माण्डानामानन्त्यात्, प्रकटलीलाया अपि विच्छेदाभावात् ते तत्क्षण एव तत्रैव वृन्दावने एव गोपिकारूपेणोत्पद्यन्ते। किं तु येष्वेव ब्रह्माण्डेषु तदानीं वृन्दावनीयलीलायां प्राकट्यंतेष्वेव ते गोपिकारूपेणोत्पद्यन्त इति। अत्र क्रमःरागानुरागीयसम्यक्साधननिरतायोत्पन्नप्रेम्णे भक्ताय चिरसभयविधृतसाक्षात्सेवोत्कण्ठाय कृपया भगवता सपरिकरस्वदर्शनं तदभिलषणीयसेवाप्राप्त्यनुभावकमलब्धस्नेहादि प्रेमभेदायापि साधकदेहेऽपि स्वप्नेऽपि साक्षादपि सकृद्दीयत एव। ततश्च श्रीनारदायेव चिदानन्दमयी गोपिकाकारतद्भाविता तनुश्च दीयते। ततश्च वृन्दावनीयप्रकदप्रकाशे कृष्णपरिकरप्रादुर्भावसमये सैव तनुर्योगमायया गोपिकागर्भादुद्भाव्यते उक्तन्यायेन स्नेहादिप्रेमभेदसिद्धार्थम्। किं च—नरलीलस्य कृष्णस्य गोपिकाभिरपि नरजातिभिरेव क्रीडा प्रसिद्धा। तच्च मुख्यं नरत्वमयोनिजत्वेसति न सिव्द्यैदियत एवं लक्ष्म्या गोपिकात्वेअङ्गीकृतेऽपि गोपीगर्भोत्पन्नस्य गोपीजनानुज्ञस्य चानङ्गीकृतत्वात्तया सह श्रीकृष्णस्य क्रीडेति तत्त्वं ज्ञेयम्॥४९॥ देवेषु मन्वन्तरावतारत्वेन जातस्य नन्वंशिनीनामासां प्राणसख्योऽभवन्निति नोपपद्यते। ये हि यदंशा भवन्ति ते तत्र प्रविशन्त्येव द्रोणधराद्यंशिषु नन्दादिषु तेषां तथैव दर्शनात्। सत्यम्। नित्यप्रियाणामंशेषु देवादिलोकस्नेहेषु त्रिविधा रीतिर्दृश्यते। तत्र केचिन्नारदादिमुखादाकर्णितकृष्णतत्तलीलाभक्ता भवन्ति। भक्ताश्च त्रिविधा स्ववासनानुसारेण तल्लीलापरिकराणा शुद्धानुगतिमन्तोऽहंग्रहोपासनामयानुगतिमन्तोऽननुगतिमन्तश्च। तत्राद्या केचिद्देवा श्रीदामसुवलादीनां प्रियसखा, काश्चिद्देव्यश्चश्रीराधादीनां प्राणसख्य। तथा नन्दयशोदादीनामपि सखायः सख्यश्चानुभवन्। द्वितीयास्तेषु तासु च प्राविशन्।द्रोणधरावस्वादयो यथा नन्दयशोदोद्धवादिषु तथा ऋषयोऽपि केचित् गोवत्सेषुवृन्दावनीयपक्षिषु च। तृतीयास्तु तत्रप्रादुर्भावाभावेनालब्धमनोरथा एव वभूवुर्यथा लक्ष्म्यादय इति। तल्लीलापरिकरानुगतितामेव
*
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॥४८॥४९॥ देवेष्वंशेनेति। ‘तत्प्रियार्थंसंभवन्तु सुरस्त्रियः’ इति
अत्र देवावतरणे जनित्वा गोपकन्यकाः।
ता अंशिनीनामेवासां प्रियसख्योऽभवन्व्रजे॥५१॥
** अथ नित्यप्रियाः—**
राधाचन्द्रावलीमुख्याः प्रोक्ता नित्यप्रिया व्रजे।
कृष्णवन्नित्यसौन्दर्यवैदग्ध्यादिगुणाश्रयाः॥५२॥
तथा च ब्रह्मसंहितायाम्—
आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभि-
स्ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः।
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तत्प्राप्तिनियमनात्। यदुक्तम्—‘नायं सुखापो भगवान्देहिनां गोपिकासुतः। ज्ञानिनां चात्मभूतानां यथा भक्तिमतामिह॥’ इति। अस्यार्थः। देहिनां त्रिवर्गपराणां ज्ञानिनां चतुर्थवर्गपराणां आत्मभूतानां विरिञ्चिभवलक्ष्मीणाम्। ‘नेमं विरिञ्चोन भवो न श्रीरप्यङ्गसंश्रया। प्रसादं लेभिरे गोपी यत्तत्प्राप विमुक्तिदात्’ इत्येतस्मिन्नेतत्पूर्वश्लोके तन्त्रिकस्यैव प्रसादाप्राप्तो प्रस्तुतत्वात् तत्र विरिञ्चिभवयोस्वावतारत्वेन लक्ष्म्याः स्वरूपशक्तित्वेनात्मभूतत्वम्। एवं त्रिविधजनानां गोपिकासुतो न सुखापः कितु विकुण्ठादिकौशल्यादिसुत एव। गोपिकासुतस्तु दुःखाप एव दुःखमेवाभिव्यञ्जयति। यथा इह व्रजे इह गोपिकासुते या भक्ति ‘स्त्रिय उरगेन्द्रभोगभुजदण्ड’ इत्यादिना ‘यथा तल्लोकवासिन्य’ इत्यादिना च व्यञ्जिता श्रुत्यादिभिरनुगतिमयी भक्तिस्तद्वता यथा सुखापस्तथा नेति। तेन गोपिकाद्यनुगतिमयस्वन्यूनता दुःखाङ्गीकारेणैव लभ्यः। तद्दुःखाङ्गीकारस्तु विरिञ्चिभवलक्ष्यादिभिरीश्वराभिमानिभिःस्वस्वलोकस्थैर्दुःशक एवेत्यत उक्तम्––नायं श्रियोऽङ्गेति न श्रीरप्यङ्गसंश्रयेत्यादि॥५१॥५२॥ आनन्देति। ब्रह्मण स्तुतिः।
*
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व्याख्याय प्रमितमेव॥५०॥५१॥ तदेवमुपनिषदादीनां तदेकपतित्वे सभाव्ये नित्यप्रियाणां मायां विना स कथमुपपतिः स्यात्। नहि या अनादित एव यस्य प्रिया सा तस्य परकीया भवतीत्यभिप्रेत्याह—अथ नित्यप्रिया इति॥५२॥ तत्र प्रमाणं दर्शयति—आनन्दचिन्मयेति। कलाभिः स्वांशरू–
गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥५३॥
तत्र शास्त्रप्रसिद्धास्तु राधा चन्द्रावली तथा।
विशाखा ललिता श्यामा पद्मा शैब्या च भद्रिका॥५४॥
तारा विचित्रा गोपाली धनिष्ठा पालिकादयः।
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श्रीकृष्णस्य यत्सच्चिदानन्दस्वरूपत्वं तत्र ये आनन्दचिन्मया आनन्दानुभवमया रसास्तैः प्रतिभाविताभिस्ततः पृथक्त्वेनाविर्भाविताभिः ‘ह्लादिनी सधिनी सवित्त्वय्येका सर्वसंश्रया’ इति वैष्णवात्। यद्वा। आनन्दचिन्मयैरप्राकृतैः प्रेमरूपैरित्यर्थः। रसै शृङ्गारैः प्रतिभाविताभि आदौ ताभिर्भावित पश्चात्ता अपि स्वेन भाविता भावयुक्तीकृता इति परस्परभावनिष्ठत्वं प्रतिशब्दवलाद्व्याख्यातम्। निजस्य रूपतया ताभिः स्वरूपभूताभिः शक्तिभिरित्यर्थ। ‘परास्य शक्तिर्बहुधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च’ इति श्रुते। ‘विष्णुशक्ति परा प्रोक्ता’ इति ह्लादिनीत्यादि विष्णुपुराणाच्च।कलाभिरिति करणपदं शृङ्गारोपयोगिनीभिश्चतुःषष्टिकलाभिर्निवसति। निरन्तरं विहर्तुमित्यर्थ।अखिलात्मभूतोऽखण्डपरमात्माकारः सन् गोलोके महावैकुण्ठोपरितने कृष्णलोके तथा प्रपञ्चान्तर्वर्तिभूर्लोकस्थे गोकुलेऽखिलानां सर्वेषामात्मभूतो जीवनीभूत। मानुषाकार इत्यर्थः। गोलोकशब्दस्योभयत्रैव प्रवृत्तिदर्शनात्। यदुक्तं ब्रह्मसंहितायाम्—‘गोलोकनाम्निनिजधाम्नितले च तस्य देवीमहेशहरिधाम’ इत्यादिषु। तथा हरिवंशे—‘गवामेव तु गोलोको दुरारोहा हि सा गति। स तु लोकस्त्वया कृष्ण सीदमानः कृतात्मना। धरोद्धृतिमताधीर निघ्नतोपद्रवान् गवाम्’ इति। रक्षित इति शेष।गोलोकशब्दस्योभयवाचित्वेऽपि ‘दुरारोहा हि सा गति’ इत्यनेन गोकुलस्योत्कर्षः सूचितः। गोलोक एवेति। एवकारो वैकुण्ठान्तरव्यावर्तकः॥५३॥ तत्र शास्त्रप्रसिद्धा इति। शास्त्रं भविष्योत्तर स्कान्दगतप्रह्लादसहितादि च। तत्र पूर्व यथा—‘गोपाली पालिका धन्या विशाखा ध्याननिष्ठिका।राधानुराधा
*
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पाभिः शक्तिभिः निजरूपतया स्वीयत्वेन नत्ववतारलीलायामिवपरकीयात्वाभासेनेत्यर्थः॥ ५३॥ तत्र शास्त्रप्रसिद्धा इति। शास्त्रं भविष्योत्तरम्, स्कान्दगतप्रह्लादसंहितादि च। तत्र पूर्वंयथा—‘गोपाली पालिका धन्या विशाखा
चन्द्रावल्येव सोमाभा गान्धर्वा राधिकैव सा॥५५॥
अनुराधा तु ललिता नैतास्तेनोदिताः पृथक्।
लोकप्रसिद्धनाम्न्यस्तु खञ्जनाक्षी मनोरमा॥५६॥
मङ्गलाविमलालीलाकृष्णाशारीविशारदाः।
तारावलीचकोराक्षीशंकरीकुङ्कुमादयः॥५७॥
इत्यादीनां तु शतशो यूथानि व्रजसुभ्रुवाम्।
लक्षसंख्यास्तु कथिता यूथे यूथे वराङ्गनाः॥५८॥
सर्वा यूथाधिपा एता राधाद्याः कुङ्कुमान्तिमाः।
विशाखां ललितां पद्मां शैब्यां च प्रोज्झ्यकीर्तिताः॥५९॥
किंतु सौभाग्यधौरेया अष्टौ राधादयो मताः।
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सोमाभा तारका दशमी तथा’ इति। ‘विशाखाधनिष्टिका’ इति क्वचित्पाठः। दशमी तथेति दशम्यपि तारकानाम्नीत्यर्थ।(दशमी)त्येकं नाम वा। अथोत्तरं ललितोवाचेत्यादिना ललिता पद्मा भद्रा शैव्या श्यामलेति पञ्चकमधिकं प्रतिपादयद्दृश्यते गोपालतापनी तु गान्धर्वेति॥ ५४॥५५॥५६॥५७॥ चन्द्रावल्येवेत्यत्र प्रमाणं युक्तिश्च श्रीवैष्णवतोपण्या द्रष्टव्या। शतश इति लक्षसंख्या इति। उपलक्षणं सहस्रकोट्यादीनाम्। सौभाग्यधौरेया सौभाग्यभारवत्यः॥ ५८॥ औचित्यं योग्यता स्वेषामिष्टोऽभिलाषविषयीभूतो यो राधादीना
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व्याननिष्ठिका।राधानुराधा सोमाभा तारका दशमी तथा॥” इति। दशम्यपि तारकानाम्नीत्यर्थ। दशमीत्येवैकं नाम वा। अथोत्तरम्। ललिता वा चेत्यादिना ललिता पद्मा भद्रा शैव्या श्यामलेति पञ्चकमधिकं प्रतिपादयदृश्यते॥५४॥ तत्र तासां कासांचिन्नामभेदेऽप्यभेदमाह—चन्द्रावल्येवेति। गान्धर्वा तु तापिन्युक्ता दशमी तेन हेतुना। तत्र प्रमाणं युक्तिश्च श्रीवैष्णवतोषिण्या द्रष्टव्या॥५५॥५६॥५७॥ शतशो यूथानीति। ‘वनिताशतयूथपः’ इति
यूथाधिपात्वेऽप्यौचित्यं दधाना ललितादयः॥६०॥
स्वेष्टराधादिभावस्य लोभात्सख्यरुचिं दधुः।
इति हरिप्रियाप्रकरणम्॥
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तत्रापि सर्वथा श्रेष्ठे राधाचन्द्रावलीत्युभे।
यूथयोस्तु ययोः सन्ति कोटिसंख्या मृगीदृशः॥१॥
अभूदाकुलितो रासः प्रमदाशतकोटिभिः।
पुलिने यामुने तस्मिन्नित्येपागमिकी प्रथा॥२॥
तयोरप्युभयोर्मध्ये राधिका सर्वथाधिका।
महाभावस्वरूपेयं गुणैरतिवरीयसी॥३॥
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भावः प्रीतिस्तस्य लोभात् यूथाधिपात्वेश्रीराधाद्यभिसारकाले तत्र स्वस्थित्यभावेन तत्सुखदानासिद्धेः॥५९॥६०॥
इति श्रीहरिप्रेयस्य॥
अथ राधाप्रकरणम्।
** आगमिकी** प्रमदाशतकोटिभिराकुलिते इति क्रमदीपिकादौ तथा प्रसिद्धिः॥१॥२॥ महाभावेति। प्रेमभक्तिर्हि पूर्वग्रन्थे ‘शुद्धसत्वविशेषात्मा’ इत्यत्र परमानन्दरूपतया दर्शिता। तस्याश्चरसत्वापत्तिः स्थापिता। अस्मिंश्च ग्रन्थे ‘आनन्दचिन्मय’ इति ब्रह्मसंहितावचनेन गोप्य एव आनन्दचिन्मयत्वेन
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प्रामाण्येन॥५८॥५९॥ यूथाधिपात्वेऽप्यौचित्यमित्यत्र युक्तिश्च वैष्णवतोषिण्यामेव दर्शितास्ति॥६०॥
इति श्रीहरिप्रियाप्रकरणम्।
अत्रापीत्यपि तत्रैव स्थापितमस्ति। किं त्वत्रैवागामिन्या स्थायिभावप्रकरणरीत्या स्वयूथस्य श्रीराधेतरयूथस्य चापेक्षया चन्द्रावलेःश्रेष्ठत्वं मन्तव्यम्॥१॥२॥ अत्र तासु श्रीवृन्दावनेश्वरी **महाभावस्वरूपेयमिति।*तथा हि ब्रह्मसंहितायाम्—‘आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभि’ इत्यनेन तासां*
गोपालोत्तरतापिन्यां यद्गान्धर्वेति विश्रुता।
राधेत्यृक्परिशिष्टे च माधवेन सहोदिता॥
अतस्तदीयमाहात्म्यं पाद्मे देवर्षिणोदितम्॥४॥
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स्थापिता। प्रेमभक्तेश्च स्नेहप्रणयाद्युत्तरःपरमसारभागो महाभावः। स च स्वजनार्यपथत्यागं विना न भवतीति महाभावलक्षणे श्रीमज्जीवगोस्वामिचरणानां व्याख्यानात् रुक्मिण्यादीनां ह्लादिनीशक्तित्वेऽपि न महाभावरूपत्वं व्रजदेवीनां श्रीराधाया एवांशभूतानां महाभावांशरूपत्वेऽपि महाभावसारभूतमादनभागाभावान्न महाभावस्वरूपत्वम्।यथा नदनदीतडागादीनां जलाशयत्वेऽपि न जलधित्वम्, किंतु समुद्रस्यैव यथा जलधित्वम्। तथा हि श्रीराधाया एव महाभावत्वम्। तेषां व्याख्यानं यथा—दुःखस्य परमकाष्ठाकुलवधूनां स्वयमपि परमसुमर्यादानां स्वजनार्यपथाभ्यां भ्रंश एव नाग्न्यादिर्न च मरणम्। ततश्च तत्तत्कारितया प्रतीतोऽपि श्रीकृष्णसंबन्ध सुखाय कल्पते चेत्तर्ह्येव रागस्य परमेयत्ता। ततश्च तामाश्रित्यैव प्रवृत्तोऽनुरागो भावाय कल्पते। स चारम्भत एव व्रजदेवीष्वेव दृश्यते। पटुमहिषीषु तु सभावयितुमपि न शक्यते। तदेवमेव ता एवोद्दिश्य उद्धवः सचमत्कारमाह—या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वेति॥३॥ तत्र श्रीराधायां श्रुतिस्मृतिप्रामाण्यमाह—गोपालेति। तासां
*
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सर्वासामपि भक्तिरसप्रतिभावितात्वं गम्यते। भक्तिर्हि पूर्वग्रन्थे शुद्धसत्वविशेषात्मेत्यत्र परमानन्दतथा दर्शिता। तस्याश्च रसत्वापत्तिः स्थापिता। ततश्च तेनानन्दचिन्मयात्मकेन रसेन भक्तिविशेषमयेन प्रतिभाविताभि प्रतिक्षणं नित्यमेव भाविताभिःसंपादितसत्ताभिः कलाभिः। शक्तिभिरित्यर्थ। अत एव ‘यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिंचना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः’ इत्यनेन सर्वोत्तमसर्वगुणलक्षणाभिरिति च लभ्यते।तदेवं तासां भक्तिविशेषे रसमयभक्तिरूपत्वे सति तासु सर्वासु वरीयस्यां श्रीराधायां लभ्यत एव महाभावस्वरूपता गुणैरतिवरीयस्ता च। एवमेवोक्तं बृहद्गौतमीये तन्मन्त्रस्य ऋष्यादिकथने—‘देवी कृष्णमयी प्रोक्ता राधिका परदेवता। सर्वलक्ष्मीमयी सर्वकान्तिसमोहिनी परा’ इति च॥३॥ तस्यास्तादृशत्वं पद्मपुराणमपि श्रुतिसंमत्या द्रढयति। अत्र श्रेष्ठलिङ्गेन गान्धर्वाख्यत्वमपि संगमयति। गोपालेति सार्धेन। यद्यस्माद्गोपालोत्तरतापिन्यां गान्धर्वेति
** तथा हि—**
यथा राधा प्रिया विष्णोस्तस्याः कुण्डं प्रियं तथा।
सर्वगोपीषु सैवैका विष्णोरत्यन्तवल्लभा॥५॥
ह्लादिनी या महाशक्तिः सर्वशक्तिवरीयसी।
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मध्ये श्रेष्ठा गान्धर्वा ह्युवाच। तां हि मुख्यां विधाय पूर्वमनुकृत्वा [ त्य ] तूष्णीमासुरिति। ऋक्परिशिष्टे च—‘राधया माधवो देवो माधवेनैव राधिका।विभ्राजन्ते जनेष्वा’ इति। सैव नान्या कापीत्यर्थ। तदपि राजायं गच्छतीतिन्यायेन तद्यूथमात्रस्याप्यत्यन्तवल्लभात्वप्रसक्तौ तद्वारणार्थमाह—**एका अद्वितीयेति।**तेन महाभाववृत्तिविशेषमादनपर्यन्तो भावसमुदाय एवात्यन्तवल्लभो यथा राधेत्यत्र विष्णोरिति विष्णुपदेन कृष्णस्योक्तिर्व्यापकत्वरूपमर्थ व्यनक्ति।‘विप्लृ व्याप्तौ’ इति धातोः। तत्र व्याप्तेःकर्मभूता हि प्रियापदसांनिध्यादस्मिन्शृङ्गारे रसे राधैव। ततश्च विष्णोर्व्यापकस्य राधाया आत्मबुद्धिदेहेन्द्रियादिकमाश्लिष्य स्थितस्य सतःकृष्णस्य यथा राधा प्रिया तत्तदाश्लेषणोत्थाया प्रीते कर्त्री। प्रापयित्रीति यावत्। तथा तस्याः कुण्डमपि विष्णोर्जलस्थलसोपाननिकुञ्जोद्यानकुसुमफलविहङ्गमकूजितादिषु स्नानावगाहनासनशयनविहारदर्शनावघ्राणास्वादनश्रवणादिभिर्व्याप्य स्थितस्य प्रियम्। ननु तस्यान्या अपि गोप्यः प्रियाः श्रूयन्ते। सत्यम्। कितु सर्वगोपीषु विष्णोः प्रकटितानन्तप्रकाशत्वेन ता अपि सर्वा आश्लिष्य स्थितस्यापि तस्यान्तवल्लभात्वंलक्षयतीत्यायातम्। यतो ‘राधिकायूथ एवायं मोदनो न तु सर्वतः’ इति। तद्यूथस्य सर्वयूथेभ्य उत्कर्षमुक्त्वा ‘सर्वभावोद्गमोल्लासी मादनोऽयं परात्परः। राजते ह्लादिनीसारो राधायामेव यः सदा’ इत्यनेन तत्रापि श्रीराधायामेव सर्वोकर्षपरावधित्वं स्थापितम्। कुण्डस्यापि
*
*
विश्रुता। ताभ्यः सर्वाभ्योऽपि विशिष्टतया श्रुता। सर्वास्वपि तासु सैव ऋक्परिशिष्टे माधवेन सहोदिता। ‘राधया माधवो देवो माधवेनैव राधिका। विभ्राजन्ते जनेष्वा’ इत्यनेन सर्वविलक्षणतयोक्ता। अतस्तदीयमाहात्म्यं पाद्मे देवर्षिणोदितम्। सर्वोत्तमतया कथितमित्यर्थः। तस्याः सर्वत आधिक्ये च सति तामधिकृत्य तत्रेतिहासान्तरं तु तद्विभूतिरूपया तत्रैक्यावाप्त्यपेक्षया तत्रैव यथा कस्यचिदृषेः श्रीनारायणर्षित्वप्राप्तिरुक्ता तद्वत्॥४॥ ह्लादिनीति।
तत्सारभावरूपेयमिति तन्त्रेप्रतिष्ठिता॥६॥
सुष्टुःकान्तस्वरूपेयं सर्वदा वार्षभानवी।
धृतषोडशशृङ्गारा द्वादशाभरणाश्रिता॥७॥
** तत्र सुष्ठुक्रान्तस्वरूपा यथा—**
कचास्तव सुकुञ्चिता मुखमधीरदीर्घेक्षणं
कठोरकुचभागुरः ऋशिमशालि मध्यस्थलम्।
नते शिरसि दोर्लते करजरत्नरम्यौ करौ
विधूनयति राधिके त्रिजगदेष रूपोत्सवः॥८॥
_________________
तादृशत्वमुक्तम्। ‘प्रेमास्मिन्वत राधिकेव लभते यस्या सकृत्स्नानतः’ इत्यादिभिरिति॥४॥ तन्त्रे वृहद्गौतमीयादौ प्रतिष्ठिता ख्याता॥५॥६॥ इत्येवं सिद्धान्तं समाप्य ‘अस्मिन्नालम्बनाः प्रोक्ता कृष्णस्तस्य च वल्लभा’ इत्यालम्बनविभावेषु प्रथमं नायकस्य श्रीकृष्णस्य ‘पदद्युतिविनिर्धूता’ इत्येकेन श्लोकेन स्वरूपमुक्त्वा ‘अयं सुरम्यो मधुरः’ इत्यादयो गुणा यथा उक्तास्तथैव तद्वल्लभानामपि सर्वासामपि नायिकानां तथा वक्तुमौचित्येऽपि तासामानन्त्यात्तत्सर्वमुख्यायाः श्रीराधायाः सुष्ठुकान्तस्वरूपेत्यादिश्लोकत्रय्या स्वरूपं निरूप्य ‘मधुरेयं नववया’ इत्यादयो गुणा वक्ष्यन्ते। सर्वदा वार्षभानवीति। श्रीकृष्णे नन्दनन्दनस्यैव तस्यामपि वार्षभानवीत्वस्य सार्वदिकत्वात् नित्यसिद्धत्वं सिद्धम्॥७॥ कचाइति। श्रीकृष्णवाक्यम्।दोर्लते शिरसि ऊर्ध्वभागे नते स्कन्धौ नम्रावित्यर्थः।
*
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येयं खलु विष्णुपुराणे—‘ह्लादिनी सधिनी सवित्त्वय्येका सर्वसस्थितौ। ह्लादतापकरी मिश्रा त्वयि नो गुणवर्जिते’ इति। सर्वज्ञसूक्ते च—‘ह्लादिन्या सविदा श्लिष्टःसच्चिदानन्द ईश्वर। अविद्यासवृतो जीवःसंक्लेशनिकराकर॥’इति प्रसिद्धा सैव सर्वशक्तिवरीयसी। तस्याः सारो या मादनाख्या महाभावपराकाष्ठा तद्रूपा तत्तादात्म्यमाप्ता सेयं राधेति कथिता। तन्त्रे बृहद्गौतमीयादौ प्रतिष्ठिता व्याख्याता तत्सारभाररूपेयमित्येव ह्यत्र पाठ॥५॥ शृङ्गाराभरणयोर्भेदो रूढिवशादुदाहरणे दर्शयिष्यते॥६॥७॥ कचा इति। श्रीकृष्णवाक्यम्।शिरसीति। अर्थात् दोर्लतयोरेव शिरसि ऊर्ध्वभागे। स्कन्धे इत्यर्थः। भुज–
अथ धृतषोडशशृङ्गारा—
स्नातानासाग्रजाग्रन्मणिरसितपटा सूत्रिणी बद्धवेणिः
सोत्तंसा चर्चिताङ्गीकुसुमितचिकुरा स्रग्विणी पद्महस्ता।
ताम्बूलास्योरुबिन्दुस्तबकितचिवुका कज्जलाक्षी सुचित्रा
राधालक्तोज्ज्वलाङ्घ्रिःस्फुरति तिलकिनी षोडशाकल्पिनीयम्॥९॥
अथ द्वादशाभरणाश्रिता—
दिव्यश्चूडामणीन्द्रः पुरटविरचिताः2 कुण्डलद्वन्द्वकाञ्ची–
निष्काश्चक्रीशलाकायुगवलयघटाः कण्ठभूषोर्मिकाश्च।
हारास्तारानुकारा भुजकटकतुलाकोटयो रत्नक्लृप्ता–
स्तुङ्गापादाङ्गुलीयच्छविरिति रविभिर्भूषणैर्भाति राधा॥१०॥
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करजा नखा एव रत्नानि तैरेव रम्यौएषस्वाभाविक एवतदनन्ते भूषणपरिधापनेनेति भावः॥ ८॥ स्नातेति। पद्यद्वयं सायं व्रजायागच्छन्तं श्रीकृष्णं प्रति उद्यानगतां राधां दर्शयतः।सुबलस्य वाक्यम्।जाग्रद्देदीप्यमानो मणिमुक्तादिः। सूत्रं नीवीबद्धडोरी प्रतिसरो वा। उत्तंसः कर्णावतंसः। उरुविन्दु कस्तूरीरसनवकः। चित्रं मकरीपत्रभङ्गादि॥९॥ चूडामणिः शीर्षफूल इति ख्यातः, निष्कः पदकः, चक्रीयुगं शलाकायुगं च कर्णोर्ध्वभागालंकारौ। ऊर्भिका अङ्गुलीयकानि। तारानुकारा नक्षत्रसदृशाः। भुजकटकावङ्गदे।तुलाकोटी नूपुरौ। पादा–
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शिरस्त्वेन तस्यामरकोपाभिधानात् तच्च स्वरूपकथनं नान्यसाधारणत्वेन किंतु विधूनयति। त्रिजगदपि सौन्दर्यगर्वाद्दूरीकरोतीलर्थः। चौरादिकोऽयम्। पाठान्तरं तु ‘कचास्तव सुकुञ्चिता मुखमधीरदीर्घाक्षिभागुरःपृथु घनस्तनं स्फुरितमध्यमुच्चैः कृशम्।भुजा निटिलमानतं करयुगं नखश्रीधरं विधूनयति’ इत्यादि ज्ञेयम्॥८॥सूत्रिणी नीवीवन्धयुक्ता॥ ९॥ निष्कः पदकाख्यं हृदयभूषणं, चक्रीशलाका सूक्ष्मचक्राकारसंबद्धकर्णार्धच्छिद्रप्रविष्टशलाकारूपाभरणविशेष।रवि–
अथ वृन्दावनेश्वर्याः कीर्त्यन्ते प्रवरा गुणाः।
मधुरेयं नववयाश्चलापाङ्गोज्ज्वलमिता॥११॥
चारुसौभाग्यरेखाढ्या गन्धोन्मादितमाधवा।
संगीतप्रसराभिज्ञा रम्यवाङ्नर्मपण्डिता॥१२॥
विनीता करुणापूर्णा विदग्धा पाटवान्विता।
लज्जाशीला सुमर्यादा धैर्यगाम्भीर्यशालिनी॥१३॥
सुविलासा महाभावपरमोत्कर्षतर्षिणी।
गोकुलप्रेमवसतिर्जगच्छ्रेणीलसद्यशाः॥१४॥
गुर्वर्पितगुरुस्नेहा सखीप्रणयितावशा।
कृष्णप्रियावलीमुख्या सन्तताश्रवकेशवा॥१५॥
बहुना किं गुणास्तस्याः संख्यातीता हरेरिव।
इत्यङ्गोक्तिमनःस्थास्ते परसंबन्धगास्तथा॥१६॥
गुणा वृन्दावनेश्वर्या इह प्रोक्ताश्चतुर्विधाः।
माधुर्यं चारुता नव्यं वयः कैशोरमध्यमम्॥१७॥
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ङ्गुलीयानां छविस्तुङ्गा, विपुला रविभिर्द्वादशभिस्तन्त्रेण तत्तुल्यैः॥१०॥ पाटवं चातुर्यं विलासाश्चात्र भावहावादयो हर्षादिव्यञ्जकाः स्मितपुलकवैस्वर्यादयश्च स्वाभियोगा ज्ञेया। महाभावस्य यः परमोत्कर्ष प्राकट्यातिशयस्तेन तर्पिणी श्रीकृष्णविषयातितृष्णावती गुरुभिर्गुरुजनैरर्पितो गुरु पूर्णः स्नेहो यस्यां सा। सतत आश्रवःवचने स्थितः केशवो यस्याः सा।‘वचने स्थित आश्रवः’ इत्यमरः॥११॥ इत्यङ्गेति। अङ्गस्था गुणा गन्धपर्यन्ताः षट्। सङ्गीतेत्यादय
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भिर्द्वादशभिस्तन्त्रेण तत्तुल्यैः॥१०॥ ‘वृन्दावनेश्वर्या राधावृन्दावने वने’ इति पुराणप्रसिद्धायाः।मधुरेयमित्यादौ संतताश्रवकेशवेति। ‘वचने स्थित आश्रव’ इत्यमरः॥११॥ उक्तेर्नर्मपर्यन्ता। इत्यङ्गोक्तीति। अत्राङ्गस्य गुणा गन्धपर्यन्तमानसातु महाभावेत्यन्ताः परसंबन्धगास्तु परे ज्ञेयाः॥१२॥ तत्र कांश्चिदस्पष्टगुणांल्लक्षयति॥१३॥१४॥१५॥ माधुर्यमिति। चारुतां मनोरमत्वम्
सौभाग्यरेखाः पादादिस्थिताश्चन्द्रकलादयः।
साधुमार्गादचलनं मर्यादेत्युदितं बुधैः॥१८॥
लज्जाभिजात्यशीलाद्यैधैर्यदुःखसहिष्णुता।
व्यक्तत्वाल्लक्षितत्वाच्च नान्येषां लक्षणं कृतम्॥१९॥
तत्र मधुरा यथा विदग्धमाधवे—
बलादक्ष्णोर्लक्ष्मीः कवलयति नव्यं कुवलयं
मुखोल्लासःफुल्लंकमलवनमुल्लङ्घयति च।
दशां कष्टामष्टापदमपि नयत्याङ्गिकरुचि–
र्विचित्रं राधायाः किमपि किल रूपं विलसति॥२०॥
अथ नववयाः—
श्रोणिः स्यन्दनतां कृशोदरि कुचद्वन्द्वं क्रमाच्चक्रतां
भ्रूश्चापश्रियमीक्षणद्वयमिदं यात्याशुगत्वं तव।
सैनापत्यमतः प्रदाय भुवि ते कामः पशूनां पतिं
धुन्वञ्जित्वरमानिनं त्वयि निजं साम्राज्यभारं न्यधात्॥२१॥
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उक्तिस्थास्त्रयः। विनीतेत्यादयो मनःस्था दश।गोकुले प्रेमेत्यादयः परसंबन्धगाः षट् एवं पञ्चविंशतिः॥१२॥१३॥१४॥१५॥१६॥१७॥१८॥१९॥बलादिति। पौर्णमासीवाक्यम्। अष्टापदं कनकम्। तत्पराभावित्वेन वीररसस्यात्र सूचितत्वात्। कष्टामष्टेति। ओजोव्यञ्जकवर्णानुप्रासो नानुपपन्नः॥२०॥ श्रोणिरिति। दूतीवाक्यम्।चक्रतां चक्रवाकत्वंचक्रनामास्त्रत्वं च। आशुगत्वंशीघ्रगामित्वं बाणत्वं च।सैनापत्यं सेनाध्यक्षत्वं। पशूनां पतिं रुद्रं कृष्णं च। अतस्त्वया अद्यास्त्रक्षेपे विलम्बो न कार्य इति भावः
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॥१६॥१७॥१८॥१९॥२०॥ श्रोणिरिति। दूतीवाक्यम्।चक्रतां चक्रवाकतां पक्षे चक्राख्यास्त्रताम्। आशुगत्वं शीघ्रगत्वं पक्षे वाणत्वम्। पशूनां पतिं
अथ चलापाङ्गी—
तडिदतिचलतां ते किं दृगन्तादपाठी–
द्विधुमुखि तडितो वा किं तवायं दृगन्तः।
ध्रुवमिह गुरुताभूत्त्वदृृगन्तस्य राधे
वरमतिजविनां मे येन जिग्ये मनोऽपि॥२२॥
अथोज्ज्वलस्मिता—
तव वदनविधौ विधौतमध्यां स्मितसुधयाधरलेखिकामुदीक्ष्य।
सखि लघुरघभिच्चकोरवर्यः प्रमदमदोद्धुरबुद्धिरुज्जिहीते॥२३॥
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॥२१॥ तडिदिति। श्रीकृष्णवाक्यम्। अपाठीदध्यैष्ट।गुरुता अध्यापकत्वं श्रेष्टत्वं च। येन दृगन्तेन जिग्ये मनसः सकाशादप्यतिजवित्वादनुधावितापि तदुल्लङ्घितं वशीकृतमिति वस्त्वर्थः॥२२॥ तव वदनेति। विशाखावाक्यम्। स्मितसुधयेति। स्मितमिदं प्रेष्ठदर्शनजातहर्षोत्थम्। तच्च अवहित्थया संगोपितमपि किंचिदेव निष्क्रान्तम्। विधौतमध्यां क्षालितमध्यप्रदेशामित्यधररेखामध्यप्रदेश एव तव्द्यक्ते। तच्चातिसूक्ष्ममपि सकृदुद्भूतमपि कृष्णेन दृष्टमेवेत्याह—उदीक्ष्येति। उज्जिहीते उद्गच्छतीति तेनैव प्रदेशेन संचरिष्यतीत्यधरपानं ध्वन्यन्ते। यतोऽघभित्पापशून्यः। अतः क्षालनादिभि पवित्रं वर्त्मैव तस्यापेक्ष्यम्। त्वदीययाधरसुधयेति तवापि तत्रानुकूल्यं दृश्यत इति नर्म ध्वनितम्। यतोऽघभिदेव रहस्य दुःखं मेत्स्यतीति। किंवा क्षालनेऽपि तदन्त पावित्र्यादर्शनादघभित् तत्स्थानस्थमघं मेत्स्यतीति स्वीयचञ्चवेति। तत्र अघभिदघासुरहन्तेति सामर्थ्यम्। ‘प्रायो वीररता स्त्रिय’ इति स्मृतेः। तत्रापि लघुशीघ्रगामीति त विलम्बाभावः। प्रमदमदाभ्यामानन्दमत्तताभ्यामुद्धुरा बुद्धिर्यस्येति। अद्यास्मत्संनिधिराहित्यमपि नापेक्षिष्यते; तदितो वयमेव प्रथममपसरा–
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श्रीगोपालं पक्षे रुद्रम्॥२१॥ तडिदिति। श्रीकृष्णवाक्यमपाठीदध्यैष्ट। पठत्यधीतेऽध्ययन इत्याख्यातचन्द्रिका॥२२॥ लघु शीघ्रेमनोज्ञे च।
** अथ चारुसौभाग्यरेखाढ्या—**
अघहर भज तुष्टिं पश्य यच्चन्द्रलेखा–
वल्यकुसुमवल्लीकुण्डलाकारभाग्भिः।
अभिदधति निलीनामत्र सौभाग्यरेखा–
विततिभिरनुविद्धाः सुष्ठुराधापदाङ्काः॥२४॥
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मेति नर्माण्येव ध्वनितानि॥२३॥ **अघहरेति।**मधुमङ्गलोक्तिः। पदाङ्का एव राधामत्र निलीनामभिदधति कथयन्ति। कीदृशाः। सौभाग्यव्यञ्जिकानां रेखाणां विततिभिरनुविद्धा युक्ताः। कीदृशीभिः। चन्द्रलेखाद्याकारभाग्भिः उपलक्षणमेतत्। यतो वराहसंहिताज्योतिः शास्त्रान्तर्गतकाशीखण्डमात्स्यगारुडाद्यनुसारेण ता एताश्चलेखा लक्ष्यन्ते। तत्र वामचरणस्य—अड्डष्ठमूले यव, तत्तले चक्रम्, तत्तले छत्रम्, तत्तले वलयम्, तर्जन्यङ्गुष्ठसंधिमारभ्य वक्रगत्या यावदर्धचरणमूर्ध्वरेखा, मध्यमातलेकमलम्, कमलतले ध्वजः सपताकः, कनिष्ठातलेऽङ्कुश, पार्ष्णावर्धचन्द्रः, तदुपरि वल्ली, पुष्पं च। इत्येकादश। अथ दक्षिणस्य—अङ्गुष्ठमूले शङ्ख, कनिष्ठातले वेदिस्तत्तले कुण्डलम्, तर्जनीमध्यमयोस्तले पर्वतः, पार्ष्णौमत्स्यः, मत्स्योपरि रथः, रथस्य पार्श्वद्वये शक्तिगदे, इत्यष्टौ। मिलित्वाऊनविंशति। अथ वामकरस्य—अत्रालिखितानामपि भक्तैर्ध्यानार्थमपेक्ष्यत्वादुच्यन्ते
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उज्जिहीते उदयते॥२३॥ अभिदधति कथयन्ति। अनुविद्धा युक्ताः। चन्द्रलेखावलयेत्युपलक्षणम्। यतो वराहसंहिताज्योतिःशास्त्रान्तरकाशीखण्डमात्स्ये गारुडाद्यनुसारेण ता एताश्च रेखा लिख्यन्ते। तत्र वामचरणस्याङ्गुष्ठमूले यवः, (१) तत्तले चक्रम्, (२) चन्द्ररेखायुता कुसुमवल्लिका, (३) मध्यमातले कमलम्, (४) कमलतले ध्वजः सपताकः, (५) मध्यमाया दक्षिणतआगता मध्यचरणपर्यन्तोर्ध्वरेखा, (६) कनिष्ठातलेऽङ्कुशः, (७) इति सप्त॥ अथ दक्षिणचरणस्य—अङ्गुष्ठमूले शङ्खः, (१) पार्ष्णौमत्स्यः, (२) कनिष्ठातले वेदिः,(३) मत्स्योपरि रथः, (४) शैलकुण्डलगदाशक्तयश्च (५।६।७।८) दक्षिणचरण एव संभाव्यन्ते। ताश्चयथाशोभं संभावनीया इत्यष्टौ। अथ वामकरस्य—अत्रालिखितमपि प्रसिद्धत्वादन्यरेखात्रयं ज्ञेयम्।तर्जनीमध्यमयोः संधिमारभ्य
अथ गन्धोन्मादितमाधवा—
वल्लीमण्डलपल्लवालिभिरितः संगोपनायात्मनो
मा वृन्दावनचक्रवर्तिनि कृथा यत्नंमुधा माधवि।
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चिह्नानि। यथा तर्जनीमध्यमयोः संधिमारभ्य कनिष्ठाधस्तले करभभागे गता परमायूरेखा, तत्तले करभमारभ्य तर्जन्यङ्गुष्ठयोर्मध्यभागं गतान्या, अङ्गुष्ठाधो मणिबन्धत उत्थिता वक्रगत्या मध्यरेखां मिलित्वातर्जन्यङ्गुष्ठयोर्मध्यभागं गतान्या, तथान्या युक्त्या विभज्य दर्श्यन्ते, अङ्गुलीनामग्रतो नन्द्यावर्ताः पञ्च, अनामिकातले कुञ्जरः, परमायूरेखातले वाजी, मध्यरेखातले वृषः, कनिष्ठातलेऽङ्कुशः, व्यजनश्रीवृक्षयूपबाणतोमरमाला यथाशोभमित्यष्टादश। अथ दक्षिणकरस्य—पूर्वोक्तं परमायूरेखादित्रयमत्रापि ज्ञेयम्, अङ्गुलीनामग्रतः शङ्खाः पञ्च,तर्जनीतले चामरम्, अत्रापि कनिष्ठातलेऽङ्कुशः प्रासाददुन्दुभिवज्रशकटयुगकोदण्डासिमृङ्गारा यथाशोभं ज्ञेयाः। इति सप्तदश मिलित्वा पञ्चत्रिंशत्॥२४॥ वल्लीति। तुङ्गविद्यावचनम्।हे माधवि वासन्ति, पक्षे हे राधे, ‘चेदियं प्रेयसा हातुं क्षणमप्यतिदुःशका।परमप्रेष्ठवश्यत्वान्माधवीति तदोच्यते’ इत्युक्तेः। **वृन्दावनचक्रवर्तिनीति।**लतासु गोपीषु च तस्या एव श्रैष्ठ्यात्। स्वविरो–
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कनिष्ठातले करभभागे गता परमायूरेखा, (१) तत्तले करभमारभ्य तर्जन्यङ्गुष्ठमध्यदेशं गतान्या, (२) अङ्गुष्ठाधो मणिबन्धत उत्थिता वक्रगत्या मध्यरेखां मिलित्वा तर्जन्यङ्गुष्ठयोर्मध्यभागं गतान्या, (३) अथान्या युक्त्या विभज्य दर्श्यन्ते—अङ्गुलीनामग्रतो नन्द्यावर्ताः पञ्च, (८) अनामिकातले कुञ्जर,(९) परमायूरेखातले वाजी, (१०) मध्यरेखातले वृषः, (११) कनिष्ठातलेऽङ्कुशः,(१२) व्यजन–श्रीवृक्ष–यूप–वाण–तोमर–माला १३।१४।१५।१६।१७।१८। यथाशोभं ज्ञेया इत्यष्टादश १८।अथ दक्षिणकरस्य पूर्ववत्परमायूरेखात्रयमत्रापि ज्ञेयम्, (३) अङ्गुलीनामग्रतः शङ्खाः पञ्च, (८) तर्जनीतले चामर, (९) अत्रापि कनिष्ठातलेऽङ्कुशः, (१०) प्रासादः, (११) दुन्दुभिः, (१२) वज्र-शकटयुग कोदण्डासिमृङ्गारास्ते १३।१४।१५।१६।१७॥ यथाशोभं ज्ञेया इति सप्तदश। तदेवं वामचरणे सप्त ७, दक्षिणचरणे अष्ट ८, वामकरेऽष्टादश १८, दक्षिणकरे सप्तदश १७, मिलित्वा पञ्चाशत् ५०॥२४॥ माधवीति। परमप्रेमवशतया
भ्राम्यद्भिः स्वविरोधिभिः परिमलैरुन्मादनैः सूचितां
कृष्णस्त्वां भ्रमराधिपः सखि धुवन्धूर्तो ध्रुवं धास्यति॥२५॥
अथ संगीतप्रसराभिज्ञा—
कृष्णसारहरपञ्चमस्वरे मुञ्च गीतकुतुकानि राधिके।
प्रेक्षतेऽत्र हरिणानुधावितां त्वां न यावदतिरोषणः पतिः॥२६॥
** अथ रम्यवाक्—**
सुवदने वदने तव राधिके स्फुरति केयमिहाक्षरमाधुरी।
विकलतां लभते किल कोकिलः सखि ययाद्य सुधापि मुधार्थताम्॥२७॥
** अथ नर्मपण्डिता—**
वंश्यास्त्वमुपाध्यायः किमुपाध्यायी तवात्र वंशी वा।
कुलयुवतिधर्महरणादस्ति ययोर्नापरं कर्म॥२८॥
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धिभिस्त्वत्संगोपनासहिष्णुतया त्वच्छक्तिभिरित्यर्थः। यतो भ्राम्यद्भिरितस्ततः कृष्णमन्विष्यापि त्वमेभिरेव सूचयिष्यसे। अग्रे त्वहं मिथ्या न दूषणीयेति भावः। उन्मादनैरिति। परिमलानां जातिप्रमाणाभ्यां उत्कर्षात् वैलक्षण्याच्च एभिरुन्मादितः कृष्णः स्थानास्थानं समयासमयं च न विचारयिष्यति। धास्यतीति। धेट् पाने डुधाञ् धारणपोषणयोश्च। भ्रमराधिप इति।‘भ्रमरः कामुके भृङ्गे’ इति धरणिः॥२५॥ कृष्णसार इति। विशाखावाक्यम्, कृष्णसारो हरिणः श्रीकृष्णस्य धैर्यं च।हरिणेनानुधावितामिति समासः। पक्षे हरिणा श्रीकृष्णेनेत्यसमास एव, हरिणपक्षे मृगाकर्षणसमर्थस्य गानस्य कुलाङ्गनानामनौचित्यमिति पत्यू रोषे हेतुर्ज्ञेयः। इतः सभयात् स्थानादन्यत्र दूरे रहसि गच्छेति ध्वनिः॥२६॥ सुवदने इति। श्रीकृष्णवाक्यम्। सौस्वर्येण कोकिलस्य शब्दार्थवैचित्र्या सुधायाश्च वैयर्थ्यमुक्तम्॥२७॥ वंश्या इति। अत्र
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कान्तेन हातुं न शक्यत इति वक्ष्यते। पक्षे वासन्ति। धास्यति पास्यति। धेट् पाने॥२५॥ कृष्णस्य सारो धैर्यंतस्य हरः पञ्चमः स्वरो यस्याः हे तथाविधे। पक्षे कृष्ण–
यथा वा—
देव प्रसीद वृषवर्धन पुण्यकीर्ते
साध्वीगणस्तनशिवार्चननित्यपूत।
निर्मञ्छनं (?) तव भजे रविपूजनाय
स्नातास्मि हन्त मम न स्पृश न स्पृशाङ्गम्॥२९॥
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ननु वंशी वा मदधीना गायतु अहं वा वंश्यधीनो गायामि तत्र कुलयुवतयः साध्वीत्वाभावेन यत्स्वधर्मंत्यक्ष्यन्ति तत्रावयोः को दोष इति स्वनर्मशरः परावृत्य स्वमेव लक्षीकुर्यादित्यपरितुष्यन्नाह—यथा वेति। वृषो धर्मस्तस्य वर्धनं वृद्धिर्यतः। अत एव ते पुण्यकीर्तिस्तत एव साध्वीगणेनापि स्वीयस्तनशिवपूजा त्वयैव कार्यते स्वेषां धर्मकीर्त्योर्वृद्ध्यर्थमिति भावः। त्वं च तत्तच्छिवार्चनेन नित्यं पूतः। नित्यमित्यनेन तद्विनाभूतमेकमपि दिनं न ते वन्ध्यं यातीति। पूतेत्यनेन तद्विना पावित्र्याभावादन्नपानादिकमपि नातिरोचत इति ध्वन्यते। ननु तर्हि त्वमपि साध्वी भवसि। संनिधेहि स्वीयस्तनशिवयोररुणकरकमलाभ्यां हृदयेन च वहिरन्तः पूजां मयैव कारय। अपूजितौ एतौ द्रष्टुमहं न प्रभवामीति तथा चिकीर्षन्तं तमाह—रविपूजनायेति। वयं सूर्योपासिका अनन्याः शिवपूजा न कारयामेति भावः। ननु तर्हि त्वां सूर्यभक्तामनन्यां स्पृष्ट्वा कृतार्थीभवेयमत आह—स्नातास्मीति। पुन स्नाने मम क्लेशः कालविलम्बश्च भविष्यतीति भावः। अत्र वृषवर्धनादिषु विरोधिलक्षणया अधर्माद्यतिशया एव व्यञ्जिताः। तदपि वृषवर्धनेत्यत्र श्लेषेणापि धर्मध्वंसिन्नित्यर्थो द्रष्टव्यः। वर्ध च्छेदने धातुः
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साराख्यमृगस्य हर इत्यादि। हरिणा श्रीकृष्णेन पक्षे हरिणेनानुधावितामनुगताम्॥२६॥२७॥२८॥ स्तुतिपक्षे वृषवर्धन धर्मवर्धक रविपूजनाय स्नातास्मीति शिवानन्यभक्तानामन्यदेवताभक्तस्पर्शोऽपि नेष्ट इति भावः। निन्दापक्षे देवेति सोपहासम्। वृषवर्धन वृषच्छेदन।विरोधिलक्षणया पुण्यं पापं कीर्तिश्चाकीर्तिः। साध्वीशब्देन तत्रत्यव्यवहाराद्गृहपतिभत्त्यैवोच्यते। नित्यपूतेत्यपि विरोधिलक्षणया सोप–
** अथ विनीता—**
अपि गोकुले प्रसिद्धा भ्रूभ्रमिभिः परिजनैर्निषिद्धापि।
पीठं मुमोच राधा भद्रामपि दूरतः प्रेक्ष्य॥३०॥
** यथा वा विदग्धमाधवे—**
भूयो भूयः कलिविलसितैः सापराधापि राधा
श्लाघ्येनाहं यदघरिपुणा बाढमङ्गीकृतास्मि।
तत्र क्षामोदरि किमपरं कारणं वः सखीनां
दत्तामोदां प्रगुणकरुणामञ्जरीमन्तरेण॥३१॥
** अथ करुणापूर्णा—**
तार्णसूचिशिखयापि तर्णकं विद्धवक्रमवलोक्य सास्रया।
लिप्यते क्षतमवाप्तबाधया कुङ्कुमेन सहसास्य राधया॥३२॥
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॥२८॥२९॥ अपि गोकुल इति। श्रीकृष्णं प्रति नान्दीमुख्या वाक्यम्। नायकेनास्वाद्यमानैर्नायिकाया विनयादिगुणैर्मधुररसः पुष्टीक्रियत इति ध्येयम्॥३०॥ अत्रकष्टेनादिरसं व्यज्यापरितुष्यन्नाह—यथा वेति। भूयोभूय इति। कलहान्तरितावचनम्। कलौ कलह एव विलसिताः स्वाभाविका भावास्तैः। राध्यति अपराध्यतीति राधा इति। स्वनामनिरुक्तिरपि कृता। उपसर्गस्य द्योतकत्वात् तं विनापि धातोस्तदर्थाभिधानशक्तेः। वो युष्माकमेव प्रकृष्टैर्गुणैर्या युष्माकं करुणा सैव दत्तामोदा सौरभवती मञ्जरी। तां विनेति तामेव कर्णावतंसीकृत्य तेनाहमङ्गीकृतास्मीति युष्मत्प्रेमवशीभूतेन युष्मन्निरुपाधिकृपापात्री मां श्रुत्वा युष्मभ्यं सुखदानानुरोधेनेत्यर्थ॥३१॥ पौर्णमासीं प्रति वृन्दावाक्यम्।**तार्णसूचीति।**तर्णकोऽयं स्वकान्तलोभनीयदुग्धाया धेनोरिति
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हासमयमेव॥२९॥ **भद्रिकामपीति।*भद्रायाः कुलादिन्यूनत्वं वोध्यते। तदिदं वाक्यं श्रीवृन्दावनेश्वर्या गुणसूचनाय श्रीकृष्णं प्रति काचित्कथितवतीति तस्यानुमोदनं च तस्यामिति मधुररसप्रकरणवलाद्व्याख्येयम्। एवमुत्तरेष्वपि।यथा वा ग्रन्थकृतामन्यत्पद्यम्—‘रागरङ्गमनुगानपरीक्षाकारिणि प्रियतमे सति राधा।भद्रिकामपि विधाय पुरस्तादात्मनानुगततां वत चक्रे’॥३०॥३१॥तार्णसूचीत्यत्र तर्णकोऽयं स्वकान्तायोपहरणीयदुग्धाया*
अथ विदग्धा—
आचार्या धातुचित्रे पचनविरचनाचातुरीचारुचित्ता
वाग्युद्धे मुग्धयन्ती गुरुमपि च गिरां पण्डितामात्मगुम्फे।
पाठे शारीशुकानां पटुरजितमपि द्यूतकेलीषु जिष्णु–
र्विद्याविद्योतिबुद्धिः स्फुरति रतिकलाशालिनी राधिकेयम्॥३३॥
** अथ पाटवान्विता यथा विदग्धमाधवे—**
छिन्नः प्रियो मणिसरः सखि मौक्तिकानि
वृत्तान्यहं विचिनुयामिति कैतवेन।
मुग्धं विवृत्य मयि हन्त दृगन्तभङ्गीं
राधा गुरोरपि पुरः प्रणयाव्द्यतानीत्॥३४॥
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ज्ञेयम्। तार्णसूचिशिखया कोमलतृणाग्रेणापि सास्रयेत्यस्त्राणि कृपातिशयद्योतकानि॥३२॥ आचार्येति। ह्योदृष्टजनुषो राधायाः संप्रति कीदृशं चातुर्यमभूदिति पृच्छन्तीं गोपीं प्रति कुन्दलतावाक्यम्। आचार्या न तु कदाचिदपि कस्याश्चिच्छिष्या।**चारुचित्तेति।**स्वचित्तेन पाकस्य प्रकारविशेषं विचार्यैव तां विरचयतीति न कस्याश्चन सकाशात् सा विद्या शिक्षिता। ‘वेणुवाद्य उरुधा निजशिक्षा’ इतिवत्। एवं सर्वत्र ज्ञेयम्। गिरां गुरुं श्रीकृष्णं वाग्देवीं वा विद्यासु गानवादनादिषु न्यायमीमांसादिषु च विशेषेण द्योतिनी बुद्धिर्यस्या सा॥३३॥छिन्न इति। मधुमङ्गलं प्रति कृष्णस्योक्तिः। पाटवं चातुर्यम्। वृत्तानि वर्तुलानि। मुग्धं मनोहरम्। विवृत्य परावृत्य।गुरोर्जटिलाया॥३४॥
*
*
धेनोरिति ज्ञेयम्। कृपयेत्यत्र सहसेत्येव वा पाठः। यथा वा तेषामेव पद्यान्तरम्—‘धिक्कठोरहृदयास्मि राधिका यच्चिरं विरहमस्य हा सहे। तं सहेत किमियं व्रजप्रजा कोमलेति मयि हृद्विदीर्यते॥३२॥ गिरां गुरुं श्रीकृष्णं वाग्देवीं वा ‘वाग्देवीमप्यवाचं रचयितुमधिका’ इति तु पाठान्तरम्॥३३॥ विवृत्य परा–
** अथ लज्जाशीला—**
व्रजनरपतिसूनुर्दुर्लभालोकनोऽयं
स्फुरति रहसि ताम्यत्येष तर्षाज्जनोऽपि।
उपरम3सखि लज्जे किंचिदुद्धाट्य वक्रं
निमिषमिह मनागप्यक्षिकोणं क्षिपामि॥३५॥
** अथ सुमर्यादा—**
प्राणानकृताहारा सखि राधाचातकी वरं त्यजति।
न तु कृष्णमुदिरमुक्तादमृताद्वृत्तिं भजेदपराम्॥३६॥
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राधा स्वगतमाह—व्रजेति। तर्पादत्यौत्कण्ठ्यात्। एष मल्लक्षणो जनः। सखीति।विरुद्धलक्षणया हे वैरणीति त्वं मे किं प्राणान् ग्रहिष्यसीति ध्वनिः। यद्वा हे सखि, त्वां सख्येन हितमुपदिशामि। क्षणमुपरम्।अन्यथा मयि प्राणांस्त्यक्तवत्यां त्वं क्व स्थास्यसीति स्वयमेव विचारयेति। तत्रापि एकस्यैवोक्ष्णः कोपादेवोपरम। अन्यत्र मत्सर्वाङ्गेषु राज्यं कुरु। तत्रापि निमिषमपि मनागपीति तवापिहठः स्थास्यति। अहं च जीविष्यामीत्येतदेव कुर्विति भावः। उद्धाट्येति। ‘घट संघाते’ इत्यस्य रूपं तस्य घटादित्वाभावान्मित्त्वाभावः॥३५॥ मर्यादा निर्बन्धविशेषः। सा च काचित्स्वाभाविकी काचित् शिष्टाचारदृष्टा काचित्स्वकल्पिता इति क्रमेणोदाहरणत्रयम्। श्यामलया रहसि कदाचित् क्षामत्वदर्शनजातेन स्नेहेन भोजनाय प्रार्थिता राधा तां प्रत्याह—प्राणानिति। यद्वा त्वदर्थ बहुशो यतमानया मया श्रीकृष्णस्त्वां न मिलिष्यतीति निर्धारितमतः स्वप्राणरक्षणोपायः कोऽप्यन्य एव चिन्त्यतामिति प्रेमपरीक्षणकारिणीं नान्दीमुखी प्रति पूर्वरागवती राधा प्राह—प्राणानिति। श्रीकृष्णमेघेन वृष्यमाणैः स्वसौरूप्यसौरभ्यसौस्वर्यसौरस्य–
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वृत्य।निवृत्येति वा पाठः॥३४॥ एष मल्लक्षणो जनः।उपरमसखीत्येव वा पाठः॥३५॥ अथ सुमर्यादेति। मर्यादात्र स्वभावेन वैदिकाचारेण स्वसंकल्पेन वा प्राप्तो निर्बन्धः। तथैव ह्युदाहरणत्रयं वक्ष्यते। प्राणानकृताहारेति—वाक्यं कदाचित् क्षुधिततया प्रतीता श्रीवृन्दावनेश्वरी कयाचित्तदन्त–
यथा वा—
आहूयमाना व्रजनाथ यास्मि युक्तोऽभिसारः सखि नाधुना मे।
न तादृशीनां हि गुरूत्तमानामाज्ञास्ववज्ञा वलते शिवाय॥३७॥
** यथा वा—**
पूर्णाशीःपूर्णिमासावनवहिततया या त्वयास्यैवितीर्णा
वष्टि त्वामेव तन्वन्नखिलमधुरिमोत्सेकमस्यां मुकुन्दः।
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सौकुमार्यवैदग्ध्यामृतैरेवाहं नेत्रादीन्द्रियाणि जीवयानि नान्यैरिति मे नियमस्तस्मादहं मरिष्याम्येवेति भावः॥३६॥ आहूयेति। वृन्दां प्रति श्रीराधावाक्यम्। आह्वानमिदं स्नेहेन कदाचित्तां रात्रावपि भोजयितुमिति ज्ञेयम्। न चात्र प्रेमण्युपहतिराशङ्कनीया।समर्थरतीनां तासां यो हि यो हि स्वाभाविको व्यापार स सर्व एव श्रीकृष्णस्य सुखप्रयोजनक एव भवेत्। दृष्टश्च कुलाङ्गनानां कान्तवाक्यमनुल्लङ्घ्य तन्मात्रादिनिदेशपालनं स्वाभाविक एव धर्मः। स च तादृशं तत्सौशील्यमास्वादयतस्तत्कान्तस्यायत्यां सुखार्थक एवेति ज्ञेयम्। अत्र पद्ये तु अधुनेत्युक्तं न त्वद्येति। ततश्च यद्यवकाशं लप्स्ये तदा तत आगत्यास्याभिसरिष्याम्येव न चेल्ललितां विशाखां वा मत्तुल्यामेव प्रहेष्यामीत्यधुनेति पदेनाभिव्यज्य समाधानमपि कृतमिति ज्ञेयम्॥३७॥ काचित् श्रीकृष्णप्रहिता वृद्धा दूती श्रीराधिकामुपदिश्य पुनर्निवृत्य श्रीकृष्णं प्रत्याह—पूर्णाशीरिति। पूर्णा आशीः कामना
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रङ्गया सख्या भोजनाय याचिता तां प्रति रहो जगादेति ज्ञेयम्। तत्र च प्रकटलीलायामपि नित्यप्रेयसीत्वसंस्कारेण नान्यत्र रुचिः स्वयमेव तस्या उदयते इत्यन्तस्तस्मिन् पतिभाव एव। बहिस्तु लोकानुसारेणान्यथा व्यवहार इति दर्शितम्। यथा तत्र वक्ष्यते सा स्वयमेव। ‘अपि वत मधुपुर्यामार्यपुत्रोऽधुनास्ते’ इति। कृष्णमुदिरमुक्तात्तद्भुक्तावशिष्टादमृतात्तद्वदास्वाद्यादन्नादेः। मुदिरेत्यमृतेति चातकीति च कुतश्चित् कश्चिच्छृणुयादित्याशङ्कया गोपनार्थमुक्तम्॥३६॥ आहूयमानेति। श्रीव्रजेश्वर्यामेव पूर्ववत् प्राचीनसंस्कारेणैव गुरुवुद्धेरुदयाद्वैदिकाचारनिर्वन्धो दर्शितः। जटिलानाम्न्यांश्वश्रूंमन्यायां तद्बुद्ध्यभावात्तदाज्ञाभङ्गे न तु दोषबुद्धिरिति च॥३७॥ काचित् श्रीकृष्णप्रहिता वृद्धा दूती श्रीराधिकामुपदिश्य पुनर्निवृत्य श्रीकृष्णं प्रत्याह—पूर्णाशीरिति। पूर्णा आशीः कामना
दिष्ट्यापर्वोदगात्ते स्वयमभिसरणे चित्तमाधत्स्ववत्से
युक्त्याप्युक्ता मयेति द्युमणिसखसुता प्राहिणोदेव चित्राम्॥३८॥
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यस्यां सा। पूर्णिमेयं श्रावणी ज्ञेया। तथा च स्मर्यते—‘प्रसूनैरद्भुतैकान्ता कान्तेन श्रावणीदिने। प्रसाधिता प्रसिद्धेन सौभाग्येन विवर्धते॥’ इति। अनवहिततया अवधानराहित्येन। अविचारेणेति यावत्। अस्यै अग्रेविर्देक्ष्यमाणत्वात् चित्रायै वितीर्णा अनभिसिसीर्षवेऽप्यस्यै बलाद्दत्ता। किंतु अस्यां तिथावखिलमाधुर्योद्रेकं विस्तारयन्मुकुन्दस्त्वामेव वष्टि कामयते न त्विमां इत्यादिपूक्त्या मयोक्तापि द्युमणिसखस्य सूर्यमित्रस्य वृषभानोः सुता चित्रामेव प्राहिणोत् न तु स्वयमभिससारेति। अत्रापि न प्रेममर्यादोपहतिराशङ्कनीया।तथा हि तस्या मनोगतोऽयं विचारः। अहं हि तेन स्वविलाससुखार्थमङ्गीकृत्य वर्ते एव। तथा ललिताविशाखे अपि द्वे तत्सुखदाने समर्थे एव। किंत्वियं चित्राप्यद्य तेन संभुक्ता प्रसाधिता एतत्तिथिप्रभावात् तस्मै अहमिव रोचताम्। काममहोदधेस्तस्याकाङ्क्षा पूर्तये किमहमेकाकिनी भवितुमीशे परं तु मयि संप्रयोगलीलया तेन स्वकामस्यापूर्तावपि मद्विषयकप्रेम्णैव पूर्तिरभिनीयते। अतोऽहमपि तथा साधयामि यथा सर्वाभिः सखीभिरपि सहिता तत्कामपूर्तये कदाचिदपि भूयासमिति। अत एव नित्यमपि स्वसंभोगान्ते कैरपि मिषैस्तं प्रेर्य यत् स्वसखीः संभोजयति तत्र सखीषु स्नेहो गौण एव हेतुःकिंतु स्वकान्तस्य कामपूर्तिवाञ्चैव मुख्यः। अतः सख्योऽपि श्रीराधायाः स्वकान्तसुखदाने प्रवृत्तायास्तस्याः साहाय्यमेवैतदिति तदभिप्रायं विदुष्य एव तत्र संमता भवन्ति। अन्यथा तास्तत्सख्येनैव सुखिन्यो
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यस्या सा पूर्णिमा तिथिर्यानवहितत्वेनास्यै निर्देक्ष्यमाणायै चित्रायै वितीर्णा स्वाभिसारसमयमय्यपि सा तदभिसाराय क्लृप्ता अस्यां तिथावखिलमधुरिमोत्सेकं तन्वन् मुकुन्दस्तामेव वष्टि। न तु तामित्यादि युक्त्या मयोक्तापि द्युमणिसखसुता वृषभानुपुत्री श्रीराधा तां चित्रामेव त्वयि प्राहिणोत् न तु स्वयमभिससारेति योज्यम्। चित्रायै पूर्णिमासावनवहिततया या त्वया प्राग्वितीर्णेति पाठान्तरम्। ‘उदेति रक्तः सविता रक्त एवास्तमेति च’ इतिवन्नात्र तु कथितपदत्वदोषः
अथ धैर्यशालिनी—
तीव्रस्तर्जति भिन्नधीगृहपतिश्छद्मज्ञया पद्मया
हारं हारयते हरिप्रणिहितं कीशेन भर्तुः स्वसा।
मल्लीं लुम्पति कृष्णकाम्यकुसुमां शैव्या प्रिया वर्करी
राधा पश्य तथाप्यतीव सहना तूष्णीमसौ तिष्ठति॥३९॥
अथ गाम्भीर्यशालिनी—
कलहान्तरितापदे स्थितिं सखि धीराद्य गतापि राधिका।
बहिरुद्भटमानलक्षणा सुदुरूहा ललिताधियाभवत्॥४०॥
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नायिकात्वं न समंमंस्यन्त इति विवेचनीयम्॥३८॥ पौर्णमासी नान्दीमुखी प्रत्याह—तीव्रेति। तीव्रः क्रोधी छद्मज्ञया त्वां बन्धयित्वा त्वद्भार्या राधा एवमेवं करोतीति वादिन्या पद्मया भिन्ना धीर्यस्य सः। गृहपतिरभिमन्युः। हरिप्रणिहितं कृष्णदत्तं हारं कीशेनं वानरद्वारा हारयते रे कीश, तुभ्यं उदरपूरं मोदकं दास्ये यदेतं रहसि संपुटं उद्धटय्य पश्यति तदा त्वया अलक्षितमेव हारो हृत्वा मत्पाणौ निधेय इति शिक्षां ग्राहितेनेति ज्ञेयम्। भर्तुः स्वसा ननान्दा कुटिलानाम्नी। शैब्या प्रियेति तन्निर्दिष्टेत्यर्थः। ‘वर्करस्तरुणः पशुः’ इत्यभिधानात् वर्करी छागी हरिणी वा लुम्पति। भक्षितपत्रपल्लवां करोति॥३९॥ रूपमञ्जरी स्वसखी प्रत्याह—कलहेति। पदं व्यवसायः। क्षोभस्य कारणेऽपि क्षोभानुद्भावो धैर्यमिति यद्यपि धैर्यस्य लक्षणं तदप्यत्रातीव सहनेति पदद्योतितस्य क्षोभस्य प्रेमपोषत्वात् कारणजनितान्तःक्षोभप्राकट्येऽपि तत्प्रतीकाराकरणं धैर्यम्, अन्तर्जातस्य क्षोभस्य बहिर्लक्षणाभावो गाम्भीर्यमित्यनयोर्भेदः कल्प्यः॥४०॥
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॥३८॥ पद्मया तन्नाम्न्या प्रतिपक्षायमाणचन्द्रावलीसख्या। कीशेन भिक्षा ग्राहितेनेति च ज्ञेयम्। शैव्यापि पद्मावव्द्याख्येया। प्रियेण निहितं भर्तुः स्वसा डिम्भयेति शैब्यानिर्दिष्टः शिशुरितिच पाठान्तरम्। मल्लींतदुपवनलतां प्रियेण श्रीकृष्णेन भर्तुः पतिमन्यतया भरणमात्रकर्तुः। यथा वा ग्रन्थकृतामेव पद्यान्तरम्—‘रासे निवृत्ते तु सपत्निकानां वक्रोक्तिमाकर्ण्य निजालिव त्। राधा विहस्याह भवत्य एव द्विषन्ति तासां न तु तादृशस्ताः’॥३९॥ लास्येनैवोल्लसन्ती
अथ सुविलासा—
तिर्यकूक्षिप्तचलद्दृगञ्चलरुचिर्लास्योल्लसद्भूलता
कुन्दाभस्मितचन्द्रिकोज्ज्वलमुखी गण्डोच्छलत्कुण्डला।
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तिर्यगिति। तस्या एव वचनम्। केलिनिकुञ्जमध्ये कुसुमास्तरणवेदिकायां विराजमानस्य श्रीकृष्णस्य रामपार्श्व एव बलादानीय सखीभिरुपवेशितायां श्रीराधायां श्रीकृष्णसंमुख एव संवादार्थमुपविष्टासु सखीषु श्रीकृष्णे च तस्याः संकोचाभावार्थ खसौन्दर्यावलोकनदानार्थं च सख्यभिमुखमेव स्वमुखं कृत्वा, हंहो किंवक्तव्यमद्य मद्भाग्यस्य प्राबल्यं यतोऽत्र विविक्ते गौरीमन्त्रस्मरणं कुर्वाणस्य मम शुभसूचकं शकुनम्; यद् वनमध्येऽपि रजन्यामपि परमसुकृतिनीनां स्वाङ्गभासैव तमिस्त्रायामपि सर्वं तमो विलुम्पतीनां परमसाध्वीनामाकस्मिको दर्शनलाभ इत्युक्तवति श्रीकृष्णे प्रथमं तिर्यक्षिप्तचलद्दृगञ्चलरुचिः तिर्यक् क्षिप्तेन न तु मुखं व्यावृत्य पुरोनिहितेन, तत्रापि चलता न तु त्रुटिमपि स्थिरीभवता दृशोऽञ्चलेनैव न तु केनापि संपूर्णेन भागेन रुची रोचकत्वमयी कान्तिर्यस्याः सा तेन वयमेव परं केवलमसाध्व्योभवानेव साधुर्निजेष्टदेवतागौरीसंभोगस्मरणपर इति मर्मार्थं व्यञ्जयामास। किं चाद्य केनापि ज्योतिर्विदोक्तं रसिकेन्द्र कापि जाम्बूनदमाला अलंकरिष्यतीत्युक्तवति तस्मिन् लास्येनोल्लसन्ती भ्रूलते यस्याः सा जाम्बूनदमाला अलंकरिष्यतीत्युक्तवति मनोरथं नैव जानीहि; अहं तु यावत् सख्योऽत्र तिष्ठन्ति तावदेवात्रास्मि गच्छन्तीष्वेतासु प्रथममेवेतो निःसृत्य यास्यामीति भ्रूलास्यस्यार्थः। व्रजराजसूनोस्ते जाम्बूनदमाला बहुश एव सन्ति न ता दुर्लभाः कित्वद्य सुरतरुमेव त्वया शुभादृष्टवता लब्धइति सखीभिः प्रत्युक्ते सत्यमात्थ भोः सुरतरोरक्षरत्रयादेवाहं कृतार्थीभविष्यामि किं पुनस्तेन संपूर्णेन सदा तास्तेनेत्युक्तवति कृष्णे; कुन्दाभं यत् स्मितं तस्य चन्द्रिकया ज्योत्स्नयोज्ज्वलं मुखं यस्याः सा।स्मितमिदं रत्याख्यस्थायिभावोत्थमवहित्थया संवृतमपि किचिन्निःसृतम्। अतएव कुन्दाभं तत्कान्तिश्च महती संपूर्णश्रीमुखपर्यन्तव्यापिनीति चन्द्रिकया सा रूपिता। ततश्च कृष्णे धृत्यसमर्थे स्वमुखं तिरश्वीनीकृत्य तस्या मुखं पश्यति सति तत्क्षण एव तयापि स्वमुखे स्ववामपार्श्वे परावर्तिते सति तद्दक्षिणगण्डे कुण्डलस्योच्छलनं जातमित्याह—गण्डोच्छलत्कुण्डलेति। तदुच्छलन–
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भ्रूलता यस्याः। लास्यभ्रमद्भ्रूलतेति वा पाठः। कुन्देत्यत्र च सान्द्रश्रीस्मितचन्द्रिकाकरमुखीति वा पाठः। कन्दर्पागमे ये सिद्धमन्त्रास्तद्वद्गहनां दुर्योधप्रभावां झटिति
कन्दर्पागमसिद्धमन्त्रगहनामर्ध दुहाना गिरं
हारिण्यद्य हरेर्जहार हृदयं राधा विलासोर्मिभिः॥४१॥
अथ महाभावपरमोत्कर्षतर्षिणी—
अश्रूणामतिवृष्टिभिर्द्विगुणयन्त्यर्कात्मजानिर्झरं
ज्योत्स्नीस्यन्दि विधूपलप्रतिकृतिच्छायं वपुर्बिभ्रती।
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चाकचक्यद्योतितदक्षिणकर्णालकगण्डललाटिकापाङ्गदेशान्तां
प्रियामालोक्यानन्दस्तम्भालम्भिनि श्रीकृष्णे तया दक्षिणपाणिधृतेनाञ्चलेन मुखमाच्छाद्य रत्युत्थमदहर्षव्रीडौत्सुक्यचापल्यजाड्यादिभावसंमर्दव्यञ्जकेन स्वरेण स्वयमेव प्रत्युत्तरं दत्तमित्याह—कन्दर्पेति। कन्दर्पस्य आगमशास्त्रे ये सिद्धमन्त्रा वशीकरणोच्चाटनोन्मादनमोहनादिधर्माणस्तैर्गहनां कलिलां व्याप्तामिति यावत्। गिरमर्धं दुहाना। असंपूर्णमेव पूरयन्तीत्यर्थः। अत्र सिद्धमन्त्रा इत्यतिशयोक्त्याप्रत्युत्तरस्यैकैकवर्णा ज्ञेयाः। ततश्च ते वर्णा न भवन्ति किंतु सिद्धमन्त्रा एवेत्यपह्नुतिरतिशयोक्त्या व्यञ्जिता भवति। प्रत्युत्तरं चेदम्। वनपथिनस्ते वनपद्मिनीष्वेव तदक्षरत्रयं सेत्स्यति न पुनर्मया कल्पवल्ल्येति। अस्यायं भावः। वाञ्छितप्रदायामपि कल्पवल्ल्यांसुरतं न सिध्यति किंतु तद्विसृष्टेषु पद्मिनीजनेष्वेवेत्यतो मया तुभ्यं तदर्थं स्वसख्यो दत्ता इति तास्वपि नर्मप्रत्युक्तिर्ध्वनिता। ततश्च यद्यस्मांस्त्वं स्वकान्ताय दित्ससि तर्हि वयं वनपद्मिन्यः पलाय्य वनमेव गच्छाम इति सखीषु निर्गच्छन्तीषु श्रीराधायामपि निर्गन्तुमुद्यतायां तां बलात् श्रीकृष्णः सकण्ठग्राहमाश्लिष्य पुष्पशय्यायां निन्य इति ज्ञेयम्। विलासाख्यस्यालंकारस्योर्मिभिस्तरङ्गैरिति तस्य प्रियमुखचन्द्रक्षोभितसमुद्रत्वारोपः। ‘माधुर्यवारिधेरस्मादमन्दध्वनिनिर्भरात्। पद्यादर्थमणीन्निशे ग्रहीतुमपि दीनधीः’॥४१॥ कलहान्तरितायाः श्रीराधायाः सखी श्रीकृष्णमाह—अश्रूणामिति। ननु नत्युपेक्षादिभि–
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स्तम्भमोहकारिणीमित्यर्थः।दुहाना व्यञ्जयन्तीत्यर्थ॥ ४०॥ ४१॥ अश्रूणामित्येतत् श्रीकृष्णं प्रति श्रीराधासखीवाक्यमुदात्तालंकारमयं ज्ञेयम्। यदुक्तम्—*‘लोकातिशयसंपत्तिवर्णनोदात्तमुच्यते’ एष चालंकारस्तत्तद्वस्तूनामतिशयतामात्रव्यञ्जनातात्पर्यकः।**ज्योत्स्नीस्यन्दीति।*क्रमेण स्वेदस्तम्भवैवर्ण्यानि दर्शितानि। छाया कान्तिः। त्रुटदिति तौदादिकत्वात् प्रकृष्टा वाता यस्यां सा प्रवाता कम्पमाना या
कण्ठान्तस्रुटदक्षराद्यपुलकैर्लब्धाकदम्बाकृतिं
राधा वेणुधरप्रवातकदलीतुल्या कचिद्वर्तते॥४२॥
अथ गोकुलप्रेमवसतिः—
प्रेमसन्ततिभिरेव निर्ममे वेधसा नु वृषभानुनन्दिनी।
यादृशां पदमिता मनांसि नः स्नेहयत्यखिलगोष्ठवासिनाम्॥४३॥
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रुपायैर्मयापि दुःशकप्रसादायाः मानिन्यास्तस्या एवंवृत्तत्वेको हेतुस्तत्राह—वेणुधरेति। सर्वास्त्राणां मोघत्वेवीरेण यद्ब्रह्मास्त्रं प्रयुज्यते तदुचितमेवेति भावः। तदधुना तन्निकटगमने क्षणमपि विलम्बो न कार्य इत्याह—अश्रूणामिति। तेन जलोपप्लुतमार्गत्वे क्षणेनैव जनिष्यमाणे त्वया सुकुमारेण मया वा अबलया कियत् संतरणीयमिति भावः। किंच मुहूर्तं तस्याः प्राणाः स्थास्यन्त्येवेत्याह—**ज्योत्स्नीस्यन्दीति।**स्फूत्यैवोदितस्य त्वन्मुखचन्द्रस्य दर्शनोत्थानन्द एव तत्र हेतुरिति भावः। स्यन्दीति प्रस्वेदः। विधूपलप्रतिकृतीति स्तम्भः। छायामिति वैवर्ण्यं द्योतितम्; चन्द्रकान्तशिलायाः पाण्डुवर्णत्वात्। तदपि प्रेम्णा औष्ण्यांशस्यैव विश्लेषे प्राबल्याद्दशमीमेव दशामासन्नप्रायां जानीहीत्याह—कण्ठान्तरिति। हे कृष्ण प्राणनाथेति विवक्षुरित्यर्थः। त्रुटदक्षरेति वैस्वर्यम्। त्रुटदिति तौदादिकत्वात्। प्रकृष्टवातकदलीति कम्पः। पश्चाद्भूमिपतनद्योतितः प्रलयश्च।बाध्यवाधकसंवन्धे षष्ठीसमासः। प्रकृष्टो वातो यस्यां तथाभूता कदलीति वा। अत्र पद्ये सर्व एव सात्त्विकाः सुदीप्ता महाभावविशेषं सूचयन्ति।तथा च वक्ष्यते—‘मोदनोऽयं प्रविश्लेषदशायां मोहनो भवेत्। यस्मिन् विरहवैवश्यात् सूद्दीप्ता एव सात्त्विकाः॥’ इति॥४२॥ प्रातः पाकार्थस्वसदनमायान्तीं श्रीराधां दूरात् पश्यन्ती श्रीव्रजेश्वरी खसखी प्रत्याह—प्रेमेति। वस्तुतः प्रेम्णः संततयोरंशाः स्नेहाद्यास्तैः सर्वैरप्युपादानकारणैरित्यर्थः। इता प्राप्ता॥४३॥
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कदली तत्तुल्या।क्वचिद्वर्ततइति वेणुधरस्य वेणुना तामाकृष्टवतस्तस्योत्कण्ठावर्धनार्थमनिश्चयेनोक्तिः। वस्तुतस्तु समीपतः कुञ्जन्तर्गुप्तं स्थित्वा तं पश्यन्त्येव सा वर्तते यतो ज्योत्स्नीस्यन्दीति दृष्टान्तेन प्रियदर्शनजमहासुखमेव तस्या व्यञ्जितम्। स एष सूद्दीप्तसात्त्विकमयो रूढाख्यो महाभावः स्पष्टः। यथा च वक्ष्यते— ‘सूद्दीप्ताःसात्त्विका यत्र स रूढ इति भण्यते’ इति। तदेतदुपलक्षणमेवाधिरूढादीनां स्थायिप्रकरणे वक्ष्यमाणानां ज्ञेयम्॥४२॥ प्रेमसंततिभिरेवेति। काचिन्निजहार्दं व्याजेन पृच्छन्तीं प्रति श्रीव्रजेश्वर्या वाक्यम्। स्नेहसंत
अथ जगच्छ्रेणीलसद्यशाः—
उत्फुल्लं किल कुर्वती कुवलयं देवेन्द्रपत्नीश्रुतौ
कुन्दं निःक्षिपती विरिञ्चिगृहिणी रोमौषधीहर्षिणी।
कर्णोत्तसंसुधांशुरत्नसकलं विद्राव्य भद्राङ्गि ते
लक्ष्मीमप्यधुना चकार चकितां राधे यशःकौमुदी॥४४॥
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पौर्णमासी प्राह—उत्फुल्लमिति। कुवलयं नीलोत्पलं भूतलं च। अत्र अतलादीनां सप्तपातालानां भूवलयत्वात् कुवलयपदेनैव व्यक्तिः।तत्र तत्रस्थाः सर्व एव जनास्ते यशः श्रुत्वा प्रहृष्टा बभूवुरित्यर्थः। सप्तस्वर्गव्याप्तिमाह—देवेन्द्रपत्नी शची तस्याः श्रुतौ कुन्दं निक्षिपती अवतंसार्थ कुन्दपुष्पमर्पयन्तीति चन्द्रिकायास्तत्र पतितायाः कुन्दभ्रमदायित्वात्। पक्षे शची त्वद्यशः सादरं शृणोतीत्यर्थः। अत्र कुन्दस्य पुष्पेषु सूक्ष्मत्वात्। तत्पदेन देवेन्द्रपत्न्यामहाविषयाभिनिवेशान्धतमसमयगह्वरान्तर्वासित्वं ध्वन्यते देवत्वमात्रसूक्ष्मगवाक्षरन्ध्रात्प्रविशन्ती त्वद्यशश्चन्द्रिका तस्या एकस्यामेव श्रुतौकुन्दाकारैव भवति। विरिञ्चिगृहिण्याः सावित्र्यारो माण्येव औषध्यस्ता हर्षयितुं शीलं यस्याः सा। अत्र रोमौषधिपदेन विषयवैतृष्ण्यमयसत्त्वगुणचन्द्रशालाप्राङ्गणवासित्वं ध्वन्यते। यतस्ते यश कौमुदी तस्याः सर्वाङ्गाण्येव शीतलीकृत्य रोमाञ्चयतीति। एवं सत्यलोकपर्यन्ता व्याप्तिरुक्ता भुवर्लोकादीनां तन्मध्यपतितत्वात्। एवं च सर्वं प्राकृतं व्याप्याप्राकृतमपि व्याप्नोतीत्याह—**कर्णोत्तंसेति।**सुधांशुरत्नशकलं चन्द्रकान्तशिलाखण्डं विद्राव्य प्रद्रवीभावं प्रापय्य तद्द्रूतजलक्लिनाङ्गीं तां कृत्वा चकिता शङ्काजाड्यविस्मयस्तिमितां चकार। अत्र विद्राव्येति चकितामितिपदाभ्यां त्वद्यश कौमुद्या सा बहिरन्तराकान्ता; अतिस्वच्छा प्राकृतत्वमालिन्यशून्या सूचिता। आसु आद्यायाः श्रवणमात्रस्पर्शो न च सात्त्विकभावोदयः कोऽपि। द्वितीयायाः सर्वाङ्गस्पर्शो रोमाञ्चश्च।तृतीयायां वहिरन्तः
*
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*तिभिरिति वा पाठः॥४३॥ **उत्फुल्लं किल कुर्वती कुवलयमिति।*कुवलयशब्दस्य पृथ्वीमण्डलवाचित्वाद्यशस्युपयुक्तता, कुमुदवाचिलात् कौमुद्युपयुक्तता च युक्ता। कुन्दं निक्षिपतीति कविसमये यशसः शुक्लत्वात् कुन्दमिवेत्यर्थ। कौमुद्या अपि तत्र पतनेन कुन्दभ्रमदत्वात्तदिवेत्यर्थः। विरिञ्चीत्यादिरोषविरूपकेण कौमुदीरूपकमपि पुष्यते। विद्राव्येति तु कवेःप्रौढोक्तिः।लक्ष्म्याश्च पद्मा–
अथ गुर्वर्पितगुरुस्नेहा—
न सुतासि कीर्तिदायाः किंतु ममैवेति तथ्यमाख्यामि।
प्राणिमि वीक्ष्य मुखं ते कृष्णस्येवेति किं त्रपसे॥४५॥
** अथ सखीप्रणयाधीना—**
उपदिश सखि वृन्दे बल्लवेन्द्रस्य सूनुं
किमयमिह सखीनां मामधीनां दुनोति।
अपसरतु सशङ्कं मन्दिरान्मानिनीनां
कलयति ललितायाः किं न शौटीर्यधाटीम्॥४६॥
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सर्वाङ्गव्याप्तिः संचारिभावपर्यन्तोदय इति स्वच्छत्वतारतम्येनैव त्वद्यशःप्रवेशतारतम्यं अतिमानि(लि)न्ये प्रवेशाभावश्चेतिसिद्धान्तश्च बोधितः॥४४॥ निजाग्रे मुखमावृत्यैव लज्जया किमप्यवदन्तीं राधां व्रजेश्वरी प्राह—न सुतेति। त्वन्मातुः सकाशात्त्वयि मम स्नेहो मनागपि न न्यूनः कीर्तिदायशोदयोरैक्यादिति भावः। प्राणिमीति प्रतिप्रातस्त्वदाह्वान इदमेव मुख्यं कारणमिति त्वयापि ज्ञातुं शक्यमिति ध्वनिः॥४५॥ कलहान्तरिता श्रीराधा प्राह— **उपदिशेति।**शौटीर्य विक्रमः। छलादाक्रमणं धाटी।ललिताया इत्यनेनैका ललितापि तेन दुरतिक्रमा सखीनामिति वहुवचनेन तादृश्यस्तु मे बह्वय एवं सख्यो वर्तन्त इति प्रकटो ध्वनिः। वस्तुवस्तु एका ललितैव तदसंमता तेन सा तेनानुनीय वशीकार्येति गूढः। अहं तु केवलं न तस्या एकस्या एवाधीनास्मि किंतु सखीनामन्यासामपीत्यतस्तत्साहाय्यवतीर्विशाखाप्रभृतीराश्रित्य स्वकृत्यं साधनीयमिति पूर्व–
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लयत्वात् कौमुदीरूपकस्योपयोगिता। विद्राव्य पद्मालयामप्युच्चैस्तरचञ्चलीकृतवतीति वा पाठः॥४४॥ न सुतासीति। श्रीब्रजेश्वरीवाक्यमाहूयमानेत्यादिवत्तादृशभावोऽत्र योज्यः। अलंकारश्चात्रापह्नुतिः। यथोक्तम्—‘प्रकृतं यन्निषिध्यान्यत्साध्यते सा त्वपह्नुतिः’ इति॥ ४५॥ शौटीर्य विक्रमातिशयस्तेन धाटीं किं न कलयति किं न जानाति। ‘छलादाक्रमणं धाटी’ इति क्षीरस्वामी॥४६॥
अथ कृष्णप्रियावलीमुख्या यथा ललितमाधवे—
सन्तु भ्राम्यदपाङ्गभङ्गखुरलीखेलाभुवः सुभ्रुवः
स्वस्ति स्यान्मदिरेक्षणे क्षणमपि त्वामन्तरा मे कुतः।
ताराणां निकुरम्बकेण वृतया श्लिष्टेऽपि सोमाभया
नाकाशे वृषभानुजां श्रियमृते निष्पद्यते स्वच्छता॥४७॥
अथ संतताश्रवकेशवा—
षडङ्घ्रिभिरमर्दितान्कुसुमसंचयानाचिनो–
दखण्डमपि राधिके बहुशिखण्डकं त्वद्गिरा।
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माश्वासपूर्वको गूढोपदेशः॥४६॥ श्रीकृष्णः प्राह—**सन्तु भ्राम्यदिति।**भ्राम्यतामपाङ्गानां भङ्गिर्विन्यासविशेषस्तत्र खुरली अभ्यासस्तस्य खेलाभुवो निरन्तरमेव मद्वशीकारे प्रवृत्ता इति भावः। किंतु विफलाभियोगा एव भवन्तीत्याह—**स्वस्तीति।**त्वामन्तरा त्वां विनेति त्वद्वपुषःपृष्ठाद्येकप्रदेशा अपि दृष्ट्वामां स्वस्तिमन्तं कुर्वन्ति तासां तादृशापाङ्गभङ्ग्योऽपि नेति भावः। अत्रार्थान्तरन्यासेन दृष्टान्तः। तारेति। सोमस्य आभया संपूर्णकान्त्यापि तारामण्डलीजुष्टयापि श्लिष्टे गाढस्पृष्टेऽपि वृषभानुजां ज्येष्ठमासीयसूर्योत्पन्नां श्रियमेकामपि शोभां ऋते विना स्वच्छता निरन्धकारता।श्लेषपक्षे त्वेवमवतारिका।ताः सुभ्रुवो दूरे वर्तन्तां तासु मुख्या चन्द्रावल्यपि मत्सुखसमृद्धये न प्रभवतीयाह—**तारेति।**ताराणामतिशयोक्त्या स्वसखीनां भद्रादीनां च।सोमाभया चन्द्रावल्याश्लिष्टेऽपि पुरुषायितया सत्याप्यालिङ्गिते आकाशे अतिशयोक्त्या मद्धृदये वृषभानुपुत्रीश्रियं संपत्तिं विना स्वच्छता निर्दुःखता। अत्र ता विनाभूतं तु मद्धृदयं रङ्कंनिःशोभं च सदा तिष्ठतीति श्रीपदव्यङ्ग्यं वस्तु॥४७॥ श्रीकृष्णः प्राह—**षडङ्घ्रिभिरिति।**बहूनां शिखण्डकानां समाहारो वहुशिखण्डकम्। त्रिभुवनमितिवत्
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ताराणामित्यादिकमर्थान्तरन्यासमयम्। किंतत्र श्लेषोऽप्यस्ति। यःखलु, तद्वन्तमेवार्थं पुष्णाति। तत्र ताराणां तत्सदृशीनां सोमाभया तदेकपर्यायचन्द्रावलीनाम्न्यावृषभानुजां श्रियं श्रीराधामाकाशे आ सम्यक् काशत इति श्रीकृष्णे।स्वच्छता अग्लानचित्तता॥४७॥ षडङ्घ्रिभिरमर्दितानिति। श्रीकृष्ण–
अमुं च नवपल्लवव्रजमुदञ्चदर्कोज्ज्वलं
करोतु वशगो जनः किमयमन्यदाज्ञापय॥४८॥
यस्याः सर्वोत्तमे यूथे सर्वसद्गुणमण्डिताः।
समन्तान्माधवाकर्षिविभ्रमाः सन्ति सुभ्रुवः॥४९॥
तास्तु वृन्दावनेश्वर्याः सख्यः पञ्चविधा मताः।
सख्यश्च नित्यसख्यश्च प्राणसख्यश्च काश्चन॥५०॥
प्रियसख्यश्च परमश्रेष्ठसख्यश्च विश्रुताः।
सख्यः कुसुमिकाविन्ध्याधनिष्ठाद्याः प्रकीर्तिताः॥५१॥
नित्यसख्यस्तु कस्तूरीमणिमञ्जरिकादयः।
प्राणसख्यः शशिमुखीवासन्तीलासिकादयः॥५२॥
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पात्रादिद्विगुः। अयं मल्लक्षणः॥४८॥ एवं नायिकामुख्याया गुणानुक्त्वा तस्याः सहायत्वेन सखीराह—यस्या इति। ‘गुणा वृन्दावनेश्वर्या इह प्रोक्ताश्चतुर्विधाः’ इति पूर्वेण लक्षणेनैव संबन्धः। यत्पदस्योत्तरवाक्यस्थत्वेतत्पदापेक्षा नैवास्ति। यथा—‘साधु चन्द्रमसि पुष्करैः कृतं नीलितं यदभिरामताधिके’ इति काव्यप्रकाशः॥४९॥ इमाः स्त्रियः सखीनित्यसखीप्राणसख्यः। प्रायेण सरूपतां तुल्यतां प्रेमसौन्दर्यसाद्गुण्यादिभिरिति शेषः। प्रायेणेत्युक्त्या न सर्वथा तुल्यत्वमवसीयते। ततश्च सर्वथा तुल्यत्वं प्रियसख्यः परमप्रेष्ठसख्यश्च प्राप्ता इति सखीनां पाञ्चविध्यत्वेऽपि वक्ष्यमाणाभ्यामसमस्नेहसमस्नेहाभ्यां द्वैविध्यं बुध्यत इति। नन्वत्र प्रायेण तुल्यतामित्युक्तेः सखीनित्यसखीप्राणसखीनां वृन्दावनेश्वरीतः किंचिन्न्यूनत्वेलब्धे ‘तुल्यरूपगुणाः सख्यः, किंचिन्न्यूनास्तु दासिकाः’ इत्युक्तनिरुक्तेरासां दासीत्वं प्रसज्येत। मैवम्। तत्र किंचित्तुल्यास्तु दासिका इत्युक्त्या यत्किंचिन्न्यूना इत्युक्तम्; तस्मात् किंचिन्न्यूनत्वं द्विविधं व्याख्येयम्। तुल्यता संभावनाया योग्यमयोग्यं च। आद्यं समानाभिजात्यकं सखीत्वप्रयोजकम्, द्वितीयं न्यूनाभिजात्यकं दासीत्वप्रयोजकमिति सर्वमवदातम्॥५०॥५१॥
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वाक्यम्।शिखण्डकं तज्जाति तच्च बह्विति नानाप्रकारमित्यर्थः। अयं मल्लक्षणः
गता वृन्दावनेश्वर्याः प्रायेणेमाः सरूपताम्।
प्रियसख्यः कुरङ्गाक्षी सुमध्या मदनालसा॥५३॥
कमला मधुरी मञ्जुकेशी कन्दर्पसुन्दरी।
माधवी मालती कामलता शशिकलादयः॥५४॥
परमप्रेष्ठसख्यस्तु ललिता सविशाखिका।
सचित्रा चम्पकलता तुङ्गविद्येन्दुलेखिका॥५५॥
रङ्गदेवी सुदेवी चेत्यष्टौ सर्वगणाग्रिमाः।
आसां सुष्ठुद्वयोरेव प्रेम्णः परमकाष्ठया।
क्वचिज्जातु क्वचिज्जातु तदाधिक्यमिवेक्ष्यते॥५६॥
इति वृन्दावनेश्वरीप्रकरणम्।
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॥५२॥५३॥५४॥५५॥ ननु सर्वगणाग्रिमत्वं ललितादीनां वक्ष्यमाणरीत्या समस्नेहत्वेनोच्यते तदेवासिद्धम्। क्वापि क्वापि स्नेहवैषम्यस्यापि दृष्टत्वादित्यत आह—आसामिति। आसा ललितादीनां द्वयो राधाकृष्णयोर्विषययोर्य प्रेमा तस्य परमकाष्ठया परमोत्कर्षेण हेतुनैव क्वचिज्जातु कदाचित् खण्डितायाराधायां श्रीकृष्णादपि तदाधिक्यं प्रेमाधिक्यम्। तत्र राधादुःखस्य श्रीकृष्णदत्तत्वेनानुसंहितस्य असह्यत्वमेव हेतुः। कदाचित्तत्कठोरमाननिबन्धनविरहविषण्णतनौ श्रीकृष्णे राधातोऽपि प्रेमाधिक्यम्। तत्र कृष्णदुःखस्य राधादत्तत्वेनानुसंहितस्यासह्यत्वमेव हेतुः। इवेत्यनेन सूक्ष्मवुद्धिभिराधिक्यस्यापरिगृहीतत्वमुक्तम्; द्वयोरपि दुःखस्यासह्यत्वे तुल्यत्वानुभवात्। असमस्नेहास्तु यत्र या स्नेहाधिक्यवत्यस्तत्सुखदुःखयोर्ययोरेव सुखदुःखाधिक्यवत्यो नत्वन्यत्र॥ ५६॥ इति वृन्दावनेश्वरीप्रकरणम्॥
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॥४८॥४९॥५०॥५१॥५२॥५३॥५४॥५५॥ आसामष्टानां ललितादीनां द्वयोरेव श्रीकृष्णराधयोर्द्वयोरपि विषयभूतयो प्रेम्णः परमकाष्ठया हेतुना जातु कदाचित् क्वचित् श्रीराधायां तथा जातु कदाचित् श्रीकृष्णे तदाधिक्यं द्वयोरितरापेक्षया प्रेमाधिक्यमिवेक्ष्यत इत्यर्थः॥५६॥ इति वृन्दावनेश्वरीप्रकरणम्॥
अथ नायिकाभेदाः।
यूथेऽप्यवान्तरगणस्तेषु च कश्चिद्गणस्त्रिचतुराभिः।
इह पञ्चषाभिरन्यः सप्ताष्टाभिस्तथेत्याद्याः॥१॥
किं च—
नासौ नाट्ये रसे मुख्ये यत्परोढा निबध्यते।
तत्तु स्यात्प्राकृतक्षुद्रनायिकाद्यनुसारतः॥२॥
तथा चोक्तम्—
नेष्टा यदङ्गिनि रसे कविभिः परोढा–
स्तद्गोकुलाम्बुजदृशां कुलमन्तरेण।
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यूथेऽपीति। अवान्तरगणा यथा—सखीगणः प्राणसखीगण प्रियसखीगण इत्येवं बहव एव गणाः। यद्वा राधायूथे ललितागणोऽयं विशाखागणोऽयमित्यनन्ता एव गणास्तेषु च त्रिचतुराभिरपि सखीभिरेको गण पञ्चपाभिश्चेत्येवंरीत्या शतैः सहस्रैर्लक्षैरपि ज्ञेयः॥१॥ यथा नायकप्रकरणे औपपत्यस्याधर्महेतुत्वेन विगीतत्वेऽपि श्रीकृष्णे परमसंगीतत्वं स्थापितम्, तथात्र नायिकाप्रकरणेऽपि परोढात्वस्य विगीतत्वेऽपि श्रीगोपीषु कृष्णकामितत्वेन परमसगीतत्वं स्थापयति नासौ नाट्य इति॥२॥ तत्रार्षप्रमाणादिकं पूर्वमेवोक्तं संप्रत्यार्पसंमतिनिर्धारकुशलबुद्धिभिर्विज्ञप्रवरैः प्रयुक्तं पद्यमेव प्रमाणीकुर्वन्नाह—**नेष्टेति।**अङ्गिनिमुख्ये रसे शृङ्गारे इत्यर्थः। यत्परोढा नेष्टाः परोढां वर्जयित्वेत्यादि साहित्यदर्पणादि लक्षणदृष्ट्या निषिद्धा इत्यर्थः। तद्गोकुलाम्बुजदृशां कुलमन्तरेण कुलं विना तास्तु इष्टा एवेति तासां परोठात्वंपरोढात्वेऽप्यविगीतत्वमिति द्वयं पूर्वाचार्यसंमतमित्यायातम्। तत्र हेतू रसस्य रसास्वादस्य विधेराशंसया शृङ्गार–
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अथ नायिकाभेदा॥१॥ तत्र परकीयात्वेनायकप्रकरणे परिहृतमपि दोषमत्र पुनर्दार्ढ्याय परिहरति—किंचेति॥२॥ तत्र पूर्वाचार्यवाक्यं प्रमाणयति—तथा चोक्तमिति। यं निर्वाहयितुं प्रवन्धः स एव रसोऽङ्गी। तदिति। क्वचित्प्रासङ्गिके त्वङ्गेरसे परोढाइष्टाभवन्तु नाम; नत्वङ्गिनीत्यर्थः। यदुक्तं तेषां मतसंग्राहकेण साहित्यदर्पणकारेण—‘परोढावर्जयित्वात्र वेश्यां चाननुरागिणीम्।
आशंसया रसविघेरवतारितानां
कंसारिणा रसिकमण्डलशेखरेण॥३॥
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रसास्वादोऽपि शास्त्रेषु विहितोऽस्त्वित्याकाङ्क्षया कंसारिणा श्रीकृष्णेनैव स्वयमवतारितानां प्रपञ्चगोचरीकृतानाम्। अस्यार्थः। निवृत्तिशास्त्रेषु शान्तरस एव विहितः; कामोपरागमूलकत्वेन संसारनिवर्तकत्वात्, शृङ्गाररसस्तु निषिद्धः कामोपरागमूलकत्वेन संसारप्रवर्तकत्वात्। स च परदारनिष्ठस्तु प्रवृत्तिशास्त्रेष्वपि निषिद्धः; कर्तुरिव तत्कथास्वादयितुरपि दुरदृष्टजनकत्वेन निरयपातहेतुत्वात्। भगवता तु परवधूविनोदलीलायां प्रपञ्चेऽपि गोचरीकृतायां ‘विक्रीडितं व्रजवधूभिः—’ इत्यादौ ‘शृणुयादनुवर्णयेद्यः’ इति तदास्वादविधिरप्यभूदिति सा लीला, व्रजवधूर्विनान्यत्र क्वापि न संभवतीति स्वयमवतीर्य ता अपि अवतारिता इति। किंच श्रीभागवते ‘वदन्ति तत्तत्त्वविदः—’ इत्यादिभिर्ब्रह्मत्वपरमात्मत्वभगवत्त्वेषु भगवत्त्वस्यैव प्रख्यत्वं स्थापितम्। तत्रा’प्येते चांशकला—’इत्यादिभिः स्वयं भगवत्त्वस्य तत्रापि तत्तात्पर्यालोचनया भक्तिरसामृतसिन्धौ ‘हरिःपूर्णतमःपूर्णतरः पूर्ण इति त्रिधा—’ इत्यादिभिः पूर्णतमत्वस्यैव तत्रापि दास्यसख्यादिरसवत्त्वेषूज्ज्वलरसालम्बनत्वस्यैव तत्राप्येतद्ग्रन्थप्रतिपादितस्यौपपत्यस्य मुख्यतमत्वे परमावधित्वं निर्णीतम्। तदेकापेक्षकस्यापि ब्रह्मत्वापेक्षकात् शान्तरसात् परमोत्कर्षपरावधित्वं स्थापितं भवति। तत्फलस्यापि सर्वफलेभ्यः परमोत्कर्षपरावधित्वं दृश्यते।
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आलम्बनं नायिका स्युर्दक्षिणाद्याश्चनायका’ इति। चकारो भिन्नोपक्रमे। परोढावेश्ये तावद्वर्जनीये एव। यदा स्वीयाप्यननुरागिणी स्यात् तदा तामपि वर्जयित्वेत्यर्थः। तदुक्तम्—‘परनायकसंस्थायामित्यादि।’ तदेतच्च गोकुलाम्बुजदृशां कुलमन्तरेण तद्विनेत्यर्थः। तास्तु इष्टाइत्यर्थः। तत्र हेतुगर्भ तासां विशेषणम्। आशंसयेति। तादृशलीलाक्रमसाध्यप्रेमरसविशेषास्वादनाय सर्वज्ञतां सर्वशक्तितां सर्वेश्वरतामपि नात्यादृत्य तदुपयुक्तां लीलाशक्तिमेवादृत्य तद्वारावतारितानां नित्यप्रेयसीनामेव तासां परदारत्वभ्रमेण यथा रसस्य विधिः प्रकारविशेषः संभवति तथा जन्मादिलीलाया नित्यत्वं विस्मार्य प्रकटीकृतानामित्यर्थ। तदाशंसाया हेतुः—रसिकेति। तस्माल्लीलाशक्तिप्रेरिततया कृतमेव तासां परोढात्वप्रत्यायनं परसंगत्यभावश्च। तत एवेत्यङ्गिनि रसेऽस्मिन् परमयुक्ता एव ता इति भावः।
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‘भक्तिंपरां भगवति प्रतिलभ्य कामं हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः’ इत्यनेन नत्रापि क्त्वाप्रत्ययेन हृद्गोगवत्येवाधिकारिणि प्रथममेव तादृश्या भक्तेः प्रवेशस्तयैव हृद्रोगस्यापि शीघ्रनाशः। एवं च निकृष्टावधेरपि शृङ्गारस्य स्वरूपतः, फलतश्च परमोत्कृष्टावधित्वेन प्रतिपादनात्, तदास्वादविधेश्च परमहंसशास्त्रे श्रीभागवत एव करणात् निरङ्कुशैश्वर्येण विस्मयरसमनुभूयोक्तम्—रसिकमण्डलेति। यद्वा। नन्वस्य रसस्य विहितत्वमप्यस्तु; परोढा वर्जयित्वेत्यादिना, रसाभासत्वमप्यस्तु रसाभासादीनामपि ‘सर्वे हि रसनाद्रसाः’ इत्यास्वादविधेः। इत्यत उक्तम्— रसिकमण्डलशेखरेणेति। तथात्वेकृष्णस्यारसज्ञत्वमेवापद्यत इति। ये चैवं व्याचक्षते—रसस्य विधेः प्रकारस्य आशंसया आकाङ्क्षयावतारितानां प्रपञ्चगोचरीकृतानामिति। त एवं प्रष्टव्याः अप्रकटप्रकाशे किं रसस्य प्रकारो नास्तीति। नन्वस्त्येव; किंतु तासां तत्र स्वीयात्वात् स्वीयात्वसमुचित एव नतु परकीयासु दौर्लभ्यभावनेन लोकवेदमर्यादोल्लङ्घनेन चानुरागाधिक्यमयो रसोत्कर्षो यावांस्तावानिति। अतो रसोत्कर्षविशेषास्वादनार्थं यदैवाकाङ्क्षा अजनिष्ट तदैव ताः प्रपञ्चेपरवधूत्वेनावतारिताःलीलाशक्त्यैव तासुकारितेन परदारत्वभ्रमेण कियन्तं कालं तदास्वादश्च संपादित इति। सत्यं भोःसत्यम्। यो हि रसोत्कर्षास्वादः स कृष्णस्य न सार्वकालिकः किंतु प्रकटायामवतारलीलायामेव; तस्याःकादाचित्कत्वात् सोऽपि कादाचित्क इति। तथा यदेव रसोत्कर्षस्य मूलं तच्च परवधूत्वंभ्रमक्लृप्तमेवेति धन्यैवेयं वः सिद्धान्तस्थितिः। शृणुत तावत्। श्रीकृष्णकर्तृकस्य रसोत्कर्षास्वादस्य कादाचित्कत्वेमायिकत्वमापद्यते; मायाशक्तिकृतस्यैव कादाचित्कत्वदर्शनात्, नतु चिच्छक्तिकृतस्य। तथा तासु परवधूत्वस्य भ्रमक्लृप्तत्वेईश्वरोऽपि भ्रान्त इति शाङ्करशारीरकमतादपि वैशिष्ट्यमायातम्। तत्र हि
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एतदुक्तं भवति। यद्यपि निर्विघ्नेऽपि संभोगे रसो भवत्येव तथापि ‘न विना विप्रलम्भेन संभोगः पुष्टिमश्नुते’ इति भरतन्यायेन विप्रलम्भश्च कुत्रचिदपेक्ष्यते। स च विप्रलम्भो यदि लीलावैचित्र्यमुद्वहन् भवति तदा त्वतितरामिति गम्यते। लीलावैचित्र्यं च तादृशदम्पत्योरितः परं नास्ति यद्दम्पत्योरेव सतोलीलाशक्त्या जन्मान्तरवशाद्विस्तृततद्भावयोर्मिथ्यैवान्यत्र प्रत्यायितजायाविवाहयोर्जायाप्रतिकृतिकल्पनया वञ्चिते पतिमन्ये लोकधर्ममर्यादासमुल्लङ्घकरागेण रहसि परस्परमिलितयोर्निरन्तरजातशङ्कया जातदौर्लभ्ययो, कथंचिज्जाते तु नायकस्य दूरप्रवासे
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जीव एव भ्रान्त इत्युच्यते नत्वीश्वर इति। ननु भ्रमोऽयं प्रेमहेतुक एव लीलाशक्त्या संपादित इति चेत् तर्हि किमप्रकटप्रकाशे प्रेमा नास्ति यतोऽयं कृष्णस्तत्राभ्रान्त एव ताः स्वीया एव जानाति। कथं वा तस्य भ्रमस्य कादाचित्कत्वम्; प्रेमहेतुकत्वेन नित्यत्वस्यैवौचित्यात्। मायिकवस्तूनामेव कादाचित्कत्वस्थापनात्, तथावतारलीलायाः कादाचित्कत्वेन मायिकत्वे तया ‘स्वसुखनिभृतचेतास्तव्द्युदस्तान्यभावोऽप्यजितरुचिरलीलाकृष्टसारः’ इति ‘परनिष्ठितोऽपि नैर्गुण्ये उत्तमश्लोकलीलया। गृहीतचेता राजर्षे—’ इत्यादिभ्य आत्मारामचूडामणेः श्रीशुकदेवस्य ब्रह्मतोऽप्याकर्षणं नोपपद्यते। न चाप्रकटलीलयैव तदिति वाच्यम्; ‘आख्यानं यदधीतवान्’ इत्युक्तेराख्यानस्यास्य श्रीभागवतस्यावतारलीलामयत्वादिति। किंच श्रीभगवत्संदर्भ ‘न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा’ इत्यत्र सर्वलीलानित्यत्वे प्रातिभासिकया श्रीमज्जीवगोस्वामिचरणव्याख्ययैव सर्वमेतत् कुमतं पराहतम्। सा च ‘अत्रैव परमोत्कर्षः शृङ्गारस्य प्रतिष्ठितः’ इत्यत्र लिखितैव। किंचास्माकं हि सर्वसिद्धान्तमूलं श्रीकृष्णस्य स्वयं भगवत्त्वम्। तच्च सर्वथा परिपूर्णत्वसिद्धम्। सर्वदा परिपूर्णत्वं च तदीयसर्वशक्तीनां संपूर्णया व्यक्त्यैव। भागवतामृते तथैवोक्तम्—‘शक्तयश्च सर्वोत्कर्षसर्वैश्वर्यमाधुर्यलीलासत्यसंकल्पतेत्याद्याः’। तत्राप्रकटप्रकाशे रसास्वादोत्कर्षाभावे उत्कर्षिण्याः शक्तेरव्यक्तमाधुर्यसत्यसंकल्पतेत्यादीनामल्पव्यक्त्या च परिपूर्णत्वाभावे स्वयं भगवत्त्वस्यैवासिद्धिः, तस्यासिद्धौ च कथयत कीदृशं साध्यसाधनादिस्थापनमिति। ननु च प्रकटप्रकाशे रसोत्कर्षसिद्धावप्रकटप्रकाशेऽपि तत्कथाश्रवणस्मरणादिभिः सभ्यतयातदास्वादो भविष्यतीति सत्यम्; तदपि परकीयासंभोगसुखाभावेन तत्कथानुस्मृतिजनिततत्त्वसंभोगलिप्सया चाफलवत्या स दोषस्तदवस्थ एवेत्यलमति–
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मिलनयुक्तिमसंभावयतोस्ततो जाते कथमपि संयोगे लीलाशक्त्यैव लोके व्यञ्जितदाम्पत्ययोः परम एव सुखचमत्कारःस्यात्। यथा ललितमाधवस्य पूर्णमनोरथनामाङ्कपूर्तौ श्रीराधावाक्यम्—‘सख्यस्ता मिलिता निसर्गमधुराः प्रेमाभिरामीकृता यामीयं समगंस्त संस्तरवती श्वश्रूश्व गोष्ठेश्वरी। वृन्दारण्यनिकुञ्जधाम्निभवता सङ्गोऽप्ययं रङ्गवान् संवृत्तः किमतः परं प्रियतरं कर्तव्यमत्रास्ति मे॥’इति॥ तदीदृशं च स्वनाटके गत्यन्तराभावं पश्यता यद्दर्शितं तत्रैव परमवैचित्र्यं स्वयमभिमतं तदेव च रसिकमण्डलशेखरेणेत्यत्राभिमतमिति। तदिदमेव समृद्धि–
व्रजेन्द्रनन्दनत्वेन सुष्ठु निष्ठामुपेयुषः।
यासां भावस्य सा मुद्रा सद्भक्तैरपि दुर्गमा॥४॥
** यथा ललितमाधवे—**
गोपीनां पशुपेन्द्रनन्दनजुषो भावस्य कस्तांकृती
विज्ञातु क्षमते दुरूहपदवीसंचारिणः प्रक्रियाम्।
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विस्तरेण॥३॥ एवं चाङ्गिनि शृङ्गाररसे द्विविधो भावो दाम्पत्यमय औपपत्यमयश्च। तत्राद्यो वसुदेवनन्दनत्वाभिमानवत्येव श्रीकृष्णे, द्वितीयस्तु नन्दनन्दनत्वाभिमानवत्येव तस्मिन् पुष्टिमाप्नोति यद्यपि; तदपि ‘यद्वाञ्छया श्रीर्ललनाचरत्तपः’ इतिवत् ‘न वयं साध्वि साम्राज्यम्—’ इत्यादौ ‘व्रजस्त्रियो यद्वाञ्छन्ति—’ इत्यादिना दाम्पत्यमयभाववतीनां पुरसुन्दरीणामौपपत्यमयभावविषयीभूते श्रीव्रजेन्द्रनन्दने यथा स्पृहा श्रूयते तथौपपत्यमयभाववतीना व्रजसुन्दरीणामपि दाम्पत्यमयभावविषयीभूते श्रीवसुदेवनन्दने स्पृहा भवेन्नवेत्याशङ्क्याह—व्रजेन्द्रेति। व्रजेन्द्रनन्दनत्वेनैव या निष्ठा कृष्णस्य नितरां स्थितिस्तत्रापि सुष्ठुइति। तत्र स्थितौ स्वप्नेऽप्यात्मानं वसुदेवनन्दनं न जानातीत्यर्थ। तामुपेयुष स्वीकार्यत्वेन गृहीतवतो भावस्य रत्याख्यस्य स्थायिनः। ननु व्रजेन्द्रनन्दनत्वेनैवेति कोऽयमाग्रहः। एकस्यैव तस्य कालदेशभेदेनाभिमानद्वयवत्त्वादित्यत आह—सदिति। सद्भक्तैरपि सद्भिर्विद्भिरपि भक्तैर्नानाभक्तिमद्भिरपि मुद्रा परिपाटी दुर्गमा। ‘तद्विजानन्ति तद्विदः’ इति न्यायेन तद्भावास्वादं प्राप्तवद्भिरेव सद्भिरनुभवेन ज्ञेयेति भावः॥४॥ माथुरविरहेण विमुह्यन्त्याः खेलातीर्थे निमज्य सूर्यमण्डलं गतवत्याश्रीराधाया आश्वासं सूर्यमण्डलस्थविष्णुसंदर्शनया कुर्वाणां संज्ञां प्रति विशाखा प्राह—गोपीनामिति। गोपीनां भावस्य प्रक्रियां प्रकृतिं स्वभावमिति यावत्। (किं) [वि] ज्ञातुं कः क्षमेत। न कोऽपीत्यर्थः। अत्र हेतुर्दुरूहेति। दुरूहायामेव पदव्यां संचरणशीलस्य। दुरूहत्वमेवाह—पशुपेन्द्र–
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मदाख्य परमफलपूर्तिमये संभोगे व्यञ्जयिष्यामः॥३॥ अत्र दर्शनस्य ‘अक्षण्वतां फलमिदम्—’ इत्यादिवाक्यमनुगतं ललितमाधवमेवानुसृत्य तासां भावनिष्ठां दर्शयति—व्रजेन्द्रेति। श्रीदशमस्कन्धवाक्ये च व्रजेशसुतयोर्मध्ये यदनु पश्चात् वेणुजुष्टमेकं मुख्यं तदित्येव तासां तात्पर्यविषयः॥४॥५॥
आविष्कुर्वति वैष्णवीमपि तनुं तस्मिन्भुजैर्जिष्णुभि–
र्यासां हन्त चतुर्भिरद्भुतरुचिं रागोदयः कुञ्चति॥५॥
भुजाचतुष्टयं क्वापि नर्मणा दर्शयन्नपि।
वृन्दावनेश्वरीप्रेम्णा द्विभुजः क्रियते हरिः॥६॥
यथा—
रासारम्भविधौ निलीय वसता कुञ्जे मृगाक्षीगणै–
र्दृष्टंगोपयितुं समुद्धरधिया या सुष्ठु संदर्शिता।
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नन्दनजुषःपशुपेन्द्रनन्दनमेव नतु वसुदेवनन्दनमपि स्वस्य विषयं कुर्वाणस्येत्यर्थः। यद्वा। पशुपेन्द्रनन्दने एषाया जुट् प्रीतिस्तद्रूपस्य। यतस्तस्मिन् पशुपेन्द्रनन्दन एव ताः परिहसितुं जिष्णुभिर्विराजमानैश्चतुर्भिर्भुजैरुपलक्षितामद्भुतरुचिं विचित्रशोभामयीमपि वैष्णवीं तनुं वैकुण्ठनाथमूर्तिमप्याविष्कुर्वति सति तस्मिन् विषये यासां रागस्योदयः कुञ्चति भवति। उदय इत्यनेन विष्णुना प्रकाशितायां स्वतनौ तु रागस्योदयोऽपि नोत्पद्यत इति सूचितम्। अत एव पूर्वमुक्तम्—‘अरुन्धतीमुखसतीवृन्देन वन्द्ये हिता’ इति॥५॥ तास्वपि श्रीराधिकाभावस्य परमाद्भुतमुत्कर्षमाह—भुजाचतुष्टयमिति॥६॥ वृन्दा पौर्णमासीमाह—रासेति। ‘वसन्तकुसुमामोदसुरभीकृतदिङ्मुखे। गोवर्धनगिरौ रम्ये स्थितं रासरसोत्सुकम्’ इति गौतमीयात्। लोके तु गोवर्धनोपत्यकाया परासौलीति ख्यातनाम्न्यां रासस्थल्यांरासस्यारम्भविधौ निलीयं वसतेति प्रविष्टकनामारण्ये ‘पेठे’ इति लोकभाषया प्रसिद्धे स्थले दृष्टं स्वं गोपयितुमिति वह्वीभिस्ताभिः सर्वत आवृतात् तस्मात् कुञ्जात् सहसापसर्पणासंभवात् उद्धुरधिया एवं करोमीति सद्यःप्रतिभारूढवुद्धिना या चतुर्बाहुता संदर्शितेति। हंहो नायं कृष्णश्चतुर्भुजो नारायणमूर्तिरिति तं प्रणम्य श्रीकृष्णं दर्शयेति प्रार्थ्यं गतासु सर्वासु आगताया राधायाः प्रणयस्य महिमा हन्तेत्याश्चर्ये अत्यद्भुतोऽभूदित्यर्थः। यस्य महिम्नः श्रिया शोभामात्रेणैव सा चतुर्वाहुता हरिणा रक्षितुं शक्या नासीत्। सा
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अत्र श्रीराधाया वैशिष्ट्यं व्यञ्जयितुमाह—भुजेति॥६॥ तत्र चैतिह्यप्रमाणमाह—
राधायाः प्रणयस्य हन्त महिमा यस्य श्रिया रक्षितुं
सा शक्या प्रभविष्णुनापि हरिणा नासीच्चतुर्बाहुता॥७॥
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का। या स्वं गोपयितुं संदर्शितेत्यन्वयः। अयमत्र विवेकः। यथा ब्रह्मेन्द्ररुद्रादीनां सत्येऽप्यापेक्षिके अन्यत्र ऐश्वर्यपरमेश्वरस्य भगवतोऽग्रे ईशितव्यत्वमेव न तत्र ऐश्वर्यलेशोऽप्युद्भवति, न चोद्भूतश्च तिष्ठति नित्यं तदधीनत्वात्। एवं भगवतोऽपि प्रेमाधीनत्वात् प्रेम्णोऽग्रे ऐश्वर्यं न तिष्ठतीति न शक्यते वक्तुम्; तस्य नित्यत्वात्। किंतु तिरोभवति। स च प्रेमा जात्या अनन्तोऽपि क्वापि परमाणुमात्रः, क्वापि परममहान्, क्वापि आपेक्षिकन्यूनाधिक्यमय इति चतुःपरिमाणकः तत्राद्योऽजातरतिकेषु भक्तेषु। तेषु प्रेम्णो दुर्लक्ष्यत्वात् भगवतोऽधीनत्वमपि दुर्लक्ष्यमेव।द्वितीयो वृन्दावनेश्वर्यामेव। तत्र प्रेम्णःसंपूर्णतमत्वेनाधीनत्वमपि संपूर्णतममेव। अतस्तस्यां तस्यैश्वर्यं न प्रकटीभवति। यच्च समुद्रवन्धनशेषशय्यादिलीलाप्रकटनेनैश्वर्यमुदभूत्तच्च तस्या एव दिदृक्षावशादिति तत्तत्पुराणगतमैतिह्यम्। अथ तृतीयो व्रजलोक एव। तत्र प्रेम्णो महत्त्वेन अधीनत्वमपि संपूर्णमेव नतु संपूर्णतमम्। अतः कदाचित् कथंचिदुद्भुतमस्यैश्वर्यं तत्रस्थानां प्रेमाणं संकोचयितुं न प्रभवति। तत्र पूतनाघासुरादिवधजृम्भणमृद्भक्षणदामवन्धनादिष्वैश्वर्यस्य श्रीकृष्णनिष्ठत्वेनानुसंधानाभाव एव हेतुः।क्वचिच्च वरुणलोकगमनदावाग्निपानशैलेन्द्रधारणादिष्वैश्वर्यस्य तन्निष्टत्वेनानुसंधानेऽपि खसंबन्धमननस्य प्रावल्यमेव हेतुः। नत्वन्यत्र वसुदेवदेवकीपाण्डवादिष्विव स्वसंबन्धमननस्य शैथिल्यम्। ‘सूतीगृहे ननु जगाद’ इति, ‘सस्वजाते नशङ्कितौ’ इति, ‘सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तम्’ इत्यादिषु तथा दृष्टेस्तत्र तत्र प्रेम्णः संपूर्णकल्पत्वमेव अधीनत्वमपि संपूर्णकल्पत्वमेव। अथ चतुर्थोनारदादिषु। तेषु तेषु प्रेमानुरूपमधीनत्वम्। किंचाधीनत्वेऽपि यत्र संपूर्णतममधीनत्वं तत्रैव सामस्त्येनैश्वर्यं नोद्भवति यथा मण्डलेश्वरेषु मध्ये केषांचित् कस्यचिदधीनत्वेऽपि तत्र तत्र स्वैश्वर्यपददर्शनेन संभवत्यपि मूलचक्रवर्तिनोऽग्रे ऐश्वर्यलवस्यापि न प्रकाश इति। ननु परमेश्वरस्यास्वातन्त्र्यं विगीतमिव जीवसाम्यापत्तेः शास्त्रकारासंमतं च। नैष दोषः। प्रत्युत महागुण एव। माया हि जीवं दुःखयितुमेव वशीकरोतीति जीवस्य
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यथेति। या चतुर्बाहुता॥७॥ अथ सैरन्ध्यामपिरसोद्बोधं स्थापयति—
अपिच—
सामान्या या रसाभासप्रसङ्गात्तादृगप्यसौ।
भावयोगात्तु सैरंध्री परकीयैव संमता॥८॥
** तथाच प्राञ्चः—**
सामान्यवनिता वेश्या सा द्रव्यं परमिच्छति।
गुणहीने च न द्वेषो नानुरागो गुणिन्यपि।
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मायापारतन्त्र्यं दुःखार्थमेव। ईश्वरं तु सुखयितुमेव। भक्तिस्तदीया शक्तिर्वशीकरोतीति तत्पारतन्त्र्यमीश्वरस्य सुखप्रयोजकमेव, वास्तवमेव।यथा विलासिना स्वप्रेयसीपारतन्त्र्यमिति॥७॥ अथ प्राञ्चः। सामान्या साधारणा स्त्रीत्यादिना स्वकीया परकीया साधारणीति नायिकायास्त्रैविध्यमाहुस्तत्र व्रजपुरयो परकीयाः स्वकीयाश्च दर्शिता एव; किंतु तृतीया नायिका श्रीकृष्णस्य वर्तते न वेत्याकाङ्क्षायामाह—सामान्याया इति। तस्या भावस्य बहुनायकनिष्ठत्वेन रसाभासप्रसंगात् कृष्णे सा न संभवतीत्याक्षेपलब्धम्।हेत्वर्थकपञ्चम्यन्तप्रयोगान्यथानुपपत्तिरेव लिङ्गम्।यथा प्रविश पिण्डमित्यत्र क्रियापदकर्मपदयोरन्यथानुपपत्त्यैव गृहं भक्षयेत्यनयोराक्षेप इति। सैरंध्री कुब्जा तु तादृगपि सामान्यसदृश्यपि न तु सामान्येत्यर्थो बहुनायकनिष्ठत्वधर्मायोगात्। सादृश्यं तु परिणयसंभावनाभावेनांशेनैव ज्ञेयम्; भावयोगात् परकीयैवेति लोकेभ्यो निहुत्यैव कृष्णेन तस्या रमणात्, तयापि तदेकनिष्ठतया कृष्ण एव मे रहस्य एव रमण इति भावनात्। तथा तस्याः परमसुन्दर्या अपि कुब्ज एव पुरुषान्तरेभ्यो रक्षणे हेतुरासीत्। अत एवोक्तम्— ‘आहूय कान्ता नवसंगमहिया’ इति तस्याःसंगमस्यनवत्वमिति॥८॥ सामान्यां प्रत्युदाहर्तुं तस्यां रसाभासवत्त्वं प्रमाणयति—तथा
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सामान्याया इति। न खल्वसौ सामान्या वक्तव्या। सामान्याया न क्वचिद्भावयोगः, तस्यास्तु पूर्वं नान्यत्र भावो जातः; स्वकौरूप्यस्फुरणेन तदाच्छादनात्,उदयिष्यमाणश्रीकृष्णप्रियात्वप्रभावाच्च। चन्दनदानायैव तु श्रीकृष्णसहिते रासेऽप्यनुरागो वर्णितः। नत्वङ्गसङ्गाय तत्पश्चात् श्रीकृष्णस्यैवोत्तरीयाकर्षणात्। तदेतदभिप्रेत्याह—भावयोगादिति। परकीयैवेत्येवकारः सादृश्ये। ‘एव
शृङ्गाराभास एतासु न शृङ्गारः कदाचन॥९॥इति।
स्वकीयाश्चपरोठाश्चया द्विधा परिकीर्तिताः।
मुग्धा मध्या प्रगल्भेति प्रत्येकं तास्त्रिधा मताः॥१०॥
भेदत्रयमिदं कैश्चित्स्वीयाया एव वर्णितम्।
तथापि सत्कविग्रन्थे दृष्टत्वात्तदनादृतम्॥११॥
तथा प्राचीनैश्चोक्तम्—
उदाहृतिभिदां केचित्सर्वासामेव मन्वते।4
तास्तु प्रायेण दृश्यन्ते सर्वत्र व्यवहारतः॥१२॥
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चेति॥९॥ स्वीयाया एवेति परकीयायां रसाभासवत्त्वेन तद्भेदकरणं विफलमिति तन्मतम्। तन्मतस्यानुपादेयत्वमाह—**तथापीति।**सत्कविग्रन्थे दृष्टत्वादवगम्यते। तदनादृतं तैः सत्कविभिरनादृतं तिरस्कृतमिति। इमे परकीयायां रसममन्यमाना असत्कवय इति भावः। सत्कवीनां मतं प्रमाणयति—तथा प्राचीनै–
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इवार्थः’ इति कातन्त्रपरिशिष्टसूत्रात्। अत एव पटुमहिषीणा रतेःसकाशात्तस्या रतेर्न्यूनता वक्तव्या। परकीयेवेति वा पाठः। प्रेयसीभावो लोकाद्गोप्यत इति हेतोरिति ज्ञेयम्॥८॥९॥ तत्र सामान्याया रसाभासभाक्त्वं प्रमाणयति—तथा च प्राञ्च इति। वेश्येत्युपलक्षणं सैरन्ध्र्यादीनामपि॥१०॥ **कैश्चिदिति।*परकीयायां रसममन्यमानैरित्यर्थः। यदुक्तम्—‘परकीया द्विधा प्रोक्ता परोढा कन्यका तथा। यात्रादिनिरतान्योढा कुलटा गलितत्रपा। कन्या त्वजातोपयमा सलज्जा नवयौवना।’ इति। सत्कविग्रन्थ इति। पूर्ववदङ्गस्यैव शृङ्गाररसस्य न त्वङ्गिन इति ज्ञेयम्। अत एव श्रीजयदेवेनाङ्गित्वेन तद्वर्णने त्वौपपत्यं नोट्टङ्कितं प्रत्युत ‘त्वामप्राप्य मयि स्वयंवरपरां क्षीरोदतीरोदरे शङ्के सुन्दरि कालकूटमपिबन्मूढो मृडानीपतिः।’ इति प्रचरद्रूपे वाक्ये श्रीराधाया लक्ष्मीत्वस्थापनात् तत्संभावना प्रत्याख्याता। अत एव मेघैर्मेदुरमम्वरमित्यादावपि सा श्रीकृष्णात् किंचिदेव प्रौढा कुमारीति मतम्॥११॥ अङ्गेपि मन्यमानानुद्दिश्याह*— उदाहृतिभिदां केचिदिति। तेषामुक्तिमाह—तास्त्विति॥१२॥
तत्र मुग्धा—
मुग्धा नववयःकामा रतौ वामा सखीवशा।
रतचेष्टासु सव्रीडचारुगूढप्रयत्नभाक्॥१३॥
कृतापराधे दयिते बाष्परुद्धावलोकना।
प्रिया प्रियोक्तौ चाशक्ता माने च विमुखी सदा॥१४॥
** तत्र नववयाः—**
विरमति शैशवशिशिरे प्रविशति यौवनमधौ विशाखायाः।
दीव्यति लोचनकमलं वदनसुधांशुश्च विस्फुरति॥१५॥
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रिति। भिदां भेदम्॥१०॥११॥१२॥ नववयःकामेति। वयो यौवनं, कामो रमणेच्छा। अत्र वय कामयोर्नवीनत्वेन कामकलाचातुर्यस्याल्पत्वमात्रं लक्ष्यते। नववयसोऽपि कस्याश्चित् प्रागल्भ्यदर्शनात्, पूर्णयौवनाया अपि कस्याश्चित् मौग्ध्यदर्शनात्। तथा कामस्य नवत्वेऽपि विदग्धमाधवादौ—‘पादान्ते विलुठत्यसौ मयि मुहुर्दष्टाधरायां रुषा’ इति। ‘क्ववाहं का वाहं चकर किमहं वा सखि तदा’ इत्यादिषु मध्यालक्षणस्य दृष्टत्वात्। ‘रतौ वामा’ इत्यादिभिरपि वाम्याद्यतिशयो लक्षयितव्यः। मध्यप्रगल्भयोरपि वाम्यसखीवशत्वव्रीडागूढप्रयत्नादिदर्शनात्। अत एवालंकारकौस्तुभे—‘वार्तायामपि सुरतेःपराङ्मुखी सत्रपा मुग्धा’ इति तल्लक्षणमुक्तम्॥१३॥१४॥ स्व(य)मभिसरन्ती विशाखां दूराद्दृष्ट्वाश्रीकृष्णो वर्णयति—विरमतीति। दीव्यति लोचनपक्षे क्रीडति, कमलपक्षे लक्षणया विकसति। अत्र चकारो विरोधकव्यञ्जकश्चन्द्रकमलयोर्युगपदुल्लासात्। तेन चात्र विस्मयरसोऽङ्गी शृङ्गारोऽङ्गमिति॥ १५॥
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नववय कामेत्यादि समुदित्यैव मुग्धां लक्षयन्ति। उदाहरणान्यपि समुदित्यैव तामुदाहरन्ति। तत्रनववयःकामेति तु प्रायिकमेव नववयस्त्वेऽपि क्वचित्प्रागल्भ्यदर्शनात्। एवमुत्तरत्रापि॥ १३॥१४॥१५॥ तारायामक्ष्णोकनीनिकायां,
** यथा वा—**
बाल्य ध्वान्तसखे प्रयाहि तरसा राधावपुर्द्वीपत–
स्तारुण्यद्युमणेर्यदेष विजयारम्भः पुरो वर्तते।
कृष्णव्योम्नि रुचिर्दरोत्तरलता ताराद्युतौ काप्युरः–
पूर्वाद्रौ सुषमोन्नतिः स्मितकला पश्याद्य वक्राम्बुजे॥१६॥
नवकामा यथा—
बाले कंसभिदः स्मरोत्सवरसे प्रस्तूयमाने छला–
त्प्रौढाभीरवधूभिरानतमुखी त्वं कर्णमध्यस्यसि।
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मुग्धालक्षणे वृन्दावनेश्वरीमप्युदाहर्तुं प्राह—यथा वेति। परिहसन्ती श्यामलां राधां वर्णयति—बाल्येति। अत्र ध्वान्तेति रूपकेण वस्तुतो राधावपुषि भावहावहेलारतिप्रेमस्नेहादीनांरसोपकरणानां नित्यसिद्धत्वं स्थाप्यते। यथान्धकारे स्थितानां घटपटादीनामदर्शनमात्रं ज्ञाप्यते, नत्वभावस्तथैव राधायामस्यां शृङ्गारतृष्णापूर्वमप्यासीदेव; किंतु बाल्येनाच्छादितत्वाल्लोकैरवितर्क्येति तां प्रत्युपहासः। सखे इत्यनेन मम तु त्वया सह सख्यमेवेति स्वस्मिन्नवहित्थया तारुण्यानुद्गमः सूच्यते। तेन च इयमिव कयापि नाहं परिहसितुं शक्येति व्यज्यते। **तरसेति।**अन्यथा त्वामसौ प्राप्य वधिष्यतीति सख्येन हितोपदेशः सूचितः। तेन चराधायास्तारुण्यस्येषत्प्रवेशमात्रेणेव सर्वैव वाल्यचेष्टा सहसैव परित्यक्तेति पुनरप्युपहासः। विजय आगमनम्, स्वशत्रुपराभवकर्तृत्वं च। जृम्भते प्रकाशते। तच्चिह्नंदर्शयति। कृष्णव्योम्नि कृष्णवर्णे कृष्णरूपे चाकाशे रुचिः कान्तिरभिलाषश्च। तारा नक्षत्राणि, कनीनिका च। दरोत्तरलता त्रासव्याकुलत्वम् ईषच्चाञ्चल्यं च। उरःपूर्वाद्राविति। उरस एव तुङ्गत्वादद्रित्वम्। तदानीं स्तनयोस्तादृशत्वाभावादिति ज्ञेयम्। सुषमोन्नतिः किरणशोभाधिक्यम्, पक्षे सुषमया सह उन्नतिरुच्चत्वम्॥१६॥ नान्दीमुखी धन्यामाह—बाले इति। प्रौढाभीरवधूभिः श्यामाललिताराधादिभिः। छलादिति। राधेऽद्य निकुञ्जे विलास–
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पक्षे नक्षत्रे रुचिरभिलाषः, पक्षे कान्तिः॥१६॥ बाले इति। प्रौढदूत्यावच-
सव्याजं वनमालिकाविरचनेऽप्युल्लासमालम्बसे
रङ्गः कोऽयमवातरद्वद सखि स्वान्ते नवीनस्तव॥१७॥
** रतौ वामा यथा—**
नववालिकास्मि कुरु नर्म नेदृशं पदवी विमुञ्च शिखिपिच्छशेखर।
विचरन्ति पश्य पटवस्तटीमिमामरविन्दबन्धुदुहितुर्नतभ्रुवः॥१८॥
यथा वा—
यमुनापुलिने विलोकनान्मे चलितां स्मेरसखीगृहीतहस्ताम्।
अयि मुञ्च करं ममेति खञ्जद्वचनां खञ्जनलोचनां स्मरामि॥१९॥
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गुरोःसकाशात् किं किमधीतं तव्द्याचक्ष्व।श्यामे मया मन्दमेधसा तद्दुर्गमं शास्त्रमध्येतुमशक्यमिति कृपया त्वयैव तस्मान्नित्यमधीत्याधीत्य तस्य पुराणस्य कथा कथनीया तयैवाहं कृतार्था भवेयम्। राधेऽलमनयावहित्थया स विलासगुरुरपि संप्रति त्वत्तोऽधीते स एवाध्येतुं त्वामेष्यतीत्यस्माभिस्तन्मुखादेव कथा श्रोतव्या श्रूयते च नित्यमित्यादिरीत्या प्रस्तूयमाने कृतप्रस्तावे सत्यानतमुखी तत्र तस्याः सहिष्णुत्वज्ञापनार्थमीषत्कुञ्चितमुखी। ‘ऊर्मिमत्कुञ्चितं नतम्’ इत्यमरः।सव्याजमिति। युष्माकं देवपूजार्थेयं माला अद्य किंचित्पुण्यकामया मयैव रचनीयेति। रङ्गः कौतुकम्। अवातरदाविर्भवति स्म॥१७॥ धन्या प्राह—नवेति। ईदृशं नर्मशुल्कमिषेण मन्नीवीग्रन्थिमोचनरूपं न कुरु। ननु पलमात्रं सुरतं दत्वा याहीति। तत्राह—**नवबालिकास्मीति।**त्वयि तत् स्थास्यति चेदहमेव ग्रहीष्यामीत्यत आह—विचरन्तीत्यादि। तेन कमपि रहःप्रदेशं विना नाहं संमता भविष्यामीति ध्वनिः। नतभ्रुवस्तास्तस्याः सख्य एव ज्ञेयाः॥१८॥ उक्तोदाहरणे वाम्यातिशयो नं व्यञ्जित इत्यपरितुष्यन्नाह—यथा वेति। श्रीकृष्णःसुबलामाह—यमुनेति। स्मेरेति। वनं प्रत्यागमनं ते सफलमभूत्। किं यासीति हस्तग्रहणध्वनिः।अयि मुञ्चेति। त्वं मे न सखी; किंतु वैरिण्येव;यतोऽस्यां विपदि मां प्रक्षेप्तुमिच्छसीति प्रतिध्वनिः।खञ्जत् खञ्जमिवाचरत् कण्ठादर्धार्धमुच्चरद्वचनं यस्यास्ताम्। स्वरभेदोऽयम्। खञ्जनेति।
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नम्। रङ्गः कौतुकम्॥१७॥ तटीं प्राप्य विचरन्ति भ्रमन्ति॥१८॥ गृही–
सखीवशा यथा—
व्रजराजकुमार कर्कशे सुकुमारीं त्वयि नार्पयाम्यमुम्।
कलभेन्द्रकरे नवोदयां नलिनीं कः कुरुते जनः कृती॥२०॥
यथा वा—
न स्वीकृता सखि मया स्रगितास्ति कौन्दी
किं दीर्घरोषविकटां भ्रुकुटीं तनोषि।
क्षिप्तेयमत्र मम मण्डनपेटिकायां
चेद्वृन्दया चटुलया किमहं करिष्ये॥२१॥
** सव्रीडरतप्रयत्ना यथा—**
द्वित्राण्येत्य पदानि कुञ्जवसतेर्द्वारे विलासोन्मुखी
सद्यःकम्पतरङ्गदङ्गलतिका तिर्यग्विवृत्ता ह्रिया।
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चापल्यं च। सात्त्विकसंचारिणावेतौ स्थायिभावोत्थावपि भयोत्थत्वेन प्रत्यायितौ। इयं तु श्रीराधैव विलासनामालंकारवती ज्ञेया॥१९॥ अभिसारितां राधां श्रीकृष्णसमीपे वलादाकृष्यानीयापि तस्य हस्तौद्धत्यमालक्ष्य पुनस्तां परावर्तयन्ती ललिता प्राह—व्रजेति। कलमेन्द्रेत्यर्थान्तरन्यासः। तेन स्वस्य कलमेन्द्रत्वं परित्यज्य यदि भ्रमरत्वमङ्गीकुरुषे तदैवेमां दास्यामीति भाव॥२०॥ उक्तोदाहरणे परमवामायास्तस्याः सख्याः साहाय्यमेव कृतमिति सखीवशत्वंन यथावदायातमित्यपरितुष्यन्नाह—यथा वेति। कदाचिन्मानिनीं धन्यां मालादानमात्रेणैव प्रसाद्य गते श्रीकृष्णे आगतायां च मानशिक्षाकारिण्यां प्रौढसख्यां सैव धन्या ततो विभ्यती सहसैव स्वकण्ठान्मालामुत्तार्य भूषणमञ्जूषिकायां क्षिप्वा तामाह—न स्वीकृतेति। चटुलया मद्बहुवारणममानयन्त्या त्वत्तः प्राप्स्यमानतर्जनकारणं सृजन्त्या मद्वैरिण्येवेत्यर्थः॥२१॥ सव्रीडो रते रमणविषये प्रयत्नो यस्याः सा। श्रीकृष्णःप्रातः सुबलमाह—द्वित्रेति। विलासोन्मुखी सुरताभिलाषिणीत्यौ–
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तत्वमत्रनिरुद्धत्वम्। अयीत्यनुनये। ‘अयि प्रश्नानुनययोः’ इति विश्वः॥१९॥
भूयः स्निग्धसखीगिरां परिमलैरस्तल्पान्तमासेदुषी
स्वान्तंहन्त जहार हारिहरिणीनेत्रा मम श्यामला॥२२॥
रोषकृतबाष्पमौना यथा—
सिद्धापराधमपि शुद्धमनाः सखी मे
त्वां वक्ष्यते कथमदक्षिणमुद्धतेव।
नेमां विडम्बय कदम्बवनीभुजङ्ग
वक्रं पिधाय कुरुतामियमश्रुमोक्षम्॥२३॥
अथ माने विमुखी—
मृद्वीतथाक्षमा चेति सा माने विमुखी द्विधा।
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त्सुक्याश्लेषेण, विलासनामालंकारेणोत्कृष्टं सुन्दरं मुखं यस्याःसा। कम्पेन तरङ्गन्ती तरङ्गायमाणाङ्गलतिका यस्याः सा।सद्यस्तत्क्षण एवं कान्तकर्तृकदर्शनाघातेनेव तिर्यग्विवृत्य परावर्तितमुखी पृष्ठीकृतकान्ता वामपाणिनावगुण्ठनमुत्सारयामासेत्यर्थः। एवं च शङ्कालज्जावेगौत्सुक्यानां संधिः। ततश्च भूय इत्यनेन स्निग्धेत्यनेन च गिरामिति परिमलैरिति बहुवचनाभ्यां च तस्या आनयनार्थं सखीविनयप्रणयश्रीकृष्णोक्तचाटुकथनगमनागमनसामदानाभ्युपाया व्यञ्जिता। अत्र, परिमलैरित्यनेन गिरा पुष्पमञ्जरीत्वम्, स्निग्धसखीनां कोमलवल्लीत्वम्, तस्या नायिकाया भ्रमरीत्वम्, श्रीकृष्णस्य भ्रमरत्वं चानीतम्। तथा सौरभलोमेनायात् भ्रमरी भ्रमरेण संभुक्तेत्यतिशयोक्त्यप्रस्तुतप्रशंसे च ध्वनिते। हारिहरिणीति। तदानींतनतादृशनेत्रान्तचाञ्चल्यं च तस्यास्तेनास्वादितमिति॥२२॥ खण्डिताया धन्यायाः सखी कृष्णमाह—सिद्धेति। उद्धतेव अधीरेव न विडम्वय प्रणिपातादिना नो हस। वनीत्यल्पविवक्षायाम्। भुजङ्ग हे कामुक, कदम्बवने रात्रौ या रमिता तामियं जानीत इति भावः। कुरुतामिति। रोदने विघ्नं माकार्षीः। अस्या ललाटे रोदनमेव लिखितमस्तीति भावः॥ २३॥ अत्र प्रियाप्रियोक्तौ चाशक्तेत्यस्योदाहरणादानात् रोषकृतवाष्पमौनयोर्द्वैविध्यं बुध्यते।
*
*
॥२०॥२१॥२२॥२३॥ अक्षमेत्यत्र उद्धतेत्येव वा पाठः॥
तत्र मृद्वीयथा रससुधाकरे—
व्यावृत्तिक्रमणोद्यमेऽपि पदयोः प्रत्युद्गतौ वर्तनं
भ्रूभेदोऽपि तदीक्षणव्यसनिना व्यस्मारि मे चक्षुषा।
चाटूक्तानि करोति दग्धरसना रूक्षाक्षरेऽप्युद्यता
सख्यः किं करवाणि मानसमये संघातभेदो मम॥२४॥
अक्षमा यथा—
आभीरपङ्कजदृशां बत साहसिक्यं
याः केशवेक्षणमपि प्रणयन्ति मानम्।
________________
तथाहि—रोषकृतबाष्पमौनी द्विधा भवति। प्रियाप्रियोक्तौचाशक्ता, माने विमुखी चेति। अत्र चकारद्वयमपि द्वैविध्यज्ञापकम्। अत्र प्रथमा सामान्यलक्षणोदाहरणेनैव चरितार्थेति तामुल्लङ्घ्य द्वितीयां भिनत्ति—मृद्वी कोमलमाना, अक्षमा मानशून्या। आद्या किचिन्मध्यत्वांशस्पर्शिनी, द्वितीयातिमुग्धा।मानं शिक्षितवतीरायान्तीर्मानस्य क्षेमं पृच्छन्ती स्वसखीः प्रति धन्या प्राह—व्यावृत्त्या परावृत्त्या तं पृष्ठीकृत्य क्रमणस्य गमनस्योद्यमे क्रियमाणेऽपि प्रत्युद्गतौवर्तनं न तस्य संमुख एव अभ्युद्गमे पदयोर्वृत्तिः स्यात्। व्यस्मारि विस्मृतः। व्यसनिना आसक्तिमता। तत्रापि रसनायामेव दग्धेति विशेषणदानादियमेव सर्वतोऽनर्थकारिकेति सूचितम्। मम संघातस्य पदचक्षूरसनादिगणस्य भेदः स्वभावभेदो जातः। तत्र पदादिभिर्व्यावृत्तिभ्रूभेदरुक्षाक्षराणां चिकीर्षितत्वेऽपि यत्तद्दर्शनानन्तरं स्वस्वभाववैपरीत्यं गृहीतं तेन कयापि विद्यया वा मन्त्राभिमन्त्रितधूलिक्षेपेण वा सिद्धाञ्जनेन वा कृतेन पदादीन्द्रियाणि तदानीमुन्मादितानीति विभावनाविशेषोक्तिविरोधैर्व्यञ्जितम्॥२४॥ मानं शिक्षयन्तीं सखी काचित् सर्वा मानिनीराक्षिपन्त्याह—आभीरेति। सहसा वर्तते इति साहसिकस्तस्य भावः साहसिक्यम्। केशवे दृष्टे सतीत्यर्थः। न चास्याः कान्तं प्रति रोषो नास्तीति वाच्यम्; ‘कृतापराधे दयिते बाष्परुद्धावलोकना’ इति सामान्यलक्षणे रोषकार्यस्य बाष्पस्योक्तेः। किंतु कान्तदर्शनक्षण एवानन्दानुभवात् मानस्यानुभावसहितस्यापि
*
*
व्यावृत्तीति। चक्षुषा व्यस्मारि विस्मारयामास। चेतसेतिवा पाठः। संघातभेद
मानेति वर्णयुगलेऽपि मम प्रयाते
कर्णाङ्गणं वहति वेपथुमन्तरात्मा॥२५॥
अथ मध्या—
समानलज्जामदना प्रोद्यत्तारुण्यशालिनी॥२६॥
किंचित्प्रगल्भवचना मोहान्तसुरतक्षमा।
मध्या स्यात्कोमला क्वापि माने कुत्रापि कर्कशा॥२७॥
तत्र समानलज्जामदना यथा—
विकिरति किल कृष्णे नेत्रपद्मं सतृष्णे
नमयति मुखमन्तःस्मेरमावृत्य राधा।
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शान्तिः, प्रथमोक्ताया तु तद्दर्शनक्षणे मानजनितस्य कायिकवाचिकमानसिकोद्यमस्य तद्दर्शनानन्दसंमदादजातफलस्यैव शान्तिः, तद्द्वितीयक्षणे मानस्यापि शान्तिरिति सा सबाष्परोषा कृष्णेन प्रथमं दृष्टैव। मानाक्षमा तु तथाभूतेन सम्यक्तया दृष्टेति भेदो विवेचनीयः। किंतु कान्तदर्शनानन्दस्पर्शमात्र एव रोषो निवर्तत इति मानारम्भस्याभावः। प्रथमोक्तायास्तु मृव्द्यास्तद्दर्शनानन्दसंमर्द एव रोषो यातीति आरब्धस्य मानस्यासिद्धिरिति मेदो विवेचनीयः॥२५॥ समानौ तुल्यप्रमाणौ लज्जामदनौ यस्यास्तेन मुग्धाया मदनाल्लज्जाधिक्यम्, प्रगल्भाया लज्जातो मदनाधिक्यमिति ज्ञेयम्। प्रोद्यदिति। तेन मुग्धाप्रगल्भेईषत्तारुण्यपूर्णतारुण्ये ज्ञेये। किंचिदिति। तेन मुग्धाप्रगल्भेप्रगल्भपूर्णप्रगल्भवचने ज्ञेये। मोह आनन्दः। मूर्च्छा कामाद्युद्गमजन्या। अन्ते यत्र तथाभूते सुरतेक्षमाभावात् क्षणपर्यन्तसुरते सामर्थ्यवती तत आनन्दमूर्च्छानन्तरमशक्त्येत्यर्थः। तेन मुग्धाया मदनाल्पत्वादानन्दएव; नतु मूर्च्छा तथा वालातपत्वात्तदनन्तरमपि सामर्थ्यम्। ततश्च निर्मोहसुरतक्षमा, मोहान्तसुरतक्षमा, मोहादिसुरतक्षमेति तिसृणां लक्षणमायातमिति॥२६॥२७॥ नान्दी पौर्णमासी प्राह—विकिरतीति। अन्तःस्मेरमिति। स्मितस्य बहिर्निष्क्रमणावरणम्। आवृत्येति। कटाक्षस्याभाव;
*
*
आत्मीयगणमध्ये भेदो जात इत्यर्थः॥२४॥२५॥२६॥२७॥
निदधति दृशमस्मिन्नन्यतः प्रेक्षतेऽमुं
तदपि सरसिजाक्षी तस्य मोदं व्यतानीत्॥२८॥
** प्रोद्यत्तारुण्यशालिनी यथा—**
भ्रुवोर्विक्षेपस्ते कवलयति मीनध्वजधनुः-
प्रभारम्भं रम्भाश्रियमुपहसत्यूरुयुगलम्।
कुचद्वन्द्वं धत्ते रथचरणयूनोर्विलसितं
वराङ्गीणां5 राधे तरुणिमणिचूडामणिरसि॥२९॥
किंचित्प्रगल्भोक्तिर्यथोद्धवसंदेशे—
मद्वक्राम्भोरुहपरिमलोन्मत्त सेवानुबन्धे
पत्युः कृष्णभ्रमर कुरुषे किंतरामन्तरायम्।
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कान्तेन पूर्णनेत्राभ्यां दृष्टत्वात्। तेन प्रगल्भाया लज्जाल्पत्वात् मुखं सस्मितम्। आनमय्य ईषदावृत्य कटाक्षेण वीक्षते इत्यायातम्। तथा कान्तेनापाङ्गदृष्टत्वे मध्यापि कटाक्षेणेक्षते। मुग्धा तत्रापि लज्जाधिक्यान्नेक्षत इति विवेकः। इयमेव स्पष्टीकर्तुमाह—निदधतीति। अन्यतः अन्यत्र कुञ्जादौ दृशं दृष्टिं संपूर्णामर्पयति सति प्रेक्षते प्रकर्षेण संपूर्णयैव दृष्ट्वेक्षते। किंचिदपाङ्गागमनज्ञाने तु न प्रकर्षेणेति भावः॥२८॥ श्रीकृष्ण आह—भ्रुवोरिति। धनुषः प्रभाया आरम्भं कवलयतीत्येतदग्रेतस्य शोभोद्गम एव न भवति कि पुनर्विक्रम इति। तच्छरादपि कोटिगुणाधिको भवत्याः कटाक्षशरो मां प्रहरिष्यतीति ध्वनिः। न जाने ततो मे का दशा भविष्यतीत्यनुध्वनिः। रथचरणश्चक्रवाको जातिर्ययोस्तयोर्यूनोरिति शाकपार्थिवादिः। विलसितं सहभावक्रीडां विशेषेण लसितं दीप्तिं तदाकारशोभां च॥२९॥ अत्युत्कण्ठया जटिलागृहोपकण्ठ एव कस्मिंश्चिदुद्याने बहुक्षणं मुरलीं वादयताप्यप्राप्तां राधामालक्ष्य तद्वृत्तज्ञानार्थं श्रीकृष्णेन प्रेषितां कांचन दूतीं लक्षीकृत्य श्वश्वादिगुरुजनमध्यस्था सा कमपि भ्रमरमुद्दिश्य ब्रुवाणा दूरतः संकेतस्थलं सूचयति— **मद्वक्रेति।**उन्मत्तेति संबोधनेन गुरुगृहातिनिकटे एक–
*
*
२८॥२९॥ दूरतो वंशीध्वनिं विधाय पुनः संध्यान्धकार एव गुप्तमागतं श्रीकृष्णं प्रति संकेतस्थानं कापि सूचयति—मदवक्रेति। पत्युः सेवानुबन्धे पाकाद्यारम्भे।
तृष्णाभिस्त्वं यदि कलरुतव्यग्रचित्तस्तदाग्रे
पुष्पैः पाण्डुच्छविमविरलैर्याहि पुंनागकुञ्जम्॥३०॥
मोहान्तसुरतक्षमा यथा—
श्रमजलनिबिडां निमीलिताक्षीं श्लथचिकुरामनधीनबाहुवल्लीम्।6
मुदितमनसमस्मृतान्यभावां रतिशयने निशि गोपिकां स्मरामि॥३१॥
** माने कोमला यथा—**
प्राणास्त्वमेव किमिव त्वधिगोपनीयं
मानाय केशिमथने सखि नास्मि शक्ता।
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स्मिन्नुद्याने कथं विलासः सेत्स्यतीति तत्परामर्शाभावः सूचितः। पत्युः सेवानुबन्धे जलाद्युष्णीकरण इति वाङ्मात्रमेव श्वश्रूं ननान्दरं च प्रीणयितुम्। हे कलरुतेति। वंशीवाद्यश्रवणेनावदधद्भिर्गुरुजनैर्यद्यहं निरुद्ध्येय तदा का गतिर्भविष्यतीति वंशीस्वनं मा कार्षीरिति भावः। पुंनागकुञ्जं दूरस्थम्। यद्वा तृष्णाक्रान्तो दूरं यातुं न शक्नोषि तदोद्यानं परिहृत्य कुञ्जनिकटस्थमपि। पाण्डुच्छविमिति। अस्यां चन्द्रिकाबहुलायां रजन्यां तस्य जनैर्दुलक्ष्यत्वम्, अविरलैर्निविडैरपि दुष्प्रवेशत्वम्, सुरभित्वात् शृङ्गारोपयोगित्वं च॥३०॥ किं धारयसीति, सुवलेन पृष्टः कृष्ण आह—श्रमेति। अत्र श्रमजलानां नैबिड्यम्। चिकुराणां श्लथत्वम्, बाहुवल्ल्यादौर्बल्यं च सुरतान्तं व्यनक्ति। न स्मृतोऽन्यस्य विषयाश्रयोद्दीपनादेर्भावो भावना यस्या इति रतिसुखे विशेषानुभवो मूर्च्छायामपि वर्तमानस्तस्या मुखमाधुर्यात्तदानीमवगत इति ज्ञेयम्। अत्र मुदितमनसमित्यस्यापुष्टार्थत्वंवक्तुः प्रेमत्वानुलापपरवशात् सोढव्यम्। स च चिरान्मद्विषयकामाग्निसंतप्तभनाः सा सुरतेन मयाद्य मुदितमना कृता इत्यतः कृतार्थोऽस्मीति स्वाभिप्रायोद्गारमय इति॥३१॥ श्रीराधा ललितां प्रत्याह—प्राणा इति।केशिमथन इति। केशिवधादुत्तरकालभवैव न तु तत्पूर्वकालभवेयं लीलेति
*
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तदेतच्चगृहलोकानां सुखार्थमेवारोप्य वदति स्म॥३०॥ श्रमजलनिबिडामिति। श्रीकृष्णस्य भावनावचनम्। किंतु सोऽपि कां स्मरामीत्येव ‘मुरजिदमुं नहि विस्मृतिं निनाय’ इति पाठे सुबलस्य भावनामयं वचनम्॥३१॥ केशिमथन इति। पूर्वग्रन्थे स्थापितायामत्रापि स्थापयिष्यमाणायां द्वारकातः
एहि प्रयाव रविजातटनिष्कुटाय
कल्याणि फुल्लकुसुमावचयच्छलेन॥३२॥
माने कर्कशा यथा विदग्धमाधवे—
मुधा मानोन्नाहाद्ग्लपयसि किमङ्गानि कठिने
रुषं धत्से किं वा प्रियपरिजनाभ्यर्थनविधौ।
प्रकामं ते कुञ्जालयगृहपतिस्ताम्यति पुरः
कृपालक्ष्मीवन्तं चटुलय दृगन्तं क्षणमिह॥३३॥
त्रिधासौ मानवृत्तेः स्याद्धीराधीरोभयात्मिकी।
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नाशङ्क्यम्। ‘बहूनि सन्ति नामानि’ इत्यादिना नामकरणकाल एव गर्गेण तत्रैकालिकान्येव नामानि श्रीव्रजराजं प्रत्युक्तानीति केशिमथनमुरदमनकंसहेत्यादिनामभिर्व्रजस्थजनैः सर्वदैव स उच्यते। अत्र पद्ये पूर्वार्धस्यार्थेन प्रसक्तं मुग्धात्वंकिंचित्प्रगल्भवचनेन मध्याधर्मेण वारयन्नाह—एहीति। प्रयावेति। अनभिप्रेतं मानं शिक्षयन्त्यपि मे त्वमेव प्राणाः; अन्यथा कयाचिदन्यथैव सख्या त्वां वञ्चयित्वा तमहमभिसरिष्यामीति भावः। ननु कि सुरतं भिक्षितुं तत्समीपं यासि। मैवं रुशतीं वाचमवोच इत्याह—कल्याणीति॥३२॥ विशाखा श्रीराधामाह—मुधेति। उन्नाहादुद्गारात्। **अङ्गानीति।**स्वस्मै दुःखं ददाति। **प्रियपरिजनेति।**सखीभ्यः। **ताम्यतीति।**स्वकान्ताय। ननु स्वयं कृतं मानं स्वयमेव कथहातुं प्रभवामीत्यत आह—कृपेति। इह प्रणतिपरे प्रिये कृपासंपत्तिपूर्णं नेत्रान्तं चटुलय किंचिच्चञ्चलीकुरु, वहिःप्रसर्तुमाज्ञापय मा रुन्धीति।कलहान्तरितात्वं ते ज्ञात्वैव मयैवमुच्यस इति ध्वनिः॥३३॥ मानवृत्तेर्मानवृत्तिं प्राप्य तत्र धीरेत्येवमेव वक्तव्येऽपि धीरमध्या, अथाधीरमध्येत्यादिषु मध्यादिपदोपन्यासः
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*
समागमात् परत्र जातायां लीलायां संभवति। केशिवधान्तसंध्यायामेवाक्रूरागमनेन व्रजे महावैयग्र्यजननात्। तदेवमन्यत्रापि ज्ञेयम्। ननु सपव्यस्तूपहसिष्यन्तीति तत्राह—एहीति॥३२॥ तत्र धीरमध्यां वक्तुं मध्याया लक्षितत्वान्मध्यामात्र
तत्र धीरमध्या—
धीरा तु वक्ति वक्रोक्त्या सोत्प्रासं सागसं प्रियम्॥३४॥
यथा—
स्वामिन् युक्तमिदं तवाञ्जननवालक्तद्रवैः सर्वतः
संक्रान्तैर्घृतनीललोहिततनोर्यच्चन्द्रलेखाधृतिः।
एकं किंत्ववलोचयाम्यनुचितं हंहो पशूनां पते
देहार्घे दयितां वहन्बहुमतामत्रासि यन्नागतः॥३५॥
अथाधीरमध्या—
अधीरा परुषैर्वाक्यैर्निरस्येद्वल्लभं रुषा।
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सुखवोधनार्थो मध्यादेरनुवृत्त्यैव प्राप्तत्वात्। सोत्प्रासमुत्कर्षेणोत्कर्षकथनेनैव प्रास्यते तिरस्क्रियतेऽनेनेत्युत्प्रासः सोल्लुण्ठहासस्तद्विशिष्टं यथा स्यात्तथा॥३४॥ खण्डिता श्रीराधा श्रीकृष्णमाह—स्वामिन्निति। हे पशूनां पते शम्भो, पक्षे हे गोपेत्यवैदग्ध्यम्, श्लेषेण प्रतिनायिकायाः पशुत्वम्।बहुवचनेन तत्सखीनां च पते इति नायकस्य च सूचितम्। स्वस्य तन्निन्दकत्वात् शृङ्गाररसाभिज्ञत्वेन प्रोद्यत्तारुण्यशालित्वम्, पशुशब्दप्रयोगात् प्रगल्भवचनत्वम्, श्लिष्टोक्तित्वात् प्रगल्भात्वस्य किंचित्त्वं तेन स्वस्य मध्यात्वं च व्यञ्जितम्। यच्चन्द्ररेखावृतिस्तदिदं युक्तम्। अतिशयोक्त्या नखाङ्कधारणं संभोगवैपरीत्यसूचकम्। सर्वतः सर्वाङ्गेष्वित्यञ्जनालक्तकयोरधरालकगतत्वेनौचित्येऽपि यत्सर्वाङ्गलग्नत्वं तत्तदीयाङ्गानां तव प्रत्यङ्गस्पर्शौत्सुक्यं सूचयति। अतो मद्भयेनालम्। सा सर्वाङ्गेषु सर्वदैव धर्तमुचितेत्याह—एकमिति। तेन पशुपतिभक्तां मां कृतार्थीकर्तुं पशुपतिश्चन्द्रार्थभूषणो नीललोहितस्तमेवायातोऽसि अर्धनारीश्वरो भूत्वाचेत् स्वमदर्शयिष्यस्तदाहंपूर्णमनोरथैवाभविष्यमिति भाव॥३५॥**परुषैर्वाक्यैरिति।**धैर्याभावाद्वक्रोक्तिवैदग्ध्यस्य
*
*
लक्षयति—*धीरा त्विति॥३३॥३४॥ **स्वामिन्नित्यत्र।*स्वामिन्निति। हंहोपशूनां पते इत्याभ्यां किंचित्प्रगल्भवचनत्वात्। तेन प्रोद्यत्तारुण्यस्य व्यक्तत्वात् मध्यात्वम्। वक्रोक्त्यादिकं तु स्पष्टमेवेति। धीरात्वं च किमिदं युक्तमित्यत्राह—
यथा—
उत्तुङ्गस्तनमण्डलीसहचरः कण्ठे स्फुरन्नद्य7 ते–
हारःकंसरिपो क्षपाविलसितं निःसंशयं शंसति।
धूर्तामीरवधूप्रतारितमते मिथ्याकथाघर्घरी–
झङ्कारोन्मुखर प्रयाहि तरसा युक्तात्र नावस्थितिः॥३६॥
अथ धीराधीरमध्या—
धीराधीरा तु वक्रोक्त्यासबाष्पं वदति प्रियम्॥३७॥
________________
समुत्थानानवकाशात् स्पष्टैरेव कठोरैरित्यर्थः॥ उत्तुङ्गेति। एष ते हारः स्तनसङ्गीस्तनगन्धी। कुङ्कुमाभ्यक्तत्वादिति। मन्नासानेत्राभ्यामेव निश्चीयत इति भावः। नात्र कोऽपि संदेह इत्याह—क्षपेत्यादि। हे कंसरिपो इति। यथा तव वैरी कंसो मथुरायां वर्तते तथा सापि मद्वैरिणी गोष्ठमध्य एवेति मदसहिष्णुतायाः कारणं स्वानुभवेनैव जानीहीति भावः। किंच त्वं प्रेमगन्धेनापि शून्यां तां मनसा प्रेमवतीमेव जानासीत्याह—धूर्ता आभीरवधूस्तया प्रतारिता कूटकार्षापणन्यायेन स्वकामस्यैव प्रेमत्वख्यापनया वञ्चिता मतिर्यस्य। किंच तया यथा त्वं मिथ्याभावदर्शनया प्रतारितस्तथा त्वयापि त्वां विना स्वप्नेऽप्यन्यां न जानामीत्यादि मिथ्याकथाभिरहं प्रतारयितुं प्राप्त इत्याह—**मिथ्येति।**घर्घरी क्षुद्रघण्टिका न हि मिथ्याकथाझङ्कारेण मत्सख्युक्तप्रतिनायिकारमणरूपसत्यकथावज्राघातस्वन आच्छादितो भवतीति भावः। पूर्ववदत्रापि किंचित्प्रगल्भोक्तिर्मध्यात्वव्यञ्जिका॥३६॥
**वक्रोक्त्येत्ति।**धीराधर्म सवाष्पमित्यधीराधर्मः। नन्वधीराधर्मे हि परुषोक्तिरुक्ता। सत्यम्। अयमत्र विवेकः। प्रगल्भाया रोषस्य पूर्णत्वात्ताडनमपि मुख्यं कार्यमुदयते। मध्याया रोषस्यापूर्णत्वान्मध्यमं कार्यं परुषोक्तिः। मुग्धाया रोषस्याल्पत्वात् कनिष्ठं कार्यं रोदनमेव। तत्र धीरमध्यायाः पुरुषोक्तिर्धृत्याच्छादिता सोत्प्रासवक्रोक्तिरूपेण परिणतेति।
*
*
यच्चन्द्रेति॥३५॥ उत्तुङ्गेत्यत्राप्यधीरात्वादिद्वयं पूर्ववद्विवेचनीयम्। एवमुत्त–
यथा—
गोपेन्द्रनन्दन न रोदय याहि याहि
सा ते विधास्यति रुषं हृदयाधिदेवी।
त्वन्मौलिमाल्यहतयावकपङ्कमस्याः
पादद्वयं पुनरनेन विभूषयाद्य॥३८॥
________________
अधीराया धृत्यभावाच्छुद्धैव परुषोक्तिः।धीराधीरायास्तु धृत्यधृत्योर्यौगपद्येन सत्त्वसंभवात् धीरत्वाधीरत्वयोरसंपूर्णत्वमेव व्याख्येयम्। तेन धीराधीरा द्विधा भिद्यते—धीरतांशाधिका, अधीरतांशाधिका च। तत्र प्रथमाया धीरत्वाधिक्यात् धीराधर्मो वक्रोक्तिः केवलैव; धीरत्वस्यासंपूर्णत्वान्नतु सोत्प्रासा। अधीरत्वस्य त्वल्पत्वादधीराधर्मोऽप्यल्पः पारुष्यरहितैवोक्तिः।किंचाधीरत्वांशेऽपि रोषलक्षणस्यावश्यसंभावितत्वात्, केवलोक्तौ च तदसंभवात् ताडनपारुष्यत्वयोश्चाप्राप्त्या पारिशेष्यात् कनिष्ठरोषलक्षणं वाष्पएव लभ्यते। न च मुग्धालक्षणसांकर्यम्; मुग्धायां केवलं एव वाष्पः, अत्र तु बाष्पसहितोक्तिरिति। द्वितीया त्वग्रेउदाहरिष्यते। धीराधीरायास्तु धृत्या वक्रोक्तिरेव केवला न तु सोत्प्रासा; अधृतेः सत्त्वात्। तथा अधृत्या रोदनमेव कनिष्ठं कार्यम्; नतु परुषोक्तिर्वृतेः सत्त्वात्। धृतिशब्देनात्र गाम्भीर्यमुक्तम्॥३७॥ श्रीराधा प्राह—**गोपेन्द्रनन्दनेति।**मादृश्यो रुदित्वा म्रियन्ता नाम महाराजपुत्रस्य शतकोटिकोटिकामिनीवल्लभस्य तव का क्षतिरिति भावः। न रोदय याहि याहीति त्वयिगते सतित्वां विस्मर्तुं यत्नोऽपि मे कर्तुं शक्यो भविष्यति न तु त्वयि साक्षादृष्ट एवेति भावः। मदपराधं क्षमस्वेति प्रणमन्तं तं प्रत्याह—सा ते इत्यादि। मां प्रसादयन्तं त्वा सा यदि श्रोष्यति तदा रुषं विधास्यति। अतः सौहृदेन त्वां हितमुपदिशामि। मत्प्रसादेनालमहमरुष्टैवास्मि। किंच न श्रोष्यतीति न वक्तव्यम्। यतः सा ते हृदयाधिदेवी हृदय एवाधिकृत्य ममैवैतन्नान्यस्य इति स्वत्वं समर्प्य दीप्यति विराजते। अतः शृणोतीत्यपराधस्ते जात एवेति भावः।किचान्योऽपि महा–
*
*
रत्र च।कंसरिपो इति पूर्ववत्॥३६॥३७॥ अनेनेति। यावकपङ्कमङ्गुल्यानिर्दिश्यते। नतु समासेन गुणीभूतं तदाकृष्यते। तस्मादभवन्मतयोग–
यथा वा—
तामेव प्रतिपद्य कामवरदां सेवस्वदेवीं सदा
यस्याः प्राप्य महाप्रसादमधुना दामोदरामोदसे।
पादालक्तचितं शिरस्तव मुखं ताम्बूलशेषोज्ज्वलं
कण्ठश्चायमुरोजकुड्मलसुहृन्निर्माल्यमाल्याङ्कितः॥३९॥
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पराधस्त्वयि प्रकटं दृश्यते तमपि मार्जयेत्याह—त्वन्मस्तकस्थमाल्येन हृतश्चोरितो यावकपङ्कोयस्य तथाभूतमस्याः पादद्वयमनेन मौलिस्थमालायावकपङ्केनन पुनर्भूषयेति। स्वयं चोरितस्य वस्तुनः स्वयं तत्स्थाने समर्पणमेव न्याय्यमिति भावः। मां किं प्रणमसि तत्पादयोरेव पुनः पुनः पतेति भावः। अत्र हृदयाधिदेव्यास्तस्या अपरोक्षत्वप्रतिपादनादस्या इति इदंशब्दप्रयोगो नानुपपन्नः। अथात्र बहुव्रीहिसमासगुणीभूतस्य यावकपङ्कपदस्यानेनेत्यनेन परामर्शो न संगच्छत इत्यभवन्मतयोगनामा दोषः स्यादिति व्याख्यान्तरं चिन्त्यम्। तच्च यथा—लन्मौलिमाल्येन हतं यावकपङ्कंविभूपय विशिष्टभूषां कुरु। माल्याद्यावकपङ्कमुत्तार्य स्वमौलिलग्नं कुर्वित्यर्थ। चोरितस्य दुर्लभवस्तुनो झटिति भोगार्थमेव विनियोक्तुं युक्तत्वादिति भावः। पुनरनेन यावकपङ्केन स्वमौलिलग्नेनास्याःपादद्वयं विभूषय अपराधक्षमापनार्थं प्रणम वा, संभोगमात्रार्थिनीं तां कामिनीं संभुङ्क्ष्व वा। उभयोरेव मौलिपादश्लेषसंभवादिति भावः। चोरितस्य वस्तुनः किंचित्कालभोगेन पुनस्तत्स्वामिने स्वयं प्रत्यर्पणेन च भोगः सिद्ध्यत्यधर्मश्च तावन्न भवतीति ध्वनितम्। अत्र पुनः शब्दबलाद्भूषयेत्यस्यावृत्तिर्नानुपपन्ना। अनेनेति। यावकपङ्कमङ्गुल्या निर्दिश्यते नतु समासेन गुणीभूतं तदाकृष्यते तस्मादभवन्मतयोगनामा दोषो नाशङ्कनीय इति श्रीजीवगोस्वामिचरणाः॥३८॥ धीराधीरा हि धीरतांशाधिका, अधीरतांशाधिकेति द्विविधा संभवतीति। तत्र पूर्वा उदाहृता, उत्तरामुदाहर्तुमाह—यथा वेति। कामवरदां नतु प्रेमामृतपरिवेषयित्रीमितीषत्परुषोक्तिरधीरतांशस्याधिक्येन। अत एव कनिष्ठलक्षणस्य वाष्पस्यात्र भावः।प्रतिपद्य स्वात्मार्पणेनाश्रित्य।सदेति सेवनेऽव्यर्थकालत्वमुपदिष्टम्। तच्चात्रक्षणमात्रस्थि–
*
*
नामा दोषो नाशङ्क्यः। ‘त्वन्मौलिनां हृतमलक्तकपङ्कमङ्घयोस्तस्या विभूषय पुनस्त्व–
सर्व एव रसोत्कर्षो मध्यायामेव युज्यते।
यदस्यां वर्तते व्यक्ता मौग्ध्यप्रागल्भ्ययोर्युतिः॥४०॥
** अथ प्रगल्भा—**
प्रगल्भा पूर्णतारुण्या मदान्धोरुरतोत्सुका।
भूरिभावोद्गमाभिज्ञा रसेनाक्रान्तवल्लभा॥४१॥
अतिप्रौढोक्तिचेष्टासौ माने चात्यन्तकर्कशा।
तत्र पूर्णतारुण्या यथा—
मुष्णाति स्तनयुग्ममभ्रमुपतेः कुम्भस्थलीविभ्रमं
विस्फारं च नितम्बमण्डलमिदं रोधःश्रियं लुण्ठति।
द्वन्द्वं लोचनयोश्च लोलशफरीविस्फूर्जितं स्पर्धते
तारुण्यामृतसंपदा त्वमधिकं चन्द्रावलि क्षालिता॥४२॥
________________
त्यापि न भवेदिति भावः। युतिर्मिश्रणम्। तत्र प्रथमायां धीराधीरायां मौग्ध्यलक्षणमिश्रणं स्पष्टीभवति, द्वितीयायां तु प्रागल्भ्यलक्षणमिश्रणम्। अत्र राधाया मध्यात्वं, धीराधीरात्वंच स्वाभाविको धर्मः। केचित्तु धीरात्वादित्रयमपि स्वाभाविकमेव मानतारतम्यादुदयते ‘याहि माधव, याहि केशव, याहि वद कैतववादम्’ इत्यादेरधीरत्वस्यापि गीतगोविन्दे दृष्टत्वादित्याहुः॥३९॥४०॥४१॥ श्रीकृष्ण आह—मुष्णातीति। अभ्रमुपतेरैरावतस्य रोध श्रियं पुलिनशोभाम्। विस्फूर्जितमाटोपः। अत्र ‘कालभावाध्वदेशानामन्तर्भूतक्रियान्तरैः। सर्वैरकर्मकैर्योगे कर्मत्वमुपजायते॥’ इत्यनेन कर्मत्वम्; ‘गोदोहमास्ते’ इतिवत्। विस्फू–
*
*
ममू अनेन।’ इति पाठस्तु स्पष्टः॥३८॥३९॥४०॥ प्रगल्भेति। ननूरुरतोत्सुकत्वात्संभोगेच्छामय्येवेयं रतिः स्यात्। एषा चपूर्वग्रन्थे परपरत्र च तत्तद्भावेच्छात्मनः सकाशान्न्यूनैवोक्ता।सैरन्ध्या एव चात्रोदाहरणमिष्टम्। व्रजदेवीनां तूत्तरत्र।उच्यते। रसेनाक्रान्तवल्लमेत्युक्तेः प्रेमात्मकरसेनैव तदाक्रमणसंभवात्। प्रेम्णस्तु वल्लभसुखैकोद्देश्यत्वाद्वल्लभसुखार्थमेवास्याः प्रयत्नः। तत्तद्भावेच्छा मय्येवासाविति॥४१॥ विस्फूर्जितमाटोपः। अत्र धात्वर्थलक्षणे, भावे
अथ मदान्धा—
निष्क्रान्ते रतिकुञ्जतः परिजने शय्यामवापय्य मां
स्वैरं गौरिरिरंसया मयि दृशं दीर्घां क्षिपत्यच्युते।
सद्यःप्रोद्यदुरुप्रमोदलहरीविस्मारितात्मस्थिति–
र्नाहं तत्र विदांबभूव किमभूत्कृत्यं किलातः परम्॥४३॥
उरुरतोत्सुका यथा—
उदञ्चद्वैयात्यां पृथुनखपदाकीर्णमिथुनां
स्खलद्बर्हाकल्पां दलदमलगुञ्जामणिसराम्।
ममानङ्गक्रीडां सखि8 वलयरिक्तीकृतकरां
मनस्तामेवोच्चैर्मणितरमणीयां मृगयते॥४४॥
_______________
र्जितं लक्ष्यीकृत्य स्पर्धत इत्यर्थः॥४२॥ प्रातः पृच्छन्तीं भद्रां प्रति चन्द्रावल्याह—**निष्क्रान्तेति।**प्रमोदलहर्यांविस्मारिता आत्मनः स्थितिरिति तदानीं मद्देहे आत्मासीदेवेति संप्रति तदुपलम्भान्यथानुपपत्तेर्ज्ञायते। किंतु मया तदानीं प्रमोदलहर्येव दृष्टा न त्वात्मा। नहि लहर्यां ग्रस्तं गुरुत्ववद्वस्तु तदानीं लभ्यते किंतु तथा रहितं कालान्तरे देशान्तरे च भाग्यवशाल्लभ्यत इति भावः। कृत्यं न विदांबभूव न ज्ञातवत्यस्मीति कैमुत्यमानीतम्॥४३॥ **उरुरते उत्सुकेति।**समर्थरतिमतीनां गोपीनामासां रतौत्सुक्यादिकमपि सर्वं कृष्णसुखार्थमेव फलतीत्युपरिष्टाव्द्याख्यास्यामः। पूर्वग्रन्थे च कामरूपाया एव संभोगेच्छामयी तत्तद्भावेच्छात्मेति द्वैविध्यमुक्तं द्रष्टव्यम्। यथैवानुगानां धार्मिकत्वाधार्मिकत्वाभ्यां दृष्टाभ्यां तद्द्रष्टूराज्ञोऽपि धार्मिकत्वाधार्मिकत्वेऽवसीयेते, एवं कामानुगाया द्वैविध्यदर्शनात् कामरूपाया अपि द्वैविध्यमिति। अतोऽस्या नायिकात्वात् तादृशसंभोगाभिलाषः स्वकान्ततृप्तिप्रयोजनको नानुपपन्न इति॥ मङ्गला प्राणसखीं रहस्याह—मम मन–
*
*
‘कालाध्वभावदेशानाम्’ इत्यादिना कर्मत्वम्।‘विस्फूजितैःस्पर्धत’ इति वा पाठः। सहार्थे ह्यत्र तृतीया॥४२॥४३॥ वैयात्यं धार्ष्ट्यम्। अन्तःस्थयमध्य–
भूरिभावोद्गमाभिज्ञा यथा—
साचिप्रेङ्खदपाङ्गशृङ्खलशिखा विस्फारितभ्रूलता
साकूतस्मितकुड्मलावृतमुखी प्रोत्क्षिप्तरोमाङ्कुरा।
कुञ्जेगुञ्जदलौ विराजसि चिरात्कूजद्विपञ्चीस्वरा
बद्धुं बन्धुरगात्रि कृष्णहरिणं शङ्केत्वमाकाङ्क्षसि॥४५॥
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स्वामेव नक्तंतनीमनङ्गक्रीडां सदा मृगयते। उदञ्चत्स्वयमेवोद्गच्छद्वैयात्यं नायकयोर्धाष्ट्यंयस्यामित्युद्गमने धार्ष्ट्यस्य स्वातन्त्र्यमुक्त्वा पुरुषायितत्वेऽपि स्वस्य दोषःपरिहृतः। ‘धृष्टो धृष्णग्वियातश्च’ इत्यमरः। अन्तस्थमध्यो यः। नखपदानि नखाङ्काः। मणितं सुरतध्वनिः॥४४॥ वासकसज्जां श्यामलामभिसरन्तीं श्रीकृष्णमारादालोक्य वकुलमाला तत्सखी तां स्वगतमेव परिहसन्त्याह—कृष्ण एव हरिणस्तं श्लेषेण कृष्णसारं बद्धुंबद्धं कर्तुं श्लेषेण प्रियम्। साचि वक्रं यथा स्यादेवं प्रेहन्दोलन्नपाङ्ग एवशृङ्खला शिखा पाशकुण्डलिकाग्रंयस्याः सेति। कांचित्संभुज्यैवायातोऽस्यैतावताविलम्बेनानुमीयत इतीर्ष्यावितर्कौ। विस्फारिते भ्रूलते यस्याः सा इति सत्यमेव ब्रूषे गोसंभालनार्थमेव विलम्बोऽभूदिति सर्वं ते जानाम्येवेति गर्वासूये। एवं मृषा मानाभासेनैव लब्धशङ्कं विवर्णवन्तं कान्तमालोक्य साकूतं यत् स्मितकुड्मलं मया कृत्रिमभावेनैवायं प्रतारित इति व्यञ्जकं तेनावृतं मुखं यस्याः सा इत्यवहित्थाशान्तिदयोद्गमौ। ततश्च गतशङ्कस्य तस्य मदभीष्टं सुरतधनं तर्हि देहीति प्रार्थनामाकर्ण्य प्रोत्क्षिप्तेति रत्याख्यस्थायिभावोदयः। कूजन्त्या विपञ्च्या वीणायां इव स्वरो यस्या इति सांप्रतं मे सुरतधनं ग्रन्थौ नास्ति किंतु बहु एव सुरतं तुभ्यं प्रदातुं श्रद्धावत्यः पालीप्रभृतयो वर्तन्ते तदस्मात्कुञ्जान्निःसृत्य ताभ्यस्तद्याचखेत्यौत्सुक्यचापलोत्थं नर्म। अत्र भ्रूलताविस्फारणं, स्वमुखाच्छादनं, चाररूपरोमाङ्कुरनिक्षेपो, विपञ्चीक्वाणश्च हरिणवन्धनसाधनानि ज्ञेयानि। ततश्च तवापि ग्रन्थौ तत्स्थास्यत्येव; भवतु ,स्वयमेव नीवीग्रन्थमुद्धाट्यपश्याम्यस्ति
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पदम्। ‘धृष्टो धृष्णग्वियातश्च’ इत्यमरः। भणितं रतिकूजितम्॥४४॥ वद्धुं
रसाक्रान्तवल्लभा यथा—
अवचिनु कुसुमानि प्रेक्ष्य चारुण्यरण्ये
विरचय पुनरेभिर्मण्डनान्युज्ज्वलानि।
मधुमदन मदङ्गेकल्पयाकल्पमेतै–
र्युवतिषु मम भीमं रौतु सौभाग्यमेरी॥४६॥
अतिप्रौढोक्तिर्यथा पद्यावल्याम्—
काकुं करोषि गृहकोणकरीषपुञ्ज–
गूढाङ्गकिं ननु वृथा कितव प्रयाहि।
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नास्तिवेति श्रीकृष्णेन तथोपक्रमः कृत इति ज्ञेयम्॥४५॥ **रसाक्रान्तेति।**आक्रमोऽयं मया निरतिशयरसेन संतर्ष्यमाणोऽयं सदा मद्वशे तिष्ठत्वित्याशंसामयो ज्ञेयः।मङ्गला प्राह—अवचिनु स्वयमेव नतु जनान्तरद्वारा, तत्रापि चारूणि प्रेक्ष्येति। मत्प्रसाधनयोग्यानि तान्यन्यजनो नैवानेतुं जनातीति, भावः। युवतिष्विति। तादृशं त्वद्रचिताकल्पं युवतीर्दर्शयित्वाताश्चमत्कृति प्रापयाभीति भावः। नायिकाया निर्देशे सदा स्थातुमाग्रहवान्नायकश्चेत् संतताश्रवकेशवा, नायकं स्वनिर्देशे स्थापयितुमाग्रहवती चेत् रसाक्रान्तवल्लभा, अवस्थाविशेष एक नायिकाया निर्देशवर्ती नायकश्चेत् तदा स्वाधीनभर्तृकेति तिसृणामासा भेदे विवेको ज्ञेयः॥४६॥ विनैव स्वसंमतिमत्युत्कण्ठया स्वभवनमागत्य निह्नुत्य सन्तं स्वकान्तमालोक्य मनसा प्रसीदन्त्यपि श्यामला कौतुकवती बहिष्कृतकोपेन त्वच्चरितमिदमार्यायै विज्ञापयामीति मीषयमाणा प्राह—काकुमिति। गृहकोणे रन्धनार्थमानीतानां करीषाणां यः पुञ्जस्तेन गुप्तीकृतस्वगात्रः किमिदानीं मुखमध्ये अङ्गुलीनिंक्षप्य हा हा वृद्धां मामाज्ञापयेति लक्षणां काकुं करोषि। इतः प्रयाहि यद्यात्मनो भद्रमिच्छसीति भावः।तस्य पूर्ववृत्तं स्मरन्ती तत्रात्मनां दुरवस्थां
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बन्धेन वशीकर्तुं कृष्णपक्षे वन्धेनेव वशीकर्तुम्॥४५॥ अवचिनु कुसुमानीत्यादिषु प्रणयविलासमात्रमुद्देश्यम्। निजालकरणं तु व्याजमात्रम्। तादृग्विलासमात्रतात्पर्यकत्वात्तादृशीनाम्। तथा युवतिष्वित्यादावपिज्ञेयम्॥४६॥ काकुं
कुत्राद्य जीर्णतरणिभ्रमणातिभीति–
गोपाङ्गनागणविडम्बनचातुरी ते॥४७॥
अतिप्रौढचेष्टायथा—
सख्यास्तवानङ्गरणोत्सवेऽधुना ननर्त मुक्तालतिका स्तनोपरि।
उत्प्लुत्य यस्याः सखि नायकश्चलो घीरं मुहुर्मे प्रजहार कौस्तुभम्॥४८॥
मानेऽत्यन्तकर्कशा यथोद्धवसंदेशे—
मेदिन्यां ते लुठति दयिता मालती म्लानपुष्पा
तिष्ठन्द्वारे रमणि विमनाः खिद्यते पद्मनाभः।
त्वं चेन्निद्रा क्षपयसि निशां रोदयन्ती वयस्या
माने कस्ते नवमधुरिमा तं तु नालोचयामि॥४९॥
मानवृत्तेः प्रगल्भापि त्रिधा धीरादिभेदतः॥५०॥
तत्र धीरप्रगल्भा—
उदास्ते सुरते धीरा सावहित्था च सादरा।
प्राप्तां स्मारयन्ती तत्प्रतिफलमिव दित्समाना प्राह—कुत्राद्येति॥४७॥ संभोगसमाप्त्यनन्तरमायातां पद्मामालोक्य चन्द्रावलीं ह्रेपयन् श्रीकृष्ण आह—सख्या इति। उत्प्लुत्यसवाष्पं पतित्वेत्यर्थः। नायकः हारमध्यस्थमणिः। धीर निरपराधमिति भावः। श्लेषेण विद्वांसम्। तत्रापि मुहुः प्रजहार। अत्र त्वमेव सन्यायं ब्रूहीति भावः। चल इति धीरमिति पदाभ्यां वैपरीयं व्यक्तीकृतम्। अत्र ‘यो यं हन्यात्स तं हन्यात्’ इति न्यायेन कौस्तुभोऽपि तच्छतगुणं तमधुना प्रहरत्विति सखीप्रत्युक्तिर्ज्ञेया॥४८॥ वकुलमाला श्यामलां प्रत्याह—मेदिन्यामिति।लुठति म्लानपुष्पेति। मालत्यानया किमपराद्धं यदिमां पुष्पचयनेन जलादानेन च खेदयसीति निरुपाधिकं कार्कश्यं व्यञ्जितम्॥४९॥ भानवृत्तेर्मानवृत्तिं प्राप्य॥ ५०॥ उदास्ते उदासीना भवति। अत्र चकारात् धीरप्रगल्भमा–
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करोषीति संकेतीकृतकोकिलादिवज्ज्ञेयम्॥४७॥४८॥४९॥ मानवृत्तेर्मानसंबन्धिनी प्रगल्भापि धीराधीरादिमेदतस्त्रिधा भवति॥५०॥ तत्र धीरप्रगल्भा
यथा—
देवी नाद्य मयार्चितेति न हरे ताम्बूलमास्वादितं
शिल्पंते परिचित्य तप्स्यति गृहीत्यङ्गीकृता न स्रजः।
आहूतास्मि गृहे व्रजेशितुरिति क्षिप्रं व्रजन्त्या वच–
स्तस्याश्रावि न भद्रयेति विनयैर्मानः प्रमाणीकृतः॥५१॥
तथा च—
कण्ठे नाद्य करोमि दुर्व्रतहता रम्यामिमां ते स्रजं
वक्तुं सुष्ठु न हि क्षमास्मि कठिनैर्मौनं द्विजैर्ग्राहिता।
का त्वां प्रोज्झ्यचलेत्खले यमचिरं श्वश्रूर्नचेदाह्वये–
दित्थं पालिकया हरौ विनयतो मन्युर्गमीरीकृतः॥५२॥
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निन्या लक्षणस्य द्वैविध्यम्।या मानवृत्तिं प्राप्य सुरते उदास्ते सा धीरा भवति; यावहित्थादराभ्या युक्ता सा च धीरेति धैर्यस्य पूर्णत्वापूर्णत्वाभ्यां व्याख्येयम्। उदाहरणं तु व्युत्क्रमेण पाठार्थक्रमयोरर्थक्रमस्य प्राबल्यादिति द्विविधाया धीरप्रगल्भाया लक्षणोदाहरणे परमतानुरोधेनैवोक्ते। स्वमते तु संपूर्णधैर्या प्रथमैव धीरप्रगल्भाया द्वितीयायामसंपूर्णधैर्यायामधृतांशस्यापि सद्भावात् धीरप्रगल्भाप्रायत्वमेव नतु धीरप्रगल्भात्वमित्यवगम्यते। यथा वेत्यग्रेतनाद्वाशब्दात्। पाल्याः सखी स्वसखीं कांचित्प्रत्याह—**देवीति।**स्पष्टम्। क्वाचित्कोऽयं श्लोकः॥५१॥ तत्र दुर्व्रतहतेति। एतद्व्रतमपि मे धिक्।यत्रसति त्वत्पाणिनिर्मितां स्रजं कण्ठे कर्तुं न लमेयेत्यादरावाहित्थे। कठिनैरिति। द्विजानपि तान्रसाभिज्ञान्धिक्। यैर्व्रते मौनविधिर्दत्तः। अयं मौनत्यागस्तु त्वत्प्रेमानुरोधेनैव क्षणं निषिद्धोऽपि कृत इति
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वक्तुंप्रगल्भाया लक्षितत्वाद्धीरामात्र लक्षयति—उदास्त इति। सादरा सावहित्था च सतीत्यादरेणाकारं गोपयन्तीत्यर्थः। मैवं भवन्ती मानवृत्तिसंवन्धिनी सुरते उदास्ते सा धीरेत्यर्थः॥५१॥ अथ धीरप्रगल्भामुदाहरति कण्ठेनाद्येति। अस्या धीरात्वंव्यक्तमेव प्रगल्भात्वं च दुर्व्रतेति। कठिनेति,
यथा वा—
कुचालम्भेपाणिर्नहि मम भवत्या विघटितो
मुहुश्चुम्बारम्भे मुखमपि न साचीकृतमभूत्।
परीरम्भे चन्द्रावलि न च वपुः कुञ्चितमिदं
क लब्धा मानस्य स्थितिरियमनालोकितचरी॥५३॥
अधीरप्रगल्भा—
संतर्ज्य निष्ठुरं रोषादधीरा ताडयेत्प्रियम्॥५४॥
यथा—
मुग्धाः कंसरिपो वयं रचयितुं जानीमहे नोचितं
तां नीतिक्रमकोविदां प्रियसखीं वन्देमहि श्यामलाम्।
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भावः। तर्हि क्षणं मौनिन्येव मत्समीपे तिष्ठेत्यत आह—का त्वामिति। अत्र दुर्व्रतेति, कठिनैरिति, खलेति, प्रौढोक्तिमत्त्वात्प्रगल्भात्वम्। इयं सुरतमदित्समाना स्वमानं च निह्नुवाना व्रतादिकं व्याजीकरोतीति धैर्यपूर्त्यभावोऽस्या ज्ञातः॥५२॥ यथा वेति। तस्यां पूर्णधैर्यायां परितोषव्यञ्जको वाकार इति न द्वैविध्यं स्वसंमतमिति भावः। कुचालम्भ इति। अत्रैवं ज्ञेयम्। प्रिये चन्द्रावलि, त्वं किं मानिन्यसि नहि नहि किं मे मानस्य लक्षणं पश्यसि निरपराधे त्वयि को वा मानस्यावकाशः। एवं चेत्स्वाङ्गस्पर्श दास्यसि। दास्याम्येव कोऽत्र संदेहस्तवैवेदमङ्गमिति बहिर्ब्रूते। स्वगतं तु मानिन्या मयास्मिन्भावस्त्यक्त एव। किंतु तस्मै दत्तचरमङ्गमिदमयं यज्जानाति तदेव करोतु मम किमनेनेत्यौदासीन्यं संपूर्णधीरत्वकृतमिति। क्व लब्धेति। अद्य त्वत्संभोगे सुखलेशमात्रमपि मया न लब्धमिति भावः॥५३॥५४॥ गौरी प्राह—मुग्धा इति। मुग्धंमन्या। श्यामलां वन्देमहीति। तत्कृतं चेष्टितमेव मच्चिकीर्षितमिति व्यञ्जनया, तथा
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खलेति च प्रोढोक्तित्वात्तदुपलक्षितत्वेनान्येषामप्युपादानाद्गम्यम्॥५३॥ कुचालम्भ इत्यत्र मानसमयेऽपि गाम्भीर्यमादरोऽवहित्था च गम्यत इति धीरात्वम्।माने कर्कशत्वात्पाणिविघटनाकरणेन समर्थतया पूर्णयौवनत्वाच्च प्रग-
मल्लीदामभिरुच्छलन्मधुकरैः संयम्य कण्ठे यथा
साक्षेपं चकितेक्षणस्त्वमसकृत्कर्णोत्पलैस्ताड्यसे॥५५॥
धीराधीरप्रगल्भा—
धीराधीरगुणोपेता धीराधीरेति कथ्यते।
यथा—
स्फुरति न मम जातु क्रोधगन्धोऽपि चित्ते
व्रतमनु गहनाभूत्किंतु मौने मनीषा।
अघहर लघु याहि व्याज आस्तां यदेताः
कुसुमरसनया त्वां बन्धु(न्द्धु)मिच्छन्ति सख्यः॥५६॥
** था वा—**
कृतागसि हरौ पुरः स्तुवति तं भ्रमद्भ्रूलता
तिताडयिषुरुद्धुरा श्रुतितटाद्विकृष्योत्पलम्।
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मल्लीत्यादिना च बन्धनताडनयोर्मनोवाक्कृतत्वं सिद्धम्। साक्षात्स्वपाणिकृतत्वं चोत्तमाङ्गनानां नातिसुरसनीयमिति न तद्वर्णितम्। केचित्तु श्यामलैवोदाहरणमित्याहुः॥५५॥ मङ्गला प्राह—स्फुरतीति। लघु शीघ्रं व्याजःस्वस्य निरपराधत्वप्रकाशनमयो दम्म आस्तां विरमतु। कुसुमरसनया पुष्पग्रन्थनरज्ज्वा, पक्षे पुष्पमयक्षुद्रघण्टिकया बद्धुं वद्धात्रैव स्थापयितुम्। तथा सति स्वप्रेयसीं तां द्रष्टुं न प्राप्स्यतीति भावः। अत्र पुष्पकाञ्चीमात्रविशिष्टां त्वां बद्धुं प्रियमिच्छन्तीति श्लिष्टार्थप्रतीतावधीरात्वस्य बाह्यत्वापत्ते धीरेत्यस्य च स्वानभिमतत्वादपरितोषप्राप्तेरुदाहरणान्तरमाह—यथा वेति॥५६॥ कृतागसीति। पादत्रयेऽधीरालक्षणं स्पष्टम्। चतुर्थचरणे परं केवलं पराञ्चन्मुखीत्वेन नायिकोचितभावप्रदर्शनया नायकं प्रत्यादरः।
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ल्भात्वं च॥५३॥५४॥५५॥ स्फुरतीत्यादावस्याः प्रगल्भात्वंपूर्ववज्ज्ञेयम्। व्रतमन्वित्यत्र मौनत्यागोऽयं तु भवत्स्नेहेनैव क्रियत इति भावः। व्याज इति पुंस्येव क्लीबं तु लिखनभ्रमात्॥ ५६॥ कृतागसीत्यादौ पूर्वार्धेन प्रगल्भा–
न तेन तमताडयत्किमपि याहि याहीति सा
ब्रुवत्यजनि मङ्गला सखि परं पराञ्चन्मुखी॥५७॥
किशोरिकाणामप्यासामाकृतेः प्रकृतेरपि॥५८॥
प्रागल्भ्यादिव कासांचित्प्रगल्भात्वमुदीर्यते।
मध्या तथा प्रगल्भा च द्विधा सा परिभिद्यते॥५९॥
ज्येष्ठा चापि कनिष्ठा च नायकप्रणयं प्रति।
यथा—
सुप्ते प्रेक्ष्य पृथक् पुरः प्रियतमे तत्रार्पयन्पुष्पजं
लीलाया नयनाञ्चले किल रजश्चक्रे प्रबोधोद्यमम्।
कृष्णः शीतलतालवृन्तरचनोपायेन पश्याग्रत–
स्तारायाः प्रणयादिव प्रणयते निद्राभिवृद्धिक्रमम्॥६०॥
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तथा पराञ्चन्मुखीत्युक्त्याञ्चदित्यस्य शत्रन्तत्वेन किंचिदपाङ्गदर्शनेन प्राप्तेन प्रसादव्यञ्जकेन स्वमाननिह्नुतिरित्यवहित्था चेति। पराञ्चन्मुख्येवाजनीति न प्रतिकूलम्, नाप्यनुकूलं किमपि चेष्टते स्मेत्यर्थे प्राप्ते सति पुनः कृष्णेन चरणयोः प्रणिपत्य सुरसार्थकप्रयत्ने क्रियमाणे संमतिव्यञ्जकचेष्टाया अभावे धीरालक्षणमप्यायातम्। ‘धीराधीरा तु सोल्लुण्ठभाषितैः खेदयेदमुम्।’ इति साहित्यदर्पणोक्तधीराधीरप्रगल्भालक्षणम्, तथा ‘अनलंकृतोऽपि सुन्दर हरसि यतो मे मनः प्रसभम्। कि पुनरलंकृतस्त्वं संप्रति नखरक्षतैस्तस्याः॥’ इति तदुदाहरणं च नानुमतं धीरामध्यायामतिप्रसक्तत्वादिति॥५७॥ **प्रागल्भ्यादिवेति।**किंचिद्वयोधिकत्व एव वस्तुतः प्रागल्भ्यं संभवेदिति भाव। नायकप्रणयं प्रति लक्ष्यीकृत्य नायककर्तृकप्रणयाधिक्यन्यूनतावत्यौ क्रमेण ज्येष्ठाकनिष्ठे स्यातामित्यर्थ॥५८॥५९॥ दूराल्लताकुञ्जे निह्नुत्य वृन्दा नान्दीमुखीं दर्शयति—सुप्त इति। अत्र नयने रजःप्रदानं निद्रावेशनाशार्थमेव, निद्रानाशस्तु पाणिकर्षणेनापि सिद्ध्येतैवेति भावः। रजसः पुष्पजत्वेन नयनापकारकत्वं पराहृतम्। तालवृन्त–
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त्वम्॥५७॥ आकृतेः प्रकृतेरपि प्रागल्भ्यादित्येवमन्वय॥५८॥५९॥ ताल–
यथा वा—
दीव्यन्त्यौ दयिते समीक्ष्य रभसादक्षैस्र्यहात्मग्लहै–
र्गौरींघूर्णितयोपदिश्य हितवद्दायप्रयोगं भ्रुवा।
तस्यास्तूर्णमुपार्जयन्निव जयं शिक्षावशेनाच्युतः
श्यामामेव चकार धूर्तनगरीसंकेतविज्जित्वराम्॥६१॥
काचित्कांचिदपेक्ष्य स्याज्ज्येष्ठेत्यापेक्षिकी भिदा॥६२॥
अतो भेदद्वयमिदं न कृतं गणनान्तरे।
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रचना व्यजनचालनवैदग्धी॥६०॥ पूर्वत्र मध्ययोर्ज्येष्ठत्वकनिष्ठत्वे उदाहृत्य संप्रति प्रगल्भयोस्ते दर्शयति—यथा वेति। वाशब्दश्चार्थे।वृन्दा पौर्णमासीमाह—दीव्यन्त्याविति। अक्षैः पाशकैः। त्र्यहं व्याप्यात्मा स्वयं श्रीकृष्ण एव ग्लहोयेषु तैः। ‘पणोऽक्षेषु ग्लहोऽक्षास्तु देवनाः पाशकाश्च ते।’ इत्यमरः। घूर्णितयानुरागव्यञ्जिकया भ्रुवा।धूर्तनगरीशब्देन लक्षणया नानाविधा धूर्ता उच्यन्ते। सकेतस्तच्छब्दप्रवृत्तिनिमित्तमसाधारणधर्मविशेषस्तं विन्दति प्राप्नोति वेति स्वस्मिन्नर्पयितुं जानातीति वा। अत्र प्रकटमेव श्यामायाः पक्षपातत्वव्यञ्जनया तस्यै श्यामलायै सौभाग्यप्रदानं गौर्या सह प्रणयवत्यास्तस्या नाभिमतमिति न कृतम्। तथा सति गौर्या मनसि किंचिद्दुःखं स्यात्, गोर्याः पक्षपाते तु श्यामाया न दुःखम्। स्वस्मिन् सौभाग्यस्य निश्चयज्ञानेन तत्पक्षपातस्य बाह्यत्वमननात्। अतस्तयोर्मिथःप्रीति। श्रीकृष्णस्यापि तादृशी लीलासिद्ध्यर्थमभीष्टेति ज्ञेयम्। एवं पूर्वत्र तारालीलयोरपि विवेचनीयम्॥६१॥ न कृतं गणनान्तर इति। यैव ज्येष्ठासैव तदानीमेव कनिष्ठा चेति किं धर्मवत्त्वेन गणनीयेति
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वृन्तं व्यजनम्॥६०॥ त्र्यहं व्याप्य आत्मा स्वमेव ग्लहो देयो येषु तैरक्षैर्दीव्यन्त्यौसमीक्ष्य दायस्याक्षपातलब्धस्य स्वोचितक्रीडाभागस्य प्रयोगं प्रयोक्तव्यं चालनविशेषं घूर्णितया भ्रुवा गौरीं दयितयोरेकतरां प्राक् हितमेवोपदिश्य तस्या गौर्या जयमिवोपार्जयन् शिक्षायास्तद्विद्याभ्यासस्य वशेनानुगत्या तल्लब्धकुचातुर्या श्यामा तयोरन्यतरामेव जित्वरांचक्रे।धूर्ता अक्षदेविनस्तन्नगर्यां यः संकेतो येन चालनेन जय इव दृश्यमानेऽपि पराजयस्तथा तद्विपरीते विपरीतस्तत्र यः संकेतश्छलेनोपदेशस्तद्वित्॥६१॥ पूर्वोक्तान्प्रेयसीभेदान्पञ्चदशत्वेन
कन्या मुग्धैव सा किंतु स्वीयान्योढे उभे बुधैः॥६३॥
मुग्धामध्यादिभेदेन षड्भेदे परिकीर्तिते।
मध्यप्रौढे द्विषड्भेदे प्रोक्ते धीरादिभेदतः॥६४॥
कन्या स्वीया परोढेति मुग्धा च त्रिविधा मता।
इति ताः कीर्तिताः पञ्चदश भेदा इहाखिलाः॥६५॥
अथावस्थाष्टकं सर्वनायिकानां निगद्यते।
तत्राभिसारिका वाससज्जा चोत्कण्ठिता तथा॥६६॥
खण्डिता विप्रलब्धा च कलहान्तरितापि च।
प्रोषितप्रेयसी चैव तथा स्वाधीनभर्तृका॥६७॥
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भावः। अत एव वक्ष्यमाणोऽधिकादिभेदोऽपि नात्र गणनायामानीतः॥६२॥॥६३॥ कन्या मुग्धैवेति। तस्या एक एव भेदः।स्त्रीयापरोढे यद्भेदे इति। स्वीयामुग्धा, स्वीयामध्या, स्वीयाप्रगल्भेति। एवं परोढामुग्धेत्यादि। एवं कन्यास्वीयपरोढानां स्थूलतः सप्त भेदाः। मध्यादिभेदेन तु पञ्चदशैवेत्याह—मध्याप्रौढे इति। मध्या प्रथमं स्वीया परोढेति द्विविधा। ततः प्रत्येकं धीरा, अधीरा, धीराधीरेति त्रिविधा। ततो मध्या षड्विधा, प्रौढा च षड्विधेति मध्याप्रौढेद्विषड्भेदे।मुग्धा च त्रिविधा कन्या, स्वीया, परोढेति मिलित्वा पञ्च–
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दर्शयति—कन्या मुग्धैवेत्यादिना पञ्चदश भेदा इहाखिला इत्यन्तेन। तत्र कन्या मुग्धैवेत्येकः। किंतु स्वीयान्योढे इति स्वीयाया सप्तभेदास्तावद्दर्श्यन्ते।मुग्धा एकः, धीरप्रगल्भा, अधीरप्रगल्भा, धीराधीरप्रगल्भा इति त्रयः। धीरमध्या, अधीरमध्या, धीराधीरमध्येति मध्यायाश्च त्रयः। इति स्वीयायाः सप्त। एवमन्योढाया सप्त भेदाः पूर्ववज्ज्ञेयाः॥ तदेवं कन्याया एको भेदः। स्वीयान्योढायाः सप्त सप्तेति पञ्चदशैव स्थिताः। पञ्चदशत्वेच मध्याप्रगल्भयोर्भेदान् विविनक्ति—मध्याप्रौढे इति। प्रौढाप्रगल्भाधीरादिभेदतः द्विषड्भेद इति षट्सु द्वित्वम्। स्त्रीयात्वपरकीयात्वद्वित्वेन ज्ञेयम्। पुनः पञ्चदशस्वेव मुग्धाया भेदान् विविनक्ति—कन्या स्वीयेति। कन्यामुग्धा स्वीयामुग्धेति त्रिधा मते–
तत्राभिसारिका यथा—
याभिसारयते कान्तं स्वयं वाभिसरत्यपि।
सा ज्योत्स्नीतामसी यानयोग्यवेषाभिसारिका॥६८॥
लज्जया स्वाङ्गलीनेव निःशब्दाखिलमण्डना।
कृतावगुण्ठा स्निग्धैकसखीयुक्ता प्रियं व्रजेत्॥६९॥
तत्राभिसारयित्री यथा—
जानीते न हरिर्यथा मम मनःकंदर्पकण्डूमिमां
मां प्रीत्याभिसरत्ययं सखि यथा कृत्वा त्वयि प्रार्थनाम्।
चातुर्य तरसा प्रसारय तथा सस्नेहमासाद्य तं
यावत्प्राणहरोनचन्द्रहतकः प्राचीमुखं चुम्बति॥७०॥
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दश भेदाः॥६४॥६५॥६६॥६७॥ज्योत्स्नीतामस्योः शुक्लकृष्णपक्षवर्तिन्योर्यानमभिसारस्तद्योग्यःशुक्लकृष्णपक्षपरिच्छदमयो वेषो यस्याः सा।स्वाङ्गलीनेव स्वाङ्गैरेव स्वाङ्गमाच्छादयन्तीवेत्यर्थः॥६८॥६९॥ श्रीराधा विशाखामाह—जानीत इति। मम कंदर्पकण्डूयायां तेन ज्ञातायां कुलाङ्गनायाः परमलज्जावत्याममाप्रतिष्ठा स्यात्, तस्य च मां प्रत्युपहास स्वावाम्यप्रकटनं च भविष्यति। तत्सौन्दर्यसौशील्यादिकमेव तदग्रेत्वया वर्णनीयमिति भावः। त्वंतु मन्मन कण्डूं जानास्येव तदपि किंचिद्विवृणोमि शृण्वित्याह—यावदिति। अद्य कृष्णचतुर्दशीतिथि संप्रति सायम्, त्वं चलसि। प्रहरपर्यन्तं मे प्राणाःस्थास्यन्ति न ततःपरत्रेयवधिरुक्त।चन्द्रनामा हतक इति शाकपार्थिवादिः। कुत्सितो
*
*
त्यर्थः॥६२॥६३॥६४॥६५॥६६॥६७॥६८॥६९॥ कयाचित्प्राणसख्या अन्वयव्यतिरेकाभ्यानिर्णीय यत्नतस्तस्या मुखात् किंचिन्निष्कासिते तादृगुत्कण्ठिते स्वयमेव च दौत्याय कृते प्रारम्भे तस्या एव वाक्यम्—जानीत इति। मनसः कंदर्परूपा या कण्डूस्तद्वत् तच्छान्तिकरस्पृश्यं प्रति या उत्कण्ठा ता यथा न जानीत इत्यत्र मन शब्दप्रयोगः।शमेऽपगतेऽपि दमस्तु मम दृढ एवास्तीति धैर्यमिव व्यञ्जयितुं कृतम्। पुरतस्तन्निर्वाहस्तु दुष्करःस्यादिति त्वयावश्यगन्तव्यमिति व्यञ्जयितुमाह—यावदिति। मन कण्डूमिमामित्यत्र मन–
** अथ ज्योत्स्न्यांस्वयमभिसारिका यथा—**
इन्दुस्तुन्दिलमण्डलः प्रथयते वृन्दावने चन्द्रिकां
सान्द्रां सुन्दरि नन्दनो व्रजपतेस्त्वद्वीथिमुद्वीक्षते।
त्वं चन्द्राञ्चितचन्दनेन स्वचिता क्षौमेण चालंकृता
किं वर्त्मन्यरविन्दचारुचरणद्वन्द्वं न संघित्ससि॥७१॥
** तामस्यां यथा विदग्धमाधवे—**
तिमिरमसिभिः संवीताङ्ग्यःकदम्बवनान्तरे
सखि बकरिपुं पुण्यात्मानः सरन्त्यभिसारिकाः।
तवतु परितो विद्युद्वर्णास्तनुद्युतिसूचयो
हरि हरि धनध्वान्तान्येताः स्ववैरिणि भिन्दते॥७२॥
** अथ वासकसज्जा—**
स्ववासकवशात्कान्ते समेष्यति निजं वपुः।
सज्जीकरोति गेहं च या सा वासकसज्जिका॥७३॥
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हतः परदुःखदत्वेन व्यर्थजीवनत्वाज्जीवन्मृत इत्यर्थः॥७०॥ विशाखा श्रीराधामाह—चन्द्रिकां प्रथयते। तेन चन्द्रिका प्रथते प्रशस्तीभवति। प्रथ ख्यातौ। त्वद्दर्शनरसास्वादमप्राप्य तथाभूतापि सा व्यर्थायतीति हेतोस्त्वद्वीथिमुच्चीभूय दूरपर्यन्तं वीक्षते। चन्द्राञ्चितेन कर्पूरवता।क्षौमेण सूक्ष्मातसीतन्तुसंभवेन वस्त्रेण। शुक्लपट्टदुकूले क्षौमशब्दप्रसिद्धिरिति केचित्॥७१॥ ललिता श्रीराधामाह—तिमिरेति। तनुद्युतय एव सूचयः वस्त्रसूक्ष्मरन्ध्रान्निर्गच्छन्त्यो धनध्वान्तानि परममित्रायितान्यपि भिन्दते विदारयन्त्यतो हेतोःस्ववैरिणि तव वैरित्वमेवेति व्याजस्तुत्या सर्वतोऽपि सौन्दर्यातिशय उक्तः॥७२॥ स्वंवासयतीति स्ववासकः।वशः कान्तिरिच्छेति यावत्।त्वं कुञ्जे तावद्वसाहं शीघ्रमेष्यामीति
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स्तृष्णा[मिमां] धृष्टनामिति वा पाठः॥७०॥ क्षौमेण सूक्ष्मातसीतन्तुसंभवेन वस्त्रेण। तच्च प्रायः शुक्लमेव भवतीति तदुपात्तम्॥७१॥७२॥ स्ववासकव–
चेष्टा चास्याः स्मरक्रीडा संकल्पो वर्त्मवीक्षणम्।
सखीविनोदवार्ता च मुहुर्दूतीक्षणादयः॥७४॥
** यथा—**
रतिक्रीडाकुञ्जंकुसुमशयनीयोज्ज्वलरुचिं
वपुः सालंकारं निजमपि विलोक्य स्मितमुखी।
मुहुर्ध्यायं ध्यायं कमपि हरिणा संगमविधिं
समृद्ध्यन्ती राधा मदनमदमाद्यन्मतिरभूत्॥७५॥
** अथोत्कण्ठिता—**
अनागसि प्रियतमे चिरयत्युत्सुका तु या।
विरहोत्कण्ठिता भाववेदिभिः सा समीरिता॥७६॥
अस्यास्तु चेष्टा हृत्तापो वेपथुर्हेतुतर्कणम्।
अरतिर्वाष्पमोक्षश्च स्वावस्थाकथनादयः॥७७॥
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नायकस्येच्छैव नायिकां कुञ्जे वासयतीत्यर्थः। अतो हेतोः समेष्यति कान्ते या वपुर्गेहं च सज्जीकरोति शृङ्गारोचितवस्तुविशिष्टं करोति सा वासकसज्जेति तेन वासकाद्धेतोः सज्जयतीति व्युत्पत्त्यैव विशेष्यपदस्य नायकस्य, तदिच्छायाश्च, तदागमनभावित्वस्य च, तत्कालस्य च, देहगेहयोः कर्मणोश्चाक्षेपादेव लाभश्च व्यञ्जितः॥७३॥७४॥ श्रीराधां दूराद्विलोकयन्ती श्रीरूपमञ्जरी स्वसखीमाह—रतिक्रीडेति। स्मितमुखीति त्वमद्य स्वकान्तं प्रमोदयितुं योग्यतां धास्यसीति स्ववपु प्रत्युक्तिव्यञ्जकं स्मितम्॥७५॥ **अनागसीति।**ज्ञात इति शेषोऽत्र देयः।नायकस्य सापराधत्वेऽपि निरपराधत्वज्ञान एवोत्कण्ठा भवेत्। निरपराधत्वेऽपि सापराधत्वज्ञाने मानविप्रलम्भ इति विवेचनीयम्॥७६॥
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शात् स्वावसरवशात्॥७३॥७४॥७५॥ अनागसीति। सागसि तु मान एव भवति न तूत्कण्ठेति ज्ञापकम्।विरहोत्कण्ठितेति पर्यायान्तरम्॥७६॥७७॥
यथा—
सखि किमभवद्बद्धो राधाकटाक्षगुणैरयं
समरमथ वा किं प्रारब्धं सुरारिभिरुद्धुरैः।
अहह बहुलाष्टम्यां प्राचीमुखेऽप्युदिते विधौ
विधुमुखि न यन्मां सस्मार व्रजेश्वरनन्दनः॥७८॥
वाससज्जादशाशेषेमानस्य विरतावपि।
पारतन्त्रेयथा यूनोरुत्कण्ठा स्यादसंगमात्॥७९॥
अथ खण्डिता—
उल्लङ्घ्य समयं यस्याःप्रेयानन्योपभोगवान्।
भोगलक्ष्माङ्कितः प्रातरागच्छेत्खण्डिता हि सा॥८०॥
एषा तु रोषनिःश्वासतूष्णींभावादिभाग्भवेत्।
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चन्द्रावली पद्मामाह—**सखीति।**बहुलाष्टम्यां कृष्णाष्टम्यां न सस्मारेति मन्माधुर्यस्य स्मृतिविषयीभूतत्वेतस्य क्वापि स्थातुमशक्तेरिति भावः। यद्वा मम स्मरणमपि न करोति धिङ्मामिति निर्वेदो व्यञ्जितः॥७८॥ वाससज्जेत्यादिना प्रसङ्गेन उत्कण्ठितात्वस्य समयत्रयमुक्तम्। मानस्य विरतौ तु सैवोत्कण्ठिता कलहान्तरिताशब्देनोच्यत इति संप्रदायः॥७९॥ समयमुल्लङ्घ्यपूर्वसकेतितागमनकालं व्यतीत्य यस्या प्रेयान् प्रातरागच्छेत् सा खण्डिता। अत्र रात्रे प्रथमप्रहरमध्य एवागमिष्यामीत्युक्त्वा कदाचिदर्धरात्रमध्येऽप्यागमने खण्डिता माभूदिति प्रातरिति पदम्। तथा नायकस्य लुप्तोपभोगचिह्नत्वे दृष्टे सा माभूदिति भोगलक्ष्माङ्कित इति पदम्। भोगलक्ष्मणामपि स्वपरिहासार्थकत्वेन कृत्रिमत्वेज्ञाते खण्डिता न भवेदित्यन्योपभोगवानिति पदम्। नायिकया स्वकान्तस्यान्यसंभोगो यदि संभाव्यते तदैव नान्यथेत्यर्थ॥८०॥ श्यामासखवकुलमालासखीं
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७७॥ वहुलाष्टम्यां कृष्णाष्टम्याम्॥७८॥ मानस्य विरतावपीत्यत्रापि पूर्वोक्तनानागसीत्यनेन न विरोधः। तदाप्यनागस्त्वमननात्॥७९॥ व्रजपते–
यथा—
यावैर्धूमलितं शिरो भुजतटीं ताटङ्कमुद्राङ्कितां
संक्रान्तस्तनकुङ्कुमोज्ज्वलमुरोमालां परिम्लायिताम्।
घूर्णाकुड्मलिते दृशौ व्रजपतेर्दृष्ट्वा प्रगे श्यामला
चित्ते रुद्रगुणं मुखे तु सुमुखी भेजे मुनीनां व्रतम्॥८१॥
अथ विप्रलब्धा—
कृत्वा संकेतमप्राप्ते दैवाज्जीवितवल्लभे॥८२ \।\।
व्यथामानान्तरा प्रोक्ता विप्रलब्धा मनीषिभिः।
निर्वेदचिन्ताखेदाश्रुमूर्च्छानिःश्वसितादिभाक्॥८३॥
यथा—
विन्दति स्म दिवमिन्दुरिन्दिरानायकेन सखि वञ्चिता वयम्।
कुर्महे किमिह शाधि सादरं द्रागिति क्लममगान्मृगेक्षणा॥८४॥
अथ कलहान्तरिता—
या सखीनां पुरः पादपतितं वल्लभं रुषा।
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पृच्छन्तीं कांचिदाह—यावैरिति। धूमलितं कृष्णलोहितीकृतम्। ताटङ्कं कुण्डलम्। व्रजपतेरिति। प्रकरणवशाद्व्रजशब्दोऽयं समूहवाची। परःसहस्रस्त्रीजनोपभोक्तुरित्यर्थः। तस्मिन्नेतत्सर्वं नाश्चर्यमिति भावः। रुद्रगुणं क्रोधं तेन तत्सूचकं मुखवैवर्ण्यं नयनारुण्यं च तस्यास्तदाविर्भूतमिति भावः। मुनीनां व्रतं मौनम्। इयं धीराधीरप्रगल्भा ज्ञेया॥८१॥ अप्राप्त इति। अप्राप्ते निर्धारे ज्ञाते सतीति व्याख्येयम्॥८२॥८३॥ श्रीराधा विशाखामाह—विन्दतीति। तेनावधिसमयो व्यतीत इति भाव। इन्दिरानायकेनेति। काचिल्लक्ष्मीस्तेनाद्य प्राप्ता तत किमस्माभिस्तस्येति भाव।सादरं यथा स्यात्तथा शाधि। यत्र शिक्षणे ममादरो नोत्तिष्ठति तद्ब्रूहीति भावः। तेनातःपरं प्राणधारणे ममानादर एवेति मरणमेव ज्ञापय न तु जीवनमिति भावः॥८४॥ कलहान्तरिता कलहाद्बहिर्भूता। त्यक्तकलहेयर्थ। ‘अन्तरमवकाशावधिपरि–
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रित्यत्र मुररिपोरिति वा पाठः। प्रगेप्रातः॥८०॥८१। विप्रलब्धाकान्तेन कारणान्तराद्वञ्चितेति यौगिकार्थः॥८२॥८३॥८४॥सखीनां पुर इति। निर्जने
निरस्य पश्चात्तपति कलहान्तरिता हि सा॥८५॥
अस्याः प्रलापसंतापग्लानिनिःश्वसितादयः।
यथा—
स्रजः क्षिप्ता दूरे स्वयमुपहृताः केशिरिपुणा
प्रिया वाचस्तस्य श्रुतिपरिसरान्तेऽपि न कृताः।
नमन्नेष क्षोणीविलुठितशिखं प्रैक्षि न मया
मनस्तेनेदं मे स्फुटति पुटपाकार्पितमिव॥८६॥
** अथ प्रोषितभर्तृका—**
दूरदेशं गते कान्ते9 भवेत्प्रोषितभर्तृका॥८७॥
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धानान्तर्धिभेदतादर्थ्ये। छिद्रात्मीयविनावहिरवसरमध्येऽन्तरात्मनि च॥’ इत्यमरः। कलहेनान्तरं भेदो जातो यस्या इत्यर्थे इति च। त्यक्तकलहेत्यर्थः॥८५॥ राधा स्वगतमाह—स्रज इति। पुटे मूष इति ख्याते मृण्मयपात्रे।पाकार्थमर्पितं स्वर्णरजतादिवस्त्विवेत्यर्थः॥८६॥दूरदेशं मथुरां द्वारकां च। अत्र प्रोषितभर्तृकास्वाधीनभर्तृकयोः परकीयात्वं केचिन्न मन्यन्ते भर्तृशब्देन जारस्य वाचयितुमशक्यत्वात्तथैकत्र तच्छब्दलिङ्गेनाष्टावप्यवस्थाः स्वकीयाया एवाभिप्रेता इति व्याचक्षते। तदसंगतम्। ‘पूर्वं याः पञ्चदशधा प्रोक्तास्तासां शतं तथा। विंशतिश्चाभिरत्र स्यादवस्थाभिः किलाष्टभिः॥’ इत्यग्रेपञ्चदशानामेवावस्थाष्टकस्य परिगणनात् परकीयां विना पञ्चदशत्वायोगात्। न च परकीयाणामप्यासां राधाचन्द्रावल्यादीनां कृष्णेन सह विवाहस्य भावित्वाद्भर्तृशब्दप्रयोग इति वाच्यम्।
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तु मानःस्थातुं न शक्नोतीत्यभिप्रायात्॥८५॥८६॥ प्रोषितभर्तृकादिद्वये भर्तृशब्दप्रयोगो दाम्पत्यस्यैवाङ्गिनि रसे रसशास्त्रकर्तृभिः स्वीकृतत्वायुक्त एव। अत एव वासकसज्जायां गेहशब्दः प्रयुक्तः। नहि भर्तृशब्देन वाच्यते। चौरस्वामिनोरेकार्थत्वासंभवात्। अन्यथा स्वाधीनपतिकादिशब्दवत् क्वचित् स्वाधीनजारेत्यपि प्रयुज्यते। अश्लीलत्वाज्जारेऽपि तच्छब्दोन प्रयुज्यते। किं तु भर्त्रादिशब्द इति चेत् हन्त
प्रियसंकीर्तनं दैन्यमस्यास्तानवजागरौ।
मालिन्यमनवस्थानं जाड्यचिन्तादयो मताः॥८८॥
विलासी स्वच्छन्दं वसति मथुरायां मधुरिपु–
र्वसन्तः संतापं प्रथयति समन्तादनुपदम्।
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विवाहस्य भावित्वेस्पष्टतया क्वाप्यार्षस्य प्रमाणस्याभावात्। न च पाद्मोत्तरखण्डे दन्तवक्रवधान्तप्रकरणदृष्ट्या तथा ‘यर्ह्यम्वुजाक्षापससार भो भवान् कुरून् मधून् वाथ सुहृद्दिदृक्षया।’ इति प्रथमस्कन्धोक्त्याच व्रजागतस्य कृष्णस्य पित्रोरभिलाषपूर्त्यर्थं विवाह आवश्यक इति वाच्यम्। पूर्वमक्रूरागमनकाले श्रीकृष्णस्य शेषकैशोरे स्थितस्यापि पितृभ्यां यथा तस्य पौगण्डानतिक्रम एव दृष्ट आसीत्तथैव दन्तवक्रवधानन्तरमप्यागतस्य तस्य तस्मिन्नेव वयसि दृष्टेनाधुनाप्यस्य विवाहे समय इति तदानीमपि पित्रोर्विवाहदानानभिलाषस्यैव युक्तिसिद्धत्वात्। अत एव कृष्णोऽपि तं हत्वा यमुनामुत्तीर्येति गद्यान्ते ‘गोपनारीभिरनिशं क्रीडयामास माधवः।’ इत्यादिषु गोपनारीपदप्रयोग इति। तर्हि स्वाधीनभर्तृकाप्रोषितभर्तृकयोर्भर्तृशब्दप्रयोगे कि बीजमिति चेत्। उच्यते। सर्वत्रैवालंकारशास्त्रे प्राचीनेऽर्वाचीने वा पत्युपपत्योरेव भर्तृशब्दप्रयोगो दृष्ट एव। यथा रसमञ्जर्यां इयं परकीया स्वाधीनभर्तृकेति इयं वेश्या स्वाधीनभर्तृकेत्यादिकं वहुतरमेवास्ति, युक्तिस्तु देवोपदेशेषु पूजयितव्येषु देवेभ्यो नम इतिवदिति पूर्वमुक्तैव। तथा लोके प्राकृत्योऽपि नायिका योऽयं मे गृहे वर्तते स एष मद्यौवनरूपलावण्यवैदग्ध्यभोगानभिज्ञो नाम्नैव भर्ता त्वया त्वानेष्यमाणो मे सत्य एव भर्ता पतिः स्वामीत्यादिकं दूतीं प्रति वदन्ति, तथोपनायकस्य परोक्षं तस्मिन्नार्यपुत्रादिप्रयोगमपि कुर्वन्तीति दिक्॥८७॥८८॥ श्रीराधा ललितामाह—विलासीति। तत्र विलासस्य सदा प्राप्तत्वेकथमत्रागमिष्यतीति भावः।
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हन्त यस्य शब्दप्रयोगेणाप्यश्लीलतापद्यते तदर्थप्रयोगस्य सुतरामेव विरसतापादकत्वं स्यात्। न च वक्तव्यं दाम्पत्योऽप्यभिसारो न संभवति गृह एव मिथो नित्यप्राप्तेः बहुप्रबलसपत्नीसंकटत्वेदक्षिणस्य नायकस्य बहुलगुर्वादिजनसंकटत्वेन लज्जालोःकस्याश्चिदनुरागिण्या एकान्ते समाह्वानं तां तां प्रति गमनं तु संभव–
दुराशेयं वैरिण्यहह मदभीष्टोद्यमविधौ
विधत्ते प्रत्यूहं किमिह भविता हन्त शरणम्॥८९॥
** अथ स्वाधीनभर्तृका—**
स्वायत्तासन्नदयिता भवेत्स्वाधीनभर्तृका।
सलिलारण्यविक्रीडाकुसुमावचयादिकृत्॥९०॥
** यथा—**
मुदा कुर्वन्पत्राङ्कुरमनुपमं पीतकुचयोः
श्रुतिद्वन्द्वे गन्धाहृतमधुपमिन्दीवरयुगम्।
सखेलं धम्मिल्लोपरि च कमलं कोमलमसौ
निराबाधां राधां रमयति चिरं केशिदमनः॥९१॥
** यथा वा श्रीगीतगोविन्दे—**
रचय कुचयोः पत्रं चित्रं कुरुष्व कपोलयो–
र्घटय जघने काञ्चीमञ्च स्रजा कबरीभरम्।
कुवलयदलश्रेणीं पाणौ पदे कुरु नूपुरा–
विति निगदितः प्रीतः पीताम्बरोऽपि तथाकरोत्॥९२॥
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अतोऽभीष्टं मे मरणम्। प्रत्यूहं विघ्नम्॥८९॥ स्वायत्तः स्वाधीनः, आसन्नो निकटवर्ती दयितो यस्याः सा॥९०॥ पौर्णमासीं प्रति वृन्दाह—**मुदेति।**नायिकाधीनत्वं न शब्दोपात्तमित्यत आह—यथा वेति॥९१॥९२॥
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तीति। न च वक्तव्यं स्वगृहात् समाह्वानं सर्वेणैव ज्ञास्यत इत्यलं तत्प्रक्रिययेति परगृहात्तदाधिक्यापत्ते, यया चातुर्या तत्र गोपनस्यात्तैर्यवात्र संभवाच्च। तस्माद्व्रजयुवराजस्य समृद्धिमदाख्यसंभोगलीलायामभिसारलीला (?) संभवत्येव। यथा ललितमाधवे चन्द्रावलीत शङ्कया श्रीराधाया श्रीकृष्णपार्श्वाय गुप्त्यामुहुर्गमनं तस्माद्भर्तृत्वेचौपपत्याभासे चास्त्येव तादृशलीलेति नान्यथा मन्तव्यम्॥८७॥८८॥८९॥९०॥ केशिदमन इति। पूर्ववत्॥९१॥ उत्तमादित्रयो
चेदियं प्रेयसा हातुं क्षणमप्यतिदुःशका।
परमप्रेमवश्यत्वान्माधवीति तदोच्यते॥९३॥
हृष्टाः स्वाधीनपतिकावाससज्जाभिसारिकाः।
मण्डिताश्चपराः पञ्च खिन्ना मण्डनवर्जिताः॥९४॥
वामगण्डाश्रितकराश्चिन्तासंतप्तमानसाः।
उत्तमा मध्यमा चात्र कनिष्ठा चेति तास्त्रिधा॥९५॥
व्रजेन्द्रनन्दने प्रेमतारतम्येन कीर्तिताः।
भावः स्यादुत्तमादीनां यस्या यावान्प्रिये हरौ॥९६॥
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उक्तानां सर्वासां पुनर्भेदत्रयमाह—उत्तमेति। प्रेमतारतम्येनेतिप्रेमशब्देनात्रप्रेमपरिणामः, स्नेहादयो महाभावपर्यन्ता अप्युच्यन्ते। ननु ज्येष्ठाकनिष्ठेपूर्वं न नायिकामध्ये गणिते, इदानीमुत्तमामध्यमाकनिष्ठागण्यन्ते। व्रजेन्द्रनन्दने प्रेमतारतम्येनेत्यासां लक्षणम्। तत्रापि नायकप्रणयं प्रतीत्युक्तमतो लक्षणस्यैकार्थ्यात्तयोरगणने, एतासां गणने च किं बीजमिति चेत् उच्यते। इयमितः सकाशात् प्रेम्णा ज्येष्ठा, इयमितः सकाशात् प्रेम्णा कनिष्ठेति परस्परापेक्षा चेत् विवक्ष्यते तदा सर्वासामेवापेक्षिकं ज्येष्ठत्वं कनिष्ठत्वं चेति न गणनसंभवः। अत एव तत्रोदाहरणफलदर्शनेन ज्येष्ठत्वकनिष्ठत्वज्ञापनार्थं द्वे द्वे एव नायिके उपन्यस्ते। अत्र तु प्रेम्ण इयमुत्तमत्वजातिमतीयं मध्यमत्वजातिमतीत्येवं विवक्ष्यते। न त्वियमितः सकाशादुत्तमेति मध्यमायां तथा विवक्षानुपपत्तेर्नहीयमितः सकाशान्मध्यमेति केनचित् प्रयुज्यते। नन्वियमाभ्यामापेक्षिकोत्तमाकनिष्ठाभ्यां सकाशान्मध्यमेति शक्यत एव वक्तुम्।मैवम्। तदपि मध्यमाया उत्तमातः कनिष्टत्वं कनिष्ठाया उत्तमत्वमवश्यमेव वक्तव्यम्। तथा सति मध्यमाया वैयर्थ्यमेवातोऽत्र मध्यमापदप्रयोगादापेक्षिकत्वविवक्षा निरस्तेत्येता युज्यन्त एव नायिकाभेदगणना इति सर्वमवदातम्।**यावानिति।**भावस्य प्रमाणमुक्तम्। जातिमपि क्रोडीकुर्यादेव ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ इति। श्रीमुखवाक्यप्रसिद्धे॥९३॥ ९४॥९५॥९६॥
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*
भेदा वस्तुविचारेण गणत्रयात्मकत्वात्। पूर्वोक्तं ज्येष्ठादिभेदद्वयं तु पारम्परिकापेक्षया तेषु सर्वेष्वपि संभवतीति व्यवहारमात्रात्मकत्वादिति ज्ञेयम्॥९२॥
तस्यापि तस्यां तावान्स्यादिति सर्वत्र युज्यते।
तत्रोत्तमा यथा—
कर्तु शर्म क्षणिकमपि मे साध्यमुज्झत्यशेषं
चित्तोत्सङ्गे न भजति मया दत्तखेदाप्यसूयाम्।
श्रुत्वा चान्तर्विदलति मृषाप्यार्तिवार्तालवं मे
राधा मूर्धन्यखिलसुदृशां राजते सद्गुणेन॥९७॥
मध्यमा यथा—
दुर्मानमेव मनसा बहु मानयन्ती
किं ज्ञातकृष्णहृदयार्तिरपि प्रयासि।
रङ्गे तरङ्गदखिलाङ्गि वराङ्गनानां
नासौ प्रिये सखि भवत्यनुरागमुद्रा॥९८॥
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श्रीकृष्णः सुबलं प्रत्याह—कर्तुमिति। मे मम एकक्षणपर्यन्तमप्यात्मनोऽशेषं व्यावहारिकं लाभप्रतिष्ठादैहिकसुखशयनभोजनादिप्राणधारणपर्यन्तं पारमार्थिकं देवब्राह्मणसेवादिकं साध्यं त्यजतीत्ययं रागः। यदुक्तम्—‘स्नेहः स रागो यत्र स्यात् सुखं दुःखमपि स्फुटम्। तत्संबन्धलवेऽप्यत्र प्रीतिः प्राणव्ययैरपि॥’ इति। मया दत्तखेदा प्रीतिः प्रेमा। यदुक्तम्—‘सर्वथा ध्वंसरहितं सत्यपि ध्वंसकारणे। यद्भाववन्धनं यूनोः स प्रेमेति निगद्यते॥’ अन्तर्विदलति विदीर्यतीति भावः। यदुक्तम्—‘तमोवाधिकृत्य तत्सौख्येऽप्यार्तिवार्तया खिन्नत्वम्’ इति क्रमेणात्र पद्ये रागप्रेममहाभावानामशेषमिति मयेति मृषेति पदैर्जात्याधिक्यमपि, त्रयेण प्रमाणाधिक्यं च विवेचनीयम्॥९७॥ रङ्गानाम्न्यायूथेश्वर्याः सखी काचित्तामाह हे रङ्गे, तरङ्गन्ति रोषात्तरङ्गमाणान्यखिलान्यङ्गानि यस्याः। हे तथाभूते, इति श्रीकृष्णस्य कष्टाशज्ञानेऽप्यस्याश्चित्तद्रवाभाव एव प्रेम्णो मध्यमत्वं व्यनक्तीति भावः। वस्तुतस्त्वस्याश्चित्ते एवं विचारः। अहं त्वस्य कष्टश्रवणकाल एव गानं संपूर्णमत्यजमेव, किंतु द्वित्रिक्षणानन्तरमेव स्वप्रसादं
*
*
९३॥९४॥९५॥९६॥९७॥ हे रङ्गे रङ्गानाम्नि॥९८॥ उच्चकैरित्यत्रा–
कनिष्ठा यथा—
दनुजभिदभिसारप्रस्तुतौ वृष्टिमुग्रां
जनगमनविरामादुच्चकैः स्तौषि तुष्टा।
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व्यक्तीकरिष्यामि तावदयं मद्विच्छेददुःखमनुभवतु यथा पुनर्नैवं करोतीत्यतोऽस्या न समर्थायां रतौ व्यभिचारः शङ्कनीयः। किं तु स्नेहस्य जातिप्रमाणाभ्यामत्याधिक्ये सत्येष विचार एव मनसि नोद्भवतीत्यतोऽस्या न मध्यमत्वमेव॥९८॥ कांचिदभिसर्तुमिच्छन्तीं त्वरयन्ती वृन्दा प्राह—**दनुजेति।**जृम्भिते इत्यादिभिस्त्वस्या रागव्यभिचारव्यञ्जक उपालम्भो वाम्यविधातार्थ इति ज्ञेयम्। वस्तुतस्त्वस्या मनस्येवं विचारः—प्रत्यासन्नोऽयं वर्षुको मेघडिम्भः क्षणमात्रमेव स्थास्यत्यतोऽनेन दिव्यवस्त्रभूषाद्याद्रीकरणेन मत्कान्तसंभोगप्रतिकूलेनालमिति। अत्रायं विवेकः। प्रेमस्नेहरागादिषु विचारो हि तेषामगाढत्वमेव व्यनक्ति।रागाधिक्ये तु ‘तीव्रार्कद्युतिदीपितैरसिलताधाराकराश्रिभिर्मार्तण्डोपलमण्डलैः स्थपुटितेऽप्यद्रेस्तटे तस्थुषी। पश्यन्ती पशुपेन्द्रनन्दनमसाविन्दीवरैरास्तृते तल्पेन्यस्तपदाम्बुजेव मुदिता न स्पन्दते राधिका॥’ इत्यत्र प्रियदर्शनगमनकाले शिलामण्डलं तप्तमतप्तं वा मत्प्रियभोग्योऽयं सुकुमारो देहः सव्रणो वा भवेदिति नैवास्ति कोऽपि विचारः। कि तु योगमाययैव शक्त्यासदा जागरूकया तत्तत्सर्वसमाधानत एव वृष्टिमुग्रां जनगमनविरामादन्यदा स्तौषीत्येतदपि सविचारत्वाद्रागस्य न्यूनजातीयत्वं व्यनक्ति। यथा—अहो मद्भाग्यादभिसारकाले वृष्टिरियमायाता अतो गृहात्कोऽपि न निःसरिष्यति स्वच्छन्दं प्रियमभिसरिष्यामीत्येतावानेव मध्यमाया विचारो नाधिकः। कनिष्ठायास्तु स्वदेहपरिच्छदाद्यपेक्षापर्यन्तो व्याख्यात एव। तदेवं वृष्टिमुग्राम–
*
*
न्यदेति पाठान्तरम्। अथोत्तमादित्रयस्योदाहरणत्रयमिदं विप्रतिपद्यते। तत्रोत्तमोदाहरणे यथा।ननु कर्तुं शर्मेत्यन्येषां रतिमात्रेऽपि संभवति। यथोक्षं पूर्वग्रन्थे रतिलक्षणे—‘क्षोभहेतावपि प्राप्ते क्षान्तिरक्षुभितात्मता’। यथा प्रथमे। ‘तं मोपयातं प्रति य (या)न्तु विप्रा’ इत्यादि। तथा चित्तोत्सङ्ग इत्यादिकं प्रेममात्रेऽपि घटते। ह्रासशङ्काच्युतेत्यादिना प्रेमलक्षणमुक्त्वातदुदाहृतम्—‘अणिमादिसौख्यवीचिमवीचिं दुःखप्रवाहं वा नय मां विकृतिर्नाहं मे त्वत्पादकमलावलम्बनस्य,
कथय कथमिदानीं जृम्भिते मेघडिम्भे
कुतुकिनि वत कुञ्जप्रस्थितौ मन्थरासि॥९९॥
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न्यदा स्तौषीति कनिष्ठांप्रत्युक्तिः कटाक्ष एव। स च त्वमात्मनि मध्यमाया लक्षणं यदा नयसि तद्वाचैव क्रियया तु त्वयि कनिष्ठात्वमुपलभ्यत इत्याकारः। ततश्च रत्यादीनां महाभावपर्यन्तानां स्थायिनां जातिप्रमाणाधिक्ये दृष्ट उत्तमा, तदभावे मध्यमा, जातिप्रमाणयोरल्पत्वेकनिष्ठेति व्यवस्थेयम्। तत्र तत्तदुदयकालेऽन्यानुसंधानमात्राभावे जातिप्रमाणाधिक्यमीषदन्यानुसंधाने तदनुभावः, अधिकानुसंधाने तदल्पत्वमिति। ननु ‘दुहन्त्योऽभिययु काश्चिद्दोहं हित्वा समुत्सुकाः’इत्यादौ रासाभिसारे सर्वा एवान्यानुसंधानाभाववत्यो दृष्टास्तत्किं मध्यमाकनिष्ठयोर्ब्रजे भेदेन। सत्यमुच्यते। छत्रिणो गच्छन्तीति न्यायेन तत्र तत्रोत्तमा एवोपन्यस्ताः किंतु मध्यमाकनिष्ठयोरपि तत्र सद्भावोऽवगन्तव्य एव ‘पतिसुतान्वयभ्रातृवान्धवानतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युता गताः’ इति कासांचिदुक्तेःपत्याद्युल्लङ्घनानुसंधान अभिसारकालगतमेव मन्तव्यं सुखमहमस्वाप्समितिवत्। ‘लज्जया स्वाङ्गलीनेव निःशब्दपदमण्डना’ इत्यभिसारिकालक्षणे गुरुजनादिभयरूपमन्यानुसधानं प्रसक्तमेव। ननु तर्हि कथमेतल्लक्षणमुत्तमां लक्ष्यीकरिष्यति। सत्यम्। यत्राभिसारसमये रागनामास्थायी संपूर्णतयोदेति तत्संचारी संभ्रमश्च तदैवान्यानुसंधानभाव उत्तमात्वलक्षकः संभवति। यदुक्तं विदग्धमाधवे—‘कंसारेरभिसारसंभ्रमभरान्मन्ये जगद्विस्मृतम्’ इति। यदा तु रागो नोदेति तदा ‘जानीहि भ्रमराक्षि कुत्र गुरवः पश्य प्रदोषोद्गमे कुञ्जाभिक्रमणाय मा त्वरयति स्फारान्धकारावली’ इत्युत्तमायाः श्यामाया अप्यन्यानुसंधानरूपं मध्यमालक्षणमुद्भवति। ततश्चैवमत्र व्यवस्था—यस्या बहुत्रोत्तमालक्षणं
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‘इति श्रुत्वा चान्तरिति स्नेहमात्रेऽपियुज्यते। सान्द्रश्चित्तद्रवं कुर्वन् प्रेमा स्नेह इतीर्यते। क्षणिकस्यापि नेह स्याद्विश्लेषस्य सहिष्णुता॥’ यथा—‘दन्तेन वाष्पाम्वुझरेण’ इत्यादिना।तदेवं स्वभावत एवात्रेदृशो विकारश्चेदार्तिवार्ताश्रवणे तु कैमुत्यमेवापद्यते। तथा मध्यमोदाहरणे दुर्माणमेवेत्यादि दर्शितम्। मानचरित्रं श्रीराधायामपि दृश्यते। यथा विदग्धमाधवे तद्वाक्यम्—‘कर्णान्ते न कृता प्रियोक्तिरचना क्षिप्तं मया दूरतो मल्लीदाम निकामपथ्यवचसे सख्यै रुपः
पूर्वं याः पञ्चदशधा प्रोक्तास्तासां शतं तथा॥१००॥
विंशतिश्चाभिरत्र स्यादवस्थाभिः किलाष्टभिः।
पुनश्च त्रिविधैरेभिः प्रभेदैरुत्तमादिभिः॥१०१॥
त्रिशती स्पष्टमुक्तात्र षष्ठ्यायुक्ता मनीषिभिः।
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दृष्टं कदापि मध्यमाकनिष्ठयोरपि लक्षणं दृश्यते सोत्तमैव मन्तव्या राजनि सेनानीत्वादिवत्। यस्यामुत्तमालक्षणं कदापि न दृष्टमथ च मध्यमाकनिष्ठयोर्लक्षणं दृश्यते सा मध्यमैव। एवमुत्तमामध्यमालक्षणाभावे कनिष्ठैव। एवं च पूर्वरागप्रसङ्गे ‘सा कल्याणी कुलयुवतिभिः शीलिता धर्मशैली द्रागस्माभिः कथमविनयोत्फुल्लमुल्लङ्घनीया’ इति श्रीवृन्दावनेश्वर्यामप्यन्यानुसंधानगाढत्वं न कनिष्ठात्वं लक्षयतीत्यवधेयम्॥९९॥ पूर्वं या इति। नन्वत्र धीराधीराधीराधीराणां कथमभिसाराव्द्यवस्थासप्तकम्। केवलमेकं खण्डितात्वमेव संभवति तासाम्। खण्डिताया एव मानसंभवात् मानमवलम्ब्यैव धीरत्वादीनां लक्षितत्वात्। उच्यते। धीरात्वादिकं नायिकानामौत्पत्तिकः सार्वकालिक एव स्वभावो मानकाले तत्कार्यं सोत्प्रासवक्रोक्त्यादिकं सुरसनीयमिति तदानीमेव तल्लक्षणं कृतम्। अतो रसमञ्जर्यादौ मुग्धाभिसारिका, मध्याभिसारिका, प्रगल्भाभिसारिकेत्याद्युक्तरीत्या धीराभिसारिकेत्याद्यपि ज्ञेयम्। यथा धृत्या दुर्लक्ष्याभिसारा धीरा–
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कल्पिता। क्षोणीलग्नशिखण्डशेखरमसौ नाभ्यर्थयन्नीक्षितःस्वान्तं हन्त ममाद्य तेन खदिराङ्गारेण दन्दह्यते॥’ इति। न त्वत्र मानस्य मनसा बहुमाननं किं तु बहिश्चेष्टयैव। यत स्वान्तमित्यनेन स्वान्तस्य भावोऽन्यथैव प्रतिपादितः। यद्येवं तर्हि परमप्रेमवतीनां सर्वासामेव व्रजदेवीनां तदित्थमेव संभवति न तु मानस्य मनसा बहुमाननेन। तथा दुर्मानमित्यादि सखीनां शिक्षाचरणमिदं प्रणयरोषमयमिति किंचिदधिकमप्यारोपयत् प्रवृत्तम्। ततोऽस्या न तादृशत्वं मन्तव्यम्। तथा कनिष्ठोदाहरणे दनुजभिदित्यादिरीति श्रीव्रजदेव्यां कस्यांचिदपि न युज्यते। रागमात्रोदाहरणे भक्तान्तरेष्वपि तदसंप्रतिपत्ते। यथोक्तम्—‘स्नेहः सरागो यत्र स्यात् सुखं दुःखमपि स्फुटम्। तत्संबन्धलवेऽप्यत्र प्रीतिः प्राणव्ययैरपि॥’ यथा—‘गुरुरपि भुजगाद्भीस्तक्षकात्प्राज्यराज्यच्युतिरतिशयि(य)नी च प्रायचर्या
किं च—
यथा स्युर्नायकावस्था निखिला एव माधवे।
तथैव नायिकावस्था राधायां प्रायशो मताः॥१०२॥
इति नायिकाभेदाः।
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एतासां यूथमुख्यानां विशेषो वर्णितोऽप्यसौ।
सुहृदादौ व्यवहृतिव्यक्तये वर्ण्यते पुनः॥१॥
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भिसारिका, अधृत्या खाभिसारं स्पष्टयन्ती अधीरा, धृत्यधृतिभ्यां ईषल्लक्ष्याभिसारा धीराधीरेत्येवं सर्वत्रैवं विवेचनीयम्। प्रायश इति। यथा अनुकूलशठत्वाद्या अवस्थाः सर्वा एव सर्वथैव माधवे संभवन्ति तथा धीरप्रगल्भादयो राधायां सर्वदा सर्वथा न किंतु किंचिदेव केनाप्यंशेनैवेत्यर्थः॥९९॥१००॥१०१॥१०२॥
इति नायिकाभेदविवृतिः॥
सुहृदादौ सुहृत्तटस्थविपक्षस्वपक्षेषु। सौभाग्यं नायकप्रेमविषयीभूतत्वम्, आदिग्रहणं रूपगुणादि॥दुर्लङ्घ्यमन्याभिः खण्डयितुमशक्यं भाषितं यस्याः सा।अत्र वाक्यपदोपादानात्तव्द्याख्यायां च भाषितशब्दप्रयोगादत्र लक्षणे आकृ–
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च गुर्वी। अतनुत मुदमुच्चै कृष्णलीलासुधान्तर्विहरणसचिवत्वादौत्तरेयस्य राज्ञः॥’ इति। तस्मादधिरुढे महाभावपर्यन्तगतानां तासां तत्तदुदाहरणं नोचितमिति। उच्यते। आरब्धजिज्ञासानामापातवोधार्थमेव तत्तदुदाहरणं विशेषजिज्ञासानां स्थायिप्रकरण एव तत्तत्तारतम्यं सुष्ठुव्यक्तीकर्तव्यमिति। तत्रोत्तमोदाहरणं प्रेमैकांशमवलम्ब्य कृतं, मध्यमोदाहरणं सख्युपालम्भांशमवलम्ब्य, कनिष्ठोदाहरणं तद्वाम्यव्यञ्जितांशमवलम्व्येति ज्ञेयम्। पूर्वं याः पञ्चदशधेत्यादिकं न विस्तरभिया विव्रियतेत्र। प्रायश इति सरसतानुसारेणैव न चान्यथेत्यर्थः॥१००॥१०१॥१०२॥
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इति नायिकाभेदविवृतिः॥*
सौभाग्यं नायकप्रेम्णा लब्धादरत्वम्। आदिग्रहणाद्गुणरूपादि तदाधिक्यात्। वाक्यस्य दुर्लङ्घ्यत्वं चेष्टादीनामुपलक्षणम्। दुर्लङ्घ्यमन्याभिरपरिहरणीयं भावितं
सौभाग्यादेरिहाधिक्यादधिका साम्यतः समा।
लघुत्वाल्लघुरित्युक्तास्त्रिधा गोकुलसुभ्रुवः॥२॥
प्रत्येकं प्रखरा मध्या मृद्वीचेति पुनस्त्रिधा।
प्रगल्भवाक्याप्रखरा ख्याता दुर्लङ्घ्यभाषिता॥३॥
तदूनत्वे भवेन्मृद्वीमध्या तत्साम्यमागता।
तत्राधिकात्रिकम्—
आत्यन्तिकी तथैवापेक्षिकी चेत्यधिका द्विधा॥४॥
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तिचेष्टादेः प्रागल्भ्यं नोपलक्षणीयम्। अतः पूर्वलक्षिताभ्यः प्रगल्भामध्यामुग्धाभ्य एताः प्रायेण भिद्यन्ते। तदूनत्वेप्राखर्यस्याल्पत्वेमृद्वी न तु तस्या भाव एवेति व्याख्येयम्। नपदस्य तदर्थत्वेऽनभिधानात्। ‘प्राखर्यं मार्दवं चापि यद्यप्यापेक्षिकं भवेत्’ इत्यग्रेतनवाक्यान्मृव्द्याकिंचित् प्राखर्यस्य प्राप्तेश्च तत्साम्यं प्राखर्यस्य तुल्यत्वमीपदल्पत्वंआगता प्राप्ता मध्योच्यते। चन्द्रसमं मुखमित्युक्ते चन्द्रादीषदल्पं मुखमिति प्रतीयते। ‘ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयरः’ इति सूत्रे व्याख्यानात्। त्रिकमिति ‘संख्यायाः संज्ञासङ्घ’ इत्यादिना सद्घेकन्॥१॥२॥३॥ आत्यन्तिकीत्यत्राधिकेतिपदस्य धर्मिवाचकत्वादात्यन्तिक्यापेक्षिकीत्येतयोस्तद्विशेषणत्व आधिक्यस्यात्यन्तिकत्वमापेक्षिकत्वंन लभत इत्यभवन्मतयोगः स्यात्। मैवम्। इयमधिकात्यन्तमन्तसीमातिक्रमं तथापेक्षां गच्छन्ती–
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यस्याः सेति। केवलप्रगल्भवाक्यत्वे वैरूप्यमेव स्यान्न तु रसोपयोगित्वमिति भावः। तदूनत्व इत्यत्रोनत्वं रिक्तत्वं विंशत्यादिना रिक्ता ह्यूनविंशत्यादय उच्यन्ते। ततश्च सत्स्वपि गुणान्तरेषु तेन प्राखर्येणैव रिक्तत्वे मृद्वीभवेदित्यर्थः। मध्येति। साम्यमत्रैकत्वम्। ‘रषाभ्यां नो णः समानपदे’ इत्यत्र समानत्ववत्। ततश्च तत्साम्यं तयोः प्राखर्यमार्दवयोः साम्यं समयोः शीतोष्णयोरिति मिलितयोः परस्परोपमर्दैन परस्परसात्संपत्या द्वयोरेकत्वप्राप्तत्वान्मन्दप्राखर्यमित्यर्थः। तदागता प्राप्ता मध्या भवेत्। मध्यावस्थत्वात् मध्या भण्यत इत्यर्थः॥१॥२॥३॥ आत्यन्तिकाधिकेति। आत्यन्तिकश्चासावधिकश्चेति कर्मधारये कृते पश्चात् स्त्रीत्वेविव–
तत्रात्यन्तिक्यधिका—
सर्वथैवासमोर्ध्वा या साम्यादात्यन्तिकाधिका।
सा राधा सा तु मध्यैव यन्नान्या सदृशी व्रजे॥५॥
यथा—
तावद्भद्रा वदति चटुलं फुल्लतामेति पाली
शालीनत्वं त्यजति विमला श्यामलाहंकरोति।
स्वैरंचन्द्रावलिरपि चलत्युन्नमय्योत्तमाङ्गं
यावत्कर्णे न हि निविशते हन्त राधेति मन्त्रः॥६॥
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मुक्ते केनाप्यंशेनेत्यपेक्षायां प्रत्यासत्तिन्यायेनाधिक्येनेति लब्धे सति न किंचिदसामञ्जस्यम्। ‘गच्छतौ परदारादिभ्यः’ इति ठक्।सा तु मध्यैवेति। मुग्धादिभेदे प्रखरादिभेदे च सा मध्यैवेत्यर्थः। राधैवात्यन्ताधिकेत्यत्र हेतुर्यस्माद्व्रजे सान्या सदृश्यन्यस्याः सदृशी न भवति किंतु स्वसदृश्येवेत्यर्थः। यद्वास्याः सदृशी ईषदल्पापि नान्या कापीति सर्वा एवात्यन्तन्यूना इत्यर्थः॥४॥५॥ कदाचित् समाजमिलितासु गोपीष्वारभ्यमाणपारम्परिकसंवादासु व्याजस्तुत्यादिभिः प्रति स्वयूथसौभाग्यमभिव्यञ्जयन्तीषु ‘भो व्रजदेव्यः परमार्थं तु शृणुत’ इति श्यामला प्राह—तावदिति। शालीनत्वमधृष्टत्वं त्यजति किं तु धार्ष्ट्यंप्रागल्भ्यमेव करोतीत्यर्थः। उत्तमाङ्गंशिरः। अत्र श्यामलाहंकरोतीति स्वनामोल्लेखतः स्वस्याप्यपकर्षकथनेन तासु सर्वासु स्वस्य सत्यवादित्वं व्यञ्जितम्। तत्राप्यहं करोमीति मम राधासुहृत्त्वेऽपि पृथग्यूथेश्वरीत्वादन्याभ्यश्चोत्कर्षाद्गूढोऽहंकारः स्थातुमुचित एव स चापि न तिष्ठतीति प्रत्यायितं च। राधेति मन्त्र इति। राधेतिशब्दस्य
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क्षिते च टाप्प्रत्ययात् कोपघत्वेऽपि पूर्वपदस्य पुंस्त्वं सिद्ध्यति। एवमुत्तरेष्वपि सा राधेत्यत्रसा तु मध्यैवेत्यत्र च हेतुर्यदिति तत्र पूर्वत्र पुराणादिकं तु प्रमाणितमेव, उत्तरत्र च तदेव प्रमाणम्। मध्यात्वस्यैव रसातिशयाधायकत्वात्तस्यास्तत्रोक्तमसाधारणत्वमुपपद्यत इति॥४॥५॥ तत्रोभयत्राप्युदाहरणम्—तावद्भद्रेति। अत्र राधेतिनाम्नः प्रभावो दर्शितः। साक्षादौद्धत्यंतु न दर्शितमिति
अथापेक्षिकाधिका—
मध्ये यूथाधिनाथानामपेक्ष्यैकतमामिह।
या स्यादन्यतमा श्रेष्ठा सा प्रोक्तापेक्षिकाधिका॥७॥
** तत्राधिकप्रवरा यथा—**
पश्य क्षोणिधरादुपैति पुरतः कृष्णो भुजङ्गाग्रणी–
स्तूर्ण भीरुभिरालिभिः सममितस्त्वं याहि मन्त्रोज्झिते।
आचार्याहमटामि भोगिरमणीवृन्दस्य वृन्दाटवीं
किं नः कामिनि कार्मणेन वशतां नीतः करिष्यत्यसौ॥८॥
अथाधिकमध्या—
आलीभिर्मे त्वमसि विदिता पूर्णिमायाः प्रदोषे
रोषेणासौ प्रथयसि कथं पाटवेनावहित्थाम्।
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श्रूयमाणत्व एवान्यजनपराभावकत्वलिङ्गदर्शनेन मन्ये मन्त्रत्वमस्तीत्युत्प्रेक्षा। अथ वा नाम न भवतीदं कितु मन्त्र एवेयपह्नुतिः। एतत्पद्यस्य सखीजनवक्तृकत्वे वन्दादिवक्तृकत्वे वा श्यामलाहंकरोतीत्यनुपपत्तेः श्यामलावक्तृकत्वमेव सुरसम्॥६॥७॥ अत्र प्रकारेण दूष्येश्वरीणामेव परम्परोक्ति, तासां च काचित् काचिदाहेति सर्वत्रावतारिका ज्ञेया।पश्येति। भुजङ्गः सर्पः, कामुकश्चेति। त्वमितो याह्यन्यथा त्वामसौ। हे मन्त्रोज्झिते, त्वं मन्त्रं मन्त्रणां च न जानासीत्यर्थः। भोगी सर्पः कृष्णश्च। आचार्या सर्पमोहनशास्त्रविदुषीआहितुण्डिक्यस्मि, गोपीना रसवैदग्ध्यादेरध्यापिका चास्मि। कार्मणेन वशीकरौपधेनं, कर्मसमूहेन दैहिकवाचिकचेष्टावृन्देन च वशतां नीत इति। सौभाग्याधिक्यं प्राखर्य च स्पष्टमित्यधिकप्रखरेयं दुर्हत्॥८॥ आलीभिरित्यत्र वक्तव्या या गोपी सैवोदाहरणम्। ते तव वर्त्मप्रेक्षी कुञ्जराजो जागरमभ्यस्यत्वित्यनेन तस्या
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मध्यात्वंच। शालीनत्वमधृष्टत्वम्॥६॥ आपेक्षिकाधिकादिषुयस्या वाक्यं सैव ज्ञेया॥७॥ कार्मणेन तत्पराभावकमूलकर्मणा।मूलमौषधं तेन॥८॥ आलीभिरिति। पूर्वं खल्वागच्छन्तमपि कृष्णं दृष्ट्वा सकोचमविधायान्यां परावर्तयितुं
धृत्वा धूर्ते सहपरिजनां मद्गृहे त्वां निरन्ध्यां
वर्त्मप्रेक्षी गुणयतु स ते जागरं कुञ्जराजः॥९॥
अथाधिकमृद्धी—
न्यञ्चन्मूर्ध्ना सह परिजनैर्दूरतो मा प्रयासी-
र्मामालोक्य प्रियसखि यतः प्रेमपात्री ममासि।
माला मौलौ तव परिचिता मत्कलाकौशलाढ्या
द्यूते जित्वा दनुजदमनं या त्वया स्वीकृतास्ति॥१०॥
अथ समात्रिकम्—
साम्यं भवेदधिकयोस्तथा लघुयुगस्य च।
तत्र समप्रखरा—
न भवति तव पार्श्वे चेत्सखी कापि ना भू–
त्परिहर हृदि कम्पं किं हरिस्ते विधाता।
अहमतिचतुराभिर्वेष्टितालीघटाभिः
प्रियसखि पुरतस्ते दुस्तरा बाहुदास्मि॥११॥
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एव सौभाग्याधिक्यम्। अवहित्थां प्रथयसीत्यनेन संकोचप्राप्त्या प्राखर्याभावः। पाटवेत्यनेन मृदुत्वस्याप्यभावोऽतो मध्यात्वंच।वक्र्यास्तु त्वां निरुन्ध्यामित्यनेन प्राखर्यम्, तथा सौभाग्याधिक्यव्यञ्जकपदाभावाल्लघुप्रखरेयं दुर्हृत्। न्यञ्चदित्यत्रापि या वक्तव्या सैवोदाहरणम्। न्यश्चदित्यनेन मृदुत्वान्माला। मौलावित्यादिना सौभाग्याधिक्याच्च।वक्री तु लघुमध्यैवेयं सुहृत्॥९॥१०॥ **न भवतीति।**केयं ममोद्यानस्य पुष्पाणि त्रोटयतीति दूराद्धावन्नपि हरिस्ते किं विधाता किं करिष्यति यतोऽहमित्यादि। श्लेषेण वाहुदा नदीविशेषः।अत्रागच्छतो हरेर्द्वयोरेव साक्षाल्लक्ष्यत्वाद्द्वयोरेवाधिक्येन साम्यम्। अहमित्यादिना वक्त्राःप्राखर्यादि–
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प्रौढमुक्तवती, एषा तु कृष्णाद्दूरत एवान्यां परिहसितवतीति मध्या। परिहासश्च गृहे नीत्वातस्या बन्धनं न संभवतीति व्यक्त एव॥९॥ श्लेषे बाहुदा नदी–
अथ सममध्या—
लोले न स्पृश मां तवालिकतटे धातुर्यदालक्ष्यते
त्वं स्पृश्यासि कथं भुजङ्गरमणी दूरादतस्त्यज्यते।
धिग्वामं वदसि त्वमेव कुहकप्रेष्ठासि भोगाङ्किते
येनाद्य च्युतकञ्चुकाः शुषिरतः सख्योऽपि सर्पन्ति ते॥१२॥
अथ सममृद्वी—
प्रत्याख्यातु सुहृज्जनः कथमयं ताराभिधस्ते गिरं
प्राणास्त्वं हि समोच्चकैरसि शपे धर्माय लीलावति।
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यमेवोदाहरणं सुहृत्॥११॥ **लोल इति।**संभुक्ताभुक्तयोः परस्परसुहृदोरुक्तिप्रत्युक्ती। प्रथमा प्राह—तव ललाटतटे धातुगैरिकरागोऽतस्त्वं कृष्णोच्छिष्टा अपवित्रासीत्यर्थः। द्वितीया प्राह—त्वंभुजङ्गरमणी सर्पं, पक्षे भुजङ्गं कामुकं कृष्णं रमयसीति प्रसिद्धा त्वदीयरमणस्य (अ) प्रयोजिका।अहं तु तेन बलादद्यैवानिच्छन्त्येव संभुक्तातस्त्वं मत्तोऽप्यपवित्रेति भावः। पुनः प्रथमाह—**धिगिति।**कुहकस्य नागविशेषस्य, पक्षे मायाविनः कृष्णस्य प्रेष्ठासि। अत्र प्रियशब्दस्य ‘इगुपधज्ञाप्रीकिर कः’ इति कर्तृवाचककप्रत्ययान्तत्वात्तत्रापीष्ठना चातिशयरमणेच्छावतीत्यर्थः। भोगोऽहिफण संभोगश्च।शुषिरतो बिलात्, पक्षे शुपिरविशेषवंशीहेतोः। च्युतकञ्चुका त्यक्तनिर्मोकाः सर्पन्ति सर्पा इवाचरन्ति। पक्षे स्पष्टम्। अत्र प्रथमायां मा स्पृशेति तिरस्काररूपात् प्रकटहास्यात् सौभाग्यमूहनीयम्। द्वितीयायां तु संभोगचिह्नेनव्यञ्जितं सौभाग्यं स्पष्टमेव, मध्यात्वं च द्वयोरेव श्लिष्टोक्तेः॥१२॥ प्रत्याख्यात्विति। ताराभिधोमल्लक्षणो जनस्ते
*
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विशेष॥१०॥११॥ लोल इति। वाकोवाक्यम्।कुहको मायावी, पक्षे नागविशेष।शुषिरतः शुषिरविशेषवंशीहेतोः, पक्षे बिलात्। सर्पन्त्यभिसरन्ति, पक्षे सर्पायन्ते। किंत्वत्र वक्तृश्रोतृभेदेन व्ययभेदसंप्रतिपत्तेर्वक्तुः श्रोतुश्चात्र श्रीकृष्णप्रेयसीजनत्वाद्धातुरागादीनां तद्विशेषपर्यवसानमेवावगन्तव्यम्। एवमन्यत्रापि॥१२॥ प्रत्याख्यातु परिहरतु।ताराभिध इति। स्वयमेव स्वनाम
किंतु त्वामहमर्थये परमिदं कल्याणि तं बल्लवं
स्वीयं शाधि यथा स गौरि सरले कुर्याज्जने न च्छलम्॥१३॥
यथा वा—
प्रहित्य कठिने निजं परिजनं मदार्या त्वया
निकाममुपजप्यतां किमु विभीषिकाडम्बरैः।
व्रजामि रविजातटं गुरुगिरा मृषाशङ्किनि
प्रदोषसमये समं सवयसा शिवां सेवितुम्॥१४॥
अथ लघुत्रिकम्—
लघुरापेक्षिकी चात्यन्तिकी चेति द्विधोदिता॥१५॥
तत्रापेक्षिकीलघुः—
मध्ये यूथाधिनाथानामपेक्ष्यैकतमामिह।
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गिरं मानं मुञ्चेति वाचं कथं प्रत्याख्यातु। स्वीयं वल्लभं कृष्णं शाधि शिक्षादानेन बोधय। अत्र मानवत्यास्ताराया मानभङ्गार्थं कृष्णेनैव तत्सुहृदो लीलावत्याः प्रेषणात्तारायाःसौभाग्याधिक्यं तथा स्वीयं शाधीति पदाभ्यां लीलावत्याश्चतत्। ताराया मृदुत्वं स्पष्टम्, लीलावत्यास्तु शाधीति शासनयोग्यताया हेतोःप्राखर्यम्॥१३॥ ‘साम्यं भवेदविकयोस्तथा लघुयुगस्य च।’ इत्यधिकयो साम्यं श्लोकत्रयेणोक्तम्। लघुयुगलस्य साम्यं वक्तुमाह—यथा वेति। सुन्दरि, किं त्वं गुरुजनान्न विभेषि। यतः सायं स्पष्टमेव वनं गच्छसीति वदन्तीं काचिदपि मृद्वीं काचिदपि प्रखरा दुर्हृत् प्रतिवदति—प्रहित्येति। प्रहित्य प्रस्थाप्य। मदार्यां मम श्वश्रू। उपजप्यता भेद्यताम्। गुरुगिरा गुरोस्तस्या एव गिरेत्यर्थ। ततश्चाहं पृच्छामि मात्रं किमिति कुप्यसि। प्रसीदेति पुनस्तस्याः प्रतिवचनजातमिति ज्ञेयम्। अत्र द्वयोरेव सौभाग्याधिक्यद्योतकपदाभावाल्लघुत्वेसाम्यम्॥१४॥लघुरिति। अपेक्षा गच्छति। तथान्तं सीमातिक्रमं गच्छति। केनाशेनेत्य
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गृह्णाति प्रतिज्ञादार्ढ्यबोधनाय। सरले मद्विधे जने छलं न कुर्यात्॥१३॥ प्रहित्य प्रस्थाप्य। मदार्या मम श्वश्रू। उपजप्यतां भेद्यताम्। गुरुगिरा व्रजामि॥१४॥
या सादन्यतमान्यूना सा प्रोक्तापेक्षिकी लघुः॥१६॥
तत्र लघुप्रखरा—
त्वं मिथ्यागुणकीर्तनेन चटुले वृन्दाटवीतस्करे
गाढं देवि निबध्य मां किमधुना तुष्टा तटस्थायसे।
हृत्वा धैर्यधनानि हन्त रभसादाच्छिद्य ह्रीवैभवं
येनायं सखि वञ्चितोऽपि बहुधा दुःखी जनो वञ्च्यते॥१७॥
अथ लघुमध्या—
गोष्ठाधीशसुतस्य सा नवनवप्रेष्ठस्य यावद्दृशोः
पन्थानं वृषभानुजा सखि वशीकारौषधिज्ञा ययौ।
तावत्त्वय्यपि रूक्षमस्य बलवद्दाक्षिण्यमेवेक्ष्यते
का चन्द्रावलि देवि दुर्भगतया दूनात्मनां नः कथा॥१८॥
अथ लघुमृद्वी—
अपसरणमितो नः सांप्रतं सांप्रतं स्या–
द्यदपि हरिचकोरं चित्रमालोचयामः।
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पेक्षायां प्रत्यासत्त्या लाघवेनेति व्याख्येयं पूर्ववत्। अन्यथा अभवन्मतयोगो नाम दोषोदुर्वारःस्यात्॥१५॥१६॥ काचिन्मानवती खसुहृदमुपलभते—त्वमिति। अस्या धैर्यधनानीति धैर्यस्य धनत्वेन बहुत्वेन च। ह्रीवैभवमिति। ह्रियोऽप्यापेक्षिक्याधिक्येन परमधैर्यलज्जावत्त्वम्। तथाभूतयोधैर्यलज्जयोः सामस्त्येन हरणादभिव्यञ्जितेन प्रेमाधिक्येन सौभाग्याधिक्यम्। वञ्चितोऽपि वञ्च्यत इति मानिन्याः स्वाभाविकं वचनं तु न लघुत्वव्यञ्जकम्। वक्तव्यायास्तु मिथ्यागुणकीर्तनेनेति चटुले इति पदाभ्यां प्राखर्यम्। सौभाग्याधिक्यव्यञ्जकपदाभावाल्लघुत्वमिति वक्तव्यैवोदाहरणम्। अस्याःपुनः पुनर्वञ्चनात् सौभाग्यस्याल्पत्वं चटुले इत्यादिपदैः प्राखर्यमिति वक्त्र्याएवोदाहरणत्वम्॥१७॥ गोष्ठेति।
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१५॥१६॥१७॥१८॥ सौति जनयति। प्रातीति वा पाठः। प्रा पूरणे
कलयत सहचर्यः पर्यटद्गौरदीप्ति-
स्तटभुवि नवशोभां सौति चन्द्रावलीयम्॥१९॥
** अथात्यन्तिकलघुः—**
अन्या यतोऽसि न न्यूना सा स्यादात्यन्तिकी लघुः।
त्रैविध्यसंभवेऽप्यस्यामृदुतैवोचिता भवेत्॥२०॥
यथा—
निजनिखिलसखीनामाग्रहेणाद्य वैरी
कथमपि स मयाद्य व्यक्तमामन्त्रितोऽस्ति।
क्षणमुरुकरुणाभिः संवरीतुं त्रपां मे
मदुदवसितलक्ष्मीं गोष्ठदेव्यस्तनुध्वम्॥२१॥
न समा न लघुश्चाद्या भवेन्नैवाधिकान्तिमा।
अन्यास्त्रिधाधिकाश्चस्युः समाश्चलघवश्च ताः॥२२॥
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श्लोकत्रयं स्पष्टम्॥१८॥ सौति जनयति। प्रातीति पाठे प्रा पूरणे॥१९॥२०॥ निजेति। स अधवैरी आमन्त्रितोऽद्य मज्जन्मतिथौ मत्पितृभ्यां कृतमहोत्सवाहूतभोजितोऽपि सायं मदीयकुञ्जेआगत्य किंचित् भुङ्क्ष्वेति निवेदितः। किंतु तस्य युष्मदधीनत्वात् युष्मत्साहाय्यं विना स मे मनोरथो न स्यादित्याह—क्षणमिति। उदवसितलक्ष्मीं गृहशोभाम्। ‘गृहं गेहोदवसितम्’ इत्यमरः। यूयमप्यागत्य किंचिदुक्त्वा मां कृतार्थीकुरुतेति भावः। अत्र सखीनामाग्रहेणेति स्वस्यायोग्यताव्यञ्जनया तथा सखीजनप्रेक्षणं विना सर्वयूथेश्वरीसंसदि स्वयमागमनेन क्षणमित्यादिभिर्विनयैश्च ताःसर्वा एव प्रसन्नास्तस्या दूत्यंतद्दिने चक्रुरिति ज्ञेयम्॥२१॥ आद्या अत्यन्ताधिका एकविधा एव। अन्तिमा आत्यन्तिकी लघुः नाधिका न कस्या अप्यधिका तेन सा लघुरेव। किंतु तत्सदृश्योऽन्या अपि वह्व्योवर्तन्त इति ताभिःसमा चेति द्विविधा। अन्या मध्यस्थिता आपेक्षिकाधिका, समा, आपेक्षिकलघुश्चेति यैव स्वलघुमपेक्ष्याधिका सैव तत्क्षण एव स्वाधिकामपेक्ष्य लघु, स्वसदृशावपेक्ष्य समेत्येवं मध्यस्थानां त्रैविध्यं स्पष्टयति—
*
*
॥१९॥ उदवसितं गृहम्॥२०॥२१॥ न समेत्युक्तमेव विशदयति—
विनात्यन्ताधिकान्तेन सर्वासु लघुता भवेत्।
सर्वास्वधिकता च स्याद्विनैवात्यन्तिकीं लघुम्॥२३॥
आद्यैकैवान्तिमा द्वेधा मध्यस्था नवधोदिताः।
इत्यसौ यूथनाथानां भिधा द्वादशधोदिता॥२४॥
इति यूथेश्वरीभेदाः।
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दूतीभेदाः।
अथाश्रितसहायानांकृष्णसंगमतृष्णया।
एतासां पूर्वरागादौ दूत्ययुक्तिर्विलिख्यते॥१॥
दूती स्वयं तथाप्ताच द्विधात्र परिकीर्तिता।
तत्र स्वयंदूती—
अत्यौत्सुक्यत्रुटद्व्रीडा या च रागातिमोहिता॥२॥
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विनेति॥२२॥२३॥२४॥
इति यूथेश्वरीभेदविवृतिः॥
यथापूर्व नायकभेदानन्तरं तस्य दूयाद्यर्थंनायकस्य सहाया उक्तास्तथैवनायिकाभेदानन्तरं तस्या सहायानां वक्तव्यत्वेमुख्यं साहाय्यं हि दूत्यमिति प्रथमं दूत्यएवोच्यन्ते तद्वचनेनैव सर्वा एव सहाया उक्ता भविष्यन्ति इत्यभिप्रायेणाह—अथेति। या चेति। चकाराद्यात्वौत्सुक्यत्रुटद्व्रीडेति यापदस्या–
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विनेति। आद्येति। आद्या आत्यन्तिकाधिका अन्तिमा आत्यन्तिकी लघुः। एषा त्वधिका न भवेदेव तेन समा लघुश्चेति द्वेधा आद्यया सह त्रयः। मध्यस्थास्त्वधिकप्रखरादिभेदेन मिलित्वा द्वादश भिदा मताः॥२२॥२३॥२४॥
इति यूथेश्वरीभेदविवृतिः॥
- अत्यौत्सुक्यत्रुटव्रीडा या रागातिमोहिता च येति यापदस्य द्विरावृत्त्यान्वयः। पूर्वा चेत् स्वयमभियुङ्क्ते नायकं प्रति भावं प्रकाशयति, तदा, उत्तरा तु सुतरामेवेति भावः। औत्सुक्यं रिरंसामयत्वेऽपि संभवति, रागस्तु रतिमयत्वएवेति*
स्वयमेवाभियुङ्क्ते सा स्वयंदूती ततः स्मृता।
स्वाभियोगास्त्रिधा प्रोक्ता वाचिकाङ्गिकचाक्षुषाः॥३॥
तत्र वाचिकः—
वाचिको व्यङ्ग्य एवात्र स शब्दार्थभवो द्विधा।
उक्तौ व्यङ्ग्यौ च तौ कृष्णपुरःस्थविषयौ द्विधा॥४॥
तत्र कृष्णविषयः—
स साक्षाव्द्यपदेशाभ्यां स्यात्कृष्णविषयो द्विधा।
तत्र साक्षात्—
साक्षाद्बहुविधो गर्वाक्षेपयाच्ञादिभिर्भवेत्॥५॥
तत्र गर्वेण शब्दोत्थो व्यङ्ग्यो यथा विदग्धमाधवे—
साध्वीनां धुरि धार्या ललितासङ्गेन गर्विता चास्मि।
हितमालपामि माधव पथि माद्य भुजङ्गतां रचय॥६॥
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वृत्त्यान्वयः। स्वयमेवाभियुङ्क्तेस्वाभिप्रायं प्रकाशयति सा स्वयंदूती। तत्र प्रथमा अलब्धाङ्गसङ्गाप्रायेण पूर्वरागवती, द्वितीया लब्धाङ्गसङ्गापिरागेणानुरागेणातृप्त्यातिमोहिता स्थायिभावेनैव विस्मारितलज्जाधैर्यशङ्का च ज्ञेया।आत्मानमलब्धाङ्गसङ्गमिव मन्यमानेत्यर्थः॥ २॥३॥ वाचिकाङ्गिकावध्यात्मादित्वात् ठगन्तौ। व्यङ्ग्य एव व्यञ्जनावृत्तिगम्य एवाभिधावृत्तिगम्यत्वे रसाभासापत्तेः। यदुक्तम्—‘रसाभासमधिकृत्य प्रकटप्रार्थनादिः स्यात् सभोगादेश्च’ इति। शब्दार्थभवः, शब्दशक्त्युत्थोऽर्थशत्त्युत्थश्च। तौ शब्दार्थभवौ व्यङ्ग्यौ द्विधा भवतः। कृष्णश्च तत्पुरःस्थपदार्थविशेषश्च तौ विषये ययोस्तौ॥४॥५॥ श्रीराधा प्राह—साध्वीनां पतिव्रतानां सुन्दरीणां च धुरि चिन्तने, गणनायामिति यावत्।
*
*
विशिष्टतया पृथगुक्तिः॥१॥२॥३॥ व्यङ्ग्यएवेति। वात्यत्वेतु रसविघातः स्यादित्यभिप्रायात्। तदुक्तं रसस्य स्वशब्देन शृङ्गारादिशब्देन वाच्यत्वदोष इति॥४॥ साध्वीनां पतित्रतानां पक्षे सुन्दरीणां धुरि वोढव्ये मस्तकोपरीत्यर्थः। ललितायाःसङ्गेन, पक्षे ललिताख्यभावस्य भुजङ्गतां षिङ्गताम्; पक्षे
** अर्थोत्थो यथा—**
तमालश्यामाङ्गक्षिपसि किमपाङ्गश्रियमितः
प्रसिद्धाहं श्यामा त्रिजगति सतीनां कुलगुरुः।
समारब्धे यस्याः कथमपि मनाग्वाधनविधौ
मृगीमालाप्येषाप्रसभमभितो हन्ति कुपिता॥७॥
अथाक्षेपेण शब्दोत्थो व्यङ्गयो यथा—
अध्वानं व्रज धूर्त मा वृणु पुरः पश्याम्बरान्ते दृशं
निक्षिप्योरुपयोधरोन्नतिमिमां नष्टेन्दुलेखाश्रियम्।
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धूः स्यात् भारचिन्तयोः। यद्वा धुरि मस्तकोपरि वोढव्यवस्तुमध्ये या धार्या धर्तुमर्हेत्यर्थः। ललितायाः सङ्गेन, पक्षे ललिताख्यो यो भावविशेषस्तस्यासङ्गेन किंवा ललितेनासङ्गेन सर्वोत्कृष्टया त्वय्यासक्त्याभुजङ्गता लाम्पट्यम्, पक्षे मा मां भुजङ्गतां प्राप्तां रचय, आलिङ्गितां कुर्वित्यर्थः। ततश्च तदहं नापराध्यामीत्यादिना विदग्धमाधवोक्ते श्रीकृष्णोक्तिचेष्टिते ज्ञेये। अत्र साध्वीनामिति ललितासङ्गेनेति भुजङ्गतामित्येषां पदानां परिवृत्यसहत्वाच्छब्दभवत्वम्॥६॥ इतः इह मयि। मृगीमालापीत्यनेन मम सख्योऽप्यत्र न सन्तीति स्वच्छन्दमेकाकिनीं प्राप्तां मां यथेच्छसितथा कुर्विति भावः। ततश्चैवं चेत्तव पातिव्रत्यप्रभावमद्य परीक्षिष्ये कथं मृग्यो मां हनिष्यन्तीति श्रीकृष्णेन बलात् तस्याःकुचौ स्पृष्टौ। अत्र मृगीमालेल्यादिशब्दानां परिवृत्तिसहत्वात्तदर्थानां च परिवृत्यसहत्वादर्थभवत्वंज्ञेयम्॥७॥ काचित् प्रखरा यूथेश्वर्याह—अध्वानमिति। अध्वानं मार्गं मावृणु किंतु व्रज इतोऽपसर, पक्षे अध्वानं निःशब्दं यथा स्यात्तथा मामावृणु रुणद्धि। हे व्रजधूर्तेति। तत्फलं त्वंजानास्येवेति भावः। अम्वरमाकाशं वस्त्रं च। पयोधरो मेघः स्तनश्च। नष्टेति स्पष्टम्, पक्षे नष्टा बहुदिनसंभोगाभावात् लुप्ते–
*
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भुजमिति पृथक् पदम्। मा निषेधे, पक्षे मा माम्॥५॥६॥ मनाग्बाधनविधावित्येव पाठःसंमतः॥७॥ अध्वानं व्रजधूर्त, मा आवृणु, पक्षे अध्वानमशब्दं यथा स्यात्तथा मा मां वृण्वङ्गीकुरु।अम्बरमाकाशं, पक्षे वस्त्रम्।इन्दु–
नव्या कञ्चुलिकोज्ज्वला तनुरियं रागेण वल्गुश्रिया
यावन्न स्तिमिता सती कुटिल मे वैवर्ण्यमापद्यते॥८॥
अर्थोत्थो यथा—
कदम्बारण्यानां कितव विकचं लुण्ठसि नवं
मदुत्सङ्गाद्दिष्ट्या वरपरिमलं मल्लिपटलम्।
रुचिरस्फारं हारं हरसि यदि मे कोऽत्र शरणं
विदूरे यद्गोष्ठं जनविरहिता चेयमटवी॥९॥
अथ याच्ञा—
याच्ञास्वार्था परार्थेति द्विधात्र परिकीर्तिता।
तत्र स्वार्थयाच्ञयाशब्दोत्थो व्यङ्ग्यो यथा—
पुष्पमार्गणमनोरथोद्धता कृष्ण मञ्जुलतया तवानया।
रक्षितास्मि सविकासया पुरो विस्फुरत्सुमनसं कुरुष्व माम्॥१०॥
________________
न्दुलेखा श्रीर्नखाङ्कशोभा यस्यां ताम्। नव्या नवीना।रागेण रक्तिम्नोज्ज्वला। तनुःसूक्ष्मा कञ्चुलिका।स्तिमिता आर्द्रा सती। वैवर्ण्यंवैरूप्यम्, पक्षे नव्या स्तव्या कञ्चुलिकयोज्ज्वला तनुर्देहःरागेण प्रेम्णा।स्तिमिता स्तब्धा सती। वैवर्ण्यं सात्त्विकभावविशेषम्। ततश्च किं व्यग्रासि पयोधरौ ते स्पष्टेन्दुलेखाश्रियौ कुर्विति तथा चक्रे॥८॥ हे कदम्बवनश्रोण्यां कितव, एतद्वनपालकोऽहमिति कैतवेन चौरेत्यर्थः।विकचं फुल्लम्।मल्लिर्मल्लिका।विदूर इत्यादिना स्वसंभोगस्यौचित्यं निर्विघ्नत्वं च ज्ञापितम्। ततश्च दूरे गोष्ठं चेत्तर्ह्यातिथ्यं गृहाणेति तां पाणौ धृत्वोपवेशयामासेति ज्ञेयम्॥९॥ पुष्पमार्गणं पुष्पान्वेषणम्, पक्षे पुष्पमार्गणः कामः। मञ्जुर्मनोरमा या लता तयात्र रक्षितास्मि स्थापितास्मि, पक्षे मञ्जुलतया सौन्द–
*
*
लेखा चन्द्रकला, पक्षे नखाङ्कः।नव्या नूतना पक्षे स्तव्या। वल्गुश्रिया रागेण रक्तिम्ना, पक्षे रागेणोज्ज्वला कञ्चुलिकयोज्ज्वला तनुःसूक्ष्मा, पक्षे तनुः शरीरम्। स्तिमिता आर्द्रा, पक्षे स्तब्धा। वैवर्ण्यं तूभयत्र समानम्॥८॥ कदम्बारण्यानीत्यादौ यद्यपि तेन स्वयं महानुद्यमः कृतस्तथापि तस्याः स्वयमभियोगस्त्वौत्सुक्यस्वभावादेव मन्तव्यः॥९॥ पुष्पमार्गणं पुष्पान्वेषणम्, पक्षे पुष्पमार्गणकामः। मञ्जुलतया मनोरमया लतया, पक्षे मनोहरतया विस्फुरत्सुमनसं विरा–
** अर्थोत्थो यथा—**
वृन्दारण्यं भुजगनिकराक्रान्तमश्रान्तमस्मात्
कात्यायन्यै कुसुमपटलं जातभीर्नाहरामि।
तेन क्रीडोद्धुतफणिपते श्रद्धयास्मि प्रपन्ना
त्वामेकान्ते दिश विषहरं मन्त्रमेकं प्रसीद॥११॥
यथा वा—
समस्तमभिरक्षितुं जनमरन्ध्रवीरुद्धने
वने चरसि कीर्त्यसे त्वमुरुकीर्तिभाजां धुरि।
प्रसीद करुणां कुरु त्वरितमुद्दिशाध्वक्रमं
यदूद्वह वधूजनः श्रयतु विस्मृताध्वा व्रजम्॥१२॥
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र्येण। विस्फुरत्सुमनसं प्राप्तविराजमानपुष्पां पुष्पमवचिन्वित्याज्ञापयेत्यर्थः, पक्षे विस्फुरत्सानन्दं प्राप्तसंभोगमिति यावत्। शोभनं मनो यस्यास्ताम्। ततश्च श्रीकृष्णः स्वयमेव पुष्पाण्यवचित्य तस्याः कञ्चुलिकान्तर्धारयामासेति ज्ञेयम्॥१०॥ एकान्त इति। तवात्र सखायो मम सख्यश्च न सन्तीति भावः। दिश देहि। **विषहरमिति।**कंदर्पसर्पेण दष्टास्मीति द्योतयति। ततश्च मन्त्रस्योच्चैरुच्चारणमनुचितमिति मन्मुखसमीपे स्वदक्षिणं कर्णमर्पयेति तथा कुर्वतीं तां मन्त्रोपदेशमिषेण गण्डे चुम्बित्वादक्षिणार्थं कञ्चुकीं जग्राहेति ज्ञेयम्॥११॥ मन्त्रजिघृक्षायां स्वाभिप्रायः प्रायेणोद्घाटितो भवतीत्यपरितुष्यन्नाह—यद्वा प्रगल्भायाः स्वाभियोगमुदाहृत्य मुग्धाया आह—**यथा वेति। समस्तेति।**अरन्ध्राभिर्निश्छिद्राभिर्वीरुद्भिर्घने निबिडे।धुरि चिन्तने गणनायामिति यावत्। **यदूद्वहेति।**व्रजराजस्य यादवत्वम्। ‘यादवानां हितार्थाय धृतो गोवर्धनो मया’ इति श्रीहरिवंशोक्तेः। विस्मृताध्वेति। अत एव त्वत्समीपमध्वानमेव प्रष्टुमायातास्मीति भावः। ततश्चानेन पथा आगच्छेति तां कियद्दूरमानीय
*
*
*जमानशोभनचित्तम्, पक्षे विराजत्सुष्टुपुष्पाम्॥१०॥११॥ समस्तं गोगोपालहरिणादिकम्। अरन्ध्रत्वं निश्छिद्रत्वम्। **यदूद्वहेति।*व्रजेन्द्रस्यापि यदुवंशजत्वात् तदेतद्वैष्णवतोषण्याख्यदशमटिप्पण्यां श्रीकृष्णसंदर्भे च प्रकाशितमस्ति॥१२॥
** परार्थयाच्ञया शब्दोत्थो यथा—**
सकृत्पीत्वा वंशीध्वनिनवसुधां कर्णचुलुकै-
र्मदाली विभ्रान्ता लघिमनिकरोत्तालितमतिः।
सदाहं कंसारे कमपि गदमासाद्य विषमं
विवर्णा त्वां धन्वन्तरिमिह परं निश्चितवती॥१३॥
अर्थोत्थो यथा—
असूर्यपश्यापि प्रियसहचरी प्रेमभिरहं
तवाभ्यर्णं लब्ध्वा मधुमथन दूत्यं विदधती।
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संप्रत्यग्रेतनः कुटिलवल्लीवेष्टितः पन्थास्त्वया दुर्बलया पद्भ्यामुल्लङ्घयितुमशक्य इति समस्तमभिरक्षितुं जनमित्यादि तस्या वचःसत्यापयन्निव तां बलादुत्थाप्य स्ववक्षसोवाहेति ज्ञेयम्॥१२॥ **सकृदिति।**सुधां दग्धशङ्खादिचूर्णममृतं च। मदाली मम सखी। विभ्रान्ता विशिष्टभ्रमयुक्ता। सदाहं दाहेन सह वर्तमानम्, पक्षे स्नुहीदुग्धम्। वा मदाली मदश्रेणी। सदाहं सदैवाहम्। ‘सुधा स्त्री लेपने मूर्व्या स्रुहीदुग्धेष्टिकामृते’ इति मेदिनी। गदं रोगं कामक्रीडां च। ततश्च तादृशमहं मन्त्रमौषधं च जानामि। यथा त्वदङ्गेष्वेव मन्त्रमयेन कवचेन कृतरक्षेषु तथा तन्मुखनेत्रादिषु केनापि प्रलेपविशेषेण लिप्तेषु तस्याः क्रमेण वहिरन्तर्दाहस्य प्रशमो भविष्यतीति श्रीकृष्णस्य प्रत्युक्तिर्ज्ञेया॥१३॥ असूर्यपश्येत्यनेन स्वस्य दुर्लभदर्शनत्वं राजकन्यात्वंच। शशिधियेत्यादिना परमसौन्दर्यं माधुर्यं चाभिव्यज्याहमेव ते संभोगयोग्येति द्योतितम्। ततश्च तस्याः स्नेहं पश्चात् श्रोष्यामि प्रथमं भवत्या रक्षणोपायं चिन्तयामि तत्र यदि बहिरिह तिष्ठसितदा दुष्टचकोरोऽयं न त्वां त्यक्ष्यति। इहैव गिरिगह्वरं चान्धतमस(सा) व्याप्तमेकाकिनी प्रवेष्टुं विमेष्यतोऽहमेव त्वामतिभीतां स्ववक्षसोऽन्तरेनिह्नुत्य क्वापि क्षणं स्थित्वा चकोरं वञ्चयामि, तस्याः स्नेहं च शृणोमीति श्रीकृष्णोक्तिर्ज्ञेया। आदिशब्दाद्दैन्येनापि। ‘सख्यो ययुर्गृहमहं कलशीं वहन्ती
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सुधा पीयूषम्, पक्षे दग्धशङ्खादिचूर्णम्।मदाली मम सखी, पक्षे मदश्रेणी।
द्रुतं तस्याः स्नेहं निशमय न यावच्छशिधिया
धयन्वक्रज्योत्नां निशि हतचकोरस्तुदति माम्॥१४॥
अथ व्यपदेशः—
जल्पो व्याजेन केनापि व्यपदेशोऽत्र कथ्यते॥१५॥
तेन शब्दोत्थो यथा—
त्यजन्कुवलयाधिकां घनरसश्रियोल्लासिनीं
पुरः सुरतरङ्गिणीं मधुरमत्तहंसस्वनाम्।
मलीमसपयोधरामपि मदान्ध पद्मिन्निमां
भजन्किमिव पङ्किलामहह कर्मनाशामपि॥१६॥
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पूर्णामतीव महतीमनुलम्वितास्मि। एकाकिनीं स्पृशसि मां यदि नन्दसूनो त्यक्ष्यामि जीवितमिदं सहसा पुरस्ते॥’ अत्र जीवनं, पक्षे जलं च। अत्र हन्त कथं जीवनं त्वं त्यक्ष्यसि किंत्वहमेव त्यक्ष्यामीत्युक्त्वा तन्मूर्ध्नःकलशीं गृहीत्वा तस्या जलमपसारयामास श्रीकृष्ण इति ज्ञेयम्। ‘स्वामी मुग्धतरो वनं घनमिदं बालाहमेकाकिनी क्षोणीमावृणुते तमालमलिनच्छायातमः संहतिः। तन्मे सुन्दर कृष्ण मुञ्चसहसा वर्त्मेति राधागिरः श्रुत्वा तां परिरभ्य मन्मथकलासक्तो हरिः पातु वः॥’ इति शब्दार्थमेव वाचिकोदाहरणद्वयं ज्ञेयम्॥१४॥**जल्प इति।**श्रीकृष्णं प्रत्येवोक्तिः। किंतु केनापि व्याजेनाप्रस्तुतप्रशंसयेत्यर्थः। काचित् प्रगल्भा कांचित् स्वविपक्षामवलोकयन्तं श्रीकृष्णं प्रति स्वमभियुञ्जाना तदपकर्षस्वोत्कर्षौव्यञ्जयति—त्यजन्निति। कुवलयं नीलोत्पलं भूमण्डलं च। घनरसो जलं शृङ्गाररसश्च। सुराणां तरङ्गिणीं गङ्गां सुरतेषु रङ्गिणीं च। पयो जलं पयोधरौ स्तनौ च। पद्मिन् हे हस्तिन्, पक्षे लीलाकमलधारिन्। पङ्कः
*
*
सदाहं सर्वदैवाहम्, दाहसहितम्॥१३॥व्यपदेश इति। रसशास्त्र एवापदेशस्य पारिभाषिकी संज्ञा, अन्यत्र त्वभिधैवोच्यते। व्यपदेशस्तु व्याज एवेति। व्याजश्चान्यवर्णनेनाभीष्टार्थवोधनम्। अयमेवाप्रस्तुतप्रशंसानामालंकार॥१४॥१५॥ त्यजन्नित्यत्र श्लेषाः स्पष्टा एव। तत्र वक्त्र्यास्वपक्षे मामिति गम्यते। इमामित्यनेन नायिकान्तरस्य च तत्र गमनं व्यज्यते। नदीपक्षे
अर्थोत्थो यथा—
मधुपैरनवघ्रातां विमुच्य माकन्दमञ्जरीं मधुराम्।
भ्राम्यसि मदकल कोकिल कथमिव वृन्दावने परितः॥१७॥
** अथ पुरःस्थविषयः—**
शृण्वतोऽपि हरेर्मत्वा व्याजादश्रुतिवत्किल।
जल्पोऽग्रतः स्थिते जन्तौ पुरःस्थविषयो मतः॥१८॥
तत्र शब्दोत्थो यथा—
आहूयमानास्मि कथं त्वयालिनां स्वनैः स्वपुष्पावचयाय मालति।
आमोदपूर्णं सुमनोभिराश्रितं पुन्नागमेव प्रमदेन कामये॥१९॥
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कर्दमःपापं च। कर्मनाशां मगधदेशीयपापनदीम्, पक्षे विदग्धक्रियाणां नाशो लोपो यस्याम्, अस्या अज्ञत्वादित्यर्थः। अत्र पुरःशब्देन पक्षे त्वदग्रवर्तिनीं मामित्यर्थः। ततश्च त्वामपाङ्गेनैव पुरः कुञ्जंप्रविशेत्याह श्रीकृष्ण इति ज्ञेयम्॥१५॥१६॥ मधुपैर्भ्रमरैः, पक्षे मधु वसन्तस्तं पान्ति पालयन्तीति मधुपा दक्षिणानिलास्तैरप्यनीताङ्गसुगन्धामित्यात्मनः सदा वस्त्रावृतसर्वाङ्गतया स्थितत्वेन परमलज्जालुत्वंव्यञ्जितम्, व्याख्यान्तरं वैरस्यं स्यात्। अतिशयोक्तिः(क्तेः) प्राप्तस्यार्थस्य श्लिष्टार्थतो बहिरङ्गत्वाच्च त्यक्तम्। अत्र मधुपैरित्येकेनैव पदेन परिवृत्त्यसहेनास्योदाहरणस्य शब्दोत्थत्वं नाशङ्कनीयं सर्वत्रालंकारशास्त्रे, शब्दार्थोभयशक्त्युत्थध्वनिषु भूम्नो व्यपदेशा भवन्तीति नियमात्। द्वित्रैस्त्रिचतुरैर्वा शब्दैरर्थैर्वा परिवृत्त्यसहैस्तत्तव्द्यपदेशे स्वीकारो न त्वेकेनैव शब्देनार्थेन वा दृष्टः। ततश्च भोः कोकिल, सर्वं परित्यज्य माकन्दमञ्जरीं त्वमुपभुङ्क्ष्व। तत्र मत्तःसकाशात् तत्प्रकारशिक्षेति सा श्रीकृष्णेन हठाच्चुम्बितेति ज्ञेयम्॥१७॥ पुन्नागं, पक्षे पुरुषोत्तमं श्रीकृष्णम्। ततश्च श्रीकृष्णेन तत्रागत्य सखि, श्रुतस्ते मनोरथस्तदेहि पुन्नागं ते दर्शयामीति सा हस्तग्राहं पुन्नागपुष्पशय्यामेव
*
*
सुरतरङ्गिणी गङ्गा। कर्मनाशा नाम काचित् मगधदेशसमीपवाहिनी। यद्यप्यत्र श्लेषोऽप्यस्ति तथाप्यसौ व्याजमय एवेति व्यपदेशमेव पुष्णाति॥१६॥ व्यङ्ग्य–
अर्थोत्थो यथा—
अनवचितचरीयं चारुपुष्पा लताली
तव निखिलविहङ्गाश्चात्र निर्धूतशङ्काः।
त्वयि विचरितुमीहे तेन गोवर्धनाद्य
प्रकटय तमुपायं निर्वृता येन यामि॥२०॥
यथा वा—
प्रसिद्धः साध्वीनां व्रतहरविनोदो व्रजपतेः
सुतोऽयं त्वं वाचाप्यलमसि निरोद्धुं न मृदुला।
अहो धिङ्मूढाहं तदपि गहने ग्रन्थिललता-
शताक्रान्ते श्रान्ता यदिह विचराम्यस्य पुरतः॥२१॥
अथाङ्गिकाः—
अङ्गुलिस्फोटनं व्याजसंभ्रमाद्यङ्गसंवृतिः।
पदा भूलेखनं कर्णकण्डूतिस्तिलकक्रिया॥२२॥
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प्रपिता। निर्वृता सिद्धमनोरथा। ततश्च तत्रागत्य श्रीकृष्णेनोक्तम्—‘अत्र गह्वरे साक्षात् प्रकटीकृतमूर्तिना श्रीगोवर्धनेन गिरिराजेनाहमुक्तः बहिर्मद्भक्ता काचिन्मह्यं किंचित् प्रार्थयते तां मत्समीपमानय’ इति। अतः सखि, तं नमस्कर्तुं प्रविशेति सा गह्वरं नीता॥१८॥१९॥२०॥ अंत्र पुरस्थशब्देन स्थावरो जङ्गमश्चोच्यते इति ज्ञापयितुमाह—यथा वेति। नालं न समर्था। ग्रन्थिलेत्यन्यजनागमनासामर्थ्यम्, श्रान्तेति स्वस्य धारणासामर्थ्यम्। ततश्च तत्रागत्य तेनोक्तं ‘सुन्दरि, सख्या सह संवादस्ते मया श्रुतः। मत्त एव त्वं बिभेषि।श्रीविष्णोः शपथं करोमि तव साध्वीत्वंनैवाहं ध्वंसयिष्यामि। कः खलु विश्वस्तघाती मादृशो भवितुमीष्टेतदत्रकुञ्जेपुष्पशय्यायां क्षणं स्वपिहि वनविहारश्रान्ता सती मम दयोत्पद्यते अहमेवात्र रक्षकोऽस्मि मान्यजनागमनं शङ्किष्ठा’इति॥ व्याजेन यः संभ्रमादिः आवेगशङ्कालज्जास्तेनाङ्गसंवृतिः
*
*
पक्षे पुन्नागः पुरुषोत्तमः॥१७॥१८॥१९॥२०॥२१॥२२॥२३॥
वेशक्रिया भ्रुवोर्धूतिः सख्यामाश्लेषताडने।
दशोऽधरस्य हारादिगुम्फो मण्डनशिञ्जितम्॥२३॥
दोर्मूलादिप्रकटनं कृष्णनामाभिलेखनम्।
तरौ लताया योगाद्याः कृष्णस्याग्रे स्युराङ्गिकाः॥२४॥
** तत्राङ्गुलिस्फोटनम्—**
इयं सतीनां प्रवरा वराक्षी कथं नु लभ्येति मयि क्लमाढ्ये।
विशाखयास्फोट्यत पञ्चशाखशाखावली मव्द्यसनेन सार्धम्॥२५॥
व्याजसंभ्रमाद्यङ्गसंवृतिः—
पिहितमपि पिधत्ते मत्पुरस्तादुरो य–
द्वृतमपि मुहुरास्यं यत्पटेनावृणोति।
व्रजनवहरिणाक्षी तन्मनोजस्य मन्ये
शरपरिभवघूर्णाघ्रातचित्तेयमास्ते॥२६॥
पदा भूलेखनम्—
कम्रं नम्रमुखी लिलेख चरणाङ्गुष्ठेन गोष्ठाङ्गने(णे)
यत्किंचिंद्व्रजसुन्दरी मयि दृशोर्वृत्ते नवप्राघुणे।
तेनानङ्गनिदेशपट्टपदवीमासाद्य मन्मानसं
क्षिप्त्वा तत्कुचशैलसंकटतटीसंधौ बलात्कीलितम्॥२७॥
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॥२१॥२२॥२३॥२४॥ श्रीकृष्णः सुवलं प्रत्याह—इयमिति।‘पञ्चशाखः शयः पाणिः’ इत्यमरः। शाखास्तदङ्गुल्यः॥२५॥ श्रीकृष्णः सुवलमाह—कम्रमिति। नवप्राघुणे नवातिथौ तेन लिखनेन कर्त्रा अनङ्गस्य निदेशेन यः पट्टो लेखभूमिका तस्य पदवीं कक्षामासाद्य प्राप्य स्वधारकेण केनापि द्वारा तस्याःकुचयोर्ये संकटतट्यौसंकीर्णे कूले तयोः संधौ मध्यनिखात–
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॥२४॥२५॥२६॥ नवप्राघुणे नवातिथौ कीलितं संयतम्। ‘वद्धे कीलितसंयतौ’
** कर्णकण्डूतिः—**
रक्ताङ्गुलीशिखरघट्टनलोलपाणि–
शिञ्जानकङ्कणकृतस्मरतूर्यशङ्कम्।
लीलोच्चलत्कनककुण्डलमत्र कर्ण–
कण्डूयनं व्रजसरोजदृशः स्मरामि॥२८॥
** तिलकक्रिया—**
सानन्दं शरदिन्दुसुन्दरमुखी सिन्दूरबिन्दूज्ज्वलं
बन्धूकद्यूतिना करेण तिलकं गान्धर्विका कुर्वती।
त्वामालोक्य शिखण्डशेखर सकृत्कर्णोच्चलत्कुण्डला
रूढं चेतसि रागकन्दलमिव व्यक्तं व्यतानीद्बहिः॥२९॥
वेशक्रिया—
हरौ पुरःस्थे करपल्लवेन सलीलमुल्लास्यमिलन्मरन्दम्।
नालीकनेत्रा किल कर्णपालीं पाली लवङ्गस्तबकं निनाय॥३०॥
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रेखायामित्यर्थः।क्षिप्त्वा बलात् प्रवेश्य कीलितं बद्धम्। ‘वन्धे कीलितसंयतौ’ इत्यमरः। अर्थात् ताभ्यां तटीभ्यामेव भूलेखनकाले बाह्वोःसंकोचेन तदुपरि निवेशिताभ्यामित्यर्थः। अत्रेयं विवृतिः—कंदर्पेण तुष्यता मल्लोचनाय सर्वं राधाङ्गराज्यं दत्तं तत्र स्वत्वारोपदार्ढ्याय चरणाङ्गुष्ठलेखन्या भूपत्रिकायां पटुलेखश्च दत्त। ततश्च तस्मिन्नेव राज्ये मन्मनसश्च लोभं दृष्ट्वा कुपितेनेव मल्लोचनेन तदपराधशान्त्यर्थं पर्वतद्वयसंविकारायां तन्निबध्यस्थापितमिति॥२६॥॥२७॥ रक्ताङ्गुली अरुणवर्णवामहस्तकनिष्ठाङ्गुली तस्याःशिखरघट्टनेन कर्णरन्ध्रप्रवेशितस्याग्रभागस्य चालनेन लोलानि यानि पाणिस्थशिञ्जानकङ्कणानि तैः कृता स्मरतूर्यस्य कन्दर्पवाद्यविशेषस्य शङ्का भ्रमो यत्र तत्॥ २८॥ कुन्द्रवल्ली श्रीकृष्णं प्रत्याह—**सानन्दमिति।**सकृदालोक्य आलोकनकाले गण्डस्य तिरश्चीनत्वात् कुण्डलस्य चाञ्चल्यं रागस्य कन्दलमनुरागाङ्कुर चेतसि रूढं पूर्वमेवोत्पन्नं संप्रति बहिरपि व्यक्तमकार्षीदित्युत्प्रेक्षा तिलकस्याङ्कुराकारत्वात्॥२९॥ नालीकनेत्रा कमललोचना श्लेषेण व्यर्थनेत्रा श्रीकृष्णमुख–
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इत्यमरः॥२७॥२८॥२९॥ ‘पाली कर्णलताग्रेस्यात्’ इति विश्वः
भ्रुवोर्धूतिः—
विधुन्वती मदनधनुर्भयंकरं
भ्रुवोर्युगं कथय किमद्य खिद्यसे।
विशाखिके मुखशशिकान्तिशृङ्खला
बबन्ध ते मधुरिपुगन्धसिन्धुरम्॥३१॥
सख्यामाश्लेषः—
पुरः कलय मण्डलीकृतकठोरवक्षोरुहं
चलत्कनककङ्कणक्वणिततुङ्गितानङ्गया।
अपाङ्गमघमर्दने नयनवीथिनव्यातिथौ
प्रसार्य परिषस्वजे सहचरी चिरं चित्रया॥३२॥
सखीताडनम्—
विमुञ्च निखिलं वशीकरणकारणान्वेषणं
मनस्त्वयि विशाखया मुरहरोपहारीकृतम्।
मुहुर्यदनया भवत्पदसरोजकक्षामिल–
त्तडिच्चलदृगन्तया स्फुटमताडि पुष्पैः सखी॥३३॥
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शोभापायित्वात्॥३०॥ वृन्दा प्राह—विधुन्वतीति। कथमसौ मत्समीपमायातीति भ्रूधूननकारणं ज्ञेयम्॥३१॥ रूपमञ्जरी रतिमञ्जरीं प्रत्याह—पुर इति। तुङ्गितोऽनङ्गोऽर्थात् श्रीकृष्णस्य यया तया। लम्पटोऽयं मां मृद्धीमधिकं कदर्थयिष्यति तदहं पलायिष्ये इत्यवहित्थावतीं चित्रां काचित् प्रखरा तत्सखी प्रत्युवाच। मदग्रे भयगन्धमपि मा कार्षीर्विश्वसिहि साटोपवाक्प्रपञ्चैरयं मया पराजेतव्य इति। अतः सा प्रियसखी कल्याणी भवेति चित्रयालिङ्गितेत्यालिङ्गने कारणमूह्यम्॥३२॥ सुबलः श्रीकृष्णमाह—**विमुञ्चेति।**सखि, फलितस्तव मनोरथो यदयं त्वदभिमुखमायाति कृष्णः तदस्मिन्नपाङ्गं समर्पयेति परिहसन्ती सखी पुष्पैरताडि॥३३॥ श्यामला ललितां प्रत्याह—
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*
॥३०॥ गन्धसिन्धुरो मदस्रावी हस्ती॥३१॥३२॥३३॥
अधरदंशः—
भजति पथि दृशोर्व्रजेन्द्रसूनौ मदनमदोन्मदिता पुरस्तवाली।
इयमिह कुपितेव पश्य सख्यै विधुवदना रदनच्छदावदाङ्क्षीत्॥३४॥
हारादिगुम्फाः—
केयं पुरः स्फुरति फुल्लसरोरुहाक्षी
सव्ये यया सुबल मामवलोकयन्त्या।
आवृत्य मौक्तिकसरे परिगुम्फ्यमाने
चेतोमणिर्मम सखे तरलो व्यधायि॥३५॥
मण्डनशिञ्जितम्—
विलोक्य मां श्यामलया विदूरतः संकीर्यमाणा मणिकङ्कणावली।
वितन्वती झङ्कृतिडम्बरं मुहुः शङ्के ब्रवीत्यङ्गजराजशासनम्॥३६॥
दोर्मूलप्रकटनम्—
श्यामे दिव्यतराः स्फुरन्ति परितो वृन्दावनान्तर्लता
याः कल्याणि वहन्ति हन्त मधुरामग्रे फलानां ततिम्।
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भजतीति। सख्यै कुपितेवेति। कुटिले विशाखिके पुष्पावचयनमिषेण दूरमानीयास्य लम्पटस्य हस्ते मां प्रक्षिपसि तिष्ठ तिष्ठ तत्प्रतिफलमहं च ते दास्यामीति द्योतयन्ती॥३४॥ आवृत्य मञ्चेतोमण्याकर्षणसमर्थंस्वापाङ्गदस्युं मयि प्रस्थापयितुं ग्रीवां विवृत्येत्यर्थः। मौक्तिकसरे मौक्तिकमाल्ये। तरलो मध्यनायकः, पक्षे चञ्चलः॥३५॥ मणिकङ्कणावली दक्षिणहस्तस्थिता संकीर्यमाणा वामपाणिना सुस्थिरीकर्तुं संघट्यमाना। स्त्रीणां कार्यान्तररहितानां स्वभाव एवायमतो नात्र कारणज्ञापनम्॥३६॥ श्रीकृष्णः प्राह—श्यामे इति। वलयिनी स्वसमीपे तमालं चेत् प्राप्नोति तदा वेष्टनस्वभावेयं शीघ्रं वेष्टयतीति
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आवृत्य अभ्यस्य।तरलो नायकः, पक्षे चञ्चलः॥३४॥३५॥ संकीर्यमाणा परस्परं
चित्रेयं तव दोर्लता वलयिनी यस्यास्त्वयोल्लासिते
मूले नन्दितकृष्णकोकिलमभूदाविर्वरीयः फलम्॥३७॥
कृष्णनामाभिलेखनम्—
दूत्यमत्र तव तिष्ठतु वृन्दे तिष्ठते यदियमिन्दुमुखी मे।
नाम मे विलिखति प्रियसख्याः पश्य गण्डफलके घुसृणेन॥३८॥
तरौ लताया योगः—
रूपं निरूप्य किमपि व्रजपङ्कजाक्ष्याः
साक्षादभूवमहमर्जुन यावदार्तः।
सा गामधीरमधिनोत्कलधौतयूथ्या–
स्तावत्तमालविटपे घटनां विधाय॥३९॥
अथ चाक्षुषाः—
नेत्रस्मितार्धमुद्रत्वे नेत्रान्तभ्रमकूणने।
साचीक्षा वामदृक्प्रेक्षा कटाक्षाद्याचाक्षुषाः॥४०॥
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भाव। पक्षे कङ्कणयुक्ता।उल्लासिते उल्लास्य दर्शिते इत्यर्थः। वरीय फलमाविर्वभूव। नन्दित आनन्दित कृष्णवर्णःकृष्णश्च कोकिलो येन तत्। ततश्च तेनेदमदृष्टचरत्वादद्भुतं प्राण्यङ्गुलिघट्टनेन निरूपयितुमुचितं कठोरं मृदुलं वेति तथा चक्रेऽसाविति ज्ञेयम्। हस्तोल्लासनमिदं दूरस्थां सखीं प्रत्येहीत्याह्वानमिति ज्ञेयम्॥३७॥ मे मह्यं तिष्ठते भावेनात्मानं प्रकाशयति। ‘प्रकाशनस्थेयाख्ययोश्च’ इत्यात्मनेपदम्॥३८॥ निरूप्य दृष्ट्वा अर्जुनो नाम गोपःप्रियसख। हन्त हन्त स्वर्णयूथीयं किमिति भूमौ लुठति। तदिमां तमालमारोहयामीति। तथा कृत्वा स्वस्यापि प्रेम ज्ञापयन्ती सा ज्ञेया॥३९॥ कूणनं संकोचः। नेत्रस्मितादीनामेषामनुभावतयेवोद्भूतानामत्कान्त एतानास्वाद्यास्वाद्य मय्यनुरज्यत्विति भावनाया स्वाभियोगत्वं न तु सर्वथैव कृत्रिमत्वं रासावहमिति विवेचनीयम्
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*
संघट्यमाना॥३६॥ मे मह्यं तिष्ठते भावेनात्मानं प्रकाशयति। अत्रात्मनेपदं संप्रदानं च विहितमस्ति। निरूप्य दृष्ट्वा। अर्जुनोऽत्र गोपकुमारविशेषः। कलधौतं
तत्र नेत्रस्मितं यथा—
विभ्रमं रतिपतेः स्थगयन्तीं केशवस्य पुरतः कपटेन।
त्वामवेत्य चटुले सखि जात्या गूढमत्र हसतस्तव नेत्रे॥४१॥
नेत्रार्धमुद्रा—
कवयो हरिवक्रपुष्करेऽस्मिन्सखि नेत्रे कथयन्ति पुष्पवन्तौ।
अनयोः सविधे तवाक्षिपद्मं भविता नार्धनिमीलितं कथं वा॥४२॥
नेत्रान्तभ्रमः—
न हृद्येऽप्यध्यस्ता रतिरनडुहां संगररसे
न रम्येऽपि क्रीडासदसि सुहृदां धीरुपहिता।
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॥४०॥ सायं वनाद्गोष्ठमायान्तं कान्तमालोकयन्तीं श्रीराधांपरिहसन्ती श्यामा तस्या नेत्रयोः प्रथमं लज्जामुद्रितयोरौत्सुक्योदयादीषत्फुल्लत्वमुत्प्रेक्षते—विभ्रममिति। विभ्रमं श्रीकृष्णदर्शनजन्यम्। ‘गतिस्थानासनादीनां मुखनेत्रादिकर्मणाम्। तात्कालिकं तु वैशिष्ट्यं विलासः प्रियसङ्गजम्॥’ इत्युक्तलक्षणं विलासालंकारं सहसा आत्मन्युद्भूतं सखीभ्यो लज्जया स्थगयन्तीं प्रकटेनावहित्थया संवृण्वतीमवेत्यज्ञात्वातव नेत्रे त्वां हसतः। त्वदाश्रितयोरपि नेत्रयोस्त्वद्विषयकहास्ये कारणमाह—जात्या प्रकृत्यैव चटुले चञ्चले।गूढमन्यालक्षितम्॥४१॥ श्रीकृष्णाग्रवर्तिनी श्रीराधां कुन्दवल्ली परिहसन्त्याह—कवय इति। वक्रमेवं पुष्करमाकाशं तस्मिन् नेत्रे पुष्पवन्तौ सूर्याचन्द्रमसौ। ‘एकयोक्त्या पुष्पवन्तौ दिवाकरनिशाकरौ।’ इत्यमरः। अर्धनिमीलितमिति। अर्धं चन्द्रेण निमीलितं अर्धं सूर्येण प्रकाशितम्। अत्र अत्यौत्सुक्येन प्रफुल्लयोरिव नेत्रयोः श्रीकृष्णनयनलग्नत्वेसहसा लज्जोदयादर्धनिमीलनमेव तथोत्प्रेक्षितम्॥४२॥ वृन्दा प्राह—न हृद्य इति। अनडुहां वृषाणाम्। नटयसीति लज्जौत्सुक्याभ्यां नेत्रस्य
*
*
सुवर्णम्॥३७॥३८॥३९॥४०॥ स्थगयन्तीमावृण्वतीम्॥४१॥ कवय इति। उत्प्रेक्षामात्रं व्यज्यते न तु वास्तवता। श्रीभगवन्, निजविग्रहस्य सर्वातीतपरमोत्तमतत्त्वस्वरूपत्वात्पुष्करं पद्ममाकाशं च। पुष्पवन्तौ सूर्याचन्द्रमसौ
त्वयि क्षिप्त्वादृष्टिं परमिह तमालायितमभू–
न्मुकुन्देन श्यामे तदपि किमपाङ्गं नटयसि॥४३॥
** नेत्रान्तकूणनम्—**
कलिन्दजाकूलपुरंदरे दृशोरध्वन्यवाप्ते प्रथमाध्वनीनताम्।
त्रपाञ्चितं किञ्चिदकुञ्चि चञ्चलं विलक्षया श्यामलया दृगञ्चलम्॥४४॥
साचीक्षा—
तिर्यग्विवर्तितनटन्नयनत्रिभागं
प्रैक्षिष्ट यत्तरणिजापुलिने मृगाक्षी।
हृन्मग्नभग्नमकराङ्कशराग्रवन्मां–
सद्यस्तदद्य नितरां विवशीकरोति॥४५॥
______________
मुद्रणविकासौ पूर्ववत्। अयं मां भाववैवश्येन सम्यङ् न पश्यति पश्यति वेति विचारेण विकासितभाग एव भ्रमिः॥४३॥ नान्दीमुखी पौर्णमासीमाह—कलिन्देति। अध्वनीनतां पथिकताम्। त्रपाञ्चितमिति नेत्रमुद्रणे कारणम्, चञ्चलमित्यौत्सुक्यचापल्याभ्यां नेत्रान्तभागोद्घाटने। प्रथमेत्याकुञ्चिताभ्यां प्राप्तेन भयेन तद्भागस्यापि संकुचितीकरणम्। विलक्षया विस्मयान्वितया॥४४॥ श्रीकृष्णः सुबलमाह—तिर्यगिति। तिर्यक् तिरश्वीनीभवन् तत्रापि विवर्तितो भ्रमितः, तत्रापि नटन् नृत्यन् नयनस्य त्रिभागस्तृतीयो भागो यत्र तद्यथा स्यात्तथा। त्रिविष्टपशब्दवद्विनापि तीयप्रत्ययं तदर्थावगतेः पूरणार्थप्रत्ययानां स्वाधिकारगतत्वात्। अत्र लज्जाधिक्यादौत्सुक्येन नेत्रस्य तृतीयो भाग उद्घाटितस्तदैव श्रीकृष्णदृष्ट्याघातेन तिरश्चीनीकृतः, तत्क्षणत एवौत्सुक्य–
*
*
॥४२॥ ‘विलक्षो विस्मयान्विते’ इत्यमरः। तया॥४३॥४४॥ तिर्यगित्यादिकं क्रियाविशेषणम्। अत्र त्रिविष्टपशव्दवन्नयनस्य त्रिभागस्तृतीयभागः। ‘विवशोऽरिष्टदुष्टधीः’ इत्यमरः॥४५॥ रसानां रसविशेषाणां निधिमिति वारां–
वामदृक्प्रेक्षा—
पूर्णं प्रमोदोत्तरलेन राधे श्यामं रसानां विधिमिन्दुभाजम्।
सव्येन नेत्राञ्जलिना पिबन्ती त्वमुन्मनाः कुम्भभवायितासि॥४६॥
कटाक्षः—
यद्गतागतिविश्रान्तिवैचित्र्येण विवर्तनम्।
तारकायाः कलाभिज्ञास्तं कटाक्षं प्रचक्षते॥४७॥
________________
वृद्ध्या विवर्तितः, ततो हर्षचापल्याभ्यां नर्तित इति ज्ञेयम्। मृगाक्षी श्रीराधा तत्प्रेक्षणम्॥४५॥ ललिता संभुक्तालंकृतां श्रीराधामाह—**पूर्णमिति।**प्रमोद एवोत्तरल उद्गततरङ्गः। रसानां जलानां शृङ्गारादिरसविशेषाणां च। श्यामं श्यामवर्णं श्रीकृष्णं च। इन्दुश्चन्द्रः, पक्षे प्रथमातिशयोक्त्या श्रीकृष्णमुखम्। सव्येन वामेन नेत्राञ्जलिनेत्यूर्ध्वाधःस्थितस्य पक्षद्वयस्य पाणिद्वयत्वेनानुभवात्। कुम्भभवोऽगस्त्यः। अत्र वामनेत्रस्य संपूर्णोद्घाटनं संप्रयोगोत्तरकाले लज्जापगमात्, स्वाभियोगत्वं पुनरपि संभोगस्पृहोदयात्॥४६॥ गतं लक्ष्यपर्यन्तं गमनम्, आगतिस्तत आगमनम्, विश्रान्तिस्तयोर्मध्य एवातिसूक्ष्मकाले लक्ष्यसहस्थितिः तासां वैचित्र्येण चमत्कारित्वेन निवर्तनमावृत्त्याभ्यासः।तारकायाः कनीनिकायाः
*
*
निधिशब्दवत् समुद्रस्यापि वाचित्वम्। इन्दुभाजमित्यत्र श्रीकृष्णपक्षे मुखस्यैवेन्दुत्वमतिशयोक्त्यादर्शितम्। अस्या लक्षणं तु दर्शयिष्यते। सव्येन नेत्राञ्जलिनेति नेत्राञ्जलेःसव्यभागेन नतु समस्तांशेनेत्यर्थः। यथा चतुर्भुजाया इव भवत्याः पक्ष्मद्वयसंवृततया नेत्रद्वयरूपमञ्जरि(लि)द्वयं दृश्यते तेन द्वयेनापि रूपपानात्। संप्रति तु सव्येनैव तेनेदृशकर्म दृश्यत इत्याह—***सव्येनेति। पिबन्तीति।*शतृप्रत्ययेनाविच्छेदोक्तेः सम्यक् पीतस्यापि तस्य बहिराविर्भावादविच्छेदो दर्शितः। तस्या अप्यपरिच्छिन्नशक्तित्वं व्यञ्जितम्। अतः कुम्भभवस्य तत्पीतसमुद्रस्य च हीनोपमत्वमेव ज्ञापितम्। अथवा ‘पूर्णं प्रमोदोत्तरलेन राधे मनो मुरारे रसवारिराशिम्। सव्येन नेत्रेण विधाय पीतं तं कुम्भजातं भवती
यथा—
चित्रं गौरि विवर्तते भ्रमिकरी विश्रम्य विश्रम्य ते
दृक्ताराभ्रमरी गताग्तिमियं कर्णोत्पले कुर्वती।
यस्याः केलिभिराकुलीकृतमतेः पद्मालिवार्ता क्व सा
गान्धर्वे मधुसूदनस्य नितरां स्वस्याप्यभूद्विस्मृतिः॥४८॥
इत्येतेषामसंख्यानां दिगेवेयं प्रदर्शिता।
यथोचितममी ज्ञेया नायकेऽप्यघविद्विषि॥४९॥
_______________
॥४७॥श्रीराधां प्रति दूतीस्वयं श्रीकृष्णो वा प्राह—चित्रमिति।कर्णोत्पले इति। गतागतिविश्रान्तयः कर्णोत्पले दृश्यन्ते मात्रम्। किंतु श्रीकृष्णमुखं स्पृष्ट्वा एव ताः फलन्तीत्याह—यस्या इत्यादि। पद्मालिः कमलश्रेणी, पक्षे पद्मासखी चन्द्रावली मधुसूदनस्य भ्रमरस्य श्रीकृष्णस्य च। आत्मविस्मृतिर्यतो भ्रमिकरी बुद्धिभ्रमिकरी॥४८॥ नायकेऽपि ज्ञेया यथा—‘मदधरविलुठद्विलोचनान्तं मृदुललतानवपल्लवं दशन्तम्। सखि हरिमवलोक्य भानुजायास्तटविपिने स्फुटदन्तरास्मि जाता॥’ गीतावल्यां च—‘कुटिलं मामवलोक्य नवाम्बुजमुपारिचुचुम्ब स रङ्गी। तेन हठादहमभवं वेपथुमण्डलसंचलदङ्गी॥ भाविनि पृच्छ न वारंवारम्। हन्त विमुह्यति वीक्ष्य मनो मम वल्लवराजकुमारम्॥ दाडिमलतिकामनुनिस्तलफलनमितां स दधे हस्तम्। तदनुभवान्मम धर्मोज्ज्वलमपि धैर्यधनं’ गतमस्तम्॥अदशदशोकलतापल्लवमयमतनुसनातनधर्मा। तदहमवेक्ष्य वभूव चिरं वत विस्मृतकायिककर्मा॥’ इति। तथा युगपदपि नायकनायिकयोर्यथा आनन्दवृन्दावने—‘कृष्णे कर्षति कोकयुग्ममवला दोर्भ्यांदधुः स्वस्तिकं कण्ठे चारु मृणालमर्पयति ताश्चक्रुर्भुजान्भङ्गुरान्। पद्मं जिघ्रति पाणिभिः पिदधिरे वक्रं जलक्रीडने तासां तस्य वभूव सौरतरसः कोऽपीङ्गितैरिङ्गितैः॥’ इति। अमी वाचिका–
*
*
जिगाय॥’ पाठान्तरं द्रष्टव्यम्॥४६॥ हे गौरि हे गौराङ्गि गान्धर्वे श्रीराधे। पद्मानान्न्याआलिश्चन्द्रावली तस्या वार्ता क्व। सा तु दूरे स्थितेत्यर्थः। पक्षे पद्मालिः पद्मश्रेणी। मधुसूदनो भ्रमरः।भ्रमिर्भ्रमणम्॥४७॥४८॥ अमी
स्वाभियोगा इति प्रोक्ताश्चेदमी बुद्धिपूर्वकाः।
स्वभावजास्तु भावज्ञैरनुभावाः प्रकीर्तिताः॥५०॥
अथाप्तदूती—
न विश्रम्भस्य भङ्गं या कुर्यात्प्राणात्ययेष्वपि।
स्निग्धा च वाग्मिनी चासौ दूती स्याद्गोपसुभ्रुवाम्॥५१॥
अमितार्था निसृष्टार्था पत्रहारीति सा त्रिधा।
तत्रामितार्था—
ज्ञात्वेङ्गितेन या भावं द्वयोरेकतरस्य वा॥५२॥
उपायैर्मेलयेत्तौ द्वावमितार्था भवेदियम्।
यथा—
सा ते बकान्तक कटाक्षशरार्दितापि
जीर्णं त्रपाकवचमेव वृथा वहन्ती।
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ङ्गिकचाक्षुषा बुद्धिपूर्वकाः। एवं श्रुत्वा दृष्ट्वा च मत्कान्तोऽयं मय्यनुरज्यत्विति बुद्धिः पूर्व येषां ते। किंत्वनुभावतयैव दर्शिता इति ज्ञेयम्। तत्र वाचिकानां केषांचिदनुभावतयैव प्रथममुद्भूतत्वेऽपि इदं दृष्ट्वा मय्यनुरज्यत्विति पश्चाद्बुद्ध्यापि स्वाभियोगत्वम्। वुद्धिपूर्वका इत्यत्र पूर्वशब्दस्य योगमात्रार्थतात्पर्यादित्यपि ज्ञेयम्॥४९॥५०॥ परस्परमिलनरूपे वस्तुनि घटकत्वंदूतीलक्षणं स्पष्टमिति तदलक्षयित्वा तद्विशेषणे लक्षयति—अथाप्तेति॥५१॥ अमित अपरिमितः अर्थः कार्यं यतो भवति सा। आसां यथापूर्वं श्रेष्ठ्यं ज्ञेयम्। द्वयोर्नायकनायिकयोर्भावमभिप्रायमात्रं ज्ञात्वाएकतरस्य नायिकाया नायकस्य वेत्यर्थः॥५२॥ पत्रहारी दूती नायिकाया इङ्गितं ज्ञात्वा नायकं प्रति पत्रमिषेण तदाविष्करोति—सा ते **वकेति।**हे बकान्तक, तव प्रेमकटाक्षपीडितापि युवतिजनसहजलज्जाकवचेन मुग्धा पत्रगत–
*
*
वाचिकाङ्गिकचाक्षुषाः॥४९॥ मिथो मेलकत्वमेव दूतीलक्षणं प्रसिद्धमिति तदनुटङ्क्यतद्विशेषान्लक्षयितुमाह—अथाप्तेति॥५०॥५१॥५२॥ गुणत य
वर्णैर्तुनोद मुखचन्द्रविगाहिभिर्मां
गम्यैर्दृशां गुणतया न किल श्रुतीनाम्॥५३॥
** अथ विसृष्टार्था—**
विन्यस्तकार्यभारा स्याद्द्वयोरेकतरेण या।
युक्त्योभौ घटयेदेषानिसृष्टार्था निगद्यते॥५४॥
यथा—
अघदमन जगत्यनर्घरूपा विलसति सा गुणरत्नराशिरेका।
धिगपटुमतिरस्मि यत्पुरस्तां कठिनमणेस्तव वक्तुमुद्यताहम्॥५५॥
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वर्णैर्मां नुनोद प्रेरयामास। क्रिमक्षरैर्लिखितैस्तर्हि तत्पत्रं देहि वाचयित्वा ज्ञास्यामि। त्वं पत्रहारी दूत्यसि नहि नहि मुखचन्द्रविगाहिभिर्वर्णैस्तर्हि तानेवोच्चार्य कथय शुश्रूषुरस्मि। त्वं पत्रहारी निसृष्टार्था वा नहि नहि दृशां गुणतया विषयतया गम्यैर्ज्ञेयैर्नतु श्रुतीनाम्। तेन तन्मुखधौसर्यं दृष्ट्वा तया अप्रेषितैवेवायातास्मीति माममितार्था दूर्ती विद्धीति भावः॥५३॥ ५४॥ अनर्घममूल्यं रूपं गौरिममात्रम्। त्रिजगति दुर्लभत्वादिति भावः। किं वक्तव्यम्। आङ्गिकं सौन्दर्यसौकुमार्यसौरभ्ययथौचित्यस्थूलतावृत्ततादिकं तथा वाचिकं सौखर्यादि च। किं च मानसा धैर्यगाम्भीर्यादिगुणा दुष्पारा एवेत्याह—गुणरत्नेति। तेन तव नयनेन्द्रियेण तस्या रूपमात्रस्य जिघृक्षायां मूल्यं किंचिन्न दृश्यते घ्राणादीन्द्रियैः सौरभ्यसौखर्यादीनां किं वक्तव्यं धैर्यादिगुणानां तु किंतमामेवेति भावः। नन्वहमपि जगत्यनर्घरूपो भवामि सर्वत्र नगरादौ पृष्ट्वा प्रत्येहि ततश्च स्वसौन्दर्यादिकं तस्या नयनादिभ्यो दत्वा विनिमयेन तस्या अपि तत्तत्सर्वं जिघृक्षामीत्यत आह—धिगिति। ननु किमित्यात्मानं निन्दसीत्यत आह—यत्तव पुरस्ताद्वक्तुमुद्यतास्मीति।कश्चिदत्र भव्यलोको नास्तीति यस्तव तस्याश्च सौन्दर्या–
*
*
विषयतया गुणा गुणेषु वर्तन्त इतिवत्॥५३॥ जगत्यनर्धरूपेत्यादिना तया सहजस्नेहो दर्शितः ततश्च संभवन्तीमपि तत्प्रेरणां ‘धिगपटुमतिरस्मि—’ इत्यादिना निराकृत्य स्वयमेवेयं ममोक्तिरिति व्यक्तीकृत्य तत एव तदेकहितसाधने प्रवृत्तिदर्शनया तत्प्रतिरूपतां दर्शयित्वा तन्न्यस्तभारत्वं निगूढतया व्यञ्जितम्। कठिनमणेरिति। यथा हीरकादिमणे(णि)रुज्ज्वलतयात्मानं दर्शयन्नपि स्पृष्टः
** अथ पत्रहारी—**
संदेशमात्रं या यूनोर्नयेत्सा पत्रहारिका॥५६॥
** यथा—**
तया निभृतमर्पिता मयि मुकुन्द संदेशवा–
ग्व्रजाम्बुजदृशाद्य या श्रुतिपुटेन तां स्वीकुरु।
प्रविश्य मम निर्भरे यदिह सान्द्रनिद्रोत्सवे
कदर्थयसि धूर्त मां किमिव युक्तमेतत्तव॥५७॥
ताः शिल्पकारी दैवज्ञा लिङ्गिनी परिचारिका।
धात्रेयी वनदेवी च सखी चेत्यादयो व्रजे॥५८॥
** तत्र शिल्पकारी—**
त्वामाहुः प्रमदाकृतिं भगवतस्त्वष्टुर्द्वितीयां ननुं
तत्तूर्ण लिख रूपमत्र भुवने यद्वेत्सि लोकोत्तरम्।
इत्यभ्यर्थितया मयाद्य फलके त्वां प्रेक्ष्य सा चित्रितं
चित्रा चित्रदशां गता सहचरीनेत्रेषु चित्रीयते॥५९॥
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दिकं तुलामारोह्य कियदन्तरं भवेत्तद्वक्ति। ननु धर्मस्य शपथं त्वमेव जानासि चेदन्तरं तर्हि परमार्थ ब्रूहि प्रत्येष्यामीत्यत आह—कठिनेति। तव एकेन कठोरत्वगुणेन ह्युपरक्ताः सर्व एव गुणा अल्पमूल्या अभूवन्। तस्यास्तु स्निग्धत्वेनैकेन मण्डिताः परमोत्कर्षमवापुरिति भावः। अत्र पूर्वश्लोके वर्णैर्नुनोद इति उत्तरश्लोके निभृतमर्पिता संदेशवागितीवेह श्लोके अमितार्थापत्रहार्योरसाधारणं लक्षणं किंचिन्नास्तीति पारिशेष्यादियं निसृष्टार्थैव ज्ञेया॥५५॥ ५६॥सान्द्रनिद्रेति। स्वप्नेऽप्यहं त्वन्मनस्कास्मीति स्वानुरागो दर्शितः॥५७॥॥५८॥ त्वष्टुर्विश्वकर्मणः। विश्वकर्मा एव त्वं स्त्रीरूपेणावतीर्णासीति भावः। इत्यभ्यर्थितयैवेति चित्राययव कर्त्र्येत्यर्थः। चित्रस्यालेख्यस्य दशां जाड्यम्।
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सन् कठिनतयैवानुभूयते। नतु कर्पूरमणिवत्तापेन यत्किंचित् स्निग्धतयापि तत्तुल्यस्येत्यर्थः। तदिदं तु तस्य साकूतमौदासीन्यं दृष्ट्वा सप्रणयकोपं वचनम्॥५४॥५५॥ चित्रीयते आश्चर्यं करोति॥॥५६॥५७॥५८॥५९॥
** दैवज्ञा—**
तवाद्य शुभरोहिणीवृषभराशिभाजः परा–
मवेत्य गणनादहं सुखसमृद्धिमत्रागता।
तदेहि मुदिराकृते परमचित्रकोदण्डभा–
गखण्डविधुमण्डला भवति विद्युदुद्द्योतताम्॥६०॥
** लिङ्गिनी—**
लिङ्गिनी तापसीवेशा पौर्णमासीवदीरिता।
यथा—
सरले न विधेहि पुत्रि चिन्तां वशगस्ते भविता व्रजेन्द्रसूनुः।
यदहं चतुरात्र सिद्धमन्त्रा जरती प्रव्रजिता तवास्मि दूती॥६१॥
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‘आलेख्याश्चर्ययोश्चित्रम्’ इत्यमरः। सहचरीणां नेत्रेषु चित्रीयते आश्चर्यमिवाचरति। ‘नमोवरिवश्चित्रडः क्यच् ३।१।१९’ इत्याचारार्थे क्यच्॥५९॥ भवति त्वयि। विद्युदिति प्रथमातिशयोक्त्या।श्रीराधाकोदण्डे भ्रुवौ, विधुमण्डलं मुखम्॥६०॥ चतुरेति। प्रथमं चातुर्येणैव तं वशीकरोति तेनाशक्तौ सिद्धमन्त्रेति तन्नाम्ना मन्त्रजपेन मन्त्रसिद्धेर्वशीकरणं फलं प्रसिद्धमेवेति भावः। ननु कदा ते मन्त्रसिद्धिरभूदित्याह—जरतीति। वाल्यादारभ्य मन्त्रजपं विनैतावन्तं कालं केन व्यतीतमकरवं तद्वदेति भावः। ननु पतिपुत्रपौत्रप्रपौत्रललनादिभिरेव जरत्यो भवन्त्यत आह—प्रव्रजिता संन्यासिनी मन्त्रजपेऽवकाशप्राप्त्यर्थमेव मया संन्यासः कृत इति भावः। अत्र प्रथमेन विशेषणद्वयेन तदन्तःकरणस्य द्वितीयेन तद्बहिःकरणस्यापि वशीकारः। वयोधिकत्वेन संन्यासित्वेन च मयि तस्य तत्पित्रोश्च
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परमचित्रेत्यादौ कोदण्डविधुविद्युद्रूपतया भ्रूमुखगौराङ्ग्याध्यवसितेति प्रथमातिशयोक्तिनामालंकारः। तदुक्तम्—उपमानेनान्तर्निगीर्णस्य स्वोपमेयस्य यदव्यवसानं सैकातिशयोक्तिरिति। भवति त्वयि॥६०॥६१॥६२॥
परिचारिका—
लवङ्गमञ्जरीभानुमत्याद्याः परिचारिकाः॥६२॥
यथा—
सहचरपरिषत्तः क्षिप्रमाराद्विकृष्ट-
स्तव गुणमणिमालामीश्वरि ग्राहितश्च।
मधुरिपुरयमक्ष्णोः प्रापितश्चाभिकक्षां
भण पुनरपि सेयं किंकरी किं करोतु॥६३॥
धात्रेयी—
धात्रेयिकास्मि मधुमर्दन राधिकाया-
स्त्वय्यद्भुतं किमपि वक्तुमिहागताहम्।
निष्पद्य कृष्णरुचिरद्य हिरण्यगौरी
सद्यः सुधाकरकलाधवलेयमासीत्॥६४॥
वनदेवी—
जात्याहं वनदेवतापि भगिनी कुत्रापि ते प्रेमतः
क्वाप्यम्बाजननी क्वचित्प्रियसखी कुत्रापि भर्तुः स्वसा।
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गौरवाधिक्यादाज्ञापालनमावश्यकं भावीति भावः॥६१॥ **लवङ्गमञ्जरीति।**सर्वासु परिचारिकासु लवङ्गमञ्जर्यांअभ्यर्हितत्वंनापलपनीयं गणोद्देशदीपिकायामपि तस्या एव प्राथम्यादिति रहस्यम्॥६२॥ स्वयं लवङ्गमञ्जर्येवाह—सहेति॥६३॥ धात्रेयी धात्र्याः पुत्री हिरण्यगौरीयं श्रीराधा कृष्णरुचिः श्यामवर्णा, पक्षे कृष्णे त्वयि रुचिर्यस्याः सा निष्पद्य भूत्वा सद्यस्तत्क्षणादेव सुधाकरस्यैका कलेवेति त्वयि प्रीत्युत्पत्तिकाल एव वैवर्ण्यकार्श्ययोरेवातिशयो जातस्तथापि सुधेति। माधुर्यमपारमिति भावः॥६४॥ मानभङ्गार्थं वृन्दया प्रहिता काचित् बहुरूपा दूती स्ववचनस्य वैयर्थ्याभावार्थं श्रीराधां प्रति स्वस्याचिन्त्यां सिद्धिं प्रख्यापयन्ती प्राह—जात्येति। कुत्रापि समये तव भगिनी अनङ्गमञ्जरी
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सहचरेति। तस्याः किकर्या या काचित् स्निग्धा तस्या एव वचनम्॥६३॥
ग्रीवामुन्नमय प्रसीद रचय भ्रूरिङ्गितादीङ्गितं
कुर्याद्वल्लवकुञ्जरः परिणतिं वक्षोजकुम्भे तव॥६५॥
अथ सखी—
स्वात्मनोऽप्यधिकं प्रेम कुर्वाणान्योन्यमच्छलम्।
विस्रम्भिणी वयोवेषादिभिस्तुल्या सखी मता॥६६॥
यथा—
न मे शोकस्तस्यां यदियमतिपूतैः प्रियसखी
हता ते दृग्भङ्गीषुभिरनुपमां यास्यति गतिम्।
परं शोचाम्युच्चैर्जगदिदमहं यन्मधुरिपो
विना तस्याः प्रेक्षामहह भविता व्यर्थनयनम्॥६७॥
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भूत्वात्वां भोजयामि परिधापयामि च, अम्बा जननी मुखरा भूत्वाहितमुपदिशामि, प्रियसखी ललितामूर्तिधारिणी भूत्वा मानं शिक्षयामि, भर्तुः स्वसा ननान्दा कुटिला भूत्वा संतर्जयामि। त्वं तु तदा तदा मां ज्ञातुं न प्रादुर्भूरेवेत्यधुना तु सौहार्देन दूत्यकाले सर्वं व्यक्तीकृत्य वच्मि। अत एव ग्रीवामुन्नमय मद्दिशीत्यर्थः। अहमदृष्टचरी दृष्टचरी वेति परिचिन्विति भावः। ततश्च मद्गौरवेण प्रसीद। यदि न ब्रवीषि तदा भ्रुवोरिङ्गिताच्चालनादिङ्गितं भावव्यक्तिं रचय यथा बल्लवकुञ्जरस्तव वक्षोजकुम्भे परिणतिंस्वकरेण परिणामम्। मर्दनमिति यावत्। वक्षोजयोः कुम्भत्वारोपेण तस्याः कुञ्जरीत्वंव्यज्य औचित्यं दर्शितम्॥६५॥६६॥ विशाखा श्रीकृष्णं प्रति श्रीराधाया दशमीं दशां सूचयति—न मे शोक इति। यदि त्वमधुनापि तामभिसर्तु विलम्बसे इति भावः। जगदिदं शोचामीति इदंपदेन स्वतर्जन्या स्वसङ्गिनीःसखीर्दर्शयति। तदुपलक्षितत्वेन सर्वं व्रजस्थं स्त्रीमण्डलमित्यर्थः। त्वां तु न शोचामि। यतस्त्वया
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॥६४॥ भ्रुवोरिङ्गिताच्चालनादिङ्गितं भावव्यञ्जनां रचय।ततश्च कुर्या इति वक्षोजयोः कुम्भत्वमारोप्य तस्यां च कुञ्जरीत्वंव्यञ्जितम्। कुञ्जरेण परिवृत्य कृतदन्ताघातः परिणतिः। सा चात्र गाढालिङ्गनादिरूपा॥६५॥६६॥६७॥
वाच्यं व्यङ्ग्यमिति द्वेधा तद्दूत्यमुभयोरपि।
तत्र कृष्णप्रियायां वाच्यं यथा—
शप प्रहर तर्ज मां क्षिप बहिः कुरुष्वाद्य वा
कदापि मतिराग्रहान्न सखि मे विरंस्यत्यतः।
प्रयामि तदहं हरेरुपनयाय सत्यं ब्रुवे
न सा श्वसितु या न वामनुभवेन्नवां संगतिम्॥६८॥
व्यङ्ग्ययथा—
सखि तर्कितासि कामितकृष्णागुरुसौरभा त्वमिह।
भवदभिमतार्थविधये नैगमसविधं गमिष्यामि॥६९॥
यथा वा—
त्वमसि किमिव बाले व्याकुला तृष्णयोच्चैः
शृणु हितमविलम्बं तत्र यात्रां विधेहि।
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स्वेच्छयैव स्त्रीवधो गृह्यत एव। आत्मानं च न शोचामि। यतोऽहं तामनु मरिष्याम्येवेति भावः॥६७॥ तद्दूत्यंतस्याः सख्या दूत्यमुभयोर्नायिकानायकयोर्विषययोरित्यर्थः। तुङ्गविद्या श्रीराधामाह—(एवमग्रेऽप्यवतारिका ज्ञेया।) शपेति। सा न श्वसितु म्रियतामित्यर्थः। या वां युवयोर्नवां संगतिम्॥६८॥ कामितं कृष्णागुरोः सौरभं यया, पक्षे कामितकृष्णा, अगुरुसौरमेति पदद्वयम्। नैगमो वणिग्नागरश्च। ‘नैगमः स्यादुपनिषद्वणिजोर्नागरेऽपि च।’ इति विश्वः। स चात्र प्रत्यासत्त्याश्रीकृष्ण एव। सविधं निकटम्॥६९॥ शब्दशक्त्युत्थं व्यङ्ग्यमुदाहृत्यार्थशक्त्युत्थमाह—यथा वेति। पूर्वशैलस्योपरि। अत्र विधुपद-
*
*
क्षिप विकिर॥६८॥ प्रथमपक्षे कामितकृष्णागुरुसौरभेत्येकं पदम्, द्वितीये कामितकृष्णेति, गुरुसौरभेति पदद्वयम्। नैगमो वणिक् नागरश्च।तत्र द्वितीये नागरो विदग्धसामान्यवाच्यपि तत्कामितत्वेन प्रस्तुतत्वात् श्रीकृष्णमेव बोधयति॥६९॥
विलसदमलरागः पूर्वशैलस्य तिष्ठ-
न्विधुरुपरि चकोरि त्वत्प्रतीक्षां करोति॥७०॥
अथ कृष्णे वाच्यम्—
तयास्मि कृष्ण प्रहिता तवाग्रे सौन्दर्यसारोज्ज्वलया त्रिलोक्याम्।
अभूतपूर्वा रचयन्विधिर्या स्वस्यापि विस्मापकतामयासीत्॥७१॥
अथ व्यङ्ग्यम्—
तत्प्रियायाः पुरः पश्चात्कृष्णे व्यङ्ग्यं द्विधा भवेत्।
तत्साक्षाद्व्यपदेशाभ्यां द्विविधं च द्विधोदितम्॥७२॥
तत्र तत्प्रियायाः पुरः कृष्णे साक्षाव्द्यङ्ग्यं यथा—
माधव कलापिनीयं न सविधमायाति मे दुराराधा।
निजपाणिना तदेनां प्रसीद तूर्णं गृहाणाद्य॥७३॥
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दृष्ट्या शब्दशक्त्युत्थं व्यङ्ग्यमिदमिति न संभावनीयम्। चकोरीति संबोधनपदवशादतिशयोक्त्यैव चन्द्रपदेनापि व्यङ्ग्यसिद्धेः, नापि रागशब्दस्य परिवृत्त्यसहत्वे तथात्वंवाच्यम्। भूम्नाव्यपदेशा भवन्तीति न्यायेनैकस्य पदांशमात्रस्य परिवृत्त्यसहत्वे तद्व्यपदेशायुक्ते॥७०॥ श्रीविशाखा प्राह—तयेति। स्वस्याप्यन्यस्य विस्मापकोऽभूदिति किं वक्तव्यम्। स्वस्यापि स्वमपि स्वयं विस्मापयामास ममैतादृशी शक्तिःकुतोऽभूद्यदेवमरचयमिति विस्मितोऽभूदित्यर्थ। तेन तांसंभुज्यैव त्वं स्वजन्म सफलयेति व्यङ्ग्यमेवेदं तथापि तयास्मि प्रहिता इत्यनेन दूत्यंवाच्यमेव जातमिति वाच्यतयेदमुदाहृतम्। श्रीकृष्णस्याग्रे नायिकादूत्यस्य सखीकृत्यस्य सर्वथा वाच्यत्वेवैदग्ध्यासिद्धेरसौरम्यं स्यात्॥७१॥॥७२॥ विशाखाह—माधवेति। कलापिनी मयूरी, पक्षे भूषणवती।
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॥७०॥ तयास्मीत्यत्र तदभिलषितविशेषरूपं विवक्षितं सौन्दर्येत्यादिना व्यङ्ग्यमेव जातमिति न साक्षादुक्तम्। तथापि तत्प्रहितेत्युक्तांशेन वाच्यं जातमिति वाच्यत्वेनोदाहृतम्। स्वस्येति। स्वमपि विस्मापयामासेत्यर्थः॥७१॥ कलापिनी वर्हिणी, पक्षे भूषणवती। ‘कलापो भूषणे वर्हे’ इत्यमरनानार्थात्।
यथा वोद्धवसंदेशे—
सन्ति स्फीता व्रजयुवतयस्त्वद्विनोदानुकूला
रागिण्यग्रे मम सहचरी न त्वया घट्टनीया।
दृष्ट्वाभ्यर्णे शठकुलगुरुं त्वां कटाक्षार्धचन्द्रा-
न्भ्रूकोदण्डे घटयति जवात्पश्य संरम्भिणीयम्॥७४॥
व्यपदेशेन यथा—
धवमुपेक्ष्य कठोरमियं पुरः परिमलोल्लसिता किल माधवी।
श्रयितुमुत्कलिकावलिताद्भुतं ननु भवन्तमुपैति हलिप्रिय॥७५॥
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‘कलापो भूषणे वर्हे’ इत्यमरः। मे मम समीपं नायाति यतो दुराराधा न वश्येत्यर्थः। पक्षे मेदुरा स्निग्धा॥७३॥ शब्दमूलव्यङ्ग्यमुदाहृत्य पूर्ववदर्थमूलमुदाहर्तुमाह—यथावेति। विशाखा श्रीकृष्णमाह—सन्तीति। स्फीताः पीनाङ्ग्यस्तव विनोदानुकूलाः क्रीडायोग्याःव्यङ्ग्यपक्षे क्रीडायामनुकूला वाम्यशून्याः। रागिणी मात्सर्यवती अनुरागिणी च। ‘रागोऽनुरागे मात्सर्ये’ इति विश्वः। न घट्टनीया न चालनीया। संरम्भिणी कोपना। तेनान्यासु युवतिषु तव कामविलासो निर्विघ्न एव स्यात् मम सहचरीं घट्टयसि चेत् कामसंग्रामो भावी। यदियं कंदर्पशास्त्रेषु महाप्रवीणा त्वया परमवीरेणापीयं दुर्जयेति जानीहीति भावः। अत्रापि रागिणीपददृष्ट्यैव न शब्दमूलत्वं वाच्यम्; तद्विनापि व्यङ्ग्यसिद्धेः॥७४॥ विशाखाह—धवं तन्नामवृक्षं पतिं च। माधवी वासन्ती वशीकृतस्वकान्ता च। उत्कलिका उत्कृष्टा कलिका उत्कण्ठा च। तया वलिता
*
मे मया दुराराधा कृच्छ्रेणाराध्या।संवन्धविवक्षया कर्तरि षष्ठीतृतीयार्थमव्ययं वा।पक्षे मेदुरा स्निग्धा॥७२॥७३॥ सन्ति स्फीता व्रजयुवतय इति परिहास एव।न घट्टनीया न क्षोभणीया। ननु कात्र शङ्का तत्राह—त्वामभ्यर्णे दृष्ट्वा रागिणी रक्तिम्ना युक्ता सती भ्रूकोदण्डे कटाक्षार्धचन्द्रान् जवात् जवं कृत्वा घटयति। कुत एवं तत्राह—संरम्भिणी कोपावेशवती। पश्येति वाक्यार्थकर्मकम्। ननु हर्षदानेनैवाहं क्षोभयन्नस्मि न तद्वेगदानेनेति कुतः कोप इत्याशङ्क्यतं विशिनष्टि—शठकुलगुरुमिति। अन्तः शाठ्यमेव तवेति भावः॥७४॥ धवं पतिम्, पक्षे वृक्षविशेषम्।माधवी वासन्ती, पक्षे वशीकृतस्वान्ता।उत्क-
तत्प्रियायाः पश्चात्साक्षाद्व्यङ्ग्यं यथा—
स्फुरस्फुरमणिप्रभः सुरमणीघटाश्लाघितां10
सदाभिमतसौरभः प्रकटसौरभोद्भासिनीम्।
मुकुन्द मुदिरच्छविर्नवतडिन्निभां तामसौ
भवानपि न चम्पकावलिमृते किल भ्राजते॥७६॥
व्यपदेशेन व्यङ्ग्यं यथा—
शैलस्तुङ्गशिरा विराजति सरस्तस्योत्तरे विस्तृतं
तत्तीरे वनमुन्नतं तदुदरे हारी लतामण्डपः।
तस्य द्वारि गभीरसौरभभरैराह्लादयन्ती दिशः
फुल्ला ते मधुसूदनाद्य पदवीमालोकते मालती॥७७॥
यथा नायिकया दूत्ये वयस्याया नियोजनम्।
कृष्णाय क्रियते तस्य प्रकारोऽयं विलिख्यते॥७८॥
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युक्ता। हलिप्रिय, हे कदम्बवृक्ष, पक्षे बलदेवप्रिय॥७५॥ चम्पकावल्याः सखी प्राह—स्फुरदिति। स्फुरतः सुरमणेः कौस्तुभस्य प्रभा यत्र सः। शोभनानां रमणीनां घटया श्लाघिता स्तुताम्। अभिमतं सौरभं सुरभीसमूहो यस्य सः। चम्पकावलिमृते इति। तस्यास्तव च विशेषणसाम्यात्तया साहित्येनैव तव स्थितिरुचितेति भावः॥७६॥ शैलोऽत्र गोवर्धनः, सरो राधाकुण्डम्।हे मधुसूदन हे भ्रमर, पक्षे कृष्ण।मालती प्रसिद्धा, पक्षेऽतिशयोक्त्या
*
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लिका उत्कृष्टकलिका पक्षे उत्कण्ठा। हलिप्रिय हे बलदेवप्रिय, हे कदम्ब॥७५॥ चम्पकावलिं तन्नाम्नीं विना भवानपि न विभ्राजते। तस्या हि त्वयि तादृशताया योग्यतास्तीति श्लेषेणाह—स्फुरतः सुरमणेः कौस्तुभस्य प्रभा यत्र सः। सौरभं सुरभीसमूहः। द्वितीयं तत्सौगन्ध्यम्। पुनर्गुणेनापि योग्यतामाह—मुदिरेति॥७६॥ मालती लताविशेषः, पक्षे तन्नाम्नी काचित्॥७७॥७८॥७९॥
नियोजनं क्रियासाध्यं वाचिकं चेति तद्द्विधा।
तत्र क्रियासाध्यम्—
दिवि वीक्ष्य नवाम्बुदंतथासौ परिरम्भोद्यममाततान तन्वी।
अपि किंचिदिहानुदीर्य वाचा प्रजिघायाघभिदे यथा वयस्याम्॥८०॥
यथा वा—
मुहुरपि विधुरान्तर्वेणुमाकर्ण्य मुग्धा
स्वयमिह न वयस्यां माधवाय न्ययुङक्त।
अपि तु विशदमस्याः स्वेदशालिन्यरुद्धा
तनुमनु विकसन्ती कण्टकश्रेणिरेव॥८१॥
अथ वाचिकम्—
वाच्यं व्यङ्ग्यमिति प्रोक्तं पूर्ववद्वाचिकं द्विधा।
तत्र वाच्यं यथा—
त्वमसि मदसवो बहिश्चरन्तस्त्वयि महती पटुता च वाग्मिता च।
लघुरपि लघिमा न मे यथा स्यान्मयि सखि रञ्जय माधवं तथाद्य॥८२॥
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श्रीराधा॥७७॥७८॥७९॥ नान्दी पौर्णमासीमाह—दिवीति। असौ श्रीराधा परिरम्भोद्यमं वाहुद्वयप्रसारणेन तदनुकरणम्। वाचानुदीर्यानुक्त्वापि प्रजिघाय प्रहितवती॥८०॥ क्रियासाध्यमिति। क्रिया ह्युत्कण्ठा कार्यज्ञापनरूपा। तत्कार्यं च द्विविधमनुभावरूपं सात्त्विकरूपं च पूर्वमुदाहृतम्। उत्तरमुदाहर्तुमाह—यथा वेति। मुग्धा नववयाः। सखी प्रति स्पष्टं वक्तुमसमर्थेति भावः। अरुद्धां किंचिद्वस्त्रोद्धाटनेनानाच्छादितां सखी मे कण्टकश्रेणीं पश्यतु यथा मदौत्सुक्यज्ञानेन श्रीकृष्णमानयेदित्यवोधनमेवात्र नियोजनसाधनं ज्ञेयम्। स्वेदशालिनी प्रस्वेदयुक्ता। कण्टका पुलकाः॥८१॥ श्रीराधा विशाखामाह—त्वमसीति। असवः प्राणाः। अत एव त्वयि विश्वसिमीति भावः।
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‘परिरम्भोद्यमं नाट्यशास्त्रोक्तं लघु लघु तदनुकरणम्। प्रजिघाय प्रहितवती॥८०॥ अरुद्धा रोद्धुमशक्येत्यर्थः। ‘पराजेरसोढः’ इत्यत्र ‘असोढः सोढुम-
अथ व्यङ्ग्यम्—
अत्र शब्दार्थमूलत्वाद्वयङ्ग्यं च द्विविधं भवेत्॥८३॥
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पटुता चातुर्य वाग्मिता वावदूकता ते चैवं ज्ञेये। त्वया पुष्पावचयमिषेण वनं भ्रमन्त्या तस्य निकट एव तमदृष्टवत्यैव तं श्रावयित्वा स्वसखीभिः सह कथोपकथासु वधूजनप्रसङ्गे सर्वाभ्यः सकाशादपि मद्रूपप्रेमादय आधिक्येन वर्णनीयाः। ततश्च तेनागत्य त्वन्निकट एवं वक्तव्यम्—सखि, कामेवमद्भुतमाधुर्यांवर्णयसीति। ततश्च त्वया साशङ्कं ससंभ्रमं वक्तव्यं—न **कामपीति।**सखि, मा भैषीः कोऽप्यत्र दोषो न भविष्यति यामवोचस्तां परिचाययामीति। माधव, तया ज्ञातया तवकिं कार्यमिति। सखि, अस्ति महदेव रहस्यं कार्यमिति।माधव, इतोऽपसर। तस्यास्तव च महदेव वैसादृश्यं स्वभाववैजात्यात्। अतस्तव तथा न किमपि कार्यमिति। सखि, किं तत्स्वभाववैजात्यंब्रूहीति। माधव, त्वं स्त्रीलम्पटः सा पतिव्रता, त्वंचञ्चलः सा परमधीरा, त्वं धर्मकर्महीनः सा देवपूजापरा, त्वमशुचिः सा त्रिसवनस्नानपरा धौतवस्त्रालंकारवतीति। सखि, अहमपि ब्रह्मचारीत्यत्र दुर्वासामुनिरेव प्रमाणम्।अहमचञ्चल इत्यत्र सप्तदिनपर्यन्तमेकहस्तेन गोवर्धनधारणमेव प्रमाणम्।अहं सांप्रतं पित्राज्ञया श्रीभागुरेर्गुरुदेवालब्धविष्णुमन्त्रदीक्षाक इत्यत्र गार्गीनान्दीमुखीपौर्णमास्य एव प्रष्टव्याः। अहं शुचिः साक्षान्मूर्त एवात्र त्वदनुभव एव प्रमाणमिति।माधव, तदपि त्वं पुरुषजातिः सा कुलजा न त्वां द्रक्ष्यतीति। सखि, सा मा मां पश्यतु, अहं तु तां परमधर्मवतीं दूरादपि दृष्ट्वा कृतार्थीवुभूषामीति। माधव, कस्तत्रोपाय इति। सखि, अत्रैव गोवर्धनकन्दरामन्दिरेऽद्यैव मया एका सूर्यदेवमूर्तिः स्थापनीया स्वहस्तेन मन्दिरलेपनादिकमपि कृत्वा दूरे स्थास्यामि। त्वयादृष्टचरस्य देवस्य दर्शनपूजनाद्यर्थं सात्रानेतव्या। ततश्च तस्याः पूजार्थमत्रोपविष्टायाः पृष्ठदेशदर्शनेनापि कृतार्थीभविष्यामि। यदि च तव कृपया संमतिर्भाविनी तदालक्षितमागत्य शनैः पादपीठश्च प्रष्टव्य इति। माधव, अत्र कमप्युत्कोचं दास्यसीति। सखि, आत्मानमेव तव हस्ते विक्रेष्याम्युत्कोचस्य का वार्तेति। माधव, समाश्वसिहि मनोरथमिमं ते संपादयिष्यामि इत्युक्त्वा आगत्य मां तत्र नयेति श्रीराधाया
*
*
शक्य इतिवत्। कण्टकाः पुलकाः॥८१॥८२॥८३॥समभ्यसितुमनु-
तत्र शब्दमूलं यथा—
नहि शिक्षितुं वरकलासु कौशलं
गुणचातुरीं च न मृगाक्षि कामये।
तमहं समभ्यसितुमेव सुभ्रुवां
सखि केशबन्धनविशेषमर्थये॥८४॥
यथा वा—
ण पउमराअप्पमुहं रअणं कामेइ गोइ मे हिअअम्।
किन्तु सदा हीरवरं वाञ्छइ हारान्तरे कादुम्॥८५॥
[न पद्मरागप्रमुखं रत्नं कामयति गोपि मे हृदयम्।
किंतु सदा हीरवरं वाञ्छति हारान्तरे कर्तुम्॥ ]
अथार्थमूलम्—
आक्षेपेण स्वपत्यादेर्गोविन्दादेःप्रशंसया।
वैशिष्ट्येन च देशादेरर्थमूलमनेकधा॥८६॥
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मनोगत एवोपदेशः स्वसख्यै विशाखायै ज्ञेय इति॥८२॥८३॥ सुभ्रुवां केशानां बन्धनविशेषं वेणीकवर्यादिरूपतयेत्यर्थः। पक्षे सुभ्रुवां धनविशेषंकेशवमभ्यसितुमनुशीलयितुम्। अत्र केशवपदस्य विशेष्यत्वात्तस्यैव धनविशेषत्वस्य तात्पर्यविषयीभूतत्वात् तन्मात्रपरिवृत्त्यसहत्वेऽपि शब्दशक्त्युत्थध्वनिविशेषो नानुपपन्नः॥८४॥ मुग्धाया नियोजनमुदाहृत्य प्रौढाया वक्तुमाह—यथा वेति। ण पउमेति। ‘न पद्मरागप्रमुखं रत्नं कामयते गोपि मे हृदयम्। किंतु सदा हीरवरं वाञ्छति हारान्तरे कर्तुम्॥’ हीरवरं हीरकश्रेष्ठम्, पक्षे
*
*
शीलयितुम् सुभ्रुवां धनविशेषं केशवमिति तु व्यङ्ग्यम्॥८४॥ ण पउमेत्यत्र ‘न पद्मरागप्रमुखं रत्नं कामयते गोपि मे हृदयम्। किंतु सदा हीरवरं वाञ्छति हारान्तरं कर्तुम्॥ इति वाच्यम्। सदा आभीरवरं श्रीगोपालमिति तु व्यङ्ग्यम्
** तत्र स्वपत्याद्याक्षेपेणयथा—**
विधातुर्दौरात्म्यान्न हि वहति घोरप्रकृतये
रुचिं चेतः पत्ये हतवपुरिदं दीव्यति रुचा।
भजत्कक्षामक्ष्णोर्विषममिदमुग्रं प्रहरते
यमीतीरारण्यं किमिह सखि शिक्षां न तनुषे॥८७॥
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आभीरवरं श्रीकृष्णम्॥८५॥ पूर्वरागवती श्रीराधा विशाखामाह—विधातुरिति। मया कोऽपराधः कृतो यदघोरप्रकृतिः पतिर्मह्यं दत्त इति तस्यैव दौरात्म्यमिति तत्र चेतसो रुच्यभावे मम को दोष इति सखीप्रत्यायनैव। वस्तुतस्तु यदि सुन्दरप्रकृतिरपि पतिरदास्यत्तदपि रुचिर्नाभविष्यत् ; मच्चेतसः श्रीकृष्णैकग्राहित्वादित्याभ्यन्तरो विचारः। ननु पत्यै रुचिर्नोपपद्यतां नाम तदपि कुलाङ्गनया त्वयान्यस्मिन् पुरुषे रुचिस्तु न कार्यैव। तत्राह—हतवपुरिति। रुचा यौवनोत्थकान्त्या दीव्यति दिने दिने सखेलमेव भवतीति। तत्रैतादृग्यौवनवतो वपुष एव दोषो न मच्चेतस इति भावः। ननु तथापि सप्रतिष्ठया त्वया परमलज्जावत्यास्वधर्ममवेक्ष्य धैर्यमेव कार्यम्। तत्राह—भजदिति। ममाक्ष्णोकक्षां प्राप्नुवत् यमी यमभगिनी तस्यास्तीरारण्यं प्रहरते कन्दर्पाग्निमुद्दीप्यते मात्रं न मां ज्वालयति। न च कयापि युक्त्या शाम्यतीत्याह—उग्रमिति। नाप्यत्र मणिमन्त्रमहौषधादयः प्रभवन्तीत्याह—**विषममिति।**इह विपत्तौ कि शिक्षां न तनुष इति नात्र शिक्षावकाश इति भावः। तेन कुलधर्मलज्जाप्रतिष्ठाभ्योजलाञ्जलिं दत्त्वाश्रीकृष्णं शीघ्रमानय यदि
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॥८५॥८६॥ विधातुरिति। जातपूर्वानुरागायाःकस्याश्चिद्वचनम्। तत्र विधातुर्दौरात्म्यात् यो घोरप्रकृतिः पतिर्जातस्तदर्थं चेतो रुचिं न वहतीत्येतावत्युक्तिः सख्या विप्रतिपत्तिं वितर्क्यसमाधातुमेव। वस्तुतस्तु प्रत्ये चेतो रुचिं न वहतीत्येतावन्मात्रं विवक्षितम्। तदेतदुक्त्वा विधातुर्दौरात्म्यादेवेत्यनुगमय्य हतवपुरित्यादिकं यदुक्तं तत्तु वपुरयोग्यता यदि सात्तदा निर्विद्यापि स्थातुं शक्ता स्यां तच्च विपरीतं जातमिति विवक्षया। तत्र च यमीतीरारण्यमुद्वेजकं जातमित्याह—भजदिति। प्रहरते तत्र प्रहारित्वेन प्रसिद्धं कमपि नायकं प्रत्याकर्षणाय मम हृदयं ताडयति। तस्मात्त्वं किं किं शिक्षां न तनुषे। यया पूर्ववदत्रापि
गोविन्दादेःप्रशंसया यथा—
कुलस्त्रीणां नेष्टा परपुरुषरूपस्तुतिकथा
तथापि त्वं प्राणाः सखि मम बहिष्ठाः स्वयमसि।
कियानास्ते तस्मिन्व्रजपतिकुमारे मधुरिमा
छटाप्याराद्यस्य म्रदयति दृशोर्द्वन्द्वममृतैः॥८८॥
यथा वा—
दूत्यचक्रचतुरासि चञ्चले नन्दनो व्रजपतेः स नागरः।
मां जहाति शिशुता च रक्षणी माकृथाः सखि ततः प्रमादिताम्॥८९॥
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मतेप्राणान् रक्षितुमिच्छसीति ध्वनिः॥८६॥८७॥ श्रीराधा विशाखामाह—कुलेति। तथापीति त्वां कथयाम्येवेत्याक्षेपलब्धम्। यतस्त्वं प्राणा इति युक्तमुक्तं नहि प्राणेषु गोप्यत इति भावः।छटापि आराद्दूरादपि मम दृशोर्द्वन्द्वममृतैः सुधाभिरिच म्रदयति तयोः कठिनतां विलोक्य मृदूकरोति स्नेहयतीति यावत्। तेन न तं द्रक्ष्यामीति कृतप्रतिज्ञाया अपि मम दृशौ तस्मिन्नेव स्नेहवत्यो तत्पक्षपातिनावेव बभूवतुरिति भावः॥८८॥ गोविन्दादेः प्रशंसयेत्यादिशब्दाद्दूत्या अपि प्रशंसार्थमाह—यथावेति। हे चञ्चले इति। दुस्त्यजोऽयं स्वभावो यद्दूत्यकर्मणि चातुर्यम्। स नागर इति तत्रापि मे कापि क्षतिर्नाभविष्यद्यदि स नागरो नाजनिष्यत्। किं चात्रापि मम स्वनिष्ठारक्षणे यस्या बलेन साहसमासीत्सापि शिशुता च मां जहाति। अत प्रमादितामनवधानताम्। तेन भ्रमेणापि मदग्रतो दूत्यचातुर्ये प्रस्तुते मम सतीत्वं न स्थास्यति मम तव च लोके कलङ्कोभविष्यति अतः परिणामदर्शिन्या भवत्या स्वस्वभावं संगो-
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निर्विण्णा स्यामिति शेषः।प्रहारोऽयं तु दुःसह इति तत्र विहरन्तं तमेव ‘योजयेति गूढोऽभिप्रायः॥८७॥ तथापीत्यादौ तस्मात्। कथयामीति शेषः। आराद्दूरात्। अमृतैस्तैरिव दृशोर्द्वन्द्वं म्रदयति मृदूकरोति स्नेहयति॥८८॥ श्रीकृष्णमाधुरीं भङ्ग्याव्यञ्जयन्तीं कापि सरोषमिवाह—***दूत्येति।*प्रमादितामनवधानतां परिणामदर्शित्वाभावेनेदृशप्रलापितामित्यर्थः॥८९॥
** देशादिवैशिष्ट्येन यथा—**
वृन्दारण्ये व्रततिपटलीसंकटे पुष्पहेतो-
र्भ्रामंभ्रामं सहचरि चिरं श्रान्तिमभ्यागतास्मि।
तद्विश्रान्तिं क्षणमिह करोम्येकिकाहं निकुञ्जे
त्वं कालिन्दीतटपरिसरादाहरेथाःप्रसूनम्॥९०॥
यथा वा—
मधुरिता मधुना विधुनाप्यसौ सखि पतङ्गसुतापुलिनाटवी।
सवयसा वयसा च विभूषिता तनुरियं किमिह क्षममुच्यताम्॥९१॥
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इति दूतीप्रकरणम्।**
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प्यैव स्थेयमिति भावः। आन्तरो भावस्तु त्वं दूत्यचक्रचतुरासीति प्रशंसयैव। तव चातुर्यं च फलिष्यत्येव; यतः स नागर एव, संप्रति ममापि काचन वामता नास्ति। अतः प्रमादितां दूत्ये शैथिल्यं मा कृथाः। अन्यथा कामशरप्रहारपौनः—पुन्येन मम प्राणापगमे कस्मै स्त्रीवधो लगिष्यति। न तावत् कंदर्पाय तस्य व्याधवत्तदेकवृत्तित्वात्, नापि श्रीकृष्णाय तस्य नागरत्वेन मत्संगमे वैमुख्याभावात्, नापि शिशुतायै यौवनेन बलवता राज्ञा तस्या अपसारितत्वात्, यौवनाय तस्य तदर्थमेवागतस्यातिपतितत्वात्। अतो मत्समीपवर्तिन्यै दूत्यकर्मणा मद्रक्षां कर्तुं समर्थायै धार्मिकायै तुभ्यमेव लगिष्यतीति स्वयमेव विचार्यतामिति॥८९॥ संकटे व्याप्ते। पुष्पहेतोरिति। भ्रामं भ्राममिति। तेनाभिलषणीयं पुष्पमत्र न लब्धम्।कालिन्दीति। यथा तेन प्रसूनेन इहैकिका कुचयोर्मण्डनं करोमीति भावः। ततश्च त्वं प्रसूनमाहरेथा इति तदुक्तिभङ्गीं ज्ञात्वा तत्र तथा श्रीकृष्ण आनीत इति विवेचनीयम्॥९०॥ तत्र नियोजनप्रकारस्य दूत्यर्थता असाधारणतया न सम्यगुद्भूतेत्यपरितुष्यन्नाह—यथा वेति। सखि, तवाद्य बुद्धिकौशलं परीक्षिष्य इति श्रीराधा विशाखामाह—**मधुरितेति।
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पुष्पाहरणव्याजेन सख्याभिसारिता सौरभ्येणाधिगतश्रीकृष्णसांनिध्या काचित्तां प्रति प्राह —वृन्दारण्य इति॥९०॥ एका सखी यां येन सख्यन्तरेण पुष्पाद्याहरणमिषात् प्रस्थाप्य स्वयं श्रीकृष्णमानेतुं गतापि शीघ्रं नागतेति सा
सखीप्रकरणम्।
प्रेमलीलाविहाराणां सम्यग्विस्तारिका सखी।
विस्रब्धरत्नपेटी च ततः सुष्ठुविविच्यते॥१॥
एकयूथानुपक्तानां सखीनामेव मध्यतः।
अधिकादेर्भिदा ज्ञेया प्रखरादेश्चपूर्ववत्॥२॥
प्रेमसौभाग्यसाद्गुण्याद्याधिक्याधिका सखी।
समा तत्साम्यतो ज्ञेया तल्लघुत्वात्तथा लघुः॥३॥
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मधुना वसन्तेन विधुना चन्द्रेणापीति यथा वस्तुद्वयेनाटवीयं मधुरीकृता तथैव वस्तुद्वयेन मम तनुश्चेत्याह—सवयसा सख्या तिलकालंकारादिभिर्वयसा यौवनेन च हावभावादिवैदग्ध्यैरटव्या, मधुविधू इव तनोः सखीयौवने क्रमेण तटस्थस्वरूपलक्षणाभ्यां सौन्दर्यसाधने ज्ञेये। इह किं क्षममुचितमन्यदपेक्षितं वस्त्वित्यर्थः। ततश्च तद्वस्तु साक्षादेवानीय त्वामहं दर्शयिष्यामीत्युक्त्वासखी श्रीकृष्णमानेतुं गतेति ज्ञेयम्॥९१॥ इति दूत्यभेदाः।
अथ सखीनां स्वभावभेदेन, पारस्परिक्या व्यवहृत्या प्राप्तेन स्वरूपभेदेन च वैविध्यात्तदीयदूत्यस्यापि वैविध्यं निरूपयिष्यन् प्रथमं तासां माहात्म्यमाह—प्रेमेति। न केवलं दूत्यएव तासां सखीनां प्राधान्यं किंतु रसस्य सर्व एव निर्वाहस्तन्निदानक एवेत्याह—**प्रेमेति।**सखीति जात्यैकवचनम्। विस्तारोऽत्र विख्यापनं विवर्धनं च। तत्र नायकस्य प्रेमा नायिकायां, नायिकायाः प्रेमा नायके सख्या विख्याप्यते तत एव विवर्धते च। लीला चाभिसारादिभिः प्राप्तमिलनयोर्नायकयोः स्वस्थित्या नायिकावाम्यातिशयोत्थापनेन च हासपरिहासादिभिश्च विवर्धते स्थानान्तरे समयान्तरे च विख्याप्यते। विहारश्चसंप्रयोगात्मको गुरुपत्यादिसर्वसाधनाङ्गीकारेण साहसदानाद्विवर्ध्यते समयान्तरे च संभुक्तया नायिकया सह रसोद्गाराद्विख्याप्यते चेति। सम्यगिति। स्वाभियोगादौ
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तदैव सख्यन्तरमाह—मधुरितेति। सवयसा सख्या वयसा नवयौवनेन क्षममुचितम्॥९१॥ इति दूत्यम्।
- सकलानां स्वयूथ्यसखीनामपेक्षणीयम्॥१॥२॥३॥४॥५॥६॥*
दुर्लङ्घ्यवाक्यप्रखरा प्रख्याता गौरवोचिता।
तदूनत्वे भवेन्मृद्वी मध्या तत्साम्यमागता॥४॥
आत्यन्तिकाधिकत्वादिभेदःपूर्वदत्र सः।
स्वयूथे यूथनाथैव स्यादत्रात्यन्तिकाधिका॥५॥
सा क्वापि प्रखरा यूथे क्वापि मध्या मृदुः क्वचित्।
तत्रात्यन्तिकाधिकात्रिकम्—
तत्रिकं सकलापेक्ष्यं नातीवान्यवशं तथा।
स्वयूथे तद्व्यवहृतिव्यक्तये पुनरुच्यते॥६॥
तत्रात्यन्ताधिकप्रखरा—
नीले नीलनिचोलमर्पय मघे देहि स्रजं दामनीं
त्वं कालागुरुकर्दमैः सखि तनुं लिम्पस्वचम्पे मम।
जानीहि भ्रमराक्षि कुत्र गुरवः पश्य प्रदोषोद्गमे
कुञ्जाभिक्रमणाय मां त्वरयति स्फारान्धकारावली॥७॥
अधिकप्रखराः श्यामामङ्गलाद्याः प्रकीर्तिताः।
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विनापि सखीं तत्तत्सिद्धेरसम्यक्त्वमित्यर्थः। पारम्परिकव्यवहृत्या तासां स्वरूपभेदः स्वतश्च स्वभावमेदो दूत्यर्थं जिज्ञास्य इत्यत आह—एकेति।यूथनाथेति। सापि स्वसख्या दूत्यंकुर्वाणा सखीभावमालम्बत इत्यत्र सखीप्रकरणे सापि ध्रियत इति भावः॥१॥२॥३॥४॥५॥ सकलाभिः स्वयूथ्यसखीभिरपेक्ष्यं परमादरणीयमित्यर्थः। नातीवेति। कदाचिद्देशकालादिवैशिष्ट्ये मार्दवे च परमस्वातन्त्र्येऽपि सखीनामधीनमपि भवतीत्यर्थः॥६॥ श्यामला प्राह—नीलेत्यादि (भिः) सखीनां प्रसाधनादिकं कृत्वमुक्तमर्पयेत्यादिभिराज्ञाप्रदानादत्यन्ताधिकायाः सकलापेक्ष्यत्वमन्यानधीनत्वंचोक्तम्। दामनीं दमनक-
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दामनीं दमनकसंभवाम्॥७॥ कृतमित्यलमित्यर्थे। रतहिण्डको रतिचौरः
** तत्रात्यन्ताधिकमध्या—**
अनङ्गशरजर्जरं स्फुटति चेन्मनो वस्तदा
मदर्थनकदर्थनैः कृतमितः स्वयं गच्छत।
दृशां पथि भवादृशीप्रणयितानुरूपः सुखं
यदत्र रतहिण्डकः स किल पाति गोमण्डलम्॥८॥
भवन्त्यधिकमध्यास्तु श्रीराधापालिकादयः॥९॥
अथात्यन्ताधिकमृद्वी—
शृणु सखि वचस्तथ्यं मानग्रहे मम का क्षतिः
स्फुरति मुरलीनादे को वा श्रमः श्रवणामृतौ।
अतिकठिनतादुर्वादं ते निशम्य मया व्रजे
दमयितुममुं किंतु क्षिप्तं दृगर्धमवद्विषि॥१०॥
अधिका मृदुवश्चन्द्रावलीभद्रादयो मताः।
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पुष्पसंभवाम्॥७॥ अभिसारे सखि मा विलम्बस्वेति मुहुर्ब्रुवाणाः सखीः प्रति श्रीराधा सस्मितगर्भं सप्रणयकोपमाह—अनङ्गेति। अत्र प्रतीतमप्युक्तिप्राखर्यमवहित्थयैव सिध्यतीति मध्यात्वमेव। कृतमलम्। दृशां पथि अविदूर इत्यर्थः। रतहिण्डकः स्त्रीलम्पटः। गोमण्डलं श्लेषेणेन्द्रियवृन्दं चारयति॥८॥ कलहान्तरिता चन्द्रावली पद्मां प्रत्याह—शृण्विति। व्रजे या कापि त्वया कठिनासि कठिनासीत्युच्यते तमेव ते त्वद्दास्यमानं दुर्वादं दमयितुं संकुचितीकर्तुमिति वस्तुतः कठोरत्वं न मया दूरीकृतं दृगर्धमात्रार्पणात् संभाषाद्यकारणात्तदपि
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॥८॥ अधिकमध्या इति। आत्यन्तिकाधिकमध्येत्यर्थः। प्रकरणवलादापेक्षिकशब्दस्योत्तरप्रयोगाच्च। एवमुत्तरत्रापि॥९॥ व्रजे सखीसमूहे। सखीशब्दानुक्तिस्तु गोष्ठत्वव्यक्त्या।तस्याश्च संकोचाधिक्याय यत्र त्रिलोक्यादिशब्दा
अथापेक्षिकाधिकात्रिकम्—
यौथिकीषु सखीष्वेव यूथेशातो लघुष्विह॥११॥
याधिकैकामपेक्ष्यान्या सा स्यादापेक्षिकाधिका।
तत्रापेक्षिकाधिकप्रखरा—
सुमध्ये मायासीस्त्वमधिकममीभिर्मृदुलतां
मदस्योपादानैः शठकुलगुरोर्जल्पमधुभिः।
अयि क्रीडालुब्धे किमु निभृतभृङ्गेन्द्रभणिते
कुडुङ्गे राधायाः क्लममपि विसस्मार भवती॥१२॥
यथा वा—
मुग्धे तूष्णीं भव शठकलामण्डलाखण्डलेन
त्वं मन्त्रेण स्फुटमिव वशीकृत्य तेनानुशिष्टा।
कुञ्जेगोवर्धनशिखरिणो जागरेणाद्य राधां
दृष्ट्वाप्युच्चैः सखि यदसि मे चाटुवादे प्रवृत्ता॥१३॥
ललिताद्यास्तु गान्धर्वा यूथेऽत्र प्रखराधिकाः॥१४॥
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किमिति कुप्यसीति भावः॥९॥१०॥ श्रीराधा मानभञ्जनार्थ श्रीकृष्णेन चाटुभिर्वशीकृतां सुमध्यानाम्नीं प्रियसखी ललिता सोपालम्भमाह—क्रीडालुब्ध इति। नितरां मृतं पूर्ण भृङ्गेन्द्राणां भणितं यत्र तस्मिन् कुडुङ्गे कुजे॥११॥॥१२॥ क्रीडालुब्धइति व्यङ्ग्यगर्भया परिहासोक्त्यामध्यात्वमेव स्यादित्यपरितुष्यन्नाह—यथावेति। ललिता चित्रामाह—मुग्ध इति। शठानां यत्कलामण्डलं तस्येन्द्रेण तेन श्रीकृष्णेनानुशिष्टा ललितां प्रसादयेति शिक्षिता। जागरेण
*
*
अपि प्रयुक्ता रसादिकं व्यञ्जयन्ति॥१०॥ त(अ)त्र श्रीराधासबन्धिनियूथे। दोषैकदृक् पुरोभागी तद्रूपताम्॥११॥१२॥१३॥१४॥१५॥१६॥
** अथाधिकमध्या—**
दामार्प्यतां प्रियसखीप्रहितं त्वयैव
दामोदरे कुसुममत्र मयावचेयम्।
नाहं भ्रमाच्चतुरिके सखि सूचनीया
दृष्टां कदर्थयति मामधिकं यदेषः॥१५॥
यथा वा—
गिरो गम्भीरार्थाः कथमिव हितास्ते न शृणुयां
निगूढो मां किंतु व्यथयति मुरारेरविनयः।
मयोल्लासात्तस्मै स्वयमुपहृता हन्त सखि या
कुरङ्गाक्षीकेशोपरि परिचिता सा स्रगधुना॥१६॥
अत्र यूथे विशाखाद्या भवन्त्यधिकमध्यमाः।
अथाधिकमृद्वी—
दरापि न दृगर्पिता सखि शिखण्डचूडे मया
प्रसीद बत मा कृथा मयि वृथा पुरोभागिताम्।
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सह राधां दृष्ट्वा॥१३॥ विशाखा चतुरिकानाम्नीं सखीमाह—दामेति। अत्र कदर्थयतीत्यनेन संभोगस्पृहापि व्यञ्जिका स्यात्॥१४॥१५॥ सत्यां च तस्यां नायिकात्वमेव प्रसज्जेदस्यां न तु सखीत्वमित्यपरितुष्यन्नाह—**यथावेति।**विशाखा चम्पकलतामाह—गिर इति। गम्भीरार्था इति। विशाखे श्वः सौभाग्यपौर्णमासी भवित्री अद्य राधाया मानस्थितिर्युष्मत्प्रतिपक्षसखीः सुखयतीति गम्भीरार्थाहिता गिरस्ते कथं न शृणुयामपि तु यथा तथाद्य मानं भञ्जयिष्याम्येवेति। कुरङ्गाक्षीयं काचिद्यूथेश्वरी चन्द्रावल्या वा सखी। श्रीकृष्णाङ्गात् क्वापि पतितां स्रजं श्रीराधा सखीः क्षोभयितुं स्वशिरसि धृतवतीति ज्ञेया॥१६॥ सखि चित्रे, श्रीराधामानभङ्गप्रसङ्गे त्वयैव दत्ताश्वासोऽयं श्रीकृष्ण इत एव यातायातं करोति तदिदं ते चरितं सर्वं ललितायै विज्ञापयिष्यामीति भीषयमाणां कांचित् प्रखरां श्रीराधाप्राणसखांचित्रा सानुनयमाह—**दरापीति। **
नटन्मकरकुण्डलं सपदि चण्डि लीलागतिं
तनोत्ययमदूरतः किमिह संविधेयं मया॥१७॥
अधिका मृदवश्चात्र चित्रामधुरिकादयः॥१८॥
अथ समात्रिकम्—
गाढविश्रम्भनिर्भेदप्रेमबन्धं(द्धं) समात्रिकम्।
तत्र समप्रखरा—
प्रविशति हरिरेष प्रेक्ष्य नौ हृष्टचेताः
सखि सपदि मुधा त्वं संभ्रमान्मा प्रयासीः।
पृथुभुजपरिघाभ्यां स्कन्धयोरर्पिताभ्यां
तटभुवि सुखमावां मण्डिते पर्यटावः॥१९॥
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मया दृगपि दरेषदपि नार्पिता दूरे अस्तु।संभाषणाश्वासादेर्वार्ता पुरोभागिता दोषभागित्वम् (दोषैकदृक्त्वम्) ‘दोषैकदृक् पुरोभागी’ इत्यमरः। सपदीति। यदैव त्वमिहायाता दैवात्तदैवेत्यर्थः। लीलागतिं लीलया गमनमितो दूरे कस्मै स्वकृत्याय तनोति तदहं किं ज्ञातुमीशे इति भावः। चण्डि हे कोपने। अस्य स्वच्छन्दचरितस्य राजपुत्रस्य किमहं शास्त्री क्ववेतः पलाय्यतिष्ठामीति भावः॥१७॥ गाढः सौभाग्यस्य न्यूनातिरेकाभावादतिनिबिडो यो विश्रम्भः सख्यं तेन निर्भेद एकात्मकः प्रेमा तेन बन्धं(द्धं) परस्परात्यासक्तम्। श्रीराधयैव कृतदूत्ययोः स्वप्राणसख्योस्तत्प्रीत्यनुरोधेनैवाभिसरन्त्योः समयोर्मध्ये प्रखरा प्राह—प्रविशतीति। पृथुभुजपरिघाभ्यामिति। पृथुभुजपरिघपदेन श्रीकृष्णस्यैवेति गम्यते। तदप्यस्येति संबन्धिपदानुपादानं लज्जामवहित्यां च व्यनक्ति॥१८॥१९॥ प्रियसख्योर्मिंथः परिहसन्त्योरुक्तिप्रत्युक्ती। प्रथमं श्यामे
*
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॥१७॥ पृथुभुजपरिघाभ्यामित्यत्र श्रीकृष्णस्येति गम्यत एव॥१८॥१९॥
अथ सममध्या—
श्यामे गौरि हरिः क्वदीव्यति सखि क्षोणीभृतः कन्दरे
किं पञ्चास्यनखाः स्वविक्रममधुर्वक्षोजकुम्भे तव।
आकर्षत्यभितः स नागमथनस्त्वामेव कृत्वा रवं
मिथ्यालास्यनटि त्वमेव रमसे तस्मिन्सुकण्ठीरवे॥२०॥
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गौरीति मिथः संबोधनमात्रम्।श्यामाह—हरिः क्व दीव्यति। गौरी तु वक्रोक्त्या हरिशब्दस्य सिंहवाचकत्वंख्यापयन्ती श्रीकृष्णं तु न जानामीति व्यञ्जयन्ती प्राह—क्षोणीमृतः कन्दर इति। ततश्च सत्यं सिंहमेव पृच्छामीति व्यञ्जयन्ती श्यामा सभयाभिनयं प्राह—पञ्चास्यस्य सिंहस्य नखास्तव वक्षसिजाते कुम्भे करिकुम्भस्थले स्वविक्रमं किमधुर्नवा यद्यप्यधुस्तर्हि वस्त्रमुद्धाट्य दर्शय कीदृशी व्यथा जाता तस्याश्चिकित्सां यतस्ततः स्पृष्ट्वा करिष्यामीति भावः।पक्षे अस्य श्रीकृष्णस्य पञ्च नखा अत्र कुम्मे इत्येकवचनेन नखानां पञ्चसंख्याकत्वेन श्रीहरेर्दक्षिणहस्तेन वामस्तनग्रहणं वामहस्तेन शिरोऽवगुण्ठनापसारणं गम्यते। अन्यो नामास्तु नास्तु वा एतन्मात्रसंभोगस्त्ववश्यमेवाभूदितिभावः। ततश्च सिंहस्य चरितं यत्पृच्छसि तन्मन्ये त्वया तन्मुहुरनुभूतमिति व्यञ्जयन्ती गौरी प्राह—आकर्षतीति। नागमथनो हस्तिदमनस्तेन त्वामेव हस्तिनीमाकर्षति न तु मां मृगीमिति भावः। पक्षे नागः कालियः। रवं मुरलीवम्। पुनः श्यामा प्राह—मिथ्यैव लास्यं तत्र हे नटि, अहं हस्तिनी त्वं मृगीति त्वदुक्तमेतद्व्ययमपि मिथ्यैवेत्यर्थः। किंतु शोभने कुण्ठीरवे सिंहे तस्मिन् त्वमेव रमसे अतस्त्वं भवसि तन्नखस्पर्शेऽपि तव स्वस्तिमत्त्वादिति भावः। पक्षे त्वं सुकण्ठी अतो गानविज्ञ-
*
*
श्यामे, गौरि, इति मिथः संबोधनक्रमः। तत्र श्यामाह—हरिः क्वदीव्यति सखीति। गौर्याह—क्षोणीभृत इति। तत्र शब्दच्छलं प्राप्य सिंहवाचकेन शब्दान्तरेण परिहसन्ती श्यामाह—किं पञ्चेत्यादि। तत्रास्य पञ्च नखा इति तु प्रतिपाद्यम्। अधुर्धृतवन्तः। पूर्ववत् गौर्याह—आकर्षतीत्यादि। तत्र नागमथनः सिंहः। कालियदमन इति प्रतिपाद्यम्। श्यामाह—***मिथ्येति।*मिथ्यैव लास्यं तत्रहे नटि, सुकण्ठीरवे सौष्ठववति सिंहे। सुकण्ठी त्वमित्यादि तु
अथ सममृद्वी—
प्रालम्बमिन्दुमुखि यादृशमेव दत्तं
कृष्णेन तुभ्यमपरं सखि तादृशं मे।
त्वं चेन्मदीयमपि दित्ससि नाद्य मादा
हास्यं विमुञ्च चलिता तव पार्श्वतोऽस्मि॥२१॥
अथ लघुत्रिकम्—
लघुत्रिकं प्रियसखीसौख्योत्कर्षार्थचेष्टितम्॥२२॥
यद्यप्यन्योन्यनिष्ठं स्यात्सख्यं तदपि युज्यते।
सदा साहाय्यहेतुत्वान्मुख्यं तत्तु लघुत्रिके॥२३॥
लघुरापेक्षिकी चात्यन्तिकी चेति द्विधेरिता॥
तत्रापेक्षिकलघुः—
आपेक्षिकलघुश्चात्र कथिता ललितादिका॥२४॥
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त्वात्तस्मिन् रवे मुरल्या रवे रमसे॥२०॥ प्राणसखी काचित्स्वसमामिन्दुमुखीमाह—प्रालम्वमृजुलम्वि माल्यं मदीयमपीति। यदि मदीयमुत्तमं मन्यसे तदा तदेव त्वं गृहाण त्वदीयं निकृष्टमेव मह्यं देहि। स्वीयमपि न दास्यसि मदीयमपि दित्ससि चेन्मादाः। ननु न दास्यामीति न किंतु मम मनोरथो वर्तते चल पुन श्रीकृष्णनिकटमेव तद्धस्तेनैव तव कण्ठे परिधापयिष्यामीति ब्रुवाणां तामाह—हास्यं मुञ्चोभयं त्वमेव गृहाणेत्यर्थः। तदपि हसन्ती पुनराह—चलितास्मीति॥२१॥ लघुत्रिकं लघुप्रखरालघुमध्यालघुमृद्वीरूपम्। प्रियसख्याः स्वतोऽविकायाः सख्योत्कर्षार्थमेव चेष्टितं कायिकादिव्यापारो यस्य तत्। अन्योन्यनिष्ठमिति। यद्यप्यधिकप्रखराद्या अपि लघुप्रखरादीनां सख्यं कुर्वन्ति तदपि यातायातं विनैव दूत्यादिकं कदाचिदेवेति न तासु स्वतो लघुष्वधिकानां मुख्यः सखीभाव इत्यर्थः॥२२॥२३॥ ललितादिका राधामपेक्ष्य लघुः॥२४॥
*
*
प्रतिपाद्यम्॥२०॥ प्र(प्रा)लम्बमृजुलम्बि माल्यम्॥२१॥ ‘प्रेमखिन्नजिते तदत्र सहसा लोभान्मनो मा कृथाः’ इति वा पाठः॥२२॥२३॥२४॥
तत्र लघुप्रखरा यथा विदग्धमाधवे—
धारा बाप्पमयी न याति विरतिं लोकस्य निर्मित्सतः
प्रेमास्मिन्निति नन्दनन्दन रतं लोभान्मनो मा कृथाः।
इत्थं भूरि निवारितापि तरले मद्वाचि साचीकृत-
भ्रूद्वन्द्वा नहि गौरवं त्वमकरोः किं नाद्यं रोदिष्यसि॥२५॥
सा लघुप्रखरा द्वेधा भवेद्वामाथ दक्षिणा।
तत्र वामा—
मानग्रहे सदोद्युक्ता तच्छैथिल्ये च कोपना॥२६॥
अभेद्या नायके प्रायः क्रूरा वामेति कीर्त्यते।
तत्र मानग्रहे सदोद्युक्ता यथा पद्यावल्याम्—
कंचन वञ्चनचतुरे प्रपञ्चय त्वं मुरान्तके मानम्।
बहुवल्लभे हि पुरुषे दाक्षिण्यं दुःखमुद्वहति॥२७॥
मानशैथिल्ये कोपना यथा—
सरभसमभिव्यक्तिं याते नवाविनयोत्करे
चटुपटिमभिर्नीता मृद्वीप्रसादमघद्विषा।
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श्रीराधाया गाढानुरागं प्रकटयन्ती ललिता श्रीकृष्णाग्रतस्तांमानाभासवतीं श्रीराधामाह—धारेति। प्रेमेति कर्मपदम्। साचीकृतं वक्रीकृतं भ्रूद्वन्द्वंयया सा कोपावज्ञानवतीत्यर्थः॥२५॥ अभेद्या नायकेनेति गम्यते। नायके विषये प्राय कठिनेति काठिन्यस्य सार्वदिकत्वेललितादीनां समस्नेहत्वानुपपत्तिः स्यात्। मानस्य शैथिल्यमात्रेऽपि कोपना किमुत त्याग इत्यर्थः॥२६॥ कामपि दक्षिणां यूथेश्वरी तत्सखी वामाह—कंचनेति॥२७॥ नान्दीमुखी पौर्णमासीमाह—सरभसेति। नवे नवीनेऽविनयोत्करेऽपराधसमूहे॥२८॥
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॥२५॥ नायके प्रायः क्रूरेति। तस्मिन् कठिनैवेत्यर्थः॥२६॥२७॥२८॥
असरलसखीचिल्लीव्यालीपरिभ्रमकम्पिता
विमुखितमुखी भूयो भद्राहठाद्भुकुटीं दधे॥२८॥
नायकाभेद्या यथोद्धवसंदेशे—
कामं दूरे वसतु पटिमा चाटु वृन्दे तवायं
राज्यं स्वामिन्विरचय मम प्राङ्गणं मा प्रयासीः।
हन्त क्लान्ता मम सहचरी रात्रिमेकाकिनीयं
नीता कुञ्जे निखिलपशुपीनागरोज्जागरेण॥२९॥
नायके क्रूरा यथा दानकेलिकौमुद्याम्—
अमूर्ब्रजमृगेक्षणाश्चतुरशीतिलक्षाधिकाः
प्रतिस्वमिति कीर्तितं सवयसा तवैवामुना।
इहापि भुवि विश्रुता प्रियसखी महार्घ्येत्यसौ
कथं वदति साहसी शठ जिघृक्षुरेनामसि॥३०॥
यूथेऽत्र वामप्रखरा ललिताद्याः प्रकीर्तिताः॥३१॥
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ललिता श्रीकृष्णमाह—काममिति। चाटुवृन्दे चाटुसमूहे। पटिमा पाटवम्। दूरे वसत्विति मदग्रे स्थातुमशक्तेः। मम प्राङ्गणं मा आगच्छेति अहमेवैका त्वत्प्रतिकूला स्वप्राङ्गणान्निःसृत्य कदापि तव राज्ये विघातं न करिष्यामीति विश्वसिहीति भावः। ननु प्राङ्गण एव राधा तां विना च वहिः किं मे राज्येनेति सत्यं मिथ्यावादिशिरोमणिरसीत्याह—हन्तेति। उज्जागरेण रात्रिं नीतेयं त्वंतु पशून् पान्ति पालयन्तीति पशुप्यो गोप्यस्तासां नागरोऽतः किं ते राधयेति भावः॥२९॥ ललिता श्रीकृष्णमाह—अमूरिति। प्रतिस्वंस्वं स्वम्। एकैकेति यावत्। अमुना मधुमङ्गलेन कीर्तितं नान्दीमुख्युक्तसूत्रव्याख्याप्रसङ्गे। इहापि
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प्राङ्गणमिति समीपदेशमित्यर्थः॥२९॥ हे सुन्दरीति सखीमुख्यायाःसंवोधनम्। प्रियसखीं यूथेशाम्॥३०॥३१॥३२॥३३॥३४॥३५॥
अथ दक्षिणा—
असहा माननिर्बन्धे नायके युक्तवादिनी।
सामभिस्तेन भेद्या च दक्षिणा परिकीर्तिता॥३२॥
तत्र माननिर्बन्धासहा श्रीगीतगोविन्दे—
स्निग्धे यत्परुषासि यत्प्रणमति स्तब्धासि यद्रागिणि
द्वेषस्थासि यदुन्मुखे विमुखतां यातासि तस्मिन्प्रिये।
तद्युक्तं विपरीतकारिणि तव श्रीखण्डचर्चा विषं
शीतांशुस्तपनो हिमं हुतवहः क्रीडामुदो यातनाः॥३३॥
नायके युक्तवादिनी यथा पद्यावल्याम्—
अदोषाद्दोषाद्वा त्यजति विपिने तां यदि भवा-
नभद्रं भद्रं वा व्रजकुलपते त्वां वदतु कः।
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सर्वास्वस्मासु मध्ये प्रियसखी राधा महार्घानहि यूथेश्वरी अन्यतुल्या भवितुमर्हतीति भावः। साहसीति। चतुरशीतिलक्षमात्रशुल्के कृते ततोऽप्यधिकमूल्याया श्रीराधाया ग्रहणे राजफूत्कारादपि न किं विभेषीति भावः। हे शठेति। ‘शठे शाठ्यं प्रकुर्वीत’ इति न्यायेन वरं राज्ञः सकाशादश्ववारा आनेतव्या इति भावः॥३०॥३१॥३२॥ तुङ्गविद्या कलहान्तरितां श्रीराधामाह—यद्यतः स्निग्धे तस्मिन् प्रिये श्रीकृष्णे तद्विपरीतधर्मा त्वं परुषासि तत्तस्मात् श्रीखण्डचर्चापि विषं तद्विपरीतधर्मकम्। विषवद्दाहकं भवतीत्यर्थः। यथा क्रियते तथा भुज्यत इति न्यायात्। रागिण्यनुरागिणि। क्रीडायां मुदो हर्षा एव यातनाः। केलौ यान्येव सुखदानि तान्येव दुःखदान्यभूवन्नित्यर्थः॥३३॥ रसान्तर्धाने ‘ददृशुः प्रियविश्लेषान्मोहितां दुःखितां सखीम्’ इत्युक्तेः श्रीकृष्णेन परित्यक्तां श्रीराधां मूर्च्छितां वीक्ष्य काचित्तस्याः सखी श्रीकृष्णमन्वेष्टुं वनं प्रविश्य प्राप्तं च तमनुनयन्तमुपालभते—अदोषादिति। नय मां यत्र ते मन इति। स्वाधीनभर्तृकाया गर्वस्य समुचितत्वादित्यर्थः। दोषादिति। अहंकारिणा त्वया रसिकशेखरेण तद्वचनस्य सोढुमशक्यतया दोषत्वेनैव गृहीतत्वादित्यर्थः। व्रजकुलपते इति। व्रजपतेः पुत्रस्त्वमपि व्रजकुलस्य पतिरतो दुर्ली-
इदं तु क्रूरं मे स्मरति हृदयं यत्किल तया
त्वदर्थं कान्तारे कुलतिलक नात्मापि गणितः॥३४॥
नायकभेद्या यथा—
न व्यर्था कुरुषे ममैव भणितिं मध्ये सखीनामिति
श्रुत्वा ख्यातिमसौ कृती मधुरिपुर्मा बाढमाशिश्रिये।
दृष्ट्वा मद्वदनं प्रसीद रभसादेनं पुरः कातरं
कल्याणीमिरलं कृशोदरि दृशोर्भङ्गीभिरङ्गीकुरु॥३५॥
तुङ्गविद्यादिका चात्र दक्षिणप्रखरा भवेत्।
अथ लघुमध्या—
त्वया रचितसंकथां पथि समीक्ष्य मां मानिनी
सखी मम विषण्णधीःकृतकटाक्षमाक्षेप्यति।
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लराजपुत्रस्य तव व्रजस्यापि वधे पालने वा किमभद्रं वा किं पुनरेकस्यास्तस्या वधे। मम तु क्रूरं हृदयमिति विरुद्धलक्षणयोक्ति। तथा कुलतिलकेति चात्र कुलपते कुलतिलकेति कुलपदस्य पौनरुक्त्यंन मन्तव्यं समूहस्वगोत्रवाचित्वेनार्थभेदात्। पद्यमिदं मध्यात्वगमकमपि त्यजतीति क्रूरमिति गणित इति पदैः प्रौढिवादात् प्राखर्ये उदाहृतम्॥३४॥ तुङ्गविद्या कलहान्तरितां श्रीराधामाह—न व्यर्थमिति। ममैवेति मानसमये विशाखादय इव मानं त्यजेत्युत्कण्ठासमये ललितादय इव मानं कुर्विति त्वामहं कदापि नावोचमतो ममैव न तु तासामित्यर्थः। कृती पण्डितस्तां मत्ख्यातिं परीक्षितुमिति भावः। दृष्ट्वा मद्वदनमिति त्वयैव दत्तां तां मत्ख्यातिं त्वमेव चेद्विध्वंसयिष्यसि तदा जन्मपर्यन्तं मन्मुखं म्लानं त्वां प्रति समौनमेव स्थास्यति। ‘संभावितस्य चाकीर्तिमरणादतिरिच्यते।’ इति नीतेः। अयि परामर्शशून्ये तर्हि किं कर्तुमाज्ञापयसीत्यत आह—एनं पुनः कातरमित्यादि। ततश्च सा रभसात् पादलग्नं श्रीकृष्णमश्रुभिरभ्यषिञ्चत्। सोऽपि स्वपाणिना तन्मुखं संमार्ज्य चुचुम्बेति ज्ञेयम्॥३५॥ चम्पकलता सचाटुकारं श्रीकृष्णमाह—त्वयेति। संकथा संवादः। समीक्ष्येति स(स्व)-
व्रजाधिपतिनन्दन त्वमवधेहि मन्त्रं ब्रुवे
विनात्र ललिताश्रयं भवदुपक्रमोऽयं वृथा॥३६॥
अथ लघुमृद्वी—
सखि तव मुहुर्मूर्ध्ना पादग्रहोऽपि मया कृत-
स्तदपि च हरौ जातासि त्वं प्रसादपराङ्मुखी।
भवतु यमुनातीरे वेणोर्निशम्य पराक्रमं
विचलितधृतिस्त्वं लोलाक्षी मयापि हसिष्यसे॥३७॥
अथात्यन्तिकलघुः—
आत्यन्तिकलघुस्तत्र प्रोक्ता कुसुमिकादिका।
सर्वथा मृदुरेवेयं यन्नितान्तलघीयसी॥३८॥
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परिजनद्वारा दूरतः स्वयमेव वा। आक्षेप्स्यति चम्पकलते को रहस्य उत्कोचः श्रीकृष्णाल्लब्धइत्येवम्। व्रजेति। व्रजस्यानन्ददायिनि पुत्रे त्वयि सा ललिता गौरवं करिष्यत्येवेति भावः। अवधेहीति युक्त्यन्तरं स्वहृदयादुत्थितमन्यमुखाद्वा श्रुतं त्वत्कार्यसाधकं किं न भवेदिति मनसि विचारयेत्यर्थः। मन्त्रं मन्त्रणां श्लेषेण मन्त्र इव स्वहृदय एव गोप्यः न तु कस्याश्चिदग्रेमन्नामोल्लेखः कर्तव्य इत्यर्थः। ब्रुवे इत्यात्मनेपदमात्मदोषाच्छादनफलकम्। त्वामत्र वच्मि विदुषामित्यादिवदत्र पद्ये ध्वनयोऽन्वेष्टव्याः॥३६॥ चित्रा मानिनीं श्रीराधामाह—सखीति। मुहुरिति। अपेहि दुर्बुद्धे अपेहीति। त्वत्कृततिरस्कारभगणयित्वेति भावः। भवत्विति। स्वसंमतिव्यञ्जकं तवाभीष्टमेव भवत्वित्यर्थः। यदि त्वं प्रसन्ना अभविष्यस्तदा त्वत्कृतं तिरस्कारमप्यहं सत्कारमेवामस्ये, अधुना तु तिरस्कारस्य फलमहं मृदुरपि तुभ्यं दास्यामीत्याह—यमुनातीर इति।वेणोरिति। अस्मान् सखीस्त्वदुपकारेऽप्रभविष्णुरनादृत्य सा स्ववेणुमेव शरणं यास्यतीति भावः। मम धृतिर्दुर्जयेति मावादीरित्याह—विचलितेति। कथं त्वंधृतेश्वलनं ज्ञास्यसीत्यत आह—लोलाक्षीति। तदानीं तदक्ष्णौर्लौल्यमेव तत्कथयिष्यतीति भावः। ततश्च स्वयमभिसरिष्यन्ती यद्धसिष्यसे तत्र कः संदेह इति इयं कार्यवशान्मध्यात्वस्पार्शिन्यपि स्वभावतो मृदुरेवेति मार्दवे उदाहृता
यथा—
वन्दे सुन्दरि संदिश प्रियसखीं मानं विमुञ्चत्वसौ
सोत्कण्ठापि मनस्विनीव वसति त्वच्छङ्कया वेश्मनि।
दूरे त्वन्मुखमीक्षतेहरिरयं मौनं शुकः शिक्षते
लास्यं नेच्छति चन्द्रकी सवयसः क्वास्मीति न स्वंविदुः॥३९॥
प्रखरादिष्वन्यतमा यूथेशैकैव कीर्तिता।
मध्यस्था नवधैवान्त्या समा लघुरिति द्विधा॥४०॥
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॥३७॥ कुसुमिका ललितां प्रत्याह—वन्द इति। ननु किं तत्र गत्वा तस्याः पादे निपत्य मया मानत्यागो भिक्षणीयः। नहि नहि अत्रैव स्थित्वा संदिश। मद्द्वारा अन्यसखीद्वारा वा सदेशं प्रेरय। तत्रापि वृन्दावनेश्वरी प्रति न किंतु स्वसखीं कलावतींप्रत्यसौ राधा मानं विमुञ्चतु मत्तो मा विभेतु। आज्ञा दत्ता मया प्रतिवन्धिकया न भवितव्यमिति व्यञ्जयेति भावः।सैव त्वदाज्ञांवदिष्यतीत्यर्थः। यतः सोत्कण्ठापि मनस्विनीव मानिनीव। किंच त्वदाज्ञांविना सर्वेषामेव दुःखं जातमित्याह—दूर इति। ताण्डविकनामा मयूरः। सवयसः सखायः सख्यश्च। क्वास्मीतिप्रत्येकं स्वं न विदुः। मूर्च्छिता इत्यर्थः॥३८॥॥३९॥ यूथेशा आत्यन्तिकाधिकाः। सा क्वचित् यूथे प्रखरा, कचिन्मध्या, क्वचिन्मृद्वीति स्वयूथापेक्षया एकैव। मध्यस्था आपेक्षिकाधिका, समा, लघुश्चेति तिस्रः। प्रत्येकं प्रखरामध्यामृव्द्यइति नव। अन्त्या आत्यन्तिकी लघुः। सा च द्विधा—मध्यस्थाति। द्वादशधेति। प्रथमा आत्यन्तिकाधिका यूथेश्वरी नित्यनायिका। लघुत्वाभावेन सखीत्वासंभवादित्यर्थः। मध्यस्था आपेक्षिकाधिकाद्या नायिकाः स्वतो लघुरपेक्ष्येत्यर्थः। सख्यः स्वतोऽधिका अपेक्ष्येत्यर्थः। तत्र मध्यस्थितासु तासु तिसृषु मध्य इत्यर्थः। आद्या आपेक्षिकाधिका नायिका-
*
*
॥३६॥३७॥३८॥३९॥ यूथेशा अत्यन्ताधिका अन्यतमा प्रखरा वा मध्या वा मृदुर्वा इत्यर्थः। तस्मादेकैव।मध्यस्था आपेक्षिकाधिका समाश्चापेक्षिकलघवश्च नवधा। अधिकप्रखरा, अधिकमध्या, अधिकमृद्वीति तिस्रः। तथा समप्रखरा, सममध्या, सममृद्वीति तिस्रः। तथा लघुप्रखरा, लघुमध्या, लघुमृद्वीति
एकैकस्मिन्नतो यूथे भिदा द्वादशधा भवेत्।
अथ दूत्यार्थमेतासां विशेषः पुनरुच्यते॥४१॥
दूत्यमत्र तु तद्दूराद्यूनोर्यदभिसारणम्।
तत्र तु प्रथमा नित्यनायिकैवात्र कीर्तिता॥४२॥
स्युर्नायिकाश्च सख्यश्च तिस्रो मध्यस्थितास्ततः।
तत्राद्या नायिकाप्राया द्वितीया द्विसमा ततः॥४३॥
तृतीया तु सखीप्राया नित्यसख्येव पञ्चमी।
आद्यायां निखिलाः सख्यो दूत्य एव न नायिकाः॥४४॥
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प्राया। अस्याः स्वाधिका अपेक्ष्य लघुत्वेनात्यन्तिकादराभावात् स्वलघुष्वपि नायिकात्वं प्रायिकमेव। कदाचित्तासामपि प्रेम्णा सख्यकरणस्वभावादिति प्रायपदम्। द्वितीया समा द्विसमा द्वयोर्नायिकात्वसखीत्वयोस्तुल्या स्वसमामपेक्ष्य स्वप्रीत्या सखीत्वस्य तत्प्रीत्या नायिकात्वस्य च संभवात्। तृतीया आपेक्षिकलघुः सखीप्राया। अस्याः स्वलघुरपेक्ष्य नायिकात्वेकिंचिदादरात् स्वाधिकास्वपि सखीत्वं प्रायिकमेव। कदाचित्तास्वपि तत्प्रीत्या नायिकात्वसंभवादिति प्रायेति पदम्। पञ्चमी आत्यन्तिकलघुर्नित्यसखीति। अस्याः क्वापि लघुर्नास्तीति नायिकात्वासंभवेन गौरवाभावात् सर्वा अप्यपेक्ष्य सखीत्वमेवेति नित्यपदम्। **पञ्चमीति।**आत्यन्तिकाधिकातो गणनेन मध्यस्थासु तिसृषु अस्या अन्तःपातित्वासंभवात् प्रथमत एव गणनौचित्यात्। ततश्चैष निर्गलितार्थ इत्यत आह—आद्यायामात्यन्तिकाधिकायां निखिला आपेक्षिकाधिकाद्याश्चतस्रो दूत्य एव न नायिकाः। तस्याः सर्वाधिकत्वात्तदसंभवात्। पञ्चम्यामात्यन्तिकलघौ। नायिका एवन दूतिकाः। अस्याः सर्वास्वपि लघुत्वात्। ततश्च द्वितीयातृतीयाचतुर्थ्यः परस्परं तारतम्येन दूत्योनायिकाश्च स्युः॥४०॥४१॥४२॥४३॥४४॥
*
*
तिस्रः। तदेवमेता नव। अन्त्या आत्यन्तिकी लघुः। सा च द्विधा समा लघुश्चेति द्वादशधेति। तत्र तु प्रथमेति प्रथमा आत्यन्तिकाधिका॥४०॥४१॥४२॥ तत्राद्येति। आद्या अधिका। आपेक्षिकाधिकेत्यर्थः। लघुष्वपि कदाचित् सखी स्यादिति प्रायपदम्। द्वितीया समा सा च द्विसमा नायिकात्वेसखीत्वेच। तृतीया आपेक्षिकी लघुः। नित्यसख्याः पञ्चमीत्वमात्यन्तिकाधिकापेक्षयेति ज्ञेयम्
पूर्वोक्ता नायिका एव पञ्चम्यां न तु दूतिकाः।
** तत्र नित्यनायिका—**
यात्र यूथेश्वरी प्रोक्ता सा भवेन्नित्यनायिका॥४५॥
अपेक्ष्यत्वादतीवास्या मुख्यं दूत्यं न विद्यते।
स्वयौथिक्यसखीमध्ये या यत्रातीव रागिणी॥४६॥
नियुक्तैवास्ति तद्दूत्ये सुष्ठुसा यूथमुख्यया।
तथापि प्रणयात्क्वापि कदाचिद्गौणमीक्ष्यते॥४७॥
दूरे गतागतमृते यद्दूत्यं गौणमत्र तत्।
गौणं हरेःसमक्षं च परोक्षं चेति तद्द्विधा॥४८॥
तत्र समक्षम्—
साङ्केतिकं वाचिकं च समक्षं द्विविधं मतम्।
तत्र साङ्केतिकम्—
तत्राद्यं स्याद्दृगन्ताद्यैः कृष्णं प्रेर्य स्वनिह्नुतिः॥४९॥
________________
अपेक्ष्यत्वादादरणीयत्वात्। नियुक्तैवास्ति सखि त्वयास्या दूत्यं कार्यमिति प्रथमदिन एव निर्दिष्टा सा यथासमयं दूयं करोत्येवेति किं तस्योदाहरणप्रदर्शनेन। तद्दूत्यं न मुख्यं नापि गौणमित्यर्थः। एवं च यद्यपि सखीद्वारैव स्वसखीनां दूत्यंसिद्धं तथापि गौणं यूथेश्वर्या दूत्यंस्वकर्तृकमपीक्ष्यते दृश्यते। स यां (?) निखिलः सख्यो दूत्य एव न नायिकाः सखीष्वपि प्रणयेन स्वसाम्यं दृष्ट्वा दूत्यंविना स्थातुमशक्तेरिति भावः। दूरे गमनागमनं विनेति निकटे तु कदाचित्सख्या अलक्षितेन गमनागमनेनापीत्यर्थः। आद्यं सांकेतिकं दृगन्ताद्यैर्हगन्तभ्रूतर्जनीचालनैः॥
*
*
॥४३॥४४॥ आद्यायामात्यन्तिकाधिकायां पूर्वोक्ता आत्यन्तिकाधिकाद्याश्चतस्रः॥ तत्राद्यन्तयोर्मध्ये आद्यं साङ्केतिकम्॥४५॥४६॥४७॥४८॥४९॥
यथा—
प्रियसखि विदितं ते कर्म यत्प्रेरयन्ती
त्वमघदमनमक्ष्णा क्षिप्रमन्तर्हितासि।
अहह न हि लताः स्युस्तत्र चेत्कण्टकिन्यो
मम गतिरभविष्यत्तत्करात्का न वेद्मि॥५०॥
इदमधिकमृद्वीदूत्यम्।
अथ वाचिकम्—
मिथः पुरो वा पश्चाद्वा वाक्यमेकत्र वाचिकम्।
____________
॥४५॥४६॥४७॥४८॥४९॥ काचित् श्रीकृष्णकर्तृकं स्वसंभोगं स्वस्मिन्नपलपन्ती स्वयूथेश्वरीमुपालम्भ(भ)माना प्राह—प्रियेति। ततश्च हन्त हन्त तद्भयादतिसंभ्रमेणापसरन्त्यास्तव वक्षसि कीदृशं कण्टकैः क्षतं कृतं मत्समीपमेत्याञ्चलमुद्घाट्यदर्शय। मयानभिज्ञया कष्टं प्रापितासि किं कर्तव्यं त्वय्यतीव लोभतस्तस्यैव प्रार्थनया तथा कृतं त्वं तु स्वपुण्येनैव रक्षिताभूः। मा क्रुध्यनैवं पुनः करिष्यामीति यूथपायाः प्रत्युक्तिर्ज्ञेया॥ पुरोऽग्रे मिथःपरस्परं वाक्यं वा पश्चादेकत्र वाक्यं वा वाचिकं दूत्यं स्यादित्यन्वयः। अत्र पुर इत्यस्य संबन्धिपदानुपादानात् कृष्णसख्यो द्वयोरेवेति ज्ञेयम्। वाक्यं तु यूथेश्वर्या एवं मिथः शब्दानौचित्यात् श्रीकृष्णेन सार्धमिति ज्ञेयम्। पश्चादित्यत्र तु एकत्रेति पदोपादानात् कृष्णस्य पश्चात् सख्याम्, सख्याः पश्चात् श्रीकृष्णे इति द्विविधं पुरस्त्वेकविधमिति त्रिविधं वाचिकम्॥५०॥ श्यामले, नित्यमेव पृष्टा त्वं नाहं पुष्पाणि लुञ्चामीति ब्रूषे तिष्ठ तिष्ठ एकस्मिन् दिने उद्यान एव निह्नुत्यस्थित्वा त्वां सखीमेव धृत्वा मन्मथराजकारागारस्थां करिष्यामि तदा ज्ञास्यसीति ब्रुवाणं श्रीकृष्णं
*
*
अहह नहीति तस्या वाक्यं गोपनमेव न तु यथार्थः। तेन तस्या रहस्यमेव प्रकटीभूतमिति ज्ञापितम्॥५०॥ मिथःपुरः श्रीकृष्णसख्योर्द्वयोरपि शृण्वतोरित्यर्थः। पश्चादिति। कदाचित् श्रीकृष्णगोचरे कदाचित् सख्या इत्यर्थः। तदे-
** तत्र मिथः पुरः कृष्णे वाचिकम्—**
मयापलपनं कियत्त्वयि करिष्यते या सखी
ममानिशमुपेन्द्र ते कुसुममञ्जरीर्लुञ्चति।
इयं गुणवती करे तव विधृत्य दत्ताद्य सा
यथेच्छसि तथा कुरु स्वयमितोगृहं गम्यते॥५१॥
इदमधिकप्रखरादूत्यम्।
** कृष्णस्य पश्चात्सख्यां यथा—**
मत्कण्ठादिह मौक्तिकानि विचिनु त्वं वीरुदारोघत्तः
स्रस्तान्येष किलास्ति माल्यरचनाव्यासक्तचित्तो हरिः।
दिष्ट्याक्षेममुपस्थितं सुमुखि नः सानौ यदस्य च्युतो
हस्ताद्वेणुरिति प्रयामि कपटान्निह्नोतुमेनं गिरौ॥५२॥
अधिकमध्यादूत्यमिदम्।
सख्याः पश्चात्कृष्णोयथा—
विचकिलमवचेतुं सा सखी मद्वचोभिः
कथमपि तटपुष्पारण्यमेका गतास्ति।
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प्रति श्यामला प्राह—मयेति। अपलपनं मिथ्याभाषणम्। गुणवतीति चौर्यलक्षणस्य स्वगुणस्य स्वयमेव फलं प्राप्स्यतीति तेन मम किमिति तस्याः साहाय्याकरणे हेतुर्व्यञ्जितःगुणवतीति नामैव वा॥५१॥ श्रीराधा चित्रामाह—मदिति। नन्वहं श्रीकृष्णाद्विमेमीत्यत आह—माल्येति। तेन श्रीकृष्णस्यासमक्षत्वं ज्ञापितम्। ननु त्वमपि किं न विचिनोषीत्यत आह—दिष्ट्येति॥५२॥ राधे, अद्य ते सर्वा एव सख्योऽनुभूतमाधुर्या अभूवन् चित्रा न दृश्यते सा क्वेति पृच्छन्तं श्रीकृष्णं श्रीराधा प्राह—विचकिलेति। विचकिलं मल्लिकां
*
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तयोरेकत्र वाक्यं वाचिकं दूत्यंभवति॥ कियत् करिष्यत इति। यत् कृतं तत् कृतमेव परतस्तु न कर्तुं शक्यत इति भावः॥ कृष्णस्य पश्चादिति तस्मिन् शृण्वतीत्यर्थः॥५१॥ हस्ताद्वेणुश्च्युत इति। एतत् क्षेममुपस्थितं तस्मात् प्रयामीत्यादि। उपागतमिति वा पाठः॥ ५२॥ विचकिलं मल्लिकाम्॥
अघहर मम गेहाद् यान्तमभ्यर्थये त्वां
पुनरियमतिमुग्धा न त्वया खेदनीया॥५३॥
अथ हरेःपरोक्षम्—
तत्परोक्षं हरेः सख्याः सखीद्वारा यदर्पणम्।
व्यपदेशादिना वापि तत्पार्श्वे प्रेषणादिकम्॥५४॥
तत्र सखीद्वारा यथा—
रुद्धां विद्धि गुरोर्गिरा शशिकलामात्मद्वितीयामत-
स्त्वामुद्यम्य नयामि शर्मणि सदा जागर्ति ते राधिका।
भृङ्गाः सुभ्रुतदङ्गसौरभभैरैराकृष्यमाणाः क्रमा-
त्पन्थानं प्रथयन्ति ते कुरु पुरः कुञ्जप्रवेशे त्वराम्॥५५॥
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वचोभिरिति बहुवचनेन तत्कर्मण्यपि सा त्वद्भयात् प्रायो न संमतासीदिति भावः। कथमपीति। मया तस्या दूत्यमेव कृतमिति भावः। एकेति तदर्थमेव काचित् सङ्गिन्यपि तस्यै न दत्तेति भावः। अघहरेति। तस्याः कंदर्पशरज्वाला भद्रेणैव निर्वापणीयेति भावः। ‘अंहो दुःखव्यसनेष्वघम्’ इत्यमरः।पुनरिति संभोज्यापि सा न त्यक्तव्येति भावः॥५३॥ तत् हरेः परोक्षं दूत्यं भवति यत्सखीद्वारा सख्याः समर्पणम्। अर्थात् हरये इत्यर्थः॥५४॥ त्वं चाहं च वृन्दावनेऽद्य चन्द्रिकां पश्यावेत्युक्त्वा मामेतावद्दूरं त्वमानैषीः, चन्द्रिकां दृष्ट्वापि पुनः कुञ्जगह्वरमार्गे चन्द्रिकारहिते याहि पुरः पुरो याहीत्युक्त्वा मां कुत्र निनीषसीति सशङ्कं पृच्छन्तीं रङ्गदेवी कलावती प्राह—रुद्धामिति। आत्मद्वितीयां त्वत्सखीं सदा त्वामभिसारयित्रीमित्यर्थ। नयाम्यभिसारयामि। ननु विश्वासघातिनी त्वदाज्ञाकारिणीमेव मां त्वं किमवैषि अहं तु परावृत्य गृहमेव यामीत्यत आह—**शर्मणीति।**विरुद्धलक्षणयेदृक्त्वद्विडम्बनलक्षणे त्वदकल्याणे राधा सदैव जागर्ति न कदापि स्वपितीति सैव विश्वासघातिनी। त्वद्वैरिणीत्यर्थः। अहं तु त्वदाज्ञयैवैवं करोमीति भावः। भवतु त्वदभिमतमेव करोमि किंतु तथा त्वं मे सङ्गिनी दत्तासि कथमिति एव विच्युता वुभूषसि अग्रे अग्रे चलेति साकूतं ब्रुवाणां तां
अथ व्यपदेशः—
व्यपदेशो हरौ लेखोपायनाद्यर्पणक्रिया।
निजप्रयोजनाश्चर्यदर्शनादिश्व कीर्तितः॥५६॥
तत्र लेखव्यपदेशेन यथा—
दूतीपद्धतिमुद्धते परिहर त्वं साचि किं प्रेक्षसे
वामाक्षि स्वयमाहृतं प्रियसखीलेखं पुरो वाचय।
शय्या पुष्पमयी निकुञ्जभवने सौरभ्यपुञ्जवृता
मृद्वी त्वामियमाह्वयत्यलिघटाकोलाहलव्याजतः॥५७॥
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प्रत्याह—भृङ्गा इत्यादि। इतो भृङ्गा एव तव सङ्गिनः, एतेषां पश्चात् पश्चात् याहि हे सुभ्रु, भ्रुवं शोभनां कुरु तव मङ्गलं फलतीति भावः। ततश्च तयोः संलापकलहेन श्रुतेनैव रङ्गदेवीं नायिकां ज्ञात्वाकुञ्जान्निःसृत्य श्रीकृष्णस्त्वामेव जग्राह कलावतीं हर्षयामास चेति ज्ञेयम्। अत्र स्वयौथिकसखीमध्ये या यत्रैकानुरागिणी नियुक्तास्ति तत्रत्येसुष्ठुसा यूथमुख्यैवेत्येतद्वारणार्थमेवात्र श्लोके रुद्धां विद्धीत्याद्युपन्यासो ज्ञेयः॥५५॥ अहं पत्रहारी श्रीराधाया दूत्यस्मि किमिति मयि लाम्पट्यं तनोषि। दूत्यःप्राणान् वरमर्पयन्ति न तु तनुमिति दूतीस्वभावं जानास्येवेति संभ्रान्तां रसालमञ्जरी श्रीकृष्णः प्राह—**दूतीपद्धतिमिति।**दूत्या व्यवहारं परिहर मुञ्च हे उद्धते, क्रिमिति व्यधिकरणं ब्रूषे।त्वं दूती न भवसीति भावः। यदि न प्रत्येषि तदा प्रियसखीलेखं श्रीराधास्वहस्तलिखितं पत्रं त्वमेव वाचय।स्वयमाहृतमिति भावः।नात्र मया किमपि कापट्यंसृष्टमिति भावः। पत्रं चेदं सर्वं मे प्रथयिष्यति रसालमञ्जरीत्वंयान्ती त्वत्सविधे। अद्य वनप्रिय कृष्ण, न मे लुम्प हा धर्ममिति। अत्र तव रसालमञ्जरीत्वं मम वनप्रियत्वं चेत्येवार्थान्तरं स्पष्टमेवापलपतीति त्वयैव विचार्यताम्। धर्ममधर्मं वा मा लुम्पेत्यर्थद्वयमप्यवास्तवम्। किंतु धर्मं स्वपरिजनदूत्यलक्षणमित्येव तथा सर्वपरिजने प्रेमवत्त्वमित्येवार्थः सत्य इति। ततश्च तां पराजितां हस्ते गृहीत्वा।शय्ये-
उपायनव्यपदेशेन यथा—
प्रसीद वसनाञ्चलं मम विमुञ्च निर्मञ्छनं
व्रजामि ननु निर्दय स्फुरति पश्य संध्योर्जिता।
विदत्यपि11 तवोन्नतं गुणमुपाहरं मदन्धीः
स्रजं प्रियसखीगिरा चलमते12 न ते दूषणम्॥५८॥
** निजप्रयोजनव्यपदेशेन यथा—**
मुक्तावली निशि मया दयिताकदम्ब-
वाटीकुटीरकुहरे सखि विस्मृतास्ति।
तामाहरेति वृषभानुजया नियुक्ता
तां प्रोज्झ्यकिं शशिकले गृहमागतासि॥५९॥
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त्यादि॥५६॥५७॥ गृहीतवस्त्रं श्रीकृष्णं प्रति रतिमञ्जरी प्राह—**प्रसीदेति।**हे निर्दय, अहं संप्रत्यसुस्थशरीरास्मीति भावः।सन्ध्योर्जिता सन्ध्याया मध्यभाग एवायमित्यर्थः। अत्र सन्ध्योर्जिता इत्योजोव्यञ्जकवर्णोपन्यासो घोरत्वज्ञापनाय नानुपपन्नः। तदप्यपरित्यागिनं तं ममैवायं दोष इत्याह—**विपद्य(दत्य)पीति।**विदती जानती गुणमिति विरुद्धलक्षणया मन्दधीः प्रियसखीगिरोऽयमर्थ इति वोद्धुमसमर्था। व्रजपतिसुत इति वक्तव्ये भयसंरम्भसंभ्रमक्षोभवशाद्व्रजपते इत्येव मुखान्नि सृतमिति ज्ञेयम्॥५८॥ ललिता शशिकलां सनर्माह—मुक्तावलीति। ततश्च सा यथा मुक्तावल्यर्थं मां न्ययुङक्त त्वमपि तथैव मां
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॥५३॥ संध्योर्जिता इत्यत्र ‘संध्याहवे’ इति ‘व्रजपते’ इत्यत्र ‘चलमते’ इति वा पाठः। न ते दूषणमिति सरलार्थपक्षे त्वचलमते इत्यकारप्रश्लेषःकार्यः॥५४॥५५॥५६॥५७॥५८॥ सकलरत्नानीत्यत्र स इति पक्षे पृथक्
** आश्चर्यदर्शनव्यपदेशेन यथा—**
सखि व्यालीं वक्रे द्युमणिपटलं कण्ठसविधे
दघच्चन्द्रान्मूर्ध्नोपरि सकलरत्नानि वमति।
अलिश्यामो हंसः स्फुटमितिमदुक्त्यासि चलिता
तदाश्चर्य द्रष्टुं किमिव कुपितेवात्र मिलसि॥६०॥
अथ नायिकाप्रायात्रिकम्—
आपेक्षिकाधिकानां यत्तिसृणां लघुषु स्फुटम्।
कदाचिदेव दूत्यं ता नायिकाप्रायिकास्ततः॥६१॥
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पृच्छसि नमो युवाभ्यामिति तस्याः प्रत्युक्तिर्ज्ञेया॥५९॥ स्वोपकण्ठमागत्योपविष्टाः श्यामलाप्रभृतीः कृतचरं स्वसख्यां दूत्यंज्ञापयन्ती श्रीराधा तां परिहसन्त्याह—सखीति। व्यालीं सर्पाम्। पक्षेऽतिशयोक्त्या कुलाङ्गनादर्शनसाधर्म्यान्मुरलीम्। द्युमणिपटलं सूर्यसमूहं पक्षे कौस्तुभम्। चन्द्रान्, पक्षे चन्द्रकान् सकलरत्नानि सर्वानेव चिन्तामण्यादिमणीन्, पक्षे स श्रीकृष्णः कलरत्नानि मधुरास्फुटसुन्दरशब्दान् वमति, पक्षे वक्ति। अलिरिव श्यामो हंसः सरस्तटवर्तित्वात्, पक्षे श्रीकृष्णः। अद्य मया सरसि दृष्ट इति वाक्यशेषस्यासमापनमाश्चर्योत्थसंभ्रमाभिनयवशात्। कुपितेवेत्यत्र इवशब्दस्तस्याः किंचित् श्रीकृष्णसङ्गौत्सुक्यं सूचयति। तथैव वक्ष्यते—‘आसां मध्ये भवेत्काचिन्नायिकात्वेदरोत्सुका। तस्मिन्ननाग्रहा काचित् सख्यसौख्याभिलाषिणी॥” इति। ततश्च स हंसो गत्वामया दृष्टो धूलौ लुठन् मूर्च्छोत्थितो राधा राधेति निनदन् पृष्टश्व तां दुरवस्थां मां प्रत्यब्रवीत्। राधयैव मदुपरि कमलधूलिक्षेपेणाहमुन्मादितस्तयैव चेज्जीवयिष्ये तर्हि जीवामीति ततोऽहं तुभ्यमधुना कुप्यामिकथं त्वं तथा कृत्वा विलम्बसे शीघ्रं गत्वा जीवयेति तस्याः प्रत्युक्तिर्ज्ञेया॥६०॥ **आपेक्षिकेति।
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पदम्। श्लेषास्तु ज्ञेयाः॥५९॥६०॥ आपेक्षिकाधिकानां तिसृणां यद्यस्मात्
तत्राधिकप्रखरादूत्यम्—
पाणौ मे पतितासि शम्भलि चिरादत्याकुलं मा कृथाः
काकुं ते करवाणि निष्क्रयमहं शीर्णाभिसारैः सदा।
त्वं दिष्ट्याद्य निकुञ्जसीमनि समानीता किमु स्तम्भसे
मुक्तास्त्वत्कुचकुम्भगाः क्षपयतु श्यामः स सिंहीपतिः॥६२॥
अथाधिकमध्यादूत्यम्—
व्यथयसि सदा मां वाग्भङ्ग्याशनैरनुशिष्ययं
छलयसि च मां भ्रूनर्तक्या विनुद्य यमुद्धते।
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कथ्यन्त इति शेषः॥६१॥ ललिता स्वतो लघु सखीं प्रत्याह—हे शम्भलि, आकुलं यथा स्यात्तथा काकुं निष्क्रयं बहुधा त्वया दत्तस्य मत्कष्टस्य परिवर्तम्। तदेव स्वकष्टं सूचयन्त्याह—शीर्णेति। अभिसारैस्त्वयैव निष्पादितैरिति भावः। स्तम्भसे किमिति स्तब्धीभवसि। यद्दत्तं तद्भुज्यत इति न्यायेन तुभ्यमहं प्रतिफलं ददाम्येव का त्वयि मे दयेति भावः। क्षपयतु तत उत्कृत्येतस्ततो विकिरतु। स दृप्तो हरिरिति श्लिष्टमनुक्त्वासिंहीपतिरित्यतिशयोक्तिस्वीकारेण तस्यातितारुण्यद्योतनया त्वामधिकं सुरतैर्व्याकुलयिष्यतीति ज्ञापितम्। किंवा त्वं हस्तिन्यप्यद्य सिंहीसाधर्म्यं लप्स्यसे। यद्वा स सिंहीपतिरपि स्त्रीमात्रलाम्पट्यात्त्वयि हस्तिन्यामपि रमताम् सर्वथैव सुरताधिक्यं विवक्षितम्॥६२॥विशाखा स्वतो लघुं सखीं कांचिव्द्याजेन श्रीकृष्णसमीपमानीयाह—व्यथेति। यं वाग्भङ्ग्यानुशिष्य शिक्षयित्वा मयि प्रेर्येत्यर्थः। मां व्यथयसिखेदयसि व्यथावतींकरोपीति
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लघुषु कदाचिदेव दूत्यं स्यात् तत्तस्मात्तिस्रो नायिका उच्यन्ते॥६१॥ शम्भली दूतीभेदः। आकुलं यथा स्यात्तथा काकुं मा कृथाः। निष्कयं स्वस्मिंस्त्वत्कृतस्य खेदनस्य परिवर्तम्। अनेनाभिसारैरित्यत्र त्वत्कृतैरित्येव लभ्यते। समानीतेत्यत्र मया नीतेति वा पाठः। वास्तवार्थे सिंहीपतिरिति रूपकम्। किंतु सिंह इत्यनुक्त्वा सिंहीसदृशीनां पतिरिति प्रतिपाद्य तस्य तादृशचेष्टिते प्रागल्भ्यं दर्शयति॥६२॥ अनुशिष्य शिक्षयित्वा। उपलम्भितः प्रापितः। उपयापित इति वा पाठः।
अयमिह वशीकृत्य स्वैरी मयाप्युपलम्भित-
स्त्वयि वितनुतां कृष्णः पद्मी स पद्मिनि विभ्रमम्॥६३॥
अधिकमृद्वीदूत्यम्—
अनुदिनमभिसारं कारितास्मि त्वयाहं
कुसुमितरविकन्यातीरवन्याकुटीषु।
सकृदहमकृतज्ञा त्वां पुरः कुञ्जमध्ये
यदियमुपनये का निष्कृतिस्ते ततोऽभूत्॥६४॥
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वा।व्यथात्राधरस्तनादौ क्षतसंबन्धिनी ज्ञेया। तथा त्वमत्रैव पुष्पाणि चिनु श्रीकृष्णोऽत्र नायास्यति यदि वा आयास्यति तदप्यहमेव त्वां रक्षिष्यामि धर्मस्यैव शपथ इति मयि विश्वासमुत्पाद्य पुनर्भ्रूनर्तक्यायं विनुद्य कृष्ण, निःशङ्कमेवास्या अङ्गानि स्पृश अहमेव ते सहायेति भ्रूनर्तनेनोपदिश्य मां छलयसि वञ्चयसि। अयं श्रीकृष्णो मया वशीकृत्य त्वयि प्रापितः, त्वया बहुधा कृतस्य दौरात्म्यस्यैकवारमपि परिशोधनं कर्तुमुचितमिति भावः। स्वैरी यद्यपि स्वच्छन्दचारी। त्वामनिष्टाम्। मामेवेच्छतीत्यर्थः। तेन वक्तव्यायाः सख्या लघुत्वंज्ञाप्यते। किंचास्य स्वैरित्वे तद्भ्रूरेव कारणमिति व्यञ्जितमपि स्वसौभाग्यमपलपितं ज्ञेयम्। पद्मी हस्ती। विभ्रमं विलासम्। हे पद्मिनीति तत्रौचित्यम्। श्लेषेण हे कमलिनीति सुरताधिक्यं च द्योतितम्॥६३॥ पुष्पाहरणनिदेशेन मां गृहादानीय संप्रति कुञ्जंप्रविशेति यद्रूषेतत्किंमामभिसारयसि हन्त हन्त किकर्यहं त्वया किमभिसारयितुमुचितेति विनयवतींकांचित् सखीं चित्राह—अनुदिनमिति। निष्कृतिः प्रत्युपकारः॥६४॥
*
छलयसि पूर्वं निःशङ्कतां व्यज्य पश्चात्तद्द्वारा कदर्थयसि सोऽयमित्यन्वयः। अयमित्यत्र द्रुतमिति वा पाठः। पद्मी हस्तिवर्यः। हे पद्मिनि॥६३॥ ते इति कर्मणि षष्ठी। निष्कृतिः प्रत्युपकारः। ‘अनुदिनमभिसारं कारिताहं त्वया या हरिमनु रविकन्यातीरवन्याकुटीषु। सकृदियमकृतज्ञां त्वां तदीयं समीपं समनयमिह
अथ द्विसमात्रिकम्—
समानां प्रखरामध्यामृद्वीनां तु परस्परम्।
दूत्यं च नायिकात्वं च समं ता द्विसमास्ततः॥६५॥
तत्र समप्रखरादूत्यम्—
प्रागेकान्तरमेव निश्चितमभूदन्योन्यदूत्यं हि नौ
वारस्तत्र तवायमस्तु करवै दूत्यं तथाप्यद्य ते।
भ्रूभङ्गं सखि मुञ्च मण्डय तनुं यद्याचते मामसौ
सव्या ते स्फुरती दृगद्य मृगये गोष्ठाङ्गणे माधवम्॥६६॥
अथ सममध्यादूत्यम्—
त्वं न्यस्तासि मुरद्विषः शशिकले पाणौ मया गम्यते
दूती हन्त तवाहमेव कमले किं धिङ्मृषा जल्पसि।
इत्यन्योन्यविलक्षणप्रणयितामाधुर्यमुग्धो हरि-
र्दोर्भ्याते हृदये निधाय युगपत्पश्योन्मदः खेलति॥६७॥
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समं तुल्यं स्यात्ततो हेतोस्ता द्विसमाः॥६५॥ यूथेश्वर्याःपरस्परं समाः सख्यस्तयैव परस्परदूत्येसदा नियुक्ता एव स्यु।स्वयौथिकसखीमध्य इतिवत् तत्र समप्रखरयोः सख्योरेका द्वितीयामाह—प्रागिति। एकान्तरमेकदिनान्तरम्। एकान्तरोपवासवद्दिनपदं विनापि तदर्थप्रतीतिः, एकमेकतरं दूत्यमन्तरं व्यवधानं यत्र तदिति वा तद्गणक्रमेण यद्यप्यद्यतनो वारोऽवसरो मम तथापि तवास्तु। अत्र कारणं तत्पितुर्गेहात् सुगन्धवस्त्रालंकारभक्ष्यभोज्यादिसामग्री श्रीकृष्णोपभोगयोग्या तस्मिन्नेवाकस्मादागतेति तदर्थं तस्याःस्वाभिसारौत्सुक्यमन्तर्मनस्युत्थितमिति द्वितीयया सहसावगतमिति ज्ञेयम्। यद् यस्माद् याचते तस्मादहं माधवं त्वदर्थं मृगय इति॥६६॥ रङ्गदेव्याः सख्यो कमलाशशिकलयोरुक्तिप्रत्युक्ती। रतिमञ्जरीं रूपमञ्जरीं दर्शयति—त्वं न्यस्तेति॥६७॥ समयो सख्योः पारस्परिकवचनस्य
*
कास्मिन्निष्कृतिस्ते मया(मा)स्ति॥’इति वा पाठः॥६४॥६५॥ एकमेकतरं दूत्यन्तरं व्यवधानं यत्र तद्यथा स्यात्। वारोऽवसरः।तस्माद्गोष्ठस्यांगणे निकटदेशे माधवं मृगये॥६६॥ अहमेव तव दूती न तु त्वंमम दूतीत्यर्थः॥६७॥
यथा वा—
क्व मालतिकयार्पिता चलसि माधवि त्वं मम
क्व माधविकयार्पिता त्वमपि यास्यलं मालति।
असंभवसहोद्गमे रहसि कृष्णभृङ्गो युवा
युवामिह धयन्नयं वहतु कंचिदानन्दथुम्॥६८॥
अतीवाभेदमधुरं सौहृदं सममध्ययोः।
विरलं शक्यते ज्ञातुं किंतु प्रेमविशेषिभिः॥६९॥
अथ सममृद्वीदूत्यम्—
द्रुतमनुसरन्मन्दाराक्षीं मुकुन्द निवर्तय
व्रततिनिभृतं या कुञ्जान्तःकुटीमुपनीय माम्।
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माधुर्यमुदाहृत्य तत्र श्रीकृष्णस्यापि तदाह—यथावेति। विशाखायाः सख्यौ माधवीमालत्यौपरस्परदूत्यकारिण्यौ प्रति श्रीकृष्ण आह—क्वेति। हे माधवि, त्वं मम मदीया क्वचलसि। कुतोऽहं त्वदीयेत्यत आह—मालतिकयार्पिता हे कृष्ण, इयं माधवी सखी तुभ्यं मया दत्तेति। अनया दत्तत्वादित्यर्थः। एवं हे मालतीत्यादि। युवां धयन् पिबन्। कीदृश्यौ। असंभवः सहैवोद्गमो ययोः। तेन हि द्वे नायिके रहस्येकदैव नायकमुपगच्छत इत्यर्थः। पुष्पपक्षे नहि माधवीमालत्यौवसन्तशरद्विकासिन्यावेकदैव भृङ्गः पिबतीति कविमर्यादैवात्र ग्राह्या। लोकमर्यादायां तु वसन्ते माधवीमालत्यौपुष्पाणि धत्त एव॥६८॥ श्रीकृष्णो मन्दाराक्षीनाम्नीं श्रीराधासखीमाह—द्रुतमिति। द्रुतमनुसरन् पश्चाद्गच्छन् सन् त्वमेव निवर्तय।अहं तु मृदुत्वात्तस्या दूत्यपि तां निवर्तयितुं न शक्ष्यामीति भावः। मां कुटीमुपनीयेति। मद्दूत्यंमृषैव कृत्वेति भावः॥ **सखीवाक्येनेति।**यस्यां दूत्यमकार्षीः सा तव सख्येव तद्दूत्यं करोतीति मम को दोष इति भावः।
*
*
क्व मालतीति। श्रीकृष्णवाक्यम्। मम मयि असंभवसहोद्गमत्वं पुष्पपक्षे कविसंप्रदायानुसारेण मालत्याः शरदि माधव्या वसन्ते पुष्पितत्वात् युगपत् प्रकाशलक्षण उदयो नास्तीति॥६८॥६९॥७०॥७१॥७२॥७३॥
इति तव सखीवाक्येन त्वामहं सुखमाह्वये
स्फुरति हि मुहुर्मध्ये तिष्ठन्विधुः समतारयोः॥७०॥
अथ सखीप्रायात्रिकम्—
लघूनां प्रखरामध्यामृद्वीनां प्रायशः सदा।
दूत्यं भवति तेनेमाः सखीप्रायाः प्रकीर्तिताः॥७१॥
तत्र लघुप्रखरादूत्यं यथा गीतगोविन्दे—
त्वां चित्तेन चिरं वहन्नयमिति श्रान्तो भृशं तापितः
कंदर्पेण च पातुमिच्छति सुधासंबाधबिम्बाधरम्।
अस्याङ्कं तदलंकुरु क्षणमिह भ्रूक्षेपलक्ष्मीलव-
क्रीते दास इवोपसेवितपदाम्भोजे कुतः संभ्रमः॥७२॥
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नन्वेकदैव द्वे नायिके एकस्मिन् रहो गृहान्तर्नायको रुन्धे इति कुत्रत्यो विचार इत्यत आह—स्फुरति हीति। तेनाद्यैकस्यामेव शय्यायां युवयोर्मध्ये शायित्वा कांचिच्छोभामेव प्राप्स्यामीति भावः॥६९॥७०॥ लघूनामापेक्षिकलघूनाम्। प्रायग्रहणादात्यन्तिकाधिकया आपेक्षिकाधिकया वा। कदाचिदस्या दूत्ये कृते पूर्वपूर्वोक्तयुक्त्या नायिकापीयं भवति॥७१॥ तुङ्गविद्या श्रीराधां प्रत्याह—त्वामिति। अयमिति। श्रान्तस्तव सुधाव्याप्तं बिम्बाधरं पातुमिच्छति। श्रमकारणमाह—त्वां चिरं वहन्निति। स्ववावाहनायेति श्रान्ताया हारादिकं दीयत एवेति न्यायस्तत्रापि कंदर्पेण तापितः पञ्चभिर्विषवाणैरित्यर्थः। अतस्तापितोऽप्यतिश्रान्तोऽपि त्वां वहन्नेवास्तीति पश्यास्य प्रेमदार्ढ्यमिति भावः। ननु कन्दर्पेण तापने को हेतुस्तत्र तदेवाह—त्वां चित्तेन चिरं वहन्निति। तस्यायमभिप्रायः—चित्तं मम जन्मभूमिस्तेन कथमिमां वहसि, चेद्भद्रमिच्छसि तदेनां परित्यज्य किंवा वक्षसि वहेति, अस्य तु त्वद्वहनव्रतेप्रौढिरेवाभूत् वरं कष्टैः प्राणांस्त्यक्ष्यामि तदपि वहन्नेव स्थास्यामीति। तस्मादहमुद्भूतदया त्वत्सखी त्वां प्रार्थयेऽस्याङ्कमलंकुरु। त्वामसौ वक्षसा वहत्वित्यर्थः। कन्दर्पोऽपि प्रसीदतु दाहश्च प्रशाम्यत्विति भावः। ननु पूर्वं ‘याहि माधव याहि केशव—’ इत्यादिना परुष-
अथ लघुमध्यादूत्यम्—
किमिति कुटिलितभ्रुश्चण्डि वृत्ताद्य सद्य-
स्त्वमिह कुसुमहेतोः सौहृदादाहृतासि।
व्रज नरपतिपुत्रं सन्तमन्तर्निलीय
प्रियसखि तटकुञ्जेहन्त जाने कथं वा॥७३॥
अथ लघुमृद्वीदूत्यम्—
कुञ्जगेहमवगाह्य माधवं सुप्तमत्र सिचयेन वीजय।
फुल्लमिन्दुकिरणैः कुमुद्वतीकोरकप्रकरमाहराम्यहम्॥७४॥
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मुक्ते तदपि प्रिये चारुशीले इत्यादि चाटुशतं कुर्वाणेऽपि प्रसादमनाविष्कुर्वत्यहं संप्रति लज्जासाध्वसाभ्यां संभ्रान्तास्मीत्यत आह—भ्रूक्षेपेति। अयमर्थः। त्वद्भ्रुक्षेपसंपल्लेशमेव स्वमूल्यं प्राप्यानेन स्वात्मा विक्रीतः, त्वया तु संपूर्णैव भ्रूक्षेपसंपद्दत्तेति ऋणीकृत्यमूल्यक्रीताद्दासादप्ययं न्यूनीकृत ; अत एवेवशब्दः। किंच किं वक्तव्यं तवौदार्यमित्याह—उपसेवितेति। अयं दासोऽपि भवितुं योग्यतां न धत्ते तदपि त्वद्दत्ते पदरूपेऽम्भोजे उपसेवितवान् स्वनासाभ्यामाधिक्येनाघ्रातवान्। अम्भोजयोःसेवा घ्राणमेवेति युक्तिः। अतः पुनरपि त्वं पादौ प्रसारय पाणिभ्यामयं तौ धृत्वा जिघ्रतु तदलक्तरसेन स्वालकानप्यलंकरोत्विति गूढः परिहासध्वनिः। एवं क्रमेणाधरं पायय संपरिरम्भय रमय चेति प्रार्थनात्रयम्॥७२॥ विशाखा श्रीराधामाह—किमिति। सौहृदादिति। दक्षिणां न ददात्यब्राह्मणं च करोतीति न्यायः प्रत्यक्षीकृत इति भाव। अन्ये ध्वनयोऽत्र स्पष्टा एव॥७३॥ शैव्या चन्द्रावलीमाह—**कुञ्जेति।**आसामापेक्षिकाधिकानां तिसृणाम्।दराग्रहेति। आग्रहोऽयं यूथेश्वर्या आग्रहानुरोधेनैव मन्तव्यः। अस्या आग्रहश्च द्विविधः। स्वकान्तपूर्त्युत्पादनहेतुकः, स्वसखीविषयस्नेहहेतुकश्च। सख्योऽपि द्विविधाः—श्रीकृष्णस्यातिलोभनीयगात्राः, नातिलोभनीयगात्राश्च। तत्र प्रथमासु प्रथम एवाग्रहः, द्वितीयासु द्वितीय एव। सुकुमार्यानया स्वकान्ताय कामसमुद्राय संपूर्णरतिदानासमर्थया तदर्थं वयमपि नियुज्यामहे तदस्याः साहाय्यं कुर्म इति नायिकात्वेप्रथमा ईषदाग्रहवत्यो भवन्ति। द्वितीयास्तु स्वेषु श्रीकृष्णलोभस्या-
आसां मध्ये भवेत्काचिन्नायिकात्वे दराग्रहा।
तस्मिन्ननाग्रहा काचित्सख्यसौख्याभिलाषिणी॥७५॥
** तत्राद्या यथा—**
लेखामाहर नीपकुञ्जकुहरात्त्वंचन्द्रकाणां मया
न्यस्तानामिति मद्गिरा सरभसं स्मेरा स्वयं प्रस्थिता।
तामुन्मुच्य मदीरितां शशिकले किं चन्द्रलेखाशतं
चेलेनावृतमन्यदेव दधती लब्धासि नम्रा गृहम्॥७६॥
** द्वितीया यथा—**
मां पुष्पाणामवचयमिषाद्वृन्दशो मा प्रहैषी-
र्वृन्दारण्ये परमिह भवद्दुःखभीत्या प्रयामि।
सत्यं सत्यं सुमुखि सखितासौख्यतस्ते मम स्या-
न्नवादीयानघविजयिनः केलिशय्याधिरोहः॥७७॥
** अथ नित्यसखी—**
सख्येनैव सदा प्रीता नायिकात्वानपेक्षिणी।
भवेन्नित्यसखी सा तु द्विधैकात्यन्तिकी लघुः॥७८॥
आपेक्षिकलघूनां च मध्येऽन्या काचिदीरिता।
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त्पतां जानत्यःस्वैस्तादृशसाहाय्यानतिसंभवं मन्यमानास्तां तत्सखीश्च सौभाग्याधिकाः स्वप्रयत्नैः श्रीकृष्णेन संभुज्यैव तां सुखयितुमिच्छन्त्यो नायिकात्वेन आग्रहवत्यो न भवन्तीत्याह—तस्मिन्निति॥७४॥७५॥ ललितादिसखीं श्रावयन्ती श्रीराधा शशिकलां परिहसन्त्याह—लेखामिति। लेखां श्रेणीम्। अत्र सरभसेति पदत्रयं तस्या नायिकात्वाग्रहं सूचयति। नम्रेति। चन्द्रकाणामेकैव लेखा आनेतुमुक्ता। त्वया तु लेखाशतमानीतं तदपि किं लज्जसे किंतु प्रगल्भस्ये[वे]ति भावः॥७६॥ यूथेश्वर्या दूत्यमसहमाना काचित्तामाह—मामिति। वृन्दशो बहुशः। वारंवारमित्यर्थः॥७७॥ ईरिता पूर्वमुक्ता।
*
*
॥७४॥७५॥७६॥ वृन्दश इति वारंवारमित्यर्थः॥७७॥
यथा—
त्वया यदुपभुज्यते मुरजिदङ्गसङ्गे सुखं
तदेव बहु जानती स्वयमवाप्तितः शुद्धधीः।
मया कृतविलोभनाप्यधिकचातुरीचर्यया
कदापि मणिमञ्जरी न कुरुतेऽभिसारस्पृहाम्॥७९॥
यथा वा—
राधारङ्गलसत्त्वदुज्ज्वलकलासंचारणप्रक्रिया-
चातुर्योत्तरमेव सेवनमहं गोविन्द संप्रार्थये।
येनाशेषवधूजनोद्भटमनोराज्यप्रपञ्चावधौ
नौत्सुक्यं भवदङ्गसंगमरसेऽप्यालम्बते मन्मनः॥८०॥
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‘तस्मिन्ननाग्रहा काचित्। सख्यसौख्याभिलाषिणी।’ इत्युक्ता या सा कापि नित्यसखीत्यर्थः॥ ७८॥ मणिमञ्जरीमभिसारयेति श्रीराधया नियुक्ता काचित् सखी ता युक्त्याप्यभिसारयितुमसमर्था परावृत्य श्रीराधां तद्वृत्तमाह—**त्वयेति।**स्वयमवाप्तिःस्वेन श्रीकृष्णस्य या प्राप्तिस्तस्याः सकाशात् तदेवं मुखं बह्वधिकं जानतीकृतविलोभनेति श्रीकृष्णाङ्गसङ्गसुखादन्यत् त्रिजगति नास्ति सुखमिति तदेकवारमनुभूय जानीहीति। चातुरीचर्ययेति। सखीत्वं नायिकात्वं च ललितादीनां सर्वासामेव समये समये स्यादेवेति। त्वमपि तादृश्येव भव किमिति सर्वतो लघुर्बुभूषसीति युक्त्योक्तापीत्यर्थः॥७९॥ द्वितीयामुदाहर्तुमाह—**यथावेति।**तत्र मया सहात्रैव कुञ्जेक्षणं शयित्वा स्वजन्म सफलयेति श्रीकृष्णेनोक्ता कांचिद्वनमालार्थं पुष्पाण्यवचिन्वती ‘स्त्रीभावोचितं वाम्यचातुर्यं परित्यज्य यथार्थं ब्रुवाणा तं प्रत्याययन्त्याह—राधारङ्गेति। राधैव रङ्गः सुरतलास्यरङ्गभूमिस्तत्र लसन्ती या तवज्ज्वलकलायां शृङ्गारवैदग्ध्ये संचारणप्रक्रियासंचरणप्रयोजकताप्रकारस्तत्र यच्चातुर्यं तदेवोत्तरं प्रधानं यत्र तत्।येन सेवनेनलब्धेनाशेषवधूजनानामुद्भटी यो मनसि राज्यप्रपञ्चोमनोरथविस्तारस्तस्याप्यवधावन्तसीमनि त्वदङ्गसङ्गसुखे
तत्र तद्दूत्यं यथा—
अन्तः प्रविशति न सखी कुप्यति मे कुञ्जदेहलीलीना।
तदिमां भङ्गुरितभ्रुवमनुनय वृन्दाटवीचन्द्र॥८१॥
प्राखर्यं मार्दवं चापि यद्यप्यापेक्षिकं भवेत्॥८२॥
तथापि विस्तरभयात्तद्विशेषोऽत्र नेरितः।
प्राखर्यादिस्वभावोऽयं यथायथमुदीरितः॥८३॥
देशकालादिवैशिष्ट्ये सादस्यापि विपर्ययः।
तत्र प्राखर्यस्य विपर्ययो यथा—
ध्वान्तैर्घोरतमां तमीमगणयन्वृष्टिं च धारामयी
चण्डं चानिलमण्डलं सखि हरिर्द्वारं तवासौ श्रितः।
हा क्रोधं विसृज प्रसीद तरसा कण्ठे गृहाण प्रियं
मूर्ध्नायं ललिताभिधस्तव पदं नत्वा जनो याचते॥८४॥
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मदीयं मनो नावलम्बते तेन त्वया सह स्वाङ्गसङ्गसुखादपि जालरन्ध्रादौ श्रीराधाङ्गसङ्गदर्शनोत्थं सुखमधिकमनुभूतं मन्मनसा नहि लब्धाधिकसुखा जना अल्पे सुखे प्रवर्तन्त इति भावः। ततश्च मास्तु तव सुखं मत्सुखं तु कुर्विति श्रीराधिकादत्तचरमन्त्रणेन श्रीकृष्णेन सा बलात् संभुक्तैवेति ज्ञेयम्॥८०॥ तद्दूयं तयोर्दूत्योरपि दूत्यमेकप्रकारकमित्येकेनैव पद्मेनाह—अन्तरिति। तदिमामित्यादिना स्वस्य मृदुत्वंलघुत्वं च ज्ञापितम्।त्रैविध्यसंभवेऽप्यस्या मृदुतैवोचितेत्युक्तत्वात्॥८१॥ आपेक्षिकमिति। या प्रखरोक्ता साप्यतिप्राखर्यवतीमपेक्ष्य मृद्वीकथ्यते, याच मृद्वीसाप्यतिमार्दववतीमपेक्ष्य प्रखरेत्यर्थः॥८२॥८३॥ मानिनीं श्रीराधां ललिता प्राह—ध्वान्तैरिति। तमीं रात्रिम्॥८४॥ ‘पद्मे कुतः
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ध्वान्तैरिति। ललिताया एव वाक्यम्। अत्र श्रीराधायाः क्रोधस्तु ललिताभयात्
मार्दवस्य विपर्ययो यथा—
गुणस्तवनकूटतः कुटिलधीः सखि त्वामसौ
कटाक्षितवती कथं तदपि नोज्झसि प्रश्रयम्।
रुषं कुरु करोषि चेन्मृदुतराद्य चित्राप्यसौ
विधास्यति तदौचितीं हिमघटेव पद्मोपरि॥८५॥
दूत्यं तु कुर्वती सख्याः सखी रहसि संगता॥८६॥
कृष्णेन प्रार्थ्यमानापि स्यात्कदापि न संमता।
यथा—
दूत्येनाद्य सुहृज्जनस्य रहसि प्राप्तास्मि ते संनिधिं
किं कंदर्पधनुर्भयंकरममुं भ्रूगुच्छमुद्यच्छसि।
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स्वसदनात् कुरुते सखी ते किं सांप्रतं सुदति रोदिति कोऽत्र हेतुः। गाम्भीर्यधैर्यजलधिस्त्वमिवास्तु कान्या यन्नाश्रु कान्तविरहेऽपि बहिष्करोषि॥’ इत्युक्तिप्रत्युक्त्यनन्तरं गतायां पद्मायां चित्रान्यसखीमुखात्तत्तत्सर्वं श्रुत्वा सानुतापं सोपालम्भं श्रीराधामाह—गुणेति। कूटो व्याजः। ‘कूटोऽस्त्री निस्वने राशौ लोहमुद्गरदन्तयोः। मायाद्रिशृङ्गयोस्तुच्छे सीरावयवयन्त्रयोः॥” इति मेदिनी।कुटिलधीः पद्मा गुणस्तुतिव्याजेन कटाक्षितवती कटाक्षविषयीकृतवतीत्यर्थः। कटाक्षशब्देन सूच्यमाननिन्दोच्यते। अत्र तु लक्षणया तद्विषयकव्याजस्तुत्या त्वां निन्दितवतीत्यर्थः।अश्रु वहिर्न करोषीत्यनेनाश्रुणोऽपह्नोतुं शक्यत्वेन प्रेम्णोऽल्पप्रमाणत्वमुक्तम्। प्रश्रयं विनयं विधास्यतीलधुनैवेतश्चलन्ती यत्र ता प्राप्स्यति तत्रैवेत्यर्थः। औचितीमौचित्यम्। हिमघटेवेति। शीतलमुद्रयैव मृव्द्याश्चित्राया औष्ण्यानौचित्यादिवेति भावः। पद्मायाश्चन्द्रावलीसख्या उपरि पद्मानामुपरीवेति सा शैत्येनैव ज्वलिष्यतीति भावः॥८५॥ प्रार्थ्यमाना सुरतमित्यर्थः॥८६॥ दूत्येन
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*
छलमय एव ज्ञेयः॥७८॥७९॥८०॥८१॥८२॥८३॥८४॥ उपरि श्लेषेण पद्मानामुपरि॥८५॥ संमतेति सम्यगङ्गीकारिणीत्यर्थः। सम्यक् मतं यस्या इति
प्राणानर्पयितास्मि संप्रति वरं वृन्दाटवीचन्द्र ते
नत्वेतामसमापितप्रियसखीकृत्यानुवन्धां तनुम्॥८७॥
मिथः प्रेमगुणोत्कीर्तिस्तयोरासक्तिकारिता॥८८॥
अभिसारो द्वयोरेव सख्याः कृष्णे समर्पणम्।
नर्माश्वासननेपथ्यं हृदयोद्घाटपाटवम्॥८९॥
छिद्रसंवृतिरेतस्याः पत्यादेःपरिवञ्चना।
शिक्षा संगमनं काले सेवनं व्यजनादिभिः॥९०॥
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हेतुना प्राप्तास्मि किमिति तवेदं चेष्टितमनुचितमिति भावः। भ्रूगुच्छं भ्रूस्तवकमुद्गच्छस्युत्क्षिपसि। कंदर्पधनुषः सकाशादपि भयंकरं कामपीडाभयादेवेयं स्वहठं जहात्विति बुद्ध्येति भावः। किंच तद्भयं मम हृदि नोत्पद्यते सुहृज्जये सौहार्दस्य प्रावल्यादिति भावः। ननु तर्हि बलात्कार करिष्यामीयत आह—प्राणानिति।हे वृन्दाटवीचन्द्रेति। त्वं वृन्दावनस्य चन्द्रो निष्कलङ्क एव वर्तसे स्त्रीवधरूपकलङ्के जिघृक्षा चेद्गृह्यतामिति भावः। ननु त्वदभिलषितं दूत्यमहं तत्र गत्वा संपादयिष्याम्येव क्षणमात्रमिदानीं मदभिलषितं त्वदङ्गसङ्गं देहि मह्यमन्यथा मयि त्वं प्रेमशून्यैवाभूरिति चेत्सत्यं त्वयि मे स्वतः प्रेमा नास्त्येव किंतु मत्प्रियसखी रमणत्वेनैवेत्यत आह—न त्वेतामिति। न समापितः प्रियसखीकृत्यस्यानुवन्धोऽपि यया ताम्। तेन मद्दूत्यस्य फलं मत्प्रियसख्या अङ्गसङ्गः स च साङ्गोपाङ्गो यावन्न भवेत्तावत्तनुं न दास्यामीति भावः। अत्रेदं कारणम्—सख्यं हि विश्वासमूलकं नायिकया स्वदूत्ये विश्वस्ता सखी यदि नायकेन निभृतं रमेत तदा विश्वासघाते सति सख्यस्य नाशे प्रेम्णो निर्मूलतायां कथय कथं रसः सेत्स्यतीति ज्ञेयम्। यस्तु काव्यप्रकाशे ‘निःशेषच्युतचन्दनं स्तनतटं—’ इत्यादिषु दूतीसंभोगः स च नायिकयापि सेर्ष्यया ज्ञातस्तदपि सख्यं ततो रसश्च। स तैरास्वाद्यतां नास्माभिः॥८७॥ द्वयोर्नायिकानायकयोर्मिथः परस्परं प्रति परस्परस्य
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विग्रहात्॥८६॥ द्वयोर्मिथ परस्परस्मिन् प्रेमगुणोत्कीर्तिः। द्वयोःप्रेम्णो गुणस्य च यथावसरं द्वौ प्रत्युत्कर्षेण कथनमित्यर्थः। काले संगमनमित्यभिसारानन्तरं
तयोर्द्वयोरुपालम्भः संदेशप्रेषणं तथा।
नायिकाप्राणसंरक्षाप्रयत्नाद्याः सखीक्रियाः॥९१॥
तत्र कृष्णे सखीप्रेमोत्कीर्तिर्यथा पद्यावल्याम्—
मुरहर साहसगरिमा कथमिव वाच्यः कुरङ्गशावाक्ष्याः।
खेदार्णवपतितापि प्रेमधुरां ते न सा त्यजति॥९२॥
सख्यां कृष्णप्रेमोत्कीर्तिर्यथा तत्रैव—
केलीकलासु कुशला नगरे मुरारे-
राभीरपङ्कजदृशः कति वा न सन्ति।
राधे त्वया महदकारि तपो यदेष
दामोदरस्त्वयि परं परमानुरागः॥९३॥
तत्र तस्या गुणोत्कीर्तिर्यथा—
निनिन्द निजमिन्दिरा वपुरवेक्ष्य यस्याः श्रियं
विचार्य गुणचातुरीमचलजा च लज्जांगता।
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प्रेम्णो गुणस्य चोत्कर्षेण कीर्तनं तयोः परस्परस्मिन्नासक्तिं कारयितुं शीलं यस्यास्तस्या भावस्तत्ता। काले समुचितावसर इति सर्वत्र योज्यम्। क्रियाः सप्तदश। आद्यशब्दाद्विपक्षादिसखीनां गुर्वादेश्चविचिकीर्षितस्य मिथ कृतसंकेतस्य च ज्ञानं ज्ञापनं च विपक्षसखीभिर्वाग्युद्धं चेत्यादयो ज्ञेयाः॥८८॥८९॥९०॥९१॥ विशाखा श्रीकृष्णमाह—**मुरहरेति।**खेदोऽत्र भवदौदासीन्यजातं दुःखं तेन त्वत्परीक्षायामुत्तीर्णा सा स्वा(सा)ङ्गसङ्गदानेनाङ्गीक्रियतामिति भावः। सम्यक् प्रकारेण स्वप्राणादितोऽप्युत्कर्षेण वहतीत्यन्यथा सा प्राणांस्त्यक्ष्यत्येव तर्हि समुद्रे पतन्महाभारं वहन् तं चात्यजन् कश्चिज्जनो जीवतीति भावः॥९२॥ चम्पकलता श्रीराधामाह—केलीति॥९३॥ तत्र कृष्णे ललिता श्रीकृष्णमाह—निनिन्देति। इन्दिरा लक्ष्मीः, अचलजा दुर्गा। ननु यदि सैव ममानुरूपा तर्हि
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मेलनमित्यर्थः॥८७॥८८॥८९॥९०॥९१॥ खेदो भवदौदासीन्याद्दुःखम्॥९२॥ नगरे व्रजे। व्रजस्य तस्य ग्राम्यतामतीत्यनागरताव्यवहारशालित्वात् तत्रापि मुरारेरिति परमविशिष्टता व्यक्ता॥९३॥ अचलजेत्यत्र ह्रियम-
अघार्दन तया विना जगति कानुरूपास्ति ते
परं परमदुर्लभा मिलतु कस्य सा मे सखी॥९४॥
** तस्यां तस्य गुणोत्कीर्तिर्यथा ललितमाधवे—**
महेन्द्रमणिमण्डलीमदविडम्बिदेहद्युति-
र्व्रजेन्द्रकुलनन्दनः स्फुरति कोऽपि नव्यो युवा।
सखि स्थिरकुलाङ्गनानिकरनीविबन्धार्गल-
च्छिदाकरणकौतुकी जयति यस्य वंशीध्वनिः॥९५॥
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सैव मे प्रेयसी भवतु भवत्या तत्र यतनीयमित्यत आह—परमतिशयेन दुर्लभेति। तवानुरूपत्वे सत्येव किं सालभ्या किंतु यदि तत्र तव प्राचीनं तपोभाग्यादिकं स्यात्तदैव सा तव भवेदिति भावः। कस्येति कर्मणि संबन्धविवक्षया षष्ठी। मिलतु कं सखी सा ममेत्यनुक्ता कस्येति षष्ठ्यन्तप्रयोगोऽर्थान्तरस्य प्रक्षेपार्थः। तच्चयथा—ननु साभिमन्योर्भार्या श्रुता तत्राह—सा मे सखी न कस्यापीत्यर्थः। नहि विवाहमात्रेणैव सा लभ्यत इति भाव। तर्हि मया कथं सा लभ्या स्यादित्यपेक्षायामाह—परं परकीयं पुरुषं श्रेष्ठमिति। अत्र संभावनायां लोट्। स्वानुरूपत्वादिति भावः। अत एव श्लेषेण परमतिशयेनादुर्लभा। ममोद्यममात्रेणैव तव सुलभेति भावः॥९४॥ ललिता श्रीराधामाह—महेन्द्रेति। नीवीबन्ध एवार्गलम्। कंदर्पगृहद्वारकपाटस्येत्यर्थः। तस्य छिदाकरणे द्वैधीकरणे कौतुकी। यथाहि कश्चिद्बहिः स्थित्यै(त्वै)व कपाटे दत्ताघातेनैवान्तर्गतमर्गलमपि भित्त्वा स्वबलं दर्शयति तथैव यस्य मुखोद्भूतः पवन एव वंशरन्ध्रप्रविष्टो वंशीध्वनिरूपस्तथा करोति न जाने स वा स्वयं कीदृशं बलं दर्शयिष्यतीति भावः॥९५॥
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वाप पद्माल्यपीति वा पाठः। पद्माया लक्ष्म्या आली तत्र प्रकाशभेदेन श्रेण्यपि। यद्वा पद्मायास्तन्नाम्न्या गोप्या आली चन्द्रावल्यपि। कस्येति कर्मणि संबन्धविवक्षा
कृष्णे सख्या आसक्तिकारिता यथा विदग्धमाधवे—
सा सौरभोर्मिपरिदिग्धदिगन्तरापि
वन्ध्यं जनुः सुतनु गन्धफली बिभर्ति।
राधे न विभ्रमभरः क्रियते यदङ्के
कामं निपीतमधुना मधुसूदनेन॥९६॥
तस्यां तस्यासक्तिकारिता यथा—
यद्येतस्यां वरपरिमलारब्धविश्वोत्सवायां
न त्वं कृष्णभ्रमर रमसे राधिकामल्लिकायाम्।
अर्थः को वा नवतरुणिमोद्भासिनस्ते ततः स्या-
द्वृन्दाटव्यामिह विहरणप्रक्रियाचातुरीभिः॥९७॥
कृष्णस्याभिसारणं यथा—
अवरुद्धसुधांशुवैभवं विनुदन्तं सखि सर्वतोमुखम्।
इह कृष्णघनं प्रगृह्य तं ललिताप्रावृडियं समागता॥९८॥
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ललिताविशाखे श्रीराधामाहतुः—सेति। दिग्धं व्याप्तं गन्धकली चम्पकम्। विभ्रमो विलासः।पीतमधुना पीतमकरन्देन पीताधरामृतेन च मधुसूदनेन भ्रमरेण श्रीकृष्णेन च॥९६॥ विशाखा श्रीकृष्णमाह—**यद्येतस्यामिति।**परिमल आमोदो रूपगुणवैदग्ध्यादिख्यातिविस्तारश्च। विश्वेषामुत्सवाः विश्वे सर्वे उत्सवाश्चार्थात्तवैवेत्यर्थः। अर्थः प्रयोजनम्॥९७॥ वासकसज्जा श्रीराधां रूपमञ्जरी प्राह—अवेति। पक्षेऽवरुद्धं तिरस्कृतं सुधांशोश्चन्द्रस्य वैभवं येन स्वमुस्वकान्त्येत्यर्थः। सर्वतोमुखं जलं नुदन्तं वर्षन्तम्। ‘कबन्धमुदकं पाथःपुष्करं सर्वतोमुखम्।’ इत्यमरः। नायिकान्तरदृष्टिपक्षे लोकशङ्कया सर्वस्यां दिशि मुखं क्षिपन्तम्। ततश्च विरहनिदाघदूना श्रीराधामालतीं प्रफुल्लीकर्तुमिति प्रयोजनं
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माषाणामश्नीयादिति भाष्यप्रयोगादेः॥९४॥ सर्वतोमुखं जलं विनुदन्तं पक्षे मुखं सर्वतो विनुदन्तं चालयन्तम्॥९५॥९६॥९७॥९८॥ ईजुर्यजन्ति
सख्या अभिसारणं यथा श्रीगीतगोविन्दे—
त्वद्वाम्येन समं समग्रमधुना तिग्मांशुरस्तं गतो
गोविन्दस्य मनोरथेन च समं प्राप्तं तमः सान्द्रताम्।
कोकानां करुणस्वनेन सदृशी दीर्घा मदभ्यर्थना
तन्मुग्धे विफलं विलम्बनमसौ रम्योऽभिसारक्षणः॥९९॥
कृष्णे सख्याः समर्पणं यथा—
यदन्तरमुपासितुं कमलयोनिमीजुर्गुणा
यदङ्गमुपसेवितुं तरुणिमापि चक्रे तपः।
नवप्रणयमाधुरीप्रमदमेदुरेयं सखी
मयाद्य भवतः करे मुरहरोपहारीकृता॥१००॥
________________
ध्वनितम्॥९८॥ सुदेवी श्रीराधां प्राह—वाम्येन मानेन सममिति। तापकत्वात् श्रीकृष्णमनोरथप्रतिकूलत्वाच्च। त्वन्मानतिग्मांशू उभावपि तुल्यधर्माणावित्यर्थः। सान्द्रतां नैबिड्यं वस्त्वन्तरानुद्भासात् मानतिग्मांशुनाश्यत्वाञ्चमनोरथतमसी अपि तुल्ये एव। तथा सहस्रावृत्तित्वेऽप्यविश्रामात् सगद्गदत्वाच्च कोकस्वनमदभ्यर्थने अपि समाने एव। विफलमिति पुनरपि किं मानमानिन्यसि। नहि त(य)दानीमस्तं गतस्तदानीमेवोदेति कश्चिदपि पदार्थ इति भावः। अस्तं गत इति। हा हन्त मद्वन्धुर्मानः सहसा नष्ट इति तं त्वमधिकमाशु च तिग्मांशुरिव पुनरप्यसावुदेष्यत्यपीत्याश्वासः परिहासश्च ध्वनितः॥९९॥ विशाखा श्रीकृष्णमाह—यदिति। यस्या अन्तरमन्तःकरणमुपासितुं सेवितुम्। तत्र वासं प्राप्तुमित्यर्थः। गुणा धैर्यगाम्भीर्यकलावैदग्ध्यादयः कमलयोनिं ब्रह्माणमीजुर्यजन्ति स्म। ततश्च बहुभिर्जनैः प्रसादितात्तस्माल्लब्धेन वरेणैव वासं प्रापुरित्यर्थः। एवं तरुणिमापि तपोबलेनैव तस्या अङ्गेप्रवेशं प्राप। नन्वीदृशमहिमत्वेतस्याः किं कारणमित्यपेक्षायां सर्वाधिकः प्रेमैवेत्याह—नवप्रणयेति। नवा नित्यं नवीनीभवन्ती या प्रणयमाधुरी तया यःप्रमद आनन्दः प्रहृष्टौ मदमत्तता गर्वश्च तेन मेदुरा स्निग्धा।उपहार उपायनम्॥१००॥ ललिता श्रीराधामाह—
नर्म यथा विदग्धमाधवे—
देहं ते भुवनान्तरालविरलच्छायाविलासास्पदं
मा कौतूहलचञ्चलाक्षि लतिकाजाले प्रवेशं कृथाः।
नव्यामञ्जनपुञ्जमञ्जुलरुचिः कुञ्जेचरी देवता
कान्तां कान्तिभिरङ्कितामिह वने निःशङ्कमाकर्षति॥१०१॥
आश्वासनं यथा—
मागाः क्लमं सखि मुहुर्वृषभानुपुत्रि
भानुं प्रतीहि चरमाचलचङ्क्रमोत्कम्।
आनन्दयन्नयनमुद्धुरधेनुधूलि–
ध्वान्तं विधूय विधुरेष पुरोज्जिहीते॥१०२॥
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भुवनान्तराले त्रिभुवनमध्ये विरला दुर्लभा याश्छायाः कान्तयस्तासां विलासस्य क्रीडाया आस्पदं मन्दिरम्। लतिकेत्यनुकम्पार्थककप्रत्ययेन कोमलत्वव्यञ्जकेन प्रवेशे सामर्थ्य जालपदश्लेषेण च परावर्तनासामर्थ्य च ध्वनितम्॥१०१॥ ललिताह—मागा इति। नन्वद्यतने दिने युगसहस्रमपि व्यतीतं तदपिकथं भानुर्नास्तं यातीत्यत आह—भानुमिति। चङ्क्रमोवक्रगमनं तत्रैवोत्कण्ठितम्। श्रीकृष्णदर्शनकलाधिक्यलाभार्थमिति भावः। भानोर्गमनस्य ऋजुत्वेप्रत्यक्षेऽपि तासां तथा संभावनं प्रेम्णा न विरुध्यते। अर्थान्तरं तु’ ‘नित्यंकौटिल्ये गतौ ३।१।२३’ इति कौटिल्य एवयद्विधानादशक्यम्। तत्र च कौटिल्ये गतावित्यनेनैव विधित्सिते सिद्धे नित्यपदोपादानं तक्रकौण्डिन्यन्यायस्यानित्यत्वज्ञापनात् क्रियासमभिव्याहारप्राप्तिवारणार्थमेव। यत्तु ‘व्यायामं च व्यवायं च स्त्रानं चक्रमणं तथा। ज्वरमुक्तो न सेवेत यावन्न वलवान्भवेत्॥” इति वैद्यके दृष्टं तच्चिन्त्यम्। ननु भानुरपि तथा प्रतीपायते चेत् कथं तर्हि जीविष्यामीत्यत आह—आनन्दयन्निति। विधुश्चन्द्रः श्रीकृष्णश्च पुरा निकट एवोज्जिहीते उदयते। ‘स्यात्प्रबन्धे चिरातीते निकटागामिके पुरा।’इत्यव्ययनानार्थवर्गः॥१०२॥
*
*
स्म॥९९॥१००॥१०१॥ पुरोज्जिहीते उदयं प्राप्स्यति। पुरायोगे भविष्यति लट्
नेपथ्यं यथा—
भाले मया ते मृगनाभिनासौ यः पत्रभङ्गोऽस्ति विरच्यमानः।
स बिन्दुरूपेण पतञ्छ्रमाम्बुलुप्तो हरेर्वक्ररुचिं13 तनोतु॥१०३॥
हृदयोद्धाटपाटवं यथा—
तथ्यं वदाद्य नहि संकुच पङ्कजाभं
द्वन्द्वं दृशोरिह किशोरि निमीलयन्ती।
का रज्यते सखि विवोढरिगोकुलेऽस्मिन्
क्षुण्णा न वीथिरियमेकिकया त्वयैव॥१०४॥
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श्रीराधामलंकुर्वती ललिता परिहसन्त्याह—**भाल इति। हरेर्वक्रेति।**विपरीतं संप्रयोगमाशास्तेतदैव पत्रभङ्गस्य मल्लिखनश्रमस्यापि सार्थकत्वं भविष्यतीति भावः॥१०३॥ पूर्वरागे सुहृद्विकारं सखीमपि लज्जयैवाब्रुवाणां श्रीराधां ललिता पृच्छन्त्याह—तथ्यमिति। दृशोर्द्वन्द्वं निमीलयन्ती मुद्रयन्ती सती नहि संकुच किंतु तदुद्घाटयन्त्येव सत्यं वद। स्वमनःपीडाकारणमित्यर्थः। परपुरुषे मनस आसक्तिरेव ममाधिहेतुस्तां च वक्तुं कथं न संकुचामीति चेत्तत्राह—का रज्यत इति। विवोढरि भर्तरि अस्मिन् गोकुले का कुलाङ्गना रज्यते। न कापीत्यर्थः। अत इयं प्रसिद्धा वीथिः पातिव्रत्यधर्मरूपो मार्गस्त्वयैकिकयैव न च क्षुण्णा चरणपातदलितीकृता अपि तु सर्वाभिरपीत्यर्थः। पातिव्रत्यवीथिं पद्भ्यामेव छित्त्वौपपत्यवीथिरेव स्वीकारेण प्रवर्तितेत्यर्थः। अतो ‘न दुःखं पञ्चभिः सह’ इति न्यायेनात्र संकोचोऽप्यसंकोचायत एवेति भावः॥१०४॥
*
*
॥१०२॥ हरेर्वक्रमलंकरोत्वित्यत्र हरेर्वक्रमुपस्करोत्विति वा पाठः॥१०३॥ अस्मिन् गोकुले का विवोढरि भर्तरि रज्यते न कापीति तस्याः संकोचं विधूय हृदयोद्घाटनार्थमेवाभिव्यापिनीयं नर्मोक्तिः। वस्तुतस्तु प्रायिकतामात्रमभिप्रेतम्। इयं विवोढरिअरतिरूपा वीथिः पद्धतिस्तु त्वयैव न क्षुण्णा न
यथा वा—
वयस्ते साम्राज्यं सखि वितनुते पुष्पधनुषो
जिहीते सौन्दर्य त्रिभुवनदृगासेचनकताम्।
न दास्येऽप्यौचित्यं वहति परिणेता परिणत-
स्त्वमेका ह्रीदग्धे बत विमुषितासि व्रजकुले॥१०५॥
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अत्र परपुरुषासक्तिरूपस्य दोषस्य सर्वसाधारण्यमात्रज्ञापनेननिर्दोषत्वं न स्यादतो न तेन हृदयोद्घाटनं सम्यक् संभवेदित्यत आह—यथावेति। वयो यौवनं कंदर्पस्य साम्राज्यं वितनुतइत्यत्रायं भावः—कंदर्पेण त्वद्यौवनाविर्भावात् पूर्वं यद्यपि त्रैलोक्यं जितमेव तदाप्येकस्य श्रीकृष्णस्य जयाभावात् साम्राज्येन सिद्धमासीदिति, इदानीं तु त्वद्यौवनमाविर्भूयैव श्रीकृष्णं जित्वातस्य साम्राज्यं साधयामासैवेति। न च केवलमिदानींतनस्य यौवनस्यैतावन्माहात्म्यं किंतु यौवनात्पूर्वमपि बाल्येऽपि सौन्दर्यस्यापीत्याह—जिहीते प्राप्नोति। ‘तदासेचनकं तृप्तेर्नास्त्यन्तो यस्य दर्शनात्।’ इत्यमरः। एवं तस्या वयः सौन्दर्योपलक्षितसर्वगुणमहामाधुर्यमुपपाद्य तस्य वैफल्यं द्योतयन्ती तत्परिणेतारं निन्दति—न दास्येऽपीति। ईदृशो दासोऽपि विना मूल्यं प्राप्तोऽपि नाङ्गीकर्तुं युज्यत इति भावः। एवमस्य गुणराहित्यकौरूप्ये उक्ते। पश्वादिवद्यौवनमपि नाभूदित्याह—परिणेता परिणत इति। परिणेतृत्वदशामारभ्यैव परिणतो वृद्धः। तेन बाल्यपौगण्डानन्तरमेवास्य वार्धकमायातमिति भावः। ननु किं कर्तव्यमीदृशमेव समादृष्टमिति चेत्तत्राह—ह्रीदग्धे इति। तव गुणरूपानुरूपः श्रीकृष्णो व्रज एव सोत्कण्ठ एव वर्तते तत्सङ्गार्थमुद्यममकुर्वाणा लज्जयैव त्वं दह्यसे नतु ते किमपि दुरदृष्टमस्तीति भावः। नन्वेवं का कुलाङ्गना कुरुत इत्यत आह—वतेति खेदे। व्रजकुले व्रजकुलाङ्गनाकुले त्वमेवैका विमुषितासि वञ्चितासि, अन्यास्तु सर्वा एव स्वस्वपतीनपि विहाय श्रीकृष्णसङ्गं प्राप्य विहरन्त्यः सफलरूपयौवना एवाभूवन्निति भावः।
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चरणपातदलितीकृता॥१०४॥ वय सौन्दर्यंच कर्तृ। जिहीते गच्छति। ‘तदासेचनकं तृप्तेर्नास्त्यन्तो यस्य दर्शनात्’। परिणेता विवोढा। परिणतो वृद्धः। एकेति पूर्ववत्। हे हीदग्धे, विमुषितासि हारितनिधिरसि स्वयंप्राप्तमपि श्रीकृष्णं हारीत-
छिद्रसंवृतिर्यथा विदग्धमाधवे—
मुदा क्षिप्तैः पर्वोत्तरलहृदयाभिर्युवतिभिः
पयःपूरैः पीतीकृतमतिहरिद्राद्रवमयैः।
दुकूलं दोर्मूलोपरि परिदधानां प्रियसखीं
कथं राधामार्ये कुटिलितदृगन्तं कलयसि॥१०६॥
पत्यादेःपरिवञ्चना यथा—
श्यामाङ्गः पटुरेष कर्मणि बटुर्गर्गस्य शिष्यो मया
राधामर्चयितुं प्रगे दिनकरं सद्मन्ययं प्रापितः।
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तेन परपुरुषासक्तिजिहासां यद्गुणं मन्यसे एष ते एव महादोषः। विधात्रा दत्ताना रूपगुणयौवनानां वैफल्यापादनाद्विधातुः स्थानेऽपि तवापराधो भविष्यतीत्यतःसर्वं विचार्य विधित्सितं ब्रूहि।यथा वयमेव तत्र यतामहे इति ततश्च तया हृदयमुद्धाट्य कुलस्त्रीणां नेष्टा परपुरुषरूपस्तुति कथेत्यादिपद्यानि सास्रं पठितानीति ज्ञेयम्॥१०५॥ स्ववध्वाः श्रीराधाया अङ्गेप्रातः श्रीकृष्णस्य पीतवस्त्रं परिचिन्वतीं रुपनधिक्षिपन्ती जटिलां प्रतारयन्ती विशाखा प्राह—**मुदेति।**अद्य व्रतिन्या राधया परिहितशुक्लवस्त्रया देवमन्दिरेऽन्याभिरपि बह्वीभिर्व्रतिनीभिः सह जागरः कृतस्तत्र जागरान्ते उत्सवपूर्त्यर्थं मुदा क्षिप्तैरित्यादि। ततश्च तदेव वस्त्रं विलम्बतो गात्र एव शुष्कं पीताम्बरं जातमिति बुद्ध्यस्वेति ध्वनितम्॥१०६॥ ललिता विप्रवेषेणागतं श्रीकृष्णमपलपन्ती श्रद्धालुमभिमन्युं व्याजेन ततोऽपसारयन्त्याह—श्यामाङ्ग इति। अर्चयितुमिति हेतुणिजन्तं राधामिति प्रयोज्यकर्तुःकर्मत्वम्। गत्यर्थादिव्यतिरिक्तानामणौ कर्तुर्णावुभयं भवति कर्तृकत्वं
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वत्यसीयर्थः॥१०५॥ पीतवस्त्रं कदाप्युपरि दधानायां श्रीराधायामकस्मात् परिहितं दृष्ट्वा पूर्वपूर्वसंदेहानुसारेण श्रीकृष्णवस्त्रतया वितर्कयन्तीं वार्धकमन्ददृष्टिं श्रीराधाश्वश्रूमन्यां [जटिला] वञ्चयन्ती श्रीराधासख्याह—***मुदा क्षिप्तैरिति।*तत्र दोरन्तराल इति वास्तवत्वेऽपि दोर्मूलोपरीत्युक्तेर्विवर्णीकृततया प्रतिपाद्ये वस्त्रे तस्या जिहासासूचनया वञ्चनार्थमनादरोऽपि सूचितः॥१०६॥ श्यामाङ्ग इति श्रीकृष्णमपलपति। अर्चयितुरिति हेतुणिजन्तम्। राधामिति प्रयोज्यकर्तुः कर्म-
तेनामीर पयस्त्वमागमय गां दुग्ध्वा पतङ्गप्रियां
पिङ्गाक्षीमरुणामहं तु करवाण्येभिः सरोजैः स्रजम्॥१०७॥
शिक्षा यथा—
त्वमीरय समीरणं वरसरोजवल्लीदलै-
र्विधेहि सखि मन्थरं चरणपद्मसंवाहनम्।
मुखे घटय वीटिकामवदलय्य कर्पूरिणीं
हरेरिति नवाङ्गना प्रणयिनीपदं विन्दति॥१०८॥
यथा वा—
कुर्वीथाः परमादरं प्रियसुहृद्वर्गे सदा प्रेयसः
कामं तस्य रहस्यसंवृतिविधौ निर्बन्धमङ्गीकुरु।
मा चेतस्तदसंमते सखि निजाभीष्टेऽपि कृत्ये कृथाः
प्राप्स्यत्येवमनर्गलोऽपि स हरिस्तूर्णं तवाधीनताम्॥१०९॥
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कर्मत्वं चेति भाषावृत्तिदृष्टेः। आभीर, हे अभिमन्यो, सूर्यपूजायां स्नानाद्यर्थं कपिलादुग्धमपेक्षितमतस्त्वं गां दुरध्वा पय आगमय आनय।**अरुणामिति।**या हि सर्वाङ्गेष्वरुणवर्णा अथ च पिङ्गाक्षी सैव पतङ्गस्य सूर्यस्य प्रिया कपिलेति तामन्यः परिचेतुं न शक्ष्यतीत्यन्यो न प्रेषणीय इति भावः। अत एवाभीरेति संबोधनम्। सर्वमिदं तस्य विलम्बागमनार्थमेवेति बोद्धव्यम्॥१०७॥ कांचिदभिसार्य श्रीकृष्णाग्रेप्रथमसंगतां तां सखी काचिदुपदिशति—**त्वमीरयेति।**अवदलय्य शिरादूरीकरणेन खण्डयित्वारचितां वीटिकामित्यर्थः। श्रीहरेर्मुखे घटय॥१०८॥ नायिकां प्रत्येवं शिक्षा नातीव सुरसेत्यपरितुष्यन्नाह—यथावेति। ललिता श्रीराधामाह—कुर्वीथा इति। प्रियसुहृदः सुबलादयः।
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त्वम्।कैश्चिद्रत्यर्थादन्यत्रापि तस्य स्वीकारात्। प्रगे प्रातःकाले। हे आभीरेति श्रीराधायाः पतिमन्यं प्रति संबोधनम्।त्वं गां दुग्ध्वा पय आगमय आनय। पिङ्गाक्षीमकरुणामिति कपिलाविशेषत्वं गमयति। अत एव पतङ्गस्य सूर्यस्य प्रियाम्॥१०७॥ त्वमीरयेत्यादि द्वयं प्रायो नवोढाविषयं गम्यते। अवदलय्य
अथ काले संगमनं यथा—
वासरीयविरहक्लमविद्धां लोचनोत्पलवलद्भ्रमरालिम्।
राधिकाकुमुदिनीं विधुनेयं संयुनक्ति ललितोत्तरसंध्या॥११०॥
** अथ व्यजनादिना सेवा यथा—**
चामरीकृतलताचमरीका कुञ्जधाम्निललिता लुलिताङ्गीम्।
विद्यदाकृतिमवीजयदेनां पेतुपीमघहरोरसि राधाम्॥१११॥
** अथ तयोर्द्वयोरुपालम्भः, तत्र हरेरुपालम्भो यथा—**
सौम्यमूर्तिरुपनीय निर्भरं शारदार्क इव रागमग्रतः।
त्वं भजन्सपदि तीव्रतां कुतः पूतनार्दन दुनोपि मे सखीम्॥११२॥
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अनर्गलोऽनन्यवशः॥१०९॥ रतिमञ्जरी रुपमञ्जरीमाह—**वासरीयेति।**विधुना चन्द्रेण श्रीकृष्णेन च। ललिता मञ्जुला तन्नाम्नी सखी च। लोचनेषु रलयोरक्याद्रोचनेषु कान्तिमत्सु उत्पलेषु तत्पुष्पेषु बलन्त्यो भजन्त्यो भ्रमरश्रेणयो यस्यास्तां पक्षे नयनोत्पलयोर्वलन्त्यश्चूर्णकुन्तलपङ्क्तयो यस्यास्ताम्। ‘ते ललाटे भ्रमरकाः’ इत्यमरः॥११०॥ चमरी मञ्जरी पेतुषींविपरीतशृङ्गारान्ते श्रान्तिभरात् श्रीकृष्णवक्षसिपतिताम्॥१११॥ श्रीराधायां खण्डितायां सत्यामनुनयन्तं श्रीकृष्णं ललितोपालभते। सौम्यमूर्तिः सरलजनविश्वासोत्पत्त्यर्थं त्वां विनान्यां स्वप्नेऽप्यहं न जानामीत्यादिमृषावचनै रागमनुरागम्, पक्षे रक्तिमानम्, अग्रत इत्यनेन उदितोऽस्तं यास्यन्नेव वार्को लभ्यते। तथाभूतस्येवाग्रतोवर्तित्वसंभवात्। स च रक्तः सौम्यमूर्तिरप्याश्विनमासीयस्तीव्रतां पित्तकरत्वात्तैक्ष्ण्यं गच्छन् स्वं सेव्यमानमनभिज्ञजनं यथापकरोति तथेत्यर्थः। यदुक्तम्—‘बालार्कस्तरुणं दधी’त्यादौ’सद्यःप्राणहराणि षडि’ति। हे पूतनार्दनेति। वाल्यमारभ्यैव विश्वासमुत्पाद्य यदि स्त्रीवध एव तात्पर्यं तर्हि बह्व्येव स्त्रीततिः पूतनेव कपटप्रेमवती वर्तते तां विहाय मे सखी कुतो दुनोषीति मन्ये। प्रेमाणमपि सत्यमसत्यं न
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समन्तात् खण्डयित्वा॥१०८॥१०९॥ भ्रमराः पक्षे चूर्णकुन्तलाः॥११०॥
सख्या उपालम्भो यथा—
विपक्षे दाक्षिण्यं प्रणयसि परं केलिकुतुके
मुकुन्देनारब्धे कलयसि पृथुं वेपथुभरम्।
मुधैवाभ्यस्यन्ती सहचरि सदा मण्डनकलां
कुतो मौग्ध्येन त्वं समयमनभिज्ञे गमयसि॥११३॥
अथ संदेशप्रेषणं यथा हंसदूते—
त्वया गोष्ठं गोष्ठीतिलक किल चेद्विस्मृतमिदं
न तूर्ण धूमोर्णापतिरपि विधत्ते यदि कृपाम्।
अहर्वृन्दं वृन्दावनकुसुमपालीपरिमलै-
र्दुरालोकं शोकास्पदमथ कथं नेष्यति सखी॥११४॥
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परिचिनोषीति भावः॥११२॥ अकस्मान्मिलितायै पद्मायै श्रीराधया प्रियोक्तिभिर्दत्तं संमानमसहमाना ललिता तस्यां गतायां हारगुच्छगुम्फनशिल्पे स्वकल्पितवैचित्रीं कुर्वाणां श्रीराधां प्रत्याह—विपक्ष इति। तव कां कामनीतिं गणयामीतिभावः। तिरस्कार्य विपक्षजनमादरपात्रीकृत्य स्वापकर्षमङ्गीकुरुषे चेत्कथं तवोत्कर्षोभविष्यति। तथा श्रीकृष्णेन सह संप्रयोगलीलायां समुचितं कायिकं वाचिकं प्रागल्भ्यं विहाय तत्पाणिस्पर्शमात्रेणैव केवलं कम्पसे चेत्कथं तव विलाससुखं संभवेत्। ततश्च व्यर्थमेव स्वगात्रे मण्डनवैचित्रीमभ्यस्यति। तस्या हि फलं सौभाग्यं तस्य च सदा श्रीकृष्णाङ्गसङ्गस्तस्य च परमानन्दादानप्रदाने तयोश्च सर्वतः स्वोत्कर्ष इयवधि। तमेव स्वोत्कर्ष निकृष्टजनमादृत्य दूरीकुरुषे चेत्कस्तवपरामर्षइति। अत एवानभिज्ञ इति संवोधनम्। वस्तुतस्तु सर्वैवेयं व्याजस्तुतिरुत्कर्षमेव व्यनक्ति॥११३॥ ललिता मथुरास्थे श्रीकृष्णे हंसद्वारा सदेशं प्रेषयन्त्याह—त्वयेति श्लोकद्वयेन। गोष्ठीतिलकेति विपरीतलक्षणास्वगोष्ठ्या दुःखदायित्वात्। यद्वा संप्रति यदुक्तमेव तव गोष्ठी धूमोर्णापतिर्यमः। कृपां कृपया दशम्या दशायाः प्रदानंतूर्णमिति विलम्वेन तु करिष्यत्येवेति भावः। तेन च शीघ्रमायासि चेत्तदैवेमां द्रक्ष्यसि नान्यथा। वृन्दावने तूद्दीपनविभाव
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चमरी मञ्जरी। पेतुषीमित्यत्रसंगतामिति वा पाठः॥१११॥ धूमोर्णापतिर्यमः
** अथ नायिकाप्राणसंरक्षाप्रयत्नोयथा—**
त्वामायान्तं कथयति मृषा कुर्वती दिव्यमुग्रं
मूर्च्छारम्भे तव मणिमयी दर्शयत्याशु मूर्तिम्।
वन्ये वेणौ ध्वनति मरुता कर्णरोधं विधत्ते
रक्षत्यस्याः कथमपि तनुं माधवी यादवेन्द्र॥११५॥
इति दूतीप्रकरणम्।
अथासामपरः कोऽपि विशेषः पुनरुच्यते।
असमं च समं चेति स्नेहं सख्यः स्वपक्षगाः॥११६॥
कृष्णे यूथाधिपायां च वहन्त्यो द्विविधा मताः।
तत्रासमस्नेहाः—
अधिकं प्रियसख्यास्तु हरौ तस्यां ततस्तथा॥११७॥
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॥११४॥ उद्धवः श्रीराधावृत्तान्तं पृच्छन्तं श्रीकृष्णमाह—**त्वामिति।**मूर्च्छारम्भंइत्युभयत्रैव काकाक्षिगोलकन्यायेन संवन्धनीयमन्यथान्त्यस्य वाक्यद्वयस्य लक्ष्यद्वयेन संबन्धे प्रथमवाक्यस्य लक्ष्याभावात् प्रक्रमभङ्गो नाम दोषः स्यात्। तत्रप्रक्रमशब्दस्यादितोऽन्ततश्च ग्रहणव्याख्यानात्। यद्वैवमवतारणीयम्—हे सखि, अवधिदिनं व्यतीतं तदनुज्ञापय प्राणांस्त्यजामीत्युक्तवत्यां तस्यां त्वामायान्तमित्यादि। उग्रंदिव्यं महाशपथं सखि मां शपथादिना प्रतारयसि मात्रम्।यतोऽग्रे नासौ चिरादपि दृश्यत इति मूर्च्छाया आरम्भे तव मणीत्यादि। ततश्चास्यां लब्धविश्वासायां त्वां मिलितवत्यामकस्मात्तदैव मरुता हेतुना वनोद्भवे वेणौ कीचके ध्वनति सति अस्याः कर्णौ रुन्धे। अर्थात् स्वपाणिभ्यामित्यर्थः। मुरलीध्वनिबुद्ध्यारासप्रतीत्यातत्रोन्मादेन धावितवत्यास्तत्र श्रीकृष्णादर्शनेन पुनर्मूर्च्छाया भावित्वशङ्कयेति भावः। माधवीनाम्नी काचित्सखी॥११५॥
इति दूतीप्रकरणम्।
आसां सखीनाम्॥ प्रियसख्याः स्वयूथेश्वर्याःसकाशाच्छ्रीहरावधिकं तथा
*
*
॥११२॥११३॥११४॥ दिव्यं शपथम्।वेणौ कीचके।माधवीनाम्नी॥११५॥
इति दूतीप्रकरणम्।
वहन्त्यः स्नेहमसमस्नेहास्तु द्विविधा मताः।
** तत्र हरौ स्नेहाधिकाः—**
अहं हरेरिति स्वान्ते गूढामभिमतिं गताः॥११८॥
अन्यत्र क्वाप्यनासक्त्या स्वेष्टां यूथेश्वरीं श्रिताः।
मनागेवाधिकं स्नेहं वहन्त्यस्तत्र माधवे॥११९॥
तद्दूत्यादिरताश्चेमा हरौ स्नेहाधिका मताः।
यथा—
न मे चेतस्यन्यद्वचसि पुनरन्यत्कथमपि
स्थवीयान्मानस्ते सखि मयि मुखं न प्रथयति।
रवेस्तापेनेव क्षणमुदयता येन जनितो
वकारेर्वक्रेन्दुच्छविशबलिमा मां ग्लपयति॥१२०॥
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ततो हरेः सकाशात्तस्यां प्रियसख्यामधिकम्॥११६॥ ११७॥ अभिमतिमभिमानम्गूढामिति। बहिस्तु द्वयोरपि स्नेहसाम्यमात्मनो दर्शयन्त्य इत्यर्थः। क्वापि यूथेश्वरीषु। नन्वहं हरेरित्यभिमानश्चेत्तदा किं यूथेश्वर्याः श्रवणेनेत्याह—मनागिति। यूथेश्वर्या पूर्णमेव स्नेहं किंतु तस्याः सकाशादपि माधवे मनाग् किंचिन्मात्रमधिकम्॥११८॥११९॥ मानिनीं श्रीराधां धनिष्ठा प्राह—न मे चेतसीति। यदेव तुभ्यं रोचते तदेव न्याय्यं त्वया त्वन्मुखालोकार्थं ब्रुवन्त्योऽन्याः सख्य इव नाहं ब्रवीमीति भावः। स्थवीयानतिस्थूलः। प्रथयति प्रख्यापयति। प्रकाशयतीति यावत्।येन मानेन॥१२०॥ वचनमिदं
*
*
- ततो हरेः॥११६॥११७॥११८॥११९॥ मम चेतस्यन्यद्वचसि पुनरन्यदिति कथमपि न स्यात्। किंतु द्वयोरेकमेवेत्यर्थः। तदेव कथयेत्याकाङ्क्ष्याह*—स्थवीयानिति॥१२०॥ श्रीकृष्णेन दिनांश एव वृन्दाद्वारा हृतायां
अथवा—
सुरकुलमखिलं प्रणम्य मूर्ध्ना प्रवरममुं वरमर्थये वराङ्गि।
मुहुरभिमतसेवया यथाहं सुबलसखं सुखयामि राधिकां च॥१२१॥
याः पूर्वं सख्य इत्युक्तास्तास्तु स्नेहाधिका हरौ॥१२२॥
अथ प्रियसख्यां स्नेहाधिकाः—
तदीयताभिमानिन्यो याः स्नेहं सर्वदाश्रिताः।
सख्यामल्पाधिकं कृष्णात्सखीस्नेहाधिकास्तु ताः॥१२३॥
यथा—
विरमतु तव वृन्दे दूत्यचातुर्यचर्या
सहचरि विनिवृत्य ब्रूहि गोष्ठेन्द्रसूनुम्।
विषमविषधरेयं शर्वरी प्रावृषेण्या
कथमिह गिरिकुञ्जेभीरुरेषा प्रहेया॥१२४॥
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समस्नेहानामपि संभवेत्। यदुक्तम् ‘आसां सुष्ठुद्वयोरेव प्रेम्णः परमकाष्ठया। क्वचिज्जातु क्वचिज्जातु तदाधिक्यमिवेक्ष्यते॥’ इत्यतोऽसाधारणताख्यापकमुदाहरणान्तरं वक्तुमाह—यथावेति। तत्रातिरहसि। स्वभावसाजात्यवतींकांचित् स्वशिक्ष्यमाणसख्यप्रकारां काचिदाह—सुरकुलेति। राधिकां चेति। चकारेण सूचितं श्रीराधिकाविषयकसेवाग्रहाल्पत्वं श्रीकृष्णस्नेहाधिक्यं बोधयति॥१२१॥ पूर्वं सखीनां पाञ्चविध्यप्रसङ्गे सख्यः कुसुमिकाविन्ध्या इत्याद्या उक्ताः॥१२२॥१२३॥ श्रीराधिकायाः प्राणसखी काचित् प्रखरा श्रीराधाभिसारं प्रत्याचक्षाणा वृन्दामाह—विरमत्विति। प्रावृषेण्या प्रावृषि भवा। विषधराः सर्पाः। प्रहेया प्रस्थापनीया।तेन निर्भयः कालियादिसर्पमर्दनस्त्वयैव प्रच्छन्नमत्राभिसारणीय
*
*
खसख्यां चलनयुक्त्यलाभेन रात्र्यागमे जाते काचित् प्रत्याचष्टे—***विरमत्विति।*प्रावृषेण्या प्रावृषिभवा॥१२१॥१२२॥१२३॥१२४॥ यत्र श्रीराधासख्ये
यथा वा—
वयमिदमनुभूय शिक्षयामः कुरु चतुरे सह राधयैव सख्यम्।
प्रियसहचरि यत्र बाढमन्तर्भवति हरिप्रणयप्रमोदलक्ष्मीः॥१२५॥
याः पूर्वं प्राणसख्यश्चनित्यसख्यश्व कीर्तिताः।
सखीस्नेहाधिका ज्ञेयास्ता एवात्र मनीषिभिः॥१२६॥
अथ समस्नेहाः—
कृष्णे स्वप्रियसख्यां च वहन्त्यः कमपि स्फुटम्।
स्नेहमन्यूनताधिक्यं समस्नेहास्तु भूरिशः॥१२७॥
यथा—
विना कृष्णं राधा व्यथयति समन्तान्मम मनो
विना राधां कृष्णोऽप्यहह सखि मां विक्लवयति।
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इति भावः॥१२४॥ इदमपि वचनं पूर्वोक्तयुक्त्या समस्नेहानामपि संभवेदित्यत आह—यथावेति। मणिमञ्जरी काचिन्नवीनां शिक्षयन्त्याह—**वयमिति।**ननु राधयैवेत्येवकारेण किं श्रीकृष्णविषयकं नाभिप्रेतमित्यत आह—यत्रेत्यादि। यत्र श्रीराधासख्ये हरेः प्रणय श्रीकृष्णकर्तृकं सख्यं स एव प्रमोदलक्ष्मी आनन्दसपत्तिःसाप्यन्तर्भवति किं पुनर्वक्तव्यं श्रीकृष्णविषयकं सख्यमन्तर्भविष्यतीति। अयमर्थः। तव श्रीराधासखीत्वेसिद्धे मत्प्रेयस्याः सखीयमिति त्वयि श्रीकृष्णस्य स्नेहाधिक्यमवश्यं भावि। श्रीराधायाः कदाचिन्मानगुरुणि राधादावतिदुर्लभ्ये तत्प्राप्त्यर्थं त्वामप्यपेक्षिष्यमाणेन तेन प्रथमत एव त्वया सह सख्यमवश्यं कर्तव्यमिति तेन सह तव सख्यमयत्नसिद्धमिति॥१२५॥ ‘सख्यश्च नित्यसख्यश्च प्राणसख्यश्च काश्चन। प्रियसख्यश्च परमप्रेष्ठसख्यश्चेति पूर्वत्र यथोत्तरश्रैष्ठ्येऽप्युक्तेऽत्र प्राणसख्यश्च नित्यसख्यश्चेति यथापूर्वश्रेष्ठ्येनोक्तिरुदाहरणे मुख्यस्यैव प्राथम्यौचित्यात्। एवमग्रेऽपि ‘परमप्रेष्ठसख्यश्च प्रियसख्यश्च ता मताः’ इति वक्ष्यते॥१२६॥ श्रीराधायां मानिन्यामकस्मादागतां श्यामासखीं वकुलमालां प्रति चम्पकलता प्राह—विना कृष्णमिति। यत्र जन्मनि।
*
*
‘श्रीहरिप्रणयानन्दसंपत्तिरन्तर्भावंप्राप्नोति॥१२५॥१२६॥१२७॥ विना कृष्णमिति। मानिन्यां सत्यां श्रीराधायां वामां सखीं प्रति समस्निग्धावाक्यम्।
जनिः सा मे मा भूत्क्षणमपि न यत्र क्षणदुहौ
युगेनाक्ष्णोर्लिह्यांयुगपदनयोर्वक्रशशिनौ॥१२८॥
तुल्यप्रमाणकं प्रेम वहन्त्योऽपि द्वयोरिमाः।
राधाया वयमित्युच्चैरभिमानमुपाश्रिताः॥१२९॥
परमप्रेष्ठसख्यश्च प्रियसख्यश्च ता मताः।
इति सखीविशेषप्रकरणम्।
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॥१२७॥ क्षणदुहावुत्सवपूरकौ॥१२८॥ तुल्यप्रमाणकमिति। नन्वत्र ग्रन्थे श्रीकृष्णे स्नेहाधिकाः, प्रियसख्यां स्नेहाधिकाः, द्वयोः समस्नेहा इति त्रैविध्यस्यैव फलितत्वे पूर्वं सखीनां पाञ्चविध्यं कथमुक्तम्। सखीस्नेहाधिकानां समस्नेहानां चेति उभयासां प्रेमतारतम्यार्थं द्वैविध्यतयोक्तिश्चेत् श्रीकृष्णे स्नेहाधिकानां कथमैकविध्यम्; तासामपि द्वैविध्यतयोक्तिरुच्यताम्। तासामपि किं प्रेमतारतम्यं न संभवेत् तथा समस्नेहानां श्रैष्ठ्यमिव द्वयोरसमस्नेहानां निष्कर्ष एकरूप एव वक्तुमुचितः। कस्माच्छ्रीकृष्णे स्नेहाधिकाःसख्यः कुसुमिका विन्ध्या इत्याद्याः सर्वतोऽपि न्यूनकक्षायां निवेशिताः।स्वप्रेयस्यां स्नेहाधिकाः, प्रियसख्यां स्नेहाधिकाः श्रीकृष्णेनोत्कृष्यन्त इति चेत् स्वप्रियतमे प्रेमाधिकाः श्रीराधिकयाप्युत्कृष्यन्ताम्। ननूत्कृष्यन्त एव किंतु श्रीकृष्णेनैव संतुष्यता तानि तानि नामानि कृतानीति चेत् श्रीराधयापि किं तादृशानि कर्तुं न शक्यन्ताम्। अयमत्र समाधिरवधेयः। सख्यः, नित्यसख्यः, प्राणसख्यः, प्रियसख्य, प्रियनर्मसख्यश्चेति ता वस्तुतः श्रीराधाकृष्णयोर्द्वयोरेव यथोत्तरप्रेमाधिक्यवत्यो भवन्तीति तथातथानामतयाख्यायन्ते। तथा हि याः श्रीकृष्णे स्नेहाधिकाः सख्यस्ताभ्यः सकाशात् द्वयोरेवाधिकस्नेहवत्यो भवन्त्योऽपि नित्यसख्यः श्रीकृष्णविषयात् स्नेहाच्छ्रीराधाविषयं स्नेहं किंचिन्मात्रमधिकं वहन्तीति सखीस्नेहाधिका उच्यन्ते। ताभ्यो नित्यसखीभ्यः सकाशादपि द्वयोरेवाधिकस्नेहवत्यः प्राणसख्योऽपि तथैव श्रीराधायां किंचिन्मात्रस्नेहाधिक्यात् सखीस्नेहाधिकास्ता अप्युच्यन्ते। ताभ्योऽपि सकाशात् द्वयोरेवाधिकं स्नेहं किंत्वन्यूनानतिरेकं वहन्तीति प्रियसख्यः समस्नेहा-
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क्षणदुहावुत्सवपूरकौ॥१२८॥ राधाया वयमिति। स्त्रीत्वादिसाम्येन
**अथ हरिवल्लभाः।**
आसां चतुर्विधो भेदः सर्वासां व्रजसुभ्रुवाम्।
स्यात्स्वपक्षः सुहृत्पक्षस्तटस्थः प्रतिपक्षकः॥१॥
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स्ताभ्योऽपि प्रियनर्मसख्यस्तथैव समस्नेहा इति। ननु भवत्वेषामुत्तरोत्तरोत्कर्षेण न विप्रतिपद्यामहे किंतु सखीस्नेहाधिका यथा नित्यसख्यः, प्राणसख्य इति द्विविधाः कृतास्तथैव श्रीकृष्णस्नेहाधिका अपि सख्यः, स्निग्धसख्य इति नाम्ना द्विविधाः किं न कृता इत्यभिप्रायमनवाप्य मुह्यामः। सत्यमिह गोपीपदवीप्राप्ती रागानुगां भक्तिं विना न भवतीति पूर्वप्रतिपादितात् सिद्धान्तादानुग्यं च विना रागानुगाया असिद्धे रागानुगमनेनैव रागवतीनां तासामप्यनुगतिर्व्याख्यातेति अनुगम्या नित्यसिद्धा गोप्य इवानुगन्त्र्योऽपि लब्धसिद्धयोऽनादित एवानुगम्याभ्यः किंचिन्न्यूनतया वर्तन्त एव। तत्र स्ववासनानुसारेण यूथेश्वरीणां तत्सखीनां चानुग्ये प्राप्ते याः समस्नेहपरमप्रेष्टसखीरनुगन्त्रस्ताःप्रियसख्यः, याश्चासमस्नेहासु मध्ये श्रीराधास्नेहाधिकप्राणसखीरनुगन्त्रस्तानित्यसख्योऽनादित एव स्थिताः। श्रीकृष्णस्नेहाधिकां सखीनामनुगन्त्रस्तुनासन्निति तासामेकविध्यमनुगमनानर्हत्वादन्याभ्योऽन्यूनत्वं च युक्तिसिद्धमेव। ननु ताः कथमनुगमनानर्हा। उच्यते। रागानुगीयभक्तमते श्रीकृष्णादन्यूनप्रीतिमत्तयैवानुजिगमिषिता गोपी खल्वनुगम्यते। तस्मान्न्यूनप्रीताप्यनुगमने वाच्ये वैधाद्रागस्य को विशेषः। भक्तानुगतिं विना वैधभक्तेरप्यसिद्धेः। तस्माच्छ्रीकृष्णेऽधिका सखी तदनुजिगमिषुभिर्जनैः श्रीकृष्णादन्यूनप्रीतिविषयीकर्तव्या, श्रीराधिकाया सर्वयूथेश्वरी तु श्रीकृष्णादीपन्न्यूनप्रीतिविषयीकार्येति सख्याःसकाशादपि यूथेश्वर्या अपकर्षे द्योतिते महानेवानय इत्यतः सख्यो नानुगम्यन्त इति ता एकविधा एवेति सर्वमवदातम्॥१२९॥
इति सखीविशेषाणां विवृतिः।
अथ सखीनां यूथेश्वरीणां च भावसाजात्यनिबन्धनान् भेदान् संक्षिप्य प्रदर्शयन्नाह—आसामिति। या यस्या इष्टं साधयत्यनिष्टं वाधते सा तस्याः
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*
तदन्तरेव प्रवेशात्॥१२९॥
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इति सखीविशेषाः।* -
अथ हरिवल्लभाः।* -
अथ सर्वासामेव व्रजसुभ्रुवां भेदान्तराण्याह—आसामिति॥१॥*
सुहृत्पक्षतटस्थौ तु प्रासङ्गिकतयोदितौ।
द्वौ स्वपक्षविपक्षाख्यौ भेदावेवरसप्रदौ॥२॥
प्रोक्तस्तत्र स्वपक्षस्य विशेषः पूर्वमेव हि।
सुहृत्पक्षादिभेदानां दिगेव किल दृश्यते॥३॥
तत्र सुहृत्पक्षः—
सुहृत्पक्षो भवेदिष्टसाधकोऽनिष्टवाधकः।
तत्रेष्टसाधकत्वं यथा—
अद्याकर्णय मद्गिरं परिजनैरेभिः समं श्यामले
राधायास्त्वयि सौहृदं सखि जगच्चित्तेषु चित्रीयते।
उल्लासाद्भवदाख्यया यदनिशं तस्याङ्गरागस्तया
सान्द्रश्चन्द्रकशेखरस्य समये चन्द्रान्वितः प्रेष्यते॥४॥
________________
सुहृत्पक्षः। यद्यप्येतत् स्वपक्षेण साधारणं तदप्येतन्मात्रत्वेसुहृत्पक्षत्वं स्वपक्षस्य तु ऐकमत्यैकधर्माधिकं बहुतरमेवासाधारणं लक्षणमस्ति॥१॥२॥३॥ कुन्दवल्ली श्यामाया गृहं गत्वा तस्याःसभामध्यमासीना तामाह—**अद्येति।**अस्माभिः प्रतिदिनमेवास्वाद्यते। अद्य तु त्वामहं तदास्वादयामीति भावः। एभिः सममिति मद्गिरं मृषा मा मंस्थाः। एषां मध्ये केऽपि तत्र साक्षिणोऽपि भविष्यन्तीत्यभिप्रायात्।त्वयि विषये श्रीराधायाः सौहृदं पटो भग्न इति न्यायेन जगद्वर्तिनामेव स्त्रीजनानां चित्तभित्तिषु लिखितं चित्रमिव शोभत इत्यर्थः। यदैव विभाव्यते जना स्वचित्ते परमविस्मयानन्दं प्राप्नुवन्तीति भावः। तदेवाह—उल्लासादित्यादि। तस्य चन्द्रकशेखरस्य श्रीकृष्णस्याङ्गरागश्चन्दनागुरुकुङ्कुमकस्तूर्यादीनां स्वकल्पिताद्भुतशिल्पकौशलेन योजनया साधितश्चन्द्रान्वितः कर्पूरयुक्तोऽनुलेपविशेषोऽनिशं नित्यमेव भवत्या आख्यया नाम्ना प्रेष्यते। अयमर्थः—मह्यमिव
*
*
२॥३॥ सुहृत्पक्षो भवेदित्यत्र यत्किंचिदेवेष्टसाधकत्वादिकं ज्ञेयम्। कार्त्स्न्येतु सख्यभापद्येतेति। यद्वा तदेतावन्मात्रं सौहृदलक्षणमित्यर्थः। गाढप्रणयादिकं सख्य एव ज्ञेयम्॥ चन्द्रशेखरस्येति। तादर्थ्ये संबन्धमात्रे षष्ठी॥४॥
अनिष्टबाधकत्वं यथा—
गीर्भिर्मूढजनस्य खण्डितमतिर्भाण्डीरमूले मुघा
किं गन्तास्मि तवोदिते बलवती श्यामे प्रतीतिर्मम।
निर्व्याजं ब्रटराजरोधसि वधूवेषक्रियोद्भासिना
कंसारिःसुबलेन गोष्ठनगरीवैहासिकः क्रीडति॥५॥
अथ तटस्थः—
यो विपक्षसुहृत्पक्षः स तटस्थ इहोच्यते॥६॥
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श्यामायै मत्कान्तेन तेन सौभाग्यं दीयतामित्यभिप्रायेण भवत्याः सखीनां मध्ये कामपि संवोध्य राधया एवमुच्यते—हे सखि, इमभङ्गरागं गृहीत्वा श्रीकृष्णनिकटं याहि। तेन पृष्टा त्वं श्यामालयैव त्वदर्थं स्वहस्तेनैव निर्मितोऽयमङ्गरागो मद्द्वारा प्रेषित इति ब्रूहीति॥४॥ पद्माया उपजापाद्वधूं प्रति कुप्यन्ती जटिला भाण्डीराभिमुखं गच्छन्ती दैवादागतया श्यामलया प्रतार्य प्रबोधिता तुष्यन्ती तां प्रत्याह—गीर्भिरित्यादि। मूढजनस्य तत्त्वानभिज्ञस्य पद्माभिधस्य जनस्य [ गीर्भिःभाण्डीरमूले ] किं गन्तास्मि कस्माद्यास्यामि नैव यास्यामीत्यर्थः। नन्विच्छा चेद्याहीत्यत आह—तवोदित इति। वटराजो भाण्डीरः। वध्वाः श्रीराधाया इव वेषक्रियाचरणनयनकरग्रीवादिचालनं ताभ्यामुद्भासिना। तत्रापि नास्ति तयोर्भावान्तरं किंचित् किंतु विहसनमात्रमित्याह—गोष्ठनगर्यास्तद्वासिनीनामस्मादृशीनां वृद्धानां वैहासिकः हे जटिले, त्वद्वधूमेतामनिष्टमनःपीडां विलोक्य कृपयाहं स्वस्पर्शमणिदानेन तूर्णमेनां पूर्णमनोरथां करोमि तत् प्रत्यक्षमेवालोक्य स्वगोष्ठीमेव धन्यां मन्यस्वमह्यं च पारितोषिकं किंचिद्देहीति मां विहस्योत्क्षेपयति; तदहं तत्र नैव यामीति भावः॥५॥ “विपक्षस्य सुहृत्पक्षस्तटस्थःस्यात्” इति लक्षणं श्रीभगवतैवेन्द्रमखभज्ञप्रसङ्गे व्यञ्जितम्। यदुक्तं—“उदासीनोऽरिवद्वर्ज्य आत्मवत्सुहृदुच्यते” इति। उदासीनतटस्थः, अरिवत् न त्वरिः। सुहृद्बन्धुः
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*
गीर्भिरिति। जटिलानाम्न्या वृद्धाया वचनम्।वैहासिक इति। नापि तत्र तयोर्भावान्तरं किंतु बिहसनमात्रमिति भावः॥५॥ विपक्षस्य सुहृत्पक्ष इति। विपक्षे सौहृद्यमात्रपरिग्रहात्तदीयमर्मास्पर्शात् न तद्वदीर्ष्यादिकं तदीयविपक्षे
यथा—
खेदं न व्यसने तनोषि वहसे नोल्लासमस्याः शुभे
दोषाणां प्रकृटीकृतौ नहि धियं धत्से गुणानामपि।
अव्याक्षिप्तमनोगतिः सुवदने द्वेषेण रागेण च
त्वं श्यामे मुनिवृत्तिरत्र सततं चन्द्रावलौ दृश्यसे॥७॥
** अथ विपक्षः—**
मिथ्याद्वेषी विपक्षः स्यादिष्टहानिष्टकारकः।
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आत्मवन्नत्वात्मा। किंतु स्त्रीपुत्रभृत्यादिषु सुहृच्छब्दप्रयोगदर्शनाभावात्तद्भिन्नात्महितकर्ता सुहृदुच्यते इति तेन स्वपक्षभिन्नत्वे सति हितकर्तृत्वमिति सुहृदो लक्षणमायातम्। उभयत्रापि वतिप्रत्ययेन प्रकृत्यर्थे हितकर्तृत्वेनांशेनैव सादृश्यमुच्यते। ततश्च उदासीनोऽरिवत् अरिहितकर्तृत्वादरिसुहृद्वदविश्वास्यतया उपेक्ष्यः, सुहृदात्मवदात्महितकर्तृत्वादपेक्ष्य इति॥६॥ पद्मा श्यामामुपालम्भगर्भस्तुत्या प्राह—खेदमिति। अस्याश्चन्द्रावल्या व्यसने अमङ्गले सति खेदं न किंत्वन्ततः सुखमेवेति ध्वनिः। शुभे सति नैवोल्लासं कित्वन्ततः किंचित्खेदं दोषाणां प्राकट्यस्यैव करणे धियं न धत्से किंतु सुगुप्तमपकारं करोष्येव। यतस्त्वं राधाया हितकर्त्रीति भावः। गुणानामपीत्यत्र केवला अभिधैव न तु व्यञ्जना प्रवर्तितुं प्रभवति तस्या हि दोषाणामिति प्रथमप्रवर्तितया व्यञ्जनया वाधितत्वात्। यद्वा भावगोपनार्था मरीचिकायमाना व्यञ्जनापि ज्ञेया तथा हि गुणानां प्रकटीकरणे धियं न धत्से किंतु तद्गोपन एवेति भावः। रागेण प्रेम्णा पक्षे द्वेषकारणेन रागेण च कोपेनेत्यर्थः। न विशेषेणाक्षिप्ता आक्षेपविषयीभूता मनोगतिर्यस्याः सा। हन्त निरपराधां चन्द्रावलीमहं द्वेष्मि तद्धिङ्मेमन इति ते कुत्रापि नानुतापः स्यादिति भावः। सुवदने इति तत्र तव वदनप्रफुल्लतैव तस्य परिचायिकेत्यर्थः। मुनिवृत्तेर्मौनेनैव सर्वं सापेक्षितं कार्यं साधयसीति भावः। एवं च विपक्षहितकारित्वलिङ्गेन तटस्थपक्षोऽन्तरैर्वरगर्भमौदासीन्यमयं व्यवहरतीति फलितोऽर्थः। अन्तर्बहिरेकरूपमौदासीन्यमेव भजन्ननन्यतटस्थस्तु विपक्षस्यापि हिताहितकारी न भवति यः सोऽत्र रसानाधायकत्वान्नोद्धृतः॥ मिथो द्वेषी जनो
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भजतीति तटस्थ एव स्यादिति भावः॥६॥७॥ मिथो द्वेषी जनो विपक्षः
तत्रेष्टहन्तृत्वं यथा—
राधे त्वत्पदवीनिवेशितदृशं कुञ्जे हरिं जानतीं
पद्मा तत्र निनाय हन्त कुटिला चन्द्रावलीं छद्मना।
इत्याकर्ण्य मुकुन्द सा सुबलतः स्तब्धा तथाद्य स्थिता
दृष्ट्वा नीलपटीं तनौ जटिलया प्रातर्यथा तर्जिता॥८॥
अनिष्टकारित्वं यथा—
कुतः पद्मे पुत्रि क्षितिधरतटादम्ब जटिले
वधूर्दृष्टा दृष्टा क्व नु रविनिकेतस्य पुरतः।
चिरं नायात्येषा कथमिव निरुद्धात्र हरिणा
तवाध्वानं पश्यत्यहह भवती धावतु रुषा॥९॥
छद्मेर्ष्याचापलासूयामत्सरामर्षगर्वितम्॥१०॥
व्यक्तिं यात्युक्तिचेष्टाभिः प्रतिपक्षसखीष्विदम्।
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मिथो विपक्षः स्यात्। द्वेषलिङ्गमिष्टहेत्वादि॥७॥ वृन्दा श्रीकृष्णमाह—राधे इत्यादि। अद्येति। पूर्वरात्रिमारभ्याद्यपर्यन्तमित्यर्थः। नीलपटीमिति तदुपलक्षितवेनान्धकाराभिसारोचितं सर्वाङ्गाभरणं च। अद्य तथा स्तब्धास्थिता यथा तर्जितेति। स्तम्भोऽपि तया भयहेतुकत्वेन न विचारित इति बोध्यम्। तर्जिता अपि कूलद्वयकज्जलपत्रिके अभिसारोचितवेषभूषां धृत्वा किमस्मद्गृहे वससि किं ललिताद्या दूत्योऽद्य न मिलिताः, उत्तिष्ठ मयैवोच्यसे उपपतिसमीपं याहि मद्गृहं मा पुनरागच्छ युवयोश्चिकित्सार्थं मया सपुत्रया संप्रति मथुरा गम्यत इत्यादिकटूक्तिभिः॥८॥ जटिलापद्मयोरुक्तिप्रत्युक्ती।कुत इति स्पष्टम्। धावत्विति श्रीराधाकृष्णयोःसुरतानन्तरं स्थानान्तरगमनशङ्कया॥९॥ भानुमती
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स्यादित्यर्थः। स चेदिष्टहानिष्टकारकश्च स्यात्। नीलपट्याअन्धकाराभिसारलक्षणत्वात् कृष्णानुरागतस्तद्वर्णमयतादृशपटीधारणसंभवाच्च। धूर्ततया तर्जितेति
तत्र छद्म यथा—
श्रुत्वा कीचकमद्रिमूर्ध्नि पशवःश्यामं च दृष्ट्वाम्बुदं
धावन्त्वल्पधियः कथं त्वमपि धिग्धीराधिकं धावसि।
इत्युच्चैरनृतोत्तरेण तरलां प्रत्याय्य पद्मामसौ
प्राप्ता पश्य गृहं करोति ललिता राधाप्रमाणे त्वराम्॥११॥
अथेर्ष्या—
उद्घटय्य कुटिलं कचपक्षं देवि दर्शयसि किं वनमालाम्।
नीलयष्टिवदमुं मदलिन्दे लोकयालि वनमालिनमेव॥१२॥
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मणिमञ्जरीमाह—श्रुत्वेति। कीचकं सशब्दवंशजातिविशेषम्। ‘कीचकास्ते स्युर्ये स्वनन्त्यनिलोद्धताः।’ इत्यमरः। कीचकं वेणुध्वनिं मत्वाअम्बुदं श्रीकृष्णं मत्वा पशवो गावो धावन्तु नाम। हे पद्मे, त्वमपि तथैव धावसि धिक् त्वां तव बुद्धिं धीरतां वा। प्रत्याय्याम्बुदं प्रतीतिं कारयित्वा॥१०॥११॥ श्रीकृष्णदत्तवनमालादर्शनया स्वसौभाग्यातिरेकं दर्शयन्तीं पद्मां पथि ललिताह—कचपक्षं केशसमूहम्। ‘पाशः पक्षश्च हस्तश्च कलापार्थाः कचात्परे’ इत्यमरः। कुटिलमिति। जानीमस्ते कुटिलाः केशाः अतस्तेषां कौटिल्यरूपं सौन्दर्यं दर्शयसि। नत्वस्माकमिव ते तव स्निग्धाः सूक्ष्मा इति भावः। **नीलयष्टिवदिति।**श्रीकृष्णस्य स्तम्भं सात्त्विकमपि विज्ञापयामास स च श्रीराधिकादिदर्शनानन्दोत्थो वा तदभिनीतमाननिबन्धनाद्भयाद्वा अभूदित्यभ्यसूयां चकार। लोकय हे सखि, मद्गृहं गत्वा तं पश्य तेन च तन्निकटं चेद्गन्तुं शक्नोषि तदा मालामिमां तद्वत्तां प्रत्येमि। अन्यथा तत्कण्ठाद्भ्रष्टामिमां कुतोऽपि मार्गाद्विचित्य शिरसि दधासीत्येवमेव प्रत्येमीति भावमपि ज्ञापयामासैवेति॥१२॥ शुद्धेर्ष्यामुदाहृत्य असूया–
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नीलपदस्य शक्त्या गम्यते॥८॥९॥१०॥ गृहं प्राप्ता॥११॥ कचपक्षं कचसमूहम्।‘पाशःपक्षश्च हस्तश्च कलापार्थाः कचात्परे।’ इत्यमरः।
यथा वा—
निर्बन्धप्रवणेन कंसरिपुणा प्रागर्प्यमाणोऽपि यः
प्राज्यं दोषमवेक्ष्य नायकमणौ न स्वीकृतोऽभून्मया।
हारः संप्रति सोऽयमेव विषमो लब्धे क्व लब्धस्त्वया
द्रागिष्टोऽप्युरगक्षताङ्गुलिनिभो दुष्टः सखि त्यज्यताम्॥१३॥
अथ चापलम्—
नात्मानं व्यथय वृथा निकुञ्जमध्ये
स्वद्योति द्युतिमिह कुर्वती सरागम्।
कृष्णा गिरिवरसंगतेऽनुरूपा
सोमाभा विलसितुमत्र विद्युदेव॥१४॥
____________
गर्भामपि तामुदाहर्तुमाह—यथावेति। पद्मा पथि दृष्टां कांचिदाह—‘निर्वन्धेन सखि गृहाण कृपया—’ इत्यादिचाटुभिः प्रवणेन नम्रेणापि अर्प्यमाणोऽपि दीयमानोऽपि न गृहीतः। कुतः नायकमणौ हारमध्यनायके प्राज्यं प्रचुरं दोषं धारयितुरसौभाग्यकरणलक्षणकम्। सोऽयं मत्परिचित एवेत्यर्थः। श्रीकृष्णेन दत्त इष्टश्चेत्तदपि त्यज्यतां त्यागे दुःखं स्यात्तदपि सहखेत्याह—उरगेण क्षतोऽङ्गुलिः स्वदेहावयवोऽपि छिद्यत एव न चेत् प्राणहानिरपि स्यादिति। त्वामहमन्तरङ्गतया उपदिशामीति भावः॥१३॥ संकेतकुञ्जे श्रीराधामभिसार्य तत्र श्रीकृष्णमदृष्ट्वातदन्वेषणाय गोवर्धनपार्श्वे गतां तत्र क्वचन कुञ्जेचन्द्रावल्यां संगतं श्रीकृष्णं दृष्ट्वाक्षणमुदर्कंचिन्तयन्तीं कांचित् श्रीराधासखीं जानत्येव पद्मा खद्योतीमपदिश्य सासूयमाह—हे खद्योति, सरागं यथा स्यात्तथा द्युतिं कुर्वता आत्मानं न व्यथय दुःखितं न कुरु। तव मनोरथोऽद्य न सेत्स्यतीति भावः। कृष्णवर्णे मेघे सा प्रसिद्धा उमा दुर्गा तदाभा तद्वर्णा, विद्युत्पक्षे सोमाभा चन्द्रा–
*
*
नीलयष्टिवदित्यादिकमीर्ष्यया तथैवोक्तम्॥१२॥ प्राज्यं प्रचुरम्॥१३॥ सोमाभा-
असूया—
यद्भाण्डीरे तव सहचरी ताण्डवं सा व्यतानीत्
पद्मे सै(शै)व्या समजनि न तत्कस्य विस्मापनाय।
सा चेत्तन्वी प्रकृतिलडहा शिक्षिता चाभविष्य–
न्मन्ये सर्व जगदपि ततश्चेष्टया14मोहयिष्यत्॥१५॥
** मत्सरः—**
अलंचक्रे राधाहृदयमुरुहारेण हरिणा
स्रजा धूर्तेनेयं तव तु कबरश्रीरवरया।
मनो द्वन्द्वातीतं मुनिवदविकल्पं च दधती
तथापि त्वं मुग्धे न विपिनविनोदाद्विरमसि॥१६॥
** अमर्षः—**
स्फुटद्भिरिव कोरकैरलघुभिश्च गुञ्जाफलै–
र्मयाद्य विरचय्य यन्मुरहराय विश्राणितम्।
_______________
वली अनुरूपा योग्या॥१४॥ रङ्गदेवी पद्मामाह—प्रकृतिलडहा स्वभावेन सुन्दरी शिक्षिता अर्थात्त्वया। यद्वा शिक्षिता निपुणा। त्वमिवेति भावः॥१५॥ पद्मा चन्द्रावलीमाह—उरुहारेण बहुमूल्येन।मुक्तामयेनेत्यर्थः। स्रजा द्वित्रिकपर्दिकामूल्यया। तत्राप्यवरया निकृष्टया॥१६॥ चन्द्रावली स्वसखी प्रेमगर्भमुपालभते—स्फुटद्भिरिति। विश्राणितं दत्तम्। तत्सभायां स्वं मनः कर्म उदघाटि उद्घाटितम्। स्वमनःस्थदुःखं यत्प्रकाशितमित्यर्थः। तदतिलाघवाय मानहानये तदानीं कृत्रिमोऽपि मुखप्रसाद एवान्तरङ्गताव्यञ्जकः कर्तुमुचितः स्यात्। सखि राधे, चन्द्रावल्या अतिविचित्रं शिल्पकौशलं व्रजस्थैः
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नाम्नी विद्युदेवात्रविलसितुमनुरूपेत्यन्वयः॥१४॥ प्रकृतिलडहा स्वभावसुन्दरी॥१५॥ अवरया अधमया स्रजा। यद्वा ‘हृदयमुरुमूल्यैर्मणिसरैः’,
त्वयात्र सखि राधिकाश्रवसि वीक्ष्य तत्कुण्डलं
मनः स्वमुदघाटि यत्तदतिलाघवायैव नः॥१७॥
** गर्वितम्—**
अहंकारोऽभिमानश्चदर्प उद्धसितं तथा॥१८॥
मद औद्धत्यमित्येष गर्वः षोढा निगद्यते।
तत्राहंकारः—
अहंकारः पराक्षेपः स्वपक्षगुणवर्णनात्॥१९॥
यथा—
आकाशे रुचिलवमिन्द्रनीलशोभे
सोमाभा जनयति तावदस्फुटश्रीः।
नेत्राणां तिमिरहरा वरेण्यदीप्तिः
सा यावन्नहि वृषभानुजाभ्युदेति॥२०॥
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सर्वैर्यौवतैरेवाविज्ञातमिदं त्वामपि विस्मापयितुं तुभ्यं श्रीकृष्णेन दत्तमिति वा वक्तुं युज्येतेति। किंवा हे सखि, प्रातर्यमुनातटमार्गे पतितं यदद्य कुण्डलं दृष्टं कया, सख्या आनीय त्वत्कर्णे दत्तमिति मृषोक्तिरपि वक्तुं नाज्ञायि भवत्येति त्वद्बुद्धिस्तया गर्हितेति ज्ञेयम्॥१७॥ गर्वितं गर्वस्तस्य लक्षणमन्यहेलनमिति। अहंकारादयस्तद्विशेषाः॥१८॥१९॥ कदाचिच्चन्द्रावलीसभां गतवती ललिता ‘सोमाभयैव कृष्णव्योम शोभते’ इति ब्रुवाणां पद्मां प्रत्याह—**आकाश इति।**इन्द्रनीलस्येव शोभा यस्य तस्मिन्नाकाशे, पक्षे आ सम्यक् प्रकाशत इति श्रीकृष्णे रुचिलवं कान्तिलेशं रोचकत्वलेशं च। अस्फुटश्रीः श्रीकृष्णसौन्दर्येण तत्सौन्द–
*
*
‘स्रजा कृष्णेनेयम्’ इति वा पाठः॥१६॥ विश्राणितं दत्तम्॥१७॥ गर्वितं गर्वः। अस्य सामान्यतो लक्षणमन्यस्य हेलनं गर्व इति॥१८॥१९॥ अस्फुटश्रीरिति। न विद्यते स्फुटा श्रीर्यतः सा। सर्वोत्तमश्रीरपीत्यर्थः। तथापि संदिग्धार्थतयोक्तिरहंकारेणैव। लवपदोक्तिरपि तेनैव। आ सम्यक्
अभिमानः—
अभिमानो निजप्रेमोत्कर्षाख्यानं तु भङ्गितः।
तत्र कृष्णे स्वपक्षप्रेमाख्यानं यथा—
त्वं धीरधीः फणिहृदे15 हरिझम्पगाथां
निष्कम्पमेव यदियं गदितुं प्रवृत्ता।
तत्रानुषङ्गिकतयाप्युदिते कदम्बे,
वक्षः पिनष्टि रुदती तरला सखी मे॥२१॥
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र्याच्छादनादिति श्रीकृष्णपक्षे ध्वनिः। वृषभानुजा ज्येष्ठमाससूर्योद्भवा, पक्षे श्रीराधा अभ्युदेति। श्लेषेण आकाशस्य श्रीकृष्णस्य च सैवाभ्युदयःपरममाङ्गल्यम्॥२०॥ निजः स्वपक्षस्तस्य तस्मिश्चयः प्रेमोत्कर्षः॥ चन्द्रावलीं प्रति ललिता प्राह—**त्वमिति।**झम्पः उन्नतदेशात् वलेन जले विनिपातः। आनुषङ्गिकतया कथान्तरप्रसङ्गेनापि। न जाने साक्षात् कालियमर्दनवार्तायां किं स्यादिति भावः। यतो झम्पस्तस्मिन् कदम्बेऽपि तथा उदितेऽस्माभिरुक्तेऽपि। स्वयं कीर्तिते तु न जाने किं स्यादिति भावः। रुदती सती वक्षः पिनष्टि। तत्र हेतुस्तरलातारलमेव। त्वं प्रेमवत्यपि तत्कीर्तने यन्निर्विकारा तत्र धैर्याधिक्यमेवेति व्याज–
*
*
काशत इत्याकाशपदेन तु श्रीकृष्ण एव विवक्षितः। ‘आकाशे रुचिमपि नीलरत्नशोभे सोमाभा जनयति तारका विजित्य’ इति। तथा ‘सा यावन्नहि सखि भानुजा’ इति वा पाठः॥२०॥ अ(त) त्रेति। कृष्णेति। यः स्वपक्षस्य प्रेमा तस्याख्यानं यथेत्यर्थः। अतः पूर्वमपि निजपदेन स्वपक्ष एवोक्तः त्वं धीरधीरिति। तत्प्रस्तावमात्रं निन्दित्वा स्वयं यत् प्रस्तुतं तत्खलु गौणरसेषु हासादीनामिव स्थायिनमावृत्य गर्वस्योदयादिति ज्ञेयम्। झम्पोऽयमव्यक्तशब्दानुकरणमुन्नतदेशाद्वलेन जले पतनवाची देशीयः। ‘प्रदत्तझम्पः स्तनसङ्गवाञ्छया’ इति। तद्वत् पतनसाम्येपि प्रयुज्यते। तत्र तज्झम्पसंबन्धिनि कदम्बे उदिते कथिते। तदिदं तु तयाकृतं यत्किचित्प्रस्तावमालम्ब्ये–
स्वपक्षे कृष्णप्रेमाख्यानं यथा—
धन्यासि कृष्णकरकल्पितपत्रवल्ली–
रम्यालिका विहरसे मदमन्थराङ्गी।
हा वञ्चितास्मि कलिते ललितामुखेन्दौ
जाड्यं स यात्यखिलशिल्पधुरंधरोऽपि॥२२॥
दर्पः—
गर्वमाचक्षते दर्प विहारोत्कर्षसूचकम्॥२३॥
यथा—
विद्मः पुण्यवतीशिखामणिमिह त्वामेह हर्म्ये यया
नीयन्ते शरदिन्दुधामधवलाः स्वापोत्सवेन क्षपाः।
कोऽयं नः फलति स्म कर्मविटपी वृन्दाटवीकंदरे
श्यामः कोऽपि करी करोति हृदयोन्मादेन निद्राक्षयम्॥२४॥
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स्तुत्या श्रीकृष्णविषयकःश्रीराधायाः प्रेमोत्कर्षो ज्ञापितः॥२१॥ ललितायाः सखी रत्नप्रभा पथि मिलन्तींपद्मामाह—धन्याऽसीति। अलिकं ललाटम्। ननु यूयमपि स्वाधीनकान्तत्वेन ख्याताः स्थ किमेवं ब्रूथेत्यत आह—हा वञ्चितेत्यादि। कलिते दृष्टे जाड्यमिति ललिताविषयकः श्रीकृष्णस्य प्रेमोत्कर्षो ज्ञापितः॥२२॥ कदाचित् यौवतसदसि प्रसङ्गसंगतया नान्दीमुख्या कथ्यमानायाः पुराणकथायाः श्रवणप्रसङ्गेन ललिताद्या घूर्णिताक्षीर्वीक्ष्य हसन्तीं पद्मां ललितैवाह—विद्म इति। पुण्यवतीति। पूर्वजन्मनि यत् पुण्यं भवत्या कृतं तदस्माभिर्न कृतम्। कर्मविटपी प्राचीनकर्मरूपो वृक्षः फलितोऽन्यथा पूर्णचन्द्रासु रात्रिषु पराधीनतया ध्वान्तावृतकंदरगिरिगह्वरादिषु जागरादिदुःखं कथं संभवेत्। यतो दिवसेऽपि तदालस्यक्रमवशात् पुण्यकथाश्रवणभाग्यस्या–
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र्ष्यया विस्तार्यैव प्रोक्तं तस्यापि सर्वातिक्रमिप्रेम्णां श्रीव्रजदेवीनामेकतरत्वात्॥२१॥ स्वपक्ष इति पूर्ववद्व्याख्येयम्॥ अलिकं ललाटम्॥२२॥ कोऽपि हृदयोन्मादेन निद्राक्षयं करोतीति स्वप्नमिव प्रकटं व्यज्य जागर एव गूढं व्यज्यते।
** उद्धसितम्—**
उपहासो विपक्षस्य साक्षादुद्धसितं भवेत्।
** यथा—**
नोच्चैर्निश्वसिहि प्रसीद परमे मुञ्च ग्रहं दुर्लभे
ग्लानिं ते सखि वीक्ष्य हन्त कृपया मच्चित्तमुत्ताम्यति।
बद्धः पश्य विभङ्गुरेऽत्र ललितावाग्वागुराडम्बरे
जानीते न किल स्वमेव सरले श्यामः कुरङ्गीपतिः16॥२५॥
** मदः—**
सेवाद्युत्कर्षकृद्गर्वो मद इत्यभिधीयते॥२६॥
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प्यभाव इति व्याजस्तुत्यास्वपक्षपरपक्षयोः श्रीकृष्णकर्तृकसंभोगतदभावौ ज्ञापितौ॥२३॥ २४॥ चन्द्रावलीं संकेतस्थां विधाय श्रीकृष्णमानेतुमागतां दैवाल्ललितामिलितं श्रीकृष्णं दूराद्विलोक्य विषीदन्तीं पद्मां विशाखा प्राह—**नोच्चैरिति।**प्रसीद आत्मानमदृष्टं विभाव्य विवेकास्त्रेण खेदं संछिद्य प्रसन्नमुखी भव। दुर्लभे वस्तुनि श्रीकृष्णनिनीषारूपे ग्रहमाग्रहम्। ननु त्वं किमेवं ब्रवीपीत्यत आह—ग्लानिमित्यादि। युक्तिस्तु काप्यत्र नास्तीत्याह—बद्ध इति। पश्य स्वचक्षुर्भ्यामेव प्रतीहि। विशेषतो भङ्गुरे वागेव वागुरा मृगवन्धनी तस्या आडम्बरे आरम्मे। ‘आडम्बरः समारम्भेगजगर्जिततूर्ययोः।’ इति विश्वः।मत्सखी स्मृत्वा ललितां प्रतार्य स्वयमेवासौ आयास्यतीति चेत्तत्राह—स्वमेव न जानीते नानुसंधत्ते कुतस्ते सखीं ज्ञास्यति। तद्वाङ्मधुपानमदविस्मृतदेहदैहिक इत्यर्थः। सरले इति। इयांस्ते परामर्षोऽपि नास्तीति भावः॥२५॥ सेवा श्रीकृष्णविषया
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यत्र श्यामपदेन श्रीकृष्ण एवव्यक्तः॥२३॥२४॥ वागुरा मृगवन्धनी
यथा—
जगति ललितेधन्या, यूयं सुगन्धिभिरद्भुतै
रविरविरतं याभिः पुष्पैरमीभिरुपास्यते।
बत विधिवशाज्जातं वन्यस्रजि व्यसनं तथा
दलमपि न नः कात्यायन्यै यथा परिशिष्यते॥२७॥
** औद्धत्यम्—**
स्पष्टं स्वोत्कृष्टताख्यानमौद्धत्यमिति कीर्त्यते।
कस्तावद्व्रजमण्डले स वलते गान्धर्विका स्पर्धतां
सार्ध हन्त जनेन येन जगतीजङ्घालकीर्तिध्वजा।
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परिचर्या। सूर्यपूजार्थं पुष्पमवचिन्वानां ललितां पद्मा प्राह—**जगतीति।**ननु भवतीभिरपि कथं कात्यायनी तथा नोपास्यते इति चेत् अयि नास्माकमीदृशं भाग्यमित्याह—बतेति। वनमालाग्रथने तथा व्यसनमासक्तिः। दलमपीति यानि यानि समीचीनानि पुष्पपत्राणि सखीभिरानीयन्ते तानि सर्वाणि चन्द्रावल्या वनमालायामेव विनियुज्यन्ते न तु कात्यायनीपूजायाम्। मन्ये इष्टदेवतायां तस्या भक्तिर्नास्ति यथा राधिकाया इति भावः॥२६॥ २७॥स्पष्टमिति अभिधयैव न तु व्यञ्जनयेत्यर्थः॥ सखि नान्दीमुखि, तादृशोऽयं काल आगतो यथा राधापि चन्द्रावल्या सह स्पर्धते। सा ह्यस्माभिस्तारात्वेन गण्यते।’ इति पद्मासंजल्पं लतान्तरेऽलक्षितैव ललिता श्रुत्वा तदैव स्पष्टीभूय स्पष्टमेव ससंरम्भं प्राह—कस्तावदिति। सजनस्तावत् को वलते।सामर्थ्यं वत्त इत्यर्थः। स्पर्धतामिति संभावनायां लोट्। जगत्यां जङ्घालो वेगवत्तरः कीर्तिध्वजो यस्याः सा। ‘जङ्घालोऽतिजवः’ इत्यमरः। अतिजवत्वं तस्य विचित्य सर्वकीर्तिं विजेतुमिति प्रयोजनं ज्ञेयम्। तस्यां गान्धर्विकायां व्रज एव विराज..ष्येया विस्तापष्माभिरपिश्रीकृष्णाङ्गस्पर्शो मनोरथविषयीकर्तुं शक्यत इति
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हृदयोन्मादेन निद्र…………॥२७॥ जगत्या जङ्घालो वेगवत्तरः कीर्तिध्वजो यस्याः।
कुल्यायाः कृपणावलीषु कृपया कामं द्रवच्चेतसो
यस्याः प्रेरणया क्षणं भवति वः पद्मे निषेव्यो हरिः॥२८॥
** किं च—**
श्लिष्टोक्तिश्चक्वचित्तासां निन्दागर्भोपजायते॥२९॥
** यथा—**
गोविन्दाहितमण्डना विधुरतावाप्तिप्रसङ्गोज्झिता
दक्षानल्पकला वयोघनरुचिं तन्वा मुहुस्तन्वती।
सर्वानुत्तमसाधुतापद कृतिर्भव्ये भवत्याः सखी
नासौभाग्यभरात्कदापि विरतिं प्राप्नोति सौदामिनी॥३०॥
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परम एवासंभवः। किंतु कुल्याया महाकुलोद्भवायाः अत एव तथाभिजात्यादेव कृपणावलीषु युष्मादृशीषुकृपया सर्वथा मत्प्रेमाधीनस्य मत्कान्तस्य सङ्गमप्राप्य सर्वा एता महाकामज्वरेण संतप्यमाना हा मरिष्यन्त्येवेति दयया द्रवीभवच्चित्ताया यस्याः श्रीराधायाः॥ २८॥२९॥ सदसि कदाचित् सखीनां रूपगुणप्रेमादिविवेचनप्रसङ्गे चन्द्रावल्याः सखीं भव्याभिधानां प्रति चम्पकलता प्राह—गोविन्देनाहितमर्पितम्, पक्षे तस्याहितमप्रियं मण्डनं हारपत्रभङ्ग्यादिकं यस्याः सा। विधुरता दुःखिता, पक्षे विधोः श्रीकृष्णस्य रतं संभोगस्तस्यास्तस्य च अवाप्तिः प्राप्तिस्तत्प्रसङ्गेनानाप्युज्झिता त्यक्ता।अनल्पकला पूर्णवैदग्ध्या। वयसो यौवनस्य घनां निबिडां रुचिम्, पक्षे अनल्पकलौ बहुतरकलहे दक्षा अयोधनरुचिं लोहमुद्गरकान्तिम्। ‘द्रुघनो मुद्गरघनौ’ इत्यमरः। सर्वानुत्तमा सर्वतोऽपि अत्युत्तमा। साधुतापदं साधुत्वास्पदं कृतिर्व्यापारो यस्याः सा, पक्षे सर्वा अनुत्तमा उत्तमत्वरहिता साधु–
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कुल्यायाः कुलीनायाः। कृपणावलीषु युष्मद्विधासु॥२८॥२९॥ गोविन्देनाहितमर्पितम्, पक्षे गोविन्दस्याहितं द्वेषविषयं मण्डनं यस्याः। विधुरता दुःखित्वम्, पक्षे विधोःश्रीकृष्णस्य रतं सुरतं तस्यास्तस्य वा अवाप्तिप्रसङ्गेनाप्युज्झिता। अनल्पकला बहुकला वयसोद्यतां रुचिम्।पक्षे अनल्पकलौ दक्षा।अयोघनरुचिं लोहमुद्गरकान्तिम्। अनुत्तमत्वं सर्वोत्तमत्वम्। पक्षे उत्तमतारहितत्वम्। असौ भवत्याः सखी। पक्षे असौभाग्यभरात् दौर्भाग्यातिशयात्। सौदामिनीनाम्नी॥३०॥
यथा वा—
समस्तजनलोचनोत्सवविनोदनिष्पादिनी
विलक्षणगतिक्रियाविचलिताङ्गहारस्थितिः।
निरस्य हरितालजं रुचितरङ्गमात्मोर्जितैः
सखी नटति ते रसस्खलितमत्र खेलावती॥३१॥
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तापदा साधुभ्यस्तापदात्री कृतिः कर्म यस्याः सा। हे भव्ये सखि, असौ भवत्याः सखी भाग्यभराद्विरतिं न प्राप्नोति, पक्षे असौभाग्यभराद्दौर्भाग्यातिशयात्। सौदामिनीनाम्नी॥३०॥ निन्दागर्भेत्युक्तं सा च निन्दा द्विधा प्रेम्णो गुणस्य च। पूर्वा उक्ता, उत्तरां वक्तुमाह—यथा वेति। शैब्यां प्रति रङ्गदेव्याह—समस्तेति। विनोद आनन्दः, पक्षे विशेषेण नोदो दूरीकरणम्। विलक्षणा विचित्रा या गतिक्रिया नृत्यगतिविशेषस्तयाप्यविचलिता शिक्षाचातुर्यविशेषबलात् यथास्थान एव स्थिता अङ्गेषु हारस्य स्थितिरवस्थानं यस्याः सा, पक्षे विगतलक्षणा संगीतशास्त्रोक्तलक्षणादन्या या गतिक्रिया तया विचलिता स्खलिता अङ्गहाराणां नृत्योचिताङ्गविक्षेपाणां स्थितिर्मर्यादा यस्याः सा \। ‘अङ्गहारोऽङ्गविक्षेप’ इत्यमरः। हरितालं धातुविशेषस्तदुद्भवं रुचितरङ्गं कान्तिलहरीमात्मनो देहस्य ऊर्जितैः कान्तिवलैर्निरस्य न्यक्कृत्य, पक्षे हरेस्तालस्तेन वादितो झम्पचच्चत्पुटादिसंज्ञस्तासस्तदुद्भवो यो रुचितोऽभीप्सितो रङ्गस्तं निरस्य आत्मन ऊर्जितैर्देहस्य प्राणनैश्चाञ्चल्यैः। ‘ऊर्ज बलप्राणनयोः’। रसेन स्खलितं नृत्यगतिविशेषो यत्र तद्यथा स्यात्। यद्वा अरसस्खलितं रसच्युतिरहितम्,
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विनोदो विलास, पक्षे दूरीकरणम्। विलक्षणा परमाश्चर्या या गतिक्रिया तया विचलिता अङ्गस्य हाराणां च स्थितिर्नैश्चल्यं यस्याः। पक्षे विगतसंगीतोक्तलक्षणया गतिक्रिया स्वच्छन्दाङ्गचालनरूपप्रक्रिया तया विचलिता स्थानभ्रष्टा अङ्गस्य हाराणां च स्थितिर्नैश्चल्यं यस्याः।पक्षे विगतसंगीतोक्तलक्षणा या गतिक्रिया स्वच्छन्दाङ्गचालनरूपप्रक्रिया तया विचलिता अङ्गहाराणामङ्गचालनसौष्ठवानां स्थितिर्मर्यादा यस्याः। हरितालं धातुविशेषः। पक्षे हरेस्तालस्तेन वादितः कालक्रियामानमयः शब्दस्तस्माज्जातम्। देहस्योर्जितैः शिक्षामयशक्तिविशेषैः। पक्षे स्वाच्छ–
यास्तु यूथाधिनाथाः स्युः साक्षान्नेर्ष्यन्ति ताः स्फुटम्।
विपक्षाय स्वगाम्भीर्यमर्यादादिगुणोदयात्॥३२॥
** यथा वा—**
विपक्षरमणीसखीं पिशुनितोरुगर्वच्छटां
विलोक्य किल मङ्गलाविरलहासफेनोज्ज्वलम्।
ततान तमनाकुलं विनयनिर्झरं येन सा
निजे तरसि मज्जिता सपदि लज्जिता विव्यथे॥३३॥
विपक्षयूथनाथायाः पुरतः प्रकटं नहि।
जल्पन्ति लघवः सेर्ष्यंप्रायशः प्रखरा अपि॥३४॥
दिष्ट्या दुस्तरतो मदुक्तिनिगडान्मुक्तासि मुग्धे क्षणा–
दभ्यर्णे वृषभानुजा विजयते यद्भानुजायास्तटे।
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पक्षे रसात् स्खलितं च्युतम्॥३१॥ प्रतिपक्षसखीष्विदमित्युक्तं प्रतिपक्षयूथाधिपानां का वार्तेत्यपेक्षायामाह—यास्त्विति॥३२॥ वृन्दा पौर्णमासीं प्राह—पिशुनिता सूचिता उरुगर्वस्य स्वावहेलनरूपस्य छटा यया तां विलोक्य लक्षणेन ज्ञात्वाविरलो मन्दहास एव फेनस्तेनोज्ज्वलं येन विनयनिर्झरेण प्रयोजककर्त्रा निजे तरसि वेगे सा प्रयोज्यकर्मभूता मज्जिता अत एव लज्जिता सती विस्मये पश्चात्तापेन खिद्यते स्मेत्यर्थः॥३३॥ लघवःसख्य इत्यर्थः॥३४॥ व्याजस्तुत्या तथा प्रकटमेव निन्दतीं चम्पकलतां प्रति दूरात् पद्मा संरम्भसाधरकम्पमाह—दिष्ट्येति। हे मुग्धे, मदुक्तिरेव निगडः शृङ्खलस्तस्मादद्य दिष्ट्या मुक्तासि। क्षणात् क्षणमात्रात्। यदि क्षणात् किंचिदधिकं विलम्बमकरिष्यस्तदा वृषभानुजायामितो गतायां सुष्ठुतुभ्यं दक्षिणामहमदास्यमिति भावः। किं
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न्द्यचापलमयैस्तैः। रसेन स्खलितो नृत्यगतिविशेषो यत्र तत्। पक्षे रसात् स्खलितं यथा स्यात्। खेलावतीनाम्नी। अत्रापि बाल्यकीडामात्रम्। तत्तस्या इति भावः॥३१॥३२॥ पिशुनितत्वंसूचितत्वम्। निजे स्वस्य विनयनिर्झरस्य संबन्धिनि तरसि वेगे। येन विनयनिर्झरेणैव मज्जिता मग्नीकृता॥३३॥
नातथ्यं प्रथयामि देव्यपि गिरां वाग्दूतकेलीषु मे
निर्धूतप्रतिभोद्गमा भगवती लज्जार्णवे मज्जति॥३५॥
हरिप्रियजने भावा द्वेषाद्या नोचिता इति।
ये व्याहरन्ति ते ज्ञेया अपूर्वरसिकाः क्षितौ॥३६॥
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कर्तव्यं वृषभानुजा अभ्यर्णे निकट एव विजयते। तस्या अग्रे ममौद्धत्यमनुचितमिति भावः। मम वाग्विलासप्रभावं चावधाय शृण्वित्याह—नातथ्यमिति। प्रथयामि प्रख्यामीति गिरां देवी सरस्वत्यपि॥३५॥ अपूर्वरसिका अद्भुतरसिका इति वक्रोक्ति, श्लेषेण च अकारः पूर्वे येषां अरसिका इत्यर्थः॥ ननु ‘शोकामर्षादिभिर्भावैराक्रान्तं यस्य मानसम्। कथं तत्र मुकुन्दस्य स्फूर्तिसंभावना भवेत्॥’ इति साधकानामपि भक्तिप्रतिकूलत्वेनोक्ता द्वेषादयः कथं सिद्धानां प्रेम्णामनुकूला भवन्त्विति। सत्यम्। साधकत्वदशायां ते रागद्वेषादयो मनोविकाराःप्राकृता भक्तौ विरुध्यन्त एव सिद्धदशायां त्वन्तःकरणस्य प्रेमाकरत्वात्तद्वृत्तयोऽपि ये शोकमोहरागद्वेषादयस्तदाकाराः प्रेम्णो न भिद्यन्त इति। भक्तिरसामृतसिन्धौ—‘उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति स्थायिन्यमृतवारिधौ। ऊर्भिवद्वर्धयन्त्येनं यान्ति तद्रूपतां च ते॥’ इति। निर्वेदाद्याः संचारिणो मनोधर्मा अपि सात्त्विकराजसतामसाकारत्वेन प्रतीयमाना अपि निर्गुणा एव व्याख्याताः। प्रेम्ण एव स्थायिभावत्वात् स्थायिन एव तत्तद्रूपेणाविर्भावात्। ननु प्रेमैव कथं प्राकृतो नास्तु, तस्यापि निर्गुणत्वेकिं प्रमाणम्।उच्यते। ‘लक्षणं भक्तियोगस्य निर्गुणस्येत्युदाहृतम्।’ इति श्रीभागवतमेव। तस्या एव भक्ते परिपाकदशायां प्रेमेति नाम। ‘भक्त्या संजातया भक्त्या विभ्रत्युत्पुलकां तनुम्।’ इत्युक्तेः। किं च प्रेम्णो गुणमयत्वेसर्वशास्त्रेषु श्रीभगवतः प्रेमाधीनत्वप्रथा अपलपिता एव स्यात्। ‘हरिर्हि निर्गुणः साक्षात्पुरुष प्रकृतेः परः।’ इत्युक्तेर्नहि निर्गुणस्य प्रकृतेःपरस्य श्रीभगवतो गुणमयप्रेमाधीनत्वं युज्यते। नन्वस्तु प्रेमा निर्गुणः कथं मनोवृत्तीनामपि तन्मयता। आधाराधेयसंबन्धेन चेदजातरतीनामारब्धभजनगन्धामपि भक्तानामन्तःकरणस्य भक्त्यधिकरणत्वे
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हे मुग्धे, क्षणात् क्षणं प्राप्य॥३४॥३५॥ अपूर्वरसिका इति। अत्र अरसिका इति शब्दश्लेषश्च। अत्र साधारणस्यापि शृङ्गाररसस्यौज्ज्वल्यं सापत्न्या–
यथा वा—
संमोहनस्य कंदर्पवृन्देभ्योऽप्यविद्विषः।
मूर्तो नम्रप्रियसखः शृङ्गारो वर्तते व्रजे॥३७॥
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तद्वृत्तीनामपि तन्मयत्वेकथं रागद्वेषादयो भक्तेः प्रतिकूलायन्ताम्। सत्यम्। नात्राधाराधेयसंबन्धेनैक्यमुच्यते किंतु तं विनैव। तथा हि प्रथमं स्वानमित्यादिरीत्या भक्तेः कर्णप्रवेशमात्रेणैव झटिति न तेन मेलनं स्यात् किंतु निरन्तरमन्तःकरणेन सह भक्तेरभ्यासपौनःपुन्येनानर्थनिवृत्तिनिष्ठारुच्यासक्तिभूमिकारोहानन्तरमेव यावच्च तया न मेलनं स्यात् तावन्मनोवृत्तयो रागद्वेषादयः प्राकृता अनर्थकरा एव। यथा गन्धकचूर्णेषुपारदस्य प्रवेशमात्रेणैव न मेलनं किं तु संमर्दपौनःपुन्येन चिरेणैव, मेलने च यथा गन्धकस्य स्वाकारापगमो रूपान्तरप्राप्तिस्तथैवान्तःकरणस्य प्राकृतध्वंसश्चिन्मयत्वावाप्तिः। यथैव पारदगन्धकयोरैकरूप्यं कज्जलीभावस्तथैव भक्त्यन्तःकरणयोरैकरूप्यं प्रेमा, यथैव पारदः सर्वत्रालिप्तोऽप्यन्तर्भूतपार्वतीप्रीतिकं गन्धकमेव स्वसंघर्षेण स्वरूपान्तरं नयन् स्वयमनष्टस्वरूप एव तदुपरक्तत्वेनैव किमपि परिपाकविशेषेण नामरूपवैलक्षण्यं स्वीयमेव भजते तथैव कर्णरन्ध्रादिद्वारा श्रवणकीर्तनादिरूपो भगवानन्यत्रालिप्तोऽपि प्रीतिमदन्तःकरणं प्रविश्य स्वशक्त्या स्वसंघर्षणेन तां चिद्रूपतां नयन् तदुपरक्ततया तदैक्येनोत्तरोत्तरपरिपाकविशेषेण प्रेमस्नेहप्रणयादिनामरूपवैलक्षण्यं प्राप्नोति। यथा च तच्च पुनरनुकूलवस्तुसयोगेनानेकान् भेदान् धत्ते तथैव प्रेमापि श्रीभगवतो दाससखिगुरुकान्ताभावमिश्रणेन दास्यादिप्रभेदम्। एवं च साधनसिद्धानामपि प्रेमा यद्येतादृशत्वेन निरूपितस्तदा नित्यसिद्धानां नित्यसिद्ध एव प्रेमणि कः संदेह इति। अथ प्रकृतमनुसरामः। नन्वस्तु हरिप्रियजने सिद्धे द्वेषादीनामनौचित्याभावः॥३६॥ तदप्येष शृङ्गाररसस्तान् विनैव कथं निर्वहतु इत्यत आह—संमोहनस्येति। एकःकन्दर्प एव लोके संमोहयति तत्संवन्धिनोऽपि शृङ्गाररसस्य कविभिर्भरतप्रणीतरसशास्त्रदृष्ट्या खण्डिताविप्रलव्धादिवर्णने प्राकृतैरपीर्ष्याद्वेषादिभावैरेव निर्वाहपरिपोषौ वर्णितौ। तादृशानां कन्दर्पाणां वृन्देभ्योऽपि सकाशात्
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दिमयत्वेनैव तच्छास्त्रे मतम्॥३६॥ किमुत श्रीकृष्णलीलामयस्य तस्येत्याह—संमोहनस्येति। सर्वासामेव पृथक् पृथक् तत्र गाढसंभोगलालसा दर्शिता।
क्षिपेन्मिथो विजातीयभावयोरेषपक्षयोः।
ईर्ष्यादीन्स्वपरीवारान्योगे स्वप्रेष्ठतुष्टये॥३८॥
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संमोहनस्याघविद्विषः शृङ्गारस्य।चिन्मयैस्तैर्विना तौ कथं भवेतामिति भावः। श्लेषेण स्वरसास्वादयितॄणां सर्वस्याप्यघस्य विद्वेष्टुः खण्डकस्य। लौकिकः कन्दर्पस्तु तेषां पापवर्धक एव भवतीति भावः। तथाभूतस्य श्रीकृष्णस्य शृङ्गारो रसो नाम व्रजे मूर्तोमूर्तिमानेव वर्तते तदवतारत्वेन उज्ज्वलशृङ्गारनामैवेत्यर्थः। स परस्परविजातीयभाववतोः पक्षयोः परस्परवैरिणोरित्यर्थः। स्वस्य स्थायिरूपस्य परीवारान् पोषकान् संचारिरूपान् ईर्ष्यादीन् क्षिपेत् अर्पयेत्। प्रयोजनमाह—स्वप्रेष्ठस्य
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‘साक्षान्मन्मथमन्मथः’ इति श्रीभागवतोक्तंतस्य महामन्मथत्वंसूचितम्। महामन्मथत्वे च शृङ्गारपरिकरत्वे च सति तासां संभोगश्च भक्तान्तराणां सेवकादिकमिव यौगपद्येन न संभवति तस्मादीर्ष्यादिकं जायते एवेति भावः। किंच अघविद्विष इति। अघस्यापि मोक्षदातृत्वेन सर्वाश्रयपरमपारमैश्वर्यात्। ‘देवत्वेदेवदेहा सा मानुषत्वेच मानुषी।’ इति दिशा प्रेयसीगणविशेषत्वेन लक्ष्यादिवच्छृङ्गारोऽपि प्रियनर्मसखत्वेन व्रजेऽपि वर्तत एव। यदि चासौ वर्तते तदीर्ष्यादिसपरिवारान् क्षिपेत् तत्र तत्र प्रवर्तयत्येव।नन्वीर्ष्यादीन् दीनविशेषेण क्षिपति चेत्तर्हि सखीसुहृद्वर्गौ कथं दर्शितौ तत्राह—मिथो विजातीयभावयोः परपक्षयोः क्षिपतीति। लोके यथा व्यावहारिकमिथोविजातीयभावयोर्मिथो विपक्षत्वं तथा तासामपि श्रीकृष्णविषयकविजातीयभावानां मिथो विपक्षत्वं स्यात् परस्परमरोचकत्वात्। तासामेव मिथोऽसावीर्ष्यादीन् क्षेप्तुंशक्नोति। यूनामेव कामः काममिवेति। तत्र भावानां साजात्यवैजात्ये दर्शयिष्येते। न च वक्तव्यं तेन श्रीकृष्णस्य तस्मिन्नसहनं स्यात् इत्यालोच्याह—प्रेष्ठस्य श्रीकृष्णस्य तुष्टय एव क्षिपतीति परस्परमीर्ष्यादयः श्रीकृष्णरागमेव पुष्णन्ति। पुष्टे च रागे तस्य तुष्टिरेव जायत इत्यर्थः। विरुद्धायमानत्वेपिव्यभिचारिणः स्थायिपोषका भवन्तीति तासां ते चेर्ष्यादयो बहिर्वृत्तावेवोदीयन्ते नान्तर्वृत्तौ सर्वासां तदेकजीवनत्वादात्मैकजीवनानां चक्षुरादीनामिव। ततश्च योग एव तासु सोऽसौ तान् क्षेप्तुं शक्नोति न वियोगे। नहि यथा जागरे स्वस्वविषयानास्वादयितुं मिथः स्पर्धमानानि चक्षुरादीनि प्रत्येकमात्मानुगतिं वाञ्छन्ति तथा सुषुप्तावपि किंतु आत्मन औदासीन्यमय्यांसुषुप्तौ सर्वाण्यपि मिलित्वा आत्ममात्रानुगतानि तिष्ठन्ति। न तु मिथः स्पर्धमानानि तद्वदत्रापीत्याह—ईष्यादीनिति। तत्र योगे युगपत् पोषितभर्तृकावस्थात्वं
** अत एव हि विश्लेषे स्नेहस्तासां प्रकाशते।**
** यथा ललितमाधवे—**
सान्द्रैः सुन्दरि वृन्दशो हरिपरिष्वङ्गैरिदं मङ्गलं
दृष्टं ते हतराधयाङ्गमनया दिष्ट्याद्य चन्द्रावलि।
द्रागेनां निहितेन कण्ठमभितः शीर्णेन कंसद्विषः
कर्णोत्तंससुगन्धिना निजभुजद्वन्द्वेन संधुक्षय॥३९॥
यूथेशायाःस्वपक्षादिभेदहेतुरथोच्यते॥४०॥
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श्रीकृष्ण[स्य] तुष्टये।तत्तदुद्भुतस्वीयधृष्टत्वादिकौतुकविलाससुखायेत्यर्थः। योगे योगमात्रे यस्याः कस्या अपि नायिकायाः संयोगसंभावनायामपीत्यर्थः। तेन—‘ददृशुः प्रियविश्लेषान्मोहितां दुःखितां सखीम्।’ इति सखीपदोपन्यासः। ततश्च युगपत् संभोगशृङ्गाररसधर्मा एव द्वेषेर्ष्यादयो भावाः। नतु हरिप्रियजनाः सदा परस्परद्वेषेर्ष्यादिमन्त इति भावः॥३७॥३८॥ मथुराविरहेण विषीदन्ती श्रीराधा स्वमूर्ति गोवर्धनशिलायां प्रतिविम्वितां चन्द्रावलीत्वेन निश्चिन्वती प्राह—सान्द्रैरिति। वृन्दशो बहुवारान्। एनां राधां मां कण्ठमभितः कण्ठस्य सर्वदिक्षु निहितेनार्पितेन शीर्णेन श्रीकृष्णविरहात् क्षीणेन संधुक्षय जीवय।कंसद्विषः श्रीकृष्णस्य कर्णावतंससुगन्धधारिणा इत्यनेन त्वत्संभोगानन्तरं त्वद्भुजद्वन्द्वमुपधाय क्रमेण दक्षिणवामपार्श्वयोस्तेन शयितमित्यभिव्यज्य तादृशसौभाग्यभाजनत्वद्भुजाश्लेषेणाहमपि परम्परया तदीयाश्लेषसुखमेवानुभवामीति ध्वनितम्॥३९॥ ननु रसोऽप्येकः शृङ्गार एव विषयोऽप्येकः श्रीकृष्ण एव तदपि तदाश्रयालम्बनानां व्रजसुन्दरीणां परस्परविपक्षसुहृत्पक्षादित्वं कथमित्यत आह—यूथेति। अयमत्र विवेकः— विनयवतान्तःकरणेन मधुराख्यस्य
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विनान्यावस्थत्वे विश्लेषे युगपत् प्रोषितभर्तृकावस्थत्वेइत्यर्थः॥३७॥३८॥ तत्रोदाहरणमाह—यथेति। तत्र सान्द्रैःसुन्दरीति विरहावस्थायां श्रीराधिकावचनम्। संधुक्षय जीवय। तदेवं श्रीरासपञ्चाध्याय्यामपि वर्ण्यते। ‘तस्या अमूनि नः क्षोभं कुर्वन्त्युच्चैः पदानि यत्।’ इत्येकासां विश्लेषे। उभयासां तु विश्लेषे ‘ददृशुः प्रियविश्लेषाद्दुःखितां मोहितां सखीम्।’ इति॥३९॥ स्वजातीयविजातीयभावाभ्यां मिथःस्वपक्षादिभेदं विवृणोति—यूथेशाया इति।
भावस्य सर्वथैवात्र साजात्ये स्यात्स्वपक्षता।
मनागेतस्य वैजात्ये सुहृत्पक्षत्वमीरितम्॥४१॥
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प्रीतिवस्तुनो मेलने विनयात् सकाशात् प्रीतेरतितमां जातिप्रमाणाभ्यामाधिक्ये विनयस्य प्रीतिनिगीर्णत्वेममायं कृष्ण इतिप्रकारको मदीयतामयो मधुस्नेहाख्यो भावः स्थायी आदरप्राकट्यशून्यो भवति। तथा विनयात् सकाशात् प्रीतेराधिक्याभावेप्रीतिमयानां विनयानामुद्भासस्य प्राकट्येकृष्णस्याहं कान्तेतिप्रकारकाभिमानेन तदीयतामयो घृतस्त्नेहाख्यो भावः स्थायी आदरमयो भवति, भावयोरनयोर्मधुघृतयोरिव परस्परसाजात्याभावात्तुल्यप्रमाणयोर्मेलने विसदृशधर्मकत्वाच्चतत्तद्भाववत्योः कान्तयोरपि परस्परभावारोचकत्वात् परस्परविपक्षतैव स्यात्। ते चकान्ते मुख्यत्वात् राधाचन्द्रावल्योरेव ज्ञेये। किं च तुल्यप्रमाणकविनयवत्योरपि राधाचन्द्रावल्योर्मध्ये श्रीराधाविनयस्योक्तयुक्त्या प्रीत्या निगीर्णत्वेनैव न बहिः प्राकट्यम्; न पुनश्चन्द्रावल्याः सकाशात् विनयोऽल्प इति ज्ञेयम्। एवं च ललिताविशाखादीनां श्रीराधाचन्द्रावलीभ्यां सकाशात् विनयस्याल्पत्वेऽपि विनयापेक्षया प्रीतेरतितरामाधिक्ये विनयस्य प्रीतिनिगीर्णत्वे मधुस्नेह एव तद्वत्यो ललितादयः श्रीराधायाः सकाशादल्पप्रमाणकप्रेमवत्योऽपि सर्वथा भावसाजात्यवत्यस्तस्याः स्वपक्ष एव, सखीत्वयूथेश्वरीत्वयोस्तु प्रेमतारतम्यमेव सर्वत्र कारणं ज्ञेयम्। एवमेव श्रीराधाचन्द्रावलीभ्यां सकाशात् पद्मादीनां विनयस्याल्पत्वे, विनयापेक्षया प्रीतेराधिक्याभावे घृतस्नेह एव तद्वत्यस्ताश्चन्द्रावल्याः स्वपक्षः, ललितादीनां तु विपक्ष एव।मनागिति। एतस्य भावस्य मनाग्वैजात्येबहुतरसाजात्येन तदभावेऽप्यल्पमात्रवैजात्यप्रक्षेपे सतीत्यर्थः। तथाहि विनयस्य प्रीत्यानिगीर्णप्रायत्वे ईषद्विनयोद्भासे ईषद्घृतस्नेहसंपृक्तो मधुस्नेहो भवति तद्वती श्यामला श्रीराधायाः सुहृत्पक्षः तथा साजात्यस्याल्पत्वेसति बहुतरवैजात्यसद्भावेऽप्यल्पमात्रसाजात्यप्रक्षेपे
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भावस्य प्रेमविशेषभावस्य। साहं कृष्णस्येति, ममायं कृष्ण इति द्विधा भिन्नस्य मिथःसाजात्येसति चक्षुषोरिव कर्णयोरिव च मिथः सपक्षता स्यात्। एवं मनागेतस्येति। साजात्यस्य तथाल्पत्वेएकत्र सजातीयता तस्याल्पत्वेऽन्यत्र प्राचुर्येण मिथः प्रवेशो न जायते। तदल्पतामय्या अवज्ञाविषयत्वात्, तत्प्राचुर्यमय्याः संकोचविषयत्वात् ताटस्थ्यं जायत इत्यर्थः। एवं सर्वथेति अत्र
साजात्यस्य तथाल्पत्वे सति ज्ञेया तटस्थता।
सर्वथा खलु वैजात्येनिश्चिता प्रतिपक्षता॥४२॥
मिथोभावस्य वैजात्येन भावो रोचते मिथः।
अरोचकतयैवायमक्षान्तिं जनयेत्पराम्॥४३॥
** यथा—**
या मध्यस्थपदेन संकुलतरा शुद्धा प्रकृत्या जडा
वैदग्धीनलिनीनिमीलनपटुर्दोषान्तरोल्लासिनी।
आशायाः स्फुरणं हरेर्जनयितुं युक्तात्र चन्द्रावली
सापि स्यादिति लोचयन् सखि जनः कः सोढुमीष्टे क्षितौ॥४४॥
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सतीत्यर्थः। तथाहि विनयस्य प्रीत्या ईषन्निगीर्णत्वेप्रायः संपूर्णविनयोद्भासे ईषन्मधुस्नेहसंपृक्तो घृतस्नेहो भवति। तद्वती भद्रा श्रीराधायास्तटस्थः पक्षः, चन्द्रावल्यास्तु सुहृत्पक्षः॥मिथो वैजात्येसर्वथा विपरीतजातित्वे॥४०॥४१॥॥४२॥४३॥ ननु श्रीकृष्णाय सुखदानमेव तवोद्देश्यं तच्च सुखं चन्द्रावलीसंभोगे यदि श्रीकृष्णो लभते तदा तां त्वं कथं द्वेक्षि कथं वा खण्डितादशायां कृतसङ्गाय श्रीकृष्णाय च कुप्यसीति पृच्छन्तीं प्रेमसिद्धान्तजिज्ञासुं कामपि वृन्दासङ्गिनी वनदेवतां वृन्दावनेश्वरी श्रीराधा तत्त्वं वोधयन्त्याह—या मध्यस्थेति। या चन्द्रावली चन्द्रश्रेणी। द्वादशानामेव मासाना चन्द्रा इत्यर्थः।मध्यस्थितेन पदेन मालिन्यमयेन चिह्नेन संकुलतरा सर्वथा युक्ता, पक्षे मध्यस्थस्य यत्पदं व्यवसायस्तेन श्रीकृष्णे तस्या आदरबाहुल्यमेव ताटस्थ्यं व्यनक्ति। अशुद्धा अविशदा मध्यस्थितकलङ्कत्वात्, पक्षे शुद्धा ‘अहेरिव गतिः प्रेम्णः स्वभावकुटिला भवेत्’ इति साहजिकवक्रतामयप्रेमरीतिशून्या। प्रकृत्या स्वभावेनैव जडा शैत्यदुःखदा, पक्षे आदरेण सख्यं निर्वातीत्यपि बुद्धिरहिता। वैदग्धीति रूपकेण पक्षद्वयनिर्वाहः। यद्वा वैदग्ध्या विपरीतलक्षणया अवैदग्ध्या हेतुना नलिन्या
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सर्वथा वैजात्येविपक्षत्वं विवृत्य स्थापयति—मिथ इति॥४०॥४१॥॥४२॥४३॥ तत्र राधाया वचनम्—येति। मध्यस्थस्य तटस्थस्य यत्पदं व्यवसायस्तेनसंकुलतरेति तस्याः श्रीकृष्णे आदरबाहुल्यमेव ताटस्थ्येन
षोडश्यास्त्वमुडोर्विमुञ्च सहसा नामापि वामाशये
तस्या दुर्विनयैर्मुनेरपि मनः शान्तात्मनः कुप्यति।
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निमीलने मुद्रणे पटुः,पक्षे वैदग्ध्येव नलिनी श्रीकृष्णभ्रमरस्य सुखदा तस्या निमीलनेलोपे दोषा रात्रिस्तदन्तर एव उल्लसितुं शोभां प्राप्तुं शीलं यस्याः। न तु दिवसे इत्यर्थः। पक्षे दोषैरुक्तलक्षणैरपि गुणैरन्तरे स्वमनसि उल्लसनशीला।स्वताटस्थ्यादिदोषान् दोषत्वेन न जानातीति भावः। या खल्वेवमेवंभूता सापि हरेरिन्द्रस्य आशाया दिशः स्फुरणं प्रकाशम्, पक्षे हरेर्व्रजेन्द्रसूनोराशाया अभिलाषस्य स्फुरणं स्फूर्तिमात्रमपि किं पुनः प्रादुर्भावं किंतमां मूर्तिं जनयितुं युक्ता उचिता स्यादिति सोढुं को जनो लोचयन् विचारयन्।विचारवानित्यर्थः। क्षितौ पृथिवीमध्येऽपि ईष्टे शक्नोति। अपि तु सर्व एवेर्ष्यामाविष्करोति। न पुनरहमेव त्वयोपालम्भनीयेति भावः। सा तावदास्तां तत्सङ्गिनंश्रीकृष्णमपि खण्डिता भवन्ती यदीर्ष्यामि तदपि नायुक्तं यं भोजयितुमतियत्नतो रोचकं रोचकं वस्तु संगृह्य संगृह्यप्रस्तुतीक्रियते स यदि क्वचिदन्यत्रारोचकैर्विरसैरेव वस्तुभिः संभुक्तैः समयं गमयित्वा आयाति तदा तस्मै कुप्यते न वेति त्वमेव तत् विविच्य ब्रूहीति प्रेमतत्त्वं सा ज्ञापिता ॥४४॥ चन्द्रावल्या भावः श्रीराधायै न रोचत इति दर्शितं श्रीराधाभावोऽपि चन्द्रावल्यैन रोचत इति दर्शयितुमाह—षोडश्या इति। कामपि स्वसखीं प्रसङ्गोपगतं श्रीराधाचरित्रं ब्रुवाणामाक्षिपन्ती चन्द्रावल्याह—षोडश्यास्त्वमुडोरिति। तत्सनाम्न्याःश्रीराधाया इत्यर्थः। साक्षात्तन्नामस्पर्शेऽपि मज्जिह्वाकटुर्भवतीति भावः। सहसापि किं पुनः प्रकरणेन नामापि किं पुनश्चरित्रं विमुञ्च त्यज। वामाशये इति। संप्रति तव बुद्धिर्भ्रष्टा जातेति बुध्ये। यत्तस्याः प्रसङ्गमकस्मादुत्थापयसीति भावः। ननु जगत्यस्मिन् कमपि जनं न द्वेक्षि न निन्दसीति परमदक्षिणायास्ते सौशील्यं प्रसिद्धं सत्यं तदपि तन्निन्दा मया दुस्त्यजैवेत्याह—य(त)स्या इति। ‘परस्वभावकर्माणि न
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मन्यते। चन्द्रश्रेण्याःपक्षे मध्यवर्तिना पादेन लक्षणेति। शुद्धा माधुर्यविशेषरहिता, पक्षे श्वेता। जडा प्रणयिप्रणयोचितबुद्धिरहिता, पक्षे शीतला। दोषान्तरमुत्तमजातीयस्वभावेष्वस्मद्वर्गेषु द्वेषः, पक्षे दोषा रात्रिस्तन्मध्योल्लासिनी। हरेःश्रीकृष्णस्य आशायास्तृष्णायाः, पक्षे इन्द्रस्य दिशः लोचयन् विचारयन्॥४४॥ अथ चन्द्रावल्या वचनम्—षोडश्या इति। पोडश्यास्त्वमुडोरिति।
धिग्गोष्ठेन्द्रसुते समस्तगुणिनां मौलौ व्रजाभ्यर्चिते
पादान्ते पतितेऽपि नैव कुरुते भ्रूक्षेपमप्यत्र या॥४५॥
यत्र स्यान्निजभावस्य प्रायस्तुल्यप्रमाणता।
पक्षः स एव मैत्राय विद्वेषाय च युज्यते॥४६॥
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प्रशंसेन्न गर्हयेत्’ इति शान्तस्य स्वाभाविको धर्मः। तस्यापि मुनेर्मौनशीलस्यापि अहं तु गोपकन्या व्यवहारमार्गस्था असंयतवाक्। कथं न कुप्यामि न वा निन्दामीति भावः। के ते दुर्विनया इति चेत्तत्राह—धिगिति। सामान्याकारेणोक्तेस्तां धिक् तस्या अपि तच्चेष्टितं धिक् त्वामपि तत्प्रसङ्गकारिणीं धिक् इति। **पादान्ते पतितेऽपीति।**सा खलु का भाविनी भवेत् या स्वकान्तं स्वपादतलगतं कुर्यात्। मानिनी हि कान्तस्य सामदानभेदाञ्जलिकिंचिन्मौलिमात्रावनतिखेदान् विलोक्य प्रसीदेत्। इत्येव प्रेमरसपरिपाटी भवेदिति भावः। भवतु वा कान्तः स्वयं पादान्तपतितः तथाभूतं तं दृष्ट्वा भाववती मनसापि विषीदेदेव हन्त हन्त या भ्रुवः क्षेपमपि न कुरुते सा कथं प्रेम्णो गन्धमपि धत्तामिति भावः। मास्तु वा प्रेम तदपि व्रजेन्द्रस्य सूनौ तत्रापि **समस्तेति।**तत्रापि व्रजेति। बुद्धिमता जनेनादरः कर्तुमुचित एवेति भावः। नन्वेवं चेत् प्रेमशून्यां तां त्वत्कान्त स्वेच्छयैव कथं मुहुर्मुहुर्गच्छेत् तस्य च तस्यामिच्छा चेत् कथं वा त्वं प्रेमवती तां द्वेक्षि। सत्यं तस्याः सौन्दर्यमस्ति काममत्तताधिक्यं च। अतः संप्रयोगसुखमात्रार्थं स्वस्य संगत्या शिक्षया च सद्भावप्रापणार्थं च स तस्याः पार्श्वं गच्छति तस्याश्च ‘स्वभावो मूर्ध्नि वर्तते’ इति न्यायेन सद्भावः कदापि न भावी तदभावकलुषितेन तस्यां संप्रयोगेण च तस्य किं सुखं स्यादिति परामृश्य तामहं द्वेष्मीत्यादि स्वरसतत्त्वमपि सा वोधितेति ज्ञेयम्॥४५॥ ननु श्रीराधायाः सर्वथा विजातीयभावा घृतस्नेहवत्यो गोप्यः किमन्या न सन्ति यतश्चन्द्रावल्यामेव तस्या द्वेषप्रसिद्धिः एवं चन्द्रावल्या अपि श्रीराधायामेव नान्यास्वित्यत्र को हेतुस्तनाह—यत्र स्यादिति। यत्र यदी–
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तत्सनाम्न्याराधाया इत्यर्थः। साक्षात्तन्नामाग्रहणं त्वीर्ष्यया मन्तव्यम्। तथैव मध्याया अपि तस्याः प्रखरात्वं प्रख्यापितम्। मुनेरिति मौनशीलस्यापि तत्र दोषोद्गारः संभाव्यत इत्यर्थः॥ ४५॥ निजभावस्य श्रीकृष्णविषयकस्वप्रेम्णस्तुल्य–
नांशोऽप्यन्यत्र राधायाः प्रेमादिगुणसंपदाम्।
रसेनैव विपक्षादौ मिथः साम्यमिवार्प्यते॥४७॥
भावस्यात्यन्तिकाधिक्ये साजात्यं सर्वथा द्वयोः।
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यभावे प्रायोग्रहणाद्यत्किंचिन्मात्रन्यूनप्रमाणत्वेऽपि यत्किंचिद्वैजात्यस्पष्टसाजात्ये मैत्राय सर्वथा वैजात्ये विद्वेषाय युज्यते इति प्राकृतलोकेऽपि तथा दर्शनादित्यर्थः॥४६॥ ननु श्रीराधाया भावस्य तुल्यप्रमाणकभाववत्यौ किं चन्द्रावलीश्यामले भवेतां यतस्तयोरेव द्वेषमैत्र्यो दृश्येते इत्यत आह—**नांशोऽप्यन्यत्रेति।**तदपि रसेनैव कर्त्रा स्वपुष्ट्यर्थं मिथः परस्परसाम्यं राधाचन्द्रावत्योर्भावयोर्मिथः परमवैजात्येऽपि तुल्यप्रमाणतायामेव साम्यमिव॥ ननु सर्वथा वैजात्येतुल्यप्रमाणकभाववत्त्वे वैरमिव कयोश्विद्यूथेश्वर्योः सर्वथा भावसाजात्येकिं मिथः स्वपक्षत्वमन्यो वा कश्चन व्यपदेशः स्यादित्यपेक्षायामाह—भावस्येति। द्वयोरात्यन्तिकाधिक्ये यूथेश्वरीत्वेइत्यर्थः। सर्वथा साजात्यंतु दुर्घटमवश्यमेव किंचिद्वैजायं विना पृथग्यूयेश्वरीत्वंन संभवेत्। सर्वथा भावसाजात्यं हि परस्परातिप्रीतेः कारणम्। अतिप्रीतिश्च निरन्तरसहावस्थितिः परस्परसुखदानानुगतीनां तासु सहावस्थित्यादिषु सखीषु कथं पार्थक्यमभिमतं भवति। तत्र चेयं व्यवस्था—परस्परभावसाजात्यवतीषु वह्वीषु मध्ये यस्या भावस्य प्रमाणाधिक्यं सैवैका यूथेश्वरी भवति अन्यास्तत्सख्यो भवन्तीति। यदुक्तम्—‘यूथाधिपात्वेऽ–
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*प्रमाणता रतिप्रेमप्रणयादिनामभिर्वक्ष्यमाणैरुत्तरोत्कर्षैः सदृशता। **प्राय इति।*क्वचित्तु सादृश्यातिशयाभावेऽपि सदृशमन्यता च तत्र हेतुरिति ज्ञापितम्॥४६॥ अत्र श्रीराधामहिममहोदधिमवगाहमानानां मतमाश्रित्याह—***नांशोऽपीति।*विपक्षादौ विपक्षस्वपक्षसुहृत्पक्ष इति त्रये। रसेनैवेति। यथा हनुमदादिचरित्रश्रवणेन वीररससमुल्लासे समुद्रलङ्घनोद्यमादयः समीक्ष्यन्ते मन्यन्ते च रसविद्भिस्तथात्रापीति भावः॥४७॥ नन्वत्यन्ताधिकयोरपि कयोश्चिद्भावसाजात्यं भवतु ततश्च स्वपक्षत्वमपि स्यात्। तत्राह—भावस्येति। द्वयोः स्वतन्त्रयूथाधिपयोःस्वस्य यूथमन्वत्यन्ताधिकत्वेसति भावस्य कृष्णे त्वदीयतामयस्य मदीयतामयस्य च साजात्यं सर्वथा सुदुर्घटम्। कि त्वंशेनैव तत्स्यात्। सर्वथा साजात्ये सति कस्याञ्चित् कस्याश्चित् प्रवेशे यूथाधिपात्वंन स्यात्। ननु प्रेम्णस्तुल्यप्रमा–
तथा तुल्यप्रमाणत्वमेवं प्रायः सुदुर्घटम्॥४८॥
स्याच्चेद्धुणाक्षरन्यायात्सुहृत्तैवेह संमता।
रसस्वभावादत्रापि वैपक्ष्यमिति केचन॥४९॥
इति हरिवल्लभाप्रकरणम्।
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प्यौचित्यंदधाना ललितादयः। स्वेष्टराधादिभावस्य लोभात् सख्यरुचिं दधुः॥’ इति॥४७॥ ननु सर्वथा यूथाधिपासु मध्ये श्रीराधाचन्द्रावल्योरेव परमात्यन्ताधिक्ये अतस्ताभ्यां सकाशादल्पप्रमाणकभाववत्यो ललितापद्मादयस्तयोः सख्यो वभूवुरित्युचितमेव। किं तु ताभ्यामन्या यूथेश्वर्यो वह्व्योयास्तासु काश्चित्तुल्यप्रमाणकभावसाजात्यवत्यः किं न संभवन्ति संभवन्ति वेत्यपेक्षायामाह—तथा तुल्यप्रमाणत्वमिति। वह्वीनां का कथा द्वयोरेव यूथेश्वर्योः सर्वथा भावस्य साजात्यंतथा तुल्यप्रमाणत्वं चेति सुदुर्घटं सर्वथा साजात्येसति भावस्य किंचिन्मात्रन्यूनाधिकाप्रमाणत्वेऽपि सखीत्वयूथपात्वेएव भवतः। वैजात्यै वैजात्यस्यैव भेदकत्वात् द्वयोर्यूथाधिपात्वेकारणत्वं न तत्र तुल्य॒प्रमाणत्वापेक्षा साजात्येतु साजात्यस्य भेदकत्वाभावात् सर्वथा तुल्यप्रमाणत्वस्यैव कारणता। तच्च युगपत् सुदुर्घटमिति स्वयूथ एव साजात्यंपृथग्यूथ एव साजात्यंनिर्णीतमिति॥४८॥ प्रायोग्रहणं स्वयमेव व्याचष्टे—स्याच्चेदिति। घुणाक्षरं जीर्णकाष्ठादौ घुणाख्यकीटविशेषोत्कीर्णं दैवादक्षराकाराङ्कवृन्दमेवाक्षराभासत्वादक्षरं तन्न्यायात्तदिवेत्यर्थः। इह ईदृश्यां यूथेश्वर्यां सुहृत्तैव सर्वथा साजात्येऽपि न स्वपक्षत्वं सदा सहावस्थित्यादीनां तत्कार्याणामसंभवादिति भावः। स्वमतं समाप्य परमतमाह—रसस्वभावादिति। न तु तत्र प्रेमापेक्षेति भावः। अत्रापि अपिकारात् सुहृत्पक्षे स्वपक्षेऽपि सर्वत्र स्वस्मादन्यत्रैव वैपक्ष्यम्। अथ संक्षेपेण प्रकरणार्थसिद्धिलेखः।अनन्तकोटिगोपीषुया याःशुद्धघृतस्नेहवत्यस्तासु मुख्या
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णत्वेस्वतन्त्रतैव स्यात् तत्राह—तथा सर्वथा तुल्यप्रमाणत्वमित्येवमपि सुदुर्घटमिति। प्राय इति। ललिताविशाखादिषु दृश्यते इति चेद्विरलचारित्वमेवेत्यर्थः॥४८॥ ननु राधाचन्द्रावल्यौ विनान्यत्र साजात्यंब्रूम। ते हि परमात्यन्ताधिके इति स्वस्वयूथात्यन्ताधिकानां ललितापद्मादीनामपि तत्तद्विपयं सख्यं संभवत्येव।अन्यत्र तु का वार्तेत्याशङ्ख्याह—स्याच्चेदिति। रसस्वभावत्वादिति। शृङ्गाररसस्य स्वभावोऽयं यत्र परस्परं वैपक्ष्यं भवतीति। केचनेति।
अथोद्दीपनप्रकरणम्।
** अथ विभावेषूद्दीपनाः—**
उद्दीपना विभावा हरेस्तदीयप्रियाणां च।
कथिता गुणनामचरित्रमण्डनसंबन्धिनस्तटस्थाश्च॥१॥
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एकैव चन्द्रावली अन्यास्तत्सख्यः पद्मादयस्तास्वेव श्रीराधाललितादीनां द्वेषो नान्यत्र कास्वपि यूथपासु सर्वथा भाववैजात्याभावात्। एवं चन्द्रावलीपद्मादीनां शुद्धमधुस्नेहवतीषु श्रीराधाललितादिष्वेव नान्यत्र।श्रीराधाललितादीनां सौहार्दस्तु (र्दतु) बहीष्वेव यूथपासु अशुद्धमधुस्नेहासु श्यामलामङ्गलादिष्वल्पाल्पतराल्पतमघृतस्नेहसंपर्कादशुद्धिवैविध्यात्। एतासु चन्द्रावल्यादीनां ताटस्थ्यम्, एवमशुद्धघृतस्नेहवतीषु भद्रादिषु बह्वीषु श्रीराधादीनां ताटस्थ्यं चन्द्रावल्यादीनां तु सौहार्द[म्।] एवं श्यामलादीनां पाल्यादिषु विपक्षत्वादिभेदा ज्ञेयाः। एवं च स्वपक्षता स्वयूथेष्वेव विपक्षता एकस्यामेव यूथपायां घुणाक्षरन्यायतः साजात्ये बह्वीष्वपि सौहार्द्यताटस्थ्ये बह्वीष्वेव यूथपास्विति दिक्॥४९॥
इति स्वपक्षविपक्षादिभेदविवृतिः।
[इति हरिवल्लभाप्रकरणम्।]
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तदेवं नायकनायिकातत्परिकराद्यालम्बनविभावं परिसमाप्येदानीमुद्दीपनविभावानाह—उद्दीपना इति। तदीयप्रियाणां चेति। रसेऽस्मिन्नायिकानायकयोः परस्परविषयाश्रयभावात् परस्परगुणादयः परस्परोद्दीपना भवन्तीति ज्ञापितम्। अनुगामिनः साधकभक्तास्तु श्रीकृष्णविषयकं व्रजदेवीनां
*
*
सख्यादिदर्शनात्तत्र घटत इति भावः। यदुक्तं श्रीदशमे—‘काश्चित्परोक्षं कृष्णस्य स्वसखीभ्योऽन्ववर्णयन्।’ इति॥४९॥
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इति हरिवल्लभाप्रकरणम्।*
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*** तदीयप्रियाणां चेति।** यद्यप्युज्ज्वलरसेऽस्मिन् रसान्तरवत् श्रीकृष्णविषयिकाया रसे रसत्वं प्रतिपाद्यं नतु तत्प्रेयसीविषयिकायाः। ततश्च श्रीकृष्णगुणा*
** तत्र गुणाः—**
गुणास्त्रिधा मानसाः स्युर्वाचिकाः कायिकास्तथा।
** तत्र मानसाः—**
गुणाः कृतज्ञताक्षान्तिकरुणाद्यास्तु मानसाः॥२॥
** यथा—**
वशमल्पिकयापि सेवयामुंविहितेऽप्यागसि दुःसहे स्मितास्यम्।
परदुःखलवेऽपि कातरं मे हरिमुद्वीक्ष्य मनस्तनोति तृष्णाम्॥३॥
** अथ वाचिकाः—**
वाचिकास्तु गुणाः प्रोक्ताः कर्णानन्दकतादयः।
** यथा—**
कर्णापहारिवर्णामश्रुतचरमाधुरीभिरभ्यस्ताम्।
आलि रसालां माधववाचं नाचम्य तृप्यामि॥४॥
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भावं स्वरूपलक्षणेन व्रजदेवीविषयकं श्रीकृष्णस्य भावं तु तटस्थलक्षणेनास्वादयन्तीत्यत्र समाधानं च ज्ञेयम्॥१॥२॥ श्रीराधायाः सखी काचिदसमस्नेहा कैंकर्यांशप्रधाना सजातीयाशयां कांचिदन्या सखीं प्रत्याह—**वशमिति।**विशेषणत्रयेण कृतज्ञत्वस्य, क्षमित्वस्य, कारुण्यस्य परावधित्वं तेन चास्मद्विधवालाजनसुखसेव्यत्वम्, तेन च शृङ्गाररसश्चान्तर्भावितः॥३॥ सखि लतान्तरितासीत्यतः स्वकान्तमपि न पश्यन्ती किमत्र विलम्बसे इति पृच्छन्तीं विशाखां श्रीराधा प्राह—कर्णेति। यावदत्र श्रीकृष्णः सुवलेन समं
*
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*एवोद्दीपकत्वेन वाच्या नतु तासां गुणाः। तथापि तासां स्वस्मिन् स्वीयरूपयौवनादयोऽप्युद्दीपना भवन्तीति तद्भावभावितेष्वाधुनिकेष्वपि तद्वदेव ते स्फुरन्तीत्यभिप्रायेणोक्तम्॥१॥२॥ वशमल्पिकयेति। वाक्यमेव पुरवासिन्याः पूर्वरागमयमिति ज्ञेयम्। तत्तद्गुणानुभवसातत्यावगतेः। **हरिमुद्वीक्ष्येति।*प्रथमाया रुचेः प्रतिपत्तेश्च। एषा च श्रीसत्यभामावगम्यते। किंतु मधुराख्यरसस्यासाधारणतोद्दीपनगुणानुक्तिः सखी प्रति कंचिदवहित्थार्थमिति ज्ञेयम्॥३॥ कर्णापहारिवर्णामिति। अत्र च तद्वत्। श्रीव्रजकुमार्याः कस्याश्चित्तद्रूपा–
अथ कायिकाः—
ते वयो रूपलावण्ये सौन्दर्यमभिरूपता॥५॥
माधुर्य मार्दवाद्याश्चकायिकाः कथिता गुणाः।
** तत्र वयः—**
वयश्चतुर्विधं त्वत्र कथितं मधुरे रसे॥६॥
वयःसंधिस्तथा नव्यं व्यक्तं पूर्णमिति क्रमात्।
वयोमुखा गुणाः पूर्वमुक्ताः केशवसंश्रयाः॥७॥
तेन तेऽत्र प्रवक्ष्यन्ते प्रायशस्तत्प्रियानुगाः।
** तत्र वयःसंधिः—**
बाल्ययौवनयोः संधिर्वयःसंधिरितीर्यते॥८॥
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संकथयन्नास्ते तावदहमत्रैव स्थास्यामीति भावः। रसाला पानकभेद। तामिवेति उषमैवेयं न तुरूपकम्। कर्णापहारिवर्णामिति विशेषणं माधववाच्येवानुकूलं न तु रसालायामसंभवादिति रूपकस्य बाधकम्। यदुक्तं काव्यप्रकाशे—‘पादाम्बुजं भवतु नो विजयाय मञ्जु मञ्जीरशिञ्जितमनोहरमम्बिकायाः।’ इत्यत्र मञ्जीरशिञ्जितमम्बुजे प्रतिकूलमसंभवादिति बाधकं रूपकस्येति॥४॥ वयो यौवनम्। वय इति पृथक् पदम्। उक्ता भक्तिरसामृते। किंतु संज्ञान्तरेणेति ज्ञेयम्। तत्र यत् प्रथमकैशोरशब्देनाभिहितं तस्यैव पूर्वापरभागौ वय संविनव्यशब्दाभ्यामत्रोच्येते।तथा मध्यकैशोरशेषकैशोरे व्यक्तपूर्णशब्दाभ्यामिति। प्रायश इति तदपि तत्तत्स्मारयितुं श्रीकृष्णस्यात्रापि किंचिदुच्यते इत्यर्थः॥५॥६॥७॥८॥
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वेशेन स्थानादचलायाःपृच्छन्तीं सखीं प्रति हि वचनमिदम्। माधुरीभिरर्थवैचित्रीभिः। रसमालाति आदात्ते इति रसालाम्। न तृप्यामीत्यन्वयः॥४॥ रूपलावण्यादीनामपि भेदाः स्वयमेव वक्ष्यन्ते॥५॥६॥७॥ बाल्ययौवनयोः संधिरिति। कैशोरस्य प्रथमभागतात्पर्यकांसर्वस्यापि कैशोरस्य तत्सधि–
** स कृष्णस्य यथा—**
यान्ती श्यामलतां विमुच्य कपिशच्छायां स्मरक्ष्मापते–
रद्याज्ञालिपिवर्णपङ्क्तिपदवीमाप्नोति रोमावली।
वाञ्छत्युच्छलितुं मनागभिनवां तारुण्यनीरच्छटां
लब्ध्वा किंचिदघीरमक्षिशफरद्वन्द्वं च कंसद्विषः॥९॥
** तन्माधुर्यम्—**
दशार्धशरलुब्धकं चलमवेक्ष्य लक्ष्येच्छया
विशन्तमिह सांप्रतं भवदपाङ्गशृङ्गोपरि।
_______________
कस्यापि तरोर्मूले तिष्ठन्तं श्रीकृष्णं दूराल्लतारन्ध्रनिहिताक्षीं श्रीराधां दर्शयन्ती दूती वर्णयति—यान्तीति। कंसद्विषः श्रीकृष्णस्य रोमावली कपिशच्छायां कृष्णपीतमिश्रधूसरकान्ति विमुच्य त्यक्त्वा आज्ञालिपिः ‘अतःपरं कुलजानां लज्जाधृतिपातिव्रत्यादिधर्मा ध्वंसनीयाः, गुरुपत्यादिवञ्चनार्यपथत्यागवलाभिसारचापल्याधृत्युन्मादादिधर्माः प्रवर्तनीया।’ इत्येवंलक्षणः शासनलेखस्तस्य ये वर्णा अक्षराणि तत्पङ्किसारूप्यं तेन दुरन्तशासनस्य राज्ञ आज्ञानुरूपमेव त्वया वर्तितव्यमिति व्यञ्जितम्। तथा ह्युक्तम्—‘वर्णस्योज्ज्वलता कापि नेत्रान्ते चारुणच्छविः। रोमावलीप्रकटता कैशोरे प्रथमे सति॥’ इति। उच्छलितुमभितः प्रसर्तुम्। तथा हि— ‘स्वरतात्र नखाग्राणां धनुरान्दोलिता भ्रुवोः’ इति। कंसद्विप इति सामर्थ्याधिक्यम्॥९॥ तन्माधुर्यं तद्रूपास्वादकजनदर्शनसूचितः स्वादविशेषः। कथं व्रजसुन्दर्यो मया लब्धा भवेयुरिति ध्यायन्तं पूर्वरागवन्तं श्रीकृष्णं नान्दीमुखी भङ्गया समाश्वसत्याह—दशार्धेति। दशार्धशर पञ्चेषुरेव लुब्ध–
*
*
*रूपत्वात्। बाल्यमत्र पौगण्डम्॥८॥ यान्तीति। कस्याचिद्व्रजकुमार्या श्रीकृष्णेन सह तस्या परस्परमिथुनतास्पृहिण्या वचनम्। लिपिर्लिखिताक्षरविन्यासः। ततश्चाज्ञालिपि वर्णयति ज्ञापयति। या पङ्किस्तस्या पदवीं परिपाटीम्। कंसद्विप इति सामर्थ्यमपि द्योतितम्॥९॥ **तन्माधुर्यमिति।*तस्यारोचकतेत्यर्थः। एषैवोद्रिक्ता क्वचिन्मोहनतोच्यते। लक्ष्यं वेध्यम्। कुरङ्गनयनानामावली, पक्षे कुरङ्गाणां नयनावली। ईषदर्थे दराव्ययम्। पक्षे दरं
सदाश्रुनिकरोक्षिता ब्रजमहेन्द्रवृन्दावने
कुरङ्गनयनावली दरपरिप्लवत्वं गता॥१०॥
** तत्प्रियाणां यथा—**
वाद्यं किङ्किणिमाहरत्युपचयं ज्ञात्वा नितम्बो गुणी
स्वस्य ध्वंसमवेत्य वष्टि वलिभिर्योगं हसन्मध्यमम्।
वक्षः साधुफलद्वयं विचिनुते राजोपहारक्षमं
राधायास्तनुराज्यमञ्चति नवे क्षोणीपतौ यौवने॥११॥
______________
कस्तं लक्ष्येच्छया शरैर्विद्धा। लक्ष्यं लब्धुमित्यर्थः। भवतोऽपाङ्गएव शृङ्गमणिमयपर्वताग्रं तदुपरि विशन्तमवेक्ष्य कुरङ्गाणां नयनावली, पक्षे मृगाक्षीततिः। दरं भयम्, पक्षे ईषदर्थे दराव्ययम्। परिप्लवत्वं चापल्यम्॥९॥१०॥ श्रीराधां दूरादालोक्य श्रीकृष्णः सुबलमाह—वाद्यमिति। यौवने यौवनाख्ये नवे राजनि अञ्चति स्वराज्यं प्राप्नुवति सति गुणी नितम्बःतं व्यञ्जयितुमिव किकिणिवाद्यमाहरति। कौशल्येन वादयामासेत्यर्थः।उपचयं ज्ञात्वास्मिन् गुणज्ञे राजनि मम संपत्तिर्भविष्यतीति विभाव्येत्यर्थः। पक्षे गुणो रसना दोरी। उपचयं स्थौल्यम्। तथा मध्यमं मध्यदेशः स्वस्य ध्वंसमवेक्ष्य नितम्बस्यैव मम गुणाभावात् वक्षस एव द्रव्याभावात् करदानाशक्तेश्चास्मिन् राजनि मम ध्वंस एव भविष्यति यतोऽहं मध्यमम्। उत्तमं न भवामीत्यर्थः। तदहं वलिभिः कृतसाहाय्यं सदैव यथाकथंचिज्जीवामीति, पक्षे त्रिवल्या ह्रसत् ह्रासं प्राप्नुवत्
*
*
भयम्॥१०॥ तत्प्रियाणां यथेति। वयःसंधिर्यथेत्यर्थः॥ वाद्यं किङ्किणिमिति। कस्याश्चिद्दूयाः श्रीकृष्णं प्रति वचनम्। तेन वयसा श्रीराधाया भावोद्रेकं बोधयति। एवमुत्तरेष्वपि ज्ञेयम्। किङ्किणिरूपं वाद्यम्। गुणीति राजयोग्यत्वं व्यनक्ति। पक्षे गुणी वस्त्रवन्धदोरकवान्। मध्यममिति। ततो न्यूनत्वात्तत्रायोग्यमित्यर्थः। पक्षेऽवलग्ननामकमुदरनितम्बयोः सन्धिः।साध्विति वक्षोविशेषणम्। अञ्चति गच्छति सति। नवयौवने क्षोणीपतौ च नवे इत्यन्वयः
** तन्माधुर्यम्—**
आशास्ते पतितुं कटाक्षमधुपो मन्दं दृगिन्दीवरे
किंचिद्व्रीडबिसाङ्कुरं मृगयते चेतोमरालार्भकः।
नर्मालापमधुच्छटाद्यवदनाम्भोजे तवोदीयते
शङ्केसुन्दरि माधवोत्सवकरीं कांचिद्दशामञ्चसि॥१२॥
** अथ नव्यम्—**
दरोद्भिन्नस्तनं किंचिच्चलाक्षं मन्थरस्मितम्।
मनागपि स्फुरद्भावं नव्यं यौवनमुच्यते॥१३॥
** यथा—**
उरः स्तोकोच्छूनं वचनमुदयद्वक्रिमलवं
दरोद्धूर्णा दृष्टिर्जघनतटमीषद्धनतरम्।
मनाग्व्यक्ता रोमावलिरपचितं किंचिदुदरं
हरेःसेवौचित्यं तव सुवदने विन्दति वयः॥१४॥
______________
॥११॥ विशाखा श्रीराधां परिहसन्त्याह—**आशास्त इति।**दृगेवेन्दीवरं तत्र कटाक्ष एव भ्रमरः पतितुमाशास्ते इच्छति एतावत्काल तव नयनं कटाक्षं कर्तुं न जानीते स्म। संप्रति ज्ञास्यतीत्यर्थः। व्रीडो लज्जा।व्रीडोऽक्लीव इति रभसः(?) ‘व्रीडमेति नतवक्षसः प्रिया’ इति माघः। माधवो वसन्तः श्रीकृष्णश्च॥१२॥ दरेति तेन वयःसंन्धौस्तनस्थानस्य स्निग्धत्वमांसलत्वेएव न तु तदाकार इति ज्ञेयम्। किंचिच्चलाक्षमिति। वयःसंधिनव्ययोर्नयनचाञ्चल्यस्यालक्ष्यत्वलक्ष्यत्वाभ्यां भेदः।मन्थरं मुखान्निर्गतुं विलम्बमानं स्मितं यत्र इति वयःसंधौमुखमध्य एवासीदित्यर्थः। अभि सर्वतो भावेन स्फुरन् भावो यत्रेति प्रथमविक्रियारूपस्य भावस्य तयोरलक्ष्यत्वलक्ष्यत्वाभ्यां भेदः॥१३॥ वृन्दाह—उर
*
*
॥११॥ आशास्ते इति। सख्याः सखीं प्रति भावोद्दीपनं वचनं मन्दमीषद् यथा स्यात्तथाऽऽशास्ते। उदीयत इति कर्तर्येव प्रयोगः।ईड् गतावितिदैवादिकस्य
** तन्माधुर्यम्—**
वारं वारं विचरसि हरेरद्यविश्रामवेद्या–
मुद्भ्रान्तासि स्फुरति पवने तद्वपुर्गन्धभाजि।
बाले नेत्रं विकिरसि मुहुर्नैचिकीनां पदव्यां
भावाग्निस्ते स्फुटमिह मनोधाम्निधूमायितोऽस्ति॥१५॥
** अथ व्यक्तम्—**
वक्षः प्रव्यक्तवक्षोजं मध्यं च सुवलित्रयम्।
उज्ज्वलानि तथाङ्गानि व्यक्ते स्फुरति यौवने॥१६॥
** यथा—**
रथाङ्गमिथुनं नवं प्रकटयत्युरोजद्युति–
र्व्यनक्ति युगलं दृशोः शफरवृत्तिमिन्द्रावलि।
विभर्ति च वलित्रयं तव तरङ्गभङ्गोद्यमं
त्वमत्रसरसीकृता तरुणिमश्रिया राजसि॥१७॥
** तन्माधुर्यम्—**
भ्राजन्ते वरदन्तिमौक्तिकगणा यस्योल्लिखद्भिर्नखैः
क्षिप्ताः पुष्करमालयावृतरुचः कुञ्जेषु कुञ्जेष्वमी।
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इति। किंचिदपचितमीषत् क्षीणम्॥१४॥ काचित्प्रौढवधूःस्वननान्दरं परिहसन्ती तद्दूत्यं विधित्सन्त्याह—वारमिति। विचरसीति चापल्यम्। उद्भ्रान्तासीत्यावेगः। विकिरसीत्यौत्सुक्यम्॥१५॥१६॥ नान्दीमुख्याह—रथाङ्गमिथुनं चक्रवाकद्वयम्। शफरयोरिव वृत्तिं चरित्रम्, पक्षे शफरवत्ताम्। हे इन्द्रावलि, सरसी सरोवरम्, पक्षे पूर्वमसरसा त्वम्। संप्रति रसिका भूरित्यर्थः॥१७॥ श्यामला श्रीराधामाह—स हरिः कथं त्वया नेत्रेण वद्धः। हे हरिणेक्षणे, इति एकमेव हरिणं
*
*
॥१२॥१३॥१४॥१५॥१६॥ सरसीकृतेति। पूर्वमसरसा संप्रति तु तादृशीकृतेत्यर्थः। पक्षे सरसी सरः॥१७॥ हे वरदन्ति श्रेष्ठदशने, पक्षे वरदन्तिनां श्रेष्ठहस्तिनां मौक्तिकगणाः। पुष्करमाला माला, पक्षे करिशुण्डाग्र–
शौटीर्याब्धिरुरोजपञ्जरतटे संवेशयन्त्या कथं
स श्रीमान् हरिणेक्षणे हरिरभून्नेत्रेण वद्धस्त्वया॥१८॥
** अथ पूर्णम्—**
नितम्बो विपुलो मध्यं कृशमङ्गं वरद्युति।
पीनौ कुचावूरुयुगं रम्भाभं पूर्णयौवने॥१९॥
** यथा—**
दृशोर्द्वन्द्वं वक्रां हरति शफरोल्लासलहरी–
मखण्डं तुण्डश्रीर्विधुमधुरिमाणं दमयति।
कुचौ कुम्भभ्रान्तिं मुहुरविकलां कन्दलयत–
स्तवापूर्वं लीलावति वयसि पूर्णे वपुरभूत्॥२०॥
_______________
प्रहित्य तद्द्वारैव भवती सिंहमवध्नादिति विस्मयः। श्लेषेण तु नेत्रेण मन्थनदोरकेण सिंहं वन्धुमिच्छन्त्यास्तव गोपीत्वात्तदेव बन्धनसाधनमुचितमेवेति भावः। किमर्थमुरोज एव पञ्जरं तत्तटे संवेशयन्त्या शाययन्या। हेतौ शतृप्रत्ययः। ‘स्यान्निद्रा शयनं स्वापः स्वप्नःसंवेश’ इत्यमरः। न च स सिंहोऽपि साधारणधर्मेत्याह—शौटीर्येति। शौटीर्यं पराक्रमस्तस्याब्धिरिति, पक्षे परमसुकुमारया त्वया तस्य महावलस्य श्रीकृष्णस्य शृङ्गाररससंमर्दः कथं सोढव्य इति नर्म ध्वनितम्। यस्य हरेः सिंहस्य, पक्षे श्रीकृष्णस्योलिखद्भिरुच्चैर्लिखद्भिः, पक्षे उच्चैरेखाङ्कवद्भिर्नखैः क्षिप्ता वरदन्तिमौक्तिकगुणाः श्रेष्ठगजमुक्ताराशयः, पक्षे हे वरदन्ति इति पृथक्पदम्। अत्रोभयपक्षेऽपि करिकुम्भस्तनौ कर्मभूतावाक्षेपलब्धौ प्रविश पिण्डमियत्र गृहं भक्षयेतिवज्ज्ञेयौ। कीदृशाः। पुष्करमालया छिन्नकरिशुण्डाग्रश्रेण्या, पक्षे निर्माल्यकमलमालया आवृता रुचः कान्तयो येषां ते। ‘पुष्करं करिहस्ताग्रे’ इत्यमरः॥१८॥१९॥ वृन्दाह—दृशोरिति। पद्मकन्दलयतोऽङ्कुरयतः। प्रकाशयत
*
*
समूहः।संवेशयन्त्या शाययन्त्या।नेत्रेण चक्षुषा, पक्षे मन्थनदोरकेण॥१८॥
तन्माधुर्यम्—
न वित्रस्ता का ते प्रति युवतिरासीन्मुखरुचा
दधार स्तैमित्यं प्रणयघनवृष्ट्या तव न का।
व्रजे शिष्या काभून्नहि तव कलायामिति हरे–
निकुञ्जस्वाराज्ये त्वमसि रसिके पट्टमहिषी॥२१॥
तारुण्यस्य नवत्वेऽपि कासांचिद्व्रजसुभ्रुवाम्।
शोभापूर्तिविशेषेण पूर्णतेव प्रकाशते॥२२॥
** अथ रूपम्—**
अङ्गान्यभूषितान्येव केनचिद्भूषणादिना।
येन भूषितवद्भाति तद्रूपमिति कथ्यते॥२३॥
** यथा दानकेलिकौमुद्याम्—**
त्रपते विलोक्य पद्मा ललिते राधां विनाप्यलंकारम्।
तदलं मणिमयमण्डनमण्डलरचनाप्रयासेन॥२४॥
** यथा वा विदग्धमाधवे—**
नीतं ते पुनरुक्ततां भ्रमरकैः कस्तूरिकापत्रकं
नेत्राभ्यां विकलीकृतं कुवलयद्वन्द्वं च कर्णार्पितम्।
_____________
इति यावत्। वयसि यौवने॥२०॥ श्रीराधासौभाग्याद्विषीदन्तीं चन्द्रावलीं पद्मा समाश्वसिति―न वित्रस्तेति। प्रतियुवति प्रतिपक्षगोपी॥२१॥२२॥२३॥ वृन्दाह—त्रपत इति। मम सखी चन्द्रावली एवं सौन्दर्यवती न भवतीति स्वपक्षोत्कर्षच्युतिजनितेयं लज्जा॥२४॥ भूषितवद्भान्तीत्येषोऽर्थो नात्र शब्दोपात्तोऽभूदित्यपरितुष्यन्नाह—यथा वेति। श्रीकृष्णः प्रसाध्यमानां श्रीराधामाह—नीतमिति। भ्रमरकैरलकैः॥२५॥ छायायाः कान्ते–
*
*
॥१९॥२०॥२१॥ तारुण्यस्य तत्समयस्य शोभापूर्तिर्दृशोरित्यादिवर्णिता।पूर्णतेवेति। यथान्यत्र पूर्णतावस्था तथेत्यर्थः॥२२॥२३॥२४॥ पुनरुक्तादिशब्दा व्यर्थीकृतवाचकाः शब्दभेदविन्यासभङ्ग्यासरसाः॥२५॥
हारश्च स्मितकान्तिभङ्गिभिरलं पिष्टानुपेषीकृतः
किं राधे तव मण्डनेन नितरामङ्गैरसि द्योतिता॥२५॥
** अथ लावण्यम्—**
मुक्ताफलेषु छायायास्तरलत्वमिवान्तरा।
प्रतिभाति यदङ्गेषु लावण्यं तदिहोच्यते॥२६॥
** यथा वा—**
जगदमलरुचीर्विचित्य राधे व्यधितविधिस्तव नूनमङ्गकानि।
मणिमयमुकुरं कुरङ्गनेत्रे किरणगणेन विडम्बयन्ति यानि॥२७॥
** यथा वा—**
शृणु सखि तव कर्णे वर्णयाम्यत्र नीचै-
र्विरचय मुखचन्द्रं मा वृथागाद्विवर्णम्।
_______________
स्तरलत्वं तरङ्गायमानत्वम्।यथा तथा यदन्तरा मध्ये एवाङ्गेषु प्रतिभाति प्रतिमानं भवेदित्यर्थ। अतिस्वच्छत्वादाधिक्याच्च प्रतिक्षणमुद्गच्छन्त्य इव कान्तयो यतो लक्ष्यन्ते तल्लावण्यमुच्यत इत्यर्थः॥२६॥ श्रीकृष्ण आह—जगत्सु या या अमला रुचय आसंस्ता एव सर्वा विचित्य ततस्ततः समाहृत्यैव व्यधितअकरोत्। अत एव जगत्सु त्वदङ्गसादृश्यं न दृश्यत इति भावः। अङ्गकानीत्यनुकम्पार्थकप्रत्ययेनाङ्गानां सुभगत्वंसुकुमारत्वं चोक्तम्॥ २७॥ श्रीराधाङ्गनिष्ठं लावण्यमुदाहृत्य श्रीकृष्णनिष्ठमपि तदुदाहर्तुमाह—यथावेति। एवमग्रेऽपि यथावे–
*
*
छायायाः कान्तेस्तरलत्वमिवेति तरङ्गायमानत्वमित्यर्थः। लावण्यशब्दः खलु लवणाशब्दप्रकृतिकः। लवणा हि कान्तिरुच्यते। ‘लवणा रसभेदःस्याल्लवणा तु नदीत्विषोः।’ इति मेदिनीकारकोषात्। ततश्च लवणास्मिन्नस्तीति लवणः। अर्श आद्यच्। तस्य भावो लावण्यम्, लवणिमा चेति सिद्धम्॥२६॥ व्यधितअकरोत्। विडम्बयन्ति निन्दयन्ति। तत्रेदृशलावण्यभावात्तिरस्कुर्वन्ति॥२७॥ शृणु सखीति। परमलावण्ययुक्तस्वप्रतिबिम्बेन स्वसदृशी काचिदन्याप्यस्तीति
इयमुरसि मुरारेरस्ति नान्या मृगाक्षी
मरकतमुकुराभे बिम्बितासि त्वमेव॥२८॥
** अथ सौन्दर्यम्—**
अङ्गप्रत्यङ्गकानां यः संनिवेशो यथोचितम्।
सुश्लिष्टसंधिवन्धः स्यात्तत्सौन्दर्यमितीर्यते17॥२९॥
** यथा—**
अखण्डेन्दोस्तुल्यं मुखमुरुकुचद्योतितमुरो
भुजौ स्रस्तावंसे करपरिमितं मध्यमभितः।
परिस्फारा श्रोणी क्रमलघिमभागूरुयुगलं
तवापूर्वं राधे किमपि कमनीयं वपुरभूत्॥३०॥
** अथाभिरूपता—**
यदात्मीयगुणोत्कर्षैर्वस्त्वन्यन्निकटस्थितम्।
सारूप्यं नयति प्राज्ञैराभिरूप्यं तदुच्यते॥३१॥
_____________
त्यस्यैवमेवावतारिका ज्ञेया। श्रीकृष्णस्याग्रतएवोपविश्य खेलन्तीमन्तर्भानोदयां श्रीराधां परामृश्योपरिष्टादस्यामुपहस्यमानताभूदिति विशाखा वोधयन्ती तामाह— शृण्विति॥२८॥ अङ्गाना वाह्वादीनां प्रत्यङ्गानां प्रगण्डप्रकोष्ठमणिवन्धादीनां यथोचितं स्थौल्यकार्श्यवर्तुलत्वादिकं यत्रयत्रयद्यदुचितं भवति तदनतिक्रम्य संनिवेशः सुश्लिष्टः यथोचितं मांसलत्वेनैक्यमाप्तः संधीनां कफोण्यादीनां वन्धो यस्मिन् सः॥२९॥ श्रीकृष्ण आह— अखण्डेन्दोरिति। अंसे स्कन्धे। स्रस्तौ नतावित्यर्थः। मध्यमभितो मध्यस्य सर्वदिक्षु करेण करविस्तारेण परिमितम्। करेणैव गृहीतुं शक्यमित्यर्थः। ‘अभितः परितः समयां’ इत्यादिना द्वितीया॥३०॥ यदिति
*
*
समत्सरां श्रीराधां प्रति सखीसान्त्वनम्॥२८॥२९॥ असे स्कन्धे स्रस्तौनतावित्यर्थः। नम्राविति वा पाठः॥३०॥ रूपमङ्गान्यभूषितानीत्यादिना लक्षितं यत्तदेव। किमपि विरलप्रचारमनिर्वाच्यमास्वाद्यमानत्वेऽपि निर्वक्तुमशक्यं चेत्तदा
** यथा—**
मग्नाशुभ्रे दशनकिरणे स्फाटिकीव स्फुरन्ती
लग्ना शोणे करसरसिजे पद्मरागीव गौरी।
गण्डोपान्ते कुवलयरुचा वैन्द्रनीलीव जाता
सूते रत्नत्रयधियमसौ पश्य कृष्णस्य वंशी॥३२॥
** यथा वा—**
वक्षोजे तव चम्पकच्छविमवष्टम्भोरुकुम्भोपमे
राधे कोकनदश्रियं करतले सिन्दूरतः सुन्दरे।
द्रागिन्दिन्दिरबन्धुरेषु18 चिकुरेष्विन्दीवराभां वह–
न्नेकः कैरवकोरको वितनुते पुष्पत्रयीविभ्रमम्॥३३॥
** अथ माधुर्यम्—**
रूपं किमप्यनिर्वाच्यं तनोर्माधुर्यमुच्यते।
** यथा—**
किमपि हृदयमभ्रश्यामलं धाम रुन्धे
दृशमहह विलुण्ठत्याङ्गिकी कापि मुद्रा।
______________
कर्तृपदम्। अन्यद्वस्तु॒ कर्मभूतम्। सारूप्यं स्वतुल्यरूपत्वम्॥३१॥ श्रीकृष्णेन वाद्यमानां वंशीं दूराद्दर्शयन्ती विशाखा श्रीराधामाह—**मग्नेति।**सूते जनयति॥३२॥ यथावेति। अत्र नायकनायिकयोः शृङ्गाररसस्य परस्परविषयाश्रयत्वेपरस्पररूपादीनां परस्परोद्दीपनत्वेन वर्णने पूर्वपश्चाद्भावो न नियम्यत इति ज्ञेयम्॥ श्रीकृष्ण आह—वक्षोज इति। कैरवकोरकः श्वेतोत्पलकलिका, अवष्टम्भः स्वर्णम्, कोकनदं रक्तोत्पलम्, इन्दिन्दिरो भ्रमरः, इन्दीवरं नीलोत्पलम्॥३३॥ रूपमङ्गान्यभूषितानीत्यादिना यल्लिखितं तदेव किमपि निर्वक्तुमशक्यं
*
*
तनोर्माधुर्यमुच्यते॥३१॥३२॥३३॥ वधूनामिति सर्वत्रान्वेति। हृदयं कर्म–
चटुलयति कुलस्त्री19धर्मचर्या बकारेः
सुमुखि नवविवर्तः कोऽप्यसौ माधुरीणाम्॥३४॥
अथ मार्दवम्—
मार्दवं कोमलस्यापि संस्पर्शासहतोच्यते॥३५॥
उत्तमं मध्यमं प्रोक्तं कनिष्ठंचेति तत्त्रिधा।
तत्रोत्तमम्—
अभिनवनवमालिकामयं सा
शयनवरं निशि राधिकाधिशिश्ये।
न कुसुमपटलं दरापि (?) जग्लौ
तदनुभवात्तनुरेव सव्रणासीत्॥३६॥
______________
चेद्यद्वाचकः शब्दो न लभ्यते किंतु मनसैवास्वाद्य प्रतीयते तन्माधुर्य किमपीत्यादिशब्दैर्यथाकथंचिद्रम्यमित्यर्थः॥ विशाखा श्रीराधामाह—किमपि धाम(कर्तृ) हृदयं (कर्म) रुन्धे। स्वस्मिन्नावृत्य स्थापयतीत्यर्थः। विलुण्ठति वलादपहरति। एवं च मनोदृशोभावे कथं धर्मः स्थास्यतीत्याह—चटुलयति चञ्चलीकरोति। विवर्तः परिपाकविशेषः॥३४॥३५॥ रूपमञ्जरी रतिमञ्जरीमाह—अभिनवेति। तेनाद्यारभ्य नवमालिकायाः शय्या न कार्या किंतु यूथिकानां स्थलकमलानां वा दलाग्राणि किंवा तदर्थमन्यान्येव पुष्पाण्यवचेतुमन्वेष्टव्यानीति भावः। अधिशिश्ये। ‘अधिशीङ्स्थासां कर्म’ इत्याधारकर्मणि
*
*
रूपम्। धाम कर्तृरूपम्। वकारेर्माधुरीणां कोऽप्यसौ विवर्तः परिपाकः॥३४॥॥३५॥ निशि राधिकाधिशिश्ये कृष्णेन सहेति बोध्यते। ततस्तस्यामार्दवलक्षणः स्वगुणोऽयं श्रीकृष्णभोग्यत्वेनानुभूयमान उद्दीपनाय कल्पते स इति भावः। वक्ष्यमाणमध्यमकनिष्ठोदाहरणे तु तां तां प्रति सखीवाक्यत्वात् पूर्ववदुद्दीपने जाते एवेत्येवमन्यत्रापि ज्ञेयम्। सव्रणेति स्नेहादत्युक्तिः। ग्लापितेत्येव वास्तवम्॥३६॥
** मध्यमं यथा—**
चित्रं धनिष्ठे तनुवाससोऽपि चीनस्य पीनस्तनि संगमेन।
लिप्तेव ते लोहितचन्दनेन मूर्तिर्विदूना सखि लोहितासीत्॥३७॥
** कनिष्ठं यथा रससुधाकरे—**
आमोदमामोदनमादधानं विलीननीलालकचञ्चरीकम्।
क्षणेन पद्मामुखपद्ममासीत्त्विषा रवेः कोमलयापि ताम्रम्॥३८॥
** अथ नाम यथा—**
तटभुवि रविपुत्र्याः पश्य गौराङ्गि रङ्गी
स्फुरति सखि कुरङ्गीमण्डले कृष्णसारः।
इति भवदभिधानं शृण्वती सा मदुक्तौ
सुतनुरतनुघूर्णापूरपूर्णा बभूव॥३९॥
______________
प्रत्ययः॥३६॥ ललिताह—चित्रमिति। चीनस्य चीनदेशोद्भवस्यातिसूक्ष्मस्य। लोहितचन्दनेन रक्तचन्दनेन॥३७॥ पद्मायाःसखी स्वसखीमाह—आमोदं सौरभमामोदनमानन्ददायि आदधानमन्येभ्योऽप्यर्पयन्तम्। निलीनाः स्वेदसंपर्काद्भालोपान्तसंस्पृष्टा नीलालका एव चञ्चरीका भ्रमरा यत्र तत्। नन्वासां सदैव वस्त्रालंकारादिमतीनां दिवसेऽप्यभिसारवनविहारादौ सूर्यकिरणस्पर्शिनीनां मार्दवनिबन्धनवैवर्ण्यस्य सार्वदिकत्वेविभाववैरूप्यं प्रसज्जेत्।मैवम्। आसां प्रायः सदैव जागरूकरागाख्यस्थायिभाववतीनां दुःखमपि परमसुखरूपमेव भवेत्। तस्मिन् सति कुतो वैरूप्यं प्रत्युत सौरूप्यमेवाधिकं भवेत्। अत्र प्रमाणं ‘तीव्रार्कद्युतिदीपितैः’ इति वक्ष्यमाणं रागोदाहरणपद्यमेव। तत्र संतप्ततीक्ष्णशिलापि परमसुकुमारचरणतलवैरूप्यालसमपि नाकरोत्; किमुत श्रीकृष्णदृष्टिसुखदत्वेनानुसंधीयमानानि वस्त्रालंकारादीनि। ततश्च कलहान्तरितत्वदशादावासां श्रीकृष्णसंबन्धसंभावनाभावाद्रागाख्यस्थायिभावानुद्गमसमय एव मार्दवनिबन्धनं वैवर्ण्यं ज्ञेयम्। अत एव मार्दवोदाहरणेषु श्रीकृष्णसंबन्धेनोपात्तमार्दवस्योत्तमत्वकनिष्ठत्वज्ञापनार्थं श्लोकत्रयम्। मार्दवस्य तारतम्यं तु स्पर्शनदर्शनादौज्ञेयमिति केचिदाचक्षते॥३८॥ वृन्दा श्रीकृष्णमाह—तटेति॥३९॥ अनुभावा
*
*
चीनस्य तन्नामदेशोद्भवस्य॥३७॥ आमोदं सौरभम्। आमोदनमानन्दनम्
** अथ चरितम्—**
अनुभावाश्चलीला चेत्युच्यते चरितं द्विधा॥४०॥
अग्रेऽनुभावा वक्तव्या लीलेयं कथ्यतेऽधुना।
लीला स्याच्चारुविक्रीडा ताण्डवं वेणुवादनम्॥४१॥
गोदोहःपर्वतोद्धारो गोहूतिर्गमनादिका॥
** तत्र चारुविक्रीडा—**
रासकन्दुकखेलाद्या चारुक्रीडात्र कीर्तिता॥४२॥
** तत्र रासः—**
तं विलासवति रासमण्डले पुण्डरीकनयनं सुराङ्गनाः।
प्रेक्ष्य संभृतविहारविभ्रमं बभ्रुमुर्मदनसंभ्रमोर्मिभिः॥४३॥
** कन्दुकक्रीडा—**
अरुणरुचिमुदस्य क्षेपणीं कुञ्चिताग्रां
सरभसमभिधावन्विभ्रमाद्दीर्घवेणिः।
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अलंकाराख्याश्चज्ञेयाः॥४०॥४१॥४२॥ श्यामला श्रीराधामाह— तमिति। हे विलासवति राधे, अत्रवर्ण्यमानत्वेन स्मृतो रासो रतेरुद्दीपनो ज्ञेयः॥४३॥ वयस्यैः सह खेलन्तं श्रीकृष्णं लताजालदत्तनेत्रा पश्यन्ती श्रीराधा स्वसखीःप्रत्याह— अरुणरुचिं हिङ्गुलेन रञ्जितां क्षेपणीं कन्दुकोत्क्षेपणलकुटिकामुदस्य कन्दुकमुच्चालयितुमुत्क्षिप्य विभ्रमन्ती विभ्रमवती धावनेनाद्भुतविलासयुक्ता दीर्घा वेणिर्यस्य सः।कन्दुकान्दोलनेन नृत्यतोर्विपुलयोर्नयनयो-
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॥३८॥३९॥ अनुभावा अत्रालंकाराख्या उद्भास्वराख्या वाचिकाख्याश्च॥४०॥४१॥४२॥४३॥ अरुणरुचिमिति। द्वयं कांचित् प्रति सख्या
विरचयतिमुकुन्दः कन्दुकान्दोलनृत्य-
द्विपुलनयनभङ्गीविभ्रमः कौतुकं नः॥४४॥
** ताण्डवम्—**
प्रचलप्रचलाककुण्डलोऽयं स्वसुहृन्मण्डलचर्चरीपरीतः।
हरिरद्य नटन्पतङ्गपुत्रीतटरङ्गे मम रङ्गमातनोति॥४५॥
** वेणुवादनं यथा ललितमाधवे—**
जङ्घाधस्तटसङ्गि दक्षिणपदं किंचिद्विभुग्नत्रिकं
साचिस्तम्भितकंधरं सखि तिरःसंचारिनेत्राञ्चलम्।
वंशीं कुड्मलिते दधानमधरे लोलाङ्गुलीसंगतां
रिङ्गद्भ्रूभ्रमरं वराङ्गि परमानन्दं पुरः स्वीकुरु॥४६॥
** गोदोहो यथा पद्यावल्याम्—**
अङ्गुष्ठाग्रिमयन्त्रिताङ्गुलिरसौपादार्धनीरुद्धभू-
रापीनाञ्चलमार्द्रयन्निह पुरो द्वित्रैः पयोबिन्दुभिः।
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र्भङ्ग्याविभ्रमः शोभाविशेषो यस्य सः॥४४॥ लताजाले पश्यन्ती श्रीराधा सखीःप्राह— प्रचलेति। प्रचलाकः पिच्छम्। चर्चरी तालविशेषः॥४५॥ ललिता श्रीराधामाह—जङ्घेति। परमानन्दं तदेकस्वरूपत्वेनाधाराधेयभेदशून्यम्। मूर्तमेव सुखमित्यर्थः। अङ्गीकुरु कटाक्षेङ्गितेन स्वीकुरु। कीदृशम्। जङ्घया वामजङ्घ्यासहाधस्तटेन स्वाधोभागेन सङ्गि दक्षिणपदं यस्य तम्। किंचिदीषद्विभुग्नं त्रिकं मध्यभागो यस्य तम्। ‘पृष्टवंशाधरे त्रिकम्’ इत्यमरः।साचि तिर्यक् स्तम्भिता स्तम्भभावेनैव निश्चला कंधरा ग्रीवा यस्य तम्॥४६॥ विशाखा श्रीकृष्णं दर्शयन्ती श्रीराधामाह— अङ्गुष्ठस्याग्रिमोऽग्रभवो यो भागस्तेन यन्त्रिता सुश्लिष्टा अङ्गुलयो येन सः। तत्र भागशब्दस्य समासेऽन्तर्भावो वाच्यः। यदुक्तं
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वचनम्। तेनावगतत्वाच्चतत्तल्लीलाया उद्दीपनत्वम्॥४४॥ प्रचलाक पिच्छम्। चर्चरी तालविशेषः॥४५॥ जङ्घाधस्तटेति। दाम्पत्येन श्रीकृष्णप्राप्त्यु-
न्यग्जानुद्वयमध्ययन्त्रितघटीव्रक्रान्तरालस्खल-
द्धाराध्वानमनोहरं सखि पयो गां दोग्धि दामोदरः॥४७॥
** पर्वतोद्धारः—**
उद्यम्य कन्दुकितमन्दरसोदराद्रिं
सव्यं करं कटिमनुस्थगयन्नसव्यम्।
स्मेराननश्चलदृगञ्चलचञ्चरीक-
श्चित्ताम्बुजं मम हरिश्चटुली20चकार॥४८॥
** गोहूतिः—**
पिशङ्गि मणिकस्तनि प्रणतशृङ्गि पिङ्गेक्षणे
मृदङ्गमुखि धूमले शबलि हंसि वंशीप्रिये।
इति स्वसुरमीकुलं मुहुरुदीर्णहीहीध्वनि-
र्विदूरगतमाह्वयन् हरति हन्त चित्तं हरिः॥४९॥
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भाषावृत्तौ “क्वचिदुत्तरपदस्य वृत्तावन्तर्भावः सुवर्णविकारोऽलंकारोऽस्य सुवर्णालंकारः” इति। आपीनमूधस्तस्याञ्चलम्। पुरः दोहक्रियायाः प्रथममेवेत्यर्थः। न्यक् किश्चिदधोऽञ्चद्यज्जानुद्वयमूरुपर्वयुगलं तन्मध्ये यन्त्रिता निश्चलतया न्यस्ता या घटी तस्या यद्वक्रान्तरालं मुखमध्यं तत्र स्खलन्त्यः पतन्त्यो या धारास्तासां ध्वानेन मनोहरं यथा स्यात्तथा पयो गामिति कर्मद्वयम्॥४७॥ श्रीराधा विशाखामाह—उद्यम्येति। कन्दुकितः क्रीडार्थमिव लीलयैव कन्दुकीकृतः मन्दरसोदरस्तत्तुल्योऽद्रिर्येन तं सव्यकरमुद्यम्योत्थाप्य तथा असव्यं दक्षिणकरं कटिमनु कट्यां स्थगयन् संवृततया स्थापयन्। ‘पगे ष्टगे संवरणे’ धातुः॥४८॥ श्रीराधा ललितामाह—पिशङ्गीत्यादि। पद्यत्रयम्। रचितो धैर्यस्य संवरः संवृत्तिः। लोप इति यावत्।अम्बरमणेःसूर्यस्य प्रभाभिर्लग्नाभिरुज्ज्वलं अति-
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पायसमये तदभेदेन श्रीराधायाः प्रतीतायाः प्रतिमाया वर्णनम्॥४६॥४७॥ कन्दुकितः कन्दुकीकृतः। मन्दरसोदरस्तत्तुल्योऽद्रिर्येन तम्।सव्यं करमुद्यम्य,
** गमनम्—**
अनुपदमदमन्दान्दोलिदोरर्गलश्रीः
सुरगजगुरुगर्वस्तम्भिगम्भीरकेलिः।
सहचरि दरचञ्चच्चारुचूडारुचिर्मा
मदयति गतिमुद्रामाधुरी माधवस्य॥५०॥
** अथ मण्डनम्—**
चतुर्धा मण्डनं वासोभूषामाल्यानुलेपनैः।
** तत्र वस्त्रं यथा—**
अम्बरं चरितधैर्यसंवरं रम्यमम्बरमणिप्रभोज्ज्वलम्।
सुभ्रुकिं नहि कटीरमण्डले21 पुण्डरीकनयनस्य पश्यसि॥५१॥
** यथा वा—**
अमलकमलरागरागमेतत्तव जयति स्फुटमद्भुतं दुकूलम्।
मम हृदि निजरागमत्र राधे दधदपि यद्द्विगुणं बभूव रक्तम्॥५२॥
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चाकचिक्यवदित्यर्थः।अम्बरमिदं पीतमरुणं वा ज्ञेयम्॥४९॥५०॥५१॥ श्रीकृष्णः श्रीराधामाह— अमलेति। कमलरागः पद्मरागमणिस्तस्येव रागो रक्तिमा यस्य तत्। निजस्य रागं रक्तिमानं अनुरागं च दधदर्पयत्। द्विगुणमिति। अनुरागस्य स्वभाव एवायं यत् स्वविषयस्य नित्यनूतनीकरणेन प्रतिक्षणं
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असव्यं करं कटिमनु स्थगयन् संवृततया स्थापयन्॥४८॥४९॥ ५०॥ दृष्टमपि वाम्येनादृष्टमिव ज्ञापयन्तीं कांचित् प्रति सख्यास्तत्तदङ्गवर्णनेष्वम्वरमित्याद्यपि वर्णनं ज्ञेयम्। किं न पश्यसीति स्वारस्यात्। संवरः संवरणम्। प्रारब्धाभा प्रभा मध्यपदलोपान्नवमुद्गतेत्यर्थः। रम्यमित्यादौ प्रोद्यदम्बरमणिप्रभास्वरामिति वा पाठः॥५१॥ कमलरागः पद्मरागमणिः द्विगुणं बभूव। रक्तमिति। स्वहृदयस्य रागातिशयो व्यञ्जितः। रागस्यानुरागवाचकत्वेऽपि स्वविषयोत्कर्षव्यञ्जकत्वाद्युक्त-
** भूषा यथा—**
प्रहरतु हरिणा कदम्बपुष्पं प्रियसखि शेखरितं यदङ्गजास्त्रम्।
बत कथममुनावतंसितोऽसौ मम हृदि विध्यति नीलकण्ठपक्षः॥५३॥
** यथा वा—**
हारेण तारद्युतिना कपोलप्रेङ्खोलिना कुण्डलयोर्युगेन।
उत्तुङ्गभासा कनकाङ्गदेन मां लालितेयं ललिता धिनोति॥५४॥
** माल्यानुलेपने यथा रससुधाकरे—**
आलोलैरनुमीयते मधुकरैः केशेषु माल्यग्रहः
कान्तिः कापि कपोलयोःप्रथयते ताम्बूलमन्तर्गतम्।
अङ्गानामनुभूयते परिमलैरालेपनप्रक्रिया
वेषः कोऽपि विदग्ध एष सुदृशः सूते मुखं चक्षुषोः॥५५॥
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शोभातिशयमनुभावयतीति॥५२॥ श्रीराधा ललितामाह— **प्रहरत्विति।**शेखरितं शेखरीकृतम्। ‘शिखास्वापीडशेखरौ’ इत्यमरः। अङ्गजस्य कन्दर्पस्यास्त्रमिति तस्य पुष्पशरत्वान्मम च सदैव तल्लक्ष्यत्वात् प्रहरत्वित्युचितमेव नीलकण्ठस्य सदैव तद्विषयत्वेन प्रसिद्धस्य रुद्रस्य पक्षः सखा मम हृदि कथं विध्यति।‘पक्षः सखिसहाययोः’ इति मेदिनी।नीलकण्ठ, पक्षे पक्षः मयूरपिच्छम्। ‘नीलकण्ठो भुजङ्गभुक्’ इत्यमरः॥५३॥ श्रीकृष्णः पथि चलन्तीं ललितां वर्णयन् सुवलमाह—हारेणेति। तारो नाम मुक्तानां संशुद्धिर्गुणविशेषस्तेन द्युतिर्यस्य तेन। ‘तारो मुक्तादिसंशुद्धौ तरले शुद्धमौक्तिके’ इति विश्वः। ललिता हारादिभिरीप्सितीकृता। ‘लल ईप्सायाम्’ चुरादिः॥५४॥ श्रीकृष्ण आह—
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*मेव तदित्यपि सूचितम्॥५२॥ नीलकण्ठपक्षो मयूरपिच्छम्। नीलकण्ठो रुद्रः तस्याङ्गजविद्वेषित्वेन प्रसिद्धस्य पक्षःसहायोऽपीत्यर्थः॥५३॥ **हारेणेत्याद्यपि।*हरिविषया या ललिता। रतेरुद्दीपनत्वं पूर्वरीत्या ज्ञेयम्। साक्षाद्वा परम्परया वा तया तादृशश्रीकृष्णवाक्यश्रुतेः। तारेण मुक्ता शुद्धा द्युतिर्यस्य तेन। लालिता सखीभिरुपसेविता॥ ५४॥ आलोलैरित्यपि। पूर्ववत्। परपरत्र
** यथा वा—**
अनङ्गरागाय बभूव सद्यस्तवाङ्गरागोऽपि किमङ्गनासु।
उद्दामभाराय तथा किमासीद्दामापि दामोदर तावकीनम्॥५६॥
** अथ संवन्धिनः—**
लग्नाः संनिहिताश्चेति द्विधा संबन्धिनो मताः॥५७॥
** तत्र लग्नाः—**
वंशीशृङ्गीरवौ गीतं सौरभ्यं भूषणक्वणः।
पदाङ्काद्या विपञ्च्यादिनिक्वाणाः शिल्पकौशलम्॥५८॥
इत्यादयोऽत्र कथिता लग्नाः संबन्धिनो बुधैः।
** तत्र वंशीरवो दानकेलिकौमुद्याम्—**
वेणोरेष कलस्वनस्तरुलताव्याजृम्भणे दोहदं
संध्यागर्जभरः पिकद्विजकुहूस्वाध्यायपारायणे।
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केशेषु वस्त्राच्छादितेष्वपि माल्यग्रहो माल्यधारणं प्रथयते ख्यापयते॥५५॥दूती श्रीकृष्णमाह— अनङ्गेति। अनुरागश्चन्दनकुङ्कुमाद्यनुलेपः। तव दाम माल्यमपि उद्दामो विनिर्मलो यो भावस्तदर्थम्, विरोधपक्षे उदुपसर्गो नञर्थे। उद्वर्त्मना गच्छतीतिवत्॥५६॥ गुणादयो मण्डनान्ता उद्दीपनविभावा नायकयोः साक्षाद्वर्तित्वेएव संवन्धिनस्तु तदसाक्षाद्वर्तित्वेइति भेदो ज्ञेयः। संवन्धिष्वपि तदविनाभाववन्तो वंशीरवाद्या लग्ना इति तो विनापि पृथग्विधा निर्माल्यादयः संनिहिता इत्याख्यायन्ते। कि च वंशीरवादीनां तत्साक्षाद्वर्तित्वेगोहूतिर्गमनादिकेत्यादिपदग्राह्यत्वेन लीनेत्याख्या साक्षाद्वर्तित्वाभावे तु संवन्धिन इति। अत एव वेणुवादनताण्डवगोहूतयो लीलामध्येऽपि पठिता इति॥५७॥५८॥ वृन्दा श्रीराधाप्रभृतीराह—वेणोरिति। व्याजृम्भणे पुष्पपल्लवादिप्रकाशे निमित्ते दोहदं तदानन्दकौषधविशेषः। तथा पिका एवं द्विजास्तेषां कुहूरेव स्वाध्यायो
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चावतारिकाभङ्ग्यातथैव योज्यम्॥५५॥ अनङ्गरागायेति। तत्प्रेयस्याः पुरतः श्रीकृष्णं प्रति सखीकृतपरिहासवचनम्॥५६॥५७॥५८॥ पारायणं
आभीरेन्दुमुखीस्मरानलशिखोत्सेके सलीलानिलो
राधाधैर्यधराधरेन्द्रदमने दम्भोलिरुन्मीलति॥५९॥
** यथा वा रससुधाकरे—**
माधवो मधुरमाधवीलतामण्डपे पटुरटन्मधुव्रते।
संजगौ श्रवणचारु गोपिकामानमीनवडिशेन वेणुना॥६०॥
कृष्णवक्रेन्दुनिष्ठू(ष्ठ्यू) तं मुरलीनिनदामृतम्।
उद्दीपनानां सर्वेषां मध्ये प्रवरमीर्यते॥६१॥
** शृङ्गीरवः—**
कंसारातेः पिबतु मुरली तस्य सद्वंशजन्मा
सा वक्रेन्दुं स्फुटमकुटिला पञ्चमोद्गारगुर्वी।
आस्वाद्यामुंत्वमपि विषमाभङ्गुराङ्गारकाली
तुङ्गंशृङ्गि ध्वनसि यदिदं तत्तु दुःखाकरोति॥६२॥
** अथ गीतम्—**
मानानलं मे शमयन्प्रसिद्धं गानामृतं वर्षति कृष्णमेघः।
मा क्रुध्य वात्यासि सखि प्रसीद दूरे नयामुं निजविभ्रमेण॥६३॥
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वेदपाठस्तस्य पारायणे साकल्येनावर्तने। संध्यागर्जातिशयदम्भोलिर्वज्रम्॥५९॥ अत्र राधाधैर्येत्यनेन श्रीराधाया एव भावोद्दीपनत्वं वेणुस्वनस्यावगतं विवक्षितं तु सर्वासामेव इत्यत आह—यथावेति। माधव इति। अत्र गोपिकापदेन नायिकामात्रमुक्तम्॥ निष्ठू(ष्ठ्यू) तमुद्गीर्णम्॥६०॥६१॥ श्रीराधाह— कंसेति। विषमा स्थौल्येऽपि सर्वत्र सामान्यरहिता सा प्रसिद्धा यशस्विनी दुःखाकरोति दुःखंददाति। ‘दुःखात् प्रातिलोम्ये’ इति डाच्॥६२॥ कलहान्तरिता श्रीराधा ललितामाह—मानेति। शमयन् शमयितुं त्वं वात्या असियतो मामेव चालयसि। तं किं न चालयसि यदि शक्नोषीति भावः॥६३॥
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पाठस्य साकल्यकरणम्। व्याजृम्भणे पुष्पादिप्रकाशे निमित्ते दोहदं वाञ्छनीयमित्यर्थः
सौरभ्यम्—
मिलति परिमलोर्मिः कस्य रोमश्रियासौ
मम तनुलतिकायां कुर्वती कुड्मलानि।
सखि विदितमिहाग्रे माधवः प्रादुरासीद्
भुवि सुरभितया यः ख्यातिमङ्गीकरोति॥६४॥
** यथा वा—**
मदयति हृदयं किमप्यकाण्डे मम यदिदं नवसौरभं वरीयः।
तदिह कुसुमसंग्रहाय राधा शिखरितटे शिखरद्विजा विवेश॥६५॥
** भूषणक्वणः—**
कलहंसनादमिह हंसगामिनी निशमय्य हंसदुहितुस्तटान्तरे।
तव नूपुरध्वनिधिया परिप्लवा कलसीं न वेद शिरसश्च्युतामपि॥६६॥
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अभिसरन्ती श्रीराधा वनमध्य एवाह—मिलतीति। परिमलश्रीः सौरभसंपत्तिः।रोमश्रिया रोम्णामुद्गमशोभया इत्यर्थः। दध्नाउपासिक्त ओदनो दध्योदन इतिवदुद्गमपदस्य वृत्तावन्तर्भावः। प्रत्युत्तरमवदन्तीं ललितां स्वयमेवाह—हे सखि, विदितं मया सहसा ज्ञातं सुरभिर्वसन्तः, सौरभवांश्च श्रीकृष्णः। ‘वसन्ते पुष्पसमयःसुरभिः’ इत्यमरः॥६४॥ श्रीकृष्ण आह— मदेति। ‘पक्कदाडिमवीजाभं माणिक्यं शिखरं विदुः’॥६५॥ वृन्दा श्रीकृष्णमाह— कलेति। परिप्लवा चञ्चला। ‘चञ्चलं तरलं चैव पारिप्लवपरिप्लवे’ इत्यमरः। कलसीमिति। दास्यादिसद्भावेऽपि देवतापूजनार्थं कलसीं स्वयमेव वहामीति निमिषमात्रं यमुनातटं
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॥५९॥६०॥६१॥६२॥६३॥ ‘मिलति परिमलश्रीःकस्य वा रोममूले मम’ इत्येव वा पाठः। सुरभितया सुगन्धितया, पक्षे वसन्ततया॥६४॥ मदयतीति। कदाचिदभिसृत्यापि श्रीकृष्णं निकटस्थं वितर्क्यलीनतया शृण्वत्यां श्रीराधायां श्रीकृष्णवाक्यम्। अकाण्डेऽनवसरे। ‘पक्वदाडिमबीजाभं माणिक्यं शिखरं विदुः’॥६५॥ परिप्लवा चञ्चला। कलसीयं देवताराधनाय भक्त्यैव स्वयमूढा न तु परिजनाभावेन स्वगृहकर्मणे। ततःआरभ्य नन्दस्येत्यादेः॥६६॥
** यथा वा ललितमाधवे—**
मधुरिमलहरीभिः स्तम्भयत्यम्बरे या
स्मरमदसरसानां सारसानां रुतानि।
इयमुदयति राधा किंकिणीझङ्कृतिर्मे
हृदि परिणमयन्ती विक्रियाडम्बराणि॥६७॥
** पदाङ्काद्या यथा दानकेलिकौमुद्याम्—**
पदततिभिरलंकृतोज्ज्वलेयं ध्वजकुलिशाङ्कुशपङ्कजाङ्किताभिः।
नखरलुठितकुड्मला वनाली किमपि धिनोति धुनोति चान्तरं मे॥६८॥
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गत्वा श्रीकृष्णं दूरादपि पश्येयमिति तु वास्तवम्॥६६॥ श्रीराधादिदृक्षुः श्रीकृष्णो वितर्कयति— मधुरिमेति। स्तम्भयति तिरस्करोति। परिणमन्ती परिपाकं प्रापयन्ती॥६७ \।\। श्रीराधाह — इयं वनाली वनश्रेणी वनरूपाली च ध्वजादिभिरङ्किताभिः पदततिभिः। अत्र पदशब्देन पदचिह्नं लक्षितव्यम्। पक्षे चिह्नश्रेणीभिरलंकृता तेन श्रीकृष्णेनैवेत्यर्थतो गम्यते। नखराणां लुठितं स्पर्शो येषु तथाभूतानि कुड्मलानि यस्याः सा। ‘लुठ (ट) संश्लेषणे’ तुदादिः। श्रीकृष्णेनैव स्वपाणिना पुष्पावचये तन्नखरस्पर्शात्। पक्षे नखरेषु लुठितं कुड्मलं अतिशयोक्त्यास्तनो यस्याः सा इति विपरीतशृङ्गार सूचितः। अत्र वनपक्षे धिनोति सुखयति तदीयचरणनखरचिह्नदर्शनात्, धुनोति कम्पयति साक्षात्तद्दर्शनोत्कण्ठाव्यथोत्पादनात्। आलीपक्षे श्रीकृष्णसंभुक्ता सखी स्निह्यन्तीं मां सूचयति, विपरीतसंभोगचिह्नयुक्ता सा कम्पयति। तद्दर्शनेन कामोद्गमात्॥६८॥ श्रीकृष्णः
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कदाचिददूरवर्तिनीमपि श्रीराधामविलोक्य तस्यां शृण्वत्यां श्रीकृष्णःप्राह—मधुरिमेति। परिणमयन्ती परिपाकं प्रापयन्ती। लुठितत्वं स्खलितत्वम्॥६७॥ स्मरकेलीत्यपि। मधुरिमेत्यादिसहोदरम्। शब्दब्रह्मश्रियं शब्दरूप ब्रह्म वेदाख्यं तस्य संपत्तिरूपतया वितर्क्यमानायास्तादृशीं स्मरकेलिनाट्यनान्दीं आरम्भत एव मङ्गलपाठं दुहन्ती प्रपूरयन्ती। महती विपञ्चीनाम वीणाभेदः
** विपञ्चीनिक्वाणो यथा ललितमाधवे—**
स्मरकेलिनाट्यनान्दीं शब्दब्रह्मश्रियं मुहुर्दुहती।
वहति मुदं मम महतीमिह महिता श्यामलामहती॥६९॥
** शिल्पकौशलं यथा—**
वरकुसुमनिवेशप्रक्रियासौष्ठवेन
प्रकटितहरिशिल्पा पट्टसूत्रोज्ज्वलश्रीः।
हृदि विनिहितकम्पा निर्मिमीते स्रगेषा
निशितशरपरीतस्मारतूणीरशङ्काम्॥७०॥
** अथ संनिहिताः—**
निर्माल्याद्याः संनिहिता वर्हगुञ्जाद्रिधातवः॥७१॥
नैचिकीनां समुदयो लगुडीवेणुशृङ्गिकाः।
तत्प्रेष्ठदृष्टिर्गोधूलिर्वृन्दारण्यं तदाश्रिताः॥७२॥
गोवर्धनो रविसुता तथा रासस्थलादयः।
** तत्र निर्माल्याद्या यथा विदग्धमाधवे—**
अङ्गोत्तीर्णविलेपनं सखि समाकृष्टिक्रियायां मणि-
र्मन्त्रेहन्त मुहुर्वशीकृतिविधौ नामास्य वंशीपतेः।
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श्यामलां दिदृक्षुराह—स्मरेति। श्यामलाया महती वीणा महतीं मम मुदं वहति। ‘वीणाभेदेऽपि महती’ इत्यमरः। शब्दरूपं यद्ब्रह्म वेदस्तस्य श्रियं संपत्तिं दुहती प्रपूरयन्ती। कीदृशी। स्मरकेलिरेव नाट्यं तस्य नान्दीमारम्भसूचकमङ्गलपाठरूपाम्॥६९॥ श्रीकृष्णेन केनचित् वनदेवताया हस्तेन प्रेषितां मालां विलोक्य श्रीराधा वितर्कयति— वरेति। हृदि विनिहितेति। ‘हृद्द्युभ्यांडेरलुक्’ इति अलुक्समासः। स्मारस्य स्मरसंवन्धिनस्तूणीरस्य निषङ्गस्य शङ्कां
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॥६८॥६९॥७०॥ अथ संनिहिता इति। अत्र संनिहितजातीया अप्युपलक्ष्याः। वर्हादिमात्रदर्शनेनावेशसंभवात्॥७१॥७२॥ आसामङ्गो-
निर्माल्यस्रगियं महौषधिरिह स्वान्तस्य संमोहने
नासां कस्तिसृणां गृणाति परमाचिन्त्यां प्रभावावलीम्॥७३॥
** यथा वा ललितमाधवे—**
दुकूलेऽस्मिन्कार्तस्वरमहसि विस्तारितदृशो
वपुः किं ते फुल्लैर्वहति तुलनां नीपकुसुमैः।
त्रुटन्तीभिः किं वा स्फटिकमणिमालाभिरुपमां
लभन्तेऽमी क्षामोदरि नयनयोस्तोयपृषताः॥७४॥
** अथ बर्हगुञ्जेयथा विदग्धमाधवे—**
अग्रे प्रेक्ष्य शिखण्डखण्डमचिरादुत्कम्पमालम्बते
गुञ्जानां तु विलोकनान्मुहुरसौ सास्रं परिक्रोशति।
नो जाने जनयन्नपूर्वनटनक्रीडाचमत्कारितां
बालायाः किल चित्तभूमिमविशत्कोऽयं नवीनग्रहः॥७५॥
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भ्रमम्॥७०॥७१॥७२॥ श्रीराधा विशाखामाह—अङ्गादुत्तीर्णंविलेपनं चन्दनाद्यङ्गरागः। आसां अङ्गोत्तीर्णविलेपननामनिर्माल्यस्रजा तिसृणां क्रमान्मणिमन्त्रमहौषधीनां को न गृणाति न कथयति। अत्र नामशब्दस्य नपुंसकत्वात् ‘नपुंसकमनपुंसकेन’ इत्यादिनैकशेषादेषामित्येव भवति नत्वासामिति। सत्यम्। तदप्यत्रोद्देश्यानामन्ते स्रक्पदस्य विधेयानामन्ते ओषधिपदस्य स्त्रीत्वादिदमादिशब्दानामव्यवहितप्रक्रान्तपरामर्शात् क्रमभङ्गस्य काव्यार्थविघातकत्वात् वौद्धापादानवद्वौद्धो द्वन्द्व एव विलेपननामस्रजामिति मणिमन्त्रमहौषधीनामित्याकारोऽत्रासामितिपदेन बोधयितव्य इति काव्यज्ञानामेव न तु केवलवैयाकरणानां व्युत्पत्तिः। वंशीपतेरित्येकारं (?) वंशी एवास्य स्वकीया स्त्री परकीयनारीणामानयने दूती। अन्यच्चोक्तलक्षणमुपायत्रिकं च प्रवलमतो ममापि मनोरथसिद्धिः स्वत एव संभाव्यत इति भावः॥७३॥ ललितमाधवस्थनववृन्दावनीयकथायामपरिचीयमानां श्रीराधांचन्द्रावली पृच्छति— दुकूले इति। कार्तस्वरं सुवर्णम्।पृषता विन्दवः॥७४॥ मुखरा श्रीराधाचेष्टितं पौर्णमासीमावेदयति— अग्र इति। विरहिणी
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त्तीर्णविलेपननामनिर्माल्यस्रजाम्।को न गृणाति न कथयति॥७३॥ तोयपृषताः
** अद्रिधातुर्यथा—**
आभीरवृन्दाधिपनन्दनस्य कलेवरालंकरणोज्ज्वलश्रीः।
क्षिप्तेन्द्रगोपांशुरपांशुलोऽयं तनोति रागं मम धातुरागः॥७६॥
** नैचिकीसमुदयो यथा—**
संध्याद्योते विलसति गताः प्रेक्ष्य गोष्ठप्रकोष्ठे
हम्बारम्भोन्मुखरितमुखीर्नैचिकीस्त्वद्विहीनाः।
अन्तश्चिन्ताचुलुकितमतिर्यादवेन्द्राद्य भन्दा
कष्टं चन्द्रावलिरिह कथं प्राणबन्धं करोतु॥७७॥
** लगुडी यथा—**
विष्टभ्य यां भुवि पुरः शिखरार्पितेन
विन्यस्तचारुचिबुकेन करद्वयेन।
दीव्यन्हरिर्गिरितटे मुदमादधान्नः
सा हन्त यष्टिरधुना हृदयं पिनष्टि॥७८॥
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श्रीराधा गोवर्धनस्थं गैरिकमालोक्याह—आभीरेति। क्षिप्तस्तिरस्कृत इन्द्रगोपस्य वर्षोद्भवकीटविशेषस्याशुःकिरणो येन स अपांशुलोऽमलिनः।रागं तद्दर्शनतृष्णाम्॥७६॥ मथुरास्थं श्रीकृष्णं केनचित् पान्थेन पद्मा संदेशं प्रस्थापयति—सध्याया द्योते प्रकाशे गोष्ठस्य प्रकोष्ठे निकटप्रदेशविशेषे। हे यादवेन्द्रेति। गोपेन्द्रवंशजात, त्वं यादवेन्द्रोऽभूः कथमस्मान् गोपी स्मरिष्यति। धिक् दुरदृष्टमस्माकमिति भावः॥७७॥ मथुरां प्रस्थिते श्रीकृष्णे काचिद्गोपी विलपति— या यष्टिं पुरो भुवि विष्टभ्य आलम्ब्य शिखरे यदग्रे अर्पितेन उपर्युपरि मुष्टीभूततया वा अनुत्तानतलतया वा करद्वयेन दीव्यन्॥७८॥ मथुरास्थं
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जलविन्दवः॥७४॥७५॥ अपांशुलत्वममलिनत्वम्॥७६॥७७॥
- १९ उज्ज्व०*
** वेणुर्यथा—**
हृदि न्यस्ता वंशी त्वदधरसुधाभागिति मया
दुरन्तं विश्लेषज्वरगरलमस्याः शमयितुम्।
वितेने सा तूर्ण शतगुणमिदं यादवपते
विरक्तो यत्रेशस्तमिह नहि वा कः प्रहरति॥७९॥
** शृङ्गिका यथा—**
वलितं विलोचनाग्रे शवलं धूलिभिरिदं बलावरज।
बलवत्कुवलयनयनास्तव गवलं कवलयत्यद्य॥८०॥
** तत्प्रेष्ठदृष्टिर्यथा—**
सखि मृगमदलेखया विशाखा हृदि मकरीरपि राधिका लिखन्ती।
सुबलमवकलय्य घूर्णिताग्रे पुलकवती वनमालिनं22 लिलेख॥८१॥
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श्रीकृष्णं प्रति ललिता सदेशं हंसद्वारा प्रेषयति— हृदीति। अस्याः श्रीराधाया हृदय एव यतो विरहविपज्वाला अतो हृदय एव वंशी अर्पिता। अस्यां त्वदधरसुधायाःस्थितत्वात् सुधायाश्च विपदादृशमकत्वप्रसिद्धे। किं चासौ मत्कृतोपायो विपरीतोऽभूदित्याह— सा वंशी इदं विश्लेषज्वरगरलं शतगुणं वितेने। अत्रार्यान्तरन्यासेन युक्तिमुत्थापयति—यत्र ईषत् प्रभुर्विरक्तो भवेत् तत्र प्रभुसंवन्धी को वा जनो न प्रहरति अपि तु सर्व एव। यतो वंशीविवरस्था त्वदधरसुधापि मात्सर्येणास्या विषं वर्धयति॥७९॥ व्रजात् पुनर्मथुरा गत उद्धवः शृङ्गवेत्रादिवार्तां पृच्छन्तं श्रीकृष्णमाह—वलितं व्याप्तं गवलं माहिषंशृङ्गं (कर्तृ) कुवलयनयनाः कर्मभूताकवलयति। शवलं धूलिभिरिति। एतावन्तं कालं त्वद्व्यवहाराभावादुत्तमस्थानस्थापितमपीत्यर्थः॥८०॥ रुपमञ्जरी सखीमाह—
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॥७८॥७९॥ गवलमत्र वनमहिषशृङ्गम्।उपलक्षणं चैतत् खड्गादिशृङ्गाणाम्
** यथा वा ललितमाधवे—**
निखिलसुहृदामर्थारम्भे विलम्बितचेतसो
मसृणितशिखो यः प्राप्तोऽभून्मनाङ् मृदुतामिव।
स खलु ललितासान्द्रस्नेहप्रसङ्गघनीभवन्
पुनरपि वलादिन्धे राधावियोगमयः शिखी॥८२॥
** गोधूलिर्यथा उद्धवसंदेशे—**
आ प्रत्यूषादपि सुमनसां वीथिभिर्ग्रथ्यमाना
धत्ते नासौ सखि कथमहो वैजयन्ती समाप्तिम्।
धिन्वन् गोपीनयनशिखिनो व्योमकक्षां जगाहे
सोऽयं मुग्धे निबिडधवलाधूलिचक्राम्बुवाहः॥८३॥
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सखीति॥८१॥ श्रीकृष्णो मधुमङ्गलमाह—निखिलसुहृदां वसुदेवोग्रसेनादीनां ये अर्था जरासन्धाद्युपद्रवशान्तिपूर्वकस्वस्वाधिकारसुस्थिरीकरणादीनि तेषामारम्भे विलम्वितमावेशितं चेतो येन तस्य मम यो राधावियोगाग्निर्मसृणितशिखाश्चित्तैकाग्र्याभावात् किंचिन्मन्दीभूताग्रःसन् मृदुतामिव प्राप्तोऽभूत् स खलु ललिताया यः सान्द्रः स्नेहः प्रेमपरिपाकः, पक्षे घृतादिरसस्तत्प्रसङ्गेन घनीभवन् हन्त हन्त यस्या सखीयं ललिता सा मे क्व गतेति निविडीभवन्। शिखी अग्निः॥८२॥ पद्मा चन्द्रावलीमाह—आ प्रत्यूषादिति। शिखिनो मयूरान्। व्योमकक्षा-
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॥८०॥८१॥निखिलसुहृदामिति। तत्र ललितमाधवे खल्वितिहासोऽयम्। ललिता नाम व्रजदेव्येव जाम्बवती योगमायया तस्या एव व्रजे जाम्बवद्गृहे च योगमायया तस्या एव व्रजे जाम्बवद्गृहे च संचारणात् कन्यात्वेन रक्षणाच्च। सा च स्यमन्तकाहरणे23 कृष्णाय जाम्बवता दत्ता।पुर्ववत् श्रीराधैव योगमायया सत्यभामाख्यत्वेन सत्राजिद्गृहे24 प्रापिता श्रीकृष्णेन प्रथममभिज्ञाता नासीत्। तत्र सति श्रीकृष्णस्य ललिताप्राप्तौ सत्यां तद्विरहं वर्णयतीति ज्ञेयम्। यदिदं च स्थायिप्रकरणे विरोधं परिहृत्य प्रमापयिष्याम। तदेवं ललिताया अपि
** वृन्दारण्यं यथा तत्रैव—**
आशापाशैः सखि नवनवैः कुर्वती प्राणबन्धं
जात्या भीरुः कति पुनरहं वासराणि क्षयिष्ये।
एते वृन्दावनविटपिनःस्मारयन्तो विलासा-
नुत्फुल्लास्तान्मम किल बलान्मर्म निर्मूलयन्ति॥८४॥
** तदाश्रिताः—**
तदाश्रिताः खगा भृङ्गा मृगाः कुञ्जालतास्तथा।
तुलसी कर्णिकारश्चकदम्बाद्याश्चकीर्तिताः॥८५॥
** तत्र खगा यथा ललितमाधवे—**
कस्तान्पश्यन्भवदुपहृतस्त्रिग्धपिच्छावतंसान्
कंसाराते न खलुशिखिनः स्विद्यते गोष्ठवासी।
उन्मीलन्तं नवजलधरं नीलमद्यापि मत्वा
ये त्वामन्तर्मुदितमतयस्तन्वते ताण्डवानि॥८६॥
** भृङ्गा यथा—**
वृन्दावने श्रवसि ये निनदं विपञ्ची-
निष्ठ्यूतपञ्चममनोहरमाहरन्तः।
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माकाशप्रदेशम्। अम्वुवाहो मेघः॥८२॥८३॥ माथुरविरहवती श्रीराधा विलपति—आशेति। अद्य श्व इति कृत्वाकति वासराणि व्याप्य क्षयिष्ये, प्राणवन्धं तद्रूपं महाकष्टं सहिष्ये। किं चान्यां विपत्तिं शृणु। एत इति। उत्फुल्लाः सन्तः। ताननुभूतचरान् वनविहारकुसुमकेल्यादीन्॥८४॥८५॥ पौर्णमासी द्वारकास्थं श्रीकृष्णमाह—कस्तानिति॥ ८६॥ विरहिणी श्रीराधाह— वृन्दावन इति। विपञ्च्यावीणाया निष्ठ्यूतो निर्गतो यः पञ्चमः स्वरभेदस्त-
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स्वस्वरूपप्रेष्ठजनस्य जाम्बवतीरूपस्य श्रीकृष्णसान्निध्यं प्राप्तस्य दर्शनेन स्वसख्याः श्रीराधाया विप्रलम्भस्मरणमधिकृष्णमुद्दीप्यते स्म। राधायाः स्मरणेन तस्याः संभोगसुखमपि तिरस्क्रियते। किं त्वायत्यामुभयोरपि सहचर्योः पारदार्यभ्रममयविप्रलम्भो दाम्पत्यमयं संभोगमुद्दीपयिष्यतीति भावः॥८२॥८३॥८४॥
ये षट्पदाः कुलिशघट्टनघोरमेतं
दैवे विरोधिनि भवन्ति न के विपक्षाः॥८७॥
** मृगा यथा तत्रैव—**
हरि हरि भवतीभिः स्वान्तहारी हरिण्यो
हरिरिह किमपाङ्गातिथ्यसङ्गी व्यधायि।
यदनुरणितवंशीकाकलीभिर्मुखेभ्यः
सुखतृणकवला वः सामिलीढाः स्खलन्ति॥८८॥
** कुञ्जा यथा उद्धवसंदेशे—**
लब्धान्दोलःप्रणयरभसादेष ताम्रोष्ठि नम्रः
प्रम्लायन्तीं किमपि भवतीं याचते नन्दसूनुः।
प्रेमोद्दामप्रमदपदवीसाक्षिणी शैलकक्षे
द्रष्टव्या ते कथमपि न सा माधवीकुञ्जलेखा॥८९॥
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स्मादपि मनोहरं निनदं शब्दं कुलिशस्य वज्रस्य घट्टनं निपातस्तस्मादपि घोरं निनदं संप्रत्याहरन्तीत्यर्थः॥८७॥ तत्रैव ललितमाधवे श्रीवृन्दावनेश्वरी माथुरविवाहोन्मादेन श्रीकृष्णमन्वेषयन्ती प्राह—हरिहरीति खेदे। सुखरूपास्तृणकवलास्तृणग्रासाःसामिलीढा अर्धनिगीर्णा अपि॥८८॥ श्रीकृष्ण उद्धवद्वारा श्रीराधां प्रति संदेशं प्रेषयति—लब्धान्दोल इति। प्रणयरभसात् तद्विषयकप्रणयवेगात् लब्धान्दोलनः प्राप्तवैयग्र्यः। शैलकक्षे गोवर्धनप्रदेशे किं वा तत्रत्यारण्ये। कक्षोऽरण्ये च वीरुधि’ इति धरणिः। कुञ्जानां लेखा श्रेणी न द्रष्टव्येति सा तांस्तान् विलासांस्तां स्मारयन्ती ते दशमींदशां प्रापयिष्यन्तीति भावः
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॥८५॥८६॥८७॥सामि त्वर्धे॥८८॥ लब्धान्दोल इति। श्रीराधां प्रति श्रीकृष्णसंदेशः। शैलकक्षे पर्वतारण्ये। ‘कक्षः स्मृतो भुजामूले कक्षोऽरण्ये
लतादिर्यथा—
तुलसि विलससि त्वं मल्लि जातासि फुल्ला
स्थलकमलिनि भृङ्गैः संगताङ्गी विभासि।
कथयत बत सख्यः क्षिप्रमस्मासु कस्मिन्
वसति कपटकन्दः कन्दरे नन्दसूनुः॥९०॥
** कर्णिकारो यथा ललितमाधवे—**
रासात्तिरोहिततनुः सखि यस्य पुष्पै-
श्चूडां चकार चिकुरे मम पिच्छचूडः।
कूले कलिन्ददुहितुर्धृतकन्दलोऽयं
मां दन्दहीति स मुहुर्नवकर्णिकारः॥९१॥
** कदम्बो यथा—**
सखि रोपितो द्विपत्रः शतपत्राक्षेण यो व्रजद्वारि।
सोऽयं कदम्बडिम्भः फुल्लो वल्लभवधूस्तुदति॥९२॥
** गोवर्धनो यथा ललितमाधवे—**
गोवर्धन त्वमिह गोकुलसङ्गिभूमौ
तुङ्गैः शिरोभिरभिपत्य नमो विभासि।
तेनावलोक्य हरितः परितो वदाशु
कुत्राद्य बल्लवमणिः खलु खेलतीति॥९३॥
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॥८९॥ पूर्ववदेव श्रीवृन्दावनेश्वरी प्राह—तुलसीति॥९०॥ नववृन्दावने भ्रमन्ती विहरन्ती श्रीराधा विलपति— **रासादिति।**धृतकन्दलो जातपूर्वाङ्कुरः॥९१॥ माथुरविरहिणी काचिदाह— सखीति॥९२॥ विरहोन्मादेन श्रीकृष्णमन्वेषन्ती श्रीराधा पृच्छति—गोवर्धनेति। शिरोभिः शृङ्गैर्नभः स्वर्ग
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च वीरुधि’। इति धरणिकोपात्॥८९॥९०॥९१॥९२॥९३॥९४॥
रविसुता यथा पद्मावल्याम्—
मधुरापथिक मुरारेरुपगेयं द्वारि वल्लवीवचनम्।
पुनरपि यमुनासलिले कालियगरलानलो ज्वलति॥९४॥
** रासस्थली यथा—**
गोष्ठादप्यवलोक्य मानशिखरोच्छ्रायश्रिया दूरतः
सद्यः खेदिनि चित्तचत्वरतटे वंशीवटेनार्पिता।
कुर्वाणा हृतवृत्तिमिन्द्रियगणं सा यादवेन्द्राद्य ते
कष्टं रासविहारभूर्विहरति प्राणैः कुरङ्गीदृशाम्॥९५॥
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संस्पृश्य हरितो दिशः॥९३॥ श्रीराधायाः सखी काचित् संदिशति—मथुरेति। यमुनासलिल इति। पूर्वं कालियह्रद एवं संप्रति यमुनाजलमात्र एवेति विशेषश्च ध्वनित॥९४॥ गोष्ठान्मथुरा पुनर्गत उद्धवो रासस्थलीं पृच्छन्तं श्रीकृष्णं प्रत्याह—गोष्ठादिति। हे यादवेन्द्र, संप्रति यादवानां सुखदायिन्, सा तव रासभू कुरङ्गीदृशां प्राणैः सह विहरती तदानीं कुरङ्गीदृग्भिरेव सह विहरन्त्यासीत् या सैवेयं तासां देहात् प्राणान्निष्काश्य तैरिति। ननु ता मद्विरिहखिन्ना गोष्ठएवं रासभूस्ततोऽतिविदूरे कथं तया सह तासां समागमस्तत्राह— वंशीवटेन (कर्त्रा) चित्तचत्वरतटे सा रासभूरर्पिता। प्राणनिष्क्रमणार्थमिति भावः। केन प्रकारेणेत्यपेक्षायामाह — गोष्ठान्नन्दीश्वरादप्यवलोक्यमाना शिखरोच्छायश्री अग्रविस्तारशोभा यस्य तेन रासभूतटवर्तिनो वंशीवटस्यैवानर्थकारित्वं यतः स तासां नेत्रेषु प्रविश्य हृदयमध्ये रासभुवमानीय तद्द्वारा प्राणान् निष्क्रमयामासेत्यर्थ॥आदिशब्देन लीलातल्पादिकमपि ज्ञेयम्। यथा—‘शून्यक्रीडानिविडकमलैः कल्पिता तत्पवेदी नेदीयस्यास्तनुलहरिभिः शीलिता हेण(लि)पुत्र्याः। अङ्गज्वालापरिचयमिलन्मुर्मुरा मर्मदुःखव्याख्यापञ्जीमम धियमियं
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लोकप्रसिद्धवंशीवटनामा कश्चिद्वटो वृन्दावने स्थितः। मुहुःप्राणैः सह विहरतीति प्राणैर्ममक्रीडतीति श्रीगीतगोविन्दवत् प्रयोगः। मुहुः प्राणाकर्षरूपां क्रीडां
** अथ तटस्थाः—**
तटस्थाश्चन्द्रिकामेघविद्युतो माधवस्तथा॥९६॥
शरत्पूर्णसुधांशुश्चगन्धवाहखगादयः।
** तत्र चन्द्रिका यथा रससुधाकरे—**
दुरासदे चन्द्रिकया सखीगणैर्लतालिकुञ्जेललिता निगूहिता।
चकोरचञ्चुच्युतकौमुदीकणं कुतोऽपि दृष्ट्वा भजति स्म मूर्च्छनाम्॥९७॥
** मेघो यथा रससुधाकरे—**
वासः पीतं कुतुकिनि कुतः कुत्र वर्ह मदान्धे
कंसारिर्वाक्व नु सखि मुधा संभ्रमान्मा प्रयाहि।
पश्योत्तुङ्गे क्षणरुचिघटालिङ्गितः शैलभृङ्गे
नव्यः शाक्रं दधदुदयते कार्मुकं वार्मुगेषः॥९८॥
** विद्युद्यथा रससुधाकरे—**
वर्षासु तासु क्षणरुक्प्रकाशाद्गोपाङ्गना माधवमालिलिङ्ग।
विद्युच्च सा वीक्ष्य तदङ्गशोभां ह्रीणेव तूर्णं जलदं जगाहे॥९९॥
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धूम्रयन्ती धुनोति’॥९५॥ तटस्थाः साधारणा इत्यर्थः॥९६॥ ललितायाः सखी कांचित्पृच्छन्ती तद्वृत्तान्तमाह—दुरासदे चन्द्रिकाया दुष्प्रापे स्थले निगूहिता संगोप्य रक्षिता। विरहिण्यास्तस्याः प्राणरक्षणार्थमिति भावः। तत्रैव लतापत्ररन्ध्रेण केनचिदायान्तं ज्योत्स्नाकणमुत्प्रेक्षते— चकोरेति॥९७॥ हन्त हन्त गोवर्धनशृङ्गेपीताम्बरःपिच्छावतंसो मां दिधीर्षन्नेवास्ति तदहमग्रे न गच्छामीति विवर्तितमुखीं श्रीराधां ललिताह— वास इति। हे कुतुकवति, निरन्तरमेव श्रीकृष्णेन समं विलासार्थिनी तं ध्यायन्ती तमेव सर्वत्र पश्यसीत्यर्थः।क्षणरुचिर्विद्युत्।वार्मुक् मेघः॥९८॥ नक्तंतनं वृत्तान्तं वृन्दा नान्दीमुखीमाह—वर्षास्विति। माधवमालिलिङ्गेति। अनावृतं मदङ्गविशेषं श्रीकृष्णो मा पश्यत्विति। लज्जयेवेत्यर्थः। विद्युतश्च तत्काल एवान्तर्धाने कारण-
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करोतीत्यर्थः॥९५॥९६॥ चकोरचञ्चुच्युतमिव कौमुदीकणमित्यर्थः॥९७॥॥९८॥ ह्रीणेवेति। अत्र इवशब्द उत्प्रेक्षाद्योतक। ततश्च वीक्ष्येत्यादावन्वितः॥९९॥ विद्युदिति। अत्र क्षणरुगित्येव वक्तव्यम्। वर्षासु विद्युद्वलय-
** वसन्तो यथा—**
ऋतुहतकः सखि भुवने किमवतितीर्षुर्बभूवाद्य।
मन्दादरमलिवृन्दं वृन्दावनकुन्दसंगमे यदभूत्॥१००॥
** शरद्यथा—**
कलहंसोज्ज्वलजल्पा प्रकटितवृन्दावनोरुमाधुर्या।
धृतिमपहर्तु सखि मे दूतीव हरेः शरन्मिलिता॥१०१॥
** पूर्णसुधांशुर्यथा—**
राकासुधांशुरभवन्न तमांसि हर्तुं
वृन्दाटवीजठरगाण्यधुनापि शक्तः।
राकासुधांशुमुखि तानि तवोन्नतानि
हृत्कन्दरान्तरचराणि कथं जहार॥१०२॥
** गन्धवाहो यथा श्रीगीतगोविन्दे—**
मनोभवानन्दन चन्दनानिल प्रसीद रे दक्षिण मुञ्च वामताम्।
क्षणं जगत्प्राण विधाय माधवं पुरो मम प्राणहरो भविष्यसि॥१०३॥
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मुत्प्रेक्ष्यते। हीणेव लज्जितेव॥९९॥ काचिद्विरहिण्याह— ऋतुहतकः ऋतुनामा हतकः। निर्विवेक इत्यर्थ॥१००॥ सैव शरदं वर्णयति—कलहंस्येव कलहंसाना च॥१०१॥ विशाखा कलहान्तरिता श्रीराधामाह— **राकेति।**तानि मानरूपाणि तमांसि हे राकासुधांशमुखीति। त्वन्मुखमाधुर्येणैवानुमीयत इति भाव॥१०२॥ विप्रलब्धा श्रीराधिका विलपति— मनोभवं कन्दर्पमानन्दयसि तच्छरलक्ष्यभूताया मम प्राणाकर्षणेन तत्साहाय्यकरणात्। हे चन्दनानिल, किमिति न शिशिरयसीति भावः। नन्वहं संप्रति मनोभवराजसेवकः स
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प्रकाशादित्येव पठनीयम्॥१००॥१०१॥ तानि तमासि मानरूपाणि दुःखानि। राकासुधांशुमुखीति संबोधनं संदेहमेव द्विगुणयति। यस्या ईदृशं मुखं तस्या हृदि तम एव न संगच्छत इत्यभिप्रायात्॥१०२॥१०३॥
** खगा यथा—**
मानेन सार्धं पशुपालसुभ्रुवां मरालमाला चलिता घनागमे।
कदम्बकुञ्जे विजिहीर्षया समं समागता नागरि चातकावली॥१०४॥
आदिशब्दात्सखीस्नेह आत्मन्युद्दीपनो वरः।
** यथा—**
हरिमवेक्ष्य पुरो गुरुतो भिया मुहुरभून्मुकुलन्नवविभ्रमा।
ललितया विवृते निजसौहृदे चलदृगञ्चलमाधित राधिका॥१०५॥
**
इत्युद्दीपनविभावाः।**
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यथा मामादिशति तथैव कर्तुं शक्नोमि न तु तदन्यथा इति चेत्तत्राह—रे इत्याक्रोशामन्त्रणे।यदि त्वं मां जिघांसस्येव तदा संप्रति त्वयि को वा विनयः। उचित इति भाव। रे इति दक्षिणदेशोद्भवत्वात् श्लेषेण हे सरल, क्षणं क्षणमात्रं मयि वामतामदक्षिणतां मुञ्च यदि कन्दर्पसेवायां प्रवृत्तस्तदपि स्वधर्ममाभिजात्यं च मा त्याक्षीरेव। क्षणमपि तं कुर्विति भावः। ननु कं स्वधर्ममाचरामीति ब्रूहीति आह— हे जगत्प्राण। ‘समीरमारुतमरुज्जगत्प्राणसमीरणाः।’ इत्यभिधानात् तव जगत्प्राणरूपत्वेमम च जगन्मध्यवर्तित्वेऽपि यदि मम प्राणहरो भविष्यति तदा मम पुरःक्षणं माधवं विधायैव तव माधवसखत्वात् तदानयने सामर्थ्यम्।माधवो वसन्त श्रीकृष्णश्च न त्वविधायैव यथाहमेकवारमप्यन्तकाले तं पश्येयमिति भावः॥१०३॥ श्रीकृष्णे राधामाह— मानेनेति॥ १०४॥ रूपमञ्जरी स्वसखीमाह— **हरिमवेक्ष्येति। गुरुशङ्कयेति।**श्वश्रुपतिर्वा कदाचिदागच्छेदिति भावनया। गुरोर्या शङ्का तयेति वा। मुकुलन् मुकुलमिवाचरन्। अस्पष्टविभ्रमेत्यर्थः। ललितयेति। तदीयास्पष्टविभ्रमस्य श्रीकृष्णदिदृक्षितत्वं ज्ञात्वेत्यर्थ। हे प्रियसखि, पित्रादिस्नेहं तथा प्राप्तामपि चन्द्रावलीं परित्यज्य तदेकतानमानसोऽयं त्वत्सौहार्दस्थानमहमिति मामेवाश्रितवान्, अहं चाश्वास्य त्वदन्तिकमिममलम्भयम्। अतोऽद्य मामवेक्ष्य गुरुभयमप्यनवेक्ष्य कृपापाङ्गेनैनमङ्गीकुर्विति सौहार्दे विवृते आधित अर्पितवती
इत्युद्दीपनविभावविवृतिः।
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॥१०४॥ हरिमवेक्ष्येति। ललितयेति। अनयोर्भिन्नसमयत्वज्ञेयम्।आधित हरावर्पितवती॥ १०५॥ इत्युद्दीपनविभावविवृतिः॥
अथानुभावाः।
अनुभावास्त्वलंकारास्तथैवोद्भास्वराभिधाः।
वाचिकाश्चेति विद्वद्भिस्त्रिधामी परिकीर्तिताः॥१॥
** तत्रालंकाराः—**
यौवने सत्त्वजास्तासामलंकारास्तु विंशतिः।
उदयन्त्यद्भुताः कान्ते सर्वथाभिनिवेशतः॥२॥
भावो हावश्चहेला च प्रोक्तास्तत्र त्रयोऽङ्गजाः।
शोभा कान्तिश्च दीप्तिश्च माधुर्यं च प्रगल्भता॥३॥
औदार्य धैर्यमित्येते सप्तैव स्युरयत्नजाः।
लीला विलासो विच्छित्तिर्विभ्रमः किलकिंचितम्॥४॥
मोट्टायितं कुट्टमितं विव्वोको ललितं तथा।
विकृतं चेति विज्ञेया दश तासां स्वभावजाः॥५॥
** तत्र भावः—**
प्रादुर्भावं व्रजत्येव रत्याख्ये भाव उज्ज्वले।
निर्विकारात्मके चित्ते भावः प्रथमविक्रिया॥६॥
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अलंकारा भावादिचकितान्ता द्वाविंशतिः। उद्भास्वरा नीव्युत्तरीयसंभावनादयः सप्त।वाचिका आलापादयो द्वादश॥१॥ कृष्णसवन्धिचेष्टोत्थभावैराक्रान्तं चित्तं सत्त्वं तस्माज्जाता सत्त्वजाः॥२॥ अङ्गजा इति। नेत्रान्तभ्रूग्रीवाभङ्ग्यादीनां तत्सूचकत्वात्तेभ्य एवाङ्गेभ्यो जाताः। प्रतीता इत्यर्थः। न तु वस्तुतोऽङ्गजाः सत्त्वजा इत्युक्तवात्॥३॥ अयत्नजा इति। शोभाद्यर्थ वेशादिप्रयत्नाभावेऽपि शोभादयः स्युरित्यर्थ॥४॥ स्वभावजा इति। लीलाद्यर्थप्रयत्नवत्त्वेऽपि युवतीनां लीलादय स्वाभाविकप्रयत्नादेवोत्पद्यन्त इति॥५॥ तत्र भाव इति। उज्ज्वले शृङ्गारे रसे रत्याख्यो रतिनामा यो भावः स्थायी तस्मिन् प्रादुर्भावं व्रजति प्राप्नुवति सति चित्ते या प्रथमविक्रिया वय संधौअभूत-
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अलंकारादिसंज्ञा रूठ्याप्रयुक्ता यथाकयचिदेव यौगिकार्य भजन्ते॥१॥॥२॥३॥४॥५॥ उज्ज्वल इति। निमित्तसप्तमी ‘चर्मणि द्वीपिनं
तथा ह्युक्तम्—
चित्तस्याविकृतिः सत्त्वं विकृतेः कारणे सति।
तत्राद्या विक्रिया भावो बीजस्यादिविकारवत्॥७॥
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पूर्वः प्रथमो यः कन्दर्पक्षोभानुभवः स भावः। चित्ते कीदृशे। निर्विकारात्मके पौगण्डवयस्त्वेन कन्दर्पप्रवेशाभावात् तद्विकारहीन इत्यर्थः। ननु तर्हि कथमस्यानुभावत्वं वहिर्विकारस्यैव भाववोधकत्वे संभवात्। यदुक्तम्—‘अनुभावास्तु चित्तस्थभावानामववोधकाः’ इति। सत्यम्। सात्त्विकानां स्तम्भस्वेदादीनामनुभावत्वमिवैषां भावहावादीनामपि युगपदन्तर्वहिर्विकाररूपत्वमनुभावत्वं च। वय संध्यारम्मे यदैव श्रीकृष्णदर्शनश्रवणादिभिरभूतचरः कन्दर्पक्षोभानुभवो भवेत्तदैवान्तश्चित्तं विकृतं स्यात् वहिरपि तव्द्यञ्जिका नेत्रादिभङ्गीस्यादिति। अत एवैतल्लक्षणमेवं व्याख्येयम्। चित्ते निर्विकारात्मके सति रत्याख्यभावोदयाद्या प्रथमविक्रिया अर्थाच्चित्तस्य यथासम्भवं तनोश्च स्वभाव इति। सर्वथा चित्तविकारस्यैव विवक्षितत्वे चित्तस्य निर्विकारस्येति षष्ठ्यन्तरेव प्रयुज्यते। अलंकारकौस्तुभकृद्भिस्त्वनुभावादिदमेव पृथगिति लक्षितम्। नन्वेवंलिखितलक्षणोऽयं भावस्तथास्यैव परिणामविशेषोहावो हेला चेत्येतत्त्रितयं वयःसंध्युत्तरकाले तरुणीनां न संभवेत्। सत्यं न संभवेदेव। यदुक्तं साहित्यदर्पणकृद्भिरपि। ‘जन्मतःप्रभृति निर्विकारे मनस्युद्बुद्धमात्रो विकारो भावः।’ इत्येके। अन्ये पुनरेवमाहुः—‘आसां व्रजसुन्दरीणां सर्वासामेवावस्थानां नित्यत्वात् प्रकटतारुण्येऽपि गूढो वयःसंधिः सदास्त्येवेति। कश्चिदत्रैवं व्याचष्टे। प्रथमविक्रियेति न केवलमात्यन्तिकमेव प्रथमत्वं व्याख्येयम्। किंतु वार्तान्तरासक्तत्वेन कादाचित्केऽपि निर्विकारत्वे श्रीकृष्णदर्शनादिभिःस्थायिनि रत्याख्ये भावे प्राकट्यं प्राप्ते या प्रथमा ईषन्मात्रा विक्रिया स भाव इति। अपरे तु न ह्यभावाद्भावो जायत इत्यतो गाम्भीर्यलज्जादिना यन्नि-
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हन्ति’ इतिवत्। ततश्चोज्ज्वलाख्यं रसं साधयितुं रत्याख्ये रतितयान्यत्र प्रसिद्धे मथुरेतिनाम्ना त्वत्र परिभाषिते भावे सत्यपि गाम्भीर्यलज्जादिना यन्निर्विकार व्यञ्जनाशून्यं चित्तं तत्र या प्रथमा विक्रिया संवरीतुमशक्यतया नेत्रादिभङ्ग्या तस्य भावस्य किंचिद्व्यञ्जना प्रादुर्भावं व्रजति। सा व्यञ्जना भावाख्योऽनुभाव इत्यर्थः। न वयं स्थायी भावो व्यभिचारी भावो वा। ‘विकारो मानसो भावोऽ-
यथा—
पितुर्गोष्ठे स्फीते कुसुमिनि पुरा खाण्डववने
न ते दृष्ट्वा संक्रन्दनमपि मनः स्पन्दनमगात्।
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र्विकारं तद्व्यञ्जनाशून्यं चित्तं तत्र या प्रथमा विक्रिया संवरीतुं दुःशकतया वहिर्नेत्रादिभङ्गीभावव्यञ्जिका स्यात् स भाव इत्याहुः। वस्तुतस्तु श्रीमद्ग्रन्थकृच्चरणानामन्य एवाशयस्तं च पितुर्गोष्ठे स्फीत इत्याद्युदाहरणादवगम्यैवं व्याख्येयम्। प्राकृतगुणरहितत्वेन निर्गुणस्य भगवतो गुणा एव श्रीकृष्णव्यतिरिक्तपुरुषान्तरादविक्रियमाणत्वेन निर्विकारात्मके चित्ते सति या प्रथमा विक्रिया श्रीकृष्णस्य दर्शनाद् य ईषन्मनसस्तनोश्च विकारःस एव भाव इत्यर्थः॥६॥ न चालंकारिकैरेवं न व्याख्यातमिति वाच्यं प्राचीनैरुक्तत्वादित्याह—तथा **हीति।**विकृतेः कारणे सुन्दरपुरुषदर्शने सत्यपि चित्तस्याविकृतिश्चेत् सत्त्वं रजस्तमःस्पर्शशून्यं शुद्धं सत्त्वं तस्यैवाविक्रियमाणस्वभावत्वात्। तत्र सति या आद्या विक्रिया श्रीकृष्णदर्शनोत्था अप्राकृता। चिदानन्दमयीत्यर्थः।स भावः बीजस्य बीजविशेषस्य वास्तूकादेर्विकारकारणे वर्षावृष्ट्यादावप्यविक्रियमाणस्य हेम्न हिमस्पर्शे यथा आदिविकार इति। प्राकृतवस्तुनाप्यप्राकृतपदार्थस्योपमा नासमञ्जसा। मेघादिनेव श्रीकृष्णस्य अप्राकृतवस्तूना लोके साक्षादनुपलब्धेरिति। ननु तर्ह्येतल्लक्षणं प्राकृतनायिकासु दमयन्तीमालत्यादिष्वव्याप्तमिति चेदिष्टापत्तिरेव। ‘रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति।’इति श्रुतिप्रतिपादितस्य साक्षाच्चिदानन्दघनस्य रसस्य विवृतिर्भवदादिभिरप्राकृतीर्भगवत्प्रेयसीरालक्ष्यैव कृता। तत्र मुह्यद्भिः कविभिर्यदि प्राकृतादिषु पिशितासृग्विणमूत्रजरामरणादिमतीषु स्त्रीषुस रसः पर्यापयिष्यते तर्हि वयं किं कुर्मः। तथा ह्युक्तं रसपक्षव्याख्यायाम्—‘तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः। तेजोवारिमृदां यथा विनिमय।’ इति। य आद्यस्य रसस्य ब्रह्म तत्त्वमादिकवये भरताय तेने। ‘वेदस्तत्त्वं तपो ब्रह्म’ इत्यमर। यत्र रसतत्त्वे कवयः काव्यकृतो मुह्यन्ति। भ्रमेणालक्ष्येऽपि प्राकृतरसलक्षणस्य संगमनात्। तत्र दृष्टान्तस्तेजोवारीति॥७॥ काचित्सखी ज्ञाततत्त्वापि हृदयोद्घाटनपाटववती स्वयूथेश्वरीमजानतीव पृच्छति— पितुर्गोष्ठ इति।
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नुभावो भाववोधकः।’इति विभागलब्धे। किंत्वत्र भाव्यते व्यज्यतेऽनेनेति करणे घञ्॥६॥ विकृतेर्भावव्यञ्जनायाःकारणे भावोत्पत्तिलक्षणे सत्यपि चित्तस्याविकृतिर्बहिर्व्यक्तिशून्यत्वं सत्त्वमुच्यते तत्र सत्त्वे सति आद्या विक्रिया प्रथमा किंचिद्व्यञ्जनादिभावतया संज्ञाप्यते स च रतिस्थानीयस्य वीजस्यादिविकारवदित्यर्थः॥७॥ पितुर्गोष्ठे स्फीत इत्यादिकं परिहासाय संभावितमिति कृत्वा
पुरो वृन्दारण्ये विहरति मुकुन्दे सखि मुदा
किमान्दोलादक्ष्णः श्रुतिकुमुदमिन्दीवरमभूत्॥८॥
** अथ हावः—**
ग्रीवारेचकसंयुक्तो भ्रूनेत्रादिविकासकृत्।
भावादीषत्प्रकाशो यः स हाव इति कथ्यते॥९॥
** यथा—**
साचिस्तम्भितकण्ठि कुड्मलवतीं नेत्रालिरभ्येति ते
घूर्णन्कर्णलतां मनाग्विकसिता भ्रूवल्लरी नृत्यति।
अत्र प्रादुरभूत्तटे सुमनसामुल्लासकस्त्वत्पुरो
गौराङ्गि प्रथमं वनप्रियवधूबन्धुः स्फुटं माधवः॥१०॥
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संप्रति त्वं द्वित्रदिनानि खाण्डवप्रस्थनिवासिनः पितुर्गृहात् श्वशुरगृहम्। नन्दगोष्ठमागतासीत्यर्थः। अत्र पुरा कुसुमिनीत्युद्दीपनविभावो दर्शितः। संक्रन्दनमिन्द्रमतिसुन्दरमपि दृष्ट्वा मनो न स्पन्दनमगात् ईषदपि नाचलदिति तत्र सङ्गिन्या मया तथा लक्षितैवासीरिति विकृतेःकारणेऽपि विकाराभाव उक्तः। पुरोऽग्रे मुकुन्दे विहरतीति तमपाङ्गेन दृष्टवत्यास्तवाक्ष्णस्तथा आन्दोलो जातो यथा श्रुताववतंसितं श्वेतोत्पलमभूदिति प्रथमविकारो नयनचाञ्चल्यं भावलक्षणम्॥८॥ भावात् नयनचाञ्चल्यमात्रसूच्याद्भावात् सकाशादीषदधिक प्रकाशो यस्य सः। ततोऽपि विकाराधिक्यादित्यर्थः।ग्रीवाया रेचकस्तिर्यक्करणम्॥९॥ श्यामा श्रीराधामाह— साचि वक्रीकृतः स्तम्भितः स्तम्भतां नीतः कण्ठो ययेत्यौत्सुक्याधिक्यादपाङ्गदर्शनेनातृप्यन्त्या त्वया ग्रीवा तिरश्वीनीकृता। सा चानन्द-
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पुरो वृन्दारण्ये इत्यादिकं साश्चर्यमिवोक्तम्। अपीति संभावनायाम्। वस्तुतस्तु संक्रन्दनं दृष्ट्वा मनःकर्तृ स्पन्दनं भागात्। मुकुन्दे तु विहरति किमित्यादिवाग्भङ्ग्यामुकुन्दस्यैव माधुर्यमाधिक्येन स्थापितम्॥८॥ ग्रीवाया रेचको ग्रीवायास्तिर्यक्करणविशेषः॥९॥ सुमनसां सुचित्तानाम् पक्षे पुष्पाणाम्। वनप्रिया या वध्वः श्रीवृन्दावनविहारिण्यस्तासां वन्धुः, पक्षे कोकिलवधूनां
** अथ हेला—**
हाव एव भवेद्धेला व्यक्तः शृङ्गारसूचकः।
** यथा—**
श्रुते वेणौ वक्षः स्फुरितकुचमाध्मातमपि ते
तिरोविक्षिप्ताक्षं पुलकितकपोलं च वदनम्।
स्खलत्काञ्चि स्वेदार्गलितसिचयं चापि जघनं
प्रमादं मा कार्षीः सखि चरति सव्ये गुरुजनः॥११॥
** अथायत्नजाः—**
** तत्र शोभा—**
सा शोभा रूपभोगाद्यैर्यत्स्यादङ्गविभूषणम्॥१२॥
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जाड्यभ्या स्तब्धीभूता तथैव स्थितेत्युपहासः।कर्ण एव लता तां नेत्रालिरभिमुखमेति यतः। कुड्मलवतीं मुकुलान्विता पक्षे सावतंसाम्। तत्र कारणमाह— अत्रेत्यादि। सुमनसा मालतीनाम्, अतिशयोक्त्या सुन्दरीणाम्। ‘सुमना मालती जातिः।’ इत्यमर।श्लेषेण सुचित्तानां पुष्पाणां च। वनप्रिय कोकिलः, पक्षे वनमेव प्रियं यासां तासां वधूनां वन्धु। माधवो वसन्तः श्रीकृष्णश्च। स्फुटं तस्मादेवं संभावयामीति भावः॥१०॥ विशाखा श्रीराधामाह— श्रुत **इति।**आध्मातं भस्त्रावत् श्वासगत्या गतिप्रकारेण नतोन्नतं जघनमपीत्यन्वय।प्रमादमनवधानम्। सव्ये गुरुजनश्चरतीति। तेन त्वं दक्षिणे प्रदेशे पक्षद्वारान्निसृत्य शीघ्रमेवाभिसर। अहं तु गुरुजनं समाधाय पश्चादायास्य इति ध्वनितम्
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वन्धु।माधव श्रीकृष्ण, पक्षे वसन्तः।स्फुटमित्युत्प्रेक्षायाम्। तस्मादत्रेत्यादिकं संभावयामीत्यर्थः॥१०॥ आध्मातं भस्त्रावत् श्वास वायुगत्यागतिप्रकारेणैव नतोन्नतं जघनमपीत्यन्वयः।प्रमादमनवधानम्॥११॥ भोगः सभोगः
** यथा—**
धृत्वा रक्ताङ्गुलिकिसलयैर्नीपशाखां विशाखा
निष्क्रामन्ती व्रततिभवनात्प्रातरुद्धूर्णिताक्षी।
वेणीमंसोपरि विलुठतीमर्धमुक्तां वहन्ती
लग्ना स्वान्तेमम नहि बहिः सेयमद्याप्ययासीत्॥१३॥
** अथ कान्तिः—**
शोभैव कान्तिराख्याता मन्मथाप्यायनोज्ज्वला।
** यथा—**
प्रकृतिमधुरमूर्तिर्बाढमत्राप्युदञ्च-
त्तरुणिमनवलक्ष्मीलेखयालिङ्गिताङ्गी।
वरमदनविहारैरद्य तत्राप्युदारा
मदयति हृदयं मे रुन्धती राधिकेयम्॥१४॥
** अथ दीप्तिः—**
कान्तिरेव वयोभोगदेशकालगुणादिभिः॥१५॥
उद्दीपितातिविस्तारं प्राप्ता चेद्दीप्तिरुच्यते।
** यथा—**
निमीलन्नेत्रश्रीरचटुलपटीराचलमरु-
न्निपीतस्वेदाम्बुस्रुटदमलहारोज्ज्वलकुचा।
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॥११॥१२॥ श्रीकृष्णो विशाखासखीमाह—धृत्वेति। तेन दिनेऽप्यत्र पुनस्तामभिसारयेति ध्वनिः॥१३॥ श्रीकृष्णः सुवलमाह—**प्रकृतीति।**मम हृदयं रुन्धतीति संप्रति नाहमन्यस्यै कस्यै अपि स्पृहयामीति भावः। ननु काममहोदधेस्तव कथमेकयानयैव निर्वाहस्तत्राह— उदारेति। इयमेकैव मम मनोरथं सर्वमेव पूरयतीति भावः॥१४॥१५॥ रुपमञ्जरी स्वसखीं प्रत्याह—निमीलदिति। निद्राणेत्यर्थः। पटीराचलो मलयपर्वतः। त्रुटदिति-
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॥१२॥१३॥ प्रकृत्या गाढानुरागस्वाभाव्येन मधुरा मूर्तिर्यस्याः सा॥१४॥
निकुञ्जे क्षिप्ताङ्गी शशिकिरणकिर्मीरिततटे
किशोरी सा तेने हरिमनसि राधा मनसिजम्॥१६॥
** अथ माधुर्यम्—**
माधुर्यं नाम चेष्टानां सर्वावस्थासु चारुता॥१७॥
** यथा—**
असव्यं कंसारेर्भुजशिरसि धृत्वा पुलकिनं
निजश्रोण्यां सव्यं करमनृजुविष्कम्भितपदा।
दधाना मूर्धानं लघुतरतिरःस्रंसिनमियं
बभौ रासोत्तीर्णा मुहुरलसमूर्तिः शशिमुखी॥१८॥
** अथ प्रगल्भता—**
निःशङ्कत्वं प्रयोगेषु बुधैरुक्ता प्रगल्भता।
** यथा विदग्धमाधवे—**
प्रातिकूल्यमिव यद्विवृण्वती राधिकारदनखार्पणोद्धुरा।
केलिकर्मणि गता प्रवीणतां तेन तुष्टिमतुलां हरिर्ययौ॥१९॥
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क्षिप्ताङ्गीत्याभ्यां संप्रयोगाधिक्यजनितः श्रमो व्यञ्जितः। लताजालरन्ध्रात् पतितेन शशिकिरणेन किर्मीरितं चित्रितं तटं यस्य तस्मिन्नित्यनेन तदङ्गदर्शनशोभाधिक्यं मनसिजं तेने इति; पुनरपि संप्रयोगार्थ श्रीहरिस्तां जागरांवभूवेति; रात्रावद्य सा निद्रां न लेभेइति; संप्रति तां क्षणं शाययितुं शीघ्रं याम इति ध्वनिः॥१६॥१७॥ रतिमञ्जरी दूरात्स्वसखीं दर्शयति। असव्यं दक्षिणकरम्। भुजशिरसि स्कन्धे। शशिमुखी श्रीराधा तस्याः सखी वा॥ १८॥प्रयोगेषु संप्रयोगेषु प्रगल्भता शौर्यम्॥वृन्दाह— प्रातीति। तेन तच्छोभादर्शनेनेत्यर्थः। अप्रागल्भ्यस्वभावाया अपि श्रीराधायाःप्रागल्भ्यं कामोन्मादाद-
२० उज्ज्व०
** अथौदार्यम्—**
औदार्यं विनयं प्राहुः सर्वावस्थागतं बुधाः॥२०॥
** यथा विदग्धमाधवे—**
न्यविशत नयनान्ते कापि सारल्यनिष्ठा
वचसि च विनयेन स्तोत्रभङ्गी न्यवात्सीत्।
अजनि च मयि भूयान् संभ्रमस्तेन तस्या
व्यवृणुत हृदि मन्युं सुष्ठुदाक्षिण्यमेव॥२१॥
** यथा वा—**
कृतज्ञोऽपि प्रेमोज्ज्वलमतिरपि स्फारविनयो-
ऽप्यभिज्ञानां चूडामणिरपिकृपानीरधिरपि।
यदन्तःस्वच्छोऽपि स्मरति न हरिर्गोकुलभुवं
ममैवेदं जन्मान्तरदुरितदुष्टद्रुमफलम्॥२२॥
** अथ धैर्यम्—**
स्थिरा चित्तोन्नतिर्या तु तद्धैर्यमिति कीर्त्यते।
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यत्नजमिदमिति ज्ञेयम्॥१९॥२०॥ श्रीकृष्णो मधुमङ्गलमाह—न्यविशतेति। तस्याश्चन्द्रावल्याः॥ चन्द्रावल्या दक्षिणायाः प्रायः स्वभाव एवायम्॥२१॥ किं च तदानीं स्वविनयसिद्ध्यर्थं नेत्रान्तसारल्यादीनां किंचिद्यत्नकृतत्वेन कृत्रिमत्वादयत्नजश्च विनयोऽयं सम्यङ्नसंभवेदित्यपरितुष्यन्नाह— **यथा वेति।**प्रोषितभर्तृका श्रीराधां प्राह—कृतेति। स्वभावतो वामाया अपि श्रीराधायाः प्रेयसि विनयोऽयं तदानीं दैन्यनिर्वेदादिभिरयत्नज एवाभूत्। पूर्वत्र यत्नेनैवावहित्था सिध्यति न त्ववहित्थयैव यत्न इति विनयस्य यत्नजत्वमेव॥ २२॥
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॥१५॥१६॥१७॥१८॥१९॥२०॥ सुष्ठ्विति।स्वाभाविकं दाक्षिण्यमतिक्रम्यारोपितमित्यर्थः। तज्जातं मन्युमेव व्यावृणुतेत्यर्थः। सुष्ठुतामेव दर्श-
** यथा ललितमाधवे—**
औदासीन्यधुरापरीतहृदयः काठिन्यमालम्बतां
कामं श्यामलसुन्दरो मयि सखि स्वैरी सहस्रं समाः।
किंतु भ्रान्तिभरादपि क्षणमिदं तत्र प्रियेभ्यः प्रिये
चेतो जन्मनि जन्मनि प्रणयितादास्यं न मे हास्यति॥२३॥
** अथ स्वभावजाः—**
** तत्र लीला—**
प्रियानुकरणं लीला रम्यैर्वेशक्रियादिभिः॥२४॥
** यथा विष्णुपुराणे—**
दुष्टकालिय तिष्ठाद्य कृष्णोऽहमिति चापरा।
बाहुमास्फोट्य कृष्णस्य लीलासर्वस्वमाददे॥२५॥
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श्रीराधा नववृन्दामाह—औदासीन्येति। प्रणयितया प्रेम्णा दास्यं कैकर्यं न हास्यति न त्यक्ष्यति। अत्र विरहवैवश्येनाधीरस्वभावाया अपि श्रीराधायास्तदानीं रत्याख्यसचारिप्राबल्योदयात् धैर्यमिदमयत्नजम्। एवं शोभादयो माधुर्यान्तास्तत्तद्देहस्वभावजा अपि शोभाद्यर्थप्रयत्नाभावादयत्नजशब्देनैवोच्यन्ते। प्रगल्भतादयस्त्रयोऽलंकारास्तु न स्वभावजाःतत्र तत्रोक्तयुक्त्या नापि प्रयत्नजा इत्ययत्नजा एव॥२३॥ स्वभावजा इत्येषु क्वापि यत्नस्य बुद्धिपूर्वकत्वम्, क्वापि संचारिभावोत्थत्वेनावुद्धिपूर्वकत्वम्। किंतु सर्वत्र स्वभावो जागरूक इति स्वभावजशब्देनैवोच्यन्त इति प्रियस्यानुकरणं बुद्धिपूर्वकमवुद्धिपूर्वकं वा प्रेमवतीनां स्वाभाविकमेव॥२४॥ पराशरो मैत्रेयं प्रत्याह—दुष्टेति। आस्फोट्य शौर्यद्योतनार्थं वाभवाहुप्रगण्डे करतलप्रहारेण शब्दमुत्थाप्य।लीलेयं विप्रलम्भभरे-
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यति— कापीत्यादिभिः॥२१॥२२॥२३॥२४॥ लीलासर्वस्वं तस्या लीलाया यावान् परिकरस्तावन्तमाददे गृहीतवती। अनुकृतवतीत्यर्थः॥२५॥
** यथा वा छन्दोमञ्जर्याम्—**
मृगमदकृतचर्चा पीतकौशेयवासा
रुचिरशिखिशिखण्डा बद्धधम्मिल्लपाशा।
अनृजुनिहितमंसे वंशमुत्क्वाणयन्ती
कृतमधुरिपुवेशा मालिनी पातु राधा॥२६॥
** अथ विलासः—**
गतिस्थानासनादीनां मुखनेत्रादिकर्मणाम्।
तात्कालिकं तु वैशिष्ट्यं विलासः प्रियसंगजम्॥२७॥
** यथा—**
रुणत्सि पुरतः स्फुरत्यघहरे कथं नासिका-
शिखाग्रथितमौक्तिकोन्नमनकैतवेन स्मितम्।
निरास्थदचिरं सुधाकिरणकौमुदीमाधुरीं
मनागपि तवोद्गता मधुरदन्ति दन्तद्युतिः॥२८॥
** यथा वा—**
अध्यासीनममुं कदम्बनिकटे क्रीडाकुटीरस्थली-
मामीरेन्द्रकुमारमत्र रभसादालोकयन्त्याः पुरः।
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णोन्मादोत्थत्वादबुद्धिपूर्वकयत्नवती॥२५॥ बुद्धिपूर्वकयत्नवतीमपि तामुदाहर्तुमाह—यथा वेति। रतिमञ्जरी स्वसखीमाह—मृगेति। मालिनी मालावती तन्नामछन्दश्च॥२६॥ तात्कालिकमिति। अनेन प्रियसङ्गारम्भकाल एव लक्ष्यते॥२७॥ अभिसार्यानीतां श्रीराधांश्रीकृष्णाग्रे वाम्यं कुर्वाणा वीरा प्राह—स्मितं रुणत्सीति। स्मितेन मुखचन्द्रव्यापारवैशिष्ट्यं निरास्थत्तिरस्कृतवती॥२८॥ नेत्रव्यापारवैशिष्ट्यं दर्शयितुमाह— यथा वेति। अभिसार्यानीतां श्रीराधां वृन्दा प्राह— अध्यासीनमिति। दुग्धसमुद्रस्य सुन्दरलहरीणामिव
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॥२६॥२७॥ निरास्थत् निरस्तवती॥२८॥ दुग्धेत्यादिना स्मितमेव
दिग्धा दुग्धसमुद्रमुग्धलहरी लावण्यनिस्यन्दिभिः
कालिन्दी तव दृक्तरङ्गितभरैस्तन्वङ्गि गङ्गायते॥२९॥
** अथ विच्छित्तिः—**
आकल्पकल्पनाल्पापि विच्छित्तिः कान्तिपोषकृत्।
** यथा—**
माकन्दपत्रेण मुकुन्दचेतःप्रमोदिना मारुतकम्पितेन।
रक्तेन कर्णाभरणीकृतेन राधामुखाम्भोरुहमुल्ललास॥३०॥
** यथा वा हरिवंशे—**
एकेनामलपत्रेण कण्ठसूत्रावलम्बिना।
रराज बर्हिपत्रेण मन्दमारुतकम्पिना॥३१॥
सखीयत्नादिव धृतिर्मण्डनानां प्रियागसि॥३२॥
सेर्ष्यावज्ञा वरस्त्रीभिर्विच्छित्तिरिति केचन।
** यथा—**
मुद्रां गाढतरां विधाय निहिते दूरीकुरुष्वाङ्गदे
ग्रन्थिं न्यस्य कठोरमर्पितमितः कण्ठान्मणिं भ्रंशय।
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लावण्यं निस्यन्दयितुं शीलं येषांतैर्दिग्धा निचितेति स्मितं व्यञ्जितम्॥२९॥ वृन्दा नान्दीमुखीमाह— माकन्देति॥३०॥ श्रीकृष्णेऽप्युदाहर्तुमाह—यथा वेति। वैशम्पायनो व्रजविहारिणं श्रीकृष्णं वर्णयति—वर्हिपत्रेण मयूरपक्षेण। कीदृशेन। अमलानि पत्राणि धात्र्यादिदलानि। यद्वा आमलानि आमलक्या एव दलानि। तच्चतुर्दिक्शोभार्थं वल्लीसूत्रेण प्रोतानि यत्र तेन। ‘आमलं कमलं कुष्ठम्’ इति वैद्यकदृष्टेः॥३१॥ प्रियागसि प्रियकर्तृकेऽपराधे सतीर्ष्यावज्ञाभ्यां सह वर्तमाना॥३२॥ मानिनी श्रीराधा विशाखामाह—गाढतरामिति। कठोरमिति।आभ्यां स्वयं दूरीकरणसामर्थ्यं द्योतितम्॥ तेन च त्वमेव मल्लाघवं
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व्यञ्जितम्। ततश्च कालिन्द्यां गङ्गायमानत्वं व्यक्तम्॥२९॥३०॥ प्रियागसि
मुग्धे कृष्णभुजङ्गदृष्टिकलयादुर्वारया दूषिते
रत्नालंकरणे मनागपि मनस्तृष्णां न पुष्णाति मे॥३३॥
** अथ विभ्रमः—**
वल्लभप्राप्तिवेलायां मदनावेशसंभ्रमात्॥३४॥
विभ्रमो हारमाल्यादिभूषास्थानविपर्ययः।
** यथा विदग्धमाधवे—**
धम्मिल्लोपरि नीलरत्नरचितो हारस्त्वयारोपितो
विन्यस्तः कुचकुम्भयोः कुवलयश्रेणीकृतो गर्भकः।
अङ्गे चर्चितमञ्जनं विनिहिता कस्तूरिका नेत्रयोः
कंसारेरभिसारसंभ्रमभरान्मन्ये जगद्विस्मृतम्॥३५॥
** यथा वा श्रीदशमे—**
लिम्पन्त्यः प्रमृजन्त्योऽन्या अञ्जन्त्यः काश्च लोचने।
व्यत्यस्तवस्त्राभरणाः काश्चित्कृष्णान्तिकं ययुः॥३६॥
अधीनस्यापि सेवायां कान्तस्यानभिनन्दनम्॥३७॥
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कुर्वती विपक्षायसे इति ध्वनिः॥ नन्वलंकारेण किमपराद्धं, तत्राह—मुग्धे इति। तव ज्ञानं नास्तीति भावः। कृष्णभुजङ्गेति। दृष्ट्वैव विषवर्षणादेषु विषं लग्नमिति भावः। तद्दृष्टिविषदिग्धेषु मदङ्गेषु पुनर्विषदाहार्पणमयुक्तमिति भावः॥३३॥ वल्लभप्राप्त्यर्थं वल्लभनिकटस्थानगमनार्थं या वेला अभिसारसमयस्तस्यां हारादीनां स्थानविपर्ययः। अयथास्थानधृतिरित्यर्थः॥३४॥ ललिता श्रीराधामाह—धम्मिल्लेति। गर्भकः केशोचितमाल्यम्॥३५॥ आर्षमुदाहर्तुमाह— यथा वेति॥३६॥ वामतोद्रेकादनभिनन्दनं वस्तुतस्तु मनसा त्वभिनन्दनम-
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प्रियकर्तृकेऽपराधे सति॥३१॥३२॥३३॥३४॥३५॥३६॥ कान्तस्येति। मनसाभिनन्दनं तु वर्तत एवेति भावः। तर्हि कथं तत्राह— वामतोद्रेकात् वाङ्मात्रेण कौटिल्यातिशयात्। प्रणयविशेषस्य तथैव स्वभाव इति भावः।
विभ्रमो वामतोद्रेकात्स्यादित्याख्याति कश्चन।
** यथा—**
त्वं गोविन्द मयासि किं नु कबरीबन्धार्थमभ्यर्थितः
क्लेशेनालमबद्ध एव चिकुरस्तोमो मुदं दोग्धि मे।
वक्रस्यापि न मार्जनं कुरु घनं घर्माम्बु मे रोचते
नैवोत्तंसय मालतीर्मम शिरः खेदं भरेणाप्स्यति॥३८॥
** अथ किलकिञ्चितम्—**
गर्वाभिलाषरुदितस्मितासूयाभयक्रुधाम्॥३९॥
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स्त्येवेति भावः॥ कश्चनाख्यातीति। अन्ये विव्वोकोऽयमित्याचक्षते इत्यर्थः॥३७॥ मया किमर्थमभ्यर्थित इति। ममैवानभिज्ञत्वं त्वां प्रयुञ्जानाया दोष इति भावः। क्लेशेनालमिति। बहुतरप्रयत्नपौनःपुन्येनापि मद्दासीभिरिव त्वया कबरीनिर्माणमशक्यमिति भावः। अत्र हेतुर्गोविन्देति। त्वया गोचारणशास्त्रमेवाबाल्यमभ्यस्तं नत्वेतत्कलाशास्त्रमिति भावः। ‘गोविन्दो गोविचारणादिति’ क्रमदीपिकोक्तेः। ननु तर्हि दास्य एव करणीयस्तत्राह—अबद्ध **एवेति।**त्वत्प्रेयानिदमपि न जानातीति त्वां मां च हसिष्यन्तीति ता नाहूयन्त इति भावः। मुदं दोग्धीति।त्वत्कृतप्रसाधनादप्रसाधनमेव वरं शोभत इति भावः। मार्जनं न कुर्विति मुखमार्जनप्रकारस्तावदन्य एव स च त्वया दुर्ज्ञेय एवेति भावः। तत्रापि हेतुर्गोविन्देति त्वं गवां मुखपृष्ठपिच्छादिमार्जनकण्डूयनादिविद्यायां पारं गतोऽसि न वाङ्गनाङ्गमार्जनकलायामिति भावः। गां विन्दतीति तत्पदव्युत्पत्तेः। मालतीर्बह्वीर्नोत्तंसय शिरोभूषणं न कुरु। तत्र हेतुर्ममेत्यादि।खेदं भरेणेति। नहि गुरुत्ववानवतंसः प्रशस्यते मद्दासीभिर्हि कृतवृत्ताभिर्मालतीभिरवतंसविरचनान्न तेन मम भाव इति भाव इति। अत्रापि हेतुर्गोविन्देति। गोवर्धनधारणात् प्राप्तगोविन्दाभिधानात् त्वमपि महाल्ँलोको गोवर्धनपर्वतमपि स्वशिरसि भारं न मन्यसे मम तु निकृष्टायाः शिरो मालतीकुसुमस्तोमभरेणापि व्यथत इति भावः॥ ‘गोविन्देति चाभ्यधा’दिति स्मृतेः॥३८॥ ‘गर्वादीनां
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तदुक्तम्—अहेरिव गतिः प्रेम्ण इति॥३७॥३८॥३९॥ तथैवोदाहर-
संकरीकरणं हर्षादुच्यते किलकिञ्चितम्।
** यथा—**
मया जातोल्लासं25 प्रियसहचरीलोचनपथे
बलान्न्यस्ते राधाकुचमुकुलयोः पाणिकमले।
उदञ्चद्भ्रूभेदं सपुलकमवष्टम्भि वलितं
स्मराम्यन्तस्तस्याः स्मितरुदितकान्तद्युति मुखम्॥४०॥
** यथा वा दानकेलिकौमुद्याम्—**
अन्तःस्मेरतयोज्ज्वला जलकणव्याकीर्णपक्ष्माङ्कुरा
किंचित्पाटलिताञ्चला रसिकतोत्सिक्तापुरः कुञ्चती।
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सप्तानां संकरीकरणं मिश्रणं युगपत् प्राकट्यमित्यर्थः। हर्षादिति। तत्र हर्ष एव हेतुरित्यर्थः॥ ३९॥ श्रीकृष्णःसुवलमाह—मयेति। उदञ्चद्भ्रूभेदमित्यसूयाक्रोधौ, सपुलकमित्यभिलाषः, अवष्टम्भि तिर्यक्तया स्तब्धमिति गर्वः, वलितं किंचित्परावृत्तमिति भयम्, स्मितरुदिताभ्यां कान्ता द्युतिर्यस्येति स्मितरुदिते शाब्दे एवेति सप्त॥४०॥ न केवलमङ्गस्पर्श एव किलकिञ्चितं स्यात् किंतु वर्त्मरोधनादावपि स्यादित्याख्यातुमाह—यथा वेति। कोऽपि नटेन्द्रो रसिकसभ्यान्नान्दीप्रयोगेणानन्दयति—अन्तरिति। पथि दानघट्टमार्गे श्रीमाधवेन शुल्कग्रहणमिषेण रुद्धायाः श्रीराधाया दृष्टिर्वोयुष्माकं श्रियं प्रेमोत्थस्तम्भकम्पा-
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न्नाह— यथेति। अवष्टम्भि तिर्यक्तया सखीमवलम्वमानमिति गर्व। सपुलकमित्यभिलाषः। स्मितरुदिताभ्यां कान्तद्युतिकं मुखं यत्रेति। स्मितरुदिते शाब्दे एव। उदञ्चद्भ्रूभेदमित्यसूयाक्रोधौ। वलितं किंचित् परावृत्तमिति भयम्। तस्या इति। समासेनोपसर्जनीभूतामपि श्रीराधामेव गृह्णाति अन्यस्या अतिविप्रकृष्टत्वात्॥४०॥ रसिकोत्सिक्तेति गर्वः। उत्सेको ह्यत्र चित्तौन्नत्यम्।मधुरेत्यभिलाषः। व्याभुग्नेत्यसूया।स्मितरुदिते स्पष्टे।पुरो मीलितेति भयम्। किंचित्
रुद्धायाः पथि माधवेन मधुरव्याभुग्नतारोत्तरा
राधायाः किलकिंचितस्तवकिनी दृष्टिः श्रियं वः क्रियात्॥४१॥
** अथ मोट्टायितम्—**
कान्तस्मरणवार्तादौ हृदि तद्भावभावतः॥४२॥
प्राकट्यमभिलाषस्य मोट्टायितमुदीर्यते।
** यथा—**
न ब्रूते क्लमवीजमालिभिरलं पृष्टापि पाली यदा
चातुर्येण तदग्रतस्तव कथा ताभिस्तदा प्रस्तुता।
तां पीताम्बरजृम्भमाणवदनाम्भोजा क्षणं शृण्वती
बिम्बोष्ठी पुलकैर्विडम्बितवती फुल्लां कदम्बश्रियम्॥४३॥
** अथ कुट्टमितम्—**
स्तनाधरादिग्रहणे हृत्प्रीतावपि संभ्रमात्॥४४॥
वहिः क्रोधो व्यथितवत्प्रोक्तं कुट्टमितं बुधैः।
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दिशोभां क्रियात्। कीदृशी दृष्टिः। किलकिञ्चितमेव स्तबकनानाभावपुष्पगुच्छः तद्वतीति दृष्टेर्वल्लित्वमारोपितम्। तत्रापि श्रियं क्रियादिति कल्पवल्लीत्वम्, अन्तः स्मेरतयेति स्मितम्, जलकणेति रुदितम्, किंचित् पाटलितेति क्रोधः। ‘श्वेतरक्तस्तु पाटल’ इत्यमरः। अत्र श्वेतिमा स्वाभाविक एव, रक्तिमा क्रोधात्, रसिकतयोत्कर्षेण सिक्तेत्यभिलाष, पुर कुञ्चतीति भयम्, मधुरं यथा स्यात्तथा व्याभुग्ना वक्राया तारा कनीनिका तयोत्तरा श्रेष्ठा इति गर्वासूये। ‘उपर्युदीच्यश्रेष्ठेष्वप्युत्तरः’ इति नानार्थः॥४१॥ तद्भावः स्थायी रतिस्तस्य भावतो भावनातः॥ ४२॥ वृन्दा श्रीकृष्णमाह— न ब्रूत इति॥४३॥ स्तनाधरादीत्यत्र विविक्त इति शेषो देयः। सखीदृष्टिपथे तु किलकिञ्चितमेव स्यादिति ज्ञेयम्
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पाटलिताञ्चलेति कुत्। किलकिञ्चितरूपो यः स्तवको गाम्भीर्यमयत्वादस्फुटो
** यथा—**
करौद्धत्यं हन्त स्थगय कबरी मे विघटते
दुकूलं च न्यञ्चत्यघहर तवास्तां विहसितम्।
किमारब्धः कर्तु त्वमनवसरे निर्दय मदात्
पताम्येषा पादेवितर शयितुं मे क्षणमपि॥४५॥
** यथा वा—**
न भ्रूलतां कुटिलय क्षिप नैव हस्तं
वक्रं च कण्टकितगण्डमिदं न रुन्धि।
प्रीणातु सुन्दरि तवाधरबन्धुजीवे
पीत्वा मधूनि मधुरे मधुसूदनोऽसौ॥४६॥
** अथ विव्वोकः—**
इष्टेऽपि गर्वमानाभ्यां विव्वोकः स्यादनादरः॥४७॥
** अत्र गर्वेण यथा—**
प्रियोक्तिलक्षेण विपक्षसंनिधौ
स्वीकारितां पश्य शिखण्डमौलिना।
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॥४४॥ संभुक्तप्रसाविता श्रीराधा पुनरपि संभुक्तकामं श्रीकृष्णमाह—करौद्धत्यमिति॥ ४५॥ अत्रोदाहरणे रतिश्रान्तायाः शिप(श) यिपोस्तस्या हृत्प्रीत्यभावः संभवेदित्यपरितुष्यन्नाह— यथा वेति। श्रीकृष्णः कदाचिद्रहप्राप्तां श्रीराधां कण्ठे गृहीत्वाह— न भ्रूलतामिति। कण्टकितगण्डमिति हृत्प्रीतिचिह्नम्। असौ मधुसूदनो मल्लक्षणभ्रमरः॥४६॥ इष्टेऽपि कान्तदत्तवस्तुनि कान्ते वा॥४७॥ पुष्पमवचिन्वती रूपमञ्जरी कुवलयमालां दूराद्दर्शयन्त्याह — विपक्षसंनिधौ संध्यादेवीपूजापर्वणि श्रीराधायाश्चन्द्रावल्याश्च विनाभूते सर्वव्रजसुन्दरीणां ससदीत्यर्थ। प्रियोक्तिलक्षेणेति। प्रियतमे श्यामे, अद्भुत-
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*भावविशेषस्तद्वती॥४१॥४२॥४३॥४४॥४५॥ न **भ्रूलतामिति।*कृष्णस्यैव वचनम्॥४६॥ इष्टेऽपि कान्तार्पितवस्तुन्यपि कान्तेवा। अधी-
श्यामातिवामा हृदयंगमामपि
स्रजं दराघ्राय निरास हेलया॥४८॥
** यथा वा—**
स्फुरत्यग्रे तिष्ठन् सखि तव मुखक्षिप्तनयनः
प्रतीक्षां कृत्वायं भवदवसरस्याघदमनः।
दृशोच्चैर्गाम्भीर्यग्रथितगुरुहेलागहनया
हसन्तीव क्षीबे त्वमिह वनमालां रचयसि॥४९॥
** मानेन यथा—**
हरिणा सखि चाटुमण्डलीं क्रियमाणामवमन्य मन्युतः।
न वृथाद्य सुशिक्षितामपि स्वयमध्यापय गौरि शारिकाम्॥५०॥
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शित्पमयीयं मत्पाणिनिर्मिता माला तवैव कण्ठदेशे स्थितिमवाप्य सफला भवत्वित्यादिना।हृदयंगमामपीति। एकान्ते चेत्प्राप्ताभविष्यत्तदेयं माला हृदय एव श्यामया अधारयिष्यत इति भावः। दराघ्रायेति। आघ्राणमपि त्वदनुरोधेनैव कृतं वस्तुतस्त्वीदृश्यो माला मत्किंकरीभिरपि न परिधीयन्त इति ज्ञापयामास।निरास चिक्षेप॥४८॥ कान्ते चानादरं दर्शयितुमाह—**यथा वेति।**श्यामला श्रीराधामाह— स्फुरतीति। वनादपराह्ने आगत्य निःसङ्ग एव तमुद्यानं प्रविश्य कदा वा वनमाला पूर्णा भविष्यति, कदा वा क्षणमवसरं प्राप्स्यामि, प्राप्तेऽवसरे मम मनोरथं पूरयिष्यति नवेति ध्यायन्नित्यर्थ। त्वं तु दृशा हसन्तीव अहो कामिनः कस्य न कामातुरत्वमिति श्रीकृष्णमवजानतीवेत्यर्थः। दृशा कीदृश्या।गाम्भीर्यपुष्पैर्ग्रथिता गुरुहेलैव माला तया गहनया दुर्गमया किमियं मयि कृपावती कठोरा वेति तेन दुर्ज्ञेयभावया। क्षीबे हे मत्ते इति। मत्तानां हि दया नोत्पद्यत एवेति भावः। कराभ्या पुष्पमालां रचयसि दृशा दुर्ज्ञेयभावमालां सृजसि श्रीकृष्णे तु दयां न प्रकटयसि। किं ते चरितमिदमसमञ्जसमिति व्याजस्तुतिः॥४९॥ कलहान्तरितां गौरी प्रति तत्सखी प्राह— हरिणेति। तेन गते सति हे शारिके, हरे, कृष्ण, गोविन्देति वदेति शारिकाध्यापनमिषेण पश्चा-
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नस्यापीति विभ्रमलक्षणस्य परमतत्वान्नानेन साकर्यम्॥४७॥४८॥४९॥
** अथ ललितम्—**
विन्यासभङ्गिरङ्गानां भ्रूविलासमनोहरा।
सुकुमारा भवेद्यत्र ललितं तदुदीरितम्॥५१॥
** यथा—**
सभ्रूभङ्गमनङ्गबाणजननीरालोकयन्ती लताः
सोल्लासं पदपङ्कजे दिशि दिशि प्रेङ्खोलयन्त्युज्ज्वला।
गन्धाकृष्टधियः करेण मृदुना व्याधुन्वती षट्पदान्
राधा नन्दति कुञ्जकन्दरतटे वृन्दावनश्रीरिव॥५२॥
** अथ विकृतम्—**
ह्रीमानेर्ष्यादिभिर्यत्र नोच्यते स्वविवक्षितम्।
व्यज्यते चेष्टयैवेदं विकृतं तद्विदुर्बुधाः॥५३॥
** तत्र हिया यथा—**
निशमय्य मुकुन्द मन्मुखाद्भवदभ्यर्थितमत्र सुन्दरी।
न गिराभिननन्द किंतु सा पुलकेनैव कपोलशोभिना॥५४॥
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त्तापजर्जरिता स्वप्राणरक्षार्थं तन्नामामृतमेवावलम्बसे इति सुशिक्षितामिति,स्वयमिति पदयोर्ध्वनिः॥५०॥५१॥ श्रीराधाप्रसाधनार्थं पुष्पान्यवचिन्वन् श्रीकृष्णो दूरात्तामवलोक्य वर्णयति— लताः सभ्रूभङ्गं सासूयं पश्यन्ती। अत्र हेतुःअनङ्गेति। युष्माकमेव पुष्पाणि वाणान् कृत्वा तैरनङ्गो मां प्रहरतीति यूयमेव मद्वैरिण्य इति भावः। प्रेहोलयन्ती चालयन्ती वृन्दावनस्य श्रीः संपत्तिरिव॥५२॥ विवक्षितमिति। पूर्वं मोट्टायिते कान्तवार्ताश्रवणेनाभिलाषव्यक्तिः स्वयमेव भवेदत्रतु न व्यक्तं वस्तु चेष्टया व्यज्यत इति भेदः॥५३॥ सुबलः श्रीकृष्णमाह— भवतोऽभ्यर्थितं हे प्रेयसि हे राधे, अद्य गोवर्धनकन्दरायां
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॥५०॥५१॥ प्रेवोलयन्ती चालयन्ती॥५२॥ विवक्षितमिति। पूर्वं मोट्टायितेऽभिलाषस्य व्यचिरत्र तु विवक्षितमात्रस्येति भेदः। कितूदाहरणेषुभावव्यक्तिरेव यद्दृश्यते तद्विवक्षितान्तर्गतत्वात्तेनाशेनैवेति ज्ञेयम्। केवल विवक्षितोदाहरणं
** यथा वा—**
न परपुरुषे दृष्टिक्षेपो वराक्षि तवोचित-
स्त्वमसि कुलजा साध्वी व प्रसीद विवर्तय।
इति पथि मया नर्मण्युक्ते हरेर्नववीक्षणे
सदयमुदयत्कार्पण्यं मामवैक्षत राधिका॥५५॥
** मानेन यथा—**
मय्यासक्तवति प्रसाधनविधौ विस्मृत्य चन्द्रग्रहं
तद्विज्ञप्तिसमुत्सुकापि विजहौ मौनं न सा मानिनी।
किंतु श्यामलरत्नसंपुटदलेनावृत्य किंचिन्मुखं
सत्या स्मारयति स्म विस्मृतमसौ मामौपरागीं श्रियम्॥५६॥
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मन्निर्मितं चित्रं द्रष्टुमवश्यमेवावगन्तव्यं यदि मामनुगृह्णासीति पुलकेनैव कस्माच्चिन्मिषाद्दर्शितेन भद्रमागमिष्यामीति ज्ञापयामासेत्यर्थः॥५४॥ अत्र पुलकस्य सात्विकत्वेन स्वभावोत्थत्वादस्पष्टचेष्टाभावात् (तेन) नायिकाकर्तृकं विज्ञापनमस्पष्टं नेत्याह— यथा वेति। विशाखा ललितां प्रति श्रीराधाचरित्रं विज्ञापयन्त्याह— **न परेति।**वक्रं विवर्तय परावर्तय।नर्मणि तस्या हृदयज्ञापनार्थमुक्ते सति सदयमानन्दयस्वेति प्रार्थ्यमानत्वेन दया वर्तते यत्र तद्यथा सात्तथा। उदयत्कार्पण्यमिति विशेषणसाहचर्यादैक्षतेति तथाभूतेक्षणक्रियैव चेष्टा तया चैकवारमपि श्रीकृष्णमवलोकयितुमाज्ञापयतान्यथा जीवितुमहं न प्रभविष्यामीति स्वविवक्षितं व्यञ्जितम्॥५५॥ श्रीकृष्ण उद्धवं प्रत्याह—मय्यीति। तस्य चन्द्रग्रहणस्य विज्ञप्तौ संप्रति चन्द्रग्रहणं वर्तते तदितो वहिर्निःसृत्य स्नानदानादिकाः क्रियाः कुर्विति विज्ञापने समुत्सुकापि। **मुखमावृत्येति।**मुखस्य चन्द्रत्वम्, संपुटस्य राहुत्वम्। तेन च दर्शितेनेत्यर्थ। विस्मितमिति। अहो बुद्धेरस्यापरा काष्ठा एतज्ज्ञापनमिषेण संप्रसाधनेन निराकृतवतीति मां परान्तीभूतं कृतम्
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तु मय्यासक्तवर्तात्येव॥५३॥५४॥ इति नर्मण्युक्ते सति। सदयं दयासहितं दयाविषयं यथा स्यात्तथा। उदयत् कार्पण्यं यथा स्यात्तथा मानवैक्षत॥५५॥
** ईर्ष्यया यथा—**
वितर तस्करि मे मुरलीं हृतामिति मदुद्धरजल्पविवृत्तया।
भ्रुकुटिभङ्गुरमर्कसुतातटे सपदि राधिकयाहमुदीक्षितः॥५७॥
अलंकारा निगदिता विंशतिर्गात्रचित्तजाः।
अमी यथोचितं ज्ञेया माधवेऽपि मनीषिभिः॥५८॥
कैश्चिदन्येऽप्यलंकाराः प्रोक्ता नात्र मयोदिताः।
मुनेरसंमतत्वेन किंतु द्वितयमुच्यते॥५९॥
मौग्ध्यं च किंचितं चेति किंचिन्माधुर्यपोषणात्।
** तत्र मौग्ध्यम्—**
ज्ञातस्याप्यज्ञवत्पृच्छा प्रियाग्रे मौग्ध्यमीरितम्॥६०॥
** यथा मुक्ताचरिते—**
कास्ता लताः क्व वा सन्ति केन वा किल रोपिताः।
कृष्ण मत्कङ्कणन्यस्तं यासां मुक्ताफलं फलम्॥६१॥
** चकितम्—**
प्रियाग्रे चकितं भीतेरस्थानेऽपि भयं महत्।
** यथा—**
रक्ष रक्ष मुहुरेष भीषणो धावति श्रवणचम्पकं मम।
इत्युदीर्य मधुपाद्विशकिता सखजे हरिणलोचना हरिम्॥६२॥
**
इत्यलंकारविवृतिः।**
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॥५८॥ श्रीकृष्ण सुवलमाह—वितरेति। भ्रुकुटिभङ्गुरमिति यत्त्वं मे चोरिकापवादं ददाति तदहमार्चायै सर्वमिदमुक्त्वा सुष्ठुतुभ्यमेतत्फलं दास्यामीति भ्रुकुट्या व्यञ्जितम्॥५७॥ कैश्चित्साहित्यदर्पणकृदादिभिरन्येऽपि तपनविक्षेपकुतूहलाद्याः। मुनेर्भरतस्य॥५८॥५९॥ ६०॥ श्रीसत्यभामा श्रीकृष्णमाह—कान्ता इति॥६१॥ याचित्सखी काचिदाह—रक्ष रक्षेति। एषमधुपः। यद्यपि
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॥५६॥ विवृत्तया परावृत्तया॥५७॥५८॥५९॥६०॥६१॥ चम्पकस्य
**
अथोद्भास्वराः।**
उद्भासते स्वधाम्नीति प्रोक्ता उद्भास्वरा बुधैः।
नीव्युत्तरीयधम्मिल्लस्रंसनं गात्रमोटनम्॥६३॥
जृम्भा घ्राणस्य फुल्लत्वं निश्वासाद्याश्चते मताः।
** तत्र नीविस्रंसनं यथा विदग्धमाधवे—**
नैरञ्जन्यमुपेयतुः परिगलन्मोदाश्रुणी लोचने
खेदोद्भूतविलेपनं किल कुचद्वन्द्वं जहौ रागिताम्।
योगौत्सुक्यमगादुरः स्फुरदिति प्रेक्ष्योदयं संगिनां
राधे नीविरियं तव श्लथगुणा शङ्केमुमुक्षां दधे॥६४॥
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मधुपश्चम्पकं न धावति तथापि स्वमुखामोदेनागतस्य तस्य तथावगमात्तथोक्तम्॥६२॥ इत्यलंकारविवृतिः॥ अथोद्भास्वराः।
उद्भासन्ते प्रकाशन्ते। ‘स्थेशभास-’ इत्यादिना वरच्। स्वधाम्निभाववज्जनदेहे। आद्यशब्देन विलुठितगीतक्रोशनलोकानपेक्षिता घूर्णाहिक्कादयो ज्ञेयाः॥६३॥गौरीतीर्थे श्रीकृष्णेन सह विहरन्तीं श्रीराधां दूरादालोक्य वृन्दा ता नीचैःसंबोध्य वर्णयति— नैरञ्जन्यमञ्जनमुपाधिरविद्या तद्राहित्यम्। संसारान्मोक्षमित्यर्थः। पक्षे निष्कज्जलत्वम्।तत्रोभयत्र हेतुः—परिगलदिति। भोदाश्रूणि भक्तिसुखोत्थानि कामसुखोत्थानि च। रागिणां रागो विषयासक्तिस्तद्वत्तां कुङ्कुमरागवत्ता च जहौ। तत्रोभयत्र हेतुः स्वेदो भक्तिसुखोत्थः कामसुखोत्थश्र तेनोद्भूतं खण्डितं विशिष्टं लेपनं लेपो विषयेन्द्रियसंसर्गः, पक्षे चन्दनकुङ्कुमादिमयी चर्चा यत्र तत्। योगेऽष्टाङ्गयोगे श्रीकृष्णवक्ष स्पर्शे च। तत्रोभयत्र हेतुः स्फुरद्देदीप्यमानं धृतस्पन्दनं चेति सङ्गिना चतुर्णामुदयं मोक्षसुखसंपत्तिं कामसुखसंपत्तिं च। गुण सत्त्वादिसूत्रं च। मुमुक्षां मोक्षस्पृहां स्खलनेच्छां च। अत्र नेत्रकुच-
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मधुपास्पृहणीयत्वेऽपि विलासादेव तथोक्तिरित्यस्थानत्वमिति स्पष्टम्। हल्लकमिति वा पाठः॥६२॥ इत्यलंकारविवृतिः॥ नैरञ्जन्यमिति। अत्र श्लेषपक्षे तेषामधिकारिणां क्रमान्यूनत्वमवगतम्। तच्चनीव्याः क्रमप्राप्तं प्रथमारम्भं वोधयितुं
** उत्तरीयस्रंसनं यथा—**
तव हृदि मम रागात्कोऽपि रागो गरिष्ठः
स्फुरति तदपसृत्य व्यक्तमेतं करोमि।
इति खलु हृदयात्ते राधिके रोधकारि
च्युतमिव पुरतो मे मञ्जुमाञ्जिष्ठवासः॥६५॥
** धम्मिल्लस्रंसनं यथा—**
स्फुरति मुरद्विषि पुरतो दुरात्मनामपि विमुक्तिदे गौरि।
नाद्भुतमिदं यदीयुः संयमिनस्ते कचा मुक्तिम्॥६६॥
** गात्रमोटनं यथा—**
व्रजाङ्गने वल्लवपुङ्गवस्य पुरः कुरङ्गीनयना सलीलम्।
अप्यङ्गभङ्गं किल कुर्वतीयमनङ्गभङ्गं तरसा व्यतानीत्॥६७॥
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योर्नीवीनां क्रमेण ज्ञानदौर्बल्यान्मोक्षसुखे कामसुखे च क्रमेणैव न्यूनाधिकारित्वं व्यञ्जितम्॥ ६४॥ श्रीकृष्णः स्वदर्शनेन श्रीराधाया उत्तरीयस्खलनमवलोक्य ता परिहसति— तवेति। हे राधे, तव माञ्जिष्ठंमञ्जिष्ठया रक्तं वासः कर्तृ। मम पुरतस्तव हृदयात् इति विचार्य च्युतं निःसृतम्। इवेत्युत्प्रेक्षायाम्। तत्र वासोवदिति मम रागात् रक्तिम्नःसकाशात्, पक्षे कोधात्तव हृदि रागः कोऽप्यनिर्वचनीयो रागः स्फुरति। ततस्तस्मादितोऽपसृत्य एतं रागं व्यक्तं लोकदृष्टं करोमीति तेन च प्रेयसि राधे, तव वास ईर्ष्यया चेदपसृतमपसरतु का चिन्ता संप्रति मम हृदयमेव सौहार्देन एतं रागमाच्छादयत्विति सहसा तामालिलिङ्गेति ध्वनिः॥६५॥ वृन्दा श्रीराधां सनर्माह— स्फुरतीति। सयमिनो वशीकृतेन्द्रियाः, पक्षे वृद्धाः॥६६॥ नान्दीमुखी वृन्दामाह—व्रजेति। अङ्गभङ्गंगात्रमोटनम्।अनङ्गभङ्गंकन्दर्पतरङ्गम्॥६७॥
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कृतम्।उदयं स्वस्वाधिकारानुरूपप्रकाशम्॥६३॥६४॥ इति वेत्यन्वयः॥६५॥ अङ्गभङ्गंगात्रमोटनम्, अनङ्गभङ्गंकामतरङ्गम्॥६६॥६७॥
** जृम्भा यथा—**
पुष्पैरवेत्य विशिखैर्भवतीमसाध्यां
साध्वीमधीत्य मदनः किल जृम्भणास्त्रम्।
चन्द्रावलि प्रसभमेव वशीचकार
यद्गोष्ठसीमनि मुहुः सखि जृम्भसेऽद्य॥६८॥
** घ्राणफुल्लत्वं यथा—**
रचितशिखरशोभारम्भमम्भोरुहाक्षी
श्वसितपवनदोलान्दोलिना मौक्तिकेन।
पुटयुगमतिफुल्लं बिभ्रती नासिकायां
मम मनसि विलग्ना दर्शनादेव राधा॥६९॥
यद्यप्येते विशेषाः स्युर्मोट्टायितविलासयोः।
शोभाविशेषपोषित्वात्तथापि पृथगीरिताः॥७०॥
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श्रीकृष्णश्चन्द्रावलीमाह—पुष्पैरिति। असाध्यामवश्यामधीत्यस्वशस्त्रगुरोः सकाशात् पठित्वास्वयमेवाधिगत्येति वा॥६८॥ श्रीकृष्णः सुवलमाह— रचितेति। पुटयुगं कीदृशम्। मौक्तिकेन नासालंकारवर्तिना अधरारुण्योपरक्तेन रचितः शिखरस्य पक्वदाडिमबीजाभस्य माणिक्यस्येव शोभारम्भो यत्र तत्। पुटयुगस्य स्वच्छत्वान्मौक्तिकनिष्ठश्वेतिम्नोरक्तिमच्छविलग्नत्वादित्यर्थः। ननु नासालंकारो वामनासापुटाग्रस्थ एव भवेत् कथं पुटयुगं तथाभूतमभूदित्यत आह— श्वसितपवनो निश्वासानिल एव दोला प्रेङ्खातयाआन्दोलनशीलेन। तेनाग्रवर्तिनो मौक्तिकस्यान्दोलनात् पुटद्वयस्यापि तच्छविलग्नत्वसंभवः॥६९॥ पृथगित्युद्भास्वरशब्देनोच्यन्त इत्यर्थः। आदिशब्दगृहीतविलुठिताद्युदाहरणानि— ‘नवानुरागेण तवावशाङ्गीवनस्रगामोदमवाप्य भत्ता। व्रजाङ्गनेसा कठिने लुठन्ती गात्रं सुगात्री व्रणयांचकार॥’ इत्यादीनि भक्तिरसामृतादेवावगन्तव्यानि
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अधीत्येत्यत्र प्रयुज्येति पाठान्तरम्॥६८॥ रचितेति। श्रीकृष्णस्य भावना। आरम्भशब्दोऽत्र परिपाटीतात्पर्यकः। युगशब्दोऽत्र मौक्तिकस्य तत्तत्पुटमध्य-
२१ उज्ज्व०
** अथ वाचिकाः—**
आलापश्च विलापश्च संलापश्च प्रलापकः।
अनुलापोऽपलापश्च संदेशश्चातिदेशकः॥७९॥
अपदेशोपदेशौ च निर्देशो व्यपदेशकः।
कीर्तिता वचनारम्भा द्वादशामी मनीषिभिः॥७२॥
** तत्रालापः—**
चाटुप्रियोक्तिरालापः
** यथा श्रीदशमे—**
कास्त्र्यङ्ग ते कलपदामृतवेणुगीत-
संमोहितार्यचरितान्न चले त्रिलोक्याम्।
त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं
यद्गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यबिभ्रन्॥७३॥
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॥७०॥७१॥७२॥ व्रजदेव्यःश्रीकृष्णमाहुः।का स्त्रीति। वेणुगीतेति। गुणानां मोहनत्वम्।त्रिलोक्यामिति। दूरवर्तिनीषु स्त्रीषु निरीक्ष्य। रूपमिति। निकटवर्तिनीषुगुणस्य रूपस्य च। ननु केवलं मन्निष्ठयोर्गुणरूपयोरेव मोहनत्वम्, स्त्रीनिष्ठस्य कामस्यापि तत्र साहाय्यदानादि चेत्तत्राहुः— गोद्विजेति। गावः पक्षिणो मृगाश्च द्रुमाश्च मुह्यन्तीति तेषां कुतः काम इति। कृपया अस्मानङ्गीकुर्विति भावः। ननु नायिकानां संभोगप्रार्थनामयी चाटुप्रयोक्ती रसामासस्तस्मादरसिका युष्मानङ्गीकरोमीति चेत्तत्र सरस्वत्येव समादधाति— गीतसंमोहितेति। त्वया मुरलीगीतेनोन्माद्यमोहितानामासां स्वभावविपर्ययः कृतः। तेन मधुपानेनोन्मादितानां वधूनां निर्लज्जता संभोगप्रार्थनाद्या न दोषाः प्रत्युन रसावहत्वाद्गुणा एवं यथा तथैवासामपीति भावः॥७३॥
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स्थत्वंमर्यादायां कृतं छिद्रमवलम्ब्य बोधयति॥६९॥७०॥७१॥७२॥
** यथा वा विदग्धमाधवे—**
कठोरा भव मृद्वी वा प्राणास्त्वमसि राधिके।
अस्ति नान्या चकोरस्य चन्द्रलेखां विना गतिः॥७४॥
** अथ विलापः—**
विलापो दुःखजं वचः॥७५॥
** यथा श्रीदशमे—**
परं सौख्यं हि नैराश्यं स्वैरिण्यप्याह पिङ्गला।
तज्जानतीनां नः कृष्णे तथाप्याशा दुरत्यया॥७६॥
** संलापः—**
उक्तिप्रत्युक्तिमद्वाक्यं संलाप इति कीर्त्यते।
** यथा पद्यावल्याम्—**
उत्तिष्ठारात्तरौ मेतरुणि मम तरोः शक्तिरारोहणे का
साक्षादाख्यामि मुग्धे तरणिमिह रवेराख्यया का रतिर्मे।
वार्तेयं नौप्रसङ्गे कथमपि भविता नावयोः संगमार्था
वार्तापीतिस्मितास्यं जितगिरमजितं राधयाराधयामि॥७७॥
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नायकस्य तु चाटुप्रियोक्तिर्नायिकायां स्वत एव सुरसेति वक्तुमाह—**यथा वेति।**चन्द्रलेखामिति द्वितीया। चन्द्रमपि विना किंपुनः पूर्णचन्द्रमिति भावः॥७४॥७५॥ उद्धवयाने गोप्य आहुः—**परमिति।**श्रीकृष्णे आशा तु दुरतिक्रमेति पिङ्गलायाः श्रीकृष्णविषयिण्याशा नासीदिति। तस्या अस्माकमिव न दुःखमिति भावः॥७६॥ मानसगङ्गायां नौकाविनोदी श्रीकृष्णः श्रीराधामाह— उत्तिष्ठेति। मम तरौ नौकायामुत्तिष्ठ आरोहणं कुरु। ततः श्रीराधा वक्रोक्तिप्रतिभया तरावित्यस्यार्थान्तरं दर्शयन्ती तं प्रत्याह— तरोवृक्षस्यारोहणे मम का शक्तिः। श्रीकृष्ण आह— मुग्धे मद्वचनानभिज्ञे, अहं तरणिं नौकामाख्यामि त्वं तरुं कथं प्रत्येषीति भावः। श्रीराधाह—रवेराख्येति। तरणिशब्देन रविं प्रत्येमीति भावः। श्रीकृष्ण आह— इयं नौप्रसङ्गेवार्ता अत्र नौशब्दस्यानेकार्थत्वाभावात् कथमर्थान्तरं कल्पयिष्यसीति। श्रीराधाह—**कथमपीति।**नौप्रसङ्गे आवयोः प्रसङ्गेवार्ता इति
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अबिभ्रन् अबिभरुः॥७३॥७४॥७५॥७६॥ तरावुत्तिष्ठ तरुमधिकृत्यो-
** प्रलापः—**
व्यर्थालापः प्रलापः स्यात्
** यथा—**
करोति नादं मुरली रली रली व्रजाङ्गनाहृन्मथनं थनं थनम्।
ततो विदूना भजते जते जते हरे भवन्तं ललिता लिता लिता॥७८॥
** अनुलापः—**
अनुलापो मुहुर्वचः॥७९॥
** यथा—**
कृष्णः कृष्णो नहि नहि तापिच्छोऽयं वेणुर्वेणुर्नहि नहि भृङ्गोद्घोषः।
गुञ्जागुञ्जानहि नहि बन्धूकाली नेत्रे नेत्रे नहि नहि पद्मद्वन्द्वम्॥८०॥
** अपलापः—**
अपलापस्तु पूर्वोक्तस्यान्यथा योजनं भवेत्।
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किं त्वंब्रूष इति भावः। इति तदनन्तरं स्मितास्यं प्रत्युत्तरदानाशक्तेः। स्मितमेव स्वपराभवगोपनार्थं कुर्वन्तमित्यर्थः॥७७॥ मधुपानेनोन्मत्ता श्रीराधा श्रीकृष्णमाह—करोतीति। अत्र रली रली थनं थनं जते जते लिता लितेति शब्दा व्यर्थाः॥७८॥७९॥ बन्धूकस्थलकमलाभ्यां मिलितं कमपि तमालपोतकमालोक्य श्रीराधा ललितां दर्शयन्ती सहर्षौत्सुक्यावेगमाह— कृष्णः कृष्ण इति। पश्चात् स्वयमेव विचार्य निश्चिनोति— नहि नहि किंतु तापिच्छस्तमालोऽयम्। एवं पादत्रयेऽपि निश्चयान्तसंदेहोऽयम्। यद्वा प्रथमत एव निश्चिनोति— कृष्ण कृष्ण इति। अतो हि नहि नहि तापिच्छ इति। एवं सर्वत्र॥८०॥ पूर्वोक्तस्य प्रथमं स्वेनैवोक्तस्य वाक्यस्य पुनःस्वेनैवान्यथा योजनमन्यार्थकरणमिति संलापादसौ भिद्यते॥ कलहान्तरिता श्रीराधा सौत्सुक्यं रहसि
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ध्वंस्थितिं कुर्वित्यर्थः॥७७॥७८॥७९॥ तापिच्छसगतस्थलपद्मं पुष्पितबन्धूकं च दृष्ट्वा भ्रान्त्याप्रलपन्तीं कांचित् प्रति काचिदाह—नेत्रे नेत्रे इति
** यथा—**
फुल्लोज्ज्वलवनमालं कामयते का न माधवं प्रमदा।
हरये स्पृहयसि राधे नहि नहि वैरिणि वसन्ताय॥८१॥
** संदेशः—**
संदेशस्तु प्रोषितस्य स्ववार्ताप्रेषणं भवेत्॥८२॥
** यथा—**
व्याहर मथुरानाथे मम संदेशप्रहेलिकां पान्थ।
विकला कृता कुहूभिर्लभते चन्द्रावली क्व लयम्॥८३॥
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विशाखामाह—फुल्लेति। तदैवाकस्मादागत्य ललिता सोपहासमाह—हरय इत्यादि। पुनः सभयप्रतिमं श्रीराधा तां प्रत्याह— नहि नहीति। हे चैरिणि, इदमपि प्रवादं दातुं त्वं समर्थासि इति भावः। अहं तु वसन्ताय स्पृहयामि। फुल्ला उज्ज्वला वनानां माला श्रेणी यतस्तस्मै माधवायेति। माधवशब्देन मया वसन्त एवाभिप्रेत इति भावः॥८१॥ प्रोषितस्य प्रवासगतस्य कान्तस्य स्थाने॥८२॥ पद्मा श्रीकृष्णं संदिशति—**व्याहर मथुरानाथ इति।**श्रीनन्दगोकुलं क्लिश्यतु नश्यतु वा तत्र तस्य न कापि क्षतिरिति भावः। किंतु स आत्मानमतिमुवुद्धिमन्तं मन्यत इत्यतो मे प्रहेलिकां वदत्विति भावः। कुहूभिरमावास्याभिः कोकिलध्वनिभिश्चविकला कलाहीना वैकल्ययुक्ता च कृता चन्द्रावली चन्द्रश्रेणी तन्नाम्नी गोपी च कुत्र लयं लभत इति। ततश्च तदुत्तररूपं पद्यं श्रीकृष्णेन तस्यै प्रेषितम्। तद्यथा—‘चन्द्रावली चेद्विकलीकृता स्यात् कुहूभिराप्नोतिहरौ लयं सा।हरिर्विवस्वानघमर्दनश्च लयः क्षयः स्यादुपगूहनं च॥’ इति। तेन प्रहेलिकाप्रेषणमिषेण स्वसख्या दशां ज्ञापयन्तीनां किमुपालभसे अहं तु तत्र शीघ्र गमिष्यन्नथ च नित्यमेव त्वत्सख्या सह रमे रमयामि च सापि च स्फूर्ति स्वप्नं वा मन्यत इति सैव चन्द्रावली रहसि तत्त्वतः प्रष्टव्येति ध्वनिः
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*॥८०॥८१॥८२॥ **व्याहरेति।*चन्द्रावलीसख्या उक्तिः। कुहूः कोकिलध्वनिरमावास्या च। चन्द्रावली तन्नाम्नी चन्द्रश्रेणी च।विकला वैकल्ययुक्ता कलाहीना च। विकला कृता चेत् तदा क्वलयं लभत इति प्रश्नः। कृष्णाख्ये
** अतिदेशः—**
सोऽतिदेशस्तदुक्तानि मदुक्तानीति यद्वचः।
** यथा—**
वृथा कृथास्त्वं विचिकित्सितानि मा गोकुलाधीश्वरनन्दनात्र।
गान्धर्विकाया गिरमन्तरस्थां वीणेव गीतिं ललिता व्यनक्ति॥८४॥
** अथापदेशः—**
अन्यार्थकथनं यत्तु सोऽपदेश इतीरितः॥८५॥
** यथा—**
धत्ते विक्षतमुज्ज्वलं पृथुफलद्वन्द्वं नवा दाडिमी
भृङ्गेन व्रणितं मधूनि पिबता ताम्रं च पुष्पद्वयम्।
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॥८३॥ मानिनीं श्रीराधां प्रणत्यादिभिः प्रसादयन्तं श्रीकृष्णं किमिह राधां, प्रणमसि इतः शीघ्रमपसर तत्रैव गत्वा तस्या एव पदयोर्मुहुः मुहुः पतेति ललितापरुषोक्त्याप्यागच्छन्तं श्रीराधिकामुखादुदेष्यमाणं किचन वचनं प्रतीक्षमाणं तं प्रति वृन्दाह— वृथेति। विचिकित्सितानि श्रीराधा स्वमुखेन किंचिन्मधुरं वा मां वक्ष्यतीति वृथा सदेहान् मा कृथाः। ‘विचिकित्सा तु संशयः’ इत्यमरः। यतो राधाया अन्तरस्थां हृदयस्थां गिरं ललिता स्ववचनेन व्यनक्ति वादयितुश्चित्तस्थं गीतं वीणेव॥८४॥ अन्यार्थेनान्याभिधेयेन कथनं प्रस्तुतस्य वस्तुनो यत्सूचनं सोऽपदेश इति। ईरित इतीति समाप्त्यर्थकं लक्षणस्यान्ते योजनीयम्। अन्यथा इतिपदस्य कर्मत्वेईरितमिति नपुंसकं स्यात्॥८५॥ नान्दीमुखी पौर्णमासीं प्रत्याह— धत्त इति। विक्षतं विना पक्षिणा शुकेन क्षतं फलद्वयं नवा नवीना
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पक्षे हराविति तु प्रत्युत्तरमुद्देश्यम्॥८३॥ वृथेति। स्वयमेव रचयित्वा ललितेयं वदतीति निष्प्रयोजनतया प्रतीतानि विचिकित्सितानि संदेहान्। ललितेति स्वनाम्ना स्वमेवोद्दिष्टम्॥ ८४॥ सोऽपदेशः कथमीरितस्तत्राह—इति। इत्थं तच्च किं तत्राह— अन्यार्थेन अन्येन वाच्येन यत्तु कथनं सूचनं तदित्यर्थः॥८५॥ श्यामलानाम्न्यांकथंचित् प्रोषिते पतिमन्ये कदाचिदेकान्तेऽभ्यञ्जनां कुर्वन्त्यामकस्मादतिसंकोचकारणस्यागमनं ज्ञापयन्ती सखी तच्चतस्मादपलपन्ती चातुरीविशेषेण प्राह— धत्त इति। विक्षतं पक्षिक्षतम्। इति सखीगिरमाकर्ण्येति
इत्याकर्ण्य सखीगणं गुरुजनालोके किल श्यामला
चैलेन स्तनयोर्युगं व्यवदधे दन्तच्छदौ पाणिना॥८६॥
** उपदेशः—**
यत्तु शिक्षार्थवचनमुपदेशः स उच्यते।
** यथा छन्दोमञ्जर्याम्—**
मुग्धे यौवनलक्ष्मीर्विद्युद्विभ्रमलोला
त्रैलोक्याद्भुतरूपो गोविन्दोऽतिदुरापः।
तद्वृन्दावनकुञ्जे गुञ्जद्भृङ्गसनाथे
श्रीनाथेन समेता स्वच्छन्दं कुरु केलिम्॥८७॥
** निर्देशः—**
निर्देशस्तु भवेत्सोऽयमहमित्यादिभाषणम्॥८८॥
** यथा—**
सेयं मे भगिनी राधा ललितेयं च मे सखी।
विशाखेयमहं कृष्ण तिस्रः पुष्पार्थमागताः॥८९॥
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दाडिमीयं धत्ते तथा भृङ्गेणेत्यादि। व्रणितं व्रणयुक्तीकृतमिति सखीगिरं समवधापयन्त्या सख्या वचनमाकर्ण्य कदा गुरुजनस्य श्वश्व्राआलोके तत्कर्तृदृष्टिक्षेपे सति व्यवदधे आच्छादयामास।‘अन्तर्धा व्यवधा पुंसि त्वन्तर्धिरपवारणम्’ इत्यमरः॥८६॥ तुङ्गविद्या मानिनीं श्रीराधां प्रत्याह—मुग्धे इति॥८७॥ सोऽयमिति पुंस्त्वेन निर्देशः सामान्यतो जन इत्यपेक्षया ज्ञेय॥८८॥ विशाखा श्रीकृष्णं पृच्छन्तमात्मनः परिचाययति—सेयमिति। ततश्च मया पुष्पकेदारिका एतदर्थमेव कृता यद्भवतीनां साध्वीनां देवोपासिकानां प्रत्यहं दर्शनभाग्यं भवेदित्यतो नित्यमेवपुष्पाण्यवचित्य क्षणमस्यां पुष्पशालायां विश्रम्य यथाशक्ति मह्यं पारितोषिकं किचिद्दत्त्वा गच्छतेति श्रीकृष्णस्य प्रत्युक्तिर्ज्ञेया॥८९॥
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कदा तत्राह—गुरोर्जनस्य दासीलक्षणस्यालोके दूराद्दर्शने सति॥८६॥८७॥
व्यपदेशः—
व्याजेनात्माभिलाषोक्तिर्व्यपदेश इतीर्यते।
** यथा—**
विलसन्नवकस्तबका काम्यवने पश्य मालती मिलति।
कथमिव चुम्बसि तुम्बीमथवा भ्रमरोऽसि किं ब्रूमः॥९०॥
अनुभावा भवन्त्येते रसे सर्वत्र वाचिकाः।
माधुर्याधिक्यपोषित्वादिहैव परिकीर्तिताः॥९१॥
**
इत्यनुभावाः।**
**
_____________**
**
अथ सात्त्विकाः—**
** तत्र स्तम्भः—स हर्षाद्यथा दानकेलिकौमुद्याम्—**
अभ्युक्ष्य निष्कं पतयालुना मुहुः
स्वेदेन निष्कम्पतया व्यवस्थिता।
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मालया सुखी श्रीकृष्णं विपक्षगोपीरतिलालसमवेक्ष्य तदग्रेभृङ्गमाह—विलसन्नवकेति। मालती जातिस्तन्नाम्नी गोपी च।स्तवको गुच्छः अतिशयोक्त्या स्तनश्च॥ काम्यवने पक्षे कामार्हेवने। कामिनस्तवावने पालने इति वा। भ्रमरो भृङ्गकामुकश्च, श्लेषेण भ्रमं रासीति तुम्बीचुम्वनात् पक्षद्वयेऽपि वैदग्धीलोपादुन्मत्तता सूचिता। एतौ निर्देशव्यपदेशौ दूतीप्रकरणोचितावपि सखीप्रेमानुभावप्रदर्शनार्थमत्रैवोक्तौ॥९०॥ सर्वत्र रसे शान्तप्रीतादावपि॥९१॥ इत्यनुभावविवृतिः॥
अथ सात्त्विकविवृतिः॥ श्रीकृष्णो मधुमङ्गलमाह—अभ्युक्ष्येति। निष्कं पदमभ्युक्ष्य पतयालुना पतनशीलेन स्वेदेन निष्कम्पतया पञ्च आलयः सख्यो यस्याः सा। पञ्चालिकाधर्मं पुत्रिकास्वभावं तेन राधिकायाः पञ्चालिका उपमेति
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॥८८॥८९॥९०॥९१॥ इत्यनुभावविवृतिः॥
- अथसात्त्विकाः। निष्कमभ्युक्ष्य पतयालुना पतनशीलेन स्वेदेन। पञ्चआलयो*
पञ्चालिकाकुञ्चितलोचना कथं
पञ्चालिकाधर्ममवाप राधिका॥१॥
** भयाद्यथा—**
घनस्तनितचक्रेण चकितेयं घनस्तनी।
बभूव हरिमालिङ्ग्यनिश्चलाङ्गी व्रजाङ्गना॥२॥
दिग्धोऽयम्।
** आश्चर्याद्यथा—**
तव मधुरिमसम्पदं विलक्ष्य त्रिजगदलक्ष्यतुलां मुकुन्द राधा।
कलय हृदि बलवच्चमत्क्रियासौ समजनि निर्निमिषा च निश्चला च॥३॥
** विषादाद्यथा—**
विलम्बमम्भोरुहलोचनस्य विलोक्य संभावितविप्रलम्भा।
संकेतगेहस्य नितान्तमङ्केचित्रायिता तत्र बभूव चित्रा॥४॥
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ज्ञेयम्। ‘पञ्चालिका पुत्रिका स्यात्’ इत्यमर। साक्षाद्रतिभरत्वेन स्तम्भोऽयं स्निग्धो मुख्यः॥ भयाद्यथा भयमत्र त्रासः॥ श्रीराधाया मानिन्याश्चेष्टितं दूरादालोक्य नान्दीमुखी पौर्णमासीमाह— घनस्य मेघस्य स्तनितचक्रेण निर्घोषसमूहेन चकिता त्रस्ता। घनस्तनितमिति धनुर्ज्याकरिबृंहितादिवत्। यद्वा। घनेन निबिडेनेति व्याख्येयम्। दिग्धोऽयमिति संचारिभावोत्थत्वात्। यदुक्तम्— ‘रतिद्वयविनाभूतैर्भावैर्मनस आक्रमात्। जने जातरतौ दिग्धास्ते चेद्रत्यनुगामिनः॥’ इति। रतिद्वयं चात्र शान्त्यादिर्मुख्या हासादिर्गौणीति॥२॥ श्रीराधा दर्शयन् मधुमङ्गलःश्रीकृष्णं प्रत्याह—तवेति॥३॥ चित्रायाः सखी स्वसखीमाह—विलम्बमिति।संभावितेति। अद्याहं विप्रलब्धैवाभूवमित्यर्थः॥ श्यामलायाः
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यस्याः सा।उत्तरत्र पञ्चालिका प्रतिमा॥१॥ भयाद्यथेति। अत्र भयं त्रासः॥२॥ दिग्धोऽयमिति। अत्र पूर्वग्रन्थोऽन्वेषणीयः। यथोक्तम्— ‘रतिद्वयं विना भूतैर्भावैर्मनस आक्रमात्। जने जातरतौ दिग्धास्ते चेद्रत्यनुगामिनः॥’ इति। रतिद्वयं चात्र शान्त्यादिर्मुख्या हासादिश्च गौणीति ज्ञेयम्
** अमर्षाद्यथा—**
माधवस्य परिवर्तितगोत्रां श्यामला निशि गिरं निशमय्य।
देवयोषिदिव निर्निमिषाक्षी छायया च रहिता क्षणमासीत्॥५॥
** अथ स्वेदः—स हर्षाद्यथा श्रीविष्णुपुराणे—**
गोपीकपोलसंश्लेषमभिपत्य हरेर्मुजौ।
पुलकोद्गमशस्याय स्वेदाम्बुघनतां गतौ॥६॥
** यथा वा—**
ध्रुवमुज्ज्वलचन्द्रकान्तयष्ट्याविधिना माधवनिर्मितास्ति राधा।
यदुदञ्चति तावकास्यचन्द्रे द्रवतां स्वेदभरच्छलाद्विभर्ति॥७॥
** भयाद्यथा—**
मा भूर्विशाखे तरला विदूरतः पतिस्तवासौ निबिडा लताकुटी।
मया प्रयत्नेन कृताः कपोलयोःस्वेदोदबिन्दुर्मकरीर्विलुम्पति॥८॥
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सखी श्रीराधामाह— माधवस्येति। गोत्रं नाम हे प्रिये, पालीत्याकारां गिरम्॥४॥ छायया कान्त्या॥५॥ पराशरो मैत्रेयमाह— अभिपत्य प्राप्य पुलकोद्गमरूपं शस्यं संपादयितुं स्वेदाम्बुभिर्घनत्वं मेघत्वम्, पक्षे निविडतां गतौ ययतुः॥६॥ ललिता श्रीकृष्णमाह—ध्रुवमिति। चन्द्रकान्तशीलयेत्यनुक्त्वा यष्ट्येत्यनेन तस्याः कृशाङ्गत्वं तेन च प्रथमकैशोरं व्यञ्जितम्॥७॥ कुञ्जेसंभुक्तां विशाखा दैवात् पतिमन्यगोपागमनश्रवणेन विभ्यतीं प्रसाधयन् श्रीकृष्णः प्राह— मा भूरिति॥ नान्दीमुखी पौर्णमासीमाह— गोत्रस्खलनेन हे प्रिये
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॥३॥४॥ गोत्रं नाम।छायया कान्त्या।पक्षे स्वव्यवधानकृताता(त) पाभावरूपया। ‘छाया सूर्यप्रिया कान्तिः प्रतिविम्बमनातपः।’ इति नानार्थवर्गात्॥५॥ अभिपत्यप्राप्य। पुलकोद्गमशस्यं संपादयितुं स्वेदाम्वूनां घनतां मेयतां प्राप्तौ।घनशब्दस्य निविडवाचित्रं तु प्रकृतम्॥६॥ द्रवतीति द्रवतद्रूपतांद्रववत्तामित्यर्थः। स्वेदभरच्छलादिति। स्वेदोऽयं न भवति किंतु
** क्रोधाद्यथा—**
स्विन्नापि गोत्रस्खलनेन पाली शालीनभावं छलतो व्यतानीत्।
तथापि तस्याः पटमार्द्रयन्ती स्वेदाम्बुवृष्टिः क्रुधमाचचक्षे॥९॥
** अथ रोमाञ्चः— स आश्चर्याद्यथा—**
चुम्बन्तमालोक्य चमूरुचक्षुषां चमूरमूषां युगपन्मुरद्विषम्।
व्योमाङ्गणे(ने) तत्र सुराङ्गनावली रोमाञ्चिता विस्तृतदृष्टिराबभौ॥१०॥
** हर्षाद्यथा श्रीदशमे—**
तं काचिन्नेत्ररन्ध्रेण हृदिकृत्य निमील्य च।
पुलकाङ्ग्यपगूह्यास्ते योगीवानन्दसम्प्लुता॥११॥
** यथा वा रुक्मिणीस्वयंवरे—**
रोमाणि सर्वाण्यपि बालभावात्प्रियश्रियं द्रष्टुमिवोत्सुकानि।
तस्यास्तदा कोरकिताङ्गयष्टेरुद्ग्रीविकादानमिवान्वभूवन्॥१२॥
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श्यामले, इति श्रीकृष्णकर्तृकसंवोधनेन अन्तः स्विन्नाप्यवहित्थया शालीनभावं सौशील्यम्॥ ९॥ श्रीकृष्णस्य रासलीलां पृच्छन्तीं गार्गी पौर्णमासी प्राह— चुम्बन्तमिति॥१०॥ श्रीशुकः परीक्षितमाह—तमिति। काचिद्गोपी नेत्ररन्ध्रेण हृदिकृत्येति भाग्यातिशयेन प्राप्तोऽयं पुनरप्यन्तर्धास्यतीति शङ्कयेति भावः॥११॥ स्वयंवर इति। श्रीकृष्णं प्रति स्वयं लिखितपत्रीद्वारैव स्वयंवरणं ज्ञेयम्। तद्ग्रन्थकृतः श्रीमदीश्वरपुरीश्रीपादाः स्वशिष्यानाहुः— **रोमाणीति।**तस्याः श्रीरुक्मिण्या बालभावात् बालत्वात्। अत्र केशवाचकवालशब्दे स्वसजातीयानि रोमाणि लक्ष्यन्ते ततश्च बालभावात् वालकत्वादिव गाम्भीर्यातिशयोक्तेः प्रियश्रियं, सुनन्दाख्यब्राह्मणमुखाच्छ्रुतस्यागतस्य प्रियस्य श्रीकृष्णस्य श्रियं शोभां द्रष्टुमुत्सुकानि। उद्गता ग्रीविका अनुकम्पार्थकप्रत्ययेन सुकुमारा ग्रीवेत्यर्थः। तस्या
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*तद्बद्द्रव इत्यर्थः॥७॥८॥ शालीनभावं मृदुचेष्टाम्॥९॥ योगीव संयोगीव यथा स्यात्तथास्ते स्म॥१०॥११॥ **वालभावादिति।*बालकेशस्तत्सजातीयत्वादत्र रोमस्वपि वालत्वमारोप्यते। ततश्चार्भकसमानपर्यायतय
** भयाद्यथा—**
परिमलचटुले द्विरेफवृन्दे मुखमभिधावति कम्पिताङ्गयष्टिः।
विपुलपुलकपालिरद्य पाली हरिमधरीकृतह्रीधुरालिलिङ्ग॥१३॥
** अथ स्वरभङ्गः—स विषादाद्यथा श्रीगीतगोविन्दे—**
विपुलपुलकपालिः स्फीतसीत्कारमन्त-
र्जनितजडिमकाकुव्याकुलं व्याहरन्ती।
तव कितव विधायामन्दकन्दर्पचिन्तां
रसजलनिधिमग्ना ध्यानलग्नामृगाक्षी॥१४॥
** विस्मयाद्यथा—**
गुरुसंभ्रमस्तिमितकण्ठया मया
करसंज्ञयापि बहुधावबोधिता।
न पुरस्त्वमत्र हरिवेणुवादने
पुलकान् विलोकितवती लतास्वपि॥१५॥
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दानमर्पणमिव रोमाणि श्रीकृष्णं द्रष्टुं ग्रीवामुच्चीचक्रुरित्यर्थः॥१२॥ पाल्याः सखी स्वसखीराह— परिमलेति॥१३॥ वासकसज्जायाः श्रीराधायाः सखी श्रीकृष्णं प्रति तदप्राप्तिजनितं तस्या अनुतापं ज्ञापयन्ती सोपालम्भमाह—विपुलेति। हे कितव इति। तव धूर्तताद्यफलन्ती त्वां स्त्रीवधभागिनं करिष्यतीति भावः। जडिम्नायः काकुस्तेन व्याकुलं सगद्गदमित्यर्थः। कुलधर्मलज्जादिकं यदत्यजं तत्फलमिदमेव यदत्र जाज्वलीमीति व्याहरन्ती। रसजलनिधौ विषसमुद्रे। ‘शृङ्गारादौविषे वीर्ये गुणे रोगे द्रवे रसः।’ इत्यमरः॥१४॥ श्रीराधा ललितामाह— गुरुसभ्रमोऽभिसारार्थमावेगस्तेन त्विमितः स्तब्धः कण्ठो यस्यास्तया। अतः स्पष्टं वक्तुमसामर्थ्यात् करसंज्ञया हस्तचालनेनापि। ‘संज्ञा स्याच्चेतना
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तत्स्वभावादिव।उद्गता ग्रीवा सैव उद्व्रीविका तस्या दानंतत्रार्पणं तदेवान्वभूवन् स्वीचक्रुरित्यर्थः॥१२॥ तवध्यानलग्नासती अमन्दकन्दर्पचिन्तां विधाय रनजलनिधिममासीदिवि योज्यम्।तम्निमग्नत्वेलक्षणम्—विपुलपुलकेत्यादि
** अमर्षाद्यथा—**
प्रेयस्यः परमाद्भुताःकति न मे दीव्यन्ति गोष्ठान्तरे
तासां नोज्ज्वलनर्मभङ्गिभिरपि प्राप्तोऽस्मि तुष्टिं तथा।
द्वित्रैरद्य मुहुस्तरङ्गदधरग्रस्तार्धवर्णैर्यथा
राधायाः सखि रोषगद्गदपदैराक्षेपवाग्विन्दुभिः॥१६॥
** हर्षाद्यथा रुक्मिणीस्वयंवरे—**
पश्येम तं भूय इति ब्रुवाणां सखीं वचोभिः किल सा ततर्ज।
न प्रीतिकर्णेजपतां गतानि विदांबभूव खरवैकृतानि॥१७॥
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नाम हस्ताद्यैश्चार्थसूचना।’ इत्यमरः॥१५॥ राधया सह संकीर्णसंभोगानन्तरं कदाचिद्रहसि श्रीकृष्णो विशाखां प्रति सरसोद्गारमाह— प्रेयस्य इति। आक्षेपवाचां भोः करालिकानप्त्रीक्रीडाकुरङ्गकपटकुटिलनटीसूत्रधार, मन्नेत्रवीथीं मा दूषय त्वरितमपसरेत्यादिलक्षणानां विन्दुभिः कणैरित्यनेन वाचाममृतनदीत्वमारोपितम्। कीदृशैः। रोषेण गद्गदयुतानि अस्पष्टानि पदानि सुप्तिङन्तानि येषु तैः। तत्रापि तरङ्गन् तरङ्ग इवाचरन्। कम्पमान इत्यर्थः। एवंभूतं योऽधरस्तेन ग्रस्ता म्लिष्टा अर्धार्धा वर्णा येषु तैः। अत्र रोष इत्यस्य व्यभिचारिणः स्वशब्दवाच्यत्वं नाम दोषो नाशङ्कनीयः। गद्गदेत्यादीनां तदनुभावाना हेतुत्वेन तस्य वाच्यतयैव हेत्वलंकारस्य स्वभावोक्तेश्चोपस्थापकत्वेन चमत्काराधिक्यपोषणात्। न तु जातगद्गदपदैरिति पाठे तस्य गम्यमानत्वेन तथा चमत्कार इति ध्येयम्। न च व्यभिचारिरसस्थायिभावानां शब्दवाच्यतेतिलक्षणस्य सार्वत्रिकत्वमालंकारिकैरभिमतम्। यदुक्तं काव्यप्रकाश एव—‘न दोष स्वपदेनोक्तावपि संचारिणः क्वचित्।’ इति॥१६॥ तद्ग्रन्थकृत एवाहुः—पश्येमेति। हे सखि रुक्मिणि, किं व्यग्रासि एहि, केनचिन्मिषेण तं भूयः पश्येम इति ‘अस्मदो द्वयोश्च’ इति बहुत्वम्। वचोभिरिति। हे लम्पटे सखि, किं निजधर्म परमुण्डे पातयसि,
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॥१३॥१४॥१५॥ रोषगद्गदपदैरिति। अत्र ‘जातगद्गदपदैः’ इति वा पाठः। पदमत्र व्यवसायः। ‘पदं व्यवसित’ इत्यादि नानार्थवर्गात्॥१६॥ तं भूयः पश्येमेत्यस्य मा व्यग्रा भूदित्याक्षेपलभ्यम्। भूय इति तस्यैव कवेः प्रबन्धानुसारेण पूर्वमपि दर्शनं जातमिति ज्ञेयम्। कर्णेजपः सूचकः॥१७॥
** भीतेर्यथा—**
प्रथमसंगमनर्मणि साध्वसस्खलितयापि गिरा सखि राधिका।
नवसुधाहृदिनीं मदिरेक्षणा श्रुतितटे मम कांचिदवीवहत्॥१८॥
** अथ वेपथुः—स त्रासेन यथा—**
केशवो युवतिवेशभागयं बालिशः किल पतिस्तवाग्रतः।
राधिके तदपि मूर्तिरद्य ते किं प्रवातकदलीतुलां दधे॥१९॥
** हर्षेण यथा—**
वल्लवराजकुमारे मिलिते पुरतः किमात्तकम्पासि।
तव पेशलास्मि पार्श्वे ललितेयं परिहरातङ्कम्॥२०॥
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त्वं स्वयमेव स्पष्टं पश्येत्यवहित्थया श्रीकृष्णदर्शने प्रीत्यभावं व्यञ्जयन्ती सा रुक्मिणी प्रीतेः कर्णेजपतां सूचकत्वं गतानि प्राप्तानि स्वरवैकृतानि कण्ठस्वरभेदान न विदांवभूव नानुसंधत्ते स्म। सा वचसा स्वप्रेमाणं गोपयामास। वचस्तु तस्याः प्रेमाणं स्पष्टयामास इति सा परमामर्षेत्यर्थः॥ ‘कर्णेजपः सूचकः स्यात्’ इत्यमरः। ‘उपविद–’ इत्यादिना लिट्याम्॥१७॥ श्रीकृष्णो विशाखामाह— प्रथमसंगमे संभोगस्य प्रथमदिने सखि पद्मिनि, मधुपमिममतितृष्णार्तं दयस्व स्वमकरन्ददानादनुमत्येति मया कृते सुरतप्रार्थनसमये नर्मणि यत् साध्वसं भयं तेन स्खलितया गिरा नहि नहीति वाचा।मदिरेक्षणा खञ्जनाक्षीति कटाक्षेण दत्तानुमतिः सा अवीवहत् वहयामास॥१८॥ कदाचिज्जटिलया निरुध्यमानत्वाद्दिवसेऽभिसर्तुमक्षमायाः श्रीराधायाः पार्श्वे श्री(स्त्री) वेषधारिणि आगत्योपविष्टवति अकस्मादभिमन्या च तदैव गृहं किंचित्कार्यार्थं प्रविष्टवति भीतां श्रीराधां विशाखा नीचैराह— केशव इति। वालिशो निर्बुद्धिर्न किंचिदप्यूहितुं शक्त इत्यर्थः। प्रकृष्टो वातोयस्यां कदल्यां तत्तुलाम्॥१९॥ पुष्पमवचिन्वतीं श्रीराधां ललिताह— वल्लवेति। पेशला चतुरा॥२०॥ श्रीकृष्णो मानिनीं
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॥१८॥ बालिशो मूर्तः। न किंचिदहितुं शक्त इत्यर्थः। प्रकृष्टो वातो यस्यां कदल्यां
** अमर्षेण यथा—**
यदि कुपितासि न पद्मे किं तनुरुत्कम्पते प्रसभम्।
विचलति कुतो निवाते दीपशिखा निर्भरस्निग्धा॥२१॥
** अथ वैवर्ण्यम्—तद्विषादाद्यथा—**
मधुरिमभरैर्मुक्तस्यालं कलङ्कितकुङ्कुमै-
र्द्विरदरदनश्येनीमाभां चिराय वितन्वतः।
विधुरपि तुलामाप्तस्तस्या मुखस्य वकीरिपो
वद परमतः सारङ्गाक्ष्याः किमस्ति विडम्वनम्॥२२॥
** रोषाद्यथा—**
विलसति किल वृन्दारण्यलीलाविहारे
कथय कथमकाण्डे ताम्रवक्रासि वृत्ता।
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श्रीपद्मां प्रत्याह—**यदीति।**निवाते निर्वातप्रदेशे इत्यर्थः। नीत्युपसर्गः कदाचिन्निवृत्त्यर्थे वर्तते। ‘यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते’ इत्यादौ’निवातदीपस्तिमितेन चक्षुषा’ इति रघुवंशकाव्ये च। ‘निवाते ये गुणाः प्रोक्तास्ते गुणाः कर्णवन्धने।’ इति वैद्यके च॥२१॥ विप्रलब्धायाः श्रीराधायाः सखी श्रीकृष्णमाह—मधुरिमेति। द्विरदो हस्ती श्येनी श्वेतां तस्या मुखस्य साहजिकमाधुर्येऽपसृते सति बैवर्ण्येन पाण्डिमन्युद्भूते सति। विधुरपीत्यादि। अन्यथा विद्युद्वर्णो विधुस्त्रिलोक्यां क्वास्ते येन तदुपमा स्यादिति वदेत्यादिना विडम्वनं तु तस्यास्त्वया उत्पादितमेव, संप्रत्यग्रे दशमी दशैवावशिष्यते इत्याह— चकीरिपो पूतनाघातिन्, स्त्रीवधेऽपि तव भयं नास्तीति भावः।प्रतीपनामायमलंकारः। तल्लक्षणम्— ‘आक्षेपमु(उ)पमानस्य प्रतीपं भण्यते बुधैः’ इति॥२२॥ स्वप्रतिविम्वं श्रीकृष्ण-
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तत्तुलाम्॥१९॥ पेशला चतुरा॥२०॥ निवाते वातप्रवेशरहिते देशे। निवातकवचशब्दवत् प्रयोगःदृश्यते च ‘यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते’ इत्यादौ॥२१॥ श्येनी श्वेतवर्णा। तस्याः सारङ्गाक्ष्या इति तच्छब्देन वैशिष्ट्यव्यक्तिः। अत एव विधुतुलितत्वंधिक्कृतं स्यात्॥२२॥ वृन्दारण्ये या
प्रसरदुदयरागग्रस्तपूर्णेन्दुबिम्बा
किमिव सखि निशीथे शारदी जायते द्यौः॥२३॥
** भीतेर्यथा—**
क्रीडन्त्यास्तटभुवि माधवेन सार्ध
तत्रारात्पतिमवलोक्य विक्लवायाः26।
राधायास्तनुमनु कालिमा तथासी-
त्तेनेयं किमपि यथा न पर्यचायि॥२४॥
** अथाश्रु—तद्धर्षाद्यथा गीतगोविन्दे—**
अतिक्रम्यापाङ्गं श्रवणपथपर्यन्तगमन-
प्रयासेनेवाक्ष्णोस्तरलतरतारं पतितयोः।
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वक्षसि विलोक्य कान्तान्तरभ्रमेण मानवतीं श्रीराधां श्रीकृष्ण आह— विलसतीति। वृन्दारण्यलीलासु यो विहारः संप्रयोगलक्षणस्तत्र अत एवाकाण्डे अनवसरे ताम्रवका। कोपवतीत्यर्थः। निशीथे अर्धरात्रे द्यौः किमिव कथं प्रसरदित्यादिलक्षणा जायते। नैव जायत इत्यर्थः। पूर्णेत्यर्धचन्द्रव्यावृत्तिः, शारदीति विद्युदाभादिदोषव्यावृत्तिः॥२३॥ वृन्दा पौर्णमासीं प्रयाह—**क्रीडन्त्या इति।**तनुमनु तनावित्यर्थः। किमपि किंचिदपि न पर्यचायि न परिचिता। श्रीराधायाः किंचिदपि लक्षणं तेन पतिमन्येन न दृष्टमित्यर्थः॥२४॥ श्रीजयदेवकविचूडामणिः प्राह—अतीति। तदानीं श्रीराधाया हर्षाश्रुनिकरः अक्ष्णोःप्रस्वेदाम्भप्रसर इव पपात। अक्ष्णोप्रस्वेदकारणं श्रममुत्प्रेक्षते। अपागमतिक्रम्योल्लङ्घ्यश्रवणपथपर्यन्तं यद्गमनं तेन यः प्रयासः श्रमस्तेनैव। अक्ष्णोः कथंभूतयोः।
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लीला सुखपूर्विका चेष्टातया यो विहार इतस्ततो भ्रमणं तस्मिन्। द्यौः किमिव कथं निशीथेऽर्धरात्रेप्रसरदित्यादिलक्षणा जायते तत्र तत्रागम्याभावात्। शारदीति। तत्र विद्युदादिदोषाभावेन नान्यथापि संभवतीति भावः॥२३॥ तेन पत्या किमपीति किंचिदपीत्यर्थः। दरचे (?) ति वा पाठः॥२४॥ तदानीं सः प्रिगतमसमालोकसमयस्तदवसरस्तम्मिन्। राधाया अक्षणोर्हर्षाश्रुनिकरः पपात।
तदानीं राधायाः प्रियतमसमालोकसमये
पपात स्वेदाम्भःप्रसर इव हर्षाश्रुनिकरः॥२५॥
फुल्लगण्डं सरोमाञ्चं वाष्पमानन्दजं मतम्।
** रोषाद्यथा—**
प्रातर्मुरद्विषमुरःस्फुरदन्यनारी-
पत्राङ्कुरप्रकरलक्षणमीक्षमाणा।
अप्रोच्य किंचिदपि कुञ्चितदृष्टिरेषा
रोषाश्रुबिन्दुभरमिन्दुमुखी मुमोच॥२६॥
** यथा वा बिल्वमङ्गले—**
राधेऽपराधेन विनैव कस्मादस्मासु वाचः परुषा रुषा ते।
अहो कथं ते कुचयोः प्रथन्ते हारानुकारास्तरलाश्रुधाराः॥२७॥
शिरःकम्पि सनिश्वासं स्फुरदोष्ठकपोलकम्।
कटाक्षभ्रुकुटीवक्रं स्त्रीणामीर्ष्योत्थरोदनम्॥२८॥
** विषादाद्यथा—पद्यावल्याम्—**
मलिनं नयनाम्बुधारया मुखचन्द्रं करभोरु मा कुरु।
करुणावरुणालयो हरिस्त्वयि भूयः करुणां विधास्यति॥२९॥
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तरलतरा तारा यत्र तद्यथा स्यादेवं पतितयोः।तस्याधिकरणं श्रीकृष्णमुखचन्द्र एवाक्षेपलब्धं प्रविश पिण्डीमितिवत्॥२५॥ खण्डिताया इन्दुमुख्याः सखी स्वसखीमाह— प्रातरिति॥ २६॥ श्रीराधायामुदाहर्तुमाह—**यथा वेति।**श्रीकृष्णः खण्डितां श्रीराधामाह— राधे इति॥ २७॥२८॥ प्रोषितभर्तृकां श्रीराधांविशाखा प्राह—मलिनमिति॥२९॥ श्रीराधायाः श्रीकृष्णदर्श-
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क इव स्वेदाम्भ प्रसर इव। स्वेदप्रसरसंभावनायाः को हेतुः। तत्राह— अक्ष्णोरितिवर्जेन पूर्वार्धेन। पतितयोर्गतयोः। ‘पत्ऌ गतौ’॥२५॥
- २२ उज्ज्व०*
** अथ प्रलयः—स सुखेन यथा—**
जङ्घे स्थावरतां गते परिहृतस्पन्दा द्वयीनेत्रयोः
कण्ठः कुण्ठितनिस्वनो विघटितश्वासा च नासापुटी।
राधायाः परमप्रमोदसुधया धौतं पुरो माधवे
साक्षात्कारमिते मनोऽपि मुनिवन्मन्ये समाधिं दधे॥३०॥
** दुःखेन यथा—ललितमाधवे—**
दंशःकंसनृपस्य वक्षसि रुषा कृष्णोरगेणार्प्यतां
दूरे गोष्ठतडागजीवनमितो येनापजह्रेहरिः।
हा धिक् कः शरणं भवेन्मृदि लुठद्गात्रीयमन्तःक्लमा-
दाभीरीशफरीततिः शिथिलितश्वासोर्मिरामीलति॥३१॥
** अथैषु धूमायिताः—**
सुराङ्गने सखि मधुरापुराङ्गने(णे )
पुरः पुरातनपुरुषस्य वीक्षया।
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नानन्दं श्रीललिता विशाखया सहास्वादयति—जङ्घे इति। साक्षात्कारमिते प्राप्ते। मन्ये इति सर्वत्र योज्यम्॥३०॥ पौर्णमासी कंसमभिशपति— दंश इति। जीवनं जीवनरूपं, पक्षे जलम्। आमीलति दशमींदशां प्राप्नोति॥३१॥ ‘प्रायो धूमायिता एव रूक्षास्तिष्टन्ति सात्त्विकाः।’ इति पूर्वग्रन्थोक्तेर्व्रजपुरदेवीषुधूमायिता न संभवन्तीति देवीषुतानुदाहरति— सुराङ्गने इति। धूमायितलक्षणं च पूर्वग्रन्थ एव। यथा “अद्वितीया अमी भावा अथवा सद्वितीयकाः। ईषद्यक्ता अपह्नोतुं शक्या धूमायिता मताः॥” इति। क्वचित् सिद्धवनिता कामपि विमानचारिणीं देवी सनर्माह— सुराङ्गने इति।
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बाष्पमत्र नायिकायामेव ज्ञेयम्॥२६॥२७॥२८॥२९॥ मुनिवत् मुनिरिवेति सर्वत्र योज्यम्॥ ३०॥ दंश इति। पौर्णमास्या वचनम्। अत्र गोष्ठस्यतडागत्वेन रूपकम्। जीवनशब्दस्य च श्लिष्टतयाप्रयोगो लभ्यते।
तवाक्षिणी जलकणसाक्षिणी कुतः
कथं पुनः पुलकि च गण्डमण्डलम्॥३२॥
** ज्वलिताः—**
सखि स्तब्धीभावं भजति नितरामूरुयुगलं
तनूजाली हर्ष युगमपि तवाक्ष्णोः सरसताम्।
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त्वं सुरस्याङ्गना अथ च पुरातनपुरुषस्य श्रीकृष्णस्य वीक्षया तव भावः। ननु किं मे भावलक्षणं पश्यसि तत्राह—तवाक्षिणी जलकणानामश्रूणां साक्षिणी। यद्यपि त्वमश्रूणि निरुणत्सि तदपि तवाक्षिणी एव औच्छून्यचाकचिक्कण्याभ्यां स्वान्तःस्थितानश्रुकणान् ज्ञापयत एवेत्यर्थः। तेन तवावहित्था एव कामस्पृहां सूचयन्ती त्वां हास्यास्पदीकरोति न त्वश्रुपुलकादिकमिति भावः॥३२॥ ज्वलिता इति। तल्लक्षणं यथा—‘द्वौ वा त्रयो वा युगपद्यान्तः सुप्रकटां
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तत्र गोष्ठपक्षे जीवनं जीवद्दशा।तडागपक्षे जलम्। तत्र च सति गोष्ठशब्देन तत्स्थाः प्राणिन उच्यन्ते। श्रीकृष्णरूपजीवने हृते सति सर्वेषामेव जीवद्दशायामपगतायामामीरीशफरीणां शिथिलितश्वासोर्मिमात्रत्वंन स्यात्। अपि तु नष्टश्वासोर्मित्वमेव स्यात्। सति च पूर्वत्वेगोष्ठस्थप्राणिमात्रेभ्य आसां वैशिष्ट्यं न स्यात्। तस्माद्गोष्ठशब्देन तद्वासस्थानमेव वाच्यम्। तस्य च वाच्यत्वेजीवनशब्देन याथातथ्येन तदीया स्थितिरुच्यते। तदपहारेण च वैतथ्येन स्थितिरिति। स्थिते(ती) ते च श्रीकृष्णस्थितिरूपे एव ज्ञापिते। ततः श्रीकृष्णापहारे तु जाते तत्रस्था तेऽन्ये प्राणिनस्तेषां कंचित्कालमपि स्थितिः स्यात्। आभीराणां तु न स्यादिति तासामतिकोमलतासूचकेन शफरीरूपकेण वोधितम्॥३१॥ धूमायिता इति। तल्लक्षणं पूर्वग्रन्थे—‘अद्वितीया अमी भावा अथवा सद्वितीयकाः। ईषद्व्यक्ताअपह्नोतुं शक्या धूमायिता मताः॥’ इति॥ पुराणपुरुषस्य वीक्षय तावत् सर्वेषामस्त्रादिकं भवत्येव। किंतु तत्र भावभेदाः सन्ति भवत्यास्तु को भावस्तत्र हेतुरिति सुराङ्गन इत्यादिकस्यायमभिप्रायः। श्लेषेण तु पुराणपुरुषस्येत्यत्र नर्मव्यञ्जना वृद्धवाचित्वात्। जलकणः साक्षी विद्यमानो ययोस्तादृशे। साक्षाद्द्रष्टरि संज्ञायामिति साक्षिपदसाधनसूत्रम्। साक्षी च विद्यमानो भवतीति तत्रैव पर्यवसीयते॥३२॥ ज्वलिता इति। तल्लक्षणं चोक्तम्*—**‘द्वौ वा त्रयो वा युगप-*
तदुन्नीतं धन्ये रहसि करपङ्केरुहतलं
प्रपन्नस्ते दिष्ट्या नलिनमुखि नीलो निधिरभूत्॥३३॥
** अथ दीप्ताः— यथा विदग्धमाधवे—**
क्षोणिं पङ्किलयन्ति पङ्कजरुचोरक्ष्णोः पयोबिन्दवः
श्वासास्ताण्डवयन्ति पाण्डुवदने दूरादुरोजांशुकम्।
मूर्ति दन्तुरयन्ति संततममी रोमाञ्चपुञ्जाश्च ते
मन्ये माधवमाधुरीश्रवणयोरभ्याशमभ्याययौ॥३४॥
** उद्दीप्ताः—**
स्नाता नेत्रजनिर्झरेण दधती स्वेदाम्बुमुक्तावलिं
रोमाञ्चोत्करकञ्चुकेन निचिता श्रीखण्डपाण्डुद्युतिः।
स्वञ्जन्मञ्जुलभारती सवयसा युक्ता स्फुरन्तीत्यसौ
सज्जा ते नवसंगमाय ललिता स्तम्माश्रिता वर्तते॥३५॥
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दशाम्। शक्याःकृच्छ्रेण निह्नोतुं ज्वलिता इति कीर्तिताः॥” इति धन्यां प्रति तत्सखीप्राह— **सखीति।**स्तब्धीभाव इति स्तम्भः।तनुजाली रोमश्रेणी। हर्षमिति रोमाञ्चः। सरसतामित्यश्रु। ‘नीलो निधिः’ पक्षे श्रीकृष्णः॥३३॥दीप्ताइति। तल्लक्षणं यथा—‘प्रौढास्त्रिचतुरा व्यक्तिं पञ्च वा युगपद्गताः। संबरीतुमशक्यास्ते दीप्ता धीरैरुदाहृताः॥’ विशाखा श्रीराधामाह—क्षोणिमिति। दन्तुरयन्ति नतोन्नतं कुर्वन्ति। ‘दन्तुरं तु नतोन्नतम्’ इत्यमरः। अभ्याशं निकटम्॥३४॥ उद्दीप्ता इति। ‘एकदा व्यक्तिमापन्नाः पञ्चपाः सर्व एव वा। आरूढाःपरमोत्कर्षमुद्दीप्ता इति कीर्तिताः॥’ विरहिण्या ललितायादशामुद्धवःश्रीकृष्णमाह— स्नातेति। संप्रति ता प्रोषितभर्तृकां वासक-
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द्यान्तः सुप्रकटांदशाम्। शक्याः कृच्छ्रेणनिह्नोतुं ज्वलिता इति कीर्तिताः॥’॥३३॥ दीप्ता इति। तल्लक्षणं चोक्तम्—‘प्रौढास्त्रिचतुरा व्यक्तिं पञ्चवा युगपद्गताः।सवरीतुमशक्यान्ते दीप्ता धीरैरुदाहृताः॥ इति॥ दन्तुरयन्ति
उद्दीप्तानां भिदा एव सूद्दीप्ताःसन्ति कुत्रचित्।
सात्त्विकाः परमोत्कर्षकोटिमत्रैव बिभ्रति॥३६॥
** यथा—**
स्वेदैर्दर्शितदुर्दिना विदधती बाष्पाम्बुभिर्निस्तृषो
वत्सीरङ्गरुहालिभिर्मुकुलिनीफुल्लाभिरामूलतः।
श्रुत्वा ते मुरलीं तथाभवदियं राधा यथाराध्यते
मुग्धैर्माधव भारतीप्रतिकृतिभ्रान्त्याद्य विद्यार्थिभिः॥३७॥
**
इति सात्त्विकाः।**
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सज्जात्वेनोत्प्रेक्षते। तव नवसंगमाय सज्जा। तत्र वासकसज्जायाः स्वतनोः प्रियसंगमोचितभूषणवस्त्रादिशोभा अपेक्षितेति प्रथमं स्नानमाह— **स्नातेति।**स्वेदाम्बुन्येव मुक्तावलीत्यलंकारपरिधानं श्रीखण्डेन चन्दनचर्चया पाण्डुवर्णा द्युतिर्यस्याः सा, पक्षे त्वद्विरहेण श्रीखण्डस्येव द्युतिर्वैवर्ण्यम्। खञ्जन्ती अर्धार्धं निःसरन्ती मञ्जुला सा भारती स्फूर्तिप्राप्तेन त्वया सह वाणी सैव सवयाः सखी तया युक्तेति सखीसाहित्यम्। स्तम्भः सात्त्विकः, कुञ्जगृहस्थूणा च॥३५॥॥३६॥ गृहादभिसृत्य पूर्वाह्णेवनपथेचलन्तीमकस्मान्मुरलीनादेन सूद्दीप्तसात्त्विकभावां श्रीराधामालोक्य दूती जवेन श्रीकृष्णान्तिकमासाद्य तमाह—स्वेदैरेव दर्शितं दुर्दिनं यया इति स्वेदानां मेघत्वंनिरन्तरतद्बिन्दुपातानां वृष्टित्वम्।वाष्पाम्बुभिरश्रुजलैर्वत्सीस्तर्णकान् निस्तृषो विगतपिपासा कुर्वतीत्यश्रूणां निर्झरजलप्रवाहत्वम्। वत्सीरित्यल्पाख्यायां स्त्रीप्रत्ययः। “स्त्री स्यात्काचिन्मृणाल्यादिर्विवक्षापचये यदि” इत्यमरः॥ अङ्गहालिभिःरोमश्रेणिभिः। तदैव ते मुरलीनादं श्रुत्वा अतिजाड्येनातिस्तब्धा अतिविवर्णा चाभूदित्याह—**श्रुत्वेति।**यथा तदानीमेवागतैर्विद्यार्थिभिरहो सरस्वतीप्रतिमेयमिति मुग्धे स्तम्भशितिमभ्यां भ्रान्तैराराध्यते पाद्यार्घ्यधूपादिभिः पूज्यते इति। अत्र जाड्याख्यस्तम्भोदयः प्रथमक्षण एवप्रस्वेदारोमाञ्चस्तम्भवैवर्ण्यानां पञ्चानां सात्त्विकानामाधिक्येन
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नतोन्नतं कुर्वन्ति॥३४॥ उद्दीप्ता इति। ‘एका व्यक्तिमापन्नाः पञ्चषाः सर्व एव वा।आरूढाः परमोत्कर्षमुद्दीप्ता इति कीर्तिताः॥" स्तम्भशब्दः श्लिष्टः
**
अथ व्यभिचारिणः।**
निर्वेदाद्यास्त्रयस्त्रिंशद्भावा ये परिकीर्तिताः।
औग्र्यालये विना तेऽत्र विज्ञेया व्यभिचारिणः॥१॥
सख्यादिषु निजप्रेमाप्यत्र संचारितां व्रजेत्।
साक्षादङ्गतया नेष्टाः किंत्वत्र मरणादयः॥२॥
वर्ध्यमानास्तु युक्त्यामी गुणतामुपचिन्वते।
** तत्र निर्वेदः—स महार्त्या यथा विदग्धमाधवे—**
यस्योत्सङ्गसुखाशया शिथिलिता गुर्वी गुरुभ्यस्त्रपा
प्राणेभ्योऽपि सुहृत्तमाः सखि तया(था) यूयं परिक्लेशिताः।
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युगपदुद्भूतत्वात् सूद्दीप्तत्वंद्वितीयतृतीयादिक्षणे तु स्तम्भप्रलययोरत्याधिक्येन स्वेदाश्रुरोमाञ्चानां लोपाद्भारतीप्रतिमायितत्वम्। तदैव विद्यार्थिनामागमनं तैः पूजनं च।अश्रुपुलकयोः सद्भावे प्रकृतत्वानुपपत्तेरिति च ज्ञेयम्॥३७॥
इति सात्त्विकभावविवृतिः समाप्ता।
अथव्यभिचारिविवृतिः। परिकीर्तिता इति। ‘निर्वेदोऽथ विषादो दैन्यं ग्लानिश्रमौ च मदगर्वौ।’ इत्यादिभिः पूर्वग्रन्थ एवोद्देशलक्षणोदाहरणैः सम्यगुक्ताअत्र तूज्ज्वले रसे ते औग्रा(ग्र्या)लस्येद्वे विनेति। औग्रस्य विषयालम्बनसुखप्रतीपाचरणचण्डिमरूपत्वात् आलस्यस्य तु शक्तावपि क्रियानुन्मुखतारूपत्वात्ते न संभवतः ; किं तु नायकयोः परस्परमेवेति ज्ञेयम्। परस्परसङ्गिविधातिषुजनेषु तु ते भवत एवेत्यग्रेतनग्रन्थे ज्ञेयम्॥१॥ **सख्यादिष्विति।**सखीप्रभृतिषु कृष्णवल्लभानां यःप्रेमा सः। आदिशब्दात् दूतीष्वपि परस्परायोगेषु, अन्येष्वपि च॥२॥ निर्वेद आत्मधिक्कारः। निर्वेदवती श्रीराधा श्रीकृष्णसमी-
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॥३५॥३६॥ स्वेदैरित्याद्युक्तिरुदात्तालंकारमयी उद्दीप्ततामात्रतात्पर्या॥३७॥इतिसात्त्विकाः॥
- अथव्यभिचारिणः। ओग्र्यस्य हिंसाकरचण्डतारूपत्वादालस्यस्य शक्तावपि क्रियानुन्मुखतारूपत्वात्। ते न संभवत इति किंतु मिथुनस्य परस्परमिति ज्ञेयम्॥१॥ संचारितां व्यभिचारिताम्॥२॥ उपचिन्वते आधिक्येन गृह्ण*न्ति।
धर्मः सोऽपि महान् मया न गणितः साध्वीभिरध्यासितो
घिग् धैर्य तदुपेक्षितापि यदहं जीवामि पापीयसी॥३॥
** विप्रयोगेण यथोद्धवसंदेशे—**
न क्षोदीयानपि सखि मम प्रेमगन्धो मुकुन्दे
क्रन्दन्तीं मां निजसुभगताख्यापनाय प्रतीहि।
खेलद्वंशीवलयिनमनालोक्य तं वक्रबिम्बं
ध्वस्तालम्बा यदहमहह प्राणकीटं बिभर्मि॥४॥
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पादागतायाः सख्या मुखम्लान्याः स्वस्मिन् तस्योपेक्षामनुमिमाना प्राह—यस्य उत्सङ्ग एव सुखं तस्य सुखमूर्तित्वात् तदाशया। उत्सङ्गप्राप्त्यर्थमित्यर्थः। यद्यप्यत्र ‘अधरसीधुनाप्याययस्व नः’ इति ‘कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयं’ इत्यादौ स्पष्टोक्त्या स्वसुखस्पृहा प्रतीयते; तदपि स्वसौन्दर्यवैदग्ध्यादिभिःश्रीकृष्णमहं विशेषतः सुखं प्रथयानीति सूक्ष्मो मानसो व्यापारः समर्थरतिमतीनां सर्वासामेव व्रजसुन्दरीणां सदैवास्त्येव किमुत तस्याः सर्वव्रजवामामुकुटमणिभूतायाः। किंतु स ताभिः स्ववाग्विषयीभूतः प्रायेण न क्रियते श्रीकृष्णस्त्वभिज्ञचूडामणिस्तं जानात्येवेति ‘न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजाम्’ इत्यादिभिस्तद्वशीकारान्यथानुपपत्त्या एवं व्याख्यायते। अत एवोक्तं यदस्यां कृष्णसौख्यार्थमेव केवलमुद्यम इति।तथा—‘आत्मारामस्य तस्येमा वयं वै गृहदासिका’ इति ‘तस्याहं गृहमार्जनी’ इत्यादिभिः स्पष्टोक्त्यासमञ्जसरतिमतीनां पुरसुन्दरीणां स्वसुखस्पृहाया अभावेऽपि स्वाङ्गस्पर्शादिभिः श्रीकृष्णो मां मुखयत्विति सूक्ष्मो मानसो व्यापारः केनाप्यंशेनास्त्येव, तं च श्रीकृष्णो जानात्येव ‘यस्येन्द्रियं विमथितुं कुहकैर्न शेकुः’ इति श्रीशुकवाक्यान्यथानुपपत्त्येव व्याख्यायत इति। अध्यासितः अनुशीलितः॥३॥ प्रोषितभर्तृका श्रीराधा ललितामाह—**न क्षोदीयानिति।**निजसुभगताख्यापनाय तस्याहं सर्वतोऽप्याधिक्येन प्रेमपात्री पूर्वमासमिति लोके ज्ञापयामास। खेलन्ती रागस्वरतालमूर्च्छनादिवैचित्र्या विलसन्ती या वंशी तदुत्थनादमण्डली सैव वलयस्तद्युक्तम्। प्राण एव कीटस्तं निरन्तरं मां दशन्तमपि विभर्मि
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युक्त्येति व्यक्तीकरिष्यते॥ पूर्वग्रन्थानुसारेण निर्वेदः स्वावमाननम्॥३॥४॥
** ईर्ष्यया यथा—**
नात्मानमाक्षिप त्वं म्लायद्वदना गभीरगरिमाणम्।
सखि नान्तरं क्षितौ कश्चन्द्रावलितारयोर्वेति॥५॥
** अथ विषादः—स इष्टानवाप्तितो यथा विदग्धमाधवे—**
पीतं न वागमृतमद्य हरेरशङ्कं
न्यस्तं मयास्य वदने न दृगञ्चलं च।
रम्ये चिरादवसरे सखि लब्धमात्रे
हा दुर्विधिर्विरुरुधे जरतीच्छलेन॥६॥
** यथा वा श्रीदशमे—**
अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः
सख्यः पशूननुविवेशयतोर्वयस्यैः।
वक्रं व्रजेशसुतयोरनुवेणुजुष्टं
यैर्वै निपीतमनुरक्तकटाक्षमोक्षम्॥७॥
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धारयामि पालयामि च॥ ४॥श्रीराधायाःसौभाग्यसंपत्तिं सर्वत्र विख्यातां विलोक्य तामसहमाना धिढ्यामित्यात्मानमधिक्षिपन्तीं चन्द्रावलीं सान्त्वयन्ती पद्मा प्राह—नेति। गभीरो गरिमा अर्थात् श्रीकृष्णदत्तो यस्य तम्। ननु मत्तः सकाशात्अपि तस्याः ख्यातिरधिका श्रूयत इति चेत् सत्यं ख्यातिरियमलीकैव त्वत्प्रतिपक्षजनख्यापितेति प्रतीहि। यतःसखीत्यादि। त्वं चन्द्रावलिः राधा। तारैव राधाविशाखेत्यभिधानान्॥५॥ विषादः पश्चात्तापः। पूर्वरागवती श्रीराधा जटिलायाअन्तिके विशाखां प्रति नीचैराह—प्रीतिमिति। जरती जटिलाभिषा श्वश्रूः॥६॥ श्रीराधायां कादाचित्कं विषादमुदाहृत्य सर्वासु प्रतिदिनमपि पौर्वामिकं विषादमुदाहर्तुमाह—यथा वेति। व्रजसुन्दर्यः परस्पर-
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ताराशब्देनात्र श्रीराधा द्योतिता॥५॥ विषादोऽनुतापः॥६॥ वयस्यैः
प्रारब्धकार्यसिद्धिर्यथा श्रीगीतगोविन्दे—
गणयति गुणग्रामं भामं भ्रमादपि नेहते
वहति च परीतोषं दोषं विमुञ्चति दूरतः।
युवतिषु वलत्तृष्णे कृष्णे विहारिणि मां विना
पुनरपि मनो वामं कामं करोति करोमि किम्॥८॥
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माहुः। अक्षण्वतां चक्षुष्मतां जनानामिदमेव फलम्, इतः परमन्यत्फलं न विदामः। किंनु ते फलमित्यत आहुः। वयस्यैः सह पशूननु विवेशयतोर्वनाद्वनं प्रवेशयतोर्ब्रजेशसुतयोर्मध्ये यदनुकूलेन वेणुना जुष्टं वक्रम्। श्रीकृष्णमुखमित्यर्थः। तत् यैर्निपीतं चक्षुषा आस्वादितम्। अनुरक्तेषु जनेषु कटाक्षमोक्षो यस्य तत्, अनुक्तानां वा अपाङ्गप्रेरणं यस्मिन् तत्तेन कुलधर्मलज्जाभयादिभ्यो जलाञ्जलिं दत्त्वा वयमेतावन्तं कालमपि कथं तत्र नागच्छाम इति पश्चात्तापध्वनिः। हे सख्यः, मिथोऽनुजानीत संप्रत्यपि तत्रानुसृत्य तन्माधुर्यस्य कमप्यशं लब्धुं यतेमहीत्यनुध्वनिः॥७॥ कलहान्तरिता श्रीराधा ललितामाह—गणयतीति। मम मनः (कर्तृ) श्रीकृष्णे काममभिलाषं कुर्वदपि मनो मम निरुद्धमेवासीदिति भावः। करोमि किमित्यधुना तु मया निरोद्धुमशक्यमेवेति भावः। यतो वामं मत्प्रातिकूल्ये एव तिष्ठतीति भावः। प्रातिकूल्यस्थितिरेवाह—मां विना विहारिण्यपि सति श्रीकृष्णे गुणानां ग्रामं गणयति न चैकत्वाद्वचनगुणान्। भामं कोपमेकमपि भ्रमादपि न ईहते साक्षात्प्रत्यक्षेऽपि दोषाणां ग्रामे सत्यपि प्रत्युत परितोषंवहति। किं च यदि तेषु दोषेषु कोऽप्यनपलपनीयो महान् दोषोऽतिस्पष्टतया प्रत्यक्षीभवति तमपि दूरत एव मुञ्चति। यथा निकटमायातुं न शक्नोतीति भावः। तमेव दोषमाह— युवतिषु वलत्तृष्ण इति। तेन मानमहं श्रीकृष्णे कस्मादकरवमिति पश्चात्तापध्वनिः। त्वयापि मानशास्त्रमतः परं नाहमध्यापनीयेत्यनु-
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सह पशूननु विवेशयतोर्वनाद्वनं प्रवेशयतोर्ब्रजेशसुतयोः श्रीरामकृष्णयोर्विषययोरनु पश्चाद्वेणुजुष्टं यद्वक्रं तत् यैर्निपीतं तेषां तद्रूपं यत्फलं तदिदमेव अक्षण्वतां चक्षुष्मतां फलं परंतु न विदामो न विद्मः \। तस्मात्तदपश्यन्तीनामस्माकं
विपत्तितो यथा ललितमाधवे—
निपीता न स्वैरं श्रुतिपुटिकया नर्मभणिति-
र्न दृष्टा निःशङ्कं सुमुखि मुखपङ्केरुहरुचः।
हरेर्वक्षःपीठं न किल घनमालिङ्गितमभू-
दिति ध्यायं ध्यायं स्फुटति लुठदन्तर्मम मनः॥९॥
** अपराधाद्यथा—**
हरेर्वचसि सूनृते न निहिता श्रुतिर्वा मया
तथा दृगपि नार्पिता प्रणतिभाजि तस्मिन्पुरः।
हितोक्तिरपि धिक्कृता प्रियसखी मुहुस्तेन मे
ज्वलत्यहह मुर्मुरज्वलनजालरुद्धं मनः॥१०॥
** अथ दैन्यम्—तद्दुःखेन यथा बिल्वमङ्गले—**
अयि मुरलि मुकुन्दस्मेरवक्रारविन्द-
श्वसनरसरसज्ञे तां नमस्कृत्य याचे।
मधुरमधरबिम्बं प्राप्तवत्यां भवत्यां
कथय रहसि कर्णे मद्दशां नन्दसूनोः॥११॥
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ध्वनिः॥८॥ प्रोषितभर्तृका श्रीर्विलपति—निपीतेति। अत्रानुरागेण स्थायिना नर्मभणित्यादीनि मुहुरनुभूतान्येव क्रियन्त इति तथोक्तिः। अन्तर्ममान्तःकरणे लुटत्सत् मनःस्फुटति॥९॥ कलहान्तरिता श्रीराधा विलपति— हरेरिति। सूनृते सत्यप्रिये, वामया क्रूरया। हितोक्तिर्हितोपदेशवाक्यम्। मुर्मुरज्वलनस्तुषाग्निः॥१०॥ दैन्यमात्मनिकृष्टतामननम्॥ विल्वमङ्गलाभिधो भक्तो व्रजवालाभावभावितान्तःकरणं प्रार्थयते—अयीति। श्वसनरसः फूत्कारानिलमाधुर्य तस्य रसज्ञे आस्वादविदुषि, मम दशां तत्प्राप्त्युत्कण्ठानलदह्यमान-
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व्यर्थमेव चक्षुष्मत्त्वमिति भावः॥७॥८॥९॥ मुर्मुरज्वलनस्तुषाग्निः। दावाम्यादिवदेषां शब्दानां पृथक् पृथगपि प्रयोगः॥१०॥ दैन्यं चात्मनिकृष्टतामननेन नाटुः। पूर्वेण रसशब्देन माधुर्यमुच्यते द्वितीयेन त्वास्वादः
यथा वा श्रीदशमे—
तन्नः प्रसीद वृजिनार्दन तेऽङ्घ्रिमूलं
प्राप्ता विसृज्य वसतीस्त्वदुपासनाशाः।
त्वत्सुन्दरस्मितनिरीक्षणतीव्रकाम-
तप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम्॥१२॥
** त्रासेन यथा—**
अपि करधूतिभिर्मयापनुन्नो मुखमयमञ्चति चञ्चलो द्विरेफः।
अघदमन मयि प्रसीद वन्दे कुरु करुणामवरुन्धि दुष्टमेनम्॥१३॥
** अपराधेन यथा—**
आलि तथ्यमपराद्धमेव ते दुष्टमानफणिदष्टया मया।
पिच्छमौलिरधुनानुनीयतां मामकीनमनवेक्ष्य दूषणम्॥१४॥
** अथ ग्लानिः— सा भ्रमेण यथा—**
व्यात्युक्षीमघमथनेन पङ्कजाक्षी
कुर्वाणा किमपि सखीषु सस्मितासु।
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त्वम्॥११॥ साधकभक्तस्य दैन्यमुदाहृत्यसिद्धानामपि तमुदाहर्तुमाह— यथावेति। रासारम्मे श्रीकृष्णस्यौदासीन्यव्यञ्जकवाक्येन व्याकुलाः सचाटु गोप्य आहुः— तन्न इति॥ १२॥ वनविहारे श्रीराधा कृष्णमाह— **अपीति।**करधूतिभिः करचालनैः अपनुन्नः निरस्तोऽपि॥१३॥ श्रीकृष्णप्रणामसमये सखि राधे, त्वत्प्राणकोटेरधिकस्य कान्तस्यास्य सकृदप्यपराधं क्षमस्वेत्युक्तवत्यहं दुर्बुद्धे विशाखे, मदन्तिकादितो दूरीभवेत्याक्षिप्य तदानीं त्वयाहं दूरीकृता अभूवं संप्रति स्वयमेव मन्निकटं कथमायासीति वदन्तीं विशाखां श्रीराधा प्राह— आलीति। ते तुभ्यम्। मानफणीति। न हि सर्पदष्टोजनस्तद्विषोन्मादितः प्रलपन् बन्धुजनेनोपलोभ्यत इति भावः। ननु श्रीकृष्णस्त्वयि विमुखो वर्तत इत्यत आह—पिच्छेति॥ १४॥ ग्लानिर्निर्बलता॥वृन्दा पौर्णमासीमाह— व्यात्युक्षी परस्परजलसेकम्। सस्मितास्विति। सखीराक्षिप्य स्वयमेव द्वन्द्व-
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॥११॥१२॥१३॥ ते तव संबन्धे त्वयीत्यर्थः। अपराद्धमिति। तव वचनानवधानेनेति गम्यते। तत्र हेतुर्दुष्टेति॥१४॥ ग्लानिर्निर्बलता।व्यात्युक्षी-
क्षामाङ्गीमणिवलयं स्खलत्करान्ता-
त्कालिन्दीपयसि रुरोध नाद्य राधा॥१५॥
** आधिना यथा हंसदूते—**
प्रतीकारारम्भश्लथमतिभिरुद्यत्परिणते-
र्विमुक्ताया व्यक्तस्मरकदनभाजः परिजनैः।
अमुञ्चन्ती सङ्गं कुवलयदृशः केवलमसौ
बलादद्य प्राणानवति भवदाशासहचरी॥१६॥
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युद्धे प्रवृत्ता, अथ च तदपारयन्तीमहंकारमात्रावशिष्टां तां विलोक्येत्यर्थः।करान्तात् हस्ताग्रतः स्खलत् पतदपि वलयं न रुरोध रोद्धुं नाशकदित्यर्थः। तत्र हेतुः क्षामाङ्गीति॥१५॥ ललिता हंसं प्रति वदन्ती श्रीकृष्णं संदिशति—प्रतीति। कुवलयदृशः श्रीराधायाः प्राणान् भवदाशैव सहचरी केवलं वलादेव अवति देहान्निःसर्तुं न ददातीति प्राणेभ्योऽपि तस्याः प्रावल्यमुक्तम्। कीदृश्याः।व्यक्तःसर्वगोचरीभूतः स्मरस्त्वद्विषयकः प्रेमा। ‘प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यगमत्प्रथा॥’ इत्युक्तेः। तेनैव यत्कदनं परिमातुं शक्यमिति पुनर्विशिनष्टि।उद्यन्ती परिणतिरन्तिमावस्था यस्यास्तादृश्याः। अत एव परिजनैरस्मद्विधैरियं न जीविष्यतीति निश्चयेन तत्कदनस्य प्रतीकारारम्भेश्लथमतिभिःसद्भिर्विमुक्तायाः। भूमिशय्यायां शयिताया इत्यर्थः। किं च आशैव असाध्येऽपिगदे स्वसामर्थ्येन चिकित्सितुं प्रवृत्तेत्याह— अमुञ्चन्ती सङ्गमिति। तेन त्वत्प्रेयसीसा आशा सहचर्येव जीवयन्ती संप्रति वर्तते साचावधिदिवसात्
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नन्योन्वसेचनम्॥१५॥ कुवलदृशःश्रीराधायाःप्राणान् केवलमसौ भवदाशासहचरी बलादद्यावति। कीदृश्याः।व्यक्तस्मरकदनभाजः। स्मरोऽत्र प्रेमविशेषस्तत्स्मरणम्। पुनः कीदृश्याः। परिजनैर्विमुक्तायाः। कीदृशैस्तैः। प्रतीकारारम्भश्लथमतिभिः। कुतस्तादृशता तेषामित्याशङ्क्यतादृगवस्थाविशेषमेव तत्र हेतुमाह—उद्यती उदयमाना परिणतिरन्तिमावस्था यस्यास्तादृश्याः। अहो आशासहचरी कीदृशी। तत्राह— सङ्गममुञ्चन्तीति। तदेवं ललिता स्वालीर्निन्दित्वात्वामाशानेव स्तुवती तस्यास्तवाशायाः पालनं न भवता त्याज्यमिति
रतेन यथा श्रीगीतगोविन्दे—
माराङ्के रतिकेलिसंकुलरणारम्भे तया साहस-
प्रायं कान्तजयाय किंचिदुपरि प्रारम्भि यत्संभ्रमात्।
निस्पन्दा जघनस्थली शिथिलिता दोर्वल्लिरुत्कम्पितं
वक्षो मीलितमक्षि पौरुषरसः स्त्रीणां कुतः सिध्यति॥१७॥
** अथ श्रमः—सोऽध्वनो यथा पद्यावल्याम्—**
द्वित्रैः केलिसरोरुहं त्रिचतुरैर्धम्मिल्लमल्लीस्रजं
कण्ठान्मौक्तिकमालिका तदनु च त्यक्त्वा पदैः पञ्चषैः।
कृष्णप्रेमविघूर्णितान्तरतया दूराभिसारातुरा
तन्वङ्गी निरुपायमध्वनि परं श्रोणीभरं निन्दति॥१८॥
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परदिने न स्थास्यतीसि भवता न ज्ञायत एव इति एतन्मध्ये शीघ्रमागन्तव्यमिति ध्वनिः॥१६॥ सख्यः परस्परं श्रीराधाकृष्णयो रहस्यलीलामास्वादयन्ति— मारः कन्दर्पः श्लेषेण प्रहारः। माराङ्कश्चिह्नंयत्र तस्मिन्, रतिकेलिभिः संकुलो व्याप्तो यो रणस्तस्यारम्मे। तया श्रीराधया। यद्यस्मात् किंचिदुपरीति रहस्यम्॥१७॥ सख्यः परस्परं श्रीराधाभिसारलीलामास्वादयन्ति— द्वित्रैरिति। द्वौवा त्रयो वा द्वित्रास्तैः पदैः पादविन्यासौ॥ एवं तदन्विति सर्वत्र योज्यम्। अतो केलिकलादयो भावाःसर्व एव त्यक्तास्तदप्यहं कथं शीघ्रं चलितुं न शक्नोमीति विमृशन्ती स्वश्रोणीं दृष्ट्वा अहो अस्या एव महाभारेण इति तं निरुपायं दुस्त्यजं निन्दति— धिक् त्वां त्वन्निर्मातारं विधातारं च धिगिति। यदि श्रोण्या भारो मे नाभविष्यत्तदा शीघ्रमभ्यसरिष्यमिति मे नास्ति दोष इति भावः॥१८॥
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व्यञ्जयति। अत्र च वलादद्यावतीति। बलं तु तस्याः श्वः स्थाता न वेति वितर्क्यतर्पयन्तमपि विलम्बं मा कार्षीरिति भावः॥१६॥१७॥ श्रमः क्लेशः। द्वित्रैरिति। कस्याश्चिद्दूत्याः श्रीकृष्णं प्रति वचनम्। अत्र कृष्णेति संवोधनमेव। निरुपायं प्रतीकारान्निष्क्रान्तम्। दूराभिसारे आतुरा सामर्थ्य-
** नृत्याद्यथा—**
शिथिलगतिविलासास्तत्र हल्लीशरङ्गे
हरिभुजपरिघाग्रन्यस्तहस्तारविन्दाः।
श्रमलुलितललाटश्लिष्टलीलालकान्ताः
प्रतिपदमनवद्याः सिष्विदुर्वेदिमध्याः॥१९॥
** रत्नाद्यथा—**
अहह भुजयोर्द्वन्द्वं मन्दं बभूव विशाखिके
समजनि घनस्वेदं चेदं युगं तव गण्डयोः।
धृतमधुरिमस्फूर्तिर्मूर्तिस्तथापि वरानने
प्रमदसुधयाक्रान्तं स्वान्तं मम प्रणयत्यसौ॥२०॥
** अथ मदः—[स]मधुपानजो यथा—**
या ह्रिया हरिपुरो मुखमुद्रां भङ्क्तुमध्यवससौ न कदापि।
सा पपाठ चटुलं मधु पीत्वा शारिकेव पशुपालकिशोरी॥२१॥
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वृन्दा पौर्णमासीमाह—शिथिलेति। हल्लीशं रासनृत्यम्। श्रमेण लुलिताः स्रस्ताः ललाटे श्लिष्टाः प्रस्वेदविन्दुश्लिष्टा लीलालकानां केलिसूचकचूर्णकुन्तलानामन्ता अप्रभागा यासां ताः। वेद्या मध्यमिव क्षीणं मध्यं यासां ताः॥१९॥ श्रीकृष्णः संभुक्तां विशाखामाह— अहहेति। मन्दमपटु। ‘मूढाल्पापटुनिर्भाग्या मन्दा’ इति नानार्धवर्गात्। मम स्वान्तं प्रमदसुधया आक्रान्तं प्रणयति करोति। अत्रानुवादविधेययोः पौर्वापर्याभावोऽनुप्रासानुरोधात् सोढव्यः॥२०॥ मदो मधुपानोत्था मत्तता विवेकशून्या॥कुन्दवल्लीनान्दीमुखीमाह— **येति।**नाध्यवससौ नेष्टवती। अनङ्गविकियाभरजो मदस्तु प्रायः स्वाभियोग एव
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रहिता॥१८॥१९॥ मन्दमपट्टता।प्रणयति करोति॥२०॥ मदो विवेक-
अथ गर्वः— स सौभाग्येन यथा—
मुञ्चन्मित्रकदम्बसंगमभजन्नप्युत्सुकाः प्रेयसी-
रेष द्वारि हरिस्त्वदाननतटीन्यस्तेक्षणस्तिष्ठति।
यूथीभिर्मकराकृति स्मितमुखी त्वं कुर्वती कुण्डलं
गण्डोद्यत्पुलका दृशोऽपि न किल क्षीबेक्षिपस्यञ्चलम्॥२२॥
** रूपेण यथा—**
चन्द्रावलीवदनचन्द्रमरीचिपुञ्जं
कः स्तोतुमप्यतिपटुः क्षमते क्षमायाम्।
येनाद्य पिच्छमुकुटोऽपि निकेतवाटी-
पर्यन्तकाननकुटीरचरः कृतोऽयम्॥२३॥
** यथा वा विदग्धमाधवे—**
सहचरि वृषभानुजया प्रादुर्भावे वरत्विषोपगते।
चन्द्रावलीशतान्यपि भवन्ति निर्धूतकान्तीनि॥२४॥
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पर्यवस्यतीत्यत्र नोद्दिष्टः॥२१॥ गर्वोऽन्यहेलनम्॥ विशाखा कुञ्जमन्दिरस्थां श्रीराधां प्रत्याह—मुञ्चन्निति। अभजन् नैवेच्छन्नित्यर्थः। मकराकृतीति कुण्डलमपि श्रीकृष्णार्थमेव करोषि तदपि दृशोऽश्चलं न क्षिपसि। स्मितमुखीति हर्षोत्थं स्मितमपि रोद्धुं न शक्नोषि तदपीति पूर्ववत्। उत्पुलकेति। पुलका एव तवौत्सुक्यं कथयन्ति तदपीति पूर्ववत्। विव्वोकोऽयम्॥ २२॥ कदाचित्संसदि चन्द्रावलीसौन्दर्यकृतकटाक्षायां ललितायां पद्मा ससंरम्भमाह— चन्द्रावलीति। येन मरीचिपुञ्जेन॥२३॥ श्रीराधिकायामुदाहर्तुमाह— यथा वेति। तां पद्मोक्तिमाकर्ण्य ललिता साटोपमाह— सहेति। वृषभानुजया ज्येष्ठमासीयसूर्योत्थया वरत्विषा(कर्त्र्या) प्रादुर्भावे उपगते प्राप्ते सति चन्द्रश्रेणीशतान्यपीत्यादि, पक्षे वृषभानुजया श्रीराधया।
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हरोल्लासः नाध्यवससौ नाध्यवसितवती। नेष्टवतीत्यर्थः॥२१॥ गर्वोऽन्यहेलनम्
गुणेन यथा—
रमयन्तु तावदमलैर्ध्वनिभिर्गोपीकपोतिकाः कृष्णम्।
इह ललिता कलकण्ठी कलं न यावत्प्रपञ्चयति॥२५॥
** सर्वोत्तमाश्रयेण यथा श्रीविष्णुपुराणे—**
जानामि ते पतिं शक्रं जानामि त्रिदशेश्वरम्।
पारिजातं तथाप्येनं मानुषी हारयामि ते॥२६॥
** इष्टलाभेन यथा—**
नम्रा न भवतु वंशी मुकुन्दवक्रेन्दुमाधुरीरसिका।
त्वं दुर्लभतद्गन्धा लगुडि वृथा स्तब्धतां वहसि॥२७॥
** यथा वा श्रीदशमे—**
उन्नीय वऋमुरुकुन्तलकुण्डलत्विड्
गण्डस्थलं शिशिरहासकटाक्षमोक्षैः।
राजा निरीक्ष्य परितः शनकैर्मुरारे-
रंसेऽनुरक्तहृदया निदधे स्वमालाम्॥२८॥
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कीदृश्या वरत्विषा॥२४॥ विपक्षसुन्दरीसंसदि गानप्रस्तावे ललितायाः सखी प्राह— ललितैव कलकण्ठी कोकिला॥२५॥ सत्यभामा शचीं संदिशति— जानामीति॥२६॥ चोरितां श्रीकृष्णलगुडींरहसि स्वसखीसदसि श्रीराधा साक्षेपमाह— नम्रेति। अत्र वंशा गर्वं व्यञ्जितं तुष्टाव,लगुड्या निनिन्द॥२७॥ पुरसुन्दरीष्वपि व्यभिचारिभावा एवं सर्व एवोदाहर्तव्या इति ज्ञापयितुमाह— यथा वेति। लक्ष्मणा कुरुक्षेत्रे युवतिसंसदि स्वीयस्वयंवरणचरित्रं द्रौपदीमाह— उन्नीयेति। परितश्चतुर्दिक्षु स्थितान् राज्ञोनिरीक्ष्येति मद्वरणीयः श्रुतचररूपगुणः श्रीकृष्णः क्वखलपविष्ट इति तमन्वेष्टुमिति भावः। ततश्चोरु-
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*॥२२॥२३॥२४॥२५॥ ललितैव कलकण्ठी कोकिला॥२६॥ जानामीति श्रीसत्यभामावाक्यम्। नम्रेत्यत्रोत्प्रेक्षितमात्रोऽपि गर्वः श्रोतॄणां चेतसिसत्यवद्भातीन्युदाहृतम्॥ २७॥ **उन्नीयेति।*लक्ष्मणायाः स्वयंवरणायागताया-
अथ शङ्का सा चौर्येण यथा—
हरन्ती निद्राणे मधुभिदि27 करात्केलिमुरलीं
लतोत्सङ्गे लीना घनतमसि राधा चकितधीः।
निशि ध्वान्ते शान्ते शरदमलचन्द्रद्युतिमुषा-
मसौ निर्मातारं स्ववदनरुचां निन्दति विधिम्॥२९॥
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कुन्तलेत्यादिलक्षणं वक्रमुन्नीय शिशिरहासकटाक्षमोक्षैः सह मुरारेरंसे स्कन्धे मालां स्वयंवरणद्योतिनीं पुष्पस्रजं निदधे निहितवत्यस्मि इति स्वगर्वो व्यञ्जितः॥२८॥ शङ्का स्वानिष्टोत्प्रेक्षणम्। श्रीराधिकामुरलीचौर्यलीलां सख्यः परस्परमास्वादयन्ति—हरन्तीति। निद्राणे लब्धनिद्रे सति केलिमुरलीं हरन्ती हर्तुमिच्छन्तीत्यर्थः। ततश्च ध्वान्ते शान्ते विरते सति। चकितधी अहो कथमकस्मादन्धकारपुञ्जोनष्ट इति स्वप्रकाशभयात् त्रस्तचित्ता।ततश्च विमृश्य ध्वान्तध्वंसकारणं स्वमुखकिरणजालमेव ज्ञात्वा स्वमुखरुचां निर्मातारं विधिं विधातारमेव निन्दति— यदि विधाता मन्मुखकान्तीरीदृशीर्नास्रक्ष्यत् तदाहमधुनैव मुरलीमचोरयिष्यमिति मदभिलषिते स एव विघ्नकरोऽभूदिति धिक् तं विधातारमिति
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श्चरितं स्वयमेव तथा कथितम्। उरुकुन्तलेत्यादिलक्षणं वक्रमुन्नीय स्वयंवरणीयस्य मुरारेर्दर्शनस्यान्यथानुपपत्तेरुन्नमय्य मुरारेरंसे स्कन्धे स्वांस्वयंवरणाय स्वेन रचितां मालां निदधे निहितवत्यस्मि। किं कृत्वा। शनकैरवज्ञया मन्दं मन्दं राज्ञो निरीक्ष्य। निरीक्षणपूर्वकं परित्यज्येत्यर्थः। कैरुपलक्षिता मालां निहितवत्यस्मि तत्राह—शिशिरः शिशिरकरांशुरिव हर्षस्वाभाविको हासः स्मितं येषुतादृशैःकटाक्षमोक्षैरपाङ्गदृष्टिविसृष्टिभिः। तत्र कारणमाह — अनुरक्तहृदययेति॥२८॥ अथ शङ्केति। तल्लक्षणं चोक्तम्— स्वानिष्टोत्प्रेक्षणं शङ्केति। भयं त्वस्याः कार्यम्। तच्च लक्षितम्—‘भयं चित्तातिचाञ्चल्यंमत्तघोरेक्षणादिभिः।’॥ हरन्तीत्यादौ ‘लतोत्सङ्गेलीना वृषरविसुता यत्र(?) त्वमसि घने तस्मिन्शान्ते निजवदनकान्तेर्विततिभिः। विधातारं तासां जित-
** अपराधाद्यथा ललितमाधवे—**
उत्ताम्यन्ती विरमति तमस्तोमसंपत्प्रपञ्चे
न्यञ्चन्मूर्धा सरभसमसौ स्रस्तवेणीवृतांसा।
मन्दस्पन्दं दिशि दिशि दृशोर्द्वन्द्वमल्पं क्षिपन्ती
कुञ्जाद्गोष्ठं विशति चकिता वक्रमावृत्य पाली॥३०॥
शङ्का तु प्रवरस्त्रीणां भीरुत्वाद्भयकृद्भवेत्॥३१॥
** परक्रौर्याद्यथा विदग्धमाधवे—**
व्यक्तिं गते मम रहस्यविनोदवृत्ते
रुष्टो लघिष्ठहृदयस्तरसाभिमन्युः।
राधां निरुध्य सदने विनिगूहते वा
हा हन्त लम्भयति वा यदुराजधानीम्॥३२॥
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भावः॥२९॥ वृन्दाह—उत्ताम्यन्तीति। हन्त प्रातर्जातं कथमद्य गोष्ठं प्रविशामीति विहलेत्यर्थः। न्यञ्चन्मूर्धेति। दूरस्थः कोऽपि मां पश्यन्नपि न परिचिनोत्वित्यभिप्रायेण। सरभसं सत्वरम्। मन्दस्पन्दमिति। रजन्युज्जागरेण।वक्रमावृत्येति। समीपागतोऽपि जनो मां न परिचिनोत्विति बुद्ध्या॥३०॥ अत्र शङ्कायाः कारणमपराधः स च स्वकुलधर्मोल्लङ्घनरूपः, तथा भवानकरसस्य स्थायी यद्भयं तस्यापि कारणमपराधः। यदुक्तम्—‘भयं चित्तातिचाञ्चल्यंमन्तुघोरेक्षणादिभिः।’ इति। तस्माद्भयस्य सान्द्रत्वेस्थायित्वमसान्द्रत्वेशङ्काभिधानतया व्यभिचारित्वमिति भेदः कल्प्यः।किं चात्र **शङ्का त्विति।**प्रवरस्त्रीणां भीरुत्वाद्धेतोः शङ्कातु भयकृत् भयस्य कर्त्री स्यात्। प्रथममसान्द्रं स्तोकमेव भयं शङ्काख्यं स्यात्। तदेव लक्षणमात्रत एव सान्द्रं बहुलं सत् भयानकरमस्य स्थायिभावो भयं स्यादित्यर्थः॥३१॥ श्रीराधावेषधारिणं सुवलं स्ववधूंज्ञात्वाजटिलया श्रीकृष्णसमीपात् कोपेन गोपीनां सभां प्रति नीतमालोक्य स श्रीकृष्णोऽपि तत्संदर्भमजानन् सानुतापमाह— व्यक्तिमिति
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*विधुरतां निन्दति विधिम्’ इति चान्तिमचरणत्रयमस्ति॥२९॥ चकिता भीता॥३०॥ तर्हि कथं शङ्काया एवोदाहरणमत्र कृतं तत्राह—**शङ्का त्विति।*शङ्कातु भयं न व्यभिचरत्येव प्रवरस्त्रीणां तु विशेषतः। तत् कथं तद्विनोदाह-
अथ त्रासः— स तडिता यथा—
स्फूर्जिते नभसि भीरुरुद्यतां विद्युतां द्युतिमवेक्ष्य कम्पिता।
सा हरेरुरसि चञ्चलेक्षणा चञ्चलेव जलदे न्यलीयत॥३३॥
** घोरसत्त्वेन यथा विदग्धमाधवे—**
कर्णोत्तंसितरक्तपङ्कजजुषो भृङ्गीपतेर्झक्रिया
भ्रान्तेनाद्य दृगञ्चलेन दधती भृङ्गावलीविभ्रमम्।
त्रासान्दोलितदोर्लतान्तविचलच्चूडा झणत्कारिणी
राधेव्याकुलतां गतापि भवती मोदं ममाध्यस्यति॥३४॥
** उग्रनिस्वनेन यथा—**
त्वमसि मम सखेति किंवदन्ती मुदिर चिराद्भवता व्यधायि तथ्या।
मृदुरसि रसितैर्निरस्यमानं यदुदितवेपथुरर्पिताद्य राधा॥३५॥
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॥३२॥ त्रासोऽकस्माद्विद्युदादिभिर्मनसः कम्पः पूर्वापरविचारोत्था शङ्का सैवातिसान्द्रा बहुला भयमिति त्रासशङ्काभयानां भेदः॥ रूपमञ्जरी कुन्दवल्ली प्रत्याह—स्फूर्जिते इति। नभसि आकाशे स्फूर्जिते मेघगर्जनेन शब्दिते सति उद्यतामुद्गतानाम्। सा राधा चञ्चलेव विद्युदिव॥३३॥ श्रीकृष्ण आह— कर्णेति। दृगञ्चलेनेति जात्या एकवचनम्। मुहुर्मुहुस्तिर्यग्गतैर्दृगञ्चलैरित्यर्थः। त्रासेनान्दोलितयोरितस्ततो विक्षिप्तयोर्दोर्लतयोरन्तर्वर्तिनीनां विचलन्तीनां चूडानां वलयानां झणत्कारवती। ‘चूडा शिखायां वलभौ चूडा बाहुविभूषणे।’ इति विश्वः। बाहुशब्देन करपर्यन्तोऽप्यसावुच्यते। आजानुबाह्वादिशब्दप्रयोगात् अध्यस्यत्यर्पयति। अत्र तव कष्टं मम मोद इत्यस्य विवक्षितलात् संवन्धस्य प्राधान्यात् षष्ठी॥३४॥ श्रीकृष्ण आह— त्वमिति। किंवदन्ती सख्युर्व्यधा-
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र्तव्यमिति भावः॥३१॥३२॥ अथ त्रास इति। तल्लक्षणम्—‘त्रासः क्षोभो हृदि तडिद्वोरसत्त्वोग्रनिस्वनैः।’ इति। ‘गात्रोत्कम्पी मनःकम्पः सहसा त्रास उच्यते। पूर्वापरविचारोत्थं भयं त्रासाद्विभिद्यते॥” इति॥३३॥ कर्णोत्तंसितेति। श्रीकृष्णवचनम्।चूडाः कङ्कणाः अध्यस्यति अर्पयति ममेति सप्तम्यर्थे संबन्धसामान्यास्तित्वविवक्षया पष्ठी॥३४॥ त्वमसीति। श्रीकृष्ण-
** अथावेगः— स प्रियदर्शनजो यथा ललितमाधवे—**
सहचरि निरातङ्कः कोऽयं युवा मुदिरद्युति-
र्व्रजभुवि कुतः प्राप्तो माद्यन्मतङ्गजविभ्रमः।
अहहचटुलैरुत्सर्पद्भिर्दृगञ्चलतस्करै-
र्मम धृतिधनं चेतःकोषाद्विलुण्ठयतीह यः॥३६॥
** यथा वा तत्रैव—**
उपतरु ललितां तां प्रत्यभिज्ञाय सद्यः
प्रकृतिमधुररूपां प्रेक्ष्य राधाकृतिं च।
मणिमपि परिचिन्वन् शङ्खचूडावतंसं
मुहुरहमुदघूर्ण भूरिणा संभ्रमेण॥३७॥
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त्स्ववपुपाम्बुद आतपत्रम्’ इत्यादिरूपा। ‘किंवदन्ती जनश्रुतिः’ इत्यमरः। मुदिर हे मेघ, तथ्या सत्या रसितैर्गर्जनशब्दैः॥३५॥ ‘आवेगश्चित्तविभ्रमः’ इतिकर्तव्यतामूढ इति यावत्॥ \।अनुरागाख्यस्थायिभाववती श्रीरावा वितर्कयति—सहचरीति॥३६॥ अत्रैतिकर्तव्यतामूढत्वंन स्पष्टमित्यपरितुष्यन्नाह— यथा वेति। अत्र ललितमाधवीयकथायां माथुरविरहोन्मादेन खेलातीर्थमवगाहमाना सविशाखा च श्रीराधा सूर्यमण्डलं प्राप्ता स्वकण्ठात् शङ्खचूडाख्यमणिं सूर्यायोपजहार। ललिताविश्लेषज्वरोन्मत्ता गोवर्धने भृगुपतनं कुर्वती जाम्बवता स्वहस्तेन गृहीत्वास्वपुरमानीता, स्वकन्यात्वेन ख्यापिता जाम्बवती बभूव। सा चेन्द्रनीलमणिजाम्बूनदाभ्यां श्रीकृष्णराधयोः प्रतिमे निर्माय तद्दर्शनादिनैव कालं यापयामास। सूर्यश्च श्रीराधां सत्यभामाख्यया मणिं च स्वमन्तकाभिधानतया ख्यापयन् स्वभक्ताय सत्राजिते ददौ। सत्राजिता च दत्तकलङ्कःश्रीकृष्णो जाम्बवतः पुरीं जगाम। जाम्बवांश्च युद्धान्ते स्वप्रभुं परि-
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वाक्यम्, किंवदन्ती ‘सख्युर्व्यधास्त्ववपुपाम्बुद आतपत्रम्’ इत्यादिरूपा॥३५॥ आवेगश्चित्तस्यसभ्रमः।प्रतिक्षणं नयनवायमानं तं दृष्ट्वा श्रीराधाबचनम्॥३६॥ उपतरु ललितामिति। अत्र कथा पूर्ववल्लालितमाधवा-
** प्रियश्रवणजो यथा ललितमाधवे—**
धन्ये कज्जलमुक्तवामनयना पद्मे पदोढाङ्गदा
सारङ्गिध्वनदेकनूपुरधरा पालिस्खलन्मेखला।
गण्डोद्यत्तिलका लवङ्गिकमले नेत्रार्पितालक्तका
मा धावोत्तरलं त्वमत्र मुरली दूरे कलं कूजति॥३८॥
** अप्रियदर्शनजो यथा तत्रैव—**
क्षणं विक्रोशन्ती विलुठति शताङ्गस्य पुरतः
क्षणं वाष्पग्रस्तां किरति किल दृष्टिं हरिमुखे।
क्षणं रामस्याग्रे पतति दशनोत्तम्भिततृणा
न राधे यं कं वा क्षिपति करुणाम्भोधिकुहरे॥३९॥
** अप्रियश्रवणजो यथा—**
व्रजनरपतेरेष क्षत्ता करोति गिरा प्रगे
नगरगतये घोरं घोषे घनां सखि घोषणाम्।
श्रवणपदवीमारोहन्त्या यया कुलिशोग्रया
रचितमचिरादामीरीणां कुलं मुहुराकुलम्॥४०॥
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चिन्त्य, तं रत्नपर्यङ्के उपवेश्य, मण्यानयनार्थं स्वान्त पुरमविशत्। अथ क्षणतः कयाचिज्जरत्या प्रोक्तसर्ववृत्तान्ता ललिता जरतीहस्ते श्रीराधाप्रतिमां स्यमन्तकमणिकण्ठीं समर्प्य श्रीकृष्णं द्रष्टुं तरुमन्तरा तस्थौ। ततस्तां ललितां दृष्टवतः स्वस्य या दशा अजनि तामेव द्वारकामागत्य श्रीकृष्णो मधुमङ्गलं प्रत्याह— उपतरु तरोः समीपे प्रत्यभिज्ञाय—सैवेयं ललितेति परिचित्य।राधाकृतिं श्रीराधाप्रतिमाम्॥३७॥ कुन्दवल्लीप्राह—मा धावेति प्रत्येकमन्वितम्॥३८॥ मथुरास्थाने रथारूढं श्रीकृष्णमालोकयन्त्याः श्रीराधायाश्चेष्टितं वृन्दा वर्णयति— शताङ्गस्य रथस्य॥३९॥ कुन्दवल्ली नान्दीमुखीं प्रत्याह— व्रजनरपतेर्गिरा एष
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ज्ज्ञेया॥३७॥ मा धावेति प्रत्येकमन्वितम्॥३८॥३९॥४०॥
** एवमन्येऽप्यूह्याः।**
** अथोन्मादः— स प्रौढानन्दाद्यथा—**
प्रसीद मदिराक्षि मां सखि मिलन्तमालिङ्गितुं
निरुन्धि मुदिरद्युतिं नवयुवानमेनं पुरः।
इति भ्रमरिकामपि प्रियसखी भ्रमाद्याचते
समीक्ष्य हरिमुन्मदप्रमदविक्लवा बल्लवी॥४१॥
** विरहाद्यथा—**
काप्यान्दोलितकुन्तला विलुठति क्वाप्यङ्गुलीभङ्गत-
स्त्वद्गद्भ्रूर्दशनैर्विदश्य दशनान् कंसं शपत्युद्धुरा।
कुत्राप्यद्य तमालमुत्तरलधीरालोक्य धावत्यलं
राधा त्वद्विरहज्वरेण पृथुना दूना यदूनां पते॥४२॥
** अथापस्मारः—यथा—**
अङ्गक्षेपविधायिभिर्निबिडितोत्तुङ्गप्रलापैरलं
गाढोद्वर्तिततारलोचनपुटैःफेनच्छटोद्गारिभिः।
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क्षत्ता व्रजनगरद्वारपालःप्रगेश्वः प्रात काले नगरगतये मथुरा गन्तुं घोरं यथा घोषणया॥४०॥ उन्मादश्चित्तविभ्रमः।वृन्दा प्राह—भ्रमरिका भृङ्गीम्॥४१॥ उद्धवो व्रजादागत्यश्रीकृष्णाय वर्णयति— अङ्गुलीनां भङ्गतः स्फोटनात्। लगद्भ्रूद्यलभ्रूयुगला।‘त्वगि चलने’ धातुः। कंसं शपतीति। रे कंस, परलोकगतस्यापि तवाशा तुषायमाणा भवतु यत्त्वयाहमेतावद्दुःखंप्रापितेति। दूना उपतप्तासती।यदूनां पते इति। संप्रति त्वं यदून् पालय।तथा प्रभबत्या तवकिं प्रयोजनमिति भावः॥४२॥ अपस्मारो दुःखोत्थधातुवैषम्योद्भुतचित्तविक्लवः॥ मथुरास्थं श्रीकृष्णं केनापि द्वारा ललिता सदिशति— अङ्गेति।
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उन्मादो हृद्गमः॥४१॥ त्वङ्गद्भ्रूयुगला॥४२॥ अपस्मारो दुःखोत्थधातुवैषम्याद्युद्भूतद्यित। अपस्मारिणींलोकप्रसिद्धेनापस्मारेण युक्ताम्। न तु
कृष्ण त्वद्विरहोत्थितैर्मम सखीमन्तर्विकारोर्मिभि-
र्ग्रस्तां प्रेक्ष्य वितर्कयन्ति गुरवः संप्रत्यपस्मारिणीम्॥४३॥
** अथ व्याधिः—स यथा रससुधाकरे—**
शय्या पुष्पमयी परागमयतामङ्गार्पणादश्नुते
ताम्यन्त्यन्तिकतालवृन्तनलिनीपत्राणि गात्रोष्मणा।
न्यस्तं च स्तनमण्डले मलयजं शीर्णान्तरं लक्ष्यते
क्वाथादाशु भवन्ति फेनिलमुखा भूषामृणालाङ्कुराः॥४४॥
** अथ मोहः— स हर्षाद्यथा विदग्धमाधवे—**
दरोन्मीलन्नीलोत्पलदलरुचस्तस्य निविडा-
द्विरूढानां सद्यः करसरसिजस्पर्शकुतुकात्।
वहन्ती क्षोभाणां निवहमिव नाज्ञासिषमिदं
क्व वाहं का वाहं चकर किमहं वा सखि तदा॥४५॥
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त्वद्विरहादुद्भूतैरन्तर्विकारतरङ्गैर्ग्रस्ता मम सखीं लोकप्रसिद्धापस्माररोगवतींगुरवः श्वशुरश्वश्र्वादयः। निविडिता उत्तुङ्गा प्रलापा येषुतैः॥ ४३॥ व्याधिज्वरादिप्रतिरूपो विकारः। श्रीराधायाःसखी श्रीकृष्णं प्रति तस्या विरहमाह—परागमयतामित्यनेनाङ्गानां संतापो विवर्तनपरिवर्तनोद्वर्तनादिपौनःपुन्यं च लक्ष्यते। तत्र संतापेन पुष्पदलानां शोषो विवर्तनादिभिश्चूर्णीभावः पुष्पाणामङ्गानां च। सौरभ्येण परागत्वम्। तालवृन्तं व्यजनं मलयजं चन्दनपङ्कंन्यस्तमेव शीर्णान्तरं विदीर्णमध्यभागं लक्ष्यते। क्षणान्तरे तु चूर्णमेव भवतीति भावः। चकार एवार्थे। विन्यासतुल्यकाल एवेत्यर्थः। भूषा वलयाद्यलंकाररूपा, तापशान्त्यर्थं मृणालाङ्कुरास्तेऽ-ङ्गसङ्गतापेन यः क्वाथः पाकस्तस्मात् फेनयुक्ताग्रा भवन्ति॥४४॥ मोहो मूर्च्छा।श्रीराधां पृच्छन्त्यौ ललिताविशाखे प्रत्याह—दरोन्मीलदिति। तस्य
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त्वदीयमहारागजातेन॥४३॥ व्याधिर्ज्वरादिप्रतिरूपो विकारः।परागोऽत्र चूर्णम्
यथा वा श्रीदशमे—
कृष्णं निरीक्ष्य वनितोत्सवरूपशीलं
श्रुत्वा च तत्क्वणितवेणुविविक्तगीतम्।
देव्यो विमानगतयः स्मरनुन्नसारा
भ्रश्यत्प्रसूनकबरा मुमुहुर्विनीव्यः॥४६॥
विश्लेषाद्यथोद्धवसंदेशे—
सा पल्यङ्के किसलयकुलैः कल्पिते तत्र सुप्ता
गुप्ता नीरस्तबकितदृशां चक्रवालैः सखीनाम्।
द्रष्टव्या ते क्रशिमकलिता कण्ठनालोपकण्ठे
स्पन्देनान्तर्वपुरनुमितप्राणसङ्गा वराङ्गी॥४७॥
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श्यामलकिशोरस्य करसरसिजस्पर्शक़ुतुकात् सद्यस्तत्क्षण एव विरूढानामुत्पन्नानां क्षोभाणा निवहं वहन्ती इदं क्व वाहमित्यादिकं नाजासिपं सनिर्धार न ज्ञातवत्यस्मीत्यन्वयः। क्व वाहमिति प्राङ्गणे वर्त्मनि पुष्पशय्यायां वेत्यर्थः। का वेत्यहं जटिलाया वधू, तस्यैव वा सर्वकालभोग्या कान्तेत्यर्थः। किं चकरेति सप्रयोगे वाम्यं वा दाक्षिण्यं वा पुरुषायितत्वं वा किमहमकार्षमित्यर्थः। मत्तोऽहं किल विललाप, सुप्तोऽहं कि चकारेतिवत् लिट्॥४५॥ समर्थायां रतौ मोहमुदाहृत्य कैमुत्यार्थ साधारण्याभ्यासरूपायामुदाहर्तुमाह—यथा वेति। गोप्यःपरस्परमाहु— कृष्णमिति। स्मरेण नुन्नस्तासामन्तःकरणान्निष्काश्य दूरतःक्षिप्तः सारो धैर्यं यासां ताः॥४६॥ तासु व्रजसुन्दरीषु मध्ये श्रीराधा मया कथं परिचेतव्येति पृच्छन्तमुद्धवं प्रति श्रीकृष्ण आह— सेति। नीलस्तवका अश्रुजलगुच्छाःसंजाता यासुतथाभूता दृशो नेत्राणि यासां तासाम्। तारकादित्वाश्तिच्॥ सखीनां चक्रवालैर्मण्डलैर्गुप्तारक्षिता क्रशिम्नाकलिता व्याप्ता। कण्टनालस्योपकण्ठे यः स्पन्दः किंचिच्चलनं तेनान्तर्वपुर्वपुषोमध्ये अनुमितःप्राण-
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॥४४॥ मोहो दृन्मूढता। लीनचित्ततेति यावत्॥४५॥४६॥४७॥
** विषादाद्यथा श्रीदशमे—**
निजपदाञ्जदलैर्ध्वजवज्रनीरजाङ्कुशविचित्रललामैः।
व्रजभुवः शमयन् खुरतोदं वर्ष्मधुर्यगतिरीरितवेणुः॥
व्रजति तेन वयं सविलासवीक्षणार्पितमनोभववेगाः।
कुजगतिं गमिता न विदामः कश्मलेन वसनं कबरं वा॥४८॥
** अथ मृतिः।**
मृतेरध्यवसायोऽत्र वर्ण्यः साक्षादियं न हि।
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संज्ञः प्राणस्यास्तित्वं यस्याः सा॥४७॥ श्रीकृष्णस्य गोगोपसहितस्यापराह्निकव्रजागमनलीलामास्वादयन्त्यः काश्चन गोप्यो लज्जाधैर्यकुलधर्मादिभ्यो जलाञ्जलिं दत्त्वा सुवलादय इव वयमपि तत्सङ्गिन्यः कथं नाभूम इत्यनुतापेन मुह्यन्त्यश्च तदन्तरान्तरा परस्परमाहुः— निजेति। ललामं चिह्नं व्रजभुवस्तदीयतृणादेः खुरतोदं गोखुरच्छेदजन्यं दुःखं निजपदाब्जदलैर्गवां पश्चात् पश्चाद्विन्यस्तैरेव शमयन् सद्य एव। तदङ्कुरपत्राद्युद्गमैरिति भावः। वर्ष्मधुर्यगतिर्गजतुल्यगतिः सन् य ईरितवेणुर्व्रजति तेन कुजगतिं वृक्षस्येव दशां गमिताः प्रापिताः कश्मलेन मोहेन। सर्वत्रात्र मोहे स्थायिभावलोपो नाशङ्कनीयः मोहस्य संचारित्वात्। संचारित्वस्य स्थायिभावसाहाय्यरूपत्वादत एवोक्तं रसामृत एव— ‘अन्यत्रात्मादिपर्यन्ते स्यात्सर्वत्रैव मूढता।कृष्णस्फूर्तिविशेषस्तु न कदाप्यत्र लीयते॥” इति॥४८॥ अध्यवसाय उद्यम। इयं भृतिःप्राणत्यागो न वर्ण्येति समर्थसमञ्जससाधारणस्थायिभाववतीनां श्रीकृष्णप्रेयसीनां नित्यसिद्धत्वेन तदसंभवात्। अन्तर्गृहागताःकाश्चिदित्यादेस्तथा ‘कृष्णपत्न्योविशन्नग्निम्’ इत्यादेर्व्याख्या वैष्णवतोषिणीसंदर्भादौ द्रष्टव्या। क्वचित्साधकप्रायाणा कासांचिन्मृते संभवेऽप्यमङ्गलत्वान्न वर्ण्येति॥
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*ललामंचिह्णम्। व्रजभुवस्तदीयतृणादेः खुरतोदं गवां खुरैः कृतच्छेदम्।निजपदाब्जदलैस्तत्स्पर्शैः सद्य एवाङ्कुरोत्पादकैः शमयन् वर्ष्मधुर्यगतिर्गजतुल्यगति। ईरितवेणुरिति वेणुवादनेन तत्रापि वैशिष्ट्यं दर्शितम्। कुजो वृक्षः, कश्मलो मोहः॥४८॥ मृतिः प्राणत्यागः। **मृतेरध्यवसाय इति।*अन्तर्गृहगताः काश्चिदित्यादेर्गतिस्तु श्रीवैष्णवतोपिण्यांव्याख्यातास्तीति भावः
** यथोद्धवसंदेशे—**
यावद्व्यक्तिं न किल भजते गान्दिनेयानुबन्ध-
स्तावन्नत्वा सुमुखि भवतीं किंचिदभ्यर्थयिष्ये।
पुष्पैर्यस्या मुहुरकरवं कर्णपूरान्मुरारेः
सेयं फुल्ला गृहपरिसरे मालती पालनीया॥४९॥
** अथालस्यम्—**
साक्षादङ्गं न चालस्यंभङ्ग्यातेन निवध्यते॥५०॥
** यथा—**
निरवधि दधिपूर्णा गर्गरीं लोडयित्वा
सखि कृततनुभङ्गं कुर्वती भूरि जृम्भाम्।
भुवमनुपतिता ते पत्युरास्ते सवित्री
विरचय तदशङ्कंत्वं हरेर्मूर्ध्नि चूडाम्॥५१॥
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श्रीराधा ललितां प्रत्याह—यावदिति। गान्दिनेयोऽक्रूरः।**तावदिति।**श्रीकृष्णस्य मथुराप्रस्थाननिश्चये श्रुते तु मरिष्यन्त्या मम वाक्यं नैव निःसरिष्यतीति भाव॥४९॥ आलस्यं सामर्थ्यसद्भावेऽपि कर्तव्यवस्तुनि न चिकीर्षा तदालसमासक्तेर्विषयभूते वस्तुनि चेद्भवेत्तदा आसक्तेरेव लोपः स्यादिति प्रेमवतीनां कृष्णे कृष्णसंबन्धिवस्तुनि च तस्यासंभवः किंतु जरत्यादिषुविद्यमानं तदासांस्थायिभावं पुष्यतीत्याह—साक्षादङ्गमिति॥५०॥ कुञ्जे श्रीकृष्णेन सह विलसन्तींश्रीराधां पद्माशिक्षितायाः कस्याश्चित् शारिकाया मुखतो जटिलाया आगमनं श्रुत्वाविभ्यतीं श्रीराधां तदानीमेव देवाद्गोष्ठादागता रूपमञ्जरी आश्वासयति—निरवधीति॥५१॥ जाड्यमप्रतिपत्तिः। कुन्दवल्लीनान्दी-
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॥४९॥ साक्षादङ्गंन चेति। आलस्यं खलुशक्तौसत्यामप्यशक्तिव्यञ्जना। सा तु तासांकृष्णसेवादौन संभवत्येव।नपारयेऽहं चलितुमिति कृत्रिमालम्पं ज्ञेयम्। तस्माद्विरोधिगततद्वर्णनात् स्थायिपोषणपरिपाट्येव तन्निबद्धता युक्ता
** अथ जाड्यम्—तदिष्टश्रुत्या यथा—**
गोपुरे रुवति कृष्णनूपुरे निष्क्रमाय धृतसंभ्रमाप्यसौ।
कीलितेव परिमीलितेक्षणा सीदति स्म सदने मनोरमा॥५२॥
** अनिष्टश्रुत्या यथा ललितमाधवे—**
आलीव्यलीकवचनेन मुहुर्विहस्ता
हस्तारविन्दविगलद्ग्रथितार्धमाल्या।
हाहन्त हन्त किमपि प्रतिपन्नतन्त्रा
चन्द्रावली किल दशान्तरमारुरोह॥५३॥
** इष्टेक्षणेन यथा विदग्धमाधवे—**
अहो धन्या गोप्यः कलितनवनर्मोक्तिभिरलं
विलासैरामोदं दधति मधुरैर्या मधुभिदः।
धिगस्तु स्वं भाग्यं यदिह मम राधा प्रियसखी
पुरस्तस्मिन्प्राप्ते जडिमनिविडाङ्गी विलुठति॥५४॥
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मुखीमाह—गोपुरे पुरद्वारे॥५२॥ श्रीकृष्णस्य मथुराप्रस्थाने पौर्णमासी सखेदमाह— आल्याः पद्माया व्यलीकवचनेन विहस्ता व्याकुला।‘विहस्तव्याकुलौ समौ’ इत्यमरः। व्यलीकवचनं च तत्रैव यथा—अज्जारूढो रहमिह पुरा सङ्गरङ्गी रहङ्गी हा पुफ्फाणं तहवि चडुले गन्तुमुक्कण्ठिदासि। आहीरीणं वहिविगहिरुक्कोसदीहा विलावा किं ते चन्दा अनिल परिदो कण्णकुज्जंविसन्ति॥“इति। दशान्तरं दशमीं दशाम्॥५३॥ विशाखा श्रीकृष्णेन मिलितायाः श्रीराधायाः प्रेमोत्कर्षंव्याजस्तुत्या वर्णयति— अहो इति। आमोदमानन्दम्
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*॥५०॥५१॥ जाड्यमप्रतिपत्तिः॥५२॥ **आलीव्यलीकवचनेनेति।*अस्य प्रसङ्गो ललितमाधवाज्ज्ञेयः। व्यलीकमप्रियम्॥५३॥ अहो धन्या इति। अद्यावगते तस्या ईदृशस्वभावेऽपि यन्नाटकेष्वत्रापि च कुत्रचिन्नर्मादिकं
** अनिष्टेक्षणेन यथा—**
राधा वनान्ते हरिणा विहारिणी
प्रेक्ष्याभिमन्युं स्तिमिताभवत्तथा।
क्रुद्धास्य तूर्ण भजतोऽपि संनिधिं
यथा भवानीप्रतिमाभ्रमं दधे॥५५॥
** विरहेण यथा पद्यावल्याम्—**
गृहीतं ताम्बूलं परिजनवचोभिर्न सुमुखी
स्मरत्यन्तःशून्या मुरहर गतायामपि निशि।
तथैवास्ते हस्तः कलितफणिवल्लीकिसलय-
स्तथैवास्यं तस्याः क्रमुकफलफालीपरिचितम्॥५६॥
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॥५४॥ वृन्दा पौर्णमासीमाह— राधेति। स्तिमिता स्तब्धाजाड्येन जातस्तम्भभावा तथा अभवत् यथा अभिमन्योर्भवानीप्रतिमैवेयं कामुकी न तु राधेति भ्रमम्। ततश्च भोःकृष्ण, अस्या भवानीप्रतिमाया निकटे किमर्थं वससीति कृष्णे पृष्टे इमा गन्धपुष्पचन्दनादिभिःशृङ्गारयितुमिति तेन च प्रत्युक्ते भवान्यै नम इति राधां प्रणम्य स गृहं गत इति ज्ञेयम्॥५५॥ विप्रलब्धाया राधाया विरहपीडां व्यञ्जयन्ती वृन्दा श्रीकृष्णं प्रत्याह—गृहीतमपि ताम्बूलं न स्मरति हस्तेअति वा नास्तीति नानुसंधत्ते। परिजनानां वचोभिरित्यनेन तत्र स्वतः स्पृहाभावः सूचितः। तत्रापि बहुवचनेन सशपथत्वदानयनाद्याश्वासः सूचितः। कलितं गृहीतम्। फणिवल्लयास्ताम्बूलवल्ल्याकिसलयं पत्राणि यस्य सः। क्रमुकफलस्य गुवाकस्य फाली खण्डं तया परिमितमास्यं च तथैवास्तइति। प्रथमं ताम्बूलवेष्टिता गुवाकफाल्योसुखेयाः परिजनैरर्पितास्ता न चर्वयति स्म।
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वर्ण्यतेतत्खलुविरलमेव ज्ञेयम्। स्वंमदीयम्॥५४॥ नासूयन् खलु कृष्णावेत्यादिना श्रीभागवते तत्पतिंमन्यादीनामसूयाया निवारणाय मायया तत्तदाच्छादनं प्रतीत्यन्तरं च दर्शितम्। तस्माद्राधा बनान्त इत्यादावत्र यद्भवानीप्रतिमाकारत्वंतस्याजातं तच्च नायाया एवं कार्यम्। साक्षात्तद्रूपप्रतिमयोर्बहुवैलक्षणात्।एवमन्यत्रापि प्रकारभेदेनतत्तत्प्रतारणमुक्तमनुत्तमपि ज्ञेयम्। तस्मान्नासूयन्नित्वनेन विरोधःकुत्रापि न मन्तव्यः॥५५॥ फणिवल्लयाः पक्वदलसैव
** अथ व्रीडा सा नवीनसंगमेन यथा—**
विधुमुखि भज शय्यां वर्तसे किं न तस्या
मुहुरयमनुवर्ती याचते त्वां प्रसीद।
इति चटुभिरनल्यैः सा मयाभ्यर्थ्यमाना
व्यरुचदिह निकुञ्जश्रीरिव द्वारि राधा॥५७॥
** अकार्येण यथा—**
पटुः किमपि भाग्यतस्त्वमसि पुत्रि वित्तार्जने
यदेतमतुलं बलादपजहर्थ हारं हरेः।
गभीरमिति शृण्वती गुरुजनादुपालम्भनं
मणिस्रगवलोकनान्मुखमवाञ्चयन्मालती॥५८॥
** स्तवेन यथा—**
संकुच न तथ्यवचसा जगन्ति तव कीर्तिकौमुदी मार्ष्टि।
उरसि हरेरसि राधे यदक्षया कौमुदीचर्चा॥५९॥
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ततश्च खदिरचूर्णैलालवङ्गादियुक्ता पर्णवीटिका हस्तेऽर्पिता यास्ता मुखे नार्पयति स्मेति। निशायां गतायामपीति प्रहरत्रयव्यापिनी जढता॥५६॥ व्रीडा लज्जा। श्रीकृष्णः सुवलमाह— विधुमुखीति। अनुवर्ती मल्लक्षणोजनः। याचत इति। तवाङ्गसंवाहनार्थं सोत्कण्ठ इति भाव। द्वारीति। तदपि शय्यायां लज्जयैव न गतेत्यर्थ॥५७॥ मालयाः सखी कांचिदाह—गुरुजनात् स्वमातामह्याः॥५८॥ श्रीराधिकाया माहात्म्यं गार्गी प्रति वर्णयन्त्या पौर्णमास्यां दैवात्तत्रायातायां श्रीराधायां स्वोत्कर्षश्रवणेन संकुचितायां तस्यां वृन्दा सप्रौढिं प्राह— संकुचेति। मार्ष्टिउज्ज्वलीकरोति॥५९॥ खण्डिता श्रीराधा
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*स्वादुत्वेऽपि सखीभिः किशलयसमर्पणं विरहे शीतलप्रयोगापेक्षयेति ज्ञेयम्। फाली खण्डम्॥ ५६॥ व्यरुचदिहेत्यत्र ‘लसति बत’ इति वा पाठ॥५७॥ **पटुः किमपीति।**स्वप्रतिपक्षनायिकया प्रेषिताया मालतीमातामहीवेशधारिण्या मालतीं प्रत्युपहासवचनम्। किमपीति। असीत्यस्य विशेषणं गुरुजनादिति च गौण्या वृत्त्या तत्सदृशादित्येव ज्ञेयम्॥५८॥ **संकुच नेति।*ललितमाध-
** अवज्ञया यथा श्रीगीतगोविन्दे—**
तवेदं पश्यन्त्याः प्रसरदनुरागं बहिरिव
प्रियापादालक्तच्छुरितमरुणद्योतिहृदयम्।
ममाद्य प्रख्यातप्रणयभरभङ्गेन कितव
त्वदालोकः शोकादपि किमपि लज्जां जनयति॥६०॥
** अथावहित्था सा जैहयेन यथा श्रीजगन्नाथवल्लभे—**
अमुप्याः प्रोन्मीलत्कमलमधुधारा इव गिरो
निपीय क्षीवत्वं गत इव चलन्मौलिरधिकम्।
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श्रीकृष्णं साक्षेपमाह— तवेति। हे कितव, तवेदं हृदयं पश्यन्त्या मम त्वदालोकस्त्वत्कर्मकोऽवलोकः कर्ता।प्रख्यातस्य प्रणयभरस्य भङ्गेन हेतुना यः शोकस्तस्मात् सकाशादपि किमप्यनिर्वचनीयं यथा स्यात्तथा अधिकदुःखदां लज्जा जनयति। अधिकदुःखदामिति पञ्चम्यन्तपदेनाक्षेपः। यद्वा त्वां द्रष्टुमहं स्वभावादेव सदा लज्जेअधुना तु प्रणयभरभङ्गेनशोकादपि विशेषतो लज्जे इत्यर्थः॥ हृदयं कीदृशम्। प्रियायाः पादालक्तेन छुरितं म्रक्षितमत एवारुण इव द्योतते जनिष्यमाणमत्संतापसूर्योदयसूचकं किमिव। वहिः प्रसरन्ननुरागो यस्मात्तदिव। एतावद्दिनपर्यन्तं मत्प्रतिनायिकाविषयस्तवानुरागस्त्वया हृदयमध्य एव संगोपित आसीत्। अधुना मद्वधार्थं सोऽयं निःसृतवानित्यर्थः॥६०॥ अवहित्था आकारगुप्तिः। मदनिकानाम्नी वनदेवी वितर्कयति— अमुष्याः श्रीराधाकामलेखोपहारिण्याःशशिमुख्याःगिरो निपीय प्रेमपरीक्षार्थं स्वहृदयकमलास्तद्विषयकरमणौत्सुक्यवैदग्ध्यवासां गोपनपरोऽयं श्रीकृष्णः स्वैरं स्वैरं मन्दं मन्दम्। ‘मन्दस्वच्छ-
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वादिरीत्या दाम्पत्येजाते सोऽयं कयाचित् स्तवः कृत इति गम्यते। तत एव स्तवबुद्धिस्तस्या जायते। अदाम्पत्येतु कलङ्कबुद्धिरेवेति॥५९॥ हे कितव, तवेदं पश्यन्त्या मन त्वदालोकः कर्ता।प्रणयभरभङ्गजातं शोकमतिक्रम्यापि किमप्यनिर्वचनीयं यथा स्यात्तथा लज्जा जनयति। इदं किम्।हृदयम्। कीदृशम्।अरुणद्योति। तादृशत्वेलज्जाजनकत्वेच हेतुः— प्रियेति। छुरितं युक्तम्। किमिव। बहिः प्रसरन्नरागस्तद्विषयोऽनुरागो यत्र तदिव॥६०॥ अयहित्वाजागरगुप्तिःक्षीयत्वंमत्तत्वम्। इवेति वाक्यालंकारे। कला कलना
उदञ्चत्कामोऽपि स्वहृदयकलागोपनपरो
हरिः स्वैरं स्वैरं स्मितसुभगमूचे कथमयम्॥६१॥
** जैहयलञ्जाभ्यां यथोद्धवसंदेशे—**
मा भूयस्त्वं वद रविसुतातीरधूर्तस्य वार्ता
गन्तव्या मे न खलु तरले दूति सीमापि तस्य।
विख्याताहं जगति कठिना यत्पिधत्ते मदङ्गं
रोमाञ्चोऽयं सपदि पवनो हैमनस्तत्र हेतुः॥६२॥
** दाक्षिण्येन यथा ललितमाधवे—**
उद्धूता स्मितकौमुदी न मधुरा वक्रेन्दुविम्बात्तया
मृद्वीनां न निराकृता निजगिरां माधुर्यलक्ष्मीरपि।
कोष्णैरद्य दुरावरैर्निजमनो गूढव्यथाशंसिभिः
श्वासैरेव दरोद्धुतस्तनपटैस्तस्या रुषः कीर्तिताः॥६३॥
** हिया यथा विदग्धमाधवे—**
भजन्त्याः सव्रीडं कथमपि तदाडम्बरघटा-
मपह्नोतुं यत्नादपि नवमदामोदमधुरा।
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न्दयोः स्वैरम्’ इति नानार्थवर्गः। स्मितसुभगं यथा स्यात्तथा कथमूचे। उच्यमानवाक्यजातस्यौदासीन्यव्यञ्जकस्य सत्यत्वे स्मितादेव संभवादिति भावः॥६१॥ मा भूय इति। तर्हि कुतोऽयं रोमाञ्च इति चेत्तत्राह—यत् पिधत्ते इति। हैमनो हिमसंभवः॥ ६२॥ श्रीकृष्णो मधुमङ्गलं प्रत्याह— उद्धूतेति। तया चन्द्रावल्यादुरावरैरावरीतुमशक्यैः॥ ६३॥ पौर्णमासी स्वगतमाह— सरोजाक्ष्याः श्रीराधायास्तनुवनी तनुरेव वनी क्षुद्रं वनं कालिन्दी-
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भावनेत्यर्थः। स्वैरं स्वैरं मन्दं मन्दम्। ‘मन्दस्वच्छन्दयोः स्वैरम्’ इति नानार्थवर्गात्। कथमूचे तत्कथयेति शेषः॥६१॥ यत्पिधत्ते मदङ्गमिति। तर्हि कुतोऽयं रोमाञ्च इति तदाक्षेपमाक्षिपति यत् पिधत्ते इति। हैमनो हेमन्तभवः
अधीरा कालिन्दीपुलिनकलभेन्द्रस्य विजयं
सरोजाक्ष्याः साक्षाद्वदति हृदि कुञ्जे तनुवनी॥६४॥
** ह्रीभयाभ्यां यथा—**
हृदये त्वदीयरागं माधव दधती शमीव सा दहनम्।
अन्तर्ज्वलितापि बहिः सरसा स्फुरति क्षमागुणतः॥६५॥
** भयेन यथा—**
चन्द्रावली मन्दिरमण्डलानि पत्युः पुरस्ताच्चिरमाचरन्ती।
वशीनिनादेन विरूढकम्पा निनिन्द धूर्ता घनगर्जितानि॥६६॥
** गौरवदाक्षिण्याभ्यां यथा—**
स्वकरग्रथितामवेक्ष्य मालां विलुठन्तीं प्रतिपक्षकेशपक्षे।
मलिनाप्यघमर्दनादरोर्मिस्थगिता चन्द्रमुखी बभूव तूष्णीम्॥६७॥
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पुलिनसंबन्धिनःकलमेन्द्रस्यातिशयोक्त्या, पक्षे श्रीकृष्णस्य विजयमागमनं वदति। क्व। हृदि हृदयरूपे कुञ्जे। तस्यासाधारणं लक्षणं वक्तुं विशिनष्टि— नवेन मदामोदेन दानगन्धेन, पक्षे मत्तताधिक्येन मधुरा माधुर्यवती। अधीरा चञ्चलासरोजाक्ष्याः कीदृश्याः।तस्य कलमेन्द्रस्य आडम्बरघटां गर्जनश्रेणीमपह्नोतुं संगोपयितुं यत्नान् भजन्त्याःकुर्वत्याः। ‘आडम्बरस्तुर्यरवे गजेन्द्राणां च गर्जिते।’ इति नानार्थवर्गः। गर्जितमत्र विक्रमव्यञ्जिका ख्यातिः॥६४॥ श्रीराधाया अमितार्था दूतीश्रीकृष्णं प्रत्याह—हृदय इति। शमी छेकर इति प्रसिद्धो वृक्षः।न यथा अन्तःकोटरगतेन स्वाभाविकेन दहनेन प्रतिक्षणं दह्यमानोऽपि बहिः पुष्पपल्यादिभिःसारस्यंप्रकाशयति तथेत्यर्थः। ‘क्षमागुणतः क्षमा पृथिवी’ पक्षे लोको मन श्रीकृष्णानुरागं न जानात्विति तेभ्यो लज्जाभयाभ्यामनुरागज्वालायाः सहिष्णुता॥६५॥ ललितायाः सखी काचित् चन्द्रावलीचरित्रं कुतोऽपि श्रुत्वा क्ष्यागत्यसखीसंसदि कथाप्रस्तावेनाह—निनिन्देति। वंशीनिनादकाले दैवान्मेघानां गजितेषु सत्सु धिटमेघानां गर्जितानि यानि मां त्रासेन कम्पयन्तीत्युक्त्वा तेषामेवमूर्ध्नि दोषं ददौ॥६६॥ चन्द्रमुख्याः सखी वृन्दा प्राह—
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*॥६२॥६३॥६४॥ क्षमाशान्तिः।पक्षे भूः।**चन्द्रावलीति।*प्रतिपक्षनायिकायाः गम्याः वचनम्। निनिन्देति। वंशीनिनादघनगर्जितयोः समकालत्वं
** अथ स्मृतिः—सा सदृशेक्षया यथा हंसदूते—**
तमालस्यालोकाद्गिरिपरिसरे सन्ति चपलाः
पुलिन्द्यो गोविन्दस्मरणरभसोत्तप्तवपुषः।
शनैः स्वेदं तासां क्षणमपनयन्यास्यति भवा-
नवश्यं कालिन्दीसलिलशिशिरैः पक्षपवनैः॥६८॥
** दृढाभ्यासेन यथा—**
ते पीयूषकिरां गिरां परिमलाः सा पिच्छचूडोज्ज्वला
तास्तापिच्छमनोहरास्तनुरुचस्ते केलयःपेशलाः।
तद्वक्रं शरदिन्दुनिन्दि नयने ते पुण्डरीकश्रिणी
तस्येति क्षणमप्यविस्मरदिदं चेतो ममाघूर्णते॥६९॥
** अथ वितर्कः—स विमर्शाद्यथा विदग्धमाधवे—**
विघूर्णन्तः पौष्पंन मधु लिहतेऽमी मधुलिहः
शुकोऽयं नादत्ते कलितजडिमा दाडिमफलम्।
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स्वेति। केशपक्षे कवर्याम्।‘पाशः पक्षश्च हस्तश्च कलापार्थाः कचात्परे’ इत्यमरः। स्थगिता सवृतक्षोभेत्यर्थः॥६७॥ कृष्णप्रेषितां दूतीं प्रति कलहान्तरिता श्यामा प्राह—स्मृतिः पूर्वानुभूतार्थस्मृतिः। ललिता संदेशहारकं मथुरां हंसं पन्थानमुपदिशन्ती प्रार्थयते— तमालस्येति॥६८॥ प्रोषितभर्तृका श्रीराधा विलपन्त्युद्धवं प्रत्याह— त इति। पीयूपकिरामिति क्विवन्तषष्ठ्यन्तम्। परिमला इत्यनेन गिरां पुष्पमञ्जरीत्वमारोपितं तेन चातिस्पृहणीयत्वं व्यञ्जितम्। पुण्डरीकस्य श्रीःश्वेतिमशोभा ययोस्ते॥६९॥ वितर्कोहेतुपरामर्शादिजन्योऽत्यूहः॥ विमर्शात् हेतुपरामर्शात्। वने निह्णोतुं श्रीकृष्णमन्विष्यन्ती श्रीराधा वितर्कयति— विघूर्णन्त इति। व्याप्तिग्रहणरूपो विचार पूर्वपूर्वानुभवात्। न चरति न
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वोधयति॥६५॥६६॥६७॥ पूर्वानुभूतार्थप्रतीति स्मृतिः।पीयूषकिरामिति क्विवन्तस्य षष्ठ्यन्तं पदम्॥६८॥ वितर्कोविमर्शानन्तरं विचारः। विमर्शो हेतुपरामर्शः। विशेषस्तु पूर्वग्रन्थाज्ज्ञेयः॥६९॥ विघूर्णन्त इति।
२४ उज्ज्व०
विवर्णा पर्णाग्रं चरति हरिणीयं न हरितं
पथानेन स्वामी तदिभवरगामी ध्रुवमगात्॥७०॥
** संशयाद्यथा ललितमाधवे—**
विदूरे कंसारिर्मुकुटितशिखण्डावलिरसौ
पुरा गौराङ्गीभिः कलितपरिरम्भो विलसति।
न कान्तोऽयं शङ्के सुरपतिधनुर्धाममधुर-
स्तडिल्लेखाहारी गिरिमवललम्वे जलधरः॥७९॥
** अथ चिन्ता सा इष्टानवाप्त्यायथा पद्यावल्याम्—**
आहारे विरतिः समस्तविषयग्रामे निवृत्तिः परा
नासाग्रे नयनं यदेतदपरं यच्चैकतानं मनः।
मौनं चेदमिदं च शून्यमखिलं यद्विश्वमाभाति ते
तद्ब्रूयाः सखि योगिनी किमसि भोः किं वा वियोगिन्यसि॥७२॥
** यथा वा विदग्धमाधवे—**
अक्ष्णोर्द्वन्द्वं प्रसरति दरोद्धूर्णतारं मुरारेः
श्वासाः क्लृप्तां किल विचकिलैर्मालिकां प्लावयन्ति।
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भक्षयति॥७०॥ संशयः कोटिद्वयं स्पृशन्निर्णेतुमशक्यं ज्ञानं तस्मात्। प्रोषितभर्तृका श्रीराधा दिव्योन्मादेव भ्रमन्ती गोवर्धने मेघमालोक्याह—विदूर इति। गाटं निभाल्यनिश्चिनोति—नकान्तोऽयमिति॥७१॥ चिन्ता इष्टलाभार्थमनिष्टपारेहारार्थंच भावना। ज्ञाततत्त्वापि विशाखा पूर्वरागवर्ती केनापि प्रकारेणाहं श्रीकृष्णसङ्गं लप्स्य इति ध्यायन्तीं श्रीराधां पृच्छति— नासाग्रे नयनमित्यादिध्यानमात्रस्यानुभवः। एकतानमनन्यवृत्ति॥७२॥ नायिकानामिवनामकेऽपि संचारिभाषा उदाहर्तव्याइति प्रदर्शयितुमाह— यथावेति।
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*अत्र व्याप्तिप्रहरूपोविचारः पूर्वपूर्वानुभवात्॥७०॥ संशयाद्यथेति। संशनानन्तरं यो विपर्यासस्तस्मादित्यर्थः॥ न कान्तोऽयमिति। अत्र ‘न कंसारेः’ इति या पाठ॥७१॥ नासाग्रे इति। अत्र नातिसंतुष्य काव्यान्तरमुदाहरति— **यथावेति।*छिदुरेतिकर्मकर्तरिप्रयोगः।तत्तया स्वयं छिद्यमान-
केयं धन्या वसति रमणी गोकुले क्षिप्रमेतां
नीतस्तीव्रामयमपि यया कामपि ध्याननिष्ठाम्॥७३॥
** अनिष्टाप्त्यायथा—**
बाल्यस्योच्छिदुरतया यथा यथाङ्गे
राधाया मधुरिमकौमुदी दिदीपे।
पद्माया मुखकमलं विशीर्णमन्तः
संताम्यद्भ्रमरमिदं तथा तथासीत्॥७४॥
** यथा वा—**
मा चन्द्रावलि मलिना भव राधायाः समीक्ष्य सौभाग्यम्।
ज्योतिर्विदोऽपि विद्युः कृष्णे किल बलवती तारा॥७५॥
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पूर्वरागवन्तं कथमहं राधासङ्गं लप्स्य इति ध्यायन्तं श्रीकृष्णं दूरादालोक्य पौर्णमासी वितर्कयति— विचकिलैर्मल्लिकापुष्पैः॥७३॥ नान्दीमुखी पोणेमासीं प्रत्याह— वाल्यस्येति। उच्छिदुरतया स्वयमुच्छिद्यमानतया। कर्मकर्तरि कुरच्। मुखपक्षे अन्तरन्तःकरणं तदेव सताम्यन् भ्रमरो यत्र तदासीत् अभूत्॥७४॥ श्रीराधायाः सौन्दर्येण पद्मायाश्चिन्तामुदाहृत्य तस्याः सौभाग्येन चन्द्रावल्याअपि चिन्तामुदाहर्तुमाह—यथा वेति। ललितया पाठिता काचित् सारी चन्द्रावलीनिकटे पठति—मेति। कृष्णे कृष्णपक्षे श्रीनन्दपुत्रे च। तारा अश्विन्यादिः
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तयेत्यर्थः।विशीर्णत्वंस्खलितप्रकाशत्वेनानवस्थितयथावदवयवत्वम्। मुखपक्षे अन्तःकरणं तदेषसंताम्यन् भ्रमरो यत्र तादृशम्॥७२॥ सा चन्द्रावलीति श्रीराधासख्या शिक्षितायाःसारिकाया वचनम्।यूथेशाग्रेविपक्षसखीनां तादृशधार्ष्ट्यस्यासंप्रतिपत्तेः। सौभाग्यं तादृशविषयककान्तप्रेम्णा तादृश्यालालित्यम्। तच्च नायुक्तमित्याह— ज्योतिर्विद इति। कृष्णे कृष्णस्वरूपे, पक्षे तारा तद्विशेषरूपा, श्लेषेतु तारा तद्विशेषनाम्नी श्रीराधा ‘कृष्णे कृष्णाख्ये निजकान्ते
अथ मतिः—सा यथा पद्यावल्याम्—
आश्लिष्यवा पादरतां पिनष्टुमा-
मदर्शनान्मर्महतां करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु नागरो
मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥७६॥
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श्रीराधा च॥७५॥ मतिर्विचारोत्थमर्थनिर्धारणम्। कदाचिन्माथुरविरहव्यथाविशीर्णाङ्गीश्रीराधामालोक्य पौर्णमासी स्नेहेनोपदिदेश। वत्से, श्रीभगवतो नारायणस्य पूजापरिचर्याजपस्तुत्यादिकं त्वामहमुपदिशामि तत्रैव स्वमनो निमज्ज्य दुस्तरं समयमिमं यापय यावच्छ्रीकृष्णागमनमुपायोऽयं लोकद्वयसुखद एवेति त्वं नारायणभक्ता भवेति। ततस्तां प्रति श्रीराधाह—हे भगवति, एवं चेत् सर्वज्ञस्य गर्गस्योक्तिप्रामाण्येन नारायणसमस्य श्रीकृष्णस्यैव पूजाजपस्तुत्यादिकं कथं मां नोपदिशति। ततश्च मया तेनैव प्रकारेणाराधितोऽसौ प्रादुर्भूय स्वदर्शनं मे दास्यतीति। ननु स स्वीयस्वभावं त्यक्तुमसमर्थः पुनरपि ते विरहदुःखं दास्यतीति चेत्तत्राह— आश्लिष्येति। पादरतां चरणयोः पतितां मामाश्लिष्य स्वहस्ताभ्यां धृत्वाउत्थापयन् स्ववक्षसिनिधाय स्ववाहुभ्यां पिनष्टुअतिगाढतरालिङ्गनेनानन्दसमुद्रे निमज्जयतु। किं वा तदैवादर्शनं प्रदाय। ल्यब्लोपे पञ्चमी। ममेहतां करोतु इतोऽप्यधिकदुःखसमुद्रे निमज्जयतु। यथा तथा वेत्यनेन मत्सम(क)क्षमेवमत्प्रतिनायकां रमयतु वेति व्यञ्जितम्। यतो लम्पटः तस्य लाम्पट्यमेव विचाराभावव्यञ्जकमिति भावः। किंतु व्यवहारे वा परमार्थे वा मम प्राणाना नाथः स एवनत्वन्यः तेन श्रीनारायणमहं परलोकार्थमपि सेवितुं न शक्नोमि मम श्रीकृष्णैकतानत्वादिति भावः।प्रकारान्तरेण व्याख्याया स एव नापर इत्यन्ययोगव्यवच्छेदकेनैवकारेण व्यञ्चितो रसाभासो दुर्निवार एव स्यात्। स एव ना पुरुषः कीदृशः। पर इति व्याख्यायामपि स एव दोषः। यद्वा स तु मत्प्राणनाथ एव
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॥७३॥७४॥७५॥ मतिर्विचारोन्धमर्थनिर्धारणम्॥ कापि सखी कस्याश्चित्श्रीकृष्णप्रेयस्याः सत्त्वपरीक्षार्थमेवमुक्तवती। स खलुतरुणवयास्तव नववयस्वीया जानु सुखदायी दृश्यते तथापि तदेकानुरक्तां त्वामुपदिशामि तदनुरागं त्यजेति। तत्राह— आश्लिष्येति। पादरतामिति तु त्यागभयाद्दैन्योक्तिः
** यथा वा—**
भवाम्बुजभवादयस्तव पदाम्बुजोपासना-
मुशन्ति सुरवन्दिताः किमुत मन्दपुण्या नृपाः।
अतस्तव जगत्पते मधुरिमाम्बुधेर्मद्विधो
न दास्यमिह वष्टि कः पुरुषरत्न कन्याजनः॥७७॥
** अथ धृतिः—सा दुःखाभावेन यथा श्रीदशमे—**
तद्दर्शनाह्लादविधूतहृदुजो मनोरथान्तं श्रुतयो यथा ययुः।
स्वैरुत्तरीयैः कुचकुङ्कुमाङ्कितैरचीक्लृपन्नासनमात्मबन्धवे॥७८॥
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नापर इत्येवकारतुकारयोःस्थानविनिमयेन योजनायामन्ययोगव्यवच्छेदः। किंचिदसामञ्जस्यं न स्यात् कित्वस्थानस्थपतितानामदोष स्यादिति पूर्वोक्तप्रकार एवोपादेयः। किंतु श्लोकोऽयं भगवतः श्रीमहाप्रभोर्मुखान्निःसृत इति नानवधानीयो भवितुमर्हति। स च श्रीमहाप्रभुः श्रीराधिकां विनान्यत्र कस्यामप्युदाजिहीर्षति। किं चात्र पूर्वमहाजनप्रसिद्धो लम्पट इत्येव पाठस्तदीय इत्यश्रौष्म॥७६॥ समर्थायामुदाहृत्य समञ्जसायामुदाहर्तुमाह—भवेति। सुनन्दनामानं विप्रं श्रीकृष्णसंनिधौ प्रस्थापयन्ती श्रीरुक्मिणी संदेशपत्री लिखति। अम्बुजभवो ब्रह्मा।उशन्ति कामयन्ते। मधुरिमाम्बुधेरिति। श्लेषेण मधुरस्य शृङ्गाररसस्य भावो मधुरिमा तस्याम्बुधेस्तव दास्यं दासीत्वम्॥७७॥ धृतिः पूर्णता मनसः स्थैर्यसंपादिनी॥ रासलीलायां तिरोधाय पुनराविर्भूतं श्रीकृष्णमालोक्य व्रजसुन्दरीणां सर्वदुःखप्रशमकं पूर्णमानन्दं तदुत्थचेष्टां च श्रीशुकदेवो वर्णयति— तदिति। तस्य श्रीकृष्णस्य दर्शनानन्देन खण्डितसर्वमनोदुःखा व्रजसुन्दर्यः स्वीयैरुत्तरीयैरात्मवन्धवे श्रीकृष्णाय आसनं तथा अचीक्लृपन् उपजह्रुर्यथा श्रुतयो महोपनिषदोऽपि मनोरथानामन्तं परमकाष्टां ययुः। यतोऽधिकोऽन्यो मनोरथो नास्ति तं प्रापु। वयमपि व्रजे गोप्यो
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॥७६॥ भवाम्बुजेति। श्रीरुक्मिण्याःश्रीकृष्णकृतपरिहासादनन्तरं वचनं किमुतेत्यत्र ‘कइह’ इति वा पाठः॥७७॥ धृतिः पूर्णता।मनसोऽचाञ्चल्यमिति यावत्॥ न केवलं ता मनोरथान्तं तत्पराकाष्ठां ययुः। श्रुतयोऽपि यथा येन तासां तत् सौभाग्यवर्णनप्रकारेण तं ययुरित्यर्थः। ततश्च ताः स्वैरुत्तरी-
उत्तमाप्त्यायथा—
नव्या यौवनमञ्जरी स्थिरतरा रूपं च विस्मापनं
सर्वाभीरमृगीदृशामिह गुणश्रेणी च लोकोत्तरा।
स्वाधीनः पुरुषोत्तमश्च नितरां त्यक्तान्यकान्तास्पृहो
राधायाः किमपेक्षणीयमपरं पद्मे क्षितौ वर्तते॥७९॥
** अथ हर्षः सोऽभीष्टेक्षणेन यथा श्रीदशमे–**
तं विलोक्यागतं प्रेष्ठं प्रीत्युत्फुल्लदृशोऽबलाः।
उत्तस्थुर्युगपत्सर्वास्तन्वः प्राणमिवागतम्॥८०॥
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भूत्वाश्रीकृष्णेन सहैवं स्वकुचकुङ्कुमस्तिमितवस्त्रार्पणादिना कदा विलसामेत्युत्कण्ठिता वभूवुरित्यर्थः। अत एव श्रुतयो गोपीनां पदवीं प्राप्तुमनुगतिमयं तीव्रं तपश्चक्रुरिति वृहद्वामनीया कथा प्रसिद्धा।श्रीदशमे च ‘स्त्रिय उरगेन्द्रभोगभुजदण्डविषधियो वयमपि ते समाः समदृशोद्भिसरोजसुधाः’ इति तासामुक्तिः। अत्र पूर्वकल्पगतश्रीकृष्णावतारदर्शिन्यः श्रुतयो लब्धचरमनोरथा एतस्मिन् कल्पे गोप्यो बभूवुः। एतन्मिन् कल्पेतु लब्धमनोरथा अन्याः श्रुतयोऽग्रेतने कल्पे गोप्यो भविष्यन्ति श्रुतीनामानन्त्यादिति ज्ञेयम्॥७८॥ किकामनया प्रत्यहमेव राधा देवपूजार्थ प्रयतत इति पथि पद्मया पृष्टा विशाखा तां प्रत्याह— नव्येति। सर्वासामेव यौवनं वर्तत एव श्रीराधायास्तु यौवनमञ्जरी श्रीकृष्णभ्रमरचित्ताकर्षिणीत्यर्थः। यद्वा स्तव्या युष्माकं सर्वाभिरमृगीदृशाम्। रूपं च महारूपवतीनां सर्वासामप्याभीरमृगीदृशां विस्मापनमित्यनेन तव सखींचन्द्रावलीमपि चमत्कारयति किं पुनरन्येति भावः। एवं सर्वत्रेव ध्वनयोऽत्र स्पष्टा एव। तेन देवपूजादिकं गुरुजनप्रतारणमात्रार्थकमेवेतिध्वनितम्॥७९॥ श्रीशुकदेवो वर्णयति— तं विलोक्येति। तन्वस्तन्वव-
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वैरित्यादि॥७८॥सर्वासामेवामीरमृगीदृशाया यौवनमञ्जरी नव्यं यौवनं मुतान्यासांपुनरिह श्रीराधायाम्।नव्या स्तव्या। सर्वश्रेयसीत्यर्थः। तथा तासांयद्रूपं सौदर्यं तदिह विस्मापनं सर्वश्रेष्ठमित्यर्थः। तथा तासां या गुणश्रेणी सा चेह लोकोत्तरा।सर्वतोऽपि लोकानां चमत्कारकारिणीत्यर्थः। तथा तासां स्वाधीनोयःपुरुषोत्तमःन चेह त्वक्तान्यकान्तास्पृहः। अन्यकान्तास्तत्रता एव लभ्यते॥७९॥ हर्षश्चेत्प्रसन्नता। तन्वस्तदवयवाः। आगतमित्यनेन पूर्वं
** यथा वा ललितमाधवे—**
स एष किमु गोपिकाकुमुदिनीसुधादीधितिः
स एष किमु गोकुलस्फुरितयौवराज्योत्सवः।
स एष किमु मन्मनःपिकविनोदपुष्पाकरः
कृशोदरि दृशोर्द्वयीममृतवीचिभिः सिञ्चति॥८१॥
** अभीष्टलाभेन यथा तत्रैव—**
आलोके कमलेक्षणस्य सजलासारे दृशौ न क्षमे
नाश्लेषे किल शक्तिभागतिपृथुस्तम्भा भुजावल्लरी।
वाणी गद्गदकुण्ठितोत्तरविधौ नेशा चिरोपस्थिते
वृत्तिः कापि बभूव संगमनये विघ्नः कुरङ्गीदृशः॥८२॥
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यवाः॥८०॥ अभीष्टस्य सामान्याकारेणेक्षणेन हर्षमुक्त्वा विशेषाकारेणाप्युदाहर्तुमाह— यथावेति। श्रीराधिका वर्णयति—स एष इति। सुधादीधितिश्चन्द्र इति गोपिकाभ्यो मद्विधाभ्यः सर्वाभ्य एवोल्लासदायित्वम्। यूनां राजा युवराजस्तस्य भावःकर्म वा यौवराज्यं तद्रूप उत्सव इति कामविलाससुखदायित्वं चोक्त्वापि मन्मन एव पिकस्तस्य विनोदे क्रीडालाम्पट्ये।पुष्पाकरो वसन्त इति स्वस्य विशेषत आसत्त्याधिक्यदायित्वं श्रीकृष्णस्य व्यञ्जितम्। उत्सवपक्षे पुष्पाकरपक्षे चामृतवीचिभिरानन्दतरङ्गैः॥८१॥ समृद्धिमति संभोगारम्मे श्रीराधाया आनन्दवैवश्यं नववृन्दा वर्णयति— आलोके विषये दृशौ न समर्थे। यतः सजलासारे अश्रुधारासंपातवत्यौ। तथा गद्गदकण्ठिता च वाणी उत्तरविधौ नालं न समर्था। तदेवं चिरादुपस्थिते सगमस्य नये प्राप्तौ कापि प्रेम्ण एव वृत्तिर्विघ्नो
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गतमित्यूह्यते॥८०॥ स एष किमु गोकुलस्फुरितेति चरणस्य प्रथमतः पाठस्तु वैशिष्ट्यक्रमगमक॥८१॥ गद्गदकुण्ठिता सती उत्तरविधौ नालं न समर्थासीत्। तदेवं कापि वृत्तिश्चिरोपस्थिते संगमनये विघ्नो बभूव॥८२॥
** अथौत्सुक्यम्—तदिष्टेक्षास्पृहया यथा हंसदूते—**
असव्यं विभ्राणा पदमधृतलाक्षारसमसौ
प्रयाताहं मुग्धे विरम मम वेशैः किमधुना।
अमन्दादाशङ्केसखि पुरपुरन्ध्रीकलकला-
दलिन्दाग्रे वृन्दावनकुसुमधन्वा विजयते॥८३॥
** इष्टातिस्पृहया यथा श्रीगीतगोविन्दे—**
अङ्गेष्वाभरणं करोति बहुशःपत्रेऽपि संचारिणि
प्राप्तं त्वां परिशङ्कते वितनुते शय्यां चिरं ध्यायति।
इत्याकल्पविकल्पतल्परचनासंकल्पलीलाशत-
व्यासक्तापि विना त्वया वरतनुर्नैषानिशां नेष्यति॥८४॥
** अथौग्र्यम्—**
औग्र्यंन साक्षादङ्गं स्यात्तेन वृद्धादिषूच्यते॥८५॥
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बभूव॥८२॥ औत्सुक्यं स्पृहया कालयापनायामक्षमत्वम्। मथुरां प्रविष्टे श्रीकृष्णे काचित् पुरस्त्री प्रसाधयित्रीं स्वसखीं प्रत्याह—असव्यं दक्षिणम्। मुग्धे इत्यलंकारपरिधानं मे नित्यं वर्तत एव श्रीकृष्णदर्शनं तु परमदुर्लभमिति त्वं न जानासीति भावः। नन्वधुनापि कृष्णो दूरे आयाति किं तरला भवसीत्यत आह—अमन्दादीति। अलिन्दाग्रइति। क्षणमात्रविलम्वे सति अयमितो यास्यति द्रष्टुमहं न प्राप्स्यामीति भावः। **वृन्दावनस्य कुसुमधन्वेति।**मूर्तिधारी कन्दर्पो मांशरैस्तत्रत्यागोपीरिव शरैर्विध्यतु। गाढमिति। मे महानेवाभिलाषोवर्तते। पातिव्रत्यायमयाद्य जलाञ्जलिर्दातव्येति ध्वनिः। अत्रेष्टेक्षास्पृहयैवप्रथममौत्सुक्यं स्पष्टमिति तदेवोदाहृतम्। कुसुमधन्वेतिपदव्यञ्जितया इष्टासिस्पृहण द्वितीयमौत्सुक्यं तु नास्याप्रायःसफलमिति न तदुदाहृतम्॥८३॥ वासकसज्जायाः श्रीराधाया सखीश्रीकृष्णमाह—अङ्गइति। (इति) अनेन प्रकारेणआकल्पोवेषः,विकल्पो वितर्कः तत्परचना शय्यानिर्माणकौशलं संकल्पेन लीला दानमीति चिरं ध्यायतीन्यस्यविवरणम्।संकल्पश्चाद्यस आगत्ययदा मे कशुकी
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औत्सुक्यंस्पृहण कालयापनाक्षमत्वम्॥८३॥८४॥ औग्र्यंचण्डता॥८५॥
** यथा विदग्धमाधवे—**
नवीनाग्रे नप्त्री चटुल नहि धर्मात्तव भयं
न मे दृष्टिर्मध्ये दिनमपि जरत्याः पटुरियम्।
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धास्यति तदा तत्करं स्वकरेण रुद्ध्वाअपसार्य विवर्तिष्ये। यदा मे पादौ धृत्वा किमपि प्रार्थयिष्यते तदा स्मितमुखी नहिनहीति वक्ष्यामीत्यादिप्रकारः। तथाभूतापि त्वया विना।त्वं चेत्तत्र न यास्यसीत्यर्थः। एषा श्रीराधा निशां न नेष्यति न यापयिष्यति। यथा यथा विरहसंतापः प्रवलो भविष्यति तथा तथा आशा दुर्बलीभूय नश्यन्ती तां दशमी दशां प्रापयिष्यतीति भावः ॥८४॥ औग्र्यमपराधदुरुक्त्यादिभवं विषयालम्बनसुखप्रतीपाचरणरूपं चण्डत्वम्। तच्च न साक्षादङ्गं स्यादिति। नायकयोःपरस्परप्रभवत्वादित्यर्थ। वृद्धादिषु मुखराजटिलादिषु। यद्यपि व्रजवासिजनमात्रस्यैव प्रेमवत्त्वसिद्धान्तान्मुखराजटिलादयोऽपि श्रीकृष्णसुखप्रतीपाचरणवत्यो न संभवन्ति तदपि नप्तुः श्रीकृष्णस्य नप्त्र्याःश्रीराधादेश्चधर्मोल्लङ्घनं सुखमपि दुःखोदर्कमहितममङ्गलमयश इति मनसि विचार्य तत्र मुखराद्याः प्रतीपायन्ते, अतस्तासां तत्रौग्र्यंनायकयोः परस्परदुर्लभत्वापादकमिति स्थायिभावपुष्टि॥८५॥ मानभङ्गार्थं श्रीराधासंनिधौ यतमानं श्रीकृष्णमकस्मादायाता मुखरा वीक्ष्य हे कृष्ण, इह स्त्रीजनानां मध्ये तव स्थितिरनुचिता अतस्त्वमितो याहीत्युक्तेऽपि धृष्टतया तस्मिन्नायाते सा सामर्षमाह— नवीनेति। नप्त्री मम दौहित्री ‘नप्त्रीपौत्री सुतात्मजा’ इत्यत्र सुताया आत्मजेत्यपि व्याख्यानात्। ‘ततः पुत्रैश्च पौत्रैश्च नप्तृभिः सह गोत्रजैः।’ इति तृतीयस्कन्धे भेदेनोक्तत्वाच्च। नन्वत्र पश्यन्त्यास्तवाग्रे तिष्ठतो मम को दोषस्तत्राह— न मे दृष्टिरिति। दिनस्य मध्ये मध्येदिनं तदपि हसन्तमेव तं पुनर्भीषमाणाह—ततोऽहमिति। कियति पथि। अदूरे इत्यर्थः। तुभ्यमेतत् फलं दातुं कंसादश्ववारा-
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नवीनेति। तत्र नप्त्रीदौहित्री।‘नप्त्रीपौत्री सुतात्मजा’ इत्यत्र क्वचित्तथा व्याख्यानात्। ‘ततः पुत्रैश्च पौत्रैश्च नप्तृभिः सह गोत्रजै।’इति तृतीयस्कन्धे भेदेनोपादानाच्च। यद्यपि यद्धामार्थसुहृत्प्रियात्मतनयप्राणाशयास्त्वत्कृते।’ ‘नासूयन् खलु कृष्णाय’ इत्यादिरीत्या श्रीकृष्णं प्रति व्रजमात्रस्य असूयादिकं न संभवत्येव, तथापि स्वनप्त्रीपक्षपातेन ‘नवीनाग्रे’ इत्यादिना तस्मिन्नाक्षेपः पर–
अलिन्दात्त्वं नन्दात्मज न यदि रे यासि तरसा
ततोऽहं निर्दोषा पथि कियति हंहो मधुपुरी॥८६॥
** अथामर्षः— सोऽधिक्षेपाद्यथा श्रीदशमे—**
तस्याः स्युरच्युत नृपा भवतोपदिष्टाः
स्त्रीणां गृहेषु खरगोश्वविडालभृत्याः।
यत्कर्णमूलमरिकर्षण नोपयाया-
द्युष्मत्कथा मृडविरिञ्चिसभासु गीता॥८७॥
** अपमानाद्यथा विदग्धमाधवे—**
वाले बल्लवयौवतस्तनतटीदन्तार्धनेत्रादितः
कामं28 श्यामशिलाविलासिहृदयाच्चेतः परावर्तय।
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नानेष्य इति भावः॥८६॥ अमर्षोऽधिक्षेपापमानादेरसहिष्णुता॥८७॥श्रीकृष्णपरिहासेनाधिक्षिप्ता श्रीरुक्मिणी साक्षेपमाह— नृपाश्चैद्यशाल्वादयो नृपा अपि, अन्यत्र शूरा अपि स्त्रीणां गृहेषु अन्तःपुरेषुस्वराद्या इव। तत्तद्धर्मिणो वीभत्सा इत्यर्थः। यस्याःकर्णयोर्मूलमपि ईषदपि। हे अरिकर्षण मानं प्रवर्तयन्ती ललिता श्रीराधामाह—वल्लवयौवतेति। बहुवल्लभत्वेन काममात्रतात्पर्यकत्वेन। प्रेमशून्यादिति भावः। तत्रापि श्यामशिलेव विलासिवर्णतो द्रढित्गच शोभमानं हृदयं यस्य तस्मादिति प्रणयिजनकष्टदर्शनेऽप्यद्रुतहृदयादिति भावः। परावर्तयेत्यपरामर्शेन पूर्वं प्रवेशितमपि चित्तं सप्रत्यपि परिणामदर्शिनी भूत्वानिवर्तयेति भावः। किं चात्र मद्वाचि संदेहो नैव कर्तव्य
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दारसनिकर्षमयममङ्गलमयस्य माभूदित्यन्तर्विचिन्त्य तत्र तत्रोग्र्याभासो दर्शितः॥८६॥ अथामर्षइति। ‘अधिक्षेपापमानादेः स्यादमर्षोऽसहिष्णुता’। कर्कशपरिहासं विधाय श्रीकृष्णेनोद्वेजितायारुक्मिण्या वचनम्। तस्याः स्युरच्युतेति॥८७॥ नद्यपि वाले इति। सख्या एवामर्षोनतु नायिकायास्तथापि
विद्मः किं नहि यद्विकृष्यकुलजाः केलीभिरेष स्त्रियो
धूर्तः संकुलयन् कलङ्कततिभिर्निःशङ्कमुन्मुञ्चति॥८८॥
** अथासूया—सा सौभाग्येन यथा श्रीदशमे—**
इमान्यधिकमग्नानि पदानि वहतो वधूम्।
गोप्यः पश्यत कृष्णस्य भाराक्रान्तस्य कामिनः॥८९॥
** यथा वा तत्रैव—**
गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणु-
र्दामोदराधरसुधामपि गोपिकानाम्।
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इत्याह—विद्म इत्यादि। संकुलयन् व्याप्तीकुर्वन्। निःशङ्कमिति। हन्त हन्त आसां लोकधर्मावुभावपि मया विध्वस्तौ तथापि पुनः स्थविरसंतापेन ज्वालेन परलोके का गतिर्मेभविष्यतीति भयमप्यस्य नास्तीति भावः॥८८॥ असूया परोदये द्वेषः। रासान्तर्धाने श्रीकृष्णमन्विष्यन्तीनां गोपीनां मध्ये पद्माया आहुः— वधूं श्रीराधाम्। हे गोप्यइति। युष्मद्विधाः प्रेमवतीरपि त्यक्त्वा वधूं वहतः कामिन इति संप्रयोगमात्रतात्पर्यस्येत्यर्थ॥८९॥ असूयायाः स्वस्वामिजनविषयत्वेनैव प्रसिद्धत्वात्, अत्र तु कामिन इति पदेन तस्याः श्रीकृष्णविषयत्वेनैव स्पष्टत्वादपरितुष्यन्नाह—यथावेति। पूर्वाह्णे गाश्चारयत श्रीकृष्णस्य वेणुमाकर्ण्य गोप्यः परस्परमाहुः। हे गोप्यः , वेणु किस्वित् कुशलं पुण्यमाचरत्। यद्वाकिं मङ्गलमाचरत् अपि तु न किमपि। स्थावरजातित्वेनैव लक्ष्यत इति भाव। तदपि दामोदरस्याधरसुधां भुङ्क्तेइति कथं वयं सोढुं प्रभवाम इति भावः। तत्र हेतुः—गोपिकानामिति। अधरसुधायां गोपिकानामस्माकमेव स्वत्वं श्रीकृष्णस्य गोपत्वात् पुरुषत्वाच्च, अस्माकं गोपीत्वात् स्त्रीत्वाच्चेति न्यायप्राप्तेः, नित्यं
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तस्या अप्यमर्षेण तस्या रति पुष्यत इति युक्तमेवोदाहरणम्। एवं पूर्वत्र परत्र च ज्ञेयम्। कलङ्कततिभिः संकुलयन्नित्यन्वयः। मलिनीकुर्वन्नित्यर्थः॥८८॥ असूया परोदये द्वेषः। हे गोप्यः, वेणुरयं किं कुशलं पुण्यमाचरत्। यद्यस्मात् गोपिकानां स्वमपि धनरूपमपि दामोदराधरसुधां भुङ्क्ते। स्त्रीजातिश्चेदत्यनुरागेण परासां पत्युरधरसुधां भुङ्क्तानाम, सोऽयं वेणुः पुरुषजातीयस्तत्रापि कथं तां भुङ्क्ते
भुङ्क्ते स्वयं यदवशिष्टरसं ह्रदिन्यो
हृप्यत्त्वचोऽश्रु मुमुचुस्तरवो यथार्याः॥९०॥
** यथा वा—**
कृष्णाधरमधुमुग्धे पिवसि सदेति त्वमुन्मदा मा भूः।
मुरलीभुक्तविमुक्ते रज्यति भवतीव का तत्र॥९१॥
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रात्रावस्माभिः संभुज्यमानत्वाच्च। वेणुस्तु विजातीयस्तत्रापि श्रीकृष्णरमितत्वमात्मनो मत्वाश्रीकृष्णप्रेयसीत्वाभिमानं धत्ते। तत्रापि धार्ष्ट्येनपुनः पौरुषमाविष्कृत्यतत्रापि परकीयं धनं तत्रापि न चौर्येण किंतु धनस्वामिनीरस्मान् फूत्कारेण ज्ञापयित्वैव।किं वा नायं फूत्कारःकिंतु स्वसंभोगोत्थं भणितमेव। तच्चास्मान् श्रावयित्वैव तत्रापि न विशिष्टो नावशिष्टो रसः किंचिन्मात्रोऽपि यत्र तद्यथा स्यात्तथा भुङ्क्ते।‘वष्टि भागुरिरल्लोपम्’ इत्यादिना अकारलोपः। धनस्वामिनीनामस्माकं कृते स्वभुक्तावशिष्टमपि न किंचिद्रक्षतीत्यहो धार्ष्ट्यमिति भावः। किं चतद्देशवर्तिनः सर्व एव जनास्तादृशा एवेत्याहुः। यत् यतोऽधरसुधाभोगात् तं वीक्ष्येत्यर्थः। ह्रदिन्यो नद्यो हृष्यत्त्वचः उत्फुल्लकमलादिमिषेण पुलकवत्योवभूवुः। तरवो मकरन्दमिषेणाश्रु मुमुचुः यथा आर्याः साधवोऽश्रुपुलकादिमन्तो भगवद्गुणानुवादाद्भवन्ति तथैव ते वेणोर्भणितादिभिः। ह्रदिन्योऽस्य सख्यः, तरवोऽस्य सखाय दूताएवेति वेणुह्रदिनीतरवः सर्व एवास्माकं वैरिण एवेति भावः॥९०॥ अचेतने वेणावसूया हि न फलवती भवतीति पुनरप्यपरितुष्यन्नाह— यथावेति। काचिन्मधुपानोन्मत्ता गोपी पथिस्वविपक्षा व्रजदेवीं कांचिद्वीक्ष्य
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*इति तु वेणुशब्दाभिप्रायेण तत्रोपहासः। तत्र च स्वयमात्मनैव भुङ्क्तेकस्याश्चिदपि गोपिकायास्तल्लेशप्राप्त्यभायात्तत्रापि आश्चर्यमिति भावः। अहो आस्तां तदपि। यन्यावशिष्टो भुक्तत्यक्तोयो रसःतं परमपवित्रा ह्रदिन्योऽपि भुञ्जते समास्वाद्य फुल्ला भवन्ति। अहो तदपि आस्ताम्। तस्य वेणोस्तादृशमहिमदर्शनात्तद्गोत्रप्रायास्तरयोऽप्यकुरादिमियेण यप्यत्त्वचो रोमहर्षयुक्ता मधुमिषेणाश्रु मुमुचुर्मुञ्चन्तीत्यर्थ। तदेतंतस्यान्यायमपि न गणयन्तीति भावः। तत्र च यथा आर्याः केचिदात्मगोत्रजनहिनदर्शनेन तत्तद्भावान् दधति। तथेति। तेषामनार्यत्वंव्यञ्जितम्॥८९॥९०॥ **कृष्णाधरेति।*वचनमप्यनुरागवेचित्येन पूर्ववन्मुरल्यानद-
गुणने यथा—
त्वत्तोऽपि मुग्धे मधुरं सखी मे वन्यस्रजः स्रष्टुमसौ प्रवीणा।
नास्याः करौ सिञ्चति चेदुदीर्णा निरुद्ध्यदृष्टिं प्रणयाश्रुधारा॥९२॥
** अथ चापलम्—तद्रागेण यथा—**
फुल्लासु गोकुलतडागभवासु केलिं
निःशङ्कमाचर चिरं वरपद्मिनीषु।
मृद्वीमलब्धकुसुमां नलिनीं त्वमेनां
मा कृष्णकुञ्जर करेण परिस्पृशाद्य॥९३॥
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उन्मादेनैव तस्याः श्रीकृष्णसंभोगमनुमाय सासूयमाह—हे मुग्धे, त्वं श्रीकृष्णाधरमधु सदा पिवसि इत्युन्मदा उत्कृष्टगर्वा माभू। अस्माभिस्तु तदपवित्रं ज्ञात्वा परित्यक्तमेवेत्याह—मुरल्या आदौ भुक्तम्, पश्चाद्विमुक्तं त्यक्तं यत्तस्मिन्नधरमधुनि। हे मुग्धे, इति उच्छिष्टपानतोऽपि गर्वोद्रेकादिति भावः॥९१॥ स्वनिर्भितवनमालाश्लाघनपरां पद्मा विशाखायाः सखी काचिदाह—वन्यस्रजःकर्मभूताःप्रणयाश्रुधारेति। वनमालानाममात्रेणैव वनमालिनः स्मृत्वा सद्यःप्रेमोदयात्। तेन त्वं प्रेमशून्येति ध्वनितम्॥९२॥ चापलं चित्तलाघवमगाम्भीर्यमिति यावत्॥ महारासाङ्गभूतायां वनविहारलीलायां कन्दर्पविलासोत्सुकं श्रीकृष्णं वारयन्ती ललिता प्राह—फुल्लास्विति। नलिनीपक्षे अलब्धकुसुमामिति। कुसुमं विना केवलपत्रमय्या नलिन्या तव कतरद्वा प्रयोजनम्। श्रीराधापक्षे कुसुमपदेनातिशयोक्त्या स्पष्टयौवनमेव व्यज्यते। तेन विना महातारुण्योन्मत्तस्य तव राधया किं प्रयोजनमिति भावः।स्पष्टयौवनाया अपि श्रीराधायास्तथात्वेनोक्तिः स्त्रीणां स्वभाव एवायमवहित्थामय इति ज्ञापयति। किं चात्र कुसुमपदेन श्लेषेणान्यो बीभत्सितोऽर्थो न व्यञ्जयितव्यःसर्वासामेव व्रजवालानां श्रीकृष्णनित्यसङ्गार्थं योगमाययैव स्त्रीधर्मरूपस्य रजसःसर्वथैवानुत्पादितत्वात्।
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धरपानं निश्चित्य॥९१॥९२॥ चापलं चित्तलाघवम्॥९३॥ फुल्लास्विति। अत्रालब्धकुसुमामित्येतत्पदं श्लिष्टमिव चापलाय कल्पते स्म। तत्र
** यथा वा श्रीगीतगोविन्दे—**
रासोल्लासभरेण विभ्रमभृतामाभीरवामभ्रुवा-
मभ्यर्णे परिरभ्य निर्भरमुरःप्रेमान्धया राधया।
साधु त्वद्वदनं सुधामयमिति व्याहृत्य गीतस्तुति-
व्याजादुद्भटचुम्वितः स्मितमनोहारी हरिः पातु वः॥१४॥
** द्वेषेण यथा—**
यातु वक्षसि हरेर्गुणसङ्गप्रोज्झिता लयमियं वनमाला।
या कदाप्यखिलसौख्यपदं नः कण्ठमस्य कुटिला न जहाति॥९५॥
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प्रकृतेऽर्थे च रजस्वला किं पुनः संभोगानुकूला भवतीति तन्निषेधोऽपि नोपपद्यते स्विदिति च विचार्यम्॥९३॥ नायिकाविषयं नायकचापल्यमुदाहृत्य नायकविषयं च तन्मुख्यमुदाहरति— यथावेति। महानुभावकविचूडामणिःश्रीजयदेवो वर्णयति— रासेति। प्रवर्तमानेन महारासोल्लासस्यातिशयेन तुमुलनृत्यगीतवाद्यरसानन्दनिमग्नानामाभीरवामभ्रुवां विभ्रमभृतां स्वस्वविलासमेव गुणचातुर्याविष्कारेण दधतीनां पुष्यन्तीनां च तेन चान्यानुसंधानरहितानां तासामभ्यर्णे निकट एवश्रीराधया गीतस्तुतिव्याजादहो त्वमतिधन्योऽसि यदश्रुतचरमाधुर्यमेवं गायसितत्तुभ्यमहं किं पारितोषिकं दास्यामीति स्वस्य सभ्यत्वेन गानास्वादमभिनीय तत्संतोषेणैवोरो वक्षःस्थलं निर्भरं गाढं परिरभ्य उद्भटं यथा स्यात्तथा चुम्वित। ननु तदपि परमलज्जावत्यास्तस्याः कथमेवं युज्यत इत्यत आह— प्रेमान्धयेति। प्रेमोत्थंचापल्यमेवात्र हेतुरिति भावः॥९४॥ श्रीकृष्णं दूराद्विलोक्यनादनाख्यमहाभाववती श्रीराधा वनमाला द्विषन्ती ललितां प्रत्याह— **यात्विति।**लयंनाशं मोक्षं च यातु प्राप्नोमतु। गुणःसूत्रं सत्त्वादिश्च। अत्र वनमालांप्रति द्वेषेणाभिशाप एवं गाम्भीर्यभावरूपं चापलं व्यनक्ति॥९५॥
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चैनां समेवोपदिशम्। यद्वा नायकचापलमेवेदमुदाहृतम्। विशेषेण भ्रमभृतां किंचिदप्यनुसंधातुमसमर्थानां ततश्चरहसीवपरिरम्भादिकं नायुक्तंचापलं तु
** अथ निद्रा—सा क्लमेन यथा—**
श्वासस्पन्दनबन्धुरोदरतलं पुष्पावलीस्रस्तर-
न्यञ्चन्मौक्तिकहारयष्टि कलयन् नीवीं मनागाकुलाम्।
क्लान्तः केलिभरादुरोजकलसीमाभीरवामभ्रुवः
कल्याणीमुपधाय सान्द्रपुलकामद्रौ निदद्रौ हरिः॥९६॥
** यथा वा हंसदूते—**
अलिन्दे कालिन्दीकमलसुरभौ कुञ्जवसते-
र्वसन्तीं वासन्तीनवपरिमलोद्गारिचिकुराम्।
त्वदुत्सङ्गे निद्रासुखमुकुलिताक्षीं पुनरिमां
कदाहं सेविष्ये किसलयकलापव्यजनिनी॥९७॥
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निद्रा चित्तनिमीलनम्। वृन्दा नान्दीमुखी प्रत्याह—श्वासेति। बन्धुरं तु नतोन्नतम्। स्रस्तरः शय्या।नीवी श्रीराधाया एव। ‘स्त्रीकटीवस्त्रवन्धेऽपि नीवी परिपणेऽपि च।’ इति नानार्थवर्गात्। तां कलयन् गृह्णन् जघनदेशान्निष्कास्य स्वहस्तेनैवेति ज्ञेयम्।उरोजकलसीमुपधाय उपधानं कृत्वा सान्द्रपुलकामिति श्रीराधाया जागरो निद्रायामप्यानन्दोत्थः पुलको वा ज्ञेयः॥९६॥ नायिकायां निद्रामुदाहर्तुमाह—यथावेति। शीघ्रमेव श्रीवृन्दावनमागत्यास्मान् जीवयेति व्यञ्जयन्ती ललितादेवी मथुरास्थं श्रीकृष्णं प्रति स्वाभिलाषमाविष्कुर्वती प्राह— कुञ्जवसतेरलिन्दे वसन्ती अहं किसलयानां कलापः समूह एव व्यजनं तद्वती सती इमां श्रीराधां कदा सेविष्ये। कीदृशीम्—त्वदुत्सङ्ग इत्यादि।
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व्यक्तमेवेति भावः॥९४॥ लयं यात्वित्यन्वयः॥९५॥ बन्धुरं तु नतोन्नतम्। स्रस्तरः शय्याभेदः। ‘स्त्रीकटीवस्त्रबन्धेऽपि नीवी परिपणेऽपि च।’ इति नानार्थवर्गात्। एषाभीरवामभ्रुव एवेति गम्यते। तां कलयन् स्पृशन्नैवेत्यासक्तिविशेषो
** अथ सुप्तिर्यथा—**
पुरः पन्थानं मे त्यज यदमुना यामि यमुना-
मिति व्याचक्षाणाचुचुकविचरत्कौस्तुभरुचिः।29
हरेः सव्यं राधा भुजमुपदधत्यम्बुजमुखी
दरीक्रोडे क्लान्ता निबिडमिह निद्राभरमगात्॥९८॥
** यथा वा—**
गोष्ठाधीशसुतस्य30 गण्डमुकुरे स्वाप्नीभिरुल्लासितं
लीलाभिः पुलकं विलोक्य चकिता निश्चिन्वती जागरम्।
सा वेणोर्हरणोत्सवे धृतनवोत्कण्ठापि तल्पाञ्चले
विस्रस्तं करतोऽपि नाध्यवससौ तं हर्तुमेने(णे)क्षणा॥९९॥
** अथ प्रवोधः— यथा—**
निद्राप्रमोदहरमप्युरुकण्ठनादं
कण्ठीरवस्य शितिकण्ठपतत्रमौलिः।31
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वामन्ती माधवी लता॥९७॥ सुप्तिःस्वप्नः।रुपमञ्जरी पुष्पमवचित्यायातां रतिमञ्जरींप्रत्याह— पुर इति। श्रीराधायाः स्वप्नायितं व्याचक्षाणा कथयन्ती। चूचुकं कुचाग्रम्। ‘चूचुकं तु कुचाग्रं स्यात्’ इत्यत्र चुचुकशब्दो ह्रस्वादिरपि टीकाकृद्भिर्व्याख्यातः॥९८॥ श्रीकृष्णस्य स्वप्नमुदाहर्तुमाह— यथावेति। वृन्दा नान्दीमुखीं प्रत्याह—**आभीरेन्द्रेति।**स्वाप्नीभिलीलाभिरिति श्रीराधामुगचुम्वनस्पाभिरियर्थः।जागर निश्चिन्वतीति पुलकान्यथानुपपत्तिरेव तत्र क्रिमित्यर्थः। करतोऽपि सकाशात् निद्रावैवश्येन तत्पाञ्चले स्रस्तमपि वेणुं हर्तुं नाध्यवससौ न निश्चितवतीत्यर्थः॥९९॥ प्रवोधो निद्रानिवृत्तिः।वृन्दा पौर्णमासींप्रत्याह—निद्रेति। कण्ठीरवस्य सिंहस्य नादं शितिकण्ठपतत्रमौलि-
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व्यप्तिः।उपधाय उपधानं कृत्वा॥९६॥९७॥ नुप्तिः स्वप्नः॥९८॥॥९९॥ कण्ठीरवःसिंह न तु विदूरपर्वतगततया ननादेति तद्विधोऽपि
तुष्टाव सत्वरविबुद्धपरिप्लवाक्ष-
राधापयोधरगिरीन्द्रनिपीडिताङ्गः॥१००॥
** सख्यां स्वस्नेहो यथा—**
शैलमूर्ध्नि हरिणा विहरन्ती रोमकुड्मलकरम्बितमूर्तिः।
राधिका सललितं ललितायाः पश्य मार्ष्टि लुलितालकमास्यम्॥१०१॥
** अथोत्पत्त्यादिदशाचतुष्टयम्— तत्रोत्पत्तिर्यथा—**
मृदुरियमिति वादीर्मा त्वमस्याः कुडुङ्गे
शशिमुखि तव सख्याः पौरुषं दृष्टमस्ति।
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पिच्छमुकुटस्तुष्टाव। तत्र हेतुः—सत्वरेत्यादि। परिप्लवाक्षी चञ्चलनेत्रा॥१००॥ सख्यां स्वस्नेह इति। सखीविषयकोऽपि नायिकायाः स्नेह एको व्यभिचारी भवतीत्यर्थः। यदुक्तं भक्तिरसामृतसिन्धावेव—‘संचारी स्यात् समोना वा कृष्णरत्याः सुहृद्रतिः। अधिका पुष्यमाणा चेद्भावोल्लास इतीर्यते॥’ इति। अस्यार्थः— सुहृद्रतिः सुहृद्विषया रतिः कृष्णरत्याः सकाशात् समा वा ऊना वा यदि वा स्यात्तदा संचारी स्यात्। सुहृद्रतेः श्रीकृष्णरतिमूलकत्वात् तत्पोषणाच्चेति भावः। यदि क्वचित् श्रीकृष्णरतेः सकाशादप्यधिका स्यात्तया पुष्यमाणा च स्यात्तदा भावोल्लास इतीर्यते। न तस्याः संचारित्वं नापि तस्याः स्थायित्वमिति भावः॥ रूपमञ्जरी ललितायाः सखी कांचिदाह—शैलेति। ललिताया आस्यं मार्ष्टिविहारजं प्रस्वेदमपनयतीति ललिताविषया श्रीराधारतिरत्र संचारीभावो भवन् श्रीकृष्णरतिं पुष्णाति॥१०१॥ उत्पत्त्यादिरिति। यदुक्तम्—‘भावानां क्वचिदुत्पत्तिसंधिशावल्यशान्तयः।दशाश्चतस्र एतासामुत्पत्तिर्भावसंभवः॥’ इति। आस्वादितचरं श्रीराधाया मुखमाधुर्यं पुनरप्यास्वादयन् श्रीकृष्णस्तस्याः सखीं शशिमुखीं तत्साक्षितया प्राह—यद्वा मथुरास्थस्य श्रीकृष्णस्य ललितायां संदेशमियमुद्धवोक्तिः। मावादीर्मा वद। कुडुङ्गे कुञ्जे। पौरुषं पुरुषाकारं विपरीतरमणमिति यावत्।
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*श्रीकृष्णसांनिध्यगुणेन किंचिदपि न हिनस्तीति च नात्र भयानकेन मधुरोऽयमाभास्यते॥ १०१॥ **मृदुरियमिति।*ललितायां मथुरातः श्रीकृष्णस्य पत्रिका।
- २५ उज्ज्व०*
इति भवदुपकण्ठे मद्गिरा भुग्नदृष्टेः
स्थपुटितवदनाया राधिकायाः स्मरामि॥१०२॥
अत्रासूयोत्पत्तिः।
** अथ संधिः— तत्र सरूपयोर्यथा—**
चिरामीष्टप्रेक्षे दनुजदमने विन्दति दृशोः
पदं पत्यौ चार्धस्फुटवचसि रक्तत्विषि रुषा।
इयं निस्पन्दाङ्गी निमिषकलनोन्मुक्तनयना
वभूवावष्टम्भप्रतिकृतिरिवाम्भोजवदना॥१०३॥
अत्रेष्टानिष्टेक्षणकृतयोर्जाड्ययोः संधिः।
** अथ भिन्नयोः— तत्रैकहेतुजयोर्यथा ललितमाधवे—**
शिखरिभरवितर्कतः प्रतप्तं समहमहर्निशमीक्षया प्रियस्य।
हृदयमिह समस्तबल्लवीनां युगपदपूर्वविधं द्विधा बभूव॥१०४॥
अत्र विषादहर्षयोः।
________________
स्थपुटितं कुटिलीभूतम्। ‘अधीगर्थदयेशां कर्मणि’ इति षष्ठी।राधिकां स्मरामीत्यर्थः॥ असूयोत्पत्तिरिति। दृष्टेर्भुग्नत्वमेव तस्मादुत्पन्नामसूयां वक्तीत्यर्थः॥१०२॥ संधिरिति। ‘सरूपयोर्भिन्नयोर्वा संधिः स्याद्भावयोर्युतिः।’ इति तल्लक्षणम्॥वृन्दा पौर्णमासीमाह— चिरादभीष्टा अभिलषिता प्रेक्षा यस्य तस्मिन्। दैवाद्वृषान्वेषणार्थं वनं पर्यटमाने पत्यावभिमन्यौ च दृशोः पदं गोचरं विन्दति सति। निमेषकलनं निमेषक्रिया।अवष्टम्भप्रतिकृतिः स्वर्णप्रतिमा। ततश्च श्रीकृष्णे श्रीराधाया अदर्शनमभिनीय दूरं याते ललिताया वचनसंदर्भसृष्ट्या प्रतारितोऽभिमन्युः क्रोधं परित्यज्य गृहं जगामेति ज्ञेयम्॥ १०३॥ गोवर्धनधारणकालेपौर्णमासी स्वगतोक्तमुपश्लोकयन् विश्वकर्मा लिखति—शिखरीति। हन्त हन्त एतावान् भारः प्रियतमस्य शिरीषकुसुमसुकुमारेण भुजेन
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राधिकायाइति कर्मणिपाक्षिकीसंबन्धषष्ठी॥१०२॥ अत्रासूयोत्पत्तिरिति।उत्पत्तेरिति।उत्पत्तेरस्याभूतपूर्वत्वंज्ञेयम्। अवष्टम्भप्रकृतिः स्वर्णप्रतिमा॥१०३॥प्रियस्येति। शिखरीत्यादावहर्निशमित्यादौचान्वितम्॥ अतः प्रिय
भिन्नहेतुजयोर्यथा—
स्थवयति नवरागं माधवे राधिकायां
गिरमथ ललितायाः सावहेलां प्रतीत्य।
चलतरचरणाग्रेणालिखन्ती धरित्रीं
विधृतवदनपद्मातत्र सिष्वेदपद्मा॥१०५॥
अत्र चिन्तामर्षयोः।
** अथ शाबल्यम्—यथा विदग्धमाधवे—**
धन्यास्ता हरिणीदृशः स रमते याभिर्नवीनो युवा
स्वैरं चापलमाकलय्य ललिता मां हन्त निन्दिष्यति।
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महाकष्टेनैव सह्यत इति प्रतप्तम्। तथा समहं सोत्सवमिति ‘उत्सवं श्रमरुचापि दृशीनाम्’ इतिवत् प्रियावलोकनस्य सुखदत्वं हि स्वाभाविको धर्मः। अत्र संतापस्योत्सवस्य च कारणं प्रियत्वमेव। अतस्तद्वतः प्रियस्येवैक एव हेतुर्विषादहर्षयोः॥१०४॥ सौभाग्यपूर्णिमादिने गौरीतीर्थाच्छ्रीकृष्णमन्वेष्टुमायातायां ललितायां संकर्षणकुण्डतीरे चन्द्रावलीपद्माशैव्यादिभिः सहितं तमालोक्य तत्सभां प्रविश्य गौष्ठीं कुर्वत्यां यद्वृत्तमासीत्तदेव वृन्दा कुन्दलतां प्रत्याह—**स्थवयतीति।**स्थूलं कुर्वति हरिणाभिलष्यमाणा सारङ्गमणि, सदा त्वमत्रासि तदमुं तद्वशहृदयं हृदयंगमलोचने विद्धीति विदग्धमाधवीयश्लोकोक्त्याइत्यर्थः। तथा ‘सहचरि वृषभानुजया प्रादुर्भावे वरत्विषोपगते। चन्द्रावलीशतान्यपि भवन्ति निर्धूतकान्तीनि॥” इति ललितायाः सावहेलां गिरम्। अत्र चरणाग्रलिखनगम्या चिन्ता श्रीकृष्णहेतुका, तथा स्वेदकम्पगम्योऽमर्षो ललिताहेतुकः॥१०५॥ शावल्यं भावानामुत्तरोत्तरसंमर्दः। कलहान्तरिता श्रीराधा प्राह—**धन्यास्ता इति।**प्रथमे पादे चापलमौत्सुक्योत्थम्, द्वितीये ललितास्मृत्युत्था शङ्का तस्योपमर्दिनी,
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एवोभयोर्हेतुर्जातः। समहं सोत्सवम्। अपूर्वविधमाश्चर्यप्रकारम्॥१०४॥ स्थवयति स्थूलंकुर्वति॥१०५॥ धन्यास्ता इत्यादिक्रमकं पद्यं प्रायिकम्। किंतु गोविन्दमित्यादिकश्चरणः प्रथमो धन्यास्ता इत्यादिकं तु तृतीय इत्येव क्रम
गोविन्दं परिरब्धुमिन्दुवदनं हा चित्तमुत्कण्ठते
घिग्वामं विधिमस्तु येन गरलं मानाभिधंनिर्ममे॥१०६॥
** अत्र चापलशङ्कौत्सुक्यामर्षाणां शाबल्यम्।**
** अथ शान्तिः—यथा—**
आलीयुक्तिकुठारिकापटिमभिर्योन प्रपेदे छिदां
दूतीजल्पितनिर्झरेण च चिरं यः क्वापि नोच्चालितः।
वंशीनादमरुल्लवेण कमलाचेतस्तटीवेष्टनो
मानाख्यः प्रवलोन्नतिस्तरुरयं स क्षिप्रमुन्मूल्यते॥१०७॥
अत्र ईर्ष्याख्यभावस्य शान्तिः।
**
इति व्यभिचारिणः।**
**
________________**
**
अथ स्थायिभावप्रकरणम्।**
स्थायिभावोऽत्र शृङ्गारे कथ्यते मधुरा रतिः।
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तृतीये स्वचित्तनिरोधोत्थमौत्सुक्यं शङ्क(ङ्का) या उपमर्दकम्, चतुर्थे पुनः श्रीकृष्णावलोकेन स्वयं जनिष्यमाणो मानः स्वाभीष्टप्रतिवन्धीति तन्निर्मातरि विधावमर्ष औत्सुक्यसंमर्दकः॥ १०६॥ शान्तिर्भावस्य लयः। नान्दीमुख्याह— आलीति। मरुल्लवेणेति। वंशीनादारम्भमात्रस्यापि सर्वोपायेभ्य आधिक्यं व्यञ्जितम्॥१०७॥
इति व्यभिचारिभावानां विवृतिः॥
अथ स्थायिभावाः। नमश्चैतन्यस्पाय माधुर्यस्थायिने सदा।स्वसामर्थ्येऽप्यहो
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एष श्लोकयितुरन्विष्टः।तर्ह्येव चइति पदस्य गोविन्दमित्याकर्षणाय यथास्थानविन्यासः स्यात्॥१०६॥१०७॥इति व्यभिचारिणः॥
- जहीव नापी समर्यादापि त्वरीयंसंवादंमया सह त्वदनुरागमयं संकथनं*
** सा यथा गोविन्दविलासे—**
कालाहिवक्रविलसद्रसनाग्रजाग्र-
द्गोपीदृगञ्चलचमत्कृतिविद्धमर्मा।
शर्मादिशत्वरुणघूर्णितलोचनान्त-
संचारचूर्णितसतीहृदयो मुकुन्दः॥१॥
** यथा वा दानकेलिकौमुद्याम्—**
गोवर्धनं गिरिमुपेत्य कटाक्षबाणान्
कर्णस्फुरन्मणिशिलोपरि संक्ष्णुवाना।
का भ्रूधनुर्धुवनसूचितलुञ्चनेयं
व्यग्रीकरोत्यहह मामपि संभ्रमेण॥२॥
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साम्यसामञ्जस्यानुवर्तिने। तद्ग्रन्थकृदेव ग्रन्थारम्भे मङ्गलमाचरति—कालाहीति। कालाहेः कालसर्पस्य वक्रे विलसन्ती या रसना तस्या अग्रमिव जाग्रत् स्वशौर्यमाविष्कुर्वत् यद्गोपीदृगञ्चलं तस्य चमत्कृत्या चमत्कृतिमात्रेणैव विद्धं मर्म यस्य स इति गोपीविषया श्रीकृष्णरतिः स्थायिभावो विद्धेतिपदेनास्वादव्यञ्जकेन रसतां प्राप्तः। तत्र गोपीविषयालम्वनस्तत्कटाक्ष उद्दीपनविभावः, जृम्भारोमाञ्चादय आक्षेपलब्धा अनुभावा, औत्सुक्यचापल्यादयो व्यभिचारिणः। तथा अरुणो घूर्णितो जातघूर्णोयो लोचनान्तस्तस्य संचारेण चूर्णितं सतीनां हृदयं येन स इति श्रीकृष्णविषया गोपीरति स्थायिभावश्चूर्णितेति पदेनास्वादव्यञ्जकेन रसतां प्राप्तः। श्रीकृष्णतदीयकटाक्षादयःपूर्ववद्विभावाद्याः। एवं च मधुरा रतिः परस्परविषयाश्रयोक्ता। यदुक्तम्—‘मिथो हरेर्मृगाक्ष्याश्च संभोगस्यादिकारणम्। मधुरापरपर्याया प्रियताख्योदिता रतिः॥ इति॥१॥ गोपीमात्राणां स्थायिभावमुक्त्वा तन्मुकुटमणेः श्रीराधायाः सर्वाधिक्येन तमुदाहर्तुमाह—यथा वेति। गोवर्धने घट्टशुल्कमिषेण युवतीर्निरोत्स्यन् श्रीकृष्णः श्रीराधामालोक्याह—मणिशिलाकुण्डलस्थं पद्मरागखण्डं तदुपरि संक्ष्णुवाना तेजयन्तीति
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तदैव माध्वीकं मत्तो निपीय आस्वाद्य गतावलम्बा सर्वत्रोदासीना सती घूर्णमाना स्थैर्यविनाभूता नीवीं स्खलन्तीमपि न विदांचकार॥१॥२॥
अभियोगाद्विषयतः संबन्धादभिमानतः॥३॥
सा तदीयविशेषेभ्य उपमातः स्वभावतः।
रतिराविर्भवेदेपामुत्तमत्वं यथोत्तरम्॥४॥
** तत्राभियोगः—**
अभियोगो भवेद्भावव्यक्तिः स्वेन परेण च।
** तत्र स्वेनाभियोगाद्यथा—**
मदधरविलुठद्विलोचनान्तं
मृदुललतानवपल्लवं दशन्तम्।
सखि हरिमवलोक्य भानुजाया-
स्तटविपिने स्फुटदन्तरास्मि जाता॥५॥
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नेत्रान्तस्य कुण्डलपर्यन्तं पुन पुनर्यातायातेन श्रीकृष्णदर्शनस्पृहा तया च तद्विषया रतिः सूचिता। केति मधुमङ्गलं प्रति प्रश्नः। भ्रूधनुःकम्पनेन सूचितं लुञ्चनं चौर्यं ययेति। शरैर्विद्धामामचेतनीकृत्य धैर्यमतिस्मृत्यादिधनं मे हरिष्यतीति भावः। व्यग्रीकरोतीति शरतेजनधनुर्धवनदर्शनेनैव तावदहं व्यग्रो विकलचित्तोऽभूवं न जाने शरैर्विद्धः कीदृशो भविष्यामीति भावः। मामपि शूराणां शिरोमणिमपीति भावः। तेन च श्रीरावाविषया रतिः सूचिता॥२॥ तस्या रतेः प्रादुर्भावेलोकरीत्या कारणान्याह—अभियोगादिति। सिद्धान्तरीत्यातु प्रोक्ताअत्राभियोगाद्या इत्यग्रे समाधास्यते सारतिः॥३॥४॥ अभियोगो भावस्य व्यक्तिर्व्यञ्जनं सा च स्वेन परेण अमितार्थादिदूतीजनेन। अत्र नायकस्य स्वाभियोगो नायिकाया रतिप्रादुर्भावे कारणम्। तथा नायिकायाः सः नायकस्य तदिति ज्ञेयम्॥ वृत्तान्तं पृच्छन्तीं विशाखांप्रति श्रीराधाह— **मदधरेति।**विलुठदित्यनेन न केवलं तल्लोचनान्तस्य मदधरे स्पर्श एव किंतु मदधरसीधुना तथातल्लोचनान्तोमत्तोऽभूद्यथा पतित्वैव स्थितो नास्मादुत्थातुमशकदिति ध्वनितम्।एवं न सलोचनान्तं कृतार्थीकृत्यस्वदर्शनरसनाभ्यामिममास्वादयितुमप्राप्य मदधरोपमं पदन्तं दशन्तं विलोक्य स्फुटदन्तरास्मीति रतिप्रादुर्भावो
** यथा वा—**
कुवलयविपिनान्यसौ सृजन्ती
दिशि दिशि लोचनचापलाच्चलाक्षी।
हरति तरणिजातटे पुरः का
सुबल बलान्मम चित्तचञ्चरीकम्॥६॥
** परेणाभियोगाद्यथा—**
त्वदीयमापीय गतावलम्बा संवादमाध्वीकमतीव साध्वी।
आघूर्णमाना व्रजराजसूनो नीवीं स्खलन्तीं न विदांचकार॥७॥
** अथ विषयाः—**
शब्दस्पर्शादयः पञ्च विषयाः किल विश्रुताः॥८॥
** तत्र शब्दाद्यथा विदग्धमाधवे—**
नादः कदम्बविटपान्तरतो विसर्पन्
को नाम कर्णपदवीमविशन्न जाने।
हा हा कुलीनगृहिणीगणगर्हणीयां
येनाद्य कामपि दशां सखि लम्भितास्मि॥९॥
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दर्शितः। अत्र तं प्रति दयोद्रेकेण तत्कालोदितकन्दर्पज्वालया चेति ध्वनिद्वयम्। तत्राद्यं सखीं प्रति ज्ञापयितुमिष्टं द्वितीयं तु रहस्यम्। तेन च स्वाधरं यावत्तं न दंशयामि तावदहं स्फुटदन्तरैव स्थास्यामीत्यनुध्वनिः। तेन च मा शीघ्रमभिसारयेति प्रत्यनुध्वनिः॥५॥ नायकस्वाभियोगान्नायिकाया रत्युद्भवमुदाहृत्य नायिकास्वाभियोगान्नायकस्य रत्युद्भवमुदाहर्तुमाह— **यथा वेति।**श्रीकृष्णः सुवलं पृच्छति—कुवलयेति। लोचनचापलादिति चाक्षुषोऽभियोगः॥६॥ काचित् पत्रहारी दूती श्रीराधानुरागं श्रीकृष्णं प्रति वक्ति— नीवीं स्खलन्तीमिति। रत्युद्भवः॥७॥ कथं विवशासीति ललितया पृष्टा श्रीराधा प्राह— नादो वेणुध्वनिः। कुलीनेत्यादिना स्वपातिव्रत्यध्वंसो व्यञ्जितः। कामपि दशामिति वैणविकपुरुषविषयरत्युद्भवः॥८॥९॥
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॥३॥४॥५॥६॥७॥ नादोऽत्र वेणुनादः प्रकरणाल्लभ्यते॥८॥९॥
यथा वा तत्रैव—
एकस्य श्रुतमेव लुम्पति मतिं कृष्णेति नामाक्षरं
सान्द्रोन्मादपरम्परामुपनयत्यन्यस्य वंशीकलः।
एष स्निग्धघनद्युतिर्मनसि मे लग्ना सकृद्वीक्षणा-
त्कष्टं धिक् पुरुषत्रयेरतिरभून्मन्ये मृतिः श्रेयसी॥१०॥
______________
न केवलं तत्कर्तृक एवं शब्दःकारणं किं तु तत्संबन्ध्यन्यकर्तृकोऽपीति ज्ञापयितुमाह— यथावेति। पृच्छन्तीः सखीः प्रति श्रीराधाह—एकस्य पुरुषस्य।**श्रीकृष्णेति। नामाक्षरमिति।**कस्येदं वृन्दावनमिति मत्पृष्टया ललितया कृष्णस्येति यदुक्तं तदा कृष्णस्येति नाम्नोऽक्षरमेकमपि किमुत तत्सपूर्णं नाम श्रुतमेव कर्णरन्ध्रे प्रविष्टमेव किं पुनर्हृदये धृतं मे मतिं लुम्पतीति तत्पुरुषविषया रतिर्मेजातेति भावः। लुम्पतीति वर्तमाननिर्देशेन तत्संस्कारोऽधुनापि तत्प्रतियोगिवस्त्वन्तराभिनिवेशेऽपि न यातीति द्योतितम्। तथान्यस्य पुरुषस्य वंशीकलः सान्द्रामुन्मादपरम्परामिति। वुद्धिलोपः पूर्वमेव नाम्ना कृतः यदवशिष्टंमे मनस्तस्यापि उन्मादबाहुल्यमभूदिति भावः। वर्तमानो निर्देशोऽत्रापि पूर्ववद्व्याख्येयः। एवं च तस्मिन्नपि पुरुषेरतिरभूदित्यभिव्यज्य पुनराह— एष इति। विशाखादर्शितचित्रपटमध्यवर्तीत्यर्थः। अत एव तस्मिन्नपि रतिरभूदिति। धिगिति कुलाङ्गनाया मम परपुरुषेरतिरनुचिता किमुत तत्रितय इति। अत्रनित्यसिद्धा स्वाभाविकी तस्या रतिरेव स्वविषयं श्रीकृष्णं स्वयं परिचिनोति। सातु तमेकमपि श्रीकृष्ण इति, वैणविक इति, श्यामलकिशोर इति, पुरुषत्रयं
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एकस्येति। अत्रायं तत्रत्यप्रबन्धः। राधेयं प्रथमं कृष्णनाममात्रं श्रुत्वापरममधुरत्वेनानुभूव तन्नामनि रतिमुवाह। ततश्च वंशीनादं परममधुरत्वेनास्वाद्य तद्वादिनि रतिमुवाह।ततश्चकृष्णकारं चित्रं नेत्राभ्यां तथा सकृदेवास्वाद्य तद्भेदेन तस्मिन् रतिमुवाह।तत्र यद्यपि त्रीण्यपि तानि स्वाश्रयं श्रीकृष्णमेव स्फोरयित्वारतिमुद्भावयामासुः।तत्स्कृत्यसंभवे सान संभवेत्। वक्ष्यते चान्तिक एव लोकोत्तरपदाधानामितितथापि तदेकस्फूर्तावपि तत्रितयतो मननस्यैकैकरूप्येऽपि पृथक् पृथक् अनुभवादेकवस्तुत्वंन प्रतीतमित्यतएवज्ञेयम्। कश्चिदेकजातित्वंस्यादिति वितर्कात्अत आह— पुरुषत्रयेरतिरभूदिति। प्रथमं तावत् परपुरुषे रतिरेवायोग्या
** स्पर्शाद्यथा—**
व्रजं मुष्टिग्राह्येतमसि निगिरत्यङ्गमिह मे
सखि स्पर्श दैवाद्यदवधि परं कस्यचिदगात्।
गृहीता जागर्या तदवधि सदैवाङ्गजगणैः
सशङ्कैर्या पश्य क्षणमपि न साधाप्युपरता॥११॥
** रूपाद्यथा हंसदूते—**
कृताकृष्टिक्रीडं किमपि तव रूपं मम सखी
सकृद्दृष्ट्वा दूरादहितहितबोधोज्झितमतिः।
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मला खिद्यति स्मेति सखीभ्यां तत्त्वं ज्ञात्वासमाश्वस्ता वभूवेति तत्रत्या कथा॥१०॥ स्ववैयग्र्यकारणं पृच्छन्तीं स्वसखीं काचिद्गोपी ह्यस्तनं स्ववृत्तमाह— व्रजमिति। तमसि मुष्ट्याग्राह्येइति कविनिवद्धवक्तृप्रौढोक्त्याअतिनिविडे इत्यर्थः।व्रजं व्रजनगरं निगिरति ग्रसति सतीति स्पर्शकर्तुरज्ञाने हेतुः सूचितः। मे मम रथ्यायां गच्छन्या इत्यर्थात्।अङ्गंगात्रं (कर्तृ ) अङ्गजगणैरङ्गाज्जातैर्लोमभिरित्यर्थः। गृहीता जागर्येति। निरन्तरमेव मे रोमाञ्चोजायत इति भावः। **सशङ्कैरिति।**तत्र मे शङ्कैवकारणमित्यवहित्था। अत्र मनोधर्मः शङ्का अङ्गजेष्वारोपिता शङ्काधिक्यज्ञापनार्थम्॥११॥ मथुरास्थं श्रीकृष्णं ललिता हंसद्वारा श्रीराधाविरहदशां संदिशति—कृता कृष्टिराकर्षणं सैव क्रीडा यस्येति। तव रूपस्यैव दोषोमम सखी किं
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किमुत तत्रये। तस्मात् मृतिरेव श्रेयसीति मृतिं विना दुष्परिहरेयं रतिः धिक्कारिण्येवेति भावः॥१०॥ सद्य एव दूरादागताया नववध्वाः स्वेन सहागतां, सखी प्रति वचनम्—व्रजमिति। अस्तु तावदङ्गवार्ता अङ्गजगणैरङ्गाज्जातैस्तनूरुहसमूहैरपि जागर्या गृहीता जागर्या उद्गमः श्लेषण षण निद्राच्छेदः। अङ्गजगणपदेन कामस्य गणाः श्लिष्यन्ते। सशङ्कैःअहो कोऽयं सुखस्पर्श इति वितर्कसहितैरित्यर्थः। एवं मनोधर्मोऽपि चमत्कारविशेषेण हृत्स्वारोप्यते॥११॥ कृतकृष्टिक्रीडं प्रेमानन्द-
हताशेयं प्रेमानलमनुविशन्ती सरभसं
पतङ्गीवात्मानं मुरहर मुहुर्दाहितवती॥१२॥
** रसाद्यथा—**
पुलकयति यदङ्गं सेवते गात्रभङ्गं
वहति हृदि तरङ्गं सद्य एवाद्य मुग्धा।
तदघदमनवक्रोद्गीर्णताम्बूलमल्पं
स्फुटमविदितमास्ये न्यस्तमस्यास्त्वयालि॥१३॥
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करिष्यतीति भावः। अहितहितेति। अत्यार्जवादिति भाव। **हताशेयमिति।**अस्या अदृष्टमेवैतादृशं तव को दोष इति भावः। सरभसं सानन्दम्। **मुहुरिति।**पतङ्गीपक्षे द्वित्रिवारमनलान्निःसृत्यापि पुनरनलं प्रविष्टा, श्रीराधापक्षे व्रजस्थे त्वयि तदानीं मानसमये कतिवारमेव प्रेमत्यागं संकल्प्यापि पुनः प्रेमाणमेवाविशदित्यर्थः॥१२॥ काचित्सखी स्वयूयेश्वर्याः श्रीकृष्णे रतिमाशासाना तत्सुखसाधनं च तदीयताम्बूलचर्वितमनुभूय तदेव वीटिकामध्यगतं कृत्वा तामलक्षितं भोजयामास। ततश्चतां सद्य एवोत्पन्नविकारां विवशां जातरतिं वितर्क्यकाचिदन्या सखी ताम्बूलदात्रीं प्रत्याह—पुलकयतीति। पुलकयति अङ्गं पुलकवत् करोति। ‘विन्मतोर्लुक्’ इति मतुपो लुक्। हृदि तरङ्गंसद्य एवानुरागसमुद्रस्य लहरीम्। तत्तस्मादस्याआस्ये न्यस्तम्॥१३॥ स्वसख्या दर्शितामज्ञापिततत्त्वां श्रीकृष्णनिर्माल्यमालां वैजयन्तीमाघ्राय संमुह्यपुनः प्रवुद्ध्य
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*स्वरूपं तव रूपं दृष्ट्याअनुविशन्तीत्यन्वयः। ततो हताशेयमित्येव किं वक्तव्यम्। आत्मानं न दाहितवती। मुहुरिति। तज्जालदेशापगत्यापगत्येत्यर्थः॥१२॥ रापि सखी सख्या मुखे अद्यतनंसमस्यामुले सवन्तनं ताम्बूलचिह्नंदृष्ट्वा कांचिदेकाकितया तन्निकटस्थां दतताम्बूलांवितर्क्य तांचाघदमनानुगतां ज्ञात्यातद्दुद्गीर्णताम्बूलस्य तादृशं प्रतं पूर्वमनुभूयसख्यश्चसद्यस्तनंविकारं दृष्ट्वा ताम्बूलदात्री प्रत्याह—**पुलकयतीति।*पुरूवत् करोतीत्यर्थः।‘विन्मतोर्लुक्५। ३। ६५’ चेति शाब्दिकाः
** गन्धाद्यथा—**
विभ्राजन्ते क्वसखि सुखिनः शाखिनो मोहनास्ते
येषां पुष्पैरियमनुपमा वैजयन्ती कृतास्ति।
पश्याकृष्टभ्रमरपटला यातयामापि कामं
या भूयोभिर्मम परिमलैः स्तम्भयत्यद्य चेतः॥१४॥
लोकोत्तरपदार्थानां प्रभावः कोऽप्यनर्गलः।
रतिं तद्विषयं चासौ भासयेत्तूर्णमेकदा॥१५॥
** अथ संबन्धः—**
संबन्धः कुलरूपादिसामग्रीगौरवं भवेत्।
** ततो यथा—**
वीर्यं कन्दुकिताद्रिरूपमखिलक्ष्मामण्डलीमण्डनं
जन्माभीरपुरन्दरस्य भवने पारेपरार्धं गुणाः।
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च सविस्मयमाह— विभ्राजन्ते इति। सुखिनो मोहना इति येषां पुष्पाण्यपि सुखवन्ति सुखेनैव मूर्च्छा प्रापयन्ति च ते पुनरपरिमितसुखवन्तो भवन्तीत्यनुमिमे इति भावः। यातयाममिति।‘जीर्णं च परिभुक्तं च यातयाममिदं द्वयम्।’ इत्यमरः॥१४॥ ननु रूपात्तावदालम्वनस्वरूपनिश्चयेन तद्विषयकरत्युत्पत्तिर्युक्तैव अविज्ञाततत्त्वेभ्यः शब्दादिभ्यस्तु विषयालम्वनरूपाज्ञानात् किमाकारा रतिराविर्भवेदिति संशये समादधाति— लोकोत्तरपदार्थानां महाचमत्कारवतामप्राकृतवस्तूनां श्रीकृष्णसंबन्धिनां तद्विषयं तस्या रतेरालम्वनं भासयेत् प्रकाशयेत्। एकदा सहैव तत्रापि तूर्णमेव॥१५॥ कुलरूपशौर्यसौशील्यादीनां सामग्री समग्रत्वं तस्या गौरवं कुलादीनां संपूर्णत्वाधिक्यमित्यर्थः॥ कुलाङ्गनायास्तव परपुरुषे रतिर्नोचितेति तत्प्रेमपरीक्षार्थं वदन्तीं सखी प्रति काचि-
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॥१३॥ ‘जीर्णं च परिभुक्तं च यातयाममिदं द्वयम्।’ इति नानार्थवर्गः॥१४॥ तत्र तत्रासंभावनार्थमाह—लोकेति। लोकोत्तरपदार्थानां मणिमन्त्रमहौषधीनामपि किमुत श्रीकृष्णसंवन्धिनामित्यर्थः॥१५॥ संबन्धशब्देनात्र संबन्धहेतुर्लक्ष्यते॥ गौरवमाधिक्यम्॥ वीर्यमिति। कस्याश्चिद्व्रजकुमार्या
लीला कापि जगच्चमत्कृतिकरीत्येतस्य लोकोत्तरा
वृत्तिर्वेणुधरस्य दुर्मुखि धृतिं कस्याः क्षणं रक्षति॥१६॥
** अथाभिमानः—**
सन्तु भूरीणि रम्याणि प्रार्थ्यं स्यादिदमेव मे॥१७॥
इति यो निर्णयो धीरैरभिमानः स उच्यते।
** ततो यथा—**
स्फुरन्तु बहवः क्षितौ मधुरिमोर्मिधौरेयका
विदग्धमणयो गुणावलिपतिंवराभिर्वृताः।
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दाह—**वीर्यमिति।हे दुर्मुखीति।**यदेव मुखे आयाति तदेव त्वं ब्रूषे। बुद्धिस्तुतव नास्त्येवेति भावः। वृत्तिश्चरित्रम्।कन्दुकितः कन्दुकसदृशीकृतोऽद्रिर्यस्मात्तद्वीर्य पराक्रमः। परार्धस्यापि पारे गुणा गणयितुमशक्या इत्यर्थः। वेणुधरस्येति। यद्यपि पूर्वोक्तेषु वीर्यरूपादिषु मन प्रणिधानमकुर्वत्या मया कथंचित् वृति सगोप्यते तदपि वेणुनैव वलादेव स्मारितानि तस्य साद्गुण्यादीनि मे रतिमुत्पादयन्तीति भाव॥१६॥ सन्तु रम्याणीति। अभिमानोऽयं ममत्वास्पदेकोऽप्यनन्यतामयः संकल्पविशेषः स च रूपादिकमनपेक्ष्यापि रतिमुत्पादयति। यद्यपि वक्ष्यमाणात् स्वभावादेव भिद्यते तदपि वहिर्हेतुसापेक्षत्वनिरपेक्षत्वाभ्यामेतयोर्भेदःकम्पनीयः। दृश्यते च यथा साधकभक्तानां कस्यचिद्भयवत्यनन्यत्वंतादृशसङ्गशिक्षादिजनितं कस्यचित् साहजिकं च भवति तथेति देयम्॥१७॥ सखि, बहुवल्लभं प्रेमशून्यमतिरूक्षचेष्टं कामिनं श्रीकृष्णं परित्यज्य कस्मिंश्चिदन्यस्मिन् महागुणवति पुरुषे रतिः कार्येति प्रेम परीक्षमाणां परिहसन्तीं नान्दीमुखीं श्रीराधा प्राह—स्फुरन्त्विति। धौरेयका माधुर्यतरङ्गभावं
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वचनम॥१६॥ अभिमानस्य गाढप्राचीनममताभ्यास एव स्वरुपम्। स च सौन्दर्यादिमनपेक्ष्यैवरतिमुत्पादयति। तमेव कार्यभेदेनाह—सन्तु रम्याणीति॥१७॥तथैवोदाहरणानि— स्फुरत्विति। तथाभिमतं व्यतिरेकेणोप-
न यस्य शिखिचन्द्रकः शिरसि नैव वेणुर्मुखे
न धातुरचना तनौ सखि तृणाय मन्ये न तम्॥१८॥
** अथ तदीयविशेषाः—**
तदीयानां विशेषाः स्युः पदगोष्ठप्रियादयः॥१९॥
** तत्र पदानि—**
पदान्यत्र पदाङ्काः स्युः
** ततो यथा—**
स्फुरति सखि रथाङ्गाम्भोजदम्भोलिभाजां
तटभुवि विशदेयं कस्य पङ्क्तिः पदानाम्।
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वहन्त इत्यर्थः। विदग्धमणयो विदग्धश्रेष्ठा गुणावलय एव पतिंवराः स्वयमेव पतिं वृण्वत्यस्ताभिर्वृता इति महतोऽपि गुणान् ये नापेक्षन्ते किंतु गुणा एव सर्वे स्वयमत्याग्रहेण यानाश्रयन्ते इत्यर्थः। एवंभूताश्च वैकुण्ठनाथरघुनाथादयो ये तेषां मध्ये कस्मिंश्चिदपि मे रुचिर्नोत्पद्यत इति भावः। रुचेः पुनः का वार्ता मन्मनोगतं तु शृण्वित्याह—न यस्येत्यादि॥ १८॥ १९॥ श्रीराधा विशाखां प्रत्याह—अघृणा कृपारहिता या घूर्णा अतिकष्टदात्रीत्यर्थ। तया आघ्रातमाविष्टं हृदयमुद्घाटयन्ती आविष्कृत्य लोकानपि दर्शयन्तीत्यर्थः। तथाभूतापि कुङ्मलं हर्षोत्थं पुलकं विस्तारयतीत्यतो महदाश्चर्यमिदं त्वामहं पृच्छामीति
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लक्षणद्वारा दर्शयति—न यस्येति। एभिरुपलक्षणैःश्रीमन्नन्दनन्दन एवोपलक्ष्यते नान्यः। तैरप्युपलक्ष्यत एव न तु विशिष्यते। भोजनशयनादौ तैर्विनापि रत्यविच्छेदात्। अन्यस्य तत्परिच्छेदत्वेऽपि रतिविषयत्वायोग्यत्वात्। किंत्वत्र सखि तृणाय मन्ये न तमिति वैशिष्ट्योक्त्यारतिजन्म व्यज्यते। तदिदं च वचनं स्वमनःप्रेक्षिकां कांचिन्निजसखी प्रतीति ज्ञेयम्॥१८॥ तदीयानां विशेषा इति पूर्ववदेषामपि प्रकारविशेषो मन्तव्यः॥१९॥ स्फुरतीति। कस्याश्चिद्दूरतो नवपरिणीतायाः प्रथममेव व्रजेऽस्मिन्नागन्तुं लब्धवृन्दावनप्रवेशायाः साश्चर्य
हृदयमघृणघूर्णाघ्रातमुद्घाटयन्ती
मम तनुलतिकायां कुङ्मलं या तनोति॥२०॥
** अथ गोष्ठम्—**
गोष्ठं वृन्दावनाश्रितम्।
** ततो यथा—**
मदयति हृदयं सखि व्रजोऽयं
मधुरिमभिः क्वचिदप्यदृष्टपूर्वैः।
इह विहरति कोऽपि नागरेन्द्र-
स्त्रिभुवनमण्डनमूर्तिरित्यवेहि॥२१॥
** अथ प्रियजनः—**
प्रौढभावानुविद्धो यस्तस्य प्रियजनोऽत्र सः॥२२॥
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स्वरत्युत्पत्ति सखीं ज्ञापयामास॥२०॥ केनचिद्गोपेन देशान्तरात् परिणीय श्रीमन्नन्दव्रजं स्ववासस्थलमानीता काचिन्नववधूर्ब्रजभूमिस्पर्शमात्रेणैव जातभावा स्वसखी प्रत्याह—मदयति हर्षयति मत्तंकरोति तदैवादृष्टा श्रीकृष्णं हृदि स्फुरितमनुभूय सर्वज्ञेव सखीमवधापयन्त्याह—इहेत्यादि। अत्र कारणं गोष्ठस्यैव शक्तिविशेषः। यदुक्तम्—‘रतिं तद्विषयं चापि भासयेत्तूर्णमेकदा।’ इति॥२१॥हे मदीयस्नुषे, महाकुलप्रसूतापि राधा संप्रत्युन्मत्ताभूदिति तस्याःसङ्गं त्वं माकार्षीरिति श्रीकृष्णादाशङ्कमानाभि श्वश्वादिभिर्निवारितापि काचित् सकृदेव तामव-
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*वचनम्। तत्रापि साश्चर्य **हृदयमिति।*अघृणा कृपारहिता। पीडाकर्त्रीति यावत्। तादृशी या घूर्णा व्याकुलत्वं तथा घ्रातमाविष्टम्।हृदयमुद्घाटयन्ती व्यक्तीकुर्वती मम श्रुतचरमपि तनुलतिकायां कुङ्मलं तद्रूपं रोमाञ्चमातनोति। नहि पीडाजनकाल्लतिकायां कुड्मलं जायत इति भावः॥२०॥ तथैव दर्शयति— मदयतीति। पूर्ववदेव कस्याश्चिन्नवागतायाः श्वशुरगृहं श्रीवृषभानुगृहानुगतमेव श्रीब्रजराजगृहं त्वतिदूरम्। गोष्ठस्याष्टकोशीपरिमितत्वात्। ततस्तस्या
** ततो यथा—**
गुरुभिरपि निषिद्धा तामहं यावदक्ष्णोः
पदमनयमनन्तश्रेयसां सद्म राधाम्।
तृषितमिव मनो मे प्रेक्षते तन्वि ताव-
द्दिशि दिशि विहरन्तीं श्यामलां शालभञ्जीम्॥२३॥
** अथोपमा—**
यथा कथंचिदप्यस्य सादृश्यमुपमोदिता।
** ततो यथा—**
नवाम्बुधरमाधुरी स्फुरति मूर्तिरुर्वीतले
कृशोदरि दृशोरियात्पथि किमीदृशो वा युवा।
पुरः सुमुखि गोपतेः सदसि संनिविष्टस्य मे
पितुर्वितनुते नटो यमनुकृत्य नृत्यक्रमम्॥२४॥
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लोक्य जातभावा कामपि स्वसुहृदं वैवश्यकारणं पृच्छन्तीमाह—**गुरुभिरिति।**तज्जातीयप्रेमसुखमनुभूयाह— अनन्तेति। तस्यामपि स्वाशक्ति द्योतयामास तृषितमित्यनुरागं च श्रीकृष्णे।शालभञ्जी प्रतिमाम्॥२२॥२३॥ अन्यदेशीयगोष्ठाध्यक्षस्य कस्यचिद्गोपस्य कुमारी सभायां नृत्यन्तं कमपि नटं जालरन्ध्राद्वीक्ष्य स्वसखी सविस्मयमाह— नवाम्बुधरेति। किंशब्दः प्रश्ने।हे कृशोदरि, तव दृशोः पथि ईदृशो युवा किमियात् प्राप्नुयात्। तेन त्वं यदि तं परिचिनोषि तदा तद्देशमेव त्वं मामपि नय यथा तमेव दृष्ट्वा जीवेयमिति स्वरत्युद्भवो व्यञ्जितः। यमनुकृत्य
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गुरुभिः श्रीकृष्णप्रस्तावस्तस्याश्चित्तक्षोभक इत्यालक्ष्यासौ ततो निवारितः। पितृगेहमागतायां श्रीराधिकायां तस्यास्तत्सङ्गिनीनां च जाड्यादिमयीमवस्थामाशङ्क्य तद्दर्शनमपि निवारितम्॥ तथापि कथंचिद्दर्शनं प्राप्तायास्तस्या निजसङ्गागतां सखी प्रति वचनम्॥ गुरुभिरपीति। तत्रानन्तश्रेयसामिति। तस्यां स्वरुचिं व्यज्यापि किमाश्चर्यमाह—तृषितमिति। शालभञ्जीप्रतिमा॥२१॥॥२२॥२३॥ ततो यथेति। सेयं प्राचीनतदीयसाधनातिशयभाविता
** यथा वा—**
स्फुरत्येष प्रेयानिव नवधनस्तस्य सुभगे
शिखण्डीनां श्रेणीं तुलयति सुरेन्द्रायुधमिदम्।
असौ वासो लक्ष्मीरिव विहरते विद्युदिति सा
निशम्योदस्राक्षी त्वयि निहितबुद्धिर्निवसति॥२५॥
** अथ स्वभावः—**
बहिर्हेत्वनपेक्षी तु स्वभावोऽर्थः प्रकीर्तितः॥२६॥
निसर्गश्च स्वरूपं चेत्येषोऽपि भवति द्विधा।
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यदीयस्वभावचेष्टादिकमभिनयेन प्रदर्श्येत्यर्थः॥२४॥ कृत्रिमं सादृश्यमुदाहृत्य लौकिकं सादृश्यमुदाहर्तुमाह—यथा वेति। स्वकारितां कस्याश्चिद्व्रजवालाया रत्युत्पत्तिं श्रीकृष्णं विज्ञापयन्ती वृन्दा प्राह—स्फुरदिति। सा एवं त्वयि निहितवुद्धिरर्पितचित्ता निवसति। ननु तदुक्तलक्षणःस प्रेयान् कीदृश इत्यपेक्षायामाह—एष दृश्यमानो नवघनः प्रेयानिव श्रीकृष्ण इवेत्यादि॥२५॥ अत्र रतेः कारणेषुअभियोगादिषु मध्ये अथ स्वभावस्यापि कारणत्वमनन्वयोपमैवोच्यते रतेर्निर्हेतुत्वज्ञापनार्थमेव। नहि स्वाभाविकी रतिरियमित्युक्ते रतेर्हेतुजन्यत्वं प्रतीयते। किं च प्रोक्ता अत्राभियोगाद्या इति वक्ष्यमाणवाक्येनाभियोगादीनामपि कारणत्वं निरस्यते इति सर्वस्या अपि रतेर्वस्तुतो निर्हेतुत्वमेवेति सिद्धान्ते व्यञ्जिते लोकोक्तिरीत्यैवैते हेतव उक्ता इति। ननु वहिर्हेतवः परसंबन्धगा उपमा तदीयजनादयः, अन्तर्हेतवश्चानुषङ्गिकतच्छ्रवणादयः। त एव निर्हेत्वनपेक्षीत्युक्ते अन्तर्हेतुमपेक्षत इति लभ्यते। सत्यमस्य निसर्गरूपेऽन्तर्हे
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रतिस्तमुपमानं सोपानं विधायोपमेये एव चित्तं प्रापयन्ती रञ्जयन्तीति भावः॥२४॥ तादृशनायकतया तादृशरञ्जनायोग्यस्यापि तस्य तदनुकर्तुः सोपानता मात्रं किमुत जडपदार्थतया तदयोग्यस्येत्याह—स्फुरत्येष इति॥२५॥ बहिर्हेत्वनपेक्षीति।स्वत एव क्रमादाविर्भवतीत्यर्थः॥२६॥
** तत्र निसर्गः—**
निसर्गःसुदृठाभ्यासजन्यः संस्कार उच्यते॥२७॥
तदुद्बोधस्य हेतुः स्याद्गुणरूपश्रुतिर्मनाक्।
** ततो यथा—**
स तर्जतु बताग्रजस्त्यजतु मां सुहृन्मण्डलः
पिता किल विलज्जतां घनदृगम्बुरम्बास्तु मे।
मनः सखि समीहते श्रुतगुणश्रियं सर्वथा
तमेव यदुपुङ्गवं न तु कदापि चैद्यं नृपम्॥२८॥
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त्वाभासस्यापेक्षा क्वचित् स्यादेव इत्यत आह— तदुद्बोधस्येति। तदीयोद्बोधस्य हेतुरपि तस्यापि हेतुरित्यर्थः। सुदृढाभ्यासजन्य इति। सुदृढाभ्यासोऽपि नित्यसिद्ध एव ज्ञेयः। तज्जन्यसंस्कारोऽपि प्रवाहपरम्परयैव। तथा स च लीलाशक्तिद्वारैव श्रीकृष्णरूपगुणश्रवणमुपस्थापयतीति। नाममात्रेणैव हेतोर्हेतुतेत्यर्थः। अत एव मनागिति पदप्रयोगः॥२६॥२७॥ कुलकन्यायाः परमलज्जावत्यास्तव बन्धुजनानभिमते पुरुषे स्वाशक्तिव्यञ्जककामलेखप्रेषणमनुचितमिति ब्रुवाणां प्रेमपरीक्षमाणां स्वसखीं प्रति श्रीरुक्मिणीदेवी स्वनिष्ठामावेदयन्त्याह— **स तर्जत्विति। श्रुतगुणश्रियमिति।**नारदादिमुखाद्धर्मादिश्रवणप्रसङ्ग एव तद्गुणस्यापि श्रवणं स्वनित्यसिद्धस्वभा-
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निसर्ग इति। साधारणं तल्लक्षणम्। अत्र तु मधुररतिसंबन्धो ज्ञेयः। तथा च सति बहुभिर्जन्मभिः सुचिरसिद्धत्वात्। सुदृढो यो मधुरवत्या आभासः पुनःपुनराधिक्येनोदयस्तस्य जन्मान्तरबाल्यादिना तिरोधानेऽपि तज्जन्यस्तदीयो यः संस्कारः सूक्ष्मतया स्थितः स निसर्ग इत्यर्थः। यथा सुषुप्तौ शुभाशुभतत्कर्मण इति भावः। ततश्च तस्य संस्काररूपेण स्थितस्य मधुररत्याख्यस्य भावस्योद्बोधे वर्धमानावस्थत्वे श्रीकृष्णगुणरूपश्रुतिर्यद्धेतुः स्यात्तन्मनागेव स्यादनावश्यकतयैव स्यादित्येवार्थः। वहिर्हेत्वनपेक्षीति सामान्यलक्षणस्याव्याप्तेरिति भावः॥ २७॥ अतः श्रुतगुणश्रियमित्युद्दीपनमेव न तूत्पादकम्। उत्पादकस्तु तमेवेति, यदुपुंगवमित्यनयोर्वाच्य एव ज्ञेयः। तदिदं च वाक्यं श्रीरु-
- २६ उज्ज्व०*
** यथा वा—**
असुन्दरः सुन्दरशेखरो वा गुणैर्विहीनो गुणिनां वरो वा।
द्वेषी मयि स्यात्करुणाम्बुधिर्वा श्यामः स एवाद्य गतिर्ममायम्॥२९॥
** अथ स्वरूपम्—**
अजन्यस्तु स्वतःसिद्धः स्वरूपं भाव इष्यते॥३०॥
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वोद्बोधकम्॥२८॥ पुरसुन्दर्या निसर्गमुदाहृत्यब्रजसुन्दर्यामुदाहर्तुमाह— यथा वेति। यद्वा गुणरूपादिश्रवणहेतुत्वमनावश्यकमिति ज्ञापयितुमाह—यथा वेति। पूर्ववत् प्रेम परीक्षमाणां स्वसखी प्रति काचिदाह—असुन्दर इति।श्याम इति। अनेन रूपस्य श्रुतचरत्वं व्यक्तम्॥२९॥ स्वत सिद्धो भावो रत्युत्पादको वस्तुविशेषः स्वरूपमिष्यत इत्यन्वयः। अजन्यस्त्विति विशेषणं निसर्गव्यावृत्त्यर्थम्। ततश्चायमर्थः।तु भिन्नोपक्रमे। अजन्य इति विशेषणस्य वैयर्थ्यादजन्यत्वेन न प्रतीयमान इत्यर्थः। तेन श्रीकृष्णरूपगुणादिभिर्जन्यत्वेन प्रतीयमानो नित्यसिद्धो भावो निसर्गः, तैरजन्यत्वेनैव सदा सुस्थिरं तु स्वरूपमिति भेदो द्रष्टव्यः। ननु साधनसिद्धासु श्रीकृष्णकान्तासु जन्यत्वेन निसर्गः, नित्यसिद्धासु तासु जन्यत्वेन स्वरूपमिति किमिति स्पष्टं न व्यवस्थीयते। मैवं, पुरसुन्दरीणां रतेः समञ्जसत्वेन ललनानिष्ठस्वरूपासंभवात्तासु निसर्ग एव वक्तुमुचितः। न च तासां सर्वासामेव साधनसिद्धत्वं वक्तुं शक्यमतो निसर्गः स तर्जत्वित्यादिना
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क्मिण्या एव॥२८॥ तस्या नित्यप्रेयसीत्वेनस्वरूपसिद्धामेव रतिं वितर्क्यान्यस्यामेव नैसर्गिकीं रतिमुदाहरन् गुणस्वरूपश्रवणस्यानावश्यकतामेव दर्शयति— असुन्दरइति। ‘स्फुरन्तु बहवः क्षितौ’ इत्यत्र योऽभिमान उदाहृतः स खलु विनापि रतिं गुरूपदेशादिजाताग्रहमात्रमयः। तेन च जातरतिस्तत्रोक्ता। अत्र त्वभिमानसमवेततयैवानादितोऽनेकजन्मतो वा सिद्धेति भेदः॥२९॥ अजन्यो भावः स्वरूपमिष्यत इत्यन्वयः। नन्वजन्यः खल्वभाव एव स्यात्। तत्राह—स्वतःसिद्ध इति। चन्द्रादीनामाह्लादकत्वादिवदिति भावः। तत्र चन्द्रस्याह्लादकता सामान्येऽप्याश्रयिविशेषाश्चकोरकुमुदसमुद्रचन्द्रकान्तादीन् प्राप्य तद्विशेषा उदयन्ते येन तेषामास्वादप्रकाशसमुच्छूनता द्रवतारूपा
एतत्तु कृष्णललनोभयनिष्ठतया त्रिधा।
** तत्र कृष्णनिष्ठम्—**
कृष्णनिष्ठं स्वरूपं स्याददैत्यैः सुगमं जनैः॥३१॥
** ततो यथा—**
इयं व्यक्तिर्गोपी न भवति पुरः किंतु कुतुकी
हरिर्नारीवेषो यदखिलसुरस्त्रीर्धुवति नः।
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नित्यसिद्धायां श्रीरुक्मिण्यामेवोदाहृतः। तेन महाक्षयकूपजलसमुद्रजलयोर्जन्यत्वस्वतःसिद्धत्वे इव निसर्गस्वरूपयोर्जन्यत्वस्वतःसिद्धत्वेज्ञेये॥३०॥ एतत् स्वरूपम् श्रीकृष्ण एवाधारे नितरां तिष्ठतीति कृष्णनिष्ठं स्वरूपं स्वद्रष्टृजनमात्ररत्युत्पादको वस्तुविशेषः। तच्चादैत्यैर्दैत्यप्रकृतिभ्योऽन्यैर्जनैः सुगमं सुप्रापं दैत्यप्रकृतिभिर्दुष्प्रापं पैचकैः सूर्यस्वरूपमिवेत्यर्थः। यदुक्तं स्वयं भगवतैव— ‘द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च। विष्णुभक्तिपरो दैव आसुरस्तद्विपर्ययः॥’ इति॥ ‘न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः। माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः॥’ इति ‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः॥’ इति च॥३१॥ स्वप्रेयसीमानोपशमनार्थ स्त्रीवेषधारिणं श्रीकृष्णं व्रजनगरवीथ्यां चलन्तमालोक्य विमानचारिण्यो देव्यः परस्परं स्ववितर्कमूचुः—इयमिति। धुवति अन्तःकन्दर्पप्रेरणेन कम्पयतीति स्वस्वरत्युत्पत्ति ज्ञापयामासुः। न केवलमस्मान् सुरस्त्रीरेव रतिमतीः करोति अपि तु जगत्यस्मिन् सर्वाण्येव स्त्रीपुंसमात्राणि रति-
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*भावा मिथो विलक्षणा दृश्यन्त इति तत्तद्धेतवस्तद्विशेषा वितर्क्यन्ते। तद्वच्छ्रीकृष्णस्य तदाश्रयिणां च स्वरूपत एव तद्भावहेतुत्वेस्थिते अत्र तु रसे श्रीकृष्णनिष्ठो ललनानिष्ठस्तदुभयनिष्ठश्च स्वरूपविशेषो द्रष्टव्य इत्याह—**एतत्त्विति।*यथाग्रत इयं व्यक्तिरिति। अन्यद्द्वयं च स्पष्टत्वमेव यास्यति। तदेवाह— त्रिधेति॥३०॥ कृष्णनिष्ठं स्वरूपमिति सामान्यतो लक्षितमपि रसेऽस्मिन् विशेषतोऽवगन्तव्यम्। तर्हि कथं केषांचित्तत्र रतिर्नेदेति। तत्राह— अदैत्यैरिति। ‘द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च। विष्णुभक्तिपरो दैव आसुरस्तद्विपर्ययः॥’ इति ।विष्णुधर्माग्नेयाद्यनुसारेण दैत्यप्रकृतिभ्योऽन्यै-
जगन्नेत्रश्रेणीतिमिरहरणायाम्बरमणिं
विना कस्यान्यस्य प्रियसखि भवेदौपयिकता॥३२॥
** अथ ललनानिष्ठम्**
स्वरूपं ललनानिष्ठंस्वयमुद्बुद्धतां व्रजेत्।
अदृष्टेऽप्यश्रुतेऽप्युच्चैः कृष्णेकुर्याद्द्रुतं रतिम्॥३३॥
** ततो यथा—**
जिहीते यः कक्षां क्वचिदलमदृष्टाश्रुतचर-
स्त्रिलोक्यामस्तीति क्षणमपि न संभावनमयीम्।
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मन्ति करोतीत्याहुः—जगदित्यादि। औपयिकता योग्यता ब्रजपुरसुन्दरीषु ललनानिष्ठस्वरूपनिसर्गयोरपि रत्युत्पादकयोः सत्त्वात् पार्थक्येन ज्ञापनार्थ तद्विनाभूतासु सुरस्त्रीष्वेवश्रीकृष्णनिष्ठंस्वरूपमुदाहृतम्॥३२॥ **ललनानिष्ठमिति।**ललनाश्चात्र गोप्य एव ज्ञेया। स्वयमुद्बुद्धतां ब्रजेदिति। निसर्गे यथा निजोद्बोधकं रूपगुणश्रवणं मनागपेक्षते तथा नेत्यर्थ। अतिबलिष्ठत्वादिति भावः। तदेवाह— **अदृष्टेऽपीति।**कृष्णे कृष्णे एवेति व्याख्येयम्। जन्मारभ्य श्रीकृष्णदर्शनश्रवणादिकं विनापि तत्रैव रतिं कुर्यात्। स्वयमेव श्रीकृष्णस्फूर्तेरिति भावः। अत्र कृष्ण एवेति सामान्यतः पुरुषविषयकरत्युत्पादकललनानिष्ठं स्वरूपं व्यावृत्तम्॥३३॥ अतिदूरस्थिता कापि गोपकुमारी किंवा श्रीराधैव श्रीकृष्णदर्शनश्रवणात् पूर्वमेव स्वयं स्फुरितं श्रीकृष्णमनुभूय जातभावा औन्मनस्यकारणं पृच्छन्तीःसखीःप्रत्याह—यो जनःत्रिलोक्यां क्वचिदपि देशे काले वा अस्तीति संभावनमयीं कक्षां पदवी क्षणमपि न जिहीते न
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रिति भावः। ‘नाहं प्रकाशःसर्वस्य योगमायासमावृतः।’ इति श्रीभगवदुपनिषद्भ्यः॥३१॥ अथ प्रस्तुतत्वाद्विशेष एवोदाहरति— ततो यथेति॥३२॥ स्वरूपं ललनानिष्ठमिति। इक्षुनालीनामिव जन्मत एव मधुररसयोग्यता। कृष्ण इति। तादृशीनां प्राचीनसंस्कारेण तदेकसमवायत्वात्॥३३॥ अतिविदूरस्थितायाः कस्याश्चिद्गोपकन्याया वचनम्। जिहीत इत्यन्वयः।
घनश्यामं पीताम्बरमहह संकल्पयदमुं
जनं कंचिद्गोष्ठे सखि मम वृथा दीर्यति मनः॥३४॥
** अथोभयनिष्ठम्—**
तत्स्यादुभयनिष्ठंयत्स्वरूपं कृष्णसुभ्रुवोः।
** ततो यथा ललितमाधवे—**
सहचरि हरिरेष ब्रह्मवेषं प्रपन्नः
किमयमितरथा मे विद्रवत्यन्तरात्मा।
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प्राप्नोति तमेव जनं संकल्पयत् स्वरमणत्वेन वरीतुमिच्छत् मम मनो वृथा दीर्यतीति। तं विना अन्यस्मिन् न स्वीकारात् तस्य च त्रिलोक्यामसत्त्वात् संकल्पस्याप्यफलिष्यत्वादिति भावः॥ ३४॥ श्रीकृष्णसुभ्रुवोर्द्वयोरेव स्वरूपं युगपद्यत्रोपलभ्यत इति शेषः॥ सूर्यपूजाप्रसङ्गे ब्राह्मणवेषधारिणं श्रीकृष्णमालोक्य तत्कालमविज्ञाततत्त्वापि तद्दर्शनजेन स्वीयरत्युद्भवेनैव तं श्रीकृष्णमनुमिमाना श्रीराधा ललितां प्रत्याह—**सहचरीति।**ब्रह्मवेषं ब्राह्मणवेषम्। ननु केन प्रकारेण ब्राह्मणवेषमप्येनं श्रीहरि निश्चिनोषीत्यत आह—किमयमित्यादि। अन्यथानुपपत्तिरेवात्र प्रमाणमिति भावः। एतेन कृष्णनिष्ठं स्वरूपमभिव्यक्तम्, ललनानिष्ठं स्वरूपमपि तदैवाभिव्यक्तम्, अर्थान्तरन्यासेन स्पष्टीभूतम्। शशधरेति। चन्द्रकान्तमणिनिर्मिता वेदी चन्द्रस्य ज्योत्स्नां विना न स्विद्यतीति। अत्र चन्द्रनिष्ठं स्वरूपमाह्लादकत्वं प्रकाशशैत्ययोः साहित्यंच। तच्च सर्ववस्तुगतमेवातश्चन्द्रकान्तमणावपि दृष्टम्। स्वेदस्तु चन्द्रकान्तमणिनिष्ठमेव स्वरूपम्। अन्यत्र मृत्पाषाणादिषु तददर्शनात्। स च स्वेदश्चन्द्रं विना चन्द्रकान्तमणेरन्यत्र न भवति चन्द्रकान्तमणेश्चन्द्रमात्रद्राव्यस्वरूपत्वं यथा तथा च चन्द्रकान्तद्रावकत्वलक्षणः स्वरूपविशेषश्चन्द्रस्याप्यङ्गीकर्तव्य इति चन्द्रकान्तचन्द्रयोरुभयनिष्ठस्वरूपमिव गोपीकृष्णयोरुभयनिष्ठं स्वरूपं कृष्णनिष्ठललनानिष्ठाभ्यां स्वरूपाभ्यां पृथगेवावगन्तव्यम्। अत एव भेदत्रयं कृतम्। तथा
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संभावनमयीं कक्षां न प्राप्नोतीत्यर्थः। कक्षा प्रकोष्ठः। संभावनास्पदताम्। गोष्ठ
शशधरमणिवेदी स्वेदधारां प्रसूते
न किल कुमुदबन्धोः कौमुदीमन्तरेण॥३५॥
प्रोक्ता अत्राभियोगाद्या विलासाधिक्यहेतवे॥३६॥
रतिः स्वभावजैव स्यात्प्रायो गोकुलसुभ्रुवाम्।
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हि सज्जनमात्ररतिदायकत्वं कृष्णनिष्ठं स्वरूपं अदृष्टाश्रुतस्यापि कृष्णस्य स्फूर्तिमत्त्वं ललनानिष्ठं स्वरूपं श्रीकृष्णदर्शनमात्रं द्रौत्यातिशयवत्त्वं गोपीक्षोभातिशयकारित्वं चेति द्वयमुभयनिष्ठस्वरूपम्। किं च चन्द्रं प्राप्य कुमुदचन्द्रकान्तचकोरसमुद्रादयः प्रफुल्लत्वद्रवत्वरसास्वादसमुच्छूनत्वादिधर्मवन्तो भवन्ति तथा चन्द्रोऽपि तान् प्राप्य तत्तद्धर्मप्रदो भवति। एवं गोपीजनविशेषश्रीकृष्णसाहित्यादुभयनिष्ठस्वरूपस्य बहुभेदकं तारतम्यं ज्ञेयम्। अत्र स्वरूपस्य भेदत्रयं तच्च ज्ञानव्युत्पत्त्यर्थमेव कृतम्। वस्तुतस्तु ललनानिष्ठस्वरूपमेकमेव व्रजदेवीषु विवक्षितं तदेव निसर्गादुत्कृष्यते, अन्यद्वयं तूद्दीपनत्वेएव पर्याप्नोति॥३५॥ एवं रत्युत्पत्तेः कारणानि लोकोक्तिरि(री)त्यैवोक्तानि। वास्तवं सिद्धान्तमाह—प्रोक्ता इति।विलासाधिक्येति। अभियोगादीनामुद्दीपनत्वाधिक्यमेव वस्तुतः फलितमिति भावः। स्वभावजेति। कासांचिदतिश्रेष्ठानां श्रीराधादीनां स्वरूपजा अपरासां कासांचिन्निसर्गजा च स्यादित्यर्थः। प्रायः पदेनेति कासांचिदर्वाचीनकल्प एव साधनसिद्धानां निसर्गस्वरूपयो संभवादभियोगादय एव रत्युत्पत्तेः कारणानि भवन्तीति ज्ञापितम्। पुरसुभ्रुवां तु निसर्गजैव, तास्वेव साधनसिद्धानां कासांचिदभियोगादिजा चेति ज्ञेयम्॥ एवं रतेः कारणान्युक्त्वा रतेर्भेदांस्तैरेव तारतम्यं चाह—साधारणी कुब्जादिषु, मणिवत् नातिसुलभेति कुब्जादिभ्योऽन्यैरपि
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*इति गोष्ठविशेष इत्यर्थः॥३४॥३५॥ ननु गोकुलसुभ्रुवः प्रायो नित्यप्रेयस्य एव इतस्तासां लीलाशक्तिप्रापितजन्मान्तरीणां स्वभावजैव स्यात् तर्हि कथं तासामपि क्वचिदभियोगादयो रतिहेतुतया वर्ण्यन्ते। तत्राह— **प्रोक्ता इति।*अभियोगो रत्यभिव्यञ्जना तदाद्या रूपगुणानुभवादयः॥ साधारण्यादीनां लक्षणं तावच्छब्दार्थवशादेव गम्यते। तथा हि— समर्था खलु सैव स्यात् या लोकधर्माद्यतिक्रम्य परमकाष्ठापन्नां पुष्टिमाप्नोति। तदुक्तं परकीयालक्षणे—‘रागेणैवार्पितात्मानो लोकयुग्मानपेक्षिणा’ इति। वक्ष्यते च ‘इयमेव रतिः प्रौढा महाभावदशां व्रजेत्।’
साधारणी निगदिता समञ्जसासौ समर्था च।
कुब्जादिषु महिषीषु च गोकुलदेवीषु च क्रमतः॥३७॥
मणिवच्चिन्तामणिवत्कौस्तुभमणिवस्त्रिधाभिमता।
नातिसुलभेयमभितः सुदुर्लभा स्यादनन्यलभ्या च॥३८॥
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यत्नतो लभ्येत्यर्थः। आदिपदेन देवाङ्गना मथुराङ्गना विदर्भाङ्गनाश्च ग्राह्या इति केचित्। कुब्जायामेव सख्यो दास्यश्चेत्यन्ये। समञ्जसा महिषीषु चिन्तामणिवदभितश्चतुर्दिक्षु सुदुर्लभेति महिषीभ्योऽन्यैः कैश्चिदेव कदाचिदेव महाभाग्यत एव लभ्येत्यर्थः। यदुक्तम्—‘अग्निपुत्रा महात्मानस्तपसा स्त्रीत्वमापिरे। भर्तारं च जगद्योनि वासुदेवमजं विभुम्॥” इति महाकौर्मवचनम्।समर्था गोकुलदेवीषु कौस्तुभमणिः श्रीकृष्णादन्यैर्न लभ्यते तथैव गोकुलदेवीभ्योऽन्यैव कैरपि न लभ्येत्यर्थः। यदुक्तम्— ‘नायं श्रियोऽङ्गउ नितान्तरतेः—’ इत्यादि। रागानुगवर्त्मस्थैः साधकभक्तैर्लभ्यत्वे तु तेषां गोकुलदेवीभावभावितत्वेन तदनन्यत्वात्। अत्र कुब्जारतिःसाधारणीति समञ्जसासमर्थे असाधारण्ये ज्ञेये। महिषीरतिः समञ्जसेति साधारणीसमर्थै असमञ्जसे ज्ञेये। लोकधर्मानभिमतत्वमेव तयोरसामञ्जस्यम्। यदुक्तम्—‘उत्तरीयान्तमाकृष्ये’ति, तथा ‘या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा’ इति। एवं गोकुलदेवीरतिः समर्थेति, साधारणीसमञ्जसे असमर्थे ज्ञेये॥ तयोरसमर्थत्वं श्रीकृष्णवशीकारादिषु वक्ष्यमाणरीत्या ज्ञेयम्। किंच समर्थेत्यत्र विषयविशेषानुपादानाद्यथासंभवं विषयोऽवश्यमर्पणीय एव। तथा हि
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इति। अथ यान्या रतिः समञ्जसाख्या सा खलु लोकधर्मापेक्षया, तथोच्यते च। अत एव नातिसमर्था। अत एव च भावान्तिमां सीमां न प्रपद्यत इति भावः। न चास्याःसमञ्जसाख्यत्वेन समर्थाया असमञ्जसत्वमायातीति वाच्यम्। तौ हि लोकधर्मौतन्महिमानुभवाद्बहिर्वर्तिनामेव गृहीतौ ततस्तैस्तदनुसारेणैव तस्याः समञ्जसेत्याख्या कृता। परमपारमार्थिकानुसारेण तु समर्थैव परमसमञ्जसा।तदुक्तम्—‘एताः परं तनुभृतः’ इत्यादिभिः। अथ यान्या साधारणी सा तु न्यूनत्वादेव तत्तयोच्यते। लोके च तच्छब्दप्रयोगस्तत्र दृश्यते। न्यूनत्वं च संभोगेच्छामूलतया तिरस्कृतत्वात्। तत एवान्यद्वयवत् पुष्टियोग्यत्वाभावात्। संभोगेच्छारत्यादेर्भेदस्तु समर्थालक्षणे व्यक्तीभविष्यति तदनुसारेणैवासां लक्षणानि
तत्र साधारणी—
नातिसान्द्रा हरेःप्रायः साक्षाद्दर्शनसंभवा।
संभोगेच्छानिदानेयं रतिः साधारणी मता॥३९॥
** यथा श्रीमहाभागवते दशमे—**
सहोष्यतामिह प्रेष्ठ दिनानि कतिचिन्मया।
रमस्वनोत्सहे त्यक्तुं सङ्गं तेऽम्बुरुहेक्षण॥४०॥
असान्द्रत्वाद्रतेरस्याः संभोगेच्छा विभिद्यते।
एतस्या ह्रासतो ह्रासस्तद्धेतुत्वाद्रतेरपि॥४१॥
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स्वरमणस्य श्रीकृष्णस्य सर्वतोभावेनवशीकारे तद्रूपगुणरूपमाधुर्याणां सामस्त्येनास्वादनायां तथा स्वमाधुर्यानुभाव्यमानस्य तस्यापि मोहने परचमत्कारप्रापणे च स्वतोऽपि महैश्वर्यस्य विस्मारणे तथा साधारणस्य रूपगुणकलामाधुर्याणां सामस्त्येनास्वादनायां नित्यनवीनीकरणे सर्वोत्कर्षे च सामर्थ्यवतीति समर्था॥३६॥॥३७॥३८॥ एवं साधारणीसमञ्जसासमर्थानामन्वर्थानामपि स्पष्टप्रतिपत्त्यर्थ लक्षणमाह— नातिसान्द्रा नातिनिबिडा।संभोगेच्छया बहुधा विध्यमानत्वेनैवानुमीयत इत्यर्थः। प्रायःपदेन क्वचिच्छ्रवणसंभवापि। संभोगेच्छानिदान इति। यदैवं श्रीकृष्णसौन्दर्य दृग्गोचरीबभूव तदैवानेन पुरुषेण मे सङ्गो भूयादिति स्वसुखतात्पर्यरत्याकाङ्क्षा अजनिष्ट। ततश्च योऽयं मां संप्रत्येव चाक्षुषसभोगेनैव निरवधिकमसुखयत्तमेनमहमपि क्षणमेव समुचितसपर्यापूर्वकस्वाङ्गसङ्गदानेन सुखयामीति संकल्पमयी रतिरभूत्। कुब्जादीनां तेन साक्षाद्दर्शनसंभवेत्यस्य साक्षाद्दर्शनेन परम्परया संभवो यस्या इत्यर्थो व्याख्येयः॥३९॥ संभुक्ता कुब्जा जातरतिः श्रीकृष्णमाह—रमस्वेति। श्रीकृष्णस्य सुखतात्पर्य रतिलक्षणम्। तस्याः स्वसुखतात्पर्येव मयेत्युक्तिः स्यात्॥४०॥ अस्याः साधारण्या
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व्याख्यास्यन्ते। अनन्यलभ्येति अन्येनालभ्येत्यर्थः। तत्र दृष्टान्ते श्रीकृष्णादन्येनेति। दार्ष्टान्तिके गोकुलदेवीभ्योऽन्येति व्याख्येयम्॥३६॥३७॥३८॥ नातिसान्द्रेति व्याख्यास्यते। तादृशत्वान्नूनत्वमप्यायातम्॥३९॥ रमस्वेति संभोगेच्छानिदानत्वं व्यक्तम्॥४०॥ अस्याः संभोगेच्छानिदानायाः
अथ समञ्जसा—
पत्नीभावाभिमानात्मा गुणादिश्रवणादिजा।
क्वचिद्भेदितसंभोगतृष्णा सान्द्रा समञ्जसा॥४२॥
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रतेरसान्द्रत्वान्नैविड्याभावात् अस्याः सकाशात् संभोगेच्छा विभिद्यते पृथक्तया दृश्यमाना तिष्ठति॥ नन्वेतस्याः साधारण्या रतेस्तारतम्यं वर्तते नवेत्याशङ्कायामाह— एतस्याः संभोगेच्छाया ह्रासतो रतेरपि ह्रासः। तत्र हेतुः तद्धेतुत्वात् संभोगेच्छाहेतुकत्वात्। अयमर्थः— कुब्जादिषु यस्याः संभोगेच्छा अधिका तस्या रतिरप्यधिका, यस्या अल्पा तस्या रतिरप्यल्पा कारणतारतम्येनैव कार्यतारतम्यादिति। अत्र एतद्धेतुत्वादिति वक्तव्ये तद्धेतुत्वादिः प्रयोग एतत्पदवाच्यायाः संभोगेच्छाया बहिरङ्गत्वव्यञ्जकः। यथा एष चौर इतो निःसृत्य तद्देशं यास्यत्यतस्त्वं च शीघ्रं तत्र गत्वा तं सुष्ठु दण्डयेति तत्पदेनापि एतत्पदस्य परामर्शो दृष्टः॥ ४१॥ पत्नीत्वाभिमानस्य आत्मा बुद्धिर्यतो यस्यां वा सा।‘आत्मा यत्नो धृतिर्बुद्धिः’ इत्यमरः। यस्यां रतौ पत्नीत्वाभिमानसंबन्धिनी वुद्धिर्भवतीत्यर्थः। पत्नीभावाभिमान एवात्मेवात्मा यस्या इति। तदभिमानस्य तिरस्कारे स्थित्यभावश्च व्यक्त इति श्रीजीवगोस्वामिचरणाः। अत्र पत्नीपदप्रयोगेण ‘पत्युर्नोयज्ञसंयोग’ इत्यनुशासनाद्विप्राग्निसाक्षिकविवाहवत्यएव समञ्जसरतिमत्य इति गान्धर्वविवाहवत्यो गोकुलकन्या व्यावृत्ताः। गुणादिश्रवणादिजेति। साधनसिद्धापेक्षया रुक्मिण्यादिषु नित्यसिद्धासु तु निसर्गादेव प्रादुर्भूता ‘तदुद्बोधस्य हेतुः स्याद्गुणरूपश्रुतिर्मनाक्’ इति व्याख्यानयुक्तेः।
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साधारण्याख्याया रतेरसान्द्रत्वात् तदिच्छाविदत्वेनानिबिडित्वादसौ संभोगेच्छा विभिद्यते साधारण्या नायिकया या पृथक्तया भाव्यते। तद्धेतुत्वात् संभोगेच्छाहेतुकत्वात्। तस्याः संभोगेच्छाया ह्रासतः एतस्या रतेरपि ह्रासः स्यादित्यर्थः। हासत इति पदेन तस्या इति संबन्धिपदमत्राक्षिप्यते। एतस्याः संभोगेच्छाया ह्रासत इति व्याख्यायां तद्धेतुत्वादित्येतद्गतस्य तच्छब्देनानुवादो न स्यात्। किंत्वेतद्धेतुत्वादित्येवोक्ते स स्यात्। न ह्येष गच्छति तं पश्येत्युक्ते तयोरभिन्नवाचकतागम्यत इति॥४१॥ पत्नीभावेति। लोकधर्मापेक्षिता दर्शिता। गुणादिश्रवणादिजेति तत्प्रादुर्भूतेत्येवार्थः।नतूत्पद्यमानेति
यथा तत्रैव—
का त्वा मुकुन्द महती कुलशीलरूप-
विद्यावयोद्रविणधामभिरात्मतुल्यम्।
धीरा पतिं कुलवती न वृणीत कन्या
काले नृसिंह नरलोकमनोभिरामम्॥
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क्वचित् कदाचिदेव भेदिता स्वतः सकाशाद्भिन्नीकृत्य स्थापिता संभोगतृष्णा यया सा। सर्वदा तु रत्या तादात्म्यं प्राप्तैव तिष्ठतीत्यर्थ। साधारण्यां रतौ संभोगतृष्णा सदैव पृथक्तया तिष्ठति, समञ्जसायां तु क्वचिदेवेति भेदः॥ तेन समञ्जसाया रतेरपि क्वचिदंशे संभोगतृष्णाहेतुर्भवतीत्यर्थादायातं पूर्वोक्तयुक्तेरेव। तेन चैवमवसीयते रुक्मिण्यादीनां वयःसंधावेव नारदादिमुखवर्णितश्रीकृष्णगुणश्रवणादिनोद्वुद्धान्निसर्गादेव श्रीकृष्णे रतिस्तथा कामोद्गमसमवयःसंधिस्वाभाव्यात्। सभोगतृष्णाजन्या च रतिर्युगपदेवाभूत्। तत्र प्रथमा बहुतरप्रमाणा, द्वितीया अल्पप्रमाणेति द्वयो रत्योर्मेलनेन समञ्जसाभिधा रतिर्व्याख्यायते। तासां तदनन्तर च संभोगतृष्णा द्विधाभूतैवान्ववर्तत निसर्गोत्थरत्यनुभावरूपा संभोगतृष्णोत्थरत्यनुभावरूपा च। प्रथमा रतेःपृथक्तया नैव तिष्ठति तत्कारणत्वेन तन्मयत्वेनैव प्रतीते। द्वितीया रतेः पृथक्तयैव भासते संभोगतृष्णाया आदिकारणत्वेन तन्मयत्वेनैव प्रतीत्यौचित्यात्। क्वचिदिति पदेनेयं संभोगतृष्णोत्था रतिर्न सर्वदा समुदेतीत्यर्थः। **सान्द्रेति।**निसर्गोत्थरतेःसान्द्रत्वात् द्वितीयाया अपि सान्द्रत्वं भवति हि तत्साहित्यात्ताद्धर्म्यमिति न्यायात्॥४२॥ श्रीरुक्मिणी श्रीकृष्णं प्रति सदेशपत्री लिखति— अस्तु तावद् ममानन्यगतेर्वार्ता परा च का त्वेत्यादि।
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‘जनी प्रादुर्भावे’ इति धातुपाठात्। श्रीरुक्मिण्यादीनां स्वाभाविकतत्प्रेयसीत्वेन स्वाभाविकतद्भावत्वाच्च। क्वचित् स्वतोऽप्यधिकप्रेमवती साम्याभिलाषे सति खेदिता स्वभावसिद्धप्रेमपरिपाटीतः पृथक्तया दर्शिता सभोगतृष्णा तद्धेतुं वशीकृत्य निजनिकटे स्थापयितुमिच्छा तदुचितहावभावादिपरिपाटीमयी तरङ्गिण्यामिव तरङ्गान्तरायमाणवरिमवीचीर्यस्यां सा। सान्द्रेति तदन्तस्त्वन्यप्रवेशोऽसामर्थ्यदर्शनया वहिरेव तादृशभावान्तरस्थितिर्दर्शिता॥४॥ का त्वा मुकुन्देति। अस्तु तावन्ममानन्यगतेर्वार्ता परापि केति त्वद्गुणानासर्वासाम-
समञ्जसातः संभोगस्पृहाया भिन्नता यदा।
तदा तदुत्थितैर्भावैर्वश्यता दुष्करा हरेः॥४४॥
** तथाहि तत्रैव—**
स्मायावलोकलवदर्शितभावहारि-
भ्रूमण्डलप्रहितसौरतमन्त्रशौण्डैः।
पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनङ्गबाणै-
र्यस्येन्द्रियं विमथितुं करणैर्न शेकुः॥४५॥
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किंतु महती धीरा यदि स्यादित्यर्थः।काले स्वपरिणयसमये आत्मना स्वेनैव तुल्यं निरुपममित्यर्थः। हे नृसिंह, का न वृणीत इत्यतस्त्वद्गुणानां सर्वोत्कर्षकत्वान्ममेदं धार्ष्ट्यन चिन्तनीयमिति रतिरात्मनो व्यानञ्ज॥४३॥ समञ्जसाख्यरतेः प्रथममुत्कृष्टं महान्तमंशमुदाहृत्य द्वितीयमपकृष्टमल्पमंशमुदाहर्तु तस्यापकर्ष व्याचष्टे।समञ्जसातः समञ्जसारतेःसकाशात् संभोगस्पृहाया यदा भिन्नता पार्थक्येन प्रतीतिस्तदा तदुत्थितैः संभोगस्पृहोत्थैर्भावैर्भावहावहेलाकिलकिचितादिभिर्वश्यता दुष्करेति तस्य प्रेमैकवश्यत्वसिद्धान्तात् सर्वशास्त्रसंमतादिति भावः। यदेत्यनेन सर्वदा तु निसर्गोत्थरतेः संभोगस्पृहाया भिन्नता नास्तीति तदुत्थितैर्भावैश्च हरेर्वश्यता सुकरैवेति गम्यते। अत एव पूर्वोक्ता का त्वा मुकुन्देति भावमयसंदेशमात्रेणैव श्रीकृष्णस्य द्वारकातो विदर्भागमनं वश्यताव्यञ्जकमेवेति ज्ञेयम्॥४४॥ श्रीशुकः सिद्धान्तं बोधयन् श्रीपरीक्षितमाह—स्मायेति। षोडशसहस्रमपि पत्न्योयस्येन्द्रियं मनआदिकं विमयितुं न शेकुः। कैर्न शेकुः।
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प्याकर्षणे सामर्थ्यमिति स्वधार्ष्ट्यदोषः परित्याजितः॥४३॥ संभोगस्पृहायाः पूर्ववद्भावहावादिव्यञ्जनामय्याः॥४४॥ स्मायेति। षोडशसहस्रमपि पत्न्योयस्य श्रीकृष्णस्य इन्द्रियं मनआदिकं विमथितुं न शेकुः। कैर्न शेकुः। करणैर्भावहावादिचेष्टितैः। कीदृशैः। अनङ्गस्य कामस्य बाणरूपैः। वाणरूपत्वेऽपि कीदृशैः। स्मायः स्मितं तद्युक्तो योऽवलोकलवस्तेन दर्शितो यो भावोऽभिप्रायस्तेन हारी हर्तु समर्थो यो धनुरूपो भ्रूमण्डलस्तेन प्रहितैः तथा सौरतेन सुरते नियुक्तेन मन्त्रेण शौण्डैः प्रगल्भैरपीति। पत्न्यस्त्वित्यस्मात् करणैरित्यत्र
** अथ समर्था—**
कंचिद्विशेषमायान्त्या संभोगेच्छा ययाभितः।
रत्या तादात्म्यमापन्ना सा समर्थेति भण्यते॥४६॥
स्वस्वरूपात्तदीयाद्वा जातो यत्किंचिदन्वयात्।
समर्था सर्वविस्मारिगन्धा सान्द्रतमा मता॥४७॥
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करणैर्भावहावादिचेष्टितैः। कीदृशैः। अनङ्गस्य बाणरूपैः। वाणरूपत्वेऽपि कीदृशैः। स्मायः स्मितं तद्युक्तो योऽवलोकनलवस्तेन दर्शितो यो भावोऽभिप्रायस्तेन हारि मनोहरणशीलं यद्भ्रूमण्डलं तेन प्रहिताः प्रेषिताः सौरतमन्त्राः सुरतसंबन्धिरहस्ययुक्तयस्तेषु तत्प्रापणेषु शौण्डै प्रवीणै॥४५॥ यया रत्या संभोगेच्छा तादात्म्यं तदात्ममात्रं रतिरूपत्वमापन्ना स्यात् सा समर्था। रत्या कीदृश्या।कंचिद्विशेषं स्वरूपोत्थत्वात् साधारणीसमञ्जसाभ्यां सकाशात् कमप्यनिर्वचनीयविशेषं श्रीकृष्णवशीकारत्वातिशयं प्राप्नुवया॥४६॥ स्वस्वरूपाल्ललनानिष्ठस्वरूपाज्जातेति पूर्वोक्तरतिद्वयादस्य हेतुरपि परमविलक्षण एवेति भावः। तदीयात् श्रीकृष्णसंबन्धिनः शब्दादेः किचिन्मात्रादन्वयाद्वेति नाममात्रत एव हेतोर्वस्तुतस्तु स्वत एवेति भावः।समर्था अन्वर्थनाम्नीत्यर्थः। सामर्थ्यमेव दिग्दर्शनेनाह— सर्व कुलधर्मधैर्यलोकलज्जादिकं विस्मारयितुं शीलं यस्य तथाभूतो गन्धोऽपि यस्याः सा।यदुक्तम्। ‘या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा भेजुः।’
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तुशब्दस्यान्वयात् विशब्दस्य बलात् करणैस्तु विशेषेण मथितुं न शेकुरिति लब्धे यावान् तत्र प्रेमांशस्तावदेव मथितुं शेकुरिति लभ्यते॥४५॥ यया रत्या तादात्म्यमेकीभावमापन्ना संभोगेच्छा सा रतिःसमर्थेति भण्यते। कीदृशी सती। तत्राह किंचिद्विशेषमायान्तीति। अयमर्थः—संभोगः खलु द्विविधः। प्रियजनद्वारा स्वेन्द्रियतर्पणसुखमयः, स्वद्वारा तदिन्द्रियतर्पणसुखभावनामयश्चेति। तत्र पूर्वेच्छा कामः स्वहितोन्मुखत्वात्। उत्तरेच्छा तु रतिः प्रियजनहितोन्मुखत्वात्। तत्र चोत्तरसंभोगे प्रियजनस्पर्शसुखं च भवत्येवेति। यद्यपि तदिच्छा दुर्वारा तथापि बलवत्त्वात् कंचिद्विशेषमायान्त्या यया रत्या मिलितत्वात्तत्तादात्म्यमापन्ना भवति सा रतिः सर्वातिकामिसामर्थ्यात् समर्थेति भण्यत इति॥ तदेवं समर्थायां कार्यद्वारा स्वरूपद्वारा च लक्षणमुक्त्वा कार्यान्तरद्वारा पुनस्त-
यथा—
प्रेक्ष्याशेषे जगति मधुरां स्वावधूं शङ्कया ते
तस्याः पार्श्वे गुरुभिरभितस्त्वत्प्रसङ्गो न्यवारि।
श्रुत्वा दूरे तदपि भवतः सा तुलाकोटिनादं
हा कृष्णेत्यश्रुतचरमपि व्याहरन्त्युन्मदासीत्॥४८॥
सर्वाद्भुतविलासोर्मिचमत्कारकरश्रियः।
संभोगेच्छाविशेषोऽस्या रतेर्जातु न भिद्यते॥४९॥
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इति। अत एव सान्द्रतमा भावान्तरेण प्रवेष्टुमशक्यतमा॥४७॥ कस्याश्चिद्व्रजवालायाश्चरितं वृन्दा कृष्णमावेदयति— प्रेक्ष्येति। ते शङ्कया नारीगणमनोहारित्वलक्षणं तव स्वभावं परामृश्येत्यर्थः। न्यवारि अस्याः कर्णगतः श्रीकृष्णश्चित्ते लगिष्यतीति शङ्कया निवारयामास। भवतोऽदृष्ट्वाश्रुतचरस्यापि तुलाकोटिनादं श्रुत्वेति यत्किंचिदन्वय उक्तः। परिचयस्तु तस्या ललनानिष्ठरूपत्वात् पूर्वपूर्वस्फूर्तिदेव ज्ञेयः। **अश्रुतचरमपीति।**न ललनानिष्ठस्वरूपं व्याहरन्तीति गुरुगौरवलज्जादिविस्मारणम्, उन्मदासीदिति रतेः सान्द्रतमत्वं च व्यञ्जितम् ॥४८॥ अस्या रतेः सकाशात् संभोगेच्छाविशेषो जातु कदाचिदपि न भिद्यते। पृथक्तया प्रतीतो न भवतीत्यर्थ। तथा ह्यस्या रतेःस्वरूपसिद्धत्वाद्गुणादिश्रवणानपेक्षितत्वेन प्रावल्याद्वयःसंधेः पूर्वमेव व्रजवालासु कासुचित् तथापरासु नन्दपुरनिकटवर्तिनीषु रतेःस्वरूपसिद्धत्वेऽपि श्रीकृष्णेन सह धूलिखेलनादिभिः परिचयाधिक्येनापि प्रादुर्भावः। सामान्याकारेण प्रादुर्भूतायां च तस्यां तासां
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द्वदंस्तदुत्कर्षमाह—स्वस्य ललनासंबन्धिनः स्वरूपाज्जाता किं वा श्रीकृष्णसंबन्धिनो यत्किचिदन्वयात् स्वरूपादीनामेकतरस्य संबन्धमात्राज्जाता सर्वविस्मारिलेशमात्रा समर्था सा सान्द्रतमा बहिरपि भावान्तरेण भेत्तुमशक्या मता॥४६॥४७॥ तत्र स्वरूपस्योदाहरणं जिहीत इत्यादिना दर्शितमिति द्वितीयस्याह—प्रेक्ष्येति। तुलाकोटिर्नूपुरम्। अत्रोन्मदेत्यनेन भावान्तरस्पर्शो वहिरपि नास्तीति द्योतितम्॥४८॥ ‘कंचिद्विशेषमापन्ना—’ इत्यत्र यदुक्तं तदेव पुनर्व्यनक्ति—सर्वाद्भुतेति। सार्धेन। अस्यां समर्थायाम्। इत्यस्यामित्यत्र यदस्यामिति पाठः संयोज्य पूर्वत्र त्वेनं व्याख्येयम्। इतीति एतद्धेतोरित्यर्थः।
इत्यस्यां कृष्णसौख्यार्थमेव केवलमुद्यमः।
पूर्वस्यां स्वसुखायापि कदाचित्तत्र संभवेत्॥५०॥
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श्रीकृष्ण एवप्रीतिमतीनां सर्वेन्द्रियवृत्तयः श्रीकृष्णसुखतात्पर्यत एवाभूवन्।अथायाते वयःसंधौ कंदर्पोद्गमेन या संभोगतृष्णा रेत्याक्रान्ते मनस्यजनिष्ट सापि सुखतात्पर्यवत्येवाभूदिति सभोगतृष्णाया रत्या सह तादात्म्यम्। तामवस्थामारभ्यैव तासां स्वाङ्गसङ्गदित्सयैव तत्सुखविशेषोत्पादने संकल्पवतीनां तासां रतिर्मधुराभिधाना अभूदित्यत एव संभोगतृष्णा पृथक्तया न भासते। अत एवात्र संभोगेच्छाविशेष इत्यत्र विशेषशब्दप्रयोगः।रतेः कीदृश्याः। सर्वतोऽप्यद्भुता श्रीकृष्णवशीकारित्वेन विस्मयावहा या विलासोर्मयस्ताभिश्चमत्कारकारी (रिणी) श्रीर्यस्यास्तस्या इति हेतोरस्या समर्थायां रत्यां सत्यामुद्यमो मनोवाक्कायाना व्यापारस्तथा बुद्धिपूर्वकोऽबुद्धिपूर्वको वा यः स श्रीकृष्णसौख्यार्थमेव। तेनोद्यमेन श्रीकृष्ण सुखमेव प्राप्नोतीत्यर्थ। तथा हि श्रीमुखवाक्यम्— ‘न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजाम्’। इति तासां स्वसुखतात्पर्याभाव एव निरवद्यत्वम्। अत एवात्र तस्य वशीकारः प्रसिद्धः॥ पूर्वस्यां समञ्जसायाम्। कदाचिदिति। नतु सर्वदेत्यर्थ। तेन श्रीरुक्मिण्याः पत्रीश्रवणमात्रेणैव द्वारकातो विदर्भागमनं श्रीसत्यभामायाः कृते पारिजातानयनमित्यादिलीलाव्यञ्जिततद्वशीकारोऽपि दृष्ट एव। एवं च साधारण्या रतेः साक्षाद्दर्शनजन्यसंभोगतृष्णैव हेतुः। रतेः स्वभावात् श्रीकृष्णस्य कुब्जागृहगमनस्य ज्ञाप्य ईषद्वशीकारो दुर्भगेदमयाचतेति श्रीशुकोक्तिज्ञाप्यः सर्वथा वशीकाराभावश्च तथा समञ्जसाया हेतुर्निसर्ग
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*एतत् किंतत्राह— **अस्यामित्यादि।*कृष्णसौख्यार्थमात्रोद्यमत्वादस्या रतेः शुद्धत्वम्। अत एव स्वतन्त्रत्वेन सर्वाद्भुतेत्याद्युक्तरूपत्वम्। एवं केवलमित्येतयोश्च तस्यां स्वातन्त्र्यातिशय एवाग्रहः। अथवा ‘निर्णीते केवलमिति’ इत्यमरः। उत्तरार्धं हेतुगर्भम्। ततश्च अस्यां कृष्णसौख्यार्थमेवोद्यम इति निर्णीतमित्यर्थः॥ पत्नीभावेत्यत्र यदुक्तं तदपि पुनर्व्यनक्ति— पूर्वस्यामित्यर्धेन। पूर्वस्यां समञ्जसायामुद्यमः संभवेदित्यन्वयः॥ इयमेवेति समर्थैषेत्यर्थः। पूर्वस्यामित्युक्तत्वात् समर्थाया एव प्रकृतत्वं गम्यते। मृग्यैव न तु प्राप्या। तन्मार्गणपरिपाटीनां दुर्बोधत्वात्। तत्परिपाटी हि तादृशभावमाधुरीणां क्रमेणानुभवः। एषां तु महि-
इयमेव रतिः प्रौढा महाभावदशां व्रजेत्।
या मृग्यां स्याद्विमुक्तानां भक्तानां च वरीयसाम्॥५१॥
** यथा श्रीदशमे श्रीमदुद्धवोक्तौ—**
एताः परं तनुभृतो भुवि गोपवध्वो
गोविन्द एवमखिलात्मनि रूढभावाः।
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संभोगतृष्णा च श्रीशुकोक्तिज्ञाप्यो वशीकारोऽवशीकारश्च तत्र तत्र सामञ्जस्ये पत्नीत्वाभिमान एव लिङ्गं, तथा समर्थाया रतेः स्वरूपमेव हेतुस्तस्यातिप्राबल्यात् संभोगतृष्णाया अपि रतिमयीति भावः। न पारयेऽहमिति, आसामहो इति, नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्तरतेरित्यादि श्रीकृष्णादरशुकाद्युक्तिज्ञाप्यसर्वथैवातिवशीकार एव तत्र तत्र सामर्थ्ये ‘या माभजन् दुर्जरगेहशृङ्खलाः संवृश्चयेति’ ‘या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा’ इति ‘रागेणैवार्पितात्मानो लोकयुग्मानपेक्षिताः।’ इत्यादिवचनव्यङ्ग्यः परकीयात्वाभिमान एव लिङ्गमिति प्रकरणार्थसंक्षिप्योक्तेः॥४९॥५०॥ समर्थाया एव रतेः सर्वोत्कर्ष स्पष्टीकुर्वन्नाह— इयमेव समर्थैव प्रौढा सती प्रेमस्नेहपरिणामेनेत्यर्थः। मृग्यैव नतु प्राप्या तन्मार्गणपरिपाटीनां दुर्बोधत्वादिति श्रीमज्जीवगोस्वामिचरणाः॥५१॥ वन्दमान उद्धवो गोपीः स्तौति— एताः परमेता एव केवलं तनुभृतः सफलतनुधारिण्यो न त्वन्या नाप्यस्मदाद्या इति ध्वनिः। भगवत्परिकरत्वेन सफलतनुत्वेऽप्युद्धवादीनामीदृशभाववत्त्वेन विना किं तनुभिरिति तद्भावौत्सुक्यं व्यञ्जयति। गोपवध्व इत्यार्यपथत्यागलक्षणा समर्था रतिर्व्यञ्जिता। गोविन्द एवमनेन प्रकारेण अखिला एवात्मानो देहमनोबुद्धियत्नस्वभावधृत्यादयो यस्मिन् तस्मिन्निति। भ्रातृपुत्र-
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मज्ञानमेव न तु तदनुभवः। आस्तामन्येषां श्रीमदुद्धवस्यापि महिमज्ञानमेव व्यज्यते ‘अहो यूयं स्म पूर्णार्थाः’ इत्यादि तद्वाक्येन। तदनुभवार्थमेव हि ‘आसामहो—’ इत्यादिना प्रार्थितम्। तदनुभवे सति तासामिव तस्यापि रोदनादिकं वर्ण्यते। सर्वेषामपि तदनुभवे च भक्तानां पञ्चविधत्वं बाध्येत॥४९॥५०॥॥५१॥ तथैवोदाहरति—एताः परमिति। एताः केवलं सफलतनुधारिण्यः। यतो भवतीप्रभृतयो यं यं भावं परमोत्कर्षदृष्ट्या वाञ्छन्त्येव न तु प्राप्नुवन्ति तन्माधुर्यानुभवस्याभावश्च तेषु दर्शितः किं ब्रह्मजन्मभिरिति। अन-
वाञ्छन्ति यद्भवभियो मुनयो वयं च
किं ब्रह्मजन्मभिरनन्तकथारसस्य॥५२॥
साद्दृढेयं रतिः प्रेमा प्रोद्यन्स्नेहः क्रमादयम्।
स्यान्मानः प्रणयो रागोऽनुरागो भाव इत्यपि॥५३॥
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पौत्रादिष्वपि स्नेहवति(ती) यो रुक्मिण्यादिभ्यो भाववैशिष्ट्येन वैलक्षण्यं व्यञ्जितम्। ‘आत्मा यत्नो धृतिर्बुद्धि स्वभावो ब्रह्म वर्ष्मच।’ इत्यमरः। तत्रापि गोविन्दपदेन गवां पालक एवेत्यैश्वर्यज्ञानाभावेन माधुर्याधिक्यं तत्रापि रूढभावा रूढाख्यो महाभावप्रभेद एव भावो यासां ता। ननु ‘रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे’ इति योगार्थेनोत्पन्नभावा इत्येवार्थः प्रतीयते इत्यत आह—यत् यं भावं भवभियो मुमुक्षवो मुनयो मुक्ता वाञ्छन्ति वयं च भक्ता वाञ्छाम इत्यर्थः। वय किमुत्पन्नभावा न भवामस्तेनात्र रूढशब्दो न योगार्थः किंतु रतेः सप्तमकक्षायां महाभावप्रभेद एव रूढः। अत एव श्लोकान्तरेऽपि जातादिपदमप्रयुज्य ‘कृष्णे क्वचैष परमात्मनि रूढभावः’ इति पुनरपि रूढशब्द एव। किं च रसास्वादविज्ञजन ईदृशभावप्राप्तिं विना निजमहामाहात्म्यमपि तुच्छमेव मन्यत इत्याह—किं ब्रह्मेति। अनन्तस्य कथामात्र एव रसो यस्य तस्यापि किं पुनर्महास्वभावरसिकस्य ब्रह्मजन्मभिर्बहुभिः परमेष्ठिजन्मभिः किम् ।न किंचिदपि प्रयोजनमित्यर्थः॥५२॥ एवं रतेर्भेदत्रयमुक्त्वा तस्या एवावस्थाभेदेनोत्कर्षवैशिष्ट्यान्नामभेदान् सदृष्टान्तानाह—स्यादिति। इयं रतिर्दृढा बद्धमूलत्वेनान्तरायैरचाल्या चेत् प्रेमा स्यात्। प्रेमेतिनाम्नाभिधीयत इत्यर्थ। स च प्रेमा
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*न्तस्य लीलानन्त्यादनन्तधा स्फुरितस्य तस्य कथासु कथामात्रेषु किमुत तासां संवन्धिनीषु। अरसो रसाभावो यस्य तस्य ब्रह्मजन्मभिर्विरिञ्चितयापि यदेभिर्जन्मभिःकिं न किंचित्प्रयोजनमित्यर्थः॥५२॥ तस्याः परमोत्कर्ष दर्शयति—इयं मधुराख्या रतिर्दृढा विरुद्धेनाभेद्या सती प्रेमा स्यात्। स चायं प्रेमा प्रोद्यन् क्रमान्निजमाधुर्यं प्रकाशयन् स्नेहो मान इत्यादिरूप स्यात्। **भाव इति।*भावस्त्वस्यात्रैव प्रकर्षान्मुख्यतया तच्छब्दस्त्वत्रैव पर्यवस्यति ईश्वरशब्दो भगवतीवेत्यभिप्रायः। किंतु महाभावशब्दस्त्वत्र महेश्वरशन्दवज्ज्ञेयः॥ अत्र
बीजमिक्षुः स च रसः स गुडः खण्ड एव सः।
स शर्करा सिता सा च सा यथा स्यात्सितोपला॥५४॥
अतः प्रेमविलासाः स्युर्भावाः स्नेहादयस्तु षट्।
प्रायो व्यवाह्रियन्तेऽमी प्रेमशब्देन सूरिभिः॥५५॥
यस्या यादृशजातीयः कृष्णे प्रेमाभ्युदञ्चति।
तस्यां तादृशजातीयः स कृष्णस्याप्युदीयते॥५६॥
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उद्यन् सन् सूर्य इव चित्तनवनीतं स्वातपेन द्रुतीकुर्वन् स्नेहः स्यात्। एवमयमेव स्नेहः क्रमात् स्ववृद्ध्या मानः स च स्ववृद्ध्या प्रणय इत्यादि। भावो महाभावः॥५३॥ एकमेव वस्त्ववस्थाभेदेनोत्कर्षतारतम्यान्नामभेदं लभत इत्यत्र दृष्टान्तमाह— बीजमात्रेक्षुदण्डाग्रभागग्रन्थ्यवस्थितोऽङ्करस्तदेव यथा कालेनेक्षुदण्डः स्यादेवं रतिरेव प्रेमा स्यात्। एवं स च रस इति। रस इव स्नेहः, गुण्ड इव मानः, खण्ड इव प्रणयः। शर्करेव रागः । शर्करा चिनीति ख्याता। सिता सितशर्करेवानुरागः। सितशर्करा मिश्रीति ख्याता। सितोपलेव महाभावः। सितोपला ओला इत्याख्याता। सितोपलैव मिश्रीति केचिदाहुस्तच्चिन्त्यम्। ‘क्षिप्रं याति सितोपलेव विलयम्’ इत्युक्तेस्तस्या जले क्षिप्रं लयादर्शनात्, अत्र चेक्षोः पाकमेदेनैव गुडादयो भवन्ति यथा तथैव प्रेम्णोऽवस्थाभेदेनैव स्नेहरागादयो भवन्ति। नतु गुड एव खण्डः स्यात् खण्ड एव शर्करा स्यादित्येवं वाच्यमसंभवादिति च केचिदाहुः॥५४॥ तन्मतमनुसृत्यैवाह— अत इति॥५५॥ ननु समर्थरतिमतीनां श्रीकृष्णप्रेयसीनामासां प्रेमादयोऽमी भावाः किमेकजातीयाः किंवा भिन्नजातीयाः स्युस्तथा तासु तासु श्रीकृष्णस्य वा ते कीदृशा इत्यपेक्षायामाह— यस्या इति। स प्रेमा। एवं च समर्थरतिमतीनां श्रीकृष्णप्रेयसीनामानन्त्यमिव तत्प्रेमादीनामपि सूक्ष्मविचारेण जातेरानन्त्यं ज्ञेयम्, तथैव समर्थातः स्थूलत एव जातिभेदेन समञ्जसाया रतेः प्रेमादयस्तदतिदेशेन ज्ञेया यदुपरिष्टाद्वक्ष्यते—‘आद्या प्रेमान्तिमां तत्रानुरागान्तां
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दृष्टान्तेनैकस्य वस्तुनस्तस्यावस्थाभेदेन तारतम्यं बोधयति—बीजमिति। खण्ड इति। ‘स्यात् खण्डःशकले चेक्षुविकारमणिदोषयोः।’ इति विश्वप्रकाशकोशात् पुंस्त्वम्।उदीयत इत्येतत् ‘ईड्गतौ’ इत्यस्य दैवादिकस्य रूपम्॥५२॥५३॥
- २७ उज्ज्व०*
** तत्र प्रेमा—**
सर्वथा ध्वंसरहितं सत्यपि ध्वंसकारणे।
यद्भावबन्धनं यूनोः स प्रेमा परिकीर्तितः॥५७॥
** यथा—**
शपे तुभ्यं धर्मस्थितिमनुसरन्त्या सखि मया
विशुद्धामुग्राभिर्मुहुरपि निरस्तो भणितिभिः।
स मुग्धे श्यामात्मा त्यजति न हि मे वर्त्म बत मां
जगारापद्धोरा विरचयतु शान्ति गृहपतिः॥५८॥
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समञ्जसा।रतिभावान्तिमां सीमां समर्थैव प्रपद्यते॥” इति॥ उदीयत इति ‘ईड् गतौ’ इत्यस्य दैवादिकस्य रूपम्॥५६॥ प्रेमाणं लक्षयति— सर्वथेति। तथा हि प्रेमसंपुटे—‘लोकद्वयात् स्वजनतः परतः स्वतो वा प्राणप्रियादपि सुमेरुसमा यदि स्युः। क्लैशास्तदप्यतिवली सहसा विजित्य प्रेमैव तान् हरिरिभानिव पुष्टिमेति॥” इति ।भावेन त्वं मे प्रेयसी, त्वं मे प्रेयानिति मनोऽनुलापमय्यां प्रीतिरज्ज्वायूनोर्बन्धनं पारम्परिकमित्यर्थः॥५७॥ प्रेमपरीक्षणार्थ लोकधर्मादिभ्यो भीषयमाणां नान्दीमुखी प्रति पूर्वरागवती श्रीराधा प्राह— शपे इति। यदि त्वं मे वक्ष्यमाणं वाक्यं न प्रत्येषीति भावः। विशुद्धां धर्मस्थितिं धर्ममर्यादामनुसरन्त्यैव मयेत्यन्वयः।उग्राभिरपि भणितिभिः। अये लम्पट, यदि त्वं मे कञ्चुकीं स्पृशसि तदाधुनैव लज्जामपि त्यक्त्वा फूत्कृत्यार्या विज्ञापयिष्यामीति बिभीषिकामयीभिरपि वाग्भिरित्यर्थः। न त्यजतीति मुहुर्मुहुः स्फूर्तिः साक्षात्कारतया प्रतीता तस्मादापत्कर्त्री मां जगार गिलितवती। अत्र गृहपतिकर्तृकशान्तिरूपप्रेमध्वंसकारणस्य विद्यमानत्वेऽपि प्रेमा न ध्वस्तः। तथोग्रामिर्भणितिभिर्निरस्तोऽपीति श्रीकृष्णस्यापि स्वस्मिन् प्रेमा व्यञ्जितः॥५८॥
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॥५४॥५५॥५६॥५७॥ विशुद्धां धर्मस्थितिमित्यन्वयः। न त्यजतीति
यथा वा—
राधायाः सखि सद्गुणैरनुदिनं रूपानुरागादिभिः
सान्द्रां लब्धवतोरपि व्यसनितां व्याक्षिप्तकान्तान्तरैः।
प्राप क्वापि परस्परोपरि ययोर्न म्लानतां यस्तयो-
स्तं चन्द्रावलिचन्द्रकाभरणयोःको वेत्ति भावक्रमम्॥५९॥
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ध्वंसस्य कारणानि प्रपञ्चयितुमाह—यथा वेति। वृन्दा कुन्दलतां प्रत्याह— चन्द्रावलिश्चन्द्रकाभरणः श्रीकृष्णश्च तयोस्तं भावक्रमं प्रेमपरिपाचींको वेत्ति। न कोऽपीत्यर्थः। ययोर्द्वयोरेव यो भावक्रमः परस्परोपरि क्वापि कुत्राप्यवस्थायां काले देशे वा म्लानतां दौर्बल्यं न प्राप। म्लानेः कारणे प्रवले सत्यपीति भावः। म्लानिकारणमेव व्यञ्जयन्ती तौ विशिनष्टि— राधाया रूपानुरागादिभिः सद्गुणैः सान्द्रां व्यसनितां लब्धवतोरपि, चन्द्रावलीपक्षे व्यसनितां स्वापकर्षदृष्ट्या स्वसौभाग्यापगमसंभावनालक्षणां विपत्तिम्, श्रीकृष्णपक्षे श्रीराधाविषयिणीमासक्तिम्। ‘व्यसनं त्वशुभे सक्तौ पानस्त्रीमृगयादिषु। दैवानिष्टफले पापे विपत्तौ निष्क्रमोद्यमे॥” इति विश्वः। सद्गुणैः कीदृशैः। चन्द्रावलीपक्षे व्याक्षिप्तमाकृष्टं कान्तस्य श्रीकृष्णस्य हृदयं यैः, श्रीकृष्णपक्षे व्याक्षिप्तं तुच्छीकृतं कान्तान्तरमन्या कान्ता यैः। अत्र चन्द्रावल्याः श्रीकृष्णे प्रेमध्वंसकारणं तस्य श्रीराधायामत्यासक्तिः, तथा श्रीकृष्णस्यापि चन्द्रावल्यां प्रेमध्वंसकारणं श्रीराधाया रूपानुरागाद्याधिक्यम्। किं चैकस्यामासक्तौ सत्यामप्यन्यस्यां प्रेमेत्यनन्यममतेति सामान्यलक्षणा व्याप्तिर्नाशङ्कनीया तत्रानन्यममता विष्णोरित्यत्र विष्णुपदेन विष्णुस्वरूपमात्रस्य तदीयवस्तुनश्च ग्रहणात् ततश्च भक्तानां यथा श्रीविष्णुविषयके प्रेमणि श्रीविष्णुस्वरूपमात्रे तदीयवस्तुनि च तारतम्येन ममता तथैव श्रीकृष्णस्यापि भक्तविषयके प्रेमणि भक्तमात्रे तदीयवस्तुनि च तारतम्येन ममता युक्तैव। अन्यथा प्रेमवतां नारदादीनां विष्णुस्वरूपमात्रे व्रजसुन्दरीणां च सखीषु सुहृत्सु
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मुहुर्मुहुः स्फूर्तिः साक्षात्कारतया व्यञ्जिता॥५८॥ चन्द्रावलीपक्षे व्यसनितां दुःखिताम्, श्रीकृष्णपक्षे आसक्तताम्। पूर्वत्र व्याक्षिप्तमाकृष्टं कान्तस्यान्तरं हृदयं यैः। परत्र व्याक्षिप्तं तुच्छीकृतं कान्तान्तरमन्यकान्ता यैः॥५९॥
स त्रिधा कथ्यते प्रौढमध्यमन्दप्रभेदतः।
** तत्र प्रौढः—**
विलम्बादिभिरज्ञातचित्तवृत्तौ प्रिये जने॥६०॥
इतरः क्लेशकारी यः स प्रेमा प्रौढ उच्यते।
** यथा—**
गत्वा ब्रूहि निकुञ्जसद्मनि सखे खिन्नां मम प्रेयसीं
मा कालात्ययमाकलय्य कमले मय्यप्रतीतिं कृथाः।
दुष्टं दानवमत्र गोकुलशिरःशूलं चिकित्सन्नहं
द्रागेष प्रणयेन पल्लवमयीं लब्धोऽस्मि शय्यां तव॥६१॥
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च ममता नैव सिध्यतीति॥५९॥ स च प्रेमा उदाहरणदृष्ट्या नायिकाविषयको नायकविषयकश्चावसीयते। तत्र प्रथमस्य तस्य भेदानाह— स त्रिधेति। विलम्वादिभिरिति। आदिशब्दात्कदाचिदनागमनेन च प्रियजने नायिकारूपे अज्ञातचित्तवृत्तौ सतीतरस्य नायकरूपस्य जनस्य क्लेशकारी हन्त हन्त सा सुकुमारी न जानेऽद्य मद्विरहेण कीदृशं दुःखं प्राप्स्यतीति खेदोत्पादकः॥६०॥ कमलां संदिशन् श्रीकृष्णो मधुमङ्गलं प्रत्याह— गत्वेति। कालात्ययमद्य रजन्याः प्रथमायामाभ्यन्तर एवागमिष्यामीति यन्मयोक्तं तथैव त्वामभिसर्तुमुद्यत एव मयि संप्रत्यरिष्टासुर आयातः अतोऽनेन सह संग्रामादिना ममाद्य कालातिक्रमो भवेदित्यर्थः। चिकित्सन्निति वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवत्त्वम्। चिकित्सितवानित्यर्थ। लब्धोऽस्मीति भविष्यत्यपि भूतप्रयोगः स्वागमनस्यातिशैघ्र्यव्यञ्जकः। अत्र दुष्टदानवकृतस्यान्तरायस्यागणनं प्रेमलक्षणं स्वविलम्बनिबन्धनस्य कमलादुःखस्य स्वासह्यत्वेनमधुमङ्गलप्रेषणं प्रेम्णः प्रौढत्वलक्षणम्॥६१॥
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॥६०॥ गत्वा ब्रूहीत्यादिषु श्रीकृष्णप्रेमात्र दुष्टदानवकृतबाधत्वादिनाप्यनपगमात्। अस्य वर्णनं तूद्दीपनार्थमिति व्याख्यातमेव। लीलेयं त्वित्थं संगच्छति(ते)— अरिष्टनामा दानवोऽयं यदा मथुरातश्चलितुमुद्यतस्तदैव तं कुतोऽप्यवगत्य तेन कमलां प्रति गत्वा ब्रूहीत्यादिना संदिष्टम्।सा खलु पूर्व तेन दत्तप्रत्याशासीदिति
** अथ मध्यः—**
इतरानुभवापेक्षां सहते यः स मध्यमः॥६२॥
** यथा—**
सर्वारम्भमनोहरां सपदि मे चन्द्रावलीं विन्दतो
रङ्गः शारदशर्वरीसमुचितः पर्याप्तिमेवाययौ।
तां कन्दर्पचमूचमत्कृतिकरक्रीडोर्मिकिर्मीरितां
राधां हन्त तथापि चित्तमधुना साक्षान्ममापेक्षते॥६३॥
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इतरस्या अपि कान्ताया आ सम्यक्प्रकारामनुभवापेक्षां सहत इति सः।समासवृत्त्यन्तर्भूतादपिकारात् स्वविषयकान्तायाश्च सम्यगनुभवापेक्षणान्मन्दे प्रेमणि नातिव्याप्तिः, नातिप्रौढे प्रेमण्यतिव्याप्तिः। इतरक्लेशकारीति ताच्छील्यार्थकणिनिप्रत्ययश्रवणात्तद्विषयीभूतकान्ताविरहिणो नायकस्य क्लेशावश्यकत्वावगमात् मध्यप्रेमविषयीभूतकान्ताविरहिणो नायकस्य त्वन्यकान्तानुभवसंभवात् क्लेशस्य नैवावश्यकत्वम्। अत एव विदग्धमाधवादौ चन्द्रावलीविरहिणः श्रीकृष्णस्य श्रीराधानुभवे सति क्लेशापगमो दृष्टः श्रीपञ्चाध्याय्यामपि सर्वकान्ताविरहेऽपि श्रीराधासङ्क्षिनः श्रीकृष्णस्य न क्लेशगन्धोऽपि। श्रीराधाविरहिणः श्रीकृष्णस्य तु सर्वकान्तासङ्गेऽपि क्लेश एव। यदुक्तं श्रीमज्जयदेवचरणैः—‘राधामाधाय हृदये तत्याज व्रजसुन्दरीः।’ इति, ‘इतस्ततस्ताम्’ इत्यादि च॥६२॥ चन्द्रावलीं संभुञ्जानः श्रीकृष्णः स्वगतमाह— सर्वारम्भेति। अत्र श्रीराधाविषयासक्तिसद्भावेऽपि चन्द्रावल्यां मध्यमप्रेमेति मध्यमलक्षणं तत्संभोगसमयेऽपि तां कन्दर्पेत्यादिना श्रीराधामाधुर्यानुस्मरणमिति प्रेम्णो मध्यमत्वम्। पूर्वत्र कमलायां तु प्रौढ एव तस्या राधाप्रियसखीत्वात्, श्रीराधयैव प्रीत्याभिसारितत्वात् तस्यां श्रीराधाजातीयसुखानुभवात्तत्संभोगे चन्द्रावल्यादेर्न स्मरणसंभवः श्रीराधायाः स्मरणसंभवेऽपि तस्यास्तद्यूथेश्वरीत्वेन तदैक्यात्तदितरत्वाभावात्। यदुक्तम्—इतरानुभवापेक्षां स इत इति। तदेवं श्रीराधायां तत्सखीषु च प्रेम्णःप्रौढत्वमात्यन्तिकं
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॥६१॥६२॥ सर्वारम्भेत्यत्र च प्रेमलक्षणमनुगतमेव। तादृशश्रीराधा-
अथ मन्दः—
सदा परिचितत्वादेः करोत्यात्यन्तिकात्तु यः।
नैवोपेक्षां न चापेक्षां स प्रेमा मन्द उच्यते॥६४॥
** यथा—**
अनुनीय रूढमानामानय भामां सखीमशोकलताम्।
भवति प्रेमवतीनां मनागुपेक्षापि दोषाय॥६५॥
** अथवा—**
प्रौढःप्रेमा स यत्र स्याद्विश्लेषस्यासहिष्णुता।
** यथोद्धवसंदेशे—**
निर्माय त्वं वितर फलकं हारि कंसारिमूर्त्या
वारं वारं दिशसि यदि मां माननिर्वाहणाय।
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चन्द्रावल्यादिष्वापेक्षिकं प्रौढत्वं मध्यमत्वं चेति विवेचनीयम्॥६३॥ सदा परिचितत्वादेरिति। आदिशब्दात् सदा सांनिध्यमपि ज्ञेयम्। एतच्च लोकोक्तरीत्यैवोक्तं वस्तुतस्तूपेक्षापेक्षयो राहित्ये जातिप्रमाणाभ्यां प्रेम्णो मान्द्यमेव कारणम्, तस्य च नायिकानिष्ठं प्रेमसान्द्यमिति॥६४॥ अस्योदाहरणं व्रजभूमावसंभवमिति द्वारकायामुदाहरति— अनुनीयेति। काचित् पुरोहितपत्नी श्रीकृष्णं प्रत्याह—भामासखी सत्यभामायाः सखीमिति। तामपेक्ष्यापि एषा त्वयावश्यमेवादरणीयैवेति भावः॥६५॥ श्रीकृष्णस्य प्रेयसीविषयान् प्रेमभेदान् दर्शयित्वा प्रेयसीनामपि श्रीकृष्णविषयांस्तान् दर्शयितुमाह—अथवेति। यत्र यत्र सति।मानं मा शिथिलयेत्युपदिशन्तीं ललितां प्रति श्रीराधा प्राह— निर्मायेति। फलकं चित्रपटं वितर देहि। यत्पश्यन्ती सती साहंकारा अहं
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प्रेमणि व्यवधायकेऽपि मिथोऽनुगत्य परित्यागात्॥६३॥ अनुनीयेत्यत्रापि सपत्न्यन्तरजातबाधत्वंज्ञेयम्॥६४॥६५॥ अथ साक्षादेव तासां प्रेमभेदा वर्णनीया इत्यभिप्रेत्याह— अथवेति।‘प्रियसखि सुखं यापयिष्यामि यामम्’ इत्यत्र’लवकतिपयं यापयिष्यामि कालम्’ इति पाठान्तरं लभ्यम्। फलकं
यत्पश्यन्ती भवनकुहरे रुद्धकर्णान्तराहं
साहंकारा प्रियसखि सुखं यापयिष्ये मुहूर्तम्॥६६॥
कृच्छ्रात्सहिष्णुता यत्र स तु मध्यम उच्यते॥६७॥
** यथा—**
अवितथमसौ किं द्राघीयान् गमिष्यति वासरः
सुमुखि स निशारम्भः किं वा समेष्यति मङ्गलः।
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महामानिनीति त्वां सुखयितुं गर्वधारिणी मुहूर्त यापयिष्ये। पश्यन्तीति वर्तमाननिर्देशेन चित्रदर्शनस्यापि विच्छेदेनैव तत्रापि भवनकुहर एव न तु बहिर्दक्षिणानिलाम्बुदाद्युद्दीपनविभावग्रस्ते। तत्रापि रुद्धकर्णरन्ध्रेव मुरली। कोकिलादिभीतेरिति भावः। तत्रापि मुहूर्तमेव तेन तदनन्तरमपि पुनर्मानं कुर्विति यद्यादेक्ष्यसि तदाहं मरिष्याम्येव। किं वाहमुन्मत्ता त्वामनादृत्य एकाकिन्येवाभिसृत्य कण्ठे लगिष्यामीति व्यञ्जयामास। अत्र सखीकृतविघ्नातिक्रमात् प्रेमा सच विश्लेषासहनात् प्रौढः॥ ६६॥६७॥ काचित् स्वसखी प्रत्याह—अवितथं सत्यमेव किमसौ गमिष्यतीति ब्रूषे तत्सत्यमेवेत्यर्थः।द्राघीयानतिदीर्घो निशारम्भः स मङ्गल इति वासरस्यामङ्गलत्वं सूचयति। अत्र प्रहरचतुष्टयस्य स्थूलकालस्य कृच्छ्रेण सह्यमानत्वभावेनैव प्रेम्णो मध्यमत्वव्यञ्जिका। अत्र द्वितीयपदे ‘यदि पुनरसावात्मा तावन्न यास्यति हन्त मे’, तथा चतुर्थे पादे ‘सुमुखि सदृशामार्ति कृष्णस्तदा क्षपयिष्यति’ इत्युक्ते सत्यसहिष्णुत्वेन प्रौढत्वमेव स्यात्। यथा विदग्धमाधवे—‘नालीकिनीं निशि घनोत्कलितामशङ्कं क्षिप्त्वा वृतीरतनुवन्यगजः क्षुणत्ति। अनानुरागिणि चिरादुदितेऽपि भानौ हा हन्त किं सखि सुखं भविता वराक्याः॥” इति। अत्र व्रजेश्वरस्य नन्दन इत्यनेन तस्य परपुरुषत्वात्तदासक्त्यालोकधर्मनिन्दारूपे ध्वंसकारणे सत्यपि प्रीतेर्ध्वसाभावः प्रेमलक्षणं
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*चित्राधारम्॥६६॥६७॥ **द्राघीयानिति।*दीर्घोऽसौ वासरः किमवितथं सत्यमेव गमीष्यतीति यद्ब्रूषे तत् किं सत्यमित्यर्थः। मङ्गलत्वमेव दर्शयति—
स्मितमुखशशी गोधूलीभिः करम्बितकुन्तलः
क्षपयति दृशामार्ति यत्र व्रजेश्वरनन्दनः॥६८ ॥
स मन्दःकथितो यत्र भवेत्कुत्रापि विस्मृतिः।
** यथा—**
प्रतिपक्षजनेर्षया न मे स्मृतिरासीद्वनमाल्यगुम्फने।
सखिकिं करवै गवां पुरो घनहम्बाध्वनिरेष जृम्भते॥६९॥
** अथ स्नेहः—**
आरुह्य परमां काष्ठां प्रेमा चिद्दीपदीपनः॥७०॥
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ज्ञेयम्॥६८॥कुत्रापि कस्मिन्नप्यावश्यककर्तव्ये श्रीकृष्णसंबन्धिनि वस्तुनि विषय इत्यर्थः। काचित् सखीप्रत्याह— प्रतीति। अत्र वनमालागुम्फनस्य श्रीकृष्णसुखप्रयोजनकत्वेनान्तरङ्गत्वात् प्रतिपक्षजनविषयिण्या ईर्ष्यायास्तु रसपोषकत्वेऽपि तदपेक्षया बहिरङ्गत्वाद्बहिरङ्गवस्तुनः स्मृतिरन्तरङ्गवस्तुनो विस्मृतिरिति प्रेममान्द्ये युक्तिः। तथात्रेर्ष्यैव प्रेमध्वंसकारणं तस्यां सत्यामपि प्रेमेति प्रेमलक्षणम्॥६९॥काष्ठामुत्कर्षम्।चिच्छब्देन प्रेमविषयोपलब्धिरुच्यते। ‘प्रेक्षोपलब्धिश्चित्संवित्’ इत्यमरः।सा चिदेव दीपस्तं दीपयति उद्दीप्तं करोतीति। तेन प्रेमणि उपलब्धिरासीदेव स्नेहे तूपलब्धेरत्याधिक्ये घृतादिसद्भावे दीपस्यौष्ण्यप्रकाशयोराधिक्ये मदनस्य सम्यगभिद्रवीभाव इव हृदयस्यातिद्रुतत्वमित्यर्थः
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स्मितमुखेति। तत्र तस्य दर्शनमात्रेण स्वसुखं व्यञ्जितम्। न तु स्वंप्रति प्रेमविशेषः। ततस्तदौदासीन्यरूपे ध्वंसकारणे सत्यपि तस्मिंस्तु स्वासक्त्या प्रेमापि व्यञ्जितः॥६८॥कुत्रापीति। श्रीकृष्णसंबन्धान्तरेणेति ज्ञेयम्। प्रतिपक्षजनःखल्वत्र विजातीयभावस्तत्प्रेयसीरूपो न तु साधारणः। तासां व्यवहारान्तरानावेशात्। ततो ध्वंसकारणरूपायां सत्यामपि तदीर्ष्यायांध्वंसरहिता रतिरियं प्रेमैव। तस्य राहित्यंचानुतापात् प्रतीतम्। तत्र च सति तदुत्थयापि नातियुक्त्यातदीर्ष्यावशतया वा प्रियमाल्यकृतौ मुखे विकाशरूपाया जृम्भाया अन्यत्राप्यारोपात्॥६९॥आरुह्य परमां काष्ठामिति। क्षयराहित्यं दर्शितम्।
हृदयं द्रावयन्नेष स्नेह इत्यभिधीयते।
अत्रोदिते भवेज्जातु न तृप्तिर्दर्शनादिषु॥७१॥
** यथा क्रमदीपिकायाम्—**
तदतिमधुररूपकम्रशोभामृतरसपानविधानलालसाभ्याम्।
प्रणयसलिलपूरवाहिनीनामलसविलोलविलोचनाम्बुजाभ्याम्॥७२॥
** यथा वा—**
ज्योत्स्नाशीधुंहरिमुखविधोरप्यनल्पं पिबन्तौ
नान्तस्तृप्तिं तव कथमपि प्राप्स्यतो हक्ककोरौ।
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॥७०॥७१॥ भक्तिप्रतिपादकागमो माधुर्योपासकान् प्रति स्मरणं विदधदाह— तदिति। अलसे प्रेममदातिभारवहनेनालस्ययुक्तेविलासेन विलोले तत्सौन्दर्यलोलुपत्वेन चञ्चले ये विलोचनाम्बुजे ताभ्यां प्रणयसलिलपुरवाहिनीनां सुललितगोपसुन्दरीणामालीभिः सततं मुकुन्दं चिन्तयेदिति पूर्वेणैवान्वयः। ताभ्यां कीदृशाभ्याम्। तस्य श्रीकृष्णस्यातिमधुरं यद्रूपमङ्गप्रत्यङ्गसौष्ठवं तस्य या कमनीयशोभा सैवामृतरसस्तस्य पानविधानेनालसैव न तु तृप्तिर्ययोस्ताभ्याम्। अत्र प्रणयसलिलेत्यादिना हृदयद्रवस्तथा तदत्तीत्यादिना तृप्त्यभावश्च स्नेहलक्षणं प्रेमलक्षणं चात्रोपरिष्टादपि सर्वत्र लोकधर्मनिन्दारूपे ध्वंसकारणेऽपि ध्वंसाभाव इति ज्ञेयम्॥७२॥ तास्वपि मध्ये श्रीवृन्दावनेश्वर्याः स्नेहं विशिष्य वर्णयितुमाह—यथा वेति। वृन्दा श्रीराधामाह—ज्योत्स्नेति। मदकलतया मत्ततया।
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ततश्चिद्दीपस्य तद्दीपनत्वस्य च परिच्छेदो व्यञ्जितः।चिदप्यत्र प्रेमविषयोपलब्धिः। ‘प्रेक्षोपलब्धिश्चित् संवित्’ इत्यमरः। तदेवं स्नेहरूपकेण दर्शयित्वा स्नेहसाजात्येन दर्शयति— हृदयं द्रावयन्निति। अथास्य तटस्थलक्षणमाह— अत्रेति॥७०॥७१॥ अलसविलोलविलोचनाम्वुजाभ्यां प्रणयसलिलपुरवाहिनीनां सुललितगोपसुन्दरीणामालीभिः सततं मुकुन्दं संचिन्तयेदिति पूर्वेण परेण चान्वयः। ताभ्यां कीदृशाभ्याम्। तत्राह—तदतिमधुरेति। तत्रालस्यं प्रेममदेन तथापि विलोलत्वंतदुपलब्धये चापल्येन। रूपमवयवानां प्रेमणि सौष्ठवम्।शोभा कान्तिः। मधुरत्वं कम्रत्वं च मनोहरमेव गम्यम्। प्रेमत्वंचात्र तत्स्पर्शाद्यप्राप्तावपि रतिग्लान्यभावात्। स्नेहत्वं प्रणयसलिलेत्यादिना हृदयद्रवत्वव्यञ्जितत्वात्॥७२॥ मदकलतया मत्ततया। तं ज्योत्स्नाशीधुम्। अत्र तृप्ति-
आघूर्णन्तौ मदकलतया सुष्ठु मुग्धौ यदेतौ
भूयो भूयस्तमिह वमतो बाष्पपूरच्छलेन॥७३॥
अङ्गसङ्गे विलोके च श्रवणादौ च स क्रमात्।
कनिष्ठो मध्यमः श्रेष्ठस्त्रिविधोऽयं मनोद्रवः॥७४॥
** तत्राङ्गसङ्गे यथा—**
असि घनरसरूपस्त्वं पाली लावण्यसारमयमूर्तिः।
माधव भवदाश्लेषे भविता नास्याः कथं द्रवता॥७५॥
** विलोके यथा—**
अस्यास्त्वद्वदने सरोजसुहृदि व्यक्तिं पुरस्ताद्गते
नाश्चर्यं द्रवतामविन्दत मनोहैयङ्गवीनं यदि।
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तं ज्योत्स्नासीधुम्। सुष्ठुमुग्धाविति। एवं चावयोस्तृप्तिर्नैव भाविनीति।परिणामदर्शित्वाभावादिति भावः। वमत इति। वमनं विना उदरपूर्तिः स्यात्, सत्यां चोदरपूर्तौपानाशक्तेरिति भावः। तेन चातिलोभो व्यञ्जित॥७३॥ अङ्गसङ्गेकनिष्ठ इति। विलोकश्रवणयोर्द्रवभावे सत्येवेति ज्ञेयम्। यस्याः पुनस्तयोरपि चित्तद्रवस्तस्या अङ्गसङ्गेऽपि श्रेष्ठएवं विलोके मध्यम इति श्रवणे यदि न स्यादिति॥७४॥ पाल्याः सखी श्रीकृष्णमाह— असीति। घनरसो निविडो रस पक्षे जलम्। लावण्यं कान्तिचाकचक्यम्, पक्षे लवणत्वं सारो यस्य लवणाख्यवस्तुनः। तन्मयी मूर्तिर्यस्या सा॥७५॥ श्यामायाः सखी बकुलमाला श्रीकृष्णं प्रत्याह— अस्या इति। सरोजसुहृदि कमलतुल्ये, पक्षे सूर्ये।
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रूपविघ्नातिक्रमेण प्रेम बोधयित्वा तस्य वाष्पातिशयेन स्नेहत्वमपि दर्शितम्। एवमन्यत्र शब्दादिवलेनाध्याहारेण वा तत्तदङ्गानि पूरयितव्यानि॥७३॥ लावण्यं कान्तिचाकचक्यमेव सारो यस्य तादृशस्य, पक्षे लावण्यं लवणतैव सारो यस्य लावण्याख्यवस्तुनः।तन्मयमूर्तिः॥ ७४॥७५॥ सरोजसुहृदि कमलतुल्ये
किंत्वाश्चर्यमिदं मुकुन्द मिलिते श्यामामुखेन्दौ भव-
च्चेतश्चन्द्रमणिर्द्रवन् जलतया भूयो बभूवाचलः॥७६॥
** श्रवणे यथा—**
श्रुतिपरिसरकक्षां याति नाम्नस्तवार्धे
मुरदमनदृगम्भोधारया धौतगात्री।
मदनमदमधूलीमुग्धमेधासमृद्धिः
स्खलति कुवलयाक्षी जृम्भते स्तम्भते च॥७७॥
** आदिशब्देन स्मरणे यथा—**
कृष्णवर्त्मनि कृताभिनिवेशा सांप्रतं त्वमसि कम्पितगात्री।
स्नेहपूरपरिपाकमयं ते किं करिष्यति मनो न विलीनम्॥७८॥
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श्यामाविषयकं श्रीकृष्णस्यापि स्नेहं वर्णयन्त्याह—किंत्विति। जलतया द्रवन् भूयः अचलः स्तब्धो बभूव, पक्षे पर्वतः तेन श्यामाश्रीकृष्णयोः स्नेहाशेन तुल्यत्वेऽपि स्तम्भभावाधिक्यात् श्रीकृष्णस्याधिक्यं ततश्च श्यामायाः सौभाग्याधिक्यम्। अन्यतो लक्षणं व्यञ्जितम्॥७६॥ विशाखा श्रीकृष्णमाह— दृगम्भ इति। स्नेहलिङ्गं मनोद्रवस्यानुभावो नयनद्रवः सर्वत्र ज्ञेयः। मदनमद एव मधुली मधु तया मुग्धा मूढा लुप्तविवेका मेधासमृद्धिर्बुद्धिवैभवं यस्याः सा॥ ७७॥ अकस्मादश्रुजलस्नाताननां श्रीराधां विलोक्य नान्दीमुख्याह— कृष्णवर्त्मनि वह्नौ, पक्षे श्रीकृष्णाध्वनि। यतः कम्पितगात्री शीतनिवृत्त्यर्थमिति भावः। पक्षे कम्पः सात्त्विकः। एतादृशं मनःकथं न विलीनं भविष्यतीति। वह्नौ प्रज्वलिते सतीति भावः। अतस्तत्र त्वया सावधानतया स्थातव्यमिति व्यञ्जितम्। पक्षे तव बहिर्गतैरश्रुप्रवाहैरेवान्तर्मनसो द्रवातिशयोऽनुमीयत इति भावः॥७८॥
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श्लेषेण सूर्ये जलतया द्रवन् भूयोऽचलः स्तब्धो बभूव। श्लेषेण पर्वतो बभूव। ‘अत्रास्या’ इति च पाठान्तरम्॥७६॥ कृष्णवर्त्मनि, कृष्णाध्वनि श्लेषेणाग्नौ
स घृतं मधु चेत्युक्तः स्नेहो द्वेधा स्वरूपतः।
** तत्र घृतस्त्रेहः—**
आत्यन्तिकादरमयः स्नेहो घृतमितीर्यते॥७९॥
भावान्तरान्वितो गच्छन् स्वादोद्रेकं न तु स्वयम्।
घनीभवेन्निसर्गतिशीतलान्मिथ आदरात्॥८०॥
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अथ तस्यैव स्नेहस्य जातिभेदेनास्वादविशेषान्नामभेदमाह—स इति। स स्नेहो घृतं घृतसाम्यात्, मधु च मधुसाम्यादिति। अत्र स्नेहशब्देन चित्तद्रवरूपस्यार्थस्योक्तत्वात् द्रवस्य च द्रववता घृतेन मधुना च वस्तुना साम्यानुपपत्तेर्घृतस्य मधुनश्चोक्तः। स स्नेहो द्विविधः—स्वत इति। वक्तुं युज्येत। तथा सति कस्याश्चिद्धृततुल्यस्य द्रवः, कस्याश्चिन्मधुतुल्यस्येति चित्तस्यैव जातिभेदात् स्नेहस्यापि जातिभेद इति सुष्ठुसंगच्छते यद्यपि तदपि यथा पक्वस्य वस्तुन एवं स्वादुत्वेऽपि पाकोऽयमनेनातिस्वादु कृत इति तत्क्रियाया एव वैलक्षण्यविवक्षयोच्यते। तथैव चित्तद्रवरूपस्य स्नेहस्यैव वैलक्षण्यं विवक्षुणा ग्रन्थकृता तस्यैव द्वैविध्येन स्वादनार्थ स्नेहो घृतमिव स्वादुर्मध्विव स्वादुरित्युक्तम्।यथाद्यानेन पाकोऽमृतमिव कृत इति धर्मस्यापि धर्मिणा साम्यमुपपाद्यत एवेति॥ **आत्यन्तिकेति।**तेन मधुस्नेहत्वापेक्षिकःकिंचिन्मात्र आदरोऽस्त्येव। स्वसखीभ्यस्तत्प्रियसखिभ्यः सुवलादिभ्यश्च सकाशात्तस्मिन्नादरः किंचिदधिकः श्रीराधाया अपि भवेदिति द्योतितम्॥ तस्य घृतसाधर्म्य दर्शयति—भावान्तरं मदरूपस्यौष्ण्यस्य किंचिन्मा-
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॥७७॥७८॥ आत्यन्तिकेति। मधुस्नेहेऽप्यादरोऽस्त्येवेति व्यज्यते॥ यद्यपि रतिमात्रमेव परममधुरत्वेन पूर्वग्रन्थमारभ्य निर्दिष्टं तत्रापि माधुर्यातिशयविवक्षया रतेरस्या मधुरेति संज्ञा कृता। तथापि ततोऽपि परममधुरस्नेहास्वादिश्रीराधाललितादिदृष्ट्यात्यन्तिकादरमयस्यास्य नातिरोचमानत्वं यत्तदनुस्मृत्याह— भावान्तरेति। भावान्तरमत्रकादाचित्को मधुस्नेहाभासः। तस्मात्तस्यैवोत्कृष्टत्वात्। तदेवं ललनाश्रयात्यन्तिकादरस्तस्याङ्गमेवेत्युक्तम्। तत्र च सति यदा नायकस्यापि तद्विषय आदरो दृश्यत्वात् जहदजहल्लक्षणया ललनाश्रयात्यन्तिकादरसयोगिनायिकादरात् घनीभवेत्। किंतु नायकस्याप्यादर आत्यन्तिक एवेष्टः।
गाढादरमयस्तेन स्नेहः स्याद्धृतवद्धृतम्।
** यथा—**
अभ्युत्थाय विदूरतो मधुभिदा याश्लिष्यते सादरं
या स्नेहेन वशीकरोति गुरुणा पावित्र्यपूर्णेन तम्।
क्षिप्रं याति सितोपलेव विलयं तत्केलिवृष्ट्या च या
युक्ता हन्त कयोपमातुमपि सा चन्द्रावली मे सखी॥८१॥
** यथा वा—**
निजमघरिपुणांसे न्यस्तमाकृष्य सव्यं
भुजमिह निधाना दक्षमस्रोक्षिताक्षी।
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त्राविष्कारात् मधुस्नेहाभास एव घृतपक्षे तेनान्वित एव भावः शर्करादिद्रव्यं स्वादस्योद्रेकमिति केवलस्यापि घृतस्य स्वादमात्रं त्वस्त्येवेति भावः। मिथ आदरात् नायकयोः परस्परगौरवाविष्कारात् घनीभवेन्निबिडत्वं प्राप्नोति। अन्यथा असान्द्रः स्यादिति भावः॥७९॥८०॥ युवतिसभासु सौभाग्यप्रस्तावे ललिताद्याः कटाक्षयन्ती पद्माह— अभ्युत्थायेति। गुरुणेति। स्नेहस्य प्रमाणत आधिक्यं पावित्र्यपूर्णेनेति जात्याच मदोष्णताराहित्यमेवात्र पावित्र्यमिति मधुस्नेहं प्रत्यसूयां व्यञ्जयति। सितोपला ओलेति ख्याता विलयं द्रवीभावं यातीति चित्ततन्वोरेकीभावविवक्षयोक्तिः॥८१॥ घृतस्नेहवतीनां विलासादावपि श्रीकृष्णविषयकमादरमभिनयेन स्पष्टं वक्तुमाह—यथा वेति। रासे एकत्र
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मिथःशब्देन साम्याप्राप्तेः। कीदृशात्।निसर्गेण स्वभावेनातिशीतलात्। नायकस्य ललनायामादरःस्वभावशीतलतयैव युक्तो न तु ललनावन्मानादावुष्णतांशधरोऽपीति भरतादिमतत्वादिति भावः। तेन हेतुना गाढादरमयः स्नेहोऽयं घृतवदिति घृतमेव स्यात्। घृततया परिभाष्यत इत्यर्थः॥७९॥८०॥ पावित्र्यपूर्णेन मदोष्मतादिदोषरहितेनेति तत्सख्या मधुस्नेहं प्रत्यसूयोक्तिः। सितोपलेत्यस्माभिर्गाहितमानतया कठिनीकृतापीत्यर्थः। सितोपला मत्स्यण्डी।सा च शुभ्रुसैन्धवाकारः खण्डविकारः॥८१॥ तदेवं तत्सखीवचनद्वारा तत्स्नेहोत्कर्षमुक्त्वा मधुस्नेहस्य तस्य ततोऽप्युत्कर्ष श्रीराधासख्यनुभवेनाह— निजमिति।
पदयुगमपि वङ्कंशङ्कया विक्षिपन्ती
प्रतियुवतिवयस्यां स्मेरयामास गौरी॥८२॥
आदरो गौरवोत्थः स्यादित्यन्योन्याश्रितद्वयम्॥८३॥
रत्यादौ सदपि स्नेहे सुव्यक्तत्वादिहोच्यते।
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नर्तित्वापुनरपि मण्डलान्तरे नर्तितुं श्रीकृष्णेन नीयमानां चन्द्रावलीं वर्णयन्ती वृन्दा नान्दीमुखी प्रत्याह—अघरिपुणा श्रीकृष्णेनांसे स्कन्धे न्यस्तं सव्यं भुजं निजमाकृष्य अमङ्गलमिमं सदीयवामभुजं कथं प्रियस्य स्कन्धेऽर्पयामीति तदंसादपनीय इह प्रियांसे दक्षं दक्षिणं भुजं निदधाना प्रियस्य दक्षिणपार्श्वाद्वामपार्श्वमागत्येत्यर्थः। तथैव दक्षिणभुजार्पणसिद्धेः। तथागमने च स्वपदयुगं वङ्कं‘वकि कौटिल्ये’ कुटिलं कृत्वेयर्थः। शङ्कया कदाचित् प्रियस्याङ्गेमम पादस्पर्शः स्यादिति भीत्येत्यर्थः। प्रतिपक्षयुवतिवयस्यां श्रीराधासखी काचिद्दूरतः पश्यन्तीं स्मेरां चकार॥८२॥ नन्वादरस्य को हेतुस्तत्राह— गौरवादुत्तिष्ठतीति सः। ननु गौरवस्यापि कोत्र हेतुः श्रीकृष्णस्य परपुरुषत्वाच्चन्द्रावल्याः श्रीकृष्णे गुरुरयमिति बुद्धिर्नोपपद्यते यतो गौरवः स्यादित्याह—इत्यन्योन्येति। श्रीकृष्णस्य
सर्वव्रज आदृतत्वादादरोत्थमेव गौरवमिति। स्वयमन्योन्याश्रितमेव। नन्वेवं चेद्रतिप्रेम्णोरप्यादरस्य सत्त्वं संभवेदेव सत्यमित्याह— रत्यादाविति। अयमर्थः—अतिपरिचितत्वेऽपि यद्यादरः स्थिरीभवति तदैव स गण्यत इति प्रेम्णोः
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*वङ्कंवक्रम्। ‘वकि कौटिल्ये’।स्वेषामेव प्रतियुवतिवयस्यात्वेऽपि प्रतियुवतीति स्वतो भिन्नत्वेनोक्तिः स्वेर्ष्यागोपनाय। तदेतदनुवादमात्रमस्माभिः क्रियते इत्यभिप्रायात्। स्मेरयामासेत्यत्र स्मारयामासेत्येव पाठ सभ्यः॥८२॥ नन्वादरः कस्तत्राह—**आदर इत्यर्धेन।*गौरवं गुरुरयमिति बुद्धिः। तदुत्थो यो भावःसंभ्रमाख्यः स एवादर उच्यत इत्यर्थः। तर्हि गौरवमपि कथं नोच्यते तत्राह— इति पूर्वोक्ताद्धेतोः। द्वयमप्यन्योन्याश्रितं तस्मादादरेणैव तल्लभ्यत इति न पृथगुच्यत इति भावः। ननु तदिदं द्वयं तासां रत्यादावस्त्येव। कारणगुणा हि कार्यगुणमारभन्त इति न्यायेन। ननु तर्हि कथं स्नेह एव तदुच्यते। तत्राह—रत्यादाविति॥८३॥ मदीयत्वातिशयभागित्यनेनेदं लभ्यते—
अथ मधुस्नेहः—
मदीयत्वातिशयभाक् प्रिये स्नेहो भवेन्मधु॥८४॥
स्वयं प्रकटमाधुर्यो नानारससमाहृतिः।
मत्ततोष्मधरः स्नेहो मधुसाम्यान्मधूच्यते॥८५॥
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श्रीकृष्णस्यातिपरिचितत्वाभावात्तत्र सन्नप्यादरो न प्रतीत्यर्ह इति तत्र नोक्तम्, स्नेहे त्वतिपरिचितत्वेऽपि श्रीकृष्णे चन्द्रावल्या आदरस्य वृद्धिरेव दृश्यत इति सुव्यक्तत्वम्॥८३॥ मदीयत्वातिशयं भजतीति सः। तेन तदीयत्वातिशयभाग् घृतस्नेह इति लभ्यते। यद्भावबन्धनं यूनोरित्युक्तं तद्वन्धनं च तस्याहं प्रेयसी, मम स प्रेयानिति भावनाद्वयमयम्। तत्राद्यभावनाया आधिक्ये सति चित्तद्रवे घृतस्नेहः, द्वितीयभावनाया आधिक्ये सति चित्तद्रवे मधुस्नेहः। वस्तुतस्तूभयत्रैवोभयं संतततमं भूम्नाव्यपदेशा भवन्तीति न्यायेनैव तदीयतामयो घृतस्नेहः, मदीयतामयो मधुस्नेह इत्युच्यते। भावनयोरनयोः कारणं तु स्वपक्षविपक्षादिभेदप्रकरणे विवृतमेव॥ स्वयमेव प्रकटं माधुर्य यत्रेति घृतस्नेहे घृते च यथा भावान्तरसंपर्केणैव माधुर्य तथा नेत्यर्थः। नानारसानां वक्ष्यमाणकौटिल्यनर्मादिभेदेन मधुपक्षे नानापुष्पसंबन्धिनां समाहारो यत्र सः।मत्तता तदानन्दादिभरेण वस्त्वन्तरानवधानमूष्मा गर्वश्च तौ धरत इति सः, पक्षे मधुपाने मत्ततौष्ण्ये
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रत्युद्भवो हि द्विधा भवति। तदीयाहमिति, मदीयःस इति भावनाभेदात्। तस्मात् पूर्व यो घृतस्नेह उक्तः स तदीयाहमिति भावनामयः, मधुस्नेहस्त्वयं मदीयः स इति भावनातिशयमयः। अतिशयशब्दः(?) पूर्वत्रापि यत्किंचित् मदीयत्वभावनास्तु नाम तदीयतातिशयेनावृतत्वात्तु न गण्यत इति भावः। तदेवं पूर्वत्र य आदरातिशय उक्तस्तस्यापि तदीयताभावनमेव कारणमिति व्यञ्जितम्॥८४॥ नानारसेति। नानारसानां घृतस्त्रेहदुष्प्रापवक्ष्यमाणललिताख्यादीनां भावानां समाहृतिः सूक्ष्मतया स्थितिर्यत्र सः। सर्वेऽपि रसनाद्रसा इत्युक्तत्वात् भावानामपि रसत्वापत्तेः, पक्षे रसानां तत्तत्पुष्पभेदेन नानात्वम्। मत्तता आनन्दविकारः। ऊष्मा व्याख्यास्यते। तद्धरस्तदर्पकः॥८५॥ उरुगुणैर्ल
** यथा—**
राधास्नेहमयेन हन्त रचिता माधुर्यसारेण सा
सौधीव प्रतिमा घनाप्युरुगुणैर्भावोष्मणा विद्रुता।
यन्नामन्यपि धामनि श्रवणयोर्याति प्रसङ्गेन मे
सान्द्रानन्दमयी भवत्यनुपमा सद्यो जगद्विस्मृतिः॥८६॥
** अथ मानः—**
स्नेहस्तूत्कृष्टतावाप्त्यामाधुर्य मानयन्नवम्।
यो धारयत्यदाक्षिण्यं स मान इति कीर्त्यते॥८७॥
** यथा—**
स्रवदस्रभरे कृते दृशौ मे तव गोधूलिभिरेव गोपवीर।
अधुना वदनानिलैः किमेभिर्विरमेति भ्रुकुटिं बभार सुभ्रूः॥८८॥
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प्रसिद्धे एव॥८५॥ श्रीकृष्ण सुबलमाह—राधेति। सौधी सुधासंबन्धिनी घना सान्द्रा। अतिनिबिडेत्यर्थः। तदपि विद्रुताभाव औत्कण्ठ्यं तदेवोष्मा तेन। अत्र किंप्रमाणमिति चेन्मदनुभव एवेति कैमुतिकन्यायेनाह—**यन्नामनीति।**श्रवणयोर्धामनि गृहे कर्णरन्ध्रे इत्यर्थः।याति गच्छति सति॥८६॥ उत्कृष्टतावाप्त्याउत्कर्षप्राप्त्या यः स्नेहश्चित्तद्रव अदाक्षिण्यं स्वस्याच्छादनार्थ वाम्यं धारयति तेन च किं स्यादित्यतो विशिनष्टि—नवं माधुर्य मानयन्ननुभावयन्॥८७॥ श्रीकृष्णेन सह वने विहरन्ती श्रीराधा स्वचित्तद्रवातिशयेनाश्रुभिः प्लुता स्यात्तत्र (सती) दूरे चरतामपि गवां धूलिमेव हेतुमवहित्थया वदन्ती श्रीकृष्णमुपालभते— स्रवदस्रेति। ननु तर्ह्येहि हन्त हन्त मुखफूत्कारमारुतैर्नेत्रे एव शीतलयामीति तथा कुर्वन्तं तं पुनराह— अधुनेति। विरमेति। तवानने प्रकट-
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लितत्वादिहेतुभिर्बहुभिरुत्कर्षैर्घनापि भावेन प्रियगुणभावनया य ऊष्मा तदानुकूल्योत्कण्ठा संतापः। तेन विद्रुता सदैव द्रवतया स्थिता। जगत् तदन्यत्॥८६॥ अदाक्षिण्यं वहिःकौटिल्यं यो धारयति स मानः। किं कुर्वन्। नवं पुराननुभूतं माधुर्यमास्वादविशेषं मानयन् ज्ञापयन्। अनुभूतं कारयन्नित्यर्थः॥८७॥ दाक्षिण्यभागपि गहनक्रमं दुर्योधरीतिमदाक्षिण्यं गाम्भीर्यान्मनःस्थित-
उदात्तो ललितश्चेति मानोऽयं द्विविधो मतः।
** तत्रोदात्तः—**
उदात्तः स्याद्धृतस्नेहो धारयन् गहनक्रमम्॥८९॥
दाक्षिण्यभागदाक्षिण्यं वाम्यगन्धं च कुत्रचित्।
** तत्र दाक्षिण्योदात्तो यथा—**
राधेति स्खलिताभिधे मयि हठाद्विद्धान्तराप्यार्तिभि-
र्मद्वैलक्ष्यशमाय सा द्विगुणयन्त्यास्यारविन्दे स्मितम्।
जल्पे च म्रदिमानुविद्धमधिकं माधुर्यमातन्वती
चित्राणीव चकार मत्प्रियसुहृद्वृन्दानि चन्द्रावली॥९०॥
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प्रेम्णा किमहं प्रसीदामीति भावः॥८८॥ उक्तलक्षणाद्द्विविधात् स्नेहान्मानोऽपि वक्ष्यमाणलक्षणो द्विविधो भवतीत्याह—उदात्त इति। घृतस्नेह एव उदात्तः स्यात्स च द्विविधः। गहनक्रमं दुर्लक्ष्यपरिपाटीकं यथा स्यात्तथा दाक्षिण्यं भजते यददाक्षिण्यं वहुदुर्लक्ष्यावहित्थं दाक्षिण्यमन्तर्दाक्षिण्याभावं धारयन्नित्येकः, तथा वाम्यस्य गन्धो यत्र तथाभूतमदाक्षिण्यं गहनक्रमं यथा स्यात्तथा धारयन् बहिर्वाम्यगन्धामन्तः पूर्णमदाक्षिण्यं धारयन्निति द्वितीयः। अत्रादाक्षिण्यमिति विशेष्यं तस्यैव दाक्षिण्यभागिति वाम्यगन्धमिति विशेषणद्वयेन भेदद्वयम्। केवलं वाम्यगन्धं धारयन्नुदात्तः स्यादिति न व्याख्येयम्। यो धारयत्यदाक्षिण्यमिति मूललक्षणेन सहासंगतेस्तथोत्तमाङ्गनानां रतिप्रेमस्नेहेष्वपि वाम्यगन्धस्य स्थातुमुचितत्वान्मानलक्षणे संपूर्णमदाक्षिण्यमेवावश्यं खल्वपेक्षणीयमेव। अदाक्षिण्यस्यैव व्यक्त्यनभिव्यक्तिभ्यां मधुस्नेहघृतस्नेहौ व्यवस्थीयेते।तथा अनभिव्यक्तेरेव संपूर्णत्वाभ्यां दाक्षिण्योदात्तवाम्यगन्धोदात्तौ॥८९॥ **दाक्षिण्योदात्त इति।**दाक्षिण्यसंबन्धी उदात्तो दाक्षिण्योदात्त इत्यर्थः। एवमेव वाम्यगन्धोदात्तो व्याख्येयः॥ श्रीकृष्णः कुन्दवल्लीमाह— राधेति। वैलक्ष्यं वैयग्र्यम्। हठादित्यस्य
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भावगोपनम्। वाम्यगन्धं च कुत्रचित् बहिरपि किंचित् कोपप्रकटनं धारयन् उदात्ताख्यमानः स्यात्॥८८॥८९॥ वैलक्ष्यमत्रवैयग्र्यम्।हठादित्यस्य द्विगुणयन्तीत्यनेनान्वयः। ‘मत्प्रियसुहृद्वृन्दानि इत्यत्र ‘सा प्रियसखी-
- २८ उज्ज्व०*
अथ वाम्यगन्धोदात्तो यथा श्रीविष्णुपुराणे—
काचिद्भ्रूभङ्गुरं कृत्वा ललाटफलकं हरिम्।
विलोक्य नेत्रभृङ्गाभ्यां पपौ तन्मुखपङ्कजम्॥९१॥
** यथा वा—**
अक्षसंसदि जितापि मृगाक्षी माधवेन परिरम्भपणेन।
भुग्नदृष्टिरिहविप्रतिपन्नां तं करेण रुरुधे परिरिप्सुम्॥९२॥
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द्विगुणयन्तीत्यनेनान्वयः।चित्राणीव किमियं गोत्रस्खलनेऽपि प्रसन्ना न वेति विस्मयेन जाड्योदयादालेख्यानीवेत्यर्थः। ‘आलेख्याश्चर्ययोश्चित्रम्’ इत्यमरः। अग्रे लक्षयिष्यमाणयोःसहेतुकनिर्हेतुकमानयोर्मध्ये सहेतुकोऽयं मानः। अत्रार्तिभिर्विद्धान्तरेति प्रथममार्तिहेतुकश्चित्तद्रवस्ततो मानः, स्मितादिकं तु तदुभयगोपनार्थम्॥९०॥ रासान्तर्धानानन्तरमाविर्भूतं श्रीकृष्णं विलोक्य मानवत्याः कस्याश्चिच्चेष्टितं पाराशरो वर्णयति— **काचिदिति।**भ्रुवा भङ्गुरं कृत्वेति बहिर्वाम्यगन्धयुक्तं नेत्रभृङ्गाभ्यां पपाविति। वहिर्दाक्षिण्यम्। अत्र कृत्वेति क्त्वाप्रत्ययेन भ्रुवा भङ्गुरीकरणं प्राथमिकमीषदेवेति वाम्यस्य गन्ध एव पपाविति भूतकालनिर्देशेन पानक्रियाया आदिमध्यान्तभागानां पूर्णताव्यञ्जनया तदनन्तरं च क्रियान्तरानुक्त्या पानक्रियायाः प्रवाहरूपत्वमभिव्यज्य तत्र नेत्रयोर्भृङ्गत्वेन मुखस्य पङ्कजत्वेनासक्तिमभिव्यज्य दाक्षिण्यस्य पूर्वत्वमेवेति वाम्यगन्धोदात्तता। काचित्कराम्बुजमित्यादिना कराम्बुजधारिण्यादीनामिवास्याः श्रीकृष्णपार्श्वागमनात् तदङ्गास्पर्शनाच्चादाक्षिण्यमन्तर्गतमस्त्येवेति व्याख्येयम्। अत्र चिराद्दर्शनेन रोषेण चित्तद्रवस्ततो मानो ज्ञेयः॥९१॥ अत्रान्तरदाक्षिण्यं स्पष्टं नोपलब्धमित्यपरितुष्यन्नाह—यथा वेति। चन्द्रावल्याः काचित्सखी कामप्याह—अक्षसंसदि पाशकक्रीडासभायां परिरम्भःपणो यस्य तेन माधवेन जितापि भुग्नदृष्टिरिति बहिर्वाम्यग्रन्धः। करेण रुरुधेनतु कराभ्यामिति दाक्षिण्यमेव। यद्यपि द्वाभ्यामपि नायिकायाः कराभ्यां नायकरोधो न संभवति तदप्यवहित्थातु
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वृन्दानि’ इति पाठ इष्टः॥९०॥ पपावित्यादिना दाक्षिण्यभावत्वमायाति॥९१॥ कराभ्यामित्यनुक्त्वा करेणेत्येकत्वोक्तिर्वाम्यगन्धमेव व्यनक्ति॥९२॥ स्वातन्त्र्यं
** अथ ललितः—**
मधुस्नेहस्तु कौटिल्यं स्वातन्त्र्यहृदयंगमम्॥९३॥
विभ्रन्नर्मविशेषं च ललितोऽयमुदीर्यते।
** तत्र कौटिल्यललितो यथा श्रीदशमे—**
काचिद्भ्रुकुटिमाबध्य प्रेमसंरम्भविह्वला।
घ्नतीवैक्षत्कटाक्षेपैर्निर्दष्टदशनच्छदा॥९४॥
** यथा वा—**
अदत्त मे वर्त्मनि मन्मथोन्मदा स्वयंग्रहाश्लेषमसौ सखी तव।
इत्युक्तवन्तं कुटिलीभवन्मुखी कृष्णं वतंसेन जघान32 मङ्गला॥९५॥
सिध्यत्येवेति एकेन करेण निरोधेसापि न सम्यक् सिद्ध्यतीति दाक्षिण्यमेव। विप्रतिपन्नेत्यनेनान्तर्गतमदाक्षिण्यं च दर्शितम्॥ स्पष्टस्यान्तरदाक्षिण्यस्य तूदाहरणं विदग्धमाधवे ज्ञेयम्। यथा—‘यथार्थेयं वाणी तव चकितसारङ्गनयने सुवर्णालंकारो मधुरयति यत्ते श्रुतियुगम्। मुखेन्दोरन्तस्ते बहिरपि सुवर्णच्युतिरयं मम श्रोत्रद्वन्द्वं नयनयुगलं चाकुलयति॥” इति॥९२॥ कौटिल्यं कीदृशम्। स्वातन्त्र्येण हृदयंगमं न तु घृतस्नेह इव मधुस्नेहांशग्राहित्वेनेत्यर्थः॥९३॥ नर्मविशेषमिति। वाचिककौटिल्यं तेन प्रथमं कौटिल्यं मानसं कायिकं च ज्ञेयम्। रासान्तर्धानान्ते श्रीकृष्णमालोकयन्त्याः श्रीराधाया मानवत्याश्चेष्टितं श्रीशुकदेवो वर्णयति— भ्रुकुटिमाबध्य आ सम्यक् प्रगाढतया नतु शैथिल्येन बद्ध्वा। धनुषीव शरं संधायेत्यर्थः। प्रेमसंरम्भविह्वलेति चित्तद्रवो मानश्च व्यञ्जितः। कटाक्षेपैः कटाक्षनिक्षेपैरिति कटाक्षस्य शरत्वमारोपितम्।ऐक्षदैक्षत॥९४॥ भूम्ना व्यपदेशा भवन्तीति न्यायेन श्रीराधा सुहृत्स्वपि मधुस्नेहं तदुत्थं कौटिल्यललितं च वक्तुमाह— यथा वेति। मङ्गलायाः सखी कामपि स्वसुहृदं प्राह— अदत्त ददौ। स्वयमेव ग्रहो ग्रहणं यत्र तादृशमाश्लेषमित्युक्तवन्तमिति तदुक्त्यैव
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स्वाधीनभर्तृकात्वं तेन हृदयंगमं कान्तहृदयावगाहम्॥९३॥ कटाक्षेपैः कटाक्षैः।
** यथा वा—**
चित्रं चिरस्पर्शसुखाय चूचुके कुर्वन्तमक्षिप्रमियं चलेक्षणा।
स्विन्नाङ्गुलीकं पुलकाञ्चितश्रिया सव्येन चिक्षेप कुचेन केशवम्॥९६॥
** अथ नर्मललितो यथा दानकेलिकौमुद्याम्—**
मिथ्या जल्पतु ते कथं नु रसना साध्वीसहस्रस्य या
बिम्बोष्ठामृतसेवनादघरिपो पुण्या प्रयत्नादभूत्।
कस्मादेष बलात्करोतु च करः सोढुं क्षमः सुभ्रुवां
रक्तः सुष्ठु न नीविबन्धमपि यः का वान्यबन्धे कथा॥९७॥
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चित्तद्रवो गम्यः। कुटिलीभवन्मुखी लज्जया तिरश्चीनवदनेति भ्रुकुट्याद्यभावादतिसूक्ष्मदाक्षिण्यांशाभिव्यक्त्या सोऽयमन्तर्भूतदाक्षिण्यांशकौटिल्यललितो ज्ञेयः॥९५॥ किंच शुद्धमधुस्नेहवत्याः श्रीराधाया माने कदाचित् स्वीकृतोऽपि दाक्षिण्यांशः कुटिलीभवन्मधुमय एव न तु घृतगन्धव्यञ्जीभवतीति पुनः दर्शयितुमाह— यथा वेति। रूपमञ्जरी रतिमञ्जरी प्रत्याह—चित्रं पत्रावल्ल्यादि। अक्षिप्रमितिमाने कारणम्। चलेक्षणेति। कदाचित् कोऽपि जनोत्रागत्य पश्येदिति शङ्कया कुचेन चिक्षेप तदाघातेन चालयामास। सव्येनेति। स्त्रीणां वामाङ्गस्य वलवत्त्वाधिक्यादत्र रोषव्यञ्जकभ्रुनेत्रादिकौटिल्याभावात् दाक्षिण्यं कुचक्षेपोऽपि यद्यपि प्रागल्भ्यं व्यनक्ति न तु कौटिल्यं तदप्यालेख्यकर्मण्यनभिज्ञेनाक्षिप्रकारिणा त्वया कुचावहं न चित्रयामि किंतु स्वकिंकरीभिरेवेत्येतावदर्थव्यञ्जकेन कुचक्षेपेणात्यनादरे द्योतिते घृतस्नेहस्य प्रसक्त्यभावात् शुद्धमधुस्नेहप्रवृत्त्या मानेऽस्मिन् दाक्षिण्यांशोऽपि शुद्धमधुस्नेहमय एवातिसुरसनीय इति विवेचनीयम्॥९६॥ हन्त किं करोमि जन्मावधि मज्जिह्वामिथ्या वक्तुं न जानाति मत्पाणिश्व हठवृत्तौ विमुख इति मत्सत्यवादित्वदयालुत्वेएवानर्थकारिणी। अत एवैता राजशुल्के विप्रतिपद्यन्त इति वदन्तं श्रीकृष्णं प्रति श्रीललिता प्राह— मिथ्येति।अमृतसेवनादिति। यथामृतभोजिनो देवा मिथ्या न भाषन्ते इति
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‘कटाक्षोऽपाङ्गदर्शने’ इत्यमरः॥९४॥९५॥९६॥९७॥ प्रणयस्य लक्षण-
** अथ प्रणयः—**
मानो दधानो विस्रम्भं प्रणयः प्रोच्यते बुधैः॥९८॥
** यथा—**
कुचोपान्ते स्पृष्टा मुरविजयिना तद्भुजशिर-
स्तिरोन्यस्तग्रीवा भ्रुवमनृजुदृष्टिर्विभुजती।
पटेनास्य म्लानीकृतपुरटभासा पुलकिनी
प्रमोदास्रैर्धौतं निजमुखमियं मार्ष्टिसुमुखी॥९९॥
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भावः। करोऽपि कस्माद्बलात्करोतु यतो महादयालुरिति भावः। दयालुत्वमेवाह— रक्तोऽनुरागी सुभ्रुवां नीवीवन्धनमपि सोढुं न क्षमते हन्त हन्त आसां मध्यदेशो बन्धनेन दुःखंप्राप्नोति तदिमं मोचयामीति शीघ्रमागत्य सुभ्रूभिस्तिरस्कृतस्तर्जितस्ताडितोऽपि तं स्वावमानमगणयित्वा नीवीबन्धनान्मध्यदेशं मोचयत्येवेत्यर्थ। अन्यबन्धे वेण्यादिबन्धे का कथेति ध्वनितम्। तं तं वन्धं तु प्रथममेव दृष्टिमात्रादेव मोचयतीत्यर्थः। अत्र वक्तृवोद्धव्यादिवैशिष्ट्याद्विपरीतलक्षणया अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यध्वनिना च मिथ्यावादित्वं निर्दयत्वं चातिलाम्पट्यंच वोधितम्॥९७॥ विस्रम्भो विश्वासः संभ्रमराहित्यंतच्च स्वप्राणमनोबुद्धिदेहपरिच्छदादिभिः कान्तप्राणमनोबुद्ध्यादेरैक्यभावनजन्यं तत्र सत्यपि रोषादिकं तु रसस्वाभाव्यादेव नानुपपन्नं ज्ञेयम्॥९८॥ श्रीकृष्णेन संभुक्तप्रसाधितायास्तेन सह कुञ्जाङ्गने सुखमुपविष्टायाः श्रीराधाया लीलां दूरतः पश्यन्ती रूपमञ्जरी वर्णयति— कुचोपान्त इति। तस्य श्रीकृष्णस्य भुजशिरसि वामस्कन्धप्रदेशे तिरोन्यस्ता स्वालम्बतया तिर्यगर्पिता ग्रीवा यया सा।अनृजुः कुटिला तिरश्चीना दृष्टिर्दर्शनं यस्याः सा। श्रीकृष्णमपाङ्गेन पश्यन्तीत्यर्थः। भ्रुवं विभजती कुटिलयन्तीत्यसहिष्णुताव्यञ्जनया मानः। प्रमोदास्रैरिति चित्तद्रवः। अस्य श्रीकृष्णस्य पटेन पीताम्बरेण निजमुखं मार्ष्टीति निःसंभ्रमेणैक्यव्यञ्जनया प्रणयः॥९९॥
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माह—मान इति। विस्रम्भं प्रियजनेन सह स्वस्याभेदमननम्॥९८॥९९॥
स्वरूपं प्रणयस्यास्य विस्रम्भः कथितो बुधैः।
विस्रम्भोऽपि द्विधा मैत्रं सख्यं चेति निगद्यते॥१००॥
** तत्र मैत्रम्—**
भावज्ञैःप्रोच्यते मैत्रं विस्रम्भो विनयान्वितः।
** यथा श्रीदशमे—**
काचित्कराम्बुजं शौरेर्जगृहेऽञ्जलिना मुदा।
काचिद्दधार तद्बाहुमंसे चन्दनरूषितम्॥१०१॥
** यथा वा—**
नहि संकुच पङ्कजेक्षणःपदयोस्ते निदधातु नूपुरौ।
अनयोर्ध्वनिभिर्विलज्जतां कलहंसीव विपक्षकामिनी॥१०२॥
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ननु विस्रम्भं दधानो मान एव प्रणय इति निरुच्यते चेत् कथमग्रे वक्ष्यते जनित्वा प्रणयस्नेहात् कुत्रचिन्मानतां व्रजेदिति। सत्यम्। तर्हि प्रणयस्य पृथगेव लक्षणं कार्यमित्याह— स्वरूपमिति। तेन मानात् पूर्वभूमिका उत्तरभूमिका वा प्रणयोऽस्त्वित्यत्र न विवाद इति भावः॥१००॥ रासान्तर्धानानन्तरमायातं श्रीकृष्णमालोकयन्त्याश्चन्द्रावल्याश्चेष्टितं श्रीशुको वर्णयति। कराम्बुजं जगृहे इति विस्रम्भतः। अञ्जलिनेति तत्र विनयः।मानस्तु दाक्षिण्यादस्पष्टो वर्तत एव ‘ईषत्कुपिता बभाषिरे—’ इत्यग्रे व्यक्तीभावादिति। चित्तद्रवस्तु तद्दर्शनजन्यो गम्यः। अत्र पद्ये प्रथमा चन्द्रावली द्वितीया श्यामला श्रीवैष्णवतोषिण्युक्तयुक्त्या ज्ञेया। उदाहरणमिदं मैत्र्यस्य प्रथमायामेव नतु द्वितीयायाम्।अंसे तद्वाहुं तेन
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*पुनः प्रणयस्य जन्म विवृणोति—**स्वरूपमिति।*स्वरूपं कारणम्। अयमर्थः—विस्रम्भं दधान इति यदुक्तं तत्र खलु विस्रम्भस्य चांशेनोपादानत्वं मतं न तु निमित्तत्वम्। यथा हरिताले हिङ्गुलांशप्रवेशेन चमत्काररागविशेषो भवति तथात्रापि प्रणयाख्य इति। यच्च पूर्वग्रन्थे ‘प्राप्तायां संभ्रमादीनां योग्यतायामपि स्फुटम्। तद्गन्धेनाप्यसंस्पृष्टा रतिः प्रणय इष्यते॥’ इत्युक्तं तत्तु तटस्थलक्षणमिति द्वयोरेकमेव प्रतिपाद्यं ज्ञेयम्। अथ विस्रम्भस्य भेदद्वयं ब्रुवन् तदभेदविवक्षया प्रणयस्यापि तदभिप्रैति— विस्रम्भोऽपीति॥१००॥१०१॥ १०२॥
** अथ सख्यम्—**
विस्रम्भः साध्वसोन्मुक्तः सख्यं स्ववशतामयः॥१०३॥
** यथा—**
सरभसमधिकण्ठमर्पिताभ्यां दनुजरिपोर्निजबाहुवल्लरीभ्याम्।
निटिलमवनमय्य तस्य कर्णे सखि कथितं किमिव त्वया रहस्यम्॥१०४॥
** यथा वा श्रीविष्णुपुराणे—**
यदि ते तद्वचः सत्यं सत्यात्यर्थं प्रियेति मे।
मद्गेहनिष्कुटार्थाय तदायं नीयतां तरुः॥१०५॥
** यथा वा—**
विन्यस्य वक्षोरुहकोरकद्वयीं वक्षःस्थले कंसहरस्य हारिणि।
पत्राङ्कुरं कुङ्कुमबिन्दुनालिके लिखत्यसौ चन्द्रमुखी सखी मम॥१०६॥
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क्षिप्तं दधारोवाहेत्यत्र विनयस्य व्यक्त्यभावात्॥१०१॥ मानोत्तरभूमिकारूपं प्रणयमुदाहृत्य मानात् पूर्वभूमिकारूपमपि तमुदाहर्तुमाह—यथा वेति। चन्द्रावल्याः कापि किकरी स्वाधीनकान्तां तां प्रत्याह—न हि संकुच, श्रीकृष्णस्य पाण्योः कथं स्वपादौ स्पर्शयामीति विनयं त्यजेत्यर्थः। ननु श्रीकृष्णविषयकं मद्गौरवं किमिति नाशयसि त्वमेव किं न निदधासीति तत्राह— अनयोरित्यादि। श्रीकृष्णहस्तार्पिताभ्यां नूपुराभ्यां सौभाग्याधिक्यव्यक्तेरिति भावः। अत्र प्रणयः स्पष्टः। चित्तद्रवस्तु श्रीकृष्णस्पर्शगम्यः॥१०२॥१०३॥ विशाखा श्रीराधां प्रत्याह—अधिकण्ठं श्रीकृष्णकण्ठस्य पार्श्वद्वयेऽर्पिताभ्यां निजबाहुलताभ्यां निटिलं तस्य शिरोऽवनम्य॥१०४॥ मानात् पूर्वभूमिकारूपं प्रणयभेदं सख्यमुदाहृत्य मानोत्तरभूमिकारूपं तं दर्शयितुमाह— यथा वेति। सत्यभामा श्रीकृष्णमाह—**यदीति।**तरुः पारिजाताख्यः। तदैवाहं प्रसीदामि नान्यथेति भावः। अत्रैव तादृशो निदेश एव सख्यं व्यञ्जयति॥१०५॥ न केवलं श्रीराधासत्यभामयोरेव सख्यं तत्सखीष्वपि तत्संभवतीति दर्शयितुमाह—यथावेति। चन्द्रमुख्याः सखी स्वसङ्गिनीं कामप्याह— विन्यस्येति॥१०६॥ श्रीशुकदेववाक्यं प्रमाणयति—
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॥१०३॥ निजबाहुवल्लरीभ्यामित्यत्र वल्लरीशब्देन लताप्युच्यते। ‘दीर्घ रोदिति निक्षिपत्यत इतः क्षामां भुजावल्लरीम्।’ इति साहित्यदर्पणेनोदाहरणात्॥१०४॥
यथा33 वा श्रीदशमे—
ततो गत्वा वनोद्देशं दृप्ता केशवमब्रवीत्।
न पारयेऽहं चलितुं नय मां यत्र ते मनः॥१०७॥
जनित्वा प्रणयः स्नेहात्कुत्रचिन्मानतां व्रजेत्।
स्नेहान्मानः क्वचिद्भूत्वा प्रणयत्वमथाश्नुते॥१०८॥
कार्यकारणतान्योन्यमतः प्रणयमानयोः।
इत्यत्र पृथगेवासौ विस्रम्भोदाहृतिः कृता॥१०९॥
उदात्तललितांभ्यां तु मैत्रसख्ये सुसङ्गते।
द्वे सुमैत्र्यसुसख्याख्ये यथासंख्यमुदीरिते॥११०॥
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**ततो गत्वेति।**दृप्तेति मानः॥१०७॥ उक्तलक्षणं प्रणयं व्यवस्थापयति— जनित्वेति। अश्नुते प्राप्नोति। अत्र स्थायिभावप्रकरणे पृथगेव मानानन्तरमुक्त्वापीत्यर्थः॥१०८॥ **उदात्तेति।**उदात्तेन सुष्ठुसंगतं मैत्र्यं चेत्सुमैत्र्यं तथा ललितेन सुष्ठुसंगतं सख्यं चेत् सुसख्यमित्यर्थः॥ १०९॥॥११०॥ प्रातस्तनं चन्द्रावल्याश्चरितं तत्सखी काचिदाह— **आलीति।**भ्रमद्भ्रूरिति वाम्यगन्धः। तस्य श्रीकृष्णस्य मुखपुटावरणार्थ हस्तमुत्क्षिप्य पुनः समवरिष्ट ब्रजराजकुमारे एतावद्धार्ष्ट्यमनुचितमिति लज्जासंकोचाभ्यां हस्तं संवृतवती न्यञ्चन्मुखी निजधार्ष्ट्यप्रकाशेन लज्जिता अत्र मधुस्नेहसंबन्धिवाम्यगन्धोदयात्। यथा मानस्य वाम्यगन्धोदात्तत्वं तथैव हस्तोत्क्षेपप्रथमलक्षणेषुसंकोचा-
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तरुःपारिजाताख्यः॥१०५॥ अलिके ललाटे॥१०६॥ पूर्वं मानात् प्रणयस्य जन्मोक्तम्, संप्रति तु विवेकविशेषमुपलभ्य वैपरीत्येनाप्याह—तत्र यद्यपि प्रणये जाते एव कौटिल्यं संगच्छते तथापि नायिकाविशेषस्य प्रेमैव खल्वीदृशः। यदसौ कौटिल्येन सहोत्पद्यते। यथोक्तम्— ‘अहेरिव गति प्रेम्णः स्वभावकुटिला भवेत्। अतो हेतोरहेतोश्च यूनोर्मान उदञ्चति॥’ इत्यभिप्रायः। किंतु ‘मानो दधानो विस्रम्भम्’ इति यत्प्रथममुक्तं तदेव मतं निजमिति लक्ष्यते
** तत्र सुमैत्र्यम्—**
आलीपुरः कथयितुं रजनीरहस्यं तत्रोद्यते मधुरिपौमृदुलाभ्रमद्भ्रू।
उत्क्षिप्य तन्मुखपुटावरणाय हस्तं न्यञ्चन्मुखी समवरिष्ट पुनर्वराक्षी॥१११॥
** यथा वा—**
क्षिप्ते वर्णकभाजने तरणिजापूरे परीहासतः
कृष्णेन भ्रुवमारचय्य कुटिलामालोकयन्ती तिरः।
तारा वक्षसि चित्रमर्धलिखितं श्रीवत्सविभ्राजिते
काश्मीरेण घनश्रिया निजकुचाकृष्टेन पूर्ण व्यधात्॥११२॥
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नुदयात् मैत्र्यस्यापि सख्यगन्धवत्त्वमपि उदात्तेन सह मैत्र्यस्यान्तर्बहिरपि सुसंगतत्वात् सुमैत्र्यम्। ‘काचित् कराम्बुजम्’ इत्यत्र तु दाक्षिण्योदात्तमानस्य बहिरनभिव्यक्त्या अन्तर्बहिरभिव्यक्तविनयमैत्र्येण सह सुसंगत्वाभावात्तत्र मैत्र्यमेव न तु सुमैत्र्यम्॥१११॥ कासुचित् श्रीकृष्णविषयकमदीयत्वाभिमानांशवत्त्वेऽपि माने दाक्षिण्ये सति ‘भूम्ना व्यपदेशा भवन्ति’ इति न्यायेन घृतस्नेहवत्त्वमेव व्यवस्थेयं तथा सति सुमैत्र्यमेव न तु सुसख्यमिति दर्शयितुमाह— यथा वेति। तरणिजापूरे क्षिप्ते इत्यनेन जलनिकटबृहत्सोपानासन एवोपवेशो नायकोर्बोधितः। भ्रुवं कुटिलामारचय्य दुलीलेऽपि व्रजराजनन्दने ईर्ष्या संप्रत्यनुचितेति मत्त्वा तिर आलोकयन्ती स्वीयेन स्वाभाविकेनापाङ्गदर्शनेन मानाभावं ज्ञापयन्तीत्यर्थः। तारा (कर्त्री) वक्षसीत्यत्र श्रीकृष्णस्येति संबन्धिपदान्युक्त्वा (नुक्त्या) न्यूनपदता नाशङ्कनीया।श्रीवत्सविभ्राजिते इति विशेषणेनैव सबन्धस्य विशेषज्ञातत्वात्। निजकुचाकृष्टेन काश्मीरेण चित्रं पूर्ण व्यधादिति श्रीकृष्णे गौरवस्यानुदयो मधुस्नेहांशं व्यनष्टि। अत्र वाम्यगन्धोदात्तेन सह सख्यगन्धमैत्र्यस्यान्तर्वहिरपि सुसंगत्या सुमैत्र्यं कुचाकृष्टेनेत्येतावता अविनयो माशङ्कनीयः। अन्याङ्गापेक्षया कुचस्याभ्यर्हितत्वात्। अत्र तस्याः प्रारब्धकार्यासिद्धिरूपो दोषःश्रीकृष्णेन
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॥१०७॥१०८॥१०९॥११०॥१११॥११२॥११३॥११४॥
** अथ सुसख्यम्—**
द्यूते सकृत्पानविधौ पणीकृते जित्वा द्विरोष्ठं पिबति स्वमच्युते।
बबन्ध कण्ठे कुटिलीकृतेक्षणा तं वामया दोर्लतयाद्य बल्लवी॥११३॥
** यथा वा—**
आविष्कुर्वति विस्फुरन्नवनखोल्लेखं स्ववक्षस्तटं
कृष्णे पीतदुकूलसंकलनया जित्वा सखीनां पुरः।
अभ्रश्याममुरो रुरोध वलितभ्रूराननं धुन्वती
रोमाञ्चोद्गमकञ्चुकेन कुचयोर्द्वन्द्वेन गान्धर्विका॥११४॥
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प्रसज्जयितुमिष्टोऽपि नाभूदिति चमत्कारः॥११२॥श्यामायाश्चेष्टितं वृन्दा नान्दीमुखी प्रत्याह — द्यूते विषये सकृदेव पानस्य विधौ पणीकृते सति श्रीकृष्ण ओष्ठं द्विःपिवति सति तमन्यायमसहमाना बल्लवी बबन्ध।अत्र कुटिलेक्षणत्वदोर्लतावन्धयोर्यौगपद्यात्कौटिल्यललितेन सख्यस्य सुसंगतत्वात् सुसख्यम्॥११३॥ उक्तपद्ये ओष्ठं द्विःपिबति सति बबन्धेत्युक्ते सकृत् पिवति सति न बवन्धेत्यर्थे आयाते दाक्षिण्यांशस्य व्यञ्जितत्वे घृतस्नेहांशगन्धः प्रसज्जते। सच श्रीराधासुहृदि श्यामलाया समुचित एवेति स्वपक्षादिभेदविवृतौ व्याख्यातमेव। भूम्नाव्यपदेशन्यायेनैवात्र मधुस्नेहवत्त्वमिति शुद्धमधुस्नेहवत्यां श्रीराधायां शुद्धं सुसख्यमुदाहर्तुमाह— यथावेति। रूपमञ्जरी स्वसुहृदमाह—आविष्कुर्वति सति केन प्रकारेण पीतदुकूलस्योत्तरीयस्य संकलनया उत्क्षेपेण स्मित्वेति तत्सखीषुपश्यत्सु सख्याश्चरित्रमिति स्वविस्रम्भद्योतना तया चैतावानद्यास्मत्प्रियसख्या विहारोऽभूदिति प्रत्यायितानां तासामानन्दनम्। ततश्च गान्धर्विका प्रथमं वलितभ्रूरितीर्प्यासूये व्यञ्जितवती आननं धुन्वती हुंकारेण सत्यमेव ब्रूषे इति विपरीतलक्षणोक्तिः। तदपि तमनिवृत्तमालक्ष्य स्वरुपायितत्वं निह्नुवाना उरो वक्षस्तस्य रुरोध। केन कुचयोर्द्वन्द्वेनेति करतलाभ्या सर्वचिह्नसंगोपनाशक्तेः। तथा अन्तरीयं विना शय्यायां तस्या वस्त्रान्तरस्य कृष्णेन प्रथममेव दूरीकृतत्वाच्च। किं वा परमसुसख्यस्योदय एवात्र हेतुर्ज्ञेयः। अत आह— रोमाञ्चेति। अत एव वलितभ्रूरिति वलितपदेन कौटिल्यललितातिशयः, कुचयोर्द्वन्द्वेनेति, सख्यातिशयश्च
अथ रागः—
दुःखमप्यधिकं चित्ते सुखत्वेनैव व्यज्यते।
यतस्तु प्रणयोत्कर्षात्स राग इति कीर्त्यते॥११५॥
** यथा—**
तीव्रार्कद्युतिदीपितैरसिलताधाराकरालास्त्रि(श्रि)भि-
र्मार्तण्डोपलमण्डलैः स्थपुटितेऽप्यस्तटे तस्थुषी।
पश्यन्ती पशुपेन्द्रनन्दनमसाविन्दीवरैरास्तृते
तल्पे न्यस्तपदाम्बुजेव मुदिता न स्पन्दते राधिका॥११६॥
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तयोः सुसंगतेः सुसख्यातिशयश्च ज्ञेयः॥११४॥ **यतस्तु प्रणयोत्कर्षादिति।**अन्येऽपि प्रणयस्योत्कर्षा वक्तुमशक्या बहवो वर्तन्ते एवेति भावः। दुःखं दुःखकारणं सुखत्वेनैव सुखकारणत्वेनैव व्यज्यत इति श्रीकृष्णलाभसंभावनायामिति ज्ञेयम्। तेन च तदलाभसंभावनायां सुखमपि दुःखत्वेनेति ज्ञेयम्। सुखत्वेन सुखधर्मेण दुःखं व्यज्यत इति यत्र दुःखे सुखधर्म एवानुभूयते नतु दुःखधर्मो यथा हिङ्गुलरक्ते मदने हिङ्गुलधर्म एवानुभूयते न तु मदनमित्यर्थः। यथा च मञ्जिष्ठया रक्ते वाससि मजिष्ठैवानुभूयते न तु वस्त्रधर्मः शौक्ल्यमित्यर्थः। यद्वा रज्यते भासते। ‘रञ्जरागे’ देवादिकोभयपदी धातुः॥११५॥ श्रीराधिकां दूरादालोकयन्ती ललिता स्वसखीभिः सह तदीयरागमास्वादयति— **तीव्रेति।**अद्रेस्तटे तस्थुषी स्थितवती राधिका। कीदृशे। मार्तण्डोपलमण्डलैः सूर्यकान्तशिलासमूहैः स्थपुटिते नतोन्नतीकृते। तत्रापि कीदृशैः। तीव्रार्को ज्येष्ठमासीयमध्याह्रस्थसूर्यस्तद्द्युतिभिर्दीपितैस्तप्तीकृतैः। तत्राप्यसिः खङ्गएव लता तस्या धारा इव कराला भीषणा अस्रयः कोणा येषां तैः। ‘कोणस्तु स्त्रियः पाल्यश्रिकोटयः’ इत्यमरः। आस्तृते आच्छादिते। तल्पे न्यस्तपदेति। अत्युष्णतीक्ष्णकठोरगिरितटस्पर्शजन्यं दुःखमपि तद्विपरीतेन सुखधर्मेणातिशैत्यसौकुमार्यादिना रक्तमनुभूतमिति प्रत्यक्षाण्यपि औष्ण्यतैक्ष्ण्यकठोरत्वानि तटस्थतया नानुभूतानि। ननु निद्रालुना मशकदंशनदुःखानि यद्यपि नानुभूयन्ते तदपि प्रातर्जाग्रता तद्दंश-
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दुःखमपीति। श्रीकृष्णलामे संभावितेऽपि सतीति शेषः। तदेवं तदलाभेतु
** यथा वा पद्यावल्याम्—**
ताराभिसारकचतुर्थनिशाशशाङ्क-
कामाम्बुराशिपरिवर्धन देव तुभ्यम्।
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नोत्थः स्वगात्रे रक्तोद्गमो यथा दृश्यते तथैव तयातिसुकुमारस्वचरणतलदाहादिस्तदनन्तरं द्रष्टव्य एव।मैवम्। श्रीकृष्णदर्शनानन्दनिमग्नायास्तस्या आनखशिखमेव वपुश्चन्द्रकोटेरपि। सुशीतलं तदाभून्न तु तत्तप्तीभवितुमर्हति नहि सूर्यकिरणैश्चन्द्रस्तप्तीकर्तु कदापि शक्यत इति। तथा लोके तूलखण्डस्यापि तीक्ष्णशिलया पराभवादर्शनात् तूलखण्डेभ्योऽप्यतिसुकुमारचरणायास्तस्यास्तयोः पराभवाभावो ज्ञेयः। यद्वा सर्वसमाधात्री योगमायैव सदा लीलासु जागरूका वर्तत इति॥११६॥ रागोदयेऽकस्मात् प्राप्तं दुःखं सुखमयं भवतीति किं वक्तव्यं, यतो रागवतीभिः स्वदुःखकारणं प्रार्थ्यते च तच्चापि सुखकारणं भवतीति दर्शयितुमाह—यथा वेति। पूर्व रागवती काचिद्व्रजवाला केनापि प्रकारेण श्रीकृष्णमलभभाना दैन्येन स्वं तदयोग्यं मत्वा स्वनिवृत्त्युपायं स्वयमेव निश्चित्य भाद्रमासीयचतुर्थ्याश्चन्द्रं कलङ्कदायित्वेन प्रसिद्धं ज्ञात्वा तं प्रति कलङ्कं प्रार्थयते। तारा अश्विन्यादयस्ता अभिसारयसीति कान्तप्राप्त्यभावदुःखंत्वं जानासीति भावः। चतुर्थी या निशा तस्याःशशाङ्केति श्रीकृष्णप्राप्त्ययोग्यायै मह्यं कलङ्कदानेन कृतार्थीकुर्विति भावः।**कामाम्बुराशीति।**त्वं समुद्रं वर्धयसीति प्रसिद्धः। स च समुद्रः काममय एव नतु जलमयस्तथैवा-
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*सुखमपि दुःखत्वेन भासत इति ज्ञेयम्॥११५॥११६॥ **ताराभिसारकेति।*कस्याश्चित् कात्यायन्युपासिकायाश्चतुर्थीचन्द्रसंदर्शने रतिः। चतुर्थनिशाशशाङ्क हे चतुर्थीचन्द्र, सोऽयमजाततल्लाभाख्यफलत्वेनासिद्धोऽपि लोके तल्लाभमिथ्यापवादरूपेण वचसा सर्वतः ख्यात्या सिद्ध इव यदि स्यात्तर्हि च तल्लाभमेव मत्वा सुखमेव भजामीत्यर्थः। तदेतन्निवेदनविषयतायास्त्वमेव योग्यः। ततस्ताराभिसारकतयास्मादृक् तथा कामातिशयवर्धनश्च दृश्यस इति संवोधनद्वयेनैव सूचितम्—ताराभिसारकेति, कामाम्बुराशिपरिवर्धनेति। भाद्रमासस्येति ज्ञेयम्। तुभ्यमर्घो नमः।अर्घ ददामीत्यर्थः। ननु दर्शनेऽपि कलङ्कमुत्पाद-
अर्धो नमो भवतु मे सह तेन यूना
मिथ्यापवादवचसाप्यभिमानसिद्धिः॥११७॥
नीलिमा रक्तिमा चेति रागोऽयं द्विविधो मतः।
** तत्र नीलिमा—**
नीलीश्यामाभवो रागो नीलिमा कथ्यते बुधैः॥११८॥
____________
स्माभिरनुभवादिति। तेनात्र मम न कोऽपि दोषइति भावः। **हे देवेति।**देवत्वात्त्वं मद्दुःखं तत्प्रतीकारं च जानास्येवेति भावः।**तुभ्यमर्घोनम इति।**दर्शनमात्रेणापि कलङ्कदायिनेऽपि तुभ्यं तदर्थमत्युत्कण्ठया अर्घोऽपि मया दीयते तेन तत्र कालविलम्बो न कार्य इति भावः। ननु कलङ्के सति लोकनिन्दया दुःखमेव लभ्यते न च कृष्णासङ्गश्चेत्यत आह—तेन यूना कृष्णेनेति। अत्र श्रीकृष्णप्राप्तिसंभावनाया अभावेऽपि तत्प्रसङ्गाभासमात्रेऽपि दुःखं सुखं भवतीति रागस्य परा काष्ठा दर्शिता॥११७॥ यतो दुःखमपि सुखं स राग इत्यनुभावेनैव रागं लक्षयित्वा संप्रति रागशब्दार्थ दृष्टान्तेनैव बोधयितुं प्रथमं तद्भेदावुद्दिशति—नीलिमेति। नीलीश्यामे वृक्षलताविशेषौ। नीलीभवः श्यामाभवश्चेति द्विविधोऽपि रागो नीलिमसंज्ञकः॥ ११८॥ वर्णात्मकनीलीरागसा-
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यित्रे मह्यं कथमर्घ ददासि तत्राह—मे सहेति। तेन श्रीकृष्णाख्येन यूना सह मे योऽभिमानस्तस्य सेयं मम कान्तेति, मम च सोऽयं कान्त इत्येतल्लक्षणस्तस्य सिद्धिर्मिथ्यापवादवचसापि भवत्विति॥११७॥ तदेवं लक्षयित्वा प्राचीनानां मतमुपलक्ष्य तद्भेदावुपदिशति— नीलिमेति। तत्र तेषां मतं यथा—‘न चातिशोभते यन्नापैति प्रेम मनोगतम्। तन्नीलीरागमाख्यान्ति यथा श्रीरामसीतयोः॥ कुसुम्भरागं तं प्राहुर्यदपैति च शोभते॥ माञ्जिष्टरागं तत्प्राहुर्यन्नापैत्यतिशोभते॥’ इति। तत्र द्विविधं नीलिमानं दृष्टान्तेन व्यञ्जयितुं दृष्टान्तद्वैधमाह—नीलीश्यामाभव इति। नीलीश्यामे औषधविशेषौ। नीलीभवः, श्यामाभवश्चेति द्विविधो नीलिमेत्यर्थः। सामान्योक्तरेकत्वम्॥११८॥ तदेवं
** तत्र नीलीरागः—**
व्ययसंभावनाहीनो बहिर्नातिप्रकाशवान्।
स्खलग्नभावावरणो नीलीरागः सतां मतः॥११९॥
यथावलोक्यते चैष चन्द्रावलिमुकुन्दयोः।
** यथा—**
प्रसन्नविशदाशया विविधमुद्रया निर्मितं
प्रतारणमपि त्वया गुणतया सदा गृह्णती।
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मान्येनैव प्रेमात्मकनीलीरागं लक्षयति—व्ययेति। नीलीराग इति नीलीराग इत्यर्थः। व्ययस्य संभावनयापि रहितः संचारिभावेनापकर्तुमशक्य इत्यर्थः। ‘सर्वथा ध्वंसरहितं सत्यपि ध्वंसकारणे।’ इति प्रेमलक्षणे ध्वंसकारणं संचारिभावव्यतिरिक्तं धर्मापेक्षादिकमेव व्याख्यातं संचारिभावानां सहकारित्वेन स्थायिध्वंसकत्वायोगादतस्तत्र नास्य सांकर्य शक्यम्। वहिर्नातिप्रकाशवानिति श्यामारागव्यवच्छेदार्थम्। दार्ष्टान्तिकपक्षे घृतस्नेहस्य स्वतः स्वादुतातिशयाभावात् तदुत्थस्य रागस्यापि प्रकाशातिशयाभावः। स्वलग्नभावावरण इति दृष्टान्ते भावो वर्णान्तरं दार्ष्टान्तिके ईर्ष्यादिः॥११९॥ भद्रा श्रीकृष्णमाह—प्रसन्नः सर्वत्र प्रसादवत्त्वात्, सदयो विशदः परदोषस्याग्रहणान्निर्मलः स च आशयोऽन्तःकरणं यस्याः सेति तद्गुणमाधुर्येऽपि तरललोभ उत्पद्यत इति श्रीकृष्णप्रत्युपालम्भ। मास्तु ते तद्गुणामोदनं प्रत्युत तां बहुधा वञ्चनेन दु खयितुमिच्छसीत्याह—विविधेति। हन्त हन्त तदपि सा दुःखं न प्राप्नोति किंतु परमसुखिनी भवतीत्याह—गुणतयेति। धन्यास्ता यासु स महागुणज्ञो रममाणः सुखं
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*दृष्टान्तो विवृत्य तद्धर्माभ्यां दार्ष्टान्तिकं लक्षयति—तत्र नीलीराग इत्यादिना। अत्र वर्णात्मकनीलीरागसाम्येन रत्यात्मकनीलीरागं लक्षयति— **व्ययेति।*व्ययसभावनाहीनत्वेनात्र रागताहेतुधर्मगतव्ययो निषिध्यते। अतो न प्रेमलक्षणेन सांकर्यम्। वहिर्नातिप्रकाशवानिति वक्ष्यमाणश्यामारागादिव्यवच्छेदार्थम्। स्वलग्नभावावरण इति। वर्णपक्षे वर्णान्तरम्, रतिपक्षे मानादि। एवमेवंभूतो दुःखेपि सुखभावनो यः पूर्वोक्तो रागाख्यः प्रणयोत्कर्षः स नीलीराग इति अकरणाद्योजनीयम्॥११९॥ तथैवोदाहरति—प्रसन्नेति। प्रतारणमत्र विषा-
तथा व्यवजहार सा व्रजकुलेन्द्र चन्द्रावली
सखीभिरपि तर्किता त्वयि यथा तटस्थेत्यसौ॥१२०॥
** अथ श्यामारागः—**
भीरुतौषधिसेकादिराद्यात्किंचित्प्रकाशभाक्॥१२१॥
यश्चिरेणैव साध्यः स्यात्स श्यामाराग उच्यते।
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लभते स्वसुखज्ञापनया मां च सुखयतीत्यहो वैदग्ध्यमेव मत्कान्तस्येदं नतु प्रतारणमिति मनसि विभाव्यत्यर्थः। हे कृष्ण, तद्दुःखदाने प्रयतमानस्य ते मनोरथो विधिना न साधित इति पवित्रभर्त्सनध्वनिर्दुःखमपि सुखं स्यादिति रागलक्षणं च दर्शितम्। किं च सखीवशायास्तस्याःस्वसखीसमाधानार्थमतिगाम्भीर्यगर्भचातुर्य च शृण्वित्याह— तथेत्यादि। तेन स्वताटस्थ्यज्ञापनया सख्यश्च हर्षिताः स्वप्रेमा च गुप्तीकृत्य रक्षित इति पुनरपि साद्गुण्यं दर्शितम्। इह सखीशङ्कारूपसंचारिणा रागस्य व्ययाभावः।तटस्था तर्कितेति। अनतिप्रकाशो भद्रया अन्तस्तत्त्वज्ञानादीषत्प्रकाशश्च॥ श्रीकृष्णे स्वविपक्षे चेर्ष्यासूयाद्यावरणं तु स्पष्टमेव। तथा तदीयतामयो घृतस्नेहः प्रतीयत एव॥१२०॥ भीरुतैवौषधिसेकः पुटभावनमादिःप्रथमं यत्र सः। दृष्टान्ते श्यामारागे ओषधिविशेषकः प्रथममपेक्षितः। सोऽत्र दार्ष्टान्ते भीरुतैवेत्यर्थः। ननु भीरुत्वं सर्वासां स्त्रीणां साहजिकमेव प्रणयोत्थत्वं तस्य कथमिव। सत्यम्। मधुस्नेहांशमिश्रितघृतस्नेहवतीनां वय संधौ रत्याद्युद्गमे सत्यन्यतो वैलक्षण्येन भीरुत्वमधिकमुत्पद्यते। तथाहि मधुस्नेहस्य संपूर्णत्वे सति संपूर्णमत्तताजनकत्वं युक्तिसिद्धमेव। ततश्च संपूर्णमत्तताजन्येन संपूर्णगर्वेण कान्ते स्नेहस्य मदीयतामयत्वं स्यात् मधुस्नेह-
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दकारणमपि सुखकारणतया गृह्णातीति रागस्य सामान्यलक्षणमनुगमितम्, व्ययसंभावनाहीनत्वं च दर्शितम्। तदेवमागन्तुकस्य विषादस्यावरणं चायातम्। यच्चव्यवजहारेत्यादिना तटस्थत्वमुक्तं तत्तु कृत्रिमत्वाद्भावेष्वप्रविशदपि यद्वर्णितं तत्खलु सखीवशतयापि नान्यथा मनःकृतमिति विषादभावारणस्यैवाधिक्यं दर्शितम्॥१२०॥ पूर्ववत् श्यामारागमपि प्रायः श्यामलादीनां योजयति— अथ श्यामाराग इत्यादिना।भीरुतेति। श्यामारागः खल्वौषधिविशेषस्य
यथा—
पुरा कुञ्जे मञ्जुन्यवतमसयुक्तेऽपि चकिता
मुरारेर्यापार्श्वे न तरुणि दिवाप्यन्तरमगात्।
तमालैः सैवाद्य द्विगुणिततमिस्रेऽपि मुदिता
तमिस्रार्धे मानिन्यहह भवती तं मृगयते॥१२२॥
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स्यांशत्वेमत्तताया अप्यंशवत्त्वे तज्जन्यगर्वाशो घृतस्नेहोत्थदाक्षिण्यग्रस्तीभवन् स्वाभाविकभीरुत्वातिशयवतीनां किंचिदवहित्थामिश्रभीरुत्वरूपेण परिणमति, तच्च भीरुत्वं चकितसजातीयम्। यदुक्तम्—‘प्रियाग्रे चकितं भीतेरस्थानेऽपि भयं महत्।’ इति। तच्चाप्यन्तर्गर्भवत्त्व एव संभवति दौर्भाग्ये तदसंभवदृष्टेः। किंतु तत् प्रियाग्र एव भवेत्, एतत्तु सर्वजनाग्रएव स्यादिति भावः।आद्यात् नीलीरागात् सकाशादिति दृष्टान्ते तथैव प्रसिद्धिः। दार्ष्टान्तिके मधुस्नेहांशवत्त्वमेव प्रकाशे कारणं चिरेणैवेति दृष्टान्ते स्पष्टमेव दार्ष्टान्तिकेऽल्पतरमधुस्नेहस्य बहुतरघृतस्नेहेन सम्यङ्मेलनेऽल्पतरमधुनो बहुतरशीतलघृतेनैव कालविलम्बस्यौचित्यादेवेत्यर्थः॥१२१॥ कलहान्तरितां भद्रां तत्सखी काचित् परिहसति—**पुरेति।**अवतमसयुक्तेऽपि अल्पान्धकारवत्यपि कुञ्जे। ‘क्षीणेऽवतमसं तमः’ इत्यमरः। चकिता त्रस्ता।हे तरुणि, भवती दिवापि अन्तरं दिवसस्य मध्यं व्याप्य दिनमध्य इत्यर्थः। नागात्। सैव भवती तमिस्रार्धे कृष्णपक्षीयरात्रे निशीथे तत्रापि तमालैरिति। त्रास आस्तां प्रत्युत मुदितेति। यथा यथान्धकारवृद्ध्याभिसारवर्त्मनि कष्टं तथा तथा तवानन्द इति रागलक्षणं तत्रापि मानिनी कलहान्तरि-
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*सेकं प्रथममपेक्षते। अत्र वर्णपक्षे भीरुतेति। खण्डश्लेषत्वान्नान्वेति, रतिपक्षे त्वन्वेति। भीरुता चावहित्थार्थ कृत्रिमैवेत्युदाहरणे व्यक्तीभविष्यति। ततश्च सैवौषधिः तस्याः सेकः संभेद आदिर्यत्र सः॥१२१॥ या काचिन्मानिनी निजाभिसरणं प्रार्थयमानायां यस्यां भयं व्याजं कृत्वा नाभिसृतवती पश्चात् तामुत्कण्ठिततया स्वयमभिसरन्तीं सा दूती परिहसति—पुरेति। अवतमसं क्षीणं तमः।**दिवाप्यन्तरमिति।*दिवसे यो मध्यभागस्तमभिव्याप्य।कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे द्वितीया। मुदितेति। तत्र प्रियस्यास्तित्वनिश्चयात् तं मृग-
** अथ रक्तिमा—**
रागः कुसुम्भमञ्जिष्ठासंभवो रक्तिमा मतः॥१२३॥
** तत्र कुसुम्भरागः—**
कुसुम्भरागः स ज्ञेयो यश्चित्ते सज्जति द्रुतम्॥१२४॥
अन्यरागच्छविव्यञ्जी शोभते च यथोचितम्।
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तेति श्रीकृष्णकृतप्रतारणदुःखं सुखं मन्यमानेत्यर्थः। श्लोकेऽस्मिन् भीरुताप्राथम्यं चिरसाध्यत्वं प्रकाशाधिक्यं च रागस्य स्पष्टमेव॥१२२॥ **राग इति।**तेन रक्तिमा द्विविध इत्यर्थः॥१२३॥ कुसुम्भराग इव कुसुम्भराग इत्यर्थः। दृष्टान्तपक्षः प्रसिद्ध एवेति दार्ष्टान्तिकपक्षं योजयति— चित्ते पटादिस्थानीये द्रुतं सज्जतीति अल्पतरघृतस्नेहस्य बहुतरमधुस्नेहेन संमेलने बहुमधुन औष्ण्यसंपर्केण प्रक्लिन्नस्याल्पघृतस्य बहुतरमधुनेव कालविलम्बाभावस्य युक्तिसिद्धत्वादिति भावः। अन्यरागोऽत्र माञ्जिष्ठलाक्षादि तस्यैव छविं व्यञ्जयतीति श्यामलादीनां रागः श्रीराधिकादिरागसादृश्यं प्राप्नोतीत्यर्थः। यथोचितमिति। पात्र-
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यते॥१२२॥ राग इति। रक्तिमाख्यो रागः कुसुम्भसंभवो मञ्जिष्ठासंभवश्चेति द्विविध इत्यर्थः। सामान्यतया प्रयुक्तत्वेनोभयवाचित्वात्॥१२३॥ तत्र कुसुम्भरागे दृष्टान्तः प्रसिद्ध एवेति तदनुसारेण दार्ष्टान्तिकं योजयति—कुसुम्भेति। चित्ते पटस्थानीये साधनवशात्तत्कालमेव सिद्धवल्लवीदेहानां तत्प्रियासु प्रवेष्टुमिच्छूनां मनसि सुकरप्रबोधत्वात् द्रुतमेव सज्जति। आसक्तो भवतीत्यर्थः। नतु माञ्जिष्ठवद्दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकोर्दुष्करप्रबोधत्वात् कृतविलम्बमित्यर्थः। नतु नित्यसिद्धानां चित्त इति व्याख्येयम्। तद्रागस्वभावत्वात्। अन्येति। अन्यरागः प्रथमद्वितीयतृतीयक्रमेण तस्यान्योऽन्यो यो रागस्तेनैव छविव्यञ्जी न तु माञ्जिष्ठवत् सकृदेवोदितेन परमरागेण तद्व्यञ्जीत्यर्थः। एकांशेनैव दृष्टान्तत्वात्, दार्ष्टान्तिके त्वस्य माञ्जिष्ठरागाश्रयत्वात्। चिरादेव तत्सज्जेन छविव्यञ्जीत्यपि व्यज्यते। शोभते च यथोचितमिति सर्वस्मिन्नपि पक्षे स्वानुरूपमेव शोभते नतु माञ्जिष्ठ-
- २९ उज्ज्व०*
** यथा—**
त्वय्येव श्रवणावधि प्रियसखी या कृष्णबद्धान्तरा
या दृष्टे भुजगेऽपि तावकभुजा साम्यात्प्रमोदोन्मदा।
प्रेक्ष्य त्वां पुरतोऽद्य कामपि दशां प्राप्तास्ति सेयं तथा
न ज्ञायेत यथा किमेष बलवान् रागो विरागोऽथवा॥१२५॥
सदाधारविशेषेषु कौसुम्भोऽपि स्थिरो भवेत्।
इति कृष्णप्रणयिषु म्लानिरस्य न युज्यते॥१२६॥
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साद्गुण्यानुरूपमित्यर्थः॥१२४॥ श्यामलायाः सखी काचिदमितार्था श्रीकृष्णं प्रत्याह— **त्वयीति।श्रवणावधीति।**यश्चित्ते सज्जति द्रुतमित्यस्य व्यञ्जकं श्रवणमारभ्यैव चित्ते सज्जनात्। या दृष्टेर्भुजगेऽपीत्यन्यरागच्छविव्यञ्जीत्यस्य व्यञ्जकं स्पृष्टे भुजगेऽपीति अनुरक्तत्वेनोपमानभूतस्य श्रीराधिकाया माञ्जिष्ठरागस्य दुर्ग्रहत्वं दर्शितमाधिक्येन स्थापनात्। प्रमोदोन्मदेति। रागसामान्यलक्षणम्। प्रेक्ष्य त्वामित्यादि। शोभते च यथोचितमित्यस्य व्यञ्जकम्। कामपि दशां त्वदौत्सुक्यभरनिगीर्णान्तःकरणत्वाद्बहिर्वृत्त्यनुसंधानरूपां ‘वलवान् रागो विरागोऽथवा’ इत्यनेन रागस्य विरागस्य च बलवत्त्वे सत्यहंताममतास्पदयोस्त्यागसंभवात्। तां यदि त्वमद्यनाभिसरिष्यसि तदा सा न जीविष्यतीत्यर्थो व्यञ्जितः॥१२५॥ ननूक्तोदाहरणे श्रीराधिकादिनिष्ठस्य माञ्जिष्ठरागस्यैव कुसुम्भरागस्यास्य शोभाधिक्यमेव सूचितं; वस्तुतस्तु कुसुम्भरागस्य स्थिरत्वाभावात् तथानौचित्यमित्यत आह— सदाधारेति। तादृशगुणेन केनचित् क्वाथेन कषायितेषु
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तुल्यमित्यर्थः॥१२४॥ त्वय्येवेत्यस्य पूर्वार्धे रागसामान्यव्यञ्जना। तत्र श्रवणावधीति। ‘यश्चित्ते सज्जति द्रुतम्’ इत्यस्य व्यञ्जकम्। श्रवणमारभ्यैव चित्ते सज्जनात्। अन्यरागच्छवीत्यस्य या दृष्टे भुजगेऽपीति व्यञ्जकम् \। या स्पृष्टेऽपीत्यनुक्तत्वात् प्रथममेव सोपानमिदमिति क्रमव्यञ्जनात् ‘शोभते च यथोचितम्’ इत्यस्य प्रेक्ष्य त्वामित्यादिकं व्यञ्जकम्। कामपि दशामित्यनेनोक्ता दशा ह्यत्र प्रणयमानः। सा चास्याः सखीश्लाधितामपि माञ्जिष्ठरागिण्य इव न भ्रुकुटिबन्धादिपरिकराकिंतु संकोचेन तदाच्छादनमयीति तद्वन्न शोभत इति कविचरणानामभिप्रायः॥१२५॥ ननु कुसुम्भरागतुल्यत्वेन कालाद्व्ययितेत्यपि गम्यत इत्याशङ्क्याह—सदाधारेति। सदाधारत्वेनात्र गुणविशेषः ख्याप्यते। तत्र
** अथ माञ्जिष्ठरागः—**
अहार्योऽनन्यसापेक्षो यः कान्त्या वर्धते सदा।
भवेन्माञ्जिष्ठरागोऽसौ राधामाधवयोर्यथा॥१२७॥
** यथा—**
धत्ते द्रागनुपाधि जन्म विधिना केनापि नाकम्पते
सूतेऽत्याहितसंचयैरपि रसं ते चेन्मिथो वर्त्मने।
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पटादिष्वित्यर्थः। कृष्णप्रणयिषु श्यामलादियूथेषु माञ्जिष्ठरागिणीसङ्गिषु॥१२६॥ अहार्यो वर्णपक्षे जलादिना कालेन वा अनाश्यः, प्रेमपक्षे संचारिभावैश्चालयितुमशक्यः। अनन्यसापेक्षः स्वतःसिद्ध एव नतु श्यामाराग इव किमप्यौषधमपेक्षत इत्यर्थः। कान्त्या सदा वर्धत एव नतु कुसुम्भरागादिरिव परिमितकान्तिरित्यर्थः। किं चास्य कान्त्या सदा वृद्धिरेव नच नवनवीभाव इत्यनुरागलक्षणेन सांकर्य नमन्तव्यम्॥१२७॥ नान्दीमुख्या रागलक्षणं परिपृष्टा पौर्णमासी तां प्रत्याह—धत्त इति। अनुपाध्युपाधि विनैव जन्म धत्त इत्यनन्यसापेक्षत्वम्। केनापि प्रकारेण विजातीयभावमिलनेनापीत्यर्थः। आ ईषदपि न कल्पते स्थाने स्थित एव स्पन्दनमपि नाप्नोतीत्यहार्यत्वम्। अत्या-
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पटपक्षे सदाधारत्वं केनचित्क्वाथेन कषायितत्वम्। चित्तपक्षे माञ्जिष्ठरागिण्याः सङ्गेन भावितत्वम्॥१२६॥ अहार्यः कथंचिदप्यपगमयितुमशक्य इत्यर्थः। पूर्वस्याधारगुणेनाहार्यत्वमित्यत्र तु स्वरूपगुणेनापीति विशेषादत्रैवाहार्यत्वमुक्तम्। अनन्यसापेक्ष इति। दृष्टान्तपक्षे कौसुम्भवन्न तत्तदंशतासापेक्षः। किंतु सर्वांशेनैव तादृश इत्यर्थः। दार्ष्टान्तिकेऽपीदृगेव। यः कान्त्या वर्धत इति दृष्टान्तपक्षे प्रसिद्धमेव। दार्ष्टान्तिकपक्षे तादृशो राग एवानुरागच्छवि व्यञ्जयतीति भावः। ततोऽनुरागलक्षणेन न सांकर्यम्॥१२७॥ धत्त इति। अत्राहार्यत्वादिकं स्फुटमेव। अनुपाधीति विनापि श्रवणादिलक्ष्यमित्यर्थः। तादृशमपि जन्म द्रागेव धत्ते नतु कौसुम्भवत्तदंशक्रमेणेत्यर्थः। यश्चित्ते सज्जति द्रुतमित्यत्र चित्तव्यञ्जनाया एव द्रुतत्वमुक्तं न तु रागोत्पत्तिरिति भेदः। विधिना केनापि नाकम्पत इति। कम्पनमत्रस्थाने स्थितस्यैव किंचिदान्दोलः। तत्र चाशब्दे-
ऋद्धिं संचिनुते चमत्कृतिकरोद्दामप्रमोदोत्तरा
राधामाधववोरयं निरुपमः प्रेमानुबन्धोत्सवः॥१२८॥
** यथा वा विदग्धमाधवे—**
मया ते निर्बन्धान्मुरजयिनि रागः परिहृतो
मयि स्निग्धे किंतु प्रथय परमाशीस्ततिमिमाम्।
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हितसंचयैर्गुरुजनादिनिबन्धनभयकष्टसमूहैरपि रसमास्वादविशेषमेव तेन न तु कमप्युद्वेगमित्यर्थः। तेऽत्याहितसंचया यदि मिथो वर्त्मने परस्परवर्त्म प्रापयितुं भवन्तीति रागसामान्यलक्षणमुक्तम्। ‘अत्याहितं महाभीतिः’ इत्यमरः। ऋद्धि संचिनुते इति सदा कान्तिवृद्धिरुक्ता॥१२८॥ उक्तोदाहरणं माञ्जिष्ठरागस्य लक्षणाकारमभूदित्यपरितुष्यन्नाह— यथावेति। पूर्वरागे प्रेमं परीक्षमाणां श्रीकृष्णप्राप्त्ययोग्यत्वे युक्ति ब्रुवाणां पौर्णमासी प्रति श्रीराधा प्राह—मयेति। ते तव निर्बन्धादिति। तेन स्वतस्तत्त्यागेऽसामर्थ्य द्योतयति। मुरजयिनि श्रीकृष्णे रागस्तत्प्राप्त्याशालक्षणः परिहृतस्त्यक्तः। किंतु हे स्निग्धे मयि स्नेहवति, आशीस्ततिं प्रथमं महातापस्यास्तवाशीस्ततिरवश्यं फलिष्यत्येवेति भावः। ननु त्वं चिरजीविनी भूया इत्येव ममाशीस्ततिस्तत्राह—इमां वक्ष्यमाणप्रकारामेव नतु तदन्यथाभूतां कामपीत्यर्थः। त्वयैव शिथिलिते मदाशावन्धे ततो विच्युता मत्प्राणा इमां तनुं संप्रति त्यजन्त्येव न पुनस्तान् त्वदाशीस्ततिरपि रक्षितुं प्रभवतीति भावः। ननु
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*नात्र ईषदपीति व्यज्यते तच्चेषत्वमत्र नातिव्यक्तमेव। तदुक्तं न ज्ञायते यथेत्यादि। ततो नाकम्पते इति कौसुम्भरागवदस्य कम्पसंभावनापि न जायत इत्यर्थः। तत्र दृष्टान्तपक्षे द्वयोस्तयो रागयोर्लोके तद्रूपता दृष्टैरसंभावनासंभवविषयत्वम्। दार्ष्टान्तिके पूर्वत्र तटस्थताया, उत्तरत्र स्वाधीनभर्तृकताया व्यक्तेरिति भावः। ‘अत्याहितं महाभीतिः कर्मजीवानपेक्षि च’ इत्यमरः। ते अत्याहितसंज्ञया मिथो वर्त्मने वर्त्म प्रापयितुं चेत्तदा तैरपि समास्वादं सूते। ‘ते चेन्मिथो लम्भकाः’ इति वा पाठः॥१२८॥ **मया ते निर्बन्धादिति।*पूर्वरागे पौर्णमासी प्रति श्रीराधावचनम्। तत्र तन्निवारणमयात्यन्तभीतिभी
मुखामोदोद्गारग्रहिलमतिरद्यैव हि यतः
प्रदोषारम्भे स्यां विमलवनमालामधुकरी॥१२९॥
पूर्वपूर्वस्तु यो भावः सोमाभादौ स राजते।
तथा भीष्मसुतादौ च श्रीहरेर्महिषीगणे॥१३०॥
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यदि त्वं जीविष्यस्येव तर्हि किं ममाशीस्तत्येत्यत आह—मुखेत्यादि। यदाशीस्ततेर्हेतोर्वनमालासंबन्धिनी मधुकरी अहं स्यां मधुकर्या वनमालाप्राप्तियोग्यता अस्त्येव। ‘जरत्यास्त्वं नप्त्रीस तु कमलया लालितपदः’ इतिवत्। तत्रापि त्वया प्राप्त्ययोग्यता वक्तुमशक्येति भावः। ननु तत्र ते को लाभस्तत्राह—मुखामोदस्यान्तरीणस्य बाह्यस्य च जृम्भादिना य उद्गारस्तत्र ग्रहिला मतिर्यस्याः सा।एतज्जन्मना तिर्यग्जन्मना वा ममतत्रैव वाञ्छेति भावः। अद्यैवेति। कालविलम्बस्यासह्यत्वात्। तत्रापि प्रदोषारम्भ एव संप्रति सायंकाले एतद्देहं त्यक्त्वैवेति भावः। अतं एवाशिषां ततिमिति तत्सिद्ध्यर्थ पुनः पुनराशीस्त्वया कर्तव्येति भावः। प्रथयेति। एषा ख्यातिस्तव च मम च भवत्विति भावः। तत्राहार्यत्वं पौर्णमास्यास्तादृशवाक्योत्थदैन्यसंचारित्रावल्येनापि रागस्याप्यनपगमात्। अनन्यसापेक्षत्वं तु स्पष्टमेव। कान्त्या वृद्धिस्तदर्थ तिर्यग्जन्मप्रार्थनान्मयि स्निग्धे किंतु प्रथयेत्यादिवाक्यस्य सोल्लासत्वात् देहत्यागदुःखमपि सुखमिति रागसामान्यलक्षणम्॥ १२९॥ स्नेहादिरागान्तानां द्विविधत्वेनोक्तानां प्रेमभेदानामाश्रयं व्यवस्थया निश्चिनोति। पूर्वपूर्वः घृतस्नेहोदात्तमैत्र्यसुमैत्र्यनीलिमरागरूपः। सोमाभा चन्द्रावली तत्रादिशब्दाच्चन्द्रावल्यां नीलीरागः, तत्सुहृदि भद्रायां श्यामारागः। एवं तत्र पूर्वत्र स्नेहे प्रलये च सन्नपि भेदसूक्ष्मत्वान्न गणितः। किं च समर्थ-
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रागप्रकारश्चात्यन्तमेव जातः। अद्यैव विमलवनमालामधुकरी स्यामिति स्वदेहत्यागोऽपि सुखाय मतः। पूर्वत एवेदृशत्वादनन्यसापेक्षता च॥१२९॥ पुनर्घृतस्नेहादीन् सग्रहेणव्यवस्थापयति—पूर्वपूर्व इति। घृतस्नेह उदात्तो मैत्रं सुमैत्रं नीलिमेत्यादिः पूर्वपूर्वः। सोमभा चन्द्रावली मधुस्नेहो ललितः सख्य सुसख्यं रक्तिमेत्यादिरुत्तरोत्तरः। भावान्तराणि अन्ये भावाः। ते चैकचत्वारिंशत्। तत्र स्थायी मधुराख्यः। व्यभिचारिणस्त्रयस्त्रिंशत्, हासादयः सप्तेति
य उत्तरोत्तरो दिव्योराधिकादौ स दीव्यति।
तथा श्रीसत्यभामायां लक्ष्मणायामपि क्वचित्॥१३१॥
इत्थं भेदेन भावानां सर्वगोकुलसुभ्रुवाम्।
आत्मपक्षविपक्षादिभेदाः पूर्वमुदीरिताः॥१३२॥
या भावान्तरसंबन्धाज्जायन्ते विविधा भिदाः।
अपरा अपि भावानां ज्ञेयास्ताः प्रज्ञया बुधैः॥१३३॥
** अथानुरागः—**
सदानुभूतमपि यः कुर्यान्नवनवं प्रियम्।
रागो भवन्नवनवः सोऽनुराग इतीर्यते॥१३४॥
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रतिमतीष्विव समञ्जसमतिष्वपि स स यथोचितं भवतीत्याह—तथा भीष्मसुतेति। उत्तरोत्तरो मधुस्नेह-ललित-सख्य-सुसख्य-रक्तिमरागरूपः। तत्र श्रीराधाललितादौमाञ्जिष्ठरागः, तत्सुहृदि श्यामलायां कुसुम्भरागः, लक्ष्मणायां श्यामलास्थानीयायाम्। अत्र घृतमधुनोरुदात्तललितयोर्मैत्र्यसख्ययोः सुमैत्र्यसुसख्ययोर्नीलिमरक्तिम्नोपूर्वपूर्वश्चन्द्रावल्यादौ, उत्तरस्तत्सुहृदि भद्रादौ। एवं रक्तिमनि कुसुम्भमाञ्जिष्ठयोरुत्तरोत्तर इत्युक्तत्वात्। पूर्वःश्यामलादौ, उत्तरः श्रीराधादाविति व्याख्येयम्॥ भावानां घृतस्नेहादीनां पूर्व स्वपक्षविपक्षादिभेदप्रकरणे॥ न केवलं ‘स्यात्सुपक्षः सुहृत्पक्षस्तटस्थः प्रतिपक्षकः।’ इति पूर्वोक्ताश्चतस्र एव भेदा गणनीयाः किं तु ग्रन्थविस्तरभयादनुक्ता अपि वह्वयोऽपरा भिदाः सन्तीत्याह—या इति। अयमर्थः—यथा शुक्लनीलरक्तपीतानां चतुर्णां वर्णकानां मिश्रणभेदेनानन्ता एव वर्णा भवन्ति एवं घृतस्नेहमधुस्नेहयोर्भावयोः पुरस्परमर्धपादैकपादसार्धपादादिमिश्रणभेदेन तथैव नील्यादिरागानामप्यर्धपादामेणपरस्परमिश्रणेन विविधनामरूपा एव भावा स्थायिन संभवन्ति तद्वत्योविषयत्वम् नोऽपि विविधभेदा भवन्तीति॥१३०॥१३१॥१३२॥१३३॥ प्रियं नं नायकरूपं वा सदा अनुभूतमपि आस्वादितचररूपगुणमाधुर्यमपि हितसंज्ञया पूर्वमिव यो रागः पूर्वोक्तलक्षणोऽत्र तु तृष्णाविशेषत्वेन परिणतो चेन्मिथोतचरमिव नित्यनवास्वाद्यमानमेव कुर्यात् स स्वयमपि नवनवो भवन्
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पूर्वरागे पौवनवत्वंमुहुरननुभूतपूर्वत्वम्॥१३०॥१३१॥१३२॥१३३॥
** यथा दानकेलिकौमुद्याम्—**
प्रपन्नः पन्थानंहरिरसकृदस्मन्नयनयो-34
रपूर्वोऽयं पूर्वं क्वचिदपि न दृष्टो मधुरिमा।
प्रतीकेऽप्येकस्य स्फुरति मुहुरङ्गस्य सखि या
श्रियस्तस्याः पातुं लवमपि समर्था न दृगियम्॥१३५॥
** यथा वा—**
कोऽयं कृष्ण इति व्युदस्यति धृतिं यस्तन्वि कर्ण विशन्
रागान्धे किमिदं सदैव भवती तस्योरसि क्रीडति।
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राग एवानुरागः स्यात्। अत्रानुभूतस्यापि प्रियस्य यदननुभूतत्वं तत् क्वचिदेकांशेन, क्वचित्सर्वांशेनाप्युदाहरणद्वयाज्ज्ञेयम्॥१३४॥ गोवर्धने दानघट्टे तिष्ठन्तं श्रीकृष्णं दूरादालोकयन्ती श्रीराधा वृन्दां प्रत्याह—प्रपन्नः प्राप्तः। असकृद्बहुवारमेव। किंत्वस्यायमद्यतनो मधुरिमा अपूर्वोऽद्भुतः। मधुरिमाणमेव विवृणोति— एकस्याङ्गस्य हस्तपादादेः प्रतीक एकस्मिन्नप्यवयवेऽङ्गुल्यादौ या श्रीः शोभा स्फुरति तस्याः श्रियो लवमपि एकं लेशमपि। ‘अङ्गं प्रतीकोऽवयवोऽपघनः’ इत्यमरः। अत्र तदीयमधुरिम्णो मुहुरनुभूतस्याप्यननुभूतत्वभानसमर्पको योऽतितृष्णाविशेषः सोऽयमनुरागः॥१३५॥ एकांशेनानुरागमुक्त्वा सर्वांशेनापि तं वक्तुमाह—यथा वेति। कदाचित् कृष्णकथोपक्रमेऽत्युत्कण्ठावती श्रीराधा अनुरागनाम्नः स्थायिनो हृदि सम्यगुदये सति ललितया सह संलपति— कोऽयं कृष्ण इति। कृष्ण इत्यक्षरद्वयमयी यस्य संज्ञा सोऽयं क इति प्रश्नः। ननु यःस भवतु किं ते प्रश्नेनेत्यत आह—यः कर्णमेकमेव न च द्वौ
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॥१३४॥ प्रतीकेऽवयवे। एकदेश इति यावत्॥१३५॥ अत्र तात्कालिकीमपि कृष्णसंगतिमुत्कण्ठया विस्मृतां विधाय पृच्छन्त्याः सख्याः सख्या सह प्रश्नोत्तरमयं वचनमुदाहरणमाह— कोऽयमिति। तत्र कोऽयमिति, रागान्ध इति, हास्यमिति, मोहिते इति, सत्यं सत्यमिति चारभ्य तत्तद्वचनं ज्ञेयम्। तत्र
हास्यं मा कुरु मोहिते त्वमधुना न्यस्तास्यहस्ते मया
सत्यं सत्यमसौ हगङ्गनमगादद्यैव विद्युन्निभः॥१३६॥
परस्परवशीभावःप्रेमवैचित्र्यकं तथा।
अप्राणिन्यपि जन्माप्त्यैलालसाभर उन्नतः॥१३७॥
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कर्णौविशन् प्रविशनेन न तु प्रविश्य मम धृति विशेषेणोदस्यति सामस्त्येनैव लुम्पति। न जाने नेत्रं प्रविशन् मे किं करिष्यत्यतोऽयं ज्ञातुमर्ह इति ध्वनिः। तस्मात् सकाशात् स्वीयकुलधर्मस्य रक्षणे युक्तिश्चिन्तनीयेत्यनुध्वनिः। ललिताह—हे रागेणात्युत्कण्ठयान्धे, किमिदं त्वमिदं कि ब्रूषे इत्यर्थः। तं किं त्वं न परिचिनोषीति भावः। ननु सत्यं वच्मि नाहं परिचिनोमीत्यत आह— सदेत्यादि। श्रीराधा प्राह—हास्यं मा कुर्विति। असंभववचनस्य हास्य एव पर्याप्तेरिति भावः। ललिताह—हे मोहिते इति। अतितृष्णयेव त्वमधुना लुप्तज्ञानीकृतेति भावः। ननु तर्हि त्वमेव स्मारयेत्यत आह—त्वमित्यादि।अधुनेति। कालविलम्बोऽपि न जात इति भावः। तत्रापि मयैव नत्वन्यजनद्वारा। तत्राप्यस्य हस्त एवेति संभोगादिकमपि कारितमिति भावः। श्रीराधा प्राह—सत्यं सत्यमिति। त्वया साधु स्मारितास्मीति भावः। ननु तर्हि कथं न परिचिनोमित्यपलपसि। तत्राह—अद्यैव मज्जन्ममध्य इति भावः। तत्रापि विद्युन्निभोऽतिसूक्ष्मक्षणमात्रमेव। तत्रापि दृशोरङ्गणमेवागात् नतु सम्यगन्तरमिति कथं सम्यक् परिचेतुं प्रभवामीति भावः॥१३६॥ अनुरागस्यानुभावानाह— परस्परवशीभाव इति। प्रेमादिषु नायकस्यैव वशीभावः स्पष्टो भवेत्, नायिकायास्तु लज्जावहित्थादिभिरवशीभाव एव तत्र तत्र सुरसोऽपि स एवोच्यते, अनुरागे तु तृष्णाधिक्यादवहित्थागर्वासूयादेवकाशाभावान्नायिकाया अपि स्पष्ट एव वशीभाव इत्यत्रैव परस्परवशीभावो व्यक्तो भवेदुज्ज्वलरसे। दास्यादिरसे त्ववहित्थादि संचारिभावाभावात् प्रेमारम्भमारभ्यैव परस्परवशीभावो भवेत्। यदुक्तम्—साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्। मदन्यं ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि॥” इति। भगवतो भक्तवश्यता भक्तानामपि भगव-
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किमिदमिति क्रिमिदं ब्रूषे इत्यर्थ। अधुना सप्रत्येव न्यस्ता आनीय समर्पिता॥१३६॥ परस्परवशीभावः प्रेमादिषु सन्नप्यत्रविलक्षणो ज्ञेयः। वैलक्षण्यं च
विप्रलम्भेऽस्य विस्फूर्तिरित्याद्याः स्युरिह क्रियाः।
** तत्र परस्परवशीभावो यथा—**
समारम्भं पारस्परिकविजयाय प्रथयतो-
रपूर्वा केयं वामधदमनसंरम्भलहरी।
मनोहस्ती बद्धस्तव यदनया रागनिगडै-
स्त्वयाप्यस्याः प्रेमोत्सवनवगुणैश्चित्तहरिणः॥१३८॥
प्रेमवैचित्र्यसंज्ञस्तु विप्रलम्भः स वक्ष्यते॥१३९॥
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द्वश्यता सर्वशास्त्रप्रसिद्धैव॥१३७॥ परस्परमन्विष्यतोः श्रीराधाकृष्णयोरत्युत्कण्ठया कस्यांचित् कुञ्जप्रतोल्यां मिलितयोरानन्दधारास्नपितयोरुदितमद्भुतमाधुर्यमास्वादयन्ती तत्रैवाकस्मादायाता कुन्दलता सविस्मयानन्दमाह— समारम्भमिति। पारस्परिकः परस्परसंबन्धी यो विजयस्तस्मै परस्परं विजेतुं हस्तवशीकर्तुमिति यावत्।सम्यगारम्भं प्रथयतोर्लोकविख्यातमपि कुर्वतोरत्यासक्तिवशान्नापि लज्जमानयोरिति भावः। वां युवयोः संरम्भलहरी दर्शनस्पर्शनचुम्बनादिषु अत्यौत्सुक्यवशादावेशपरम्परा केयमपूर्वा। पूर्वमेवं न दृष्टासीत् संप्रति केयं नवनवायमानेति भावः। यतस्तव मनोहस्ती अनया बद्ध इति श्रीकृष्णमनसोऽस्तित्वं बहुवल्लभतया बहुकोटिगामितया दुर्वारत्वांशेन श्रीराधाचित्तस्य हरिणत्वं श्रीकृष्णमाधुर्यनवपल्लवलोभित्वाशेन। उभयत्रैव बन्धनसाधनमनुराग एव रागा एव निगडास्तैरिति रागाणां बहुत्वमनुराग एव तथा प्रेम्णो य उत्सवोऽतिविततत्वं तेन नवा नवीनत्वेन भासमाना गुणास्तैरित्यर्थतोऽनुराग एव॥१३८॥ आत्मानमकृतार्थ मन्यमाना श्रीराधा ललितामाह—वेणुषु वेणुजातिषु जनुर्जन्म वरयितुमिति।‘वर ईप्सायाम्’ चुराद्यदन्तः। हे क्षामोदरि कृशोदरीति तव वा मम
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परस्परनवनवायमानवशीभावत्वम्॥१३७॥ तथाह्युदाहरणम्— समारम्भमिति। पारस्परिकविजयाय समारम्भं प्रथयतोर्वा युवयोः केयमपूर्वा संरम्भलहरी उत्साहपरम्परा ता न वुध्याम इत्यर्थः। अवोधने च हेतुं विवृणोति— मन इति। अनया तव मनोहस्ती बद्ध एव। त्वयाप्यस्याश्चित्तहरिणो वद्धः। तर्हि किमर्थं पुन पुनरुद्यम इत्यर्थः। तस्मान्नवनवतयैव युवयोर्मिथःस्फूर्तिरिति
** अप्राणिन्यपि जन्मलालसाभरो यथा दानकेलिकौमुद्याम्—**
तपस्यामः क्षामोदरि वरयितुं वेणुषु जनु-
र्वरेण्यं मन्येथाः सखि तदखिलानां सुजनुषाम्।
तपस्तोमेनोच्चैर्यदियमुररीकृत्य मुरली
मुरारातेर्बिम्बाधरमधुरिमाणं रसयति॥१४०॥
** अथ विप्रलम्भे विस्फूर्तिर्यथा—**
ब्रूयास्त्वं मथुराध्वनीन मथुरानाथं तमित्युच्चकैः
संदेशं व्रजसुन्दरी कमपि ते काचिन्मया प्राहिणोत्।
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वा सौन्दर्यवता मनुष्यजन्मनानेन किं कार्यं यदि कृष्णो न लभ्यत इति भावः। ननु देवादिजन्म हित्वाकिं तिर्यग्जन्म प्रार्थयसे। तत्राह— वरेण्यमित्यादि। अत्र हेतुस्तपस्तोमेनेत्यादि। इयं मुरली यद्वेणुषु जनुरुररीकृत्याङ्गीकृत्य। अत्र श्रीराधायाः प्रकरणवशाद्रात्रिदिवं तेन सह दिव्यलीलया दीव्यन्त्या अपि अतितर्षभरात्तत्तदनुभूतत्वेन भावनसमर्पकोऽनुराग एव ज्ञेयः॥ १३९॥ विस्फूर्तिर्विशिष्टा स्फूर्तिः। साक्षाद्दर्शनाकारेत्यर्थः। स्फूर्तिसामान्यस्य रत्यादावपि दृष्टेः। यदुक्तं रतिमानवता बिल्वमङ्गलेनापि—‘हस्तमुत्क्षिप्य यातोऽसि बलात्कृष्ण किमद्भुतम्।’ इति बिल्वमङ्गलस्य रतिमत्त्वं पूर्वग्रन्थे साधकभक्तलक्षणे ‘उत्पन्नरतयः सम्यङ्नैर्विघ्न्यमनुपागताः। बिल्वमङ्गलतुल्या ये साधकास्ते प्रकीर्तिताः॥’ इत्यत्रोक्तम्। तथा कर्णामृतेऽपि ’ हा हन्त हस्तपथदूरमहो किमेतदाशाकिशोरमयमम्व जगत्त्रयं मे॥” इति स्फूर्तिरेव॥१४०॥ मथुरास्थं श्रीकृष्णं पान्थद्वारा ललिता संदिशति—ब्रूया इति। मया द्वारभूतेन ते तुभ्यं कमपि संदेशं व्रज-
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भावः। अत्र हस्तित्वेन तस्य मनसो दुर्वशताम्, हरिणत्वेन तस्यास्तु सुवशतां ब्यज्य तस्मिन्नुपालम्भांशोऽपि व्यञ्जितः॥१३८॥ तपस्याम इति। अत्र च प्रकरणवशात्तल्लाभेऽवगतेऽप्यतृप्तिव्यञ्जनान्नवनवायमानत्वं व्यक्तम्॥१३९॥॥१४०॥ ब्रूयास्त्वमिति। अत्र च नवनवत्वं व्यक्तम्। प्रतिनवतास्फूर्तेः। किं च सोऽयं सदेशस्तत्पर्यन्तगमनासमर्थेऽप्ययोग्येऽपि पथिके यत्कृतिस्तेन तस्या
तत्र क्ष्मापतिपत्तने यदि गतः स्वच्छन्द गच्छाधुना
किं क्लिष्टामपि विस्फुरन् दिशि दिशि क्लिश्नासि हा मे सखीम्॥१४१॥
** अथ भावः—**
अनुरागः स्वसंवेद्यदशां प्राप्य प्रकाशितः।
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सुन्दरी प्राहिणोदिति त्वं मथुरानाथंब्रूयाः। ननु कः संदेशस्तत्राह—**तत्रेत्यादि।**क्लिश्नासीति। अयं भावः—त्वत्स्फूर्तौ सत्यामनया आलिङ्गनचुम्बनादिषु त्वां साक्षाद्वर्तिनं मत्वा प्रथममतिहृष्यते क्षणानन्तरं स्फूर्तिभङ्गेसति दुःखसमुद्रे निमज्जते। अतिध्वान्तोदर्कात् विद्युत्प्रकाशात् केवलान्धकारो वरमिव स्फूर्तिमद्विरहात् वरं केवलविरहो नातिक्लेशद इति॥१४१॥ अनुरागः स्वेनैवानुरागेणैव संवेद्या संवेदनार्हा या दशा तां प्राप्य प्रकाशितः प्रकाशयुक्तः सन्नत एव यावदाश्रय वृत्तिः स्यात्तदा भाव इत्यभिधीयत इत्यन्वयः। तेन च प्रकाशाभावे यावदाश्रयवृत्तित्वाभावस्तदा च स्वसंवेद्यत्वेऽप्यनुराग एव नतु भाव इत्यर्थ आयाति। ततश्च दशाशब्देनानुरागस्य सर्वोपरितन्येवावस्थोच्यते तत्रैव प्रकाशस्यावश्यकत्वात्। ‘आरुह्य परमां काष्ठांप्रेमा चिद्दीपदीपनः। हृदयं द्रावयन्नेष स्नेह इत्यभिधीयते॥’ इतिवत्। दशामात्रस्योक्तत्वेऽनुरागस्य सर्वा एव दशाः स्वसंवेद्या एवेति कोऽनुरागः को वा महाभाव इत्यनयोर्भेद एव न स्यात् रत्यादीनां महाभावानां सर्वेषामेव स्वसंवेद्यत्वात्॥ ननु तर्ह्यलं स्वसंवेद्यपदेनोपन्यस्तेन; अनुरागो निजोत्कर्षदशां प्राप्य इत्युच्यताम्। सत्यम्।भावानामेषां स्वरूपत्रयं प्रथमं स्वसंवेदरूपत्वं ह्लादांशेन, ततः श्रीकृष्णादिकर्मकसंवेदनरूपत्वं संविदंशेन, ततः संवेद्यरूपत्वं तदुभयाशेन। यदुक्तम्— ‘वस्तुतः स्वयमास्वादस्वरूपैव रतिस्त्वियम्। कृष्णादिकर्मकास्वादहेतुत्वं च प्रपद्यते॥’ इति। ततश्चानुरागः स्वसंवेद्यदशां प्राप्येत्युक्तेऽनुरागदशायाः भावत्वकरणत्वकर्मकत्वानां प्राप्तौ सत्यामनुरागोत्कर्षोऽयं श्रीकृष्णानुभवरूप इति प्रथमं सुखम्, ततश्च प्रेमादिभिरनुभूतचरोऽपि श्रीकृष्णः संप्रत्यनुरागोत्कर्षेणानुभूयत इति द्वितीयं सुखम्, ततश्च श्रीकृष्णानुभवनोऽयमनुरागोत्कर्षोऽनुभूयत इति तृतीयं सुखमिति सुखत्रयं प्रापयेत्यर्थ
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विचारराहित्यमेव सूचितम्। सखीवैयग्र्यस्य स्वस्मिन् स्पर्शात्। लक्षणं त्वाद्यग्रहणादिदमपि गम्यम्। क्लिश्नासि व्यथयसि॥१४१॥ अनुराग इति। प्रागुक्तोऽनुरागो
यावदाश्रयवृत्तिश्चेद्भाव इत्यभिधीयते॥१४२॥
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आयाति। किंच ‘रसो वै सः’ इति श्रुत्यनन्तरं ‘सैषानन्दस्य सीमा भवति’ इति श्रुतौ यथानन्दस्य सीमा अनुरागोत्कर्ष एव तत्र यथा शीतोष्णादिपदार्थेषु मध्ये शैत्याद्युत्कर्षसीमवन्तश्चन्द्रसूर्यादयः स्वसमीपदूरस्थपदार्थानपि सगुणाश्रयान् शैत्यादिमतः कुर्वन्ति तथैवायमनुरागोत्कर्षोऽपि श्रीराधाहृदये सम्यगुदितः श्रीकृष्णप्रीतिमज्जनमात्रमेव प्रेमानन्दमयीकरोतीत्याह—यावदिति। यावन्तं एवाश्रयाः साधकभक्ताः सिद्धभक्ताश्च तावत्सु वृत्तिर्यस्येति समासे तावत्पदस्यान्तर्भावः। यदुक्तं भाषावृत्तौ— ‘दध्नाउपसिक्त ओदनो दध्योदन इतिवत् क्वचिदन्तर्भावः’ इति। अत्र वृत्तिशब्देन सत्ता नोच्यते सर्वेषामेव महाभावत्वापत्तेः। किंतु वृत्तिर्व्यापारः क्रियेति यावत्। अत एव वक्ष्यते— आसन्नजनताहृद्विलोडनमिति
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यावदाश्रयवृत्तिश्चेत्।तर्हि स्वसंवेद्यदशां प्राप्य प्रकाशितो भाव इत्यभिधीयत इत्यन्वयः।भावशब्दस्य तत्रैव वृत्तिः परा काष्ठा। भगवच्छब्दस्य श्रीकृष्ण इवेति भावः। महाभावशब्दस्य तु क्वचित्तत्र प्रयोगः स्वयं भगवच्छब्दस्येव ज्ञेयः। अयमर्थः। यावदाश्रयमिति इयत्तायामव्ययीभावः। यावत्पात्रं ब्राह्मणानामन्त्रयस्वेतिवत्। आश्रयश्चात्र राग एव।तमाश्रित्यैवानुरागस्तादृशत्वं प्राप्नोति। ‘नवरागहिङ्गुलभरैश्चित्राय स्वयमन्वरञ्जयदित्युदाहरणेऽति तथा मंस्यते। वक्ष्यते च—रागानुरागतामादौ स्नेहः प्राप्यैव सत्वरम्।मानत्वं प्रणयत्वं च कचित्पश्चात्प्रपद्यते।’ इति। अत एवात्र शास्त्रेषु श्रूयते राधिकादिषु पूर्वरागप्रसङ्गेऽपि प्रकटं रागलक्षणम्। ततश्च यावदाश्रयस्येयत्तापन्नावृत्तिर्यस्येति अव्ययीभावगर्भवहुव्रीहित्वे यावती रागस्येयत्ता संभवति तावतीं तामापन्ना वृत्तिर्वर्तनं यस्येति गम्यते। स च स्वसंवेद्यदशां स्वस्य भावोन्मुखताप्राप्तानुरागवतस्तत्प्रेयसीजनविशेषस्येव न तु केवलानुरागवतः स्वसंवेद्यादशां तां प्राप्य प्रकाशितो यथावसरमुद्दीप्तादिसात्त्विकैःप्रकाशमानश्चेद्भाव इत्यभिधीयते इति। अयं भावः। रागःखलु ‘यद्दुःखमधिकं चित्ते सुखत्वेनैव व्यज्यते। यतस्तु प्रणयोत्कर्षात् स राग इति कथ्यते।’ इत्युक्तलक्षणः। दुःखस्य परमकाष्ठा कुलवधूनां स्वयमपि परममर्यादानां स्वजनार्यपथाभ्यां भ्रंश एव नाग्न्यादिर्न च मरणम्। ततश्च तत्कारितया प्रतीतोऽपि, श्रीकृष्णसंबन्धःसुखाय कल्पते। चेत्तर्ह्येव रागस्य परमे-
राधाया भवतश्च चित्तजतुनी स्वेदैर्विलाप्य क्रमा-
द्युञ्जन्नद्रिनिकुञ्जकुञ्जरपते निर्धूतभेदभ्रमम्।
चित्राय स्वयमम्बरं जयदिह ब्रह्माण्डहर्म्योदरे
भूयोभिर्नवरागहिङ्गुलभरैः शृङ्गारकारुः कृती॥१४३॥
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ब्रह्माण्डक्षोभकारित्वमिति च। सा च वृत्तिर्यथोचितमेव ज्ञेया वस्त्वन्तपदोपन्यासात्। यावन्तो यत्प्रमाणाश्रयास्तेषु तावती तावत्प्रमाणैव वृत्तिर्यस्येति व्युत्पत्तेर्यथा चन्द्रः सर्वमेव जगद् यतूस्वकिरणक्षेपैः शीतलीकरोति तत्तारतम्येनैवेति तथैव लक्षितो योगवियोगयोर्महाभावः। यदुक्तं प्रेमसंपुटे—‘आह्लादयन्नमृतरश्मिरिव त्रिलोकीं संतापयन् प्रबलसूर्य इवावभाति।’ इति॥१४२॥ क्वापि निकुञ्जे परस्परमाधुर्यास्वादनिमग्नयोरुद्दीप्तसात्त्विकभावालंकृतयोः श्रीराधाकृष्णयोर्महाभावमाधुरीमनुमोदयन्ती वृन्दा श्रीकृष्णमाह—तत्र स्वयं भगवति पुरुषाद्यवताराणां सर्वेषां लक्षणमिव महाभावे रत्यादिभावानां सर्वेषां चिह्नं च सूचयति— **राधाया इति।**शृङ्गाररस एव कारुः शिल्पी कृतौ स्वीयकर्मणि पण्डित इति रतिर्ध्वनिता। राधाया भवतश्चेति सूचितेनौपपत्येन लोकद्वयनिन्दानवेक्षणात् प्रेमा व्यञ्जितः। चित्ते एव जतुनी लाक्षे कर्मभूतैः स्वेदैः प्रेमोष्मभिः, पक्षेऽग्निसंतापैर्विलाप्य द्रवीकृत्य इति स्नेहः। युञ्जन्नेकीभावेन मेलयन्निति प्रणयः क्रमात् शनैः शनैरिति वाम्यस्य सूचितत्वान्मानः। निर्धूतभेदभ्रमं यथा स्यात्तथा युञ्जन्निति सुसख्यं द्योतितम्। हे अद्रीणां गोवर्धनादीना निकुञ्जेषु कुञ्जरपते महामत्तगजेन्द्रलीलेति सुकुमारचरणयोरद्रिगह्वरकुञ्जादिषु परस्परमिलनार्थ रात्रिदिवमभिसरतोर्यूनोः कष्टमपि सुखमेवेति रागः। नवो नित्यनवत्वेन भासमानो राग एव हिङ्गुलभरस्तैरित्यनुरागः। भूयो-
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यत्ता। ततश्च तामाश्रित्यैव प्रवृत्तोऽनुरागो भावाय कल्पते। सा चारम्भत एव व्रजदेवीष्वेव दृश्यते, पट्टमहिषीषु तु संभावयितुमपि न शक्यते। आरम्भत एवेति व्यञ्जयितुं नवरागहिङ्गुलभरैरित्यत्र नवशब्दो दास्यते। तदेवमेव ता एवोद्दिश्योद्धवः सचमत्कारमाह— ‘या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा’ इति। ईदृशोक्त्या च यद्यपि तासां त्यागो न संभवति तथापि कृत इति कुलाङ्गनात्वं परममर्यादात्वं च दर्शितम्॥१४२॥ एतत्सर्वानन्तरमस्य भावस्योदाहरणमाह—राधाया भवतश्चेति। स्वेदैस्तदाख्यसात्त्विकविशेषवृत्तिभिः। अन्त-
मुकुन्दमहिषीवृन्दैरप्यसावतिदुर्लभः।
व्रजदेव्येकसंवेद्यो महाभावाख्ययोच्यते॥१४४॥
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भिस्तैश्च बहुतरैरितिमहाभावः। नवो रागो रक्तिमा येषां तैर्हिङ्गुलभरैरिति विश्लेषश्च। चित्तजतुनी अन्वरञ्जयदिति हिङ्गुलारक्तस्य जतुनोऽन्तर्बहिर्हिङ्गुलाकारत्वमेवेत्युभयचित्तयोर्महाभावाकारत्वमनुरागोत्कर्षस्य स्वसंवेद्यत्वं च ब्रह्माण्डहर्म्योदरे चित्राय चित्रं कर्तुम्, पक्षे ब्रह्माण्डादिषु यानि हर्म्याणि धनिनां वासास्तदुदरे तद्वर्तिधनिजनहृदयेऽतिशयोक्त्या भक्तजनान्तःकरणेषु चित्राय चित्रं विस्मयं प्रापयितुं महाभावक्रियाक्षोभमनुभाव्येति भावः। एतेन यावदाश्रयवृत्तित्वमुक्तम्। एवमुत्तरत्राप्युदाहरणेषु महाभावचिहानि क्वचिद्व्यस्तानि क्वचित्समस्तानि गम्यमानानि च ज्ञेयानि॥१४३॥ महिषीवृन्दैरतिदुर्लभ इति। यद्यपि व्रजवर्तिनः प्रेमस्नेहाया अपि तैर्दुर्लभा एव तथापि जातिप्रमाणाभ्यां किचिन्नूनत्वेन समञ्जसरत्युचितास्ते नातिदुर्लभाः। अयं महाभावस्तु सर्वथैवातिदुर्लभ एव यतो व्रजदेव्येकसवेद्य इति। महिषीगणस्य तु समञ्जसरतिमत्त्वात् संभोगेच्छायाः सम्यक्प्रेमरूपत्वाभावादारम्भतो जात्यैव प्रेमानन्दसर्वाशापरिपूर्तिः। तत्परिणामभूतोऽनुरागो नोत्कर्षसीमा प्राप्नोतीति न तासां महाभावःसंभवेत्। श्रीमज्जीवगोस्वामिचरणास्तु दुःखस्य परमा काष्ठाकुलवधूना स्वयमपि परमसुमर्यादानां स्वजनार्यादीनां स्वजनार्यपथाभ्यां भ्रंश एव नाग्न्यादिर्न च मरणम्। ततश्च तत्कारितया प्रतीतोऽपि श्रीकृष्णसंबन्धःसुखाय कल्पते तर्ह्येव रागस्य परमेयत्ता। ततश्च तामाश्रित्यैव प्रवृत्तोऽनुरागो भावाय कल्पते सा चारम्भत एव व्रजदेवीष्वेव दृश्यते पट्टमहिषीषुतु सभावयितुमपि न शक्यते। तदेवमेव ता उद्दिश्योद्धवः सचमत्कारमाह—‘या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वेति’ आह—यथा पूर्वोक्तं लीलेत्यादिगुणचतुष्टयं श्रीगोविन्दैकनिष्ठ्यैव तथैवं महाभावोऽयं व्रजदेव्यै कनिष्ठ इति महा-
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र्वहिर्द्रवीभावरूपाभिः, पक्षे मुहुरग्नितापैः। चित्रायाश्चर्याय, पक्षे चित्रलेखाय। अत्र परस्परमभिन्नचित्तत्वात्तत्रान्यस्या अप्रवेशा स्वसंवेद्यदशा दर्शिता। तदेवमुत्तरेष्वपि॥१४३॥ ततश्च व्रजदेवीष्वेव महाभावोऽयं संभवतीत्याह— मुकुन्दमहिषीवृन्दैरपीत्येकेन॥१४४॥ तन्महिमद्वारापि तदेव प्रतिपा-
वरामृतस्वरूपश्रीः स्पं स्वरूपं मनो नयेत्।
स रूढश्चाधिरूढश्चेत्युच्यते द्विविधो बुधैः॥१४५॥
** तत्र रूढः—**
उद्दीप्ता सात्त्विका यत्र स रूढ इति भण्यते।35
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भावाख्ययोच्यते। प्रेम्णः प्रथमावस्था हि भावो रत्यपरपर्यायः। सर्वोत्कर्षपरमावधिरूपावप्येष भावो विवेकेन ज्ञापनार्थ महाभावापरपर्याय इति। मत्स्योऽपि परमेश्वरस्तथा श्रीकृष्णः स्वयं भगवानपि परमेश्वर इतिवत्॥ वरामृतस्येव स्वरूपश्रीर्यस्य सः। लौकिकेषु स्वादनीयवस्तुषु मध्येऽमृतादधिकं परं नास्ति तथैव लौकिकेषु प्रेमविशेषेषु महाभावादिति भावः। मनः स्वं स्वरूपं नयेत् महाभावात्मकमेव मनः स्यात्। महाभावात् पार्थक्येन मनसो न स्थितिरित्यर्थः। तेनेन्द्रियाणां मनोवृत्तिरूपत्वाद्व्रजसुन्दरीणां मनआदिसर्वेन्द्रियाणां महाभावरूपत्वात् तत्तद्व्यापारैः सर्वैरेवश्रीकृष्णस्यातिवश्यत्वं युक्तिसिद्धमेव भवेत्, पट्टमहिषीणां तु संभोगेच्छायाः पार्थक्येनापि स्थितत्वात् सम्यक्प्रेमात्मकमपि मनो न स्यात् कुतोऽस्य महाभावात्मकत्वशङ्केति॥१४४॥१४५॥ रासदर्शिन्यो विमानचारिण्यः परस्परमाहु— उन्मीलदिति। अनुरागिता ‘भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने। संसर्गेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः॥” इति। दर्शनाद्धूमार्थकेन इति प्रत्ययो नानुरागभूमत्वंमहाभाव एव।
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दयति— वरामृतेत्यर्धेन। वरामृतस्येव स्वरूपश्रीर्यस्य सोऽयं महाप्रभावः। स्वंस्वरूपं मनो नयेदित्यनेन ‘पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनङ्गबाणैर्यस्येन्द्रियं विमथितुं कुहकैर्न शेकुः।’ इतिवद्वृत्तान्तरं निषिद्धम्। तदेवमस्य सर्वतोऽतिपरमाश्चर्यरूपत्वं दर्शितम्, अत्रैव च लक्षणस्य परा काष्ठा।यावदाश्रया वृत्तिरित्यस्य यावन्त आश्रया द्रष्टारस्तावत्सु वृत्तिव्याप्तिर्यस्येत्यर्थे तावच्छब्दस्याध्याहारे कष्टापत्तिः स्यात्। स्वसंवेद्यदशां प्राप्येति च विरुध्येत्। तद्द्रष्टृणां सर्वेषामपि तत्साम्यापत्तिः स्यादिति रतिमात्रस्यापि स्वसंवेद्यदशास्त्येवेति तस्योदयक्रमेणोत्कर्ष दर्शयति— स रूढश्चेति॥१४५॥ तत्र प्रथमावस्थारूपं रूढभावमाह—उद्दीप्ता
उन्मीलत्कलहंसगद्गदरवा कम्पातिविक्षोभतः
संकीर्णा पृथुरोमहर्षदगतिर्वाष्पच्छटोद्गारिणी।
जाड्योत्सेकपरिप्लुता कुवलयोल्लासं मुहुर्बिभ्रती
गोपीनामनुरागितासरिदियं रासे वितेने रसम्॥१४६॥
निमेषासहतासन्नजनताहृद्विलोडनम्॥१४७॥
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रसजलं शृङ्गारादिकं च श्वेषेणास्वादं च वितेने। कीदृशी। **उन्मीलदित्यादि।**सरिपक्षे कलहंसानाम्, भावपक्षे कलहंसानामिव। कं जलं तत्पातिनो ये ययः पक्षिणस्तत्कृतक्षोभतः, पक्षे कम्पश्चातिविक्षोभश्च ताभ्यां पृथुरोम्णां सख्यानां हर्षदा गतिःप्रवाहो यस्याः सा पक्षे पृथुं महान्तं रोमहर्षं ददाति चेष्टा यस्याःसा।वाष्पच्छटावेगाधिक्यादूष्मलेशः, हर्षाश्रूणां कान्तिश्च तदु- ।जाड्यं शैत्यम्, पक्षे जाड्यभावोत्थः स्तम्भः।कुवलयं नीलोत्पलं भूमण्डलं च।अत्र अरिद्रूपकेनभावानां प्रवाहरूपत्वमुद्रेकश्चध्वनितः। महा सामान्यविशेषलक्षणानि एकम्मिन् पद्येनिर्देष्टुमशक्यानीति तानि यथासंभवं गम्यमानानि ज्ञेयानि॥१८६॥रूढभावस्याधिरूभावस्यानुभावानेव लक्षणं ज्ञापयति— **निमेषेत्यादि।**योगवियोगयोर्यथासंभवमुदाहरणेभ्यो
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कल्पक्षणत्वं खिन्नत्वं तत्सौख्येऽप्यार्तिशङ्कया।
मोहाद्यभावेऽप्यात्मादिसर्वविस्मरणं सदा॥१४८॥
क्षणस्य कल्पतेत्याद्या यत्र योगवियोगयोः।
** तत्र निमेषासहता यथा श्रीदशमे—**
गोप्यश्च कृष्णमुपलभ्य चिरादभीष्टं
यत्प्रेक्षणे दृशिषु पक्ष्मकृतं शपन्ति।
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ज्ञेयाः॥१४७॥१४८॥ कुरुक्षेत्रयात्राप्राप्तानां व्रजदेवीनां श्रीकृष्णदर्शनानन्दं श्रीशुको वर्णयति— गोप्य इति। गोप्यः कृष्णमुपलभ्य स्वप्रेमानुरूपं तन्माधुर्यमास्वाद्येत्यर्थः। दृग्भिर्दृग्द्वारैर्हृदीकृतम्। दीर्घ आर्षः।हृदि आनीतमलं दृढं परिरभ्य तस्मिन् भावं महाभावम्। महाभावोत्थमानन्दमित्यर्थः। आपु। कीदृशम्। नित्ययुजाम् एता वियोगिन्यो वयं तु नित्ययोगिन्य इत्यभिमानवत्यो याः पट्टमहिष्यस्तासामपि दुरापम्। यद्वा तद्भावं तदैक्यम्। तस्मिन् लयमिति यावत्। ननु तर्हि ज्ञानिभ्य आसां को विशेषस्तेऽपि परमात्मनि श्रीकृष्ण लयं लभन्त इत्यत आह— नित्ययुजामारूढयोगिनां दुरापं तैर्दुर्लभम्। ज्ञानहेतुकाल्लयात्प्रेममूर्च्छत्थलयमानन्दस्य जातिप्रमाणाभ्यामतिविशेष्यत इति श्रीपरिक्षित्सभासदो ज्ञानिनःप्रति कटाक्षः। ननु का गोप्य इति तासामसाधारणं लक्षणमाह— यत्प्रेक्षणे यस्यावलोके दृशिषुपक्ष्मकृतं ब्रह्माणं शपन्तीत्यतिसूक्ष्मदुर्लक्ष्य-
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॥१४७॥१४८॥ नन्वनुरागे वैचित्त्यविप्रलम्भो वर्ण्यते। स च संयोगेऽपि वियोगस्फूर्तिः। निमेषासहत्वं तु तादृशात्यल्पकालविच्छेदासहत्वम्। ततः पूर्वस्यासन्तमपि तद्वियोगं कल्पयित्वा तदसहनमयत्वं उत्तरस्य तु स्वल्पतमं तद्वियोगं बहुतमं मत्वा न तु तमसन्तं कल्पयित्वा तदसहनमयत्वं तदेवमिदं महाभावगतं निमेषासहत्वमनुरागगतवैचित्त्यविप्रलम्भान्नातिचमत्कारः प्रतीयते तदेतदाशङ्क्य श्रीभागवतपद्येन समादधाति—गोप्यश्चेति। तदिदं कुरुक्षेत्रगतानां तासां प्रथमदर्शनवृत्तम्। दृशिषु नेत्रेषु पक्ष्मकृतं ब्रह्माणं शपन्ति एतद्वचनाभिप्रायात्तु ‘यस्याननं मकरकुण्डलम्’ इत्यादौ ‘नार्यो नराश्चमुदिताः कुपिता निमेश्च’ इत्यत्र नार्यो नराश्च मुदिताः सामान्यतो वभूवुः। तत्र काश्चिन्नार्यस्तु निमिं प्रति च कुपिता
- ३० उज्ज्व०*
दृग्भिर्हृदीकृतमलं परिरभ्य सर्वा-
स्तद्भावमापुरपि नित्ययुजां दुरापम्॥१४९॥
** आसन्नजनताहृद्विलोडनं यथा—**
सख्यः प्रोक्ष्य कुरून् गुरुक्षितिभृतामाघूर्णयन्तीशिरः
स्वस्था विश्लथयन्त्यशेषरमणीराप्लाव्य सर्वं जनम्।
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निमेषकालगतविरहस्यापि तथासह्यत्वं यथातिसहिष्णवोऽपि देवमात्रभक्ता अपि या ब्रह्माणं शपन्ति अरे ब्रह्मन्नेतादृशदुःखदायिस्त्वं शीघ्रं म्रियस्व, अन्यः कश्चन ब्रह्मा भवतु योऽस्माकं पक्ष्म न सृजतीति। यत्तु ‘यस्याननं मकरकुण्डल—’ इत्यादौ ‘नार्यो नराश्च मुदिताः कुपिता निमेश्च’ इत्युक्तं तत्र नार्यो गोप्य एव नराश्च प्रियनर्मसखाःसुवलादय एव ज्ञेयाः॥१४९॥ काश्चिद्द्वारकावासिन्यो रसविदुष्यो भक्ता नार्यःकुरुक्षेत्रमिलिताः परस्परमाहु—कुरुन् देशान् कुरुवं-
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वभूवुरित्यर्थः। साधारण्ये सति यद्दर्शन इत्यनेनामूषा प्रेमविशेषस्यानर्थक्यात्। हृदीकृतं हृदिकृतं तत्र कृततया विभाव्यमानं परिरभ्य परिरब्धमिव विभाव्य तदिति तं भावं महाभावविकारमापुरित्यर्थः। कीदृशम्। नित्ययुजामेता वियोगिन्यो वयं तु नित्ययुज इत्यभिमानिन्यो याः पट्टमहिष्यस्तासामपि दुरापम्। नित्ययुजां योगिनामपि दुरापमिति तु न व्याख्येयं प्रत्यासन्नपरित्यागेन गौरवापत्तेः। ‘वाञ्छन्ति यद्भवभियो मुनयोवयं च’ इति तासां प्राचीनभावस्यापि तैर्दुरापत्वात्। अत एव तद्भावं तदैक्यं प्रापुरिति तु व्याख्यानं दूरत एव परास्तम्। तदेतदुक्तं भवति— वैचित्त्यविप्रलम्भः खलु ‘अदृष्टे दर्शनोत्कण्ठा दृष्टे विच्छेदभीरुता’ इति न्यायेन प्रेममयभयवैचित्त्यात् सतोऽप्यनवधानमयः। निमेषासहत्वं तु स्वल्पतमस्यापि कालस्यातिविस्तीर्णताकल्पनमयम्। तदेवं सति भयाद्वैचित्त्येनानवधानत्वं लोके दृश्यते। निमेषेण तु व्यवधानमतिसूक्ष्मत्वान्नानुभवितुं शक्यते। तदेतदसंभवकारित्वाधिक्ये नास्त्येवोत्तराधिक्यं यत्र खलु तादृगल्पतमवियोगासहिष्णुतया सर्वतो महान् ब्रह्मापि पश्यति इति पूर्वोक्तस्य लोकधर्ममर्यादातिक्रमित्वस्यातिशयदर्शिता। तदेवं वैशिष्ट्यमुत्तरेष्वपि दर्शनीयमिति। एतानि तु निमेषासहत्वादीनि यथावसरमुपलभ्यमानापि समुदित्येव लक्षणानि यथा सर्वभूतेषु यःपश्येदित्यत्रोक्तं भागवतोत्तमलक्षणम्॥ पुनर्गृहीत्वापीन्द्रियैरर्थानित्याद्यष्टस्वष्टधा दर्श्यते तद्वदिति॥१४९॥ कुरून् कुरुवंश्यान्।
गोपीनामनुरागसिन्धुलहरी सत्यान्तरं विक्रमै-
राक्रम्य स्तिमितां व्यधादपि परां वैकुण्ठकण्ठश्रियम्॥१५०॥
** कल्पक्षणत्वं यथा—**
शरज्ज्योत्स्नीरासे विधिरजनिरूपापि निमिषा-
दतिक्षुद्रा तासां यदजनि न तद्विस्मयपदम्।
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श्यांश्च प्रोक्ष्य जलेन सम्यगाप्लाव्य अश्रुभिरभिषिच्य च गुरुक्षितिभृतां महापर्वताना महाराजानां च शिरः शिखरं मस्तकं चाघूर्णयन्ती जलवेगेन प्रेमानुभावोत्थविस्मयेन चेति ज्ञेयम्। सर्वं जनं जनलोकं मनुष्यं चाप्लाव्य स्वस्थाः स्वर्गस्था अशेषरमणीर्विश्लथयन्ती मज्जनभयाद्व्याकुलयन्ती, पक्षे स्वस्थाः स्थिराः पतिव्रता अपि विवशाः कुर्वती सत्यान्तरं सत्यलोकस्य मध्यभागं सत्यभामाया अन्तःकरणं च वैकुण्ठस्य कण्ठश्रियं कण्ठदेशशोभां स्तिमितां जलैरार्द्राम्, पक्षे वैकुण्ठः श्रीकृष्णस्तस्य कण्ठसंबन्धिनी या श्री रुक्मिणी तामपि स्तिमितां हर्षोत्थस्तम्भवतीं व्यधात्। अत्रासन्नजनताहृद्विलोडनमिति जनताया आसन्नत्वं चाक्षुषंश्रावणं च ज्ञेयम्। तत्रायातानां महाराजानां तथा स्वस्वपटगेहगुप्तानां सत्यभामादीनां च प्रायो व्रजसुन्दरीभिः सह तत्र साक्षान्मिलनाश्रवणात्॥१५०॥ पौर्णमासी नान्दीमुखीमाह— शरदि ज्योत्स्नावती रात्रिर्विधिरजनिरूपा ब्रह्मरात्रितुल्यापि
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*पक्षे कुरुदेशम्। गुरुक्षितिभृतां महाराजानाम्, पक्षे पर्वतानाम्। स्वस्थाः प्रकृतिस्थाः, पक्षे स्वर्गस्था। अशेषरमणी विश्लथयन्ती सर्वतः शिथिलाः कुर्वती, जनं लोकम्, पक्षे तदाख्यभुवनविशेषः।सत्या सत्यभामा तदन्तरं तन्मनः, पक्षे सत्यलोकस्य मध्यभाग। स्तिमितां स्तब्धाम्, पक्षे आर्द्राम्। वैकुण्ठोऽत्र श्रीकृष्णस्तस्य कण्ठश्रियं तत्तुल्यां पारिशेष्यप्रमाणेन श्रीरुक्मिणीम्। पक्ष वैकुण्ठलोकस्य या कण्ठश्रीः सर्वोर्ध्वशोभा ताम्। यद्यपि कुरुवंश्यादिभ्य एताः कृष्णेन गोपिता एव सुतरां त्वेतासां भावा गोपने सत्येव हितास्ते च रसावहा भवन्ति तथापि तदेतद्वर्णनमुदात्तालंकारमयकविप्रौढोक्तिसिद्धसर्वातिशयितामात्रव्यञ्जनातात्पर्यत्वाद्रसावहं संपद्यते यथा यशसा सर्वस्य शुक्लीकरणं तद्वदिति॥१५०॥ शरज्ज्योत्स्नीरासे **विधिरजनिरूपापीति।*शशाङ्कश्च सगणो विस्मितोऽभवदित्यत्र श्रीखा-
सुखोत्सेकारम्मे निमिषलवकल्पामिव दशां
महाकल्पाकल्पाप्यहह लभते कालकलना॥१५१॥
** तत्सौख्येऽप्यार्तिशङ्कया खिन्नत्वं यथा श्रीदशमे—**
यत्ते सुजात चरणाम्बुरुहं स्तनेषु
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।
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यतस्तासा सुखोत्सेकस्यारम्भ एव महाकल्पो ब्रह्मणो वर्षशतमपि अकल्पोऽसमर्थोऽतिक्षुद्रो यत्र एवंभूतापि कालकलना कालसंख्या निमिषलवकल्पां निमिषलेशसदृशीं दशां लभत इति। ‘कलं संख्याने’ धातुः॥१५१॥ तत्सौख्येऽपीति। यत्त्वनिष्टाशङ्कीनि बन्धुजनहृदयानीति प्राञ्चआहुस्तद्दुःखलेशेऽपि मरणादिपर्यन्तमनिष्टं कल्पयन्ति वन्धव इति तस्यार्थः। इदं तु तस्य श्रीकृष्णस्य सौख्येऽपि केवलमहासुखे ज्ञाते दु खलेशस्याप्यसंभावनायामार्तिशङ्कया न जाने अत्र पीडा वास्य स्यादिति शङ्काया वृथैव पीडाया आरोपेण खिन्नत्वमिति सर्वतो विलक्षणं महाभावलक्षणमेव। रासान्तर्धाने ब्रजदेव्यो विलपन्ति—**यदिति।**तव सुजातमिति सुकुमारं चरणाम्बुरुहं स्तनेषु दधीमहि तद्भीताः सत्य एव। ननु किमत्र भीतिलक्षणं तत्र विशिषन्ति—कर्कशेष्विति। स्तनानां कठोरत्व-
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मिचरणैस्तस्या रात्रेरतिदीर्घत्वस्थापनात् ‘ब्रह्मरात्र उपावृत्ते’ इत्यत्र एकेषां व्याख्यानाद्धटमानं ज्ञेयम्। तच्चज्योतिश्चक्रस्यैव तन्माधुर्येण नद्यादीनामिव स्तम्भनात् संबभूवेति॥१५१॥ न चानिष्टाशङ्कीनि बन्धुहृदयानीति प्राचां संमत्या तद्वदित्यासा कृष्णसौख्यार्थमेव केवलमुद्यम इति पूर्वोक्तरीत्या रतिमात्रेऽपि संभवात् तत्सौख्य इत्यादि महाभावलक्षणं न विशिष्टमिति वक्तव्यम्। अस्ति ह्यत्र वैशिष्ट्यमिति श्रीभागवतसंमत्या द्रढयति—यथा श्रीदेशमे। तथा हि। यत्ते सुजातमित्यस्यायमर्थः—हे प्रिय, अपरिहार्यप्रेमविषयः ते तव यत्सुजातचरणाम्वुरुहं सुकोमलं कमलरूपकेणापि निरूप्य कोमलतया पुनस्तादृशशब्देन विशेष्यं स्वनेषु शनैर्दधीमहि। बहुत्वंसर्वानुभवसिद्ध्या नेदमन्यथा व्यनक्ति।शनैरित्यत्र हेतुः कर्कशेष्विति। तर्हि दधीमहीत्यनेन कर्त्रर्थक्रियाफलतासूचकात्मनेपदानिर्देशेन स्वेषां कामिनीत्वमेव भवतीति व्यक्तमित्याशङ्क्यत्वत्संनिहितपदेन प्रियेत्यने-
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः॥१५२॥
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मेवेत्यर्थः। ननु तर्हि किमिति धध्वे तत्राहुः—हे प्रियेति। त्वं तेष्वेव स्वचरणार्पणे प्रीणासीति त्वत्सुखमालक्ष्यैवेति भावः। कि च तदानीं चरणेन स्तनपीडने त्वत्सुखे साक्षादृष्टेऽपि चरणे व्यथा संभवेदिति शङ्कयास्माकं खेदो जायत एवेत्याहुः—शनैर्दधीमहीति। तेन त्वत्संयोगेऽप्यस्माकं दुःखं विधात्रा ललाटे लिखितमेवेति ध्वनिः। किं कर्तव्यं तपोऽस्माभिर्विधिं प्रति स्तनानां कोमलत्वे प्रार्थ्यमानेतव सुखं न भवति कर्कशत्वे तु त्वच्चरणे व्यथेत्युभयथैव संकटमस्माकमित्यनुध्वनिः। भवत्वस्माकं संयोगवियोगयोः कष्टमेव त्वं कथं स्वैरित्वेऽपि कष्टं सहस इत्याहुः। तेन चरणाम्बुरुहेणाटवीमटसि हा हा कि महासाहसं कुरुषे किमेतदटव्यटनयोग्यं चरणकमलमिति सोपालम्भः प्रश्नः। ननु यदा यन्मे मनस्यायाति तदा तदहं करोमीत्यत्र भवतीना किमित्यत आहुः—त्वच्चरणं न व्यथते किं। तत्रापि कूर्पादिभिरपि न व्यथते किंस्विदिति प्रश्नः। व्यथत एव कितु त्वमेवास्मास्विव स्वाङ्गेस्वपि निर्दय एव, किवा एता मद्दुःखेनापि दुःखिन्यो भवन्ति तस्मादेता दुःखयितुं प्रवृत्तेन मया स्वदुःखमपि कर्तव्यं सोढव्यं चेत्याशयेन तां स्वव्यथामपि सहसे। किवास्मद्दुःखदर्शन एव तव महासुखमतस्तां व्यथामपि त्वं सुखमेव मन्यसे।किंवा ‘संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति’ इतिन्यायेन यत् पूर्वं ते हृदयं कुसुमसुकुमारमासीत्तदेवास्माकं कठोरस्तनसङ्गेन संप्रति कठोरमभूत् यथा तथैव त्वच्चरणमपि स्तनसङ्गेनैव कठोरमभूदतः कूर्पादिभिर्न
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*नैवोत्तरयति—**प्रियेति।*प्रियत्वादेव तद्दधीमहि प्रियस्य स्पर्शात्तत्रापि हृदि स्पर्शात् यत्सुखं तत्तद्धि जानन्ति तद्विद इति न्यायात्तैरेव काम्यं नतु भवद्विधैः। तत्रैव चरणस्पर्शे हेतुं वदन्त्यः सोपालम्भमिव साक्षादिव पृच्छन्ति—तेनाटवीमटसीति। तेन यद्यटसि तर्हि किस्विन्न व्यथते तथापि स्वित् कूर्पादिभिरपि न व्यथते किंतु व्यथत एव। भवानेव तु स्वाङ्गेऽपि निर्दयं इत्यर्थः। व्यथतां नाम भवतीनां किं तत्राहुः।नोऽस्माकं धीर्भ्रमति तद्व्यथया व्याकुला भवति। अहो तदेतत् कथं तत्राहुः—भवदायुषामिति। यदास्माकं
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व्यथते। किंवा त्वच्चरणस्पर्शमाहात्म्यात् कूर्पादयोऽपि कोमला एव भवन्ति किंवा धरण्यैवातिकारुण्याद्वा तन्माधुर्यास्वादलोभात् वा त्वच्चरणविन्यासस्थले स्वजिह्वा उत्थाप्यते किवा त्वमस्मत्तोऽपि प्रेमसिन्धुर्दैववशादस्मद्विरहसंतप्तो भ्रमन्नुन्माददशां प्राप्तः स्वचरणव्यथामपि नानुसंधत्स इत्येवं नानाकारणानि परामृशन्ती नोऽस्माकं धीर्भ्रमति न तु क्वापि निश्चयं लभत इति भावः। नत्वेतत् कियत् स्वदुःखं व्यञ्जयथ अहं तु तद्दुःखं न मन्ये येन प्राणास्तिष्ठन्त्यत आहुर्भवदायुपामिति। भवति त्वय्येवायूंषि यासां तासां कल्याणवति त्वयि स्थितत्वादेतावद्भिरपि कष्टैरस्मदायुषां न नाश इत्यर्थः। अयं भाव—भवानिवास्मान् दुःखयितुं प्रवृत्तो विधिरेतद्विचारयति स्म यद्यासामायूंषि संप्रत्यास्वेव स्थापयिष्यामि तदा मद्दत्तैरतिसंतापैर्दग्धायुप इमाः सद्यो मरिष्यन्ति ततोऽहं पुनः काभ्यो दुःखं दास्यामि तदासामायूंषि मत्सधर्मिणि मद्वन्धौ श्रीकृष्णे निधाय यथेष्टमिमा अम्रियमाणा अपारमेव दुःखं भोजयामीति। अत एव वयं न म्रियामहे इति। यद्वा एवं कारणानिश्चयेनास्माकं धीरेव भ्रमति न त्वेतावद्भिरपि कष्टैर्नाशः। तत्र हेतुः भवदायुषामिति। भवन्ति वर्तमानान्यायूंषि यासां तासाम्। आयुर्मर्माणि रक्षतीति ऋजुरेवार्थ। यद्वा एवं धीरेव तदनिश्चयाद्भ्रमति प्राणास्त्वस्माकं निश्चयेन देहान्निर्गच्छन्त्येवेति त्वं संप्रति पश्येति भावः। नन्वायुषि स्थिते कथं नाशस्तत्राहुः—भवदायुषां त्वत्समर्पितायुपां स्वायूंषि तुभ्यमस्माभि संप्रति दत्तानि तैश्चिरं व्रजे खेलेति भावः॥१५२॥ मोहो मूर्च्छा।आदिशब्दादावेगविषादाद्याः। सर्वेषामहंतास्पदेदंतास्पदानां विस्मरणं तत्र हेतुर्ममतास्पदस्य श्रीकृष्णरूपगुणादेस्तुस्मृत्यतिशय एव ज्ञेयः।गृहपतिश्वश्व्रादिषु ममत्वाभावान्न तेषा ममतास्पदत्वं तथैवोदाहरणेऽपि दृष्टम्। उद्धवं प्रति श्रीकृष्णः साधुसङ्गप्रस्तावे मद्विषयकप्रीतिमत्त्वं साधुत्वमिति साधुलक्षणस्य परा काष्ठा श्रीगोपीष्वेवेति तास्त -
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पृथगायुर्भवति तदा युक्तमेव भवदुक्तं, भवानेव चेदायुस्तदा निजायुष स्वल्पापि हानिः कथं सह्येति। अयं भावः— अनिष्टाशङ्किनीत्यादौ तत्संभावनास्पद एव शङ्का स्यात्, न त्वासामिव तच्चरणस्पर्शेनापीति गम्यते। इत्यासां कृष्णसौख्यार्थमेवेत्यादौ रतिमात्रस्य तादृशत्वं चेत्तर्हि महाभावे तु तदतीव स्फुटं भवति इक्षूणां माधुर्यं परिपाकदशायामिवेत्यत्रैव सर्वत आधिक्यमिति ज्ञेयम्॥१५२॥ मोहाद्य-
** मोहांद्यभावेऽपि36 सर्वविस्मरणं यथा एकादशे—**
ता नाविदन्मय्यनुषङ्गबद्धधियः स्वमात्मानमदस्तथेदम्।
यथा समाधौ मुनयोऽब्धितोये नद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे॥१५३॥
** क्षणकल्पता यथा तत्रैव—**
तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता मयैव वृन्दावनगोचरेण।
क्षणार्धवत्ताः पुनरङ्ग तासां हीना मया कल्पसमा बभूवुः॥१५४॥
आद्यशब्दादिह प्रोक्ता कृष्णाविर्भावकारिता।
संभोगभेदे विस्पष्टं सा पुरस्तात्प्रवक्ष्यते॥१५५॥
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त्परिचिता अपि लक्षणविशेषेण पुन परिचाययति—**ता इति।**मय्यनुषङ्गेण निरन्तरासङ्गेन बद्धा धियो याभिस्ताः। अत्र वद्धपदेन श्रीकृष्णस्य त्रिजगन्मोहनविचित्रलीलस्तम्भत्वमनुषङ्गस्य बलवद्दामत्वं धीवृत्तीनां श्रीकृष्णस्य वाञ्छितसंपादककामधेनुघटात्वमारोपितम्। स्वमात्मानं देहं न विदुःरासाभिसारादौ क्व स्थितं क्व वा यान्तमिति नानुसंदधुस्तथा अद परलोकं धर्मातिक्रमादिति भावः। इदमिमं लोकं लज्जाभयाद्यतिक्रमादिति भावः। समाधौ मुनय इति। तेषां यथा सर्वविस्मरणे ब्रह्मानुभवोऽतिरिच्यते तथैतासां मदनुभव इति सर्वविस्मरणांशे दृष्टान्तः। नद्यो यथाब्धितोये प्रविष्टा नामरूपे स्वीये न विदुरिति रसचर्वणांशे दृष्टान्तः॥१५३॥ श्रीकृष्णस्तथैवाह— तास्ता इति। अस्मिन्नेव पद्ये क्षणकल्पताकल्पक्षणते वियोगसंयोगयोर्द्रष्टव्ये॥१५४॥ संभोगभेदे
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भावेऽपि सर्वविस्मरणमिति कृष्णस्फूर्त्यवच्छेदेन मोहाद्यभावः। तदन्यविस्मरणात् सर्वविस्मरणमित्युभयमपि संगच्छत इत्युदाहरति— ता नाविदन्निति। अत्र हि मय्यनुषङ्गेति तदेकस्फूर्तिता दर्शिता ता नाविदन्नित्यत्र मोहश्चेति॥१५३॥ आद्यशब्दादित्यत्र कृष्णाविर्भावकारिता तु ‘गोप्यस्तपः किमचरन्—’ इत्यादौ, ‘तासामाविरभूच्छौरिः—’ इत्यादौ तत्रातिशुशुमे ताभिः—‘इत्यादौ ‘यथा श्रुता
** अथाधिरूढः—**
रूढोक्तेभ्योऽनुभावेभ्यः कामप्याप्ताविशिष्टताम्।
यत्रानुभावा दृश्यन्ते सोऽधिरूढो निगद्यते॥१५६॥
** यथा शिववाक्यम्—**
लोकातीतमजाण्डकोटिगमपि त्रैकालिकं यत्सुखं
दुःखं चेति पृथग्यदि स्फुटमुभेते गच्छतः कूटताम्।
नैवाभासतुलां शिवे तदपि तत्कूटद्वयं राधिका-
प्रेमोद्यत्सुखदुःखसिन्धुभवयोर्विन्देत विन्द्वोरपि॥१५७॥
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संपन्नाख्ये श्रीकृष्णाविर्भावकारितेत्याविर्भावोऽयं संप्रयोगादिसर्वसुखनिर्वाहकोऽग्रेतनग्रन्थदृष्ट्या ज्ञेयः। प्रेमिमात्रभक्तजनेष्वाविर्भावस्तु संनिविमात्रम्॥१५५॥ अनुभावाः सात्त्विकाः कामप्यनिर्वचनीयां विशिष्टतां प्राप्ताः न तु सूद्दीप्ता इत्यर्थः। तेषां मोहन एव वक्ष्यमाणत्वात्॥१५६॥ शिवया राधिकाप्रेमवैशिष्ट्यविक्रमं पृष्टः शिवस्तामाह—लोकातीतं वैकुण्ठगतं सुखं प्रसिद्धं मोक्षसुखं च। दुःखंतु तत्रत्यभक्तानां प्रेमौत्कण्ठ्योत्थम्।अजाया मायाया अजस्य ब्रह्मणो वा अण्डकोटिगतं तच्च त्रैकालिकं भूतं भविष्यद्वर्तमानं च सुखं दुःखं च यत्ते उभे सुखदुःखे यद्येकदैव एकस्मिन् देशएव पृथक् पृथक् कूटतां राशितां गच्छतः प्राप्नुतस्तदपि तथापि तत्कूटद्वयं (कर्तृ) श्रीराधायाःप्रेम्णा उद्यन्तौ उच्छलन्तौ यौ सुखदुःखसिन्धू तदुत्थयोर्विन्द्वोर्लेशयोरपि आभासतुलामेकांशसादृश्यमपि नैव विन्देत नैव लभेत। न चैवं दुःखश्रुत्या प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यभावे महाभावस्यापुरुषार्थत्वं कल्पनीयं भक्तिमात्रस्यापि ह्लादिनीसंविदोः स्वरूपभूतयोः सारत्वेन। ‘ब्रह्मानन्दो भवेदेषचेत्परार्धगुणीकृतः। नैति भक्तिसुखाम्भोधेः परमाणुतुलामपि॥’ इति। ‘मुक्तिं ददाति कर्हिचित्स्मन भक्तियोगम्’ इत्यादिप्रमाणेभ्यो ब्रह्मानन्द-
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*तथा ज्ञेया न तु भक्तान्तरेष्विव।’ आविर्भावमात्रम्॥१५४॥१५५॥ कामप्यनिर्वचनीयाम्॥ १५६॥ **लोकातीतमिति।*श्रीराधायां तादृशाननुभावान् शिवाकृतप्रस्तावान्निशम्य शिवां प्रति शिवः—तत्र लोकातीतं दुःखमन्येषां श्रीभगवद्वि-
मोदनो मादनश्चासावधिरूढो द्विधोच्यते।
** तत्र मोदनः—**
मोदनः स द्वयोर्यत्रसात्विकोद्दीप्तसौष्ठवम्॥१५८॥
** यथा ललितमाधवे—**
आतन्वन्कलकण्ठनादमतुलं स्तम्भश्रियोज्जृम्भितो
भूयिष्ठोच्छलदङ्कुरः फलिलवान् स्वेदाम्बुमुक्ताफलैः।
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कोटितोऽप्याधिक्येन स्थापनात् तदीयदुःखस्याप्यूष्माणमपि वमन्ती सुधांशुकोटेरपि स्वाद्वित्यादौ सुखरूपत्वेनैव सिद्धान्तान्महाभावे त्वतिकैमुत्यादिति भावः। तथाहि लोके ऊष्मसद्भाव एव शीतं सुखमयं भवति। शीतसद्भावे चोष्मापीति द्वयोरपि सुखरूपत्वं दृष्टम्। एकैकाभावे द्वयोरेव दुःखरूपत्वं च।यथाच—क्षुद्भोज्यवस्तुनोर्द्वयोरेव यौगपद्ये सुखम्, भोज्यवस्त्वभावे क्षुद्दुःखमेव, क्षुदभावे भोज्यमपि न सुखं रत्यादिभावेषु संयोगेऽप्यौत्कण्ठ्यलक्षणविरहस्य सर्वथैवानपगमादलंवुद्ध्यभावादेव स संयोगः सदा सुखमयो भवति।विरहेऽपि स्मरणस्फूर्त्याविर्भावादिजनितमानसस्वानसाक्षात्संभोगाविच्छेदविरहोऽपि सुखमय एवेति अधिरूढमहाभावे तु संयोगवियोगलक्षणसुखदुःखयोरुक्तप्रकारेण निस्तुलयोर्द्वयोरेव यौगपद्यादेव निस्तुलसुखरूपत्वम्। प्राकृते तु स्वर्गनरकाद्योःसुखदुःखयोर्यौगपद्यभावात्। क्वचिद्भोजनारम्भादिषु सुखदुःखयोर्यौगपद्येऽपि पारिमित्यादिदोषात् न तत्र तत्र प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यौचित्यम्। सायुज्यमोक्षेऽपि दुःखाभावात् सुखमप्यसुखायमानमिति। केचित्सुखदुःखाभावाद्यात्यन्तिको मोक्ष इति मुक्तेर्लक्षणमित्याहुः। अतः प्रेम्ण एव परमपुरुषार्थत्वं नेतरेषामिति तु सिद्धान्त एव वस्तुतः प्रवृत्तिस्तु प्रेम्णि न स्वसुखदृष्ट्या किंतु भगवत्सुखदृष्ट्यैवेति तु भक्तानां मतम्॥१५७॥१५८॥ नववृन्दा श्रीराधाकृष्णयोश्चिरान्मिलनं वर्णयति—**आतन्वन्निति।**उल्लास एव कल्पद्रुमस्तयोः परस्परस्य परिजनानां च वाञ्छितपूरणा-
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रहकृतं ज्ञेयम्। कूटतां राशिताम्॥५७॥१५८॥ मोदनो मादनश्चेति द्वयं निरुक्तिबलात् संभोग एव। मादन इत्यत्र ‘मितां ह्रस्वः’ इति यन्नाप्तं तत्खलु मित्सु मदी हर्षग्लेपनयोरित्यर्थः। नियमादर्थान्तरकल्पनया ज्ञेयं हर्षवाचित्वमोदन इत्यनेनैव
उद्यद्बाष्पमरन्दभागविचलोऽप्युत्कम्पवान् विभ्रमै
राधामाधवयोर्विराजति चिरादुल्लासकल्पद्रुमः॥१५९॥
हरेर्यत्र सकान्तस्य विक्षोभभरकारिता।
प्रेमोरुसंपद्विख्यातकान्तातिशयितादयः॥१६०॥
राधिकायूथ एवासौ मोदनो न तु सर्वतः।
यः श्रीमान् ह्लादिनीशक्तेः सुविलासः प्रियो वरः॥१६१॥
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द्विराजति। तत्रोल्लासस्य द्रुमत्वं मोदनभावोत्थत्वं च विशेषणैः स्पष्टयति—कलकण्ठःकोकिलः, पक्षे कलो मधुरास्फुटो यःकण्ठनादः स्वरभेदः। आ सम्यगेव विस्तारयन्निति उद्दीप्तसौष्ठवम्। एवमतुलादिपदैरग्रेऽपि। स्तम्भः स्थूणा तस्येति मूलोपरितनप्रदेशवर्णनम्, पक्षे स्तम्भः सात्त्विकः। अङ्कुराः कडम्बा पुलकाश्च। अविचलः स्थिरोऽपि वीनां पक्षिणां भ्रमभ्रमणैः, पक्षे विलासैः॥१५९॥ मोदनस्यानुभावान् वदन्नेव तल्लक्षणमाह—हरेरिति। यत्र मोदने विद्यमाने सति सकान्तस्य कान्ताभिः सहितस्य प्रेमैव उरुर्महती संपत् तथा ख्याताः प्रसिद्धा याः कान्ताश्चन्द्रावल्यादयस्ताभ्योऽतिशयिता परमोत्कर्षः। आदिशब्दादन्येऽपि तद्विरुद्धजनविज्ञाता बहवो वर्तन्त इत्यर्थः। सर्वतः सर्वत्र
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पर्याप्तिःस्यात् तस्मान्मादनोऽत्र दिव्यमधुविशेषवन्मत्तताकर इत्यर्थः। कलरूपो यः कण्ठनादस्तम्। पक्षे कलकण्ठः कोकिल। स्तम्भः सात्त्विकविशेषः, पक्षे स्वाभाविकस्तम्भः। तत्संपत्त्या उच्चैर्जृम्भितः प्रकाशितः। श्रिया जृम्भितः इति वा पाठः। भूयिष्ठा उच्चलन्त उद्भवन्तोऽङ्कुरा इवाङ्कुरा रोमाञ्चायत्र सः, पक्षे अङ्कुराः कडम्बाः अविचलः स्थिरोऽपि विभ्रमैर्विलासै, पक्ष पक्षिणां भ्रमणैः॥१५९॥ किंच हरेरिति। सकान्तस्य कान्तामिः सहितस्य। प्रेमेति। प्रेमोरुसंपद्विख्याता याः कान्तास्ताभ्यस्ता अतिक्रम्य या अतिशयिता प्रेमाधिक्यं साप्यस्य लक्षणमित्यर्थः। आदिग्रहणादन्येऽपि संख्यातीता गुणास्तल्लक्षणत्वेन वर्तन्त इत्युन्नेयम्॥१६०॥ कुत्रासौ दृश्यते तत्राह— राधिकायूथ एवेति। मधुस्नेहमारभ्यपरमोत्कर्ष-
तत्र सकान्तस्य हरेः क्षोभभरकारिता यथा—
हन्त स्तम्भकरम्विता भुवि कुरोर्भद्रा सरस्वत्यभू-
द्बाष्पंभास्करजा मुमोच तरसा सत्याभ्रमन्नर्मदा।
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चन्द्रावल्यादावपीत्यर्थः। ह्लादिनीशक्तेःसुविलासः परमवृत्तिरूपः प्रेमा भक्तमात्रवृत्तित्वांशेन तत्रापि प्रियो मधुररसस्थायितया प्रियाजनवर्तित्वांशेन तत्रापि श्रीमान् महाभावो गोपीमात्रवर्तित्वांशेन। तत्रापि वरः श्रीराधायूथवर्तित्वाशेनेत्यर्थः॥१६०॥१६१॥ कुरुक्षेत्रयात्रायां व्रजदेवीभिः सह श्रीकृष्णस्य मिलनवृत्तान्तस्य चमत्कारातिशये श्रुते श्रीरुक्मिण्यादिषु व्रजदेवीदर्शनाभिलाषिणीषुस्वस्वपटगेहगुप्तास्वेव तत्र रहसि तासु तदानीमेव श्रीकृष्णदर्शनोत्थेन श्रीराधाया मोदनाख्यभावेनोदितेन श्रीकृष्णस्य रुक्मिण्यादीनां च क्षोभातिशयं दृष्टवती काचिद् रुक्मिण्याः सखी समयान्तरे स्वसखीमाह—हन्तेति। कथनारम्भत एव विस्मयः। राधिकैवाद्भुतनदी तस्या प्रेमाण एवोर्मयस्ताभिः कृष्णोदन्वति
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*दर्शितत्वात्। पूर्वग्रन्थस्य च टीकायाम् ‘तत्राप्येकान्तिनां श्रेष्ठा गोविन्दहृतमानसाः।’ इत्यत्र ‘न वयं साध्वि साम्राज्यम्।’ इत्यस्य व्याख्याने श्रीभागवतसंमत्या विशेषतः श्रीराधाया च दर्शितत्वाच्च। पूर्णाःपुलिन्द्य इत्यनेन ह्येतस्यैकवाक्यता दृश्यते। उभयत्रश्रीशब्देन श्रीराधिकैवोच्यते। अन्यहरिपदपरित्यागेन तत्पदश्रीसंबन्धपरित्यागप्राप्तेः। पूर्णाः पुलिन्द्य इत्यादिकवचनसमये श्रीरुक्मिण्या अप्रसिद्व्या तदप्राप्तेश्च। श्रीराधायाः सौभाग्याधिक्यं श्रीव्रजदेवीभिःस्वयमेव दर्शितम्— ‘अनयाराधितो नूनम्’ इत्यादिना, श्रीराधात्वं चास्या ‘राधा वृन्दावने वने’ इति मात्स्यादिप्रामाण्येनावगतमेव।व्यक्तं चोक्तं बृहद्गौतमीये—‘देवी कृष्णमयी प्रोक्ता राधिका परदेवता। सर्वलक्ष्मीमयी सर्वकान्तिः समोहिनी परा॥’ इति। ऋक्परिशिष्टे च—‘राधया माधवो देवो माधवेनैव राधिका। विभ्राजन्ते जनेष्वा’ इति। अथ प्रस्तुतमनुसरामः— य श्रीमानियत्र ह्लादिनीशक्ते सुविलासः परमवृत्तिरूपस्तावद्भगवद्भावमात्रम्। तत्रापि प्रियो मधुराख्यो महाभावपर्यन्तस्तत्रापि मोदनोऽयं वर इत्यर्थः॥१६१॥ कुरुक्षेत्रे व्रजदेवीनां श्रीकृष्णेन मिलनानन्तरं तेनावहित्थागुप्तमपि भावविकारं वितर्क्य तं च भद्रादीनामपि विस्मापकतयानुभूय श्रीमानुद्धव परामृशति—**हन्त स्तम्भेति।*भद्रायाःसरस्वती वाणी, पक्षे सरस्वती
भेजे भीष्मसुता च वर्णविकृतिं गाम्भीर्यभागप्यसौ
कृष्णोदन्वति राधिकाद्भुतनदीप्रेमोर्मिभिः संवृते॥१६२॥
** प्रेमोरुसंपद्वतीवृन्दातिशयित्वं यथा—**
अद्वैताद्गिरिजां हरार्धवपुषं सख्यात्प्रियोरःस्थितां
लक्ष्मीमच्युतचित्तभृङ्गनलिनीं सत्यां च सौभाग्यतः।
माधुर्यान्मधुरेशजीवितसखीं चन्द्रावलीं च क्षिपन्
पश्यारुद्ध हरिं प्रसार्य लहरीं राधानुरागाम्बुधिः॥१६३॥
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श्रीकृष्णसमुद्रे संवृते रुद्धे सतीति नद्यास्तरङ्गेण समुद्रवोधादद्भुतत्वं स च रोधो नद्यास्तरङ्गाणां समुद्रतरङ्गविजयित्वेन वा समुद्रजलस्तम्भेन वा ज्ञेयः। पक्षे श्रीकृष्णप्रेमतोऽपि श्रीराधाप्रेमाधिक्यव्यञ्जना। सरस्वती नदी। कीदृशी।भद्रा, पक्षे भद्रायाः सरस्वती वाणी। भास्करजा यमुना कालिन्दी च। वाष्पं जलोष्माणम् ऊष्माश्रु च। नर्मदा नदी अभ्रमत् परिपर्यन्तप्रवाहा अभूत्। किंभूता। सत्या सद्भ्योहिता, पक्षे नर्मदा परिहसितुभागतापि सत्यभामा अभ्रमत् भ्रमिमपस्मारं प्राप।भीष्मःसुतो यस्याः सा गङ्गा, पक्षे भीष्मसुता श्रीरुक्मिणी।वर्णविकृतिर्वैवर्ण्यम्। ततश्च कतिपयक्षणानन्तरं तस्या मोदनभावस्य किंचिदुपशमे ता अपि किंचित् स्वास्थ्यमाप्तास्ता स्तुत्वानत्वास्वस्वावासं जग्मुः सा तु वैवश्यवशात् ताः नानुसंधत्ते स्मेति ज्ञेयम्॥१६२॥ तत्रैव पुनः सैवाह—गिरिजां दुर्गाम्।
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नदी तस्या विशेषणं भद्रा। वाष्पमश्रु, पक्षे तदिव जलोत्करम्। सत्या सत्यभामा विशेष्यं तस्या विशेषणं नर्मदा। पक्षे वैपरीत्यंतत्र सत्या सद्रूपा भीष्मसुता रुक्मिणी, पक्षे बहुव्रीहिणा गङ्गा॥१६२॥ अद्वैतादिति। श्रीमदुद्धवस्य वचनम्। येन ‘मधुप कितववन्धो’ इत्यादि तदीयभावोन्मादश्रवणाच्चित्रतां प्राप्तेन ‘नायं श्रियोऽङ्ग’ इत्यादिकं सर्वा अपि व्रजसुन्दरीरुद्दिश्य वदता तस्यामेव परममहिमा पर्यवसायितः।मधुवेशेति। व्रजं प्रति तेन गोपीनां मद्वियोगाधिं मत्संदेशैर्विमोचयेत्यादिवैवश्यमयवचनेन स्वस्य यत्प्रस्थापनं तस्यास्थानरूपां मधुरामनुसृत्य प्रोक्तम्।
मोदनोऽयं प्रविश्लेषदशायां मोहनो भवेत्।
यस्मिन् विरहवैवश्यात्सूद्दीप्ताएव सात्त्विकाः॥१६४॥
** यथा—**
उद्यद्वेपथुवाद्यमानदशना कण्ठस्थलान्तर्लुठ-
ज्जल्पा गोकुलमण्डलं विदधती वाष्पैर्नदीमातृकम्।
राधा कण्टकितेन कण्टकिफलं गात्रेण धिक्कुर्वती
चित्रं तद्धनरागराशिभिरपि श्वेतीकृता वर्तते॥१६५॥
अत्रानुभावा गोविन्दे कान्ताश्लिष्टेऽपि मूर्च्छना।
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सत्यां सत्यभामाम्। हरिं श्रीकृष्णमरुद्ध आवृतवान्॥१६३॥१६४॥ व्रजान्मथुरां गत उद्धवः पृष्टवृत्तान्तं श्रीकृष्णमाह—उद्यद्वेपथुभिर्वाद्यमाना वादित्रवत् क्रियमाणा दशना दन्ता यस्याः सा।कण्ठस्थलेति स्वरभेदः। नदीमातृकत्वं नदीजलसंपन्नव्रीहित्वं बाप्पैर्नदीवत् सर्वमाप्लावयन्तीत्यर्थः।‘स्यान्नदीमातृको देवमातृकश्च यथाक्रमम्’ इत्यमरः। ननु वाष्पजलानामुष्णत्वात् तत्सेकेन कथं व्रीहयो भवन्ति। सत्यम्। तेषामुष्णत्वंक्षणिकमेव तस्या अङ्गतः पृथिव्यां पतितमात्रत्वेन सद्यः शैत्यात्। वस्तुतस्तु कविनिवद्धवक्तृप्रौढोक्तिरियं तद्भूमतात्पर्यवती। कण्टकिफलं पनसम्। घनरागराशिभिर्निविडरक्तिमभिः, पक्षे निविडानुरागसमूहैः। अत्र वाद्यमानेत्यादिपदै सूद्दीप्तत्वं कम्पादीना वोध्यम्॥१६५॥ तस्यानुभावान् वदंस्तल्लक्षणं ज्ञापयति— अत्रेति। कान्ताभिराश्लिष्टेरुक्मिण्यादिषु संप्रयोगली-
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*पश्येति। भावावेशेन स्वयमेव स्वं प्रत्युक्तम्॥१६३॥१६४॥ उद्यदिति। तस्यैव ब्रजान्मथुरां गतस्य श्रीकृष्णं प्रति निवेदनम्। नदीमातृकशब्देन नदीजलसंपन्नब्रीहिको देश उच्यते। उच्चैर्विरहवाष्पैस्तु यद्यपि तादृशत्वं न संभवति तथाप्यनेन तत्प्रेम्णो माहात्म्यमात्रदृष्ट्या निर्दिष्टम्।यथा ‘विरहेण महान् मेऽनुग्रहः कृतः। इति ताः प्रत्युक्तम्। कण्टकिफलं पनसम्।‘चित्रं त्वद्धनरागराशिभिः— इत्यत्र श्लेषपक्षे रक्तिमाराशित्वात् श्वेतीकृतत्वं नोपपन्नमिति चित्रशब्दश्चापिशब्दश्चदत्तः। विवक्षितपक्षेऽपि पूर्ववद्गतिः।भगवद्रागस्यानन्ददातृत्वेन फुल्लताकरणमेव शास्त्रलब्धंन तु दुःखदातृत्वेन श्वेतीकरणमित्यभिप्रायात्॥१६५॥ **अत्रानुभावा इति।*ननु कान्तेत्यादिकमन्यत्रसंभवति। बहुस्निग्धैर्वेष्ट्यमानस्यापि वियुक्ततमस्निग्ध-
असह्यदुःखस्वीकारादपि तत्सुखकामता।
ब्रह्माण्डक्षोभकारित्वं तिरश्चामपि रोदनम्॥१६६॥
स्वभूतैरपि तत्सङ्गतृष्णा मृत्युप्रतिश्रवात्।
दिव्योन्मादादयोऽप्यन्ये विद्वद्भिरनुकीर्तिताः।
प्रायो वृन्दावनेश्वर्या मोहनोऽयमुदञ्चति॥१६७॥
सम्यग्विलक्षणं यस्य कार्य संचारिमोहतः।
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लास्थ इति व्रजस्थायां श्रीराधायां यदा मोहनभाव उदेति तदा द्वारकास्थस्य श्रीकृष्णस्य कान्ताश्लिष्टस्यापि मूर्च्छा स्यादित्यर्थः। स्वभूतैः स्वदेहारम्भकैः पृथिव्यादिपञ्चमहाभूतैः प्रतिश्रवादङ्गीकारात्। अत्र मोहनस्य प्रकृतिस्थित्युन्मादप्रकोपमूर्च्छा इति चतस्रो दशास्तत्र प्रकृतिस्थितौ। असह्यदुःखेति,स्वभूतैरपीति अनुभावद्वयं उन्मादे चित्रजल्पाद्या, प्रकोपे कान्ताश्लिष्टकृष्णमूर्च्छाब्रह्माण्डक्षोभौ, ईषत् प्रकोपे निकटस्थतिर्यग्जीवादिरोदनम्, अतिप्रकोपे मूर्च्छाप्यतिदुरूहत्वान्न
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स्मरणेन वैकल्यदर्शनात्। अथासह्येत्यप्यन्यत्र दृश्यते यथा प्राणिमात्रस्य सुखकामस्य रन्तिदेवस्य ब्रह्माण्डस्य क्षोभकारित्वं तु तत्तत्परमशक्तिरूपायास्तस्याः क्षोभेण युक्तमेव यथा तत्तद्भावपीडने जगतः न तु तद्भावस्पर्शनेन तज्जायत इति वक्तव्यम्। सदापि तद्भावानुगतिप्रत्यासत्तेः। ‘दधति सकृन्मनस्त्वयि य आत्मनि नित्यसुखे न पुनरुपासते पुरुषसारहरावसथान्’ इति श्रवणात्। ततस्तिरश्चामपि रोदनं पुनरुक्तमेव। तथास्वभूतैरित्यप्यसह्यदुःखेत्यत्रान्तर्भवति ‘तथोन्मादवन्नृत्यति लोकवाह्यः’इत्यादौश्रीप्रह्लादादावपि वर्णितस्तत्र भावस्यासंप्रतिपत्तरतिव्याप्ति स्यात्। दिव्यत्वं वा कीदृशम्। सत्यं तथाप्यस्त्यत्र विशेष इत्याह। सम्यग्विलक्षणत्वमेवाह—संचारिमोहत इति। संचारिषु व्यभिचारिषु यो मोहस्तस्मात् प्रतिसंचार्येव यन्मोहस्य प्राधान्यं तस्मादित्यर्थ। न ह्येवमन्यत्र संभवतीति ब्रह्माण्डक्षोभकारित्वं तु तत्स्पर्शश्चेत्तदपि स्यादिति विवक्षया ‘नारं चुक्रोश चक्रम्’ इति वक्ष्यमाणमुदाहरणं तु यः खलु तेन भावेन स्पृष्टस्तस्यानुभवदृष्ट्या निर्दिष्टम्।यथा ‘नद्यस्तदा तदुपधार्य’ इत्यादौ यथावात्रैव दर्शयिष्यते। और्वस्तोमादिति तिरश्चामपि रोदनं तद्वि-
** तत्र कान्ताश्लिष्टेऽपि हरौ मूर्च्छाकारित्वं यथा पद्यावल्याम्—**
रत्नच्छायाच्छुरितजलधौ मन्दिरे द्वारकाया
रुक्मिण्यापि प्रबलपुलकोद्भेदमालिङ्गितस्य।
विश्वं पायान्मसृणयमुनातीरवानीरकुञ्जे
राधाकेलीभरपरिमलध्यानमूर्च्छामुरारेः॥१६८॥
** असह्यदुःखखीकारात्तत्सुखकामता यथा—**
स्यान्नः सौख्यं यदपि बलवद्गोष्ठमाप्ते मुकुन्दे
यद्यल्पापि क्षतिरुदयते तस्य मागात्कदापि।
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वर्णितेति विवेचनीयम्॥१६६॥१६७॥ मथुरात आगता प्रव्रजिता काचित् व्रजे ललितादिसखी सभां प्रविश्य शुभाशिषमाह—रत्नानां वलभीस्तम्भशिखरादिषुलग्नानां पद्मरागादीनां छायाभिः कान्तिभिश्छुरितःप्रतिबिम्वार्पणेन विचित्रितो जलधिर्येन तस्मिन्निति मन्दिरस्य जलधिमध्यवर्तित्वेनात्युच्चत्वेन चोद्दीपनविभावस्य रुक्मिण्यापीत्यालम्वनविभावस्य प्रवलपुलकोद्भेदं यथा स्यादित्यनुभावसात्त्विकानां हर्षादिसंचारिणां च अलिङ्गितस्येति संभोगस्थायिभावस्य च सौष्ठवमुक्तं, तत्रापि रुक्मिण्याः कर्तृत्वेन तस्या पुरुषायितत्वव्यक्त्या संभोगभूमा, तादृशस्यापि मुरारेर्मूर्च्छा विश्वं पायादिति भङ्ग्याव्रजमण्डलस्यैव पालनप्रार्थना। तदीयह्लादिन्यादिसकलशक्तिकदम्वनिवासभूतस्य ब्रजस्यैव क्षेमेण विश्वस्य सर्वविश्वाधारस्य श्रीकृष्णस्य च क्षेमवत्त्वसंभवात् तच्च पालनं तस्य व्रजागमनं विना न भवतीति मूर्च्छा; श्रीकृष्णं शीघ्रं व्रजमागमयत्विति वाक्यार्थोऽवगमितः। किंच तत्र परिमलभरपदेन श्रीराधाकेलीनां श्रीकृष्णसर्ववाञ्छितसाधनकल्पवल्लीत्वमारोपितं तेन च द्वारकायां तादृशमुखसामग्रीसद्भावेऽपि श्रीकृष्णः स्ववाञ्छितालाभव्याकुलो वृन्दावनागमनोन्मुख एव वर्तत इति तत्रत्यवृत्तान्तज्ञापनं व्यञ्जितम्। पद्यमिदमुमापतिधरस्य कवेः॥१६८॥ व्रजान्मथुरां यास्यन्तं तत्प्रिये खलु कं सदेशमुपहरिष्यामीति पृच्छन्तमुद्धवं प्रति श्रीराधा प्राह—स्यान्न इति। नगरात् मथुरातः। अत्रान्वयव्यतिरेकाभ्यां तत्सुखकाम-
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*शेषवर्णनान्नपुनरुक्तं स्वभूतैरिति च॥१६६॥१६७॥ रत्नेति। उमापतिधरस्य पद्यम्। रत्नानां छायया कान्त्या प्रतिविम्वेन वा छुरितःकर्वुरितो जलधिर्येन। **केलीति।*स्त्रीलिङ्गत्वमप्यत्रावगतम्।मूर्च्छा मोहः॥१६८॥
अप्राप्तेऽस्मिन्यदपि नगरादार्तिरुग्रा भवेन्नः
सौख्यं तस्य स्फुरति हृदि चेत्तत्र वासं करोतु॥१६९॥
** ब्रह्माण्डक्षोभकारित्वं यथा—**
नारं चुक्रोश चक्रं फणिकुलमभद्व्याकुलं स्वेदमूहे
वृन्दं वृन्दारकाणां प्रचुरमुदमुचन्नश्रु वैकुण्ठभाजः।
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तैव स्पष्टीभवति स्म। यद्यपि लोके प्राकृत्यपि नारी विदेशस्थं स्वकान्तमेव संदिशति तदपि तत्प्रेमाणमपि न स्पृशति किमुत महाभावमेदं मोहनम्। यतस्तादृशवाक्यस्य स्वस्मिन् स्नेहोत्पादनमेव व्यङ्ग्यम्। न तु सर्वथैव मनोगतं भवेदेतस्याः क्वचित् सर्वथैव यथा मनोगतं चेद्दृश्यते तदा तत्र ज्वालाया अभाव एव द्रष्टव्यः। स्वदेहगेहधनपुत्रादिषु यदि ममत्वलेशस्याप्यभावः स्यात् स च स्वकान्तविषयकममत्वातिशयहेतुक एव यदि भवेत् नतु तत्त्वज्ञानवैराग्यजन्यः तदैव प्रेमज्वाला उत्पद्यते। सैवात्रखल्वसह्यदुःखशब्देनोच्यते न तु प्राकृतं दुःखं प्राणिमात्रसुखकामे तदीयभोग्यनिखिलदुःखस्वीकारिणि रन्तिदेवादौ नैतत्तुल्यदुःखस्य स्वीकारः प्राकृतत्वाल्लोकातीतमजाण्डेत्यादि शिवोक्तस्य दुःखस्येवोपरमितत्वाभावात्। किंचात्र मोहने प्रेम्णोऽपि सप्तमकक्षारूपे महाभावभेदे या ज्वाला सात्वौर्वस्तोमात् कटुरपीति पदार्थतो व्यक्तीभविष्यति। सैव श्रीराधायामसह्यं दुःखं तत् स्वयमन्तरनुभवन्त्यपि श्रीराधा स्वकान्तं प्रति ‘स्यान्नः सौख्यं यदपि वलवत्’ इति यत् संदिदेश तदिदं प्राकृताप्राकृतलोकमात्रे सर्वत्रैवासाधारणं ज्ञेयम्॥१६९॥ ब्रह्माण्डक्षोभकारित्वमिति। ब्रह्माण्डपदेनोदाहरणदृष्ट्या वैकुण्ठादिकमप्युपलक्षणीयम्। मोहनस्यापि चिच्छक्तिसाररूपत्वात् चिद्विभूतावस्य विक्रमसंभवात्। व्रजस्थितायां राधायां प्रोषितभर्तृकायां यदा मोहनभावस्योद्रेको
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***आर्तिरुग्रेति।**मोहं गमयति॥१६९॥ **नारं चुक्रोश चक्रमिति।*श्रीकृष्णं प्रति व्रजात् प्रतिगतस्य कस्यचित् तादृशराधाभावमहिमप्रत्यायिततत्तद्रुपद्रवनिर्वेदकवचनम्। स एव च महाभावविकारः कादाचित्क एव न तु सार्वदिक इत्येतच्चुक्रोशेत्यादिका अतीतप्रयोगाः। तत्र चुक्रोशेति परोक्षप्रयोगः स्वस्यापि मोहख्यापनाय पूर्णानन्देऽपीति तत्प्रेमजातेरानन्दस्वभावकत्वात् वियोग-
राधायाश्चित्रमीश भ्रमति दिशि दिशि प्रेमनिश्वासधूमे
पूर्णानन्देऽप्युषित्वा बहिरिदमबहिश्चार्तमासीदजाण्डम्॥१७०॥
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वभूव तदैव सर्वप्राकृताप्राकृतलोकानां क्षोभं रोगदृष्ट्यैव दृष्टवती स्वयमप्यनुभूतवती नान्दीमुखी त्वरितमेव द्वारकां गत्वाश्रीकृष्णं प्रति निवेदयति— नराणामिदं नारं चक्रं नृलोकमित्यर्थः। चुक्रोश उच्चैःफूत्कृत्य रुरोद। फणिकुलं तदुपलक्षितं सप्तपातालस्थजन्तुमात्रमेव व्याकुलमभवत्। वृन्दारकाणां वृन्दं सप्तस्वर्गस्थोदेवसमूहः स्वेदमूहे प्रस्वेदमुवाह। वैकुण्ठभाजो लक्ष्मीप्रभृतयः प्रचुरमश्रु उदमुचन्। कदेत्यपेक्षायामाह— हे ईशेति, त्वंतु सर्वेश्वरस्त्वमेव भवसि किमिदं तद्ब्रूहीति भावः।चित्रमद्भुतं यथा स्यात्तथा श्रीराधायाः प्रेमनिश्वासधूमे दिशि दिशि भ्रमति सति मोहनभावस्योद्गमे सतीत्यर्थः। इदमजाण्डं ब्रह्माण्डं(कर्तृ) बहिर्वैकुण्ठादि अबहिस्तदनन्तरं चतुर्दशभुवनं च आर्तं पीडितं क्षुब्धमासीत्। तत्रापि चित्रं शूण्वित्याह—पूर्णानन्देऽप्युषित्वा स्थित्वा। पूर्णपदेन वैषयिकानन्दव्यावृत्तिः। उषित्वेति। उपविश्य भुङ्के, झणत्कृत्य पततीत्यादिवत् समानकाल एव क्त्वाप्रत्ययः। पूर्णानन्दपीडयोरनुभवं समानकालमेवाकरोदित्याश्चर्यम्। वस्तुतस्तु तस्याः पीडाया एव पूर्णानन्दरूपत्वमित्युपपादितं प्राक्। तत्र चुक्रोशेत्यादि भूतकालप्रयोगेण विरहेऽपि मोहनस्योद्रेकः सर्वदा नोदेतीति व्यञ्जितम्। तत्र चुक्रोशेति परोक्षे लिटा स्वस्य मोहोऽपि ज्ञापितः। ततश्च धन्यासि नान्दीमुखि, सत्यं ब्रूषे तदानीमहमपि पुष्पशय्यायां रुक्मिण्या गाढमालिङ्गितोऽतिसंतप्तसर्वाङ्गो मूर्च्छा प्राप्तोऽभूवम्, सापि व्यग्राभूदिति श्रीकृष्णेन प्रत्युक्तम्। एवं चैतदुदाहरणानुसारेण महाभावलक्षणे यावदाश्रयवृत्तिरित्याश्रयपदेन जीवमात्रस्यैव भक्त्याश्रयत्वसंभवात्। यदुक्तं वैष्णवतोषण्यां संदर्भे च प्रणवव्याख्यायामार्षवाक्यम्— ‘अकारेणोच्यते विष्णुः श्रीरुकारेण कथ्यते। मकारस्तु तयोर्दासः पञ्चविंशः प्रकीर्तितः॥’ इति। ननु भगवतः स्थानलीलापरिकराणां सर्वेषामेव नित्यत्वप्रतिपादनादधुनापि प्रकाशभेदेन माथुरविरहोत्थो मोहनाख्यो महाभावभेदो वृन्दावनेश्वर्या कथं नोदेति चेन्नारं चुक्रोशेति वचनादस्मदादयो नरा अपि संप्रत्यपि कथं पूर्णानन्दरूपां तदीयपीडां क्वचिदपि नानुभवन्ति। सत्यम्। नित्यैव सर्वा लीला प्रपञ्चे प्रकटा चेति भागवतामृते द्वैविध्येन प्रतिपादिता। ततश्च प्रपञ्चेलीलायाः प्राकट्ये मोहनानुभावस्य ब्रह्माण्डक्षोभस्यापि प्रपञ्चे, प्राकट्यंतस्या अप्राकट्ये तस्याप्यप्राक-
** यथा वा—**
और्वस्तोमात्कटुरपि कथं दुर्बलेनोरसा मे
तापः प्रौढो हरिविरहजः सह्यते तन्न जाने।
निष्क्रान्ता चेद्भवति हृदयाद्यस्य धूमच्छटापि
ब्रह्माण्डानां सखिकुलमपि ज्वालया जाज्वलीति॥१७१॥
** तिरश्चामपि रोदनं यथा पद्यावल्याम्—**
याते द्वारवतीपुरं मधुरिपौ तद्वस्त्रसंव्यानया
कालिन्दीतटकुञ्जवञ्जुललतामालम्ब्य सोत्कण्ठया।
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ट्यम्। तथाहि यदा यत्र ब्रह्माण्डे माथुरविरहलीला प्रकटीभवति तदैव तस्य तस्यैव ब्रह्माण्डस्यैव क्षोभो नान्यस्येति सर्वमवदातम्॥१७०॥ प्रेमनिश्वासधूमे भ्रमतीत्यत्र धूमपदेन मोहनस्य वह्नित्वमारोपितमिति। स मोहनः कीदृशः। वह्निर्यद्धूभलेशेनापि सूर्यवह्निचन्द्राद्यात्मकमपि जगत् संतप्तमिति जिज्ञासायामाह—यथा वेति। प्रोषितभर्तृका श्रीराधा विशाखां प्रत्याह— और्वो वाडवाग्निस्तस्य स्तोमात् पुञ्जादपि कटुस्तीक्ष्णः। जाज्वलीति अतितप्तीभवति। अत्र निष्क्रान्ता चेत्युक्तेस्तस्य मोहनरूपवह्नेर्धूमो राधिकावपुषः सदा न निष्काम्यति। यदा चोद्रेकं प्राप्नोति तदा तु श्रीराधिकानासाभ्यां निष्क्रामत्येव तदैव ब्रह्माण्डक्षोभः पूर्वश्लोके उदाहृतः। मोहनभावस्तु श्रीराधाहृदये माथुरविरहमभिव्याप्यैव तिष्ठति। यद्वा जाज्वलीतीत्यस्य भस्मीभवतीति मुख्य एवार्थः कार्यः। ततश्चास्य धूमच्छटा कदापि न निष्कामत्येव योगमायैव तां श्रीराधावपुरन्तरेव स्तम्भयति ब्रह्माण्डगणस्य वैकुण्ठस्य च रक्षार्थमिति ज्ञेयम्। यत्तु पूर्वश्लोके प्रेमनिश्वासधूम इत्युक्तं तन्मोहनान्तर्वर्तिनस्तदेकांशस्य प्रेम्ण एव धूमो राधानासाभ्यां मोहनोद्रेके सति निर्गत इति ज्ञेयम्॥१७१॥ नान्दीमुखी वृन्दावनात् द्वारकां गत्वा श्रीराधाचेष्टितं पौर्णमासीं सास्रमावेदयति— याते द्वारवतीपुरमिति। द्वारकाप्रयाणवार्ताश्रवणे सतीत्यर्थः। तस्य वस्त्रं पीताम्वरमेव, संव्यानमुत्तरीयम्। तदङ्गसौ-
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रूपेणोपाध्यंशेन तापकत्वाच्च॥१७०॥१७१॥ यात इति। अत्रोद्गानं मोह-
उद्गीतं गुरुवाष्पगद्गदगलत्तारस्वरं राधया
येनान्तर्जलचारिभिर्जलचरैरप्युत्कमुत्कूजितम्॥१७२॥
** मृत्युस्वीकारात्स्वभूतैरपि तत्सङ्गतृष्णा यथा तत्रैव—**
पञ्चत्वं तनुरेतु भूतनिवहाः स्वांशे विशन्तु स्फुटं
धातारं प्रणिपत्य हन्त शिरसा तत्रापि याचे वरम्।
तद्वापीषुपयस्तदीयमुकुरे ज्योतिस्तदीयाङ्गन-
व्योम्निव्योम तदीयवर्त्मनि धरा तत्तालवृन्तेऽनिलः॥१७३॥
** अथ दिव्योन्मादः—**
एतस्य मोहनाख्यस्य गतिं कामप्युपेयुषः।
भ्रमाभा कापि वैचित्री दिव्योन्माद इतीर्यते॥१७४॥
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रभलाभार्थं यस्यास्तया उद्गीतं रोदनशब्दो गीतविशेष इव उच्चीकृतमित्यर्थः। येनोद्गीतेनान्तर्जलचारिभिर्मत्स्यमकरग्राहादिभिरपि किंपुनर्हसकारण्डवादिभिरित्यर्थः। उत्कमुत्कण्ठितं यथा स्यात्तथा। ब्रह्माण्डक्षोभकारीत्यस्यैव प्रपञ्चोऽयम्॥१७२॥ श्रीराधा ललितां प्रत्याह— तनुः पञ्चत्वं नाशमेतु। ‘स्यात् पञ्चता कालधर्मः’ इत्यमरः। यदि श्रीकृष्णो नायादेवेति निश्चयस्तदा तमहं न प्राप्स्यामि, सोऽपि मां न प्राप्स्यति अतः किमनया त्वया अतिकष्टेन रक्ष्यमाणयेति। किंच मया त्यक्ताया अप्यस्यास्तन्वाः स्नेहेन रक्षणे त्वं यत्नं मा कृथा इत्याह—भूतनिवहास्तन्वारम्भकाः पृथिव्यादयः स्वांशे स्वस्वभागे पृथिव्यादौ। तत्राप्ययं मे मनोरथ इत्याह—**धातारमिति।**विधातुः किमशक्यमिति भावः। स्वस्वांशे विशन्तोऽप्यमी तद्वाप्यादिषु पयआदयो भवन्त्विति वरं याचे। तस्य मत्कान्तस्य वापीष्ववगाहनविहरणदीर्घिकासु। अत्र भूतानां क्रमानुक्तिर्वैक्लव्यंसूचयति— मुकुरे इति। मज्ज्योतिष्वेव स मुखं पश्यत्विति वाञ्छा।**अङ्गनव्योम्नीति।**उपवेशनपर्यटननिश्वासजृम्भादिषु तत्सर्वाङ्गमहमाकाशरूपेणालिङ्गन्ती भूयासमिति भावः। वर्त्मनीति। मदुपरि स पादौ निदधात्विति। तालवृन्त इति। तदङ्गप्रस्वेदसौरभ्येन मदनिल एव सुगन्धो भवतु। ततश्चैवं मन्निवृत्तावपि त्वं कथं
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मयमेवासीदिति भावः॥१७२॥ स्वांश इति। स्वं स्वमंशिनमित्यर्थः। तत्र
उद्धूर्णा चित्रजल्पाद्यास्तद्भेदा बहवो मताः।
** तत्रोद्धूर्णा—**
स्याद्विलक्षणमुद्धूर्णा नानावैवश्यचेष्टितम्॥१७५॥
** यथा—**
शय्यां कुञ्जगृहे कचिद्वितनुते सा वाससज्जायिता
नीलाम्रंधृतखण्डिता व्यवहृतिश्चण्डी क्वचित्तर्जति।
आघूर्णत्यभिसारसंभ्रमवती ध्वान्ते क्वचिद्दारुणे
राधा ते विरहोद्भ्रमप्रमथिता धत्ते न कां वा (कां)दशाम्॥१७६॥
मथुरानगरं कृष्णे लब्धे ललितमाधवे।
उद्धूर्णेयं तृतीयाङ्के राधायाः स्फुटमीरिता॥१७७॥
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रोदिषीति भावः॥१७३॥ कामपि निर्वक्तुमशक्यां गतिं वृत्तिमुपेयुषः प्राप्तस्य काप्यद्भुता वैचित्री दिव्योन्मादः॥१७४॥१७५॥ उद्धवः पृष्टवृत्तान्तं श्रीकृष्णमाह—शय्यामिति॥१७६॥ १७७॥ उत्कण्ठिन्या भाव उत्कण्ठिता। तीव्रा उत्कण्ठितैवान्तिमा अन्ते भवा यस्मिन् सः। ‘जजल्प चित्रं वृषभानुजैतदवर्णयत् श्रीशुकदेव एव। यस्तन्महाभावपरावधित्वे व्याचष्ट तद्रूप-
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*भूतानां क्रमानुक्तेर्मोहमेव सूचयति॥१७३॥ **शय्यां कुञ्जगृह इति।*अत्र ‘काचिन्मधुकरं दृष्ट्वा ध्यायन्ती प्रियसंगमम्। प्रियप्रस्थापितं दूतं कल्पयित्वेदमब्रवीत्॥’ इत्येवास्त्युपजीव्यम्। अत्र काचिदित्यनेन श्रीराधिकैवोच्यते। पूर्वमस्या एव सर्वोत्तमतास्थापनाद्वैष्णवतोषण्यां वासनाभाष्यस्यात्रार्थे दर्शितत्वात्। सोऽयं च भावः सर्वोत्कर्षवान् तस्मात् पूर्वोक्तानामप्येतदुपजीव्यत्वं मन्तव्यम्। एतदनुसारेण चित्रजल्पा अपि विलक्षणतया दर्शयिष्यन्ते न तु हंस, स्वागतमास्यतामिति पट्टमहिषीवचनवत् यत्किंचित्तया॥१७४॥ १७५॥ १७६॥ मथुरेति।
अथ चित्रजल्पः—
प्रेष्ठस्य सुहृदालोके गूढरोषाभिजृम्भितः।
भूरिभावमयो जल्पो यस्तीव्रोत्कण्ठितान्तिमः॥१७८॥
चित्रजल्पो दशाङ्गोऽयं प्रजल्पः परिजल्पितम्।
विजल्पोज्जल्पसंजल्पा अवजल्पोऽभिजल्पितम्॥१७९॥
आजल्पः प्रतिजल्पश्च सुजल्पश्चेति कीर्तिताः।
एष भ्रमरगीताख्यो दशमे प्रकटीकृतः॥१८०॥
असंख्यभाववैचित्री चमत्कृतिसुदुस्तरः।
अपि चेच्चित्रजल्पोऽयं मनाक् तदपि कथ्यते॥१८१॥
** तत्र प्रजल्पः—**
असूयेर्ष्यामदयुजा योऽवधीरणमुद्रया।
प्रियस्याकौशलोद्गारः प्रजल्पः स तु कीर्तितः॥१८२॥
** यथा—**
मधुप कितवबन्धो मा स्पृशाङ्घ्रिं सपत्न्याः
कुचविलुलितमालाकुङ्कुमश्मश्रुभिर्नः।
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तया स्तुमस्तम्’॥१७८॥१७९॥१८०॥१८१॥१८२॥ स्वकान्तं प्रियसुहृदं मथुरात आगतं तत्संदेशहरं स्वसंनिधिमुपेत्यनत्वोपविष्टमुद्धवमालोकयन्त्यनालोकयन्ती तदेव स्वचरणकमलसौरभलोभेन भ्रमन्तं कमपि भ्रमरं वीक्ष्य सापराधेन मत्कान्तेन मामनुनेतुं दूतोऽयं प्रेरितो मच्चरणौ प्रणमतीति बुद्ध्या दिव्योन्मादेन तमवधीरयन्ती समुद्धतमनाः श्रीवृषभानुनन्दिनी प्रजल्पति— मधुपेति। हे मधुप भ्रमर, कितवस्य धूर्तस्य एव मदर्थोज्झितलोकवेदेत्या-
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*पूर्वोपजीव्यकमेव॥१७७॥ प्रेष्ठस्येत्येव महाविरहसमयत्वं प्रकरणादेव लब्धम्। अन्तिमपदेन सर्वान्तिम एवोच्यते॥१७८॥१७९॥१८०॥ **अपि चेदिति।*यद्यपीत्यर्थः॥१८१॥१८२॥‘मधुप कितव-’ इत्यादिका दश श्लोकाः श्रीवै-
वहतु मधुपतिस्तन्मानिनीनां प्रसादं
यदुसदसि विडम्ब्यंयस्य दूतस्त्वमीदृक्॥१८३॥
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दिना, न पारयेऽहमित्यादिना, आयास्य इति दौत्यकैरित्यादिना, मिथ्यावचनवृन्देन वञ्चकस्य कृष्णस्य बन्धो बन्धुतारूपदूत्यकारिन्, अङ्घ्रिमा स्पृश। ननु किमिति नमस्कर्तुं न ददासीति तत्राह— हे मधुप मद्यप, ‘मधु मद्ये पुष्परसे’ इत्यनेकार्थवर्गात् मद्यपस्पर्शे चरणस्यापावित्र्यं स्यादतो नमश्चिकीर्षा चेद्दूरमपसृत्य प्रणमेति भावः। नन्वदृष्टेऽपि मयि मिथ्या मद्यपत्वपरिवादं किमर्पयसीति तत्र नायं परिवादः किंतु यथार्थमेव वच्मीत्याह— मम सपत्न्या कुचयोः श्रीकृष्णवक्षःसंघर्षणेन विलुलिता विमर्दिता या माला, किंवा कुचाभ्यामेव विलुलिता या श्रीकृष्णवनमाला तत्संबन्धिकुङ्कुमयुङक्तैःश्मश्रुभिर्मा स्पृशेति भ्रमरस्य स्वाभाविकश्मश्रुपीतिम्न एव तथारोपः। तेन च मानिनी मामनुनेतुं त्वमिहायातोऽसि अथ च तथाभूतकुङ्कुमश्मश्रुमप्रक्षाल्यैवेति विवेकाभाव एव मद्यपानलक्षणम्। एतद्दर्शनया मानो वर्धत एव नतु निवर्तते इति वुद्ध्यस्वेति भावः। ननु यथा तथास्तु त्वं तावत् प्रसीदेति तत्राह— मधुप मद्यपालक, तत्र गत्वानिजप्रभोः पेयं मद्यमेव पालय पिब च तत्कर्मैव त्वं कर्तुं शक्नोषि नतु दूत्यं कर्म निर्बुद्धित्वादिति भावः। नन्वेवं चेदलं मया संप्रत्यहं पुनर्मथुरामेव यामि स गोपेन्द्रनन्दनः स्वयमेत्य त्वां प्रसादयत्वित्यत आह— वहत्वित्यादि। मधूनां यादवविशेषाणां पतिः संप्रति सोऽभूत् व्रजेश्वरीगर्भजातत्वेन गोपजातिरपि भाग्यवशात् क्षत्रियजातिरभूत् अतस्तन्मानिनीनां क्षत्रियस्त्रीणां प्रसादं वहतु प्राप्नोतु ता एव सदा प्रसादयतु किमस्माभिर्निकृष्टाभिर्गोपस्त्रीभिरिति भावः। अत्र वहुवचनेन वहधातुप्रयोगेण च मधुस्त्रीणामानन्त्यात्सर्वासामेव तद्भुक्तत्वात्, एकस्यां प्रसादितायामन्यस्या मानोत्पत्तेः, तस्यामपि प्रसादितायामन्यस्या इत्येवं तासां प्रवाहरूपेण प्रसादं प्राप्नोत्वित्यस्मत्संनिधावागमने तस्यावसर एव नास्तीति भावः। ननु तदीयसर्वसौभाग्यनिधे देवि, मैवं वादीः।
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ष्णवतोषण्यामेव रसनीयाः। विस्तरभिया नात्र व्याख्यायन्ते। कारिकासंगमनार्थंकिंचित्तु व्यज्यते। तत्र मधुपतिः। अत्र कितवबन्धो इत्यसूया व्यक्ता। सपत्न्याइत्यादिना अकौशलम् मास्पृशाङ्घ्रिमितीर्ष्यावधीरणं मदश्च वहत्वित्या-
अथ परिजल्पितम्—
प्रभोर्निर्दयताशाठ्यचापलाद्युपपादनात्।
स्वविचक्षणताव्यक्तिर्भङ्ग्या स्यात्परिजल्पितम्॥१८४॥
** यथा—**
सकृदधरसुधां स्वांमोहिनीं पाययित्वा
सुमनस इव सद्यस्तत्यजेऽस्मान् भवादृक्।
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यदि त्वयि तस्य मनो नास्ति तर्हि कथमहं तेन दूतः प्रस्थापितस्तत्राह— यस्य दूतस्त्वमीदृक् क्षत्रियस्त्रीजनसुरतचिह्नधारी तस्य यदुसदसि विडम्वां विडम्वनमेव यदुस्त्रीणां तत्कृतस्य धर्मलोपस्य व्यक्तीभावेन कुपितस्तत्तत्पतिभिस्तस्य विडम्वनमेव भविष्यत इति भावः। यद्वा यदुसदसि अधिकरणे एव विडम्बनं भावि गोपेन तन्नारीणां भुक्तत्वात् यदूनां निन्दैव सर्वदेशे भविष्यतीत्यर्थः।श्लेषेण यस्य दूतस्त्वमीदृक् स च मधुपतिर्मधूनां मद्यानां पतिरिति मद्यप एव। यतो मद्यस्य विक्षेपेणैव त्वादृशो भ्रमरो दूतः कृत इति। अत्र कितवेत्यसूया, सपत्न्या इत्यादिना ईर्ष्या, अद्ध्रिमा स्पृश इति मदः, वहत्वित्यादिना अवधीरणम्, यदुसदसीत्यादिना अकौशलोद्गार इति विवेचनीयम्॥१८३॥१८४॥ ननु भ्रमरजातेर्ममायं स्वाभाविक एव श्मश्रुपीतिमा नतु सुरतकुङ्कुममिदं तस्य च त्वदेकतानमानसस्य मधुपुर्या कामपि स्त्रियं स्वप्नेऽप्यपश्यतः कोऽपराधो यतस्त्वमीदृशं मानमाविष्करोषीति तत्राह—सकृदिति। पायनस्यासकृत्त्वेऽपि सकृदित्युक्तिरनुरागेण तत्रापि तृष्णां व्यञ्जयति—अधर एव सुधा तामिति। तेनैतावद्भिरपि संतापैर्वयं न म्रियामह इति भावः। एता मद्दत्तैः कष्टैर्यदि मरिष्यन्ति तदाहं काभ्यः कष्टं दास्यामि, तदासां मरणाभावाय स्वामधरसुधां पाययामीति स पुरा विचारयामासेति भावः। अतः सकृदेव पाययित्वा
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दिना च॥१८३॥१८४॥ सकृदिति। अत्र प्रथमे चरणे शाठ्यं द्वितीये चापलं निर्दयता च परिचरतीत्यादिना पद्माया अविचक्षणोक्तिः पद्मा चेयमुत्प्रेक्षत एव स यदात्रासीत्तदात्रैव महासंपत्तिरूपा(प)तयासीत् संप्रति तु तत्रैवेति। ताभिर्हेतुत्वेन विचारितम्। अथ चतुर्थे स्वाविचक्षणतोक्तिरेव विवृत्य कथिता कारणाभासे
परिचरति कथं तत्पादपद्मं नु पद्मा
अपि बत हृतचेता उत्तमश्लोकजल्पैः॥१८५॥
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सद्यस्तत्क्षण एवास्मांस्तत्याज।अस्मत्सुखदानतात्पर्ये सति सुधापायनस्यासकृत्त्वं स्यादिति त्वमेव विचारयेति भावः। तत्रापि पाययित्वेति णिचा तस्य वलात्कारो दर्शितः। नन्वेवं चेत् साध्व्यो भवत्यः कथं तस्मै पुनः स्पृहयन्ति तत्राह— मोहिनीं बुद्धिभ्रंशिनीम्। अतस्तेनास्मदादयो लोकद्वयत एव भ्रंशिता इति ‘विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं च्छेत्तुमसांप्रतम्’ इति न्यायोऽपि श्रीकृष्णेन न गणित इति भावः। किंच तस्य प्रीताप्रीतत्वे एवातिविचित्रे इत्याह— सुमनसो देवश्रेणीर्विष्णुरेिव श्रीकृष्णोऽस्मान् सुधां पाययित्वा सुमनसो मालतीर्भवादृक् भ्रमर इवास्मांस्तत्याजेति पायनत्यागयोः कर्मणि च कर्तरि च पृथक् पृथक् दृष्टान्तः। देवपक्षे हे अधर निकृष्टेति संबोधनम्। ‘सुपर्वाणः सुमनसः’ इत्यमरः। ननु तस्य युष्मत्कर्मकत्यागे युष्माकमेव कोऽपि दोषःकारणमस्ति तस्य वेत्यत्राह— सुमनस इवास्मान् स भवादृक् तत्याज। भ्रमरो यन्मालतीस्त्यजति तत्र दोषः कस्येति तयैव विचार्यतामिति भावः। ‘सुमना मालती जातिः’ इत्यमरः। सौरभ्यसौकुमार्ये पावित्र्यसर्वोत्कर्षादिभिः सुमनसः साधर्म्यात् शोभनमनस्कत्वाच्च वयं सुमनस इति व्रजे प्रसिद्धा एव स च मधुसूदन इति व्रजे प्रसिद्ध एवेति नेदं कवितामात्रमिति ध्वनिः। ततश्च चाञ्चल्यदोषादेव मालतीर्वह्नीरपि त्यक्त्वा निकृष्टेष्वपि पुष्पेषु विसज्जत्यविसज्जति वा भ्रमरे इव श्रीकृष्णे कथं वयं मानिन्यो न भवामइत्यनुध्वनिः। ननु श्रीकृष्णस्य निर्दोषत्वं शास्त्रप्रसिद्धमेव शास्त्रज्ञेन गर्गेण ‘नारायणसमो गुणैः’ इत्युक्तत्वात्, तत्र भवतु स नारायणस्तथापि परवञ्चनादिदोषाणां तत्र प्रत्यक्षत एव दृष्टत्वात्ते कथमपलपनीया भवन्त्विति विमृश्य सविचिकित्समाह— परिचरतीति। पद्मा लक्ष्मीः। लक्ष्मीपरिचर्यायामपि हेतुं स्वयमेवोद्भावयन्त्याह—अपि वतेति। उत्तमश्लोक इति ये जल्पाः स्तावकलोकानां स्तुतिमात्राणि तैर्हृतं चेतो यस्याः सा। तेन लक्ष्मीरतिऋज्वी वयं तु वैचक्षण्यवैदग्ध्यबुद्धिवैचित्र्यादिगुणाना विधात्रा दत्तत्वात् कथं तादृशीभवितुं प्रभवामेति भावः। अत्र पाययित्वेति मोहिनीमिति च तस्य शाठ्यं, सद्य
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कारणत्वंतयाभिमतमिति सोपहासत्वात्। यतःसोऽयमुत्तमः श्लोक इति ये जल्पाः
** अथ विजल्पः—**
व्यक्तयासूयया गूढमानमुद्रान्तरालया।
अघद्विषिकटाक्षोक्तिर्विजल्पो विदुषां मतः॥१८६॥
** यथा—**
किमिह बहु षडङ्घ्रेगायसि त्वं यदूना-
मघिपतिमगृहाणामग्रतो नः पुराणम्।
विजयसखसखीनां गीयतां तत्प्रसङ्गः
क्षयितकुचरुजस्ते कल्पयन्तीष्टमिष्टाः॥१८७॥
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स्त्यागान्निर्दयत्वम्, भवादृगिति चापलम्, लक्ष्म्या आर्जवव्यञ्जनया स्वविचक्षणत्वम्, आदिशब्दादकृतज्ञत्वप्रेमशून्यत्वादिकं तु सर्वत्रैवानुस्यूतम्॥१८५॥ गूढा मानमुद्रा अन्तराले मध्ये यस्यास्तया॥१८६॥ भ्रमरजातिस्वभावेन हुंकारान् कुर्वन्तं तं मत्कृतेन तिरस्कारेणाप्तसंरम्भोऽयं स्वीयं गानगुणं प्रकाशयसीति मत्वाह—किमिति। इह गोपीसभासु किं गायसि अज्ञस्य तव गानेन नैताः प्रसीदन्तीति भावः। तदपि वहु पुनः पुनर्गायसि तत्रापि यदुपतिं यदूनां पतित्वेन ख्याप्यमानं तत्रापि नोऽस्माकमग्रतः। कीदृशीनाम्। अगृहाणां तेनैव त्याजितगृहाणामिह वनप्रदेश उपविष्टानां तुभ्यं चणकमुष्टिभिक्षादानेऽप्यसमर्थानाम्। ननु स्वाङ्गोत्तीर्णपुरातनवस्त्रमाल्यादिकं किंचिद्देहीति तत्राह— पुराणं गायसि तस्य यदुपतित्वेपुराणं प्रमाणयसि। हे पडङ्घ्रे इति। पशुस्तावत् चतुष्पात् त्वं तु पट्पदः सार्धपशु कुत्र किं वा गातुमुचितमिति बुद्ध्यभावान्न जानासि पशुत्वात् पुराणं वा कथं जानासिअतः कथं भिक्षां प्राप्स्यती(सी)ति भावः। किं च तव पशुत्वात्तुभ्यं वयं न कुप्यामः परंतु गानोपजीविनस्तव स्थानमुपदिशामः शृण्वित्याह—विजयेति। कामयुद्धे विशिष्टो
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स्तावकाना स्तुतिमात्राणि तैस्तन्मात्रैरेव हृतं चेतो यस्याःसा॥१८५॥१८६॥ किमिहेति। अत्र पूर्वार्धेऽसूया।असूया चेयं मानव्यञ्जनी। उत्तरार्धे उपहासात्मकः कटाक्षः। विजयते याभिः सह वामयुद्धे विजयं प्राप्नोति यस्तव सखा
** अथोज्जल्पः—**
हरेः कुहकताख्यानं गर्वगर्भितयेर्ष्यया।
सासूयश्च तदाक्षेपो धीरैरुज्जल्प ईर्यते॥१८८॥
** यथा—**
दिवि भुवि च रसायां काः स्त्रियस्तद्दुरापाः
कपटरुचिरहासभ्रूविजृम्भस्य याः स्युः।
चरणरज उपास्ते यस्य भूतिर्वयं का
अपि च कृपणपक्षे ह्युत्तमश्लोकशब्दः॥१८९॥
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जयो यस्य विगतो जयो वा यस्य स चासौ सखा चेति विजयसखस्तस्य सखीनां तव सखा कामयुद्धे या जयति याभिर्वा विजयते तासामेवाग्रतस्तत्प्रसङ्गः सुरतजयपराजयप्रसङ्गो गीयताम्। यद्वा श्लेषेण पूर्वंस सुवलसख आसीत् संप्रति विजयोऽर्जुनस्तस्य सखाभवदिति भाविवार्तापि तस्या मुखात् स्वयं निःसृतेति ज्ञेयम्। ततश्च ताः क्षयितकुचरुजः खण्डितकुचज्वालास्ववेष्टं वाञ्छितं कल्पयिष्यन्ति। त्वया च तद्गानश्रावणया इष्टाः पूजिताः सत्यः। अत्र पूर्वार्धेऽसूया मानगर्भा, उत्तरार्धे तूपहासात्मकः कटाक्षः श्रीकृष्णे पर्याप्नोति॥ १८७॥॥१८८॥ ननु भोः श्रीकृष्णप्रेयसीशिरोमणे, तत्र स्थितः स रात्रिंदिवमेव त्वां ध्यायन् कामशरार्दितःस्विद्यति त्वं चेत् प्रसीदसि तदैव तस्य निस्तार इत्यत्र सासूयमाह— दिवीत्यादि। अयमर्थः श्रीकृष्णस्य स्त्रीभिर्विना कालो न यातीत्यहं सुष्ठुजानामि तत्र यदि मथुरायां स्त्रियो न मिलन्ति तदा सोऽस्मान् ध्यायतु प्रसादयतु तत्र नेतुं त्वादृशदूतं च प्रस्थापयतु। न च गोपजातिं तं पुरस्त्रियः क्षत्रियजातयः कथमङ्गीकरिष्यन्तीति वाच्यम्। यतो **दिवि भुवीति।**तदित्यव्ययम्। तस्य का दुरापाः यदि स स्वर्गे गच्छति तदा देव्योऽपि रसायां रसातलादिषु नागपत्न्योऽपि स्वस्वपतींस्त्यक्त्वा तमायान्ति मथुराङ्गनानां का
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*तस्य सखीनां तासामेवाग्रे तत्प्रसङ्गो गीयताम्। तेन च विजयेन ताः प्रत्युत क्षयितकुचरुङ्मानिन्यस्तद्भावेनेष्टाः पूजितंमन्याः सत्यस्ते तवेष्टं कल्पयन्ति संप्रत्येव कल्पयिष्यन्ति। वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा॥१८७॥१८८॥ **दिवीति।*अत्र पूर्वार्धे कुहकता सासूयाक्षेपश्च। ‘चरणरज उपास्ते’ इत्यर्धे स्वविशेषणगर्व-
** अथ संजल्पः—**
सोल्लुण्ठया गहनया कयाप्याक्षेपमुद्रया।
तस्याकृतज्ञताद्युक्तिःसंजल्पः कथितो वुधैः॥१९०॥
** यथा—**
विसृज शिरसि पादं वेद्म्यहं चाटुकारै-
रनुनयविदुषस्तेऽभ्येत्य दौत्यैर्मुकुन्दात्।
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वार्तेति भावः। न च तत्तदङ्गनाप्राप्तौ तस्य किंचित् पणादिकमपेक्षितव्यमित्याह— कपटेनापि रुचिरौ सर्वासां मनोहरौ भ्रूविजृम्भहासौ यस्य तथाभूतस्यैव तस्य या देव्यादयः स्युर्नतु स्वस्वपतीनामित्यर्थः। सकपटहासमूल्येनैव ताः स्वयमेव क्रीता भूत्वास्वस्वपतींस्त्यजन्ति। कपटपदेन श्रीकृष्णस्तु सकृदेव भुक्तास्तास्त्यजति नवप्रियत्वादिति भावः। देव्यादयो दूरे वर्तन्तां भूतिर्लक्ष्मीः श्रीनारायणस्यापि स्त्री चरणरज उपास्ते। तदङ्गसङ्गार्थमिति नागपत्नीवाक्यम्। वयं पौर्णमासीमुखादश्रौष्मअतो वयं का कस्या गणनायां तिष्ठामो यतो मानुष्यस्तत्रापि गोप्यस्तत्रापि वृन्दावनीया इति भावः। इदं दैन्यमयवाक्यमपि समस्तकोद्धूननस्वरविशेषेण गर्वगर्भितमीर्ष्यामेवव्यनक्ति।सा चेर्ष्या स्वेषांलक्ष्म्यादितोऽपि प्रेमाधिक्यं रूपलावण्याधिक्यं चानुव्यनक्ति। अपि च किंच।उत्तमश्लोकशब्दो हि कृपणपक्ष एव। संतप्तदीनहीनजनान् योदयते सह्युत्तमश्लोक उच्यते श्रीकृष्णे तु तल्लक्षणाभावात् मिथ्यैवोत्तमश्लोकतेत्यर्थः। यद्यप्यस्मद्विधान् कृपणजनान् स नाडु खयिष्यत् तदा स्वस्मिन् कथमुत्तमश्लोकशब्दवाच्यत्वमधास्यदिति वाक्षेपध्वनिः। अत्र पूर्वार्धे दिवि भुवीत्यादिना कुहकताख्यानम्।चरणरज इति तृतीयचरणे गर्वगर्भितेर्ष्या।अपि चेति चतुर्थपादे सासूय आक्षेप॥१८९॥ सौरभलोमेन चरणतले पतन्तमपि भ्रमरम्।ननु लक्ष्मीकोटिनिर्मञ्छनीयचरणनखद्युते देवि सत्यं त्वय्यपराद्ध एव श्रीकृष्णस्तस्मात्त्वं कृपयैव क्षमस्वेति प्रणमन्तं तं मत्वाह— विसृजेति। शिरसि धृतं मम पादं विसृज त्यज इतो दूरीभवेत्यर्थः। **वेद्म्यहमिति।**लक्ष्म्यादिकेव
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गर्भितत्वम् अपिचेत्यथवेत्यर्थे। तस्योत्तमश्लोकत्वेन यो जल्पः स खलु अस्मद्विधकृपणपक्ष एवेत्यपि पूर्ववद्गर्वगर्भितत्वमेवेति॥१८९॥१९०॥ विसृजेति।
स्वकृत इह विसृष्टा पत्यपत्यन्यलोका
व्यसृजदकृतचेताः किं नु संधेयमस्मिन्॥१९१॥
** अथावजल्पः—**
हरौ काठिन्यकामित्वधौर्त्यादासक्त्ययोग्यता।
यत्र सेर्ष्यभियेवोक्ता सोऽवजल्पः सतां मतः॥१९२॥
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नाहं प्रतार्येति भावः।मुकुन्दात् सकाशादभ्येत्य चाटुकारैः प्रियोक्तिरचनारूपैर्दौत्यैर्दूत्यकर्मभिरनुनयविदुषस्तस्मादनुनयप्रकारं शिक्षितवतस्तव सर्वं शीलादिकमहं वेद्मि।कर्मणि वा षष्ठी।त्वां वेद्मीत्यर्थः। ननु स्वामिनि त्वत्प्राणकोट्यधिकेन तेन सह विग्रहेणालं प्रत्युत मया तीर्थेन संधिरेव कर्तुं युज्यत इति तत्राह— स्वकृते तदर्थं विसृष्टानि त्यक्तानि अपत्यानि च पतयश्च अन्यलोकाश्च मातापित्रादयश्च याभिस्तत्र वा स मुरलीवादनसमयेऽन्तर्गृहनिरुद्धगोपीभिरपत्यानि त्यक्तानि तदानीं तानि त्यक्त्वैवाभिसृतत्वात्।अस्माभिस्तु पतयः धन्यादिकन्याभिः पित्रादय इति यथासंभवं ज्ञेयम्।ता गोपीर्योऽसृजत्।कीदृश। अकृतचेताः न विद्यते कृते उपकृते चेतो यस्य सः।अकृतज्ञ इत्यर्थः।नन्वहो ईदृशेऽस्मिन् कठोरे किं नु संधेयं संधातुमर्हम्।अपि तु नैवेत्यर्थः।अत्र पूर्वार्धे सोल्लुण्ठा आक्षेपमुद्रा, उत्तरार्धेऽकृतज्ञता, आदिशब्दान्निर्दयत्वपरद्रोहित्वप्रेमशून्यत्वानि॥ १९०॥१९१॥ ननु अतिकोमलमनाः स त्वामेव ध्यायंस्तत्रास्माभिर्दृश्यते इति तत्र त्वमर्वाचीनो दासस्तस्य तत्त्वं न जानासि न केवलं स ह्यस्मिन्नेव जन्मनि कठोरः किंतु पूर्वपूर्वजन्मस्वपीति पौर्णमास्या मुखादस्माभिः श्रुतत्वादि-
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*शिरसि कृतं निहितं पादं मम चरणं विसृज।नन्वनुनयेऽस्मिन् रोषः कुतस्तत्राह— मुकुन्दादभ्येत्य नूनं तस्मादेव शिक्षित्वा चाटुकारैरनुनयविदुषस्ते तवाहं वेद्मि यत्किंचिद्धृदिस्थमिति शेषः।ननु संधिरेव मम हृदिस्थस्तत्राह—स्वकृत इति। स्वकृते स्वनिमित्तं तत्र पूर्वार्धे सोल्लुण्ठत्वम्, उत्तरार्धे आक्षेपोऽकृतज्ञता च।न विद्यते कृते उपकृते चेतो यस्येति॥१९१॥ **काठिन्येति।*समाहारद्वन्द्वः॥१९२॥
यथा—
मृगयुरिव कपीन्द्रं विव्यधे लुब्धधर्मा
स्त्रियमकृत विरूपां स्त्रीजितः कामयानाम्।
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त्याह— मृगयुरिवेति। यदा स क्षत्रियजातौ रामचन्द्रोऽभूत्तदा क्षत्रियधर्म परित्यज्य मृगयुर्व्याध इव कपीनामिन्द्रं वालिनं विव्यधे विव्याध।तत्रापि निर्दयो गुप्तः सन्नित्यर्थः। धर्मकथापि तदुपाख्याने ज्ञेया।तत्राप्यलुब्धधर्मा लुब्धकस्य व्याधस्यापि धर्मरहितः, नहि व्याधो वानरान् हिनस्ति तन्मांसस्याभक्ष्यत्वेन केनाप्यक्रेयत्वादिति भावः। अन्यमप्यधर्मशृण्वित्याह—स्त्रियं शूर्पणखां कामयानां तमेव कामयमानां तां विरूपां छिन्नकर्णनासामकृत। अन्योऽपि कोऽप्येनां न संभुङ्क्ता(नक्त्वि)मिति क्रौर्येणेति भावः। न च जटावल्कलधारित्वाद्वैराग्येणेत्यत आह— स्त्रिया सीतया जितः। तथा तत्पूर्वजन्मनि ब्राह्मणजातौ स वामनोऽभूत्तदापि ब्राह्मणधर्मं शान्त्यकैतवादिकं परित्यज्य वलिं परमधार्मिकमपि तत्रापि वलिं तत्पूजोपहारमत्त्वा भुक्त्वापि त्रिविष्टपात् त्रैलोक्यराज्यादक्षिपत् तत्रापि भूविवरे। पाठान्तरेऽवेष्टयत् छलेन बवन्ध ध्वाङ्क्षवत् काकवत् स यथा वलिंजग्ध्वापि लोकं स्त्रीजनं वेष्टयति स्वजातीयानन्यानाहूय तमावृणोति कदर्थयति च। तस्मादसितस्य कृष्णवर्णस्य तस्य सख्यैर्वहुषुसख्यप्रकारेषुएकेनापि प्रकारेणालं अस्माकं गौरीणामसिताः स्वल्पशुद्धचित्ता भवन्तीति तेभ्यो भयस्यावश्यभावित्वादिति भावः। नन्वभीक्ष्णं परनिन्दां कुर्वती भवती किं शुद्धचित्तासीति तत्राह—तस्य कथायाः प्रतिजन्मचरित्रस्यार्थोव्याख्या।दुस्त्यजः सोऽस्मानेवं दुःखयति। अस्माभिस्तत्कथाया अप्यर्थो न वक्तव्य एव किम्। अत्र निन्दा वा भवतु यथार्थभाषणेनानिन्दा वा भवतु असौ त्यक्तुमशक्य एवेति भावः। यद्वा स त्वस्माभिस्त्यक्त एव किंतु तद्यथारूपोऽर्थो वस्तुविशेषस्तु दुस्त्यज एव कर्तृपदानुक्त्या सर्वैरेव मुन्यादिभिरपीत्यर्थः। अत्र विव्यध इति काठिन्यम्, स्त्रीजित इति कामित्वम्, वलिमपीति धौर्त्यम्, असितसख्यैरिति आसक्त्ययोग्यता, भयमीर्ष्याच॥१९२॥
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मृगयुरिति। तत्तस्मादसितस्य असितमात्रेण सख्यै सख्यप्रकारैः। तेष्वेकेनाप्यलं यस्मादेकोऽसितो मृगयुरिवेत्यादि चरितं कृतवान्।कपीन्द्रं वालिनं स्त्रियं शूर्पणखां कामयानां कामयमानामपि स्वयमपि स्त्रीजित एवतदाज्ञयैव कनकमय-
वलिमपि वलिमत्त्वावेष्टयद्धाङ्क्षवद्य-
स्तदलमसितसख्यैर्दुस्त्यजस्तत्कथार्थः॥१९३॥
** अथाभिजल्पितम्—**
भङ्ग्या त्यागौचिती तस्य खगानामपि खेदनात्।
यत्र सानुशयं प्रोक्ता तद्भवेदभिजल्पितम्॥१९४॥
** यथा—**
यदनुचरितलीलाकर्णपीयूषविप्रुट्-
सकृददनविधूतद्वन्द्वधर्मा विनष्टाः।
सपदि गृहकुटुम्बं दीनमुत्सृज्य दीना
बहव इह विहङ्गा भिक्षुचर्या चरन्ति॥१९५॥
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॥१९३॥ खगानामपि खगसदृशीकृतानामपि सज्जनानां पुनः खेदनात् सानुशयं सानुतापम्॥ १९४॥ वयं साक्षात्तेन सह सख्यं कृतवत्यो यद्दुःखिन्योऽभूम तत्र कि चित्रं तल्लीलाकथापि सर्वजगत्संतापनीत्याह— यस्यानुचरितं प्रतिक्षणचेष्टितमेव लीला सैव कर्णपीयूषं शब्दमात्रेणैव सुखदं किं पुनरर्थत इति भावः। तस्यापि विप्रुट्,तस्यापि सकृदप्यदनं किचिदास्वादनं तेनापि विधुता विशेषेण खण्डिता द्वन्द्वधर्माः स्त्रीपुंसादिपरस्परसौख्यरूपधर्मा येषां ते। तत्कथां स्त्री चेच्छृणोति सद्य एव पतिस्नेहं त्यजति, पतिश्चेत्स्त्रीस्नेहम्, एवं पुत्रश्चेत् पितरं मातरं च, माता चेत् पुत्रमित्येवं परस्परत्यागात् विशेषेण नष्टा इति तेषां नाशे तथा न दुःखं यथा वैराग्य इति। सांसारिकलोकानुभव एव प्रमाणमिति भावः। किं च ते जनाः स्निग्धमनसोऽपि कठोरस्य श्रीकृष्णस्य लीलाश्रवणादिभिः कठोरा निर्दयाः कृतघ्नाश्च भवन्तीत्याह— सपदि कथाश्रवणमात्र एव गृहकुटुम्वंपितृस्व-
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*मृगमारणादिति भावः। अन्योऽसितस्तु वलिमपीत्यादि चरितं कृतवान्।तर्हि कथं ममेशितुरसि तस्य वार्ता प्रस्तौषि माप्रस्तौषीरेव। तत्राह— **दुस्त्यज इति।*सत्यमवादीः किंतु तस्य दर्शितस्वाधिक्यात्तस्मादप्यधिकस्य कथाया योऽर्थःप्रतिपाद्य; तत्तल्लक्षणो दोषः स दुस्त्यजः सदा मनसि स्फुरतीति वचसि त्यक्तुं न शक्यत इत्यर्थः। तेन तेन दोषेण मुहुर्मुहुः कदर्थनादिति भावः॥१९३॥ अनु-
अथाजल्पः—
जैह्रयं तस्यार्तिदत्वं च निर्वेदाद्यत्र कीर्तितम्।
भङ्ग्यान्यसुखदत्वं च स आजल्प उदीरितः॥१९६॥
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स्रादिपर्यन्तमपि दीनमन्यस्योपार्जकस्याभावात् श्वो यद्भोक्ष्यते तद्धनरहितमपि यद्वा तद्विच्छेदकातरमुत्सृज्य मृत्यवे कुशवारिसंयोगेन संप्रदायेवेत्यर्थः। हन्त हन्त ते स्त्रीपुत्रादयो म्रियन्तां नाम स्वयमपि सुखिनो नैव भवन्तीत्याह—दीना गृहं त्यक्त्वागच्छन्तश्चित्तविक्षेपात् वराटकमात्रमपि ग्रन्थौ न गृह्णन्तीति भावः। धीरा इति पाठे भार्यादिरोदनदर्शनेऽप्यक्षुभ्यन्तो महाकठोरा इत्यर्थः। न च ते एको वा द्वित्रावा चतुःपञ्च वा किंतु वहवः परःशताःपरःसहस्राश्च। ननु ततस्ते कया जीविकया जीवन्तीत्याह—विहङ्गाःपक्षिण इव भिक्षुचर्यां गोधूमादिकणभिक्षापरिपाठ्यैव जीवन्ति न तु केनापि दत्तया स्थूलभिक्षयापीति भावः। इहेति पाठेऽत्रैवास्मद्दुःखस्थाने वृन्दावनस्थान एवागत्येत्यस्मत्सङ्गादपि महादुःखिनो भवन्तीति भावः। तेन तत्कथाया वहुमत्स्यण्डिकामयधुस्तूरवीजचूर्णत्वं कथावाचकस्य साधुवेपच्छन्नमहाघातुकत्वं पुराणपुस्तकस्य जालत्वंध्वनितम्। अत एव ते वनाद्वनं भ्रमन्तोऽपि स्वकक्षगृहीत पुस्तका एव दृश्यन्ते। व्यासादीनां जालनिर्मातृत्वं श्रीकृष्णस्य परमेश्वरत्वेन तत्तदादेष्टृत्वम्। एतदर्थमेव श्रीकृष्णेन परमेश्वरता गृहीता।गोप्य इव सर्वलोका अपि दुःखाब्धौपतन्त्विति तस्य विचारः। ईदृशपरदुःखदर्शनमेव तस्य सुखमत ईदृशपरदुःखदानजन्यफलभागी यथा स भविष्यति तथा न व्यासादय इति परःशता एव ध्वनयोऽस्य पदस्य सर्व एव सिद्धान्ततो व्याजस्तुल्या भक्तेः सर्वोत्कर्षव्यञ्जका ज्ञेयाः॥१९५॥ तस्यार्तिदत्वं
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शयोऽनुताप॥१९४॥ यदनुचरित इति। समवेतत्वमेव। तत्र दृश्यमानेषु विहङ्गेषु भिक्षुत्वमारोप्य गदितम्। तच्च तेषामपि भिक्षुत्वकरणम्। तद्दोषं तेन प्रदर्श्येपालम्भम्। कर्णपीयूषत्वेन मनसि तु तस्यान्यथा रीतिं सूचयित्वा खण्डमयधुस्तूरबीजचूर्णत्वमिव स्थापितम्। द्वन्द्वधर्मा मिथुनीयभोगाः तेषां विधूतत्वादेव विनष्टाः। ततश्च सपदीति। इह वृन्दावने भिक्षुचर्यां वृक्षादिषु कणभिक्षाम्। लक्षणं तु स्पष्टमनुगतम्॥१९५॥ अन्यसुखदत्वमन्यकर्तृकसुखदा-
** यथा—**
वयमृतमिव जिह्मव्याहृतं श्रद्दधानाः
कुलिकरुतमिवाज्ञाः कृष्णवध्वो हरिण्यः।
ददृशुरसकृदेतत्तन्नखस्पर्शतीव्र-
स्मररुज उपमन्त्रिन् भण्यतामन्यवार्ता॥१९७॥
** अथ प्रतिजल्पः—**
दुस्त्यजद्वन्द्वभावेऽस्मिन् प्राप्तिर्हेत्यनुद्धतम्।
दूतसंमाननेनोक्तं यत्र स प्रतिजल्पकः॥१९८॥
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दुःखदत्वम्, अन्यस्य सुखदत्वम्॥१९६॥ नन्वेवं चेत् परमविज्ञाभिर्भवतीभिः श्रीकृष्णे तस्मिन् कथं सख्यं कृतं तत्राह— वयं तस्य ‘न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजाम्—’ इत्यादिकं जिह्मव्याहृतमपि ऋतमिव सत्यमिव श्रद्दधाना अज्ञा अभूम। कुलिकस्य व्याधस्य रुतं शब्दं श्रद्दधाना हरिण्यः कृष्णवध्वः कृष्णसारस्त्रिय इव। ततः किमत आह—एतत्कुलिकरुतं ददृशुः। रुतस्य दर्शनासंभवात्तत्फलं शरघातं ददृशुरित्यर्थः। तथैव वयमपि तन्नखस्पर्शेन तीव्राः स्मररुजः कन्दर्पपीडा ददृशिमेत्यर्थः। असकृदिति। एकवारतत्फलदर्शने पुनरपि विश्वासात् पुनरपि तत्फलदर्शनादक्षत्वाधिक्यं हरिणीनामस्माकं च लब्धपुनःपुनर्मदनोत्थदुःखदशानां तस्मादुपमन्त्रिन् हे विदूषक, अन्यवार्ता भण्यतां तस्य तद्वार्तायाश्च दुःखदत्वादन्यकथैव संप्रत्यस्माकं सुखदेत्यर्थः। अत्र लक्षणसंगति स्पष्टैव॥ १९७॥ अथोन्मादेन तत्रैव भ्रमन्तमपि तं भ्रमरमननुसंधाय क्षणमन्तर्हितं वा तमपश्यन्ती सखेदं पराममर्श हन्त हन्त मम तीक्ष्णया गिरा संतप्तेनानेन दूतेन
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नम्॥१९६॥ एतत्तस्य तव कापट्यंददृशुः। ददृशिम इत्यर्थः। कीदृश्यो यूयम्। तत्राह— तन्नखेति। तस्यान्येषामङ्गानां स्पर्शस्मरणमस्माकं नास्त्येव किंतु बलादिव तन्नखस्य स्पर्शेन जाता स्मररुक् यासां तादृश्य एव जाताः बाणस्पर्शरुजो हरिण्य इवेति भावः। उपमन्त्रिन् हे विदूषक। ‘तत्रोपमन्त्रिणो राजन्’ इति प्रयोगदर्शनात् अन्यस्य वार्ता भण्यताम्। सैव सुखदा भवेदिति भावः।
यथा—
प्रियसख पुनरागाः प्रेयसा प्रेषितः किं
वरय किमनुरुन्धे माननीयोऽसि मेऽङ्ग।
नयसि कथमिहास्मान्दुस्त्यजद्वन्द्वपार्श्व
सततमुरसि सौम्य श्रीर्वधूः साकमास्ते॥१९९॥
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मथुरां गतेनावेदितसर्ववृत्तान्तः श्रीकृष्णो मामुपेक्षांचके इति कलहान्तरितदशां प्राप्ता प्रेमाम्बुधिना सद्गुणमौलिना मत्कान्तेन पुनरपि स एव प्रेषितो दूतोऽत्रायात्विति तद्वर्त्म निरीक्षमाणा अकस्मात्तं विलोक्य सादरमाह—हे प्रियसख, मत्प्रियस्य सखे, पुनरागाः मद्वाक्शरताडितोऽपि स्वसाद्गुण्येन मदपराधमगणयित्वैव आगाः। आं जानामि प्रेयसा मध्यतिप्रेमवता मदपराधकोटीरगणयता तेनैव किं प्रेषितः। तर्हि वरय वृणु किमनुरुन्धे अनुरुणत्सि कामयसे इत्यर्थः। यद्वा कमनुरोधं ते संपादयामीत्यर्थः। तव मथुरागमनमेव वृणोमीति चेद् यामि मथुरामित्युक्त्वापि पुनः पुरस्त्रीवेष्टितं तं तत्र पश्यन्त्या मेऽवश्यं मानो भविष्यतीति परामृश्याह— नयसीति—दुस्त्यजद्वन्द्वं मिथुनीभावो यस्य तस्य पार्श्वम्। नन्वेकाकी स तत्र वर्तत इति सशपथं ब्रवीमीति तत्राह—हे सौम्य, आर्यवुद्धिरसीति भावः। श्रीरेव वधूः साकं सहैव। तत्रापि सततं तत्राप्युरसि पुरुषायितत्वेनेति भावः। अयमर्थः— श्रियो देवीत्वेन नानारूपधारित्वशक्तेः श्रीकृष्णो यदा अन्याः स्त्रीः संभुंक्ते तदा स्वर्णरेखारूपैव तद्वक्षसि तिष्ठति। यदा तमन्याः स्त्रियो नायान्ति तदा रेखारूपतां त्यक्त्वा प्रकटमेव युवतिर्भूत्वा तं रमयतीति।
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*तत्र च लक्षणं स्पष्टमेव॥१९७॥१९८॥ तदेवं मानभङ्ग्याप्रत्याख्यातम्। क्वचिदन्तर्धाय पुनरागतं भ्रमरं प्रति कलहान्तरिता भङ्ग्याप्राह—**प्रियसखेति।*पुनरागाः आगतवानसि। तत्र च प्रेयसा प्रेषितः किमागतवानसि। अनुरुन्धे अणुरुणत्से(त्सि) कामयस इत्यर्थः। अथ मथुरा प्रति स्वनयनोद्यतं तमुत्प्रेक्ष्य प्रत्याचष्टे— नयसीति। दुस्त्यजं द्वन्द्वं मिथुनीभावो यस्य तस्य पार्श्वम्। कथं दुस्त्यजद्वन्द्वत्वं तत्राह— सततमिति। या खलु रेखारूपा श्रीस्तदुरसि दृश्यते सा रात्रौ रमा भवतीति भावः। अत्र च स्पष्टं लक्षणम्॥१९९॥
३२ उज्ज्व०
** अथ सुजल्पः—**
यत्रार्जवात्सगाम्भीर्यं सदैन्यं सहचापलम्।
सोत्कण्ठं च हरिः प्रेष्ठः ससुजल्पो निगद्यते॥२००॥
** यथा—**
अपि बत मधुपुर्यामार्यपुत्रोऽधुनास्ते
स्मरति स पितृगेहान् सौम्य बन्धूंश्च गोपान्।
क्वचिदपि स कथां नः किंकरीणां गृणीते
भुजमगुरुसुगन्धं मूर्ध्न्यधास्यत्कदा नु॥२०१॥
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अत्रापि स्पष्टैव लक्षणसंगतिः॥१९८॥१९९॥ हा हन्त मयोन्मत्तया किं प्रलप्यते प्रष्टव्यं तु न पृच्छ्यत इत्यनुतप्य ससंभ्रममाह— **अपि वतेति।**मधुपुर्यामास्ते व्रजमिव तामपि त्यक्त्वा अन्यत्र किंस्वित् न यियासतीति भावः। इतः समीपवर्तिन्यां तत्र पुर्यां तस्य स्थितिरत्रागमनसंभावनामप्युत्पादयतीति भावः। यद्वा सुखमास्ते इत्यनुक्तेरस्मत्प्रणयस्मरणव्याकुलोऽनुरोधवशादेव तत्रास्ते यत आर्यस्य यदुभिर्दुर्विनीतैः प्रतार्यमाणत्वात् सारल्यसमुद्रस्य श्रीब्रजराजस्य तदेकप्राणस्य पुत्रः। हन्त हन्त मत्पितापि मां व्रजं नेतुं नाशकत्तदहं तत्र गन्तुं कमुपायं करोमीति स विलम्बमसहमानस्त्वां प्रस्थापयति स्मेति भावः। तेन मधुपुर्यामास्ते इति तस्य को दोषः यतः आर्यस्यातिसरलस्य स्वपरिणामदर्शित्वेनापि शून्यस्य श्रीनन्दस्य पुत्रस्तादृशं स्वपुत्रं तादृशः पिता यस्त्यक्त्वाव्रजमायास्यतीति को जानातीति। यद्यज्ञा स्यात् व्रजराज्ञी सा तावदक्रूररथारूढैव स्वपुत्रं कण्ठे कुर्वत्येव मथुरामयास्यत्। तामनु गोपिकाश्रेण्यश्चेति व्रजराजस्यार्यत्वमेवास्माकं सर्वनाशे कारणमभूदिति भावः। अतस्तादृशस्यापि पितुरतिसरलस्य वसुदेवेन महाप्रतारकेणाच्छिद्यगृहीतपुत्रस्य व्रजमागत्य मूर्च्छया पतित्वा स्थितस्य गेहान् कोषागाररन्धनागारशयनासनागारादीन् संप्रत्यमार्जितालिप्तत्वेन तृणधूलिपत्रलूतातन्तुवृतान् शून्यायितान् स्मरति कञ्चित्। तथा गेहान्तरेषु बन्धून् सुवलादीन् संप्रति मूर्च्छितान्। क्वचिदपीति। यदा तस्य मनोऽभिरु-
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अत्र आर्यपुत्र इति सोऽस्माभिः पतित्वेनैव प्रतीयते वहिरन्यथाख्यातिस्तु न
अथ मादनः—
सर्वभावोद्गमोल्लासी मादनोऽयं परात्परः।
राजते ह्लादिनीसारो राधायामेव यः सदा॥२०२॥
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चितं कैङ्कर्यं कर्तुं पुरस्त्रियो न जानन्ति तदैव तत्सुखमनुपलब्धवतीभिस्ताभिः सुखानुपलम्भकारणं पृष्टो नोऽस्माकं कथां गृणीते वनमालागुम्फने, स्थासकसंपादने, वीटिकानिर्माणे, वीणावादने, रागतालादिसृष्टौ, गीतनृत्यरासादौ, सौन्दर्यलावण्यवैदग्ध्यादिषु, प्रश्नोत्तरविलासे, संप्रयोगलीलायाम्, प्रेमस्नेहमानप्रणयादिषु, यथास्मद्व्रजस्था गोप्यो मां सुखयन्ति न तथा यूयमिति गच्छत भो यदुस्त्रियः स्वस्वपतीनेव अलमलं युष्माभिरहं श्वः प्रातर्ब्रजमेव गच्छन्नस्मीत्युक्त्वात्रागत्य अगुरुसुगन्धभुजमस्माकं मूर्ध्नि कदा अधास्यत् धास्यति। तेन च समाश्वसितव्या भोः प्राणप्रेयस्यः सशपथमिदमहं ब्रवीमि भवतीस्त्यक्त्वा न क्वापि यास्यामि त्रिभुवनमध्ये क्वापि युष्मत्सादृश्यगन्धलेशमपि नोपलब्धवानस्मीति व्यञ्जयिष्यति। अत्र प्रथमचरणे आर्जवम्, द्वितीये स्वप्रसङ्गानुत्थापनेन गाम्भीर्यम्, तृतीये दैन्यम्, चतुर्थे चापलमुत्कण्ठा च। अत्र चित्रजल्पप्रलपनमाधुर्यश्रवणोत्कण्ठया श्रीकृष्ण एव भ्रमररूपेण तत्रागत इत्यैश्वर्यपक्षीयाः॥ नायमुन्मादः किंतु भ्रमरमपदिश्य श्यामं पीतांशुकमुद्धवं प्रत्येवोक्ता दशश्लोकीत्वन्यदेशीया आहुः॥२००॥२०१॥ सर्वेषां रत्यादिमहाभावान्तानां भावानामुद्गमे सत्युल्लासनशीलः। मादने विरहाभावात्। यद्वा सर्वेषां भावानामुद्गममुत्कर्षेण लासयितुं शीलं यस्य सः। नन्वेवंभूतो महाभावभेदो मोहनोऽपि भवितुमर्हतीति तत्राह— परात् मोहनादपि परः। वक्ष्यमाणानुभावगम्यो महाभावसामान्यविशेषलक्षणयुक्तश्च भवेदित्यर्थः। विशेषतो निरुक्तिश्चाशक्या। यद्वक्ष्यते —‘न निर्वक्तुं
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बुध्यते इति भावः। श्रीकृष्णेनाप्युद्धवं प्रति प्रकाशितोऽस्ति। ‘मामेव दयितं प्रेष्ठमात्मानं मनसा गता’ इति। अधास्यत् धास्यति॥२००॥२०१॥ ह्लादिनी सारप्रेमा सर्वभावोद्गमोल्लासी चेदसौ मादन उच्यते। स च परात्परो ज्ञेयः। यः खलु श्रीराधायामेव राजते कदाचिदन्तः कदाचिद्वहिः प्रकाशत इत्यर्थः॥२०२॥
यथा—
आसृष्टेरक्षयिष्णुं हृदयविधुमणिद्रावणं वक्रिमाणं
पूर्णत्वेऽप्युद्वहन्तं निजरुचिघटया साध्वसं ध्वंसयन्तम्।
तन्वानं शं प्रदोषे धृतनवनवतासंपदं मादनत्वा-
दद्वैतं नौमि राधादनुज विजयिनोरद्भुतं भावचन्द्रम्॥२०३॥
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भवेच्छक्यस्तेनासौ मुनिनाप्यलम्।” इति॥२०२॥ पौर्णमासी नान्दीमुखीमाह—आसृष्टेः सृष्टिः प्राकृत्यप्राकृती च। तां तामभिव्याप्य सर्वकालमित्यर्थः। अक्षयिष्णुं क्षयसंभावनारहितमिति प्रेम्ण उद्गमो दर्शितः।हृदयेति। स्नेहस्य, वक्रिमाणमिति मानस्य, निजेति प्रणयस्य, प्रदोषे प्रकृष्टे दोषे दुःखेऽपि शं सुखं तन्वानमिति रागस्य, धृतनवेत्यनुरागस्य, मादयति हर्षयति सर्वं जगदपीति तस्य भावस्तस्माद्धेतोरद्वैतमद्वितीयं निरुपममिति महाभावस्य श्लेषेण मादनसंज्ञत्वाद्धेतोर्मदनसंवन्धिचुम्बनालिङ्गनादिसर्वसुखप्रतिक्षणानुभावकत्वाच्च हेतोरद्वैतम्। द्वितैव द्वैतं न विद्यते द्वैतं द्वित्वं यस्य तं श्रीवृन्दावनेश्वर्या विना क्वाप्यन्यत्रानुदयात् द्वित्वं यस्य नास्तीत्यर्थः। राधादनुजविजयिनोराश्रयविषययोः। यद्यपि सर्वत्रैव भावेषु तयोः परस्पराश्रयविषयत्वं व्याख्यातं तदप्यत्र न तथा व्याख्येयं मादनस्य श्रीराधैकाश्रयत्वेन राधायामेवेति लक्षणोक्तेः, अद्वैतमित्युदाहरणोक्तेश्च। नौमि स्तौमि।भाव एव चन्द्रोऽस्मन्मनोरथकुमुदवृन्दविकाशकत्वात्। अद्भुतत्वमत्रासृष्टेरिति, पूर्णत्वेऽपीति, धृतनवनवेति विशेषणत्रयेण प्रसिद्धचन्द्रतो वैलक्षण्यात्। हृदयेति, निजरुचीति, प्रदोष इति विशेषणैस्त्रिभिस्तेन सह सालक्षण्या-
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आसृष्टेरिति। भूतभविष्यद्वर्तमानव्यापिनी या सृष्टिस्तां व्याप्याक्षयिष्णुं तदिदमिवाद्भुतत्वाय सर्वत्र संगमनीयम्। इति प्रेम्ण उद्गमो दर्शितः। हृदयेति स्नेहस्य, वक्रिमाणमिति मानस्य, निजेति प्रणयस्य, प्रकृष्टे दोषेऽप्यपराधेऽपि कालदेशकृतदुःखरूपे दोषे वा शं सुखं तन्वानमिति रागस्य, घृतनवनवेत्यनुरागस्य, मादनत्वादिति भावपूर्णतावस्थालक्षणस्य मादनस्येति। चन्द्रपक्षे आसृष्टेरिति चन्द्रत्वे
अत्रेर्ष्यायाअयोग्येऽपि प्रवलेर्ष्याविधायिता।
सदा भोगेऽपि तद्गन्धमात्राधारस्तवादयः॥२०४॥
** तत्रायोग्येऽपीर्ष्यायथा दानकेलिकौमुद्याम्—**
विशुद्धाभिः सार्ध व्रजहरिणनेत्राभिरनिशं
तमद्धा विद्वेषं किमिति वनमाले रचयसि।
तृणीकुर्वत्यस्मान् वपुरधरिपोराशिखमिदं
परिष्वज्यापादं महति हृदये या विहरसि॥२०५॥
** सदा भोगेऽपि तद्गन्धमात्राधारस्तुतिर्यथा श्रीदशमे—**
पूर्णाःपुलिन्द्य उरुगाय37पदाब्जराग-
श्रीकुङ्कुमेन दयितास्तनमण्डितेन।
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द्रूपकम्॥२०३॥ आदिशब्दाच्छ्रीकृष्णावलोकनचुम्वनालिङ्गनसंप्रयोगादिसुखानां युगपदेव कोटिशोऽनुभवः।यथा कर्मा जनः कोटिकल्पगतभोग्यानि सुखदुःखानि एकस्यामेव घटिकायां कदाचित् भुङ्क्तेकिंतु तत्र कायव्यूहेन, अत्रतु कायव्यूहं विनैवेति मेद इति॥ २०४॥ श्रीराधा गोवर्धने दानार्थिनः श्रीकृष्णस्य वनमालां वीक्षमाणा तां प्रति सेर्ष्यंनीचैराह— विशुद्धाभिरस्माभिरिति। वयं त्वां कदापि न द्विष्म इति भावः। ननु किं मद्देषलक्षणं पश्यसीति। तत्राह—**तृणीकुर्वतीति। सदाभोगेऽपीति।**मादनभावस्वभावादेव श्रीकृष्णाङ्गदर्शनकालेऽपि श्रीकृष्णानपरिष्वङ्गचुम्बनादिमयाः सहस्रशः संभोगास्तत्रापीत्यर्थः। मादने विरहास्वीकारादपिकारो दुस्तर्क्यताद्योतकः॥२०५॥ दृष्टचरीः काश्चित् पुलिन्दीरनुसृत्य श्रीराधाह—पुलिन्द्यः शवराङ्गना एव पूर्णा वयं त्वपूर्णा एवेत्यतस्त्वदीयं तपो जिज्ञासमानाश्चिकीर्षाम इत्यनुरागो ध्वनितः। ननु केन पूर्णास्तत्राह— उरुगायस्य पदाब्जस्य रागो रञ्जनं यत्र तेन श्रीयुक्तकुङ्कुमेन। ननु तत्पदाब्जे कुत्रयं कुङ्कुममलगत् तत्राह—दयितेति। दयितासंभोगात्तदीयसंबन्धीति
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*पूर्णत्वं दर्शितम्। प्रदोषे रजनीमुखे। अन्यत् स्पष्टम्॥२०३॥२०४॥ **अयोग्येऽपीति।*चेतनाशून्यत्वादिति भावः॥२०५॥२०६॥ पूर्णाः
तद्दर्शनस्मररुजस्तृणरूषितेन
लिम्पन्त्य आननकुचेषु जहुस्तदाधिम्॥२०६॥
** यथा वा—**
दुष्करं कतरदालि मालती कोमलेयमकरोत्तपः पुरा।
हन्त गोष्ठपतिनन्दनोपमं या तमालममलोपगूहते38॥२०७॥
योग एव भवेदेष विचित्रः कोऽपि मादनः।
यद्विलासा विराजन्ते नित्यलीलाः सहस्रधा॥२०८॥
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भावः। अतस्तदीयपरमसौभाग्यस्य स्तुतावभिलाषे च साहसं कर्तुमशक्नुवत्या मया पुलिन्द्य एव स्तूयन्त इति भावः। यद्यपि दयिता स्वयं सैव श्रीराधा तदप्यनुरागेण तदमाननम्। ननु तेन पुलिन्दीनां किंतत्राह— तृणेषु रूषितेन लग्नेन दयितासंभोगानन्तरं श्रीकृष्णस्य वनविहारादिति भावः। ननु ततोऽपि किं तत्राह— तद्दर्शनेति। तस्य तृणलग्नकुङ्कुमस्यापि दर्शनेन स्मररुक् कन्दर्पपीडा यासां ताः। न जाने श्रीकृष्णदर्शने किमभविष्यदिति भावः। तत् कुङ्कुममाननेषु कुचेषु लिम्पन्त्यः सत्यस्तदाधिं कन्दर्पपीडां जहुः। श्रीकृष्णस्य साक्षादिवालिङ्गनसुखानुभवेनेत्यर्थः। अहो कुङ्कुमस्यैव कोऽप्ययं शक्तिविशेषस्तासां प्रेम्ण एवेति भावः। आननेषु लेपनं सौरभ्यसौन्दर्यलाभार्थं स्वेषां ग्राम्यत्वसूचकं च॥२०६॥ गन्धमात्रशब्दस्य श्रीकृष्णसंभोगसादृश्याभासपर्यन्तेऽपि तात्पर्यमस्तीति दर्शयितुमाह—यथा वेति। श्रीराधा ललितामाह—दुष्करमिति॥२०७॥ योगे संभोग एव न तु विप्रलम्भे। ननु पूर्णाः पुलिन्द्य इत्यत्र, दुष्करं कतरदालीत्यत्र च मादनस्योदाहरणे योगो न प्रतीयते इत्यत आह—**यद्विलासा इति।**सहस्रादिशब्दानामसंख्यत्व एव तात्पर्यात् सहस्रधा असंख्यप्रकारा नित्याःप्रतिक्षणभवा लीला आलिङ्गनचुम्वनाद्या यस्य मादनस्य विलासाः कार्या अनुभावा
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पुलिन्द्य इत्युदाहरणं नात्रोपपन्नमित्यवधार्य प्राह—यथा वेति। दुष्करमित्युदाहरणं गन्धमात्रशब्दस्य तत्सादृश्याभासपर्यन्ततात्पर्यत्वादुपपद्यते॥२०७॥ नित्यलीला श्रीमद्दर्शनादिषु ध्येयतया प्रसिद्धा। यद्यपि मादनोऽयं श्रीराधाया एव
मादनस्य गतिः सुष्ठुमदनस्येव दुर्गमा।
न निर्वक्तुं भवेच्छक्या तेनासौ मुनिनाप्यलम्॥२०९॥
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इति यावत्। विशेषेण राजन्ते तस्याः प्रत्यक्षतया प्रकटीभवन्तीति स्फूर्तितो वैलक्षण्यं दर्शितम्। यदैव पुलिन्दीः स्तौति मालत्यास्तपश्च तस्मिन्नपि काले सहस्रप्रकारा अपि श्रीकृष्णालिङ्गनचुम्वनादिलीला अनुभवत्येवेत्यर्थः। अयमर्थः— भागवतामृतोक्तसिद्धान्तात् संभोगविप्रलम्भयोर्योगपद्यं प्रकाशभेदेन वर्तत एव प्रकाशभेदे चाभिमानभेदात् यत्र प्रकाशे संभोगस्तत्र संयोगिन्येवाहमिति। यत्र च प्रकाशे विप्रलम्भो विरहस्तत्र विरहिण्येवाहमिति श्रीवृन्दावनेश्वरी खल्वभिमन्यते। यदा तु मादनाख्यः स्थायी स्वयमुदयते तत्क्षण एव चुम्बनालिङ्गनादिसंभोगानुभवमध्य एव विविधं वियोगानुभव इत्येकस्मिन्नेव प्रकाशे प्रकाशद्वयधर्मानुभवः स च विलक्षणरूप एवेति। नन्वेवं चेत्संभोगकालेऽपि कथमतितृष्णामयी तादृश्युक्तिः संभवतीति तत्राह—विचित्र इति। सहस्रधा संभोगकाले सहस्रधैवोत्कण्ठेत्यद्भुतमेवेत्यर्थः। तेन विप्रलम्भस्य विस्फूर्तिरिति लक्षितलक्षणेनानुरागेण सहास्य सांकर्य न मन्तव्यम्। तत्र हि विप्रलम्भस्य प्रथममनुभवः ततश्च कान्तस्मरणपौनःपुन्यात्तस्य स्फूर्तिः। स्फूर्तिप्राप्ते श्रीकृष्णालिङ्गनकाले च नैतादृश्युत्कण्ठोक्तिश्चेति वह्वेवान्तरमिति॥२०८॥ ‘नमश्चैतन्यरूपाय माधुर्यस्थायिने सदा। स्वसामर्थ्येऽप्यहो सम्यक् सामञ्जस्यानुवर्तिने॥’ ननु तदपि ‘दुष्करं कतरदालि मालति’ इत्यादौ संभोगकालानुभवप्रतिकूलमालत्यामन्त्रणं मालत्यादाववलोकनं च दुर्घटं यदि च मादनलक्षणे सर्वभावोद्गमल्लासीत्यत्र सर्वपदेन संभोगविप्रलम्भतद्भेदतत्प्रकारादयोऽपि वक्तव्यास्तदपि सर्वेषांभावानां युगपदुद्गमे हेतुर्मादनस्य कोऽपि धर्मविशेष एव भविष्यति तं च विविच्य स्पष्टीकृत्य प्रोच्य मादनस्य लक्षणं किमपि कर्तुमुचितमित्यत आह—मादनस्येति। ‘रामरावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव’ इतिवत् दुस्तर्कत्वेऽपि निरुपममेवेत्यर्थः। ‘मदनस्येव’ इति पाठे मदनतया कामवीजेनोपास्यस्य श्रीकृष्णस्य तेन मुनिना भरतेन शुकेन वा॥२०९॥ स्थायिभावमुपसंहरन् प्रेमस्ने-
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निर्णीतस्तथापि तदभावस्यैवान्यत्रापि व्याप्तेरनेकपरिकरमय्यस्ता उपपद्यन्ते। तदुक्तमासन्नजनताहृद्विलोडनमिति।मादनस्य क्वचिन्मदनतयोपास्यस्य श्रीकृष्ण-
किं च—
रागानुरागतामादौ स्नेहः प्राप्यैव सत्वरम्।
मानत्वं प्रणयत्वं च क्वचित्पश्चात्प्रपद्यते॥२१०॥
अत एवात्र शास्त्रेषु39 श्रूयते राधिकादिषु।
पूर्वरागप्रसङ्गेऽपि प्रकटं रागलक्षणम्॥२११॥
स्फुरन्ति व्रजदेवीषुपरा भावभिदाश्च याः।
तास्तर्कागोचरतया न सम्यगिह वर्णिताः॥२१२॥
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हादावुक्तक्रमो नैकान्तिक इत्याह—किंचेति। रागः कर्ता आदौ प्रथमत एवोद्भूय अनुरागतां प्राप्य स्नेहः सन् मानत्वं प्रणयत्वं च प्राप्नोति। पूर्वरागप्रसङ्गेपीति मानप्रणयाद्याविर्भाव विनैवेत्यर्थः। रागलक्षणं यथा—‘ताराभिसारकचतुर्थनिशाशशाङ्ककामाम्बुराशिपरिवर्धन देव तुभ्यम्। अर्घोनमो भवतु मे सह तेन यूना मिथ्यापवादवचसाप्यभिमानसिद्धिः॥’ इति॥ **परा भावभिदा इति।**यथा रासलीलाया पूतनाद्यनुकरणादीनि साधारण्यां रतावेव न तु सामञ्जस्यसमर्थयोः। ताभ्यां सकाशात्तस्या जातिप्रमाणयोरल्पत्वात् धूमायिता एवोचितेति भावः। किंतु साधारण्या अपि रतेः प्रेमदशायां जायल्पत्वेऽपि प्रमाणाधिक्यात् तथा समञ्जसासमर्थयोरपि जातिप्रमाणाधिक्याज्ज्वलिता एवोचितेत्यभिप्रेत्याह—
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स्येव तेनापि मुनिनेति श्रीशुकेनेति वा गम्यते॥ स्फुरन्तीति। यथा रासलीलायां पूतनाद्यनुकरणानि। तर्कागोचरा इति। झटिति योद्धुमसमर्था इत्यर्थः। यत्नेन तु वोधितुं श्रीवैष्णवतोषिण्यां पूर्वं हि तासां श्रीकृष्णान्तर्धाने उन्माद एवोक्तः। तत्रैव वृक्षेषु पृच्छा तज्जन्मादिलीलागानं च तत्र या या लीला गातुमारब्धा तस्यां तस्यामेवोन्मादानुगतेः पूतनादिहेतुकेन श्रीकृष्णविषयकभयेन पूतनाद्यावेशात् पूतनाद्यनुकरणं जातम्। यथा कस्यचिदात्मविषयकव्याघ्रादिभयादुन्मादे व्याघ्राद्यनुकरणं स्यात्तथा प्रतिपद्यते। ततश्च तादृश्युन्मादे सति स्वस्मिन्निव श्रीकृष्णे यः प्रेमा स एवाश्रयस्तदभावे भयादिभावस्याप्यसिद्धिः स्यात्। तदेवं श्रीब्रजेश्वर्यनुकरणं च ‘गोप्याददे—’ इत्यादौ ‘वक्रं निलीय भयभावनया स्थितस्य’ इति श्रीकुन्तीवाक्यानुसारान्मातृभीतश्रीदामोदराभेदभाव-
साधारण्यां रतावेव धूमायिततया मताः।
ज्वलितास्तु रतिप्रेम्णोर्दीप्ताः स्नेहादिपञ्चसु॥२१३॥
रूढे भावे तथोद्दीप्ताःसुदीप्ता मोहनादिषु।
इयं प्रायिकता किंतु श्रेष्ठमध्यादिभावतः॥२१४॥
देशकालजनादीनां क्वाप्येषां स्याद्विपर्ययः।
आद्या प्रेमान्तिमां तत्रानुरागान्तां समञ्जसा॥२१५॥
रतिर्भावान्तिमां सीमां समर्थैव प्रपद्यते।
रतिर्नर्मवयस्यानामनुरागान्तिमां स्थितिम्।
तेष्वेवसुवलादीनां भावान्तामेव गच्छति॥२१६॥
**
इति स्थायिभावाः।**
________________
ज्वलितास्त्विति। अत्र समञ्जसातः समर्थायां रतौ ज्वलितस्य वैशिष्ट्यं ज्ञेयम्, तथा रतेः सकाशात् प्रेम्णि च। यथा स्नेहादिपञ्चसु स्नेहमानप्रणयरागानुरागेषुदीप्ता इति यथोत्तरं दीप्तत्वस्य वैशिष्ट्यं तथा समञ्जसासंबन्धिभ्यस्तेभ्यः समर्थासंबन्धिषु श्रैष्ठ्यं च।मोहनादिष्विति मोहनभेदमादनभेदेष्वित्यर्थः॥ एवमुक्ता व्यवस्थापि न सार्वत्रिकीत्याह— इयमिति। देशकालपात्रादीनां श्रेष्ठमध्यकनिष्ठत्वाद्धेतोः। तथा हि देशकालादीनां श्रैष्ठ्याद्रतावपि दीप्तास्तेषामेव कनिष्ठत्वात् स्नेहादावपि ज्वलिता इत्येवम्। अत्र देशकालजनादीनामित्यत्रादिशब्दात् संसर्गो ग्राह्यः॥ उक्तानां भावानामाश्रयालम्वनं निश्चिनोति— आद्या साधारणी प्रेमैवान्तिमो यत्र तथाभूतां सीमां प्रपद्यते; तेन कुब्जादीनां रतिप्रेमाणौद्वावेव स्थायिनौ, समञ्जसा अनुरागान्तामिति; तेन पट्टमहिषीणां रतिप्रेम-
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नामयत्वेनैव, किंतु श्रीदामोदरस्यानुवर्तनाभावात्तत्र मात्रनुकरणं न जातं तदनुवर्तनात्तस्यास्तदनुकरणं जातमिति विशेषे करणमवगन्तव्यम्। एवमन्यत्रापि॥ इयं साधारणीत्याद्युक्तप्रकारा प्रायिकता ज्ञेया। तदिदं प्राचुर्येणैव प्रोक्तमित्यर्थः। किंतु देशादीनां श्रेष्ठत्वादित्वात् क्वचिद्विपर्ययोऽपि स्यात्॥ आद्या साधारणी रतिरिति। श्रीब्रजदेवीरत्यनुमोदनात्मिका रतिरित्यर्थः॥२०८॥२०९॥
**
अथ शृङ्गारभेदः।**
स विप्रलम्भः संभोग इति द्वेधोज्ज्वलो मतः।
** तत्र विप्रलम्भः—**
यूनोरयुक्तयोर्भावो युक्तयोर्वाथ यो मिथः॥१॥
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स्नेहमानप्रणयरागानुरागाः सप्त स्थायिनः॥ नर्मवयस्यानां कोकिलादीनाम् ॥२१०॥२११॥ २१२॥२१३॥२१४॥२१५॥२१६॥
इति स्थायिभावविवृतिः।
तदेवं विभावानुभावव्यभिचारिस्थायिभावान्सपरिकरानुक्त्वा तत्संबन्धलक्षणं रसमाह— अथ शृङ्गारेति॥ स इति। ‘वक्ष्यमाणैर्विभावाद्यैः स्वाद्यतां मधुरा रतिः। नेता भक्तिरसः प्रोक्तः शृङ्गाराख्यो मनीषिभिः॥” इति प्रथममुक्त इत्यर्थः। अत्र रतिरित्युपलक्षणम्। प्रेमादीनां। सप्तानाम् रत्यादिस्थायितारतम्येन रसस्यापि तारतम्यं ज्ञेयम्।उज्ज्वलो मधुरापरपर्यायः। यूनोर्नायिकानायकयोः। अयुक्तयोः प्रथममिलनात् पूर्वं युक्तयोर्लब्धमिलनयोरिति वा। भावः स्थायी। अनवाप्तावप्राप्तौ सत्यां प्रकृष्यते प्रकृष्टो भवति। कर्मणिप्रत्ययः। अत्युत्कण्ठयेति कर्तृपदमाक्षेपलब्धम्। स स्थायीभावो विभावादिसंवलनतो विप्रलम्भः।तन्नामा रस इत्यर्थः। यदाहुः— ‘दीर्घानुरक्तयोर्यूनो रसमागमहेतुतः।भावो यदा रति-
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॥२१०॥२११॥२१२॥२१३॥२१४॥२१५॥२१६॥ इति स्थायिभावाः॥
- तदेवं मधुररत्याख्यं भावमुक्त्वा शृङ्गारपर्यायं मधुररसमाह— अथ शृङ्गारमेद इति। स इति। ‘वक्ष्यमाणैर्विभावाद्यैः स्वाद्यतां मधुरा रतिः। नीता भक्तिरसप्रोक्तः शृङ्गाराख्यो मनीषिभिः॥’ इति प्रथममुद्दिष्ट इत्यर्थः। तत्र रतिरित्युपलक्षणं प्रेमादीनाम्। एवमुत्तरत्रापि। किंतु विभावादिमाधुर्याणां संवलनमेव रसः। ततश्व रत्यादिस्थायिभावतारतम्येन रसस्यापि तारतम्यं ज्ञेयम्। तत्र च यत्र विभावादिसामग्रीपरिपोषेण प्रस्फुट एव रसस्तत् खलु भावतारतम्यज्ञानार्थं भावप्रकरणे पठितमपि रसमयमेव। यत्र विभावादिसामग्री स्फुटं नोपल-*
अभीष्टालिङ्गनादीनामनवाप्तौप्रकृष्यते।
स विप्रलम्भो विज्ञेयः संभोगोन्नतिकारकः॥२॥
** तथा चोक्तम्—**
न विना विप्रलम्भेन संभोगः पुष्टिमश्नुते।
कषायिते हि वस्त्रादौ भूयान् रागो विवर्धते॥३॥
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र्नाम प्रकर्षमधिगच्छति। नातिगच्छति चाभीष्टं विप्रलम्भस्तदुच्यते॥’ इति प्राञ्चः। ननु संभोग एवं सुखमयत्वेन रसो भवितुमर्हति नतु विप्रलम्भस्तत्कथमसौ रसत्वेन वर्ण्यते तत्राह—संभोगोन्नतीति॥१॥२॥ **नेति।**पुष्टिमुत्कर्षम्। ननु तदपि संभोगपोषकत्वेन संभोगाङ्गमस्तु न तु पार्थक्येन रसो भवितु-
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भ्यते तच्च रसप्रकरणे पठितत्वात् सद्भावश्चेद्विभावादेरित्यादिन्यायेन तत्तत्स्फूर्त्यैव सामग्रीपरिपोषाद्रसमयमेव ज्ञेयम्॥ प्रकर्षतेः सकर्मकत्वमन्त्रान्तर्भूतण्यर्धमननाज्ज्ञेयम्।यथा ‘समां समां विजायते’ इति जनधातोः। प्रकर्षत इति तु पाठान्तरं सुगमम्। अयुक्तयोर्युक्तयोर्वा यूनोर्मिथोभावोऽभीष्टस्य यूनस्तादृश्या युवत्या वालिङ्गनादीनामनवाप्तौ प्रकृष्यते। विभावादिसंवलनेन स्वाद्यविषयतया संपाद्यते स विप्रलम्भेन वियोगेन संवलितत्वाद्विप्रलम्भाख्यो मधुररसो ज्ञेयस्तदेतत्पारकीयं साधारणलक्षणमत्रतु विशेषांशेन संकलय्य ज्ञेयमिति भावः। स च विशेषः श्रीकृष्णप्रेयसीनां भाव ईदृक् चेत् तदा विप्रलम्भाख्यो रसो ज्ञेय इति भक्तिरस इत्युतत्वात्। आनुकूल्येन कृष्णानुशीलं भक्तिलक्षणेनानुगमनीयत्वाच्चरसस्यैव विप्रलम्भाख्यत्वं प्राधान्यादेवोच्यते। पूर्वरागमानसमञ्जसा साधारण्यादिशब्दवत् शङ्कितान्तराभावात् भावोऽपि विप्रलम्भाख्यो ज्ञेयः। एवमुत्तरत्रापि। अथ कारिकाशेषो व्याख्यायते। ननु संभोग एव रसः सुखमयत्वात् न तु विप्रलम्भो दुःखमयत्वात् तर्हि सोऽयं कथं वर्ण्यते। श्रीकृष्णेन वा स्वयमङ्गीक्रियते। तत्राह— संभोगोन्नतिकारक इति। विप्रलम्भसमयेऽपि प्रत्याशालब्धभावनामयस्य संभोगोन्नतिकारकत्वाद्रसतामसावाप्नोति। किमुत तदनन्तरं साक्षाल्लब्धस्येति भावः॥१॥२॥ तत्र वर्णने सयुक्तिकं प्रमाणमाह— तथा चोक्तमिति। तदङ्गीकारे तु स्वयमेव श्रीकृष्णः समादधे ‘नाहं तु सख्यो भजतोऽपि
पूर्वरागस्तथा मानः प्रेमवैचित्यमित्यपि।
प्रवासश्चेति कथितो विप्रलम्भश्चतुर्विधः॥४॥
** तत्र पूर्वरागः—**
रतिर्या संगमात्पूर्वं दर्शनश्रवणादिजा।
तयोरुन्मीलति प्राज्ञैः पूर्वरागः स उच्यते॥५॥
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मर्हतीति चेत् सत्यम्। न केवलं विप्रलम्भः संभोगपोषक एव किंतु रतिप्रेमस्नेहादिस्थायिभाववतोर्नायकयोर्मिथः स्मरणस्फुर्त्याविर्भावैर्मानसचाक्षुषकायिकालिङ्गनचुम्बनसंप्रयोगादीनां प्रत्युत निरवधिचमत्कारसमर्पकत्वेन संभोगपुञ्जमय एव। यदुक्तमनुभविष्णुभिः—‘संगमविरहविकल्पे वरमिह विरहो न संगमस्तस्याः। सङ्गे सैव तथैका त्रिभुवनमपि तन्मयं विरहे॥” इति। न च स्फूर्त्याविर्भावयोर्विभावयोर्भङ्गेविरहपीडाया दुःसहत्वादवशत्वमिति वाच्यम्।ह्लादिनीसंविद्वृत्तिविशेषत्वेनाप्राकृतत्वात्। पीडापीयमानन्दकन्दरूपैवेति पूर्णानन्देऽप्युषित्वावहिरिदमवहिश्चार्तमासीदजाण्डमित्यादौ व्याख्यातमेव॥३॥४॥ स विभावादिसंवलनतः पूर्व-
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जन्तून् भजाम्यमीषामनुवृत्तिवृत्तये। यथाधनो लब्धधने विनष्टे तच्चिन्तयान्यन्निभृतो न वेद॥” इति। पूर्वानुसारेणास्य चायमर्थः—हे सख्यः, शृणुत इति शेषः। अहंतु भजतोऽपि जन्तून् जन्तुमात्रानपि किमुत भवद्विधप्रेयसीजनान्न भजामि किंचित् किंचिद्विच्छिद्य तिष्ठामीति वाच्यमित्यर्थः। किमर्थं न भजसि तत्राह—अमीषां या अनुवृत्तिर्मदेकभावनामयप्रेमा तद्रूपा यावृत्तिर्मम स्वीया जीविका तस्यै तां वर्धयितुमित्यर्थः। ‘क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः’ इति चतुर्थी।कृच्छ्रसाध्यापि सेयं वाञ्छितसिद्धिस्तत्तृष्णया मया दुष्परिहारा इति भावः। ननु परमोपादेयवस्तुनि स्वयमेव वर्धत एव प्रेमा।सत्यम्। तथापि तेषामनुवृत्तिः स्वस्यापि तद्रूपाया वृत्तेर्वर्धनाधिक्यमभजने स्यादिति दृष्टान्तद्वाराह— यथेति। यथा निर्धनः कश्चिल्लब्धे धने परमजीविकारूपे विनष्टे विशेषेणादर्शनं प्राप्ते तच्चिन्तया तत्प्राप्तिसंभावनया किमुत प्राप्त्या निभृतः पूर्णः सन्नान्यदनुसंदधाति। तथा भवादृशः परमधने मयि मम च परमधने भवादृशि परस्परं तादृशत्वं स्यादित्यर्थः॥३॥४॥ उन्मीलति विभावादिसंवलनेन आस्वादविशेष-
** तत्र दर्शनम्—**
साक्षात्कृष्णस्य चित्रे च स्यात्स्वप्नादौ च दर्शनम्।
** तत्र साक्षाद्यथा पद्यावल्याम्—**
इन्दीवरोदरसहोदरमेदुरश्री-
र्वासो द्रवत्कनकवृन्दनिभं दधानः।
आमुक्तमौक्तिकमनोहरहारवक्षाः
कोऽयं युवा जगदनङ्गमयं करोति॥६॥
** चित्रे यथा विदग्धमाधवे—**
शिशिरय दृशौ दृष्ट्वा दिव्यं किशोरमितीक्षितः
परिजनगिरां विस्रम्भात्त्वं विलासफलाङ्कितः।
शिव शिव कथं जानीमस्त्वामवक्रधियो वयं
निबिडवडवावह्निज्वालाकलापविकासिनम्॥७॥
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राग उच्यते। एवमग्रेतनेष्वपि लक्षणेषु विभावादिसंवलन इति सर्वत्र व्याख्येयम्॥५॥ द्वित्रैःप्रियनर्मसखैःसह रथ्यायां भ्रमन्तं वलभीजालरन्ध्रात्पश्यन्ती श्रीराधा विशाखामाह— इन्दीवरेति। सहोदरा सदृशी। आमुक्तं ग्रथितम्॥६॥ श्रीराधा श्रीकृष्णमुद्दिश्याह— शिशिरयेति। विलासफलके क्रीडाचित्रपटेऽङ्कितो लिखितः। परिजनेति। नहि परिजना अविश्वसनीयाः नाप्यहितकारिण्य इति भावः। नन्वेवं चेत् दृशौ शिशिरयेति तदुक्तिविश्वास एव कथं ते सर्वाङ्गस्यापि ज्वालायां कारणमभूत् तत्राह—**अवक्रधियो वयमिति।**अहमिव मत्परिजना मुग्धा एवेति भावः। निविडवडवेति। प्रथममापाततस्त्वं शीतलत्वेनानुभूय पश्चात् वडवानलस्येव स्वज्वालां प्रकाशयिष्यति तत्कथं सख्यो
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मयी स्यात्॥ विलासफलके ‘सखीभिर्विलासेन कृते चित्रपटेऽङ्कितो लिखितः॥५॥ स्वप्ने दृष्टेति सौन्दर्यगोपनाय पित्रादिभिर्वाल्यादेव दूरे गोपितायास्तत्रैव जातनववयसश्चन्द्रावल्या वचनम्। कासरी श्यामेत्यादिषुनीरदश्यामेति, कनक-
** स्वप्ने यथा—**
स्वप्ने दृष्ट्वा सहचरि सरित्कासरी श्यामनीरा
तीरे तस्याः क्वणितमधुपा माधवी कुञ्जशाला।
तस्याः कान्तः कपिशजघनो ध्वान्तराशिः शरीरी
चित्रं चन्द्रावलिमपि समां पातुमिच्छन्नरौत्सीत्॥८॥
** अथ श्रवणम्—**
(वन्दिदूतीसखीवक्राद्गीतादेश्चश्रुतिर्भवेत्॥९॥
** तत्र वन्दिवक्राद्यथा—**
पठति भागधराजनिर्जयार्था सखि बिरुदावलिमत्र बन्दिवर्ये।
वद कथमिव लक्ष्मणे तनुस्ते पुलककुलेन विलक्षणा किलासीत्॥१०॥
** दूतीवक्राद्यथा—**
आविष्कृते तव मुकुन्द मया40प्रसङ्गे
तारावली पुलकिताङ्गलता नताक्षी।
__________
मे ज्ञास्यन्तीति भावः॥७॥ चन्द्रावली पद्मामाह—कासरी महिषीति गोपजातित्वेन बाल्येन च। श्यामवर्णोपमानेषु कासर्या एव झटित्युपस्थितिः।कपिशं पीतवर्णं जघनं यस्येति पीताम्बरं लक्षितम्। पातुमिति ‘पा पाने’॥८॥९॥ लक्ष्मणायाः सखी तामाह—पठतीति। मगधराजनिर्जयः श्रीकृष्णेन कृत इति ‘प्रायो वीररताः स्त्रियः’ इति तस्य वीरत्वं तथा तद्विरुदावल्यां रूपनामगुणा अपि वर्णितास्तस्या रत्युत्पत्तौ कारणान्यभूवन्॥१०॥ वृन्दा श्रीकृष्णमाह—आवि-
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वसन इति कान्तिमूर्ध्वान्तमूर्तिरिति च पाठः प्रेक्ष्यः॥६॥७॥८॥९॥ लक्ष्मणायाः सखी तामाह— पठतीति। मगधराजनिर्जयः श्रीकृष्णेन कृत इति प्रायो वीररताः स्त्रिय इति तस्य वीरत्वं तथा तद्बिरुदावल्यां रूपनामगुणा अपि वर्णितास्तस्या रत्युत्पत्तौ कारणान्यभूवन्॥ अपि माधवेति। मृगाक्षीणां रागस्य वासनारूपेण निगूढत्वान्नास्तिप्रायविवक्षा।भक्तरागानुजन्मत्वाद्भगवद्रागस्य॥१०॥
शुश्रूषुरप्यलघुगद्गदरुद्धकण्ठी
प्रष्टुं तवाक्षमत41 सा न कथाविशेषम्॥११॥
** सखीवक्राद्यथा—**
यावदुन्मदचकोरलोचना मन्मुखात्तव कथामुपाशृणोत्।
तावदञ्चति दिनं दिनं सखी कृष्ण शारदनदीव तानवम्॥१२॥
** गीताद्यथा—**
नयने प्रणयन्नुदश्रुणी मम सद्यः सदसि क्षितीशितुः।
उपवीणयति प्रवीणधीः कमुदश्रुः सखि वैणिको मुनिः॥१३॥
पुरोक्ता येऽभियोगाद्या हेतवो रतिजन्मनि।
अत्र ते पूर्वरागेऽपि ज्ञेया धीरैर्यथोचितम्॥१४॥
अपि माधवरागस्य प्राथम्ये संभवत्यपि।
आदौ रागे मृगाक्षीणां प्रोक्ता स्याच्चारुताधिका॥१५॥
अत्र संचारिणो व्याधिः शङ्कासूया श्रमः क्लमः।
निर्वेदौत्सुक्यदैन्यानि चिन्ता निद्रा प्रबोधनम्॥१६॥
विषादो जडतोन्मादो मोहमृत्यादयः स्मृताः।
प्रौढःसमञ्जसः साधारणश्चेति स तु त्रिधा॥१७॥
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ष्कृते इति॥११॥ विशाखा श्रीकृष्णमाह—यावदिति। अञ्चति प्राप्नोति॥१२॥ लक्ष्मणा स्वसखीमाह—नयने इति। क्षितीशितुर्वृहत्सेनाभिधस्य मत्पितुः। उपवीणयति वीणया उपगायति। अत्र स्नेहः स्थायी पूर्वरागो रसः॥१३॥ प्राथम्ये प्रथमोद्भूतत्वेइति वयं सन्ध्यारम्भे ‘निर्विकारात्मके चित्ते भावः प्रथमविक्रिया’ इत्युक्तरीत्या प्रथमविक्रियानन्तरमेव स्त्रीपुंसयोर्यद्यपि परस्परान्वेषणं संभवति तदपि स्त्रिया लज्जाभयधैर्यकुलाचारादिभिरावृत्तायाः सह-
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अत्र पूर्वरागे॥११॥१२॥१३॥१४॥१५॥१६॥
तत्र प्रौढः—
समर्थरतिरूपस्तु प्रौढ इत्यभिधीयते।
लालसादिरिहप्रौढे मरणान्ता दशा भवेत्॥१८॥
तत्तत्संचारिभावानामुत्कटत्वादनेकधा।
तथापि प्राक्तनैरस्य दशावस्था समासतः॥१९॥
प्रोक्तास्तदनुरोधेन तासां लक्षणमुच्यते।
लालसोद्वेगजागर्यास्तानवं जडिमात्र तु॥२०॥
वैयग्र्यं व्याधिरुन्मादो मोहो मृत्युर्दशा दश।
प्रौढत्वात्पूर्वरागस्य प्रौढाः सर्वा दशा अपि॥२१॥
** तत्र लालसः—**
अभीष्टलिप्सया गाढगृध्नुता लालसो मतः।
अत्रौत्सुक्यं चपलता घूर्णाश्वासादयस्तथा॥२२॥
__________
सैव पुंसि पूर्वरागो न प्रकटीभवति। पुंसस्तु तैरनावरणात् सहसैव प्रथमक्रियाक्षण एवप्रायशः स्त्रीजनान्वेषणं स्यादिति युक्तेः। तदपि मृगाक्षीणां रागे पूर्वरागे आदौचारुताधिकेति प्रेम्णः स्त्रीगतत्वेनैवाधिक्येन वर्णनौचित्यात् प्रेमाधिक्यस्य च लज्जादिसंहारकत्वादिति भावः। यदुक्तं साहित्यदर्पणे—‘आदौ रागः स्त्रियो वाच्यः पश्चात् पुंसस्तदिङ्गितैः।’ इति। किंचात्र पुनर्भक्तिशास्त्रे भक्तेरेव रसत्वात्तस्य च भक्ताश्रयत्वात्, भगवद्रागस्य च भक्तरागानुजन्मत्वात् व्रजदेवीनां च भक्तनिरुक्तिपरमावधिस्थानत्वात्तासामेव प्रथमं पूर्वराग उचित इति केचिदाहुः॥१४॥१५॥ १६॥१७॥ प्रौढ इति। समर्थरतिसंज्ञायां औचित्येऽपि प्रौढ इत्यभिधानं समञ्जससाधारणयोरल्पप्रौढप्रौढत्वज्ञापनार्थम् उत्कटत्वादिप्रौढत्वादनेकधा भवितुं यद्यप्यर्हतीति शेषो देयः॥१८॥१९॥॥२०॥२१॥ अभीष्टलिप्सया स्त्रीपुंसयोः परस्परप्राप्तीच्छया गाढगृध्नुता महौ-
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लालस इति पुंस्त्वं ‘स महान् लालसा द्वयोः’ इत्यमरकोषात्॥१७॥१८॥१९॥२०॥२१॥ गाढगृध्नुतेति। महते महत्येवार्थः। तत्र शत्रुमारणादिषु तद्व्यावृत्त्यर्थमाह—अभीष्टलिप्सयेति। अभीष्टजनं लब्धुं या इच्छा तयाङ्कुराव-
** यथा—**
त्वमुदवसितान्निष्क्रामन्ती पुनः प्रविशन्त्यसौ
झटिति घटिकामध्ये वाराञ्छतं व्रजसीमनि।
अगणितगुरुत्रासाश्वासान्विमुच्य विमुच्य किं
क्षिपसि बहुशो नीपारण्ये किशोरि दृशोर्द्वयम्॥२३॥
** यथा वा विदग्धमाधवे—**
दूरादप्यनुषङ्गतः श्रुतिमिते त्वन्नामधेयाक्षरे
सोन्मादं मदिरेक्षणा विरुवती धत्ते मुहुर्वेपथुम्।
आः किं वा कथनीयमन्यदसिते देवाद्वराम्भोधरे
दृष्टे तं परिरब्धुमुत्सुकमतिः पक्षद्वयीमिच्छति॥२४॥
____________
त्कण्ठ्यम्। लालसः स महान्। ‘लालसा द्वयोः’ इत्यमरः॥ ललिता श्रीराधामाह— उदवसितात् गृहात्। ‘गृहं गेहोदवसितम्’ इत्यमरः॥२२॥ लालसस्य पाकावस्थां दर्शयितुमाह— यथा वेति॥२३॥ विशाखा श्रीकृष्णमाह— अनुषङ्गतः अन्याभिधायकशब्दे कृष्णसारकृष्णलादावपि। तत्रापि नामधेयस्याक्षरे ‘कृ’ इत्येकस्मिन्नपि वर्णे तत्रापि दूरादपि, तत्रापि श्रुतिमेकमेव कर्णमिते प्राप्ते सति। सोन्मादमित्यादि। संपूर्णनामनि निकटात् कर्णद्वयं प्राप्ते सति न जाने किंभवेदिति भावः। मदिरो मत्तखञ्जनस्तदीक्षणेति तन्नामाक्षरश्रवणात् त्वदागमनशङ्क्यौत्सुक्यप्रावल्येन सर्वतो दृष्टिक्षेपानेत्रचाञ्चल्याधिक्याच्छोभाधिक्यं ध्वनितम्। आ इत्यतिपीडायाम्। तच्चरितं ब्रुवाणाप्यहमतिपीडितास्मि तस्याः पुनरौत्कण्ठ्यपीडा कथं वक्तुं शक्येति भावः। ‘आस्तु स्यात्कोपपीडयो’ इत्यमरः। पक्षद्वयीमिच्छतीति सोन्मादमित्यस्यानुषङ्गः। सखि, शीघ्रं पक्षद्वयं कुतोऽप्यन्विष्यानय यथा तद्युक्ताहमुड्डीयाकाशं स्वप्रियमालिङ्गयामीति
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स्थया पुनर्वृद्धया या गाढा गृध्नुता सेत्यर्थः॥२२॥ उदवसिताद्गृहात्॥२३॥
३३ उज्ज्व०
अथोद्वेगः—
उद्वेगो मनसः कम्पस्तत्र निश्वाससंज्वरौ।42
स्तम्भश्चिन्ताश्रुवैवर्ण्यस्वेदादय उदीरिताः॥२५॥
** यथा विदग्धमाधवे—**
चिन्तासंततिरद्य कृन्तति सखि स्वान्तस्य किं ते धृतिं
किं वा सिञ्चति ताम्रमम्बरमतिस्वेदाम्भसां डम्बरः।
कम्पश्चम्पकगौरि लुम्पति वपुःस्थैर्य कथं वा बलात्
तथ्यं ब्रूहि न मङ्गलापरिजने सङ्गोपनाङ्गीकृतिः॥२६॥
** अथ जागर्या—**
निद्राक्षयस्तु जागर्या स्तम्भशोषगदादिकृत्।
** यथा—**
श्यामं कंचन काञ्चनोज्ज्वलपटं संदर्श्यनिद्रा क्षणं
मामाजन्म सखी विमुच्य चलिता रुष्टैव नावर्तते।
___________
॥२४॥२५॥ ज्ञाततत्त्वापि विशाखा हृदयोद्घाटनार्थं श्रीराधां पृच्छति— **चिन्तेति।**स्वान्तस्य चिन्तायाः संततिरेकस्यां चिन्तायामुत्पन्नायां तस्याः सकाशादपरा तस्याश्चान्येत्येवं पुत्रपौत्रप्रपौत्रादिपरम्परा। ‘संततिर्गोत्रजननम्’ इत्यमरः। धृतिं कृन्तति छिनत्तीति धृतेर्धर्मद्रुमजटात्वमारोपितम्। तेन लुप्तधर्मा त्वं निर्विवादमेव प्रियमभिसर कात्र चिन्तेति व्यङ्ग्यम्। ताम्रमरुणम्। डम्बरमुद्रेकः॥२६॥ हन्त हन्त गुरुजनान्तःपुरेऽत्र श्रीकृष्णं कथमानयामि कथं वा त्वामसूर्यपश्यां तन्निकटं नयामीति चिन्तया विषीदन्तीं विशाखां श्रीराधा प्राह— श्याममिति। निद्रासखी (कर्त्री) मां श्रीकृष्णं क्षणं व्याप्य दर्शयित्वा चलिता
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आ इति संरम्भव्यञ्जकमव्ययम्॥२४॥२५॥ डम्वरमुद्रेकःवपुःस्थैर्य स्तम्भः
चिन्तां प्रोह्यसखि प्रपञ्चय गतिं तस्यास्त्वमावर्तने
नान्यः स्वाप्निकतस्करोपहरणे शक्तो जनस्तां विना॥२७॥
** अथ तानवम्—**
तानवं कृशता गात्रे दौर्बल्यभ्रमणादिकृत्॥२८॥
** यथा—**
च्युते वलयसंचये प्रवलरिक्ततादूषण-
व्ययाय निहितोर्मिका वलिरपि स्खलत्यञ्जसा।
निशम्य मुरलीकलं सखि सकृद्विशाखे तनु-
स्तवासितचतुर्दशीशशिकला कृशत्वं ययौ॥२९॥
कैश्चित्तु तानवस्थाने विलापः परिपठ्यते।
____________
तस्या निद्राया आवर्तने पुनरागमने वुद्धिं विस्तारय केनाप्यौषधेन मन्त्रेण वा यत्नेनान्येन वा यथा मां क्षणं निद्रा समायाति तथा कुर्वित्यर्थः। ननु ततः किं स्यात्तत्राह— **नान्य इति।**स्वप्ने चरतीति स्वाप्निकः। तेन कुलाङ्गनाया मम पार्श्वं श्रीकृष्णो नानेतुमुचितोऽशक्यश्च, न च तं विनाहं जीवामि अतोऽयमेवोपायो निर्विवादः। निद्रा आयातु तयैव श्रीकृष्णसङ्गो मे पुनर्भवतु जीवनरक्षणायेति भावः॥२७॥॥२८॥ विशाखायाः सखी तामाह— **च्युत इति।**प्रवलं यद्रिक्ततारूपं दूषणममङ्गलं तस्य व्ययाय दूरीकरणाय तत्र हस्तमणिबन्धे ऊर्मिकावलिरेव वलयावलित्वेनार्पिता। ततश्चाञ्जसा शीघ्रमेव सापि स्खलति एतावत्तानवं जातमिति भावः। ततश्च मुरलीत्यादिना तानवस्य परावधित्वं तेन त्वं गुरुजनान्मा भैषीरभिसर शीघ्रं त्वामहं तन्निकटं नयामि कदाचिदमावास्यायां सत्यामहमपि मरि-
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॥२६॥ नान्य इत्यादौ ‘तं स्वाप्निकतस्करं वलयितुं शक्तोऽपरस्तां विना’ इति वा पाठः॥२७॥ प्रवलरिक्ततादूषणव्ययायेति श्रीकृष्ण एव तद्विधानां स्वाभाविकरतिवलादन्तःपतिभावना वहिस्त्वन्यत्रेति बोधयति। ततस्तस्यैव मङ्गलभावनया तासां तन्मङ्गलैकमङ्गलमानिनीनां तत्तानवं युज्यते नतु पतिंमन्यानां यथा-
यथा—
अत्रासीन्नवनीपभूरुहतटे कुर्वन्विहारं हरि-
श्चक्रे ताण्डवमत्र मित्रसहितश्चण्डांशुजारोधसि।
पश्यन्ती लतिकान्तरे क्षणमहं व्यग्रानिलीय स्थिता
सख्यः किं कथयामि दग्धविधिना क्षिप्तास्मि दावोपरि॥३०॥
** अथ जडिमा—**
इष्टानिष्टापरिज्ञानं यत्र प्रश्नेष्वनुत्तरम्।
दर्शनश्रवणाभावो जडिमा सोऽभिधीयते॥३१॥
अत्राकाण्डेऽपि हुङ्कारस्तम्भश्वासभ्रमादयः॥३२॥
** यथा—**
अकाण्डे हुंकारं रचयसि शृणोषि प्रियसखी-
कुलानां नालापं दृतिरिव मुहुर्निश्वसिषि च।
ततः शङ्के पङ्केरुहमुखि ययौ वैणवकला
मधूली ते पालि श्रुतिचषकयोः प्राघुणिकताम्॥३३॥
___________
ष्याम्येवेति भावः॥२९॥ श्रीराधा विलपति—**अत्रेति। दग्धविधिनेति।**अधुना तु तथा न पश्यामि।क्षिप्तेति। सर्वथैव मरिष्याम्येवेति भावः॥३०॥ पाल्याः सखी तामाह—अकाण्डेऽनवसरे हुंकारः मानससंभोगारम्भे स्ववैमत्यव्यञ्जकम्। ‘हुं वितर्के परिप्रश्ने हुं रुषोक्त्यनुनीतिषु।’ इति विश्वः। दृतिर्भस्त्रा। वैणवकला वेणुवैदग्धी। हे पालि, प्राघुणिकोऽतिथिः॥३१॥३२॥३३॥
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क्रमं रतिद्वेषयोर्विषयात्॥२८॥२९॥३०॥ अकाण्डेऽनवसरे।हुंकारो रुषोक्तौ मनसि तदौद्धत्यविशेषस्मरणात्। ‘हुंवितर्के परिप्रश्ने हुं रुषोक्त्यनुनीतिषु’ इति विश्वः॥३१॥३२॥ मधूली मधुः। प्राघुणिकोऽतिथिः॥३३॥
** अथ वैयग्य्रम्—**
वैयग्र्यं भावगाम्भीर्यविक्षोभासहतोच्यते।
तत्राविवेकनिर्वेदखेदासूयादयो मताः॥३४॥
** यथा विदग्धमाधवे—**
प्रत्याहृत्य मुनिः क्षणं विषयतो यस्मिन्मनो धित्सते
बालासौ विषयेषु धित्सति ततः प्रत्याहरन्ती मनः।
यस्य स्फूर्तिलवाय हन्त हृदये योगीशमुत्कण्ठते
मुग्धेयं बत तस्य पश्य हृदयान्निष्क्रान्तिमाकाङ्क्षति॥३५॥
** अथ व्याधिः—**
अभीष्टालाभतो व्याधिः पाण्डिमोत्तापलक्षणः।
अत्र शीतस्पृहा मोहनिश्वासतपनादयः॥३६॥
** यथा—**
दवदमनतया निशम्य भद्रा मदनदवज्वलिता दधे हृदि त्वाम्।
द्विगुणितदवथुव्यथाविदग्धा मुरहर भस्ममयीव पाण्डुरासीत्॥३७॥
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भावस्य यद्गाम्भीर्यमतलस्पर्शता तेन यो विक्षोभस्तस्यासहिष्णुता॥३४॥ पौर्णमासी नान्दीमुखीमाह—प्रत्याहृत्येति। अष्टाङ्गयोगे प्रत्याहारः पञ्चमस्तेन मुनिरष्टाङ्गयोगी भक्तिपक्षीयः। धित्सते अर्पयितुमिच्छति मनस्तु तत्र सम्यङ् तिष्ठतीति भावः। हृदयात् स्फूर्तिप्राप्तेन श्रीकृष्णेन वलाद्धृदये धृता सतीत्यर्थः। अत्र मानः स्थायी पूर्वरागो रसः॥३५॥ ३६॥ भद्रायाःसखी श्रीकृष्णमाह— दवथुव्यथाया विदग्धा विज्ञा।श्लेषेण विशेषतो दग्धा। यद्वा विदग्धेति पृथगेव
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३४॥३५॥३६॥ दवदमनतया निशम्येति। श्रीद्वारकानाथं प्रति श्रीनारदवचनम्। भद्रानाम्नीयं राजकन्या। सेयं च कथंचन प्रथमं तदालम्बनकं प्राप्य समुद्विग्नमना जाता ततः श्रीनारदेन प्रत्युत तदुद्दीपनाय तस्य
** अथोन्मादः—**
सर्वावस्थासु सर्वत्र तन्मनस्कतया सदा।
अतस्मिंस्तदिति भ्रान्तिरुन्माद इति कीर्त्यते॥३८॥
अत्रेष्टद्वेषनिश्वासनिमेषविरहादयः।
** यथा विदग्धमाधवे—**
वितन्वानस्तन्वा मरकतरुचीनां रुचिरतां
पटान्निष्क्रान्तोऽभूद्धतशिखिशिखण्डो नवयुवा।
भ्रुवं तेनाक्षिप्त्वा किमपि हसतोन्मादितमतेः
शशी वृत्तो वह्निः परमहह वह्निर्मम शशी॥३९॥
** अथ मोहः—**
मोहो विचित्तता प्रोक्तो नैश्चल्यपतनादिकृत्॥४०॥
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पदम्॥३७॥ सर्वास्ववस्थासु **सर्वत्रेति।**उन्मादस्य कालदेशौ न व्यवच्छेदकौ स्यातामित्यर्थः। सदा तन्मनस्कत्वमस्य कारणम्॥३८॥ विशाखादर्शितचित्रपटा श्रीराधा सखीभिर्वैमनस्यकारणं पृष्टा ताः प्रत्याह— वितन्वानइति। मरकतरुचीनां या रुचिरता मनोहरता तां तं वा दूरभूतया वितन्वानो विशेषेण विस्तारयन्। तेन यूना किमप्यनिर्वचनीयमाधुर्य यथा स्यात्तथा हसता भ्रुवं क्षिप्त्वा उन्मादिता मतिर्यस्याःसा।तस्या मम शशी वह्निः विरहिण्या मयि दाहसमर्पकत्वादिति भावः। अहह खेदे अद्भुते च। वह्निस्तु शशीविरहपीडाया असह्यत्वात् प्राणजिहासया तस्मिन् पिपतिषोर्ममाभिलषणीयत्वा-
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दावाग्निमोक्षणलीलेयं त्वत्तापशमनी स्यादिति प्रात्याय्य सा श्राविता ततश्च सा तत्र विश्वासतस्तल्लीलाविशिष्टं तं हृदि दधे ततश्च सतु तापो द्विगुणित एव जात। तदेतद्वृत्तं स्वयमेव नारदः श्रीकृष्णं श्रावयामासेत्येवेतिहासोऽत्रानुसंधेय-
** यथा—**
नासाश्वासपराङ्मुखी विघटते दृष्टिः स्रुषायाः कथं
हा धिक् कृष्णतिलान् ममार्पय करे कुर्यामपामार्जनम्।
इत्यारोहति कर्णयोः परिसरं कृष्णेति वर्णद्वये
कम्पेनाच्युत तत्र सूचितवती43 त्वामेव हेतुं सखी॥४१॥
** अथ मृतिः44—**
तैस्तैः कृतैः प्रतीकारैर्यदि न स्यात्समागमः।
कन्दर्पवाणकदनात्तत्र स्यान्मरणोद्यमः॥४२॥
तत्र स्वप्रियवस्तूनां वयस्यासु समर्पणम्।
भृङ्गमन्दानिलज्योत्स्नाकदवानुभवादयः॥ ४३॥
** यथा—**
राधा रोधसि रोपितां मुकुलिनीमालिङ्ग्य मल्लीलतां
हारं हीरमयं समर्प्य ललिताहस्ते प्रशस्तश्रियम्।
मूर्च्छामाप्नुवती प्रविश्य मधुपैर्गीतां कदम्बाटवीं
नाम व्याहरता हरेः प्रियसखीवृन्देन संधुक्षिता॥४४॥
____________
दिति भावः॥३९॥४०॥ युष्मत्सख्या अदृष्टचर्या उन्मादे खलु नाहं कारणमिति ब्रुवाणं श्रीकृष्णं विशाखा श्रीराधाप्रेमाणमावेदयति—नासेति। इति जटिलाया वाक्ये कृष्णेति वर्णद्वये कर्णयोःपरिसरं प्राप्ते सति य कम्पस्तेनैव॥४१॥ तैस्तैर्दूतीप्रेषणस्वप्रेमपीडाज्ञापनादिभिरपि न समागमः श्रीकृष्णस्येत्यर्थ॥४२॥४३॥ पृच्छन्तीं पौर्णमासी वृन्दा श्रीराधाया वृत्तमावेदयति— राधेति। रोधसि यमुनायास्तटे स्वहस्तेनारोपिता मल्लीलतामालिङ्ग्येति हे मत्प्रिये
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॥३७॥३८॥ पटात् चित्रफलकात्॥३९॥४०॥ सूचितवती सक्षेपेणोक्त्या रहसि मां प्रति ज्ञापितवतीत्यर्थः॥४१॥४२॥४३॥ राधेति। अयं
** यथा वा विदग्धमाधवे—**
अकारुण्यः कृष्णो मयि यदि तवागः कथमिदं
मुधा मा रोदीर्मेकुरु परमिमामुत्तरकृतिम्।
तमालस्य स्कन्धे विनिहितभुजावल्लरिरियं
यथा वृन्दारण्ये चिरमविचला तिष्ठति तनुः॥४५॥
** अथ समञ्जसः—**
भवेत्समञ्जसरतिस्वरूपोऽयं समञ्जसः।
अत्राभिलापचिन्तास्मृतिगुणसंकीर्तनोद्वेगाः।
सविलापा उन्मादव्याधी जडता मृतिश्च ताः क्रमशः॥४६॥
____________
मल्लि, संप्रत्यहं लोकान्तरं यामि त्वमिहैव वृन्दावने मत्सखिभिः सिच्यमाना प्रफुल्लीभूय स्वपुष्पैर्मालारूपेण तस्य दुर्लभजनस्य वक्षति खेलन्ती स्वारोपयित्रीं मां सुखयेत्यनुललापेत्यर्थः। ललिताकण्ठे इत्यनुक्त्वाहस्ते समर्प्येत्युक्तेरयं भावः। तदानीं केशानामप्रसाधितत्वादतिविस्तृतत्वात्। हारस्योत्तारणे प्रयासं विलम्बं चालक्ष्य कण्ठात् सूत्रं त्रोटयित्वैव हारं ललिताहस्ते समर्प्य ललिते मत्स्मारकमिमं हारं कण्ठे दधानैव दुर्लभजनं तमालिङ्गन्ती चिरं जीवेति स्वगतमाहेत्यर्थः। आप्नुवति मूर्च्छा प्राप्तुमिच्छतीत्यर्थः। नाम व्याहरता नाम्नोऽमृतत्वादमृतस्य मृतसंजीवनौषधत्वादिति भावः॥४४॥ अत्रादिशब्दात् स्वदेहस्योत्तरक्रियाकथनेन स्वाभिलापद्योतनं चेति वक्तुमाह— यथावेति। श्रीकृष्णस्योपेक्षामालक्ष्य कालियहृदे देहं जिहासती श्रीराधा रुदतीं विशाखां सास्रमाह— अकारुण्य इति।तमालस्येति। हे सखि विशाखे, अस्यास्तनोः श्रीकृष्णकण्ठालिङ्गनेच्छा चिरमासीत् सा यदि दुरदृष्टवशान्न फलति स्म तदपि श्रीकृष्णोपमं तमालमालिङ्ग्यापि कृतार्थीभवत्विति मादनांशस्पर्शी मोहनोऽयम्॥४५॥ समञ्जसा रतिरेवस्वरूपं यस्य सः।समञ्जसा रतिरेव संगमात् पूर्वभूता विभवादिभिः संवलितः समञ्जसाख्यः पूर्वरागो रसः स्यादित्यर्थः। एवमग्रेऽपि सर्वत्र व्याख्येयम्॥४६॥
** तत्राभिलाषः—**
व्यवसायोऽभिलाषः स्यात्प्रियसंगमलिप्सया।
स्वमण्डनान्तिकप्राप्तिरागप्रकटनादिकृत्॥४७॥
** यथा—**
यदिह सखि सुभद्रा सख्यमाख्याय धूर्ते
व्रजसि पितुरगाराद्देवकीमन्दिराय।
रचयसि वत सत्ये मण्डने च प्रयत्नं
स्फुटमजनि तदन्तर्वस्तु गूढं तवाद्य॥४८॥
**
अथ चिन्ता—**
अभीष्टावाप्त्युपायानां ध्यानं चिन्ता प्रकीर्तिता।
शय्याविवृत्तिनिश्वासनिर्लक्षप्रेक्षणादिकृत्॥४९॥
** यथा—**
निश्वासस्ते कमलवदने म्लापयत्योष्ठबिम्बं
शय्यायां च क्रशिमकलिता चेष्टते देहयष्टिः।
द्वन्द्वं चाक्ष्णोर्विकिरति चिरं रुक्मिणि श्याममम्भो
न श्वोभाविन्युपयमविधौ शोभते विक्रियेयम्॥५०॥
_____________
॥४७॥ काचित् प्रखरा सखी सत्यभामां सकूटमाह—यदिहेति॥४८॥ निवृत्तिर्मुहुर्मुहुः परितः परिवर्तनम्॥४९॥ काचित् प्रतिवेशिनी रुक्मिणीं प्रत्याह— निश्वास इति। श्याममम्भः सकज्जलाश्रु। उपयमो विवाहः॥५०॥
________________________________________________________________________
पूर्वरागः॥४४॥४५॥४६॥४७॥४८॥४९॥ उपयमो विवाहः
** अथ स्मृतिः—**
अनुभूतप्रियादीनामर्थानां चिन्तनं स्मृतिः।
अत्र कम्पाङ्गवैवश्यस्वापनिश्वसितादयः॥५१॥
** यथा—**
प्लुतं पूरेणापां नयनकमलद्वन्द्वमभितो
धृतोत्कम्पं सात्राजिति कुचरथाङ्गद्वयमपि।
श्लथारम्भं चेदं भुजविसयुगं45 तत्तव मन-
स्तडागेऽस्मिन् कृष्ण द्विरदपतिरन्तर्विहरति॥५२॥
** अथ गुणकीर्तनम्—**
सौन्दर्यादिगुणश्लाघा गुणकीर्तनमुच्यते।
अत्र वेपथुरोमाञ्चकण्ठगद्गदिकादयः॥५३॥
** यथा—**
यान्त्यस्तृष्णामपि युवतयो येषु घूर्णां भजन्ते
यान्याचम्य स्वयमपि भवान् रोमहर्षं प्रयाति।
गन्धं तेषां तव मधुपते रूपसंपन्मधूनां
दूरे विन्दन्मम न हि धृतिं चित्तभृङ्गस्तनोति॥५४॥
____________
प्रियादीनां प्रियतदीयगुणरूपवेषचेष्टादीनाम्॥५१॥ सत्यभामायाःसखी तामाह— प्लुतमिति। द्रुतं व्याप्तम्। श्लथारम्भं शिथिलोद्गमम्।द्विरदो हस्ती॥५२॥॥५३॥रुक्मिणी संदेशपत्रीं लिखति— यान्त्य इति। येषु तृष्णामभिलाषमपि प्राप्नुवत्यो घूर्णन्ते तेषां मधूनां पाने किं वक्तव्यमिति भावः॥५४॥
________________________________________________________________________
*॥५०॥५१॥५२॥५३॥ **यान्त्य इति।*श्रीरुक्मिणीसंदेशः॥५४॥
षडुद्वेगादयः पूर्वं प्रौढे तस्मिन्नुदाहृताः।
सामञ्जस्याद्रतेरत्र किं तु ताः स्युर्यथोचितम्॥५५॥
** अथ साधारणः—**
साधारणरतिप्रायः साधारण इतीरितः।
अत्र प्रोक्ता विलापान्ताः षड् दशास्ताश्च कोमलाः॥५६॥
तत्राभिलाषो यथा प्रथमस्कन्धे—
एताः परं स्त्रीत्वमपास्तपेशलं
निरस्तशौचं वत साधु कुर्वते।
यासां गृहात्पुष्करलोचनः पति-
र्न जात्वपैत्याहृतिभिर्हृदि स्पृशन्॥५७॥
चिन्तादीनां तथान्यासामूह्या धीरैरुदाहृतिः।
पूर्वरागे प्रहीयेत कामलेखस्रगादिकम्॥५८॥
वयस्यादिकरेणात्र कृष्णेनास्य च कान्तया।
__________
कुरुपुरस्त्रियः श्रीकृष्णमालोक्य तत्पत्नीश्लाघया तं कामयन्ते। एता पट्टमहिष्यः अपास्तपेशलं निरस्तस्वातन्त्र्यं कामविकाराधिक्यान्निरस्तशौचं साधु शोभनम्। अहो स्त्रीजातिरेव धन्या यत्र रुक्मिण्यादय उद्भूता इति सता श्लाघयेत्यर्थः। आहृतिभिः पारिजातादिविविधवस्त्राहरणै। नन्वासा कुरुपुरनार्यादीनामन्यभुक्तत्वात् श्रीकृष्णसंभोगो नास्त्येव कुतःपूर्वरागो वर्ण्यते।सत्यम्। स्वाप्नो मानसश्च संभोगो वर्तते देहान्तरे साक्षाच्च संभोगो भविष्यतीति अतःपूर्वरागोऽयं नानुपपन्नो ज्ञेयः॥५५॥
________________________________________________________________________
*अस्याः समञ्जसाया रतेःसामञ्जस्याद्धेतोः॥५५॥५६॥ **एता इत्यादि।*वक्रीणां कुरुपुरुस्त्रीणां यद्यपि संभोगासंभवस्तथापि रुचिमात्रांशेनोदाहरणम्॥ एताःपट्टमहिष्यःस्त्रीत्वंस्त्रीजातिमात्रंसाधु कुर्वते।जालेकत्वेन पवित्रीकरोति। अपास्तपेशलमिति अन्यसेवापरत्वान्निरस्तदाक्ष्यमित्यर्थः। तथा त्वक्श्मश्रुरोमनसकेशपिनद्धेतिन्यायेनान्यसान्निरस्तशौचं च। आहूतिभिः प्रेममयनानासमाहारैः
** तत्र कामलेखः—**
स लेखःकामलेखः स्याद्यः स्वप्रेमप्रकाशकः॥५९॥
युवत्या यूनि यूना च युवत्यां संप्रहीयते।
निरक्षरः साक्षरश्च कामलेखो द्विधा भवेत्॥६०॥
** तत्र निरक्षरः—**
सुरक्तपल्लवमयश्चन्द्रार्धादिनखाङ्कभाक्।
वर्णविन्यासरहितो भवेदेष निरक्षरः॥६१॥
** यथा—**
किसलयशिखरे विशाखिकाया
नखरशिखालिखितोऽयमर्धचन्द्रः।
दधदिह मदनार्धचन्द्रभावं
हृदि मम हन्त कथं हठाद्विवेश॥६२॥
** अथ साक्षरः—**
गाथामयी लिपिर्यत्र स्वहस्ताङ्कैष46 साक्षरः।
__________
॥५६॥५७॥५८॥ कृष्णेन कर्त्रा स्वकान्तायै अस्य श्रीकृष्णस्य, कान्तया च कर्त्र्याश्रीकृष्णाय॥५९॥६०॥६१॥ विशाखा संख्या दत्तं कामलेख्यं प्रीत्या हृदि कृत्वा श्रीकृष्णः क्षणान्तरे सुवलमाह—किसलयेति। मदनस्यार्धचन्द्रभावं तन्नाम शरसाधर्म्यमित्यर्थः॥६२॥शशिमुखीद्वारा श्रीराधा-
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॥५७॥५८॥५९॥६०॥६१॥६२॥ गाथाप्राकृतभाषायामप्यार्या।
** यथा जगन्नाथवल्लभे—**
सुइरं विज्झसि हिअअं लम्भइ मअणो क्खु दुज्जसं वलिअम्।
दीससि सअलदिसासुं दीसइ मअणो ण कुत्तावि॥६३॥
[सुचिरं विध्यसि हृदयं लभते मदनः खलु दुर्यशो बलवत्।
दृश्यसि सकलदिशासु दृश्यते मदनो न कुत्रापि॥]
बन्धोऽब्जतन्तुना रागः किंवा कस्तूरिकामसी।
पृथुपुष्पदलं पत्रं मुद्राकृत्कुङ्कुमैरिह॥६४॥
** अथ माल्यार्पणम्—**
सुश्लिष्टां निजशिल्पकौशलभरव्याहारिणीमद्भुतां
गोष्ठाधीश्वरनन्दनः स्रजमिमां तुभ्यं सखि प्राहिणोत्।
इत्याकर्ण्य गिरं सरोरुहदृशः स्वेदोदबिन्दुच्छला-
दङ्गेभ्यः कुलधर्मधैर्यमभितः शङ्के बहिर्निर्ययौ॥६५॥
** केचित्तु—**
“नयनप्रीतिः प्रथमं चिन्तासङ्गस्ततोऽथ संकल्पः।
निद्राच्छेदस्तनुता विषयनिवृत्तिस्त्रपानाशः॥६६॥
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प्रेषितःश्रीकृष्णे कामलेखोऽयम्। ‘सुचिरं विध्यसि हृदयं लभते मदनः खलु दुर्यशो बलीयः। दृश्यसे सकलदिक्षु त्वं दृश्यते मदनो न कुत्रापि॥’मदनशरपीडिता श्रीराधा क्लाम्यतीति सखीषुप्रसिद्धिर्मिथ्यैव। यतः—सुचिरमित्यादि॥६३॥ रागो हिङ्गुलादिद्रवः। मसीव मसी किंवा कस्तूरीकेत्यन्वयः॥६४॥ वृन्दा श्रीराधायै मालां समर्प्यागता श्रीकृष्णेन पृष्टतद्वृत्तान्ता तं प्रत्याह— सुश्लिष्टामिति॥६५॥६६॥ वृन्दा श्रीराधामाह—
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स्वहस्तेन अङ्कोलिपिर्यस्या सा॥ ‘सुचिरं विध्यसि हृदयं लभते मदनः खलु दुर्यशोऽतिवलवत्। दृश्यसे सकलदिक्षु त्वं दृश्यते मदनो न कुत्रापि॥’ मसी लिपेरुपादानद्रव्यम्॥६३॥६४॥ विज्ञेयः उद्दीपनत्वेनेति शेषः॥६५॥
उन्मादो मूर्च्छा मृतिरित्येताः स्मरदशा दशैव स्युः॥” इत्याचक्षते।
एवं क्रमेण विज्ञेयः पूर्वरागो हरेरपि।
निदर्शनाय तत्रैकमुदाहरणमुच्यते॥६६॥
** यथा—**
उपारंसीद्वंशीकलपरिमलोल्लासरभसा-
द्विसस्मार स्फारां विविधकुसुमाकल्परचनाम्।
जहौ कृष्णस्तृष्णां सहचरचमूचारुचरिते
सखि त्वद्भ्रूव्यालीचुलुकितचलच्चित्तपवनः॥६७॥
**
इति पूर्वरागप्रकरणम्।**
**
**
**
अथ मानः—**
दम्पत्योर्भाव एकत्र सतोरप्यनुरक्तयोः।
स्वाभीष्टाश्लेषवीक्षादिनिरोधी मान उच्यते॥६८॥
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उपेति। अत्र परिमलपदेन वंशीकलस्य पुष्पोद्यानत्वमारोपितम्। तस्य तानतालादिप्रपञ्चे निखिलविलासास्पदत्वं व्यङ्ग्यम्। उल्लास उद्रेकस्तेन यो रभस आनन्दस्तस्मादुपारंसीद्व्यरंसीत्॥६७॥ इति पूर्वरागविवृतिः॥
दम्पत्यो स्वाभीष्टमाश्लेषवीक्षणादिकं निरोद्धुं शीलं यस्य तथाभूतो भावो रोषविशेष एव विभावादिसंवलनान्मान उच्यते। अत्र रसशास्त्रे स्त्रीपुंसमात्रे दम्पतिपदप्रयोगः ‘औपपत्येऽपि स्वाधीनभर्तृका’ इत्यादि पदप्रयोगवन्नानुपपन्नः। अभीष्टपदेन देवमन्दिरव्रतादिदेशकालनिद्रालस्याद्यवस्थाव्यावृत्तिः। तत्र तत्र क्वचिन्नायिकायाः क्वचिन्नायकस्य क्वचिदुभयोरेवालिङ्गनादेव नाभीष्टत्वम्।
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॥६६॥ श्रीकृष्णभक्तेरेवात्र स्थायित्वेन प्राकृतत्वात्॥६७॥ इति पूर्वरागविवृतिः॥
- दम्पत्योर्भाव एव मानाख्य उच्यते। विभावादिसंवलिततया प्रकृष्टमाधुर्यञ्चे-*
संचारिणोऽत्र निर्वेदशङ्कामर्षाः सचापलाः।
गर्वासूयावहित्थाश्चग्लानिश्चिन्तादयोऽप्यमी॥६९॥
अस्य प्रणय एव स्यान्मानस्य पदमुत्तमम्।
सोऽयं सहेतुनिर्हेतुभेदेन द्विविधो मतः॥७०॥
** तत्र सहेतुः—**
हेतुरीर्ष्या विपक्षादेर्वैशिष्ट्ये या कृते।
भावः प्रणयमुख्योऽयमीर्ष्यामानत्वमृच्छति॥७१॥
** तथा चोक्तम्—**
स्नेहं विना भयं न स्यान्नेर्ष्या च प्रणयं विना।
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एकत्र सतोरपीत्यपिकारात् पृथक् स्थितयोरपि॥ नन्वयंमानः क्व संभवतीत्यपेक्षायामाह— अस्य मानस्य प्रणय एवोत्तमं पदं स्थानं स्यात्। यत्र प्रणयः स्यात्तत्रैव मानः स्यादित्यर्थः। उत्तमं पदमित्युक्ते स्नेहोऽनुत्तमं पदं न्यूनस्थानमित्यर्थ आयाति। यदुक्तम्—‘जनित्वाप्रणयः स्नेहात्कुत्रचिन्मानतां व्रजेत्। स्नेहान्मानः क्वचिद्भूत्वा प्रणयत्वमथाश्रुते॥” इति॥६८॥६९॥ ७०॥हेतुरत्र खल्वीर्ष्येव स्यादित्यर्थः। तस्या अपि को हेतुस्तत्राह— प्रेयसा कान्तेन विपक्षादेः प्रतिनायिकायास्तत्सखीनां वा वैशिष्ट्ये उत्कर्षे कृते सति भाव ईर्ष्यारूपः प्रणयः प्रधानःसन् ईर्ष्या मानत्वमृच्छति प्राप्नोति॥ कृतापराधस्य नायकस्य नायिकां प्रति भयं स्यात्, नायिकायास्त्वपराधे तस्मिन्नीर्ष्या स्यात्। तदुभयहेतुको नायिकानायकयोर्मानो नाम रसःस्यात्। तत्र च भयस्य कारणं स्नेहः, ईर्ष्यायाः कारणं प्रणय इत्याह— स्नेहमिति। स्नेहं नायिकाविषयकं
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दिति भावः। अपिशब्दात् पृथक् स्थितयोरपि॥६८॥ प्रणय एव पदमाश्रयः। अन्यथा संकोच स्यात् यत्र मानाख्यो भावः पूर्वंपश्चात्तु प्रणयो भावप्रकरणोक्तानुसारेण लभ्यते। अत्र च मानाख्योऽयं रसः प्रणयात् पूर्वं न भवति प्रणयं विना तद्व्यक्तौ शोभनानुपपत्तेः॥६९॥ सहेतुरीर्ष्यासंयोगेन हेतुना सह वर्तमानः, निर्हेतुस्तद्विनाभूतः; उत्तरानुरोधात्॥७०॥स्नेहं नायकस्य
तस्मान्मानप्रकारोऽयं द्वयोः प्रेमप्रकाशकः॥७२॥
** अत एव हरिवंशे—**
रुषितामिव तां देवीं स्नेहात्संकल्पयन्निव।
भीतभीतोऽतिशनकैर्विवेश यदुनन्दनः॥७३॥
रूपयौवनसंपन्ना स्वसौभाग्येन गर्विता।
अभिमानवती देवी श्रुत्वैवेर्ष्यावशं गता॥७४॥ इति।
तत्रापि च सुसख्यादि हृदि यस्या विराजते।
तस्या विपक्षवैशिष्ट्ये न स्यादेव सहिष्णुता॥७५॥
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चित्तार्द्रीभावं विना नायकस्य भयं न स्यात्। प्रणयं नायकविषयं सख्यं विना नायिकाया ईर्ष्या न स्यात्॥ रूषितां कुपितामेवेति रोषस्यास्य प्रणयपरिणामरूपत्वादिति भावः। स्नेहात् स्वनिष्ठात्तद्विषयकात् संकल्पयन्निव संभावयन्निव। यद्वा चरणयोः पतिष्यामि चाटु वक्ष्यामीत्यादयः संकल्पा यस्यां सन्ति सा संकल्पवती तथाभूतां तां कुर्वन्निव सौभाग्येन श्रीकृष्णनिष्ठसुखस्य निबन्धनेनेत्यर्थः। अतिगर्वितेत्यत्र हेतुः अभिमानवती मदीयतामयमधुस्नेहवती॥ तद्वैशिष्ट्यं विपक्षादेः प्रेयसा कृतम्॥७१॥७२॥७३॥७३॥७४॥
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नायिका प्रत्यार्द्रीभावं विना भयं न स्यात्। ईर्ष्या नायिकाया असहनत्वं प्रणयं विना न स्यात् तस्मात् स्नेहप्रणयकारणत्वात् द्वयोः मान एव प्रेम्णोऽच्छिदुरभावस्य प्रकाशः॥७१॥ रूषितामिवेति वस्तुतः प्रणयवतीत्वात् रोषाभासवतीमित्यर्थः। देवी श्रीसत्यभामां संकल्पयन्निव कथंचिन्मे स्नेहशैथिल्यमियं कुर्यादिति भावयन्निवेति। वस्तुतस्तु तस्यामस्य नेदृशी संभावनागाढता भवेदिति संभावनाभासमेव कुर्वन्नित्यर्थः। तथापि भीतभीत इत्यन्तर्वशीभावो दर्शितः। गर्विता स्वस्मिन् प्रियकृदादरेण परमप्रेयसीमन्या। स्वयं चाभिमानवती भावप्र-
अतः सत्यां विनान्यासां सुसख्यादेरभावतः।
श्रुतेऽपि पारिजातस्य47 दाने मानो न चाभवत्॥७६॥
श्रुतं चानुमितं दृष्टं तद्वैशिष्ट्यं त्रिधा मतम्।
** तत्र श्रवणम्—**
श्रवणं तु प्रियसखीशुकादीनां मुखाद्भवेत्॥७७॥
** तत्र सखीमुखाद्यथा—**
शशिमुखि मृषा जल्पं श्रुत्वा कठोरसखीमुखा-
त्प्रणयिनि हरौ मा वित्रम्भं कृथाः शिथिलं वृथा।
परिहर मनःक्लान्तिं देवि प्रसीद मनोरमे
तव मुखमनालोच्य प्रेयान्वनेऽद्य विशीर्यति॥७८॥
** यथा वा—**
अहह गहना केयं वार्ता श्रुतौ पतिताद्य मे
विदितमनृतं हास्याद्व्रूषे विमुञ्च कदर्थनाम्।
सहचरि कुतो जीवत्यस्मिञ्जनेऽपि जनार्दनो
द्युतरुकुसुमं तस्यै हा धिक्कृती वितरिष्यति॥७९॥
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॥७५॥७६॥७७॥ वृन्दा मानिनीं मनोरमां प्रत्याह—शशिमुखीति॥७८॥ पटुमहिषीष्वपि मानमुदाहर्तुमाह—यथा वेति। पारिजातपुष्पदानप्रस्तावं ब्रुवाणां स्वसखीं प्रति सत्यभामा प्राह—केयमद्भुता अश्रुतचरी \। श्रुतिस्फोटिनीत्यर्थः। क्षणं परामृश्याह—विदितम् मया ज्ञातं, हासात् परिहासाद्धेतोः मां कदर्थयितुमनृतं ब्रूषे। अस्मिन्मल्लक्षणे जने तस्यै रुक्मिण्यै।कृती देश-
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करणोक्तमानाख्यभावविशेषवती॥७२॥७३॥७४॥७५॥७६॥७७॥
** शुकमुखाद्यथा—**
आस्ते काचिद्दयितकलहा क्रूरचेताः सखी ते
कीरो वन्यः स्फुटमिह यया श्यामले पाठितोऽस्ति।
अत्र व्यर्थे विहगलपिते सुष्ठुविस्रम्भमाणा
मानारम्भे न कुरु हृदयं कातरोऽस्मि प्रसीद॥८०॥
** अनुमितिः—तत्र भोगाङ्कः—**
भोगाङ्कोदृश्यते गात्रे विपक्षस्य प्रियस्य च॥८१॥
** तत्र विपक्षगात्रे भोगाङ्कदर्शनं यथा—**
कालिन्दीतटधूर्तचाटुभिरलं निद्रातु चन्द्रावली
खिन्नाक्षी48 क्षणमङ्गनादपसर क्रुद्धास्ति वृद्धा गृहे।
किंचिद्बिम्बित49धातुपत्रमकरीचित्रेण तत्राधुना
सर्वा ते ललिता ललाटफलकेनोद्घाटिता चातुरी॥८२॥
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कालपात्रज्ञः॥७९॥ मानिनीं श्यामलां श्रीकृष्णः सचाटुप्रतिभमाह—आस्त इति। पाठितोऽस्ति त्वां मां च कदर्थयितुमिति भावः॥८०॥८१॥ खण्डितायाश्चन्द्रावल्याः कुञ्जमायातं श्रीकृष्णं पद्मा साक्षेपं सामर्षमाह— कालिन्दीति। चाटुभिरलमिति त्वच्चाटुकरणं वयं जानीम एव किंतु संप्रति तूष्णीं भवेति भावः। ननु वचने को दोष इत्यत्र मानाग्निसंतापमूर्च्छिता चन्द्रावली निद्रितेति ज्ञापयन्ती प्राह—निद्रात्विति। निद्रातु त्वज्जल्पितशब्देन मा जागर्त्विति भावः। यतः खिन्नाक्षी रात्रौ विप्रलम्भत्वेन जागरादिति भावः। ननु तर्हि तूष्णीमिव क्षणमिहैव स्थास्यामीत्यत आह—अङ्गनादिति।
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॥७८॥ गहनारिष्टदा॥७९॥८०॥८१॥बिम्बितधातुपत्रमकरीचित्रेणेति। अनयोपालम्भनकर्त्र्या श्रीकृष्णवक्षसि तत्परीक्षा स्वयमेव पूर्वं
** प्रियगात्रे भोगाङ्कदर्शनं यथा विदग्धमाधवे—**
मुक्तान्तर्निमिषं मदीयपदवीमुद्वीक्षमाणस्य ते
जाने केशव वेणुभिर्निपतितैः शोणीकृते लोचने।
शीतैः काननवायुभिर्विरचितो बिम्बाधरे च व्रणः
संकोचं त्यज देव दैवहतया न त्वं मया दूष्यसे॥८३॥
** अथ गोत्रस्खलनम्—**
विपक्षसंज्ञयाह्वानमीर्ष्यातिशयकारणम्।
आसां तु गोत्रस्खलनं दुःखदं मरणादपि॥८४॥
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एवं चेदितो यामि किंतु तन्निरपराधत्वंचाटुप्रणतिविनत्यादिकं च प्रबुद्धायां चन्द्रावल्यां युष्माभिरेव कृपालुभिर्विज्ञापनीयमिति तत्राह। किंचिदीषद्विम्वितं प्रतिविम्बं धातुपत्रगैरिकमनःशिलादिरचितं श्रीकृष्णललाटस्थपत्रभङ्गं यस्मिन् तथाभूतं मकरीचित्रं मृगमदादिरचितं यत्र तेन फलकेन चित्रपटेन॥८२॥ खण्डिता श्रीराधा अनुनयन्तं श्रीकृष्णं तद्वचनानुवादेनैव विपरीतलक्षणया प्राह—मुक्तान्तर्निमिषमिति। मत्पदवीदर्शनेऽपि किं पुनर्मद्दर्शनेन अन्तर्निमिषोऽपि न कृतः किं पुनर्वहिर्निमेषः। तत्राप्यहो केशररेणुपातसमयेऽप्यहो मद्विषयकप्रेम्णः परा काष्ठेत्यर्थः। जाने इति। सर्वदैवाहमनुभवाम्येव किं पुनरपि तद्विज्ञापनप्रयासेन तवेति भावः। बिम्बाधरे च व्रण इति। मत्प्रेमविवशो जातं व्रणमपि नानुसंधत्से इत्यर्थः। संकोचं त्यजेति एतावत्पेमवत्त्वेकुतोऽपराधसंभावना यतः संकोच इति भावः। देवेति। नहि मनुष्य एवं प्रेम कर्तुं शक्नोतीति भावः।श्लेषेण हे क्रीडापर, किमिति संकुचसि मदग्रेऽपि तामानीय रमस्वेति भाव। नन्वेवं चेत् कथं सखीभिः सहिता त्वं मामदूषयंस्तत्र सत्यमपराद्धमेव मयेत्याह— त्वं संप्रति तु ज्ञाततत्त्वया मया न दूष्यसे पूर्वं यद्विरुद्धं कृतं तत्त्वया कृपयैव क्षन्तव्यमेवेति भावः। ननु तर्हि तव खेदस्य किं कारणं तत्राह— दैवहत इति। यदि मल्ललाटे विधात्रा दुःखं
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तल्लिखितमासीदिति गम्यते॥८२॥ संकोचं भयम्॥८३॥८४॥
** तेन यथा बिल्वमङ्गले—**
राधामोहनमन्दिरादुपगतश्चन्द्रावलीमूचिवान्
राधे क्षेममिहेति तस्य वचनं श्रुत्वाह चन्द्रावली।
कंस क्षेममये विमुग्धहृदये कंसः क्वदृष्टस्त्वया
राधे क्वेति विलज्जितो नतमुखः स्मेरो हरिः पातु वः॥८५॥
** यथा वा—**
अहह विलसत्यग्रे चन्द्रावली विमलद्युतिः
कितव कलिता तारा सात्र त्वया क्व नु षोडशी।
तिमिरमलिनाकार क्षिप्रं व्रजारुणमण्डला
मम सहचरी यावन्मन्युद्युतिं न विमुञ्चति॥८६॥
** अथ स्वप्नः—**
हरेर्विदूषकस्यापि स्वप्नः स्वप्नायितं मतः।
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लिखितं तदा त्वं किं करिष्यसीति भावः॥ गोत्रस्य नाम्नःस्खलनम्। ‘गोत्रं कुले धने नाम्नि गोत्रं तु धरणीधरे।’ इत्यजयः॥८३॥८४॥८५॥ गोत्रस्खलने नायिकाया ईर्ष्योक्तिमाधुरीमुदाहृत्य तत्सखीनामपि तामुदाहर्तुमाह—यथा वेति। चन्द्रावल्याःसभायां नृत्यगीतवाद्यप्रहेलीलपनस्वादप्रसङ्गे श्रीकृष्णं स्मृत्वा आरूढीभूतराधं राधे इति पदेन चन्द्रावलीं संवोधयन्तं पद्मा सामर्षमाह— अहहेति। अद्भुते खेदे च। चन्द्रावली श्लेषेण एक एव चन्द्रश्चक्षुष्मता जनेन नान्यथा प्रतिपाद्यते किमुत चन्द्रावली, तत्रापि विमलद्युतिर्नतु मेघाम्वरेणावृतसर्वाङ्गेत्यर्थः। कलिता दृष्टा षोडशी तास राधा ईर्ष्यया तन्नामाग्रहणात् तिमिरमलिनाकारेति चन्द्रतिमिरयोर्यथा मैत्री तथा त्वं जानास्येवेति भावः। नच काश्चित्सख्योऽस्यास्त्वामनुग्रहिष्यन्तीत्यपि त्वया ज्ञेयमित्याह—अरुणं कोपेनारुणवर्ण
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श्रीराधा इति नाम सूचयति॥८५॥ अरुणस्य सूर्यसारथेर्मण्डलमिव मण्डलं गोष्ठी यस्याः सा। मन्युः क्रोधः। विमुञ्चति क्षिपति॥८६॥स्वप्नायितं स्वप्न-
** तत्र हरेः स्वप्नायितं यथा—**
शपे तुभ्यं राधे त्वमसि हृदये त्वं मम बहि-
स्त्वमग्रे त्वं पृष्ठे त्वमिह भवने त्वं गिरिवने।
इति स्वप्ने जल्पं निशि निशमयन्ती मधुरिपो-
रभूत्तल्पे चन्द्रावलिरथ परावर्तितमुखी॥८७॥
** विदूषकस्य यथा—**
अवञ्चि चटुपाटवैरघभिदाद्य पद्मासखी
ततस्त्वरय राधिकां किमिति माधवि ध्यायसि।
निशम्य मधुमङ्गलादिति गिरं पुरः स्वप्नजां
विदूनवदना सखि ज्वलति पश्य चन्द्रावली॥८८॥
** अथ दर्शनं यथा—**
मिथ्या मा वद कन्दरे मम सखीं हित्वा त्वमेकाकिनीं
निष्क्रान्तः पृथुसंभ्रमेण किमपि प्रख्यापयन्कैतवम्।
दूरात्किंचिदुदञ्चितेन रसनाशब्देन सातङ्कया
निष्क्रम्याथ तया शठेन्द्र पुलिने दृष्टोऽसि राधासखः॥८९॥
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मण्डलमतिशयोक्त्या सखीवृन्दं यस्याः सा, पक्षे मण्डलमुदयकालोत्थपरिधिः॥८६॥ स्वप्नायितं स्वप्नमानयत्स स्वप्न (?)। लोहितादिपाठात् क्यड्॥ वृन्दा कुन्दवल्लीमाह—शपे इति। हृदय इत्यादिना तस्यां स्वप्रेमातिशयो व्यञ्जितः॥८७॥शैव्या श्रीकृष्णमाह—**अवञ्चीति।**पद्मायाः सखी चन्द्रावली। अवञ्चिप्रतारिता। राधिका त्वरय।अभिसर्तुमित्यर्थः॥८८॥ पद्मा श्रीकृष्णमनुनयन्तमाह— मिथ्येति। प्रख्यापयन्निति अद्य संध्यावसरे विघटिता कापि गौर्न प्राप्ता तस्या इव शब्दं दूरादहं शृणोमीति ता यावदिहानयामि तावदिहैव
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क्रिया स्वप्नो मतः। क्यङ्प्रत्ययोऽत्र शब्दादिपाठात्॥८७॥८८॥८९॥
** यथा वा—**
सहचरि परिगुम्फ्य प्रातरेवार्पितासी-
द्व्रजपतिसुतकण्ठे या मयोत्कण्ठयाद्य।
अपि हृदि ललितायास्तस्थुपी हन्त हृन्मे
दहति दहनदीप्तिः पश्य गुञ्जावली सा॥९०॥
** अथ निर्हेतुः—**
अकारणाद्द्वयोरेव कारणाभासतस्तथा।
प्रोद्यन् प्रणय एवायं व्रजेन्निर्हेतुमानताम्।
आद्यं मानं परीणामं प्रणयस्य जगुर्बुधाः॥९१॥
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प्रिये त्वं तिष्ठेत्याकारं कैतवम्। ततश्च क्षणान्तरे दूरादुत्थितेन रसनायाः शब्देन सातङ्कया हन्त हन्त कोऽयं रसनाशब्दः नत्वस्मत्सखीनां कासामपीति लब्धशङ्कया ततश्च कुञ्जादपि निष्क्रम्य॥८९॥ प्रेयसा कृतवैशिष्ट्यस्य स्वप्रतिपक्षस्य दर्शनमुदाहृत्य तदीयपक्षस्यापितथा दर्शनमुदाहर्तुमाह—यथा वेति। चन्द्रावली ललितां दूरादालोकयन्ती स्वहृदयव्यथां स्वसख्यां पद्मायामुद्घाटयति— **सहचरीति।**प्रातरेवेत्येवकारेण ललिताया हृद्यपि प्रातरेव तस्थुषीति गम्यते। अत एव तस्थुषीति परोक्षातीतत्वं सुसङ्गतमेव। ललितायाः संगवसमय एव तथा दूरे दृश्यमानत्वात्। तेन च प्रातरेव श्रीकृष्णकण्ठे गुञ्जावलीं निधाय मय्यागतायां तदैव प्रातरेव श्रीकृष्णेन सा ललिताकण्ठेऽर्पिता हन्त हन्त क्षणमपि स्वकण्ठे किल न स्थापितेत्येतत्कथमहं सोढुं शक्नोमीति श्रीकृष्णे एव वलवदीर्ष्याधिक्यं न तु तथा ललितायामिति ज्ञेयम्। ततश्च दैवहतया मयाद्य कथं स्वं संतापयितुं गुञ्जावली गुम्फितेत्याह—दहतीत्यादि। अकारणात् कारणाभावात्॥९०॥ आद्यमीर्ष्यामानाख्यं पूर्वोक्तंसहेतुकं तथा द्वितीयं कारणाभावकारणाभासभवम्।
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तस्थुषीति ईर्ष्यया परोक्षातीतत्वं दर्शितम्॥९०॥ आद्यमीर्ष्यामानाख्यं प्रणयस्य परिणामं ईर्ष्यासंयोगेन तत्तुल्यतयावस्थानं लोहितवस्तुसंयोगेन
द्वितीयं पुनरस्यैव विलासभरवैभवम्।
बुधैः प्रणयमानाख्य एषएवप्रकीर्तितः॥९२॥
** तथा चोक्तम्—**
अहेरिव गतिः प्रेम्णः स्वभावकुटिला भवेत्।
अतो हेतोरहेतोश्चयूनोर्मान उदञ्चति॥९३॥इति।
अवहित्थादयो ह्यत्र विज्ञेया व्यभिचारिणः।
** तत्र श्रीकृष्णस्य यथा—**
अव्यक्तस्मितदृष्टिमर्पय पुरः स्वल्पोऽपि मन्तुर्न मे
पत्युर्वञ्चनपाटवाद्व्रजपते ज्योत्स्नीनिशार्ध ययौ।
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अस्यैव प्रणयस्य॥९१॥९२॥ अहेरिवेति। उदञ्चति उद्गच्छति। अन्यच्च यथा। ‘नदीनां च वधूनां च भुजङ्गानां च सर्वदा। प्रेम्णामपि गतिर्वक्राकारणं तत्र नेष्यते॥” इति॥९३॥ श्रीकृष्णस्य यथेति। कारणभावभवो मानोऽस्य न संभवतीति तमुल्लङ्घ्य कारणाभासभवमाह—अव्यक्तेति। काचिद्व्रजसुन्दरी स्वसखीद्वारा श्रीकृष्णं संकेतस्थं कृत्वा प्रहरावसानायां रात्रौ तन्निकटमागत्य तं कृतमानमालक्ष्य स्वापराधाभावमावेदयति— न व्यक्तं स्मितं यत्र तथाभूतां दृष्टिमर्पयेति। यदि त्वं सत्यमेव मानं कृतवानसि तदा स्मितं मा कुरु दृष्टिं तु मय्यर्पय। सर्वथैव नहि पुरुषजातिः पुरःस्थितायां युवतौदृष्टिं विना तिष्ठतीति भावोऽयं तस्य हासप्रकाशार्थं ज्ञेयः। स्वस्य निरपराधत्वं विवृणोति— पत्युरित्यादि। व्रजपतिनन्दनेति संवोधनीये संभ्रमव्याकुलतया व्रजपते इति मुखान्निःसृतम्। ज्योत्स्नी ज्योत्स्नावती। ननु निशार्धात्परत्रापि किमिति नाया-
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*स्फटिकस्य लोहितत्ववदिति ज्ञेयम्। सर्पादीनां मण्डलादिभङ्गिविशेषवच्चन तु दुग्धस्य दधित्ववत् पुनः स्वरूपप्राप्त्यभावात्। द्वितीयमीर्ष्यासंयोगं विना जातम्। प्रपायच्छविविशेषाकारं मालायाः सर्पत्वप्रत्यायकाकारविशेषवत्त्वमिति ज्ञेयम्। एक एव निर्हेतुरेव॥९१॥९२॥ **तथा चोक्तमिति।*निर्हेतोरेव प्रामाण्याय लिखितम्। तत्राव्यक्तस्मितेत्यादिद्वयमहमित्यादिकं च करिणा-
शुभ्रालंकृतिभिर्द्रुतं पथि मया दूरं ततः प्रस्थिते
सान्द्रा चान्द्रमरुन्ध बिम्बमचिरादाकस्मिकी कालिका॥९४॥
** यथा वा—**
पुष्पेभ्यः स्पृहया विलम्बितवतीमालोक्य मामुन्मनाः
कंसारिः सखि लम्बिताननशशी तूष्णीं निकुञ्जे स्थितः।
आतङ्केन मया तदङ्घ्रिनखरे क्षिप्ते प्रसूनाञ्जलौ
तस्यालीकरुषा भ्रुवं विभुजतोऽप्याविर्बभूव स्मितम्॥९५॥
** कृष्णप्रियाया यथोद्धवसंदेशे—**
तिष्ठन्गोष्ठाङ्गनभुवि मुहुर्लोचनान्तं निधत्ते
जातोत्कण्ठस्तव सखि हरिर्देहलीवेदिकायाम्।
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तासीत्यत आह—शुभ्रेति। चान्द्रं विम्बं चन्द्रमण्डलं कालिका मेघसमूहोऽरुद्ध। “मेघजालेऽपि कालिका” इत्यनेकार्थवर्गपाठात्। आकस्मिकीति प्रथमतो विचारासामर्थ्यम्। सान्द्रेति। शुभ्रपरिच्छदयुक्तत्वेनागमनासामर्थ्यं च द्योतितम्। ततश्च तं परिच्छदं परित्यज्य सितवस्त्रादिकं धृत्वात्रागमने इयान् विलम्बो जात इति को ममापराध इति भावः॥९४॥ कारणाभासस्य विलम्वस्य दैवकृतत्वे स्वकृतित्वे च श्रीकृष्णस्य मानो भवेदिति दर्शयितुमाह— यथा वेति। श्रीराधिका माध्याह्निकलीलाविलासरसं स्वगृहमागत्य श्यामलायामुद्गिरति—पुष्पेभ्यः स्पृहयेति। प्रथमं श्रीकृष्णेन शृङ्गारिताहं तस्यापि पुष्पमण्डनार्थमेकाकिन्येव पुष्पोद्यानं प्राविशमिति भावः। ततश्च पुष्पाणि विचित्यानीय कुञ्जे तं कृतमानमालक्ष्य तदङ्घ्रिनखरे प्रसूनाञ्जलौ क्षिप्ते इत्यस्यायं भावः। तूष्णीं स्थितं निष्पन्दं तं दृष्ट्वा हन्त हन्त अत्र कुञ्जे कृष्णो नास्ति, इयं त्वेन्द्रनीली द्विभुजा श्रीनारायणप्रतिमैव तत् कृष्णप्रीत्यै पुष्पाञ्जलिमेतच्चरण एवार्पयामीति तथाकृते—तस्यालीकेत्यादि॥९५॥ नायिकायाः कारणाभावभवं मानमाह—तिष्ठन्निति।
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भासोदाहरणेषु ज्ञेयम्॥९३॥९४॥९५॥ तिष्ठन् गोष्ठाङ्गणेत्यादिकं कुञ्जे दृष्टमित्यादिद्वयं चाकरणाभासोदाहरणेषु ज्ञेयम्। तत्र कृष्णेति पूर्ववदुद्दीपनत्वेन
मिथ्यामानोन्नतिकवलिते किं गवाक्षार्पिताक्षी
स्वान्तं हन्त ग्लपयति बहिः प्रीणय प्राणनाथम्॥९६॥
** यथा वा—**
अहमिह विचिनोमि त्वद्गिरैष प्रसूनं
कथय कथमकाण्डे चण्डि वाचंयमासि।
विदितमुपधिनालं राधिके शाधि केन
प्रियसखि कुसुमेन श्रोत्रमुत्तंसयामि॥९७॥
** द्वयोरेव युगपद्यथा—**
कुञ्जेतूष्णीमसि नतशिराः किं चिरात्वं मुरारे
किं वा राधे त्वमसि विमुखी मौनमुद्रां तनोषि।
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बनाद्गोष्ठमायान्तं श्रीकृष्णं विलोक्य श्यामला श्रीराधामकारणमानिनीमाह। देहलीवेदिकायां चत्वराग्रपरिष्कृतभूमौ॥९६॥ कारणाभासभवमानमुदाहर्तुमाह—**यथा वेति।**स्वाधीनभर्तृकायाः श्रीराधाया निदेशेनैव पुष्पाण्यवचित्यागतःश्रीकृष्णो राधां मानवतीमालक्ष्याह—अहमिहेति। हे चण्डि हे अकारणकोपने, वाचंयमा मौनवती। क्षणं स्थित्वा इर्ष्याचिह्नमनाकलयन् सहर्षमाह—विदितं ज्ञातं मया स्वपुष्पाकारोऽयं ते मानो मद्वैयग्र्यदर्शनार्थ इति भावः। उपधिना कपटेनालम्। शाधि आज्ञापय॥९७॥ युगपत्समकालमेव कुञ्जे खेलतोरेव द्वयोःश्रीराधाकृष्णयोर्निर्हेतुमानमाधुरीमास्वादयन्ती वृन्दा प्राह— कुञ्ज इति। अत्र सुखसमये अकस्मान्मया माने कृते अद्य द्रक्ष्यामि किमियं प्रतिपद्यत इति विभाव्य श्रीकृष्णेन मानः कृतः। अयं चेन्मिथ्यामानं करोति तर्ह्यहमपि किं मानं कर्तुं न शक्नोमि मानस्त्वास्माकीनः स्वधर्म एव। अद्य द्रक्ष्यामि आवयोर्मध्ये मानभङ्गः प्रथमं कस्य स्यादिति विभाव्य श्रीराधयापि
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लिखितम्॥९६॥ उपधिना कपटेन॥९७॥ स्मितविमुषिते अपहतस्मिते इत्याहिताग्न्यादिगणेन मननेन निष्ठायाः परनिपातः समाधेयः। स्मितविरहिते
ज्ञातं ज्ञातं स्मितविमुषिते कापि वामस्ति योग्या
क्रीडावादे वलवति यया न द्वयोरेवभङ्गः॥९८॥
** यथा वा—**
कुञ्जद्वारि निविष्टयोस्तरणिजातीरे द्वयोरेव नौ
तत्रान्योन्यमपश्यतोः सखि मुधा निर्बन्धतः क्लान्तयोः।
हस्ते द्रागथ दाडिमीफलमभिन्यस्तेमया निस्तलं
राधामुद्भिदुरस्मितां परिहसन्फुल्लाङ्गमालिङ्गिषम्॥९९॥
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मानः कृत इत्यकारणमानप्रकारो ज्ञेयः। स्मितस्य विमुषिते चौर्ये वां युवयोः काप्यनिर्वचनीया योग्या अभ्यासोऽस्ति। ‘अभ्यासः खुरली योग्या’ इति त्रिकाण्डशेषः। यया योग्यया वलवति क्रीडावादेकेल्यन्तराये वस्तुनि द्वयोरेव युवयोर्मानभङ्गो नास्ति। तेन युवाभ्यां कुञ्जक्रीडायां सुखं नोपपद्यते किंतु क्रीडावाद एव स्वेच्छ्यैव कृतमानान्यथानुपपत्तेरितिवक्रोक्तिर्व्यङ्गया॥ ९८॥ यौगपद्ये कारणाभासभवस्य मानस्यासंभवात् पुनरपि कारणाभावभवमेव मानं सोपशमं दर्शयितुमाह—यथा वेति। श्रीकृष्णो रहस्यक्रीडारसं विशाखायामुद्गिरति— कुञ्जेति। मुधेति। प्रथमं मया मानत्यागो न कर्तव्य इति मुधा वृथा एव यो माननिर्बन्धस्तस्मात् अथानन्तरं निस्तलं वर्तुलं दाडिमीफलमभिलक्षीकृत्य मया हस्ते न्यस्ते सति उद्भिदुरं स्वयमेवोद्भिन्नं स्मितं यस्यास्ताम्। अतःपरं दाडिमीफलेनैव हस्ते धृतेन स्वं मनो विनोदयेति वस्तुद्योतकं तस्याः स्मितम्—परिहसन्निति। प्रिये, प्रथमंत्वया मानभङ्गचिह्नं स्मितं कृतमिति स्वनिर्वन्धो भग्न इति तव पराजयोऽभूत्। हे कृष्ण, प्रथमं दाडिमीफलहस्तन्यासरूपः स्वाभियोग एव मानभङ्गचिह्नमिति तवैव निर्बन्धो भग्न इति। त्वमेव पराभूतोऽभूरिति सापि परिहसन्ती ज्ञेया। अत्र कश्चित्कारणाभावोऽमरौ विवृतो यथा— “पश्यामो मम किं प्रपद्यत इति स्थैर्यं मयालम्वितं किं मामालपतीत्ययं खलु शठः कोपस्त्वयाप्याश्रितः। इत्यन्योन्यविलक्ष्यदृष्टिचतुरे तस्मिन्नवस्थान्तरे
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इति वा पाठः। ‘अभ्यासः खुरली योग्या’ इति त्रिकाण्डशेषः॥९८॥ निस्तलं
निर्हेतुकः स्वयं शाम्येत्स्वयंग्राहस्मितावधि50॥१००॥
** यथा—**
रोषस्तवाभूद्यदि राधिकेऽधिक-
स्तथास्तु गण्डः कथमुच्छ्वसित्यसौ।
स्वनर्मणेत्थं दुरपह्नवस्मितां
प्रियामचुम्बत्पशुपेन्द्रनन्दनः॥१०१॥
हेतुर्यस्तु समं याति यथायोग्यं प्रकल्पितैः।
सामभेदक्रियादाननत्युपेक्षारसान्तरैः॥१०२॥
मानोपशमनस्याङ्का वाष्पमोक्षसितादयः।
** तत्र सामः—**
प्रियवाक्यस्य रचनं यत्तु तत्साम गीयते॥१०३॥
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सव्याजं हसितं मया धृतिहरो वाष्पस्तु मुक्तस्तया॥” इति। एवमन्योऽपि— “अदत्त मे वर्त्मनि मन्मथोन्मदा स्वयंग्रहाश्लेषमसौ सखी तव। इत्युक्तवन्तं कुटिलीभवन्मुखी कृष्णं वतंसेन जघान मङ्गला॥” इति। केवलवाम्यरूपो यो मानो विप्रलम्भरसमध्ये स न गणितः॥९९॥ अथ सूचीकटाहन्यायेन प्रथमं निर्हेतुकमानस्योपशममाह। निर्हेतुको मानः स्वयमेव शाम्येत् न तत्र चिकीर्षेत्यर्थः। ननु तर्हि तस्यावधिस्तु जिज्ञासनीय एवेत्यत आह— स्वयंग्राहो नायकस्योपेत्यालिङ्गनचुम्वनादिर्नायिकायाश्च स्मितं स्मितोपलक्षिताश्रुपातादिकं चावधिः सीमा यस्य सः॥१००॥ श्रीकृष्णः श्रीराधामाह—**रोष इति।**उच्छ्वसिति अन्तस्थस्मितच्छविमत्त्वेन प्रफुल्लीभवति। प्रकल्पितैः प्रयुक्तैः अङ्का
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वर्तुलम्॥९९॥ स्वयमेव ग्राहो ग्रहणं यस्य तादृशं यत् स्मितं तदवधिः॥१००॥
** यथा—**
जातं सुन्दरि तथ्यमेव पृथुना राधेऽपराधेन मे
किं तु स्वारसिको ममात्र शरणं स्नेहस्त्वदीयो बली।
इत्याकर्ण्य गिरं हरेर्नतमुखी बाप्पाम्भसां धारया
सानङ्गोत्सवरङ्गमङ्गलघटौ पूर्णावकार्षीत्कुचौ॥१०४॥
** अथ भेदः—**
भेदो द्विधा स्वयं भङ्ग्यास्वमाहात्म्यप्रकाशनम्।
सख्यादिभिरुपालम्भप्रयोगश्चेति कीर्त्यते॥१०५॥
** तत्र भङ्ग्या स्वमाहात्म्यप्रकाशनं यथा विदग्धमाधवे—**
चञ्चन्मीनविलोचनासि कमठोत्कृष्टस्तनी संगता
क्रोडेन स्फुरता तवायमधरः प्रह्लादसंवर्धनः।
मध्योऽसौ बलिबन्धनो मुखरुचा रामास्त्वया निर्जिता
लब्धा श्रीघनताद्य मानिनि मनस्यङ्गीकृता कल्किता॥१०६॥
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श्चिह्नानि॥१०१॥१०२॥१०३॥ श्रीकृष्णः श्रीराधां मानिनीं प्रसादयति—जातमिति। मङ्गलघटौ पूर्णावित्यनेनाङ्गपूजाङ्गभूते घटस्थापने स्वसंमतिर्दत्ता॥१०४॥१०५॥ श्रीकृष्णो मानिनीं श्रीराधां वर्णयति— **चञ्चदिति।**स्फुरता दीप्तिमता क्रोडेन अङ्केन, पक्षे वराहेण प्रह्लादं वर्धयतीति श्रीनृसिंहः, पक्षे प्रकृष्टं ह्लादमानन्दम्। वलिं वध्नातीति वामनः पक्षे वलिभिस्त्रिवलीरेखाभिर्वन्धनं यस्य सः। रामाःसुन्दर्यः, पक्षे रामचन्द्रपरशुरामबलरामाः। श्रिया शोभया घनता निविडता लब्धा, पक्षे श्रीघनो बुद्धः कल्को मालिन्यं
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स्वमाहात्म्यं स्वपाण्डित्यादिनान्यत्र योजनशक्तिः। भङ्ग्यामामीदृशं युवानं का वा न भजतीति व्यञ्जनया तादृशस्वमाहात्म्यस्य प्रकाशनमित्यर्थ॥१०१॥१०२॥१०३॥१०४॥१०५॥ वलिं बध्नातीति कर्तरि ल्युट्, पक्षे वलिभिः सहजरेखाभिर्वध्यते आव्रियत इति श्रीघनतासौन्दर्येण निबिडता,
अथवेदं प्रियोक्तित्वात्सामोदाहरणं भवेत्।
नायकस्य स्ववचसा भङ्ग्यायं भेद ईर्यते॥१०७॥
** यथा—**
रक्षा यन्मयि वर्तसे त्वमभितः स्निग्धेऽपि ते दूषणं
तत्रास्ते नहि किंतु तत्किल ममानौचित्यजातं फलम्।
येन स्वास्तरुणीरुपेक्ष्य चरमामप्याश्रयन्तीर्दशां
प्रेमार्तं व्रजयौवनं च सुमुखि त्वं केवलं सेव्यसे॥१०८॥
** सख्यादिभिरुपालम्भप्रयोगो यथा—**
कर्तु सुन्दरि शङ्खचूडमथने नास्मिन्नुपेक्षोचिता
सर्वेषामभयप्रदानपदवीबद्धव्रते प्रेयसि।
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मानकृतकालुष्यं तद्वत्ता मनसि। ‘कल्कोऽस्त्री शमलैनसोः’ इति नानार्थवर्गः। अङ्गीकृता, पक्षे कल्किनामावतारत्वम्। तेन दशैव ममावतारास्त्वदधीना इति त्वन्महिमा केन वर्ण्यतामिति वाह्योध्वनिः। वास्तवस्त्वहं परमेश्वरो ब्रह्मादिभिर्बन्द्यस्तां गोपस्त्रियं प्रसादयामीत्यात्मनो भाग्यं मन्यसे नापि संकुचसीत्युपलम्भ एव॥१०६॥ **अथवेदमिति।**पद्येऽस्मिन् भेदस्यानभिधेयत्वाद्व्यङ्ग्यत्वे च व्यञ्जनाया बोद्धव्यवैशिष्ट्यादिहेतुकत्वेनानैकान्तिकत्वादिति भावः। अयं वक्ष्यमाणोऽभिधेय इत्यर्थः॥१०७॥ मानिनीं श्रीराधां श्रीकृष्णः प्राह— रक्षेति। स्वस्तरुणीर्देवीः कीदृशीःचरमां दशमीं दशामाश्रयन्तीः। ‘देव्यो विमानगतयः स्मरनुन्नसाराः’ इति त्वयैव वर्णनात्॥१०८॥ मानिनी भद्रां काश्चित् श्रीकृष्णपक्षीयास्तत्सख्य आहुः— कर्तुमिति। शङ्खचूडेति। यदि शङ्खचूडमसौ नावधिष्यत्तदास्माकं का गतिरभविष्यदिति
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पक्षे बुद्धता। कल्किता दम्भिता पक्षे तदवतारता॥१०६॥ अथवेत्यनेन पूर्वमुदाहरणमन्यथा प्रतिपाद्य नायकस्येत्यर्धेन प्रकारान्तरस्थापनायोपक्रान्तं तथैवोदाहरति—यथेति। ‘देव्यो विमानगतयः स्मरनुन्नसाराः, ’ इत्यादिना
इत्यालीभिरलक्षितं मुरभिदा भद्रावली भेदिता
नासाग्रे वरमौक्तिकश्रियमधादस्रस्य सा बिन्दुना॥१०९॥
** अथ दानम्—**
व्याजेन भूषणादीनां प्रदानं दानमुच्यते।
** यथा—**
कामो नाम सुहृन्ममास्ति भवतीमाकर्ण्य सत्प्रेयसीं
हारस्तेन तवार्पितोऽयमुरसि प्राप्नोतु सङ्गोत्सवम्।
इत्युन्नम्य करं मुरद्विषि वदत्युद्भिन्नसान्द्रस्मिता
पद्मा मानविनिग्रहात्प्रणयिना तेनोद्भटं चुम्बिता॥११०॥
** अथ नतिः—**
केवलं दैन्यमालम्ब्य पादपातो नतिर्मता॥१११॥
** यथा—**
क्षितिलुठितशिखण्डापीडमारान्मुकुन्दे
रचयति रतिकान्तस्तोमकान्ते प्रणामम्।
नयनजलधराभ्यां कुर्वती बाष्पवृष्टिं
वरतनुरिह मानग्रीष्मनाशं शशंस॥११२॥
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भावः। भद्रावलीति भद्राया एव संज्ञा॥१०९॥ श्रीकृष्णः पद्मामाह— काम इति। सत्यं सत्यं काम एव महामैन्द्रनीलहारं ददौ तुभ्यं च कानकमिति51 स्मिताभिप्रायः॥११०॥१११॥ वृन्दा कुन्दवल्लीमाह— आरात्
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भवतीभिरेव वर्णनाच्चरमां दशामाश्रयन्तीः॥१०७॥१०८॥१०९॥
** अथोपेक्षा—**
सामादौ तु परिक्षीणे स्यादुपेक्षावधीरणम्।
उपेक्षा कथ्यते कैश्चित्तूष्णींभावतया स्थितिः॥११३॥
** तद्द्वयं यथा—**
सूनुर्वल्लभ एष बल्लवपतेस्तत्रापि वीराग्रणी-
स्तत्रापि स्मरमण्डलीविचयिना रूपेण विभ्राजितः।
सांख्यः संप्रति रूक्षता पृथुरियं तेनात्र न श्रेयसे
दूरे पश्यत याति निष्ठुरमनाः का युक्तिरत्रोचिता॥११४॥
माने मुहुर्नतिभिरप्यतिदुर्निवारे
वाचंयमव्रतमहं तरसाग्रहीषम्।
बाष्पंततो विकिरती निजगाद पद्मा
पौष्पं रजः पतितमत्र दृशोर्ममेति॥११५॥
** अथ वा—**
प्रसादनविधिं52 मुक्त्वा वाक्यैरन्यार्थसूचकैः।
प्रसादनं मृगाक्षीणामुपेक्षेति स्मृता वुधैः॥११६॥
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समीपे॥११२॥ अवधीरणमवज्ञा॥११३॥ वृन्दाशिखाद्याः सखीराह— सूनुरिति। बल्लवपतेःसूनुरेप वल्लभप्रियः।इयं श्रीराधा यतो रूक्षता पृथुरभूत्तेनात्र श्रीकृष्णेन श्रेयसे न मङ्गलाय।स्वयमेव सौभाग्यतश्च्युता स्थास्यतीति भावः॥११४॥ श्रीकृष्णः सुवलमाह—मान इति॥११५॥११६॥ श्रीकृष्णचन्द्राव-
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॥११०॥१११॥११२॥११३॥ ‘सख्यः संप्रति रूक्षता पृथुरियं कार्या तथापि स्फुटं’ इति वा पाठः॥११४॥११५॥११६॥
** यथा—**
धम्मिल्ले नवमालती परिचिता सव्ये च शब्द53ग्रहे
मल्ली सुन्दरि दक्षिणे तु कतरत्पुष्पं तव भ्राजते।
आघ्रेयं परिचेतुमित्युपहिते व्याजेन नासापुटे
गण्डोद्यत्पुलका विहस्य हरिणा चन्द्रावली चुम्बिता॥११७॥
** अथ रसान्तरम्—**
आकस्मिकभयादीनां प्रस्तुतिः स्याद्रसान्तरम्।
यादृच्छिकं बुद्धिपूर्वमिति द्वेधा तदुच्यते॥११८॥
** तत्र यादृच्छिकम्—**
उपस्थितमकस्माद्यत्तद्यादृच्छिकमुच्यते।
** यथा—**
अपि गुरुभिरुपायैरद्य सामादिभिर्या
लवमपि न मृगाक्षी मानमुद्रामभाङ्क्षीत्।
हरिमिह परिरेभे सा स्वयंग्राहमग्रे
नवजलधरनादैर्भीषिता पश्य भद्रा॥११९॥
** यथा—**
उपायेषु व्यर्थोन्नतिषु बत सामादिषु सखे
सखीनां चातुर्ये गतवति च सद्यः शिथिलताम्।
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लीमाह— शब्दग्रहे कर्णे। उपहितमुपाधिः॥११७॥११८॥ भद्रायाः सख्यः परस्परमाहुः— अपीति। स्वयमेव ग्राहो भुजाभ्यां ग्रहणं यत्र तद्यथा स्यात्तथा परिरेमे॥११९॥ जलधरनादानां कामोद्दीपकत्वेन तैर्मानभङ्गःसमुचित इति
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॥११७॥११८॥११९॥१२०॥
विशाखायाः कोपज्वरहरणमन्त्रप्रतिनिधिं
सचीत्कारं रूक्षस्वनितमकरोदुक्षदनुजः॥१२०॥
** अथ बुद्धिपूर्वम्—**
बुद्धिपूर्वं तु कान्तेन प्रत्युत्पन्नधिया कृतम्॥१२१॥
** यथा—**
पाणौ पञ्चमुखेन दुष्टकृमिणा दष्टोऽस्मि रोषादिति
व्याजात्कूणितलोचनं व्रजपतौ व्याभुज्य वक्रं स्थिते।
सद्यः प्रोज्झितरोषवृत्तिरसकृत् किं वृत्तमित्याकुला
जल्पन्ती स्मितबन्धुरास्यममुना गान्धर्विका चुम्बिता॥१२२॥
** यथा वा—**
न्यस्तं दाम कृतागसाद्य हरिणा दृष्ट्वा पुरो राधया
क्षिप्तेनाभिहतः स तेन कपटी दुःखीव भुग्नाननः।
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रसान्तरस्योदाहरणमाह—यथावेति। श्रीकृष्णः सुबलमाह—**उपायेष्विति।**मन्त्रप्रतिनिधिं मन्त्रतुल्यम्। उक्षदनुजः अरिष्टासुरः। ‘उक्षा भद्रो बलीवर्दः’ इत्यमरः॥१२०॥ प्रत्युत्पन्नधिया सप्रतिभवुद्धिना॥१२१॥ वृन्दा पौर्णमासीमाह— मानिन्याः श्रीराधायाः पुरतो मुहूर्तंतूष्णीं स्थित्वा अभिनीतत्रासव्यथा स्वरभङ्गमकस्मात् पाणौमे इत्याद्युच्चचार।कूणिते संकुचिते लोचने यत्र तद्यथा स्यात्तथा वक्रं व्याभुज्य कुटलीकृत्य सद्यस्तत्क्षणादेव प्रोज्झिता त्यक्ता रोषवृत्तिर्यया सा। किं वृत्तं किंवृत्तमिति मूर्च्छितं श्रीकृष्णं भुजाभ्यामुत्थाप्य मुखे मुखं दत्त्वा जल्पन्तीति जल्पनसमय एव स्मितबन्धुरास्यं यथा स्यात्तथा चुम्विता॥१२२॥ सामदानादेरिव रसान्तरस्य वारान्तरेणैकजातीयत्वं संभवेदिति पुनः पुनर्माने अन्यदन्यद्रसान्तरं स्यादिति दर्शयितुमाह—यथा वेति। नान्दी पौर्णमासीमाह—न्यस्तमिति। स हरिस्तेन दाम्ना दुःखीव तदाघातेन प्राप्तम-
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॥१२१॥ ब्रजपतिरित्यत्र व्रजविधाविति वा पाठः॥१२२॥ निषेदिवान्
३५ उज्ज्व०
मीलन्नेव निषेदिवान् भुवि ततः सद्यस्तया व्यग्रया
पाणिभ्यां घृतकंधरः स्मितमुखो बिम्बोष्ठमस्याः पपौ॥१२३॥
देशकालवलेनैव मुरलीश्रवणेन च।
विनाप्युपायं मानोऽसौ54 लीयते वसुभ्रुवाम्॥१२४॥
** तत्र देशवलेन यथा—**
अलंकीर्ण चन्द्रावलिरलिघटाझङ्कृतिभरैः
पुरो वृन्दारण्यं किमपि कलयन्ती कुसुमितम्।
हरिं च स्मेराक्षं55 प्रियकतरुमूले प्रियमितः
स्खलन्माना सख्यामदिशत सतृष्णं दृशमसौ॥१२५॥
** कालवलेन यथा—**
शरदि मधुरमूर्तिः पश्य कान्तिच्छटाभिः
स्नपयति रविकन्यातीरवन्यां सुधांशुः।
इति निशि निशमय्य व्याहृतिं दूतिकायाः
स्मितरुचिभिरतानीत्तत्र राधा प्रसादम्॥१२६॥
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हाव्यथ इव॥१२३॥चन्द्रावल्या मानवृत्तान्तं पृच्छन्तीं भद्रां वृन्दाह— अलमतिशयेन कीर्णं व्याप्तं कलयन्ती पश्यन्ती प्रियकः कदम्वः सख्यां दृशं सतृष्णं यथा स्यात्तथा अदिशत दत्तवतीति हे सखि, मानो मे वृन्दारण्येनानेन ध्वसितस्तदहं किं करोमि यदुचितं तत्त्वमेव कुर्विति व्यञ्जयामास मानोपशमनस्याङ्काः स्वयंग्राहस्मितादय इत्यादिपदगृहीताः सखीदृक्प्रेरणादयोऽपि ज्ञेयाः॥१२४॥॥१२५॥ श्रीवृन्दा श्रीकृष्णमाह—शरदीति॥१२६॥ मानिनीं श्रीराधां
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निविष्टः॥१२३॥१२४॥ कलयन्ती पश्यन्ती इतस्ततो वृन्दावने हरिं च पश्यन्ती॥१२५॥ श्रेयसाप्युपायेन महिष्टो मानो दुःसाध्यः कृच्छ्र—
** मुरलीशब्देन यथा—**
यदि रोषंन हि मुञ्चसि न मुञ्च देवि नात्र निर्बन्धः।
फूत्कृतिविधूतमानः स भवति विजयी हरेर्वेणुः॥१२७॥
** यथा वा—**
मानस्योपाध्यायि प्रसीद सखि रुन्धि मे श्रुतिद्वन्द्वम्।
अयमुच्चाटनमन्त्रं सिद्धो वेणुर्वने पठति॥१२८॥
तारतम्यं तु मानस्य हेतोः स्यात्तारतम्यतः।
स्याल्लघुर्मध्यमश्चासौ महिष्ठश्चेत्यतस्त्रिधा॥१२९॥
सुसाध्यः स्याल्लघुर्मानो यत्नसाध्यस्तु मध्यमः।
दुःसाध्यः स्यादुपायेन महिष्ठः श्रेयसाप्ययम्॥१३०॥
कृष्णे रोषोक्तयस्तासां वामो दुर्लीलशेखरः।
कितवेन्द्रो महाधूर्तः कठोरो निरपत्रपः॥१३१॥
अतिदुर्ललितो गोपीभुजङ्गो रतहिण्डकः।
गोपिकाधर्मविध्वंसी गोपसाध्वीविडम्बकः॥१३२॥
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काचित्सखी प्राह—यदीति। देवीति मानुष्यो हि सुप्रसादा भवन्ति न तु देव्य इति भावः। न निर्वन्ध इति अहमेवाद्य श्रीराधां प्रसाद्यानेष्यामि पश्य मे बुद्धिवलमिति श्रीकृष्णाग्रे मया निर्वन्धः कृत आसीत् स न भवतु किंतु मामवजानत्यास्तव पराभवोपायमहमेव करिष्यामीत्याह—फूत्कृतीति। हे श्रीकृष्ण, तदिदानीममोघास्त्रं मुरलीमेव संदेहीति तमुपदिशामीति भावः॥१२७॥ पूर्वपद्ये मुरलीनादस्य मानोपशमकत्वमुक्तं नतु फलतो दर्शितमिति अपरितुष्यन्नाह— यथा वेति। श्रीराधा ललितां सामर्षमाह— मानस्येति॥ १२८॥ हेतोस्रीर्ष्यायाः॥१२९॥ भुजङ्गः कामुकः। रतहिण्डकः स्त्रीचौरः॥१३०॥
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साध्यः स्यात्॥१२६॥१२७॥१२८॥१२९॥१३०॥१३१॥१३२॥
कामुकैशस्तमिस्रौघः श्यामात्माम्बरतस्करः।
गोवर्धनतटारण्यवाटपाटच्चरादयः॥१३३॥
**
इति मानः।**
**
अथ प्रेमवैचित्त्यम्।**
प्रियस्य संनिकर्षेऽपि प्रेमोत्कर्षस्वभावतः।
या विश्लेषधियार्तिस्तत्प्रेमवैचित्त्यमुच्यते॥१३४॥
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॥१३१॥१३२॥ अरण्यवाटो वनमार्गस्तस्य पाटच्चरश्चौरः। “चौरैकागारिकस्तेनदस्युतस्करमोषकाः। प्रतिरोधिपरास्कन्दिपाटच्चरमलिम्लुचाः” इत्यमरः॥ १३३॥
इति मानविवृतिः॥
प्रेमोत्कर्षोऽनुरागः स्थायी सच तृष्णातिप्राबल्यमूलक एव मुहुरनुभूतस्यापि वस्तुनोऽननुभूतत्वभानसमर्पको भवेत्। यथा कश्चिदतिबुभुक्षुस्वभावो विप्रो भोजयित्वोच्यते ब्रह्मन्, सुष्ठु भुक्तं भवतेति। ततस्तेन प्रत्युच्यते न किंचिदपि भुक्तमिति तथैव कोऽयं कृष्ण इति व्युदस्यति धृतिमित्यादिना स उदाहृतस्तस्यैव कोऽपि वृत्तिविशेषः प्रेमवैचित्यं नाम तृष्णायाः परावधिकाष्ठां व्यनक्ति। यत्र सति श्रीकृष्णं साक्षात् शश्वदनुभवतोऽपि जनस्य बुद्धिवृत्तेरपि तथा लोपः स्याद्यथा श्रीकृष्णं नानुभवानीत्येव प्रत्ययः स्यात् यथा संनिपातवतो जनस्य प्रतिक्षणं जलं पिवतोऽपि हाहा मां जलं पाययेत्युक्तिः। अत्रेयं युक्तिः। अनुरागे क्वचिद्वुद्धिवृत्तेस्तथा सूक्ष्मत्वं स्यात् यथा सा श्रीकृष्णं तदीयगुणगणमाधुर्यं च युगपन्नविषयीकरोति। यतः श्रीकृष्णानुभवे तदीयगुणाद्यननुभवः तदीयगुणानुभवे तदननुभवः। यथा काचिदतिसूक्ष्मा सूची वस्त्रस्यूतावतिसूक्ष्ममप्येकं सूत्रमेव
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‘मार्गो वाटः पथः पन्थाः’ इति धरणिः।पाटच्चरश्चौरः॥१३३॥
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इति मानविवृतिः॥* -
**अथ प्रेमवैचित्यमिति।*प्रेम्णो यद्वैचित्यं चित्तस्यान्यथाभावस्तन्मयत्वात्तदेवोच्यत इत्यर्थः। प्रियस्य संनिकर्षेऽपीति। अत्र युक्तिश्च श्रीगोपा-
** यथा—**
आभीरेन्द्रसुते स्फुरत्यपि पुरस्तीव्रानुरागोत्थया
विश्लेषज्वरसंपदा विवशधीरत्यन्तमुद्धूर्णिता।
कान्तं मे सखि दर्शयेति दशनैरुद्गूर्णशस्याङ्कुरा
राधा हन्त तथा व्यचेष्टत यतः कृष्णोऽप्यभूद्विस्मितः॥१३५॥
** यथा वा विदग्धमाधवे—**
समजनि दवाद्वित्रस्तानां किमार्तरवो गिरां
मयि किमभवद्वैगुण्यं वा निरङ्कुशमीक्षितम्।
व्यरचि निभृतं किं वा हूतिः कयाचिदभीष्टया
यदिह सहसा मामत्याक्षीद्वने वनजेक्षणः॥१३६॥
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विध्यति नतु सूत्रद्वयसंधिमिति। तथैव संभोगाख्ये रसे कान्तोऽयं मां संभुङ्क्ते यस्य सुरतलाम्पट्यवाक्चातुर्यगीतवाद्यनृत्यादयो गुणा अपारा इति गुणेषु प्रविष्टायां बुद्धिवृत्तौ क्षणान्तरे च यस्य गुणा ईदृशाः स क्व इति गुणानपि त्यक्त्वा तन्मार्गणे प्रविष्टा विरहमेवानुभावयन्ती पुरःस्थितमपि तं न विषयीकरोतीति ज्ञेया॥१३४॥ वृन्दा पौर्णमासीमाह— पुराऽग्रे स्फुरति विराजत्यपि उद्गूर्णशस्याङ्कुरा उद्यत्तृणाङ्कुरा।‘गुरी उद्यमे॥१३५॥ निर्हेतुकं मुख्यं प्रेमवैचित्त्यं दर्शयित्वा कारणाभासभवं गौणमपि तदुदाहर्तुमाह—यथा वेति। भ्रमरविद्रावणव्याकुला श्रीराधा मधुसूदनो गत इति मधुमङ्गलोक्त्या उद्भूतप्रेमवैचित्त्या पुरःसन्तमपि श्रीकृष्णमपश्यन्ती साशङ्कं सविषादं विलपति— समजनीति। हूतिराह्वानं कयाचित् मत्प्रतिनायिकया विहंगमद्वारकेण संकेतेनेत्यर्थः॥१३६॥
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लचम्प्वाम्—“सान्द्रालिङ्गनलङ्घि मेऽङ्गवलयासङ्गेऽपि शार्ङ्गीतदा गोपीनां स्फुरति स्म दूरगतया प्रेमोपगाद्दूरतः। यस्मादुत्कलिकाकलापकलनावृत्तिं बहिर्लुम्पती स्वप्नाभां दिशती सतीमपि दृशि स्कूर्तिं मुहुर्लुम्पति॥” इति॥१३४॥ पुरःस्फुरति विराजत्यपि। उद्गूर्णत्वं उन्नतत्वम्॥१३५॥ समजनीति। अत्र
विलासमनुरागस्तु कुत्रचित्कमपि व्रजन्।
पार्श्वे सन्तमपि प्रेष्ठं हारितं कुरुते स्फुटम्॥१३७॥
सुष्ठूदाहरता पट्टमहिषीगीतविभ्रमम्।
स्पष्टं मुक्ताफले56 चैतद्बोपदेवेन वर्णितम्॥१३८॥
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इति प्रेमवैचित्त्यम्।**
**
अथ प्रवासः।**
पूर्वसंगतयोर्यूनोर्मवेद्देशान्तरादिभिः।
व्यवधानं तु यत्प्राज्ञैः स प्रवास इतीर्यते॥१३९॥
तज्जन्यविप्रलम्भोऽयं प्रवासत्वेन कथ्यते।
हर्षगर्वमदव्रीडा वर्जयित्वा समीरिताः॥१४०॥
शृङ्गारयोग्याः सर्वेऽपि प्रवासे व्यभिचारिणः।
स द्विधा बुद्धिपूर्वः स्यात्तथैवावुद्धिपूर्वकः॥१४१॥
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॥१३७॥ पट्टमहिषीगीतं ‘कुररि विलपसि त्वम्’ इत्यादि मुक्ताफले स्वकृते ग्रन्थे॥१३८॥
इति प्रेमवैचित्त्यविवृतिः॥
देशान्तरादिभिरित्यादिशब्देन ग्रामान्तरवनान्तरावस्थानान्तराणि गृह्यन्ते॥१३९॥ स्वभक्तानां स्वैकपाल्यानां गवां वृन्दावनस्थपशुपक्षिवृक्षादीना च स्वदर्शनेन प्रीणनादिकम्। आदिशब्दात् पालनप्रेमदानमनोरथान्तरपूर्त्यादि
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प्रेमवैचित्त्यंतत्रत्यप्रकरणाल्लभ्यते॥१३६॥ विलासमिति व्याख्यातमेव॥१३७॥१३८॥
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इति प्रेमवैचित्त्यविवृतिः॥*
** तत्र बुद्धिपूर्वः—**
दूरे कार्यानुरोधेन गमः स्याद्बुद्धिपूर्वकः।
कार्यं कृष्णस्य कथितं स्वभक्तप्रीणनादिकम्॥१४२॥
किंचिद्दूरे सुदूरे च गमनादप्ययं द्विधा।
** तत्राद्यः—**
दृष्टिं निधाय सुरमीनिकुरम्बवीथ्यां
कृष्णेतिवर्णयुगलाभ्यसने रसज्ञाम्।
शुश्रूषणे मुरलिनिस्वनितस्य कर्णौ
चित्तं सुखेतव नयत्यहरद्य राधा॥१४३॥
** अथ द्वितीयः—**
भावी भवंश्च भूतश्चत्रिविधः स तु कीर्त्यते॥१४४॥
** तत्र भावी यथोद्धवसंदेशे—**
एष क्षत्ता व्रजनरपतेराज्ञयागोकुलेऽस्मिन्
बाले प्रातर्नगरगतये घोषणामातनोति।
दुष्टं भूयः स्फुरति च बलादीक्षणं दक्षिणं मे
तेन स्वान्तं स्फुटति चटुलं हन्त भाव्यं न जाने॥१४५॥
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॥१४०॥१४१॥ किंचिद्दूरे ब्रजाद्वृन्दावनीयप्रदेशे सुदूरे ब्रजान्मथुराद्वारकादौ॥१४२॥ गाश्चारयन्तं श्रीकृष्णं काचिद्दूती श्रीराधावृत्तं निवेदयति— दृष्टिं निघायेति। सुरमीति। तदागमनवर्त्मनीत्यर्थः॥१४३॥काचिद्व्रजदेवी स्वसखीं समयशोकखेदमाह—क्षत्ता पुरद्वारपालः। नगरगतये मथुरां गन्तुम्। दुष्टं दोषसूचकं यथा स्यात्तथा स्फुरति ‘क्षत्ता स्यात्सारथौ द्वाःस्थे’ इत्यमरः॥
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॥१३९॥१४०॥१४१॥१४२॥ मुरलीशब्दो ह्रस्वान्तश्चास्ति॥१४३॥
** भवन् यथा ललितमाधवे—**
भानोर्बिम्बे त्वरितमुदयप्रस्थतः प्रस्थितेऽसौ
यात्रानन्दीं पठति मुदितः स्यन्दने गान्दिनेयः।
तावत्तूर्णं स्फुटखुरपुटैः क्षोणिपृष्ठं स्वनन्तो
यावन्नामी हृदय भक्तो घोटकाः स्फोटकाः स्युः॥१४६॥
** भूतो यथोद्धवसंदेशे—**
कामं दूरे सहचार वरीवर्ति यत्कंसवैरी
नेदं लोकोत्तरमपि विपद्दुर्दिनं मां दुनोति।
आशाकीलो हृदि किल धृतः प्राणरोधी तु यो मे
सोऽयं पीडां निविडवडवावह्नितीव्रस्तनोति॥१४७॥
अत्र श्रीयदुसिंहेन57 प्रेयसीभिरमुष्य च।
प्रेषणं क्रियते प्रेम्णा संदेशस्य परस्परम्॥१४८॥
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॥१४४॥१४५॥ श्यामा विलपति—भानोरिति। उदयप्रस्थतः उदयपर्वतस्य सानुतः यात्रानान्दीं यात्रिकमङ्गलपाठम्। स्यन्दने रथे। गान्दिनेयोऽक्रूरः। हे हृदय, तावत्त्वं स्फुट विदीर्णो भव। नन्वहं परमधीरं भवामीति चेन्मैवं वाच्यम्।त्वं किं क्षोणितः सकाशादपि धैर्यं दधासि यतोऽमी स्यन्दनस्य घोटकाः क्षोणीमपि खनन्तीत्याह— खुरपुटैरित्यादि। तेन घोटकखुरघातजन्यान्मृत्योः स्वयं मरणं भद्रमिति भावः।वास्तवस्तु प्राणप्रियं व्रजे विराजन्तमेव दृष्ट्वा म्रियस्व न तु व्रजाद्गच्छन्तमिति भावः॥१४६॥ श्रीराधा विशाखामाह—**काममिति।**विपदेव दुर्दिनम्। ‘मेघच्छनेऽह्निदुर्दिनम्’ इत्यमरः। मां हंसीमिति भावः॥ १४७॥मथुरास्थः श्रीकृष्णःउद्धवद्वारा शैब्यायां संदि-
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१४४॥१४५॥प्रस्थः सानुः। यात्रानान्दीं तत्रत्यमङ्गलपाठम्। हे
** यथोद्धवसंदेशे—**
सोढव्यं ते कथमपि बलाच्चक्षुषी मीलयित्वा58
तीव्रोत्तापं हतमनसिजोद्दामविक्रान्तिचक्रम्।
द्वित्रैरेव प्रियसखि दिनैः सेव्यतां देवि शैव्ये
यास्यामि त्वत्प्रणयचटुलभ्रूयुगाडम्बराणाम्॥१४९॥
** तथा पद्यावल्याम्—**
कालिन्द्यापुलिनं प्रदोषमरुतो रम्याः शशाङ्कांशवः
संतापं न हरन्तु नाम नितरां कुर्वन्ति कस्मात्पुनः।
संदिष्टं व्रजयोषितामिति हरेः संशृण्वतोऽन्तःपुरे
निःश्वासाः प्रसृता जयन्ति रमणीसौभाग्यगर्वच्छिदः॥१५०॥
** अथाबुद्धिपूर्वः—**
पारतन्त्र्योद्भवो यस्तु प्रोक्तः सोऽबुद्धिपूर्वकः।
दिव्यादिव्यादिजनितं पारतन्त्र्यमनेकधा॥१५१॥
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____________**
शति—सोढव्यमिति। आडम्बराः पराक्रमाः तेषां सेव्यतां विषयीभूतत्वम्। कर्तरि षष्ठी। अत्र सेव्यतामिति पदेन तदाडम्बरैर्मदेकपूजकैरपूजितो देवप्रतिमाकारोऽहं मथुरायां दुःखमेवानुभवामीति व्यञ्जितम्॥१४८॥१४९॥ द्वारकास्थिता पौर्णमासी व्रजदेवीसदेशास्वादिनः श्रीकृष्णस्यानुभावं वर्णयति— कालिन्द्या इति। इति संदिष्टं कयापि पान्थयापठितमित्यर्थः। रमणीनां रुक्मिण्यादीनाम्। ध्वनिरत्र स्पष्ट एव॥१५०॥ मुखराया वञ्चनार्थं श्रीकृष्णे कुञ्जेनिलीय स्थिते दैवात्तदैवागते शङ्खचूडे ससिंहासनामेव श्रीराधां नीत्वापसृतवति हा कृष्ण, कुतोऽसीति ललिताद्यार्तरावश्रवणेन सपद्येव कुञ्जान्निष्क्रम्य
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हृदय, तावत्तूर्णं स्फुटेत्यन्वयः॥१४६॥१४७॥१४८॥१४९॥ कालिन्द्या इत्यादिकं प्रायो गोकुलदेवीभिः प्रहितेन कीरेणानुदितं जयन्तीति सिद्धाभि-
** यथा ललितमाधवे—**
आनीतासि मया मनोरथशतव्यग्रेण निर्बन्धतः
पूर्ण शारदपूर्णिमापरिमलैर्वृन्दाटवीमण्डलम्।
सद्यः सुन्दरि शङ्खचूडकपटप्राप्तोदयेनाधुना
दैवेनाद्य विरोधिना कथमितस्त्वं हन्त दूरीकृता॥१५२॥
चिन्तात्र जागरोद्वेगौ तानवं मलिनाङ्गता।
प्रलापो व्याधिरुन्मादो मोहमृत्युर्दशा दश॥१५३॥
** तत्र चिन्ता यथा हंसदूते—**
यदा यातो गोपीहृदयमदनो नन्दसदना-
न्मुकुन्दो गान्दिन्यास्तनयमनुरुन्धन्मधुपुरीम्।
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श्रीकृष्णो विलपति—आनीतासीति। शङ्खचूडकपटेन व्याजेन प्राप्त उदयो यस्य तेन दैवेन मद्दुरदृष्टेन॥१५१॥१५२॥ अत्र प्रवासाख्यविप्रलम्भे॥१५३॥ कोऽपि रसिक आह—यदेति। नन्दसदनान्मधुपुरीं यातः। गान्दिन्यास्तनयमक्रूरमनुरुन्धन्। अक्रूरानुरोधेनेत्यर्थः। तदा चिन्तैव सरित् तस्यां किं संतापज्वालाज्वलितानपि प्राणान् आशापाशैर्वद्ध्वारक्षामि किं वा तैर्मुक्तांस्त्यजामि तत्रापि किं वह्निं प्रविशामि यमुनां वा, ततश्च स पुनर्व्रजमागत्य मामनालोच्य किं प्रतिपत्स्यते मच्छोकेन प्राणान् हास्यति कयापि युक्त्या रक्षिष्यति वा हा हा स महाप्रेमी कथं रक्षितुं प्रभविष्यति। एवंचेत् परिणामदर्शिन्यहमपि हा हा कथं मर्तुं संप्रति प्रभविष्यामि तस्मान्न मरिष्यामि तदीयसुन्दरमुखारविन्दं
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लाषाभवत्वित्यर्थः। जयतेस्त्वत्न्वोस्त्यन्ति (?) प्रयोगस्यैव कविभिः समतत्वात्॥१५०॥१५१॥ आनीतासीत्यत्र शारदशब्दो नववाच्येव। ‘द्वौ तु शारदौ प्रत्यग्राप्रतिभौ’ इति नानार्थवर्गात् शिवरात्रिगताम्बिकायात्रानन्तरोक्तेर्होरिकापूर्णिमायाः प्राप्तत्वात्। होरिकाया अन्यत्र वलदेवसंगतेर्विरसत्वाच्च। नवत्वंच पूर्णिमाया वसन्तादिभागत्वेन नवायमानत्वात्॥१५२॥ १५३॥
तदामाङ्क्षीच्चिन्तासरिति घनघूर्णापरिचयै-
रगाधायां बाधामयपयसि राधा विरहिणी॥१५४॥
** अथ जागरो यथा पद्यावल्याम्—**
याः पश्यन्ति प्रियं स्वप्ने धन्यास्ताः सखि योषितः।
अस्माकं तु गते कृष्णे गता निद्रापि वैरिणी॥१५५॥
** अथोद्वेगो यथा हंसदूते—**
मनो मे हा कष्टं ज्वलति किमहं हन्त करवै
न पारं नावारं सुमुखि कलयाम्यस्य जलधेः।
इयं वन्दे मूर्ध्ना सपदि तमुपायं कथय मे
परामृश्ये यस्माद्धृतिकणिकयापि क्षणिकया॥१५६॥
** अथ तानवं यथा—**
उदञ्चद्वक्राम्भोरुहविकृतिरन्तःकलुषिता
सदाहाराभावग्लपितकुचकोका यदुपते।
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द्रक्ष्यामि, यदि संतापानलो मां न धक्ष्यति तदा जीवितुं प्रभविष्यामि इत्यादिलक्षणायाममाङ्क्षीत् मग्नाबभूव। घना निबिडा या घूर्णा आवर्ताः पक्षे महाभावभेदमोहनोत्था उद्धूर्णाः। वाधामयानि पीडारूपाणि पयांसि यस्यां तस्याम्॥१५४॥ श्रीराधा विशाखामाह—या इति॥१५५॥ श्रीराधा ललितामाह— मन इति। अस्य महासंतापात्मकस्य धृतिकणिकया कर्त्र्यापरामृश्ये स्पृष्टा भवामीत्यर्थः॥१५६॥ उद्धवः पृष्टश्रीराधाविशाखावृत्तान्तः श्लोकद्वयं श्रीकृष्णमाह—उदञ्चदिति। विकृतिर्लानता वैवर्ण्य च। अन्तःकलुषिता पङ्किला, पक्षे विषाददैन्यादिभिर्दुःखिता। आहारो मृणालादिभोजनं तदभावात्,
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॥१५४॥१५५॥ परामृश्येस्पृष्टा भवामि॥१५६॥१५७॥
विशुष्यन्ती राधा तव विरहतापादनुदिनं
निदाघे कुल्येव क्रशिमपरिपाकं प्रथयति॥१५७॥
** अथ मलिनाङ्गता—**
हिमविसरविशीर्णाम्भोजतुल्याननश्रीः
खरमरुदपरज्यद्बन्धुजीवोपमौष्ठी।
अघहर शरदर्कोत्तापितेन्दीवराक्षी
तव विरहविपत्तिम्लापितासीद्विशाखा॥१५८॥
** अथ प्रलापो यथा ललितमाधवे—**
क्व नन्दकुलचन्द्रमाः क्व शिखिचन्द्रकालंकृतिः
क्वमन्द्रमुरलीरवः क्व नु सुरेन्द्रनीलद्युतिः।
क्वरासरसताण्डवी क्वसखि जीवरक्षौषधि-
र्निधिर्मम सुहृत्तमः क्व तव हन्त हा धिग्विधिः॥१५९॥
** अथ व्याधिर्यथा तत्रैव—**
उत्तापी पुटपाकतोऽपि गरलग्रामादपि क्षोभणो
दम्भोलेरपि दुःसहः कटुरलं हृन्ममग्नशल्यादपि।
तीव्रःप्रौढविसूचिकानिचयतोऽप्युच्चैर्ममायं बली
मर्माण्यद्य भिनत्ति गोकुलपतेर्विश्लेषजन्मा ज्वरः॥१६०॥
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पक्षे हारो मुक्तामयः।कुल्या क्षुद्रनदी॥१५७॥ विसरः समूहः॥१५८॥ प्रोषितभर्तृका श्रीराधा विलपति—क्वेति। तव सुहृत्तम मम जीवरक्षणौषधिर्निरूपः॥१५९॥ विरहिणी श्रीराधा ललितामाह—पुटेमुद्रितमुखे मृन्मयसंपुटे स्वर्णादीनां यः पाकस्तस्मादप्युत्तापयति। दम्भोलेर्वज्रात्। विसूचिका रोगविशेषः
** अथोन्मादः—**
भ्रमति भवनगर्भे निर्निमित्तं हसन्ती
प्रथयति तव वार्ता चेतनाचेतनेषु।
लुठति च भुवि राधा कम्पिताङ्गी मुरारे
विषमविरहखेदोद्गारिविभ्रान्तचित्ता॥१६१॥
** यथा वा—**
अद्याकाण्डिकमट्टहासपटलं निर्माति धर्माम्बुभाक्
चीत्कारं कुरुते चमत्कृतिपरा सोत्कण्ठमाकस्मिकम्।
आक्रन्दं च तनोति59 घर्घरघनोद्घोषं किलातर्कितं
राधामाधवविप्रयोगरभसादन्येव तीव्रादभूत्॥१६२॥
** अथ मोहः—**
निरुन्धेदैन्याब्धिंहरति गुरुचिन्तापरिभवं
विलुम्पत्युन्मादं स्थगयति बलाद्बाष्पलहरीम्।
इदानीं कंसारे कुवलयदृशः केवलमिदं
विधत्ते साचिव्यं तव विरहमूर्च्छा सहचरी॥१६३॥
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॥१६०॥ उद्धवः श्रीकृष्णमाह—भ्रमतीति। द्वयमुन्मादस्य प्रौढत्वप्रौढतमत्वव्यञ्जकम्॥ १६१॥ अकाण्डे भवमाकाण्डिकम्॥१६२॥ मथुरास्थं श्रीकृष्णं प्रति ललिता पत्रीं लिखति— निरुन्धे लुम्पति। कुवलयदृशः श्रीराधाया इदानीमिदं साचिव्यं विधत्त इति। तेनास्याः कृते त्वया चिन्ता न कार्या तत्र सुखेन स्थेयमद्यश्वोवा स्त्रीवधमहानिधिस्तव हस्तगतो भविष्यतीति द्योतितम्॥१६३॥
** अथ मृत्युर्यथा हंसदूते—**
अये रासक्रीडारसिक मम सख्यां नवनवा
पुरा बद्धा येन प्रणयलहरी हन्त गहना।
स चेन्मुक्तापेक्षस्त्वमसि धिगिमां तूलशकलं
यदेतस्या नासानिहितमिदमद्यापि चलति॥१६४॥
प्रवासविप्रलम्भेऽस्मिन् दशास्तास्ता हरेरपि।
अत्रोपलक्षणायैकमुदाहरणमीर्यते॥१६५॥
** यथा—**
क्रीडारत्नगृहे विडम्बितपयः फेनावलीमार्दवे
तल्पे नेच्छति कल्पशाखिचमरीरम्येऽपि राज्ञां सुताः।
किंतु द्वारवतीपतिर्ब्रजगिरिद्रोणीविलान्तःशिला-
पर्यङ्कोपरि राधिकारतिकलां ध्यायन्मुहुः क्लाम्यति॥१६६॥
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ललिता मथुरास्थं श्रीकृष्णं हंसद्वारा उपालभते—अये इति। रासेति रासक्रीडाया रसं त्वमेव वेत्सि यतो राधेयं त्वया दुरवस्थापात्रीकृतेति व्याजस्तुतिर्ध्वनिता। यतो रासक्रीडाया मूलकारणं श्रीराधैवेति हेत्वलंकारश्चानुध्वनितः। येन त्वया स त्वं मुक्तापेक्षः। इमां त्वं नापेक्षसे चेत्तदा इमां धिक् यदियं तु त्वामपेक्षत एवेति भावः। ननु किमस्या मदपेक्षालक्षणं तत्राह तूलशकलं तूलखण्डं नासायां निहितमधुनास्याः प्राणाः सन्ति न वा सन्तीति संदेहे इत्यर्थः। अद्यापि चलतीति कथमनया अधुनापि प्राणाः कष्टेन रक्ष्यन्त इति भावः॥१६४॥ ललिताप्रेषिताया उपालम्भपत्र्याः प्रत्युत्तरपत्रीं श्रीकृष्णाज्ञया उद्धवो लिखति— क्रीडारत्नेति। क्लाम्यति मूर्च्छति॥१६५॥१६६॥प्रेमभेदानां
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॥१५८॥१५९॥१६०॥१६१॥१६२॥१६३॥१६४॥१६५॥ क्रीडारत्नगृह इति श्रीराधिकासखीनामुपालम्भपत्रिकाणां प्रत्युत्तररूपं श्रीमदुद्धवस्य पत्रमतः क्रीडारत्नंइत्यादिकं तदुपालम्भानुवादोऽयमभ्युपगमवादाय कृत इति ज्ञेयं चम-
प्रोक्तानां प्रेमभेदानां विविधत्वाद्दशा अपि।
विविधाः स्युरिहेत्येता भूमभीत्या न कीर्तिताः॥१६७॥
एतास्तु प्रेमभेदानामनुभावतया दशाः।
साधारण्यः समस्तानां प्रायशः संभवन्त्यपि॥१६८॥
किंत्वत्रैवाधिरूढस्य मोहनत्वमुपेयुषः।
असाधारणरूपास्तु तत्प्रसङ्गे पुरोदिताः॥१६९॥
विप्रलम्भं परं केचित्करुणाभिधमूचिरे।
स प्रवासविशेषत्वान्नैवात्र पृथगीरितः॥१७०॥
** इति विप्रलम्भभेदप्रकरणम्।**
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प्रौढमध्यमन्दानां मधुस्नेहघृतस्नेहादीनां माञ्जिष्ठादिनैल्यादिरागाणां च। भूमभीत्या ग्रन्थवाहुल्यभीत्या॥ एता उक्तलक्षणास्तु दशाः समस्तानामेव प्रेमभेदानां च साधारण्यः। असाधारण्यस्तु भूमभीत्या न कीर्तिता इत्यर्थः॥१६७॥ अत्रैव ग्रन्थे असाधारण्यरूपा इति श्रीवृन्दावनेश्वर्या विना अन्यत्रादृष्टेः॥१६८॥ परमुक्तेभ्य एतेभ्योऽन्यं प्रवासविश्लेषत्वादिति। श्रीकृष्णस्य कालियह्रदप्रवेशादयः प्रवासभेदा एवेत्यर्थः॥१६९॥१७०॥
इति विप्रलम्भभेदविवृतिः॥
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रीस्तवकम्॥१६६॥ किं त्वत्रैवाधिरूढस्येति भावमध्ये पठितस्यापि तस्य रसत्वमेव मन्तव्यमिति भावः॥१६७॥१६८॥ विप्रलम्भमिति विप्रलम्भभेदमित्यर्थः। तमनिष्टाशङ्कामयत्वात्करुणाभिधमूचिरे स तु वास्तवानिष्टत्वाभावात् प्रवासविशेषः ततस्तद्रूपत्वात् पृथङ्गैवेरितः॥१६९॥१७०॥
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इति विप्रलम्भभेदविवृतिः॥* ** अथ संयोगवियोगस्थितिः।**
हरेर्लीलाविशेषस्य प्रकटस्यानुसारतः।
वर्णिता विरहावस्था गोष्ठवामभ्रुवामसौ॥१॥
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ननु पूर्वरागमानप्रेमवैचित्त्यकिंचिद्दूरप्रवासाइत्येते चत्वारो विप्रलम्भाः। साधकभक्तैःसिद्धभक्तैर्लीलापरिकरैः श्रीकृष्णप्रेयसीभिः श्रीकृष्णेन च सुखेनैवास्वाद्यन्ते आश्रयालम्वनविषयालम्बनयोर्नायकयोस्तत्र तत्र व्रज एव विराजमानत्वादयं सुदूरप्रवासाख्यो माथुरविरहस्तु दुःसह एव श्रीकृष्णस्य व्रजत्यागादित्यत आह—प्रकटस्येति। प्रकटाप्रकटलीले द्वे हि प्रापञ्चिकलोकदृष्टादृष्टिभ्यामुक्ते स्यातामिति लघुत्वमत्र यत्प्रोक्तं तत्तु प्राकृतनायक इत्यत्र व्याख्यातमेव। भागवतामृतदृष्ट्या सांप्रतं तद्विशेषो विव्रियते। तथा हि व्रजभूमेरेकस्या अपि भगवत इव प्रकाशानन्त्यादेकस्मिन् प्रकाशे वर्तमाना जन्मादिलीलाः प्रापञ्चिकलोकैर्दृश्यन्ते अन्येषु प्रकाशेषु न दृश्यन्ते यस्मिंश्च दृश्यन्ते तत्प्रकाशस्थस्यापि श्रीकृष्णस्य जन्म बाल्यपौगण्डकैशोरमथुराप्रस्थानादिलीला अनन्तकोटिब्रह्माण्डेषु केषुचित् कदाचित् क्रमेणाविर्भवन्त्यो दृश्यन्ते ता एव केषुचित् कदाचिन्न दृश्यन्ते च यथा ज्योतिश्चक्रस्थस्य सूर्यस्योदयपूर्वाह्णमध्याह्नापराह्णाभारतादिवर्षेषु केषुचिदृश्यन्ते केषुचिन्न दृश्यन्ते च किं तु सूर्यस्य ज्योतिश्चक्रे उदयाद्या न सत्या न नियाः श्रीकृष्णस्य व्रजभूमौ जन्मादिलीलाः पूर्वदर्शितेभ्योऽग्रेच दर्शयिष्यमाणेभ्यः श्रुतिपुराणेभ्यः सत्या नित्या एवेति विशेषः। यथा च सूर्यस्य वर्षदेशविशेषवशात् सदैवोदयः यदैव पूर्वाह्नः तदैव मध्याह्णःइत्यादि तथैव कृष्णस्यापि ब्रह्माण्डभेदवशात् सदैव जन्म सदैव बाल्यं सदैव बकाद्यसुरमारणं सदैव कैशोरं सदैव मथुराप्रस्थानमित्येवं सर्वाः प्रकटलीला नित्या एव। यथा सूर्यस्य षष्टिघटिकापर्यन्तमेवोदयाद्यवस्थानां सर्वेषु वर्षेषु क्रमेणोपलम्भस्तथैव श्रीकृष्णस्य ब्राह्मकल्पपर्यन्तं जन्मादिलीलानां ब्रह्माण्डेषु महाप्रलये च प्राकृतब्रह्माण्डाभावेऽपि योगमायाकल्पितब्रह्माण्डेषु प्राकृतत्वेन प्रत्यायितेष्विति प्रकटा प्रपञ्चगोचरा लीलापि कालदेशव-
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- तदेवं सपरिकरं विरहमुक्त्वा दुःखरूपस्य तस्य निरसनार्थमाह—हरेर्लीलाविशेषस्य प्रकटस्येति। अत्र विशेषप्रकटशब्दयोरुपादानाद्वृन्दारण्येविहरतेत्यत्रा-*
शादापेक्षिकप्राकट्याप्राकट्यवती कृष्णद्युमणिनिम्लोचे गीर्णेष्वजगरेणेत्युद्धववाक्यद्योतिता ज्ञेया। एवं मथुराद्वारकयोरपि प्रकटलीलेति। व्रजभूमेर्येषु प्रकाशेषु जन्मादिलीलाः प्रापञ्चिकलोकैः सर्वथैव न दृश्यन्ते ते च प्रकाशाः संख्यातीताः परस्परासंपृक्ताः’शैलगोष्ठवनादीनां सन्ति रूपाण्यनेकशः’ इति भागवतामृतोक्त्यां ज्ञेयाः। तेषु ब्रजराजादिलीलापरिकरप्रकाशानामपि पृथक् पृथगभिमानविशेषवतां परस्परासंपृक्तानामानन्त्यात् श्रीकृष्णस्य पृथक् पृथगेव जन्मवाल्यपौगण्डकैशोरलीलाः क्वाप्यग्रपश्चाद्भावेन क्वापि कालसाम्येन च क्रमेणोदयमाना अपि निश्चला एव तिष्ठन्ति किंतु मथुराप्रस्थानलीला नास्ति मथुराया अप्रकटप्रकाशेषु सपरिकरस्य श्रीकृष्णस्य तदुचितलीलाविशिष्टस्य सदैव विद्यमानत्वात्। यदुक्तं ‘तत्र प्रकटलीलायामेव स्यातां गमागमौ’ इति। गमो व्रजभूमेः प्रकाशान्मथुरापुरीं प्रति गमनं आगमो द्वारकातो दन्तवक्रवधानन्तरमागमनं प्रकटलीलायामेव स्यातां नत्वप्रकटलीलाया गोष्टाद्वनगमनं महावनाद्वृन्दावनागमश्चास्त्येव तयोर्ब्रजभूमिभवत्वात्। नित्यत्वंतु तयोः प्रकटलीलायाः सर्वस्या एवोक्तयुक्तेर्दर्शितमेव। नन्वप्रकटप्रकाशेष्वपि क्वचिदंशे श्रीकृष्णलीलामात्रमपि नास्तीत्यवश्यमभ्युपगन्तव्यमेव जन्मलीलायाः प्रागभावापेक्षत्वात्। तथा यदि व्रजान्मथुराप्रस्थानं नास्ति तदा मथुरालीला कुतः प्रवर्तेत।सा हि रजकवधाद्या कालयवनाद्यागमान्ता। रजकवधश्च व्रजात् प्रस्थितेनैव श्रीकृष्णेन कृत इति। अत्रोच्यते। अप्रकटप्रकाशस्थैः सर्वेरेव लीलापरिकरैर्ब्रजेश्वर्या गर्भाज्जातोऽयं श्रीकृष्ण इत्येव सदानुसंधीयते न तु तत्प्राक्कालस्तत्र वा किं किमासीदित्यनुसंधातुं शक्यते। अचिन्त्ययोगमायाया महाप्रभाव एवात्र हेतुर्यथा वहिरङ्गमायिकलीलायां प्रतिकल्पमेवोत्पद्योत्पद्य नानायोनिषु भ्रमतां जीवानां प्राथमिकादविद्यासंबन्धात् प्राक्कालः कस्तत्र वा किमाकारा एते जीवा आसन् कस्माद्धेतोः प्राथमिकः कर्मसंवन्ध इति शास्त्रज्ञैरपि नानुसंधातुं शक्यते तत्र मायाया एवाचिन्त्यप्रभावो हेतुः। किंच तत्रानादिरेवाविद्यासंवन्धो जीवानां यथोच्यते शास्त्रज्ञैस्तथैवानादिरेव श्रीकृष्णस्य जन्मलीलेति भक्तप्राज्ञैः। यथा चानादिरपि कारणार्णवापरपर्याया विरजानदी चिन्मयजला वैकुण्ठपरिखाभूतापि वेदेभ्यो जातेति श्रूयते। ‘वेदाङ्गस्वेदजनिततोयैः प्रस्राविता’ इत्यादि पाद्मादिभ्यस्तथैव श्रीकृष्णजन्मलीलेति। तथा मधुराया अप्रकटप्रकाश-
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प्रकटलीलाविशेषतया विहरतेति गमितम्। ततश्र वृन्दारण्य इति तस्याप्रकटप्रकाशविशेष इति लम्भितम्। सदेत्यनेन विरहसमयेऽपि विकारावकाशतायाः
३६ उज्ज्व०
वृन्दारण्ये विहरता सदा रासादिविभ्रमैः।
हरिणा व्रजदेवीनां विरहोऽस्ति न कर्हिचित्॥२॥
** तथा च पाद्मे पातालखण्डे मथुरामाहात्म्ये—**
‘गोगोपगोपिकासङ्गे यत्र क्रीडति कंसहा।" इति।
** इति संयोगवियोगस्थितिः॥**
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स्थैलीलापरिकरैः श्रीकृष्णेन व्रजादागतेन रजकवधाद्या लीलाःकृताः क्रियन्ते चेत्यवसीयते किंतु रजकवधात् प्राक् श्रीकृष्णो नासीदिति चानुसंधातुं न शक्यते। यथा भगीरथेनानीता पृथिव्यां गङ्गेतिप्रसिद्धिरथ च भगीरथात् पूर्वमपि पृथिव्यां विराजमाना गङ्गा सदैवासीदेव ‘गङ्गायमुनयोर्नद्योरन्तरा क्षेत्रमावसन्’ इत्यादि पृथुचरिताद्युक्तेः। तथा च प्रियव्रतराज्यात् सगरात्मजेभ्यश्च पूर्वं सागरा आसन्नेव प्राचीनवर्हि पुत्राणां प्रचेतसां तत्र तपश्चरणश्रवणात् तथा श्रीकृष्णस्य मथुरायामागमनात् पूर्वं वयं के किमवस्था आस्मेत्यपि बोद्धुं न ते प्रभवन्ति स्म। यथा कर्दमप्रादुर्भाविता जलाद्युत्थिता नवयौवना देवहूते परिचारिका वयं वयःसन्धेः पूर्वं काः किमाकाराः कुत्रास्मेति ज्ञातुं न शक्नुवन्तिस्मेति। श्रीकृष्णो मथुरायामेव विराजते न तु व्रजे इति मथुराया अप्रकटप्रकाशस्था लीलापरिकरा जानन्ति यथा तथैव व्रजस्था अपि श्रीकृष्णोऽस्मद्व्रज एव खेलति मथुरायां तु कंस एवेति मन्यन्ते। एवं द्वारकास्था अपि। श्रीकृष्णस्तु युगपदेव व्रजमथुराद्वारकासु सपरिकर एव एकेनैव वपुषाप्यत्यन्तप्रकाशः पृथक् पृथग् भिन्नाभिमानः सदा दीव्यतीति सिद्धान्तः॥ एवं च प्रकटलीलायामेव माथुरविरहोऽप्रकटलीलायां त्वक्रूरागमनमथुराप्रस्थानब्रजवालाविलापाद्या नैव सन्तीत्याह—
वृन्दारण्य इति। प्रकटस्यानुसारत इति पूर्वोक्तेरप्रकटप्रकाशेष्वित्यर्थः॥ अत्र प्रमाणमाह—तथा चेति। क्रीडतीति वर्तमानप्रयोगः सातत्यंवोधयति। न च वचनमिदं यमुनामाहात्म्यपरं “अहो अभाग्यं लोकस्य न पीतं यमुनाजलम्। गोगोपगोपिकासङ्गेयत्रक्रीडति कंसहा॥” इति। यत्पदेन यमुनाया
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स्थापनीयत्वात्। तथा हरिणा व्रजदेवीनामित्यनेन तस्य तासामप्यप्रकटप्रकाशानन्तरं मतम्। प्रकाशभेदेनाभिमानभेदश्च विरहसंयोगानुभावयोर्युगपदसंभवात्॥१॥२॥ तत्र प्रमाणमाह— तथा चेति। क्रीडतीति वर्तमानप्रयोगः सातत्यं
एव परामर्शादिति वाच्यम्। सदैव यमुनाजले क्रीडाया अयुक्तत्वात् गङ्गायां घोष इतिवल्लक्षणया यमुनातटप्राप्तेर्यमुनातटस्यैव वृन्दारण्यत्वात्। ननु मम गृहगवाक्षे सूर्यकिरणः सदा प्रविशतीति मम गृहेऽसौ सदा भुङ्क्ते इति नित्यं संध्यामुपासीतेत्यादौवर्तमानप्रयोगे नित्यादिपदोपादानेऽपि तत्तदुचितसमयस्यैव प्राप्तिरिव प्रतिकल्पगततदवतारक्रीडोचितकाल एव प्राप्तोऽस्तु।मैवं भगवद्धामलीलापरिकरादेर्मायिकप्रपञ्चतद्गतकर्मिजीवादेश्च तुल्यवापत्तेः। तेऽपि भूर्लोकादयः तद्गताः सुकृतिनो जीवा अपि प्रतिकल्पमुत्पद्योत्पद्य क्रीडन्त्येवेति कथय तावत् प्रापञ्चिकाप्रापञ्चिकवस्तुनोः को विशेष इति। किं च प्रतिक्षणास्तित्वरूपनित्यत्वस्य भगवल्लीलायां यद्यसंभवः स्यात्तदा तादृशत्वमप्यभ्युपगम्यते। भगवति तु सच्चिदानन्दाकारप्रकाशजन्मकर्मलक्षणलीलापरिकरानन्त्यवति न कोऽप्यसंभव इति भगवत्संदर्भे युक्त्या प्राक् प्रतिपादितमेव। न तु तदपि माथुरविरहे सत्यपि वृन्दारण्ये क्रीडासातत्यमस्त्येव प्रकटलीलायां ब्रह्माण्डभेदवशात् पूर्वोक्तयुक्तेरेवेत्यतो विरहाभावार्थ पुनरपि किमन्येनाप्रकटलीलास्वीकारेणेत्यत आह— गोगोपगोपिकेति। गोगोपगोपिकाभिः सह सङ्गे सति यत्र वृन्दावने क्रीडति न तु विच्छेदेऽपि सतीति प्रकटलीलाव्यावृत्त्या। अत्र काकाक्षिगोलकन्यायेन यत्र इत्यस्य
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बोधयति। ततश्च पूर्ववत्तत्प्रकाशादिभेदः प्रमापितः। तं विना घटनाया अभावात्। श्रुतार्थान्यथानुपपत्त्या तत्र तत्र तदचिन्त्यशक्तिरेव कारणत्वेनोपतिष्ठते। श्रुतेस्तु शब्दमूलत्वादिति न्यायात्। न च वक्तव्यं वचनमिदं यमुनामाहात्म्यपरम् ‘अहो अभाग्यं लोकस्य न पीतं यमुनाजलम्’ इति पूर्वार्धात्। ततः कथं मथुरामाहात्म्यान्तर्गतत्वात्तत्रैव पर्यवस्यतीति। सदा यमुनाजले क्रीडाया अयुक्तत्वाल्लक्षणप्राप्तेः। ननु लक्षणा चेन्मता तर्हि प्रतिकल्पभवतीर्य क्रीडाकारित्वान्मम गृहगवाक्षे सूर्यकिरणं प्रविशतीतिवद्यथावसरमेव सा तत्कीडावगन्तव्या। मम गृहे सदा भुङ्क्ते इत्यत्र सदाशब्दप्रयोगेऽपि तादृशत्वमवगम्यते। उच्यते। तदैव सङ्कोचवृत्त्या तादृशत्वमवगन्तव्यं यदि परमनित्येति बोधायाप्यधिष्ठातुं समर्थे भगवत्यसंभवं स्यात्। यदि च ‘राजधानी ततः साभूत् सर्वयादवभूभुजाम्। मथुरा भगवान् यत्र नित्यं संनिहितो हरिः॥” इत्यादिवचनं न स्यात्। अत्र हि संनिदधातेरकर्मकत्वमेव। संनिधिः संनिकर्षणमित्यत्र संकीर्णवर्गे यथाह क्षीरस्वामी संनिपूर्वो धानैकट्यार्थ इति। ततश्चाकर्मकत्वात् संनिहित इति कर्तर्येव प्रयोगः शीलितादिवद्वर्तमान एव च। वर्तमानत्वं चात्राविच्छेदविवक्षयैव
क्रीडतीत्यनेन सङ्ग इत्यनेन चान्वये यत्र वृन्दावने क्रीडतीति व्याख्यायां किंचिद्दूरप्रवासाख्यविच्छेदः सङ्गशब्देन न व्यावृत्त्यते गोष्ठाद् वनगमने वनाद् गोष्ठां गमने च वृन्दावनप्रदेशावच्छेदे गोगोपगोपिकाभिः सह सङ्गस्य सत्त्वात् इति। अत्र कंसहेति पदेन कंसवधोत्तरकाले दन्तवक्रवधानन्तरागमने सति पुनर्ब्रजलीलायामेतत्प्रमाणमित्याचक्षते केचित्, तन्न संगच्छते कंसं हतवानित्यर्थे कंसहेति पदस्यासिद्धत्वात्। तथाहि ‘अन्येभ्योऽपि दृश्यते’ इत्यनेनैव क्विपःसिद्धे ‘ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु क्विप्’ इति क्विव्विधानं नियमार्थम्।भूतकाले ब्रह्मभ्रूणवृत्रेष्वेवोपपदेषु क्विप् नान्येष्विति भाषावृत्त्यादौ दृष्टत्वात् कंसं हनिष्यति हन्ति वेति भविष्यति वर्तमाने वा क्किपा कंसहेति पदं सिध्यति। तेन कंसहेति पदमप्यत्र मथुराप्रस्थानाभावद्योतकम्। कंसं हनिष्यति वर्तमानसामीप्यविवक्षया हन्ति वेति हन्तेर्द्वेषार्थत्वेन द्वेष्टि वेत्यर्थे मथुराया कंसस्य विद्यमानत्वभाने दानलीलादेरपि सुङ्गगतत्वं (?) स्यादत एव प्रसिद्धं भागवतामृतधृतं यामलवचनम्—‘कृष्णोऽन्यो यदुसंभूतो यः पूर्णः सोऽस्त्यत परः। वृन्दावनं परित्यज्य स क्वचिन्नैव गच्छति॥’ इति। अत एव वृन्दावनक्रीडाया नित्यत्वप्रतिपादकेषु बहुषु प्रमाणेषु सत्खप्यप्रकटलीलायामसाधारणमिदमेव ग्रन्थकृद्भिर्महानुभाव[चू ]डामणिभिरुपन्य-
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न तु पुनः पुनरवतारेण सांनिध्यापेक्षया। तदान्यत्रान्यत्र साधारणेऽपि देशे तद्गमनश्रवणाद्विवक्षितस्य मथुराया अतिशयस्यानुपपत्तेः। लट्प्रत्ययवत् क्तप्रत्ययस्य चातुर्वर्ण्येन शीलितं राज्ञा रक्षितमिदं राष्ट्रमित्यत्र विच्छेदप्रत्ययानुपपत्ते। प्रतीते चाविच्छेदे नित्यशब्देन कैमुत्यापत्तेश्च। दृश्यते श्रुतिषु नित्यशब्दं विनापि क्तप्रत्ययस्य तादृशवाचकत्वम् अयमात्मापहतपाप्मा’ इति किंतु संनिधानेन नैकट्यमेव वाच्यत इति विवक्षितायाः स्थितेरलाभेन तदिदं विचार्यते। यदि नैकट्यमुच्यते तर्हि निकटस्य च देशविशेषस्य माहात्म्यं स्यादिति। तदेतद्वचनं मथुरामाहात्म्ये प्रयोजकत्वं(कं) न स्यात्। तस्यानिकटो देशस्तादृशतया न प्रसिद्ध इति निहतार्थं च स्यात्। यदि च तदेव मन्यते तर्हि यस्या इति षष्ठ्येव प्रयुज्येत न तु यत्रेति सप्तमी। सप्तम्याः प्रयोगे तु संवन्धिपदाक्षेपान्मथुरावासिनां संनिहित इति लभ्यते। यद्वा विकाशद्वयस्य प्रतिपन्नत्वात् प्रकटप्रकाशात्मिकायां मथुरायां वर्तमानः संनिहितस्तत्रस्था प्रकटप्रकाशे वर्तमान इत्यर्थः। ननु पुरीविषयाणि तानीमानि वाक्यानि कथं वृन्दावनं विषयं कुर्वन्ति। उच्यते।
स्तम्। तानि प्रमाणानि च श्रीवैष्णवतोषणीधृतानि दर्श्यन्ते। तत्र प्रथमं श्रुतिः “गोविन्दं सच्चिदानन्दविग्रहं वृन्दावनसुरभूरुहतलासीनं सततं समरुद्गणोऽहं परितोषयामि” इति। ‘जन्मजराभ्यां भिन्नः स्थाणुरयमच्छेद्योऽयं योऽसौ सौर्ये तिष्ठति, योऽसौ गोषु तिष्ठति, योऽसौ गोपालं पालयति, योऽसौ गोपेषु तिष्ठति’ इति गोपालतापनी। अत्र जन्मजराभ्यामिति जरापदसाहचर्यात् जीववत् प्रापञ्चिकजन्मैव तस्य निषिद्धं न तु यशोदादेवकीभ्यामपि जन्म। यदुक्तं तेनैव स्वयम् ‘जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।’ इति श्रीगीतोपनिषत्सु। स्थाणुः सर्वकालस्थायी। ननु महाप्रलये वृन्दावनसुरभूरुहतलस्थलत्वेन कथं स्थास्यतीत्यत्राह। अच्छेद्यः कालवेगेन प्राकृतप्रपञ्च इवानाश्य इत्यर्थः। तथा हि भूगोलचक्रे सप्त पुर्यो भवन्ति तासां मध्ये साक्षात् ब्रह्मगोपालपुरी हीति यथा सरसि पद्मं तिष्ठति तथा भूम्यां चक्रेण रक्षिता हि मथुरा तस्मात् गोपालपुरीहि भवति बृहत् बृहद्वनं मधोर्मधुवनमित्यादिका सैव श्रुतिः सौर्ये सौर्याया यमुनाया जले गोपीभिः सह जलक्रीडार्थमित्यर्थः। गोपु तासां चारणार्थमित्यर्थः। गोपान्नन्दादीन् पालयति गोवर्धनधारणादिभिरित्यर्थः। गोपेषु श्रीदामादिषु तैः सह सख्योचितक्रीडार्थमित्यर्थः। स्मृतिश्च ‘ततो वृन्दावनं पुण्यं वृन्दादेवीसमा -
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गोवृन्दगोपिकानां तत्रैव योग्यत्वान्मथुरामण्डलप्रदेशविशेषपरत्वाच्चतद्विषयता युक्ता अत एव मथुरामाहात्म्य इत्यपि युक्तमुक्तम्। तथा च श्रीगोपालतापनीश्रुतिर्मथुरायामिव तत्तद्वनेष्वप्यतिदिशति। भूगोलचक्रे सप्तपुर्यो भवन्ति तासां मध्ये साक्षाद्ब्रह्मगोपालपुरीति। यथा सरसि पद्मं तिष्ठति तथा भूम्यां चक्रेण रक्षिता हि मथुरा तस्माद्गोपालपुरी हि भवति बृहद्वृन्दावनं मधोर्मधुवनमित्यादिका एतैरेवावृता पुरी भवति। तत्र तेष्वेव गहनेष्वेवमित्यादिका च। तत्र तदधिष्ठानताया योग्यतार्थ प्रकटप्रकाशाद्विलक्षणं प्रकाशान्तरमपि वाराहे वर्णितम्। ‘तत्रापि महदाश्चर्यं पश्यन्ति पण्डिता जनाः। कालियह्रदपूर्वेण कदम्बो महितो द्रुमः॥ शतशाखं विशालाक्षि पुण्यं सुरभिगन्धि च। स च द्वादश मासानि मनोज्ञः शुभशीतलः। पुष्पायति विशालाक्षि प्रभासन्ती दिशो दश॥” इति। अत्र परत्र चार्षप्रयोगा यथायथमुन्नेयाः। अथ तत्रैव वृन्दावनस्य ब्रह्मकुण्डमाहात्म्ये “तत्राश्चर्य प्रवक्ष्यामि तच्छृणुष्व वसुंधरे। लभन्ते मनुजाः सिद्धिं मम कर्मपरायणाः॥ तस्य तत्रोत्तरे पार्श्वेऽशोकवृक्षः सितप्रभः। वैशाखस्य तु मासस्य शुक्लपक्षस्य द्वादशी॥ स पुष्णाति च मध्याह्नेमम भक्तसुखावहः। न
श्रितम्।हरिणाधिष्ठितं तच्च ब्रह्मरुद्रादिसेवितम्॥ वत्सैर्वत्सतरीभिश्च सदा क्रीडति माधवः। वृन्दावनान्तरगतः सरामो वालकैर्वृतः॥” इति स्कान्दम्। “यमुनाजलकल्लोले सदा क्रीडति माधवः।” इति पाद्मम्। अथ मथुरालीलाया नित्यत्वे प्रमाणम्—‘प्राप्य मथुरां पुरी रम्यां सदा ब्रह्मादिसेविताम्। शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गरक्षितां मुसलादिभिः॥ यत्रासौ संस्थितः कृष्णस्त्रिभिः शक्त्या समाहितः। रामानिरुद्धप्रद्युम्नै रुक्मिण्या सहितो विभुः॥’ इति गोपालतापनीश्रुतिः। स्मृतिश्च—‘मथुरा भगवान् यत्र नित्यं संनिहितो हरिः’ इति। एवं द्वारकालीलाया नित्यत्वमपि द्वारकामाहात्म्यादिग्रन्थाज्ज्ञेयम्। सर्वत्र च ‘जयति जननिवास’ इत्यत्र ‘व्रजपुरवनितानां वर्धयन् कामदेवम्’ इति वर्तमानप्रयोग एव न तु जयतीत्यादिलोडन्तमिति वाच्यं। तदीयनित्यसर्वोत्कर्षविदुपः श्रीशुकदेवस्य तद्भक्तचूडामणेः तत्राशीर्वादानौचित्यात्। व्रजपुरवनिताभिः सहक्रीडन्नित्युक्त्वा तासां कामदेवं वर्धयन्नित्युक्तवता तासां समर्थसमञ्जसासाधारणरतिमतीनां कामदेवः प्रायः प्रेममयशृङ्गाररस एव स च संयोगविच्छेदाभ्यां वर्धते एवेति मुक्तप्रग्रहावृत्त्या संक्षिप्तसंकीर्णादयो यावन्तः संभोगाः पूर्वरागमानप्रवासादयो यावन्तश्च विप्रलम्भास्तान् सदा प्रवर्तयन्निति वृन्दावनमधुराद्वारकेन्द्रप्रस्थादिवर्ति-
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कश्चिदपि जानाति विना भागवतं शुचिम्॥” इति। शुचित्वमत्रानन्यवृत्तित्वमतस्तादृशं रूपमस्येति पृथिव्यापि न जातमिति आयातम्। तत्र सपरिकरस्य श्रीकृष्णस्य नित्या स्थितिश्च वृहद् गौतमीयतन्त्रे नारदप्रश्ने श्रीकृष्णस्योत्तरे। तत्र प्रश्नः—“किमिदं द्वादशाभिख्यं वृन्दारण्यं विशांपते। श्रोतुमिच्छामि भगवन्यदि योग्योऽस्मि मे वद॥” अथोत्तरम्। ‘इदं वृन्दावनं रम्यं मम धामैव केवलम्। तत्र ये पशवः पक्षिवृक्षाः कीटा नरामराः॥ ये वसन्ति ममाधिष्ठे मृता यान्ति ममालयम्। अत्र या गोपकन्याश्च निवसन्ति ममालये॥ योगिन्यस्ता मया नित्यं, मम सेवापरायणाः। पञ्चयोजनमेवास्ति वनं मे देहरूपकम्॥ कालिन्दीयं सुपुम्णाख्या परमामृतवाहिनी। अत्र देवाश्चभूतानि वर्तन्ते सूक्ष्मरूपतः॥ सर्वदेवमयश्चाहं न त्यजामि वनं क्वचित्। आविर्भावस्तिरोभावो भवेन्मेऽत्र युगे युगे॥ तेजोमयमिदं रम्यमदृश्यं चर्मचक्षुषा॥” इति। श्रीगोपालतापिन्यां च, ब्रह्मवाक्यम्—“गोविन्दं सच्चिदानन्दं वृन्दावनसुरभूरुहलतासीनं सततं समरुद्गणोऽहं तोषयामि।” इति। एवं तत्तन्मन्त्रेषु तत्तद्वृन्दसहितं पञ्चरात्रयामलसंहितादिषु ध्येयत्वेन वर्णयन्ति। तस्माद्युक्तमुक्तं, “वृन्दारण्ये विहरता मया
संभोगविप्रलम्भानां मथुराप्रस्थानादिघटितविलापाद्दिव्योन्मादभ्रमरगीतादीनां च लीलानां नित्यत्वमानीतं सुस्मितश्रीमुखेनेति दृष्टश्रुतस्मृतेनेत्यर्थः। स्थिरचरवृजिनम्नः सन्निति स्थिराणां गोवर्धनरैवतकादीनामिन्द्रादिभ्यो यद्वृजिनं चराणां लीलानुकूलभक्तिमन्मनुष्यगवाश्वमृगादीनां तद्दर्शनोत्कण्ठारूपं संसारादिकं च वृजिनं हन्तीति गोवर्धनधारणादिलीलानां मिथिलागमनादिघटितश्रुतदेवाद्यनेकलोकोद्धारलीलानां च नित्यत्वम्। दोर्भिः स्वभुजवलैः दोस्तुल्यैः भीमार्जुनादिभिश्चाधर्मं प्रपञ्चगोचरलीलायामधर्महेतुं। केशिकंसजरासन्धाद्यसुरसमूहमस्यन्निघ्नन्नित्यसुरवधलीलानां च नित्यत्वम्। यदुवरा वसुदेवनन्दवृषभान्वादयः उद्धवश्रीदामसुवलादयश्च परिषदो लीलापरिकरा यस्य तथाभूतः सन्निति वाल्यपौगण्डादिलीलानां च नित्यत्वम्। देवक्यां वसुदेवपत्न्यां’द्वे नाम्नी नन्दभार्याया यशोदा देवकीति चे’त्यादिपुराणवचनान्नन्दपत्न्यांच जन्मवादः सिद्धान्तो यस्य स इति। ‘वादः प्रवदतामह’मित्यत्र वादशब्देन सिद्धान्ताभिधानादिति जन्मलीलाया नित्यत्वमेव। अत्रानुक्तानामनन्तानामन्यासामपि लीलानामेकत्र निर्णीतशास्त्रार्थो विरोधाभावे सतीति न्यायेन नित्यत्वम्। एवं च सत्स्वपि बहुषुश्रुतिस्मृतिप्रमाणेपु सर्वलीलानित्यत्वसाधकमेवेदं श्रीभागवतीयं पद्यरत्नं दृष्टमिति। अथ प्रपञ्चगोचरलीलानां नित्यत्वे
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रासादिविभ्रमै” रिति। तत्र तत्तत्स्थानस्य प्रकाशभेदाः प्रकटलीलायामपि दृश्यन्ते। यथा वृन्दावने ब्रह्माणं प्रति तदानीं चतुर्भुजादिवैभवानामवकाशत्वं नित्यदर्शिनां गोपक्षिमृगादीनामपीति। यथा च द्वारकायां द्वादशयोजनीपरिमितत्वेऽपि क्रोशद्वयपरिमितगृहलक्षाद्यवकाशता।श्रीनारददृष्टयोगमायावैभवे प्रातस्त्यमाध्याह्निकसायंतनलीलाश्रयत्वं युगपदेव जातम्। श्रीकृष्णस्यापि युगपन्नाना प्रकाशः। “चित्रं वतैतदेकेन वपुषायुगपत्पृथक्।गृहेषु व्यष्टसाहस्रं स्त्रिय एक उदावहत्” इत्यनुसारेण श्रीनारददृष्ट इति प्रसिद्धमेव। परिकराणां च प्रकाशभेदःषोडशसहस्रपरिमितानां कन्यानां विवाहे व्याख्यातः। उक्तं टीकाकृद्भिः। एतेन देवक्यादिवन्धुजनसमागमोऽपि प्रतिगृहं यौगपद्येन सूचित इति। तत्राभिमानभेदश्च दृष्टः। यथा योगमायावैभवे खल्वेकत्र। “दीव्यन्तमक्षैस्तत्रापि प्रियया चोद्धवेन च। पूजितः परया भक्त्या प्रत्युत्थानासनादिभि " इति। तत्रान्यत्र “मन्त्रयन्तं चकस्मिंश्चिन्मन्त्रिभिश्चोद्धवादिभिः” इति। तत्र भावभेदादभिमानभेदोऽवगम्यते अयमेतदवस्थोऽहमत्रास्मीति। एवं षोडशसाहस्रीपरिमितकन्याविवाहे कुत्रचित् श्रीकृष्णसमक्षं माङ्गल्यंकर्म कुर्वन्त्याः श्रीदेवक्यास्तद्दर्शनसुखं स्यात् तत्परोक्षं तु
युक्तिरुच्यते। गौतमीयाद्यागमोक्तवालगोपालादिमन्त्रोपासकानामनुसारिणी तत्प्राप्तिरवश्यापेक्षा। यथा शय्योत्थानमुखप्रक्षालननवनीतादिभोजनरिङ्गणखेलनहसनस्वापादिलीलाः प्रातरादिक्षणेषुएकेनैकेनैव स्वरूपेण ध्यायतां साधनदशायां सार्वकालिकी स्थितिस्तथैव सिद्धदशायामप्येकेनैकेनैव प्रकाशेन तत्तल्लीलासाक्षात्कारवत्येव सार्वकालिकी नित्यस्थितिरवश्यमेवोचिता। ‘यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।’ इत्यादिवचनात्। तेषामेव प्रपञ्चगोचरलीलायां वात्सल्यादिभाववतां प्रकाशान्तरेण लीलान्तरस्यापि गौणतया स्वादस्त्वधिको न विरुध्यते। श्रीकृष्णस्य भक्तकामितार्थादधिकस्यापि दातृत्वादिति। तत्र प्रपञ्चगोचरलीलायाम्। कालिकीनामवस्थानामस्थैर्यात्। लोकवल्लीलेति न्यायेन प्रापञ्चिकलोकरीत्यैव रिङ्गणादिलीलानामेकस्मिन्नेव प्रकाशे खलु न स्थैर्यम्। प्रपञ्चगोचरलीलायां त्वेकत्रैवेकदैव भागवतामृतसंमत्या परस्परासंस्पृष्टानन्तप्रकाशवल्यामेकैकस्मिन्नेव प्रकाशे रिङ्गणादिलीलाः स्थिरा एव। तत्र कासांचिदहोरात्रव्यापित्वेनैव स्थैर्यं कासांचिदहर्व्यापित्वेनापि। तथाहि प्रातरारभ्य शय्योत्थानादिभिर्वालमुकुन्दं लालयतां श्रीयशोदादिपरिकराणां यावेवाहोरात्रौ गच्छतस्तावेव पुनःपुनरागच्छत इत्येवं महाकल्पकोटिष्वपि व्यतीतासु तयोरवस्थान्तरप्रापणहेतुत्वं न
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तद्दर्शनोत्कण्ठेति। तथा योगमायावैभव एव क्वचिदुद्धवेन संयोगः क्वचिद्वियोग इति विचित्रता। तदेवं तेषां प्रकाशभेदादेव भेदो न वस्तुभेद इत्येकांशेऽपि संयोगान्नास्त्येव वियोग इत्यभिप्रेत्योक्तम् ‘वृन्दारण्ये विहरता’ इत्यादिना तथैव “भवतीनां वियोगो मे नहि सर्वात्मना क्वचित्” इत्यादिप्रकरणे श्रीवैष्णवतोषिण्यां व्याख्यातमस्ति। उपासना च यस्मिन् अंशे सुखं स्यात्तत्रैव कर्तव्येति सर्वमनवद्यम्। तथापि हन्त हन्त यत्र प्रकाशे पूर्वरागादिविप्रलम्भा वर्णितास्तत्रैव तत्तदनन्तराः संभोगा वर्णनीयाः। प्रकाशान्तरेण नित्यसंभोगे तु प्रकटप्रकाशगतानां तासां वर्णितविरहाणां का गतिः यां विना तद्वर्णनं विरसमेव स्यात्। यदि चाप्रकटलीलागतं यत् सुखं तत्तत्र संक्रामेदित्युच्यते तर्हि विरह एव न स्यादिति तद्वर्णनं कथंभूतं कथं वा स्वयं श्रीकृष्णेन। “धारयन्त्यतिकृच्छ्रेण प्रायः प्राणान् कथंचन। प्रत्यागमनसंदेशैर्वल्लव्यो मे मदात्मिकाः॥” इत्युक्तं तस्मान्महाविप्रलम्भादनन्तरं संभोगोऽवश्यं वर्णनीयः। स च निर्विघ्न एव मन्तव्यः।हस्तिस्नानतुल्यत्वस्यानभीष्टत्वात्। न च यस्मिन्नंशे सुखं स्यात् तत्रैव सर्तव्यं सेयं प्रेमरीतिर्न भवति किंतु स्वसुखतत्परतैवेति तत्प्रियजनानामुपेक्षणीयत्वात्। अस्तु
संभवेदिति श्रीकृष्णस्य तदेव वाल्यं वयः स्थिरं तदीयलीलापरिकरा अपि तत्तद्वयस्था एव स्थिराः। एवं वसन्तादिष्वपि होलिकोत्सवदानादिहिन्दोलिकादिलीला-युक्तमन्तर्गतरात्रिंदिवानन्तरलीलं यदेव वर्षं याति तदेव वर्षं पुनः पुनरायातीति। श्रीकृष्णस्य तदेव कैशोरमादिममन्तिमं वा स्थिरमेव तन्मात्रादीनामपि क्वचित् द्वैवार्षिकः, क्वचित्रैवार्षिकः, पञ्चवार्षिकः, अष्टवार्षिक एवं श्रीकृष्ण इति योगमाययैव प्रत्यायनमिति। अथ प्रपञ्चागोचरलीलास्पदस्य वृन्दावनप्रकाशस्य नित्यत्वे प्रमाणानि दर्श्यन्ते। यथा रुद्रयामले रुद्रगौरीसंवादे— ‘वीथ्यां वीथ्यां निवासोऽधरमधुसुवचस्तत्र संतानकानामेके राकेन्दुकोट्या उपविशदकरास्तेषुचैके कमन्ते। रामे रात्रेर्विरामे समुदिततपनद्योतिसिन्धूपमेयो रत्नाङ्गानां सुवर्णाचितमुकुररुचस्तेभ्य एके द्रुमेन्द्राः॥ यत्कुसुमं यदा मृग्यं यत्फलं च वरानने। तत्तदैव प्रसूयन्ते वृन्दावनसुरद्रुमाः॥’ अर्थश्चहे अधरमधुसुवचः, अधरमधुतुल्यानि सुवचांसि यस्यास्तथाभूते गौरि, तत्र वृन्दावने रत्नाङ्गानां संतानकानां मध्ये एके द्रुमेन्द्रा राकेन्दुकोट्या उपविशदकराः हे रामे, तेषुसंतानकेषु एके रात्रेर्विरामे समुदिततपनद्योतिसिन्धूपमेया कमन्ते विराजन्ते तेभ्यस्तानतिक्रम्य एके कमन्ते। कथंभूताः सुवर्णाचितमुकुररुच इति। तत्र च यदा यत्कुसुमं मृग्यं भवति फलं वा तदेव वृन्दावनसुरद्रुमा एवं प्रसूयन्ते। एवं नारदपञ्चरात्रे च श्रुतिविद्यासंवादे— ‘महावृन्दावनं तत्र केलिवृन्दावनानि च। वृक्षाः कल्पद्रुमाश्चैव चिन्तामणिमयी स्थली॥ क्रीडाविहङ्गलक्षं च सुरमीणामनेकशः।नाना चित्रविचित्रश्रीरासमण्डलभूमयः॥ केलिकुञ्जनिकुञ्जानि नानासौख्यस्थलानि च। प्राचीरच्छत्ररत्नानि फणाः शेषस्य भान्त्यहो॥ यच्छिरोरत्नवृन्दानामतुल्यद्युतिवैभवम्। ब्रह्मैव राजते तत्र रूपं को वक्तुमर्हति॥” इति। एवं च प्रपञ्चाप्रपञ्चगोचरयोर्द्वयोरपि लीलयोः सविशेषयोरेव नित्यत्वं स्थापितम्। ननु च ‘चित्रं वतैतदेकेन
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तावत्तत्प्रियजनानां वार्ता लौकिकरसविदामपि। न विना विप्रलम्भेत्यादिना सर्वायत्यां संभोगपर्यवसानतयैव संमतिर्दृश्यते। तदनुसारेणापि निर्विघ्नसंभोग एव विप्रलम्भगणानां फलतया पर्यवसायनीयः। तमेतं प्रकटप्रकाशमेवालम्वनीकृत्य ग्रन्थकृतामेष ग्रन्थो नाटकादयोऽन्ये च ग्रन्था उपासना च प्रवृत्त्या दृश्यन्ते। श्रीशुकादीनामप्यत्रैवावेशः स्पष्टः श्रीब्रह्मणश्च ‘प्रपञ्चंनिष्प्रपञ्चोऽपि विडम्वयसि भूतले। प्रपन्नजनतानन्दसंदोहं प्रथितुं प्रभो॥’ इत्यत्र तथैवाभिप्रायः। प्रपञ्चानुकरणं ह्यत्र जन्मादिलीलारूपमेव। ततश्च सत्यामपि तस्यां
वपुषा’ इत्युक्तरीत्या प्रकटाप्रकटयोर्लीलयोः युगपदेकेनैव वपुषा वृन्दावनमथुराद्वारकासु सदैव तत्तत्परिकरैः सह प्रकाशभेदैर्यदि क्रीडति तदा कथमेतावानुद्धूर्णाचित्रजल्पादिभयो विरहः संभवेत्।उच्यते।विचित्रलीलादिसिद्ध्यर्थं साधकसिद्धभक्तानां विविधभावसिद्ध्यर्थं च भगवतो लीलाशक्त्यैवाकारभेदे प्रकाशभेदे च भगवतो भगवत्परिकराणां च पृथक्पृथगभिमानभेदस्तदनुरूपः क्रियाभेदश्च व्यवस्थाप्यते।तत्राकारभेदे यथा धनुर्भङ्गानन्तरं श्रीरामपरशुरामयोः, प्रकाशभेदे यथा नारददृष्टयोगमायावैभवे।तत्र ह्येकत्र “दीव्यन्तमक्षैस्तत्रापि प्रियया चोद्धवेन च।पूजितः परया भक्त्या प्रत्युत्थानासनादिभिः॥” इति तन्नान्यत्र च—‘मन्त्रयन्तं च कस्मिंश्चिन्मन्त्रिभिश्चोद्धवादिभि’ इति।अत्र भावभेदादभिमानभेदोऽवगम्यते अयमेतदवस्थोऽहमत्रास्मि इति।एवं षोडशसहस्रकन्याविवाहे कुत्रचित् श्रीकृष्णसमक्षं माङ्गल्यं कर्म कुर्वत्या देवक्यास्तद्दर्शनसुखम्।क्वचित्तत्परोक्षमुत्कण्ठा चेति, योगमायावैभवे च क्वचिदुद्धवादीनां तत्संयोगसुखं क्वचित् विरहदुःखं च।तदेवं व्रजदेवीनां माथुरविरहकाल एव प्रकटप्रकाशेषु क्वचित् प्रकटप्रकाशे च श्रीकृष्णसंयोगसुखेनैवाज्ञातेनापि तादृशमहासंतापेऽपि जीवनस्थितिर्ज्ञेया॥ तथा श्रीकृष्णेन सह संयोगकाल एवाप्रकटप्रकाशेषु क्वचित् प्रकाशगतमाथुरविरहतापेनैवाज्ञातेनापि महौत्कण्ठ्यमत एव महाभावमेदो मादनोऽवगम्यते
॥१॥२॥
इति वियोगसंयोगस्थितिविवृतिः॥
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नियलीलायां जन्मादिलीलैव प्रपन्नजनवृन्दानामानन्दसंदोहहेतुरिति।यदि च ग्रन्थकृतामत्राग्रहो न स्यात् किंतु प्रकटलीलायामेव तर्हि प्रकटलीलाया विप्रलम्भदुःखविशेषमय्या वर्णनायां को लाभः स्यात्।तदेतदाशङ्क्यप्रकटलीलायाः परिणामतः क्लेशमयत्वं प्राप्तमिति स्वयमपि परितप्य तत्तन्नित्यलीलासुखनिरूपितलीलाक्रमरसपरिपाटीमदृष्ट्वा स्वयं सर्वरसपरिपाटीपूरकान् फलरूपान् समृद्धिमत्पर्यन्तान् संभोगान् वक्तुमाह—अथ संभोग इति॥२॥
-
इति वियोगसंभोगस्थितिविवृतिः॥*
**
अथ संभोगः।**
दर्शनालिङ्गनादीनामानुकूल्यान्निषेवया।
यूनोरुल्लासमारोहन् भावः संभोग ईर्यते॥१॥
मनीषिभिरयं मुख्यो गौणश्चेति द्विधोदितः।
** तत्र मुख्यः—**
मुख्यो जाग्रदवस्थायां संभोगः स चतुर्विधः॥२॥
तान् पूर्वरागतो मानात्प्रवासद्वयतः क्रमात्।
जातान् संक्षिप्तसंकीर्णसंपन्नर्द्धिमतो विदुः॥३॥
** तत्र संक्षिप्तः—**
युवानौ यत्र संक्षिप्तान्साध्वसव्रीडितादिभिः।
उपचारान्निषेवेते स संक्षेप इतीरितः॥४॥
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यूनोर्नायिकानायकयोः परस्परविषयाश्रययोर्दर्शनालिङ्गनचुम्बनादीनां नितरां या सेवा वात्स्यायनभरतकलाशास्त्रोक्तरीत्या आचरणं तयेति पशुवच्छृङ्गारो व्यावृत्तः। आनुकूल्यात् परस्परसुखतात्पर्यकत्वेन पारस्परिकादित्यर्थः। स्वानुकूल्ये व्याख्येये व्यावृत्त्यभावात्। तेन च काव्यप्रकाशादिधृते निःशेषच्युतचन्दनेत्यादौ प्राकृतः काममयोऽपि संभोगो व्यावृत्तः॥ तान् चतुरःसमे भागान् क्रमादिति पूर्वरागानन्तरं संक्षिप्तं मानानन्तरं संकीर्णं किंचिद्दूरप्रवासानन्तरं संपन्नं सदूरप्रवासानन्तरं समृद्धिमन्तं विदुः।प्रेमवैचित्त्यानन्तरस्य संभोगस्य नामानुक्तेस्तमपि अनुरागमाहात्म्यादेव सुदूरप्रवासान्तिमत्वमननात् तस्मादेव द्वयोः पारतंत्र्यारोपाच्च समृद्धिमन्तं केचिदाहुः। अपरे तु संपन्नमेव॥ उपचारान् संभोगाङ्गानि वस्तूनि। आदिशब्दादसहिष्णुत्वं च एतैरेव पूर्वरागानन्तर्यमस्य द्योत्यते॥१॥
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- अथ संभोगः॥ सा आनुकूल्यादिति काममयः संभोगो व्यावृत्तः॥ चतुर्विध इति। एतदुपलक्षणत्वात् प्रेमवैचित्त्यानन्तरः पञ्चमोऽपि ज्ञेयः॥ साध्वसव्रीडितादिभिरिति पूर्वरागानन्तर्यमस्य द्योतयति। उपचारान्*
** तत्र नायकेन कृतो यथा सप्तशत्याम्—**
लीलाहितुलिअसेलो रक्खउ वो राहिआत्थणप्फंसे।
हरिणो पढमसमागमसज्झसवेवल्लिओ हत्थो॥५॥
[लीलाभितुलितशैलो रक्षतु वो राधिकास्तनस्पर्शे।
हरैः प्रथमसमागमसाध्वसवेवेल्लितो हस्तः॥]
** नायिकाया यथा—**
चुम्वे, पटावृतमुखी नवसंगमेऽभू-
दालिङ्गने कुटिलताङ्गलता तदासीत्।
अव्यक्तरागजनिकेलिकथासु राधा
मोदं तथापि विदधे मधुसूदनस्य॥६॥
** अथ संकीर्णः—**
यत्र संकीर्यमाणाः स्युर्व्यलीकस्मरणादिभिः।
उपचाराः स संकीर्णः किंचित्तप्तेक्षुपेशलः॥७॥
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॥२॥३॥४॥ नान्दीमुखी श्रीराधासखीराह— ‘लीलाभितुलितशैलो रक्षतु वो राधिकास्तनस्पर्शे। हरेः प्रथमसमागमसाध्वसवेवेल्लितो हस्तः॥’ लीलाया अभि निर्भरं यथा स्यात्तथा तुलितः उद्धृतः शैलो गोवर्धनो येन सः। वेवेल्लितः कम्पितः। साध्वसमत्र जन्मारभ्य कदाप्यकृतत्वात् स्त्रीसंभोगोऽयं किमाकारो निर्वहेदिति वा भावनया॥५॥ नवसंगमे यश्चुम्वश्चुम्वनं तत्र॥६॥ व्यलीकं नायककृतविपक्षवैशिष्ट्यस्ववञ्चनादि तस्य स्मरणकीर्तनादिभिः संकीर्णा मिश्रिता
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तत्तत्परिपाटीः॥१॥२॥३॥४॥ अत्र नायकेन कृतो यथेत्यत्र संक्षिप्त एव पूर्वतो योज्यः॥ लीलेति। “लीलाभितुलितशैलो रक्षतु वो राधिकास्तनस्पर्शे। हरेः प्रथमसमागमसाध्वसवेवेल्लितो हस्तः।" इत्यर्थः। अभितुलितत्वमुत्थापितत्वं श्रीकृष्णस्य साध्वसमत्र परकीयात्वप्रत्ययात्॥५॥ तदेवं साध्वसमुदाहृत्य व्रीडामुदाहरति— चुम्ब इति। तत्र च तदेति यद्यपि सर्वत्र तादृशत्वं वर्तत एव तथापि नवसंगमेऽत्राधिक्यमिति ज्ञापनाय॥ ६॥ व्यलीकमप्रियम्
** यथा—**
सासूयजल्पितसुधानि समत्सराणि
मानोपरामरमणीयदृगिङ्गितानि।
कंसद्विषःस्फुरदमन्दमुखान्यनङ्ग-
विक्रीडितानि सह राधिकया जयन्ति॥८॥
** यथा वा—**
वक्रं किंचिदवाञ्चितं विवृणुते नातिप्रसादोदयं
दृष्टिर्भुग्नतटा व्यनक्ति शनकैरीर्ष्यावशेषच्छटाम्।
राधायाः सखि सूचयत्यविशदा वागप्यसूयाकलां
मानान्तं ब्रुवती तथापि मधुरा कृष्णं धिनोत्याकृतिः॥९॥
** अथ संपन्नः—**
प्रवासात्संगते कान्ते भोगः संपन्न ईरितः।
द्विधा स्यादागतिः प्रादुर्भावश्चेति स संगमः॥१०॥
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उपचाराश्चुम्वनालिङ्गनादयः, तप्तेक्षुरिव पेशलः स्वादुः औष्ण्यमाधुर्ययोरेकदैवानुभवात्॥७॥ कदाचित्पौर्णमासी स्वयमेव श्रीराधां प्रसाद्याभिसार्य श्रीकृष्णेन सह संगमय्य दूराल्लतारन्ध्रेण केलिं पश्यन्ती तस्या नित्यस्थितिमाशास्ते— सासूयेति। असूया श्रीकृष्णस्य गुणे दोषारोपः। समत्सराणीति मत्सरः प्रतिनायिकाया गुणे द्वेषः॥८॥ अत्र संभोगस्यादिमध्यभागयोरेव संकीर्णत्वं संभवेत् नत्वन्तिमे भागे, तत्र मध्यमं भागमुदाहृत्यादिमध्यममप्युदाहर्तुमाह—यथा वेति। गार्गी नान्दीमुखीं रसमास्वादयन्त्याह।वक्त्रं कर्तृ।एवं च मानान्तं ब्रुवती तस्या आकृतिस्तथापि श्रीकृष्णं धिनोति॥९॥ प्रवासात् किंचिद्दूरविप-
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॥७॥ कंसद्विपा सममिति वृषभानुजया जयन्तीति च वा पाठः॥८॥ वक्रं कर्तृ॥९॥ अथ संपन्न इति संपन्नपदवलेनैव संक्षिप्तसंकीर्णावतिक्राम्यति
** तत्रागतिः—**
लौकिकव्यवहारेण स्यादागमनमागतिः।
** यथोद्धवसंदेशे—**
मा मन्दाक्षं कुरु गुरुजनाद्देहलीं गेहमध्या-
देहि क्लान्ता दिवसमखिलं हन्त विश्लेषितोऽसि।
एषस्मेरो मिलति मृदुले वल्लवीचित्तहारी
हारी गुञ्जावलिभिरलिभिर्लीढगन्धो मुकुन्दः॥११॥
** अथ प्रादुर्भावः—**
प्रेष्ठानां प्रेमसंरम्भविह्वलानां पुरो हरिः।
आविर्भवत्यकस्माद्यत्प्रादुर्भावः स उच्यते॥१२॥
** यथा श्रीदशमे—**
तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः।
पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः॥१३॥
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यात् संगते कान्ते इति कान्तस्य संगमःस च द्विविधः॥१०॥ प्रातःप्रातर्ब्रजाद्वनगमनं प्रतिसायं वनाद्व्रजागमनमिति लौकिकव्यवहारः। वनात् गोष्ठमायान्तं श्रीकृष्णं ज्ञापयन्ती विशाखा श्रीराधामाह—**मन्दाक्षं लज्जाम्।**देहलीं निजालयद्वारपीठिकाम्॥११॥ प्रेमसंरम्भेरूढभावविक्रमेणाकस्मात् स्थानान्तरवत् आगमनं विनैवेत्यर्थ॥१२॥ रासविप्रलम्भानन्तरं श्रीकृष्णप्रादुर्भावं शुक आह—तासामिति। तासामाविः प्रत्यक्षोऽभूत्।देशान्तरादागत्य तासामग्रे तस्थाविति केचिद् व्याचक्षते चेदत आह—यथा वेति॥१३॥ प्रोषितभर्तृका श्रीराधा ललिता प्रति स्वाप्नं संभोगवृत्तान्तमुक्त्लाप्रादुर्भावोत्थं तत्राह—
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॥१०॥११॥१२॥१३॥
** यथा वा हंसदूते—**
अयि स्वप्नो दूरे विरमतु समक्षं शृणु हठा-
दविस्रब्धामा भूरिह सखि मनोविभ्रमधिया।
वयस्यस्ते गोवर्धनविपिनमासाद्य कुतुका-
दकाण्डे यद्भूयः स्मरकलहपाण्डित्यमतनोत्॥१४॥
रूढाख्यभावजातोऽयं संभोगो वैप्रलम्भिकः।
निर्भरानन्दपूराणां परमावधिरिष्यते॥१५॥
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**अयीति।**समक्षं जागरणदशायामेवेत्यर्थः। ननु त्वमत्र वृन्दावने श्रीकृष्णो मथुरायामतः कथं युवयोरद्यतनः सङ्गो मनोविभ्रमं विना संभवेदिति वदिष्यन्तीं तां विश्वासयन्त्याह—हठादित्यादि। यद्यप्ययं सुदूरप्रवासान्तभवत्वात् समृद्धिमानेव भवितुमर्हति तदपि द्वयोः पारतन्त्राभावात्तल्लक्षणासिद्ध्या पारिशेष्यात् संपन्न एवायमिति दर्शितम्। हठादित्यादीत्यन्तं व्याख्यान्तरं क्वचित्। संभोगस्यास्य सुदूरप्रवासानुभवत्वेऽपि कृष्णपारतन्त्र्यादर्शनान्नायं समृद्धिमान् किंतु संपन्न एव ग्रन्थकृतामाशयः। अत एव दन्तवक्रवधानन्तरं व्रजमागतस्य श्रीकृष्णस्य श्रीराधादिभिः सह सङ्गोऽपि संपन्न एव न तु समृद्धिमान्। केचित्पुनरेवं व्याचक्षते। अत्र प्रकरणदृष्ट्या संभोगस्यास्य सुदूरप्रवासान्तभवत्वं नाशङ्कनीयम्। लोकानां हि स्वप्नमूर्च्छावैवश्यादावतीतावस्था वर्तमानावस्था च भाति। तत्रापि पूर्वा प्रायः सार्वदिकी उत्तरा तु कादाचित्कीत्यतो मोहाद्यभावेऽपि आत्मादिसर्वविस्मरणं सदेति रूढानुभावश्रवणात श्रीवृन्दावनेश्वर्या माथुरविरहविप्रलम्भजनितमहावैवश्यवशादकस्मात् सर्वविस्मरणक्षण एव प्रादुर्भूते श्रीकृष्णे मत्कान्तोऽयं स्ववयस्येषु गाः समर्प्य केनचिन्मिषेणैवैकाकी मत्प्रेमभराक्रान्तो मां रमयितुमत्र गोवर्धनविपिन एवागत इत्यक्रूरागमनात् प्राक्तन्या एव लीलायास्तादात्मिकत्वभानात् संभोगस्यास्य किंचिद्दूरप्रवासान्तभवत्वमेव ज्ञेयम्। एवमेवोपरिष्टात् स्वाप्नसंपन्नेऽपि व्याख्येयम्॥१४॥ विप्रलम्भेभवो वैप्रलम्भिकः।अध्यात्मादित्वात् ठक्। निर्भरेति परमेत्यवधीति शब्दैः समृद्धिमतोऽस्य संपन्नसंभोगस्य
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अयं हंसदूतोक्तप्रादुर्भावो रूढाख्यभावाज्जातो विप्रलम्भेन चरति वैप्रलम्भिकः स चायं सभोगो निर्भरेत्यादिलक्षणः॥१४॥ अथ चतुर्णां विप्रलम्भानां यथाक्रमं तापशमकेषु चतुर्षु सभोगेषु पूर्वरागतापनिर्वापकः संक्षिप्तः मानतापशमनः संकीर्णः। स्वव्रजान्निर्गतप्रवासनिर्वापकः संपन्न इति क्रम उक्तः।
द्विगुणा विरहार्तिः स्यात्स्फुरणे वेणुरागजे।
प्रादुर्भावे भवत्यत्र सर्वाभीष्टसुखोत्सवः॥१६॥
** अथ समृद्धिमान्—**
दुर्लभालोकयोर्यूनोः पारतन्त्र्याद्वियुक्तयोः।
उपभोगातिरेको यः कीर्त्यते स समृद्धिमान्॥१७॥
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न्यूनत्वं नाशङ्कनीयं प्रत्युताधिक्यमिति ज्ञापितम्। ननु वैप्रलम्भिकस्फूर्तिप्राप्तेन श्रीकृष्णेन सह संभोगस्यास्य कथमेतावानुत्कर्षः तत्र नेयं स्फूर्तिःकिं तु स्फूर्तितोऽस्य वैलक्षण्यं महदेवेत्याह—द्विगुणेति। अनुरागजे स्फुरणे अनुरागोत्थायां स्फूर्तौकान्तसङ्गसुखानन्तरमित्यर्थः। अत्र रूढभावोत्थमित्यर्थः। तेनानुरागपर्यन्ते स्फूर्तिर्महाभावे प्रादुर्भाव इति भेदो ज्ञापितः॥१५॥१६॥ वियुक्तयोस्तान् पूर्वरागत इति उक्तक्रमेण सुदूरप्रवासवशात् विरहिणोर्यूनोर्नायिकानायकयोर्द्वयोरेव पारतन्त्र्याद्धेतोरेव दुर्लभालोकयोर्य उपभोगस्यातिरेक आधिक्यं
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तथा मुहुर्वर्णितस्य दुःसहचिरविप्रलम्भस्य ध्वंसकः समृद्धिमान् वक्तुमपेक्षते। स च साध्वसव्रीडायुक्तात् सक्षिप्ताद् व्यलीकस्मरणयुक्तात् संकीर्णात्तत्तद्व्यवधानहीनात् संपन्नादप्यधिकः। तथा हि सक्षिप्तस्य प्रत्यासत्त्यङ्कुरमात्रमयत्वाद्गाढप्रत्यासत्तिमयः संकीर्णस्तावद्विशेष्यत एव संपन्नस्तु ततोऽपि विशेष्यते। तप्तेक्षुदृष्टान्तगम्यात्तस्यास्वादविशेषादत्र स्वादाधिक्यं हि गम्यते। आस्वाद्यगुणमतिक्रम्य क्षुदतिशयस्थानीयो विप्रलम्भः खल्वास्वादहेतुर्भवति। क्षुदभावे तप्तेक्ष्वादीनामरोचकत्वात्। पूर्वरागमानावपि विप्रलम्भरूपाविति क्षुत्स्थानीयत्वादेव तद्धेतुर्भवति चेत् किमुत क्रमाद्वृद्धिंप्राप्तेन रागेण समवेतः प्रवासः। तथा च वर्णितः—‘गोपीनां परमानन्द आसीद्गोविन्ददर्शने। क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत्॥” इति। तदेवं संपन्नस्य तद्द्वयादुत्तमत्वेसिद्धे ततोऽपि दूरगचिरप्रवासरूपविप्रलम्भस्य क्षुत्स्थानीयताधिक्यात् समृद्धिमत्या स्वादविशेषः स्पष्ट एवेति पूर्वरागादितापोपशमकसंक्षिप्तादिमत्तया तदधिकतया चावश्यं वर्णनीय इति च समृद्धिमन्नामानं संभोगमाह।ऋद्धिशब्दस्तावत् संपन्नतावाचकः। तत्र समित्युपसर्गे आधिक्यम्। मतुप्प्रत्ययस्य प्रशंसातिशयनित्ययोगप्रत्यायनं तु ततोऽप्यधिकं दर्शयति॥१५॥१६॥ तदेवं योगमायावलेन तस्य सर्वाधिक्ये लब्धे लक्षणेन तदेवं दर्शयति— दुर्लभः कृच्छ्रसाध्यःआलोकः
स समृद्धिमान् संभोगः कीर्त्यते। संपन्नादिसंभोगे दुर्लभालोकत्वस्य द्वयोः पारतन्त्रंन कारणं किं त्वेकस्या नायिकाया एव तस्या हि श्वश्रुपतिंमन्यपित्रादीनामधीनत्वं तैर्वार्यमाणत्वं च न तु नायकस्य श्रीकृष्णस्य तस्य हि स्वपित्रादीनामधीनत्वेऽपि न तैः स्त्रीसङ्गप्रसङ्गे वार्यमाणत्वं नायिकायाः श्वश्रुपतिंमन्यादिभिर्वार्यमाणत्वेऽपि न तेषामधीनत्वम्। अत्र तु दग्धं हन्तेति तवात्र परिमृग्यतेत्युदाहरणद्वये द्वयोरेव श्रीराधाकृष्णयोर्ललितमाधवोक्तकथानुसारेण रुक्मिण्या अधीनत्वं वार्यमाणत्वं च। एवं च वार्यमाणत्वाधीनत्वहेतुके दौर्लभ्ये सत्युपभोगातिरेके बहु वार्यते यतः खल्विति यत्र निषेधविशेषः सुदुर्लभत्वंच यन्मृगाक्षीणां इत्यादीन्येव प्रमाणानि प्रागेवोक्तानि। वार्यमाणत्वदौर्लभ्याधिक्ये उपभोगाधिक्यं युक्तिसिद्धमेव तदाधिक्यं तत्र ललितमाधवकथायामेव द्रष्टव्यम्। पारतन्त्र्यादित्यनेन द्वयोर्मानहेतुकं दुर्लभालोकत्वंव्यावृत्तम्। पारतन्त्रादपादानाद्वियुक्तयोः पारतन्त्र्यरहितयोरित्यर्थः इति व्याख्या तु न संगच्छते दग्धं हन्त दधानयेति तवात्र परिमृग्यतेत्युदाहरणद्वये तयोः पारतन्त्रराहित्यादर्शनात् प्रत्युत पारतन्त्रपरमावधित्वमेव तत्कथायां दृष्टं यत्र दत्तशपथा नववृन्दापि रहस्यं च वक्तुं न प्रभवतीति। पारतन्त्र्याद्धेतोवियुक्तयोरित्यर्थोऽपि नात्र घटते। वियुक्तयोरिति वियोगोऽयं सुदूरप्रवासभवोऽवश्यं व्याख्येय एव। स च सुदूरप्रवासो मथुरागमनरूप एक एव तत्र पारतन्त्रादिति कारणोपादानमव्यावृत्तिकमकिचित्करमेवेति। किंचायं समृद्धिमान् संभोगो लक्षणोदाहरणदृष्ट्या ललितमाधवोक्तकथाक्रमेण प्रकटलीलायामेव तत्रापि सकृदेव संभवति। नित्यत्वं त्वस्य प्राक् प्रदर्शितमेव। एवं च सुदूरप्रवासान्ते दाम्पत्ये सत्यपारतन्त्र्येएव समृद्धिमान् संक्षिप्तसंकीर्णसंपन्ना एवौपपत्येइति व्याख्याप्रसिद्धिर्नैव ग्रन्थकृदाशयस्पर्शिनीति वुध्यते। पारतन्त्र्याभाव एव दाम्पत्य एव समृद्धिमानिति यदि तेषामाशयस्तर्हि “सख्यस्ता मिलिता निसर्गमधुरप्रेमाभिरामीकृता यामीयं समगंस्त संस्तववती श्वश्रूश्चगोष्ठेश्वरी। वृन्दारण्यनिकुञ्जधाम्निभवता संगोऽप्ययं रङ्गवान् संवृत्तः किमतः परं प्रियतरं कर्तव्यमत्रास्तिमे॥” इति स्पष्टमेव पारतन्त्र्याभावदाम्पत्यनिरूपकं पद्यमुदाहृत्य दग्धं
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परस्परदर्शनमपि ययोस्तयोर्दुर्लभत्वालोकत्वस्य हेतुरूपात् पारतन्त्र्यात् परस्परदर्शनादिविरोधिवशीभावादपादानाद्वियुक्तयोः सतो य उपभोगातिरेकः परस्परदर्शनादिरूपःसंक्षिप्तसंकीर्णसंपन्नानतिक्रम्य संभोगातिशयः क्षुदतिशयस्थानीयदूरगतिमयचिरविप्रलम्भलम्भितास्वादविशेषतया सोऽयं समृद्धिमान् कीर्त्यत इत्यर्थः।
- ३७ उज्ज्व०*
हन्तेति तवात्र परिमृग्यतेति औपपत्यपारतन्त्र्यमयं पद्यद्वयं कथमुदाहरणत्वेनोपन्यस्तम्। तदाहि विवाहप्रसङ्ग एव नास्ति सूर्यदत्ता सत्राजितकन्यैवाहमित्यभिमानवत्या अपि श्रीराधायाः श्रीकृष्णे पूर्ववदौपपत्यभाव एव। पारतन्त्र्यस्य तु तदानीं परमावधिः स्पष्ट एवेति कियानपह्नवो विधेयः। ननु “सख्यस्ता मिलिता” इत्यादौ किमतःपरं कर्तव्यमत्रास्ति मे इति वृन्दावनेश्वर्या वाक्येन पारतन्त्र्याभावमये दाम्पत्य एवानन्दाधिक्यमवसीयते।मैवम्। तत्रैव तदनन्तरमपि तया पुनश्चोक्तम्। “याते लीलापदपरिमलोद्गारिवन्यापरीता धन्या क्षौणी विलसति वृता माधुरी माधुरीभिः।तत्रास्माभिश्चटुलपशुपीभावमुग्धान्तराभिः संवीतत्वं कलय वदनोल्लासिवेणुर्विहारम्॥” इति। अस्यार्थः। लीलापदानि रासादिलीलाचिह्नान्येव परिमलास्तदुद्गारिणी या वन्या वनसमूहस्तया परीता व्याप्ता माधुरी मथुरा चेति द्विरूपकोशात् ‘अदूरभवश्व’इत्यणा मधुराया अदूरभवा या क्षोणी मथुरातः सार्थगव्यूत्युत्तरा श्रीवृन्दावननाम्नीति द्वारकास्थनववृन्दावनं व्यावृत्तम्। कीदृशी माधुरीभिस्तत्रत्यगिरिनदीवृक्षपशुपक्ष्यादिमाधुर्यैर्वृता। तत्रैवास्माभिरपि कीदृशीभिः। चटुलाश्चपला याः पशुप्यो गोप्यस्तद्भावेन मुग्वान्यन्तराणि अन्तःकरणानि यासां ताभिः। अत्र चटुलेति स्त्रीणा चाञ्चल्यमुपपतिरतत्वमेव व्यनक्ति। चञ्चलेयं स्त्रीत्युक्ते तथैव लोकप्रसिद्धे। तथा पशून् पान्तीति पशुपा गोपास्तेषां स्त्रिय इति पुंयोग एव डीप् न तु जातौ हि गोपादिशब्द एव रूढो न तु पशुपपशुचारकादिशब्दो लोकेष्वप्रसिद्धेरेव प्रसिद्धो वा चटुलपदमेवात्र तासां परकीयात्वंव्यनक्ति।कन्यानां वा व्यूढानां वा चाञ्चल्यं हि परपुरुषासक्तिमेव व्यनक्ति। मुग्धेति मौग्ध्यमत्र विवेकशून्यत्वं तच्चैहिकपारत्रिकधर्मोल्लङ्घनरूपमेव। त्वं च कीदृशः ।वदनोल्लासिवेणुर्नारीजनानुकर्षकवेणु। विहाररासवनविहारनौखेलादानलीलादिकम्। तेन संप्रति त्वं राजेन्द्रस्तवाहं पत्नी पट्टमहिषीपतिव्रतैवेति दाम्पत्यमिदमभिलषणीयवस्तुनः प्रतिकूलमेवेति भावः। ततः परं तु प्रिये तथास्त्विति श्रीकृष्णस्योक्त्याव्रजभूमावोपपत्यमेव न दाम्पत्यमिति ग्रन्थकृदाशयोऽवगम्यते। ननु कथं ग्रन्थकृद्भिरेव व्रजसुन्दरीणा द्वारकास्थनववृन्दावने ललितमाधवे श्रीकृष्णेन विवाहो वर्णितः। यदि च तत्र वर्णितस्तदाक्वाचित्के कल्पे दन्तवक्रवधानन्तरं व्रजभूमावागतेन श्रीकृष्णेन भागवतामृतधृत-
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पारतन्त्र्याद्धेतोर्वियोगं प्राप्तयोरित्यर्थः।तत्र न घटते संक्षिप्तादिभ्यो वैशिष्ट्यानुपपत्तेः। दुर्लभालोकयोरित्यनेनैव तदाप्तेश्चपारतन्त्र्याद्वियुक्तत्वमिदमपारतन्त्र्यं
यथा ललितमाधवे—
दग्धं हन्त दधानया वपुरिदं यस्यावलोकाशया
सोढा मर्मविपाटने पटुरियं पीडातिवृष्टिर्मया।
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पाद्मोत्तरखण्डीयगद्यपद्यकथायामनुक्तोऽपि तासां विवाहो युक्त्या अभ्युपगन्तव्य एव स्यात्। सत्यम्। तासां द्वारकायां विवाहो हि न केवलं निष्प्रमाणक एव। यदुक्तं पाद्मद्वात्रिंशदध्याये कार्तिकमाहात्म्ये “कैशोरे गोपकन्यास्ता यौवने राजकन्यकाः॥” इति। स्कान्दे प्रभासखण्डे च गोप्यादित्यमाहात्म्ये पट्टमहिषीरुद्दिश्य “षोडशैव सहस्राणि गोप्यस्तत्र समागताः” इति। अतः पूर्णतमस्य श्रीवृन्दावनेन्द्रस्यैव द्वारकानाथो यथा पूर्णप्रकाशस्तथैव पूर्णतमानां तदीयह्लादिनीशक्तीनां व्रजसुन्दरीणां पूर्णरूपा रुक्मिणीसत्यभामाद्याः भीष्मकसत्राजिदादीनां सुतास्तासां विवाहो द्वारकायां समुचित एव न तु पूर्णतमधाम्निब्रजभूमौ वर्णयितुं शक्यः। समर्थाया रतेः समञ्जसत्वापत्तेः। चटुलपशुपीभावमुग्धेत्यादि प्रार्थनाप्रातिकूल्याच्च। यथा द्वारकानाथो हि ब्रजराजनन्दन एवाहं संप्रति वसुदेवसूनुर्द्वारकायामस्मीत्यभिमन्यते तत्रैव पटुमहिष्योऽपि चन्द्रभान्वादिसुताश्चन्द्रावल्याद्या एव वयं संप्रति भीष्मकादिसुताः श्रीकृष्णेन व्यूढा एवाभूमेत्यभिमन्यते। श्रीकृष्णस्य यथा वृन्दावनीयलीलायामुत्कर्षवुद्धिस्तथैवासामपि चटुलपशुपीभावे रसाधिक्यादिति दिक्॥१७॥ द्वारकास्थनववृन्दावने विश्वकर्मनिर्मितामिन्द्रनीलमणिमयीं श्रीकृष्णमूर्तिमेव साक्षात्प्राप्तुं श्रीकृष्णं मन्यमाना श्रीराधा सानन्दचमत्कारं नववृन्दामाह— दुग्धमिति। दग्धं विरहाग्निना ज्वलितमपि। पीडा
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दर्शयता दर्शितम्। “गृहे याः सेवन्ते प्रियमपरतन्त्राः प्रतिदिनम्” इत्यनेन स्वीयोदाहरणेन। किंत्वादित एवापरतन्त्राभ्यस्ताभ्यः पारतन्त्र्यात् वियुक्तानां विशेषो ‘न विना विप्रलम्भेन संभोगः पुष्टिमश्नुते’ इति न्यायेन उदाहरिष्यते च तदित्थमेवेति॥१७॥ ननु सोऽयं समृद्धिमान् सर्वेषां विप्रलम्भगतानां संभोगगतानां च भावानां फलरूप उक्तः। इति समधिकं नास्ति सुखमिति। स एवं तु सर्वोत्तमत्वेन दर्शितानां व्रजदेवीनां न संभवति परकीयात्वेन परतन्त्राणां परित्यज्य यदुपुरं गतेन कथंचिच्चिरात् कुरुक्षेत्रे प्राप्तेनापि झटिति वियुक्तेन पुनरप्राप्तत्वेन श्रीकृष्णेन सदा विरहिणीनां तत्रायोग्यत्वात् ततः कथं तासां सर्वोत्तमत्वं तदेतदाशङ्क्यतासां समृद्धिमन्तं गमयति—यथा ललितमाधव इति।
कालिन्दीयतटीकुटीरकुहरक्रीडाभिसारव्रती
सोऽयं जीवितबन्धुरिन्दुवदने भूयः समासादितः॥१८॥
** यथा वा—**
तवात्र परिमृग्यता किमपि लक्ष्म साक्षादियं
मया त्वमुपसादिता निखिललोकलक्ष्मीरसि।
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अक्रूरागमनाद्या रुक्मिणीपारवश्यान्तास्तासामतिवृष्टिः।इन्दुवदने, हे नववृन्दे, रुक्मिण्यादिनामभिः स्थापिताः कुमारितयैव ज्ञापिताश्च \। तत्र रुक्मिण्यादीनां विवाहश्चश्रीकृष्णेन सह वर्णितः। नरकहृतानां षोडशसहस्रकन्यानां तथा रीतिः कृता। तत्र सत्राजितापि सत्यभामाख्या श्रीराधा श्रीकृष्णायोपहारीकृतेति। न चेयं कथाकल्पना मय्येव किंत्वत्रास्ति चार्षं प्रमाणम्।यथा पाद्मेद्वात्रिंशदध्याय्याप्रसिद्धे कार्तिकमाहात्म्ये—“कैशोरे गोपकन्यास्ता यौवने राजकन्यकाः। " इति। स्कान्दप्रभासखण्डे च गोप्यादित्यमाहात्ये पट्टमहिषीरुद्दिश्य " षोडशैव सहस्राणि गोप्यस्तत्र समागताः” इति। तस्माच्छ्रीभागवते कुरुक्षेत्रयात्रायां व्रजदेव्यः पट्टमहिष्यो यत् परस्परं भेदेन वर्णितास्तत् खलु कल्पभेदादेव मन्तव्यम्। तदेवं स्थिते समृद्धिमत उदाहरणं श्रीराधामधिकृत्य श्रीललितमाधवपद्येनाह—दग्धं हन्तेत्यनेन। तदिदं पद्यं सन्नाजितार्पिताया अपि श्रीराधाया द्वारकामध्यकल्पितवृन्दावने श्रीकृष्णेन च चन्द्रावलीसंकोचात् किंचित्कालं संगोप्य रक्षिताया द्वारकानाथोऽयमस्माकं व्रजराजनन्दन इत्यजानत्यास्तद्वनस्थश्रीगोपालप्रतिमादर्शनेन स एवायमिति मन्यमानाया वचनम्॥१८॥ अत्र श्रीकृष्णप्रतिमापि श्रीकृष्ण एवेति द्वयोरेव परस्परदुर्लभालोकत्वं रुक्मिणीपारवश्यं च न स्पष्टमित्यपरितुष्यन्नाह—यथा वेति। सर्वथैवासंभवदर्शना श्रीराधां चिरप्रवा-
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तत्र चेयं कथापरिपाटी।श्रीमत्यश्चन्द्रावलिराधादयस्तावद्भीष्मकादिपत्नीनां गर्भजाः।माययैव चन्द्रभान्वादिगोपपत्नीगर्भे संचारिताः। अन्येनान्येन गोपेन विवाहश्च तासां माययैव प्रत्यायितः। तं च प्रलाय्यतेन तेन तासां रहःसङ्गः संकल्पितानां तादृशीनां तच्छप्यादिप्रापणेन विगमितः। श्रीकृष्णेनामूः संगमिताश्र॥१८॥ यदा च श्रीकृष्णः कंसवधार्थं यदुषुगतस्तदा केनचित्प्रकारेणामूर्भीष्मकादिगृहं नीत्वाभीष्मकादिकन्यात्वेन प्रत्याय्यतत्र चापरितुष्य साक्षाद्व्रजराजनन्दनत्वेन
यथा जगति चञ्चता चणकमुष्टिसंपत्तये
जनेन पतिता पुरः कनकवृष्टिरासाद्यते॥१९॥
** इति मधुररसपरिपाकविवेकः॥**
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सान्ते साक्षादवलोक्य श्रीकृष्णः सानन्दसंमर्दं सगद्गदमाह— तवेति। किमपि लक्ष्म चतुर्दशभुवनेषु मध्ये काप्यसि त्वं त्वद्वस्त्रालंकारसखीजनादिवार्तां वा परिभृग्यता देशे देशे लोकप्रस्थापनेन नारदादिसर्वज्ञजनद्वारा च अन्विष्यता मया त्वमुपसादिता लब्धासि। कीदृशी। निखिला लोका भूर्भुवःस्वरादयः वैकुण्ठाश्च तेषां लक्ष्मीःशोभारूपासि।एकावयवस्थेन मुख्येनालंकारेण कामिनीव एकदेशस्थया त्वया तु वनमण्डलीयं द्योतत इति भावः। चञ्चता भ्रमता॥१९॥
इति मधुररसपरिपाकविशेषविवृति॥
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प्रलभिज्ञातस्य श्रीद्वारकानाथस्य प्राप्तौ श्रीद्वारकानाथस्य तस्यैव वचनरूपं पद्यमाह— तवात्रेति। तदेतदुपलक्षणं पूर्णमनोरथं सर्वनिर्वाहणाङ्गमपि क्रोडीकरोति। तथा हि यदा गोष्ठेश्वर्या द्वारकायां गमनं जातम्। चन्द्रावल्याश्च गोकुलसिद्धनिजभगिनीत्वंश्रीराधायाः प्रतीतम्। तदा श्रीकृष्णराधयोर्विवाहः संवृत्तस्तदा च श्रीकृष्णराधयोरुक्तिप्रत्युक्ती तत्र श्रीकृष्णस्योक्तिः—‘प्राणेश्वरि प्रार्थयस्व किमतःपरं ते प्रियं करवाणि’ इति। अथ श्रीराधायाःप्रत्युक्तिः—सख्यस्ता मिलिता निसर्गमधुरा प्रेभाभिरामीकृता यामीयं समगंस्त सस्तरवती श्वश्रूंश्च गोष्ठेश्वरी। वृन्दारण्यनिकुञ्जधाम्नि भवता सङ्गोऽप्ययं रङ्गवान् संवृत्तः किमतः परं प्रियतमं कर्तव्यमत्रास्ति मे॥’ इति। तदेतदुक्त्वापि तत्र तस्य श्रीवृन्दावनस्य कल्पितत्वं वितर्क्यपुनराह—’ या ते लीलारसपरिमलोद्गारिवन्या परीता धन्या क्षौणी विलसति वृता माथुरीमाधुरीभिः। तत्रास्माभिश्चटुलपशुपीभावमुग्धान्तराभिः संवीतस्त्वं कलय वदनोल्लासिवेणुर्विहारम्॥’ इति। अत्र माथुरीति मधुरापुर्या अदूरभवा इत्यर्थः। ‘अदूरभवश्व’ इति चातुरर्थिकतद्धितः। सा क्षौणी वृन्दावनविभूतिरिति व्याख्येयम्। अत्र पूर्वपद्येसख्यस्ता इति सङ्गान्तरापगमात् यामीयमिति भगिनीत्वेन प्रसिद्धेन चन्द्रावल्याः सपत्नीयोगेर्ष्यापरित्यागात् श्वश्रूश्चेति प्राचीनश्वश्रूंमन्यजटिलायाः श्रीकृष्णानुगतिविरोधित्वाभावात् प्रत्युत तदानुकूल्यात् वृन्दा-
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रण्येति तादृशेऽप्यस्मिन् किमुत साक्षात् तस्मिन्निति स्थानसंकोचापगमात् निखिलपारतंत्र्यान्मुक्तत्वं दर्शितम्। भवता सह सङ्गोऽप्ययं रङ्गवान् नानाकौतुकवान् संवृत्त इत्युपभोगातिरेकस्य पराकाष्ठा दर्शिता। ततश्च दुर्लभालोकयोर्यूनोरिति समृद्धिमदाख्यसंभोगस्य लक्षणमत्र पर्यापितं तदेवं सत्युत्तरपद्ये तु कैमुत्यमेव लब्धमिति। अत्र श्रीकृष्णस्याभ्युपगमः प्रिये तथास्त्विति सोऽयमभ्युपगमः कायव्यूहेन द्वारकायां श्रीवृन्दावने चाविर्भावात् संगमनीयः। तत्तल्लीलोचितरूपस्वप्रियतमसहितेन पट्टमहिषीरूपेण पूर्वत्र व्रजदेवीरूपेण तु परत्रेति। किंतु व्रजदेवीनां श्रीकृष्णेन विवहनं श्रीगोष्ठेश्वर्याः साक्षादिति तासामन्येनान्येन विवहनं मायिकमात्रतया जातमिति च त्वया स्वपुत्रेण श्रीकृष्णेन स्नुषाभिश्चन्द्रावल्यादिभिश्चागतया पौर्णमास्यादिद्वारा प्रमापय्य व्रजे प्रकाशितमिति ज्ञेयम्। अत एव श्रीवृन्दावनगतदर्शनाद्युपासनपूजायां रुक्मिण्यादिनामभिरुभयाभेदमानिभिस्ता उपास्यमानास्तन्त्रादिषु श्रूयन्ते। तदेवमभेदेन ललितमाधवसिद्धान्तः कादाचित्ककल्पगतोज्ञेयः। अथ भेदेन प्रायिककल्पगतसिद्धान्तश्च श्रीभागवतानुसारेणात्राप्यङ्गीकृतोऽस्ति। यथा कुरुक्षेत्रयात्रायां मोदनाख्यभावप्रसङ्गे “हन्त स्तम्भकरम्विता भुवि कुरोर्भद्रा सरस्वत्यभूत्” इत्यादिना। यथा च श्रीमदुद्धवसंदेशाख्यकाव्ये — विन्दन् वंशीस्फुरितवदनो नेत्रवीथीमकस्मादन्तर्वाधाकवलितवियो धातुमिर्धूमलाङ्गः। क्रीडाकुञ्जेलुठितवपुषः स्वान्तमानन्दधाराकल्लोलैस्ते रहसि सहसोत्फुल्लमुल्लासयिष्ये॥” इत्यनेन। अत्र च पक्षे पूर्ववन्महाविप्रलम्भसमापनाय दन्तवक्रवधानन्तरं श्रीकृष्णस्य गोकुलागमनं पाद्मोत्तरखण्डवचनानि संगृह्य संक्षेपभागवतामृते स्वयमेव ग्रन्थकृद्भिर्दर्शितम्।वैष्णवतोषिण्या तदग्रजचरणैश्च यथा प्रथमं तावत् पाद्मोत्तरखण्डगद्यम्—श्रीकृष्णोऽपि तं हत्वा यमुनामुत्तीर्य नन्दव्रजं गत्वासोत्कण्ठौ पितरावभिवाद्याश्वास्य ताभ्या साश्रुकण्ठमालिङ्गतः सकलगोपवृद्धान् प्रणम्याश्वास्य वहुवस्त्राभरणादिभिस्तत्रस्थान् सर्वान् संतर्पयामास’ इति। श्रीमद्भागवतं चेदम्। तत्र सत्यसंकल्पतया वेदादिभिर्गीतस्य तस्य संकल्पः स्पष्टः। “तास्तथा तप्यतीर्वीक्ष्य स्वप्रस्थाने यदूत्तमः।सान्त्वयामास सप्रेमैरायास्य इति दौत्यकैः॥” इत्यत्र।“यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्। ज्ञातीन् वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम्॥” इत्यत्र च ।द्रष्टुमिति दर्शनविषयीभवितुमित्यर्थः। ‘तथापि भूमन् महिमाऽगुणस्य ते विवोद्धुमर्हति’ इति अत्र बोधविषयी भवितुमर्हतीतिवत्। य एव तत्संकल्पः स्पष्टः श्रीमदुद्धवेनापि
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निश्चितः—“आगमिष्यत्यदीर्घेण कालेन व्रजमच्युतः। प्रियं विधास्यते पित्रोर्भगवान् सात्वतां पतिः॥” इत्यनेन। तयोः पित्रोः प्रियं हि सदा तल्लालनरूपमेव। द्वारकावासिप्रजावचने तु तस्यागमनं स्पष्टमेव। “यर्ह्यम्वुजाक्षापससार भो भवान् कुरून् मधून् वाथ सुहृद्दिदृक्षया”। इत्यत्रत्य मधूनित्यत्र मथुरामिति स्वामिटीका च।सुहृदश्च तदा तत्र श्रीव्रजस्था एव। “तत्र योगप्रभावेण नीत्वा सर्वजनं हरिः” इति माथुराणां द्वारकायां प्रवेशः सर्वशब्दप्रयोगात् “वलभद्रः कुरुश्रेष्ठ भगवान् रथमास्थितः। सुहृद्दिदृक्षुरुत्कण्ठः प्रययौ नन्दगोकुलम्॥” इति तत्रैव सुहृच्छब्दप्रयोगाच्च। दन्तवक्त्रवध एव चात्रागमनमर्यादा।यथाह कुरुक्षेत्रयात्रायां श्रीव्रजदेवीः प्रति श्रीकृष्णः स्वयमेव—“अपि स्मरथ नः सख्यः स्वानामर्थचिकीर्षया। गतश्विरायितान् शत्रपक्षक्षपणचेतसः” इति। दन्तवक्त्रवधान्ते शक्रपक्षक्षपणमात्रं निजैर्ब्रजागमने मर्यादा कृता। कुरुक्षेत्रयात्रा चेयं दन्तवक्त्रवधात्पूर्वमेव साल्ववधसहितस्य दन्तवक्त्रवधस्य समकालमेव हि पाण्डवानां वनगमनं वनपर्वणि प्रसिद्धम्। तेषामागमनानन्तरमेव भीष्मादिवधमयं भारतयुद्धम्। सा यात्रा च भीष्माद्यागमनमयीति यथा वलदेवतीर्थयात्रा कुरुक्षेत्रयात्रातः पूर्वं पठिता तद्यात्रा दुर्योधनवधदिने पूर्णेति सा च कंसवधान्नातिदूरा। यत एव तस्यामेव यात्रायां श्रीमदानकदुन्दुभिना कुन्तीदेव्या उक्तम्— “कंसप्रतापिता सर्वे वयं याता दिशं दिशम्। एतर्ह्येव पुनः स्थानं दैवेनासादिताः स्वसः॥” इति। किंतु दन्तवक्त्रवधस्थानं कल्पभेदरीत्या वा वैष्णवतोषणीरीत्या व्याख्या वा श्रीभागवतपाद्मयोर्विवादमेव परिहृत्य संगमनीयम्। दन्तवक्त्रवधानन्तरं श्रीकृष्णस्य व्रजागमनं श्रीभागवतस्यापि संमतम्। यश्च पूर्वपद्यानन्तरं पाद्मोत्तरखण्ड एव पद्यद्वयमस्ति। “कालिन्द्यापुलिने रम्ये पुण्यवृक्षसमाचिते। गोपनारीभिरनिशं क्रीडयामास केशवः रम्यकेलिसुखेनैव गोपवेषधरः प्रभुः। बहुप्रेमरसेनात्र मासद्वयमुवास ह॥” इति। तत्र गोपनारीभिरित्यत्र गोपजातिभिर्नारीभिरिति गम्यम्। तृतीयस्कन्धे श्रीशुकवचने देवहूतींप्रति नृपवधूभिरितिवत्। अनिशमित्यनेनौपपत्यभ्रमानन्तरं दाम्पत्यमेव प्रकटं वभूवेत्यागतम्। वनिताशतयूथप इत्यनेन प्रमदाशतकोटिभिरित्यनेन च तावतीभिः सह निरन्तरक्रीडायां सर्वैर्ज्ञातायामपि संकोचराहित्यव्यञ्जनात्। तथैवाह— रम्येति। रम्यत्वमत्रसर्वेषां मनोरमत्वंअन्यथा तस्मिन् केल्यंशे विरूपे सर्वस्यापि तदंशस्य विगानविषयत्वं स्यादिति। अत एवात्र व्रजे सर्वेषामेव
प्रेमपोषणमभूदित्याह— वहुप्रेमेति। अथ तदनन्तरं गद्यान्तरम्—‘अथ तत्रस्था नन्दादयः पुत्रदारसहिताः पशुपक्षिमृगादयश्च वासुदेवप्रसादेन दिव्यरूपधरा विमानमारूढा परमं वैकुण्ठमवापुरिति। कृष्णस्तु नन्दगोपव्रजौकसां सर्वेषां निरामयं स्वपदं दत्त्वा दिवि देवगणैः संस्तूयमानो द्वारवतीं विवेशेति च। अत्र त्वयमर्थः—नन्दादयः पुत्रदारसहिता इति श्रीमन्नन्दराजस्य तद्वर्गमुख्यस्य पुत्रः श्रीकृष्ण एव दाराश्च श्रीयशोदयैव इति प्रसिद्धापि पुत्रादिशब्दोक्त्या तत्तद्रूपैरेव तैः सह तत्र प्रवेश इति गम्यते। अतो दिव्यरूपधरा इत्युल्लासेन तेषां स्वस्वरूपस्य परमविराजमानत्वं विवक्षितम्। विमानेन तेषां परमवैकुण्ठप्रवेशनं च वहिरङ्गजनानां वञ्चनार्थमेव प्रत्यायितम्। वस्तुतस्तु तेषामदृश्ये वृन्दावनप्रकाशविशेष एव प्रवेशनमिति। वृन्दावन एव हि तापनीवाराहवृहद्गौतमीयवचनैस्तादृशतन्नित्यधामप्रकाशो दर्शितः। वरुणलोकादागत्य श्रीमन्नन्दादिभ्यस्तेषामेव स्वलोकतया वृन्दावन एव स्वलोकविशेषरूपस्तत्प्रकाशविशेषः स्वयमेव श्रीकृष्णेन दर्शितो न च विमानसाधनतयान्यत्र ते नीता इति दशमे एव प्रसिद्धम्। तथा हि— “नन्दस्त्वतीन्द्रियं दृष्ट्वा लोकपालमहोदयम्। कृष्णे च संनतिं तेषां ज्ञातिभ्यो विस्मितोऽब्रवीत्॥ ते चौत्सुक्यधियो राजन् मत्त्वा गोपास्तमीश्वरम्। अपि नः स्वगतिं सूक्ष्मामुपाधास्यदधीश्वरः॥ इति स्वानां स भगवान् विज्ञायाखिलदृक् स्वयम्। संकल्पसिद्धये तेषां कृपयैतदचिन्तयत्॥ जनो वै लोक एतस्मिन्नविद्याकामकर्मभिः। उच्चावचासु गतिषु न वेद स्वां गतिं भ्रमन्॥ इति संचिन्त्य भगवान् महाकारुणिको विभुः। दर्शयामास लोकं स्वं गोपानां तमसः परम्॥ सत्यं ज्ञानमनन्तं यद् ब्रह्मज्योतिः सनातनम्। यद्धि पश्यन्ति मुनयो गुणापाये समाहिताः॥ ते तु ब्रह्मपदं नीता मग्नाःकृष्णेन चोद्धृताः। ददृशुर्व्रह्मणो लोकं यत्राक्रूरोऽध्यगात्पुरा॥नन्दादयस्तु तं दृष्ट्वा परमानन्दनिर्वृताः। कृष्णं च तत्र च्छन्दोभिः स्तूयमानं सुविस्मिताः॥’ इति। तत्र खलुःयन्निजपदं तेषां स्वपदतयादर्शयामास तदेव तेभ्यः पश्चाब्यतारीदिति गम्यते। ते तु ब्रह्महृदं नीता इत्यत्र चायमर्थः—यत्र ब्रह्मह्रदे श्रीकृष्णमक्रूरःस्तुतवान् तं हृदं श्रीकृष्णेन नीता मग्नाश्च पुनस्तेनैव चोद्धृताः सन्तो नवाकृतिब्रह्मणःतस्य लोकं ददृशुरिति। यद्यपि ब्रह्मलोकशब्देन भगवल्लोकमात्रं द्वितीये ब्रह्मलोकः सनातन इत्यनेन लब्धम्। सूक्ष्मामिति तमसः परमिति च तदेव व्यञ्जितं तथापि अपि नः स्वगतिमिति न वेद स्वांगतिमिति गोपानां स्वलोकमिति कृष्णं च तत्रेति
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श्रीगोपालरूपमेव तदिति लभ्यते। अत एवान्य परिकरास्तत्र तैर्न दृष्टाः किं त्वात्मन एव। छन्दोभिः स्तूयमानं च गोपालतापन्यादिरूपैस्तैः श्रीकृष्णत्वानुरूपमेवेति कृष्णं च तत्रेत्यनेन लभ्यते। तदेवमेव तदेकरुचीनां तेषां विस्मितः परमानन्दनिर्वृतिश्च घटते। तेषां स्वलोकस्यापि तस्याज्ञानकारणं तु जनो वा इति। सालोक्यसार्ष्टिसारूप्येत्यादिपद्ये जना इति वदत्रापि तदीयः स्वजन एवोच्यते। अत्र तु विशेषतः। “तस्मान्मच्छरणं गोष्ठं मन्नाथं मत्परिग्रहम्। गोपाये स्वात्मयोगेन सोऽयं मे व्रत आहितः॥” इति स्वयमेव श्रीकृष्णेनान्तर्भावितमिति जनशब्दस्य लोकमात्रवाचित्वे सर्वत्रैव करुणा जातेति सर्वेभ्य एतेभ्यो दर्शना प्रसज्येत सा च न जातेति तथा न व्याख्येयम्। ततश्च परमस्वजनोऽयं मम व्रजवासिलक्षणः प्रापञ्चिकेऽस्मिन् लोके या अविद्याकामकर्मभिर्हेतुभिर्देवतिर्यगादिरूपा उच्चावचा गतयस्तासु भ्रमन् निर्विशेषतयात्मानं मन्यमानो दर्शयिष्यमाणां खां गतिं न जानातीत्यर्थः। मम लोकवल्लीलाया वशादेवेति भाव। ‘यद्धामार्थसुहृत्प्रियात्मतनयप्राणाशयास्त्वत्कृते’ इत्यादेस्तदज्ञानादेव नन्दस्त्वतीन्द्रियं दृष्ट्वा इत्याद्युक्तम्। तस्माद्य एव लोकस्तेषां स्वीयतया तेभ्यो दर्शितः स एव लोकः प्रापितः तत्प्रापणे च विमानादिसाधनमकिंचित्करमेव किंतु लोकानां चमत्कारार्थं तेभ्यःसंगोपनार्थमेव दर्शितमिति साध्वेव व्याख्यातम्। तदुक्तं श्रीवृन्दावनमुद्दिश्य— “आविर्भावस्तिरोभावो भवेन्मेऽत्र युगे युगे” इति। “तेजोमयमिदं ब्रह्मन्नदृश्यं चर्मचक्षुषा” इति च। अतःपुनर्ब्रजमागत्य स्थितस्य नित्यस्थित्यपेक्षयैव “गोगोपगोपिकासङ्गे यत्र क्रीडति कंसहा” इति पदं विन्यस्तम् कंसहेत्यत्र भूत एव कृद्विधानं वृत्रहेतिवत्। तदेवं स्थिते तदानीं श्रीव्रजदेवीनां तत्प्राप्तिक्रमस्त्वेवं विविच्यते। तद्यथा मथुराप्रस्थाने तास्तथा तप्यतीर्वीक्ष्येत्यादावायास्य इति दौत्यकैरिति संदिष्टं तथाभूतान्तरैरपीति गम्यम्। यथोक्तं “धारयन्त्यतिकृच्छ्रेण प्रायःप्राणान् कथंचन। प्रत्यागमनसंदेशैर्वल्लव्यो मे मदात्मिकाः॥” इति। यथा च श्रीमदुद्धवद्वारा पूर्वपूर्वेण “भवतीनां वियोगो मे नहि सर्वात्मना” इत्यादिना संदिश्यापरितुष्योत्तरतोऽस्मच्छब्दस्य त्रिरावृत्या तत्रापि कृष्ण इति विशिष्य संदिष्टं “मय्यावेश्य मनः कृष्णे निवृत्ताशेषवृत्ति यत्। अनुस्मरन्त्यो मां नित्यमचिरान्मामुपैष्यथ॥” इति स्वयमेव कुरुक्षेत्रयात्रायामुपदिष्टम्। “मयि भक्तिर्हि भूतानाममृतत्वाय कल्पते। दिष्ट्या यदासीन्मत्स्नेहो भवतीनां मदापने॥” इति। तत्र च यत्किंचिदुपदिष्टं तत्रापरितुष्टानां तासां विज्ञप्तिमाह—“आहुश्च ते नलिननाभ पदारविन्दं योगेश्वरैर्हृदि
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विचिन्त्यमगाधवोधैः। संसारकूपपतितोत्तरणावलम्वं गेहंजुषामपि मनस्युदियात् सदा नः॥” इति। अयमर्थः—हे नलिननाभ, तव पदारविन्दं नोऽस्माकं मनस्युदियात्। ननु परमानुरागवतीनां भवतीनां किमत्राश्चर्यं तत्राहुः—योगेश्वरैरेव हृदि विचिन्त्यं नास्माभिः। कथमगाधवोधैः। अदर्शनेऽप्यक्षुभितवुद्धिभिर्न त्वस्माभिरिव तद्विचिन्तनारम्भ एव मूर्च्छागामिभिः। ननु तद्विचिन्तनमेव तेषां संसारदुःखमिव युष्माकं विरहदुःखं शमयेत् तत्राहुः। संसारकूपपतितानामेवोद्धरणावलम्बम्। न त्वस्माकं विरहसिन्धुमग्नानां तद्विचिन्तने विरहबुद्धेरेवानुभवात्। नन्वधुनैवागत्य द्वारकायामपि मत्पदारविन्दं पश्यत यावदहं तत्रागच्छामीत्याशङ्क्याहुःगेहंजुषां स्त्रीणां गृहलोकाधीनानामित्यर्थः। तस्माद्यदि स्वयमेव वागत्य स्वपदारविन्दं दर्शयन्ति तत्र भवन्तस्तत्रापि नित्यमेव तदैवास्माकं निस्तार इति भावः। अथ ततः किं जातमिति श्रोतृणामुत्कण्ठां वितर्क्य समाप्ततध्यायेऽपि स्वयमेव श्रीवैयासकिराह— “तथानुगृह्य भगवान् गोपीनां स गुरुर्गतिः। युधिष्ठिररमथापृच्छत्सर्वांश्च सुहृदोऽप्ययम्॥” इति। यथा ताभिरभिप्रेतं तथानुगृह्य। तथानुग्रहमेव व्यनक्ति—गोपीना स गुरुरभीष्टसपादनायोपदेष्टा॥अभीष्टमेवाह—गतिर्गम्य इति। परमफलरूप इत्यर्थः। न चैवमन्यभक्तसाधारण्यं मन्तव्यं चिरं द्वारोपविष्टमपि श्रीयुधिष्ठिरमथ तदनन्तरमेवापृच्छत्। किं वक्तव्यमेकं तमेवेति सर्वांश्च सर्वानपि सुहृद इति अथ महाविरहमुत्तीर्य यथा तास्तं प्रापुस्तथा स्वयमेव श्रीकृष्ण उद्धवं प्रत्याह एकादशस्कन्धे द्वादशाध्याये—“रामेण सार्धंमथुरां प्रणीते श्वाफल्किना मय्यनुरक्तचित्ता। विगाढभावेन न मे वियोगस्तीव्राधयोऽन्यं ददृशुःसुखाय॥ तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता मयैव वृन्दावनगोचरेण। क्षणार्धवत्ताः पुनरङ्गतासां हीना मया कल्पसमा वभूवुः॥” इति। अत्र ददृशुरिति वभूवुरिति चातीतनिर्देशादधुना तु तास्तथा न पश्यन्ति न तथा भवन्ति इति नास्त्येव वियोग इत्यर्थः। ननु तासां भगवत्प्राप्तिः प्रकटं व दृश्यते कथं सा जाता उच्यते मया सह वृन्दावनगताप्रकटप्रकाशविशेषमेव ताःप्रापुरित्याह। ‘ता नाविदन् मय्यनुषङ्गवद्धधिय स्वमात्मानमदस्तथेदम्। यथा समाधौ मुनयोऽब्धितोये नद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे॥’ तास्तादृशमहाविरहसंतापाश्च सत्यो मयि योऽसङ्गो दन्तवक्त्रं हत्वामयि यः पश्चाज्जातःसङ्गस्तेन वद्धा धीर्यासां तथाभूताः सत्यः स्वं ममतास्पदं तथा आत्मानमहंकारास्पदं च कर्मभूतं अतः प्रकटलीलागतं तथेदं यथा स्यात्तथा नाविदुः।किंतु द्वयोरैक्येनैव विदुरित्यर्थः।
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तत्र लीलाद्वयगतात्मनोरभेदापत्तौ दृष्टान्तः। यथा समाधिगते तुर्यात्मनि मुनयो विश्वतैजसप्राज्ञता आविष्टप्रायास्तदात्मनस्तत्तद्भेदं न विदन्ति तद्वत्। अथाममतास्पदानां लीलादीनां भेदावेदने दृष्टान्तः—यथाब्धितोये नद्य इति। यथा नद्यः पृथिवीगतामब्धितोयगतां च स्वस्थितिं भेदेन न विदन्ति किं तु उभयस्यामपि स्थितौ समुद्रतोयानुगतावेव विशन्ति तथा प्रकटामप्रकटामपि लीलास्थितिं ताश्च भेदेन नाविदुःकिं तु मय्येवाविविशुरित्यर्थः। दृष्टान्तस्त्वयं लीलाभेदवेदनांश एव न तु सर्वावेदनांशे ‘लोकवत्तुलीलाकैवल्यम्’ इतिवत्। ततश्च नाम च रूपं चेति समाहारद्वन्द्वेन नामकथात्मके तस्मिन्नप्रकटप्रकाशे प्रविष्टा इव न तु प्रविष्टा वस्त्वभेदादित्यर्थः। षोडशसहस्रकन्याविवाहतत्समाप्त्योस्तेषां यथा तद्वदिति भावः। तदेवमपि ग्रन्थकृत्पक्षः श्रीभागवतसंमत्या साधितः पुनरेवं विचार्यते। सेयं व्रजे तत्प्राप्तिः कीदृशत्वेन ग्रन्थकृन्मता पतित्वेनोपपतित्वेन वा। उच्यते। ज्ञातेन तदीयेन हार्देन पतित्वेनैवेति। प्रकारान्तरेण तत्प्रबन्धकरणेन तत्रैव रसस्य प्रतिष्ठेति प्रकटीकरणात् तद्विवाहकरणाङ्गस्य पूर्णमनोरथ इति नामकरणात्। न च पुर्यामेव तासां विवाहः संभवति। न तु व्रज इति वक्तव्यं यदि स्वयमेव श्रीव्रजेश्वरी तत्र गता तत्संबन्धेनान्याश्च प्रामाणिकास्तदा पुरीव्रजयोः को भेदः। यदि च कृष्णेन व्यूढानां तासां व्रजानयनं श्रीब्रजेश्वर्याग्रत एवानुमतं तदा वृन्दावने तासामानयनानन्तरं तथा व्यवहार एव स्यात् नान्यथा।श्रीभागवताभिप्रायेणाप्यत्रैव रसः संपद्यते। यतः श्रीकृष्णस्य मथुराप्रस्थाने “निवारयामः समुपेत्य माधवं किं नो करिष्यन् कुलवृद्धवान्धवाः”। इति। “विसृज्य लज्जां रुरुदुःस्म सुस्वरं गोविन्ददामोदरमाधवेति” इति यत्तासां व्यवहारस्तेन प्रथमत एव ता उद्घाटितभावा वभूवु।परतस्तु सुतराम्। “ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिका” इति। “कृष्णदूते व्रजायाते उद्धवे त्यक्तलौकिका” इति। ‘गतह्रिय’.. इति, ‘काचिन्मधुकरं दृष्ट्वा’ इति ‘यादुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा’ इति “मातरं पितरं भ्रातॄन पतीन् पुत्रान् स्वसृरपि। यदर्थे जहि दाशार्ह दुस्त्यजान् स्वजनान् प्रभो” इति च श्रूयते इति। तत्तस्मादासामसंख्यानां तादृशी रतिरावरीतुमशक्यैव जातेति। यदि तासामन्यभर्तृकात्वं व्रजे मिथ्यात्वेन व्यक्तं स्यात् तदैव जुगुप्साव्यत्ययेन रसः संपाद्यते। अन्यथा तु महावैरस्यमेव स्यात्। तत्र तदैश्वर्यज्ञानमय्यां परीक्षित्सभायां यथा तदैश्वर्यज्ञापनेनौपपत्यं परिहृत्य रसता स्थापिता तथा धार्मिकलोकलीलामय्यां श्रीमद्व्रजेशसभायामपि धार्मिकरीत्यैव परिहृत्य सा
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स्थापयितव्या। तदेव योगमायामुपाश्रित इति नासूयन् खलु कृष्णायेति न्यायेन यस्या मायायाःसोऽयं प्रपञ्च सैव समाधात्री यथा निजेश्वरलीलाकौतुकार्थं तत्तत्कल्पानां कृतवती मध्ये चासूयापरिहारार्थं समाहितवती च तथातिस्पष्टे तस्मिन् दुर्वादे निःशेषमेव समाहितवतीति गम्यते। यतोऽप्रकटलीलागतानामपि तासां तत्स्वीयात्वमेवानुगतम्। तथाहि ब्रह्मसंहितायाम्—‘आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभिः’ इत्यादौ ताभिर्निजरूपतया कलाभिरिति तस्य च तत्पतित्वमेव गौतमीये श्रीमद्दशार्णव्याख्यायां मायाप्रेरकतामयैश्वर्यप्रतिपादकपक्षद्वयमुक्त्वा तृतीयं पक्षमुत्तरपक्षतया प्रोक्तम्। “अनेकजन्मसिद्धानां गोपीनां पतिरेव वा। नन्दनन्दन इत्युक्तस्त्रैलोक्यानन्दवर्धनः” इति। तदेतद्विचार्य ग्रन्थकृद्भिरपि लघुत्वमत्र यत्प्रोक्तमित्यादौ नेष्टा यदङ्गिनि रसे कविभिःपरोढा इत्यादौ चावतारसमय एव उपपतित्वपरदारव्यवहारस्तदितरसमये तु नेति स्वीकृतम्। तदेतच्च ता नाविदन् मय्यनुषङ्गवधिय इत्यस्यान्ते श्रीभगवता कृष्णेन स्वयमेव दर्शितम्। “मत्कामा रमणं जारमस्वरूपविदोऽवलाः। ब्रह्म मां परमं प्रापुः सङ्गाच्छतसहस्रशः॥” इति। अयमर्थः—यथा भीष्ममुदारं दर्शनीयं। कटं करोत्यत्र कृतिः क्रियाविशेष्यमनुगच्छन्ती विशेषणानप्यनुगच्छति। कटं करोति तं च भीष्ममित्यादिरीत्या तथात्रापि ब्रह्म प्रापुः। तं च परममित्यादिरीतिरवगन्तव्या। क्रमश्चात्रार्थिक एव। पच्यन्तां विविधाः पाका इत्यादौ अग्निहोत्रं जुहोति यवागूं पचतीत्यादौ च तस्यैव वलत्वेन दृष्टत्वात्। तथा हि ता इति पूर्वतोऽनुसज्यते ता ब्रह्म प्रापुः। किं निर्विशेषमिति प्रामाण्येन वा भगवद्रूपमित्यर्थः।तादृशत्वं च ‘शुभाश्रयः सचित्तस्य सर्वगस्य तथात्मनः’ इति श्रीविष्णुपुराणरीत्यान्यत्रापि भगवदाविर्भावे संभवतीत्याशङ्ख्याह— मामिति। यदुक्तं मय्यावेश्य मनः कृष्ण इत्यादि। मयि भक्तिर्हि भूतानामित्यादि च। तत्र च भावविशेषमयसमयभेदेन द्विधा प्रापुरिति बोधयितुं तासां तद्विशेषेण साहित्येन सविशेषेण विशेषद्वयमाह।मत्कामा रमणमिति जारमस्वरूपविदमिति च। रमणशब्दःपत्यावेव रूढः। जारस्तूपपतावेव। ‘रमणः स्यात्पटोलस्य मूलेऽपि रमणः प्रिये’ इति विश्वप्रकाशः। ‘धवः पतिः प्रियो भर्ता’ इत्यमरः। ‘जारस्तूपपतिः समौ’ इति च। ततश्चास्वरूपविद इति स्वरूपं नित्यमेव मत्प्रेयसीलक्षणमवतारसमये मदीयलीलाशंक्त्यामोहितत्वान्न विदन्ति यास्तथासत्योजारं जावुद्धिवेद्यं सन्तं मां प्रापुः। तथा हि मत्कामा मयि कामःकथमस्माकमन्यस्मिन् पतित्वंस्वप्नवत् विलीयेतेति श्रीकृष्ण एव
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जागरणवत् तत्प्रादुर्भाव इत्यभिलाषोयासां तथा सत्योमां रमणं प्रापुः। जारबुद्धिवेद्यमपीति श्रीस्वामिव्याख्यानात्। “ये यथा मां प्रपद्यन्ते’ इति श्रीभगवद्गीतातःयथेति यदभिलाषेणैवेत्यर्थ। तत्क्रतुन्यात् स्वयमेवेदं दृष्ट्वा दृष्टान्तद्वारा बोधितम्। मय्यावेश्य मनः कृष्ण इत्यनन्तरम्। ‘या मया क्रीडिता रात्र्यां वनेऽस्मिन् व्रज आस्थिताः। अलब्धरासाः कल्याण्यो मापुर्मद्वीर्यचिन्तया॥” इति। अत्र तासां तान् पतीन् तांश्च देहांस्त्यक्तवतीनामोपपत्यं न संभवतीति जारत्वेन रमणत्वेन च मत्प्राप्तौ मत्कारुण्यं तु परमसहायकमित्याह। अवला इति। न विद्यते वलं मत्साहाय्यं विना अन्यद्यासां तादृश्य इति। अहो आस्तां नित्यप्रेयसीनां वार्ता तासां सङ्गादन्या अपि सहस्रशस्तथा मां प्रापुरिति। अत्र चेदं विविच्यते। “तासां नित्यप्रियाणामवतरणवशाद्विस्मृतात्मस्थितीनामप्यन्तः स्वस्वभावादघविजिति रतिश्रीभृतां नित्यकान्ते। विश्वस्तानाममुष्मात्परसदनगतिक्लेशभाजां वरीतुं तं तृष्णा सापि न स्यादहह सदफला कःप्रतीयादमुत्र॥ “तस्माल्ललितमाधव इवात्रापि विवाहघटेनैव समञ्जसा। यतः “दाम्पत्यं व्रजसुभ्रुवामघजिता यज्जातमेतत्परं काव्यस्य प्रथितेन निर्वहणकृत् किं त्वेषु रागस्य च। रागः सोऽप्यनुपद्रवस्थितिमिथ सङ्गास्पदस्तं त्यजन्नात्मीयास्पदमन्तरा विहरणं दध्याद्वृथा जन्मताम्॥ पूर्व दुर्लभता ततो गुरुजनध्वस्तप्रयत्नात्मता तत्पश्चाच्छुतिलोकलङ्घिरभसात् सङ्गप्रथाङ्गीकृतिः। तस्माद्दूरमहावियोगचिरता तत्प्रान्तमुद्वाहतः प्राप्तं चेन्मिथुनं मिथो हरिरमारूपं सुखं कि परम्॥ कृष्णं कान्ततयानुपेत्य पुरतः स्वं नित्यकान्तं तु तास्तत्राप्यन्यकरे निपत्य चरणा (?) निर्वाह्य धर्म निजम्। तत्रापीष्टममुं कथंचन रहःप्राप्यापि विश्लेषिताः पुण्यात्तं पतिमेत्यसर्वजगतामन्तर्व्यधुर्निर्वृतिम्॥ नामूषां सहजानुरागविभुता भीर्निर्मिता किं नु भीलङ्घ्यास्यान्न तु वेति तत्प्रबलताज्ञानार्थमन्तः कृता। तज्ज्ञातं निजधर्मसेतुदलनात्तस्यास्तथा विस्मृतिस्तद्वन्द्भाति यथा परीक्षितवचोऽप्यग्रे मुहुर्दृश्यते॥ कंसारेरकुतोभयस्य न भयं तद्भक्तवृन्दस्य च ह्रीकिं त्वस्तिसमस्तसद्गुणमणेस्तत्सुभ्रुवां किं पुनः। तत्र हीर्दुरितोत्तरा यदि तदा निन्दास्पदं यद्यसौ गोप्यो नर्मणि गोपनस्थितिमयी पुष्णात्यदस्तर्हि तु॥ अस्याः सन्तु सहस्रश पतिपरा नामूस्तवे या निजं लोकं धर्ममपि श्रिता न तु पुनः स्वं स्वं पतिं केवलम्।गोपीर्नौमि निजप्रसिद्धमपि यास्तं तं विहाय स्फुटं निर्णीय स्वरतिप्रतीतिविभवात् कृष्णं पतिं भेजिरे॥ सावित्री ब्रह्मणः स्त्री हिमगिरितनुजा चन्द्रमौलेस्तथा मा विष्णोः कृष्णस्य
**अथ गौणसंभोगः।**
छन्नप्रकाशभेदेन कैश्चिदेषां द्विरूपता।
इष्टाप्यत्र न हि प्रोक्ता नात्युल्लासकरी यतः॥२०॥
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एषां चतुर्विधानां संभोगानाम्। प्राप्तिविशेष दर्शनालिङ्गनचुम्वनादिमान्
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रुक्मिण्यपि जगति भवेद्बाढमक्ष्णोःसुखाय। रूपं स्वस्यापि विस्मापनमयमभितः शोभयन् स्वीयमासीद्रासे यासां रुचा ता यदि नहि विवहेदस्तु वा धातुमूर्ध्नि॥” अतःकंसवधात् प्राचीनानां लीलानां सद्यस्तनतां मत्वा यदुपासनं कुत्रापि दृश्यते तत्खलु “एवं विहारैः कौमारैः कौमारं जहतुव्रजे।निलायनैः सेतुबन्धैर्मर्कटप्लवनादिभिः॥” इत्यादिरीत्यावतारलीलानन्तरवत् पूर्वमतीतामपि तां तां निजलीलां भक्तभक्तिविशेषानुरोधेन तदा तदा प्रकटीकरोतीत्येव मन्तव्यम्। “यद्यद्धिया त उरगाय विभावयन्ति तत्तद्वपु प्रणयसे सदनुग्रहाय” इत्यादेः। तत्र वाल्यलीलोपासना गृहिणामपि दृश्यन्ते कंसवधान्तर्लीलाया अन्ते। किंतु तत्र स्वेच्छया रचिताया अपि संभोगलीलायाःसंपन्नत्वमेव संमतं न तु समृद्धिमतः। भक्तभक्तिविशेषानुरोधेन तदा तदा दर्शितानां तु ततो न्यूनत्वमेवाभिप्रेतं किमुत समृद्धिमत इति। कासांचिल्लीलानां प्रकटप्रकाशगततत्तल्लीलातुल्यानां तत्तन्मन्त्रोपासकसंप्रदायावच्छिन्नपरस्परानुरोधेन नित्यास्थितिरवगम्यते न तु सर्वासामपि प्रकटलीलानां नित्यत्वेन च कालियह्रदप्रवेशादिलीलानां महादुःखमयत्वेन कासांचिन्मुहुरागन्तृभरव्याकुलीकृतत्वेन प्राकृतमिश्रत्वेन च विरोधात्। “योग एव भवेदेव विचित्रः कोऽपि मादन। यद्विलासेन शोभन्ते नित्यलीलाःसहस्रशः॥” इत्यत्र योग एवेति सुखदानामेवोपादानेन सहस्रश इति संख्योल्लेखेन च तत्प्रत्याख्यानात्। प्रत्यन्वपि तासां नित्यत्वेचित्रतुल्यत्वे प्राप्त्या लीलात्वहानाच्च क्रियता नाम तत्तदुपासना कैश्चित्परमरसपरिपाकस्तु कमलीलायामेव जायते। श्रीभगवदादिप्रकाशप्राचीनपरमभक्तानां विदग्धमाधवप्रकाशकग्रन्थकृतां चात्रैवावेशदर्शनात्। तथाहि— “रसिकजनसुखार्थं साधयामास शश्वत्क्रममनुरसपूरं सूदवत् कृष्णचन्द्रः। क्रममनुरसयन् यः पूर्तिमाप्नोति पूर्त्यासफलमिह परं स्यात् तत्र वैदग्ध्यमस्य॥” तथा चोक्तं ‘प्रपञ्चंनिष्प्रपञ्चोऽपि’ इत्यादि॥ १९॥
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इति मधुररसपरिपाकविवेकः॥* -
छन्नप्रकाशभेदेनेति। येषां संभोगानां स्वीयास्वपि प्रच्छन्नतैव रसदेति*
** अथ गौणः—**
स्वप्ने प्राप्तिविशेषोऽस्य हरेर्गौण इतीर्यते।
स्वप्नोद्विधात्र सामान्यविशेषत्वेन कीर्तितः॥२१॥
सामान्यः स तु यः पूर्व कथितो व्यभिचारिषु।
विशेषः खलु जागर्या निर्विशेषो महाद्भुतः॥२२॥
भावौत्कण्ठ्यमयो ह्येष चतुर्धा पूर्ववन्मतः॥२३॥
** तत्र स्वप्नेसंक्षिप्तो यथा—**
विहारं कुर्वाणस्तरणितनयातीरविपिने
नवाम्भोदश्रेणीमधुरिमविडम्बिद्युतिभरः।
विदग्धानां चूडामणिरनुदिनं चुम्बति मुखं
मम स्वप्ने कोऽपि प्रियसखि बलीयान्नवयुवा॥२४॥
** अथ स्वप्ने संकीर्णः—**
सखि क्रुद्धा माभूर्लघुरपि न दोषः सुमुखि मे
न मानाग्निज्वालामशमयमहं तामसमये।
स धूर्तस्ते स्वप्नेव्यधित रसवृष्टिं मयि तथा
यतो विस्तीर्णापि स्वयमियमयासीदुपशमम्॥२५॥
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॥२०॥२१॥२२॥२३॥ पूर्वरागवती श्रीराधा विशाखामाह—विहारमिति॥२४॥ काचिन्मुग्धा स्वसखीमाह—**सखीति।**लघुरल्पोऽपि मान एवाग्निस्तस्य ज्वालामिति स्वस्य कलहान्तरितात्वं व्यनक्ति। असमये संप्रतीत्यर्थः।
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द्विरूपता न प्रोक्तेत्यर्थः॥२०॥ तदेवं सर्वप्रबन्धस्य रसपरिपाकंसमृद्धिमन्तमनुक्त्वानुसंक्षिप्तादिचतुर्णामाभासमप्याह—अथ गौण इत्यादिना। गौणो मुख्यसंभोगाभिधेयताशून्य इत्यर्थः॥२१॥२२॥२३॥२४॥ तां माना-
** अथ स्वप्नेसंपन्नो यथा हंसदूते—**
प्रयातो मां हित्वा यदि कठिनचूडामणिरसौ
प्रयातु स्वच्छन्दं मम समयधर्मः किल गतिः।
इदं सोढुं को वा प्रभवति यतः स्वप्नकपटा-
दिहायातो वृन्दावनभुवि बलान्मां रमयति॥२६॥
** अथ स्वाप्नसमृद्धिमान् यथा ललितमाधवे—**
चिरादद्य स्वप्ने मम विविधयत्नादुपगते
प्रपेदे गोविन्दः सखि नयनयोरङ्गणभुवम्।
गृहीत्वा हा हन्त त्वरितमथ तस्मिन्नपि रथं
कथं प्रत्यासन्नः स खलु परुषो राजपुरुषः॥२७॥
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विस्तीर्णापि मानाग्निज्वाला॥२५॥ श्रीराधा ललितामाह—**प्रयात इति।**समयधर्मो मृत्युः। ‘मृत्यु स्यात् पञ्चता कालधर्मः।’ इत्यमरः। स्वप्नकपटात् स्वप्नमिषात्। वलादिति मानिनीमपि मामप्रसाद्यैव बलात्कारेणैव मां त्यक्त्वा नागरीं रमयितुं मथुरां गत इति मम मानो भवितुमर्हत्येवेति मम को दोषः। नच मानिनीजनःपुरुषवलात्कारं क्वापि सोढुं प्रभवतीति भावः। समृद्धिमानेव भवितुमर्हति तदपि द्वयोः पारतन्त्र्याभावात् तल्लक्षणासिद्ध्या संपन्नत्वेनैव ज्ञापितः। यद्यप्यत्रपाठान्तरम्। जागरे मन्मथुराप्रस्थानापराधमिमं जानात्यतः स्वप्ने माथुरविरहविप्रलम्भं विस्मरन्तीमेनां पूर्वावस्थास्थायिनीं रमयिष्यामीति मनसि परामृश्येति भावः॥२६॥ नववृन्दावनस्था श्रीराधा स्वप्नानुभूतं श्रीकृष्णदर्शनं नववृन्दामावेदयति— चिरादिति। स पुरुषः क्रूरोऽक्रूर इत्यर्थः। अत्र द्वयोः
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ग्निज्वालाम्। असमये अनवसरे॥२५॥ समयधर्म इति। आयास्यामीत्यस्य प्रतिज्ञारूपोधर्मः। ‘समयाः शपथाचारकालसिद्धान्तसंविदः’ इति नानार्थवर्ग॥२६॥ चिराद्यदेयत्र समृद्धिमत्त्वं पूर्वार्व एवोपभोगातिरेकं पारतन्त्र्यसाध्वसादिराहित्यंच लक्षणवलात् स्वप्ने यथेष्टं संभावयितुं शक्यत्वादवगन्त-
तुल्यस्वरूप एवायं प्रोद्यन् यूनोर्द्वयोरपि।
उषानिरुद्धयोर्यद्वत्क्वचित्स्वप्नोऽप्यवाधितः॥२८॥
अत एव हि सिद्धानां स्वप्नोऽपि परमाद्भुते।
प्राप्तानि मण्डलादीनि दृश्यन्ते जागरेऽपि च॥२९॥
व्यतीत्य तुर्यामपि संश्रितानां तां पञ्चमी प्रेममयीमवस्थाम्।
न संभवत्येव हरिप्रियाणां स्वप्नोरजोवृत्तिविजृम्भितो यः॥३०॥
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पारतन्त्र्यनिबन्धनदौर्लभ्यसिद्ध्यर्थमुत्तरार्धे अक्रूरप्रस्तुतिः॥२७॥ ननु तदपि वस्तुतः स्वप्ने समृद्धिमति संभोगेऽस्मिन् द्वयोः कथं दुर्लभालोकत्वं एकया श्रीराधयैव स्वप्ने तथा दृष्टत्वादित्यत आह— तुल्यस्वरूप इति। द्वयोर्नायिकानायकयोरपि स्वप्ने क्वचिदेकदैव तुल्यस्वरूप एव प्रोद्यन्नवाधितः सत्य एवस्यात्। तेन यदैव श्रीराधया नववृन्दावने चिरादद्येति पद्यः प्रकाशितः (?) स्वप्ने श्रीकृष्णदर्शनानन्दोऽन्वभावि तदैव श्रीकृष्णेनापि द्वारकावरोधपुष्पपर्यङ्कशयितेन स्वप्ने श्रीराधादर्शनानन्दस्तथैवान्नभावीति ज्ञापितम्। उषानिरुद्धयोरिति। यदैव शोणितपुरे बाणराजान्तःपुरे उषयानिरुद्धेन सह संप्रयोगानन्दोऽन्वभावि तदैवानिरुद्धेनापि द्वारकावरोधशयितेन उषया सह स इति। क्वचिदिति नतु सर्वत्रैव प्राकृते लोक इत्यर्थः॥२८॥ स्वप्नस्य नित्यत्वं दर्शयति—अत एव हीति॥२९॥ ननु स्वप्नस्य राजसबुद्धिविजृम्भितत्वेन तदीयवस्तूनां प्रायशो बाधितत्वमेवेति शास्त्रेषु प्रसिद्धम्। सत्यं तत्खलु प्राकृतानामेव न तु भगवत्प्रेमवतामित्याह—व्यतीत्येति। तुर्या विश्वतैजसप्राज्ञेभ्यः परां स्वरूपानु-
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व्यम्। गृहीत्वेत्यादिकं तु नात्रोदाहरणीयम्। भाविनामा हि विप्रलम्भः खल्वयं परुषः कठिनः सोऽक्रूरः तदिदं वा तदुदाहरणम्।“यदा तं कारूषं पाथिहतवता कंसरिपुणा व्रजे प्रत्यायाते प्रमदपतता व्याप्तमखिलम्। ततः प्राक् यद्राधा विधुमुखि मनोराज्यकलितं जजल्प स्वप्नान्तस्तदिदमुदयच्चित्रयति नः॥”॥२७॥२८॥ स्वप्नोऽयं द्विविधः जागरायमाणः स्वप्नः स्वप्नायमानः (नं ) जागरणं चेति। तत्र पूर्वो दर्शितः। उत्तरं स्थापयति तुल्येति द्वाभ्याम्॥२९॥ उभयतो रजोवृत्तिरूपो न स्यादित्याह— व्यतीत्येति॥३०॥ तर्हि कोऽसावि-
३८ उज्ज्व०
इत्येष हरिभावस्य विलासः कोऽपि पेशलः।
चित्रस्वप्नमिवातन्वन्कृष्णं संगमयत्यलम्॥३१॥
अथैतेषु निरूप्यन्ते तद्विशेषाः सुपेशलाः।
येन भावदशामस्याः प्राप्नुवन्ति रतेःस्फुटम्॥३२॥
ते तु संदर्शनं जल्पः स्पर्शनं वर्त्मरोधनम्।
रासवृन्दावनक्रीडायमुनाद्यम्बुकेलयः॥३३॥
नौखेला लीलया चौर्यं घट्टः कुञ्जादिलीनता।
मधुपानं वधूवेशधृतिः कपटसुप्तता॥३४॥
द्यूतक्रीडा पटाकृष्टिश्चुम्बाश्लेषौ नखार्पणम्।
विम्वाधरसुधापानं संप्रयोगादयो मताः॥३५॥
** तत्र संदर्शनं यथा ललितमाधवे—**
चलाक्षि गुरुलोकतः स्फुरति तावदन्तर्भयं
कुलस्थितिरलं च मे मनसि तावदुन्मीलति।
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भवरूपां समाधिनाम्नीमपि व्यतीत्य अतिक्रम्य॥३०॥ तर्हि कोऽसौ स्वप्न इत्यत आह इत्येषइति चित्रमद्भुतं स्वप्नामेव॥३१॥ एतेषु संक्षिप्तादिषु मध्ये तद्विशेषाः संभोगविशेषाः। रतेरित्युपलक्षणं प्रेमादीनामपि। श्रीराधा कुन्दलतामाह—वलाक्षीति॥ दानघट्टे श्रीकृष्णरुद्धा श्रीराधा तमाह—
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त्यत्राह— इत्येष इति। तस्मिंश्च तत्तद्विलासे श्रीकृष्णसङ्गमस्तु यथावदेव नत्वा क्रूरागमनवदन्यथेत्याह—चित्रेति॥३१॥ तदेवं संक्षिप्तादिसंभोगभेदान् दर्शयित्वातद्भेदानां भेदान् दर्शयितुमाह— तथेति। एतेषु संक्षिप्तादिषु यथायथं संक्षिप्तं सर्वेष्वेव निरूपितेषु एतेषां विशेषा निरूप्यन्ते। ते च विशेषां येषां नाङ्गानि किंतु कार्या इत्याह—ये इति॥३२॥ के ते तत्राह— ते
चलन्मकरकुण्डलस्फुरितफुल्लगण्डस्थलं
न यावदपरोक्षतामिदमुपैति वक्राम्बुजम्॥२६॥
** अथ जल्पः—**
जल्पः परस्परं गोष्ठीवितथोक्तिश्च कथ्यते।
** तत्र परस्परं गोष्ठी यथा दानकेलिकौमुद्याम्—**
धर्षणेन कुलस्त्रीणां भुजङ्गेशः क्षमः कथम्।
यदेता दशनैरेष दशन्नाप्नोति शोभनम्॥३७॥
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कुलस्त्रीणां धर्षणेन कृतेन भुजङ्गेशः षिङ्गराजः कथं क्षमः स्यात् धर्षणनिर्वाहाय कथं योग्यः स्यात्। अपि तु न स्यादेवेत्यर्थः। कुतस्तत्राह यदेता इति। शोभनं भद्रं नाप्नोति तासां पत्युः प्रकाशाद्राजतश्च दण्डदैहिकाद्दुरितफलात् पारत्रिकाच्चेति भावः। अत्र श्लेषेणैवार्थान्तरन्यासः। नकुलः सर्पद्विट् जन्तुविशेषः तस्य स्त्रीणां धर्षणे भुजङ्गेशः सर्पश्रेष्ठोऽपि कथं क्षमः अपि तु न क्षमः।कुतस्तत्राह यदेता इति। न शोभनमाप्नोति ताभिरपि प्रतिदंशनेन सद्यःप्राणहानेरिति भावः। अभियोगपक्षे भुजङ्गेशः षिङ्गराजएव यदि स्यात्तदा कुलस्त्रीणां साध्वीनां धर्षणे कथं न क्षमः स्यात् यद्यस्मादेता एव दशनशोभनं स्वशौर्याभिमानसुखं प्राप्नोति अन्या युवतयस्तु तस्य पाणौ पतिताः सन्त्येवेति भावः। अत्रापि श्लेषेणार्थान्तरन्यासो द्रष्टव्यः नकुलस्त्रीणां धर्षणे भुजङ्गानां राजा तु कथं न क्षमः।अन्ये भुजङ्गो न क्षमन्तामिति भावः। यद्यस्माच्छोभनं स्वशौर्यमाप्नोतीति॥३२॥३३॥३४॥३५॥
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*त्विति॥३३॥३४॥३५॥३६॥ अत्र परस्परगोष्ठी द्वाभ्यामाह— धर्षणेनेति। कुलस्त्रीणां धर्षणेन कृतेन भुजङ्गेशः षिङ्गराजः कथं क्रमः स्यात् धर्षणनिर्वाहाय योग्यः स्यान्न स्यादेवेत्यर्थः। कुतस्तत्राह— **यदेता इति।*नाप्नोतीति च्छेदः। पक्षे नकुलस्त्रीणां धर्षणे भुञ्जङ्गेशः सर्पराजः कथं क्रमः स्यात् नेत्यर्थः। तत्र हेतुर्यदेता इति नाप्नोतीति पूर्ववत्। अभियोगपक्षे तुकुलस्त्रीणां धर्षणे षिङ्गराजः कथं न क्षमः स्यात् किं तु स्यादेवेत्यर्थः। तत्र हेतुमाह यदेता इति। अत्र तु प्राप्नोतीति च्छेदः। दशन्नेव मङ्गलं प्राप्नोतीत्यर्थः॥३७॥
अप्रौढद्विजराजराजदलिका लब्धा विभूतिं रुचां
नव्यामात्मनि कृष्णवर्त्मविलसदृष्टिर्विशाखाञ्चिता।
कंदर्पस्य विदग्धतां विदधती नेत्राञ्चलस्य त्विषा
त्वं राधे शिवमूर्तिरित्युरसि मां भोगीन्द्रमीकुरु॥३८॥
** वितथोक्तिर्यथा तत्रैव—**
अस्मिन्नद्रौ कति नहि मया हन्त हारादिवित्तं
हारं हारं हरिणनयना ग्राहिता जैनदीक्षाम्।
____________
॥३६॥३७॥ भुजङ्गशब्दोक्तमर्थद्वयमङ्गीकृत्य तस्याः स्वाभयोगानुरूपं श्रीकृष्णः प्रत्युत्तरमाह— अप्रौढेति। हे राधे, त्वं शिवमूर्तिर्मङ्गलमूर्तिश्च। यतोऽप्रौढेन द्विजराजेन चन्द्रेण राजद्दीप्तमलिकं यस्याः सा, पक्षे द्विकलचन्द्रतुल्यसुन्दरललाटा। आत्मनि देहे विभूतिंभस्म। किंभूताम्। रुचां कान्तीनां नव्यां स्तव्यां ‘णू स्तुतौ’। पक्षे रुचां विभूतिं संपत्तिं नव्यां नवीनाम्। ‘भूतिर्भस्मनि संपदि’ इति नानार्थवर्गः। कृष्णवर्त्मनाग्निना विलसन्ती दृष्टिस्तृतीयनेत्रं यस्याः सा। पक्षे कृष्णेन श्यामेन वर्त्मना पक्ष्मणा किं वा कृष्णस्य मम वर्त्मनि गमनागमनमार्गे विलसन्त्यौ दृष्टी यस्याः सा।‘वर्त्मनेत्रच्छदेऽध्वनि’ इति नानार्थवर्गः। विशाखेन कार्तिकेयेन। पक्षे विशाखया स्वप्रियसख्या चाञ्चिता पूजिता। नेत्राञ्चलस्य भालस्थतृतीयनयनैकदेशस्य त्विषा ज्वालया।पक्षे अपाङ्गकान्त्या विदग्धतां विशेषतो दग्धत्वं वैदग्धीत्वंच इत्यत एव मां भोगीन्द्रं वासुकिं तस्य शिवहृदयालंकारत्वात्। पक्षे भोगिनां विषयभोगवतामिन्द्रम्॥३८॥ वितथोक्तिर्मृषोक्तिः। दानघटस्थः श्रीकृष्णः श्रीराधाप्रभृतीभषियन्नाह—अस्मिन्निति। हारं हारं हत्वा
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अप्रौढः स्वप्रहानौयो द्विजराजश्चन्द्रस्तद्वत् राजदलिकं ललाटं यस्याः, पक्षे अप्रौढत्वेन द्विजराजेन चन्द्रेण राजदलिकं यस्याः आत्मनि देहे नव्यां स्तव्यां रुचां विभूतिंवैभवं लब्धा प्राप्ता, पक्षे रुचां स्तव्यां विभूतिं भस्म। श्रीकृष्णस्य वर्त्मनि विलसन्ती दृष्टिर्यस्याः, पक्षे कृष्णवर्त्मा वह्निः। विशाखासखी, पक्षे विशाखः स्कन्दः विदग्धतां त्विषाशोभया, पक्षे प्रचण्डकान्त्या वा शिवमूर्तिर्मङ्गलरूपा, पक्षे भवशरीरं भोगिनां विषयास्वादिनां पक्षे सर्पाणामिन्द्रम्॥३८॥ जैन-
याः काकूक्तिस्थगितवदनाः पत्रदानेन दीना-
स्तूर्ण दूरादनुजगृहिरे प्रौढवल्लीसखीभिः॥३९॥
** अथ स्पर्शनं यथा—**
न कुरु शपथमस्य स्पर्शतो दूषितोच्चै-
रसि भुजभुजगेन त्वं भुजङ्गाधिपस्य।
तनुरनुपमकम्पा स्वेदमभ्युद्गिरन्ती
कपटिनि परितस्ते पश्य रोमाञ्चितास्ति॥४०॥
** अथ वर्त्मरोधनं यथा विदग्धमाधवे—**
परीतं शृङ्गेण स्फुटतरशिलाश्यामलरुचं
वलद्वेत्रं वंशव्यतिकरलसन्मेखलममुम्।
____________
हत्वाजैनदीक्षां दिगम्बरत्वमित्यर्थः। याः कर्मभूताः प्रौढवल्ल्यएव सख्यस्ताभिः कर्त्रीभिः॥ ३९॥ काचिल्लघुप्रखरा यूथेश्वरी अधिकमृद्धीं स्वसुहृदं सरसोद्गारमाह— न कुर्विति। सखि, सत्यं ब्रूहि गोवर्धनगुहायां त्वं भुजङ्गेन दष्टा स्पृष्टा वा कम्पैर्लक्ष्यसे इति। ततः साह। सखि मान्यथा शकिष्ठाःकात्यायन्या एव शपथः केवलं हैमनेन पवनेनैव मे तनुः कम्पते इति ततः पुनरपि प्रथमाह— न कुर्विति। अनुपमः अद्भुतः कम्पो यस्याः सा यतः स्वेदमभ्युद्गिरन्तीति॥४०॥ मुञ्चसूर्यपूजामार्गमित्युच्यमानस्तामवरुन्धान एव श्रीकृष्णः श्रीराधामाह— **परीतमिति।**शृङ्गेन शिखरेण गवलेन च। स्फुटतराभिः शिलाभिःश्यामला रुक् कान्तिर्यस्य तम्। पक्षे शिलानां श्यामला रुगिव रुक् यस्य तम्। वेत्रो वृक्षविशेषो यष्टिविशेषश्च। वंशो वृक्षविशेषो मुरली च।
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*दीक्षामिति। तद्वदावरणशून्यावस्थत्वमित्यर्थः॥३९॥ काचिदधिका प्रौढा मुग्धलघुंपरिहसन्ती श्रीकृष्णं भुजङ्गाधिपत्वेन निर्दिश्य स्प्रष्टुं निषिद्धवती ततः कथंचित्तेन स्पृष्टां तत्स्पर्शममन्यमानां तां प्रत्याह—**न कुरु शपथमिति।*सर्पपक्षे दूषितेति। तत्स्पर्शविशेषेणेति भावः॥४०॥ शृङ्गंकूटो विषाणं
अतिक्रम्योत्तुङ्गं धरणिधरमग्रेकथमित-
स्त्वया गन्तुं शक्या तरणिदुहितुस्तीरसरणिः॥४१॥
** अथ रासो यथा—**
हरिर्नवधनाकृतिः प्रतिवधूद्वयं मध्यत-
स्तदंशविलसद्भुजो भ्रमति चित्रमेकोऽप्यसौ।
वधूश्च तडिदुज्ज्वला प्रति हरिद्वयं मध्यतः
सखीधृतकराम्बुजा नटति पश्य रासोत्सवे॥४२॥
** अथ वृन्दावनक्रीडा यथा—**
स्थलकमलमलीनां स्तौति गीतैः पदं ते
रदततिमतिनम्रा वन्दते कुन्दराजी।
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मेखला पर्वतनितम्वः क्षुद्रघण्टिका च।धरणीधरं पर्वतं श्रीकृष्णं च॥४१॥ विमानचारिणी काचित् देवी कामप्याह—हरिरिति। प्रतिवधूद्वयमिति वधूद्वयस्य मध्ये हरिरित्यर्थः। अत्र वधूशब्देन यूथपैवोच्यते। सख्या धृतं स्ववामकरेण श्रीकृष्णपृष्ठदेशनिहितेन कराम्बुजं दक्षिणं यस्याः सा।तेन श्रीकृष्णस्य वामभागे यूथेश्वरी दक्षिणभागे तस्या एव मुख्यैका सखी। एवमन्यस्य श्रीकृष्णप्रकाशस्य वामभागे यूथेश्वरीत्यादि। तेनैकस्या नायिकायाः स्कन्धद्वये द्वयोः श्रीकृष्णप्रकाशयोर्भुजन्यासरूपो दोषोव्याहतः। अत एव तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठ इत्यत्रापि श्रीकृष्णेनैकैकेन प्रकाशेन कण्ठे गृहीतानां न तु श्रीकृष्णप्रकाशाभ्यामिति व्याख्येयम्। किंच सर्वासामेव यूथेश्वरीणां पार्श्वयोः सुहृत्पक्षतटस्थपक्षस्थितिरनुसंधेया स्वारस्यविघातकाभावात्। यद्वैकैकस्मिन् यूथे यावत्यःसख्यस्तासां सर्वासामेवप्रधानगुणताभावेन नायिकात्वसखीत्वाभ्यां सव्यदक्षिणयोः स्थितानां यथोचितावस्थितिसमाप्त्यनन्तरमेवान्यान्ययूथस्य तादृशावस्थितिर्भवेत्। एवं च नित्यनायिकानां द्वयोरेव कराम्बुजयोः सखीधृतत्वसिद्ध्या परमस्वारस्यं सर्वगोपीनां रासमण्डलान्तःपातित्वंच सिद्ध्येदिति॥४२॥ श्रीकृष्णः श्रीराधां
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वा। मेखलाकामी अद्वितलांशो वा॥४१॥४२॥४३॥
अधरमनुभजन्ती लम्बते बिम्बमाला
विलसति तव वश्या पश्य वृन्दाटवीयम्॥४३॥
** यमुनाजलकेलिर्यथा—**
व्यात्युक्षीयुधि राधया घनरसैः पर्युक्षमाणस्य ते
माल्यं भङ्गमवाप वीरतिलको यातः किलादृश्यताम्।
वक्रेन्दौ प्रतिमाच्छलेन शरणं लब्धः सखीं कौस्तुभ-
स्तन्माभूश्चकितो विमुक्तचिकुरं नार्दत्यसौ त्वद्विधम्॥४४॥
** यथा वा पद्यावल्याम्—**
जलकेलितरलकरतलमुक्तपुनः पिहितराधिकावदनः।
जगदवतु कोकयूनोर्विघटनसंघटनकौतुकी कृष्णः॥४५॥
** अथ नौखेला—**
मुक्ता तरङ्गनिवहेन पतङ्गपुत्री
नव्या च नौरिति वचस्तव तथ्यमेव।
शङ्कानिदानमिदमेव ममातिमात्रं
त्वं चञ्चलो यदिह माधव नाविकोऽसि॥४६॥
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वर्णयति— स्थलकमलं कर्तृ॥४३॥ विशाखा श्रीकृष्णमाह— व्यात्युक्षीयुधि परस्परजलसेकयुद्धे घनरसैर्व्यात्युक्षीयुधि घनरसैः पर्युक्षमाणस्येति काकाक्षिगोलकन्यायेनान्वये घनरसैर्जलैर्निबिडरसैरिति श्लेषो घटते। प्रतिमा प्रतिविम्बं नार्दति न पीडयति॥४४॥ जलकेलौ श्रीराधाया जयमुक्त्वा श्रीकृष्णस्यापि तमाह—यथा वेति॥४५॥ जलकेलौतरलाभ्यां करतालाभ्यां मुक्तं पुनःपिहितमाच्छादितं श्रीराधावदनं येन सः। पराभूयमानां श्रीराधां तत्सखीर्ज्ञापयितुमिति भावः। विघटनं तन्मुखे चन्द्रभ्रान्त्र्यारात्रिभयाद्विश्लेषः। संघट्टनं तदाच्छादनेन प्रकृतदिवसवुद्ध्या उल्लासात् संमिलनं ताभ्यां
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प्रतिमा प्रतिबिम्बम्। नार्दति न पीडयति॥४४॥४५॥४६॥
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“‘नाटी’इति टीकापाठः” ↩︎
-
" पुरटं सुवर्णम्" ↩︎
-
“‘विरम जननि’ इति पाठान्तरम्.” ↩︎
-
“‘तन्वते’ इत्यपरः पाठः” ↩︎
-
“‘वरोरूणां’ इति पाठान्तरम्” ↩︎
-
“‘राधिकाम्’ इति पाठान्तरम्” ↩︎
-
“‘न्नेष ते’ इति पाठान्तरम्.” ↩︎
-
“‘श्रमजलकिरां कामिनि सदा’ इति पाठान्तरम्” ↩︎
-
“‘कृष्णे’ इति पाठान्तरम्.” ↩︎
-
“सेवितामित्यपि पाठः,” ↩︎
-
“‘विपद्यति’ इति.” ↩︎
-
“‘व्रजपते’ इति च ग-पुस्तके पाठभेदः.” ↩︎
-
“‘वक्रमलंकरोतु’ इत्यपि पाठः” ↩︎
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“‘ततः प्रेक्षया’ इत्यपि पाठः.” ↩︎
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“अत्र संयोगपरत्वेऽपि कवेरिकारस्य हस्वत्वकल्पनं भ्रममूलकमिति भाति,” ↩︎
-
“‘कुरङ्गाधिपः’ पाठान्तरम्.” ↩︎
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“‘मुदीर्यते’ इति च पाठः.” ↩︎
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“इन्दीवरवन्धुरेषु’ इति कःपुस्तकेः” ↩︎
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“‘वधूनाम्’ इति ख. पुस्तके पाठः” ↩︎
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“चटुलं चकार’ इति ग. पुस्तके.” ↩︎
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“कटीरो जघनम्.” ↩︎
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“‘पुरुषोत्तमम्’ इति खपुस्तके पाठः.” ↩︎
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“‘मणिः स्यमन्तको हस्ते’ इति हेमचन्द्र.” ↩︎
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“सत्राजित् सत्यभामा.” ↩︎
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“‘जातौत्सुक्यम्’ इति ख-पुस्तके पाठः” ↩︎
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“‘कातरायाः’ इति रा. पुस्तके पाठः.” ↩︎
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“‘वकभिदि’ इति ख. पुस्तके.” ↩︎
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“‘तूर्णम्’ इति सपुस्तके पाठः” ↩︎
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“कुचमनुचरकौस्तुभरुचिः’ इति ख पुस्तके पाठ” ↩︎
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“‘आभीरेन्द्रसुतस्य’ इति टीकायाः ख पुस्तकस्थ पाठः” ↩︎
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“‘कुहरेव्रजराजसूनुः’ इति कपुस्तकस्थः पाठः” ↩︎
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“‘तताड’ इति खपुस्तके पाठः.”
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“‘श्रीदशमे च यथा’ इति ख. ग. पुस्तकयोः.” ↩︎
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““एतन्नयनयोः’ इति क. पुस्तके पाठः.” ↩︎
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“‘कथ्यते’ इति क-पुस्तके.” ↩︎
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“‘प्यात्मादिसर्वविस्मरणं’ इति ग. पुस्तके.” ↩︎
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“उरुगायः श्रीकृष्णः.” ↩︎
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“‘तमालमुपगुह्य नन्दति’ इति क-ख-पुस्तकयोः” ↩︎
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“‘प्रबन्धेषु’ इति ख-पुस्तके पाठः.” ↩︎
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“‘कथाप्रसङ्गे’ इति क. पुस्तके.” ↩︎
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“‘बताक्षमत’ इत्यपि क. पुस्तके.” ↩︎
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“‘निश्वासचापले’ इति क. पुस्तके.” ↩︎
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“‘सूत्रितवती’ इति क-पुस्तके.” ↩︎
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“‘अथ मृत्युः’ इति क-पुस्तके.” ↩︎
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“‘चैतद्भुजयुग’ इति क-पुस्तके.” ↩︎
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“‘स्वहस्तेनैष’ इति ख-ग-पुस्तकयोः.” ↩︎
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“‘सुरपुष्पस्य’ इति क. पुस्तके.” ↩︎
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“‘खिन्नाङ्गी’ इति ग-पुस्तके,” ↩︎
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“‘किंचिच्चित्रितधातुपत्रमकरीबिम्बेन’ इति ख-ग-पुस्तकयोः.” ↩︎
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“‘स्मितादिभिः’ इति क. पुस्तके.” ↩︎
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“‘कानकंजयपालकीजे’ इति शब्दार्थचिन्तामणिः” ↩︎
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“‘प्रसाधनविधिम्’ इति क-पुस्तके. ‘प्रसादनं विधिम्’ इति ख-पुस्तके.” ↩︎
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“कर्णे.” ↩︎
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“‘क्वाप्येष’ इति क-पुस्तके.” ↩︎
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“‘स्मेरास्यम्’ क-पुस्तके.” ↩︎
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“वोपदेवरचितस्य ग्रन्थस्य नाम.” ↩︎
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“श्रीकृष्णेन.” ↩︎
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“‘मुद्रयित्वा’ इति क पुस्तके.” ↩︎
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“‘वितनोति’ क. पुस्तके.” ↩︎