२१ परिशिष्ट

काव्यभेद

काव्य के सामान्य लक्षण निरूपण के पश्चात् आचार्यों ने विशेष लक्षण अर्थात् भेद का भी निरूपण किया है।

आचार्य भामह के अनुसार भेद

आचार्य भामह ने काव्य का भेद चार प्रकार से किया है। १. छन्दोबद्ध, छन्दोमुक्त दो भेद (छन्द की दृष्टि से) १. गद्य, २. पद्या ‘गद्यं पद्यं च तद्विधा’। २. भाषा के आधार पर तीन-भेद-१. संस्कृत, २. प्राकृत, ३. अपभ्रंशा.. संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति त्रिथा’। . ३. विषयवस्तु के आधार पर चार भेद-१. ख्यातवृत्त, २. कल्पित, ३. कलाश्रित . शास्त्राश्रिता कायम वृत्त दवादिचारताशास चीत्पाद्यवस्तु च।.. . कलाशास्त्राश्रयं चेति चतुर्था भिद्यते पुनः।।" ४ स्वरूपविधान की दृष्टि से पाँच भेद-१. महाकाव्यं २: रूपक, ३. आख्यायिका, ४. कथा, ५ः मुक्तक। जा सगबन्याशभनयाथ तथैवाख्यायिकाकथे।…. अनिबद्धं च काव्यादि. तत्पुनः पञ्चोच्यते।।"

आचार्य दण्डी के अनुसार भेद

आचार्य दण्डी ने छन्दोदृष्टि से गद्य, पद्य तथा मिश्र ये तीन भेद किया है। तथा भाषा की दृष्टि से भी चार भेद किया है, भाषा की दृष्टि से मिश्र भेद संपकों में पाया जाता है। . म

… " . . . . . . . न मिश्र च तत्रिथैव व्यवस्थितम। __तदेतद् वाङ्मयं “भूयः संस्कृतं प्राकृतं तथा। अपभ्रंशश्च मिश्र चैत्याहरायश्चतर्विधम।। __

आचार्य वामनानुसार गद्य भेद

आचार्य वामन ने भामह के सदृश दो भेद छन्दोबद्धता या छन्दोमुक्तता की दृष्टि से किये हैं १. गद्य, २. पद्य। “काव्यं गद्यं पद्यं च”।’
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१. वामनकृत काव्यालङ्कार सूत्रवृत्ति १/३/२१
या परिशिष्ट
७५५० पुनः गद्य के तीन भेद १. वृत्तगन्धि, २. चूर्ण, ३. उत्कलिकाप्राय किया है।'
वृत्तगन्धि = जिस गद्य में वृत्त अर्थात् छन्दोबद्धता की गन्ध हो। जैसे “पातालतालुतलवासिषु दानवेषु" यह गद्यखण्ड का अंश है, परन्तु इसमें वसन्ततिलका छन्द
शलाक TEE काय..
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… “पद्यभागवद् वृत्तगन्धि चूर्ण-दीर्घसमास से रहित ललितपद वाले गद्य’को चूर्ण कहते हैं। जैसे-‘अभ्यासो हि कर्मणां कौशलम आवहति । - समान नाम बनाना . समास नहीं है, यह खण्ड चूर्णगय का उ उत्कलिकापाय-चूर्ण गद्य के विपरीत अर्थात् दीर्घसमास; उद्धत पद वाली रचना को उत्कलिकाप्राय कहते हैं। मन • जैसे कुलिशशिखरखरनखरप्रचण्डचटोपाटितमातङ्गकुम्भस्थल.. जरा पछ आधार पर समः अध | आदि अनेक भेद माना “पुनः इन्होंने काव्य के दो भेदार अनिबद्धनमुक्तको २ तिबद्ध (प्रबस्था किया है। वामन ने मुक्तक में अधिकचमत्कार नहीं माना है, वे कहते हैं अग्नि का एकोकण छोटी सी चिनगारी कितना प्रकाश कर सकती है। परन्तु आनन्दवर्धन नै मुक्तक को भी रसनिःस्यन्दी माना है, अमरुक कवि के मुक्तकों को प्रबन्धार्यमान कहा है।
  • “मुक्तकेषु प्रबन्धेष्विव रसबन्धाभित्तिवेशिनः कवयो दृश्यन्ते। यथा ह्यमकस्य कवे र्मुक्तकाः शृङ्गाररसस्यन्दिनः प्रबन्धायमानाः प्रसिद्धा एव संघटना का जियामक विषयाश्रयः औचित्य भी होता है। इस प्रसङ्ग में आनन्दवर्धन ने काव्यप्रभेदों का निरूषण किया हैप

sue TPU SENTERER 77777 TT 11F PTS-TESTATOILE १.” वामनकृत काव्यालङ्कार सत्रवृत्तिमा i IFSPEET F RE THIS २. वामनकृत काव्यालङ्कार सूत्रवृत्ति १/३/२३ । EME R काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति १/३/२४ । (अनाविद्धललितपदं चूर्णम्’) ४. काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति १/३/२५। (विपरीतमुत्कलिकाप्रायम्’।) ५. काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति १/३/२७। (पद्यमनेकभेदम्) ६. काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति १/३/२७ातिदनिबद्धं च ७. नानिवद्धं चकास्त्येकतेजः परमाणुवत्’ का. लं. सू. वृ. १/३/२६। ८. ध्वन्यालोक ३/३२५ पृष्ठ। .७५६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र मुक्तक (संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंशनिबद्ध) सन्दानितक, विशेषक, कलापक, कुलक, पर्यायबन्ध, परिकथा, खण्डकथा, सकलकथा, सर्गबन्ध अभिनेयार्थ, आख्यायिका, कथा आदि।’ इनका स्वरूप निरूपण अभिनवगुप्तपादाचार्य ने लोचन में किया है। १. मुक्तक जो दूसरे पद्य से सम्बद्ध न हो, एक ही पद्य में क्रिया की समाप्ति हो, (वाक्यार्थ की पूर्णता हो) इन्होंने प्रबन्ध के अन्तर्गत आये हुये एक ही पद्य में क्रिया समाप्त होने से निराकाङ्क्ष वाक्यार्थ की प्रतीति कराने वाले पद्य को मुक्तक नहीं माना है। पुनः स्वीकार भी किया है। संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश निबद्ध मुक्तक का ही विशेषण है। २. सन्दानितक-जहाँ दो पद्यों में क्रिया समाप्त होती है। (इसे विश्वनाथ ने युग्मक कहा है।) ३. विशेषक-जहाँ तीन पद्यों में क्रिया समाप्त होती है। ४. कलापक-जहाँ चार पद्यों में क्रिया पूर्ण होती है। ५. कुलक-जहाँ पांच या पांच से अधिक पद्यों में क्रिया समाप्त हो (वाक्यार्थ की पूर्ति हो) उसे कुलक कहते हैं। ये पाँच भेद क्रिया समाप्ति (वाक्यार्थ की पूर्णता) के आधार पर किये गये हैं। कुछ आचार्य छः पद्यों में वाक्यार्थ पूर्ण होने पर ‘करहाटक’ भेद मानते हैं। __ पर्यायबन्ध-अवान्तर क्रिया की समाप्ति होने पर भी किसी एक विषय जैसे वसन्त आदि वर्णनीय के उद्देश्य से निबद्ध काव्य को पर्यायबन्ध कहते हैं। खण्डकथा-एक देश अर्थात् प्रसिद्धवृत्त के किसी एक अंश का वर्णन खण्डकथा कहलाती है। __ परिकथा-धर्मादि पुरुषार्थ चतुष्टय में से किसी एक पुरुषार्थ को लक्ष्यकर प्रकार भेद से अनन्तवृत्तान्तों का वर्णन परिकथा कही जाती है। सकलकथा-फल पर्यन्त समस्त इतिवृत्त का वर्णन सकलकथा कही जाती है। सर्गबन्ध-संस्कृत भाषा में ही निबद्ध होता है (मुक्तक आदि में भाषा का नियम नहीं है परन्तु सर्गबन्ध में है) इसे महाकाव्य कहते हैं। यह सों में निबद्ध होता है। इसमें धर्मादि चारों पुरुषार्थों का वर्णन होता है, समस्त इतिवृत्त का वर्णन करने वाले प्रबन्ध को सर्गबन्ध कहते हैं। अभिनेयार्थ-दशरूपक नाटिका, त्रोटक, रासक, प्रकरणिकादि अवान्तर भेद सहित अनेक भाषा का सम्मिश्रण रूप अभिनेयार्थ होता है। आख्यायिका-उच्छ्वासादि वक्त्रापरवक्त्रादि से युक्त आख्यायिका गद्य में विरचित होती है। १. ध्वन्यालोक ३/३२३ पृ.। २. ध्व. लो. लोचन पृ. ३२६ । “यदि वा प्रबन्धेऽपि मुक्तकस्यास्तु सद्भावः।" ३. ध्वं. लो. लोचन पृ. ३२४॥ ४. षभिस्तु करहाटकः परिशिष्ट ७५७ कथा-यह भी गद्यात्मक होती है, यह उच्छवास तथा वक्त्रापरवक्त्रादि से रहित होती है। काव्यभेद वर्णन में आदि शब्द से चम्पू लिया गया है। जैसा की दण्डी ने कहा है चम्पू-“गद्यपद्यमयी चम्पू:"।’ यद्यपि गद्यपद्यमय रूपक भी होते हैं, परन्तु वे दृश्य होते हैं, गद्य-पद्यमय होता हुआ श्रव्य हो उसे चम्पू कहते हैं।

विश्वनाथ

ने दो पद्यों में वाक्यार्थ बोध की पूर्णता हो तो युग्मक, तीन पद्यों में वाक्यार्थ की पूर्णता हो तो सान्दानितक, और चार पद्यों में पूर्णता को कलापक कहा है। इन्होंने विशेषक भेद का निरूपण नहीं किया है। आर्ष महाकाव्य (महाभारत आदि) में सर्ग के स्थान पर ‘आख्यान’ का प्रयोग किया गया है। प्राकृत भाषा में निबद्ध काव्य में आश्वास होता है। अपभ्रंश में निबद्ध काव्य में कुडवक होते हैं। __खण्डकाव्य-काव्य के एक देशानुसारी रचना को खण्डकाव्य कहते हैं यह पद्यबद्ध होता है। विरुद्-गद्य पद्यमयी राजस्तुति को विरुद् कहते हैं। करम्भक-यह विविध भाषाओं में निर्मित होता है।

महाकाव्य

सर्गबद्ध, महान् चरित्रों से सम्बद्ध, आकार में बड़ा, ग्राम्य शब्दों से रहित अर्थगौरवयुक्त, अलङ्कारविशिष्ट, सत्पुरुषाश्रित, मन्त्रणा, दूतप्रेषण, अभियान, युद्ध, नायक के अभ्युदय का वर्णन, पञ्चसन्धियों से युक्त, जिसकी बृहद् व्याख्या अपेक्षित न हो (सुबोध हो) समृद्ध, चतुर्वर्ग का वर्णन, होने पर भी बाहुल्येन अर्थ का उपदेश करने वाला, लोकस्वभाव से युक्त पृथक् पृथक् सभी रसों से युक्त महाकाव्य होता है। विश्वनाथ के अनुसार महाकाव्य का एक नायक देव या सत्कुलप्रसूत धीरोदात्त गुण से युक्त क्षत्रिय अथवा एक वंश में उत्पन्न कुलीन बहुत से भूपनायक होते हैं। शृङ्गार-वीर-शान्त इन रसों में कोई एक रस अङ्गी होता है, अग रूप से अन्य सभी रस होते हैं। इसमें इतिहास प्रसिद्ध वस्तुवृत्त अथवा सज्जन वृत्त हो, न बहुत बड़े, न बहुत छोटे आठ से अधिक एक वृत्त से रचित तथा अन्त में भिन्न वृत्त वाला सर्ग होना चाहिए, कहीं कहीं नाना वृत्तों से रचित सर्ग होते हैं, सर्ग के अन्त में भावी सर्ग की सूचना होनी चाहिए। उसमें सन्ध्या, सूर्योदय, चन्द्रोदय, रात्रि, प्रदोष, अन्धकार, दिन, प्रातः मध्याह्न काल, मृगया, ऋतु, वन, पर्वत, सागर, संयोग, विप्रलम्भ, मुनि-स्वर्ग-नगर-यज्ञ रणप्रयाण, विवाह, सामादि उपायों की मन्त्रणा, पुत्रजन्म आदि का वर्णन करना चाहिए। कवि अथवा वस्तुवृत्त या नायक के नाम से महाकाव्य का नाम रखना चाहिए, सर्गों के नाम भी वर्ण्यवृत्तों के आधार पर किया जा सकता है। " १. ध्वन्यालोक-लोचन ३/३२३-२४॥ २. साहित्यदर्पण ६/३१४-३३७। ३. काव्यालङ्कार (भामह) १/१८-२१ ४. साहित्यदर्पण ६/३१५-२४ १/२ . " " ..

L ७५८ अष्टम खेण्ड-काव्य शास्त्र इसके अतिरिक्त व्यङ्ग्य के आधार पर किए गये, उत्तम, मध्यम, अवर या ध्वनि गुणीभूत, चिंत्र आदि मम्मट के अनुसार तथा विश्वनाथ के अनुसार उत्तम, मध्यम दो भेद, तथा पण्डितराज के अनुसार उत्तमोत्तम, उत्तम, मध्यम, अधम आदि भेद हैं इनका निरूपण भेद प्रभेद सहित तत्तत प्रसङगों में किया गया हैं।.. HTA TE . . . .. " NARENCE 23555

दृश्य और श्रव्य

. …. ………… __ ग्राहक इन्द्रियों के भेद से भी काव्य के भेद किये गये हैं : श्रवणेन्द्रिय ग्राह्य को श्रव्य, तथा दृष्टिः ग्राह्य को दृश्य काव्य-कहा गया है!::..: “दृश्यश्रव्यत्वभेदेना पुनः काव्यं द्विधाः मतम् ।।”

काव्यात्मविमर्शः

यह तो निश्चित है कि काव्य श्रवण से या अभिनय के दर्शन से सहृदयों के हृदय में चमत्कार का सञ्चार होता है। और यह चमत्कार आनन्दविशेष है। तो इस आनन्द का उद्भावन काव्य से होता है, काव्य, शब्दार्थमय है। ये शब्द और अर्थ भी वहीं हैं जो लोक और शास्त्र में प्रयुक्त होते हैं। परन्तु लोक में प्रयुक्त होने वाले शब्दों से और लौकिक पदार्थों से उस आनन्द की अनुभूति नहीं होती जो काव्य से होती है, तो काव्य में वह कौन सा, तत्त्व है जो अमन्द्रं आनन्द का स्यन्दन करता है। सति वर्तरि सत्यर्थ सति शब्दानुशासन अस्तिं तन्न विना येन परिस्रवति वाङ मधु ।।२ मामा, TET –आचार्यों ने अनुसन्धान किया तो उन्हें काव्य में कवि की वर्णना, शक्ति. ‘प्रतिभा’ की विशेषता दृष्टिगोचर हुई जिससे प्रसूत पदार्थ में तन्मयीभाव सम्पादन की क्षमता होती है जिसके कारण काव्यार्थ लोकोत्तर या विलक्षण हो जाते हैं। वैसा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ज्ञात माहोने पर प्रतीत नहीं होते TR E E E

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“कावशक्त्यापता " भावास्तन्मयाभावयक्तितः TES ETHIT FÍL BE DELLE
था स्फरन्त्यमी काव्यान्न तथाऽध्यक्षतः किल या का
मामी माः . . उमा यहीं काव्यार्थ की लोकोत्तस्ता सहृदयों के हृदय को आकृष्ट कर तन्मय बना देती है,
काव्य के शब्द और अर्थ दोनों विलक्षण होते हैं, उसका कारण कि वे सर्वथा निर्दुष्ट होते हैं। सर्वथा निर्दुष्ट का तात्पर्य है कि दोष यदि कथंञ्चित् रहते हैं। तो भी कविशक्ति से
१४::-
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१. साहित्यदर्पण ६/१ २. काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति १/२/११ सूत्र पर श्लोक
व्यक्तिविवेक ७५ पृ.
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. परिशिष्ट
७५६ तिरोहित हो जाते हैं लक्षित नहीं होते। हाँ. अशक्तिकृत दोष नहीं होना चाहिए, वे दोष सहृदयों को काव्य से विमुख कर देते हैं। आनन्दवर्धन कहते हैं कि
“अव्युत्पत्तिकृतो दोषः शक्त्या संव्रियते कवेः। - - यस्त्वशक्तिकृतस्तस्य… झटित्येवावभासत यस्वशक्तिकस्तस्य टिवावभासते
नाही. अतः दोषरहित गुणसहित अलङ्कार विशिष्ट काव्य-होते हैं। इन्हीं काव्य के धर्मों के द्वारा काव्य में चमत्कार का आधान किया जाता है। इस अलङ्करणता का मूल वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति है, वह उक्तिवैचित्र्य है। इस प्रकार अलङ्कृतिरलङ्कारः व्युत्पत्ति के अनुसार चमत्कार तथा “अलकियते ऽनेन” इत्यलङ्कारः इस व्युत्पत्ति से अनुप्रासादि-शब्दालङ्कार उपमादि अर्थालङ्कार भी गृहीत, होते हैं। अतः चमत्कार के समस्त साधन अलकार ही हैं, ऐसा- विचार-कर आचार्यों ने अलङ्कार को ही काव्य का सारतत्त्व माना । यद्यपि महर्षि भरत द्वारा रस का भी प्रतिपादन किया जा चुका था, परन्तु लक्ष्य परीक्षण में सर्वत्र रसानुभूति न होने से नीरस काव्य में अलकार कृत भी चमत्कार स्वीकार किया गया, और रस, भाव आदि को भी रसवत् तथा प्रेयोऽलकार के रूप में ही स्वीकार कर घोषित किया गया -
“न कान्तममिका निभूषं विभाति वनिताननम् ।।
“शब्दाभिधेयालङ्कारभेदादिष्टं द्वयं तु न . 653 bin 17 FEBTE FTESA T HET
अग्निपुराणकार ने कहा- “अर्थालङ्ककार रहिता विधवेव सरस्वती । आचार्य दण्डी राने काव्य में शोभा (सौन्दर्य) का आधान करने वाले धर्म को अलङ्कार कहा:—:
काव्यशोभाकरानः धर्मानलङ्कारान् प्रचक्षते
ला । इन्हें।इतने से ही सन्तुष्टि नहीं हुई इन्होंने सन्ध्यङ्ग, वृत्त्या भस्तप्रोक्तः ३६ काव्य लक्षणों को भी अलङ्कार रूप में स्वीकार किया। चन्द्रालोककार जयदेव ने तो यहाँ तक कह दिया, कि जो लोगाअलकार रहित शब्दार्थ को काव्य मानते हैं वे अग्नि को उष्णता रहित
क्यों निहीं मानते। STREE: FREE TREET
IFT ईसाप्रकार अिलङ्काराको-ही काव्य का सारभूत तत्त्वे मानने वालों को सम्प्रदाय चल पड़ा जिसके आदि आचार्य भामह हुयोग उपलब्धा ग्रन्थों के अनुसार) दण्डी उत्झट; रुद्रट जयदेव आदि सम्प्रदाय पोषक हुये। PARDAE GS

‘. : .. . .. १NA ‘म.. १. ध्वन्यालोक तृतीय उद्योत पृ. ३१६ २. काव्यालङ्कार १/१३, १५ ३. काव्यादर्श २/१ ४. चन्द्रालोक प्रथम ८ ७६० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अनन्तर वामन आचार्य ने कहा कि काव्य तो अलङ्कार से ही गृहीत होते हैं, और सौन्दर्य ही अलङ्कार है। वह दोषाभाव तथा गुणालङ्कार के सद्भाव से सम्पाद्य है, और काव्य के शोभाधायक धर्म गुण हैं। उस शोभा में अतिशय लाने वाले अलङ्कार हैं। गुण नित्य धर्म हैं और गुण-विशिष्टपदसंघटना रीति है, तथा रीति काव्य की आत्मा है। “रीतिरात्मा काव्यस्य २। इनके मत में संघटनात्मकरीति या गुण काव्य की आत्मा हुई। इसके मूल में दण्डी हैं तथा वामन इस सिद्धान्त के संस्थापक हैं। __पश्चात् आचार्यों ने विचार किया कि संघटना तो अवयव संस्थान है। यह आत्मा नहीं हो सकती, आत्मा तो शरीर से पृथक् होनी चाहिए परन्तु उस तत्त्व को काव्यशरीर में रहना भी चाहिए। साथ ही काव्य का शरीर शब्द और अर्थ को निश्चय कर लिया, यतः शब्द और अर्थ काव्य के शरीर हैं तो शरीर को अनुप्राणित करने वाला कोई तत्त्व उसमें होना चाहिए, अलङ्कार तो शरीराश्रित रहते हैं वे आत्मा तो हो नहीं सकते, क्योंकि अलङ्कार शरीर की शोभावृद्धि के द्वारा आत्मा को शोभित करते हैं, वे शोभा के साधन हैं गुण भी आत्मा का उत्कर्षाधायक तत्त्व है। आत्मा नहीं अतः आत्मा क्या है ? तो ध्वनि सम्प्रदाय प्रवर्तक आचार्य आनन्दवर्धन ने कहा कि काव्य की आत्मा ध्वनि है। और ध्वनि क्या है, तो यत्रार्थः शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृतस्वार्थौ । व्यङ्क्तः काव्यविशेषः स ध्वनिरिति सूरिभिः कथितः।। जिस काव्य में शब्द अपने अर्थ को और अर्थ अपने स्वरूप को गुणीभूत करके प्रधान रूप से उस चमत्कारी व्यङ्ग्य अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं। वह काव्य विशेष ध्वनि है। (अनन्तर कुन्तक ने भामह द्वारा उद्भावित आनन्दवर्धन से अनुमोदित जो सर्वालङ्कार का मूल वक्रोक्ति थी उसी को काव्यजीवित कहा जिसे परवर्ती आचार्यों ने अलङ्कार रूप ही माना। क्षेमेन्द्र द्वारा स्वीकृत औचित्य रस की आत्मा है। काव्य की आत्मा तो रस ही है)। वह व्यङ्ग्य ३ प्रकार का है वस्तु, अलङ्कार तथा रस। अतः त्रिरूप ध्वनि काव्य की आत्मा है। इसमें भी वस्तु तथा अलङ्कार ध्वनि भी रसादि-ध्वनि का उपलक्षण है। अतः रसादि-ध्वनि ही काव्य की आत्मा है। अतः रस स्वरूप का निरूपण किया गया, जो भरत द्वारा पूर्व ही निर्दिष्ट था। और निष्कर्ष में कहा गया काव्यस्य शब्दार्थो शरीरम, रसादिश्चात्मा, दोषाः काणत्वादिवत, गुणाः शौर्यादिवत्, अलङ्काराः कटक कुण्डलादिवत्।’ HW - HATHeamPARARIATSAAYA.NE ntern १. का. लं. सू. वृ. ३/१/१-३ २. का. लं. सू. वृ. १/२/६-७ ३. ध्वन्यालोक १/१३ ४. साहित्यदर्पण प्र.प. परिशिष्ट ७६१ यहाँ काव्यविशेष का अर्थ है ‘काव्यं च तद्विशेषः’ अर्थात् काव्य ध्वनि है, और उसकी विशेषता अर्थात् १. व्यञ्जकशब्द, २. व्यञ्जक अर्थ, ३-व्यङ्ग्य अर्थ ४. व्यञ्जनाव्यापार ५. इन सबका समष्टि रूप काव्य ये पाँचो ध्वनि है। “वाच्यवाचकसम्मिश्रः शब्दात्मा काव्यमिति व्यपदेश्यः व्यञ्जकत्वसाम्याद् ध्वनिरित्युक्तः । इन सभी में रस की ही प्रधानता है

रसमहत्त्व

सहृदयों के हृदय में अमन्द आनन्द का सञ्चार करने वाले काव्य का सारभूत तत्त्व रस ही है। इस में प्रायः सभी आचार्य एकमत हैं। इसीलिए काव्य के अनेक प्रयोजनों में प्रीति या परनिर्वृति को ही ऐकान्तिक प्रयोजन या सकल प्रयोजन मौलिभूत माना गया है। यह प्रीति या परनिर्वृति रसास्वादन-समुद्भूत आनन्द ही है। भरत मुनि से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ पर्यन्त सभी आचार्यों ने काव्य में रस का निरतिशय महत्त्व स्वीकार किया है। अलंकार सम्प्रदाय प्रवर्तक आचार्य भामह ने-यद्यपि काव्य में चमत्काराधायक तत्त्व अलकार को माना है, वे कहते हैं “न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिताननम्। वनिता का मनोहर भी आनन अलङ्कार के बिना शोभित नहीं होता। (यद्यपि यह मतान्तर है तो भी) अपना मत प्रस्तुत करते, हुये कहते है कि शब्दाभिधेयालङ्कार-भेदादिष्टं द्वयं तु नः।३ अर्थात् शब्दालङ्कार अर्थालङ्कार भेद से हमें दोनों इष्ट है। इन्होंने रस को भी रसवदलकार रूप से ही स्वीकार किया है। परन्तु “स्वादुकाव्यरसोन्मित्रं शास्त्रमप्युपयुञ्जते । काव्य के मधुर रस से मिश्रित कर शास्त्र का भी उपयोग किया जाता है, प्रथम मधु को चखने वाले मधु के साथ कड़वी औषधि भी पी जाते हैं। इस पद्य में काव्य रस के माधुर्य का सुस्पष्ट संकेत दिये हैं। यहाँ तक कि महाकाव्य के स्वरूप निरूपण में ‘सालङ्कारं सदाश्रयम्’ कहकर भी “रसैश्च सकलैः पृथकू"६ इस उक्ति से इन्होंने रस की उपादेयता स्पष्टतया स्वीकार की है।। रुद्रट ने तो काव्य को प्रयत्नपूर्वक सरस बनाने का निर्देश किया है। “तस्मात् तत्कर्तव्यं यत्नेन महीयसा रसैर्युक्तम् । १. ध्व. लो. प्र. उ. २. काव्यालङ्कार १/१३ ३. वहीं १/१५ काव्यालङ्कार ५/३ ५. काव्यालङ्कार १/१६ काव्यालङ्कार १/२१ ७. रुद्रट काव्यालङ्कार १२/२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र . .

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  • और इन्होंने रसों का निरूपण भी किया है। दण्डी ने तो पदार्थों में रसवत्ताधान करचा अलङ्कारों की इति कर्तव्यता मानी है। … .. ….. … “कामं सर्वोऽप्यलङ्कारो रसमर्थे निषिञ्चतु।: .. का तथा मधर रसवद वाचि वस्तुन्यपि रसस्थितिः ।१ . . . कहते हुये इन्होंने गुण, शब्द और अर्थ में रसस्थिति स्वीकार की है। अनन्तर रीति सम्प्रदाय प्रवर्तक वामनाचार्य ने काव्य की उपादेयता ही अलङ्कार से मानी है, परन्तु इन का यह अलङ्कार सौन्दर्योधायक तत्त्व नहीं अपितुं सौंन्दर्य ही है, वह सौन्दर्य दोषाभाव तथा गुण और अलङ्कारों के उपादान से सम्पाद्य है, इस प्रकार इन्होंने अलङ्कार शब्द की TREMES निष्पत्ति भाव में घञ् प्रत्यय तथा करण में घजे ‘प्रत्यय के मामहादिकों ने जिस रस को अलङ्कारों में अन्तर्भूत किया था उस को इन्होंने कान्ति गुण माना है, तथा गुण विशिष्ट पदसंघटना रीति को काव्यात्मा कहते हुये विशेषण रूप से रस का काव्यात्मा तक पहुचा दिया। . ………. FFITS ध्वनि-सम्प्रदाय प्रवर्तक आनन्दवर्धन ने तो नीरस प्रबन्ध (काव्य) को अपशब्द कहा हाकवि के अपयशका कारण कहा है | typ:: PAHE .. … “नीरसस्तु प्रबन्धों यः सोऽपशब्दो महीन कवेः 1150; के नाम: . STATE . EMIANRAam RATO T : 10 :“femआनमिकामा : : वक्रोक्ति-सिद्धान्त में तो काव्यामृत रसानुभव से सहृदयों के हृदय में उस चमत्कार का विस्तार माना गया है, जिसके समक्ष चतुर्वगफलास्वाद भी तुच्छ हो जाता है। Shoprna चतुफिलास्वादमप्यतिक्रम्यं तदविदाम्। सः - का औचित्य सिद्धान्त ती रसाश्चित ही है। क्षेमेन्द्राको सिद्धान्त का मूल ही आनन्दवर्धन की “अनौचित्य के बिना रसभङ्ग का कोई कारण नहीं है। प्रसिद्ध औचित्य का वर्णन रस का प्राण है।” यह उक्ति है। 15155TK HTTE TEST काव्यामृत-रसेनान्तश्चमत्कारी विस्तार १. काव्यादर्श १/६२, तथा १/५१ २. काव्यालं. सूत्र वृत्ति १/१-३ ३. काव्यालं. सूत्रवृत्ति २/६-८ ४. ध्व. लो. वृत्ति परिकरश्लोक पृ. ३६४ ५. वक्रोक्तिजीवितम् १/५ V . 4va कालो FRE . . ETTPRIST T i .. .. . . . 4 . 4 . .. अनौचित्याद् ऋते नान्यद् रसभङ्गस्य कारणमीमा: - प्रसिद्धौचित्यबन्धस्तु रसस्योपनिषत् परा। इति । __ क्षेमेन्द्र ने स्वयं इसे स्फुट किया है। औचित्य से रस रुचिर में व्याप्त हो जाता है। “कुर्वन् सर्वाशयेव्याप्तिमौचित्य-रुचिरों रसः२ . __अग्निपुराणकार ने तो स्फुट कहा है, कि “काव्य में वाग्विदग्धता की प्रधानता होने पर भी काव्य का प्राण रस ही है। वाग्वैदग्ध्यप्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम्॥३…. महर्षि भरत तो रस को शास्त्रीय ढंग से निरूपित करने वाले आदि आचार्य ही है वे कहते हैं “नहि रसादृतेः कश्चिदर्थः प्रवर्तते आनन्दवर्धन ने त्रिविध ध्वनियों में वस्तु ध्वनि तथा अलङ्कार ध्वनि को रसध्वनि का उपलक्षणं माना है। प्रतीयमानस्य चान्यभेददर्शनेऽपि रसभावमुखेनैवोपलक्षणं प्राधान्यात् ।। रसादि ध्वनि की ही प्रधानता मानी है। अपि च वस्तु तथा अलकार ध्वनि का पर्यवसान रसादि में ही स्वीकार किया है। __ भट्टनायक ने रसास्वादकर्ता सहृदय को ही काव्य का अधिकारी माना है-“काव्ये रसयिता सर्वो न बोद्धा न नियोगभाकर REM इन सभी सिद्धान्तों का परिशीलन कर महिमभट्ट ने डिण्डिमघोष किया है कि काव्य की आत्मा रस ही है इसमें किसी का वैमत्य नहीं है। माना MET काव्यस्यात्मनि-अङ्गिनि रसादिरूपे त कस्यचिमितिः। महाकवि कालिदास की रससिद्ध कुवीश्वर कहा जाता है। चम्पूकार: त्रिविक्रमभट्ट ने तो सस्स-काव्य का अभिनन्दनान करने वाले को मद्यप कहा है। FREPEAT FASTE ISNEY ना निश्चित समर का कलीन में मंतिमी ला मार्ग के RESENTRANSFESSETHER TER TSwar सवथा ‘सरस’ बद्ध “काव्य’ या नाभिनन्दाता __ इस प्रकार काव्य तथा काव्यशास्त्र निर्माताओं ने काव्य का परम रहस्य रस को ही . माना है |195T STRATE AFTEREST REP FISTRIF THE +T EETH time for any men ASTE EVEREST TI SEGemsmrius: THE HEATE TETF FI १. ध्वन्यालोकवृत्ति तृ. उ. पृ. ३६० ENTS S hipp औचित्यविचार चचा ३. अग्नि पु. ३३७/३३ नाट्यशास्त्र ६ अ. HALTE .. ५. ध्व. लो. वृ. प्र. उ. पृ. ८६-६० ६. व्यक्तिविवेक प्र. वि. ७. ३-ध्वन्यालोक लोचन प्र. ३ पृ. ८. नलचम्पू १/१० . TANTRA ७६४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र __ भारतीय मनीषा केवल लौकिक सुख तथा उसके साधन अर्थ काम का ही चिन्तन कर विश्रान्त नहीं होती वह परमपुरुषार्थ मोक्ष का (जीवों के दुखों का आत्यन्तिक अभाव तथा निरतिशय सुखों का) भी अनुशीलन करती हैं, तदर्थ उन्हें प्रेरणा देती है। इसीलिए सभी दर्शनों एवं शास्त्रों का परमप्रयोजन जीवों को आत्यन्तिक दुःख से निवृत्ति तथा परमानन्द की प्राप्तिकराकर जीव में शिवत्व सम्पादन करना ही है। __ अतएव शब्दसाधुत्व विधायक व्याकरण शास्त्र शब्द तत्त्व को अक्षर ब्रह्म मानता है तथा साधु शब्द के ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति मानता है- “इयं सा मोक्षमाणानामजिहमा राजपद्धतिः । प्रमाणशास्त्र न्याय वैशेषिक-प्रमाण प्रमेयादि षोडश पदार्थों के तत्त्व ज्ञान से निःश्रेयस सिद्धि मानता है। __ “प्रमाण-प्रमेय ……..तत्त्वाधिगमान्निःश्रेयससिद्धिः। २ वाक्यशास्त्र मीमांसा का प्रयोजन स्वर्गप्राप्ति है, इनका स्वर्ग ही मोक्ष है। कोई लोक विशेष नहीं है “यन्न दुःखेन सम्मिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम् । अभिलाषोपनीतं च तत्सुखं स्वःपदास्पदम्।। इस प्रकार शब्दशास्त्र (व्याकरण) तथा अर्थशास्त्र (मीमांसा तथा न्याय) का तात्पर्य जब जीव के शिवत्व सम्पादन में है तो शब्दार्थ शास्त्र (साहित्य शास्त्र) का भी परम प्रयोजन केवल मनोरञ्जन मात्र नहीं, अपितु अनादि काल से संसार सागर में डूबने उतराने वाले परमार्थ साधन से विमुख, विविध वासना से वासित हृदय वाले सुकुमार परन्तु काव्यार्थचिन्तन के योग्य मति वाले विनेयों को परमानन्द की साक्षात् अपरोक्षात्मक अनुभूति कराना है। वह रसास्वाद के द्वारा ही उनके हृदय को वशीभूत करके सरलतापूर्वक किया जा सकता है।)

वह रस क्या है

यह रस काव्यार्थ है, परन्तु यह शब्दार्थमय काव्य का वाच्यार्थ या लक्ष्यार्थ नहीं है। अपितु व्यङ्ग्यार्थ है। यह काव्य के समुचित ललित शब्दों से समर्पित विभावादि से अभिव्यक्त होता है। यह साक्षात् आत्मा है। श्रुति कहती है “रसो वै सः रसंख्येवाऽयं लब्ध्वानन्दी भवति”"। यह आत्मा ही रस है। 3588 १. वाक्यपदीय ब्रह्मकाण्ड १६ २.. न्यायदर्शन प्रथम सूत्र ३. ध्वन्यालोक लोचन प्र. उ. में उद्धृत। ४. तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मवल्ली सप्तम अनुवाक परिशिष्ट ७६५ आनन्दमय परमात्मा (अपनी त्रिगुणात्मिका माया से) जगत् का निर्माण कर स्वयं इसमें प्रविष्ट हो गया। “तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्” यह श्रुति ही इसमें प्रमाण हैं। कारण है कि जीव अनेक दुःखों एवं द्वन्द्वों को झेलते हुये भी बीच-२ में उसी आनन्द की झलक पाकर (अनुभूति कर) जीवित रहता है। यह जगत् भी नामरूपात्मक परमेष्ठी का काव्य ही है, इसका रस परमतत्त्व सच्चिदानन्दमय परमात्मा है। उसी प्रकार कवि की सृष्टि भी शब्दार्थमय काव्य है, इसका भी सारतत्त्व आत्मा सच्चिदानन्दमय रस ही है। वही समस्त जीवों की आत्मा है परमात्मा है। वह परमात्मा, सच्चिदानन्दमय है, सद्घन चिद्धन, आनन्द-घन है, व्यापक है सर्वत्र व्याप्त है, प्राणियों के अन्तः करण में भी व्याप्त है, यही अन्तः करणोपहित चैतन्य जीव कहलाता है। विभिन्न दर्शन इस को विभिन्न रूप से प्रतिपादित करते हैं। अद्वैतवादी इसे वस्तुतः ब्रह्म ही मानते हैं, दूसरे इसे ब्रह्म का प्रतिबिम्ब मानते हैं, कोई उसी ब्रह्म का अंश मानते हैं। परन्तु इस जीवात्मा को ब्रह्म या उसका प्रतिबिम्ब या उसका अंश कुछ भी मानें यह भी सच्चिदानन्द ही होगा। यदि जीव ब्रह्म है तो यह सच्चिदानन्दमय ही है यदि उसका प्रतिबिम्ब है तो भी बिम्ब से अतिरिक्त नहीं, बिम्ब का ही आभास है, यदि उसका अंश है तो भी सच्चिदानन्द का अंश भी सच्चिदानन्द ही है जैसे अग्नि का एक छोटा सा कण भी (चिनगारी भी) अग्नि ही है, क्षीर सागर का एक बूंद भी क्षीर ही है उसी प्रकार सच्चिदानन्द का अंश यह जीव भी सच्चिदानन्द ही है। उससे भिन्न नहीं हो सकता। अब प्रश्न है कि जब जीवों की आत्मा ही आनन्दमय है तो जीवों को हर क्षण आनन्द की अनुभूति क्यों नहीं होती। इस का समाधान है कि अज्ञान के आवरण से आवृत होने के कारण उस आनन्द का अनुभव सदा नहीं होता। यद्यपि अज्ञान आत्मा को आवृत नहीं कर सकता, बुद्धि को आवृत करता है, जैसे मेघ विशाल सूर्य को नहीं ढक सकता वह हमारी दृष्टि को ढक देता है। हम सूर्य को नहीं देख पाते तो कह देते है मेघ से सूर्य ढक गया। “घनच्छन्नदृष्टिर्घनच्छन्नमर्कम” के तरह या गोस्वामी जी के शब्दों में “यथा गगन घन पटल निहारी। झापेऊ भानु कहहि कुविचारी।।” (रा. च. मा. बालकाण्ड) उसी प्रकार हम बुद्धि पर अज्ञान का परदा पड़ जाने से उस आत्मानन्द को नहीं जान पाते। जैसे जल के नीचे तल अवश्य है परन्तु जल यदि मलिन या तरङ्गाकुल हो तो हमें तल का दर्शन नहीं होता, उसी प्रकार चित्त की चंचलता तथा मलिनता के कारण उससे उपहित आत्मानन्द का प्रकाश या अनुभव हमें सदा नहीं होता। इस चित्त में मलिनता वासनाओं के कारण है। इन्हीं वासनाओं को दूर करने के लिए वेदान्तादि दर्शन, नित्य-नैमित्तिक-कर्मानुष्ठान आदि विविध साधन बताते हैं। परन्तु ये७६६. अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र संस्कार बड़ी कठिनाई से बहुत काल की साधनाओं से मिटते हैं, और साधना के बीच में भी अपने उद्बोधक को प्राप्त कर उद्बुद्धा होते रहते हैं। हृदय निर्वासना हो नहीं पाता।

चित्त की वासना

यह चित्त संकोच विकासशाली है तथा चित्तः द्रवित, कठिन, दीप्त भी होता है। कोई नवयौवन-तरडियात-चित्त-वृत्तिः वाला-पुरुष किसी कमनीयागी नवयौवना को देखता है, उसके सौन्दर्य से, मुग्ध हो कामवशीभूत हो जाता है, उसे चाहने लगता है, उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है, प्राप्ति (मिलन) में प्रसन्न होता है. न मिलने से दुखी एवं चिन्तित होता है। चित्ता आदि से उसका चित्त चंचल हो. जाता है, उस, चंचल चित्त में आत्मा का आनन्दांश नहीं भासता, अतः वह आनन्दविहीन ग्लानि, शंका, चिन्ता आदि से अत्यन्त दुखी होता है .. . . इस बीच कामिनी भी यदि उस पर, आकृष्ट हो जाय, और उसकी कामना करती हुई. उसे अकस्मात मिल जाय तो. न मिलने के कारण जो युवक के मन में चञ्चलता और व्याकुलता थी बह शान्त हो जाती है, चिन्ता ग्लानि आदि के मिट जाने से चित्त शान्त हो जाता है, विक्षेप की निवृत्ति से आत्मानन्द-प्रकाशित होता है, वह उस कामिनी को तथा उसके कार्यों को विषय बनाता है, सब आनन्दमय प्रतीत होने लगता है। युवक उस आनन्द से आनन्दित होता हुवा उस कामिनी को जो बाह्य वस्तु है, उसी को आनन्दानुभव का कारण मानकर अत्यन्त प्रसन्न होता है। इस आनन्दातिरेक से चित्त द्रवित हो जाता है, उस द्रवीभूतं चित्त में वह कामिनी विषयक रांग प्रतिबिम्बित हो जाता है। अनन्तर हर्षादि की अनुभूति से चिंत्त में चञ्चलता आती है, वह आत्मानन्द तिरोहित हो जाता है चित्त पुनः FIL PE TITE कंठोर हो जाता हैं उसमें प्रतिबिम्बित राग वासना रूप से स्थि ITI UL FS चित्त में प्रतिबिम्बित रोग भी चित्त से पृथक् नहीं किया जा सकता, वह जन्मान्तर में भी संस्कार रूप से स्थिर रहता है। यही स्थिति हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, घृणा, विस्मय आदि भीवों की भी है। यहां रागादि वासना यदि जन्मान्तर की हो तो उसे प्राक्तनी वासना कहते हैं, यदि इस जन्म की हों तो ‘इंदानीन्तनी कही जाती हैं। यह रागादि वासना रूप से चित्त में विद्यमान रहते हुये भी भस्माच्छन्न वह्नि के समान सर्वदा नहीं प्रकाशित होते हैं। परन्तु जैसे भस्माच्छन्न वहिन अपने उद्बोधक तृणादि के संयोग से प्रकट हो जाती हैं, वायु के सम्पर्क से प्रदीप्त हो कर दाहादि कार्य करने लगती है, उसी प्रकार चित्त में संस्कार रूप से स्थित रागादि भी अपने उद्बोधक सामग्री सुन्दरी कामिनी से उबुद्ध हो जाते हैं, उसकी चेष्टाओं से उद्दीप्त तथा हर्षादिः से पुष्ट हो जाते हैं। यह प्रवृद्ध अनुराग ही रति कहलाता है। लाख का पिघलाकर उसम डाला हआ रग प्रयत्न सभा पथक नहा किया जा सकता, उसा ASON IFY. LORRHO .. “. " . ..’ ७६७ .. . . … .. . …. .* T A . 1-

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विभावादि

आजोज लोक में किसी युवक की रति किसी सुन्दरी को देखकर तथा युवती की रति आकर्षक युवक को देखकर उबुद्ध होती है, अतः-युवक-रति.का युवती तथा युवती रति का युवा आलम्बन कारण कहलाता है। इस उबुद्ध रति को चन्द्रिका, उद्यान, रम्यस्थान या रम्य-वस्तु आदि उद्दीप्त करते हैं; अतः ये उद्दीपन कारण कले जाते हैं। यह रति जब-उद्दीप्त हो जाती है, तो युवक युवतियाँ परस्पर में कटाक्ष हास आदि चेष्टाएँ भी करते हैं यह हास कटाक्षादि रति के कार्य हैं, इन्हें देखकर दूसरे भी इन दोनों के रति को समझ जाते हैं। पुनः परस्पर में मिलन से हर्ष तथा विरह में दुःखाग्लानि, चिन्तादि होने से वे मिलने का दृढ़ उपाय ढूंढने लगते हैं, अतः हर्ष, ग्लानि आदि से रति पुष्ट होती है। ये हर्षादिभाव सहकारी कारण कहलाते हैं। :- यही जब कवि के द्वारा काव्य में वर्णित किए जाते हैं या नट के द्वारा नाट्यों में अभिनय द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं, तब आलम्बन कारण को आलम्बन विभाव उद्दीपन कारण को उद्दीपन विभाव केटीक्षादि कार्यों को अनुभाव, हर्षादि सहकारी कारणों को व्यभिचारी या संचारी भाव कहा जाता है। ए क EिET |

विभाव

विभावयन्ति = आविवियन्ति प्रसुप्त स्थायिन आस्वादाकुरणयोग्यता नयन्ति इति विभावाः आलम्बनानि उद्दीपनानि चाइना लौकिक कारणों में काव्य या नाट्य में निबद्ध होने से अलौकिक विभावना व्यापार आ जाता है अतः इन्हें विभाव कहा जाता हैं, इन में अलौकिकता यह है कि लोक की शकुन्तला से केवला दुष्यन्त की रति उद्बुद्ध हुई, उसके देखने सुनने वाले सभी की रति नहीं उदबुद्ध हुई परन्तु काव्य कापढ्नेायां श्रवण से नाट्य में अभिनय देखने से सभी सामाजिकों की रति उँबुद्ध हो जाती हैं। उसमें आस्वाद अङ्कुरित हो जाता है। यह विभावः दो प्रकार का होता है आलम्बन तथा उद्दीपन। रत्यादि स्थायी के उद्बोधक को आलम्बन कहा जाता है।जबुद्ध हुए ब्यादि को उद्दीप्त करने वाले को उद्दीपन कहा जाता है। EिFIR कीट की।

अनुभाव

कटाक्षादि रति के कार्यों को अनुमान काहा जाता है क्योंकि इनमें अनुभावन व्यापार होता है, अर्थात् इन्हें देखकर नायक नायिका परसपसरति का अनुभव सामाजिकों को हो जाता है। अनुभावयन्तिा प्रबुद्ध स्थायिनमित्यनुभावाः ।

व्यभिचारीभाव

(वि+अभि+चारी) वि = विशेषेण, अभि = आभिमुख्येन, चरन्तीति. व्यभिचारिणः । ये हर्षादि भाव विशेषकर स्थायी को पुष्ट करते हैं रसादि के अनुरूप बनाते हैं। अतः ये व्यभिचारी कहे जाते हैं। ये आलम्बन में जलबुद्बुदवत् आविर्भूत तिरोभूत होते रहते हैं। E RAJNP MANI ay 1200 PAPA RECENT काyRH. .–

७६८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

सात्त्विक-भाव

जब प्राणियों का मन रजोगुण एवं तमोगुण से अस्पृष्ट रहता है जिससे बाह्य ज्ञेय से विमुख हो जाता है तब उसे सत्व कहते हैं, उससे उबुद्ध होने वाले भाव को सात्त्विक भाव कहते हैं, ये आठ प्रकार के होते हैं। परवर्ती आचार्यों ने इन्हें स्थायी कार्य होने के कारण अनुभाव मान लिया है। “रजस्तमोभ्यामस्पृष्टं मनः सत्त्वमिहोच्यते।” तथा-सत्त्वसंभूत विकार को सात्त्विक भाव कहते हैं। “विकाराः सत्त्व सम्भूताः सात्त्विकाः परिकीर्तिताः।।२

स्थायीभाव

यद्यपि सभी भाव चित्तवृत्ति रूप हैं चित्तवृत्ति तो स्थिर हो नहीं सकती, तो फिर इसे स्थायी स्थितिशील (सदा स्थिर रहने वाला) भाव क्यों कहते है ? यदि वासनारूप से चित्त में स्थित रहने के कारण इसे स्थायी कहा जाय तो वासनारूप से व्यभिचारी भाव भी चित्त में स्थित हैं वे भी स्थायी कहलाने लग जायेंगे। अतः स्रक्सूत्र न्याय से मुहुः मुहुः अभिव्यक्ति ही इन भावों की स्थायिता है। जैसे सूत में फूल गूंथ कर माला बनाते हैं तो जहाँ फूल हैं वहाँ सूत ढक जाता है परन्तु पूरे माला में हर दो फूलों के बीच में सूत झलकता रहता है उसी प्रकार जो भाव पूरे प्रबन्ध में बीच बीच में अभिव्यक्त होता रहे उसे स्थायी भाव कहते हैं। आप्रबन्ध मुहुः मुहुः अभिव्यक्ति ही स्थिरता है। यह स्थायित्व पारिभाषिक है। जिस भाव को विरोधी भाव या अविरोधी भाव तिरोहित न कर सके, जिससे ‘आनन्द अङ्कुरित हो वह भाव स्थायी कहलाता है। “विरुद्धा अवरुिद्धा वा यं तिरोधातुमक्षमाः। आनन्दाकुरकन्दोऽसौ भावः स्थायीति संज्ञितः।। स्थायी भाव लवणसमुद्र के समान है जो विरोधी या अविरोधी भावों से विच्छिन्न नहीं होता प्रत्युत उसे आत्मसात् कर लेता है। जो चिरकाल तक चित्त में स्थित रहता हो विभावादिकों से सम्बद्ध हो, और रसत्व को प्राप्त हो उसे स्थायी भाव कहते हैं। विरुद्धैरविरुद्धैर्वा भावैर्विच्छिद्यते न यः। आत्मभावं नयत्याशु स स्थायी लवणाकरः। चिरं चित्तेऽवतिष्ठन्ते सम्बध्यन्तेनुजीविभिः।। रसत्वं ये प्रपद्यन्ते प्रसिद्धाः स्थायिनोऽत्रते।। सजातीयविजातीयैरतिरस्कृतमूर्तिमान्। यावद् रसं वर्तमानः स्थायिभाव उदाहृतः।।” १. साहित्यदर्पण तृतीय परिच्छेद २-३ कारिका की वृत्ति २. साहित्यदर्पण ३/१३४ . ३. सा. द. ३/२२६ ४. रसगङ्गाधर प्रथम आनन में उद्धृत …-.”..!!…

परिशिष्ट ७६६ स्थायीभाव भी स्वरूपतः स्थायी नहीं हैं ये जब बहुत से विभावादिकों से अभिव्यक्त होते हैं, प्ररूढ़ होते हैं तो स्थायी कहलाते हैं, अल्पविभावादिकों से अभिव्यक्त होते हैं तो अप्ररूढ़ होते हैं, वे व्यभिचारी हो जाते हैं। संगीत-रत्नाकरकार कहते हैं - “रत्यादयः स्थायिभावाः स्युर्भूयिष्ठविभावजाः। — स्तोकैर्विभावैरुत्पन्नास्त एव व्यभिचारिणः।।’ जैसे वीर में क्रोध, रौद्र में उत्साह, शृङ्गार में हास अवश्य होते हैं परन्तु वे व्यभिचारी हो जाते हैं। ये स्थायी भाव नाट्य में आठ हैं तथा श्रव्य काव्य में नौ हैं, कुछ आचार्य नाट्य में भी नौ रस मानते हैं उन के मत में नौ स्थायी भाव भी है। रति शोक, निर्वेद, क्रोध, उत्साह, विस्मय, हास, भय, जुगुप्सा ये नौ स्थायी भाव हैं। “रतिः शोकश्च निर्वेद-क्रोधोत्साहाश्च विस्मयः। हासो भयं जुगुप्सा च स्थायिभावाः क्रमादमी।। (रस गं. प्र. आ.)

रति

स्त्रीपुरुष की एक दूसरे के प्रति जो प्रेमनामक चित्तवृत्ति होती है उसे रति कहते हैं। यह गुरु देवता पुत्र विषयक हो तो व्यभिचारी भाव कहलाती है।

शोक

किसी इष्ट जन या वस्तु के वियोग-मरण या अनिष्ट प्राप्ति आदि से उत्पन्न होने वाली चित्त की विकलता को शोक कहते हैं। यदि स्त्री पुरुष का वियोग हो और उसके जीवित होने का ज्ञान हो तो उस विकलता में रति ही प्रधान होती है। ऐसी स्थिति में विप्रलम्भ शृङ्गार होता है। मरण ज्ञान में आलम्बन का आत्यन्तिक विच्छेद होने से वह शोक रति से पुष्ट होकर प्रधान हो जाता है, वहाँ करुण ही होता है। यदि मरणज्ञान होने के पश्चात् भी देवता प्रसाद आदि से पुनः जीवित होने का ज्ञान हो जाय तो आलम्बन का आत्यन्तिक विच्छेद न होने के कारण चिरप्रवास के समान विप्रलम्भ ही होगा, करुण नहीं। विश्वनाथ ऐसी स्थिति में करुणविप्रलम्भ मानते हैं।

निर्वेद

संसार की क्षणभङ्गुरता के ज्ञान से उत्पन्न विषय विराग को निर्वेद कहते हैं। यह शान्त रस का स्थायी है। घरेलू झगड़े आदि से उत्पन्न निर्वेद को व्यभिचारी भाव कहते हैं।

क्रोध

गुरु, बन्धु आदि के वध आदि के सदृश परम अपराध से उत्पन्न चित्त की प्रज्वलन नामक वृत्ति को क्रोध कहते हैं। यह अपराधी के विनाश का कारण होता है। छोटे-२ अपराध से उत्पन्न जलन अमर्षनामक व्यभिचारी भाव कहलाता है, जिसमें अपराधी के साथ बोलचाल बन्द हो जाता है या कठोर भाषण होता है। १. रसगङ्गाधर प्रथम आनन में उद्धृत ७७० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

उत्साह

दूसरे के पराक्रम या दान आदि के स्मरण से उत्पन्न होने वाली उन्नतता नामक चित्तवृत्ति को उत्साह . कहते हैं। किसी कार्य के आरम्भ में उत्कृष्ट आवेश ही उत्साह है।

विस्मय

अलैकिक वस्तु के दर्शन या स्मरण से उत्पन्न होने वाली विकास नामक चित्त-वृत्ति को विस्मय कहते हैं।

हास

दूसरों के अङ्ग वचन वेष और भूषण में विकार दर्शन से उत्पन्न होने वाली विकास नामक चित्तवृत्ति को हास कहते हैं।

भयानक

व्याघ्र आदि के दर्शन से जिससे परम अनर्थ मरण आदि की सम्भावना हो उत्पन्न होने वाली विकलता नामक चित्तवृत्ति को भय कहते हैं। जिसमे परम अनर्थ मरण आदि की सम्भावना न हो उस विकलता को त्रास नामक व्यभिचारी भाव कहते हैं। कुछ लोग उत्पात से उत्पन्न होने वाले (स्वल्प) मनः क्षोभ को त्रास कहते हैं, और अपने द्वारा किए हुये अपराध से उत्पन्न को भय कहते हैं।

जुगुप्सा

किसी घृणित वस्तु के देखने से उत्पन्न होने वाली घृणा नामक चित्त वृत्ति को जुगुप्सा कहते हैं। (रसगङ्गाधर प्रथम आनन)

व्यभिचारी-भाव

ये भी चित्त वृत्ति स्वरूप ही हैं, परन्तु इनकी अभिव्यक्ति विद्युत् के चमक के समान क्षणिक होती है। ये जल में बुलबुले के समान बनते बिगड़ते रहते हैं, ये स्थायी में आविर्भूत तिरोभूत होते रहते हैं, जो स्थायी को पुष्ट करने के लिए आते हैं, और पुष्ट कर तिरोहित हो जाते हैं उन्हें व्यभिचारी कहते हैं। विशेषादाभिमुख्येन चरन्तो व्यभिचारिणः। स्थायिन्युन्मग्ननिर्मग्नास्त्रयस्त्रिंशच्च तद्भिदाः। येतूपकर्तुमायान्ति स्थायिनं रसमुत्तमम्। उपकृत्य च गच्छन्ति ते मता व्यभिचारिणः।। ये ३३ हैं इनके नाम हर्ष, स्मृति, ब्रीडा, मोह, धृति, शङ्का, ग्लानि, दैन्य, चिन्ता, मद, श्रम, गर्व, निद्रा, मति, व्याधि, त्रास, सुप्त, विबोध, अमर्ष, अवहित्थ, उग्रता, उन्माद, मरण, वितर्क, विषाद, औत्सुक्य, आवेग, जड़ता, आलस्य, असूया, अपस्मार, चपलता, निर्वेद ।। गुरु, देव, नृप पुत्रादि विषयक रति तथा कान्ता विषयक अपुष्ट रति भी व्यभिचारी है, अतः चौंतीस व्यभिचारी हैं। निर्वेद भी गृहकलह तथा शत्रु कृत धिक्कारादि जनित व्यभिचारी है। तत्त्वज्ञानादि जनित निर्वेद स्थायी है। परिशिष्ट ७७१

रस

श्रव्य काव्य में कवि के द्वारा प्रयुक्त दोषाभाव तथा गुणालङ्कारादि विशिष्ट शब्दों के माध्यम से तथा नाट्य में नट के अभिनय द्वारा विभावादि प्रकाशित किए जाते हैं, वे संवादी होने के कारण सहृदयों के हृदय में प्रविष्ट हो जाते हैं तथा उनकी भावना विशेष से वे विभावादि अपने विशेष धर्म का परित्याग कर साधारण रूप से प्रतीत हैं, वे विभाव अनुभाव-सञ्चारी भाव मिलकर व्यञ्जना व्यापार से चित्त में वासना रूप से स्थित स्थायी की अभिव्यक्ति करते हैं, यह अभिव्यक्ति है आत्मा के आनन्दांश पर जो अज्ञान का आवरण है उसका अपसारण करने से आनन्दांश का प्रकाशन। वह आनन्दांश रत्यादि स्थायी भाव को और विभाव अनुभाव और व्यभिचारी भाव को विषय बनाता है, जिससे विभावादि तथा स्थायी भाव सभी आनन्दमय भासित होते हैं। प्रमाता अपरिमित भाव से उनका आस्वाद करता है, यह आस्वादात्मक स्थिति ही रस है। इसी रस का निरूपण भरतादि आचार्यों ने किया है। और इस रस का स्वरूप, निष्पत्ति, आस्वाद का प्रकार तथा भेद प्रमेद जो साहित्यशास्त्र में तत्तत् आचार्यों द्वारा वर्णित है, उन्हें रससिद्धान्त निरूपण में प्रस्तुत किया गया है। मनीषियों की मनीषा नाना प्रकार की होती है, वे अपनी बुद्धि के अनुरूप रस को नाना रूप में समझे हैं, तो भी रस परमानन्दमय है इसमें किसी की विप्रतिपत्ति नहीं है। रस परमरमणीय है ही।

शान्तरस

ध्वनिकार के मत में महाभारत में शान्त ही अङ्गीरस है। महाभारत का अध्ययन शास्त्रदृष्टि से तथा काव्य दृष्टि से उभयथा किया जाता है, शास्त्रदृष्टि से अध्ययन करने पर उसका मोक्षलक्षण पुरुषार्थ प्रतिपाद्य है, काव्य दृष्टि से अध्ययन करने पर वहाँ शान्त रस मुख्यतया प्रतिपाद्य है। स्वयं व्यासजी ने कहा है, जैसे जैसे यह संसार निस्सार प्रतीत होता जाता है वैसे वैसे इस संसार से विराग होता जाता है। “यथा यथा विपर्येति लोकतन्त्रमसारवत्। तथा तथा विरागोऽत्र जायते नात्र संशयः।।” (ध्वन्यालोक च.उ. पृ. ५३० में उद्धृत) इस महाभारत में भगवान् वासुदेव वर्णित हैं। इसका अभिप्राय शान्त रस में ही है। संसार से वैराग्य उत्पन्न कराने में ही है। “भगवान् वासुदेवश्च कीर्त्यतेऽत्र सनातनः।।” ७७२ KARTER अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र “स हि सत्यम्” इत्यादि पद्यों द्वारा (ध्व. लो. च.उ. में उद्धृत पृष्ठ ५३१-३२) तथा हरिवंश का विरसावसान वर्णन कर ग्रन्थ की समाप्ति करना इसी गूढ अभिप्राय की अभिव्यक्ति करता है। तृष्णाक्षय में जो सुख है उसी का परिपोष शान्त रस है। “यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम् । तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशी कलाम्।।” (ध्व. लो. च.उ. में उद्धृत पृष्ठ ३६०) लोचनकार कहते हैं कि कुछ लोग शान्तरस को नहीं मानते उनका कथन है कि महर्षि भरत ने शान्तरस के स्थायी भाव का ही निरूपण नहीं किया है। कुछ लोग सर्वविध चित्तवृत्तियों का प्रशम ही शान्त का स्थायीभाव मानते हैं। परन्तु भाव तो चित्तवृत्ति रूप ही है, चित्तवृत्तियों के अभाव में भाव कैसा ? __ अन्य आचार्य भरत का उद्धरण देते हुए सिद्ध करते हैं कि शान्त ही प्रकृति है उसकी विकृति रत्यादि भाव है, प्रकृति से उत्पन्न विकार पुनः प्रकृति में लीन हो जाते हैं। “भावा विकारा रत्याद्याः शान्तस्तु प्रकृतिमतः। विकारः प्रकृतेर्जातः पुनस्तत्रैव लीयते।। स्वं स्वं निमित्तमासाद्य शान्ताद् भावः प्रवर्तते। पुनर्निमित्तापाये तु शान्त एव प्रलीयते।।” इति। (भरतनाट्यशास्त्रम् षष्ठाध्यायान्ते) __ इस प्रकार बाह्य विषयों को आश्रय न बनाने वाली आत्ममात्र को विषय बनाने वाली चित्तवृत्ति शान्त रस का स्थायी भाव है। इनमें तृष्णाक्षय पक्ष ही उचित है मुनि ने भी “क्वचिच्छमः” कहा है। यह यौगिक है समस्त चित्तवृत्तियों का उपशम हो जिससे अर्थात् निर्वेद स्थायी है, शम तो शान्त का पर्याय है। इस शान्त का वीर रस में अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता, वीर रस अभिमानमय है और शान्त अहङ्कारप्रशमैक रूप है। दयावीर आदि यदि अहंकार रहित हों तो उनका शान्त में अन्तर्भाव करना चाहिए। यदि अहंकारसहित हैं तो वीर में अन्तर्भाव करना उचित है। शान्तरस सभी के अनुभव का विषय नहीं है अतः शान्त रस नहीं है ऐसा नहीं कह सकते, बीतरागों को शृङ्गार का भी अनुभव नहीं होता तो शृङ्गार भी रस नहीं कहलाएगा।

मम्मटमत

आचार्य मम्मट भी पहले “अष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः” कहकर पुनः “निर्वेदः स्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः” कहते हुए श्रव्य काव्य में शान्त रस परिशिष्ट ७७३ स्वीकार कर कहते हैं कि व्यभिचारी भावों की गणना मे प्रथम निर्वेद का नाम लिया गया है, यह निर्वेद अमङ्गलप्राय है, मांगलिक आचार्य यदि इसका प्रथम नाम लेता है तो इसका अभिप्राय विशेष है, अर्थात् स्थायी भावों के गणना के अन्त में और व्यभिचारी भावों के गणना के आदि में इसका नाम लेना “देहलीदीपक” न्याय से निर्वेद का सम्बन्ध स्थायीभाव तथा व्यभिचारी भाव दोनों से सूचित होता है, तो निर्वेद स्थायी भाव भी है और पुष्ट होकर शान्त रस कहलाता है।

धनञ्जयमत

धनञ्जय ने भी नाट्य में शान्तरस का निषेध किया है। “शममपि केचित्याहुः पुष्टि तस्य नाट्येषु” (दशरूपक ४/३५) तो भी श्रव्यकाव्य में इसका निषेध नहीं किया जा सकता। क्योंकि सूक्ष्म तथा अतीत सभी पदार्थ शब्द से प्रतिपाद्य होते हैं। शम का प्रकर्ष शान्त रस है। “न यत्र दुःखं न सुखं न चिन्ता द्वेषो न रागो न च काचिदिच्छा। रसः स शान्तः कथितो मुनीन्द्रैः सर्वेषु भावेषु शमः प्रधानः।।”

धनिकमत

धनिक भी कहते हैं नाटकादि जो अभिनयात्मक हैं, उनमें शम की स्थायिता का सर्वथा निषेध करता हूँ। शम समस्त व्यापार का विलय रूप है, उसका अभिनय नहीं हो सकता।

पण्डितराज जगन्नाथ मत

पण्डितराज जगन्नाथ नाट्य में भी शान्तरस की निष्पत्ति मानते हैं। वे प्रथम विरोधी मत पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थित करते हैं। शान्त रस में शम स्थायी भाव है, नट में शम होना असम्भव है। अतः नाट्य में आठ ही रस हैं , शान्त मानना उचित नही। “शान्तस्य शमसाध्यत्वान्नटे च तदसम्भवात्। अष्टावेव रसा नाट्ये न शान्तस्तत्र युज्यते”।। (रसगंगाधर प्र. आ.) इस पर समाधान करते हैं कि रसास्वाद तो सामाजिकों को होता है उनमें शम होना चाहिए, नट में होने न होने से क्या ? नट में तो भय क्रोधादि भी नहीं होते परन्तु उनका भी अभिनय प्रकाशन शिक्षा और अभ्यास से वह करता ही है, उसी प्रकार कृत्रिम शम का भी अभिनय शिक्षा और अभ्यास बल से कर सकता है। दूसरी आपत्ति है कि नाट्य में गीत वाद्य आदि विषय होते हैं जो शान्त रस के विरोधी हैं तो सामाजिकों में भी विषयविमुखता रूप शान्त का उद्रेक कैसे होगा ? इसका समाधान है कि नाट्य में शान्तरस मानने वाले गीत वाद्य आदि को शान्त का विरोधी नहीं मानते। यदि प्रत्येक विषय के चिन्तन को शान्त का विरोधी मान लिया जाय तो शान्त का आलम्बन विभाव है संसार की अनित्यता, उद्दीपन है पुराण श्रवण, सत्सङ्ग, ७७४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र . पुण्यवन तीर्थ आदि का दर्शन आदि ये भी विषय ही हैं तो ये भी शान्त के बाधक हो जायेंगे। अन्त में सङ्गीतरत्नाकर का उद्धरण देते हुए इस विषय का उपसंहार करते हैं कि कुछ आचार्य नाट्य में आठ ही रस मानते हैं वह उचित नहीं। rammar “अष्टावेव रसा नाट्येष्विति केचिदचूचुदन। तदचारु यतः कञ्चिन्न रसं स्वदते नटः।।” (रसगंगाधर प्र. आ. में उद्धृत)

भक्तिरस

गौडीय (वैष्णव ) सम्प्रदाय में भक्ति रस का निरूपण किया गया है उसका शान्त में अन्तर्भाव नहीं हो सकता, भक्तिरस में अनुराग प्रधान रहता है, शान्त में वैराग्य। अनुराग वैराग्य के विरुद्ध है। अतः पृथक् भक्ति रस है। परन्तु मम्मटआदि आचार्यों ने भक्ति को देवादिविषयक रति होने के कारण भाव माना है रस नहीं। इन आचार्यों ने प्राकृत रस का वर्णन किया है। भक्ति अप्राकृत रस है। अर्थात् रति का प्राकृत आलम्बन विभाव हो तो शृङ्गार रस होता हैं अप्राकृत आलम्बन हो तो भक्ति रस होता है। इस विषय में भरतमुनि का वचन ही प्रमाण है। स्वतन्त्र कल्पना उचित नहीं।

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काव्यगुण

काव्य रसास्वाद से सहृदयों के चित्त की स्थिति तीन प्रकार की पायी जाती है, या तो उनका चित्त द्रवित हो जाता है, या दीप्त हो जाता है या उसमें विकास होता है, अतः द्रुति दीप्ति और विकास के प्रयोजक गुण भी तीन माने जाते हैं। द्रुति का प्रयोजक माधुर्य गुण है, दीप्ति का प्रयोजक ओजो गुण है, विकास का प्रयोजक प्रसाद गुण है। इनमें माधुर्य गुण शृङ्गार (सम्भोग) रस में, इससे अधिक करुण में, इन दोनों रसों की अपेक्षा विप्रलम्भ में, इन तीनों रसों की अपेक्षा शान्त में अधिक रहता है। क्योंकि पूर्व रसों की अपेक्षा उत्तरोत्तर रसों में अधिक चित्त द्रुति होती है। कुछ लोगों का मत है कि संयोग शृङ्गार की अपेक्षा करुण और शान्त में अधिक, तथा इन सभी से विप्रलम्भ में माधुर्य अधिक होता है। दूसरे लोग कहते हैं कि संयोग शृङ्गार की अपेक्षा करुण विप्रलम्भ शृङ्गार और शान्त में अधिक माधुर्य होता है, करुण विप्रलम्भ और शान्त में तारतम्य नहीं है। “दीप्त्यात्मविस्तृतेर्हेतुरोजो वीररसस्थिति। बीभत्सरौद्ररसयोस्तस्याधिक्यं क्रमेण तु।” (काव्यप्रकाश ८/६५-६६ १/२) इसी प्रकार वीर-बीभत्स-रौद्र रसों में उत्तरोत्तर अधिक ओजोगुण है। क्योंकि इनमें उत्तरोत्तर अधिक चित्त की दीप्ति होती है। अद्भुत-हास्य-भयानक में कुछ लोग प्रसाद और ओजोगुण (दोनों) की स्थिति मानते हैं, कुछ लोग प्रसाद मात्र मानते हैं। प्रसाद गुण तो सभी रसों और सभी रचना में रहता है। ७७५ परिशिष्ट

गुणों का आश्रय

अब प्रश्न है कि गुण यदि केवल रस के धर्म हैं तो रसो मधुरः व्यवहार तो उचित है, परन्तु “वर्णो मधुरः रचना मधुरा” यह व्यवहार लाक्षणिक है (औपचारिक है) अर्थात् स्वाश्रयाभिव्यञ्जकत्वसम्बन्ध से वर्ण और रचना में माधुर्य है यहाँ स्व-गुण, उसका आश्रय रस, उसका व्यञ्जक वर्ण और रचना है अतः वर्ण और रचना में भी गुण परम्परा सम्बन्ध से रहता है। इस पर पण्डितराज जगन्नाथ की विप्रतिपत्ति है कि गुण मात्र रस के धर्म हैं इसमें क्या प्रमाण ? प्रत्यक्ष प्रमाण तो है नहीं, क्योंकि रस का कार्य और रस के गुण ये दोनों पृथक् पृथक् उपलब्ध नहीं होते, जैसे अग्नि का कार्य दाह है, और उष्णता गुण है, ये दोनों पृथक् उपलब्ध होते हैं उसी प्रकार रस का कार्य द्रुत्यादि चित्तवृत्ति से पृथक् रस के गुणों का अनुभव नहीं होता। __यदि कहें कि माधुर्यादि गुणों से विशिष्ट रस ही द्रुत्यादि चित्तवृत्ति के कारण होते हैं, और जो कारण होते हैं उनकी कारणता किसी न किसी धर्म से विशिष्ट होती है, तो कारणता का अवच्छेदक होने के कारण गुणों का अनुमान कर लेंगे। (अर्थात चित्त की द्रुति का कारण माधुर्य विशिष्ट रस है। कारण में ही कारणता रहती है तो माधुर्यवद् रस में कारणता है, उसमें विशेषण (अवच्छेदक) है माधुर्य, इस प्रकार गुणों की अनुमान से रसमात्र-धर्मता सिद्ध हो जायगी, तो आप यह नहीं कह सकते। क्योंकि “द्रुतिप्रति शृङगारः कारणम्” अर्थात् द्रुति के प्रति शृङ्गार कारण है, तो शृङ्गारत्व ही कारणतावच्छेदक होगा न कि माधुर्यादि। अतः अनुमान से भी माधुर्यादि की सिद्धि नहीं होगी। दूसरी बात यह है कि रस आत्मा है, और आत्मा निर्गुण है, उसमें गुण की स्थिति नहीं मानी जा सकती। और रस की उपाधि जो रत्यादि स्थायी भाव हैं गुण हैं। उनमें भी गुण की स्थिति नहीं मानी जा सकती “गुणे गुणानगीकारात्”। फिर आचार्यों ने “शृङ्गार एव मधुरः” कैसे कहा है तो इसका समाधान है कि “शृङ्गार मधुर है” अर्थात् माधुर्य का प्रयोजक है, जैसे कहा जाता है ‘अश्वगन्धा-उष्णा’ । तो अश्वगन्ध उष्ण है अर्थात् उष्णता का प्रयोजक है, उसके सेवन से गर्मी आती है। __इस प्रकार गुणों का लक्षण होगा-“दुत्यादि चित्तवृत्तिप्रयोजकत्वम्”, या प्रयोजकता सम्बन्धेन द्रुत्यादिकमेव वा माधुर्यादिकम्। यह प्रयोजकता अदृष्ट, काल, ईश्वरेच्छा, देशादि से विलक्षण केवल शब्द अर्थ रस रचना गत ही ली जायेगी। इस रीति को स्वीकार कर लेने पर रचना मधुरा आदि व्यवहार को लाक्षणिक नहीं मानना पड़ेगा। यह पण्डितराज का सिद्धान्त है।७७६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

गुणों की संख्या

भरत आदि ने काव्य के दस गुण माने हैं, वामन दस शब्द गुण और दस ही अर्थ गुण मानते हैं, शब्दगुणों और अर्थगुणों के नाम में भेद नहीं है, लक्षण में भेद है।

गुणों के नाम

श्लेषः प्रसादः समता माधुर्य सुकुमारता। अर्थव्यक्तिरुदारत्वमोजः कान्तिसमाधयः।।”

गुणों का अन्तर्भाव

परन्तु आचार्य मम्मट प्रभृति ने इन गुणों में कुछ का अपने तीन गुणों में अन्तर्भाव कर लिया है, कुछ को गुण नहीं दोषाभाव माने हैं, कुछ को दोष ही माने हैं, अतः दश गुण नहीं हैं। केचिदन्तर्भवन्त्येषु दोषत्यागात् परे श्रिताः। अन्ये भजन्ति दोषत्वं कुत्रचिन्न ततो दश। … तेन नार्थगुणा वाच्याः प्रोक्ता शब्दगुणाश्च ये।। (काव्य प्रकाश ८/७२-७३) … दस शब्दगुणों में श्लेष उदारता प्रसाद और समाधि इन चार गुणों का ओजो गुण को अभिव्यक्त करने वाली रचना में अन्तर्भाव हो जाता है। यद्यपि प्रसाद और समाथि गाढ तथा शिथिल बन्ध वाले हैं, तो गाढ अंश का ओजोगण व्यञ्जक रचना में अन्तर्भाव हो जाएगा, परन्तु शिथिल अंश का तो नहीं हो सकता, तो भी शिथिल अंश का कहीं माधुर्य, कहीं प्रसाद की व्यञ्जक रचना में समावेश हो जायगा। माधुर्य गुण तो हमारा माधुर्यव्यञ्जक रचना ही है। समता (मार्गाभेद) तो सर्वत्र अनुचित ही है, वर्णनीय यदि उद्धत होगा तो उद्धत रचना भी होगी, यदि अनुद्धत होगा तो अनुद्धत रचना होगी, अतः वर्ण्य भेद से मार्गभेद भी इष्ट ही है। ग्राम्यत्व तथा कष्टत्व दोष हैं, इनका परित्याग कर देने से क्रमशः कान्ति और सौकुमार्य गुण गतार्थ हो जाते हैं। प्रसाद से अर्थव्यक्ति गृहीत हो जायगी। इस प्रकार दश शब्द गुण नहीं हैं। अर्थगुणों में श्लेष तथा ओज के चारों भेद जो प्रथम कहे गये हैं (१. पदार्थ में वाक्य की रचना, २. वाक्यार्थ को एक पद से कहना, ३. एक वाक्यार्थ को अनेक वाक्यों द्वारा तथा ४. अनेक वाक्यार्थों का एक वाक्य से प्रतिपादन) वे वैचित्र्यमात्र हैं गुण नहीं। पद का अधिक न होना रूप प्रसाद, उक्तिवैचित्र्य रूप माधुर्य, कठोरता का न होना सुकुमारता, ग्राम्यता का न होना उदारता, विषमता का न होना समता तथा विशेषण का साभिप्राय होना रूप पञ्चम प्रकार का ओज ये क्रमशः अधिकपदत्व, अनवीकृतत्व, अमङ्गलसूचक अश्लील,

परिशिष्ट ७७७ ग्राम्यता, भग्नप्रक्रमता, और अपुष्टार्थता रूप दोषों के अभाव मात्र हैं, गुण नहीं हैं। किसी वस्तु के स्वभाव का स्पष्ट वर्णन रूप अर्थव्यक्ति भी स्वभावोक्ति अलङ्कार है, रस की स्पष्ट प्रतीति होना रूप जो कान्ति गुण है वह भी रस की प्रधानता में रसध्वनि गौणता में गुणीभूतव्यङ्ग्य रसवदलङ्कार से गतार्थ हो जायेगा। समाधि गुण तो कविगत हैं वह काव्य का कारण है गुण नहीं है। यदि विषयता सम्बन्ध से अर्थगत होने के कारण अर्थगुण मानेंगे तो प्रतिभा भी काव्य का गुण कहलाने लग जायेगी। अतः ये दस अर्थ गुण भी नहीं है, केवल तीन ही गुण हैं। १. माधुर्य, २. ओजः ३. प्रसाद।

गुणों के व्यञ्जक

इन गुणों के व्यञ्जक होते हैं, वर्ण, समास, तथा रचना। माधुर्य के व्यञ्जक वर्णादि स्पर्शसंज्ञक अर्थात् क से लेकर म पर्यन्त वर्षों में ट, ठ, ड, ढ, को छोड़कर शेषवर्ण अपने शिर पर स्थित अपने अपने वर्ग के अन्तिम वर्ण से युक्त, रेफ और णकार हस्व स्वर से युक्त, (ये वर्ण) समास का अभाव, या मध्यम समास, तथा सुकुमार रचना माधुर्य गुण का व्यञ्जक होते हैं। “मूर्ध्नि वर्गान्त्यगाः स्पर्शा अटवर्गा रणौ लघू। अवृत्तिर्मध्यवृत्तिर्वा माधुर्य घटना तथा।।” (काव्य प्रकाश ८/७४) पण्डितराज जगन्नाथ तो वर्ग के द्वितीय वर्ण अर्थात् ख, छ, थ, फ, और चतुर्थ वर्ण घ, झ, ध, भ, यदि दूर-दूर प्रयुक्त हो तो न अनुकूल हैं न ही प्रतिकूल। यदि निकट में प्रयोग हो तो प्रतिकूल भी हो जाते हैं, ऐसा मानते हैं। (रसगं. प्र.आ. गुण निरूपण) ओजो गुण व्यञ्जक वर्णादि १. वर्ग के प्रथम वर्ण अर्थात् क, च, ट, त, प का द्वितीय वर्ण ख, फ, छ, ठ, थ, के साथ अव्यहित योग, तथा तृतीय वर्ण ज, ब, ग, ड, द, का चतुर्थ वर्ण, घ, ढ, थ, झ, भ के साथ अव्यहित प्रयोग २. रेफ का ऊपर नीचे या उभयत्र योग, जैसे प्र में नीचे, कर्ण में ऊपर, निर्हाद में नीचे तथा ऊपर उभयत्र योग है, ३. एक ही वर्ण का संयोग जैसे मत्त, उद्दण्ड, अट्ट, आदि ४. ट, ठ, ड, ढ, वर्ण, ५. श, ष, ये सब वर्ण ६ दीर्घ समास, ७. उद्धत रचना ओजो गुण के व्यञ्जक होते हैं। “योग आद्यतृतीयाभ्यामन्त्ययो रेण तुल्ययोः । टादिः शषौ वृत्तिदैर्घ्य गुम्फ उद्धत ओजसि।। (काव्य प्रकाश ८/७५) पण्डितराज वर्ग के प्रथम तथा तृतीय वर्ण के प्रयोग को यदि वे परस्पर में संयुक्त न हों तो, ओजो गुण के न अनुकूल मानते हैं, न प्रतिकूल ही मानते हैं। रसगङ्गाधर प्रथम आनन गुण निरूपण .. . …. . ….. .. . ……… ७७८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र प्रसादगुण के व्यजक वर्ण जिस शब्द, समास, या रचना के द्वारा श्रवण मात्र से अर्थ की प्रतीति हो जाय वह सभी रसों तथा रचनाओं में रहने वाला प्रसाद गुण है।

रीति

वामन ने रीति को काव्यात्मा कहा है, और रीति का स्वरूप है विशिष्ट पदों की रचना। यह विशिष्टता गुण है। “रीतिरात्मा काव्यस्य” ‘विशिष्टा पदरचना रीतिः’ ‘विशेषो गुणात्मा’ ‘सा त्रेथा वैदर्भी गौडीया पाञ्चाली चेति’ (काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति १/२/६-८) इस प्रकार गुण विशिष्ट पदों की रचना ही रीति है। यह रीति शब्द “री गतिरेषणयोः” धातु से क्तिन् प्रत्यय करने से निष्पन्न होता है, रीयते = गम्यते अनयेति रीतिः मार्गः। इसीलिए दण्डी तथा कुन्तक ने इसे मार्गशब्द से कहा है। इस प्रकार रीति गुण रूप ही सिद्ध होती है, इसीलिए ध्वनि के अभाववादी (तदनतिरिक्तवृत्तयो) रीतयश्च वैदर्भी प्रभृतयः कहते हैं अर्थात् गुणों से अतिरिक्त जिसकी सत्ता नहीं है ऐसी वैदर्भी आदि रीतियां भी श्रवण गोचर हुई हैं। (थ्व. लो. अभाववाद) आनन्दवर्धन ने इन्हें संघटना शब्द से निरूपित किया है।

संघटना

“असमासा समासेन मध्यमेन विभूषिता। तथा दीर्घसमासा च त्रिधा संघटनोदिता।। संघटना तीन प्रकार की होती है १. असमासा, २. मध्यमसमासा, ३. दीर्घसमासा। असमासा संघटना वैदर्भी रीति है, मध्यमसमासा पाञ्चाली रीति तथा दीर्घसमासा गौडी रीति है। यहाँ प्रश्न है कि गुण और संघटना एक तत्त्व है, या भिन्न भिन्न ? यदि भिन्न भिन्न हैं तो भी प्रश्न है कि गुणाश्रया संघटना है या संघटनाश्रय गुण हैं। तो यदि गुण और संघटना एक हैं या संघटनाश्रय गुण है इन पक्षों में निम्नाकित कारिका “गुणानाश्रित्य तिष्ठन्ती माधुर्यादीन् व्यनक्ति सा। रसान्; तन्नियमे हेतुरौचित्यं वक्तृवाच्ययोः।।” का अर्थ होगा-‘आत्मभूतान् आधेयभूतान् वा गुणानाश्रित्य तिष्ठन्ती संघटना रसादीन् व्यनक्ति”। आत्मभूत या आधेयभूत गुणों का आश्रय करके स्थित संघटना रसादिकों को व्यक्त करती है। आत्मभूत का तात्पर्य है कि जैसे “शिंशपावृक्षः” यहाँ शिंशपा और वृक्ष दोनों एक ही हैं, तो भी वृक्षत्व का आश्रय शिंशपा है उसी प्रकार संघटना और गुण एक हैं, तो भी गुण संघटनाश्रय हैं। लोचन के अनुसार भट्टोद्भट आदि गुण को संघटना का धर्म मानते हैं, और धर्म धर्मी में ही रहते हैं न कि धर्मी धर्म में। इस पक्ष में आश्रय का परिशिष्ट ७७६ अर्थ आधाराधेयभाव नहीं है। अपितु अधीनता आश्रय का अर्थ है जैसे “राजाश्रयः प्रकृतिवर्गः” का अर्थ होता है राजपरतन्त्रः प्रकृतिवर्गः, अमात्यादिः। तो यहां पर भी गुणाश्रया संघटना का अर्थ होगा, गुणों के अधीन (गुण परतन्त्र संघटना है) यदि दूसरा पक्ष माने गुण और संघटना भिन्न भिन्न हैं, और गुणाश्रय संघटना पक्ष है तो अर्थ होगा गुणों का आश्रय लेकर स्थित संघटना रसादिकों को अभिव्यक्त करती है। यहां गुणाश्रय का अर्थ है गुण परतन्त्रा संघटना है। गुणरूपा नहीं है। इसका तात्पर्य बस इतना ही है कि गुण और संघटना एक है या गुण परतन्त्र संघटना है, संघटना का नियामक है वक्ता वाच्य तथा प्रबन्ध का औचित्य इत्यादि। विश्वनाथ एक चौथी भी रीति मानते हैं लाटी। इसका निरूपण आचार्य रुद्रट भी कर चुके हैं। भोजराज ने भी रीति का अर्थ मार्ग ही किया है। रीति को छः प्रकार का माना है १. वैदर्भी, २. पाञ्चाली, ३. गौडी, ४. लाटी, ५. आवन्ती, ६. मागधी (सरस्वती कण्ठाभरण २/२७-२८) ब

"

वृत्ति

भोजराज ने छः वृत्तियां भी मानी हैं। वृत्ति का अर्थ है रसविषयक व्यापार। यह चित्त को संकुचित विकसित, विस्तृत करता है तथा चित्त में विक्षेप करता है। विषय की विचित्रता से चित्त की विकास विक्षेप आदि चार अवस्थाएं होती हैं, विषय भी दीप्त-मसृण मध्यम भेद से तीन प्रकार के होते हैं। इनके सम्बन्ध से छः वृत्तियां होती हैं। १. कैशिकी २. आरभटी, ३. भारती, ४. सात्त्वती, ५. मध्यमारभटी, ६. मध्यमकैशिकी। ये नाट्यवृत्तियां हैं। (सर. कण्ठा. २/३४-३५) काव्य की भी १. उपनागरिका, २. परुषा, (ग्राम्या किसी के मत में) ३. कोमला, ये तीन वृत्तियां हैं जो अनुप्रास के भेद हैं। इस प्रकार गुणों में रीतियों का वृत्त्यनुप्रास में वृत्तियों का अन्तर्भाव है। (का.प्र. ६/७६) भाव-आचार्य मम्मट ने देव गुरु महापुरुष राजादिविषयक रति को, तथा विभावादि से अभिव्यक्त व्यभिचारी भावों को तथा कान्ताविषयक अपुष्ट रति को भाव कहा है। “रतिर्देवादि विषया व्यभिचारी तथाऽञ्चितः। भावः प्रोक्तः” (का.प्र. ४/३५-३६) पण्डितराज ने इसी मत को लेकर भक्ति को भाव माना है तथा भाव का लक्षण किया है -

“विभावादिव्यज्यमानहर्षाक्यन्यतमत्वम् भावत्वम्”। (रसगङ्गाधर प्रथमानन, भावनिरू.) . . . . . . . . - … .. : …- . __- - -

.. . . . ७८० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र भावों की भी अभिव्यक्ति सामाजिकों के ही हृदय में होती है। इन भावों का व्यञ्जक विभाव और अनुभाव ही होते हैं। ये हर्षादि ३३ हैं जिनका नाम निर्देश प्रथम किया गया है, अब उनका संक्षिप्त लक्षण लिखा जा रहा है।

भावों का लक्षण

१. हर्ष-इष्ट वस्तु की प्राप्ति से जो सुख होता है उसे हर्ष कहते हैं। २. स्मृति-संस्कार जन्य ज्ञान को स्मृति कहते हैं। ३. ब्रीडा-स्त्रियों में पुरुष मुख दर्शनादि से पुरुषों में प्रतिज्ञाभङ्ग पराभव आदि से उत्पन्न विवर्णता (मुखमालिन्य) अधोमुखता शिर का झुकना आदि का कारण जो चित्तवृत्ति विशेष है उसे व्रीडा कहते हैं। मोह-भय वियोगादि से उत्पन्न व्याकुलता जिसके कारण किसी वस्तु की यथार्थता को समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है उस चित्तवृत्ति को मोह कहते हैं। ५. धृति-लोभ, शोक, भय आदि से उत्पन्न उपद्रव को निवारण करने वाली चित्तवृत्ति को धृति कहते हैं। ६. शड्का - ‘मेरा क्या अनिष्ट होने वाला है, इस प्रकार की चित्तवृत्ति को शङ्का कहते हैं। ७. ग्लानि-मानसिक व्यथा या व्याधि से उत्पन्न दुर्बलता के कारण विवर्णता, अगों की शिथिलता आंखों का चौंधिआना आदि को उत्पन्न करने वाले दुःखविशेष को ग्लानि कहते हैं। ८. दैन्य-दुःख दरिद्रता तथा अपराथ आदि से उत्पन्न होने वाली उस चित्तवृत्ति को दैन्य कहते हैं जो अपने विषय में हीन शब्द प्रयोग के कारण होती है। ६. चिन्ता - इष्ट की अप्राप्ति अनिष्ट की प्राप्ति आदि कारणों से जन्य विवर्णता, भूमि लेखन, अधोमुखता का जनक चित्तवृत्ति विशेष चिन्ता कहलाती है। १०. मद - मद्य आदि के उपयोग से उत्पन्न शयन, रोदन, हास आदि का कारण जो उल्लास नामक चित्तवृत्ति है, उस को मद कहते हैं। ११. श्रम - अनेक प्रकार के शारीरिक श्रम (कार्य) से उत्पन्न, निःश्वास, अङ्गटूटना, निद्रा आदि का कारण खेद नामक चित्तवृत्ति विशेष को श्रम कहते हैं। १२. गर्व - रूप, थन, विद्या अधिकार कुल आदि के कारण अपने को उत्कृष्ट मानने से जो दूसरों की अवहेलना करने की चित्तवृत्ति होती है, उसको गर्व कहते हैं। १३. निद्रा - श्रम आदि के कारण चित्त का सम्मीलन अर्थात् पुरीतत् नाडी में प्रवेश का नाम निद्रा है।

परिशिष्ट ७० १४. मति - शास्त्र या लोकवृतान्त के विचार से किसी पदार्थ का निर्णय करने वाली चित्तवृत्ति को मति कहते हैं। १५. व्याधि - रोग या वियोग आदि से उत्पन्न मनस्ताप को व्याधि कहते हैं। १६. त्रास - भीरु व्यक्ति को भयानक प्राणियों के देखने से, बिजली की कड़क के समान प्रचण्ड शब्द सुनने से जो चित्तवृत्ति उत्पन्न होती है उसे त्रास कहते हैं। १७. सुप्त - निद्रा से उत्पन्न ज्ञान (विषयों की प्रतीति) को सुप्त या स्वप्न कहते हैं। १८. विबोथ - निद्रा की समाप्ति के बाद जो बोध होता है उसे विबोध कहते हैं। कुछ लोग अविद्या के ध्वंस से उत्पन्न ज्ञान को विबोध मानते हैं। १६. अमर्ष - शत्रुकृत तिरस्कार आदि नाना अपराधों से जन्य मौन या कठोर भाषण का कारण रूप चित्तवृत्ति विशेष को अमर्ष कहते हैं। २०. अवहित्य - हर्ष आदि भावों के कार्य (अनभाव) जो अश्रुपातादि होते हैं उन्हें व्रीडा भय आदि के कारण छिपाने की चित्तवृत्ति को (आत्मभावगोपन की वृत्ति को) अवहित्य कहते हैं। २१. उग्रता - निन्दा, अपमान आदि से उत्पन्न “मैं इसका क्या कर डालूँ” इत्याकारक चित्तवृत्ति को उग्रता कहते हैं। २९. उन्माद - प्रिय वियोग, महाविपत्ति या परमानन्द से जन्य अन्य में अन्य की प्रतीति का नाम उन्माद है। २३. मरण - रोग आदि से उत्पन्न होने वाली मूर्छा रूप जो मरण की पहली अवस्था है उसे मरण कहते हैं। २४. वितर्क - सन्देह या विपर्यय के अनन्तर होने वाला ऊह (एक प्रकार का विचार) वितर्क कहलाता है। २५. विषाद - प्रयास करने पर भी इष्टसिद्धि न होने से राजा, गुरु, आदि श्रेष्ठ जनों के प्रति किए गये अपराध से उत्पन्न अनताप (पश्चाताप) का नाम विषाद है। २६. औत्सुक्य - ‘यह वस्तु हमें अभी मिल जाय’ इस प्रकार की इच्छा को औत्सुक्य कहते हैं। २७. आवंग - अतिशय अनर्थों से उत्पन्न चित्त के संभ्रम नामक चित्तवृत्ति को आवेग कहते हैं। २८. जड़ता - चिन्ता, उत्कण्ठा, भय, विरह, इष्ट का अनिष्ट देखने या सुनने से उत्पन्न अवश्य कर्तव्य का निर्धारण न कर सकने वाली चित्तवृत्ति को जड़ता कहते हैं। २६. आलस्य - अतितृप्ति, गर्भ, रोग, परिश्रम, आदि के कारण चित्त का कर्तव्य कर्म के प्रति उन्मुख न होना ही आलस्य है। ३०. असूया - दूसरे का उत्कर्ष देखने आदि से उत्पन्न परनिन्दा आदि का कारणभूत चित्तवृत्ति विशेष को असूया कहते हैं। ७८२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ३१. अपस्मार - वियोग, शोक, भय, घृणा आदि की अधिकता से ग्रहादि (भूतादि) के आवेश से उत्पन्न व्याधि विशेष का नाम अपस्मार है। ३२. चपलता - अमर्ष आदि से उत्पन्न कटुभाषण आदि कराने वाली चित्तवृत्ति का नाम चपलता है। ३३. निर्वेद - यह आलम्बन भेद से दो प्रकार का होता है। १. नीच पुरुष में होने वाला, २. उत्तम पुरुष में होने वाला, नीच पुरुष में निर्वेद की उत्पत्ति गाली, गलौज, तिरस्कार व्याधि, ताडन, दरिद्रता, अभीष्ट की अप्राप्ति (इष्ट विरह), परसम्पत्ति या उत्कर्ष को देखने के कारण होती है और उत्तम पुरुष में अवज्ञा आदि से उत्पन्न होने वाली विषयविद्वेष नामक चित्तवृत्ति जो रोदन दीर्घश्वास मुखमलिनता आदि का कारण है उस चित्तवृत्ति को निर्वेद कहते हैं। यह व्यभिचारी भाव है, परन्तु नित्यानित्यवस्तु विवेक से उत्पन्न विषय विराग शान्तरस का स्थायी भाव है।

शंका

ये व्यभिचारी भाव इतने ही क्यों हैं ? मात्सर्य, उद्वेग, दम्भ, ईर्ष्या, विवेक, निर्णय, क्लीवता, क्षमा, कौतुक, उत्कण्ठा, विनय संशय धाष्र्य आदि भाव भी देखे जाते हैं। उनकी गणना क्यों नहीं ? इसका समाधान है कि इन भावों का उन्हीं ३३ भावों में अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे असूया में मात्सर्य, त्रास में उद्वेग, अवहित्था में दम्भ, अमर्ष में ईर्ष्या, मति में विवेक तथा निर्णय का, दैन्य में क्लैव्य का धृति में क्षमा का, औत्सुक्य में कौतुक तथा उत्कण्ठा का, लज्जा में विनय का, तर्क में संशय का, चपलता में धाष्य का सूक्ष्म भेद होने पर भी अन्तर्भाव हो जाता है। इन भावों की संख्या महर्षि भरत ने निश्चय की है, तो यथा सम्भव उसका पालन करना ही चाहिए, उच्छृङ्खलता अनुचित है। (रस गङ्गाधर प्रथम आनन भावनिरूपण) ७८३ सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची

सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची

१. अग्नि पुराण २. अप्पय दीक्षितेन्द्र विजयम् ३. अमिधा-वृत्ति-मातृका ४. अभिनव भारती अभिनव दर्पण ६. अभिज्ञान शाकुन्तलम् अद्यपालम् अथर्ववेद अलंकार शेखर १०. अलङ्कार महोदधि ११. अलङ्कार-सर्वस्व १३. अलङ्कार-दर्पण १४. अलंकार चिन्तामणि १५. अलंकार कौस्तुभ १६. अलंकार कौस्तुम दीधिति प्रकाशिका - अलंकार दीपिका (कारिकादीपिका) १८. अलङ्कार मुक्तावली अलंकार शास्त्र का इतिहास २०. अल्पार्थरत्न दीपिका २०. अष्टाध्यायी २१. अवदान कल्पलता २२. अवन्ति सुन्दरी कथा २३. आचार्य हेमचन्द्र २४. आसफ विलास महर्षि व्यास शिवानन्द योगी मुकुल भट्ट अभिनव गुप्त सं. मनमोहन घोष कालिदास शिलालेख अपौरुषेय केशव नरेन्द्रप्रम सूरि रुप्यक शोभाकरमित्र अजित सेन विश्वेश्वर पाण्डे वृन्दावन चन्द्र तकीलंकार आशाधर भट्ट विश्वेश्वर पाण्डे डॉ. कृष्ण कुमार श्री मुकुन्दराय पाणिनि क्षेमेन्द्र दण्डी डॉ. वि.मा. मुसलगांवकर पं. राज जगन्नाथ ७८४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ईशावास्योपनिषद् उज्ज्वल नीलमणि रूप गोस्वामी उत्तर रामचरित भवभूति उत्तर भारत का राजनैतिक इतिहास - डॉ. हेमचन्द्र राय उपदेश तरङ्गिणि .. ऋग्वेद ऋगर्थ दीपिका बैंकट माधव ऋक्सर्वानुक्रमणी ऋक्प्रातिशाख्य एकावली विद्याधर औचित्य विचार चर्चा क्षेमेन्द्र कर्पूर मञ्जरी राजशेखर कविकण्ठाभरण क्षेमेन्द्र कुमार पाल प्रबन्ध उपाध्याय जिन मण्डन कुवलयानन्द अप्पय दीक्षित कुमायूँ का इतिहास बदरीदत्त पाण्डेय कादम्बरी बाणभट्ट कारिकावली विश्वनाथ काव्यादर्श दण्डी काव्य कौस्तुभ कवि कर्णपूर काव्यानुशासन हेमचन्द्र काव्य प्रकाश मम्मट . . काव्य प्रपदी टी. भट्ट गोपाल काव्य प्रदीप (टी.) गोविन्द ठक्कुर काव्यालङ्कार भामह काव्यालङ्कार रुद्रट काव्यालङ्कार सार संग्रह उद्भट काव्यमीमांसा राजशेखर काव्य शिक्षा विनय चन्द्र सूरि __-.. . . . .-

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नरसिंह रामचन्द्रसूरि नीलकण्ठ पद्मगुप्त परिमल भरत नन्दिकेश्वर रामचन्द्र गुणचन्द्र रूप गोस्वामी सं. पं. शिवदत्त शर्मा अप्पय दीक्षित सं. श्री निवास शास्त्री यास्क यास्क ७७ MINICO भास सन्दर्भ-ग्रन्य-सूची निर्भय भीमव्यायोग नीलकण्ठ विजय चम्पू नीलकण्ठ दीक्षित पदमञ्जरी हरदत्त परिमल अप्पय दीक्षित परिभाषेन्दुशेखर नागेश भट्ट पश्पशाहिक भाष्य पतञ्जलि पञ्चतन्त्र विष्णु शर्मा पण्डित राज काव्य संग्रह सं. आर्येन्द्र शर्मा पुरातन प्रबन्ध संग्रह पिड्ल छन्दः सूत्र पिङ्ल प्रकाश (व. जी.टी.) राधेश्याम मिश्र प्रतिज्ञा यौगन्धरायण प्रताप रुद्रयशोभूषण सं. के.पी. त्रिवेदी प्रत्यभिज्ञाविवृति विमर्शिनी प्रताप रुद्रीय कुमार स्वामी कृत रत्नापण टीका प्रमाण -वार्तिक प्रमाण- समुच्चय दिङ्नाग प्रबन्ध चिन्तामणि सोमप्रभ सूरि प्रबन्ध कोश अमरचन्द्र प्रसन्न राघव जयदेव प्रभावक चरित प्रभाचन्द्र प्राकृत पेंगलम् प्राचीन भारत का इतिहास डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी प्रास्ताविक विलास पं राज जगन्नाथ सं. जनार्दन शास्त्री बृहत्कथा मंजरी क्षेमेन्द्र बृहत् संहिता वाराह मिहिर बाल बोधिनी (का. प्र.टी.) वामनाचार्य बाल्मीकि रामायण वाल्मीकि महर्षि बाल रामायण राजशेखर अष्टमाखण्ड-काव्यशास्त्र बाल भारत राजशेखर : बुद्ध चरित ESो उपलका - - अश्वघोषा भक्ति रसामृत सिन्धु का रूप गोस्वामी PUR (प्रो. प्रेमलता शर्मा-सम्पादन) भक्ति सार- प्रदर्शनी - - - श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती भट्टि काव्यम् भट्टिा भामह कृत काव्यालंकार का परिशीलन- डॉ. सच्चिदानन्द Sep भामिनी विलासe frei .. - पं. सज़ाजगन्नाथा: FE भारत मञ्जरी क्षेमेन्द्र का FER FFIT भारतीय नाट्य सिद्धान्तलाउद्भव - और विकास af Frefps . - रामजी पाण्डे Teler भारतीय काव्य समीक्षा में . APPETERS र अलंकार सिद्धान्त र . . - डॉ. गणेश जयश्वक देश पाण्डे भारतीय साहित्यशास्त्र नाट्यशास्त्र - - " Share कान्य चोक गाय मा SE FREE भारतीय काव्य शास्त्र में … FREE अलंकार सिद्धान्त माडी भाव प्रकाशनम् I भाष्य राज RSITAM भास्कर राय ग्रन्थावली भास नाटक चक्रम् साना भण्डार कर शोध संस्थान ला का भोज प्रबन्ध , ter mai RF PHYTE FOR TESTE PRIN FTS P मल्लिका मकरन्द मनोरमा कुच मर्दनम् मन्दार मञ्जरी मध्व मुख मर्दनम् । महावीर जयन्ती स्मारिका PUPTKIE 55 मनुस्मृति •

मैकमिलन IEE-Toi शारदातनयर हस्तलेख efs BTET पं. बटुक नाथ शास्त्री खिस्ते भास FEE SER MORMATT” L " श्रीनिवास अयङगर STIL रामचन्द्रसूरि tra पं. राज. जगन्नाथ ही विश्वेश्वर पाण्डेय is a अप्पय दीक्षित,TTES सन्दर्भ ग्रन्थ सूची मध्यकालीन संस्कृत नाटक – पा मातृक छन्दों का विकास मुनि सुव्रत काव्या की अर्हद्वास जी मुगल सम्राट शाहजहाँ गाना __ . - बनारसी प्रसादा सक्सेना युक्ति तरङ्गिीना कुलपति मिश्रा रघुवंश कालिदास मा रघुविलासका __ " - ATHIR MATS रस मंजरी गोष्ट भानुदत्त का रस तरणिी तो भानुदत्त की तो रस गंगाधर पं. राजाजान्नार्थ महाराही रस रत्नदीपिका कि अक्लराज चौला रसार्णव सुधाकर शिङ्ग भूपाली ने राजतरङ्गिणी कल्हण FPIN की राजा भोज ग: Sir FEE विश्वेश्वर नाथ रेऊ Tr रावण वध भट्टि कि रामचरित मानस तुलसीदासजी :T कोई लघुमञ्जूषा नागेश भट्टांगीर की लघु भागवतामृतम्मा(टी: सनातन गोस्वामीणा गण लक्ष्मी लहरी पाती पं. राज जगन्नाथ प्रसाद लीलारत्त्वाकानोsh pe सनातन गोस्वासीर को लीलामृतम् I सनातम गोस्वामीशुकिं का लोचनच.) Five - - अभिनव गुप्ता के कार वक्रोक्ति जीवितम् गाला कुन्तका वृहद् भागवतामृत गा . . - सनातन गोस्वामीफ FILE वृहदा रण्यक उपनिषदा .. - - गावाचा वस्तुपाल का साहित्य मण्डल চছিp yড়াঃ वृत्त रत्नाकर एक को केदार भट्ट . कोणाल FTED वृत्तरत्नाकर (टी) नारायण भट्ट PF FI वाक्यपदीय भर्तृहरि (सं. भर्मीस्था प्रानत्रिपाठी) ७६० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र …mamreminar वाग्भट सिंहदेव गणि प्रियव्रत शर्मा वाल्मीकि सुबन्धु HERMINARAImmitm पतञ्जलि युधिष्ठिर मीमांसक महिम भट्ट विल्हण राजशेखर वाग्भटालङ्कार वाग्भटालङ्कार टीका वाग्भट विवेचन वाल्मीकि रामायण वासवदत्ता वामन पुराण व्याकरण महाभाष्य व्याकरण शास्त्र का इतिहास व्यक्ति विवेक विक्रमाङ्क देव चरित विद्धशाल मञ्जिका विवृति विमर्शिनी विधि रसायन वेदाङ्ग वैजयन्ती कोश वैदिक छन्दः पर्यालोचनम् वैदिक छन्द मीमांसा वैष्णव तोषिणी शंकर दिग्विजय शब्दशक्ति प्रकाशिका शब्द कौस्तुभ शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्य शाबर भाष्य शान्त विलास शाहजहांनामा शागधर पद्धति शिव लीलार्णव शिशुपाल वध शुक्ल यजुर्वेद अप्पयदीक्षित कुन्दन लाल शर्मा डॉ. अ. सनातन गोस्वामी विद्यारण्य जगदीश तर्कालङ्कार भट्टोजी दीक्षित डॉ. श्याम शंकर दीक्षित शबरस्वामी पं. राज जगन्नाथ सं. राणावत सिंह . नील कण्ठ दीक्षित माघ ……. .. :::: …- .:….:..-

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जीव गोस्वामी भोला शंकर व्यास माधवाचार्य भोज जयरथ विश्वनाथ विश्वनाथ देव अच्युतराय क्षेमेन्द्र काव्यमाला संस्कृत सीरीज अप्पय दीक्षित एम. आर. तैलंग शाङ्गदेव शिङ्गभूपाल सुशील कुमार डे

श्रमण (पत्रिका) षट्सन्दर्भ समुद्र संगम सर्वदर्शन संग्रह सरस्वती कण्ठाभरण सर्वस्व टीका विमर्शिनी साहित्य दर्पण साहित्य सुधा सिन्धु साहित्य सार सुवृत्त तिलक सुरथोत्सव सिद्धान्त लेश संग्रह संगीत मकरन्द संगीत रत्नाकर संगीत सुधाकर संस्कृत काव्य शास्त्र का इतिहास - संस्कृत साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास संस्कृत शास्त्रो का इतिहास संस्कृत शास्त्रों का इतिहास संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ संस्कृत साहित्य का इतिहास सांख्या सूत्र … कपिल देव द्विवेदी बलदेव उपाध्याय बलदेव उपाध्याय

जोशी और भारद्वाज जाशा जा ૭૬૨ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र हर विलास मा gwrai beliguqiat सं. सीताराम भट्टाचार्य हर्षचरित का काम तिमि बाणभट्ट हेमचन्द्राचार्य का शिष्यमण्डल साण्डेसरा A History of Sanskrit ESTER TETE Literature is us A.B. Keith USEETS A History of Sanskrit Poetics - P.V. Kare 15 DE A History of Classical Sanskrit Literature 17155115 FILE M. Krishnamacharif SP A History of Indian logic – S.C. Vidyabhushan A History of Indian literature - Wirternitze. 3 FUSE A History of Tirhut 19315754 HP Bobler’s Report on Kashmir - Fetis bylos Chaitarya Monement M.T. Kenedy s 15313 Darashikoh Life and works - - Vikramjit Hasrat sális Drama in Sanskrit Literature - R. V. Jagirdar Falis Early History of the Vaishnav faith is app = Dr. S.K. Dey DESTE Epigraphic India (Voll) FUTS E TRAT Indian Entiguery SYF Flits Introduction to Bharat’s Natya- Shastra . Dis Indian Culture - EESTI D.C. Sarkar 55 plies India as known to Panini - Vachaspati Garola i JRAS 415 FEIES Towale per Journels of the deptt. of letters Planta Yournel of the Andhra historical Fistia eft lists Fagogis Research Society Life of BUDE Le terme Fat Hemchandra Bunler ise 1955 Natya Shastra vs Telt – Adya Rangacharya SERVI C

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७६४ अष्टम बन्ड-काव शास्त्र संकेत सूची अ.पु. अ.वृ. मा अभि. शा. अथ. अ. को. ऐ. ब्रा. उ. सू. ऋक् वे. ऋ. प्रा. ऋक्स का. नु. का. लं. काव्य. लं. का.लं.सू. का.प्र. का.मी. गा.ल. गो.ब्रा. जा.ना.सि. छन्दोकी. ज. छा. उप. अग्निपुराण अमिधावृत्ति मातृका अभिज्ञान शाकुन्तलम् अथर्ववेद अमर कोश ऐतरेय ब्राह्ममण उपनिदान सूत्र ऋग्वेद ऋबन्प्रातिशाख्य ऋक्सर्वानुक्रमणी काव्यानुशासन काव्यालङ्कार TAIN काव्यालङ्कार सूत्र काव्य प्रकाश काव्यमीमांसा गाथा लक्षण गोपथ ब्राह्ममण जानकी नाथ सिंह छन्दो-जयकीर्ति छान्दोग्य उपनिषद् जयकीर्ति ताण्ड्य ब्राह्मण तैत्तिरीय आरण्यक तैत्तिरीय संहिता निरुक्त नाट्य शास्त्र जय. ताण्ड्य ब्रा. तै. आ. तै. सं. निरु. ना.शा. …. -.-.-…… - ………………… -……………………….. … ….. ………….. …………:. . .. .. . …. . . ……. . संकेत सूची ७६५ …………………………. द्वि.स. ….. “– ध्वत्र लो. प्र. आ. प्र. प. पा.सू. पि. सू. पि. छ.सू. म. भा. वा.रा. व.जी. व्य.वि. वै. छ. मी. वे. मा. छः वाग्भटालं द्वितीय सर्ग द्रष्टव्य ध्वन्यालोक प्रथम आनन प्रथम परिच्छेद पाणिनि सूत्र पिङ्गल सूत्र पिङ्गल छन्दः सूत्र महाभाष्य वाल्मीकि रामायण वक्रोक्ति जीवित व्यक्ति विवेक वैतालिक छन्द मीमांसा वेंकट माधव छन्द वाग्भटालकार रामचरित मानस रस गंगाधर शतपथ ब्राहमण शिशुपाल वध शुक्ल-यजुर्वेद-संहिता सरस्वती कण्ठाभरण साहित्य दर्पण संस्कृत साहित्य का इतिहास हरिभक्तिरसामृतसिन्धु . रा.च.मा. रस गं. शत. ब्रा. शि.पा.व. शु. य. वे. सं. सर.क. सा. द. सं.सा. का इ. ह. म. र. सि.SIDDurammar.m–. अष्टम इशय शास्त्र my situsी शुद्धि-पत्र / पृष्ठ पविता अशुद्ध टिप्पणी - १ ER निरूपणीयः . २ को Su ५ निणार तत्सदृशभिति टिप्पणी ७ मा व्याघ्रादिमिः Ey : नारी यदुदाहृतम् शुद्ध निरूपणीयं . . यदुदाहृतम् । तत्सदृशमिति व्याघ्रादिभिः ६ TIP मुख्याख्यार्थ मुख्यार्थ … तथापि यथावसर अवश्य उचारण ११ शामिला तथा कि १३ कर कीतिक यथावासर १३ तक आवश्य सांगरि 58 mins प्रतिष्ठांत्व २५ ऽन्छ शाह 5 वभूत् वुस्ते वरेभ्यो २७ गतका ब्दार्थों 15 मापारीग या : ५० २७ कर्तक ५१ . कागदी भिदम् टिप्पणी ५शी:–Pा ववत टिप्पणी शFTS HEATE यश्मे ६४ ण म शाङ्गिणौ F Fमां शकन्तला कीमतीशी शक्तिम्यां रुज्झिता १४ मिधीयते टिप्पणी ६७ ६७ ५ रसयनम् ६२ १० पूर्वेभ्यों प्रतिष्ठां त्व…. बभूबुस्तेऽवरेभ्योगार . शब्दार्थों उच्चारण IF.F. . कर्तृक . भार .F.P. मिदम् वक्तृ

5.FE यशो शाङ्गिणौ शाकुन्तलमें .. शक्तिभ्यां . . . रुज्झिता भिधीयते रसायनम् पूर्वेभ्यो . ६२ त्रयो

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  • ভর্ষিণী FIFE REARन्द्री नरेन्द्र " १७ २० साममन्यन्त तममन्यन्त की ११७ मा २२ मध्यबिसानेषुक्रिया १ मध्यावसानेषु क्रियापद ११F १२ भूमिर्मता १९ भूमिभर्त९ णाडी शामल १६ राज्याठवन्तिवर्मण राज्येऽवन्तिवर्मणः राजा ०९ ।। राजनरङ्गिणी।। अनेन धकृता अनेन पंचकृता । १२जी १३ के यूहि तुल्या केयूरादितुल्या अलङ्कनराः, अलङ्कारा pabalintos भामहविवरणे शृङ्गारदिवार्चका शृङ्गारैर्दिचिका " ४९ तत्सहोर्युपमा. इत्युक्तउद्भटमते । इत्युक्तम् उद्भटमते,” १२३णा प्रभृतयाश्चन्त प्रभृतचिरन्त रनालंकारकाराः ३ नालंकास्काराः, इहद्भिधिरुन्तन.- इह हि निरन्तनै.-, " विचाररितसुस्थ ९१ विचारितसुस्थ, सघाताया ३१ सयदलाया दिवसातत्युस्सरः ३ दिवसस्वत्पुरस्सरः उसमासोक्नुयाक्षेप.. - समासोकलाक्षेपयोगी HTA १० भामहविवरणे हिदिमटोऽभ्यः स्पदम भटो. fणी १३ पी तत्सहाक्तयुपमा १२३३ का १RRE १२साल २७ १२१ १२काग १ होगात ४ ७६८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र .. n pasRGEME पृष्ठ पंक्ति १४६ ५ १५० २४ १६४ ५ १६६ … उद्धरण १ १७२ २० १७३ ३ भट्टा अशुद्ध विषभबाणलीला विषमबाणलीला रुक्मिणीवोऽवतात् रुक्मिणी वोऽवतात् प्रतिहाररेन्दुराज प्रतिहारेन्दुराज निधि, यत्कर्माऽतिशयं निधिर्यत्कर्माऽतिशयं भट्ट सरम्भ संरम्भ निश्वासान्धइवादर्शः सान्ध इवादर्शः शिक्तिमान् धन्वने. धन्विने नामिका रूपपादितं रुपपादितं परमार्थसर परमार्थसार महाकली महाकाली टिप्पणी १७५ १२ शक्तिमान् टिप्पणी १८५ १५ नायिका १६२ १६३ २०१ वैशिष्ट् वैशिष्ट्य प्रभू टिप्पणी २१३ २१६ स्तुतिभीरूपेतं लोकैषण विवरयण स्तुतिभिरुपेतम् लोकैषणा विवरण २२० रमचन्द्र रामचन्द्र २२८ ब्राह्ममण ब्राह्मण स्तवक स्वतक तीथकार अण्य तीर्थङ्कर अप्पय २२६ २३३ २३५ २५२ २५३ १६१ २६ ३ ११ १६ १६ . ८ , व्यङ्या राभादि तुलाभिदमरु व्यङ्ग्या रामादि तुलामिदमूरु टिप्पणी :.. - .. ..:…–.–. :.. ……. …. …… . .. ..- ..

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.-.- …. ७६६ शुद्ध अवान्तर बुद्ध्यारम्भ सन्थ्यङ्गों खर्व शुद्धि-पत्र पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध २७३ १५ अवान्तार " २५ बुद्धयारम्भ २७४ १६ सन्ध्यङ्गों २७६ ३ खर्च २८२ २० का उद्धृत २८५ सुरसारित ११ विरहुत १२, १६, १८ पुष्कारिणी २८८ १७ मिधानस्य २६० ३० २६४६ विनवेदन " १६ अवस्थओं २६६ १६ पद्यान्तमक ३०२ १० पुष्किा ३१५ ४ बोम्भ को उद्धृत सुरसरित तिरहुत पुष्करिणी भिधानस्य यह सह विनिवेदन अवस्थाओं ख्याहता पद्यात्मक पुष्टिका वोम्म र व्याहता उद्धरण मृद्नात् ज्योति ३२० उद्धारण ३२० मृदनात् जयोति ३२१ ३२२ अग्राहा अग्राध्य काल ३२३ कान ३२५ विध्वंसनम् विश्वसनम् ३२६ नाटकम नाटकम् ३२६ उपनाम उपमान प्रस्तुतालङ्कार प्रस्तुताकार ST .

.- DAEE पृष्ठ पंक्ति ३३कमान २४ स्वशारा २७ शिमा १४ ३४१ १८ छ कि ७ . ३४ २७ ৪৪$চা ; अष्टम बाल शास्त्र जीर शुख अर भागधीका of मागधी । एकोना ’ एकोन . मौखिलना " मैथिल दीक्षिा दीक्षा 305 नून: नूर 5 कट्टारा कट्टर মূহুন্দাজিল १६ सुकुम्भारुणं पण्डिराजा. १ .P. पण्डितराज __ भटोज टिप्पणी टिप्पणी . . ३४६ म भट्टाति नाराणा HESISE किवदन्तियाँ प्रदीपायोत कृतियां " *प्रदीपोद्योत आक्रमण टिप्पणी forspple, ३६इमा399 39ঞ্জী , ३७१ ४ इबा, ३७२२२५ ३७मा १२ ३७६कर्ष २८ . ३७७IYE " ६ " “HIR आक्री शास्त्रतीय रियता मृणा शास्त्रीय रयं । मृदु म १६ वैशिष्ट्यों बाणा:१६ ऋचां ३ वेध EFF UP मिथुनाइ 5 छन्दस्कृती * अभाव बाद THAN वैशिट्यो वाणी ऋचाTTE भेद गह मिथुनावी छन्द्रवती অম্মা जाजनासौं IA " FOR ३८८ वलङ्कायौं

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8 श का शुचि-पाय ARE पृष्ठ पंक्ति अशुबहार शुद्ध अg ३६५- २५ आकारमा आकर पुनरलकृतिः IF पुनरलंकृतिः। ४१०:१:१७ प्रतिभाग प्रतिभाशाली ४५८ १४ दोषावर्जितम् 3 दोषवर्जित ४२८ : ३ मम्मटामिमत मम्मटाभिमत ४४० र १८ कनहा कनक ४४१३ काव्यममलम् काव्यमलम् ४४६ ११ षट्त्रिंशल्लक्षणान्क्तिा लक्षणान्विता टिप्पणी ४५६ १ उपबृहंगा उपवृंहणे ४६७१७ असिधा असिधारी। कोल४७३-१ का उभायोजित उभया । ४७६३ बण्डला मण्डल ४७६२ सम्मटोनी .४२१० . यग तुम व्यंग " न्यवहार व्यवहार ४९३ १२४ तृतीस बार तृतीय श्र ४ १२ चणि ४ च ये हैं ४६०२० नाव नात्र ४ ४६:०४ सरथ र ४६३३२ अमिधेशिया अभिधार ४ २३ सम्मान की सम्मान २७ प्रभाषा प्रमा COOKIE ३ सहृदय b Fp5Yg शब्दार्योगात शब्दार्थों oe + १६ गर्मी । गर्मी ०३ ५१२१ अवैषम्यार अवैषय मम्मट ३४२ " १६ रब जो Trum . . . . सहद ८०२ पृष्ठ पृष्ठ पंक्ति ५१६ " २६ शुद्ध शीधुनि धृष्टता सरोज सौकुमार्य ५१७ ५१७ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अशुद्ध शीघुनि घृष्टता सरीज सौकृमार्य शद्धैः भोजः मिधीयन्ते वाक्यार्य शक्ति ८ ५२३ शुद्धैः ५२५ " ५२६ ५३१ २५ १८ AWAR ५४६ उत्प्रक्षा . अनौचित्य प्रवृत कीर्ति ; प्रीति ; च निषत्तिः शकुन्तलादि- विष. मोजः भिधीयन्ते वाक्यार्थ वृत्ति उत्प्रेक्षा अनौचित्य प्रवर्तित कीर्तिं प्रीतिं च’ है। निष्पत्तिः” शकुन्तलाविष. शिर काव्य व्यापार के तीन प्रेक्षकाणामन्तः शर ५४७३ ५४८ ४-५ ५४६ ५५३ २१ ५५८ ५६७ ५७३ २४ ५८२ ११ ५८५ १० ५८७ . २२ ५६२ २५ ५६३ उद्धरण ५ ५६३ . " ६ ५६८ १० ६०६ ११ ६०७ २२ बीभत्स विगलित काव्य के तीन प्रेक्षकाणमन्तः बिभत्स विगलि आस्वाद विरूद्धैरविरुद्धैर्वा सारस्वतीकण्ठाभरण साहित्य कमनीयानी : सन्धि। . महिमाभट्ट अनुभव विरुद्धैरविरुदैर्वा . सरस्वतीकण्ठाभरण साहित्यदर्पण कमनीयागी वि + सन्थि। महिमभट्ट शुद्धि-पत्र. ८०३ पंक्ति पृष्ठ ६१६ १० ६३३ अशुद्ध जलं धरतीति वचनैर्व क्रोक्तिशून्यं विधानां भाष जलस्य धरः वचनैर्वक्रोक्तिशून्यं विद्यानां मार्ष ६४६ ६५४ ६५७ त्रि टुप् त्रिष्टुप् ६६५ याजुषादि ६६८ याजुपादि ताण्डय लौकि ६७८ ६८२ ६८४ ताण्ड्य लौकिक जघान जधान नाटच नाट्य ६८५ सुखंद सुखदं भिहिरो मिहिरो जनाश्रय अक्षर ६८७ ६६० ६६१ ६६५ ७०२ जनश्रय २० उक्षर ७ अद्भूत सूक्षम् २२ चन्तामणि सन्यासी ७, १३,१५, १८ वृहती वृहती १० ब्राह्ममी उद्भूत सूक्ष्म चिन्तामणि संन्यासी (०२१ ७३७ बृहती बृहती ७३८ ७४१ ब्राह्मीउत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थानम् के प्रमुख प्रकाशन मूल्य १. संस्कृत वाङ्मय का वृहद् इतिहास पद्मभूषण आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय प्रधान सम्पादक वेद खण्ड (प्रथम) सम्पादक प्रो. व्रजविहारी चौबे ३२०.०० वेदाङ्ग खण्ड (द्वितीय) सम्पादक प्रो. ओमप्रकाश पाण्डेय ३००,०० आर्षकाव्य खण्ड (तृतीय) सम्पादक प्रो. भोलाशंकर व्यास ४००.०० काव्य खण्ड (चतुर्थ) सम्पादक प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी ३००,०० आधुनिक संस्कृत साहित्य का सम्पादक प्रो. जगन्नाथ पाठक ३६०.०० इतिहास (सप्तम) न्याय खण्ड (नवम्) सम्पादक प्रो. गजानन शास्त्री मुसलगांवकर २०.00 वेदान्त खण्ड (दशम) सम्पादक प्रो. संगम लाल पाण्डेय ३००.०० तन्त्रागम खण्ड (एकादश) सम्पादक प्रो. ब्रजबल्लभ द्विवेदी ३००.०० २. कथामन्दाकिनी श्री ओम् प्रकाश ठाकुर ६०.०० ३. सरल संस्कृतम् श्री प्रयाग दत्त चतुर्वेदी ३०.०० ५ दावानल डॉ. श्रीनाथ हसूरकर ६. मदीयात्मकथा सम्पादक आचार्य करुणापति त्रिपाठी १२५.०० ७.. संस्कृत प्रमा डॉ. कपिलदेव द्विवेदी ७०.०० ६. पाणिनि तथा संस्कृत के अन्य अल्पज्ञात कवियों की रचनायें डॉ. प्रभात शास्त्री ८६.०० १०. भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष गाथा लेखक डॉ. सत्यदेव चौधरी ४०.०० ११. विद्वच्चरित पंचकम ६०.०० १२. अद्वैत सिद्धि: गुरु चन्द्रिका टीका तीन भाग) २८०.०० १३. तन्त्र समुच्चयः (प्रथम भाग) शंकरप्रभृति विमार्शिनी आख्या विवरणाख्या - व्याख्या समेत (दो भाग) २००.०० १४. पंचदशी अच्युतरायमोडक एवं रामकृष्ण- व्याख्या सहित १५०.०० १५. सदुक्ति कर्णामृतम् (प्रथम भाग) श्रीधरदास प्रणीतम् एवं म.म. रामावतार शर्मा सम्पादित हिन्दी टीका सहित डॉ. ओम प्रकाश पाण्डेय १२०.०० १६. श्रीमद्वाल्मीकि रामायण (चार भाग) श्रीमद् गोविन्दराजीय व्याख्या तिलक प्रभृति अनेक पूर्व व्याख्यान उद्धृत गोविन्दराजीय अनुक्त । एवं पूर्व विषयों से समलंकृत ७४०.०० १७. मन्त्ररामायण (हिन्दी टीका सहित) डॉ. प्रभुनाथ द्विवेदी ७५.०० १८. धातुरूप -निदर्शनम् लेखक वासुदेव द्विवेदी शास्त्री ५०.०० १६. नैषधीय चरितम् (दो भाग) नारायणी एवं मल्लिनाथ टीका सहित २४०.०० २०. कालिदास-ग्रन्थावली सम्पादक-आचार्य सीताराम चतुर्वेदी २००.०० २१. कविर्जयति-वाल्मीकि : सम्पादक डॉ. आनन्द कुमार श्रीवास्तव १२०.०० २३. बालकथाकीमुदी सम्पादक- डॉ. विश्वास : ५०.०० २४. बालवाटिका सम्पादक डॉ. विश्वासः ३०.०० २५. परिशीलनम् पाण्मासिकी संस्कृतानुसंधान पत्रिका १०,००