प्रस्तावना
छन्दः शास्त्र भारतीय वाङ्मय की अद्वितीय विशेषताओं में अन्यतम है। विश्व के किसी भी साहित्य में छन्दों का इतना व्यापक और सूक्ष्म अनुशीलन नहीं हुआ है जितना संस्कृत साहित्य में विद्यमान हैं विश्व की अन्य भाषाओं में कतिपय गिने-चुने छन्द ही प्रचलित है तथा उनका विस्तार भी सीमित है। परन्तु संस्कृत-साहित्य का छन्दो वैभव इतना विस्तृत है कि इसे स्वतन्त्र शास्त्र के रूप में मान्यता दी गयी है। । भारतीय मनीषियों ने छन्दः शास्त्र की अपरिमेय विस्तार शक्ति को दृष्टिगोचर करते हुये इसकी आधिदैविक स्वरूप में भी उपासना की है।’ पापप्रणाशक छन्दपुरुष का न्यास ब्रह्मयज्ञ के आरम्भ में कर्ता अपने शरीर में करता है। द्र. कात्यायनीय छन्दः सूत्र ३/६४-८४। पौराणिकों ने विष्णुस्तथैवाग्निरधिदेवता। छन्दो देवता का स्वरूप इस श्लोक में वर्णित है जपाकुसुमसङ्काशं छन्दो ज्ञेयं विपश्चिता। चकोरास्यं जपाक्षं तु शक्तिं बिभ्रच्छिखान्वितम्। लोहकुण्डलकोपेतं प्रबालकृतकुण्डलम् ।। या संस्कृत साहित्य का आद्य स्रोत तथा मूलाधार वेद शब्दराशि है तथा इस अपौरुषेय शब्द-राशि को ‘छन्दःशब्द से.व्यवहृत किया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सम्पूर्ण संस्कृत वाङ्मय का आध्यात्मिक मूल आधार छन्दों में ही सुरक्षित है। परवर्ती संस्कृत कवियों ने अपने कालजयी महाकाव्यों तथा रचनाओं को विविध छन्दों से समृद्ध करते हुये छन्दोंविचिति की आधिभौतिक अपरिहार्यता का प्रमाण प्रस्तुत किया है। इस प्रकार भारतीय मनीषा ने छन्दों का आधिदैविक आध्यात्मिक तथा आधिभौतिक महत्त्व अङ्गीकार किया है। किं बहुना आगम-सम्प्रदाय में तो प्रत्येक वर्ण का छन्द निरूपित किया जाता है। इस रीति से पूरा वर्णसमाम्नाय छन्दों में निबद्ध है। सुप्रथित वैदिक पुरुष सूक्त में सृष्टि के प्राथमिक तत्त्वों के अन्तर्गत छन्दों के उद्भव का प्रतिपादन किया गया है। मुण्डकोपनिषद में १. सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण को प्रजापति को छन्दःपुरुष का गया प्रजापतेर्वा एतान्यङ्गानि यच्छन्दांसि (२/१८) २. छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात् (क-१०) ६४८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अपराविद्या के रूप में छन्दरशास्त्र को मान्यता प्रदान की गयी है। छन्दों के दार्शनिक स्वरूप का अनुशीलन भी छन्दः समीक्षा आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है। संस्कृत साहित्य की श्री वृद्धि में योगदान की दृष्टि से छन्दः शास्त्र का अनेक शास्त्रों के प्रति उपकार हैं। छन्दोज्ञान के अभाव में वैदिक कर्मानुष्ठान सफल नहीं होता। अतः कल्पाङ्ग एवं धर्मशास्त्र के लिये छन्दः शास्त्र का विशेष महत्व हैं। संस्कृत-छन्दों के सुनियत वर्णविन्यास के कारण अध्येता को उच्चारण सौष्ठव तथा ध्वनि की शुद्धि सहज प्राप्त हो जाते है। इस दृष्टि से वेदाङ्ग शिक्षा, व्याकरण तथा उपाङ्ग प्रातिशख्यों का उपकारकं छन्द शास्त्र है। गान्धर्ववेद एवं तदनुगत भारतीय सङ्गीत शास्त्र के लिये तो छन्द शास्त्र का सहयोग सर्वातिशायी है। मात्रा, यति एवं पादनियमों के फलस्वरुप छन्दों के द्वारा श्रुति सुखद आनन्दानुभूति तथा नादब्रह्म के साक्षात्कार का माध्यम छन्द शास्त्र ही है। _ अध्ययन एवम् अनुसंधान में उपयोग की दृष्टि से छन्दों के व्यावहारिक स्वरूप का अनुशीलन ही अपेक्षित होता है। अतः ऐतिहासिक क्रम के अनुसार वैदिक ग्रन्थों में उपलब्ध छन्दों के स्वरूप से प्रारम्भ करते हुये सम्प्रति संस्कृत-साहित्य के अन्तर्गत छन्दोनिरूपण करने वाले ग्रन्थों का परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है।
वैदिक ग्रन्थों में छन्दश्शास्त्र का महत्त्व
‘छन्दः पादौ तु वेदस्य’ (पा. शि. ४१-४२) इस वचन के अनुसार छन्दस्तत्त्व वेदपुरुष का गतिकारक पादाङ्ग है। छन्दोरूप मानदण्ड को लेकर ही बौदिक दर्शन की परिधि निर्धारित हो सकती है। छन्दस्तत्व के ज्ञान विना वैदिक साहित्य या दर्शन का वास्तविक ज्ञान करना असम्भव है। ऋग्वेद ने भी कहा है कश्छन्दसां योगमा वेद धीरः (ऋग्वेद- १०/११४/5) सभी मूल तत्तत् छन्दों का निर्देश भी देवता सहित अपौरुषेय वाणी के द्वारा ही समुपदिष्ट है अग्नेर्गायत्र्यभवत सयुग्वोष्णिहया सविता संबभूव। अनुष्टुभासोम उक्थैर्महस्वान् बृहस्पते बृहती वाचमावत्।। विराण्मित्ता वरूणयोरभिश्रीरिन्द्रस्यत्रिष्टुबिह भागो अनः। विश्वान् देवान् जगत्या विवेशतेन चाक्ल्टप्तं ऋषयोमनुष्याः।। ऋग्वेद-१०/१३०/४-५ 45 SHARE १. द्र.पं. मधुसूदन ओझा द्वारा प्रणीत छन्दः समीक्षा (१६६१ में जयपुर से प्रकाशित) तथा छन्दो निरूक्ति भूमिका ( निर्णयसागर १६३८ संस्करण, पिंगलछन्दःसूत्र) तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ६४६ ऋग्वेद में कहा गया है कि छन्दस्तत्व को यथार्थ ज्ञान से अमृतत्व की प्राप्ति होती है यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं त्रैष्टुभाद् वा त्रैष्टुभं निरतक्षत। यद् वा जगज्जगत्याहितं पदं य इत्तद् विदुस्ते अमृत्वमानशुः।। (ऋग्वेद १/१६४/२३) वाजसनेय संहिता में भी कहा गया है कि छन्दों के सहयोग से ही सृष्टि यज्ञ का अनुष्ठान हो सकता है-सहच्छन्दस आवृतः (मा.सं.३४/४६) __ छन्दों के निरूपण की यह परम्परा वेद से लेकर अभी तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। शास्त्रान्तरों में प्रतिपादित छन्दों का जो लौकिक स्वरूप है, उन सभी छन्दों का मूल वैदिक छन्द ही है। वेदार्थ के सहायक षडङ्गो में छन्दःशास्त्र का स्थान महत्वपूर्ण है। वेदाध्ययन के लिये न केवल यह उपकारक साधन ही माना जाता है, अपितु स्वतन्त्र विद्यास्थान भी। छन्दों का ज्ञान इतना प्राचीन है कि गायत्री से जगती-पर्यन्त सातों छन्दों का स्पष्ट उल्लेख ऋग्वेद में ही मिलता है। इनमें चार-चार अक्षरों की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है इसका स्पष्ट प्रतिपादन अथर्ववेद में है। छन्दों के साथ स्तोमों के सम्बन्ध की चर्चा भी अथर्ववेद में है। अक्षर गणना के आधार पर छन्दों का निर्धारण ब्राह्मण ग्रन्थों में भी प्राप्त है। प्रगाथ छन्दों का यज्ञ में प्रयोग भी बहुत प्राचीन है।’ __अग्निचयन में वेदि की असंख्य इष्टकाएं छन्दों के रूप में वर्णित की गयी है, जिनमें से मा प्रमा, प्रतिमा तथा अस्त्रीवय सहित १२ छन्दों का उल्लेख (वा.सं. १४/१५) में हो गया है। (द्र.ते. आर. ४/५-मा, प्रमा, प्रतिमा, समा, उन्मा)। छन्दों का मुख्य कार्य मन्त्रों का परिमाण बतलाना है। ऋग्वेद में ही कहा गया है- गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कम गायत्र छन्द से प्रत्येक स्तोम को मापा जाता है। ऋग्वेद में सात छन्दों के अक्षरात्मक रूप का भी संकेत है। । छन्द यज्ञ में देवताओं के साझीदार है’ छन्दों को “देविका११ देव्यः२ तथा १. द्र. वैदिकच्छन्दः पर्यालोचनम् पृ.-२ २. पुराणन्याय मीमांसा धर्म शास्त्रङ्गमिश्रिताः। वेदाः स्थानानि विधानां धर्मस्य च चतुर्दश (मा.स्म9/3) ऋग. १०/१३०/४-५ अथ.८/६/१६१ अथ. ८/६/२० ऐ.बा.१/५ ऐ.ब्रा.३/१६, ४/१०, श.बा.१५/२/४/१ जै. ब्रा. १७४,ता. ब्रा. ४/३/७ गो. ना.२३/२१ आदि ऋ.१/१६४/२४ ऋ.१/१६४/२४ १०. स एष यज्ञस्तायमानो देवेभ्यस्तायतेंछन्दोभ्यः (श.बा.१/३/२/६) ११. तै.सं.३/४/६/१ १२. श.ना. ६/५/१/३६ ६५० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र देवताओं के देवता’ कहा गया है। छन्दों के द्वारा ही देवताओं ने स्वर्गलोक को प्राप्त किया। इनका प्रधान कार्य सभी दिशाओं में रक्षा करना है। ये सभी इच्छाओं की पूर्ति करते है। तथा शक्ति प्रदान करते हैं। ये असुरों के विरुद्ध देवताओं का पक्ष लेकर उन्हें विजय दिलाते है इन सब तथा अन्य अनेक महत्वपूर्ण कार्यो के कारण छन्दों का यज्ञ में बहुत महत्व है। गायत्री ब्राह्मण है, और त्रिष्टुप् क्षत्रिय है (तै.सं.५/१/४/५)। गायत्री प्रजापति के मुख से उत्पन्न हुई है, त्रिष्टुप् बांहों से और अनुष्टुभ् चरणों से (तै.सं. ७/१/१/४-६)। छन्दों के कार्यों के अन्तर्गत मुख्य ये हैं’ रक्षा (वा.सं.१०/१० से १४) संग्रह (तै.सं. १/७/५/४ एवं १/५/६/७) इच्छापूर्ति (तै.सं. ३/४/६/१-५,) शक्ति प्रदान (तै.सं. ४/४/१२/३ व ३/३/७/१-२,श.बा. ८/५/२/१) उन्नयन (श.ब्रा. ५/६/३/१० व ६/५/४/७) देवताओं की विजय कराना (श.ब्रा.१/४/१/३४ व १/६/४/२) सृष्टि की उत्पत्ति में सहायता देना (श. ब्रा. ६/५/२/४ तु.वा.सं.११/५८) तथा देवताओं तक आहुति पंहुचाना (शःब्राः४/४/३/१ एवं ४/४/१०१/३)। ऐ. ब्रा. (३/२५/२७) में इन्हें “साध्या देवाः” कहा गया है। जयतीर्थ ने मध्व-रचित ऋग्भाष्य की व्याख्या में स्कन्दस्वामी के मत का खण्डन करते हुये वेदार्थ में छन्दोज्ञान का उपयोग माना है।" मीमांसा-शास्त्र के अनुसार ऋक का लक्षण ही है कि जिसमें अर्थ के अनुरोध से पाद की व्याख्या हो। इसी बात को वेंकट माधव और माधवभट्ट ने भी स्वीकार किया है। इसमें सन्देह नहीं कि वेदार्थ बोध में पादव्यवस्था सहायक होती है। इसलिये छन्द समेत षडंगो के ज्ञान की आवश्यकता पर इतना अधिक बल दिया गया है कि जो इनके ज्ञान से रहित ब्राह्मण से यज्ञ कराता है या अध्यापन कराता है, वह घोर पाप का भागी होता है।” छन्द शब्द की निरूक्ति से भी इस शास्त्र का महत्व ज्ञात होता है। छन्दः शास्त्र की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से की जाती है। निरुक्त का निर्वचन है m o si wg १. श.बा.३/४/१/१५ २. श.ब्रा. ३/६/३/१० वा.सं. १०/१०/१४ तै.सं. ३/४/६/१ से ५ तै.सं. ४/४/१२/३ ६. श.बा.१/४/१/३४ ७. पत्रां.१३ क मीमांसा सूत्र ३/१/३५ ६. वेमा. ८/१४ तथा ऋ१/२५/१६ पर १०. द्र. मीमांसक वै.छ.मी.पृ.६२ पृ २४४-२४६ ११. यो ह वा अविदिताःयच्छन्दो- दैवतब्राह्मणेन याजयति वा अध्याययति वा स्थाणुं वर्च्छति गर्ने वा पतति प्र वा मीयते पापीयान् भवति। ऋः सं. आरम्भ में आर्षेय ब्रा.१/१ दुर्गाचार्य निरुक्त भाष्य, उपोद् । र. मी तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ६५१ छन्दांसि छादनात्’ । यहाँ छन्द छदि-संवरणे धातु से निष्पन्न है। इस निर्वचन का मूल श्रुतियों में है। क्षीरस्वामी ने अमर. (३/२/२०) की टीका में-‘छन्दयति= आह्लादयते इति छन्दः’ यह व्युत्पत्ति दी है। छन्दश्शास्त्र के अनेक नाम परम्परा में प्रसिद्ध है। यथा-छन्दोविचिति, छन्दोमान छन्दसांलक्षणं, छन्दसां विचयं, छन्दोऽनुशासन, छन्दोविवृति तथा वृत्त।
छन्दः शास्त्र की परम्परा
ब्राह्मणों के उपलब्ध छन्दः सम्बन्धी विचारों का क्रमबद्ध सर्वप्राचीन विवरण ऋक् प्रातिशाख्य के छन्दः प्रकरण में मिलता है, जो कात्यायनकृत ऋक् सर्वानुक्रमणी से प्राचीन है। छन्दों का स्फुट उल्लेख शांखायन श्रौतसूत्र में भी है। ऋक् प्रातिशाख्य के इस प्रकरण से प्रतीत होता है कि इसके पूर्व भी अनेक आचार्यो ने छन्दों पर अपने विचार व्यक्त किये थे। पिंगल छन्दः सूत्र में निम्नलिखित आचार्यों का नामतः उल्लेख किया गया है- तण्डी (३/३४) क्रौष्टुकि (३/२६) यास्क (३/३०) सैतव (५/८) काश्यप (७/६) रात (७/३३) माण्डव्य (७/३४) । पिंगलछन्दः सूत्र के टीकाकार यादव प्रकाश ने अपनी टीका के अन्त में छन्दःशास्त्र के आचार्यों की परम्परा इस श्लोक में प्रस्तुत की है छन्दोज्ञानमिदं भवाद् भगवतो लेभे सुराणां गुरुः, तस्माद् दुश्च्यवनस्ततो ऽसुरगुरूर्माण्डव्यनामा ततः। माण्डव्यादपि सैतवस्तत ऋषिर्यास्कस्ततः पिंगल, स्तस्येदं यशसा गुरोर्भुवि धृतं प्राप्यास्मदाद्यैः क्रमात्।। HI- मना
१. २. निरु. ६/१२ छा.उप.१/४/२, तै. सं. ५/६/६/१ छन्दों के नामों में ‘छन्दोभाषा’ संज्ञा का उल्लेख भ्रमपूर्ण है। छन्दोभाषा प्रातिशाख्य शास्त्र की संज्ञा है छन्दोभाषा वेद के उपायों में परिगणित है (द्र. चरणव्यूह-प्रतिपदमनुपदं छन्दोभाषा धर्मो मीमांसा न्यायस्तर्क इत्युपागानि) तथा छन्द वेदागों के अन्तर्गत पृथक शास्त्र है। अतः वेदाग ( डा. कुन्दनलाल शर्मा पृ. ४७०) का उल्लेख चिन्त्य है। द्र.वै.छ.मी. पृ.५७-५६ -छन्दःशास्त्रमिदं पुरा त्रिनयनाल्लेभे गुहोऽनादित स्तस्मात् प्राप सनत्कुमारकमुनिस्तस्मात् सुराणां गुरुः। तस्माद् देवपतिस्ततः फणिपतिस्तस्माच्च सत्पिङ्गल स्तंच्छि ध्यैर्बहुभिर्महात्मभिरथो मह्या प्रतिष्ठापितम्।। यह पद्य ग्रन्थाकार की रचना नहीं है, यह प्रतीत होता है क्योंकि किसी. हस्तलेख में भाष्य के अन्त में उद्धृत है ६५२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र इसके अनुसार परम्परा इस प्रकार है-भगवान् शिव, वृहस्पति इन्द्र, शुक्र, माण्डव्य सैतव, यास्क, पिंगल। किन्तु इसी में एक और परम्परा भी लिखिी है, जो इस प्रकार है १.(द्र.वै.छ.मी. पृ.५७-५६ छन्दःशास्त्रमिदं पुरा त्रिनयनाल्लेभे गुहोऽनादित स्तस्मात् प्राप सनत्कुमारकमुनिस्तस्मात सुराणां गुरुः। तस्माद देवपतिस्ततः फणिपतिस्तस्मात्त्व सपिङ्गल स्तच्छिष्यैर्बहुभिर्महात्मभिरथो मयां प्रतिष्ठापितम् ।। इस पद्य ग्रन्थाकार की रचना नहीं है, यह प्रतीत होता है क्योंकि किसी हस्तलेख में भाष्य के अन्त में उद्धृत है) शिव, गुह, सनत्कुमार, वृहस्पति, इन्द्र शेष (पतंजलि), पिंगल । वैदिक छन्दः शास्त्र के विषय में मुख्यतः उपलब्ध सामग्री इन ग्रन्थों में सुरक्षित है-ऋक् प्रातिशाख्य (१६ से१८ पटल) ऋक् सर्वानुक्रमणी, निदानसूत्र यजुस्सर्वानुक्रम सूत्र, पिंगलछन्दः सूत्र उपनिदानसूत्र वेंकटमाधवकृत ऋगर्थदीपिका (छन्दोभाग) जयदेवकृत जयदेवच्छन्दः आदि ।
छन्दः शब्द का अर्थ
__ छन्दः स्वरूप के परिशीलन के सन्दर्भ में प्राचीन काल से ही दो सिद्धान्त प्रचलित है। (१) नैरुक्तसिद्धान्त और (२) वैयाकरणसिद्धान्त। निरुक्तकार छन्दः शब्द की व्युत्पत्ति ‘छाद्यते छन्द्यते वा अनेन’ करते हैं। वैयाकरणों ने ‘चन्द्यते अनेन’ इस प्रकार व्युत्पत्ति की है। इन दोनों सिद्धान्तों में शब्दगत प्रकृतिवैशिष्ट्य ही विचारवैभिन्न्य का मूल है। निरुक्तकारों ने अपौरुषेय वेद-शब्दराशि को लक्षित करके छन्दः शब्द की व्युत्पत्ति की है। किन्तु व्याकरणशास्त्रकारों ने लौकिक शब्दसङ्घात के आधार पर छन्दश्शब्द की व्युत्पत्ति की है। वैयाकरणों के सिद्धान्त के अनुसार भ्वादि गण में पठित ‘चदि अहलादे दीप्तौ च’ परस्मैपदी सेट् धातु से नुम होकर ‘चन्द’ शब्द बनता है। अतः ‘चन्दनं चन्द्यते अनेन वा’ इस प्रकार विग्रह में ‘चन्देरादेश्च छः १.(४/२१६ उ.) इस औणादिक सूत्र से असुन प्रत्यय करके आदिवर्ण चकार का छकार होकर छन्द शब्द निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ आह्लादन या प्रकाशन करना है। वैयाकरण-सिद्धान्त को ही आधार मानकार मेदिनी तथा अमरकोषकारों ने भी पद्य और छन्द को पर्यायवाची शब्द के रूप में ग्रहण किया है। अमरकोषकार छन्द शब्द को अनुष्टुप् आदि पद्यार्थक मानते हैं। इसी तरह मेदिनी कोष में पद्यार्थक छन्द शब्द वेदवाचक RandATAMANIMAmalnuwaumaunia स HIGHEALLE भी है। १. छन्दः पद्येऽभिलाषे च’ (अ.को.३/३/२३२) Mama तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास छन्दः पद्ये च वेदे च स्वैराचाराभिलाषयोः’। महर्षि कात्यायन ‘मन्त्रब्राह्मणयोर्वेद-नामाथेयम्’ परिभाषा द्वारा मन्त्र तथा ब्राह्मण भाग दोनों को वेद मानते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य शास्त्रों के प्रमाण तथा परम्परागत प्रसिद्धि के आधार पर भी वेद शब्द मन्त्र तथा ब्राह्मण भाग का ही वाचक है। मन्त्रों का कुछ भाग पद्यात्मक होने पर भी ब्राह्मणभाग पूर्णतः गद्यात्मक है। अतः छन्द शब्द को पद्य का पर्यायवाची मानें तो समस्त वैदिक शब्दराशि में निर्दिष्ट छन्दोविधान प्रभावित हो जाता है। गद्यरूप अपौरुषेय शब्दराशि में भी छन्दों का विधान होने से न केवल अपौरुषेयशब्दराशि में अपितु दुर्गासप्तशत्यादि पौराणिक मन्त्रों में भी लौकिक छन्द से अतिरिक्त गाय-त्र्यादि छन्दों का निर्देश होने से वस्तुतः गद्य और पद्य उभयविधात्मक वैदिक आदि आर्ष शब्दराशि में छन्द माना गया है। साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ‘छन्दोबद्धमिदं पद्यम्’ यह लक्षण करके षद्य और छन्द में भेद करते हैं इस लक्षण के अनुसार पद्यकाव्यों में छन्दों का होना अनिवार्य है। किन्तु वस्तुतः यहाँ पद्य और छन्द का अभेद उपदिष्ट नही है। उक्त लक्षण में छन्दों का व्यापकत्व और पद्य का एकदेशवर्तित्व तथा सभी गधों में छन्दों का अभाव न होना ही ध्वनित होता है। आचार्य राजशेखर ने भी ‘सारस्वतेयःकाव्यपुरुषः’ इस प्रसंग में ‘तस्य रोमाणि छन्दांसि’ यह कहकर काव्यरूपी शरीर में लोमरूप छन्दों की अपरिहार्यता मानते हैं। उन्होंने भी ‘त्वत्तः पूर्वविद्वांसो गद्यं ददृशुर्न पद्यम्" इस उक्ति के द्वारा गद्यपद्योभयात्मक छन्द के नैरुक्त सिद्धान्त का पोषण किया है। निरुक्तकार यास्क के अनुसार विविध अर्थ में प्रयुक्त होने वाला छन्दः आवरणार्थक छदिर धातु से निष्पन्न होता है। अक्षर संख्याविशिष्टात्मक यजुमंत्र भी अपने नियत अक्षरसंख्याओं से आवृत होते हुये मन्त्र और पदगत अर्थ-विशेष के प्रच्छादक होने के कारण छन्दः शब्द से अभिहित होते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में छन्द शब्द के निर्वचन के प्रसंग में एक आख्यायिका उपदिष्ट है।’ किसी काल में देवता मृत्यु से त्रस्त होकर अपनी भय-निवृत्ति तथा स्वसंरक्षण के लिये छन्दों के द्वारा आवृत्त होकर मृत्यु के भय से मुक्त हो गये। इस आख्यायिका के आधर पर आङ् १. २. प्र. प. सू. २ का.मी.अ. ३ छन्दांसि छादनात् (निं. ६/२) देवावै मृत्योर्बिभ्यतस्त्रयीं विद्यां प्रावि स्ते छन्दोभिरच्छादयन, यदेभिरच्छादयस्तच्छन्दसां छन्दस्त्वम् ।। छा.उ.१/४/२ ه ه ६५४. अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र पूर्वक छद् धातु के अर्थ में छन्दः शब्द का प्रयोग होता है। अतः मन्त्र ब्राह्मणरूप ऋग्यजुः सामात्मक सम्पूर्ण वेद राशि में छन्द व्याप्त है। क्योंकि सभी अपौरुषेय वैदिक वाक्य समूह पाप और तापों से अध्येता को ढककर (छिपाकर) संरक्षण देता है। अतएव निरुक्तकार यास्क मन्त्र शब्द के निर्वचन में मन्त्रों के मनन से त्रिविध तापों का विनाश होने का वर्णन करते है।
छन्दों का विभाग
वैदिक और लौकिक भेद से छन्द दो प्रकार के हैं। उपनिदान सूत्र में कहा है ‘छन्दसाभाष लौकिकं च यहां आर्ष का अर्थ वैदिक है। वैदिक छन्दों में सात मुख्य छन्द और चौदह अतिच्छन्द इस प्रकार कुल इक्कीस छन्द हैं। उपनिदान सूत्र के अनुसार नाम इस प्रकार हैं (क) मुख्य वैदिक छन्द-३ १. गायत्री, २. उष्णिक, ३. अनुष्टुप् ४. बृहती, ५. पंक्ति, ६. त्रिष्टुप् और ७. जगती। (ख) अतिच्छन्द- १. अतिजगती, २. शक्वरी, ३. अतिशक्वरी, ४. अष्टि, ५. अत्यष्टि, ६. धृति, ७. अतिधृति, ८. कृति, ६. प्रकृति, १०. आकृति, ११. विकृति, १२. संकृति, १३. अभिकृति, १४. उत्कृति। (ग) लौकिक छन्द-लौकिक छन्द लघु, गुरु, मात्रा और वर्णादि का नियामक होता है। वह भी मात्रा और वर्ण के भेद से दो प्रकार का है। कुछ लोग मात्रा-छन्द और गण-छन्द इस प्रकार दो विभाग करते हैं, किन्तु वह समीचीन नही लगता। मात्रा और गण छन्दोंके विभाग में ‘श्री’ आदि एकाक्षर वाले छन्दों का संग्रह नहीं हो सकता है अतः मात्रा और वर्ण के भेद से लौकिक छन्दों का दो विभाग मानना ही उचित हैं। वृत्तरत्नाकार में भी मात्रा और वर्ण के भेद से लौकिक छन्दों के दो विभाग किये हैं पिङ्गलादिभिराचार्यैर्यदुक्तं लौकिकं द्विधा। मात्रावर्णविभेदेन छन्दस्तदिह कथ्यते।। (१/४) इसी प्रकार छन्दोमञ्जरी में वृत्त और जाति के रूप में छन्दों के दो विभाग ही है १. वैदिक छन्दों का तात्पर्य हैअपौरुषेय वैदिक साहित्य में अधिकतम प्रयुक्त छन्द तथा लौकिक छन्दों का भाव है लौकिकसाहित्य में अधिक रूप से प्रयुक्त छन्दः । वस्तुतः गायत्री आदि छन्द मूलभूत हैं तथा इनसे अन्य मात्रावृत्तों का विकास हुआ है यह हमारी मान्यता है इसका स्पष्टीकरण आगे किया जायेगा। २. उ.सू.१/५ ३. उ.सू. १/२ ४. उ. सू. २/१४/१२ ६५५ तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास पद्यं चतुष्पदी तच्च वृत्तं जातिरिति द्विथा। वृत्तमक्षरसंख्यातं जातिर्मात्रा कृता भवेत्।। इस प्रकार मात्रा और वर्ण के रूप में छन्दों का विभाग करने से मात्रा छन्द में ही गण छन्दों का भी संग्रह होता है। अतः मात्रा और वर्ण के भेद से लौकिक छन्दों का दो विभाग करना युक्ततर है। कुछ लोग गण, मात्रा और अक्षर के रूप में छन्दों का तीन विभाग करते हैं। जैसे आदौ तावद् गणच्छन्दों मात्राच्छन्दस्ततः परम्। तृतीयमक्षरच्छन्दश्छन्दस्त्रेधा तु लौकिकम्॥ पिंगलोक्त छन्दः शास्त्र में हलायुध ने तीन प्रकार के छन्दों का विभाग इस प्रकार किया है’
आर्याधुद्गीतिपर्यन्तं गणच्छन्दः समीरितम् । वैताल्यादि चूलिकान्तं मात्राच्छन्दः प्रकीर्तितम् । समान्याधुत्कृतिं यावदक्षरच्छन्द एव च ॥ __ यहाँ नारी, मृगी, कन्यादि को गण, छन्द, आर्यादि को मात्रा- छन्द और श्री’ आदि को अक्षर छन्द के रूप में ग्रहण किया है। यहाँ भी गण-छन्दों का मात्रा-छन्दों में संग्रह होने से मात्रा छन्द और वर्ण-छन्द के रूप में लौकिक छन्दों का दो विभाग करना युक्तिसंगत है। वैदिक छन्दों के प्रतिपादक ग्रन्थ ऋक्-प्रतिशाख्य (शौनक) आचार्य शौनक द्वारा अठारह पटलों में निबद्ध ऋक-प्रातिशाख्य के अन्तिम तीन पटलों (१६.१७ तथा १८ पटलों के कुल २०४ सूत्रों में वैदिक छन्दों का निरूपण किया गया है। ऋक्प्रातिशाख्य में वैदिक छन्दों के उदाहरण तथा लक्षण विस्तार से दिये गये हैं किन्तु ऋक्प्रातिशाख्य ने भी ब्राह्मणों का ही अनुकरण किया है। यह छन्दो-निरूपण कात्यायन-कृत ऋक् सर्वानुक्रमणी से पहले का है, क्योंकि जहाँ कहीं शौनक और कात्यायन में विरोध पाया जाता है, वहाँ कात्यायन का पक्ष अधिक संगत है और शब्द संहिता में स्वीकृत किया गया है। कात्यायन ने ऋ. प्रा. में सन्निविष्ट छन्दः प्रकरण में अनेक सुधार करके विशिष्टता की है और प्रातिशाख्य के वचनों के विरोध में अपने पक्ष को स्थापित किया है। कार :— .- "
१. आर्या से लेकर उद्गीति तक पि. छ. सू. ४/१५ से ३२ २. वैतालीय से लेकर चूलिका तक पि.छ.सू. ४/ ३३ से ५३ ३. पि.छ.सू. ४/११ में हलायुध का वचन ४. पि.छ.सू. ६/४ पि.छ.सू. ६/२६५६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र __ अतः ऋक्प्रातिशाख्य का छन्दः प्रकरण कात्यायन की ऋक्सर्वानुक्रमणी से प्राचीन है और यास्क से अर्वाचीन है।’ यह कौन सा यास्क है, इस विषय में कुछ कहना कठिन है। पिंगलछन्दः सूत्र तथा गार्ग्य के उपनिदानसूत्रों में भी यास्क का नाम आया है। छन्दः शास्त्र की नींव ऋक-प्राशिाख्य में सन्निविष्ट छन्दः प्रकरण से बहुत पहले पड़ चुकी थी, इसमें सन्देह नहीं। पाणिनि के गणपाठ (४/३/३६) में “छन्दोविचिति तथा छन्दोमान" पद हैं। वेद के षडू अंगों का उल्लेख बौधायन धर्मसूत्र गौतमधर्म सूत्र तथा गोपथ ब्राह्मण में भी आया है। ऋ. प्रा. के अनुसार ऋग्वेद में गायत्री से लेकर अतिधृति पर्यन्त १४ छन्द हैं। शेषकृति, प्रकृति, आकृति, विकृति, संस्कृति, अतिजगती आदि (ग) ५० प्रत्न अमृत ५८ वृषा ६६ जीव ७४ तृप्त’ कृति आदि (घ) ७८ अर्णः अंश पयः ८६ अम्भ:३ अम्बु HTTARRER ६४ वारि आपः १०१ उदक छन्दों के निश्चित अक्षरों में एक या दो अक्षरों की न्यूनता या अधिकता से छन्दों में भेद नहीं होता। ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है-न वा एकाक्षरेण छन्दांसि वियन्ति न द्वाभ्याम् । तो भी एक छन्द का दूसरे से भेद करने के लिए इन न्यूनाधिक अक्षरों वाले छन्दों का नामकरण आवश्यक था। अतः एकाक्षर न्यून वाले छन्दों से पूर्व निवृत् विशेषण तथा एकाक्षर अधिक होने पर भुरिक् विशेषण लगाया जाता है। दो अक्षर अधिक होने पर स्वराट् विशेषण होता है। यथा-निवृद् गायत्री, भुरिक् गायत्री स्वराट् गायत्री’ आदि। त्रिपाद उष्णिक अनुष्टुप् और बृहती में यदि मध्य का पद छोटा हो तो उन्हें पिपीलिकमध्या का विशेषण दिया गया है। यदि त्रिपाद गायत्री के प्रथम तथा अन्तिम पादों १. आचार्य शौनक के काल के सम्बन्ध में द्र. ऋग्वेद प्रातिशाख्य एक परिशीलन (प्रो. वीरेन्द्र कुमार वर्मा) २. ऋ. प्रा. १७/५ ३. ऋ. प्रा. १७/५ ४. ऐ. ब्रा. १/६, २/३६, श.ब्रा. १३/२/३/३ तथा कौ. ब्रा. २७/१ ५. ऋ. प्रा. १७/२ से ३ ६. ऋ.प्रा. १६/३४; १६/३६, १६/५२। तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ६५७ में ७-७ अक्षर हों और मध्य में १० अक्षर हों, तो उसे “यवमध्या” का विशेषण दिया जाता __ पादबद्ध मन्त्रों के अक्षरों में यदि विहित पादाक्षर संख्या पूरी नहीं होती, तो उस संख्या की पूर्ति के लिए उस पाद में किसी संधि को तोड़कर दो अक्षरों का निर्माण किया जाता है। इसे व्यूहन कहते हैं और उस पूर्ति को सम्पत्ति या सम्पद् कहते हैं। ऋ. प्रा. में उस पाद की सम्पद् के लिए एकाक्षरीभाव, सवर्ण दीर्घ, गुण-वृद्धि, पूर्वरूप सन्धियों के व्यूहन तथा ‘क्षेप्र वर्ण (य-व) के संयोगों को तत्सदृश स्वरों से व्यवधानमुक्त (इय-उद्) भान करने का विधान है। यथा -“सास्माकेभिरेतरी न भूषैः” (ऋ. ६/१२/४) इस त्रि टुप के चरण में ११ के स्थान पर १० अक्षर हैं। इस न्यूनता की सम्पत्ति के लिए सा अस्माकेभिः इस प्रकार सन्धि विच्छेद (व्यूह) करना चाहिए। इसी प्रकार गुण-वृद्धि तथा पूर्वरूप सन्धियों का भी व्यूहन किया जा सकता है। वैदिक छन्दों के दो मुख्य भेद हैं-पादाक्षरगणनानुसारी तथा केवल-अक्षरगणनानुसारी। ऋ. प्रा. में अक्षरगणनानुसारी छन्दों के अवान्तर भेद ये हैं -(क) दैव, आसुर, प्राजापात्य, आर्ष (ख) याजुष, साम्न, आर्च, ब्राह्म। ये दैव आदि छन्द केवल गायत्री आदि प्रथम सप्तक के ही यहां दर्शाये गये हैं। दैवी-गायत्री एकाक्षरा होती है और एक-एक अक्षर की उत्तरोत्तर वृद्धि से दैवी जगती ७ अक्षरों की होती है। आसुरी गायत्री १५ अक्षरों की होती है तथा एक-एक अक्षर के उत्तरोत्तर हास से आसुरी जगती ६ अक्षरों की रह जाती है। प्राजापात्या गायत्री ८ अक्षरों की होती है और चार-चार अक्षरों की उत्तरोत्तर वृद्धि से आर्षी जगती ४८ अक्षरों की होती हैं। (ख) याजुषी गायत्री के ६ अक्षरों में क्रमशः एक-एक अक्षर की वृद्धि से करके याजुषी जगती के १२ अक्षर माने गये हैं। साम्नी गायत्री के १२ अक्षरों में क्रमशः २-२ अक्षरों की वृद्धि करके साम्नी जगती के २४ अक्षर बनते हैं। AL १. ऋ. प्रा. १६/२७)। ८.८.१२.८.८ = ४४ इस प्रकार के त्रिष्टुप को “यवमध्या त्रिष्टुप” कहा गया है १ (ऋ. प्रा. १६/७२) २. ऋ. प्रा. १७/२२-२३ ३. व्यूहन से सम्बद्ध पाश्चात्य विचारों के लिए द्रष्टव्य बर्नान आर्नल्ड की पुस्तक - Vedic Metre in its Historical Development (1905) तथा थियोडोर बेन्फे एवं जे. जुबाती के लेख (१६७४-१९८० ’ और जुबाती १८८८-१८६१) ४. अक्षरसम्पत्ति के लिए पाश्चात्य विद्वान् ग्रासमान के-Worterbuch Zum Rgved (१९७३) ग्रन्थ में कल्पित विचार भी द्रष्टव्य हैं। ५. ऋ. प्रा. १६/१-६ ६५८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
अक्षरसंख्या
अभिकृति तथा उत्कृति नामक अतिछन्द दाशतयी में नहीं मिलते, सुभेषज में उपलब्ध हैं’ यह ऋ. प्रा. का कथन है। इन २१ छन्दों के अतिरिक्त यहाँ मा, प्रभा, प्रतिभा, उपमा और समा नाम के पांच प्राग्गायत्री छन्दों का भी उल्लेख है। ये छन्द चार अक्षरों से प्रारम्भ होते हैं और चार-चार की उत्तरोत्तर वृद्धि से समा के २० अक्षर हैं। किन्तु इन प्राग-गायत्री छन्दों का प्रयोग भी कहीं होता है या नहीं इस विषय पर कोई प्रकाश नहीं डाला गया है। अन्य ग्रन्थों में इन पांचों छन्दों के नाम अलग-अलग दिये गये हैं। पिंगल ने इनका उल्लेख नहीं किया है। वेंकट माधव ने भी इन छन्दों का संकेतमात्र किया है। इन छब्बीस छन्दों में दो-दो अक्षरों के न्यून होने पर उनका नाम विराट् होता है। इनके स्वतन्त्र नाम भी रखे गये हैं यथा अक्षर संख्या नाम अक्षर संख्या नाम प्राग् गायत्री (क) २ हर्षीका सर्षीका १० मर्षीका सर्वमात्रा १८ विराट् कामा गायत्री आदि (ख) २२ राट् (तारा) २६ विराट ३० स्वराट ३४ सम्राट ३८ स्ववशिनी’ ५२ ४६ प्रतिष्ठा - शिष्यविरचित ऋक्सर्वानुक्रमणी की टीका वेदार्थदीपिका में किया गया है। इस वर्णन का आधार पादविधान ही है, किन्तु इन छन्दों के भेदों-प्रभेदों की चर्चा कहीं भी नहीं की गई है। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - छन्द पादसंख्या अक्षरसंख्या अतिजगती (१२. १२. १२. ८. ८) = ५२। अतिशक्वरी (१६. १६. १२. ८. ८) = ६०। अत्यष्टि (१२. १२. ८. ८. १२. ८) = ६८। अतिधृति (१२. १२. ८. ८. ८. १२. ८. ८) = ७६ । परमेष्ठी vir १. ऋ.प्रा. १६/८७-८८ २. ऋ. प्रा. १७/१६/ तु.वा.सं. १४/१८-मा छन्द : प्रमा छन्द : प्रतिमाछन्दो अस्त्रीवयश्छन्दः उष्णिक छन्दो बृहतीछन्दोऽनुष्टुप् छन्दो विराट्छन्दो गायत्री छन्दस्त्रिष्टुप्छन्दो जगतीछन्दः। ३. द्र. मीमांसक, वै.छ.मी. पृ. ८६। ४. ऋ.प्रा. १७/२० ५. ऋ. प्रा. १७/५ __ 9 तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ६५६ . शक्वरी (७ ग ८) = ५६। अष्टि (१६. १६. १६. ८. ८) = ६४।। धृति (१२. १२. ८. ८. ८. १६. ८) = ७२।
तृतीय सप्तक
इसके कृति, प्रकृति, आकृति, विकृति, सकृति अभिकृति तथा उत्कृति छन्दों के उदाहरण ऋग्वेद की शाकल संहिता में उपलब्ध नहीं होते। किन्तु पिंगलछन्दः सूत्र के सम्पादक पं. केदारनाथ ने इन छन्दों को याजुष मन्त्रों में खोज निकाला है तथा इन उदाहरणों को हलायुध की टीका में प्रक्षेप करने का भी साहस किया है। प्रगाथ-ऋ.प्रा. के छन्दःप्रकरण की एक विशेषता प्रगाथ ग्रन्थों का विवरण है। जब किसी याज्ञिक क्रिया की सिद्धि के लिए अथवा किसी अन्य कारण से दो-तीन छन्दों का समुदाय बनाया जाता है, तब उस छन्दः समुदाय को प्रगाथ कहते हैं। इस शब्द का मुख्यतः प्रयोग सामवेदीय ब्राह्मण ग्रन्थों प्रगाथों के नामकरण ऋ. प्रा. में तीन प्रकार से किये गये हैं : १. प्रथम छन्द के अनुसार यथा-बृहती सतोबृहती = बार्हत २ (ऋ. प्रा. १८/४)। अन्तिम छन्द के अनुसार यथा-बृहती विपरीता = विपरीतान्त । ३. उभय छन्दों के अनुसार यथा-गायत्री ककुप् = गायत्रकाकुभ अथवा कुकुए पंक्ति = पाङ्क्तकाकुभ। ऋ. प्रा.७ में छन्दों के देवताओं का विवरण ऋग्वेद की दो ऋचाओं के आधार पर दिया गया है। किन्तु पंक्ति छन्द वसुओं का है। अतिच्छन्द प्रजापति के हैं, विच्छन्द (E) वायु देवता के हैं, द्विपदा का देवता पुरुष है तथा एकपदा का ब्रह्म है। छन्दों के वर्ण (रंगों) का उल्लेख भी यहां किया गया है-गायत्री का श्वेत, उष्णिक का कृष्ण-शुक्ल, अनुष्टुप् का लाल-भूरा (पिंशंग), बृहती का कृष्ण, विराट् का नीला, (पंक्ति तथा अनुष्टुप-उवट १५) त्रिष्टुप् का रक्त, जगती का स्वर्ण, पंक्ति का अरुण, अतिछन्दों का श्याम (“शुकवर्ण”-उवट) विच्छन्दों का " E HTTP
१. २. . . ५. ऋ. प्रा. १६/८७-८८ पि.छ.सू. निर्णय सागर बम्बई सन् १६५७ पृ. ४२ टि. प्रगथ्यते संमेल्यते छन्दसा छन्द इति प्रगाथः, ऋ. सं. परिभाषा ११.१ पर षड्गुरुशिष्य। ऋ. प्रा. १८/१५ ऋ. प्रा. १८/६ ऋ. प्रा. १८/८ ऋ. प्रा. १७/६-१२, तु. बृ. दे. ८/१०५-१०६ ऋ. १०/१३०/४-५ ऋ. प्रा. १७/१४-१८
. …..- ….. . . … ६. . . . . . . . Pin. ६६० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र गौर (“सिद्धार्थवर्ण-उवट) द्विपदा का कपिल, एकपदा का नकुल वर्ण है। द्वयक्षर ऊन (विराट्) का पृश्नि, निघृत का गहरा भूरा (श्याम), भुरिक का बुन्दियाला (पृषत) वर्ण है। ऋक्प्रातिशाख्य के भाष्यकार उवट ने इन छन्दः सम्बन्धी सूत्रों पर भाष्य किया है तथा प्रो. वीरेन्द्र कुमार वर्मा द्वारा हिन्दी अनुवाद एवं विस्तृत टिप्पणी आदि सहित यह प्रकाशित किया गया है। आर्ची-गायत्री के १८ अक्षरों में ३-३ अक्षरों की वृद्धि करके आर्ची जगती के ३६ अक्षर होते हैं। __ ब्राह्मी-गायत्री के ऊपर के तीन छन्दों के अक्षरों का योग ३६ अक्षर होता है। इनमें ६-६ अक्षरों की वृद्धि से ब्राह्मी-जगती के ६२ अक्षर होते हैं। ऋ. प्रा. में उदाहरण केवल आर्ष-छन्दों के ही दिये गये हैं। ब्राह्मणों में आर्ष-छन्दों के अतिरिक्त केवल दैव और आसुर छन्दों का ही वर्णन मिलता है और भेद भी केवल गायत्री, आदि प्रथम सप्तक के ही पाये जाते हैं। __गायत्री के अनेक भेद दर्शाये गये हैं। गायत्री एकपदा, द्विपदा, त्रिपदा, चतुष्पदा तथा पंचपदा भी होती है। यास्क के मत में सम्पूर्ण ऋग्वेद के दश मण्डलों में एक ही एकपदा गायत्री है। वह भी दश अक्षरों की विराड् गायत्री है। अन्य आचार्यों के मत में अन्य एकपदा गायत्री छन्द केवल पूर्वगामी ऋचाओं के अन्त्यभाग हैं। अन्य आचार्य पांच अन्य ऋचाओं को भी एकपदा गायत्री मानते हैं । द्विपदा गायत्री में १२-१२ अक्षरों के दो ही पाद होते हैं। उष्णिक छन्द के भी अनेक भेद किये गये हैं। चतुष्पाद उष्णिक में प्रत्येक पाद में ७-७ अक्षर होते हैं। इसके उदाहरणभूत दो मन्त्रों (ऋ. ८/६६/२ एवं १०/२६/४) के विषय में लिखा है कि ये अक्षर-गणना से तो उष्णिक्छन्दस्क हैं, परन्तु पादों की गणना से अनुष्टुप हैं। अनेक अवस्थाओं में पाद समान होने पर भी दो छन्दों के बीच निश्चय करना कठिन हो जाता है। ऐसी अवस्था में शौनक ने व्यवस्था की है कि इसका निर्णय सूक्त के अधिकांश छन्दों के आधार पर किया जाना चाहिए। सामान्य त्रिष्टुप में ४४ अक्षर होते हैं किन्तु उपजगती त्रिष्टुप में ४६ अक्षर होते हैं। जागतप्राय मन्त्रों में यह जागत कहलाएगा १. ऋ.प्रा. १६/१०-१३. २. वै.छ.मी.पृ. ११५ ३. ऋ. १०/२०/१, ऋ. प्रा. १७/४२ ४. ऋ.प्रा. १७/४३ इन दो सूत्रों पर द्र. मंगलदेव शास्त्री सं. ऋ. प्रा. भाग ३, आंग्लानुवाद टि. पृ. २८४-२५१ ५. ऋ. प्रा. १६/२६ ६. ऋ. प्रा. १६/३२
. .. तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास और त्रिष्टुप्प्राय मन्त्रों में त्रैष्टुभ् होगा। जिस छन्द में १२ १२ (= २४) अक्षरों के दो पाद हों, उसे द्विपदा गायत्री कहा गया है। इस छन्द का निर्देश केवल ऋ. प्रा. में ही किया गया है। विराड् ऊर्ध्वबृहती में १२-१२ अक्षरों के तीन पाद होने चाहिए। इसके उदाहरणस्वरूप-अजीजनो अमृत मत्र्येष्वा (ऋ. ६ /११०/४) मन्त्र दिया गया है, जिसके प्रथम पाद की अक्षरपूर्ति दो अक्षरों के व्यूह से करनी पड़ती है। जबकि इसी सूक्त में एक अन्य मन्त्र ऐसा है, जिसमें व्यूह की आवश्यकता नहीं पड़ती। इससे प्रतीत होता है कि ऋ. प्रा. का उदाहरण परम्परागत ग्रन्थों से लिया गया है। इसी प्रकार विरापा त्रिष्टुप तथा विराट्स्थाना त्रिष्टुप् में अक्षरों की पूर्ति न करने का सिद्धान्त भी किसी ब्राह्मण वचन के आधार पर स्वीकार किया गया है। फलस्वरूप ३६ (६.६ १०. ११) अक्षरों वाला छन्द भी त्रिष्टुप् है किन्तु उदाहरण नहीं दिया गया। इसी प्रकार (६. १०. ११. ११ = ४१) अक्षरों वाले विराट स्थाना त्रिष्टुप् छन्द का भी उदाहरण नहीं है। त्रिष्टुप के एक और भेद पुरस्ताज्ज्योति (८.१२ १२ १२ = ४४) का भी उदाहरण नहीं दिया गया। महापंक्ति जगती (८ ग ६ = ४८) या षट्पदा जगती के जो उदाहरण दिये हैं, उनमें (ऋ. ८/३७/२-६ तक की) सभी ऋचाओं में सर्वानुदात्त पद “वृत्रहन्” पांचवे पाद के आरम्भ में आता है। किन्तु कात्यायन के प्रथम मन्त्र में अतिजगती छन्द मानकर पाद-विभाग ‘माध्यन्दिनस्य सवनस्य’ के स्थान पर ‘माध्यन्दिनस्य सवनस्य बृत्रहन्’ यहां तक किया है, जिससे उपर्युक्त दोष का परिहार हो जाता है। अन्य मन्त्रों में कात्यायन ने भी महापंक्ति ही स्वीकार की है।
द्वितीय सप्तक
अतिजगती, शक्वरी, अतिशक्वरी, अष्टि, अत्यष्टि, धृति, तथा अतिधृति नामक अतिछन्दों के नामों तथा अक्षरसंख्या की चर्चा ऋ. प्रा. में की गयी है ० और संक्षेप में एक-एक उदाहरण भी दिया गया है । इनकी पादसंख्या तथा अक्षर संख्या का विस्तार से . . - . . १. ऋ.प्रा. १६/६५ २. वै. छ. मी. पृ. १२७ ३. क्र. ६/११०/६ ऋ.प्रा. १६/४७-४६ ऋ. प्रा. १६/६६ ऋ. प्रा. १६/६७ ऋ.प्रा. १६/७० उवट ने भी इसका उदाहरण नहीं दिया। ८. ऋ.प्रा. १६/७५ ६. पि.सू. ३/४६ १०. ऋ.प्रा. १६/८०-८६ ११. ऋ.प्रा. १६/६१ मीमांसक ने इन उदाहरणों का उबट के नाम से उल्लेख किया गया है, वै. छ. मी. पृ. १७१, १७८ जो ठीक नहीं है। . ……. – -..
.40THE a ६६२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र Utt. वर्णन शौनक के नाम से प्रसिद्ध रचना ‘पाद विधान’ वेंकट माधव की ऋगर्थदीपिका तथा षड्गुरु-शाखायन श्रौत सूत्र-छन्द : प्रकरण शाखायन (साख्यायन) श्रौतसूत्र (७/२७/१-३०) में भी तीस सूत्रों में वैदिक छन्दों का निरूपण किया गया है। वस्तुतः ब्राह्मण ग्रन्थों में विभिन्न स्थानों पर प्रतिपादित छन्दोलक्षणों का एकत्र व्यवस्थित उल्लेख सम्भवतः श्रौतसूत्रों के अन्तर्गत यह सर्व प्रथम मिलता है। इसमें निवृत् एवं मुरिक संज्ञाओं का भी वर्णन है। कालक्रम की दृष्टि से सूत्र-काल के अन्तर्गत होने के कारण यह ऋक्प्रातिशाख्य के समकालिक माना जा सकता है। परन्तु यह ऋक्प्रातिशाख्य के छन्दःपटल से प्रभावित प्रतीत नहीं होता। छन्दों के विषय में शाखायन के सूत्र निम्नलिखित हैं JATREATRE KASSETTE त्रिपदा गायत्री ॥१॥ उष्णिक IRI पुरउष्णिक || ककुप ।।४।। विराट् च पूर्वा ।।५।। चतुष्पदोत्तरपदा विराट् ।।६।। बृहती ॥७॥ सतोबृहती ।।।। जगती ।।।। अनुष्टुप् ॥१०॥ त्रिष्टुप् च ॥११॥ पञ्च पङ्क्तेः ॥१२॥ षट्सप्तेव्यतिच्छन्दसाम् ।।१३।। ‘स हि शर्थो न मारुत’ मित्यष्टौ ।।१४।। द्वौ द्विपदायाः ॥१५॥ तेऽष्टाक्षराः प्रायेण ।।१६।। द्वादशाक्षरा जगत्याः ।।१७।। तृतीयौ चोष्णिगबृहत्योः ।।१८।। सतोबृहत्याश्च प्रथमतृतीयौ ।।१६।। मध्यमः ककुभः ॥२०॥ प्रथमः पुर उष्णिहः ।।२१॥ एकादशाक्षरा त्रिष्टुब्बिराजोः ।।२२।। तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ६६३ ३ उत्तरस्या दशाक्षरः ।।२३।। तामक्षरपङ्क्तिरित्यप्याचक्षते ॥२४॥ पञ्चभिः पञ्चाक्षरैः पदपक्तिः ॥२५॥ षड्प्यष्टाक्षरा जगत्याः ॥२६॥ एकेन द्वाभ्यामित्यूनके निवृत् ।।२७॥ अतिरिक्ते भुरिक् ॥२८॥ सम्पाद्य पादभागेनाहार्यस्यर्चः सम्मितास्तस्य पादभागेन सम्पन्नाः ॥२६॥ गायत्र्युष्णिगनुष्टुपबृहत्यौ पङ्क्तिश्च त्रिष्टुपुजगत्यावित्यानुपूर्व्यछन्दसां .. चतुर्विशत्यक्षरादीनां चतुरुत्तराणाम्।।।३०॥ इन सूत्रों से छन्दों का बहुत व्यवस्थित रूप नहीं प्राप्त होता है। सम्भवतः याज्ञिक मन्त्रों के प्रयोग में सामान्य परिज्ञान की दृष्टि से यह परिचय मात्र दिया गया है। श्रौतसूत्रों का विषय छन्दोनिरूपण नहीं है। अतः इस प्रकरण का परिचयात्मक उपयोग ही है।
निदान सूत्र (पतञ्जलि)
निदान सूत्र सामवेद की कौधुमशाखा से सम्बद्ध ग्रन्थ है। इसके प्रथम सात खण्डों में छन्दों का विवरण दिया गया है और इस प्रकरण का नाम छन्दोविचिति है। इस निदानसूत्र के कर्ता का नाम पतञ्जलि प्रसिद्ध है। यद्यपि निदान सूत्र के सम्पादक के अनुसार कर्ता का यह नाम सर्वथा सुनिश्चित नहीं है, तो भी अन्य विद्वान इसे पतंजलि की कृति मानते हैं’। क्योंकि वैयाकरण महाभाष्यकार पतंजलि के सम्मुख निदान सूत्र उपस्थित था’ , अतः यह तृतीय शती ई.पू. से अर्वाचीन नहीं हो सकता। छन्दोविचिति में अनेक प्राचीन आचार्यों के मतों का उल्लेख है। यथा पांचालाः (पृ. ३) बहवृचाः (पृ. ३) एके (पृ. १, २, ५) इत्यादि। पिंगल ने २१ वैदिक छन्दों का विवरण प्रस्तुत किया है। परन्तु निदान सूत्र में पतंजलि ने २६ छन्दों के भेद प्रभेदों की चर्चा की है। प्राग्गायत्री पांच छन्दों के नाम भी इसमें ऋक्प्रातिशाख्य के नामों से भिन्न है। यहाँ उनको क्रमशः कृति, प्रकृति, सङ्कृति, अभिकृति, तथा आकृति की संज्ञा दी गयी है। द्वितीय सप्तक के अतिजगती प्रभृति छन्दों की संख्या यहां क्रमशः विधृति, शक्वरी, अष्टि, अत्यष्टि, अंहः (मेहना) सरित् और सम्पा है। तृतीय सप्तक के कृति, प्रभृति छन्दों निदान सूत्र उपोद्घात पृ. २८, अथ भगवान छन्दोविचितिकारः पतंजलिः (निदानसूत्र, पेत्ताशास्त्री या हृषीकेश शर्मा कृत व्याख्या)। पतंजलिकृत निदानसूत्रे छन्दोविचिंतिः समाप्ता’ - बड़ौदा का हस्तलेख, निदान उपोद. पृ. २५ पर उद्धृत। प्रभुदयाल अग्निहोत्री, पतञ्जलिकालीन भारत पृ. ४६५, बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् पटना सन् १६६३ । नि.सू. पृ. ८ ३. अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र को निदानसूत्र में क्रमशः सिन्धु, सलिल, अम्भस्, गगन, अर्णव, आपः तथा समुद्र कहा गया है। प्राग्गायत्री तथा प्रथम सप्तक के दो-दो अक्षरों से न्यून विराट्छन्दों के नाम तो ऋक् प्रा. के नामों के समान ही हैं, किन्तु द्वितीय सप्तक के नामों में कुछ भेद हैं। ६२ अक्षरों वाले विराड् अष्टि को ऋक् प्रा. में शुक्र कहा गया है किन्तु निदान सूत्र में जीव नाम से यह उल्लिखित है। ऋक् प्रा. के जीव को तृप्त, पयः को रस, तथा तृप्त को शुक्र की संज्ञा दी गयी है। तृतीय सप्तक में कोई भेद नहीं है। निदानसूत्र में उपर्युक्त २६ छन्दों को कृत तथा एकाक्षर न्यून होने पर भेता संज्ञा दी गयी है। दो अक्षर वाले हर्षीका से लेकर १०२ अक्षर वाले उदक-संज्ञक छन्दःपर्यन्त सभी को द्वापर तथा उनमें एकाक्षर की न्यूनता होने पर कलि नाम से स्मरण किया गया है। एक और विषय में भी पतंजलि ने नवीनता दिखायी है। अन्य छन्दःशास्त्री तथा ब्राह्मणग्रन्थ केवल प्रथम सप्तक के छन्दों के ही दैव, आसुर, प्राजापात्य तथा आर्ष-चार भेद करते हैं। परन्त निदानसत्र में ये भेद द्वितीय सप्तक (अतिजगती आदि) के भी माने गये हैं। इन छन्दों की अक्षर संख्याओं के सम्मिश्रणसे एक ऐसा वृत्त बनता है, जिसके पूर्व अर्धभाग में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है और उत्तरार्ध में क्रमशः ह्रास होता है। इस प्रकार पूरे वृत्त के २८ विभाग बनते है’। याजुष आदि द्वितीय चतुष्क के छन्दों की इसमें चर्चा नहीं की गयी है। निदानसूत्र में अर्थ को प्राधान्य दिया गया है। अतः यहाँ पादों के नियत अक्षरों का अभिक्रमण (वृद्धि) तथा प्रतिक्रमण (हास) करने का विधान किया गया है अष्टाक्षर आपंचाक्षरतायाः प्रतिक्रामति-विश्वेषां हितइति। आचतुरक्षरताया इत्येके। आदशाक्षरताया अभिक्रामति वयं तदस्य सम्भृतं वसु इति। अष्टाक्षरपाद पाँच अक्षर तक छोटा हो जाता है, वहीं अष्टाक्षर पाद दश अक्षर तक बढ़ जाता है, जैसे-वयंतदस्य (ऋ. ८/४०/६) में। इसी प्रकार एकादशाक्षर तथा द्वादशाक्षर पाद की वृद्धि तथा हास का भी विधान किया है और यह विधान अर्थ को प्रधान मानकर किया गया है। शेष विषयों में निदानसूत्र अन्य वैदिक छन्दः शास्त्रों से प्रायः समानता रखता है।
उपनिदानसूत्र (गार्ग्य)
सामवेद के छन्दों का विवरण उपनिदानसूत्र में उपदिष्ट है। यद्यपि मुख्यतः यह ग्रन्थ सामवेद से सम्बद्ध है और पूर्वार्चिक तथा उत्तरार्चिक के छन्दों के विषय में विचार प्रस्तुत 2.77६ १. वै.छ.मी. पृ.-११६ २. द्र. इस पर तातप्रसाद की व्याख्या-‘अर्थवशेन पादव्यवस्था इति न्यायविदः’। यह टीका अभीतक अप्रकाशित है। वै.छ.मी. पृ. ७२, २१० तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ६६५ करता है, तो भी इसमें सामवेद के अतिरिक्त विविध छन्दों पर भी सामान्यतः प्रकाश डाला गया है। इसी छन्दोरचना के नाम छन्दोविचयः, सामनगानां छन्दः, छन्दः परिशिष्ट आदि भी उपलब्ध होते हैं। इसके कर्ता गार्ग्य के नाम से प्रसिद्ध है, क्योंकि इसके अन्त में पुष्पिका है- ‘इत्याह भगवान् गार्यो गार्ग्यः’ । गार्य के देशकाल तथा इतिवृत्त के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। इन्होंने स्व-उपजीव्य छन्दः शास्त्रियों का उल्लेख एक श्लोक में इस प्रकार किया है ‘ब्राह्मणात् तण्डिनश्चैव पिंगलाच्च महात्मनः। निदानादुक्थशास्त्राच्च छन्दसां ज्ञानमुद्धृतम्।।’ अर्थात् ताण्ड्यमहाब्राह्मण, पिंगल, निदान सूत्र तथा उक्थशास्त्र से छन्दों का ज्ञान उद्धृत किया है। अतः यह निदान सूत्र और पिंगलछन्दः सूत्र दोनों से अर्वाचीन है। इन्होंने ‘पांचालाः’ (पृ. १) तथा ‘यास्क’ (पृ. २) का भी विशेष अल्लेख किया है। __ ‘उक्थ शास्त्र’ यजुर्वेद का परिशिष्ट ग्रन्थ है। यजुः सर्वानुक्रमणी की व्याख्या में देवयाज्ञिक ने इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है। देवयाज्ञिक सायण से अर्वाचीन हैं, क्योंकि उन्होंने सायण को उद्धृत किया है। अनुक्रमणीशैली में विरचित यह ग्रन्थ दो पटलों तथा आठ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम तीन अध्यायों में वैदिक छन्दों का सामान्य परिचय दिया गया है। प्रथम अध्याय में सात आर्ष छन्दों तथा उनके भेदों की चर्चा है। दूसरे अध्याय में दोषपूर्ण छन्दों तथा अतिछन्दों पर विचार किया गया है। सन्देहास्पद छन्दों के विषय में निर्णायक हेतुओं का उल्लेख भी यहीं किया गया है। तृतीय अध्याय में दैव, आसुर, प्राजापत्य तथा याजुष साम्न, आर्च तथा ब्राह्मछन्दों का विवरण दिया गया है। दैवादि तथा याजुपादि भेद केवल गायत्रीआदि प्रथम सप्तक के ही माने गये हैं। चतुर्थ तथा पंचम अध्यायों में सामवेद के पूर्वार्चिक एवं छठे अध्याय में आरण्यकाण्ड तथा महानाम्न्यार्चिक, सप्तम अध्याय में उत्तरार्चिक के छन्दों पर क्रमशः विचार किया गया है। उत्तरार्चिक सम्बन्धी छन्दों के वर्णो तथा देवताओं का उल्लेख है। यहाँ आरण्यक आदि अध्यायों के छन्दों को रहस्य छन्दों की संज्ञा दी गयी है। AR १. द्र. मंगलदेवशास्त्री, उ.नि.स.की भूमिका २. ‘अथ रहस्यछन्दांसि’-द्वितीय पटल का आरम्भ। कैलेण्ड के अनुसार रहस्य का अर्थ यहां आरण्यक है पंच ब्रा. उपोद्घात, पृ.६अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ६६६ प्राग्गायत्री छन्दों के नाम यहाँ निदान सूत्र से भिन्न रखे गये हैं, यथाः-उक्ता, अत्युक्ता, मध्या, प्रतिष्ठा तथा सुप्रतिष्ठा’। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में यही नाम पाये जाते हैं। निदानसूत्र के समान ही उपनिदानसूत्र ने भी अतिछन्दों के अन्तर्गत द्वितीय तथा तृतीय दोनों सप्तकों का ग्रहण किया गया है। विच्छन्दों के विषय में चर्चा करते हुए गार्ग्य ने लिखा है-विच्छन्दःस्वक्षरपरिमाणाः सङ्कृतिप्रभृत्यूचं विजेया।३।। अर्थात् विच्छन्दों के अक्षर-परिमाण सङ्कृति आदि से आगे जानने चाहिए। इसका आशय है कि १०४ अक्षरों से अधिक अक्षरों वाले छन्दों को विच्छन्द कहते हैं। छन्दों के देवताओं के विषय में गार्य ने पिंगल और शौनक दोनों के मतों का सम्मिश्रण करके दोनो पक्षों के समन्वय का प्रयास किया है।
पिंगलछन्दः सूत्र वैदिकप्रकरण
पिंगल छन्दः सूत्र (या शास्त्र) आठ अध्यायों में विभक्त है। इनमें से तीन अध्यायों और सात सूत्रों में वैदिक छन्दों का विवरण दिया गया है। शेष अध्यायों में लौकिक छन्दों का निरूपण है। इस प्रकार वैदिक छन्दों का वर्णन १०४ सूत्रों में किया गया है। तथा लौकिक छन्दों का २०४ सूत्रों में है । इतने छोटे आकार के इस ग्रंथ में छन्दों का शास्त्रीय विवेचन अत्यन्त प्रौढ़ रीति से किया गया हैं। पिंगल ने सात पूर्वाचार्यों के छन्दः शास्त्र सम्बंधी विचार व्यक्त किये है। वे है-तण्डी, कौष्टुकि, यास्क, सैतन काश्यप, रात और माण्डव्य का उल्लेख लौकिक छन्दों के सन्दर्भ में किया गया है। डॉ. बेवर ने पहले तो पि.सू. को वैदिक सूत्रकाल अर्थात ५०० ई.पू. के आस-पास रखने का प्रस्ताव किया था और इसके दूसरे तीसरे अध्यायों को शेष की अपेक्षा पूर्व कालीन माना था। किन्तु बाद में भरतनाट्यशास्त्र के प्रकाश में आने पर उसके छन्दः प्रकरण को पि.सू. से कमविकसित देख कर उन्होंने पि.सू. को भरतनाट्यशास्त्र के पश्चात्कालिक माना तथा इसका काल ४००-७०० ई. के मध्य में निर्धारित किया। वैदिक छन्दों का पिं.सू. में निरूपण है। लौकिक छन्दों का निरूपण बहुत उत्तम तथा उत्कृष्ट कोटि का हैं। १. २. ४. उप.नि.सू. पृ.-६ ना.शा. १४/४६ अध्याय ६ पृ. १६, तु. ऋप्रा . १७/१० अग्निर्गायत्र्याः-पंक्तीनां मित्रावरुणौ वसवो वा (उ.सू.पृ. २१-२२) पं. सीता राम भट्टाचार्य सम्पादित हलायुध वृत्ति-सहित पिंगलछन्दः सूत्र, कलकता १८३६ शाके, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई के संस्करण में छठे अध्याय में ४३ सूत्र होने के कारण कुलसूत्र ३०७ होते हैं। यादव प्रकाश के अनुसार यह संख्या २८८ है तथा भास्कर राय के अनुसार ३०० है। बलदेव उपाध्याय, सं.शा. इ. १६६६, वाराणसी, पृ. २८८, टि.२। ५. जाने के कारण पुलाव एक होते है। . . . . . . . . .- . . . . . . . . . . . .
SEEn-andra तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ६६७ डॉ. मनोमोहन घोष के विवेचन के अनुसार पि.सू. के प्रथम अध्याय तथा ४-८ अध्याय (चतुर्थ के प्रारंभ के ७ सूत्रों को छोडकर) एक इकाई बनाते है तथा द्वितीय और तृतीय अध्याय ग्रंथ के अविच्छेद्य अंग नहीं हैं यह उन का मत है। परन्तु वास्तव में द्वितीय तथा तृतीय अध्याय ही पिंगल कृत छन्दों ‘वेदांङ्ग’ का मूल रूप हैं। पिंगल सूत्र के वैदिक छन्दः प्रकरण का ध्यानपूर्वक विवेचन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसमें वैदिक छन्दों का विवरण ऋप्रातिशाख्य, निदान सूत्र तथा ऋक्सर्वानुक्रमणी के विवरण की अपेक्षा छन्दः शास्त्र की आरम्भिक अवस्था को प्रस्तुत करता है। अतः यह ऋकप्रा. के छन्दः प्रकरण से कही प्राचीन है। कात्यायन का स्थितिकाल ७०० ई. पूर्व के लगभग माना जा सकता है। ऋकप्रा. का छन्दः प्रकरण उससे अवश्य प्राचीन है। अतः इस दृष्टि से पिंगल का काल ८०० ई.पू. के आस पास होना चाहिए। यह कुछ विद्वानों का मत है। . पिंगल द्वारा संख्या निर्देश के लिए वसु, ऋतु आदि शब्दों के प्रयोग के कारण वेबर ने इसे बहुत बाद की रचना माना है। किन्तु यह ठीक नही है। क्योकि ऐ. ब्रा’ में ८ वसुओं, ११ रूद्रों तथा १२ आदित्यों का उल्लेख किया गया है। अतः प्रतीत होता है कि संख्याओं के लिए शब्दों का प्रयोग बहुत पहले सम्भव हो गया था। इन्हीं संख्या वाचक शब्दों को लेकर पुनः पिंगल को वेबर के निर्दिष्ट काल ४००-७०० ई. में प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया गया है। और यह तर्क दिया गया है कि गुप्त काल से पहले ऋतुओं की ६ संख्या निरूढ़ नही हो पायी थी। क्योंकि शक-कुषाणों के ब्राह्मी शिला लेखो में भी वर्ष में तीन ऋतुएं कही गई हैं। किन्तु यह तर्क युक्ति संगत नही कहा जा सकता। क्योंकि आज भी मोटे रूप में सर्दी, गर्मी तथा वर्षा तीन ही ऋतुएं कहने का प्रचलन है। अतः पि.सू. को ८०० ई.पू. के आस पास मानना ही युक्तिसंगत हैं। कहीं ऋकप्रा. तथा पि.सू. में परस्पर मतभेद है। यदि पि.सू. सर्वानु. के बाद का होता, तो यह कभी भी सर्वानु. तथा ऋकप्रा. सम्मत संहिता में प्रतिपादित छन्दों के विरुद्ध नही जा सकता था। पिंगल के अनुसार वैदिक छन्दों की संख्या २१ है। जिनमें गायत्री से अतिधृति तक चौदह छन्दों को कात्यायन ने स्वीकार किया है। कृति से लेकर अभिकृति पर्यन्त सात छन्दों का पिंगल ने विवरण दिया है। किन्तुमा, प्रमा, प्रभृति पांच प्राग्गायत्री छन्दों का उल्लेख नहीं किया है। ऋक्प्रा. के समान ही पिंगल ने भी निघृत, विराट् स्वराट
१. पि.सू. के तृतीय अध्याय के अंत में छन्दों के ऋषियों, देवताओं स्वरों तथा वर्णो का उल्लेख वैदिक छन्दः प्रकरण की समाप्ति का संकेत है। २. ऐ.ब्रा. ३/२२:१५ ३. मनोमोहन घोष : इ.हि. क्बा. भाग ७, पृ. ७२७-७३४॥ ४. डी.सी. सरकार, इण्डियन कल्चर, भाग ६,पृ. ११०-११२। ६६८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र भुरिक्, शकुमती, पिपीलिकमध्या, यवमध्या प्रभृति संज्ञाओं का उन्ही अर्थो में प्रयोग किया है, किन्तु यहां ‘भुरिक्’ विशेषण उन सभी छन्दों के लिये प्रयोक्तव्य है, जिनमें एक अक्षर अधिक हो। किसी विशेष छन्दों भेद का स्वतंत्र नाम ‘भुरिग्गायत्री’ नही है। इसी प्रकार अन्य भी विशेषण ही हैं। यहाँ पादसम्पद् के लिये इय-उव-भाव का विधान किया गया है। दैवादि छन्द भी केवल प्रथम सप्तक के ही दर्शाये गये हैं। इसी प्राकर यजुष आदि भेदों का भी केवल प्रथम सप्तक में उल्लेख किया गया है। अनेक स्थलों पर इसमें ऋकप्रा. प्रभृति से भेद भी स्पष्ट प्रकट होते हैं। पिं.सू. में देवताओं का भी उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद में मित्रावरुण विराट्छन्द का देवता है, परन्तु पिंगल ने पंक्ति का देवता मित्रावरुण को माना है। पिंगल ने विराट् का ही अर्थ पंक्ति किया है-पंक्तिर्वै परमा विराट् यह प्रतीत होता है। गायत्री आदि सात छन्दों के स्वरों (३/६४) तथा वर्णो (३/६५-६६) का भी यहां उल्लेख किया गया है। परन्तु इन समस्त मतभेदों के कारण पिंगलाचार्य का ऋक्प्रातिशाख्यकार शौनक से पूर्ववर्ती होना बाधित हो जाता है।
ऋक्सर्वानुक्रमणी (कात्यायन)
कात्यायन के द्वारा प्रणीत ऋक्सर्वानु क्रमणी में ऋग्वेद के प्रत्येक सूक्त का प्रतीक ऋक्संख्या, ऋषि तथा देवता के निर्देश के साथ प्रत्येक सूक्त अथवा उसके भागों के छन्दों का पूर्ण विवरण दिया गया है। ऋक्सर्वानुक्रमणी ऋ.प्रा. के छन्दः प्रकरण से बाद की रचना हैं और अधिकतर ऋ.प्रा. के द्वारा निर्दिष्ट छन्दों का अनुसरण करती है। किन्तु कही-कही उससे भिन्न मत भी व्यक्त करती है। वर्तमान शाकलसंहिता में प्रातिशाख्य के विरूद्ध इसी का मत स्वीकार किया जाता है। इसमें छन्द का लक्षण इस प्रकार किया गया है-यदक्षरपरिमाणं तच्छन्द कात्यायन ने ऋग्वेद में गायत्री से लेकर अतिधृति-पर्यन्त कुल चौदह छन्द माने हैं। HAR CENTRE १. मनोमोहन घोष का यह कथन असत्य है कि ‘पिपीलिकमध्या’ का उल्लेख ऋक्पा. में नही किया गया और यास्क ने यह नाम (निरुक्तं ७/८/९) पिंगल से लिया प्रतीत होता है। इ.हि.क्वा, ७, पृ. ७३०-३१; पिंसू., ३/५५-६० २. ‘इयादिपूरण’: ३/२ पि.सू. ३/६३ ४. ऋ. १०/१३०/४-५ ५. ताण्ड्य बा. २४/१०/२ ६. ऋक्सl. २/६
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६६६ तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास उन्होंने शौनकीय प्रातिशाख्य के छन्दः प्रकरण का अनुसरण किया है’। ऋक्सर्वानुक्रमणी में दैव आदि छन्दों की चर्चा नहीं की गयी है तथा मा. प्रमा. प्रभृति प्राग्गायत्री छन्दों का भी उल्लेख नहीं किया गया है। गायत्री का एक भेद ‘हसीयसी गायत्री’ है जिसमें ६+६+७=१६ अक्षर होते हैं। इसे ऋ.प्रा. में ‘अतिनिवृत्’ कहा गया है। उष्णिक के अन्तर्गत ‘ककुम्न्यकुशिराः’ (११+१२+४=२७) का उल्लेख है, जिसे ऋ.प्रा में ‘न्यकुशिरा निवृत् ककुप’ का नाम दिया गया है। अतिजगती से लेकर अतिधृति तक के द्वितीय सप्तक के छन्दों की पादसंख्या तथा अक्षरसंख्या का षड्गुरूशिष्य का वर्णन शौनकीय पादविधान पर आधृत है । कात्यायन ने वार्हत, काकुभ, महाबार्हत, विपरीतोत्तर और आनुष्टुभ इन पाँच प्रगाथों का भी वर्णन किया है।
यजुस्सर्वानुक्रमणी- छन्दः सूत्र
वस्तुतः ये छन्दः सूत्र ऋग्वेदानुक्रमणिका से ही सम्बद्ध है। ये सूत्र अत्यन्तोपयोगी होने के कारण यजुर्वेदियों ने भी शुक्लयजुर्वेदानुक्रमणिका के पञ्चमाध्याय के रूप में इन्हें स्वीकार किया हैं। अतः यहाँ प्रतिपादित सभी गायत्री आदि के भेदों में से कई उदाहरण वाजसनेय संहिता में नहीं मिलते हैं। ‘तस्मादेतन्ना ब्रह्मचारिणे नातस्विने नासंवत्सरोषिताय ना प्रवक्त्रेऽनुब्रूयात्’ (शु.य. सर्वा. ४ अ.) इत्यादि फलप्राप्तिरूप ग्रन्थ-समाप्ति का चिह्न शुक्लयजुः सर्वानुक्रम के चतुर्थाध्याय के अन्त में ही दिखाई पड़ता है। अतः तदनन्तर कात्यायन के अनुयायियों ने उक्त सूत्रों की उपयोगिता को देखकर पञ्चमाध्याय के रूप में इनको स्वीकार किया है। ऋक्सर्वानुक्रमणी भी कात्यायन के द्वारा ही प्रणीत होने से उनका कात्यायनीयत्व तो है ही। कत्यायनीय ऋक्सर्वानुक्रमणी पाश्चात्य मतों के अनुसार विक्रम के ३०० संवत्सर पूर्व की है। परम्परागत भारतीय मत में तो उससे भी अधिक पूर्व की रचना है। ऋक्सर्वानुक्रमणी के छन्दः सूत्रों पर षड्गुरूशिष्य का भाष्य है। शुक्लयजुस्सर्बानुक्रमणी के छन्दः सूत्रों पर देवयाज्ञिक का भाष्य उपलब्ध है। इन दोनों भाष्यों को एक साथ संयोजित करते हुए कात्यायनीय छन्दःसूत्र का सम्पादन डॉ. श्रीकिशोरमिश्र ने किया है तथा विस्तृत भूमिका, टिप्पणी आदि के साथ १६८६ में इसका प्रकाशन हुआ है। देवयाज्ञिक भाष्य में १. आचार्य कात्यायन के कालनिर्धारण हेतु द्रष्टव्य वाजसनेय प्रातिशाख्य-एक परिशीलन (प्रो. युगल किशोर मिश्र) संसं.वि.वि. वाराणसी से प्रकाशित तथा कात्यायनीय-मूल्याध्याय-परिशिष्टम् की भूमिका (आचार्य गोपाल चन्द्र मिश्र ग्रन्थमाला तृतीयपुष्प, २०४७ वि. में वाराणसी से प्रकाशित) ऋ.प्रा. १६/३३ द्र.वै.छ.मी.पृ. १७० २. ३. ६७० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र यजुर्वेद के भी उदाहरण दिये गये हैं तथा व्याख्यान कुछ विस्तृत है। इन दो कारणों से यह षड्गुरुशिष्य भाष्य से भिन्नता रखता है। आचार्य देवयाज्ञिक षड्गुरूशिष्य से स्पष्टतः परवर्ती है, क्योंकि षड्गुरूशिष्य के भाष्य की उक्तियाँ देवयाज्ञिक ने अनेक स्थानों पर ‘तदुक्तम्’ संकेत करते हुए यथावत् प्रस्तुत की है’। कुछ स्थानों पर पाठभेद से भी उद्धृत हैं। ऋक्प्रातिशाख्य के भाष्यकार उवट से भी देवयाज्ञिक अर्वाचीन ज्ञात होते हैं। कयोंकि १/६ सूत्र की व्याख्या में देवयाज्ञिक का भाष्य उवटभाष्य (ऋ.प्रा. २७/२६ ) से पूर्णतः प्रभावित है। सायण (सर्वा.भा. १/१६ सं. ५ अ.) तथा हरिस्वामी (मा.सं. २१/२६-४० पृ. २३५) का देवयाज्ञिक भाष्य में उल्लेख होने के कारण देवयाज्ञिक इन दोनों से परवर्ती सिद्ध होते हैं।
जयदेवछन्द :-वैदिकप्रकरण
जयदेवछन्दः के कर्ता जयदेव जैन आचार्य प्रतीत होते हैं, क्यों कि भट्टहलायुध ने इनके मत का खण्डन ‘श्वेत पट’ नाम से किया है। अभिनव गुप्त ने इनके मत का उल्लेख अभिनवभारती में किया है। वृत्तरत्नाकर के टीकाकार सुल्हण (रचनाकाल ११६०ई., १२४६ सं.) ने भी ‘श्वेतपट’ के नाम से इनके मत का खण्डन किया है। जैन ग्रन्थकार जयकीर्ति, नमिसाधु तथा हेमचन्द्र इन्हें आदरपूर्वक उद्धृत करते हैं। अतः जयदेव का समय ८५० ई. से अर्वाचीन नहीं हो सकता। आठ अध्यायों में विभक्त ग्रन्थ के प्रथम तीन अध्यायों में वैदिक छन्दों का विवरण जयदेव ने प्रस्तुत किया है। वैदिक छन्दों के विवरण में इन्होंने पिंगल के समान ही प्राग्गायत्री छन्दों का उल्लेख नहीं किया। अतिछन्दों (अति जगती से उत्कृति तक) के नाम भी पिंगलानुसारी है। पिंगल के अनुसार ही जयदेव ने पादसम्पत्ति के लिये इय, उव की कल्पना का निर्देश किया है और उसी के समान इयादिभाव के स्थान का संकेत नहीं किया। किन्तु इसके टीकाकार हर्षट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इय, उव भाव की कल्पना क्यों करनी चाहिये। पिंगलसूत्र के समान ही इसमें भी दैव-आसुर आदि तथा याजुष आदि छन्दोभेद केवल गायत्री आदि प्रथम सप्तक के ही माने गये हैं, अन्य छन्दों के नहीं। जयदेव ने-पुरस्ताज्ज्योतिः त्रिष्टुप् (८+११+११+११४१), १. द्र. २/२६, ३६, ३७, ४६, ४६, ५१, ५७, ५६ आदि। २. द्र. २/६, ६, १८, ५२, ५५, ५६, ५८ आदि ३. पि.सू. १/१० तथा ५/८ पर ४. अभिनव.,१४/८३-८४ (बड़ौदा) तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ६७१ मध्येज्योतिः त्रिष्टुप् (११+११+८+११=४१) तथा उपरिष्टाज्ज्योतिः त्रिष्टुप (११+११+११+c=४१) के लक्षण दिये हैं, किन्तु उदाहरण नहीं दिये। ऐसे ही पुरस्ताज्ज्योतिः जगती (८+१२+१२+१२=४४) मध्यज्योतिः जगती (१२+१२+८+१२=४४) तथा उपरिष्टाज्ज्योतिः जगती (१२+१२+१२+८=४४) के भी उदाहरण नहीं दिये गये हैं। जयदेव ने जैन विद्वान् होते हुए भी वैदिक छन्दों का निरूपण किया, यह शास्त्र-प्रेम का उदाहरण है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि वैदिक-छन्दों के अभाव में अपने छन्दोग्रन्थ की अपूर्णता अथवा एकाङ्गी होने के आरोप से मुक्त होने के उद्देश्य से जयदेव ने वैदिक छन्दों का भी प्रतिपादन किया होगा।
ऋगर्थदीपिका- छन्दः प्रकरण (वेङ्कटमाधव)
वेङ्कटमाधव रचित ऋगर्थदीपिका में ऋग्वेद के प्रत्येक अध्याय के आरम्भ में कारिकाओं के रूप में भाष्यकार द्वारा,स्वर, आख्यात, उपसर्ग, समास, ऋषि, छन्द, देवता-प्रभृति अनेक विषयों पर अपने विचार व्यक्त किये गये हैं। सम्पूर्ण ऋग्वेद में बिखरे हुए वेंकटमाधव के विचारों का एक संग्रह डॉ. कुन्हनराज ने मद्रास विश्वविद्यालय से ऋक्सवीनुक्रमणी के नाम से प्रकाशित किया था। उसी के अन्तर्गत ऋग्वेद के षष्ठ अष्टक के आठों अध्यायों के आरम्भ में व्यक्त किये गये छन्दोविषयक विचारों के संग्रह को छन्दोऽनुक्रमणी का नाम दे दिया गया है। वास्तव में इसे अनुक्रमणी कहना समीचीन नहीं है। वेङ्कटमाधव का स्थितिकाल दशमी शताब्दी ई. में हो सकता है। अपने इस छन्दः प्रकरण की रचना में वेङ्कटमाधव ने ऋक्प्रातिशाख्य, बृहद्देवता तथा निदानसूत्र का आश्रय लिया है’। इन्होंने ऋक्सर्वानुक्रमणी को भी आधार बनाया होगा, यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है। वेङ्कट ने ऋचाओं के पादविभाग को प्रायः अर्थानुरूप करने का सिद्धान्त स्वीकार किया है। पाँच प्राग्गायत्री छन्दों का वेङ्कट ने केवल उल्लेखमात्र किया है, उनका वर्णन नहीं किया है। वेङ्कट ने मुख्य छन्द सात ही माने हैं। द्वितीय सप्तक के अतिच्छन्दों के लक्षण और उदाहरण देकर इन्होंने चौदह छन्दों की स्थिति संहिता में स्वीकार की है, अन्य छन्द दूसरे वेदों में हैं। इस संख्या के विषय में तीन या चार छन्दों
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१. ‘प्रतिशाख्ये निदाने चमा-प्रमा-प्रतिमादयः। नानाविधानि छन्दांसि (ऋग्वेदछअष्टक, अध्याय, पर १३ कारिका) तथा ‘पातञ्जले निदाने तु द्वौ प्रगाथौ प्रदर्शितौ’ (अष्टकंद, अध्यायद, पर का. ६) वि.वै.शोध संस्थान, होशियारपुर, सं. ऋग्वेद। २. ‘तत्रर्चामवसानानि प्रायेणार्थानुरूपतः’ (ऋग. अ.६, अ.८ पर का. ३) ‘पादे पादें समाप्यन्ते प्रायेणार्था अवान्तराः’ (ऋग्.अ.६; अ.पर, का. १५) ३. वेमाछ. ६/१/२६ ४. वेमाछ. ६/५/६
૬૭૨ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र को मानने वालों के मतों का भी उल्लेख यहाँ कर दिया गया है। यद्यपि मुख्य रूप से वेड्कट की कृति का आधार ऋक्प्रा. आदि प्राचीन रचनायें रहीं हैं और इन्होंने अधिकांश स्थलों पर उन्हीं के शब्दों को यथावत् रख दिया है। यथा-व्यूह के विषय में इन्होंने ऋ. प्रा. को अक्षरशः उद्धृत किया है तथा :प्रवर्णो के व्यूह सम्बन्ध में भी ऋक्सर्वानुक्रमणी के विरूद्ध ऋक्पा. का पक्ष स्वीकार किया है तो भी उनका अन्धानुकरण नहीं किया। इनके द्वितीय सप्तक के अति छन्दों के पदों तथा अक्षरों की संख्या का आधार शौनक के नाम से प्रसिद्ध पादविधान है। यह तथ्य वेमा ६ तथ पादविधान की तुलना से स्पष्ट हो जाता ऋप्रा. के समान इसमें भी जगती के तीन भेद माने हैं-जगती, महासतोबृहती, महापंक्ति । ऋप्रा. (१७/२५-२६) के समान वेङ्कट ने भी छन्दों के पादनिर्णय के प्रायः, अर्थ और वृत्त-ये तीन हेतु दिये हैं। इनमें विरोध होने पर पूर्व-पूर्व हेतु बलवान् होता हैं। __इन्होंने ऋक्सर्वानुक्रमणी के समान केवल पाँच प्रगाथ माने है। किन्तु नामों में भेद कर दिया है। इनके अनुसार बार्हत, काकुम, महाबृहतीमुख, यवमध्यान्त और आनुष्टुभ- ये पाँच प्रगाथ हैं । वैदिक छन्दों के तुलनात्मक अनुशीलन की दृष्टि से वेङ्कटमाधव का कार्य उपादेय है।
पुराणों में वैदिक छन्दोविमर्श
वैदिक छन्दों की चर्चा अग्निपुराण, गरुडपुराण, नारदपुराण तथा विष्णुधर्मोत्तरपुराण में उपलब्ध है। किन्तु पुराणों का विषय छन्दोनिरूपण न होने के कारण इन उल्लेखों से सङ्केत-मात्र प्राप्त किये जा सकते हैं।
वैदिकछन्दों के प्रतिपादक अन्य ग्रन्थ
वैदिक छन्दों के सन्दर्भ में पूर्ववर्णित मुख्य छन्दों ग्रन्थों के अतिरिक्त कुछ अन्य छन्दोविषयक रचनाओं में भी वैदिक छन्दों का प्रसंगतः निर्देश मिलता है। जैसे प्राकृतभाषा १. २. ३. ४. वेमाछ. ६/१/५ वे.मा.द. ६/७/२ ऋ.प्रा. १७/२२-२३ वेमाछ. ६/४/१७-२० वैछमी. पृ. १६२ पर उपजगती का एक उदाहरण (ऋग. १,६४,२) वेङ्कट के नाम से लिखा गया हैं वेकट ने तो ‘उपजगती’ का नाम भी नहीं लिया। वहाँ इस मन्त्र के विषय में केवल इतना है कि क्योंकि यह जागत सक्तों में है, अतः यहाँ जगती कही जाती लै विमाछ. ६/४/२-३। वस्तुतः उसे ऋप्रा. में त्रिष्टुप् का भेद माना गया है (ऋकूप्र. १६:६५) वहाँ भी सूक्तानुरोध से ही व्यवस्था की गयी है।) वैमाछ. ६/७/१३ वैमाछ ३/६/६ ५. ६.
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. . mh.r an. . … . . . . . . . .. तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ६७३ में रचित स्वयम्भूकृत स्वयम्भूछन्दः ग्रन्थ यद्यपि पूर्णतः प्राकृत छन्दों का प्रतिपादक है तथापि इस जैन विद्वान ने शक्वरी से आरम्भ कर उत्कृति तक १३ वर्गों मे ६३ वर्णवृत्तों का उल्लेख किया है। यह वैदिक छन्दों के उध्ययन में उपयोगी न होते हुए भी वैदिक प्रभाव का द्योतक है। इसमें वार्णिक एवं मात्रिक छन्दों का विशद विवेचन है। किन्तु संकलन की दृष्टि से यह कुछ अव्यवस्थित प्रतीत होता है। इसकी पाण्डुलिपि के प्रांरभिक २२ पृष्ठ उपलब्ध नहीं है। यह अनुमान किया जासकता है कि प्रारम्भिक पृष्ठों में वैदिक छन्दों का विवेचन रहा होगा। इसका समय ८४७ वि. (सांकृत्यायन) अथवा ईसा की दशम शताब्दी (वेलणकर) माना जाता है। परवर्ती साहित्य में कविकलानिधि पं. श्री कृष्णभट्ट द्वारा प्रणीत वृत्तरत्नावली में भी प्रारम्भ में वैदिक छन्दों का निरूपण है। _ अपने ग्रन्थ के लौकिक छन्दों के विवरण देने के प्रसंग में प्राचीन आचार्यों का मत दिया है। आचार्य ‘सैतव’ का मत अनुष्टुप् के प्रसंग में (५१८), उल्लिखित है। उनके अनुसार अनुष्टुप् के प्रतिचरण में सप्तम वर्ण लघु नियमतः रखना चाहिए। ‘बसन्ततिलका’ वृत्त को आचार्य काश्यप ‘सिंहोन्नता’ (७/६) तथा आचार्य सैतव’ ‘उद्घर्षिणी’ की संज्ञा देते हैं (७/१०)। दण्डक के विवरण-प्रसंग में आचार्य रात तथा आचार्य माण्डव्य के मत का उल्लेख पिंगल में है (७/३५)। प्राचीन आचार्यो के इस समुल्लेख से स्पष्टतः प्रतीत होता है कि लौकिक छन्दों का आविर्भाव पिंगल से अति प्राचीन युग में व्यवस्थित है। आचार्य यादव प्रकाश की प्रथम छन्दः परम्परा का विश्लेषण बतलाता है कि माण्डव्य पिंगल के चार पीढ़ी पूर्व होने वाले आचार्य हैं। इससे लौकिक छन्दों के विवरण का युग पर्याप्तरुपेण प्राचीन सिद्ध हो जाता है। इस प्रसंग में पाणिनि की व्याकरण-अष्टाध्यायी तथा पिंगल की छन्द अष्टाध्यायी के स्वरूप सामान्य का विश्लेषण रोचक सिद्ध होगा। पाणिनीय अष्टाध्यायी की रचना से पूर्व लौकिक संस्कृत के व्याकरण ग्रंथ थे, जो इसकी प्रौढ़ता तथा प्रतिपादन विशदता के कारण अस्तंगत हो गये। उसी प्रकार पिंगलीय अष्टाध्यायी के निर्माण से पूर्व लौकिक छन्दों के व्याख्यानकर्त्ता ग्रंथ थे जो इसकी सुव्यवस्था तथा प्रतिपादन कौशल के कारण अस्तंगत हो गये। ‘षड्गुरुशिष्य के अनुसार पाणिनि अग्रज थे तथा पिंगल उनके अनुज थे। यदि यह परम्परा मान्य हो, तो इस भ्रातृद्वयी का यह कार्य अनेक रूप में समानान्तर था और अपने-अपने शास्त्र के व्याख्यान में पूर्णतया सफल था। इस प्रसंग में एक अन्य तथ्य ध्यातव्य है कि महर्षि पाणिनि ने ‘जाम्बवती विजय’ अथवा ‘पातालविजय’ १. जानाश्रयी छन्दोविचिति (४/७०) के अनुसार आचार्य सैतव इसे ‘इन्दुमुखी’ नाम से पुकारते हैं। २. सर्वानुक्रमटीकायां षड्गुरुशिष्यः-सूत्र्यते हि भगवता पिङगलेन पाणिन्यनुजेन। ६७४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र नामक १८ सर्गों का विस्तृत महाकाव्य का प्रणयन किया था। जिसके कतिपय पद्य ही सक्ति संग्रहों तथा अन्य ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। इसमें स्रग्धरा, शार्दूल विक्रीडित जैसे बड़े वृत्तों में पद्यों का निर्माण है। ‘पाणिनि उपजाति’ वृत्त के सिद्धहस्त कवि थे-इस तथ्य का संकेत क्षेमेन्द्र अपने ‘सुवृततिलक’ में देते हैं। पाणिनि के उपलब्ध पद्यों में उपजाति वाले पद्य सचमुच परम रमणीय तथा मनोहर है। छन्दों का निर्माण एक दो दिनों की घटना नहीं है। वर्षों के प्रयास से उनमें स्निग्धता तथा रमणीयता आयी है। लौकिक छन्दों की इस प्रयोगमयी दिशा से भी विचार करने पर इनका आविर्भाव पाणिनि से प्राचीन काल की घटना सिद्ध होता है। आचार्य पिंगल का ग्रंथ समुपलब्ध लौकिक छन्दों में सर्वप्राचीन है-यही निष्कर्ष निकाला जा सकता हैं।
पौराणिक साहित्य में छन्दः प्रकरण
अग्निपुराण
अग्निपुराण में भी छन्दों का विवेचन आग्नेय छन्दसार’ शीर्षक से हुआ है। अग्निपुराण के ३२८ से ३३५ तक के आठ अध्यायों में क्रमशः परिभाषा, दैवी आदि संज्ञाएँ, पादादि अधिकार, उत्कृति आदि छन्द और आर्या आदि मात्रा-वृत्त, विषमवृत्त, अर्द्धसमवृत्त, समवृत्त प्रस्तार आदि निरूपित है। किंतु यह विवेचन पिंगल के आधार पर माना जा सकता है, क्योंकि अग्निपुराण की इसी पंक्ति से यही संकेत मिलता हैं। छन्दोवक्ष्ये मूलजैस्तैः पिङ्गलोक्तं यथाक्रमम् । (३२८/१) __ अग्निपुराण में वैदिक और लौकिक दोनों प्रकार के छन्दों की चर्चा है। श्लोक में लक्षण दे दिये गये हैं उदाहरण नहीं दिये गये। अग्निपुराण में प्रत्ययों पर भी विचार किया गया है, यद्यपि उनका विवेचन साङोगपांग नहीं हो पाया है। अग्निपुराण के काल के संबंध में इतना तो कहा जा ही सकता है कि इसकी रचना पिंगल के बहुत बाद में हुई होगी। छन्दः शास्त्र के पाठ शोधन तथा प्रक्षिप्त आदि के निर्णय के लिए यह उपयोगी अंश है।
गरुड़ पुराण
गरुणपुराण के पूर्व खण्ड में २०६ से २१२ तक के छः अध्यायों में छन्दों का विषय वर्णित है इसमें क्रम से परिभाषा, मात्रावृत्त, समवृत्त, अर्द्धसमवृत्त, विषम-वृत्त तथा प्रस्तार १. द्रष्टव्य ‘संस्कृत साहित्य का इतिहास’ (अष्टम सं., १६६८) पृष्ट १६१-१६५, तथा ‘सस्कृत सुकवि समीक्षा’ (चौखम्बा, वाराणसी, १६६३) पृष्ठ ३४-४२ (आचार्य बलदेव उपाध्याय) २. स्पृहणीयत्वचरितं पाणिनेरुपजातिभिः। चमत्कारैकसारामिरुद्यानस्येव जातिभिः।। क्षेमेन्द्र ३. चन्द्रमोहन घोष-छन्दः सार संग्रह, भूमिका पृ. ७।। ४. ए.बी.कीथः ए हिस्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर, पृ. ४१६ । ६७५ तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास आदि का वर्णन है। छन्दः शास्त्र में नहीं कहे कुछ वृत्तों के लक्षण भी गरुणपुराण में उपलब्ध होते हैं, वैदिक छन्दों के लक्षण गरुड़ पुराण में नहीं प्रदर्शित है।
विष्णु धर्मोत्तरपुराण
विष्णु धर्मोत्तर के तृतीय खण्उ के अन्तर्गत तीसरे अध्याय में गायत्री से लेकर कृति तक के छन्दो का सामान्य लक्षण बताया गया है, तथा लघु गुरु एवं प्रस्तार की भी चर्चा इसमें है दिङ्मात्रमेतत्कथितं नरेन्द्र, विस्तारजिज्ञासुरतो मनुष्यः। संसाधयेत्तत्स्वधिया यथा वत्सुदुस्तरं विस्तरशो हि वक्तुम् ।। २०।। इस श्लोक द्वारा छन्दः प्रकरण पूर्ण किया गया है।
नारदीय पुराण
नारदीयपुराण में भी छन्दों की चर्चा ५७ वें अध्याय में हुई है। प्रथमतः दो प्रकार के छन्द बताये गये है- वैदिक और लौकिक। पुनः वर्ण और मात्रा के भेद से दो और भेद किये गये, फिर म य र स त ज भ न ग ल- इन छन्दः शास्त्र के दशाक्षरो की चर्चा है, तथा मगण, यगण, रगण, सगण, तगण, जगण, मगण, नगण, गुरु तथा लघु के लक्षण बताये हैं। पाद और यति तथा सम, विषम और अर्द्धसम वृत्तों का लक्षण भी कथित हैं। फिर एक अक्षर में आरंभ कर २६ अक्षरों तक के छन्दों का तथा इससे अधिक के दण्ड को का उल्लेख है। उक्ता, अत्युक्ता, मध्या, प्रतिष्ठा सुप्रतिष्ठा, गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती, अतिजगती, शक्वरी, अतिशक्वरी, अष्टि, अत्यष्टि, घृति, अतिघृति, कृति, प्रकृति, आकृति, विकृति, संस्कृति अतिकृति तथा उत्कृति छंदों के नाम आये हैं। फिर प्रस्तार उद्दिष्ट, नष्ट संख्या आदि प्रत्ययों की चर्चा है। इसका उपसंहार इस श्लोक से किया गया है इत्येतत् किंचिदाख्यातं छन्दसां लक्षणं मुने। प्रस्तारोक्तप्रभेदानां नामानन्त्यं प्रजायते।।२१।।
लौकिक छन्दों के विकास की परम्परा
कतिपय विद्वानों का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है कि लौकिक छन्दों के उद्भव और विकास की परम्परा अज्ञात है अथवा अस्पष्ट है, तथा लौकिक एवं वैदिक छन्दों में मौलिक ADE १. नारदीयमहापुराण, अध्याय ५६/१-२१ २. द्र. वेदाङ्ग पृ. ४६१ डा- कुन्दनलाल शर्मा, संस्कृत शास्त्रों को इतिहास पृ. २६५६७६ X अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र भिन्नता है। वस्तुतः वैदिक ऋचायें ही इन मात्रिक छन्दों के उद्भव का स्रोत हैं। वैदिक ऋचाओं के स्वाध्याय में श्रुतिमाधुर्य तथा अक्षर-मात्रा विन्यास से ज्ञान एवं प्रेरणा करते हुए परवर्ती आचार्यों ने विविध मात्रावृत्तों एवम् अन्य लौकिक छन्दों का लक्षणोपदेश किया है तथा छन्दःशास्त्र का निरन्तर विस्तार किया है। अनेक लौकिक छन्दों के स्रोत मन्त्रभाग भी वैदिक संहिताओं में दृष्टिगोचर होते हैं। कतिपय उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं लौकिक छन्द वैदिक उदाहरण प्रमाणी-हृदिस्मृगस्तु शन्तमः (ऋ. १/१/३१) इन्द्रवज्रा-पूषण्वते ते चकमा करम्भम् (ऋ. ३/३/१८) उपेन्द्रवज्रा स्तुहि श्रुतंगर्तसदं युवॉनम् ( २/७/१८ उपजाति-अभीश्रीयश्क्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृश्रो कुह चिद्दिवेयुः (१/२/१४) शालिनी-इन्द्रासोमा दुष्कृते मा सुगं भूत् (ऋ.५/७/६) वातोर्मि-आ देवानामभवः केतुरग्ने (ऋ. २/८/१६) वंशस्थ-रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवः (ऋ १/७/२४) इन्द्रवंशा-यूना ह सन्ता प्रथमं विजज्ञतुः (ऋ. ७/२/१६) नराच-अथा न इन्द्र सोमया गिरामुपश्रुतिं चर (ऋ. १/१/१६) इसी प्रकार अन्य भी अनेक छन्दों के उदाहरण वैदिक वाङगमय में उपलब्ध होते हैं। अतः लौकिक छन्दों के विकास के मूल उत्स वैदिक मन्त्र ही है यह उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट प्रमाणित होता है। ज्ञातव्य है कि वैयाकरण पतञ्जलि को अनेक पद्य-काव्यों के अतिरिक्त अनेक प्रकार के काव्य-साहित्य का ज्ञान था, जिनमें यवक्रीत, प्रियंगु तथा ययाति की कथा है, वासवदत्ता, सुमनोत्तरा तथा मैमरथी की आख्यायिकाएँ, कंसवध, बलिबन्ध प्रभृति नाटक गिनाये जा सकते हैं। महाभाष्य में ४० ऐसे पद्यांश उद्धृत हैं, जो मालती, प्रहर्षिणी, बसन्ततिलका, प्रमिताक्षरा, इन्द्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा जैसे श्रुति-मधुर छन्दों में उपनिबद्ध हैं। इनका संबंन्ध स्तुति, नीति तथा शृंगार जैसे विषयों से है। महाभाष्य में २६० पद्य ऐसे उद्धृत हैं, जो व्याकरण के विषय का प्रतिपादन करते हैं और जिनमें श्लोक, आर्या, वक्त्रा, जगती तथा विद्युन्माला, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, वंशस्थविल, दोधक तथा तोटक जैसे आलङ्कारिक छन्दों का प्रयोग किया गया है।’ पाणिनि ने ही वृहती, विष्टारवृहती और विष्टारपंक्ति छन्दों की ओर संकेत किया है। कात्यायन के प्राज श्लोकों तथा जालूक श्लोक की चर्चा महाभाष्यकार RANAMASTER १. द्र. सुशील कुमार डे हि.सं. लि. भाग १ पृ. ११.१२ २. पा. ५/४/६, ८/३/६४ . . .
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तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ने की है। इससे यही सिद्ध होता है कि पतञ्जलि के समय तक लौकिक काव्य रचना तथा छन्दः शास्त्र का अनुशीलन दोनों इतने विशाल तथा प्रौढ़ हो चुके थे कि काव्यों में वैदिक छन्दों से बहुत आगे बढ़ कर अनेक प्रकार के ऐसे हृदयहारी छन्दों का प्रयोग होने लगा, जो कवियों की रचनाओं में प्रायः पाये जाते हैं। लौकिक छन्दों का सर्वप्रथम विवरण आचार्य पिंगल ने प्रस्तुत किया-यह कथन यथार्थ नहीं हैं।
पिङ्गलच्छन्दः सूत्र
प्रख्यात शास्त्र ‘पिंगल छन्दः सूत्र’ अथवा पिंगल छन्दः शास्त्र के रचनाकार आचार्य पिंगल हैं सामान्यतः आचार्य पिंगल के देशकाल का यथार्थ परिचय अप्राप्त है। इनके प्रख्यात वृत्तिकार हलायुध ने इस रचना के लिये द्वितीय अभिधान अपनी वृत्ति के अन्त में दिया है। यह ग्रन्थ सूत्रबद्ध है। इसमें आठ अध्याय हैं जिनमें सूत्रों की संख्या क्रमशः इस प्रकार है-१५, १६, ६६, ५३, ४४, ३६, ३४। यह अष्टाध्यायी केवल तीन सौ आठ (३०८ सूत्र) सूत्रों का स्वल्पकाय ग्रन्थ है। परन्तु महत्व की दृष्टि से नितान्त प्रामाणिक तथा अनुपम गौरवमयी हैं इन अध्यायों में आरम्भ के तीन अध्याय तथा चतुर्थ के सात सूत्र वैदिक छन्दों का विवरण प्रस्तुत करते हैं तथा तदवशिष्ट अध्याय लौकिक छन्दों का वर्णन करते हैं। वैदिक छन्दों का वर्णन केवल ६७ सूत्रों में तथा लौकिक छन्दों का २११ सूत्र में हैं लौकिक वृत्त को दो प्रकार के होते हैं। मात्रावृत्त तथा वर्णवृत्त, जिनमें वर्णवृत्त सम अर्धसम तथा विषमभेद से तीन प्रकार का होता है। पिंगल के चतुर्थ अध्याय में मात्रावृत्तों का पंचम, षष्ठ तथा सप्तम में त्रिप्रकारक वर्णवृत्तों का क्रमशः विवरण है। अष्टम में षट्प्रत्यय अर्थात् छन्दों के प्रस्तार आदि भेदों का निरूपण है। इस प्रकार पिंगलसूत्र पारिमाण में अल्प ही हैं। परन्तु इतने स्वल्प अवकाश में वह सम्पूर्ण ज्ञातव्य छन्दों का विवरण प्रस्तुत कर देता है। शास्त्रीय विवेचन उनका सबसे बड़ा वैशिष्ट्य है। __ आचार्य पिंगल के देशकाल का निर्णय प्रमाणों के अभाव में यथार्थतः नहीं किया जा सकता। पिंगल को पाणिनि का अनुज मानने वाली (षड्गुरुशिष्य द्वारा उल्लिखित) यदि अन्य प्रमाणों से परिपुष्ट हो, तो ये भी शालातुर के निवासी तथा विक्रमपूर्व लगभग अष्टशती के ग्रन्थकार माने जा सकते हैं यूरोपीय विद्वान इन्हें ईस्वीपूर्व द्वितीय शती में
१. पिंगलाचार्यरचिते छन्दः शास्त्रे हलायुधः। मृतसञ्जीवनी नाम वृत्तिं निर्मितवानिमाम्।। २. पं. सीताराम भट्टाचार्य सम्पादित हलायुधवृत्ति-सहित पिंगलछन्दः सूत्र की है। कलकत्ता १८३६ शाके। निर्णयसागर प्रेस, बम्बई के संस्करण में छठे अध्याय में ४३ सूत्र होने के कारण कुल ३०७ सूत्र होते हैं। यादव प्रकाश के अनुसार यह संख्या २८८ है तथा भास्करराय के अनुसार ३०० है। … वाक्यसिन्धुरपारोऽपि छन्दःसूत्रशतैस्त्रिभिः । येन वद्धो नमस्तस्मै पिंगलाद्भुतशिल्पिने।। भाष्य राज हस्तलेख से सूत्र्यते हि भगवता पुिगलेन पाणिन्यनुजेन।। सर्वानुक्रमणी टीका ४. पिंगलाचार्य के काल-विवेचन हेतु द्र. पिंगलच्छन्दः सूत्रम्-ए स्टडी प्रो. अशोक चटर्जी कलकत्ता. विश्वविद्यालय से १६८७ में प्रकाशित . . .:. . ६७८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र मानते हैं। परन्तु उससे भी प्राचीन मानने में कोई व्याघात नहीं है। छन्दः शास्त्र से भिन्न शास्त्र के साहित्य में इनका निर्देश गवेषणीय है। शबरस्वामी ने पिंगल का नाम तथा उनके द्वारा निर्दिष्ट सर्वगुरु मगण को अपने भाष्य में निर्दिष्ट किया है।’ पतञ्जलि के महाभाष्य के नवाहिक में एक स्थल पर ‘पैग़ल काण्व’ (आहिक ६, सू. ६३) शब्द का उल्लेख प्राप्त है। जिससे इनका पतञ्जलि से पूर्व कालक्रम निश्चित रूपेण सिद्ध होती है। __ पुराणों में पिंगल नामक नाग का उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलता हैं वामन पुराण में ये प्रातः स्मरणीय आचार्य में आसुरि के साथ निर्दिष्ट किये गये हैं अग्नि पुराण में ३२८ से लेकर ३३५ अध्याय तक आठ अध्यायों में वर्णित छन्दोनिरूपण पिंगल के आधार पर स्वयं पुराणकार ने निर्दिष्ट किया है। __ नारद पुराण छन्दोविवरण भी पिंगलानुसारी हैं। इन पौराणिक उल्लेखों की प्राचीनता निश्चित ही सिद्ध होती है। परन्तु इनके आधार पर इदमित्थं रूप से कथन दुःसाध्य है। इनके देश का पता लगाना और भी दुष्कर कार्य है। पिंगलोक्त छन्दों के दो नामों में भौगोलिक संकेत का आभास मिलता है। अपरान्तिका (४/४१) तथा वानवासिका (४/४३) पिंगल ने अपने वृत्तों के नाम दिये हैं। तत्थतः ये दोनों शब्द अपरान्त तथा वनवास देश के स्त्रीजनों के लिये प्रयुक्त होते हैं। अपरान्त तथा वनवास ये एक दूसरे से संलग्न प्राप्त बम्बई प्रान्त के पश्चिम समुद्रस्थ प्रदेश के कोंकण को सूचित करते हैं। फलतः पिंगल का इस समुद्रस्थ प्रान्त के लिये कोई पक्षपात प्रतीत होता हैं परन्तु यह विद्वानों का अनुमान मात्र है। एक मात्र छंदों पर ही विचार करने वाली प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ पिंगलाचार्य का ‘छंदःशास्त्रम्’ अथवा “पिङ्गलच्छन्दः सूत्रम्” है। इसमें वैदिक के साथ लौकि छंदों का विवेचन इदम्प्रथमतया विशद रूप से हुआ है। इस कारण यह परवर्ती ग्रन्थों का उपजीव्य है। __पिंगलाचार्य के छंदः सूत्र में छंदः शास्त्र का अधिकारपूर्ण और वैज्ञानिक विवेचन हुआ है। पाश्चात्त्य विद्वान् मैकडानल ने लिखा है कि ‘वैदिक काल के बाद के छंदों का अत्यन्त प्रामाणिक विवेचन इसी छंदःशास्त्र में उपलब्ध है। वैदिक छंदों का अध्ययन भी किया गया है। यद्यपि इसे वेदांग कहा गया है, फिर भी यह बहुत बाद की चीज है, जिसका उद्देश्य प्रधानतया बाद के ही छंदों का विवेचन है। १. यथामकारेण पिंगलस्य सर्वगुरुस्त्रिकः प्रतीयेत।। शावरभाष्य १/१५ २. सनत्कुमारः सनकः सनन्दनः। सनातनोऽप्यासुरि पिङ्गलौ च।। वामन पु. १४/२४ ३. छन्दो वक्ष्ये मूलजैस्तैः पिङ्गलोक्तं यथाक्रमम्।। अग्नि पुराण ३२८/१ ४. Arthur A. Macdonell- A History of Sanskrit Literature, P.267. …… .- ….za ६७ तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास
पिंगलाचार्य का देश-काल
पिंगलाचार्य का समय कीथ के अनुसार २०० ई. पूर्व के लगभग माना जा सकता हैं’ भारतीय परम्परा से पिंगलाचार्य पौराणिक व्यक्ति तथा शेषानाग से अभिन्न माने जाते है। हलायुधवृत्ति सहित ‘पिङ्गच्छन्द सूत्र’ के आरम्भ में ही यह उल्लेख है, जिसमें पिंगल को नाग कहा गया है
श्रीमतपिङ्गलनागोक्तच्छन्दः शास्त्रमहोदधौ। वृत्तानि मौक्तिकानीव कानिचिद्विचिनोम्यहम्।।’ प्राकृत पैङ्गलम्, मुरलीधर कवि भूषणकृत ‘छंदोहृदय प्रकाश’ तथा भिखारीदासकृत ‘छंदोर्णवपिङ्गल’ में पिंगल को शेषनाग से अभिन्न मानते हुये एक मनोरंजक कथा की ओर निर्देश किया गया है। इस सम्बन्ध में जो कथा वही जाती है, वह इस प्रकार है एक बार शेषनाग जलराशि से बाहर निकलकर धरती पर बसन्त के प्रभात की धूप और हवा का आनन्द ले रहे थे। इसी समय भगवान् विष्णु के वाहन और शेष नाग के शत्रु गरुड़ वहाँ आ पहुँचे। अच्छा मौका जान उन्होंने शेषनाग को पकड़ लिया। पहले तो शेषनाग घबराये, किन्तु फिर उनकी बुद्धि ने काम किया । उन्होंने गरुड़ से कहा कि इस संसार में छंदःशास्त्र के जानकार केवल मैं ही हूँ। यदि गरुड़ उन्हें खा जाते, हैं तो संसार से छंदःशास्त्र का लोप हो जायगा और फिर कोई भी व्यक्ति उसकी जानकारी नहीं प्राप्त कर सकेगा। गरुड़ से उन्होंने प्रार्थना की कि यदि उन्हें खाना ही है तो खा लें, किन्तु इसके पहले उन्हें छंदःशास्त्र के वर्णन का पूरा अवसर दें, जिसमें कम से कम गरुड़ जी छंदःशास्त्र की जानकारी प्राप्त कर लें। गरुण इस शर्त पर तैयार हो गये कि छंदःशास्त्र का वर्णन समाप्त होते ही शेषनाग भाग खड़े न हों। शेषनाग ने कहा कि वे विना पूर्व सूचना दिये नहीं भागेंगे। गरुड़ ने उन्हें छोड़ दिया। छंदःशास्त्र का वर्णन शेषनाग ने इतनी सुन्दर रीति से किया कि गरुड़ मन्त्रमुग्ध हो गये। भागने का अच्छा अवसर देख शेषनाग ने चार बार ‘भुजङ्ग प्रयातम्’ का उच्चारण किया और जल में कूद पड़े। गरुड़ ने जब यह धोखा देने का आरोप लगाया तो शेषनाग ने कहा कि वे ‘भुजङ्गप्रयात’ पद द्वारा इस नाम के छंदोविशेष के वर्णन के साथ इसकी सूचना भी दे रहे थे कि वे आ जा रहे हैं। 9. A.B.keith- A history of sanskrit literature, P. 415. २. पिलच्छन्दःसूत्रम् (हलायुधवृत्तिसहितम्) प्रथमोऽध्यायः, श्लोक १ ३. प्राकृत पैंगलम् (मंगलाचरण) ६८० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र शुक्लयजुर्वेद के शतपथब्राह्मण में पैंग ऋषि का उल्लेख है। इसकी के वंश में यास्क पैंगी का जन्म हुआ था। संभवतः, पिंगलाचार्य का जन्म भी इसी वंश में हुआ हो, ऐसा वेबर ने अनुमान किया है। परन्तु वेबर ने पिंगलाचार्य को भरत से परवर्ती बतलाया है। तथापि इतना तो कहा ही जा सकता है कि पिंगल का समय काफी प्राचीन है, क्योंकि उन्होंने वे ही छंद अपने ग्रन्थ में लिये हैं, जो पर्याप्त प्रचीन हैं। प्रथम शतक ई. पू. के लगभग लौकिक छंदों का जितना विकास हो चुका था, उसका परिचय पिंगल के ग्रंथ से नहीं मिलता। सूत्रशैली में रचना भी ग्रंथ की प्राचीनता का द्योतक है। भरतकृत नाट्य शास्त्र से तुलना करने पर स्पष्ट हो जाता है कि पिंगल का विवेचन अधिक प्राचीन है यह कुछ विद्वानों का मत है। अतएव पिंगल का काल द्वितीय शताब्दी ई. पू. के पूर्व मानाना अनुचित न होगा। कोलबुक ने पिंगल और पतंजलि को एक ही व्यक्ति माना है। और कहा है, पिंगल ने ही पंतजलि के नाम से पाणिनि के व्याकरण पर भाष्य और योगानुशासन की रचना की। किन्तु ऐसा मानने के पक्ष में पर्याप्त कारण नहीं हैं। इतना तो असन्दिग्ध है कि पिंगल के ग्रन्थ का समय अत्यन्त प्राचीन हैं।
पिंङ्गलछन्दःसूत्र का विषयक्रम
पिंगल के ‘छन्द शास्त्र’ का विवेच्य विषय आठ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में म य र स त ज भ न ग और ल-इन छंदः शास्त्र के दशाक्षरों का वर्णन, गणविचार तथा गुरुलघुलक्षण दिये गये हैं। द्वितीय अध्याय में गायत्री तथा अन्य छंदों का विवेचन तथा उनके विविध भेदों के उल्लेख हैं। तृतीय अध्याय में छंदः पाद का विचार है। एक पाद में प्रयुक्त विभिन्न छन्दों की अक्षर-संख्याओं का निर्देश है। गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, जगती आदि छंदों के पाद-लक्षण दिये गये हैं। चतुर्थ अध्याय में सात सूत्रों में उत्कृति आदि वैदिक छंदों की चर्चा के पश्चात् आठवें सूत्र से लौकिक, अर्थात् लोक के बीच प्रयुक्त आर्या, वैतालीय तथा मात्रासमक का सभेद विवेचन हैं। अंत में चूलिका छंद की चर्चा है। ये छंद मात्रिक हैं और इनके लक्षण-निर्देश के लिये या तो चातुर्मात्रिक गण का प्रयोग हुआ है मात्रासंख्या, लघुगुरु-निर्देश आदि का सहारा लिया गया है। किन्तु द्रष्टव्य है कि इस प्रसंग में ‘मात्रा’ शब्द का प्रयोग न कर पिंगल एक मात्रा के लिये ‘ल’ का प्रयोग करते हैं। यहाँ ‘ल’ का अर्थ ‘एक मात्रा’ है, लघुवर्ण नहीं। पूरे ग्रन्थ में मात्रिक छंदों की चर्चा चतुर्थ अध्याय के इन्हीं ४५ सूत्रों में हैं। पंचम अध्याय में सम, अर्द्धसम और विषम वृत्तों के लक्षण और समानी या नराच, वितान, पथ्या, चपला, विपुला, आपीड, प्रत्यापीड, मंजरी, लवली, अमृतधारा, उद्गता, । Rotorchendemeania १. वेबर का भारतीय वाङ्मय का इतिहास , पृ.४६ / A History of Indian literature २. पिं ४/८-५३
… …alig ६५१ तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास सौरभग, ललित, उपस्थित, प्रचुपित, शुद्धविराऋषभ, द्रुतमध्या, वेगवती, भद्राविशत्, केतुमती, आख्यानिकी, विपरीताख्यानिकी, हरिणप्लुता, अपरवक्त्र, पुष्पिताग्रा, यमवती, शिखा, खञ्जा आदि वृत्तों के लक्षण वर्णित हैं। षष्ठ अध्याय में तनुमध्या, कुमारललिता, माणवकाक्रीडितक, चित्रपदा, विद्युन्माला, हंसरुत, भुंजगशिशुभृता, हलसुखी, शुद्धविराट्, पणव, रूकावती, मयुरसारिणी, मत्ता, उपस्थिता, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, दोधक, शालिनी, वातोर्मि, अमरविलासिता रथोद्धता, स्वागता, वृंता, श्येनी विलासिनी, वंशस्थ, द्रुतविलम्बित, तोटक, पुट, जलोद्धतगति, कुसुमविचित्रा, तत, चंचलाक्षिका, भुजंगप्रयात, स्रग्विणी, प्रमिताक्षरा, कान्तोत्पीडा, वैश्वदेवी, वाहिनी और नवमालिनी, नामक छंदों के लक्षण आये हैं। सप्तम अध्याय में प्रहर्षिणी, रूचिरा, मत्तमयूर, गौरी, असम्बाधा, अपराजिता, प्रहरणकलिका, बसन्ततिलका, उद्धर्षिणी, चन्द्रावत, माला, मणिगुणनिकर, मालिनी, ऋषिगणविलसित, हरिणी, पृथ्वी, वंशपत्रपतित, मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, कुसुमितलतावेलिता, शार्दूलविक्रीडित, सुवदना, वृत्त, स्रग्धरा, भद्रक, अश्वललित, मत्ताक्रीड़ा, तन्वी, क्रौंचपदा, भुजंगविजृम्भित, अपवाहक आदि छंदों के तथा दण्डको के लक्षण दिये गये हैं। अष्टम अध्याय में कुड्मलदंती, वरतनु, जलधरमाला, गौरी, ललना, कनकप्रभा, कुटिलगति, वरसुन्दरी, कुटिला, शैलशिखा, वरयुवती, अतिशालिनी, अवितथ, कोकिलक, विवुधप्रिया, नाराचक, विस्मिता, शशिवदना आदि छंदों के लक्षण दिये हैं, पुनः प्रस्तार-निरूपण, संख्या जानने की विधि आदि बातें दी गई हैं। _ ‘पिंगलच्छंदःसूत्र’ संस्कृत-छंदः शास्त्र का प्रथम उपलब्ध सुशृखंल ग्रंथ हैं। अतएव उसके विभिन्न अध्यायों के वक्तव्य विषय को ध्यान में रखना छंदःशास्त्र के विकास के अध्ययन ही दृष्टि से उपादेय सिद्ध होगा। अष्टम अध्याय में गाथा आदि उन छंदों को कहा गया है, जो छंदःशास्त्र में वर्णित नहीं, पर काव्य में प्रयुक्त देखे गये हैं
अत्रानुक्त गाथा
संस्कृत भाषा में निबद्ध पिंगल के ‘छंदःशास्त्र’ में छंदों के लक्षण-निरूपण के लिये सूत्र शैली का उपयोग हुआ है। छंदों के सूत्रगत लक्षणमात्र दिये गये हैं, उदाहरण नहीं दिये गये है। वर्णवृत्त के लक्षण में वार्णिक गण का उपयोग हुआ है, जिनके निर्देश के लिए छंद शास्त्रीय दशाक्षर (य म त र ज भ न स ल ग) प्रयुक्त हुये हैं। मात्रिक छंदों में आर्या-लक्षण-सिद्धि के लिये केवल चातुर्मात्रिक गण प्रयोग में आये हैं, अन्य मात्रिक गणों को पिंगल ने स्वीकृति नहीं दी। वर्णवृत्तों का वर्गीकरण सम, अर्द्धसम और विषम रूप में १. पि. ८/१ प. SEAR ६५२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र तथा मात्रिक छंदों का आर्या, वैतालीय और मात्रासमक प्रकरणों के अन्तर्गत द्रष्टव्य है। मात्रिक छंदों के विकास की दृष्टि से भी इस ग्रंथ का महत्त्व कम नही है। क्योंकि आर्या, वैतालीय तथा मात्रासमक वर्ग के छंदों का सभेद लक्षणनिर्देश इस ग्रंथ में पहली बार स्पष्टतः हुआ प्रतीत होता है। इस प्रकार, मात्रिक छंदों की चर्चा करने वाला प्राचीनतम ग्रंथ पिंगल का ‘छंदःशास्त्र ही है। छंदःशास्त्रीय विवेचन के प्रसंग में ‘पिंगल’ एक व्यक्ति का नाम न रहकर ‘छंदशास्त्र’ का पर्यायवाची बन गया है। आगे चलकर प्राकृत में जब लोक प्रचलित छंदों के विवेचन के लिये एक वृहत लक्षण ग्रंथ की रचना हुई, तब उसका नाम भी ‘प्राकृत पिंगलसूत्राणि’ रखा गया। इस बात से भी छंदःशास्त्र- परंपरा के बीच उसके आदि आचार्य कहे जाने वाले पिंगल का महत्व स्पष्ट हो जाता है। सम्प्रति लौकिक संस्कृत के छन्दों का तो विशेष रूप से यह आधार ग्रन्थ माना जाता है।
पिङ्गलाचार्य के सम्बन्ध में अन्य ऐतिहासिक मत तथा जनश्रुतियाँ
पञ्चतन्त्र में उद्धृत कथन से ज्ञात होता है कि समुद्रतट पर छन्दोज्ञान के निधि पिंगलको मकरने मार डाला था। इससे आचार्य पिंगल पश्चिम समुद्र के तीर पर निवास करने वाले आचार्य थे, यह संभावना की जा सकती है। आचार्य पिङ्गलने किस स्थान पर जन्म लिया इसका विवरण कुछ प्रमाणिक रूप से ज्ञात नही हैं। इनके-काल के सम्बन्ध में भी इतिहासकारों में विभिन्न मत हैं। व्याकरण शास्त्र के इतिहास-लेखक पं. युधिष्ठिर मीमांसक मानते हैं कि यास्क, शौनक पाणिनि, पिङ्गल, कौत्स ये सभी प्रायः समकालिक ही है। उनके मत से इनके स्थिति काल में अल्प ही अन्तराल प्रतीत होता है। युधिष्ठिर मीमांसक विक्रम वर्ष से २८०० वर्ष पूर्व ही इनकी स्थिति मानते हैं। कुछ विद्वान् यह भी कहते है कि पिङ्गलाचार्य पाणिनि के मामा थे। किन्तु युधिष्ठिर मीमांसक इन्हें पाणिनि का अनुज मानते है। कुछ विद्वानों के मत से ये सम्राट अशोक के गुरु थै। यह मत वाचस्पति गौरोला का है। किन्तु पाणिनीय शिक्षा की शिक्षा प्रकाश टीका के अनुसार श्री पिङ्गलाचार्य पाणिनि के अनुज थे। ये ही विचार कात्यायन रचित ऋक् सर्वानुक्रमणी के वृत्तिकार षड़गुरु शिष्य के भी हैं। __इससे यह स्पष्ट होता है कि पाणिनि का स्थितिकाल ही पिङ्गलाचार्य का भी स्थितिकाल जानना चाहिए। १. छन्दों ज्ञाननिथिं जधान मकरो वेलातटे पिङ्गलम्। पञ्चतन्त्र २/२६ २. संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास पृ. १३६, १४० ३. द्र. संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ. ६२८ तथा India as known to pononi P..456-475 ….maaman-minumericaneminimasminummmmmm mmarARATEmirar a m meep-gm.mar Mad तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ६८३ पाणिनि के स्थितिकाल के सन्दर्भ विभिन्न विद्वानों के मत इस प्रकार हैं पं. सत्यव्रत सामश्रमी २४०० ई.पू. राजवाड़े और वैद्य ६००-८०० ई. पू. बेलबलकर ७००-६०० ई. पू. भन्डारकर ७००- ई.पू. मैक्डोनल ५०० ई. पू. मैक्समूलर ३५० ई. पू. कीथ ३०० ई० पू. प्रो. वासुदेव शरण अग्रवाल ४८० ई.पू. इत्यादि। इस प्रकार पिंगल के विषय में शेष सब पाणिनि के अनुसार ही समझना चाहिए यह अनेक विद्वानों का मत है।
पिंगलछन्दःसूत्र की टीकासम्पत्ति
__ आचार्य पिङ्गल के छन्दःसूत्र पर अनेक विद्वानों ने वृत्ति, टीका तथा व्याख्या आदि की रचना की है। अपनी विशिष्ट व्याख्या सम्पत्ति के कारण पिंगलछन्दःसूत्र का विद्वत्समाज में आदर प्रमाणित होता है। इसकी प्रकाशित, अप्रकाशित व्याख्याओं में से कतिपय का संस्करण आदि परिचय उल्लिखित हैं १. भट्ट हलायुधकृत वृत्ति अत्यन्त प्रख्यात है। इस वृत्ति का नाम मृत सञ्जीवनी है। इसका बङ्गानुवाद के सहित सम्पादन श्री सीतानाथ सामाध्यायी भट्टाचार्य ने किया है तथा टिप्पणियां भी दी हैं। यह प्रथम संस्करण छात्रपुस्तकालय कलकत्ता से १८३५ शकाब्द में प्रकाशित हुआ हैं। पिङ्गलनाग छन्दोविचिति भाष्य के प्रणेता प्रसिद्ध रामानुजसम्प्रदाय के विद्वान् यादव प्रकाश है। यादव प्रकाश के सम्बन्ध में परिचय पृथक प्रस्तुत किया गया है। भास्कर राय ने पिंगल छन्दःसूत्रों पर भाष्यराज की रचना की है। भास्कर राय का परिचय पृथक् प्रस्तुत किया गया है। श्री जीवानन्द विद्यासागर भट्टाचार्य ने पिंगलछन्दःसूत्र पर सुखबोधिनी नामक विस्तृत संस्कृत टीका की रचना की है। कलकत्ता से १६२४ में इसका प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ है। अनन्तशर्मा धूपकर न ‘विशल्यकरणी’ नामक संस्कृत में विशिष्ट टिप्पणी पिंगल छन्दःसूत्र पर लिखी है। इसमें अन्य छन्दोग्रन्थों की तुलना भी प्रस्तुत की गयी है। यह निर्णय सागर प्रेस से काव्यमाला ग्रन्थमाला के अन्तर्गत ६१ संख्या से १६३८ में प्रकाशित है। …. CH - tttit . .. .. . ६६४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ६. लक्ष्मीधर निर्मित पिंगल टीका का उल्लेख ‘वृत्तरत्नाकरादर्श’ में हैं। एतदर्थ गोडे स्टडीज इन इंडियन लिटरेरी हिस्ट्री (भाग-१ पृ. ४६४) द्रष्टव्य है। ७. वार्तिक राज नाम से भी पिंगलसूत्र की संस्कृत व्याख्या का उल्लेख मिलता है। सखाराम भट्ट ने ‘छोटीवृत्ति’ नाम से पिंगल सूत्रों की टीका की थी। परन्तु यह उपलब्ध नहीं हुई। इसका उल्लेख ‘विशल्यकरणी’ की भूमिका में किया गया है। ६. कतिपय विद्वानों ने इस छन्दोग्रन्थ की चौदह टीकाओं की सूचना दी हैं’ किन्तु इनका विवरण अप्राप्त है। १०. वंशीधर कृत पिंगलसूत्र टीका का भी उल्लेख प्राप्त होता है। ११. राजेन्द्र दशावधान भट्टाचार्य ने पिंगलछन्दः सूत्र की व्याख्या की है। इसका नाम ’ ‘पिङ्गल तत्त्वप्रकाशिका है।
भरतनाट्य शास्त्र -छन्दो विचिति
नाटयशास्त्र के आद्य आचार्य भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र के दो अध्यायों में छन्दों का निरूपण किया है। काशीकाले संस्करण में नाट्यशास्त्र के १५ तथा १६ अध्यायों में छन्दशास्त्र का पर्याप्त सुन्दर वर्णन है। नाट्य के प्रसंग में छन्दों का निरूपण अनिवार्य ही है, क्योंकि नाटक में वृत्तात्मक पद्यों का अस्तित्व है। भरत की दृष्टि व्यावहारिक है। फलतः नाट्यव्यवहार को लक्ष्य में रखकर ही उनका यह छन्दोविवरण समञ्जस होता है। १५ वें अध्याय में वृत्तों का सामान्य विवेचन है तथा १६ वें अध्याय में वृत्तों का लक्षण तथा उदाहरण दिया गया है। भरत अष्ट गणों से परिचित हैं (१५/८४-८८) तथा उनके नाम भी वे ही पिंगल सम्मत भगण आदि हैं। परन्तु छन्दों के लक्षण देते समय भरत लघु-गुरू पद्धति का ही आश्रयण करते हैं। प्रतीत होता है कि इस पद्धति के ये ही प्रतिष्ठापक अथवा परिवर्धक है। उदाहरण सब स्वविरचित हैं और उनमें उन छन्दों के भी नाम गुद्रालंकार द्वारा निर्दिष्ट है जिनके वे उदाहरण दिये गये हैं। यह भी प्रकार भरत की ही मौलिक सूझ प्रतीत होता है। सभी छन्दों के लक्षण संस्कृत में कारिकाबद्ध हैं। ध्रुवा के निरूपण के प्रसङ्ग में विवेचित छन्दों के उदाहरण प्राकृत भाषा में हैं। रसों की दृष्टि से छन्दों के नित्यसम्बन्ध को भी प्रदर्शित किया गया है। सोलहवें अध्याय के अन्त में यह शास्त्र ‘छन्दोविचिति’ नाम से निर्दिष्ट है। __ आचार्य पिंगल का नाम यहाँ निर्दिष्ट नहीं है। अतः यह मत प्रतिष्ठित नहीं माना जा सकता कि भरत का वर्णन पिंगल से परवर्ती है। पाश्चात्त्य विद्वान वेबर ने तो पिंगल को १. द्रष्टव्य- मात्रिक छन्दों का विकास पृ. ३८ २. द्र. मात्रिक छन्दों का विकास पृ. ३५ HOME10 तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ६८५ भरत से परवर्ती माना है। निर्णयसागर से प्रकाशित नाट्यशास्त्र में वृक्षों के लक्षण में गणीय पद्धति व्यवहृत है। ऐसी परिस्थिति में यह कहना नितान्त दुर्गम है कि भरत ने मूलतः छन्दोलक्षण विन्यास में किस पद्धति को अपनाया था। यतः भरत मुनि का छन्दोविवेचन मात्र नाटय-व्यवहार के उपयोग के लिये है। अतः यहाँ वैदिक छन्दों का विवेचन नहीं किया गया है। श्लोकों में छन्दोलक्षण तथा श्रङ्गाररस और नायिकाओं से सम्बन्ध रखनेवाली पंक्तियों के रूपमें इन छन्दों का क्रमशः उदाहरण दिये गये हैं। भरतमुनि ने प्रत्ययों पर विचार नहीं किया है।
बृहत्संहिता (छन्दोविवेचन)-वराहमिहिर
वराहमिहिर कृत ‘वृहत्संहिता नानाविध विद्याओं के लिए तथ्यतः विश्वकोश ही है। इसमें ज्योति षशास्त्र का विषय है, परन्तु अनेक उपयोगी विषयों का संकलन उसकी उपादेयता का प्रधान चिह्न है। इसी ग्रन्थ के एक सौ तृतीय अध्याय में (१०३) वराहमिहिर ने इस ग्रह-गोचराध्याय में गोचरों का वर्णन नाना छन्दों में किया है, और मुद्रालंकार के द्वारा वृत्त का भी निर्देश कर दिया है। वराहमिहिर (षष्ठशती) ने किस ग्रन्थ के आधार पर यह छन्दों निर्देश किया है यह कहना कठिन है। भट्टोत्पल ने इस की वृत्ति की है। आचार्य भट्टोत्पल ने इस अध्याय की वृत्ति में मूलकारिका में संकेतित वृत्त का लक्षण बड़े विस्तार से प्राचीन लक्षणों को उद्धृत करते हुए किया है। उद्धरणों के स्रोत का पता नहीं चलता, परन्तु यह सुव्यवस्थित छन्दोग्रन्थ प्रतीत होता है। वराहमिहिर के अनुसार प्रस्तार जनित छन्दों के विस्तार को जानकर भी इतना ही कार्य होता है। अतएव उन्होंने इस अध्याय में ‘श्रुतिसुखदवृत्त संग्रह’ कर दिया। श्रुति-कटुवृत्तों के ज्ञान से लाभ ही क्या होता है। विभिन्न काव्य-नाटकों आदि में प्रयुक्त प्रायः ६४ छन्दों का इन्होंने ग्रहण किया है। इस ग्रन्थ से चतुर्थ-पंचम शताब्दी में छन्दों विचिति के विस्तार का संकेत मिलता है। मात्रावृत्त तथा वर्णवृत्त मिलाकर लगभग ६० छन्दों के लक्षण भट्ट उत्पल की व्याख्या में संगृहीत है। भट्टोत्पल का काल इतिहासकारों ने नौंवी शताब्दी माना है। वराहमिहिर का काल छठी शताब्दी (प्राय ५५० ई.) माना जाता है। वराहमिहिर का यह छन्दोविवेचन नाटयशास्त्र के बाद तथा जयदेवच्छन्दोविवेचन के पूर्व के मध्यवर्ती काल में छन्दश्शास्त्र की अक्षुण्ण परम्परा का प्रमाण है। १. द्रष्टव्य नाट्यशास्त्र काशी चौखम्बा सं. १६ अ. जिसकी याद टिप्पणी में निर्णयसागर का पाठ भी दिया गया है। इसका नवीन संस्करण सरस्वती भवन ग्रन्थमाला में संस्कृत विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित हुआ है, वाराणसी १६६८ ई.। ३. विपुलामपि बुद्ध्वा छन्दोविचितिं भवति कार्यमेतावत्। श्रुतिसुखंद वृत्तसंग्रहमिममाह वराहमिहिरोऽतः।।-
.-.———– ६८६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
छन्दोविचिति-जनाश्रय
आचार्य पिङ्गल की ही परम्परा में जानाश्रयी छन्दोविचिति नामक छन्दोग्रन्थ का प्रणयन हुआ। यह ग्रन्थ सूत्रात्मक है और छः अध्यायों में विभक्त हैं। प्रथम अध्याय में छन्दः शास्त्र की दृष्टि से जनाश्रय द्वारा गृहीत पारिभाषिक शब्दावलि विवेचित है। यह सम्स्त स्वतन्त्र पारिभाषिकी संज्ञायें है। द्वितीय में विषम वृत्तों का, तृतीय में अर्ध-समवृत्तों का, चतुर्थ में समवृत्तों का तथा पञ्चम में पैतालीस-मात्रासमक-आर्या नामक त्रिविध जातिछन्दों का विवरण दिया गया है। षष्ठ अध्याय प्रस्तार-विषयक है। वृत्तिकार का कथन है कि ग्रन्थकार ने पिङ्गल आदि की धन्दोविचितियों में यथासम्भव न्यूनातिरेक का परीक्षण तथा परिहार कर इस नवीन ग्रन्थ का प्रणयन किया है। फलतः पिङ्गल की परम्परा तो निश्चित है, परन्तु उसमें कुछ भेद भी है। प्रधान भेद यह है कि पिङ्गल ने तीन वर्णो के आठ गण (मगणादि) ही माने है। परन्तु जनाश्रय ने १८ गण स्वीकार किये हैं। वैदिक छन्दों का यहाँ तनिक भी निर्देश नहीं है। जनाश्रय द्वारा प्रणीत छन्दोविचिति के सूत्रों के ऊपर एक सु-बोधवृत्ति भी है, जिसमें प्राचीन काव्य-ग्रन्थों से श्लोक उदाहरण के लिए उद्धृत किये गये हैं। सूत्रकार तथा वृत्तिकार के परिचय के विषय में सन्देह हैं। दोनों को भिन्न मानना ही प्रामाणिक प्रतीत होता है। परवर्ती युग के लेखकों ने कभी सूत्रों को और कभी उसकी वृत्ति को भी ‘जानाश्रयी छन्दोविचिति’ के नाम से उद्धृत किया है। सम्भवतः यह दोनों का सम्मिलित अभिधान था। सूत्रों का प्रणेता कोई जनाश्रय उपाधिधारी राजा था, जिसका व्यक्तिगत नाम माधव वर्मा (प्रथम) बतलाया जाता हैं। यह विष्णुकुण्डि वंश का राजा था जिसने कृष्णा और गोदावरी जिलों पर षष्ठशती के अन्तिम चरण में शासन किया। इसका शासनकाल ५८०-६२० ई. माना जाता हैं। प्रथम वृत्तिकार इनके आश्रय में रहनेवाले गणस्वामी नाम के पण्डित थे। उपलब्ध वृत्ति इसी वृत्ति की व्याख्या अपने को बतलाती है। ग्रन्थ के आरम्भ में जनाश्रय की यह स्तुति उनकी धार्मिकता तथा प्रभुता की विशद प्रशस्ति है स भूपतिरूदारथीर्जयति सम्पदेकाश्रयो जनाश्रय इति श्रिया वहति नाम सार्थं विभुः। १. वृत्ति-सहित इसका प्रकाशन दो स्थानों से हुआ है- क) अनन्तशयन से १६४८ में अनन्तशयन ग्रन्थमाला सं १६३, ख) रामकृष्ण कवि द्वारा सम्पादित तिरूपति से प्रकाशित १६५०, श्री वेंकटेश्वर प्राच्यग्रन्थमाला सं २०) २. ‘भाहेति समानम’ सूत्र २/३ की दो व्याख्यायें दी गयी हैं। ४३ तथा ५४३ सूत्र की वृत्ति में भी द्वैविध्य हैं। यह दोनों की भिन्नता होने पर ही सम्भव है। ३. द्रष्टव्य वृति का आरम्भ पृ.१। ६५७ तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास मखैरूरूभिरद्भुतैर्मधवता जयश्रीरपि जिता विजितशत्रुणा जगति येन रूद्धा चरत्।। जनश्रय की ही छन्दःशास्त्रीय आचार्यों में गणना होने से उन्हें इसका कर्ता मानना उचित है। वृत्ति में उद्धृत श्लोकों से भी ग्रन्थ के पूर्वोक्त निर्माणकाल की पुष्टि होती है। वृत्तिकार ने कालिदास, भारवि, कुमारदास अश्वघोघ के पद्यों को उद्धृत किया हैं। जानकीहरण के दो पद्य (११३० तथा ११३७) यहाँ उद्धृत हैं। इन उद्धरणों से इस ग्रन्थ का समय ६०० ई. के आस-पास मानना उचित प्रतीत होता है।
जयदेवच्छन्दः
जनाश्रय के समकालीन अथवा किम्चित् पश्चाद्वर्ती जयदेव एक प्रौढ़ छन्दःशास्त्री हुए जिनका ग्रन्थ उन्ही के नाम पर ‘जयदेवछन्दः’ के नाम से प्रसिद्ध है। ये प्राचीन आचार्य हैं, क्योंकि १००० ई. तथा उसके पश्चात् होने वाले ग्रन्थकारों ने उनके मत का उल्लेख किया है। पिंगल के टीकाकार भट्टहलायुध ने इनके मत का खण्डन दो स्थानों पर किया है। (पि. सू. १/१० तथा ५/८) यहाँ इनका उल्लेख, सम्भवतः उपहास के निमित ‘श्वेतपट’ (श्वेताम्बरी जैन) नाम से किया है। अभिनवगुप्त ने इसी शताब्दी में इनके मत का उल्लेख अभिनवभारती में किया है। वृत्त रत्नाकर का टीकाकार सुल्हण जिसकी टीका का निर्माणकाल सं. १२४६ (ई. ११६०) है, श्वेतपर के नाम से जयदेव का मत का खण्डन करता है। जैन ग्रन्थकारों ने विशेष रूप से जयदेव के मत को उद्धृत किया है और इन्हें पिंगल के समकक्ष मान्यता तथा आदर देने के वे पक्षपाती प्रतीत होते हैं। अतः इनकी ख्याति प्राचीन युग में विशाल थी- इसका परिचय इन उल्लेखों तथा संकेतों से स्थिर किया जा सकता है। यह जैनमतावलम्बी प्रतीत होते हैं। भट्ट हलायुध तथा सुल्हण के द्वारा ‘श्वेतपट’ शब्द से निर्देश इनके जैनी होने का निश्चित प्रमाण है। जैनग्रन्थकार जयकीर्ति, नमि साधु, तथा हेमचन्द्र आदि द्वारा उद्धृत करना तथा आदर देना भी इस संकेत को पुष्ट करता है। यही कारण है कि वृत्ररत्नाकर के समान सुव्यवस्थित ग्रन्थ होने पर भी इनका ग्रन्थ सर्वसाधारण वैदिक विलम्बियों में लोकप्रिय तथा समाहृत न हो सका। यद्यपि इन्होंने वैदिक छन्दों का भी विवरण विधिवत् दिया है। हर्षट का समय ६५० ई. के आसपास है Mortinut १. ' ’ ‘- जयकीर्ति (११३५ई.) ने अपने छन्दोऽनुशासन में इनका उल्लेख किया है माण्डव्यपिङ्गल-जनाश्रय-सैपताख्यश्रीपादपूज्य- जयदेव- बुधादिकानाम् । छन्दांसि वीक्ष्य विविधानपि सत्प्रयोगान, छन्दोजुशासनमिदं जयकीर्तिनोक्तम्।। अधिकार अष्टम, अन्तिम श्लोक चान्तेग्वक्र इति प्रोक्तं यैश्च श्वेतपटादिभिः। तदुत्सर्गापवादेन वाधस्तैनविधारितः’ (जयदेवछन्दः सूत्र १/४ की आलोचना) अभिनव भारती १४/८३-८४ बडौदा संस्करण पृ. २४४ H ३. ६८८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र और इसलिए जयदेव का समय इससे पूर्व होना चाहिए। सम्भवतः नवमशती का अन्तिम चरण (८७५ ई.) इनका काल हो सकता है। ‘जयदेवछन्दः’ का आदर्श पिंगल छन्दः सूत्र है और उसी प्रकार आठ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम तीन अध्याय वैदिक छन्दों का विवरण सूत्रों में देते हैं, परन्तु अन्तिम पाँच अध्यायों में लौकिक छन्दों का वर्णन है। परन्तु सूत्रशैली में नहीं, प्रत्युत वृत्तशैली में है, जो लक्षण तथा लक्ष्य का एक साथ समन्वय प्रस्तुत करती है। यही वृत्तशैली पिछले युग के छन्दग्रन्थों के लिए अनुकरणीय आदर्श बन गई जैसे इन्द्रवज्रा का लक्षण इन्द्रवज्रा छन्द में ही प्रस्तुत किया गया है। जिससे छन्दों के पृथक् उदाहरण देने की समस्या ग्रन्थकार के सामने उपस्थित नहीं होती। इस ग्रन्थ के टीकाकार मुकुलभट्ट के पुत्र हर्षट है जो वृत्ति की पुष्पिका से स्पष्ट है। टीका का हस्तलेख का समय ११२४ ई. है। इससे इन्हें प्राचीन होना चाहिए। हर्षट काश्मीरी थे और बहुत सम्भव है कि वे ‘अभिधावृत्तिमातृका’ के प्रख्यात रचयिता मुकुलभट्ट के ही पुत्र हो। मम्मट ने अपने काव्यप्रकाश द्वितीय उल्लास में मुकुलभट्ट के मत का खण्डन किया है। साधारणतः हर्षट का समय दशम शती के पूर्वार्ध (६५० ई.) में मानना न्याय्य प्रतीत होता है। इस जयदेव को गीतगोविन्दकार जयदेव से जो १२वीं शती में हुए’ भिन्न समझना चाहिये। अन्यभी जयदेव नाम के पंद्रह विद्वानों का ज्ञान होता है। १३वीं शती के एक जयदेव ने ‘प्रसन्नराघव’ और ‘चन्द्रालोक’ नामक ग्रन्थों की रचना की थी। जयदेव मिश्र नाम के एक प्रसिद्ध नैयायिक भी हो चुके हैं। जयदेव ने अपना छन्दोग्रंथ संस्कृत भाषा में पिंगल के आदर्श पर लिखा। यद्यपि जयदेव के काल में लौकिक वर्णवृत्तों का प्रधान्य हो गया था, किन्तु फिर भी वैदिक छन्दों का प्रभाव बाकी था। यह कालिदास द्वारा एक स्थल पर वैदिक छन्द के प्रयोग से विदित है। जयदेव ने अध्यायों का आरम्भ ही नहीं, उनकी समाप्ति भी पिंगल की तरह की है। वैदिक छन्दों के लक्षण सूत्ररूप में ही दिये गये हैं। परन्तु लौकिक छन्दों के निरूपण की शैली पिंगल से भिन्न है। __‘जयदेवछन्दस्’ का प्रकाशन ताडपत्र पर लिखित हस्तलिपि के आधार पर हुआ है। इस हस्तलिपि के दो भाग हैं। प्रथम में १० पृष्ठ हैं, जिसमें ‘जयदेवछन्दस्’ का पाढ हैं। द्वितीय भाग में ‘जयदेवच्छन्दस्’ की हर्षट-विरचित विवृति है, जो पृथक् रूप से अंकित पृष्ठ १. जोशी और भारद्वाज-संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ. १८६ २. जोशी और भारद्वाज-संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ. ५०२ .. ३. अभिज्ञान शाकुन्तलम् (४/८) तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ६८६ १-४४ तक है। हस्तलिपि के प्रथम भाग पर तिथि सं. ११६० दी गयी है और द्वितीय भाग पर सं. ११८२। हस्तलिपि जेसलमेर- भण्डार में सुरक्षित है। जयदेव च्छन्दस् के आठ अध्यायों में से प्रत्येक के वर्ण्य-विषय का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है। __प्रथम अध्याय में मंगलाचरणोपरान्त ८ सूत्र है, जिसमें अष्टगणादि विचार है। द्वितीय अध्याय के छः सूत्रों तथा तृतीय अध्याय के ३३ सूत्रों में वैदिक छन्दोविचार है। चतुर्थ अध्याय में लौकिक छन्द आये हैं। मात्रिक छन्दों में आर्या तथा उसके भेद (विपुला, चपला, मुखचपला, गीति, उपगीति, उद्गीति, आर्मगीति आदि) वेतालीय तथा उसके भेद (औपच्छंदसिक, आपातलिका, प्राच्यवृत्ति, उदीच्यवृत्ति, प्रवृत्तक, अपरांतिका, चारुहासिनी, अचलधृति’ मात्रासमक तथा उसके भेद (उपचित्रा, विश्लोक, वानवासिका, चित्रा, पादाकुलक, अनंगक्रीडा, तथा अतिरूचिरा है। पञ्चम, षष्ठं और सप्तम अध्यायों में वर्णवृत्तविचार है; तथा अष्टम अष्ट याय का सम्बन्ध प्रस्तारादि अष्टप्रत्ययों से है। चतुर्थ अध्याय में ३२, पञ्चम में ३६, षष्ठ में ४३, सप्तम में ३० तथा अष्टम में १२ सूत्र में अथवा पद्य है। जयदेव छंदः का छन्दोविवेचन संस्कृतपरम्परा के अनुकूल है। जयदेव ने मात्रिक छन्दों में से पिंगलोक्त छन्दों की ही चर्चा की है। उस युग के लोक-काव्यों में प्रयुक्त उन अगणित मात्रिक छन्दों का निरूपण जयदेव ने नहीं किया जिनका उल्लेख लगभग उनके समसामयिक लक्षणकार स्वयम्भू और विरहांक ने किया है। अतः परम्परासिद्ध और व्यवस्थित होने के कारण यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।
श्रुतबोध-कालिदास
संस्कृत साहित्य के कवि कालिदास के नाम पर प्रख्यात श्रुतबोध लौकिक छन्दों की अनुभूति के लिए सर्वाधिक लोकप्रचलित ग्रन्थ है। यह गन्थ साहित्यिक-पुट से संवलित होने के कारण नितान्त मनोरम है। संस्कृत काव्यों में प्रयुक्त प्रचलित छन्दों का वर्णन इसका १. इसके अतिरिक्त इस हस्तलिपि के द्वितीय भाग में विरहांक का कविशिष्ट अथवा वृत्तजाति-समुच्चय (पृ. ४६-८६) कविशिष्ट पर गोपाल की टीका (पृ. ६०-१८३) केदार का वृत्तरत्नाकर (केवल पाठ, पृ. १-१५) तथा जयकीर्ति का छन्दोंऽनुशासन (पृ. १-२८) है। २. एच.डी. वेलांकर-जयदामन, भूमिका पृ. ३६ । ३. जय. ४/६-१४ जय. ४/१५-२३ ५. इसे पिंगलने ‘गीत्यार्या’ कहा है (पिं.सू. ४/४२) ६. जय. ४/२४-३० ७. इसे पिं. ने ‘शिखा’ (सौम्या) कहा है (पिं. ४/५१) ८. जय. ४/३१ …………………. ….. ६६० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र वैशिष्ट्य है। इसमें गणों के नाम तथा रूप का उल्लेख है (पद्य ३), परन्तु गणपद्धति का उपयोग लक्षण-विन्यास के लिए नहीं किया गया है। पद्धति लघुगुरू वाली ही है तथा लक्षण तथा लक्ष्य दोनों का वर्णन एक ही पद्य में किया गया है। इससे इसकी बालोपयोगिता स्पष्ट है। सम्पूर्ण ग्रन्थ में ४४ श्लोक है। प्रथम मंगलपद्य को छोड़कर सबका सम्बन्ध विषय-प्रतिपादन से है। मात्राछन्दों में आर्या, गीति तथा उपगीति-इन तीन का ही लक्षण है तथा वर्णवृत्तों में ३६ वृत्तों का वर्णन है। दोनों को मिलाकर छन्दों की संख्या ४० है। लोकव्यवहार की दृष्टि की प्रधानता होने से यहाँ न तो वैदिक छन्दों का वर्णन है, न दण्डक और न षट्र प्रत्ययों का ही। सरलता से छन्दों का ज्ञान कराने में श्रुतबोध सचमुच एक सफल प्रयास है। कालिदास के नाम से इसकी प्रसिद्धि इसकी लोकप्रियता की परिचायक है। यद्यपि इस ग्रन्थ का परिमाण बहुत छोटा है किन्तु काव्यादि में प्रचुरतया उपयुक्त छन्दों के निरूपण तथा संक्षेप में छन्दश्शास्त्र के सामान्य नियमों के परिचय से इसकी उपादेयता अधिक है। ग्रन्थ की शैली सरल तथा हृदयग्राहिणी है। कुछ लोग वररुचि को भी इसका लेखक मानते हैं। यदि कालिदास वररुचि से अभिन्न भी माने जायँ तो भी संस्कृत साहित्य के इतिहास-लेखकों ने नौ कालिदासों का उल्लेख किया है। श्रुतबोध के लेखक इनमें से तीसरे कालिदास कहे गये हैं। कालिदास की तिथि के सम्बन्ध में प्राच्य तथा पाश्चात्य विद्वानों के बीच मतभेद है। कीथ ने कालिदास का समय चौथी-पाँचवी शताब्दी माना है। मैकडानेल का भी यही मत है । श्रुतबोध की प्रतियाँ मुद्रित रूप में सर्वसुलभ हैं । इस छोटी सी पुस्तक में लघुगुरुलक्षण और गण लक्षण के पश्चात ही छंदों के लक्षण-उदाहरण आरम्भ हो जाते हैं। इसमें आर्या, गीति, उपगीति, उक्षरपंक्ति, शशिवदना, मदलेखा, अनुष्टुप, पद्य, माबवकाक्रीड, नगस्वरूपिणी, विद्युन्माला, चम्पकमाला, मषिबन्ध, शलिनी, मन्दाक्रान्ता, हंसी, दोधक, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवाजा, द्रुतविलंबित, हरिणीप्लुता, वंशस्थ, इन्द्रवंश, प्रभावती, प्रहर्षिणी, वसन्ततिलका, मालिनी, हरिणी, शिखरिषी, पृथ्वी, शार्दूलविक्रीड़ित और स्रग्धरा छन्द आये हैं। १. ए.बी. कीथ : हिष्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर, ४०/६। २. एम. कृष्णमाचारियर : क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, पृ. ६०२। ३. कीथ : क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, पृ. ३२ ४. आर्थर ए. मैकडानेल : ए हिष्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर, पृ. ३२५ ॥ ५. क-गंगा विष्ण श्री कृष्णदास द्वारा लक्ष्मी-वेंकटेश्वर स्टीम प्रेस बम्बई से सं. १६८८ में प्रकाशित। सामान्य भाषा टीका समेत। ख-खेमराज श्री कृष्णदास द्वारा श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई से सं. १६६३ में प्रकाशित संस्कृत व्याख्या सहित; आदि संस्करण ६६१ P3 तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास इस ग्रन्थ की लगभग १० टीकाएँ है। जिनमें मनोहर शर्मा की सुबोधिनी टीका प्रसिद्ध है’। पुस्तक की विवेचना शैली अत्यन्त उत्कृष्ट है। छन्दों के लक्षण इन्हीं छन्दों में दिये गये हैं जिनके वें लक्षण हैं। उदाहरण अलग से नही दिये गये है। इस प्रकार, लक्षण और उदाहरण के एकीकरण द्वारा अध्येता की स्मरणशक्ति को सहारा दिया गया है। पिंगलाचार्य के ग्रंथ में ऐसा नहीं है। ‘श्रुत बोध’ अध्यायों में विभक्त नहीं है, एक एक कर छन्दों का विवेचन हुआ है। मात्रिक छन्दों में केवल आर्या और उसके भेद आये हैं। लेखक ने इसका संकेत किया है कि एक छन्द से दूसरा छन्द किस प्रकार अद्भूत हो जाता है। जैसे, गुठवर्ण के बदले लघु के प्रयोग से इन्द्रवज्रा छन्द, उपेन्द्रवज्रा छन्द बन जाता है। इस दृष्टि से समानता रखनेवाले छंद एक साथ रखे गये हैं। छन्दों के परस्पर संम्बन्ध पर इस दृष्टि से इस ग्रन्थ में प्रथमबार विचार-संकेत मिलते हैं। कवियों ने किस प्रकार नये छन्दों की उद्भावना की होगी, इसका संकेत इस ग्रन्थ में वर्तमान है। कवियों ने प्रस्तारविधि से कृत्रिम छन्दोवृद्धि नही की होगी अपितु लय-साम्य के आधार पर लघुगुरू वर्णों के यत्किंचित परिवर्तनद्वारा ही नवीन छन्दों की उद्भावना की होगी, यह कालिदास के विवेचन से स्पष्ट है। इस ग्रन्थ में दो मौलिक बाते महत्त्व रखती है-१. कवियों द्वारा नवीन छन्दों की उद्भावना-विधि का संकेत इसमें मिलता है। २. इसमें छन्दों के लक्षणगणों के कथन मात्र द्वारा नहीं, वरन् गुरूलघु विचार द्वारा निरूपित हैं। परन्तु इस उपयोगी छन्दोग्रन्थ के रचयिता रघुवंश तथा अभिज्ञान शाकुन्तल जैसी कृतियों के लेखक कालिदास ही है, इसे पहचानने में कोई पुष्ट प्रमाण अथवा साधन उपलब्ध नहीं है। कतिष्य विद्वान् यह मानते हैं कि श्रुतबोध कालिदास की रचना इसकारण भी नहीं हो सकती कि इसमें बड़े छन्दों में यति पर आग्रह है। यथा वसन्ततिलका में आठ तथा ६ वर्गों पर यति है। यह कवि के अभ्यास के विरुद्ध है। परन्तु यह तर्क अधिक सुग्रास नहीं है। क्यों कि महाकवि कालिदास की रचनाओं में यतिनियम का निर्वाह प्रभूत रूप से हुआ है। तथापि श्रुतबोध को महाकवि कालिदास की रचना मानना कठिन है।
छन्दोऽनुशासन-जयकीर्ति
‘छन्दोऽनुशासन’ ग्रन्थ के प्रारम्भिक मङ्गलाचरण में जयकीर्ति ने वर्धमान’ (जैन तीर्थकर) की स्तुति की है। इससे कन्नड भाषाभाषी होने का अनुमान लगाया जा सकता है। क्योंकि छन्दोऽनु शासन के सप्तम अधिकार में कन्नडभाषा के छन्दों का भी विवरण हैं। ग्रन्थ के हस्तलेख का समय ११६२ वि.स. (=११३५ ई.) है। अतः इनका समय १००० ई. के आसपास माना जा सकता है।
१. श्रुतबोध की अन्य टीकाओं में माधव कृत ज्योत्स्ना, ताराचन्द्र विरचित बाल विवेकिनी तथा हर्षकीर्ति, वासुदेव, भोलानाथ, एकदन्त, वरशर्मा आदि की टीकायें प्रचलित हैं। २. द्र. संस्कृत शास्त्रों का इतिहास पृ. ३१२ in r re: ६६२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ‘छन्दोऽनु शासन’ में केवल लौकिक छन्दों का विवरण है।’ इसमें वैदिक छन्दों का अभाव हैं। यह इस तथ्य का पूरक है कि उस युग में वैदिक छन्दों के परिचय से सामान्य पण्डितजन पराङ्मुख हो गये थे और इसीलिए अब उनके विवरण देने की आवश्यकता नहीं होती है। इस घटना को ‘जयदेव छन्दः’ के वैदिक विवरण से तुलनात्मक दृष्टि से विचारने पर दोनों के पौर्वापर्य का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। प्राचीन ग्रन्थों में वैदिक छन्दों का विवरण देना नितान्त आवश्यक माना जाता था। समग्र गन्थ आर्या तथा अनुष्टप छन्दों में ही निबद्ध है। छन्दों के लक्षण प्रदर्शित करने वाले पद्यांश उन्हीं छन्दों में निहित है। यह ग्रन्थ संस्कृत छन्दों से अतिरिक्त कन्नड छन्दों के ज्ञान के लिए भी उपयोगी है। ग्रन्थ के अन्तिम पद्य में माण्डव्य, पिंगल, जनाश्रय, सैतव, श्रीपाद पूज्य तथा जयदेव के नाम छन्दः शास्त्र के ग्रन्थकर्ता रूप से उल्लिखित है। किये गये हैं। इनके अतिरिक्त यति मानने वाले और न मानने वाले प्राचीन आचार्यो की दो परम्पराओं का वर्णन विशेषतः गुणग्राह्य है। इन दोनों परम्पराओं का पृथक् निरूपण जयकीर्ति की मौलिकता का प्रमाण है। ये परम्परायें निम्नलिखित हैं- (१) पिंगल, (२) वसिष्ठ, (३) कौण्डिन्य, (४) कपिल तथा, (५) कम्बल मुनि-यति की मान्यतावादी परम्परा, (६) भरत, (७) कोहल, (८) माण्डव्य, (६) अश्वतर, (१०) सैतव-यति की अमान्यतावादी परम्परा। “वाञ्छन्ति यतिं पिङ्गल-वसिष्ठ-कौण्डिन्य- कपिल-कम्बलमुनयः। नेच्छन्ति भरत- कोहल-माण्डव्याश्वतर- सैत वाद्या : केचित्।। … " (छन्दोऽनु शासन, १ अधिकार, १३ पद्य).. उपर्युक्त आचार्यों में से अनेक नवीन हैं। जिनके छन्दोविषयकुः ग्रन्थों का अन्वेषण करना अति आवश्यक है। जयकीर्ति कन्नड़-प्रदेश के निवासी दिगम्बर जैन मतावलंबी थे। संस्कृत-भाषा में निबद्ध जयकीर्ति का छन्दोऽनुशासन पिंगल और जयदेव की परम्परा के अनुसार आठ ‘अधिकारों’ (= अध्यायों) में विभक्त है। जयकीर्ति, संस्कृत-परिनिष्ठित-परम्परा के लक्षणकार होते हुये भी समय की प्रवृत्ति से प्रभावित हुए बिना न रह सके और इसी का फल है कि वैदिक छन्दों की जगह उन्होंने अपभ्रंश के उन मात्रिक छन्दों की, जो व्यवहारिक काव्य-प्रयोग के बीच दिनानुदिन अधिक लोकप्रिय होते जा रहे थे, अन्य संस्कृत लक्षणकारों की अपेक्षा अधिक चर्चा की है। यद्यपि उन्होंने ग्रन्थ समाप्ति पर एक श्लोक द्वारा पिंगल-जयदेव की परम्परा को स्वीकति प्रदान की है। १. एच. डी. वेलणकर द्वारा सम्पादित तथा जयदामन् (हरितोषमाला १) के अन्तर्गत हरितोष समिति संबई द्वारा प्रकाशित (केवल मूल संस्कृत पृष्ठ ४१-७० १६४६ ई.) २. बेलणकर-जयदामन (भूमिका), पृ. ३६ (जयकीर्ति के समय के लिए द्र.- श्री गोविंदपाइ का प्रबंधं. प्रबन्द कर्नाटक (कन्नड़ त्रैमासिक), खण्ड २८ अंक ३ ३. माण्डव्यपिंगलजनाश्रयसैतवाख्य-श्रीपादपूज्यजयदेव बुधादिकानाम् । छन्दांसि वीक्ष्य विविधानपि सत्प्रयोगान्। छन्दोऽनुशासनमिदं जयकीर्तिनोक्तम् ।। (छन्दोऽनुशासन जयः ८/१६) ६६३ ….. ………
तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास यह ग्रन्थ आद्योपान्त पद्यबद्ध है। सामान्य विवेचन (प्रत्ययगणितादि) के लिए अनुष्टुप, आर्या और स्कंध- इन तीन छन्दों का सहारा लिया गया है। किंतु, छन्दोलक्षण पूर्णतः या अंशतः उन्हीं छन्दों में दिये गये हैं, जिनके वे लक्षण हैं। उदाहरण अलग से नहीं दिये गये हैं। इस प्रकार, इस ग्रन्थ में छन्दोविवेचन लक्षणोदाहरण-तादात्म्य शैली में किया गया है। आठ अधिकारों में से प्रत्येक का वर्ण्य विषय निम्नलिखित है। प्रथम अधिकार में मगण आदि पारिभाषिक संज्ञावर्णन, द्वितीय अधिकार में उक्ता से लेकर उत्कृति जाति तक के समवर्णिक छन्दों का वर्णन, तृतीय अधिकार में अर्द्धसम वर्ण-वृत्त वर्णन तथा चतुर्थ अधिकार में विषय वर्णवृत्त वर्णन है। पंचम अधिकार में आर्या तथा मात्रासमक वर्ग के मात्रिक छन्द आये हैं। षष्ठ अधिकार में वैतालीय वर्ग के मात्रिक छन्दों के अतिरिक्त द्विपदी, अब्जनाल, कामलेखा, उत्सव, महोत्सव तथा रमा नामक छन्द और वार्णिक दण्डक आये हैं। सप्तम अधिकार ‘कर्णाटक विशयभाशा- जात्यधिकार’ है, जिसमें कन्नड़ भाषा के छन्द निर्दिष्ट हैं। अष्टम अधिकार का सम्बन्ध प्रस्तारादि प्रत्ययों से
है। छन्दोग्रन्थ में अब तक अनुल्लिखित मात्रिक छंदों की दृष्टि से यह ग्रन्थ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है.। क्योंकि जयदेव की तरह जयकीर्ति की प्रवृत्ति व्यावहारिक लोक प्रयोग के आधार पर छन्दोविवेचन की ओर उतनी नहीं, जितनी परिनिष्ठित परम्परागत छन्दोल्लेख की ओर है। फिर भी, जयकीर्ति के युग तक कुछ अन्य नये मात्रिक छन्दों की लोकप्रियता इतनी अवश्य बढ़ चुकी थी कि परिनिष्ठित परम्परा के लक्षणकार भी उनकी उपेक्षा न कर सके। जयकीर्ति ने ऐसे बहुत से मात्रिक छन्दों का उल्लेख किया है जो जयदेव के ग्रंथ में नहीं हैं। किन्तु ऐसे छंदों में अधिकांश के प्रथमोल्लेख का गौरव जयकीर्ति से विरहांक ने छीन लिया है। फिर भी, संस्कृत के लक्षणकारों में उनके प्रथम उल्लेख का श्रेय जयकीर्ति को ही है। जयकीर्ति द्वारा उल्लिखित नवीन, (अर्थात् इनके पहले तक अनुल्लिखित) मात्रिक छन्द ये हैं- द्विपदी, अब्जनाल, कामलेखा, उत्सव, महोत्सव, रमा, लयोत्तर।’ संस्कृत से प्राप्त मात्रिक छन्दों में कुछ नये नाम या छन्दोभेदों का भी जयकीर्ति ने उल्लेख किया है, जैसे-सर्वचपला, पिंगल पादाकुलक, मागधी आदि। इन विशेषताओं की दृष्टि से यह छन्दोग्रन्थ महत्त्व रखता है।
मृतसञ्जीवनीव्याख्या-हलायुध भट्ट
पिंगल के लोकप्रिय वृत्ति का नाम मृतसञजीवनी है। हलायुध ने ‘कवि रहस्य’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी जिसमें पाणिनीय सम्प्रदाय के समानरूप वाले धातुओं के अर्थ तथा १. छन्दोजकी. ६/२८-३२ २. महाचपला, पिं.सू. ४/२६, सर्वचपला, छ.जकी. ५/७ SEENETRE mirmire ६६४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र प्रयोग का विशद उपन्यास है। इसमें उन्होंने आश्रयदाता कृष्णराज को ‘राष्ट्रकूट कुलोद्भव” बतलाया है। यह ज्ञातव्य है कि विजयनगर के राजा कृष्णराय राष्ट्रकूट कुल के नहीं थे। । स्वरचित ग्रन्थ “कविरहस्य” में दिये गये परिचय के अनुसार राष्ट्रकूट -वंशीय राजा * कृष्णराज अकालवर्ष द्वितीय (६४५- ६६६ ई.) तथा खुडिगदेव जो कृष्णराज का वैमात्रेय प्राता था और जिसने ६६६-६६१ ई. तक राज्य किया -दोनों ही हलायुध के आश्रयदाता थे इनकी वृत्ति में माण्डव्य, वेतपट, कालिदास, भारवि, धरणीधर, कात्यायन आदि के नाम निर्दिष्ट हैं। यह वृत्ति अत्यन्त प्रामाणिक, सर्वप्रिय, तथा सर्वप्राचीन व्याख्या है, जो पिंगल छन्दः सूत्र के अर्थो का स्पष्ट प्रतिपादन करती है। इसका वैदिक छन्दों का विवेचन प्रामाणिक होते हुए भी संक्षिप्त है। मुञ्ज के शासन-काल (८६३-६१६ शकाब्द) में पिंगल सूत्र की टीका की रचना संभवतः की गयी होगी। हलायुध के पिता मीमांसा के विद्वान् थे तथा इनका नाम विश्वरूप हो सकता है। हलायुध का मुख्य विषय व्याकरण था, यह कविरहस्य से ज्ञात होता है। इसी हलायुध ने अभिधानरत्नमाला नामक को षग्रन्थ की भी रचना की थी। परन्तु ब्राह्मण सर्वस्व आदि का कर्ता लक्ष्मणसेन का मन्त्री हलायुध इससे भिन्न है।
पिङ्गलनाग छन्दोविचितिभाष्य - यादव प्रकाश
आश्चर्य का विषय है कि ‘पिंगल सूत्र का सर्वाधिक प्रौढ़, नितान्त प्रामाणिक तथा पाण्डित्य मण्डित भाष्य बहुत दिनों तक प्रकाशित नहीं हुआ। इसके हस्तलेख उपलब्ध होते हैं। इस भाष्य का पूरा नाम -पिङ्गलनागछन्दोविचिति- भाष्य है। इसके रचनाकार यादव प्रकाश हैं जो अपनी प्रकाण्ड विद्वत्ता के अनुसार पुष्पिका में ‘भगवान’ के आदर सूचक विशेषण से मण्डित किये गये हैं। यादव प्रकाश विशिष्टाद्वैतवेदान्त के इतिहास में रामानुजाचार्य के गुरु, होने के कारण पूर्ण प्रसिद्ध हैं। ई. १०१७- ११३७ ई. सम्प्रदायानुसार रामानुज का जीवनकाल माना जाता है। अपने जीवन के आरम्भिक काल में रामानुज ने इनसे वेदान्त की शिक्षा प्राप्त की थी। फलतः यादव प्रकाश का समय दशम शती के अन्तिम चरण से लेकर एकादशी शती का पूर्वार्द्ध मानना उचित प्रतीत होता है। १. तोलयत्यतुंलं शक्तया यो भारं भुवने श्वरः। कस्तं तुलयति स्थाम्ना राष्ट्रकूटकुलोद्भवम् ।। २. खुडिगराज का उल्लेख हलायुध ने अपनी वृत्ति में ७/१७ तथा ६/२० पर किया है।। तत्पश्चात वे धारानरेश वाक्पतिराज मुंज के आश्रय में चले गये ३ (द्र. ४/१६ का उदाहरण ब्रह्मक्षत्रकुलीनः समस्तसामन्तचक्र नुतचरणः। सकलसुकृतैक पुंजः श्रीमान् मुञ्जश्चिरं जयति।। तथा ४/२०, ५/३४.५८ ३६, / ५, ७/१२ पर भी द्रष्टव्य। ३. द्र. तमखिलजैमिनीयमतसागरपारगतम् पितरमहं नामामि बहुरूपमुदारमतिम् (८/१४) तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ६६५ वैजयन्ती कोश के रचयिता होने के कारण यादव प्रकाश की ख्याति विद्वत्समाज में पर्याप्त है। इस कोश का वैशिष्टय है कि वैदिक शब्दों का संकलन इसमें किया गया है। वेद के शब्दों को लौकिक शब्दों के साथ संकलित कर यादव प्रकाश ने अपनी वेदनिष्ठा तथा वैदिक पाण्डित्य का स्पष्ट संकेत किया हैं। कोश प्रकाशित है तथा विद्वत्समाज में प्रख्यात हैं। इनका दूसरा ग्रन्थ ‘यति धर्म समुच्चय’ (संन्यासियों के कार्य कलाप का परिचायक ग्रन्थ) अभी तक हस्तलेखों में प्राप्य है। इनके पिंगलसूत्रभाष्य का वैदिक छन्दः प्रकरण अत्यन्त प्रामाणिक तथा विस्तृत हैं। वैदिक छन्दों का विवेचन इतना सूक्षम् तथा सांगोपांग है कि यह प्रातिशाख्यों में भी उपलब्ध नहीं होता। इसका कारण है कि आचार्य यादव प्रकाश मन्त्र-ब्राह्मण भाग के गम्भीर विद्वान् थे। लौकिक छन्दों के उदाहरण इन्होंने स्वरचित पद्यों से दिये हैं और इस विषय में भी यह पिंगल के पूरक सिद्ध होते हैं। नवीन छन्दों की उद्भावना करके उनके लक्षण पिंगल की ही शैली में सूत्ररूप में दिये है। २ (द्र. बलदेव उपाध्याय, संस्कृत शास्त्रों का इतिहास, पृ. २६०-६१ वाराणसी, १६६६) इन नवीन छन्दों में कतिपय जानाश्रयी छन्दोविचिति अथवा कतिपय हेमचन्द्र के छन्दोऽनु सन से मिलते हैं। ये छन्द परवर्ती कवियों द्वारा समादृत तथा काव्यों में व्यवहृत हैं। यद्यपि आचार्य यादवप्रकाश विशुद्ध शास्त्र पारङ्गत पण्डित हैं किन्तु छन्दों के सन्दर्भ में उनकी दृष्टि व्यवहार तथा प्रयोग के समादर की ओर पर्याप्त रही है। इनके प्रौढ भाष्य का उपयोग परवर्ती व्याख्याकार नाना शास्त्र पारदृश्वा विद्वान् भास्कर राय ने अपने छन्दोविषयक ग्रन्थों में किया है।।
सुवृत्ततिलक -क्षेमेन्द्र
‘सुवृत्त तिलक’ एक प्रौढ़ महाकवि की छन्दः शास्त्र के विषय में दीर्घकालीन अनुभूति का परिचायक ग्रन्थ है। है तो स्वल्पकाय, परन्तु विषय विवरण में महत्त्व शाली है। ग्रन्थ के तीन विन्यास (अध्याय) हैं जिसके प्रथम विन्यास में लक्षण श्लोकों में हैं। इसमें प्रसिद्ध वार्णिक छन्दों का निरूपण है। लक्षण तथा उदाहरण स्वरचित पद्यों में हैं। दूसरे विन्यास में अन्य कवियों यथा-कालिदास, भवभूति, बाणभट्ट, राज शेखर, श्रीहर्ष आदि की रचनाओं से अवतरण हैं जिनमें छन्दः शास्त्र के नियमों का पूर्णतया पालन नहीं हो पाया है। इसके आधार पर छन्दों के गुण-दोष का विचार द्वितीय विन्यास में है। तीसरे विन्यास में रस तथा वर्ण्य विषयों के साथ छन्दों का उपयुक्त सम्बन्ध स्थापित किया गया है। छन्द का अपना वैशिष्टय तथा प्रसंगानुकूल औचित्य है। विशेष स्थलों पर ही उसका वैभव खुलता है। यह विन्यास संस्कृत के छन्दों ग्रन्थों में नितान्त अपूर्व है। इस विवरण के पीछे कवि का १. डा. ऑपर्ट द्वारा १८६४ में मद्रास प्रकाशित।६६६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र दीर्घकालीन कविकर्म उत्तरदायी है। क्षेमेन्द्र का यह मत स्पष्ट है कि काव्य में रस तथा वर्णन के अनुसार ही वृत्तों का विनियोग रखना अपेक्षित’ है। किस रस या भाव में कौन सा छन्द विषेश चमत्कृति उत्पन्न करेगा यह तृतीय विन्यास में विवेचित है। इस सिद्धान्त को प्रमाणित करने के लिए क्षेमेन्द्र ने अनेक अनुभूत बातें कही है। जैसे पावस तथा प्रवास के वर्णन के लिए मन्दाक्रान्ता ही योग्यतम वृत्त है। शास्त्रीय तथ्य की रचना प्रसन्न अनुष्टुप् के द्वारा करनी चाहिए। तभी उससे सर्वोपकारी होने का उद्देश्य सिद्ध हो सकता है। क्षेमेन्द्र ने विशिष्ट कवियों के छन्दों का भी उल्लेख किया है जो सर्वात्मना नूतन तथा चमत्कारी सूझ है। कालिदास का सर्वश्रेष्ठ तथा प्रिय वृत्त है मन्द्राकान्ता। भवभूति की शिखरिणी, राज शेखर का शार्दूलविक्रीडित, भारवि का वंशस्थ, पाणिनि की उपजाति इसी प्रकार के सर्ववैशिष्टय सम्पन्न छन्द है। क्षेमेन्द्र की यह आलोचना बड़ी मार्मिक और यथार्थ है। पाणिनि के कुछ ही पद्य सूक्तिसंग्रहों में उपलब्ध हैं और उनमें उपजाति ही निश्चितरुपेण चमत्कारिणी है। वस्तुतः क्षेमेन्द्र प्रथमतः महाकवि हैं और छन्दः शास्त्री हैं। फलतः वे अपनी काव्यानुभूतियों से लाभ उठाये बिना रह नहीं सके। सुवृत्त तिलक का इसी कारण महत्त्व है। क्षेमेन्द्र काश्मीर के महाकवि हैं। इनका समय ११वीं शती का मध्यकाल (लगभग १०२५ ई. तक) है। इन्होंने कश्मीर नरेश अनन्तराज के शासनकाल में सुवृत्ततिलक की रचना की यह अन्तिम पद्य में उल्लिखित हैं। कीथ ने क्षेमेन्द्र का काल हेमचंद (१२वीं शती) के पूर्व अथवा ग्यारहवीं शती माना है। मैकडानल के अनुसार क्षेमेन्द्र की ‘बृहत्कथामंजरी’ की रचना १०३४ ई. में हुई थी। अतः क्षेमेन्द्र का समय १० वीं शती का उत्तरार्द्ध और ११ वीं शती का पूर्वार्द्ध माना जाय, तो इसमें अनौचित्य नहीं होगा। सृवृत्ततिलक की रचना का समय यही रहा होगा। इस ग्रन्थ में तीन विन्यास हैं। प्रथम विन्यास में लक्षण श्लोकों में तथा उदाहरण स्वरचित पद्यों में है। छन्दों के नाम भी दो बार आये हैं, एक बार लक्षण में, दूसरी बार उदाहरण में। क्षेमेन्द्र ने पुराण या प्रबन्ध-काव्य के आरम्भ में, उपदेश-प्रधान रचना या कथा विस्तार में अनुष्टुप् छन्द उपयुक्त बताया है। १. काव्ये रसानुसारेण वर्णनानुगुणेन च। __ कुर्वीत सर्ववृत्तानां विनियोग विभागवित् ।। (सु.नि. ३/७) प्रावृट्-प्रवास कथने मन्दाक्रान्ता विराजते। शास्त्रं कुर्यात् प्रयत्नेन प्रसन्नाथमनुष्टुभा। येन सर्वोपकाराय याति सुस्पष्ट-सेतुताम्।। (सु.वि. ३/६) ‘काव्यमाला’ के अंतर्गत उसके द्वितीय भाग में अन्तर्भुक्त, पं. दुर्गाप्रसाद तथा काशीनाथ पांडुरंग परब द्वारा सम्पादित एवं निर्णय सागर प्रेस, बम्बई से १८६६ ई. में प्रकाशित। ४. कीथः हिस्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर आर्थर ए. मैकडॉनल- हिस्ट्री आव् संस्कृत लिटरेचर, पृ. ३७६ ६. सुवृत्ततिलक ३/६, १६ الله तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ६६७ शृंगार, आलम्बन के रूपवर्णन अथवा वसन्तादि के वर्णन में उपजाति छन्द अधिक समीचीन कहे गये हैं। विभाव-वर्णन के अन्तर्गत चन्द्रोदय आदि वर्णन में रथोद्धता, नीति-प्रसंग में वंशस्थ, वीररौद्रादिक रसों में वसन्ततिलका, सर्गान्त में मालिनी, उपपन्न परिच्छेद में शिखरिणी, साक्षेपक्रोध धिक्कार आदि में मन्दाक्रान्ता, राजाओं के शौर्यस्तवन में शार्दूलविक्रीडित, सावेग पवनादि वर्णन में स्रग्धरा छन्द निर्दिष्ट है। किन्तु साथ ही यह कहा गया है वृत्ते यस्य भवेद्यस्मिन्नभ्यासेन प्रगल्भता। स तेनैव विशेषेण स्वसन्दर्भ प्रदर्शयेत् ।। सुवृत्ततिलक की एक और विशेषता यह है कि इसमें मात्रिक छन्द आये ही नहीं हैं। उन मात्रिक छन्दों का उल्लेख भी इस ग्रन्थ में नहीं, जिनका वर्णन पिंगल, जयदेव और जयकीर्ति ने किया है, जैसे आर्या, गीति, वैतालीय, मात्रासमक आदि। अतएव, मात्रिक, छन्दों के विकास-क्रम के अध्ययन के प्रसंग में इस ग्रन्थ का महत्व उल्लेख्य नहीं। सुवृत्ततिलक की ‘प्रभा’ नामक संस्कृत टीका पं. ब्रजमोहन झा द्वारा प्रणीत है।’
रत्नमञ्जूषा
अज्ञातकर्ता द्वारा रचित रत्नमञ्जूषा ग्रन्थ को छन्दः शास्त्र के इतिहास में अनेक नीवनताओं की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। मूलग्रन्थ का सम्पादन प्रो. ह. द. वेलणकर ने भूमिका आदि सहित किया है। रत्नमंजूषा सूत्रों में है जिसके ऊपर किसी अज्ञातनामा विद्वान् कृत भाष्य है। ग्रन्थकार का तथा भाष्यकर्ता का नाम, स्थान एवं समय अज्ञात है। इसके विषय प्रतिपादन में भी पिंगल का सादृश्य तथा प्रभाव प्रतीत होता है। यह ग्रन्थ भी आठ अध्यायों में निबद्ध है। परन्तु अध्याय संख्या में आचार्य पिंगल के सादृश्य होने पर भी कई बातों में मौलिक अन्तर है। सूत्रकार ने वैदिक छन्दों का विवरण प्रस्तुत नहीं किया है। परन्तु भाष्य के मंगल श्लोक में वीर (महावीर) की प्रार्थना होने से भाष्यकार का जैन होना सर्वथा सिद्ध होता है। उदाहरणों में बहुत स्थलों पर (जो भाष्यकार की ही रचना प्रतीत होते हैं) ‘जिन’ की स्तुति तथा जैनमत के तथ्य उपलब्ध होते हैं। कुल ८५ उदाहरण मुद्रा द्वारा अपने छन्द का परिचय देते हैं। लगभग २५ उदाहरण सामुद्रिक का उल्लेख करते हैं। और सबमें मुद्रा द्वारा ही छन्द ज्ञात कराया गया है। १. सुवृत्ततिलक ३/१६ २. सुवृत्ततिलक ३/१७ ३. सुवृत्ततिलक ३/१८ से २२ तक ४. हरिदास संस्कृत सीरीज (ग्रन्थाडक २७६) के अन्तर्गत चौखम्बा, वाराणसी से प्रकाशित ५. भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से मूर्ति देवी जैन ग्रन्थमाला संस्कृत ग्रन्थांक ५, के अन्तर्गत सभाष्य १६४६ ई. में प्रकाशित ६६८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र रत्नमञ्जूषा भी पिंगल के समान ही अष्टाध्यायी है जिसमें वैदिक छन्दों को छोडकर विषय का प्रतिपादन सामान्यतः सदृश है, परन्तु दोनों में विभेद चिह्न विषयक है। प्रथम अध्याय में ग्रन्थ में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावली तथा अष्टम अध्याय में प्रस्तार आदि का विवेचन है। शेष अध्यायों में मात्रिक तथा वार्णिक छन्दों का निरूपण है। इसकी पारिभाषिक शब्दावली सर्वथा भिन्न तथा दुर्बोध है। पिंगल ने वर्णवृत्त में छन्दो बोध के लिए त्रिक का प्रयोग किया है जो संख्या में आठ है और व्यञ्जन ही है। (भ, ज, स आदि)। यह ग्रन्थकार त्रिक को स्वीकार करता है, परन्तु चिह बदल देता है। चिह्नों के दो वर्ग हैं-व्यञ्जनात्मक तथा स्वरात्मक। यथा पिंगल का ‘म’ यहाँ ‘क्’ अथवा ‘आ’ है उसी प्रकार पिंगल का सर्वलघु ‘न’ यहाँ ‘ह’ याह ‘इ’ है आदि।। मात्रावृत्तों में पिंगल के अनुसार ही चतुर्मात्रा वर्ग का उल्लेख किया गया है। संस्कृत में मात्रावृत्तों की संख्या बहुत थोड़ी है और चतुर्मात्रा वर्ग ही लिये गए हैं। चतुर्मात्रा वर्ग लघु और दीर्घ वर्णो के विभिन्न प्रयोगों के आधार पर पाँच प्रकार का है। ग्रन्थकार ४ वर्णवृत्तों का लक्षण-निर्देश करता है। ८४ में से प्रायः २१ छन्दों से पिंगल और केदार दोनों ही अपरिचित हैं। इस प्रकार अधिकांश प्राचीन छन्दों के साथ कुछ नवीन छन्दों का भी समावेश किया गया है। ग्रन्थकार का विभाजन हेमचन्द्र द्वारा पुरस्कृत जैन परम्परा को ही मान्य है। यह भी ग्रन्थकार को जैन मतावलम्बी सिद्ध करने का नया प्रमाण है। सूत्रों की संख्या प्रति-अध्याय क्रमशः इस प्रकार है- २६, २८, २०, ३७, ३४, १६ । कुल योग २३० (दो सौ तीस मात्र) है। ग्रन्थ रचना का काल हेमचन्द्र से पूर्ववत्ती लगभग ११ शती में मानना उचित प्रतीत होता है।
वृत्तरत्नाकर-केदार भट्ट
मध्यकालीन युग में छन्दः शास्त्रियों में केदार भट्ट सर्वाधिक लोकप्रिय है। छन्दों के वर्णन में न तो उन्होंने विस्तार किया है और न ही संक्षिप्त रखा है। उनका परिचय मध्यम कोटि का है। संस्कृत कवियों द्वारा बहुशः प्रयुक्त छन्दों का विवचेन उनके ग्रन्थ का वैशिष्ट्य है। वृत्तरत्नाकर में छः अध्याय है। और ग्रन्थ १३६ लोकों में निबद्ध है। प्रथम अध्याय में संज्ञाविधान के अन्तर्गत मगण आदि शास्त्रीय संज्ञाओं का उल्लेख है। द्वितीय अध्याय में आर्यागीति, वैतालीय, वक्त्र और मात्रात्मक के प्रकरणों के अन्तर्गत क्रमशः इन वर्गों के मात्रिक छन्दों का निरूपण है। तृतीय अध्याय में सम वर्णवृत्तों का विवरण है तथा उक्ता से लेकर उत्कृति जाति तथा दण्डक का भी वर्णन है। चतुर्थ अध्याय में अर्धसम वृत्तों तथा पञ्चम अध्याय में विषम वृत्तों का निरूपण है। अन्तिम षष्ठ अध्याय में प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट आदि प्रत्ययों का प्रतिपादन है। छन्दों का लक्षण गणों के द्वारा किया गया है। यहाँ लक्षण उदाहरण का एकीकरण ग्रन्थ को संक्षिप्त बना देने में मुख्य हेतु है। समस्त ग्रन्थ पद्यबद्ध है, पिंगल के समान सूत्रबद्ध नहीं है। लघुकाय तथा सुव्यवस्थित होने के कारण यह ६६६ तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ग्रन्थ बहुत ही लोकप्रिय रहा है। यहाँ तक कि मल्लिनाथ जैसे प्रौढ़ टीकाकार ने भी अपनी व्याख्या के छन्दों के निर्देशार्थ वृत्तरत्नाकर से ही लक्षण उद्धृत किया है। श्रुतबोध तथा वृत्तरत्नाकर ही संस्कृत पाठकों को छन्दोबोध कराने वाले मान्य ग्रन्थ हैं। इनमें से श्रुतबोध तो लघुगुरु के निर्देश से लक्षण बतलाता है। और वृत्तरत्नाकर गणों के द्वारा। ‘बसन्ततिलका’ का लक्षण श्रुतबोध में तो लघुगुरु पद्धति द्वारा बसन्ततिलका वृत्त में ही दिया गया है। वृत्तरत्नाकर इस कार्य के लिए गण पद्धति का उपयोग करता है। यथा- त। भ। ज। ग ग। उक्ता बसन्ततिलका. तभजा जगौ गः।। बसन्ततिलका १४ वर्णो का वृत्त है जिनमें क्रमशः तभज ज चार गण होते हैं तथा अन्त में दो गुरु होते हैं। जिस पद में यह लक्षण बतलाया गया है। वह बसन्ततिलका ही है। इसी को केदारभट्ट ‘लक्ष्यलक्षणसंयुतं छन्दः’ कहा है (१/३) वृत्तारत्नाकर की लोक प्रसिद्धि इस पर विरचित अनेक टीकाओं से भी स्पष्ट होती है। वृत्त रत्नाकर की अनेक टीकायें हैं। कतिपय टीकाकार विद्वानों के नाम हैं-त्रिविक्रम भट्ट, सुल्हण, (सुकविसहृदयानन्दिनी टीका) गणेश (वृत्ति टीका) सोमचन्द्र, रामचन्द्र विबुध (पंक्तिका), समयसुन्दरगणि, हरि भास्कर (सेतुटीका) नारायणभट्ट, (कौमुदी टीका) जनार्दन (भावार्थदीपिका टीका) विश्वनाथ (प्रभाटीका) अयोध्याप्रसाद (नौका टीका) आदि। इन टीकाओं का परिचय पृथक् उल्लिखित है। . समस्त ग्रन्थ पद्यबद्ध है। प्रथम और षष्ठ अध्याय, जिनमें सामान्य विवेचन है, अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध है। समचतुष्पादीय छन्दों के लक्षण एक पाद में, अर्द्धसम छन्दों के लक्षण प्रथम दो असमान पादों में तथा विषम छन्दों के लक्षण पूरे छन्द में दिये गये हैं। मात्रिक छन्दों के प्रसंग में आर्या, वैतालीय, वक्त्र तथा मात्रासमक को एक साथ रखा गया है। आर्या और मात्रासमक विशुद्ध मात्रिक हैं, किन्तु वैतालीय को मात्रिक और वार्णिक वृत्तों का मिश्रण कहना ज्यादा उपयुक्त होगा।’ वक्त्र को मात्रिक न मानकर विषम वर्ण-वृत्त मानना चाहिये, जिसमें वैषम्य पादों की लम्बाई पर आधृत नहीं, वरन् पादों में मात्राओं के क्रम में निहित है। इस प्रकार केदार द्वारा मात्रिक छन्दों का विवेचन उतना नहीं हुआ है, जितना वर्णवृत्तों का। नये मात्रिक छन्दों के उल्लेख की दृष्टि से ‘वृत्तरत्नाकर’ का महत्व बहुत अधिक नहीं है। आर्या, वैतालीय, मात्रासमक जैसे प्रकरणों में इन वर्गों के छन्द रखे गये हैं, जिससे वर्गीकरण की प्रवृत्ति संकेतित है, किन्तु इन वर्गों में जो छन्दोभेद निर्दिष्ट हैं, वे लगभग वही हैं जो पिंगल, जयदेव, जयकीर्ति आदि पूर्ववर्ती आचार्यों ने प्रस्तुत किये हैं। मात्रिक छन्दों १. जयदामन, भूमिका, पृ. ३६ २. जयदामन, भूमिका, पृ. ३६ ७०० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र के क्षेत्र में लोक-व्यवहार पर आघृत छन्दोविवेचन की प्रवृत्ति की मौलिकता केदारभट्ट में नहीं दिखाई देती। फिर भी, वृत्ताकार में मौलिक छन्दों के लक्षण अत्यन्त साफ-सुथरे और रोचक ढंग से दिये गये हैं।
वृत्तरत्नाकर का रचनाकाल
इस ग्रन्थ के अन्तिम पद्य से इतना ही ज्ञात होता है कि कश्यप गोत्र के ब्राह्मण कुल में इनके पिता उत्पन्न हुए थे। उनका नाम पव्येक था। वे शैव सिद्धान्त के वेत्ता थे। फलतः ये दक्षिण भारत के निवासी प्रतीत होते हैं। वृत्तरत्नाकर की सबसे पुरानी हस्तलिखित प्रति जैसलमेर के पुस्तकालय में सुरक्षित है इसका लेखनकाल सं. ११६२ (= ११३५ ई.) है। वृत्तरत्नाकर के सबसे प्राचीन टीकाकार त्रिविक्रम का समय ११वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। फलतः केदार भट्ट का समय ११वीं शती का पूर्वार्ध ही मानना उचित होगा। केदारभट्ट हेमचन्द्र से निः सन्देह पूर्ववर्ती छन्दः शास्त्री हैं। सोमचन्द्र की वृत्तरत्नाकर व्याख्या में इसका प्रमाण है। सोमचन्द्र ने इस व्याख्या में एक स्थान पर लिखा हैं कि हेमचन्द्र ने वृत्तरत्नाकर की ‘श्रुतिसुखकृदियमपि जगति’ और ‘निजशिर उपगतवति सति भवति’ इन दोनों पंक्तियों पर विचार किया है। यह निर्देश बहुत महत्त्व का है। इसका फलितार्थ है कि वृत्तरत्नाकर हेमचन्द्र से (१०८८ ई. तथा ११ ७२ ई. के मध्य में विद्यमान) प्राचीन हैं। अर्थात् वृत्तरत्नाकर का रचनाकाल १००० ई. से भी पूर्वतर होना चाहिए।
वृत्तरत्नाकर की टीकायें
विद्वानों की रचित टीकायें वृत्तरत्नाकर की विशिष्ट सम्पत्ति हैं। वृत्तरत्नाकर के ऊपर अनेक टीकाओं का प्रणयन होता रहा है। जिनमें से अधिक हस्तलिखित रूप में ही हैं। इनमें कतिपय का परिचय निम्नाङ्कित है-श्री वेलणकर के अनुसार सबसे प्राचीन टीकाकार त्रिविक्रम है। इनके पिता राघवाचार्य थे। ये गोदावरी १. तटस्थ एलापुर के निवासी और माध्यन्दिनीय शाखा के अध्येता गौड ब्राह्मण थे। त्रिविक्रम अपने को कातन्त्र व्याकरण का पारंगत पंडित और विशेषतः दुर्गाचार्य की वृत्ति का विद्वान् बतलाते हैं। सारस्वत व्याकरण पर उन्होंने एक वृहद्वृत्ति की रचना की थी, यह वे स्वयं बतलाते हैं। वृत्तरत्नाकर की इस वृत्ति का निर्माणकाल सम्भवतः ११वीं शति का उत्तरार्ध है। वृत्तरत्नाकार के दूसरे टीकाकार सुल्हण हैं जिनकी टीका का नाम सुकविहृदयानन्दिनी है। ये भी दक्षिण भारतीय प्रतीत होते हैं। ये कृष्ण आत्रेय गोत्र के वेलादित्य के पौत्र तथा भास्कर के पुत्र थे। तीसरे अध्याय में या अन्यत्र इन्होंने स्वरचित उदाहरण १. द्र. P.K. Gode ~ Studies in Indian literary History Voll (भारतीय विद्याभवन, बम्बई १६५८) पृ. १६८-१७०) तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ७०१ दिये हैं। इन उदाहरणों में परमारवंशी किसी विन्ध्य वर्मा राजा की संस्तुति की गई है। वृत्ति की रचना का समय १२४६ विक्रमी (=११८६ ई.) है। इस वृत्ति में ‘जयदेवछन्दः’ के निर्माता जयदेव का श्वेतपट जयदेव’ नाम से उल्लेख किया गया है, जिससे जयदेव का जैनमतालम्बी होना स्वतः सिद्ध होता है। वृत्तरत्नाकर के तृतीय टीकाकार सोमचन्द्र मणि हैं। उन्होंने अपनी टीका की रचना १२७२ ई. (= सं. १३२६) में की । ये श्वेताम्बर जैन थे तथा. देवसूरि गच्छ के मंगलसूरि के शिष्य थे। ये हेमचन्द्र के छन्दोनु शासनसे तथा इसकी वृत्ति छन्द चूड़ामणि से उदाहरणों को उद्धृत करते हैं। कभी कभी सुल्हण से भी उदाहरण उद्धृत करते हैं। इनका समय त्रयोदश (१३) शती का उत्तरार्ध है। ४. १६वीं शती से वृत्तरत्नाकर की अधिक लोक प्रियता बढ़ी। इस शती से व्याख्याओं की बहुलता आ गयी। इस शती के प्रमुख टीकाकार रामचन्द्र विबुध हैं। ये बौद्ध भिक्षुक थे और भारत से लंका गये थे। इस टीकावाले मूल को हम संघली बौद्ध रचना का प्रतिनिधि मान सकते हैं। रामचन्द्र भारती मूलतः बंगाली ब्राह्मण थे जो बाद में लंका गये। वहाँ वे पराक्रम बाहु, षष्ठ (१४१० ई.-१४६२ ई.) के द्वारा बौद्ध धर्म में दीक्षित किए गए। इनकी उपाधि ‘बुद्धागम-चक्रवर्ती’ थी। यह टीका निर्णय सागर से प्रकाशित है। डा. बेंडल के अनुसार ये महायान के विशेषज्ञ थे-उस महायान के जो थेरवादी लंका में अज्ञात ही था। इन्होंने १४५५ ई. में वृतरत्नाकर की टीका लिखी थी। समयसुन्दर मणि दूसरे जैन ग्रन्थकार हैं जिन्होंने वृत्तरत्नाकर के ऊपर अपनी ‘सुगमा वृत्ति’ का प्रणयन १६६४ वि. ( = १६३६ ई.) में किया था। इस वृति के उदाहरण हेमचन्द्र के ‘छन्दोनुशासन’ से दिये गये है। सोमचन्द्र तथा समयसुन्दर के द्वारा निर्दिष्ट वृत्तरत्नाकर को हम वृत्तरत्नाकर का जैन-सम्प्रदायानुमोदित मूल मान सकते हैं। वृत्तरत्नाकर की एक प्रसिद्ध टीका नारायण भट्ट विरचित है। नारायण भट्ट की टीका प्रकाशित है। तथा मूल को समझाने के लिये विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करती है। निर्णयसागर से प्रकाशित यह टीका विद्वानों के लिए उपयोगी मानी जाती है। नारायण काशी के निवासी थे तथा रामेश्वर भट्ट के पुत्र थे। वर्तमान विश्वनाथ जी के मन्दिर की स्थापना नारायण भट्ट के द्वारा बतलाई जाती है। इन्होंने धर्मशास्त्र के विषय में अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया जिनमें ‘प्रयोगरत्न’ तथा ‘त्रिस्थली-सेतु’ प्रख्यात माने जाते हैं। टीका का रचनाकाल १६०२ वि. सं. अर्थात् १५४५ ई. है। १. याति विक्रमशते द्वि रवषड्भूसम्मिते सितगकार्तिकमासे। ग्रन्थपूर्तिसुकृतं किल कुर्मो रामचन्द्रपदपूजन पुष्पम् ।। (टीकासमाप्ति श्लोक सं. शा. इ.पू. ३०२ की कालगणना चिन्त्य है।। २. सुधा तथा नौका टीकाओं के लिये द्र. सरस्वती भवन ग्रन्थालय पाण्डुलिपि सूची भाग (१६८४-८६ई.)
HDMADATEtanipriymmmm …-.. ७०२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ७. पंचम परिच्छेद में इस वृत्ति की यह विशेषता है। कि गाथा के अन्तर्गत अनेक प्राकृत छन्दों का लक्षण तथा उदाहरण संगृहीत है। इसके लिए वे मुख्यतया प्राकृत पैंगल के ऋणी है। नारायण भट्ट प्रख्यात विद्वत्कुल में उत्पन्न महाराष्ट्र के मूल निवासी थे। हरिभास्कर की ‘सेतु’ नामक टीका भी इसी युग से सम्बन्ध रखती है। इसका रचनाकाल १७३२ विक्रमी है। यह १६७५ ई. अर्थात् नारायणी टीका से प्रायः एक सौ पचीस वर्ष बाद है। भास्कर महाराष्ट्र के नासिक जिले में त्र्यम्बकेश्वर के निवासी थे। परन्तु इनकी टीका स्चना का स्थान भी काशी बताया जाता है। इनके पिता का नाम आपाजीभट्ट अग्निहोत्री था। इन्होंने सुल्हण के पाठो का खण्डन तथा ‘सुधा’ नाम्नी किसी अन्य वृत्तरत्नाकर की व्याख्या का उल्लेख किया है। इस टीका में वाणी भूषण तथा वृत्तमौलिक का निर्देश हैं। यह टीका न बहुत विस्तृत है और न अतिसंक्षिप्त है। जनार्दन अथवा जनार्दन विवुध गुण रचित राष्ट्र भावार्थ दीपिका टीका १६वीं सदी के थोड़े ही पश्चात की प्रतीत होती है। उसका एक हस्तलेख शक संवत् (= १७८६ ई.) का प्राप्त हुआ है। इन्होंने ‘वृत्तप्रदीप’ नामक स्वतन्त्र धन्द ग्रन्थ का प्रणयन किया था। नये वृत्तो के इन्होंने उदाहरण स्वयं नहीं बनाये प्रत्युत सुल्हण तथा हेमचन्द्र से ही उदाहरण उद्धृत किया है। इन्होंने जयदेव को उद्धृत किया है। ६. सदाशिव द्वारा वृत्तरत्नाकर की व्याख्या का उल्लेख मिलता है। १०. श्रीकण्ठ, ने भी वृत्तरत्नाकर की एक टीका लिखी थी। यह सूचना है। ११. विश्वनाथ ने’ प्रभा टीका हरिसिंह के सत्कारार्थ लिखी थी। १२. कृष्णसार उपनाम वेदेन्द्र भारती ने पुनः प्रकाशित टीका वृत्त रत्नाकर पर लिखी है। इसमें जनाश्रयी छन्दोविचिति का उल्लेख है। १३. करुणाकर दास ने कवि चन्तामणि नामक व्याख्या लिखी है। परन्तु इसके आविर्भाव काल पता नहीं है। इस टीका में भी प्राचीन छन्दः शास्त्री जनाश्रय का तथा उनकी रचना ‘जनाश्रयी छन्दोविचित’ से उल्लेख तथा उद्धरण मिलते हैं। सम्भवतः यह इनकी प्राचीनता का द्योतक हो। १. द्र. वृत्त रत्नाकर- प्राज्ञतोषिणी व्याख्या की भूमिका। इस टीका को नारायणी से पूर्ववर्ती मानना ठीक नहीं है। क्योंकि अक्षिवह्नि हयभूमित वर्षे सद्वसन्त समये मधुशुक्ले। आगतः प्रतिपदीह समाप्तिं सेतुरेष बुधसंधमुदेऽरुतु।। (सेतु टीका समाप्ति पर श्लोक) इस लोक के अनुसार यह परवर्ती सिद्ध होती है। (द्र.सं. शा. इ. पृ. ३२० चिन्य) २. इस टीका एवम् अन्य हस्तलेखों के लिये प्रो. वेलणकर की जयदामन की भूमिका के पृष्ठ ४२, ४३, तथा ४६-५३। विशेष द्रष्टव्य है। द्र. कृष्णसार तथा करुणाकरदास की टीकाओं के हस्तलेख की सूचना हेतु जानाश्रयी छन्दो विचिति की प्रस्तावना अनन्तशयन ग्रन्थ माला १६४६ ई. aa तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ७०३ १४. दिवाकर द्वारा रचित। वृतरत्नाकरादर्श’ नाम्नी टीका का रचनाकाल १६८४ है। यह अभी इण्डिया आफिस ग्रन्थालय में हस्तलेख के रूप में है। इसमें छन्दोगोविन्द, धन्दोविचिति, धन्दोमञ्जरी, धन्दोमतिका, धन्दोमार्तण्ड, धन्दोमाला, लक्ष्मीधर निर्मित पिंगल सूत्र टीका तथा वृत्तकौमुदी नामक छन्दोग्रन्थो के नाम निर्दिष्ट है।’ १५. अयोध्या प्रसाद द्वारा विरचित वृत्तरत्नाकर की नौका टीका का हस्तलेख सरस्वती भवन ग्रन्थालय (वाराणसी) में है। १६. वृत्तरत्नाकर की प्राज्ञतोषिणी नामक, संस्कृत व्याख्या पं. श्रीधरानन्द शास्त्री ने लिखी है। यह छात्रों के लिये उपादेय है तथा प्रकाशित है। भूमिका के उल्लेखानुसार इसका समय १६४५ ई. है। १७. ‘सुधा’ नामक वृत्तरत्नाकर की टीका सरस्वती भवन ग्रन्थालय (वाराणसी) में उपलब्ध है। १८. भास्करराय द्वारा वृत्तरत्नाकर की मृतजीवनी व्याख्या लिखी गयी थी, यह उनके द्वारा ही सूचित किया गया है। इसका निर्माण काल १७०० ई. माना गया है। एतदर्थ भास्करराय का परिचय द्रष्टव्य है।
छन्दोऽनुशासन -हेमचन्द्र
हेमचन्द्र का छन्दोऽनुशासन छन्दोविचिति के इतिहास में अनेक दृष्टियों से महत्त्व रखता है। यह सूत्रबद्ध अष्टाध्यायी पिंगल की छन्दोविचिति के समान ही हैं। संस्कृत वृत्तों के परिज्ञान के लिए यह ग्रन्थ उतना आवश्यक तथा उपादेय भले ही न माना जाय, परन्तु प्राकृत तथा अपभ्रंश छन्दों की जानकारी के लिए तो यह विश्व कोष जैसा उपयोगी है। आलोचको की दृष्टि में हेमचन्द्र संग्राहक के रूप में विशेष महत्त्व रखते हैं। परन्तु इस ग्रन्थ में उनका वैशिष्ट्य विवेचक रूप में दृष्टिगत होता है। प्राचीन छन्दः शास्त्रियों से उन्होंने सामग्री का संकलन किया है, परन्तु उनका मौलिक विवेचन पदे-पदे ध्यान आकृष्ट करता है। इस ग्रन्थ पर उनकी स्वोपज्ञवृत्ति भी है जो ‘छन्द चूडामणि’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ में आठ अध्याय है। मूलग्रन्थ सूत्रों में रचा गया है। प्रथम अध्याय में संज्ञाओं का वर्णन १७ सूत्रों में है। द्वितीय में समवृत्तों का ४०१ सूत्रों में, तृतीय में अर्धसम विषम-वैतालीय-मात्रासमक आदि का ७३ सूत्रों में, चतुर्थ में आर्या- गलितक-खञ्जक शीर्षक का ८१ सूत्रों में, पंचम, में अपभ्रंश छन्दों का षष्ठ में षट्पदी चतुष्पदी छन्दों का तथा सप्तम में द्विपदी छन्दों का (४२+३२+७३) १४७ सूत्रों में तथा अष्टम में प्रस्तार मेरु, नष्टोद्दिष्ट आदि षट् प्रत्ययों का विवरण १६ सूत्रों में है। इस सामान्य निर्देष से ही ग्रन्थ १. द्र. गोडे स्टडीज न इंडियन लिटरेरी हिस्ट्री भाग-१ पृ. ४६४ २. सुधा तथा नौका टीकाओं के लिये द्र. सरस्वती भवन ग्रन्थालय पाण्डुलिपि सूची भाग११ (१६८४-८६ई.) ७०४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र के शास्त्रीय महत्त्व की पर्याप्त अभिव्यक्ति होती है। हेमचन्द्र की विमल प्रतिभा ने प्राकृत तथा अपभ्रंश छन्दों के अन्तर्निविष्ट सौन्दर्य का पूर्णतः आकलन कर उन्हें लोकभाषा स्तर से उठाकर शास्त्रीय स्तर पर स्थापित कर दिया। अपभ्रंश के कविजन अपने काव्यों की रचना इन छन्दों में किया करते थे। परन्तु उस पर अभी शास्त्र की मुहर नहीं लगने से वे छन्द ग्रामीण तथा अपरिष्कृत माने जाते थे। हेमचन्द्र ने इस त्रुटि को अपने इस ग्रन्थ से सद्यः दूर कर दिया। हेमचन्द्र ने अपने छन्दोऽनुशासन में लगभग सात-आठ सौ छन्दों पर विचार किया है। प्राचीन छन्दों के नये भेदों का वर्णन यहाँ निर्दिष्ट है। विशेष बात है कि हेमचन्द्र ने स्वरचित वृत्तों को ही उदाहरणों के रूप में प्रस्तुत किया है। संस्कृत के प्रसंग में तथा प्राकृत तथा अपभ्रंश छन्दों के उदाहरण के अवसर पर भी यही स्थिति है। समग्र ग्रन्थ संस्कृत के सूत्रों में निबद्ध है। केवल उदाहरण तत्तत् भाषा में है। इससे हेमचन्द्र की काव्यविरचन-चातुरी का भी पूर्ण परिचय सहृदयों को प्राप्त होता है। __ मात्रिक छन्दों के नवीन, प्रकारों के समुल्लेख से यह ग्रन्थ मात्रिक छन्दों के विवरण तथा विश्लेशण से बड़ा ही महत्त्वपूर्ण, मौलिक तथा उपादेय है। इस ग्रन्थ के द्वारा हेमचन्द्र ने काव्यविरचन के निमित्त एक विशेष त्रुटि का अपनयन किया है। हेमशब्दानुशासन, काव्यानुशासन तथा छन्दोऽनुशासन ये तीनों ही हेमचन्द्र की प्रतिभा से संभूत अनुशासनत्रयी हैं जिसने क्रमशः शब्द, अलंकार तथा छन्द का नियमन शास्त्रीय पद्धति से कर संस्कृत साहित्य में अपने रचयिता के लिए प्रभूत ख्याति अर्जित की है। हेमचन्द्र का काल १०८८-११७२ ई., तदनुसार विक्रम संवत् ११४५-१२२६ माना जाता है।’ हेमचन्द्र का जन्म धुंदुक नामक स्थान में, (गुजरात के वर्तमान अहमदाबाद जिले में) विक्रम सं. ११४५ की कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था। इनके पिता का नाम चलिग और माता का नाम पाहिनी था। हेमचंद्र के अन्य नाम चांगदेव, हेमाचार्य भी हैं। अनहिलवाड (पाटन) के राजा जयसिंह के भतीजे कुमार पाल के ये आश्रित और गुरु कहे गये हैं। हेमचन्द्र श्वेताम्बर जैन तथा पूर्णतल्लीयगच्छ के देवचंद्र के शिष्य थे। ये बहुमुखी प्रतिभावाले लेखक और वैज्ञानिक दृष्टि-सम्पन्न आचार्य और शास्त्रप्रणेता थे। त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र तथा योगशास्त्र इनके जैनधर्म- संबंधी ग्रन्थ हैं। कुमारपालचरित्र इनका प्राकृत महाकाव्य है तथा नाममाला, काव्यानुशासन, शब्दानुशासन और छंदोऽनुशासन इनके शास्त्र-ग्रंथ हैं। हेमचंद्र ने अपने इस छन्दों ग्रंथ को, पिंगल, जयदेव और जयकीर्ति की तरह, आठ अध्यायों में निबद्ध किया है। चतुर्थ अध्याय में आर्या या गाथा के सभेद वर्णन के बाद गलितक, खंजक और शीर्षक छंद आये हैं, जो सभी प्राकृत के छंद हैं। लघुगुरुप्रयोग में पूर्ण १. कीथ, ए हिस्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर- पृ. १४२। २. जोशी और भारद्वाज- सं. सा. का इति., पृ. १६०॥ ७०५ NAL तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास या आंशिक स्वच्छंदता इन सभी छंदों में दृष्टिगत है, अतएव ये सभी मात्रिक छंद की कोटि में ही रखे जा सकते हैं। वैतालीय और मात्रासमक के कुछ नये भेद, जिनका उल्लेख पिंगल, जयदेव, विरहांक, जयकीर्ति आदि पूर्ववर्ती आचार्यों ने नहीं किया था, हेमचंद्र ने प्रस्तुत किये। जैसे दक्षिणांतिका, पश्चिमांतिका, उपहासिनी, नटचरण, नृत्तगति। गलितक, खंजक और शीर्षक के क्रमशः जो भेद बताये गये हैं, वे भी शास्त्रोक्ति की दृष्टि से प्रायः नवीन हैं। हेमचंद्र के अन्य मात्रिक छंदों में कुछ का उल्लेख वृत्तजाति समुच्चय में है, अन्य सर्वथा प्रथम बार शास्त्रोल्लिखित हुए हैं। __अपभ्रंश के और भी कई दूसरे छंद जो समकालीन अपभ्रंश में प्रचलित थे, इसमें नहीं मिलते, किंतु वे ही छंद ‘प्राकृत-पैङगलम्’ में समाविष्ट हो गये हैं। स्पष्टतया ‘प्राकृत-पैङ्गलम्’ परवर्ती ग्रंथ है। __फिर भी, मात्रिक छंदोलक्षण के प्रसंग में हेमचंद्र के ‘छदोऽनुशासन’ का महत्त्व नवीन मात्रिक छंदों के उल्लेख की दृष्टि से बहुत अधिक है। __ हेमचन्द्र कृत छन्दोऽनुशासन पर प्रो. एच.डी. वेलणकर ने पर्याप्त अनुसन्धान एवं श्रम किया है। सर्वप्रथम उन्होंने BBRAS जर्नल में १६४३-४४ में ४ से ७ अध्याय लेखक की अपनी टीका तथा अज्ञात कर्तृक अवचूरिका से साथ सम्पादित किये। तदनन्तर हरितोषमाला के अन्तर्गत ‘जयदामन्’ में अन्तर्मुक्त केवल मूलपाठ सम्पादित कर १६४६ में बम्बई से प्रकाशित किया। इसके बाद विस्तृत आंग्लभूमिका, पाठ शोधन, अनेक उपयोगी पारिशिष्टों तथा सूचियों आदि के साथ छन्दोऽनुशासन का सम्पादन करते हुए प्रो. वेलणकर ने व्याख्या सहित १६६१ में सिंधी, ग्रन्थमाला के अन्तर्गत भारतीय विद्याभवन, बम्बई से प्रकाशित किया है। यह संस्करण अध्येताओं के अतिशय उपादेय है।
छन्दोरत्नावली-अमरचन्द्रसूरि
तेरहवी शताब्दी में गुजरात के महामात्य बाघेला वंश के वस्तुपाल के विद्यामण्डल के अग्रणियों में से एक कवि अमरचन्द्र हैं। __ अमरचन्द्रसूरि ने छन्दरत्नावली नामक एक ग्रन्थ छन्दःशास्त्र पर लिखा था। अमरचन्द्रसूरि का काल हेमचन्द्र के करीब १०० साल बाद का है इस ग्रन्थ में प्रायः ८१० श्लोक है। छन्दोरत्नावली में नौ (६) अध्याय है। पहला अध्याय संज्ञा अध्याय कहा गया है। इसमें ग्रन्थ में प्रयुक्त संज्ञाओं अर्थात् सांकेतिक शब्दों जैसे वर्णगण, मात्रागण, वृत्त, समवृत्त, विषमवृत्त, पाद, यति आदि समझायें गये हैं। दूसरे का शीर्षक है समवृत्ताध्याय। इसमें अनेक समवृत्तों का निर्वचन है और अनेक दण्डकों और उनमें गणों की योजना का विवेचन भी है। तीसरा अध्याय अर्द्धसमवृत्ताध्याय तथा चौथा विषमवृत्ताध्याय है। दोनों में क्रमशः सम और विषम छन्दों का विवेचन है। पाँचवाँ मात्रावृत्ताध्याय है और इसमें अमीगीति आदि अनेक प्रकारअष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ७०६ के वृत्तों का गुण अर्थात् लक्षण दिये गये हैं। छठाँ प्रस्ताराध्याय है। इस अध्याय में छन्द शास्त्र के उन छन्दों का विचार किया गया है जो गणितीय गणनाओं से अनेक प्रकार के बनते हैं। सातवें प्राकृत छन्दोंऽध्याय में गाथा, आर्या, खंजन, द्विपदी, खण्डगीति आदि अनेक छन्दों का विवेचन है जो प्राकृत भाषा के विशेष रूप से मातृवृत्त हैं। आठवाँ और नवाँ अध्याय क्रमशः उत्साहादिप्रतिपादन तथा षट्पदी द्विपदी चतुष्पदी व्याख्यावर्णन का है। इस रचना का समय तेरहवीं शती माना जाता है। अमरचन्द्र सूरि श्वेताम्बर जैनों के वायड गच्छ के जिनदत्त सूरि का शिष्य था। गुजरात के अणहिलवाड से पन्द्रह मील उत्तर पश्चिम स्थित वायड के आधार पर इस गच्छ का नाम पड़ा था अमरचन्द्र जैन साधु होने से पूर्व वायड ब्राह्मण था। क्यों कि उसने अपनी काव्य कृति बालभारत के प्रत्येक सर्ग के आरम्भ में व्यास की तथा कुलदेव वायु (वायड) की स्तुति की है।’ १४ वी. सदी के हमीर महाकाव्य में अमरचन्द्र की ब्रह्मज्ञ वेदज्ञ के रूप में प्रशंसा की गयी है। घण्टामाघ, दीपशिखा, कालिदास आदि की भांति महाकवि अमरचन्द्र की कविप्रख्याति वेणीकृपाण नाम से भी थी। इसकी अन्य रचनायें निम्नलिखित है बालभारत महाकाव्य (महाभारत का सार) काव्य कल्पलता (अलङ्कार शास्त्रीय ग्रन्थ) कवि शिक्षा (काव्य कल्पलता टीका स्वरचित ।) काव्यलतापरिमल (काव्य कल्पलता टीका स्वरचित।) छन्दोरत्नावली (छन्दः शास्त्रीय ग्रन्थ) स्यादिशब्दसमुच्चय (व्याकरण शास्त्रीय ग्रन्थ) पद्मानन्द महाकाव्य (जैन काव्य) आदि। इनके अतिरिक्त काव्यलतामंजरी (टीका), अलंकार प्रबोध, सूक्तावली, और कलाकलाप कृतियों के नाम भी अमरचन्द्र ने सूचित किये हैं किन्तु ये प्राप्त नहीं होते हैं। PARTIERRO . …. १.. किञ्चित् संचलितेऽपि वस्तुनि भृशं यत्संभवान्मन्महे, विश्वं यन्मयमीश्वरादिमयतास्पष्टप्रमाणेप्सितम्। संसारप्रसरः परस्तनुमतां यस्यानुरोधेषु यत्, संरोधेषु शिवः स गच्छतु सतां श्री चारुतां मारुतः (वा.भ.अन्तिमसर्ग प्रथम श्लोक) २. ब्रह्मज्ञप्रवरो महाव्रतधरो वेणीकृपाणोऽमरः (ह. मका. १४/३१) विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य-महामात्य वस्तुपाल का साहित्य-मण्डल (डा. भोगीलाल सांडेसरा) जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, वाराणसी से १६५६ में प्रकाशित पृ. ६२, २४५) ७०७ तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास छन्दोरत्नावली में भरत जयदेव, पिङ्गल, स्वयम्भू, धनपाल (१० शती) हेमचन्द्र के मत उद्धृत किये हैं हेमचन्द्र सूरि के छन्दोऽनुशासन एवं उसकी वृत्ति से अमरचन्द्र पूर्णतः प्रभावित है। यह ग्रन्थ मुद्रित दृष्टिगोचर नहीं हैं।
पाठ्यरत्नकोष-राणाकुम्भा
पन्द्रहवीं शताब्दी के सिसोदिया वंश भूषण राणाकुम्भा कृत एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसका नाम संगीतराज अथवा पाठ्य रत्नकोश है। इस ग्रन्थ में भारतीय संगीत शास्त्र के सिद्धान्तों का विशद विवेचन है साथ ही व्याकरण काव्य छन्दआदि शास्त्रों का सार रूप से वर्णन है। प्रसङ्गतः संस्कृत महाकवियों की परम्परा में प्रयुक्त वार्णिक एवं मात्रिक छन्दों का विशिष्ट विवेचन है। यह छन्दश्शास्त्र का साक्षत् ग्रन्थ नहीं है। अपितु इसमें संगीत शास्त्र के सहयोग के लिये छन्दों का निरूपण किया गया है।
वृत्तरत्नावली-वेङ्कटेश
इस ग्रन्थ में संस्कृत जगत् के महाकवि सम्प्रदाय में प्रसिद्ध छन्दों में भगवती सरस्वती की स्तुति की गयी है। उन छन्दों में लक्ष्यभूत स्तुति पद्यों में श्लेष के द्वारा उन उन छन्दो के लक्षण तथा नाम दिये गये हैं। इस प्रकार स्तुतिकाव्य के माध्यम से छन्दों का लक्षणादि निरूपण इस ग्रन्थ की विशेषता है। इसके रचयिता वेङ्कटेश कवि हैं।
वाणीभूषण-दामोदरमिश्र
दामोदर मिश्र का उल्लेख लक्ष्मीनाथ द्वारा प्राकृत-पैंगलम् की व्याख्या में हुआ है। इस उल्लेख का काल लगभग १६०० ई. कहा जा सकता है। छन्द शास्त्र से सम्बद्ध इनकी रचना का नाम वाणी भूषण है अतएव, दामोदर का समय १६ वीं शताब्दी या इसके पूर्व माना जा सकता है। परम्परा में यह कवि भोजराज (११ वीं शती) का समकालीन माना जाता है। किन्तु श्री जानकीनाथ सिंह ने इसका समय १४ वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध अनुमित किया है। परन्तु यह समय इनके आश्रयदाता राजा कीर्तिसिंह से समन्वित नहीं होता। - दामोदर मिश्र ने छंदःशास्त्र पर ‘वाणीभूषण’ नामक ग्रन्थ लिखा। इसके दो परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद संज्ञा प्रकरण है इसमें प्रथमतः ग्रन्थ में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावली वर्णित हैं। तदनन्तर इसमें मात्रा वृत्तों का भी प्रतिपादन है। दूसरे में एकाक्षर आदि वार्णिक छन्दों का निरूपण है इस परिच्छेद में एकाक्षर से आरम्भ कर प्रायः २५ अक्षर तक के छन्दों का सोदाहरण विवेचन है। و १. श्री हेमसूरिप्रणीतछन्दश्चूडामणेरिह किञ्चित्किञ्चिच्चान्यस्माल्लक्ष्यं छन्दोऽभिधान्वितम्।। छन्दोर. ७/२ काव्यमाला (सं.५३) के अंतर्गत निर्णयसागर प्रेस बंबई से पं. शिवदत्त तथा काशीनाथ पांडुरंग परब द्वारा संपादित होकर, १८६५ ई. में प्रकाशित। ३. जा. ना. सिं, पृ. १५ ४. जोशी और भारद्वाजः सं. सा. का इति. पृ. ५७४ ७०८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र __ इस ग्रन्थ की लक्षणनिर्देश-शैली पद्यशैली. में है, जिसमें छंदोलक्षण भी उसी छन्द में दिये गयें, जिनके वे लक्षण हैं। उदाहरण अलग से दिये गये हैं। इस प्रकार, किसी भी लक्षितोदाहृत छंद का प्रयोग दो बार हुआ है। मात्रिक छंदों की लक्षणसिद्धि मात्रा संख्या निर्देशादि द्वारा तथा वर्णवृत्तों की लक्षणसिद्धि वार्णिक गणों के सहारे की गई है। इस ग्रन्थ में सभी छन्दों के मात्राओं और वर्णो के परिगणन अनुरोध से लक्षण बनायें गये हैं। अतः लक्षण और उदाहरण न होने पर भी पृथक रूप से उदाहरण दिये गये हैं। प्राकृत छन्दशास्त्र से प्रभावित ग्रन्थों में दामोदर मिश्र का वाणी भूषण भी अन्यतम है। ये दामोदर मिश्र दीर्घघोष कुलोत्पन्न मैथिल ब्राह्मण थे जो मिथिला के राजा प्रसिद्ध कीर्तिसिंह के दरबार से सम्बद्ध थे। ये ही राजा कीर्तिसिंह विद्यापति के अवहट्ट भाषा में निबद्ध ‘कीर्तिलता’ के नायक हैं फलतः दामोदर मिश्र मैथिलकोकिल विद्यापति के समकालिक सिद्ध होते हैं तथा इनका समय १५ शती स्थित होता है। वाणी भूषण प्राकृत-पैंगल के समान ही दो परिच्छेदो में है-प्रथम में मात्रावृत्तों तथा द्वितीय में वर्णवृत्तों का सोदाहरण विवेचन है। प्राकृत पैंगल का विपुल प्रभाव इस ग्रन्थ के ऊपर है। दामोदर मिश्र का अपरनाम दामोदर ठक्कुर भी प्राप्त होता है। कुछ विद्वानों ने इनका स्थितिकाल १४३६ ई. से १४६६ ई. तक निश्चित किया है। यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है।
छन्दोमञ्जरी गङ्गादास
गंगादास की छन्दोमञ्जरी अपनी कोमल दृष्टान्तावली तथा सुबोध्य लक्षणावली के कारण नितान्त लोकप्रिय है। उड़िया लेखक का यह ग्रन्थ लोकप्रियता में दूसरे उड़िया लेखक विश्वनाथ कविराज के साहित्यदर्पण के समान ही अपने क्षेत्र में ख्यातिलब्ध है। गंगादास कोमल कविता के रचयिता उड़िया वैष्णव थे। छन्दोमञ्जरी के प्रणेता गङ्गादास का जीवनवृत्त अज्ञात ही है। इस ग्रन्थ के मंगलश्लोक से इतना ही प्रतीत होता है कि उनके पिता का नाम वैद्य गोपालदास तथा माता का सन्तोषा देवी था। ग्रन्थ के अन्तिम श्लोक से इनकी अन्य रचनायें : १. अच्युत चरित महाकाव्य षोडश सर्गात्मक, २. कंसारिशतक (श्री कृष्ण की स्तुति) तथा ३. दिनेशशतक (सूर्य की स्तुति) __गंगादास परम वैष्णव थे एवं गोपाल के भक्त थे यह इनके मङ्गल पद्य से भी ज्ञात होता है। इन्होंने अपनी रचनाओं का आधार कृष्ण को बनाया। इन्होंने अपने पिता की रचना ‘पारिजात हरण’ नाटक का एक पद्य उद्धृत किया है। अपने ‘अच्युतचरित’ से भी तथा अपने गोपाल शतक से भी उद्धरण दिये हैं। यह ‘गोपाल शतक’ क्या इनका नया कोई ग्रन्थ है। अथवा ‘कंसारिशतक’ का ही नामान्तर है। गंगादास के देशकाल का यथार्थतः परिचय अप्राप्त था। प्रसिद्धि है कि वे उत्कल के रहने वाले थे। छन्दोमञ्जरी में उन्होंने . de
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तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास वृत्तरत्नाकर (समय १००० ई०) का संकेत किया है। १६८४ ई. में निर्मित वृत्तरत्नाकरादर्श नामक व्याख्या में छन्दोमंजरी का निर्देश है। इण्डिया आफिस लाइब्रेरी (लन्दन) में (१६७६ ई. में की गयी) इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि विद्यमान है।। उज्ज्वलनीलमणि में रूपगोस्वामी (जन्मकाल १४६० ई. मृत्युकाल १५६३ ई.) ने छन्दोमञ्जरी को उद्धृत किया है। सम्भवतः नीलमणि की रचना १५५० ई. के आसपास अनुचित न होगा। इसमें उल्लिखित होने से छन्दोमञ्जरी १६ वीं शताब्दी से प्राचीन ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में जयदेव भी उद्धृत है। यदि ये चन्द्रालोक के रचयिता जयदेव से अभिन्न हों तो यह ग्रन्थ १३०० ई. के अनन्तर निर्मित हुआ। फलतः छन्दोमञ्जरी का समय १३०० ई. तथा १५०० ई. के बीच में मानना चाहिये। परन्तु कुछ लेखकों ने गंगादास का समय अठारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध में माना है। परन्तु इसका आधार प्रस्तुत नहीं किया। इंडिया आफिस लाइब्रेरी में विद्यमान प्रति के लेखन काल के आधार पर तो अठारहवीं शती का समय मानना भ्रमपूर्ण हैं। छन्दोमञ्जरी ग्रन्थ छः स्तबको में निबद्ध है। प्रथम स्तबक में पारिभाषिक शब्दों के अतिरिक्त पद्य-लक्षण, पद्यभेद तथा वृत्त भेद आदि विवेचित हैं। द्वितीय से चतुर्थ तक के स्तबकों में क्रमशः वार्णिक-सम अर्द्धसम तथा विषम छन्दों का निरूपण है। पञ्चम स्तबक में आर्या आदि मात्रिक छन्दों का वर्णन किया गया है। षष्ठ स्तबक में गद्यभेद निरूपित हैं। इस ग्रन्थ की लक्षणपद्धति वृत्तरत्नाकर (केदारभट्टकृत) के समान ही है। गंगादास का समय १५ वीं-१६ वीं शती कहा गया है। इसमें कंठाभरण आदि ग्रन्थों से छन्द लिये गए, ऐसा निर्देश हैं किन्तु किस कंठाभरण से यह स्पष्ट विदित नहीं होता। छन्दो मंजरी की छः से अधिक टीकाएँ हुई हैं, हरिदास संस्कृत-ग्रन्थमाला (चौखम्बा संस्कृत सीरीज) के अन्तर्गत जयकृष्णदास हरिदास गुप्त,विद्याविलास प्रेस बनारस से प्रकाशित (सं.२००५) इत्यादि संस्करण द्रष्टव्य हैं।) इनमें चन्द्रशेखर की छन्दोमंजरी-जीवन नामक टीका उल्लेखनीय हैं छन्दोमंजरी में मात्रिक छन्दों के अन्तर्गत आर्या और उसके भेद, वैतालीय, औपच्छन्दसिक, पज्झरिका और दोहडिका (दोहा) पर विचार हुआ है। छन्दोमञ्जरी में केवल व्यवहार प्रसिद्ध छन्दों का ही निरूपण किया गया है। प्रस्तार आदि का वर्णन नहीं है। PRABHARA १. द्र. संस्कृत शास्त्रो का इतिहास पृ. ३०६ २. द्र. परमेश्वरदीन पाण्डेय कृत सुधाव्याख्या सहित छदोमंजरी भूमिका पृ. ६ (१६८७) कृ णदास तथा विषय प्रवेश पृ.ख. (छन्दोमंजरी हिन्दी व्याख्या फैजाबाद-१९७६) ३. द्र. मात्रिक छन्दों का विकास पृ. ६१ पर उद्धृत कृष्णमाचारी ४. श्रीगंगादास विरचिता ‘छन्दोमञ्जरी’ प्रभारुचिरा संस्कृतहिन्दीटीकाद्वयोपेता । व्यवहारोचितं प्रायों मया छन्दोऽत्र कीर्तितम् । प्रस्तारादि पुनर्नोक्तं केवलं कौतुकं हितत् ।। (ग्रन्थसमाप्ति पद्य) ७१० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
वृत्तमौक्तिक चन्द्रशेखरभट्ट
वृत्तमौक्तिक छन्दोमञ्जरी की अपेक्षा विषय की दृष्टि से अधिक व्यापक तथा प्रौढ़ पाण्डित्यमय ग्रन्थ है। वृत्तमौक्तिक’ की रचना विद्वान् लेखक कविशेखर चन्द्रशेखर भट्ट ने कार्तिकी पूर्णिमा १६७६ वि.सं. (१६२० ईस्वी) में की थी। ग्रन्थकार की प्रशास्ति से यह भी पता चलता है कि चन्द्रशेखर भट्ट के अकाल में स्वर्गवासी हो जाने पर इसकी पूर्ति उनके पिता लक्ष्मीनाथ भट्ट ने की। चन्द्रशेखर भट्ट का जन्म विद्वान् ब्राह्मण कुल में हुआ था। ये महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के अनुज रामचन्द्र के वंशज थे। इनके पिता लक्ष्मीनाथ भट्ट थे जिन्होंने प्राकृत पैंगल के ऊपर ‘पिंगलप्रदीप’ नामक प्रसिद्ध व्याख्या १६५७ वि.सं. (=१६०० ई०) में लिखी। फलतः छन्दःशास्त्र का विपुलज्ञान इन्हें अपने पिता से पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त हुआ है। विषय की दृष्टि से वृत्तमौक्तिक छन्दःशास्त्र का बड़ा ही प्रौढ़ पाण्डित्यपूर्ण तथा व्यापक ग्रन्थ है। इसमें अनेक उल्लेखनीय वैशिष्टय हैं। वृत्तमौक्तिक के निर्माण से पूर्व वि. सं. १६७३ में ग्रन्थकार ने प्राकृत पिंगल की उद्योत नाम्नी टीका लिखी थी जो केवल प्रथम परिच्छेद पर ही है। वृत्तमौक्तिक के दो खण्ड हैं-प्रथम में मात्रावृत्त का विवरण छः प्रकरणों में विवेचित है। तथा द्वितीय खण्ड के १२ प्रकरणों में मुख्यतः वार्णिक वृत्तों का विवरण है। मात्रावृत्तों में कुछ का वर्णन द्वितीय खण्ड में भी है। मात्रिक छन्दों के अन्तर्गत इसमें हिन्दी के छन्दों का विवरण नूतन है। द्वितीय खण्ड के नवम तथा दशम प्रकरण में विरुदावली तथा खण्डावली का लक्षण दिया है जो सर्वथा अपूर्व है। २६ विरुदावलियों के उदाहरण ग्रन्थकार ने श्रीरूप गोस्वामी के ‘गोविन्द विरुदावली’ ग्रन्थ से उद्धृत किया है। इस प्रकार संस्कत के नवीन छन्दों के निरूपण के साथ-साथ हिन्दी छन्दों का निरूपण इसकी परिचायकता का स्पष्ट प्रमाण है। इस ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में प्राकृतपैङ्गल ग्रन्थ का प्रभाव परिलक्षित होता है। विशेष रूप से प्राकृत-अपभ्रंश भाषाओं में प्रयुक्त छन्दों का ग्रन्थकार द्वारा संस्कृत में संग्रथन किया गया है, ऐसा अनुमान किया जाता है। इस ग्रन्थ का प्रथम खण्ड तथा द्वितीय खण्ड के पांच प्रकरण चन्द्रशेखर भट्ट द्वारा विरचित है यह विवेचन से प्रतीत होता है।
मन्दारमरन्दचम्पू-श्रीकृष्ण कवि
वासुदेव योगीश्वर के शिष्य महाकवि कृष्ण शर्मा द्वारा विरचित मन्दार मरन्दनामक चम्प-प्रबन्ध में प्रारम्भ में छन्दों का निरूपण किया गया है। इस चम्पमें बिन्द नामक ग्यारह १. राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में महोपाध्याय विनयसागर द्वारा सम्पादित तथा उपादेय भूमिका सहित (ग्रन्थ सं. ७६) १६६५ ई. में प्रकाशित। . . … - .. :…:..:.. … ….. .. तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ७११ अध्याय है। प्रथम बिन्दु में वृत्तों का निरूपण किया गया है। अतः इसका नाम वृत्तविन्दु है। शेष विन्दुओं में अलंकारशास्त्र के नायक-नायिका-भेद, रूपक-भेद, अलंकार-निरुपण, तथा रस रीति व्यङ्ग्य आदि विषयों का निरूपण किया गया है। छन्दोविषयक प्रथम बिन्दु में क्रमशः समवृत्त, दण्डक, अर्धसमवृत्त, तथा विषमवृत्त प्रकरण है। तदनन्तर मात्रा छन्दों में आर्यागीतिका, मात्रासमक, वैतालीय, तथा वक्त्र छन्दों के प्रकरण हैं। इसमें छन्दों के लक्षण प्रायः अनुष्टुप् में हैं तथा अनेक छन्दों के उदाहरण भी पृथकरूप से ग्रन्थकार ने निर्मित किये है। इसमें सुधा लहरी आदि अनेक नये छन्दों का निर्देश है। मन्दार चम्पू के पञ्चम विन्दु तक माधुर्य रंजनी नामक व्याख्या प्रकाशित’ है। टीकाकार ने इस ग्रन्थ का नाम सम्भवतः चन्द्रदेव कृत मन्दारमकरन्द माना है। सम्पूर्ण वृत्त विन्दुपर उपलब्ध होने के कारण छन्दः शास्त्रीय अध्ययन में यह व्याख्या उपयोगी है। मन्दारमरन्दचम्पू के रचयिता कृष्णकवि कवि का समय सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है। इसमें यत्र तत्र प्राचीन कवियों के पथों का उद्धरण होने पर भी कवि के विविध छन्दों में रचनाकौशल का प्रख्यापक होने के कारण इसकी काव्य ग्रन्थ के रूप में अधिक विशिष्टता है। लक्षण ग्रन्थ के साथ काव्यग्रन्थ का यह ग्रन्थ विशिष्ट उदाहरण है।
वृत्तवार्तिक
इसमें संस्कृत महाकवि सम्प्रदाय में प्रचुरता से प्रयुक्त छन्दों का संक्षेप में निरूपण हैं उसके उदाहरण भी पृथक रूप से दिये गये हैं। इसका काल १६ वीं शताब्दी माना जाता है। इस ग्रन्थ के कर्ता श्री रामपाणिवाद है।
वृत्तमुक्तावली श्रीकृष्णभट्ट
यह ग्रन्थ छन्दःशास्त्र का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह तीन गुम्फों में निबद्ध है। प्रथम गुम्फ में वैदिक छन्द विवेचित है। द्वितीय गुम्फ में लक्ष्यलक्षणात्मक रूप से मात्रिक छन्दों का विवेचन है। तृतीय गुम्फ में समवार्णिक छन्दों तथा विविध दण्डकादि वृत्तों के लक्षण एवं उदाहरण निरूपित है। इस ग्रन्थ की रचना पद्धति सरस तथा काव्यमयी है। यह ग्रन्थ कविकलानिधि श्री कृष्णभट्ट द्वारा विरचित है। तैलगवंशीय देवर्षि श्री कृष्णभट्टप्रणीत ‘वृत्त मुक्तावली’ का रचनाकाल वृत्तमौक्तिक से प्रायः सवा सौ वर्ष पश्चात् है। १७८८ से सं. १. निर्णय सागर मुद्रालय मुम्बई से काव्यमाला ग्रन्थ सं. ५२ के अन्तर्गत व्याख्या सहित केदारनाथ शर्मा द्वारा सम्पादित।। द्वितीय संस्करण १६२४ ई. में प्रकाशित । २. ‘मन्दारमकरन्दारव्यचन्द्रदेवकृतेः’ (आरम्भिक पद्य) का भाव अन्वेषणीय है ३. द्र. संस्कृत साहित्य का इतिहास- आचार्य बलदेव उपाध्याय अष्टम परिच्छेद- पृ.४३० ४. राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में ग्रन्थाङ्क ६६ द्वारा जोधपुर से १६६३ में प्रकाशित। ७१२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र १७६६ (अर्थात् १७३१ ई. से १७४२) के मध्य इसकी रचना अनुमित की जाती है। यद्यपि यह ग्रन्थ लघुकाय है, किन्तु मध्ययुग में अविवेचित वैदिक छन्दों का वर्णन होने के कारण उपादेय हैं मात्रावृत्तों के वर्णन में यह प्राकृत पैङ्गल से प्रभावित है जो स्वाभाविक है। छन्दोगोविन्द (पुरुषोत्तम भट्ट):- पुरुषोत्तम भट्ट ने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया था यह ज्ञात होता है। छन्दामञ्जरी के रचयिता गंगादास ने इनके मत को पद्य में उद्धृत किया है। यह पद्य श्वेतमाण्डव्य आचार्य के यतिविषयक मत के समुल्लेख करने से अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है’। छन्दागोविन्द के प्रणेता पुरुषोत्तम भट्ट गंगादास के गुरु थे।
छन्दोरत्नावली-रघुनाथ पण्डित
महाराष्ट्रीय विद्वान् (मनोहर) कुल में उत्पन्न रघुनाथ पंडित के द्वारा निर्मित यह ग्रन्थ है। रघुनाथ के पितामह का नाम कृष्णपंडित था। इनके पिता का नाम भीकं भट्ट था। वैद्यविलास उनकी प्रसिद्ध रचना है। ‘कवि कौस्तुभ’ नामक अलंकार-ग्रन्थ का तथा उसमें निर्दिष्ट छन्दोरत्नावली का प्रणयन उन्हीं ने किया था यह उल्लेख मिलता है। इनका समय १७वीं शती का अन्तिम चरण अर्थात् १६७५ ई. से १७०० ई. माना जाता है।
छन्दकौस्तुभ - भास्करराय
पंडित भास्करराय भारती दीक्षित का जन्म भाग्यनगर (हैदराबाद) में हुआ था तथा यज्ञोपवीत काशी में हुआ यह वर्णन प्राप्त होता है। भास्करराय अपने युग के अलौकिकशेमुषीसम्पन्न प्रतिभाशाली पण्डित थे। आगम तो उनका अपना क्षेत्र था। परन्तु उससे भिन्न क्षेत्रों में भी विशेषतः छन्दःशास्त्र उनकी प्रतिभा का परिणत फल समालोचकों की दृष्टि को आकृष्ट करने के लिए पर्याप्त है। छन्दःशास्त्र में छन्दःकौस्तुभ, वृत्तचन्द्रोदय तथा पिंगलसूत्रभाष्यराज आदि उनकी कृतियों का उल्लेख मिलता है। केवल सत्रह साल की अवस्था में उन्होंने छन्दःकौस्तुभ लिखा तथा बीसवें वर्ष में वृत्तरत्नाकर के ऊपर मृतसंजीवनी व्याख्या लिखी। अन्य शास्त्रों में ‘वादकुतूहल’ आदि अनेक उत्कृष्ट ग्रन्थों का प्रणयन किया। पचासवें वर्ष उन्होंने वृत्तचन्द्रोदय नामक प्रौढ़ छन्दोग्रन्थ की रचना की। १. अयं च श्लोकः छन्दोगोविन्दे मम गुरोः - श्वेतमाण्डव्यमुख्यास्तु नेच्छन्ति मुनयो यतिम् । इत्याह भट्टः स्वग्रन्थे गुरुमें पुरुषोत्तमः ।। २०।। इस वृत्त का परिचय उन्हीं के पद्यों से ज्ञात होता है - साधे सप्तदशे गते वयसि मे सत् - कौस्तुभो निर्मितः विशेऽब्दे मृतजीवनी विरचिता प्राचीनरलाकरे। पश्चाद् वादकुतूहलादिकृतयस्तन्त्रान्तरेऽष्टौ कृताः, पञ्चाशत्सुसमास्वयं विरचितः श्रीवृत्तचन्द्रोदयः इस आधार पर भास्करराय का स्थितिकाल लगभग १६७५ ई. से १७६८ ई. तक पं. बटुकनाथ शास्त्री खिस्ते ने माना है। द्र. भास्करराय भारती दीक्षित, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, सं.सं. वि.वि. वाराणसी से प्रकाशित १६६३ ई.) पञ्चाशत्स समासस्वयं विरचितः श्रीवृत्तचन्द्रोदयः।। Sam तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ७१३ भास्करराय ने छन्दःशास्त्र के विषय में चार ग्रन्थों का प्रणयन किया जिनका रचनाक्रम उन्हीं के कथनानुसार इस प्रकार अनुमित होता है (१) छन्दःकौस्तुभ (रचनाकाल १६६७ ई. न्यू कैट. कैट. भाग ७ पृ. ६३० तथा भास्करविलास एवं वृत्तरत्नाकर की टीका में उद्धृत) (२) वृत्तरत्नाकर की मृतसंजीवनी व्याख्या (१७०० ई. न्यू कैट. कैट. भाग ७ पृ. ६३ पर उद्धृत तथा मातृका सं. डी-६, २७४ अड्यार) (३) वृत्तचन्द्रोदय (१७३० ई.) तथा (४) पिंगलसूत्रभाष्यराज (न्यू कैट. कैट. भाग ७ पृ. १०३ ब तथा छन्दोवार्तिकराज न्यू कैट. कैट. भाग ७ पृ. १०६ ब, (१७३७ ई.)। इनमें वृत्तचन्द्रोदय छन्दःशास्त्र का बड़ा ही प्रौढ़ तथा वृत्तरत्नाकर टीकारूपी ग्रन्थ है। इसके उपोद्घात की मातृका एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता में है। यह विशद विवेचक छन्दोग्रन्थ है। इस ग्रन्थरत्न की रचना से ही भास्करराय को सन्तुष्टि नहीं हुई और उन्हें सत्तावन साल के प्रौढ़ वय में पिंगलसूत्रों के ऊपर प्रौढ़ भाष्य लिखना पड़ा। आचार्य भास्करराय का जीवनकाल प्रायः ७५ वर्ष माना जाता है। पिंगलसूत्र भाष्यराज यादवप्रकाश के भाष्य से अनेक अंशों में भिन्न है। यद्यपि भास्करराय यादवप्रकाश से सुपरिचित तथा अनेक अंशों में ऋणी भी हैं तथापि यादवप्रकाश के समान वैदिक छन्दों के विवेचन में उतनी प्रौढ़ि, विवेचननैपुण्य तथा उनकी रुचि नहीं है। लौकिक वृत्तों के विवेचन में उन्हें प्राकृत तथा अपभ्रंश के छन्दों के प्रभाव से उत्पन्न त्रुटियों तथा व्युत्क्रमों की अवहेलना करनी पड़ी है। फलतः इन्हें कवि-प्रयोग तथा लोक-व्यवहार का समादर कर इस शास्त्र विचेचन की अधिक प्रसिद्ध नहीं हो पायी है’। छन्दोभाष्यराज का उल्लेख (न्यू कैट. कैट. भाग ७ पृ. १०३ ब) वृत्तरत्नाकर की टीका में तथा सौभाग्यभास्कर (ललितासहस्रनामटीका) में चार स्थानों पर भास्करराय ने स्वयं किया है। इन छन्दोग्रन्थों के अतिरिक्त छन्दःसूत्र पर सुखाराम दीक्षित की छोटीवृत्ति (न्यू कैट.कैट. भाग ७ पृ. १२२ ब) मानी जाती है। किन्तु भास्करविलास में यह भास्करराय की रचना कही गयी है। इसकी मातृका परीक्षणीय है। भास्करराय की छन्दोविषयक रचनायें अभी प्रकाशित नहीं हो सकी हैं।
छन्दःकौस्तुभ श्री राधादामोदर
गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य पं. राधादामोदर द्वारा प्रणीत छन्दःकौस्तुभ नामक ग्रन्थ प्रायः सूत्रों में निबद्ध है। इसमें क्रमशः संज्ञापरिभाषा, समवृत्त, अर्थसमवृत्त, विषमवृत्त, वक्त्र, मात्रावृत्तान्तर्गत आर्यादि, वैतालीय पज्झटिका एवं रोलाआदि छन्दों का निरूपण है। १. विशेष जानकारी के लिए द्र. शिवप्रसाद भट्टाचार्य, जे. ए. सी. कलकत्ता भाग ४, १६६२, संख्या ३-४, पृ. १७६-१६०। २. भास्करराय के सम्बन्ध में अधिक जानकारी हेतु द्र. भास्करराय ग्रथावली सं. पं. बटुकनाथ शास्त्री खिस्ते ७१४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ग्रन्थ के अन्त में वर्ण एवं मात्रा प्रस्तरों का भी प्रतिपादन किया गया है। ग्रन्थकार के अन्तिम पद्य के अनुसार इसमें कुल २६४ छन्दों का निरूपण है जिनमें ४१ मात्रा छन्द तथा २२३ अन्य छन्द हैं। पूरा छन्दःकौस्तुभ नौ प्रभाओं (प्रकरणों) में निबद्ध है। छन्दःकौस्तुभ पर बलदेव विद्याभूषण की संस्कृत टीका उपलब्ध है। यह गौरेश्वर सम्प्रदाय के अनुरूप वैष्णव उदाहरणों को भी अनेकत्र प्रस्तुत करते हुए संक्षेप में मूलग्रन्थ का अभिप्राय स्पष्ट करती है। टीकाकार बलदेव ने ग्रन्थकार को अपना सम्प्रदाय गुरु तथा कान्यकुब्ज विप्र वंश में उत्पन्न बतलाया है। ग्रन्थकार एवं टीकाकार का ऐतिहासिक परिचय उपलब्ध नहीं है। तथापि यह बहुत प्राचीन रचना नहीं प्रतीत होती। क्योंकि छन्दों लक्षणों के सूत्र प्रायः उन्हीं छन्दों में निबद्ध है। यही शैली वागवल्लभआदि परवर्ती ग्रन्थों में भी दृष्टिगोचर होती है।
वृत्तप्रत्ययकौमुदी-रामचरण शर्मसूरि
उन्नीसवीं शताब्दी के छन्दोग्रन्थों में वृत्तप्रत्ययकौमुदी संभवतः प्रथम है। इस लघुपुस्तिका का रचनाकाल सं. १६१० है, जो पुस्तिकांत में दिया हुआ है। ग्रंथ में दो प्रकाश है। प्रथम प्रकाश में प्रत्ययादि छन्दःशास्त्रीय गणित-वर्णन है। दूसरे प्रकाश में छन्दों के नाम मात्र गिनाये गये हैं। वर्णवृत्तों की ही चर्चा इसमें की गई है, मात्रिक छन्द नहीं आये हैं। मौलिकता के अभाव में पुस्तिका नगण्य है। इसके रचयिता रामचरण शर्मसूरि हैं। यह १८४३ ई. की रचना है।
छंदोङ्कुर-गङ्गासहाय
संस्कृत में रचित इस पुस्तक के लेखक गंगासहाय हैं। श्री गंगासहाय ग्रन्थ के सम्पादक विष्णुदत्त के पिता थे। विष्णुदत्त ने इनकी टिप्पणी लिखी है और इसका भाषानुवाद प्रस्तुत किया है। विष्णुदत्त ने उपोद्घात के अन्त में जो तिथि दी है वह-चैत्रशुक्ल १, सोमवार सं. १६६६ है। अतएव अनुमान किया जा सकता है कि उनके पिता ने इस ग्रन्थ की रचना सं. १६४० के लगभग की होगी। इस प्रकार ग्रन्थ का निर्माणकाल १८८३ ई. के आसपास ज्ञात होता है। इस छोटी सी पुस्तिका में छन्दःशास्त्रीय गणित का विचार नहीं है। संज्ञा-परिचय के उपरांत केवल छन्दों का वर्णन है। प्रधानतया वर्णवृत्त ही आये हैं। अंत में नाममात्र के लिए १. हरिदास द्वारा नवद्वीप नदिया (हरिबोल कुटीर) से ४५७ गौराब्द से सम्पादित तथा वृन्दावन से प्रकाशित। २. निर्णयसागर प्रेस, बंबई से सं. १६५६ में प्रकाशित ३. विष्णुदत्त द्वारा लिखित टिप्पणी और भाषातर के साथ श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई से सं. १६६६ में प्रकाशित। ७१५ तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास आर्या और वैतालीय की अतिसंक्षिप्त चर्चा हो गयी है। यह वृत्त रत्नाकर के लक्षणों को ही निर्दिष्ट करती है, अतः इस लघु पुस्तिका का पृथक् विशेष महत्त्व नहीं है। इसमें छंदोलक्षण सर्वथा परंपरामुक्त है। मात्रिक छंदों की अत्यल्प चर्चा के कारण शोध की दृष्टि से इस पुस्तिका का महत्त्व नगण्य है।
छन्दोगणितम्-कृष्णरामभट्ट
राजस्थान के जयपुर नगर में समुत्पन्न पं. कृष्णराम भट्ट मूलतः प्रतिष्ठित वैद्य थे। किन्तु साहित्यशास्त्र में भी इनका वैदुष्य अत्यन्त विशिष्ट था। कृष्णराम भट्ट ने ‘छन्दोगणितम्’ नामक छन्दरशास्त्रीय ग्रन्थ की रचना की तथा एक महाकाव्य तीन खण्डकाव्य दो गीतिकाव्य एवं अनेक आयुर्वेद के महनीय ग्रन्थों का भी प्रणयन किया। राजवैद्य की उपाधि से विभूषित कृष्णराम भट्ट के पिता का नाम कुन्दनराम (जीवनराम) भट्ट, था। इनके छन्दश्शास्त्र के गुरु साधु चन्दनदास थे। चन्दनदास साधु ने भी ‘छन्दोविन्मण्डन’ नामक छन्दोग्रन्थ लिखा था, जो जयपुरी एवं हिन्दीभाषा में है। कृष्णजन्माष्टमी १६०५ सं. (१८४८ ई.) को जयपुर में उत्पन्न पं. कृष्णराम भट्ट संस्कृत कालेज में आयुर्वेद के व्याख्याता भी रहे। इनका देहान्त १६५४ सं. (१८६७ ई.) में हुआ था। अतः छन्दोगणितम् का रचनाकाल १८७८ ई. से १६६० ई. के मध्य माना जा सकता है। इस ग्रन्थ में लक्षणोदाहरणों के अतिरिक्त प्रस्तार आदि गणित भाग का विशेष विवेचन है। ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है।
प्रस्तारादिरत्नाकर - अमरदास वर्मा
इस ग्रंथ का रचनाकाल ग्रंथ के अंत में दिया हुआ है। ईसवीय गणना के अनुसार १८६४ में इसकी रचना हुई। ग्रन्थ के उल्लेखानुसार यह काल सं. १६५१ है। इस छोटी सी पुस्तिका के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इसमें प्रस्तारादि प्रत्ययों का ही वर्णन किया गया है। इस पुस्तिका में, संस्कृत में निबद्ध ३५ पद्य हैं, जो अधिकांश अनुष्टुप् छंद में रचित हैं। इसका प्रणेता श्री अमरदास है। यह पुस्तिका भी प्रकाशित है। इसका लेखक श्री अमरदास वर्मा चौहान वंश में उत्पन्न था। ग्रन्थकार के पितामह का नाम राजा नेतिसिंह तथा पिता का नाम पूर्णसिंह था। इस लघुपुस्तिका में छन्दों के लक्षण-उदाहरण न होने के कारण यह सर्वसाधारण के लिये रुचिकर नहीं है।
छन्दश्चिह्नप्रकाशनम् - आत्मस्वरूप उदासीन
‘छन्दश्चिह्नप्रकाशनम्’ नामक छन्दः शास्त्रीय पुस्तक श्रीमद गङ्गाराम उदासीन के و १. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य - जयपुर की संस्कृत साहित्य की देन (प्रो. प्रभाकर शास्त्री) पृ. १३५-१३६) २. श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई से सं. १६६६ में प्रकाशित। ३. प्रस्तारो नष्टमुद्दिष्टं मेरुः केतुश्च मर्कटी। षडिमे प्रत्ययाश्चात्र कथ्यन्ते क्रमशो मया।। (प्र.र. श्लो. ४)अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र RANS MSRANANDHAama ७१६ शिष्य उदासीन आत्मस्वरूप के द्वारा प्रणीत है। यह १६५३ विक्रम संवत् में लक्ष्मीवेंकटेश्वर प्रकाशन बम्बई से प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तक में संस्कृत के ५८ श्लोकों में छन्दों का विवेचन किया गया है। इस पुस्तिका में निम्नलिखित शीर्षकों के अर्थात् छन्दों के लक्षण प्रस्तुत किये गये हैं मात्राछन्दः, वर्णच्छन्दः, अष्टाक्षर पंक्तिः, नवाक्षरपंक्तिः, दशाक्षरपंक्तिः, एकादशाक्षरपंक्तिः, द्वादशाक्षरपंक्तिः, त्रयोदशाक्षरपंक्तिः, चतुर्दशाक्षरपंक्तिः, पञ्चदशाक्षरपंक्तिः, षोडशाक्षरपंक्तिः, सप्तदशाक्षरपंक्तिः, अष्टादशाक्षरपंक्तिः, एकोनविंशत्यक्षरपंक्तिः, विंशत्यक्षरपंक्तिः, एकविंशत्यक्षरपंक्तिः एवं विषमाक्षरपंक्तिः । इस ग्रन्थ के शीर्षक विभाजन की यह विशेषता है कि इनमें आठ, नौ दस आदि अक्षरों के पाद वाले छन्दों के लक्षण निर्दिष्ट हैं। छन्दों के लक्षण उसी छन्द में निर्मित पद्यों में हैं तथा मुद्रालंकार द्वारा तत्तत् छन्दों के नाम भी निर्दिष्ट हैं। इस प्रकार उदाहरण की पृथक आवश्यकता नहीं रह गयी है। पादाक्षरों की गणना से मात्रा-छन्दों का निर्देश इस लघु ग्रन्थ को महनीय बनाता है। १६६६ ई. में प्रकाशित इस ग्रन्थ का रचनाकाल उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध अनुमित किया जा सकता है। छन्दशास्त्रीय ग्रन्थों की परम्परा में यह नवीन शैली में रचित होने के कारण महत्त्वशाली है।
वृत्तविवेचनम्-दुर्गासहाय
यह ग्रंथ अत्यंत लघुपरिमाणात्मक है। इस ग्रंथ में मगण इत्यादि का शुभाशुभ फल बताकर कुछ प्रसिद्ध छन्दों का निरूपण है। यद्यपि उपलब्ध संस्कृत छन्दःशास्त्रीय परम्परा में इसके निर्माण से कुछ विचित्र नहीं जुड़ता फिर भी छन्दःशास्त्र में प्रवेश के लिये उपयोगी मानने में कोई क्षति नहीं है। इसका छन्दः परिचय भी व्यवस्थित नहीं है। ईस्वी सन् की उन्नीसवीं शताब्दी में रचित इस ग्रन्थ के लेखक श्री दुर्गा सहाय हैं।
वृत्तालङ्कार-छविलालसूरि
इस ग्रंथ में संस्कृत महाकवियों की परम्परा में प्रचुरता से प्रयुक्त छंदों और अलंकारों का लक्षण और उदाहरण विवेचित है। एक ही पद्य में छन्द और अलङ्कार दोनों के लक्षण और उदाहरण ग्रथित कर देना ग्रन्थकार के कवित्व को प्रदर्शित करता है। यह एक नवीन प्रयास है तथा विशिष्ट पद्धति से प्रणीत छन्दोग्रन्थ है। इसके विद्वान् लेखक पण्डित छविलालसूरि हैं। नेपाल के इस ग्रन्थ का समय १८६८ ईसवी है।
छन्दःसारहारावली
यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुरूप ही सारभूत रूप से छन्दों के काव्यात्मकतया विवेचन की विलक्षणता को दिखाता है। यह ग्रंथ सप्त यष्टियों में विभक्त है। यष्टि शब्द प्रकरण का ७१७ तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास बोधक है। पारिभाषिक शब्दावली के साथ-साथ संस्कृत महाकवि सम्प्रदाय में प्रसिद्ध छन्दों का इसमें क्रमशः विवेचन है। छन्दः सारहारावली के मौलिक-सदृश मुक्तककाव्यभूत पद्यों में विवक्षित छन्दों के लक्षणभङ्ग्यन्तर से निरूपित है। ग्रंथकर्ता का पाण्डित्य प्रशंसनीय है। इस छन्दोग्रन्थ के प्रणेता भगवतीनन्दन नन्दनानन्दनाथ हैं।
वृत्तमणिकोश
__इस ग्रंथ का अत्यंत लघु कलेवर है। यह ग्रंथ पांच विष्कम्भकों में निबद्ध है। यहाँ विष्कम्भकशब्द प्रकरणवाचक है। प्रथम विष्कम्भक में पारिभाषिक शब्द है। शेष विष्कम्भकों में संस्कृत के महाकवि सम्प्रदाय में प्रचुरता से प्रयुक्त क्रमशः मात्रिक एवं वार्णिक छन्दों का निरूपण है। जैसे छोटी मंजूषा में अनेक बहुमूल्य रत्न आ जाते हैं उसी प्रकार ग्रन्थकार ने अपने पाण्डित्य से इस छोटे ग्रन्थ में विशिष्ट छन्दोरूपी मणियों का सन्निवेश कर दिया है। इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के रचयिता पण्डित श्रीनिवास हैं।
वाग्वल्लभ - दुःखभजनकवि
चक्रवर्ती म.म. देवीप्रसाद शर्मा के पिता दुःखभञ्जन कवि की रचना वागवल्लभ अपने विषय में अनुपम ग्रन्थ है। दुःखभजन कवि महान तांत्रिक थे तथा साथ ही साथ प्रतिभाशाली कवि थे। पं. देवीप्रसाद शर्मा ने ‘वरवर्णिनी’ नामक टीका लिखकर इसे सरल तथा लोकप्रिय बनाया। टीका का रचनाकाल वि.स. १६८५ तथा मूल ग्रन्थ का निर्माणकाल १६६० वि. के आसपास है। यह बड़ा विस्तृत ग्रन्थ है। प्रस्तार का आधार लेकर नवीन छन्द भी निर्मित किये गये हैं। इसमें विवृत छन्दों की संख्या १५३६ है। १६०३ ई. के समीप रचित यह ग्रन्थ संभवतः बीसवीं शताब्दी का प्रथम छन्दश्शास्त्रीय ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रस्तार आदि, वार्णिक छन्दों में प्रयुक्त आठ गणों, मात्रिक छन्दों में प्रयुक्त गणों, गणमैत्री तथा उसके शुभाशुभ फलों का विस्तृत विवेचन है। इसके बाद प्रस्तार-परम्परा के आधार पर समस्त प्रकार के मात्रिक छन्दों तथा वार्णिक छन्दों का विशद प्रतिपादन किया गया है। इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि संस्कृत महाकवि-सम्प्रदाय में जितने भी बहुप्रयुक्त छन्द अथवा अल्पशः प्रयुक्त छन्द हैं उनका तो विवेचन है ही, अनेक दण्डक प्रभेदों के स्वरूप आदि भी निर्दिष्ट हैं। साथ ही जिन छन्दों के प्रयोग एवं लक्षण अन्यत्र नहीं प्राप्त होते हैं उनका भी निरूपण किया गया है। इसकी रचनापद्धति में भी छन्दोंलक्षण उसी छन्द में है। अतः पृथक उदाहरण की आवश्यकता नहीं है। ग्रन्थ की वरवर्णिनी टीका भी १. काशी संस्कृत सीरीज के अन्तर्गत ग्रन्थ संख्या १००) चौखम्भा प्रतिष्ठान वाराणसी से १६३३ ई. में प्रकाशित ७१८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र सारगर्भित एवं सुबोध है। इस ग्रन्थ में विवेचित विशाल छन्दस्संख्या संस्कृत भाषा की निरन्तर परिवर्द्धित होती हुई शास्त्रसम्पत्ति का पुष्ट प्रमाण है। इस बृहद् ग्रन्थ के रचयिता कवीन्द्र दुःखमञ्जन शर्मा कान्यकुब्ज ब्राह्मणकुलोत्पन्न काशी निवासी पं. प्रतापशर्मा के पौत्र तथा चूड़ामणि शर्मा के पुत्र थे। दुःखभजन कवीन्द्र के पुत्र महामहोपाध्याय देवीप्रसाद शर्मा ने वाग्वल्लभ की वरवर्णिनी टीका १६८५ वि. (१६२८ ई.) में पूर्ण की। टीकाकार का निधन भी १६८८ वि. (१६३१ ई.) में अल्पायु में ही हो गया। टीकाकार पं. देवी प्रसाद शर्मा की आठ वर्ष की आयु में ही इनके पिता कवीन्द्र दुःखभञ्जन शर्मा का देहान्त हो गया था। तदनन्तर महामहोपाध्याय गोस्वामी दामोदर लाल शास्त्री जी से न्याय, व्याकरण, काव्यशास्त्र तथा ज्योतिष आदि का अध्ययन करके पं. देवीप्रसाद जी काशी विश्वविद्यालय में अध्यापक हुए। वरवर्णिनी टीका में मूलग्रन्थ के अनेक गूढ़ स्थलों को स्पष्ट किया गया है तथा विशिष्ट छन्दः प्रभेदों से ग्रन्थ का परिवर्द्धन भी किया गया है। छन्द शास्त्रीय अनुसन्धान तथा विशिष्ट अध्ययन के लिए यह श्रेष्ठ ग्रन्थ है।
छन्दःकौमुदी - नारायण शास्त्री खिस्ते
काशी निवासी महामहोपाध्याय पं. नारायण शास्त्री खिस्ते जी द्वारा संगृहीत छन्दःकौमुदी छात्रों के लिए छन्दोज्ञान की उपयोगी पुस्तिका है। इसमें प्रचलित छन्दों का लक्षणसंग्रह है तथा अन्य कवियों के उदाहरणों से समन्वित किया गया है। यह पुस्तक मुख्यतः छात्रों के उद्देश्य से संग्रहीत है, यह ग्रन्थकार द्वारा स्वयं स्पष्ट किया गया है। इसमें प्रथमतः १६ पद्यों में छन्द का स्वरूप, गण, यति आदि परिभाषायें हैं। तदनन्तर १६ पद्यों में छन्दों के ‘लक्षण’ दिये गये हैं। पद्यों के साथ पिंगलसूत्र, वृत्तरत्नाकर, छन्दोमञ्जरी के लक्षण भी उद्धृत हैं। इसके हिन्दी अनुवाद में समस्त छन्दों के लक्षणान्वित उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं। इसके छन्दोलक्षण भी प्रायः श्रुतबोध के ही हैं। परन्तु उनमें शृङ्गारपरक विशेषण एवं पदावली को ग्रन्थकार ने परिवर्तित कर दिया है। यह पुस्तक काशी से प्रकाशित है।
वृत्तमजरी - वसन्त शेवडे
महाराष्ट्र अभिजन के पं. वसन्त शेवडे द्वारा प्रणीत वृत्तमञ्जरी नामक लघु छन्दोग्रन्थ १६५७ ई. की रचना है। इसके लेखक नागपुर में प्राध्यापक थे। तदनन्तर ये काशी में निवास करने लगे तथा काशी में इन्होंने अनेक महाकाव्यों का प्रणयन किया। इनके पिता का नाम पं. त्र्यम्बक शेवडे था। १. परीक्ष्यच्छात्रवृन्दानामुपकाराय केवलम् । कलिता कुतुकादेषा छन्दःकौमुदिका मया।। २. चौखम्भा संस्कृत संस्थान की काशी संस्कृत ग्रन्थमाला (ग्रन्थ संख्या ८२) के अन्तर्गत प्रकाशित। ७१६ malks तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास यह ग्रन्थ पांच स्तबकों में निबद्ध है। प्रथम स्तबक में मुखबन्ध के अन्तर्गत १६ पद्यों में परिभाषायें हैं। द्वितीय स्तबक के दस पद्यों में मात्रावृत्तों के लक्षण एवम् उदाहरण हैं। तृतीय स्तबक के १८४ पद्यों में समवृत्तों के अन्तर्गत पांच अक्षरों के चरण (पञ्चाक्षर वृत्त) से आरम्भ करते हुए २१ तक क्रमशः अधिक अक्षरों की वृत्त के अनुसार छन्दों के लक्षण, उदाहरण हैं। चतुर्थ स्तबक में विषम वृत्त का परिचय है तथा पञ्चम स्तबक में अर्ध-समवृत्तों का निरूपण किया गया है। इस लघुकाय ग्रन्थ में कुल १०३ महत्त्वपूर्ण छन्दों का निरूपण है। सम्पूर्ण ग्रन्थ मे २२७ पद्य हैं। इसकी यह विशेषता है कि ग्रन्थकार ने प्रत्येक छन्द का उदाहरण स्वयंरचित पराम्बा भगवती की स्तुति के पद्यों से प्रस्तुत किया है। इस कारण ये भक्तिपरक उदाहरण बालकों से वृद्धों तक सबके लिए अध्यापनाध्यापन में उपादेय है। प्रत्येक छन्द का लक्षण उसी छन्द में निर्मित पद्य में है तथा छन्द का नाम भी पद्य में आ जाता है। अनेक स्थानों पर पिङ्गल के उल्लेख से पिङ्गल छन्दःसूत्र के प्रति विशेष श्रद्धा ग्रन्थकार ने प्रकट की है। इस ग्रन्थ पर स्वयं ग्रन्थकार द्वारा ‘भावबोधिनी’ नामक संस्कृत व्याख्या रचित है तथा प्रकाशित है’। बीसवी शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रणीत यह छन्द शास्त्र का संभवतः सर्वाधिक परवर्ती ग्रन्थ है। ग्रन्थकार का निधन १६६८ ई. में काशी में हुआ, अतः वृत्तमञ्जरी के कर्ता को अद्यतन छन्दः शास्त्री कहा जा सकता है।
अन्य छन्दोग्रन्थ
छन्दःशास्त्रसम्बन्धी अन्य अनेक ग्रन्थों की सूचना भी व्याख्याकारों, अनुसन्धाताओं तथा कोषकारों द्वारा दी गयी है। इनमें से कतिपय अप्रकाशित हैं तथा कुछ अनुपलब्ध भी हैं। वाराणसी के सरस्वती भवन ग्रन्थालय में छन्दस्सम्बन्धी इन ग्रन्थों की उपलब्धता सूचित की गयी है -काश्यपछन्दोलघुविवेचन (अष्टाध्यायात्मक, नरसिंहकृत), छन्दःकल्पलता (वागीश्वर भट्टाचार्य), छन्दःसुधाकर (श्रीकृष्ण), छन्दोदर्पण (गोविन्द), छन्दोलक्षण (दामोदर), छन्दोलता (वसन्तपण्डित), छन्दोविलास (मुकुन्ददेव), प्रस्तारचिन्तामणि (चिन्तामणि, भाष्य) प्रस्तारसरणि (कृष्णदेव), मर्कटीजाल (रुद्रभट्टाचार्य), वृत्त चन्द्रिका (रामदयालु), वृत्तमुक्तावली (दुर्गादत्त) वृत्तरत्नावली (चिरञ्जीव भट्टाचार्य), वृत्तरत्नावली (यशवन्त सिंह), वृत्ततरङ्गिणी (विद्यानिधि तनय), वृत्तविनोद (फतेहगिरि) वृत्तोक्ति रत्न (नारायण भट्ट), गणलिपिविचार, गणवर्णशुद्धि, छन्दोबोध, छन्दोमञ्जरीसाराकर्षण, छन्दोवृत्ति, परिभाषाछन्दोमञ्जरी, प्रस्तारनिरूपण, प्रस्तारानयन, मात्रामर्कटी, वृत्तभावप्रकाश, वृत्तवार्तिकसुधा (वृत्तरत्नाकरटीका) आदि। १. चौखम्मा सुरभारती ग्रन्थमाला (सं. १६७) के अन्तर्गत मूल, संस्कृत व्याख्या एवं हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित। २. द्र. सरस्वतीभवन पाण्डुलिपि ग्रन्थसूची भाग ११ ७२० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र वृत्तरत्नाकरादर्श टीका में छन्दोगोविन्द, छन्दोविचिति, छन्दोमातङ्ग, छन्दोमार्तण्ड, छन्दोमाला, वृत्तकौमुदी तथा लक्ष्मीधरविरचित पिङ्गलसूत्र की टीका का निर्देश मिलता है’। जर्नादन (विबुध) द्वारा प्रणीत वृत्तप्रदीप नामक छन्दोग्रन्थ की सूचना आचार्य बलदेव उपाध्याय जी ने दी है। छन्दोरत्नाकर, छन्दःकौस्तुभ, छन्दोमाणिक्य तथा वृत्तरत्नावली के बंग प्रदेश में प्रचलित होने का निर्देश भी उन्होंने किया है। इनके अतिरिक्त वृत्तदर्पण, छन्दःकन्दली, छन्दःप्रभाकर (भानुकवि), वृत्तप्रत्ययकौमुदी छन्दोवितस्ति आदि छन्दोविषयक ग्रन्थों का भी उल्लेख मिलता है। इन ग्रन्थों के अनुशीलन तथा अन्तःपरीक्षण से छन्दः शास्त्रीय तथ्यों का और विस्तार हो सकेगा।
संस्कृत छन्दःशास्त्र से उद्भूत अन्य छन्दः शास्त्रीय ग्रन्थ
वैदिक परम्परा से प्रवर्तित छन्दश्शास्त्र का परवर्ती काल में विविध चरणों में विस्तार हुआ। लौकिक काव्यों में प्रयोक्तव्य छन्दों की सुनियत मर्यादा सर्वप्रथम आचार्य पिङ्गल ने उपदिष्ट की। नाट्यशास्त्र की मर्यादा के अन्तर्गत कुछ पात्रों द्वारा प्राकृत आदि भाषाओं के प्रयोग तथा उनके द्वारा अपनी पद्यात्मक भावाभिव्यक्ति को प्राकृत-गाथाओं में प्रस्तुत करने की आवश्यकता के कारण पिङ्गल-छन्द शास्त्र से प्रभावित प्राकृत-भाषा के छन्दोनियम भी आचार्यों ने प्रस्तुत किये। इस विस्तार-क्षेत्र के अन्तर्गत पालिभाषा तथा वर्तमान हिन्दी-भाषा के छन्दों का निरूपण अनेक विद्वानों ने ग्रन्थरचना द्वारा प्रस्तुत किया है। वस्तुतः यह सम्पूर्ण दैशिक-भाषाओं की छन्दोविचिति संस्कृत छन्द शास्त्र से उद्भूत है, यह प्राकृतछन्द शास्त्रियों से प्रारम्भ कर आधुनिक हिन्दी के छन्दोविधायक विद्वानों द्वारा आचार्य पिङ्गल के प्रति ऋणस्मरण एवं श्रद्धाभावना से प्रमाणित होता है तिहि पिगलनाग नरेश को सदा जयति जय जयतिजय। (छन्दोऽर्णवपिंगल-मङ्गलाचरण)। कन्नड़, मराठी तथा नेपाली आदि अनेक भाषाओं के छन्द तथा छन्दोग्रन्थ संस्कृत छन्दः शास्त्र से साक्षात् प्रभावित हैं। संस्कृत छन्दः शास्त्र से अत्यन्त प्रभावित तथा सहयुक्त होने के कारण प्राकृत छन्दोग्रन्थों का विवेचन ऐतिहासिक दृष्टि से संस्कृत के अध्येताओं के लिये उपादेय है। अतः ARROuzppare १. द्र. गोंडे स्टडीज इन इंडियन लिटरेरी हिस्ट्री भाग-१ पृ. ४६४ २. द्र. संस्कृत शास्त्रों का इतिहास पृ. ३०२ तथा पृ. ३१२। इनके अतिरिक्त इस छन्द शास्त्रीय इतिहास के तथ्य-सङ्कलन में आचार्य बलदेव उपाध्याय जी के ‘संस्कृत शास्त्रों का इतिहास’ ग्रन्थ से प्रभत सहायता प्राप्त हुई है। ३. छन्दोभास्कर का उल्लेख वृत्तमञ्जरी की भूमिका में वसन्त शेवडे ने तथा छन्दःप्रभाकर की सचना . वृत्तरत्नाकर की भूमिका में श्रीधरानन्दशास्त्री ने दी है। ४. द्र. प्राकृत पैनगल का मङ्गलाचरण तथा निम्नाङ्कित पंक्तियां -भूषण सोइ जगे जग में कवि पिङगल मङ्गल को करिके। छन्दोहृदयप्रकाश-मुरलीधर कविभूषण तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ७२१ प्राकृत के प्रमुख छन्दोग्रन्थों तथा तदन्तर पालि के छन्दोविवेचन का संक्षिप्त विवरण भी प्रस्तुत करना समीचीन है।
प्राकृत एवम् अपभ्रंश के छन्दोग्रन्थ गाथा लक्षण नन्दिताढ्य
जैसा नाम से ही विदित होता है यह मुख्यतया गाथा छन्द से संबध है। गाथा प्राकृत का प्रचीनतम छंद है और जैन तथा बोद्ध आगम ग्रन्थों में व्यापक रूप से प्रयुक्त हुआ है। संभवतः इसी कारण नंदिताढ्य ने गाथा छन्द को एक लक्षण ग्रन्थ का विषय बताया। गाथा लक्षण’ में ६६ पद्य है, जो अधिकांशतः गाथानिबद्ध हैं। इसमें प्रायः ४६ पद्य उदाहरणों के हैं और शेष में गाथा के विविध भेदों के लक्षण-निरूपण हैं। पद्य संख्या ६ से १६ तक मुख्य गाथा छंद का विवेचन है। इस विवेचन में विचित्र और असामान्य शब्दावली का प्रयोग हुआ है। जैसे नंदिताढ्य ने ‘शर’ शब्द को चतुर्मात्रा का द्योतक माना है, जब कि पिंगल और विरहांक ने पंचकल का। इसी तरह कमल का अर्थ गुरु (5) नमस् का अर्थ (111) घन या मेघ का अर्थ (151) जिसे सामान्यतः नरेन्द्र या पयोधर कहते हैं- माना गया है।। लेखक का नाम ग्रन्थ में दो बार आया है। इसका प्राकृत रूप नंदिताढ्ढ है। इसका संस्कृत रूपान्तर नंदिताढ्य या नंदितार्द्ध है। इस नाम द्वारा लेखक का अत्यन्त प्राचीन होना ध्वनित होता है, क्योंकि अपेक्षाकृत बाद में ऐसे नाम नही रखे जाते थे। नंदिताढ्य जैन सन्यासी थे। अपभ्रंश के प्रति उनकी उपेक्षा भावना से भी उनके काल का प्राचीन होना व्यंजित होता है। . संभवतः नंदिताढ्य हेमचन्द्र के बहुत पूर्व हुये। यद्यपि निश्चय-पूर्वक इस संबंध में किसी विशेष शताब्दी का निर्देश नहीं किया जा सकता। हो सकता है, वे विरहाक के समकालीन हों या इनकेभी पूर्ववर्ती हों। सम्पादक की सम्मति है कि इनका काल ईस्वी की आरम्भिक शताब्दियों में हो सकता है। इस ग्रन्थ में कुछ १४ छन्दों का विवरण है किन्तु गाथा का विशेष प्रकट ही व्याख्या है। जो भी हो गाथा छन्द और उसके भेदों तथा रूपान्तरों का इस ग्रन्थ में जो विवेचन है, वह पिङ्गल के बाद का होते हुये भी उपयोगी हैं। इस ग्रन्थ में संस्कृत की छन्दः परम्परा का मात्र एक वर्णिक छन्द-सिलोय (श्लोक) सङ्केतित है। क्यों कि यह प्राकृत एवम् अपभंश के कवियों द्वारा भी प्रयुक्त हुआ है। १. भंडारकर शेषसंस्थान पत्रिका (ABORI) भाग १२ (१६३२-३३) में प्रो. वेलणकर द्वारा सम्पादित तथा प्रकाशित २. गा.लं. ३१ तथा ६३ ३. द्र. अवचूरि तथा रत्नचन्द्र की टिप्पणी ४. गा. ल. ३१ SEE ७२२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
वृत्तजाति समुच्चय-विरहाङ्क
प्राकृत छन्दों का द्वितीय प्राचीन ग्रन्थ वृतजाति-समुच्चय को मानना सम्भवतः ठीक होगा। इसका कर्ता ‘विरहाङ्क’ नाम से अंकित कोई ‘कइसिट्ठ’ (कविश्रेष्ठ) है। इसमें शिष्ट भाषा के द्वारा संस्कृत छन्दों का न्यून, परन्तु प्राकृत का विशेष विस्तृत निरूपण है, अपभ्रंश भाषा के भी अनेक छन्दों का भी वर्णन है। यह ग्रन्थ छः नियमों (अर्थात परिच्छेदों) में विभक्त है। प्रथम तथा द्वितीय नियम में प्राकृत छन्दों का नाम निर्देश तथा वर्णन है। तृतीय नियम में द्विपदी छन्द के ५२ प्रकारों का चतुर्थ नियम में गाथा छन्द के २६ प्रकारों का, पञ्चम नियम में संस्कृत के ५२ वर्णवृतों का सोदाहरण प्रतिपादन संस्कृत भाषा में है। षष्ठ नियम में प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट, लघुक्रिया, संख्या और आह्वान नामक ६ प्रत्ययों का लक्षण बतलाया गया है। किसी चक्रपाल के पुत्र गोपाल ने इस पर टीका लिखी है। टीकाकार ने पिङ्गल, सैतव, कात्यायन, भरत कम्बल तथा अश्वतर को नमस्कार किया है जो प्राचीन काल के छन्दःशास्त्र के रचयिता थे। ग्रन्थकार राजस्थान का निवासी ज्ञात होता है, क्योंकि उसने अपभ्रंश छन्दों का वर्णन करते समय उपशाखाभूत ‘आभीरों’ और ‘मारवी’ अथवा ‘मारुवाणी’ का नाम निर्देश किया है। इसके विद्वान् सम्पादक डा. एच. डी. बेलणकर की सम्मति में इसका समय षष्ठ तथा अष्ठम शती के बीच में कभी होना चाहिये। हस्तलेख ११६२ संवत् (११३५ ई.) है। अतएव ग्रन्थकार को इससे दो तीन सौ वर्ष प्राचीन होना चाहिये। इस ग्रन्थ में दो बाते विचारणीय हैं-प्रथम तो यह ‘यति’ सम्बन्धी उल्लेख नहीं करता है। इसका तात्पर्य है कि वह उन छन्दः शास्त्रियों की कोटि में आता है जो छन्दों में ‘यति’ को आवश्यक अंग नहीं मानते हैं दूसरे संस्कृत के वार्णिक छन्दों के लक्षण में वह कही नगण, मगण, आदि वार्णिक गणों की चर्चा नहीं करता है।
स्वयंभूच्छन्दः
स्वयंभू-रचित यह ग्रन्थ वृत्त जातिसमुच्चय से अवान्तरकालीन है। स्वयंभूच्छदन्दस् स्पष्ट रूप से अध्यायों में विभक्त नहीं है। किन्तु प्रसंग-समाप्ति- निर्देशक पद्यों द्वारा ग्रन्थ का आठ अध्यायों में विभक्त होना संकलित हैं। प्रथम अध्याय के प्रारम्भिक २२ पृष्ठ उपलब्ध नहीं हैं उपलब्ध अंश में स्वयंभू ने शक्वरी से आरम्भ कर उत्कृति तक १३ वर्गो में ६५ वर्ण वृतों का उल्लेख किया है। तीन अध्यायों में संस्कृत के वर्णवृत्त वर्णित है। शेष पांच अध्यायों में अपभ्रंश के छन्द विवेचित है स्वयभू के छंदोविवेचन की कुछ विशेषताएँ हैं। प्रथमतः उन्होंने विरहांक की भांति संस्कृत के वर्ण वृत्तों के लक्षण निर्देश के लिये भी २. राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में ग्रन्थांक ६१ द्वारा १६६२ ई. में प्रकाशित राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत (ग्रन्थांक ३७) प्रो. एच.डी. वेलणकर द्वारा सम्पादित तथा १६६२ में प्रकाशित। ७२३ तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास मात्रागणों का उपयोग किया है ये दोनों लक्षणकार वर्ण गणों से परिचित अवश्य थे, किन्तु उन्होंने जान-बूझकर उनकी उपेक्षा की हैं । विरहांक ने लक्षण-निर्देश के लिये अपने पृथक पारिभाषिक शब्दों का व्यवहार किया है जिसका स्पष्टीकारण ग्रन्थारम्भ में कर दिया है। कविदर्पणकार की भी अपनी परिभाषाएँ हैं। स्वयंभू ने अपनी अलग पारिभाषिक शब्दावली का व्यवहार नहीं किया। किन्तु मात्रिक गणों के बोध के लिये कुछ विशेष स्पष्ट अर्थ व्यञ्जक पदों का उपयोग किया है। उदाहरणतः द्विमात्रा के लिये द अथवा दआर, त्रिमात्रा के लिये त तगण या तआर, चर्तुमात्रा के लिये च, चगण, चभार या चंस, पंचमात्रा के लिये प. पगण, पआर या पंस तथा षड़ मात्रा के लिए छ छगण छआर। या छंस पद आये है। ल लघु के लिए और ग गुरु के लिए प्रयुक्त हैं। ल के बदले अवक्र या ऋजु (1) तथा ग के बदले (5) भी विकल्प से प्रयुक्त है। __स्वयंभू ने केवल संस्कृत वर्णवृतों के लक्षणोदाहरण प्राकृत छन्दों के रूप में मात्रागणों के सहारे ही नही दिये है, अपितु विरहांक’ और हेमचन्द्र द्वारा सविस्तर उल्लिखित वास्तविक प्राकृत छन्दों की सर्वथा उपेक्षा भी की है। इन प्राकृत छन्दों में कई विशुद्ध मात्रिक तथा कई अन्य मात्रिक छन्द है। इसमें ५८ कवियों के उदाहरण दिये गये हैं जिनमें १० अपभ्रंश के कवि है। स्वयम्भू के काल के विषय में विस्तृत विवेचन किया गया है तो भी इसका समय अनुमानतः दशम शताब्दी से परवर्ती नहीं है।
छन्दःशेखर राजशेखर
राजशेखर का छन्दः शेखर संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश तीनों भाषाओं के छन्दों का विवरण प्रस्तुत करता है। आरम्भ के चार अध्यायों में संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के छन्दों का प्रतिपादन है और अन्तिम पञ्चम अध्याय में अपभ्रंश छन्दों का विवेचन है कर्ता ने ग्रन्थ में अपना परिचय एक पद्य में दिया है, जिसके अनुसार वह यश का प्रपौत्र, लाहट का पौत्र तथा दुद्दक का पुत्र था। उसकी माता का नाम नागदेवी था। उसने अपने ग्रन्थ को भोजदेव का प्रिय बतलाया है। यह भोजदेव सम्भवतः धाराधीश भोजराज (१००५ ई.-१०५४ ई.) प्रतीत होते हैं, जिनका समसामयिक यह ग्रन्थकार जान पड़ता है। अतः उसका समय १. द्र. Jbbrasns. Vol || 1935 Page २२ और Jbbras, १६३२page ३ २. द्र. वृ. जा.स. ३-४ अध्याय ३. द्र. छन्दोऽनुशासन३/४ ४. ग्रन्थ का प्रकाशन डा. वेलणकर ने बा. ब्रा.रा.ए.सो. के जर्नल १६४६ में किया है। यस्यासीत् प्रपितामहोयश इति श्रीलाहटस्त्वार्यकतातष्ठक्कुरदुधकः स, जननी श्रीनागदेवी स्वयम्। स श्रीमानिह राजशेखरकविः श्री भोजदेवप्रियं छन्दःशेखर माहतोऽप्यरचयत, प्रीत्यै स भूयात् सताम्।।
: . ..–.– .–.-…-.-. .. ७२४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र एकादश शती का पूर्वार्ध प्रतीत होता है। ग्रन्थकार ‘आहत’ अर्थात जैन था’। छन्दः शेखर के ऊपर ‘स्वयंभूच्छन्दस्’ का प्रभूत प्रभाव है, क्योंकि दोनों में वर्णन का क्रम दृष्टान्त आदि समान ही है। काल की दृष्टि से यह ग्रन्थ हेमचन्द्र के ‘छन्दोनुशासन’ से प्राचीन है।
छन्दोऽनुशासन- हेमचन्द्र
हैम व्याकरण के सदृश इस ग्रन्थ में भी संस्कृत वृत्तों का प्रथमार्ध में और प्राकृत-अपभ्रंश छन्दों का विवरण उत्तरार्ध में दिया गया है। हेमचन्द्र ने अपने युग तक के प्रचलित समस्त प्रसिद्ध तथा अप्रसिद्ध प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों का विस्तार से विवेचन किया है तथा स्वयं रचित उदाहरणों से उन्हें उदाहृत किया है। इसमें शास्त्रीय विवेचन भी प्रस्तुत किया गया है। फलतः सम्भावनीय छन्दः प्रभेदों को ग्रन्थ में रखने का अनुपम प्रयास है। यह ग्रंथ आठ अध्यायों में विभक्त हैं साढ़े तीन से अधिक अध्यायों में संस्कृत के वर्णित वृत्तों का विवरण है। चतुर्थ अध्याय के उत्तरार्ध में प्राकृत छन्दों का विवेचन है। इन छन्दों को मुख्यतः चार वर्गों में विभक्त किया गया है। आर्या गल्तिक खञ्जक तथा शीर्षक। पञ्चम षष्ठ तथा सप्तम अध्यायों में अपभ्रंश के छन्दों का सामान्यरूप तथा उनके नाना प्रभेद उदाहरणों के साथ दिये हैं। अन्तिम अध्याय में छन्दः सम्बन्धी एक आवश्यक विषय का प्रतिपादन हैं। हेमचन्द्र अपभ्रंश भाषा के विशेषज्ञ थे-यह तथ्य है। जिस प्रकार उनके व्याकरण में अपभ्रंश भाषा का विशद निरूपण है तथा देशी नाम माला में देशी शब्दों का विशद अर्थ प्रतिपादन है, उसी प्रकार यह छन्दोग्रंथ भी अपभ्रंश के छन्दों का विशद विवेचन प्रस्तुत करता है। अतः प्राकृत एवम् अपभ्रंश छन्दः शास्त्र की दृष्टि से इसका विशेष महत्त्व है।
कवि-दर्पण
प्राकृत भाषा में निबद्ध इस महत्वपूर्ण छन्दोग्रन्थ का प्रकाशन पूना की भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीच्यूट में सुरक्षित तामपत्र पर लिखित एक प्राचीन हस्तलिपि के आधार पर हुआ है। ग्रन्थ के लेखक का नाम न तो कहीं इस हस्तलिपि में प्राप्त हैं और न अन्यत्र उपलब्ध है। वह ग्रन्थ किसी समय में इतना लोकप्रिय था कि १३०८ ई. में १. ३यह जैन राजशेखर तिलकराज सूरि के शिष्य उस राजशेखर से भिन्न है, जिसने ‘वस्तुपाल-तेजपाल प्रबन्ध का निर्माण किया था ‘प्र. गायकवाड ओ.सी. बड़ौदा, १६१७’ ‘प्रबन्ध कोश’ १३४६ ई’ के रचयिता राजशेखर से भी वह भिन्न है, जिन्होने इस कोश में २४ महापुरुषों के चरित्र का वर्णन किया है। छन्दश्शास्त्री राजशेखर इन दोनों से भिन्न और प्राचीन प्रतीत होता है। २. राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला (ग्रन्थाङ्क ६२) के अन्तर्गत प्रो. एच.डी. वेलणकर द्वारा सम्पादित तता १६६२ में प्रकाशित। तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ७२५ नंदिसेनकृत अजिताशातिस्तव के भाष्य में छन्दों का विवरण देते समय हेमचन्द्र के छन्दोंऽनुशासन के स्थान पर जिनप्रभसूरि ने ‘कविदर्पण’ की ही चर्चा की है। यह भाष्य सं. १३६५ में रचित है। अतएव कविदर्पण का रचनाकाल इसके पूर्व होना चाहिये। कविदर्पण में जिन सिंहसूरि, हेमचन्द्र, सुरप्रभासूरि, तिलकसूरि तथा हर्षदेव का उल्लेख है। हेमचन्द्र का काल सं.वि. ११४५-१२२६ ज्ञात है’। हर्षदेव अधिक पूर्ववर्ती है, जिनका काल सं. ६०३-७०४ वि.है. । अतएव कविदर्पण का रचनाकार से १२२६ और सं. १३६५ के बीच में होना चाहिए। इस ग्रन्थ के साथ उक्त हस्तलिपि में ही भाष्य भी उपलब्ध है, किन्तु लेखक के समान ही भाष्यकार का नाम भी अज्ञात है। कवि दर्पण के ६ उद्देश्यों में विशेषतः प्राकृत एवं अपभ्रंश के नाम छन्दों के भेदोपभेद तथा छन्दः शास्त्रीय नियम आदि वर्णित हैं। कविदर्पण में ५२ प्राकृत छन्द आये है, जिनमें २१ सम, १५ अर्द्धसम और १३ संयुक्त छंद है। यह स्पष्ट है कि कविदर्पणकार ने सभी प्राकृत छंदों की चर्चा नहीं की है तथा यह उनका उद्देश्य भी नही रहा है। उसने केवल अपने समय में प्रचलित कुछ महत्वपूर्ण छन्द चुन लियें। अतएव उसका विवेचन तदयुगीन प्राकृत कवियों के व्यवहारिक प्रयोग पर आधृत है, परम्परायुक्त सिद्धांत पर आधृत नहीं है। छन्दों के वर्गीकरण, तथा लक्षण-निर्देश द्वारा कविदर्पणकार की मौलिकता का यथेष्ट परिचय मिलता है। ग्रन्थ का मूल पाठ प्राकृत भाषा में है तथा प्रस्तुत प्रकाशित संस्करण में सम्पादक ने मूल पाठ से आने वाले प्रत्येक पद्य का संस्कृत अनुवाद भी साथ-साथ कोष्टकों में दे दिया है। इसका भाष्य संस्कृत-भाषा में है। डा. वेलणकर ने मूल लेखक तथा वृत्तिकार को भिन्न-भिन्न व्यक्ति माना है। __इसका ऐतिहासिक महत्व भी है। इसमें भीमदेव, सिद्धराज, जय सिहं, कुमारपाल आदि अणहिलपट्टन के राजाओं के स्तुतिपरक पद्यों को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
प्राकृत पैङ्गलक
अपभ्रंश और हिन्दी में प्रयुक्त मात्रिक छंदों के अध्ययन के लिये संस्कृत-प्राकृत अपभ्रंश के छन्दों ग्रन्थों के बीच सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘प्राकृत पैंगल’ है। मात्रिक छन्दों की दृष्टि से प्राकृत एवं परवर्ती साहित्य में इसका वही स्थान है, जो वर्ण वृत्त के प्रसंग में पिङ्गल कृत छन्दःशास्त्र का है। इसकी विपुल टीकासम्पत्ति इसके महत्त्व तथा उपादेयता का प्रमाण है। इसमें डाहलकर्ण राजा (१०४०-१०८० ई.), काशी के गहड़वाल राजा जयचन्द्र (१०७०-१०६४ ई) के महामंत्री तथा राजा हम्मीर (१३०१ ई. में मृत्यु) से सम्बद्ध उल्लेख १. बीथ- ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर पृ. १४२ तथा ४३३७२६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र हैं। तथापि इसके रचनाकाल के संबंध में निश्चयपूर्वक कह सकना-सरल नहीं है। ग्रन्थ के शीर्षक में दो शब्द हैं- ‘प्राकृत’ और पिङ्गल ‘प्राकृत से उस भाषा का बोध होता है, जिसमें इस ग्रन्थ का मूल पाठ निबद्ध है। शीर्षक का ‘पिंगल’ शब्द रचयिता का नाम-निर्देशक नहीं, अपितु वर्ण्य विषय का परिचायक है। संस्कृत में ‘छन्दःशास्त्र या छन्दःसूत्र के लेखक तथा इस विषय के आदि आचार्य पिङ्गल के नाम पर लोग छन्दःशास्त्र को ही पिङ्गल कहने लग गये थे और आज भी कहते हैं। ‘प्राकृत-पैङ्गलम्’ इस प्रकार, विषय-परिचायत्मक शीर्षक है, जिसका मन्तव्य है- प्राकृत भाषा में रचित पिङ्गल अथवा छन्दः शास्त्र विषयक ग्रन्थ इसमें मात्रावृत्त प्रकरण तथा वर्णवृत्तप्रकरण ये दो प्रकरण हैं। लक्षण तथा उदाहरण दोनों दृष्टियों से यह संग्रहग्रन्थ है इसका दृष्टिकोण शास्त्रीय होने की अपेक्षा व्यावहारिक अधिक हैं फलतः व्यवहारोपयोगी छन्दों की ही यहां विवेचना है। प्राकृत पिङ्गलसूत्राणि की भूमिका मे ग्रन्थ की दो टीकाओं का निर्देश है तथा सूत्रों के लेखक का नाम बाग्भट सूचित किया गया है।’ वाग्भटालंकार तथा काव्यानुशासन के रचयिता भिन्न-भिन्न वाग्भट १२ वीं- १३ वी शताब्दी में हुये हैं। परन्तु ‘प्राकृत-पैंगलम्’ का रचनाकाल १४ वीं शताब्दी के पूर्व नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसमें मेवाड़ के हमीर का नाम बार-बार आया है (श्लोक ७१, ६२, १०६, १४७, १५१, १६०, २०४ और १८३ द्रष्टब्य है।) हिन्दू-मुस्लिम युद्धों के प्रसंग में सुलतान (श्लोक १०६) खारोसान और उल्ला (श्लोक १४७ तथा १५१) शाही तथा तुलक (या तुक) और हिन्धू (या हिन्दू) (श्लोक १५७) शब्दों का प्रयोग हुआ है, जो मुसलमानों के भारत आगमन के सूचक हैं तथा इसमें आधुनिक ‘दिल्ली’ नाम पौराणिक नामों का स्थान ले चुका है (श्लोक २६६)। इस ग्रन्थ की रचना १६ वीं शताब्दी के पूर्व भी माननी होगी, क्योंकि इस पर कई भाष्य १६ वीं शताब्दी के अंत और सत्रहवीं शताब्दी के आरम्भ तक लिखे जा चुके थे। इस ग्रन्थ का रचना काल ईसा की १४ वीं शताब्दी है ऐसा याकोबी का भी मत है। इस ग्रन्थ के सम्पादन की सम्मति में | जज्जल कवि प्राकृतपैंगल के प्रथम संकलन का रचयिता है और यह कार्य हम्मीर के जीवनकाल के अन्तिम बीस-पच्चीस सालों के
- प्राकृतपिंगलसूत्राणि (निर्णयसागरप्रेससेप्रकाशित) १८६४ ई. में सूचित रविकर-विरचित पिंगलसार विकाशिनी (टीका) एव लक्ष्मीनाथ भट्ट विरचित पिङ्गलार्थप्रदीपटीका (१६५७ सं. १६०० ई) प्राचीनतम टीकायें है। इन्हीं रविकर का लिखा वृत्तरत्नावली नामक छन्दो ग्रन्थ जर्मन औरियन्टल-सोसायटी द्वारा मुद्रित है। २. प्राकृत पैंगलम् (भूमिका) पृ. ७ द्रष्टव्य-डा. भोलाशंकर व्यास -प्राकृत द्वितीय भाग प्र.१४-१६ (वाराणसी १६६२) डा. व्यास वाले संस्करण में प्रथम, द्वितीय तथा पंञ्चम टीकायें प्रकाशित हैं। इसका द्वितीय भाग भाषाशास्त्रीय और छन्दःशास्त्रीय अनुशीलन बहुत ही गम्भीर तथा प्रमाणिक है। 1…… . .. ….. . ७२७ तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास भीतर ही सम्पन्न हुआ था इसलिये प्राकृत पैंगल के संकलन का काल तेरहवी शताब्दी का अन्तिम चरण अथवा १४ वी शती का प्रथम चरण मानना सर्वथा उपयुक्त प्रतीत हैं। संकलयिता राजपूताने का निवासी भाट या ब्रह्मभट्ट प्रतीत होता है। अतएव यह रचना ‘मागध परम्परा’ का प्रतिनिधि ग्रन्थ प्रतीत होती है। इसीलिये यह अपने विषय का सर्वाधि क लोकप्रिय तथा उपयोगी माना जाता है।
प्राकृतपैङ्गलम् की टीकायें
प्राकृत पैंगलम् की अनेक टीकायें उपलब्ध है। इनका क्रमानुसार विवरण निम्नलिखित है १. रविकर विरचित पिंगलसार विकाशिनी टीका चौदहवीं शताब्दी की रचना मानी जाती हैं यह सर्वप्राचीन उपलब्ध टीका हैं।’ लक्ष्मीनाथ भट्ट विरचित व्याख्या (टीका) निर्णयसागर प्रेस से प्रकाशित प्राकृत पिङ्गल सूत्राणि के साथ दी गई है। इसका लेखक रामचन्द्र भट्ट का प्रपौत्र, नारायण भट्ट का पौत्र तथा रामभट्ट का पुत्र राजस्थान का निवासी है। यादवेन्द्र कृत पिंगल तत्त्वप्रदीपिका टीका प्राकृत, मैंगलम् (बिबभियोथिका इंडिका) से प्रकाशित है। यादवेन्द्र दशावधान भट्टाचार्य बंगीय ब्राह्मण थे। इसकी रचना १७ वीं शताब्दी से पूर्व हुई हैं। विश्वनाथ पंचाननकृत पिंगलटीका प्रसिद्ध नैयायिक तथा न्याय सिद्धान्त मुक्तावली के . कर्ता की है। इसका समय सत्रहवीं शताब्दी का मध्यकाल है। वंशीधर कृत पिंगल प्रकाश १६६६ सं. (१६४२ ई.) की रचना है। कृष्णदेव के पुत्र तथा जगदीश के पौत्र वंशीधर काशी निवासी परम्परागत विद्वान् थे। ६. कृष्णीय विवरणाख्यटीका के लेखक कृष्ण नामक विद्वान् हैं। यह भी विब्लियोथिका इंड्रिका, कलकत्ता के संस्करण में प्रकाशित है। प्राकृत भाषा में निबद्ध इस ग्रन्थ में छन्दों के लक्षण प्रायः उन्हीं छंदों में दिये है, जिनका लक्षण निर्देश अभीष्ट है। छन्दों के उदाहरण अलग से दिये गये है। छन्दों भेद के उदाहरण अलग-अलग सर्वत्र नहीं हैं। छन्दों के लक्षण-निरूपण के लिये कहीं यथा-प्रसंग वार्णिक था मात्रिक गणों का सहारा लिया गया है, कहीं वर्णमात्रा संख्या और उनके लघुगुरु स्वरूप निर्देश द्वारा ही छन्दों लक्षण-सिद्धि की गयी है। * * १. द्र. भारतीय शास्त्रों का इतिहास-आचार्य बलदेव उपाध्याय पृ.-३१७ प्राकृत पैंगलम् का प्रकाशन तीन स्थानों से हुआ है-(9) निर्णयसागर प्रेस से पूर्व निर्दिष्ट द्वितीय टीका के साथ, (२) डा. चन्द्रमाहन घोष के सम्पादकत्व में बिब्लोथिका इंडिया, कलकत्ता से प्रकाशित (१६०२) । (३) डा. भोलाशंकर व्यास द्वारा सम्पादित प्राकृत ग्रन्थ परिषद द्वारा काशी से प्रकाशित दो भागों को में, १६६२) . . . : .. ‘.-. .-… - …..-.”-… ७२८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
छन्दःकोश रत्नशेखर
छन्दःकोश के रचयिता रत्नशेखर ब्रजसेन के शिष्य तथा नाग पुरियातपागच्छ के हेमतिलक सूरि के उत्तराधिकारी थे। एक पट्टावली के अनुसार उनका जन्म सं. १३६२ में हुआ था। अतः इसका रचनाकाल चौदहवीं शताब्दी का मध्यकाल माना जाता है। उनकी दो अन्य रचना ‘श्रीपाल चरित’ तथा गुणस्थानं- कुमारोह क्रमशः सं. १४२८ तथा १४४७ में निर्मित हुई। छन्दःकोश का प्रकाशन तीनहस्तलेखों के आधार पर एच. टी. बेलणकर के संपादन में नवम्बर १६३३ में बम्बई विश्वविद्यालय पत्रिका में हुआ है। ये आधार भूत तीन हस्तलेख पूना के भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इंस्टीच्यूट से प्राप्त हुये थे। यह ७४ पद्यों का एक छोटा या ग्रन्थ है, जिसमें अपभ्रंश के कवियों द्वारा वहुशः प्रयुक्त छन्दों का ही विशिष्ट वर्णन है। इससे ग्रन्थकार के व्यावहारिक दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। इसकी रचना का काल अपभ्रंश की लोकप्रियता का युग है और इस अनुमान की पुष्टि ग्रन्थकार के इस कथन से भी होती है, जिसमें उसने प्राकृत तथा अपभ्रंश को हेय मानने वाले पण्डितों की खासी हंसी उड़ायी है। इसके ऊपर चन्द्रकीर्तिसूरि की टीका १७ वीं शती में निर्मित उपलब्ध होती है।
प्राकृत छन्दों के अनुपलब्ध लक्षणग्रथ
प्राकृत छंदों से संबंध रखने वाले कुछ लक्षण-ग्रन्थों अथवा उनके लेखकों के उल्लेख अन्य ग्रंथों में मिले हैं, यद्यपि वे ग्रंथ स्वयं अबतक अनुपलब्ध ही हैं। कवि दर्पण के भाष्य के मनोरथ नामक छंदोलक्षणकार तथा अज्ञात लेखक कृत छंदः कन्दली नामक ग्रथं का उल्लेख किया है। रत्नशेखर ने अर्जुन और गोसल नामक लक्षणकारों से उद्धरण दिया है। इनके पूर्व ही स्वयंभू ने गोविन्द और चतुर्मुख को उद्धृत किया है। इससे प्रतीत होता है कि प्राकृत छंदों पर अन्य लेखकों ने भी लेखिनी उठाई होगी, किंतु आज उनके ग्रंथों का पता नहीं हैं।
पालि भाषा के छन्दोग्रन्थ
पालि भाषा में ‘वुत्तोदय’ (वृत्तोदय) छन्दः शास्त्र का एकमात्र प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यह संस्कृत के ‘वृत्तरत्नाकर’ नामक छन्दो ग्रन्थ के आधार पर लिखा गया है। उसकी रचना सिंहली भिक्षु संघरक्खित (संघरक्षित) ने की थी। इस पर ‘वचनत्धजोतिका’ नाम की एक टीका भी लिखी गयी। इसके अतिरिक्त ‘छन्दोविचिति’, कविसारप्पकरण (कविसार-प्रकरण) कविसारटीका निस्सय (कविसारटीकानिश्चय) नामक कुछ और भी ग्रन्थ हैं, जो अप्रसिद्ध हैं।
छन्दश्शास्त्रीय पर्यालोचन छन्दश्शास्त्र के विषयविस्तार की परम्परा
वैदिक स्वर-वृत्त या अक्षर-वृत्त, जिसमें उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों के ७२६ तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास उच्चारण से ध्वनिप्रकारों का नियमन तथा अनुच्छेदगत अक्षर-संख्या की स्थूल गणना की पद्धति थी, कालान्तर में लघुगुरु-वर्ण-सांगीतिक अनुशासन में बँधकर वर्ण-वृत्त में रूपान्तरित हुआ। इस नवीन वर्ण-संगीत की ओर रचयिताओं का ध्यान कुछ वैदिक छन्दों के पाद परिवर्द्धन की प्रक्रिया में वैदिक मन्त्रों से ही आकृष्ट हो चुका था, जैसा गायत्री के कुछ पादों और ब्राह्मण गाथाओं से विदित हैं वेदागत प्रायः सभी छन्दों ने वर्ण वृत्त के रूप में गणबंधन स्वीकार किया, किन्तु अनुष्टुप् पुराणकारों और महाकाव्यकारों के बीच व्यापक रूप से लोकप्रिय होने के कारण अर्धनियमित (स्वर-मुक्त, वर्णगण-मुक्त) रूप में ही परिनिष्ठित हो गया। अनुष्टुप् स्वर-वृत्त और वर्ण-वृत्त के बीच की संयोजक कड़ी का विशिष्ट उदाहरण हैं। वैदिक छन्दों की पादगत अक्षर संख्या वर्ण वृत्तान्तर्गत गणों में विभक्त हुई और इन गणों के प्रस्तार-भेद से समान अक्षर संख्या वाले अनेक छन्दोंभेदों की सृष्टि हुयी। विभिन्न वैदिक छन्दों के नाम क्रमशः विभिन्न अक्षर संख्या वाली उक्तादि छन्दोजातियों के बोधक बन गये। वर्णवृत्तों के नये नामकरण कहीं शृंगारिक प्रसंगों में उनके प्रयोग से प्रभावित हैं। जैसे इन्दुवदना प्रियंवदा आदि। कहीं शृंगारेतर प्रकृति-व्यापार के बोधक है- जैसे जलोद्धतगति भुंजगप्रयात आदि। तथा कहीं छन्दोंगत विशेष भंगिमा से सूचक हैं जैसे द्रुतविलबित आदि। गण प्रधान छन्दों के लघु-गुरुभाव का विकास भी वैदिक वृत्तों से हुआ है शौनक ने जागत तथा गायत्र पादों के उपोत्तम अर्थात् अन्त्य से पूर्ववर्ती अक्षर को लघु और वैराज तथा त्रैष्टुभ पादों के उपोत्तम अक्षर को गुरु होने पर इसे ‘वृत्त’ बताया है । इससे स्पष्ट है कि मात्रिक वृत्तों का मूल वैदिक छन्दों नियम में उपलब्ध है। वर्णो के अङ्गत्वविचार के सूक्षम विवेचन से गुरु-लघुभाव तथा मात्राकाल आदि का सम्पूर्ण निर्देश वैदिक छन्दोविषयक भाग में प्राप्त होता है। इस सूक्ष्मविवेचन को आधार बनाकर परवर्ती छन्दः शास्त्रियों ने लौकिक मात्रावृत्तों का विस्तार किया है। वर्ण-गणों के साथ देवता-फलाफलादि-विचार धर्म-भावना-प्रधान परिवेश का फल है, जिसका पालन परवर्ती युग में भी रुढि की तरह हुआ है। व्यवहारिक काव्य के बीच इस विचार की उपयोगिता नहीं दिखाई देती। परन्तु सूक्ष्म आधिदैविक तत्त्वविवेचन में यह उपादेय हैं। १. वर्षिष्टाणिष्ठयोरेषां लघूपोत्तममक्षरम् । गुर्वितरयोक्षु तद् वृत्तं छन्दसां प्राहुः।। (ऋ.प्रा. १७/३६) तथा द्र. ऋ. प्रा. १७/२५) २. द्र. ऋ.प्रा.१८/३७-४४ आदि ७३० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र छन्दः शास्त्रीय विवेचन का प्रवृत्ति के मूल यों तो वैदिक वाङ्मय में भी मिल जाते हैं’ पादनिर्धारण (ऋ.प्रा. १७/४४), गुरुलघुविचार तथा अङ्गत्व (ऋ.प्रा.१/२०-२६) मात्राविचार (ऋ. प्रा. २७-३०) तथा अवसाननिर्णय (ऋ.प्रा.४७-५१) आदि।) वैदिक अवसारनिर्णय ही लौकिक छन्दों के यतिनियमों के स्रोत हैं। किन्तु पृथक ग्रन्थरूप में उसकी सम्यक परम्परा का प्रवर्तन पिंगलाचार्य के ‘छन्दःशास्त्र’ द्वारा हुआ। संस्कृत-लक्षणकारों में अकेले हेमचन्द्र ने लोकच्छन्दः परम्परा से उद्भूत तथा अपभ्रंश में प्रयुक्त मात्रिक छन्दों की विशद चर्चा की है। हेमचन्द्र के पूर्व प्राकृत के लक्षणकार विरहांक और स्वयंभू ने ऐसे छन्दो का उल्लेख किया था। __ इनके ग्रन्थों में प्रायः सभी ज्ञात छन्दो का अंतर्मुक्त कर लेने की प्रवृत्ति दीखती है। तथापि प्राकृत पैंगल और छन्दःकोश में वे ही छन्द आये हैं जो अपेक्षाकृत अधिक प्रचलित अथवा लोकप्रिय थे। इन दो ग्रन्थो में आये छन्दों के उदाहरण व्यवहारिक काव्य के बीच दीर्घ काल तक सुगमता से मिल भी जाते हैं। परवर्ती छन्दोलक्षणकार प्रायः पिंगलछन्दःसूत्र तथा प्राकृत पैंगल से प्रेरण ग्रहण करते हैं। संस्कृत-लक्षणग्रन्थों में आरम्भ से ही उल्लिखित छन्द वर्णवृत्त से उद्भूत हैं। आर्या और उसके कतिपय भेद अनुष्टुप के पाद-परिवर्द्धन तथा मात्रिक रूपान्तर के प्रतिफलन है। प्राकृत-गेय कथाकाव्यों या चरितकाव्यों में प्रयुक्त होने के कारण आर्या का ही नाम गाथा के रूप में परिवर्तित और विकसित हुआ। अक्षर परिमाणात्मक वैदिक छन्दों का प्रभाव तथा एक दो अक्षरों की न्यूनता तथा आधिक्य होने पर भी छन्दों का नियमन करने की वैदिक-पद्धित’ के विस्तार से ही लौकिक छन्दों में अक्षरवृत्ति के अनुसार प्रस्तार द्वारा छन्दोनिर्देश प्रारम्भ हुआ। अनेक परवर्ती कवियों ने तो ‘निवृच्छार्दूल-विक्रीडितछन्द’ आदि में पद्यरचना भी की है। भुरिक् के भी लौकिक उदाहरण मिलते हैं। __ मात्रासमक षोडशमात्रापादी दोधकादि समवर्णवृत्तों के मात्रिक समचतुष्पदी रूपान्तर है, जिनमें कालान्तर में पादाकुलक और चौपाई छन्द विकसित हुए। वैतालीयछन्द संस्कृत के अर्द्धसम छन्दों का प्रतिनिधि है, जिसके पाद-संघटन में आंशिक रूप से मात्राओं तथा आंशिक रूप से वर्ण-गणों का उपयोग होता है। यह छन्द वर्णवृत्त तथा लोकगत तालछन्द के पादांश-मिश्रण द्वारा उद्भूत हैं। १. द्र.पादज्ञान (ऋ.प्रा. १७/२५) २. ऊनाधिकेनैकेन निद्भुरिजौ, द्वाभ्यां विराट्स्वराजौ (वि.सू.३/५६,६०) ३. द्र. नैष्कर्म्यसिद्धि का अन्तिम पद्य (४,७७) सुरेश्वराचार्य चन्द्रिका टीका की उक्ति निवृच्छार्दूलविक्रिडितं छन्दः। तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ७३१ प्राकृत-अपभ्रश के छन्दोंग्रन्थों में उपरिलिखित तीन वर्गों के छन्दों के अतिरिक्त प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं में प्रयुक्त कुल मिलाकर शताधिक मात्रिक छन्द उल्लिखित है। परवर्ती ग्रन्थों (प्राकृतपैंगल तथा छंदःकोश) में इनमें अधिकांश के अनुल्लेख द्वारा यह ध्वनित है कि ये सभी छन्द चिरंजीवी न हो सके। लक्षणग्रन्थों में उल्लिखित सभी छन्द किसी युग में व्यावहारिक काव्य-प्रयोग से लिये गये हों यह आवश्यक नहीं हैं। उनमें से कई छन्द कल्पना और सम्भावना के सहारे लक्षणकारों के मस्तिष्क की उपज हों। किंतु इन छन्दों के प्रारंभिक उल्लेख से इसका पता भी अवश्य चलता है कि अपभ्रंशकाल में मात्रिक छन्दों के नये-नये प्रयोग व्यवहारिक काव्य के बीच हो रहे थे तथा आदिकालीन रचयिता अपनी विविध भावनाओं और प्रसंगों के साथ एक समान सांगीतिक अनुकूलता रखने वाले नवीन छन्दः स्वरूपों की निरन्तर, खोज में थे। छन्दों के काव्यगत ऐतिहासिक अध्ययन द्वारा इसकी पुष्टि होती है।
छन्दोग्रन्थों का विषयगत स्वरूप
छन्दःशास्त्र में प्रमुख तीन अङ्ग हैं (१) स्वरूप परिचय, (२) गुण दोष विवेचन तथा (३) विनियोग (प्रयोग विषय)। प्रथम अङ्ग में लघु गुरु आदि मात्राओं तथा गण विराम आदि की परिभाषाएँ वृत्त-जाति आदि का विभाग और छन्दों के लक्षण, उदाहरण आदि आते हैं। इससे छन्दों के स्वरूप (बनावट) का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है, जो कि रचना के लिये आवश्यक है। दूसरे अङ्ग में रचनागत सुष्ठुता एवं असुष्टुता पर प्रकाश डाला जाता है। क्योंकि रचना की सफलता के लिये छन्दों के नियमों का पालन ही केवल पर्याप्त नहीं होता अपितु सुष्टुता भी अपेक्षित रहती है। कभी-कभी नियमानुसार शब्द योजना होने पर भी विस्वरता आ सकती है। स्पृहणीयता की दृष्टि से इसका निराकरण अत्यावश्यक होता है, क्योंकि श्रव्यता (सुनने में विस्वर या त्रुटित प्रतीति न होना) छन्दों का आवश्यक गुण है। उसके अभाव में काव्य की हीनता तो प्रकट होती ही है काव्य अनुपादेय भी बन जाता हैं सुन्दर से सुन्दर भाव इसके विना प्राणहीन लगने लगते हैं। कवि और काव्य की सफलता के लिये इस अङ्ग का ज्ञान अत्यावश्यक हैं तीसरे अङ्ग में इस बात पर प्रकाश डाला जाता है कि कौन सा विषय किस छन्द में उपनिबद्ध किया जाय। क्योंकि विषयानुरूप छन्दो के प्रयोग से छन्द तो प्रकाशित होते ही हैं काव्य की चमत्कृत हो उठता है। इसलिए विषय वस्तु के अनुरूप छन्दश्चयन नितान्त आवश्यक हैं तात्पर्य यह है कि छन्दश्शास्त्रीय विवेचन की दृष्टि से स्वरूप-परिचय आवश्यक, गुणदोष निरूपण अत्यावश्यक और वृत्तविनियोग परमावश्यक अङ्ग हैं। परन्तु व्यावहारिक दृष्टि तथा काव्यरचना के उपयोग हेतु मुख्यता स्वरूप-परिचय की ही है। इसी कारण अनेक छन्दोलक्षणकारों ने छन्दों के सोदाहरण निरूपण तक ही अपना विवेचन सीमित रखा है। वैदिक छन्दों के प्रतिपादन में भी आचार्यों ने ‘छन्दःसम्पत्ति’ कि लिये नियम’ उपदिष्ट करते हुये यह सङ्केत दिया है ७३२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र कि लौकिक छन्दों में गुणाधान तथा दोष समाधान हेतु सचेष्ट रहना आवश्यक हैं। विषयानुरूप छन्दोविनियोग तो कविप्रतिभा का परिचायक है। लौकिक छन्दः शास्त्रियों ने अपने ग्रन्थों में उपर्युक्त में से एक अथवा दो अगों का निरूपण दिया है। तीनों अगों का सोदाहरण विवेचन क्षेमेन्द्र के ‘सुवृत्त तिलक’ में उपलब्ध होता है।
छन्दोग्रन्थों का रचनागत स्वरूप
शतशः उपलब्ध छन्द्रोग्रन्थों की रचनाशैली चार प्रकार की दृष्टिगोचर होती है सूत्रात्मक, पौराणिक, वृत्तानुसारिणी तथा अक्षरानुसाारिणी। पिङ्गलसूत्र आदि ग्रन्थ सूत्रात्मक शैली में हैं। इनमें संक्षेप में वृत्त का नाम तथा गणों की संख्या निर्दिष्ट की जाती है। अग्निपुराण, भरत नाट्य शास्त्र आदि आर्ष ग्रन्थ पौराणिक शैली के हैं। इनमें अनुष्टुप आदि में छन्दों का नाम तथा लक्षण पुराण वर्णन की भांति उपदिष्ट होते हैं अर्वाचीन ग्रन्थों में सुवृत्ततिलक भी पौराणिक शैली की रचना है। वृत्तानुसारिणी शैली में वृत्तो के नाम तथा लक्षण उसी वृत्त में वर्णित होते हैं। वृत्तरत्नाकर, छन्दोमञ्जरी आदि इस शैली की रचनायें हैं। अक्षरानुसारिणी शैली के अन्तर्गत किस वृत्त में कितने अक्षर लघु तथा कितने गुरु हैं, इसको आधार बनाकर उस क्रम से लक्षण की रचना उसी वृत्त में की गयी है। श्रुतबोध आदि इसी शैली की रचनायें हैं।
छन्दःशास्त्र की आचार्य परम्परा का समीकरण
छन्दः शास्त्र की विषय वस्तु पर ऐतिह्यपरकदृष्टि से अनेक नवीन तथ्यों का आविष्कार होता है। यादव प्रकाश के द्वारा निर्दिष्ट छन्दश्शास्त्रीय आचार्य परम्परा पर्याप्त प्रामणिक प्रतीत होती है। परन्तु इसके अतिरिक्त गरुडाम्नाय नाम से एक विमिन्न आम्नाय का उल्लेख भास्कर राय ने अपने भाष्यराज में विशेषतः आर्या के प्रसंग में किया है। यहाँ आम्नायोपदेश विष्णुवाहन गरुड़ के द्वारा प्रवर्तित छन्दशास्त्रीय परम्परा का संकेत करता है तथा वह ज्ञान उद्धृत है, जिसका तात्पर्य ‘गरुडपुराण’ से है। आम्नाय के प्रति निष्ठा धारण करना प्रत्येक छन्दःशास्त्री का मुख्य कर्तव्य है। हलायुध ने आम्नाय को अनिवार्य नियम माना है। (छन्दःसूत्र ६/३,४,७ आदि)। __छन्दःशास्त्र के प्राचीन आचार्यों के मत अनेक छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं, जिससे उन मतों की प्रामाणिकता तथा लोकप्रियता सिद्ध होती है। कुछ आचार्यों के संकेतस्थलों का निर्देश यहाँ संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत है। १. द्र.ऋ.प्रा.१७/२२,२४ २. यथा-‘तनुमध्या त्यौ’ आदि ३. यथा-मकारयुगपर्यन्ते, यत्संयुक्तं गुरुद्वयम् । विधुन्मालाभिधं तद्धि वृत्तमष्टाक्षरं विदुः।। आदि तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ७३३ is in x es w ģ i • — I aarakArihani आचार्य सङ्केत स्थल १. पाञ्चाल (बाभ्रव्य) उपनिदानसूत्र यास्क उपनिदान, पिंगल, यादवप्रकाश ताण्डी उपनिदान, पिंगल निदान (सूत्रकार पतञ्जलि) उपनिदान पिंगल उपनिदान, जयकीर्ति, यादव प्रकाश उक्थशास्त्रकार उपनिदान क्रौष्टुकि पिंगल, यास्क (निरुक्त ८/२) सैतव पिंगल जयकीर्ति, यादवप्रकाश काश्यप पिंगल १०. रात पिंगल-जयकीर्ति, यादवप्रकाश ११. माण्डव्य पिंगल-जयकीर्ति, यादवप्रकाश संस्कृत वाङ्मय में स्वतन्त्र रूप में सर्वप्रथम छन्दःशात्रीय लक्षणग्रन्थ शेषावतार पिंङ्गल ने ही प्रस्तुत किया यह मान्यता है अतः छन्दःशास्त्र के जनक पिंगल ही माने जाते हैं। अपने से प्राचीन आचार्यों के विवरणों को अपने अनुभव से पुष्ट कर उन्होंने इस विख्यात ग्रन्थ को लिखकर इस शास्त्र के लिये आधार स्तम्भ का निर्माण किया। ऊपर उल्लिखित आचार्यों के स्वतन्त्र ग्रन्थ थे अथवा उनके विशिष्ट मत ही थे इसका अब ज्ञान कराना कठिन है। इन आचार्यो के रचित पद्य कहीं- कही टीकाकारों ने उद्धृत कर रखे हैं और इतिहास की दृष्टि से वह उल्लेख ही हमारे लिये मूल्यवान् निधि है। नारायणभट्ट ने नामतः सैतव-रचित एक पद्य उद्धृत किया है। जिसे हलायुध ने भी पिंगल के ५/१८ की टीका में उल्लिखित किया है। इसी शैली पर पिंगल ७/८ में उद्धर्षिणी का पद्य भी सैतव का ही है। पिंगल के ४/२३ में माण्डव्य का पद्य सुरक्षित है। इन आचार्यों ने पद्यों को स्वनामाङ्कित करने की पद्धति निकाली थी जो पिछले युग के लेखकों ने भी अपनायी। परवर्ती छन्दः शास्त्रीय ग्रन्थकारों ने पिंगल को ही अपना आराध्य माना है और इनके क्षुण्ण मार्ग से हटकर चलने का सर्वथा निषेध किया है। जयदेव, जयकीर्ति तथा केदारभट्ट ये सब आचार्य पिंगल के ही अनुयायी है परम्परानुसार शेषावतार पिङ्गलनाग द्वारा प्रवर्तित छन्दःपरम्परा में अग्नि पुराण भी इस श्रेणी से बहिर्मुख नहीं है। उसमें आठ अध्यायों द्वारा (३२८ अ. से आरम्भ ३३५ अध्याय तक) परिभाषा, दैव्य आदि संज्ञा, पादाधिकार, उत्कृति आदि छन्द, आर्या आदि Hamarane … .
. . १. सैतवेन पक्षार्णवं तीर्णो दशरथात्मजः। रक्षःक्षयकरी पुनः प्रतिज्ञा स्वेन बाहुना।। … … … … .. . –… ……… …… , अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ७३४ मात्रावृत्त, विषमवृत्त, अर्धसमवृत्त, समवृत्त, प्रस्तार आदि क्रम से विवेचित किये गये हैं। इस पुराण में प्रतिज्ञा है कि पिंगलमत के अनुसार ही छन्दों का लक्षण कहा जायेगा। (‘छन्दो वक्ष्ये मूलशब्दैः पिङ्गलोक्तं यथाक्रमम्’ ३२८/१) इस प्रतिज्ञा का पूर्ण निर्वाह इन अध्यायों में किया गया है। गरुड़ पुराण के छः अध्यायों में छन्दशास्त्र का विवरण उपलब्ध होता है (पूर्वखण्ड के २०६ अ. २१२ अ.) जिनमें परिभाषा, मात्रा वृत्त, समवृत्त, अर्धसमवृत्त, विषमवृत्त तथा प्रस्तार का वर्णन क्रमशः किया गया है। यहाँ कतिपय नवीन छन्दों का लक्षण भी निर्दिष्ट किया गया है, किन्तु पिंगल से विशेष भिन्नता नहीं है। भास्करराय इसे ही गरुडाम्नाय के नाम से अभिहित करते हैं। बराहमिहिर की वृहत् संहिता (१०३ वाँ अध्याय) में उपलब्ध तथा ईशानदेव (दशम, एकादश शती) की पद्धति के पूर्वार्ध पटल (अ. १६-२६ तक) में प्राप्त छन्दोवर्णन पिंगलानुयायी है जिससे पिंगल के सार्वभौम प्रभाव एवं महत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है। पिंगल के एकाधिपत्य होने पर भी तदितरसम्प्रदाय की सत्ता का अपलाप नहीं किया जा सकता। भरत नाट्यशास्त्र का छन्दोवर्णन अनेक बातों में पिंगल से भिन्न है। भरत त्रिक को जानते थे, परन्तु उन्होंने उसका प्रयोग नहीं किया। जानाश्रयी छन्दोविचिति पिंगल की आलोचना करती है और अपने मत का संकेत वृत्ति के आरम्भ में ही वह करती है। यहाँ छन्दों के नाम भी पिंगल से भिन्न हैं। अवान्तरकालीन ग्रन्थकारों में हेमचन्द्र ने इस ग्रन्थ का अंशतः अनुगमन किया। जैन मतावलम्बी होने पर भी जयदेव पिंगल के मत के मानने से विरत नहीं हुए। उनका ग्रन्थ पिंगल के समान अष्टाध्यायी मात्र नहीं है, प्रत्युत उसमें वैदिक छन्दों का भी विवरण है। यह जैन ग्रन्थाकार की रचना में अवश्य ही कौतुहलोत्पादक है। छन्दःशास्त्र के विकास में छन्दों की बढ़ती हुयी संख्या ध्यान देने योग्य है। समवृत्तों की संख्या पिंगल में केवल ६० है, जयदेव में ८० केदारभट्ट में १०६, तथा हेमचन्द्र में लगभग ३००। इस प्रकार छन्दःशास्त्रियों ने अपने युग में निबद्ध काव्य-नाटकों में प्रयुक्त छन्दों का विवरण अपने शास्त्रीय ग्रन्थों में निबद्धकर उसे पूर्ण तथा सामयिक बनाने का अथक प्रयास किया। .. छन्दःशास्त्र के इतिहास में प्रो. अर्नेस्ट वाल्डश्मिट के द्वारा स्थापित वर्लिन एकेडमी द्वारा प्रकाशित छन्दोविचिति ग्रन्थ बड़े महत्त्व का है (१६५८ ई.)। ग्रन्थ की अन्तरंग परीक्षा से लेखक का नाम मित्रघर सिद्ध ज्ञात होता है जो आम्नाय को सर्वथा अज्ञात है (२/५/२)। मध्य एशिया के तुरफान नामक स्थान से इस शताब्दी के आरम्भ में डा. ल्यूडर्स ने जिन ग्रन्थों के हस्तलेखों का बृहत् संग्रह किया, उनमें से यह अन्यतम है। इसके पत्र जीर्ण-शीर्ण तथा अस्त-व्यस्त प्राप्त हुए हैं इन्हीं पत्रों को सुव्यवस्थित कर ग्रन्थ का प्रकाशन सम्पादक के बहुल तथा दीर्घ अध्यवसाय का सूचक है। ग्रन्थ अभी अपूर्ण ही है, परन्तु प्राप्त अंशों का मूल्य कम नहीं है। इस ग्रन्थ के दृष्टान्त नाट्यशास्त्र में उद्धृत छन्दों RAHA तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास ७३५ के उदाहरणों से मिलते हैं, यह ध्यातव्य वैशिष्टय है। इससे भरतमुनि सम्मत पृथक छन्दःपरम्परा का सकेत मिलता है। जानाश्रयी का मात्रावृत्तों का विवरण पूर्वापक्षया विशद तथा पूर्ण है। षष्ठशती के इस ग्रन्थ में सूत्र तथा वृत्ति दोनों की सत्ता है, परन्तु वृत्ति उतनी विशद नहीं है जितना प्राचीन ग्रन्थ के रहस्यों के आविष्करण के लिये आवश्यक है। वृत्तरत्नाकर वस्तुतः छन्दःशास्त्र की जानकारी के लिए एक आदर्श ग्रन्थ है। प्राचीन युग में वैदिक साहित्य का अध्ययन लोकप्रिय था। इसलिए वैदिक छन्दों का विवरण देना अनिवार्य था। परन्तु मात्र नाट्यशास्त्रीय प्रयोजान के कारण भरतमुनि के तथा संगीत शास्त्रीय प्रयोजन की दृष्टि से पाठ्यरत्न कोश में कतिपय आवश्यक छन्दों का ही विवेचन है परवर्ती अध्येताओं की हासोन्मुखी शक्ति के कारण बाद में यह आवश्यक न रहा कि वैदिक छन्दों का विवरण हो इसीलिये केदारभट्ट ने अपने ‘वृत्तरत्नाकर’ में उस अंश की उपेक्षा की तथा लौकिक छन्दों का ही विवरण, प्रस्तुत किया। इसमें छन्द का लक्षण उसी छन्द में देकर लक्ष्य लक्षण का सुन्दर समन्वय किया गया है जो पिछले युग के लिये एक अनुकरणीय आदर्श बन गया। भास्करराय (१८ वीं शती का पूर्वार्द्ध) ने इस शास्त्र की शास्त्रीय मर्यादा का रक्षण अपने अनेक भौलिक तथा व्याख्या ग्रन्थों में बड़ी सुन्दरता से किया है। __ यहां यह तथ्य स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि परवर्ती छन्दोग्रन्थों में वैदिक छन्दों का विवेचन न होने का कारण उन लेखकों का वैदिक छन्दों का अज्ञान अथवा वैदिक छन्दों से विमुखता नहीं है। अध्येतृवर्ग में वैदिक छन्दों का प्रयोजन समाप्त होना ही इसका कारण नहीं है। वस्तुतः भारतीय परम्परा में अपौरुषेय वैदिक शब्द राशि का परिमाण नियत है तथा उस वेद शब्दराशि के स्वर, वर्ण अवसान, ऋषि, देवता एवं छन्द आदि भी सुनियत एवम् आचार्यों के द्वारा उपदिष्ट हैं। उनमें परिवर्तन सम्भव नहीं है तथा मन्त्र लक्षण की भांति छन्दोनिर्देश भी ऋषिपरम्परा से प्राप्त है। ऐसी स्थिति में शौनक आदि आचार्यों के द्वारा वैदिक छन्दों का उपदेश हो जाने के अनन्तर मात्र उनका ज्ञान ही आवश्यक था। वैदिक मंत्रों को उदाहृत करते हुए छन्दःपरिवर्तन अथवा छन्दस्वरूप परिवर्धन का कोई प्रयोजन तथा मान्यता नहीं थी। फलतः परवर्ती छन्दः शास्त्रियों ने या तो वैदिक छन्दों का पूर्ववर्ती विवेचन स्वीकार करते हुये स्वयं पृथक् विवेचन नहीं किया अथवा कतिपय (वृत्तमुक्तावली, जयदेवच्छन्दः) छन्दः शास्त्रियों ने श्रद्धापूर्वक वेदाङ्गता प्रतिष्ठित करने हेतु वैदिक छन्दों का निरूपण किया है। पिछले युग के अधिकांश छन्दः शास्त्री स्वीकृत सिद्धान्त का ही विवरण देने में अपने को कृतकृत्य मानते है। उन्होंने छन्दःशास्त्र के मौलिक तथ्यों की छान-बीन में श्रम नहीं किया। टीकाकारों ने नये उदाहरणों द्वारा मूलग्रन्थ के लक्षणों को सरल-सुबोध बनाया तथा विशेषकर अपने आश्रयदाता की प्रशस्ति में उनके द्वारा ये उदाहरण विरचित हैं। हलायुध ने पिंगल सूत्रों की अपनी वृत्ति में आश्रयदाता मुजराज के विषय में अनेक पद्यों कोअष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र LA ७३६ दृष्टान्त रूपेण उपस्थित किया (द्रष्टव्य. वि. ४/१६, ४/२०, ५/३४, ३६, ३७ वृत्ति) लोकप्रिय छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थों का प्रणयन परवर्ती काल में भी विभिन्न उपयोगिताओं को ध्यान में रखते हुये भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों में होता रहा। ऐसे ग्रन्थों में गंगादास की छन्दोंमञ्जरी पूर्वी भारत में बहुत प्रसिद्ध है। यह ग्रन्थकार उत्कलदेशीय था और इनकी यह छन्दोमञ्जरी अन्य अन्य उत्कलदेशीय ग्रन्थकार विश्वनाथ कविराज के साहित्यदर्पण के समान ही लोकप्रिय रही है। इसी प्रकार महाराष्ट्र, बंगप्रदेश उत्तर भारत के प्रान्तों तथा कर्णाटक आदि के विद्वानों ने भी संस्कृत छन्दश्शास्त्र की परम्परा के विस्तार में अपना योगदान किया तथा. अपने-अपने क्षेत्र की सीमाओं को लांघकर समग्र भारत में एकात्मभाव से छन्दोविवेचन-अनुशीलन को प्रभावित किया। यह भारतीय संस्कृति का वैशिष्टय है कि अद्यतन बीसवीं शताब्दी में भी वाग्वल्लभ -सदृश छन्दोग्रन्थों में मौलिक छन्दोविधान की सुदृढ परम्परा दृष्टिगोचर होती है। डेढ़ हजार से अधिक छन्दों का विवेचन करने वाला यह ग्रन्थ संस्कृत छन्दः शास्त्र की अद्भुत विस्तार क्षमता को द्योतित करता है। विश्व साहित्य में सम्भवतः सर्वप्रथम संस्कृत भाषा ही ऐसी विशिष्टता से अलङ्कृत है जिससे गद्य तथा पद्य दोनों को छन्दों से निबद्ध करते हुये नियमित सौष्ठव प्रदान किया गया है। इस सिद्धान्त के आधार-स्रोत वेद हैं। ऋग्वेद की पादव्यवस्था से युक्त ऋचाओं के आधार पर पद्यच्छन्दो का विस्तार तो स्पष्ट है। गद्यात्मक यजुर्मन्त्रों का छन्दो निरूपण दण्डक आदि लौकिक गद्यच्छन्दों का भी स्रोत है। यजुर्वेद के अनेक यजुर्मन्त्रांश मात्रा गों के लालित्य से भी परिपूर्ण है। स्पष्टतः दण्डक आदि इनसे उद्भूत हुए होंगे, यह कथन उचित है। यद्यपि वैदिक उदाहरणों के आधार पर वेदमन्त्रों को साहित्यिक-स्वरूप देकर छन्दोंनिर्देशक मानना अभीष्ट नहीं है। किन्तु ‘सर्व वेदात् प्रसिद्धयति’ इस मान्यता के अनुसार छन्दश्शास्त्र के बीज वेदमें उपलब्ध होना स्वाभाविक है। इन बीजों को वैदिक शब्दराशि में प्राप्त कर आचार्यों ने छन्दश्शास्त्र का विस्तार किया, यह आर्ष सिद्धान्त है।’ अपौरुषेय वेद शब्दों से अधिगत छन्दश्शास्त्रीय परम्परा शौनक व्यास आचार्य पिङ्गल, केदारभद्द, क्षेमेन्द्र आदि आचार्यो से समुपबृंहित होती हुई ईसा की वीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भी वृत्तमञ्जरी आदि ग्रन्थों से समृद्ध तथा सफल है यह विश्ववाङ्मय के लिये सुखद आश्चर्य है। वस्तुतः शास्त्ररक्षा का यह स्वाभाविक गुण ही अमरवाणी संस्कृत का स्वरूप है। Ram १. द्र. शर्म च में वर्म च मेंऽगनि च मेंऽस्थीनि च मे (मा.सं. १८/३) तथा श्यामाकाश्च में नीवाराश्च में गोधूमाश्च में (मा.सं.१८/१२) आदि।) २. वेदशब्देभ्य एबादौ पृथक संस्थाश्च निर्ममे। ३. द्र, नमश्छन्दोविधानाय सवृत्ताचारवेधसे। तपःसत्यनिवासाय व्यासायामिततेजसे।।सुवृत्ततिलक १/३ …-.-..—. … … RIPTAur ७३७ __ * * छन्दों की विविध संज्ञाएं
परिशेष
वैदिक छन्दों की अक्षरसंख्यानुसार तालिका
१. वैदिक छन्दों की अक्षरसंख्यानुसार तालिका २. प्रमुख लौकिक छन्दों की वर्णानुक्रमशः सूची वैदिक छन्दों की अक्षरसंख्यानुसार तालिका, छन्द की विविध संज्ञायें १. दैवी गायत्री; दैवी उष्णिक निवृत्; दैवी अनुष्टुब् विराट २. दैवी उष्णिक . दैवी अनुष्टुप निवृत; दैवी गायत्री भूरिक; दैवी बृहती विराट् । ३. दैवी अनुष्टुप; दैवीवृहती निवृत; दैवी उष्णिक् भूरिक्; दैवी पंक्तिर्विराट; दैवी गायत्री स्वराट्। दैवी बृहती; दैवी पंक्तिर्निवृत्; दैवी अनुष्टुप भूरिक्; दैवी त्रिष्टुप् विराट याजुषीगायत्री विरा; दैवी उष्णिक स्वराट्। दैवी पंक्ति; दैवी त्रिष्टुप् निवृत्; याजुषी गायत्री निवृतः दैवी वृहती भूरिक्; दैवी जगती विराट याजुषी उष्णिक विराट्; दैवी अनुष्टुप् स्वराट्। दैवी त्रिष्टुप; याजुषी गायत्री; दैवी जगती निवृत्; याजुषी उष्णिक निवृत्; दैवी पंक्ति भूरिक्; प्राजापत्या गायत्री विराट्; याजुषी अनुष्टुप् विराट दैवी वृहतीस्वराट् दैवी जगती; याजुषी उष्णिक प्राजापत्या गायत्री निवृतः याजुषी अनुष्टुप् निवृत; भुरिक् याजुषी गायत्री भूरिक; आसुरी जगती विराट याजुषी वृहती विराट दैवी पंक्तिः स्वराट्। प्राजापत्या गायत्री; याजुषी अनुष्टुप; आसुरी जगती निवृत्; याजुषी बृहती निवृत्; दैवी जगती भूरिक; याजुषी उष्णिक भूरिक्; आसुरी त्रिष्टुप् विराट याजुषी पंक्तिर्विराट दैवीत्रिष्टुप् स्वराट्। आसुरी जगती याजुषी बृहती, आसुरी त्रिष्टुप् निवृत्, याजुषी पंक्तिर्निवृत् : प्राजापत्या गायत्री भूरिक्ः, याजुषी अनुष्टुप् भूरिक्, आसुरी पंक्तिर्विराट: याजुषी त्रिष्टुप् विराट् दैवी जगती स्वराटः याजुषी गायत्री स्वराट् । १० आसुरी त्रिष्टुप् : याजुषी पंक्तिः आसुरी पंक्तिर्निवृतः याजुषी अनुष्टुनिवृत्ः आसुरी जगती भूरिक्ः याजुषी बृहती भूरिक्ः दैवी त्रिष्टुप्; ७३८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र प्राजापत्योष्णिग्विराट् : आसुरी वृहती विराट् : याजुषी जगती विराट्ः साम्नी गायत्री विराट् : प्राजापत्या गायत्री स्वराटः याजुषी अनुष्टुप् स्वराट् । ११. आसुरी पंक्ति : याजुषी त्रिष्टुप् : प्राजापत्योष्णिक निवृतः आसुरी वृहती निवृतः याजुषी जगती निवृत् : साम्नी गायत्री निवृत्ः आसुरी त्रिष्टुप् भूरिक : याजुषी पंक्तिभूरिकः, आसुरी अनुष्टुय् विराट: आसुरी जगती विराट् : याजुषी बृहती स्वराट्। १२. प्राजापत्योष्णिक् : आसुरी बृहती : याजुषी जगतीः साम्नी गायत्री : आसुरी अनुष्टुप् विराट् : आसुरी त्रिष्टुप् विराट्ः याजुषी पंक्तिर्विराट् : आसुरी त्रिष्टुप्भूरिक्ः याजुषी पंक्तिः स्वरात्। १३. आसुरी अनुष्टुपः आसुरी उष्णिक निवृत् : साम्नी उष्णिक निवृत् प्राजापत्योष्णिक् भूरिक् : आसुरी बृहती भूरिक्ः याजुषी जगती भूरिक्ः साम्नी गायत्री भूरिक् आसुरी गायत्री विराट् : आसुरी पंक्ति स्वराट् : याजुषी त्रिष्टुप् स्वराट्। १४. आसुरी उष्णिक्ः साम्नी उष्णिक् आसुरी गायत्री निवृतः आसुरी अनुष्टुप् भूरिकः प्राजापत्यानुष्टुप् विराट् : साम्नी अनुष्टुप् विराट्ः प्राजापत्योष्णिक स्वराः आसुरी बृहती स्वराट् : याजुषी जगती स्वराट् : साम्नी गायत्री स्वराट् । १५. आसुरी गायत्री : प्राजापत्यानुष्टुप् निवृत् : साम्नी अनुष्टुप् निवृत्ः आसुरी उष्णिक भूरिक : साम्नी उष्णिक् भूरिक् : आसुरी अनुष्टुप् स्वराट् । १६. प्राजापत्यानुष्टुप् : साम्नी अनुष्टुप् : आसुरी गायत्री भूरिक : आर्ची गायत्री विराट् : साम्नी बृहती विराट आसुरी उष्णिक स्वराट्ः साम्नी उष्णिक स्वराट्। १७. आर्ची गायत्री निवृत्ः साम्नी बृहती निवृत्ः प्राजापत्यानुष्टुप् भूरिक्ः आसुरी गायत्री गायत्री स्वराट्। १८. आर्ची गायत्री : साम्नी बृहती : प्राजापत्या बृहती विराट: साम्नी पंक्तिः विराट् : प्राजापत्यानुष्टुप् स्वराट् : साम्नी अनुष्टुप् स्वराट् । १६. प्राजापत्या बृहती निवृत् : साम्नी पंक्ति निवृत् : आर्ची गायत्री भूरिक : साम्नी बृहती भूरिक् : आर्ची उष्णिक विराट्। २०. प्राजापत्या बृहती : साम्नी पंक्ति : आर्ची उण्णिक् निवृत् : साम्नी त्रिष्टुप् विराट् आर्ची गायत्री स्वराट् साम्नी बृहती स्वराट् । २१. आर्ची उष्णिक् : साम्नी त्रिष्टुप् निवृत्ः प्राजापत्या बृहती भूरिक्ः साम्नी पंक्ति भूरिक्। छन्दों की विविध संज्ञाएं ७३६ २२. साम्नी त्रिष्टुप् : आर्ची उष्णिगभूरिक् : प्राजापत्या पंक्तिर्विराट् : आर्ची गायत्री विराट् : आर्ची अनुष्टुप् विराट् : साम्नी जगती विराट्ः प्राजापत्या बृहती स्वराट् : साम्नी पंक्ति : स्वराट्। . २३. प्राजापत्या पंक्ति निवृत् : आर्षी गायत्री निवृत् : आर्ची अनुष्टुप् निवृत्ः साम्नी जगती निवृत् : साम्नी त्रिष्टुप् भूरिक् : आर्ची उष्णिक् स्वराट् । २४. प्राजापत्या पंक्ति : आर्षी गायत्री : आर्ची अनुष्टुप् : साम्नी जगती : साम्नी त्रिष्टुप् स्वराट् : (गायत्री) २५. प्राजापत्या पंक्ति भूरिक् : आर्षी गायत्री भूरिक् : आर्ची अनुष्टुब् भूरिक् SAHARSARAN साम्नी जगती भूरिक् : - आर्ची बृहती विराट्। २६. आर्ची बृहती : प्राजापत्यात्रिष्टुपु निचूट . आर्षी उष्णिक्-विराट् : प्राजापत्या पंक्तिः स्वरात् : आर्षी गायत्री स्वराट् : आर्ची अनुष्टुप् स्वराटः साम्नी जगती स्वराट्। २७. आर्ची बृहती : प्राजापत्या त्रिष्टुप् निवृत् : आर्षी उष्णिक् नित्। २८. प्राजापत्या त्रिष्टुप् : . आर्शी उष्णिक : आर्ची बृहती भूरिक् : आर्ची पंक्ति विराट् : (उष्णिक्) : २६. आर्ची पंक्तिनिवृत् : प्राजापत्यात्रिश्टुप् भूरिक : आर्शी उश्णिम्भूरिक् : आर्ची वृहती स्वराट्। ३०. आर्ची पंक्ति : प्राजापत्या जगती विराट् आर्षी अनुष्टुप् विराट्ः प्राजापत्या त्रिष्टुप् विराट् : आर्षी उष्णिक स्वराट् : ऋचां पंक्तिः (मा. सर्वा. २३/१६ देव :) . ३१. प्राजापत्या जगती निचूत : आर्षी अनुष्टुप निवृत् : आर्ची पंक्ति भूरिक : आर्ची त्रिष्टुप् विराट्। . ३२. प्राजापत्या जगती : आर्षी अनुष्टुप् : आर्ची त्रिष्टुप् नित् : आर्ची पंक्तिः स्वरातः (अनुष्टुप) ३३. आर्ची त्रिष्टुप् : प्राजापत्या जगती भूरिक् : आर्षी अनुष्टुप् भूरिक्। ३४. आर्ची त्रिष्टुप् भूरिक् : आर्ची बृहती. विराट् : आर्ची जगती विराट् : ब्राह्मी गायत्री विराट् : प्राजापत्या जगती स्वराट् : आर्षी अनुष्टुप् स्वराट् । ३५. आर्षी बृहती निवृत् : आर्ची जगती निवृत् : ब्राह्मी गायत्री निवृत् : आर्ची त्रिष्टुप् स्वर्ट । ३६. आर्षी बृहती :. आर्ची जगती : ब्राह्मी गायत्री, (बृहती :) (सतोवृहती)
७४० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ३७. आर्षी वृहती भूरिक् : आर्ची जगती भूरिक् : ब्राह्मी गायत्री भूरिक् । ३८. आर्षी पंक्तिर्विराट आर्शी बृहती स्वराट् : आर्ची जगती स्वराट् : ब्राह्ममी गायत्री स्वराट्। ३६. आर्षी पंक्तिर्निवृत्। ४०. आर्षी पंक्ति : ब्राह्मी उष्णिक विराट, (पंक्तिः) : (तन्द्रञछन्दः मा.सं. १४/६ ब्रा. ८/२/४/३) ४१. ब्राह्मी उष्णिक् निवृत् : आर्षी पंक्तिभूरिक्। ४२. ब्राह्मी उष्णिक् : आर्षी त्रिष्टुप् विराट् : आर्षी पंक्तिः स्वराट् । ४३. आर्षी त्रिष्टुपनिवृत् : ब्राही उष्णिक भूरिक्। ४४. आर्षी त्रिष्टुप ब्राह्मी उष्णिक् स्वराट् (त्रिष्टुप) ४५. आर्षी त्रिष्टुप् भूरिक्। ४६. आर्षी जगती विराट ब्राह्मी अनुष्टुप् विराट् जगती विराट्, आर्षी त्रिष्टुप् स्वराट् । ४७. आर्षी जगती निवृत् ब्राह्मी अनुष्टुप, जगती निवृत्। ४८. आर्षी जगती, ब्राह्मी अनुष्टुप् : (जगती) (अतिच्छन्दाः) ४६. आर्षी जगती भूरिक् ब्राह्यनुष्टुप् भूरिक् जगती भूरिक्। ५० अति जगती विराट् : आर्षी जगती स्वराट् : ब्राह्यनुष्टुप् स्वराट् : जगती स्वराट्। ५१. अतिजगती निवृत्। ५२. अतिजगती ब्राह्मी बृहती विराट्। ५३ ब्राह्मी वृहती निवृत् : अति जगती भूरिक्। ५४. ब्राह्मी बृहती : शक्वरी विराट् : अति जगती स्वराट्। ५५. शक्वरी निवृत् : ब्राह्मी बृहती भूरिक्। ५६. शक्वरी निवृत् : ब्राह्मी बृहती भूरिक्। ५७. शक्वरी भूरिक्। ५८. ब्राह्मी पंक्तिर्विराट् अति शक्वरी विराट् : शक्वरी स्वराट् । ५६. ब्राह्मी पंक्तिर्निवृत् अति शक्वरी निवृत्। ६०. ब्राह्मी पंक्ति, अति शक्वरी। ६१. ब्राह्मी पंक्ति भूरिक् : __ अति शक्वरी भूरिक्। ६२. अष्टिविराट ब्राह्ममी पंक्ति : स्वराट् अति शक्वरी स्वराट् । ६३. अष्टिर्निवृत्। ६४. अष्टि :, ब्राह्मी त्रिष्टुप् विराट् । छन्दों की विविध संज्ञाएं ७४१ __ अष्टि : स्वराट्। अष्टि भूरिक्। अत्यष्टिविराट् : ब्राह्मी त्रिष्टुप भूरिक्। ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वराट्। ६५. ब्राह्मी त्रिष्टुप् निवृत् : ६६. ब्राह्मी त्रिष्टुप ६७. अत्यष्टिर्नित् : ६८. अत्यष्टिः ६६. अत्यष्टि भूरिक्। ७०. ब्राह्मी जगती विराट् : ७१. ब्राह्मी जगती निवृत् ७२. ब्राह्मी जगती : ७३. ब्राह्मी जगती भूरिक् : ७४. अतिधृतिविराट् : धृतिविराट् : …. अत्यष्टिः स्वराट्। धृति निवृत्। …. … ……… धृति :। धृतिर्भूरिक्। ब्राह्ममी जगती स्वराट्। …. ….. धृति : स्वराट् .. MAHAN अतिधृतिः स्वराट्। कृति स्वराट्। ७५. अतिधृतिर्निवृत्। ७६. अतिधृति :। ७७. अतिधृतिर्भूरिक्। ७८. कृतिर्विरात् : ७६. कृतिर्निवृत्। ८०. कृति :। ८१. कृतिभूरिक्। ५२. प्रकृति विराट् : ८३. प्रकृतिर्निवृत् । ८४. प्रकृति । ८५. प्रकृतिर्भूरिक्। ८६. आकृति विराट्, ८७. आकृतिर्निवृत्। ८८. आकृतिः। ८६. आकृतिभूरिक्। ६०. स्वराडाकृति :, ६१. निवृद्विकृति :। ६२. विकृतिः। ६३. भूरिक् विकृति :। ६४. संकृति विराट् : ६५. निवृतसंकृति । प्रकृतिः स्वराट्। विकृतिविराट्। विकृति : स्वराट्। VA ७४२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ww w HAGARALLEC0mnamen. iman.L-.
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६६. संकृतिः। ६७. संकृतिर्भूरिक्। ६८. विराडभिकृतिः, स्वराट् संकृतिः। ६६. निवृदभिकृतिः। १००. अभिकृतिः। १०१. भूरिंगभिकृति । १०२. उत्कृतिविराट् : स्वराडभिकृति :। १०३. उत्कृतिर्निवृत्। १०४. उत्कृति :। १०५. भूरिगुत्कृतिः। १०६. उत्कृति : स्वराट्। १०७. विच्छन्दा : (द्र.मा. सं. २३/३४)।
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' … " . MM अलङ्कार ७४३
अलङ्कार
अलङ्कारों से काव्य की सुषमा और अधिक बढ़ जाती है। जैसे अलङ्कार जिस अङ्ग में धारण किये जाते हैं उस अंग की शोभा को बढ़ाते हुए आत्मा को भी सुशोभित करते हैं, उसी प्रकार काव्य के अलङ्कार भी काव्य के अगों शब्द और अर्थ को सुशोभित करते हुए काव्यात्मा का भी उत्कर्ष करते हैं। काव्य में शोभाधायक तत्त्व को गुण कहते हैं और उस शोभा में वृद्धि लाने वाले को अलङ्कार कहते हैं। यदि शरीर में सहज सौन्दर्य ही नहीं है तो अलङ्कार किसकी वृद्धि करेंगे। ऐसे स्थलों में अलङ्कार शोभावर्धक न होकर केवल विचित्र से प्रतीत होते हैं। इस दृष्टि से ‘वैचित्र्यमलङ्कारः’ कहा गया है। कहीं-कहीं अलङ्कार वर्ण्यविषय के अनुरूप नहीं होते वे अननुगुण हो जाते हैं। जैसे अतिसुकुमार नायिका के अङ्ग में ग्रामीण अलङ्कार। इन सभी विषयों पर ध्यान रखकर अलङ्कार का लक्षण आचार्यों ने बनाया - __जो काव्य के अङ्ग शब्द और अर्थ में रहते हों शब्द और अर्थ की शोभा को बढ़ाते हुए परम्परया काव्यात्म रसादि को भी सुशोभित करें (उत्कृष्ट बना दें) उन्हें अलङ्कार कहते हैं। यदि रस शोभित न करें तो वे (आचार्य मम्मट के शब्दों में) विचित्रता मात्र हैं - उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचिद् ।। हारादिवदलङ्कारास्तेऽनुप्रासोपमादयः।। (का.प्र.८६) अर्थात् काव्य के अङ्ग शब्द और अर्थ में रहते हुए शब्द और अर्थ को उत्कृष्ट बनाते हुए परम्परया अंगी (रसादि) के भी (यदि काव्य में हो तो) उत्कर्षक को अलङ्कार कहते हैं। ये कदाचित ही रस को सुशोभित करते हैं नियमतः नहीं। अतः “शब्दार्थवृत्तित्वे सति शब्दार्थोत्कर्षकत्वे सति परम्परयानियमेन रसोत्कर्षकत्वम् अलङ्कारत्वम्” जिस काव्य में रसादि नहीं हैं वहां ये अलङ्कार वैचित्र्य मात्र हैं। इस प्रकार शब्द में रहने के कारण शब्दालङ्कार, अर्थ में रहने के कारण अर्थालङ्कार, शब्द और अर्थ उभय में रहने वाले उभयालङ्कार कहलाते हैं। शब्दालङ्कार वक्रोक्ति, अनुप्रास, यमक, श्लेष चित्र-ये पांच शब्दालङ्कार हैं। कुन्तक ने वक्रोक्ति को ही काव्य का जीवन माना है। रुद्रट मम्मट आदि आचार्यों ने इसे एक अलङ्कार माना है और इसी का शब्दालङ्कारों में प्रथम निरूपण किया है - __ “अन्यभिप्रायेणोक्तं वाक्यमन्येनान्यार्थकतया (श्लेषेण का) यद्योज्यते सा वक्रोक्तिः” इसे वाकोवाक्य भी कहते हैं। जैसे - ७४४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र kat कोऽयं द्वारि हरिः प्रयाझुपवनं शारवामृगस्यात्र किं कृष्णोऽहं दयिते विभेमि सुतरां कृष्णादहं वानरात् ।। मुग्धेऽहं मधुसूदनो व्रजलतां तामेव पुष्पान्विताम् इत्थं निर्वचनीकृतो दयितया हीणो हरिः पातु वः।। भगवान श्रीकृष्ण रात्रि में अपनी प्रियतमा श्री राधाजी के द्वार पर पहुंचते हैं, द्वार बन्द था। उसे खुलवाने के लिये द्वार खटखटाते हैं तो श्री राधाजी पूछती हैं-कोऽयं द्वारि = द्वार पर कौन है ? भगवान् कहते हैं-हरिः = मैं हरि हूँ। राधाजी हरि शब्द का वानर अर्थ कर लेती हैं और कहती हैं कि उपवन में जाओ यहां वानर का क्या काम ? तो श्री कृष्ण जी कहते हैं ‘नहीं प्रिये! मैं कृष्ण हूँ’। राधाजी कहती है। कि काले वानर से मुझे बहुत डर लगता है। तब कृष्ण जी कहते हैं -‘मुग्धेऽहं मधुसूदनः’ अयि मुग्धे मैं मधु नामक दैत्य को मारने वाला हूँ। राधाजी कहती हैं यदि तुम मधु अर्थात् शहद निकालने वाले भौरे हो तो पुष्पित लताओं में जाओ। इस प्रकार दयिता राधाजी के द्वारा चुप कराये गये लज्जित श्रीकृष्ण आप लोगों की रक्षा करें। __ यहाँ श्रीकृष्ण के कहे हुए वाक्यों का राधाजी दूसरा अर्थ कर लेती हैं अतः यहाँ वक्रोक्ति है। अन्य अभिप्राय से प्रयुक्त वाक्य का दूसरा व्यक्ति दूसरे अर्थ में योजना कर लेता है उसे वक्रोक्ति कहते हैं। #### अनुप्रास __ स्वर की समानता न होने पर भी वर्ण की समानता को अनुप्रास कहते हैं, वह दो प्रकार का होता है छेकानुप्रास, वृत्त्यनुप्रास।। छेकानुप्रास-अनेकस्य वर्णस्य सकृत्साम्यं छेकानुप्रासः। अनेक वर्षों की एक बार आवृत्ति को छेकाऽनुप्रास कहते हैं। यहाँ वर्णपद से व्यञ्जनवर्ण विवक्षित है। जैसे उषाकाल में अरुणोदय के समय चन्द्र का वर्णन है - ततोऽरुणपरिस्पन्दमन्दीकृतवपुः शशी। दघे कामपरिक्षाम-कामिनी-गण्डपाण्डुताम्।।" अरुण के परिस्पन्द होने से चन्द्रमा की कान्तिमंद हो गयी वे काम से क्षीण कामिनी . के कपोल के समान पाण्डु (पीले) हो गये। इस पद्य में स्पन्द मन्दी शब्द में न द् की एक बार आवृत्ति हुई है तथा ण्ड की गण्ड पाण्डु में एक बार आवृत्ति हुई है। अलकार ७४५ वृत्त्यनुप्रास एक वर्ण की या अनेक वर्णों की कई बार आवृत्ति हो तो वृत्त्यनुप्रास कहते हैं। जैसे अपसारय घनसारं कुरु हारं दूर एव किं कमलैः।। अलमलमालि मृणालैरिति वदति दिवानिशं बाला।। यहाँ नायिका वियोगिनी है उसे काम ज्वर हो गया है, उसके ताप की शान्ति के लिए सखियां शीतोपचार करती हैं कपूर का लेप करती हैं, मोतियों का हार पहनाती हैं, कमल और मृणाल उसके शरीर पर रखती हैं। ये सभी वस्तुएं काम ज्वर को उद्दीप्त करने वाली हैं। अतः उसका ताप और अधिक बढ़ जाता है तो वह कहती है-सखियों ! कपूर को हटाओ, हार को दूर करो, कमलों की क्या आवश्यकता, ये मृणाल व्यर्थ है इनसे कुछ नहीं होगा। बाला रातदिन ऐसा कहती रहती है। शाब्दानुप्रास अथवा लाटानुप्रास “भिन्नतात्पर्यक-समानार्थक-शब्दसादृश्यं शाब्दानुप्रासः” शब्द तथा शब्दन व्यापार अर्थात दोनों की आवृत्ति हो परन्तु तात्पर्य (अन्वय बोथ) में भेद हो तो उसे शाब्दानुप्रास तथा लाटानुप्रास कहते हैं। चूंकि यह अनुप्रास लाट देशवासियों को अत्यन्त प्रिय है। इसलिए लाटानुप्रास कहलाता है। इसे पदानुप्रास भी कहते हैं। यह पांच प्रकार का होता है (१) अनेक पदों की आवृत्ति में (२) एक पद की आवृत्ति में तथा (३) एक समास गत नाम (प्रातिपदिक) की आवृत्ति में (४) भिन्न समासगत प्रातिपदिक की आवृत्ति में (५) समास तथा असमास गत प्रातिपदिक की आवृत्ति में होने के कारण इसे पांच प्रकार का माना जाता है। (१) अनेक पदों की आवृत्ति में लाटानुप्रास, जैसे - यस्य न सविधे दयिता दवदहनस्तुहिनदीधितिस्तस्य। यस्य च सिविधे दयिता दवदहनस्तुहिनदीधितिस्तस्य।। जिसके समीप में प्रियतमा न हो उसे शीतकिरण चन्द्रमा भी दावाग्नि हो जाता है, जिसके पास हो उसे दावाग्नि भी शीतकिरण हो जाता है। अर्थात् वियोग में चन्द्र भी दाह उत्पन्न करता है और संयोग में दावाग्नि भी शीतल हो जाती है। यहाँ शब्द और अर्थ वही है परन्तु अन्वय में भेद है ऊपर वाक्य में दावाग्नि चन्द्रमा को कहा गया है नीचे वाक्य में दावाग्नि को चन्द्रमा कहा गया है। यह शब्द अर्थात् वाक्य गत अनुप्रास है।७४६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
(२) एक पद की आवृत्ति में अनुप्रास - वदनं वरवर्णिन्यास्तस्याः सत्यं सुधाकरः। सुधाकरः कनु पुनः कलङ्कविकलो भवेत्।। वस्तुतः सुधाकर वरवर्णिनी नायिका का गोरा मुख है, आकाश में उदित होने वाले चन्द्रमा में तो काली छाया सदा रहती है, वह कलङ्क से रहित होता ही नहीं, अतः वह सुधाकर कैसे हो सकता है। यहां सुधाकर पद और उसके अर्थ की आवृत्ति है, परन्तु तात्पर्य में भेद होने से इसे पदगत लाटानुप्रास कहते हैं। शेष तीन भेदों के उदाहरण हैं - सितकर कर रुचिविभा विभाकराकारधरणिधरकीर्तिः पौरुषकमला कमला सापितवैवाऽस्तिनान्यस्य।। यहां सितकरकर में कर प्रातिपदिक की एक समास में आवृत्ति है रुचिर विभा विभाकराकार पद में विभा विभा की भिन्न समासों में आवृत्ति है। पौरुष कमला कमला में कमला शब्द समास गत तथा असमासगत है। यह पद्य राजा की प्रशंसा में पढ़ा गया है। इसका अर्थ है-हे विभाकराकार सूर्य के समान प्रकाशवान् चन्द्रमा की किरणों के समान रुचिर कान्ति वाले धरणीधर राजन ! तुम्हारी कीर्ति चन्द्रमा के समान रुचिर कान्तिवाली है तथा पौरुषलक्ष्मी और प्रसिद्ध लक्ष्मी तुम्हारी ही है दूसरे की नहीं। इस प्रकार लाटानुप्रास पांच प्रकार का होता है। अनेक पदों के, एक पद के आवृत्ति से तथा एक समास गत भिन्न समास गत, समासासमासगत प्रातिपदिक के प्रयोग से इसके पाँच प्रकार बनते हैं।
यमक
यदि अर्थ हो तो भिन्नार्थक वर्णों का पूर्वक्रम से क्रमतः तथा स्वरूपतः आवृत्ति का नाम यमक है। एक साथ उत्पन्न होने वाले जुड़वां (दो) लड़के को यम कहते हैं-दौ समजातौ यमौ तत्प्रतिकृति यमकम्। “अर्थे सत्यर्थभिन्नानां वर्णानां सा पुनःश्रुति यमकम्"। यहाँ वर्णानां में बहुवचनअविवक्षितं है। नियम है सूत्रे “लिङ्गवचनमतन्त्रम्" सूत्र में लिङ्ग और वचन विवक्षित नहीं होते। अतः यमक का लक्षण निष्पन्न हुआ “एकेन कमेण समानार्थकानां समानवर्णानां वर्णयो ; आवृत्तिः यमकम्”। अलङ्कार ७४७ यमक में ङ ल और र-ल व-ब, श-ष, न-ण, सविसर्ग अविसर्ग, सविन्दु-अविन्दु में भेद नहीं होता। इसीलिये ‘भुजलता जडतामबलाजनः’ में जलता जडता में यमक है, यमक का तीन पद में विधान नहीं करना चाहिये। यमकं न विधातव्यं न कदाचिदपि त्रिपात्" ऐसा करने पर अप्रयुक्तत्व दोष होता है। . अर्थे सति का तात्पर्य है कि सार्थक दोनों शब्द हो तो दोनों का अर्थ भिन्न-भिन्न होना चाहिये। यदि निरर्थक दोनों हो तो भी या एक निरर्थक एक सार्थक हो तो भी यमक होता है। लाटानुप्रास से यमक में यह भेद है कि लाटानुप्रास में उसी शब्द की आवृत्तिरहती है और अर्थ भी दोनों का एक ही रहता है, तात्पर्य मात्र में भेद रहता है। यमक में यदि अर्थ हो तो दोनों शब्दों का अर्थ भिन्न-भिन्न होना चाहिये अथवा निरर्थक हो। निरर्थक अथवा भिन्नार्थक में लाटानुप्रास नहीं होता। __ ‘समरसमरसोऽयम्’ (समर में समान प्रीति वाला यह राजा)-में प्रथम संग्रामवाची ‘समर’ शब्द सार्थक है, दूसरा ‘सम’ शब्द है और ‘रस’ शब्द है। वहां ‘सम’ तथा ‘रस’ का आदि अक्षर र मिलाकर ‘समर’ शब्द बनता है जो निरर्थक है। यहां यमक अलङ्कार माना जाता है। आवृत्ति पूर्वक्रम से होनी चाहिये तभी यमक होगा। सरो रसः में वर्ण वहीं हैं परन्तु क्रम वह नहीं है अतः यमक नहीं होता। यमक के मुख्य एकादश भेद होते हैं - (१) प्रथम पाद की ही यदि द्वितीय पाद में आवृत्ति की जाय तो मुख नामक यमक होता है। (२) प्रथम पाद की यदि तृतीय पाद में आवृत्ति की जाय तो संदंश नामक यमक होता है। (३) प्रथम पाद की यदि चतुर्थ पाद में आवृत्ति की जाय तो आवृत्ति नामक यमक होता है। (४) द्वितीय पाद की यदि तृतीय पाद में आवृत्ति हो तो गर्भ नामक यमक होता है। (५) द्वितीय की चतुर्थ पाद में आवृत्ति हो तो संदष्टक नामक यमक होता है। (६) तृतीय पाद की चतुर्थ पाद में आवृत्ति हो तो पुच्छ नामक यमक होता है। (७) प्रथम पाद की यदि द्वितीय तृतीय तथा चतुर्थ पाद में आवृत्ति हो तो पङ्क्ति नामक यमक होता है। (८) प्रथम पाद की आवृत्ति यदि द्वितीय पाद में हो और तृतीय पाद की आवृत्ति यदि चतुर्थ पाद में हो तो मुख पुच्छ के संयोग से युग्मक नामक यमक होगा। (६) प्रथम पाद की आवृत्ति यदि चतुर्थ पाद में हो और द्वितीय पाद की आवृत्ति तृतीय __ पाद में हो तो आवृत्ति और गर्भ का योग होने से परिवृत्ति नामक यमक होगा। अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
७४८ (१०) आधे श्लोक की आवृत्ति हो तो समुद्गक नामक यमक होता है। (११) सम्पूर्ण श्लोक की आवृत्ति हो तो इसे महायमक कहते हैं। प्रथम पाद की तृतीय पाद में आवृत्ति करने पर संदंश नामक यमक का उदाहरण सन्नारीभरणोमायमाराध्य विधुशेखरम्। सन्नारीभरणोमायस्ततस्त्वं पृथिवीं जय।। सन्नारीभरणोमाय = सतीः नारीः विभर्ति इति सन्नारीभरणा। अथवा सतीनां नारीणां भरणं = आभरण-स्वरूपा, एवं भूताम् उमां याति स्वशरीरस्याऽर्थरूपेण प्राप्नोति अथवा ताम् अयते तं विधुशेखरम् आराध्य ततः तदाराधनात् त्वं सन्नारीभरणः = सन्नाः अवसादं गता मृता अरीणां शत्रूणामिभाः गजा यत्र तादृशो रणो युद्धं यस्य तथा भूतः सन् अमायः मायारहितः अकपटः त्वं पृथिवीं जय। हे राजन् । सती नारियों की भूषणभूत श्री गौरी जी को अपना वामार्द्ध बनाने वाले चन्द्रशेखर भगवान् शिव की आराधना करके उस आराधना के बल से युद्ध में शत्रुओं के हाथियों को मृत बनाते हुए कपटरहित होकर तुम पृथिवी पर विजय प्राप्त करो।
श्लेष
अर्थभेद से शब्द में भेद होता है, अतः यदि दो अर्थ हैं तो उनके वाचक दो शब्द भी हैं परन्तु वे दोनों शब्द एक रूप होने के कारण एक ही उच्चारण से उच्चरित हो जाते हैं, वे जतुकाष्ठन्याय से एक प्रतीत होते हैं। उनकी भिन्नरूपता छिप जाती है, अतः उन्हे श्लेष कहते हैं। लाख और काष्ठ जैसे एक में श्लिष्ट होता है वैसे ही वे दो शब्द भी एक में श्लिष्ट हो जाते हैं अतः उन्हें श्लेष कहते हैं। इस प्रकार श्लेष का लक्षण सिद्ध हुआ . “एक प्रयत्नोच्चार्यतया भिन्नत्वेनाननुभूयमानं श्लेषः" यहां भिन्न-भिन्न अर्थ देने वाले भिन्न-भिन्न शब्द श्लिष्ट हैं अतः इसे शब्दश्लेष कहते हैं। यह आठ प्रकार का होता है-वर्णश्लेष, पदश्लेष, लिङ्गश्लेष, भाषाश्लेष, प्रकृतिश्लेष, प्रत्ययश्लेष, विभक्तिश्लेष और वचनश्लेष। यद्यपि विभक्ति भी प्रत्यय ही है तो भी प्रत्यय पद से विभक्ति भिन्न प्रत्यय समझना चाहिये, सुप् तिङ् रूप विभक्ति के श्लेष में चमत्कार विशेष होता है अतः इसे प्रत्यय से अलग किया गया है। इसका नवां भेद भी होता है जिसे अखण्डश्लेष कहते हैं जहाँ प्रकृति-प्रत्यय आदि में भेद नहीं होता। उदाहरण के लिये ‘विधौ वक्रे मूर्ध्नि स्थितवति वयं के पुनरमी’ यहाँ विधौ शब्द प्रयुक्त है यह विधि शब्द का भी सप्तमी एक वचन का रूप है, और ७४६ R अलङ्कार विधु शब्द का भी। विधि का अर्थ है दैव और विधु का अर्थ चन्द्रमा। अतः अर्थ होता है वक्र चन्द्रमा के ललाट में स्थित होने से तो भगवान् शिव की भी दुर्दशा हो जाती है तो फिर हम लोग क्या हैं ? हम लोग के पक्ष में ‘विधौ वक्रे’ का अर्थ है दैव के विपरीत होने पर। प्राचीन साहित्यिक शब्दश्लेष (सखण्ड श्लेष को शब्दालङ्कार मानते हैं अखण्ड श्लेष. को अर्थालङ्कार मानते हैं। उनका कथन है कि सखण्ड श्लेष में तो दो शब्द स्फुट हैं वे जतुकाष्ठन्याय से एक में मिले हुवे हैं। अर्थश्लेष में तो एक शब्द से ही दो अर्थों का बोध होता है जैसे एक वृत्त में दो फल लग जाते हैं। वहाँ शब्द एक है परन्तु दो अर्थ श्लिष्ट हैं अतः यह अर्थश्लेष है। मम्मट कहते हैं कि दोष गुण तथा अलङ्कारों की शब्दार्थ गत व्यवस्था का निर्णायक अन्व्य-व्यतिरेक होता है, अर्थात् जहां उस शब्द के प्रयोग से श्लेष हो और उसी शब्द का समानार्थक दूसरे शब्द के प्रयोग से दो अर्थ स्मृत न हों अर्थात् श्लेष न रह जाय उस श्लेष को शब्द गत मानना चाहिये और जहाँ शब्द का परिवर्तन कर देने पर भी श्लेषत्व का खण्डन न हो वहां अर्थश्लेष मानना चाहिए।
चित्रम्
यद्यपि चित्र = वैचित्र्य ही अलङ्कार है, तो भी जहाँ वर्गों की लिपि विन्यास से खड्गादि चित्र के आकार बन जाते है। उन्हें चित्र अलङ्कार कहते हैं। वह अनेक प्रकार का होता है। जैसे-खड्गबन्ध, मुरजबन्ध, पद्मबन्ध, गोमुत्रिका बन्ध आदि। इसके अनेक भेद बताये गये हैं। अग्निपुराण में ३४२वें अध्याय में बाणबन्ध, धनुर्बन्ध, मुद्गरबन्ध शक्तिबन्ध, चतुष्पथबन्ध वज्रबन्ध, मुसलबन्ध, अकुशबन्ध, पुष्करिणीबन्ध आदि का निर्देश कर अन्य बन्धों का स्वयं ऊह करने का निर्देश किया गया है। परन्तु ये चित्रबन्ध सरस नहीं होते। केवल कवि के निर्माणशक्ति मात्र के प्रकाशक होते हैं। कष्ट साध्य हैं, क्लिष्ट हैं। अतः सहृदय रसिक इनसे विमुख ही रहते हैं। अतः एकाक्षर-द्वयक्षर-त्र्यक्षर बन्ध आदि भी पामरश्लाध्य माने जाते हैं सहृदय श्लाध्य नहीं। परन्तु कवि जन इनको अपने अपने काव्य में स्थान देते रहे हैं। इसी प्रकार प्रहेलिका को भी रस का परिपन्थी होने के कारण अलङ्कार नहीं माना जाता, तो भी क्रीडागोष्ठी में विचित्र वाग्व्यवहारों से मनोविनोद में प्रहेलिका समझने बूझने वाले लोगों के समूह में दूसरों को व्यामोह में डालने के लिए प्रहेलिका का उपयोग किया जाता है। दण्डी ने सोलह प्रकार की प्रहेलिका कही है और चौदह दुष्ट प्रहेलिका भी प्राचीनों द्वारा वर्णित की गयी है। यह प्रहेलिका कई प्रकार की होती है-च्युताक्षरा, दत्ताक्षरा, च्युतदत्ताक्षरा, मुष्टि, विन्दुमती, अर्थवती आदि। परन्तु इनमें से कुछ को उत्तरालङ्कार में समाविष्ट किया गया है। जैसे प्रश्न है-“किं कुर्वते दरिद्राः”। उत्तर भी यही है-किं कुर्वते दरिद्राः। अर्थात् प्रश्न है-दरिद्र क्या करते हैं उत्तर भी यही है दरिद्र किंकर (सेवा करते ) हैं परन्तु शेष को ७५० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र T : अलङ्कार नहीं माना गया है। काव्यात्मा रस का निर्णय हो जाने पर रसाऽभिव्यक्ति रहित अलङ्कार को अधम कोटि में रखा गया है तथा कुछ को काव्य कोटि से ही बहिष्कृत कर दिया गया है।
पुनरुक्तवदाभास
जहां शब्दों का आकार = आनुपूर्वी भिन्न-भिन्न हो (अर्थ भी भिन्न-भिन्न हो) परन्तु उनके एकार्थक होने का आभास होता हो वहाँ पुनरुक्तवदाभास नामक अलकार होता है। पुनरुक्त के समान आभास अर्थात् आपाततः प्रतीत होना। यह शब्दार्थालङ्कार अर्थात् उभयालङ्कार है। इसीलिए आचार्य मम्मट ने इसे शब्दालङ्कारों के अन्त में अर्थालङ्कारों के आदि में अर्थात् दोनों के बीच में पढ़ा है, जिससे इसका देहलीदीपक न्याय से दोनों में गणना हो। जैसे - चकासत्यङ्गनारामाः कौतुकानन्दहेतवः। तस्य राज्ञः सुमनसो विबुधाः पार्श्ववर्तिनः।। उस राजा के पार्श्ववर्ती सुमना (सुन्दर मन वाले सहृदय) विद्वान अङ्गना के साथ रमण करने वाले, काव्य चर्चा से राजा को आनन्द देने वाले हैं। इस पद्य में अङ्गना और रामा शब्द का कौतुक और आनन्द शब्द का सुमनस् और विबुध शब्द का आकार तो भिन्न-भिन्न है परन्तु इनका अर्थ आपाततः एक सा प्रतीत होता है। क्योंकि अङ्गना और रामा दोनों का अर्थ स्त्री है अतः आपाततः पुनरुक्त सा प्रतीत होता है परन्तु यहां ‘अङ्गना के साथ रमण करने वाले’ अर्थ विवक्षित है। अतः पुनरुक्त नहीं है। इसी प्रकार तनु वपुः शब्दों का आकार तो भिन्न है, परन्तु तनु और वपु दोनों का शरीर अर्थ होने से पुनरुक्ति का आभास होता है पुनरुक्ति है नहीं। यहां तनु शब्द का कृश अर्थ है वपु शब्द का शरीर अर्थ है; अतः कृशशरीर अर्थ होता है, जिससे पुनरुक्ति नहीं होती है। यहाँ यदि तनु शब्द के पर्यायवाची कृश शब्द का प्रयोग कर दें तो ‘कृशवपुः’ शब्द पुनरुक्तवत् प्रतीत नहीं होगा अतः अलङ्कार नहीं होगा। परन्तु वपुः शब्द का पर्यायवाची देह शरीर आदि का प्रयोग कर दें तो तनुदेहः, तनुशरीरः में पुनरुक्ति का आभास होगा। अतः ‘तनुवपुः’ शब्द में तनु शब्द पर्यायपरिवर्तन नहीं सहता अतः शब्दालङ्कार है वपु शब्द पर्यायपरिवर्तन को सह लेता है अतः अर्थालङ्कार है, इसलिए इसे उभयालङ्कार कहते हैं।
अर्थालङ्कार
दण्डी कहते हैं, अर्थालङ्कार का समग्र निरूपण कौन कर सकता है उनका विकल्प नया-नया उद्भावन आज भी हो रहा है। मेधावी पुरुषों की कल्पना का विराम तो हो नहीं अलङ्कार ७५१ सकता, उक्ति वैचित्र्य ही अलङ्कार है।
उपमा
सादृश्य ही उपमा है इसका विभिन्न रूपों में उद्भावन किया जाता है। अप्पयदीक्षित कहते है। उपमैका शैलूषी सम्प्राप्ता चित्रभूमिकाभेदान् रञ्जयति काव्यरङ्गे नृत्यन्ती तद्विदां चेतः।। (चित्रमीमांसा-उपमा प्रकरण) उपमा एक नटी है वह नाना वेषभूषा से सज्जित होकर नानारूपों में (विभिन्न नायिका के रूपों में) रङ्गमञ्च पर नाचती हुई सामाजिकों का मनोरञ्जन करती है। जैसे केवल ब्रह्मज्ञान से अनन्त भेदों वाले चित्र विचित्र जगत् का ज्ञान हो जाता है। उसी प्रकार केवल उपमा के ज्ञान से समस्त चित्रों अर्थालङ्कारों का ज्ञान हो जाता है तदिदं चित्रं विश्वं ब्रह्मज्ञानादिवोपमाज्ञानात्। ज्ञाते भवतीत्यादौ निरूप्यते निखिलभेदसहिता सा।। (चित्रमीमांसा - उपमा प्रकरण) उपमा शब्द का अर्थ होता है सादृश्य। इस सादृश्य को मीमांसक अतिरिक्त पदार्थ मानते हैं वे कहते हैं कि सादृश्य का प्रयोजक साधर्म्य होता है साधर्म्य ही सादृश्य नहीं है। परन्तु नैयायिक साधर्म्य (उपमान और उपमेय का समान धर्म का सम्बन्ध) रूप मानते हैं। यह साधर्म्य भेद घटित होगा अर्थात दो में ही होगा, सादृश्य भेदाघटित भी होता है। अतः उपमा, अनन्वय उपमेयोपमा आदि में भेद घटित सादृश्य अर्थात् साधर्म्य मूल है। इनमें अभेद या तादात्म्य प्रतीति नहीं होती है। रूपक, उत्प्रेक्षा में भेद तिरोहित हो जाता है। तादात्म्य या अभेद की प्रतीति होती है। अतः इनमें भेदरहित सादृश्य मूल है। यह सादृश्य ही उक्ति वैचित्र्य से अनेक अलङ्कारों का मूल है। जैसे-‘मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है’-यहाँ उपमा अलङ्कार है, (२) चन्द्र के समान मुख है मुख के समान चन्द्र है। यहाँ उपमेय मुख से भी उपमा दी गई है। अतः उपमेयोपमा अलङ्कार है अर्थात् मुख और चन्द्रमा के समान कोई तीसरी वस्तु नहीं है। (३) ‘मुख के समान मुख ही है’ - इस वाक्य में अनन्वय अलङ्कार है, क्योंकि मुख तो मुख ही है, मुख के समान तो कोई दूसरा होना चाहिये। यहाँ मुख के समान मुख ही कहा गया है अतः यहाँ सादृश्य का अन्वय (सम्बन्ध) नहीं होता है। इसलिये इसे अनन्वय कहते हैं। ‘सादृश्यं न अन्वेतीति अनन्वयः’ इसका तात्पर्य यह है कि मुख के समान कोई दूसरा नहीं हैं। (४) ‘मुख के समान चन्द्र है’। जिसमें अधिक गुण है, वह उपमान होता है जिसमें न्यून गुण हों वह उपमेय होता है। चन्द्रमा में अधिक चमत्कारिता है अतः चन्द्र को उपमान होना चाहिये, परन्तु यहां मुख का उत्कर्ष करने के लिये उपमान चन्द्र को ही उपमेय बना दिया गया जो कि प्रतीप (विपरीत = उल्टा) है। अतः यहाँ प्रतीप अलङ्कार है। (५) चन्द्रमा को देखकर नायिका के मुख का स्मरण हो रहा है, अर्थात् चन्द्रमा के तुल्य मुख है। सादृश्य के कारण स्मृति हो रही है अतः ७५२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र स्मरणालङ्कार है। (६) ‘मुख ही चन्द्र है’-यहाँ मुख में ही चन्द्रत्व का आरोप है अतः यहाँ रूपक है। (७) ‘मुख चन्द्र से ताप का शमन होता है’-इस वाक्य में मुख को चन्द्र रूप में परिणत किया गया है क्योंकि ताप की शान्ति चन्द्र ही करता है अतः परिणामालङ्कार है। (८) ‘क्या यह मुख है अथवा चन्द्र’-यहाँ दोनों में सादृश्य के कारण सन्देह किया गया है; अतः संदेहालङ्कार है। (E) ‘तुम्हारे मुख को कमल समझ कर भ्रमर झपटते हैं’-यहाँ भ्रमरों को सादृश्य के कारण भ्रांति है, अतः भ्रान्तिमान अलङ्कार है। (१०) ‘तुम्हारे मुख को चकोर चन्द्र तथा चञ्चरीक कमल समझते हैं। यहाँ चन्द्र और कमल का सादृश्य होने के कारण एक ही मुख को चकोर तथा भ्रमरों द्वारा अनेक प्रकार से उल्लेख करने के कारण उल्लेखालङ्कार है। (११) ‘यह मुख नहीं अपितु चन्द्र है, यह मुख का निषेध कर चन्द्र की स्थापना की गयी है अतः अपह्नुति अलङ्कार है। (१२) ‘मुख मानो चन्द्रमा है’-यहां मुख की चन्द्रमा रूप से उत्प्रेक्षा की गई है। अतः उत्प्रेक्षालङ्कार है। (१३) ‘मुख को चन्द्र’ कहना अतिशयोक्ति अलङ्कार है। यहाँ चन्द्र उपमान है उसके द्वारा मुख निगीर्ण कर लिया गया है यह अतिशय है-अतिशय की उक्ति अतिशयोक्ति है। (१४) मुख के द्वारा चन्द्र और कमल जीत लिये गये। यहां अप्रस्तुत चन्द्र और कमल में निर्जितत्वरूप एक धर्म का सम्बन्ध है अतः तुल्यगिता अलङ्कार है। (१५) रात्रि में चन्द्रमा तथा तुम्हारा मुख दोनों हर्षित होते हैं यहां वर्णनीय मुख प्रस्तुत है, चन्द्रमा अप्रस्तुत है, इन प्रस्तुत अप्रस्तुत का एक धर्म (हर्षित होना रूप) से सम्बन्ध होने से दीपक अलङ्कार है। (१६) ‘तुम्हारे मुख पर ही मैं आसक्त हूँ’ चकोर चन्द्रमा पर ही अनुरक्त होता है-यहां आसक्त और अनुरक्त शब्द से प्रति वाक्य में उपमा होने के कारण प्रतिवस्तूपमालङ्कार है। (१७) आकाश में चन्द्रमा है पृथिवी पर तुम्हारा मुख ही (प्रकाशित) है। इस वाक्य में आकाश का प्रतिबिम्ब भूतल है चन्द्र का प्रतिबिम्ब मुख है। अतः दृष्टान्त अलङ्कार है। (१८) ‘मुख चन्द्रमा की शोभा को हर लिया’-इस वाक्य में चन्द्रमा की शोभा का मुख के द्वारा हरण कहा गया है। चन्द्र की शोभा चन्द्रगत ही रहेगी, मुख कैसे उसका हरण कर सकता है ? यह हरण करने की बात असम्बद्ध प्रतीत होती है। अतः यहाँ उपमा की कल्पना की जाती है कि ‘मुख की शोभा चन्द्रमा के समान है’, इसलिए निदर्शनालङ्कार है। (१६) ‘मुख निष्कलंक है उसने कलङ्की चन्द्रमा को जीत लिया’-यहाँ उपमान की अपेक्षा उपमेय में आधिक्य है। अतः व्यतिरेक अलङ्कार है। (२०) ‘तुम्हारे मुख के साथ रात्रि में चन्द्रमा भी मनोहर हो रहा है’-यहाँ मुख के साथ कहने से सहोक्ति अलङ्कार है। (२१) रमणीय नेत्रोत्पल के बिना भृङ्गरूपी अञ्जन शोभित नहीं होता, इस वाक्य में विनोक्ति अलङ्कार है, क्योंकि एक के बिना दूसरा भी शोभित नहीं हो रहा है। (२२) मुख नेत्र रूपी अङ्क से सुन्दर लगता है, स्मित रूपी चन्द्रिका से सुशोभित होता है। इस वाक्य में समासोक्ति अलङ्कार है। क्योंकि मुख वर्णन के प्रस्ताव में अप्रस्तुत चन्द्र का व्यवहार अलङ्कार ७५३ आरोपित है। (२३) जिसमें हरिण निवास करता है उस अब्ज के तुल्य मुख है। यहाँ अब्ज का दो अर्थ है-कमल और चन्द्र। कमल तो जल में उत्पन्न होता ही है अतः अप = जल में उत्पन्न होने के कारण उसे अब्ज कहते हैं और चन्द्र भी समुद्रमन्थन से निकला है अतः जल से जन्य है, उसे भी अब्ज कहते हैं। हरिण कमल में निवास तो नहीं करता, चन्द्र में ही निवास करता है, अतः मुख चन्द्रमा और कमल दोनों के समान है, अब्ज शब्द में श्लेषालकार है। (२४) ‘मुख के सामने चन्द्र निष्प्रभ हो गया’-यहाँ अप्रस्तुत के वर्णन से सादृश्य मूलक प्रस्तुत की प्रतीति हो रही है अतः अप्रस्तुत प्रशंसा अलङ्कार है। इस प्रकार उपमा के ही विवर्त अनेक अलङ्कार हैं।
उपमा का लक्षण
उपमानता और उपमेयता के योग्य दो अर्थों में जो मनोहर साधर्म्य होता है उसे उपमा कहते हैं। ‘कुमुद के समान मुख प्रसन्न है’-यहां उपमा नहीं है क्योंकि उपमानता की योग्यता कुमुद में नहीं है। साधर्म्य भी हृद्य होना चाहिये। अहृद्य साधर्म्य जैसे-वस्तुत्वेन, द्रव्यत्वेन साधर्म्य होने पर भी उपमा अलङ्कार नहीं होता। जैसे-‘गो सदृशो गवयः’ गाय के सदृश नीलगाय होती है, यहाँ उपमा तो है लेकिन उपमा अलङ्कार नहीं है। इसी प्रकार ‘गौर्वाहीकः’ में रूपक अलङ्कार नहीं है ‘स्थाणुर्वापुरुषो वा’ में सन्देह है पर सन्देहालङ्कार नहीं है। ‘इदं रजतम्’ में भ्रान्ति है, भ्रान्तिमान् अलङ्कार नहीं है, ‘नायं सर्पः’ में अपह्नति नहीं है, ‘पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते’, अर्थात् ‘रात्रौ भुङ्क्ते’ में पर्यायोक्त नहीं है, ‘पर्वतो वह्निमान्’ मे अनुमान है परन्तु अनुमानअलङ्कार नहीं है, ‘सोऽयं देवदत्तः’ में स्मरणालङ्कार नहीं है, ‘एचोऽयवायावः’ में यथासंख्य है पर यथासंख्याऽलङ्कार नहीं है; ‘पुत्रेण सहागतः पिता’ में सहोक्ति तो है परन्तु सहोक्ति अलङ्कार नहीं है। तेन बिना गतः’ में विनोक्ति है परन्तु अलङ्कार नहीं है; ‘श्वेतो धावति’ में श्लेष नहीं है; श्वा इतो धावति, श्वेत गुणवान् धावति-इन दो अर्थों के वाचक दो शब्दों का श्लेष है परन्तु अलङ्कार नहीं है। कारण अलङ्कार चमत्काराधायक होता है, वाक्यार्थ का उपस्कारक होता है जो चमत्कार का आधान नहीं करता वाक्यार्थ का उत्कर्ष नहीं बढ़ाता, उसे अलङ्कार नहीं कहा जा सकता। . यदि सप्रभेद प्रत्येक अलङ्कार का लक्षण उदाहरण लिखा जाय तो वह एक स्वतन्त्र विशाल काय ग्रन्थ बन जायेगा। अतः इनका लक्षण उदाहरण आकर ग्रन्थों से जानना चाहिये। यहाँ कतिपय अलङ्कारों का दिग्दर्शन मात्र किया गया है। ७५४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र