१९ परिशिष्ट ध्वनिविरोधी आचार्य और व्यञ्जना वृत्ति

काव्यानुभूति में काव्यार्थ तथा लक्ष्यार्थ की अपेक्षा प्रतीयमान अर्थ की प्रतीति में ध्वनिवादी विशेष चमत्कार मानते हैं। इस प्रतीयमान अर्थ को वै शब्द का वाच्यार्थ या लक्ष्यार्थ न मानकर व्यंग्यार्थ मानते हैं और इसकी प्रतीति के लिये अमिधा तथा लक्षणा को अपर्याप्त या व्यञ्जना जैसी नई शब्दशक्ति की कल्पना करते हैं। उनके मत से कुछ मीमांसकों द्वारा वाक्यार्थ प्रतीति के लिये स्वीकृत तात्पर्यशक्ति से भी व्यंग्यार्थ का बोध सर्वथा नहीं हो पाता, इसलिये व्यंग्यार्थ मात्र तात्पर्यार्थ नहीं है। और न व्यञ्जना का समावेश तात्पर्य वृत्ति में ही किया जा सकता है। ध्वनिवादियों द्वारा इस नई शब्दशक्ति की परिकल्पना का अनेक आचार्यों ने खण्डन कर इसे अमिथा, लक्षणा, तात्पर्यवृत्ति या अनुमान प्रमाण के अंतर्गत समाविष्ट करने का प्रयत्न किया है। ये आचार्य प्रतीयमान अर्थ को वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ, तात्पर्यार्थ या अनुमेय अर्थ सिद्ध करके इसकी साधनभूत वृत्ति व्यञ्जना का ही सर्वथा निषेध करते हैं, साथ ही व्यञ्जना की मूल भित्ति पर निर्मित ‘ध्वनि’ की कल्पना को भी नकार देते हैं। इन आचार्यों के मतों को लेने से पहले शब्दार्थ संबन्ध पर विचार आवश्यक होगा।

शब्दार्थसम्बन्ध

शब्दार्थ संबंध के विषय में हमारे यहाँ सर्वप्रथम विचार करने वाले मीमांसक तथा वैयाकरण हैं। मीमांसक किसी भी शब्द का मूल अर्थ ‘जातिपरक’ (जैसे ‘गोः’ शब्द का मूल अर्थ ‘गोत्व) मानकर आक्षेप या लक्षणा द्वारा व्यक्ति परक अर्थ (गो-व्यक्ति) लेते हैं, क्योंकि वे भी यह स्वीकार करते हैं कि ‘गोत्व’ अर्थ प्रवृत्ति निमित्त नहीं हो सकता।’ इस तरह मीमांसक शब्द के वाच्यार्थ को सर्वप्रथम प्लेटो की तरह प्रत्यय (Idea) मानते हैं। इनसे भिन्न सरणि नैयायिकों की है। वे जाति विशिष्ट ‘जात्यवच्छिम’ व्यक्ति (गाय-विशेष) में ‘गौः’ शब्द का संकेत मानते हैं। किसी भी पद के सुनने के बाद जो बुद्धि होती है, उसका साक्षात् संबंध उस व्यक्ति (जैसे गो-व्यक्ति) से है, जिसमें जाति भी विद्यमान रहती है। बौद्ध दार्शनिक क्षणिकवादी होने के कारण पद के संकेतग्रह के लिये ‘अपोह’ या अतव्यावृत्ति’ की कल्पना करते हैं। अर्थात् ‘गौः’ शब्द का अर्थ लेते समय हम गो-भिन्न समस्त पदार्थों १. काव्यप्रकाश में उद्धृत मण्डन मिश्र का मत। “गौरनुबन्थ्यः इत्यादी श्रुतिसंचेदितमनुबन्धन, कथ में स्यामदिति जात्या व्यक्तिराक्षिप्यते। न तु शब्देनोच्यते। ‘विशेष्यं नामिधागच्छेत् क्षीणशक्तिर्विशषणे’ इति न्यायात् ।- काव्यप्रकाश पृ. ४२ (आनन्दाश्रम सं.) जात्यवच्छिन्नसंकेतवती नैमित्तिकी मता। जातिमात्रे हि संकेताद् व्यक्तिभानंसुदुष्करम्।। - शब्दशक्तिप्रकाशिका चरित १६. २. ६२८ अष्टम् खण्ड-काव्य शास्त्र का व्यावर्तन कर देते हैं और अब जो बचा रहा है, वहीं ‘गौः’ शब्द का अर्थ है। वैयाकरणों के अनुसार किसी शब्द का संकेत उपाधि-जाति, गुण, क्रिया तथा यदृच्छा (द्रव्य) है-के सम्मिलित रूप में होता है। ध्यान से देखा जाय तो पदार्थ (पद का अर्थ) चारों के संश्लिष्ट रूप में पाया जाता है। गौः’ का संकेतग्रह गो-व्यक्ति के प्रवृत्तिनिवृत्तियोग्य होने पर भी व्यक्ति में इसलिये नहीं माना जा सकता क्योंकि गो- व्यक्ति अनन्त हैं और ‘गाय ले आओ या ले जाओं’ में सभी गायों का एक साथ लाना या ले जाना मुश्किल ही नहीं, असंभव है। इसलिये पद का उपाधि में ही संकेत मानना चाहिए।’ संकेतग्रह की सहायता से अर्थबोध कराने वाली शक्ति को ‘अमिधा’ कहा जाता है। और साक्षात् संकेतित अर्थ को अभिहित करने वाला शब्द वाचक तथा उससे प्रतीत अर्थ वाच्य कहा जाता है। (साक्षात् संकेतितं योऽर्थममिधत्ते स वाचकः।) अमिधा का ही दूसरा नाम ‘शक्ति’ भी है। इसके द्वारा अर्थ-प्रतीति के लिए ‘शक्तिग्रह’ अपेक्षित है। किसी भी शब्द का शक्तिग्रह-व्याकरण, उपमान, कोश, आप्तवाक्य, व्यवहार, वाक्यशेष, विवृति (निरुक्ति), या सिद्धपदसान्निध्य के कारण होता है-‘शक्तिग्रहं व्याकरणोपमान कोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः’-किसी भी शब्द को सुनते ही पहले क्षण में अमिधा द्वारा वाच्यार्थ प्रतीति अवश्य होगी। पर जब हम देखतें हैं कि प्रकरणविशेष में किसी पद का वाच्यार्थ घटित नहीं हो पा रहा है, अर्थात् मुख्यार्थ का बाध हो रहा है, तो हमें ऐसा अर्थ लेना पड़ता है, जो मुख्यार्थ से संबंध रखता हो और इस मुख्यार्थभिन्न अर्थ को लेने में कोई रूढि या प्रयोजन कारण हो। इस तरह ‘गंगायां घोषः’ और ‘गौर्वाहीकः’ जैसे वाक्यों में आमीरों की बस्ती का गंगाप्रवाह पर होना असम्भव होने से हम ‘गंगायां’ का अर्थ ‘गंगातट’ लेंगे और इस प्रयोग में गंगातट पर गंगा की शीतलता और पवित्रता भी बताना वक्ता का प्रयोजन है। इसी तरह ‘गौर्वाहीकः’ या ‘सिंहो माणवकः’ में हम साफ देखते हैं कि न तो वाहीक बैल ही है, न बच्चा शेर ही है, अतः दोनों में सामानाधिकरण्य मानकर हम गौ का अर्थ भी वाहीक तथा ‘सिंह’ का अर्थ भी ‘माणवक’ लेंगे, यहाँ प्रथम में ‘मूर्खत्वातिशय’ तथा द्वितीय में ‘शौर्य या निर्भीकता’ की भी प्रतीति कराना वक्ता का प्रयोजन है। क्रमशः यहाँ पहले में शुद्धा प्रयोजनवती तथा दूसरे दो उदाहरणों में गौणी प्रयोजनवती लक्षणा पाई जाती है। ‘कर्मणि कुशलः’ जैसे स्थलों में हम ‘कुशल’ अर्थ की प्रतीति में लक्षणा नहीं मानते, वस्तुतः रूढिवाली लक्षणा कुछ नहीं अमिधा ही है-“अमिधा पुच्छाभूतासा।” इस तरह अमिधा से पूरा अर्थ न लगने पर मीमांसकों ने लक्षणा की तुलना की थी।

अभिधा, लक्षणा, तात्पर्य

मीमांसक १. गौश्शुल्कश्चलो डित्थ इत्यादौ चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः। महाभाष्य १.१.१. (साथ ही) यदयप्यर्थक्रिया कारितया प्रवृत्तिनिवृत्तियोग्या व्यक्तिरेव तथाप्यानन्त्याद् व्यभिचाराच्च तत्र संकेतः कर्तुं न युज्यते इति गौश्शुल्कश्चलो डित्थ इत्यादीनां विषयविभागो न प्राप्नोतीति च तदुपाधावेव संकेतः। -काव्यप्रकाश द्वितीय उल्लास पृ. ३० परिशिष्ट ध्वनि विरोधी आचार्य और व्यञ्जना वृत्ति ૬૨૬ केवल दो शब्दशक्तियां मानते हैं- अमिधा तथा लक्षणा। कुछ मीमांसक गौणी को शुद्धा प्रयोजनवती से अलग मानकर तीन शक्तियाँ मानते हैं- अमिधा, लक्षणा तथा गौणी। लक्षणा में इस तरह तीन शतें होना जरुरी है:-(१) मुख्यार्थबाध, (२) तद्योग तथा (३) प्रयोजन। रूढ़ि को हम अमिधा में ही मानना चाहेंगे। क्योंकि वहाँ वक्ता का प्रयोजन यह प्रयोजन वाच्यार्थ तथा लक्ष्यार्थ में पाये जाने वाले संबंध की प्रतीति कराना है, शुद्धा में ये दोनों के अंगांगिभाव, सामीप्यसंबंध आदि या गौणी लक्षणा में सादृश्यसंबंध है, जिसके कारण अत्यन्त भिन्न दो पदार्थों में आभिन्नता की प्रतीति कराना वक्ता को अभीष्ट है, जिसे ‘उपचार’ कहा जाता है। इस तीन शर्तों का होना लक्ष्यार्थ प्रतीति में जरूरी है। लक्षणा के उपादान लक्षणा तथा लक्षण लक्षणा तथा सारोपा) तथा साध्यवसाना भेदों का विवेचन हम यहाँ निबंध के विस्तार-भय से नहीं करेंगे। पदार्थ प्रतीति के बाद कुछ मीमांसक वाक्यार्थ प्रतीति के लिये तात्पर्य वृत्ति मानते हैं। मम्मट के अनुसार ये ‘अभिहितान्वयवादी’ कुमारिल के अनुयायी है। पर यह कुमारिल के अनुयायी वाचस्पति मिश्र वाक्यार्थ पर विचार करते समय अपने ग्रन्थ ‘तत्त्व बिन्दु’ में वाक्यार्थ प्रतीति में लक्षणा का ही व्यापार मानते हैं, वहाँ तात्पर्य वृत्ति का कोई संकेत नहीं है। वे कहते हैं-“हम वाक्यार्थज्ञान में पदार्थों का अन्वय बोध करने वाली अभिधा से भिन्न शक्ति को लक्षणा ही कहते हैं। यदि वाक्यार्थ प्रतीति में अलग से शक्ति मानी जायेगी, तो चार शक्तियाँ माननी होंगी-अभिधा, लक्षणा, गौणी (जिसे उपचारमिश्रित होने के कारण अलग से माना गया है। तथा पदार्थान्वय-शक्ति। इस गौरव से बचने के लिये हम इसे लक्षणा ही मानते हैं। वाचस्पति मिश्र यहाँ कुमारिल भट्ट के इस मत का अनुसरण करते हैं- वाक्यार्थों लक्ष्यमाणो हि सर्वत्रैवेति नः स्थितिः।” ध्वनिवादी अभिनवगुप्त तथा मम्मट तात्पर्यवृत्ति का उल्लेख करते हैं। ‘तात्पर्यार्थऽपि के षुचित्’ । यहाँ मम्मट द्वारा ‘केषुचित्’ पद का प्रयोग क्या यह संकेत तो नहीं करता कि वे वाक्यार्थ प्रतीति में स्वयं तात्पर्यवृत्ति को नहीं मानते। विद्याधर ने एकावली तथा विद्यानाथ ने प्रतापरुद्रीय में तात्पर्य वृत्ति को नहीं माना है। तात्पर्यार्थ व्यंग्यार्थ ही है, उस को पृथक् नहीं। (तात्पर्यार्थो व्यंग्यार्थ एव न पृथग्भूतः- प्रतापरुद्रीय)।’ यहाँ इतना संकेत mmamim.-……, १. अत्यन्तं विश्कलितयोः सादृश्यतिशयमहिन्मा भेद प्रतीति-स्थगनमुपचारः। मुष्ख्यार्थ वाधेस्तद्योगे रूढितोऽथ प्रयोजनात्। अन्योऽर्थो लक्ष्यतेयत् सा लक्षणाऽऽरोपिता क्रिया।। काव्यप्रकाश २.५. एवं च न चेदियं पदप्रवृत्तिलक्षणालक्षणमन्वेति, भवतुतर्हि चतुर्थी। अस्तु वा लक्षणैव तत्त्वबिन्दु पृ.१५६. तदन्यथानुपपत्तिसहायार्थावबोधन शक्तिस्तात्पर्यशक्तिः-लोचन पृ. ६२. काव्यप्रकाश २.१ एवं च सति प्राचीनालंकारशास्त्राणां संसर्गरूपवावधार्थ एव तात्पर्यार्थत्वेन प्रतिपादन मतान्तरेणभिप्रायेणेति द्रष्टव्यम्। अत एवोक्तं काव्यप्रकाशे-‘तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित्’ इति । प्रतापरुद्रीय टीका रत्नापण पृ. ४४ ७. एकावली पृ. ५६-५७ तथा प्रतापरुद्रीय पृ. ४३. ६३० अष्टम् खण्ड-काव्य शास्त्र हम और कर दें कि अन्विताभिधानवादी प्रभाकर भट्ट का खण्डन करते अभिहितान्वयवादी पार्थसारथि मिश्र भी तात्पर्य ज्ञान (वाक्यार्थप्रतीति) में लक्षणा मानते हैं। वे कहते हैं न तो वाक्य ही न पद ही साक्षात् वाक्यार्थ बुद्धि को उत्पन्न करते हैं सबसे पहले पद के स्वरूप द्वारा पदार्थ अभिहित (अमिधा शक्ति से प्रतीत) होते हैं, तदनन्तर वे वाक्यार्थ को लक्षणा द्वारा लक्षित करते हैं। ‘तस्मान्न वाक्यं न पदानिसाक्षात् वाक्यार्थ बुद्धिं जनयन्ति किन्तु पदस्वरूपामिहितैः पदार्थैः संलक्ष्यतेऽसाविति सिद्धमेतत् ।” (न्यायमालाः वाक्यार्थ प्रकरण पृ.७८) हम भी तात्पर्य शक्ति को अलग से नहीं मानना चाहते। वह व्यंजना से ही गतार्थ हो जाती है। चिरन्तन आलंकारिक इस तरह मीमांसकों के अनुयायी होने के कारण मूलतः दो ही शक्तियाँ मानते हैं-अमिधा तथा लक्षणा। कुछ आलंकारिक लक्षण को भी नहीं मानते है। लोल्लट, कुन्तक तथा महिम भट्ट लक्ष्यार्थ की प्राप्ति भी अमिधा द्वारा ही मानना चाहते हैं, अतः वे प्रतीयमान अर्थ की प्रतीति भी अमिधा द्वारा ही मानते हैं, यह हम आगे देखेंगे।

व्यञ्जना

ध्वनिवादियों ने व्यंजना की कल्पना वहाँ मानी है। हाँ अमिधा तथा लक्षणा के विरत हो जाने पर भी वक्ता का कोई न कोई अर्थ बचा रहता है, उसकी प्रतीति में अभिधा और लक्षणा अब फिर से लौट कर क्रियाशील नहीं हो सकती-शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराभावात्। मम्मट कहते हैं कि जिस प्रयोजन की प्रतीति कराने के लिये लक्षणा का आश्रय लिया जाता है, वह प्रयोजनरूप फल एकमात्र शब्द द्वारा प्रतिपादित होता है, अतः यहाँ व्यंजना (शब्दशक्ति) का ही व्यापार पाया जाता है, अन्य शब्दशक्ति का नहीं। यहाँ अमिधा नहीं हो सकती, क्योंकि ‘गंगायां’ पद से ‘गंगातट पर, अर्थ लेने में जिस ‘शैत्यपावनत्वादि की भी प्रतीति कराना वक्ता का प्रयोजन है, वह ‘गंगा’ का संकेतित अर्थ नहीं है और न इसमें लक्षणा ही मानी जा सकती है, क्योंकि यहाँ मुख्यार्थ बाधादि हेतुत्रय “शैत्यादि” अर्थ लेने के हेतु नहीं बनते। अतः यहाँ व्यञ्जना है। अगर यह दलील दी जाय कि ‘गंगायां’ से यहाँ ‘शैत्यपावनत्वादि के लिये तीसरी शक्ति के गौरव से बचने के लिये हम प्रयोजन सहित लक्ष्यार्थ को लक्षणा द्वारा लक्षित मानें तो लक्षणा से ही “शैत्यपावनत्वादि विशिष्ट ‘गंगातट’ की प्रतीति हो ही जायेगी, तो ऐसा नहीं माना जा सकता। हम जानते हैं कि मीमांसक तथा नैयायिक दोनों घटादिरूप विषय की ज्ञप्ति में ज्ञान रूप फल को भिन्न मानते हैं। घटादि विषय कारण है, घटादि का ज्ञान उसका कार्य या फल, दोनों सर्वथा अलग अलग है।’ ARRENTARNIYAci १. यस्य प्रतीतिमाथातुं लक्षणा समुपास्यते। फले शब्दैकगम्येऽत्र व्यञ्जनान्नापरा क्रिया। नामिधा समयाभावात् हेत्वभावान्न लक्षणा। लक्ष्यं न मुख्यं नाप्यत्र बाधो योगः फलेन नो। न प्रयोजनमेतस्मिन्न च शब्दः रवलद्गतिः।।- काव्य प्रकाश पृ. ५६-५७ परिशिष्ट ध्वनि विरोधी आचार्य और व्यञ्जना वृत्ति ६३१ मीमांसक इस घटज्ञान को प्रकटता या ज्ञातता ‘ज्ञातो घटः’ इत्याकारकज्ञान मानते हैं, नैयायिक इसे संवित्ति (घटमहं जानामि’ इत्याकारक अनुव्यवसाय) कहते हैं, जो घट (ज्ञान के विषय) से भिन्न है। अतः दोनों को मिश्रित नहीं किया जा सकता। फलतः फलरूप’ शैत्यादि अर्थ प्रतीति के लिये तीसरी शब्दशक्ति मानने की आवश्यकता होगी ही। यही शक्ति व्यञ्जना है। ध्वनिवादी व्यंग्यार्थ की प्रतीति कहीं तो वाचक शब्द से ही दूसरे क्षण में सीधे मानते हैं, कहीं लक्षक शब्द से तीसरे क्षण में। इस तरह व्यञ्जना दो तरह की हो जायेगी अमिधामूला शाब्दी तथा लक्षणामूला, जो क्रमशः विवक्षितान्यपरवाच्य तथा अविवक्षित वाच्य ध्वनियों की मूलभित्ति है। ऊपर दिये उदाहरणों-‘गंगायां घोषः’ तथा ‘गौ’ र्वाहीकः’ में क्रमशः शैत्यादि’ तथा ‘मूर्खतातिशय’ वाले अर्थों की प्रतीति में लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना है। अभिधामूला शाब्दी व्यंजना वहाँ होगी, जहाँ श्लिष्ट शब्द प्रयोग से दो-दो अर्थों की प्रतीति में पहले अर्थ (वाच्यार्थ) में संयोगादिसे अमिथा के नियन्त्रित हो जाने पर दूसरे क्षण में दूसरे अर्थ की प्रतीति तो अभिधा करा नहीं सकेगी, क्योंकि वह व्यापार तो पहला अर्थ बताकर खत्म हो चुका, अतः यहाँ दूसरे अर्थ की प्रतीति के लिये व्यञ्जना ही माननी होगी। यहाँ लक्षणा कत्तई नहीं मानी जा सकती, क्योंकि श्लिष्ट शब्द से यह दूसरा अर्थ लेने में मुख्यार्थ बाधादि हेतुत्रय है ही नहीं। इसका उदाहरण निम्नोक्त है, जहाँ अभिथामूला शाब्दी व्यंजना है, जो वस्तुरूप व्यंग्यार्थ को ध्वनित करने वाले शब्दशत्त्युद्व संलक्ष्यक्रम व्यंग्य ध्वनि का भी उदाहरण है। “पंथिअ ण एत्थ सत्थरमत्थि मणं पत्थरत्थले गामे। ऊणअपओहरं पेक्खिऊण जइ वससि ता वससु।।” (हे बटोही, इस पथरीले स्थल (पत्थरों की तरह असहृदय मूर्ख लोगों) वाले गाँव में आकाश में उमड़े बादलों (मेरे उन्नत उरोजों) को देखकर रुकते हो, तो रुको वैसे यहाँ बिछौना कुछ भी नहीं है (यहाँ शास्त्र या नैतिक मर्यादा बिलकुल नहीं हैं।) स्वैरिणी स्वयंदूती के इस वाक्य में ‘सत्थर (बिछौना तथा शास्त्र) और ‘पेओहर’ (बादल तथा उरोज ) शब्द श्लिष्ट हैं, प्रथम अर्थ जो नायिका की सामान्य उक्ति लगती है अभिधा से प्रतीत होता है, पर प्रकरणादि ज्ञान (वक्त्री के चरित्र के ज्ञान) से दूसरा श्लिष्टार्थ भी ध्वनित हो रहा है, जिसमें व्यञ्जना व्यापार ही मानना होगा। इस उदाहरण में ‘पत्थरस्थले’ पद के दूसरे अर्थ (असहृदय मूखों की निवासभूमि) की प्रतीति १. प्रयोजन सहितं लखणीयंनयुज्यते। ज्ञानस्य विषयो यन्यः फलमन्यदुदाहृतम् ।। का.१७-काव्यप्रकाश पृ.५६ २. अनेकार्थस्य शब्दस्य वाचकत्वे नियन्त्रिते। संयोगाद्यैरवाच्यार्थधीकृद् व्यापृतिरञ्जनम्। का. प्र. का. १६ पृ. ६१ व्यञ्जनायांतु पाषाणानां तत्त्वेनाध्यवसिताना मूर्ख मां स्थले तन्मये ग्रामें सत्थर शास्त्र मनागीषदपि नास्ति। तथा चाऽऽकारेगितज्ञानाधिकरणे ग्रामे सति चैवविध उद्दीपने मेघेश्लेषमर्यादयोन्नतस्तनदर्शने च को नामोपभेगक्षमोऽन्यत्र गन्तुमर्हतीति वक्त्र्यप्रायः प्रकाशते। काव्यप्रकाशप्रदीप की उदयोत टीका पृ.१३६ ૬૨૨ अष्टम् खण्ड-काव्य शास्त्र में साध्यवसाना गौणी लक्षणलक्षणा मानी जायेगी, जो भी उक्त ध्वन्यर्थ का साधन है। इति दिक्।

आर्थी व्यञ्जना

चूँकि ध्वनि वादी के अनुसार केवल शब्द ही नहीं, स्वयं अर्थ भी व्यञ्जक होता है, अतः व्यञ्जना एक दूसरा भेद भी मानना होगा-आर्थी व्यञ्जना। यह मोटे तौर पर तीन तरह की होगी-(१) वाच्य से व्यंग्यार्थ प्रतीति का व्यापार (वाच्यसंभवा आर्थी), (२) लक्ष्य अर्थ से व्यंग्यार्थ प्रतीति का व्यापार (लक्ष्यसंभवाआर्थी), व्यंग्य से व्यग्यार्थ की प्रतीति का व्यापार (व्यंग्यसंभवा आर्थी)। इनमें सर्वत्र प्रकरणादि वक्ता, बोद्धव्य, काकू, वाक्य, वाच्य, आदि = के ज्ञान के पश्चात् यह व्यंग्यार्थ प्रतीति होगी। यह व्यंग्यार्थ प्रतीति प्रतिभाशील सहृदयों को ही होगी। ‘वक्तृबोद्धव्यकाकूनां वाक्यवाच्यान्यसन्निधेः। प्रस्तावदेशकालानां वैशिष्ट्यात्प्रतिभाजुषाम्। योऽर्थस्यान्यार्धधीहेतुर्व्यापारो व्यक्तिरेव सा।।" इनका हम यहाँ सोदाहरण विवेचन नहीं करेंगे।’ - इस पृष्ठभूमि के साथ अब हम ध्वनि विरोधी आचार्यों की बात शुरु करेंगे। व्यञ्जनावादी ध्वनि सिद्धान्त का विरोध मूलतः दो खेमों से हुआ है, एक मीमांसक जो प्रतीयमान अर्थ की प्रतीति को या तो सर्वथा नकार देते हैं, या मानने पर उसे अभिधा या लक्षणा या तात्पर्य वृत्ति द्वारा प्रतीत बताते हैं, दूसरे नैयायिक जो वाच्यार्थ और प्रतीयमान अर्थ में अनुमापक अनुमाप्य-संबंध मानकर अपर अर्थ को अनुमिति का विषय मानतें हैं। इन मुख्य विरोधियों के अतिरिक्त ऐसे भी हो सकते हैं, जो वाच्यार्थ को निमित्त और प्रतीयमान को नैमित्तिक मानते हैं। अन्य लोग प्रतीयमान अर्थ मानते तो हैं, पर उसकी अनुभूति को अनिर्वचनीय मानकर इसके व्यापार तथा उसके द्वारा प्रत्यायित अर्थ को लक्षण (परिभाषा) द्वारा बताना असम्भव मानते हैं। हम यहाँ केवल उपर्युक्त दो विरोधियों-मीमांसक तथा नैयायिक- को ही लेंगे। विस्तार-भय से यहाँ ध्वनिवादी द्वारा इन प्रतिमल्लों के मतों के खण्डन का संकेत दिङ्मात्र ही करेंगे। ध्वनि विरोधियों का जिक्र सबसे पहले हमें ध्वन्यालोक में ही मिल जाता है। पर वहाँ इन विरोधियों का नामतः उल्लेख नहीं है। इन्हें ध्वनिकार तीन तरह का मानते हैं (१) ध्वनि का काव्य में अभाव मानने वाले, (२) ध्वनि को भाक्त मानकर ‘भक्ति’ (लक्षण) १. काव्यप्रकाश- कारिका २२ पृ. ७१ २. विशेष के लिये दे. हमारा ग्रन्थः “ध्वनिसम्प्रदाय और उसके सिद्वान्त-भाग १ शब्दशक्ति विवेचन” पृ. २२५-२४२ ३. दे. ध्वन्यालोक पृ. १६३-१६४ तथा काव्यप्रकाश पृ. २१२-२१३ परिशिष्ट ध्वनि विरोधी आचार्य और व्यजना वृत्ति aan “RAPHETAI P ATiam- Thank F

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anagar-RRA द्वारा ही गतार्थ मानने, (३) ध्वनि को वाणी का अविषय मानने वाले। ध्वनि विरोधी अभाववादी (१) या तो इसे कोई न कोई अलंकार ही मानना चाहेंगे, (२) या कहेंगे कि ध्वनि नामक कोई काव्यतत्त्व है ही नहीं, (३) अथवा चिरंतन आलंकारिकों द्वारा कहे गये गुणालंकारों में इसका अंतर्भाव न हो, तो भी कुछ विशेषता होने भर से इसे नया नाम देकर नया तत्त्व मानना कहाँ तक ठीक है, क्योंकि इस प्रकार विच्छित्ति के असंख्य प्रकार हो जायँगे, क्या उन सब को काव्य की आत्मा मान लिया जाय। ध्वनिकार ने एक ध्वनिविरोधी कवि का पदय आलोक (वृत्ति) में उद्धृत किया है, जो ध्वनिवादी का मजाक उड़ाता कहता है-“जिस काव्य में न तो कोई मन को आह्लादित करने वाली वस्तु ही है, जो अलंकारयुक्त हो, और जो काव्य व्युत्पन्न (प्रौढ) वचनों (पद रचना आदि) से भी सम्पन्न नहीं है, और साथ ही वक्रोक्ति शून्य भी है, ऐसे काव्य की “यह ध्वनि से युक्त है” ऐसी प्रसन्नतापूर्वक प्रशंसा करता हुआ मूर्खः ध्वनि का स्वरूप पूछे जाने पर क्या जवाब देगा, हम नहीं जानते।” “यस्मिन्नस्ति न वस्तु किंचन मनः प्राह्लादिसालकृति व्युत्पन्नैरचितं च नैव वचनैर्व क्रोक्तिशून्यं च यत्। काव्यं तद्ध्वनिना समन्वितमिति प्रीत्या प्रशंसजडो नो विदमोऽदधाति किं सुमतिना पृष्ठः स्वरूपं ध्वनेः॥३

ध्वनिविरोधी मत

अभिनवगुप्त ने इस ध्वनिविरोधी कवि का नाम मनोरथ बताया है, जो आनन्द वर्धन का समकालिक है। लोचन में नामतः सिर्फ एक ध्वनिविरोधी आचार्य का संकेत दो स्थानों पर मिलता है। ये भरत के रससूत्र के प्रसिद्ध व्याख्याकार भट्टनायक हैं। इनका मत हम आगे उद्धृत करने जा रहे हैं। ध्वनिविरोधियों द्वारा व्यञ्जना, व्यंग्यार्थ तथा ध्वनि को न मानने संबंधी तर्को का जमकर खण्डन हमें मम्मट के काव्यप्रकाश में मिलता है, जहाँ पंचम उल्लास में वे स्पष्टतः दीर्धदीर्घातराभिधाव्यापारवादी (भट्ट लोल्लट) तथा अनुमानवादी (महिम भट्ट) के मतों का ही नहीं दूसरे ध्वनिविरोधी विकल्पों का भी खण्डन करते हैं। अन्यध्वनिविरोधियों में मुकुल भट्ट, धनंजय तथा धनिक, महिमभट्ट, कुतक तथा भोजराज हैं। इससे पूर्व कि हम इनके मतों को लें व्यंग्यार्थ को वाच्य तथा लक्ष्यार्थ से भिन्न मानने के कारणों पर विचार करलें, ध्वन्यालोक में आनन्दवर्धन ने व्यंग्यार्थ को वाच्यार्थ से सर्वथा भिन्न सिद्ध करते हुए बताया है कि यह वाच्यार्थ के समकक्ष हो यह

RANI .. १. काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति बुधैर्य : समाम्नातपूर्वः तस्यामावं जगदुरपरे भाक्तमाहुस्तमन्ये। केचिद्वाचां स्थितमविषये तत्त्वमुचुस्तदीयं तेन ब्रूमः सहृदयमनः प्रीतयेतत्स्वरूपम्।। धन्या.१.१ २. दे-लोचन- पृ. १४-१५. ३. धन्यालोक- पृ. २६-२७ ६३४ अष्टम् खण्ड-काव्य शास्त्र आवश्यक नहीं है:-(१) कहीं वाच्यार्थ के विधिरूप होने पर भी प्रतीयमान अर्थ निषेध रूप हो सकता है, जैसे ‘घूमहुँ अब निचिंत है धार्मिक गोदातीर। वा कूकर की कुंज मैं मार्यो सिंह गंभीर।।” यहाँ हे धार्मिक, अब तुम मजे से गोदातीर पर घूमों, क्योंकि तुम्हें डराने वाले उस कुत्ते को वहाँ के कछार कुंज में रहने वाले भयंकर शेर ने मार डाला है इस वाच्यार्थ से सहृदय को यह निषेधार्थक प्रतीति होती है कि नायिका अपने स्नेह स्थल में जाकर उसका विध्न पैदा करते धार्मिक को डराती कह रही है-“बच्चू, उधर न जाना कुत्ते से भी भयंकर शेर का वहाँ खतरा हैं।” (२) वाच्यार्थ के निषेध रूप होने पर भी प्रतीयमान अर्थ विधिरूप हो सकता है, जैसे “अत्ता एत्थ णिमज्जइ एत्थ अहं दिअस पलोएहि। मा पहिअरत्तिअंधअसज्जाए मह णिमज्जहिसि ।।” (सोती या हौं, सास हुवाँ, पेखि दिवस मालेहु। सेज रतौंधी बस पथिक हमरी मति पग देहु।।) यहाँ काव्यार्थ निषेध रूप हैं, पर व्यंग्यार्थ विधिरूप। पथिक को रतौधी वाला बताकर भविष्य में यदि उससे कोई गलती हो जाय, तो उसका भी निराकरण करती स्वयं दूती कह . रही है-“मेरे पास ही आना, अंधेरे में भूल से कहीं सास की शय्या पर मत चले जाना।” __इनके अतिरिक्त (३) कहीं वाच्यार्थ विधिरूप होने पर भी व्यंग्यार्थ, अनुभयरूप और (४) वाच्यार्थ निषेघरूप होने परे भी व्यंग्यार्थ अनुभयरूप होता है, या (५) व्यंग्यार्थ का विषय वाच्यार्थ से भिन्न हो सकता है। जिनके उदाहरण देकर हम निबन्ध को बढ़ाना नहीं चाहेंगे। इन वस्तुरूप व्यंग्याओं की तरह अलंकाररूप व्यंग्यार्थ भी वाच्यार्थ से भिन्न होता है, और रसादिरूप व्यंग्यार्थ तो वाच्यार्थ से भिन्न होता ही है, क्योंकि वस्तु और अलंकार दोनों तरह के हो सकते हैं, वाच्य तथा व्यंग्य पर रसादिरूप व्यंग्य तो स्वप्न में भी वाच्य नहीं होते, वह सदा व्यंग्य ही होता है। साथ ही ध्वनि की भक्ति (लक्षण) के साथ भी १. मम धम्मिअ बीसत्यो सो सुनहो अज्ज मारिओ देन। गोलाणईकच्छकुंज वासिणा दरिअसीहेण।। आधस्तावत् प्रभेदो वाच्याद् दूरतरं विभेदवान। इनके उदाहरण क्रमशः ‘वच्च मह विअएक्केइ’ आदि, ‘दे आ पसिअ णिवत्तसु’ आदि तथा ‘कस्सणवाहोइ रोसों गाथायें दी गई हैं। दि. ध्वन्यालोकः पृ. ७३-७७) तथा इनकी व्याख्या-दे. व्यासः ध्वनिसम्प्रदाय और उसके सिद्वान्त भाग १, पृ. २५६-२५८॥ ३. रसादिलक्षणस्तु स्वप्नेऽपि न वाच्यः काव्यप्रकाश परिशिष्ट ध्वनि विरोधी आचार्य और व्यजना वृत्ति ६३५ अभिन्नता नहीं मानी जा सकती, क्योंकि भक्ति केवल ‘उपचार’ में होगी, जब कि उपचार से भिन्न अनेक स्थलों में ध्वनि काव्य होता है। वहाँ न तो व्यंग्यार्थ लक्ष्यार्थ ही है, न व्यंग्यार्थ-प्रतीति का व्यापार लक्षणा ही। अतः इन समान ध्वनि भेदों में व्यञ्जना का ही व्यापार घटित होता है। व्यञ्जना वस्तुतः साधन है, ध्वनि साध्य । व्यञ्जना व्यापार केवल वनि काव्य में ही नहीं पाया जाता, अपितु गुणीभूत व्यंग्य काव्य में भी उसका व्यापार है। यहाँ व्यंग्यार्थ तो होता है, पर उसकी अपेक्षा वाच्य में चारुत्व का प्रकर्ष रहता है।’ अब हम उपर्युक्त ध्वनिविरोधी काव्यशास्त्रियों के मतों का संकेत करेंगे, जो ध्वनि संबंधी सिद्धान्त के विविध पूर्वपक्ष हैं।

(१) भट्ट लोल्लट

इनका कोई ग्रन्थ नहीं मिलता। ये भरत के रससूत्र के प्रथम व्याख्याकार हैं, जिन्होंने रस निष्पत्ति में रस की विभावादि उत्पादकों द्वारा उत्पाद्य मानते हुये उत्पत्तिवादी’ मत का प्रतिपादन किया है। लोल्लट मीमांसक हैं। ये प्रतीयमान अर्थ की सत्ता काव्य में मानते हैं, पर उसे अमिथा व्यापार से ही प्रतीत मानते हैं। इनका कहना है कि अमिधा मात्र वाच्यार्थ (गंगा-प्रवाह) बताकर ही विरत नहीं हो जाती उसका व्यापार बाण की तरह अनेक कार्य निष्पादित करता है। जैसे बाण कवचभेदन करने के बाद वक्ष का भेदनकर प्राणों का अपहरण करता है, ये सब बाण के व्यापार है, ऐसे ही ‘गंगातट’ तथा ‘शैत्यादि’ की प्रतीति भी अमिधा ही कराती है, क्योंकि उसका व्यापार दीर्घ और दीर्घतर होता है। अतः शब्द पदार्थ की उपस्थिति तथा व्यंग्य प्रतीति दोनों एक ही व्यापार (अमिधा) द्वारा करा देता है। लोल्लट के इस प्रसिद्ध मत “सोऽयमिषोरिव दीर्घदीर्धतरोभिधाव्यापारः" का सबसे पहले खंडन अनुमानवादी महिम भट्ट ने किया है। वे कहते हैं शब्द के विषय में बाण का दृष्टान्त देना ठीक नहीं। शब्द तो संकेत सापेक्ष होकर भी अपने व्यापार का आरंभ करता है, स्वभाव से ही नही। अतः अमिथा का व्यापार नहीं हैं। लोल्लट की एक दलील यह भी है कि जिस शब्द के सुनने से जिन जिन अर्थों की प्रतीति होती है, वे सब उसके वाच्यार्थ हैं-‘यत्परः शब्दः सशब्दार्थः’ । लोल्लट कहते हैं। कि वाक्य में अनुपात्त शब्द में भी तात्पर्य हो सकता है-“जहर खालो, इसके घर न खाना" (विषं भक्षय, मा चास्य गृहे भुड्थाः ) में पहले वाक्य का तात्पर्य दूसरे वाक्य में है। मम्मट यहाँ दो वाक्य नहीं मानते, उनकी दलील है कि यहाँ समुच्चय बोधक ‘च’ एक वाक्यता का प्रमाण है। तथा दोनों वाक्यों में अंगांगिभाव है। इसलिये इसके घर खाना जहर १. प्रकारोंऽन्यो गुणीभूतव्यङग्यः काव्यस्यदृश्यते। यत्र व्यङ्ग्यान्वये वाच्यचारुत्वं स्यात् प्रकर्षवत्।। थन्या ३.३४ सुकविप्रयुक्त एक एव शब्दः एकेनैवामिथाव्यापारेण पदार्थोपस्थिति अन्वयबोधं व्यंग्यप्रतीतिं च विधत्ते। यथा सायक स्तत्तत् कार्य करोति न तथा शब्दः। स हि संकेत सापेक्ष एवं स्वव्यापारभारभते न स्वभावत एवेति यस्यैवात्र संकेतस्तत्रैव व्याप्रियते। व्यक्तिविवेक पृ. १२४६३६ अष्टम् खण्ड-काव्य शास्त्र खाने से भी बुरा है" यह अर्थ मानने में ‘जहर खालों’ वाक्यांश का तत्परत्व नहीं माना जा सकता, क्योंकि ‘अदग्धदहन न्याय’ से अप्राप्त अर्थ में ही विधेय होगा। पर व्यंग्यार्थ को वाच्यार्थ तथा (या) लक्ष्यार्थ के पूरी तरह घटित हो जाने पर विधेय नहीं माना जायेगा।’ मम्मट ने लोल्लट का खण्डन विस्तार से मीमांसकों द्वारा श्येनयाग के प्रकरण में संकेतित वाक्य ‘लोहितोष्णीषाः ऋत्विजः प्रचरन्ति’ में विधेयांश केवल ‘लाल पगड़ी वाले अंश में माना है, क्योंकि इस प्रकरण में ऋत्विजः प्रचरन्ति (ऋत्विक् अनुष्ठान करते हैं) वाक्य पहले आ चुका है। विधेयांश वाक्यप्रयुक्त शब्द में ही होता है, अप्रयुक्त प्रतीयमान अर्थ में उसे कैसे माना जा सकता है।

(२) भट्टनायक

मम्मट भट्टनायक के ध्वनि विरोधी मत का जिक्र नहीं करते, पर अभिनवगुप्त ने लोचन में दो बार भट्टनायक का जिक्र किया है। कि वे व्यंग्य और व्यञ्जना व्यापार को नहीं मानते। भट्टनायक ने ध्वनि का खण्डन का कोई ग्रन्थ लिखा था। ‘सहृदयदर्पण’ जो आज नहीं मिलता। भट्टनायक भी लोल्लट की तरह लक्षणा तथा व्यञ्जनाको नहीं मानते जान पड़ते, वे भी शब्दार्थ-संबंध के विषय में अमिधावादी हैं। काव्य में वर्णित विभवादि द्वारा निष्पत्ति के संबंध में वे आनंद वर्धन के व्यंग्य-व्यंजक-भाव संबंध को नहीं मानते। रसनिष्पत्ति के लिये भट्ट नायक अमिधा के अतिरिक्त दो और व्यापार मानते हैं-भावकात्व तथा भोजकत्व। इस मत का विवेचन यहाँ अप्रसगिक होगा। आनंदवर्धन के ध्वनिलक्षण में भट्टनायक ने दोष माना है। जिक्र भी विस्तारभय से नहीं किया जा रहा है।

(३) धनंजय तथा धनिक

ऐतिहासिक दृष्टि से इनका जिक्र मुकुल भट्ट कुंतक तथा महिम भट्ट के बाद करना चाहिए था, पर इनका ध्वनिविरोधी मत स्वतंत्र न होकर लोल्लट के यत्परः शब्दः सशब्दार्थः का ही उल्था है। अतः उसे हम यहीं लेंगे। धनिक के ध्वनिविरोधी मत का उल्लेख केवल साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने किया है।३ दशरूपककार धनंजय का ध्वनि विरोध तो ग्रंथ के कारिकों में स्पष्ट नहीं मिलता, पर हमारा अनुमान है कि वे भी अपने अनुज वृत्तिकार धनिक का मत मानते हैं। इस मत का विशेष विवेचन धनिक ने अपने ग्रन्थ “काव्य निर्णय” में किया होगा जो आज नहीं मिलता। दशरूपक के चतुर्थ प्रकाश की वृत्ति में वे रसविवेचन के प्रकरण में ‘काव्यनिर्णय’ की कुछ कारिकायें उद्धृत कर इसकों व्यंग्य नहीं मानते, न विभावादि को ही व्यंजक, जो उनके व्यञ्जना तथा ध्वनि विरोध का प्रमाण है। धनिक प्रतीयमान को तात्पर्य ही मानते हैं-प्रतीयमान अर्थतात्पर्य से भिन्न नहीं CACARAM MARATHAARATI १. ततश्च यदेव विधेयं तत्रैव तात्पर्यमित्युपात्तस्यैव शब्दस्यार्थे तात्पर्य न तु प्रतीतमात्रे काव्यप्रकाश पृ. २१४-२१५ २. विशेष के लिये-दे. ध्वनि सम्प्रदाय और उसके सिद्धान्त भाग १ पृ. २६४-२६७. (२ “नामिव्यज्यते काव्येन रसः। किंचान्यशब्दवैलक्षण्यं काव्यात्मनः शब्दस्य त्र्यंशता प्रसादात् तत्राभिधायकत्वं वाच्यविषयं भावकत्वं रसादिविषयं भोजकत्वं सहृदयविषयमिति त्रयोंऽशभूता व्यापराः। लोचन में उद्धृत भट्ट नायक का मत पृ. १८२ यच्च धनिकेनोक्तम्-तात्पर्यव्यतिरेकाच्च व्यञ्जकत्वस्य न ध्वनिः। यावत्कार्यप्रसरित्वात् तात्पर्य न तुलाघृतम्।। इति तयोरुपरि ‘शब्दबुद्धिकर्मणं विरम्य व्यापाराभावः।। इति वादिमिरेव पातनीयो दण्डः । ४. अतो न रसादीनां काव्येन सह व्यंग्यव्यंजकभावः। -दशरूपक (अवलोक) (व्यास सम्पदित स. पृ. २५१) परिशिष्ट ध्वनि विरोधी आचार्य और व्यजना वृत्ति ६३७ है। इसे व्यंजना द्वारा प्रतिपाद्य नहीं माना जा सकता। न इससे युक्त व्यापार वाला काव्य ध्वनि ही है। तात्पर्य तो वस्तुतः जहाँ तक कार्य होता है, वहाँ तक फैला रहता है। तात्पर्य को तराजू पर तौल कर यह नहीं कहा जा सकता कि तात्पर्य इतना ही है, यहीं तक है, इससे अधिक नहीं। एतावत्यैवविश्रान्तिस्तात्पर्यस्येति किंकृतम्। यावत्कार्यप्रसारित्वत् तात्पर्य न तुलाधृतम् ।। (पृ. २५०) ध्वनिविरोध संबंधी उनकी दलीलें लोल्लट वाली ही हैं। यहाँ कोई नई बात नहीं मिलती।

(४) मुकुलभट्ट

मुकुल भट्ट भी मूलतः अभिधावादी हैं, पर वे ध्वनिकार आनंदवर्धन ने जिन स्थलों में प्रतीयमान अर्थ को व्यंग्यार्थ माना है, यहाँ इस अर्थ की प्रतीति में लक्षणा मानते हैं, जो उनके मत से अभिधा का ही विस्तार है। मुकुल भट्ट का ग्रन्थ ‘अभिधावृत्तिमातृका’ है, जिसमें अभिधा के ही अंतर्गत वे लक्षणा को भी लेते हैं।’ अमिधा की ही अंगभूत लक्षणा के वे तीन भेदक तत्त्व मानते हैं-वक्ता, वाक्य तथा वाच्य और इस आधार पर लक्षणा को तीन तरह का बताते हैं-वक्तृनिबंधना, वाक्यनिबंधना और वाच्यनिबंधना। इन तीनों के शुद्धा तथा उपचार मिश्रा (गौणी) भेद से सम्पूर्ण भेद ६ प्रकार के हो जाते हैं। जब तक वक्ता, वाक्य तथा वाच्य की सामग्री का ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक लक्ष्यार्थ प्रतीति नहीं होती। लाक्षणिक शब्दों में अपने आपमें लक्ष्यार्थ बोधन की क्षमता नहीं है। मुकुल भट्ट इन तीनों के क्रमशः वे उदाहरण देते हैं, जिन वाच्यों में आनन्दवर्धन क्रमशः वस्तुध्वनि अलंकारध्वनि तथा रसध्वनि मानना चाहेंगें। स्पष्ट है यहाँ आनन्दवर्धन का ही खण्डन मुकुल भट्ट करना चाहते हैं। हम मुकुल भट्ट की वक्तृनिबंधना लक्षणा का उदाहरण लें लें। “दृष्टिं हे प्रतिवेशिनिक्षणभिहाऽप्यस्मिन् गृहे दास्यसि प्रायेणास्य शिशोः पिता न विरसाः कौपीरपः पास्यति। एकाकिन्यपि यामि सत्त्वरमितः स्रोतस्तमालाकुलं नीरन्ध्रास्तनुमालिखन्तु जरठच्छेदा नलग्रन्थयः।।” (हे पड़ोसिन, जरा इस घर की ओर नजर डाले रहना। इस बच्चे का बाप अक्सर कुँये का खारा पानी नहीं पीता। मैं अकेली ही तेजी से तमाल के पेड़ो से घिरे झरने तक जा रही हूँ। घने कठोर सूखे नल की ग्रन्थियाँ मेरे बदन को खरोच डालें, तो खरोंच डालें।)

१. इत्येतदमिधावृत्तं दशथात्र विवेचितम् । अमिधावृत्तिमातृका कारिका १२ २. वक्तुर्वाक्यस्य वाच्यस्य रूपभेदावधारणात् । लक्षणा त्रिप्रकारैषा विवेक्तव्या मनीषिमिः।। वही. का. ६ न शब्दानामवधारितलाक्षणिकसंबंधानां लाक्षणिकमर्थं प्रति गमकत्वं, नापि च तत्र साक्षात् संबंधग्रहणं किं तर्हि ववत्रादिसामग्यपेक्षया स्वार्थव्यवधानेनेति ।। वही पृ. १० ६३८ अष्टम् खण्ड-काव्य शास्त्र __ इस वाक्य की वक्त्री इत्वरी या स्वैरिणी है। उसके बारे में जान लेने पर ही इस लक्ष्यार्थ की प्रतीति होती है। मुकुल भट्ट यहाँ भावी रतगोपनको लक्ष्यार्थ मानते हैं। ध्वनिवादी यहाँ वस्तु रूप वाच्यार्थ से वक्तृवैशिष्ट्य के द्वारा वस्तु रूप व्यंग्यार्थ मानकर अर्थशक्त्युद्भव संलक्ष्यक्रम व्यंग्य ध्वनि मानेगा। मुकुल भट्ट वाक्यनिबंधना का उदाहरण “प्राप्तश्रीरेष कस्मात् पुनरपि मयि तं मंथखेदं विदध्यात्। आदि पद्य देकर स्वतः ही काँपते हुए समुद्र के कंपन सी वाक्यार्थ द्वारा अध्यवसान होने से अध्यवसानगर्भ गौण उपचार मानते हैं। उनके मत से यहाँ राजा पर विष्णु का आरोप रूप लक्ष्यार्थ होता है। ध्वनिकार आनन्दवर्धन इसी पदय का उदाहरण देते यहाँ कविनिबद्धप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तु से रूपकालंकार ध्वनिमानते हैं। काव्यनिबंधना लक्षणा का उदाहरण मुकुल भट्ट “दुर्वारा मदनेषवो दिशि दिशि व्याजुभते माधवो"३ आदि पक्ष्य देते हैं, जिसका अर्थ यह है:-“हे सखी, प्रत्येक दिशा में बसन्त फैल गया है, कामदेव के बाण जिन्हें रोकना मुश्किल है छूट रहे हैं, हृदय को बेचैन करने वाली चन्द्रमा की किरणें छिटक रही हैं, और चित्त को हरने वाली ये कोयलें कूक रही है। ऊपर से स्तनों के भार को धारण करने में कठिन यह ताज़ी जवानी है। आखिर इन दुःसह पंचाग्नियों को अब किस तरह सहा जा सकेगा।” मुकुल भट्ट के अनुसार बसन्त, कामदेव के बाण आदि पर पंचाग्नि के आरोप से उनका असह्य होना वाक्यार्थ मानकर वाच्यार्थ निबन्धना उपादान लक्षणा से विप्रलंभ श्रृंगार की आक्षेप से प्रतीति मानते हैं। ध्वनिवादी यहाँ स्पष्टतः विप्रलम्भशृंगार रूप असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य ध्वनि मानेंगे।

(५) कुंतक

कुंतक ध्वनिकार आनंदवर्धन के अत्यधिकऋणी हैं, कुन्तक प्रतीयमान अर्थ को ही काव्य में स्वीकार नहीं करते, अपितु वक्रोक्ति की मे भेदोपभेद कल्पना में भी ध्वनि- सिद्धान्त के ऋणी हैं। आनन्द वर्धन तथा कुन्तक की समीक्षा दृष्टि का अन्तर मूलतः सहृदय तथा उद्भावक की अलग अलग दृष्टि से काव्यबन्ध को परखने के कारण है। ऐसा जान पड़ता है, वाग्देवतावतार ध्वनिप्रस्थाप परमाचार्य मम्मट कुन्तक की समीक्षा दृष्टि को १. प्राप्तश्रीरेष कस्मात् पुनरपिमयि तं मन्थरवेदं विदध्यान्निद्रामप्यस्य पूर्वामप्यनलसमनसो नैव सम्भावयामि। सेतुं बध्नाति भूयः किमिति च सकलद्वीपनाथानुयात-स्त्वय्यायाते वितर्कानिति दघत इवाभाति कम्पः पयोधेः।। अकम्पमानस्यापि समुद्रस्य कम्पनार्थत्वेनाध्यवसितं तत्राध्यवसानगर्भगौणोपचारः।- वही पृ. १३ २. इत्येवविधे विषयेऽनुरणनरूपरूपकाश्रयेण काव्य-चारुत्वव्यवस्थानाद् रूपकध्वनिरिति व्ययपदेशो न्यायपः। ध्वन्यालोक पृ. २६२ ३. दुर्वारामदनेषवो दिशि दिशि व्याजृम्मते माधवो हृद्युन्मादकराश्शशाङकरुचयश्चेतोहराः कोकिलाः। उत्तुंगस्तनभारदुर्घरमिदं प्रत्यग्रमन्यद्वयः सोढव्याः सखि साम्प्रतं कथममी पञ्चाग्नयो दुःसहाः। इत्यत्र हि स्मरशरप्रभृतीनां पञ्चानामध्यारोपित वहिनभावानांमसहयत्वं वाक्यार्थी भूतम् । अतः तस्य वाच्यता। तत्पर्यालोचनसामर्थ्याच्च विप्रलम्भशृंगारस्याक्षेप इत्युपादानात्मिका लक्षणा। अभिधावृत्ति पृ. १४ परिशिष्ट ध्वनि विरोधी आचार्य और व्यजना वृत्ति ६३६ भी मौन स्वर में स्वीकार करते हैं। वे कुन्तक के मत का अपने ग्रन्थ के पंचम उल्लास में खण्डन कतई नहीं करते। कुन्तक का खण्डन बाद के लक्षणग्रंथकारों में केवल विश्वनाथ और विद्याधर ने हलके फुलके ढंग से किया है। कुंतक अमिथावादी है, फिर भी विद्याधर ने उन्हें ‘भाक्त’ मतानुयायी मानकर उनका खण्डन किया है। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि कुंतक समस्त ध्वनिप्रपंच को लक्षणा में नहीं लेते, वे तो लक्षणा को अमिधा से अलग वृत्ति, मानने के पक्ष में ही नहीं है। वक्रोक्ति के भेदों में केवल उपचारवक्रता ऐसा भेद है, जहाँ भक्ति या लक्षणा का व्यापार है, इस अल्पाविषय को ही समस्त वक्रोक्ति-प्रपंच मान लेना विद्याधर की कमजोरी है। कुन्तक के वक्रोक्ति सिद्धान्त का विवेचन यहाँ अप्रासंगिक होगा।’

(६) महिमभट्ट

महिम भट्ट ने अपना ग्रंथ लिखा ही ध्वनि सिद्धान्त का तर्क-शास्त्र की दृष्टि से खण्डन करने के लिये हैं। महिम भट्ट तद्विद् विद्ग्ध की तरह ध्वनि के बारे में विचार नहीं करते, कुंतक में अवश्य यह दृष्टि पाई जाती है। महिमा की महिमा का आतंक तो इतना जान पड़ता है कि वे व्यक्ति विवेक में आनन्दवर्धन की ही कटु आलोचना नहीं करते, कुंतक का भी मजाक उड़ाते उन्हें “काव्यकाञ्चन-कषारममानी। कहते है।” वस्तुतः काव्य-समीक्षक के रूप में महिमभट्ट प्रकाण्ड नैयायिक का बाना नहीं उतारते, वे सहृदय समीक्षक की भावयित्री प्रतिभा को नज़र अंदाज कर देते हैं। __ माहिमभट्ट की मूल स्थापना काव्य में प्रतीयमान अर्थ को वाच्यार्थ अथवा तदनुमित रूप हेतु द्वारा अनुमेय हेतुमान्’ मानते हुए ‘काव्यानुमिति’ जैसे नये सिद्धान्त से संबद्ध है। वे कहते हैं-“वाच्यस्तदनुमितो वायत्रार्थोऽर्थान्तरं प्रकाशयति। सम्बन्धतः कुतश्चित् सा का व्यानुमितिरित्युक्ता।।७२ (वाच्य या अनुमित अर्थ जहाँ दूसरे अर्थ को किसी संबंध से प्रकाशित करता है, वह काव्यानमिति कहलाती है।) आगे जाकर महिमभट्ट यह भी घोषित करते हैं कि शब्द में केवल एक ही शक्ति है, अर्थ में केवलं लिंगता (हेतुता) ही पाई जाती है। अतः शब्द और अर्थ में व्यंजकत्व हो ही नहीं सकता। वाच्य तथा प्रतीयमान अर्थ में व्यंग्यव्यञ्जकभाव मानने वाले आनन्दवर्धन का खण्डन करते महिमाभट्ट कहते हैं: वाच्य तथा प्रत्येक अर्थों में परस्पर व्यञ्जकता तथा व्यंग्यता नहीं है, क्योंकि वे दीपक के प्रकाश तथा घट की तरह एक साथ प्रभावी नहीं होते। हेतु (वाच्य) के पक्ष में १. एतेन यत्र कुन्तकेन भक्त्यन्त वितो ध्वनिस्तदपि प्रत्यपास्तम्। एकावली पृ. ५३ (त्रिवेदी सं.) २. व्यक्तिविवेक १.२५ पृ. १०५ ३. शब्दस्यैकामिधाशमक्तिरर्थस्येकैव लिंगता। न व्यञ्जकत्वमनयोः समस्तीत्युपपादितम्।। -वहीं १.२६ पृ.१०५ ६४० _अष्टम् खण्ड-काव्य शास्त्र रहने के कारण तथा वाच्य एवं प्रत्येक में व्यक्ति के सिद्ध होने के कारण उनमें आनुमाप्यानुमापक भाव ठीक उसी तरह है, जैसे वृक्षत्व तथा आम्रत्व में अथवा अग्नि तथा धूम में।’ __ महिम भट्ट लक्षणा को भी नहीं मानते। वे ‘गंगायांघोषः’ तथा गौर्वाहीकः” जैसे शुद्धा प्रयोजनवती तथा गौणी लक्षणा के उदाहरणों को लेकर उनके लक्ष्यार्थ को भी अनुरूप अर्थ धोषित करते कहते हैं। “गोत्वारोपेण वहीके तत्साम्यमनुमीयते। को यतस्मिन् तत्तुल्ये तत्त्वं व्यपदिशेद् बुधः।। वहीं १.३४ ३५ पृ. १०६ वाहीक में गोत्व का आरोप करनेसे उन दोनों की समानता की अनुमिति होती है। यदि ऐसा नहीं तो कौन विद्वान उससे भिन्न असमान वस्तु में उसी वस्तु का व्यवहार करेगा। __‘गंगायां घोषः’ में भी जब हम ‘गंगातट पर आभीरों की बस्ती है’ अर्थ लेते हैं तो यह अर्थ अनुमितिगम्य ही है। महिम भट्ट की स्थापना है कि शब्द कभी भी अपनी मुख्यावृत्ति को नहीं छोड़ता। यदि किसी अन्य अर्थ की भी शब्द से प्रतीति होती है, तो वह सदा मुख्यार्थ रूप हेतु के द्वारा ही अनुमित होता है । लक्षणा ही नहीं तात्पर्य शक्ति को भी वे अनुमान में अन्तर्भावित करते हैं। ‘विषं भक्षय, माचास्य गृहे भुथाः’ में महिमा के अनुसार “इसके घर में खाना जहर खा लेने से भी बुरा है” यह अर्थ अनुमित रूप में ही प्रतीत होता है : “विषभक्षणादपि परामेतद्गृहभोजनस्य दारुणताम्। वाच्यादतोऽनुमिमते प्रकरणवक्तृस्वरूपज्ञाः।। विषभक्षणमनुमनुते न हि कचिदकाण्ड एव सुहृदि सुधीः। तेनात्रार्थान्तरगतिरार्थी तात्पर्यशक्तिजा न पुनः।। (-व्यक्ति वि. १.६७-६८ पृ. १२२) वाच्य प्रत्येययोर्नास्ति व्यंग्यव्यंजकतार्थयोः । तयोः प्रदीपघटवत् साहित्येनाप्रकाशनात्। पक्षधर्मत्वसंबंधव्याप्तिसिद्धिव्यपेक्षणम्। वृक्षत्वाम्रत्वयोर्यद्वद्यद्वच्चानलघूमयोः।। २. वही १.४६ पृ.११६ ३. वही पृ. ११३-११४ ४. मुख्यवृत्तिपरित्यागों न शब्दसोपपदयाते। विभृतोद्रर्थान्तरेहर्थः स्वसाम्यमनुमापयेत् ।। परिशिष्ट ध्वनि विरोधी आचार्य और व्यजना वृत्ति ६४१ • ““ग

PAP EX शब्द और अर्थ के संबंध पर विचार करते महिम भट्ट बताते हैं कि अर्थ दो तरह का होता है-वाच्य तथा अनुमेय। यह अनुमेय अर्थ वस्तुमात्र अलंकार तथा रसादि रूप है। प्रथम दो वाच्य भी हो सकते हैं, पर रसरूप अर्थ सदा अनुमेय ही होता है। वाच्य से रसादि रूप अनुमेय अर्थ की प्रतीति में कुछ लोग व्यंग्य व्यंजक भाव मान लेते हैं, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वह वस्तुतः व्यंजित होता है। रसादि की प्रतीति में धूम और अग्नि जैसा गम्यगमक भाव होता ही है, पर उसकी गति इतनी तीव्र है कि इस संबंध का भान नहीं होता। इसलिए कुछ लोग इसमें प्रांति से व्यंग्यव्यंजक भाव मान बैठते हैं। और इसके आधार पर ध्वनि का भी व्यवहार करने लगते हैं। वस्तुतः यह धारणा मात्र औपचारिक है। उपचार के प्रयोग का कारण यही है कि रस सहृदयों को आनंद देता है। महिम मुख्य रूप से तो वाच्य तथा अनुमेय (गम्य) इन दो ही अर्थों को मानते हैं, किन्तु उपचार वृत्ति से व्यंग्य जैसे तीसरे अर्थ को दबी जबान में स्वीकार कर लेते हैं। प्रथम विमर्श में महिम भट्ट ने ध्वनिकार द्वारा दिये ध्वनि के लक्षण में १० दोष ढूंढकर उसे दुष्ट लक्षण सिद्ध कर दिया है। द्वितीय विमर्श में वे दोषों पर विस्तार से विचार करते हैं। हम विशेषतः यहाँ तृतीय विमर्श का संकेत करना चाहेंगे जहाँ वे आनन्दवर्धन द्वारा दिये तथा अन्य उदाहरणों में ध्वनि की सत्ता का खण्डन करते प्रतीयमान अर्थ को अनुमेय सिद्ध करते हैं। __अनुमान द्वारा ज्ञान प्राप्त करने में अनुमाप्य तथा अनुमापक हेतुमान तथा हेतु-के परस्पर व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान आवश्यक है। इस व्याप्तिज्ञान को ‘परामर्श’ कहा गया है। अनुमान दो तरह का होता है -स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान । परार्थानुमान में पञ्चावयववाक्य का प्रयोग कर दूसरे को अनुमान कराया जाता है। ये पांच वाक्य हैं:-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तथा निगमन जो क्रमशः ‘पर्वतोऽयं वह्नि मान्। धूमात् । यो यो धूमयान् स स वहिनमान्यथा महानसः (अन्वय व्याप्ति); या ‘यो यो वन्यभाववान् स स धूमाभाववान् यथा जलहदाः (व्यतिरेकव्याप्ति)। तथा चायम् । तस्मात्तथा महिम का मत समझ लें तथा उन पर ध्वनिवादी मम्मटादि क्या कहना चाहते हैं इसे भी देखें। __महिम भट्ट इतने चतुर हैं कि वे ध्वनि के जिन स्थलों में वाच्यार्थ में ऐसा कोई हेतु नहीं पाते जो दूसरे अर्थ को बता सके। वहां दूसरा अर्थ ही मानने से मना कर देते हैं। "” नाantram Kar "

' १. केवलं रसादिष्व वनुमेयेष्वयमेव असंलक्ष्यक्रमोगम्यगमकरुव इति सहभावभ्रान्तिमात्रकृतस्तत्रान्येषां व्यंग्यव्यंजकभावाम्युपगमः तन्निबन्धनश्च ध्वनिव्यपदेशः। स तु तत्रौपचारिक एवं प्रयुक्तो न मुख्यः तस्य वक्ष्यमाणनयेन बाधितत्वात्। उपचारस्य च प्रयोजनं सचेतनचमत्कारकारित्वं नाम। वही पृ. ५३॥ २. मुख्यवृत्या द्विविध एवार्थो वाच्योगम्यश्चेति। उपचारतस्तु व्यंग्यस्तृतीयोऽपि समस्तीति सिद्धम्। -वही पृ. ७५ ३. परामर्शजन्यं ज्ञानमनुमितिः। तर्कसंग्रह पृ. ३४ तथा-‘पक्षनिष्ठ विशे ष्यतानिरूपित हेतुनिष्ठ-प्रकारतानिरूपितव्याप्तिनिष्ठप्रकारताशालिज्ञानं परामर्श इति निष्कर्षः। एतादृशपरामर्शजन्यत्वे सति ज्ञानत्वमनुमितेर्लक्षणम्।’-तर्कसंग्रह न्यायबोधिनी टीका पृ. ३६ अष्टम् खण्ड-काव्य शास्त्र mies

६४२ वे दोषप्रकरण वाले द्वितीय विमर्श में ऐसे स्थलों में जहां कवि के श्लिष्ट शब्द प्रयोग द्वारा वाच्य रूप प्रथम अर्थ की प्रतीति कराकर अभिधा के नियंत्रित हो जाने पर भी दूसरे वस्तु रूप अर्थ की व्यंजना द्वारा प्रतीति होती है और उस वस्तु रूप व्यंग्यार्थ से अलंकार (उपमादि) का दूसरे व्यंग्यार्थ के रूप में अनुसरण होता है, वहाँ ऐसे कविप्रयोगों को दुष्ट मानते वहाँ ‘वाच्यस्य अवचनं दोषः’ घोषित करते हैं। वे शब्दशत्त्युद्भव संलक्ष्यक्रमव्यंग्यध्वनि को कत्तई नहीं मानते। “शब्दश्लेष का प्रयोग वहीं होना चाहिए जहाँ अर्थाभिव्यक्ति दोनों स्थानों पर होती हो, अन्यथा कविका श्लेष प्रयोग का उद्गम व्यर्थ है। जहाँ कहीं दूसरे अर्थ की प्रतीति कराने में कोई हेतु विशेष न हो वहीं श्लेष का प्रयोग कवि के क्लेश के लिए ही है।’ पाद टि. पृ. ३६ १. आच्छादितायतदिगम्बरमुच्चकैर्गा माक्रम्य संस्थितमुदग्रविशालशृङ्गम्। मूर्ध्निस्खलत्तुहिनदीधितिकोटिमेन मुद्वीक्ष्यकोभुवि न विस्मयते नगेशम्।। (भा य ४.) ध्वनिवादी के अनुसार इस पद्य में अभिधा रैवतक पर्वतपरक वाच्यार्थ बताकर विरत हो जाती है, तब व्यंजना (शाब्दी) से वस्तुध्वनि परक व्यंग्यार्थ (शिवकला) व्यंजित होता है, यह वस्तु परक व्यंग्यार्थ पुनः अपर पर्वत तथा शिव के परस्पर उपमानोपमेयभाव रूप उपमालंकार (वस्तु के अलंकार को) व्यंजित करता है। दत्तानन्दाः प्रजानां समुचितसमयाकृष्टपूर्वैःपयोभिः पूर्वाणैविप्रकीर्णा दिशिदिशि विरमत्यहि संहारभाजः।। दीप्तांशोर्दीर्घदुःखप्रभवभवभयोदग्रदुत्तारनावो गावो वः पावनानां परमपरिमितां प्रीतिमुत्पादयन्तु।। (मयूरकृतं सूर्यशतक) ध्वनिवादी के अनुसार यहाँ अभिधा से सूर्य की किरणों का अर्थ तथा शाब्दी व्यंजना से गायों का व्यंग्यार्थ निकलता है। इस धेनु परक वस्तुध्वनिरूप व्यंग्य अर्थ से पुनः दोनों में उपमानोपमेयभावरूप व्यंग्यार्थ निकलने के कारण वस्तु से उपमालंकार ध्वनि है। R OMAN १. उभयत्रा प्यभिव्यत्त-यैवाच्यं किंचिन्बिन्धनम्। अन्यथा व्यर्थ एव स्यात् श्लेषबन्धोदयमः कवेः। तस्मादर्थान्तरव्यक्तिहेतौ कस्मिंश्चनासति। यः श्लेषबन्धनिर्बन्धः क्लेशायैवकयवेरसौ।।-२ . .. .. Here परिशिष्ट ध्वनि विरोधी आचार्य और व्यञ्जना वृत्ति वे माघ के चतुर्थ सर्ग से रैवतक वर्णन के “आच्छादितायतदिगंवरमुच्यकैर्गा’ इत्यादि पद्य में श्लिष शब्द के प्रयोग में “वाच्यस्य अवचनं दोष मानते हैं। इसी तरह सूर्य शतक के “दत्तानन्दाःप्रजानां"३ आदि पद्य में भी यही दोष बताते हैं।’ इसी तरह ध्वनिवादी द्वारा निषेध रूपवाच्यार्थ से विधिरूप व्यंग्यार्थ प्रतीति वाले ध्वनि के “अत्ता एत्थ णिमञ्जइ.” इस उदाहरण में भी वे वाच्य से अन्य अर्थ (प्रतीयमान) की प्रतीति मानना ही अस्वीकार कर देते हैं __ पथिक को महिम भट्ट यहां रतौंधी वाला कहना तथा दोनों शंकाओं का वर्णन करना जो वाच्यार्थ है इसे हेतु मानकर ‘मेरे ही पास आना’ इस स्वयं द्वितीयनिष्ठ प्रतीयमान अर्थ को ही नकार देते हैं। उनके अनुसार “यहाँ कोई भी हेतु नहीं है। वही तृ. वि. पृ. ४०५ (चौ.सं.) क्योंकि इस प्रकार की उक्तियाँ सच्चरित्र स्त्रियों के मुख से भी सुनी जाती हैं, केवल स्वैरिणी स्वयंदूती के मुख से ही नहीं। चूंकि यहाँ महिम को कोई हेतु नहीं मिला अतः उन्होंने ऐसे स्थलों पर प्रतीयमान अर्थहीन मानना सरल समझा है। (ब) भमधम्मिअ वीसत्थो सोसुनको अज्ज मारिओ देण। गोलाणईकच्छकुडंग वासिणा दरिअसीहेण॥ (घूमहुअब निहचिंतव्है धार्मिक गोदातीर। वा कूकरकोकुंज मैं मार्यो सिंह गंभीर।।) महिम भट्ट यहाँ विधिरूप वाच्यार्थ (हेतु) से निषेध रूप प्रतीयमान अर्थ को अनुमेय मानते हैं। वे कहते हैं कि “यहाँ विधिरूप वाच्य तथा निषेध रूप प्रतीयमान इन दो अर्थों की प्रतीति हो रही है। इन दोनों में ठीक वैसा ही साध्य-साधन भाव है जैसा धूम तथा अग्नि में।६ १. पृ. ३० ब २. अत्र हि ह्यवृत्तिनिबन्धनम् न किचियुक्तमिति वाच्यस्यावचनं दोषः। व्यक्ति. द्वि. वि. पृ. एए (त्रिवेन्द्रम सं.) ३. पृ. ३० ब ४. इत्यत्र तु गोशब्दस्यानेकार्थत्वेऽप्राकरणिकार्थान्तरप्रतिभोत्पत्ती न किञ्चिन्निबन्धनगवधारयामः । किचात्र निरूप्यमाणो हेतुरेव न लभ्यते। अत्र हि द्वावौँ वाच्यप्रतीयमानौ विधि विषेधात्मकौ क्रमेण प्रतीतिपथमवतरतः, तयो—माग्न्योरिवसाध्यसाधनभावेनावस्थानात। -व्यक्ति. तृ. वि. पृ. ४०० ६४४ अष्टम् खण्ड-काव्य शास्त्र महिम की अनुमान सरणि यह होगी। प्रतिज्ञा - अयं गोदावरी कुंज कच्छदेशः भीरुभ्रमणायोग्यः । हेतु - दृप्तसिंहसद्भावात्। उदा.-यत्र यत्र दृप्तसिंह सद्भावस्तत्र तत्र भीरुप्रमणायोग्यत्वं यथा वनम्। पर यहां विरुद्ध तथा असिद्ध दोनों हेत्वाभास हैं, जो साध्यसिद्धि कतई नहीं करा सकते। भीरुरपिगुरोः प्रभोर्वा निदेशेन प्रियानुागेण अन्येन चैवभूतेन हेतुना सत्यपि भयकारणे भ्रमतीत्यनैकांतिको हेतुः शुनो विभ्यदपि सिहान्नोविभेति इति। विरुद्धोपि, गोदावरीतीरे सिंह सद्भावः प्रत्यक्षोणानुमानाद्वा न निश्चितः अपितु वचनात् न च वचनस्य प्रामाण्यमस्ति अर्थेनाप्रतिबन्धादित्यसिद्धश्च तत्कथमेवंविधाद्हेतोः साध्यसिद्धिः।। (३) लावण्यकान्तिपरिपूरितदिङ्मुखेऽस्मिन् । स्मेरेऽथुनातव मुखे तरलयताक्षि। क्षोभं यदेति न मनागपि तेन मन्ये सुव्यक्तमेव जडराशिरयं पयोधिः।। यहाँ किसी नायिका के समस्त गुणों से युक्त मुस्कुराहट वाले मुख को देखकर समुद्र का चंचल होना उचित है। किन्तु चूंकि वह मूर्ख है इसलिये उसके मन में क्षोभ नहीं होता, इस वाच्यार्थ (हेतु) से मुख तथा चन्द्रमा के ताद्रूप्च वाला प्रतीयमान अर्थ अनुमित हो रहा है। अतः वह रूपकानुमिति है। पर हम देखते हैं कि महिम भट्ट का वाच्यार्थ को हेतु मानने की प्रणाली यह है : नायिका मुख पूर्ण चन्द्र है। (प्रतिज्ञा वाक्य) क्योंकि यदि समुद्र जड़ राशि न होता तो क्षुब्ध अवश्य होता। (हेतुवाक्य) इस परार्थानुमान प्रक्रिया हेतु सोपाधिक होने से हुआ है, अतः इस हेतु से सही प्रमा कैसे हो सकेगी। फलतः मुख रूप पक्ष में चन्द्ररूप साध्य की अनुमितता हो ही नहीं पाती। नैयायिक सोपधिक हेतु से अनुमिति नहीं मानते, यह तो हेत्वाभास है। (४) अब हम वह उदाहरण ले लें, जो व्यक्ति विवेक के तृतीय विमर्श में तो नहीं मिलता, पर मम्मट ने इस उदाहरण को लेकर महिम भट्ट की मत सरणि का उल्लेख करते हुए इसके प्रतीयमान अर्थ में अनुमिति का पूर्वपक्ष बताकर उसका खण्डन किया है। १. दे. काव्यप्रकाश पं. उ. पृ. २५४-५५ २. का. प्र.६ उ. पृ. २५४-५५ ३. इत्यत्रापि यदेतत् कस्याश्चिद्यथोदितगुणोचितसौंदर्यसम्पादिवदनं सति समुद्रसंक्षोभस्याविर्भावस्योचितस्यापिकुतश्चित कारणादभावाभिधानं तत्तस्य पूर्णेन्दुरूपतारोपमन्तरेणानुपपद्यमानं मुखस्य ताद्रूप्यमुकल्पयत् पूर्ववत् तयोः रूप्यरूपकभावमनुमापयतीति रूपकानुमितिव्यपदेशो भवति। - वही त. दि. पृ. ४३१ ६४५ SEENioswww परिशिष्ट ध्वनि विरोधी आचार्य और व्यजना वृत्ति “निःशेषच्युतचंदनं स्तनतटं निर्गुष्टरागोथरो नेत्रे दूरमनंजनेपुलकिता तन्वीतवेयं तनुः। मिथ्यावादिनि दूति बान्धवजनस्याज्ञातपीडागमे वापीस्नातुमितो गतासि न पुनस्तस्याधमस्यांतिकम्।। (कुचचंदन चंदन गयो भयो पुलक सद भाय। दूति न गइ तू अधम पै आई वापी न्हाय।।) महिम यहाँ वाच्यार्थ परक दो हेतु मानते हैं -(१) चंदन च्यवनादि (२) नायक को अधम कहना इसको भी कह सकते हैं कि अधम पद की सहायता से ये चन्दनच्यवनादि हेतु विधि रूप प्रतीयमान की अनुमिति कराते हैं यह अनमिति-सरणियाँ मानी जायेंगी। प्रतिज्ञा तथा हेतु वाक्य-त्वं तस्यैवान्तिकं गता (तव तस्यैवान्तिकं गतिमत्वम्) तस्य अधमत्वात्, तव शरीरे च्यवनादिमत्त्वाच्च। पर यहाँ नायक का ‘अधमत्व’ सद्धेतु न होकर हेत्वाभास है, क्योंकि यह अन्य प्रमाण से सिद्ध नहीं है। यह असिद्ध हेतु है। साथ ही दूसरा हेतु “चन्दनच्यवनादि” भी हेत्वाभास ही है। वह अनैकान्तिक है, क्योंकि यह स्थिति केवल केलिजनित ही नहीं होती, इसी पद्म में वर्णित वापी स्नान से भी हो सकती है। यह हेतु पक्ष में ही नहीं अन्यत्र भी पाया जा सकता है। अतः दोनो हेतु सद्धेतु न होने के कारण प्रतीयमान अर्थ उपभोग की अनुमिति कराने में अशक्त है। महिम भट्ट वर्णयादि से भी प्रतीमान अर्थ का अनुमान मानते हैं। “संघटना, वर्ण, विशेषवाचक के द्वारा समर्थित अर्थ से क्रोधादि विशिष्ट भावों की अनुमिति ठीक वैसे ही होती है जैसे धुएं से अग्नि की। इसी तरह वे सुप, तिङ् आदि को भी क्रोधोत्साहवृद्धि का गमक मानते हैं। “संघटनावर्णाहितविशेषवाचकसमर्पितादर्थात् । क्रोधादिविशेषगतिधूमविशेषादिव कृशानोः॥ सुतिसंबंधायाः क्रोधेत्साहादिकान् भावान्। गमयन्ति. (व्यक्तिविवेक पृ. ४४४-४५) उदाहरण ले लें। १. न चात्राधमत्वं प्रमाणप्रतिपन्नमिति कथमनुमानम् । तथा निःशेषच्यतेत्यादौ गमकतयायानि चन्दनच्यवनादीन्युपात्तानि तानि कारणन्तरतोऽपि भवन्ति अतश्चात्रैव स्नानकार्यत्वेनोक्तानीति नोपभोगे एव प्रतिबद्धानीत्यनैकान्तिकानि। - का. प्र. पं. उ. पृ. २५६६४६ अष्टम् खण्ड-काव्य शास्त्र न्यक्कारो ह्ययमेव मे यदरयस्तत्राप्यसौतापसः पीक सोप्यत्रैव निहन्ति राक्षसकुलं जीवत्यहो रावणः। धिक् धिक् शक्रजितं प्रबोधितवता किंकुंभकर्णेन वा स्वर्गग्रामटिकाविलुंठन वृथोच्छूनैः किमेभिर्भुजैः।। पानी (बेइज्जती है यह मेरी कि मेरे भी दुश्मन हैं और ऊपर से दुश्मन भी है तो यह तपस्वी। वह यही, मेरे अपने ही घर में आकर राक्षसों को मार रहा है। फिर भी रावण जी रहा है, यह कितने अफसोस की बात है। इंद्र को भी जीत लेने वाले मेरे बेटे को धिक्कार है। कुंभकर्ण को जगाने से भी कोई फायदा नहीं हुआ। स्वर्ग से छोटे से गाँवड़े को लूटकर व्यर्थ में फूल ये बीस हाथ किस काम के हैं। यहाँ ‘अरयः’ में बहुवचन, ‘तापसः’ में तद्धित प्रत्यय, ‘निहन्ति’ तथा ‘जीवति’ में वर्तमानकालिक क्रिया (तिङ्), ग्रामटिका में ‘टी’ तथा ‘क’ ह्रस्वार्थक स्वार्थे प्रत्यय, ‘प्रबोधि ति’ में ‘प्र’ उपसर्ग ये सभी रावण के क्रोध, शोक तथा ग्लानि भावों का अनुमान करा रहे हैं। अतः ये उनके गमक हैं। किन्तु महिम भट्ट के ये हेतु भी असत् हैं। क्योंकि जहां-जहां ये पाये जाते हों वहां-वहां तत्तत् भाव की अनुमिति हो, ऐसा व्याप्तिसंबंध मानना अनुचित है। वस्तुतः ये अनैकान्तिक हेतु हैं, जो अनुमिति कराने में समर्थ नहीं है। ६४७ तृतीय पटल छन्दशास्त्र का इतिहास