१८ दोष

दोष की हेयता

काव्यशास्त्रीय विवेच्य विषयों में दोष का प्रमुख स्थान है आचार्य भरत से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ पर्यन्त सभी आचार्यों ने काव्य में दोष परिवर्जन को आवश्यक माना है। अपदोषता स्वयं एक महत्त्वपूर्ण गुण है, “अपदोषतैव विगुणस्य गुणः।" यह एक सिद्धान्त है। जिसमें कोई गुण न हो, परन्तु कोई दोष भी न हो तो उसकी अपदोषता ही एक महान गुण माना जाता है। शरीर कितना हूं सुन्दर हो परन्तु मुख पर एक श्वेत कुष्ट हो तो सारी सुन्दरता पर पानी फिर जाता है। __आचार्य भामह-तो काव्य में दोषयुक्त एक पद के भी प्रयोग का निषेध करते हैं, वे कहते हैं कि जैसे कुपुत्र से पिता की निन्दा होती है, वैसे ही दोष युक्त काव्य निर्माण करने से कवि की निन्दा होती है। कविता न करना कोई पाप नहीं है, न तो न करने से कोई रोग ही होता है। न राजा दण्ड ही देता है। परन्तु कुकविता साक्षात् मृत्यु है। “सर्वथा पदमप्येकं न निगाद्यमवद्यवत् । विलक्ष्मणा हि काव्येन दुःसुतेनेव निन्द्यते।। नाकवित्वमधर्माय व्याधये दण्डनाय वा। कुकवित्वं पुनः साक्षान्मृतिमाहुर्मनीषिणः।।’ आचार्य दण्डी कहते हैं कि इस वाणी का सुप्रयोग किया जाय तो यह कामदुधा गौ है (सब इच्छा की पूर्ति करती है) परन्तु यदि दुष्प्रयुक्त होती है तो प्रयोक्ता के गोत्व (बैलपना) को व्यक्त करती है। अतः काव्य में थोड़े भी दोष की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, सुन्दर, भी सुभग भी शरीर एक श्वेत कुष्ठ से दुर्भग बन जाता है। गौ गौः कामदुधा लोके सुप्रयुक्ता स्मृता बुधैः। दुष्प्रयुक्ता पुनर्गोत्वं प्रयोक्तुः सैव शंसति।। तदल्पमपि नोपेक्ष्यं काव्ये दुष्टं कथञ्चन। स्याद्वपुः सुन्दरमपि श्वित्रेणैकेन दुर्भगम् ।। श्रुति भी सुप्रयोग की ही प्रशंसा करती है-एकः शब्दः सम्यग ज्ञातः, सुप्रयुक्त, स्वर्गे लोके च कामधुग्भवति। ‘P4, १. काव्यालङ्कार 9199-१२। २. काव्यादर्श १२७॥ दोष ५६७ तथा-जैसे चलनी से छान कर तुष अलग कर सक्तु का उपयोग किया जाता है, वैसे ही अपशब्दों का वारण कर सुशब्दों का प्रयोग करने वाले विद्वान की वाणी में भद्रा लक्ष्मी निवास करती हैं। वे सायुज्य को प्राप्त करते हैं। इस अपशब्द प्रयोग को साहित्य में प्रबल दोष नित्य दोष अवश्य परिवर्जनीय माना गया है, इसे च्युतसंस्कृति दोष कहा गया है। “सक्तुमिव तितिउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत। अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीनिहिताऽधिवाचि।। काव्य में दोषों का परिवर्जन इतना आवश्यक माना गया कि आचार्यमम्मट काव्य का स्वरूप लक्षण निरूपित करते हुवे अदौषौ पहले कहते हैं, शब्दार्थों बाद में कहते हैं, जो कि काव्य का स्वरूप है। वे स्वरूप बताने के पहले ही दोष परिवर्जन पर बल देते हैं। इसी प्रकार जयदेव भी “निर्दोषा” पहले कहते हैं, अन्य विशेषण पश्चात् देते हैं। भोजराज भी काव्यस्वरूप निरूपण करते हुवे “निर्दोष" प्रथम कहते हैं। ये आचार्य दोष को काव्यत्व विधातक मानते थे, वाद के विश्वनाथ, जगन्नाथ प्रभृति ने दोष को अपकर्षाधायक माना है। स्वरूप का विघातक नहीं माना है। वे कहते हैं कि रतन में कीटानु-बेध दोष है, परन्तु कीटानुबेध रत्न की रत्नता को नष्ट नहीं कर सकता, केवल उसकी उपादेयता में तर तम भाव (इस के अपेक्षा यह अच्छा है) ला सकते हैं। “कीटानुबिद्धरत्नादि साधारण्येन काव्यता। दुष्टेष्वपि मता यत्र रसाधनुगमः स्फुटः।।२।। परन्तु विश्वनाथ के मत में दोष का लक्षण है-“रसापकर्षका दोषाः।” अर्थात् दोष रस के अपकर्षक होते हैं। यदि रस की प्रतीति (अनुभूति) स्फुट हो रही है तो दोष कैसे। अतः “रस प्रतीति प्रति-बन्धकत्वं दोषत्वम्” यह आप के मत में दोष का लक्षण हुआ। ऐसे दोषों का परिवर्जन आप के भी मत में आवश्यक ही हुआ।।

दोष का स्वरूप एवं भेद

आचार्य भरत, भामह, दण्डी आदि ने दोष की परिहार्यता तो कही है, परन्तु दोष का सामान्य लक्षण नहीं कहा है। भरतमुनि ने काव्य के दश दोष कहे हैं गूढार्थमर्थान्तरमर्थहीनं भिन्नार्थमेकार्थमभिप्लुतार्थम् । न्यायादपेतं विषयं विसन्धि शब्दच्युतं वै दश काव्य दोषाः।। MARA

. १. पस्पशाहिकभाष्य मे उद्धृत २. सा. दर्पण प्र.प. में उद्धृत। 11-. main ५६८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

भामह द्वारा निरूपित दोष

आचार्य भामह- नेयार्थ, क्लिष्ट, अन्यार्थ, अवाचक, अयुक्तिमत्। गूढशब्दामिधान तथा शब्द के चार दोष श्रुतिदुष्ट, अर्थदुष्ट, कल्पना दुष्ट, श्रुतिकष्ट इस प्रकार १० दस दोषों का निरूपण किया है, इन का लक्षण तथा उदाहरण मूल ग्रन्थ में जानना चाहिए। इन्होंने इन दोषों का परिहार भी कहा है, कहीं सन्निवेश विशेष से कही आश्रय सौन्दर्य से।

सन्निवेशविशेष

जैसे फूलों के माला के बीच बीच में गुथे गये हरे पत्ते भी सुन्दर हो जाते है, वैसे ही सन्निवेश (रचना) विशेष से दोष भी सुन्दर हो जाते हैं।

आश्रय सौन्दर्य

जैसे कमनीयाी कामिनी के नेत्र कज्जल भी शोभाधायक हो जाता है वैसे आश्रय सौन्दर्य से दोष भी सुन्दर हो जाते हैं। “नेयार्थ क्लिष्टमन्यार्थमवाचकमयुक्तिमत्।
गूढशब्दामिधानं च कवयो न प्रयुञ्जते।”
“श्रुतिदुष्टार्थदुष्टे च कल्पनादुष्टमित्यपि। “सन्निवेशविशेषात्तु दुरुक्तमपि शोभते। नीलं पलाशमाबद्धमन्तराले मजामिव।। किञ्चिदाश्रयसौन्दर्याद् धत्ते शोभामसाध्वपि । कान्ताविलोचनन्यस्तं मलीमसमिवाञ्जनम्।।”

दण्डी निरूपित दोष

आचार्य दण्डी-भी दश ही दोष काव्य में वर्जनीय है मानते हैं। अपार्थ, व्यर्थ, एकार्थ, ससंशय, अपक्रम, शब्दहीन, यतिभ्रष्ट, भिन्नवृत्त, विसन्धि, देश-काल-कला-लोक न्याय-आगमविरोधी ये दश कहे हैं। “अपार्थ व्यर्थमेकार्थ ससंशयमपक्रमम् । शब्दहीनं यतिभ्रष्टं भिन्नवृत्तं विसन्धिकम्।। देश-काल-कला-लोक-न्यायागमविरोधि च। इति दोषा दशैवेति वा : काव्येषु सूरिभि ।।२

वामन द्वारा वर्णित दोष

आचार्य वामन ने दोष का सामान्य लक्षण प्रस्तुत किया है। १. भामह काव्यालङ्कार १३७१४७। ५४-५५ २. काव्यादर्श ३११२५-२६ । ५६६ 4 A . .. .. ' … दोष “गुणविपर्ययात्मानो दोषा:” अर्थात् गुणो के विपरीत स्वरूप (स्वभाव) वाले को दोष कहते हैं। इन दोषों का वर्गीकरण भी वामन ने की है। इन्होंने पददोष, पदार्थदोष, वाक्य दोष, वाक्यार्थदोष तथा दोषाङ्कुश का भी निरुपण किया है। इन में पददोष पाँच है, असाधु, कष्ट, ग्राम्य, अप्रतीत, अनर्थका पदार्थ दोष भी पाँच हैं, अन्यार्थ, नेयार्थ, गूढार्थ, अश्लील, क्लिष्ट। वाक्य दोष तीन है, भिन्नवृत्त, यतिप्रष्ट, विसन्धि। वाक्यार्थ दोष छ : है। व्यर्थ, एकार्थ, सन्दिग्ध, अप्रयुक्त, लोकविरुद्ध, विद्याविरुद्ध । इन्होंने कतिपय दोषों का अपवाद भी कहा है। जैसे अश्लील दोष है परन्तु वह यदि गुप्त हो (अप्रसिद्ध हो) लक्षित (लाक्षणिक) अर्थ हो, संवृत हो (लोक में संग्रहीत हो) तो दोष नहीं माना जाता है। अश्लीलता तथा क्लिष्टता वाक्य दोष भी हैं।’ उक्तार्थपद प्रयोग में एकार्थत्व दोष होता है। जैसे ‘चिन्ता मोहं तनुते’ यहाँ चिन्ता और मोह शब्द एकार्थक है। अतः यहाँ एकार्थत्व दोष है। परन्तु यह दोष तभी माना जाता है जब कोई विशेषता व्यक्त न हो तो यदि कोई विशेषता व्यक्त करनी हो तो दोष नहीं माना जाता । जैसे धनुा , कर्णावतंस, मुक्ताहार, पुष्पमाला, करिकलभ आदि शब्द पुनरुक्त हैं, क्यों कि “ज्या" शब्द का ही अर्थ है धनुष की डोरी पुनः ‘धनुर्ध्या’ में धनुः शब्द का प्रयोग उक्तार्थ होने पर विशेष अर्थ (धनुष पर चढ़ी हुई डोरी) बोध के लिए है अतः यहाँ दोष नहीं है। कर्णावतंस शब्द में अवतंस शब्द का ही अर्थ कर्णाभूषण है पुनः यहाँ कर्ण शब्द का प्रयोग कान में पहना हुआ अवतंस अर्थ का बोध कराने के लिए है। इसी प्रकार श्रवण कुण्डल तथा शिरः शेखर शब्द का भी प्रयोग निर्दुष्ट है, वे क्रमशः श्रवण में धारण किया हुआ कुण्डल, तथा शिर पर धारण किया हुवा शेखर (शिरोमाला) अर्थ का बोध कराते हैं अतः निर्दुष्ट हैं। मुक्ताहार शब्द में हार शब्द का ही अर्थ है मोतियों का हार पुन : मुक्ता शब्द का प्रयोग ‘विशुद्ध मोतियों का हार’ अर्थात् इस हार में दूसरे रत्नों का मिश्रण नहीं हैं। १. काव्यालङ्कार सूत्रवृत्ति, २०११ २. काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति २०१४ ३. का.लं. सू.वृ. २११० ४. का.ले.सू. वृ. २१२१ ५. का लं. सू. वृ. २२६ ६. का. लं. सू. वृ. २१११५-१८ ७. का. लं. सू. वृ. २११२२ ६०० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र पुष्प माला शब्द में केवल निरुपपद माला शब्द का अर्थ फूलों का ही माला होता है, पुनः इस में पुष्प शब्द का प्रयोग ‘उत्कृष्ट फूलों की माला’ यह विशेष अर्थ बोध के लिए है अतः निर्दुष्ट है। __ करिकलभ शब्द में कलभ का ही अर्थ है हाथी का बच्चा, पुनः इस में करिशब्द का प्रयोग प्रौढ़ अर्थ का बोधक होने से पुनरुक्त नहीं है। परन्तु इस विशेष अर्थ की प्रतीति प्रयुक्त अर्थात् प्राचीन कवियों द्वारा प्रयुक्त स्थल में ही होती है, हम स्वच्छन्द प्रयोग नहीं कर सकते। अर्थात् नितम्बकाञ्ची, उष्ट्रकलभ आदि शब्दों का प्रयोग दुष्ट ही है।’

आनन्दवर्धन का दोषविषयक मत

आनन्दवर्धन-ध्वन्यालोक में प्रसङ्गवश दोष का वर्णन किया गया है। उसी की व्याख्या में लोचनकार भी कुछ निर्देशकर दिये हैं। जैसे “श्रुतिदुष्टादयो दोषा अनित्या ये च दर्शिताः। ध्वन्यात्मन्येव श्रङ्गारे ते हेया इत्युदाहृता ।। यहाँ श्रुतिदुष्ट आदि दोषों का निर्देश मात्र है, वे सर्वत्र वर्जनीय नहीं है केवल शृङ्गार रस ध्वनि में ही त्याज्य हैं। यहाँ श्रुतिदुष्टादिशब्द है, आदि पद से अर्थ दुष्ट वाक्यार्थ बल से अश्लील अर्थ की प्रतीति कराने वाले, कल्पनादुष्ट श्रुतिकष्ट प्रमृति दोषों का ग्रहण लोचन में किया गया है। __आनन्दवर्धन दो प्रकार का दोष मानते है। १-अव्युत्पत्तिकृत दोष २-अशक्तिकृत दोष। इनमें अव्युत्पत्तिकृत दोष कविशक्ति से तिरोहित हो जाता है लक्षित नहीं होता, अशक्तिकृत दोष झटिति प्रतीति हो जाता है। “अव्युत्पत्तिकृतोदोषः शक्त्या संवियते कवेः। यस्त्वशक्तिकृतस्तस्य स झटित्यवभासते।।’ अनौचित्य से रस प्रतीति (चारुत्व प्रतीति) बाधित हो जाती है। अतः अनौचित्य से भिन्न रस भंग का कोई कारण नहीं है। अनौचित्याद् ऋते नान्यद् रस भङ्गस्य कारणम् । प्रसिद्धौचित्यबन्धस्तु रसस्योपनिषत्परा।।’ १. का लं.सू. वृ. २२।१२-१६ २. धन्यालोक २१११ ३. ध्वन्यालोक, पृ. ३१६ ४. ध्वन्यालोक पृ. ३३० दोष ६०१ इसमें विभावौचित्य, अनुभावौचित्य, भावौचित्य के अतिक्रमण होने से काव्य नीरस हो जाता है। अतः ये दोष हैं।

रसदोष

अनन्तर रस दोष का वर्णन किए हैं, १-प्रस्तुत रस की अपेक्षा विरोधी रस के विभाव, अनुभाव, भाव का ग्रहण करने से रस-विरोध होता है। २-यथाकथञ्चित् सम्बद्ध अन्य वस्तु का विस्तारपूर्वक वर्णन करना, ३-असमय में ही रस का विच्छेद करना ४-असमय में ही प्रकाशन करना ५-परिपुष्ट रस का भी पुनः-पुनः उद्दीपन करना ६-वृत्त्यनौचित्य, ये रस दोष है। “प्रबन्धे भुक्तके वापि, रसादीन् बन्धुमिच्छता। यत्नः कार्यः समुतिना परिहारे विरोधिनाम् ।। प्रबन्ध काव्य हो या मुक्तक काव्य हो उसमें यदि कवि रस निबन्ध करना चाहता है तो उसे विरोधियों के परिहार का यत्न करना चाहिए। उन विरोधियों का वर्णन करते हुये कहते हैं “विरोधिरससम्बन्धिविभावादिपरिग्रहः। विस्तरेणान्वितस्यापि वस्तुनोऽन्यस्य वर्णनम् ।। अकाण्ड एव विच्छित्तिरकाण्डे च प्रकाशनम्। परिपोषं गतस्यापि पौनः पुन्येन दीपनम्।। रसस्य स्याद् विरोधाय वृत्त्यनौचित्यमेव वा।।

रसदोष परिहार

अनन्तर रस विरोध का परिहार भी कहे हैं। विवक्षित रस जब पुष्ट हो जाय, तो विरोधी रसों के अगों का बाध्य रूप से वर्णन करने में कोई दोष नहीं है। इसी प्रकार अङ्ग भाव से भी वर्णन में दोष नहीं है। विवक्षिते रसे लब्धप्रतिष्ठे तु विरोधिनाम्। बाध्यानामङ्गभावं वा प्राप्तानामुक्तिरच्छला।। · जिन रसों का परस्पर विरोध है बाध्यबाधक भाव है, उन रसों का अङ्गाङीभाव कैसे हो सकता है। जैसे शृंगारबीभत्स का शान्त रौद्र का, वीरभयानक का, शान्त शृङ्गार का परस्पर अङ्गाङ्गी भाव कैसे हो सकता है ? CHAR

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! :–:-..:. . . . . ………………….. ………….. .. .. .. ……… ……. . ૬૦૨ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र प्रबन्ध से अभिव्यक्त रस अङ्गी होता है, उसके अविरोधी या विरोधी किसी दूसरे रस को पुष्ट नहीं करना चाहिए, अङ्गी रस की अपेक्षा अधिक पुष्ट नहीं करना चाहिए। दोनों का यदि समान उत्कर्ष रहेगा तो भी उनमें विरोधाभाव हो सकता है। जैसे visisRestedinister एकतो रोदिति प्रिया अन्यतः समरतूर्यनिर्घोषः। स्नेहेन रणरसेन च भटस्य दोलायितं हृदयम्।’ एक ओर प्रिया रो रही है, दूसरी ओर रणभेरी बज रही है। स्नेह तथा रण रस से भट का हृदय दोलायित हो रहा है। यहाँ दो रसों का समान उत्कर्ष है, प्रिया रो रही है, इससे भट की रति का उत्कर्ष प्रतीत हो रहा है, ‘रणभेरी बज रही है’ इसे सुनकर झट युद्ध के लिए उत्साहित हो रहा है, यहाँ शृङ्गार तथा वीर का समान उत्कर्ष होने पर भी विरोध नहीं है। (यह विरोध परिहार का प्रथम उपाय है) दूसरा प्रकार यह है कि अगी रस के विरुद्ध जो व्यभिचारी भाव है उनका प्रचुर वर्णन न किया जाय। यदि किया गया हो तो तत्काल अङ्गीरस के व्यभिचारियों का अनुसन्धान (वर्णन) करना चाहिए। विरोध परिहार का तीसरा प्रकार यह है कि अङ्ग रस को पुष्ट किया भी जाय तो उसके अङ्गता का ध्यान रखा जाय। अगी रस का जितना परिपोष किया गया है उतना अङ्ग रस का नहीं करना चाहिए। इस प्रकार रसों का अगागी भाव से विनिवेश दोषावह नहीं होता। रस विरोध के विषय में आचार्यों का दो मत है एक आचार्य कहते हैं रस तो एक है अखण्ड है उसमें विरोध की क्या सम्भावना उनके मत में यह रस पद से स्थायी भाव विवक्षित हैं। और दूसरे आचार्य के मत में स्थायी भाव के भेद से रस में भी औपचारिक भेद होता है अतः यहाँ रसों का विरोध हो सकता है। रसों का विरोध दो प्रकार का होता है। १-ऐकाधिकरण्यविरोधी (एकाश्रय विरोधी) २-नैरन्तर्य विरोधी तो इस विरोध का परिहार यह है कि एकाश्रय विरोधी रसों का आश्रय भिन्न-भिन्न कर देना चाहिए। जैसे वीर भयानक का विरोध है तो नायक गत वीर रस और प्रतिनायक गत भयानक का निवेश कर दिया जाय। नैरन्तर्य विरोधी रसों के मध्य में किसी अविरोधी रस का निवेश कर देना चाहिए। जैसे शान्त और शृङ्गार नैरन्तर्य विरोधी हैं, तो मध्य में अद्भुत का निवेश कर देना चाहिए। “अविरोधी विरोधी वा रसोऽगिनि रसान्तरे। परिपोषं न नेतव्यस्तथा स्यादविरोधिता।। १. ध्वन्यालोक पृ. ३८३ दोष विरुद्धैकाश्रयो यस्तु विरोधी स्थायिनो भवेत्। स विभिन्नाश्रयः कार्यस्तस्य पोषेऽप्यदोषता।। एकाश्रयत्वे निर्दोषो नैरन्तर्ये विरोधवान्। रसान्तरव्यवधिना रसो व्यङ्ग्यः सुमेधसा।।’

रुद्रट

आचार्य रुद्रट ने काव्य में वाक्य प्रयोग का नियम निरूपण करते हुये कहा है कि न्यूनपद, अधिकपद, अवाचक, अक्रम, अपुष्टार्थ, अपशब्द, (असाधुपद) दुःश्रवत्वादि दोषों से शून्य पदवाले अर्थ निर्भर वाक्य का प्रयोग करना चाहिए। “अन्यूनाधिकवाचकसुक्रमपुष्टार्थशब्दचारुपदम्। क्षोदक्षममक्षुण्णं सुमतिक्यिं प्रयुञ्जीत।। उक्त दोषों का जो पद तथा वाक्य दोष थे, उनका परिहार करके पुनः अवशिष्ट पद दोषों का वर्णन करते हैं, असमर्थ अप्रतीत विसन्धि, विपरीतकल्पना, ग्राम्य, व्युत्पत्ति रहित देशी पद दुष्ट हैं। असमर्थमप्रतीतं विसन्धि विपरीतकल्पनं ग्राम्यम्। अव्युत्पत्ति च देश्यं पदमिति सम्यग् भवेद् दुष्टम्।। इन दोषों का परिहार भी कहे हैं। वक्ता का चित्त जब हर्ष भय आदि से आक्षिप्त हो तो वहाँ पुनरुक्त दोष नहीं होता। जो पद दूसरे अर्थ में पुनः प्रयुक्त होता है अथवा उसका पर्यायवाची शब्द का प्रयोग किया गया हो या वीप्सा अर्थ में पुनः प्रयुक्त हो तो पुनरुक्ति दोष नहीं होता। यदि बोद्धव्य एकवार में समझ न सके तो वहाँ पुनरुक्ति दोष नहीं होता। स्वयं परामर्श करने में भी असङ्गति दोष नहीं होता।

वाक्य-दोष

संकीर्ण, गर्भित, गतार्थ वाक्य दोष हैं। सभी दोषों का परिहार अनुकरण है। अनुकरण में कोई दोष नहीं होता। सभी अर्थ अपने-अपने स्वभाव तथा देश काल के नियम से नियमित है। इनका अकारण उल्लङ्घन अर्थ दोष कहलाता है। इसका परिहार कवि समय ख्याति है।

१. ध्वन्यालोक, ३२४-२६ काव्यालङ्कार (रुद्रट) २१८ काव्यालकार (रुद्रट) ६२ ४. रुद्रट काव्यालङ्कार ६१४०-४७ ५. रुद्रट काव्यालङ्कार ७७-८ ६०४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अर्थ के नव दोष दूसरे भी हैं। अपहेतु, अप्रतीत, निरागम, बाधयन्, असम्बद्ध, ग्राम्य, विरस, तद्वान् अतिमात्र दुष्ट। उपमा के दोष चार हैं। साधारण धर्म का भेद, र्वेषम्य, असम्भव, अप्रसिद्धि।

कुन्तक

कुन्तक ने काव्य दोषों का निरूपण नहीं किया है, परन्तु दोषों का बीज अतिसूक्ष्म रूप से इनके ग्रन्थ में निर्दिष्ट है। इन्होंने कविस्वभाव के आधार पर काव्य में सुकुमार विचित्र तथा मध्यम नाम के तीन मार्गों का विभाजन किया है, और तीनों मार्गों का सामान्य गुण औचित्य और सौभाग्य को माना है। इसमें औचित्य जिसका उचिताभिधान ही जीवन है, वह पद, वाक्य तथा प्रबन्धों में व्याप्त है। वाक्य के एकदेश में भी यदि औचित्य का अभाव हो जाता है तो सहृदयों को आनन्दानुभूति नहीं होती है। यह अनौचित्य ही दोष है। “वाक्यस्याप्येकदेशेऽप्यौचित्यविरहा तद्विदाह्लादकारित्वहानिः। प्रबन्ध काव्य के किसी प्रकरण के किसी एक भाग में भी यदि अनौचित्य (औचित्य का अभाव) हो जाता है तो पूरा प्रबन्ध दूषित हो जाता है, जैसे वस्त्र के किसी एक भाग के जलने से सारा वस्त्र त्याज्य (दूषित) हो जाता है। “प्रबन्धस्यापि क्वचित् प्रकरणैकदेशेऽप्यौचित्यविरहादेकदेशदाह-दूषितदग्धपटप्रायता प्रसज्यते।“५ ऐसा कह कर इन्होंने महाकवि कालिदास के रघुवंश तथा कुमारसम्भव के कुछ अंशों को उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया है। आनन्दवर्धन ने भी औचित्य को रस का उपनिषद् (सारभूत तत्त्व) माना है और अनौचित्य को ही रसदोष का मूल कहा है, इसका पीछे निरूपण किया जा चुका है।

अग्निपुराण

अग्निपुराण को आदि महापुराण कहा गया है, यह वस्तुतः सभी शास्त्रों विद्याओं तथा ज्ञान विज्ञान का निधि है। इसमें अन्य विद्याओं के समान काव्य विद्या का भी साङ्गोपाङ्ग वर्णन है परन्तु आज कल के इतिहासविद् केवल बुद्धि एवं तर्क के पीछे दौड़ने वाले इसे प्रक्षिप्त मानते हैं, वस्तुतः यह प्रक्षिप्त नहीं है। उसकी मौलिकता स्वयं झलकती है। कहीं समानता भी है तो वेद पुराण सभी विद्या के स्रोत हैं, पुराणों से आचार्यों ने लिया है वह . १. रुद्रट काव्यालङ्कार १११२ २. रुद्रट काव्यालङ्कार १११२४ ३. वक्रोक्ति जीवितः १।५३-५४ ४. वक्रोक्तिजीवित ११५७ की वृत्ति ५. व.जी. की वृत्ति ११५७ ६. वही दोष ६०५ ऋतम्भरा प्रज्ञा प्रसूत है। अतः इसके सिद्धान्तों का निरूपण पूर्व में ही होना उचित है, इसे कालक्रमानुसार न समझा जाय। अग्निपुराण में वर्णित काव्यदोष अपना अलग पहचान बनाया हुआ है। दोष का सामान्य लक्षण इनके मत में दोष का सामान्य लक्षण है “सहृदयों को उद्विग्न करने वाला दोष कहलाता है।” उद्वेगजनको दोषः सभ्यानाम्”। वह सात प्रकार का है “सच सप्तथा। 9-वक्तृदोष, २-वाचक दोष, ३-वाच्यदोष, ४-वक्तृवाचक दोष, ५-वक्तृवाच्यदोष ६-वाच्यवाचकदोष, ७-वक्तृ वाचकवाच्यदोष। “वक्तृवाचकवाच्यानाभेकद्वित्रिनियोगतः।” यह इनका वर्गीकरण सर्वथा नवीन है। वक्तृदोष वक्ता तो कवि ही है, वह चार प्रकार का होता है। १. सन्देहग्रस्त, २-अविनीत, ३-अज्ञ, ४-ज्ञाता। वाचक दोष निमित्त और परिभाषा से अर्थ बोध कराने वाले शब्द को वाचक कहते हैं। वह पद वाक्य भेद से दो प्रकार का होता है, इनमें पद के दो दोष हैं। १-असाधुत्व, २-अप्रयुक्तत्व। शब्दशास्त्र से विरुद्ध शब्द को असाधु कहते हैं। व्युत्पन्नों द्वारा जिस शब्द का प्रयोग न किया गया हो, उस शब्द के प्रयोग में अप्रयुक्तत्व दोष होता है। यह दोष पाँच प्रकार का है। १-छान्दसत्व, २-अविस्पष्टत्व, ३-कष्टत्व, ४-असामयिकत्व, ५-ग्राम्यत्व। छान्दसत्व जिस शब्द का केवल वेद में प्रयोग होता है लोकभाषा में नहीं। उस शब्द का लोकभाषा में प्रयोग करने से छान्दसत्व (अप्रयुक्तद) दोष होता है। अविष्पष्टत्व-जिसका अर्थ स्पष्ट प्रतीत नहीं। यह तीन प्रकार का होता है। -गूढार्थता, २-विपर्यस्तार्थता, ३-संशयितार्थता। गूढार्थता-जहाँ कठिनाई से अर्थ की प्रतीति हो। विपर्यस्तार्थता-विवक्षित अर्थ से भिन्न अर्थ की प्रतीति। इसी में अन्यार्थता तथा असमर्थता समाहित है। संशयितार्थता-जिसके अर्थ में सन्देह हो।

१. अग्निपुराण, ३४७११ … ……………६०६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र कष्टत्व-सुखपूर्वक उच्चारण न हो सकना। असामयिकत्व-कवियों के समुदाचार को समय कहते हैं। सैद्धान्तिकों तथा कवियों में बिना विवाद के जो अर्थ प्रसिद्ध हो उसे सामान्य समय कहते है, उससे च्युत हो जाने पर असामयिकत्व दोष होता है। इसी को नेयार्थत्व भी कहते हैं। ग्राम्यता-जघन्यार्थ प्रतीति। यह तीन प्रकार की होती है। १-ग्राम्य अर्थ का कथन, २-स्मरण, ग्राम्यार्थ वाचक पद से समानता। वाच्य (अर्थ) दोष -यह दो प्रकार का होता है। साधारण तथा प्रातिस्विक। साधारण जो अनेकभाग (अनेक अर्थों में रहने वाला) है। प्रातिस्विक-प्रतिस्वं भवम्, जो प्रत्येक एक -एक अर्थ व्यक्ति में रहता है। इसमें साधारण दोष पाँच प्रकार का होता है। १-क्रियाभ्रंश, २-कारकभ्रंश, ३-विसन्धि, ४-पुनरुक्तता, ५-व्यस्तसम्बंधता। इनमें क्रियाघ्रंश = जिसमें क्रिया न हो। २-कारकभ्रंश-जिसमें कर्तृ आदि कारक न हो। विसन्धि = सन्धि । ‘वि’ का अर्थ है विगत और विरुद्ध । तो सन्धि का अभाव, तथा विरुद्ध सन्धि यह कष्टपाठ से तथा अर्थान्तर की प्रतीति से होता है। पुनरुक्तता यह दोष आभीक्षण्य = पुनः कहने से होता है। यह दोष दो प्रकार का है। १-अर्थावृत्ति, २-पदावृत्ति। अर्थावृत्ति भी दो प्रकार की होती है-प्रयुक्त शब्द के प्रयोग करने से, तथा ऐसे शब्दान्तर के प्रयोग से जिसका अर्थ एक हो पदावृत्ति में पद की आवृत्ति होती है, अर्थ का नहीं। अर्थावृत्ति में अर्थ की आवृत्ति होती है पद की नहीं पद दूसरा भी हो सकता है। व्यस्तसम्बन्धता = जहां सम्बन्ध व्यवहित हो। यह तीन प्रकार का होता है। पद वाक्यभेद से पुनः दो प्रकार का हो जाता है। __ हेतु यदि इष्ट का विधातक हो तो उसमें असमर्थता दोष होता है। यही दोष हेत्वाभास कहलाता है। यह असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, सत्प्रतिपक्ष, कालातीतत्व भेद से पाँच प्रकार का होता है। आगे इन दोषों की निर्दोषिता भी कहीं गयी है। काव्य में जो सभ्यों को अरुन्तुद न हो उसे दोष नहीं माना जाता। निरर्थकत्व दोष दुष्कर काव्य बन्ध में दूषित नहीं माना जाता। तथा दुष्कर काव्य में गूढार्थता भी दोषा वह नहीं होती। ग्राम्यता-लोक शास्त्र में प्रसिद्ध हो तो ग्राम्यता दोष नहीं है। क्रियाभंश-कारकअंश = क्रिया और कारकों का अध्याहारसम्भव हो तो दोष नहीं माने जाते। विसन्धि = सन्धि का अभाव, प्रग्टह्य संज्ञा में प्रकृतिभाव होने से सन्धि नहीं होती वहाँ विसन्धि दोष नहीं माना जाता। जहां सन्धि करने से पाठ में कष्टता आने से (विरुद्धसन्धि होने से) विसन्धि दोष होता है वह भी दुर्वच काव्य में दोषा वह नहीं माना जायगा।

दोष ६०७ अनुप्रास तथा यमक में पदावृत्ति, आदि दोष नहीं माने जाते, वहाँ व्यस्त सम्बन्धता भी दोषावह नहीं है। उपमा में उपमानोपमेय में लिङ्ग वचन कारक का भेद दोष है परन्तु यदि सहृदयों को उद्वेग न हो तो दोष नहीं माना जाता। (अग्निपुराण ३४७वाँ अध्याय का संक्षिप्त सार)

महिमभट्ट

महिमभट्ट ने ध्वनिकार का अनुसरण करते हुये काव्यगत अनौचित्य को ही दोष माना है। यह अनौचित्य दो प्रकार का होता है अर्थविषयक और शब्द विषयक। इनमें अर्थविषयक अनौचित्य है विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भावों का अनुचित रूप से रसों में विन्यास। यह अन्तरङ्ग है, इसका निरूपण आनन्दवर्धन आदि आचार्य कर चुके हैं। इस लिए महिमा ने इस दोष का निरूपण नहीं किया है। परन्तु शब्द विषयक अनौचित्य अनेक प्रकार का हो सकता है, जैसे विधेयाविमर्श, प्रक्रमभेद क्रमभेद, पौनरुक्त्य, वाच्यावचन। इनका विस्तृत विवेचना महिमा ने की है। अनौचित्य ही दोष है। और विवक्षित रसादि की प्रतीति में विघ्न-विधान करना अर्थात् ‘विवक्षित रसादि की प्रतीति में प्रतिबन्धकता’ का नाम अनौचित्य है। जो अनौचित्य साक्षात् रसादि प्रतीति का प्रतिबन्धक होता है उसे अन्तरङ्ग दोष कहते हैं। जो परम्परया प्रतिबन्धक होता है उसे बहिरङ्ग दोष कहते हैं।’ महिमभट्ट की यह विशेषता है इन पाँच बहिरङ्ग दोषों में ही सारे दोषों को समाहित कर लिये है, और अन्तरङ्ग दोष (अर्थ दोष) में रस के सारे दोषों को समाहित कर लिया इन्हीं के भेद प्रभेद रूप से उत्तरवर्ती आचार्यों ने अन्य दोषों का उद्भावन किया है।

रुय्यक मत

महिमभट्ट के टीकाकार रुय्यक का कथन है-कि ग्रन्थकार ने विधेयाविमर्श आदि पाँच दोषों की उद्भावना की है वह वस्तुतः व्याकरण शास्त्र के तीनों मुनियों के द्वारा ही उद्भावित है। जैसे विधेयाविमर्श महर्षि पाणिनि के द्वारा ही सूचित है। पाणिनि मुनि ने “षष्ठया आक्रोशे” (पा.सू. ६/३/२१) इस सूत्र का निर्माण किया इसका अर्थ है यदि आक्रोश अर्थ व्यक्त करना हो तो षष्ठी विभक्ति का लोप नहीं होता। तात्पर्य यह है कि षष्ठी समास हो जाने पर विभक्ति का लोप हो जाता है, और उत्तरपद के अर्थ की प्रधानता हो जाती है। पूर्वपदार्थ विशेषण हो जाता है, उसकी प्रधान रूप से प्रतीति नहीं होती। यदि पूर्वपदार्थ के सम्बन्ध से आक्रोश की अभिव्यक्ति करनी हो तो (वहीं विधेय हो तो) विभक्ति १. व्यक्तिविवेक द्वि.वि. ६०८ 4. अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र का लोप नहीं होता। जैसे “दास्याः पुत्रः” शब्द का प्रयोग यदि आक्रोश व्यक्त करने के लिए किया गया है तो वह आक्रोश दासी के सम्बन्ध से ही प्रतीत होगा, अतः दासी सम्बन्ध विधेय हुआ, यदि विभक्ति का लोप हो जाय तो उसकी विधेयता का विमर्श नहीं हो सकेगा, अर्थात् विभक्तिलोप होने पर विधेयाविमर्श दोष हो जायगा। अतः विभक्ति के अलुक् का विधान मुनि ने किया। अतः पदगत वाक्यगत विधेयाविमर्श दोष की सूचना महर्षि पाणिनि ने ही दी है। प्रक्रमभेद-इस दोष की सूचना महाभाष्यकार पतञ्जलि ने दी है। “स्वामीश्वराधिपतिदायाद साक्षिप्रतिभूप्रसूतैश्च” (पा.सू. २/३/३६) इस सूत्र से स्वामी, ईश्वर, अधिपति, दायाद, साक्षी, प्रतिभू, प्रसूत इन सात शब्दों के योग में षष्ठी तथा सप्तमी विभक्तियां होती हैं। अतः ‘गवां स्वामी’ तथा ‘गोषु स्वामी’ यह दोनों प्रयोग साधु हैं। इसी प्रकार ‘गवां स्वामी अश्वानां च’ तथा ‘गोषु स्वामी, अश्वेषु च’ यह प्रयोग ठीक है। परन्तु “गवां स्वामी अश्वेषु च” इस प्रयोग को भाष्यकार अनुचित कह रहे है। यद्यपि सूत्र षष्ठी तथा सप्तमी दोनों का विधान करता है तो “गवां” में षष्ठी तथा ‘अश्वेषु’ में सप्तमी का प्रयोग होना सूत्र के अनुसार उचित ही है, तथापि “कृञ्चानुप्रयुज्यते’ लिटि (पा.सू. ३/१/४०) सूत्र पर भाष्यकार कहते हैं। “तद्यथा गोषु स्वामी अश्वेषु चेति। नहि भवति गोषु वाश्वानां च स्वामीति। अर्थात् यदि वाक्य का उपक्रम सप्तमी विभक्ति से कर रहे हो तो निर्वाह भी सप्तमी से ही करो अन्यथा षष्ठी करने से उपक्रम (प्रक्रम) भंग हो जायगा। इस प्रकार वाक्य में प्रक्रमभंग दोष की सूचना भाष्यकार दिए हैं। क्रमभेद-अनुचित स्थान में प्रयोग को क्रमभेद कहते हैं। इसे भी भाष्यकार ने सूचित किया है। “कृञ्चानुप्रयुज्यते लिटि” सूत्र में कृञ् का अनुप्रयोग क्यों? यह शङ्का करके अन्त में समाधान करते हुये कहते हैं। “विपर्यास निवृत्त्यर्थम्” “व्यवहितनिवृत्त्यर्थं च” अर्थात् विपरीत तथा व्यवहित प्रयोग के निषेध के लिए अनुप्रयोग वचन है। अर्थात् कृञ् अस्, का अनुप्रयोग आमन्त के अव्यवहित पश्चात् होगा, क्योंकि अनु का अर्थ पश्चात् होता है। पूर्व या व्यवहित में नहीं होगा। ‘इहांचक्रे’ प्रयोग साधु है इहां देवदत्तश्चक्रे यह साधु नहीं है। अतः “तं पतायां प्रथममास” यह (रघुवंश ६/६१) प्रयोग दुष्ट है। साथ ही चादि निपातों का प्रयोग नियम निरूपण भी किये है, इससे क्रमभेद दोष जिसका स्वरूप है “अनुपयुक्त स्थान में शब्द का प्रयोग करना” स्वयं सूचित हो गया है। कात्यायन ने भी वृत्ति लाघव का विचार करते हुये पुनरुक्ति दोष की सूचना दी है। “कर्मधारय-मत्वर्थीयाभ्यां बहुब्रीहिर्लधुत्वात् स्यात्” इस नियम से कर्म धारय तथा मत्वर्थीय की अपेक्षा बहुब्रीहि समास करने में लाघव है अतः वहीं करना चाहिए। जैसे एक सरल सा भाषा में भी प्रचलित उदाहरण है “पीताम्बर’ शब्द। इसका यदि “पीतं च तदम्बरम्’ पीलावस्त्र अर्थ अपेक्षित है, तो कर्मधारय समास है। परन्तु यदि पीलावस्त्र (धारण करने) वाला अर्थ अपेक्षित है तो पुनः पीताम्बर शब्द से मत्वर्थीय प्रत्यय करना पड़ेगा, तो यहाँ दोष ६०६ H दो वृत्ति करनी ‘पड़ी, कर्मधारय, समास वृत्ति तथा मत्वर्थीय तद्धित्त। इस में गौरव है, बहुब्रीहि समास कर दिया जाय तो केवल समास वृत्ति से ही अपेक्षित अर्थ निकल जायेगा। “पीतंम् अम्बरं यस्य सः”। अतः कर्मधारय तथा मत्वर्थीय वृत्ति की अपेक्षा बहुब्रीहि समास में लाघव है। साथ ही बहुब्रीहि समास से जो तद्वान अर्थ निकला, मत्वर्थीय से भी वहीं अर्थ निकलता है तो पुनरुक्ति भी होती है। इस प्रकार पौनरुक्त्य दोष का प्रकाशन कात्यायन ने की है। इस न्याय का व्याकरण शास्त्र में तथा साहित्य शास्त्र में कुछ शब्द भेद से भी प्रयोग मिलता है। जैसे “न कर्मधारयान्मत्वर्थीयों बहुब्रीहिश्चेत्तदर्थ प्रत्तिपत्ति करः।” वामन ने “न कर्मधारयो बहुब्रीहिप्रतिपत्ति करः” तेन विपर्ययो व्याख्यातः’ इन दो सूत्रों द्वारा ऐसे प्रयोगों का निषेध किया है। __वाच्यावचन दोष की भी सूचना “ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्य-देशीयरः” (५/३/६७) सूत्र की व्याख्या करते हुये भाष्यकार देते हैं। प्रश्न यह है कि सूत्र में प्रयुक्त ईषद समाप्ति किसका विशेषण है, प्रकृत्यर्थ का या प्रत्ययार्थ का ? यदि प्रकृत्यर्थ का विशेषण मानेगें तो “गुडकल्पा द्राक्षा” इसमें कल्प प्रत्ययान्त से टाप नहीं होगा लिङ्ग और वचन की अनुपपत्ति होगी (उपपत्ति नहीं होगी)। क्यों कि प्रकृति गुड शब्द पुल्लिङ्ग है। “प्रकृत्यर्थे चेल्लिङ्गवचनानुपपत्तिः । इस शंका का समाधान प्रत्ययार्थ का विशेषण मानकर किए हैं। (“सिद्धं तु तत्सम्बन्ध उत्तरपदार्थे प्रत्यय वचनात्”)। इन दोनो समाधानों में दो बाते हैं, प्रकृत्यर्थ का विशेषण मानने में गुड शब्द (ईषदसमाप्ति का अर्थ सादृश्य है) सादृश्य अर्थ को अपने स्वार्थ के आभ्यन्तर कर लेगा, और अभेद सम्बन्ध से द्राक्षा में अन्वित होगा तो गुडाभिन्न द्राक्षा यह अर्थ होगा तो गुड शब्द से टाप नहीं होगा तथा अभेद सम्बन्ध होने से यहाँ रूपक होगा उपमा नहीं। परन्तु भाष्यकार ने यहाँ प्रत्ययार्थ का विशेषण माना है तो अर्थ होगा गुड के सदृश द्राक्षा। यहाँ द्राक्षा की प्रधानता होगी तथा उपमा होगी, ईषदसमाप्ति अर्थ में कल्पप् प्रत्यय होने से गुड कल्प शब्द से टाप भी हो जायेगा गुडकल्पा शब्द बनेगा। तो भाष्यकार ने यहाँ उपमा जो वस्तुतः है, उसे स्वीकार कर वाच्यावचन दोष की सूचना दी है, साथ ही उपमा न मानकर रूपक मानने में अवाच्यवचन दोष की भी सूचना दी है। इस प्रकार ये सभी दोष व्याकरण शास्त्र के त्रिमुनि द्वारा निर्दिष्ट है तथा इन्हीं के भेद प्रभेद सभी दोष प्रपञ्च हैं। वृत्त (छन्द) का दुःश्रवत्व भी शब्दानौचित्य दोष ही है परन्तु यह केवल वाचकत्वाश्रय न होने के कारण इसे शब्दानौचित्य के समान कक्षा में नहीं रखा गया। १. काव्यालङ्कार सूत्र वृत्ति ५।१७-८ ६१० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

भोजराज के अनुसार दोष के भेद

भोजराज के मत में दोष तीन प्रकार के होते हैं। पददोष, वाक्यदोष, वाक्यार्थ दोष। तीनो (१६) सोलह २ प्रकार के होते हैं। ये काव्य में त्याज्य है। इन में पद दोष है असाधुत्व, अप्रयुक्तत्व, कष्टत्व, अनर्थकत्व, अन्यार्थकत्व, अपुष्टार्थत्व, असमर्थत्व, अप्रतीतत्व, क्लिष्टत्व, गूढत्व, नेयार्थत्व, सन्दिग्धत्व, विरुद्धत्व, अप्रयोजकत्व, देश्यत्व, ग्राम्यत्व, (ये १६ दोष है’) इनमें ग्राम्यत्व तीन प्रकार का होता है, वे तीनो पुनः तीन २ प्रकार के होते हैं। __ वाक्य दोष भी १६ हैं। उन के नाम = १-शब्दहीन, २-क्रमभ्रष्ट, ३-वि. सन्धि, ४-पुनरुक्तिमत्, ५-व्याकीर्ण, ६-संकीर्ण, ७-अपद, ८-गर्भित, ६. भिन्नलिङ्गोपमा १०-भिन्नवचनोपमा, ११-न्यूनोपमा, १२-अधिकोपमा, १३-भग्नच्छन्द, १४-मग्नयति, १५-अशरीर, १६-अरीतिमत्। । वाक्ययार्थ दोष भी १६ हैं। १-अपार्थ, २-व्यर्थ, ३-एकार्थ, ४-ससंशय, ५-अपक्रम, ६-खिन्न, ७-अतिमात्र, ८-परुष, ६-विरस, १०-हीनोपम, ११-अधिकोपम १२-असदृशोपम, १३-अप्रसिद्धोपम, १४-निरलङ्कार, १५-अश्लील, १६-विरुद्ध।’ इनके मत में काव्य में जो हेय (त्याज्य) हैं वे दोष कहलाते हैं।

आचार्य मम्मट कृत दोष का सामान्य लक्षण

आचार्य मम्मट ने दोष का सामान्य लक्षण, तथा दोषों का वर्गीकरण, तथा विशेष लक्षण का प्रतिपादन किया है तथा दोषोद्धार का भी निरूपण किया है, अब उनका मत प्रस्तुत किया जाता है। दोष का सामान्य लक्षण तथा विभाग- मुख्याध का अपकर्ष हो जिससे, उसे दोष कहते हैं। और मुख्यार्थ है रस, और रस का आश्रय होने से वाच्य अर्थ भी मुख्य है। (रस विभावादि के सम्बन्ध से अभिव्यक्त होता है, विभावादि काव्य के वाच्य अर्थ हैं।) रस और वाच्यार्थ दोनो के बोध में उपयोगी हैं पद, वाक्य और वर्ण तथा रचना अतः इन में भी दोष रहता है। यद्यपि यहाँ मुख्यार्थ नाना (रस-वाच्यार्थ- पद-पदांश-वाक्य भेद से) है तो भी ये अननुगत नहीं हैं। ‘उद्देश्य प्रतीति विषयत्वेन’ (उद्देश्यभूत जो प्रतीति उसके विषय रूप से) सब अनुगत हैं। अतः रस के अपकर्षक, जो साक्षात् रस का अपकर्ष करते है वे रस दोष कहलाते हैं, अर्थ, पद पदांश वाक्य दोष अर्थादि अपकर्ष के द्वारा रस का परम्परया अपकर्ष करते हैं। इसमें दोष का विभाग भी हो गया, रसदोष अर्थ दोष पद दोष, पदांश दोष, वाक्य दोष, इस प्रकार पाँच प्रकार का ‘दोष हुआ। ये दोष नित्य अनित्य भेद से भी’ दो प्रकार के हैं। अलङ्कार दोष भी है, परन्तु मम्मट ने इन्हीं दोषों मे उसका अन्तर्भाव कर दिया है। १. सरस्वती कण्ठाभरण- १-३-५८ २. काव्य प्रकाश, ७१४६ दोष ६११ ROMAASIKARAN

दोष का प्रकार, पद दोषों का लक्षण उदाहरण

दोष निरूपण का क्रम यह है, कि पहले काव्य शब्द का श्रवण होता है, अनन्तर अर्थ प्रतीति, तत्पश्चात् रस की प्रतीति होती है, अतः पहले शब्द दोष का अनन्तर अर्थ दोष का तत्पश्चात् रस दोष का निरूपण किया गया है, शब्द भी, १- पद २-पदांश ३- वाक्य, भेद से तीन प्रकार का होता है। इसी क्रम से पहले पद दोष, पश्चात् पदांश दोष, तत्पश्चात् वाक्य दोष, अनन्तर अर्थ दोष, अन्त में रस दोष का निरूपण आचार्य मम्मट ने किया है। पददोष-१-श्रुतिकटु, २-च्युतसंस्कृति, ३-अप्रयुक्त, ४-असमर्थ, ५-निहतार्थ, ६-अनुचितार्थ, ७-निरर्थक, ६-त्रिविधश्लील, १०-सन्दिग्ध, ११-अप्रतीत, १२-ग्राम्य, १३- नेयार्थ, ये १३ दोष केवल पद में भी रहते है समस्त पद (समासगत) मे भी रहते हैं। परन्तु १४-क्लिष्टत्व, १५-अविमृष्टविधेयांशत्व १६ विरुद्धमतिकृत्त्व ये तीन दोष समासगत ही होते हैं। ये १६ पद दोष हैं।, १. श्रुतिकटुत्व = परुषवर्ण, जिन वर्गों के सुनने से चित्त में उद्वेग हो। यह अनित्य दोष है। क्योंकि वीरादि रसों में परुषवर्ण दुष्ट नहीं हैं। प्रत्युत ओजो गुण व्यञ्जक होने के कारण गुण हैं, केवल शृङ्गारादि मधुर रसों में दोष हैं। भेद-श्रुतिकटुत्व दोष वहाँ होता है, जहाँ प्रस्तुत रस का व्यञ्जक वर्ण नहीं होने से रसोद्बोध में अपकर्ष होता है। प्रतिकूल वर्णता में प्रस्तुत रस के प्रतिबन्धक वर्ण होने से रस प्रतिबद्ध हो जाता है। दूषकता बीज-श्रवणोद्वेजक वर्गों का प्रयोग होने से श्रोता की उद्विग्नता ही जो रसापकर्ष का कारण होती है, इस दोष में दूषकता बीज है। यह पद तथा पदांश दोष हैं। उदाहरण-“आलिङ्गितः स तन्वङ्ग्या कार्तार्थ्यं लभते कदा”। इस पद्यांश से शृगार की अभिव्यक्ति होती है, इस में माधुर्य गुण व्यञ्जक वर्णों का प्रयोग उचित है, यहाँ कर्णकटु ‘कार्तार्थ्य’ यह कठोर वर्गों का प्रयोग श्रोता को विमुख कर देता है। __ दोषोद्धार- अनुरकण में, वैयाकरण वक्ता, या श्रोता हो, रौद्रादि रस में, नीरस काव्य में यमकादि में, वक्तृ-वाच्य-प्रकरणादि के औचित्य में श्रुतिकटु दोष नहीं होता है। च्युतसंस्कृति-च्युत= स्खलित, संस्कृति = संस्कार। संस्कारहीन। भाषा का संस्कार व्याकरण से होता है। अतः व्याकरणविरुद्ध शब्दों के प्रयोग में च्युतसंस्कृति दोष होता है। जिस भाषा का शब्द हो, उस भाषा के व्याकरण के अनुरूप होना चाहिए विरूप होना च्युत संस्कृति दोष है। देशीय भाषा में अथवा जिस भाषा का व्याकरण नहीं है उस भाषा के शब्द प्रयोग में यह दोष नहीं होता। यह नित्य दोष है, अनुकरण के अतिरिक्त इस दोष का कोई परिहार नहीं है। उदाहरण- “दीनंत्वामनुनाथते कुचयुगं पत्रावृतं मा कृथा : । (अपने कुम्भ स्थल की ६१२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र रक्षार्थ याचना से) कातर कुञ्जर कुल (हाथियों का झुण्ड) तुम से याचना करता है कि (हे पल्लीपति पुत्रि) तुम अपने कुच युगल को पत्रावृत मत करो। यहाँ “अनुनाथते” शब्द का प्रयोग है। इस का अर्थ है ‘याचना करता है’। नाथ धातु को आशंसा अर्थ में ही आत्मने पद होता है (आशिषि नाथः) यह कात्यायन वार्तिक है। इस का अर्थ है नाथ धातु को आशिष अर्थ में ही आत्मने पद होता है। यह वार्तिक नियमार्थ है। यहाँ आत्मने पद का प्रयोग कर के व्याकरण नियम का उल्लङ्घन किया गया है। यह च्युतसंस्कृति दोष है। अतः यहाँ “अनुनाथति स्तनयुगं …..” यह पाठ उचित है। यह पद दोष ही है दूषकता बीज साधु शब्दों से नियमित पद्य में असाधुशब्द के प्रयोग से कवि की अशक्ति की प्रतीति होती है। यह सहृदयों को उद्विग्न कर देती है। यही इस दोष में बीज है। अप्रयुक्त-व्याकरण कोशादि शास्त्र से सिद्ध भी शब्द का कवियों के द्वारा आदर (प्रयोग) न किया जाना। __ भेद-असमर्थ में विवक्षित अर्थ के प्रतिपादन में सामर्थ्यही नहीं होता, यहाँ सामर्थ्य रहने पर भी कवियों के द्वारा प्रयोग नहीं किया जाता। च्युतसंस्कृति दोष व्याकरणादि शास्त्र से असिद्ध शब्द के प्रयोग में होता है। यह व्याकरणादि शास्त्र से निष्पन्न शब्द के प्रयोग में होता है। संस्कृत पद्य में अनुकरणादि के बिना भाषान्तर के शब्दों के प्रयोग में भी अप्रयुक्त दोष ही समझना चाहिए। उदाहरण-“तथा मन्ये दैवतो ऽस्य” । यहाँ दैवत शब्द का पुल्लिङ्ग में प्रयोग किया गया है। यह अमरकोश से सिद्ध है। ‘वृन्दारका दैवतानि पुंसिवा” तो भी कवियों ने इसका नपुंसक लिङ् में ही प्रयोग किया है पुलिंग में नहीं। दूषकता बीज-कविसमय (सिद्धान्त) का उल्लङ्घन होने के कारण पदार्थोपस्थिति में विलम्ब होने से मुख्यार्थ प्रतीति में विलम्ब होना ही दूषकता बीज है। यह अनित्य दोष है, यमकादि में ऐसा प्रयोग दूषित नहीं माना जाता है। __ असमर्थ-असमर्थ शब्द में नञ् (अ) का अर्थ अल्प है। अतः इसका अर्थ है। अल्पसमर्थ । अर्थात् जिस शब्द का जो अर्थ व्याकरण आदि शक्तिग्राहकों द्वारा निर्दिष्ट है, उसी अर्थ का बोध कराने में वह शब्द बिना किसी सहकारी के समर्थ नहीं है। अतः सहकारी के बिना संकेतित अर्थ का बोध कराने में समर्थ न होना ही असमर्थता है। PARENTER RESS समाचार १. अमर कोश प्रथम काण्ड।

त्रा

दोष ६१३ जैसे “हन् हिंसागत्योः” धातुपाठ में ‘हन् धातु’ हिंसा और गति दोनो अर्थों में पढ़ा गया है, परन्तु केवल ‘हन्ति’ शब्द का गति अर्थ बोध कराने में सामर्थ्य नहीं है। किन्तु यदि ‘पाद’ आदि शब्द सहकारी मिल जायं तो गमन अर्थ का बोध कराने में समर्थ हो जाता है, जैसे “पादाभ्यां हन्यते-गम्यते इति पद्धतिः मार्गः” । वक्रं हन्ति = गच्छतीति जघनम् इत्यादि। यह अर्थ थातु पाठ में “हन् हिंसागत्योः” पढ़ते हुवे आचार्य ने ही सूचित किया है, हमारे गुरुजी पं. श्री काली प्रसाद मिश्र जी (“प्रिंसपल प्राच्यविद्या विभाग, का.वि.वि.) कहा करते थे, जब हन् धातु हिंसा और गति दोनो अर्थों में पढ़ा गया है तो गति अर्थ में असमर्थ क्यों है ? इस प्रश्न का वे समाधान करते थे। ‘हिंसागत्योः” में द्वन्द्व समास है हिंसा और गति में गति अभ्यर्हित है, तो “अभ्यर्हितं च” वार्तिक से गति का पूर्वनिपात होना उचित था, परन्तु हिंसा का पूर्व निपात किया गया है, इस का तात्पर्य है कि तिङ् प्रत्यय के साथ हन का हिंसा ही अर्थ है, कृत् प्रत्यय के समभिव्याहार में गति अर्थ भी है अतः तिङ् प्रत्यय के समभिव्याहार में हन् धातु गति अर्थ बोधन कराने में असमर्थ है। उदाहरण “सुरस्त्रोतस्विनीमेष हन्ति सम्प्रति सादरम्" यह इस समय आदरपूर्वक गङगा जी जा रहा है"। यहाँ ‘हन्ति’ का अर्थ है, जा रहा है। परन्तु तिङ् प्रत्यय के साथ हन् थातु गमन अर्थ का बोध कराने में असमर्थ हैं। दूषकता बीज : बिना किसी सहकारी के हन् धातु की ‘तिङ्,’ प्रत्यय के सन्निधि से गमन अर्थ के उपस्थापन, में योग्यता ही (स्वरूपयोग्यता) नहीं है। अतः अर्थ की अनुपस्थिति ही इस दोष में दूषकता बीज हैं। यह नित्य दोष है। भेद-असमर्थ दोष में अर्थ की स्मृति होती ही नहीं, निहतार्थ में विलम्ब से-अर्थ उपस्थित (स्मृत) हो जाता है। अवाचक दोष सहकारी से भी अर्थ बोध नहीं करा सकता, यह उपसन्दान (सहकारी) से अर्थ बोध कराने में समर्थ हो जाता है। निहतार्थ -जिस शब्द का दो अर्थ हो, परन्तु उसमें एक ही अर्थ लोक व्यवहार में अधिक प्रसिद्ध हो, उसी अर्थ में उस शब्द का अधिक प्रयोग होता हो, तो उस शब्द का अप्रसिद्ध अर्थ में प्रयोग किया जाय तो निहतार्थ दोष होता है। निहत शब्द का अर्थ है, प्रसिद्ध अर्थ की शीघ्र स्मृति होने के कारण, अप्रसिद्ध अर्थ जो विवक्षित है उसकी उपस्थिति में विलम्ब होना, (व्यवधान होना) उदाहरण :- “यावकरसार्द्रपादप्रहारशोणितकचेन दयितेन’। इसका अर्थ है अलक्तक रस से आर्द्र पाद के प्रहार से लाल कैश वाले दयित के द्वारा’ . …………… … .

.. . . . . . .

.. . ६१४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र इस शब्द में लालवर्ण के अर्थ में शोणित शब्द का प्रयोग है। परन्तु शोणित शब्द का रुधिर अर्थ में अधिक प्रसिद्धि है, अतः रुधिर अर्थ की शीघ्र स्मृति होती है, जिससे विवक्षित ‘आरक्त’ अर्थ तिरोहित हो जाता है, व्यवहित हो जाता है योग शक्ति से विलम्ब से (पश्चात्) उपस्थित होता है। इस दोष में विलम्ब से विवक्षित अर्थ की उपस्थिति होना दूषकताबीज है। यह अनित्य दोष है, यमकादि में दोष नहीं है, क्यों कि यमक में अर्थ की उपस्थिति में विलम्ब होना भी सहृदय सम्मत है। ६. अनुचितार्थ-अनुचित = वर्णनीय का तिरस्कार करने वाला, अर्थ हो जिसे पद का वह पद अनुचितार्थ कहलाता है। उदाहरण-“प्रयान्ति तामाशु गतिं यशस्विनो रणाश्वमेधे पशुतामुपागताः”। (जिस गति को तपस्वी चिरकाल तक तप करने से प्राप्त करते हैं, तथा याज्ञिक यत्नपूर्वक जिस को प्राप्त करने की कामना करते हैं) उसी गति को सङ्ग्रामरूपी अश्वमेध यज्ञ में पशुता (वध्यता) को प्राप्त हुवे यशस्वी लोग शीघ्र ही प्राप्त कर लेते हैं। यहाँ विवक्षित अर्थ है-सङ्ग्राम भूमि में आमने सामने युद्ध करते हुवे वीर गति को प्राप्त हुये शूरवीर लोग उसी गति को प्राप्त होते हैं। परन्तु उन वीरों को रणाश्वमेध में वध्य पशु कहा गया है, जिससे कायरता की अभिव्यक्ति होती है। जो अनुचित है। इसमें अपकर्षक (तिरस्कार सूचक) अर्थ की उपस्थिति होना ही दूषकता-बीज है। भेद-विरुद्धमतिकारिता दोष में भी विवक्षित अर्थ से विरुद्ध अर्थ की उपस्थिति होती है, परन्तु वह पदान्तर के सम्बन्ध से होती है, अनुचितार्थ में पदान्तर के सम्बन्ध के बिना ही विरुद्ध अर्थ की उपस्थिति होती है। यह नित्य दोष है। परन्तु जहाँ अनुचितार्थ की अभिव्यक्ति न हो वहाँ यह दोष नहीं माना जाता अतः यह अनित्य दोष है। ७. निरर्थक पद-ऐसा पद जो केवल पादपूर्ति के लिए प्रयुक्त हो, उसका अर्थ विवक्षित न हो। यह अनित्य दोष है। खलु, नाम, आदि जो पद वाक्यालङ्कार भूत हैं, उनके प्रयोग में तथा यमक आदि के निर्वाह के लिए प्रयुक्त हो तो यह दोष नहीं होता। . __भेद-निरर्थक ‘च’ आदि पदों का अर्थ विवक्षित नहीं होता, परन्तु उनका पादपूर्ति करने के लिए प्रयोग करने का शास्त्र में विधान है। “चह वै पादपूरणे”। परन्तु अधिक पदता में पद का अर्थ अविवक्षित तो होता ही है, उसके प्रयोग करने का कोई प्रयोजन भी शास्त्र में निर्दिष्ट नहीं है। यह दोष अविवक्षित बहुवचन विभक्ति के प्रयोग में भी होता है। उदाहरण “उत्फुल्लकमलकेसरपरागगौरद्युते ! मम हि गौरि ! अभिवान्छितं प्रसिद्ध्यतु भगवति युष्मत्प्रसादेन" ।। …..-

दोष ६२१

इन अप्रयुक्तत्व, अवाचकत्व, निहतार्थकत्व, नेयार्थत्व आदि दोषों का असमर्थ दोष में अन्तर्भाव हो सकता है, परन्तु छात्रबुद्धि वैशधार्थ परस्पर का सूक्ष्म भेद दिखलाने के लिए पृथक् निरूपण किया गया है।

वाक्यदोष

यह २१ प्रकार का होता है। १. प्रतिकूल वर्णता- विवक्षित रसों के प्रतिकूल वर्गों का होना, जैसे शृङ्गार में ट वर्ग का रौद्ररस में सुकुमार वर्णों का अधिकतया प्रयोग। २. उपहत विसर्गता -जहाँ विसर्ग को सन्धि (सत्त्व, रुत्व, उत्व, गुण) करके “ओ” बना दिया जाता है, इस ‘ओ’ का निरन्तर अनेक बार काव्य में प्रयोग करने से बन्ध शैथिल्य आ जाता है, जो सहृदयों को उद्विग्न कर देता है। यमक में यह दोष नहीं होता। ३. लुप्तविसर्गता -जहाँ विसर्ग का (सत्व, रुत्व, यत्व य लोप) लोप हो जाता है उसे लुप्त विसर्ग कहते हैं, ऐसे शब्दों का वाक्य में निरन्तर अनेक बार प्रयोग करने से बन्धशैथिल्य के कारण, प्रयोग में सहृदयों को उद्वेग होता है। ४. विसन्धिता -सन्धि की विरूपता। यह तीन प्रकार की होती है, १-विश्लेष, २ अश्लील ३ कष्टता। विश्लेष = सन्धि का अभाव। यह चाहे स्वेच्छा से किया गया हो, या पाणिनि के सूत्र से प्रगृह्य संज्ञा, प्रकृतिभाव, या लोप के असिद्ध होने से) हुआ हो, काव्य में ऐसे शब्दों का निरन्तर प्रयोग दूषित है। स्वेच्छा से सन्धि न कर एक बार भी शब्द का प्रयोग करना दूषित है। अश्लीलत्व-सन्धि करने से अश्लीलता का आभास होना। कष्टत्व- सन्धि करने से शब्द जहाँ कटु हो जाय। हतवृत्तता - हत = निन्दित हो वृत्त छन्द, जिस वाक्य (काव्य) में वहाँ हतवृत्तता दोष होता है, यह तीन प्रकार का होता है। छन्दों के लक्षण का अनुसरण न करने से (छन्दोंटग होने से लक्षण का मनमरण करने पर भी (यति भंग होते मे अथव्यता

६२२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ८. कथित पदता - बिना किसी प्रयोजन के समानार्थक एक ही शब्द का पुनः प्रयोग। पुनरुक्तता वहाँ होती है जहाँ समानार्थक विभिन्न शब्दों का प्रयोग हो, जहाँ एकही शब्द __ का दो बार प्रयोग हो वहाँ कथितपदता दोष होता है, यही इन दोनों में भेद है। ६. पतत्प्रकर्षता -काव्य में अलकारकृत या बन्धकृत प्रकर्ष का उत्तरोत्तर हास होना। १०. समाप्तपुनरात्तता-वाक्य के पूर्ण हो जाने पर भी पुनः उसमें अन्वयी (विशेषण) शब्द का प्रयोग करना। ११. अर्थान्तरैकवचाकत्व -जिस काव्य में पूर्वार्ध में वर्णित अर्थ का वाचक एकपद उत्तरार्ध में प्रयुक्त हो। १२. अभवन्मतयोग -जिस वाक्य में पदार्थों का अभिमत सम्बन्ध न हो सके। यह अनेक प्रकार का होता है। कही भिन्न विभक्ति होने के कारण, कहीं पदों की न्यूनता के कारण, कहीं आकाङ्क्षा न होने के कारण, कही वाच्य और व्यङ्ग्य अर्थ का विवक्षित सम्बन्ध न होने से, कही समास के अन्तर्गत होने से, कही व्युत्पत्तिविरोध के कारण सम्बन्ध न होने से होता है। १३. अनभिहितवाच्यता -जो अवश्य वक्तव्य हो उस द्योतक पदों का प्रयोग न करना। १४. अस्थानस्थपदता -अनुचित स्थान में पद का प्रयोग करना। १५. अस्थानस्थसमासता -उचित स्थान में समास न कर अनुचित स्थान में करना। १६. संकीर्णता -वाक्यान्तर का पद दूसरे वाक्य में प्रविष्ट हो जाय तो संकीर्णता दोष होता १७. गर्भितता -वाक्य में वाक्यान्तर का प्रवेश हो जाना। १८. प्रसिद्धिहतता -प्रसिद्धि कविसमयख्याति का उल्लङ्घन। १६. भग्नप्रकमता -प्रक्रम प्रस्ताव, उपक्रम का भंग हो जाना। यह प्रकृति, प्रत्यय, सर्वनाम, पर्याय, उपसर्ग आदि के परिवर्तन से होता है। अक्रमता -क्रम का अभाव । कुछ शब्दों के प्रयोग के नियम बताए गये हैं जैसे उपसर्ग का धातु से पूर्व प्रयोग करना चाहिए, इवादि का उपमानवाचक शब्द के पश्चात् ‘एव’ का व्यवच्छेदय के पश्चात्, ‘पुनः’ शब्द का ब्यतिरेच्य के पश्चात् प्रयोग करने का क्रम है इसका अभाव जिस वाक्य में हो वहाँ अक्रमता दोष होता है। २१. अमतपरार्थता -जिस वाक्य का दूसरा अर्थ प्रस्तुत अर्थ के विरुद्ध होने से इष्ट न हो।

अर्थ दोष

जिनके कारण अर्थ दूषित हो जाते हैं। वे २३ प्रकार के होते हैं। १. अपुष्टार्थता -प्रतिपाद्य अर्थ को पुष्ट करने के लिए विशेषण दिया जाता है परन्तु जिस विशेषण के न देने से भी प्रतिपाद्य अर्थ में कोई बाधा न आवें न्यूनता न आवे वह विशेषण अपुष्टार्थ कहलाता है। २. कष्टार्थता -दुरूह अर्थ में कष्टार्थता दोष होता है। घोष ६२३ .. व्याहतता -पहले किसी का उत्कर्ष या अपकर्ष का वर्णन कर पुनः उसी का क्रम से अपकर्ष या उत्कर्ष वर्णन करना व्याहत कहलाता है। …… पुनरुक्तता -पहले किसी शब्द से किसी अर्थ का प्रतिपादन कर पुनः उसी अर्थ का पर्यायवाची शब्दान्तर से प्रतिपादन करना पुनरुक्त कहलाता है। यह पुनरुक्त पदार्थ वाक्यार्थ भेद से दो प्रकार का होता है। दुष्कमता -जहाँ क्रम अनुचित हो। क्रम का अनौचित्य लोक शास्त्र के विरुद्ध होने से होता है। ६. ग्राम्यता -ग्राम्य जन= पामरजन से कथित अर्थ ग्राम्य कहलाता है। सन्दिग्ध -जिस अर्थ में सन्देह हो। निर्हेतु -जिस अर्थ में हेतु उपात्त न हो। ६. प्रसिद्धिविरुद्ध -लोक प्रसिद्धि के विरुद्ध अर्थ। विद्याविरुद्ध -शास्त्र विरुद्ध अर्थ। विद्याशब्द देशकाल प्रत्यक्षादि का उपलक्षण है। ११. अनवीकृत -कहे हुये अर्थ को पुनः उसी रूप में कहना, अर्थात् उसे भङ्ग्यन्तर के द्वारा नवीन न बनाना। १२. सनियम परिवृत्त -नियमपूर्वक कहने योग्य अर्थ को बिना नियम कहना। १३. अनियमपरिवृत्त -बिना नियम के कहने योग्य अर्थ को सनियम कहना। १४. विशेषपरिवृत्त -विशेष अर्थ को सामान्य रूप से कहना।। १५. अविशेष (सामान्य) परिवृत्त -सामान्य अर्थ को विशेष रूप से कथन। १६. साकाङ्क्षता -अर्थ की साकाङ्क्षता। १७. अपदयुक्तता -अनुचित स्थान में संबद्ध अर्थ। १८. सहचर भिन्न -सहचरों से भिन्न। उत्कृष्टों के साथ निकृष्टों को कहना। . १६. प्रकाशित विरुद्धता -विरुद्ध अर्थ को अभिव्यक्त करने वाला अर्थ। .", विथ्ययुक्तता -अयुक्तविधि-विधान। यह अविधेय को विधेय बनाने से, तथा क्रम की अयुक्तता से दो प्रकार का है। २१. अनुवादायुक्तता -उद्देश्य का विधेयानुरूप न होना। २२. त्यक्त पुनः स्वीकृत -पहले त्यागे गये अर्थ को पुनः स्वीकृत करना। २३. अश्लीलार्थ -अश्लील अर्थों का वर्णन करना।

RAHIRat–

२०.

रसदोष

यद्यपि पद, पदांश, वाक्य या अर्थ निष्ठ दोष भी रस का अपकर्षक होते है तो भी ये दोष पहले पद, वाक्य, अर्थ के अपकर्ष द्वारा रस का अपकर्ष करते है, उनका वर्णन हो चुका, अब जो साक्षात् रस का अपकर्ष करते हैं उनका वर्णन किया जा रहा है। ये रसदोष १३ हैं। . .. .. ६२४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ४. * १. व्यभिचारी भाव जो निर्वेदादि है उनका स्वशब्द = वाचक शब्द से कथन करना व्यभिचारिस्वशब्दवारूता दोष कहलाता है। रसस्वशब्द वाच्यता-शृङ्गारादि रसों का सामान्य = रस शब्द से या विशेष = शृंगारादि शब्द से वाच्य करना। ३. स्थायी भाव = रत्यादि का स्वशब्द से रत्यादि शब्द से वाच्य करना। अनुभावों की कष्टकल्पना के द्वारा प्रतीति होना। विभावों की कष्ट कल्पना से प्रतीत होना। ६. प्रकृत रस के विरुद्ध रसों के विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भावों का वर्णन। ७. पुनः पुनः दीप्ति-अङ्गीरस जो पुष्ट हो चुका है उसकी धारा को बीच-बीच में विच्छिन्न कर पुनः पुनः प्रदीप्त करना। ऐसा प्रबन्ध काव्य में ही सम्भव है। पुनः पुनः दीप्ति अङ्गरसों का उचित है। अगी का नहीं। ८. अकाण्डप्रथन-अमवसर में रस का विस्तार करना। ६. अकाण्डविच्छेदन-अनवसर में ही रस का विच्छेद करना। १०. अग= अप्रधान प्रतिनायकादि का अति विस्तार से वर्णन करना। ११. अङ्गीरस का विस्मरण। १२. प्रकृति विपर्यय-प्रकृति नायकों का विपर्यय करना। प्रकृतियाँ दिव्य, अदिव्य, दिव्यादिव्य, ३ प्रकार की हैं। प्रत्येक में धीरोदात्त धीरोद्धत, धीरललित, धीर प्रशान्त चार -चार भेद हैं उनमें भी उत्तम, मध्यम, अधम भेद है अतः प्रकृतियाँ अनेक प्रकार की होती है। इनमें भी शृङ्गार रस का नायक अनुकूल, दक्षिण, शठ, धृष्ठ भेद से चार प्रकार का होता है। रति, हास, शोक, विस्मय का वर्णन जो अदिव्य उत्तम प्रकृति में किया जाता है, वैसा ही दिव्य में भी करना चाहिए। उत्तम देवता विषयक शृङ्गारवर्णन अत्यन्त अनुचित है। कालिदास के द्वारा वर्णित (कु.सं में) पार्वतीपरमेश्वर विषयक शृङ्गार पराम्बा काली के प्रसाद से ही ग्राहय हो गया है। बिना भृकुटीविकारादि लक्षणों के सद्यः फलित होने वाले क्रोध का वर्णन, स्वर्गपातालगमन, समुद्रलंघन, आदि का वर्णन दिव्य प्रकृतियों में ही करना चाहिए। अदिव्यों में नहीं, उनका जितना चरित प्रसिद्ध हो उतना ही वर्णन करना चाहिए, अधिक वर्णन में मिथ्यात्व की प्रतीति होती है। अतः नायक में अश्रद्धा हो जाने के कारण उसकी चरित से शिक्षा ग्रहण नहीं किया जा सकता। नायकवद् वर्तितव्यं न प्रतिनायकवत् दिव्यादिव्य में उभयथा वर्णन किया जा सकता है। “तत्र भवन्” भगवन्" शब्द का प्रयोग उत्तम प्रकृति (नायक) ही कर सकता है वह भी मुनियों के लिए, राजादि के लिए नहीं। इसी प्रकार राजा के लिए भट्टारक शब्द का प्रयोग उत्तम प्रकृति को नहीं करना चाहिए। और देश, काल, वय, जात्यादि के अनुरूप ही वेष व्यवहारादि का वर्णन करना उचित है। वोष ६२५ 19 अन्यथा वर्णन अनुचित है। १३. अनङ्ग का वर्णन-जो रस का उपकारक न हो उसका वर्णन। ईदृशाः-इस प्रकार के अन्य भी वर्णन रस दोष कहलाते हैं। जैसे नायिका के पादप्रहार से नायक का कोपादि वर्णन। ध्वनिकार ने कहा भी है। अनौचित्यादृते नान्यद् रसभङ्गस्यकारणम्।. प्रसिद्धौचित्यबन्थस्तु रसस्योपनिषत्परा।। (का.प्र.स.उ. में उद्धृत) . __ अनौचित्य के बिना रसभंग का कोई दूसरा कारण नहीं है। प्रसिद्ध औचित्य का निबन्धन रस का परम उपनिषद् है।

दोष परिहार

इन दोषों का वर्णन कर आचार्य मम्मट ने वामनादि के अनुसार इनके परिहार का भी वर्णन किया है। जैसे अवतंस पद का ही अर्थ है कर्णाभूषण, परन्तु कर्णावतंस का प्रयोग होता है वहाँ पुनरुक्ति नहीं है, प्रत्युत कान में धारण किया हुवा अवतंस इस अर्थ विशेष को बताता है अतः यहाँ पुनरुक्त नहीं है। परन्तु ऐसा प्रयोग जो प्रसिद्ध हौं जैसे शिरः शेखर, धनुर्ध्या, आदि का ही प्रयोग करना उचित है। प्रसिद्ध अर्थ में निर्हेतु दोष नहीं होता। अनुकरण में सभी दोष-दोष नहीं होते अदोष हो जाते हैं। वक्ता वाच्य प्रकरण व्यङ्ग्य आदि के महिमा से दोष भी कहीं गुण हो जाते है कहीं न दोष ही होते हैं न गुण ही। नीरस में कष्ट दोष न दोष होता है न गुण ही है। अप्रयुक्त और निहतार्थ श्लेष आदि में दोष नहीं माने जाते। सुरतारम्भ गोष्ठी में अश्लील गुण है। शान्त कथादि में भी कहीं विषयों से घृणा कराने के लिए अश्लील (जुगुप्साजनक) दोष नहीं होता। सन्दिग्ध भी जब व्याजस्तुति में पर्यवसित हो जाय तब गुण हो जाता है। वक्ता श्रोता दोनों यदि उस शास्त्र के वेत्ता हों तो अप्रतीत गुण हो जाता है। अधम प्रकृति में ग्राम्य दोष गुण है। न्यून पदता कहीं गुण हो जाती है कहीं गुण दोष दोनों नहीं होती है। इसी प्रकार अधिकपदता हर्षभयादि युक्त यदि वक्ता हो तो दोष नहीं माना जाता। कथितपदता-लाटानुप्रयास में, अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यध्वनि में, कही बात का अनुवाद करने में, गुण हो जाता है। समाप्तपुनरात्त दोष भी वहाँ नहीं होता जहाँ केवल विशेषण देने के लिए ही पुनः६२६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र आरम्भ न किया गया हो प्रत्युत वाक्यान्तर का प्रयोग हो। स्थलविशेष में अपदस्थपद समास भी, गर्भितता भी कहीं जहाँ दृढ़ प्रतीति करानी हो वहाँ गुण हो जाती है। जिस व्यभिचारी भाव की प्रतीति उसके अनुभाव द्वारा संभव न हो उसको स्वशब्द से वाच्य करने में दोष नहीं होता। प्रकृत रस विरोधी संचारीभाव या विभावानुभाव आदि का वर्णन यदि वाध्यत्वेन किया जाय तो दोष नहीं होता। रस विरोध तथा उसका परिहार रस सिद्धान्त निरूपण में दिया गया है। __यद्यपि यह स्थल उदाहरण के बिना स्पष्ट प्रतीत नहीं होता तो भी संक्षिप्त दिग्दर्शन मात्र है विशेष रूप से जानने के लिए मूल ग्रन्थ देखना चाहिए। वस्तुतः ये सारे दोष छात्रों के बुद्धि के विकास के लिए हैं दोष वस्तुतः वह है जो उद्देश्य प्रतीति का प्रतिबन्धक हो। वक्ता जिस अर्थ रस या भाव का बोध सहृदयों को कराना चाहता है, उसके शब्द या अर्थ उस भाव को सहृदयों तक प्रेषण करने में असमर्थ हों ऐसे दोषों का परिहार अत्यन्त आवश्यक है। शेष यदि वक्ता के उद्देश्य को प्रतीति कराने का प्रतिबन्धक न हों उनके परिवर्जन की आवश्यकता नहीं है। इसीलिए आनन्दवर्धन ने दो ही दोष माना है। अव्युत्पत्तिकृत तथा अशक्तिकृत। अव्युत्पत्तिकृत दोष कविशक्ति से तिरोहित हो जाता है। परन्तु अशक्तिकृत झटिति लक्षित होता है सहृदयों को उद्विग्न कर देता है उसी का परिवर्जन आवश्यक है। अलङ्कार दोष भी हैं, उनका मम्मट द्वारा निरुपित दोषों में ही अन्तर्भाव है। विश्वनाथ भी इन्हीं दोषों का वर्णन किए हैं। पं रा. जगन्नाथ भी रस दोषों और अलङ्कार दोषों का वर्णन किए हैं।