१६ ध्वनि और औचित्य सिद्धान्त

ध्वनि सिद्धान्त

ध्वनि सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य आनन्दवर्धन साहित्यशास्त्रीय गगन में अम्बरमणि के समान सदा देदीप्यमान रहेगें। इन्होंने काव्यात्मा ध्वनि का निरूपण कर सहृदयों के मनोमन्दिर में अनश्वरी प्रतिष्ठा प्राप्त की है, यद्यपि यह काव्यात्मतत्व पूर्वाचार्यों के द्वारा ही निर्दिष्ट हो चुका था, अध्ययन अध्यापन में प्रचलित भी था, तो भी उसका प्रतिपादन किसी विशिष्ट ग्रन्थ में न होने से उसका स्वरूप, उसकी बोध कराने वाली शक्ति, उसके भेद आदि सब अविवेचित थे, जिससे कभी-कभी बहुत से विद्वान् भी सन्देह के गहन अन्धकार में निमग्न हो जाते थे। ध्वनि का सर्वाङ्गीण निरूपण करने वाला इनका ध्वन्यालोक नामक ग्रन्थ तरूण रवि के समान विमल प्रकाश प्रदान कर उन सभी को आनन्दित किया। परवर्ती सभी ग्रन्थ इसके ऋणी हैं। वक्रोक्ति सम्प्रदाय की जो वक्रोक्ति है, उसका मूल सर्वप्रथम मामह के काव्यालङ्कार में मिलता है सैषा सर्वैव वक्रोक्तिरनयार्थों विभाव्यते। यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलङ्कारोऽनया विना।।’ इसे आदर पूर्वक आनन्दवर्धन ने भी उद्धृत किया है। इन्होंने सभी अलङ्कारों का मूल वक्रोक्ति को माना है। उसी को कुन्तक ने काव्य का जीवित (प्राण) मान लिया है। उक्ति वैचित्र्य, भणिति वैचित्र्य आदि का भी आनन्दवर्धन ने निरूमण किया है। आनन्दवर्धन के सुप्-तिवचन-सम्बन्धादि व्यञ्जकों को इन्होंने वक्रोक्ति संज्ञा दे दी है। महिम भट्ट ने भी व्यङ्ग्य अर्थ को यहीं से स्वीकार किया है। परन्तु उसे अनुमान से गम्य माना है। व्यञ्जना का खण्डन करके भी उसे काव्यानुमान माना है। मम्मट का काव्यप्रकाश, विश्वनाथ देव का साहित्यसुधासिन्धु, विश्वनाथ कविराज का साहित्यदर्पण, जयदेव का चन्द्रालोक, अप्पय दीक्षित का वृत्तिवार्तिक, चित्रमीमांसा, कुवलयानन्द विद्याधर की एकावली पण्डितराज का रसगगांधर आदि सभी ग्रन्थ ध्वन्यालोक से प्रभावित है। राजशेखर की काव्य-मीमांसा तो संवाद निरूपण में ध्वन्यालोक का सम्यक् अनुसरण करती है। उन्होंने अनेकशः इनको उद्धृत किया है। जैसे प्रतिभेत्यानन्दः आदि। अतः ध्वन्यालोक आकर-ग्रन्थ है। इससे अनेक सिद्धान्त तथा मत निकले है। १. काव्यालङ्कार २/८५ ध्वन्यालोक ३/३६वीं कारिका की वृत्ति

अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ५३२

ध्वनिसिद्धान्त का मूल

इस ध्वनि सिद्धान्त का मूल आजकल उपलब्ध ग्रन्थों में सर्वप्रथम भरत के नाट्य-शास्त्र में उपलब्ध होता है। भरत ने अपने रस सूत्र की वृत्ति में ‘नाना भावाभिनय व्यञ्जितान् वागमसत्त्वोपेतान्" में व्यञ्जितान् शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रसङ्ग में उद्धृत आनुवंश्य श्लोक ‘भावाभिनयसम्बद्धान् स्थायिभावांस्तथा बुधाः ‘में आये सम्बद्धान् शब्द का अर्थ ‘व्यञ्जितान्’ किया है। इससे सिद्ध होता है कि विभावानुभाव व्याभिचारिभावों का स्थायी भाव के साथ व्यङ्ग्यव्यञ्जक भाव सम्बन्ध है। अतः यहां व्यञ्जना वृत्ति है। अनन्तर इसका निर्देश भामह के काव्यलकार में भी प्राप्त होता है भरतस्त्वं दिलीपस्त्वं त्वमैलस्त्वं पुरूररवाः। त्वमेव देव प्रद्युम्नस्त्वमेव नरवाहनः।। PERMA कथमेकपदेनैव व्यज्येरन्नस्य ते गुणाः। इति प्रयुज्जते सन्तः केचिद् विस्तर भीररवः। उन्होंने कहा कि भरत में रहने वाले सारे गुणों की अभिव्यक्ति यदि किसी में एक शब्द से करनी हो तो उसे ‘भरतस्त्वं’ कहने से हो जाती है। यहां उन्होंने अन्य में भरत पद के प्रयोग को भरतनिष्ठ सारे गुणों का व्यञ्जक माना है और ‘व्यज्येरन्’ शब्द का प्रयोग किया है। उद्भट ने भी अलङ्कारों में अलङ्कारान्तर की प्रतीति, जैसे दीपक में उपमा, समासोक्ति में नायक नायकादि के व्यवहार का समारोप, पर्यायोक्त में विवक्षित अर्थ का अवगमन माना है। __इसी प्रकार लक्षणा वृत्ति का निर्देश उद्भट वामन आदि ने भी किया है। लक्षणा में एक हेतु प्रयोजन भी है, उसकी प्रतीति किस वृत्ति से होगी इसका समाधान कोई आचार्य प्रयोजन विशिष्ट में लक्षणा मान कर करते है, कुछ मौन हैं। इसी तरह रस अनुभवात्मक है वाच्य नहीं होता, फिर भी प्रतीत होता है वहां कौन सी वृत्ति है इसका विवेचन प्राचीन भामहादि वामन पर्यन्त के ग्रन्थों में नहीं है। उन लोगों ने चाहे वृत्ति निरूपण को अप्रासङ्गिक समझ कर छोड़ दिया हो, या वृत्तिज्ञान के लिये शास्त्रान्तर की शरण लेने का निर्देश दिया हो, दोनों स्थिति में एक विप्लव हुवा, मीमांसाशास्त्र, न्याय शास्त्र में व्यज्जना को शब्द वृत्ति न मानने से काव्य शब्दों से रस की प्रतीति कैसे होगी ? इस प्रश्न के समाधान में किसी ने भोजकत्व व्यापार माना किसी ने अभिधा व्यापार को दीर्घतर माना, १. नाट्य शास्त्र छठा अध्याय २. का.ल. ५/५६-६० ३. काव्यालंकार-सार-संग्रह ‘अवगमनात्मना’ ४. मुकुलभट्ट ‘अभिधावृत्तिमातृका’ ध्वनि और औचित्य सिद्धान्त ‘ध्वनि’ ५३३ किसी ने तात्पर्यवृत्ति को माना, किसी ने विचित्र अभिधा को स्वीकार किया, किसी ने रस को अनुमान गम्य माना इत्यादि विकल्प ध्वनि सिद्धान्त स्थापित हो जाने पर भी चलता रहा। यह सब उहापोह व्यज्जना को शब्द वृत्ति न मानने के कारण था जब कि व्यज्जना को अर्थवृत्ति सभी मानते हैं। घट प्रदीप में व्यङ्ग्य-व्यज्जक भाव संबन्ध मीमांसकों ने सुस्पष्ट कहा है। स्वज्ञानेनान्याधीहेतुः सिद्धेऽर्थे व्यज्जको मतः यथादीपोऽन्यथा भावे को विशेषोऽस्य कारकात् ।’ इसी तरह ‘हरीतकी आमलकी भक्षण’ को जलगत माधुर्य का व्यज्जक नैयायिक भी मानते है। किसी ने तो वृत्ति के अज्ञान के कारण अनुभव सिद्ध व्यङ्ग्य अर्थ का ही अपलाप कर दिया किसी ने अलङ्कारों में अन्तर्भाव कर लिया, कुछ लोगों ने भाक्त कह दिया और कुछ लोगों ने उसे प्रतीत होने के कारण स्वीकार तो किया, परन्तु उसके बोधकवृत्ति का निश्चय न होने के कारण (ठीक-ठीक विवेचन न हो सकने के कारण) उसे वाणी का अविषय कह दिया। ऐसी स्थिति में आचार्य आनन्दवर्धन ने असम्भावना, विपरीत सम्भावना आदि सभी शङ्का कलुष को निरस्त कर प्रमाण युक्ति पुरस्सर ध्वनि की स्थापना की और इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य हुए। परवर्ती आचार्यों ने इनका समादर किया, जो विरोध भी किये वे यथार्थता को समझ कर आदर पूर्वक इनका अनुवर्तन ही किये। इन सभी का निर्देश आचार्य ने अपने प्रथम पद्य में दिया है काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति बुधैः।। यह ध्वनि परवर्ती आचार्यों द्वारा मान्य हुआ, अध्ययन अध्यापन में पहले से था ही, अतः यह ध्वनि सम्प्रदाय कहलाया। रस भी काव्य तत्व के रूप में भरतादि द्वारा स्वीकृत था। अग्नि पुराण में भी रस को काव्य का जीवन कहा गया है विश्वनाथ ने रस को आत्मा कहा है ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ (सा.द.) इस प्रकार रस सम्प्रदाय जो पूर्ववर्ती था वह भी ध्वनि में समाहित हो गया। किन्तु त्रिविध ध्वनि में रस की ही प्रधानता इन्होंने माना है। इस रस को सभी ने चमत्कारी माना है, परन्तु भामह, दण्डी आदि ने इसे रसवत् प्रेयस् आदि अलङ्कारों में समाहित कर लिया है। इस को अलङ्कार माना है। अतः अलङ्कार सम्प्रदाय भामह से प्रचलित वामन के १. श्लोक वार्तिक साहित्य दर्पण आदि में उद्धृत २. ध्वन्या लोक १/१ ३. वाग्वैदग्ध्यप्रधानेऽपि रस एवाऽत्र जीवितम् अग्नि पु. ३३/३३ ५३४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र पूर्वतक चलता रहा, वामन ने रीति को काव्यात्मा माना। रीति विशिष्ट पदों की संघटना है, पदों में विशेषता गुण है, अतः रस को कान्ति गुण मान लिया है।’ __ इस प्रकार आनन्दवर्धन के पूर्व के तीनों सम्प्रदाय-रस, अलङ्कार, रीति, ध्वनि सम्प्रदाय में ही समाहित हो गये। रस सम्प्रदाय रस-ध्वनि में, अलङ्कार सम्प्रदाय अलङ्कार ध्वनि में या वाच्यालङ्कार में, रीति सिद्धान्त का गुण में अन्तर्भाव हुआ, गुण रस का धर्म स्वीकृत हो गया। इस प्रकार पूर्ववर्ती तीनों सम्प्रदाय ध्वनि में अन्तर्भूत हो गये, इसे ध्वनि रूप में परवर्ती सभी आचार्यों ने स्वीकृत किया, जो कुन्तक, महिम भट्ट और मुकुल भट्ट का विरोध दीखता है वह ध्वनि का विरोध नहीं है। केवल ध्वनि अर्थ का प्रतिपादन करने वाली व्यञ्जनावृत्ति का विरोध है। कुन्तक ने उसी ध्वनि को वक्रोक्ति कहा है, इसी लिये सभी ध्वनि भेदों को वक्रोक्ति में समाहित किया है। उस वक्रोक्ति की प्रतीति विचित्र अभिधा से मानी है परन्तु विचित्र अभिधा क्या है ? उन्होंने प्रसिद्ध अभिधा से भिन्न इस अभिधा को माना है अतः महिम भट्ट ने उसका भी खण्डन कर उसे अनुमान रूप माना है। परन्तु अनुमित अर्थ में चमत्कार नहीं देखा जाता अनुमित का प्रत्यक्ष अनुभव भी नहीं होता, वरन् रस में चमत्कार है इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी होता है। साथ ही हेतु और साध्य में जहां साक्षाद् व्याप्ति गृहीत है वहीं हेतु से साध्य का अनुमान होता है। इस अनुमित साध्य से पुनः दूसरे अर्थ का अनुमान नहीं होता, परन्तु व्यङ्ग्य अर्थ से भी व्यङ्ग्य अर्थ निकलता है। अतः वे तर्कानुमान से विलक्षण काव्यानुमान मानते है तो इसमें नाममात्र का विवाद है, आनन्दवर्धन उस व्यापार को व्यञ्जना कहे, कुन्तक ने विचित्र अभिधा महिम भट्ट ने काव्यानुमान कहा है। वस्तुतत्व ध्वनि को, व्यङ्ग्य को और उसे ज्ञान कराने वाली वृत्ति को सभी ने माना है। औचित्य को काव्य का जीवन मानने वाले क्षेमेन्द्र ने काव्य में रस की महत्ता स्वीकार की है। उस रस का उपनिषद् औचित्य है, अतः औचित्य को रस का जीवन माना। यह ध्वनिकार के द्वारा प्रतिपादित है अनौचित्यादृते नान्यद्रसभंगस्य कारणम् । प्रसिद्धौचित्य-बन्धस्तु रसस्योपनिषत्परा।। क्षेमेन्द्र यहीं कहते हैं कि काव्य का परम तत्व रस है और रस को औचित्य ही निष्पन्न करता है। अतः औचित्य ही काव्य का जीवन है। यह कोई अपूर्व सिद्धान्त नहीं है, पूर्वाचार्यों से प्रतिपादित है। इसका भी पर्यवसान रसादि में ही है। अतः यह सिद्धान्त भी आगे नहीं चल सका, इसी तरह सभी सिद्धान्त को ध्वनि सम्प्रदाय ने अपने में समेट १. रीति रात्मा काव्यस्य, विशिष्टपदरचना रीतिः, विशेषो, गुणात्मा का.लं. सूत्र वृत्ति १/२/६-८ २. ध्वन्यालोक ३/१७ की वृत्ति ५३५ ध्वनि और औचित्य सिद्धान्त ‘ध्वनि’ लिया, अतः ध्वनि सिद्धान्त ही परवर्ती आचार्यों द्वारा स्वीकृत हुआ, यही एक महान् सम्प्रदाय है, जो मूल में था, आज तक प्रचलित है तथा भविष्य में प्रचलित रहेगा। __ वामन ने कहा है कि काव्य अलकार से गृहीत होते हैं और वह अलङ्कार सौन्दर्य है, वह सौन्दर्य काव्य में दोषाभाव तथा गुण और अलङ्कारों के उपादान से आता है। वह सौन्दर्य आत्मधर्म ही है, उसी को स्वीकृत कर पाश्चात्यों का सौन्दर्यशास्त्र प्रचलित है __ काव्यं ग्राह्यमलङ्कारात्। सौन्दर्यमलङ्कारः। स दोषगुणाऽलङ्कारहानादानाम्याम्।।

ध्वनि

आनन्दवर्धन का मुख्य प्रतिमाद्य विषय काव्यात्मा ध्वनि है, काव्य का स्वरूप, प्रयोजन, कारण, भेद आदि इनका आनुषङ्गिक विषय था। इसका निर्देश इन्होंने कारिका के मङ्गलाचारण में ही कर दिया है-‘काव्यस्यात्मा ध्वनिः’। काव्य की आत्मा ध्वनि है। इसे सर्वथा स्वोपज्ञ नहीं माना ‘बुधैःयः समाम्नातपूर्वः’ कहा, ध्वनि शब्द का प्रयोग काव्यात्मा के लिये सर्वथा नवीन था। अतः इसका विरोध भी स्वाभाविक था, जिससे कुछ अभाववादी भी आये, कुछ काव्य के ध्वन्यमान अर्थ को समझते रहे, और वे यह भी जानते थे कि यह व्यङ्ग्य अमिधा वृत्ति से बोधित नहीं हो सकता, क्योंकि अभिधा संकेतित अर्थ का ही बोध कराती है, व्यङ्ग्य अर्थ संकेतित नहीं है। शब्द के दो ही अर्थ होते है, मुख्य और अमुख्य। मुख्य अर्थ अभिधावेद्य होता है, यह तो अभिधावेद्य नहीं, अतः अमुख्य हैं। अमुख्य अर्थ (भक्तिलक्षणा-गौणी वृत्ति) से ज्ञात होता है, अतः व्यङ्ग्य भाक्त अर्थ है। परन्तु कुछ आचार्यों ने कारण के अभाव से इसे भाक्त भी नहीं माना, अतः उन्होंने इसकी प्रतिपादक वृत्ति के अज्ञान में इसे वाणी का अविषय कहा। इन अभाववादियों में भी तारतम्य है। प्रथम पक्ष ध्वनि को समझ ही नहीं पाया उसने कहा कि यदि ध्वनि काव्य की आत्मा है तो इसे काव्य शरीर में रहना चाहिये। काव्य शरीर है शब्द और अर्थ। सामान्य शब्द और अर्थ काव्य नहीं कहलाते, अतः सिद्ध है कि चारु अर्थ तथा उसका प्रतिपादन करने वाले चारु शब्द ही का काव्य है। यह चारुता दो प्रकार की होती है। स्वरूपनिष्ठ और संघटनाश्रित । इसमें शब्द में स्वरूप निष्ठ चारुता लाने वाले अनुप्रासादि शब्दालङ्कार है। शब्द में संघटनाश्रित चारुता लाने वाले शब्द गुण है, अर्थ में संघटनाश्रित चारुता के हेतु अर्थ गुण है। अर्थ में स्वरूप निष्ठ चारुता के हेतु अर्थालङ्कार हैं। उपनागरिकादि वृत्तियां भी काव्य में है। वे भी अनुप्रास के ही भेद है। रीतियां भी हैं वे गुण स्वरूप ही है, इस प्रकार गुण अलङ्कार आदि से भिन्न यह ध्वनि क्या है ? दूसरे ने कहा ध्वनि है ही नहीं, क्योकि काव्य-प्रस्थान प्रसिद्ध हैं। वे हैं ‘शब्द-अर्थ-गुण-अलङ्कार’ १. का.ल. सूत्र वृत्ति १/१/१-३५३६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र इनसे अतिरिक्त यदि ध्वनि को काव्य का प्रकार मानोगे तो काव्यत्व की हानि हो जायगी। कुछ लोग ध्वनि को मानने वाले अपने को सहृदय घोषित कर यदि ध्वनि को काव्य का प्रकार मानें तो भी वह सकल विद्वानों को हृदयङ्गम न होने से मान्य नहीं होगा। तीसरे अभाववादी कहते है कि यदि काव्य का कोई लेशतः प्रकार ध्वनि है भी तो कोई अपूर्व वस्तु नहीं है, क्योंकि यदि वह काव्य में है तो उसे चारुताधायक होना चाहिये। अतः चारुताधायक तत्त्वों में गुणालङ्कारों में उसका अन्तर्भाव कर देना चाहिये। क्योंकि वाग्विकल्प अनन्त है, वे ही अलङ्कार हैं, वे आज भी निर्मित हो रहे हैं तो ध्वनि नामक एक और अलङ्कार का यदि किसी ने अविष्कार किया तो इसमें बहुमान की क्या बात है ? इस असम्भावना और विपरीत सम्भावना को दूर करने के लिये ध्वनि का स्वरूप निरूपण करने के लिए भूमिका रचते हुवे आनन्दवर्धन कहते हैं __ काव्य का शब्द और अर्थ शरीर है, इसमें जो अर्थ है उसके दो भेद हैं- वाच्य और प्रतीयमान। यह प्रतीयमान अर्थ वाच्य अर्थ से भिन्न है यह महाकवियों की वाणी में ही होता है। यह ललना के लावण्य के समान सभी गुणालङ्कारादि प्रसिद्ध अवयवों से अतिरिक्त है, वह वाच्य अर्थ नहीं है, अपितु वाच्य सामर्थ्य से आक्षिप्त है। वह वस्तु अलङ्कार, रसादि रूप अनेक प्रभेद वाला है। सभी भेद वाच्य से भिन्न है, कहीं वाच्य अर्थ निषेध रूप होता है वहाँ व्यंग्य विधि रूप होता है, जैसे ‘भ्रम धार्मिक विश्रब्धः इत्यादि’ में अर्थ भ्रमण की विधि है, व्यङ्ग्य अर्थ भ्रमण का निषेध है। अतः वाच्य व्यंग्य का स्वरूप भेद है। इसी प्रकार कहीं वाच्य निषेध रूप है, व्यंग्य विधिरूप है, कहीं वाच्य विधि या निषेधरूप है व्यङ्ग्य अनुभय रूप है। अतः वाच्य से भिन्न प्रतीयमान अर्थ है। रसादि रूप ध्वनि तो वाच्य से सर्वथा भिन्न है, रस को वाच्य तब कहा जा सकता है जब वह रस शब्द से अथवा शृङ्गारादि शब्द से प्रतीत होता हो, वह तो विभावादि के प्रतिपादन द्वारा ही प्रतीत होता है, कहीं रसादि शब्द का प्रयोग है भी तो वहाँ भी रस की प्रतीति विभावादि के द्वारा ही होती है। रस शब्द केवल उसका अनुवाद मात्र कर देता है। क्योंकि जिस काव्य में शृगारादि या रस शब्द का प्रयोग नहीं है, केवल विभावादि का प्रतिपादन है, वहां रस की प्रतीति होती है जहां विभावादि का प्रतिपादन नहीं है, केवल रस या शृङ्गार शब्द का प्रयोग है, वहां रस की प्रतीति नहीं होती। इस अन्वय-व्यतिरेक से सिद्ध है कि रस वाच्य नहीं होता, वह वाच्य सामर्थ्याक्षिप्त होता है। वाच्य-विभावादि के सामर्थ्य व्यञ्जना व्यापार से आक्षिप्त व्यङ्ग्य होता है। __ यह प्रतीमान अर्थ ही काव्य की आत्मा है। व्याध द्वारा क्रौञ्ची के मारे जाने पर उसके विरह से कातर क्रौञ्च का विलाप सुन कर उबुद्ध हुआ बाल्मीकि का शोक ही ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः सभाः’ इत्यादि श्लोक रूप में परिणत हुआ। STORaman १. वाल्मीकि रामायाण ध्वनि और औचित्य सिद्धान्त ‘ध्वनि’ ५३७ __ इस प्रतीयमान की प्रतीति केवल शब्द शास्त्र (व्याकरण) अर्थशास्त्र (न्याय-मीमांसादि) के ज्ञान मात्र से नहीं होता। उसको केवल काव्यार्थतत्वज्ञ सहृदय या विदग्ध ही जानते है। यदि वह वाच्य होता तो इसे वाच्य-वाचक जानने वाले भी जानते । वही प्रतीयमान अर्थ और उसको अभिव्यक्त करने में समर्थ कोई व्यञ्जक शब्द ही महाकवियों के शब्द और अर्थ हैं। वाच्य-वाचक तो केवल उस प्रतीयमान अर्थ की प्रतीति का साधन है, जैसे प्रकाश की इच्छा से पहले तैलवर्ती आदि के द्वारा दीपशिखा को उत्पन्न किया जाता है। क्योंकि दिपशिखा ही प्रकाश का साधन है। वैसे प्रतीयमान अर्थ का साधन है वाच्य और वाचक, अतः कविगण प्रथम वाच्य-वाचक का प्रयोग करते है। जैसे पदार्थ ज्ञान द्वारा ही वाक्यार्थ की प्रतीति होती है, वैसे ही वाच्यार्थ ज्ञान पूर्वक व्यङ्ग्यार्थ की प्रतीति होती है। जैसे पदार्थ आकाङ्क्षादि सामर्थ्य से वाक्यार्थ की प्रतीति करा कर वाक्यार्थ से पृथक प्रतीत नहीं होता, वैसे ही सहृदयों की तत्त्वार्थ-दर्शिनी बुद्धि में प्रतीयमान अर्थ शीघ्र ही प्रतीत हो जाता है। सहृदर्यो की बुद्धि वाच्यार्थ मात्र से सन्तुष्ट नहीं होती। इस प्रकार सिद्ध हुआ कि वाच्य से अतिरिक्त व्यङ्ग्य अर्थ है।

ध्वनिलक्षण

ध्वनि का लक्षण करते हुए आनन्दवर्धन ने कहा है- जिस काव्य में अर्थ अपने स्वरूप को और शब्द अपने अर्थ को गौण बना कर उस चमत्कारी प्रतीयमान अर्थ को प्रधान रूप से व्यक्त (व्यञ्जना द्वारा प्रकाशित) करते हैं, वह काव्यविशेष ध्वनि है। ऐसा काव्य तत्त्वार्थदर्शी विद्वानों द्वारा कहा गया है। __इसमें वाच्य-वाचक अप्रधान हो जाते है व्यङ्ग्य अर्थ ही प्रधान होता है, तो वाच्य-वाचक में चारुता के हेतु उपमा-अनुप्रासादि तथा शब्द गुण अर्थगुण से अतिरिक्त ही ध्वनि सिद्ध होता है। अलकार तो वाच्य-वाचक को ही प्रधान बनाते है और वाच्य-वाचक ध्वनि को, अतः ध्वनि पृथक् है। अलङ्कार जो वाच्य-वाचक का अङ्ग हैं, उनमें इसका अन्तर्भाव नहीं हो सकता। इस प्रकार प्रथम अभाववादी का खण्डन हो गया। दूसरे अभाववादी ने कहा है कि ध्वनि को काव्य का प्रकार मानने से काव्यत्व की हानि हो जायेगी। क्योंकि काव्य का प्रस्थान प्रसिद्ध है। वह शब्द, अर्थ, गुण, अलङ्कार है। ध्वनि काव्य नहीं हो सकता। इसका समाधान है कि ध्वनि केवल लक्षण ग्रन्थ बनाने वालों को ही अज्ञात रहा है, लक्ष्य रामायणादि की परीक्षा करने पर वहीं काव्यतत्त्व सिद्ध होता है। ध्वनि से भिन्न तो काव्य है ही नहीं। वह चित्र है। तृतीय अभाव वाद के खण्डन में कहा गया कि ध्वनि का अलङ्कारों में अन्तर्भाव भी नहीं हो सकता। ध्वनि में व्यंग्य-व्यञ्जक भाव सम्बन्ध मूल है, उसका वाच्य-वाचक में चारुता लाने वाले अलङ्कारों में अन्तर्भाव कैसे हो सकता है ? Tm.. १. ध्वन्यालोक-१/१३ ‘यत्रार्थः शब्दोवा तमर्थमुपसर्जनीकृत-स्वार्थों। व्यक्तः काव्य विशेषःस ध्वनिरिति सूरिभिः कथितः।। (१/१३)

५३८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

ध्वनि का अलङ्कारों में अन्तर्भाव का खण्डन

जिन उपमाऽनुप्रासादि अलङ्कारों में प्रतीयमान अर्थ की विशद रूप से प्रतीति नहीं होती, वे अलङ्कारध्वनि का विषय न हो, किन्तु जिन अलङ्कारों में व्यंग्य अर्थ की स्फुट प्रतीति है, जैसे-समासोक्ति, आक्षेप, अनुक्तनिमित्ता विशेषोक्ति, पर्यायोक्त, अपह्नुति, दीपक, सकरालङ्कार आदि में व्यङ्ग्य अर्थ स्फुट प्रतीत होता है, उनमें ध्वनि का अन्तर्भाव हो जायगा। इस शङ्का के समाधान के लिये ध्वनि लक्षण में ‘उपसर्जनीकृतस्वार्थी’ यह पद शब्द और अर्थ के विशेषण रूप से प्रयुक्त है, अर्थात् जिस काव्य में अर्थ अपने स्वरूप को और शब्द अपने अर्थ को गौण (अप्रधान) बना कर व्यंग्य अर्थ को (प्रधान रूप से) व्यक्त करते है, वह ध्वनि कहलाता है। __समासोक्ति आदि अलङ्कारों में व्यङ्ग्य अर्थ की प्रधानता नहीं होती। अतः ध्वनि का उन अलङ्कारों में अन्तर्भाव कैसे हो सकता है, क्योंकि समासोक्ति में व्यङ्ग्य से अनुगत वाच्य अर्थ की ही प्रधानता होती है। ‘उपोढरागेण विलोलतारकं’ इत्यादि समासोक्ति के उदाहरण में निशा और शशि अर्थ वाच्य है, उसमें क्रमशः आरोपित नायिका नायक व्यवहार व्यङ्ग्य है। उस व्यङ्ग्य अर्थ से उपस्कृत वाच्य अर्थ की ही प्रधानता है। क्योंकि यहां चन्द्रोदय वर्णन का प्रसङ्ग है। व्यङ्ग्य अर्थ गौण है, अतः यह गुणीभूत व्यङ्ग्य है, ध्वनि काव्य नहीं। आक्षेप में भी व्यङ्ग्यविशेष का आक्षेप करने वाले वाच्य अर्थ की ही चारुता है, अतः वही प्रधान हैं। क्योंकि जिसमें चारुता का उत्कर्ष होता है वही प्रधान होता है। जैसे ‘अनुरागवती सन्ध्या’-इस काव्य में वर्णित संध्या में नायिकात्व और दिवस में नायकत्व का आरोप व्यङ्ग्य है। परन्तु व्यङ्ग्य से उपस्कृत वाच्यार्थ-सन्ध्या-दिवस का समागमाभाव रूप अर्थ ही चमत्कारी होने से प्रधान है, व्यङ्ग्य प्रधान नहीं है। अतः यह भी गुणीभूतव्यङ्ग्य है ध्वनि नहीं। आक्षेप में ‘आक्षेप’ नाम से ही प्रतीत हो रहा है कि यहां आक्षेपालङ्कार की प्रधानता है व्यङ्ग्य की नहीं जैसे दीपक और अपह्नुति में उपमालङ्कार व्यङ्ग्य रूप से प्रतीत होता है, तो भी वह प्रधान रूप से विवक्षित नहीं होता, अतः उसे उपमा नहीं कहते, दीपक और अपह्नुति ही कहते है, अनुक्त-निमित्ता विशेषोक्ति ‘आहूतोऽपि सहायैः’ में व्यङ्ग्य अर्थ शीत के कारण अथवा स्वप्न में नायिका के समागम के कारण (पथिक के सड़कोच को न छोड़ने में) की प्रकरण वश प्रतीति मात्र होती है, उसमें कोई चास्ता नही होती अतः प्रधानता नहीं है। पर्यायोक्त में यदि व्यङ्ग्य अर्थ की प्रधानता हो तो पर्यायोक्त का ध्वनि में अन्तर्भाव किया जा सकता है, न कि ध्वनि का पर्यायोक्त में, क्यों कि ध्वनि महाविषय है और अङ्गी है। अगी काअन्तर्भाव नहीं होता। सकरालकार में जहाँ दो अलङ्कारों में अनुग्राह्यानुग्राहक भाव हो, वहाँ अनुग्राहक व्यंग्य होता है। वह अनुग्राहक वाच्यालङ्कार की कान्ति को पुष्ट करता है अतः व्यङ्ग्य की प्रधानता न होने से वह ध्वनि का विषय नहीं होता। ध्वनि और औचित्य सिद्धान्त ‘ध्वनि’ ५३६ सन्देह-संकर में दोनों अलङ्कारों की समान रूप से प्रधानता होती है। अतः वह तुल्य प्राधान्य रूप गुणीभूत व्यङ्ग्य है ध्वनि नहीं। जिस सकरालङ्कार में वाच्यालङ्कार अप्रधान हो, व्यङ्ग्य प्रधान रूप से प्रतीत हो तो वह भी ध्वनि का विषय होता है, केवल वही ध्वनि नहीं है। अप्रस्तुत प्रशंसा में भी जहां सामान्य-विशेष-भाव या निमित्त-नैमित्तिक भाव होता है वहां वाच्य अप्रस्तुत का प्रतीयमान प्रस्तुत के साथ सम्बन्ध होता है। वहाँ वाच्य और व्यङ्ग्य की समान रूप से प्रधानता होती है, वह तुल्यप्राधान्य गुणीभूत व्यङ्ग्य का विषय है। जब सामान्य रूप अप्रस्तुत वाच्य का प्राकरणिक विशेष जो व्यङ्ग्य है, उसके साथ सम्बन्ध होता है, वहां विशेष की प्रधानता होती है, तो उस सामान्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध होने से सामान्य की भी प्रधानता होती है। जब विशेष सामान्य निष्ठ होता है, तब भी सामान्य की प्रधानता होने पर सामान्य में सभी विशेष का अन्तर्भाव होने से विशेष की भी प्रधानता होती है। निमित्त-निमित्ती भाव में भी यही न्याय है। जहां सारूप्य (तुल्य से तुल्य का कथन करने) के कारण अप्रस्तुत प्रस्तुत का सम्बन्ध होता है वहां भी अप्रस्तुत ‘तुल्यवाच्य’ की प्रधान रूप से विवक्षा न हो तो उसका ध्वनि में अन्तर्भाव हो जायगा। अन्यथा वह अलङ्कारान्तर ही होगा। सारांश यह है कि जहां व्यङ्ग्य अर्थ अप्रधान होता है, वाच्यमात्र का अनुयायी होता है, वहां समासोक्त्यादि वाच्यालंकार स्फुट है। जहां व्यङ्ग्य अर्थ का प्रतिभास मात्र हो या व्यङ्ग्य वाच्यार्थ का अनुगमन करता तो वहां ध्वनि नहीं होता, वहां वाच्यालङ्कार होता है। जहां शब्द और अर्थ व्यङ्ग्य परक हो कर प्रधान रूप से व्यङ्ग्य अर्थ को व्यक्त करते हो वहीं ध्वनि का विषय मानना चाहिये, सकर के विषय को छोड़ कर। __ अतः ध्वनि का अलङ्कारों में अन्तर्भाव नहीं हो सकता। क्योंकि ध्वनि काव्य विशेष अगी है। अलङ्कार, गुण, वृत्तियां उसका अङ्ग है। अवयव अलग होकर अवयवी नहीं हो जाता। यदि अलग नहीं है तो वह अवयव है ही। इस ध्वनि का निरूपण विद्वानों ने किया है, अन्यथा प्रवृत्त नहीं है।

ध्वनिशब्द प्रयोग का मूल

ध्वनि शब्द प्रयोग का मूल यह है कि व्यङ्ग्य व्यंजकभाव में ध्वनि शब्द का प्रयोग वैयाकरणों ने किया है। ये वैयाकरण प्रथम (प्रमुख) विद्वान् है, क्योंकि समस्त विद्याओं का मूल व्याकरण शास्त्र ही है। वे शक्त्याश्रय (अर्थ बोधक) स्फोट रूप व्यङ्ग्य के व्यञ्जक श्रूयमाण वर्गों में ध्वनि शब्द का प्रयोग करते है। इसको भाष्यकार ने ‘अथवा प्रतीतपदार्थको लोके ध्वनिः शब्द इत्युच्यते" कहा है। भर्तृहरि ने भी कहा’ है यः संयोगविभागाम्यां करणैरूपजन्यते १. व्याकरण महाभाष्य-पस्पशानिक .." ५४० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र स स्फोटः शब्दजाः शब्दा ध्वनयोऽन्यैरूदाहृताः।।’ __यहाँ कर्णशष्कुली तक आने वाले शब्दज शब्द को ध्वनि कहा गया है। यह शब्दज शब्द घण्टानुरणनवत् है। अतः अनुरणनरूप व्यङ्ग्य अर्थ ध्वनि है। तथा ध्वनि प्रसिद्ध उच्चारण व्यापार से अधिक है द्रुतविलम्बितादि वृत्ति भेद स्वरूप है। अतः शब्द के प्रसिद्ध व्यापार अभिधा-तात्पर्य लक्षणा से भिन्न व्यञ्जना व्यापार भी ध्वनि है। इस प्रकार वैयाकरण मतानुसारी आलङ्कारिक विद्वान्, जो काव्य के तत्त्व भूत अर्थ के द्रष्टा हैं, वे भी वाच्य अर्थ, वाचक शब्द व्यङ्ग्य अर्थ व्यञ्जना व्यापार और ध्वनि काव्य को ध्वनि शब्द से कहे हैं ‘प्रत्ययैरनुपारव्येयैः ग्रहणानुगुणैस्तथा। ध्वनिप्रकाशिते शब्दे स्वरूपमवधार्यते। शब्दस्योर्ध्वमभिव्यक्तेर्वृत्तिभेदे तु वैकृताः। ध्वनयः समुपोहन्ते स्फोटात्मा तैनभिद्यते।। ‘वाच्य-वाचक-सम्मिश्रः शब्दात्मा काव्यमिति व्यपदेश्यो व्यञ्जकत्वसाम्याद् ध्वनिः।। लोचन कार ने ध्वनि शब्द की व्याख्या पांच प्रकार से की है-१. ध्वनतीति ध्वनिः-व्यञ्जक शब्द, व्यञ्जक अर्थ (ध्वननकर्ता), २. ध्वन्यतेऽसौ इति ध्वनिः-ध्वनित होने वाला व्यंग्य अर्थ, ३. ध्वननं ध्वनिः-ध्वनन व्यापार-व्यञ्जना, ४. ध्वन्यतेऽस्मिन्निति ध्वनः काव्यम् काव्य विशेषो ध्वनिः । इन सबमें व्यञ्जकता है। __ इस ध्वनि का जो वक्ष्यमाण भेद-प्रभेद गणना से महा विषय है। उसका प्रकाशन अप्रसिद्ध अलङ्कार विशेष के सदृश नहीं है। इस प्रकार अभाववादियों एवम् अन्तर्भाव वादियों का मत खण्डित करके आनन्दवर्धन ध्वनि का भेद निरूपण करते है। ध्वनि अविवक्षित वाच्य विवक्षितान्य परवाच्य-दो प्रकार की है। इन्हीं को लक्षणामूल, अभिधामूल भी कहते है। उसमें अविवक्षित वाच्य का ‘सुवर्णपुष्पां पृथ्वी चिन्वन्ति’ इत्यादि उदाहरण है। यहां ‘सुवर्णमेव पुष्पंयस्याः सा’ = सुवर्ण ही है फूल जिसका यह अर्थबाधित है। पृथ्विी में सुवर्ण का फूल नहीं फूलता, अतः वाच्य अर्थ अविवक्षित है। वह सादृश्य सम्बन्ध से शूरादिकों की समृद्धि सुलभता को लक्षित करता है, शूरादिकों की प्रशस्तता की प्रतीति, प्रयोजन है। यहां शब्द प्रधानतया व्यञ्जक है, अर्थ सहकारी है। यहां शब्द का चार व्यापार कार्यकारी होते है। अभिधा से वाच्यार्थ की प्रतीति, तात्पर्य से वाक्यार्थ की प्रतीति होने पर मुख्यार्थ बाध होने से, लक्षणावृत्ति से लक्ष्यार्थ का बोध होता है। अनन्तर व्यञ्जना से प्रयोजन की प्रतीति होती है। १. वाक्यपदीय २. वाक्यपदीय, लोचन में उदघृत। ३. ध्वन्या लोक उ. लोचन । उ०॥ ४. ल *0.40258 ५४१ ध्वनि और औचित्य सिद्धान्त ‘ध्वनि’ विवक्षिताऽन्य-पर-वाच्य का उदाहरण है-‘शिखरिणी क्व नु नाम कियच्चिरं’ अर्थात् हे सुमुखि किस पर्वत पर कितने दिन तक कौन सा तप इस शुक-शावक ने किया है, जिससे तुम्हारे अधर के समान लाल वर्ण वाले बिम्ब फल को दशता अर्थात चूमता है, उसका स्वाद लेता है। इससे व्यङ्ग्य है कि निर्विघ्न सिद्धि देने वाले श्री पर्वत आदि, दिव्य सहन कल्पकाल पञ्चाग्नि सेवन प्रभृति तप भी यह सिद्धि नहीं दे सकते, जिससे तुम्हारे अधर के सदृश बिम्ब फल का दंशन कर सके। तो अधर सदृश के स्वाद में जब इतना पुण्य अपेक्षित है तो तुम्हारा अधर तो इससे भी अधिक पुण्यातिशय लभ्य है। यहां तीन व्यापार है-अभिधा, तात्पर्य, व्यञ्जना। इस चाटुकारिता द्वारा अनुरागी नायक अपना अभिप्राय भी व्यक्त कर रहा है।

भाक्त-वाद का खण्डन

ध्वन्यालोक में तीन कारिकाओं द्वारा किये गये समाधान से प्रतीत होता है कि तीन प्रकार की शङ्कायें है। चौदहवीं कारिका में भक्ति और ध्वनि की एकता का तथा भक्ति ध्वनि का लक्षण है-इन दोनों का निषेध किया गया है। १५वीं कारिका में भक्ति ध्वनि का उपलक्षण है- इसका निषेध कर किसी ध्वनिभेद का उपलक्षण भक्ति को माना गया है। और ‘भाक्तमाहुस्तमन्ये’-इस पद्य में ध्वनि को भाक्त = लक्षणा जन्य अर्थ माना गया है। यह तब सिद्ध होगा-जब ध्वनि (प्रधान व्यङ्ग्य अर्थ) की प्रतीति कराने वाली वृत्ति लक्षणा हो। अतः यह प्रश्न होता है। कि क्या भक्ति और ध्वनि (व्यञ्जना) इन्द्रः, शक्रः इत्यादि पर्यायवाची शब्द के समान एक है, अथवा जैसे पृथिवीत्व पृथिवी का दूसरे से भेद बताने वाला धर्म होने से लक्षण है, उसी प्रकार क्या भक्ति ध्वनि का लक्षण है? अथवा जैसे-‘काकवन्तो देवदत्तस्य गृहाः’ में काक जैसे देवदत्त के घर का उपलक्षण है उसी प्रकार कदाचित् सम्भव होने से भक्ति ध्वनि का उपलक्षण है। __इसका समाधान करते है कि भक्ति और ध्वनि का रूप भिन्न-भिन्न है। अतः भक्ति और ध्वनि एक नहीं हो सकते। जहां वाच्य से भिन्न अर्थ का वाच्यवाचक के द्वारा प्रयोजन रूप में प्रकाशन किया जाय वहां उस व्यङ्ग्य अर्थ की प्रधानता में ध्वनि होता है और भक्ति उपचार मात्र है। जिस शब्द का जिस अर्थ में व्यवहार प्रसिद्ध है, उस अर्थ को छोड़ कर उससे सम्बद्ध अन्य अर्थ में उस शब्द का व्यवहार करना उपचार-अतिशयित व्यवहार कहलाता है। यह भक्त ध्वनि का लक्षण भी नहीं हो सकती। भक्ति को ध्वनि का लक्षण मानने पर अति व्याप्ति और अव्याप्ति दोष आ जायेगा। क्योंकि जहां ध्वनि नहीं है वहां भी भक्ति होती है। दूसरे शब्दों से जिसका प्रकाशन करना असम्भव है, ऐसी चारुता का प्रकाशन करने वाला व्यञ्जक शब्द ध्वनि कहलाता है। रूढि लक्षणा में तो व्यङ्ग्य रहता ही नहीं, प्रयोजन-वती में भी जहां व्यङ्ग्य अर्थ में विशेष चास्ता नहीं है वहां भी कवि लक्षणा वृत्ति से शब्द प्रयोग करते हुए देखे जाते है, जैसे “- " '

AT-.- +FT- H T TP. ५४२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ‘कृशाङ्ग्याः सन्तापं वदति विसिनीपत्रशयनम्।’ __कमलिनी के पत्ते की शय्या कृशाङ्गी के सन्ताप को कह रही है। यहां कहना चेतन का धर्म है, शय्या में बाधित है, अतः स्फुट-प्रकट करने के अर्थ में उसकी लक्षणा है, स्फुट प्रतीति कराना प्रयोजन है। परन्तु प्रयोजन निधि के समान गूढ होना चाहिये। यह स्फुट है। यहां इसको स्व शब्द से वाच्य करने में क्या अचारुता है। अतः यह अगूढ़ व्यङ्ग्य है, ध्वनि नहीं। परन्तु लक्षणा है। इसी तरह लावण्य आदि शब्दों का सौन्दर्य अर्थ में प्रयोग करने पर रूढि लक्षणा है, परन्तु प्रयोजन रूप व्यङ्ग्य नहीं है, अतः ध्वनि का विषय नहीं है। __अति सुन्दर अर्थ जो दूसरे शब्दों से कहा न जा सके ऐसे अर्थ का प्रतिपादन प्रयोजन कहलाता है, उसके लिए लाक्षणिक शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह शब्द लक्ष्यार्थ प्रतिपादन में असमर्थ होता है, परन्तु प्रयोजन प्रतिपादन में असमर्थ नहीं होता। वाच्य वाचक भाव रूप अभिधा व्यापार द्वारा मुख्यार्थ प्रतीत हो कर जब बाधित हो जाता है तब लक्षणा प्रवृत्त होती हैं। वह व्यंग्य-व्यंजक भाव मूलक ध्वनि का लक्षण कैसे हो सकती है। अतः ध्वनि अन्य है गौणी वृत्ति अन्य है। यदि लक्षणा को ध्वनि का लक्षण माना जाय तो अव्याप्ति दोष भी हो जायगा। ध्वनि का प्रभेद केवल अविवक्षित वाच्य ही नहीं है, विवक्षितान्यपर वाच्य तथा अन्य भी बहुत से भेद है, जहां लक्षणा नहीं होती। अतः भक्ति ध्वनि का लक्षण नहीं हो सकती। केवल किसी ध्वनि भेद का उपलक्षण भक्ति हो सकती है। जहां प्रयोजनवती लक्षणा होती है वहां लक्षणोपलक्षित ध्वनि भी है।

अनाख्येयवाद का निराकरण

इस प्रकार ध्वनि का सामान्य लक्षण और विशेष लक्षण प्रतिपादित कर देने पर भी यदि ध्वनि वाणी का अविषय है तो, शास्त्रीय या लौकिक सभी पदार्थ वाणी के अविषय हो जायेगे। यदि वे ध्वनि सहृदय हृदय संवेद्य है वाणी का विषय नहीं-‘इस अतिशयोक्ति द्वारा ध्वनि का अन्य काव्यों की अपेक्षा उत्कृष्ट स्वरूप प्रतिपादन करना चाहते हैं तो वे भी युक्त ही कह रहे हैं।’

ध्वनि भेद

पहले ध्वनि का दो भेद बताया गया है-अविवक्षितवाच्य और विवक्षितान्यपर वाच्य। अब प्रभेद का निरूपण किया जा रहा है-२ अविवक्षित वाच्य लक्षणामूल ध्वनि दो प्रकार का है अर्थान्तरसङ्क्रमित वाच्य अत्यन्त तिरस्कृत वाच्य। विवाक्षिताऽन्यपरवाच्य (अभिधामूल) ध्वनि भी दो प्रकार का है असंलक्ष्यक्रम-व्यङ्ग्य, संलक्ष्य-क्रम-व्यङ्ग्य। उसमें रसभाव, रसाभास, भावाभास, भावशान्ति भावोदय, भावसन्धि, भाव-शबलता असंलक्षयक्रम व्यङ्ग्य है, ये अङ्गीरूप (प्रधान रूप) से प्रकाशित होते हुए ध्वनि की आत्मा है। इस रस भाव आदि का भामह, दण्डी आदि द्वारा १. २. ध्व. लो. प्र. उ. वही द्वि, उ.

.. .- .-.-:.:— ध्वनि और औचित्य सिद्धान्त ‘ध्वनि’ ५४३

SHAS PREकामER – प्रोक्त रसवदादि अलङ्कारों से भेद है। जहां वाच्यवाचक और इनके चारुता के हेतु गुण और अलङ्कार रस, भाव, रसाभास, भावाभास, भावशान्ति आदि प्रधान अङ्गी का अनुवर्तन (उत्कर्ष) करते हुए विद्यमान हो, उस काव्य को ध्वनि कहते हैं। और जिस काव्य में वाक्यार्थ प्रधान हो, रसादि अङ्गभूत हो वह काव्य रसादि अलङ्कार का विषय है। इस प्रकार रसध्वनि और उपमादि अलंकार तथा रसवदादि अलङ्कार के विषय पृथक्-पृथक् हो गये। कुछ लोग ऐसा मानते है कि रस और भाव चित्त वृत्ति विशेष है, इनका अनुभव चेतन ही कर सकता है। अतः जहां चेतन वस्तु का वर्णन प्रधान होगा वहां रसादि अलङ्कार होता है। यदि ऐसा माना जाय तो उपमादि अलङ्कार या तो निर्विषय हो जायगे या प्रविरल विषय हो जायेगे। क्योंकि अचेतन वस्तु का वर्णन जहां प्रधान वाक्यार्थ है वहां भी चेतन वस्तु का वृत्तान्त किसी न किसी रूप में जोड़ा ही जाता है। अतः सर्वत्र रसादि अलङ्कार ही होगे, उपमादि अलङ्कार निर्विषय हो जायगें। यदि अचेतन वस्तु वृत्त प्रधान होने पर उपमादि ही मानेगे, रसादि नहीं, तो रस का निधिभूत महान काव्य प्रबन्ध नीरस हो जायेगे और चेतन वस्तु-वृत्तान्त योजना में यदि रसादि मानेगे तो प्रायः सर्वत्र रसादि अलङ्कार ही होगे। उपमादि प्रविरल या निर्विषय हो जायेगे। अतः जहां रसादि अङ्गी होगे वहां वे अलङ्कार्य होंगे जहाँ अङ्ग बन जाते है वहां रसादि अलङ्कार कहलायेगे। संलक्ष्यक्रम व्यङ्ग्य भी दो प्रकार का होता है-शब्दशक्तिमूल, अर्थशक्तिमूल। शब्द शक्तिमूल अलङ्कार ध्वनि एक प्रकार का होता है, अर्थशक्ति मूल आठ प्रकार का होता है। क्योंकि व्यञ्जक अर्थ दो प्रकार का है-प्रौढोक्ति मात्र निष्पन्न शरीर तथा स्वतः-सम्भवी। ये दोनों वस्तु और अलङ्कार रूप होते हैं। अतः चार प्रकार के हुए। इन चारों से वस्तु अलंकार व्यङ्ग्य होते है, अतः आठ प्रकार का अर्थशक्तयुद्भव हुआ इस प्रकार अविवक्षित वाच्य दो प्रकार का, विवक्षितान्यपर वाच्य असंलक्ष्यक्रम रसादि रूप एक प्रकार का, संलक्ष्य-क्रम शब्दशक्युद्भव एक प्रकार का अर्थशक्त्युभव आठ प्रकार का हुआ। पुनः अविवक्षित वाच्य और विवक्षितान्यपर वाच्य के प्रत्येक भेद पद प्रकाश और वाक्य प्रकाश भेद से दो प्रकार के है। असंलक्ष्य क्रम व्यङ्ग्य ध्वनि वर्णपद-पदैकदेश वाक्य-सङ्घटना-प्रबन्ध निमित्तक भी प्रकाशित होता है, अतः छः भेद हुवा, इस प्रकार सङ्कलन से ध्वनि के छत्तीस भेद हुए। अविवक्षित वाच्य-१. अर्थान्तर सङ्क्रमित, २. अत्यन्ततिरस्कृत। दोनों पद-प्रकाश, वाक्य प्रकाश भेद से चार प्रकार का हुआ विवक्षितान्य पर वाच्य का शब्दशक्त्युद्भव पद प्रकाश वाक्य प्रकाश दो प्रकार का हुआ। अर्थ शक्त्युदभव के पूर्वोक्त आठों प्रकार का पद-वाक्य-प्रबन्धप्रकाश होने से ८ x ३ = २४, असंलक्ष्यक्रम के पूर्वोक्त छः, इस प्रकार कुल छत्तीस भेद हुए, लोचनकार पैतीस ही भेद माने है, वे रसादि का व्यञ्जक ५ ही माने है, पदैकदेश को अलग नहीं माने है (द्रष्टव्य तृतीय उद्योत ध्व. लों की ३१वीं कारिका की भूमिका का लोचन) हम यह पहले कह

अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र आये है कि व्यङ्ग्य अर्थ प्रधान होता है, तो ध्वनि कहलाता है। यह अप्रधान (उपसर्जन) हो जाता है, तब गुणीभूतव्यङ्ग्य कहलाता है जहां यह कवि विवक्षित नहीं होता वहाँ चित्र कहलाता है।

आचार्य मम्मट

इस ध्वनि का मम्मट ने १०,४५५ भेद किया है। ध्वनि दो प्रकार का है- अविवक्षित वाच्य (लक्षणामूल) विवधिताऽन्यपरवाच्य (अभिधामूल) अविवक्षित वाच्य के दो भेद-अर्थान्तरसङ्क्रमित, अत्यन्ततिरस्कृत। विवक्षिताऽन्यपरवाच्य के दो भेद-असंलक्ष्यक्रम, संलक्ष्यक्रम। __असंलक्ष्यक्रम-रस, भाव, रसाभास, भावाभास, भावशान्ति, भावोदय, भावसन्धि, भाव शबलता आदि, इनके अनन्त भेद होने से गणना असम्भव है, अतः सब में असंल्लक्ष्यक्रमत्व रूप एक धर्म होने से एक प्रकार का ही माना गया। __संलक्ष्यक्रम-तीन प्रकार का है-शब्दशत्त्युद्भव, अर्थशक्त्युभव, उभयशक्त्युद्भव। इसमें प्रमाण है-‘शब्दार्थ-शक्त्याक्षिप्तोऽपि’ इस ध्वनि कारिका की वृत्ति ‘शब्दशक्त्या, अर्थशक्त्या, उभयशक्त्या वा।” परन्तु उभय शक्त्युद्भव को कतिपय आचार्य शब्द शक्युद्भव के ही अन्तर्गत स्वीकार किए हैं उनका तर्क है कि शब्दशक्त्युद्भव में सभी शब्द व्यर्थक नहीं होते। कुछ एकार्थक भी होते हैं। अतः शब्दशक्ति में अर्थ शक्ति भी रहती ही है। शब्दशक्त्युदभव-वस्तु रूप, अलङ्कार रूप व्यङ्ग्य भेद से दो प्रकार का है। __ अर्थ शक्त्युदभव-स्वतः सम्भवी, कवि प्रौढोक्तिसिद्ध, कवि-निबद्ध-वक्तृ प्रौढोक्तिसिद्ध भेद से तीन प्रकार का अर्थ है। तीनों वस्तुरूप और अलङ्कार रूप अर्थ भेद से छः प्रकार के व्यञ्जक अर्थ है। इन छहो प्रकार के अर्थों से वस्तु और अलङ्कार रूप द्विविध अर्थ अभिव्यक्त होते हैं। अतः बारह प्रकार का हुआ। पण्डितराज जगन्नाथ ने इसे आठ ही प्रकार का माना है। उन्होंने कवि निबद्धवक्तृप्रौढोक्ति को भी कवि प्रौढोक्ति ही माना है। उभयशक्त्युदभव-एक प्रकार का । इस प्रकार कुल १८ भेद हुए। इनमें उभयशक्त्युदभव, को छोड़कर शेष सत्रह पद गत वाक्य गत भेद से चोंतीस प्रकार के हुए और एक उभय शक्त्युद्भव कुल तीस भेद हुवे। इनमें बारह अर्थ शक्त्युद्भव प्रबन्धगत भी है। अतः ३५ +१२ = ४७ भेद हुए। ORN P Makan १. ध्वन्यालोक लो. द्वि.उ. २३ वी कारिका की वृत्ति। २. रस गंगाधर द्वितीय आनन ३. रस गङ्गाधर द्वि.आ. " " ""

." ध्वनि और औचित्य सिद्धान्त ‘ध्वनि’ ५४५ असंलक्ष्यक्रम रसादि के चार भेद और हैं-पदैकदेश रचना वर्ण-प्रबन्धगत होने से, इस प्रकार ४७ + ४ = ५१ मुख्य भेद हुए। __इन इक्यावन भेदों का अपने भेदों से और तीन प्रकार के संकर तथा एक प्रकार की संसृष्टि अर्थात् चार प्रकारों से गुणित करने पर १०४०४ संख्या हो जायेगी। ५१ x ५१ = २६०१, पुनः ४ से गुणित २६०१ x ४ = १०४०४ हुए। इनमें शुद्ध इक्यावन भेदों को जोड़ने से १०४०४ + ५१ = १०४५५ हुए।’ विश्वनाथ ने भी इन शुद्ध भेदों को स्वीकृत किया है, परन्तु उनका भेद-प्रभेदों के साथ गणित प्रकार भिन्न है। अतः संख्या में भेद है। ये व्यङ्ग्य अर्थ जहां गौण हो जाते है वहां गुणीभूत व्यङ्ग्य होता है। वे आठ प्रकार के है-अगूढ, अपराङ्गव्यङ्ग्य, वाच्यसिद्ध्यङ्ग, अस्फुट, सन्दिग्धप्राधान्य, तुल्यप्राधान्य, काक्वाक्षिप्त, असुन्दर। इन गुणीभूतव्यङ्ग्यों का स्वभेद तथा ध्वनिभेद अलङ्कारादिकों के साथ सङ्कर और संसृष्टि भेद से अनेक भेद हो जाते हैं (ध्व. लो. ३/४३ )। इनकी अभिव्यक्ति में वक्ता बोद्धा, काकु, वाक्य, वाच्य अन्यसन्निधि, प्रस्ताव, देश, काल, चेष्टा, अपदेश का वैशिष्ट्य तथा प्रतिभा करण है।’

औचित्य-सिद्धान्त

यद्यपि आनन्दवर्धन ने: अनौचित्यादृते नान्यद् रसभङ्गस्य कारणम्। प्रसिद्धौचित्यबन्धस्तु रसस्योपनिषत्परा।।’ औचित्य को रस का उपनिषद्भूत तत्त्व माना है। संघटना का नियामक भी इन्होंने वक्तृ-वाच्य का औचित्य, विषयाश्रयौचित्य तथा प्रबन्ध की रस व्यञ्जकता में भी औचित्य का निरूपण किया है। इसी तरह ‘सञ्चायौचित्यचारूणः", व्यवहारौचित्य का भी निरूपण किया है। लोचनकार ने भी औचित्य का अलङ्कारौचित्य के लोचन में निरूपण किया है। BOOR

sin x i ug १. काव्य प्रकाश चतुर्थ उल्लास सू सं. ६४-६५ द्रष्टव्य-साहित्यदर्पण, चतुर्थ परि. ३. का. प्र. ५/६६ का. प्र. ३/३७ ध्व.लो. ३/पृ. ३३० औचित्यं वक्तृ-वाच्ययोः ध्व.लो. ३/६ वही ३/११-१२ ८. वही ३/३२-३३ कर E.: . . … … … . …" *-94mhankits ५४६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र A रुद्रट ने भी ‘औचित्यमालोच्य तथार्थसार्थम्’ कह कर औचित्य का समादर किया है। यहाँ तक कि अनौचित्य को ही ग्राम्यत्व दोष माना है। ग्राम्यत्वमनौचित्यम्। कुन्तक ने औचित्य गुण का निरूपण किया है। ‘पदस्य तावदौचित्यं वक्रतायाः परं रहस्यम् । इसी प्रकार वक्रोक्तिजीवितकारने १/५३ तथा २/२ में ३/१७ में औचित्य का निरूपण किया है। महिमभट्ट ने भी व्यक्ति-विवेक में अनौचित्य के संस्पर्श का निषेध किया है। इन सभी के प्रभाव से तथा विशेषतः आनन्दवर्धन से और अपने गुरू अभिनव गुप्त से प्रेरणा प्राप्त कर क्षेमेन्द्र ने औचित्य-विचार-चर्चा नामक ग्रन्थ लिख कर औचित्य सिद्धान्त की स्थापना की। मम्मट, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि आचार्यों द्वारा भी औचित्य का निरूपण किया गया है। इन्होंने रस का जीवित (प्राण) औचित्य को माना है। काव्य का जीवन औचित्य है। जिस काव्य में औचित्य नहीं उसमें अलङ्कार और गुण सब व्यर्थ है। अलङ्कार तो अलङ्कार है, और गुण-गुण है। अगर कोई कण्ठ में मेखला और नितम्ब में हार, हाथ में नूपुर, चरण में केयूर धारण कर ले तो वह उपहासास्पद हो जायगा। अतः औचित्य के बिना न तो अलङ्कार ही शोभाधायक होते है न गुण ही। शूरता गुण है पर शरणागत पर शूरता दिखाना उपहासास्पद ही है। जो जिसके सदृश हो वह उचित है, उचित का भाव औचित्य है वह औचित्य काव्य के मर्म के समान इन सत्ताइस स्थानों में व्याप्त है। काव्याङ्ग निम्नाङ्कित हैं:-१. पद, २. वाक्य, ३. प्रबन्धार्थ, ४. गुण, ५. अलङ्कार, ६. रस, ७. क्रिया, ८. कारक, ६. लिङ्ग, १०. वचन, ११. विशेषण, १२. उपसर्ग, १३. निपात, १४. काल, १५. देश, १६. कुल, १७. व्रत,१८. तत्त्व, १६. सत्त्व, २०. अभिप्राय, २१. स्वभाव, २२. सारसंग्रह, २३. प्रतिभा, २४. अवस्था, २५. विचार, २६. नाम, २७. आशीर्वाद । इसी प्रकार अन्य काव्यांगों में भी औचित्य की स्वयं उत्प्रक्षा कर लेनी चाहिये। जैसे वृत्तौचित्य, वर्णौचित्य इत्यादि। वस्तुतः औचित्य सर्वत्र उपयोगी है। उसके उदाहरण अनंत है। अनौचित्य दोष है, उसका परिवर्जन और औचित्य का पालन काव्य में आवश्यक है। HTRA GOOK १. का. ल. २/३२ २. वहीं ११/६ ३. वक्रोक्ति जीवित-१/५७ कारिका की वृत्ति। ४. व्यक्ति विवेक पृ. १२६ ५. रसजीवितभूतस्य-औचित्य-विचार -चार्चा १/३ ६. वही १/८-१० ध्वनि और औचित्य सिद्धान्त ‘ध्वनि’ ५४७ औचित्य व्यवहार में भी अपेक्षित है। काव्य के गुण अलंकार और आत्मभूत रसादि ध्वनि में भी औचित्य अपेक्षित है। औचित्य का खण्डन नहीं किया जा सकता। रस और भाव भी औचित्य के अभाव में निष्पन्न नहीं होते। अनौचित्य प्रवृत होने से रसाभास और भावाभास हो जाते है। अतः इसका तात्पर्य है कि काव्य की आत्मा रस है और रस की आत्मा औचित्य है। आनन्दवर्धन ने इसे कहा ही है ‘प्रसिद्धौचित्यबंधस्तु रसस्योपनिषत्परा’। ..

That १. का. प्र.४ उ. र.गं.ध. प्र.आ.। ५४८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र