१५ रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त

रीति सिद्धान्त

रीति एवं वक्रोक्ति भी अलंङकार एवं रसादि जैसी काव्य की विधाएँ हैं। काव्य का जो स्वरूप निर्धारित है उसके पोषक या उसके अवयवभूत अलङ्कार, रीति, वृत्ति, ध्वनि, वक्रोक्ति आदि सभी तत्त्व भिन्न भिन्न आचार्यों द्वारा निरूपित किए गये हैं। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि किसी एक काव्यीय तत्त्व के प्रतिपादन में प्रवृत्त एक आचार्य, अपने निरूप्यमाण तत्त्व को, प्रधानतया काव्य के अङ्गों में गणना हेतु अन्य आचार्य द्वारा प्रतिपादित काव्यीय तत्त्व को गुणीभूत करने के लिए उसके कुछ अंशो की आलोचना कर देता है। किन्तु इस आलोचना से ऐसा नहीं समझना चाहिए कि उक्त आचार्य द्वारा निरूपित किया गया उस तत्त्व का ही निराकरण किया जा रहा है, क्योंकि आकर-ग्रन्थ नाट्यशास्त्र में काव्य के जिन तत्त्वों का निर्देश है। उसमें प्रधानाप्रधानत्व का निर्देश नहीं है। अतः, जब किसी एक अङग या एक काव्यतत्त्व का निरूपण आचार्य करता है। तो उस तत्त्व को साङ्गोपाङ्ग दिखलाने के लिए उसके सभी पहलुओं पर विचार करता है। और प्रतिज्ञानुसार किसी एक तत्त्व का प्रतिपादन करता है। उसका यह कभी लक्ष्य नहीं होता कि वह स्वेतर काव्य तत्त्वों का निषेध करे या अन्य आचार्य द्वारा संस्थापित उस तत्त्व का खण्डन करे। क्योंकि ग्रन्थ में उपपादित युक्ति या प्रमाण पर आधारित प्रमेय का प्रतिपादन यदि उसी युक्ति या प्रमाण से खण्डित होता हो तो ग्रन्थकर्ता के आचार्यत्व की हानि समझी जायेगी। तदितर आधार पर खड़े होकर उससे मानित प्रमेय का खण्डन एक विचार मात्र माना जा सकता है, खण्डन नहीं। अतः, रस रीति, वृत्ति, अलङ्कार, लक्षण, वक्रोक्ति एवं छन्द आदि जो नाट्यशास्त्र में काव्याङ्गभूत दर्शाए गये हैं, उनमें एक-एक तत्त्व का विवेक जब एक-एक आचार्य करते हों, तो उनमें एक के खण्डन की बात नहीं घटती। इससे यह स्पष्ट होता है कि सभी काव्य तत्त्वों का विवेक, स्वतन्त्रतया अपनी-अपनी प्रतिभा एवं शास्त्रालोचन के आधार पर आचार्यों ने किया है। उनमें किसी आचार्य का विरोध नहीं है। उन तत्त्वों में जब प्रधानाप्रधानत्व की व्यवस्था कोई देने की चेष्टा करता है या तदितर कुछ संज्ञाओं की कल्पना करता है, उस समय अवश्य ही कुछ आचार्य अपनी विप्रतिपत्ति दर्शाते है। इनमें प्रधानतया दो विभाग सम्भव हैं १. अपने ही तत्त्व को प्रधानस्थानीय मानने के लिए काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकार करना, २. ध्वनि जैसी संज्ञाओं से किसी काव्यतत्त्व को प्रतिपादित करना, तथा उसे ही आत्म-स्थानीय मानना जबकि ऐसी संज्ञा उस अर्थ में नाट्यशास्त्रादि आकर ग्रन्थ में प्राप्त न होती हो। . रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त ४८५ उक्त विषयों पर आधारित मतभेद आचार्यों में परिलक्षित होते हैं, तथा यह दिखलाना भी चाहते हैं कि जिन चमत्कारों को आधार बनाकर आप अलंकार को काव्य के आत्मस्थानीय तत्त्व के रूप में स्वीकार करना चाहते हैं, वही चमत्कार यदि रीति, वृत्ति, वक्रोक्ति आदि में होते हों तो उसे भी आत्मस्थानीय मानें। अथवा, काव्य के अवयवों के रूप में सभी तत्त्वों को स्वीकार करें, आत्मानात्म की कल्पना न करें। भामह दण्डी आदि आचार्यों के द्वारा काव्य की अन्य विधाओं पर कम बल देते हुए अलंकार तत्त्व पर किए गये विशेष विश्लेषण को देखकर आचार्य वामन ने रीति पर विचार करना समुचित समझा। इसका अर्थ यह नहीं हैं कि अलंकार आदि का निरूपण ही नहीं किया हो या उस तत्त्व को काव्यीय तत्त्व ही न माना हों बल्कि उन तत्त्वों को विवेचित करते हुए उन्होंने रीति का भी विवेचन किया और यह विवेचन प्रथमतया आचार्य वामन द्वारा किया गया इसलिए इसके मुख्य विवेचक आचार्य वामन माने जाने लगे। वाग् वेष विन्यासदिक्रम रूप प्रवृत्ति के अन्तर्गत निविष्ट, वाग् विन्यास क्रम, रूप रीति को काव्य में दर्शाने के लिए तथा काव्य के जीवनाधायक तत्त्व के रूप में वर्णन करने के लिए ही “रीतिरात्मा काव्यस्य” सूत्र का निर्माण किया । इस रीति के विषय में आचार्य वामन द्वारा दिखलाये गये तत्त्वविवेक पर पहले विचार करना जरूरी है। इसके पश्चात् यह भी विचार किया जाना चाहिए कि परवर्ती आचार्यों में कौन आचार्य रीति को काव्यतत्त्वस्थानीय मानते हैं, कौन नहीं मानते हैं। मानने वाले आचार्य भी क्या वामन निर्दिष्ट रीति को ही रीति रूप में उद्धृत करते हैं या तल्लक्षणेतर लक्षणों से लक्षित करने की चेष्टा करते हैं।

वामन के मत में काव्य का स्वरूप

आचार्य वामन ने अपने ‘काव्यालंकार-सूत्राणि’ नामक ग्रन्थ में जिन तत्वों का निरूपण किया है वे क्रम से इस प्रकार संक्षिप्त किये जा सकते हैं। प्रथम उधिकरण में काव्य का प्रयोजन, काव्य के अधिकारी, काव्य, की आत्मा, रीति, के वैदर्भी आदि तीन भेद, काव्य का कारण एवं काव्य का प्रकार । द्वितीय अधिकरण में दोषों का वर्णन है। तृतीय अधिकरण में गुण-विवेचन है। चतुर्थ अधिकरण में अलंकारों का वर्णन है तथा पञ्चम अधिकरण में प्रायोगिक व्याकरण पर विचार । इस प्रकार उक्त ग्रन्थ में पाँच अधिकरण एवं १२ अध्याय हैं। वे अध्याय क्रमशः प्रथम अधिकरण में ३, द्वितीय में २, तृतीय में २, चतुर्थ में ३, एवं पंचम में २, इस प्रकार यह ग्रन्थ ५ अधिकरणों के १२ अध्यायों में विभक्त है। इसमें प्रथम अधिकरण के प्रथम सूत्र में ही अलंकार पद दीख पड़ता है। अलंकार तत्त्व पर पूर्वाचार्य विवेक प्रस्तुत कर चुके हैं इसलिए अलंकार की प्रसिद्धि है। अतः काव्य की उपादेयता अलंकार से ही दर्शाते हैं। अलंकार, काव्य का स्वरूप नहीं है, बल्कि काव्य के स्वरूप के रूप में वे इसी सूत्र की वृत्ति में गुणालंकार संस्कृत शब्दार्थ को स्वीकार करते हैं। तथा यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि यदि केवल शब्दार्थ ही काव्य के रूप में कहीं व्यवहृत ४८६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र होते हों, तो वहाँ लाक्षणिक स्वरूप काव्य का समझना चाहिए। जैसा कि-“भक्त्या शब्दार्थमात्रवचनोज गृहयते” इति। इस पंक्ति का अभिप्राय यह है कि यहाँ इस सूत्र में जो काव्य पद है, वह शब्दार्थ मात्र में हैं, किन्तु शब्दार्थमात्र काव्य नहीं है। अपितु गुणाालंकार-संस्कृत शब्दार्थ ही काव्य है। अपोद्धार बुद्धि से इस सूत्र में ‘काव्यं’ को अलग तथा ‘अलंकारात्’ पद को भिन्न विभक्ति में दर्शाया जा रहा है। अलंकार भी केवल उपमादि नहीं है। बल्कि गुण एवं उपमादि अलंकार दोनों या वे सभी तत्त्व जिनके कारण शब्दार्थ काव्य की संज्ञा पाते हैं, वे सब अलंकार ही है। हाँ, यह विशेष विचारणीय है कि दोषाभाव या व्याकरणादि प्रयोग प्रायः सर्वत्र वाङ्मय मात्र में प्राप्त होते हैं। इसलिए परिशेषात् दो ही तत्त्व हैं- गुण एवं अलंकार। अतः इन दोनों तत्त्वों से युक्त ही शब्दार्थ काव्य की संज्ञा पा सकेगें, अन्य नहीं। इस प्रकार अपदोषता भी सामान्यतः गुण रूप में स्वीकृत है। अलंकार में अन्य सभी काव्यीय तत्त्वों का समावेश वामन को अभीष्ट है ऐसा प्रतीत होता है। इसलिए द्वितीय सूत्र में “सौन्दर्यमलङ्कारः” तथा ‘स (अलंकारः) दोषगुणा-लंकारहानादानाभ्याम्’- यह तृतीय सूत्र निर्मित करके स्पष्ट करते हैं। इसका अभिप्राय है कि काव्य सौन्दर्यवत्, दोषत्याग एवं गुणालंकार के उपादान से ही होगा। अतः ‘सालङ्कारस्य काव्यता’ या ‘सालङ्कार शब्दार्थों काव्यम्’ यही कुन्तक एवं वामन दोनों मानते है। दोनों के काव्य लक्षण में कोई भेद नहीं प्रतीत होता है। हाँ, अलंकार पद के पदार्थ विवेक में आचार्यों के मत भिन्न-भिन्न हैं। वामन अलंकार शब्द से गुण एवं उपमादि अलंकार दोनों को ग्रहण करते हैं, इसलिए अलंकार की व्युत्पत्ति ‘अलंकृतिलंकारः’ से गुण को ग्रहण करना चाहते हैं तथा ‘अलंक्रियते अनेनेति’ करण व्युत्पत्ति से सिद्ध अलंकार पद से उपमादि को इस प्रकार प्रथम सूत्र में अलंकार को स्पष्ट करने के पश्चात यह भी दिखलाना चाहते हैं कि इन दोनों तत्त्वों का स्थान यदि काव्य में निर्धारित करना हो तो एक को काव्य शोभा के कर्ता के रूप में तथा दूसरे को काव्य शोभा को बढ़ाने वाले के रूप में स्वीकार करना चाहिए। अब प्रश्न यह उठता है कि शोभा एक सौन्दर्य है। शोभा-युक्तशब्दार्थ, काव्य है। काव्य का कर्ता या निर्माता यदि काव्य की शोभा का कर्ता कहा जाय तो यह कहाँ तक उचित है। जो काव्य शोभा का निर्माता है तो वह काव्य का भी निर्माता है-यह कहना सङ्गत नहीं है। जैसे किसी व्यक्ति का निर्माता भिन्न एवं उसकी शोभा का निर्माता अङ्गसौष्ठवादि होते हैं। वैसे ही काव्य शोभा के निर्माता यदि गुण है। तो काव्य के निर्माता वे न माने जायँ अतः काव्य की आत्मा रीति है। और रीति के कर्ता गुण हैं। तो यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि रीति ही शोभा है और यह रीति काव्य को अगसौष्ठव विशेष है। जैसे व्यक्ति का अङ्गसौष्ठव विशेष शोभा कहा जाता है। अब प्रश्न यह भी उठता है कि जब रीति शोभा होगी तो उसके कर्ता तो गुण हो सकते हैं। क्योंकि वैदर्भी (आदि) गुणसंयुक्त मानी गयी हैं। किन्तु उपमादि क्या रीति के रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त ४६७ विशेष शोभाधायक हैं या काव्य के ? आचार्य वामन का मत इन तीन सूत्रों से-‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ ‘काव्यशोभायाः कर्तारः गुणाः”, ‘तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः” से स्पष्ट होता है कि आत्मा से शोभा या सौन्दर्य का ग्रहण है, और वह रीति है। इस रीति में दोनों, गुण एवं अलंकार कृतपद हैं, एक अंग संस्थान सौष्ठवादि के समान तथा दूसरा उसे अतिशयित करने के लिए हारादि अलंकार के समान। दोनों तत्त्वों का अलंकार पद से ग्रहण करना भी युक्तियुक्त हो जाता है। तथा एक ही रीति काव्य की आत्मा बन सकती है। यह आत्मा वेदान्तियों की तरह शरीर से व्यतिरिक्त नहीं मानी जानी चाहिए। बल्कि चार्वाकों के सामान शरीर से अभिन्न (आत्मा) माननी चाहिए। अतः ‘गुणा-लंकार संस्कृत शब्दार्थ काव्य है’ अथवा ‘रीति-संस्कृत-शब्दार्थ काव्य है’ दोनों का तात्पर्य एक ही प्रतीत होता है।

वामन के मत में रीति का स्वरूप

रीति का लक्षण सर्वप्रथम वामन ने किया है। इनके मत में रीति पदों की एक रचना है किन्तु वह रचना विशिष्ट है। जिन विशेषों से इस रचना को विशिष्ट होना है वे हैं गुण। यद्यपि गुण शब्दार्थनिष्ठ होने से गुण विशिष्ट शब्द या अर्थही हो सकते हैं, रचना को गुण से विशिष्ट करने के लिए परम्परया गुण को (कवि की) रचना में ले जाना होगा क्योंकि पदार्थ का पदार्थ के साथ ही अन्वय माना गया है, पदार्थ के एक देश के साथ नहीं। अतः रचना के साथ समस्त पद पद रचना का एक देश है। अतः ‘विशिष्टा’ पद का अन्वय पद के साथ नहीं किया जा सकता। इसलिए रचना के साथ इसका अन्वय होगा। रचना या कृति प्रयत्न साध्य है। विशिष्ट रचना या वक्रोक्ति दोनों प्रायः स्वानुकूल कृतिमत्व सम्बन्ध से कवि में रहने के कारण दोनों की एक रूपता है। इस प्रकार रीति एवं वक्रोक्ति दोनों शब्दार्थरूप काव्य से अलग एक कला रूप में स्वीकृत से प्रतीत होते हैं। यह विशिष्ट पद रचना रूप जो रीति है इसमें विशेष गुण है जो दश शब्द निष्ठ है एवं दश अर्थनिष्ठ है। अतः पद रचना में स्थित पद के भी दो अर्थ होने चाहिए-शब्द एवं अर्थ। कदाचित् पद शब्द दोनों को ग्रहण करने के लिए ही कवि ने प्रयुक्त किया है। ‘पद्यते बोध्यते यत् तत् अर्थरूपं,’ ‘पद्यतेऽनेनेति पदं शब्दरूपम्।’ यद्यपि वामन ने इसे शब्द गुण न कहकर बन्ध गुण कहा है। बन्ध रचना का ही अपर पर्याय है जैसा कि ‘ओजःप्रसादश्लेषसमतासमाधिमाधुर्य सौकुमार्योदारताऽर्थव्यक्तिकान्तयोबन्धगुणाः।’ अब एक संशय यह भी उठ खड़ा होगा कि शब्दार्थ रूप काव्य यदि उपस्कृत होगें तो क्या केवल शब्द से ही या केवल अर्थ से ही या दोनों से। यदि दोनों से उपस्कृत करना है। जैसाकि ‘गुणालङ्कारसंस्कृतयोः शब्दार्थयोः काव्यशब्दोऽयं वर्तते’ प्रथम सूत्र की वृत्ति में कहा गया है, तो शब्द एवं अर्थ-गत ही गुणों को कहना चाहिए था, बन्ध एवं अर्थनिष्ठ कहना उचित नहीं है। रचना एक कवि कर्म है . यह जैसे समुचित शब्द संयोजन में है, वैसे ही अर्थसंयोजन में। नियतिनियत अर्थ से अतिरिक्त अर्थ की रचना ही काव्य में दृष्ट होती MORTAL ४८८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र है। जैसे मुख को हँसते हुए देखकर यह कहा जाय कि चन्द्र हँस रहा है। इष्ट-चमत्कारी आहार्य ज्ञान होने से इसमें कोई अनुपपत्ति है नहीं बल्कि उत्कृष्ट काव्य है। अतः रचना शब्द एवं अर्थ दोनों में विद्यमान है जो उन आचार्यों से निर्दिष्ट है, जो आचार्य शब्दार्थ दोनों को काव्य मानते है। इस प्रकार वामन की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट है कि दश बन्धगुण एवं दश अर्थ गुणों से उपस्कृत शब्दार्थ की विशिष्ट रचना ‘रीति’ होगी।

रीति तथा वृत्ति के भेद

जब आचार्य आनन्दवर्धन ने ध्वनि की स्थापना की उसके बाद काव्य के सभी अवयवों का विविक्त रूप में विचार चलने लगा। स्वयं आनन्द वर्द्धन ध्वन्यभाववादियों के मत का विकल्प करते समय कहते हैं “तत्र केचिदाचक्षीरन्-शब्दार्थशरीरं तावत्काव्यम्।। तत्र च शब्दगताश्चारूत्वहेतवोडनुप्रसादयः प्रसिद्धा एव । अर्थगताश्चोपमादयः । वर्णसंघटना धर्माश्चये माधुर्यादयस्तेऽपि प्रतीयन्ते। तदनतिरिक्त वृत्तयोऽपि याः कैश्चिदुपनागरिकाद्याः प्रकाशितास्ता अपि गताः श्रवणगोचरम्। रीतयश्च वैदर्भी-प्रभृतयः। तद्व्यतिरिक्तः कोऽयं ध्वनिर्नामेति” । ध्वन्यालोक, प्रथम उद्योत। इस उद्धरण से यह स्पष्ट होता है कि शब्द, अर्थ, वर्ण एवं संघटना इन चारों को आश्रय बनाकर क्रमशः अनुप्रासादि शब्दालंकार, उपमादि अर्थालंकार, उपनागरिकादि वृत्तियाँ, एवं वैदर्भी प्रभृति रीतियाँ रहते हैं। वृत्ति एवं रीति के कर्ता गुण हैं। गुणाश्रित रीति संघटना या रचना रूप ही है। आचार्यों ने वृत्ति को वर्णाश्रित तथा रीति को संघटनाश्रित माना है। आचार्य जयदेव चन्द्रालोक में रीति का लक्षण करते हुए कहते हैं कि रीतियाँ चार हैं-१. पाञ्चाली २. लाटीया ३. गौडीया ४. वैदर्भी। चार पदों के समास तक समस्त रीति को पाञ्चाली, सात पदों तक समस्त रीति को लाटीया, आठ पदों तक समस्त रीति को गौडीया, तथा असमस्त या स्पल्प समास, वाली रीति को वैदर्भी कहते हैं। जैसा कि आतुर्यमासप्तमं च यथेष्टैरष्टमादिभिः। समासःस्यात् पदैर्न स्यात् समासः सर्वथापि च।। पाञ्चालकी च लाटीया गौडीया च यथारसम्। वैदर्भी च यथासंख्यम् चतस्त्रो रीतयः स्मृताः।। (मयूरव ६, का. २१-२२) इनकी दृष्टि में रसनिष्ठ भी गुण माने गये हैं तथा उन मधुरादि सम्पन्न शृङ्गारादि रस के लिए वैदर्भी आदि रीति का विधान कर यह भी प्रगट कर देना चाहते हैं कि रीतियाँ १. विशिष्ट पदरचना रीतिः काव्यालङकारसूत्र .. .. . .di रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त ४५६ गुणाश्रित मानी जायँ। इन रीतियों के साथ ही आचार्य जयदेव वृत्तियों का भी निर्देश करतें हैं। मधुरा प्रौढ़ा, परुषा, ललिता एवं भद्रा नामकी पाँच वृत्तियों को लक्षण एवं लक्ष्य से स्पष्ट करते हैं। हाँ, इन्होंने शब्दतः यह नहीं कहा कि यह रीति या वृत्ति का लक्षण है। रीति या वृत्ति का लक्षण सामान्यरूप में न कर विशेष रूप में पाञ्चाली आदि रीति के लक्षण से लक्षित किया है। इसी प्रकार मधुरा आदि वृत्ति को भी विशेष रूप से लक्षित किया है। किन्तु समालोचन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि रीति को समासाश्रित एवं वृत्ति को वर्णाश्रित माना गया है (षष्ठमयूख, का. २३-२८) आचार्य मम्मट, जो साहित्य शास्त्र के एक मेरू सदृश आचार्य हैं, ने वृत्ति को अनुप्रास अलंकार के अन्तर्गत मान लिया है। किन्तु एक विशेष बात यह है कि जहाँ आचार्य वामन गुण को काव्य शोभा का नित्य अपरिहार्य धर्म मानते हैं तथा अलंकार को अनियत केवल अतिशय के हेतु मानते हैं, वहीं आचार्य मम्मट वर्णाश्रित शब्दालंकार अनुप्रास के अन्तर्गत वृत्ति को मानकर उसी में वामन निर्दिष्ट रीतियों का अन्तर्भाव करते हैं। वृत्ति का अर्थ, अभिनवगुप्त ‘वर्तन्तेऽनुप्रासभेदाः आस्विति’ ऐसी व्युत्पत्ति कर स्पष्ट कर देते हैं कि इन्हीं दीप्त, मसूण एवं मध्यम वर्णनीय वस्त्वादि या रसादि के लिए, जो अनुप्रास अलंकार के वर्षों से व्यङ्ग्य परूषत्व ललितत्व, मध्यमत्व स्वरूप तीन अनुप्रास जातियों है व हा वृत्तियाँ हैं, जैसा कि कहा गया है सरूपव्यञ्जनन्यासं तिसृष्वेतासु वृत्तिषु। पृथक् पृथगनुप्रासमुशन्ति कवयः सदा।। इन वृत्तियों की संज्ञा भी क्रमशः परूषानुप्रासवाली वृत्ति को नागरिका तथा मसृणा-नुप्रास वाली वृत्ति को उपनागरिका एवं परूषमसणमिश्रित-अनुप्रास वाली वृत्ति को ग्राम्या कहते हैं। जैसा कि कहा है- “मध्यमत्वस्वरूप-विवेचनाय वर्गत्रय-सम्पादनार्थं तिस्त्रोऽनुप्रास जातयो वृत्तय इत्युक्ताः । वर्तन्तेऽनुप्रास भेदा आस्विति। ‘पृथक् पृथगनुप्रासमुशन्ति” इत्यत्र पृथक् पृथगिति परूषानुप्रास नागरिका परुषा मसृणानुप्रासा उपनागरिका नागरिकया विदग्धया उपमितेति कृत्वा (उपनागरिका) मध्यमकोमलपरूषमित्यर्थः, अतएव वैदग्ध्यवि- हीनस्वभावा सुकुमारपरूषग्राम्य वनिता-सादृश्यात् इयं वृत्तिः ग्राम्या।। __ अभिनवगुप्तपाद के इस व्याख्यान से वृत्ति का नाम तथा स्वरूप दोनों स्पष्ट हो जाते है। इसमें दो पद, मध्यम कोमलपरूषमित्यर्थः” तथा “सुकुमारपरूषग्राम्य वनिता सादृश्यात्” ये दोनों पद कुछ कठिन से प्रतीत होते है। अतः इनका भावार्थ स्पष्ट करना उचित होगा। नागरिका जो परूषा वृत्ति है, दूसरी उपनागरिका जो मसृणा या कोमला वृत्ति है एवं तीसरी ग्राम्या जो मध्यमा या मिश्रित रूपावृत्ति है उसी को व्युत्क्रम से या चूलिका न्याय से ‘मध्यम कोमलपरूषमिति” पद से कहते हैं। दूसरा पद जो “सुकुमारेति” है उसमें ग्राम्यावृत्ति स्वीकृत ४६० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र है। ग्राम्यामिश्रित-सुकुमार परूषस्वभाव वाली ग्राम्या निर्दिष्ट की गयी है। आचार्य मम्मट भी वृत्ति का लक्षण एवं नामकरण लोचन टीका के अनुसार ही करते हैं किन्तु कुछ अन्तर करके करते हैं। इनकी दृष्टि से अनुप्रास में ही अन्तर्भूत तीन वृत्तियाँ, उपनागरिका परूषा एवं कोमला नाम से है। नागरिका के स्थान पर परूषा, उपनागरिका के स्थान पर मधुरा तथा ग्राम्या के स्थान पर कोमला नामकरण मिलता है। जबकि आचार्य अभिनव ने कोमला को उपनागरिका माना है। इसी को ललिता भी कहते हैं। आचार्य मम्मट ने इन्हीं तीनों वृत्तियों को वैदर्भी आदि वामन निर्दिष्ट रीतियाँ भी कहा है। जैसा कि वर्णसाम्यमनुप्रासः छेकवृत्तिगतोद्विधा। सोऽनेकस्य सकृत्पूर्व एकस्याप्यसकृत्परः।। तत्र - माधुर्यव्यञ्जकैर्वर्णरूपनागरिकोच्यते। ओजःप्रकाशकैस्तैस्तु परूषा, कोमला परैः।। केषांचिदेता वैदर्भी प्रमुखा रीतयो मताः। (नवम उल्लास) वृत्ति में भी कहते हैं कि ‘एतास्तिस्त्रो वृत्तयः वामनादीनां मते वैदर्भी गौड़ी पाञ्चाल्याख्या रीतयो मताः। इति" आचार्य मम्मट की यह वृत्ति एवं रीति में भेद न करने की व्यवस्था यदि किसी आचार्य से सम्मत है तो मान लेनी चाहिए किन्तु इस अभेद को भी यदि लोचन टीका के अनुसार करते हों तो अवश्य ही विचारणीय है। स्वतन्त्रतया यदि आचार्य मम्मट की यह स्थापना हो तो कोई विवाद नहीं है। किन्तु प्रायः अभिनव को प्रमाण रूप में रखकर निर्धान्त विहरण करने वाले आचार्य मम्मट ने इस उद्धरण को तो अवश्य देखा ही होगा “रीतयश्चेति। तदनतिरिक्तवृत्तयोऽपि गताः श्रवण गोचरमिति सम्बन्धः तच्छब्देनाव्र माधुर्यादयो गुणाः । तेषाञ्च समुचित वृत्यर्पणे यदन्योन्यमेलनक्षमत्वेन पानक इव गुडमरिचादिर सानां संघातरूपतागमनं दीप्तललितमध्यमवर्णनीयविषयगौड़ीयवैदर्भपाञ्चालदेशहेवाकप्राचुर्यदृशा तदेवत्रिविधं रीतिरित्युक्तम् । जातिश्च जातिमतो नान्या समुदायश्च समुदायिनो नान्य इति वृत्तिरीतयो न गुणालङ्कार व्यतिरिक्ता ‘इति स्थित एवाऽसौ व्यतिरेकी हेतुः। इस उद्धरण का तात्पर्य है कि रीति जो माधुर्यादिगुणों से अतिरिक्त आश्रय में नहीं रहती है। उसके विषय में भी सुना गया है। माधुर्यादि दश गुण समुचित समास में जब निबन्धित होते हैं तो कई गुणों के अन्योन्य सम्मिश्रण से गुड़ मरीच आदि के पानक के समान होकर दीप्त-ललित एवं मध्यम वर्णनीय विषय के लिए प्रयुक्त होते हैं। तथा क्रमशः गौडीय, वैदर्भ एवं पाञ्चाल नामकी रीति से व्यवहत हैं। इनके नामकरण में उन देशों की सगर्वदृष्टि हेतु है। इसलिए उन देशों के नाम से ये तीन वृत्तियाँ दिखलायी गयी हैं। जैसे जाति जातिमान् से भिन्न नहीं होती तथा समुदायवान से समुदाय भिन्न नहीं होता वैसे वृत्ति HI ४६१ रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त एवं रीति, अलंकार एवं गुण से अतिरिक्त नहीं होती है। यहाँ एक पद ‘गुणालंकार व्यतिरिक्त’ पद गुण का पूर्वानिपात अल्पाच् होने के कारण समझना चाहिए या अभ्यर्हित यह नहीं कहा जा सकता कि शक्तियाँ, अन्तरस्वभाव होने से तो स्वाभाविक हो सकती है। किन्तु आहार्य जो व्युत्पत्ति एवं अभ्यास हैं, वे स्वाभाविक कैसे होंगे क्योंकि अनादि वासना के अभ्यास से वासित चित्त से ही स्वभावानुसारी व्युत्पत्ति एवं अभ्यास प्रवर्तित होते हैं। व्युत्पत्ति तथा अभ्यास, स्वभाव के अभिव्यञ्जन से ही सफल माने जाते हैं। इस प्रकार स्वभाव, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास को पैदा करता है। तथा व्युत्पत्ति एवं अभ्यास, स्वभाव को पुष्ट करते हैं इस प्रकार स्वभाव एवं व्युत्पत्ति अभ्यास का परस्पर उपकार्योपकारक भाव बनता है।

मार्ग

सुकुमार मार्ग

इस मार्ग में शब्द तथा अर्थ, संविद्विकास रूप प्रतिभा से प्रसूत एवं मनोहर होते हैं। अनायास अहमहमिकया समायात मनोहर विभूषण (अलंकार) बहुत ही परिमित होते हैं। पदार्थ स्वभाव, की ही प्रधानता रहती है। अतः आहार्य स्वयमेव तिरस्कृत रहता है। रसादि के परमार्थ को समझाने वाले मन के संवादात्मक विषय के उपादान से यहाँ सुन्दरता रहती है। प्रायः समग्र स्थान से रमणीयता का स्पन्दन होने से रमणीयता का विशेष स्थान अज्ञात रहता है। विधाता के कौशल से निष्पन्न नाना-भाव निर्माण के अतिशय के सदृश कवि का भाव-निर्माणतिशय होता है। सौकुमार्य के परिस्पंद का वर्षी जो कोई भी वैचित्र्य, यहाँ दीख पड़ता है, वह सब प्रतिभा से ही उद्भूत होता है जैसे भ्रमर विकसित पुष्प समूह के मार्ग से चलता है। वैसे ही कवि सुकुमार नामक इस मार्ग से गमन करता है।

वैचित्र्यमार्ग

इस मार्ग में काव्य कारण भूत, प्रतिभा के मूल में ही अलंकार वक्रता शब्दार्थ के अन्दर स्फुरित होती हुई सी प्रतीत होती रहती है। यहाँ कवि अलंकार निबन्धन वक्रता में, असंतुष्ट सा प्रतीत होता है एक अलंकार के निबन्धन से अतृप्त जैसा उसी के अन्दर अलंकारान्तर का भी निबन्धन वैसे ही कर बैठता है जैसे हारादि अलंकार के आभ्यन्तर ही मणिबन्धादि का निबन्धन होता है। फिर अलंकारान्तर सान्निवष्ट अलंकार रत्नभासुर भूषण के समान कान्ता शरीर रूपी शब्दार्थ का भूषण होता है। भ्राजमान अलंकार से ही अलंकार्य कान्ता सौन्दर्य या रसादि, अतिशय शोभित होते हैं। अलंकारों की छाया के अन्तर्गत ही अलंकार्य होते हैं। इस मार्ग से पुरानी वर्णित भी वस्तु, उक्ति, वाचत्र्य रूप अलंकारादि से, सौन्दर्य की चरमसीमा को प्राप्त करा दी जाती है। अन्य प्रकार से स्थित वस्तु कवि की रुचि के अनुसार उसकी प्रतिभा से उल्लिखित होकर अन्य प्रकार की ही प्रतीत होने लगती है। वाच्य वाचक वृत्ति से अतिरिक्त लोकोत्तर किसी वाक्यार्थ की प्रतीयमानता इस मार्ग से परिलक्षित होती है। पदार्थों का सरस साभिप्राय स्वभाव निबन्धित होता हुआ भी किसी कमनीय वैचित्र्य (अलंकार वक्रता) से विशेषित रहता है। जहाँ . .. . . . . . .

४६२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र वक्रोक्ति का वैचित्र्य ही प्राण हो ऐसा कोई विचित्र मार्ग है। जिसमें लोकोत्तर अतिशयात्मिका वक्रता स्फुरित होती रहती है। यह विचित्र मार्ग अत्यन्त दुःसञ्चर है विदग्ध कवि ही इस मार्ग से चल पाते हैं। यह मार्ग खड्ग के धारापथ के समान दुः सञ्चर है फिर भी सुभटो के मनोरब जैसा निर्बाध रूप से इस मार्ग पर चल सकता है। विदग्ध कवियों की ही मनोरथ रूप प्रतिभा वक्रता इस मार्ग से चल सकती है।

उभयात्मकमध्यम मार्ग

वैचित्र्य तथा सौकुमार्य दोनों मार्ग इस मार्ग में संकीर्ण होते हैं इस मार्ग में सहज शोभा तथा आहार्य शोभा, दोनों का अतिशय, शोभित होता है। इस मार्ग के माधुर्यादि गुण, वैचित्र्य एवं सौकुमार्य के गुणों के मध्य की वृन्ति का आश्रयण करते हैं। इससे बन्धशोभा की विलक्षणता ही पुष्ट होती है। स्पर्धापूर्वक जहाँ पूर्वोक्त दोनो मार्गों की संपत्तियाँ बिराजित हैं, उसे मध्यम मार्ग कहते हैं। यह सभी के लिए मनोहर होता है। जो वैचित्र्य में रुचि रखते हैं उन्हें वैचित्र्य मार्ग सुलभ हो जाता है। तथा जो सौकुमार्य में रुचि रखते हैं। उन्हें सौकुमार्य। जो दोनो में रुचि रखते हैं उन्हें तो मनोहर है ही कमनीय वस्तु के व्यसनी अरोचिकी इस शोभा वैचित्र्य से या इस रञ्जक मार्ग से गमन करते हैं जैसे विदग्ध वेश-भूषा की रचना में विलासी सादर या आसक्त होते हैं। इन तीनों मार्गों के कवि भी प्राप्त होते हैं जैसे-कालिदास, सर्वसेन आदि कवियों के काव्य सहज सौकुमार्य से मनोहर हैं इन कवियों में सौकुमार्य मार्ग की चर्चा करनी चाहिए। वैचित्र्य गुण से विशेषित काव्य, बाणभट्ट का हर्षचरित है। भवभूति राजशेखर के भी काव्य प्रायः इसी वैचित्र्य मार्ग में आश्रित हैं। मध्यम मार्ग मातृगुप्त मायुराज आदि के काव्यों में स्पष्ट परिलक्षित होता है। इन मार्गों में गुणों को दिखलाया गया है। जिनपर ये मार्ग आश्रित होते हैं। जैसे गुण विशिष्ट रीति दर्शायी गई है। वैसे ही गुणविशिष्ट मार्ग भी कुन्तक ने दर्शाया है। रीति में दश शब्द गुण, दशअर्थगुण दिखलाए गए हैं। यहाँ केवल दस गुण हैं चार सौकुमार्य मार्ग के चार ही वैचित्र्य मार्ग के तथा दो तीनों मार्गों के ऐसे मध्यम मार्ग के गुण उक्त दोनों मार्गों के गुण के मिश्रण से हो सकते थे किन्तु इनका अन्तर्भाव उक्त गुणों में अवश्य कर सकते हैं, अतः अलग से दिखलाना उचित नहीं समझा गया होगा। ये गुण, माधुर्य प्रसाद लावण्य तथा अभिजात्य नाम से चार हैं। ये चार ही सौकुमार्य के तथा ये ही चार वैचित्र्य के दिखलाये गये हैं। लक्षण दोनों मार्ग के गुणों के भिन्न भिन्न है। औचित्य तथा सौभाग्य नामक दो गुण सभी मार्गों में होते हैं इन के लक्षण एक ही हैं। उक्त मार्गों में वक्रोक्ति का दिग्दर्शन उन्हीं के उदाहरणों से कराना समुचित तथा प्रकृत होगा। क्रम से सौकुमार्य मार्ग में जो सौकुमार्य के परिस्पंद से वैचित्र्य रूप वक्रोक्ति है, उसका उदाहरण जैसे RRESTHA HAPPEARAN रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त ४६३

प्रवृत्ततापो दिवसोऽतिमात्रमत्यर्थमेव क्षणदा च तन्वी। उभौ विरोधक्रियया विभिन्नौ जायापती सानुशयाविवास्ताम्।। दिवस अत्यन्त तापतप्त है तथा रात्रि अत्यन्त तन्वी। दोनों विरोधक्रिया से विभिन्न अलग-२ होकर जायापती के समान पश्चात्ताययुक्त (चिन्तायुक्त) से हो रहे है। यहाँ “प्रवृत्तताप” ‘तन्वी, विरोध-क्रिया विभिन्नौ’ तथा क्षणदा आदि शब्द वक्रोक्ति के स्थल है। श्लेष छाया से छुरित इन पदों से अर्थान्तर की प्रतीति हो रही है जो स्वभाविक कविशक्ति से समुल्लासित है आहार्य अलंकारादि न होने से, सौकुमार्य मार्ग से विलक्षण शोभा भी पुष्ट हो रही है। प्रवृत्तताप आदि पदों से, अर्थान्तर-श्लेषकी प्रवृत्ति यहाँ इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि ‘जायापती’ रूप पद जो द्विवचनान्त है उसके विशेषण एकवचनान्त पद हो नहीं सकते। तथा विरोधक्रियाया विभिन्नौ’ जो पद हैं। वह द्विवचनान्त होने से दिवसादि के विशेषण नहीं हो सकते। अतः ये केवल प्रकारान्तर की प्रतीति कराते हैं। न कि शक्त्यादि से प्रवृत्ति। अतः कहते हैं, कि तथा च-‘प्रवृत्तताप’ ‘तन्वी’ रति वाचकौ सुन्दर-स्वभाव मात्र समर्पण परत्वेन वर्तमानावर्थान्तर प्रतीत्यनुरोधपरत्वेनप्रवृत्ति न सम्मन्येते। कविव्यक्त कौशल समुल्लासितस्य पुनः प्रकारान्तरस्य प्रतीतावानुगुण्यमात्रेण तद्विदाह्लादकारितां प्रतिपद्यते।।५।। विरोध क्रिययाविभिन्नौ’ केवल उपमान जायापती, में अन्वित हो रहे हैं उपमेय दिवस तथा क्षणदा में नहीं। उपमेयगत विरोध क्रिया, सहानवस्थान रूप हैं तथा विभिन्नत्व, स्वभाव भेद लक्षण है। उपमान जायापती में, ईर्ष्या कलह रूप विरोध क्रिया है, तथा कोप से पृथक् देश में अवस्थान होने पर विभिन्नत्व भी है। ‘अतिमात्र’ ‘अत्यर्थ’ विशेषण भी दोनों पक्ष में अतिशय कारिता के कारण अत्यन्त रमणीय है। इस प्रकार यहाँ वक्रोक्ति का विषय स्पष्ट है। प्रकरणादि से प्रकृत वाक्यार्थ में अभिधा के नियान्त्रित होने के बाद अप्रकृत अर्थ की प्रतीति में व्यञ्जना ध्वनिवादियों ने मानी है, तथा शाब्दी व्यञ्जना स्वीकार की है। जो ध्वनि के रूप में प्रतिष्ठित होती है। वक्रोक्तिकार की दृष्टि में, शब्द शक्त्युद्भव, अर्थान्तर की प्रतीति में व्यंजना विचित्र अभिधा या वक्रोक्ति कुछ भी मान लें किन्तु उससे-प्रतीत अर्थ ध्वनि नहीं मानी गयी है। यहाँ तो प्रकृत या अप्रकृत अर्थ की स्थिति भी नहीं है बल्कि दोनों उपमान उपमेय रूप में उपात्त हैं। अतः दोनों प्रकृत वाक्यार्थ में हैं। दोनों के साधर्म्य में उपात्त शब्द, प्रवृत्ततापादि उभयनिष्ठ अभिधा से ही होगें। अतः ‘प्रकरणवश ग्रीष्मऋतु का वर्णन होने से एकार्थ में ही ये पदार्थ नियन्त्रित हो जाते है, इस लिए अर्थान्तर की प्रतीति के लिए ये शब्द साधक अर्थात् बाधक नहीं होते हैं’ ‘यह आचार्य विश्वेश्वर जी का कथन विचारणीय है। बल्कि वाचक के निराकरण में यह कहना चाहिए कि वचन भेद होने से विशेषण विभिन्न वचन वाले विशेष्य में अन्वित न होने से वाचक नहीं होते हैं अतः विचित्र अमिधा या वक्रोक्ति यहाँ स्वीकृत होती है। वैचित्र्य मार्ग का उदाहरण जहाँ भासमान ४६४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अलंकारों से ही, अलंकार्य रूप वस्तु व्यक्त होकर शोभित होती है, ध्वनि वादियों का जहाँ अलंकारादि से वस्तु ध्वनि होती है, वहाँ वक्रोक्तिकार का कहना है कि भ्राजमान अलंकार, स्वयं सप्राण भासित होकर भूषण के लिए भी परिकल्पित होता है। जैसे मणिमयूख से उल्लसित भासित कङ्कण आदि भूषण अपनी प्रभा से कामिनी शरीर को अच्छादित कर आच्छादक अपनी कान्ति की कमनीयता के अन्तर्गत अन्तर्निविष्ट, अलंकार्य शरीर को अलंकृत करता है। यह अलंकार की महिमा है कि अपनी शोभा के अतिशय में अन्त विद्यमान अलंकार्य को ही शोभित करता है। वहिर्भूत किसी अलंकार्य को नहीं जैसे “आर्यस्याजिमहोत्सवव्यतिकरे नासंविभक्तोत्र वः कश्चित् क्वाप्यवशिष्यते त्यजत रे नक्तञ्चराः सम्भ्रमम्। भूयिष्ठेष्वपि का भवत्सु गणनात्यर्थं किमुत्ताभ्यते तस्योदारभुजोष्मणोऽनवसिता नाचारसम्पत्तयः।।” इस का अर्थ है-“हे राक्षस गण ! आर्य राम ने जिस समर महोत्सव का आयोजन किया है उसमें बिना सम्मिलित हुए आप लोगों में से कोई भी अवशिष्ट नहीं रहेगा। आप लोग सम्भ्रम या उत्सव में भाग ग्रहण करने में भी अत्यधिक त्वरा छोड़ दें। उत्सव में भाग लेने वाले सभी को समुचित भाग भी दिया जायगा, आप लोगो की संख्यां भूयसी होने पर भी कोई फर्क नहीं पड़ता, आप लोग अधिक उत्कण्ठित या उतावले न हों, क्योंकि आर्य राम की भुजाओं के शौर्य की उष्मा के आचार तथा सम्पत्तियाँ समाप्त नहीं हुए हैं। आप लोगों की अधिक संख्या होने पर भी समर महोत्सव में आगत आप सभी का स्वागत पूरी तरह से करेंगे। यहाँ संग्राम में महोत्सव का निरूपण कर, इसी भ्राजमान रूपक के शोभातिशय के ही अन्तर्गत जो यह वस्तु ‘आर्य राम अपने शौर्य से तुम सभी राक्षसों का वध करेगें’ प्राजित हो रही है। आर्य राम की भुजोष्मा का आचार तथा सम्पत्तियाँ अभी दोनो समाप्त नहीं हुई हैं इससे स्पष्ट है कि इस उत्सव में आप सभी को मारण रूप भाग अवश्य दिया जायगा। यहाँ वैचित्र्य मार्ग की वक्रोक्ति है। इस प्रकार अध्यात्म मार्ग का भी उदाहरण समझना चाहिए।

वक्रोक्ति तथा रस

“काव्यका आत्म तत्त्व रस है”-इस पर भरत मुनि से लेकर सभी आचार्य प्रायः एक मत है। अब विचार यह करना है कि वक्रोक्ति का इस से क्या संबंध हो सकता है? यह अलग बात है कि भरत मुनि के रस सूत्र की व्याख्या करते हुए अनेक आचार्यों ने रस को विभावादि से उपचित या विभावादि से अनुमित, या विभावादि से भुज्यमान, या विभावादि से अभिव्यक्त मानकर रस तथा विभावादि में उनके संबंध स्थापित किये हैं। प्रायः इस सूत्र के व्याख्यान में लोचन ध्वन्यालोक में अभिनव गुप्त जी तथा रसगंगाधर में, पाण्डितराज ने, ११ ग्यारह मतों का निरूपण कर रस के साथ विभावादि काव्य का संबंध ……………….. …… … …….. ….. . ……. रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त ४६५ . दिखलाया है। वक्रोक्तिजीवितकार, जिन्होंने वक्रोत्ति से ही काव्यीय सभी पहलुओं को ग्रहण करने की चेष्टा की है क्या उन्होंने रस को भी इस वक्रोक्ति से ग्रहण किया है ? या वक्रोक्ति से भिन्न किसी अन्य उपाय से रस की निष्पत्ति के विषय में उन्होंने कहीं भी नहीं कहा है कि वक्रोक्ति रस की बोधिका वृत्ति भी है जैसे व्यञ्जनादि। किन्तु काव्य में रस को ही सर्वस्व मानने में उनकी अनेक उक्ति प्रमाणित है जैसे-“काव्यामृतरसेनान्तश्चमत्कारो वितन्यते “निरन्तररसोद्गार गर्भसन्दर्भ निर्भराः गिरः कवीनां जीवन्ति” इत्यादि स्थलों से काव्य का जीवन भूत रस कुन्तक को अभिमत है यह निर्विवाद है। रस परमालादरूप सहृदयों के हृदय मात्र से अनुभूयमान प्रसिद्ध है। इस रस का प्राण औचित्य है। कुन्तक की वक्रोक्ति भी औचित्य के उपनिबन्धन की कसौटी के रूप में स्वीकृत है। वक्रोक्ति से बोध होने वाला औचित्यपूर्ण सभी वर्णादि तथा मार्गादि की वक्रताओं में पूर्ण काव्यता का परिदर्शन कुन्तक ने किया है। उनकी दृष्टि में उच्चावच रहित, पूर्ण परिपाक सम्पन्न ही शब्दार्थ काव्य है। और वह वक्रोक्ति से गृहीत सभी स्थलों में अन्य निरपेक्ष भाव से पूर्ण है। अतः यह कहने की जरूरत नहीं है कि जैसे अन्य आचार्यों ने रस को काव्य का सर्वश्रेष्ठ तत्त्व माना है, वैसे ही आचार्य कुन्तक भी मानते हैं। इन्होंने स्वयं कहा है-“यद्यपि सर्वेषामुदाहरणानाम विकलकाव्यलक्षणपरिसमाप्तिः सम्भवति तथापि यःप्राधान्येनाभिधीयते स एवांशः प्रत्येक मुद्रित तया परिस्फुरतीति सहृदयैः स्वयमेवोत्प्रेक्षणीयम्”। इन्होंने काव्य में रस, स्वभाव तथा अलंकार, तीन तत्त्वों को माना है। स्वभावोक्ति, वस्तु के स्वाभाविक वर्णन से संबंध रखती है। इस स्वाभाविक वर्णन में भी वक्रोक्ति स्वीकृत है जिससे सहृदयों को अविकल काव्यास्वाद प्राप्त होता है तथा साथ ही धर्मादि चतुष्टय उपाय भी सिद्ध होते हैं जैसा कि शरीरमिदभर्थस्य रामणीयकनिर्भरम्। उपादेयतयाज्ञेयं कवीनां वर्णनास्पदम् ।। धर्मादिसाधनोपायपरिस्पन्दनिबन्धनम्। व्यवहारोचितं चान्यल्लभते वर्णनीयताम् ॥ ३/६/१० वर्णानास्पद अमिधाव्यापार का विषय सौन्दर्यपूर्ण, आवर्जक वस्तु, काव्य का शरीर है। यह धर्मादि साधन का भी उपाय है। रस तत्त्व के वर्णन के प्रसंग में चेतन भावो के परिपोष से पेशल पारमार्थिक धर्म या स्वभाव का औचित्यपूर्वक वर्णन, को रस कहा है। यह चेतन भी मुख्य तथा अमुख्य चेतन भेद से दो प्रकार का माना गया है सुर, असुर, सिद्ध, गन्धर्व विद्याधर नृपति आदि प्रधान चेतन हैं। सिंहादि अमुख्य चेतन है। इस प्रकार चेतन, अमुख्य चेतन, या जडादि भावों का यदि रस के उद्दीपन में सामर्थ्य, निबन्धन हो तो वहाँ सर्वत्र रस जो परमाइलादमय है, माना जाता है। जैसे कि कहा है

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-४६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र रसोद्दीपन-सामार्थ्यं विनिबन्धनबन्धुरम्।। चेतनानाममुख्यानां जडानां चापि भूयसा।। ३/८ इस प्रकार रस की स्थिति में, कुन्तक क्या वक्रोक्ति को ही स्वीकार किया है। या किसी व्यापारान्तर को। यदि हम कहें कि व्यापारान्तर ही रसस्थान में मानना उचित है। तो प्रश्न होगा कि वक्रोक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यापार का कुन्तक ने नाम ही नहीं लिया है। फिर व्यापारान्तर कैसे कह सकते हैं ? यदि कहें वक्रोक्ति से ही रसपरिग्रह भी करना चाहिए क्योंकि वक्रोक्ति ही काव्य का जीवित है, जो ग्रन्थ के नाम से ही स्पष्ट है तो प्रश्न होगा कि वक्रोक्ति से जब अर्थाभिव्यंजक वस्त्वादि ध्वनि को भी इन्होंने नहीं स्वीकार किया तथा कवित्त के रूप में समझाकर इन्हें छोड़ दिया तो आनन्द वर्धन की दृष्टि से विभावादि अर्थों से प्रधानतया अभिव्यक्त रस को कुन्तक ने उस वक्रोक्ति से कैसे ग्रहण किया। जिससे रीति अलंकार आदि भी गृहीत किए गये हैं। क्या रीति अलंकारादि स्थल एवं रसादिस्थल सामान्यतया सहृदयों को आह्लादक हो सकते हैं सहृदय हृदय की आह्लादकता के अभिधान में एक कारिका उपलब्ध होती है। कि वाच्यवाचकवक्रोक्तित्रितयातिशयोत्तरम्। तद्विदाहूलादकारित्वं किमप्यामोदसुन्दरम्। १/२३, यहाँ वाच्य तथा वक्रोक्ति इन तीनों के अतिशय से अतिरिक्त लोकोत्तर अतिशय जो अव्यपदेश्य सहृदयहृदय संवेद्य तत्त्व है उसका निर्देश किया जा रहा है। यदि इसमें यह कहें कि वक्रोक्ति से अतिरिक्त किसी अन्य व्यापार से, रसादि परिग्रह का निर्देश है तो दूसरी (अवान्तर) करिका इस प्रकार भी उपलब्ध होती है वक्रतायाः प्रकाराणामौचित्यगुणशालिनाम् । एतदुत्तेजनयालं Hu स्वस्पन्दमहतामपि।।। रसस्वभावालंकारा आसंसारमपि स्थिताः। अनेन नवतां यान्ति तद् विदाइलाददायिनीम् ।। इससे यह स्पष्ट होता है कि वक्रता के प्रकारों में, एक प्रकार, गुण एवं औचित्य से पूर्ण भी हैं जिससे रसादि अति नवीन पोष को प्राप्त कर, परमाह्लाद देते हैं। इन दोनों उपर्युक्त उक्तियों से यह स्पष्ट किया जा सकता है कि इस प्रधान स्थलों में वक्रोक्ति से या वक्रोक्ति के स्पष्ट अवस्थान के बिना, वस्तु स्वभाव मात्र से प्राप्त विभावादि की स्थिति से, रस प्रतीति होगी। स्वभाव प्रधान तथा रस प्रधान, दोनों स्थलों में वर्णना वस्तु, का शरीर होने से ए दोनो, अलंकार्य हैं। अलंकार प्रधान, स्थल इन्हें अलंकृत करते हैं। किन्तु यह नहीं कह सकते कि अलंकार्यालंकारभाव की कोई विविक्त अवस्थित होती है। तथा गुणप्रधान भाव से काव्य में, उच्चावच की कल्पना करनी पड़ सकती है। ४६७ रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त इनके अलंकार में अलंकार्य, ऐसा अनुस्यूत होगा, जो अलंकार के अवस्थान मात्र में अवस्थित होगा। प्राचीनों के रसवदलंकार, इस संज्ञा पर विचार करते हुए कुन्तक काव्य में रस की अलंकारता का निराकरण करते हैं। ‘प्रधान चेतन का वर्ण्यमान परिस्पन्द ही रस है। उसे अलंकारान्तर के रूप में स्वीकृत नहीं किया जा सकता। क्योंकि वर्ण्यमान वस्तु का जो आत्मीय परिस्पन्द, उससे, अत्यधिक परिस्पन्द अन्य किसी का अवबुद्ध ही नहीं होता। यद्यपि सालंकारत्व ही काव्यत्व है फिर भी अपोद्धार बुद्धि से विवेक कर प्रमाता अलंकार तथा अलंकार्य में पृथक्ता कर लेता हैं। रसवदलङ्कार में ऐसी पृथक्ता मैं अत्यन्त विवेक करने पर भी नहीं देख पा रहा हूँ। तथा प्राचीनों के द्वारा प्रदत्त लक्षण तथा उदाहरण में भी ऐसा विवेक नहीं कर पा रहा हूँ। प्राचीनो ने जो कहा है कि __‘रसवदर्शितस्पष्टश्रृंगारादि’ इस रसवद् के लक्षण से क्या समझा जाय। “दिखाये गये हैं। स्पष्ट श्रृंगारादि जहाँ” ऐसा कोई काव्य से अतिरिक्त, पदार्थ है या काव्य ही। अतिरिक्त पदार्थ दीख नहीं पड़ता। काव्य को मानने में काव्यस्थ शब्दार्थ के अलंकार है। यह कहना समुचित नहीं होगा। जबकि प्राचीनों ने शब्दार्थगत ही अलंकार माना है न कि काव्यगत। यदि ‘यत्र’ के स्थान पर “येन” से समास करे तथा यह अर्थ करें कि जिसके द्वारा स्पष्ट श्रृंगारादि दर्शित होते हैं वह रसवत् है, तो वह कारण कौन हो सकता है। यदि प्रतिपाद्यमान रस के अतिरिक्त प्रतिपादन वैचित्र्य को ‘येन’ से ग्रहण करते हो तब तो शोभा का कारण प्रतिपादन वैचित्र्य होगा प्रतिपाद्य रस नहीं तथा साथ ही रसो के प्रतिपादन का वैचित्र्य दर्शित होता है। इससे तो रसादि के दर्शन का ही स्वरूपनिष्पन्न हो रहा है। अतः ‘येन’ से समास भी उचित नहीं है। इस प्रकार दर्शित, स्पष्ट शृङगारादि लक्षण का निर्वचन हुआ। जिसका लक्षण ‘दर्शिताः स्पष्टशृंगारादयो यत्र अथवा येन से समास किया गया। अब ‘रसवद्’ पद पर ध्यान दिया जाय। यदि यह कहें कि शृंगारादि रस रसवत् काव्य के अलंकार है तो भी रसयुक्त होने पर तो रसवत् काव्य होगा। फिर उस रसवत् काव्य का अलंकार रस हो, इस उक्ति से आप क्या कहना चाहते हैं उसी रस रूप अलंकार के कारण काव्य में रसवत्ता आहित की जा रही है। पुनः उसी को उसका अलंकार कहा जा रहा है यह उचित नहीं। अतः यह कहना चाहिए। या इससे यह कहा जा सकता है, कि काव्य में “रसवान् अलंकार’ ऐसा रसवदलंकार का अर्थ करे। तो इसे रसवान किसी रूपकादि अलंकार के माध्यम से काव्य भी रसवद् हो जायेगा। यदि यह कहें कि रसवदलंकार के कारण ही रस से सम्बद्ध होकर, रसवत् काव्य हुआ, पुनः उसी रसवत् काव्य का अलंकार रसवदलंकार हो सकता है। जैसे अग्निष्टोम का यजन करने वाला पुत्र होगा। यह कहने के लिए अग्निष्टोम का पूर्व यजनकर्ता पुत्र यजन करेगा ‘ऐसा वाक्यार्थ भी प्रयुक्त होता है वे ही पूर्वरस संसर्ग से सम्बध काव्य रसवदलंकार होगा, ऐसा प्रयोग सम्भव है यह भी कहना ४६८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ठीक नहीं क्योंकि भूतकालिक भी याजी का “णिनि” किसी अन्य व्यक्त विषय में निष्पन्न होने से यजनकर्ता मात्र है। अतः उसका भविष्यत् के साथ अन्वय हो सकता है। परन्तु जिस रसवत् काव्य के कारण रसवदलंकार की स्वरूपोलब्धि हो रही है, उसी रसवदलंकार सम्बन्धी काव्य की रसवत्ता हो रही है। अतः इतरेतराश्रय दोष सुलभ होगा।

वक्रोक्ति सिद्धान्त

वक्रोक्ति सम्प्रदाय के सम्बन्ध में विचार करने के पूर्व सम्प्रदाय शब्द पर दृष्टि डालना आवश्यक लगता है। आजकल प्रायः लोग सम्प्रदाय शब्द ऐसे अर्थ में प्रयुक्त करते हैं। जिससे एक धर्म विशेष में विश्वास करने वाले की ओर निन्दित दृष्टि से संकेत प्रतीत होता है, किन्तु भारतवर्ष में सभी विकास एवं संस्कृति की ओर तथा अपनी विचार धारा को सर्वथा मूल स्थापन से सम्बद्ध करने की ओर, सम्प्रदाय एवं परम्परा शब्द प्रयुक्त होते रहे हैं। सम्प्रदाय से विच्छिन्न वस्तु का विवेक यदि कोई करना चाहता था तो उसके अन्त गर्भ में जाकर मूल तत्त्व के विवेक करने पर, यदि सभी प्रकार से निर्दिष्ट वस्तु सिद्ध होती थी तभी उसका सम्प्रदाय आगे के लोग चलाते थे। वस्तु की निर्दुष्टता की कसौटी, पुष्ट प्रमाण होता था, गड्डलिका प्रवाह नहीं। इस ‘सम्प्रदाय’ शब्द पर विचार करने पर इसके तीन अवयव दीख पड़ते हैं सम्+प्र+दाय। दाय शब्द का विवेक विधि शास्त्रों में स्पष्ट किया गया है। एक प्रकरण ही है ‘दायभाग’ से प्रसिद्ध है। ‘दाय’ का अर्थ है- पित्रंश, या पैतृक सम्पत्ति। जैसे अपनी पैतृक सम्पत्ति पर केवल अपना स्वत्व होता था तथा अपने विवेक एवं परिश्रम से उस मूल अंश को विस्तृत किया जाता था वैसे ही विवेक एवं ज्ञान के क्षेत्र से अपने पूर्व मनीषियों की सर्वदोषनिर्मुक्त कर्ण पाटवादि दोष शून्य ऋतम्भरा प्रज्ञा जिस अमूल्यवस्तु को अपने विवेक से लोकहित में प्रस्तुत करती थी उसी को आगे मनीषी गण बिना तत्त्व को छोड़े एक विशेष प्रणाली से पुष्ट करते थे, उसका वस्तुपोषण सम्प्रदाय से अविच्छिन्न माना जाता था तथा सर्वसम्मान का पात्र होता था। परम्परा में पर-पर का अनुभव होता था। अर्थात् कोई मनीषी किसी वस्तु को जिस प्रमाण से जितनी दूर तक सत्यरूप में अनुभव कर लेता था, बाद का मनीषी उसी प्रमाण पर आश्रित होकर कुछ विलक्षण वस्तु तत्त्व को अनुभूत करता था। इसमें वस्तु विवेक प्रमाण तो निर्दिष्ट सिद्ध पूर्व मनीषियों से अनुष्ठित होता था, किन्तु प्रमेय में अनुन्मीलित अंश का उन्मीलन प्रमाणजन्य प्रभा से करता था, उसी प्रमाणजन्य ज्ञान को अनुभव कहा गया है। तथा परं परमनुभवति यह परम्परा शब्द की व्युत्पत्ति की गई है। अतः संक्षेप में अब हम यह कर सकते हैं कि सम्प्रदाय में पूर्व स्थापित वस्तु की विविध विधाओं से पुष्टि की जाती है तथा परम्परा में पूर्वानुष्ठित प्रमाणों या पूर्वकल्पित सोपानों पर ही आश्रित होकर नवीन वस्तु का अनुभव किया जाता है। FREE ४६६ रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त यहाँ हम वक्रोक्ति सम्प्रदाय पर विचार कर रहे है। अब हमें यह देखना होगा कि वक्रोक्ति को कुन्तक से पूर्व किस आचार्य ने स्थापित किया था। जिसकी पुष्टि कुन्तक “वक्रोक्ति जीवितम्" ग्रन्थ से कर रहे हैं। यदि इसके पूर्व किसी ने इस वक्रोक्ति वस्तु का स्पर्श न किया हो तो यह सम्प्रदाय के अन्तर्गत ही नहीं होगी, फिर यह प्रसिद्धि या वक्रोक्ति सम्प्रदाय संज्ञा ही भ्रन्तिमूलक होने लगेगी। किन्तु यह स्पष्ट है। कि आचार्यों के द्वारा उक्त “सम्प्रदाय" शब्द यदि सार्थक नहीं होगा तो उनकी आचार्य की उपाधि भी संदिग्ध होगी। आचार्य संदिग्ध नहीं होता, अतः यह नामकरण भी निः संदिग्ध सार्थक एवं साधु है। इस प्रकार जब हम साहित्य या काव्यीय तत्त्व पर विचार करते हैं तो उपलब्ध ग्रन्थों में भरतमुनि विरचित नाट्यशास्त्र आकर ग्रन्थ के रूप में सामने आता है, बाद में दण्डी, भामह आदि भी आते हैं। मुनि वचन के विरूद्ध कोई भी आचार्य विचार करने को प्रस्तुत नहीं होता है। हो भी कैसे सकता है। मनन के कारण मुनि संज्ञा को प्राप्त किसी आचार्य की वस्तुपरक उक्ति को अन्यथा करना दोष दृष्ट होने से बच नहीं सकता। उन्हीं वचनों पर आश्रित भामह के काव्य लक्षण पर विचार करें क्या यह वक्रोक्ति उनके काव्य लक्षण से ही तो नहीं संकेतित है। भामह ने काव्य लक्षण पर विचार करते हुए कहा कि “शब्दार्थों सहितौकाव्यम्"। इनमें शब्दार्थ को काव्य मानने वाले भामह ने शब्दार्थों का विशेषण “सहितौ” दिया है। इस विशेषण को प्रायः अनुवादक “शब्द तथा अर्थ दोनों काव्य हो केवल एक ही नहीं इसके लिए “सहितौ” विशेषण है, ऐसा कहते हैं तथा संयुक्त शब्दार्थ को काव्य मानते हैं। किन्तु विचार करने पर यह अर्थ आपाततः प्रतीत होता है, किसी आचार्य के साखत्सत्र में निर्दिष्ट पदावलियों का यह अर्थ अत्यन्त असंगत है। यदि शब्दार्थ का साहचर्य ही समशीर्षक तथा ग्रहण करना होता तो केवल “शब्दार्थों” से ही यह हो जाता क्योंकि द्वन्द्व में उक्त सभी पदार्थ प्रधान होते है तथा एक क्रिया में अन्वित होने से सभी का साहचर्य स्वयं सुतरां सिद्ध होता है। अतः सूत्र में केवल शब्दार्थों न कहकर “सहितौ” विशेषण कुछ निश्चित ही पदार्थ तत्त्वपरक है। इसमें कोई सन्देह नहीं। अब जब हम साहित्य विशेषण पर विचार करते हैं तो इसमें वे अवयव स्पष्ट होते हैं ‘स’ जो सह अर्थ में है, तथा “हित”। ‘हितेन सह वर्तेते इति सहितौ’ हित के साथ जो हो वह ‘सहितौ’ है। हित पदार्थ पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि या तो इसका अर्थ (अभि) हित कर लें, या भाव में क्त करके अमिधा कर लें। धा थातु से क्त प्रत्यय करने पर हित शब्द व्युत्पन्न होता है। अब, शब्द में विशेषण “हित” का अर्थ अमिधा, तथा अर्थ में विशेषण होने वाले “हित” का अभिहित कर लें तो यह हित दोनों में अन्वित हो सकता है। अब इस हित के साथ रहने वाले शब्दार्थ निश्चित ही अप्रधानार्थ में उपात्त तृतीयान्त “हित” अपने को गुणीभूत कर सहित पदार्थ को प्रधान करेगा जो वाच्यवाचक भाव से व्यतिरिक्त वाच्यवाचक भाव होगा। स्वाभाविक वाच्यवाचक ५०० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र भाव तो शब्दार्थों कहने से भी प्राप्त था ही। अब हितेन सहितौ शब्दार्थों कहने से शब्दार्थ सम्बन्ध रूप से ख्यात अभिधा के अतिरिक्त कोई विचित्र अमिधा आपको स्वीकार करनी होगी। इसी सहितौ पदार्थ के साहित्य को लेकर कुन्तक ने वक्रोक्ति की यदि स्थापना की है तो सम्प्रदाय का विच्छेदन नहीं होगा तथा वक्रोक्ति सम्प्रदाय संज्ञा उचित होगी। भामह की यह कारिका जो सभी अलङ्कारों के मूल में वक्रोक्ति को प्रतिपादित कर रही है, इससे भी वक्रोक्ति सम्प्रदाय प्राप्त हो सकता है जैसा कि “सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते। यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलकारोऽनया विना”। इति। __ शब्दार्थों सहितौ काव्यम्” दाली कारिका में उपात्त सहितौ शब्द का विवेचन इस कारिका से भी करते हैं। STAAN “शब्दार्थों सहितावेव प्रतीतौ स्फुरतः सदा। सहिताविति तावेव किमपूर्व विधीयते।। पृ. १६, वक्रोक्ति. ‘अत एवैतदुच्यते-यदिदं साहित्यं नाम तद् एतावति निःसीमनि समयाध्वनि साहित्य-शब्द मात्रेण प्रसिद्धम्। न पुनरेतस्य कविकर्म कौशल काष्ठाधिरुढ़रमणीयस्याद्यापि कश्चिदयमस्य परमार्थ इति मनाङ्मात्रमपि विचारपदवीमवतीर्णः तदद्य सरस्वतीहृदयार विन्दमकरन्दविन्दुसन्दोहसुन्दराणां सत्कविवचसामन्तरामोदमनोहरत्वेन परिस्फुरदेतत् सहृदयषट्चरणगोचरतां नीयते’। (वक्रो. प्रथम, कारिका १६) __ भामह के इसी काव्यलक्षण, को कुन्तक भी काव्य का लक्षण मूलरूप से स्वीकार करते हैं, केवल कुछ पदार्थ और इसमें जोड़ देते हैं। शब्दार्थों सहितौ वक्रकविव्यापार शालिनि। बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाइलादकारिणि ।। ७ वक्रों. प्र. इसकी वृत्ति में केवल शब्द या केवल अर्थ ही काव्य नहीं है बल्कि दोनों सम्मिलित काव्य है इसको व्यक्त करने के लिए उन्होंने केवल “शब्दार्थोंकाव्यम्,” वाचको वाच्यश्चेति द्वौ सम्मिलितौ काव्यम्, कहा, ‘सहितौ’ को छोड़ दिया। क्योंकि वहाँ इस अर्थ में यह गुणी भूत होता। इस कारिका का अर्थ उन्होंने स्वयं इस प्रकार किया है _ “शब्दार्थों काव्यम्” कहने से वाचक तथा वाच्य दोनों सम्मिलित काव्य हैं। दो पदार्थ एक ही पदार्थ है यह विचित्र उक्ति है इससे कुछ लोग जो यह कहते हैं कि कविकौशल से समर्पित कमनीयता से “अतिशयित शब्द” ही काव्य है अथवा कुछ लोग कहते हैं कि रचना के वैचित्र्य से चमत्कारकारी केवल वाच्य ही काव्य है, ये दोनों मत निरस्त हो जाते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि जैसे प्रति तिल में तैल रहता है। वैसे ही शब्द तथा अर्थ दोनों में सहृद का आह्लादकतत्व काव्यत्व रहता है। इस प्रकार दोनों सम्मिलित शब्दार्थ जब काव्य रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त ५०१ के रूप में व्यवस्थित हो जाते हैं तब इस शंका से सहितौ विशेषण देते है कि कदाचित् किसी एक वाचक या वाच्य की थोड़ी सी भी न्यूनता की स्थिति में, काव्य व्यवहार न होने लगे इसलिए सहितौ कहते है। सहितौ का अर्थ है सहित भाव से अवस्थित दोनों शब्दार्थ। यदि यह शंका करें कि-वाच्य वाचक का सम्बन्ध नित्य होने से इन दोनों का तो कभी भी साहित्य विरह नहीं हो सकता फिर कैसा साहित्य “सहितौ” विशेषण से कहना चाहते हैं ? इस पर कहते हैं कि आप ठीक कह रहें हैं, दानों का साहित्य तो नित्य विद्यमान है फिर भी हमें यहाँ वह नित्य साहित्य अभीष्ट नहीं है बल्कि विशिष्ट साहित्य अभीष्ट है, जिसमें वक्रता वैचित्र्य, गुण अलङ्कार की विलक्षण सम्पत्तियों का स्पर्धापूर्वक अधिरोह हो। इस प्रकार सहितौ इस विशेषण में यथायुक्ति, शब्द का स्वजातीय शब्दान्तर की अपेक्षा तथा वाच्य का स्वजातीय वाच्यान्तर की अपेक्षा परस्पर स्पर्धा का नाम साहित्य मानना विवक्षित है अन्यथा सहृदय हृदय का आह्लादकारित्व सम्भव नहीं होगा। यदि यह वक्रता वैचित्य रूप साहित्य न हो तो अर्थ स्वतः स्फुरित होता हुआ भी समर्थ वाचक के अभाव में मृतकल्प होगा तथा वाचक भी वाक्य के उपयोगी वाच्य को प्रतिपदित न करने से वाक्य के लिए व्याधिभूत ही होगा। जैसाकि __“शब्दार्थों काव्यं वाचकं वाच्यश्चेति द्वौ सम्मिलितौ काव्यम्। द्वावेकमिति विचित्रैवोक्तिः। तेन यत्केषांचिन्मतं कविकौशलकल्पित कमनीयातिशयः शब्द एव केवलं काव्यमिति केषाञ्चिद् वाच्यमेव रचनावैचि यचमत्कारकारि काव्यमिति, पक्षद्वयमपि निरस्तं भवति। तस्माद्वयोरपि प्रतितिलमिव तद्विदाह्लादकारित्वं वर्तते, न पुनरेकस्मिन् यथा “तेन शब्दार्थों द्वौसम्मिलितौ स्थितम् एवमवस्थापिते द्वयोः काव्यत्वे काचिदेकस्य मनाङ्मात्रन्यूनतायां सत्यां काव्यव्यवहारः प्रवर्ततेत्याह-सहिताविति। सहितौ सहित भावेन साहित्येनावस्थितौ। - ननु च वाच्यवाचक सम्बन्धस्य विद्यमानत्वादेत-योर्नकथंचिदपि साहित्यविरहः, सत्यमेतत् । किन्तु विशिष्टमेवेह साहित्यममिप्रेतम्। कीदृशम्? वक्रताविचित्रगुणालङ्कारसम्पदां परस्पर स्पर्धाधिरोहः। इति। इस प्रकार “वक्रोक्तिं” संज्ञा सम्प्रदायप्राप्त संहितौ, शब्द से प्राप्त हो रही है अतः वक्रोक्ति सम्प्रदाय नामकरण समुचित है, अतः हिन्दी वक्रोक्ति जीवित में यह कथन कि “इसी साहसपूर्ण मौलिक विवेचन के कारण कुन्तक का वक्रोक्ति सिद्धान्त, केवल सिद्धान्त न रहकर, सम्प्रदाय बन गया है” यह चिन्तनीय है। __आचार्य विश्वेश्वर का यह कथन, कि कुन्तक का वक्रोक्ति सिद्धान्त केवल सिद्धान्त न रहकर सम्प्रदाय बन गया, इस वाक्य में सिद्धान्त तथा सम्प्रदाय में, एक निषेध तथा दूसरे के स्थापन से क्या अभिप्रेत है? ज्ञात नहीं होता। सिद्धान्त जिसका निर्णय सिद्ध हो उसके कहा जाता है, अन्त का अर्थ-निर्णय माना जाता है। उक्ति का निर्णय तो प्राप्त होता . . . ५०२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र है, किन्तु वक्रोक्ति भी निर्धान्त नियततया निश्चित पदपदार्थत्वेन क्या निर्णीत हो चुकी है। जिससे वक्रोक्ति को सिद्धान्त से विभूषित किया जा सके, अथवा वक्रोक्ति से प्रतिपादित पदार्थ. या वाक्यार्थ निश्चित निर्णीत है क्या ? यदि दोनों व्यापार तथा फल, या उपाय तथा उपेय, सहृदयगतनिर्मलप्रतिमान पर आधारित है तो निश्चित ही संविद विकास का अवसर इसमें है, अतः सिद्धान्त पद से कहना युक्तिसंगत नहीं लगता। “सम्प्रदाय बन गया है” यह भी कहना उचित नही है क्योंकि किसी ने पुनः इस वक्रोक्ति को लेकर जो कुन्तक से अभिमत वक्रोक्ति है उसका विवेचन ग्रन्थाकार में किया हो। हाँ! शब्दालङकार में गणित वक्रोक्ति, कुन्तक की वक्रोक्ति नहीं होसकती। अस्तु! आचार्य का जैसा विचार हो, श्लाघनीय है।

वक्रोक्ति स्वरूप

आचार्य कुन्तक ने अपने शब्दों में वक्रोक्ति को अलंकार कहा है, किन्तु यह अलंकार केवल उपमानुप्रास आदि नहीं है बल्कि काव्य के सभी तत्त्व हैं। उनहोंने कहा हैकि अलंकार तो शरीर के शोभाधायक होने से मुख्यतः, लोक में, कटक कुण्डल ही हैं किन्तु काव्य में शोभाकारित्व-सादृश्य को लेकर उपमा आदि में भी, लाक्षणिक रूप से अलङ्कार के प्रयोग होते हैं। उसी साधर्म्य से गुणादि भी अलंकार होगें इन सभी का प्रतिपादक प्रबन्ध भी अलङ्कार शब्द से ही कहा जायेगा। इस प्रकार वक्रोक्ति, अलंकार को सम्पूर्ण काव्य के तत्त्व के रूप में स्वीकार करते हुए अलंकार तथा अलंकार्य का विवेचन करते हैं उस समय वक्रोक्ति का लक्षण “वक्रोक्तिः वैदग्ध्यभङगीभणितिरुच्यते” कहकर करते हैं। वृत्ति में कहते हैं कि यह वक्रोक्ति क्या है? उत्तर देते हैं प्रसिद्ध अमिधा सेभिन्न विचित्र अमिधा ही वक्रोक्ति है जो कविकर्मकौशल रूप वैदग्ध्य की विच्छित्ति पूर्णमणिति है। इस प्रकार विचित्र अमिधा ही वक्रोक्ति है। जैसा कि “कासौवक्रोक्तिः! वक्रोक्तिरेव प्रसिद्धामिधानव्यतिरेकिणी विचित्रैवामिधा। कीदृशी-वैदग्ध्यमभङगीमणितिः। वैदग्ध्यं विदग्द्यभावः कविकर्मकौशलं तस्य भङगी विच्छित्तिः, तया मणितिः विचित्रैवामिधा वक्रोक्तिरित्युच्यते। १. अमिधा तथा विचित्र अमिधा में क्या भेद है? और २. यदि भेद है तो व्यापार भेद होनेसे नाम भेद “व्यञ्जना” आदि भी आनन्दवर्द्धन आदि से उपात्त हो चुकी थी उसे ही स्वीकृत कर लेते, विचित्र अमिधा का कथन क्यों? ३. विचित्र अमिधा से लक्षणा को ग्रहण किया जा सकता है या नहीं ? ४. विचित्र अमिधा को स्वीकार कर लेने पर प्रसिद्ध अमिधा का काव्य में उपयोग है या, नहीं ? ५. व्यञ्जनावादियों की ध्वनि के सभी क्षेत्रों को वक्रोक्ति से गृहीत किया जा सकता है या नहीं। रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त ५०३ ६. ध्वनि-वक्रोक्ति-रीति में परस्पर क्या भेद हैं आदि प्रश्न वक्रोक्ति विचार से सम्बन्ध रखते हैं। प्रथम प्रश्न पर विचार करते समय यह भी विचार कर लेना आवश्यक है कि कुन्तक के पूर्व कितनी वृत्तियाँ स्वीकृत हो चुकी थीं। अमिधा तथा लक्षणा ये दोनों वृत्तियां प्रायः प्रसिद्ध थीं, या यह कहें कि मुकुल भट्ट के अनुसार इन दोनों को अलग-अलग न मानकर “अमिधा” से ही कथन किया जा चुका था। आनन्दवर्धन ने व्यञ्जना वृत्ति को, इन दोनों वृत्तियों से भिन्न, तथा दोनों वृत्तियों अमिधा तथा लक्षणा को, मूल बनाकर स्थापित कर चुके थे। व्यञ्जनामूल की व्यञ्जना स्वीकृत थी, फिर इन सभी वृत्तियों को विचित्र अमिधा से केसे ग्रहण किया जा सकता है। __आनन्दवर्धन तक काव्यशास्त्र में अमिधा, लक्षणा (गौणी) तात्पर्य, व्यञ्जना इतनी वृत्तियाँ स्वीकृत थीं। इसमें साक्षात् संकेतित अर्थको प्रतिपादित करने वाली अभिधा, मुख्यार्थ बाधादि त्रयंको हेतु बनाकर प्रसारित होने वाली लक्षणा, तथा लक्ष्यार्थ या वाच्यार्थ को अन्वित कर वाक्यार्थ बोध कराने वाली तात्पर्याख्या तथा वाक्यार्थ पर्यवसित हो जाने के बाद वक्ता, बोद्धा आदि के वैशिष्ट्य से चमत्कारी अर्थ का बोध कराने वाली व्यञ्जना की स्थापना के बाद वक्रोक्तिजीवितकार वक्रोक्ति से काव्यीय निखिल तत्त्व का बोध जा करना चाहते हैं,क्या वह सम्भव है ? या उन तत्त्वों को जो इन वृत्तियों से गृहीत थीं उनमें से कुछ को काव्यीय तत्त्व न मानकर उन्हें छोड़ना चाहते है, शेष को वक्रोक्ति से ग्रहण करना चाहते हैं। __ आचार्य कुन्तक के सम्पूर्ण वाङ्मय को दो भागों में विभक्त करते हैं पहला भद स्वभावोक्ति, दूसरा भेद वक्रोक्ति पहला अलङ्कार्य है, दूसरा अलङ्कार। यह दूसरा भेद वक्रोक्ति ही अन्य वाङ्मय से काव्य को अलग करता है। इन्होंने आरम्भ में ही कहा है कि कुछ लोग प्रसिद्ध पदार्थ को जैसा का वैसा, यदि विवेचन करते हैं तो वह अद्भुद, चमत्कारोत्पादक नहीं हो सकता, क्योंकि किंशुक के वर्णन में यदि रक्तता का उपपादन करें तो वह स्वभावतः रक्त होता ही है, उसमेंकोई चमत्कार अनुभूत नहीं होता। यदि अपनी मनीषा से इच्छानुसार उन पदार्थों में असत्य तत्त्वों का उपपादन करते हैं तो वह प्रौढ़िमात्र होता है, वह परमार्थ नहीं है, इसलिए असत्तर्क सन्दर्भ वाले स्वतन्त्र तत्त्वों के उपपादन में भी, परमार्थ तत्त्व के समान, आदर न कर जो कवि दोनों तत्त्व एवं निर्मिति का उपपादन करते हैं, वे ही अद्भुत चमत्कार रूप आमोद के कारण हो सकते है। जैसा कि यथातत्वं विवेच्यन्ते भावास्त्रैलोक्यवर्तिनः। यदि तन्नाद्भुतं नाम दैवरक्ता हि किंशुकाः।। स्वमनीषिकयैवाथ तत्वं तेषां यथारूचि,। स्थाप्यते प्रौढ़िमानं तत्परमार्थो न तादृशः।। ५०४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र येन द्वितयमप्येतत्तत्वनिर्मिति लक्षणम्। तद्विदामद्भुतामोदचमत्कारं विधास्यति।। इससे यह ज्ञात होता है कि काव्य केवल कल्पना प्रसूत, स्वभाव रूप तत्त्व से सर्वथा रहित नहीं होना चाहिए क्योंकि चारों पुमर्थ की प्राप्ति अवस्त्वात्मक कल्पना मात्र के वर्णन या ज्ञान से सम्भव नहीं होगी। अतः काव्यों में अप्रधानतया पुरुषार्थों की प्राप्ति भी करनी होती है इसलिए स्वतन्त्र असत्तर्क पर आश्रित वस्तु काव्यीय वस्तु नहीं होगी, और नहीं किसी महाकवि के काव्यों में असत्तर्क से अवस्तु का ज्ञान ही उचित है। अतः कहते हैं कि “इत्यसत्तर्कसन्दर्भ स्वतन्त्रेऽप्यकृतादरः । इति .. इस उद्धरण से हमें यह भी सोचना होगा कि कुन्तक केपूर्व कुछ कवियों या आचार्यों ने अवश्य ही किसी काव्यीय वस्तु या निवेश में स्वतन्त्र असत्तर्क का निवेश किया होगा जिसके परिहार में वक्रोक्तिकार का यह कथन ग्रन्थ के आरम्भ में ही प्राप्त होता है, और उन्होंने अपने इस ग्रन्थ में किसी काव्य के विवेक में असंत्तर्क सन्दर्भ का परिहार भी किया है। इसके पूर्व हमें रस, अलङ्कार तथा रीति का विवेक, भरत, दण्डी, भामह तथा वामन के द्वारा किया गया, प्राप्त है तथा उनसे गृहीत सभी तत्त्वों को ग्रहण करने के लिए कुन्तक ने वक्रोक्ति को माना है। आनन्दवर्धन से स्थापित “ध्वनि प्रस्थान” के लिए भी व्यञ्जना के स्थान पर ही विचित्र अमिधा वक्रोक्ति को अनेक स्थलों पर स्थापित करते हुए दीख पड़ते हैं, यदि व्यञ्जनासे होने वाले व्यङ्ग्य की सभी स्थितियों में वक्रोक्ति का निवेश मान लिया जाय तो वक्रोक्ति या विचित्र अमिधा, व्यञ्जना का ही रूप होगी, भले ही किसी नामान्तर से उसे कहलें। कुछ विद्वानों के विचार, कर्ण परम्परया यह भी सुनने को मिलते है कि कुन्तक की वक्रोक्ति या विचित्र अमिधा, अमिधा से यदि अतिरिक्त है तो वह व्यञ्जना ही क्यों न मान ली जाय। यहाँ वक्रोक्ति का केवल नामकरण ही नवीन है। वक्रोक्ति को व्यञ्जना मानने में दो कठिनाइयाँ आती हैं। पहली तो यह की जो रीति, वृत्ति, शब्दालङ्कार, अर्थालङ्कार हैं वे सभी व्यञ्जना से गृहीत नहीं दिखलाये गये हैं किन्तु वक्रोक्ति से ये सभी गृहीत कर लिये गये हैं तथा ध्वनि के विषय भी पदपूर्वार्द्ध आदि वक्रता से ग्रहण किये गये हैं अतः वक्रोक्ति व्यञ्जना सेभिन्न भी है, व्यञ्जना रूप भी कहीं-कहीं है इससे स्पष्ट है कि व्यञ्जना सेयह अभिमत नहीं की जा सकती।

वक्रता भेद

वक्रता ६ प्रकार की मानी गयी है, पुनः इनके एक-एक के कई भेद उपलब्ध होते हैं। ये है-१. वर्णविन्यासवक्रता २. पदपूर्वार्द्धवक्रता ३. प्रत्ययाश्रयवक्रता ४. वाक्यवक्रता ५. प्रकरणवक्रता ६. प्रबन्धवक्रता। जैसा कि FASTina रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त ५०५ वर्णविन्यासवक्रत्वं पदपूर्वार्द्धवक्रता। वक्रतायाः परोऽप्यस्ति प्रकारः प्रत्ययाश्रयः।। १६|| वक्रो. प्रथम वाक्यस्य वक्रभावोऽन्यो भिद्यते यः सहस्रधा। यत्रालङकारवर्गोऽसौ सर्वोऽप्यन्तर्भविष्यति।।२०।। वक्रो. प्रथम वक्रभावः प्रकरणे प्रबन्धेवास्ति यादृशः। उच्यते सहजाहार्यसौकुमार्यमनोहरः ।। २।। वक्रो. प्रथम ये ६ वक्रता “शब्दार्यों सहितौ वक्रकवि” __ कारिका में उद्धृत शब्दार्थ की है। “वक्रकवि व्यापारशालिनि बन्धे” बन्धवक्रता भी एक है जो वाक्यों का विन्यास व्यापार मानी गयी है। इसी से वामन की रीति को अधिगत किया गया हैं। जैसा कि वाच्यवाचकसौभाग्यलावण्यपरिपोषकः। व्यापारशाली वाक्यस्य विन्यासो बन्ध उच्यते।। २२।। वक्रो. प्र. वर्णविन्यासवक्रता-अनुप्रासालङ्कार-वर्णविन्यास वक्रता, अनुप्रासालङ्कार के सभी भेदों को गृहीत कर लेती है। वाक्यवक्रता रूप अर्थालङकार से वर्णविन्यास वक्रतासुतरां भिन्न है, अतः इसे सर्वप्रथम दर्शाया गया है, यह शब्दालङकार के रूप में गृहीत किया जा सकता है किन्तु बाह्य शरीर शोभाधायक हो इसे नहीं माना जाता आत्म स्थानीय रसादि तत्त्व को भी विभूषित करता है। अतः वर्णविन्यासवक्रता उचित संज्ञा है। अनुप्रास भी ‘रसाद्यानुकूल्येन प्रकृष्टोन्यासः” की व्युत्पत्ति से इसी वक्रता को कहा गया है। पदपूर्वार्द्धवक्रता तथा ध्वनि-अविवक्षित वाच्यध्वनि के अर्थान्तर सङ्क्रमित वाच्य तथा अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य नामक दो भेद ध्वनिवादियों ने माने हैं, उनमें प्रथम भेद कुन्तक को अभिमत है, दूसरा नहीं। प्रथम भेद भी ध्वनि के रूप में नहीं बल्कि पदपूर्वार्द्धगत रुढ़िवैचित्र्यवक्रता के रूप में। यदि लक्ष्य या तत्त्व एक ही हो तो नामोच्चारण या नाम करणमात्र भेद से क्या वे भिन्न हो सकते हैं? यदि भिन्न नहीं हैं तो पूर्व आचार्य के द्वारा निर्दिष्ट नाम को कुन्तक क्यों नहीं स्वीकार करते ? ध्वनि तथा वक्रोक्ति के लक्षणों पर थोड़ा विचार करना उचित होगा। यदि इनके लक्षणों में भेद हो तो लक्ष्य में भी भेद हो जायेगा, यदि लक्षण एक ही होंगे तो लक्ष्य भी एक होगा और भिन्न नामकरण केवल एक हठवादिता होगी मूलार्थ या वस्तुपरक नहीं। __ध्वनिवादियों का मत है कि जब पदार्थ अन्वित हो जाय तथा वाक्यार्थ रूप अमिधा प्रतिपादित अर्थ पर्यवसित हो जाय, पुनः वक्ता बोद्धा के वैशिष्ट्य से प्रधानतया कोई अर्थ५०६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र व्यङ्ग्य होता हो तो वह आर्थी व्यञ्जना का विषय होगा तथा वहाँ “ध्वनि” होगी, या ऐसा काव्य ध्वनि काव्य होगा। शाब्दी व्यञ्जना भी नानार्थक स्थलों में या सुतिङ्कारकादि में प्रधानतया व्यक्त व्यङ्ग्य का प्रतिपादन करती है अतः यहाँ भी प्रकरणादि से प्रकृतवाक्यार्थ के नियन्त्रण के पश्चात् अप्रकृतव्यङ्ग्य, यदि प्रधानतया व्यक्त होता हो तो यहाँ भी ध्वनि काव्य होगा। इन दोनों आर्थी तथा शाब्दी व्यञ्जना में शाब्दी व्यञ्जना तो कुन्तक को अभीष्ट प्रतीत हो रही है। किन्तु आर्थी व्यञ्जना की स्वीकृति कुन्तक के मत में प्रतीत नहीं होती। अतः अत्यन्ततिरस्कृत वाच्य ध्वनि को स्वीकार न कर केवल अर्थान्तर सङ्क्रमितवाच्यध्वनि को स्वीकार कर रहे है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि अविवक्षित वाच्य की दोनों ध्वनियाँ समान योगक्षेम वाली है, दोनों का मूल लक्षणा है तथा दोनों अलङ्काराांद का विषय न होकर ध्वनि का विषय हैं, फिर एक में वक्ता बोद्धा आदि को सहायक मानकर आर्थी व्यञ्जना स्वीकार करना तथा दूसरे को स्वीकार न करने के मूल में क्या हेतु है, क्यों न दोनों को वक्रोक्ति का विषय मानें। वक्रोक्ति, अर्थान्तरसङ्क्रमित वाच्य ध्वनि को इसलिए गृहीत कर लेती है क्योंकि, यहाँ शब्दोपस्थापित वाच्य का वाक्यार्थ में समुचित उपयोग नहीं हो पाता। अपने से अतिरिक्त पदार्थों को समन्वित करने के लिए कुछ विशेष अर्थ को अपने में संगृहीत करता है, जो संकेतित या रूढ़ि अर्थ से अतिरिक्त है। अतः यह एक युक्ति ही होती है जो संकेतित या रूढ़िमात्र वाली अमिधा से भिन्न है। विशेष उपयुक्त अर्थ विशिष्ट रूढ़ि अर्थ की उपस्थिति, दोनों ध्वनिवादी तथा वक्रोक्तिवादी की दृष्टि में समान है। ध्वनिवादी पुनः विशिष्टार्थो पस्थिति के पश्चात् विशेष्य में सातिशय विशेष का भ बोध करता है तथा उसे व्यङ्ग्य कहता है, वक्रोक्तिकार उसे गडुभूत समझकर त्याग करना चाहते हैं। इसे उदाहरण से समझलें तो लक्ष्य की स्पष्टता से लक्षण की स्पष्टता हो जायेगी। जैसे _ “रामोऽस्मि सर्वसहे” यहाँ राम शब्द दशरथापत्य रूप मात्र रूढ्यर्थ को ही न लेकर अनेक वनवास, प्रियाविरह आदि दुःखों से युक्त दशरथापत्य को अभिहित करता है तभी उक्त सम्पूर्ण पद्य के पदार्थ के अनुरूप (समुचित) हो पाता है, अन्यथा नहीं। यहाँ वनवासादिजन्य घोर दुखः सहिष्णुत्व विशिष्ट राम, वाक्यार्थ में अन्वित होता है, अतः व्यञ्जना इसमें हो नहीं सकती, तथा संकेतित अर्थ को लिए है अतः अमिधा भी नहीं हो सकती। इस प्रकार, उक्ति से अतिरिक्त नहीं है। क्योंकि वाक्यार्थबाध में उपयोगी है। अतः विचित्र अमिधा या वक्रोक्ति इसे कहना कुन्तक की दृष्टि से समुचित है। ध्वनिवादी उक्त प्रकार के वाक्यार्थ के बोध के पश्चात् पुनः धारावाहिकानुसंधान कर वाणी के अविषय दुःखाद्यतिशिय का बोध, पर्यवसित वाक्यार्थ के बाद करते हैं, अतः ध्वनि मानते हैं यही वक्रोक्ति और ध्वनि का भेद समझा जा सकता है। रूढ़िवैचित्र्य वक्रता का लक्षण करते हुए कहते भी हैं कि SARAN रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त ५०७ यत्ररुदेरसम्भाव्य धर्माध्यारोपगर्भता। सद्धर्मातिशयारोपगर्भत्वं वा प्रतीयते।। लोकोत्तरतिरस्कारश्लाथ्योत्कर्षामिधित्सया। वाच्यस्य सोच्यते रुढ़िवैचित्र्यवक्रता।। इसका अर्थ है कि जहाँ रुढ़िशब्द, अपने रूढ्यर्थ के गर्भ में असम्भाव्य धर्म के अध्यारोप की अथवा विद्यमान धर्मयुक्त पदार्थ के परिस्पन्द में धर्मातिशय के आरोप की प्रतीति कराता हो वहाँ उस पदार्थ के लोकोत्तर तिरस्कार या श्लाध्योत्कर्ष के अमिधान (कथन) (न कि व्यञ्जना) की इच्छा से जो वक्रता कही जाती है उसे रूढ़िवैचित्र्य वक्रता कहते है। यहाँ वाच्य की ही श्लाघ्योत्कर्षादि के अभिधान की इच्छा से “वक्रता” होती है। इस प्रकार ध्वनि तथा वक्रोक्ति में भेद प्रतीत होता है। अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य नामक ध्वनि को वक्रोक्ति में गृहीत नहीं किया गया है क्योंकि “उपकृतं बहु तत्र ..” पद्य में वाच्यार्थ वाक्यार्थ के रूप में पर्यवसित हो जाने के बाद वक्रता बोद्धा आदि के वैशिष्ट्य से तात्पर्यानुपपत्ति होती है तथा लक्षणामूल ध्वनि का विषय यह बनता है। वक्रोक्ति का यह स्थल नहीं है। क्योंकि जो कुछ वक्रता है वह उक्ति से न होकर वक्ता आदि के वैशिष्ट्य से आ रही है, अतः कुन्तक ने इसे काव्य का विषय-ही नहीं माना। ध्यातव्य है कि महिमभट्ट ने भी प्रहेलिका आदि कहकर निष्प्रयोजन ऐसे पद्यों को काव्य नहीं माना है। इस प्रकार कुछ विद्वान् जिन्होने साहित्य शास्त्र को हिन्दी में अनुवाद करने की अप्रतिम ख्याति प्राप्त की है, वे भी कुछ भिन्न बातों को लिखते हैं, जो श्रद्धा मात्र से ग्राह्य हो सकती है, युक्ति से नहीं। जैसे-यह कहना कि-“काव्य के जिन भेदों का आनन्दवर्धन ने ध्वनि के द्वारा आत्मपरक व्याख्या की थी उन सभी को कुन्तक ने अपनी अपूर्व मेधा के बल पर वक्रोक्ति के द्वारा वस्तुपरक विवेचन प्रस्तुत करने की चेष्टा का इस प्रकार वक्रोक्ति प्रायः ध्वनि की वस्तुगत परिकल्पना सी प्रतीत होती है”। उचित नहीं है। पहली बात तो यह कि “सभी ध्वनियों को कुन्तक ने वक्रोक्ति से ग्रहण कर लिया”- यह कहना ठीक नहीं तथा यह भी कहना कि “वक्रोक्ति प्रायः ध्वनि की वस्तुगत परिकल्पना सी प्रतीत होती है” उचित नहीं। ध्वनिगत वस्तु तथा वक्रोक्तिगत वस्तु में भेद स्पष्ट कर दिया गया है। तथा वक्रोक्ति से सभी ध्वनियाँ गृहीत नहीं की गयी हैं। इस प्रकार मूल आधार ही जब व्यवस्थित न हो तब सम्पूर्ण वाग् भवन ही उस व्यवस्था में नहीं आ सकता। अतः अन्य विरुद्ध वाक्यों को दिखलाना अप्रासाङ्गिक होगा। वस्तु विषयक वक्रोक्ति का स्थल वहाँ होता है जहाँ अनेक प्रकार की वक्रता वाले किसी शब्द से “जो विवक्षित अर्थ के समर्पण में समर्थ हो, वस्तु प्रतिपादित होती है। यह शब्द सङ्केतित अर्थ से अतिरिक्त विवक्षित अर्थ को भी ग्रहण करता है। इसलिए केवल वाच्यत्व रूप में इसे नहीं स्वीकार किया जा सकता, व्यङ्ग्य रूप में यदि स्वीकार किया जाय ५०८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र तो किया जा सकता है किन्तु वह अर्थ (वस्तु) वाक्यार्थ के लिए ही विवक्षित होता है, विवक्षित वाक्यार्थ के पर्यवसित होने के बाद वह वस्तु वक्ता आदि के वैशिष्ट्य से व्यक्त नहीं मानी जा सकती। अतः ध्वनि न कहकर गुणीभूत व्यङग्य का स्थल कहा जा सकता हे। गुणीभूत व्यङ्ग्य विशिष्ट वाच्य तो वक्रोक्ति या विशिष्ट अमिधा का विषय माना ही गया है। जैसा कि उदारस्वपरिस्पन्द सुन्दरत्वेन वर्णनम् । वस्तुनो वक्रशब्दैकगोचरत्वेन वक्रता।। ३/१।। किसी वस्तु का सोत्कर्ष, उसके स्वभाव के अतिशय का वर्णन यदि एकमात्र वक्र शब्द का विषय हो तो वस्तु वक्रता’ होती है। यह वर्णन, वाच्यातिरिक्त प्रतीयमान वस्तुपरक होकर भी विवक्षित वाक्यार्थ रूप को अतिक्रान्त नहीं करती। ध्वनि की प्रतीयमान वस्तु, वाक्यार्थ को अतिक्रान्त कर रहती है। जैसा कि तां प्राङ्मुखी तत्र निवेश्य तन्वी क्षणं व्यलम्बन्त पुरो निषण्णाः। भूतार्थशोमाहियमाणनेत्राः प्रसाधने सन्निहितेऽपि नार्यः।। यहाँ प्रसाधन कला में निपुण नारियों का प्रसाधन से क्षणभर बिरत होकर पार्वती के लोकोत्तर सौन्दर्य से अपहृत इन्द्रियों के कारण पार्वती का स्वाभाविक सौन्दर्य परिस्पन्द स्पष्ट होता है। यह स्वाभाविक सौन्दर्य परिस्पन्द भूतार्थ शोभारूप वाच्यकोटि में गर्मीकृत है। कहीं अलङकार इसकी स्वाभाविक शोभा के तिरोधान के कारण न बन जायँ, इसलिये प्रसाधन कलाविद् नारियों को क्षणभर विस्मित होकर बिलम्ब करना भी वाच्यार्थरूप वाक्यार्थ के अन्दर ही है जो ‘क्षण व्यलम्बन्तं से गर्भीकृत है। इस प्रकार उदार वस्तु स्वभाव की महिमा के अतिशय का वर्णन यहाँ उपलब्ध हो रहा है। अतः वस्तु वक्रता है-वस्तुध्वनि जेसे अलसशिरोमणि धूर्तानामग्रिमो पुत्रि धनसमृद्धिमयः। इति भणितेन नताङगी प्रफुल्लविलोचना जाता।। किसी धात्री का स्वयम्वरा नायिका के प्रति उक्त मूलवाक्य से स्वयम्वरा का प्रफुल्लविलोचना होना, इससे यह वस्तु व्यक्त हो रही है। कि “ममैवोपभोग योग्यः" अर्थात् मेरे ही उपभोग के योग्य यह वर है, इस वस्तु के लिए छायापद्य में कहीं कोई वक्र शब्द विशेष नहीं है। “प्रफुल्लविलोचनात्व हर्ष का अनुभाव होने से हर्ष को व्यक्त कर सकता है किन्तु हर्ष का कारणभूत “मेरे ही उपभोग के योग्य यह है" इसकी अभिव्यक्ति उचित नहीं है। अर्थ से अर्थ की अभिव्यक्ति करना वक्रोक्ति का विषय नहीं होगा। यही वक्रोक्ति तथा ध्वनि में भेद है। ५०६ । रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि वक्रोक्ति से अर्थशक्ति मूलध्वनि को कुन्तक ने गृहीत नहीं किया है इसीलिए अर्थशक्त्युद्भव सम्बन्धी कोई भी ध्वनि जो वक्ता बोद्धा के वैशिष्ट्य से सम्भावित है, कुन्तक ने नहीं ग्रहण किया हैं यदि कहीं उसके उदाहरण में आए हुए पद्य प्राप्त होते हैं तो वे सब तन्मूलक न होकर वक्रोक्तिमूलक या वक्रोक्तिशब्द विशेषमूलक ही समझना चाहिए। वहाँ किसी वक्र शब्द विशेष की उपचारादि वक्रता होगी।

वक्रोक्ति तथा रीति

वामन ने जिसे रीति शब्द से कहा है, कुन्तक ने उसे मार्ग शब्द से। इस मार्ग में बन्धवक्रता का वैचित्र्य दृष्टिगोचर होता है। वामन ने वैदर्भी, गौड़ी तथा पाञ्चाली तीन रीतियों को दिखलाया तो कुन्तक ने सुकुमार, विचित्र तथा उभयात्मक तीन मार्गों को। ये मार्ग कवियों के प्रवर्तन या प्रस्थान के हेतु हैं। इन्होंने वामन को चिरन्तन शब्द से निर्दिष्टकरते हुए कहा है कि वैदर्भी आदि रीतियाँ जो कही गयी हैं, उनमें अनेक विरुद्ध प्रतिपत्ति दी जा सकती है। पहली विप्रतिपत्ति यह होगी कि देश विशेष के समाश्रयण से जो वैदर्भी आदि रीतियों का नामकरण किया गया है वह उचित नहीं है। तथा यह भी नहीं उचित है जो उत्तम, मध्यम अधम आदि से इनमें तारतम्य का प्रदर्शन किया गया है। कुछ लोग वैदर्भी तथा गौड़ी दो ही मार्ग मानते हैं, वह भी उचित नही है, क्योंकि प्रथम विप्रतिपत्ति के मूल में यह स्पष्ट है कि देशभेद से यदि रीति भेद लिया जायेगा तो अनन्त देशों के कारण अनन्त रीतियाँ भी होने लगेंगी तथा देश धर्म वश, मामा की पुत्री के साथ विवाह के समान, देश विशेष के विशिष्ट रीति को काव्य का करण मानें तो इससे व्यवस्था नहीं हो पायेगी क्योंकि देश धर्म, वृद्धों की परम्परा मात्र पर आश्रित है, अतः शक्य अनुष्ठान का लङघन नहीं कर सकता। काव्यकरण में तो शक्ति आदि सम्पूर्ण कारण कलाप की अपेक्षा करता है, अतः जिस किसी प्रकार शक्य मात्र का अनुष्ठान इसका धर्म नहीं हो सकता, यह काव्य करण दाक्षिणात्यों के गीत सुस्वरादि की रमणीयता के समान स्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा होने पर सभी देश विशेष के लोगोंमें समान रूप से काव्यकरण पाये जाने लगेगा। जबकि शक्ति की स्थिति में भी, व्युत्पत्ति, आहार्यकारण सम्पत्ति नियत देशविशेष पर पूर्णतः आश्रित नहीं हो सकती। क्योंकि काव्यकारण सम्पत्ति में निश्चित नियम का अभाव होता हैतथा उस देश के कवि में कभी-कभी वैसा नहीं भी मिलता, जबकि अन्य देश के कवि में मिलता है। अतः देश विशेष से नामकरण उचित नहीं। दूसरी विप्रतिपत्ति जो तारतम्य की कल्पना से है वह भला काव्य में कैसे हो सकता है। काव्य में तो वही होगा जो सहृदय के हृदय की आह्लादनिर्भर कर दे। मध्यम तथा अधम जो रीतियां होंगी वे पूर्ण सौन्दर्य के अभाव में सहृदय के हृदय को पूर्ण आह्लादित ही नहीं कर सकेंगी। फिर उनमें काव्यत्व स्वीकार करना ही अनुचित होगा। यदि यह कहें कि गौडी तथा पाञ्चाली जो मध्यम तथा अधम मानी गयी है उनका काव्य में परिहार करना ५१० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र चाहिए। अतः परिहार करने के लिये ही उनको दिखलाया गया, ग्रहण तो केवल समग्र सौन्दर्य (गुण) सम्पन्न वैदर्भी का ही करना है तो यह भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि वामन ने ही ऐसा नहीं माना है। अगतिकगतिन्याय से दरिद्रदान की तरह यथाशक्ति काव्य का निर्माण नहीं किया जा सकता। हाँ! यदि आप नामकरण मात्र के लिए देशविशेष काआश्रयण किये हों, देश विशेष से इस रीति का नियमन न करते हों तो कोई विवाद नहीं है। __इस प्रकार जो वैदर्भी तथा गौडी, दो मार्ग मानते हैं, उनके समाने भी यही समस्यायें होंगी। अतः कवि स्वभाव ही काव्य प्रस्थान में भेदक मानना होगा। सुकुमार स्वभाव कवि की शक्ति भी स्वाभाविक सुकुमार ही होगी, क्योंकि शक्ति तथा शक्तिमान में अभेद माना जाता है। यह सुकुमार शक्ति सुकुमार रमणीय व्युत्पत्ति का ही आधान करेगी। कवि को, सुकुमार रमणीय शक्ति तथा व्युत्पत्ति, सुकुमार अभ्यास में ही तत्पर करेगी। इस प्रकार विचित्र स्वभाव वाला कवि सहृदयहृदय का आह्लादक काव्य करने के लिए सुकुमार से भिन्न, विचित्र रमणीय शक्ति से समुल्लसित होता है वैसे ही व्युत्पत्ति एवं अभ्यास उसके होते है। इसी प्रकार सुकुमार एवं विचित्र दोनों स्वभावों सेसंवलित कवि की शबलशोभापूर्ण शक्ति भी उदित होती है। तथा संवलित व्युत्पत्ति एवं अभ्यास भी उपार्जित होतेहैं। इस प्रकार तीनों प्रकार के कवि, जो सम्पूर्ण काव्यकारणों से सम्पन्न होकर परमोत्कर्षयुक्त विलक्षण सहृदयहृदयाह्लादक काव्यों की रचना करते हैं। जो सुकुमार विचित्र तथा उभयात्मक होते हैं काव्यों के प्रवर्तन निमित्त होनेके कारण इन्हें मार्ग कहते हैं। __ यद्यपि यहाँ भी देशविशेषवश अनन्त रीति के समान कवि स्वभाव वश अनन्त मार्ग भी हो सकते हैं फिर भी गणना के अशक्य होने से इन्हें तीन अंशों में बाँटा जा रहा है, क्योंकि काव्यकरण प्रस्ताव में रमणीय स्वभाव सुकुमार एक भेद होगा। उससे भिन्न रमणीय ही दूसरा विचित्र स्वभाव होगा। तथा तथा रमणीय ही इन दोनों सुकुमार एवं विचित्र के संवलन से तीसरा उभयात्मक भेद भी हो सकेगा। इस उदाहरण पर ध्यान देने के बाद लक्षण का विचार करेगे। उदाहरण में कवि हरि की स्तुति कर रहा है। किन्तु किस हरि की, जो शूर या सर्वत्र व्याप्त है। ऐसे हरि की नहीं, बल्कि ऐसे विदग्ध हरि की, जोएक ही क्रिया से दो दो प्रयोजन सिद्ध कर रहे हैं। वह उनकी क्रिया है। पुलक कण्टक लक्ष्मी मानकर बैठी हुई है, हरि उनके मान को दूर करने के लिए उनकी अनेक श्लाघाएँ या चाटूक्तियाँ कर रहें हैं। किसी भी प्रकार जब लक्ष्मी का मान नहीं टूट सका तब उन्होंने एक युक्ति सोची, अपने शरीर को रोमाञ्चित करना। यह रोमाञ्च, जिसमें रोम कण्टक की तरह स्तब्ध हो गये हों तथा शय्या रूप में स्थित शेष बिंध रहे हैं। जिससे उनके शरीर में पीड़ा हो रही है। उससे उनकी शरीर या तो फूलकर कँपने Recial रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त ५११ लगा है। या फण फट कारने लगा हों इस फण की फटकार से लक्ष्मी में भय होना स्वाभाविक हैं। जिससे डरकर, हरि का अलिङ्गन करने लगी। इस प्रकार लक्ष्मी भीत भी हैं एवं मानवती भी। क्योंकि आलिङगन से मानापहार की प्रतीति हो रही हैं किन्तु आलिङगन के पूर्व मानिराकरण का कोई भी विशेषण नहीं हैं। इस प्रकार एक ही ‘पुलक कण्टक’ जो शेष को उल्लासित कर लक्ष्मी को भयभीत करने के लिए हो रहा है। वही पुलक कण्टक लक्ष्मी को, लक्ष्मी-विषयक हरि रति को भी बतला रहा है। क्योंकि लक्ष्मी समझ रही हैं। कि यह हरि का पुलक कण्टक जो हुआ हैं, वह मेरी चाटूक्तियों से हुआ है। मुझ में मेरे प्रियतम का ऐसा अनुराग है कि मेरी प्रशंसा या मेरी चाटूक्तियाँ ही इनमें पुलक पैदा कर रही हैं जब…..कि हरि के शेष को उल्लासित करने के लिए रोमाञ्चकण्टक हुए हैं। इस प्रकार एक ही रोमाञ्चकण्टक, लक्ष्मी रति का भी प्रतिनिधित्व कर रहा हैं। तथा शेष को उल्लासित करने का भी इन दो कार्यो के लिए अलग-२ समय में इनके कारण रूप, रोमाञ्च का निरूपण नहीं है। अतः युक्ति में क्रम कौटिल्य हैं। तथा किसी एक पक्ष के लिए ही नहीं है। इसलिए अनुल्वण है। इस एक ही रोमाञ्च से युगपद् दो कार्य हो रहे हैं। इसलिए “कार्यभेदात् कारण भेदः के न्याय से दोनों उपपत्तियों या युक्तियों का योग भी है। इस प्रकार लक्षण संघटित हो जाता है। विघटमानार्थ, घटना वर्णन भी घट जाता है। जिसका अर्थ है। भिन्न-२ घटमान जो दो कार्य, उनके घटन की जो घटना उसका वर्णन। बहुत से टीकाकार इन दोनों उदाहरणों को स्पष्ट न कर पाने से श्लेष के लक्षण का भी निर्वचन नहीं कर सके हैं। इस प्रकार विद्वान् स्वयं अनुभव करेगें। समता मार्ग का अभेद ही समता है। जिस मार्ग से काव्य का उपक्रम किया गया हो उसका त्याग न करना ही समता है। जिसे शब्दगत समता गुण कहा जाता हैं। अर्थगत समता गुण में प्रक्रम का अभेद होता है। प्रक्रम का अभेद अवैषम्य हैं। अर्थगत विषमता तथा शब्दगत मार्ग विषमता का अभाव या परित्याग ही समता गुण है। शब्दगत मार्ग भेद रूप समता गुण श्लोक तथा प्रबन्ध दोनों में हो सकता हैं। पण्डितराज ने वामन के मार्ग का अर्थ रीति किया है। अतः “उपक्रमादा समाप्ते रीत्यभेदः समता” समता का लक्षण करते है। अर्थगत लक्षण, ‘प्रक्रमभंग से अर्थघटनात्मक अवैषम्य को मानते है। इस प्रकार मार्मावैषम्य तथा प्रक्रमा वैषम्य, शब्द एवं अर्थगत, समता गुण के भेदक है। श्रवण प्रत्यक्ष होने वाले शब्द के गुण वर्ण समासादिगत होंगे तथा अर्थगत प्रक्रमावैषम्यं तत्तद्रसानुकूलवर्ण, प्रकृति प्रत्यय वचन लिङ्गादिवैषम्य से होगें। __मार्ग भेद का उदाहरण जैसे =‘नितरां परुषा सरोजमाला न “मृणालानि विचारपेशलानि” यहाँ उपनागरिका मार्ग का वैषम्याभाव होने से शब्द समता गुण है। इसका प्रत्युदाहरण वामन ने दिया है . …

…-.-.–.-.:. .. .. ५१२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र __ “प्रसीद चण्डि! त्यज मन्युमञ्जसा जनस्तवायं पुरतः कृताञ्जलिः।” इसमें वैदर्भी रीति है। तथा द्वितीयार्ध में __“किमर्थमुत्कम्पित-पीवरस्तनद्वयं त्वया लुप्तविलासमास्यते”। इसमें पाञ्चाली है। अतः मार्ग का वैषम्य होने से समता गुण नहीं है। एक ही शृगाररसात्मक श्लोक में, भिन्न-भिन्न दो मार्ग का होना दोषावह है। तथा यहाँ पूर्वार्ध में कर्तृवाच्य वाक्य, तथा उत्तरार्ध में भाववाच्य वाक्य होने से भी समता नहीं हैं किन्तु यहाँ वाच्यादिगत विवेक होने से इसे प्रक्रमाभङ्ग रूप अवैषम्य का उदाहरण माना जा सकता है। अर्थगत प्रक्रमावैषम्य का उदाहरण-जैसे च्युतसुमनसः कुन्दा पुष्पोद्गमेष्वलसा द्रुमा। मलयमरुतः सर्पन्तीमे वियुक्तघृतिच्छिदः।। अथ च सवितुः शीतोल्लासं लुनन्ति मरीचयो, न च जरठतामालम्बन्ते क्लमोदयदायिनीम् ।। अतः कर्तृवाच्य वाले वाक्यों से आरम्भोपसंहार होने के कारण समता है यहाँ कर्तृभाव वाच्य वाले वाक्यों का सम्मिश्रण न होने से केवल कर्तृवाच्य मेंसमान रूप से प्रक्रान्त कर समाप्त किया गया है। किन्तुअर्थवश यदि किसी प्रकार थोड़ा भी प्रक्रमभंग हो जाय तो भी समता गुण समुचित नहीं होता। जैसे इसी उदाहरण में शिशिर एवं बसन्त दो ऋतुओं की सन्धि वर्णित है। इसमें द्वितीय पाद में ‘वियोगियों के धैर्य को हरण करने वाला मलय पवन चल रहा है। “मलय मरुतः…..” यह पाद ऋतु सन्धि के अनुकूल नहीं है। यह बसन्त का असाधारण धर्म है। अतः “मलय मरुतः”….. के स्थान पर “मनसि च गिरं बध्नन्तीमे किरन्ति न कोकिला ऐसा पाठ कर दे तो ऋतु सन्धि के अनुकूल हो जायेगा। क्योंकि ऋतु सन्धि मेंकोयल कूकना तो चाहती हैं, किन्तुखुलकर नहीं कूकती। अवैषभ्य का अर्थ है समानभाव वाले वाक्यों में विषमता के कारण, सुगमता नष्ट न हो जाय। अतः अर्थ की “सुगमता”, ही निर्बाध, समान रूप से निर्विघ्न अर्थावगम, या अवैषभ्य कहा जाता है। अतः कहते हैं। सुगमत्वं वा अवैषम्यमिति। यथा- अस्त्युत्तरस्यां दिशिदेवतात्मा” पद्य समता का उदाहरण है। चन्द्रालोक में ‘श्यामला कोमला बाला रमणं शरणं गता” समता का शोभन उदाहरण है। स्त्रीत्वविवक्षा में टाप् प्रत्यय रूप प्रक्रम का भङग कहीं नहीं है। इस प्रकार, समता गुण की शब्दार्थ गत में मानना चाहिए। आचार्य मम्मट आदि ने प्रक्रमभंग दोषाभाव को अर्थगत गुण माना हैं। इसलिए कर्तृकर्मवाच्यादि या प्रकृतिप्रत्ययादि जिस रूप में प्रक्रान्त हो यदि उसी रूप में उनका निर्वाह नहीं हो, तो दोष, यदि हुआ हो तो समता गुण, माना जायेगा” अतः यहाँ भी मार्ग से केवल रीति को ग्रहण करना परवर्ती आचार्यों के अनुकूल है। शब्दगत, श्रावण प्रत्यक्ष होने पर भी, कर्मकादि ५१३ Firm-मन रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त वाच्य या प्रकृति प्रत्ययादि, का प्रक्रमाभंग शब्दगत समता गुण नहीं है। वामन ने जिस उदाहरण को दिया है। तथा ऋतु सन्धि प्रकृतार्थ के सन्दर्भ में जो परिवर्तन किया है, वह श्रावण प्रत्यक्ष से अतिरिक्त प्रकरणादि से सम्बन्धित होने के कारण, अर्थगत का विविक्त उदाहरण हैं। अतः इस प्रकार मार्गाभेद-या रीत्यभेद शब्दगत प्रकरणार्थगत प्रक्रमाभंग शुद्ध अर्थगत, तथा प्रकृति-प्रत्यय-वाच्यादिगत प्रक्रमाभङग शब्दार्थगत कहा जा सकता है। किन्तु शब्दार्थोभयगत गुण न होने से यह संज्ञा नवीन होगी। यद्यपि अलंकार शब्दार्थउभयगत स्वीकृत है इसलिए गुण भी शब्दार्थोभयगत माना जा सकता है। समाधि-आरोहावरोहक्रमः समाधिः। समाधि = आरोह तथा अवरोह केक्रम को शब्द समाधि कहते हैं। क्रम से यह स्पष्ट होता है कि आरब्ध आरोह के परिहार के पश्चात्, अवरोह का उपादान। क्रम में परिहार अपेक्षित है। अवरोह की प्राप्ति होने पर आरोह का परिहार, तथा आरोह की प्राप्ति होने पर अवरोह का परिहार करना होगा अन्यथा क्रम नहीं हो सकता। आरोहपूर्वक अवरोह का उदाहरण जैसे: “निरानन्दः कौन्दे मधुनि परिमुक्तोज्झितरसे” यहाँ “निरानन्दः कौन्दे" में आरोह पुनः “मधुनि परि" में अवरोह पुनः “भुक्तोज्झित” में आरोह तथा पुन “रसे" में आरोह क्रम से निर्दिष्ट है। ऐसा नहीं है। कि आरोह के बाद अवरोह हो पुनः अवरोह के बाद आरोह। यही क्रम समाधि नामक शब्द गुण हैं। अवरोह पूर्वक आरोह का उदाहरण जैसे “नराः शीलभ्रष्टा व्यसन इव मज्जन्ति तरवः।। यहाँ “नराः” अवरोह “शीलभ्रष्टा" आरोह, व्यसन इव अवरोह तथा मज्जन्ति तरवः” आरोह हैं। तकार रकारादि ओजो गुण व्यज्जक होने से ‘तरवः’ में भी आरोह ही है। अतः अवरोहारोह क्रम में संदेह नहीं करना चाहिए। . कुछ लोग आरोह का क्रम तथा अवरोह का क्रम को आरोहारोह क्रम कहते हैं। द्वन्द्वान्ते-श्रूयमाण “क्रम” पद प्रत्येक के साथ सम्बन्धित होना चाहिए इस न्याय से आरोहक्रम तथा अवरोहक्रम अर्थ लेते है। इससे यह होगा कि क्रम से आरोहण के बाद अवरोहन या अवरोहण के बाद आरोहण एक चरण में होगा। दोनों एक ही चरण में आरोह पुनः अवरोह, पुनः आरोह, पुनः अवरोह ऐसा नहीं होगा। जोऊपर के उदाहरण में दिखलाया गया है। इसका उदाहरण जैसे

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. . . . . . . . ५१४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र “निवेशः स्वः सिन्धोस्तुहिनगिरि वीथीषु जयति”… हैं। यहाँ ‘सिन्धो’ तक आरोह तथा तुहिन से जयति तक अवरोह ही है। अतः आरोहक्रम अवरोह क्रम को भी कुछ लोग समाधि कहते हैं। अब सन्देह करते हैं कि “न पृथक्, आरोहावरोहयोरोजः प्रसादरूपत्वात्” अर्थात् समाधि प्रसाद गुण से पृथक् नहीं होगा क्योंकि ओजो मिश्रित शैथिल्यात्मा प्रसाद गुण हैं। जहाँ आरोह अवरोह का होना निश्चित हैं। समाधि में भी आरोहादरोह ही होना हैं अतः दोनों गुण-विविक्त अलग-अलग नहीं लक्षित हो सकेगें आप नहीं कहेगें कि आरोह ओज से भिन्न हैं तथा अवरोह प्रसाद से भिन्न है क्योंकि … ओजोरूपश्चारोहः, प्रसाद रूपश्चावरोहः” यह प्रसिद्ध हैं। अतः दोनों गुण एक ही होगें। इसके उत्तर में दूसरा सूत्र देते हैं। “न, असम्पृक्तत्वात्” जो अपने क्रम से होने वालेआरोह तथा अवरोह की ओजोरूपता एवं प्रसादरूपता कह रहे हैं। वह उचित नहीं हैं। क्योंकि-समाधि में आरोह अवरोह सम्पृक्त (मिश्रित) नहीं होते हैं। बल्कि क्रम से होते हैं। जब कि ओज प्रसाद में आरोह-अवरोह सम्पृक्त रहतेहैं। जैसे “अथ स विषयव्यावृत्तात्मा यथाविधि सूनवे नृपतिककुदं दत्त्वा यूने सितातपवारणम्” यहाँ “अथस” में “थ” कार ओजः “सः” प्रसादः विषयव्यातृत्तात्मा में “वि" ‘य’ प्रसाद तथा अवशिष्ट ओज रूप होने से नदीवेणिका की तरह सप्लुत रहते हैं। क्रम से नहीं रहते है। यह भेद हैं। दूसरी बात यह भी है। कि-“अनैकान्त्याच्च” । अर्थात् यह कोई नियम नहीं है। कि ओज में आरोह ही हो, प्रसाद में अवरोह ही। यदि किसी भाग में ओज तथा प्रसाद की तीव्रावस्था ही आरोह अवरोह नाम से है तो उसमें कोई विवाद नहीं है। __ इसका तात्पर्य यह हुआ कि सामान्यावस्था में तो ओजः प्रसाद गुण होगा। किन्तु तीव्रावस्था होने पर यह आरोहावरोह कहाँ जायेगा इस स्थिति में इसेसमाधि कहेगें। अतः कहते हैं। कि “विशेषापेक्षित्वात्तयोः” इति इसमें दोनों समाधि एवं प्रसाद में विशेषापेक्षा होगी ही। अतः विशेषापेक्षित्व दोनो को होने के कारण एक नहीं हो सकते गुणान्तर की ही संज्ञा देनी होगी। ५१५ IANDIT Share AEXECIALUARITR रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त इस प्रकार गुण आरोह, अवरोह का निमित्त, जो तीव्रावस्था वह समाधि होगा। यदि कहें कि तब तो ‘आरोहावरोह निमित्तं समाधिः” ऐसा सूत्र पढ़ना होगा न कि “आरोहावरोहः क्रमः समाधिः” ऐसा तब, यहाँ गौण वृत्ति उपचार से क्रम का अर्थनिमित्त कर ले। अथवा क्रम को “क्रम विधानार्थ, तक लक्षणा से उपचार कर ले। जैसा कि कहते हैं “क्रम विधानार्थवा" ।। अतः क्रम विधान का निमित्त ओजः प्रसाद की तीव्रावस्था गृहीत हो जायेगी। ओजः प्रसाद रूप प्रसाद, तथा समाधि गुण में पाठ धर्म को भेदक नहीं माना जा सकता, क्योंकि शब्दगुणों में सर्वथा पाठ-धर्म विशेषतः दृष्ट नहीं होगा। क्योंकि यदि गुण पाठ धर्म माने जायेंगे तो वेसर्वत्र बिना विशेषबोध की अपेक्षा, के दिखाई पड़ने लगेंगे। किन्तु यह समझे कि सर्वथा गुण नहीं दिखाई पड़ते, अतः विशेष को ही गुण कहा जाता है। विशेषापेक्षा में ही गुण संज्ञा होगी। अतः प्रसाद एवं समाधि में केवल पाठधर्म से निर्णय नहीं किया जा सकता। अर्थगत समाधि का लक्षण “अर्थदृष्टिः समाधिः" करते हैं। अर्थ की दृष्टि, या अर्थ के रहस्य का दर्शन, समाधि गुण है। “समाधीयते अनेन समाधिः समाधानकरण को समाधि कहा ही गया है। सावधान एकाग्रचित्त ही सम्यग् अर्थो को समझता हैं। जैसा कि “अवहितं हि चित्तं अर्थान् पश्यति कहा जा चुका है। जिस अर्थ का दर्शन समाधि है, वह अर्थ दोप्रकार का होता हैं। अयोनि तथा अन्यच्छायायोनि। जो स्वोपज्ञ हो पूर्व में किसी के द्वारा निर्दिष्ट न हो, उसे अयोनि कहते हैं। अयोनि क अर्थ है। अकारण अर्थात् जिस अर्थ का कारण अन्य न हो। अन्यच्छाया योनि में अन्य काव्य की छाया कारण बनती हैं। जैसा कि-“अर्थो द्विविधः आयोनिरूपच्छायायोनिर्वासूत्र उक्त है। इसमें अयोनि तथा अन्यच्छायायोनि दोनों के उदाहरण इस प्रकार समझना चाहिए आश्वपेहि मम सीधुभाजनाद् याक्दग्रदशनैर्न दश्यसे। चन्द्र! मद्दशनमण्डलाङ्कितः खं न यास्यसि हि रोहिणीभयात् अर्थात् कोई विदग्घ नायिका अपने मदिरा पात्र में प्रतिबिम्बित चन्द्र को देखकर कहती है कि हे चन्द्र! तब तक शीघ्र ही मेरे मदपात्र से पलायित हो, जाओं जब तक तू मेरे अग्रदन्त से दष्ट नहीं हो रहे हो अन्यथा मेरे दन्त से क्षतमुखमण्डल वाले तुम अपनी आयी रोहिणी के भय से पुनः आकाश में जा ही नहीं सकोगे। यह पद्यार्थ पूर्व निर्दिष्ट न होते कवि के प्रथम अवधान से प्राप्त है। अतः स्वोपज्ञ होने से अयोनि है। इसी की छाया इस पद में हाने से, यह अन्यच्छायायोनि का उदाहरण होगा जैसा कि InstagrtainmimmineralIRATimumta …………….माँH ANNEAA4-.— मान … …… ……………. …………………………. ……… ….. …….. . …-

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__-५१६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र मा मैः शशाङ्क ममशीघुनि नास्ति राहुः, रवे रोहिणी, वसति कातर किं विभेषि। प्रायो विदग्धवनितानवसङ्गमेषु पुसां मनः प्रचलतीति किमत्र चित्रम् ।। नायिका कहती है कि-हे ! शशाक, डरो मत! मेरे मदपात्र में राहु नही हैं, अतः तुम्हें उससे डर ही नहीं हैं। तुम्हारी प्रिया रोहिणी आकाश में है। अतः परोक्ष होने से उससे भी क्यों डर रहे हो, यदि तुम स्वलित भी हो जाते हो तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि प्रायः विदग्ध नायिका के नव सङ्गमों में पुरुषों का मन विचलित हो ही जाता है। इस पद्य में ऊपर के पद्य की छाया दीख पड़ती हैं। अतः यह अन्यच्छाया योनि का उदाहरण है। अयोनि तथा अन्यच्छायायोनि दोनों का अर्थ दो प्रकार का होता है। व्यक्त तथा सूक्ष्म। व्यक्त स्फुट अर्थ है। सूक्ष्म, दो प्रकार का होता है। भाव्य तथा वासनीय। भाव्य किन्हीं अन्य सम्बन्धित गंभीर अर्थ, निरूपण से गम्य होता है। शीघ्र नही। वासनीय वह होता है, जो स्व सम्बन्धित अर्थ एकाग्रचित्त से अवहित होने पर उत्पन्न प्रकर्ष से गम्य होता हैं भाव्य में भावना होती है। जिसमें अन्य सम्बन्धी अर्थ भावित होता है। किन्तु वासना चित्त संस्कार है, इससे अपने सम्बन्धित अर्थ की ही पुनः पुनः एकाग्रचित से अवधारणा कर, वासना से वासित किया जाता है। भाव्य का उदाहरण अन्योन्यसंमिलितमांसलदन्तकान्ति -सोल्लासमाविरलसंवलितार्धतारम् । लीलागृहे प्रतिकलं किलकिञ्चितेषु व्यावर्त्तमानविनयं मिथुनं चकास्ति।। नव दम्पती मिथुन, उद्दाम काम लीला में निमग्न होने से शोभित हैं। यह (जोड़ा) मिथुन जिसका अन्योन्य सम्मिलित पूर्ण दन्तकान्ति से पुष्ट, दन्तक्षत (चुम्बन) है। परस्पर उत्कृष्ट रति के कारण कनीनिकाएँ अर्धनिमीलित है। उल्लास उत्कृष्ट है। लीला गृह में क्षणप्रतिक्षण किलकिञ्चिति हो रहा है। तथा निःसडकोच घृष्टता पूर्वक रति क्रीड़ा होने से विनय पलायित हो चुका है। यहाँ रति के अनुभाव विलक्षण ढंग से मिथुन के विशेषण के रूप में या क्रिया विशेषण रूप में स्फुरित हो रहे हैं। इन अनुभावों की भावना से तन्मयीभाव वाला सहृदय ही शनैः शनैः अवहित चित्त से अनुभव करता हुआ रति स्थायी का अनुभव करेगा। अतः स्थायी भाव, शीघ्रता से निरूपण करने पर अगम्य, तथा संस्काराहित भावना से निरूपण करने पर शीघ्र गम्य होता है। FEATRI ५१७ रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त वासनीय का उदाहरण जैसे-अवहित्थवालित जघन….। सामिप्राय जघन को वलित करती हुई, अभिमुख कुचतट को विवर्तित कर अवस्थित, दक्षिण हाथ से हारलता को गृहीत कर नायिका मुझे देखी है। इसमें रति के अनुभावों का एकाग्रचित्त से अवधान करने पर चित्त प्रकर्षसे गम्य भाव होते हैं। जिससे अवहित्थ….. विशेषण से विलक्षण रति, विवर्तित……” से सातिशय अनुराग, दक्षिणकर……से गाढालिङ्गन, आदि व्यक्त हो रहे हैं वे वासनीय है। माधुर्यम् = पृथक् पदत्व को माधुर्य कहते हैं। पृथक पदत्वंमाथुर्यम् पृथक् पदत्व का अर्थ है। दीर्घसमास का अभाव, जैसे नितरां परुषा सरीजमाला ……" इसका विपरीत उदाहरण है चलितशवरसेनात्तगोशृंगचण्डध्वनिचकितवराहव्याकुला विन्ध्यापादाः अर्थात् माधुर्य उक्ति की विचित्रता को कहते हैं। उक्ति की विचित्रता का अर्थ है एक ही अर्थ को विचित्र भिन्न-२ पदों से कहना। जैसा कि रसवदमृतं कः सन्देहो, मधून्यपि नान्यथा मधुरमधिकं चूतस्यापि प्रसन्नरसं फलम्। सकृदपि पुनर्मध्यस्थः सन् रसान्तरविज्जनो वदतुयदिहान्यत् स्वादु स्यात् प्रियादशनच्छदात्।। यहाँ अमृत रसवत् है मधु रसवत् है। चूतफल रसवत् है। ऐसा कहा जाए, तो उक्ति वैचित्र्य नहीं हो सकेगा, अतः एक ही “रसवत” पदार्थ के सन्देहो नान्यथा, आदि पद से कहा जा रहा है। हाँ जिससे उक्ति वैचिञ्च है। सौकुमार्य = बन्धकी अजरठता को सौकृमार्य कहते हैं। “अजरठत्वं सौकुर्मायम्’ जरठता नवीनता के अभाव को कहते हैं। नावीन्य शास्त्रादि प्रयुक्त शब्दों के अतिरिक्त शब्दों का प्रयोग हैं। यदि शास्त्रीय, रुक्ष शब्दों का प्रयोग न किया जाए तो सौकुमार्य होगा। जैसे-विपरीत उदाहरण’ निदानं निद्वैतं प्रियजनसदृक्त्वव्यवसितिः सुधासेकप्लोषौ, फलमपि विरुद्धं मम हृदि। यहाँ निद्वैत ‘सदृक्त्व’ आदि जरठपद हैं। अतः सौकुमार्य का विपरीत उदाहरण है अनुकूल-उदाहरण जैसे अस्त्युत्तरस्यादिशि इति अर्थगत सौकुमार्य उसे कहते है। जहाँ परूष ‘रूक्ष’ अर्थ को कोमल शब्दों से कहा जाए। जैसे “मृत” को यशः शेष से कहना, एकाकी को देवताद्वितीय से तथा ‘गच्छ’ को ‘साधय से कहना सौकुमार्य गुण है। nAR

A A ५१८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र उदारता = बन्ध की विकटता को उदारता कहते हैं विशेष प्रकार से थिरकते हुए पदों का नाम है विकटत्व। लीलायमान नृत्य करते हुए से वर्णो का उपादान जिस बन्ध में हो उसे विकटता कहते हैं। जैसे नर्तक या लीलाकारक का चरण एक स्थान पर स्थित नहीं होता हैं वैसे ही वर्ण भी जब एक ही स्थानादि से दो बार न उच्चरित हो तो वर्णो की लीला या क्रीडा संगत होगी। जैसे-“स्वचरणविनिविष्टैर्नूपुरैर्नर्तकीनां, झणिति-रणितमासीत् तत्र चित्रं कलंच"। यहाँ अव्यवहित दो वर्णो का एक साथ उपादान न होने से वर्ण थिरकते से लग रहें हैं यदि यही “स्वचरणविनिविष्टै:"- के स्थान पर “चरण कमल लग्नैः” कर दे तो ‘लकारों’ का अव्यवहित उत्थान होने से वर्णो का थिरकना रूक सा जायेगा। ऐसे ही ‘तत्र चित्रं कलंच" के स्थान पर “मञ्जु चित्रं च तत्र" कर दे, तो कोमल वर्ण “मजु” के प्रयोग के बाद ‘चित्र’ पद तथा चित्र के बाद च एवं त दो वर्णो के बाद ‘त्र’ वर्ण होने से अपनी स्वाभाविक लीला से दूर होते से प्रतीत होते हैं। सहृदय इसका अनुभव करेगें। अर्थगत उदारता ग्राम्यदोष का अभाव है। ग्राम्यता का प्रसङ्ग होने पर यदि अग्राम्यता ला दी जाए तो उदारता गुण होगा। जैसे- त्वमेवं सौन्दर्या…….। मालती माधव के इस पद्य में कामान्दिकी मालती से कहना चाहती है कि ‘चाहने वाले कान्त का तुम वरण करो” अथवा “कामुक बने कान्त के लिए तुम कामुकी होकर वरण करो" इस ग्राम्यार्थ के लिए सौन्दर्यख्यापक “अतः शेषंयत् स्याज्जितमिह तदानीं गुणितया “इस वाक्य के उपादान से उदारता गुण है। _अर्थव्यक्ति-शब्दगत अर्थव्यक्ति में झटिति वाच्यार्थ बोध की हेतुता होती है। इसमें विशेषण विशेष्यादि पद अव्यवहित रूप से उपात्त होने के कारण शीघ्र ही वाच्यार्थ बोध करा देते हैं। पद भी प्रसिद्धादि के कारण संकेतित अर्थ का बोध झटिति करा देता है। अर्थगत यह गुण पदार्थ या वाक्यार्थ का बोध मात्र ही नहीं अपितु वर्णित वस्तु के प्रकार को भी स्पष्ट करता है। वस्तु स्वभाव की स्पष्टता जैसी, स्वभावोक्त्यलंकार में होती है, वैसी ही यहाँ वर्णित की जाती है जैसे -पृष्ठेषु शङखशकलच्छविषुइति तथा प्रथममलसैः……… । इत्यादि में क्रम से कमलस्वरूप एवं कमलनिमीलन प्रकार वर्णित हैं। कान्ति’औज्ज्वल्यं कान्तिः’। यह शब्दगत कान्ति का लक्षण है। औज्ज्वल्य का अर्थ है। पुराणादि से भिन्न नवीनोत्कृष्ट चमत्कारी अर्थ। जैसे- “कुरङ्गीनेत्रालीस्तबकितवनाली परिसरः” “दीप्तरत्वंकान्तिः” अर्थगत कान्ति गुण है। इसमें रस की स्फुटता एवं उत्कर्ष स्पष्ट दीख पड़ता है। वामन के ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ का सिद्धान्त स्पष्ट है कि रीति काव्य की आत्मा या जीवनदायक तत्त्व, है, इस रीति को काव्य की शोभा भी कह सकते हैं। इसके निर्माता, कर्ता गुण हैं, तथा अतिशय के हेतु अलंकार माने गये हैं। यदि सामान्यतः शब्दार्थ मात्र में Saanwar रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त ५१६ उपचरित काव्य को ही काव्य मान लिया जाय, तथा इस शब्दार्थरूप काव्य के शोभाजनक एवं प्रकर्षक क्रमशः गुण तथा अलंकारादि को स्वीकार कर लिया जाय, तो अनेक गुण एवं अलंकारों में से एक दो चार के भी रहने पर काव्य शोभा होगी ही, और काव्य शोभा ही उपचरित शब्दार्थरूप काव्य का जीवनाधायक तत्त्व होगा। अतः वामन द्वारा स्वीकृत तीनों वैदर्भी, गौर्डी तथा पाञ्चाली रीतियों में से कोई भी रीति होगी तो शब्दार्थ मात्र में उपचरित काव्य की शोभा होगी ही। इस प्रकार काव्यशोभा को काव्य की आत्मा या मूल तत्त्व के रूप में स्वीकृत करना ही पड़ेगा। इस प्रकार “काव्यशोभायाः कर्तारः गुणाः" हम कह सकेगें। विचारणीय यह है की क्या काव्य जो सहृदयहृदय संवेद्य परनिर्वृतिरूप फल का सम्पादक होता है, उसमें भी गुणकृत उत्कर्षापकर्ष से उत्कर्षापकर्ष माना जायेगा या नहीं। यदि हाँ, तो काव्य के कई भेद होगें, यदि नहीं तो गणवैषम्य वाली तीनों रीतियाँ कैसे काव्य की आत्मा हो सकेंगी ? जैसा कि परवर्तीआचार्यों ने वामन के इस मत के खण्डन म अपना यक्तियाँ दी हैं। दूसरा प्रश्न यह है कि इन्होंने जो विदर्भादि देश के सम्बन्ध से वदभा आदि रीतियों के संज्ञा दी है। वह समुचित है कि नहीं, क्योंकि कवि प्रतिभोपारुढ़समग्र-भाव में स्थित होकर कविता करता है, किसी देशविशेष या व्यक्तिविशेष की स्थिति वहाँ नहीं मानी जा सकती, तीसरा प्रश्न यह हैकि रीति को काव्य की आत्मा मानना क्या संगत है: चाया प्रश्न हो सकता है, अलंकारों की अपेक्षा रीति में कौन सा काव्यीयतत्त्वविशेष है। अथवा किस सूक्ष्म तत्त्व या चमत्कार को वामन ने देखा है, जिससे अलंकार को आत्मा न कहकर रीति को आत्मा कहना उचित समझा है। इसमें प्रथम प्रश्न के उत्तर में इनका मानना हैकि काव्य में तारतम्य, इन सातमा केकारण नहीं हो सकता। वस्तुतः ये तीनों रीतियाँ रेखा की तरह होती हैं, जैसे रेखाओं में चित्र प्रतिष्ठित होता है, वैसे ही वैदर्भी आदि रीतियों में काव्य प्रतिष्ठित होता है। सकलगुण सम्पन्न वैदर्भी रीति इसलिये कवियों से ग्राह्य होनी चाहिए, क्योंकि इसमें स्वयं सभी रीतियाँ जो गुणाधीन हैं, गुणों की सत्ता में रेखा के समान स्थित रहेगी ही, तथा काव्य इसमें व्यवस्थित प्रतिष्ठित हो जायेगा। काव्य की प्रतिष्ठा या परमोत्कर्ष स्थिति में तारतम्य का अभाव होने से काव्य में भी तारतम्य नहीं बन सकता। केवल दो गुणों वाली गौणी तथा पाञ्चाली रीति जो क्रमशः ओज एवं कान्ति गण सम्पन्न तथा माधुर्य एवं सौकुमार्य मानी गयी है, वे सम्पूर्ण चित्रपूरक रेखा हो ही नहीं सकती। अतः उसमें काव्यप्रतिष्ठा भी संभव नहीं है। उसे त्याग देना ही कवि के लिए श्रेयस्कर है। किन्तु यह ध्यान रहे कि इन रीतियों का सर्वथा त्याग संभव ही नहीं है, क्योंकि वैदर्भी में अपने आप से स्थित रहती हैं, अतः वीररसादि अनुकूल इन दोनों रीतियों का त्याग नहीं हो सकता है। अपितु काव्यबन्ध की आत्मा होने से अपने गुणों, रसों के व्यञ्जन में ये स्थित रहती हैं, किन्तु स्वेतर अन्य गुण निरपेक्ष या वैदर्भी रीति निरपेक्ष न हों अतः कहते हैं- “ओजः प्रसादादि ….बन्धगुणाः ५२० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र LEART इति”। यह बन्ध प्रबन्ध भी है तथा मुक्तकबन्ध भी। प्रबन्धगत होने पर उन-उन रसों के अनुकूल उन-उन गुणों के उपादान से समागत रीति किसी भी एक श्लोक में हो सकती है। जैसे एक श्लोक में समग्र गुणों की स्थिति शाकुन्तल के इस पद्य में दिख लायी जा रही है। गाहन्तां महिषा निपानसलिलंशृंगैर्मुहुस्ताडितं. छायाबद्धकदम्बकं मृगकुलं रोमन्थमभ्यस्यतु। विस्रब्धैः क्रियतां वराहपतिभिर्मुस्ताक्षतिः पल्वले विश्रान्तिं लभतामिदं च शिथिलज्याबन्धमस्मद्धनुः।। यहाँ शब्दगत ओजोगुण “वराहपतिभिर्मुस्ताक्षतिः पल्वले” “शिथिलज्याबन्धमस्मद् धनुः” में गाढ़बन्धत्व से व्यक्त है। अर्थगत आखेटत्यागरूपैक के स्थान पर समस्त श्लोक का उपादान होने से समास से व्यासरूप ओजो गुण व्यक्त हो रहा है। शब्दगत आजोमिश्रित शिथिलता रूप प्रसाद जैसे “गाहन्तां महिषाः निपानसलिलं" आदि पदों में ‘गा’ के पश्चात् हकार ‘म’ के पश्चात् ‘हिषा’ ओजो गुण तथा पूर्व के अनन्तर ‘गा’ या म में शिथिलत्व लाने के कारण प्रसादगुण है, दोनों का संप्लव एक दूसरे की सम्पृक्तता स्पष्ट परिलक्षित हो रही है। ऐसे ही अन्य पदों में भी प्रसाद गुण देखा जा सकता है। अर्थगत अर्थवैमल्य-रूप प्रसाद स्पष्ट है। अनेक पद जब एक पद की तरह भासित हों तो शब्दगत श्लेष होता है, जैसे “ज्याबन्धमस्मद्धनुः” शब्दगत श्लेष है। अर्थगत श्लेष जो दो प्रयोजनों के होने से वस्तुतः भिन्न दो क्रियाओं (उपपत्ति) का ऐसा योग हो कि जिसमें न तो क्रम दीख पड़ता है, न ही किसी अतिरिक्त शब्द के कारण दोनों की भेदक उल्वणता स्पष्ट प्रतीत होती हो, जैसे क्रमकौटिल्यानुल्वणोपपत्तिोगरूप घटना श्लेष है ऐसा कहा है। यहाँ शकुन्तलाविषयक रतिमूलक उसका दर्शन आदि प्रयोजन तथा विदूषक निर्दिष्ट आखेट निषेधरूप दोनों के लिए एक ही श्लोक “गाहन्तां” है। दोनों के कारण अन्यूनानतिरिक्त रूप में यह श्लोक है। मार्गाभेदरूप समता सम्पूर्ण श्लोक में है। अर्थगत अवैषम्यरूप समता भी स्पष्ट है, “विश्रब्धैः क्रियतां वराहपतिभिर्मुस्ताक्षतिः पल्वले” यह कर्मवाच्य होने से पूर्व कर्तृवाच्य के वाक्यों से विषम है फिर भी ‘क्वचित् क्रमोऽपि भिद्यते’ से यह गृहीत हो जाता है। आरोह तथा अवरोह क्रम रूप शब्दगत समाधिगुण “गाहन्तां महिषाः” से आरोह “निपानसलिलं” से अवरोह ‘श्रृङ्गैर्मुहुः’ क्रम से आरोह तथा ‘ताडितम्’ से अवरोह स्पष्ट है। अर्थगत अर्थदृष्टिरूप समाधि आखेट परित्याग के कारण सुलभ है, अतः अन्यच्छायायोनि भी हो सकती है, अयोनि भी। शब्दगत पृथक् पदत्वरूप माधुर्य स्पष्ट है। अर्थगत माधुर्य पौनरुक्त्य निवारणार्थ एक ही अर्थ को विचित्र भिन्न शब्द से कहना है। यहाँ निर्भयविहाररूप एक ही वस्तु ‘गाहन्ताम्’ रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त १२१ ommaa AAREE-H un+ TION A 4NEPARMANASIKLDuniaFETVMANSL आदि प्रत्येक वाक्यों में गाहन्ताम् अभ्यस्यतु, क्रियताम्आदि क्रियाओं के द्वारा व्यक्त होने से अति वैचित्र्यरूप माधुर्य स्पष्ट होता है। शब्दगत अपारुष्यरूप सौकुमार्यगुण इस श्लोक के प्रकरण से प्राप्त विदूषक सेनापति के परस्पर विरोधी वार्तालाप की स्थिति में मृगया का निषेध साक्षात् शब्दों से न कर गाहन्ताम्…. आदि वाक्यों से करने से स्पष्ट होता हैकि बन्ध की अजरठता रूप अर्थगत सौकुमार्य सर्वत्र श्लोक में है। अर्थगत अग्राम्यत्वरूप उदारता गुण मृगया के प्रस्ताव में शब्दतः मृगया दोष को व्यक्त कर निषेध करने की अपेक्षा ‘गाहन्ताम्’ आदि उक्तियों से निषेध करने से होता है, शब्दगत विकटत्व रूप उदारता “छायाबद्धकदम्बकं मृगकुलंरोमन्थमभ्यस्यतु" आदि वाक्यों से स्पष्ट है, क्योंकि कोई भी शब्द दो बार उपात्त न होनेसे कण्ठध्वनि नर्तन करती हुयी सी एक स्थल पर स्थित नहीं हो पा रही हैं। __अर्थगत अर्थव्यक्ति गुण, अर्थव्यक्ति के सभी हेतुओं के विद्यमान होने से स्पष्ट है। अर्थगत अर्थव्यक्ति जो स्वभाव स्फुटता है उससे व्यक्त है। यहाँ महिष, मृगकुल एवं वराहों की स्वभावात्मक किया स्वभावस्फुटता है। शब्दगत कान्ति जो बन्ध की उज्जवलता रूप है। वह स्पष्ट सभी चरणों में है, कहीं भी पुराणच्छाया नहीं दीख पड़ती है, दीप्तरसत्वरूप अर्थगत कान्ति गुण “अविरतधनु स्फालनक्षमोत्साह की अभिव्यक्ति चतुर्थ चरण से हो रही है, जोक्षात्रकर्मक्षमंदृढ़तारूप विभावादि के द्वारा वीररस में परिणत हो रहा है। __ इस प्रकार सभी गुणों से सम्पन्न यह श्लोक वैदर्भी का उदाहरण है, इसमें गौड़ी और पाञ्चाली भी अपने गुणों से अभिव्यक्त हो रही हैं। ऐसे ही प्रबन्धगत भी सभी रीतियाँ भिन्न भिन्न श्लोकों में प्राप्त हो सकती हैं। अतः यदि मुक्तकबन्धगत रीतियों का उपादान करना हो तो वैदर्भीका उपादान करें, और यदि प्रबन्धगत रीतियों का उपादान करना हो तो सभी रीतियाँ विविक्त स्थलों में प्राप्त हो सकती है, और सभी रीतियाँ काव्य की आत्मा सिद्ध होगी। इसी दृष्टि से गौडी और पाञ्चाली का भी निरूपण काव्य की आत्मा के रूप में किया गया है। किया भी क्यों न जाय दीपरसत्वरूप कान्ति तथा ओजो गुण से सम्पन्न गौडी रीति की काव्यता में कोई हानि नहीं, रस सत्ता स्पष्ट कही जा रही है, पाञ्चाली रीति जो माधुर्य सौकुमार्य गुणों से युक्त है उसमें अतिवैचित्र्य तथा पृथक् पदत्व रूप माधुर्य एवं अजरठत्व तथा अपारुष्यरूप सौकुमार्य गुणों से युक्त होने पर भी क्योंनहीं काव्यात्मकता होगी। हाँ, स्तोकगुणवती होने से इन दोनों का ही अभ्यास या उपादान सर्वत्र काव्यों में यदि होता रहेगा तो विच्छायता होगी, क्योंकि शेष गुण निरूपित नहीं हो सकेगें। अतः मात्र इन दोनों के उपादान का निषेध सूत्रों से समझना होगा न कि सर्वथा निषेध । वैदर्भी में तो सभी आ ही जायेगें तथा प्रबन्धगत सभी गुणों की विविक्त विषयता होने पर भी वैदर्भी प्रबन्धगत

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… RA-… P ५२२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र RAMESH

होगी। अतः वैदर्भी के उपादान का विधान प्राप्त होता है। केवल गौड़ी पाञ्चाली के उपादान का नहीं। दूसरा प्रश्न विदर्भादि देश के सम्बन्ध से वैदर्भी आदि जो रीति की संज्ञा मानकर वामन पर आक्षेप करते हैं, वह भी उचित नहीं है। वामन ने स्वयं कहा है कि-“किं पुनर्देशवशात् द्रव्यवद् गुणोत्पत्तिः काव्यानां येनायं देशविशेषव्यपदेशः” नैवम्। इसका अर्थ स्पष्ट है कि क्या जैसे द्रव्य देश विशेष के सम्बन्ध से उत्पन्न होते हैं, वैसे ही काव्यों के गुणों की उत्पत्ति भी क्या देशविशेष से मानी जा सकती है, जिससे देशविशेष विदर्भ गौड़ आदि का कथन किया जा रहा है, उत्तर है- ‘नहीं’ देशविशेष से वैदर्भी आदि गुणवती रीतियों का व्यवहार नहीं किया जा सकता। किसी देश से काव्य का किसी प्रकार का कोई भी उपकार नहीं होता है, जैसा कि-“पुनर्देशैः किञ्चिदुपक्रियते काव्यानाम्” इति अपितु कविगण अपनी प्रतिभा या स्वभाव या स्वरूपानुसार इन रीतियों को ग्रहण करते हैं। कविस्वभाव निर्मित ये रीतियाँ विदर्भ गौड़ तथा पाञ्चाल में वहाँ के कवियों द्वारा प्रयुक्त होने से इन्हें वैदर्भी आदि संज्ञा दी जा रही है, वस्तुतः गुण के आधार पर इनका नामकरण है, न कि देश के। रीति कोकाव्य की आत्मा कहना कहाँ तक उचित है? इसका उत्तर स्पष्ट है कि काव्य केवल उपमादि अलंकार के निबन्धनमात्र से ही समुचितास्वाद्य नहीं हो सकता, क्योंकि अलंकार जो शब्दार्थनिष्ठ लक्षित किये गये हैं, तथा वाच्यवृत्ति मात्र में समाविष्ट हैं इन अलंकारों से ही मात्र काव्य नहीं होगा। काव्य की तत्त्वाभिव्यक्ति के लिए कवियों के द्वारा की गयी विशिष्ट जो रचना वह उपमादि अलंकारों से अलंकृत की जाती है, अर्थात् सदृश, यथा आदि शब्दों से वाच्य उपमालंकार स्वयं काव्य नहीं कहा जाय, अपितु ओज आदि गुणों से विशिष्ट जो रचना हो, उसे काव्य माना जाय। हाँ, ये यथा सदृशादि से प्रतिपादित उपमालंकार इस रचना के अतिशय के कारण भले ही हो। अमूर्त तत्त्वात्मक गुण, अलंकारादि की अपेक्षा सूक्ष्म बुद्धि गम्य होने से इनकी सारवत्ता तथा उपादेयता अलंकार की अपेक्षा अवश्य अभ्यर्हित होगी अतः रीति को अलंकार की अपेक्षा काव्य की आत्मा कहना अधिक उचित है इस प्रकार स्पष्ट हो गया कि एक ही पुलकरूप अनुभाव, जो जो दोनों प्रियतमाओं को एक साथ यह प्रतीत करा रहा है कि यह प्रियतम मुझ में ही रतिमान हैं। क्योंकि पिहितनयना प्रिया, चुम्बन को नहीं देख पा रही है। तथा अपनी सपत्नी के सामने ही आँख मिचौली खेलने वाले पति की अत्याधिक रति को अपने में मान रही है। तथा दूसरी अपने में अधिक रति को जान रही है। क्योंकि वह चुम्बित हो रही है। वह समझती है कि यह इसकी आँख मिचौली ऐसी रति जनिका क्रीड़ा नहीं, बल्कि मुझे चूमने के लिए ही इसने आँखों को मूंदा हैं। इस प्रकार दोनों अपनी-२ दृष्टि से एक ही “पुलक” पद से स्पष्ट “रोमाञ्च” रूप युक्ति से नायक को स्वविषयक रतिमान् समझ रही है। नायक ५२३ रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त की धूर्तता भी घटित हो जायेगी। अन्यथा किसी एक में ही रति की व्यक्ति हो जाती, तो नैपुण्य या धूर्तता बाधित हो जाती। अतः युक्त लक्षण घटने से श्लेष गुण मानना चाहिए। __ परवर्ती आचार्यों में जयदेव ने अपने चन्द्रालोक में इसका एक उदाहरण दिया है। उस उदाहरण पर भी विचार कर लें, क्या उससे यह उदाहरण पुष्ट हो सकता है। अथवा इस प्रकार लक्षण का व्याख्यान घटित हो सकता है या नहीं जयदेव चन्द्रा लोक में लिखते हैं। कि TOTHIT A DI DPPR श्लेषो विघटमानार्थघटमानत्ववर्णनम्। स तु शाब्दः सजातीयैः शबैर्बन्धः सुखावहः।। उल्लसत्तनुतां नीतेऽनन्ते पुलककण्टकैः। भीतया मानवत्यैव श्रियाऽऽश्लिष्टं हरिं स्तुमः॥ होने के कारण वस्तुतः क्रम रूप में अलङ्कार गुणव्यतिरिक्ता ही होना चाहिए था। जिससे स्पष्ट होजाता कि वृत्ति अलङ्कार से एवं रीति गुण से अतिरिक्त नहीं है। इस प्रकार जिस रीति के मूल में गुण एवं समास हो वह वर्णानुप्रास मूल वालीवृत्ति से भिन्न ही ही सकती थी जैसा कि आचार्य जयदेव ने निर्दिष्ट किया है, फिर आचार्य मम्मट इन दोनों को एक ही मानने केलिए क्यों उद्यत हुए, ज्ञात नहीं होता है। रीति, क्षरणार्थक रीड़ धातु (जो दिवादि है) या गति रेषणोभयार्थक री (क्यादि) धातु से क्तिन प्रत्यय करने पर निष्पन्न होगी। गत्यर्थक री धातु से यदि निष्पन्न की जाय तो दण्डी द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का पर्यायान्तर ही होगी। कुछ आचार्य क्षरणार्थक रीड्. से इसे मानते हैं तथा इसका अर्थ प्रवाह करते हैं। रीति का संख्या भेद= प्रारम्भ में दण्डी ने दो मार्ग बतलाये जिनकी संज्ञा वैदर्भ मार्ग एवं गौडमार्ग है, यद्यपि प्रदेशों की अनेकता स्पष्ट है, अतः प्रदेश पर आश्रित कवियों के मार्ग थोड़े-थोड़े अन्तर से अनेक हो सकते हैं फिर भी वाणी के स्फुट अन्तर वाले दो मार्ग स्पष्ट माने जा सकते हैं, जो वैदर्भ एवं गौडीय ही है। जैसा कि स्वयं कहा है अस्त्यनेको गिरां मार्गः सूक्ष्मभेदः परस्परम् । तत्र वैदर्भगौडीयौ वयेते प्रस्फुटान्तरौ।। __ काव्यादर्श, प्रथम परिच्छेद ४० का.। इसका तात्पर्य है कि वाणी के अनेक मार्ग, जिनमें परस्पर सूक्ष्म भेद है, सभी को दर्शाना सम्भव नही है, अतः स्पष्ट भेद जिनके परिलक्षित होते हैं वे वैदर्भ एवं गौडीय मार्ग यहाँ दिखलाये जाते हैं। .. .-….-.- …..- … ……………. …netinuine attra………………… … … … ५२४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र __वाणी के अनेक मार्ग है इसके लिए प्रारम्भ में भी कहते हैं। कि “वाचां विचित्र मार्गाणां निबबन्धुः क्रियाविधिम्”। इससे स्पष्ट है कि वाणी के मार्ग अनेक हो सकते हैं। इसी मार्ग को वामन ने संज्ञान्तर ‘रीति’ से कहा तथा काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकार किया तथा इसके तीन भेद माने-वैदर्भी, गौडी एवं पाञ्चाली। भोज ने सरस्वती कण्ठाभरण में रीति के छः भेद माने है-वैदर्भी, पाञ्चाली, गौडीय, अवन्तिका, लाटीया एवं मागधी। जैसा कि वैदर्भादिकृतः पन्थाः काव्ये मार्ग इति स्मृतः। रीङ् गतावितिधातोःसा व्युत्पत्या रीतिरुच्यते।। ५१॥ वैदर्भी साऽथ पाञ्चाली गौडीयाऽवन्तिका तथा। लाटीया मागधी चेति षोढारीति निगद्यते।। ५२ ।। प्रथम परिच्छेद आचार्य विश्वनाथ ने साहित्य दर्पण में लाटी का विपर्यास रूप अवन्तिका तथा सभी रीतियों से अतिरिक्त स्वरूप वाली खण्डरीति मागधी को छोड़कर, शेष वैदर्भी पाञ्चाली गौडी एवं लाटी इन चार वृत्तियों को स्वीकार किया है। इन सबकी संख्या वृद्धि, सम्प्रदायानुसार ही मानी जायेगी। क्योंकि दण्डी ने इसकी अनेकता पहले ही स्वीकृत कर ली थी। दो भेद तो केवल विस्पष्टता हेतु थे। __ उक्त विवेक से यह स्पष्ट हो गया कि रीति गुणों एवं समास पर आश्रित होती है तथा वृत्ति वर्षों पर। अलङ्कार का एक रूप वृत्ति कही जाय तो गुण का अपर रूप रीति आदि। रीति वामन की दृष्टि से काव्य की शोभा की कर्जी है तथा विश्वनाथ जी की दृष्टि में अवयव संस्थान विशेष । वृत्ति रसानुकूल वर्ण विन्यास रूप अनुप्रास से उद्भूत है तो रीति बन्धार्थ निष्ठ गुणों से। अब विचारणीय यह है कि जिन गुणों पर रीति आश्रित है वे गुण क्या शब्दनिष्ठ है या बन्धनिष्ठ मात्र हैं अथवा अनिष्ठ हैं या बन्धार्थोभयनिष्ठ हैं। इनमें वामन बन्ध एवं अर्थ दो आधारों में रहने वाले बीस गुणों को मानते हैं तो इससे पूर्व दण्डी के वल दस गुणों को। किन्तु दण्डी दस में से श्लेष, समता, सुकुमारता एवं ओज को शब्द गुण तथा प्रसाद, अर्थव्यक्ति, उदारता कान्ति एवं समाधि को अर्थगुण तथा माधुर्य को उभयगुण मानते हैं जैसा कि आचार्य रामचन्द्र मिश्र काव्यादर्श की टीका में लिखते हैं “तदयमत्रविवेकः’ एषु प्रागुक्तेषु दशसु गुणेषु श्लेषः समता, सुकुमारता, ओजः इति चत्वारः शब्दगुणाः, प्रसादोऽर्थव्यक्ति उदारता कान्तिः समाधिस्त एते पञ्चार्थगुणः, माधुर्यं तूभयगुणः इति दण्डिनो मतम् ।” रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त ५२५ आचार्य मम्मट ने नाम से तो इन दशो गुणों को दिखलाया, किन्तु माधुर्यादि तीन गुणों में सबका अन्तर्भाव कर दिया है। तथा अर्थगुण को तो गुण माना ही नहीं है। बल्कि दोषाभावादि में संग्रहीत कर दिया। __ अतः इनकी दृष्टि में अर्थगुण के रूप में इन्हें स्वीकार करने की आवश्यकता ही नहीं है। आचार्य वामन ने जो अलग-अलग बन्ध एवं अर्थ के गुणों को लक्षणों से लक्षित कर उदाहृत किया है, उससेस्पष्ट है कि इनके मत में दश-दश गुण बन्ध एवं अर्थ के हैं। वस्तुतः इन सब के मूल में भरतमुनि की यह कारिका उपजीव्य है। श्लेषः प्रसादः समता समाधिर्माधुर्यभोजः पदसौकुमार्यम्। अर्थस्य च व्यक्तिरुदारता च कान्तिश्च काव्यार्थगुणाः दशैते। भरतमुनि के ‘काव्यार्थगुणाः दशैते’ पद विशेष रूप से उक्त आचार्यों ने समझा है। कोई काव्य का अर्थ बन्ध करते हैं तथा काव्यार्थ में द्वन्द्व करते हैं। जैसे वामन। दण्डी काव्यार्थ का अर्थ ईष्टार्थ व्यवच्छिन्न पदावली मानते हैं। इन्ही दशोगुणों में से किसी को शब्द गुण तथा किसी को अर्थगुण मानते हैं। इनके मत में काव्य का अर्थ पदावली या शब्द है तथा ‘दशैते’ का अर्थ ‘दशैव’ करते हैं। वामन “एते दश” से प्रत्येक में दश-दश मानते हैं, भोजराज तो २४ गुणों को मानते है। वह गुण शब्दनिष्ठ भी हैं तथा अर्थनिष्ठ भी। इनकी दृष्टि में गुण तीन प्रकार के है। बाह्य, आभ्यन्तर एवं वैशेषिक। वाह्य गुण शब्द गुण है, आभ्यन्तर गुण अर्थगुण हैतथा वैशेषिक गुण वे गुण है जो दोष रूप होते हुए भी गुण हैं। जैसा कि कहा है

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त्रिविधाश्च गुणाः काव्ये भवन्ति कविसम्मताः। बाड्याश्चाम्यन्तराश्चैव येच वैशेषिका इति।। बायाः शब्दगुणास्तेषु चान्तरस्त्वर्थसंश्रयाः। वैशेषिकास्तु ते नूनं दोषत्वेऽपिहि ये गुणाः।। चतुर्विंशतिराख्यातास्तेषु ते शब्दसंश्रयाः। ते तावदमिधीयन्ते नामलक्षणयोगतः।। श्लेषः प्रसादः समता माधुर्य सुकुमारता। अर्थव्यक्तिस्तथाकान्तिरुदारत्वमुदात्तता। ओजस्तथान्यदौर्जित्यं प्रेयानथ सुशब्दता। तद्वत्समाधिः सौक्ष्म्यञ्च गाम्भीर्यमथ विस्तरः। संक्षेपः संमितत्वञ्च भाविकत्वं गतिस्तथा। रीतिरुक्तिस्तथा प्रौढिरथैषां लक्ष्यलक्षणे।। (सरस्वती. प्रथम पृ. ५०)। " *" .. HARIHmr५२६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

रीति के मूलभूत गुणों का विचार

ओज, प्रसाद, श्लेष, समता, समाधि, माधुर्य, सौकुमार्य, उदारता, अर्थव्यक्ति एवं कान्ति ये दश गुण वामन ने माने है। इन्हें क्रम से सलक्षण प्रस्तुत कर रहे है। कुछ परवर्ती आचार्यों ने जो लक्षण इन गुणों के किए है। उन लक्षणों के तात्पर्य को भी दर्शा देने से गुणों का स्वरूप स्पष्ट हो सकेगा, इसलिये यहाँआचार्यों की दृष्टि से गुणों का स्वरूप स्पष्ट करना है। ओजोगुण-“गाढ़बन्धत्वमोजः” वामन ने ओजोगुण का लक्षण गाढ़बन्धत्व किया है। गाढ़बन्धत्व का अर्थ बन्ध की गाढ़ता। यह गाढ़बन्धता संयोग पर हस्वपदों वाले बन्ध में वामन ने माना है जो उदाहरण से स्पष्ट होता है जैसे “विलुलितमकरन्दा मञ्जरीनर्तयन्ति”। यहाँ करन्दा एवं नर्तयन्ति पद संयोग पर ह्रस्व होने से ओजोगुण शब्दगत या बन्धगत है। यदि इन्हीं दो पदों के स्थान पर क्रमशः मधुधारा एवं लोलयन्ति रख दें तो बन्ध की शिथिलता हो जायेगी तथा ओजोगुण नहीं होगा। अतः लिखते हैं “न पुनः, विलुलितमधुधारा मञ्जरीर्लोलयन्ति”। यह बन्ध गाढ़ता संयोग पर हस्व के साथ-साथ रेफजन्य भी है। अन्यथा ‘यन्ति’ ‘मञ्ज’ आदि संयुक्त शब्दों के रहते भी बन्धगाढता नहीं प्रतीत हो रही है। __अर्थगत ओजोगुण, अर्थ की प्रौढ़ि को मानते हैं। अर्थकी प्रौढ़ि कहीं एक पदार्थ के लिए वाक्य की रचना करना, कहीं वाक्यार्थ के स्थान पर पद का प्रयोग करना, कहीं वाक्यार्य का विस्तार करना. कहीं उसका समास (संक्षेप) करना एवं कहीं साभिप्राय अर्थात युक्त विशेषण का प्रयोग करना ये पाँच मानी गयी हैं। __ इसमें पहला चन्द्र पद के स्थान पर अत्रिमुनि के नयन से (उठी हुई या) उत्पन्न ज्योति को कहना अथवा बदरी पाक के स्थान पर बदर (बैर फल) की प्रारम्भावस्था के रूप सेलेकर शुष्क रूप तक का वर्णन परक “पुरः पाण्डुच्छायम्…….” पद्य का निर्माण करना, दूसरा- दिव्या स्त्री है। या मानुषी ? इस सन्देह के निराकरण के लिये, प्रयुक्त होने वाले “यह दिव्या नहीं है। बल्कि मानुषी है” इस वाक्य के स्थान पर “निमिषति” (पलक गिर रही है।) इस पद का प्रयोग करना, तीसरा वाक्यार्थ का व्यास करना, जैसे सुख दुःखादि सभी अनियत हैं इस वाक्यार्थ के स्थान पर “अयं नानाकारो………” इस पूरे पद्य का प्रयोग करना तथा चौथा चार-चार वाक्यों के स्थान पर क्त्वा आदि के माध्यम से एक वाक्य कर देना है जिसका उदाहरण “ते हिमालयमामन्त्र्य…” पद्य है। पाँचवाँ भेद सामिप्राय पदों के प्रयोग से माना गया है। जैसे “जातः भूपतिराश्रयः कृतधियाम्” इस पद्यांश में ‘कृतधीः’ शब्द सामिप्राय है। इस पद का अभिप्राय है कि युवा राजा सद्गुण सम्पन्न एवं परम राजभक्त लोगों से युक्त है जो राजभक्त, कृतधीः राजा के हित में अपने धन, स्नेह एवं सन्मन्त्रणा को स्वभावतः प्रदान करने वाले है, वह ‘कृतधीः’ से व्यक्त है, जैसा कि वृत्ति में लिखते

…. रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त ५२७ हैं। “आश्रयः कृतधियामित्यस्य वसुबन्धुसाचिव्योपक्षेपपरत्वात् साभिप्रायत्वम्” इति। कामधेन टीका स्खलित है। ऐसे स्थानों पर उचित पाठ भी मूल में रख नहीं सकी है। अस्तु । विस्तार के भय से वामन के उदाहरणों की हिन्दी नहींकर रहेहैं, किन्तु अपेक्षित गुण का स्वरूप जो रीति में आवश्यक है। उसका मूलरूप संक्षेप में स्पष्ट कर दिया गया है। __ दण्डी ने “ओजः समासभूयस्त्वम्” कहा है तथा अन्य आचार्यों ने प्रायः वामन के अनुसार ही ओजो गुण का लक्षण किया है। प्रसाद गुण-बन्ध की शिथिलता को प्रसाद कहते हैं प्रकृष्ट साधन शैथिल्य ही शब्द गत या बन्धगत प्रसाद है यह ओजोगुण का विपरीत रूप है। गुण की विपरीत रूपता भी गुण ही हो ऐसा नहीं देखा गया है फिर गुण विपर्यय जो दोष का स्वरूप है उसे भी गुण मानना क्या उचित हैं? ऐसा प्रश्न न किया जाय, क्योंकि यह एक ऐसा सम्लव या सम्भेद है जो ओजोगुण के साथ-साथ रह सकता है। यदि ओजोगुण का सर्वथा त्याग कर केवल शैथिल्य होगा तो वहाँ तो दोष होगा ही। यह भी कहना ठीक नहीं है कि विरूद्ध दो तत्वों का एक साथ संप्लव या सम्प्रवाह कैसे होगा। यह तो अनुमान सिद्ध ही है। जैसे रत्न क अनेक गुण एवं दोष को पारखी एक साथ एक ही रत्न में उन-उन अवयवों या लक्षणों के परीक्षण से जान लेता है उसके ज्ञान में एक साथ उनके दोष गुणों का संप्लव होता है। अथवा जैसे करुण रस के विभावादि प्रेक्षणीय पदार्थों में, एक साथ सुख-दुःख का संप्लव होता हैं वेसे ओजोगुण एवं प्रसादगुण का भी संप्लव सिद्ध है। यह संप्लव तीन प्रकार से देखा जा सकता है। कहीं दोनों गुणों के साम्य से तथा कहीं किसी एक गुण के उत्कर्षापकर्ष से इसके लिए वामन ने चार सूत्रों का निर्माण किया है। “शैथिल्यः प्रसादः, गुणः संप्लवात्, सत्वनुभवसिद्धः, साम्योत्कर्षों च”। इनका साम्य एवं एक की अपेक्षा एक का उत्कर्ष देख लेना चाहिए। “अथ सा विषयव्यावृत्तात्मा" में व्यावृत्तात्मा ओजोगुण सम्पन्न है तो यथा विधि सूनवे, प्रसाद गुण सम्पन्न । “नृपति ककुदं दत्वा” ओजोगुणयुक्त है तो ‘यूने सितातपवारणम्’ प्रसाद गुण, यहाँ दोनों का साम्य है। ओज का प्रसाद से उत्कर्ष जैसे-ब्रजति गगनं भल्लातक्याः फलेन सहोपमाम्” यहाँ एक पद ‘भल्लातक्याः’ ओजोगुण युक्त है, शेष सभी प्रसाद गुण युक्त हैं फिर भी अत्युल्वण ओज होने से यह ओज का ही उत्कर्ष है। ओज में प्रसाद का उत्कर्ष । जैसे कुसुमशयनं न प्रत्यग्रं न चन्द्रमरीचयोः। न च मलयजं सर्वाङ्गीणं न वा मणियष्टयः।। यहाँ प्रत्यग्र, यष्टयः एवं सर्वाशब्द ओजोगुण युक्त है। किन्तु प्रत्यग्र अपनेपूर्व एवं पर में ह्रस्व ‘न’ वर्ण से युक्त है तथा सर्वाएवं यष्ट मी (क्रमसे जं तथा गी एवं “णि तथा यः”) पूर्वपर में होने वाले प्रसाद युक्त वर्णों से युक्त होकर अपनी ओजस्विता व्यक्त नहींकर पा रहे हैं। अन्य पद प्रसाद युक्त है ही, अतः प्रसाद की उत्कृष्टता है। …………… me-………… –… -…..

. …. …-wrimurarunner.. ………..— ५२८ RS अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अर्थगुण में प्रसाद का लक्षण है अर्थवैमल्य। अर्थ की विमलता या स्पष्टता तभी होती है। जब जितने अर्थ अपेक्षित हैं उसके प्रयोजक या वाचक उतने ही शब्द प्रयुक्त होते हैं। जैसा कि कहते हैं-“अर्थस्य वैमल्यं प्रयोजक मात्र परिग्रहे प्रसादः" । प्रयोजक का अर्थ वाचक या प्रतिपादक समझना चाहिए। जैसे किसी रूप एवं वयः सन्धि की कन्या को देखकर कोई “सवर्णा कन्यका रूपयौवनारम्भशालिनी” सवर्ण, से ग्राह्यता घोतित करना चाहता हो। इसमें कन्या के दोनो विशेषणों मेंउतने ही प्रतिपादक शब्द है जितने अपेक्षित है। किसी कन्या के परिग्रह मेंउक्त विशेषण, अर्थ की विमलता लिए हुए है, इसका प्रत्युदाहरण में “उपास्तां हस्तों में विमलमणि काञ्चीपदमिदम्” में उपास्तां हस्तो.. इति में “विमलमणिकाञ्चीपदमिदम्” में काञ्ची पद से नितम्ब अर्थ अभिप्रेत है। काञ्ची का विशेषण जो विमलमणि है वह अकिञ्चित्कर, है। अतः विशेषण किसी समुचित उपयोगी अर्थ का अप्रयोजक ही है। श्लेषगुण-मसृणता को श्लेष कहते हैं, मसृणता उसे कहते हैं जिससे बहुत से पद होते हुए भी एक पद की तरह प्रतीत हो जैसे “अस्त्युत्तरस्याम्” पद्य में अस्त्युत्तरस्यां, देवतात्मा, हिमालय, नगाधिराज शब्द एक पद की तरह भासित हो रहे हैं। जबकि सभी में दो-दो पद है। यह गुण उन्हीं वर्णों वाले पदों के रहते हुए भी पूर्व-पर सन्निवेश मात्र से भी हो सकता है तथा परिवर्तन के पदों से भी। ‘सूत्रं ब्राह्ममुरः स्थले’ के स्थान पर ‘ब्राह्म सूत्रमुरः स्थले’ कह देने पर श्लेष गुण हो जायेगा। “भ्रमरीवल्गुगीतयः” ‘तडित्कलिलमाकाशम्’ में वल्गु के स्थान पर मञ्जु एवं कलिल के स्थान पर जटिल का प्रयोग होने पर श्लेषगुण हो जाते हैं अन्यथा विपरीत उदाहरण है। कारण है ल वर्ण। अर्थगुण में इसका लक्षण “घटना” करते हैं। घटना का अर्थ होता है किसी दो को घटित करने वाली या जोड़ने वाली क्रिया घटना का स्वरूप वृत्ति में योग ही मानते है। जैसा कि-“क्रम कौटिल्यानुल्वणो पपत्तियोगो घटना” । यह पद बड़ा ही अस्पष्ट है। इस उपपत्ति का तात्पर्य कुछ आचार्य जैसे चक्रवर्ती, उपपादक युक्ति विन्यास’ करते हैं तथा प्रदीपोद्योतकार ‘युक्ति’ करते हैं। क्रमकौटिल्यमतिक्रमः, तस्यानुल्वणत्वं अस्फुटता तत्रोपपत्तियुक्तिः, तस्या योगः, सम्बन्धः घटना इति “प्रदीपकार का मत वामनी टीका में उद्धृत है। इसका अर्थ है। अतिक्रमण की जो अस्फुटता, उसमें जो युक्ति, उस युक्ति के समबन्ध को घटना या श्लेष कहते हैं, जैसे वामन के उदाहरण में ही” “दृष्ट्वैकासनसंस्थिते” इस पद्य में निहित नयना प्रियतमा का अतिक्रमण कर अन्य के चुम्बन को ‘अतिक्रम’ कहते हैं, उसकी अस्फुटता प्रियतमा के द्वारा न जाना जा सकता है। उसमें जो युक्ति है वह है, इसके द्वारा न जाना जाय। ऐसी युक्ति का योग ही श्लेष है। चक्रवर्ती के मत में क्रमः क्रियापरम्परा, कौटिल्यं विदग्धचेष्टितं अनुल्वणत्वं प्रसिद्धिः उपपत्तिः उपपादक युक्ति विन्यासः तेषां योगः सम्मेलनम् स एव रूपं यस्याः घटनायाः तदात्मा तदृपः श्लेषः” । जैसे दृष्ट्वैकासनसंस्थिते पद्य में “पिधाय” पद तक ‘दर्शन’ आदि रीति एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त ५२६ क्रियायें हैं। क्रिया परम्परा पीछे से आकर नेत्रों को मूंदना विदग्ध चेष्टित है। जो लोक प्रसिद्ध है। एकासन पर स्थिति पीछे से आना नयनों का ढकना, एवं अपनी ग्रीवा को कुछ वक्र करना आदि उपपादक युक्ति है। इन सबका योग श्लेष है ऐसा कहते हैं। साहित्य दर्पण कार का भी यही मत है। इन सबकी दृष्टि से श्लेषार्थ घटता हुआ कहीं प्रतीत नहीं होता। प्रदीपकार का अतिक्रमादि अर्थ तथा चक्रवर्ती आदि का क्रम, आदि का जो द्वन्द्व, उन सबसे किस प्रकार श्लेष का निर्वाह हो रहा है, कहना बड़ा कठिन है। क्रम का अर्थ क्रियातो ठीक लगता है किन्तु क्रम कौटिल्य का अर्थ अतिक्रम करें और वह अतिक्रम या अतिक्रमण कैसे घटित होगा, जब दोनों क्रियाएं, समान रूप में स्वीकृत दोनों प्रियाओं में है। क्योंकि “प्रियतमे” पद से किसी के प्रति स्नेह का उच्चावच विदग्धनायक का नहीं लगता तथा उल्वण का अर्थ प्रसिद्ध या प्रकाशित तो ठीक है किन्तु अनुल्वण का अर्थ प्रसिद्ध करना विपर्यय है (वाच्यार्थ विपर्यय) है। इस प्रकार टीकाकारों की दृष्टि से उदाहरण में इस वाक्य का अर्थ पूर्णरूपेण घटित नहीं लगता और श्लेष गुण पूर्ण रूपेण अव्याख्यायित में कई का संसर्ग श्लेषमानते हैं। श्लेष का अर्थ तो परिभाषित कर लिया जाता है। किन्तु एकाधिकरण स्पष्ट नहीं हैं। एकाधिकरण का अर्थ या तो एक ‘नायक’ या एक काव्य का ‘पद’ ही लिया जा सकता है। सम्पूर्ण काव्य के विभिन्न पदों के एक वाक्यार्थपरक संसर्ग को यदि श्लेष गुण माना जायेगा तो सभी श्लेष होने लगेंगे। जैसाकि नागेश भट्ट भी कहते हैं। “एषांच पश्चादागमन नयनपिधान-क्रीडाकरणादि क्रिया परम्परया समानाधिकरण्यं काव्ये निबद्धम् । (अर्थात् पश्चादागमनादि क्रिया परम्परा से सभी का सामानाधिकरण काव्य में निबद्ध है। प्रश्न यह है कि काव्य के विभिन्न पदार्थों का वर्णन तो लोक में होगा ही, क्या उन्हीं .का वर्णन एक श्लोक रुप एकाधिकरण में कर देना श्लेष है। क्या श्लेष किसी एक पदाधिकरण में रहने वाले दो अर्थ की तरह, एक पदरूप एकाधिकरण में रहने वाली दो क्रियाएँ, या अनुभावादि के श्लेष को गुण नहीं कह सकते ? यदि इसे एक पदरूप एकाधिकरण में रहने वाला एक ही क्रिया या अनुभाव, भिन्न-भिन्न व्यक्ति में रहने वाली भिन्न-भिन्न रति, का अनुभाव हो जाय तो श्लेष गुण का श्लेषालङ्कार से भेद कर सकेंगे क्या? यदि हाँ, तो युक्ति सोचना चाहिए। क्योंकि (दो) उपपत्ति, या युक्ति का योग ही श्लेष परिभाषित किया जा रहा है। हाँ, यह भी होना जरूरी है कि यह उपपत्ति तो दो हो, किन्तु दोनों एक साथ ही एक ही काल में हों तथा यह युक्ति इस प्रयोजन के लिए तथा यह युक्ति इस प्रयोजन के लिए हैं।, इसकी अनुल्वणता, अस्पष्टता भी हों, इसीलिये क्रम कौटिल्य एवं अनुल्वणत्व पद विन्यस्त है। उपपत्ति या युक्ति, जो दो प्रयोजन से प्रयुक्त है, उस युक्ति में कालकृत क्रम का अभाव हो, यह तो हुआ क्रमकौटिल्य का अर्थ। अनुल्वणत्व, अस्पष्टता, प्रयोजनानुकूल युक्ति की भिन्नता की अस्पष्टता होनी चाहिए। यदि ऐसा उदाहरण में घट जाय तो श्लेष गुण माना जाना उचित होगा। m ५३० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र वामन श्लेष के उदाहरण पर ध्यान दें कोई धूर्त या विदग्ध नायक है उसकी दोनों प्रियाएँ एक ही आसन पर स्थित हैं, दोनों आमने-सामने थोड़े से अन्तराल में बैठी हुईं हैं अथवा अगल-बगल ही बैठी हैं जिससे पीछे से आने वाले व्यक्ति पर दोनों की दृष्टि नही पड़ रही है। विदग्ध नायक पीछे से उनके पास आता है तथा आँख मिचौली क्रीड़ा के बहाने अपने स्नेह या अपनी रति को प्रगट कर रहा है क्योंकि ‘सपुलक’ शब्द से उसकी रति स्पष्ट व्यक्त हो रही है। उस क्रीड़ा से किसी एक का नयन ढक लेता है तथा थोड़ी सी अपनी गर्दन झुकाकर प्रेमचित्तनिर्भर वाली, थोड़ी सी मुस्कान से कपोल फलकों को विकसित कर रही दूसरी नायिका, का चुम्बन करता है। इसमें कौन सा ऐसा पद हो सकता है जिससे दो क्रियाएं तथा दोनो क्रियाओं के अलग-अलग प्रयोजन हो सकता है। किन्तु अनेकार्थक पद की श्लिष्टता भी न हों। क्रियाओं की स्पष्टता तो उनके प्रयोजन से ही होगी, नहीं तो सर्वथा अप्रतीत ही रहेंगी। उनमें कालक्रम भी प्रतीत नहीं होना है। क्या ऐसा कोई पद इस पद्य में है या नहीं ? इस पर विचार करने पर एक पद सपुलक’ है जिसका अर्थ है कंटकित या रोमाञ्चित। यह रोमाञ्च नायिका विषयक रति का अनुभाव है। नायक का यह रोमाञ्चित होना, यदि कोई दो प्रयोजन सिद्ध करा सकते हों तो श्लेष गुण हो जायेगा इस पर विचार करने के लिए स्पष्ट करना होगा कि यह ‘सपुलक’ पद से होने वाला ‘रोमाञ्च’ क्या दोनों प्रियतमाओं के प्रति रहने वाली रति का कारण है या केवल चुम्बन की जा रही प्रियतमा के प्रति रति का। दूसरा प्रश्न यह है कि क्या इस रोमाञ्च से वह नायिका जिसका नयन बँका गया है वह अपने प्रति प्रियतम को स्वविषयक रतिमान समझती है या चुम्बन की जाती हुई प्रिया या दोनों समझती है। इसमें प्रथम प्रश्न का उत्तर ‘प्रियतमे’ पद से स्पष्ट है। नायक की रति दोनों प्रियतमाओं में समान है। दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि वे दोनों नायिका जब प्रियतमा हैं तो यह भी निश्चित है कि दोनों नायक के विषय में रतिमती हैं, ऐसी स्थिति में जब दोनों रतिमती हैं तो दोनों नायक के रति का भी परीक्षण करना चाहेंगी। ऐसी स्थिति में जब पिहित नेत्रा नायिका अपने हाथों से उसके हाथों को टटोलकर पहचानना चाहती हो, तथा उसके रोमाञ्चित शरीर के स्पर्श से जान लेती हो तो वह यही सोचेगी कि यह मेरा प्रियतम मेरे प्रति इतना रतिमान् है कि मेरे नयन मूंदने की क्रीड़ा से होने वाले स्पर्श मात्र से ही इसमें रोमाञ्च होने लगा है तथा दूसरी, रोमाञ्चित कपोलों के स्पर्श से, जो चुम्बन से स्पष्ट हो रहे हैं, या चुम्बित होती हुई इसके सपुलक शरीर को देख रही है, उससे, अपने प्रति प्रियतम को रतिमान् मानेगी। इस प्रकार एक ही पुलक पद से होने वाला जो रति का अनुभाव है वह दोनों प्रियतमाओं में रहने वाली रति को दोनों के लिए एक साथ व्यक्त कर रहा है, इसमें काल का क्रम नहीं हैं। अतः क्रमकौटिल्य है। दोनों के प्रति होने वाली रति के अनुभाव के रूप में यह रोमाञ्च समान है, किसी के प्रति उल्वण या अनुल्वण नहीं है। ऐसी उपपत्ति का योग श्लेष माना जाय तो सर्वथा उचित लगता है। ध्वनि और औचित्य सिद्धान्त ‘ध्वनि’ ५३१