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२. भामह कृत लक्षण ४. अग्निपुराण " ६. आनन्दवर्धन " ८. रुद्रट " १०. भोजराज " १२. कुन्तक " १४. मम्मट " १६. जयदेव ॥ १८. हेमचन्द्र " २०. केशवमिश्र " २२. समुद्रबन्ध " २४. विद्याधर " २६. समीक्षा "
१. लक्षणपदार्थ ३. दण्डी कृत लक्षण " ५. वामन " ७. राजशेखर " ६. अभिनवगुप्त " ११. रत्नेश्वर " १३. महिमभट्ट " १५. विश्वनाथ ॥ १७. पं. रा. जगन्नाथ १६. वाग्भट " २१. गोविन्द ठक्कुर २३. विद्यानाथ. २५. भरत २७. उपसंहार
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rimen “लक्ष्यतेऽनेन” इति लक्षणम् = स्वरूपम् असाधारणोधर्मः। जिसके द्वारा किसी वस्तु का ज्ञान हो उसे लक्षण कहते हैं। यह ज्ञान दो प्रकार का होता है, एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद का ज्ञान, तथा उस वस्तु की विशेषता का ज्ञान। इन दोनों ज्ञानों का साधन लक्षण है। जैसे गाय और दूसरे पशुओं में क्या भेद है, इसका ज्ञान लक्षण से होता है, गाय में सास्ना (गल कम्बल) होती है, दूसरे पशुओं में नहीं, अतः गाय का लक्षण है “सास्नादिमत्त्वं गोत्वम्”। यह लक्षण (वस्तु का) असाधारण धर्म है। यही वस्तु की विशेषता है। अतः काव्य का काव्येत्तर पदार्थों से भेद जानने के लिए काव्यलक्षण जानना आवश्यक है। इसलिए सभी आचार्यों ने काव्यलक्षण का निरूपण किया है। काव्यस्वरूप के विषय में आचार्यों की प्रवृत्ति दो प्रकार की लक्षित होती है। एक विशिष्ट शब्द को काव्य मानती है, दूसरी विशिष्ट शब्दार्थ युगल को काव्य मानती है। अर्थात् एक आचार्य “रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्द को काव्य मानते हैं। दूसरे आचार्य रमणीय अर्थ के प्रतिपादक रमणीय शब्द को तथा रमणीय शब्द से प्रतिपादित रमणीय अर्थ को (सम्मिलित रूप से) काव्य मानते हैं। एक आचार्य अर्थ को विशेषण मानते हैं शब्द को विशेष्य मानते हैं दूसरे शब्द और अर्थ दोनों को प्रधान मानते हैं।
४१८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र आचार्य भामह-“शब्दार्थों सहितौ काव्यम्” (काव्यालं. १/१६) कहकर शब्द और अर्थ के सहभाव को काव्य मानते हैं। इस सहभाव का निरूपण आगे किया जायेगा। इन्होंने “शब्दाभिधेयालङ्कारभेदादिष्टं द्वयं तु नः” (का.लं. १/१५) इस कारिका द्वारा काव्य में चमत्काराधायकतत्त्व अलङ्कार को माना है, वह शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार भेद से दो प्रकार का है, दोनों को स्वीकार किया है। इनका अलङ्कार और अलकृति शब्द व्यापक है, अपने में दोषाभाव गुण, तथा रस को समाहित किये हुए है। ये रस को भी रसवदलङ्कार ही कहते हैं। दण्डी-ने अर्थ को विशेषण कर दिया है, इष्ट (रमणीय) अर्थ से युक्त पदावली को काव्य कहा है। “शरीरं तावदिष्टार्थव्यवचिछन्ना पदावली”। (का.दर्श १/१०) अग्निपुराण-यही लक्षण “अग्निपुराण में भी है। ये इष्टार्थ व्यवच्छिन्न पदावली को वाक्य कहते हैं, और वही दोष रहित गुण और अलङ्कार से युक्त काव्य कहलाता है। “संक्षेपाद् वाक्यमिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली। काव्यं स्फुरदलङ्कारं गुणवद्दोष वर्जितम् ।।” (अ.पु. ३३७/६-७) वामन-वामन ने काव्य की उपादेयता अलङ्कार (सौन्दर्य) से मानी है। काव्य में सौन्दर्य का आधान दोषों के अभाव से तथा गुणों और अलङ्कारों के ग्रहण से होता है। अतः वामन के मत में काव्य का लक्षण है। “दोष रहित गुण और अलङ्कारों से संस्कृत शब्दार्थ युगल”। गुण और अलङ्कारों में इन्होंने गुणों को काव्य का नित्य धर्म माना है, अलङ्कारों को अनित्य। (पूर्वे नित्याः (काव्यालं. सू.वृ. ३/१/३) “काव्यं ग्राह्यमलङ्कारात्”। काव्यशब्दोऽयं गुणालङ्कारसंस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वर्तते। भक्त्या तु शब्दार्थमात्रवचनोत्र गृह्यते। “सौर्यमलङ्कारः” । स दोषगुणालङ्कारहानादानाभ्याम् ।। (काव्यालं. सूत्रवृत्तौ) (१-३) आनन्दवर्धन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय काव्यात्मा ध्वनि है, तो भी प्रसङ्गवश अभाववादी का मत निरूपण करते हुए इन्होंने काव्य का लक्षण भी कहा है, “काव्य का शब्द और अर्थ शरीर है शब्द में चारुता के हेतु शब्दालड्कार हैं, अर्थ में चारुता लाने वाले अर्थालङ्कार हैं, सङ्घटना के धर्म गुण हैं। रीति और वृत्ति इन्हीं में समाहित हैं। इस प्रकार इनके अनुसार काव्य का स्वरूप-‘गुणालङ्कार विशिष्ट शब्दार्थयुगल’ है, उसकी आत्मा ध्वनि है। (शब्दार्थशरीरं तावत् काव्यम्… (प्रथम अभाववाद)। प्रसिद्ध प्रस्थान से भी यही अभीष्ट है, “तौ शब्दार्थो महाकवेः” (ध्वलो. १८) “व्यङ्ग्यव्यञ्जकाभ्यामेवसुप्रयुक्ताभ्याम् (वही वृत्ति) इत्यादि स्थल से भी शब्दार्थयुगल की काव्यता सिद्ध होती है। काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘काव्यलक्षण’ ४१६ .
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i n mi " राजशेखर ने काव्य पुरुषोत्पत्ति प्रकरण में सरस्वती के मुख से काव्य का स्वरूप वर्णन कराया है। शब्द और अर्थ तुम्हारे शरीर हैं। तुम सम, प्रसन्न, मधुर, उदार ओजस्वी हो (ये गुण हैं)। अनुप्रास उपमादि तुझे अलङ्कृत करते हैं। रस तुम्हारी आत्मा है। “शब्दार्थों ते शरीरम्,….. समप्रसन्नो मधुरउदारओजस्वी चासि। रस आत्मा” …. अनुप्रासोपमादयश्च त्वामलकुर्वन्ति।” (का.मी. ३/१५ पृ.) इस प्रकार इनके मत में काव्य का लक्षण हुआ __“गुण और अलकार से विशिष्ट रसात्मक शब्दार्थ युगल”। रुद्रट ने “ननु शब्दार्थों काव्यम्” (काव्यालं. २/१) कहकर भामह का अनुसरण किया है। __अभिनवगुप्तपादाचार्य ने काव्यलक्षण के विषय में आनन्दवर्धन का ही मत स्वीकार किया है - “लोकशास्त्रातिरिक्तसुन्दरशब्दार्थभयस्य काव्यस्य”। (लोचन पृ. १५) भोजराज ने भी दोषरहित, गुणविशिष्ट, अलङ्कारों से अलङ्कृत, रसान्वित को काव्य कहा है। “निर्दोषं गुणवत् काव्यमलङ्कारैरलङ्कृतम्। रसान्वितं कविः कुर्वन्”………..सरस्वती काण्ठाभरण १/२) इस पर “रत्नदर्पण” टीका में ‘रत्नेश्वर’ ने स्फुट कहा है “यद्यपि काव्यशब्दो दोषाभावादिविशिष्टावेव शब्दार्थों ब्रूते तथापि लक्षणया शब्दार्थमात्रे प्रयुक्तः” (सर. क. पृ. ३) इस प्रकार इनके मत में भी विशिष्ट शब्दार्थ युगल ही काव्य हैं। कुन्तक ने शब्द और अर्थ के सम्मिलित रूप को काव्य माना है। वे केवल कमनीय शब्द को या केवल चमत्कारी अर्थ को काव्य नहीं मानते, प्रत्युत शब्दार्थ के सम्मिलित रूप को ही काव्य मानते है जैसे प्रत्येक तिल में तैल होता है, वैसे शब्द और अर्थ दोनो में चमत्कारा-धान की क्षमता होती है, अतः दोनो मिलकर काव्य होते हैं। (दोनो का सहभाव काव्य कहलाता है। (सहभाव-(साहित्य) कवि के विवक्षित अर्थ का एक मात्र वाचक शब्द हो और सहृदयों को आनन्दित करने वाला स्वभावतः सुन्दर अर्थ इन दोनों का परस्पर स्पर्धाधिरुढ होना साहित्य है) इन दोनो का अलङ्कार ‘वक्रोक्ति’ है। अतः “वक्रता विशिष्ट कवि व्यापारः अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ४२० से शोभित होने वाले बन्ध (वाक्यविन्यास) में व्यवस्थित शब्दार्थ युगल का सहभाव काव्य है। जो सहृदयो को आनन्दित करता है। “शब्दार्थों सहितौ वक्रकविव्यापपारशालिनि। बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तदविदालादकारिणि।।” (वक्रोक्ति. १/७) महिमभट्ट ने कवि के व्यापार को काव्य माना है, और वह व्यापार है। नियमतः रस की अभिव्यक्ति करने वाला विभावादि का संयोजन। _ “कवि व्यापारो हि विभवादिसंयोजनात्मा रसाभिव्यक्त्यव्यभिचारी काव्यमुच्यते”। (व्यक्तिविवेक पृ.१०१) मम्मट का काव्य लक्षण अति समीचीन है, इसका विद्ववृन्द में समादर होता आया। उनका अभिमत काव्य लक्षण है __ “तददोषौ शब्दार्थों सगुणावनलङकृती पुनः क्वापि” (का.प्र.१/४ का.) यहाँ “शब्दार्थो” में द्वन्द्व समास है अतः शब्द और अर्थ दोनो पद प्रधान हैं। ‘शब्दार्थातत्-काव्यम्’ शब्द और अर्थ काव्य हैं। शास्त्रीय तथा लौकिक वाक्यों में (शब्द और अर्थ में) काव्यत्व का वारण करने के लिए तीन विशेषण दिये गये हैं। अदोषौ, सगुणो, सालङ्कारौ। __ अदोषौ-काव्यत्व विघटक जो “च्युतसंस्कृति” आदि दोष हैं उनसे रहित। सगुणौ-गुणसहितौ, गुणों से युक्त, सालङ्कार शब्द और अर्थ काव्य है। परन्तु इन तीनो विशेषणों पर ‘विश्वनाथ’ एवं ‘पं.रा. जगन्नाथ’ ने आपत्ति की है, “पं. रा. ने तो “शब्दार्थों काव्यम्” इस अंश पर भी आपत्ति उठाई है। वे क्रमशः उद्धृत किये जाते है। __‘विश्वनाथ’ ने ‘काव्यलक्षण’ निरूपण के पूर्व मम्मट के काव्यलक्षण की आलोचना की है, वे ‘अदोषौ’ इस विशेषण पर ५ दोष देते हुवे कहते हैं कि ‘अदौषौ’ में नञ् समास है, नञ् के छः अर्थ होते हैं, उनमें दो ही अर्थ यहाँ ग्रहण किए जा सकते हैं। १. ‘अभाव’, २. ‘ईषद्’। यदि अभाव अर्थ लेगें तो अदौषौ का अर्थ होगा “दोषरहितौ”। अर्थात् दोषरहित शब्द और अर्थ काव्य हैं। परन्तु इस अर्थ को स्वीकार करने में ‘अव्याप्ति’ दोष है। एक काव्य है “न्यक्कारो ह्ययमेव मे यदरयः”……….इत्यादि। इस में प्रयुक्त पदों तथा सुप्-तिङ्-कारक-तद्धित-वचन आदि की अभिव्यञ्जना से ‘आनन्दवर्धन’ प्रमृति आचार्यों ने इसे उत्तम काव्य माना है। (ध्व. लो. तृ. उ.)। परन्तु यहाँ विधेयाविमर्श नामक दोष है। क्योंकि नियम है, पहले उद्देश्य कहना चाहिए पश्चाद् विधेय। उद्देश्यमनुक्त्वैव न विधेयमुदीरयेत्"। (श्लो. वा.) विधेय को प्रथम कह देने से उसकी १. ३. काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘काव्यलक्षण’ ४२१ प्रधानता बाधित हो जाती है। और ‘विधेय के प्राधान्य का विमर्श न करना’ विधेयाविमर्श-दोष कहलाता है, वह इस काव्य में हैं। क्योंकि रावण कहता है कि “मेरे शत्रु हैं” यही मेरे लिए धिक्कार है। यहाँ ‘मे यदरयः अयमेव न्यक्कारः ‘परन्तु काव्य में वाक्य विन्यास बदल गया है, न्यक्कारः’ जो विधेय है, उसे पहले कह दिया है ‘मे यदरयः’ जो उद्देश्य है उसे बाद में कहा है। अतः सदोष होने के कारण आपके मत में यह काव्य नहीं कहलायेगा, जब कि आचार्य इसे उत्तम काव्य-मानते हैं। यदि आप कहें कि ‘दोष’ काव्यत्व का (अप्रयोजक) बाधक है। तो जिस अंश में दोष है, वह अंश अकाव्य कहलाए, परन्तु जहाँ ध्वनि है वह उत्तम काव्य कहलाएगा ही, सारा काव्य तो दूषित नहीं है। परन्तु ऐसा मानने पर इस में दो अंश होगें। दोष युक्त अंश से यह अकाव्य होगा, और ध्वनि अंश से यह उत्तम काव्य होगा, इन दोनों अंशों से खीचा जाता हुआ यह न काव्य होगा न अकाव्य ही। दोष किसी अंश को दूषित नहीं करते, प्रत्युत सम्पूर्ण काव्य को ही दूषित करते हैं, क्योंकि जब तक काव्यात्मभूत रस का अपकर्ष नहीं करते तबतक वे दोष ही नहीं माने जाते। और दोष रहित को ही काव्य मानने पर काव्य या तो विरल विषय या निर्विषय हो जायगा। सर्वथा निर्दोष होना असम्भव है। यदि ‘नञ्’ का ईषद् अर्थ मानेगें तो ‘अदोषौ’ का अर्थ होगा ‘ईषद्दोषौ शब्दार्थों काव्यम्’ थोड़े दोषवाले शब्द और अर्थ काव्य हैं, तो सर्वथा निर्दोष को काव्य नहीं माना जायगा। दोष काव्यत्व का विघातक नहीं होता है केवल अपकर्षक होता है। कीटानुबेध आदि दोष रत्न की रत्नता को नष्ट नहीं करते, अपि तु उनकी उपादेयता में तर तम भाव (अर्थात् इसकी अपेक्षा यह उत्तम है, यह भाव) लाते हैं। अतः जहाँ रस की स्फुट प्रतीति हो, वहाँ दोष युक्त की भी काव्यता मानी जाती है। ‘सगुणौ’ इस अंश पर भी तीन दोष देते हैं। १. गुण तो रस के धर्म हैं, तो सगुण शब्दार्थ कैसे होगें ? यदि २. कहें कि शब्द और अर्थ रस के व्यञ्जक होते हैं, अतः लक्षणा वृत्ति से (“स्वाश्रयाभिव्यञ्जकत्व सम्बन्ध से) शब्द और अर्थ भी सगुण कहलाएगें, तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि प्रश्न है कि शब्द और अर्थ जिन्हें आप काव्य का स्वरूप मानतें हैं। वे सरस हैं कि नहीं। यदि उन में रस नहीं है तो उनमें गुण भी नहीं है, गुण तो साक्षात् रस के ही धर्म हैं। यदि उनमें रस मानते हैं तो “सरसौ शब्दार्थों” क्यों नहीं कहते ? ३. यदि कहें ‘सगुणौ’ का तात्पर्य है लि. ‘गुणाभिव्यञ्जकौ’ । अर्थात् काव्य में गुणों के व्यञ्जक शब्दों और अर्थों का प्रयोग करना चाहिए, तो यह भी उचित नहीं है, गुण ५. ४२२ rence KARE …A RAMA अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र काव्य के स्वरूप का नियामक नहीं होते हैं, केवल उत्कर्षाधायक होते हैं। ‘सालङ्कारौ’ अंश पर भी दोष देते हैं कि अलङ्कार काव्य में उत्कर्षाधायक होते हैं . स्वरूपाधायक नहीं। इस प्रकार खण्डन करके विश्वनाथ स्वाभिमत काव्य लक्षण प्रस्तुत करते हैं ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” । (सा. द. प्रथम परिच्छेद) रस ही है आत्मा जिसका ऐसा वाक्य काव्य है। यहाँ ‘रस्यते इति रसः’ इस व्युत्पत्ति से रस शब्द से रस-भाव-रसाभास भावाभास-भाक्शान्ति-भावोदय-भावसन्धि-भावशबलता सभी गृहीत होते हैं क्योंकि सभी का आस्वाद होता है। जयदेव ने भी मम्मट की आलोचना की है। उनका कथन है कि मम्मट ने ‘अनलङ्कृती पुनः’ क्वापि कह कर अनलङ्कृत शब्द और अर्थ को भी काव्य माना है, तो वे अग्नि को उष्णता रहित क्यों नहीं मानतें ? ‘अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलङ्कृती। असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलङ्कृती।।’ (चन्द्रालोक १/८) वे स्वाभिमत काव्यलक्षण प्रस्तुत करते हैं ‘निर्दोषा लक्षणवती सरीतिर्गुणभूषणा। सालङ्काररसानेकवृत्तिर्वाक् काव्यनाम भाक्॥’ (चन्द्रालोक १/६) अर्थात् वह ‘वाक्’ काव्य है जो निर्दुष्ट हो, अक्षरसंहति आदि लक्षणों से युक्त हो, रीति से युक्त हो, गुणों से भूषित हो, सालङ्कार हो सरस हो और अनेकवृत्ति (उपनागरिका आदि काव्य-वृत्ति, भारती आदि नाटयवृत्ति, अमिधालक्षणा-व्यज्जना आदि शब्द-वृत्ति वाली) हो। पण्डितराज जगन्नाथ ने तो ‘शब्दार्थों’ तथा अदोषौ, सगुणौ, सालङकारौ, इन सभी अंशो की आलोचना की है। वे कहते हैं कि ‘लक्षणप्रमाणाभ्यां वस्तु सिद्धिः’ किसी वस्तु की सिद्धि लक्षण और प्रमाण से होती है। तो ‘शब्दार्थों काव्यम्’ में प्रमाण क्या है ?। ‘शब्दार्थयुगलं न काव्यशब्दवाच्यम् मानाभावात्’ । ‘काव्यमुच्चैः पठ्यते ‘काव्यादर्थोऽवगम्यते, ‘काव्यं श्रुतम्, अर्थो न ज्ञातः इत्यादि विश्वजनीनव्यवहारतः प्रत्युत शब्दविशेषस्यैव काव्य पदार्थत्वप्रतिपत्तेश्च’। (रसगं. प्र. आ.) १. शब्दार्थ युगल को काव्य मानने में कोई प्रमाण नहीं है। ‘विशिष्ट शब्द काव्य हैं, इसमें लोकव्यवहार प्रमाण है। ‘काव्य जोर से पढ़ा जाता है’, ‘काव्य से अर्थ की प्रतीति होती है, काव्य सुना परन्तु अर्थ समझ में नहीं आया, यह विश्वजनीन व्यवहार होता है, अतः शब्दविशेष ही काव्य हैं क्योंकि पढ़ा और सुना शब्द ही जाता है। काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘काव्यलक्षण’ ४२३ । २. यदि कहें कि काव्य तो शब्दार्थ युगल ही है, परन्तु लोक व्यवहार लक्षणा वृत्ति से केवल शब्द मात्र में होता है, यह भी ठीक नहीं, यदि किसी पुष्ट प्रमाण से शब्दार्थयुगल की काव्यता सिद्ध हो जाती, तब केवल शब्दमात्र में काव्य पद का प्रयोग लक्षणा से माना जाता, परन्तु ऐसा कोई प्रमाण है ही नहीं जो काव्य पद की शक्ति शब्दार्थ युगल में सिद्ध कर सके। ३. यदि कहें कि भामह-रुद्रट-वामन-मम्मट प्रभृति आचार्यों की उक्ति ही शब्दार्थयुगल की काव्यता में प्रमाण हैं। (यह शब्द प्रमाण है) तो यह भी उचित नहीं, क्यों कि ये लोग हमारे पूर्वपक्षी हैं वादी है, उन्हीं के साथ हमारा विवाद है उन्हीं से मैं पूछ रहा हूँ कि शब्दार्थ युगल की काव्यता में क्या प्रमाण है ? तो जब तक वे अपनी उक्ति में कोई पुष्ट प्रमाण नहीं देते तब तक इन्हें प्रमाण कैसे मान लें (आप्त कैसे माने?) अतः शब्द विशेष ही काव्य पदार्थ है। लक्षण भी शब्दपरक ही होना चाहिए। न कि शब्दार्थयुगल परक। इन्हीं लोक व्यवहार प्रमाण के आधार पर वेद और पुराण भी शब्द विशेष ही हैं। ४. यदि कहें ‘सामान्य शब्द को तो काव्य कहा नहीं जाता, जो आस्वादोद्बोधक होता है उसी को काव्य कहा जाता है। अतः आस्वादोद्बोधकत्व (सहृदयों के हृदय में आनन्द का उल्लास कराना) हुआ काव्यत्व का प्रयोजक, यह शब्द और अर्थ में समान रूप से है, अतः शब्दार्थ युगल काव्य हैं तो ऐसी आस्वादोद्बोधकता (रसव्यञ्जकता) तो राग में भी है, ध्वनिकारादि ने इसे स्वीकार किया है, तो राग भी काव्य कहलाने लगेगा, अधिक क्या कहें, सभी नाट्याङ्ग (नेपथ्य विधान, नृत्य, वाद्य, गीत, आदि) भी प्रायशः रसोद्बोधक होते हैं, वे सभीकाव्य कहलाने लगेगें, तो फिर लक्षण में सभी का समावेश आवश्यक हो जायगा। (शास्त्रीय दृष्टि से भी शब्दार्थ युगल की काव्यता का निराकरण करते हैं) पण्डित राज पूछते हैं कि शब्दार्थ युगल में काव्यत्व ‘व्यासज्य वृत्ति’ से रहेगा, या प्रत्येक में पर्याप्ति सम्बन्ध से रहेगा ? तो ‘व्यासज्यवृत्ति’ जो है तो धर्म एक, परन्तु रहता है अनेक में, जैसे द्वित्व, ‘त्रित्व’ धर्म। द्वित्व तो एक धर्म है, पर यह दो ही में रहेगा, दो में से एक चला जाय तो द्वित्व नही रह जायगा, ठीक उसी प्रकार यदि शब्द और अर्थ में काव्यत्व व्यासज्यवृत्ति से मानेगें तो जैसे एक को दो नहीं कह सकते, केवल घट को घट पटोभय नहीं कह सकते, उसी प्रकार केवल श्लोक वाक्य को (शब्द को) काव्य नहीं कह सकते। क्योंकि वाक्य (शब्द) काव्य का एक अवयव मात्र है। यदि प्रत्येक में पर्याप्तिसम्बन्ध से मानेगें तो श्लोक वाक्य भी काव्य कहलाएगा और अर्थभाग भी काव्यकहलाने लगेगा, ऐसी स्थिति में एक ही काव्य में काव्यद्वय व्यवहार होने लगेगा। (अतः ‘शब्दार्थीकाव्यम् ‘नहीं है। ४२४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र म अब विशेषणांश का खण्डन करते हैं। ‘लक्षणे गुणालङ्कारादिनिवेशोऽपि न युक्तः’ …. (रसगं. प्र. आनन)। लक्षण में गुण और अलङ्कार तथा दोषाभाव का निवेश करना भी उचित नहीं है। लक्षण अर्थात् स्वरूप उसमें गुण उत्कर्षाधायक होता है, अलङ्कार भी उत्कर्षाधायक ही है, स्वरूपाधायक नहीं दोष भी अपकर्षाधायक ही है स्वरूपाधायक नहीं, अतः लक्षण में इनका निवेश आवश्यक नहीं है। यदि गुण और अलङ्कार का लक्षण में निवेश करेगें तो ‘उदितं मण्डलं विधोः यह वाक्य चमत्काराधायक होने पर भी काव्य नहीं कहला सकेगा। यह वाक्य दूती, अभिसारिका, विरहिणी, आदि के द्वारा कहे जोने पर वक्तृ, बोद्धव्यादि वैशिट्य से विविध अर्थो को अभिव्यक्त करता है, जैसे जब दूती कहेगी तो व्यङ्ग्य अर्थ होगा -चाँदनी छिटक रही है, मार्ग साफ-२ दिखाई दे रहा है, अतः अभिसरण करो इत्यादि विधिरूप। अभिसारिका कहती है तो व्यङ्ग्य अर्थ निषेध रूप हो जाता है। कैसे-जाऊँ ? लोग पहचान लेगे, मेरी प्रतिष्ठा नष्ट हो जायेगी इत्यादि। विरहिणी कहती है तो व्यङ्ग्य अर्थ होगा कि यह चन्द्र उद्दीपन विभाव है, हमारे विरह को उद्दीप्त कर व्यथित करेगा, जिससे जीवन ही सन्देह में पड़ जायगा’ इत्यादि विप्रलम्भ श्रृङ्गार का अभिव्यञ्जक होने पर भी यह वाक्य गुण-अलङकार के अभाव में काव्य नहीं कहलायेगा, लक्षण की अव्याप्ति होगी। यदि चमत्काराधायक होने पर भी इस वाक्य को आप काव्य नहीं मानेगें तो आप जिसे काव्य मानते हैं उसे भी अकाव्य कहा जा सकता है। ७. गुणत्व और अलडकारत्व अभी अनुगत भी नहीं हुवे हैं, यदि इनका लक्षण में निवेश किया गया तो काव्य भी अननुगत हो जायगा। लक्षण में ‘अदोषौ’ का भी निवेश नहीं कर सकते, यदि दोष-रहित को ही काव्य मानेगें तो ‘दुष्टं काव्यम्’ यह व्यवहार नहीं हो सकता, परन्तु होता है। यह व्यवहार लाक्षणिक है’ यह भी नहीं कह सकते, लक्षणा का बीज है मुख्यार्थ बाध। वह इसमें है नहीं। यदि कहें जिस अंश में दोष है वह दुष्ट है, जिस अंश में व्यज्जकता है चमत्कार है वह अंश काव्य है तो ‘दुष्टं’ काव्यम् ‘यह व्यवहार हो जायगा तो यह भी उचित नहीं, क्योंकि दोष अव्याप्य वृत्ति नहीं है, वह (चमत्कार का) काव्यात्मभूत रसादि का अपकर्षक होता है अतः सम्पूर्ण काव्य को दूषित करता है, न केवल किसी अंश को। गुण आत्मा के धर्म हैं जैसे शूरता, विद्वत्ता आदि, अलङ्कार हारादि के समान शोभाधायक हैं, अत. इन दोनों को शरीर घटक नहीं मानना चाहिए। इन्होंने विश्वनाथ कृत लक्षण का भी खण्डन किया है, यदि रसात्मक वाक्य को ही काव्य मानेगें तो वस्तु, अलङ्कार प्रधान काव्य अकाव्य हो जायेंगे, जिससे महाकवियों का सम्प्रदाय ही आकुल हो जायगा। उन लोगों ने जल प्रवाह वेग निपतन, उत्पतन भ्रमण आदि ८. ISISWING काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘काव्यलक्षण’ ४२५ का भी वर्णन किया है। और कपियों, तथा बालकों के विलास का भी वर्णन किया है, वे सब अकाव्य हो जायगें। यदि आप कहें कि पदार्थमात्र किसी न किसी रस का विभाव या अनुभाव होते ही हैं तो वहाँ भी परम्परया रस स्पर्श है ही, तो ऐसा रसस्पर्श ‘गौश्चलति’ इत्यादि वाक्यों में भी है ही, ये वाक्य भी काव्य कहलाने लगेगें, काव्यत्व अतिव्याप्त हो जायगा। इस प्रकार इन लक्षणों का खण्डन कर इन्होनें काव्य का लक्षण प्रस्तुत किया है-‘रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्" । पदकृत्य रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाला शब्द काव्य कहलाता है। यहाँ अर्थ में रमणीय विशेषण नहीं होता तो लौकिक या शास्त्रीय वाक्य भी अर्थ प्रतिपादक होते हैं, उनमें भी काव्य का लक्षण अतिव्याप्त हो जाता। रमणीय (साधु) शब्द प्रतिपादक व्याकरण शास्त्र में अतिव्याप्ति वारण के लिए अर्थ ग्रहण है। रमणीय अर्थ का वाचक, लक्षक, व्यञ्जक, त्रिविध शब्द काव्य हैं, इन तीनों प्रकार के शब्दों का ग्रहण करने के लिए प्रतिपादक शब्द का ग्रहण है। रमणी कटाक्षादि भी रमणीय (चमत्कारी) अर्थ का प्रतिपादन करते हैं, उनमें लक्षण न चला जाय, इसके लिए शब्द ग्रहण है। रमणीयता भी अव्यवस्थित है। जिस वस्तु को एक व्यक्ति रमणीय मानता है, उसी को दूसरा अरमणीय कहता है, (सब की रुचि भिन्न-२ है) पुनः जैसे घट अर्थ का प्रतिपादक घट शब्द है, गो रूप अर्थ का प्रतिपादक गो शब्द है, उसी प्रकार रमणीय अर्थ का प्रतिपादक रमणीय शब्द ही होगा तो क्या ‘रमणीय’ इत्याकारक शब्द ही काव्य है, इस शङ्का का समाधान करने के लिए रमणीयता की व्याख्या करते हैं। “रमणीयता च लोकोत्तराहूलादजनक ज्ञान गोचरता’ (वहीं) लोकोत्तर अलौकिक आनन्द का जनक जो ज्ञान, उस ज्ञान का विषय जो अर्थ, वह रमणीय है। यहाँ लोकोत्तर का अर्थ है चमत्कार। इस चमत्कार में कारण है भावना अर्थात् पुनः पुनः अनुसन्धान (अर्थ का धारा वाहिक ज्ञान) इस प्रकार परिष्कृत अर्थ हुआ चमत्कार जनक जो भावना उसका विषय भूत जो अर्थ, उसके प्रतिपादक शब्द को काव्य कहते हैं। परन्तु पहले अलौकिक आनन्द का जनक ज्ञान को माना गया है, बाद में ‘कारणं च तदवच्छिन्ने भावना विशेषः’ कहा गया है। इस ज्ञान को छोड़कर भावना को ग्रहण करने का कारण यह है, कि ज्ञान समूहालम्बनात्मक भी होता है तो जिस समय ‘त्वं मुग्धाक्षि विनैव कञ्चुलिकया घत्से मनोहारिणीम्……… इस काव्यार्थ का ज्ञान उद्बोधकान्तर वश ‘घट’ अर्थ को भी विषय बना लेता है तो उस दोनों (काव्यार्थ तथा घट) अर्थ के प्रतिपादक शब्द को काव्य कहा जाने लगेगा। अतः ज्ञान को छोड़कर भावना लिया गया, यह भावना १. रसग. प्र.आनन४२६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र धारावाहिक ज्ञान है। उद्बोधकान्तर वश घट रूप अर्थ, ज्ञान में भासित हो भी जाय, तो भी उसकी ज्ञानधारा नहीं बनेगी, अतः ‘घट’ अर्थ के प्रतिपादक ‘घट’ शब्द को काव्य नहीं कहा जायगा। परन्तु भावना भी समूहालम्बनात्मक होती है, अतः उक्त दोष बना ही रहेगा, अतः द्वितीय परिष्कार करते हैं ‘यत्प्रतिपादितार्थविषयक भावनात्वं चमत्कारजनकताऽ वच्छेदकं तत्त्वम् (काव्यत्वम्) अर्थात् जिस शब्द से प्रतिपादित अर्थ विषयक भावना चमत्कार जनिका होगी, उस अर्थ के प्रतिपादक शब्द को काव्य कहा जाएगा। ऐसी स्थिति में काव्यार्थ के साथ उद्बोधक वश घट रूप अर्थ भी भावना का विषय बन जाय तो भी घट अर्थ विषयक भावना चमत्कार जनिका नहीं हैं, अतः उसका प्रतिपादक घट शब्द काव्य नहीं कहलाएगा। परन्तु इस द्वितीय लक्षण में भी ‘यत्’ शब्द का प्रयोग है, यह यत् शब्द सर्वनाम है सभी अर्थो के लिए प्रयुक्त हो सकता है अतः ‘यत्’ का अर्थ अनुगत नही है, अननुगतार्थ शब्द के प्रयोग से लक्षण भी अननुगत हो जायगा, अतः तृतीय परिष्कार प्रस्तुत किये हैं। यह लक्षण लघु है, द्वितीय लक्षण के समान लम्बायमान भी नहीं है-‘चमत्कारत्ववत्त्वमेव काव्यत्वम्’ यह लक्षण इतना ही है शेष ‘स्वविशिष्ट जनकतावच्छेदकार्थप्रतिपादकतासंसर्गेण’ यह सम्बन्ध है। यद्यपि इसमें भी स्वशब्द है जो सर्वनाम है परन्तु यह लक्षण घटक नहीं है सम्बन्ध घटक है, और इस का अर्थ भी अनुगत है। जिसका सम्बन्ध है, वहीं स्वशब्द से लिया जाता है। लक्षणसमन्वय ‘चमत्कारत्ववत्त्वम्’ में चमत्कार शब्द से त्व प्रत्यय है, पुनः मतुप्प्रत्यय (तद्धित) है, पुनः मतुबन्त से भाव प्रत्यय ‘त्व’ हुआ है। तद्धितान्त से जब ‘त्व भाव प्रत्यय होता है तो उसका अर्थ ‘सम्बन्ध’ होता है। कृत्तद्धितसमासैः सम्बन्धामिधानं भाव-प्रत्ययेन’ यह नियम है। अतः इसका अर्थ हुआ ‘चमत्कारत्वविशिष्टः’ शब्दः काव्यम्’। परन्तु प्रश्न है कि चमत्कारत्व धर्म है, उससे विशिष्ट चमत्कार होगा शब्द नहीं, और अपेक्षित है शब्द, अतः सम्बन्ध लिखते है-स्वविशिष्टजनकता इत्यादि। स्वं चमत्कारत्वं तद्विशिष्टा जनकता अर्थात् स्वपद से चमत्कारत्व लिया जायगा, उससे विशिष्ट जनकता होगी, ‘स्वाश्रयनिष्ठजन्यतानिरूपितत्वसम्बन्धेन’ (स्वं चमत्कारत्वं) स्व पद से चमत्कारत्व लिया जायगा, तदाश्रय चमत्कार, तन्निष्ठ जन्यता का निरूपक होगी जनकताः यह जनकता भावना निष्ठा है, (भावना में जनकता स्वरूप सम्बन्ध से रहेगी और भावना का विषय अर्थ, भावना में विषयिता सम्बन्ध से रहेगा) उस भावनानिष्ठ जनकता का अवच्छेदक अर्थ होगा, उस अर्थनिष्ठ प्रतिपाद्यता निरूपित प्रतिपादकता शब्द में हैं, अतः (उक्त सम्बन्ध से) चमत्कारत्व विशिष्ट शब्द हुआ, वही शब्द काव्य है। .. .. . . . . . . . .—.-’.. …….. … •४२७ काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘काव्यलक्षण’ हेमचन्द्र ने मम्मट का ही अनुसरण किया है, वे दोषरहित, गुण युक्त, अलङ्कार युक्त, शब्दार्थ युगल को काव्य मानते हैं। प्रायः परवर्ती आचार्यों ने मम्मट का ही अनुसरण किया है। “अदोषौ सगुणौ सालङ्कारौ च शब्दार्थी काव्यम्।” (काव्यानुशा. पृ. १६) वाग्भट
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वाग्भट प्रथम ने उस साधु (निर्दोष) शब्द और अर्थ के सन्दर्भ को काव्य माना है, जो गुणालङ्कार से भूषित हो रीति तथा स्फुट रस से युक्त हो। “साधुशब्दार्थसन्दर्भ गुणालङ्कारभूषितम्। स्फुटरीतिरसोपेतं काव्यम्…….(वाग्भटालं. १/२) केशवमिश्र ने विश्वनाथ का अनुसरण किया, उन्होंने ‘शौद्धोदनि’ के अनुसार ‘काव्य लक्षण’ प्रस्तुत किया है, जिसमें विश्वनाथ स्फुट झलक रहे हैं। “वाक्यं रसादिमत् काव्यं श्रुतं सुखविशेषकृत्” । (अलङ्कार शेखर पृ. २-३) आदि पद से इन्होंने अलङ्कार को भी गृहीत किया है। गोविन्द ठक्कुर ने भी ‘अनलङ्कृती’ पद (जो मम्मट के काव्य लक्षण में आया है।) की व्याख्या करते हुए स्वीकार किया है, ‘चमत्कारसारं च काव्यम्’ काव्य का सार चमत्कार है। चमत्कार का जनक रसादि और अलड़कार हैं। जिस काव्य में रसादि है वहाँ रस से ही चमत्कार हो जायगा, स्फुट अलङ्कार की वहाँ अपेक्षा नहीं है, परन्तु नीरस में यदि स्फुट अलङ्कार नहीं होगा तो चमत्कार कहाँ से आयेगा। ‘रसादिरलङ्कारश्च द्वयं चमत्कारहेतुः. ……..नीरसे तु यदि न स्फुटोऽलङ्कारः स्यात् तत् किं कृतश्चमत्कारः। (का.प्रदी.) समुद्रबन्ध ने अलङ्कार सर्वस्व की टीका में विशिष्ट शब्दार्थ को काव्य माना है। “इह विशिष्टौशब्दार्थों तावत् काव्यम्” ।…….. विद्यानाथ ने दोष वर्जित गुणालङ्कार सहित शब्दार्थ युगल को काव्य कहा है। “गुणालङ्कारसहितौ शब्दार्थों दोषवर्जितौ।” (प्रतापरुद्र. पृ. ४२) विद्याधर ने शब्द और अर्थ को काव्य का शरीर माना है, और ध्वनि को आत्मा कहा है। “शब्दार्थों वपुरस्य तत्र विबुधैरात्माभ्यधायि ध्वनिः । (एकावली पृ. १, १३) भरत ने भी नाट्यशास्त्र में प्रसङ्गतः काव्य का विवेचन किया है। जिससे शब्दार्थ युगल ही काव्य सिद्ध होते हैं। “मृदुललित पदाढ्यं गूढशब्दार्थ हीनं बहुजनसुखमोग्यं…… बहुकृत रसमार्ग सन्धिसन्धानयुक्तं भवति……..(ना. शा. १६/१२६)
४२८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र समीक्षा- इस प्रकार अग्निपुराण से भरत से लेकर पं.रा.जगन्नाथ तक आचार्यों ने काव्यलक्षण का विवेचन किया है, काव्य के विविध पक्षों का उद्भावन भी किया है, दृष्टि भेद से सभी मत उपयुक्त हैं। परन्तु मम्मटामिमत काव्य लक्षण विद्वानों में अधिक समादृत है। उनके काव्य लक्षण में दोष दिखाने वालों ने भी परवर्ती विद्वानों को समाधान के लिये प्रेरित किया है, जिससे उन का लक्षण और निखर कर शाणपर खरादे गये रत्न के समान अधिक चमक गया है। इनकी आलोचना करने वाले विश्वनाथ ने ‘अदोषौअंशपर ५ दोष, ‘सगुणौ’ पर ३ दोष सालङ्कारौ पर १ दोष दिया है, और अस्फुटालकार का उदाहरण “यः कौभार हरः” की भी आलोचना की है। जयदेव ने “कचित्तुस्फुटालङ्कारविरहेऽपि न काव्यत्वहानिः” की समालोचना की है। परन्तु पण्डितराज ने ‘शब्दार्थों इस विशेष्यांश पर भी कटाक्ष किया है विशेषणांशों पर तो किया ही है। इन सभी का समाधान आचार्यों ने किया है। इन सभी आक्षेपों का मूल “चण्डीदास” है, इन्होंने काव्य प्रकाश की दीपिका टीका लिखी है, वहीं इन आक्षेपों को उद्भावित कर अन्यथा समाहित किया है। विश्वनाथ तथा पण्डितराज जगन्नाथ दोनों ने उन्हीं को उछाला है, परन्तु पं. राज ने वैदुष्यपूर्ण ढंग से उठाया है। समाधान-मम्मट ने ‘शब्दार्थी’ काव्यम् स्वीकार किया है, पण्डितराज कहते हैं - १. शब्दार्थयुगल काव्य है, इसमें प्रमाण क्या है? शब्दः काव्यम् में लोक व्यवहार प्रमाण है, इत्यादि। इसका उत्तर है- शब्दार्थ युगल की काव्यता में लोकव्यवहार ही प्रमाण है, काव्यं श्रुतं, काव्यं बुद्धम्, अर्थात् काव्य सुना, काव्य समझा यह दोनों प्रकार का व्यवहार होता हैं सुना जाता है शब्द, समझा जाता है अर्थ। अतः युगल काव्य है। २. यदि शब्दार्थ युगल काव्य है तो ‘काव्यं श्रुतम्’ यह व्यवहार कैसे होता है? यह व्यवहार लक्षणा से होता है क्योंकि शब्दार्थ समुदाय काव्य है तो अर्थांश का श्रवण होना वाधित है, अतः अवयवावयविभाव सम्बन्ध से लक्षणा के द्वारा केवल शब्द का भी बोध हो जाता है, यह रूढ़ि लक्षणा हैं समुदाय वाची शब्द का अवयवों में भी प्रयोग होता है, जैसे पञ्चाल शब्द समग्र पञ्चाल देश का वाचक है परन्तु उसके एक देश (अवयव) का भी वाचक होता है, इसी लिये पूर्वे पञ्चालाः यह प्रयोग होता है। “समुदाये प्रवृत्तः शब्दोऽवयवेष्वपि वर्तते” (महाभाष्य, पस्पशा.) “आत्मा वा अरे श्रोतव्यः” यह श्रुति प्रयोग भी लाक्षणिक ही है। ३. जब लोक व्यवहार से काव्यत्व शब्दार्थयुगल में सिद्ध हो गया, तो आचार्य भामह मम्मट आदि “शब्दार्थों काव्यम्” कहने वाले आप्त हो गये, इनकी उक्ति शब्द प्रमाण हैं। आस्वादोद्बोधकता शब्द एवं अर्थ दोनों में समान है, अतः दोनों काव्य हैं, दोनों में कविकर्मता है, उच्चाणकर्मता शब्द में हैं, रसास्वाद के उपयोगी सामग्री संघटन विषयक ज्ञान कर्मता अर्थ में हैं, अतः दोनों काव्य है, राग यवनिका, नेपथ्यविधान ४२६ सोगा काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘काव्यलक्षण’ में कवि कर्मता नहीं है अतः इन नाट्याङ्गों को काव्य नहीं कहा जायगा। ५. ‘काव्यत्व’ शब्दार्थ युगल में व्यासज्य वृत्ति से ही है, परन्तु लक्षणा से केवल शब्द भी काव्य कहलाएगा। यह प्रत्येक पर्याप्त नहीं है, अतः शब्द और अर्थ को लेकर एक ही काव्य में काव्यद्वय व्यवहार नहीं होगा। वेद भी ‘शब्दार्थ युगल’ है तभी ‘तदधीते तद्वेद’ (पा.सू.४/२/५६) यह सूत्र संगत होता है, ‘अधीते’ जो वेद को पढ़ता है, पाठ करता है वह वैदिक, और जो वेद अर्थात अर्थ को जानता है वह भी वैदिक यहाँ पाठ तो शब्द का होता है, परन्तु ज्ञान से अर्थ ज्ञान विवक्षित है इसीलिये सूत्र में ‘अधीते’ और ‘वेद’ दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है, यदि अर्थ वेद नहीं होता तो अर्थ ज्ञानी को वैदिक कैसे कहा जाता। अतः “शब्दार्थों वेदः” है। (यह बात इसी सूत्र के भाष्य में तथा कैयट में स्पष्ट है) लक्षणा से केवल मंत्र को शब्द को और केवल अर्थ को भी वेद कहते हैं।, पुराण भी शब्दार्थ मय ही है। विश्वनाथ ने तो स्फुट “काव्यस्य शब्दार्थो शरीरम्, रसादिश्चात्मा” इत्यादि कहा है। (सा.द.प्र.प.) पुनः काव्य को दो प्रकार का माना है १. दृश्य, २. श्रव्य। दृश्य तो देखने योग्य अर्थ ही होता है, शब्द श्रव्य होता है अतः शब्दार्थ युगल को ही काव्य विश्वनाथ मानते हैं। “दृश्य श्रव्यत्व भेदेन पुनः काव्यं द्विधा मतम्” (सा.द.प.प.) परन्तु इनका काव्य लक्षण है, ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ (सा.द.प्र.प.) वाक्य किये कहते है ? तो इसका समाधान द्वितीय परिच्छेद में करते हैं, वर्ण पद हैं। आकाङ्क्षा, योग्यता, आसत्ति युक्त पद-समुदाय वाक्य हैं। “वर्णाः पदं प्रयोगार्हानन्वितैकार्थ बोधकाः”। “वाक्यं स्याद् योग्यता काङ्क्षासत्तियुक्तः पदोच्चयः” ।(सा.द.द्वि.पं.) इस प्रकार शब्द ही वाक्य हुआ वाक्य ही (रसात्मक) काव्य है, तो इस काव्य को दृश्य कैसे कहेगें ? शब्द तो दृश्य होता नहीं। ७. लक्षण में गुण और अलङ्कार तथा दोषाभाव का निवेश नहीं करेगें तो क्या आप गुणालङ्कार विहीन तथा दोषयुक्त शब्द को काय मानेगें ? यदि मानेंगे तो उसका अर्थ रमणीय कैसे होगा ? दोष तो रस का अपकर्षक होता है तो अपकृष्ट रस से चमत्कार कैसे होगा ? अतः इनका लक्षण में समावेश आवश्यक होगा ही। रही बात ‘उदितं मण्डलं विधोः’ की काव्यता की तो यह काव्य है ही। उदित चन्द्र शृङ्गार रस का उद्दीपन विभाव हैं। अनुभाव और व्यभिचारी का आक्षेप हो जायगा, प्रकरण वश संयोग या विप्रलभ की अभिव्यक्ति हो जायगी, जहाँ रस स्फुट हो वहाँ स्फुट-अलङ्कार की अपेक्षा नही होती, पृथक्-पृथक् पद है अतः माधुर्य गुण है। ‘ड’ का प्रयोग एक बार है, अतः क्षम्य है। “दुष्टं काव्यम्” के व्यवहार में भी ‘काव्यम्’ का अर्थ है ’ काव्याभास’ जैसे ‘तवायं हेतुराभासः’ प्रयोग होता है, हेत्वाभास को हेतु कहना लाक्षणिक प्रयोग है। ४३० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र - जयदेव के आक्षेप का समाधान ‘गोविन्द ठक्कुर’ के मत प्रतिपादन के समय हो ही चुका है। अब विश्वनाथ के आक्षेपों की समीक्षा करें। उन्होंने ५ दोष अदोषौ ग्रहण करने पर दिखलाया है। इन सभी का समाधान यह है कि अदोषौ का अर्थ है “अविद्यमाना दोषा ययोस्तौ” अदोषौ । अर्थात् वे शब्द और अर्थ काव्य है जिनमें दोष न हो अर्थात् दोष का अभाव हो। यहाँ नञ् का अभाव अर्थ है यहाँ नञ् का बहुव्रीहि समास है। वार्तिक है “नजोऽस्त्यर्थानां वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः। . पर यहाँ दोष शब्द से साधारण दोष जो रहते हुये भी अकिञ्चित्कर होते हैं वे विवक्षित नहीं है, वे प्रबल दोष विवक्षित हैं, जो कवि के अभिप्राय का (उद्देश्य भूत रसादि रूप अर्थ के प्रतीति का प्रतिबन्धक हो जाते है, च्युतसंस्कृति आदि। “उद्देश्यप्रतीतिप्रतिबन्धकत्वं दोषत्वम् । आप का यह कथन उचित नहीं है कि “कीटानुविद्धरत्नादिसाधारण्येन काव्यता। दुष्टेष्वपि मता यत्र रसाधनुगमः स्फुटः।। (सा.द.प्र.प.) यदि रसादि की प्रतीति स्फुट हो रही हो तो फिर वहाँ दोष कैसे ? अतः रसादि प्रतीति के प्रतिबन्धक को ही दोष माना जाता है, ऐसे प्रबल दोष का अभाव अपेक्षित ही है। __ रही बात “न्यक्कारोड्ययमेव में यदरयः” में विधेयाविमर्श दोष की, तो यहाँ यह दोष है कि नहीं यह विचार करिए। यह उक्ति रावण की है, वह जिनके बल पर उन्मत्त हुआ था वे अब मेघनाद, कुम्भकर्ण तथा अन्य पुत्रआदि विविध बल शाली सैनिक युद्ध में मारे जा चुके है, रावण स्वयं बलशाली है, परन्तु राम, लक्ष्मण, हनुमदादिकों के पराक्रम को देख चुका है, वह घबड़ा गया है, कवि को रावण के निर्वेद के साथ उसकी व्यग्रता भी व्यक्त करनी है, यदि रावण शुद्ध निर्दुष्ट वाक्य ही बोले तो उसकी व्यग्रता कैसे व्यक्त होगी ? अतः कवि यहाँ विधेयाविमर्श के द्वारा रावण की ‘व्यग्रता’ ‘बौखलाहट’ व्यक्त करना चाहता है, अतः यहाँ विधेयाविमर्श गुण हो गया है “दोषोऽपि कचिद् गुणः”। इसी लिये दोषों को सामान्य रूप से दिखाकर उनका परिहार भी आचार्यों ने दिखाया है। कहीं दोष दोषाभाव हो जाते है कहीं गुण। __‘सगुणौ’ पर उनका आक्षेप है कि ‘सरसौ’ क्यों नहीं कहा इसका समाधान है, गुण, रस के धर्म है, गुण, गुणी के विना रह ही नहीं सकता, अतः सगुणौ का तात्पर्य ही है सरसौ। काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘काव्यलक्षण’ ४३१ यदि अलङ्कार काव्य में अपेक्षित नहीं है तो इतने वृहद् रूप में अलङ्कारों का निरूपण किसलिए ? कुन्तक कहते है अलङ्कार काव्य के धर्म है-नहि काव्येनालङ्कारयोगः क्रियते, अपितु ‘सालङ्कारस्य काव्यता’ (वक्रोक्ति जी १) यः कौमारहरः स एव हि वरः में वस्तुतः कोई अलङ्कार स्फुट नहीं है। विभावना विशेषोक्ति मूलक सन्देह संकर वहाँ शब्दतः प्रतिपादित नही है। “अर्थात्” प्रतीत होता है अतः स्फुट नहीं हैं। उपसंहार अतः मम्मट का काव्य-लक्षण सर्वथा उपयुक्त है, इन्होंने काव्य के विविध पक्षों का अपने लक्षण में समावेश कर लिया है। काव्य के सभी प्रसिद्ध प्रस्थान इन के लक्षण में समाहित हैं। काव्य के शब्द और अर्थ शरीर है रसादि आत्मा है (वे भी गुण से अभिव्यक्त हैं) दोष काणत्वादि दोषों के समान परिवर्जनीय हैं। गुण शौर्यादि के समान हैं, अलङ्कार कटक कुण्डलादि के समान हैं, इन सभी को लक्षण में समाविष्ट कर अनुपहसनीय, सुसज्जित आकर्षक काव्य का स्वरूप इन्होंने प्रस्तुत किया है। रही बात रीति और वृत्ति की तो ये रीतिओं को गुण रूप मानते है, वृत्तियों को अनुप्रास अलकार में अन्तर्भूत कर लिये हैं। पण्डितराज भी इनका समादर करते है, बड़े सम्मान से इनका स्मरण हैं-“तदाहुर्मम्मट भट्टाः” (र.गं.घ. पं.आ.)। पण्डित राज यद्यपि ‘शब्दार्थों काव्यम्’ का खण्डन करते है तो भी उत्तमोत्तम काव्य के लक्षण में ‘शब्दार्थों’ का प्रयोग करते हैं “शब्दार्थौ यत्र गुणी भावितात्मानौ कमप्यर्थमभिव्यक्तस्तदायम्” (र.गं.ध.प्र.आ.) __ यहाँ ‘शब्दार्थों’ में द्वन्द्व समास है, शब्द अर्थ दोनों प्रधान है, यदि चमत्कारी अर्थ की अभिव्यञ्जना दोनों समान रूप से करते हैं। दोनों चमत्कार का रमणीयता का समान रूप से आधान करते है तो दोनों काव्य क्यों नहीं। कवि प्रौढ़ौक्ति में तो अर्थ की ही प्रौढोक्ति होती है अतः अर्थ भी प्रधान है उसे विशेषण ही क्यों बनाया जाय ? अतः मम्मट मत का ये भी समादर करते हैं। कवि भी-“शब्दार्थौ सत्कविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते” (शि.पा.व.द्वि.स.) से सिद्ध है कि ‘शब्दार्थों के पक्ष में हैं। ४३२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र