१२ काव्यकारण

ROHIT १. मामह मत २. दण्डी मत ३. वामन मत ४. आनन्दवर्धन मत ५. राजशेखर मत ६. प्रतिभा भेद ७. प्रतिभा भेद में कालिदास रुद्रट मत (भावक और कवि में भेद) ६. शक्ति स्वरूप १०. व्युत्पत्ति स्वरूप ११. अभ्यास स्वरूप .१२. भट्टतौत मत १३. हेमचन्द्र का मत १४. अग्नि पुराण का मत १५. अभिनवगुप्त पादाचार्य मत १६. कुन्तक मत १७. महिम भट्ट मत १८. मम्मट मत १६. शक्ति, व्युत्पत्ति, अभ्यास का स्वरूप २०. जयदेव मत २१. वाग्भट प्रथम २२. वाग्भट द्वितीय २३. पण्डितराज जगन्नाथ मत २४. अच्युतराय मत २५. निष्कर्ष। यह दृश्य जगत ही कार्य-कारण भावात्मक है, किसी कार्य की उत्पत्ति या अभिव्यक्ति अपने कारण से ही होती है। ऐसी स्थिति में ‘काव्य का कारण क्या है’, इस प्रश्न पर आचार्यों ने गम्भीर विचार किया है। आचार्य भामह ने प्रतिभा, व्युत्पत्ति, तथा अभ्यास को काव्य का कारण माना है। वे कहते हैं कि गुरु के उपदेश से जड़बुद्धि भी शास्त्र का अध्ययन कर सकते हैं, परन्तु काव्य निर्माण किसी प्रतिभाशाली से ही हो सकता है, वह भी कभी-कभी। इनके अनुसार प्रतिभा प्रधान कारण है। “गुरूपदेशादध्येतुं शास्त्रं जडधियोऽप्यलम्। काव्यं तु जायते जातु कस्यचित् प्रतिभावतः।।” (काव्यालं. १/५) आगे चलकर व्युत्पत्ति तथा अभ्यास को भी कारण रूप में निर्दिष्ट किये हैं। “शब्दाश्छन्दोऽभिधानार्था इतिहासाश्रयाः कथाः। लोको युक्तिः कलाश्चेति मन्तव्या काव्यगैर्यमी।। .-..– ४०६ Tom अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र शब्दाभिधेये विज्ञाय कृत्वा तद्विदुपासनम्। विलोक्यान्यनिबन्धांश्च कार्यः काव्यक्रियादरः।। (का. लं. १/६-१०) अर्थात् शब्दशास्त्र, छन्दःशास्त्र, अभिधानकोश, (अभिधानमभिधा) मुख्य-अमुख्यवृत्तियाँ, उनके मुख्य, अमुख्य अर्थ, इन अर्थों का विचार करने वाले शास्त्र लोकवृत्त, युक्ति, यह शब्द न्यायादि समस्त दर्शनों का उपलक्षण है। कला, सङ्गीत, नृत्य, वाद्य चित्र आदि ६४ कलाएँ तथा इतिहास (रामायण महाभारत) में वर्णित कथाएँ, इन सभी विषयों का काव्य निर्माण के लिए मनन करना चाहिए। (यही व्युत्पत्ति का मूल है) __ काव्य रचना में प्रवृत्त होने से पूर्व “तद्विद्” (काव्यवित्) काव्य निर्माण करना, तथा काव्य के गुण दोषों का विवेचन करना जो जानते हैं उनकी उपासना (समीप में बैठकर अभ्यास) करके अन्य कवियों के काव्य ग्रन्थों का अवलोकन करना आवश्यक है। इससे दोषपरिवर्जन तथा गुणाधान करने की क्षमता आती है जिससे काव्यरमणीय हो जाता है। दण्डी दण्डी ने इन ‘तीनों’ को काव्य का कारण माना है। नैसर्गिक प्रतिभा, सन्देहरहित नाना शास्त्रों का परिशीलन, अमन्द अभियोग, (काव्यज्ञ की शिक्षा से पुनः पुनः काव्य बनाने का सतत अभ्यास) ये तीनों ही सम्मिलित रूप से काव्य निर्माण में कारण हैं। अगर जन्मान्तर के संस्कार से जन्य (सहजा) प्रतिभा न भी हो तो नानाशास्त्रों के परिशीलन, तथा यत्न (अभ्यास) से उपासित सरस्वती देवी काव्यनिर्माण का सामर्थ्य दे ही देती हैं। अतः आलस्य छोड़कर सरस्वती की उपासना करनी ही चाहिए। “नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहुनिर्मलम्। अभन्दश्चाभियोगोऽस्याः कारणं काव्यसम्पदः।।” “न विद्यते यद्यपि पूर्ववासनागुणानुबन्धिप्रतिभानमद्भुतम् । श्रुतेन यत्नेन च वागुपासिता, ध्रुवं करोत्येव कमप्यनुग्रहम् ॥” (काव्यादर्श १/१०३-४) वामन-वामन ने तीन काव्याङ्ग माना है। लोको विद्या प्रकीर्णं च काव्याङ्गानि” (का.लं.सू. १३१)। यहां लोकपद से लोकवृत्त लिया गया है, “लोकवृत्तं लोकः” अर्थात् लोकव्यवहार। (का. लं. सू. १/३/१) १. “पदलक्षणायावाचोऽन्वाख्यानं व्याकरणम्, अर्थलक्षणाया अर्थलक्षणम्। पदस्वरूप वाणी का प्रतिपादन व्याकरणशास्त्र करता है। अर्थलक्षणा वाणी का न्याय-मीमांसादि शास्त्र अन्वाख्यान करते हैं (न्यायभाष्य) ४०७ काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘काव्यकारण’ विद्या-“शब्दस्मृत्यभिधानकोशच्छन्दोविचितिकलाकामशास्त्रदण्डनीतिपूर्वा विद्याः” (का. लं.सू. १/३/३) व्याकरणशास्त्र से शब्दशुद्धि, अभिधानकोश से पदार्थनिश्चय, छन्दोविचिति से छन्दोज्ञान कलाशास्त्र से चौसठ कलाओं का ज्ञान, कामशास्त्र से कामोपचार, दण्डनीति जिसे अर्थशास्त्र भी कहते हैं उससे नीति तथा दुर्नीति का ज्ञान इतिहासादि से इतिवृत्त का ज्ञान होता है। ये सारी विद्याएं काव्याङ्ग हैं। इन के ज्ञान के बिना काव्य निर्माण नहीं हो सकता। प्रकीर्ण से लक्ष्यज्ञत्व (काव्य का परिचय) अभियोग (काव्य निर्माण का अभ्यास) वृद्धसेवा (काव्योपदेशक गुरुजनों की सेवा) अवेक्षण (काव्य में पद के विन्यास और परिवर्तन का विचार) प्रतिभान (कवित्व का बीज प्रतिभा) अवधान (चित्त की एकाग्रता) (यह एकान्तस्थान में तथा रात्रि के चतुर्थ प्रहर में होती है) ये प्रकीर्ण कहलाते हैं। “लक्ष्यज्ञत्वमभियोगोवृद्धसेवाऽवेक्षणं प्रतिभानमवधानं च प्रकीर्णम्” (का.सू. १/३/११)। इनमें प्रतिभा को कवित्व बीज कहे हैं, यह आवश्यक है। लोक तथा विद्या से व्युत्पत्ति होती है, वृद्ध सेवा गुरुजनों का उपदेश अभ्यास में कारण है। आनन्दवर्धन-के अनुसार महाकवियों की वाणीरूपा सरस्वती सारभूत काव्यार्थ वस्तु को स्वयं क्षरती हुई (महाकवि की) स्फुरित होने वाली अलौकिक प्रतिभा को अभिव्यक्त करती है। “सरस्वतीस्वादु तदर्थवस्तु निःष्यन्दमाना महतां कवीनाम् । अलोकसामान्यमभिव्यनक्ति परिस्फुरन्तं प्रतिभाविशेषम्।। (ध्वन्यालोक १ (६)) अर्थात् उस प्रतिभाशाली कवि को ही महाकवि कहा जाता है जिसके वाणी से दिव्य आनन्दमय अर्थ स्वयं टपकता है। (चूता है) इस प्रकार काव्य के सारभूत अर्थ की अभिव्यक्ति के प्रति प्रतिभा कारण है। काव्य में (रस का अपकर्ष करने वाले) दोष दो प्रकार के होते हैं अव्युत्पत्तिकृत, अशक्तिकृत। इनमें अव्युत्पत्तिकृत दोष कविशक्ति से तिरोहित हो जाता है, जो अशक्तिकत दोष है वह झटिति प्रतीत होता है। यहाँ शक्ति का अर्थ प्रतिभा ही है। “अव्युत्पत्तिकृतो दोषः शक्त्या संवियते कवेः। यस्त्वशक्तिकृतस्तस्य स झटित्यवभासते। (परिकरश्लोक ध्व.लो. ३ य उ. ३१६ पृ.) यह प्रतिभा गुण है, ध्वनि तथा गुणीभूतव्यङ्ग्य के मार्ग का अवलम्बन करने से यह अनन्त हो जाती है।

……. ……… …. .. ४०८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ..::..

.- 4 4- AAAAAAAAAAAAAAAAAAA “ध्वने यः सगुणीभूतव्यङ्ग्यस्याध्वा प्रदर्शितः। अनेनानन्त्यमायाति कवीनां प्रतिभागुणः।। (ध्व. लो. ४/१) प्रतिभानन्त्य का फल है (“वाणीनवत्वमायाति”) वाणी की नवीनता, “तच्च प्रतिभानन्त्ये सत्युपपद्यते। तच्चार्थानन्त्ये, तच्च ध्वनिप्रभेदात्”। (लोचन पृ. ५२२) वाणी की नवीनता प्रतिभानन्त्य से उपपन्न होती है प्रतिभानन्त्य अर्थानन्त्य से, तथा अर्थानन्त्य ध्वनि के भेदप्रभेद ज्ञान से होता है, अतः ध्वनिमार्ग के परिशीलन से प्रतिभानन्त्य होता है। राजशेखर ने “श्यामदेव” का मत उद्धृत करते हुए कहा है-काव्य रचना में कवि की समाधि परम उपयोगी है। मन की एकाग्रता को समाधि कहते हैं। एकाग्रचित्त व्यक्ति सूक्ष्म अर्थों का चिन्तन कर सकता है। “काव्यकर्मणि कवेः समाधिः परं व्याप्रियते” इति श्यामदेवः। मनस एकाग्रता समाधिः। समाहितं चित्तमर्थान् पश्यति। (का.मी.च. अ.) आचार्य मङ्गल काव्य-निर्माण के लिए अभ्यास को उपयोगी मानते हैं। अभ्यास से कुशलता प्राप्त होती है। “अभ्यास ‘इति मङ्गलः। अविच्छेदेन शीलनमभ्यासः। स हि सर्वगामी सर्वत्र निरतिशयं कौशलमाधत्ते।” (का.मी.च.अ. पृ. २७) __राजशेखर कहते हैं-समाधि आन्तर प्रयत्न है, अभ्यास बाह्य है। ये दोनों कवित्व शक्ति को उद्भासित करते हैं। वह शक्ति ही केवल काव्य में हेतु है। “समाधिरान्तरः प्रयत्नो बाह्यस्त्वभ्यासः। तावुभावपि शक्तिमुद्भासयतः। “सा केवलं काव्ये हेतुः” इति यायावरीयः”। (का.मी.च.अ. २७ पृ.) इन्होंने शक्ति को प्रतिभा से भिन्न माना है, शक्तिशाली में प्रतिभा प्रादुर्भूत होती है, वही व्युत्पन्न होता है। “विप्रसृतिश्च सा प्रतिभाव्युत्पत्तिभ्याम्। शक्तिकर्तृकेहिप्रतिभाव्युत्पत्तिकर्मणी। शक्तस्य प्रतिभाति शक्तश्च व्युत्पद्यते। (का.मी. च.अ. पृ. २७) । प्रतिभा दो प्रकार की होती है, १. कारयित्री, २. भावयित्री। कवि का उपकार करने वाली कारयित्री है। वह तीन प्रकार की है -१. सहजा, २. आहार्या, ३. औपदेशिकी। पूर्वजन्म के संस्कारों से प्राप्त “जन्मजात प्रतिभा” सहजा है। इस जन्म के संस्कारों से (शास्त्रों एवं काव्य-निर्माण के अभ्यास से) उत्पन्न प्रतिभा आहार्या है। मन्त्र, तन्त्रों के अनुष्ठान से देवता के वर प्रदान से गुरु के उपदेश से प्राप्त प्रतिभा औपदेशिकी कही जाती है। ………. E R ti-ist :: HAMA n …marAPWANLAORAHIMA e … mwarent!!!PATILatepun

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. . काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘काव्यकारण’ ४०६

P ZEENA “साच द्विधा कारयित्री भावयित्री च। कवेरूपकुर्वाणा कारयित्री। सापि त्रिविधा सहजाहार्मोपदेशिकी च। जन्मान्तर संस्कारापेक्षिणी सहजा जन्मसंस्कारयोनिराहार्या। यन्त्रतन्त्राद्युपदेशप्रभवा औपदेशिकी।” (का.मी.चतुर्थ अ. पृ. ३०) प्रतिभा भेद से कवि भी तीन प्रकार के होते हैं, १. सारस्वत, २. आभ्यासिक, ३. औपदेशिक। (का.मी. पृष्ठ ३०) . भावयित्री प्रतिभा भावक (समीक्षक) का उपकार करती है। वह कवि के श्रम तथा अभिप्राय को भावित करती है। इसी से कवि का व्यापार (काव्य) रूपी वृक्ष फलित होता है अन्यथा बन्ध्या हो जाता है। “भावकस्योपकुर्वाणा भावयित्री। सा हि कवेः श्रममभिप्रायं च भावयति। तया खलु फलित : कवेापारतरुरन्यथा सोऽवकेशीस्यात्।” (का.मी.च.अ. पृ. ३२) प्राचीन आचार्य भावक और कवि में भेद नहीं मानते। परन्तु कालिदास के काव्यों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि भावक और कवि में भेद है। देखिये रघुवंश-(१/१३) “तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः। हेम्नः संल्लक्ष्यते यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकाऽपि वा।।” वे काव्य के गुण दोष का विवेचक सज्जन सहृदय को मानते हैं। सुवर्ण का परीक्षण अग्नि में होता है। ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ में भी वे प्रयोग विज्ञान की सफलता विद्वानों के परितोष के आधार पर मानते हैं।” आपरितोषाद् विदुषां न साधु मन्ये प्रयोग विज्ञानम्। बलवदपि शिक्षितानामात्मन्यप्रत्ययं चेतः।।” (अभि.शा. १/२) तात्पर्य है कि कोई काव्य रचना में निपुण होता है, तो कोई उसके सुनने में प्रवीण होता है, इन दोनों का मणिकाञ्चन संयोग आश्चर्यजनक है। कहीं कहीं ही सुलभ हो पाता है, जैसे आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, विश्वनाथ अप्पय दीक्षित, पण्डितराज जगन्नाथ आदि। एक में दो प्रकृष्ट गुणों का समन्वय दुर्लभ है। एक पाषाण से सुवर्ण निकलता है दूसरे पाषाण से (कसौटी से) उसका परीक्षण होता है। “कविर्भावयति भावकश्च कविः’ इत्याचार्याः ‘न’ इतिकालिदासः। पृथगेव हि कवित्वाभावकत्वं भावकत्वाच्च ४१० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र कवित्वम्, स्वरूप भेदाद्विषयभेदाच्च। यदाहुः “कश्चिद् वाचं रचयितुमलं श्रोतुमेवापरस्तां कल्याणी ते मतिरुभयथा विस्मयं नस्तनोति। नयेकस्मिन्नतिशयवतां सन्निपातो गुणाना-’ मेकः सूते कनकमुपलस्तत्परीक्षाक्षमोऽन्यः।। (का.मी.च.अ.पृ. ३२-३३) आचार्यों के मत से व्युत्पत्ति बहुज्ञता है। राजशेखर के अनुसार-उचित-अनुचित का विवेक व्युत्पत्ति है। आनन्दवर्धन के अनुसार प्रतिभा और व्युत्पत्ति में प्रतिभा उत्तम है। क्योंकि वह कवि के अव्युत्पत्ति जनित दोष को ढक देती है। __ “बहुज्ञता व्युत्पत्तिः’ इत्याचार्याः। ‘उचितानुचितविवेको व्युत्पत्तिः’ इति यायावरीयः । ‘प्रतिभाव्युत्पत्त्योः प्रतिभा श्रेयसी’ इत्यानन्दः । सा हि कवेरव्युत्पत्तिकृतं दोषमशेषमाच्छादयति।” (का.मी.पं.अ.पृ. ३८) ‘मङ्गल’ प्रतिभा से उत्कृष्ट व्युत्पत्ति को मानते हैं। वह कवि के अशक्तिकृत दोष को ढक लेती है। प्रतिभा और व्युत्पत्ति सम्मिलित रूप से काव्य-निर्माण में श्रेयस्कर हैं, यह राजशेखर का मत है। ‘व्युत्पत्तिः श्रेयसी’ इति मङ्गलः। सा हि कवेरशक्तिकृतं दोषमशेषमाच्छादयति।” (का.मी.पं.अ.पृ. ३६) प्रतिभाव्युत्पत्ती मिथः समवेते श्रेयस्यौ’ इति यायावरीयः। प्रतिभा और व्युत्पत्तिमान् को कवि कहा जाता है। वह तीन प्रकार का होता है। शास्त्रकवि काव्यकवि, उभयकवि काव्यपरिपाक के लिए सतत अभ्यास आवश्यक है। “सततमभ्यासवशतः सुकवेः वाक्यं पाकमायाति” (का.मी.पं.अ. पृ. ४१) राजशेखर कवित्व की आठ माताएँ माने हैं। वे स्वास्थ्य, प्रतिभा, अभ्यास, भक्ति, विद्वत्कथा, बहुश्रुतता, स्मृतिदृढ़ता और अनिर्वेद हैं। “स्वास्थ्यं प्रतिभाभ्यासो भक्तिर्विद्वत्कथा बहुश्रुतता। स्मृतिर्दाढ्यमनिर्वेदश्च मातरोऽष्टौ कवित्वस्य।।” रुद्रट-चारु काव्य की रचना में शक्ति, व्युत्पत्ति, और अभ्यास इन तीनों को कारण मानते हैं। शक्ति से शब्द और अर्थ उपस्थित होते हैं। व्युत्पत्ति से सारासारविचार कर शब्दों और अर्थों का ग्रहण या त्याग किया जाता है। अभ्यास से शक्ति में उत्कर्ष आता है। “तस्यासारनिरासात् सारग्रहणाच्च चारुणः करणे। त्रितयमिदं व्याप्रियते शक्तियुत्पत्तिरभ्यासः।।” (का.लं. १/१४) शक्ति-जिसमें शक्ति होती है उसके समाहित चित्त में अर्थों का अनेक प्रकार से भान होता है, तथा क्लिष्टत्व आदि दोष से रहित पद उसे सदैव भासित होते रहते हैं। अर्थात् ४११

.. .. काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘काव्यकारण’ अनेक प्रकार के अर्थ और निर्दुष्टशब्द जिसमें भासते हैं वह शक्ति है। “मनसि सदा सुसमाथिनि विस्फुरणमनेकथाऽभिधेयस्य। अक्लिष्टानि पदानि च विभान्ति यस्यामसौ शक्तिः (का.लं. १/१५). इस शक्ति को ही प्रतिभा शब्द से दूसरे लोग कहते हैं। “प्रतिभेत्यपरैरुदिता सहजोत्पाद्या च सा द्विधा (का.लं. १/१६) राजशेखर ने दोनों को भिन्न माना है। व्युत्पत्ति छन्दःशास्त्र व्याकरणशास्त्र, कला लोकस्थिति, पद, पदार्थ विज्ञान से युक्तायुक्त का विवेक व्युत्पत्ति है। “छन्दोव्याकरणकलालोकस्थितिपदपदार्थविज्ञानात्। युक्तायुक्तविवेको व्युत्पत्तिरियं समासेन।। (का.लं. रुद्रट १/१८) अभ्यास-ज्ञातव्य सभी बातों को जानकर सज्जन प्रतिभाशाली कवि के समीप बैठकर सतत रचना चेष्टा का नाम अभ्यास है। “अधिगत सकलज्ञेयः सुकवेः सुजनस्य सन्निधौ नियतम्।। नक्तं दिनमभ्यस्येदभियुक्तः शक्तिमान् काव्यम् ।।” (का.लं. १/२०) हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन में भट्टतौत के पदय उदधृत किये हैं। जो ऋषि नहीं है, वह कवि नहीं है, दर्शन (ज्ञान) के कारण ऋषि कहा जाता है, विचित्रभावों के धर्माश और तत्त्व का विवेचन दर्शन कहलाता है। तत्त्वदर्शी को ही शास्त्र में कवि कहा गया है। परन्तु लोक में दर्शन एवं वर्णन दोनों से कवि कहा जाता है। आदि कवि महर्षि वाल्मीकि का दर्शन स्वच्छ था परन्तु जब तक वर्णना नहीं आई तब तक उनके मुख से काव्यधारा नहीं बही। तात्पर्य है पदार्थों के तत्त्वज्ञान से व्युत्पत्ति, और प्रख्या-प्रतिभा से वर्णन (कविता) प्रादुर्भूत होती है अतः प्रतिभा व्युत्पत्ति काव्य के कारण हैं। “नानृषिः कविरित्युक्तमृषिश्च किल दर्शनात् । विचित्रभावधर्माशतत्त्वप्रख्या च दर्शनम्। स तत्त्वदर्शनादेव शास्त्रेषु पठितः कविः। दर्शनाद् वर्णनाच्चाथ रूढालोके कविश्रुतिः।। तथा हि दर्शने स्वच्छे नित्येऽप्यादिकवेर्मुनेः। नोदिता कविता लोके यावज्जाता न वर्णना।।” (का.नु. पृ. ३७६) ४१२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र हेमचन्द्र ने प्रतिभा को ही प्रधान कारण माना है, व्युत्पत्ति और अभ्यास प्रतिभा का संस्कार करते हैं। वे साक्षात् कारण नहीं हैं। प्रतिभाविहीन का व्युत्पत्ति और अभ्यास विफल है। “प्रतिभाऽस्य हेतुः। …….इदं प्रधानं कारणम्। व्युत्पत्त्यभ्यासाभ्यां संस्कार्या। न तौ काव्यस्य साक्षात्कारणौ। प्रतिभोपकारिणौ तु भवतः।” (का. नुशा. ५-६ पृ.) अग्निपुराणकार ने काव्य के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए काव्य हेतु (शक्ति-व्युत्पत्ति) का भी निरूपण किया है। प्रथम तो मनुष्य जन्म पाना ही दुर्लभ है, मनुष्य होकर विद्या प्राप्त करना तो सुतरां दुर्लभ है। विद्या प्राप्त कर कवि होना अति दुर्लभ है और काव्य निर्माण की शक्ति प्राप्त करना तो नितरां दुर्लभ है। शक्ति के साथ व्युत्पत्ति और विवेक प्राप्त होना महादुर्लभ है। काव्य का कारण वेद लोक आदि है। इस प्रकार इन्होंने शक्ति-व्युत्पत्ति-विवेक इन तीन काव्य हेतुओं का निर्देश किया है। “नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा। कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र च दुर्लभा।।” (अग्नि पु. ३३७/३-४) “योनिर्वेदश्च लोकश्च सिद्धमन्नादयोनिजम् ।।” पद्यकाव्य के निर्माण के लिए छन्दःशास्त्र का ज्ञान, आवश्यक माना गया है। (अग्निपु. ३३७/३-४) “सा विद्या नौस्तितीप्रूणां गभीरं काव्यसागरम्” (अग्नि पु. ३३७/२३) अभिनवगुप्तपादाचार्य द्वारा किए गए लोचन टीका के प्रारम्भिक मङ्गलाचरण से काव्य हेतु का भी कुछ निर्देश प्राप्त होता है। “अपूर्व यद्वस्तु प्रथयति विना कारण कलां जगद्ग्रावप्रख्यं निजरसभरात् सारयति च। क्रमात् प्रख्योपाख्या प्रसरसुभगा भासयति तत् सरस्वत्यास्तत्त्वं कवि-सहृदयाख्यं विजयते।।” इसमें प्रख्या कवि की प्रतिभा है, जो अपूर्व वस्तु का निर्माण करती है, उपाख्या अभिव्यक्ति शैली है जो नीरस वस्तु को भी सरस बना देती है। काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘काव्यकारण’ ४१३ SSS .. पुनः “परिस्फुरन्तं प्रतिभाविशेषम्” (ध्व.लो. १/६) की व्याख्या करते हुए लिखते हैं “प्रतिभा” अपूर्ववस्तुनिर्माणक्षमाप्रज्ञा। तस्याः विशेषोः रसावेशवैशद्यसौन्दर्य काव्य निर्माणक्षमत्वम्।। __अपूर्व वस्तु के निर्माण में समर्थ प्रज्ञा ही प्रतिभा है। उसकी विशेषता है कि रस के अनुभव (साक्षात्कार) से जो विशदता (निर्मलता अर्थात् दोषाभाव गुणादियोग) उससे सुन्दर काव्यनिर्माण की क्षमता। इससे सिद्ध होता है कि काव्य निर्माण के प्रति प्रतिभा कारण है। इन्होंने शक्ति और प्रतिभा को पर्याय माना है “शक्तिः प्रतिभानं “वर्णनीयवस्तु विषयनूतनोल्लेखशालित्वम्। व्युत्पत्तिस्तदुपयोगिसमस्तवस्तुपौर्वापर्यपरामर्शकौशलम्”। (ध्व. लो. लोचन पृ. ३१७) कुन्तक ने प्रतिभादारिद्रय से कवि को अतिस्वल्पसुभाषित कहा है। __ “प्रतिभादारिद्रयदैन्यादतिस्वल्पसुभाषितेन कविना” (वक्रोक्ति जी. १/७ की वृत्ति) महिम भट्ट ने कवि की शक्ति से समर्पित पदार्थ में ही चमत्कारानुभूति कराने की क्षमता मानी है, अतः काव्य का कारण शक्ति (प्रतिभा) सिद्ध हुई। “कविशक्त्यर्पिता भावास्तन्मयीभावयुक्तितः। यथास्फुरन्त्यमीकाव्यान्न तथाऽध्यक्षतः किल।।” (व्य.वि. पृ. ७५) __ इनका हेतु प्रतिपादन मुख्य लक्ष्य नहीं है तो भी प्रसङ्गतः कहे गये वचनों के आधार पर प्रतीत होता है कि इन्होंने व्युत्पत्ति तथा शक्ति को काव्य कारण कहा है। “तस्माद् व्युत्पत्तिशक्तीभ्यां निबन्यो यः” (व्य. वि. १/६६) प्रतिभा वह प्रज्ञा है जो कवि के रसानुरूप शब्द और अर्थ के चयन में एकाग्रचित्त होने पर स्वरूप स्पर्श से उद्भूत होती है। वही भगवान शिव का तृतीय नेत्र है। “रसानुगुणशब्दार्थचिन्तास्तिमितचेतसः। क्षणं स्वरूपस्पर्शोत्था प्रज्ञैव प्रतिभा कवेः।। (व्यक्ति वि. २/११७ १८) “सा हि चक्षु भगवतस्तृतीयमिति गीयते। पृ. (४५२-५३) मम्मट ने ‘काव्य-हेतु’ का निरूपण इस वाग्मिता से की है, कि उसमें सभी मत समाहित हो गये हैं, और संक्षिप्त भी है। “शक्तिनिपुणता लोकशास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात्। काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।।” (का. प्र. १/३) __ “शक्ति” संस्कारविशेष है, वह कवित्व का बीज है, इसके बिना काव्य का निर्माण नहीं हो सकता, किसी प्रकार प्रयत्नादि से निर्मित हो भी जाय तो उपहासास्पद होता है। ४१४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र “शक्यते काव्यं निर्मातुम् आस्वादयितुं वा अनयेति शक्तिः”। यह शक्ति दो प्रकार की है, उत्पादिका, (कविनिष्ठ) भावयित्री, सहृदयनिष्ठ। किसी किसी प्राक्तनपुण्यशाली में दोनों प्रकार की शक्ति होती है। यह गोविन्द ठक्कुर के अनुसार प्रतिभा का पर्याय है-“प्रतिभा व्यपदेश्यः” (प्रदीप)। संस्कारविशेष है, यह जन्मजात भी होती है, देवता प्रसादादिजन्य भी है। निपुणता-(व्युत्पत्ति) स्थावर जङ्गमात्मक लोकवृत्त (व्यवहार) के अवेक्षण से तथा छन्दःशास्त्र शब्दसाधुत्वबोधक व्याकरणशास्त्र, अभिधानकोश, नृत्यगीतादि चौसठ कलाओं के लक्षणग्रन्थ, चतुर्वर्ग (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) के लक्षणग्रन्थ, अर्थात् धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, मोक्षशास्त्र, (सांख्यमीमांसा-वेदान्त-न्याय-वैशेषिक योगशास्त्र) गज-तुरग आदि के लक्षणग्रन्थ शालिहोत्रादि, खड्ग-धनुर्बाणादिविषयक शास्त्र, स्त्रीपुरुष के लक्षण निरूपण करने वाले सामुद्रिकशास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिःशास्त्र आदिकों के तथा महाकवियों द्वारा प्रणीत महाकाव्यों (रामायण-रघुवंश-किरात-माघ-नैषधीयचरित आदिकों) तथा महाभारत-पुराणादिकों के विमर्श से प्राप्त निपुणता (व्युत्पत्ति) अर्थात् सकल पदार्थों के पर्यालोचन का कौशल निपुणता है। __ अभ्यास-काव्यनिर्माण तथा काव्य के गुण दोष विवेचन, रसादि पर्यालोचन में कुशल कवियों, सहृदय आलोचकों के उपदेश से काव्यनिर्माण में, महाकाव्य के गुम्फन में पुनः पुनः प्रवृत्ति अभ्यास कहलाता है। ये ‘शक्ति निपुणता अभ्यास’ तीनों सम्मिलित रूप से (जैसे घट निर्माण में दण्ड-चक्र-चीवर-कुम्भकार सभी सम्मिलित रूप से कारण होते हैं) काव्य की रचना तथा उसकी उत्कृष्टता में कारण हैं। (प्रत्येक तृणारणिमणि न्याय से स्वतन्त्र कारण नहीं है, अर्थात् जैसे अग्नि प्रगट करने में तृण अरणि तथा सूर्यकान्त मणि ये प्रत्येक स्वतन्त्र कारण हैं उस प्रकार ये शक्तिनिपुणता आदि प्रत्येक स्वतन्त्र कारण नहीं है) इसी भाव को व्यक्त करने के लिए ‘हेतुः’ एकवचन का प्रयोग है। जयदेव-भी मम्मट के अनुसार व्युत्पत्ति और अभ्यास के सहित प्रतिभा को कारण मानते हैं। प्रतिभैव श्रुताभ्याससहिता कवितां प्रति। हेतुर्मूदम्बुसम्बद्ध-बीजमाला लतामिव ।।” (चन्द्रालोक १/६) कविता के प्रति व्युत्पत्ति, अभ्यास के सहित प्रतिभा ही कारण है, जिस प्रकार मिट्टी और जल से संबद्ध बीज लता के प्रति कारण है। इन्होंने प्रतिभा को प्रधान कारण माना है और व्युत्पत्ति अभ्यास को सहकारी कारण माना है। वाग्भट-“प्रतिभाकारणं तस्य व्युत्पत्तिस्तु विभूषणम्। भृशोत्पत्तिकृदभ्यास इत्यादिकविसंकथा।।” (वाग्भटालं. १/३) ४१५ SKANTRA RAM काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘काव्यकारण’ काव्य का कारण प्रतिभा है, व्युत्पत्ति भूषण है, अभ्यास अत्यधिक रचना कराने वाला है। वाग्भट द्वितीय भी इसी मत के हैं। “व्युत्पत्त्यभ्याससंस्कृता प्रतिभाऽस्य हेतुः” (का.अ. पृ. २) पण्डितराज जगन्नाथ-इनके मत में केवल प्रतिभा ही काव्य का कारण है। और प्रतिभा का दो कारण है, कहीं देवता-महापुरुष के प्रसाद से जन्य अदृष्ट, कहीं व्युत्पत्ति और अभ्यास। __ये तीनों की सम्मिलित कारणता को स्वीकार नहीं करते हैं, इनकी युक्ति है कि बालकों को मूक कवि को जन्मान्ध मेधावी रुद्र आदि को व्युत्पत्ति और अभ्यास के बिना भी केवल महापुरुष या देवता के प्रसाद से उत्पन्न अदृष्ट से प्रतिभा प्रादुर्भत हुई, उससे ये लोग काव्य निर्माण किए। “तस्य च कारणं कविगता केवला प्रतिभा।” “तस्याश्च हेतुः क्वचिद्देवतामहापुरुषप्रसादादिजन्यमदृष्टम् । क्वचिच्च विलक्षणव्युत्पत्ति काव्यकरणाभ्यासौ।” (रसगं. प्र.आ. हेतुनिरूपण) परन्तु पण्डितराज को अपने मत के समर्थन में बड़ा ही श्रम करना पड़ा है। ये प्रतिभा के दो हेतु माने हैं अतः प्रतिभा दो प्रकार की हो गयी, एक अदृष्टजन्य, दूसरी व्युत्पत्त्यभ्यास जन्य। इन दोनों प्रतिभाओं से उत्पन्न काव्य भी दो प्रकार का होगा। अतः इनके मत में बुद्धि का गौरव है। मम्मट मत स्वीकार करने में ही लाघव है। रही बात बालकों और मूकों की जो बिना व्युत्पत्ति तथा अभ्यास के काव्य का निर्माण केवल देवता या महापुरुष प्रसाद से जन्य अदृष्ट जनित प्रतिभा से करते हैं, तो वहां जैसे देवतादि के प्रसाद से प्रतिभा उत्पन्न होती है वैसे व्युत्पत्ति अभ्यास भी उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसा स्वीकार कर लेने में कोई बाधा नहीं है। अनुपहसनीय काव्य के लिए तीनों ही कारण हैं। निष्कर्ष-इस प्रकार शास्त्रीय ग्रन्थों के अनुशीलन से सिद्ध होता है कि आचार्यों के दो मत हैं। एक वे हैं जो शक्ति-व्युत्पत्ति और अभ्यास को सम्मिलित रूप से कारण मानते हैं, जैसे भामह, दण्डी, वामन, रुद्रट, मम्मट, जयदेव, वाग्भट प्रथम एवं द्वितीय आदि। राजशेखर भी प्रतिभा व्युत्पत्ति को मिलित रूप से श्रेयस्कर मानकर काव्यमाता के रूप में अभ्यास को भी माने हैं। इस दृष्टि से ये भी त्रितयकारणतावादी हैं। परन्तु एक स्थान पर शक्ति को ही कारण माने हैं, और शक्ति के प्रति व्युत्पत्ति और अभ्यास को कारण माने हैं। पण्डितराज इन्हीं के मत का अनुसरण किए हैं। हेमचन्द्र वाग्भट भी इसी पक्ष के हैं। अच्युतराय भी पं. राज के अनुयायी हैं। (साहित्यसार) आनन्दवर्धन प्रतिभा-व्युत्पत्ति में प्रतिभा को श्रेष्ठ मानते हैं, तो मङ्गल प्रतिभा से उत्कृष्ट व्युत्पत्ति को मानते हैं, एक स्थान पर अभ्यास को ही श्रेष्ठ माना है। आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, कुन्तक, महिमभट्ट का विषय

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.: .–४१६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र काव्य का कारण निरूपण करना नहीं था, इन लोगों ने उद्देश्य विशेष से कुछ कहे हैं उससे प्रतिभा ही कारण सिद्ध होती है। इस प्रकार प्रतिभा को सभी आचार्य काव्य का प्रधान कारण माने हैं। कुछ लोगों ने व्युत्पत्ति एवं अभ्यास को सहायक कारण माना है। शक्ति को ही प्रतिमा भी कहे हैं। प्रतिभा पदार्थ - प्रतिभा का निरूपण रुद्रकोश, पराशरोपपुराण आदि में किया गया है “स्मृतिरतीतविषया मतिरागामिगोचरा। बुद्धिस्तात्कालिकी ज्ञेया प्रज्ञात्रैकालिकी मता।। प्रज्ञानवनवोन्मेष शालिनी प्रतिभा मता।।” अर्थात् अतीत विषय का स्मरण होता है, उसे स्मृति कहते हैं। आगामी विषय का ज्ञान करने वाली को मति कहते हैं। तत्काल स्फुरित होने वाली को बुद्धि कहते हैं, भूत-भविष्यद्-वर्तमान इन तीनों काल की दर्शिका को प्रज्ञा कहते हैं, और नई-नई स्फुरित होने वाली प्रज्ञा को प्रतिभा कहते हैं। भट्टतौत ने इसी को माना है। अभिनवगुप्त ने भी शब्दान्तर से इसी को स्वीकार किया है। अपूर्ववस्तुनिर्माणक्षमाप्रज्ञा को प्रतिभा कहा है। राजशेखर के अनुसार-शब्दों के समूह को अर्थसमुदाय को अलङ्कारों एवं सूक्तियों को तथा दूसरी काव्य सामग्री को जो हृदय में प्रतिभासित करती है। उसे प्रतिभा कहते हैं। “या शब्दग्राममर्थसार्थमलङ्कारतन्त्रमुक्तिमार्गमन्यदपि तथाविधामधिहृदयं प्रतिभासयति सा प्रतिमा” (का.मी. ४/२७ पृ.)। यह प्रतिभा आदि बुद्धि का ही भेद है। राजशेखर ने बुद्धि का तीन भेद माना है। स्मृति, मति, प्रज्ञा । अतीत विषय का स्मरण कराने वाली स्मृति है, वर्तमान का मनन वाली मति है। भविष्य दर्शिनी को प्रज्ञा कहते हैं। ये सभी कवियों का उपकार करती हैं। (का.मी.४ अ का प्रारम्भ पृ. २५) महिम भट्ट ने इसे शिव का तृतीय नेत्र कहा है। (व्यक्तिवि. ४५२-५३ पृ.) काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘काव्यलक्षण’ ४१७