१. कुमारिलभट्ट-श्लोकवार्तिक २. भरत नाट्यशास्त्र ३. भामह काव्यालङ्कार ४. दण्डी, काव्यादर्श ५. वामन-काव्यालङ्कारसूत्र ६. आनन्दवर्धन-ध्वन्यालोक ७. अभिनवगुप्तपादाचार्य-लोचन रुद्रट-काव्यालङ्कार ६. कुन्तक-वक्रोक्तिजीवितम् १०. धनञ्जय-दशरूपक ११. महिमभट्ट-व्यक्तिविवेक १२. भोजराज-सरस्वती कण्ठाभरण १३. मम्मट-काव्य प्रकाश १४. विश्वनाथ-साहित्यदर्पण। १५. पण्डित राज जगन्नाथ- रसगङ्गाधर १६. अग्निपुराण १७. हेमचन्द्र- काव्यानुशासन १८ रामचन्द्र गुणचन्द्र- नाट्यदर्पण। १६. महर्षि वाल्मीकि रामायण २०. कालिदास- रधुवंश २१. गो. तुलसीदास जी- राम चरितमानस काव्य-प्रयोजन यह लोक में देखा जाता है, कि मन्दबुद्धि व्यक्ति भी निष्प्रयोजन कियी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता, “बुद्धिमानों की तो बात ही क्या ? “प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते । __ अतः शास्त्र में प्रवृत्ति कराने के लिये शास्त्र-कार शास्त्रों का प्रयोजन निरूपण करते हैं। “सिद्धार्थ सिद्धसम्बन्धं श्रोतुं श्रोता प्रवर्तते। शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः स प्रयोजनः।।” किसी भी बुद्धिमान की प्रवृत्ति बालकों जैसे निरर्थक जलताडनादि कार्यों में नहीं होती, वे प्रयोजन ज्ञान के पश्चात् ही प्रवृत्त होते हैं। अतः शास्त्रों में प्रयोजन का प्रतिपादन किया गया है। काव्य शास्त्र में भी काव्य का प्रयोजन बताया गया है। काव्य शास्त्र के उपलब्ध ग्रन्थों में ‘भरत’ का ‘नाट्य-शास्त्र’ सब से प्राचीन है। नाट्य भी दृश्य काव्य है। उसमें काव्य (नाट्य) का प्रयोजन “उत्तमाधममध्यानां नराणां कर्मसंश्रयम्। हितोपदेशजननं धृतिक्रीडासुखादिकृत् ।। दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम् । विश्रान्तिजननं काले नाटयमेतद्भविष्यति।। ३६७ HTS काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त “काव्य प्रयोजन” धयं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवर्धनम्। लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद्भविष्यति।।” (नाटय शा. १/११३, ११५, ११६) उत्तम, मध्यम, अधम, श्रेणी के लोगों को हितोपदेश देने वाला, तथा शोकार्त को धैर्य रोगात को मनोविनोद, श्रमात को सुख, तपस्वियो को बोध देने वाला यह नाट्य है। यह नाट्य (दृश्यकाव्य) दुःखार्त, श्रमात, शोकार्त तथा तपस्वियों को विश्रान्ति देता है। यह नाट्य धर्म, यश, आयु को देने वाला हितकरने वाला बुद्धि बढाने वाला तथा लोक को उपदेश देने वाला है। इसमें विश्रान्ति जनन भी नाट्य का फल कहा गया है। अनन्तर भामह ने काव्य का प्रयोजन कहा है। “धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च। करोति कीर्ति प्रीतिं च साधुकाव्यनिषेवणम् (निबन्धनम्)।। (का.लं.१/२) इस पद्य में ‘निबन्धनम्’ तथा ‘निषेवणम्’ दो प्रकार का पाठ प्राप्त होता है काव्यालङ्कार में ‘निबन्धनम्’ पाठ है, ‘लोचन’ तथा ‘अवलोक’ में उद्धृत इस कारिका में ‘निषेवणम्’ पाठ मिलता हैं काव्य निबन्धन कवि करता है। उसका सेवन सहृदय करता है इस कारिका में कवि तथा सहृदय दोनों की दृष्टि में काव्य का प्रयोजन बताया गया है। कीर्ति प्राप्ति तथा काव्य निर्माण जनित आनन्द प्राप्ति कवि को होती हैं धर्म अर्थ, काम, मोक्ष एवं कला विषयक निपुणता और काव्य रसास्वाद जनित प्रीति सहृदय को होती है। सत्काव्य प्रणयन करने वाले स्वर्ग भी चले जाते हैं तब भी उनका मनोहर काव्यमय शरीर यहां निरातङ्क रहता हैं अतः जब तक पृथ्वी है तब तक स्थिर कीर्ति की इच्छा रखने वाले को काव्य निर्माण करना चाहिए। भामह………(का.लं. १/६-८) उपेयुषामपिदिवं सन्निबन्धविधायिनाम् । आस्त एव निरातङ्क कान्तं काव्यमयं वपुः।।.. ……….।” अतोऽभिवाञ्छता कीर्ति स्थेयसीमाभुवः स्थितेः" इत्यादि। कण्डी दण्डी के अनुसार यशः प्राप्ति केवल कवि को ही नहीं होती अपितु काव्य नायकों का यश भी कविवाणी में निबद्ध होकर अविनाशी हो जाता है। “आदिराजयशोबिम्बमादर्श प्राप्य वाङ्मयम् । तेषामसन्निधानेऽपि न स्वयं पश्य नश्यति।।” (काव्यादर्श, १/५) दण्डी ने जनता को लोकव्यवहार का व्यस्थित ज्ञान कराना भी प्रयोजन माना है। *अतः प्रजानां व्युत्पत्तिमभिसन्धाय सूरयः।। (काव्यादर्श १/६) ३६८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र वामन-वामन ने काव्य का प्रयोजन दो प्रकार का माना है। दृष्ट और अदृष्ट। दृष्टप्रयोजन प्रीति है, अदृष्ट प्रयोजन कीर्ति है। “काव्यं सत् दृष्टादृष्टार्थं प्रीतिकीर्तिहेतुत्वात्” (काव्यालङ्कार सूत्र १/१/५) अत्र श्लोकाः “प्रतिष्ठां काव्यबन्धस्य यशसः सरणिं विदुः। अकीर्तिवर्तिनी त्वेवं कुकवित्वविडम्बनम्।। १।। कीर्ति स्वर्गफलामाहुरासंसारं विपश्चितः। अकीर्तिं तु निरालोकनरकोद्देश दूतिकाम् ।। २।। उत्कृष्ट काव्य रचना यश का मार्ग है, अर्थात उत्कृष्ट काव्य रचना से यशः प्राप्ति होती हैं कुकविता से अकीर्ति होती है। कीर्ति का फलस्वर्ग है। अकीर्ति का फल नरक है। इनके मत में प्रत्यक्ष प्रयोजन प्रीति हैं यह काव्य श्रवण के अनन्तर होने वाला रसास्वाद जनित आनन्द है। इसकी अनुभूति प्रत्यक्ष होती है। और कीर्ति का फल स्वर्ग है, वह स्वर्ग भी विशेष प्रकार का सुख ही है, वह कालान्तर में होता है अतः यह अदृष्टफल है। आनन्दवर्धन-आनन्दवर्धन का मुख्य रूप से प्रतिपाद्य विषय ‘काव्यात्मा’ (ध्वनि) है, तथापि प्रसङ्गतः वे काव्य का प्रयोजन विशिष्ट लक्षण भी कहे हैं। जैसे द्वितीय अभाववादी का मत उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा है “सहृदयहृदयाह्लादिशब्दार्थमयत्वमेव काव्यलक्षणम्” (ध्व. लोचनसहित. पृ. २२) अर्थात् सहृदयों के हृदय को आनन्दित करने वाला शब्दार्थ स्वरूप काव्य है। इससे स्फुट है कि काव्य का फल है सहृदयों को आनन्दित करना। काव्यात्म ध्वनि ज्ञान का भी प्रयोजन है। ‘सहृदय मनः प्रीति’ “तेन ब्रूमः सहृदय मनः प्रीतये तत्स्वरूपम् । (ध्व. लो.१/१) अभिनवगुप्तपादाचार्य-ध्वन्यालोक पर लोचन टीका लिखने वाले आचार्य ‘अभिनवगुप्त पाद’ ने भी कवि और सहृदय दोनों की दृष्टि से काव्य प्रयोजन का विचार किया है। कवि की दृष्टि से काव्य प्रयोजन कीर्ति और प्रीति है। इन दोनों में प्रधान प्रीति है, क्योंकि कीर्ति से भी प्रीति ही होती है। (कीर्ति का फलस्वर्ग है और स्वर्ग अत्यन्त आनन्द है।) सहृदय को भी मुख्य रूप से आनन्द ही प्राप्त होता है, यद्यपि श्रोता के लिये व्युत्पत्ति और प्रीति दो प्रयोजन कहे गये हैं, परन्तु चतुर्वर्ग व्युत्पत्ति से भी प्रीति ही (आनन्द ही) होती है, अतः आनन्द ही मुख्य प्रयोजन है। इस प्रसङ्ग में उन्होंने भामह की “धर्मार्थकाममोक्षेषु……कारिका, तथा वामन का श्लोक ‘कीर्तिं स्वर्गफलामाहुः” को उद्धृत किया है।
काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त “काव्य प्रयोजन” ३६६ रुद्रट-रुद्रट ने काव्य का प्रयोजन नायकों का यश (कल्पपर्यन्त) फैलाना माना है। नायकों द्वारा निर्मित देवालय महाविद्यालय सेतु आदि तो कालान्तर में नष्ट हो जाते हैं, अगर कवि उनके इस चरित को काव्य में निबद्ध न करे तो उनका नाम भी कोई नहीं जानेगा। __ कवि अपने काव्य द्वारा राजाओं तथा उत्तम यशस्वी लोगों का यश फैलाकर उनका उपकार करता है, और परोपकार से धर्म होता है। इस प्रकर कवि को धर्म, अर्थ, काम, परमसुख मोक्ष, की प्राप्ति अनर्थ की निवृत्ति, इष्ट की सिद्धि प्राप्त होती है। कितने कवि भगवती दुर्गा की स्तुति कर विशाल विपत्ति सागर से पार हो गए। कितने रोगमुक्त हो गए, कितने अभीष्ट वरदान प्राप्त किए। प्रभूत यश को देने वाले काव्य का सम्पूर्ण मूल्याङ्कन कौन कर सकता है।
ज्वलदुज्ज्वलवाक्प्रसरः सरसं कुर्वन् कविः काव्यम्। स्फुटमाकल्पमनल्पं प्रतनोति यशः परस्यापि।। तत्कारितसुरसदनप्रभृतिनि नष्टे तथाहि कालेन। न भवेन्नामापि ततो यदि न स्युः सुकवयो राज्ञाम्। इत्थं स्थास्नुगरीयो विमलमलं सकललोककमनीयम् । यो यस्य यशस्तनुते न कथं तस्य नोपकृतम् ।। अन्योपकारकरणं थर्माय महीयसे च भवतीति। अधिगत परमार्थानामविवादो वादिनामत्र। अर्थमनर्थोपशमं शमसममथवा मतं यदेवास्य। विरचितरुचिरसुरस्तुतिरखिलं लभते तदेव कविः।। नत्वा तथाहि दुर्गा केचित्तीर्णा दुरुत्तरां विपदम्। अपरे रोग विमुक्तिं वरमन्ये लेभिरेऽभिमतम् ।। आसाधते स्म सद्यः स्तुतिभिर्येभ्योऽभिवाञ्छितं कविभिः। अद्यापि त एव सुरा यदि नाम नराधिपा अन्ये।। कियदथवा वच्मि गुरुगुणमणिसागरस्य काव्यस्य। कः खलु निखिलं कलयत्यलमलघुयशोनिदानस्य। तदिति पुरुषार्थसिद्धिं साधुविधास्यद्भिरविकलां कुशलैः। अधिगतसकलज्ञेयैः कर्तव्यं काव्यममलमलम् ।। . . …. .. . …. . ४०० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अन्यत्र-“सहृदयों के उद्देश्य से चतुर्वर्गव्युत्पत्ति" को काव्य का प्रयोजन कहा है - “ननु काव्येन क्रियते सरसानामवगमश्चतुर्वर्ग। लघु मृदु च नीरसेभ्यस्ते हि त्रस्यन्ति शास्त्रेभ्यः।।” (का.ल.१२/१) इस प्रकार रुद्रट ने कवि की सहृदय तथा नायक की दृष्टि से काव्य का प्रयोजन बताया है। (काव्यालङ्कार १।४-१२ तथा २१) कुन्तक-कुन्तक ने भी भामह के समान काव्य को धर्मादि चतुर्वर्ग के ज्ञान का साधन माना है, तथा हृदयाह्लादकारी माना है, अतः प्रीति तथा व्युत्पत्ति कराना ही काव्य का प्रयोजन हुआ। लोक व्यवहार का परिज्ञान, तथा काव्यात रस से अन्तःकरण में चमत्कार होता है, अतः यह भी प्रयोजन है। “धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः। काव्यबन्धोऽभिजातानां हृदयालादकारकः।। व्यवहारपरिस्पन्द-सौन्दर्य व्यवहारिभिः। सत्काव्याभिगमादेव नूतनौचित्यमाप्यते।। चतुवर्गफलास्वादमप्यतिक्रम्य तद्विदाम्। काव्यामृतरसेनान्तश्चमत्कारो वितन्यते।।” (वक्रोतिजीवित, १/३-५) थजञ्जय-धनञ्जय ने दृश्यकाव्यों का फल “सहृदयों को अलौकिक आनन्दरूप रस का आस्वाद कराना" कहा है। केवल चतुर्वर्ग की व्युत्पत्तिमात्र को फल मानने वाले को स्वादुपराङ्मुख कहा है। “आनन्दनिःस्यन्दिषु रूपकेषु व्युत्पत्तिमात्र फलमल्पबुद्धिः। योऽपीतिहासादिवदाह साधुस्तस्मै नमः स्वादुपराङ्मुखाय।।” (दशरूपक १/६) महिम भट्ट-महिमभट्ट ने दृश्य तथा श्रव्य दोनों प्रकार के काव्य का फल “विधि-निषेध की व्युत्पत्ति” माना है। “सामान्येनोभयमपितत्-शास्त्रवद् विधि-निषेधविषयव्युत्पत्तिफलम्"। (व्यक्तिविवेक, पृ. १०१) आगे चलकर “रसास्वादसुख” भी फल कहा है, और रसास्वाद के द्वारा ही सुकुमारमति, जड़मति, लोगों को विधिनिषेध ज्ञान में प्रवृत्ति कराने का निर्देश किया है। (व्यक्तिविवेक, पृ. १०२) काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त “काव्य प्रयोजन” ४०१ FM ( wwwww “रसास्वादसुखं मुखे दत्त्वा तत्र कटुकौषधिपानादाविव प्रवर्तयितव्या” इसका निर्देश भामह ने भी किया है। कुन्तक ने भी वृत्ति में कहा है। “स्वादुकाव्यरसोन्मिश्रं शास्त्रार्थमप्युपयुञ्जते। प्रथमालीढमधवः पिबन्ति कटु भेषजम् ।।” (का.लं. ५/३) शास्त्र और काव्य दोनों अज्ञान रूप व्याधि का विनाश करते हैं, परन्तु शास्त्र कड़वी औषधि के समान है। कटुकौषधवच्छास्त्रमविद्याव्याधिनाशनम्। आह्लाद्यमृतवत्काव्यमविवेकगदापहम् ।। (व.जी. पृ. १५) भोजराज-भोजराज भी काव्य का प्रयोजन कीर्ति और प्रीति ही मानते हैं। “कविः कुर्वन् कीर्ति प्रीतिं च विन्दति" (सरस्वती कण्ठा. १/२) मम्मट-आचार्य मम्मट ने इन सभी आचार्यों का मत अपने द्वारा निरूपित काव्य प्रयोजन में समाहित कर लिया है। वे कहते हैं “काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये। सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे।।” (का.प्र. १/२) __ मम्मट भी कवि तथा सहृदय दोनों की दृष्टि से काव्य-प्रयोजन का निरूपण किये हैं। इस में यशः प्राप्ति, अर्थ प्राप्ति कवि को होती है। व्यवहार ज्ञान, परमानन्द की प्राप्ति तथा कान्तासम्मित उपदेश प्राप्ति सहृदयों को होती है, अनर्थ निवृत्ति कवि तथा सहृदय दोनों के लिए है। सूर्यशतक काव्य का निर्माण करने से मयूर कवि की अनर्थ निवृत्ति हुई, तथा उसका पाठ करने से पाठकों की भी अनर्थ निवृत्ति होती है। इसी प्रकार कवि भी जब अपने द्वारा बनाए गए काव्य का श्रवण या अध्ययन करता है तब सहृदयता दशा में उसे भी परमानन्द की प्राप्ति होती है। काव्य से यशः प्राप्ति कालिदास प्रभृति को हुई। कालिदास का न तो कुल ही प्रसिद्ध है, न तो धन-दानादि कोई कीर्तिकर कार्य ही प्रसिद्ध है, तो भी रघुवंश आदि काव्य तथा अभिज्ञानशाकुन्तलम् आदि दृश्यकाव्य का निर्माण कर वे अनश्वर कीर्ति प्राप्त कर जगत प्रसिद्ध हुऐ, कवि कुल के गुरु तथा सरस्वती का विलास आदि उपाधियों से विभूषित हुवे। यद्यपि कालिदास को काव्यनिर्माण से धनप्राप्ति भी हुई, तो भी इन्हें यश ही विपुलमात्रा में मिला, ये विश्वकवि माने जाते हैं; इनमे यशःप्राप्ति की ही प्रधानता है। ‘धावक’ नामक कवि “श्रीहर्ष” राजा के नाम से ‘रत्नावली’ नाटिका का निर्माण कर उनसे बहुत सा धन प्राप्त किए। manm
४०२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र .28.hinystem.. E24. काव्य (के अध्ययन) से राजादि गत पृथिवीपालनादि रूप उचित आचारों का ज्ञान सहृदयों को होता है। ‘मयूर’ कवि कुष्ठरोग से ग्रस्त हो गये थे, वे सूर्यशतक का निर्माण कर रोगविमुक्त हुवे, तथा आज भी लोग इस शतक का पाठ कर रोगमुक्त होते देखे जाते हैं। इन सभी प्रयोजनों का मौलिभूत प्रयोजन है, काव्य श्रवण के अनन्तर ही (अविलम्बेन) परमानन्द की प्राप्ति। इसे विगलित वेद्यान्तर आनन्द कहा जाता है। अन्य घटादि ज्ञान में घट आदि ज्ञान के विषय हैं, ज्ञान विषयी हैं, परन्तु काव्य के रसास्वादन से समुद्भूत आनन्द में आनन्द ही विषय है, आनन्द ही विषयी है। इस काव्यरसास्वादन की ही महिमा है कि सहृदय का हृदय ‘एकाग्र’ तन्मय हो जाता है, अतः आनन्दातिरिक्त किसी अन्य विषय का भान उसे नहीं होता। यह आनन्द ब्रह्मानन्द सहोदर है। __ यद्यपि शास्त्रों में अन्य भी सुखोपलब्धि के साधन वर्णित हैं। जैसे-इष्ट (यज्ञ यागादि) पूर्त (जलाशयनिर्माण आदि) आराम (वाटिका आदि) परन्तु ये कालान्तर में सुख प्रद होते हैं (विलम्ब से) तथा यह सुख परमानन्द नहीं है। अतः काव्यरसानन्द इन सभी से उत्कृष्ट है। काव्य से सहृदयों को कान्तासम्मित उपदेश प्राप्त होता है। यद्यपि वेद, शास्त्र पुराण, इतिहासादि भी उपदेश प्रदान करते हैं, परन्तु वेदादि शास्त्र शासना प्रधान हैं, उनमें शब्द की प्रधानता है, वे प्रभुसम्मित हैं। जैसे राजाज्ञा का यथावत् पालन करना ही पड़ता है, उसमें संशोधन या उसकी अवहेलना से दण्ड मिलता है, ठीक वैसा वेद का आदेश है “अहरहः सन्ध्यामुपासीत” प्रतिदिन सन्ध्योपासन करना चाहिए। अगर कोई नहीं करता हो तो उसे प्रायश्चित करना पड़ता है, अन्यथा उसे पाप लगता है। पुराण और इतिहास अर्थ प्रधान हैं, मित्रसम्मित है, मित्र जैसे उपदेश देता है कि “ऐसा करने में लाभ है, अपना हित है, अब आप करें या न करें वह बाध्य नहीं करता, वैसे पुराणादि भी हिताहित का उपदेश देते हैं, परन्तु आपको बाध्य नहीं करते, आप अपने कर्तव्य के अनुार फल प्राप्त करेंगे। परन्त काव्य में न शब्द की प्रधानता है न अर्थ की। ये दोनों गौण होते हैं. इसमें व्यापार की प्रधानता होती है। अतः ये कान्तासम्मित उपदेश करते हैं। कान्ता जैसे हाव भाव कटाक्षादि व्यापार से प्रियतम को अपने वश में करके उचित कार्य में लगा देती है, उसमें किसी प्रकार का भार या कष्ट का अनुभव नहीं होता, वैसे काव्य भी अपने रस से अध्येता के हृदय को आकृष्ट कर अनायास उपदेश दे देते हैं, वह हृदय में बैठ भी जाता है “रामादिवत्वर्तितव्यं न रावणादिवत्”। इस प्रकार कृत्याकृत्य का उपदेश तथा प्रवृत्ति निवृत्ति का उपदेश काव्य द्वारा प्राप्त होता है। मम्मट ने “सद्यः परनिर्वृतये" को “सकलप्रयोजन मौलिभूतं” कहा है। तात्पर्य यह है कि यशःप्राप्ति अर्थ प्राप्ति आदि भी आनन्द प्राप्ति के लिए ही है। यश से भी आनन्द ही प्राप्त होता है। …………. .. काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त “काव्य प्रयोजन” ४०३ oed इनके प्रयोजन निरूपण में भामहादि द्वारा निर्दिष्ट चतुर्वर्ग (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) विषयक व्युत्पत्ति भी सन्निविष्ट है, यद्यपि ‘धर्म’ शब्द स्फुट रूप से नहीं है, तथापि व्यवहारविदे" की व्याख्या “राजादिगतोचिताचारपरिज्ञानम्” में जो उचित आचार है वह धर्म ही है। “आचारः प्रथमोधर्मः” (मनु.)। __वाग्भट ने ‘कीर्ति प्राप्ति’ ही काव्य का प्रयोजन माना है। “काव्यं कुर्वीत कीर्तये” (वाग्भटालं. १/२)। विश्वनाथ-कविराज विश्वनाथ ने काव्य का प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, रूप चतुर्वर्ग की प्राप्ति कहा है। “चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि। काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते।” (सा. दर्पण, १/२) यद्यपि चतुर्वर्ग फल प्राप्ति वेद शास्त्र से भी हो सकती है, परन्तु वेदशास्त्र नीरस हैं, अतः परिपक्व बुद्धि के लोग ही उससे चतुर्वर्ग की प्राप्ति कर सकते हैं, वह भी कठिनाई से। परन्तु सुकुमार बुद्धि के लोग चतुर्वर्ग की प्राप्ति काव्य से ही सुखपूर्वक कर सकते हैं। क्योंकि काव्य सरस है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि काव्य केवल सुकुमार बुद्धि वालों के लिए है। प्रौढ़बुद्धि वालों के लिए नहीं है, उनके लिए चतुर्वर्ग का साधन वेदादिशास्त्र ही है। (यदि कड़वी औषधि से शान्त होने वाला रोग मीठी शक्कर से शान्त होने लग जाय, तो मीठी शक्कर में स्वतः सबकी प्रवृत्ति हो जायेगी।) वस्तुतः विश्वनाथ ने भामह से लेकर मम्मट पर्यन्त आचार्यों द्वारा निरूपित काव्य प्रयोजन का निष्कर्ष ही लिखा है। पण्डितराज जगन्नाथ जी ने भी सभी पूर्वोक्त प्रयोजनों को ‘आदि’ पद से संगृहीत कर लिया है, “तत्र कीर्ति-परमाह्लाद-गुरुराज-देवता प्रसादाद्यनेकप्रयोजनकस्य काव्यस्य” (रस गं. प्र. आ. पृ. ८) अग्निपुराण (३३८/७) व्यास ने “त्रिवर्गसाधनं नाटयम्” कहा है (सा.द.में उद्धृत) हेमचन्द्र - ने ‘काव्यानुशासन,’ (१/३) में मम्मट का अनुसरण करते हुए काव्य का प्रयोजन आनन्द, यश, कान्तातुल्योपदेश प्राप्ति माना है। धन प्राप्ति को काव्य का अनैकान्तिक फल माना है, व्यवहार ज्ञान शास्त्रान्तर से भी हो सकता है, अनर्थनिवारण औषधिसेवन या सत्कर्मानुष्ठान आदि उपायान्तर से भी होता है। अतः तीन ही प्रयोजन हैं। “धनमनैकान्तिकं व्यवहारज्ञानं शास्त्रेभ्योऽपि, अनर्थनिवारणं प्रकारान्तरेणापि, इति न काव्यप्रयोजनतया अस्माभिरुक्तम्” (का.नु.पृ. ३) “काव्यामानन्दाय यशसे कान्तातुल्योपदेशाय च”। PRE ४०४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र रामचन्द्र गुणचन्द्र ने भी चतुर्वर्गफल माना है “चतुर्वर्गफलां नित्यां जैनी वाचमुपास्महे”। (नाट्यदर्पण १/२) कवियों ने भी काव्यमें काव्य का प्रयोजन कहा है, आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण में लोकपितामह ने वाल्मीकि से रामकथा निर्माण का फल “ब्रह्मलोक में निवास प्राप्ति” कहा है यावद् रामस्य च कथा त्वत्कृता प्रचरिष्यति। तावदूर्ध्वमथश्चत्वं मल्लोकेषु निवत्स्यसि।। (वा.रा. २/३८) सहृदयों (पाठकों) के लिए स्वर्ग प्राप्ति आयुष्यवृद्धि पुत्र पौत्रादि की प्राप्ति फल कहा गया है “एतदाख्यानमायुष्यं पठन् रामायणं नरः। सपुत्र पौत्रः सगणः प्रेत्य स्वर्गे महीयते।। (वा.रा. १/६६) कालिदास-यशः प्राप्ति काव्यनिर्माण का फल मानते हैं-मन्दः कवियशः प्रार्थी” (र.वं. १/) भाषा कवि तुलसीदास जी- अपनी वाणी की पवित्रता, तथा स्वान्तःसुख, काव्यनिर्माण का फल मानते हैं-“निज गिरा पावन करन कारन राम यश तुलसी कहा”। “स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा” … (रा. च.मा.वा.का.मङ्गलाचरण) श्रोता अध्येता की दृष्टि से-“सुन हि विमुक्त विरत अरु विषयी। लहहि भगति गति सम्पति नई। (रा.च.मा.उ.का.) श्रवण सुखद अरु मन अभिरामा।। काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘काव्यकारण’ ४०५