काव्य का मूल
काव्य का मूल वेद ही है। वेद को काव्य कहा गया है, ‘देवस्य पश्य काव्यम्’ (अथर्ववेद, १०/८/३२) काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का मूल भी वेद ही है। काव्य निर्माण की प्रेरणा और उसका प्रयोजन (फल) भी वेद में निर्दिष्ट है। श्रुति कहती है। “एकः शब्दः सम्यग् ज्ञातः सुप्रयुक्तः शास्त्रान्वितः स्वर्गे लोके च काम-धुग्भवति"। इस श्रुति में शब्द के सम्यग् ज्ञान तथा सुप्रयोग का फल स्वर्ग में तथा लोक में इच्छित फल की प्राप्ति होना कहा गया है। शब्द का सम्यग् ज्ञान व्याकरण शास्त्र से होता है, उसका (शब्द का) सुप्रयोग काव्य है। वेद अपैरुषेय काव्य है। कतिपय उदाहरण “उत त्वः पश्यन् न ददर्श वाचम् उतत्वः शृण्वन् न शृणोत्येनाम् । उतो त्वस्मै तन्वं विसने जायेव पत्ये उशती सुवासाः ।। (ऋ. वे.१०/७१/४) (म.भाष्य पस्पशाहिक में उद्धृत)। अर्थात् कोई शब्द को देखता हुआ भी नहीं देखा कोई सुनता हुआ भी नहीं सुना। किसी कि लिये यह वाणी (वाक्) अपने शरीर को उसी प्रकार विवृत कर देती है, जैसे काम वशीभूत कामिनी अपने शरीर को अपने पति के लिये समर्पित कर देती है। यहाँ उपमा अलङ्कार तथा शृङ्गार रस की झलक स्फुट है। महाभाष्य मे ही उद्धृत (पस्पशाहिक) एक और मन्त्र देखें जो काव्य है “चत्वारिशृङ्गा त्रयोअस्य पादा देशीर्षे सप्त हस्तासोअस्य। त्रिधा वद्धो वृषभो रोरवीति महोदेवो. मां आविवेश।। (ऋ. वे ४/५८/३) इस मन्त्र की व्याख्या मीमांसकों ने यज्ञ परक की है, वैयाकरणों ने शब्द परक और नाट्य शास्त्र में नाट्य परक व्याख्या भरत ने की है। यह नाट्य भी दृश्यकाव्य ही है। इस मन्त्र में शब्द का वृषभ रूप से वर्णन किया गया है, वृषभ उपमान है शब्द उपमेय है, उपमान के द्वारा उपमेय निगीर्ण है अतः अतिशयोक्ति अलङ्कार है। इसी प्रकार “द्वासुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।। (ऋग्वेद१/१६४/२०)३७६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र __ यह मन्त्र भी काव्य हैं यहाँ शरीर में रहने वाले जीवात्मा परमात्मा का पीपल के वृक्षपर रहने वाले दो सुन्दर पक्षी के रूप में वर्णन किया गया है। यहाँ भी उपमान पक्षी के द्वारा उपमेय जीव, ईश्वर का निगरण होने से अतिशयोक्ति अलङ्कार है। इसी प्रकार उपमादि अलङ्कार तथा उपमा शब्द का भी प्रयोग वेद में मिलता है “सोपमादिवः” (ऋ.वे.१/३१/१५)। इसी प्रकार उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, श्लेष आदि के भी सुन्दर उदाहरण वेद में है। वेद वर्णयिता को कवि कहा गया है “कवि मनीषी परिभूः स्वयंभूः (शुक्लयजुर्वेद ४०/८)
वेद में काव्य शब्द का प्रयोग
ऋग्वेद-(३/१/१८) अग्निर्विश्वानि काव्यानि विद्वान्। (३/१/६६) आपेवानामभव केतुरग्ने मन्द्रो विश्वानि काव्यानि विद्वान्। इन मन्त्रों में काव्य शब्द का प्रयोग है। “काव्ययोराजानेषु क्रत्वा दक्षस्य दुरोणे। रिशादसा सधस्थ आ” ।। (शु.य.वे. सं. ३३/७२)। उव्वट और महीधर ने “काव्ययोः” का अर्थ “कविहितयोः” किया है। (कवीनां क्रान्तदर्शिनां ज्ञानसमुच्चयकारिणां हितयोः) इस मन्त्र में कवि, काव्य तथा उसका हित निर्दिष्ट है। कवि का हित यशः प्राप्ति चतुर्वर्गप्राप्ति तथा प्रीति में हैं अतः इस मन्त्र में काव्य प्रयोजन का भी निर्देश है। काव्य में दोषाभाव अपेक्षित है। शब्द अर्थ निर्दुष्ट होना चाहिए। “सक्तुमिव तितिउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत। अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मी निहिताऽधिवाचि।।” (वेद-म.भा. पश्यशाहिक में उद्धृत) जैसे चालनी से चालकर सक्तु को पवित्र (दोष रहित भूषी रहित) कर दिया जाता है वैसे ही वाणी को भी दोषरहित पवित्र कर लेना चाहिये। निर्दुष्ट वाणी को जानने वाले सायुज्यमुक्ति प्राप्त कर लेते हैं इनके वाणी में भद्रालक्ष्मी निवास करती हैं काव्य में निर्दुष्ट शब्द और अर्थ का प्रयोग करने से सायुज्य की (ब्रह्मसायुज्य की) प्राप्ति होती है। मम्मट ने इसे काव्य प्रयोजन में “सद्यः पर निर्वृतये” शब्द से कहा है। और भामह ने धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च करोति कीर्तिः प्रीतिः च” कहा है। विभिन्न उपमा के भेदों का प्रयोग वेद में हैं। “तं प्रत्नथा पूर्वथेमथा” (ऋ.वे.५/४४/१) में सादृश्य अर्थ में थाल् प्रत्यय (प्रकारवचनेथाल्) का प्रयोग हुआ है। “यत्र वाणाः सम्पतन्ति कुमारा विशिखा इव” (शु.य.वे.सं. १७/४८) यहाँ सुन्दर उपमा है। दुर्गाचार्य ने निरुक्त की टीका में ऋग्वेद का मन्त्र उद्धृत किया है जिससे हीन
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__ - काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त गुणवाले उपमान से अधिक गुणवाले उपमेय की तुलना है। (बलदेव उपा. सं. शा. का इतिहास पृ. १५३) यहीं प्रतीपालङ्कार का मूल है। “ऋचां त्वः पोषमास्ते पुपुष्वान् गायत्रं त्वो गायति शक्करीषु। ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां विभिमीत उत्वः।। (ऋ. वे. १०/७१/११) त्वः अन्यः ऋचा पद्यानां पोषं यथावत् प्रयोगं पुपुष्वान् कृतवान् । यथा बाल्मीकिः । त्वः अन्यो नारदादिः गायत्रं गायति। कोई पद्यात्मक काव्यों का यथावत् प्रयोग करता है, जैसे बाल्मीकि आदि। कोई वाञ्छित फल देने वाली शक्वरियों में से रक्षा करने वाली गीति को गाते हैं जैसे नारद प्रभृति। एक गद्य पद्यगेय के ज्ञाता हैं जैसे ब्रह्मा। इस मन्त्र में काव्य के सभी प्रभेद गद्य पद्य मिश्र कथा आख्यानादि सभी निर्दिष्ट हैं। छन्दों का प्रयोग वेदों में ही पहले होता था, अनन्तर जब स्नान के लिये तमसा तट पर जाकर बाल्मीकि भ्रमण कर रहे थे। उसी समय रमण करते हुऐ क्रौञ्च पक्षी के जोड़े में से पुरुष पक्षी को बहेलिये ने बाण से भेद दिया, पक्षी रक्त से लथपथ होकर भूमि पर गिर पड़ा। क्रौञ्ची करुण विलाप करने लगी, उसके शोक से व्यथित करुणार्द्रचेता वाल्मीकि के मुख से व्याध के लिये शाप छन्दोबद्ध वाणी में निकल गया मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत् क्रौञ्चमिधुनादेकमवधीः काममोहितम्॥ (बा.रा. बालका. २/१५) म. वाल्मीकि अपने मुख से प्रकट हुई छन्दोबद्ध वाणी से विस्मय में पड़ गये कि यह छन्दोबद्ध वाणी अनायास हमारे मुख से कैसे निकली महर्षि विचार कर रहे थे कि ब्रह्मा उनके आश्रम मे आकर कहे कि ब्रह्मन् हमारी ही प्रेरणा से आपके मुख से यह छन्दवती वाणी निकली है। अब आप रामचरित काव्य का निर्माण करिये। ब्रह्मा के आदेश से वाल्मीकि ने रामायण महा काव्य का निर्माण किया। यह लोक में काव्य का प्रथम निर्माण हुआ। अतः वाल्मीकि आदि कवि और रामायण आदि काव्य कहलाता है। अनन्तर लोक में इसी रामायण से प्रेरणा लेकर कालिदास प्रभृति कवियों ने काव्य का निर्माण किया। पिङ्गलनाग ने वैदिक छन्दों का प्रस्तार कर अनेकों लौकिक छन्द बनाए उन सभी छन्दों में काव्य का निर्माण होने लगा। ३७८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
काव्य शास्त्र का निर्माण
उपलब्ध ग्रन्थों में सबसे प्रचीन भरत का नाट्य शास्त्र है। जिसमें लिखा है-ब्रह्मा ने नाट्य का प्रणयन करने के लिये ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीति, यजुर्वेद से अभिनय, अथर्ववेद से रसलेकर नाट्य वेद बनाया। यह पञ्चमवेद कहलाया है। “जग्राह पाठ्यमृगवेदात् सामभ्योगीतिमेव च। यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि।। (भरतनाटयशास्त्र १/१७) यद्यपि यह नाट्य शास्त्र है, परन्तु इसमें काव्य शास्त्र अन्तर्भूत है। नाट्यशास्त्र में काव्यस्वरूप, दोष, गुण, लक्षण भूषण, अलंकार काव्यात्मरस, व्यञ्जनावृत्ति, काव्यवृत्ति रसनिष्पति स्थायी सात्त्विक व्याभिचारी भाव, विभाव, अनुभाव का सर्वाङ्ग निरूपण है। सर्वत्र काव्य शब्द का प्रयोग है। ‘वागभिनय’ का निरूपण करते हुवे १४/२३ में ‘काव्यनिबद्धाश्चस्युः काव्य निबन्ध विधि, ‘वाक्यार्थव्यञ्जयन्तिहि (१४/२)। व्यञ्जना वृत्ति, कारक, नाम, आख्यात, उपसर्ग की द्योतकता द्योतयन्त्युपसर्गास्तु’ १४/२६ “काव्याबन्धास्तु कर्तव्या षट्त्रिंशल्लक्षणान्विताः (१६/४६)” । दोषनिरूपण में “एतेदोषास्तुकाव्यस्य” (१६/६५) “काव्यस्य गुणा दशैते” (१६/६६)काव्य नाटय का मिश्रित लक्षण (१६/१२६) में रीतिवृत्ति आदि छन्दोविन्यास आदि सभी काव्यनाट्य के अंग नाट्यशास्त्र के १३ वें से १६ अध्याय तक तथा रस विषय ६> अध्याय में निरूपित है। बाल्मीकि भी आदि काव्य के अभिनय का निरूपण किये हैं। अतः काव्य और नाट्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वेद में यम यमी (ऋ.१०/१०) सरमापणि (ऋ. वे. १०/१०८) आदि अनेकों संवाद भी है। स्वगत भाषण भी वेद में मिलता है (दष्टव्य ऋ.वे.१/२४ तथा १/११६) वाद्य यन्त्रों का भी उल्लेख है। उपनिषदों में तो कवित्व की स्फुट उपलब्धि होती है। जैसे कठोपनिषद में -“आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु, बुद्धिं तुं सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च” (कठोप. १/३/३) इसमें रूपकालङ्कार है। ‘मुण्डकोपनिषद’ में तो उपमा, रूपक आदि का बाहुल्य है। द्वितीय मुण्डक के प्रथम खण्ड में, १ में उपमा, ४ में रूपक, द्वितीय खण्ड के ३ में उपमा चतुर्थ में रूपक है। यह केवल उपमा, रूपक नहीं हैं अपितु अलङ्कार है। अनन्तर यास्क ने उपमा के सम्बन्ध में विचार किया है। यह वही देखें (नि. ३/३) “अथात उपमा। यदतत् तत्सदृशम्।” इति गार्यः (निरुक्त ३/३) अनन्तर पाणिनि ने अपने सूत्रों में उपमा, उपमान, औपम्य, सादृश्य आदि शब्दों का प्रयोग किया है अनेक सूत्रों में उपमा का सादृश्य का निर्देश कर प्रत्यय आदि का विधान किया है। मम्मट विश्वनाथ अप्पय दीक्षित पं. रा. जगन्नाथ आदि ने पाणिनि के सूत्रों के आधार पर ही लुप्तोपमा के सारे भेदों का निरूपण किया है। ३७६
r m H काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त कात्यायन ने भी अपने वार्तिकों में सादृश्य का प्रतिपादन किया है। जैसे “उपमानादाचारे” (पा.सू. ३/१/१०) सूत्र पर वार्तिक है। “अधिकरणाच्चेति वक्तव्यम्”। इसका अर्थ है, सप्तम्यन्त उपमान से भी आचार अर्थ में क्यच् प्रत्यय होता है। उदाहरण-प्रासादीयति कुटयां भिक्षुः। (प्रासादे इव आचरति) भिक्षु कुटी में रहता है परन्तु प्रासाद में रहने के समान आचारण करता है। यहाँ उपमा का निर्देश है। पतञ्जलि ने भी “उपमानानि सामान्यवचनैः” (पा.सू. २/१/५४) पर उपमान शब्द का अर्थ लिखा है उप = समीप, मान = अनिख़त का ज्ञान। “मानं हि नामानितिज्ञानार्थमुपादीयते-अनितिम) ज्ञास्यामीति । तत्समीपे यन्नात्यन्ताय मिमीते तदुपामानं गौरिव गवय इति।” मान का उपादान निर्घात के ज्ञान के लिये किया जाता है। मान के समीपवर्ती को उपमान कहते हैं। उपमा की श्रौती “आर्थी” ‘तद्धितगा’ तथा समासगा का मूल पाणिनि सूत्र ही है। लुप्तोपमा का तो मूल पाणिनि सूत्र है ही।। ‘बाल्मीकि रामायण’ में काव्य शास्त्रीय सभी सिद्धान्त निर्दिष्ट हैं महाभारत में भी उपमा आदि सभी अलङ्कार प्रयुक्त हैं, इनके परिशीलन से काव्य शास्त्रीय सिद्धान्त ज्ञात होते हैं। काव्य, नाट्य आख्यान, आख्यायिका, कथा आदि शब्द भी प्रयुक्त हैं। महाकाव्य का स्वरूप निरूपण ‘बाल्मीकि रामायण’ के आधार पर ही किया गया। अनन्तर पाणिनि ने ‘जाम्बवतीविजय’ या ‘पातालविजय’ नामक महाकाव्य की रचना की यद्यपि यह महाकाव्य सम्प्रति उपलब्ध नहीं है तो भी सूक्ति संग्रहों तथा अलङ्कार ग्रन्थों के उल्लेख से उसकी सरसता चमत्कारिता सिद्ध होती है। पाणिनि के जाम्बवती विजय का पद्य दुर्घट वृत्ति (४/१३) में उद्धृत है। “त्वया सहार्जितं यच्च यव्व सख्यं पुरातनम्। चिराय चेतसि पुरस्तरूणीकृतमद्य मे।।” “जाम्बवती विजये पाणिनिनोक्तम्……….इत्यष्टादशे सर्गे” (सं.सा.का.इ. बलदेव उ.) क्षेमेन्द्र ने सुवृत्त तिलक में पाणिनि के उपजाति की प्रशंसा की है। “स्पृहणीयत्वचरितं पाणिनेरूपजातिभिः। चमत्कारैकसाराभिरूद्यानस्येव जातिभिः।।” : ३८० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र (निम्नाङ्कित पद्य भी पाणिनि कृत है) निरीक्ष्य विद्युन्नयनैः पयोदो मुखं निशायामभिसरिकायाः। धारानिपातैः सह किन्नुवान्तश्चन्द्रोऽयमित्यार्ततरं ररासे।। (बलदेवोपा.सं.सा.इ. पृ. १३५) पाणिनिकृत पद्य यह भी है ऐन्द्रं धनुः पाण्डुपयोधेरण शरद्दधानानखक्षताभम् । प्रसादयन्ती सकलङ्कमिन्दुं तापं रवेरम्यधिकं चकार।। इस पद्य को वामन ने आक्षेपालङ्कार का उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया है। (का.लं. ४/३/२७) पाणिनि ने नटसूत्र का लेखक शिलालि तथा कृशाश्व का अपने सूत्रों में निर्देश किया है। “पाराशर्य शिलालिम्यां भिक्षुनटसूत्रयोः” “कर्मन्द कृशाश्वादिनिः”। (पा.सू.४/३ तथा ११०-१११) पतञ्जलि ने बररुचि कृत काव्य का उल्लेख किया है। “यत्तेन कृतं न च तेन प्रोक्तम्"-“वाररुचं काव्यम्”, जालूकाः श्लोकाः। (म.भा.४/३ /१०१ सू. पर) यह काव्य भी उपलब्ध नहीं है। इसका निर्देश कृष्णचरित काव्य के १४ वें पद्य से मिलता है। “यः स्वर्गारोहणं कृत्वा स्वर्गमानीतवान् भुवि। काव्येन रुचिरेणैव ख्यातो वररुचिः कविः।” सदुक्तिकर्णामृत में इनके काव्य का उल्लेख है। वररुचि कात्यायन ही है, नन्द के महामन्त्री थे, यह कथा सरित्सागर में स्पष्ट है। इनके वार्तिक में आख्यायिका का उल्लेख है। “लुबाख्यायिकाभ्यो बहुलम्” (वा) पतञ्जलि ने वासवदत्ता,सुमनोत्तरा, भैमरथी का उल्लेख किया है। ‘कंसबध’ ‘बलिबन्ध’ नाटकों का भी उल्लेख किया है (४/३/११०-११ पर) (३/२/१११ पा. सू.) के भाष्य में “जघान कंसं किल वासुदेवः” । यह अंश पूर्वर्ती कवि का उद्धरण रूप में प्राप्त है। कृष्णमाचारी ने वररुचिकृत ‘चारुमती’ का भी उल्लेख किया है। महाकवि कालिदास के काव्य और नाटक प्रसिद्ध ही हैं। (सं.सा.का इतिहास सं. ८८) काव्यादर्श की टीका में (हृदयङ्गमा, श्रुतानुपालिनी) काश्यप वररुचि ब्रह्मदत्त तथा नन्दी स्वामी को ‘दण्डी’ से पूर्व आलङ्कारिकों में गिना गया है। (बलदेवोपा. सं. साहित्य का इतिहास पृ.६०१) ‘अग्नि पुराण’ में भी काव्य तथा नाट्य के सिद्धान्त प्रतिपादित हैं। अर्थशास्त्र में (२८/१० अध्या.) अर्थक्रम, सम्बन्ध, माधुर्य, औदार्य, तथा स्पष्टता को लेखसम्पत् कहा गया है। द्वि. प्रकरण में आख्यायिका का उल्लेख है। ‘गणिकाध्यक्ष’ नामक ४४ वे प्रकरण में गीत, वाद्य, नृत्य, नाट्य, वीणा वेणु आदि का उल्लेख है। वात्स्यायन ने ३८१ काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त कामसूत्र के विद्यासमुद्देश प्रकरण में चौसठ कलाओं, गीत वाद्य, नृत्य प्रहेलिका, प्रतिमाला, दुर्वाचकयोग, पुस्तकवाचन नाटकाख्यायिका दर्शन, काव्य समस्यापूरण, मानसी काव्यक्रिया, अभिधानकोश, छन्दोविज्ञान, क्रियाकल्प आदि का उल्लेख किया है। ईसा के द्वितीय शतक के शिलालेख प्रमाणित करते हैं कि उस समय तक अलङ्कार शास्त्र का उदय हो चुका था। रुद्रदामन के शिलालेख की भाषा अलकार पूर्ण तो है ही उसमें कतिपय सिद्धान्तों का भी निर्देश है। जैसे काव्य के गद्य-पद्य दो भेद थे गद्य का स्फुट, मधुर, कान्त उदार होना आवश्यक था यहाँ प्रसाद माधुर्य, कान्ति उदारता गुणों का स्फुट निर्देश है। हरिषेण ने समुद्रगुप्त को प्रतिष्ठित कविराज शब्द लिखकर अलङ्कार शास्त्र की सत्ता की ओर निर्देश किया है। (बलदेवोपाध्याय, सं.सा. का इतिहास पृ. ६०१) ‘ललितविस्तर’ में काव्यकरण ग्रन्थ, नाट्य वर्णित है। (सं. का. शा. का इति. पृ. १२) ‘अलंङ्कार’ नाम शुक्रनीति में मिलता है ३२ शास्त्रों में उसकी गणना है। राजशेखर काव्य की मीमांसा करते हुये लिखते हैं, कि भगवान शिव ने ब्रह्मा विष्णु आदि चौसठ शिष्यों को काव्य विद्या का उपदेश दिया। ब्रह्मा ने अपनी इच्छा से जन्म लेने वाले अपने शिष्यों को उपदेश दिया। उनमें सास्वतेय (सरस्वती का पुत्र) काव्य पुरुष देवताओं का भी वन्दनीय था। ब्रह्मा ने दिव्य दृष्टि से भविष्य अर्थ को जानने वाले उस काव्य पुरुष को भू भुवर् स्वर्लोकवासिनी प्रजा की हितकामना से काव्य विद्या के प्रचार के लिये आदेश दिया। काव्य पुरुष ने अट्ठारह अधिकरणों वाली काव्य विद्या का उपदेश काव्यविद्यास्नातको को दिया। उन अधिकरणों तथा स्नातकों का निर्देश निम्नांकित है। १. कविरहस्य - सहनाक्ष २. औक्तिक . उक्तगर्भ ३. रीति निर्णय - सुवर्णनाभ ४. आनुप्रासिक प्रचेता ५. यमक - यम ६. चित्र – चित्राङ्गद ७. शब्दश्लेष - शेष ८. वास्तव - पुलस्त्य ६. उपमा - औपकायन १०. अतिशय – पराशर ११. अर्थश्लेष - उतथ्य १२. उभयालङ्कारिक - कुबेर वैनोदिक - कामदेव १४. रूपकनिरूपण - भरत १५. रसाधिकरण - नन्दिकेश्वर १६. दोषाधिकरण - घिषण (वृहस्पति) १७. गुणोपादान - उपमन्यु १८. औपनिषदिक - कुचुमार इन स्नातकों ने अपने-अपने विषयों पर पृथक-पृथक ग्रन्थ रचना की। यद्यपि आधुनिक इतिहासकार इस निरूपण की ऐतिहासिकता को संन्दिग्ध मानते हैं, परन्तु इस में काव्यविद्या की परम्परा का निर्देश अवश्य है।
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३८२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
स्रोत
इस विवेचन से सिद्ध है कि अलङ्कार शास्त्र या काव्यशास्त्र अथवा साहित्यशास्त्र का स्रोत वेद, व्याकरण (मीमांसा और न्याय भी) रामायणादि काव्य और नाट्यशास्त्र है। उपलब्ध अलङ्कार शास्त्रीय ग्रन्थों में भामह का काव्यालङ्कार प्राचीन है, परन्तु भामह और दण्डी ने भी अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का निर्देश किया है, अतः यह शास्त्र भी प्राचीनतर है। कालक्रम से आविर्भाव तिरोभाव तो होता ही रहता है। यह शास्त्र आन्वीक्षिकी वेदत्रयी वार्ता तथा दण्डनीति इन चार विद्याओं का सार माना गया है। इस लिये यह पाँचवी विद्या हैं यह वेदका उपकारक है अतः वेद का सातवाँ अङ्ग है। “सा हि चतसृणां विद्यानां निष्यन्दः" । “पञ्चमी साहित्य विद्या"। इति यायावरीयः। उपकारकत्वादलङ्कारः सप्तममङ्गमिति यायावरीयः" । इत्यादि उक्तियाँ इसमें प्रमाण है। (का.मी.) जैसे वेद के व्याकरणादि अङ्ग हैं, वैसे काव्य का भी सभी विद्याएं अङ्ग है”। “न तच्छास्त्रं न तिच्छल्पं न सा विद्या न सा कला। जायते यन्न काव्याङ्गम्……………..।।
अभिधान
काव्य ‘आह्लादकः चमत्कारी होता है, इस चमत्कार का आधान रस और अलङ्कार करते है। अलङ्कार शब्द का अर्थ “अलङ्कृतिरलङ्कारः” (चमत्कृति) भी है, अलकियतेऽनेनेत्यलङ्कारः” चमत्कार का साधन भी है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार अलङ्कार शब्द रसादि तथा उपमादि अलङ्कारों का भी बोधक है। अतः अलङ्कार शब्द जो सभी चमत्काराधायक तत्त्वों को अपने में अन्तर्भूत किया है, वही अभिधान बना काव्य शास्त्र का जिसे पहले “क्रियाकल्प” शब्द से कहा जाता था। अलङ्कार संज्ञा देने वाले आचार्यों ने रस को भी रसवदलङ्कार ही माना था। अनन्तर जब रस की काव्यत्मता ध्यान में आई तब काव्य शास्त्र अथवा रस निष्पत्ति में (रस की अभिव्यक्तिमें) शब्द और अर्थ का समान सहभाव सहयोग देखकर इसे साहित्य शास्त्र कहा गया है। लक्षण में भी (शब्दार्थों सहितौ) सहित शब्द था ही।
उपजीव्य
शब्द और अर्थ का सहभाव काव्य है, तो साधु शब्दों का ज्ञान व्याकरण शास्त्र से होता है और अर्थ का ज्ञान मीमांसा और न्याय शास्त्र से होता है। जैसा “वात्स्यायन" ने कहा है “पदलक्षणाया वाचोऽन्वाख्यानं व्याकरणम् अर्थ-लक्षणाया अर्थलक्षणम्" । अर्थात पद का अन्वाख्यान व्याकरणशास्त्र से होता है, अर्थ का अन्वाख्यान (अर्थो लक्ष्यते= ज्ञायतेऽनेन इति अर्थलक्षणम् न्यायशास्त्रं मीमांसा शास्त्रं च ) मीमांसा और न्याय शास्त्र से होता है। अतः यह तीनों शास्त्र काव्य के अङ्ग हुये। ३५३ काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त “ध्वनि काव्य” का मूल स्फोट सिद्धान्त है, और व्यञ्जना का मूल भी स्फोट सिद्धान्त तथा उपसर्ग और निपातों की द्योतकता है। संकेतित अर्थ जाति, गुण क्रिया यदृक्षा चार प्रकार का होता है, इस का भी मूल “चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः" यह महाभाष्य की उक्ति ही है। अमिधा के योग एव रूढ़ि भेद भी व्याकरण मूलक ही हैं, वैयाकरण “उणादयो व्युत्पन्नान्यव्युत्पन्नानि च” इन दोनों सिद्धान्तों को मानते हैं, अव्युत्पन्न पक्ष में ‘अर्थवदधातुः’ से प्रतिपादिकसज्ञा करते हैं इस में रूढिशक्ति है, और व्युत्पन्न पक्ष में ‘कृत्तद्धित समासाश्च’ सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा करते हैं, इस में योगशक्ति है। अर्थात् प्रकृति और प्रत्यय मिलकर अर्थ देते हैं। अवयव शक्ति को योग शक्ति अर्थात् अवयव शक्ति से अर्थ बोध कराने वाली शक्ति का नाम योग शक्ति है। (समुदाय शक्ति से अर्थ बोध कराने वाली शक्ति को रूढि शक्ति कहते है। लक्षणा का भी साङ्गोपाङ्ग निरूपण महाभाष्यकार ने ‘पुंयोगादाख्यायाम्’ ४/१/४८) सूत्र पर कहा है ‘चतुर्भिश्च प्रकारैरतस्मिन् स इत्येतद्भवति’ “तात्स्थ्यात् ताद्धात्, तत्सामीप्यात्, तत्साहचर्यात् ।” यह लक्षणावृत्ति का स्वरूप तथा कारण है। वैयाकरण इसे अप्रसिद्धा शक्ति कहते हैं। व्यञ्जना एवं ध्वनि सिद्धान्त का मूल व्याकरण शास्त्र है ही अतः इन्हें सम्मान देते हुवे ‘आनन्दवर्धन’ कहते हैं “प्रथमे हि विद्वांसो वैयाकरणाः”। (ध्व.लो.प्र.उ.) मम्मट कहते है “बुधैः वैयाकरणै” (का.प्र.प्र.उ.) भामह ने ‘श्रद्धेयं जगति मतं हि पाणिनीयम्’ (का.लं. ६/६३) इस सूक्ति के द्वारा पाणिनीय की प्रशंसा करते हुवे व्याकरण को सभी विद्या का आधार माना है। वामन ने भी पञ्चमाधिकरण (का.लं.सू.वृ.) का निरूपण व्याकरण सिद्धान्त के आधार पर ही किया है। दोष निरूपण भी व्याकरण शास्त्र मूलक है इसे ‘महिमभट्ट के टीकाकार रुय्यक ने स्फुट किया है। (व्य.वि.द्वि.वि. टीका पृ. १८०) “दास्याःपुत्र इत्यादौ-आक्रोशे षष्ठया अलुकं प्रतिपादयता सूत्रकृता विधेया विमर्शः सूचित एव……………………वाच्यावचनमपिद्योतितमेव” । गुण भी असमास, अल्पसमास, दीर्घसमास से व्यक्त होता है, तथा वर्णो की कोमलता कठोरता द्वारा व्यक्त होता है। अलङ्कारों में उपमा, रूपक, अनन्वय में भेद घटित सादृश्य तथा भेदाघटितसादृश्य का मूल व्याकरण ही है। नञिवयुक्तमन्यसदृशाधिकरणे…(परिभाषा) में अन्यसदृश ग्रहण ही प्रमाण है कि सादृश्य भेद घटित तथा भेदाघटित होता है। यदि सादृश्य भेद घटित ही होता अर्थात स्व का सादृश्य स्वभिन्न में ही होता तो अन्य ग्रहण व्यर्थ हो जाता, वही ज्ञापित करता है। कि स्व का सदृश्य स्व में भी होता हैं अन्यथा “भूवादयोधातवः” सूत्र का अर्थ भूप्रभृतयो वा सदृशाः” किया गया है तो यदि ‘वा’ का सादृश्य ‘वा’ से भिन्न में ही होता तो “वा गतिगन्धनयोः” की (‘वा’ की) धातु संज्ञा नहीं होती, अतः ‘वा’ का सादृश्य ‘वा’ ३८४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र में भी माना गया है। यह सादृश्य मीमांसकामिमत है। नैयायिक तो ‘तद्मिन्नत्वे सति’ कह कर ‘स्व’ का सादृश्य स्वभिन्न में ही मानते हैं। उनका भेद घटित सादृश्य हैं इसी प्रकार उपमा का तद्धितगा, समासगा, वाक्यगा आदि भेद तथा लुप्तोपमा का समग्र भेद व्याकरण शास्त्र मूलक ही है। इस प्रकार असम, श्लेष, यथासंख्य, परिसंख्या आदि किं बहुना सभी अलङ्कार व्याकरण मीमांसा तथा न्याय शास्त्रादिमूलक हैं। शाब्दबोध निरूपण में सिद्धान्त इन्हीं शास्त्रों का लिया गया हैं उसमें बाहुल्य व्याकरण का ही है, नैयायिक भी व्याकरण का ही आधार लेकर ‘धात्वर्थ कृति’ तिर्थ आश्रय मानकर (कृत्याश्रय) प्रथमान्तार्थ मुख्य विशेष्यक शाब्दबोध अपने सिद्धान्तानुसार माने हैं। रस निरूपण का भी मूल श्रुति है, ‘रसो वै सः’ रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति। _ ‘रसनिष्पत्ति प्रकार निरूपण में व्यञ्जना वृत्ति की महत्ता है। वह स्फोटायन के स्फोट सिद्धान्त से ही सिद्ध है। यद्यपि इसकी व्याख्या मीमांसक, न्याय, सांख्य सिद्धान्तों के अनुसार भी की गयी है, परन्तु मान्य भरत तथा आनन्द वर्धन एवम् अभिनवगुप्तपादाचार्य की व्याख्या ही है।
उपसंहार
इस प्रकार सिद्ध है कि काव्य शास्त्रीय सिद्धान्त का केवल बीज ही वेद में नही हैं वहीं अङ्कुरित भी हुआ है, शास्त्रों में द्विपत्रित पुराणों में पल्लवित, इतिहास (महाभारत, रामायणादि) में नाल काण्ड, शाखा, प्रशाखा समन्वित (विकसित) नाट्यशास्त्र में पुष्पित होकर वही पृथक् अलङ्कार शास्त्र या काव्य शास्त्र रूप में फलित हुआ है। यह सिद्धान्त दो दृष्टियों से निरूपित है, स्वरूप दृष्टि से तथा आत्मदृष्टि से। स्वरूप दृष्टि से प्रयोजन कारण, काव्यलक्षण, काव्यभेद, (ध्वनिभेद, गुणी भूतव्यङ्ग्यभेद, चित्रभेद) शब्द तथा अर्थ का स्वरूप, वृत्ति (अमिधा, लक्षणा, व्यञ्जना, तात्पर्य) दोष, गुण, रीति, वृत्ति, अलङ्कार ये सब सिद्धान्त है। __आत्म दृष्टि से रससम्प्रदाय, अलङ्कार सम्प्रदाय, गुण या रीति सम्प्रदाय, ध्वनिसम्प्रदाय, वक्रोक्ति सिद्धान्त, औचित्य सिद्धान्त ये छः है।
अलङ्कार (साहित्य) शास्त्र के सम्प्रदाय
काव्य शास्त्र में सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव काव्यात्मविवेचन से प्रारम्भ हुआ। काव्य का सारभूततत्त्व आचार्यों की दृष्टि भेद से भिन्न-भिन्न है। सर्वप्रथम रस को निरतिशय चमत्कारी होने के कारण काव्यात्मा माना गया। अनन्तर नीरस काव्यों में भी (जहाँ स्फुट रसानुभूति नहीं होती) अलङ्कार के द्वारा चमत्कार का अनुभव कर अलङ्कार को ही काव्यात्म पद पर अभिषिक्त कर रस को भी (रसादि अलकार मानकर) अलङ्कारों में अन्तर्भूत कर लिया गया और अलङ्कार सम्प्रदाय चल पड़ा। आगे चलकर आचार्यों ने अलङ्कार को बाह्यवस्तु मानकर गुण को अन्तरङ्ग स्वीकार कर गुण विशिष्ट पद संघटना (रीति) को काव्यात्मा स्वीकार किया। परन्तु यह रीति भी ‘अवयव संस्थान’ है। काव्य
काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ३८५ निर्माण के लिये पदविन्यास (पदों का जोड़ना) मात्र है यह आत्मा कैसे ? गुण भी काव्य की शोभा को निष्पन्न करते हैं उन्हें स्वयं वामन ने शब्दार्थ धर्म माना है। “काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः” (का.लं.सू.१.३/१/१) यह गुण का लक्षण है। इसी सूत्र की वृत्ति में गुणों को शब्दार्थ धर्म कहे हैं। “ये खलु शब्दार्थयोधर्माः काव्यशोभां कुर्वन्ति ते गुणाः।” __ और इस शोभा को उत्कृष्ट बनाते है, अलकार। ऐसीस्थिति में यह भी आत्मा नहीं हो सकता। साथ ही रस पर भी विचार हुआ, यह रस वाच्य तो है नहीं परन्तु काव्य से अनुभूत होता है तो रस का काव्य के साथ सम्बन्ध क्या है ? रस की यह अनुभूति भी सहृदयों के हृदय में होती है तो घट प्रदीप न्याय से काव्य और रस का व्यङ्ग्य व्यञ्जक भाव सम्बन्ध सिद्ध हुआ। और व्यङ्ग्य व्यञ्जक भाव में ध्वनि शब्द का प्रयोग वैयाकरणों ने किया है। अतः इसका भी नाम ‘ध्वनि’ रखा गया, और इसे काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। यह ध्वनि व्यापक है। वस्तु अलङ्कार और रस रूप है। इसमें अलङ्कार भी समाहित हो गया वाच्यालङ्कार को काव्य का शरीर और व्यङ्ग्य को काव्यात्मा माना गया। रस तो व्यङ्ग्य (ध्वनि) है ही वामन का सौन्दर्य और शोभा भी रसध्वनि में समाहित हो गया, गुण उसके व्यञ्जक हैं, धर्म हैं वस्तुध्वनि अलकार ध्वनि का भी पर्यावसान रस ध्वनि में ही होता है, अतः ध्वनि सम्प्रदाय का भी अन्तिम निष्कर्ष रसध्वनि ही है। । परन्तु ध्वनि सम्प्रदाय में रसादिरूप व्यङ्ग्य की अभिव्यक्ति के लिये व्यञ्जना वृत्ति माननी पड़ी। जो न तो मीमांसा में, न न्याय शास्त्र में ही (शब्दवृत्ति रूप में) मानी गई है अतः कुन्तक ने विचित्र अभिधा नाम देकर इसे वक्रोक्ति मानी, तथा इसी विचित्रभङ्गी भणिति को काव्य का जीवन कहा। इन्हों ने रस, वस्तु, अलङ्कार को इसी में समाहित किया। आगे चलकर क्षेमेन्द्र ने देखा कि रस तथा अलङ्कार और गुण आदि सभी काव्यतत्त्व औचित्य पर आश्रित हैं, औचित्य के विना रस रस नहीं है, गुण गुण नहीं, अलङ्कार अलङ्कार नहीं है, अनौचित्य महान दोष है, जो काव्यत्व का विघटक है, अतः औचित्य ही काव्य का स्थिर जीवन है। इस प्रकार काव्यात्मा के निर्धारण में छः सिद्धान्त स्थापित हुए। __ अलङ्कार सर्वस्व के टीकाकार ‘समुद्र बन्ध’ ने इनका बहुत ही युक्ति सङ्गत निर्देश किया है। जो प्रसिद्ध है। इनका कथन है कि ‘विशिष्ट शब्द और अर्थ काव्य है। शब्द और अर्थ की विशिष्टता तीन प्रकार से मानी जा सकती है। धर्म से व्यापार से व्यङ्ग्य से। धर्ममूलक वैशिष्टय दो प्रकार का है १. अलङ्कार से जन्य, २. गुण से जन्य। व्यापार मूलक वैशिष्टय भी भणिति वैचित्र्य (वक्रोक्ति) तथा भोजकत्व भेद से दो प्रकार का है। इस प्रकार5055 NER ३८६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र पाँच पक्ष हुए। इनमें प्रथम पक्ष अलङ्कार को भामह, उद्भट तथा रुद्रट आदि ने स्वीकार किया है। द्वितीय पक्ष गुण को या गुण विशिष्ट रीति को दण्डी ने उद्भावित किया वामन ने स्फुट निरूपित कर स्थापित किया। तृतीय पक्ष वक्रोक्ति को कुन्तक ने स्थापित किया है। चतुर्थपक्ष भोजकत्व को भट्टनायक ने स्वीकार किया है। पञ्चमपक्ष व्यङ्ग्य मुख से वैशिष्टय मानने वाले आचार्य आनन्दवर्धन हैं जिन्होंने ध्वनि सिद्धान्त की स्थापना की। “इह विशिष्टौ शब्दार्थों काव्यम् । तयोश्च वैशिष्ट्यं धर्ममुखेन, व्यापारमुखेन, व्यङ्ग्यमुखेन वेतित्रयः पक्षाः। आद्येऽप्यलङ्कारतो गुणतो वेतिद्वैविध्यम्। द्वितीयेऽपि भणितिवैचित्र्येण, भोगकृत्वेन, वेतिद्वैविध्यम्-इति पञ्चसु पक्षेष्वाद्य उद्भटादिभिरङ्गीकृतः द्वितीयो वामनेन, तृतीयो वक्रोक्तिजीवितकारेण चतुर्थो भट्टनायकेन, पञ्चम-आनन्दवर्धनेन” । इसमें औचित्य का निर्देश नहीं है, क्यों कि वह परवर्ती है, तथा विवेचन करने पर वह वस्तुतः रस का उपनिषद् है, अतः रस सिद्धान्त में ही अन्तर्भूत है। रस का भी निर्देश नहीं है वह बहुत पहले से सिद्ध था भरतमुनि द्वारा उसकी निष्पत्ति निर्दिष्ट हो चुकी थी, वह नाट्य तथा काव्य का आत्म भूत तत्त्व सिद्ध हो चुका था, वह न धर्म था न व्यापार ही था, वह धर्मी तथा व्यञ्जनाव्यापार से निष्पन्न था। व्यङ्ग्य मुख से आनन्दवर्धन ने उसका प्रतिपादन किया है उसी में समाहित हैं इस प्रकार छः सिद्धान्त सिद्ध हुए, इन में जिस सिद्धान्त की परम्परा चली, परवर्ती आचार्यों ने भी जिसका निरूपण किया, सम्मान किया उन सिद्धान्तों का सम्प्रदाय चल पड़ा। जिसे परवर्ती आचार्यों ने पृथक स्वीकार नहीं किया अतः उसकी परम्परा नहीं चली, वे उद्भावन कर्ता का सिद्धान्त बन कर रह गये। १. जैसे रस सम्प्रदाय भरतमुनि से पूर्व भी निर्धारित था, इसका निर्देश ग्रन्थों में उपलब्ध है। भरतमुनि ने उसकी विशिष्ट व्याख्या तथा निष्पत्ति की प्रक्रिया आदि निरूपित कर स्थापित की, वह आज तक मान्य है, अतः रस सम्प्रदाय है इस सिद्धान्त का निरूपण पृथक लेख में किया गया है। अलङ्कार सिद्धान्त का सम्प्रदाय है। क्योंकि इसका उद्भावन तो वेद में भी है। भरत-भामह दण्डी, उद्भट आदि सभी आलङ्कारिकों ने इसका निरूपण किया है उद्भट ने काव्य का सारतत्त्व अलङ्कार को माना है, यहाँ तक कि गुण और अलङ्कार में भेद ही नहीं माना है। रुद्रट ने यद्यपि रस की भी महत्ता गाई है वे कहते हैं “एते रसा रसवतो रमयन्ति पुंसः सम्यग् विभज्य रचिताश्चतुरेण चारु। यस्मादिमाननधिगम्य न सर्वरम्यं काव्यं विधातुमलमत्र तदाद्रियेत।।” (काव्यालं. १५/२१)
४. काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ३८७ अर्थात् ये रस ही सुन्दर ढंग से काव्य में निबद्ध हो कर रसिकों को आनन्दित करते है विना रस ज्ञान के कवि रमणीय काव्य बनाने में समर्थ ही नहीं हो सकता। तो भी ये काव्य का सार अलङ्कार को ही माने हैं। “सारं समाहितमनाः परमाददानः कुर्वीत काव्यमविनाशि यशोऽधिगन्तुम्” (का.लं.११/३६) __ “परं सारं की व्याख्या नभिसाधु ने परमुत्कृष्टं सारमलङ्कारानाददानः” किया है, अतः ये अलङ्कार को उत्कृष्ट सार (तत्त्व) मानते हैं। अपने ग्रन्थ का नाम भी ‘काव्यालङ्कार रखे है, ये भी अलङ्कार सम्प्रदाय के ही आचार्य माने जाते हैं अलकार सम्प्रदाय का निरूपण आगे किया जायेगा। • ३. ध्वनि सिद्धान्त का सम्प्रदाय हैं पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित था, आनन्दवर्धन ने इसको प्रतिष्ठित किया, परवर्ती अभिनव गुप्त, मम्मट, विश्वनाथ विद्यानाथ, जगन्नाथ आदि सभी आचार्यों ने इसका अनुसरण, प्रतिपादन किया है। अतः सम्प्रदाय है। इस सिद्धान्त का निरूपण पृथक लेख में किया गया है। गुण या रीति सिद्धान्त का सम्प्रदाय है, दण्डी ने उद्भावन किया है, वामन ने गुण और अलङ्कारों का भेद वताते हुए गुण को नित्य धर्म माना और इसे आत्मरूप में निरूपित किया, यह गुण अलङ्कारों का भेद तो परवर्ती सभी आचार्य माने, परन्तु गुण को आत्मा न मानकर, आत्मभूत रस का धर्म आनन्दवर्धन प्रभृति ने माना है। रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वामन है और इन्होंने स्फुट कहा है ‘रीतिरात्माकाव्यस्य’ (का.ल.सू.वृ.१/२/६)। काव्य की आत्मा रीति हैं और रीति है विशिष्ट पद रचना। ‘विशिष्ट पदरचना रीतिः’ (वही १/२/७) इसमें विशेष गुण हैं। यह रीति ३ प्रकार की है। १. वैदर्भी, २. गौडीय, ३. पाञ्चाली। १. वैदर्भी समग्र गुणा है। २. गौडीय रीति ओजोगुण और कान्तिगुण से युक्त है। ३. पाञ्चाली माधुर्य और सौकुमार्य गुणों से युक्त हैं इनमें वैदर्भी ग्राह्य है क्यों कि इसमें सारे गुण हैं। ‘विशेषो गुणात्मा’ ‘सात्रेधा वैदर्भी गौडीया पाञ्चालीचेति’ ‘समग्रगुणा वैदर्भी’ ‘ओजः कान्तिमती गौडीया’ ‘माधुर्यसौकुमार्योपपन्ना पाञ्चाली’ ‘तासां पूर्वाग्राह्या गुणसाकल्यात्’ (का.ल.सू.वृ. १/२/८-१४) इसके पूर्व दण्डी ने रीति को मार्गशब्द से कहा है गौडी वैदर्भी का स्फुट भेद निरूपण किया है। वैदर्भी में दशों गुण रहते है, गौडी में इन गुणों का विपर्यय रहता है। (देखिये काव्यादर्श १४०-४२) __ ये गुण भरत द्वारा भी प्रतिपादित हैं। उनके नाम हैं “श्लेषः प्रसादः समताः माधुर्यं सुकुमारता। अर्थव्यक्तिरुदारत्वमोजःकान्तिसमाधयः।।” (का.द.१/४१) वामन ने इन दशों को शब्द गुण और देशों को अर्थ गुण माना है, नाम वही है लक्षण भिन्न-भिन्न है। भामह, आनन्दवर्धन, मम्मट, विश्वनाथ ने ओजः प्रसाद, माधुर्य (तीन ही) गुण माने हैं ये रीतियाँ गुणाश्रित हैं, अतः रीति सम्प्रदाय को गुण सम्प्रदाय नाम से भी कहा ३८६ SEAR J ARATES अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र जाता है। वामन ने रस को कान्ति गुण में अन्तर्भूत किया है। ‘दीप्तरसत्वं कान्तिः’ (का. ल.सू. वृ. ३/२/१५) विश्वनाथ ने चार प्रकार की रीति मानी है, वैदर्भी चाथ गौडी च पाञ्चाली लाटिका तथा (सा.द.६/१-२) राजशेखर ने वचनविन्यास क्रम को रीति कहा है। भोजराज ने रीङ्गतौ धातु से क्तिन् प्रत्यय करण में करके रीति का अर्थ मार्ग किया है, वह छ’ प्रकार की है। वैदर्भी, पाञ्चाली, गौडी, अवन्तिका, लाटी, मागधी । (सरस्वती क. म. २/२७-२८) ये २४ शब्दगुण और २४ अर्थगुण मानते हैं। (सं.क.भ.१/६०-६५ तथा १/७७-७८) इन्होंने गुण और अलङ्कार योगों में गुणयोग को श्रेष्ठ माना है। (वहीं) आनन्दवर्धन ने गुण से अनतिरिक्तवृत्ति रीति को माना है। (ध्व.लो.अभावाद) मम्मट ने रीतियों को वृत्ति रूप ही माना है। __केषाञ्चिदेता वैदर्भी प्रमुखा रीतयो मताः” (का. प्र.६/११० सू.) इन्होंने वामनोक्त १० शब्दगुणों का तथा १० अर्थ गुणों का अपने द्वारा प्रतिपादित ‘ओजः प्रसाद माधुर्य’ इन तीन गुणों में अन्तर्भाव किया है। गुणों को रस धर्म माना है। ‘ये रसस्याङ्गिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः (का. प्र. ८६६) अन्तर्भाव ‘केचिदन्तर्भवन्त्येषु दोषत्यागात्परे श्रिताः। अन्ये भजन्ति दोषत्वं कुत्रचिन्न ततो दश।।’ ‘तेन नार्थ गुणा वाच्याः प्रोक्ताः शब्द गुणाश्च ये। (का. प्र०८/६५-६६ सू.) इस प्रकार सिद्ध है कि रीति मार्ग है, काव्य का अवयव संस्थान है, आत्मा नहीं है। और गुण रस के धर्म हैं। ५. ‘वक्रोक्ति’ सिद्धान्त है, क्यों कि इसे परवर्ती आचार्यों ने काव्य का जीवन नहीं माना है। वक्रोक्ति का उद्भावन आचार्य भामह ने किया है, परन्तु वे वक्रोक्ति को सभी अलङ्कारों का मूल माने हैं। न कि काव्य का जीवन। “सैषा सर्वैव वक्रोक्ति-रनयार्थो विभाव्यते। यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलङ्कारोऽनया विना।। (का.ल.२/८५) भामह ने पुनः कहा कि वाणी की शोभा तो वक्र अर्थ और शब्द का कथन ही है। ‘वाचां वक्रार्थशब्दोक्तिरलकाराय कल्पते। (का.ल. ५/६६) भामह ने लेश तथा हेतु और सूक्ष्म को अलङ्कार न मानने का कारण इनमें वक्रोक्ति का अभाव ही माना है। “हेतुश्च सूक्ष्मो लेशोऽथ नालङ्कारतयामतः। समुदायाभिधानस्य वक्रोत्यनभिधानतः।। (का. लं.२/८६ काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ૩૬ अन्यत्र भी भामह ने ‘वक्रामिधेयशब्दोक्ति रिष्टा वाचामलकृतिः’ (का. ल. १/३६) कहा है दण्डी ने वाङ्मय को दो भागों में विभक्त माना है। १. स्वभावोक्ति, २. वक्रोक्ति। “भिन्नं द्विधा स्वभावोक्ति र्वक्रोक्तिश्चेति वाङ्मयम्।” (का.द.२/३६३)। इस प्रकार अलङ्कार सम्प्रदाय मे काव्य का सार अलकार माना गया है, और उन अलङ्कारों का मूल वक्रोक्ति को प्रधान मानकार कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य जीवित घोषित किया। (‘वक्रोक्तिःकाव्य जीवितम्’ वक्रोक्ति जीवित ग्रन्थ बनाकर) “उभावतावलंङ्कार्यों तयोः पुनरलंकृतिः। वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभङगीभणितिरुच्यते।।” (व.जी.१/१०) शब्द और अर्थ दोनों अलङ्कार्य हैं। इन दोनों का एक ही अलङ्कार है ‘वक्रोक्ति’। प्रसिद्ध कथन से भिन्न विचित्र कथन ही ‘वक्रोक्ति है। जिसे “वैदग्ध्यभङ्गीभणिति” कहते हैं। यह विचित्र अभिधा है। इस वक्रोक्ति में कुन्तक ने काव्य के सभी तत्त्वों गुणों, अलङ्कारों, रसादि, रीति आदि को समाहित कर लिया है, किंबहुना ध्वनि भेदों को भी समेट लिया है। (उपचार वक्रता में)। कवि व्यापार वक्रता के छः प्रकार मुख्य रूप से इन्होंने माना है। १. वर्णविन्यास वक्रता, २. पद पूर्वार्धवक्रता। ३. प्रत्ययाश्रय वक्रता, ४. वाक्यवक्रता, ५. प्रकरण वक्रता, ६. प्रबन्धवक्रता। इन सभी वक्रता का सामान्य विश्लेषण प्रथम उन्मेष में है। विशेष विश्लेषण द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ उन्मेष में किया गया है। __ इन्होंने तीन मार्ग १. सुकुमार २. विचित्र, ३. मध्यम का निरूपण किया है। सुकुमार मार्ग में रस, भाव की प्रधानता, विचित्र मार्ग में अलङ्कारों की मुख्यता मध्यम मार्ग में वैचित्र्य और सौकुमार्य मार्ग की सङ्कीर्णता रहती है प्रत्येक मार्ग के माधुर्य, प्रसाद, लावण्य आभिजात्य ये चार गुण हैं। इन्होंने औचित्य, सौभाग्य, दो गुणों को सामान्य गुण माना है, ये तीनों मार्गों में रहते है। __इन्होंने कवि के स्वभाव के आधार पर मार्ग का विभाजन किया है। देश के आधार पर रीतियों के विभाजन का खण्डन किया है। औचित्य सिद्धान्त का प्रतिपादन पृथक लेख में किया गया है। L. - .. :..:.:.-.—.-.. ..- . . ३६० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
अलङ्कार सम्प्रदाय
अलङ्कारों का मूल तो वेद में उपलब्ध ही है कतिपय अलङ्कारों का सुन्दर प्रयोग भी वेद में मिलता है। उषा के वर्णन में एक ही मन्त्र में चार उपमा दी गयी है “अभ्रातेव पुंसि एति प्रतीची गारुगिव सनये धनानाम्। जायेव पत्य उशती सुवासा उषा हस्नेव निरणीते अप्स।।” (ऋ. वे.१/१२४/७) परन्तु उपमा आदि का शास्त्रीय विवेचन सर्व प्रथम अग्नि पुराण तथा विष्णुधर्मोत्तर में तथा भरत के नाट्य शास्त्र में उपलब्ध होता है। यह नाट्यशास्त्र केवल नाट्य विषयक ही नहीं काव्य विषयक भी आदि ग्रन्थ है। दूसरे जो ग्रन्थ काव्य मीमांसा में नाम्नानिर्दिष्ट हैं वे उपलब्ध नहीं है। इसमें छन्द रस गुण दोष अलङ्कार रीति वृत्ति सभी काव्यतत्त्व भी समाविष्ट है। अतः यह नाट्य के साथ-साथ काव्यशास्त्र का भी ग्रन्थ है, अलङ्कार रस आदि का इदं प्रथमतया विवेचन का श्रेय भरत को ही प्राप्त है। भरत ने अलङ्कारों का भी निरूपण किया है उनमें एक शब्दालङ्कार है तीन अर्थालङ्कार हैं “उपमारूपकं चैव दीपकं यमकं तथा। अलङ्कारास्तु विज्ञेयाश्चत्वारो नाटकाश्रयाः।। (ना.शा.१६/४०) यहाँ ‘नाटकाश्रयाः पद देख कर ये श्रव्य काव्य के अलङ्कार नहीं हैं, ऐसा भ्रम नहीं करना चाहिये, क्योंकि इन्होंने उपमा का लक्षण करते हुये लिखा है “यत् किञ्चित् काव्यबन्धेषु सादृश्येनोपमीयते। उपमा नाम सा ज्ञेया गुणाकृतिसमाश्रया।।” (ना.शा.१६/४१) यहाँ ‘काव्यबन्धेषु’ शब्द का प्रयोग इन अलङ्कारों को काव्य का ही अलङ्कार सिद्ध करता है। इनके बाद कई शताब्दियों तक अलङ्कार शास्त्र का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता, परन्तु कुछ का नाम निर्देश मिलता है। जैसे भामह ने ‘मेधावी’ का नाम निर्देश किया है कि वे सात उपमादोंषो का निरूपण किए हैं। ‘त एते उपमा दोषाः सप्त मेधाविनोदिताः।’ (का.ल. २/४०) भामह के पूर्व किसी अन्य आचार्य ने पाँच अलङ्कारों का वर्णन किया है, उसमें चार तो नाट्यशास्त्रोक्त ही है एक अनुप्रास अधिक है। इससे शब्दालकार की संख्या दो हो गई है। . .. .. ..
… ३६१ DANDAMANARS काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘अलङ्कार’ “अनुप्रासः सयमको रूपकं दीपकोपमे। इति वाचामलङ्काराः पञ्चैवान्यैरुदाहृताः।। (का.ल. २/४) अनन्तर भामह का प्रादुर्भाव हुआ, वे अलङ्कार शास्त्र के प्रथम आचार्य माने जाते है। (ग्रन्थों के उपलब्धि के आधार पर)। यद्यपि भामह नाट्यशास्त्र से अवगत थे रस की प्रधानता भी उन्हें ज्ञात थी, रूपकों को काव्य का भेद भी इन्होंने माना है। “सर्गबन्धोऽभिनेयार्थ तथैवाख्यायिकाकथे। अनिबद्धं च काव्यादि तत्पुनः पन्चथोच्यते।। (का.लं.१/१८) परन्तु रूपकों का प्रतिपादन नाट्यशास्त्र में हो ही चुका था, इनका प्रतिपाद्य केवल श्रव्य काव्य था, इन्होंने स्वयं कहा है ‘नाटकं द्विपदीशम्या, रासकं स्कन्धकादियत्। उक्तं तदभिनेयार्थमुक्तोऽन्यैस्तस्य विस्तरः।। (का.लं. १/२४) इन्हें रस की महत्ता भी ज्ञात थी। महाकाव्य में इन्होंने सारे रसों का निष्पादन (रसों का युक्त होना) आवश्यक माना है। ‘रसैश्च सकलैः पृथक्’ (का.लं.१/२१) तो भी इन्हान रस को ही काव्य का जीवनाधायक नहीं माना। कारण कि इनके सामने गद्य-पद्य बन्ध, महाकाव्य थे उनके अध्ययन से इन्हें ज्ञात हुआ कि अलङ्कार का विन्यास भी बहुलता स कवियों ने किया है। उन अलङ्कारों से काव्य में चमत्कार भी अनुभूत होता है अतः इन्होंने श्रव्य काव्यों में “न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिताननम” (कालं १/१३) अलङ्कार को ही शोभाध्यायक माना, और अलङ्कार की विस्तृत व्याख्या कर रस को भी अलङ्कार में अन्तर्भूत कर लिया। अपने ग्रन्थ का नाम इन्होंने काव्यालङ्कार रखा और अलङ्कारों का विस्तृत विवेचन किया। इन्होंने सभी अलङ्कारों का मूल वक्रोक्ति को माना है। अतिशयोक्ति ही भामह की वक्रोक्ति है। वक्रोक्ति के अभाव में भामह अलङ्कार नहीं मानते, जैसे लेश सूक्ष्म हेतु आदि वक्रोक्ति के अभाव में अलङ्कार नहीं है। दण्डी ने भी अलङ्कारों को वक्रोक्ति ही माना है। “श्लेषः सर्वासु पुष्णाति प्रायो वक्रोक्तिषु श्रियम्। भिन्ना द्विद्या समासोक्ति र्वक्रोक्तिश्चेति वाङ्मयम् ।। (का.द. २/३६३) आनन्दवर्धन ने भी कहा है। ‘प्रथमं तावदतिशयोक्तियोगिता सर्वालङ्कारेषु शक्य क्रिया’ (ध्व. लो. पृ. २५६) मम्मट भी कहते हैं-‘सर्वत्र एवं विधविषयेऽतिशयोक्तिरेव प्राणत्वेनावतिष्ठते’। (का.प्र.७४३) इस प्रवन आचार्यों ने भामह की उक्ति का समादर किया है। यद्यपि इन उक्तियों से सिद्ध है। है कि भामह वक्रोक्तिवादी हैं, तथापि वह वक्रोक्ति अलङ्काराधायक तत्त्व है अतः अलङ्कार वादी हैं। '
"” " " " ३६२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र इनके द्वारा निरूपित अलङ्कार-इनके द्वारा निरूपित दो शब्दालड्कार १ अनुप्रास, २ यमक। और अर्थालंकार ३६ हैं। १. रूपक, २. दीपक, ३. उपमा, ४. आक्षेप, ५. अर्थान्तरन्यास, ६. व्यतिरेक, ७. विभावना, ८. समासोक्ति, ६. अतिशयोक्ति, १०. यथासंख्य, ११. उत्प्रेक्षा, १२. स्वभावोक्ति १३. प्रेयस्, १४. रसवत्, १५. उर्जस्वि, १६. पर्यायोक्त, १७. समाहित, १८. उदात्त, १६. श्लिष्ट, २०. अपहृति, २१. विशेषोक्ति, २२. विरोध, २३. तुल्ययोगिता, २४. अप्रस्तुत-प्रशंसा, २५.व्याजस्तुति, २६. निदर्शना, २७. उपमारूपक, २८. उपमेयोपमा, २६. सहोक्ति, ३०. परिवृत्ति, ३१. ससन्देह, ३२. अनन्वय, ३३. उत्प्रेक्षावयव, ३४. संसृष्टि, ३५. भाविकत्व, ३६. आशीः। - इन्होंने हेतु सूक्षमलेश को अलङ्कार नहीं माना, ‘गतोऽस्तमर्कः’ इत्यादि को वार्ता कहा है। इससे सिद्ध है कि इन्हें अलङ्कार मानने वाला कोई ग्रन्थ था, दूसरा नहीं है तो भट्टि काव्य है ही। नहीं तो उसके खण्डन की आवश्यकता नहीं पड़ती। मम्मट भी हेतु को अलङ्कार नहीं मानते। इस प्रकार नाट्य शास्त्र के कुक्षि से निकालकर इन्होंने अलङ्कारों को व्यवस्थित किया अतः इनका ग्रन्थ अलङ्कार शास्त्र के नाम से अभिहित हुआ। नये अलङ्कारों के उद्भावन में ही इनकी इति कर्तव्यता थी, अतः इनके ग्रन्थों का नाम भी काव्यालङ्कार हुआ। काव्यात्म विषय में आचार्यों में मतभेद था, तो भी अलङ्कारों का नया नया उद्भावन करने में सब की प्रवृत्ति रही, गौण या मुख्य रूप में सभी ने अलङ्कारों का विवेचन किया है। दण्डी दण्डी ने कहा है, कि आज भी अलङ्कारों की नई-नई उद्भावना हो रही है, उनका समग्र रूप से वर्णन कौन कर सकता है, या करेगा। (मेधावी पुरुषों की कल्पना का अन्त नहीं है) किन्तु इस विकल्प का बीज पूर्वाचार्यों द्वारा निर्दिष्ट है, उन्हीं का संस्कार करने के लिये यह हमारा श्रम है। इनके इस उक्ति का समादर आनन्दवर्धन ने भी की है, “सहस्रशो हि महात्मभिरन्यैरलकारप्रकाराः प्रकाशिताः प्रकाश्यन्ते च” (ध्व.लो.अभाववाद प्र.उ.)। इन्होंने अनुप्रास, यमक, चित्र, प्रहेलिका ४ शब्दालङ्कारों का निरूपण किया है। अलङ्कार का इन्होंने लक्षण किया है काव्य की शोभा-सम्पादक धर्मों को अलङ्कार कहते हैं। इन्होंने काव्य में शोभाधायक सभी तत्त्वों को गुण-रस आदि को तो अलङ्कार शब्द से कहा ही, नाट्यशास्त्र में वर्णित सन्धि ‘सन्ध्यङ्ग’ वृत्ति-वृत्त्यङ्ग, लक्षण आदि को भी अलङ्कार ही माना है। . wami काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘अलङ्कार’ “काव्यशोभाकरान् धर्मानलङ्कारान् प्रचक्षते। ते चाद्यापि विकल्प्यन्ते कस्तान कात्स्न्येन वक्ष्यति।। किन्तु वीजं विकल्पानां पूर्वाचार्यैः प्रदर्शितम्। तदेव प्रति संस्कर्तुमयमस्मत् परिश्रमः।। (काव्यादर्श २/१-२) पुनः कहते हैं “यच्च सन्थ्यङ्ग वृत्त्यङ्ग लक्षणाद्यागमान्तरे। व्यावर्णितमिदं चेष्टमलङ्कारतयैव नः।।” (का.द.२/३६७) दण्डी ने भी भामह की वक्रोक्ति का समादर किया, अलङ्कारों को वक्रोक्ति ही मानते है। स्वभावोक्ति को “हृदयंगमा” टीका में आदि अलङ्कार कहा गया है। ‘स्वभावोक्तिराद्यालंकारः’। वक्रोक्तिशब्देन उपमादयः सङ्कीर्णपर्यन्ता अलङ्कारा उच्यन्ते। (का. द. २/३६३ की टीका) इन्होंने जिन ३५ अलङ्कारों का निरूपण किया है उन्हें पूर्वाचार्यों के द्वारा निरूपित माना है। (दर्शिताः पूर्व सुरिभिः) वे है १. स्वभावोक्ति, २. उपमा, ३. रूपक, ४. दीपक, ५. आवृत्तिदीपक, ६. आक्षेप, ७. अर्थान्तरन्यास, ८. व्यतिरेक, ६. विभावना, १०. समासोक्ति, ११. अतिशयोक्ति, १२. उत्प्रेक्षा, १३. हेतु, १४. सूक्ष्म, १५. लेश, १६. यथासंख्य, १७. प्रेय, १८. रसवत्, १६. उर्जस्वि, २०.पर्यायोक्त, २१. समाधि, २२. उदात्त, २३. अपह्नुति, २४. श्लेष, २५. विशेष, २६. तुल्ययोगिता, २७. विरोध, २८. अप्रस्तुतप्रशंसा, २६. व्याजस्तुति, ३०. निदर्शना, ३१. सहोक्ति, ३२. परिवृत्ति, ३३. आशीः, ३४. संसृष्टि, ३५. भाविक। ये अर्थालङ्कार है। (का.दर्श. २/४-७) इन्होंने भामह द्वारा निराकृत हेतु, सूक्ष्म, लेश को भी अलङ्कार माना है। अनन्वय, उत्प्रेक्षावयव, उपमेयोपमा, उपमारूपक की भी गणना नहीं की। ‘आवृत्ति दीपक’ नया अलंकार माना है। परन्तु इनके तथा भामह के द्वारा स्वीकृत स्वभावोक्ति का कुन्तक ने खण्डन किया है। अलङ्कारकृतां येषां स्वभावोक्तिरलङ्कृतिः। अलङ्कार्यतया तेषां किमन्यदवतिष्ठते। शरीरं चेदलङ्कारः किमलङ्कुरुते परम्। आत्मैव नात्मनः स्कन्धं क्वचिदप्यधिरोहति।। (व.जी. १/११ और १३) उद्भट ने भी गुण और अलङ्कारों का भेद मानना, गड्डलिका प्रवाह कहा है इनका मत काव्यप्रकाश (अष्टम उल्लास) में उद्धृत हैं। इन्होंने ४१ अलङ्कार माना हैं। रूदट अलङ्कार सम्प्रदाय के चौथे आचार्य हैं। ये शब्द के पाँच अलङ्कार माने हैं, वक्रोक्ति, अनुप्रास, यमक, श्लेष तथा चित्र। इनमें श्लेष अर्थालङ्कार भी है उसका लक्षण भिन्न है। TITI ३६४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र AND “वक्रोक्तिरनुप्रासो यमकं श्लेषस्तथा परं चित्रम् । शब्दस्यालङ्काराः श्लेषोऽर्थस्यापि सोऽन्योऽस्तु।।” (का.लं. २/१३) और अर्थालंकार चार हैं (मूलतः) वे है। वास्तव, औपम्य, अतिशय, श्लेष। शेष अर्थालङ्कार इन्हीं के भेद हैं। “अर्थस्यालंकारा वास्तवमौपम्यमतिशयः श्लेषः। एषामेव विशेषा अन्ये भवन्ति निःशेषाः।।” (का.ल.७/६) इन्होंने वास्तव-मूलक २३ अलंङ्कारों का निरूपण किया है। १. सहोक्ति, २. समुच्चय, ३. जाति, ४. यथासंख्य, ५. भाव, ६. पर्याय, ७. विषम, ८. अनुमान, ६. दीपक, १०. परिकर, ११. परिवृत्ति, १२. परिसंख्या, १३. हेतु, १४. कारणमाला १५. व्यतिरेक, १६. अन्योन्य, १७. उत्तर, १८. सार, ६. सूक्ष्म, २०. लेश, २१, अवसर, २२, मीलित, २३, एकावली। (का.लं. ७/११-१२) औपम्य-मूलक २१ अलङ्कार है। १. उपमा, २. उत्प्रेक्षा, ३. रूपक, ४. अपहुति, ५. संशय, ६. समासोक्ति, ७. मत, ८. उत्तर, ६. अन्योक्ति, १०. प्रतीप, ११. अथान्तरन्यास, १२. उभयन्यास, १३. भ्रान्तिमान्, १४. आक्षेप, १५. प्रत्यनीक, १६. दृष्टान्त, १७, पूर्व, १८. सहोक्ति, १६. समुच्चय, २० साम्य, २१. स्मरण। (का.लं. ८/२-३) इन्होंने दण्डी आदि से स्वीकृत अनन्वय और उपमेयोपमा को पृथक् अलङ्कार नहीं माना है, उपमा के ही अन्तर्भूत किया है। पं. राजने भी प्रतीप और उपमेयोपमा को उपमा ही माना है। अतिशय के १२ भेद हैं। १. पूर्व, २. विशेष, ३. उत्प्रेक्षा, ४. विभावना, ५. अतद्गुण, ६. अधिक, ७. विरोध, ८. विषम, ६. असङ्गति, १०. पिहित, ११. व्याघात, १२. हेतु। (का.लं. ६/२) श्लेष के दस भेद हैं। १. अविशेष, २. विरोध, ३. अधिक, ४. वक्र, ५. व्याजोक्ति ६. असम्भव, ७.अवयव, ८. तत्त्व, ६. विरोधाभास, १०. सङ्कीर्ण (का.ल. १०/२) इस प्रकार रुद्रट ने ६६ अर्थालङ्कार माना है। अनन्तर चन्द्रालोककार जयदेव कहते हैं कि जो आचार्य अलङ्कार रहित शब्द और अर्थ को काव्य मानते हैं। वे अग्नि को उष्णता रहित क्यों नहीं मानते। (च.लो. १/८) इन्होंने “इत्थं शतमलङ्काराः” सौ अलकारों का निरूपण किया है। अप्पय दीक्षित के मत में १२५ अलङ्कार हैं। अलङ्कार सर्वस्व, अलङ्कार रत्नाकर, कुवलयानन्द प्रभृति में तो केवल अलङ्कारों का ही निरूपण है। __ समीक्षा-यद्यपि भामह ने वक्रोक्ति को सभी अलङ्कारों का मूल माना है, परवर्ति कतिपय आचार्यों ने कुछ अंश में समर्थन भी किया है। परन्तु वामन ने उसे” सादृश्याल्लक्षणा वक्रोक्तिः” (का.लं.सू.वृ. ४/३/८) कहकर एक अर्थालङ्कार मान लिया है। स्वयं रुद्रट ने शब्दालङ्कार माना है। मम्मटादि तो मानते ही हैं इसे शब्दालङ्कार। अलङ्कारों के लक्षण ३६५ MAALPrate
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mandarmer काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ‘अलङ्कार’ में भी संख्या में भी आचार्यों का मत भेद हैं पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित अलङ्कारों को परवर्ती आचार्यों ने यथावत् स्वीकार नहीं किया है। कुछ का खण्डन कर कुछ नवीन उद्भावन भी किये हैं। लक्षणों की ही समालोचना कर नवीन लक्षण भी बनाए है। अलङ्कार्य के विषय में भी मदभेद है। अलकार सम्प्रदाय वाले आचार्य शब्द और अर्थ को अलङ्कार्य रूप में निरूपित किये हैं कुन्तक ‘रसभाव’ को ही अलकार्य मानते हैं ध्वनिवादी आचार्य त्रिविध (वस्तु-अलङ्कार- रस रूप) ध्वनि को अलङ्कार्य मानते है। वस्तुतः वस्तु-अलङ्कार ध्वनि का भी पर्यासान रस में ही होता है, अतः रस ध्वनि ही काव्यात्मा है, वहीं अलङ्कार्य है। रस वादी आचार्य, रसादि को ही काव्यात्मा तथा अलङ्कार्य मानते है। अलङ्कार ‘वस्तु-अलङ्कार-रूप’ वाच्यार्थ के भी उपस्कारक होते हैं। (पण्डितराज आदि ने इसे स्वीकार किया है) इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी आचार्यों ने अलङ्कारों का निरूपण किया है। भोजराज ने शब्दालकार २४, अर्थालङ्कार २४, उभयालङ्कार ६३, अर्थालङ्कार २४ फलतः ६२ अलङ्कार माना हैं मम्मट ने छः शब्दालड्कार ६३ अर्थालङ्कार कुल ६६ अलङ्कारों का निरूपण किया है। हेमचन्द्र पुनः ६ शब्दालङ्कार, २६ अर्थालङ्कार मानकर ३५ संख्या पर ही अटक जाते हैं वाग्भट प्रथम ने ४ शब्दालङ्कार ३५ अर्थालङ्कार मानते हैं। रूय्यक ७८, शोभाकर मिश्र १०३, जयदेव १००, अप्पय दीक्षित १२५, अलङ्कारों का निरूपण किए हैं। वाग्मट द्वितीय ने ६+६३-६६ अलङ्कार (शब्द और अर्थ के) का वर्णन किया है। विश्वनाथ ने ६ शब्दालड़कार ७२ अर्थालडकारों का निरूपण किया है। पं. राजजगन्नाथ ने ७० अर्थालङ्कारों का निरूपण किया है। उनका ग्रन्थ रसगङ्गाधर अपूर्ण ही है। उत्तरालङ्कार में ही ग्रन्थ खण्डित हो जाता है। आनन्दवर्धन ने भी “अलङ्कारों हि चारुत्व हेतुः प्रसिद्धः” कहा है। मम्मट ने वैचित्र्यमलङ्कार कहा है। परन्तु अलङ्कार शब्द और अर्थ के ही धर्म हैं, इनका निबन्धन रसादि के अनुरूप ही होना चाहिये। आनन्दवर्धन ने अलङ्कारों के विन्यास की समीक्षा प्रस्तुत की है। (ध्व.लो.तृ.उ.) कविप्रतिभा प्रसूत अलङ्कार है, यह कुन्तकादि ने माना है। इन अलङ्कारों का लक्षण, उदाहरण, आकार ग्रन्थों से जानना चाहिए। i mean ..
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