०९ शारदातनय से अच्युत राय तक

शारदातनय

भरत का नाट्यशास्त्र नृत्य और संगीत प्रधान है। उनके शिष्य कोहल ने लोक जीवन से सम्बन्ध रखने वाली उन सभी कलाओं, गीतों और उपरूपकों का विश्लेषण किया जिनके केवल बीज भरत में मिलते हैं या जो बिल्कुल अछूते रह गए हैं। सागरनन्दी, रामचन्द्र-गुणचन्द्र आदि ने भरत और अभिनवगुप्त के आधार पर नाट्य विद्या को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया था। अनेक कश्मीरी चिन्तकों ने नाट्यविद्या की विवृत्ति की थी, जिनके अब केवल नाम यत्र-तत्र सुरक्षित हैं। ऐसा जान पड़ता है कि शारदातनय के समक्ष नाट्यशास्त्र की अद्भुत परम्परा वाली व्याख्या-पद्धति अवश्य उपलब्ध रही होगी। शारदातनय ने १२वीं शताब्दी तक की नाट्यशास्त्रीय काश्मीरी परम्परा को भाव प्रकाशन में बहुत कौशल के साथ उपनिबद्ध कर दिया है। १२वीं शताब्दी तक आते-आते साहित्यशास्त्र में भी कश्मीर की प्रतिभा अपनी पराकाष्ठा तक की अविच्छिन्न धारा के साथ भावप्रकाशन की लहरियों में समाविष्ट है। नाट्यतत्त्व और भावतत्त्व दोनों एकत्र भावप्रकाशन में देखे जा सकते हैं। किन्तु शारदातनय को इतने से सन्तोष नहीं था, वे संगीत के परम मर्मज्ञ थे, अभिनवगुप्त की परम्परा को तो वे जानते ही थे उस समय तक संगीत की पारसीक परम्परा से भी वे परिचित हो चुके थे; जिनका विकास आगे चलकर संगीत-रत्नाकर में दिखाई देता है। साथ ही संगीत की दाक्षिणात्य शैली से भी अवगत थे। इनके अतिरिक्त संगीत के उन तत्त्वों से भी वे परिचित थे, जो अभी केवल लोक जीवन में थे; शास्त्र की ऊँचाई तक नहीं पहुंच सके थे। शारदातनय ने बहुत ही उदारता के साथ भाव प्रकाशन में इन सबको एक में गूंथ दिया है। १२वीं शताब्दी तक आते-आते साहित्य के क्षेत्र में नायिका-भेद की चर्चा मुखरित हो चली थी, उसकी न तो नाट्यशास्त्र के विवेचक अनसुनी कर रहे थे और न काव्यशास्त्र के अध्येता उसकी उपेक्षा कर सकते थे। शारदातनय ने भी साहित्य के इस पक्ष को भरत से आगे बढ़ा दिया। भरत ने धीरोदात्त आदि नायक-गुणों के आधार पर, वय के आधार पर, जातिगत शील के आधार पर, नाटकों में प्रयुक्त स्त्रीपात्रों के आधार पर - अनेक प्रकार से नायिकाओं का नायिका-भेदों का विवरण दिया है। अभिनवगुप्त ने दो-चार नामों की वृद्धि की है - रुद्रट आदि ने साहित्य की दृष्टि से नायिका-भेदों का विवेचन किया है, किन्तु शारदातनय के अपने समय तक के नायिका-भेद सम्बन्धी सभी अध्ययनों का साहित्य और नाट्य दोनों दृष्टियों से उल्लेख किया है। इस प्रकार शारदातनय का भावप्रकाशन संस्कृत नाट्यशास्त्र की परम्परा का एक अद्वितीय रत्न है। यह असन्दिग्ध है कि शारदातनय ने अपने पूर्ववर्ती वृद्धभरत, भरत, २३६ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘शारदातनय’ अभिनवगुप्त, भोज और मम्मट के ग्रन्थों का आमूलचूल सांगोपांग अध्ययन किया था। इन सभी आचार्यों का प्रभाव भाव-प्रकाशन पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित है। शारदातनय ने नाट्योत्पत्ति के प्रसंग में व्यास के मत के, रसोत्पत्ति के प्रसंग में वासुकि के मत के और रस के प्रसंग में नारद के मत के तथा योगमाला संहिता के उद्धरण स्थान-स्थान पर दिए हैं। शारदातनय ने धनञ्जय की कारिकाएँ, भोज के श्रृंगारप्रकाश से विषयवस्तु और कारिकाएँ, मम्मट के काव्यप्रकाश से शब्दार्थ सम्बन्ध की सामग्री की पंक्तियां की पंक्तियां आनुपूर्वी के साथ अक्षरशः उद्धृत कर ली थी। साथ ही साथ संस्कृत की टीका टिप्पणी का अभाव और प्राचीन अनुपलब्ध ग्रन्थों तथा आचार्यों के अप्रसिद्ध तथा कठिन पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग के कारण यह ग्रन्थ कुछ अंश में सहसा बोधगम्य नहीं था और कुछ अंश में पुनरावृत्ति मात्र था। तथापि यह सत्य है कि शारदातनय ने अभिनवभारती को अनेक संस्कृत नाट्याचार्यों की परम्परा को तथा संगीत और नृत्य के सिद्धान्तों को पूर्णरूप से हृदयङ्गम किया था। यह सर्वथा निश्चित है कि शारदातनय ने भरत, कोहल, अभिनवगुप्त, धनञ्जय द्वारा सुरक्षित नाट्य सामग्री का पूर्णरूप से अध्ययन किया था और अपनी लोकोत्तर प्रतिभा के आधार पर उस काल में प्रचलित संगीत की अन्यान्य शैलियों को भी शास्त्रीय ढंग से अपने ग्रन्थों में प्रतिष्ठित किया था। नाट्यशास्त्र के प्राचीन आचार्यों द्वारा पूर्णरूप से प्रभावित होने पर भी शारदातनय की अपनी एक मौलिक दृष्टि सर्वत्र प्रधान थी। उनके ग्रन्थ में ऐसे अनेक तत्त्व प्राप्त होते हैं जिनका विवेचन करने वाले वे प्रथम आचार्य हैं। इस सन्दर्भ में भाव का लक्षण, विभाव, अनुभाव के भेद और संगीत के संदर्भ में सप्तधातुओं से सप्तस्वरों की उत्पत्ति की उद्भावना उनकी मौलिक कल्पना के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। शारदातनय के ग्रन्थ का साक्षात प्रभाव संगीत-रत्नाकर पर शिगभूपाल की सुधाकरी टीका तथा रसार्णवसुधाकर, कुमारस्वामी की प्रतापरुद्रीय पर ‘रत्नापण’ टीका और कल्लिनाथ की संगीत-रत्नाकर’ पर कलानिधि टीका में संगीत और रस के प्रसंग में प्रभूत उदाहरणों से प्रमाणित होता है।

जन्मस्थान एवं जीवनवृत्त

शारदातनय के जन्मस्थान के विषय में अधिक ज्ञात नहीं है। उनके ग्रन्थ ‘भावप्रकाशन’ के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण के पश्चात् उनकी जन्मभूमि का सङ्केत है। ग्रन्थ के अनुसार आर्यावर्त देश में ‘मेरुत्तर’ नाम का एक महान जनपद था। उसके दक्षिण भाग में ‘माठरपूज्य’ नाम का एक ग्राम था, जिसमें एक हजार ब्राह्मण निवास करते थे। इसी ग्राम में काश्यप-वंशोत्पन्न लक्ष्मण नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था। ये लक्ष्मण ही शारदातनय के प्रपितामह थे। इस प्रकार अपनी पूर्वज-परम्परा का मूल स्थान बताते हुए शारदातनय ने ‘मेरुत्तर’ नामक जनपद का उल्लेख किया है। १. भावप्रकाशन, गा.ओ.सी.नं. ४५, १६६८, पृष्ठ १, पंक्ति-११-१४ २४० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अब प्रश्न यह है कि आर्यावर्त देश में स्थित ‘मेरूत्तर’ जनपद की स्थिति कहां है ? भाषा-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आर्यावर्त देश में ‘मेरुत्तर’ जनपद को आधुनिक मेरठ समझा जा सकता है।’ भावप्रकाशन की समस्त पाण्डुलिपियां दक्षिण में ही उपलब्ध हुई हैं, इसलिए शारदातनय ने ‘मेरूत्तर’ के दक्षिण भाग में स्थित जिस ‘माठरपूज्य’ नामक ग्राम का उल्लेख किया है वह दक्षिण-प्रदेश का ‘माटपूशि’ नामक प्राचीन ग्राम हो सकता है, जिसके आधार पर ‘माटपूशि’ एक गोत्रसूचक उपनाम दक्षिण भारत के कुछ ब्राह्मणों में प्रचलित हो गया है। ‘मेरुत्तर’ नामक जनपद तो निस्सन्देह वर्तमान ‘उत्तरमेरू’ नामक ग्राम है जो मद्रास के निकट ‘चेंगलपट’ जिले से लगभग बीस मील की दूरी पर स्थित है, इसे उत्तरमेसर’ भी कहते हैं। प्राचीन ‘मेरुत्तर’ नाम का विपर्यास कालान्तर में ‘उत्तरमेरूर’ हो गया हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। इस प्रकार यह अधिक सम्भव हो सकता है कि शारदातनय का जन्म स्थान दक्षिण भारत में रहा होगा। शारदातनय का जन्म काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनकी वंश-परम्परा में प्राचीनतम नाम ‘लक्ष्मण’ प्राप्त होता है, जो शारदातनय के प्रपितामह थे। यह ‘लक्ष्मण’ अत्यन्त विद्वान थे। उन्होंने तीस यज्ञों को सम्पन्न कर भगवान विष्णु को प्रसन्न किया था और ‘वेदभूषण’ नामक एक वैदिक भाष्य तैयार किया था। उसका पुत्र श्रीकृष्ण (शारदातनय का पितामह) भी सम्पूर्ण वेदों और शास्त्रों का अध्येता था। उसने पुत्र-प्राप्ति की कामना से वाराणसी में महादेव को प्रसन्न किया था। उनकी कृपा से श्रीकृष्ण ने भट्टगोपाल नामक सुन्दर पुत्र की प्राप्ति की थी। भट्टगोपाल को अष्टादश विद्याओं पर समान अधिकार प्राप्त था। उन्होंने शारदादेवी की उपासना कर अत्यन्त गुणवान पुत्र-रत्न प्राप्त किया था, जिसका नाम शारदादेवी के ही नाम पर ‘शारदातनय’ (सरस्वती का पुत्र) रखा गया था। कुछ विद्वानों का कहना है कि मम्मट-प्रणीत ‘काव्यप्रकाश’ के टीकाकार भट्टगोपाल और शारदातनय के पिता भट्टगोपाल दोनों एक हैं। लेकिन दोनों को अभिन्न ठहराना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि मम्मट के पश्चात किसी भी लेखक ने टीकाकार भट्टगोपाल को उद्धृत नहीं किया है। कुमारस्वामी ने जिनका समय १५वीं शताब्दी निश्चित है, टीकाकार भट्टगोपाल को उद्धृत किया है। इससे सिद्ध होता है कि टीकाकार भट्टगोपाल का समय १५वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है। शारदातनय १२वीं शताब्दी में ही हो गये थे तो क्या उनके SSTHA PAN 9. Journal of the Andhra Historical Research Society, Vol. II, P. 132 भावप्रकाशन, भूमिका, पृष्ठ-१२ ३. भाव प्रकाशन, पृष्ठ-१, पंक्ति १५-१८ । ४. भावप्रकाशन, पृष्ट-२ पंक्ति १-५॥ ५. भट्टगोपालकृत ‘काव्यप्रकाश की टीका’, प्रकाशन-त्रिवेन्द्रम संस्कृत सीरीज। &. History of Sanskrit Poetics by P.V. Kane, Delhi, 1961, PP. 416 ७. प्रतापरुद्रीय, कुमारस्वामी-कृत रत्नापण-टीका सहित, मद्रास, १६१४, पृष्ठ-२५०। 5. History of Sanskrit Poetics by P.V. Kane, Delhi, 1961, PP. 417 २४१ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘शारदातनय’ । पिता उनके परवर्ती काल में हुए होंगे ? अतः शारदातनय के पिता भट्टगोपाल के साम्य की संभावना एक हास्यास्पद दुराग्रह ही कही जा सकती है। __ शारदातनय के गुरु का नाम ‘दिवाकर’ था। यह ‘दिवाकर’ नाट्यवेद के पूर्ण ज्ञाता थे तथा किसी नाट्यशास्त्र के प्रबन्धक थे। उन्होंने सदाशिव, शिव, पार्वती, वासुकि, वाग्देवी (सरस्वती), मुनि, नारद, अगस्त्य, व्यास, भरत तथा उनके शिष्यों (कोहलादि) के नाट्यविषयक मत-मतान्तरों की सम्यक शिक्षा शारदातनय को प्रदान की थी।

समय

शारदातनय ने ‘शृंगार-प्रकाश’ एवं ‘काव्य-प्रकाश’ के अनेक उद्धरणों को अपने ग्रन्थ ‘भावप्रकाशन’ में उद्धृत किया है। इससे सिद्ध होता है कि उक्त दोनों ग्रन्थों के लेखक भोज एवं मम्मट के पश्चात् शारदातनय हुए हैं। भोज का काल ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध स्वीकार किया जाता है। अतः शारदातनय का स्थितिकाल निश्चित रूप से इसके अनन्तर ही होना चाहिए। भाव प्रकाशन में भोज के साथ-साथ सोमेश्वर नामक एक आचार्य का भी सन्दर्भ प्राप्त होता है, किन्तु साहित्य क्षेत्र में वर्णित ‘सोमेश्वर’ नामक चार लेखकों में से शारदातनय का परिचय किस सोमेश्वर से था ? - यह ज्ञात करना अत्यावश्यक है। ये चार सोमेश्वर इस प्रकार हैं - १. ‘मानसोल्लास ’ का लेखक सोमेश्वर २. ‘संगीत-रत्नावली’ का लेखक सोमेश्वर। ३. ‘काव्यादर्श’ का सोमेश्वर। ४. कीर्ति-कौमुदी एवं सुरथोत्सव का लेखक सोमेश्वर। उपर्युक्त चारों लेखकों का काल निर्धारण करने के पश्चात् ही इनमें से किसी एक सोमेश्वर को शारदातनय से सम्बद्ध किया जा सकता है। १. मानसोल्लास का लेखक सोमेश्वर ‘अभिलषितार्थचिन्तामणि’ का भी लेखक माना जाता है। मानसोल्लास की रचना ११३१ ई. में हुई थी। इसके पिता चालुक्यवंशीय विक्रमादित्य चतुर्थ थे। २. द्वितीय सोमेश्वर ‘सङ्गीत-रत्नावली’ का लेखक है। इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि के विषय में डा. हूलर तथा बड़ौदा सेन्ट्रल लाइब्रेरी की पत्रिका नं. ८५ के अनुसार time २. १ १. भावप्रकाशन, पृष्ठ-२, पंक्ति १४-१६। भावप्रकाशन, पृष्ठ १२, पंक्ति २१ तथा पृष्ठ १६४, पंक्ति ६। ३. प्रकाशन, गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज नं. २८ की भूमिका, पृष्ठ ६। 8. A Catalogue of Sanskrit MSS in the Private Library of Gujrat Etc. pp. 4, 274 Here Somarajdeva is mentioned as the author and he is identified as a Pratihari of the Chalukya King Ajaypal of Gujrat (1174-1177 A.D.) २४२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र यह सोमेश्वर (सोमराजदेव) गुजरात के चालुक्य-वंशीय राजा अजयपाल का प्रतिहारी था। इस राजा का राज्यकाल ११७४-११७७ ई. था। तृतीय सोमेश्वर द्वारा विरचित ‘काव्यादर्श’ मम्मट के काव्य-प्रकाश पर लिखी हुई एक टिप्पणी है। यह सोमेश्वर स्वयं को भारद्वाज गोत्रीय भट्टदेवक का पुत्र कहता है। सम्वत् १२८३-१२२७ ई. के काल में रचित इसके ग्रन्थ की एक पाण्डुलिपि जैसलमेर के भण्डार के कैटलॉग में प्राप्त हुई है। इससे प्रतीत होता है कि ये सोमेश्वर पाण्डुलिपि की तिथि से लगभग पचास वर्ष पूर्व हुआ। ४. ‘कीर्तिकौमुदी’ एवं ‘सुरथोत्सव’ के लेखक सोमेश्वर को गुजरात के राजा भीमदेव द्वितीय, राजा वीरधवल तथा राजा वीसलदेव का राज्याश्रय प्राप्त था। इन राजाओं का काल ११७६ ई. से १२६२ ई. तक होने से यह सोमेश्वर भी इसी काल में हुआ था। इसके पिता का नाम कुमार था। इस प्रकार उपर्युक्त चारों सोमेश्वर ११३१ से १२६२ ई. अर्थात् लगभग १३१ वर्ष तक के काल के अन्तर्गत राज्याश्रयों में प्रतिष्ठित हुए थे। इन चारों में से जो ‘सङ्गीत रत्नावली’ का प्रणेता है, वही ‘सङ्गीत रत्नाकर'३ में उल्लिखित सोमेश्वर होगा, ऐसा प्रतीत होता है, क्योंकि शाङ्गदेव का काल १२१०-१२४७ ई.’ है और यह सोमेश्वर ११७४-११७७ ई. में ही प्रतिष्ठित हो गया था। श्री एम.आर. तैलंग इस सोमेश्वर को सोमदेवपरमर्दी के रूप में पदस्थ करते हैं। किन्तु यह उचित नहीं है क्योंकि परमर्दी नामक व्यक्ति सोमेश्वर से भिन्न था। एक परमर्दी अथवा परमल नामक चंदेलवंशीय राजा का राज्यकाल ११६५-१२०३ ई. तक रहा। उसके मन्त्री वत्सराज की कृति ‘रूपकाष्टक’ में उसका वर्णन प्राप्त होता है। शाङ्गदेव ने सोमेश्वर (सोमेश) के नाम से पहले जिस परमर्दी का उल्लेख किया है, वह सोमेश्वर से भिन्न यह दूसरा परमर्दी नामक विद्वान राजा है, ऐसा प्रतीत होता है। यही सम्भव भी होगा क्योंकि परमर्दी (११६५ ई.) शागदेव (१२१० ई.) से पूर्व हो चुका था। __ भाव प्रकाशन में उद्धृत सोमेश्वर के कथनोद्धरण संगीत विषयों और भारती आदि वृत्तियों से सम्बन्धित हैं। अतः इन चार सोमेश्वरों में से ‘काव्यादर्श’ के लेखक तथा १. प्रकाशन, गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज नं. २१, पृष्ठ ४८। २. सुरथोत्सव, काव्यमाला संस्कृत सीरीज नं. ७३, बम्बई, १६०२, भूमिका, पृष्ठ ८-१६ । ३. रुदटो नान्यभूपालो भोजभूवल्लभस्तथा। परमर्दी च सोमेशो जगदेकमहीपतिः।। सङ्गीत रत्नाकर, अड्यार संस्करण, वा.१, १/१८ । ४. वही, भूमिका पृष्ठ १०। ५. द्रष्टव्य-‘सङ्गीतमकरन्द’ में सङ्गीत लेखकों की सूची, गा.ओ.सी. नं. १६, पृष्ठ-५६। ६. रूपकाष्टक, गा.ओ.सी. नं. ८, भूमिका, पृष्ठ ६ कर शारदातनय से अच्युतराय तक ‘शारदातनय’ २४३ ‘कीर्तिकौमुदी’ और ‘सुरथोत्सव’ के लेखक को इस विचार-क्षेत्र से निष्कासित किया जा सकता है, क्योंकि इन ग्रन्थों में संगीत विषयक विवेचन उपलब्ध नहीं होता है। अतः शारदातनय द्वारा संदर्भित सोमेश्वर शेष दो में से कौन सा सोमेश्वर अभिप्रेत हो सकता है, यह निर्धारित करना है। __ भाव प्रकाशन में जब-जब सोमेश्वर का नाम उद्धृत किया गया है, तब-तब राजा भोज के साथ ही हुआ है। अतः यह सम्भव है कि उपर्युक्त चार में से प्रथम दो सोमेश्वर राजा भी रहे होंगे। इन दोनों में ‘मानसोल्लास का सङ्गीत रत्नाकर में उल्लिखित लेखक भी शारदातनय को अभीष्ट नहीं हो सकता। अतः ‘संगीत रत्नावली’ का रचयिता सोमेश्वर, जिसका काल ११७४-११७७ ई. निर्धारित हो चुका है, शारदातनय द्वारा उद्धृत उद्धरणों से सम्बद्ध माना जा सकता है, क्योंकि ‘सङ्गीत रत्नाकर’ में सङ्गीतपरक सामग्री के साथ-साथ भारती आदि वृत्तियों का विवेचन भी सामान्यतः उपलब्ध है। इस आधार पर शारदातनय १२०० से १२५० ई. तक उत्पन्न हो गये होंगे। शिंगभूपाल, कुमारस्वामी तथा कल्लिनाथ आदि के ग्रन्थों में अधिकांश स्थलों पर संगीत एवं रस के सम्बन्ध में भावप्रकाशन से उद्धरण उद्धृत किये गये हैं। शिंग भूपाल का काल १३३० ई.२ तथा कल्लिनाथ एवं कुमारस्वामी का काल १५वीं शताब्दी स्वीकार किया गया है। अतः इन परवर्ती ग्रन्थकारों के काल की निम्नतर सामान्य सीमा १३०० ई. स्वीकार की जा सकती है। इससे स्वतः सिद्ध हो जाता है कि इनके पूर्ववर्ती शारदातनय १३०० ई. से पूर्व ही अर्थात् १२००-१२५० ई. तक अवश्य उत्पन्न हो गये होंगे।

व्यक्तित्व

शारदातनय के ग्रन्थ ‘भावप्रकाशन’ का सिंहावलोकन करने पर उनके व्यक्तित्व का एक अपूर्व प्रतिरूप दृष्टिमार्ग के सामने सजीव हो उठता है। पूर्व प्रचलित ग्रहणीय परम्पराओं को आत्मसात कर लेने तथा अपने मौलिक विचारों से उन्हें अनुप्राणित कर देने की अपूर्व क्षमता के दर्शन उनके व्यक्तित्व में किये जा सकते हैं। बाल्यावस्था में ही शारदातनय ने पितृगृह में समस्त वेद-वेदाङ्गों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। कदाचित् वे शारदादेवी की उपासना में लग गये और देवी के चैत्रयात्रा-महोत्सव पर यज्ञ कर, प्रेक्षकों के साथ नृत्यशाला में बैठी हुई देवी को प्रणाम कर, उन प्रेक्षकों के कहने पर वे उस देवी के पास बैठ गये। वहाँ भावाभिनयविज्ञ नटों के द्वारा पृथक्-पृथक् तीस प्रकार के भिन्न-भिन्न रूपकों का प्रयोग होते हुए देखकर उन्होंने देवी से नाट्य-वेद की ज्ञान-प्राप्ति NSINGINisity १. भावप्रकाशन, पृष्ठ १२, पंक्ति २१, पृष्ट १६४, पंक्ति ६। २. History of Sanskrit Poetics, by Rv. Kane, pp. 430. ३. संगीत रत्नाकर, भूमिका, पृष्ठ-२०॥ २४४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र के लिए प्रार्थना की। वहीं उनके हृदय में तीस रूपकों की रूपरेखा स्थापित हो गयी। ऐसे सरल साधक के व्यक्तित्व की भव्यता एवं गौरव का अनुमान लगाना दुःसाध्य नहीं है। शारदातनय कट्टर सम्प्रदायवादी नहीं थे। उनके पूर्वजों में से भी प्रपितामह लक्ष्मण ‘विष्णु’ के उपासक पितामह श्रीकृष्ण शिव के भक्त, पिता गोपालभट्ट मां सरस्वती के साधक थे। किसी एक देवी या देवता को इष्ट मानने से पूर्व शारदातनय की तर्क-बुद्धि इस सृष्टि का मूल अन्वेषण करती हुई सांख्य-दर्शन तक पहुँच जाती है। इसी दर्शन के सिद्धान्तों का अनुसरण करते हुए उन्होंने सहृदयों द्वारा किये जाने वाले नाट्य-रसों के आस्वादन हेतु अत्यन्त रोचक उपमा को अपने ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है तथा इसी सम्बन्ध में शैवागम के कुछ प्रारम्भिक कार्यों का भी उल्लेख किया है। नाट्य-रस का यह आस्वादन अथवा मनोरंजन उसी प्रकार का है, जिस प्रकार जीवात्मा सांसारिक भोगों का मनोरंजन करता है। इस विषय में अपने तर्कों को प्रस्तुत करते हुए प्रत्यभिज्ञा दर्शन के तत्त्वों, यथा राग, विद्या एवं कला आदि की भी व्याख्या शारदातनय प्रस्तुत करते हैं। अतः उन्हें प्रत्यभिज्ञा सम्प्रदाय का अनुयायी कहा जा सकता है। उन्होने रस-भाव आदि नाट्य-विषयक तत्त्वों को दार्शनिक पृष्ठभूमि पर रखकर अपनी मौलिक दृष्टि से परखा है। इसलिये उनके माध्यम से एक नाट्यविद् दार्शनिक-व्यक्तित्व के दर्शन सहज ही में किये जा सकते हैं।

रचनाएँ

भावप्रकाशन के अतिरिक्त शारदातनय द्वारा रचित ‘शारदीय’ नामक एक अन्य ग्रन्थ का भी प्रमाण प्राप्त होता है। ‘भाव-प्रकाशन’ नाट्य-परक है तथा ‘शारदीय’ सङ्गीत-परक। यह सम्भव है कि ‘शारदीय’ उनकी प्रथम रचना हो, जिसका नाम उन्होंने अपने नाम शारदातनय से ही रखा होगा। ‘शारदीय’ में सङ्गीत के समस्त अंगों-उपांगों का सम्यक् रूप से वर्णन किया गया था। _ ‘भावप्रकाशन’ अपने ढंग की एक अपूर्व अमर कृति है। शारदातनय ने सम्पूर्ण ग्रन्थ में अधिकांशतः उन विभिन्न विचारों का आकलन एवं मौलिक समन्वय किया है, जो भरत के नाट्य-शास्त्र से प्रारम्भ होकर भरत-शिष्य परम्परा, दशरूपक, शृंगार-प्रकाश एवं काव्य-प्रकाश का प्रभाव लेते हुए उन (शारदातनय) तक पहुंचे। अतः भरत से लेकर शारदातनय तक एक श्रृंखला आबद्ध है। भावप्रकाशन, पृष्ठ २, पंक्ति ६-१३ । २. वही, पृष्ठ १८१, पंक्ति १६। वही, पृष्ठ ५३, पंक्ति ३-६। ४. वही, पृष्ठ १८१, पंक्ति २०-२२, पृष्ठ १८२। ५. भाव प्रकाशन, पृष्ठ १६४, पंक्ति ८॥ ६. वही, पृष्ठ १६४, पंक्ति ६। २४५ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘शारदातनय’ कल्लिनाथ के ‘कलानिधि’ एवं कुमारस्वामी के ‘रत्नापण’ के प्रकाशन द्वारा भावप्रकाशन तथा शारदातनय के विषय में अन्य विशेष महत्त्वपूर्ण तत्त्व जनसाधारण के सम्मुख उपस्थित हुए। भावप्रकाशन में रंगशाला की समस्त विद्याओं का सुबोध-निरूपण किया गया है। विविध विषयों का विस्तृत विवेचन व्यवस्था की अवहेलना नहीं करने पाया है। यही इस ग्रन्थ तथा उसके प्रणेता की सहज स्वभाविक विशेषता रही है।

भाव प्रकाशन का प्रतिपाद्य विषय

‘भाव प्रकाशन’ आकार में नाट्यशास्त्र जैसा विशाल ग्रन्थ है। सदाशिव, शिव, पार्वती, वासुकि, वाग्देवी (सरस्वती) नारद, अगस्त्य, व्यास भरत एवम् आञ्जनेय इत्यादि अनेक नाट्यवेत्ताओं के सिद्धान्तों का सार ग्रहण करके ‘शारदातनय’ ने ‘भावप्रकाशन’ का प्रणयन किया है।’ सम्पूर्ण प्रतिपाद्य सामग्री दस अधिकारों में विभक्त की गई है, जिसमें श्लोकबद्ध शैली के दर्शन होते हैं। प्रथम-अधिकार में मंगलाचरण एवम् आत्मपरिचय-कथन के पश्चात् नाट्य के सर्वप्रमुख तत्त्व ‘भाव’ का निरूपण किया गया है। शारदातनय की दृष्टि से भावों का महत्त्व रस से भी पूर्व है। ‘रस’ काव्य की आत्मा है तब भाव तो उस रस का भी जीवनाधायक तत्त्व हुआ। रस रूपी साध्य की प्राप्ति के लिए भाव रूपी साधन सर्वथा अपेक्षित है। इसीलिए शारदातनय ने भावों को रस-प्रक्रिया के पूर्व ही वर्णित किया है। भले ही भरत ने रस-व्याख्या के पश्चात भावों को रखा है। भाव की सत्ता के बिना रस की अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। अतः नाट्य का मूल तत्त्व ‘भाव’ ही है। __ ‘भाव’ की इसी महत्ता के कारण शारदातनय ने ग्रन्थ का नाम भी ‘भावप्रकाशन’ रखा है जो सार्थक है। प्रथम अधिकार में भावों के विभिन्न भेद, यथा-विभाव, अनुभाव, स्थायीभाव, व्यभिचारीभाव एवं सात्विकभाव आदि तथा पुनः इन सभी के अवान्तर भेदों का विस्तृत प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय अधिकार में भाव के पश्चात् नाट्य के सर्वाधिक विशेष तत्त्व ‘रस’ का प्रतिपादन किया गया है, जिसमें भरत के रससूत्र पर आधृत विभिन्न मतों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। भरत के अनुसार ही शारदातनय ने भी आठ रसों को स्वीकार किया है। शान्त रस के विषय में शारदातनय धनञ्जय के मत को स्वीकार करते हुए यह तो कहते हैं कि ‘राम’ के द्वारा कोई भी विभाव, अनुभाव एवं सात्विक भाव उत्पन्न न होने के कारण शान्त-रस का अभिनय रंगमंच पर नहीं हो सकता है। किन्तु फिर भी शारदातनय शान्त रस के प्रति उतने कठोर नहीं हैं। धनञ्जय के विपरीत वे यह सोचने में उदारता प्रदर्शित RS १. वही, पृष्ठ २, पंक्ति १६-२२। २. भावप्रकाशन, पृष्ठ ४७, पंक्ति ५-६।२४६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र करते हैं कि शान्त-रस नाट्य में नहीं प्रत्युत काव्य में स्थान प्राप्त कर सकता है।’ द्वितीय अधिकार में ही प्रसंगवश नाट्य, नृत्य एवं नृत्य का निर्वचन करते हुए वे लास्य एवं ताण्डव का भी निरूपण करते हैं। रस-विवेचन के अन्तर्गत सर्वाधिक शृंगार-रस के विषय में शारदातनय भोज से प्रभावित हुए हैं। काव्य एवं रस के बीच वे व्यंग्य-व्यञ्जक भाव सम्बन्ध को स्वीकार न कर भाव्य-भावक भाव और प्रतिपाद्य-प्रतिपादक भाव सम्बन्ध को स्वीकार करते हैं, तथा रस और सामाजिक के बीच भोक्तृ-भोग्य भाव सम्बन्ध को स्वीकार करते हैं। तृतीय अधिकार में रस की उत्पत्ति तथा वाचिकादि भेद से शृंगारादि रसों का भेद निरूपण किया गया है। शृंगारादि रसों के विष्णु आदि देवताओं के देवत्व का कारण निर्वचन किया गया है। समस्त रसों के स्थायीभाव, अनुभाव, विभाव आदि का भी विस्तार से प्रतिपादन हुआ है। __ चतुर्थ अधिकार में नायक-नायिका आदि का स्वरूप निरूपित है। श्रृंगार के स्थायीभाव रति के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए रति के वृद्धिकारक प्रेम आदि षड्गुणों का भी उल्लेख शारदातनय ने किया है। शृंगारोचित देश-काल गुण-चेष्टा आदि का रोचक निरूपण भी प्रस्तुत किया है। तत्पश्चात् शृङ्गारोचित पात्रों के वर्णन प्रसंग में नायक के भेद एवं उनके लक्षणों को प्रस्तुत किया है। नायिका भेद-प्रसंग के अवसर पर रुद्रट के मतानुसार ३८४ नायिका भेदों का उल्लेख भी किया है। पञ्चम अधिकार में स्त्री के यौवन, कोप, चेष्टा आदि; वैशिक नायक, उनकी प्रकृति, व्यवहार एवं अवस्था आदि का विस्तृत वर्णन हुआ है। नायिकाओं का सत्त्वभेदन-कथन करते हुए उनके देवशीला, दैत्यशीला इत्यादि २२ भेदों का उल्लेख किया गया है। षष्ठ-अधिकार में शब्द-शक्ति-विवेचन प्रस्तुत किया गया है, जो विस्तृत होते हुए भी व्यवस्थित है। रस की सिद्धि के लिए व्यञ्जना शक्ति अत्यन्त अपेक्षित है, अतः व्यञ्जना तथा उसके साथ ही साथ अभिधा, लक्षणा एवं तात्पर्या शक्तियों का निर्वचन भी प्रसंग से प्राप्त हो गया है। शक्तियों के आधार पर काव्य के उत्तम, मध्यम एवं अधम त्रिविध रूपों का प्रतिपादन भी शारदातनय ने किया है। इस अधिकार में प्रसंगवश रस, रसाभाव इत्यादि का भी कथन किया गया है। सप्तम अधिकार में संगीत-विषय का सांगोपांग वर्णन हुआ है। जो कि रंगशाला का एक मुख्य एवं आवश्यक तत्त्व है। संगीत के विस्तृत क्षेत्र में गायन, वादन, नृत्य, नाद, वर्ण, DERNET THERE १. भावप्रकाशन, पृष्ठ-१३५-१३६ । २. भावप्रकाशन, पृष्ठ ६५, पंक्ति ८-६। ३. भावप्रकाशन, पृष्ठ ६५, पंक्ति ५-६ २४७ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘शारदातनय’ स्थान, श्रुति, धातु, गीति, रीति एवं छन्द आदि अनेकानेक विषयों का समावेश किया गया है। त्वक् आदि सप्त धातुओं से सप्त-स्वरोत्पत्ति के प्रसंग वर्णन में शरीर की धमनी-संख्या के आधार पर श्रुतियों की संख्या २४ मानी गयी है। इससे ज्ञात होता है कि शारदातनय आयुर्वेद के भी पूर्ण ज्ञाता थे। इसके अतिरिक्त राग, मति, गति, लय, ताल, काल, अलंकार, गमक एवम् आयाम आदि संगीत के विविध विषयों का पारिभाषिक निर्वचन भी उन्होंने प्रस्तुत किया है। इसी अधिकार में नाट्य-शरीर का रचना-विधान प्रस्तुत करते हुए कथावस्तु, अर्थ-प्रकृतियाँ, अवस्थायें, सन्धियाँ, सन्ध्यंग एवम् अर्थोपक्षेपक इत्यादि भी शारदातनय ने विस्तार से निरूपित किये हैं। __ अष्टम-अधिकार में तीस रूपकों का नामोल्लेख करके नाटक, प्रकरण आदि दशरूपकों का लक्षण एवं स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। इस सन्दर्भ में मातृगुप्त, हर्ष, सुबन्धु, कोहल तथा भोज इत्यादि प्रसिद्ध आचार्यों का मतोल्लेख भी शारदातनय ने किया है। नाटक आदि दशरूपकों के उदाहरणस्वरूप जिन विभिन्न रूपकों के नाम शारदातनय ने उद्धृत किये हैं उनमें से अधिकांश आज अप्राप्य भी हैं। नवम-अधिकार में नृत्य के बीस भेदों का वर्णन है। यह बीस नृत्य भेद ही ‘उपरूपक’ कहे गये हैं। इसी अधिकार में नाटक के पात्रों के लिए उचित भाषा-नियमों का निर्देश किया गया है। इसके अनन्तर आख्यायिका, सर्गबन्ध, संहिता, कोश एवं चम्पू इत्यादि के स्वरूप का निर्वचन किया गया है। दशमअधिकार में नाट्य-प्रयोग की विधि एवं भेद इत्यादि का प्रतिपादन हुआ है। किन्तु इससे पूर्व शारदातनय ने इस अधिकार के प्रारम्भ में नाट्य की वैदिक उत्पत्ति का विस्तृत कथन किया है, जो भरत नाट्यशास्त्र में प्रतिपादित नाट्योत्पत्ति की कथा से भिन्न है। तत्पश्चात् विभिन्न नाट्यप्रयोक्ताओं का स्वरूप-निर्वचन किया है। शुद्ध तथा देशी प्रयोगों के उल्लेख प्रसंग में पुनः लास्य, ताण्डव नृत्तों का स्वरूप एवं विभागादि का निरूपण हुआ है। मार्गी प्रयोग में ध्रुवा के स्वरूप, उपयोग एवं विभागों का विस्तारपूर्वक कथन किया गया है। इसके अनन्तर भारतवर्ष का स्वरूप एवं स्थिति निर्दिष्ट करते हुए यहां प्रचलित विभिन्न भाषा-भाषियों एवं उनकी नाट्योपयोगिता को प्रदर्शित किया गया है। अन्त में पुनरुक्ति दोष का विवरण करते हुए शारदातनय ने अभिनवगुप्त की अनुयायिता को स्वीकार की है।

१. वही, पृष्ठ १८६, पंक्ति ५ से पृष्ठ १८७, पंक्ति ११ तक। २. वही, पृष्ठ १८६, पंक्ति १४॥ (क) भावप्रकाशन, पृष्ठ २८४, पंक्ति ५ से पृष्ठ २८७, पंक्ति ६ तक। (ख) नाट्यशास्त्र, प्रथमोध्यायः। भावप्रकाशन, पृष्ठ २८७, पंक्ति १६ से पृष्ठ २६४, पंक्ति १६ तक, पृष्ठ د مه २६५। २४८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

नाट्यशास्त्रीय परम्परा का विकास एवं शारदातनय

भावं प्रकाशन के इस संक्षिप्त समीक्षण से ज्ञात होता है कि नाट्यशास्त्रीय परम्परा के विकास में शारदातनय क़ा विशेष योगदान रहा है। ग्रन्थ के अध्ययन के पश्चात् अनेक मौलिक तत्वों का उद्घाटन होता है जो चिन्तन को नई दिशा प्रदान करते हैं तथा लेखकीय प्रतिभा के प्रकर्ष को सूचित करते हैं। इस प्रकार प्रामाणिकता एवं उपादेयता की दृष्टि से यह ग्रन्थ भरत के नाट्यशास्त्र से किसी भी प्रकार कम नहीं है। नाट्यकला के विषय में यहाँ जो विस्तृत अभिव्यक्ति हुई है, वह अद्भुत ही है। इस ग्रन्थ में नाट्यकला के अतिरिक्त संगीत आदि अन्य ललित कलाओं का भी वैविध्यपूर्ण वर्णन उपलब्ध होता है। भरत से लेकर शारदातनय तक के बीच के समय में नाट्य, काव्य, संगीत नृत्य आदि विषयों पर अनेक ग्रन्थों का प्रणयन हुआ, लेकिन किसी भी ग्रन्थ में नाट्यशास्त्र पंचमवेद जैसी चिन्तनधारा में नहीं था, उपर्युक्त नाट्य आदि सभी कलाओं का समष्टि रूप एक ही स्थान पर नहीं था। यदि इन सभी का विलक्षण सामंजस्य कहीं सम्पादित हुआ, तो वह है; ‘भावप्रकाशन’ जिसकी सुनियोजित शैली वेदों का स्मरण कराती है। अतः भावप्रकाशन को ही पंचमवेद का उत्तराधिकारी मान लिया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। शारदातनय का सर्वप्रथम योगदान ‘नाट्योत्पत्ति’ के विषय में रहा है। इसके लिए भावप्रकाशन में जो सुनियोजित परम्परा स्वीकार की गयी है, उसका अपना विशिष्ट महत्त्व है। चारों वेदों से क्रमशः संवाद,अभिनय, गीत एवं रस को ग्रहण करके नाट्योत्पत्ति की मान्यता तो भरत ने प्रतिपादित की थी। उसे समादृत करते हुए भी शारदातनय ने ‘शिव’ से नाट्य का आविष्कार किया है।’ भरत एवम् अनेक परवर्ती आचार्यों ने नाट्य की उत्पत्ति ब्रह्मा से स्वीकार की है। इस विषय में शारदातनय ने अपनी नवनवोन्मेषशालिनी कल्पनाशक्ति का सुन्दर परिचय दिया है। ब्रह्मा से नाट्योत्पत्ति स्वीकार करने का सिद्धान्त तो केवल वैदिक पृष्ठभूमि पर ही आधृत है, लेकिन इसे शिव से सम्बद्ध स्वीकार करने से तो वैदिक एवं लौकिक दोनों ही भाव-भूमियों का अलंकरण हो उठता है। शिव-पार्वती का ताण्डव, लास्य नाट्य का पूर्व प्रचलित स्वरूप है। शिव के नटराज रूप से नाट्योत्पत्ति जितनी तार्किक एवं शाश्वत सत्य सिद्ध है उतनी ब्रह्मा के रूप से नहीं। भावप्रकाशन में भूमि पर नाट्यावतरण कराने का श्रेय ‘मनु’ को दिया गया है नहुष को नहीं। . नाट्य एवं दर्शन को गुम्फित करने में शारदातनय का एक विशेष योगदान है। उन्होंने नाट्य-विषयक विभिन्न तत्त्वों को दार्शनिक पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में रखकर अपनी सजग दृष्टि से परखा है। JES १. भावप्रकाशन, पृष्ठ ५५-५७, २८४-२८५। २. भावप्रकाशन, पृष्ठ २८७, पंक्ति ८॥

.-..–HARAT शारदातनय से अच्युतराय तक ‘शारदातनय’ २४६ नाट्यपरक सामग्री के साथ काव्य-शास्त्रीय विषयों का सम्मिश्रण करना शारदातनय की एक अन्य विशेषता है। उनकी सचेत दृष्टि काव्यशास्त्रीय तत्त्वों को स्वाभाविक रूप से ग्रहण करती है। उन्होंने शब्द-शक्तियों का विशद संयोजन अपने ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है।’ उनके मत में शब्द और अर्थ का सम्बन्ध ‘साहित्य’ कहलाता है। शारदातनय ने ‘भाव-तत्त्व’ को वह गरिमामण्डित स्थान प्राप्त कराया, जो उसे अब तक उपलब्ध नहीं हुआ था। यद्यपि ‘रस’ नाट्य का प्राण हैं तथापि उस रस की प्राप्ति का साधन भाव है, अतः साध्य ‘रस’ का कारणीभूत भाव ही है। इसीलिए शारदातनय ने भावों को रस-प्रक्रिया से पूर्व रखा है। भरत ने भाव का विश्लेषण ‘संवेदना’ के आधार पर प्रस्तुत किया है। जबकि शारदातनय का भाव-विवेचन सुख-दुःख की संवेदना के साथ-साथ सांख्योपचित दार्शनिक-धारा में भी प्रवाहमान हुआ है। wamination

१. वही, षष्ठोधिकारः। २५० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

विश्वनाथ कविराज

सरलता, बोधगम्यता एवं दृश्य श्रव्य उभयविध काव्यविधा को समाहित कर लेने वाली व्यापकता के कारण काव्यशास्त्र के जिज्ञासुओं में अत्यन्त लोकप्रिय ‘साहित्य दर्पण’ नामक ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य विश्वनाथ संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रतिभाशाली, महनीय व लोकप्रिय आचार्यों की श्रेणी में परिगण्य हैं। समालोचकों का विचार है कि आनन्दवर्धन, मम्मट जगन्नाथ आदि काव्यशास्त्र के प्रौढ़ आचार्यों की तुलना में विश्वनाथ मध्यम श्रेणी के आचार्य हैं। इनका ग्रन्थ ‘साहित्य-दर्पण’ काव्यशास्त्र का मौलिक ग्रन्थ न होकर आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, धनिक-धनंजय, मम्मट, रुय्यक प्रभृति आचार्यों के विचारों का संग्रह है। परन्तु किसी आचार्य की महत्ता उसके चिन्तन की मौलिकता से ही नहीं मापी जानी चाहिए। यदि उस चिन्तन की उपजीव्यता सृदृढ़ है, वह चिन्तन व्यापक जिज्ञासु वर्ग तक सहज सरलता संप्रेष्य है, हृदयग्राह्य है तो वह चिन्तन निश्चय ही प्रथम कोटि का है। इस दृष्टि में विश्वनाथ और उनका ‘साहित्य दर्पण’ निश्चय ही अतुलनीय है। वह संस्कृत काव्य साहित्य एवं काव्य शास्त्र के अध्ययन अनुशीलनरत साहित्यानुरागियों के लिए निरन्तर मार्ग दर्शन का कार्य कर रहा है। इससे बढ़कर उनकी सफलता और क्या हो सकती है कि ‘काव्य प्रकाश के साथ-साथ ‘साहित्य दर्पण’ भी अलङ्कार शास्त्र में अमर हो गया है। यह सत्य है कि विश्वनाथ ने साहित्य दर्पण की रचना में प्राचीन आलंकारिकों के मतों का अनुसरण किया है, परन्तु उनकी दृष्टि मौलिक चिन्तन से सर्वथा रहित हो, ऐसा भी . नहीं है। प्रथम परिच्छेद में ही काव्य का लक्षण करते समय उनकी मौलिकता स्पष्टतः दिखाई देती है। काव्याचार्यों द्वारा किए गए विभिन्न काव्यलक्षणों की आलोचना करते समय उनकी मौलिक विवेचना स्पष्टतः झलकती है। उनकी काव्य परिभाषा है -‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’। जैसे किसी रमणीक दृश्य को देखकर किसी सुमधुर प्रस्तुति का आस्वादन कर मन से ओह, अहो जैसे शब्द निकल पड़ते हैं, उसी प्रकार रामायण, महाभारत, कुमारसम्भवम्, रघुवंशादि के श्रवण से, आस्वादन से जब मन तृप्त हो उठता है तो साहित्यदर्पणकार की यह परिभाषा ऋषि वाक्य जैसी सत्य लगने लगती है। साहित्यदर्पण की ‘शशिकला’ व्याख्या के व्याख्याकार डॉ. सत्यव्रत सिंह के शब्दों में-‘इसमें काव्य की रहस्यमयी भावनायें छिपी हैं, कवियों की कला के रहस्य का संकेत छिपा है, सहृदयों की सहृदयता की कसौटी छिपी है और अन्त में विश्वनाथ कविराज की वह रसमयी काव्य संवेदना छिपी है जो बताना चाहती है कि काव्य क्या है ? किन्तु यह न बताकर ‘कविता’ २५१ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘विश्वनाथ’ पर कविता करने लगती है।" बौद्धिकता के सूक्ष्मवीक्षण यन्त्र से इस काव्य परिभाषा का विश्लेषण करने पर यह सत्य स्पष्टतः सामने आता है कि वाक्य अपने आप रसात्मक नहीं हो सकता। कवि को रसात्मक वाक्यनिर्मित करनी होगी क्योंकि प्रतिदिन दैनन्दिन व्यवहार में आने वाले वाक्यों से रसात्मक काव्य का निर्माण नहीं हो सकता। रसात्मक होने के लिए रस रूप आन्तर तत्त्व को धारण करने के लिए वाक्य को केवल साकांक्ष, योग्य और संसृष्ट पदों का कदम्बर होना ही आवश्यक नहीं है अपितु अदोष, सगुण और सुरुचिपूर्ण ढंग से अलंकृत होना अपेक्षित है। निष्कर्ष यही है, कि विश्वनाथ कविराज का ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ यह काव्यलक्षण ऊपरी तौर पर भी उसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ध्वनित करता है जिसमें अदोषता, सगुणता व समुचित रूप से अलंकृत शब्दार्थ सन्दर्भ का सन्निवेश हो। इस काव्य परिभाषा की दूसरी ध्वनि है-‘रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्’। यह ध्वनि वस्तुतः इस काव्यपरिभाषा के ऐतिहासिक विकास की सूचना है। जब रसात्मक काव्य को काव्य कहा जाता है तब उस वाक्य के रचनात्मक उपकरण तक पहुँचना आवश्यक हो जाता है और वह उपकरण रमणीयार्थ ही है जो रसात्मकता का पोषक हुआ करता है। पुनश्च इस काव्यलक्षण में आनन्दवर्धन की काव्यस्यात्मा ध्वनिः की विचारधारा भी केन्द्रित है जहाँ तक विश्वनाथ के इस लक्षण को काव्य सामान्य का लक्षण न कहकर काव्यविशेष का लक्षण कहने का प्रश्न है, तो यह सत्य है। यह काव्य, रसादिध्वनिकाव्य ही है किन्तु इसके साथ ही यह भी सत्य है कि प्रत्येक आलङ्कारिक का चिन्तन अपने युग की काव्यात्मक चेतनाओं के चिन्तन से प्रभावित हुआ करता है। विश्वनाथ कविराज के समसामयिक काव्यरसिक रस की आलोचना - प्रत्यालोचना रसविषयक चिन्तन मननादि में आत्मविभोर रहा करते थे। जैसे कि विश्वनाथ कविराज के प्रपितामह ही विस्मय रस की अनुभूति को सर्वत्र सिद्ध करने के प्रति प्रयत्नशील थे ‘रसे सारश्चमत्कारः सर्वत्राप्यनुभूयते तच्चमत्कारसारत्वे सर्वत्राप्यद्भुतो रसः॥ तस्मादद्भुतमेवाह कृती नारायणो रसम्। ३ इसी प्रकार विश्वनाथ के सजातीय सगोत्र चण्डीदास काव्य में ‘रसास्वाद’ की स्थिति में ‘रसध्वनि’ व ‘गुणीभूत व्यङ्ग्य’ की असम्भावना का सिद्धान्त स्थापित कर चुके थे, । १. साहित्यदर्पण, भूमिका पृ. १ २. वाक्यं स्याद्योग्यताकाङ्क्षासत्तियुक्तः पदोच्चयः साहित्यदर्पण २/१ ३. साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद 1.

‘- “.– . “.”.- in in .

., अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र २५२ शारदातनय ने भावप्रकाशन में रसादि के सम्बन्ध में प्रौढ़ विवेचन उपस्थित कर दिया था, अन्य अलङ्कारशास्त्र विषयक रचनाएँ भी इस दृष्टि से निर्मित प्रक्रिया में थीं। फलतः रस को केन्द्र में रखकर बनाया गया यह काव्यलक्षण उस युग की आवश्यकताओं से प्रेरित था। सभी काव्यालोचकों ने काव्य के ‘प्रयोजन’ पक्ष पर विचार किया है, किन्तु अलङ्कारशास्त्र के प्रयोजन पर किसी ने दृष्टिपात नहीं किया। विश्वनाथ कविराज ने ही सर्वप्रथम ‘कवि’ और ‘काव्यालोचक’ के एकरस प्रयोजन पर विचार करते हुए ‘चतुर्वर्गप्राप्ति’ को उसका मुख्य प्रयोजन बतलाया है। कारण, मनुष्य की समस्त क्रियाएं चतुर्वर्ग के भीतर समा जाती हैं। काव्य की मानवीय क्रिया है काव्य समीक्षा भी। अतः इन दोनों क्रियाओं का प्रयोजन चतुर्वर्ग प्राप्ति बताना सर्वथा उचित है - अस्य ग्रन्थस्य काव्यङ्गतया काव्यफलैरेव फलवत्वमिति काव्य फलान्याह चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुख़ादल्पधियामपि। काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते।।’ शब्द शक्तियों के विवेचन प्रसङ्ग में विश्वनाथ ने ‘संकेत ग्रह’ के उपायों में वृद्धव्यवहार के अतिरिक्त ‘आप्तोपदेश’ और ‘प्रसिद्धार्थपदसमभिव्यवहार’ को भी शक्तिग्रह के उपायरूप में प्रतिपादित किया है। लक्षणा के सम्बन्ध में उन्होंने कतिपय ऐसी बातों का निर्देश किया है जिन्हें काव्यप्रकाशकार ने सोच समझकर छोड़ दिया था। जैसे काव्यप्रकाशकार ने व्यङ्ग्यार्थगर्भता सके आधार पर लक्षणा के दो भेद बताए थे-१.. गूढ़व्यङ्या एवं अगूढव्यङ्ग्या। किन्तु विश्वनाथ कविराज ने इनमें भी प्रयोजन के धर्मिगत प्रयोजन एवं धर्मगत भेद निर्दिष्ट किये हैं जिनसे प्रयोजनवती लक्षणा की भेद सङ्ख्या बढ़ गई। . . इसी प्रकार विश्वनाथ कविराज का व्यञ्जना निरूपण बड़ा सुबोध व सारगर्भित बन पड़ा है। उनका यह चिन्तन कि वाच्य और व्यङ्ग्य अर्थों में आकाश पाताल का अन्तर है-वाच्यार्थ के बोद्धा पदपदार्थवित् हो सकते हैं, किन्तु व्यङ्ग्यार्थ के बोद्धा सहृदय ही हुआ करते हैं, निस्सन्देह ही महत्त्वपूर्ण है। उनका विश्लेषण है कि वाच्यार्थ यदि कहीं विधिरूप होता है तो व्यङ्ग्यार्थ निषेधरूप हो जाता है; वाच्यार्थ यदि एक है तो व्यङ्ग्यार्थ अनेक, वाच्यार्थ का बोध शब्दोच्चारण मात्र से होता है तो व्यङ्ग्यार्थ बोध के लिए भावयित्री प्रतिभा की अपेक्षा हुआ करती है। वाच्यार्थ से प्रतीति उत्पन्न होती है और व्यङ्ग्यार्थ से चमत्कार वाच्यार्थ आपात में प्रतीत होता है और व्यङ्ग्यार्थ अन्त में; वाच्यार्थ का आश्रय शब्द हुआ करता है और व्यङ्ग्यार्थ का शब्द के अतिरिक्त वर्ण, अर्थ, रचना आदि, इतना ही नहीं वाच्यार्थ का विषय कुछ होता है और व्यङ्ग्यार्थ का कुछ और। MASSAMEE HARE HAVE १. साहित्यदर्पण, १/२ २. तत्रैव ५/२ .. RE २५३ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘विश्वनाथ’ साहित्यदर्पण में विश्वनाथ ने रसध्वनिवादी आचार्यों की मान्यताओं के अनुरूप रस स्वरूप, रसास्वादन, रसमाहात्म्य, रसागों एवं रसनिष्पत्तिविषयक मतों का बड़ा व्यवस्थित विस्तृत एवं सारगर्भित विवेचन प्रस्तुत किया है। उनका वक्तव्य है कि विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के द्वारा अभिव्यक्त स्थायी भाव जब पूर्ण परिपक्वावस्था को प्राप्त होता है, तभी उसे रस कहते हैं। वे दध्यादिन्याय से रसानुभूति सिद्ध करते हैं। अर्थात् दूध जिस प्रकार दही के रूप में परिणत होता है उसी प्रकार स्थायी भाव भी रस के रूप में व्यक्त हो जाता है। कविवर्णित विभावादि के ‘व्यङ्ग्य व्यञ्जकभाव’ रूप संयोग से इत्यादि रत्यादि भावों का यह रूपान्तर परिणाम ‘रस’ एक अलौकिक और सहृदय मात्र संवेद्य तत्त्व है जो ‘अखण्डप्रकाशानन्द, चिन्मय’, वेद्यान्तरस्पर्शशून्य, ब्रह्मास्वादसहोदर, लोकोत्तरचमत्कारप्राण किंवा आत्मस्वरूप से अभिन्न आनन्दानुभव है। __ इस रस के आस्वाद में विभावादि का पृथक् पृथक् प्रतिभास उसी प्रकार नहीं हुआ करता जिस प्रकार प्रपाणक रस के आस्वाद में शर्करा, मरिच, कर्पूर आदि का पृथक्-पृथक् आभास नहीं मिला करता। जैसे इनके सम्मिलन से बना प्रपाणक रस पान किये जाने पर अपूर्व आस्वाद प्रदान करता है उसी प्रकार विभावानुभाव व्यभिचारी भावों के संवलन के होने पर अपूर्व आनन्द प्राप्त हुआ करता है। साधारणीकरण के सम्बन्ध में भी विश्वनाथ के विचार महत्त्वपूर्ण हैं। उनकी मान्यता है कि काव्य-नाट्य में वर्णित विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारी भावों में ‘साधारणीकरण’ की अलौकिक शक्ति रहती है। इस शक्ति की ही महिमा है कि प्रत्येक सामाजिक अपनी-अपनी वैयक्तिक सीमाओं से परे पहुँच जाता है एवं अपने को राभादि नायकों से अभिन्न समझने लगता है। भले ही वह लोक जीवन का एक साधारण मानव हो तथापि समुद्र संतरण जैसे उत्साही कर्मों के प्रति वह महाभावों से भर उठता है। इसी प्रकार से वह रत्यादि भावों की

INFRIEND . २. १. विभावानुभावेन व्यक्तः संचारिणा तथा। रसतामेति रत्यादिः स्थायीभावः सचेतसाम्।। साहित्यदर्पण ३/१ सत्वोद्रेकादखण्डस्वप्रकाशानन्दचिन्मयः वेद्यान्तरस्पर्शशून्यो ब्रह्मास्वादसहोदरः। लोकोत्तरचमत्कारप्राणः कैश्चित् प्रमातृभिः स्वाकारवदभिन्नत्वेनायमास्वाधते रसः। तत्रैव, ३/२, ३ तत्रेव, ३/१५ व्यापारोऽस्ति विभावादेर्नाम्ना साधारणीकृतिः। तत्प्रभावेण यस्यासन् पाथोथिप्लवनादयः।। प्रभाता तदभेदेन स्वात्मानं प्रतिपद्यते उत्साहादिसमुद्बोधः साधारण्याभिमानतः। नृणामपि समुद्रादित्लङ्घनादौ न दुष्यति।। साहित्यदर्पण ३/६, १० m x २५४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अनुभूति करता है। काव्य-नाट्य की यह साधारणीकृति ही रामादिगत रत्याति भावों को भी सामाजिकों की रत्यादि वासनाओं से एकरूप-एकरस बना दिया करती है। परस्य न परस्येति ममेति न ममेति च। तदास्वादे विभावादेः परिच्छेदो न विद्यते।।’ यह कहते विश्वनाथ ने इस साधारणीकरण की स्थिति का अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर विश्लेषण किया है कि रसास्वादन में काव्यनाट्य समर्पित समस्त वस्तुएँ स्वगत तथा परगत के भेद भाव से परे पहुँचकर सर्वसाधारण के समान अधिकार की वस्तुएँ बन जाती हैं। इसी कारण ये अलौकिक आनन्द की सृष्टि करने में समर्थ हो जाती हैं। रस का मूलभूत तत्त्व लोकोत्तर चमत्कार है। यह लोकोत्तर चमत्कार सहृदय सामाजिक के चित्त का विस्तार है। अलौकिक काव्यार्थ के परिशीलन से सहृदय सामाजिक के हृदय में एक ऐसी ज्ञानधारा सी प्रवाहित होने लगती है जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि हृदय विस्तृत हो गया हैं। यह हृदय का विस्तार ही चमत्कार है। यही समस्त रसों में समाहित रहा करता है। ‘रसे सारश्चमत्कारः सर्वत्राप्यनुभूयते’ यह कहते हुए अपने इस मत का उन्होंने अन्यविद्वद्जनानुमोदित समर्थन भी प्रस्तुत कर दिया है। __इसी प्रकार ‘रस’ व ‘आस्वाद’ का तादात्म्य रसोदबोध में विभावादित्रितय की कारणता का रहस्य, करुणादि रसों की आनन्दात्मकता, रस के कार्य, ज्ञाप्य, नित्य, अनुकार्य, अनुकर्तृ, परोक्ष, प्रत्यक्ष आदि न होने का विस्तृत निरूपण करते हुए उसे एकमात्र अनिर्वचनीय, व्यङ्ग्य आस्वादमात्र सार मानने आदि के स्थल की विवेचना विश्वनाथ कविराज की सुन्दर विश्लेषणात्मिका, विषय प्रतिपादनात्मिका शक्ति के परिचायक हैं। रसध्वनिवादी पूर्ववर्ती समस्त आचार्यों की मान्यताएँ इन प्रसङ्गों में विश्वनाथ की यथाशक्य मौलिक विवेचनाओं की सुगन्ध लेकर अपने सम्पूर्ण स्वरूप में सहजतया प्रकाशित हो उठी है। __ माधुर्यादि गुणत्रय के निरूपणप्रसङ्ग में भी विश्वनाथ की विवेचना अन्य ध्वनिवादी आचार्यों की स्थापनाओं से तनिक वैभिन्य रखती हैं। यद्यपि वे अन्य आचार्यों की भांति गुणों को रसमात्र का धर्म मानते हैं तथापिमाधुर्य व ओज के स्वरूप के सम्बन्ध में मम्मट व ध्वनिकार की मान्यताओं से मत वैभिन्य प्रदर्शित करते हैं। मम्मट ने जहां ‘आह्लादकत्वं माधुर्यं शृङ्गारे द्रुतिकारणम्। करुणे विप्रलम्भे तच्छान्ते चातिशयान्वितं'२ कहते हुए माधुर्य को एक ऐसा आह्लाद विशेष कहा था जिसके द्वारा सहृदय सामाजिक के हृदय में द्रुति १. तत्रैव ३/१२ २. काव्य प्रकाश, ८/६८

शारदातनय से अच्युतराय तक ‘विश्वनाथ’ २५५ उत्पन्न होती है उसका चित्त एक अलौकिक आनन्द से पिघल पड़ता है। यही माधुर्य का स्वरूप ध्वनिकार को भी अभीष्ट था शृङ्गारेविप्रलम्भाख्ये करुणे च प्रकर्षवत। माधुर्यमार्द्रतां याति यतस्तत्राधिकं मनः।। विश्वनाथ कविराज के अनुसार ‘आह्लाद’ व ‘चित्त का द्रवीभाव’ एक ही वस्तु है, न कि भिन्न-भिन्न, जिससे इनमें कार्यकारणभाव की कल्पना, जिसे ध्वनिकार व काव्यप्रकाशकार ने की है-असंगत मानी जानी चाहिए। उनकी दृष्टि में माधुर्य की अनुभूति का तारतम्य भी भिन्न-भिन्न है। उनके अनुसार संयोग शृङ्गार करुण, विप्रलम्भ शृङ्गार के आस्वाद में माधुर्य अथवा चित्तद्रुति का उत्तरोत्तर उत्कर्षक्रम अधिक संगत है - चित्तद्रवीभावमयो लादो माधुर्यमुच्यते। संभोगे करुणे विप्रलम्भे शान्तेऽधिकं कमात्।। यही विश्लेषण ‘ओज’ के सम्बन्ध में है। आचार्य आनन्दवर्धन और काव्यप्रकाश के अनुसार ‘ओज’ का तात्पर्य ‘दीप्ति’ है जिसे वीरादि रसों में अनुभव किया जाता है जिसके द्वारा सहृदय सामाजिक अपने चित्तविस्तार का अनुभव किया करता है - ‘दीप्त्यात्मविस्तृतेर्हेतुरोजो वीररसस्थितिः किन्तु विश्वनाथ की दृष्टि में चित्तविस्तार ही ओज है और ‘दीप्ति’ तथा ‘चित्तविस्तार’ में कार्यकारण भाव सम्बन्ध की मान्यता असंगत है - ओजश्चित्तस्य विस्ताररूपं दीप्तत्वमुच्यते। वीरवीभत्सरौद्रेषु क्रमेणाधिक्यमस्य तु॥ ‘ओज’ के उत्तरोत्तर अनुभव प्रकर्ष के सम्बन्ध में भी ध्वनिकार और काव्यप्रकाशकार तथा विश्वनाथ में मत वैभिन्य है। ध्वनिकार के अनुसार रौद्ररस ओजस्वी है किन्तु उसकी अपेक्षा ‘वीर’ अधिक ओजस्वी है। काव्यप्रकाशकार ने वीर को ओजस्वी और उसकी अपेक्षा वीभत्स और रौद्र को अधिक ओजस्वी माना है। विश्वनाथ काव्यप्रकाशकार की इस मान्यता से सहमत है। १. ध्वन्यालोक, २/८ २. साहित्यदर्पण ८/२ ३. काव्यप्रकाश, ८/६६ ४, साहित्यदर्पण, ८/४२५६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र __काव्य के सभी अङ्गों के अतिरिक्त दृश्य काव्य का भी विस्तृत विवेचन साहित्य दर्पण का अपना वैशिष्ट्य है। इस प्रसङ्ग में महाकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तक कथा, आख्यायिकादि का व्यवस्थित स्वरूप विवेचन सन्धि, सन्ध्यङ्गों, रूपकों उपरूपकों का विस्तृत निरूपण साहित्यदर्पण के महत्त्व को द्विगुणित कर देता है। __ प्रायः ध्वनिवादी आचार्यों के द्वारा पृथक रूप से विवेचित न होने वाले ‘रीतितत्त्व’ का निरूपण भी विश्वनाथ ने आवश्यक माना एवं वैदर्भी, गौडी, पाञ्चाली व लाटी उन रीतियों का सोदाहरण विवेचन किया। उनका अलङ्कार, गुण, दोषादि विवेचन कुल मिलकार काव्यशास्त्र के अध्येता के समक्ष इस शास्त्र से सम्बद्ध सभी सिद्धान्तों को सरल सहज रूप में उपस्थित कर उसकी विविध जिज्ञासाओं को ज्ञान पिपासा को शान्त करता है, जो विश्वनाथ के काव्यशास्त्री रूप का सर्वाधिक सफल व सार्थक पक्ष है।

विश्वनाथ कविराज का वंश

विश्वनाथ कविराज ने अपने ग्रन्थों में अपने वंशादि के बारे में स्वल्प परिचय दिया है। इससे अधिक वर्णन अन्य किसी स्रोत से अब तक प्राप्त नहीं हो सका है। इस वर्णन से ज्ञात होता है कि वे उत्कल के किसी प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। उनके प्रपितामह का नाम कविपण्डित प्रवर ‘नारायण’ था। नारायण स्वयं उद्भट विद्वान् एवं अलङ्कारशास्त्र के ग्रन्थप्रणेता थे; जैसा कि ‘साहित्यदर्पण’ की इस उक्ति से ज्ञात होता है ‘चमत्कारश्चित्तविस्ताररूपो विस्मयापरपर्यायः। तत्प्राणत्वं चास्मवृद्धप्रपितामह सहृदय गोष्ठीगरिष्ठकविपण्डितमुरव्यश्रीमन्नारायणपादैरुक्तम्। साहित्यदर्पण ३.३ इसके अतिरिक्त विश्वनाथ कविराजरचित ‘काव्यप्रकाश’ की ‘काव्यप्रकाशदर्पण’ नाम्नी टीका की यह उक्ति-यदाहुः श्रीकलिङ्गभूमण्डलाखण्डलमहाराजाधिराजश्री नरसिंहदेवसभायां धर्मदत्तं स्थगयन्तः अस्मपितामहश्रीमनारायणपादाः। इसी ओर संकेत करती है कि कवि पण्डितप्रवर ‘नारायण’ का साहित्यशास्त्र पर पर्याप्त चिन्तन-मनन था ओर वे तत्कालीन विद्वत् समाज में अत्यन्त प्रसिद्ध थे। परन्तु उपर्युक्त दोनों उद्धरणों में एक जगह नारायण पण्डित के लिए प्रपितामह और दूसरी जगह पितामह कहा गया है। इसे देखते हुए जिज्ञासा सहज ही उठती है कि ‘नारायण पण्डित’ विश्वनाथ के पितामह थे या प्रपितामह । चूँकि इस सम्बन्ध में कोई दूसरा प्रमाण उपलब्ध १. उद्धृत साहित्यदर्पण, सम्पा. सत्यव्रत सिंह, भूमिका पृ. ६२ २५७ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘विश्वनाथ’ नहीं है अतः इन दोनों स्थलों पर ध्यान देने से ज्ञात होता है कि एक जगह वृद्धप्रपितामह शब्द का प्रयोग होता है अतः दूसरे स्थल पर त्रुटिवश ‘प्र’ अंकित होना रह गया होगा। विश्वनाथ के पिता का नाम ’ चन्द्रशेखर’ था। साहित्यदर्पण के अन्तिम श्लोकों से इस तथ्य की अभिव्यक्ति होती है - श्रीचन्द्रशेखर महाकविचन्द्रसूनु श्री विश्वनाथ-कविराज-कृतं प्रबन्धम् । साहित्यदर्पणममुं सुधियो विलोक्य साहित्यतत्त्वमखिलं सुखमेव वित्त।। साहित्यदर्पण १०.६६ चन्द्रशेखर भी पाण्डित्यमण्डित कविप्रतिभा सनाथ थे। साहित्यदर्पण में उल्लिखित इनके दो ग्रन्थों ‘पुष्पमाला’ व ‘भाषार्णव’ से इसी तथ्य की पुष्टि होती है। पुष्पमाला का यह उद्धरण द्वादशपदानान्दी यथा मम तातपादानां पुष्पमालायाम् शिरसि धृतसुरापगे स्मरारावरुणमुखेन्दुरुचिर्गिरीन्द्रपुत्री। अथ चरणयुगानते स्वकान्ते स्मितसरसा भवतोऽस्तु भूतिहेतुः।। इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि चन्द्रशेखर नाटकरचनाकार भी थे। इसके अतिरिक्त भाषार्णव के सम्बन्ध में यह उल्लेख भाषालक्षणानि मम तातपादानां भाषार्णवे साहित्यदर्पण ६/१६६ वृत्ति इससे स्पष्ट है कि चन्द्रशेखर विविध भाषाविद थे। विश्वनाथ ने अपने भाषाविद् कविहृदय पिता द्वारा रचित अनेक उक्तियाँ साहित्यदर्पण में उद्धृत की हैं। विश्वनाथ और उनके पिता दोनों ही किसी देश के राजा के यहाँ ‘सान्धि-विग्रहिक’ के प्रतिष्ठित पद पर रहे होंगे, क्योंकि दोनों के नामों के साथ ‘सान्धिविग्रहिक’ और ‘महापात्र विरुद्’ जुड़ा मिलता है। सम्भवतः यह ‘राजा कलिङ्ग देश का राजा रहा होगा। प्राचीनकालीन व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण मंत्री पद पर नियुक्त ही किये जाते थे। विश्वनाथ को भी यह उत्तरदायित्व संभवतः अपनी वंश परम्परा से ही प्राप्त हुआ था। जहां तक उनके आश्रयदाता के नाम का प्रश्न है तो उस सम्बन्ध में विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि १. १.२ साहित्यदर्पण, ६/२५ २. साहित्यदर्पण, ६/२५ ३. तत्रैव, ३/५८, ३/८२, ३/२१३, ३/२०७ २५८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र आचार्य विश्वनाथ की कृतियों में ‘प्रशस्ति रत्नावली’ नामक कृति भी है जिसमें कलिङ्गाधिपति नरसिंह की स्तुति की गई है। पुनश्च साहित्यदर्पण के कुछ स्थल ऐसे हैं जो स्पष्टतः किसी राजा की प्रशंसा में रचित प्रशस्तिश्लोक हैं। उदाहरणार्थ व्याजस्तुति अलंकार के उदाहरण में ‘इदं मम’ कहते हुए यह श्लोक - स्तनयुगमुक्ताभरणाः कण्टककलिताङ्गयष्टयो देव। त्वयि कुपितेऽपि प्रागिव विश्वस्ता द्विस्त्रियो जाताः।। इसी प्रकार परम्परितरूपक के उदाहरण में आहवे जगदुदण्डराजमण्डलराहवे। श्रीनृसिंहमहीपाल स्वस्त्यस्तु तव बाहवे।। (तत्रैव १०/२६) इन श्लोकों से यह ज्ञात होता है कि ये पद्य सम्भवतः अपने आश्रयदाता की प्रशस्ति में रचित ‘प्रशस्तिरत्नावली’ से लिए गये होंगे। इस तथ्य की पुष्टि ‘साहित्यदर्पण’ की ‘शशिकला’ टीका के व्याख्याकार डॉ. सत्यव्रत सिंह के इस वक्तव्य से भी होती है कि साहित्यदर्पण पर इनके पुत्र अनन्तदास द्वारा रचित लोचनटीका में यह उल्लेख मिलता है-‘यथा मम तातपादानां विजयनरसिंहे’ इससे स्पष्ट है कि ‘प्रशस्तिरत्नावली’ भी कलिङ्गनरेश नरसिंह प्रथम व द्वितीय की विजयगाथा के रूप में वर्णित होगी, जैसे नरसिंहविजयकाव्य। इस प्रकार इन उल्लेखों से इतना तो सिद्ध हो जाता है कि विश्वनाथ ने ‘प्रशस्तिरत्नावली’ व ‘नरसिंहविजय’ नामक काव्य में कलिङ्गाधिपति नरसिंह प्रथम व द्वितीय दोनों की स्तुति की है; जिससे इनका कलिङ्गदेशवासी होना निश्चित होता है। साहित्यदर्पण में आगत ‘कलिङ्गः साहसिकः, राजा (नरसिंहः) गौडेन्द्रं कण्टकं शोधयति’ इत्यादि प्रयोग भी इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं; क्योंकि गौड़ देश कलिङ्ग का प्रत्यासन्न शत्रु देश था।

विश्वनाथ का व्यक्तित्व

‘साहित्यदर्पण’ के प्रथम परिच्छेद की समाप्ति पर आचार्य विश्वनाथ ने अपने व्यक्तित्व का शब्दाङ्कन स्वतः इस प्रकार किया है : श्रीमन्नारायणचरणारविन्दमधुव्रतसाहित्यार्णवकर्णधारध्वनिप्रस्थापनपरमाचार्यकविसूक्तिरत्नाक राष्दाशभाषावारविलासिनीभुजङ्गसन्धिविग्रहिकमहापात्र श्रीविश्वनाथकविराजकृतौ साहित्यदर्पणकाव्यरूपस्वरूपनिरूपणो नाम प्रथमः परिच्छेदः।। इससे स्पष्ट है कि भगवान नारायण के परम भक्त, साहित्यसमुद्र के कर्णधार, ध्वनिप्रस्थापन के परमाचार्य कवि, सूक्तिरत्नाकर, अट्ठारह भाषाओं के मर्मज्ञ तथा राज्य के ANSKR १. साहित्यदर्पण, १०/५६ २. तत्रैव १०/२६ ३. साहित्यदर्पण, सम्पा. डा. सत्यव्रत सिंह भूमिका पृ. ६५

शारदातनय से अच्युतराय तक ‘विश्वनाथ’ २५६ सन्धि-विग्रह विभाग का दायित्व सम्भालने वाले मन्त्री थे। ये सभी बातें उन्हें वंशपरम्परागत दायभाग के रूप में प्राप्त थीं। साहित्यदर्पण में उद्धृत उनकी अनेक कृतियों के उदाहरणपद्य इस बात के सूचक हैं कि ये अलौकिक शेमुषी सम्पन्न थे। साहित्यदर्पण के चालीस से अधिक स्थलों पर ‘इदं मम’ कहकर उन्होंने अपनी विभिन्न काव्य व नाट्यकृतियों से उद्धृत या स्वरचित उदाहरण पद्य दिये हैं। इससे स्पष्टतः सिद्ध हो जाता है कि इन्होंने काव्य एवं नाट्य उभयविध विधाओं में तलस्पर्शी पाण्डित्य एवं अपरिमित रचनात्मकता अर्जित कर रखी थी। विश्वनाथ द्वारा साहित्यदर्पण में उद्धृत उनके नानाविधि स्वरचित उदाहरणपद्यों के अवलोकन से यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि ये मूलतः शृङ्गारी कवि हैं। प्रणय की मादक, मनोहारी, द्रवीभूत कर देने वाली स्थितियों, वृत्तियों व प्रसङ्गों के अंकन में इनका विशेष पाटव है। उदाहरणार्थ मुग्धानायिका के प्रथमावतीर्णमदनविकारास्वरूप के विषय में उनका चित्रण दर्शनीय है दत्ते सालसमन्थरं भुवि पदं निर्याति नान्तःपुरान् नोद्दाम हसति क्षणात्कलयते हीयन्त्रणां कामपि। किञ्चिद्भावगभीरवक्रिमलवस्पृष्टं मनाग्भाषते सभ्रूभङ्गमुदीक्षते प्रियकथामुल्लापयन्ती सखीम्।।’ दीपकालङ्कार में विरहणी का चित्रण भी एतद्द्शासमीक्षणीय है दूरं समागतवति त्वयि जीवनाथे भिन्ना मनोभवशरेण तपस्विनीसा। उत्तिष्ठति स्वपिति वासगृहं त्वदीय मायाति याति हसति श्वसिति क्षणेन।। इसी प्रकार प्रवास विप्रलम्भ की स्थिति का चित्रण करते हुए आचार्य विश्वनाथ की गहरी अनुभूति समदर्शनीय है यामः सुन्दरि, याहि पान्थ, दयिते शोकं वृथा मा कृथाः, शोकस्ते गमने कुतो मम, ततो वाष्पं कथं मुञ्चसि। शीघ्रं न व्रजसीति मां गमयितुं कस्मादियं ते त्वरा भूयानस्य सह त्वया जिगमिषोर्जीवस्य मे सम्भ्रमः।। १. साहित्यदर्पणः ३/५८ २. तत्रैव १०/४८ ३. साहित्यदर्पण, ३/२०८

२६० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र इसी प्रकार अन्य अनेक स्थल कवि के शृङ्गारभावसिक्त कोमलभावानुव्यंजक मन के सूचक हैं। आचार्य विश्वनाथ ने ‘साहित्यदर्पण’ के प्रथम परिच्छेद की समाप्ति पर स्वयं को ‘श्रीमन्नारायणचरणारविन्दमधुव्रत’ कहा है एवं ग्रन्थ की समाप्ति पर यावत्प्रसन्नेन्दुनिभानना श्रीारायणस्याङ्कमलकरोति। तावन्मनः संमदयन्कवीनामेष प्रबन्धः प्रथितोऽस्तु लोके।।’ कहकर भगवान विष्णु व लक्ष्मी के चिरकालपर्यन्त अविभाज्य सम्बन्ध के समान इस ग्रन्थ से सज्जनों के प्रसन्न होने की बात कही है। इन वक्तव्यों से ज्ञात होता है कि विश्वनाथ की धार्मिक आस्था वैष्णव भक्तिपरक थी। काव्य, नाटक, काव्यशास्त्र, प्रशस्तिवाचन व नानाविध शास्त्रों के ज्ञान के अतिरिक्त ‘सान्धिविग्रहिक’ होने से ज्ञात होता है कि ये राजनीतिशास्त्र में भी पारङ्गत थे।

विश्वनाथ का समय निर्धारण

आचार्य विश्वनाथ संस्कृत काव्यशास्त्र के उन आलङ्कारिकों में से हैं जिनका समय निश्चित प्राय सा ही है। अनेक ऐसे उल्लेख उपलब्ध हैं, जिनके आधार पर उनका समय निर्धारण सहजता से किया जा सकता है। ये तथ्य इस प्रकार हैं विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में अलाउद्दीन खिलजी नामक शासक का वर्णन किया है जो सन्धि करने पर सर्वस्व का और युद्ध करने पर प्राणों का हरण कर लेता था सन्धौ सर्वस्वहरणं विग्रहे प्राणनिग्रहः। अल्लावदीननृपतौ न सन्धिर्नच विग्रहः।। यह अलाउद्दीन प्रसिद्ध मुसलमान शासक अलाउद्दीन खिलजी ही था। इसका शासनकाल १२६६-१३१६ ई. तक रहा। इसने अनेक हिन्दू राज्यों पर आक्रमण किया, उन्हें लूटा व बरबाद किया। इस सुल्तान व इसके सेनापति मलिक काफूर के अत्याचारों का इतिहास गवाह है। विश्वनाथ ने भी क्रियोत्प्रेक्षा के एक उदाहरण में इसके कारनामों की एक हल्की झलक वर्णित की है AANTISista गङ्गाम्भसि सुरत्राण तवनिःशाननिस्वनः। स्नातीवारिवधूवर्गगर्भपातनपातकी।। १. २. तत्रैव १०/१०० साहित्यदर्पण, ४/१३, १४/ षष्टप्रभेद तत्रैव १०/३२ ३. २६१

शारदातनय से अच्युतराय तक ‘विश्वनाथ’ अलाउद्दीन खिलजी को १३१६ ई. में विष देकर मार डाला गया था। अब ‘साहित्यदर्पण’ में उद्धृत इन सूक्तियों को ध्यान में रखने पर यह आकलन सहज ही किया जा सकता है कि विश्वनाथ या तत्कालीन अन्य जिस किसी कवि ने अलाउद्दीन के क्रोधी स्वभाव के वर्णनार्थ ‘सन्धौ सर्वस्वहरणम्’ आदि श्लोक की रचना की हो अथवा उसके पराक्रम की स्मृति रूप में ‘गङ्गाम्भसि सुरत्राण’ आदि की निर्मित की हो; इतना तो स्पष्ट है कि उसने ऐतिहासिक तथ्य इनके माध्यम से दे दिया और इस ऐतिहासिकता के आधार पर साहित्यदर्पण के रचयिता का समय १२६६-१३१६ ई. के पहले का नहीं हो सकता। २. साहित्यदर्पण की एक हस्तलिखित प्रति का उल्लेख डाक्टर स्टीन द्वारा संकलित जम्मूकश्मीर दरबार के पुस्तकालय की हस्तलिखित पुस्तकों की सूची में अलङ्कारशास्त्र शीर्षक के अन्तर्गत किया गया है। इस हस्तलिखित प्रति का समय विक्रम संवत् १४४० अर्थात् १३४८ ई. है। अतः निर्विवाद सिद्ध है कि विश्वनाथ का समय १३८४ ई. के बाद का नहीं हो सकता। ३. साहित्यदर्पण में गीतगोविन्दकार जयदेव की एक सूक्ति उद्धृत है। जयदेव बंगाल के प्रतापी राजा लक्ष्मणसेन के दरबार के रत्न थे। कवि उमापति, आचार्य गोवर्धन एवं धोयी कवि के समकालीन जयदेव का समय बारहवीं शती का पूर्वार्द्ध है। इस आधार पर विश्वनाथ जयदेव के पश्चाद्वर्ती सिद्ध होते हैं। .. विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में नैषधकार श्रीहर्ष के नैषधीय चरित से एक श्लोक उद्धृत किया है। इसके अतिरिक्त ‘हनुमदाद्यैर्यशसा सितीकृतः” आदि उद्धरण भी नैषध महाकाव्य के ही हैं। महाकवि श्रीहर्ष का समय ११६७-११७४ ई. है। अतः स्पष्ट है कि विश्वनाथ नैषधकार के उपरान्त ही हुए हैं। विश्वनाथ ने प्रसन्नराघव के रचयिता जयदेव की इस प्रसिद्ध रचना से भी एक श्लोक उद्धृत किया है। प्रसन्नराघवकार जयदेव का समय १२००-१२५० ई. के लगभग निश्चित है। इस आधार पर विश्वनाथ के कार्यकाल को इस समय सीमा के उपरान्त मानने में किसी तरह का कोई संशय नहीं रह जाता। १. हृदि बिसलताहारो नायं भुजगमनायकः कुवलयदल श्रेणी कण्ठे न सा गरलद्युतिः। मलयजरजोनेदं भस्मप्रियारहितेमयि, प्रहर न हरभान्त्यानङ्ग ऋथाकिमु थावसि । साः द. १०/३६ २. धन्यासि वैदर्भिगुणैरुदारैर्यया समाकृष्यत नैषधोऽपि। इतः स्तुतिः का खलुचन्द्रिकाया यदब्धिमप्युत्तरलीकरोति।। साहित्यदर्पण: १./४६ उदाहरण श्लोक साहित्यदर्पणः, १०/५२ उदाहरण श्लोक कदली कदली करभः करभः करिराजकरः करिराजकरः। भुवनत्रितयेऽपि विभर्ति तुलाभिदमुरुयुगं न चमूरदृशः।। साहित्यदर्पणः ४/३/उदाहरण श्लोक .. .."’’-

. . . . . . . . - “..–..-.”." … … .. ……. …….."" २६२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र विश्वनाथ कविराज के प्रपितामह या पितामह के अनुज श्री चण्डीदास ने ‘काव्यप्रकाश’ की ‘दीपिका’ टीका लिखी है। इस टीका का रचनाकाल १२५० ई. के लगभग का है। अतः प्रपितामह या पितामह के अनुज व प्रपौत्र व पौत्र विश्वनाथ के मध्य के अन्तर को लगभग पचास वर्ष का मान लेने पर विश्वनाथ का रचनाकाल १३०० ई. के लगभग निश्चित किया जाना सम्भव लगता है। विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में रुय्यककृत अलङ्कारसर्वस्व का अनेकत्र अनुसरण करते हुए उनके द्वारा प्रस्तुत उदाहरणों को भी उद्धृत किया है। इससे स्पष्ट है कि ये रुय्यक के पश्चादवर्ती हैं। रुय्यक का समय ११३५-५० ई. के लगभग निश्चित किया गया है। इस आधार पर विश्वनाथ का समय १३००-१३५० ई. के लगभग निश्चित करने में कोई असङ्गति प्रतीत नहीं होती। कलिङ्गनरेश नरसिंह (१२७०-१३०३ ई.) जिनके शिलालेखों में उन्हें ‘कविप्रिय’ कहा गया है; के दरबार में विश्वनाथ के प्रपितामह या पितामह ‘नारायण’ और ‘धर्मदत्त’ के शास्त्रार्थ की अनुश्रुति प्रसिद्ध है। विश्वनाथ कविराज ने कविपण्डित धर्मदत्त के नामोल्लेखपूर्वक साहित्यदर्पण में उनके मत को इस प्रकार उद्धृत किया है-तदाह धर्मदत्तः स्वग्रन्थे रसे सारश्चमत्कारः सर्वत्राप्यनुभूयते। तच्चमत्कारसारत्वे सर्वत्राप्यद्भुतो रसः।। तस्मादद्भुतमेवाह कृती नारायणो रसम्।’ इस उद्धरण से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि विश्वनाथ कविराज १३०० ई. के पश्चात ही हुए होंगे। आचार्य विश्वनाथ के कालनिर्धारण के सम्बन्ध में उपर्युक्त सभी प्रमाणों को दृष्टिगत रखते हुए जहां उनकी पूर्वसीमा १३०० ई. के बाद की ही ठहरती है; वहीं उनकी उत्तरवर्ती समयसीमा के निर्धारण में निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखना होगा। १. १५वीं शताब्दी के प्रसिद्ध काव्य व्याख्याकार ‘मल्लिनाथ’ के पुत्र ‘कुमारस्वामी’ की रत्नापण टीका में जो कि ‘प्रतापरुद्रयशोभूषण’ की व्याख्या है, साहित्यदर्पण का नामोल्लेख आया है। १. साहित्यदर्पण : ३/३ की वृत्ति २. सम्मोहानन्दसम्भेदो मदो मद्योपयोगजः। अमुना चोत्तमः शेते मध्यो हसति गायति।। अधमप्रकृतिश्चापि परुषं वक्ति रोदिति । इति साहित्यदर्पणे। प्रतापरुद्रयशोभूषणः रत्नापणः रसप्रसङ्ग

..- . . W hile २६३ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘विश्वनाथ’ इसी प्रसङ्ग में पुनः उद्धरण है - मोहो विचित्तता भीतिदुःखवेगानुचिन्तनैः। घूर्णनागात्रपतनभ्रमणादर्शनादिकृत् । इति साहित्यदर्पणे प्रतापरुद्रयशोभूषणम्, रत्नापण रसप्रसङ्ग २. १५वीं शती के ही काव्यप्रकाश की ‘प्रदीप’ टीका के व्याख्याकार ‘गोविन्द ठक्कुर’ ने अपनी टीका में साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ का नामोल्लेख किए बिना उनके द्वारा मम्मटकृत काव्यलक्षण के खण्डित किये जाने का वर्णन कर विश्वनाथ के काव्यलक्षण की आलोचना की है। उनका यह मत इस प्रकार है ‘अर्वाचीनास्तु यथोक्तस्य काव्यलक्षणत्वे काव्यपदं निर्विषयं प्रविरलविषयं वा स्यात् । दोषाणां दुर्वारत्वात्। तस्मात् ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यमिति तल्लक्षणम्। तथा च दुष्टेऽपि रसान्वये काव्यत्वमस्त्येव। परं त्वपकर्षमात्रम्। तदुक्तम्-‘कीटानुबिद्धरत्नादि’ इत्यादि । एवमलङ्कारादिसत्त्वे उत्कर्षमात्रम्। नीरसे तु चित्रादौ काव्यव्यवहारो गौण इत्याहुः । काव्यप्रकाश-प्रदीप टीका इससे यह निस्सन्दिग्ध रूप से सिद्ध हो जाता है कि प्रदीप व्याख्याकार की दृष्टि में साहित्यदर्पण अलङ्कारशास्त्र का एक अर्वाचीन ग्रन्थ है। उपर्युक्त सभी प्रमाणों के आलोक में विश्वनाथ कविराज के समय को १३०० ई. से १३८५ ई. के मध्य निर्धारित किया जाना युक्तिसंगत होगा।

विश्वनाथ की रचनाएँ

विश्वनाथ कविराज की प्रतिभा का प्रकर्ष साहित्य एवं साहित्यशास्त्र उभयविध क्षेत्रों में उपलब्ध होता है। काव्यशास्त्रीय विषयों के विश्लेषण में इनकी विवेचिका शक्ति इस बात की सुपुष्ट सूचना देती है कि साहित्य एवं साहित्यशास्त्र के साथ दर्शन का भी मणिकाञ्चन संयोग इनके व्यक्तित्व एवं प्रतिभा को पर्याप्तरूपेण निखारने वाला है। ये कारयित्री एवं भावयित्री उभयविध प्रतिभा के धनी थे। इनकी सर्वप्रसिद्ध रचना ‘साहित्यदर्पण’ तो साहित्यशास्त्र की एक सर्वमान्य कृति है ही, तथापि इनकी अन्य अनेक कृतियां हैं, जिनके उद्धरण एवं स्मृतियाँ साहित्यदर्पण के पृष्ठों पर अंकित हैं। ये समस्त उद्धरण उनके नवीन कल्पना से संवलित सरस कविहृदय के ज्ञापक हैं। दुर्भाग्यवश इनमें से कोई भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो सका है। साहित्यदर्पण के द्धरणों से ही उनका बोध होता है। इन उद्धरणों के आधार पर उनकी रचनाओं का परिचय इस प्रकार है अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र १. राघवविलासमहाकाव्य-इस महाकाव्य का उल्लेख साहित्यदर्पण में ‘करुण रस’ के उदाहरण के प्रसङ्ग में किया गया है।’ । २. कुवलयाश्वचरित-इस काव्य की रचना प्राकृत भाषा में हुई थी। इसका उल्लेख ‘जड़ता’ नामक व्यभिचारी भाव के उदाहरण में आगत है। प्रभावती परिणय-यह एक नाटिका है जिसके एक पद्य को साहित्यदर्पण में ‘मुग्धा’ नायिका के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ४. चन्द्रकला-यह भी नाटिका है, जिसका एक पद्य ‘दीप्ति’ नामक अलङ्कार के उदाहरण रूप में प्रस्तुत हुआ है। ५. प्रशस्ति रत्नावली-इस काव्य की रचना सोलह भाषाओं में की गई थी। इसमें कलिङ्गनरेश नरसिंह प्रथम या द्वितीय की स्तुति में रचित प्रशस्तियाँ हैं। इसका उल्लेख साहित्यदर्पण में करभ्भक की परिभाषा में आगत है।’ ६. काव्यप्रकाशदर्पण-विश्वनाथ ने मम्मट के ‘काव्यप्रकाश’ पर काव्यप्रकाश दर्पण नामक टीका लिखी है। साहित्यदर्पण-साहित्यदर्पण विश्वनाथ का साहित्यशास्त्र विषयक सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ है, जिसने इन्हें काव्यशास्त्र के अमर हस्ताक्षर के रूप में अक्षयकीर्तियक्त बना दिया है। नरसिंह विजय-विश्वनाथ ने कलिङ्गनरेश नरसिंह द्वितीय के गौरवगान के रूप में सम्भवतः इस ग्रन्थ की रचना की थी। यह काव्य सम्भवतः साहित्यदर्पण के अनन्तर लिखा गया होगा; क्योंकि इसका निर्देश इस ग्रन्थ में नहीं है। विश्वनाथ के पुत्र अनन्तदास ने ‘साहित्यदर्पण’ की लोचन नाम्नी टीका में उल्लेख किया है। इन समस्त रचनाओं में ‘साहित्यदर्पण’ व ‘काव्यप्रकाशदर्पण’ को छोड़कर अन्य रचनाएँ अप्राप्त हैं। केवल इनके उदाहरण मात्र से विश्वनाथ कविराज की प्रभूत साहित्य सम्पदा का परिचय मिलता है। इन काव्यों व शास्त्रीय ग्रन्थों के अतिरिक्त विश्वनाथ ने कई स्फुट श्लोक भी लिखे होंगे। साहित्यदर्पण में कई उदाहरण इस प्रकार के हैं; जिनमें किसी ESAR १. साहित्यदर्पण ३/२२५ २. तत्रैव, ३/१४८ तत्रैव, ३/५८ ४. तत्रैव, ३/६६ करभ्भकं तु भाषाभिर्विविधाभिर्विनिर्मितम् यथा मम षोडशभाषामयी प्रशस्तिरत्नावली तत्रैव, ६/३३७ यथा मम तातपादानां विजयनरसिंह साहित्यदर्पण-लोचनटीका अनन्तदासकृत २६५ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘विश्वनाथ’ पुस्तक का नाम निर्देश तो नहीं है, पर हैं वे कविराज की ही रचनाएँ।

साहित्यदर्पण

विश्वनाथ कविराज का साहित्यदर्पण साहित्यशास्त्र का अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ है। काव्य प्रकाश की प्रौढ़ता एवं रसगङ्गाधर की दुरूहता से जहाँ विज्ञ जन क्लान्ति का अनुभव करते हैं; वहीं साहित्यदर्पण अपनी सुबोधता से सहृदयों को हठात् आकर्षित कर लेता है। यद्यपि इसमें ध्वन्यालोक काव्यप्रकाश एवं रसगङ्गाधर के समान प्रौढ़ व मौलिक चिन्तन नहीं है; प्रायः प्राचीन आलङ्कारिकों के मतों का ही प्रकाशन है तथापि यह अपने उस एक मात्र उद्देश्य में पूर्णतः सफल रहा है जिसको लक्ष्य बनाकर उस ग्रन्थ में काव्य एवं नाट्य उभयविध विधाओं से सम्बन्धित तथ्यों का वर्णन किया गया है। अधिकांशतः मौलिक न होने पर भी, संग्रह प्रधान होने पर भी अपनी सरस, सुबोध विषय प्रतिपादन शैली के कारण ‘साहित्यदर्पण’ वस्तुतः ‘साहित्यदर्पण’ है जिसमें साहित्यशास्त्र के तत्त्व प्रतिबिम्बित हैं। साहित्यदर्पण दस परिच्छेदों में विभक्त है। इसके प्रथम परिच्छेद में काव्य का प्रयोजन लक्षण एवं भेद निरूपित है। इसी प्रसङ्ग में आचार्य ने मम्मटादि प्राचीन आचार्यों के द्वारा निर्धारित काव्य लक्षणों का खण्डन कर ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ कहते हुए अपने प्रसिद्ध काव्य लक्षण की प्रस्तुति की है। द्वितीय परिच्छेद के पद, वाक्य, महावाक्य, त्रिविध अर्थ प्रकारों, त्रिविध शब्दशक्तियों अभिधा, लक्षणा एवं व्यञ्जना के भेदों की विस्तृत व्याख्या की गई है। इस प्रकरण में उन्होंने मम्मटकृत त्रुटियों का भी निर्देश किया है। अन्त में तात्पर्यार्थ एवं तात्पर्यवृत्ति का भी निरूपण किया है। साहित्यदर्पण के तृतीय परिच्छेद का मुख्य विषय रस-स्वरूप निरूपण है। रस के सम्बन्ध में प्राचीन आचार्यों के मत का समुल्लेख करते हुए उसके स्वरूप तथा निष्पत्ति की व्याख्या की गई है। विश्वनाथ का यह रसस्वरूप निरूपण बड़ा व्यवस्थित एवं परिष्कृत है। उन्होंने नाट्यशास्त्र के रससूत्र की व्याख्या कर उसे अनुकार्य गत अनुकर्तृ गत ज्ञाप्य, कार्य, नित्य, प्रत्यक्ष, परोक्ष, इत्यादि न मानते हुए एकमात्र अलौकिक सत्य सहृदय संवेद्य एवं व्यङ्ग्य माना है। रस की स्वप्रकाशता एवं अखण्डता की सिद्धि की है। विभावादि की विभावता का निरूपण किया है तथा साधारणीकरण की सयुक्तिक व्याख्या की है। इसी क्रम में उन्होंने नायकों के प्रकार उनके सहायकों तथा गुणों का वर्णन किया है। इसके पश्चात नायिकाओं के विभिन्न भेदों, उनके यौवनालङ्कारों, भाषाभिव्यक्तिप्रकारों एवं सहायिकाओं का निरूपण किया गया है। तदन्तर अनुभावों, सात्विक भावों, व्यभिचारी भावों एवं स्थायी भावों के स्वरूप एवं भेदों की विवेचना करके विभिन्न रसों के स्वरूप एवं प्रकारों का निरूपण किया गया है। अन्त में भाव, रसाभास, भावाभास, भावशान्ति, भावोदय, भावसन्धि एवं भावशबलता का भी निरूपण किया गया है।२६६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र MER साहित्यदर्पण के चतुर्थ परिच्छेद में काव्य के द्विविध प्रभेदों ध्वनि एवं गुणीभूतव्यङ्ग्य का सोदाहरण सप्रभेद स्वरूप निरूपण है। अन्त में मम्मट प्रोक्त काव्य के तृतीय प्रभेद चित्रकाव्य का सयुक्तिक खण्डन किया गया है। पञ्चम परिच्छेद में व्यञ्जना वृत्ति की स्थापना की गई है। व्यङ्ग्यार्थ के बोधन में अभिधा लक्षणा, तात्पर्य आदि वृत्तियों के अनु मानादि प्रमाणों का असामर्थ्य निरूपण करते हुए व्यञ्जना को ही इसकी एकमात्र प्रतिपादिका वृत्ति बतलाया है। इस प्रसङ्ग में उनकी मौलिक विवेचना है कि व्यङ्ग्यार्थ की बोधिका व्यञ्जना जब रस का बोध कराती है तो रसना वृत्ति कही जाएगी। साहित्यदर्पण का षष्ठ परिच्छेद काव्य के अन्य निमित्तक भेदों से सम्बद्ध है। सर्वप्रथम रूपक के दस भेदों व उपरूपकों को कहकर नाटकीय पारिभाषिक तत्त्वों का निरूपण किया गया है। तदनन्तर रूपकों एवं उपरूपकों के स्वरूप का विवेचन है। इसके उपरान्त श्रव्यकाव्य के विविध भेदों यथा महाकाव्य, खण्डकाव्य, कथा, आख्यायिका, चम्पू, विरुद, करम्भक आदि के स्वरूप का विस्तृत वर्णन किया गया है। सप्तम परिच्छेद दोषों के विशद वर्णन को समर्पित है। इसमें पद, पदांश, वाक्य, अर्थ, रस एवं अलङ्कारगत दोषों के भेद-प्रभेद का सोदाहरण विवेचन है। अष्टम परिच्छेद में गुणनिरूपण, नवम में रीति एवं दशम में अलङ्कारों का विस्तृत निरूपण किया गया है। गुण निरूपण में इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा प्रोक्त बीस गुणों का मम्मट की सरणि पर तीन गुणों माधुर्य, ओज व प्रसाद में अन्तर्भाव कर दिया है तो रीतिनिरूपण प्रसङ्ग में रीतियों के स्वरूप व भेदों की विस्तृत व्याख्या करते हुए वैदर्भी, गौडी, पाञ्चाली व लाटी ये चार रीतियाँ बताई हैं। अलङ्कार निरूपण में शब्दालङ्कारों, अर्थालङ्कारों व उभयालङ्कारों का विस्तृत निरूपण किया गया है।

टीकाएँ

सर्वाङ्गपूर्ण विषय प्रतिपादकता एवं सरलता सुबोधता के कारण अत्यन्त प्रसिद्ध ‘साहित्यदर्पण’ पर ५ प्राचीन टीकाएँ लिखी हुई उपलब्ध हैं। ये इस प्रकार हैं - १. लोचनटीका : साहित्यदर्पण की इस टीका की रचना विश्वनाथ के पुत्र अनन्तदास ने की थी।। यह प्रकाशित है तथा सङ्क्षिप्त प्रसङ्गानुकूल एवं विद्वत्तापूर्ण है। २. विवृत्ति टीका : इस टीका के रचनाकार रामचरण तर्कवागीश ने १६०० ई. में इसकी रचना की। इसका प्रकाशन हो चुका है और यह विद्वतापूर्ण विस्तृत टीका है। विज्ञप्रिया टीका : इस विद्वतापूर्ण विस्तृत एवं प्रकाशित टीका के लेखक माहेश्वर भट्ट हैं। प्रभाटीका इस अप्रकाशित टीका के रचनाकार गोपीनाथ हैं। H

२६७ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘विश्वनाथ’

टिप्पणी

इस अप्रकाशित टीका के रचनाकार मथुरानाथ शुक्ल हैं। साहित्यदर्पण के अध्ययन से बहुत अधिक प्रचलित होने से वर्तमान काल में इस पर अनेक टीकाएं लिखी जा चुकी हैं। इनमें डा. पी.वी. काणे, आचार्य कृष्णमोहन शास्त्री, पं. शालिग्राम शास्त्री, डा. सत्यव्रत सिह, डॉ. लोकमणि दहाल आदि की टीकाएं प्रसिद्ध

२६५ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

शिङ्गभूपाल

सङ्गीत एवं नाट्य उभयविध-विषयों पर अपनी मेधा का प्रदर्शन करने वाले शिङ्गभूपाल संस्कृत काव्यशास्त्र के समुल्लेखनीय आचार्यों की परम्परा की महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं। इन्होंने भारतीय सङ्गीत के विभिन्न पक्षों की विशिष्ट व्याख्या करने वाले शाङ्गदेव के ‘सङ्गीत रत्नाकर’ पर ‘सगीत सुधाकर’ एवं रसादि विषयों तथा नाट्यादि विषयक सिद्धान्तों के निरूपण से सम्बद्ध ‘रसार्णव सुधाकर’ नामक ग्रन्थ का प्रणयन कर इन दोनों क्षेत्रों में अपना गौरवपूर्ण स्थान सुनिश्चित कर लिया है।

समय एवं जीवन परिचय

‘रसार्णव सुधाकर’ एवं ‘सङ्गीत सुधाकर’ इन दोनों ही ग्रन्थों में ग्रन्थकार शिगभूपाल ने अपना स्वल्प परिचय दिया है। इनमें ‘सङ्गीत सुधाकर’ का उद्धरण प्रथमतः दर्शनीय है। इसके द्वितीय अध्याय की समाप्ति पर पुष्पिका की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-‘इति श्रीमदान्ध्रमण्डलाधीश्वरप्रतिगुणभैरवश्रीअन्नपोत नरेन्द्रनन्दनभुजबलभीम श्रीशिङ्गभूपालविरचितायां सङ्गीतरत्नाकरटीकायां सुधाकराख्यायां रागविवेकाध्यायोद्वितीयः’। इसी प्रकार ‘रसार्णवसुधाकर’ के प्रथम अध्याय की समाप्ति पर पुष्पिका की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं - ‘इति श्रीमदान्ध्रमण्डलाधीश्वरप्रतिगुणभैरवश्रीअन्नपोतनरेन्द्रभुजबलभीमश्रीशिङ्ग भूपालविरचिते रसार्णवसुधाकरनाम्नि नाट्यालकारे रञ्जकोल्लासो नाम प्रथमोऽध्यायः।’ __ इन उद्धरणों से ज्ञात होता है कि शिङ्गभूपाल आन्ध्रप्रदेश के राजा थे। ये आन्ध्रनरेश ‘अनपोत’ अथवा ‘अनन्त’ के पुत्र थे एवं सुधाकरद्वय ‘सङ्गीत’ एवं ‘रसार्णव’ के रचयिता थे। रसार्णव सुधाकर के प्रारम्भिक श्लोकों से इनके पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में कुछ और जानकारी प्राप्त होती है। इसके अनुसार इनका सम्बन्ध दक्षिण भारतीय रेचल्लवंशीय राजकुल से था, जो विंध्य और श्रीशैल के मध्यवर्ती प्रदेश पर शासन करता था। ‘राजाचलम्’ इस प्रदेश की वंश परम्परागत राजधानी थी। इनके पिता का नाम ‘अनपोत’ अथवा ‘अनन्त’ था तथा माता का नाम ‘अन्नमाम्बा’। इनके पितामह शिंगप्रभु या शिंगम नायक थे व प्रपितामह दाचम नायक।’ REPARIES १. तत्र रेचल्लवंशाब्धि शरद्राका सुधाकरः। कलानिधिरुदारश्रीरासी क्षाचमनायकः।।रसार्णव सुधाकर, १/५ तस्य भार्या महा भाग्या विष्णोः श्रीरिवविश्रुता।वोचमाम्बा गुणोदारा जाता तामरसान्वयात्।।तत्रैव, १८ तयोरभूवन् क्षितिकल्पवृक्षाः पुत्रास्त्रयस्त्रासितवैरिवीराः।शिङ्गप्रभुर्वेन्नमनायकश्च वीराग्रणीरेचमहीपतिश्च ।। तत्रैव, 9NE तस्याग्रजन्मा भुविराजदोषैरप्रोतभावादनपोतसंज्ञां। ख्यातां दधाति स्म यथार्थभूतामनन्तसंज्ञाञ्च महीधरत्वात्।।तत्रैव, ११७ अन्नमाम्बेति विख्याता तस्यासीद्धरणीपतेः।देवी शिवा शिवस्येव राजमौलेर्महोज्वला ।। तत्रैव, १२४ राजा स राजाचलनामधेयामध्यास्यवंशक्रमराजधानीम्।सतांच रक्षामसतांच शिक्षा न्यायानुरोधादनुसन्दधार। तत्रैव, १.४१ विन्ध्यश्रीशैलमध्यक्ष्मामण्डलं पालयन् सुतैः । वंशप्रवर्तकैरन भुङ्क्ते भोगपुरन्दरः ।। तत्रैव, ११४२ तस्मिन् शासतिशिङ्गभूमिरमणे मामन्नपोतात्मजे काठिन्यं कुचमण्डले तरलता नेत्राञ्चले सुभ्रुवाम् । वैषम्यं त्रिवलीषु मन्दपदता लीलालसायां गतौ कौटिल्यं चिकुरेषु किञ्च कृशता मध्ये परं बध्यते।।तत्रैव, ११४३) .————.-.— … .- .- .. .——- .:- .:- • -.-..—- २६६ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘शिङ्गभूपाल’ शिङ्गभूपाल, जिनका नाम डॉ. डे के अनुसार शिंगधरणीश, शिंगराज अथवा शिंग महीपति भी था; उत्कृष्ट कोटि के विद्धान होने के कारण हेमचन्द्र के समान ‘सर्वज्ञ’ नाम से सम्बोधित हुआ करते थे। श्री विश्वेश्वर कविचन्द्र ने ‘चमत्कारचन्द्रिका’ में शिगभूपाल का यशोगान करते हुए इन्हें ‘सर्वज्ञ’ नाम से सम्बोधित किया है। शेषगिरि शास्त्री ने अपने इतिहास ग्रन्थ ‘बायोग्राफिक स्केचेज आफ द राजास आफ वेंकटगिरि’ ग्रन्थ में प्रतिपादित किया है-कि ‘संगीत सुधाकर’ का रचयिता ‘शिङ्गभूपाल’ ‘वेङ्कटगिरि’ का राजा था और यह ‘शिंगनायडू’ के नाम से प्रसिद्ध था। इसका समय १३३० ई. के लगभग था। पुनश्च ‘रसार्णव सुधाकर’ के प्रारम्भिक परिचयात्मक श्लोकों में शिङ्गभूपाल ने अपने को शूद्र बताया है तथा दक्षिण में नायडू नामोपाधि की गणना शूद्रों में होती है। अतः शेषगिरि शास्त्री के इस तर्क में बल है। रामकृष्ण भण्डारकरका कथन है कि शिंग ने अपने को आन्ध्रमण्डल का अधीश्वर बतलाया है; तो यह कहना तो कठिन है कि वह किस समय हुआ था, तथापि देवगिरि के राजा सिंघण जिनका समय १२१८ ई. से १२४६ ई. रहा है; को शिंगभूपाल समझा जा सकता है। यह संस्कृतानुरागी एवं पाण्डित्यमण्डित राजा था। ‘संगीत रत्नाकर’ के रचयिता ‘शाळ्धर’ इसी की सभा के पण्डित थे। सम्भव है कि सिंघण ने स्वयं ही ‘सङ्गीत रत्नाकर’ की टीका लिखी हो। यह भी सम्भव है कि किसी अन्य पण्डित ने यह टीका लिखकर अपने आश्रयदाता के नाम से प्रसिद्ध कर दी हो। अतः शिङ्गभूपाल का समय १३वीं शताब्दी का हो सकता है। परन्तु किसी ठोस प्रमाण के अभाव में देवगिरि के राजा सिंघण से शिङ्गभूपाल की अभिन्नता के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। मिथिला के पण्डितों की यह मान्यता कि शिगभूपाल मिथिला के राजा थे ; उचित नहीं है। शिङ्गभूपाल ने स्वयं को आन्ध्रमण्डल का अधीश्वर कहा है और उनके इस कथन के. आगे किम्वदन्तियों का कोई प्रामाणिक मूल्य नहीं। इसके अतिरिक्त ‘रसार्णव सुधाकर’ की हस्तलिखित प्रतियाँ दक्षिण में ही मिली हैं तथा उधर ही इसका अधिक प्रचार है; यह सत्य भी इस बात का पोषक है कि शिङ्गभूपाल दाक्षिणात्य ही थे। एम.टी. नरसिंह अयंगर (सं. सुभाषितनी वी वाणी प्रेस, श्री रङ्गम् १६०८) का कथन है कि ‘शिङ्गम् नायडू’ या ‘शिङ्गभूपाल’ विजयनगर के प्रौढ़ देवराज’ के समकालीन थे, जिनका समय १४२२-१२७७ ई. है, परन्तु इस तिथि की शुद्धता पर पी.आर. भण्डारकर ने सन्देह प्रकट किया है। ए.एन. कृष्ण अयंगर उनकी तिथि १३४०-१३६० ई. की मध्यावधि निर्धारित करने के पक्ष में हैं। १. प्रोसीडिंग्स आफ द फर्स्ट ओरियंटल कान्फ्रेंस, पूना, ॥ १६१६ पृ. ४२५ २७० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र उपर्युक्त तथ्यों के अतिरिक्त कुछ आन्तरिक प्रमाण’ भी हैं। ये हैं, कविकृत पूर्ववर्ती आचार्यों एवं कवियों की कृतियों का उल्लेख। ‘रसार्णव सुधाकर’ की विषयवस्तु पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ की मूल प्रेरणा कवि को भोजकृत ‘शृंगारप्रकाश’ एवं शारदातनय कृत ‘भावप्रकाशनम्’ को देखकर हुई है। भोज का समय ग्यारहवीं शती का पूर्वार्द्ध है एवं शारदातनय का तेरहवीं शती का पूर्वार्द्ध है। इस आधार पर रसार्णव सुधाकरकार की भी आनुमानिक सीमा इस समय के उपरान्त ही निश्चित ठहरती है। भोज एवं शारदातनय से प्रभावित होने के अतिरिक्त शिगभूपाल ने भरत, रुद्रभट, दशरूपककार तथा रस एवं नाट्य इन उभयविध विषयों पर लेखनी चलाने वाले अन्य ग्रन्थकारों का भी उल्लेख किया है। __इस कृति में विभिन्न नाट्य सम्बन्धी सिद्धान्तों की व्याख्या करते समय ग्रन्थकार ने विभिन्न प्रसिद्ध नाट्य ग्रन्थों से प्रभूत मात्रा में उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। इनमें प्रमुख हैं प्रबोधचन्द्रोदय, अनर्घराघव, प्रसन्नराघव, धनञ्जय, विजय व्यायोग, अभिराम राघव, (अनपोतनायकीय) माधवी वीथिका, मायाकुरङ्गिका (ईहामृग), पद्मावती, कामदत्त, रामानन्द, करुणाकंदलअड्क, वीरभद्र विजृम्भणडिम, महेश्वरानन्द, आनन्दकोशप्रहसन, शृङ्गारमञ्जरीभाण, पयोधिमथनसमवकार कन्दर्प सर्वस्वतथा वीरानन्द । डा. डे के संस्कृत काव्यशास्त्र के इतिहास में पृष्ठसंङ्ख्यासहित इन उद्धरणों का विवरण अङ्कित है। परन्तु इन उद्धरणों से शिङ्गभूपाल के समय निर्धारण में कोई विशेष सहायता प्राप्त नहीं होती। कारण इन कृतियों में से जो प्रबोध चन्द्रोदय, ‘अनर्घराघव’ आदि प्रसिद्ध कृतियां हैं वे बारहवीं शती तेरहवीं शती की रचनाएं हैं; एवं अन्य अवशिष्ट कृतियाँ या तो अप्रकाशित हैं या फिर इतनी अचर्चित हैं कि उनके रचनाकालादि के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी उभर कर सामने नहीं आती। जहां तक शिङ्गभूपाल के राज्यकाल से उनके समय निर्धारण का प्रश्न है तो देवगिरि के राजा सिंघण जिनका राज्यकाल १२१८ ई. से १२४६ ई. रहा है; इनकी समानता नहीं की जा सकती। कारण, शिङ्गभूपाल ने इसी समयावधि में (१२०० ई.-१२५० ई.) निर्धारित किये गये शारदातनय के ग्रन्थ भावप्रकाशन से प्रभावित होकर स्वकीय रचना की विषयवस्तु आदि का निर्धारण किया है; अतः उनका समय इस अवधि में निर्धारित नहीं किया जा सकता। कारण, किसी ग्रन्थ के लेखन व उसकी प्रसिद्धि के विस्तार में कम से कम २५-५० वर्ष तक का समय तो लग ही जाता है; वह भी ऐसी प्रसिद्धि कि अन्य परवर्ती लेखक व रचनाकार उससे प्रभावित हो काव्य रचना करें।

१. प्रोसीडिंग्स आफ द आल इंडिया ओरियंटल कान्फ्रेंस, मैसूर, १६३७ पृ. २६४-७३ . - .

.–: शारदातनय से अच्युतराय तक ‘शिङ्गभूपाल’ २७१ - इसी प्रसंग को लेकर दक्षिण भारत के इतिहास को ध्यान में रखने पर ज्ञात होता है कि देवगिरि के यादवों में यादव जैतुगी के बाद उसका लड़का सिंहन (१२१०-४७ ई.) सिंहासन पर बैठा जिसके अधीन यादव साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार हुआ। सिंहन का सेनापति वीकन था, जो दक्षिण प्रान्त का शासक था। उसके प्रयत्नों से सिंहन का राज्य बढ़ता चला गया। यह राज्य उन क्षेत्रों में भी फैल गया जो कभी पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य के केन्द्रीय, पश्चिमी व दक्षिणी पश्चिमी हिस्से थे। सिंहन ने काकतीय, गणपति व मालवा के राजा के विरुद्ध भी युद्ध छेड़े थे। सिंहन का मुख्य ज्योतिषी चंगदेव था जो प्रसिद्ध खगोलशास्त्री एवं ज्योतिषी भास्कराचार्य का पौत्र तथा जैतुगी प्रथम के मुख्य पण्डित लक्ष्मीधर का पुत्र था। यादव के सिंहासन पर सिंह का पौत्र कृष्ण (१२४७-६० ई०) बैठा। कारण उसका पुत्र जैतुगी द्वितीय पिता के जीवनकाल में ही स्वर्गवासी हो गया था। सिंहन का शासनकाल साहित्यिक गतिविधियों के लिए विख्यात रहा। अमलानन्द का वेदान्तकल्पतरु इसी समय का है। कृष्ण के बाद उसका भाई महादेव सिंहासन पर बैठा (१२६०-७१ ई०)।’ इस वर्णन से स्पष्ट है कि शिङ्गभूपाल द्वारा प्रदत्त स्ववंश वर्णन व यादव राजा सिंहन के वंशधारी लोगों के नामों में पर्याप्त अंतर है। साहित्यिक गतिविधियों हेतु उदारमना होने पर भी राजा सिंहन व शिगभूपाल के मध्य साम्य प्रस्थापन उचित नहीं। पुनश्च दक्षिण भारत के ग्रन्थों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि वहां विविध वंशों के विभिन्न शासकों के राज्यकाल में प्रभूत मात्रा में साहित्य का सृजन हुआ। धर्म, दर्शन, नीति, काव्य, नाट्य, काव्यशास्त्र कथा, सन्देशकाव्य स्तुति, टीका, व्याख्यान, धर्मशास्त्र कोश आदि विषयों को लेकर विद्वानों ने साहित्यभण्डार को पर्याप्त समृद्ध किया। इसी क्रम में हमारे विवेच्य ग्रन्थ ‘रसार्णवसुधाकर’ का भी प्रणयन हुआ जो विजयनगर शासन के प्रारम्भकाल की कविता, नाटक व आलोचना सम्बन्धी रचनाओं में समुल्लेखनीय माना गया। वहाँ इस रचना को राजकोण्ड के शिङ्गभूपाल जिनका समय १३५० ई. बताया गया है, रचित माना गया है। पर साथ ही वहाँ इसके लिए अधिक श्रेय उसके राजकवि विश्वेश्वर को दिया गया है जिसने ‘चमत्कारचन्द्रिका’ की रचना की थी जो अलङ्कारशास्त्र की अच्छी पुस्तक है। इन ऐतिहासिक तथ्यों को ध्यान में रखने पर यही कहना ज्यादा उचित है कि इस संदर्भ में दक्षिण भारत से सम्बद्ध इतिहास ग्रन्थों के पर्यालोचन की और अधिक आवश्यकता है। ‘यह राजकोण्ड’ प्रदेश किस राजवंशीय शासन के अन्तर्गत शासित था; उसकी १. दक्षिण भारत का इतिहास, डॉ. नीलकण्ठ शास्त्री पृ. १८४-१८६ २. दक्षिण भारत का इतिहास, डा. नीलकण्ठ शास्त्री पृ. ३०४ २७२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र राजवंशीय परम्परा क्या थी ? इसके परवर्ती शासक कौन थे ? इत्यादि तथ्य अन्वेषणीय हैं। इस राजवंश के सम्बन्ध में उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों का शिगभूपाल द्वारा ‘रसार्णवसुधाकर’ में वर्णित वंशवर्णन से साम्य हो जाने पर कम से कम हम किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंच पाने की स्थिति में होंगे। जब तक इन वर्णनों का पारस्परिक साम्य नहीं हो जाता तब तक हमें इन्हें राजकोट का शासक मानने पर सहमत होना चाहिए जिनका समय १३५० ई. के लगभग था व जिनके राजकवि विश्वेश्वर थे, जिन्होंने चमत्कारचन्द्रिका नामक अलङ्कारशास्त्रीय कृति की रचना की थी। वे शिङ्गभूपाल के कृपापात्र थे। अपने ग्रन्थ में आगत कतिपय उदाहरण पद्यों में उन्होंने अपने संरक्षणदाता का गुणगान भी किया है-‘सिंहभूपाल कीर्तिसुधासारशीतला’

रचनाएँ

रसार्णवसुधाकर
तीन विलासों में नाट्यशास्त्रीय विषयों को आधार बनाकर लिखित ‘रसार्णव सुधाकर’ में न केवल नाट्य वरन् काव्य के परम रमणीय तत्त्व ‘रस’ के सभी अङ्गों उपाङ्गों तथा तत्सम्बद्ध विषयों का विस्तृत विवेचन है। ये तीन विलास हैं-रञ्जकोल्लास, रसिकोल्लास तथा भावोल्लास । प्रथम रञ्जकोल्लास के अन्तर्गत नाट्य लक्षण, रसस्वरूप, नायक के गुण व प्रभेद, प्रणय व्यापार में उसके सहायक; नायिका के गुण तथा भेद वैदर्भी, गौडी, पाञ्चाली रीतियाँ, कैशिकी आदि चार वृत्तियाँ तथा विभिन्न सात्विक भावों का वर्णन है। द्वितीय रसिकोल्लास में तैंतीस व्यभिचारी भावों तथा आठ स्थायी भावों के विस्तृत विवेचन के साथ रति के भेद, शृंगार तथा अन्य रस, रसों के प्रतिरस रसाभास, भावाभासादि का विस्तृत निरूपण है। तृतीय भावोल्लास में दृश्यकाव्य रूपक के विभिन्न प्रभेदों, अर्थप्रकृतियों, पताका स्थानक, पञ्च अवस्थाओं अङ्ग-प्रत्यङ्ग सहित सन्धियों का विशद वर्णन है। इसके अतिरिक्त रूपक के विविध प्रभेदों उनमें प्रयोग करने योग्य भाषाओं पात्रों के नामादि का प्रतिपादन भी यहां हुआ है। इन त्रिविध विलासों की विषयवस्तु को अधिक गम्भीर दृष्टि से देखने पर ज्ञात होता है कि - स्वच्छस्वादुरसाधारो वस्तुच्छायामनोहरः। सेव्यः सुवर्णनिधिवद् नाट्यमार्गस्य नायकः।। सात्विकाद्यैरभिनयैः प्रेक्षकाणां यतो भवेत् । नटे नायकतादात्म्यबुद्धिस्तनाट्य मुच्यते।। रसोत्कर्षों हि नाट्यस्य प्राणास्तत् स निरूप्यते। विभावैरनुभावैश्च सात्विकैर्व्यभिचारिभिः।। आनीयमानः स्वादुत्वं स्थायी भावो रसः स्मृतः। तत्र ज्ञेयोविभावस्तु रसज्ञापनकारणम् ।।’ SRENRAIL १. रसार्णवसुधाकर १/५६-५६ the शारदातनय से अच्युतराय तक ‘शिङ्गभूपाल’ २७३ यह कहते हुए नाटक, नायक व रस के प्राथमिक महत्त्व का निरूपण करते हुए शिङ्गभूपाल ने प्रथम विलास में नायक के विभिन्न गुणों यथा महाभाग्य, औदार्य, स्थैर्य, दक्षता, उज्जवलता, धार्मिकता, कुलीनता, वाग्मिता, कृतज्ञता, नयज्ञता, शुचिता, मानिता, तेजस्विता, कलाक्ता, प्रजारञ्जकता आदि का सोदाहरण निरूपण कर नायक के उत्तम, मध्यम व अधम इन तीन भेदों के चार अवान्तर प्रभेदों, धीरोदात्त, धीरललित, धीरप्रशान्त व धीरोद्धत का सोदाहरण प्रस्तुतिकरण किया है। शृङ्गार रस की दृष्टि से इन नायकों को पति, उपपति व वैशिक इन तीन भेदों में विभक्त कर पुनः इनके समस्त प्रभेदों को सोदाहरण वर्णित किया गया है। इसी प्रकरण में शृङ्गारी नायक के सहायकों पीठमर्द, विट, चेट, विदूषक व सहायकों के गुणों का वर्णन कर शिङ्गभूपाल नायक की प्रणयिनी नायिकाओं के विविध प्रभेदों के निरूपण को आवश्यक मानकर तत्प्रतिपादनात्मक वर्णन में तत्पर हो उठे हैं। स्वकीया परकीया व सामान्या इस त्रिविध रूप में प्रथमतः नायिकाओं को विभक्त कर उनके मुग्धा, मध्या, प्रगल्भा व उनके भी नाना अवान्तार भेदों का सोदाहरण निरूपण कर शिङ्गभूपाल ने अपने गम्भीर विषयज्ञान को प्रस्तुत किया है। नाना प्रभेदों के उदाहरण में उन्होंने स्वरचित अनेक पद्यों को प्रस्तुत कर अपनी काव्यरचनासामर्थ्य का भी पर्याप्त परिचय दिया है। __इसी विलास में श्रृंगार के चतुर्विध उद्दीपनविभाव गुण, चेष्टा, अलङ्कृति व तटस्थता अपने समस्त प्रभेदों सहित वर्णित होकर विषय विवेचन को सम्पूर्णता प्रदान करते हैं। अनुभावों के अन्तर्गत हाव, भाव, हेलादि चिन्तन, भाव, लीला विलास विच्छित्त्यादि गात्रज भाव, पौरुष, सात्विक भाव यथा शोभा, विलास, गभीरगमन, स्मितवचन इत्यादि। आलाप, प्रलाप, संलापादि द्वादश वागारम्भ शिङ्गप्रवर की लेखनी द्वारा विवेचित होकर महनीय हो उठे हैं। बुद्धयारम्भ के अन्तर्गत रीति, वृत्ति व प्रवृत्ति अपने समस्त प्रभेदों के साथ सविस्तार ग्रन्थकार द्वारा वर्णित है। विलास के अन्त में सात्विक भावों का वर्णन नायक नायिका से लेकर विभाव, अनुभाव, रीति वृत्ति प्रवृत्ति को एक समग्र पक्ष समेटते विराम लेता है। __ द्वितीय विलास में व्यभिचारी भावों व संचारी भावों को नाम विश्लेषण पूर्वक सप्रभेद प्रतिपादन किया गया है। इनके व्यभिचारी व संचारी नामों का विश्लेषण करते ग्रन्थकार का वक्तव्य है व्यभी इत्युपसर्गों द्वौ विशेषाभिमुखत्वयोः। विशेषेणाभिमुख्येन चरन्ति स्थायिनं प्रति।। वागङ्गसत्वयुक्ता ये ज्ञेयास्ते व्यभिचारिणः। सञ्चारयन्ति भावस्य गतिं सञ्चारिणोऽपि ते।। रसार्णवसुधाकर २/१, २ २७४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र तैंतीस सञ्चारी भावों के नानाविध प्रभेदों का सोदाहरण निरूपण ग्रन्थकार के वैदुष्य व मानव मनोविज्ञान की अभिज्ञता का परिचायक है। इसी प्रकरण में स्थायीभावों को भी उनके अवान्तर प्रभेदों सहित विवेचित करना, रसों का सप्रभेद विस्तृत निरूपण, रसाभासों का विश्लेषण कवि के गभीर ज्ञान के सूचक स्थल है। उनमें सभी प्रसङ्गों को तो सप्रभेद उल्लिखित करना विस्तार को जन्म देगा तथापि कुछ स्थल अवश्य उदाहरणीय हैं। यथा शृङ्गार के सम्भोग शृंगारान्तर्गत प्रभेदों का निरूपण करते हुये ग्रन्थकार ने कई पक्षों को उठाया है। यथा संक्षिप्त सम्भोग श्रृंगार, पुरुषगत साध्वसेन सङ्क्षिप्त, स्त्रीगत साध्वसेन संक्षिप्त, संकीर्ण सम्भोग, सम्पन्न सम्भोग, समृद्धिमत् सम्भोग श्रृंङ्गारादि। इसी प्रकार हास्य के आत्मस्थ, परस्थ दो रूप, उन दोनों के स्मित, हसित, विहसित, अवहसित, अपहसित, अतिहसितादि प्रभेद। पूर्वराग विप्रलम्भ में प्रत्यक्ष दर्शन, श्रवण, दर्शनस्वरूप कथन, चित्र दर्शन, स्वप्नदर्शन आदि से उत्पन्न कई प्रभेद बतलाए गए हैं। स्थायीभावों में रति का उदाहरण देना समीचीन होगा। इसके कई प्रभेदों का ग्रन्थकार ने वर्णन किया है। उदाहरणार्थ-निसर्गरति, अभियोग जनित रति, संसर्गजनित रति, अभिमानजन्य रति, उपमाजन्य रति, अध्यात्मजन्य रति, शब्दजन्य, रूपजन्य रसजन्य, स्पर्शजन्य, गन्धजन्य प्रभेदों का वर्णन, रति के अवस्थान्तरों प्रेमा, मान प्रणय स्नेह, स्नेह के प्रौढ मन्द व मध्य भेद राग उसका त्रैविध्य कुसुम्भ नीली, माञ्जिष्ठ राग आदि का वर्णन सविस्तार उपन्यस्त है। इसी प्रकार अन्य प्रसङ्ग, अन्य विश्लेषणीय पक्ष भी दर्शनीय हैं। __ तृतीय विलास नाट्य व रूपक के शब्दार्थ पर विचार करते हुए नाट्य की दशविधता, इतिवृत्त की पञ्चविधता, अर्थप्रकृतियों, सन्धियों, सन्ध्यङ्गों, छत्तीस वस्तुभूषणों, नान्दी के षड्विध प्रभेदों, भारतीवृत्ति, कवियों की चतुर्विधता उदात्त, उद्धत, प्रौढ़ व विनीत, प्रस्तावना, स्थापना उनके विविध प्रभेदों, वीथ्यङ्गों, अर्थोपक्षेपकों के विविध प्रभेद, अङ्कलक्षण, गर्भाङ्क वर्णन रूपक के समस्त प्रभेदों का विस्तृत निरूपण परिभाषा के विविध प्रभेद, कञ्चुकी, चेटी, अनुजीवी, वन्दी, मन्त्री, पुरोधा, नायक, नायिका, देवी, भोगिनी विद्याधर, कापालिक, सुवासिनी, विदूषक, त्रैवर्णिक आदि के नामों की भी चर्चा की गई है। अन्त में सत्काव्य की प्रशंसा कर ग्रन्थ का समापन हो जाता है। सङ्गीत सुधाकर यह रचना शाङ्गदेव द्वारा लिखित ‘सङ्गीत रत्नाकर’ की टीका है। देवगिरि के यादव राजा सिंघण (१२१०-१२४७ ई.) के शासनकाल में शाङ्गदेव ने ‘सङ्गीत रत्नाकर’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी। शिङ्गभूपाल ने उसी पर ‘सङ्गीत सुधाकर’ नाम से टीका रची। नाटक परिभाषा शिगभूपाल ने २८६ श्लोकों में निबद्ध एक नाटक परिभाषा नामक ग्रन्थ का भी प्रणयन किया था एवं इसका संक्षिप्त विवेचन रसार्णवसुधाकर के अन्त में किया है। २७५ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘गोविन्द ठक्कुर’

गोविन्द ठक्कुर

अपनी मौलिक प्रतिभा और प्रखर मेधा द्वारा ‘काव्य प्रकाश’ के विवेच्य विषयों का सर्वथा नवीन दृष्टि से पुनराख्यान करने के लिए ‘काव्य प्रदीप’ टीका की रचना करने वाले उद्भट पाण्डित्यमण्डित गोविन्द ठक्कुर काव्यशास्त्र के इतिहास में सादर उल्लेखनीय है। यह ‘काव्यप्रदीप’ का वैशिष्ट्य एवं गोविन्द ठक्कुर का वैदुष्य ही है कि इनकी टीका ‘काव्यप्रकाश’ पर निर्मित लगभग १०० टीकाओं के मध्य सर्वश्रेष्ठ टीका मानी जाती है। पुनश्च, साहित्यशास्त्र के उद्भट विद्वान् एवं नव्यव्याकरण के प्रणेता ‘नागेश’ जैसे मनीषी व ‘वैद्यनाथ’ जैसे पण्डित ने ‘प्रदीप’ पर क्रमशः उद्योत एवं ‘प्रभा’ नाम्नी टीकाएँ लिखीं इसी से इनके ग्रन्थ का महत्त्व स्पष्ट है। इस टीका के वैशिष्ट्य के सम्बन्ध में स्वयं ग्रन्थकार का वक्तव्य है - “परिशीलयन्तु सन्तो मनसा सन्तोषशीलेन। इममद्भुतं प्रदीपं प्रकाशमपि यः प्रकाशयति।।’ गोविन्द ठक्कुर ऐसे वंश में उत्पन्न हुए थे, जिनमें परम्परा से विद्याओं का अध्ययन होता आ रहा था और जिसमें अनेक विद्या वैभव सम्पन्न विद्वान उत्पन्न हुए थे। फलस्वरूप ज्ञान का वह भण्डार विरासत के रूप में प्रदीपकार को उपलब्ध हुआ। प्रदीपकार उच्चकोटि के नैयायिक थे। उनके समय तक दर्शन, व्याकरण आदि क्षेत्रों में गम्भीर चिन्तन और मनन हो चुका था तथा नव्य-न्याय की नयी प्रणाली का भी आरम्भ हो चुका था। ऐसे समय में गोविन्द ठक्कुर ने एक नवीन दृष्टि लेकर ‘काव्यप्रकाश’ ग्रन्थ का मन्थन करके उसका जो सारभूत नवनीत प्राप्त किया, उसे अपनी ‘काव्यप्रदीप’ टीका के रूप में प्रस्तुत किया।

वंश परिचय

काव्य प्रदीप के आरम्भ में वर्णित पद्य से ज्ञात होता है कि इनका ‘गोविन्द’ नाम व ‘ठक्कुर’ उपनाम था। माता का नाम सोनो देवी और पिता का नाम केशव था। रुचिकर कवि इनके सौतेले ज्येष्ठ भाई थे और श्रीहर्ष इनके कनिष्ठ भाई थे सोनोदेव्याः प्रथम तनयः केशवस्यात्मजन्मा श्री गोविन्दो रुचिकर कवेः स्नेहपात्रं कनीयान्। श्रीमन्नारायण चरणयोः सम्यगाधाय चित्तं नत्वा सारस्वतमपिमहः काव्यतत्त्वं व्यनक्ति।।

१. काव्यप्रदीप, पृष्ठ ४०३—-

२७६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र इसी प्रकर एक पद्य टीका के अन्त में उद्धृत है - ज्येष्ठे सर्वगुणैः कनीयसि वयोमानेन पात्रे धियां गात्रेण स्मरगर्वरवर्वणपरे निष्ठाप्रतिष्ठाश्रये। श्री हर्षेति दिवङ्गते मयि मनोहीने च कः शोधयेत् अत्राशुद्धमहो महत् सुविधिना भारोऽयमारोपितः।। गोविन्द ठक्कुर के भ्राता श्रीहर्ष के विषय में यह विवाद है कि नैषध के रचयिता श्रीहर्ष और गोविन्द ठक्कुर के भ्राता श्रीहर्ष एक ही व्यक्ति थे या दोनों भिन्न-भिन्न । इस शंका के निवारण हेतु कुछ तर्कों का उल्लेख किया गया है जिसके अन्ततोगत्वा यही सिद्ध होता है कि गोविन्द ठक्कुर के भ्राता श्रीहर्ष और नैषध के रचयिता श्रीहर्ष दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे। प्रदीपकार के सहोदर श्रीहर्ष केशवात्मज थे जबकि नैषधकाव्य के रचयिता श्रीहर्ष हीरात्मज थे।’ ‘काव्यप्रदीप’ टीका में गोविन्द ठक्कुर ने ‘विरोधालङ्कार’ विवेचन में “यथा वा मद्भातुः श्रीहर्षस्य"२। उदाहरण की चर्चा की है। दूसरी ओर विशेषोक्ति अलङ्कार निरूपण में ‘भूम्यां… तार्जि उदाहरण की चर्चा की है और इस उदाहरण के लिये लिखा है-इत्यादिनैषधदर्शनात्। इन दोनों उदाहरणों द्वारा स्पष्ट है कि गोविन्द ठक्कुर ने स्वयं ही यह सिद्ध किया है कि ‘नैषध’ रचयिता श्रीहर्ष और उनके भ्राता श्रीहर्ष दोनों भिन्न व्यक्ति थे। यदि दोनों एक ही व्यक्ति होते तो गोविन्द ठक्कुर ‘विशेषोक्ति’ अलङ्कार के उदाहरण के अवसर में भी ‘यथा वा मद्भातुः श्रीहर्षस्य’ ऐ सा ही प्रयोग करते। पण्डित दुर्गाप्रसाद द्वारा सम्पादित ‘काव्यप्रदीप’ टीका के आरम्भ की भूमिका में भी गोविन्द ठक्कुर के सम्बन्ध में कुछ जानकारी मिलती है। दुर्गाप्रसाद जी के कथन द्वारा गोविन्द ठक्कुर के वंश और स्थान के विषय में ज्ञात होता है कि ये मिथिला के ‘भटसीमरि’ ग्राम के रहने वाले रविकर वंश के तथा ‘ठक्कुर’ उपनाम से सुशोभित थे। RSS PRASARDARSHA १. श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतम्। श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम्।। (नैषध; सर्ग १, अन्तिमपद्य) २. ‘यथा वा मद्भातुः श्रीहर्षस्य’ - ‘सर्वतः पुरत एव दृश्यते पात्रतां न पुनरेति चक्षुषोः।’ हृद्गतोऽपि भुजयोर्न भाजनं कोऽयमालि वनमालिनः क्रमः। - काव्यप्रदीप, पृ. ३५५ ३. काव्य प्रदीप, पृ. ३५०। ४. काव्यप्रदीप आरम्भिक भूमिका २७७ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘गोविन्द ठक्कुर’ दुर्गादास जी ने गोविन्द ठक्कुर की वंश परम्परा को इस प्रकार स्पष्ट किया है - __ रविकर ठक्कुर : प्रथम पत्नी द्वितीया पत्नी बुद्धि ठक्कुरः रविकान्त ठक्कुरः कीर्ति ठक्कुरः प्रथमा पत्नी (सोनोदेवी) = केशव ठक्कुरः = द्वितीया पत्नी RA दूबर ठक्कुरः Marwadi गोविन्द ठक्कुरः (गोनू ठक्कुरः) हर्ष ठक्कुरः रुचिकर ठक्कुरः महाई ठक्कुरः थेघठक्कुरः कृष्ण ठक्कुरः ठकरू ठक्कुरः, विद्यापति ठक्कुरः, गदाधर ठक्कुरः दामोदर ठक्कुरः नरसिंह ठक्कुरः

समय

गोविन्द ठक्कुर ने काव्यप्रदीप टीका में अपने जन्म समय के विषय में स्वयं कोई चर्चा नहीं की है। माणिक्यचन्द्र आदि काव्यप्रकाश के टीकाकारों ने अपने समय या कृतियों के रचनाकाल का स्वयं निर्देश दिया है, जिससे उनके समय के विषय में जानकारी प्राप्त करने में कठिनाई नहीं होती है। किन्तु प्रदीपकार हमें यह सौविध्य प्रदान नहीं करते।

२७८

“. अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र सर्वप्रथम ‘काव्य प्रदीप’ टीका के अध्ययन से ही गोविन्द ठक्कुर के समय के विषय में कुछ सहायता मिलता है। ‘प्रदीप’ टीका में जिन पूर्ववर्ती आचार्यों की चर्चा की गयी है, उनमें अन्तिम आयार्च विश्वनाथ हैं। विश्वनाथ ने ‘काव्य-लक्षण’ की चर्चा-प्रसङ्ग में मम्मट की जो आलोचना की है। उसका उल्लेख प्रदीपकार ने अपनी टीका में किया है’। ग्रन्थ विशेष या लेखक का नाम-निर्देश न होते हुए भी ‘अर्वाचीनस्तु’ से जिस मत को उद्धृत किया गया है, उससे स्पष्ट है कि वह मत विश्वनाथ द्वारा किये गये आक्षेपों का निराकरण है। विश्वनाथ के लिये ‘अर्वाचीन’ सम्बोधन यही सिद्ध करता है कि गोविन्द ठक्कुर का समय विश्वनाथ के पश्चात् पन्द्रहवीं-सोल्हवीं शताब्दी के लगभग है। श्री यशोविजयजी गणी, श्री कमलाकर भट्ट, श्रीनरसिंह ठक्कुर तथा श्री भीमसेन दीक्षित आदि टीकाकारों के आधार पर भी गोविन्द ठक्कुर के समय के विषय में जानकारी मिलती हैं। सर्वप्रथम टीकाकार यशोविजयी जी हैं। जिन्होंने काव्य प्रकाश टीका में अनेक बार गोविन्द ठक्कुर का उल्लेख किया है। श्रीमद्यशोविजयी जी गणी का समय १५८३ से १६८६ ई माना गया है। इस आधार पर गोविन्द ठक्कुर का समय १५८३ ई. से पूर्व अर्थात १५ वीं-१६ वीं शताब्दी के लगभग है। श्री कमलाकर भट्ट तथा नरसिंह ठक्कुर के आधार पर भी उनका समय सोलहवीं शताब्दी के लगभग ठहरता है। नरसिंह ठक्कुर, गोविन्द ठक्कुर से पाँचवी पीढ़ी में आते हैं। उन्होनें कमलाकर भट्ट के निर्णयसिन्धु ग्रन्थ की आलोचना की है। अतः नरसिंह ठक्कुर कमलाकर से अर्वाचीन हैं इसलिए कमलाकर से ही गोविन्दठक्कुर के स्थितिकाल का अनुमान हो सकता है। कमलाकर ने अपने स्थितिकाल का स्वरचित निर्णय सिन्धु ग्रन्थ की समाप्ति का उल्लेख किया है। इसके अनुसार कमलाकर का स्थितिकाल १६१२ ई. रहा है। अतएव स्पष्ट है कि गोविन्द ठक्कुर का समय १६१२ ई. के पूर्व है। __ अट्ठारहवीं शताब्दी में रचित ‘सुधासागर’ टीका के रचयिता भीमसेन दीक्षित ने टीका में गोविन्द ठक्कुर का उल्लेख ‘अर्वाचीन’ टीकाकार के रूप में किया है। __ अन्त में म.म. काणे के अनसार यही कहा जा सकता है कि गोविन्द ठक्कुर का समय१४००-१५०० के मध्य में है।

रचनायें

‘काव्यप्रदीप’ गोविन्द ठक्कुर कर प्रख्यात रचना तो है ही, इसके अतिरिक्त उनकी अन्य रचनायें भी है, जिसका उल्लेख ‘काव्य प्रदीप’ टीका में स्वयं गोविन्द ठक्कुर ने किया है। वे रचनायें हैं’:-उदाहरणदीपिका, श्लोकदीपिका तथा पूजाप्रदीप। BASSA C REFEAR .. . .. … . . . . १. अर्वाचीनस्तु-‘यथोक्तस्य काव्य लक्षणत्वे काव्यपदं निर्विषयं प्रविरलविषयं वा स्यात् । दोषाणां दुर्वारत्वात्। तत्मात् ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ इति तल्लक्षणम्। काव्यप्रदीप, पृ.२ २. वसु (८) ऋतु (६) ऋतु (६) भू (१) मिते गतेऽब्दे नरपति-विक्रमतोऽथ याति रौद्रे। तपसि शिवतिथौ समापितोऽयं रघुपतिपादसरोरुहेऽर्पितश्च ।। बालबोधिनी टीका में उद्धृत प्रस्तावना प्र.-३१ RANA २७६ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘गोविन्द ठक्कुर’

काव्य प्रदीपः

देहरी पर रखे गये दीपक के समान गोविन्द ठक्कुर का यह ग्रन्थ अतीत को समस्त उपलब्धियों को आत्मसात करता हुआ एवं अपने समय में विद्यमान मान्यताओं का दिग्दर्शन कराता हुआ, यत्र-तत्र नवीनता की प्रकाशरश्मियाँ विकीर्ण करता है। इस ग्रन्थ में गोविन्द ठक्कुर ने आचार्य भरत, भामह, दण्डी, वामन, आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, महिमभट्ट, भोजराज, विश्वनाथ आदि आचार्यो एवं भास्कर तथा चण्डीदास आदि टीकाकारों का उल्लेख किया है।

उदाहरणदीपिका एवं श्लोक दीपिका

गोविन्द ठक्कुर की ‘उदाहरण दीपिका’ ‘काव्य प्रकाश’ के अन्तर्गत उदाहरण दिये गये पद्यों की विशद व्याख्या है। डॉ. सुशील कुमार डे का अनुमान है कि स्टीन ने जिस श्लोक दीपिका का उल्लेख किया है वह ‘उदाहरणदीपिका’ ही है।’ वैद्यनाथ ने अपनी टीका में ‘दीपिकाकार’ शब्द से ‘उदाहरणदीपिका’ का ही उल्लेख किया है ‘जयन्त भट्ट’ की दीपिकाकार के नाम से जिस मत का प्रतिपादन किया है वह, जयन्त भट्ट की दीपिका में उपलब्ध नहीं है। प्रो. धुंडिराज गोपाल सप्रे का कहना है कि ‘उदाहरण दीपिका’ और ‘उदाहरण चन्द्रिका’ ये दोनों टीकायें काव्यप्रकाश के उद्धरणों की व्याख्या के लिए ही लिखी गई हैं। ‘उदाहरण चन्द्रिका’ में दूषणार्थ अथवा भूषणार्थ यदि उद्धरण देने हैं तो वे ‘उदाहरण दीपिका’ से ही दिये जाने उचित हैं।’

पूजाप्रदीपः

इस ग्रन्थ के आरम्भ में दिये गये पद्यों से ज्ञात होता है कि गोविन्द ठक्कुर ने हयग्रीवोपासक तार्किक एवम् आलङ्कारिक चूड़ामणि, बंगाल के ‘जैसोर’ जिले के जमींदार श्री भवानन्दराय के आश्रय में रहकर ‘पूजाप्रदीप’ आदि ग्रन्थों की रचना की थी।

गोविन्द ठक्कुर का कविरूपः

‘काव्यप्रदीप’ टीका के अध्ययन से ही गोविन्द ठक्कुर की कवित्व प्रतिभा का परिचय मिलता है। सम्पूर्ण टीका में १२ स्थानों पर गोविन्द ठक्कुर का कविपक्ष उभरकर आया है। कहीं-कहीं गोविन्द ठक्कुर ने मम्मट के उदाहरणों का खण्डन करते हुए स्वरचित उदाहरणों १. २. سه History of Sanskrit Poetics., पृ. १५० आचार्य मम्मट पृ. ३३ ‘न श्लाघन्ते त्रिदशगुरवे यस्य विद्यां विदन्तो, नासेवन्ते जलाधितनयां येन दृष्टाः कृपाम् । नाकाक्षन्ति क्वचिदपि सुधां यस्य काव्यं पिबन्तः, सन्तः सोऽयं जयति-जगति श्री भवानन्दरायः।। . श्रीमत्केशवतनयो गोविन्दस्तन्निदेश (मनु) वर्ती। प्रकटयाति धर्मपदवी पूजाकर्म-प्रदीपेन।। तथा अन्तिम पद्य श्रीमद्भवानन्द निदेशवर्ती गोविन्दशर्मा गुरुभक्तियुक्तः। उपासकानामुपकारहेतोः पूजा प्रदीपं कृतवान् विमृश्य ।। आयार्य मम्मट पृ.३३-३४॥ animaAranyakarmananotvMAAprinkatasaisirase २८० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र की चर्चा की है। जैसे प्रथम उल्लास के ‘चित्रालंकार’ काव्य भेदों की चर्चा करते हुए मम्मट के उदाहरण का खण्डन किया है और ‘मदीयं तु पद्यमुदाहरणीयम्’ लिखकर ‘मध्येव्योम’ उदाहरण दिया है। इस उदाहरण के विषय में गोविन्द ठक्कुर का कथन है कि यह रूपकालंकार का सुन्दर उदाहरण है। इसी प्रकार ‘काव्यप्रदीप’ में पृष्ठ ३८, ७६, १६५, २५१, २७०, २८८, २६३, ३०२, ३३६ में गोविन्द ठक्कुर के स्वरचित पद्यों का उल्लेख है। __ गोविन्द ठक्कुर की प्रशंसा करते हुए वामनाचार्य ‘बालबोधिनी’ टीका में लिखते हैं कि ‘प्रदीपोऽपि प्रवेष्टुमीष्टे, इति लिपिभूयस्त्वादुपरम्यते।’

नैयायिक रूप

‘काव्य प्रदीप’ टीका से यह स्पष्ट परिचय मिलता है कि गोविन्द-ठक्कुर प्रमुख रूप से नैयायिक थे। ‘काव्यहेतु’ में ‘हेतुस्तदुद्भवे’ की व्याख्या गोविन्द ठक्कुर ने न्यायशास्त्र के दण्डचक्रसूत्रादि सिद्धान्त द्वारा की हैं। ‘काव्यप्रकाश’ के द्वितीय उल्लास में लक्षणा के लक्षण ‘मुख्यार्थबाधेतद्योगे'२ कारिका की व्याख्या गोविन्द ठक्कुर ने नैयायिक रीति ‘यदिति गुणीभूतक्रियाविशेषणम्’ से ही है। अष्टम उल्लास में गुण और अलंकार का भेद भी नैयायिक शैली से स्पष्ट किया है। इस प्रकार अनेक स्थलों पर प्रदीप टीका में शास्त्रीय न्याय की चर्चा की गई है।

काव्य प्रदीप की टीकाएँ

गोविन्द ठक्कुर की बहुमुखी प्रतिभा तथा पाण्डित्य के कारण मम्मट के काव्य प्रकाश ग्रन्थ की भाँति ‘काव्यप्रदीप’ टीका भी इतनी दुर्बोध और सूक्ष्म रहस्यों से पूर्ण हो गई जिसके फलस्वरूप इस टीका पर नैयायिक वैद्यनाथ ने ‘प्रभा’ और वैयाकरण नागेश भट्ट ने ‘उद्योत’ टीकाओं की रचना की। STAR H

प्रभाः

वैद्यनाथ ने ‘काव्य प्रदीप पर ‘प्रभा’ टीका की रचना की थी। ये वैद्यनाथ मैथिल वैयाकरण वैद्यनाथ से भिन्न थे, क्योंकि मिथिलावासी वैद्यनाथ वैयाकरण महादेव के पुत्र और नागोजी भट्ट के शिष्य थे, जबकि प्रभाकार वैद्यनाथ रामचन्द्र भट्ट के पुत्र थे। ‘प्रभा’ टीका के अन्त में ‘प्रदीप’ की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए वैद्यनाथ का कथन है: ‘काव्यप्रकाशगम्भीरभावबोधो न चान्यतः। इति प्रदीपगम्भीरभावार्थद्योतनं कृतम्। ' १. काव्य प्रदीप पृ. १६ २. काव्य प्रकाश, कारिका २-६ ३. प्रभा, काव्यप्रदीप, अन्तिम पद्य २८१ m ong MEER शारदातनय से अच्युतराय तक ‘गोविन्द ठक्कुर’

उद्योत

अनेक स्थानों पर ‘काव्यप्रदीप’ का खण्डन करते हुए वैयाकरण नागेश भट्ट ने कुवलयानन्दकार अप्पयदीक्षित तथा रसगंगाधर आचार्य जगन्नाथ का उल्लेख किया है और यत्र-तत्र उनका खण्डन भी किया है। गोविन्द ठक्कुर बहुमुखी प्रतिभा वाले आचार्य थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि ‘काव्य प्रदीप’ टीका में गोविन्द ठक्कुर ने सर्वत्र मम्मट के भावों का अनुकरण नहीं किया है अपितु कई स्थलों पर मम्मट से भिन्न दृष्टिकोण रखते हुए विस्तृत व्याख्या की है। काव्य-लक्षण, काव्य-भेद, अभिधा शक्ति, लक्षणा शक्ति, दोष गुण तथा अलंकार विवेचन में मम्मट के भावों का विस्तार किया और कहीं खण्डन भी किया है।

उपलब्धियाँ

‘काव्यप्रदीप’ टीका का महत्त्व उसके नाम में ही निहित है। मम्मट ने ‘काव्यप्रकाश’ ग्रन्थ में काव्य के विविध अङ्गोंको प्रकाशित किया, परन्तु वह प्रकाश निराधार नहीं है, उस प्रकाश का आधार भी कहीं न कहीं विद्यमान होना चाहिए, अतएव इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये गोविन्द ठक्कुर ने अपनी टीका को ‘दीपक’ बनाया। जिस प्रकार देहरी पर रखा गया दीपक भीतर बाहर दोनों स्थानों को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार गोविन्द ठक्कुर का ‘काव्य प्रदीप’ अतीत की समस्त उपलब्धियों को आत्मसात् करता हुआ एवम् अपने समय में विद्यमान मान्यताओं का दिग्दर्शन कराता हुआ यत्र-तत्र नवीनता की प्रकाश-रश्मियाँ विकीर्ण कराता है। ‘प्रभा’ और ‘उद्योत’ टीकाओं की रचना द्वारा मानों चिन्तन-दीप अपने प्रकाश पुंज की चरम दीप्ति में उद्भासित हो उठा है। ‘काव्यप्रदीप’ टीका में काव्य प्रकाश की कारिकाओं और उदाहरणों को ही उद्धृत किया गया है वृत्ति भाग को नहीं। ‘काव्यप्रकाश’ की अन्य सभी टीकाओं में कारिका, वृत्ति और अन्त में टीकाकारों की टीकाएँ हैं, किन्तु ‘काव्यप्रदीप’ में ऐसा नहीं है। ‘प्रदीप’ टीका पर आचार्य विश्वनाथ का प्रभाव है और कहीं-कही आचार्य विश्वनाथ की उन मान्यताओं का खण्डन भी है जो मम्मट के सम्बन्ध में विवाद उत्पन्न करती है। परन्तु गोविन्द ठक्कुर ने जिस प्रकार निःसंकोच आचार्य आनन्दवर्धन, आचार्य दण्डी आदि का नामोल्लेख किया है, वहाँ ‘काव्यप्रदीप’ में आचार्य विश्वनाथ का कहीं भी नामोल्लेख नहीं किया है। टीका में सर्वत्र ‘अर्वाचीनास्तु’ ‘अत्रकेचित’ आदि द्वारा विश्वनाथ के मत का उल्लेख है। १. अर्वाचीनास्तु-‘यथोक्तस्य काव्यलक्षणत्वे काव्यपदं निर्विषयं प्रविरलविषयं वा स्यात् ।/काव्यप्रदीप,पृ.११ ૨૨ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र मम्मट ने ‘काव्यप्रकाश’ ग्रन्थ मे कई स्थलों पर प्राकृत के उदाहरणों की चर्चा की है। उसी प्रकार गोविन्द ठक्कुर ने भी ‘काव्यप्रदीप’ टीका में प्राकृत के उदाहरण ही उद्धृत किये हैं, उनका संस्कृत रूप नहीं दिया है। गोविन्द ठक्कुर के टीकाकारों (नागेश भट्ट और वैद्यनाथ) ने प्राकृत के उदाहरणों का संस्कृत रूप दिया है। ‘काव्य प्रकाश’ के टीकाकारों मे गोविन्द ठक्कुर मौलिक प्रतिभा वाले आचार्य थे। उन्होंने सर्वत्र मम्मट के भावों का अनुकरण नहीं किया है, अपितु जहाँ मम्मट का मत उन्हें ग्राह्य नहीं वहाँ विस्तृत टीका लिखते हुए स्वमत प्रस्तुत किया है। स्वमत की चर्चा गोविन्द ठक्कुर ने ‘वयं तु पश्यामः’ या ‘अत्र ब्रूमः’ से की है। इसके अतिरिक्त जहाँ कहीं मम्मट का अभिप्राय स्पष्ट नहीं या अत्यन्त संक्षिप्त है। वहाँ गोविन्द ठक्कुर का विस्तृत और स्पष्ट विवेचन पाठक की जिज्ञासा को शान्त करता है। जैसे-‘वाचक’ शब्द की विस्तृत चर्चा ‘लक्षणा’ शक्ति की विस्तृत व्याख्या ‘दोषों’ का विस्तृत विवेचन मम्मट की अपेक्षा अधिक स्पष्ट है। ‘काव्य प्रकाश’ में मम्मट कहीं-कहीं वृत्ति भाग के व्याख्यान में असमर्थ रहे हैं और कहीं-कहीं सूत्र वृत्ति की रचना सन्तोषजनक नहीं हैं। ऐसे स्थलों पर गोविन्द ठक्कुर ने मम्मट के इस अभाव की पूर्ति की है। ‘काव्य लक्षण’ में मम्मट का वृत्ति भाग न्यून है, परन्तु गोविन्द ठक्कुर ने ‘निर्दोषत्वादिविशेषणविशिष्टो-पूरणीयमिति’, तक काव्य लक्षण की विस्तृत व्याख्या की है। मम्मट के हास्यादि रसों के केवल उदाहरण दिये हैं, उनका समन्वय करके नहीं दिखाया है। इसी प्रकार व्यभिचारी भावों की भी केवल सूची दी है; परन्तु गोविन्द ठक्कुर ने हास्यादि रसों और व्यभिचारी भावों के लक्षण भी दिये हैं। मम्मट ने ‘काव्यप्रकाश’ में अपने पूर्ववर्ती आचार्यो के मतों का उद्धृत किया है परन्त कई स्थलों पर उन मतों का खण्डन नहीं किया है। अतएव ऐसे स्थलों पर मम्मट की तटस्थता पाठक के लिये उनका अभिप्रेत मत जानने की कठिनाई पैदा करती है। परन्तु गोविन्द ठक्कुर के विवेचन में इस प्रकार की त्रुटि का अभाव है। प्रदीपकार को जिस आचार्य का मत ग्राह्य नहीं है वहाँ स्पष्ट शब्दों में उसका खण्डन किया गया है। जैसे संकेतग्रह में नव्य नैयायिक, मीमांसक, न्याय-वैशेषिक, बौद्धमत आदि का खण्डन किया है और वैयाकरणे की मान्यता को स्वीकार किया है। ‘गौर्वाहीक’ आदि में लक्षणा कैसे कार्य करती है ? इसका विवेचन करते हुए तीन मतों का उल्लेख है। गोविन्द ठक्कुर ने प्रथम दो मतों का खण्डन करके तृतीय मत को मम्मट का अभिप्रेत मत स्वीकार किया है। इसी प्रकार रस-निष्पत्ति की व्याख्या में भट्ट, लोल्ल्ट, शंकुक और भट्टनायक के मत का स्पष्टतः खण्डन किया है और अभिनव गुप्त के मत की स्थापाना की है। १. काव्यप्रदीप,पृ. ८ २८३ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘गोविन्द ठक्कुर’ ‘काव्यप्रदीप’ टीका में गोविन्द ठक्कुर की सूक्षमावगाहिनी दृष्टि एवम् उनकी स्वतन्त्र मौलिक चेतनाओं के दर्शन स्थान-स्थान पर होते हैं। गोविन्द ठक्कुर ने काव्य-लक्षण के प्रसङ्ग में विश्वनाथ द्वारा उठायी गयी आपत्तियों का समाधान करते हुए प्राचीन मान्यताओं का दृढ़तापूर्वक विश्लेषण करके स्वसमय तक निर्धारित विषयों का सूक्ष्मता से निरीक्षण किया और मम्मट के काव्य-लक्षण का परिष्कार करते हुए ‘नीरसे स्फुटालङ्कार विरहिणि न काव्यत्वम् यतो रसादिरलङ्कारश्च द्वयं चमत्कारहेतुः’ कथन द्वारा स्वमत की चर्चा की है। गोविन्द ठक्कुर की तलस्पर्शिनी प्रज्ञा का नया रूप शब्द-शक्ति-विवेचन में परिलक्षित होता है जहाँ ‘अभिधा’ ‘लक्षणा’ एवं ‘व्यंजना’ शक्तियों का गहन चिन्तन-मनन किया गया है। ‘अभिधाशक्ति’ का विवेचन करते हुए सङ्केतग्रह की चर्चा वैयाकरणों के मतानुसार की है। ‘लक्षणा’ शक्ति के विवेचन में ठक्कुर को नैयायिक मान्यता स्वीकार हैं। व्यञ्जना शक्ति’ के विवेचन में गोविन्द ठक्कुर का उद्देश्य व्यञ्जना की स्थापना रहा है। गोविन्द ठक्कुर ने ‘काव्यप्रदीप’ में अपने से पूर्ववर्ती आचार्यों की सभी विचारधाराओं को उपस्थित किया है, पर दासवत् अनुकरण नहीं किया है। जैसे ‘रस-विवेचन’ गोविन्द ठक्कुर की तर्क बुद्धि एवं स्वतन्त्र समीक्षा शक्ति की मौलिक प्रसूति है। रस-निरूपण में यद्यपि प्रदीपकार ने अभिनवगुप्त तथा मम्मट का आश्रय लिया है तथापि कुछ नवीन उद्भावनायें भी की हैं। रस निष्पत्ति के अवसर पर भट्टलोल्लट, श्री शंकुक, भट्टनायक और अभिनवगुप्त चारों व्याख्याकारों के मत का संकलन करके उनकी उसी रूप में व्याख्या नहीं की है, अपितु अपने मौलिक विचारों की उद्भावना की है। प्रथम तीन आचार्यों के मत का खण्डन कर गोविन्द ठक्कुर ने अभिनव के रस-सिद्धान्त को चिरकाल तक प्रतिष्ठित रहने की क्षमता प्रदान की है। ‘साधारणीकरण’ सिद्धान्त का विवेचन भी गोविन्द ठक्कुर की महान् उपलब्धि हैं ‘शान्त रस’ विवेचन की भी अपनी विशेषता है। उपर्युक्त स्थलों के अतिरिक्त ‘काव्यप्रदीप’ टीका के विशेष विवेचनीय स्थल हैं- काव्य भेदों की चर्चा, लक्षणा तेन षड्विधा का विवेचन, दोषों का विशद, विवेचन, गुण तथा अलङ्कारों कर पार्थक्य, शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार में विशेष अलङ्कारों का विवेचन। २८४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

भानुदत्तः

‘रस-मञ्जरी’ एवं ‘रस तरङ्गिणी’ नामक दो महत्वपूर्ण रस शास्त्रीय ग्रन्थों की संरचना कर संस्कृत काव्य शास्त्र के इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान सुनिश्चित करने वाले भानुदत्त मिश्र विशिष्ट रसोद्बोधिका दृष्टि से सम्पन्न आचार्य हैं। अनेकविध ग्रन्थों के प्रणेता रस-मञ्जरीकार का संस्कृत काव्य शास्त्र को विशिष्ट योगदान उनके द्वारा अत्यन्त सुव्यवस्थित, प्रौढ़ व परिष्कृत रूप में विवेचित नायक-नायिका वर्णन के रूप में हैं। शृङ्गार रस के आलम्बन विभाव के अन्तर्गत नायक नायिका के लक्षण तथा उनके भेदोपभेदों का विस्तृत निरूपण करने वाले आचार्य भानुदत्त ने रसनिरूपण में भी अपनी मेघा की मौलिकता का परिचय दिया है। ‘मायारस’ नाम एक स्वतन्त्र रस की परिकल्पना कर ‘मिथ्याज्ञान वासना’ को उसका स्थायी भाव मानने वाले भानुदत्त का रस विभाजन भी विशेष दृष्टिकोण से समन्वित है। लौकिक व अलौकिक इन दोनों आधारों पर रस को द्विधा विभक्त कर लौकिक के अन्तर्गत सभी प्रसिद्ध रसों का एवं अलौकिक में स्वाप्निक, मानोरथिक एवं औपनयिक रसानुभूतियों’ का समावेश करने वाले भानुदत्त ने पुनः रूप को तीन प्रकारों में विभक्त किया है। अभिमुख विमुख तथा परमुख। विभावादि के प्रत्यक्षानुभव से अभिमुख, इनके कथन मात्र से विमुख तथा अलङ्कार मुखेन एवं भावमुखेन आस्वादित अनुभूतियों को परमुख के अन्तर्गत समायोजित करने वाले भानुदत्त ने इन सभी प्रसङ्गों में अपनी स्वतन्त्र विवेचनात्मिका शक्ति प्रदर्शित की है। उनका यह कर्तृत्व ही उन्हें संस्कृत काव्य शास्त्र के समुल्लेखनीय आचार्यों की श्रेणी में सुप्रतिष्ठित करता है। उनके इस लेखन कर्म को पर्याप्त लोकप्रियता भी प्राप्त हुई। इसका प्रमाण है उनकी रसमंजरी व रसतरङ्गिणी पर लिखी गई प्रभूत टीकाएं। __ मैथिल प्रातिभ दृष्टि से सम्पन्न भानुदत्त ने अपने ग्रन्थों में अपना स्वल्प परिचय दिया है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं इन सबका अनुशीलन करने के उपरान्त ज्ञात होता है कि इनके पिता कवि कुलालङ्कार चूडामणि गणेश्वर या गणपति थे और ये मिथिलाप्रदेशीय थे। रसमञ्जरी के अन्तिम पद्य में भानुदत्त ने इस तथ्य का उल्लेख स्वयं करते हुए कहा है: SNA. . MAHISAM १. स्वप्न में अलौकि संनिकर्ष से उत्पन्न रसानुभूति स्वाप्निक, भावकों के हृदय में उत्पन्न होनेवाने मनोरथों के कारण उद्भूत रसानुभूति मानोरथिक तथा अनुभवों की इच्छानिरपेक्ष भावना जन्य अनुभूति औपनयिक कही जाती है। २. रसमञ्जरी पर प्राचीन काल में गयारह एवं रसतरङ्गिणी पर नौ संस्कृत टीकाएँ लिखी गई। शारदातनय से अच्युतराय तक ‘भानुदत्त’ २८५ तातो यस्य गणेश्वरः कविकुलालङ्कारचूडामणिः। देशो यस्य विदेहभूः सुरसरित्कल्लोलकिर्मीरिता।।’ पद्येन स्वकृतेन तेन कविता श्री भानुना योजिता। वाग्देवी श्रुतिपारिजातकुसुमस्पर्धाकरी मञ्जरी॥ यहाँ ‘सुरसरित् कल्लोलकिर्मीरिता’ विदेह भूः पाठ स्पष्टतः मिथिला प्रदेश का आख्यापक है। कुछ पाण्डुलिपियों में विदेहभूः के स्थान पर जो विदर्भभूः पाठ मिलता है; वह निश्चय ही अशुद्ध है क्योंकि विदर्भ का ‘सुरसरित्’ गङ्गा से कोई सम्बन्ध भौगोलिक आधार पर अमान्य हो जाता है। मिथिला प्रदेश में ‘संरिसव’ नामक ग्राम भानुदत्त का मूल निवास स्थान था। भानुदत्त के जामातृ पुत्र कर्णभूषणम् ग्रन्थ के प्रणेता प्रसिद्ध कवि गङ्गानन्द के एक श्लोक से इसी तथ्य की पुष्टि होती है। हिस्ट्री आफ विरहुत नामक ग्रन्थ में यह वर्णन है कि इसहपुर नामक गांव में एक पुष्कारिणी है, जो भानुमती के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसी लोक प्रसिद्धि है कि इसे भानुदत्त मिश्र ने बनवाया था। इस आधार पर वहाँ यह अनुमान किया गया है कि मिथिला प्रदेशान्तर्गत ‘इसहपुर’ भानुदत्त का निवास स्थान था। परन्तु यह अनुमान, गङ्गानन्द कवि को उक्ति के आलोक में स्वयमेव खण्डित हो जाता है। पुनश्च इसहपुर ग्राम की स्थिति सरिसब के निकट होने से वहाँ भानुदत्त मिश्र द्वारा पुष्कारिणी बनवाना सम्भव है। अथवा यह भी सम्भव है कि उस समय मिथिला प्रदेशवासी जनों में भानुदत्त मिश्र के लोक प्रतिष्ठित व प्रसिद्ध होने के कारण लोगों ने उनके नाम से उस पुष्कारिणी को भानुमती नाम दे डाला हो। भानुदत्त के पिता का नाम गणेश्वर, गणनाथ, गणपति व गणेश इन चार रूपों में उल्लिखित होने के कारण यह जिज्ञासा सहज ही उठती है कि उनके पिता के ये नामान्तर थे अथवा ये पृथक व्यक्ति थे। जहाँ तक भानुदत्त द्वारा स्वयं प्रदत्त उल्लेखों का सन्दर्भ है तो रसमञ्जरी में उन्होने ‘तातो यस्य गणेश्वरः कविकलालङ्कारचूडामणिः कहते हुए उनके गणेश्वर नामका उल्लेख किया है। वहीं गीत गौरीपति में एक बार ‘गणनाथ’ एवं एक बार गणपति के रूप में उनका नाम उद्धृत किया है। रसतरङ्गिणी में अलङ्कार तिलक के एक د रसमञ्जरी; समापन श्लोकः २. मीमांसायाः श्रवण सरसा शेमुषी तावकी चेत, चित्तेचित्ते किमपि कविताकर्णने कौतुकं या। भ्राम्यन् भ्राम्यन् बुधजन चतुष्पाठिकासु प्रयत्नाद्, विद्याशालिप्रियसरिसवग्रामरत्नं परीयाः।। भृङ्गदूतम् ।। रसमञ्जरी, अन्तिम पद्य कविगणनाथ सुतस्य कवेरिति वचनं त्रिजगति धन्यम्। निगदतु को वा विलिखतु को वा शैल सुतालावण्यम् ।।/गीत गौरीपति षष्ट सर्गः, श्लोक-७ د »-

२९६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

पद्य में भी उन्होंने अपने पिता का सादर स्मरण किया है। पुनश्च उनके एक अन्य ग्रन्थ ‘कुमारभार्गवीयम्’ में उनकी प्रशस्ति वंशावलि दी गई है, जिसमें उनके पिता का नाम गणपति के रूप में उल्लिखित है। भानुदत्त के इन स्वयंकृत उल्लेखों के अतिरिक्त डॉ. यतीन्द्र विमल चौधरी द्वारा सुभाषित पद्यों के संकलन ग्रन्थ हरिभास्कर प्रणीत ‘पद्यामृततरङ्गिणी’ की भूमिका में मैथिल भूसुरमूलगोत्र ज्ञापक तालपत्रपञ्जिका से भानुदत्त का वंश वृक्ष उद्धृत किया गया है; जो इस प्रकार है: रत्नेश्वर मिश्रः सुरेश्वर मिश्रः रविनाथ मिश्रः जीवन नाथ मिश्र भवनाथ मिश्रः देवनाथ मिश्रः शङ्करमिश्रः महादेव मिश्रः भासे मिश्रः दासे मिश्रः गणपति मिश्रः भानुदत्त मिश्रः उपर्युक्त सभी तथ्यों का विश्लेषण व अनुशीलन करने से व इस वंश वृक्ष से यह सुनिश्चित हो जाता है कि भानुदत्त के पिता का नाम गणपति था। छन्दवन्धन की दृष्टि से यत्र-तत्र श्लोकों में गणपति के पर्यायवाची गणेश्वर, गणनाथ व गणेश शब्द प्रयुक्त हुए है। भानुदत्त के एक अन्य ग्रन्थ कुमारभार्गवीयम् में उन्होंने अपने वंश की अव अपने पूर्वजों की नामोल्लेख पूर्वक प्रशस्ति की है। उस प्रशस्ति में अपने पिता का उल्लेख उन्होंने इस प्रकार किया है: पद्येप्रौढ़मतिर्नये कृतरतिवंशे शिरोऽलङ्कृति : प्रीतौ कैरविणीपतिर्गणपति स्तस्यात्मजोऽराजत। दृष्टवा यस्य यशो भियाऽपसरतो यज्ञोपवीतं पथि प्रभ्रष्टं रजनीपतेः सुरसरिद्व्याजादिवोन्मीलति।। १. कृतहरविनयो गणपतितनयो निगदति हितकरणम्। हिमकर मुकुटे विजयिनि निकटे विश्चय न च वरणम्।। गीतगौरीपति, दशमसर्ग, श्लोक-८ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘भानुदत्त’ २८७ इस वर्णन से ज्ञात होता है कि भानुदत्त के पिता वुद्धि, विद्या, यश, महात्म्य आदि गुणों से विभूषित श्रेष्ठ विद्वान् थे। ‘कुमारभार्गवीयम् में कवि ने इन प्रशस्ति श्लोकों में अपने पूर्वजों का जो वर्णन किया है उसके आधार पर डॉ. चौधरी वंश पञ्जिका में वर्णित पूर्वजों के नाम में तनिक परिवर्तन हो जाता है। प्रथम तो इसमें नाम के साथ मिश्र नामोपाधि संयुक्त नहीं है दूसरे नामों का क्रम इस प्रकार है: रत्नेश्वरः सुरेश्वरः विश्वनाथः रविनाथः भवनाथः महादेवः गणपतिः भानुदत्तः एतदतिरिक्त इस गणेश्वर या गणपति नाम को लेकर एक बहुत विचारणीय पक्ष भी है। गणेश्वर के मैथिल होने से प्रथमतः पी.वी. काणे एवं अनन्तर वलदेव उपाध्याय ने यह मत व्यक्त किया कि ये मैथिल गणेश्वर सम्भवतः पिथिला के राजा के मन्त्री गणेश्वर थे, जिनके पुत्र चण्डेश्वर ने विवाद रत्नाकर लिखा था। चण्डेश्वर ने ३१५ ई. में अपना तुलादान करवाया था। इस आधार पर बलदेव उपाध्याय ने जहाँ भानुदत्त को तेरहवीं शती के अन्त या १४ वीं के प्रारम्भ में होना अनुमानित किया। वहीं काणे ने धर्मशास्त्र का इतिहास में गणेश्वर की वंशावली देकर स्वयं अपने को इस मत से पृथक कर लिया। १. धर्मशास्त्र का इतिहास, पी.वी. काणे, अनु. इन्द्र चन्द्र शास्त्री पृ. ८५ २. संस्कृत शास्त्रों का इतिहास, बलदेव उपाध्याय पृ. २६४ ३. धर्मशास्त्र का इतिहास, पी.वी. काणे, अनु. इन्द्र चन्द्र शास्त्री पृ. ८५ ४. धर्मशास्त्र का इतिहास, पी.वी. काणे, अनु. इन्द्र चन्द्र शास्त्री पृ. ३८०-८१ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र कुमारभार्गवीयम् की वंशावलि एवं गणेश्वर की धर्मशास्त्र के इतिहास में उद्धृत वंशावली में पर्याप्त अन्तर है। इस आधार पर भानुदत्त के पिता गणेश्वर के मिथिला राज्य के मन्त्री गणेश्वर होने की सम्भवना स्वतः निर्मूल सिद्ध हो जाती है। __ भानुदत्त के पिता गणपति भी संस्कृत भाषा के सरस कवि थे। इन्होंने अपने पिता के द्वारा रचित अनेक सरस व सहृदयाह्लादक श्लोक को रसमञ्जरी, रसतरणिी व रस पारिजात नाम ग्रन्थों में उद्धृत किया है। अपने पिता के काव्य माधुर्य की चर्चा करते हुए इन्होंने कहा है: यथा गणपतेः काव्यं काव्यं भानुकवेस्तथा। अनयोः सङ्गमः श्लाध्यः शर्करा क्षीरयोरिव।। इसके अतिरिक्त लक्ष्मण भट्ट प्रणीत सुभाषित पद्यरचना में भी गणपति कवि के श्लोक संगृहीत हैं। पुनश्च जल्हण के काव्य सङ्ग्रह में (पृ. ४५) ‘महामोद’ नामक ग्रन्थ के रचयिता के रूप में किसी राजेश्वर के लिखे श्लोक में ‘गणपति’ नामक कवि की प्रशंसा की गई है। वे गणपति इनके पिता ही हैं जैसा कि पुष्पिका में उद्धृत भी हैं श्री जानकीजनि जागरूक यशोभासुर मिथिला महीमण्डलान्तर्गत सरिसब नाम ग्राम मधिवसतो मैथिलश्रेणियाग्रजन्मसोदरपुरसरिसववंशावतंसमहामहोपाध्यायशंकरमिश्रानुज महादेवमिश्रात्मजनुषो ढक्काकविविरुदविभूषितस्य महामोहादीनां ग्रन्थप्रणेतुः कविचन्द्रचूडामणे गणेश्वरापरामिधानस्य गणपतिमिश्रस्य तनूजभानुदत्तमिश्रस्य। __ भानुदत्त का नामान्तर भानुकर भी है; ऐसा डा. यतीन्द्र विमल चौधरी, डा. हरदत्त शर्मा एवं श्री जी. वी. देवस्थली प्रभृति विद्वान स्वीकार करते हैं। ये अपने मत के समर्थन में कहते है कि लक्ष्मण भट्ट की पद्यरचना में, हरिभास्कर की पद्यामृततरङ्गिणी में, वेणीदत्त की पद्य वेणिका में, गोविन्दजित् भट्ट के सम्यालङ्करण में, सुन्दर देव के सूक्ति सुन्दर में जो श्लोक भानुकर नाम से संग्टहीत है; वे सभी भानुदत्त प्रणीत रसमञ्जरी, रसतरङ्गिणी एवं रसपरिजात ग्रन्थों में भी पाए जाते हैं। इसी कारण से भानुदत्त का भी भानुकर यह नामान्तर है। किन्तु डॉ. पी.वी. काणे एवं डॉ. राघवन महोदय इसे स्वीकार नहीं करते। डॉ. राघवन (अन्नल्स ऑफ वी. ओ. आर. आई भाग VXIII पृ. ८५-८६) के मत में किसी कृति का लेखक निश्चित करने के लिये उपर्युक्त संग्रहों को एकमात्र आधार नहीं माना जा सकता। महामहोपाध्याय काणे के अनुसार इन दोनों को एक मानने के प्रमाण सन्तोषजनक नहीं मिलते। उनका वक्तव्य है कि इन संग्रहों के कारण रुद्रट व रुद्रभट्ट के सम्बन्ध में भी बहुत भ्रम हो गया था; पुनश्च ‘रसिक जीवन’ में उद्धृत जिस श्लोक के १. गीतगौरीपतिः सम्पा. प्रभात शास्त्री, भूमिका प्र.-१० 7 . .”” h.

शारदातनय से अच्युतराय तक ‘भानुदत्त’ २९६ आधार पर डॉहरदत्त शर्मा ने (पृ. २५७ भाग १७, अन्नल्स ऑफ वी.ओ.आर.आई.) भानुदत्त व भानुकर के साम्य का प्रतिपदान किया है; वह राजशेखर रचित बालरामायण में भी प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त उनका यह भी मन्तव्य है कि हम उन सभी कवियों से परिचित नहीं है, जो शताब्दियों से चले आए है भानुदत्त का संक्षिप्त रूप भानु हो सकता है परन्तु भानुकर नहीं वस्तुत एक भी ऐसा उदाहरण नही है जिसमें हरदत्त, रुद्रदत्त रुचिदत्त का कहीं पर भी हरकर, रुद्रकर अथवा रुचिकर के रूप में उल्लेख आया हो। अतः यह सन्दिग्ध है कि भानुदत्त और भानुकर एक ही व्यक्ति है।’ __डॉ. सुशील कुमार डे ने भी इस प्रकरण को संदेहास्पद मानते हुए इन दोनों का अन्तर अपेक्षित मानने पर बल दिया है। इस प्रकार इस समस्त प्रसङ्ग में विभिन्न विद्वानों के विविध मत देखते हुए इन संग्रहों में संकलित श्लोकों के सम्बन्ध में यह समीकरण आवश्यक है कि भानुकर या भानुदत्त नाम से उद्धृत श्लोक कवि की प्रमाणिक रचनाओं में किस सीमा तक समाहित है-ताकि इनकी अभिन्नता या पार्थक्य के सम्बन्ध में कुछ निर्णय किया जा सके। मैथिल भानुदत्त के नाम से मिश्र नामोपाधि भी संयुक्त है। यद्यपि उनके ग्रन्थों में इसका उल्लेख नहीं है तथापि मैथिल वंशपञ्जिका में मिश्र उपाधि नाम सभी पूर्व पुरुषों व स्वयं भानुदत्त के नाम के साथ भी संयुक्त है, सम्भवत, इसी आधार पर उनका नाम भानुदत्त मिश्र के रूप में भी उल्लिखित होता रहा। रसतरङ्गिणी पञ्चम तरङ्ग में एक श्लोक आगत है, जिससे ज्ञात होता है कि इन्होंने प्रभूत पर्यटन किया होगा एवं भ्रमण काल में तत् तत् प्रदेशस्थ राजाओं के आश्रय का भी आनन्द प्राप्त किया होगा। श्लोक इस प्रकार है क्षोणी पर्यटनं श्रमाय विदुषां वादाय विद्यार्जिताः मानध्वंशनहेतवे परिचितास्ते ते धराधीश्वराः। विश्लेषाय सरोजसुन्दरदृशामास्ये कृता दृष्टयः कुज्ञानेन मया प्रयागनगरे नाऽऽराधि नारायणः।।’ सम्भवतः इन शासकों में दक्षिण भारत स्थित देवगिरि दौलताबाद के शासक निजामशाह विजय नगर के राजा कृष्णदवे राय एवं विन्ध्यप्रदेशस्थ रीवॉधिपति वीरभानु

१. संस्कृत काव्य शास्त्र का इतिहास, पी.वी.काणे अनु. इन्द्रचन्द्रशास्त्री पृ. ३८२ २. संस्कृत काव्य शास्त्र का इतिहास, सुशील कमार डे, पृ.२२८ ३. रसतरङ्गिणी, पञ्चमतरग, पञ्चमश्लोक

.. .:.-. २६० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र प्रमुख थे। इन राजाओं की प्रशंसा में भानुदत्त विरचित कतिपय श्लोक भी उनके रस पारिजात नामक ग्रन्थ में संगृहीत हैं डॉ. काणे की विज्ञप्ति के अनुसार इनमें १४ श्लोको में निजाम शाह, दो श्लोकों में विजय नगर के कृष्णदेवराय व पॉच श्लोकों में रेवाधिपति वीरभानु की स्तुति की गई है।

भानुदत्त का समय

भानुदत्त के समय का निर्धारण निम्नलिखित प्रमाणों पर आधारित तर्को के आलोक में किया जा सकता है: १. भानुदत्त विरचित ‘गीत गौरीपति’ का अनुशीलन करने से ज्ञात होता है कि यह जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ से प्रेरण पाकर रचा गया ग्रन्थ है। संस्कृत साहित्य के इतिहास में जयदेव के गीत गोविन्द को वही प्रतिष्ठा, गरिमा व लोकप्रिता प्रापत है जो कालिदास के मेघदूत को प्राप्त है अतः गीतगोविन्द के अनुकरण पर कई रचनाएं रची गई। डॉ. सुशील कुमार डे ने तो ‘गीत गौरीपति’ व गीत गोविन्द के तुलनात्मक विवेचन में कतिपय पद्यों को भी उद्धृत किया है, जो परस्पर साम्य रखते हैं। ये इस प्रकार हैं जयदेव प्रलयपयोधि जले धृतवानसि वेदम् विहित वहिन चरित्रमखेदम् केशव घृत मीन शरीर,जय जगदीश हरे।। भानुदत्त भ्रमसि जगति सकले प्रतिलवभविशेषम् शमयितुमिव जनखेदमशेषम् पुरहरकृत मारुतवेश, जय भुवनाधिपते।। गीत गौरी. पतिः १/१॥ जयदेव निभृत निकुञ्जगृहं गतया निशि रहसि निलीय वसन्तम् चकित विलोकित सकलदिशा रतिरभसरसेन हसन्तम् सखि हे केशी मथनमुदारम् रमय मया यह मदन मनोरथ भावितया सविकारम्।। १. संस्कृत काव्य शास्त्र का इतिहास, पी.वी. काणे अनु. इन्द्रचन्द्र शास्त्री, पृ. ३८२ २८१ TRANSAR शारदातनय से अच्युतराय तक ‘भानुदत्त’ २६१ भानुदत्तः अभिनवयौवनभूषितया दरतरलितलोचन तारम् किञ्चिदुदञ्चित विहसितया चलदविरल पुलकविकारम् । सखि हे शंकर मुदित विलासम् सह संगमय मया नतया रतिकौतुकदर्शितहासम्।। गीत गौरीपतिः ३/१।। उपर्युक्त श्लोकों के अतिरिक्त अनेक ऐसे उद्धरण गीतगौरीपति में है; जिन पर गीतगोविन्द की छाप स्पष्ट दिखाई पड़ती है: सरसिज सौरभ सुभग समीरण समुदित पथिक विषादम्। कोकिल कलरव कपट लता तति विरचित मृणित निनादम्।। तत्रैव २/२॥ चम्पकचर्चितचापमुदञ्चितकेसरकृततूणीरम् । मधुकरनिकर कठोरकवचचयपरिचित चारुशरीरम्।। तत्रैव २/१॥ इन समस्त उद्धरणों से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि काव्य क्षेत्र में ‘गीत गोविन्द’ की प्रभूत प्रतिष्ठा होने के अनन्तर ही इससे प्रेरित होकर भानुदत्त ने गीत गौरी पति की रचना की होगी। जयदेव का समय १२ वी शती है। इस आधार पर भानुदत्त के समय की एक पूर्व सीमा प्राप्त हो जाती है और वह है, जयदेव का पूर्ववती काल अर्थात बारहवीं शती का पूर्वार्द्ध या उत्तरार्द्ध जिस किसी समय जयदेव को स्थापित किया जाय, भानुदत्त उनके पश्चाद्वर्ती ही होंगे। २. भानुदत्त ने सरस्वती कण्ठाभरण कार भोज (१००५-१०५५ ई.) व काव्य प्रकाशकार मम्मट (१०५० ई. ११०० ई.) को उद्धृत किया है। इस आधार पर उनका समय दसवी शती से पूर्व का नहीं हो सकता, यह सुनिश्चित हो जाता है। भानुदत्त की तिथि की दूसरी सीमा उनके ग्रन्थ ‘रसमंजरी’ पर लिखित ‘रसमंजरी विकास अथवा विलास’ नामक टीका की तिथि से प्राप्त होती है। यह टीका नृसिंह के पुत्र गोपाल ने लिखी थी। इसकी तिथि स्पष्टतः १५७२ ई. कही गई है। अतः भानुदत्त निश्चित ही इस तिथि से पूर्ववर्ती है। संस्कृत काव्य शास्त्र के इतिहास में डॉ. डे ने एक अन्य प्रमाण उद्धृत किया है। इसके अनुसार सुभाषित श्लोकों का संकलन शाळ्धर पद्धति जिसकी तिथि १३६३ ई.है, इसमें भानुपण्डित तथा वैद्य भानुपण्डित के नामों से कई श्लोक संगृहीत हैं (७६०, ६७३, १०३२, १२७१, ३३२८, ३६८५)। किन्तु इनमें से कोई भी श्लोक भानुदत्त के ज्ञात प्रामाणिक ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं हैं। पुनश्च जल्हण का काव्य सङ्ग्रह जो १३वी शती के मध्य भाग में संकलित किया गया था, इसमें भी भानुपण्डित या वैद्य भानुपण्डित के नाम से ३६ श्लोक दिये गये है, किन्तु वे भी भानुदत्त के ग्रन्थों में नहीं मिलते जबकि इनमें से तीन श्लोक ‘शाळ्धर पद्धति में

२६२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र इसी नाम से मिलते हैं (७०० = पृ. ६८, ६७३ पृ. १०७ तथा ३३२८= पृ. १८३)। इस आधार पर डॉ. डे का निष्कर्ष है कि इस समय तक रसमंजरी का लेखक अज्ञात नहीं था। और काव्य संग्रहों में वैद्य. अथवा पंडित नाम किसी पूर्ववर्ती या परवर्ती भानु के साथ जोड़ दिया गया था। ताकि हमारे लेखक तथा उसमें अन्तर किया जा सके। भानुदत्त की रसमंजरी में एक स्थान पर निजाम नामोपाधिधारी मुस्लिम शासक का उल्लेख है। डफ की ‘क्रोनोलॉजी ऑफ इण्डिया ’ के अनुसार दक्षिण भारत में १४००-१६५० ई के मध्य कम से कम एक दर्जन ऐसे शासक हुए है, जो निजाम कहलाते थे और जिन्होंने दक्षिण अथवा मध्य भारत तथा अन्य स्थानों पर राज्य किया था। इन एक दर्जन निजामोंपाधिधारी शासकों में से यहां किस निजाम की ओर संकेत है, यह प्रामाणिक रूप से कहना तो कठिन है तथापि रसमञ्जरी पर लिखी गई अनन्त पण्डित की ‘व्यङ्ग्यार्थ कौमुदी टीका (१६३६ ई.) में निजाम शब्द से देवगिरि के शासक निजाम के उल्लेख से अहमद निजाम शाह ही लखित होता है जिससे १४६६ से १५०७ ई. की मध्यावधि में दौलताबाद (देवगिरि) पर अधिकार प्राप्त कर लिया था और दक्षिण के निजाम शाही वंश की स्थापना की थी। इसके विपरीत रामनाथ झा के मतानुसार (जर्नल आफ पटना यूनिवर्सिटी !!!,संख्या १-२ के विश्लेषण के अनुसार) यह निजाम उक्त वंश का दूसरा शासक था। इस विषय में जब तक अन्य कोई ठोस प्रमाण प्राप्त नहीं हो पाते, तब तक इतना तो निश्चित है कि भानुदत्त पन्द्रहवीं शती के अन्तिम चरण से सोलहवीं शती के पूर्वार्द्ध तक के समय में अवश्य रहे होंगें। ६. महामहोपाध्याय पी.वी. काणें की गवेषणा के अनुसार भानुदत्त ने ‘विवाद चन्द्र’ के लेखक तथा धर्मशास्त्रकार भिसरु मिश्र की बहन से विवाह किया था। मिश्र १५ वीं शती के मध्य भाग में हुए थे। अतएव भानुदत्त को भी इसी आधार पर भिसरु मिश्र से कुछ समय बाद का ही मानने में अपनी सहमति व्यक्त की है। मैथिलवंश पञ्जिका के अनुसार भानुदत्त के पितामह महादेव के बड़े भाई शकर मिश्र थे। नेपाल के एक राजकीय पुस्तकालय के लेखक के अनुसार मिथिला में शङ्कर मिश्र की स्थिति १४८८ ई. में थी। अतः शङ्कर मिश्र के भाई महादेव मिश्र FROH PERTRERTRE १. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, डॉ. सुशील कुमार डे पृ. २२८ २. भेदो वाचि दृशोर्जलं कुचतटे स्वेदः प्रकम्पोऽधरे, पाण्डुर्गण्डतटी वपुः पुलकितं लीनं मनस्तिष्ठति। आलस्यं नयनश्रियश्चरणयोः स्तम्भः समुज्जृम्मते, तत् किं राजपथे निजामधरणीपालोऽयमालोकितः।। रसमञ्जरी श्लोक १२१॥ ३. संस्कृत काव्य शास्त्र का इतिहास, पी.वी. काणे पृ. ३८१ २६३ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘भानुदत्त’ का भी लगभग यही समय होना चाहिए। इस अधार पर महादेव के पौत्र भानुदत्त को सहजतया १६ वीं शती में रखा जा सकता है । भानुदत्त के जामाता विश्वेश्वर मिश्र के पुत्र गङ्गानन्द प्रसिद्ध कवि थे। ये बीकानेर के राजा कर्ण सिंह के आश्रय में रहते थे। इन्होंने अपने ग्रन्थ कर्णभूषणम् में अपने आश्रयदाता का वर्णन किया है। बीकानेर के इतिहास का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि महाराज कर्णसिंह (१६३१-१६६६ ई.) हुए थे। इस आधार पर गङ्गानन्द के मातामह भानुदत्त को सोलहवीं शती में माने जाने पर कोई आपत्ति नहीं। हिस्ट्री ऑफ तिरहुत के लेखक की विवेचना ने भी भानुदत्त को तेरहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग का बतलाया है। परन्तु उपर्युक्त विवेचना के आधार पर उनका मत भी असंगत सिद्ध होता है। उपर्युक्त समस्त प्रमाणों को ध्यान में रखने पर भानुदत्त को १४६० से लेकर १५२५-५० के मध्य निर्धारित करना युक्तिसंगत लगता है।

रचनाएँ

भानुदत्त कारयित्री एवं भावयित्री उभयविध शेमुषी सम्पन्न परिनिष्ठित व प्रौढ आचार्य तथा सुललित भाव सम्पदा के धनी सरस कवि हैं। इन्होंने अनेक कृतियों की रचना की, जिनका विवरण इस प्रकार है:

रसमजरी

नायक-नायिका भेद विवेचन को केन्द्र में रखकर सूत्रशैली में लिखा गया ‘रसमञ्जरी’ नामक यह ग्रन्थ भानुदत्त की लोक प्रसिद्ध रचनाओं में एक हैं। ग्रन्थ का लगभग दो तिहाई भाग नायिका भेद प्रकरण को समर्पित है। इसमें नायिकाओं के विभिन्न भेदों की साङ्गोपाङ्ग व्याख्या है। प्रथमतः नायिका के तीन भेद किये गये हैं- स्वीया, परकीया तथा सामान्या। स्वीया के तीन भेद किये गये हैं- मुग्धा, मध्या और प्रगल्भा। मुग्धा के दो भेद हैं-ज्ञात यौवना एवं अज्ञात यौवना तथा नवोढा एवं विश्रब्ध नवोढा। इसी का भेदान्तर अतिविश्रब्ध नवोढा भी होता है। प्रगल्भा दो प्रकार की होती है- रति प्रीतिमती एवं आनन्दसम्मोहवती मध्या तथा प्रगल्भा के मानावस्था में तीन-तीन भेद कहे गये हैं-धीरा, अधीरा एवं धीरा धीरा। पुनः पति प्रदत्त प्रेम के आधार पर इनके ज्येष्ठा एवं कनिष्ठादि भेद बताए हैं। परिकीया के पुनः दो भेदों का वर्णन किया गया है- परोढा एवं कन्यका। परकीया १. अलकार शास्त्रा इतिहास, डॉ. कृष्ण कुमार पृ. २६० २६४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र के ही अन्तर्गत गुप्ता, लक्षिता, विदग्धा, कुलटा, अनुशयाना मुदिता आदि भेदों का वर्णन किया गया है। इस प्रकार स्वीया के तेरह परकीया के दो एवं सामान्या के एक भेद को लेकर कुल सोलह भेद होते है। इन्हें पुनः उत्तमा, मध्यमा एवं अधमा रूप तीन प्रभेदों तथा प्रोषित भर्तृका, खण्डिता, कलहान्तरिता विप्रलब्धा, उत्का वासकसज्जा, स्वाधीनपतिका, अभिसारिका आदि आठ भेदों में विभक्त कर देने पर उनकी संख्या कुलमिलाकर ३८४ हो जाती है। रस मञ्जरी में इन समस्त प्रभेदों का सोदाहरण निरूपण है। - नायिका वर्णन के अतिरिक्त रसमञ्जरी में नायिका की सखियों का भी विवेचन है। इसी प्रसङ्ग में उनके मण्डन, उपालम्भ, शिक्षा, परिहास आदि कार्यों की चर्चा की गयी है। इसके साथ ही दूती व उसके सङ्घटन विरहविनवेदन आदि कार्यों पर भी प्रकाश डाला गया है। __नायिका निरूपण के अतिरिक्त अवशिष्ट एक चतुर्थाश में नायक के त्रिविध भेदों पति, उपपति और वैशिक का निरूपण किया गया है। पति के अनुकूल, दक्षिण, धृष्ट व शठ इन चार प्रभेदों , उपपति के भी इन्हीं भेदों व वैशिक के उत्तम मध्यम व अधम इन तीन भेदों का भी वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त प्रोषित पति, नायकाभास, चतुर्विध नर्मसचिवों अष्टविध सात्विक भावों, विप्रलम्भ की दसों अवस्थओं शृगार के द्विविध भेदों आदि का विस्तृत निरूपण किया गया है।

रसमजरी की टीकाएँ

भानुदत्त का रस मञ्जरी बहुत लोकप्रिय हुआ। इस तथ्य की पुष्टि में प्रमाण है; इस पर प्राचीन काल में लिखी गई ग्यारह टीकाएं। ये टीकाएँ अपनी निर्माण तिथि, हस्तलिखित या मुद्रित रूप में कहाँ से प्रकाशित या कहाँ उपलब्ध है; इस समस्त वर्णन के साथ डा. डे के द्वारा ‘संस्कृत काव्य शास्त्र के इतिहास’ में निरूपित हैं इनका संक्षिप्त नामोल्लेख इस प्रकार है: १. अनन्त भट्ट कृत व्यङ्ग्यार्थ कौमुदी, २. नागेश भट्ट कृत रसमंजरी प्रकाश टीका ३. शेष चिन्तामणि की परिमल टीका ४. गोपाल आचार्य की विकास या विशाल टीका ५. द्रविड़ गोपाल भट्ट की रसिक रज्जनी टीका, ६. विश्वेश्वर की समंजसा टीका ७. रङ्गशायी की आमोद टीका, ८. आनन्द शर्मा रचित व्यङ्ग्यार्थ दीपिका ६. महादेव रचित भानु भाव प्रकाशिनी, १०. ब्रजराज दीक्षित रचित रसिक रञ्जन, ११. किसी अज्ञात टीकाकार की रसमञ्जरी स्थल तात्पर्य टीका।

रसतरङ्गिणी :

रसमञ्जरी की भाँति भानुदत्त की रसतरङ्गिणी भी अत्यन्त लोकप्रिय हुई। इसमें काव्यात्मभूत रस का साङ्गोपाङ्ग विशद निरूपण है तथा तद् विषयक अनेक नवीन तथ्यों शारदातनय से अच्युतराय तक ‘भानुदत्त’ २६५ का विश्लेषण किया गया है। ग्रन्थ में ८ तरङ्गे है, इसमें विषय वस्तु विवेचन इस प्रकार है प्रथम तरङ्ग में रस के हेतु भावों तथा स्थायी भावों के स्वरूप तथा भेदो का विवेचन किया गया है। द्वितीय तरङ्ग में विभावों की परिभाषाएँ एवं प्रभेद हैं। तृतीय तरङ्ग अनुभाव विवेचन को समर्पित है तो चतुर्थ में स्तम्भ स्वेद रोमाञ्च, स्वरभङ्गादि आठ सात्विक भावों का निरूपण है। पञ्चम तरङ्ग में व्यभिचारी भाव सोदाहरण वर्णित हैं तो षष्ठ में रस स्वरूप निरूपण के उपरान्त शृङ्गार रस की विस्तृत व्याख्या की गई है। सप्तम तरङ्ग में अन्य हास्य करुण वीर रौद्रादि रसों की विवेचना है। अष्टम तरङ्ग में स्थायी भाव व्यभिचारि भाव रस इनसे उत्पन्न दृष्टियों की सोदाहरण व्याख्या की गई है। कतिपय रसों की अन्य रसों से उत्पत्ति तथा रस विरोध आदि प्रसङ्गों की भी इस प्रकारण में चर्चा की गई है। रस मञ्जरी में प्रायः सभी उदाहरण श्लोक कवि भानदत्त द्वारा स्वतः विचित ह नव्य न्याय की शास्त्रीय भाषा के प्रयोग के प्रभाव से सर्वथा दूर रह कर सरस सरल ढंग से विषय विवेचन का प्रयास किया गया है। यह समग्र प्रसंग रस विवेचन के उन अवशिष्टाशा का व्यवस्थित व विस्तृत निरूपण करता है जिन पर काव्याचार्यों ने अधिक दृष्टिपात नहीं किया था। स्थायी भावों, विभावों, अनुभावों, व्यभिचारी भावों का इतना विस्तृत निरूपण भानुदत्त की संस्कृत काव्य शास्त्र को उनकी विशेष देन है। रसमञ्जरी की ही भाँति इस ग्रन्थ पर भी कई टीकाएं लिखी गई जो इसका लोकप्रियता का प्रमाण है। डॉ. डे. ने इनका भी विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। ये टीकाए इस प्रकार हैं १. गंगाराम जडि की नौका टीका, २. वेणीदत्त तर्कवागीश भट्टाचार्य रचित रसिकरंजनी टीका, ३. जीवराज रचित रसतरङ्गिणी सेतु, ४.गणेश कृत रसोदधि, ५. महादेव राचत रसोदधि, ६. भीमशाह के पुत्र नेमिशाह की साहित्य सुधा या काव्य सुधा टीका ७. भगवद् भट्ट रचित नूतनतरी, ८. अयोध्या प्रसाद रचित टीका, ६. दिनकर रचित टीका।

अलङ्कार तिलक

प्रो. जी.वी. देवस्थली के सम्पादन में भानूदत्त की काव्य शास्त्र विषयक एक रचना ‘अलकार तिलक’ भी विद्वत्समुदाय के समक्ष उनकी साहित्य शास्त्रीय गवेषणाओं को प्रस्तुत करती है। इसका प्रथम प्रकाशन ‘जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी’ की पत्रिका में सन् १६४७-४६ ई. के मध्य २३, २४, २५, इन तीन भागों में हुआ था। इस ग्रन्थ में पाँच परिच्छेद हैं। इनका विषय विबेचन इस प्रकार है प्रथम परिच्छेद में वाराहावतार की मङ्गलाचरण के रूप में स्तुति करने के उपरान्त इन्होंने भानु सन्त कवि के रूप में अपना परिचय दिया है। इनका वक्तव्य है कि काव्य२६६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र शरीर है और रस उसकी आत्मा। गति, रीति वृत्ति दोषहीनता, गुण और अलङ्कार ये इन्द्रिया है। व्युत्पत्ति प्राण है और अभ्यास मन है। इसी प्रसंग में इन्होंने शब्दार्थ को काव्य और रीति को उसका नियामक धर्म माना है साथ ही भाषा के आधार पर काव्य को संस्कत. प्राकृत, अपभ्रंश और मिश्र इन चार भागों में तथा स्तर के आधार पर उत्तम, मध्यम और अधम इन तीन भागों में विवेचित किया है। कैशिकी आदि वृत्तियों का भी इसी क्रम में निरूपण है। द्वितीय परिच्छेद में पद, वाक्य, वाक्यार्थ से सम्बन्धित दोषों व तृतीय परिच्छेद में बाह्य, आन्तर और वैशेषिक तीन प्रकार के गुणों का विश्लेषण किया गया है। अलङ्कार तिलक के चतुर्थ परिच्छेद में अलङ्कारों की परिभाषा तथा विभिन्न शब्दालङ्कारों का वर्णन है। पञ्चम परिच्छेद में ४८ अर्थालङ्कारों का निरूपण है।

गीत गौरीपति अथवा गीतगौरीश

जयदेव के गीत गोविन्द से प्रेरित होकर रचे गये दश सर्गात्मक इस सरस गीतिकाव्य में पार्वती एवं शङ्कर की पवित्र प्रणय गाथा भक्ति भाव संयुक्त ललित गीतों के माध्यम से व्यक्त की गई है। इस काव्य के प्रत्येक सर्ग के प्रारम्भ में गीत गोविन्द के समान सङगीत की रागों का नामोल्लेख भी है। गीतों के मध्य-मध्य में कथासूत्र के संयोजन के लिए की रचना भी हुई है।

कुमार भार्गवीयम्

एगलिंग की ग्रन्थ सूची भाग-६ पृ. १५४०-४१ में भानुदत्त के नाम से एक अन्य ग्रन्थ का उल्लेख है जिसका नाम है कुमार भार्गवीयम्। गद्यपद्यान्तमक यह रचना १२ उच्छवासों में विभक्त है, जिसमें भगवान् शिव के पुत्र कार्तिकेय की कथा है।

रस परिजात

यह एक सङ्गह ग्रन्थ है जिसमें भानुदत्त एवं उसके पिता के श्लोकों का संकलन किया गया है। इसमें लगभग १००० श्लोक संग्रहीत हैं जिनमें कतिपय श्लोकों में निजामशाह, वीरभानु, कृष्णदेवराय और संग्राम शाह आदि राजाओं की प्रशंसा है। ये ही श्लोक इस बात के प्रमाण हैं कि भानुदत्त को इन शासकों का आश्रय प्राप्त रहा होगा।

चित्रचन्द्रिका

इस ग्रन्थ की चर्चा भानुदत्त के ‘अलङ्कार तिलक’ में की है। इस ग्रन्थ के चतुर्थ परिच्छेद में इनका वक्तव्य है कि ‘चित्रगूढ प्रहेलिका प्रश्नोत्तराणि चित्र चन्द्रिकायां दर्शयिष्यामः’। इससे ज्ञात होता है कि भानुदत्त ने- चित्र चन्द्रिका नामक कोई ग्रन्थ लिखा होगा। भानुदत्त की यह कृति अब तक प्राप्त नहीं हो सकी है। २६७ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘भानुदत्त’ भानुदत्त का उपर्युक्त समस्त कर्तृत्व उनके प्रौढ़ पाण्डित्य, मौलिक चिन्तन एवं गम्भीर शास्त्र निमज्जन का आख्यापक है। काव्यात्म भूत रस उससे सम्बद्ध विविध पक्षों को दुरूहता, दार्शनिकता, अस्पष्टता एवं सक्षेपाधिक्यादि दोषों से बचाकर सरस सरल शैली में प्रतिपादित करने एवं एतत्सम्बन्धी कई मौलिक चिन्तन विन्दु विद्वद्जगत के समक्ष प्रस्तुत करने के कारण संस्कृत काव्यशास्त्र में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। रस विषयक जो पक्ष अल्प विवेचित या अविवेचित रह गये थे, भानुदत्त ने उनका सोदाहरण निरूपण किया। विभिन्न रसों के आलम्बन, उद्दीपन विभावों एवं अनुभावों का पृथक-पृथक सोदाहरण निरूपण, सात्विक भावों एवं व्यभिचारी भावों का सनिदर्शन विशद विवेचन, जृम्भा नामक नवे सात्विक भाव का अन्वेषण विविध रसों के व्यभिचारी भावों, स्थायी भावों के भी व्यभिचारी रूप में परिणत हो जाने की स्थितियों, हाव व उनके विभिन्न प्रभेदों एवं हास्य के विविध प्रभेदों का विस्तृत निरूपण, इस प्रकरण में स्मित व हसित हास्य, विहसित, उपहसित, अपहसित, अतिहसितादि हास्यप्रकारों, स्वनिष्ठ व परनिष्ठ करुण भयानक अद्भुत व वीभत्स रसों, कान्ता हास्या करूणा, रौद्रा, वीरा, भयानका, वीभत्सा व अद्भुता आदि रसदृष्टियों, रसों के जन्यजनक भाव सम्बन्ध एवं माया रस नामक नवीन रस तथा मिथ्याज्ञान को उसके स्थायी भाव के रूप में विवेचित करने के प्रसङ्ग भानुदत्त के गम्भीर शास्त्र ज्ञान एवं विषय प्रतिपादन सामर्थ्य के सूचक हैं। रसमञ्जरी में विशदरूपेण वर्णित नायिका वर्णन के परवर्ती रीतिकालीन हिन्दी काव्य जगत को निस्सन्देह प्रभावित किया था व जनमानस में अत्यधिक लोक प्रियता प्राप्त की थी। यही कारण है कि उनकी रसमञ्जरी व रस तरङ्गिणी ने विद्वदसमुदाय को आकृष्ट किया तथा उन पर प्रभूत टीकाएँ लिखी गई। किसी आचार्य की कृतियों का जनमानस के इतने निकट पहुँच पाना निश्चय ही उसकी लोकप्रियता का द्योतक है। २६८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

रूप गोस्वामी

रूप गोस्वामी’ संस्कृत काव्यशास्त्र के इतिहास में भक्ति रस का प्रौढ़ विवेचन करने वाले प्रतिष्ठा प्राप्त आचार्य के रूप में समादृत हैं। प्रभूत काव्य सम्पदा के धनी व अनेक महनीय कृतियों के प्रणेता ‘रूप गोस्वामी’ की साहित्य शास्त्र में विशेष ख्याति उनकी तीन विशिष्ट कृतियों के कारण है। ये हैं- १. भक्तिरसामृत सिन्धु, २. उज्जवलनीलमणि एवं ३. नाटक चन्द्रिका। इनमें भी ‘भक्तिरसामृत सिन्धु का विशेष महत्त्व है। यह ग्रन्थ मूलतः गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के भक्ति सिद्धान्त का आख्यापक आधारभूत ग्रन्थ है। समग्र भारतीय वाङ्मय में भक्ति रस का जो भी प्रतिपादन हुआ है, उसकी पराकाष्ठा का निबन्धन इसमें हैं।

जीवन परिचय एवं समय निर्धारण

भक्तिरसामृत सिन्धु, उज्जवल नीलमणि सहित अनेक विशिष्ट ग्रन्थों की प्रणेता ‘रूप गोस्वामी’ के जीवन-वृत्तान्त के बारे में स्वयम् उनके वंशधर भ्रातृपुत्र जीव गोस्वामी के द्वारा प्रदत्त विवरण से ज्ञात होता है कि रूप एवं सनातन गोस्वामी दोनों सहोदर भाई थे। इनमें सनातन ज्येष्ठ थे व रूप उनके कनिष्ठ। इनके एक तृतीय भाई श्री बल्लभ अथवा श्री अनुपम थे जिनके पुत्र जीव गोस्वामी थे। ये सभी वंशधर मूलतः कर्णाट देशीय ब्राह्मण एवं कर्णाटाधिपति के वंशज थे। कर्णाट प्रदेश में इनके वंश के मूल पुरुष भारद्वाज गोत्रीय जगद्गुरू सर्वज्ञ थे जो राजवंशीय परम्परा में बद्ध होने पर भी त्रयी विद्या में पारङ्गत थे। उनका पुत्र अनिरुद्ध भी वेद विद्या में विशेषतः यजुर्वेद में निष्णात था। उनकी दो पत्नियाँ थीं। दोनों से एक-एक पुत्र उत्पन्न हुआ। ज्येष्ठा से रूपेश्वर व कनिष्ठा से हरिहर। इनमें ज्येष्ठ हरिहर तो अपने वंश के अनुरूप विद्या के गौरव से गौरवपूर्ण हुआ परन्तु रूपेश्वर ने ज्येष्ठ भ्राता से विग्रह करके अपनी पदच्युति प्राप्त की। तदनन्तर उसने अपनी नगरी का भी परित्याग कर दिया व अपने पुत्र पद्मनाभ के साथ देश-देशान्तर भ्रमण करते हुए चौदहवीं शती में बग-प्रदेश में गङ्गा तट पर नवद्वीप ग्राम को या नवहट्ट (वर्तमान नैहाटी कुमार हट्ट के समीप) को अपना निवास स्थान बनाया। समयान्तर में पद्मनाभ के पाँच पुत्र हुए। ये थे-पुरुषोत्तम, जगन्नाथ, नारायण-मुरारि व मुकुन्द। इनमें कनिष्ठ मुकुन्द ने पारिवारिक कलह से ऊब कर पुरातन पितृगृह छोड़कर नया आवास बनाया। उनका एक पुत्र हुआ, जो श्री कुमार नाम से जाना गया। श्रीकुमार के तीन पुत्र हुए- सनातन रूपम और बल्लभ जिन्होंने पृथक-पृथक रूप से वैष्णव समाज में ख्याति अर्जित की। श्री कुमार के समय तक यह परिवार नवहट्ट में ही रहा। इन तीनों भाइयों में सनातन ने नवद्वीप में १. लघु भागवतामृतम् की टीका, सनातन गोस्वामी प्रणीत। __-12

.–..

air… m Shema शारदातनय से अच्युतराय तक ‘रूप गोस्वामी’ २६६ रहते हुए वहाँ के सुप्रसिद्ध विद्वान रत्नाकर विद्यावाचस्पति से शिष्यत्व प्राप्त कर साहित्य दर्शनादि विषयों में प्रौढ़ि प्राप्त की। मध्यम भाई रूप ने भी इसी प्रकार पाण्डित्य अर्जित किया व इन दोनों भाइयों ने अपनी प्रतिभा, पाण्डित्य एवं वर्चस से गौड़ देश (बङ्गाल) के तत्कालीन सुल्तान हुसैन शाह (राज्यारोहण १४६२ ई.) की सभा में मन्त्रिपद प्राप्त कर अपने व्यवहार से राजा को सन्तुष्ट कर फतेयाबाद, पूर्वी बगाल में जैसोर के समीप अपना आवास बनाया। इन दोनों भाइयों के बङ्ग प्रदेश की समुन्नति में बादशाह को बहुत सहायता प्रदान की, अतः शाही दरबार में इनकी पर्याप्त प्रतिष्ठा हुई। शासक हुसेनशाह ने सनातन व रूप को क्रमशः ‘साकार मल्लिक’ व ‘दरि-ए-खास की उपाधि से पृथक-पृथक सम्मानित किया। वहाँ मत्सरी लोगों द्वारा धर्म परिवर्तन आदि मिथ्या प्रवादों से दूषित होने पर भी ये अपने स्वीकृत धर्म मार्ग से विचलित न हुए। उन्हें शाही शासक द्वारा मुस्लिम उपाधियाँ मिलने से कुछ लोगों ने यह अनुमान लगाया कि वे दोनो भाई मुसलमान हो गये थे परन्तु चैतन्य महाप्रभु से साक्षात्कार करने के बाद ये पुनः वैष्णव धर्म में दीक्षित हो गये किन्तु इस बात का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता। सम्भावना यह भी हो सकती है कि शाही दरबार में पद के अनुसार इन्हें मुस्लिम पद नाम भी मिला जिससे कुछ व्यक्तियों ने इनके मुसलमान होने का अनुमान लगा लिया।’ चैतन्य मूवमेण्ट में लिखा है कि जब चैतन्य वृन्दावन जा रहे थे तो रामकेलि स्थान पर उनकी भेट दो विशिष्ट व्यक्तियों से हुई। ये दाना राजघराने के मराठा ब्राह्मण थे। उनके पूर्वज बंगाल में जा बसे थे तथा उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था इसलिए ये गौड़ के मुसलमान राजदरबार में ऊँचे पद पर पहुँच गये थे। वे तुरन्त चैतन्य की ओर आकृष्ट हुए और उसके अनुयायी बन गये। चैतन्य ने उन्हें सनातन और रूप नाम दिया। इन दोनों व्यक्तियों ने चैतन्य के भक्ति आन्दोलन में प्रमुख भाग लिया। डॉ. डे ने अपनी आर्ली हिस्ट्री ऑफ दि वैष्णव फथ (पृष्ठ-७३, टिप्पणी-२) में इस विचार का खण्डन किया है कि सनातन और रूप ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया था, क्योंकि इस विषय में कोई प्रमाण नहीं मिलता। परन्तु इन्होंने इसके विरुद्ध जो प्रमाण दिया है वह न तो सन्तोष जनक है और न ही अन्तिम निर्णायक है।-/ संस्कृत काव्य शास्त्र का इतिहास, पी.वी. काणे, अनु. डॉ. इन्द्रचन्द्र शास्त्री पृ.३८८/) सनातन और रूप दोनो वैष्णव धर्म के अनुयायी थे एवं विष्णु तथा कृष्ण के परम भक्त । राजकीय कार्यों को सम्पन्न करते हुए भी उनका सम्पर्क वैष्णव भक्तों से बढ़ता गया व उसी के प्रभाव से कृष्ण भक्ति के अङ्कर फूट पड़े। उसी के प्रभाव से श्री रूप ने महाप्रभु चैतन्य के दर्शन से पहले ही ‘दानकेलि कौमुदी’ नामक मणिका व ‘हंसदूतम्’ नामक खण्डकाव्य लिखकर अपनी आन्तरिक प्रतिभा-ज्योति का साक्षात्कार कर लिया था। १. एम.टी. केनेडी ने अपनी पुस्तक चैतन्य मूवमेन्ट (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, १६२५, पृष्ठ-४५४६) ५४

. .

३०० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र रूप व सनातन इन दोनों भाइयों का १५१५ ई. में श्री चैतन्य देव से प्रथम साक्षात्कार रामकेलि ग्राम में हुआ जब वे सन्यास ग्रहण के पाँचवे वर्ष में वृन्दावन की ओर यात्रा कर रहे थे। प्रथम दर्शन के समय ही दोनों भाइयों की श्री चैतन्य देव ने ‘रूप सनातन’ नाम दिया। तभी से दोनों के मन में संसार त्याग कर श्री चैतन्य देव की शरण में जाने की प्रबल इच्छा जाग उठी। १५१७ ई. में श्री रूप गृह त्याग कर प्रयाग में श्री महाप्रभु से मिले। वहाँ दस दिन तक श्री महाप्रभु ने उन्हें विशेष शिक्षण दिया, जो श्री ‘चैतन्य चरितामृतम्’ में ‘श्री रूप शिक्षा’ नाम से अकित है। वहाँ यह भी कहा गया है कि महाप्रभु ने उन्हें आलिङ्गन देकर ‘शक्ति सञ्चार’ किया और वृन्दावन जाकर वहाँ के लुप्त तीर्थो का पुनरुद्धार एवं भक्ति रस के लक्षण ग्रन्थों एवं लीला के लक्ष्य ग्रन्थों के प्रणयन का आदेश दिया। इसी के कुछ समय बाद श्री चैतन्य काशी पहुँचे तथा श्री सनातन वहाँ आकर मिले। काशी मे ही श्री चैतन्य देव ने इन्हें विशेष उपदेश दिया जो ‘श्री चैतन्यचरितामृतम्’ में ‘श्री सनातन शिक्षा’ के नाम से उद्धृत है।’ इस प्रकार इन दोनों भाइयों ने चैतन्य महाप्रभु से प्रभावित होकर स्थान व मन्त्रिपद त्याग कर वृन्दावन की ओर प्रस्थान किया। वृन्दावन में वैराग्य प्राप्त कर वे दोनो महाप्रभु की प्रेरणा से वैष्णव सिद्धान्त के प्रतिपादक विविध संगीतमय स्तोत्र, गीत प्रबन्धादि काव्यमयी रचनायें रचने लगे। कुछ समय के बाद उनके अनुज बल्लभ के पुत्र श्री जीव गोस्वामी भी विरक्त होकर अपने पारम्परिक गृहस्थान को छोड़कर विद्या केन्द्र नवद्वीप में मित्र नित्यानन्द के साथ आ गये। कुछ समय तक वह निवास के उपरान्त काशी का माहात्म्य सुन कर उन्होंने काशी प्रस्थान किया। काशी पहुँचकर वे परम हंस परिव्राजकाचार्य मधुसूदन सरस्वती के अन्तेवासित्व को स्वीकार कर उनसे शास्त्राध्ययन कर अपने ज्येष्ठ पितृव्यों की उपासना स्थली वृन्दावन पहुंचे। उनके पितृव्य सनातन गोस्वामी व रूप गोस्वामी उनके द्वारा अधीत शास्त्र व वैदुष्य से प्रभावित हुए। इस प्रकार ये तीनों सनातन रूप व जीव वृन्दावन को ही अपनी कर्मस्थली बनाकर अपने-अपने ढंग से गौड़ीय वैष्णव सिद्धान्त के प्रतिपादन में संलग्न रहे। जीवगोस्वामी ने भी यावज्जीवन केवल पितृव्यों की सेवा- शुश्रूषा ही नहीं की वरन उनके द्वारा प्रणीत विविध ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखते हुए स्वयं भी नाना भक्ति शास्त्र सम्बन्धिनी रचनाओं का प्रणयन किया एवं पचासी वर्ष पर्यन्त इस प्रणयन एवं स्वधर्म L १-२. रूप व सनातन से संबद्ध यह विवरण एवं गौड़ीय वैष्णव समुदाय में समादृत छह परम पूज्य गोस्वामियों जिनके लिए जयरूप सनातन भट्ट रघुनाथ, श्री जीवगोपाल भट्ट दास रघुनाथ एइ छय गोसाईर करि चरण वन्दन, जाहा होते विघ्नमाश अभीष्ट पूरण ये दो पयार (बंगाल का सुप्रसिद्ध छन्द) आज गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के सभी आचार्यों द्वारा मङ्गलाचरण में पढ़े जाते हैं। इन सभी गोस्वामियों व उनसे सम्बद्ध स्थानों व तारीखों का विवरण श्री नरेश चन्द्र जाना की बङ्गला पुस्तक वृन्दावनेर छय गोस्वामी प्रकाशक कलिकाता वि.वि. सु. १६७० है। भक्ति रसामृत सिन्धु, सम्पा. प्रेमलता शर्मा इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, दिल्ली। ३०१

tar

शारदातनय से अच्युतराय तक ‘रूप गोस्वामी’ प्रतिपादन के कार्य में संलग्न रहे। श्री रूप सनातन संस्कृत के प्रौढ़ पण्डित एवम् अनेक शास्त्रों के मर्मज्ञ पहले से थे ही। श्री चैतन्य देव से शक्ति एवं प्रेरणा पाकर श्री रूप ने भक्ति रस के दो बृहद् लक्षण ग्रन्थ रचे-श्री भक्ति रसामृत सिन्धु एवं श्री उज्ज्वल नील मणि। इनमें से भक्ति रसामृत सिन्धु में मधुर भक्ति रस अर्थात् शृङ्गार का अत्यन्त संक्षिप्त निरूपण है, उसी के विशद प्रतिपादन के लिये पूरक रूप में उज्ज्वल नीलमणि की रचना हुई है। लीला के साथ नाट्य का गूढ़ सादृश्य होने के कारण नाट्य के शास्त्र का प्रतिपादन करने के लिये ‘नाटक चन्द्रिका’ की रचना श्री रूप गोस्वामी ने की। ये तीनों ग्रन्थ मिलकर भक्ति रस का सम्पूर्ण व्याकरण प्रस्तुत करते है।

सनातन गोस्वामी

श्री सनातन गोस्वामी का श्री रूप ने सदा अपने गुरू के रूप में नमन किया है। श्री भक्ति रसामृत सिन्धु’ में मंगलाचरण एवं प्रायः सभी लहरियों के अन्त में सनातन शब्द में श्लेष रखते हुए भगवान् और श्री सनातन गोस्वामी दोनों को नमन किया गया है: भीमांसक बडवाग्नेः कठिनामपिकुण्ठयन्नसौजिह्वाम् । स्फुरतु सनातन! सुचिरं तव भक्ति रसामृताम्भोधिः।। हे सनातन प्रभों ! आपका भक्ति रसामृत समुद्र मीमांसक रूपी बड़वानल की कठोर जिह्वा को भी कुण्ठित करते हुए चिरकाल तक स्फुरित हो’ श्री सनातन गोस्वामी के तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं:-१. श्री वृहद् भागवतामृत (अवतार तत्त्व का विवेचन) २. श्री वैष्णाव तोषणी (श्रीमद् भागवत के दशम स्कन्ध की टिप्पणी) ३. लीलास्तव ( श्री मद्भागवत के दशम स्कन्ध का चरित अर्थात् कथा) वैष्णव स्मृति ग्रन्थ ‘श्री हरि भक्ति विलास’ के साथ रचयिता के रूप में श्री सनातन गोस्वामी का नाम तो जुड़ा की रहता है किन्तु श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी को भी उसका सङ्कलक व समाहर्ता माना जाता है। श्री सनातन गोस्वामी ने ‘हरिभक्ति विलास’ पर ‘दिक्- प्रदर्शिनी’ नाम की टीका की भी रचना की है, जो उक्त संस्करण में प्रकाशित है।

जीव गोस्वामी

श्री जीव गोस्वामी गौड़ीय सम्प्रदाय की दार्शनिक भित्ति के स्थापक हैं। आपके ‘षट् सन्दर्भ’ ग्रन्थ में प्रमाण तत्त्व, परमतत्त्व के तीन आविर्भाव ब्रह्म, परमात्मा, भगवान, साधन तथा प्रयोजन इन सबका निरूपण है इसके अतिरिक्त ‘क्रमसन्दर्भ’ नाम से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत की टीका आपने लिखी है। १. भक्ति रसामृत सिन्धु, १/५ P ३०२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

समय

श्री रूपगोस्वामी के द्वारा अपनी कई कृतियों के अन्त में प्रदत्त लेखनकाल विषयक उल्लेखों के आलोक में उनके जन्म एवं रचनाकाल का निर्धारण किया जा सकना अधिक सहज हो पाता है। वैष्णव भक्तिपरक अन्य ग्रन्थों के उल्लेख से भी इस निर्धारण की पुष्टि हो पाती है। सर्वप्रथम रूप गोस्वामी ने जिन-जिन ग्रन्थों के लेखन काल का उल्लेख किया है; उन पर दृष्टिपात आवश्यक है। इनमें सर्वप्रथम ‘दानकेलिकौमुदी’ की रचना १४१७ शकाब्द अर्थात् १४६५ ई. में हुई। ‘विदग्धमाधवम्’ नाटक की निर्मिति १५८६ वैक्रमाब्द या १४५४ शकाब्द (१५३२-३३ई.) में हुई। ऐसा ग्रन्थान्त श्लोकों से ज्ञात होता है। ‘ललितमाधवम्’ नाटक १४५६ शकाब्द अर्थात् १५३७ ई. में निर्मित हुआ था; ऐसा उसकी पुष्किा से ज्ञात होता है। ‘भक्ति रसामृतसिन्धु’ की रचना १४६३ शक संवत्सर (१५४१-४२ ई.) में पूर्ण हुई थी। ‘भक्ति रसामृत सिन्धु’ के अनन्तर उज्ज्वल नीलमणि की रचना भी हुई ऐसा अनुमान सहज ही किया जा सकता है। इसी प्रकार इनके द्वारा प्रणीत ‘उत्कलिका मञ्जरी’ में उसका रचनाकाल १४७१ शकाब्द (१५५०) निर्दिष्ट है। इन दोनों के रचनाकाल की पूर्ण सीमा १४१७ शकाब्द है जो कि चैतन्य महाप्रभु से साक्षात्कार के पूर्व है। कारण, ‘दानकेलि कौमुदी’ में इन्होंने अपने अभीष्ट देव चैतन्य को नमस्कार नहीं किया है। इससे ज्ञात होता है कि महाप्रभु चैतन्य के सम्पर्क में आने से पूर्व इस ग्रन्थ की रचना हो चुकी थी। चैतन्य महाप्रभु के साथ रूप गोस्वामी का प्रथम साक्षात्कार १५१५ ई. में वृन्दावन जाते समय रामकेलि ग्राम में हुआ था। इस तथ्य का वर्णन महाप्रभु के प्रमुख शिष्य नरहरि चक्रवर्ती ने अपने ‘भक्ति रत्नाकर’ नामक ग्रन्थ में लिखा है। नरेश चन्द्र जाना की ‘वृन्दावनेर छयस्’ गोस्वामी नामक पुस्तक में भी ऐसा ही वर्णन है। इस आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि यदि श्री रूप गोस्वामी का रचनाकाल १४१७ शकाब्द अर्थात् १४६५ ई. से १४७१ शकाब्द अर्थात १५५० ई. पर्यन्त रहा तो निश्चय ही उनका जीवन काल १४१७ शकाब्द से कम से कम २० या २५ वर्ष पूर्व यानि १३६२-६७ शकाब्द या १४७०-७५ ई. के समीप अनुमानित किया जा सकता है। हुसैन साह जिससे इन्हें ‘दबीर-ए-खास’ की उपाधि मिली थी; उसका राज्यारोजण १४६२ ई. में हुआ था। अतः १४७०-७५ ई. तक आविर्भूत होने वाले जीवगोस्वामी का १४६५-१५०० के मध्य तक हुसैन शाह के सम्पर्क मे आ जाना सहज लगता है। इन तिथियों से स्पष्ट है कि उनका साहित्य रचनाकाल कम से कम ५५ वर्षों का रहा। डॉ. डे के मत में सनातन और रूप १५५४ ई. तक जीवित रहे और कुछ ही महीनों के अन्तर से उनकी इसी वर्ष मृत्यु हुई। अतः रूप गोस्वामी का समग्र जीवन काल १४७० ई. से १५५४ ई. के मध्य निर्धारित किया जा सकता। E-RE NE . .- …………– …. … Modelines शारदातनय से अच्युतराय तक ‘रूप गोस्वामी’ ३०३

रूप गोस्वामी की रचनायेंः

रूपगोस्वामी ने अनेक कृतियों की अनेक विधाओं में रचना की थी। इनके भतीजे तथा शिष्य जीव गोस्वामी ने सनातन गोस्वामी प्रणीत ‘लघुभागवतामृत’ की ‘लघुतोषिणी व्याख्या’ में जो सूची दी है, उससे प्रतीत होता है कि रूप गोस्वामी ने १७ पुस्तकों की रचना की थी। इनमें से कुछ रचनाओं के साथ सनातन गोस्वामी का नाम जुड़ा हुआ है। इनमें ८ रचनायें अधिक बड़ी तथा महत्त्वपूर्ण हैं। इन रचनाओं का विषयानुसार वर्गीकरण इस प्रकार हैं नाटक __ - ललित माधव, विदग्ध माधव भाणिका दानकेलि कौमुदी खण्ड काव्य - हंसदूत, उद्धव सन्देश स्तोत्र काव्य स्तवमाला ( इसी में श्री गोविन्द विरुदावलि भी समाविष्ट है।) काव्य-संकलन - पद्यावली काव्य शास्त्र भक्ति रसामृत सिन्धु, उज्ज्वलनीलमणि एवं नाटक चन्द्रिका। विविध संक्षिप्त भागवतामृत, प्रेमेंन्दु सागर, बृहत तथा लधु श्री गणोद्देश दीपिका, निकुञ्जरहस्यस्तवः। स्थल महिमा - मथुरा महिमा व्याकरण - प्रयुक्ताख्यात चन्द्रिका प्रकीर्ण अष्टादशलीलाछन्दः, कृष्णजन्मतिथि विधि। विपुल ग्रन्थ प्रणयन के अतिरिक्त वृन्दावन में श्री गोविन्द के प्राचीन विग्रह का पुनः प्रकट होना व उसकी स्थापना के लिये विशाल मन्दिर बनवाना। ये दोनों घटनाएं श्री रूप गोस्वामी की साधना एवं कर्तृव्य से जुड़ी है। उपर्युक्त रचनाओं के अतिरिक्त निम्ननिखित चार रचनाओं को भी रूपगोस्वामी कृत माना जाता है। ये हैं १.गौराङ्गस्तवकल्पतरु, २. कुसुम स्तबक, ३. यमुनास्तोत्र एवं ४. चतुःपुष्पाञ्जलि स्तव। __इन समस्त रचनाओं मे रूप गोस्वामी प्रणीत काव्यशास्त्रीय रचनाओं का वर्णन इस प्रकार है

नाटक चन्द्रिका

नाट्यादि के शास्त्रीय स्वरूप के वर्णन एवं नाट्य शास्त्रीय सिद्धान्तों के वैष्णव धर्म सम्मत विवेचनात्मक व्याख्यान से समन्वित यह कृति आचार्य भरत एवं रस सुधाकर (रसार्णवसुधाकर) के अनुकरण पर लिखी गई है। इसके लेखन में गोस्वामी प्रवर ने साहित्य दर्पणोक्त प्रक्रिया का समाश्रय नहीं लिया है। इसका कारण नायिका भेद के अर्न्तगत गोपिकाओं के परकीयात्वनिर्वचन प्रसङ्ग में विश्वनाथ एवं रूप गोस्वामी का मतवैभिन्न हैं … Paar.

…… ……. …-..-.

.:….. . ३०४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र विश्वनाथ का वक्तव्य है कि कृष्ण गोपियों के उपपति है, गोपिकाएँ तो परोढा थीं। श्री कृष्ण के साथ उनकी रति शृङ्गार रस को परिपुष्ट नहीं करती वरन वहाँ रसाभास की ही स्थिति है। यही रूपगोस्वामी का विरोध है। उनके मत में गोपियों व कृष्ण का अनुराग मधुर रस को परिपुष्ट करता है। उनका विश्लेषण है कि विश्वनाथादि पूर्वाचार्यों ने उपपति में जो लघुत्व बतलाया है वह प्राकृत नायक में ही सम्भव होता है।’ क्योंकि उसका जन्म अदृष्ट से प्रेरित होता है। उसके नरक में गिरने व पाप का भागी होने की आशंका होती है। परन्तु कृष्ण में; सृष्टि स्थिति लय के कारक आदि पुरुष परम भागवत, परब्रह्म लीला पुरुष कृष्ण में एवं उनकी महा शक्ति की समुदाय रूप आह्लादिनी शक्ति भूता गोपिकाओं में इसकी सम्भावना नहीं होती। प्रत्युत उत्तमोत्तम फल की प्राप्ति इस प्रसङ्ग के श्रवण मात्र से होती है। अतएव ग्रन्थकर्ता रूप गोस्वामी ने इस ग्रन्थ में कहा है: यत्परोढोपपत्योस्तु गौणत्वं कथितं बुधैः। तत्तु कृष्णञ्च गोपीश्च विनेति प्रतिपद्यताम् ।। इसी तथ्य की पुष्टि इस ग्रन्थ के टीकाकार श्री विश्वनाथ कवि चक्रवर्ती ने अलङ्कार कौस्तुभकार के मत का प्रकाशन करते हुए कहा-‘अप्राकृते तु परोढरमणीरतिरेव सर्वोत्तमतया भूयसी श्रूयते, न तस्यामनौचित्यं प्रवर्तितव्यम् अलौकिकसिद्धे भूषणमेव न तु दूषणमिति न्यायात्तर्कगोचरत्वाच्च’। इस प्रकार श्री रूप गोस्वामी के मत में राधाकृष्ण व कृष्ण गोपिकाओं की लीला परमानन्ददात्री है। इसीलिए नाटक चन्द्रिका में उदाहरण राधाकृष्ण के प्रणय से सम्बद्ध ही है। इनमें कुछ कवि द्वारा स्वकृत उदाहरण पद्य है व कुछ अन्य ग्रन्थों से लिए गये है। नाट्य चन्द्रिका आठ भागों में विभक्त है। इसमें सर्वप्रथम नाटक का लक्षण है; तदनन्तर नायक, रस, इतिवृत्त, प्रस्तावना, नान्दी, सन्धियाँ, पताका, अर्थोपक्षेपक भाषा वृति व तदनुकूल रसों का विवेचन है।

भक्ति रसामृत सिन्धु

भक्ति रसामृत सिन्धु एक लक्षण ग्रन्थ है। गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्तक महाप्रभु श्री चैतन्य के पार्षद श्री रूप गोस्वामिपाद ने अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्त के अनुसार रस . १. वीक्ष्य भरतमुनिशास्त्रं रसपूर्वसुधाकरञ्च रमणीयं । लक्षणमति संक्षेपाद् विलिख्यते नाटकस्येदम्।। नातीव सङ्गतत्वाद् भरतमुनेर्मतविरोधाच्च। साहित्य दर्पणीया न गृहीता प्रक्रिया प्रायः।। नाटक चन्द्रिका १/१-२।। .. . . ..UETHI शारदातनय से अच्युतराय तक ‘रूप गोस्वामी’ ३०५ तत्त्व के निरूपण के लिये श्री भक्ति रसामृत सिन्धु के अतिििक्त उज्ज्वल नीलमणि एवं नाटकचन्द्रिका नामक दो अन्य ग्रन्थों की रचनायें की थीं। भक्ति रसामृत सिन्धु की प्रमुखता इसलिये है कि इस ग्रन्थ में सभी रसों के विषय में सोदाहरण विवेचन प्रस्तुत किया गया है। गौड़ीय सम्प्रदाय के सिद्धान्त के अनुसार भक्ति ही मूल परम्परा में स्वीकृत शृङ्गार-हास्य, करुण-वीर- भयानक -वीभत्स- रौद्र- अद्भुत एवं शान्त ये नौ रस मूल भक्ति रस के ही विस्तार हैं। गोस्वामी प्रवर ने भक्ति रस के मुख्य एवं गौण ये दो विभाग किये हैं। मुख्य विभाग के अन्तर्गत भक्ति रस की श्रेष्ठता शृङ्गार सहित है। शेष सात रस-हास्य, करूण, वीर, भयानक, वीभत्स, रौद्र व अद्भुत गौण भक्ति रस के अन्तर्गत ही हैं। इस ग्रन्थ में अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन में गोस्वामी प्रभु पाद ने जिस विद्वत्ता एवं मार्मिकता का प्रदर्शन किया है, उसकी तुलना सुसमृद्ध अलङ्कार शास्त्र एवं नाट्य शास्त्र में भी विरल है- जैसा कि वर्णित है भक्ति रसामृत सिन्धु का मुख्य प्रतिपाद्य भक्ति रस है। इसके चार विभाग हैं- पूर्व दक्षिण पश्चिम, उत्तर। प्रत्येक विभाग में अनेक लहरियाँ हैं। पूर्व विभाग में भक्ति का सामान्य लक्षण कर उसके तीन भेदों साधन भक्ति, भाव भक्ति व प्रेमा भक्ति का विशिष्ट विवरण है। दक्षिण विभाग में विभाव, अनुभाव, सात्विक भाव, व्यभिचारी भाव, स्थायी भाव आदि वर्णित है। पश्चिम विभाग में भक्ति रस के विशिष्ट भेद का निरूपण जैसे शान्त भक्ति, प्रीति भक्ति, प्रेमा भक्ति वत्सल भक्ति तथा मधुर भक्ति का विशिष्ट वर्णन है। रूप गोस्वामी ने भक्ति को ही प्रकृति रस माना है। अन्य रस उसकी विकृतियाँ है। इनका वर्णन उत्तर विभाग में है जिसमें हास्य, अद्भुत, वीर, करूण, रौद्र, वीभत्स, भयानक रसों का वर्णन है। अनन्तर रसों के परस्पर विरोध अविरोध का विवेचन कर रसाभास के वर्णन के साथ यह ग्रन्थ पूर्ण हो जाता है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल शक संवत १४६३ व ईसवी १५४१ है। मूल ग्रन्थ की रचना आर्या व अनुष्टुप छन्दों में ढली कारिकाओं में हुई है। प्रत्येक विषय पर उदाहरण प्रस्तुत करने की परिपाटी का आदि से अन्त तक निर्वाह हुआ है। उदाहरण दो प्रकार के हैं-एक तो सिद्धान्त सम्बन्धी व दूसरे लीला सम्बन्धी। दोनों का मुख्य उपजीव्य है श्रीमद्भागवत किन्तु लीला सम्बन्धी अनेक पद्यों के स्रोत अज्ञात हैं। इन श्लोकों में संगृहीत माधुर्य अप्रतिम है। इस प्रकार ‘भक्ति रसामृतसिन्धु’ जहाँ मध्यकालीन संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधि है वहीं इसका लीला पक्ष भक्ति के उन्मेष से गहरा सम्बन्ध रखता है तथा जनसाधारण के लिये आचार्यो एवं पण्डितों के माध्यम से जीवन शक्ति का स्रोत सिद्ध हुआ है। इस ग्रन्थ पर तीन संस्कृत टीकाएँ उपलब्ध हैं १-श्री जीव गोस्वामी कृत दुर्गम सङ्गमनी २- श्री मुकुन्द दास कृत अल्पार्थरत्न दीपिका एवं ३-श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती की भक्ति सार प्रदर्शिनी।३०६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

उज्ज्वल नील मणि

‘उज्ज्वल नील मणि’ ‘भक्ति रसामृत सिन्धु’ का पूरक ग्रन्थ है। इसमें भक्ति के अलौकिक क्षेत्र में लौकिक शृङ्गार रस को मधुर रस में परिणत करने की नवीन सरणि को अपनाया गया है। ‘भक्ति रसामृत सिन्धु’ में रसपरिपाक की दृष्टि से मधुर शृङ्गार के नायकादि भेदों का निरूपण आवश्यक जानकर रूप गोस्वामी ने उस अभाव की पूर्ति करने के लिये इस ग्रन्थ की रचना की है। संसार में शृङ्गार का रसराजत्व प्रख्यात है फिर भी भवभूति ने करूण को ही प्रधान रस घोषित किया। उसी प्रकार ‘चैतन्य वीथि पथिक’ रूप गोस्वामी ने भी न केवल भक्ति रस की प्रतिष्ठा की, बल्कि उसे प्राधन्य भी दिया। ‘भक्ति रसामृत सिन्धु’ में यही भावना बलवती है। भक्ति रस में कृष्ण विषयक रति की प्रधानता होने के कारण कृष्ण विषयक रति के ही स्थायी भाव का प्रदर्शन करते हुए प्रसङ्ग प्राप्त विभावादि का भी निरूपण किया गया था। उसी प्रसङ्ग में कृष्ण को कृष्ण भक्तों के आलम्बन के रूप में, कृष्ण के गुणों व चेष्टाओं को उद्दीपन के रूप में प्रदर्शित कर, नृत्यगान, विलुठित आदि को अनुभाव के रूप में एवम् अन्य सात्त्विक व व्यभिचारी भावों को सम्यक् तया प्रदर्शित करते हुए मधुर रति का लक्षण भी वहाँ वर्णित किया गया था। इसी प्रकार भक्ति रस में मधुर रति के विद्यमान रहने से ‘मधुर’ नामक स्थायी भाव भक्ति रस के अपर पर्याय के रूप में वहाँ वर्णित किया गया था। किन्तु उसके दुरूह विस्तृत व भगवद् रहस्ययुक्त होने के कारण वहाँ उसका विस्तार रूप में वर्णन न हो सका। अतः इस विषय को पूर्णता देने के उद्देश्य से रूप गोस्वामी ने ‘उज्ज्वल नीलमणि’ नामक पृथक ग्रन्थ के निर्माण की योजना में अपने को संसक्त कर लिया। इसी कारण से शान्त, प्रीति प्रेय एवं वत्सलोज्ज्वल नामक मुख्य रसों में; जो ‘भक्ति रसामृत सिन्धु’ में संक्षेपतया उल्लिखित थे, उज्ज्वल जिसका अपर पर्याय है, वह भक्ति रसों का राजा मधुराख्य रस ‘उज्ज्वलनीलमणि’ में विस्तृतरूप में वर्णित होगा ऐसी प्रतिज्ञा के साथ रूप गोस्वामी ने इस ग्रन्थ का लेखन प्रारम्भ किया मुख्यरसेषु पुरा यः संक्षेपेणोदितो रहस्यत्वात्। पृथगेव भक्ति रसराट् स विस्तरेणोच्यते मधुरः।।’ इस प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिये उन्होंने शास्त्रानुसारी परम्परागत मधुर शृङ्गार के भेदोपभेदों का वर्णन करना प्रारम्भ किया। इसी प्रसङ्ग में उन्होंने नायक भेद, नायक के सहायकों हरिप्रिया राधा, नायिका, यूथेश्वरी भेद, दूती भेद, सखी वर्णन, कृष्ण के सखाओं आदि का क्रमशः विस्तृत वर्णन किया है तदनन्तर मधुर रस के उपकारी, उद्दीपन, अनुभाव, सात्विक एवं व्यभिचारी भावों का भी सम्यक प्रदर्शन कर, स्थायी भावों का भी विस्तृत १. उज्ज्वलनीलमणि, कारिका २ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘रूप गोस्वामी’ ३०७ निरूपण कर संयोग व विप्रलम्भ शृगार की विभिन्न दशाओं का चित्रण किया गया है। ‘उज्ज्वल नील मणि’ में नायक तथा नायिका के भेदों का विस्तार से वर्णन है। नायक प्रथम चार प्रकार के होते हैं पुनः दो भेद पति और उपपति। पुनः इसके तीन भेद हैं- पूर्ण, पूर्णतर और पूर्णतम। ये पुनः चार प्रकार के हैं- धृष्ट, शठ, अनुकूल और दक्षिण। इस प्रकार नायकों के कुल ६६ भेद कहे गये हैं। इन भेदों की परिभाषायें गुण, कार्य व्यापार एवं उदाहरण दिये गये हैं। नायकों के पाँच प्रकार के सहायकों- चेट, विट, विदूषक, पीठमर्द और प्रियनर्मसख का वर्णन है। इस प्रकार नायिकायें भी दो प्रकार की कही गई हैं- स्वीया और परकीया। कृष्ण की द्वारकावासिनी १६१०८ रानियाँ स्वीया नायिकायें हैं इनमें ८ प्रमुख हैं- रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती, अर्कनन्दिनी, शैव्या, भद्रा, कौशल्या और माद्री। परकीया नायिकायें पुनः दो प्रकार की होती हैं- परोढ़ा तथा कन्या। परोढ़ा नायिकायें व्रज में निवास करती हैं। परोढा नायिकाओं के तीन भेद हैं- साधनपरा, देवी और नित्यप्रिया। साधनपरा के पुनः दो भेद हैं- यौथिक्या और अयौथिक्या। यौथिक्या के दो भेद हैं- मुनि और उपनिषद। अयौथिक्या नायिकाओं के भी दो भेद होते हैं- प्राचीन और नव। देवियाँ वे थी-जो कृष्ण के साथ पृथ्वी पर जन्मलेती थीं राधा व चन्द्रावलि नित्य प्रियाएं थी। स्वीया और परकीया नायिकाओं को पुनः तीन-तीन भेद होते हैं- मुग्धा, मध्या और प्रगल्भा। इन्हीं प्रभेदों के पुनः आठ भेद होते हैं- अभिसारिका, वासकसज्जा, उत्कण्ठिता, खण्डिता, विप्रलब्धा, कलहान्तरिता प्रोषितभर्तृका और स्वाधीनभर्तृका । इस प्रकार नायिकाओं के ३६० भेद हो जाते हैं। नायिकाओं के भेदों का विस्तृत वर्णन करने के अनन्तर नायिकाओं की सहायिकाओं दूतियों, सखियों का तथा उनके गुणों का विस्तार से वर्णन किया गया है। जैसा कि पूर्वकथित हैं, उज्ज्वलनीलमणि, में शृङ्गार रस का विस्तृत विवेचन कर उसे भी भक्ति रस में परिकल्पित किया गया है। किन्तु यह शृङ्गार लौकिक न होकर भगवद्रति विषयक होने से अलौकिक है। इस शृङ्गार का स्थायी भाव प्रेमा रति है। इसके छह भेद हैं- स्नेह, मान, प्रणय, राग अनुराग एवं भाव यही छहों भेद शृगार की परिपुष्ट करते हैं। यहाँ ब्रज वनिताओं का कृष्ण के प्रति प्रेम दोषावह नहीं हैं इस तथ्य की भी रूपगोस्वामी के सयुक्तिक सिद्धि की है। रूप गोस्वामी के मत में जिस प्रेम को अनुचित या गुप्त कह कर तिरस्कृत किया जाता है, वह शृङ्गार की चरम कोटि है “अत्रैव परमोत्कर्ष शृङ्गारस्य प्रतिष्ठितः। __ उज्ज्वल नीलमणि पर दो टीकाएं लिखी गई। प्रथम टीका तो श्री जीव गोस्वामी की है जो लोचनरोचिनी नाम से लिखी गई। दूसरी टीका श्री विश्वनाथ कविचक्रवर्ती रचित है जो ‘उज्ज्वल नीलमणि किरण’ नाम से रची गई। इसका रचनाकाल १६१८ शकाब्द अर्थात् १६६६ ई. है।

३०८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

अप्पय दीक्षितः

संस्कृत काव्य शास्त्र के उत्तरवर्ती युग के आचार्यों में सर्वतन्त्र प्रौढ़ आचार्य के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त अप्पय दीक्षित नानाविध शास्त्र निष्णात उद्भट विद्वान एवं मौलिक ग्रन्थकार के रूप में परिलक्षित विद्वत्समुदाय में सादर स्मरणीय हैं। वेदान्त, मीमांसा, व्याकरण, पुराणेतिहास, काव्य एवं काव्य शास्त्र जैसे विषयों पर लेखनी चलाने वाले भारद्वाज कुल दिवाकर दीक्षित का पाण्डित्य वंशपरम्परागत था। इनके पिता ‘सर्वतोमुख’ ‘महाव्रत’ एवं विश्वजित् याग जैसे अत्यधिक प्रतिष्ठा पूर्ण यागों के याज्ञिक ‘रङ्गराजाध्वरीन्द्र’ थे एवं पितामह प्रतिभाशाली विद्वान श्री आचार्य दीक्षित अथवा ‘श्री अच्चन दीक्षित थे जिन्हें ‘वक्षस्थलाचार्य’ नाम से भी सम्बोधित किया जाता था। उनके इस ‘वक्षस्थलाचार्य’ नाम से सम्बोधित किये जाने के पीछे एक बड़ी रोचक कथा है। कहा जाता है कि विजयनगर के प्रसिद्ध सम्राट श्री कृष्ण देवराय एक बार अपनी रानी के साथ काञ्चीपुरम में श्री ‘बरदराज स्वामी’ के प्रसिद्ध मन्दिर में गये। आचार्य दीक्षित, जो उनके दरबार के प्रतिष्ठा प्राप्त कवि थे, उनके साथ थे। उन्होंने भगवान बरदराज के श्री विग्रह के समक्ष राजा के साथ खड़ी आभूषणों की कान्ति एवं सौन्दर्य के अकलुषित छटा से सुशोभित रानी को दृष्टि में रखकर एक श्लोक पढ़ा कि दीप्ति से देदीप्यमान एवं साक्षात् श्री के समान शोभायमान रानी को सामने देखकर भगवान वरदराज ने यह निश्चित करने के लिए कि उनकी प्रिया लक्ष्मी उनके पास हैं अथवा नहीं, थोड़ा या सिर झुकाकर वक्षस्थल की ओर देखने की चेष्टा की। कृष्ण देवराय इस श्लोक रचना से इतना प्रसन्न हुए कि उन्होंने उन्हें ‘वक्षस्थलाचार्य’ की उपाधि दे डाली काञ्चित् कान्वनगौरागीं वीक्ष्य साक्षादिवश्रियम् । वरदः संशयापन्नो वक्षःस्थलमवेक्षते।। इस प्रकार ‘वक्षस्थलाचार्य दीक्षित’ जो विजय नगर के प्रतापी सम्राट श्री कृष्ण देवराय के राज्याश्रय प्राप्त विद्वान् थे; अपने पाण्डित्य के प्रकर्ष से समुल्लसित महनीय विभूति थे। अप्पय दीक्षित ने उनका यशः प्रख्यापन करते हुए कहा है आसेतुबन्धतटमाचतुषारशैला दाचार्यदीक्षित इति प्रथिताभिधानम्।। अवैतचित्सुखमहाम्बुधिमग्नभावं। अस्मपितामहमशेषगुरुं प्रपद्ये।।’ - न्यायरक्षा मणि १. Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan के अध्ययन पर आधारित पी.-३३-३६ JImom शारदातनय से अच्युतराय तक ‘अप्पय दीक्षित’ ३०६ यही नहीं अप्पय के भ्रातृपौत्र, नीलकण्ठ दीक्षित ने अपने नाटक-नलचरितम्’ में इन्हीं प्रपितामह वक्षस्थलाचार्य का कीर्तिगान करते हुए उनके उन विशिष्ट अष्ट कार्यो की चर्चा की है जिससे उनका यश अष्ट दिशाओं में प्रोदभासित हो उठा था तस्य किल कृष्णरायवन्दितचरणारविन्दस्य भरद्वाजकुलचूडामणेः अष्टभिः क्रतुभिः अष्टभिः आयतनैः शम्भोः अष्टभिर्गामैः अष्टभिस्तटाकैः अष्टभिश्च सर्वविद्याविशारदैः तनयैः अष्टाऽपि दिशो यशोभिचलिता।’ इन वक्षस्थलाचार्य दीक्षित या आचार्य दीक्षित के दो पत्नियाँ थीं। इनकी प्रथम पत्नी शैवमतानुयायी परिवार से सम्बद्ध थीं एवं उनके चार पुत्र थे, उनकी द्वितीय पत्नी वैष्णव परिवार की कन्या थोताम्बी थीं। यही अप्पय की पितामही थी। इनके प्रथम पुत्र ‘रङ्गराज थे। अप्पय इन्हीं रङ्गराजाध्वरीन्द्र के पुत्र थे। इस प्रकार अप्पय दीक्षित को शैव एवं वैष्णव संस्कारों तथा विश्वासों की निधि वंश परम्परा से प्राप्त थी। अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘परिमल’ में उन्होंने इसका स्पष्टतः उल्लेख भी किया है वैकुण्ठाचार्यवंशाम्बुधिहिमकिरणश्रीमदद्वैतविद्याचार्यश्रीरङ्गराजाह्वयविसृतयशो विश्वजिद्याजिसूनोः२ श्री आचार्य दीक्षित एवं श्री रङ्गराजाध्वरीन्द्र दोनों ही उच्चकोटि के विद्वान एवं विश्रुत प्रभाव सम्पन्न थे। आचार्य दीक्षित को सम्राट कृष्णदेवराय का आश्रय प्राप्त था। उन्हें अत्यधिक ख्याति व धन दोनों प्राप्त था। उन्होंने स्वयं भी कई गाँव दान में दिये थे व कई इष्टापूर्त के कार्य भी किये थे। उनके पुत्र रङ्गराजाध्वरीन्द्र ‘अध्वरीन्द्र’ जिन्हें उनके श्रेष्ठ याज्ञिक कार्यो के लिए कहा जाता था; उन्होंने अपने पिता के नाम, यश व सम्पत्ति को बनाए रखा। सही अर्थों में वे उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी हुए। उन्होंने स्वयं ‘विश्वजित्’, ‘सर्वतोमुख’, ‘महाव्रत’ जैसे यागों का सम्पादन किया जिसके कारण उन्हें ‘सर्ववेद’ कहा गया। यह सुविदित तथ्य है कि -‘विश्वजित’ याग के कर्ता को अपनी सर्वस्व सम्पति दान में देनी होती है जिसके बाद उसे ‘सर्ववेद’ इस उपाधि से विभूषित किया जाता था। सर्ववेदाः स येनेष्टो यागः सर्वस्वदक्षिणः अप्पयदीक्षित ने अपने इस महान पिता का माहात्म्य वर्णन करते हुए कहा है: विद्वद्गुरोविहितविश्वजिदध्वरस्य श्रीसर्वतोमुखमहाब्रतयाजिसूनोः। श्रीरङ्गनाथमखिनः श्रितचन्द्रमौलि रप्पय्यदीक्षित इति प्रथितस्तनूजः।। मध्चतन्त्र मुखमर्दनम् १/५६।। १. २. Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan के अध्ययन पर आधारित पी.-३३-३६ Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan के अध्ययन पर आधारित पी.-३३-३६ ३१० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र विद्या, विनय एवं विभूति से विभूषित इस कुल में जिसकी प्रशंसा करते हुए ‘श्री दीक्षित वंशाभरणम्’ में राजू शास्त्रिगल का कथन है महत्यस्मिन् वंशे मदनरिपुपादार्चनरताः पुमांसो भूयांसः परममुरुषार्थाहितधियः। अभूवन् ऋक्सामाध्ययननिपुणापारधिषणा श्रुतिस्मृत्यध्वन्याः शुभगुणगणाः शुद्धयशसः।।’ उस शुद्ध यश वाले शुभगुणों से युक्त कुल से मद्रास राज्य (वर्तमान तमिलनाडु) में उत्तरी अरकाट जिले में अरणी के समीप ‘अद्यपालम्’ गाँव में अप्पय दीक्षित का जन्म हुआ था। ‘दीक्षितवंशाभरणम्’ के अनुसार निस्सन्तान रङ्गराज दीक्षित को ‘चिदम्बरम्’ क्षेत्र में भगवान शिव की गहन पूजा एवं कर्मानुष्ठान के पश्चात् ज्येष्ठ पुत्र के रूप में अप्पय दीक्षित की प्राप्ति हुई थी। __ अप्पय दीक्षित के सम्बन्ध में यह जन विश्वास प्रचलित था कि उन पर भगवदनुकम्पा थी अन्यथा वे बहुत कम उम्र में इतने अधिक शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त न कर लेते और सौ से अधिक ग्रन्थों की रचना करने एवं अपार यश प्राप्त करने पर भी इतना निरभिमानी जीवन व्यतीत न कर पाते। अप्पय दीक्षित के भाई अच्चन दीक्षित के पौत्र एवं अनेक विशिष्ट ग्रन्थों के प्रणेता नीलकण्ठ दीक्षित के नीलकण्ठ विजय चम्पू शिवलीलार्णव शिवोत्कर्ष मञ्जरी, गङ्गावतरण आदि ग्रन्थों में अप्पय के इसी श्री कण्ठावतारत्व एवं श्रीकण्ठ विद्या गुरुत्व की चर्चा की गई है लीलालीढपुराणसूक्तिशकलावष्टम्भसम्भावना पर्यस्तश्रुतिसेतुभिः कतिपयैर्नीते कलौ सान्द्रताम्। श्रीकण्ठोऽवततार यस्य वपुषा कल्क्यात्मनेवाच्युतः श्रीमानप्पयदीक्षितः स जयति श्री कण्ठविद्यागुरुः।। नीलकण्ठ विजयचम्पू।। अप्पय दीक्षित के नामों के तीन रूप प्राप्त होते हैं- अप्प, अप्पय एवं अप्पय्य। ‘चित्रमीमांसा खण्डनम् के तृतीय प्रस्तावनात्मक श्लोक में अप्पय्य नाम आया है, जो छन्द की दृष्टि से आवश्यक भी थारे कुवलयानन्द के अन्तिम श्लोक में अप्य दीक्षित रूप आया है। जब कि रसगङ्गाधर में विभिन्न स्थलों पर इस नाम के तीनों रूप प्राप्त होते हैं। १. Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan p. ३३-३६ के अध्ययन पर आधारित २. सूक्ष्मं विभाव्य मयका समुदीरितानामप्यय्यदीक्षितकृताविह दूषणानामा। चित्रमीमांसाखण्डनम्, श्लोक-३ अमुं कुवलयानन्दमकरोदप्यदीक्षितः। नियोगाद् वेड्कटपतेनिरूपाधिकृपानिधेः।। कुवलयानन्द, उपसंहार श्लोक शारदातनय से अच्युतराय तकं ‘अप्पय दीक्षित’ ३११ यह भी कहा जाता है कि उनका वास्तविक नाम था; विनायक सुब्रह्मण्य शर्मा । चूंकि उनका जन्म शिवानुष्ठान की अनुकम्पा स्वरूप हुआ था; अतः उनका नाम शिवपुत्र विनायक के नाम पर रखा गया था। वचपन में स्नेह से अप्प नाम से पुकारे जाने के कारण इनका अप्पय नाम प्रचलित हो गया। अप्पय दीक्षित को नाना शास्त्रों में पारङ्गत बनाने वाले ‘गुरु’ स्वयं उनके पिता थे। उनके द्वारा विभिन्न ग्रन्थों में उदधृत उक्तियों से इस तथ्य की पुष्टि होती हैं। अपने ग्रन्थ ‘न्यायरक्षामणि’ में उन्होंने स्वयं इसकी अभिव्यक्ति इस प्रकार की है। यं ब्रह्मनिश्चितधियः प्रवदन्ति साक्षात् तद्दर्शनादखिलदर्शनपारभाजम्। तं सर्ववेदसमशेषबुधाभिराज श्रीरङ्गराजमरिवनं गुरुमानतोऽस्मि।। इसी प्रकार ‘परिमल’ में अपने पिता के नाना शास्त्रावगाही पाण्डित्य की चर्चा करते हुए उन्होंने उनका गुरु के रूप में स्मरण किया हैं कणभक्षपदाक्षकपक्षपरिष्करणक्षणतक्षणदक्षगिरं अतिकर्कशतर्कशतक्षुभितक्षपितक्षपणक्षणभङ्गपदम्। कपिलोक्तिनिराकरणप्रवणकृतपन्नगसूक्तिपरिष्करणं नयमौक्तिकभूषितभट्टमतं विमलाद्वयचित्सुखमग्नधियम्।। महतामपि मान्यतमं विदुषां विनिवेश्य गुरूं हृदि वैश्वजितम्। नयसंहतिशालिनि कल्पतरौ विवृतश्चरणः प्रथमः प्रथितः।। अप्पय दीक्षित भगवान शिव के प्रति पूर्ण आस्थाबद्ध एवं शैवाद्वैतवाद के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने वेदों, पुराणों, आगमों तथा नानाविध शास्त्रों का अध्ययन किया था और इस अध्ययन के निष्कर्ष रूप में भगवान शिव में उनकी प्रबल भक्ति प्रबलतम हो गई थी। इसी आस्था का परिणाम था कि उन्होंने शिव की परम सत्ता के प्रतिपादनार्थ नाना ग्रन्थों की रचना की। इनमें प्रमुख हैं- शिखरिणी माला, शिवत्त्वविवेक, शिवकर्णामृत, शिवमहिमा

.——– . १. Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan P.45 के अध्ययन पर आधारित ३१२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र कालिकास्तुति, शिवाद्वैतनिर्णय, शिवार्कमणिदीपिका, शिवार्चनचन्द्रिका, शिवपूजाविधि, शिवध्यान पद्धति इत्यादि। __ अप्पय दीक्षित ने अपने इस शिवाद्वैत मत का प्रतिपादन राग द्वेष से रहित हो सर्वथा शान्त भाव से किया। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि परमसत्ता चाहें विष्णु की हो या शिव की इस विषय में हमारा कोई आग्रह नहीं। हमारा तो स्पष्ट समर्थन अद्वैत मत को हैं लेकिन ईर्ष्या दूषित बुद्धि वाले लोगों के शिव के प्रति आक्षिप्त वचनों के प्रतिकार के लिये हमने यह प्रयास किया। निश्चय ही भगवान् विष्णु के प्रति हमारा विद्वेष नहीं विष्णुर्वा शङ्करो वा श्रुतिशिखरगिरामस्तु तात्पर्यभूमिः नास्माकं तत्र वादः प्रसरति किमपि स्पष्टमद्वैतभाजम् । किं त्वीशद्वेषगाढानलकलितहृदां दुर्मतीनां दुरुक्तीः भक्तुं यत्नो ममायं नहि भवतु ततो विष्णुविद्वेषशका।। अप्पय दीक्षित की समस्त दार्शनिक विचार धाराओं व विभिन्न धार्मिक आस्थाओं के प्रति यह निष्पक्षता कई अन्य तथ्यों से भी प्रकट होती है। उन्होंने वेदान्तदेशिक के ‘यादवाम्युदयम्’ पर टीका लिखी; जो भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से सम्बद्ध काव्य है। उनका ‘वरदराजस्तव’ प्रख्यात ही है। कुवलयानन्द के प्रारम्भिक श्लोकों में भी उन्होंने मुकुन्द की चर्चा की है। इसी प्रकार ‘चिदम्बरम्’ के नटराज मन्दिर में रामराय के आदेश से प्रारम्भ की गई गोविन्दराज की पूजा के होने पर अप्पय प्रवर को हुई प्रसन्नता व उसकी अभिव्यक्ति ‘हरिहरस्तुति’ के रूप में होना यह दर्शाता है कि अपने धार्मिक मत के प्रति पूर्ण आस्था होने पर भी अन्य मतों के लिये उनके मन में द्वेष नहीं था। इसी प्रकार ‘रत्नत्रय परीक्षा’ में भी उन्होंने ईश्वर, अम्बिका व विष्णु को ब्रह्मत्व प्रदान किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों के मत की व्याख्या के लिए ‘चतुर्मतसार’ की रचना की। इसके अन्तर्गत ‘नयमञ्जरी’ में अद्वैत, ‘नयमणिमाला’ में श्रीकण्ठमत, ‘नयमयूरवमालिका’ में रामानुज के मत एवं न्यायमुक्तावली में माध्वमत का प्रतिपादन किया है। इस प्रकार उनका अद्वैत दर्शन का ज्ञान इतना प्रगाढ़ निष्पक्ष व ज्ञान की अतल गम्भीरता समेटे था; जहाँ किसी दार्शनिक मत के लिए कोई दुराग्रह नहीं। सभी एक चरम सत्य के प्रतिपादक लगते हैं।

अप्पय दीक्षित का समयः

अप्पय दीक्षित के जीवन वृतान्त एवं समय आदि के बारे में कुछ आन्तरिक एवं १. Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan P-३८.३६ के अध्ययन पर आधारित २. Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan . ८४.०. के अध्ययन पर आधारित ३. यः प्रस्फुत्यविरतं परिपूर्णरूपः श्रेयः स मेदिशतु शाश्वतिकं मुकुन्दः । कुवलयानन्द-३ . .. … R RC

शारदातनय से अच्युतराय तक ‘अप्पय दीक्षित’ ३१३ कुछ बाह्य प्रमाण उपलब्ध हैं जिनके आलोक में उनके जन्म एवं रचनाकाल का निर्धारण किया जा सकता है १. अप्पय दीक्षित ने ‘कुवलयानन्द’ के उपसंहार में बतलाया है कि यह ग्रन्थ उन्होंने ‘वेङ्कटपति’ के आदेश से लिखा है।’ ऑफेक्ट तथा एगलिन का मत है कि यह ‘वेङ्कटपति’ विजय नगर का राजा था जिसका समय १५३५ ई. के लगभग था। परन्तु हुल्श का कथन है कि अप्पय दीक्षित के आश्रयदाता पेन्न गोण्डा के राजा वेंकट प्रथम थे जिनके अभिलेख १५८५ ई. से १६१३ ई. तक के उपलब्ध होते है। अप्पय दीक्षित की कृतियों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उन्हें मुख्यतः चार राजाओं का संरक्षण प्राप्त था। उनकी ‘चित्रमीमांसा’ एवं ‘कुवलयानन्द’ में करीब सात ऐसे श्लोक हैं जिनमें राजा नरसिंह की प्रशस्ति वर्णित है। इस दृष्टि सोलहवीं शती के दक्षिण भारत के इतिहास पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है- कि विजयनगर साम्राज्य के कृष्णदेव राय के काल में तंजौर पर वीरशेखर चोल नामक राजा शासन कर रहा था वह कृष्णदेव राय के अधिकारी वीरनरसिंह के सतत संरक्षण में था जिसे ‘चेल्लप्पा’ या ‘साल्व नायक’ के नाम से भी जाना जाता था। कृष्णदेवराय की मृत्यु के बाद वीरनरसिंह ने विद्रोह कर दिया और कृष्णदेवराय के सुयोग्य उत्तराधिकारी अच्युतराय ने उसके विरुद्ध १५३० और १५५५ ई. के मध्य अभियान छेड़ दिया। उसे उचित प्रत्युत्तर देकर क्षमा कर दिया गया व उसने अगले दस वर्षों तक पुनः शासन किया। उसका शासन १५४६ ई० में समाप्त हो गया जबकि शेवप्पा द्वारा १५४६ ई. में तंजौर के नायक वंशी राजाओं के शासन की नींव डाली गई। यदि अप्पय दीक्षित को किसी नरसिंह नामक राजा का राज्याश्रय प्राप्त था। तो इतना निश्चित है कि वह नरसिंह इस वीरनरसिंह से पृथक नहीं था क्योंकि तत्कालीन इतिहास में इस नाम का. दूसरा कोई राजा प्राप्त नहीं होता। इसके अतिरिक्त श्री शिवानन्द यति ने- ‘अप्पय दीक्षितेन्द्र विजय’ नामक ग्रन्थ में इस तथ्य का उल्लेख किया है- कि अप्पय दीक्षित द्वारा किये गये प्रथम वाजपेय यज्ञ में राजा नरसिंह ने अष्टमत स्नान के समय अपनी सेवाएँ प्रस्तुत की थीं। चूँकि ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि राजा नरसिंह का राज्यकाल १५४६ ई. से पूर्व ही समाप्त हो चुका था, अतः इस आधार पर सिद्ध होता है कि अप्पय का जन्म १५२०-२५ ई. के मध्य हुआ १. अमुं कुवलयानन्दमकरोदप्पयदीक्षितः नियोगाद् बेड्कटपतेनिरुपाधिकृपानिधेः । कुवलयानन्द ।। ३१४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र होगा। कारण २०, या २२ वर्ष की उम्र से पहले उनके द्वारा किसी यज्ञ की अधिष्ठातृता किये जाने की बात उचित नहीं लगती।’ ३. अप्पय दीक्षित के द्वितीय आश्रयदाता विजयनगर कर्नाटक के प्रसिद्ध राजपरिवार से सम्बद्ध ‘चिन्नतिम्भराज’ थे, जिन्होंने १५४२ ई. से १५६८ ई. तक शासन किया। उन्होंने अप्पय को वेदान्त देशिक के ‘यादवाभ्युदय’ पर सन् १५५० ई. के लगभग टीका लिखने को प्रेरित किया था। इसी ग्रन्थ की ‘व्याख्यान’ नामक टीका में अप्पय ने ‘चिन्नतिम्भ’ के वंश की प्रशस्ति की है व उनके आदेश से इस टीका कार्य को लिखने का उल्लेख किया है कवितार्किकसिंहस्य काव्यमेतद्यथामति। विवृणोमि महीपालनियोगबहुमानतः।। इस दृष्टि से विचार किये जाने पर यह अनुमान करना उचित प्रतीत होता है कि टीका लेखन के समय अर्थात् १५५० ई. तक अप्पय की अवस्था निश्चय ही २५-३० वर्ष के लगभग रही होगी, तभी चिन्न तिम्भराज ने उनके पाण्डित्य से प्रभावित होकर ग्रन्थ की टीका लिखने का कार्य सौंपा होगा। इस आधार पर भी उनके जन्मकाल का निर्धारण १५२०-२५ ई. के मध्य किया जाना उचित प्रतीत होता है। ४. अप्पय दीक्षित के तृतीय संरक्षक वेल्लूर के राजा ‘चिल्लबोम्म’ थे, जिनका शासन काल १५४८ ई. से १५७८ ई. के मध्य था। इस राजा के संरक्षण में अप्पय ने अपने शैवगन्थों का निर्माण किया और वेदान्त सूत्र पर लिखे गये श्री कृष्णाचार्य के भाष्य पर ‘शिवार्कमणि दीपिका’ नामक टीका की रचना की इसी प्रकार राजा द्वारा शिवार्चन में सहयोग देने के कारण दीक्षित प्रवर ने ‘शिवार्चन चन्द्रिका’ में भी उनका नामतः उल्लेख किया इसके उपलक्ष में राजा द्वारा उनका कनकाभिषेक कराया गया था। ‘अद्यपालम’ शिलालेख, जिसकी तिथि १५८२ ई. के लगभग है; इसका स्पष्ट उल्लेख करता है: शिवार्कमणिदीपिकावसानलब्धकनकस्नानः प्रशंसितस्समरपुंगवयज्वना यथा कनकाभिषेकसमयपरितो निषण्णसौवर्णसंहतिमिषाच्चिनबोम्मभूपः। अप्पय्यदीक्षितमणिरनवद्यविद्याकल्पद्रुमस्य कुरुते कनकालवालम्।। नलचरितम्:- नीलकण्ठदीक्षितविरचितम् नानादेशनरेन्द्रमण्डलमहायत्नातिदूरीभव १. २. Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan P. १८.२१ के अध्ययन पर आधारित Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan P. १८.२१ के अध्ययन पर आधारित ….cl ३१५ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘अप्पय दीक्षित’ त्कादाचित्कपदारविन्दविनतेरप्पय्ययज्वप्रभोः। शैवोत्कर्षपरिष्कृतैरहरहस्सूक्तै : सुधालालितः फुल्लत्कर्णपुटस्य बोम्मनृपतेः पुण्यानि गण्यानि किम्।। येन श्री चिन्नबोम्भक्षितिपबलभिदः कीर्तिख्याहतासीत्। चूंकि कि अद्यपालम के इस शिलालेख कीतिथि १५८२ ई. की है व इसमें ‘चिन्न बोम्म’ के लिए भूतकाल का प्रयोग किया गया है। स्वयं चिन्न बोम्म के शिलालेख १५४६ ई. से १५७८ ई. के मिलते हैं। इस आधार पर यह सहज ही निश्चित किया जा सकता है कि अप्पय दीक्षित चिन्न बोम्मके साथ १५७८ ई. तक तो अवश्य ही सम्बद्ध रहे होंगे।’ ५. अप्पय दीक्षित के चतुर्थ संरक्षक पेन्नकोण्डा के राजा वेङ्कटपति देवराय थे जो १५८५ ई. में सिंहासनारूढ़ हुए थे जिनके विषय में अप्पय ने कुवलयानन्द में समापन पंक्ति इस प्रकार लिखी हैं अमुं कुवलयानन्दमकरोदप्पदीक्षितः। नियोगावेङ्कटपतेर्निरूपाधिकृपानिधेः॥ अपने ‘विधिरसायन’ नामक ग्रन्थ में अप्पय्य दीक्षित वेङ्कटपति का इस प्रकार उल्लेख करते हैं प्राप्तं तत्प्रापणीयं किल यदिहकियान पूरणीयोऽस्ति नांशो नानिष्टं वानिवर्त्य निजविषयतया दृश्यतेकिञ्चिदत्र। किन्तु व्यापारमेष प्रथयति फलसंयोजनार्थ परेषां प्राप्तः पुण्यैरगण्यैरिव विबुधगणो वेङ्कटक्षोणिपालम् ।। इस श्लोक के भाव से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अप्पयदीक्षित ने यह श्लोक अपनी वृद्धावस्था में लिखा होगा; जबकि उनकी पद-प्रतिष्ठा व साहित्यिक ख्याति सम्बन्धी समस्त अभीप्साएं पूरिपूर्ण हो चुकी होगी। चूँकि वेङ्कटपति १५८५ ई. में सिंहासनारूढ़ हुआ; अतः अप्पय अपने जीवन के अन्तिम कुछ वर्षों में उसके राज्याश्रय में रहे होगें। उपर्युक्त सभी राजाओं की तिथियों को देखते हुए अप्पय दीक्षित के जीवन के ५० वर्ष या ५२ वर्ष राज्याश्रय में व्यतीत हुए होंगे; यह अनुमान करना असंगत न होगा। १५४०-४२ ई. से लेकर १५६० ई. तक के राज्याश्रय में व्यतीत इस आशय में उनके विद्योपार्जन के २० वर्ष के समय को जोड़ देने पर उनकी जन्मतिथि का आकलन १. Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan P. २१.२२ के अध्ययन पर आधारित३१६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र १५२०-२५ के मध्य किया जाना उचित होगा। ६. अप्पय दीक्षित के जन्मकाल का निर्धारण करने में कतिपय अन्य प्रमाण भी __ अवलोकनीय हैं। शिवानन्द योगी यायती के अपने ग्रन्थ ‘अप्पय दीक्षितेन्द्र विजयम’ में एक श्लोक आगत है षट्शतत्रिंशदुत्तंसचतुस्साहस्रके कलौ। स्वर्गतं गुरुमन्वेष्टुमिव राज्ञि दिवं गतौ।। अर्थात श्री कृष्ण देव राय कलि वर्ष ४६३० तदनुसार १५२८ ई. में स्वर्ग गये हुए अपने गुरु आचार्य दीक्षित को खोजने मानों स्वर्ग चले गये। इससे ज्ञात होता है कि १५२८ ई. तक श्री कृष्ण देवराय और उनके गुरु आचार्य दीक्षित अवश्य दिवङ्गत हो चुके थे। ऐतिहासिक साक्ष्यों से भी इसी तथ्य की पुस्टि होती है। आचार्य दीक्षित अप्पय दीक्षित के पितामह थे। _ ‘अप्पय दीक्षितेन्द्र विजयम्’ में एक अन्य श्लोक आगत है जिससे ज्ञात होता है कि अपने पितामह की मृत्यु के समय अप्पय ६ वर्ष के थे। नवमेऽस्य वयसि जाते ताते शीतांशुशेखरोपेते। याते च काल धर्मे श्रीमानेष चचार निजधर्मम्।। श्लोक में प्रयुक्त ‘तात’ पद का निश्चय ही ‘पिता’ न होकर ‘पितामह’ अर्थ है क्योंकि अप्पय ने अपने पिता के अतिरिक्त अन्य किसी से भी विद्याध्ययन नहीं किया था और ऐसी स्थिति में मात्र नौवर्ष की उम्र में पिता की छत्रछाया के हटने की बात स्वीकारी नहीं जा सकती फलतः १५२८ ई. के लगभग नौ वर्ष की उम्र में अपने पितामह को खो देने वाले अप्पय दीक्षित का जन्म काल १५२० ई. के लगभग निर्धारित करना असंगत न होगा। अप्पयदीक्षित के बारे में यह धारणा बहुप्रचलित व प्रचारित है कि वे ७२ वर्ष जीवित रहे। अप्पय दीक्षित के छोटे भाई अच्चन दीक्षित के पोते नीलकण्ठ दीक्षित विरचित ‘शिवलीलार्णव’ ग्रन्थ में इसका स्पष्ट उल्लेख हैं कालेन शम्भुः किल तावतापि कलाश्चतुष्पष्टिमिताः प्रणिन्ये। द्वासप्ततिं प्राप्य समाः प्रबन्धान शतं व्यथादप्पय दीक्षितेन्द्रः।। …—’ ‘….. ..-.. ३१७ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘अप्पय दीक्षित’ इसी प्रकार प्रसिद्ध विद्वान श्री मन्नारगुडी राजू शास्त्रिगल ने अपनी चतुःश्लोक की व्याख्या में अप्पय की आयु के ७२ वर्ष होने का उल्लेख किया है: विक्रमे भूतलं प्राप्य विजये स्वर्गमाययौ। विक्रमसंवत्सर १६ वीं शती में १५२० ई. में पड़ा था और विजय १५६३ ई. में। इस प्रकार १५२० ई. से १५६३ ई. करीब ७२ वर्ष जीवित रहे। __अप्पय दीक्षित के जन्म स्थान ‘अद्यपालम्’ में स्थित कालकण्ठेश्वर मन्दिर में पाए गये शिलालेख से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है कि अप्पय का जन्म १५२० ई. के लगभग हुआ होगा। इस शिलालेख के एक अंश का वर्णन इस प्रकार है विद्वदगुरोविहितविश्वजिदथ्वरस्य श्रीसर्वतोमुखमहाव्रतयाजिसूनोः। श्रीरङ्गराजमखिनःश्रितचन्द्रमौलिरप्पय्य दीक्षित इति प्रथितस्तनूजः।। येन श्री चिन्नबोम्मक्षितिपबलभिदः कीर्तिरव्याहतासीत, येन श्रीकण्ठभाष्यं परमशिवमतस्थापनायोद्दधार। तेन श्री रङ्गराजाध्वरिवरतनयेनाप्पयज्वाधिपेना कारि प्रौढोन्नताग्रं रजतगिरिनिभं कालकण्ठेशधाम ।। इस शिलालेख के अन्य अवशिष्टांश से ज्ञात होता है कि इस मन्दिर का निर्माण १५८२ ई. में अप्पय दीक्षित द्वारा करवाया गया था। इस शिलालेख पर अप्पय दीक्षित सहित छह अन्य साक्ष्यों के हस्ताक्षर हैं। इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि अप्पय दीक्षित १५८२ ई. में जीवित थे, उस समय तक शैवाद्वैत से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ लिख चुके थे, सैकड़ों अनुयायियों को शिक्षित कर चुके थे, शैव सिद्धान्त की पुनःस्थापना कर चुके थे व अपने आश्रयदाता की पर्याप्त कीर्ति का प्रचार कर चुके थे। इस प्रकार १५८२ तक उनकी सत्ता पूर्ण परिष्कृत विद्वान के रूप में स्थापित हो चुकी थी। इस आधार पर भी अप्पय की जन्मतिथि का आकलन १५२०-२५ ई. के लगभग किया जाना उचित लगता है; क्योंकि किसी व्यक्ति को पूर्ण ज्ञानार्जन करने में कम से कम २० वर्ष लगते हैं व उसके बाद ४० वर्ष उसे पूर्ण परिष्कृत विद्वान के रूप में स्थापित होने में लगते है। ८. इस सम्बन्ध में एक अन्य प्रमाण भी अवलोकनीय है। यह देक्षिण भारत में वैष्णव धर्म व उसके आचार्यों के इतिहास से सम्बद्ध पुस्तक ‘प्रपन्नामृतम् के विवरणांश पर

..- .

१. १. Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan P.२२.२३ के अध्ययन पर आधारित Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan p. २५.२७ के अध्ययन पर आधारित ३१५ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र आधारित है। इसके अनुसार ताताचार्य विजय नगर के राजा रामराय के धर्म गुरू थे जिसने १५४२ ई. में १५६७ ई. तक शासन किया। एक बार रामराय गुरू को चन्द्रगिरि नामक स्थान पर एकान्त में धार्मिक साधना हेतु ले गये। वहीं डोडाऽचार्य या महाचार्य नामक धर्मगुरू के आकर चित्रकूट चिदम्बरम् मन्दिर में चोल राजा कृमिकण्ठ द्वितीय के आदेश से बन्द कर दी गई भगवान् गोविन्दराज की पूजा के पुनःस्थापन में रामराय की सहायता माँगी। रामराय और ताताचार्य के चिदम्बरम के शैवों को हरा कर महाचार्य की प्रार्थना पूरी की। इस सम्बन्ध में पुस्तक में दो श्लोक भी उद्धृत है। शैवशास्त्रविदां श्रेष्ठः श्रीमानप्पयदीक्षितः चित्रकूटे जितारातिरशोभत महायशाः। अद्वैतदीपिकाभिख्यं ग्रन्थमप्पय्यदीक्षितः चकार भगवद्वेषी शैवधर्मरतस्सदा।। विधाय तात्याचार्यस्तत्पञ्चममतभञ्जनम् श्रीरामानुजसिद्धान्तमव्याहतमपालयत् । महाचायों महातेजास्स कृत्वा चण्डमारुतम् अव्याहतं यतीन्द्रस्य तं सिद्धान्तमपालयत्।। इन श्लोकों से स्पष्ट है कि महाचार्य व रामाचार्य दोनों ने अप्पय दीक्षित के कठोर तर्को से रामानुज धर्म की रक्षा के लिए प्रत्युत्तर में प्रतिवाद लिखे। इससे स्पष्ट हो जाता है कि रामराय के समय अप्पय अपने तार्किक ग्रन्थों का प्रणयन कर चुके होगें व शैवमत के प्रमुख स्तम्भ के रूप में जाने जाते होंगे। रामराय १५४२ ई. अपनी मृत्यु पर्यन्त १५६५ ई. तक शासक रहा और रामराय के गुरु ताताचार्य शताब्दी के ४० वें वर्ष में जीवित नहीं थे, क्योंकि सन् १५८५ ई. वेङ्कट पति के अभिषेक समारोह में राजा का तिलक गुरू के पुत्र लक्ष्मीकुमार ताताचार्य द्वारा किया गया था। __इससे इतना स्पष्ट हो जाता है कि रामराय जब विजय नगर का शासक था (१५४२ ई.-१५६५ ई.) उस समय अप्पय एक पूर्ण परिष्कृत विद्वान् के रूप में स्थापित हो चुके थे और यह समय उनकी मध्यायु का ही था। अतः इस आधार पर भी उनका जन्मकाल १५२० ई. के लगभग निर्धारित करना उचित होगा। १. इस सम्बन्ध में एक अन्य प्रमाण भी दर्शनीय है। माध्व सम्प्रदाय के आचार्य विजयेन्द्र १. २. Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan p. २५.२७ के अध्ययन पर आधारित Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan P. २७.२८ के अध्ययन पर आधारित ३१६ . …-

Nautanti.saint F- शारदातनय से अच्युतराय तक ‘अप्पय दीक्षित’ भिक्षु ने शैवमतानुयायी अप्पय के तर्को से अपने सम्प्रदाय की दार्शनिक विचार धारा की रक्षा की थी। विजयेन्द्र विशिष्ट सुमतीन्द्र मठ के आश्रित थे। इस मठ के आचार्यो की गौरव परम्परा राधवेन्द्र विजय नामक ग्रन्थ में वर्णित है, जहाँ विजयेन्द्र भिक्षु की प्रशंसा करते हुए वर्णन है विद्वद्वरोऽस्माद्विजयीन्द्रयोगी विद्यासुहृद्यारतुलप्रभावः। रत्नाभिषेकं किलं रामराजात् प्राप्याग्यलक्ष्मीनकृताग्रहारान् ।।’ ऐसा कहा जाता है कि विजयेन्द्र ने अप्पय के तर्को से अपने सम्प्रदाय के मत की सिद्धि के लिए कई रचनाएँ रची व अप्पय की रचनाओं के उत्तर में १०४ रचनाएँ भी लिखी। उनकी ‘परातत्त्वप्रकाश’ अप्पय की ‘शिवतत्त्वविवेक के प्रत्युत्तर में रची गई बताई जाती है। उनकी ‘अप्पयकपोलचपेटिका’ इस दृष्टि से समुल्लेखनीय हैं । इस समस्त विश्लेषण का सार यही है- कि अप्पय दीक्षित ताताचार्य व विजयेन्द्र भिक्षु तथा रामराय समकालीन थे। इनमें ताताचार्य अप्पय से ज्येष्ठ व विजयेन्द्र भिक्षु कनिष्ठ रहे होंगे। रामराय चूंकि तुलुव वंश के सम्राट सदाशिव राय (१५४२-१५६७ ई.) का अधिकारी था; अतः इस आधार पर भी अप्पय की आनुमानिक तिथि १५२० ई. के लगभग है। १०. अप्पय दीक्षित के अन्तेवासी सूर्यनारायण दीक्षित के भाई समरपुङ्गव दीक्षित द्वारा विरचित ‘यात्राप्रबन्धचम्पू के विवरणांश से भी अप्पय की तिथि निर्धारण में सहायता प्राप्त होती है। समरपुङ्गव ने इस चम्पू काव्य में अप्पय के निर्देशन में संचालित शैवमत के प्रसार प्रचार का वर्णन किया है साथ ही अप्पय की दिग्विजय यात्रा के क्रम में शिष्यों व अनुयाइयों से घिरी पालकी पर सवार अप्पय को स्वयं अपनी आँखों से अपनी कम उम्र में देखे जाने के प्रत्यक्षानुभव का वर्णन किया है। चूंकि सूर्यनारायण दीक्षित का जन्म एक अन्य प्रमाणानुसार २२ सितम्बर १५५१ ई. का है; एवं उनके भाई ने यह प्रत्यक्षानुभव कम उम्र में किया था अतः यह अनुभव १५६०-१५६५ ई. के लगभग का होगा। उस समय तक अप्पय निश्चय ही ३०-४० वर्ष की वयस् के भीतर होंगे। इस आधार पर भी उनका जन्म १५२० ई. के लगभग ही अनुमानित किया जाना उचित लगता है। अप्पय दीक्षित के संरक्षणकर्ता राजाओं के एतिहासिक साक्ष्यों एवं अन्य उपर्युक्त उपलब्ध प्रमाणों के अतिरिक्त कुछ ऐसी किम्बन्दितयाँ, जनमान्यताएँ एवं उद्धरण है, जिनका विवेचन अप्पय के तिथि निर्धारण के किसी अन्तिम निष्कर्ष पर पहुंचने से पूर्व आवश्यक

१. २. ३. Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan P. २७.२८ के अध्ययन पर आधारित Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan P. २८.२६ के अध्ययन पर आधारित Sri Appayya Dikshita, N. Rameshan p. २८.२६ के अध्ययन पर आधारित

३२० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र होगा। ये तथ्य इस प्रकार हैं रसगङ्गाधर एवं चित्रमीमांसा खण्डनम् में अप्पय दीक्षित के साहित्य शास्त्रीय सिद्धान्तों की कटु आलोचना के परिप्रेक्ष्य में जनमानस में यह अति प्रचलित किंवदन्ती है कि पण्डितराज व अप्पय दीक्षित में परस्पर अत्यन्त व्यक्तिगत विद्वेष था। शाहजहाँ के दरबार में रहते हुए पण्डितराज ने किसी यवन कन्या लवङ्गी से विवाह कर लिया था; इसके फलस्वरूप अप्पयदीक्षित की प्रेरणा से भट्टोजिदीक्षित ने उन्हें म्लेच्छ कहकर अपमानित किया व उन्हें जाति बहिष्कृत करा दिया। इससे क्षुब्ध हो पण्डितराज ने अप्पय दीक्षित एवं उनके शिष्य भट्टोजि दीक्षित की अत्यन्त कटु आलोचना की। इसी का प्रत्यक्ष प्रमाण है। चित्रमीमांसा खण्डनम्, शब्द कौस्तुभशाणोत्तेजनम् एवं मनोरमाकुचमर्दनम् तथा रसगङ्गाधर के विभिन्न स्थल। इस किम्वदन्ती से सम्बद्ध कुछ उद्धरण भी प्राप्त होते हैं। जिनके कारण एक बड़ा विद्वद् वर्ग इस बात का पक्ष धर है कि पण्डितराज तथा अप्पय दीक्षित समकालिक थे। अप्पय की जन्मतिथि निर्धारण के सम्बन्ध में ये उद्धारण अवलोकनीय हैं १. श्री पुरुषोत्तम शर्मा चतुर्वेदी ने हिन्दी रसगङ्गाधर की भूमिका में अप्पय दीक्षित के ‘सिद्धान्तलेशसङ्ग्रह’ नामक ग्रन्थ के कुम्भ कोण वाले संस्करण में भूमिका लेखक द्वारा उद्धृत दो ऐसे श्लोकों को प्रस्तुत किया है जिससे पण्डितराज तथा अप्पय की समकालिकता पर प्रकाश पड़ता है। उनमें से पहला श्लोक, जिसे उन्होंने काव्य प्रकाश की व्याख्या में नागेश भट्ट द्वारा लिखा बताया है, इस प्रकार है दृप्यद्राविड़दुर्ग्रहग्रहवशान्म्लिष्टं गुरुद्रोहिणा यम्लेच्छेति वचोऽविचिन्त्य सदसि प्रौढेऽपि भट्टोजिना। तत्सत्यापितमेव धैर्यनिधिना यत् स व्यमृदनात्कुचं निर्बध्याऽस्य मनोरमामवशयन्नप्यप्पयाधास्थितान् ।। अर्थात गर्वीले द्रविड़ अप्पय के अत्यन्त दुराग्रह के कारण अति आवेश में आकर गुरुद्रोही भट्टोजि ने भरी सभा में विना विचारे जो ‘म्लेच्छ’ यह शब्द कह दिया उसे धैर्यनिधि पण्डितराज ने सत्य कर दिखाया; क्योंकि इतने अप्पयादिक विद्वानों के विद्यमान रहते हुए उन्हें विवश करके उनकी मनोरमा का कुचमर्दन कर दिया। २. दूसरा श्लोक बालकवि रचित बताया जाता है, जिसको अप्पय दीक्षित के भाई के पौत्र नीलकण्ठ ने ‘नलचरितम्’ नामक ग्रन्थ में अप्पय दीक्षित के समकालिन माना है। यह श्लोक इस प्रकार है यष्टुं विश्वजिता यता परिधरं सर्वे बुधा निर्जिताः भट्टोजिप्रमुखाः स पण्डितजगन्नाथोऽपि निस्तारितः। ३२१ WE ANGIsaimittee शारदातनय से अच्युतराय तक ‘अप्पय दीक्षित’ पूर्वेऽर्थे चरमें द्विसप्ततितमस्याशब्दस्य सविश्वजिद् याजी यश्च चिदम्बरे स्वमभजज्जयोतिः सतां पश्यताम्।। अर्थात् अप्पय ने अपनी आयु के ७२ वें वर्ष के पुर्वार्ध में विश्वजित यज्ञ करने के लिये पृथ्वी के चारों ओर घूमते हुए भट्टोजि दीक्षित आदि सभी विद्वानों को पराजित किया तथा अन्त में उस ख्यातिप्राप्त पण्डितराज जगन्नाथ का भी उद्धार कर दिया। फिर उसी वर्ष के उत्तरार्द्ध में विश्वजित् नामक यज्ञ किया और चिदम्बरम् क्षेत्र में सभी सज्जनों को देखते हुए अप्पय ज्योति को प्राप्त हो गये। इन श्लोकों से सिद्ध होता है कि अप्पय दीक्षित व पण्डितराज समाकलिक थे। ३. इसके अतिरिक्त पिंपुट कर के ‘चितलेभट्ट प्रकरण’ के आधार पर अप्पय दीक्षित के सम्बन्ध में एक सर्वथा नवीन प्रमाण दिया गया है। इसके अनुसार सन् १६५६ में काशी के मुक्ति मण्डप में सभा हुई थी, जिसमें महाराष्ट्र देवर्षि ब्राह्मणों को पक्तिं पावन सिद्ध किया गया था। इस व्यवस्था पत्र पर अप्पय दीक्षित के हस्ताक्षर है जो उस समय पञ्चद्रविड़ सभी के जातीय सरपंच थे। इस आधार पर श्री अप्पय दीक्षित को सन् १६५६ ई. तक जीवित होना सिद्ध होता है।’ ४. पुनश्च अप्पय दीक्षित के छोटे भाई व अच्चन दीक्षित के पौत्र नीलकण्ठ दीक्षित ने कुछ ऐसे उद्धरण प्रस्तुत किए है जिनसे अप्पय व पण्डितराज की समकालिकता पर प्रकाश पड़ता है। ये इस प्रकार है: नीलकण्ठ दीक्षित ने स्वनिर्मित ‘त्यागराजस्तव’ में अप्पय दीक्षित के विषय में लिखा है योऽतनुताऽनुजसूनुजमनुग्रहेणात्मतुल्य महिमानम् अर्थात् जिन अप्पय दीक्षित ने छोटे भाई के पौत्र मुझको अनुग्रह करके अपने समान प्रभावशाली बना दिया। इस उक्ति से सिद्ध होता है कि नीलकण्ठ ने अप्पय दीक्षित से अध्ययन किया था। पुनश्च नीलकण्ठ दीक्षित ने अपने एक अन्य काव्य ‘नील कण्ठ विजय चम्पू’ में अप्पय दीक्षित की वन्दना में वर्तमान काल का प्रयोग किया है श्रीमानप्पय दीक्षितः स जयति श्री कण्ठविद्यागुरुः। ३ इस काव्य को उन्होंने कलियुग के ४७३८ वर्ष बीतने पर लिखा गया बतलाया हैं अष्टत्रिंशदुपस्कृतसप्तशतादिकचतुःसहस्रेषु। कलिवर्षेषु गतेषु ग्रथितः किल नीलकण्ठविजयोऽयम् ।। १. प्रास्ताविक विलास, जनार्दन शास्त्री पाण्डेय, भूमिका, पृ.-४ २. चित्र मीमांसा, व्याख्या जगदीशचन्द्र मिश्र, भूमिका पृ. १८,१६ हिन्दी रसगङ्गाधर, चतुर्वेदी, भूमिका ३. चित्र मीमांसा, व्याख्या जगदीशचन्द्र मिश्र, भूमिका पृ. १८,१६ हिन्दी रसगङ्गाधर, चतुर्वेदी, भूमिका ४. चित्र मीमांसा, व्याख्या जगदीशचन्द्र मिश्र, भूमिका पृ. १८,१६ हिन्दी रसगङ्गाधर, चतुर्वेदी, भूमिका NARREARS ३२२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ईस्वी सन् के अनुसार यह समय १६३६ था; जो शाहजहाँ का राज्यकाल होने के साथ-साथ पण्डितराज का भी रचना काल है। अतः उपर्युक्त तर्को को देखते हुए विद्वानों के एक वर्ग का मत है कि अप्पय व पण्डितराज समकालीन थे। किन्तु इन समस्त प्रमाणों की समीक्षा करने पर ये प्रमाण प्रामाणिकता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। (१) सर्वप्रथम ‘सिद्धान्तलेशसंग्रह’ के कुम्भ कोण वाले संस्करण के भूमिका कार द्वारा प्रस्तुत किया गया वह श्लोक जिसे उन्होंने काव्यप्रकाश की व्याख्या में नागेश भट्ट द्वारा रचित बताया है; दर्शनीय है। इसमें पण्डितराज द्वारा स्वयं को म्लेच्छ कहने वाले की मनोरमा का कुचमर्दन कर अपनी म्लेच्छता को सिद्ध करने का वर्णन है। श्लोक के भाव पर ध्यान दिया जाय तो ज्ञात होता है-कि नागेश भट्ट ने इसमें प्रकारान्तर से पण्डितराज की ही प्रशस्ति की है। इस सम्बन्ध में यह तथ्य द्रष्टव्य है कि नागेश भट्ट उस गुरु परम्परा से सम्बद्ध थे जो भट्टोजि दीक्षित से सम्बद्ध थी तथा पण्डितराज जिसके प्रबल विरोधी थे। रसगङ्गाधर की टीका करते हुए उन्होंने अपनी इस गुरु परम्परा के सम्मान को बनाए रखने का यत्किञ्चि प्रयत्न भी किया है। अतः उनके द्वारा अपनी गुरु परम्परा के प्रवर्तक भट्टोजि दीक्षित को नीचा दिखाते हुए पण्डितराज की प्रशस्ति में श्लोक रचना किए जाने की बात असत्य लगती है। इस श्लोक की सत्यता समीक्षणीय है। २. बालकवि द्वारा रचित बताए जाने वाले श्लोक के आधार पर अप्पय व पण्डितराज की समकालीनता सिद्ध करने वाला प्रमाण भी तर्कसंगत नहीं। कारण, इसमें वर्णन है कि अप्पय ने ‘विश्वजित्’ यज्ञ करते समय चारों ओर घूमते समय भट्टोजि दीक्षित आदि विद्वानों पर विजय प्राप्त की थी। यहाँ यह तथ्य द्रष्टव्य है कि भट्टोजि दीक्षित अप्पय के प्रतिद्वन्दी नहीं अपितु उनके शिष्य थे। अपने ग्रन्थ ‘तन्त्रसिद्धान्तदीपिका’ में उन्होंने अप्पय की वन्दना भी की है। अतः गुरु द्वारा शिष्य को पराजित करने की बात असंगत व अग्राध्य है। पुनः अप्पय की दिग्विजय यात्रा आयु के ७२ वें वर्ष में नहीं हुई थी। अतः श्लोक की प्रामाणिकता सन्दिग्ध है। ३. चितलेभट्ट प्रकरण के आधार पर यह मान्यता कि अप्पय दीक्षित १६५० ई. तक जीवित थे, तर्कसंगत नही। कारण, महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज के काशी की सारस्वत साधना में यह उल्लेख किया है कि वि.सं.१६४० या सन् १५८३ ई. में काशीस्थ पाण्डित वर्ग ने देवरुख ब्राह्मणों के पंक्ति पावनत्व के विषय में व्यवस्था पत्र अप्पयदीक्षितेन्द्रानशेष विद्यागुरुनहं वन्दे । यत्कृतिबोधाबोधो विद्वदविद्वद्विभाजकोपाधी ।। उद्धृत-श्री अप्पय्य दीक्षित रमेशन पृ. ३० वही, पृ. १३४-३६ २. शारदातनय से अच्युतराय तक ‘अप्पय दीक्षित’ ३२३ दिया था। इस व्यवस्था पत्र पर शेष श्री कृष्ण के भी हस्ताक्षर थे। इससे स्पष्ट है कि यह सभा सन् १५८३ ई. में हुई थी चितले भट्ट प्रकरण के अनुसार सन् १६५६ ई. में नहीं। अतः इस प्रमाण की प्रामाणिकता सन्दिग्ध है। जहाँ तक नीलकण्ठ दीक्षित द्वारा अप्पय दीक्षित का अनुग्रह प्राप्त करने व उनकी वन्दना में वर्तमान काल का प्रयोग करने का प्रश्न है, तो यह कोई दुःसमाधेय बात नहीं है। अप्पय का नश्वर शरीर नष्ट हो चुका है किन्तु उनका यशः शरीर वर्तमान है। अतः उनके पोते द्वारा उनकी वन्दना में वर्तमान काल का प्रयोग किये जाने की बात कोई महत्व नहीं रखती। जहाँ तक नीलकण्ठ दीक्षित पर अनुग्रह किए जाने की बात है तो इस विषय में किंवदन्ती प्रचलित है नीलकण्ठ जब १२ वर्ष के थे, उस समय ७० वर्ष के वृद्ध-अप्पय ने उन पर अनुग्रह किया था। अतः नीलकण्ठ अपनी अल्पायु में अप्पय द्वारा अनुग्रहीत हुए। अतः इन सम्स्त प्रमाणों से अप्पय व पण्डितराज की समकालिकता पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता। इस समस्त प्रमाणों के अतिरिक्त एक अन्य प्रमाण जो श्री शिवानन्द यति ने अप्पयदीक्षितेन्द्र विजयम् नामक ग्रन्थ में दिया है, विवेचन हेतु अवशिष्ट रह जाता है। इस ग्रन्थ में उन्होंने एक श्लोक उद्धृत किया है और इस श्लोक के आधार पर अप्पय की जन्मतिथि का निर्धारण प्रायः समस्त प्रचलित संवत्सरों में दिया है। श्लोक इस प्रकार है वीणा तत्त्वज्ञ संख्या लसित कलिसमाभाक् प्रमाथीच वर्षे कन्या मासेऽथ कृष्ण प्रथम तिथि युतेऽप्युत्तर प्रोष्ठपादे। कन्या लग्नेऽद्रिकन्यापतिरमित दयाशेवधिर्वैदिकेषु श्रीदेव्यै प्राग्यथोक्तं समजनि हि समीपेऽत्र काञ्चीनगर्याः।। इस पद्य के द्वारा प्रतिपादित जन्मतिथि श्री शिवानन्द योगी द्वारा कई प्रचलित संवत्सरों में दी गई है यथा कलि ४६५४ शक १४७५, विक्रम १६१० कोल्लम ७२६ इसके अनुसार १८ सितम्बर १५५३ ई.। श्री शिवानन्द योगी द्वारा दी गई इस तिथि को बहुत से लेखकों ने विना सम्यक विचार किए स्वीकार कर लिया और इस मान्यता के चलते कि अप्पय ७२ वर्ष जीवित रहे, लोगों ने उनके जीवन काल का अनुमान १५५३ से लेकर १६२६ तक कर लिया। परन्तु अप्पय दीक्षित को जिन राजाओं का संरक्षण प्राप्त था, या फिर इस सन्दर्भ में जो साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध है, उनके आधार पर अप्पय के जीवन कान की यह अनुमानित तिथि उचित नहीं प्रतीत होती। पुनश्च श्री वाई महालिङ्ग शास्त्री ने अपने लेख Age and Life of Sri Appayya ३२४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र Dikshita (J.O.R. १६२६ P. १४०.१६० ) में स्पष्ट सिद्ध किया है कि यह गणना नष्ट जातक सिद्धान्त के अनुसार है और सत्य नहीं है। ज्योतिष सम्बन्धी पत्र जिज्ञासा ने इसका खण्डन भी किया है। (मार्च १६२७ प्रथम खण्ड द्वितीय भाग) इस प्रकार अप्पय दीक्षित के जन्म एवं रचनाकाल सम्बन्धी इन समस्त साक्ष्यों तथा शिलालेखीय प्रमाण के आधार पर हम अप्पय की अनुमानित जन्मतिथि १५२० ई. के लगभग मानने को बाध्य हो जाते है। और जैसा कि नीलकण्ठ दीक्षित का वक्तव्य है कि अप्पय का जीवन काल ७२ वर्ष का था। अतः इसे देखते हुए उनके जीवन काल को १५२०-२२ ई. से १५६०-६२ तक के मध्य अनुमित किया जा सकता है। इस आधार पर पण्डितराज से उनका समकालत्व सिद्ध नहीं हो पाता। आश्रयदाता राजाओं की तिथियों एवं अद्यपालन में प्राप्त शिलालेख के आधार पर अप्पय के जन्मकाल के सम्बन्ध में किया गया यह आकलन निश्चय ही शिवानन्द योगी द्वारा परिगणित कुण्डली की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक व विश्वसनीय है। जहाँ तक पण्डितराज के साथ वैमनस्य का प्रश्न है तो, उनका प्रत्यक्ष पारस्परिक वैमनस्य नहीं था वरन् भट्टोजि दीक्षित द्वारा शेष श्री कृष्ण की गुरु परम्परा त्याग कर अप्पय की गुरुत्व स्वीकार कर लेने पर गुरुद्रोही भट्टोजि व उनके नवगुरु अप्पय के प्रति उत्पन्न क्षोभ ही था जिसकी परिणति कटु आलोचना पूर्ण वक्तव्यों एवं ग्रन्थों के प्रणयन के माध्यम से हुई।

कृतियाँ

बहुशास्त्रपारङ्गत अप्पय दीक्षित ने नानाविध विषयों से सम्बद्ध शताधिक ग्रन्थों की रचना कर अपने प्रौढ़ पाण्डित्य का प्रदर्शन किया। श्री नीलकण्ठ दीक्षित के शिवलीलार्णव से इस तथ्य की पुष्टि होती है’ ‘द्वासप्ततिं प्राप्य सभाः प्रबन्धान शतं व्यधादप्पयदीक्षितेन्द्रः’ _ ‘मध्वतन्त्रमुखमर्दन’ की पुष्पिका में भी यही बात प्रकारान्तर से कही गई है-चतुरधिकशत-प्रबन्धनिर्माणचणस्य श्रीमदप्पयदीक्षितेन्द्रस्य।’ ‘अद्यपालम’ शिलालेख के तमिल अंश में भी यही बात उल्लिखित है कि अप्पय दीक्षित ने सौ प्रबन्ध रचे थे। माध्वाचार्य विजयेन्द्र भिक्षु के जीवन चरित में वर्णन है कि उन्होंने अप्पय से प्रतिद्वन्द्विता के चलते १०४ ग्रन्थों की रचना की। __अप्पय दीक्षित की इन रचनाओं में एक ओर जहाँ अत्यन्त प्रौढ़ पण्डित्यपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ व व्याख्याएं है- जैसे ‘श्रीपरिमल’ व ‘शिवार्कमणि दीपिका’ वहीं ‘पञ्चरत्न स्तुति’ अत्यन्त ‘मार्गबन्धु स्तुति’, मानसोल्लास’ आदि लघुकाय काव्य है। यद्यपि अप्पय दीक्षित महान् शिवभक्त थे और उनकी बहुत सी रचनाएँ शैव शास्त्र से सम्बन्धित है तथापि उनके शारदातनय से अच्युतराय तक ‘अप्पय दीक्षित’ ३२५

m mmm mummm आस्था जगत में अन्य दार्शनिक मतो व अन्य देवी देवताओं के प्रति भी पर्याप्त श्रद्धा थी। उन्होंने द्वैत विशिष्टाद्वैत, शिवाद्वैत और अद्वैत इन समस्त दार्शनिक विश्वासों को एक ही उद्देश्य तक पहुँचाने वाला बताया। उनका दृढ़ विश्वास था कि अद्वैत वेदान्त प्रतिपादित ब्रह्म ही सभी दार्शनिक विचार धाराओं का मूल है। यद्यपि उन्होंने विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं से सम्बद्ध ग्रन्थों की रचना की तथापि उनकी पूर्ण निष्ठा अद्वैतवाद में थी। ‘शिवार्कमणि दीपिका’ में उन्होंने इसका स्पष्ट निरूपण किया है यद्यप्यद्वैत एव श्रुतिशिखरगिरामागमानाञ्च निष्ठा साकं सर्वैः पुराणैः स्मृतिनिकरमहाभारतादिप्रबन्धैः । तत्रैव ब्रह्मसूत्राण्यपि विमृशतां भान्ति विश्रान्तिमन्ति प्रत्नैराचार्यरत्नैरपि परिजगृहे शङ्कराद्यैस्तदेव।। अप्पय दीक्षित की इन १०४ रचनाओं में कुछ उनकी मौलिक रचनाएँ हैं- कुछ उनकी अपनी कृतियों की व्याख्याएँ है व कुछ अन्य ग्रन्थों की टीकाएँ। अप्पय दीक्षित की इन रचनाओं को विषय के आधार पर इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है (क) अद्वैतवेदान्त विषयक ग्रन्थः १. सिद्धान्तलेश संग्रह २. न्याय रक्षामणि (ब्रह्म सूत्र प्रथम पाद की व्याख्या) ३. कल्पतरु परिमल (अमलानन्द कृत कल्पतरु की व्याख्या) ४. मध्वतन्त्र मुखमर्दनम् ५. मध्वमतविध्वसनम् ६. रामानुजशृङ्गभंग० ७. नयमञ्जरी ८. अधिकरण पञ्जिका ६. तातमुद्राविद्रावणम् १०. चतुर्मतसार संग्रह या अधिकरण सार संग्रह जिसका एक नामान्तर अधिकरण माला भी है। (ख) माध्वसिद्धान्तानुसारी ग्रन्थ | १. न्याय मुक्तावली (माध्वमतानुसारिणी ब्रह्मसूत्रवृत्ति) २. न्यायमुक्तावली व्याख्या ३. न्यायरत्नमाला ४. न्याय रत्नामाला व्याख्या। (ग) पूर्वमीमांसाविषयक ग्रन्थ : १. चित्रपट (मीमांसाधिकरण श्लोक सङ्ग्रह) २. विधि रसायनम् (अपूर्वादिविधित्रय विचार) ३.विधि रसायनमुखोपयोजिनी (व्याख्या) ४. उपक्रम पराक्रमः (उपक्रमप्राबल्यनिरुपण रूप) ५. पूर्वेत्तर मीमांसावाद नक्षत्रमाला ६. धर्ममीमांसा परिभाषा ७. मयूरखावलि (शास्त्र दीपिका व्याख्या) ८. तन्त्रिका मीमांसा रामानुज सम्प्रदाय विषयक मत १. यादवाभ्युदयव्याख्यानम् २. वरदराजस्तवः ३. वरदराजस्तवविवरणम् KO TATAT ALAM 4HP-MH३२६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र SENARAYARIYANINNAR ४. नखमयूखमालिका ५. पादुकासहस्रव्याख्या ६. रामानुजतात्पर्य सङ्ग्रह ७. तद् व्याख्या। शैवाद्वैत से सम्बद्ध ग्रन्थः १. शिखरिणी माला २. शिव तत्त्व विवेक (व्याख्या शिखरिणी माला) ३. रामायण तात्पर्य सङ्ग्रह ४. रामायण तात्पर्य सङ्ग्रह व्याख्या ५. भारत तात्पर्य सङ्ग्रह ६. भारत तात्पर्य सङ्ग्रह व्याख्या (रामायण व महाभारत के मूल वक्तव्य अर्थात तात्पर्य का विवेचन करने वाले इन ग्रन्थों में दीक्षित प्रवर ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि इन दो महाकाव्यों में भी भगवान शिव की ही परमसत्ता का व्याख्यान हुआ है।) ७. ब्रह्मतर्कस्तव ८. ब्रह्मतर्कस्तवव्याख्या ६. शिवध्यानपद्धति १०. शिवपूजाविधि ११. शिवार्चनचन्द्रिका १२. शिवकर्णामृत १३. शिवार्क मणि दीपिका (श्रीकण्ठ भाष्य की व्याख्या) १४. शिवाद्वैतनिर्णय १५. आनन्दलहरी १६. चन्द्रिका (आनन्द लहरी व्याख्या) १७. भस्मवादावली १८. रत्नत्रयपरीक्षा १६. रत्नत्रय परीक्षा व्याख्या २०. शिव महिमा कालिका स्तुति, २१. पञ्चरत्न स्तुति २२. पञ्चरत्न स्तुति व्याख्या। उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त कुछ अन्य ग्रन्थों को भी अप्पय दीक्षित विरचित शैवाद्वैत का प्रतिपादक कहा जाता है। २३. वीरशैवम २४. शिवध्यानपद्धतिव्याख्यान २५. शिवपुराणतामसत्त्व खण्डनम २६. शैवकल्पद्रुम व्याकरण शास्त्र विषयक ग्रन्थः १. पाणिनीय तन्त्रवाद नक्षत्र माला २. तिङन्त शेष सङ्ग्रह ३. कोश ग्रन्थः ४. नाम सङ्ग्रह माला ५. नामसङ्ग्रह माला व्याख्या ६. शब्दप्रकाश ७. अमरकोषव्याख्या पुराणेतिहासविषयक ग्रन्थः १. हरिवंशसारचरित व्याख्या २. भारततात्पर्यसङ्ग्रह ३. तद्व्याख्या ४. रामायण तात्पर्य सङ्ग्रह ५. तद्व्याख्या एवं शिवपुराणतामसत्वखण्डनम्’ काव्य ग्रन्थ : १. मार्गबन्धु चम्पू स्वकुलद्वैतस्तुति रूप २, प्रबोधचन्द्रोदय टीका ३. वसुमती चित्रसेन विलास नाट्कम् ४. हंससन्देशा टीका ५. दशकुमारचरितसंग्रह काव्यशास्त्र विषयक ग्रन्थः १. वृत्तिवार्तिक २. चित्रमीमांसा ३. कुवलयानन्द १. इन कृतियों का उल्लेख शिवाद्वैत विषयक ग्रन्थें की सूची में भी है कारण इनमें कवि का मूल मन्तव्य शिव की परम सत्ता के रूप में प्रतिष्ठापना है। ३२७ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘अप्पय दीक्षित’ स्तोत्रग्रन्थ : १. वरदराज स्तव २. वरदराज स्तव व्याख्या ३. आत्मार्पण स्तुति ४. अपीतकुचाम्बास्तुति ५.मानसोल्लास ६. निग्रहाष्टकम् ७.हरिहर स्तुति ८. दुर्गाचन्द्रकला स्तुति ६.दुर्गाचन्द्रकलास्तुति व्याख्या १०. आदित्य स्तोत्र रत्न ११. आदित्य स्तोत्र रत्न व्याख्या १२. श्री मार्गबन्धु पञ्चरत्न १३. मार्गसहाय लिङ्गस्तुति १४. गङ्गाधराष्टकम् १५. कृष्ण ध्यान पद्धति १६. पादुका सहस्र व्याख्या १७. अनुग्रहाष्टकम् १८. रत्नत्रय परीक्षा १६. रत्नत्रय परीक्षा व्याख्या २०. अरूणाचलेश्वर स्तुति २१. कृष्णध्यानपद्धति व्याख्या २२. जयोल्लासनिधि २३. मार्गसहाय स्तोत्रम २४. विष्णु तत्त्व रहस्यम् २५. शान्तिस्तवः २६. स्तोत्ररत्नाकर २७. भक्तिशतकम् २८. शिखरिणी माला स्फुट ग्रन्थः १. बाल चन्द्रिका २. बालचन्द्रिका व्याख्या ३. पञ्चस्वरवृत्ति ४. पञ्चस्वरवृत्ति व्याख्या ५. प्राकृतचन्द्रिका ६. लक्षणरत्नावली व्याख्या

काव्य शास्त्र विषयक ग्रन्थः

वृत्तिवार्तिक :

वृत्तिवार्तिक शब्द शक्तियों के विवेचन से सम्बद्ध एक लघुकाय ग्रन्थ है। इसमें दो परिच्छेद हैं पहले परिच्छेद में अभिधा की विवेचना की गई है। अभिधा के तीन प्रभेद प्रतिपादित किए गए हैं- रूढ़ि, योग और योगरूढ़ि। दूसरे परिच्छेद में लक्षणा निरूपण है। लक्षणा के प्रथमतः दो भेद किये गए हैं-शुद्धा तथा गौणीं इनमें प्रत्येक के निरूढ़ और फल नामक उपभेद और उपभेदों के भी भेद किये गए हैं। इस ग्रन्थ में काव्य की परमआनन्द दायिनी शक्ति व्यञ्जना की चर्चा नहीं की गई है; अतः यह ग्रन्थ अपूर्ण प्रतीत होता है।

चित्रमीमांसाः

चित्रमीमांसा अप्पय दीक्षित का काव्य शास्त्र विषयक द्वितीय प्रौढ़ ग्रन्थ है। इसमें सर्वप्रथम काव्य के तीन भेद किये गये हैं ध्वनि, गुणी भूत व्यङ्गय एवं चित्र । दीक्षित प्रवर का वक्तव्य है। कि शब्दचित्र काव्य मे रमणीयता नहीं होती अतः चित्र मीमांसा में केवल अर्थालङ्कार ही विवेचित हैं।’ इस ग्रन्थ में उन्होंने-उपमा’ को सभी साधर्म्यमूलक अलंकारों की आधार भूमि मानते हुए कहा है कि उपमा ही वह नर्तकी है जो अनेक प्रकार के अलङ्कारों की भूमिका में अवतीर्ण होकर काव्य मञ्च पर नृत्य करती हुई सहृदयों के मानस को आनन्दित करती है। १. शब्दचित्रस्य प्रायो नीरसत्वान्नात्यन्तं तथाद्रियन्ते कवयः न वा तत्र विचारणीयमतीवोपलभ्यते इति शब्द चित्रांशमपहायार्थचित्र मीमांसा प्रसन्नविस्तीर्णा प्रस्तूयते। चित्रमीमांसा, ग्रन्थारम्भ प्रकरण अन्त। २. उपमैका शैलूषी सम्प्राप्ता चित्र भूमिकाभेदान्। रञ्जयति काव्यरगे नृत्यन्ती तद्विदां चेतः।। वही उपमा निरूपण हिम ३२८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र rammar

“- …. “- 24TAMIS T .- “-. उपमा के माहात्म्य प्रस्थापन के अनन्तर अप्पय दीक्षित ने प्राचीन आचार्यो द्वारा प्रोक्त उपमा के लक्षण को प्रस्तुत कर उनका खण्डन करते हुए उपमा विषयक स्वमत का प्रतिपादन उसके स्वरूप व भेदों का भी निर्वचन किया है। उपमा को उन्होंने साधर्म्य मूलक २२ अलङ्कारों का मूल माना है। वे इन सभी अर्थ चित्रालङ्कारों की मीमांसा चित्रमीमांसा में करने को समुत्सुक थे परन्तु ‘अतिशयोक्ति’ अलकार तक केवल बारह अलङ्कारों की विवेचना कर सके। इस ग्रन्थ में जिन अलंकारों का विवेचन हुआ है; उनके नाम इस प्रकार हैं-उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय, स्मरण, रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान् उल्लेख अपह्नुति, उत्प्रेक्षा और अतिशयोक्ति। ऐसा लगता है कि अप्पय दीक्षित ने इस ग्रन्थ को सप्रयास अधूरा छोड़ दिया। ‘अतिशयोक्ति’ अलंकार की विवेचना भी अधूरी रह गई है। अप्पय का स्वयं का वक्तव्य इस तथ्य का साक्षी है: अप्यर्थचित्रमीमांसा न मुदे कस्य मांसला। अनूरुरिव धर्माशोरर्धेन्दुरिव धूर्जटेः।। चित्रमीमांसा-उपसंहार।। पण्डितराज जगन्नाथ ने ‘चित्रमीमांसा’ में प्रदर्शित अप्पय दीक्षित के मतों की कटु आलोचना की है तथा इनका खण्डन करने के लिये ‘चित्रमीमांसा खण्डन’ नामक ग्रन्थ लिखा था। इसका उत्तर अप्पय के भ्रातृपौत्र नील कण्ठ दीक्षित ने ‘चित्रमीमांसा दोषधिक्कार’ का प्रणयन कर दिया। चित्रमीमांसा पर बालकृष्ण पायगुड ने ‘गूढार्थ प्रकाशिका’ व धरानन्दो ‘सुखा’ नाम्नी टीकाएँ लिखी। एक अन्य प्राचीन टीका चित्रालोक भी है जिसके लेखक का नाम अज्ञात है।

कुवलयानन्द

अप्पय दीक्षित के कुवलयानन्द का अलङ्कार शास्त्र के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इस ग्रन्थ में अप्पय दीक्षित के पूर्व के प्रायः सभी आलङ्कारिकों के द्वारा उद्भाषित अलंकारों का विवेचन पाया जाता है। कुवलयानन्द में लगभग १२३ अलंकारों का विवरण पाया जाता है। जिसमें चन्द्रालोककार जयदेव के द्वारा निर्दिष्ट सभी अलङ्कार आ जाते हैं दीक्षित प्रवर ने जयदेव या शोभाकर आदि की भाँति कुवलयानन्द में शब्दालंकारों का विवरण नहीं दिया है। न इनका विवेचन चित्रमीमांसा में किया गया है। उनका स्पष्ट मन्तव्य है कि शब्द चित्र के नीरस होने के कारण हमने अर्थालंकारों की ही विस्तृत मीमांसा करने का उपक्रम किया है।’ फलतः चित्रमीमांसा की भाँति कुवलयानन्द में भी उन्होंने केवल अर्थालंकारों का विवेचन किया है। १. चित्रमीमांसा, ग्रन्थारम्भ प्रकरणान्त ३२६ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘अप्पय दीक्षित’ कुवलयानन्द के अर्थालङ्कार विचार का उपजीव्य जयदेव के चन्द्रालोक का अर्थालङ्कार प्रकरण है। उन्होंने जयदेव के लक्ष्यलक्षण श्लोकों को लेकर उन पर अपना निजी पल्लवन किया है। उन्होंने उपमालङ्कार प्रकरण से अलङ्कार विवेचन प्रारम्भ कर हेतु अलङ्कार पर्यन्त लगभग १०० अलङ्कारों का विवेचन किया है तदनन्तर रसवत्, प्रेय ऊर्जस्वि तथा समाहित भावोदय, भावसन्धि, भावशबलता प्रत्यक्ष अनुमान, उपनाम, शब्दप्रमाण, स्मृति, श्रुति, अर्थापत्ति अनुपलब्धि, सम्भव, ऐतिय, संसृष्टि, संङ्कर, समप्राधान्य सङ्कर, सन्देहसङ्कर, एकवचनानुप्रवेशसङ्कर सङ्करासंकर आदि तेईस अन्य अलङ्कारों का विवेचन किया है। जयदेव ने प्रत्यक्षादि १० प्रमाणों को अलङ्कार नहीं माना है। इससे स्पष्ट है कि दीक्षित जयदेव के अतिरिक्त अन्य आलङ्कारिकों के भी ऋणी हैं। इन्होंने प्रमुखतः चार आलङ्कारिकों के विचारों से लाभ उठाया है। ये हैं- भोजराज रूय्यक, जयदेव तथा शोभाकर। इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ अन्य आलङ्कारिकों के विचारों को भी अपनाया है। इन्हीं में से एक महत्वपूर्ण रचना किसी अज्ञात रचनाकार का ‘अलङ्कारभाष्य’ रहा है; जिसका सङकेत विभर्शिनीकार जयरथ तथा पण्डितराज दोनों के किया है। अर्थालंकारों की तालिका में दीक्षित ने जिन नये तथा चन्द्रालोक से अधिक अलङ्कारों की उद्भावना की है, वे इस प्रकार हैं : १. प्रस्तुताकार २. अल्प ३. कारक दीपक ४. मिथ्याध्यवसिति ५. ललित ६. अनुज्ञा ७.मुद्रा ८.रत्नावली ६.विशेषक १०.गूढोक्ति ११. विवृतोक्ति १२. युक्ति १३. लोकोक्ति १४. छेकोक्ति १५. निरुक्ति १६. प्रतिषेध १७. विधि। __वस्तुतः इन अलङ्कारों की कल्पना का श्रेय दीक्षित को नहीं दिया जा सकता। वे एक संग्राहक मात्र है। यद्यपि इनमें से कुछ अलङ्कार दीक्षित की मौलिक स्थापनाएँ है, तथापि उनका भी पण्डितराज द्वारा सफलता पूर्वक खण्डन कर दिये जाने पर उनकी मौलिकता संन्दिग्ध हो उठती है। इतना होने पर भी अप्पय दीक्षित के कुवलयानन्द व चित्रमीमांसा इन ग्रन्थों का महत्व दो कारणों से कम नहीं है-प्रथम तो उनके कुवलयानन्द में उनके समय तक उद्भासित समस्त अलङ्कारों का साधारण परिचय मिल जाता है दूसरे उनका उल्लेख स्थान-स्थान पर ‘रसगङ्गाधर’ ‘अलङ्कार कौस्तुभ’ तथा उद्योत’ में मिलने के कारण इन ग्रन्थों के अध्येता के लिए दीक्षित के विचारों को जानना जरूरी हो जाता है। पुनश्च अप्पय दीक्षित के अलङ्कार सम्बन्धी विचारों के कारण अलङ्कारशास्त्र में एक नया वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ है जिसे लेकर अनेक ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। पण्डितराज ने रसगङ्गाधर में दीक्षित के विचारों का कस कर खण्डन किया तथा उनके लिए कटु शब्दों का प्रयोग किया। यथा उपमालङ्कार के विवेचन में उन्होंने अप्पय द्वारा दिये गये वाचकोपमेयलुप्ता के उदाहरण का खण्डन करते हुये कहा कि यह पद्य अशुद्ध शब्द से दूषित होने के कारण ३३० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

ESH REL बनाने वाले की व्याकरण ज्ञान शून्यता को प्रदर्शित करता है।’ रूपक अलङ्कार के विवेचन में अप्पय के लिये उनका कहना है कि ‘आप तो प्रामाणिक पुरुष ठहरे अतः विना किसी के कहे आप थोड़े ही कह सकते हैं-नहिं प्रामाणिकेन भवता कदापि परेणानुक्तं किञ्चिदुच्यते’। अप्पय द्वारा सामान्य के प्रतिद्वन्द्वी विशेषक व मीलित के प्रतिद्वन्द्वी उन्मीलित नामक अर्थालङ्कार मानने पर उसकी आलोचना करते हुए कहते हैं-मर्यादा के वशवर्ती आर्यों को जहाँ तक प्राचीनों द्वारा विभक्त किये गये अलङ्कारों में अन्तर्भाव किया जा सके वहाँ तक भिन्न अलङ्कारता की अड़गेबाजी करके अपनी उच्छृखलता का नाटक दिखाना ठीक नहीं। इसी प्रकार अन्य अलङ्कारों के सम्बन्ध में भी उन्होंने दीक्षित की अत्यन्त कटु आलोचना की है। यही नहीं उन्होंने उनकी कृति चित्रमीमांसा के खण्डनार्थ ‘चित्रमीमांसा खण्डनम् नामक ग्रन्थ ही लिख डाला व उद्धत होकर कह भी दिया सूक्ष्म विभाव्य मयका समुदीरितानामप्पय्यदीक्षितकृताविहदूषणानाम्। निर्मत्सरो यदि समुद्धरणं विदध्यात् तस्याहमुज्ज्वलमतेश्चरणौ वहामि।। ३ इस ग्रन्थ का खण्डनात्मक उत्तर अप्पय के भ्रातृपौत्र नीलकण्ठ दीक्षित ने ‘चित्रमीमांसा दोषधिक्कार’ नाम से ग्रन्थ प्रणयन कर दिया । एतदतिरिक्त अप्पय दीक्षित के विचारों का खण्डन काव्यप्रकाश की टीका सुधासागर के टीकाकार भीमसेन दीक्षित ने ‘कुवलयानन्द खण्डनम्’ नामक ग्रन्थ लिखकर किया। इस समस्त सर्वेक्षण का निष्कर्ष यही है कि ऐसी कृतियाँ जिनके खण्डन के लिए अलग से ग्रन्थों का प्रणयन किया गया; निश्चय की साहित्य शास्त्र के गम्भीर जिज्ञासुओं के लिये अध्ययनीय हैं विशेषतः इस दृष्टि से कि किसी एक विषय पर कितनी सूक्ष्मता से उसके विविध पक्षों को सामने रखकर विचार किया जा सकता है। भले ही अप्पय की साहित्य शास्त्रीय कृतियों में उनका संग्राहक रूप अधिक उभर कर सामने आया हो तथापि इससे उनकी विद्वता में कोई न्यूनता नहीं आती। वस्तुतः मधु प्राप्त करने के लिये उसका आस्वाद करने के लिये मधुकर्ता का प्रयत्न सर्वोपरि होता है अप्पय इस दृष्टि से भी नितान्त श्लाघनीय है। कुवलयानन्द अलङ्कार शास्त्र के अध्येताओं व समालोचकों में लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है। इसके कई संस्करण प्रकाशित हुए व इस पर कई टीकाएँ लिखी गई; जिनका विस्तृत परिचय डा. सुशील कुमार डे ने अपने संस्कृत काव्यशास्त्र के इतिहास में दिया हैं इनका PARTetimes

== een= १. रसगगाधर, द्वि.आ. पृ. २७३ २. रसगङ्गाधर, द्वि. आ. पृ. ४६१ रसगङ्गाधर द्वि.आ. भा. पृ. ७८०

سه Ex-* === ३३१ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘अप्पय दीक्षित’ संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है: १. वैद्यनाथ तत्सत् कृत अलङ्कारचन्द्रिका २. आशाधर कृत अलङ्कार दीपिका __ गङ्गाधराध्वरी रचित ‘रसिक रंजनी’ ४. नागोजीभट्ट रचित ‘अलकार सुधा’ तथा ‘विषमपदव्याख्यानषट्पदानन्द’ ५. न्यायवागीश भट्टाचार्य रचित काव्य मञ्जरी। ६. मथुरा नाथ रचित टीका, नाम अज्ञात। ७. कुरविराम रचित ‘टिप्पण’ देवीदत्त रचित ‘लध्वलंकारचन्द्रिका’ ६. वेंगलसूरि रचित ‘बुधरञ्जनी टीका’ १०. भण्डारकर ओरिएण्टर रिसर्च इंस्टीट्यूटहस्तलिपि कैटलॉग XII संख्या १५५ पृ. १७७ पर एक अनाम लेखक की टीका। अप्पयदीक्षित विषयक यह समस्त अनुशीलन उनके सर्वतन्त्र स्वतन्त्र पाण्डित्य, साहित्य शास्त्रीय गम्भीरचिन्तन एवं नानाविध ग्रन्थ प्रणयन, यशः प्रख्यापन आदि विविध पक्षों पर प्रकाश डालते हुए उन्हें उत्कृष्ट पाण्डित्य से समन्वित शास्त्रवेत्ता के रूप में प्रस्तुत करता है। निस्सन्देह वे संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधि है। ३३२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

केशव मिश्र

‘अलङ्कार शेखर’ नामक अलङ्कारशास्त्रीय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के रचयिता केशवमिश्र १६ वीं शती के काव्याशास्त्रियों में विशेषतया उल्लेखनीय हैं उन्होंने अलकार सूत्रकार भगवान शौद्धोदनि द्वारा रचित अलङ्कार सूत्रों को अपने ग्रन्थ में मूल रूप से संगृहीत कर उन पर वृत्ति (व्याख्या) लिखी है। ‘अलङ्कार शेखर’ के तीन भाग है- कारिका (सूत्रवृत्ति और उदाहरण) अलंकार शास्त्र की सूत्र रूप में रचना करने वाले दो ही विद्वान प्रसिद्ध हैं, एक वामन व दूसरे शौद्धोदनि । ग्रन्थ की शैली देखने से प्रतीत होता है कि बारहवीं शती के अनन्तर ही इन सूत्रों का निर्माण हुआ है। यह शौद्धोदनि नाम अन्य किसी अलंकार ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता; अतः यह सन्देह होता है कि शौद्धोदनि वास्तविक नाम है, अथवा किसी बौद्ध मतानुयायी का उपनाम, जिसने अलंकार सूत्र का निर्माण किया व अपने इष्ट के अनुकूल शौद्धोदनि नाम स्वतः धारण कर लिया। भगवान बुद्ध शुद्धोदन के पुत्र थे ही- शुद्धोदनस्य अपत्यं पुमान्! शौद्धोदनिः। केशव मिश्र ने अलंकार शेखर में काव्य लक्षण के उपक्रम में स्वयं लिखा है- अलङ्कार विद्या सूत्रकारों भगवान् शौद्धोदनिः परम कारुणिकः स्वशास्त्रे प्रवर्तयिष्यन् प्रथमं काव्यस्वरूपमाह’।’ __ इसमें भगवान व परमकारूणिकः-ये दो विशेषण भगवान बुद्ध की ओर ही निर्देश करते हैं,। परन्तु किसी पुष्ट प्रमाण के अभाव से भगवान बुद्ध को अलंकार सूत्रों का रचयिता. मान लेना उचित नहीं। इस ग्रन्थ में महिमभट्ट, राजशेखर, बाग्भट, गोवर्धन, भोजराज, मम्मट श्रीपाद आदि आचार्यों के मतों का नामोल्लेख है। इसमें श्रीपाद नामक विद्वान का उल्लेख अनेक बार हुआ है, परन्तु श्रीपाद का कोई भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। सम्भवतः यह शौद्धोदनि का ही विशेषण है। उपसंहार में भी केशव मिश्र ने ‘अलङ्कार विद्या सूत्रकार शब्द का प्रयोग किया है HEREALA श्रुतमेषाऽन्यथाकारमक्षराणि कियन्त्यपि। काव्यालङ्कारविद्यायां शौद्धोदनिरसूत्रयत्।। केशवमिश्र में ‘अलङ्कार शेखर’ की रचना शौद्धिदनि की कारिकाओं के आधार पर की थी, इसलिये इन कारिकाओं की रचना ‘अलङ्कारशेखर’ की रचना से बहुत पहले हो जो गयी होगी, यह अनुमान किया जा सकता है। शौद्धोदनि ने काव्य का लक्षण रस के १. इस ग्रन्थ का प्रकाशन काव्यमाला सीरिज नं. ५० के अन्तर्गत बम्बई से हुआ। बाद में यह काशी संस्कृत सीरिज वाराणसी से भी प्रकाशित हुआ। २. अलकार शेखर पृष्ठ-२। शारदातनय से अच्युतराय तक ‘केशव मिश्र’ ३३३ आधार पर दिया है और ‘व्यक्ति विवेक’ के लेखक महिमभट्ट (१०२०-१०५० ई.) का इन्होंने उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त इनके विवेचन पर ‘वाग्भटालकार’ का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। इस कारण इन कारिकाओं की रचना १२ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से पहले नहीं हुई होगी। केशवमिश्र ने ‘अलकार शेखर’ की रचना राजा धर्मचन्द्र के पुत्र राजा माणिक्यचन्द्र की प्रेरणा से की थी काव्यालङ्कारपारङ्गममतिरखिलक्ष्माभृतां चक्रवर्ती। सर्वेषामस्तु काव्ये मतिरतिनुिपणेत्याशये सन्निवेश्य वेदान्तन्यायविद्यापरिचय चतुरं केशवं सन्नियुज्य श्रीमन्माणिक्यचन्द्रः क्षितिपतितिलकोग्रन्थमनंविधत्ते।’ उपसंहार में भी इससे सम्बन्धित वर्णन है। इन्होंने अपने प्रेरक माणिक्यचन्द्र की वंशावलि भी प्रस्तुत की है। उसमें काबुल के राजा को जीतने वाले रामचन्द्र उनके पुत्र धर्मचन्द्र व उनके पुत्र माणिक्यचन्द्र का वर्णन है।’ कनिंघम के अनुसार धर्मचन्द्र का पुत्र माणिक्यचन्द्र कांगड़ा के राज्यसिंहासन पर १५६३ ई से १५७३ तक आसीन था। केशव द्वारा प्रदर्शित वंश वृक्ष में इसी माणिक्यचन्द्र के साथ अनुकूलता है। अतः इस ग्रन्थ की रचना का काल भी यही है, यह निश्चित किया जा सकता है। इस आधार पर केशव मिश्र का रचनाकार १६ वी शती का उत्तरार्ध माना जा सकता है। केशव मिश्र न्याय व वेदान्त के प्रौढ़ विद्वान् थे। इनके द्वारा उद्धृतश्लोक इसका प्रमाण है-‘वेदान्तन्याय विद्या परिचयचतुरं केशवं सन्नियुज्य’। इन्होंने ‘अलङ्कारशेखर’ ग्रन्थ का निर्माण करनेसे पूर्व सात ग्रन्थों का निर्माण कर लिया था ग्रन्थाः काव्यकृतां हिताय विहिता ये सप्तपूर्वं मया ते तर्कार्णवसंप्लवव्यसनिभिः शक्याः परं वेदितुम। इत्यालोच्य हृदा मदालसवथूपादारविन्दक्कण न्मजीरध्वनि मञ्जुलोऽयमधुना प्रस्तूयते प्रक्रमः।। ३ इससे ज्ञात होता है कि ये उत्कृष्ट पाण्डित्य से समन्वित, उत्कृष्ट लेखकीय मेधा से सम्पन्न आचार्य थे, परन्तु इन सात ग्रन्थों के विषय में अधिक ज्ञात नहीं होता। “– … m

१. प्रथम रत्ने प्रथम मरीचि। २. तत्रैव, प्रतावनात्मक प्रथम-१-७ श्लोक ३. तत्रैव, द्वितीय श्लोक

३३४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

अलङ्कार शेखरः

अलङ्कार शेखर आठ रत्न व २२ मरीचियों में विभक्त है। ये रत्न इस प्रकार हैं १.उपक्रम रत्न २. दोष रत्न ३. गुणरत्न ४. अलङ्काररत्न ५. वर्णकरत्न ६. कविसम्प्रदाय रत्न ७. कविसामर्थ्य रत्न एवं ८. विश्राम रत्न। प्रथम ‘उपक्रम रत्न’ में तीन मरीचियाँ हैं-१. फलस्वरूप फलकारण मरीचि २. रीत्यादि वहिरङ्ग त्रय मरीचि ३. वृत्ति मरीचि द्वितीय ‘दोषरत्न’ में भी तीन मरीचियाँ है-१. पददोष मरीचि २. वाक्यदोष मरीचि ३. अर्थदोष मरीचि। तृतीय ‘गुणरत्न’ में तीन मरीचियों के नाम इस प्रकार हैं- १. शब्दगुण मरीचि २. अर्थगुण मरीचि ३. वैशेषिक गुण मरीचि __ चतुर्थ ‘अलङ्कार रत्न’ में १. शब्दालङ्कार मरीचि २. अर्थालङ्कारे उपमा मरीचि ३. रूपक मरीचि ये तीन मरीचियाँ समाहित हैं। पञ्चम ‘वर्णकरत्न’ है; जिससे ‘योषित वर्णन मरीचि’ व पुरुष वर्णन मरीचि नाम दो मरीचियाँ समाहित हैं। षष्ठं ‘कविसम्प्रदायरत्न’ चार मरीचियों से समन्ति है। ये है। १. नियम मरीचि २.वर्णनीय मरीचि ३. शुक्लादि नियम मरीचि ४. संख्या नियम मरीचि। सप्तम ‘कविसामर्थ्य रत्न’ में दो मरीचियाँ हैं- १. चित्राद्युपकार मरीचि २. समस्यापूरण मरीचि। अष्टम विश्राम रत्न दो मरीचियों से समन्वित है- १. रसमरीचि २. रसदोष मरीचि।

अलङ्कार शेखर का प्रतिपाद्यविषय

अलङ्कार शेखर में केशव मिश्र ने वर्ण्य विषय का विभाजन ८ रत्नों में समागत मरीचियों में इस प्रकार किया है प्रथम मरीचि काव्य की परिभाषा तथा काव्य हेतु द्वितीय मरीचि वैदर्भी, गौडी और भागधी तीन रीतियाँ उक्ति एवं मुद्रा के विभिन्न प्रकार। तृतीय मरीचि शब्द की तीन वृत्तियाँ- शक्ति, लक्षणा, व्यञ्जना चतुर्थ मरीचि पद के आठ दोष। पञ्चम मरीचि वाक्य के १२ दोष षष्ठ मरीचि अर्थ के ८ दोष सप्तम मरीचि पाँच शब्दगुण- संक्षिप्तत्व, उदात्तत्व, प्रसाद, उक्ति और समाधि। अष्टम मरीचि नवम मरीचि दशम मरीचि एकादश मरीचि द्वादश मरीचि त्रयोदश मरीचि HARRANT चतुर्दश मारीचि शारदातनय से अच्युतराय तक ‘केशव मिश्र’ ३३५ भाविकत्व, सुशब्दत्व, पर्यायोक्ति और सुधर्मिता। पहले कहे गये पद, वाक्य और अर्थ के दोष कहीं गुण बन जाते हैं तब वे वैशेषिक गुण कहलाते हैं और दोष नहीं रहते। आठ शब्दालंकार-चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास गूढ़ श्लेष, प्रहेलिका, प्रश्नोत्तर और यमक १४ अर्थालङ्कार-उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, समासोक्ति, अपह्नुति, समाहित, स्वभाव, विरोधसार दीपक, सहोक्ति, अन्यदेशक, विशेषोक्ति और विभावना। रूपक के भेद-उपभेद। उत्प्रेक्षा, समासोक्ति आदि अलङ्कारों की परिभाषायें, भेद और उदाहरण। इस वर्णन में कामिनियों के विभिन्न अङ्गों-वर्ण, केश, मस्तक, नेत्र, भौंह आदि के उपमान दिये गये हैं। नायक की शारीरिक विशेषताओं के वर्णन की . विधि सादृश्यवाचक शब्दों तथा कवि समयों का वर्णन। विभिन्न वर्ण्य-विषयों-राजा, रानी, प्रदेश, नगर, नदी आदि की वर्णन विधि तथा उनके गुणों का वर्णन। प्रकृति की विभिन्न वस्तुओं के स्वरूप तथा रंग। एक से लेकर एक हजार तक की संख्या को व्यक्त करने वाली वस्तुओं के नाम । विविध प्रकार के चमत्कारों की रूपरेखा। यथा गतागत, संस्कृत प्राकृत शब्दों की एकरूपता आदि। समस्यापूर्ति रसों का वर्णन। रस ही काव्य की आत्मा हैं। नौ प्रकार के रसों का स्वरूप विवेचन। नायक-नायिका के भेदों और उपभेदों का एवं विभिन्न भावों का निरूपण। रस दोष। रसों के अनुकूल वर्णो का विवेचन। पञ्चदश मरीचि षोदश मरीचि सप्तदश मरीचि अष्टादश मरीचि एकोनाविंशति मरीचि विंशति मरीचि एकविंशति मरीचि द्वाविंशति मरीचिEn t y ::-:.- .

-

*… ' '

३३६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र इस ग्रन्थ में केशव मिश्र ने सुललित उदाहरणों के माध्यम से वक्तव्य वस्तु का बड़ा सुन्दर सरलतया प्रतिपादन किया है। कतिपय नवीन विषयों का भी प्रतिपादन किया है। यथा सादृश्य वाचक शब्दों व कवि समय वर्णन प्रकृति की विभिन्न वस्तुओं के स्वरूप तथा रङ्ग । एक से लेकर एक हजार तक की संख्या को व्यक्त करने वाली वस्तुओं के नाम आदि। विविध प्रकार के चमत्कारों की रूपरेखा, संस्कृत प्राकृत शब्दों की एकरूपता, समस्यापूर्ति आदि विषयों का भी यहाँ सुन्दर वर्णन हुआ है। उदाहरण वर्ण्य विषय के अत्यन्त अनुरूप है। कुछ नये विषयों पर भी नये ढंग से तनिक दृष्टिपात किया गया है। यथा केशवमिश्र ने गौडीय वेदर्भी रीति के अतिरिक्त मैथिलों द्वारा स्वीकृत मैथिली रीति (मागधी) का भी निरूपण किया है गौडी समासभूयस्त्वाद्वैदर्भी च तदल्पतः। अनयोः सङ्करो यस्तु मागधी साऽतिविस्तरा। गौडीयैः प्रथमा मध्या वैदभै मैथिलैस्तदा। अन्यैरस्तु चरमा रीतिः स्वभावादेव सेव्यते।’ इससे ज्ञात होता है कि ये सम्भवतः मौथिल ब्राह्मण थे, क्योंकि मागधी का मैथिली रीति के रूप में वर्णन इन्होंने ही किया है। केशव मिश्र ने ‘अन्यदेशत्व’ नामक नवीन अलङ्कार की कल्पना की है। उसका लक्षण है-२ प्रयोज्यप्रयोजकयोः वैय्यधिकरण्यम् अन्यदेशत्वम् । उदाहरण के लिये सा बाला वयमप्यप्रगल्भवचसः सा स्त्री वयं कातराः सा पीनोन्नतिमत् पयोधरयुगं धत्ते सखेदा वयम्। साऽऽक्रान्ता जघनस्थलेन गुरुणा गन्तुं न शक्ता वयम् दोषैरन्यजनाश्रितैरपटवो जाताःस्म इत्यद्भुतम् ।। ३ वस्तुतः अन्याऽऽचार्यो द्वारा जो असङ्गति अलङ्कार का वर्णन किया गया है उसी की इन्होंने ‘अन्य देशत्व’ कहा है, इसे नवीन नहीं कहा जा सकता। १. २. ३. अलकार शेखर १/२ तत्रैव, ४/१३ तत्रैव, ४/१३ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘कवि कार्णपूर’ ३३७

कवि कर्णपूर

‘काव्य कौस्तुभ’ नामक अलङ्कार ग्रन्थ के रचयिता कवि कर्णपूर की काव्यशास्त्रीय इतिहास में विवेचनीय आचार्यों की श्रेणी में आगत हैं। ये बंगाल के सुप्रसिद्ध ग्रन्थकार थे, जिनके ग्रन्थों का प्रचार भी वंगाल में ही अधिक हुआ। कवि कर्णपूर का नाम परमानन्ददास सेन था। ये शिवानन्दसेन के पुत्र तथा श्री नाथ के शिष्य थे। ये बंगाल के सुप्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थकार थे व प्रख्यात अलङ्कार शास्त्री जीव गोस्वामी के समकालीन थे। इनके पिता चैतन्यदेव के शिष्यों में ज्येष्ठ थे और चैतन्य केअनुयायियों के लिये बंगाल से पुरी की वार्षिक यात्रा का प्रबन्धएवं नेतृत्व किया करते थे। कवि कर्णपुर के कुल की वैद्य उपाधि थी। इन्होंने संस्कृत में अनेक वैष्णव ग्रन्थों के लेखन के अतिरिक्त चैतन्य के जीवन चरित को पद्यमय रूप में ‘चैतन्यचरितामृतम्’ नाम से लिखा है। यह राधारमण प्रेस मुर्शिदाबाद से १८८४ में प्रकाशित है तथा दूसरा ग्रन्थ चैतन्य पर ही ‘चैतन्यचन्द्रोदयम्’ नामक नाटक हैं। इस नाटक का निर्माण शकसंवत् १४६४ अथवा १५०१ है अर्थात १५७२ ई. या १५७६ ई.। जैसा कि नाटक में श्लोक आगत है शाके चतुर्दशशते रविवाजि युक्ते गौरोहरिधरणिमण्डल आविरासीत्। तस्मिन् चतुर्णवतिमाजितदीय लीला ग्रन्थोऽयमाविरभवत् कतमस्य वक्त्रात् ।’ इससे सूचित होता है कि गौरहरि या चैतन्य देव का जन्म शक संवत १४०७ में हुआ था और उनके लीला ग्रन्थ की रचना शकसंवत् १४६४= १४७२ ई. अथवा १५०१ शक = १५७६ ई. में हुई। इन्होंने गौराङ्ग गणोद्देश दीपिका की भी रचना की है जिसकी तिथि हर प्रसाद शास्त्री के अनुसार १५७६ या ७७ ई. है। वे ‘शाके चतुर्दश शते’ की जगह ‘शाके वसुग्रहमिते’ पाठ मानते हैं किन्तु इण्डिया आफिस कैटलॉग संस्करण २५१० के अनुसार ‘शाके रसारसमिते’ पाठ है. जिसके अनुसार यह १५४० ई. में लिखी गई। ‘चैतन्यचन्द्रोदय’ की भूमिका में मित्रा ने कविकर्णपूर का जन्म चैतन्य की मृत्यु के कुछ वर्ष पूर्व नदिया जिले के अन्तर्गत काञ्चनपल्ली (कांचड़ा पाड़ा) नामक स्थान पर १५२४ ई. में हुआ माना है। उनकी रचनाओं के निर्माण की तिथि तथा मित्रा द्वारा अनुमानित उनका जीवन समय इन दोनों ही तथ्यों को ध्यान मे रखने पर इनका आनुमानिक समय १५२५ ई. से १६०० ई. के मध्य आसानी से रखा जा सकता है। १. चैतन्य चन्द्रोदयम्-१ ३३८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र कर्णपूर ने ‘अलङ्कार कौस्तुभ’ नामक अलङ्कार शास्त्र का ग्रन्थ लिखा है। अलङ्कार कौस्तुभ में दस किरण हैं। प्रथम में काव्य लक्षण, दूसरे में शब्दार्थ विचार, तीसरे में ध्वनि, चौथे में गुणीभूत व्यङ्ग्य, पञ्चम में रस भाव तथा उनके भेद षष्ठ में गुण, सप्तम में शब्दालङ्कार, अष्टम में अर्थालङ्कार, नवम में रीति तथा दशम में दोष आदि काव्याङ्गो का विचार हैं यह रूप गोस्वामी के ग्रन्थ से अधिक विस्तृत है। यद्यपि इसमें वैष्णव प्रवृत्ति की अति नहीं है, तथापि उदाहरण श्लोक श्री कृष्ण के स्तुतिपरक हैं। विषय विवेचन काव्यप्रकाश के अनुसार हैं। इस ग्रन्थ पर विश्वनाथ चक्रवर्ती ने ‘सार बोधिनी’ टीका लिखी है और चक्रवर्ती के शिष्य सार्वभौम की टिप्पणी भी इस पर है। वृन्दावनचन्द्र तर्कालकार की ‘अलङ्कार कौस्तुभदीधिति प्रकाशिका’ और लोक नाथ चक्रवर्तीकृत ‘अलङ्कार कौस्तुभ’ टीका है।

कविचन्द्र

काव्यशास्त्रीय प्रबन्धों के निर्माताओं में कविचन्द्र का भी प्रमुख स्थान है। इनके द्वारा रचित ‘काव्यचन्द्रिका’ काव्य शास्त्र की उत्कृष्ट रचना है। सरलता तथा स्वाभाविकता इस ग्रन्थ की प्रमुख विशेषता हैं। विविध रसों के मञ्जुल निरूपण, प्रसङ्गानुकूल अलङ्कारों के सन्निवेश, सरल सहज विषय प्रतिपादन तथा भावपूर्ण रसाभिव्यञ्जन आदि विशिष्ट गुणों के कारण यह ग्रन्थ अलङ्कार शास्त्र के ग्रन्थों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। __कविचन्द्र कविकर्णपूर तथा कौशल्या के पुत्र व विद्या विशारद के पौत्र थे इनके कवि भूषण व कवि बल्लभ नामक दो पुत्र थे। इनका जन्म दीर्घाक ग्राम के दत्त कुल में हुआ था-इति दीर्घाक ग्राम निवासी दत्तकुलोदभव वैद्यश्री कविचन्द्र विरचितायां । इससे ज्ञात होता है कि इनके पिता कर्णपूर परमानन्द दास सेन कविकर्णपूर से भिन्न थे, कारण वे दत्त कुलोत्पन्न थे और ये सेन कुलोत्पन्न। इन्होंने शक संवत् १५८३ =१६६१ ई. में -चिकित्सारत्नावली’ नामक ग्रन्थ लिखा था। इसे देखते हुए इनका आनुमानिक समय सत्रहवीं शती का द्वितीय से चतुर्थ चरण यानि १६२५-१७०० के मध्य माना जा सकता है। कविचन्द्र की काव्य चन्द्रिका में १५ प्रकाश हैं। इन प्रकाशों में क्रमशः १. काव्य लक्षण २. शब्दशक्ति ३. रस ४.भाव ५.रस भेद ६. रसाभास ७. काव्यभेद ८. प्रमाण निरूपण ६.रीति १०. गुण ११. शब्दालङ्कार १२. अर्थालङ्कार १३. दोष १४. कवितोपाय तथा १५ नाट्य। कविचन्द्र ने अपनी काव्य चन्द्रिका में अन्य प्राचीन लेखकों के अतिरिक्त जिन ग्रन्थों को उद्धृत किया है वे हैं-कविकल्पना, साहित्य दर्पण, रामचन्द्र चम्पू, रत्नावली, शान्तिचन्द्रिका तथा स्तवावलि। काव्य चन्द्रिका के अतिरिक्त इन्होंने अपने दो अन्य ग्रन्थों का उल्लेख किया है। सार लहरी तथा धातुचन्द्रिका। शारदातनय से अच्युतराय तक ‘पं.रा. जगन्नाथ’ ३३६

पण्डितराज जगन्नाथ

संस्कृत काव्य शास्त्र के उत्तरवर्ती युग की महनीय उपलब्धि ‘रसगङ्गाधर’ के विद्वान प्रणेता के रूप में विख्यात ‘पण्डितराज जगन्नाथ’ पराकोटि के विद्वान थे। अपने अपार वैदुष्य एवं गम्भीर पाण्डित्य से प्रभूत कीर्ति अर्जित करने वाले पण्डितराज की ‘पण्डितराज’ उपाधि स्वयं उनके पाण्डित्य की द्योतक है। उनमें कारयित्री एवं भवयित्री उभयविध प्रतिभाओं का मञ्जुल समन्वय था। वे अपने युग के विश्रुतकीर्ति काव्य शास्त्री एवं प्रतिभाशाली कवि होने के अतिरिक्त न्याय वेदान्त मीमांसा एवं व्याकरणादि शास्त्रों के मूर्तिमान स्वरूप थे। रसगङ्गाधर जहाँ उन्हें उद्भट काव्यशास्त्री के रूप में अक्षय यश प्रदान करता है, वहीं उनकी पञ्चलहरियाँ एवं भामिनीविलासादि कृतियाँ उन्हें स्निग्धहृदय रसपेशल कवि के रूप में स्थापित करती है। इसी प्रतिभा एवं पाण्डित्य के कारण उनकी गणना संस्कृत वाङ्मय के एक ऐसे ज्ञानज्योति से दीपित व्यक्तित्व के रूप में होती है, जिसकी यशः प्रभा काल की अबाध बाधाओं को वाधित करती हुई, चतुर्दिक प्रसृत होती व आलोक फैलाती आ रही है। __ काव्य प्रणयन के क्षेत्र में पण्डितराज की प्रतिभा महा काव्यकार की नहीं थी। इस क्षेत्र में उन्होंने लघु रचनाओं का ही प्रणयन किया है किन्तु इसके अभाव में भी उनकी काव्य कारिणी क्षमता निर्विवाद रूप से श्रेष्ठ हैं। उन्होंने भक्तिपरक नीतिपरक, प्रशस्तिपरक तथा शृङ्गारिक व कारुणिक मनोभावों से सम्बद्ध रचनाएं की; जिनमें एक ओर शृङ्गार की मधुभीनी रंगीनी है तो दूसरी ओर नीति का उद्बोधक प्रकाश एक ओर देवप्रशस्ति की सरस धारा है, तो दूसरी और राज प्रशस्ति की चमत्कारिक काल्पनिक उड़ान। कवि होने के अतिरिक्त पण्डितराज काव्य शास्त्र के उद्भट विद्वान के रूप में स्थापित है। रसगङ्गाधर व उनके इसी रूप का प्रत्यक्ष निदर्शन है। इसमें उन्होंने विविध काव्य शास्त्रीय सिद्धान्तों यथा काव्यलक्षण, भेद, रसभावादि विवेचन, गुण विवेचन ध्वनियों के भेद, प्रभेद, अभिधा लक्षणादि विवेचन और उपमादि अलङ्कारों का प्रौढ़ व मौलिक विवेचन प्रस्तुत किया है। इसय कारण उनका यह ग्रन्थ उन्हें काव्य शास्त्र के दिग्गज आचार्य के रूप में प्रस्तुत करता है जिसके कारण आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त एव मम्मट की परम्परा में चौथे उद्भट काव्याचार्य के रूप में उनका यशस्वी व्यक्तित्व संस्कृत काव्य शास्त्र में अमर हैं। __ रसगङ्गाधर में पण्डितराज ने जिस प्रकार विषयों का प्रौढ़, तलस्पर्शी व मौलिक विश्लेषण किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस विश्लेषण में उन्होंने प्राचीन मान्य आचार्यो आनन्दवर्धन, मम्मट, विश्वनाथादि की आलोचना करने में भी सङ्कोच नहीं किया है। उनके स्थलों पर प्राचीन आचार्यों की अपेक्षा अधिक परिष्कृत व विस्तृत विश्लेषण कर उन विषयों को स्पष्ट कर दिया है। उदाहरणार्थ काव्य लक्षण के प्रसङ्ग में उन्होंने मम्मट के ३४० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र सर्वस्वीकृत काव्यलक्षण के विभिन्न पदों को तर्क की कसौटी पर रखकर अमान्य कर दिया। पुनः विश्वनाथ के लोकप्रिय लक्षण ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ को वस्तु व अलङ्कार वर्णन परक काव्य में अव्याप्त होने की त्रुटि निर्देश करते हुए उसकी सुष्ठु समीक्षा की है। काव्यप्रभेद के विवेचन प्रसङ्ग में उन्होंने व्यङ्ग्य के चमत्कार की न्यूनाधिक तारतम्यता को आधार बनाकर मम्मट व ध्वनिकार की काव्य के तीन प्रभेद मानने की धारणा की सुन्दर आलोचना कर काव्य के चार प्रभेद मानने की अपनी धारणा का सयुक्तिक समर्थन किया है। __ रस विवेचन में मम्मट द्वारा ‘रौद्ररस’ के उदाहरण रूप में उद्धृत ‘वेणीसंहार’ नाटक के ‘कृतमनुमंत दृष्टं वा यैरिदं गुरुपातकम्’ इस श्लोक की समीक्षा करते हुए उन्होंने इसकी पदरचना को रौद्र रस के अनुपयुक्त बतलाया है। अद्भुत रस के विवेचन प्रसङग् में मम्मट के द्वारा दिए गए उदाहरण को समीक्षा कसौटी पर खरा न पाकर उसे रस से भाव की श्रेणी में पहुंचा दिया है। इस उदाहरण को अद्भुत रस का उदाहरण मानने पर जोर देने वाले लोगों के विषय में उनका कहना है कि वे आँखे मूंदकर स्वस्थ होकर सोचें-‘दरमुकुलितलोचनं विदाङकुर्वन्तु सहृदयाः। __ रस के अनौचित्य निरूपण प्रसङ्ग में गीतगोविन्दकार जयदेवादि कवियों को औचित्य की सीमा का बन्धन तोड़कर देवादि विषयक शृङ्गार का वर्णन करने के कारण मदमत्त हाथियों की संज्ञा देते हुए उन्हें सम्पूर्ण सहृदय समाज से आदृत मर्यादा को तोड़ देने वाला बतलाया है व इन कवियों के दृष्टान्तों से आधुनिक कवियों को सीखन लेने की सलाह भी दे दी है। आनन्द वर्धन मम्मटादि प्राचीन आचार्यों की गुणों को केवल रस का धर्म मानने की प्रायशः प्रचलित मान्यता को भी उन्होंने अमान्य कर दिया है। उनका स्पष्ट वक्तव्य है कि धर्म तथा कार्य का अनुभव अलग-अलग होना चाहिए। अग्नि का धर्म है, उष्णता व कार्य है; दाहादि. अर्थात् जलाना। दोनों का अग्नि से भिन्न व पृथक-पृथक अनुभव होता है। अर्थात जब हम आग से जलते नहीं तब भी हमें उसके उष्णता रूपी गुण का अनुभव होता है। यह बात रस गुणों के सम्बन्ध में दिखाई नहीं देती। रस का कार्य, चित्त की दृति विस्तार या विकास। इससे भिन्न अन्य कुछ भी रसगत धर्म के रूप में हमें लक्षित नहीं होता। अतः इन्हें गुणों की रसधर्मता मान्य नहीं। इसी प्रकार अन्य अनेक स्थल दर्शनीय हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने अलङ्कारों के विवेचन प्रसंग में अप्पयदीक्षित अलङ्कार-सर्वस्वकार, अलङ्काररत्नाकरकार व बहुत से अलङ्कारों में मम्मट के लक्षण १. रसगङाधर, प्रथमानन पृ.१८२-८३ २. तत्रैव पृ. २१६ . PRESS

ausamm………. शारदातनय से अच्युतराय तक ‘पं.रा. जगत्राथ’ ३४१ तथा उदाहरण को अपनी कसौटी पर खरा न पाकर उनकी सटीक आलोचना की है। इस समस्त विश्लेषण से पण्डितराज की काव्यशास्त्रीय विषयों पर पकड़ उनकी एतद्विषयिणी सूक्ष्म दृष्टि, तार्किकता आलोचना शक्ति, प्रौढ़ता व चिन्तन की गम्भीरतादि सभी वैशिष्ट्यों पर प्रकाश पड़ता है जिससे उनके प्रकाण्ड पाण्डित्य का स्वयमेव सत्यापन हो जाता है। पण्डितराज जगन्नाथ का एक समुद्धरणीय वैशिष्टय यह भी है कि जहाँ अन्य काव्य शास्त्रियों ने अपने ग्रन्थों में स्वकृत सिद्धान्तों की पुष्टि के लिए दूसरे कवियों की रचनाओं के उदाहरणों के रूप में प्रस्तुत किया है वहीं पण्डितराज ने गर्व पूर्वक यह उद्घोष करते हुए-‘किं सेव्यते सुमनसां मनसाऽपि गन्धः कस्तुरिकाजनन शक्तिभृता मृगेण” यह डिण्डिम घोष किया है कि इस ग्रन्थ में मैने स्वकृत पद्यों की रचना कर उनका यथास्थान विनिवेश किया है, परकीय उदाहरणों को छुआ भी नहीं है। इससे इनकी काव्य प्रतिभा का वैशिष्ट्य द्विगुणित हो उठता है। उदाहरण भी सामान्य नहीं हैं। सुलललित सुचिन्तित सरस उदाहरणानुकूल रम्य प्रस्तुतियाँ हैं जो सिद्धान्त पक्ष के अनुसार विल्कुल सटीक खरी उतरती है।

जीवनवृत्तः

पण्डितराज जगन्नाथ तैलङ्ग बाह्मण थे। २ इनका जातीय उपनाम वेङ्गिनाट्ट अथवा वेल्लनाडु था जिसे वेल्लनाटीय या वेङिगनाटीय भी कहा जाता था। काशी में इनकी व इनके पिता की शिक्षादीक्षिा हुई थी, अतः काशी ही इनकी सारस्वत साधना की उत्सभूमि थी।’ पण्डितराज के पिता का नाम पेरुभट्ट या पेरमभट्ट व माता का नाम लक्ष्मी था। पेरुभट्ट महान विद्वान थे। उन्होंने ज्ञानेन्द्रभिक्षु नामक विद्वान यति से वेदान्तशास्त्र महेन्द्र पण्डित से न्याय और वैशेषिक शास्त्र खण्डदेवोपाध्याय से पूर्व मीमांसाशास्त्र व शेषवीरेश्वर या शेष श्रीकृष्ण से व्याकरण महाभाष्य की शिक्षा प्राप्त की थी। इसके अतिरिक्त वे अन्य सभी शास्त्रों व विद्याओं में भी पारङ्गत थे जैसा कि रसगङ्गाधर के सर्वविद्याधरः पद से सूचित होता है। अपने पिता के प्रकाण्ड पाण्डित्य की प्रंशसा उन्होंने उनके द्वारा स्व पण्डित्य के १. रसगङ्गाधर, प्रथमानन श्लोक ६ २. तत्रैव तैलङ्गान्वयमङ्गलालयमहालक्ष्मीदयालालितः, प्राणा. जगदा ५३। ख. तैलगकुलावतंसेन पण्डितजगन्नाथेन आ.वि. अन्तिम गद्यांश। ४. श्री तैलङ्गवेगिनाटीयकुलोद्भव श्रीपण्डितराज जगन्नाथ निर्मिता आ.वि.समापिका पक्ति। ५. रसगङ्गाधर प्रथमानन श्लो.२ तैलङ्गान्वयमङगलालयमहालक्ष्मीदयालालितः। श्रीमत्परमभट्टसुनुरनिशं विद्वल्ललाटं तपः।। प्राणा, जगदा.५० श्रीमज्ज्ञानेन्द्रभिक्षोरधिगतसकलब्रह्मविद्याप्रपञ्चः, काणादीराक्षपादीरपि गहनगिरो यो महेन्द्रा-दवेदीत। देवादेवाध्यगीष्ट स्मरहरनगरे शासनं जैमिनीयं, शेषाङ्कप्राप्तशेषामलभणितिरभूत सर्वविद्याधरो यः। रसगङ्गाधर प्रथमानन श्लोक-२ ८. “अभूत् सर्वविद्याधरो यः” र.ग.घ. प्रथमानन श्लोक-२ ; ३४२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र बल पर पत्थरों से भी अमृत सावित करा सकने की क्षमता के रूप में वर्णित की है।’ __ पण्डितराज ने अपने सर्वविद्याविशारद पिता से ही सभी विषयों की शिक्षा प्राप्त की थी और पिता की ही भाँति सर्वशास्त्रनिष्णात हुए। अपने ग्रन्थ ‘मनोरमाकुचमर्दन’ में ‘अस्मद्गुरु वीरेश्वरपण्डितानां’ कह पर पण्डित शेष वीरेश्वर को इन्होंने अपना गुरु बतलाया है। इससे ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने पिता के अतिरिक्त शेष वीरेश्वर से भी व्याकरण की शिक्षा प्राप्त की होगी। पण्डितराज स्वयं भी प्रकाण्ड विद्वान् थे। वेद-वेदान्त न्याय-वैशेषिक, मीमांसा, व्याकरण, नीति व साहित्यदि विविध शास्त्रों के वे प्रगाढ पण्डित थे। उनकी कृतियाँ इसका प्रत्यक्ष निदर्शन हैं। इसके अतिरिक्त इन्हें सङ्गीतशास्त्र का भी उत्तम ज्ञान था। मुगलकालीन इतिहासग्रन्थ इसके प्रमाण हैं। मुगल इतिहासकारों ने उन्हें ‘जगन्नाथ कलावन्त’ प ‘जगन्नाथ राय महाकवि त्रिशूली’ नामों से अभिहित करते हुए ‘कविराय’ व ‘कलावन्त’ अर्थात कवि और सङ्गीतकार दोनों रूपों में वर्णित किया है। मुंशी देवी प्रसाद के शाहजहाँनामा के अनुसार हिन्दुस्तानी शायरी व गान विद्या में उस समय उनकी बराबरी का कोई नहीं था। इसी विद्वता के कारण उन्हें शाही आश्रय प्राप्त हुआ था और पण्डितराज की उपाधि प्राप्त हुई थी। सम्राट शाहजहाँ का ज्येष्ठपुत्र दारांशिकोह पण्डितराज का प्रिय शिष्य था। उसके संस्कृतानुरागी होने की बात तो सर्वप्रसिद्ध ही है। कहा जाता है कि पण्डितराज की प्रेरणा से ही उसने सूफी रहस्यवाद व हिन्दू दर्शन का समन्वय करते हुए ‘मज्म उल बहरैन’ नामक पुस्तक लिखी, जिसका संस्कृत में समुद्र सङ्गम नाम से अनुवाद प्राप्त होता है। इसके विषय में अनुमान है कि इसकी रचना दारा के नाम से पण्डितराज ने ही की है। इसके अतिरिक्त संग्राम सार रसरहस्य आदि ग्रन्थों के निर्माता जयपुर नरेश रामसिंह प्रथम के | १. पाषाणादपि पीयुषं स्यन्दते यस्य लीलया। तं वन्दे पेरुभट्टारव्यं लक्ष्मीकान्तं महागुरुम्।। तत्रैव श्लोक-३ २. मनोरमाकुचमर्दिनी, पृ-१ इति महामहोपाध्यायपदवाक्यप्रमाणपारीण तैलङ्गकुलावंतस श्री परमभट्टसूरेस्तनयने…प्राणा., जगदा. समापिका पङ्क्ति ४. शाहजहाँनामा, सम्पा सिंह,राणावत पृ.६२ मुगलसम्राट शाहजहाँ सक्सेना पृ. २८० ५. शाहजहाँनामा, सम्पा सिंह,राणावत पृ. ६२ श्री सार्वभौमसाहिजहान प्रसादाधिगतपण्डितराजपदवीविराजितेन….आसफ विलास अन्तिम गद्यांश एवं शाहजहाँनामा पृ. ६२ दाराशिकोह, लाइफ एण्ड वर्क्स, विक्रमजीत हसरत पृ.२१३-१५ ८. समुद्र सङ्गम, भोलाशङ्करव्यास, परिचय, पृ.६,७ ६. समुद्र सङ्गम, भोलाशकरव्यास, परिचय, पृ.६,७ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘पं.रा. जगन्नाथ’ ३४३ आश्रित’ ब्रज भाषा के सुप्रसिद्ध कवि कुलपति मिश्र इनके शिष्य थे। भाषाकवि चिन्तामणि त्रिपाठी, मारवाड़ के राजा गजसिंह के पुत्र जसवन्त सिंह, राव छत्रसाल के पुत्र भावसिंह और राजा जयसिंह के पुत्र राजकुमार रामसिंह भी इनके शिष्य बतलाए जाते हैं

राज्याश्रयत्व

इस प्रकार पण्डितराज शाहजहाँ के आश्रित मुख्य हिन्दू संस्कृतज्ञ दरबारी कवि थे। उन्हें तत्कालीन युग के विद्वानों में सर्वाकि भाग्यशाली कहा जा सकता है, क्योंकि अपनी युवावस्था में ही उन्होंने सकल शास्त्रावगाही विमलविद्या के प्रभाव से तत्कालीन बादशाह शाहजहाँ की कृपा पात्रता प्राप्त कर ली व उनसे पण्डितराज की उपाधि प्राप्त कर साहित्याराधना में तल्लीन रहते हुए अपनी अवस्था सुखपूर्वक व्यतीत की। पुनश्च रसगङ्गाधर में एक श्लोक हैं जिसमें नूरदीन के शौर्य व शैन्यबल की प्रशंसा की गई है। ५ नूरदीन शाहजहाँ के पिता नूरुदीन मुहम्मद जहाँगीर का पूरा नाथ था। यद्यपि जहाँगीर के राज्याश्रित कवियों की सूची में पण्डितराज का नाम नहीं मिलता व विद्वानों के एक मत के अनुसार इस श्लोक में कवि ने अपने आश्रयदाता शाहजहाँ के पिता की प्रशंसा की है तथापि मुगल बादशाहों की स्व प्रशंसाकुल मनोवृत्ति को देखते हुए यह कहा जा सकता है व श्लोक का भाव भी इस तथ्य की पुष्टि करता है कि इसमें कवि ने अपने तत्कालीन आश्रयदाता जहाँगीर की प्रशंसा की है, शाहजहाँ के पूर्वज पिता की प्रशंसा नहीं। इस आधार पर यह सम्भावना की जा सकती है कि पण्डितराज के आगरा में सर्वप्रथम किसी हिन्दू मनसबदार व संरक्षण प्राप्त किया होगा व उसी के माध्यम से जहाँगीर के राज्यकाल के अन्तिम वर्षों में कुछ एक अवसरों पर दरबार में काव्य पाठ कर चुके होंगें किन्तु बदलती राजनैतिक परिस्थितियों के कारण वहाँ पर स्थायी न हो पाए होंगे तथा उत्तराधिकार के लिये संघर्ष शुरू होने पर आगरा से प्रस्थान कर उदयपुर पहुँचे होंगे। पण्डितराज को आसफ खाँ का भी आश्रय प्राप्त था जो क्रमशः साम्राज्ञी नूरजहाँ के भाई व मुमताज के पिता अतः जहाँगीर के साले व शाहजहाँ के श्वसुर थे। उनकी आसफ A SARDA 6M * युक्ति तरङ्गिणी, कुलपति मिश्र दो सं. १८-२३ उद्धृत-आचार्य कुलपति मिश्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डा. विष्णुदत्त शर्मा राकेश पृ.६९-७० समुद्र संगम व्यास, पृ. ७२ दिल्लीवल्लभपाणिपल्लवतले नीतं नवीनं वयः।भामिनी विलास, शान्तविलासश्लो-३२ श्री सार्वभौमसाहिजहाँनप्रसादाधिगतपण्डितरायपदवीविराजितेन आसफविलास, अन्तिमगद्यांश श्यामं यज्ञोपवीतं तव किमिति मषीसंगमात् कुत्रजातः, सोऽयं शीतांशुकन्यापयसि कथमभूत्तज्जलं कज्जलाक्तं । व्याकुप्यन्नूनदीनक्षितिरमणरिपुक्षोणिभृत्पक्ष्मलाक्षीलक्षाक्षीणाश्रुधारासमुदितसरितां सर्वतः संगमेन।। हिन्दी रसगङ्गाधर तृ. भा पृ१.३६५ ६. मुगल सम्राट शाहजहाँ, बनारसी प्रसाद सक्सेना, पृ. ६, ४४, ६०, ६१, २८८ हिस्ट्री ऑफ जहाँगीर बेनीप्रसाद पृ. १६१-१६२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र विलास आख्यायिका इसका प्रमाण है। आसफ खाँ स्वयं उत्कृष्ट विद्वान् व कलाप्रेमी तथा विद्वानों व कालाकारों का सम्मान करने वाले थे। जहाँगीर व शाहजहाँ दोनों के ही राज्य काल में उन्हें महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। अतः एक आश्रयान्वेषी कवि का कलापारखी आसफ का आश्रय प्राप्त करना व उनकी प्रशंसा करना स्वाभाविक है। आसफ विलास आख्यायिका में उनकी प्रशंसा में उपमानों की झड़ी लगा देना व रसगङ्गाधर के श्लोकों में की गई प्रशंसा से स्पष्ट है कि ये आसफ खाँ के प्रिय पात्र थे। पण्डितराज का एक काव्य जगदाभरण उदयपुर के राणा जगतसिंह की. प्रशंसा में रचित है। इस आधार पर इनका इस राणा के राज्यकाल में कुछ दिन का निवास ज्ञात होता है। जगतसिंह का शासनकाल १६२८ से १६५४ ई. तक है, अतः यह सम्भावना की जा सकती है कि जहाँगीर के पुत्रों में उत्तराधिकार का संधर्ष छिड़ जाने पर पण्डितराज परिस्थितियों सुचारू न समझ कर आगरा से प्रस्थान कर भ्रमण करते उदयपुर नरेश के यहाँ पहुँचे होंगें। परिस्थतियों के अनुकूल होने पर पुनः मुगल दरबार पहुँचे होंगे। पण्डितराज का एक खण्डकाव्य प्राणाभरण है, जो कूचविहार के राजा प्राणनारायण की प्रशस्ति में निबद्ध है। इससे ज्ञात होता है कि इन्हें कुछ समय के लिए प्राण नारायण का भी आश्रय प्राप्त था और ये उनके कृपा पात्र रहे। प्राण नारायण कूचविहार का एक बहुत बहादुर, योग्य व कुशल प्रशासक था। उसने तैतीस वर्षों तक सन् १६३३ ई. से १६६६ ई. तक शासन किया। यह उसकी महत्वाकाङ्क्षा ही थी कि सन् १६५७ में शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का संघर्ष छिड़ने पर उसने अपने आपको स्वतन्त्र घोषित कर लिया व सात वर्षों तक स्वतन्त्रता का उपभोग किया। इन तथ्यों को देखते हुए यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि सत्ता के संघर्ष में अपने हितैषी दारा के पराजित होने व हिन्दू धर्म दर्शन के कट्टर विरोधी औरङ्गजेब के सत्तानशीन होने पर वे उसकी कोप दृष्टि से वचने सुदूर आसाम पहुँचे होंगे व फिर परिस्थितियों के अनुकूल होने पर बनारस लौट आए होंगे।

अन्तिम अवस्थाः

पण्डितराज की अन्तिम अवस्था बहुत सुखमय नहीं बीती। प्रतीत होता है कि वैभवमय-राजसी आश्रय से दलित हमारे कवि को इसी समय अपने पैतृक नगर काशी के जातिवादी कट्टार ब्राह्मणों के द्वेष का भाजन होना पड़ा, जिसका कारण सम्भवतः उनका RENDORE १. मुगल सम्राट शाहजहाँ, बनारसी प्रसाद सक्सेना, पृ. ६, ४४, ६०, ६१, २८८ हिस्ट्री ऑफ जहाँगीर बेनीप्रसाद पृ. १६१-१६२ २. आसफविलास, चतुर्थ गद्यांश ३. सुधेव वाणी वसुधेव मूर्तिः सुधाकरश्री सदृशीच कीर्तिः। पयोधिकल्पा मतिरासफेन्दोर्महीतलेऽन्यस्य नहीति मन्ये।। रसगङ्गाधर ,द्वि आनन प्र. भा. पृ. २४८ । शारदातनय से अच्युतराय तक ‘पं.रा. जगन्नाथ’ ३४५ यवनी संसर्ग रहा होगा। इसका प्रमाण हैं, उनकी वे दर्द भरी अन्योक्तियाँ जिनमें इस विद्वेष की अभिव्यञ्जना हुई है।’

किंवदन्तियाँ

पण्डितराज से सम्बन्धित कई किंम्वदन्तियाँ जनमानस में अत्यधिक प्रचलित हैं। लेकिन प्रबुद्ध वर्ग में इनकी सत्यता और असत्यता को लेकर विभिन्न धारणाएँ हैं। ये किम्वदन्तियाँ मुख्यतः दो प्रकार की हैं १. मुगल सुन्दरी लवङ्गी से प्रणय सम्बन्ध विषयक किंवदन्तियाँ २. अप्पय दीक्षित व भट्टोजिदीक्षित से संबंधित वैमनस्य एवं समकालिकता विषयक किंवदन्तियाँ। मुगलसुन्दरी लवङ्गी से प्रणय सम्बन्ध विषयक किंवदन्तियाँ: पण्डितराज के किसी लवङ्गी नाम मुगल सुन्दरी के प्रेमपाश में आबद्ध होने से सम्बन्धित कई किंवदन्तियाँ जनमानस में अत्यधिक प्रचलित हैं। कट्टर रूढ़िवादी पण्डितों के अनुसार ये कथाएँ ऐतिहासिक सत्य मानी जाती हैं, जबकि आधुनिक विद्वान् इन्हें काल्पनिक कहकर अप्रामाणिक ठहराते हैं। किंवदन्ती है कि शाहजहाँ की कृपापात्र पण्डितराज एक बार उनके साथ शतरंज खेल रहे थे, तभी बादशाह को प्यास लगी। उनकी खास परिचारिका लवङ्गी सिर पर पानी की झारी लिए उपस्थित हुई। पण्डितराज उसके अनुपम सौन्दर्य को देखकर हतप्रभ हो उठे। वह बाला भी उन्हें मुग्ध हो निहारने लगी। तभी बादशाह की दृष्टि उस ओर गई और उन्होंने उसकी खूबसूरती पर कुछ सुनाने का आग्रह किया। पण्डितराज ने उसका सुन्दर चित्रण किया। शाहंशाह बाग-बाग हो उठे और स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि पण्डितराज शाहशाह से लवङ्गी को ही माँग बैठे। बादशाह ने अपना कौल पूरा किया। पण्डितराज अपनी इस परिणीता के साथ सुखपूर्वक रहने लगे। पुनः शाहजहाँ के पुत्रों में सत्ता के लिए संघर्ष शुरू होने पर वैभवशाली सम्राट स्वयं अपने पुत्र औरंगजेब द्वारा बन्दी बना लिया गया। अतः ऐसे माहौल में पण्डितराज के लिए शाही दरवाजे बन्द हो गये। वे अपनी परिणीता के साथ काशी लौटे। यहाँ कट्टर ब्राह्मण समाज व अप्यय्य दीक्षित आदि उनके साहित्यिक विरोधियों ने यवनी संसर्ग से दूषित कहकर उनका कड़ा विरोध किया। उन्हें लवङ्गी का परित्याग कर प्रायश्चित करने पर पुनः जाति में ले लेने का प्रस्ताव किया गया, किन्तु वे अपने समग्र यौवनकाल की सहचरी लवङ्गी का त्याग किसी भी मूल्य पर करने १. प्रास्ताविक विलास, श्लोक २, ६, ८, ६, ४४, ४६, ६० शान्त विलास, श्लोक २८, ३३, ४३, ४४ २. इयं सुस्तनी हस्तविन्यस्त कुम्भा कुसुम्मा रूणं चारुचैलं दधाना। समस्तस्य लोकस्य चेतः प्रवृत्तिं गृहीत्वा घटे न्यस्य यातीव भाति।।३४६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र को तैयार नहीं हुए। उन्होंने गङ्गा को साक्षी बनाकर अपनी पवित्रता की दुहाई दी। विद्वानों ने निर्णय दिया कि इस समय गङ्गा पंचगङ्गा घाट की ५२ पैढ़िया नीचे बह रही हैं यदि पण्डितराज उन्हें अपने ब्राह्मणत्व के बल पर ५२ सीढ़ी ऊपर बुला दे तो उन्हें जाति में ले लिया जाय। पण्डितराज ने इसे स्वीकार कर लिया। लवगी को गोद में बैठाकर उन्होंने भगवती गंगा को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करनी प्रारम्भ की। उनके मुख से एक के बाद एक निकलते श्लोकों से गंगा का पानी एक-एक सीढ़ी ऊपर चढ़ने लगा। असंख्य नर-नारी इकट्ठा हो गये। बावन श्लोक समाप्त होने पर गंगा बावन सीढ़ियाँ चढ़ी व उन्होंने कवि के चरण धो दिए। तिरपनवा श्लोक यवनी लवङ्गी ने पढ़ा सुरथुनिमुनिकन्ये पुण्यवन्तं पुनासि स तरति निजपुण्यैस्तत्र किं ते महत्वं । यदिह यवनजातां पापिनी मां पुनासि तदिह तव महत्त्वं तन्महत्त्वं महत्त्वम्।। श्लोक पूरा होते ही गंगा का नीर उमड़ने लगा और पण्डितराज तथा उनकी पत्नी को उसने अभ्यङ्ग स्नान कराया। कट्टर ब्राह्मणों के मुँह काले पड़ गये। कहीं यह भी कहा जाता है कि गंगा की लहरे पण्डितराज व उसकी पत्नी को अपने साथ बहा ले गईं। इस किंवदन्ती की समीक्षा करने पर ज्ञात होता है कि यह किंवदन्ती गंगा लहरी की अठारहवीं शती के अन्तिम भाग में भी लिखित पाण्डुलिपियों में भी उल्लिखित हैं इस कारण इसे पूर्णतया काल्पनिक नहीं ठहराया जा सकता। पुनश्च पण्डिराज के श्लोकों की अन्त्यानुप्रासमयी भाषा शैली का लवङ्गी की याचना से सम्बन्धित श्लोकों से अद्भुत साम्य है। इसे देखते हुए यह कहा जा सकता हैं कि विलासिता के आगार मुगल दरबार में रहते हुए पण्डित राज का किसी मुगल रमणी से प्रणय सम्पर्क हो गया और इसी सम्पर्क के फलस्वरूप उन्हें जातिवादी कट्टर ब्राह्मणों के आक्रोश का शिकार बनना पड़ा। __ अप्पय दीक्षित, हरिदीक्षित, भट्टोतिदीक्षित से वैमनस्य एवं समकालिकता विषयक किंवदन्तियाँ: पण्डितराज ने रसगङ्गाधर एवं चित्रमीमांसा खण्डन में अप्पय दीक्षित की, मनोरमा कुचमर्दन एवं शब्दकौस्तुभशाणोत्तेजन में भट्टोजिदीक्षित की कड़ी आलोचना की है। इस आलोचना में व्यक्तिगत आक्षेप एवं कटुता है। अतः इसे देखते हुए यह सम्भावना की जाती है कि पण्डितराज व अप्पय दीक्षित तथा भट्टोजी दीक्षित समसामयिक थे और इनमें परस्पर १. प्रास्ताविकविलास, श्लोक ३, शान्तविलास श्लोक १,३,७ करुणविलास श्लोक ६, अवशिष्ट अन्योक्तियाँ ४०, १७२, ५८२, ५८५ लक्ष्मी लहरी श्लोक ३६ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘पं.रा. जगन्नाथ’ ३४७ कड़ा विरोध था। इसी प्रकार में यह कहा जाता है कि यवनी संसर्ग के कारण अप्पय दीक्षित ने पण्डितराज का बड़ा तिरस्कार किया था और इन्हें जाति बहिष्कृत कर दिया था। इस किंवदन्ती की समीक्षा करने से पहले इस तथ्य का विवेचन आवश्यक है कि पण्डितराज अप्पय के समकालिक थे अथवा नहीं। अप्पय के जीवन काल के विषय में मुख्यतया दो प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित हैं। इनके अनुसार अप्पय का जन्म ई. सन् १५२० से १५६२ ई. तक या १५५३ से १६२६ ई. के मध्य माना जाता है। इनमें प्रथम मान्यता के अनुसार तो पण्डितराज का अप्पय से किसी भी प्रकार का समकालत्व सिद्ध नहीं होता इसके विपरीत द्वितीय मत स्वीकार करने पर ज्ञात होता है कि अप्पय जगन्नाथ से आयु में बहुत बड़े थे फिर भी वे कुछ समय के लिये उनके समकालीन अवश्य रहे। किन्तु इस सामयिकता को वास्तविक सामयिकता नहीं कहा जा सकता क्योंकि सामयिकता का वास्तविक तात्पर्य समान रचनाकाल है। चूंकि पण्डितराज का प्रारम्भिक जीवन सन् १५६० से १६२० ई. के मध्य निर्धारित किया गया है पुनः मुगल दरबार में उनका प्रवेश जहाँगीर के राज्यकाल के अन्तिम कुछ वर्षों यानि १६२२ ई. के आसपास माना गया है। वहाँ भी वे स्थायी न हो पाये थे और कुछ अवसरों पर ही उन्हें काव्य पाठ का अवसर मिला होगा। सन् १६२७-२८ ई. के लगभग वे उदयपुर के राणा के दरबार में स्थानान्तरित हो गये थे। अतः उस समय तक उनका किसी यवनी से सम्पर्क होना सम्भव नहीं लगता। इस आधार पर अप्पय द्वारा पण्डितराज को यवनी संसर्ग से दूषित कहकर जाति बहिष्कृत कर देने की बात भी स्वयमेव खण्डित हो जाती है। इसके अतिरिक्त १६२० ई. तक विद्योपार्जन समाप्त करने वाले पण्डितराज के सन् १६२६ तक पूर्ण परिष्कृत विद्वान् के रूप में प्रस्थापित हो जाने व अप्पय के जीवित रहते ही रसगङ्गाधर की रचना कर उसमें उनकी आलोचना करने में किसी पारस्परिक विरोध की कल्पना भी असंगत लगती है। पण्डितराज ने ‘मनोरमाकुच मर्दन’ एवं शब्द कौस्तुभशाणोत्तेजन’ में भट्टोजिदीक्षित की कड़ी आलोचना की है। किंवदन्ती भी है कि भट्टोजि दीक्षित ने विद्वानों की सभा में यवनी संसर्ग के कारण पण्डितराज को म्लेच्छराज की उपाधि दी थी। पण्डितराज ने इस अपमान - का बदला लेने के लिए एवं उनके द्वारा दी गयी इस उपाधि की सत्यता दिखाने के लिए भट्टोजि की मनोरमा (प्रौढ़ मनोरमा) का कुचमर्दन (खण्डन) किया। १. हिन्दी रसगङ्गाधर, भमिका पृ. न.-४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ३४८ यह किंवदन्ती भी विचार करने पर सत्य सिद्ध नहीं होती। कारण पण्डितराज ने मनोरमा कुचमर्दन की प्रास्तावित पंक्तियों में ही यह स्पष्ट उल्लेख किया है कि इस ग्रन्थ की रचना उन्होंने गुरु द्रोहियों का द्रोह शान्त करने के लिये की है। उनका यह भी वक्तव्य है कि यद्यपि उनके गुरु वीरेश्वर के पुत्र शेष श्रीकृष्ण के पौत्र द्वारा इस द्रोह का शमन किया जा चुका है फिर भी वे अपनी बुद्धि के परीक्षार्थ उसका पुनरीक्षण कर रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थ की रचना गुरु द्रोहियों के गर्व के शमन के लिए हुई थी, म्लेच्छराज की पदवी को सत्य सिद्ध करनेके लिये नहीं। ‘शब्दकौस्तुभशाणोत्तेजन’ की रचना का कारण भी उन्होंने अप्पय के दुराग्रह से मूर्छित बुद्धि वाले गुरुद्रोहियों के गर्व का शमन बतलाया है अप्पय्यदुर्ग्रहविचेतितचेतनानामार्यद्रुहामयमहं शमयेऽवलेपान्’ __इस गुरुद्रोह की पृष्ठ भूमि भी विवेचनीय है। इसकी कथा कुछ इस प्रकार है- शेष श्रीकृष्ण काशी के लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान थे। उनके शेष वीरेश्वर नामक पुत्र और भट्टोजि दीक्षित नामक शिष्य थे। शेष श्री कृष्ण ने प्रक्रिया कौमुदी पर प्रक्रिया प्रकाश नामक टीका की रचना की थी। भट्टोजि दीक्षित ने भी ‘सिद्धान्त कौमुदी’ नामक ग्रन्थ लिखा और उस पर ‘प्रौढ़ मनोरमा’ नामक टीका लिखी। इस टीका में उन्होंने अपने गुरु शेष श्रीकृष्ण के प्रक्रिया में उद्धृत विचारों की आलोचना की व इस गुरु परम्परा का त्याग कर दक्षिण यात्रा के समय अप्पय का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। पण्डित राज व उनके पिता उसी गुरु परम्परा से सम्बद्ध थे; जिसका अप्पय ने परित्याग किया था। फलतः गुरु अपमान से क्रुद्ध पण्डितराज ने भट्टोजि व उनके पश्चाद्वर्ती गुरु की अच्छी खबर ली।

पण्डितराज का समयः

पण्डितराज ने अपनी रचनाओं में दिल्लीश्वर’, दिल्ली नरपति’, दिल्ली धराबल्लभ दिल्ली बल्लभ आदि उपाधियों के अतिरिक्त पाँच आश्रयदाताओं का स्पष्टतया नामोल्लेख किया है और उनकी प्रशस्ति में काव्य रचना की है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि पण्डितराज इन राजाओं के समय में विद्यमान थे और इनके सम्पर्क में भी रहे। इन राजाओं का राज्यकाल इतिहासकारों द्वारा असंदिग्ध रूप में निर्णीत है १. नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर-शासन ! १६०५ से सन् १६२७ तक २. शाहजहाँ शासन् सन् १६२८ से १६५८ ई तक Dhe TANTRYATRENA PRATALARS H Ish १. हिन्दी रसगङ्गाधर चतुर्वेदी, भूमिका, पृ. प २. पण्डितराज काव्य संग्रह, सम्पा,आर्येन्द्र शर्मा, श्लोक ५/६ पण्डितराज काव्य संग्रह, सम्पा,आर्येन्द्र शर्मा,श्लोक २/२ ४. पण्डितराज काव्य संग्रह, सम्पा,आर्येन्द्र शर्मा,श्लोक ५, १५ ५. पण्डितराज काव्य संग्रह, सम्पा, आर्येन्द्र शर्मा, श्लोक ३२ । शारदातनय से अच्युतराय तक पं.रा. जगन्नाथ’ ३४६ ३. आसफ खाँ-नूरजहाँ का भाई व मुमताज महल का पिता तथा सर्वश्रेष्ठ सामन्त जो सन् १६४१ ई. में मरा। ४. उदयपुर के राणा जगतसिंह-सन् १६२८ से १६५४ ई. तक ५. काम रूप के राजा प्राणनाराण-सन् १६३३ से १६६६ ई तक पण्डितराज शाहजहाँ के आश्रित मुख्य हिन्दू संस्कृतज्ञ दरबारी कवि थे। उससे उन्हें पूर्ण सम्मान व राज्याश्रय प्राप्त था तथा पण्डितराज की उपाधि भी प्राप्त हुई थी। अतः यह कहा जा सकता है कि दिल्लीश्वर आदि की उपाधियाँ मुख्यतः शाहजहाँ की ओर संकेत करती है। इन सभी आश्रयदाताओं की तिथियों के आधार पर यह स्वीकार किया जा सकता है कि पण्डितराज का राज्याश्रय में व्यतीत साहित्य रचना काल सन् १६२२ ई. से १६६५ ई. के मध्य रहा। पण्डितराज के समग्र जीवन व उनके रचनाकाल की गतिविधियों को इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है १. प्रारम्भिक जीवन सन् १५६० से १६२० ई. के मध्यः-पण्डितराज के जन्म से लेकर विधोपार्जन तक के प्रारम्भिक जीवन को सन् १५६० ई. से १६२० ई. के मध्य रखा जा सकता है। इसकी पुष्टि में उनका स्वयं का यह वक्तव्य है कि-दिल्लीबल्लभपाणिपल्लवतले नीतं नवीनं वयः’ यहाँ नवीन वयस् से २५ से ५० वर्ष के मध्य तक की आयु को लिया जा सकता है। यह स्वाभाविक ही है कि दिल्ली बल्लभ की छत्रछाया में प्रवेश पाने के पूर्व वे समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर परिष्कृत विद्वान् हो गये होंगे। चूँकि पण्डितराज ने एक श्लोक में नूरुदीन मुहम्मद जहाँगीर की प्रशंसा की है; अतः इस आधार पर मुगल दरबार में उनका प्रवेश जहाँगीर के राज्यकाल के अन्तिम वर्षों यानि सन् १६२२ ई. के लगभग माना गया है। इस आधार पर १५६०-६५ ई. के मध्य उनकी जन्मतिथि का अनुमान करने पर जहाँगीर के राज्यकाल में उसके राजदरबार में प्रवेश के समय उनकी अवस्था २७ से ३२ वर्ष के मध्य मानी जा सकती है। पुनः शाहजहाँ के दरबार में प्रवेश के समय उनकी अवस्था ३५ से ४२ वर्ष के मध्य नवीनावस्था या मध्यायु ही रही होगी। २. जहाँगीर के दरबार में सन् १६२२ से १६२७ ई. के मध्यः-जहाँगीर के दरबार में उनका निवास उसके राज्यकाल के अन्तिम वर्षों यानि सन् १६२२ ई. से १६२७ ई. के मध्य रहा होगा। १. भामिनी विलास, शान्तविलास श्लोक-३२ ३५० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ३. उदयपुर के राणा जगतसिंह के दरबार में सन् १६२८ से १६३२ के मध्यः उदयपुर के राण जगतसिंह के दरबार में सन् १६२८ ई. से १६३२ ई. के मध्य एक दो वर्षों के लिये रहे होंगें।. शाहजहाँ के दरबार में यनफ १६३२ से १६५८ ई. तकः-शाहजहाँ के दरबार में उनका प्रवेश सन् १६३२ के आसपास माना जा सकता है। ऐतिहासिक तथ्यों से ज्ञात होता है कि पण्डितराज सन् १६३४ तक शाही दरबार में पूर्ण परिष्कृत विद्वान् के रूप में स्थापित हो चुके थे। देवी प्रसाद के शाहजहाँ नामें के अनुसार २२ रवी उस सानी (कार्तिक बदी १=५ अक्टूबर १६३४ ई.) को मुकाम भंवर में जगन्नाथ कलावन्त को कपिराय की उपाधि देकर सम्मानित किया गया। इस समय उन्हें सोने से भी तौला गया।’ अतः यह सम्भव है कि सन् १६३४ तक शाहजहाँ के कृपापात्र के रूप में स्थापित हो जाने वाले पण्डितराज का मुगल दरबार में प्रवेश सन् १६३२ के आसपास अवश्य हो गया होगा। शाहजहाँ के सत्ताच्युत होने तक वे मुगलदरबार में ही रहे। ५. कूचविहार के राजा प्राणनारायण के दरबार में सन् १६५६ से १६६४ ई के मध्य तकः-उत्तराधिकार संघर्ष के बाद वे सम्भवतः दो तीन वर्ष तक १६५६ से ६४ ई. के मध्य औरंगजेब की कोप दृष्टि से बचने हेतु प्राणनारायण के दरबार में रहे। ६. वाराणसी में सन् १६६५ से १६७० के मध्यः-अपनी अन्तिम अवस्था उन्होंने वाराणसी में बिताई व इसी समय कुछ काल के लिए मथुरा प्रवास किया। अन्य प्रमाणः इसके अतिरिक्त कतिपय अन्य प्रमाण की पण्डितराज का काल निर्धारण करने में सहायता देते हैं। ये इस प्रकार है १. नागेश भट्ट ने रसगङ्गाधर पर अपनी प्रसिद्ध टीका ‘गुरूमर्मप्रकाश’ लिखी है। वे सत्रहवीं शती के अन्त व अठारहवीं के पूर्वार्द्ध में विद्यमान थे। इस तथ्य की पुष्टि राजा जयसिंह द्वारा करवाए गए अश्वमेघ यज्ञ के दृष्टान्त से भी होती है। यह अश्वमेघ यज्ञ सन् १७४४ ई. में हुआ था व इस अवसर पर नागेशभट्ट को यज्ञ का संचालन करने हेतु निमन्त्रण दिया गया था। नागेश उस समय शृङ्गवेरपुर के राजा रामराज के आश्रयत्व में बनारस में गङ्गा तट पर रह रहे थे। उन्होंने काशी छोड़कर अन्यत्र कहीं न जाने की प्रतिज्ञा कर रखी थी। फलतः उन्होंने उत्तर दिया-‘अहं क्षेत्रसन्यासं गृहीत्वा काश्यां स्थितोऽस्मि अतस्तां परित्यज्य अन्यत्र गन्तुं न शक्नोमि।’ फलतः उन्होंने यज्ञ की अधिष्ठातृता नहीं की। नागेश जगन्नाथ से दो पीढ़ियों के उपरान्त हुए जैसा कि निम्नलिखित तालिकाओं से स्पष्ट है Mohanding १. शाहजहाँनामा, सम्पा. सिंह, राणावत पृ. ६१-६२ २. भामिनी विलासः बी.जी. बाल, भूमिका पृ. ३ ३५१ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘पं.रा. जगनाथ’ शेष श्रीकृष्ण भट्टोजि दीक्षित (शिष्य) शेष वीरेश्वर (पुत्र व शिष्य) वीरेश्वर दीक्षित (पुत्र व शिष्य) पण्डितराज जगन्नाथ (शिष्य) हरिदीक्षित (पुत्र व शिष्य) नागेश भट्ट (शिष्य) वत्सराज (शिष्य) इसके अनुसार नागेश भट्ट से दो पीढ़ी पहले विद्यमान जगन्नाथ पण्डितराज की तिथि नागेश भट्ट के काल से ५० साल पहले रहनी चाहिए। इस आधार पर यहाँ पण्डितराज जगन्नाथ के सम्भावित रचनाकाल (सन् १५६०-१६७०) के साथ इसकी कोई असंगति नहीं लगती। २. एक अन्य दृष्टिकोण से भी पण्डितराज जगन्नाथ की यही तिथि निश्चित होती है। पण्डितराज ने सिद्धान्त कौमुदी पर भट्टोजिलिखित ‘प्रौढ़ मनोरमा’ की आलोचना करने के लिए :मनोरमा कुचमर्दन’ की रचना की। प्रौढ़मनोरमा की एक प्रतिलिपि (बी.ओ.आर. आई. सं.-६५७, १८८३-८४ डी.सी. संग्रह) की तिथि संवत् १७१३ अथवा १६५६-५७ ई. सन् है। भट्टोजि दीक्षित के एक अन्य ग्रन्थ शब्द कौस्तुभ की एक प्रतिलिपि सन् १६३३ ई. सन् है। भट्टोजि के गुरू नृसिंहाश्रम ने अपने ‘तत्त्वविवेक’ की रचना १५४७ ई. में की जबकि भट्टोजि के शिष्य नीलकण्ठ शुक्ल ने शब्दशोभा की रचना १६३७ ई. में की। इस आधारपर भट्टोजि का साहित्य रचना काल १५८० से १६३० ई. के बीच माना जा सकता है। चूँकि भट्टोजि शेष श्रीकृष्ण के शिष्य थे अतः वे जगन्नाथ से लगभग एक पीढ़ी पूर्व अवश्य रहे होंगे’। अतः भट्टोजि के साहित्य रचनाकाल को देखते हुए पण्डितराज के रचनाकाल व जीवनसमग्र काल को मोटे तौर पर सन् १५६० से १६७० के मध्य स्वीकार करने में असंगति नहीं प्रतीत होती।

व्यक्तित्व एवं कृतित्वः

पण्डितराज का व्यक्तित्व कवि एवं काव्यशास्त्री, आलोचक एवं उन्मुक्त चिन्तक, दार्शनिक एवं व्याकरणवेत्ता, प्रशस्ति एवं नीति काव्यकार, स्वपाण्डित्य गर्वी व स्वाभिमानी, साहित्याराधक एवं गलदश्रु वैष्णव भक्त के विभिन्न गुणों का सुन्दर समन्वय है। पञ्चलहरियों एवं शान्त विलास के श्लोकों में एक ओर जहाँ उनके भक्ति भाव विगलित हृदय की कोमल भावना है; वहीं रसगङ्गाधर एवं प्रास्ताविकविलास में स्वपाण्डित्य १. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, काणे पृ.-४०० ARETTEERE दास ३५२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र पर अति दार्शनिक। प्रखर तार्किक क्षमता व उन्मुक्त चिन्तन शक्ति के कारण उनका काव्यशास्त्री रूप विलक्षण हो उठे हैं। रसगङ्गाधर इसका प्रत्यक्ष निदर्शन है। नीतिकाव्यकार के रूप में वे उस राजहंस के समान हैं। जिसे नीर क्षीर विवेक की क्षमता प्राप्त है। अपने इन्हीं गुणों के कारण समग्र संस्कृत वाङ्मय में उनका यशः शरीर अमर है। कर्तृत्वः-व्यक्तित्व की भाँति पण्डितराज का कर्तृत्व भी बहुविषयी था। उन्होंने गद्य, पद्य, अलङ्कारशास्त्र एवं व्याकरण सम्बन्धी कई कृतियाँ लिखी। विषय विभाजन के आधार पर उनकी कृतियाँ वर्गीकरण कर इस प्रकार विवेचित है:

१. काव्यकृतियाँ

पण्डितराज की काव्यकृतियाँ चार प्रकार की हैं- १. स्तुतिपरक रचनाएँ, २. प्रशस्तिपरक रचनाएँ, ३. मुक्तक रचनाएँ एवं ४. गद्या रचनाएँ। स्तुतिपरक रचनाओं में पञ्चलहरियाँ परिगण्य हैं। इनमें ५३ पद्यों में भगवती गङ्गा की स्तुति में रचित ‘गङ्गा लहरी’, ग्यारह पद्यों में रचित भगवती यमुना की स्तुति में निबद्ध ‘यमुना लहरी’ जहाँ माँ गङ्गा व यमुना के प्रति कवि के भक्ति भावाकुल हृदय का विनिवेदन हैं, वहीं ५५ श्लोकों में प्रणीत ‘करूणा लहरी’ भगवान् विष्णु के प्रति एवं ४१ शिरवरिणी छन्दों में निबद्ध ‘लक्ष्मी लहरी’ भगवती लक्ष्मी के प्रति समर्पित है। पाँचवी लहरी ‘सुधालहरी’ है; जिसमें ३० स्रग्धरा छन्दों में भगवान् भास्कर की प्रौढ़ स्तुति की गई है। प्रशस्तिपरक रचनाओं में ‘प्राणाभरणम्’ ‘जगदाभरणम्’ एवं आसफविलास’ हैं। इनमें केवल शीर्षक भेद व कुछ श्लोकों में राजाओं की नामोपाधियों में अन्तर है। इनमें प्राणाभरण काव्य कूच बिहार के राजा (१६३३-६६ ई.) एवं जगदाभरण उदयपुर के राणा जगत्सिंह की प्रशंसा में विरचित है जिसने १६२८ ई. से १६५४ ई. तक शासन किया। आसफविलास शाहजहाँ के श्वसुर एवं सर्वश्रेष्ठ सामन्त आसफ खाँ की प्रशस्ति में विरचित है। काव्यरूप की दुष्टि से यह गद्य काव्य का आख्यायिका नामक प्रभेद है। पण्डितराज की मुक्तक रचनाएँ तीन रूपों में प्राप्त होती हैं- क) भामिनीविलास, ख) अवशिष्ट अन्योक्तियाँ एवं अन्य पद्य और ग) रसगङ्गाधर के उदाहरण पद्य। इनमें ‘भामिनीविलास’ पण्डितराज के मुक्तक पद्यों का संग्रह है। इसके अन्तर्गत प्रास्ताविक, शृङ्गार करूण व शान्त ये चार विलास हैं। इसके अतिरिक्त ‘पण्डितराजकाव्यसंग्रह’ में पण्डितराज के नाम से रचित बताई जाने वाली ५६७ अन्योक्तियों एवं २१ अन्य फुटकर पद्यों का संकलन है। पुनश्च उनकी मुक्तक रचनाओं का एक रूप रस-गङ्गाधर के विविध काव्य शास्त्रीय प्रसङ्गों में आगत उदाहरण पद्यों के रूप में भी प्राप्त होता है। पण्डितराज की एक गद्यात्मक या चम्पू काव्यात्मक कृति ‘यमुनावर्णनम्’ नामक रही होगी, जो अब तक प्राप्त नहीं हो सकी है। इसके दो उदाहरण रसगङ्गाधर में मध्यम काव्य, समाधिगुण तथा उत्प्रेक्षा के एवं शब्दशक्तिमूलक विरोधालङ्कार ध्वनि के उदाहरण रूप में आगत हैं। REATMENT शारदातनय से अच्युतराय तक ‘पं.रा. जगनाथ’ ३५३

काव्यशास्त्रविषयक किंवदन्तियाँ

पण्डितराज की काव्य शास्त्र से सम्बन्धित दो कृतियाँ हैं- क) रसगङ्गाधर एवं ख) चित्रमीमांसाखण्डन रसगङ्गाधरः-रसगङ्गाधर पण्डितराज की काव्यशास्त्र विषयक प्रौढ़ रचना है। यह उनकी अमरकृति होने के अतिरिक्त संस्कृत काव्यशास्त्र की एक अनूठी सम्पत्ति है। यह न्याय व वेदान्त से अनुप्राणित सूत्रवृति शैली में लिखा हुआ ग्रन्थ है, जिसमें काव्य शास्त्रीय विषयों का बड़ा ही गम्भीर सूक्ष्म व पाण्डित्य पूर्ण विवेचन किया गया हैं। इसमें पण्डितराज ने काव्य के स्वरूप, कारण, भेद, प्रभेद, रसभावादि विवेचन, गुण विवेचन, ध्वनियों के भेद, प्रभेद, अभिधा, लक्षणा आदि शब्द शक्तियों का विवेचन एवं उपमादि अलङ्कारों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रन्थ के केवल दो आनन उपलब्ध हैं, उसमें भी द्वितीय आनन् अपूर्ण है। उत्तर अलंकार का अधूरा विवेचन कर ग्रन्थ अपूर्ण समाप्त हो जाता है।

चित्रमीमांसा खण्डन

चित्रमीमांसा अप्पय दीक्षित की रचना है। इसमें उपमादि १२ अर्थालङ्कारों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। पण्डितराज ने दीक्षित जी द्वारा इस ग्रन्थ में दिए गए लक्षणों तथा उदाहरणों का खण्डन अपने ग्रन्थ चित्रमीमांसा खण्डन में किया है।

व्याकरण शास्त्र विषयक कृतियाँ

पण्डितराज की व्याकरण शास्त्र से सम्बन्धित दो कृतियाँ है- क) मनोरमाकुचमर्दन ख) शब्दकौस्तुभशाणोत्तेजन। मनोरमाकुचमर्दन में भट्टोजिदीक्षित द्वारा अपनी पूर्ववर्ती गुरू परम्परा का त्याग कर स्वयं अपने गुरू शेष श्रीकृष्ण के विचारों की आलोचना करने के फलस्वरूप हुई। शब्दकौस्तुभशाणोत्तेजन में शब्दकौस्तुभ को सान पर कसा गया है। शब्द कौस्तुभ भट्टोजिदीक्षित का ग्रन्थ है, जिसकी आलोचना पण्डितराज ने अपनी इस कृति में की है। इस आलोचना का कारण भी भट्टोजि दीक्षित का वही गुरूद्रोह है। पाण्डित्यः-नामोपाधि के अनुरूप पण्डितराज का पाण्डित्य विलक्षण था। वे अपने युग के विश्रुत काव्यशास्त्री एवं प्रतिभाशाली कवि होने के अतिरिक्त व्याकरण, न्याय, मीमांसा एवं वेदान्त के असाधारण विद्वान थे। रसगङ्गाधर उनके इस विविध शास्त्रावगाही पाण्डित्य का प्रत्यक्ष निदर्शन है। काव्य शास्त्रीय सिद्धान्तों का विश्लेषण व सृजन करने के कारण काव्य कला के तत्वों की परख में उनकी असाधारण क्षमता थी। नामकरण, भाव, भाषा, शब्दप्रयोग, छन्द अलङ्कारादि विविध दृष्टियों से उनकी काव्य रचनाएँ सुन्दर बन पड़ी है। इसके निदर्शनार्थ एक उदाहरण पर्याप्त है। उनकी काव्यशास्त्रीय कृति रसगङ्गाधर के नाम को ही लीजिए। एक तो यह कि रसगङ्गा की निर्मलधारा इस ग्रन्थ में प्रवाहित हुई है। दूसरे, संस्कृत पण्डितों में प्रचलित जनश्रुति के अनुसार सम्भवतः गङ्गाधर शिव के पञ्चाननात्मिका के समान इस ग्रन्थ की रचना योजना भी पञ्चाननात्मिका रही होगी। इस प्रकार इस नाम में जो पाण्डित्य, मधुरता व प्रयोजनवत्ता है वह अन्य किसी साहित्य शास्त्रीय ग्रन्थ में विद्यमान नहीं। ३५४ m CHERE अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र इस प्रकार मनोरमाकुचमर्दनम् एवं शब्द कौस्तुभ शाणोत्तेजनम् शीर्षकीय दृष्टि से श्लाध्य है; इसके विरोधी विद्वान् के मानमर्दन के प्रति इतनी प्रबल लालसा है कि शब्द कौस्तुभ को जहाँ ज्ञान पर कसा गया है वहीं मनोरमा टीका का स्त्रीत्वेन ग्रहण कर उसका कुचमर्दन अर्थात् शील मर्दन किया गया है। __ भावाभिव्यञ्जना की दृष्टि से पञ्चलहरियाँ व शान्तविलास के श्लोक जहाँ भावुक आत्मनिवेदन का सुन्दर निदर्शन हैं वहीं अन्योक्तियों में नैतिक भावों की बड़ी सरस अभिव्यञ्जना हुई है। भावानुसारी शब्द प्रयोग, छन्दोनुकूल वर्णगुम्फन एवं अन्त्यानुप्रासमयी पदावली पण्डितराज के शब्दप्रयोगविषयक पाण्डित्य के साक्षात् उद्धरण हैं।

रसगङ्गाधर एवं पण्डितराज का काव्यशास्त्रीय चिन्तन

पण्डितराज का काव्यशास्त्र विषयक पाण्डित्य भी विलक्षण है। इसका निदर्शन है, उनका अलङ्कार शास्त्र का ग्रन्थ रसगङ्गाधर । इसमें काव्यशास्त्रीय विषयों का जैसा तलस्पर्शी विश्लेषण हुआ है वह अन्यत्र दुर्लभ है। उदाहरणार्थ रसनिरूपण के प्रसङ्ग को ही लें-मम्मट ने इस विषय पर चार सिद्धान्तों का उल्लेख किया है परन्तु पंण्डितराज ने ग्यारह सिद्धान्तों का विवेचन किया है। पुनः अभिनव के मत की व्याख्या काव्य प्रकाश में मम्मट व रसगङ्गाधर में पण्डितराज ने भी की है परन्तु रसगङ्गाधर के अध्ययन के बिना भात्र काव्य प्रकाश के अध्ययन से रस का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता। भट्टनायक को मत तो काव्य प्रकाश में और भी अस्पष्ट है। रस का स्वगतत्वेन बोध नही हो सकता, इतना कहकर मम्मट मौन हो जाते है-लेकिन यह बोध क्यों नहीं हो सकता इस स्वाभाविक जिज्ञासा का पण्डितराज ने बड़ा मार्मिक विश्लेषण किया है। __नवों रसों के रत्यादि नव स्थायी भाव हैं। इस तथ्य को सभी आलङ्कारिक लिखते हैं, लेकिन ये ही क्यों स्थायी भाव हैं? व्यभिचारी भाव स्थायी भाव क्यों नहीं कहलाते?, इस समस्त विषय के ज्ञान हेतु रसगङ्गाधर की गङ्गा में अवगाहन आवश्यक है। शृंगार रस के दो भेद संयोग व वियोग सभी काव्यानुशीलकों व आचार्यों को ज्ञात हैं। परन्तु संयोग या वियोग से यहाँ क्या विवक्षित है; इस तथ्य का विवेचन किसी ने नहीं किया। पण्डितराज का यहाँ वे चित्तवृत्तियाँ विवक्षित हैं, जिनसे मै संयुक्त हूँ या वियुक्त हूँ; इस प्रकार की बुद्धि होती है। अन्य सभी अलङ्कारशास्त्र विषयक ग्रन्थों में दान-दया-युद्ध व धर्म इन चार मनो भावों का स्थायी उत्साह मानकर वीर रस के चार प्रभेद प्रतिपादित किए गए हैं। किन्तु रसगङ्गाधरकार का कथन है कि शृङ्गार रस के समान वीर रस के भी बहुत भेद हो सकते हैं। तदनुसारय युक्ति देकर क्षमावीर, सत्यवीर, पाण्डित्यवीर, बलवीर आदि अनेक प्रभेद उन्होंने प्रतिपादित किए हैं। सभी प्राचीन आलङ्कारिकों ने गुणों को रसमात्र का धर्म माना है किन्तु रसगङ्गाधर प ३५५ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘पं.रा. जगनाथ’ में प्रचुर खण्डन-मण्डन के बाद गुणों को शब्द, अर्थ, रस और रचना इन चारों का धर्म स्थिर किया गया है। प्राचीन सभी अलङ्कार ग्रन्थों में भाव ध्वनि के समान भावशान्ति भावोदय, भावसन्धि, भावशबलता की ध्वनियों की व्यवस्था की गई है परन्तु रसगङ्गाधर में युक्तिपूर्वक ये सभी ध्वनियाँ भावध्वनि में गतार्थ कर दी गई है। __ अन्य सभी ग्रन्थकारों ने रस भावादि को असंलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्य माना है किन्तु रस गंगाधर कार ने स्थान विशेष में रस भावादि को भी संल्लक्ष्यक्रम व्यङ्ग्य कहा है। ध्वनि वादियों के अनुसार काव्य के उत्तममध्यम-अधम तीन भेद होते हैं, परन्तु पं.रा. ने व्यङ्ग्य के चमत्कार की उच्चावचता को कसौटी बनाकर काव्य के उत्तमोत्तम उत्तम, मध्यम व अधम ये चार भेद किए हैं। __इसके अतिरिक्त उन्होंने पद रचनाविषयक नियमों को भी बड़े सुन्दर ढ़ग से विश्लेषित किया है किस वर्ण के अनन्तर किस वर्ण के आने से मधुरता बढ़ जाती है एवं किस वर्ण के अनन्तर किस वर्ण के आने से कठोरता बढ़ जाती है इसका सुन्दर विश्लेषण उनके गहन पाण्डित्य का द्योतक है।

रसगङ्गाधर की टीकाएँ

रसगङ्गाधर जैसे प्रौढ़ व पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थ पर जितने टीका लेखन कर्म की अपेक्षा है; उस परिमाण में तो टीकाएँ प्रकाशित नहीं हुई हैं फिर भी कुछ प्राचीन व कुछ नवीन रचनाएँ इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। इस ग्रन्थ की दो महत्वपूर्ण प्राचीन टीकाओं का विवरण सर्वप्रथम दर्शनीय हैं-१. विषमपदी टीका एवं २. गुरूमर्मप्रकाशिका। इनमें विषम पदी टीका अप्रकाशित है तथा इसका कर्तृत्व अज्ञात है एवं गुरूमर्मप्रकाशिका के लेखक प्रसिद्ध वैयाकरण नागेश भट्ट हैं। वस्तुतः इसे टीका न कहकर टिप्पणी कहना ज्यादा उपयुक्त होगा; कारण यह अत्यन्त सङ्क्षिप्त है और अनेक स्थानों पर इसमें मूल का स्पर्श भी नहीं किया गया है। अनेक स्थलों पर पण्डितराज के मत का खण्डन भी किया गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इस टिप्पण्यात्मक टीका लेखन में नागेश की मूलदृष्टि पण्डितराज के दोषोद्घाटन पर ज्यादा रही। वर्तमान काल में रसगङ्गाधर पर कुछ टीकाएँ व कुछ समालोचनात्मक ग्रन्थ लिखे गए। इनमें पं. मथुरा दत्त की कि संस्कृत टीका संक्षिप्त होने पर भी विषय का व्यवस्थित स्पष्टीकरण करने वाली है। पं. बदरीनाथ झा एवं पं. मदनमोहन झा की संस्कृत हिन्दी टीका निस्सन्देह उपयोगी है। भाषाटीका में पुरुषोतम शर्मा चतुर्वेदी की हिन्दी-रसगङ्गाधर एवं मधुसूदन शास्त्री का रसगङ्गाधर भी प्रकाशित हैं। समालोचनात्मक अध्ययनों में चिन्मयी माहेश्वरी का रसगङ्गाधर का समीक्षात्मक अध्ययन एवं प्रेम स्वरूप गुप्त का रसगङ्गाधर का शास्त्रीय अध्ययन थानेशचन्द्र उप्रेती का रसगङ्गाधर एक अध्ययन उल्लेखनीय हैं।३५६ ’ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

आशाधर भट्ट

संस्कृत काव्य शास्त्र के उत्तरवर्ती युग के प्रौढ, प्रतिभा व मौलिक लेखन सम्पन्न आचार्यों की श्रेणी में त्रिवेणिका, कोविदानन्द एवम् अलङ्कार-दीपिका-इन त्रिविध रचनाओं के यशस्वी रचनाकार के रूप में विख्यात आशाधर भट्ट का नाम समुल्लेखनीय है। पदवाक्य प्रमाण पारावारीण एवं महामहोपाध्याय की पदवी से समलङ्कृत’ आशाधर भट्ट ने अपनी कृतियों में अपने जीवनवृत्तादि के सम्बन्ध में कुछ विशेष नहीं लिखा है और न ही यह संकेत दिया है कि वे किस समय लिखी गयी। बाह्य लेखकों के आधार पर ही इनका कुछ परिचय मिल पाता है। आशाधर भट्ट ने ‘कुवलयानन्द’ की ‘कारिकादीपिका’ (अलङ्कारदीपिका) टीका लिखी थी। इससे विदित होता है कि इनके गुरू का नाम ‘धरणीधर’ तथा पिता का नाम ‘रामजी भट्ट’ था। आशाधर ने अपने पिता को व्याकरण, मीमांसा तथा न्याय का उत्कृष्ट पण्डित कहा है। अनुमान किया जाता है कि ये गुजरात के निवासी थे, क्योंकि वहीं पर विशेष रूप से इनके ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं। रचनाओं में समय का उल्लेख न होने से आशाधर भट्ट के समय को निर्धारित करने में कठिनाई होती है, किन्तु निम्न प्रमाणों के आधार पर इनके समय को बहुत कुछ निश्चित किया जा सकता है १. आशाधर ने अप्पय दीक्षित के ‘कुवलयानन्द’ पर ‘कारिकादीपिका’ नामक टीका लिखी थी, अतः वे अप्पय दीक्षित (१५२०-१५६२ ई.) के बाद ही हुए होंगे। आशाधर ने ‘त्रिवेणिका’ ग्रन्थ में भट्टोजि दीक्षित का उल्लेख किया है। ‘सिद्धान्तकौमुदी’ आदि ग्रन्थों के रचयिता भट्टोजिदीक्षित का समय १६वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और १७वीं शताब्दी का पूर्वार्ध समझा जाता है। आशाधर इनके उत्तरवर्ती ही होंगे। आशाधर के ‘कोविदानन्द’ ग्रन्थ की एक हस्तलिखित प्रति की प्रतिलिपि करने का समय शक१७८३=१८६६ ई. उल्लिखित है तथा ‘कारिकादीपिका’ टीका की एक हस्तलिखितप्रति की प्रतिलिपि करने का समय शक १७७५=१८५० ई. लिखा है। आशाधर ने इन ग्रन्थों की रचना इससे बहुत पहले की होगी। ४. आशाधर ने ‘त्रिवेणिका’ ग्रन्थ में वैयाकरणों की आलोचना इसलिये की है, क्योंकि १. श्रीपदवाक्य प्रमाण पारावारीण महामहोपाध्याय आशाधरभट्टविरचितायां कोविदानन्द सहजायां त्रिवेणिकायां द्वितीयं लक्षणा प्रकरणम्। त्रिवेणिका, पुष्पिका शिवयोस्तनयं नत्वा गुरूं च धरणीधरम् । आशाधरेण कविना रामजीभट्ट सूनुना।। कारिकादीपिका पृ.-१।। धरणीधरपादाब्ज प्रसादासादितस्मृतेः। आशाधरस्य वागेषा तनोतु विदुषां मुदम् ।। कारिका दीपिका, पृ. ६४।। KATTERS शारदातनय से अच्युतराय तक ৪৩ वे व्यञ्जनावृति को नहीं मानते। परन्तु प्रसिद्ध विद्वान् नागोजिभट्ट ने अपने ग्रन्थ ‘लघुमञ्जुषा’ में प्रतिपादित किया है कि वैयाकरणों को भी व्यञ्जना-वृत्ति माननी चाहिए। इसका हेतु यह है कि निपातों का द्योतकत्व तथा स्फोट का व्यञ्जकत्व स्वीकार करके पतञ्जलि और भर्तृहरि ने व्यञ्जना को स्वीकार किया है। इस आधार पर यह कहा गया है कि आशाधर की स्थिति नागोजिभट्ट से पूर्व विद्यमान थी या वे उनके समकालीन थे। नागोजिभट्ट का समय १७वीं शती का उत्तरार्ध एवं १८वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। अतः आशाधरभट्ट को भी इसी समय के लगभग माना जा सकता है। उपर्युक्त प्रमाणों से यही अनुमान लगाया जा सकता है कि आशाधर भट्ट १७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा १८वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए होंगे।

दो आशाधर भट्टों का वर्णन

आशाधर नामक दो विद्वानों का संकेत साहित्य में मिलता है। इनमें एक तो १३वीं शताब्दी में हुए थे और दूसरे १७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में। यद्यपि नाम-सादृश्य के कारण कुछ समालोचकों ने दोनों आशाधरों को एक मान लिया था, तथापि अनेक प्रमाणों एवं ग्रन्थों की रचना के आधार पर इनका पृथक् व्यक्तित्व सिद्ध हो जाता है। १३वीं शताब्दी के आशाधर जैन थे। इनका जन्म अजमेर प्रदेश में हुआ था। इनके पिता का नाम सल्लक्षण था। किसी कारण ये धारा नगरी में जाकर रहने लगे थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की थी। इनके ‘त्रिषष्टिस्मृतिचन्द्रिका’ नामक ग्रन्थ से विदित होता है कि इसकी रचना १२६६ ई. में हुई थी। इन्होंने रूदट के ‘काव्यालङ्कार’ की टीका की थी और अनेक जैन ग्रन्थों की रचना की थी। हमारे आलोच्य आशाधर १७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुए थे। इनके साथ भट्ट उपनाम लगा होने से इनका ब्राह्मण होना सिद्ध होता है।

आशाधर भट्ट की रचनायें

आशाधर भट्ट ने अनेक ग्रन्थों की रचना की थी। इनमें से इनके केवल दो ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। त्रिवेणिका ओर ‘कुवलयानन्द’ पर ‘कारिकादीपिकाटीका’। इन दोनों ग्रन्थों की रचना अलङ्कारशास्त्र विषयक है। इनके अतिरिक्त आशाधर के तीन अन्य ग्रन्थों के भी सकेत मिलते हैं-कोविदानन्द, अद्वैतवेदान्त और प्रभापटल। १. कोविदानन्द-आशाधर भट्ट का यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, परन्तु इसकी ‘त्रिवेणिका’ नामक रचना में उल्लेख अनेक बार हुआ है। ‘त्रिवेणिका’ ग्रन्थ के पहले श्लोक के त्रिवेणिका, पृष्ठ-२७-२८ २. अतएव निपातानां द्योतकत्वं स्फोटस्य व्यङ्ग्यता च हर्यादिभिरुक्ता। द्योतकत्वं च स्वसमभिव्याहतपदनिष्ठा शक्तिव्यञ्जकत्वमिति। वैयाकरणानामप्येतत्स्वीकारआवश्यकः।। -लधुमञ्जूषा, पृ.-२०॥ ३५८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ‘पुनः’ पद से प्रतीत होता है कि ‘कोविदानन्द’ में भी वृत्तियों का विवेचन किया गया होगा’ डॉ. भाण्डारकर ने ‘कोविदानन्द’ नामक एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि का उल्लेख किया है। भाण्डारकर ने यह भी बताया है कि इस ग्रन्थ पर ग्रन्थकार ने स्वयं ही ‘कादम्बिनी’ नामक टीका लिखी थी। इस टीका के नीचे लिखे श्लोक से स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में वृत्तियों का निरूपण किया गया था। अद्वैत-वेदान्त-आशाधर का यह ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं हैं इस ग्रन्थ की रचना का सकेत आशाधर की ‘त्रिवेणिका’ से ही मिलता है, जिसमें इस ग्रन्थ का एक पद्य भी उद्धृत है। ग्रन्थ के नाम से ही स्पष्ट है कि इसका विषय अद्वैत-वेदान्त होगा। प्रभापटल-यह ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है। बटुकनाथ शर्मा ने अपने ग्रन्थ की भूमिका में इसका संकेत किया है। ‘प्रभापटल’ के दो श्लोक ‘त्रिवेणिका’ के अन्त में उद्धृत किये गये हैं। त्रिवेणिका और कारिकादीपिका नामक अलङ्कारशास्त्र विषयक आशाधरभट्ट की ये दोनों रचनायें उपलब्ध हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है

त्रिवेणिका

यह ग्रन्थ काव्यशास्त्र विषयक है। इसका प्रकाशन ‘सरस्वती टेक्स्ट ग्रन्थमाला काशी’ से हुआ है। डॉ. आफेक्ट ने भ्रमवश इस ग्रन्थ को व्याकरण ग्रन्थों की सूची में परिगणित किया है। इसी कारण काव्यशास्त्र के प्रसिद्ध लेखकों ने इस ग्रन्थ का उल्लेख अपनी रचनाओं में नहीं किया है। इस ग्रन्थ में अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना वृत्तियों का समुचित निरूपण किया गया है, अतः यह ग्रन्थ ‘त्रिवेणिका’ नाम से अभिहित है। ‘त्रिवेणिका’ ग्रन्थ में तीन परिच्छेद हैं, जिसका विषय-विवेचन अधोलिखित है प्रथम परिच्छेिद-इसमें ‘अभिधा’ का विशद विवेचन है। सर्वप्रथम अर्थज्ञान के तीन भेद हैं-चारु, चारुतर और चारुतम। अभिधाजन्य अर्थ चारु, लक्षणाजन्य अर्थ चारुतर और ३. १. प्रणम्य पार्वतीपुत्रं कोविदानन्दकारिणा। आशाधरेण क्रियते पुनर्वृत्तिविवेचना।। त्रिवेणिका।। २. संस्कृतपाण्डुलिपियों की सूची-भाग १, १८५३ बम्बई, पृष्ठ ६८।। प्राचां वाचां विचारेण शब्दव्यापारनिर्णयम्। करोमि कोविदानन्दं लक्ष्यलक्षणसंयुतम्।। ४. यदिह लिखतामव्युत्पत्या पतेल्लघु दूषणं निपुणधिषणैरूज्झित्वा तत् कृतिर्मम सेव्यताम् । सरसि विमले वातक्षिप्तं निवार्य तु शैवलं सलिलमृतप्रायं प्रायः पिबन्ति पिपासवः।।१।। यदि मम सरस्वत्यां कश्चित् कथञ्चन दूषणं प्रलपति ततः प्रौढप्रज्ञैः स किं कविभिः समः। रघुपतिकुटुम्बिन्यां सत्यामवद्यमुदाहरन् हतरजकः साम्यं लेभे सकिं सह राजभिः ।।२।। त्रिवेणिका, अन्तिममाग शक्तिभक्तिव्यक्तिगङ्गा यमुनागूढनिर्झरा।। निर्वाहवन्त्यः सन्त्यत्र यत्तदेषात्रिवेणिका।। त्रिवेणिका २.

३५६ । शारदातनय से अच्युतराय तक व्यञ्जनाजन्य अर्थ चारुतम है। तदनन्तर अभिधा के तीन भेद- योग, रूढि तथा योगरूढि बताये गये हैं। तदुपरान्त विशद व्याख्या करके सोदाहरण इन्हें समझाया गया है। द्वितीय परिच्छेद-इसमें ‘लक्षणा’ की विस्तृत विवेचना है। सर्वप्रथम लक्षणा का स्वरूप बताकर पुनः इसके भेद कहे गये हैं। लक्षणा के भेद हैं-जहल्लक्षणा, अजहल्लक्षणा, जहदजहल्लक्षणा, निरूढा, फलवती, गूढा, अगूढा, व्यधिकरण-विषया, समानाधिकरण विषया, गौणी और शुद्धा। इनके और भी उपभेद दिखाये गये हैं तथा सबको उदाहरणों द्वारा समझाया गया है। तृतीय परिच्छेद-यह परिच्छेद व्यञ्जना-विषयक है। व्यञ्जना के दो प्रमुख भेद हैं-शक्तिमूलक और लक्षणामूलक । व्यञ्जना को अनुमान के अन्तर्गत मानने का नैयायिकों के प्रयास का तथा शक्ति के अन्तर्गत मानने का वैयाकरणों के प्रयास का आशाधर ने खण्डन किया है।

अलङ्कारदीपिका (कारिका दीपिका)

यह ग्रन्थ अप्पय दीक्षित के ‘कुवलयानन्द’ ग्रन्थ की टीका के रूप में है। यदि सूक्ष्म दृष्टि से निरूपण किया जावे तो आधाधर का यह ग्रन्थ केवल टीका मात्र न होकर ग्रन्थ भी है, जो ‘कुवलयानन्द’ के आधार पर लिखा गया है। इस ग्रन्थ का नाम ‘कुवलयानन्दकारिका’ तथा ‘अलङ्कारदीपिका’ भी रखा गया। इस ग्रन्थ को तीन भागों में लिखा गया है तथा ये भाग प्रकरण कहे गये हैं। इनका विषय-विवेचन इस प्रकार है १. प्रथम प्रकरण में ‘कुवलयानन्द’ में लिखित कारिकाओं की व्याख्या की गई है। इसमें केवल मूल कारिकाओं की व्याख्या है। सूक्ष्म विवेचन को बालकों के अनुपयुक्त समझकर छोड़ दिया गया है। दूसरे प्रकरण का नाम उद्दिष्टालङ्कार प्रकरण है। ‘कुवलयानन्द’ के अन्त में जिन रसवद् आदि अलङ्कारों के नाम गिनाये गये हैं तथा जिनके लक्षण नहीं दिये गये, आशाधर भट्ट ने उनके लक्षणों को बताने के लिये कारिकाओं की रचना की तथा इन कारिकाओं को अपनी ही रचना बताया। ३. तृतीय प्रकरण का नाम परिशेष प्रकरण है। अवशिष्ट सभी अङ्कारों का विवेचन इस प्रकरण में किया गया है। आशाधर ने इस ग्रन्थ में १२ अलङ्कारों का विवेचन किाया है। अलङ्कारों को सरलता से समझने के लिये सुलभ बनाया है। जिन उद्देश्यों को सम्मुख रखकर उन्होंने ग्रन्थों की रचना की, उनमें वह सफल है। अकारों को सरलता से सीखने के लिये आशाधर के ग्रन्थ बहुत उपयोगी हैं। अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

नागेशभट्ट

संस्कृत काव्य शास्त्र के उत्तरवर्ती युग के आलङ्कारिकों में तीन मौलिक ग्रन्थकार व तीन प्रसिद्ध टीकाकार हैं जिन्होंने काव्यशास्त्र को नए प्रतिमान दिए। मौलिक ग्रन्थकारों में अप्पय दीक्षित, पण्डितराज जगन्नाथ तथा विश्वेश्वर पण्डित का नाम लिया जा सकता है तथा टीकाकारों में गोविन्दठक्कुर, नागेशभट्ट एवं वैद्यनाथ तत्सत् प्रसिद्ध हैं। नागेश अथवा नागोजीभट्ट का वैदुष्य चतुरन था तथापि उनका विशिष्ट क्षेत्र व्याकरण एवं साहित्य ही रहा है। नव्य व्याकरण के प्रतिष्ठापक नागेश भट्ट का सम्बन्ध कैयाकरणों के प्रख्यात परिवार से रहा है। ये सिद्धान्त कौमुदी के प्रख्यात लेखक ‘भट्टोजिदीक्षित’ के पौत्र ‘हरिदीक्षित’ के शिष्य रहे हैं। नागेश की शिक्षा दीक्षा एवं जीवन यापन काशी में ही हुआ। यहीं पर उन्होंने क्षेत्र सन्यास ग्रहण कर लिया था जिससे ये जयपुर नरेश महाराज जयसिंह के बहुप्रतीक्षित ‘अश्वमेघ यज्ञ में निमन्त्रित होने पर भी सम्मिलित न हो सके। यह विशिष्ट यज्ञ आषाढ़ कृष्णद्वितीया संवत् १६६६-१७४४ को जयपुर में सम्पन्न हुआ था। इसका विशेष वर्णन कृष्ण कवि ने अपने ईश्वर विलास काव्य में सविस्तार किया है। इस आधार पर नागेश भट्ट का समय १७वीं शती का अन्तिम चरण व १८वीं का पूर्वार्द्ध (१६७५-१७४४ ई. लगभग) मानना उचित प्रतीत होता है। नागेश भट्ट महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम शिवभट्ट तथा माता का नाम सती देवी था। इनका उपनाम ‘काले’ था। इस प्रकार दाक्षिणात्य परम्परा के अनुसार नागेश का नाम ‘नागेश शिवभट्ट काले’ था। नागेश का पाण्डित्य विविध शास्त्रोन्मुखी था तथापि उनका प्रकर्ष व्याकरण के क्षेत्र में विशेष रूप से था। व्याकरण के मौलिक तथा टीका ग्रन्थों की रचना कर संस्कृत व्याकरण शास्त्र के इतिकास में आप अमर हो गए। ‘परिभाषेन्दुशेखर’ तथा ‘मञ्जूषा’ (वृहत्, लघु, परमलघु) इनके मौलिक ग्रन्थ है:-जिनमें नव्य न्याय की भाषा शैली का आश्रय लेकर व्याकरण शास्त्र के विविध विषयों का आश्रय लेकर व्याकरण शास्त्र के विविध विषयों शास्त्रीयगूढ विषयों को सविस्तार समझाया गया है। बृहत्शब्देन्दुशेखर, लघुशब्देन्दुशेखर तथा प्रदीपोद्योत इनके प्रख्यात व्याख्या ग्रन्थ हैं। व्याकरण के इन्हीं वैदुष्य मण्डितः माहात्म्य समन्वित उपासकों एवं उनके ग्रन्थों के कारण काशी का पाण्डित्य विख्यात है। साहित्यशास्त्र एवं धर्मशास्त्रीय विषयों पर भी आपने अधिकार पूर्वक लिखा है। इस प्रकार उनके लेखन में व्याकरण धर्मशास्त्र साहित्यशास्त्र की विशेष विभाव इन विषयों के प्रतिपादनार्थ अन्य शास्त्रों का भी गम्भीर अध्ययन ‘स्पष्ट’ परिलक्षित होता है। SIANTUNIALSADORainikNADUINNRBitive Ramernamenpariusar IMPORTAL शारदातनय से अच्युतराय तक ‘नागेशभट्ट’ ३६१

रचनाएँ

अप्रतिम वैदुष्य के धनी नागेश भट्ट की रचनाओं को हम तीन वर्गों में विभक्त कर विवेचित कर सकते हैं-क. व्याकरणविषयिणी रचनाएँ ख. धर्मशास्त्र-सम्बन्धिनी रचनाएँ ग. साहित्यशास्त्रीय रचनाएँ। क. व्याकरणविषयिणी रचनाएँ : १. वैयाकरणसिद्धान्तमञ्जुषा (गुरू, लघु एवं परमलघु), २. परिभाषेन्दुशेखर, ३. बृहत् शब्देन्दुशेखर, ४. लघुशब्देन्दुशेखर, ५. महाभाष्यप्रदीपोद्योत ख. धर्म शास्त्र सम्बन्धिनी रचनाएँ : १. आचारेन्दुशेखर २. अशौचनिर्णय, ३. तिथीन्दुशेखर, ४. तीर्थेन्दुशेखर ५. प्रायश्चितेन्दुशेखर या प्रायश्चित्तसार संग्रह, ६. श्राद्धेन्दुशेखर, ७. सपिण्डी मञ्जरी या सापिण्ड्यदीपक या सापिण्ड्य निर्णय ग. साहित्य-शास्त्रीय रचनाएँ : १. गुरूमर्मप्रकाशिका, २. काव्यप्रदीपोद्योत, ३. अलङ्कारसुधा तथा ४. विषमपदव्याख्यानषट्पदानन्द, ५. प्रकाश उपर्युक्त रचनाओं के परिप्रेक्ष्य में यही कहा जा सकता है कि महाभाष्योद्योत के द्वारा महाभाष्य के तथा शब्देन्दुशेखर के द्वारा प्रौढ़ मनोरमा के गम्भीर ज्ञान को प्रकाशित करने में सफल नागेश भट्ट व्याकरण जगत् के परवर्ती व्याख्या युग की महनीय विभूति हैं। आज के व्याकरण जगत् के अध्ययन अध्यापन में उनका ‘शेखर’ सर्वप्रभावी रूप बनाए हुए है। इसी प्रकार इनकी ‘वैयाकरणसिद्धान्तमञ्जूषा’ पाणिनीय दर्शन के विविध पक्षों को विद्वद् जगत् के समक्ष सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करती है। __आचार, अशौच, तिथि, तीर्थ, प्रायश्चित्त, श्राद्ध, पिण्ड आदि विविध विषयों पर लिखकर वे धर्मशास्त्र के आधिकारिक विद्वान् की श्रेणी में परिगण्य ही हैं। व्याकरण के क्षेत्र में अपना सर्वोत्तम प्रातिभस्वरूप प्रकट करने वाले नागेश भट्ट ने काव्यशास्त्रीय विषयों पर भी अपनी प्रतिभा की पराकाष्ठा प्रदर्शित की है। उन्होंने पण्डितराज जगन्नाथ के प्रौढ़, पाण्डित्य पूर्ण ग्रन्थ ‘रसगङ्गाधर’ पर ‘गुरूमर्मप्रकाशिका’ नामक टीका लिखी। मम्मट के ‘काव्य प्रकाश’ पर गोविन्द रचित ‘प्रदीप’ टीका पर इन्होंने ‘उद्योत’ नाम्नी टीका लिखी। अप्पय की प्रख्यात रचना ‘कुवलयानन्द’ पर ‘अलङ्कारसुधा’ तथा ‘विषमदव्याख्यान’ षट्पदानन्दटीका भानुदत्त की रसमंजरी पर ‘प्रकाश’ तथा रस तरङ्गिणी पर भी टीका लिखी। नागेशभट्ट के ये समस्त टीका ग्रन्थ उनके प्रभूत यश व पाण्डित्य के स्थापक हैं।

समय

नागेश भट्ट का कालनिर्धारण निम्नलिखित तथ्यों के आलोक में भली भाँति किया जा स १. नागेश भट्ट ने अपने धर्मशास्त्र विषयक ग्रन्थ ‘सापिण्ड्यप्रदीपः’ जिसका हस्तलेख शकसंवत् १७२५-१८०३ ई. का है; में तीन महनीय धर्मशास्त्रियों का उल्लेख किया

३६२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र है। इन धर्मशास्त्रियों के समय से उनके समय का निर्धारण करने में साहाय्य प्राप्त होता है क. शंकरभट्ट (१५४०-१६०० ई.) निर्णय सिन्धु के प्रणेता कमलाकर भट्ट के भ्रातुष्पुत्र थे। निर्णय सिन्धु १६१४ ई. में लिखा गया। नंदपण्डित धर्मशास्त्रीय विषयों पर लिखने वाले महान् पण्डित थे। इनका समय १५६५ से १६३० ई. के मध्य बताया गया है। ग. अनन्तदेव जो ‘स्मृतिकौस्तुभ’ के प्रणेता थे; जिनका समय १६४५-१६७५ ई. का माना गया है। इन तीनों धर्मशास्त्रियों के उल्लेख से नागेश भट्ट की पूर्व सीमा प्राप्त हो जाती है। वे १६७० ई. से पूर्व के नहीं हैं। नागेश ने अपने ग्रन्थ ‘वैयाकरण सिद्धान्त मञ्जूषा में अपने ‘महाभाष्य प्रदीपाद्योत’ का उल्लेख किया है तथा महाभाष्य प्रदीपोद्योत में वैयाकरण सिद्धान्त मञ्जूष का। इससे स्पष्ट है कि इन दोनों ग्रन्थों का प्रणयन साथ-साथ हुआ। इन दोनों की रचना १७०८ ई. से पूर्व ही हुई होगी; क्योकि उज्जयिनी के सिन्धिया ओरिएन्टल इन्स्टीट्यूट में ‘मंजुषा’ का इसी वर्ष का हस्तलेख प्राप्त है। इस आधार पर इनका रचनाकाल १७०० ई. से १७०८ ई. के मध्य होना चाहिए। ये दोनों ग्रन्थ नागेश के पाण्डित्य के साक्षात् प्रतिमान है। अतः इस समय उनकी आयु तीस वर्ष के लगभग मानी जाय तो इनका जन्म समय १६७० ई. से १६८०-८५ के मध्य मानना उचित होगा। नागेश ने भानु दत्त की रसमञ्जरी की व्याख्या ‘रसमञ्जरी प्रकाश’ १७१२ ई. से पूर्व लिखी; क्योंकि यह इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी में संरक्षित इस ग्रन्थ के हस्तलेख का काल है। नागेश ने गोबिन्द ठक्कुर की काव्य प्रकाश व्याख्या ‘काव्यप्रदीप’ पर उद्योत नाम्नी अपनी टीका में तथा ‘रसगङ्गाधर’ की अपनी टीका ‘गुरूमर्म प्रकाशिका’ में मञ्जुषा का उल्लेख किया है। अतः इन दोनों की रचना मञ्जुषा के निर्माण के पश्चात् अर्थात् १७०५ ई. के बाद हुई होगी। ५. नागेश के ‘अशौचनिर्णय की हस्तलिखित प्रति का लिपिकाल १७२२ ई. है। फलतः यह ग्रन्थ इसके पूर्व निर्मित हुआ। नागेश की लघुमञ्जूषा की रचना ‘वैयाकरणसिद्धान्तमञ्जुषा’ (१७००-१७०८ ई.) के अनन्तर हुई। ‘लघु मञ्जूषा’ में उल्लिखित होने के कारण ‘वृहत्शब्देन्दुशेखर’ का प्रणयन इससे पूर्व हुआ। ७. ‘बृहत् शब्देन्दुशेखर’ के अनन्तर रचित लघु शब्देन्दुशेखर में महाभाष्य ‘प्रदीपोद्योत’

शारदातनय से अच्युतराय तक ‘नागेशभट्ट’ ३६३ का निर्देश उपलब्ध होता है। चूँकि ‘लघुशब्देन्दुशेखर’ में ‘उद्योत’ उद्धृत है-अतः ‘लघु शब्देन्दुशेखर का रचनाकाल १७०० ई.-१७०८ ई. के पश्चात् होना चाहिए। ८. परिभाषेन्दुशेखर में वैयाकरण सिद्धान्त मञ्जूषा, महाभाष्य उद्योत, बृहत्शब्देन्दु-शेखर के निर्देश मिलने से स्पष्ट है कि इसकी रचना इन तीनों ग्रन्थों के निर्माण के अनन्तर हुई। अतः परिभाषेन्दुशेखर नागेश भट्ट के वैयाकरण ग्रन्थों की श्रृंखला में अन्तिम प्रतीत होता है। ‘लघुशब्देन्दुशेखर’ की रचना ‘बृहत्शब्देन्दुशेखर’ के अनन्तर हुई। ‘लघुशब्देन्दुशेखर का सबसे प्राचीन हस्तलेख १७२१ ई. का बड़ौदा में है। फलतः इस ग्रन्थ का प्रणयन १७०८ ई.-१७२१ ई. के मध्य कभी किया गया। १०. काव्य प्रदीपोद्योत में वैयाकरणसिद्धान्तमञ्जूषा का उल्लेख है तथा इसकी प्राचीन हस्तलिपि १७५४ ई. की है। अतः इसकी रचना १७०५ ई. से १७५४ ई. के मध्य कभी हुई होगी। इस प्रकार नागेश भट्ट के कालनिर्णय सम्बन्धी इन समस्त प्रमाणों के अवलोकन से यह आनुमानिक रूप से कहा जा सकता है कि नागेश का जन्मकाल १६७५ ई. के लगभग रहा व उनका सम्पूर्ण जीवन १७४५ ई. तक क्रियाशील अवश्य रहा। इस प्रकार १६७५ ई. - १७४५ ई. तक विद्यमान नागेश भट्ट सत्रहवीं शती के अन्त व अठारहवी के प्रथमार्द्ध तक साहित्यजगत् को अपने वैदुष्य से समलङ्कृत करते रहे यह मानना उचित प्रतीत होता है। जयपुर नरेश सवाई राजा जयसिंह द्वारा कराए गए अश्वमेघ यज्ञ में क्षेत्र सन्यास ले लेने के कारण, न जा पाने की स्थिति से भी इस तिथि का साम्य बैठता है। SammepiKO ३६४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

विश्वेश्वर पाण्डेयः

पण्डितराज जगन्नाथ की उद्भट शेमुषी से चमत्कृत विद्वद्वर्ग ने जहाँ रासगङ्गाधर के रूप में वैदुष्य के अप्रतिम प्रतिमा का दर्शन किया और एक प्रकार से चरम लक्ष्य पालिया, वहीं कतिपय अन्य उत्तरवर्ती काव्यशास्त्रियों ने काव्यशास्त्र लेखन की इस परम्परा को आगे बढ़ाने व तद्विषयक चिन्तनक्रम को सतत जाग्रत रखने के दायित्व का भी निर्वहन किया। ऐसे काव्यशास्त्रियों में प्रमुख है; श्री विश्वेश्वर पाण्डेय। अठारहवीं शती के प्रथमार्द्ध में विद्यमान पण्डित विश्वेश्वर मौलिक मेधा, सूक्ष्म विश्लेषणात्मिका दृष्टि एवं कारयित्री व भावयित्री उभयविध प्रतिभासम्पन्न प्रौढ़ विद्वान् है। पण्डितराज की ही भाँति वे भी प्रकाण्डपण्डित्य से सम्पन्न होने के अतिरिक्त सहृदय भावुक कवि भी थे। उन्होंने व्याकरण दर्शन एवं काव्यशास्त्र जैसे विषयों पर प्रभूत मात्रा में साहित्य-सृजन किया।

जीवन वृत्त और समय

अल्मोड़ा जिलान्तर्गत पाटिया नामक ग्राम में विश्वेश्वर पाण्डेय के पूर्वज निवास करते थे। इन पाण्डेय लोगों के पूर्वज श्रीवल्लभ पाण्डेय उपाध्याय कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे और कन्नौज के खोर नामक ग्राम से चन्द राजाओं के समय में अलमोड़ा आये थे। ये भरद्वाज गोत्र के थे। यहाँ के चन्द राजाओं ने इस वंश के पण्डितों को अपना राजगुरू भी बनाया था तथा पाटिया (पांडिया) नामक ग्राम इनको जागीर के रूप में दिया था। विश्वेश्वर पाण्डेय के पिता लक्ष्मीदत्त पाण्डेय वृद्धावस्था में पाटिया से काशी आये थे। यहाँ आकर वे मणिकर्णिका घाट पर रहते हुए भगवान् विश्वेश्वर की आराधना में जीवन व्यतीत करने लगे। विश्वेश्वर की कृपा से यहाँ उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम भी उन्होंने विश्वेश्वर रखा। इस बालक की जन्मतिथि ठीक-ठीक निर्धारित करना कठिन है, तथापि अनुमानतः वह १८ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में उत्पन्न हुआ होगा। सम्भवतः नागेशभट्ट के गुरु हरिदिक्षित इसके समकालीन रहे होंगे। विश्वेश्वर पाण्डेय के एक ग्रन्थ ‘वैयाकरणसिद्धान्तसुधानिधि’ के अवलोकन से ज्ञात होता है कि ये भट्टोजि दीक्षित के काफी समय पश्चात हुए थे। विश्वेश्वर को उनके पिता लक्ष्मीदत्त पाण्डेय ने ही मुख्य रूप से विद्याध्ययन कराया था, ऐसा प्रतीत होता है। इन्होंने अपने पिता की वन्दना गुरुतुल्य ही की है। ‘अलङ्कार कौस्तुभ’ के मंगला चरण व उसकी पुष्पिका में अपने पितृचरणों की वन्दना इस प्रकार की है १. कुमायूँ का इतिहास- बदरीदत्त पाण्डेय-पृ. ५६३-५६४।। २. जयतियथाजातानां वाग्जातसुजातपारिजातश्रीः। श्रीलक्ष्मीधरविबुधावतंसचरणाब्जरेणुनिकरः।। (मन्दार मञ्जरी श्लोक १२) ३६५ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘विश्वेश्वर पाण्डेयः’ लोकस्वान्तधनान्धकार - पटलध्वंसप्रदीपाङ्कुरा विद्याकल्पलताप्रतानजनने बीजं निजासङ्गिनाम्। मध्येमौलि ममासतां सुविमला मालायमानाश्विरं श्रीलक्ष्मीधरविद्वदध्रिनलिनोद्गीता परागाणवः।। इति श्री लक्ष्मीधरसूनुविश्वेश्वरपण्डितकृतो ऽलङ्कारकौस्तुभः सम्पूर्णः। मन्दारमञ्जरी, रसचन्द्रिका, अलङ्कारमुक्तावली, अलङ्कार प्रदीप आदि ग्रन्थों में इन्होंने इसी प्रकार अपने पिता का स्मरण किया है। विश्वेश्वर के एक पुत्र का नाम ‘जयकृष्ण’ था जिसने अपने पिता की रचना ‘रसमञ्जरी की टीका लिखी थी। उसमें अन्तिम श्लोक द्वारा यह सूचित कर दिया था कि इस श्लोक को ग्रन्थकार के पुत्र ने लिखा है । काशी में जनश्रुति है कि विश्वेश्वर का निधन ४० वर्ष की अवस्था में हो गया था। विश्वेश्वर का वैदुष्य अप्रतिम था। वे व्याकरण मीमांसा न्याय एवं साहित्य तथा साहित्य शास्त्र के धुरंधर विद्वान थे। कवीन्द्रकर्णाभरण के चतुर्थ परिच्छेद की समाप्ति पर स्वयं उन्होंने अपने लिए लिखा है-श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीणविद्वधुरंधर श्रीविश्वेश्वरकृतौ कवीन्द्रकर्णाभरणे स्वोपशव्याख्या सहिते चतुर्थः परिच्छेदः समाप्तः। अपने ग्रन्थ अलङ्कारकौस्तुभ में इन्होंने इस पाण्डित्य का यथेष्ट प्रदर्शन भी किया है। यथा उपामालङ्कार के लक्षणनिरूपण में अप्पय दीक्षित के मत की आलोचना करते हुए कहा है- इतिचित्र मीमांसोक्तदूषणमपास्तम् तथा इसी प्रसङ्ग में पण्डितराज जगन्नाथ का यह कहकर एतेन दीक्षितानुयायिनो रसगङ्गधरकृतोऽपि निरस्ताः तथा पण्डितराजकृत अप्पय दीक्षित के उपमालक्षण की समालोचना का भी उद्धरण इन्होंने ‘रसगङ्गधरकृतस्तृः वर्णनस्य विलक्षणशब्दात्मकस्य’ इत्यादि कहकर दिया है। अतः इन उद्धरणों से ज्ञात होता है कि ये अप्पय व पण्डितराज से परवर्ती हैं यह निश्चित है। पण्डितराज का समय १५६० ई.- १६७० ई. के मध्य निर्धारित किया गया है। तदनुसार इनका समय १८वीं शती के प्रारम्भ में ही निश्चित किया जा सकता है।

रचनायें

प्रभूत मात्रा में साहित्य-सर्जन करने वाले विश्वेश्वर विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। वे व्याकरण, दर्शन, काव्यशास्त्र आदि अनेक विषयों के प्रकाण्ड विद्वान थे। पाँच वर्ष

१. दिग्गुण शशलाञ्छनयुक्ते शालिवाहनशके जयकृष्णः। श्रावणीयसितपक्षदशम्यां निर्मितिं पितुरिमा विलिलेख।। अलकारकौस्तुभ, उपमालङ्कारनिरूपण तत्रैव, उपमालकार निरूपण ४. अलङ्कारकौस्तुभ, पृष्ठ-२६HERA NAL- ET ३६६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र की आयु से ही इन्होंने विद्या का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया था। जिस शास्त्र का वे अध्ययन करते थे, उसी पर ग्रन्थों की रचना करने लग जाते थे। वे प्रतिभाशाली कवि भी थे तथा इन्होंने अनेक काव्यों की रचना की थी। अनेक स्थलों पर ‘यथा मम’ कहकर अलङ्कारों का स्वरचित उदाहरण प्रस्तुत किया है। उदाहरणार्थ भ्रान्तिमान् अलङ्कार के प्रसङ्ग में उन्होंने जो स्वकृत पद्य उद्धृत किया है, वह इनकी कवित्व शक्ति के दिग्दर्शनार्थ प्रस्तुत है सङ्केतकुञ्जगमनं प्रति संचलन्तीमालोक्य सुभ्र भवतीं गहनेऽन्धकारे। चाम्पेयकोरकमयीसगिति द्विरेफाः सौदामिनीति कलयन्तु मुदं मयूराः।।’ इन्होंने ‘वैयाकरण सिद्धान्त सुधानिधि’ नामक भाष्यानुसारी विशाल ग्रन्थ, जो चौखम्भा संस्कृत सीरिज से प्रकाशित है, लिखा तथा ‘तर्ककुतूहल’ और ‘दीधितिप्रवेश’- इन दो न्यायशास्त्रीय ग्रन्थों को लिखा है। इससे स्पष्ट है कि ये न्याय, व्याकरण व साहित्यशास्त्र के विशिष्ट विद्वान थे। साहित्यशास्त्र विषयक इनके पाँच ग्रन्थ हैं। इनके ग्रन्थ कुछ प्रकाशित हो गये हैं, परन्तु कुछ नहीं भी हो सके हैं। ‘मन्दारमञ्जरी’ के टीकाकार श्री तारादत्त पन्त ने उनकी विदित रचनाओं की संख्या इस प्रकार दी है १. अलङ्कार कौस्तुभ, २. अलङ्कार मुक्तावली, ३. आर्यासप्तशती, ४. कवीन्द्रकण्ठाभरण, ५. काव्यतिलक, ६. काव्यरत्न, ७. तर्ककुतूहल, ८. दीधितिप्रवेश, ६. नवमालिका नाटिका, १०. नैषधीयकाव्यटीका, ११. मन्दारमञ्जरी, १२. रसचन्द्रिका, १३. रसमञ्जरी, १४. रोमावलीशतक, १५. लक्ष्मीविलास, १६. वक्षोजशतक, १७. शृङ्गारमञ्जरी सट्टक, १८. षड्ऋतुवर्णन, १६. सिद्धान्तसुधानिधि, २०. होलिकाशतक, २१. कुछ तान्त्रिकग्रन्थ। विश्वेश्वर पाण्डेय की कुछ प्रमुख रचनाओं का परिचय इस प्रकार है

मन्दारमञ्जरी

यह एक गद्य काव्य है। इस काव्य की रचना में पाण्डेय जी ने बाण की ‘कादम्बरी’ की शैली का अनुसरण किया है। यह काव्य ‘कादम्बरी’ की भी अपेक्षा अधिक पाण्डित्यपूर्ण एवं कठिन हो गया है। बिना टीका के इस काव्य को समझना प्रायः कठिन ही है। पं. तारादत्त पन्त ने संवत् १६६५ में इस काव्य की टीका लिखी थी। इस काव्य के दो भाग हैं-पूर्वार्द्ध तथा उत्तरार्ध। पूर्वार्द्ध की रचना तो विश्वेश्वर पाण्डेय की है, परन्तु उत्तरार्ध उनके किसी शिष्य ने लिखा था। उत्तरार्ध के अन्तिम पृष्ठों के न मिलने के कारण इस भाग के लेखक का नाम विदित नहीं हो सका।

वैयाकरणसिद्धान्तसुधानिधि

इस ग्रन्थ में पाणिनीय अष्टाध्यायी के क्रम से सूत्रों की व्याख्या की गयी है। इसकी रचना में पाण्डेय जी ने पतञ्जलि के महाभाष्य का अनुसरण

१. तत्रैव, पृष्ट-३८६ .. .. ३६७ REMENT शारदातनय से अच्युतराय तक ‘विश्वेश्वर पाण्डेयः’ किया है। इस ग्रन्थ की सहायता से पाणिनीय सूत्रों का अर्थ अच्छी प्रकार समझ में आ जाता है। इस ग्रन्थ के तीन अध्याय ही उपलब्ध हुए है, जिनको चौखम्भा ग्रन्थमाला ने प्रकाशित किया है। यह एक विशाल ग्रन्थ है। तीन अध्यायों का ही विस्तार १५१८ पृष्ठों का है। इसमें लेखक ने वेद, व्याकरण, न्याय, वेदान्त, मीमांसा और साहित्यादि विषयक ग्रन्थों को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है।

अलङ्कारकौस्तुभ

काव्यशास्त्र विषय पर विश्वेश्वर पाण्डेय का यह ग्रन्थ अत्यधिक गौरवपूर्ण है। इसको काव्यशास्त्र का अन्तिम प्रामाणिक ग्रन्थ समझा जा सकता है। इस ग्रन्थ में लेखक ने रस, रीति, गुण, दोष आदि की बहुत विस्तृत एवं गहन विवेचना की है। इस विवेचना में वे मम्मट, जगन्नाथ आदि से भी आगे बढ़ गये हैं। इनका यह विवेचन नव्यन्याय के सिद्धान्तों के आधार पर हुआ है। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता अलङ्कारों का विवेचन है। इसमें लेखक ने स्थान-स्थान पर अप्पय दीक्षित और पण्डितराज जगन्नाथ के मतों का खण्डन किया है। इसकी विशालता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसमें उपमा के स्वरूप तथा भेदों की विवेचना ही १५० पृष्ठों में पूरी हुई है। इस ग्रन्थ की रचना लेखक ने विशेष विद्वानों के लिये ही की थी। बालकों के लिये ‘अलङ्कार मुक्तावली’ की रचना करते हुए इन्होंने ‘अलङ्कारकौस्तुभ’ को ‘नानापक्षविभावनकुतुक’ कहा’। इसका अभिप्राय यह है कि अलङ्कारों के निरूपण में इस ग्रन्थ में विश्वेश्वर ने विभिन्न मतों की आलोचना की है। इस ग्रन्थ की टीका विश्वेश्वर ने स्वयं स्वोपज्ञ नाम से की थी।

अलङ्कार मुक्तावली

इस ग्रन्थ की रचना विश्वेश्वर ने इसलिये की थी कि बालक भी सुखपूर्वक अलङ्कारों को समझ सके। इस ग्रन्थ में विवेचना बहुत कम है तथा अलङ्कारों के लक्षण-उदाहरण ही अधिक हैं। लेखक ने पहले कारिकायें दी हैं, जो कि प्रायः ‘अलङ्कारकौस्तुभ’ से ली गई हैं। तदनन्तर उदाहरण देकर उनकी विवृत्ति दी है। इस ग्रन्थ में कुल ५६ कारिकायें हैं।

अलङ्कारप्रदीप

इस ग्रन्थ में अर्थालङ्कारों का सरल विवेचन किया गया है। यह ग्रन्थ भी बालकों को सरलता से अलङ्कारों का ज्ञान कराने के लिये लिखा गया था। इसमें पहले अलङ्कारों का लक्षण सूत्र रूप में लिखा गया है, तदनन्तर सूत्र की स्वल्प-सी व्याख्या करके उसको उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया गया है। इस ग्रन्थ में ११६ सूत्र हैं। लेखक ने प्रायः स्वरचित श्लोकों को ही उदाहरण के रूप में दिया है। AMMA नानापक्षविभावनकुतुकमलङ्कारकौस्तुभंकृत्वा। सुखबोधाय शिशूनां क्रियते मुक्तावलीतेषाम्।। -अलङ्कारमुक्तावली- कारिका-२ ३६८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

रसचन्द्रिका

इस ग्रन्थ में नायक-नायिका-भेदों की तथा उनके स्वरूप की परिष्कृत लक्षणों और नवीन उदाहरणों द्वारा विवेचना की गई है। इसके साथ ही रस आदि का विस्तृत निरूपण किया गया है।

कवीन्द्रकर्णाभरण

इस ग्रन्थ की रचना में लेखक ने ‘विदग्धमुखमण्डन’ ग्रन्थ का अनुकरण किया है। इसमें शब्दालङ्कारों का विवेचन है तथा चित्रकाव्य का सुन्दर एवं प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। प्रहेलिका एवं चित्रालङ्कारों को समझने के लिये यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी है। इस ग्रन्थ की रचना में ग्रन्थकार का कथन यह है कि प्राचीन आचार्यों ने विचार करके जिन गौरवास्पद तथ्यों को प्रस्तुत किया था, मैं उन्हीं का अनुकरण कर रहा हूँ। विद्वज्जन मेरा उपहास न करें।

आर्यासप्तशती

यह एक सुन्दर मुक्तक रचना है। इसमें आर्या छन्द के ७६४ श्लोक हैं। इसमें देवता, गुरू एवं कवि की वन्दना करके नृप की स्तुति की गयी है। तदनन्तर अकारादि क्रम से आर्या छन्द में पद्यों की रचना है। इस विवेचना और ग्रन्थों के संक्षिप्त विवरण से विश्वेश्वर पाण्डेय का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। वे महान् विचारक, दार्शनिक एवं कवि तो हैं ही, अलङ्कारशास्त्र के विकास के लिये भी उनकी देन कम नहीं हैं। पं. विश्वेश्वर पाण्डेय की कृतियों का अध्ययन किये बिना काव्यशास्त्र का अध्ययन अपूर्ण ही रहता है। PRESEASE

१. यदभिहितं बहुमहितं पूर्वाचायैर्विचार्यैव। अनुकुदन किञ्चद् बहुविद्भिर्नाहमुपहास्यः।। शारदातनय से अच्युतराय तक ‘नरसिंह’ ३६६

नरसिंह

काव्य एवं शास्त्र द्विविध विद्या में पारङ्गत, अपने कर्तृत्व के कारण ‘अभिनव कालिदास’ इस उपाधि से विभूषित नजराज यशोभूषणकार नरसिंह कवि काव्यशास्त्र की उत्तरवर्ती पीढ़ी के महनीय हस्ताक्षर हैं। १८ वीं शती की विभूति नरसिंह कवि ने शास्त्र एवं काव्य उभयविध कोटियों में परिगण्य इस विशिष्ट ग्रन्थ को अपने आश्रयदाता मैसूर शासन के सर्वाधिकारी (१७३६ ई.-१७५६ ई.) नञ्जराज की यशः प्रशस्ति के रूप में रचा था। इसमें कवि ने काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों की प्रस्तुति में नजराज की प्रशंसा में विरचित श्लोकों को उदाहरण रूप में समाविष्ट किया है। अपने आश्रयदाता एवं स्वयं अपने पर कवि को इतना विश्वास है कि कवि ने उन्हें नवभोजराज तथा स्वयं को नवकालिदास विशेषण से अभिहित किया है श्रीनञ्जराजो नवभोजराजो नृसिंहसूरिर्नवकालिदासः। परस्परान्तस्थितभावरीतिर्विज्ञायते येन परस्पराभ्याम् ।। नञ्जराजयशोभूषण-पष्ठविलास, पृष्ठ-८६

नरसिंह का जीवनवृत्त और समय

नरसिंह कवि कललेकुलवंशावतंस’ नजराज के राज्याश्रित सभापण्डित थे। नजराज के पिता वीरराज मैसूर देश के राजा के सर्वाधिकारी पद पर प्रतिष्ठित थे। इनके दो बड़े भाई भी थे-देवराज’ और दोड्डराज ये दोनों भी मैसूर के राजा के उच्च पदाधिकारी थे। मैसूर में १७३४ ई. से १७६६ ई. तक कृष्णराज द्वितीय (चिक्का कृष्णराज) का शासन रहा। १७३६ ई. में उसने नजराज को सर्वाधिकारी के पद पर नियुक्त किया था तथा नञ्जराज ने शासन के सभी अधिकार अपने हाथ में ले लिये थे। यह समय बहुत संघर्ष का था। फ्रैंच और अंग्रेज भारत की राजनीति में और युद्धों में भाग ले रहे थे। मैसूर पर मरहठों के तथा मुसलमानों के भी निरन्तर आक्रमण हो रहे थे, नञ्जराज ने हैदरअली की सहायता से इन उपद्रवों को शान्त किया। परन्तु हैदरअली ने भी १७५६ ई. में सञ्जातं कलले कुलेऽतिविमले येनेन्दुनेवाम्बुधौ। तं नञ्जक्षितिपाललोकतिलकं स्तोतुं प्रगल्भेत कः।। जनयति जगतः कुतुकं कललेकुलमत्र येन नजविभुः। समजनि सकल महीपति मुकुटतटे रत्नरजितपदाब्जः।। २. वीरक्ष्मारक्षरत्नोदित दितदिन पद्भपतापप्रभावः ३. विष्वक्सेनोर्जित ख्याति विक्रमाक्रान्तविष्टपः। देवराजानुजो भाति नञ्जभूपालशेखरः।।- नजराजयशोभूषणम्- पृ. १३,१४,१५६ एवं २०२ ३७० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र नजराज के अधिकार छीन कर उसको अपनी जागीर कोन्नूर में ही रहने के लिये बाध्य किया। इस प्रकार नञ्जराज १७३६-१७५६ ई. तक मैसूर का सबसे शक्तिशाली अधिकारी रहा। कुछ समय के पश्चात् हैदरअली ने १७६६ ई. में कृष्णराज को राजगद्दी से उतार कर राज्य के सभी अधिकार सम्हाल लिये। इस समय मैसूर पर निजाम के तथा मरहठों के आक्रमण पुनः होने लगे। हैदरअली को यह आभास हुआ कि इन आक्रणों में नजराज का पड्यन्त्र है। उसने मित्रता का बहाना करके १७७१ ई. में नजराज को श्रीरंगपट्टन बुला कर धोखे से कैद कर लिया। इसी कैद में १७७३ ई. में नञ्जराज की मृत्यु हो गयी। __नजराज न केवल वीर और राजनीतिज्ञ ही था, अपितु साहित्यिक अभिरूचि सम्पन्न कवि भी था। उसके नाम से १८ पुस्तकें प्रसिद्ध हैं-१. सङ्गीतगङ्गाधरम्, २. हालस्यमाहात्म्यम्, ३. शिवभक्तिविलास, ४. काशीमहिमार्थदर्पणम्, ५. ककुद्गिरिमाहात्म्यम्, ६. काशीकाण्डम्, ७. शिव गीता, ८. गरलपुरी महात्म्यम्, ६. शिवधर्मोत्तरम्, १०. विघ्नेश्वरव्रतकल्पः, ११. मार्कण्डेयपुराणम्, १२. भद्रगिरि माहात्म्यम्, १३. शिवभक्ति महात्म्यम्, १४. भारतम्, १५. हरदत्ताचार्यमाहात्म्यम्, १६. हेतुमहिमादर्शः, १७. शैवधर्मः, १८. हरिवंशः। __ इन ग्रन्थों में ‘सङ्गीतगङ्गाधरम्’ ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है तथा शेष कन्नड भाषा में है। नरसिंह कवि इन्ही नजराज के आश्रम में रहा करते थे। यद्यपि इन्होंने अपने वंश आदि का विवरण नहीं दिया है, तथापि ‘नजराजयशोभूषण’ में इसके कुछ संकेत अवश्य आ गये हैं। नरसिंह सनगर कुल में उत्पन्न ब्राह्मण थे। इस कुल के ब्राह्मण अब भी बंगलौर नगर में रहते हैं। नरसिंह के पिता का नाम शिवराम सुधी था’। अपने पिता से इन्होंने शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया था। नञ्जराजयशोभूषण’ के प्रत्येक विलास के अन्त में इन्होंने अपने पिता का अवतार के रूप में चित्रित किया है। नरसिंह के एक गुरू योगानन्द भी थे। प्रथम विलास के आरम्भ में इन्होंने अपने गुरू योगानन्द की स्तुति की है । इस ग्रन्थ में नरसिंह ने अपने एक मित्र तिरुमल कवि का भी उल्लेख किया है, जो आलूर के निवासी थे। उनको नरसिंह ने अभिनव भवभूति कहा है। __ नरसिंह ने ‘नजराजयशोभूषण’ की रचना नञ्जराज के ऐश्वर्यमय जीवन काल में ही की थी, अतः दोनों का समकालत्व सिद्ध ही है। चूंकि नजराज १७३८ ई. से १७५६ ई. TER १. शिवरामसुधीसूनोनरसिंहकवेः कृतिः।।- नजराजयशोभूषण के प्रथम विलास का प्रारम्भ २. श्रीपरमशिवावतारशिवरामदेशिकचरणारविन्दानुसन्धानमहिमसमासादितानिः- सहायदैनन्दिन प्रबन्धनिर्माणसाहसिकनिखिलविद्वज्जनलालनीयसरससाहित्यसम्प्रदायप्रवर्तकनरसिंहकविविरचिते नजराजयशोभूषणे।। प्रत्येक विलास के अन्त में।। योगानन्दयतीन्द्राय सान्द्राय गुखे नमः।। - नजराजयशोभूषण-प्रथम विलास का आरम्भ आलूरतिरुमलकवेरभिनवभवभूतिनामविरूदस्य। सुहृदा नृसिंह कविना कृतिरकृतनवीनकालिदासेन।। - नजराजयशोभूषण- षष्ठ विलास के अन्त में … २.

शारदातनय से अच्युतराय तक ‘नरसिंह’ ३७१ तक मैसूर में सुप्रतिष्ठित सर्वाधिकारी था; अतः इस आधार पर नरसिंह का समय १८ वीं शती का मध्य भाग निश्चित होता है।

नरसिंह कवि की रचनायें

नरसिंह कवि की एक रचना ‘नजराजयशोभूषण’ उपलब्ध होती है। इस ग्रन्थ में नरसिंह ने काव्यशास्त्रतीय वषियों का पर्यालोचन तो किया ही है, साथ में उदाहरणों से उन विषयों को स्पष्ट भी किया है। वे उदाहरण लेखक के स्वरचित हैं तथा इनमें उसने अपने आश्रयदाता नजराज की स्तुति कि है। इस ग्रन्थ का प्रमुख प्रयोजन ही नजराज का यशोगान है।

नञ्जराजयशोभूषण

इस ग्रन्थ में सात विलासों में विषयवस्तु का विभाजन किया गया है। प्रत्येक विलास की विषयवस्तु निम्न अनुक्रम से प्रस्तुत की गई है १. प्रथम विलास-प्रथम विलास में नायक के गुण नायक के भेद तथा नायिका के भेद कहे गये हैं। द्वितीय विलास- इस विलास में वाचक, लाक्षणिक तथा व्यञ्जक तीन प्रकार शब्दों वाच्य-लक्ष्य तथा व्यङ्ग्य तीन प्रकार के अर्थों और अभिधा, लक्षणा तथा व्याञ्जना इन तीन प्रकार की शब्दशक्तियों का पहले निरूपण किया गया है। इसके पश्चात् कैशिकी आदि वृत्तियों और वैदर्भी आदिरीतियों की विवेचना है। तदनन्तर ध्वनि के हेतु से काव्य के उत्तम, मध्यम तथा अधम भेद किये गये हैं। ३. तृतीय विलास- तीसरे विलास में सबसे पहले ध्वनि तत्पश्चात् गुणीभूतव्यङ्गय काव्य के भेद दिये गये हैं। तदनन्तर महाकाव्य, उपकाव्य तथा क्षुद्र प्रबन्ध के लक्षण और भेद हैं। ४. चतुर्थ विलास- इस विलास में रस का विवेचन है। रस, भाव, स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव, सात्त्विकभाव, व्यभिचारीभाव, शृङ्गार-चेष्टायें, शृङ्गार आदि की अवस्थाओं के स्वरूप और भेद इन सबकी विस्तृत व्याख्या की गयी है। पञ्चम विलास- इसमें पद, वाक्य तथा अर्थ के दोषों की विवेचना करके गुणों का निरूपण किया गया है। षष्ठ विलास- इस विलास में नाटक से सम्बन्धित तत्त्वों की विवेचना है। इस विलास को कवि ने अपने आश्रयदाता नजराज की प्रशंसा में पूरे नाटक का ही रूप दे दिया है। इसके अन्तर्गत नजराज को नायक बनाकर पाँच अङ्को में चन्द्रकला कल्याण नामक नाटक रचकर नाटक के समग्रलक्षणों का समावेश किया गया है। इसमें नाटक

काJHARM A अप्यलकार शास्त्रस्य कर्ता कविरियं महान् अलङ्कार विशेषादीन् प्रसाधयति यद्गुणैः। प्रधानप्रतिपाद्यस्य कललेकुलजन्मनः चरितं नजराजस्य भूमिकादौ निरूप्यते।।

३७२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र के तत्त्वों की व्याख्या करके उनके उदाहरण के रूप में नजराज को नायक बना कर नाटक की रचना की गयी है। सप्तम विलास-सातवें विलास में शब्दालङ्कारों और अर्थालङ्कारों का विवेचन है। नरसिंह कवि की इस रचना ‘नजराजयशोभूषण’ पर विद्यानाथ रचित ‘प्रतापरुद्रयशोभूषण’ का पूरा प्रभाव है। ग्रन्थ की योजना तथा उदाहरणों की रचना में नरसिंह ने बहुत कुछ विद्यानाथ का अनुकरण किया है। उन्होंने ‘प्रतापरूद्रयशोभूषण’ के अनेक लक्षणों और उदाहरणों को ग्रहण किया है। इनके पद्यों में मधुर्य तथा गाढ़बन्धता व श्लेष का चमत्कार हृदयावर्जक हैं। उदाहरणार्थ एक पद्य द्रष्टव्य है धम्मिले नवमल्लिका स्तनतटे पाटीरचर्चागले हारं मध्यतले दुकूलममलं दत्त्वा यशः कैतवात्। यः प्राग् दक्षिणपश्चिमोत्तरदिशाः कान्तासमंलालयन् आस्ते निस्तुल चातुरीकृतपदः श्री नजराजाग्रणीः।।’ नरसिंह की कुछ विशेषतान हो, ऐसा नहीं है। अलङ्कारों के विवेचन में उन्होंने बहुत कुछ मौलिकता प्रदर्शित की है। ध्वनिकाव्य भेदों के निरूपण में भी उनकी मौलिकता है। अलङ्कारों के निरूपण की मौलिकता के उदाहरण के रूप में उत्प्रेक्षा अलङ्कार के विवेचन को लिया जा सकता है। इस अलङ्कार के नरसिंह ने ६६ भेद प्रदर्शित किये हैं। उनकी यह सूक्ष्म विवेचना अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होती। नञ्जराजयशोभूषण का एक अन्य सुदृढ़ पक्ष उसमें निबद्ध अदाहरण पद्यों का अत्यन्त भावपूर्ण सरस तथा आहलादक होना है। नायकों के गुण निरूपण का प्रसंग हो या नायिकाओं के विविध प्रकार वर्णित करने हों ध्वनि की रमणीयता का चित्रण हो या गूणीभूतव्यङ्ग्य की गूणीभूतव्यङ्गयता का सर्वत्र नरसिंह कवि की काव्यशास्त्रीय तथ्यों के प्रतिपादन एवं कविता के सृजन में गहरी पकड़ बनी रहती है। उदाहरणार्थ विरहोत्कण्ठिता नायिका का वर्णन दर्शनीय है; साथ ही दर्शनीय है कवि की वर्णन चातुरी आहारे न मतिर्नवा मृदृतरे तल्पेऽपि कालोचिते व्यालापे न कुतूहलं न च सखीसंभाषणे ऽप्यादरः। आसक्तिन पुरोगतेष्वपि दृशोस्तस्यां परं वर्तते कान्ते दिग्विजयेच्छया चिरयति श्रीनञ्जभूवल्लभे।। १. नजराजयशोभूषणम्, प्रथम विलास २. तत्रैव, प्रथम विलास ३७३ शारदातनय से अच्युतराय तक ‘नरसिंह’ इसी प्रकार पारिपार्श्विक के द्वारा उक्त वाक्केलि की नाट्यशास्त्रीय परिभाषा कविशब्दों में दर्शनीय है द्राक्षे किं वलसे बने वद ननु क्षौद्रत्वमप्यत्र किं लज्जेऽहं नरसिंहसूरिकविता माधुर्यतः साऽप्यहम्। मित्रं नः क्व भरन्द एष कमले त्रिसोतसस्ततकथं तद्वाग्वेगजितैव साऽपि गगने लीनेति हि श्रूयते॥ नजराजयशोभूषण-षष्ठ विलास इस प्रकार समग्र ग्रन्थ विभिन्न नाट्य शास्त्रीय एवं काव्यशास्त्रीय विषयों के प्रतिपादन में नजराज की प्रशस्ति में निबद्ध श्लोकों से संयुक्त है। प्रायः अधिकांश श्लोक अत्यन्त मनोरम बन पड़े है- वे काव्य शास्त्रीय विषयों के अत्यन्त सटीक उदाहरण के रूप में समक्ष आए हैं। इस प्रकार नञ्जराजयशोभूषणम् परवर्ती युग की काव्यशास्त्र एवं नाट्याङ्ग उभयविध वैशि ट्यों को समेटने वाली एक महत्वपूर्ण कृति है जिसके लिए नरसिंह कवि निस्सन्देह हमारे गौरव व सम्मान के पात्र हैं। ३७४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र

अच्युत राय

काव्यशास्त्र के विवेचनीय आचार्यों की शृङ्खला में ‘साहित्यसार’ के प्रणेता ‘अच्युतराय’ उल्लेखनीय आचार्य हैं। ये नासिक प्रदेश के पञ्चवटी नामक ग्राम में उत्पन्न हुए थे। इन्होंने ‘साहित्यसार’ नामक प्रौढ़ विवेचनापूर्ण साहित्यशास्त्रीय ग्रन्थ की रचना की है। इसमें काव्य तथा नाट्य के विषयों का सर्वागीण विवेचन है। यह ‘साहित्यदर्पण’ की शैली में लिखा गया सरल-सरस तथा सुबोध ग्रन्थ है। • साहित्यसार की तिथि शक-संवत् १७५३ अर्थात् सन् १८३१ दी गई है। इस आधार पर इनका समय १६वीं शती का पूर्वार्द्ध सिद्ध होता है। अच्युतराय ने स्वयं को षष्ठिनारायण का शिष्य बतलाया है। इनके पिता का नाम नारायण तथा माता का नाम अन्नपूर्णा था। संभवतः ग्रन्थकार ने पण्डितराज जगन्नाथ के ‘भामिनी’ विलास पर ‘प्रणय प्रकाश’ नामक टीका लिखी थी। कारण इस टीका में इन्होंने साहित्यसार को स्वरचित कहा है। साहित्यसार में भी पृ. ७ पर इन्होंने भामिनीविलास का उल्लेख किया है। ‘प्रणय प्रकाश’ में ‘साहित्यसार’ के प्रथम अ. के १४-१५ वें श्लोक उद्धृत हैं। इससे स्पष्ट है कि दोनों अच्युत राय अभिन्न हैं। इसके अतिरिक्त इन्होने सात मनोरथों में विभक्त ‘भागीरथीचम्पू’ भी १८१४ ई. में लिखा। अच्युतराम ने साहित्य सार का १२ रत्नों में विभाजन किया है। उनका वक्तव्य है कि उसने अलङ्कार शास्त्र रूपी समुद्र के मन्थन के फलस्वरूप इन रत्नों को प्राप्त किया है। फलतः इसी उद्देश्य से ग्रन्थ का रत्न नाम से वर्गीकरण किया गया है। प्रथम धन्वन्तरि रत्न में काव्य का सामान्य लक्षण, दूसरे ऐरावतरत्न में शब्द-अर्थ तथा शब्द-शक्तियों का विश्लेषण, तीसरे इन्दिरा रत्न में व्यङ्ग्य अर्थ तथा उसके प्रयोग, चतुर्थ दक्षिणावर्त कम्बु रत्न में रसध्वनि तथा ध्वनि के प्रभेद, पंचम अश्व रत्न में ध्वनि के अन्य भेद, षष्ठ दिष रत्न में दोष, सप्तम शाङ्गख रत्न में गुण, अष्टम कौस्तुभ में अर्थालङ्कार, नवम कामधेनु रत्न में शब्दालङ्कार, दशम रम्भा रत्न में नायिका निरूपण, एकादश चन्द्र रत्न में नायक-निरूपण, द्वादश अमृत रत्न में रसादि विषयों का निरूपण व उपसंहार है। काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त ३७५