रुद्रट
वामन के पश्चात्, आचार्य ‘अलङ्कारसम्प्रदाय’ के अग्रदूत एवं पुरस्कर्ता हैं। साहित्यशास्त्र के इतिहास में सर्वप्रथम कुछ सुनिश्चित सिद्धान्तों के आधार पर इन्होंने ही वैज्ञानिक पद्धति से अलङ्कारों का वर्ग-विभाजन किया है। टीकाकार नमिसाधु के अनुसार इनका अपर वास्तविक नाम शतानन्द था’ । ये काश्मीर के सामवेदी ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम बामुक भट्ट था । इसके अतिरिक्त इनके वंश-परम्परा का परिज्ञान समुपलब्ध नहीं होता है। इनके मत का उल्लेख, धनिक मम्मट, प्रतिहारेन्दुराज एवं राजशेखर प्रभृति आचार्यों ने स्वकीय ग्रन्थों में किया है। इनमें सबसे पूर्ववर्ती आचार्य काव्यमीमांसाकार राजशेखर हैं। उन्होने इन्ही के मतानुसार ‘काकुवक्रोक्ति’ को एक विशिष्ट अलङ्कार के रूप में गौरव प्रदान किया है । इससे यह स्पष्ट है कि रुद्रटः, राजशेखर से पूर्ववर्ती हैं। राजशेखर का समय ६२० ई. के लगभग सुनिश्चित है। अतः रुद्रट का समय नवम शताब्दी का मध्यकाल (८५० ई. के लगभग) स्थिर होता है। रुद्रट का एकमात्र ग्रन्थ ‘काव्यालङ्कार’ उपलब्ध है। १६ अध्यायों में विभक्त, ७३४ आर्या छन्दों में निबद्ध है। इसमें काव्य-रूप, शब्दालङ्कार-अर्थालङ्कार रीति, वृत्ति, दोष, रस एवं नायिका-भेद पर विशद प्रकाश डाला गया है। वस्तुतः, ११ अध्यायों में अलकार और अन्तिम अध्याय में रसों की मीमांसा है। नौ रसों के साथ ‘प्रेम’ नामक एक अधिक रस की अभिनव कल्पना कल्पित है। इन्होंने अलङ्कारों में मत, साम्य, पिहित और भाव अलङ्कार चतुष्टय की भी नूतन कल्पना की है, जिनका उल्लेख पौर्वापर्य किन्हीं ग्रन्थों में प्राप्त नहीं है। व्याजस्तुति के स्थान पर ‘व्याजश्लेष’, समासोक्ति के लिए ‘जाति’ और उदात्त के स्थान पर ‘अवसर’ आदि नामकरण किया है। __ आज तक ‘काव्यालङ्कार’ की तीन टीकाओं का उल्लेख प्राप्त होता है। रुद्रटा लङ्कार नामक टीका के कर्ता कश्मीर के वल्लभदेव हैं। यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता है। यह टीका दशवीं शताब्दी की प्रतीत होती है। द्वितीय टीकाकार जैनमनीषी नमिसाधु हैं। १. काव्यालङ्कार, ५/१२-१४ की टीका- “शतानन्दापराख्येन भट्टवामुकसूनुना। साधितं रुद्रटेनेदं सामाजाधीमतां हितम्।।" २. वही, ५/१२-१४ ३. काव्यमीमांसा, अध्याय ७, पृ. ३१ ‘काकृवक्रोक्तिर्नाम शब्दालकारोऽयमिति रुद्रटः।’ रुद्रट से विद्यानाथ तक रुद्रट १८५ भरत, मेधाविरुद्ध, भामह, दण्डी आदि के मतों का समीक्षात्मक उल्लेख है। इस टीका का रचना काल वि.सं. ११२५ (१०६८ ई.) है। तृतीय टीकाकार जैनमुनि आशाधर है। इसका समय १३वीं शताब्दी है। __ कुछ विद्वानों के अनुसार रुद्रट और रूद्रभट्ट एक ही व्यक्ति के नाम हैं। परन्तु यह मत सर्वमान्य नहीं है, क्यों कि दोनों विद्वानों के सिद्धान्तों और मतों में ऐक्य नहीं है। दोनों के समय में भी पर्याप्त अन्तर है। अतः दोनों को एक समझना समुचित नहीं है। भिन्नतावादियों की प्रमुख युक्तियाँ इस प्रकार हैं : १. रुद्रट के अनुसार काव्य का मुख्यतत्त्व अलङ्कार है, जबकि रूद्रभट्ट काव्य का प्रधान तत्त्व रस मानते हैं। २. रुद्रभट्ट ने मात्र ६ रसों का उल्लेख किया है, किन्तु रुद्रट ने ‘प्रेय’ को भी दसवाँ रस मानकर रसों की संख्या १० बतायी है। रुद्रभट्ट ने काव्य में कैशिकी प्रभृति चार नाट्य वृत्तियाँ स्वीकार की हैं, जबकि रुद्रट ने मधुरा, परूषा, प्रौढा, ललिता तथा भद्रा नाम से पांच प्रकार की वृतियाँ स्वीकार की हैं। रूद्रभट्ट ने नायकनामिकाभेद में तृतीयनायिका भेद वेश्या का सविस्तर वर्णन किया है, जबकि रुद्रट ने मात्र दो श्लोकों में वर्णन कर, तिरस्कार पूर्वक परित्याग कर दिया है। ५. काल की दृष्टि से भी रूद्रट नवम शताब्दी के मध्यकाल के आचार्य हैं, परन्तु रूद्रभट्ट का अविर्भाव १० वीं शताब्दी का पूर्व नहीं माना जा सकता है। हेमचन्द्रचार्य (१२वी. शताब्दी का मध्य काल) ने सर्वप्रथम रूद्रभट्ट के ग्रन्थ का उल्लेख किया है। एतत्पूर्व इनके ग्रन्थ का उल्लेख किसी ने नहीं किया है। अतः रुद्रभट्ट को हेमचन्द्राचार्य के बहुत पहिले का आचार्य नहीं माना जा सकता है। . एतत्प्रकार, उक्त युक्तियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि दोनों पृथक-पृथक आचार्य हैं, अभिन्नभाव कथमपि स्वीकार नहीं है। रूद्रभट्ट एकमात्र उपलब्ध कृति ‘शृङ्गार तिलक’ है। इसमें तीन परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में नवरसों, भावों तथा नायक-नायिका के भेदों का विस्तृत विवेचन है। द्वितीय परिच्छेद में विप्रलम्भ शृङ्गार का और तृतीय परिच्छेद में अन्य रसों तथा विविध वृत्तियों का वर्णन है। भारतीय साहित्य के विकास में ग्रन्थकार का योगदान कुछ कम नहीं है। १. पञ्चविंशतिसंयुक्तैः एकादशसमाशतैः । विक्रमात् समतिक्रान्तः प्रावृषीदं समर्थितम् ।।१६६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
अभिनवगुप्त
कश्मीर के सांस्कृतिक इतिहास की दशम शताब्दी का उत्तरार्द्ध परममाहेश्वर शैवाचार्य अभिनवगुप्त की साहित्यिक एवं दार्शनिक गतिविधियों के उल्लेखों से भरा पड़ा है। कश्मीरी ब्राह्मण होते हुए भी उनके पूर्वजों का सम्बन्ध, उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध नगर कन्नौज से था। वहीं से इनके पूर्वज अत्रिगुप्त को, तत्कालीन काश्मीर नरेश ललितादित्य ससम्मान कश्मीर लाये थे। उन्होंने स्वयं स्वकीय ग्रन्थ ‘तन्त्रालोक’ में सविस्तर वर्णन किया है। उन्होंने अपने पितामह वराहगुप्त और अपने पिता नरसिंह गुप्त की उत्पत्ति का भी वर्णन किया है। उन्होंने ‘क्रमस्तोत्र’ की रचना ६६० ई. में, भैरवस्तोत्र की रचना ६६२ ई. में और ‘विवृतिविमर्शिनी’ की रचना १०१४ ई. में की थी । फलतः, यह निष्कर्ष निकलता है कि अभिनवगुप्त का काल, दशम शताब्दी का अन्तिमभाग और ग्यारहवीं शताब्दी का प्रारम्भ माना जा सकता है।
विभिन्नशास्त्रों के विभिन्न गुरु
इनका पूरा नाम ‘अभिनवगुप्तपाद’ है। गुप्तपाद का अर्थ है ‘सर्प’ बालसुलभचापल्य के कारण गुरुओं ने इनका नाम ‘अभिनवगुप्तपाद’ रखा था। इन्होंने ‘तन्त्रालोक’ में स्वयं भी स्वकीय नामकरण की परिपुष्टि की हैं। अभिनवगुप्त अतीव विद्याध्ययनाध्यवसायी थे। यही कारण था कि उनके भिन्न-भिन्न शास्त्रों के भिन्न-भिन्न गुरु थे गुरू शास्त्र १. नरसिंह गुप्त (पिता) व्याकरणशास्त्र २. वामनाभ द्वैताद्वैतशास्त्र ३. भूतिराजतनय द्वैतवादी शैवसम्प्रदायशास्त्र ४. लक्ष्मण गुप्त प्रत्यभिज्ञा, क्रम एवं त्रिक् दर्शनशास्त्र ५. भट्ट इन्दुराज ध्वनि सिद्धान्त ६. भूतिराज ब्रह्मविद्या ७. भट्टतौत नाट्यशास्त्र इसके अतिरिक्त भी १३ अन्य गुरूओं का उल्लेख किया है ‘श्री चन्द्रशर्मभवभक्तिविलासयोगानन्दाभिनन्दशिवशक्तिविचित्रनाथाः। अन्येऽपि धर्मशिववामनकोद्भट-श्री भूतेशभास्करमुखप्रमुखामहान्तः।। १. तन्त्रालोक-निःशेषशास्त्रसदनं किल मध्यदेशस्तस्मिन्नजायत गुणाभ्यधिको द्विजन्मा। कोऽप्यत्रिगुप्त इतिनाम निरूक्तगोत्रः शास्त्राब्धिचर्वणकलोद्यदगस्त्यगोत्रः।। तमथ ललितादित्यो राजा निजपुरमानयत्. राजा द्विजस्य परिकल्पितभूरिसम्पत्। . . विवृतिविमर्शिनी- इति नवतितमेऽस्मिन् वत्सरान्त्ये युगांशे तिथिशशि जलधिस्थे मार्गशीर्षावसाने। ३. तन्त्रालोक- ‘अभिनवगुप्तस्य कृतिः सेयं यस्योदिता गुरुभिराख्या।’ ….. ……….. ……..:. . १८७ रुद्रट से विद्यानाथ तक अभिनवगुप्त इनके उपलब्ध एवं अनुपलब्ध ग्रन्थों की संख्या ४१ बतायी जाती है १. बोधपञ्चदशिका, २. परात्रिंशिकाविवृतिः, ३. मालिनीविजयवार्तिक, ४. तन्त्रालोक, ५. अभिनवभारती, ६. ध्वन्यालोकलोचन, ७. धटकर्पर-विवरण, ८. अनुभवनिवेदन, ६. प्रकरणस्तोत्र, १०. बिम्बप्रतिबिम्बवाद, ११. नाट्यालोचन, १२. अनुत्तरतत्त्वविमशिनी, १३. काव्यकौतुकविवरण, १४. अनुत्तरशतिका, १५. भगवद्गीतार्थसंग्रह, १६. तन्त्रसार, १७. क्रमस्तोत्र, १८. देहस्थदेवताचक्रस्तोत्र, १६. भैरवस्तोत्र, २०. परमार्थद्वादशिका, २१. परमार्थचर्चा, २२. महोपदेशविंशतिका, २३. अनुत्तरशतिका, २४. तन्त्रोच्चय, २५. क्रमकेलि, २६. शिवदृष्ट्यालोचन, २७. तन्त्रवटधानिका, २८. पूर्वपञ्चिका, २६. पदार्थ प्रवेशनिर्णयटीका, ३०. प्रकीर्णकविवरण, ३१. प्रकरणविवरण, ३२. कथामुखटीका, ३३. लध्वी प्रक्रिया, ३४.भेदवादविदारण, ३५. देवीस्तोत्रविवरण, ३६. तत्त्वार्थप्रकाशिका, ३७. शिवशक्त्यविनाभावस्तोत्र, ३८. परमार्थसार, ३६. ईश्वर प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी, ४०. ईश्वर प्रत्यभिज्ञा विवृतिविमर्शिनी, ४१. घटकर्परकुलकविवृति।। वस्तुतः काव्यशास्त्र से सम्बन्धित केवल-ध्वन्यालोकलोचन, अभिनवभारती एवं घटकर्पर-विवरण-तीन ग्रन्थ हैं। शेष समस्त रचनाएँ शैवदर्शनादि से सम्बन्धित हैं। अभिनवगुप्त अपने समय के सर्वातिशायी शैव आचार्य थे। वे एक उच्चकोटि के साधक भी थे। यद्यपि उनका सर्वाधिकार समस्त वाङ्मय पर था, परन्तु वे शैवधर्म और दर्शन के अद्वितीय अप्रतिम आचार्य थे। अतएव, इन्हें परम माहेश्वर की महनीयोपाधि से समलड्कृत किया गया था। इतना ही नहीं, ध्वनिसम्प्रदाय उस लोकप्रियता को प्राप्त न करता यदि अभिनवगुप्त की प्रतिभा का योगदान उसे न मिलता। उनके ‘लोचन’ का वही गौरवमय स्थान है, जो व्याकरण में महाभाष्य का। इन्होंने स्वकीय तलस्पर्शिनी प्रज्ञा और प्रौढ शास्त्रीय विवेचन शैली के द्वारा ध्वनिविषयक निखिल प्रान्तियों और आक्षेपों का खण्डन कर दिया। अभिनवगुप्त का रस-निष्पत्ति सिद्धान्त तो काव्यशास्त्र क्षेत्र में चिरस्मरणीय रहेगा। १८८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
महिमभट्ट
ध्वनि-विरोधी आचार्यों में अग्रगण्य महिमभट्ट ने अपनी कृति ‘व्यक्ति-विवेक’ के अन्त में स्वकीय परिवार के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला है। वस्तुतः वे एक कश्मीरी ब्राह्मण थे और इन्हें काश्मीर-नरेश ने ‘राजानक’ उपाधि से समलङ्कृत भी किया था। कल्हण की राजतरङ्गिणी से भी इसी तथ्य की परिपुष्टि होती है। इससे यह प्रतीत होता है कि इन्हें राज्याश्रय प्राप्त था और राज-सभा में इनका अतीव समादर था। यह उपाधि न केवल महिमभट्ट को ही प्राप्त थी, अपितु मम्मट, तथा रूय्यक आदि आलङ्कारिकों एवं रत्नाकर आदि कवियों को भी प्रदत्त थी। उनके पिता का नाम श्री धैर्य था और दीक्षा-गुरू का नाम श्यामल था’। इन्होंने अपने गुरू के लिए ‘महाकवि’ का प्रयोग किया। क्षेमेन्द्र ने अपनी ‘सुवृत्ततिलक’ और ‘औचित्य-विचार-चर्चा’ नामक कृतियों में कविश्रेष्ठ ‘श्यामल’ के कुछ श्लोक अवश्य उदधृत किये हैं । ‘सुभाषितावली’ में श्यामलक का एक श्लोक संगृहीत है। विद्वानों के विचारों में श्यामल और श्यामलक में अभिन्नता नहीं है । परन्त, रूद्रभट्ट-रुद्रट, महिमभट्ट-महिमक तथा मंखु-मंखक की भाँति श्यामल और श्यामलक भी एक ही व्यक्ति है। स्वयं ग्रन्थकार ने अपने नाम का उल्लेख ‘महिमा’ , ‘महिमक’ एवं श्री राजानक महिमभट्ट-कई प्रकार से किया है। साहित्यशास्त्र के उत्तरवर्ती ग्रन्थों में वह ‘व्यक्तिविवेककार’ के रूप में अत्यधिक सुप्रसिद्ध हैं। रूय्यक’, उनके टीकाकार जयरथ तथा माणिक्य चन्द्र आदि टीकाकारों और साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ जैसे आलङ्कारिकों ने अपने ग्रन्थों में ‘व्यक्ति विवेककार’ के रूप में उल्लेख किया है। 1. १. व्यक्ति विवेक-३/३६ ‘श्री धैर्यस्याङ्कभुवा महाकवेः श्यामलस्य शिष्येण । व्यक्तिविवेको विदधे राजानकमहिमकेनायम्।। औचित्य-विचार-चर्चा-कारिका १६ पर उदाहरण। ३. डॉ. मोतीचन्द्र एवं डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, शृङ्गार हाट, पृष्ट ५ ४. व्यक्ति-विवेक १/१ ‘व्यक्ति विवेको विदधे राजानक-महिमकेनायम्।’ ५. वही, ३/३६ ‘व्यक्तिविवेको विदधे राजानक-महिमकेनायम्। व्यक्ति विवेक, प्रथम-विमर्श-‘श्री राजानक महिमभट्टकृतो व्यक्ति विवेकः।’ व्यक्ति विवेक. द्वितीय एवं ततीय विमर्श की पुष्पिकाएं- ‘इति श्री राजानकमहिमभट्ट- विरचिते व्यक्तिविवेकाख्ये काव्यालङकारे प्रथमो विमर्थः ७. रुय्यक- अलङ्कार सर्वस्व, उपोद्धात प्रकरण’ यत्तु व्यक्तिविवेककारो वाच्यत्य प्रतीयमानं प्रति नेह प्रतन्यते।’ पृष्ट-११ जयरथ- सर्वस्वन्टीका विमर्शिनी, पृष्ठ-११ ‘ध्वनिकारान्तर्भावी व्यक्तिविवेककार इति’ ६. व्यक्तिवादिनेति व्यक्तिविवेककारेण- माणिक्यचन्द्र काव्यप्रकाश की सकेतन्टीका पृष्ठ-११ १०. साहित्य-दर्पण (विश्वनाथ) १/२ की वृत्ति, ‘व्यक्तिविवेककारेणाप्युक्तम्।’ ८. " रुद्रट से विद्यानाथ तक महिमभट्ट १८६ कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा के धनी महिमभट्ट निश्चित रूप से तत्त्वाभिनिवेशी समालोचक हैं। उन्होंने कालिदास, भारवि एवं भवभूति जैसे महाकवियों एवं नाटककारों की कृतियों का गुण एवं दोष के आधार पर पूर्ण विवेचन किया है। उनकी यह मान्यता है कि छात्रों की विशेष अभ्यर्थना एक सफल अध्यापक से ही होती है तथा उसका सम्यक् विवेचन करने का साहस भी कुछ विशिष्ट कोटि के अध्यापकों को ही हो पाता है। उन्होंने ‘व्यक्तिविवेक’ की रचना छात्रों के लिए की थी। एक असाधारण समालोचक के साथ-साथ बहुश्रुत विद्वान् भी थे। यास्क के निरूक्त, पतञ्जलि के महाभाष्य एवं भर्तृहरि के वाक्यपदीय के उद्धरणों को उन्होंने स्थान-स्थान पर उदाहृत किया है। आचार्य पाणिनि एवं उनके अष्टाध्यायी के सूत्रों के भी निदर्शन यत्र-तत्र विद्यमान हैं । लक्षण तथा व्यञ्जना के अनुमान में अन्तर्भाव की प्रक्रिया का निरूपण जहाँ न्याय पर आधारित है, वहाँ शब्दार्थ एवं वाक्यार्थ-स्वरूप का निर्वचन मीमांसा की पद्धति से हुआ है। रामायण-महाभारत से लेकर कालिदास, भारवि, माघ, भवभूति, बाण, रत्नाकर, मयूर आदि कवियों एवं गद्यकारों तथा हर्ष, भट्टनारायण और राजशेखर प्रभृति नाटककारों की प्रायः सभी कृतियों के श्लोक ‘व्यक्तिविवेक’ में उदाहृत हैं। वास्तव में, उनके नीर-क्षीर-विवेक की शक्ति प्राप्त थी। वे उच्च-कोटि के नैयायिक मीमांसक एवं वैयाकरण भी थे। परन्तु उन्होंने जाति, गुण, क्रिया, एवं द्रव्य (संज्ञा) नामक व्यक्ति की चार उपाधियों को शब्द की प्रवृत्ति का निमित्त कहकर अपने को वैयाकरण के पक्ष का ही प्रमाणित किया है। उनका तो यहाँ तक कहना है कि एकमात्र क्रिया ही सभी प्रकार के शब्दों की प्रवृत्ति का निमित्त हो सकती है"।
कालनिर्धारण
वस्तुतः किसी भी कवि, नाटककार अथवा गद्यकार के काल का निर्धारण अन्तः एवं बाह्य साक्ष्यों के आधार पर किया जाता है और एक निश्चित तिथि पर पहुँचा जाता है। १. मल्लिनाथ (घण्टापथ टीका) किरातार्जुनीयम् ३/२१ ‘प्रधानोपसर्जनभावस्त्वप्रयोजकः इति व्यक्तिविवेककारः। ‘द्वयं गतं सम्प्रति शोचनीयतां समागम-प्रार्थनया कपालिनः-कुमार सम्भव ५/७१ आदि २. व्यक्ति-विवेक २/१ ‘छात्राभ्यर्थनया ततोऽद्य सहसैवोत्सज्य मार्ग सताम् । एवं वही, ३/३५ पौरोभाग्यमभाग्यभाजनजनासेव्यं मयागीकृतम्।। वही, ३/३५ ४. व्यक्तिविवेक २/१२३, १२४, ३१४,५,७ ५. व्यक्तिविवेक २/१२३, १२४, ३४,५,७ ६. वाक्यपदीय ३/१ एवं व्यक्तिवेवेक पृष्ठ. ३७-३८ ७. व्यक्ति विवेक, पृष्ठ २२७, २/२३, २४, में ‘समर्थः पदविधिः’ २/१/१ का उल्लेख है। ५. वही, पृष्ठ ४००-४०२, तथा ३/१, २,३१ ६. व्यक्तिविवेक, प्रथमविमर्श, पृष्ठ-४० ‘वाक्यार्थ……बोद्धव्यः। १०. व्यक्ति विवेक, पृष्ठ-२२ “जातिगुणक्रियाद्रव्याणां तत्ततप्रवृत्तिनिमित्तानां बहुत्वात।” ११. वही, पृष्ट २३, “केचित्पुनरेषां क्रियैवैका प्रवृत्तिनिमित्तमिति क्रियाशब्दत्वमेव।" Mia ..–:- .-..- .. १६० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र जहाँ तक महिम भट्ट के समय-निर्धारण की पूर्वसीमा का सम्बन्ध है, इन्होंने भरतमुनि का नामतः उल्लेख किया है और नाट्यशास्त्र से उदाहरण भी प्रस्तुत किया है। विद्वानों ने नाट्यशास्त्र की रचना ईसा की तीसरी शताब्दी मानी है। व्यक्तिविवेक में भामह, दण्डी एवं वामन का नाम एवं उनकी कृतियों का अंश भी उदाहृत हैं। वामन के समसामयिक आलङ्कारिक आचार्य उद्भट की कृति “काव्यालंकार-सार-संग्रह" से समासोक्ति का लक्षण अविकल रूप से व्यक्तिविवेक में उल्लिखित है। राजतरङ्गिणी के अनुसार, भट्टोद्भट काश्मीर-नृपति जयापीड की राजसभा के सभापति थे। जयापीड का समय ७७६ से ८१३ ई. है। अतः उद्भट, ८०० ई. के आसपास रहे होंगे। व्यक्तिविवेक में आनन्दवर्धन का नाम एवं ध्वन्यालोक का उल्लेख किया गया है। इससे महिम भट्ट की आनन्दवर्धन से उत्तरवर्तिता स्वतः सिद्ध हो जाती है। राजतरङ्गिणी के अनुसार, आनन्दवर्धन काश्मीर नरेश अवन्तिवर्मा के सभासद थे। अवन्तिवर्मा का समय ८५५ से ८८३ ई. के मध्य बताया गया है। राजशेखर ने काव्यमीमांसा में आनन्दवर्धन का उल्लेख किया है। इस प्रकार आनन्दवर्धन का समय, राजशेखर से कुछ पूर्व ८५० से ६०० ई. के मध्य माना जा सकता है। महिम भट्ट ने अपने ग्रन्थ में भट्टनायक, कुन्तक एवं अभिनव गुप्त का भी उल्लेख किया है, जो निश्चित रूप से आनन्दवर्धन के पश्चाद्वर्ती हैं। भट्टनायक के अनुपलब्ध ग्रन्थ “हृदयदर्पण” का ग्रन्थकार ने “दर्पण” के नाम से निर्देश किया है। महिम भट्ट ने “यत्रार्थः शब्दोवा" में प्रयुक्त “व्यक्तः ” पद में द्विवचन के प्रयोग उचितानुचितता के प्रसङ्ग में भट्टनायक एवं अभिनवगुप्त दोनों का उल्लेख किया है। अतएव इन दोनों के बाद ही इनका समय निर्धारण हो सकता है। इसी प्रकार, उन्होंने ‘व्यक्तिविवेक’ में कुन्तक के “वक्रोक्ति” सिद्धान्त का खण्डन किया है। सारांशतः महिम भट्ट के समय की पूर्वसीमा ६०० ई. ही हो सकती है। R १. वही, पृष्ठ - ६८, ६६, २. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास-पी.वी. काणे, पृष्ट- ४७ व्यक्तिविवेक पृष्ट ३३७ “प्रकृतार्थेन वाक्येन तत्समानैर्विशेषणैः। अप्रस्तुतार्थ कथनं समासोक्तिरुदाहृता।।” ४. राजतरङ्गिणी, ४/४६५ “भट्टोभूदुद्भटस्तस्य भूमिभर्तुः सभापतिः।” वही, ५/३४ : “मुक्ताकणः शिवस्वामी कविरानन्दवर्धनः। प्रथां रत्नाकरश्चागात् साम्राज्येऽवन्तिवर्मणः।। ६. काव्यमीमांसा-राजशेखर, अध्याय-५, पृष्ठ-१६ “प्रतिभाव्युत्पत्योः प्रतिभा श्रेयसी इत्यानन्दः।” व्यक्तिविवेक, १/४ “समुद्यतादृष्टदर्पणा ममधीः । ८. वही, पृष्ठ - ६०-६१ ६. वही, १/६६-७३ * ; रुद्रट से विद्यानाथ तक महिमभट्ट १६१ इसी प्रकार, उत्तरवर्ती अनेक ग्रन्थकारों ने अपनी कृतियों में महिम भट्ट का उल्लेख किया है। इसमें प्रमुख हैं-पण्डितराज जगन्नाथ (१६०० ई.) विश्वनाथ कविराज (१३५०ई)२ तथा अलङ्कार-सर्वस्वकार रूय्यक (११५० ई.)। अतः उनके काल निर्धारण की उत्तरवर्ती सीमा रूय्यक द्वारा ‘अलङ्कार-सर्वस्व’ की रचना से कुछ पूर्व लगभग १००० ई. मानी जा सकती है। इस प्रकार, अन्तः एवं बाह्य साक्ष्यों के आधार पर महिम भट्ट का समय, आनन्दवर्धन से रूय्यक तक ६०० से ११०० ई के मध्य स्थापित किया जा सकता है।
व्यक्तिविवेक
महिम भट्ट का एकमात्र अद्वितीय ग्रन्थ “व्यक्तिविवेक” है। जिसका निर्देश उन्होंने स्वयं मङ्गलाचरण में ही कर दिया है। व्याख्यानटीका में इसकी व्युत्पत्ति की गई है कि - “व्यक्तिर्व्यञ्जनं तद्विवेकस्य करणं स्वप्रवृत्तिरिति।” व्यञ्जना का नाम ही ‘व्यक्ति’ है, उसका विवेक कराना ही ग्रन्थकार की प्रवृत्ति का प्रमुख प्रयोजन है। ध्वनि-सिद्धान्त के मूलाधार व्यञ्जना की विवेचना इस ग्रन्थ का प्रधान उद्देश्य है । इस ग्रन्थ में तीन “विमर्श’ हैं। प्रथम विमर्श का नाम ‘ध्वनिलक्षणाक्षेप’ है। इसमें ध्वनि का प्रबल रूप से खण्डन करक ध्वनि के समस्त उदाहरणों का अनुमान में अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। ध्वनि के अविवक्षित वाच्य आदि भेदों की अनुपपन्नता के साथ प्रथम-विमर्श की परिसमाप्ति हो जाती है। द्वितीय विमर्श का नाम ‘शब्दानौचित्यविचार’ है। काव्य-दोषों का निरूपण किया गया है। उसमें अनौचित्य को काव्य का प्रमुख दोष माना है। इसके शब्द तथा अर्थविषयक अथवा अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग दो भेद किये गये हैं। अन्तरङ्ग अनौचित्य के अन्तर्गत रसदोष का समावेश है और बहिरङ्ग अनौचित्य के क) विधेयाविमर्श, ख) प्रक्रमभेद, ग) क्रमभेद, घ) पौनरुक्त्य, च) वाच्यावचन आदि पञ्च भेद किये गये हैं। तृतीय विमर्श का नाम ‘ध्वनेरनुमानेऽन्तर्भावप्रदर्शनः’ है। इसके संग्रह श्लोकों की संख्या ३८ है। अन्तिम चार श्लोकों में ग्रन्थकार ने स्वकीय परिवार का परिचय प्रस्तुत किया है। ग्रन्थकार ने इस विवेचन को तत्कालीन एवं भावी कवियों के लिए किया गया अनुशासनशास्त्र कहा है। १. रसगङ्गाधर (जगन्नाथ) पृष्ठ-४७, चौखम्बा विद्या भवन, काशी साहित्यदर्पण (विश्वनाथ) पृष्ठ-१८, चोखम्बा, विद्याभवन, काशी (कृष्णमोहन शास्त्री, संस्कृत टीका) ३. अलङ्कार सर्वस्व (रूय्यक), पृष्ठ-११ (त्रिवेन्द्रम) व्यक्तिविवेक १/१ “व्यक्तिविवेकं कुरुते, प्रणम्य महिमा परां वाचम्।” व्यक्ति विवेक ३/३, ‘प्राणभता ध्वनेर्व्यक्तिरितिसैवविवेचिता। यत्वन्यत्तत्रविमतिः प्रायो नास्तीत्युपेक्षितम्।।’ व्यक्ति विवेक,२/१२६ ‘इदमद्यतनानांच भाविनां चानुशासनम् । लेशतःकृतमस्माभिः कविवारुरुक्षताम् ।।’ 9૬૨ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
व्यक्तिविवेक की टीका
‘व्यक्ति विवेक’ के अतिरिक्त ‘तत्वोक्तिकोश’ नामक किसी और ग्रन्थ की रचना की थी, किन्तु वह उपलब्ध नहीं है। उन्होंने स्वयं ‘इत्यादि प्रतिभातत्त्वमस्माभिरूपपादितं । शास्त्रे तत्त्वोक्तिकोशशास्त्रे इतिनेह प्रपञ्चितम’ व्यक्तिविवेक में किया है। ‘व्याख्यान’ या ‘व्यक्ति-विवेक-व्याख्यान’ व्यक्ति-विवेक की एकमात्र प्राचीन टीका है जोख्य्यक के नाम से प्रकाशित है। यह टीका सम्पूर्ण व्यक्ति-विवेक पर उपलब्ध नहीं होती, द्वितीय विमर्श के मध्य में ही समाप्त हो जाती है। ‘व्यक्ति-विवेक’ की दूसरी संस्कृतटीका विवृति है, जिसे ‘मधुसूदनी-विवृति’ भी कहा जाता है। यह अथ से इति तक समग्र ग्रन्थ पर है, और अभिधेय को समझने के लिए परमोपयोगी है। डॉ. रेवा प्रसाद द्विवेदी ने इसका हिन्दी अनुवाद किया है। वस्तुतः दूसरे लोग जो इसको समझेंगें, वह इस दृष्टि से उनको नहीं भूलेंगे कि उन्होंने ध्वनिनामक तत्त्व की गवेषणा करके नवीन विषयों का जो प्रतिपादन किया है, उससे उनकी बुद्धि को परितोष मिलेगा। १. व्यक्ति-विवेक, पृष्ठ-१८ (अनन्तशयन संस्करण) २. व्यक्ति-विवेक, ३/३८ ‘अन्यैरनुल्लिखितपूर्वमिदं ब्रुवाणो नूनस्मृतेविषयतां विदुषामुपेयाम्। हासैककारणगवेषणया नवार्थतत्त्वावमर्शपरितोषसमीहया वा।।’ रुद्रट से विद्यानाथ तक क्षेमेन्द्र १६३
क्षेमेन्द्र
जिस प्रकार आनन्दवर्धन ध्वनि सम्प्रदाय वामन रीति सम्प्रदाय और कुन्तक वक्रोक्ति सम्प्रदाय के संस्थापक माने जाते हैं, उसी प्रकार क्षेमेन्द्र भी औचित्यसम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हैं। संस्कृत-साहित्य में क्षेमेन्द्र नाम के अनेक लेखकों का उल्लेख प्राप्त होता है, जो इस प्रकार हैं १. गुर्जर प्रान्त के रहने वाले यदुशर्मा के पुत्र, हस्तिजन प्रकाश ग्रन्थ के लेखक क्षेमेन्द्र। २. एकशृङ्ग नामक कृति के रचयिता क्षेमेन्द्र। ३. स्पन्दसन्दोह नामक ग्रन्थ के कर्ता क्षेमेन्द्र। ४. साम्बपञ्चाशिकाविवरण के लेखक क्षेमेन्द्र। चण्डकौशिक नाट्यकृति के रचयिता क्षेमेन्द्र। प्रत्यभिज्ञाहृदय, शिवसूत्र तथा परमार्थसर के टीकाकार क्षेमराज आदि उपर्युक्त सभी क्षेमेन्द्र नामधारी ग्रन्थकार, काव्यशास्त्रकार आचार्य क्षेमेन्द्र से सर्वथा भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे। इसलिए इनके साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता है।
काल
काश्मीर का प्रायः प्रत्येक प्राचीन साहित्यकार स्वकीय देश और काल का समुल्लेख किया है। क्षेमेन्द्र ने भी अपनी अधिकांश कृतियों में देश-काल एवं वंश का वर्णन किया है। उन्होंने अपनी कृतियों में अभिनवगुप्त के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति का नामोल्लेख नहीं किया है। इसी आधार पर पं. मधुसूदन शास्त्री कौलने स्पष्ट किया है कि क्षेमेन्द्र ६६० ई. के बाद ही उत्पन्न हुए होगें, और १०६५ ई के लगभग उनकी मृत्यु हुई होगी’। उनके इस अभिमत का आधार प्रस्तुत श्लोक है, जो वृहत्कथामञ्जरी और भारतमञ्जरी में उल्लिखित है ‘श्रुत्वाभिनवगुप्ताख्यात् साहित्यं बोधवारिधः। आचार्यशेखरमणेर्विद्याविवृतिकारिणः।। यहाँ पर ‘विद्याविवृति’ से तात्पर्य, अभिनवगुप्त द्वारा विरचित ‘ईश्वर प्रत्याभिज्ञा विवृति विमर्शिनी’ से है। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस समय अभिनवगुप्त, उत्पलदेव के ‘ईश्वर प्रत्यभिज्ञा’ की ‘विवृतिविमार्शिनी’ नामिका टीका लिख रहे थे, उस समय क्षेमेन्द्र उनके यहाँ साहित्य का पाठ सुन रहे थे। उस समय क्षेमेन्द्र की आयु लगभग २५ वर्ष रही होगी। जब ‘प्रत्यभिज्ञाविवृतिविमर्शिनी’ की रचना काल, अभिनवगुप्तानुसार १०१४ ई. के । १. देशोपदेश एवं नर्ममाला, भूमिका, पृ.२० २. बृहत्कथामञ्जरी, उपसंहार, श्लोक-७ एवं भारतमञ्जरी, उपसंहार, श्लोक-१ १६४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
लगभग है, तो क्षेमेन्द्र का जन्मकाल ६६० ई. के लगभग माना जा सकता है। डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय का अभिमत है कि अभिनवगुप्त का कार्यकाल ६६०-६१ ई. से लेकर १०१४-१५ तक है। इससे उक्त मत ही की परिपुष्टि होती है। क्षेमेन्द्र के काल की अन्तिम सीमा अनन्तराज के शासनकाल की समाप्ति एवं उनके पुत्र कलश के शासन काल का प्रारम्भ माना जा सकता है। क्षेमेन्द्र ने औचित्यविचारचर्चा-‘राज्ये श्रीमदनन्तराजनृपतेः काव्योदयोऽयंकृतः’ तथा ‘कविकण्ठाभरण’ में ‘तस्य श्रीमदनन्तराजनृपतेः काले किलायं कृतः’ लिखकर अनन्तराज के नाम का उल्लेख किया है। अनन्तराज ने कश्मीर में १०२८ ई. से लेकर १०६३ ई. तक राज्य किया। वस्तुतः, यह क्षेमेन्द्र का समय माना जा सकता है।
वंश एवं देश
क्षेमेन्द्र का जन्म कश्मीर के उच्चकुल के सम्पन्न सारस्वत ब्राह्मण वंश में हुआ था। इनके प्रपितामह भोगीन्द्र या भोगेन्द्र था। अनेक विद्वान् भोगीन्द्र के स्थान पर भोगेन्द्र नाम को ही स्वीकार किया है। रामायणमञ्जरी, भारतमञ्जरी, वृहत्कथामञ्जरी, दशावतारचरित, सुवृत्ततिलक, औचित्यविचार चर्चा और चारूचर्या आदि कृतियों में क्षेमेन्द्रने ने अपने पिता का नाम ‘प्रकाशेन्द्र’ उल्लिखित किया है। उनके पुत्र का नाम सोमेन्द्र था जो स्वयमेव एक कुशल कवि था। इसका दूसरा नाम निरूद्ध था। पं. मधुसूदनशास्त्री कौल का अभिमत है कि उनके पिता का नाम केवल प्रकाश था, पर्याप्त दान पाकर ब्राह्मणों ने उन्हें ‘इन्द्र’ की उपाधि से विभूषित किया, जो सर्वथा मात्र कपोलकल्पित कल्पना है, क्योकि प्रपितामह भोगेन्द्र, पिता प्रकाशेन्द्र, स्वयं क्षेमेन्द्र, पुत्र सोमेन्द्र, सभी के नामों के साथ ‘इन्द्र’ संलग्न है। अतः इनके पिता का नाम प्रकाशेन्द्र ही था प्रकाण्ड या मात्र प्रकाश नहीं। क्षेमेन्द्र ने आचार्य अभिनवगुप्त के चरणों में बैठकर नियमपूर्वक साहित्यविद्या का अध्ययन किया था। औचित्यविचार चर्चा में अपने उपाध्याय गङ्गकवि का उल्लेख किया है। डॉ. पी.वी.काणे ने उन्हें भट्टगङ्गक कहकर उद्धृत किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि गङ्गक उनके काव्यशिक्षक रहे, परन्तु उनकी कोई भी कृति उपलब्ध नहीं होती है। क्षेमेन्द्र ने अपने एक अन्य महत्वपूर्ण गुरू सोम का अत्यन्त समादर पूर्वक उल्लेख बृहत्कथा मज्जरी और भारत मज्जरी में किया है और उन्हें भागवताचार्य कहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि क्षेमेन्द्र ने उनसे भागवत अर्थात् वैष्णवी शिक्षा ली थी, विद्याध्ययन नहीं किया था। उन्होंने देवधर नामक एक व्यक्ति का वर्णन किया है, जिनकी आज्ञा से NAYEHRENIMATERIA १. له अभिनवगुप्त, पृ. १२३ अवदानकल्पलता, पल्लव १०८, श्लोक ४ ‘सोमेन्द्रनामा तनयोऽथ तस्य कविर्निरुद्धापरनामधेयः। अस्मिन् जिनोदारकथा, प्रबन्धे संपूरयिष्यत्यवदानशेषम्।।’ भारतमञ्जरी, उपसंहारात्मक, श्लोक-१, बृहत्करयिमञ्जरी, उपसंहारात्मक श्लोक-७ भारतमज्जरी, उपसंहारात्मक, श्लोक-६, बृहत्कथामज्जरी, उप सं. श्लोक-३८ ‘श्रीमद्भागवताचार्यसोमपादाब्जरेणुभिः। धन्यतां यः परंयातः(प्रातः) नारायणपरायणः।।’ .. रुद्रट से विद्यानाथ तक क्षेमेन्द्र १६५ वृहत्कथामज्जरी की रचना की थी। औचित्यविचारचर्चा के उपसंहारात्मक पद्यों में अपने को ‘सर्वमनीषिशिष्य’ कहा है। क्षेमेन्द्र यद्यपि स्वयमेव प्रतिभा के धनी थे, किन्तु उनके व्यक्तित्व के विकास में वाल्मीकि और विशेषरूप से वेदव्यास की कृतियों रामायण और महाभारत का योगदान अक्षुण्ण है। क्षेमेन्द्र किसी नृपतिसभा के कविरत्न थे, ऐसा उल्लेख उनकी कृतियों में कहीं नहीं हुआ है। यद्यपि उन्होंने समसामयिक कशमीरीनरेश अनन्तराज का नामतः उल्लेख, सुवृत्ततिलक, औचित्यविचार चर्चा, कविकण्ठाभरण, नर्ममाला समयमातृका तथा अवदानकल्पलता में, अनन्तराजपुत्र कलश का वर्णन, दशावतारचरित-के उपसंहारात्मक श्लोकों में किया है। इनके पुत्र सोमेन्द्र ने अवदान कल्पलता के अन्तिम श्लोकों में अनन्तराज का उल्लेख, अनन्तमल्लनृपति नाम से किया है। वस्तुतः क्षेमेन्द्र ने दिदा से लेकर कलश पर्यन्त सातवाहनवंश के पाँच राजाओं के शासन-काल का अवलोकन किया था। उनका जन्म दिद्दारानी के कठोर काल में हुआ था, शिक्षा-दिक्षा संग्रामराज के शासनकाल में सम्पन्न, साहित्यिक गतिविधियों एवं ग्रन्थ-निर्माण का महत्त्वपूर्ण काल अनन्तराज का ही शासन काल था। कलश के राज्यकाल में सम्भवतः वे पांच-सात वर्ष ही जीवित रहे होगें। यद्यपि पं. मधुसूदनशास्त्री कौल, एम. कृष्णमाचारी तथा डॉ. आर्येन्द्रशर्मा आदि विद्वानों का कथन है कि क्षेमेन्द्र को अनन्तराज एवं उनके पुत्र कलश दोनों के समय राज्याश्रय प्राप्त था, परन्तु ऐसा उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। यदि इसमें सत्यता होती तो कल्हण अपनी राजतरङ्गिणी जहाँ अनन्तराज और कलश के शासन की प्रत्येक छोटी-मोटी बातों का विवरण विस्तारपूर्वक दिया है, वहीं यह उल्लेख नहीं प्राप्त होता है कि उनकी सभा में क्षेमेन्द्र या उनके पुत्र सोमेन्द्र नामक कवि को राज्याश्रय प्राप्त था। वस्तुतः, क्षेमेन्द्र एक स्वतन्त्र प्रकृति के साहित्यशास्त्री थे। उन्हें जीविकोपार्जनार्थ राज्याश्रय की अपेक्षा नहीं थी। राजदरबारी सीमाओं के आबद्ध रहकर जीवन-यापन करना उनकी प्रकृति के सर्वथा प्रतिकूल था उन्होंने अपनी कृति ‘दर्पदलन’ में राजसेवा में नियुक्त कवियों के द्वारा की गयी चित्रालङ्कारहारिणी रचना को वेश्या के समान वर्णित किया है, जहाँ लोभवश कविता को दूसरों के विलास का साधन बना दिया जाता है। प्राप्त उल्लेखों के अनुसार क्षेमेन्द्र ने लगभग चालीस कृतियों की रचना की थी, जिनमें अभी तक अठारह रचनाएँ उपलब्ध हो सकी हैं १. परपण्यनामा। औचित्य विचार चर्चा, उप सं., श्लोक ०३ ‘तस्यात्मजःसर्वमनीषिशिष्यः श्रीव्यासदासापरपु क्षेमेन्द्र इत्यक्षयकाव्यकीर्तिश्चक्रे नवौचित्यविचारचर्चाम् ।।’ दर्पदलन ३/१० ‘कविभिनॅपसेवासु चित्रालङकारहारिणी। वाणी वेश्येव लोभेन परोपकरणीकृता।।‘१६६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र P ERMIN GHASiscardia
उपलब्ध ग्रन्थ
१. रामायणमज्जरी-वाल्मीकि रामायण पर आश्रित, सात काण्डों में विभक्त कृति है, जिसमें ६१८६ श्लोक हैं। २. दशावतारचरित-दश अध्यायों में पल्लवित भगवान् विष्णु के दश अवतारों की कथा वर्णित है। इसमें १७६४ श्लोक हैं। लोकप्रकाश-इसमें हिन्दुओं के प्रतिदिन के जीवन विषयक विविध सामग्री का संकलन है। ४. नीतिकल्पतरू-१३८ अध्यायों में विभक्त, राजनीति से सम्बन्धित ग्रन्थ है। अवदानकल्पलता-इसका दूसरा नाम ‘बौद्धावदानकल्पलता’ भी है। प्रस्तुत ग्रन्थ दो भागों में उपलब्ध होता है। प्रथम भाग में एक से ४६ पल्लव तथा द्वितीय भाग में ५० से १०८ पल्लव तक है। इसमें भगवान गौतम बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित जातक कथाओं का संग्रह है। प्रथम पल्लव से १०७ पल्लव तक के रचयिता स्वयमेव क्षेमेन्द्र हैं। १०८ वाँ अन्तिम पल्लव के कर्ता उनके पुत्र सोमेन्द्र हैं। इस ग्रन्थ का रचना काल १०५२ ई. माना जाता है। ६. बृहत्कथामज्जरी-इसमें उपसंहार तथा परिशिष्ट के साथ-साथ १८ लम्बक और ७६३६ श्लोक हैं। वस्तुतः, पैशाची प्राकृत भाषा में विरचित गुणाढ्य की महनीय कृति ‘बृहत्कथा’ का संक्षेप है। भारतमज्जरी- इसमें १६ पर्व तथा १०७६२ श्लोक हैं। सम्पूर्ण महाभारत का संक्षिप्त सारतत्व है। कविकण्ठाभारण- काव्यशास्त्र विषयक प्रस्तुत ग्रन्थ पांच सन्धियों में गुम्भित है। काव्य-निर्माण शिक्षा, कवित्वशक्ति-प्राप्ति एवं गुण-दोष आदि अतीव महत्वपूर्ण काव्यतत्व-निरूपण, लक्षण एवं उदाहरणों से समलङ्त है। ६. चतुर्वर्गसंग्रह- इसमें धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्षादि पुरुषार्थ चतुष्टयों का सुष्टु निरूपण है। इसमें उपदेशात्मक १०६ पद्य हैं। १०. सुवृत्ततिलक- विन्यासत्रय में निबद्ध प्रस्तुत ग्रन्थ २७ छन्दों के लक्षण तथा उदाहरणों से युक्त है। छन्दों के विषय-निरूपण की अनुकूलता तथा रसों की उपादेयता पर भी पर्याप्त प्रकाश है। अभिनन्द जहाँ अनुष्टुप् छन्द के प्रयोग में श्रेष्ठ हैं तो पाणिनि वहीं उपजाति छन्द में निपुण हैं। महाकवि कालिदास का प्रिय छन्द मन्दाक्रान्ता है तो भारवि का वंशस्थ छन्द भवभूति की यदि सिद्धहस्तता शिखरिणी छन्द-प्रयोग में है तो राजशेखर शार्दूलविक्रीडित के लिए प्रसिद्ध हैं। ११. समयमातृका-आठ समयों में सुविभक्त ६३६ श्लोकों से समलङ्कृत ग्रन्थ शृङ्गार परक प्रबन्धकाव्य है। इसमें काश्मीरनृपति जयापीडकालीन भारतीय समाज का सचित्र १५ दिया हा
रुद्रट से विद्यानाथ तक क्षेमेन्द्र १६७ चित्रण है। वेश्या-जीवन की व्यापकता तथा समाज में उसके प्रचार-प्रसार का विशद वर्णन है। १२. नर्ममाला-भारतीय समाज में परिव्याप्त दुराचारण का सटीक निरूपण कवि ने तीन परिहासों में किया है। कायस्थ, वैद्य, ज्योतिषी, व्यापारी, श्रमणिका, गुरुभट्ट, रण्डा, वृद्धवणिक् आदि लोगों के क्रिया-कलापों पर परिहासपूर्ण व्यंग्यप्रहार किया है। इतना ही नहीं, इनसे बचने का भी उपदेश दिया है। १३. चारुचर्या-१०१ अनुष्टुपश्लोकों से युक्त एक सदुपदेशात्मक लघुकाव्य है। प्रत्येक श्लोक के पूर्वार्द्ध में नीतिपरक सूक्ति है और उत्तरार्द्ध में उसका उदाहरण है। १४. देशोपदेश- प्रस्तुत कृति भी उपदेशों से युक्त है। इसमें आठ उपदेश और ३०० __ श्लोक हैं। प्रथम में दुर्जन, द्वितीय में कादर्य, तृतीय में वेश्या, चतुर्थ में कुहनी, पञ्चम में विट, षष्ठ में छात्र, सप्तम में वृद्धभार्या तथा अष्टम में गुरू, कुलवधू, भट्ट, वणिक्, कवि, द्यूतकर एवं वैद्य आदि लोगों के छल-छद्मपूर्ण क्रिया-कलापों का प्रकाशन है। १५. दर्पदलन-इस उपदेशात्मक काव्य में हास्य व्यंग्य के माध्यम से दर्प-दोष का वर्णन है। इसमें ५६६ श्लोक हैं। दर्प के कारण कुल, धर्म, ज्ञान, रूप, वीरता, दान तप का यथार्थ निरूपण किया गया है। १६. कला-विलास-इसमें १० सर्ग और ५५७ श्लोक हैं। समाज में कला के नाम से होने वाले दोषों पर व्यंग्यात्मक प्रहार है। १७. सेव्यसेवकोपदेश-प्रस्तुत लघुग्रन्थ भी उपदेशपरक है। इसमें मात्र ६१ श्लोक है। इसमें स्वामी और सेवक के मधुरमय सम्बन्धों के विषय में कुछ तात्विक तथ्यों का उद्घाटन किया है। १८. औचित्यविचारचर्चा-क्षेमेन्द्र के उपलब्ध समस्त ग्रन्थों में औचित्यविचार-चर्चा का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें साहित्यिक समीक्षा विषयक ‘औचित्य’ नामक नूतन सिद्धान्त की उद्भावना की गयी है। ३६ कारिकाओं से युक्त, कारिका, वृत्ति और उदाहरण से परिपूर्ण ग्रन्थ है। क्षेमेन्द्र ने औचित्य को ‘रस का प्राण’ कहा है’। तथा अनौचित्य को रस-भङ्गका कारण कहा है ‘अनौचित्याहते नान्यद् रसभङ्गस्य कारणम्। प्रसिद्धौचित्यबन्धस्तु रसस्योपनिषत्परा।।’ १. औचित्यस्य चमत्कारिणश्चारुचर्वणे। रसजीवितभूतस्य विचारं कुरुतेऽथुना।।’ १६८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र औचित्य क्या है? इसका उल्लेख करते हुए वर्णन है ‘उचितं प्राहुराचार्याः सदृशं किल यस्य तत्। उचितस्य च यो भावस्तदौचित्यं प्रचक्षते।।’ डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी ने ‘औचित्यविमर्श’ के नाम से इस सिद्धान्त की पाश्चात्य एवं पौरस्त्य उभयात्मक काव्यशास्त्रीय मान्यताओं के साथ तुलनात्मक उत्तम विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
अनुपलब्ध ग्रन्थ
१. अमृततरङ्ग, २. नृपावली, ३. चित्रभारत, ४. कनकजानकी, ५. कविकर्णिका, ६. वात्स्यायनसूत्रसार, ७. ललित रत्नमाला, ८. शशिवंश, ६. अवसरसार, १०. मुक्तावली, ११. मुनिमतमीमांसा, १२. विनयवल्ली, १३. लावण्यवती, १४. पद्यकादम्बरी, १५. पवनपञ्चाशिका, १६. अमृतसार __वस्तुतः क्षेमेन्द्र एक प्रबुद्ध और मौलिक चिन्तक थे। वे जहाँ अपने युग वर्तमान के सजग और प्रखर व्याख्याकार हैं, वहीं अतीत के अनकहे विचित्र चित्रों को समुज्ज्वल तथा समाकर्षक स्वरूप प्रदान करने में सक्षम साहित्यकार भी हैं। उनकी व्यंग्यचेतना में कटुता नहीं अपितु विनोदात्मक माधुर्य है। कला-विलास में संवेदना के साथ-साथ सौन्दर्य दर्शन है। कल्पनाशक्ति में उर्वरकता है, प्रतिभा में कल्पना और यथार्थ दृष्टि का अनुभूति, तर्क और व्यंग्य का मधुर मिश्रण है। औचित्यविचारचर्चा के द्वारा क्षेमेन्द्र ने संस्कृत काव्यशास्त्र में औचित्य सम्प्रदाय का शुभारम्भ किया, सुवृत्ततिलक के माध्यम से काव्य में भाव और विषय के अनुरूप छन्दोविधान के द्वारा एक अभिनव आलोचनात्मक दृष्टि का परिचय दिया है तथा कविकण्ठाभरण के माध्यम से कवि-शिक्षा के क्षेत्र में एक नूतन अध्याय का अविष्कार किया है। PARMA ANI १६६ रुद्रट से विद्यानाथ तक भोजराज
भोजराज
भोज अपने समय का एक प्रतापशाली और सार्वभौमिक सम्राट था। जयपुर-प्रशस्ति के अनुसार, महाराज भोज का राज्य (उत्तर में) हिमालय से (दक्षिण में) मलयाचल तक (पूर्व में) उदयाचल से (पश्चिम में) अस्ताचल तक विस्तृत था। पद्मगुप्त परिमल ने ‘नवसाहसाङ्कचरित’ में जहाँ मुञ्ज, उसके पूर्वजों और नवसाहसाङ्क उपाधिधारी सिन्धुराज का वर्णन करता है, वहीं उसके पुत्र भोज के विषय में कुछ उल्लेख नही किया है और उसके ग्रन्थ-समाप्ति का समय सम्भवतः १००५ ई. है। इसका तात्पर्य यह है कि इस समय तक भोज राजगद्दी पर नहीं बैठा था। डॉ. बुहुलर और डॉ. हेमचन्द्र राय ने इसी आधार पर अनुमान किया है कि वह १०१० ई. में गद्दी पर बैठा होगा। जैनप्रबन्धकार शुभशीलगणि ने भोज का राज्यकाल वि.सं. १०७८ (१०२१ ई.) बताया है, जो सर्वथा असत्य प्रतीत होता है। कल्हण ने ‘राजतरङ्गिणी’ में कहा है कि-काश्मीरी राजा अनेकवर्षो तक सांसारिक सुखों का भोग करते हुए विष्णुपद (मोक्ष) को प्राप्त हुआ। उस समय वह और राजा भोज दोनों कविबान्धव एक समानता को प्राप्त हुए। विल्हणने भी ‘विक्रमाङ्कदेवचरितम्’ में क्षितिपंति की तुलना राजा भोज से की है। यदि उक्त अर्थ सत्य मान लिया जाय तो हम कह सकते हैं कि भोज की मृत्यु १०६२ ई. के पूर्व हुई होगी, क्योंकि क्षितिपति के उत्तराधिकारी ‘कलश’ की वही (१०६२ ई.) तिथि राजगद्दी प्राप्त करने की है। अतः इन समस्त साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भोज के राज्यकाल की सीमा ६६६ ई. से १०६२ ई. के मध्य होनी चाहिए।
भोज का समय
डॉ. एस.एन. दासगुप्त ने भोज का समय १००५ई. और मृत्यु-समय १०५४ ई. के पूर्व माना है। गौरीशङ्कर हीराचन्द्र ओझा ने भोज के गद्दी पर बैठने का समय १०१० ई. और अन्त १०५५ ई. से पूर्व माना है। इस प्रकार विभिन्न विद्वानों ने भी १००५ ई. से १०५८ ई. अर्थात् ५३-५४ वर्ष तक भोज के राज्यकाल की सीमा निर्धारित की है।
एपिग्रैफिक इण्डिया, भाग-१, श्लोक १७, पृष्ठ-२३५ २. उत्तर भारत का राजनीतिक इतिहास (डॉ. राय), पृष्ठ-८६६, भाग-२ भोज प्रबन्ध, श्लोक-८ ‘विक्रमाद्वासरादष्टमुनिव्योमेन्दुसंमिते। वर्षे मुज्जपदे भोजभूपः पट्टे निवेशितः।। राजतरङगिणी, तरङ-७, श्लोक-२५८-५६१ ५. विक्रमाकदेवचरितम्, सर्ग-१८ श्लोक ४८ ‘यस्यभ्राताक्षितिपतिरितिक्षत्रतेजोनिधानम्। भोजक्ष्माभृत्सदृशमहिमा लोहराखण्डलोऽभूत।।’ ६. संस्कृत साहित्य का इतिहास, भाग-१, पृष्ठ- ४२५ ७. इण्डियन एण्टीक्वेरी, भाग-१२, पृष्ठ-१०२ २०० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र बांसवार ताम्रपत्र’, नटमादानपत्र के अनुसार, भोजराज १०२० ई. में जीवित था। मान्धाता ताम्रपत्र के अनुसार, यही सिद्ध होता है कि वि.सं. १११२ (१०५५ ई.) के पूर्व ही भोज की मृत्यु हो गयी थी। निष्कर्षतः, इन समस्त साहित्यिक, विद्वन्मण्डलीय और अभिलेखीय प्रमाणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि राजा भोज, ६६६ ई. में सिंहासनासीन हुआ और लगभग १०५५ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी होगी। इस प्रकार, उसने लगभग ५५-५६ वर्षों तक निष्कण्टक राज्यकिया, जो मेरुतुङ्ग द्वारा उल्लिखित भोज-जन्म-कुण्डली’ (५५ वर्ष, ७ माह और ३ दिन) से भी पुष्ट हो जाता है।
भोज के ग्रन्थ
जहाँ एक ओर भोज अपने सफल सामरिक अभियानों, दानशीलता और विद्या-विलास के लिए विश्वविश्रुत है, वहीं दूसरी और वह उच्चकोटिका साहित्यकार भी था। उसने समस्त साहित्यशास्त्रों का अविकल अभ्यास किया था और ३६ प्रकारक आयुधों का आकलन कर, ७२ कलारूपी समुद्र का पारगामी भी था । प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार, ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ के अतिरिक्त भोज ने १०४ ग्रन्थों का प्रणयन भी किया था। परन्तु इस ग्रन्थ के टीकाकार ‘आजाद’ के अनुसार, भोज द्वारा विरचित ८४ ग्रन्थों का नामकरण, भोज की उपधियों के आधार पर छापा था। चन्द्रप्रभसूरि ने भी भोज द्वारा ग्रथित ग्रन्थों का सङ्कत किया है इनके अनुसार, भोजने व्याकरण, अलङ्कारशास्त्र, तर्कशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, राजसिद्धान्त, वनस्पतिशास्त्र, वास्तुकला, अध्यात्म एवं स्वप्नविज्ञान तथा सामुद्रिकादिनाना विधात्मक विषयों पर ग्रन्थ-प्रणयन किया था। भोज द्वारा लिखित ग्रन्थों की संख्या के विषय में भी विद्वानों में मतैक्यभाव परिलक्षित नहीं होता है थियोडोर आफेक्ट महोदय ने अपने ‘कैटेलागस् कैटेलागुरम में भोज-विरचित ग्रन्थों की संख्या २३ बताते हुए इस प्रकार उल्लेख किया है 86870 3. ज १. एपिग्राफिका इण्डिका, भाग-११, पृष्ठ–१८२-१८३ २. एपिग्राफिका इण्डिका, भाग-१८, पृष्ठ-३२०-३२५ जर्नल्स् ऑव् ओरिएण्टल रिसर्च, (मद्रास) भाग-१६, उपभाग- २, पृष्ठ-१ ४. प्रबन्धचिन्तामाणि, पृष्ठ-२२ ‘पञ्चाशत्पञ्च वर्षाणिमासासप्त दिनत्रयम्। भोक्तव्यं भोजराजेन सगौडं दक्षिणापथम्।।’ वही, पृष्ट-२२ ‘सोऽभ्यस्तसमस्तशास्त्रः ……….समस्तलक्षणलक्षितो ववृधे।’ ६. वही, पृष्ठ-५० ‘एतावन्तः (चतुरूत्तरंशतम्) एवगीतप्रबन्धाः भवदीयाः।’ वही, पृष्ठ-५० ‘भोज व्याकरणं येतत् शब्दशास्त्रं प्रवर्तते। असौहिमालवाधीशे विद्वच्चक्रशिरोमणिः ।। शब्दालंकारदैवज्ञः तर्कशास्त्राणि निर्ममे। चिकित्सा-राजसिद्धान्त तरु-वास्तूदयानिच।। अङ्क-शाकुनकाध्यात्म-स्वप्नसामुद्रिकाण्यपि।।’ इत्यादि।।। २०१ *
रुद्रट से विद्यानाथ तक भोजराज १. ज्योतिष- आदित्य-प्रताप-सिद्धान्त, राजमार्तण्ड, राजमृगाक, विद्वज्जनबल्लभ।’ २. वैद्यक- आयुर्वेद- सर्वस्व, विश्रान्त-विद्या-विनोंद, शालिहोत्र (अश्व-वैद्यक) ३. शैवशास्त्र-तत्वप्रकाश, शिवतत्वरत्नमालिका, युक्तिकल्पतरू, सिद्धान्त-संग्रह। नीतिशास्त्र-चाणक्यनीति कोष-नाममालिका ६. पतञ्जलि-योगसूत्र-टीका ७. धर्मशास्त्र- व्यवहार-समुच्चय, चारूचर्या ८. व्याकरण- शब्दानुशासन शिल्पशास्त्र- समराङ्गण-सूत्रधार १० सुभाषित-सुभाषित-प्रबन्ध ११. अलङ्कारशास्त्र- सरस्वतीकण्ठभरण १२. चम्पू-रामायण चम्पू विश्वेश्वरनाथ रेउने १. भुजबल-निबन्ध-ज्योतिष, २. शृङ्गार प्रकाश (अलङ्कार शास्त्र), ३.) पूर्वमार्तण्ड, विविधविद्याविचार चातुरा, सिद्धान्तसार पद्धति (राजनीति और धर्मशास्त्र) ४) महाकली-विजय विद्या-विनोद, शृङ्गारमञ्जरी, दो कूर्मशतक (नाटक और काव्य) और प्राकृतव्याकरण-इन ११ अतिरिक्त ग्रन्थों का उल्लेख करके ग्रन्थों की संख्या ३४ बतायी है। श्री बी.ए. रामस्वामी शास्त्री ने भोज के २४ ग्रन्थों का उल्लेख किया है। के.एम. मुंशी ने ३६ ग्रन्थों को उद्धृत किया है। परन्तु, श्रीनिवास अयनर महोदय ने अपने ‘भोजराज’ नामक अङ्गल ग्रन्थ में प्रबन्ध-चिन्तामणि को ही आधार मानकर कहा है कि- भोजराज ने १०४ मन्दिरों का निर्माण करवाया और उन्ही पर आधारित १०४ ग्रन्थों की रचना की थी, जिनमें से २८ ग्रन्थों का अन्वेषण हो चुका है। कुछ भी हो अनेक युद्धो के विजेता और समसामयिक राजनीति में सतत अभिरूचि लेने वाले महाराजाधिराज, कविराज, शिष्टशिरोमणि, धारेश्वर श्री भोजदेव की ये अन्वेषित साहित्यिक कृतियाँ, उनकी असीम शारीरिक और बौद्धिक शक्ति की ओर सङ्केत करती है। __ वस्तुतः अलङ्कारशास्त्र के विषय में उनके ग्रन्थ द्वय प्राप्त हैं-१. सरस्वती कण्ठाभरण, २. शृगार प्रकाश। सरस्वतीकण्ठाभरण में पाँच परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में दोष एवं १. एपिग्राफिका इण्डिका, भाग-११, पृष्ठ-१८२-१८३ २. राजाभोज- रेड, पृष्ठ २३६-२३७ ३. गुजरात और उसका साहित्य- के. एम. मुंशी, पृष्ठ- ६५-६६ ।। ४. भोजराज, अयङ्गर अध्याय-७, पृष्ठ-६६, ठीवरं is said composed 104 poems to match पूजी जीम १०४ temples, he built of these 28 have been discovered. ५. उत्तर भारत का राजनीतिक इतिहास-डॉ. पाटक, पृष्ठ-५६७ NA अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र २०२ गुण का विवेचन है। इसमें इन्होंने पद-वाक्य तथा वाक्यार्थ तीनों के १६-१६ दोष और शब्द एवं अर्थ के २४-२४ गुणों का उल्लेख किया है। द्वितीय परिच्छेद में २४ शब्दालड्कारों तथा तृतीय परिच्छेद में २४ अर्थालङ्कारों तथा चतुर्थ परिच्छेद में २४ उभयालडकारों का वर्णन किया है। पञ्चम परिच्छेद में रस, भाव, पञ्चसन्धि तथा वृत्तिचतुष्टयों का विशद वर्णन किया है। __ अपने मतों की पुष्टि में स्थान-स्थान पर ग्रन्थकार ने प्राचीन अलङ्कार शास्त्रियों के मत को उद्धृत किया है। इसमें सर्वाधिक उद्धरण आचार्य दण्डी के ही हैं। इस ग्रन्थ के ऊपर १४वीं शताब्दी में महामहोपाध्याय रत्नेश्वर ने “रत्नेश्वर” नामक टीका लिखी थी। भोजराज का अतीव विशालकाय दूसरा ग्रन्थ “शृङ्गार प्रकाश” है। इसमें कुल ३६ प्रकाश हैं। प्रथम आठ प्रकाशों में शब्द और अर्थ विषयक सिद्धान्तों का व्याकरण की दृष्टि से निरूपण किया गया है। नवम-दशम प्रकाशों में दोष-गुण-समीक्षा, एकादश-द्वादश प्रकाशों में महाकाव्य और नाट्य-विवेचन और शेष २४ प्रकाशों में रसों का सोदाहरण सूक्ष्म एवं विशद वर्णन किया गया है। ग्रन्थकार ने शृङ्गार रस को ही प्रधान रस माना है। उसमें धर्म और अर्थ, काम तथा मोक्ष पुरुषार्थ चतुष्टयों का समावेश है। SARDAN रुद्रट से विद्यानाथ तक मम्मट २०३
मम्मट
काल
वाग्देवतावतार काव्य प्रकाशकार मम्मटाचार्य ने अपने जन्म-स्थान अथवा जन्म-काल के विषय में कहीं भी कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। अतः, इस विषय में बाह्य तथा आभ्यन्तर प्रमाणों के द्वारा कुछ निश्चय किया जा सकता है।
बाह्य प्रमाण के रूप में
(क) सर्वदर्शन संग्रहकार माधवाचार्य ने नामोल्लेखपूर्वक उनका निर्देश किया है।’ इनका समय १३३५ ई. माना गया है। (ख) विश्वनाथ कविराज ने अपने साहित्य-दर्पण में मम्मट के काव्य-लक्षण “तददोषौ शब्दार्थों सगुणावनलडकृती पुनः क्वापि” का खण्डन किया है। उनका समय १३००-१३८० ई. है। उपर्युक्त तथ्यों से यह निश्चित हो जाता है कि माधवाचार्य तथा विश्वनाथ के समय तक ‘काव्यप्रकाश’ साहित्यशास्त्र-जगत् में पर्याप्त ख्याति प्राप्त कर चुका था। अतः इन बाह्य प्रमाणों से मम्मट की अन्तिम सीमा १३०० ई. के पूर्व ही स्थिर होती है।
आभ्यन्तर प्रमाण के रूप में
(क) काव्यप्रकाशकार ने दशम उल्लास में उदात्त अलकार के उदाहरण में भेजराज की उदारता एवं दानशीलता का उल्लेख किया है। भोजराज का समय १०५० ई. के पश्चात् नहीं हो सकता है। अतः काव्यप्रकाश की रचना १०५० ई. के पूर्व की नहीं हो सकती है। काव्यप्रकाश में पद्मगुप्त-विरचित ‘नवसाहसाङ्कचरितम्’ से कुछ श्लोक उद्धृत हैं। इस ग्रन्थ की रचना का समय १००५ ई. बताया गया है। (ग) मम्मट ने काव्यप्रकाश में “इति श्रीमदाचार्याभिनवगुप्तपादाः” अभिनवगुप्त का उल्लेख किया है। अभिनव-गुप्त का समय ६८०-१०२० ई. निर्धारित है। CHRITESHABADASATARIANORTAINRISTMADRASummitionARMAnePARLIEREILLE2
- us द्रष्टव्य सर्वदर्शनसंग्रह, पातञ्जल दर्शन २. काव्यप्रकाश (झलकीकर) भूमिका, पृष्ठ-४ ३. साहित्यदर्पण, पृष्ठ-६-७ । काव्यप्रकाश, उल्लास-१० “यद्विद्वद्भवनेषु भेजनृपतेः तत् त्यागलीलायितम्।” संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास-पी.वी. काणे, पृष्ठ २६२-६३ नवसाहसाडक्चरितम् १/६२ “सद्यः करस्पर्शमवाप्य चित्रं रणे रणे यस्य कृपाणलेखा। तमालनीला शरदिन्दुपाण्डु यशस्त्रिलोक्याभरणं प्रसूते।।” १६/२८ “शिरीषादपि मृदगी क्वेयमायतलोचना। अयं क्वच कुकूलाग्निकर्कशो मदनानलः।।” संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास-वी.वी. काणे, पृष्ठ-२६३ काव्यप्रकाश (झलकीकर) पृष्ठ, ६५ ८. २०४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र (घ) हेमचन्द्राचार्य ने “काव्यानुशासन" की रचना लगभग ११४३ ई. के लगभग की है। उन्होंने काव्यप्रकाश का नामतः उल्लेख किया है।’ (ङ) काव्यप्रकाश के सर्वप्रथम टीकाकार माणिक्यचन्द्र ने अपनी ‘सङ्केत’ नामिका टीका ११५६-६० ई. में लिखी थी। रूय्यक ने अपने ग्रन्थ “अलङक्रारसर्वस्व" में अनेक स्थलों पर काव्यप्रकाश का निर्देश किया है। “अलङ्कारसर्वस्व" का समय ११३५-५० ई. के मध्य स्थित है। अतः उक्त तथ्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि मम्मटाचार्य का समय १०५४ ई. के पश्चात् तथा ११०० ई. के पूर्व निर्धारित किया जा सकता है। आचार्य मम्मट काश्मीर देश में उत्पन्न हुए थे। उनके पिता का नाम जैयट था। पतञ्जलि-प्रणीत “महाभाष्य” के टीकाकार कैयट तथा यजुर्वेद भाष्यकार उव्वट उनके अनुज थे। -“श्रीमज्जैयट गेहनी सुजठराज्जन्माप्य युग्मानुजः।” ये दोनों भ्राता मम्मट के शिष्य भी थे। परन्तु यह कहना समुचित प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि उव्वटकृत वाजसनेय संहिता-भाष्य में उनका परिचय इस प्रकार है “आनन्दपुरवास्तवज्रटाख्यस्य सूनुना। मन्त्रभाष्यभिदं क्लृप्तं भोजे पृथ्वी प्रशासति।।" इस विवरण के अनुसार, उव्वट के पिता का नाम “वज्रट” है, न कि जैयट। उनका वेदभाष्य भोजराज के शासन-काल में लिखा गया है। भोजराज, मम्मट से पूर्ववर्ती हैं। अतः भीमसेन का लेख सर्वथा सन्दिग्ध प्रतीत होता है।
काव्यप्रकाश
मम्मटाचार्य का एकमात्र उपलब्ध ग्रन्थ “काव्यप्रकाश है। इसमें १० उल्लास तथा १५० कारिकाएँ हैं। कारिकाकार और वृत्तिकार मम्मटाचार्य ही हैं। प्रथम उल्लास में मङ्गलाचरण के पश्चात, काव्य-प्रयोजन, काव्य-कारण, एवं काव्य-लक्षण पर प्रकाश डाला गया है। द्वितीय उल्लास में शब्दार्थ-स्वरूप-निर्णय, तृतीय उल्लास में अर्थ व्यञ्जकता-निर्णय, चतुर्थ उल्लास में ध्वनि-निर्णय, पञ्चम उल्लास में गुणीभूत-व्यङ्ग्य-भेद-निर्णय, षष्ठ उल्लास में शब्दार्थ चित्र-निरूपण, सप्तम उल्लास में दोष-दर्शन, अष्टम उल्लास में गुणालङ्कार-भेद-निर्णय, नवम उल्लास में शब्दालङ्कारों तथा दशम उल्लास में अर्थालड्कारों का विशद विवेचन किया गया है। …- . १. काव्यानुशासनम्, पृष्ठ-१०६ “यथाह मम्मटः अगूढमपरस्यागम्।” २. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, पृष्ठ-२६३ ३. अलङ्कार-सर्वस्व, पृष्ठ-१०२, १०७ तथा १६६ ४. काव्यप्रकाश (सुधासागर टीका) पृष्ठ-४ “तद्देवी हिसरस्वती स्वयमभूतकाश्मीरदेशे पुमान्।” ५. काव्यप्रकाश भीमसेन टीका में उल्लिखित ६. वही भीमसेन टीका में उल्लिखित “श्रीमानकैयटौव्वटाहयवरजौ यच्छात्रतामागतौ।” سه ॐ * ; रुद्रट से विद्यानाथ तक मम्मट २०५
काव्यप्रकाश की टीकाएँ
मम्मट के “काव्यप्रकाश” की ७५ टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं। “श्रीमद्भगवत्गीता” के बाद जिस ग्रन्थ पर सबसे अधिक टीकाएँ लिखी गयी हैं, वह ग्रन्थ मम्मटाचार्य का “काव्यप्रकाश” ही है। १. माणिक्यचन्द्रकृत “सङ्केत" टीका २. सरस्वतीकृत “बालचित्तानुरञ्जिनी” टीका जयन्तभट्टकृत “दीपिका” टीका सोमेश्वरकृत “काव्यादर्श" टीका विश्वनाथकृत “दर्पण” टीका __ परमानन्दभट्टाचार्यकृत “विस्तारिकाटीका आनन्दकविकृत “निदर्शना” टीका ८. श्री वत्सलाञ्छनकृत “सारबोधिनी” टीका ६. महेश्वरकृत “आदर्श” टीका १०. कमलाकरभट्टकृत “विस्तृता” टीका ११. नरसिंहकृत “मनीषा” टीका १२. भीमसेनकृत “सुधासागर” टीका १३. महेन्द्रचन्द्रकृत “तात्पर्यविवृति” १४. गोविन्दनिर्मित “प्रदीपच्छाया” १५. नागेशभट्टकृत “लघ्वी” टीका नागशभट्टकृत “वृहती” टीका १७. वैद्यनाथकृत “उद्योत” टीका १८. वैद्यनाथकृत “प्रभा” टीका १६. वैद्यनाथकृत “उदाहरणचन्द्रिका” २०. राघवकृत “अवंचूरि" टीका २१. श्रीधरकृत “विवेका” टीका २२. चण्डीदासकृत “दीपिका” टीका . . . . . . . . २३. भास्करकृत “साहित्यदीपिका" टीका . .. .. २४. देवनाथकृत टीका २५. सुबुद्धिमिश्रकृत टीका २६. पद्मनाथरचित टीका २७. अच्युतकृत टीका २८. अच्युतपुत्र रत्नपाणिकृत" दर्पण" टीका २६. भट्टाचार्यकृत “काव्य-दर्पण” टीका ३०. भट्टाचार्य के पुत्र रविकृत “मधुमती” टीका का टाका
….–.- ..-… …. . .. . ..NAMES २०६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ३१. तत्त्वबोधिनी टीका ३२. कौमुदी टीका ३३. आलोक टीका ३४. रूचककृत “सङ्केत’ टीका ३५. जयरामकृत “प्रकाशतिलक” टीका ३६. यशोधर कृत टीका ३७. विद्यासागर कृत टीका ३८. मुरारि मिश्र टीका ३६. मणिसारकृत टीका ४०. पक्षधर कृत टीका ४१. सूरिकृत “रहस्यप्रकाश” टीका ४२. रामनाथकृत “रहस्यप्रकाश” टीका ४३. जगदीश कृत टीका ४४. गदाधर कृत टीका ४५. भास्करकृत “रहस्यनिबन्ध” टीका ४६. रामकृष्णकृत “काव्यप्रकाश-भावार्थ" ४७. वाचस्पतिमिश्र विरचित टीका ४८. झलकीकर वामनाचार्य कृत “बालबोधिनी टीका” १. सविस्तर अध्ययनार्थ द्रष्टव्य “आचार्य मम्मट प्रो. धुंडिराज गोपालसप्रे पृ. २०.४८ साहित्यशास्त्र के शक्ति, ध्वनि, रस, गुण, दोष, अलङ्कारादि समग्र आवश्यक तत्त्वों का यथार्थ मूल्याङ्कन, पूर्ववर्ती आचार्यो की कृतियों का अवगाहन एवं संक्षिप्त सूत्रशैली के अवलम्बन के कारण मम्मटाचार्य का “काव्यप्रकाश" अद्यावधि विद्वानों का हृदयहार बना हुआ है। अतएव, सत्य ही कहा गया है कि “काव्यप्रकाशस्य कृता गृहे गृहे टीकास्तथाप्येष तथैव दुर्गमः।।” २०७ रुद्रट से विद्यानाथ तक सागरनन्दी
सागरनन्दी
कालक्रमानुसार, सागरनन्दी का स्थान मम्मटाचार्य के पश्चात् है। वह काव्यशास्त्र के नहीं अपितु नाट्यशास्त्र के आचार्य थे। धनञ्जय ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘दशरूपक’ की रचना ६७४-६६४ ई. के मध्य की थी। इस ग्रन्थ के लगभग १०० वर्ष पश्चात् अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ‘नाटकलक्षणरत्नकोश’ की रचना की होगी; ऐसा मुझे प्रतीत होता है। अतः इनका समय ११वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जा सकता है। इन्होंने अपने जन्म-स्थान, जन्म-काल के विषय में कहीं भी कुछ भी नहीं लिखा है। इनका वास्तविक नाम मात्र ‘सागर’ था। नन्दी-वंश में उत्पन्न होने के कारण -सागरनन्दी’ के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की थी। ग्रन्थान्त में इन्होने अपने आधारभूत आचार्यों का उल्लेख किया है ‘श्री हर्ष विक्रमनराधिपमातृगुप्त गर्गाश्मकुट्टनखकुट्टकवादरीणाम्। एषां मतेन भरतस्य मतं विगाय घुष्टंमया समनुगच्छत रत्नकोशम्।। अर्थात् इस ग्रन्थ में भरतमुनि के पश्चात, हर्षविक्रम मातृगुप्त, गर्ग, अश्मकुट्ट, नखकुट्ट एवं बादरी का का उल्लेख है। इससे प्रतीत होता है कि उक्त आचार्यों की रचनाओं के आधार पर अपने ग्रन्थ की नींव डाली होगी। विशेष कर इन्होंने ‘नाट्यशास्त्र’ का ही प्रमुख रूप से आश्रयलिया है। क्योंकि अनेक स्थलों पर भरत के श्लोंकों को ही इदमित्थं स्वीकार किया है। अन्य ग्रन्थों की ही भांति, प्रस्तुत ग्रन्थ भी कारिका रूप में निबद्ध है। वस्तुतः सर्वप्रथम, पाश्चात्त्य विद्वान् सिलवाँ लेबी महोदय ने नेपालदेश में इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि प्राप्त कर तथा इसके सम्बन्ध में परिचयात्मक विवरण प्रकाशित करवाया। तत्पश्चात्, श्री एम. डिलन ने इसको सुसम्पादित करके वर्ष १६३७ में पुनः प्रकाशित करवाया। २०८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
राजानक रूय्यक
मम्मटाचार्य के उत्तरवर्ती काव्यशास्त्रियों में राजानक रूय्यक का नाम अतीव प्रमुख है। इनकी ‘राजानक’ उपाधि ही इनके काश्मीर-निवासी होने का सङ्केत प्रदान कर रही है। ये ‘उभट-विवेक’ के रचयिता राजानन्द तिलक के पुत्र थे। कुछ अलङ्कारशास्त्रियों ने इनका उल्लेख ‘रूचक’ नाम से भी किया है। राजानक रूय्यक ने ‘काव्यप्रकाश’ की टीका की है। अतएव, ११वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में होने वाले मम्मट के पश्चाद्वर्ती हैं। उन्होंने मङ्खकविरचित ‘श्रीकण्ठचरित’ नामक काव्य के पांच श्लोकों को ‘अलङ्कारसर्वस्व’ में उदाहरणार्थ उद्धृत किया है। ‘श्रीकण्ठचरित’ का रचनाकाल ११४५ ई. है। एतदतिरिक्त, ‘अलङ्कारसर्वस्व’ के टीकाकारों में जयरथ का नाम प्रमुख है। जयरथ के पिता शृङ्गाररथ, काश्मीर-नरेश राजदेव के मन्त्री थे।
काल राजदेव का शासन-काल १२०३ से १२२६ ई. तक माना जाता है। अतः जयरथ का समय १३वीं शती का उत्तरार्द्ध सिद्ध होता है। यदि उक्त तथ्यों के प्रकाश में देखा जाय तो राजानक रूय्यक का समय ११वीं शती का मध्यभाग माना जा सकता है।
कृतियाँ
रूय्यक द्वारा विरचित ग्रन्थ इस प्रकार हैं १) सहृदयलीला, २) साहित्य-मीमांसा, ३) व्यक्ति-विवेक-टीका, ४) काव्यप्रकाशसङ्केत, ५) अलङ्कारमज्जरी- ये समस्त रचनाएँ प्रकाशित एवं उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त, अलङ्कारमज्जरी, अलङ्कारानुसारिणी, नाटक-मीमांसा, अलङ्कारवार्तिक- इन रचनाओं का उल्लेख परवर्ती टीकाकारों के ग्रन्थों में प्राप्त होता है। साहित्य-मीमांसा- आठ प्रकरणों में विभक्त इनकी प्रारम्भिक रचना है। इसमें कवि-रसिकभेद, वृत्ति-लक्षण, गुण-दोष-मीमांसा, अलङ्कार, रस भाव आदि विषयों पर विशद प्रकाश डाला है। सहृदय-लीला में स्त्रियों के प्रसाधन, गुण, सौन्दर्य, आभूषण आदि से सम्बन्धित लघुकाव्य-ग्रन्थ है। महिमभट्ट के ‘व्यक्ति-विवेक’ पर ग्रन्थकार द्वारा की गयी टीका है, परन्तु अपूर्ण ही प्राप्त होती है। ‘अलङ्कार-सर्वस्व’ रूय्यक का आलोचनाशास्त्र का अतीव महत्त्वपूर्ण आधिकारिक ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ सूत्र और वृत्तिभागद्वय में विभक्त है और दोनों भागों के लेखक स्वयमेव रूय्यक है’। कुछ दक्षिण भारतीय विद्वान् किन्ही ‘मङ्खक को वृत्ति का रचयिता मानते हैं, जो सर्वथा असत्य सा प्रतीत होता है। साहित्यशास्त्र के रस, ध्वनि, वक्रोक्ति आदि की मूल उद्भावना ‘अलङ्कार-सर्वस्व’ इस पर की गयी समुद्रबन्ध की टीका में की गयी थी। समुद्रबन्ध की टीका में इन सम्प्रदायों के विभाजन का वैज्ञानिक विवेचन किया गया है १. अलङ्कारसर्वस्व- ‘निजालकारसूत्राणां वृत्या तात्पर्यमुच्यते।’ २०६ रुद्रट से विद्यानाथ तक राजानक रूय्यक ‘इह विशिष्टौ शब्दार्थों काव्यम् । तयोश्च वैशिष्ट्यं धर्ममुखेन, व्यापारमुखेन, व्यङ्ग्यमुखेन चेति त्रयः पक्षाः। आद्येऽप्यलकारतो गुणतो वेति द्वैविध्यम्। द्वितीये भणितिवैचित्र्येण भोगकृत्त्वेन चेति द्वैविध्यम्। इति पञ्चसु पक्षेषु आद्यः उद्भटादिभिरङ्गीकृतः। द्वितीयो वामनेन, तृतीयो वक्रोक्तिजीवितकारेण, चतुर्थो भट्टनायकेन, पञ्चम आनन्दवर्धनेन-1’ - समुद्रबन्धकृत अलङ्कारसर्वस्व- टीका। इस विवेचन का अभिमत है कि-अलङ्कार सम्प्रदाय तथा गुणसम्प्रदाय। अलकार-सम्प्रदाय के जनक भट्टोद्भट आदि हैं और गुणपक्ष के पक्षधर वामन आदि आचार्य है। गुणसम्प्रदाय का ही दूसरा नाम ‘रीतिसम्प्रदाय’ है। व्यापार मुख से तात्पर्य भणितिवैचित्र्यकृत और भोजकत्व व्यापार द्वारा वैचित्र्य। भणितिवैचित्र्यकृत से अर्थ है वक्रोक्ति सम्प्रदाय जिसके प्रवर्तक कुन्तक है और भोजकत्वव्यापार द्वारा शब्दार्थ का वैशिष्ट् माना जाता है, जिसके उत्प्रेरक कुन्तक है, और भोजकत्वळ्यापार द्वारा शब्दार्थ का वैशिष्ट्य माना जाता है, जिसके उत्प्रेरक भट्टनायक हैं। व्यङ्ग्यमुखेन से तात्पर्य ध्वनिसम्प्रदाय है, जिसके संस्थापक आचार्य आनन्दवर्धन हैं। दूसरे टीकाकार जयरथ हैं। उन्होंने ‘अलङ्कारसर्वस्व’ पर ‘विमर्शिनी’ टीका लिखी है। यह अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण आलोचनात्मक टीका है। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ के ‘अलक’ और दूसरे टीकाकार विद्याधर चक्रवर्ती हैं। इनमें ‘अलक’ के नाम का उल्लेख मात्र प्राप्त होता है। उनकी टीका अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। विद्याधर चक्रवर्ती ने ‘अलङ्कारसञ्जीवनी’ अथवा ‘सर्वस्वसंजीवनी’ नामक टीका लिखी है। वस्तुतः रूय्यक का ‘अलङ्कार सर्वस्व’ नामक ग्रन्थ अलङ्कारशास्त्र की प्रामाणिक रचना है। यहाँ रूय्यक अलङ्कार-निरूपण में मम्मटाचार्य से एक कदम और आगे हैं। इसमें ‘विकल्प’ और ‘विचित्र’ नामक अलङ्कार द्वय की नूतन अद्भावना की गयी है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में पूर्ववर्ती आचार्यों के सिद्धान्तों की जो विद्वत्तापूर्ण समीक्षा की गयी है, वह अलङ्कारशास्त्र के तुलनात्मक अध्ययन में परमोपयोगी सिद्ध होगी। । __ . . . . .।
…… २१० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
हेमचन्द्राचार्य
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अर्धाष्टम नामक देश में ‘धुन्धक’ नामक नगर था। वहीं मोढवंशोत्पन्न चाचिग और पाहिणी नामक पति-पत्नी रहते थे। हेमचन्द्र उन्ही दोनों के पुत्र थे। चामुण्डा नामक गोत्रदेवी के आद्यक्षर के नाम पर इनका प्रारम्भिक नाम ‘चाङ्गदेव’ था। प्रबन्धचिन्तामणि’, सोमप्रभसूरि ने कुमारपालप्रबन्ध, और प्रभाचन्द्र ने प्रभावकचरित में हेमचन्द्र की जीवन-वृत्तान्तसम्बन्धिनी कथा का सविस्तर वर्णन किया है। राजशेखरसूरि ने ‘प्रबन्धकोश’ में हेमचन्द्र सम्बन्धी शैशवकालीन कथा का वर्णन करते हुए कहा है कि माता-पिता के विरोध किये जाने पर भी चागदेव ने जैन-धर्म में दीक्षा ग्रहण कर ली। वही बाद में प्रभु हेमसूरि हुए। उपाध्याय जिनमण्डन ने अपने ‘कुमारपाल प्रबन्ध’ में हेमचन्द्रसूरि-कथा को अतीव विस्तार के साथ वर्णन किया है। जहाँ उन्होंने ‘प्रबन्धचिन्तामणि’ का शब्दशः अनुशरण किया है, वहीं ‘प्रभावकचरित’ और ‘प्रबन्धकोश’ का अनुकरण भी किया है। उनके अनुसार, चाङ्गदेव का जन्म वि.सं. ११४५ में हुआ था। चाचिग और उदयन ने प्रव्रज्या-महोत्सव सोल्लास मनाया और दीक्षा-वि.सं. ११५४ में हुई थी। उनके सूरिपद-प्राप्ति का समय वि.सं. ११६६ है (प्रबन्धचिन्तामणि, पृ. ८३)। उक्त समस्त जैन प्रबन्धों की समालोचनात्मक दृष्टि से देखने पर, यह तथ्य प्रकाश में आता है कि जहाँ अन्य प्रबन्धकारों ने हेमचन्द्र के शैशवकालीन वृत्तान्तों को संक्षेप में उल्लेख किया है, वहीं सभी प्रबन्धकार, हेमचन्द्र के निवास-स्थान, माता-पिता, गुरू, दीक्षा-संस्कार, सूरि-पद आदि विवरणों में मतैक्य प्रतीत होते हैं।
वंश, देश, काल, चरित
प्रभावकचरित और कुमारपाल प्रबन्ध के अनुसार, हेमचन्द्र का जन्म वि.सं. ११४५ (१०८६ ई.) है। यदि मेरुतुङ्गाचार्य के इस कथन को सत्य माना जाय कि उस समय
ه ه १. प्रबन्धचिन्तामणि, पृ. ८३-८४ ‘अर्धाष्टमनामनि देशे धुन्धुकाभिधाने नगरे श्रीमन्मोढवंशे चाचिग नामा… गुरुभिः सूरिपदेऽभिषिक्तः।’ कुमारपाल प्रबन्ध, पृष्ट २१-२२ प्रभावकचरित,सर्ग-२२, श्लोक ५३-५४, यहाँ बताया गया है कि हेमचन्द्र का दीक्षा-संस्कार वि.सं. ११५० _ माघ, शुक्ल-१४, शनिवार को हुआ था। ज्योतिष की दृष्टि से काल-गणना करने पर माध, शुक्ल १४ को शनिवार, वि.सं. ११५४ में पड़ता है, विंसं. ११५० में नही- द्रष्टव्य-आचार्य हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासन-नेमिचन्द्रशास्त्री, पृष्ट-१३ ४. प्रबन्धकोष, पृष्ठ-४७। ५. कुमारपालप्रबन्ध- ‘श्रीविक्रमात् ११४५ श्रीहेमसूरीणां जन्म/११५४ दीक्षाच पृष्ठ-२७-३१ ६. प्रभावकचरित, पृ. २१२ ७. कुमारपाल प्रबन्ध, पृ. २८६ रुद्रट से विद्यानाथ तक हेमचन्द्राचार्य २११ चाङ्गदेव की आयु ८ वर्ष थी’ तो उनका दीक्षा-समय वि.सं. ११५४ (१०६७ ई.) सिद्ध होता है, जो समुचित भी प्रतीत होता है, क्यों कि जैन शास्त्रों के अनुसार, दीक्षा का समय ८ वर्ष ही निर्धारित है। वि.सं. ११५० १०६३ ई.) में चाङ्गदेव, देवचन्द्रसूरि के साथ कर्णावती गये होगें। इसमें मेरुतुङ्ग के भी कथन की पुष्टि होती है। ‘कुमारपालप्रबन्ध’ के अनुसार हेमचन्द्र ने वि.सं. ११६६ (११०६ ई.) में सूरिपद प्राप्त किया था। उस समय उनकी अवस्था २१ वर्ष रही होगी। इसकी परिपुष्टि, डॉ. नेमिचन्द्रशास्त्री, प्रो. पारीख और डॉ. वि.भा. मुसलगांवकर आदि विद्वानों ने भी की है। वस्तुतः मेरुतुङ्ग का यह कथन कि मंत्री उदयन ने महोत्सव-समारोह का आयोजन और व्यय किया था, जैसा कि सभी प्रबन्धकारों ने उल्लेख किया है-सत्य प्रतीत होता है। परन्तु, हम उनके इस अभिमत से सहमत नहीं है कि उनका दीक्षान्त-समारोह ‘कर्णावती’ में हुआ था। हम अपने मत की पुष्टि में यह तर्क प्रस्तुत कर सकतें हैं कि यह दीक्षान्त समारोह ‘खम्भावत’ में हुआ होगा, क्योंकि मन्त्री उदयन उस समय वि.सं. ११५४ (१०६७ ई.) में ‘खम्भात’ में ही सिद्धराज जयसिंह के द्वारा नियुक्त था। उसने चाचिग को ३ बहुमूल्य दुकूल और ३ लाख मुद्राएँ प्रदान किया होगा और समारोह के आयोजन में उल्लेख है कि-कुमारपाल के स्तम्भतीर्थ के ‘सालिगवसदिका’ नामक प्रासाद का, जिसमें प्रभू की दीक्षा हुई थी, अनुपम जीर्णोद्धार कराया, इससे भी उक्त मत की ही पुष्टि होती है। __ ‘प्रबन्धचिन्तामणि’ के अनुसार, सकल सिद्धान्त और उपनिषद् का पारगामी तथा ३६ सूरि गुणों से समलङ्कृत हेमचन्द्र को गुरूदेवचन्द्र सूरि ने ‘सूरिपद’ पर अभिषिक्त किया। ‘सिद्धराजादि’ और ‘कुमारपालादि’ आदि प्रबन्धों में ऐसे अनेकानेक उल्लेख प्राप्त होते हैं कि हेमचन्द्राचार्य का व्याकरण साहित्य, उपनिषद् ज्योतिष आदि समस्त ग्रन्थों पर अतुलनीय अधिकार था और ‘शतसहस्रपद’ धारण करने की महाशक्ति विद्यमान थी। इस विषय में उनके समस्त ग्रन्थ स्वयमेव प्रमाण हैं। अतः, ‘प्रभावकचरित’ और ‘कुमारपालप्रबन्ध’ के वे उद्धरण भी सत्य सदृश प्रतीत होते हैं, जिसमें कहा गया है कि उन्होंने तर्क, लक्षण एवं साहित्य पर अल्पकाल में ही असाधारण अधिकार प्राप्त कर लिया था, जो इस समय की * १. प्रबंधचिन्तामणि, पृ. ८३ २. लाइफऑव हेमचन्द्र-बुल्लर, पृष्ठ- ६, हिन्दी अनुवाद (बांठिया) पृष्ठ-१५ आचार्य हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासन, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, पृष्ठ-१३ काव्यानुशासन-आर.सी.पारीख, भाग-२, पृष्ठ-२६६ ५. आचार्य हेमचन्द्र- डॉ. वि.भा. मुसलगांवकर, पृष्ठ-१६ काव्यानुशासन, पारीख, भाग-२, पृष्ठ २६८-६६ ७. प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ ६१ ‘अथ स्तम्भतीर्थे सामान्ये सालिगवसहिकाप्रासादे यत्र प्रभूणां दीक्षाक्षणो बभूव।’ ८. वही, पृष्ठ-८४ २१२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र महाविद्याएँ थीं। उन्होंने सिद्धसारस्वत होने के लिए ब्राह्मी देव, समस्त ज्ञान-विज्ञान की अधिष्ठात्री की साधना के निमित्त काश्मीर की यात्रा भी आरम्भ की। वस्तुतः यह घटना सत्य सी प्रतीत होती है। इसका समर्थन ‘अभिघानचिन्तामणि’ से भी होता है। यह भारतवर्ष जैसे देश के लिए कोई विलक्षण बात नहीं है, क्योंकि हम नैषधकार हर्ष और कालिदास आदि के ज्ञान-प्राप्ति के सम्बन्ध में सुपरिचित हैं। कुछ भी हो, दीक्षितोपरान्त, हेमचन्द्र ने वि.सं. ११६१-६२ तक समस्त पद-वाक्य-प्रमाणज्ञता से विभूषित हो चुके थे। तभी तो उन्होंने सिद्धराज जयसिंह से मिलने के बाद ‘सिद्धहैम’ नामक व्याकरणशास्त्र का प्रणयन किया था। __डॉ. बुलर के इस अभिमत पर आपत्ति प्रकट की जा सकती है कि हेमचन्द्र ने अपने किसी ग्रन्थ में गुरू के नाम का उल्लेख नहीं किया है, अथवा कोई उनके दीक्षा-गुरू थे। स्वयं हेमचन्द्र ने अपने ‘त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरितम्’ की प्रशस्ति में अपने गुरू का नाम स्पष्ट बताया है। प्रबन्धचिन्तामणि के अतिरिक्त, प्रभावकचरित और कुमारपाल प्रबन्ध में भी हेमचन्द्र के गुरू देवचन्द्रसूरि का उल्लेख है। वास्तव में पूर्णतलगच्छीय श्रीदेवदत्तसूरि एक प्रसिद्ध विद्वान थे। इनके शिष्य का नाम प्रद्युम्नसूरि था, जिन्होंन ‘स्थानक-प्रकरण’ नामक एक ग्रन्थ की रचना की थी। उनके शिष्य का नाम ‘गुणसेनसूरि’ था। इन्हीं के पट्टधर शिष्य श्री देवचन्द्रसूरि थे, जिन्होंने ‘शान्तिनाथचरित’ और ‘स्थानाङ्गवृत्ति’ नामक ग्रन्थरत्नद्वय की रचना की थी। वे एक कुशल शास्त्रार्थी भी थे। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण प्रबन्धचिन्तामणि के ‘देवसूरि और दिगम्बर कुमुदचन्द्र’ के मध्य हुए विश्वविश्रुत शास्त्रार्थ विद्या से भी प्राप्त है। विण्टरनित्ज महोदय ने एक मलधारी हेमचन्द्र का उल्लेख किया है, जो अभयदेवसूरि के शिष्य थे। परन्तु पं. शिवदत्तशर्मा का ही अनुशरण करते हुए, डॉ सतीशचन्द्र ने भी हेमचन्द्र को प्रद्युम्नसूरि का गुरूभाई बताया है। वस्तुतः इन प्रमाणों के आधार पर, यह कहा जा सकता है कि श्री देवचन्द्रसूरि एक प्रकाण्ड, एवं समस्त शास्त्र-निष्णात विद्वान् थे और वे ही हेमचन्द्राचार्य के दीक्षा-गुरूं, शिक्षा-गुरू या विद्या-गुरू भी थे। सम्भवतः हेमचन्द्र का अपने गुरू से बाद में अच्छा सम्बन्ध नहीं था। RAN B PARAMETERESTREENA १. प्रभावकचरित, शृग २२ ‘सोमचन्द्रस्ततश्चन्द्रोज्ज्वल प्रज्ञा बलादसौ। तर्क-लक्षण-साहित्यविद्याः पर्युच्छिन्द्रुतम्।। श्लोक-३७ २. लाइफ ऑव् हेमचन्द्र- बुड्लर, पृष्ठ- ६-१०, हिन्दी अनुवाद (बांठिया), पृष्ठ १३-१४ ३. वही, पृष्ठ, ६-१०, हिन्दी अनुवाद (बांठिया) पृष्ठ १६ वही, पृष्ट, ६-१०, हिन्दी अनुवाद (बांठिया) पृष्ठ १६ त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित, प्रशस्ति, पर्व- १०, श्लोक १४-१५ प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ-६६-६६ ७. नागरी प्रचारिणी पत्रिका-पं. शिवदत्तशर्मा, भाग-६, अङ्क ४, पृष्ठ-४४३ ८. ए हिस्ट्री ऑव इण्डियन लिटरेचर, भाग-२, पृष्ठ- ४८२-४८३ ६. दि हिस्ट्री आव् इण्डियन लॉजिक, पृष्ठ-१०५ . १०. प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ-६३ ‘श्री हेमाचार्ये उक्तवति कोपाटोपात् श्रीहेमचन्द्रं दूरतः प्रक्षिप्य नयोग्योसीति इति तम् निषिध्य…………. रुद्रट से विद्यानाथ तक हेमचन्द्राचार्य २१३
कृतियाँ
जिस प्रकार सिद्धराज जससिंह के समय हेमचन्द्र ने ‘सिद्धहैम’ नामक व्याकरण और ‘व्याश्रय’ की रचना की थी, उसी प्रकार उन्होंने चौलुक्यनरेश कुमारपाल के अनुरोध पर ‘त्रिषष्ठिशलाका पुरूषचरित्र’, ‘वीतरागस्तुति’ और योगशास्त्र जैसे ग्रन्थरत्नों का प्रणयन किया था। वस्तुतः उनकी सारस्वत-साधनाओं का मूल्याङ्कन करते हुए कहा जा सकता है कि विक्रमादित्य की राज्यसभा में जो महनीय स्थान महाकवि कालिदास का था और गुणज्ञ राजा हर्षवर्द्धन के समय कादम्बरीकार महाकवि बाणभट्ट का था, वही स्थान, सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल की सभा में आचार्य हेमचन्द्र का था। उनका सारस्वत-स्रोत, समुद्र सदृश विपुल और गाम्भीर्य गुणोपेत है। उनका वह अजस्र और अक्षुण्ण प्रवहणशील ज्ञानधारा रूपी साहित्य स्रोत, जहाँ तत्कालीन, समकालीन तथा पश्चात्कालीन कवियों की ज्ञान-वाटिका का परिसिञ्चन किया, वहीं अद्यावधिपर्यन्त, कवियों समालोचकों, और साहित्यरसिकों की ज्ञान पिपासा को भी परिशान्त कर रहा है। वे स्वयं में पूर्णत्वप्राप्त महर्षि हैं। वे जहाँ, डॉ. पीटर्सन के लिए ‘ज्ञान महोदधि’ (ocean of Knowledge) हैं, वहीं डॉ. आ. सी.पारीख के लिए ‘बौद्धिकभूत (Intellectual giant) और डॉ. के.एम. मुंशी के लिए ‘गुजरात’ का चेतना-दाता (Creator of Gujarat Consciousne) हैं। जहाँ वे, कलिकालसर्वज्ञ, ‘पद-वाक्य-प्रमाणज्ञ’ और ‘शतसहस्रपदधारक’ आदि उपाधियों से उपहित हैं, वही वे जैन-साहित्य-जगत् के आधुनिकव्यास भी कहे गये हैं। काव्य संसार में आचार्य हेमचन्द्र का अवतरण एक सिद्धहस्त कुशल काव्यकार, पुराणकार, इतिहासकार, दार्शनिक और भक्तिकाव्य-प्रणेता के रूप में हुआ है। इसीलिए, उनके काव्य-ग्रन्थों में इतिहास पुराण दर्शनशास्त्र और भक्ति का मणि-काञ्चन-संयोग तथा अद्भुत समावेश पाया जाता है। शब्दों के सुन्दर, सुगठित और सुललित विन्यास में, भावों के समुचित निर्वाह में, कल्पनाओं की ऊची उडान में, काव्यशास्त्रीय विवेचना एवं समालोचना में, तथा प्रकृति के सजीव चित्रण में उनका अद्वितीय स्थान है। उनकी साहित्यिक सेवाओं और उनकी सरस्वती की प्रशंसा, समकालीन कवियों ने भी की है, जो इस प्रकार है-सोमप्रभसूरि ने ‘शतार्थकाव्य’ की टीका में लिखा है कि ‘क्लृप्तं व्याकरणंनवं विरचितं छन्दो नवं व्याश्रया लङ्कारौ प्रथितौ नवौ प्रकटितं श्रीयोगशास्त्रनवम्। तर्कः संजनितो नवो जिनवरादीनां चरित्रंनवम् बद्धं येन न केन केन विधिना मोहः कृतो दूरतः।।’ १. प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ-८६ ‘तदभ्यर्थितः प्रभु-त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरितम्, विंशतिवीतरागस्तुतिमीरूपेतं पवित्रं श्रीयोगशास्त्रं रचयां चकार।’ २. श्रमण (जून, १९५१) वर्ष-२, अङ्क-८, पृष्ठ-१६ ३. श्रमण (जुलाई, १६७७) वर्ष-२८, अङ्क-६, पृष्ठ-३ ४. आचार्य हेमचन्द्र- डॉ. वि.भा. मुसलगांवकर, पृष्ठ-७५ …
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| अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र इसी प्रकार, श्रीसोमेश्वरभट्ट ने अपनी कीर्तिकौमुदी (सर्ग-१, श्लोक-१८) में हेमचन्द्र की ‘सरस्वती-प्रशंसा’ में कहा है कि |
| ‘सदा हृदि वहेम श्रीहेमसूरेः सरस्वतीम्। |
| सुवृत्या शब्दरत्नानि, ताम्रपर्णी जिता यथा।।’ ‘प्रभावकचरित’ में हेमचन्द्र द्वाराविरचित १२ ग्रन्थों का सङ्केत प्राप्त होता है। वस्तुतः उनके प्राप्त विभिन्न विषयक ग्रन्थों की सूची इस प्रकार प्रस्तुत की जा सकती है। १. सिद्धहेमचन्द्र व्याकरण-सेठ आनन्द जी कलयाणजी, पेढी, अहमदाबाद, १६३४. २. प्राकृतव्याकरण-भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना, १६५८. ३. छन्दोऽनुशासन-निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १६१२. ४. व्याश्रयमहाकाव्य (दो भागों में) गवर्नमेण्ट सेण्ट्रल प्रेस, बम्बई, १६१५. ५. त्रिषष्ठिश्लाकापुरूषचरित (६ भागों में) जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, १६३६. ६. परिशिष्ठपर्व-एशियाटिक सोसाइटी, कलकता, १८६१. ७. अभिधानचिन्तामणि-देवचन्द्र, लालभाई, जैन पुस्तकोद्धार-संस्था, सूरत, १६४६. ८. अनेकार्थसंग्रह-चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, १६२६. ६. निघण्टुशेष- लालभाई, दलपतभाई, भारतीय संस्कृत विद्यामन्दिर, अहमदाबाद, १६६८. १०. देशीनाममाला-भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना, १६३८. ११. प्रमाणमीमांसा- त्रिलोकरत्न स्थानकवासी, जैनधार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी, अहमदाबाद, |
| १६७० १२. योगशास्त्र-ऋषभचन्द्र, जौहरी, दिल्ली, १६६३. १३. अर्हन्नीतिमञ्जरी-अहमदाबाद, १६०६. १४. वीतरागस्तोत्र-देवचन्द्र लालभाई, जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत, १६४६. १५. महादेव स्तोत्र-आत्मानन्द सभा, भावनगर, १६३५. |
| १. प्रभावकचरित, हेमसूरिप्रबन्ध, श्लोक-८३२-८३६ ‘व्याकरणं पञ्चाङ्गं प्रमाणशास्त्रं प्रमाणमीमांसाम्। |
| छन्दोऽलङ्कृतिः चूडामणिश्च शास्त्रे विभुळधितः।। एकार्थानेकार्था देश्या निघण्टु इति च चत्वारः। विहिताश्च नामकोशाः भुविकवितानय्युपाध्यायाः।। व्युत्तरषष्ठिशलाकानरेशब्रतगृहिव्रतविचारे। |
| अध्यात्मयोगशास्त्रं विदधे च याश्रयंमहाकाव्यम्।। चक्रे विंशतिमुच्चैः स वीतरागस्तवानांच। |
| इति तद्विहितग्रन्थसंख्यैव हि नविद्यते।। २. अनेकान्त वर्ष-३० किरण ३-४ (जुलाई-दिसम्बर, १६७७) में प्रकाशित डॉ. मोहनलाल मेहता के |
| ‘हेमचन्द्राचार्य की साहित्य-साधना’ नामक लेख से उद्धृत |
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| रुद्रट से विधानाथ तक हेमचन्द्राचार्य १६. द्विजवदनचपेटिका-हेमचन्द्र सभा, पाटन, १६२२. १७. अर्हन्नामसहस्रमुच्चय-साराभाई नवाब अहमदाबाद, १६३२. १८. काव्यानुशासन-(२ भागों में) महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, १६३८ |
| प्रस्तुत ग्रन्थ भारतीय साहित्यशास्त्र की अमूल्य निधि है। सूत्रपद्धति में विरचित ग्रन्थ में आठ अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में काव्य-प्रयोजन, काव्य लक्षण, शब्द एवं अर्थ का विस्तृत विवेचन है। द्वितीय अध्याय में रस और उसके प्रकार, तृतीय अध्याय में दोष-विवेचन, चतुर्थ अध्याय में गुणत्रयनिरूपण पञ्चम अध्याय में ६ प्रकार के शब्दालंकारों षष्ठ में २६ प्रकार के अर्थालङ्कारों सप्तम अध्याय में नायक- नायिका-भेद, और अन्तिम अष्टम अध्याय में काव्यभेद पर समालोचनात्मक विशद प्रकाश डाला गया है। इन्होंने संसृष्टि को संकर, तुल्ययोगिता को दीपक, पर्याप्त और परिवृत्ति को परावृत्ति तथा प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त एवं निदर्शना अलङ्कारों को ‘निदर्शन’ के अन्तर्गत समाहित किया है। इसमें काव्यमीमांसा, काव्यप्रकाश, ध्वन्यालोक तथा अभिनवभारती के उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं। ग्रन्थकार ने स्वयं ‘विवेक’ नामक वृत्ति भी लिखी है। डॉ. सत्यपाल नारङ्ग |
| ने इनके द्वारा विरचित ४६ ग्रन्थों की सूची प्रस्तुत की है। |
| _ ‘प्रबन्धचिन्तामणि’ में हेमचन्द्र की मृत्यु के विषय में उल्लेख है कि ८४ वर्ष की अवस्था के अन्त में प्रभु ने अनशनपूर्वक अन्त्याराधन-क्रिया प्रारम्भ की और दशम द्वार से उन्होंने अपना प्राण-त्याग कर दिया। तत्पश्चात, कुमारपाल ने प्रभु के संस्कार-स्थान का पवित्र दैहिक भस्म का तिलक करके नमस्कार किया। तत्पश्चात, वहाँ पर समुपस्थित समस्त सामन्तों और नागरिकों में मिट्टी ले-लेकर तिलक करना प्रारम्भ किया, जिससे वहाँ पर गड्ढा हो गया, जो आज भी ‘हेमखड्ड’ के नाम से प्रसिद्ध है। |
| यदि मेरुतुङ्ग का उक्त कथन सत्य है कि हेमचन्द्र की मृत्यु ८४ वर्ष की अवस्था में हुई तो संवत् १२२६ (११७२ ई.) उनका मृत्युकाल निर्धारित किया जा सकता है। इसकी पुष्टि, जिनमण्डन के ‘कुमारपाल प्रबन्ध’ से भी की जा सकती है कि हेमचन्द्र का स्वर्गवास वि.सं. १२२६ में हुआ था। डॉ. बुहुलर ने भी यही समय स्वीकार किया है । |
| १. याश्रयमहाकाव्य- एक साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन (अंग्रेजी) डॉ. सत्यपाल नारङ्ग, |
| पृष्ठ- ६-१४। एक अन्य विवरणके अनुसार, हेमचन्द्र ने ३११ करोड़ श्लोकों की रचना की थी। प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ-६५ ‘अथचतरशीति वर्ष प्रमाणायः पर्यन्ते दशमद्वारेण प्राणोत्क्रान्तिमकार्षुः। तदनन्तरं प्रभोः संस्कारस्थाने तद्भस्मपवित्रमिति राज्ञा तिलकव्याजेन नमश्चक्रे। ततस्समस्तसामन्तैस्तदनु |
| नगरलोकैस्तत्रत्य मृत्स्नायां गृहयमाणायां तत्र हेमखड्ड इत्यद्यापि प्रसिद्धिः।’ ३. कुमारपाल प्रबन्ध, पृष्ठ-२८३ ‘संवत् ११४५ कार्तिकपूर्णिमानिशि जन्म श्रीहेमसूरीणाम्। . |
| संवत् ११५० दीक्षा संवत् ११६६ सूरिपदं, संवत् १२२६ स्वर्गः। इसी प्रकार इण्डि. एण्टी., भाग-१२, पृष्ठ-२५४, टिप्पणी-संख्या ५५ में क्लाट महोदय ने भी हेमचन्द्र के जीवन- वृत्तान्त सम्बन्धी महत्वपूर्ण घटनाओं का उद्धरण इस प्रकार प्रस्तुत किया है ‘शरवेदेश्वरे ११४५ वर्षे कार्तिकेपर्णिमानिशि। जन्मावत प्रभोर्पोमबाणशम्भौ ११५० व्रतं. तथा।। ११८२।। रसष (डी)श्वरे ११६६ सूरिप्रतिष्ठा समजायत। नन्दद्वयेरवौ १२२६ वर्षे ऽवसानमभवत्प्रभोः।। ८५३।। लाइफ आव् हेमचन्द्र-डॉ. बुलर, पृष्ठ-५७, हिन्दी-अनुवाद (बांठिया) पृष्ठ ६१२१६ |
| अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र |
रामचन्द्रसूरि
रामचन्द्र सूरि जैन संस्कृत वाङ्मय के बहुप्रशंसित साहित्यकार हैं। संस्कृत के अधिकांश ग्रन्थकारों की भाँति रामचन्द्र ने भी लोकैषण से रहीत होकर स्वान्तः सुखाय साहित्य-सृजन किया है। उन्होंने अपने जीवन के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कोई उल्लेख नहीं किया है। अतएव, उनके जन्म-काल, स्थान, जाति, जन्मभूमि एवं माता-पिता के सम्बन्ध में कोई साधन उपलब्ध नहीं है। समसामयिक एवं परवर्ती साहित्यकारों ने भी इस सम्बन्ध में प्रकाश नहीं डाला है। डॉ.रामजी पाण्डेय का अनुमान है कि रामचन्द्र गुजरात के निवासी थे। प्रो. जे.एच. दवे ने इनका जन्म-स्थान गुजरात में अणहिलपुरपाटन के सन्निकट माना है। प्रबल प्रमाण के अभाव में निश्चयात्मक निर्णय नहीं किया जा सकता है। चौलुक्य राजाओं के साथ उनके सन्निकट सम्बन्धों के आधार पर कहा जा सकता है कि उनकी कर्मभूमि अवश्य ही गुजरात रही होगी। प्रभाचन्द्रसूरि ने रामचन्द्रसूरि के लिए ‘आमुष्यायण’ शब्द का प्रयोग किया है । इसका अर्थ है-कुलीन, सद्कुलोद्भव । प्रबन्ध चिन्तामणि में इनके लिए नाम के साथ अनेक बार ‘पण्डित’ शब्द का प्रयोग किया है। इससे प्रतीत है कि रामचन्द्र ब्राह्मण जाति से सम्बन्धित थे। सम्भवतः प्रभावकचरित के ‘आमुष्यायण’ शब्द भी इसी सत्य की ओर सङ्केत करता है। बाद में, उन्होंने जैनाचार्य हेमचन्द्र से जैनदीक्षा ग्रहण कर ली होगी। नलविलास के प्रारम्भ में परमेश्वर युगादिदेव का स्तवन’, मल्लिकामकरन्द की नान्दी में भगवान् ‘जिनदेव’ की स्तुति एवं अधिकांश स्तोत्रों में जैन तीर्थङ्करों का वर्णन किया गया है। इससे उनकी जैनधर्म के प्रति आस्था एवं श्रद्धा का परिचय प्राप्त होता है। उनकी समस्त रचनाओं में गुरू का नाम हेमचन्द्राचार्य ही प्राप्त होता है। प्रभाचन्द्रसूरि", * १. नलविलास, प्रस्तावना भाग, पृष्ठ-२२ भारतीय नाट्य-सिद्धान्त, उद्भव और विकास, पृ.-८५ ३. रघुविलास, भूमिका भाग, पृष्ठ-६ प्रभावकचरित, २२/१३३ ‘अस्त्यामुष्यायणो रामचन्द्राख्यः कृतिशेखरः। ५. ‘संस्कृत-शब्दार्थ-कौस्तुभ, पृष्ठ-१६४ ६. प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ-६४ नलविलास, पृष्ठ-१ ८. वही, अड्क-१, पृष्ठ-३ ६. मल्लिकामकरन्द, अड्क-१, श्लोक-१ १०. नलविलास, पृष्ठ-१, सत्यहरिश्चन्द्र, पृष्ठ-१, रघुविलास, पृष्ठ-१, कौमुदीमित्राणन्द, पृष्ठ-१, निर्भयभीमव्यायोग, पृष्ठ-१, नाट्यदर्पण, पृष्ठ-१७०, मल्लिकामकरन्द, पृष्ठ-१ ११. प्रभावकचरित २२/१२६-१३१ २१७ रुद्रट से विद्यानाथ तक रामचन्द्रसूरि मेरुतुङ्ग’ एवं राजशेखर ने भी इसी तथ्य को उद्घाटित किया है। दीक्षा ग्रहण करने के बाद उनकी शिक्षा के सम्बन्ध में कुछ सङ्केत अवश्य प्राप्त होता है। ‘पुरातन प्रबन्ध संग्रह’ में वर्णित है कि हेमसूरि के बालचन्द्र और रामचन्द्र शिष्य थे। गुरू ने रामचन्द्र को सुशिष्य मानकर उन्हें विशिष्ट विद्या एवं मान प्रदान किया। वह अनेक विषयों का गहन अध्ययन किया था। उन्होंने स्वयं ही अपने विद्यविज्ञत्व का प्रतिपादन किया है। ये तीन विद्याएँ हैं शब्दविद्या, प्रमाणविद्या एवं काव्यविद्या। ‘हैमवृहवृत्तिन्यास’ की रचना करके शब्द विद्या के क्षेत्र में ‘द्रव्यालङ्कार’ के प्रणयन से प्रमाणविद्या के क्षेत्र में तथा रुपक, काव्य, स्तोत्र एवं नाट्यदर्पण आदि के द्वारा काव्यविद्या के क्षेत्र में अपनी विशेष योग्यता का परिचय दिया है। रामचन्द्र के अध्ययन का क्षेत्र अतीवविशाल एवं बहुमुखी था। उन्होंने महाकवियों द्वारा निबद्ध रूपकों का अनेकशः अवलोकन किया था। उन्हें नृत्य, गीत एवं वाद्य तथा लोकस्थिति का पूर्ण परिज्ञान था। स्वयं के लिए प्रयुक्त ‘अचुम्बितकाव्यतन्द्र” एव ‘विशीर्णकाव्यनिर्माणनिस्तन्द्र’ आदि विशेषण भी उनकी उच्च शिक्षा तथा प्रखर प्रतिभा के परिचायक हैं। उन्हें भी ‘सूरि’ की महनीय उपाधि से समलङ्कृत किया गया था। यह उपाधि उनकी असाधारण प्रतिभा, योग्यता, कार्यदक्षता एवं गच्छीय प्रतिष्ठा को अभिव्यक्त करती है। गुणचन्द्रगणि", महेन्द्रसूरि", वर्धमानगणि२, देवचन्द्रमुनि, यशश्चन्द्रगणि", उदयचन्द्र एवं बालचन्द्रगणि’ आदि उनके सतीर्थ्य थे।
इतिवृत्त काल
रामचन्द्रसूरि को चौलुक्यवंशीय नृपतिद्वय-विद्धराज जयसिंह और कुमारपाल-का राज्याश्रय प्राप्त था। प्रभावकचरित के अनुसार, हेमचन्द्र ने ही सिद्धराज जयासह स १. प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ-६४ २. प्रबन्धकोश, पृष्ठ-६८ ३. पुरातन-प्रबन्धसंग्रह, पृष्ठ-४६ नाट्यदर्पण, श्लोक-६, पृष्ठ-२, एवं रघुविलास १/३ नाट्यदर्पण, श्लोक-२, पृष्ठ-१ ‘महाकविनिबद्धानिदृष्ट्वा रुपाणि भूरिशः। वही, पृष्ठ-१, श्लोक-४ ७. रघुविलास, १/३ ८. कौमुदीमित्राणन्द, पृष्ठ-१ ६. नलविलास, पृष्ठ-८८ १०. कुमार पाल प्रतिबोध, प्रशस्ति, पृष्ठ-४७८ ११. नलविलास, प्रस्तावना, पृष्ठ-२४ १२. वही, प्रस्तावना, पृष्ठ-२४ १३. हेमचन्द्राचार्य का शिष्यमण्डल-साण्डेसरा, पृष्ठ-१८ १४. प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ-८२ एवं ८८, प्रभावकचरित २२/७३७, कुमारपाल प्रबन्ध, पृष्ठ-१८८ १५. प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ-६० १६. नलविलास, प्रस्तावना, पृष्ठ-२४ २१८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र राजचन्द्र का परिचय कराया था। उन्होंने रामचन्द्र द्वारा विरचित राजा की एक स्तुति भी दिखाई, जिसे सुनकर राजा अतीव प्रसन्न हुआ। सिद्धराज जयसिंह और रामचन्द्र से सम्बन्धित विवरण अन्य जैन ग्रन्थों में भी उपलब्ध हैं। वे उनकी सभा के विद्वानों में अन्यतम थे। हेमचन्द्र ने भी उनसे अपने द्वयाश्रय काव्य का संशोधन करवाया था। उनका अधिकांश जीवन अपने गुरू के साथ ही व्यतीत हुआ था। इसलिए प्रतीत होता है कि वे जयसिंह के शासनकाल के अन्तिम क्षणों तक उनकी विद्वत्सभा में विराजमान थे। रामचन्द्रसूरि, कुमारपाल की भी सभा के बहुविश्रुत एवं सुप्रतिष्ठित विद्वान् थे । वह उनकी विद्वता एवं सच्चरित्रता से अत्यधिक प्रभावित था । जयसिंहसूरि विरचित ‘कुमारपालचरित’ के अनुसार, हेमचन्द्र की मृत्यु से दुःखी राजा कुमारपाल को रामचन्द्र प्रतिदिन सम्बोधित करते थे । उक्त ग्रन्थ के एक अन्य स्थल पर बताया गया है कि जब कुमारपाल अपने भतीजे अजयपाल द्वारा दिये गये विष से प्रभावित हुआ तो उसने मुनीश्वर रामचन्द्र को बुलाकर ‘पर्यन्ताराघना’ करने को कहा। इससे स्पष्ट है कि कुमारपाल के भी अन्तिम समय तक रामचन्द्र का उससे घनिष्ट सम्बन्ध बना रहा। जैन प्रबन्धों से परिज्ञात होता है कि रामचन्द्र की दायी आंख नष्ट हो गयी थी। इस सम्बन्ध में अनेक विवरयण उपलब्ध हैं। प्रभावकचरित के अनुसार, सिद्धराज ने उनको जिनशासन में ‘एकदृष्टि’ होने का उपदेश दिया। इससे तत्काल ही उनकी दायीं आंख प्रकाशहीन हो गयी | मेरुतुङ्ग ने उनके नेत्रनाश का अन्य कारण बताया है"। जैन विश्वास के अनुसार, उन्होंने स्वयं ही एक ऋषि के समक्ष एक आंख नष्ट कर दी। प्रो. साण्डेसरा का अनुमान है कि उनकी एक आंख जन्म से या बाल्यकाल में ही दैववशात् नष्ट हुई होगी। SAPAN १. प्रभावकचरित, २०/१२६-३७ २. उपदेशतरङ्गिणी, पृष्ठ-६२, एवं प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ-६३ ३. संस्कृत साहित्य का इतिहास-बलदेव उपाध्याय, भाग-१, पृष्ठ-५७३ ४. नलविलास, प्रस्तावना, पृष्ठ-२६ ५. संस्कृतसाहित्य का इतिहास, भाग-१, पृष्ठ-५७४ प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ-८६ ७. नलविलास, प्रस्तावना, पृष्ठ-३०-३१ ८. कुमारपालचरित, श्लोक १०/२३४ ६. वही, १०/२३५ ‘अथराजर्षिराकार्य रामचन्द्रं मुनीश्वरम् । पर्यन्ताराधनां कत्तुं विधिनैव प्रचक्रमे।। । १०. प्रभावकचरित, २२/१३७-१३६ ११. प्रबन्धचन्तामणि, पृष्ठ-६४ १२. हिस्ट्री ऑव् क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, पृष्ठ-६४३-४४ १३. हेमचन्द्राचार्य का शिष्यमण्डल, पृष्ठ-१३ RANISHINJOURS ………. …………… रुद्रट से विद्यानाथ तक रामचन्द्रसूरि २१६ रामचन्द्रसूरि का अन्तिम समय अत्यन्त दुःखद रहा। कुमारपाल के पश्चात्, उसका भतीज अजयपाल राजा हुआ। वह जैनधर्म का कट्टर विरोधी एवं नृशंस शासक था। वह रामचन्द्र से भी द्वेष करता था। अतएव, उसने इस महान् कवि का अन्त करवा दिया। जैन प्रबन्धकारों ने इस घटना को विशेष रूप से वर्णन किया है। रामचन्द्र ने नलविलासरे एवं कौमुदीमित्राणन्द में ‘मुरारि’ कवि का उल्लेख किया है। मुरारी का समय ८वीं शती का अन्त एवं नवम का प्रारम्भ माना जाता है। नाट्यदर्पण में अभिनवगुप्त का भी नामोल्लेख हुआ है। इनका समय विद्वानों ने १०वीं शताब्दी का अन्तिम एवं ११वीं शती का प्रारम्भिक काल माना जाता है। कहा जाता है कि नाट्यदर्पण की रचना धनञ्जय के ‘दश-रूपक’ की प्रतिद्वंदिता में हुयी थी । दशरूपक का रचनाकाल ६७४ से ६६४ ई. के मध्य माना जाता है। अतः स्पष्ट है कि रामचन्द्रसूरि का आविर्भाव दशम शताब्दी के पश्चात् निर्धारित किया जा सकता है। रामचन्द्रसूरि के गुरू हेमचन्द्र का जन्म वि.सं. ११४५ (१०८८ ई.) में हुआ था। हेमचन्द्र ने उन्हें अपना पहघर एवं उत्तराधिकारी घोषित किया था। अतः, रामचन्द्र के जीवन-काल की ऊपरी सीमा १०८८ ई. के पूर्व नहीं रखी जा सकती है। बाह्य साक्ष्यों द्वारा भी रामचन्द्र के समय-निर्धारण सम्बन्धी कतिपय महत्त्वपूर्ण तथ्य उपलब्ध हैं। प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार, रामचन्द्र,चौलुक्य नरेश जयसिंह, कुमारपाल एवं अजयपाल के शासन-काल में विद्यमान थे० अन्य प्रबन्धों द्वारा भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है"। इस प्रकार सिद्धराज के शासन काल से लेकर अजयपाल के शासन-काल, अर्थात् वि.सं. ११५०-१२३३ के मध्य रामचन्द्र के अस्तित्व का पता चलता है। MasaladOMDMfmeditatedbalance १. प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ-६७, प्रबन्धकोश, पृष्ठ-६८, कुमारपालचरित, १०/१०७-११४, पुरातन प्रबन्ध संग्रह, पृष्ठ-४६, कुमार पाल प्रबन्ध (जिनमण्डन) पृष्ठ-१४ २. नलविलास, १/३ कौमुदीमित्राणन्द, १/३ हिस्ट्री ऑव् क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, पृष्ठ-६३८ ५. नाट्य-दर्पण, स्वोपज्ञविवरण, पृष्ठ-१७४ ६. हिस्ट्री ऑव् संस्कृत पोयटिक्स-पी.वी. काणे, पृष्ठ-४७ ७. दशरूपक (डॉ. श्रीनिवास), पृष्ठ-८ ८. वही भूमिका, पृष्ठ-१४ ६. हेमचन्द्राचार्य, जीवनचरित्र, पृष्ठ-१०, हिस्ट्री ऑव सं. पोयटिक्स ७ डॉ. एस.के. डे, पृष्ठ-१६० १०. प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ-६३, ८६, ६७ ११. प्रभावकचरित, २२/१२६-१३६, उपदेशतरङ्गिणी, पृष्ठ-६२, कुमारपालचरित, सर्ग-१०, प्रबन्धकोष, पृष्ठ-६८, कुमारपालप्रबन्ध, पृष्ठ-११३, पुरातन प्रबन्धसंग्रह पृष्ठ-४६ २२० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र आधुनिक विद्वानों ने भी उनके जीवन-काल के सम्बन्ध में अपने मत व्यक्त किये हैं। पी.वी. काणे ने उनका जीवन-काल ११५० से ११७५ ई. तक माना है। आचार्य बलदेव उपाध्याय ने ११३० से ११८० ई. तक स्वीकार करते है। डॉ. के. एच. त्रिवेदी ने उनका समय ११२५ ई. से ११७३ ई. तक माना है। डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी, प्रो. साण्डेसरा’ एवं प्रो. जे. एच. दवे ने रामचन्द्रसूरि का जन्म वि.सं. ११४५, दीक्षा-११५०, सूरिपद-प्राप्ति-११६६, पहघरत्व १२२६ था मृत्यु वि.सं. १२३० में माना है। परन्तु, उक्त अभिमत नितान्त भ्रामक एवं त्रुटिपूर्ण है। नलविलास की प्रस्तावना में लालचन्द्रगांधी ने समय का जो उल्लेख किया है, वह रामचन्द्र का नहीं, अपितु हेमचन्द्राचार्य का है। रामचन्द्र द्वारा विरचित राजस्तुति में सिद्धराज जयसिंह की धारा-विजय का उल्लेख है। ऐतिहासिक साक्ष्यों से स्पष्ट है कि धारा-विजय का समय ११३५ ई. है। डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी ने भी यही समय माना है। अतः रामचन्द्र का जयसिंह से प्रथम मिलना ११३५ ई. के आस-पास हुआ होगा। कुछ समय बाद ही सिंद्धराज ने उन्हें ‘कविकटारमल्ल’ की उपाधि प्रदान की थी। उस समय रामचन्द्र की प्रारम्भिक अवस्था रही होगी"। उस समय यदि उनकी आयु २५ वर्ष के लगभग मान ली जाय तो उनका जन्म १११० ई. निर्धारित होता है। डॉ. नेमिचन्द्रशास्त्री ने भी यही समय स्वीकार किया है। अजयपाल का शासनकाल वि.सं. १२३०-१२३३ माना जाता है। उसने सत्तारूढ होने के तत्काल बाद ही रामचन्द्र को मृत्यु-दण्ड दिया होगा। इस आधार पर, रामचन्द्र के जीवन की अन्तिम तिथि वि.सं. १२३० (११७३ ई.) मानी जा सकती है। डॉ. रामजी उपाध्याय एवं डॉ. के.एच. त्रिवेदी ने भी यही मत व्यक्त किया है। निष्कर्षतः, रामचन्द्रसूरि का जीवन-काल १११० ई. से ११७३ ई. तक मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। १. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, पी.वी. काणे, पृष्ठ-५२१ २. संस्कृत साहित्य का इतिहास, भाग-१, पृष्ठ-५७४ ३. दि नाट्यदर्पण ऑव् रमचन्द्र ऐण्ड गुणचन्द्र, पृष्ठ-२१६ ४. जैन साहित्य का वृहत् इतिहास, भाग-६, पृष्ठ-५७४ ५. हेमचन्द्रचार्य का शिष्यमण्डल, पृष्ठ-५ ६. रघुविलास, भूमिका भाग, पृष्ठ-६ नलविलास, प्रस्तावना भाग, पृष्ट ३५ ८. प्रभावक चरित, २२/१३५ ६. जैन-पुस्तक-प्रशस्ति-संग्रह, पृष्ठ-१०३ १०. उत्तरभारत का राजनीतिक इतिहास, पृष्ठ-११२ ११. नलविलास, प्रस्तावना, पृष्ठ-२७ ‘पं० रामचन्द्रस्य बाल्येऽपि जयसिंह देवेनास्मै कविकटारमल्ल विरुद…।’ १२. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृष्ठ-७० १३. प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ-६७, उत्तर भारत का राजनीतिक इतिहास, पृष्ठ-५४१ १४. मध्यकालीन संस्कृत नाटक-डॉ. उपाध्याय, पृष्ठ-१५७ १५. दिनाट्यदर्पण ऑव् रामचन्द्र एण्ड गुणचन्द्र, प्रष्ठ-२१६ …-.
RAN रुद्रट से विद्यानाथ तक
कृतियाँ
रामचन्द्रसूरि रामचन्द्रसूरि ‘प्रबन्धशतकर्ता’ के रूप में सुप्रतिष्ठित है’। मेरुतुङ्गाचार्य ने भी उन्हें इसी उपाधि से उपहित किया है। स्वाभाविक रूप से यही अनुमान होता है कि रामचन्द्र ने १०० ग्रन्थों का प्रणयन किया था। परन्तु, मुनिजिनविजय जी का अभिमत है कि ‘प्रबन्धशत’ रामचन्द्र की एक कृति है, जिसमें रूपक के द्वादश भेदों का वर्णन किया गया है। इसमें पाँच हजार श्लोक हैं। प्रो. जे.एच. दवे एवं प्रो. साण्डेसरा ने भी इसी मत को माना है। डॉ. के. एच. त्रिवेदी, रामचन्द्र को लगभग १०० ग्रन्थों का रचयिता स्वीकार किया है। लालचन्द्र गांधी", एम. कृष्णमाचारी’, वाचस्पति गैरोला’, एम. विष्टरनित्ज", डॉ. रामजी उपाध्याय" तथा के.एम. मुंशी२ प्रभृति विद्वानों ने उक्त मत की पुष्टि की है। कहा जाता है कि हरिभद्र ने १४४४ ग्रन्थों का प्रणयन किया था (धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्रसूरि का अवदान-डॉ. सागरमल जैन, श्रमण, १६८६ (अक्टूबर) पृष्ठ-१)। वस्तुतः रामचन्द्र की समस्त कृतियों को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है
क) नाट्यग्रन्थ
१. राघवाभ्युदय, २. यादवाभ्युदय, ३. नलविलास, ४. रधुविलास, ५. सत्यहरिश्चन्द्र, ६. निर्भयभीमव्यायोग, ७. मल्लिकामकरन्द, ८. कौमुदीमित्राणन्द, ६. रोहिणीमृगाक, १०. वनमाला, ११. यदुविलास
ख) काव्य एवं स्तोत्र
१. कुमार विहारशतक, २. सुधाकलश, ३. दोधक पञ्चशती, ४. युगादिदेवद्वात्रंशिका, ५. व्यतिरेकद्वात्रिंशिका, ६. प्रसादद्वात्रिंशिका, ७. अपहनुतिद्वात्रिंशिका, ८. अर्थान्तरन्यास द्वात्रिंशिका, ६. जिनस्तुतिद्वात्रिंशिका, १०. दृष्टान्तगर्भजिनस्तुतिद्वात्रिंशिका ११. शान्ति द्वात्रिंशिका, १२. भवत्यातिशय द्वात्रिंशिका, १३. आदिदेवास्तव, १४. नेमिस्तव, १५. मुनिसुव्रतदेवस्तव, १६. षोडशिकासाधारणजिनस्तव, १७. जिनस्तोत्र PAGE चिनिया
१. निर्भयभीमव्यायोग, पृष्ट-१, मल्लिकामकरन्द, पृष्ठ-२ २. प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ-६७ कौमुदीमित्राणन्द, प्रास्ताविक, पृष्ठ-६ ४. वही, पृष्ठ-६ ५. हेमचन्द्राचार्य का शिष्य-मण्डलय, पृष्ठ-८ ६. दि नाट्यदर्पण ऑव रामचन्द्र एण्ड गुणचन्द्र, पृष्ठ-२१६-२२० ७. नलविलास, प्रस्तावना, पृष्ठ-३३-३५ ८. हिस्ट्री ऑव क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, पृष्ठ-६४४ ६. संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-८१२ १०. हिस्ट्री ऑव् इण्डियन लिटरेचर, भाग-२, पृष्ठ-५४६ ११. मध्यकालीन संस्कृत नाटक, पृष्ठ-१५७ १२. गुजरात और उसका साहित्य, पृष्ठ-८३-८४ २२२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
ग) शास्त्रीयग्रन्थ
द्रव्यालङ्कार
यह रामचन्द्र एवं गुणचन्द्र की संयुक्त कृति है। इसे पांच प्रबन्धों में विभक्त किया गया है। इसका वर्ण्य विषय जैनन्याय है। तीन अध्यायों में क्रमशः द्रव्य, गुण एवं पर्याय का वर्णन है। इसकी रचना सूत्र शैली में हुई है, जिसकी वृत्ति भी इन दोनों विद्वानों ने मिलकर लिखी है। अभी तक इसके द्वितीय और तृतीय अध्याय ही उपलब्ध हैं। जैसलमेर के भण्डार में द्रव्यालङ्कार की जो ताडपत्रीय प्रति प्राप्त हुई है, वह वि.सं. १२०२ में लिखी गयी थी। अतः इस ग्रन्थ की रचना १२०२ (११४५ ई.) के पूर्व अवश्य हो चुकी थी।
नाट्यदर्पण
इस ग्रन्थ की भी रचना रामचन्द्र ने गुणचन्द्र के सहयोग से की है। इसमें नाट्य सम्बन्धी विषयों की विशद विवेचना की गयी है। इसका मुख्य वर्ण्य-विषय रूपक-रचना है। विद्वानों का अभिमत है कि इसकी रचना धनञ्जय के दशरूपक की प्रतिद्वन्दिता में हुई है। डॉ. के.एच. त्रिवेदी ने इसका रचना-काल, द्वादश शती का उत्तरार्द्ध (११५०-११७० ई.) माना है। इस ग्रन्थ के मुख्यतः दो भाग हैं-कारिका एवं वृत्ति। कारिकाएँ सूत्र-शैली में निबद्ध हैं, जिनमें अनुष्टुप् छन्द का प्रयोग है। इसमें २०७ कारिकाएं हैं। ग्रन्थ में चार विवेक हैं, जो क्रमशः ‘नाटक-निर्णय’, प्रकरणादिरूप-निर्णय’, ‘वृत्ति-रस-भावाभिनय-विचार’ एवं ‘सर्वरूप-साधारण-लक्षण निर्णय’ नाम से प्रसिद्ध हैं। कुछ स्थलों पर ये कारिकायें अत्यन्त सुबोध भी नहीं हैं। दोनों विद्वानों ने ‘स्वोपज्ञविवरणम्’ नामक वृत्ति भी लिखी है। इस ग्रन्थ में भारत-प्रणीत नाट्यशास्त्र एवं अभिनव भारती का पूर्ण उपयोग हुआ है। कहीं-कहीं भरत के मतों का भी परिष्कार किया गया है। इसमें विशेषकर धनञ्जय के मतों की आलोचना की गयी है । वस्तुतः रूपक के द्वादश भेदों का निरूपण, रसों का सुखात्मक-दुःखात्मक वर्गों में विभाजन, नौ रसों के अतिरिक्त लौल्य, स्नेह और व्यसनादि रसों की परिकल्पना तथा अङ्क, सन्धि आदि के लक्षणों के विषय में नूतन दृष्टि अपनाने के कारण नाट्यदर्पण का विशेष महत्त्व है। ब १. रघुविलास १/३ २. दिनाट्यदर्पण ऑव् रामचन्द्र ऐण्ड गुणचन्द्र, पृष्ठ-२२२, टिप्पणी-२ नलविलास, प्रस्तावना, पृष्ठ-३५ ४. दशरूपक, (डॉ. श्रीनिवास) भूमिका, पृष्ठ-८ ५. दिनाट्यदर्पण ऑव् रामचन्द्र ऐण्ड गुणचन्द्र, पृष्ठ-२१६ नाट्यदर्पण, भारती वृत्ति, पृष्ठ-२५२-२५३ दशरूपक (डॉ. श्रीनिवास) भूमिका, पृष्ठ-८ रुद्रट से विद्यानाथ तक रामचन्द्रसूरि २२३
३.) हैमवृहद्वृत्तिन्यास
हेमचन्द्राचार्य द्वारा प्रणीत ‘सिद्धहैम’ व्याकरण पर आधारितन्यास है। डॉ. वेलनकर ने भी इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ रामचन्द्रसूरि की व्याकरण-विज्ञता का प्रबल प्रमाण है। १. आचार्य हेमचन्द्र, पृष्ठ १०० २२४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
शोभाकर मित्र
शोभाकर मित्र, अलङ्कार शास्त्र के आचार्य हैं। अलङ्कार-सर्वस्व के टीकाकार जयरथ (१३वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध) ने ‘विमर्शिनी’ में इनके मतों का खण्डन किया है। इससे इनका जयरथ के पूर्ववर्ती होना निश्चित है। अतः, इनका समय १३वी शती का पूर्वार्द्ध माना जा सकता है। इनकी अद्वितीय कृति ‘अलङ्कार-रत्नाकर’ है। इसकी रचना सूत्र-वृत्ति शैली में की गयी है। इसमें लगभग १०० अलङ्कारों की पाण्डित्यपूर्ण मीमांसा की गयी है। इसमें कुछ अलङ्कार ऐसे हैं जो ‘अलङ्कार-सर्वस्व’ अथवा अलङ्कारशास्त्र के अन्य ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं हैं। वे अलङ्कार हैं-अचिन्त्य, अभेद, अवरोह, अनुकृति, आपत्ति एवं अशक्य आदि। वस्तुतः प्रस्तुत ग्रन्थ का अलङ्कारशास्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
अलङ्कार-दर्पण
प्राकृतभाषा में लिखित एक मात्र उपलब्ध कृति है। इसमें १३४ गाथाएं हैं। उसमें ऐसे नूतन अलङ्कारों का उल्लेख किया गया है, पूर्वरचित ग्रन्थों में प्राप्त नहीं होते हैं। इस विषय में श्री अगरचन्द्र नाहटा का अभिमत है कि इस ग्रन्थ में निरूपित रसिक, प्रेमातिशय, द्रव्योत्तर, क्रियोत्तर, गुणोत्तर, उपमारूपक, उत्प्रेक्षायमक, अलङ्कार, अन्य आलङ्कारिक ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं हैं। इससे इस महत्तवपूर्ण ग्रन्थ की मौलिकता सर्वथा अनुकरणीय है। मङ्गलाचरण के पश्चात्, अलङ्कारों के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया हैं उपमा, रूपक, दीपक, रोष, अनुप्रास, अतिशय, विशेष, आक्षेप, जाति-व्यतिरेक, रसिक,पर्याय, यथासंरव्य, समाहित, विरोध, संशय, विभावना, भाव, अर्थान्तरन्यास, परिकर, सहोक्ति, ऊर्जा, अपह्नति, प्रेमातिशय, बहुश्लेष, व्यपदेश, स्तुति, समज्योति, अप्रस्तुत प्रशंसा, अनुमान, आदर्श, उत्प्रेक्षा, संसिद्धि, आशीष, उपमारूपक, निदर्शना, वलित, अभेदवलित, और यमकादि ४० अलङ्कारों का समावेश है। अलङ्कारों के भेद सहित लक्षण एवं उदाहरण भी प्रस्तुत किया गया है। ग्रन्थकार ने उपमा के १७ प्रकारों-प्रतिवस्तूपमा, गुणकलिता, उपमा, असमा-उपमा, मालोपमा, विगुणरूपा-उपमा, सम्पूर्णा-उपमा, गूढा-उपमा, निन्दाप्रशंसोपमा, निन्दोपमा, अतिशयिता-उपमा, श्रुतिमिलितोपमा, विकल्पिकोपमा आदि का वर्णन है। १. अलङ्कार-दर्पण-भूमिका रुद्रट से विद्यानाथ तक शोभाकार मित्र, वाग्भट २२५
वाग्भट
हेमचन्द्राचार्य और रामचन्द्रसूरि के बाद वाग्भट का नाम आता है। ये संस्कृत और प्राकृत भाषा के यशस्वी विद्वान् थे। काव्यानुशासन के प्रणेता वाग्भट को अभिनव वाग्भट अथवा वाग्भट द्वितीय के नाम से उल्लिखित किया जाता हैं डॉ. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने नेमिनिर्वाण-काव्य के रचयिता वाग्भट को प्रथम कहा है। कुछ विद्वान् वाग्भटालङ्कार के निर्माता को वाग्भट-प्रथम और काव्यानुशासन के कर्ता को वाग्भट-द्वितीय मानते है। वास्तव में इन ग्रन्थों के रचयिता वाग्भट नामक एक ही व्यक्ति प्रतीत होता है। वाग्भटालङ्कार की टीका (४/१४८) में ‘इदानीं ग्रन्थकार इदमलङ्कार-कर्तृत्वख्यापनाय वाग्भटाभिधस्य महाकवेर्महामात्यस्य तन्नाम गाथया एकया निदर्शयति" उल्लिखित है। इस से भी उक्त मत की ही परिपुष्टि होती है। वाग्भट का प्राकृत नाम बाहड तथा पिता का नाम सोम था। यह एक महाकवि और महामात्य थे। प्रभावक चरित में आहड के स्थान पर भाहड का उल्लेख प्राप्त होता है। वाग्भट प्रथम ने समुच्चयालङ्कार के निदर्शन में १.अणहिल्लपाटनपुर, २. राजाकर्णदेव के पुत्र, ३. श्री कलश नामक हस्ती’। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वाग्भट अनहिलपट्टन के चौलुक्यवंशीय नृपति सिद्धराज जयसिंह के महामात्य थे । इनका राज्य-काल १०६३-११४३ ई. तक माना जाता है। यही समय ग्रन्थकार वाग्भट का भी माना जा सकता है। प्रभावकचरित से भी यह बात प्रमाणित होती है कि वि.सं. ११७८ (११२१ ई.) में मुनिचन्द्रसूरि के समाधिमरण के एक वर्ष बाद थाहड द्वारा मूर्ति प्रतिष्ठित करायी गयी थी। Mo 94 १. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड-४, पृष्ठ-२२ २. वाग्भट-विवेचन-प्रियव्रतशर्मा, पृष्ठ-२८२ ३. वाग्भटालकार पर सिंहदेवगणि की टीका (४/१४८) ४. वही, ४/१४८ ‘वंभण्डसुत्तिसंपुड-मुक्तिअ-मणिणोपहासमूहब्व। सिरि बाहडत्ति तणओआसि बुहो तस्य सोमस्य ।।’ याश्रयमहाकाव्य २०/६१-६२ ६. प्रभावकचरित- वादिदेवसूरि प्रबन्ध ६७,७३ ‘अथासित थाहडो नाम धनवान् धार्मिकाग्रणीः।’ वाग्भटालङ्कार, ४/१३२ ‘अणहिल्लपाटकं पुरमवनिपतिः कर्ण देवनृपसूनुः। श्रीकलशनामधेयः करीचरत्नानि जगतीह।। द्वयाश्रय, २०/६१-६२ ६. जैनसाहित्य और इतिहास, पृष्ठ ३२८, गणेशत्र्यंबक देशपांडे ने वाग्भट का लेखन-काल ११२२ से ११५६ ई. तक माना है-भारतीय साहित्य-शास्त्र, पृ.-१३५ ' २२६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अतः वाग्भट का समय, सिद्धराज जय सिंह का ही समय मानना समुचित प्रतीत होता है।
रचनाएँ
इनकी रचनाओं -(१) काव्यानुशासन (२) नेमिनिर्वाण महाकाव्य (३) ऋषभ देव चरित (४) छन्दोऽनुशासन (५) अष्टाङ्ग हृदय आदि में वाग्भटालङ्कार नामक ग्रन्थ अतीव महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें पांच परिच्छेद हैं। प्रथम में काव्य-स्वरूप, काव्य-प्रयोजन, नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि आदि का वर्णन है। कवि-समय लोकों और दिशाओं की संख्या, यमक, श्लेष और चित्रालङ्कार में व-ब, और ल-ड में अभेद, चित्रबन्ध के अनुस्वार और विसर्ग की छूट आदि का उल्लेख है। द्वितीय में काव्य शरीर-निरूपण, संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश और पैशाची भाषाएं काव्याङ्ग हैं। काव्य-भेद, काव्य-दोष और उसके भेदों का वर्णन है। तृतीय परिच्छेद में दस गुणों का लक्षण एवं उदाहरण है। चतुर्थ परिच्छेद में अलङ्कारों की उपयोगिता पर प्रकाश, चित्रादि शब्दालङ्कारों एवं ३५ अर्थालङ्कारों का सोदाहरण लक्षण प्रस्तुत है। पञ्चम एवं अन्तिम परिच्छेद में रस-स्वरूप, श्रङ्गारादि नव रस और उनके स्थायी भाव आदि का निरूपण तथा नायक-नायिका भेद आदि पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। जैन एवं जैनेतर विद्वानों द्वारा लिखित वाग्भटालङ्कार पर उपलब्ध एवं अनुपलब्ध टीकाओं की संख्या १७ हैं। इससे इस ग्रन्थ की लोकप्रियता ही सिद्ध होती हैं। २२७ रुद्रट से विद्यानाथ तक नरेन्द्र प्रभसूरि, अमरचन्द्र सूरि
नरेन्द्र प्रभसूरि
नरेन्द्र प्रभ सूरि हर्ष पुरीय गच्छ पराम्परा के आचार्य थे। इनके गुरु का नाम नरचन्द्रसूरि और उनके गुरु का नाम देवप्रभ सूरि था’। नरचन्द्र सूरि न्याय, व्याकरण, साहित्य और ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित थे। गुरु के आदेशानुसार, नरेन्द्र प्रभ सूरि ने वस्तुपाल की प्रसन्नता हेतु “अलङ्कार महोदधि” नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इसका समय वि. सं. (१२२३ ई०) है। इसकी स्वोपज्ञ टीका का समय वि.सं. १२८२ (१२२५ ई.) है। अतः नरेन्द्रप्रभ सूरि का समय १३ वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध निर्धारित किया जा सकता हैं। इनकी रचनाएं- (१) अलंकार महोदधि (२) काकुत्स्थ-केलि (३) विवेक पादप (४) विवेक-कलिका-है।
अलङ्कारमहोदधि
नरेन्द्र प्रभ सुरि का “अलङकार महोदधि” नामक ग्रन्थ अलङ्कारशास्त्र पर आधारित है। इसमें आठ तरङ्ग हैं। प्रथम तरङ्ग में काव्य-प्रयोजन, काव्य-हेतु, कवि शिक्षा, काव्य-लक्षण और उसके भेदों का निरूपण किया गया है। द्वितीय तरङ्ग में शब्द-स्वरूप, अभिधा, लक्षणा एवं व्यञ्जना का विशद वर्णन है। तृतीय तरङ्ग में अर्थ वैचित्र्य, रस स्वरूप, उसके भेदोपभेद, स्थायी भाव सात्विक भाव, व्यभिचारी भाव, रस-प्रक्रिया, भावस्वरूप आदि तत्त्वों का निरूपण किया गया है। चतुर्थ तरङ्ग में गणीभूतव्यङ्ग्य, एवं अन्त में ध्वनि-स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। पञ्चम तरङ्ग में, दोष-स्वरूप, पद-दोष, वाक्य-दोष, उभयदोष, अर्थ दोष, रसदोष तथा रस-विरोध-परिहार का वर्णन है। षष्ठ तरङ्ग में दश शब्द गुणों और दश अर्थगुणों का मण्डन-खण्डन है। प्रसाद, माधुर्य और ओज प्रभृति गुणत्रयों का वर्णन तथा व्यज्जक वर्णो का विवेचन है। सप्तम तरङ्ग में अनुप्रास, यमक, श्लेष और वक्रोक्ति आदि शब्दालङ्कारों का भेदोपभेद सहित विवेचन है। अष्टम तरङ्ग में ७० अर्थालंकारों का सोदाहरण निरूपण है। १. अलकार महोदधि, प्रशस्तिभाग १/६ २. वस्तुपाल का साहित्य मण्डल पृ. १०२ अलङ्कार महोदधि, प्रशस्ति भाग १/१७-१८ ४. जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग-५ पृष्ठ १०६ ५. अलकार महोदधि, ग्रन्थान्त प्रशस्ति श्लोक-११ २२८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
अमरचन्द्र सूरि
प्रबन्धकोष के उल्लेखानुसार, अणहिल्क नामक नगर के समीप वायट नामका महास्थान है। वहाँ जीवदेवसुरि की शिष्य परम्परा में श्री जिनदत्तसूरि नामक आचार्य हुए हैं। अमरचन्द्र सूरि इन्हीं के शिष्य थे।’ काव्यकल्पलता प्रभृति ग्रन्थों से भी उल्लेख प्राप्त होता है कि अमरचन्द्रसूरि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्य और वायडगच्छीय जिनदत्तसूरि के शिष्य थे। वे जैनधर्म में दीक्षित होने से पूर्व ब्राह्ममण थे, क्योंकि उन्होंने अपने ग्रन्थ “बाल भारत" के प्रत्येक सर्ग के प्रारम्भ में वेदव्यास की और प्रशस्ति में वायडो के देव, वायु की स्तुति की है। गुर्जराधिपति वीसलदेव की राज्य-सभा में १०८ समस्याओं की पूर्ति में इन्होंने “कवि सार्वभौम” की उपाधि प्राप्त की थी। इनके कलागुरु का नाम अरिसिंह था। उक्त तथ्यों के प्रकाश में कहा जा सकता है कि अमरचन्द्र सूरि राजा वीसलदेव के समकालीन थे। वीसलदेव का राज्यकाल वि.सं. १२६४से वि. सं. १३२८ (१२३७ ई. से १२७१ ई. तक) तक माना जाता है। अमरचन्द्र द्वारा विरचित पद्मानन्द महाकाव्य की रचना वि. सं. १२६४ से वि. सं. १२६७ (१२३७ ई से १३४० ई०) के मध्य हुई है। इस महाकाव्य की रचना वीसलदेव के राज्यकाल में ही हुई है। अतः अमरचन्द्र सुरि का काल १३ वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध तथा १४ वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध स्वीकार किया जा सकता है।
रचनाएँ
डॉ. श्याम शङ्कर दीक्षित एवं डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी आदि विद्वानों ने इनके ग्रन्थों की संख्या १३ बतायी है। (पृ. २५५ एवं जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग-६ पृष्ठ-७७,५१४) जो इस प्रकार है: १. बाल भारत २. पद्मानन्द महाकाव्य ३. काव्यकल्पलता-वृत्ति ४. काव्य कल्पलता (कविशिक्षा) ५. चतुर्विंशति जिनेन्द्रसंक्षिप्त चरित ६. सुकृतसंकीर्तन के प्रत्येक सर्ग के चार श्लोक ७. स्यादिशब्द समुच्चय (व्याकरण) ८. काव्यकल्पलतापरिमल ६. छन्दोरत्नावली १०. अलंकार-प्रबोध ११. कला-कलाप १२. काव्य कल्पलता-मञ्जरी १३. मुक्तावली “काव्य कल्पलता-वृत्ति” में ग्रन्थकार ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के मार्ग को छोड़कर नवीन मार्ग का आश्रय लिया है। उसका विषय कविशिक्षा है। प्रस्तुत ग्रन्थ छन्दः सिद्धि, शब्द सिद्धि, श्लेष सिद्धि और अर्थ सिद्धि नामक चार प्रतानों में विभक्त है। प्रत्येक प्रतान में १. प्रबन्ध कोश, अमरचन्द्र कवि प्रबन्ध पृष्ठ-६१ २. काव्यकल्पलतावृत्ति, अन्तिम प्रशस्ति, पृष्ट-१५४ ३. महामात्य वस्तुपाल का साहित्य-मण्डल-डॉ साण्डेसरा, पृष्ट-६० ४. प्रबन्धकोष पृष्ठ-६२ १३ वीं-१४ वीं शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्य, (डॉ. श्यामशंकर दीक्षित) पृष्ट २५६ ६. महामात्य वस्तुपाल का साहित्य-मण्डल, पृष्ठ-६४ ७. १३ वी.-१४वीं शताब्दी के जैन संस्कृत-महाकाव्य डॉ. दीक्षित पृ. २५६ *
lioniaudiAHARA रुद्रट से विद्यानाथ तक नरेन्द्र प्रभसूरि, अमरचन्द्र सूरि २२६ क्रमशः ५,४,५ और ७ स्तबक हैं, जिनकी कुल संख्या २१ है। छन्दः सिद्धि नामक प्रथम स्तबक का नाम अनुष्टुप् शासन है। द्वितीय स्तबक का नाम छन्दोभ्यास है। तृतीय स्तवक छन्दपूर्ति से सम्बन्धित है। चतुर्थ स्तबक का नाम वाद-शिक्षा है। पांचवे स्तबक का नाम वर्ण्य स्थिति है। इसमें महाकाव्यादि प्रबन्धों में वर्णनीय राजा मन्त्री पुरोहित, कुमार, सेनापति, देश, ग्राम नगर सरोवर समुद्र सूर्योदय, चन्ोदय, पुष्पचयन, जलक्रीडा और कामक्रीडा का विशद वर्णन हैं। शब्द सिद्धि नामक द्वितीय प्रतान के प्रथम स्तवक का नाम रूढयौगिक मिश्र हैं। द्वितीय स्तवक में वास्तविक अथवा काल्पनिक पदार्थो, व्यक्तियों अर्थ देवताओं के यौगिक पर्यायवाची शब्दों का सङ्कलन किया गया है। तृतीय स्तबक में अनुप्रास-सिद्धि साधारण शब्दों का संग्रह है। चतुर्थ स्तवक में अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना का विस्तृत विवेचन हैं। - श्लेष-सिद्धि नामक तृतीय प्रतान के प्रथम स्तवक में पदच्छेद द्वारा भिन्न-भिन्न अर्थो के साथ श्लेष का विशद वर्णन है। दूसरे स्तवक का नाम सर्ववर्णन है। तृतीय स्तवक का नाम उद्दिष्ट वर्णन है। चतुर्थ स्तवक का नाम अद्भुत-विधि है। इसमें वर्ण भाषा, लिङ्ग, पद प्रकृति, प्रत्यय वचन और विभक्ति आदि का उल्लेख है। पञ्चम स्तवक का नाम “चित्र प्रपञ्च" है। अर्थ सिद्धि नामक चतुर्थ प्रतान के प्रथम स्तवक में ‘उपमा’ पर विस्तृत विचार प्रस्तुत है। द्वितीय स्तवक में वर्णो का सङ्कलन है। तृतीय स्तवक में भिन्न कार्य के वर्णन की विधि है। पञ्चम स्तवक में कवि को किस प्रकार भिन्न-भिन्न नवीन कल्पनाओं का आश्रय लेकर रचना करनी चाहिए का वर्णन है। षष्ठ स्तवक में एक से बीस, सौ से सहस्र वाचक शब्दों का सङ्कलन है। सप्तम स्वतक में समस्यापूर्ति हेतु कवियों के लिए आवश्यक व्यावहारिक ज्ञान पर प्रकाश डाला गया है। HAS २३० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
विनय चन्द्र सूरि
जैन संस्कृत साहित्य जगत् में विनयचन्द्र नामक अनेक आचार्य हुए है।’ यहाँ काव्य शिक्षा के रचयिता विनयचन्द्र सूरि का वर्णन किया जा रहा है। ये चन्द्रगच्छ से सम्बन्धित थे। विनयचन्द्र सूरि, रविप्रभसूरि के शिष्य थे। काव्य शिक्षा के अध्ययन से परिज्ञात होता है कि विनयचन्द्र सूरि न केवल अलङ्कार शास्त्र के ज्ञाता थे, अपितु व्याकरण, कोष आदि पर भी उनका समान अधिकार था। विनय चन्द्रसूरि का जीवन काल सुनिश्चित रूप से ज्ञात नही है। बाह्य एवं अन्तः साक्ष्यों के आधार पर उनका समय निश्चित किया जा सकता है। डॉ. गुलाब चन्द्र चौधरी ने उनका काल वि.सं. १२८६ से वि.सं.१३४५ तक स्वीकार किया है। किन्तु अनेक विनयचन्द्र के होने के कारण उक्त मत समीचीन नहीं प्रतीत होता है। उनका समय १३ वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जा सकता है।
रचनाएँ
डॉ. हरिप्रसाद शास्त्री के अनुसार, विनयचन्द्रसूरि की (१) काव्य शिक्षा और (२) मल्लिस्वामिनाथ चरित-दो रचनाएँ है। इसके अतिरिक्त पार्श्वनाथ चरित, कालिकाचार्य कथा (प्राकृत) भी उनकी रचनाएं प्रतीत होती हैं।
काव्यशिक्षा
काव्य शिक्षा ६ परिच्छेदों में विभक्त हैं। प्रथम परिच्छेद का नाम शिक्षा परिच्छेद है। इसमें काव्य-स्वरूप, काव्य शिक्षा, कवि समय प्रसिद्धि एवं काव्य लक्षणादि का उल्लेख है। द्वितीय परिच्छेद का नाम “क्रियानिर्णय परिच्छेद" है। इसमें विभिन्न क्रियाओं के विषय में निर्णय किया गया है। तृतीय परिच्छेद का नाम “लोक कौशल्य” परिच्छेद है। इसमें लोक व्यवहार के लिए एक से लेकर अठारह, २८, ३२, ३४, ४२ एवं ८४ लाख संख्या वाली वस्तुओं की गणना की गयी है। अन्त में खड्गादि शस्त्रों का नाम-संग्रह है। चतुर्थ परिच्छेद का नाम वीजव्यावर्णन है। जिनेन्द्र भगवान् उनके माता-पिता नगरी चिह्न प्रतिहार्य, देशना आदि का वर्णन है। ब्रह्मा, हरि विनायक, बुद्ध, बलभीनाथ, श्वेताम्बराचार्य, ब्राह्मण, योगी, आश्रम बीज, राजद्वार वर्णन-बीज तथा योगादि के लक्षणों का वर्णन है। पञ्चम परिच्छेद का नाम “अनेकार्थ शब्द संग्रह" है। इसमें पञ्चाक्षर काण्ड अव्ययार्थ काण्ड, मूलाक्षरार्थ काण्ड, अन्त्याक्षर वर्गकाण्ड आदि अनेकार्थक शब्दों का वर्णन है। १. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग-६, पृष्ठ-२५३ २. वही, पृष्ट १२२ ३. वही, पृष्ठ-१२२ ४. काव्य-शिक्षा-भूमिका, पृष्ठ-१० रुद्रट से विद्यानाथ तक विनय चन्द्र सूति २३१ षष्ठ परिच्छेद का नाम “रसभावनिरूपण" है। इसमें रस-लक्षण, उसके भेद, स्थायी भाव, व्यभिचारिभाव, सात्त्विकभाव, रसाभास और भावाभास पर विचार किया गया है। वस्तुतः यह परिच्छेद, हेमचन्द्राचार्य के काव्यानुशासन से समुद्धृत है। अमरचन्द्र सूरि के बाद १४ वीं शताब्दी में देवेश्वर सूरि का स्थान है। इन्होंने “कविकल्पलता" नामक ग्रन्थ की रचना की है। किन्तु पूर्वोक्त “काव्यकल्पलता" की मात्र अनुकृति है। नाममात्र का शैली-भेद है, विषय-वस्तु “काव्यकल्पलता” से संगृहीत है, अतः इस ग्रन्थ का अपना कोई महत्त्व नहीं है। NRNMENT २३२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
विजय वर्णी
विजयवर्णी दिगम्बर जैनमुनि विजय कीर्ति के शिष्य थे।’ उन्होंने कामिराज की प्रार्थना पर शृङ्गारार्णव चन्द्रिका नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें कर्णाटक के कवि गुणवर्मा का उल्लेख है। गुणवर्मा का समय वि. सं. १२८२ (१२२५ ई.) के लगभग स्वीकार की गयी है। अतः विजयवर्णी कामिराज के समकालीन रहे होंगे। इनका समय १३ वीं शताब्दी का मध्यभाग निश्चित किया जा सकता है।
शृङ्गारार्णव चन्द्रिका
“शृङ्गरार्णव चन्द्रिका” अलङ्कार विषयक ग्रन्थ हैं इसमें १० परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में, ग्रन्थकार ने स्वकीय आश्रयदाता गङ्गनरेश कामिराज की वंशावली का उल्लेख किया है। तत्पश्चात्, काव्य-स्वरूप, उसके भेदोपभेदादि का वर्णन है। द्वितीय परिच्छेद में कवि -स्वरूप, एवं भेद, वाक्यों का चतुर्विध अर्थ, लक्षणा-स्वरूप, व्यञ्जना-स्वरूप एवं अभिधा-शक्ति के नियामक संयोगादि तत्त्वों का सोदाहरण वर्णन हैं। तृतीय परिच्छेद में, रस’-माहात्म्य, स्थायीभाव-स्वरूप, उसके नव भेद, रस स्वरूप, भाव-स्वरूप, विभाव, अनुभाव, सात्त्विक भाव, और व्यभिचारिभाव एवं श्रृङ्गार रस आदि का सविस्तार वर्णन है। चतुर्थ परिच्छेद में, नायक- स्वरूप, भेदोपभेद सहित लक्षण तथा उदाहरण, विदूषक पीठमर्द, विट और नागरिक आदि उपनायक-लक्षण, नायिका-भेद, उनकी आठ अवस्थाएं, सात अयत्नज तथा दस स्वाभाविक एवं तीन शरीरज आदि २० अलङ्कारों का लक्षण एवं उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। पञ्चम परिच्छेद में गुण-स्वरूप और उसके दश भेदों का लक्षण एवं उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं। षष्ठ परिच्छेद में, रीति स्वरूप और उसके भेद चतुष्टय पर प्रकाश डाला गया है। सप्तम परिच्छेद में वृत्ति-स्वरूप, भेद चतुष्टय तथा उनके सन्दर्भ चतुष्टय-स्वरूप का वर्णन किया गया है। अष्टम परिच्छेद में शय्या एवं पाक का महत्त्व तथा स्वरूप, उनके भेद, लक्षण तथा उदाहरण प्रस्तुत है। नवम परिच्छेद में, अलङ्कार-स्वरूप एवं माहात्म्य, ४ शब्दालङ्कारों और ४७ अर्थालङ्कारों का लक्षण तथा उदाहरणों का निरूपण है। दशम परिच्छेद में, निर्दोष काव्य का महत्त्व, पद, पदांश, वाक्य, रस और अर्थगत दोषों का लक्षण एवं उदाहरण तथा अन्त में कवि-समय-प्रसिद्धि आदि महत्त्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश डाला गया है। १. शृङ्गारार्णवचन्द्रिका, १/५ “श्रीमद् विजयकीाख्यगुरुराजपदाम्बुजम्” २. वही, १/२२, “इत्थं नृपप्रार्थितेन मयालङ्कार संग्रहः । क्रियते सूरिणा शृङ्गारार्णवचन्द्रिका ।।” ३. वही १/७ ४. तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-४, पृष्ठ-३०६ २३३ रुद्रट से विद्यानाथ तक अजितसेन
अजितसेन
जैन परम्परा में इस नाम के अनेक आचार्य उत्पन्न हुए है। प्रस्तुत आलङ्कारिक आचार्य दिगम्बर सम्प्रदाय के जैनाचार्य थे। इनके जन्म-स्थान जन्म-काल एवं गुरु-परम्परा के विषय में विशेष जानकारी नहीं प्राप्त होती है। डॉ. ज्योति प्रसाद जैन के अनुसार, अजितसेन, पार्श्वसेन के प्रशिष्य और पद्मसेन के गुरु महासेन के गुरू थे। डॉ. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने भी इस मत की पुष्टि ही की है कि वे सेनसंघ के आचार्य थे। अजितसेन ने “अलङ्कार-चिन्तामणि” में अर्हद्वास का नामोल्लेख किया है और उनके मुनिसुब्रत काव्य से अनेक श्लोक भी उद्धृत किये है। अर्हद्वास ने पं. आशाधर का नाम अपने ग्रन्थों में लिया है। पं. आशाधर का समय, १३ वी शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना गया है। अतः अजितसेन का समय १४ वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध सुनिश्चित किया जा सकता है। अजितसेन की प्रधानतः (i) अलङ्कार-चिन्तामणि और (ii) शृंगार मञ्जरी-दो कृतिया मानी जाती हैं। ये दोनों अलङ्कार विषय से ही सम्बन्धित हैं।
अलङ्कारचिन्तामणि
अलङ्कार-चिन्तामणि में पांच परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में काव्य-स्वरूप, काव्य-हेतु, कवि शिक्षा, वर्गों का शुभाशुभ फल, गणों के देवता और फल, काव्य-भेद, समस्यापूर्ति-औचित्य तथा कवि-स्वरूप का विवेचन है। द्वितीय परिच्छेद में, शब्दालङ्कारों पर प्रकाश डाला गया है। तृतीय परिच्छेद में वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक आदि का भेदोपभेद सहित वर्णन है। चतुर्थ परिच्छेद में, अलङ्कार-स्वरूप, गुण और अलकार में भेद, अलङ्कार-वर्गीकरण, तथा ७० अर्थालङ्कारों का लक्षण और उदाहरण का विस्तृत वर्णन है। पञ्चम परिच्छेद में स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव, सात्त्विकभाव तथा व्यभिचारभावों का लक्षण एवं उदाहरण, काम की दस अवस्थाएँ, रस-स्वरूप, रस-भेद, उनका परस्पर सम्बन्ध, उनके वर्ण ओर देवता, रीति-स्वरूप, वृत्तिलक्षण, काव्य-गुण, नायक-भेद, नायिका-भेद, आदि विषयों का उदाहरण पूर्वक सम्यक् विवेचन किया गया है। | * जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग-५ पृष्ठ १२२ जैन-सन्देश, दिसम्बर १६५८, पृष्ठ-७६ तीर्थकार महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-४, पृष्ठ-३१ मुनिसुव्रत काव्य, १/२, ४/२५, १३४, ५/१५०, २/३१, ३२, ३३ इत्यादि ५. जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ-३४६ ६. महावीर जयन्ती स्मारिका, अप्रैल १६६३, पृष्ठ ६५ डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने, अजितसेन की रचनाओं में वृत्तवाद, छन्दः प्रकाश, और श्रुतबोध को भी परिगणित किया है। परन्तु प्रबल प्रमाणाभाव में सुनिश्चित रूप से माना नहीं जा सकता है। ; २३४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
जयदेव
अलङ्कारशास्त्र के इतिहास में चन्द्रालोककार जयदेव का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कहा जाता है कि बङ्गदेश में बल्लालसेन के पुत्र लक्ष्मणसेन ११वीं शताब्दी में राज्य करते थे। जयदेव इन्हीं राजा के सभापण्डित थे। प्रद्योतनभट्ट ने १५८३ ई. में चन्द्रालोक की टीका लिखी थी। अतः जयदेव का १५८३ ई. के पूर्व होने का सङ्केत प्राप्त होता है। जयदेव ने मम्मट के काव्य-लक्षण का खण्डन किया है। मम्मट का समय १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है। इससे इनका मम्मट के पश्चाद्वर्ती होना प्रमाणित होता है। इन्होंने रुय्यक (१२वीं शती का उत्तरार्द्ध) के “विकल्प" और “विचित्र” नामक अलङ्कारों को अपने ग्रन्थ में उद्धृत किया है। अतएव, जयदेव रुय्यक के भी पश्चाद्वर्ती सिद्ध होते हैं। “प्रसन्नराघव” के कुछ श्लोक “शागधर पद्धति” में उल्लिखित हैं। इसका समय १३६३ ई. माना जाता है। आचार्य बलदेव उपाध्याय ने इसी को जयदेव के समय की अन्तिम सीमा मानते हैं। अतः इनका आविर्भाव काल, १३वीं शती का उत्तरार्द्ध माना जा सकता है। जयदेव ने “चन्द्रालोक” और “प्रसन्नराघव” में माता-सुमित्रा और पिता-महादेव का नामोल्लेख किया है। इस परिचय से स्पष्ट प्रतीत होता है कि ‘चन्द्रालोक’ और “प्रसन्नराघव” के रचयिता एक ही व्यक्ति हैं। एक श्लोक में जयदेव को भोजदेव और रमादेवी का पुत्र कहा है। अतएव, कुछ विद्वान् गीतगोविन्दकार जयदेव को चन्द्रालोककार तथा प्रसन्नराघवकार जयदेव से भिन्न मानते हैं। परन्तु इसमें सत्यता की आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि वह श्लोक गीतगोविन्द की कुम्भनृपतिकृत “रसिक प्रिया” नामक टीका में नहीं पाया जाता है। अतएव, यह श्लोक प्रक्षिप्त ही मान लिया गया है।
कृतियाँ
जयदेव विरचित (i) चन्द्रालोक (ii) प्रसन्नराघव (i) गीतगोविन्द ग्रन्थत्रय विशेष रूप से उल्लेखनीय है। १. गोवर्धनश्च शरणो जयदेव उमापतिः। कविराजश्च रत्नानि समिती लक्ष्मणस्य।।" २. चन्द्रालोक १/८ भारतीय साहित्यशास्त्र, प्रथम भाग, पृ.-६३ चन्द्रालोक के प्रत्येक मयूखान्त में - महादेवः सत्रप्रमुखमखविद्यैक चतुरः। सुमित्रा तद्भक्ति प्रणहितमतिर्यस्य पितरौ।।" तथा “प्रसन्नराघव” की प्रस्तावना में उल्लिखित-अयासीदातिथ्यं न किमिह महादेवतनयः लक्ष्मणस्येव यस्यास्य सुमित्राकुक्षिजन्मनः।।" गीतगोविन्द १२/११ “श्री भोजदेव प्रभवस्य रामा - (धा ?) देवीसुतश्रीजयदेवकस्य। पराशरादिप्रियवर्गकण्ठे श्रीगीतगोविन्दकवित्वमस्तु।।” रुद्रट से विद्यानाथ तक जयदेव २३५
चन्द्रालोक
३५० अनुष्टुप छन्दों में विरचित चन्द्रालोक में १० मयूख हैं। प्रथम मयूख में काव्य-लक्षण, काव्य हेतु तथा वाग्विचार, द्वितीय मयूख में दोष-निरूपण, तृतीय मयूख में काव्याङ्ग-निरूपण चतुर्थ मयूख में गुण-निरूपण, पञ्चम मयूख में ५ शब्दालङ्कारों तथा १०० अर्थालङ्कारों का वर्णन, षष्ठ मयूख में रसों, भावों रीतियों तथा वृत्तियों का प्रकाशन, सप्तम मयूख में शब्दशक्तिनिरूपण, अष्टम मयूख में गुणीभूत व्यङ्ग्य निरूपण, नवम मयूख में लक्षणानिरूपण तथा दशम मयूख में अभिधा का सविस्तर विवेचन किया गया है।
चन्द्रालोक की टीकाएँ
ग्रन्थकार की चित्ताकर्षक शैली, स्पष्ट विवेचन, प्रगाढ़ पाण्डित्य के कारण परवर्ती ग्रन्थकारों ने इस ग्रन्थ की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है - “चन्द्रालोको विजयतां शरदागमसम्भवः। हृद्यः कुवलयानन्दो यत्प्रसादादभूदयम्।। अप्प्यदीक्षित “कुवलयानन्द “चन्द्रालोक” पर प्रद्योतन भट्टाचार्य ने “शरदागम” वैद्यनाथ पायगुण्डे ने “रामा” विश्वेश्वर पण्डित (गागाभट्ट) ने ‘सुधा’ आदि टीकाएं लिखी हैं। विद्यानाथ ने इस ग्रन्थ के समस्त उदाहरण, अपने आश्रयदाता की स्तुति में प्रस्तुत किये हैं प्रतापरुद्रदेवस्य गुणानाश्रित्य निर्मितः। अलङ्कार प्रबन्धोऽयं सन्तः कर्णोत्सवोऽस्तुवः।। __ - प्रतापरुद्र यशोभूषण, १-६ इतना ही नहीं, इन्होंने इस ग्रन्थ के तृतीय प्रकरण में अपने आश्रयदाता की चाट्रप्रवृत्ति में ‘प्रतापकल्याण’ नाटक का समावेश कर दिया है।२३६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
विद्याधर
वस्तुतः साहित्यशास्त्र के २००० वर्षों के इतिहास में १४०० वर्षों तक साहित्यिक प्रवृत्तियों का केन्द्रबिन्दु कश्मीर ही रहा है, जो भारत का उत्तरी विद्याकेन्द्र था। तत्पश्चात् गुर्जरप्रान्तान्तर्गत अणहिलपट्टन राज्य और पूर्व में बङ्गराज्य साहित्यिक गतिविधियों का स्थान सुनिश्चित होता है। दक्षिण भारत में साहित्यिक प्रवृत्तियों का श्रीगणेश एकावलीकार विद्याधर हैं। वे उत्कलाधिपति राजा नरसिंह द्वितीय के राज्याश्रित विद्वान थे। नरसिंह का शासनकाल १२८० से १३१४ ई. है। अतएव विद्याधर का समय भी विक्रम की १४वीं शताब्दी माना जा सकता है। .
एकावली
‘एकावली’ इनका एक मात्र उपलब्ध ग्रन्थ है। इसमें आठ उन्मेष हैं। क्रमशः प्रथमोन्मेष में काव्यस्वरूप, द्वितीयोन्मेष में वृत्तिविचार, तृतीयोन्मेष में ध्वनिभेद, चतुर्थोन्मेष में गुणीभूतव्यङ्ग्य, पञ्चमोन्मेष में गुण और रीति, षष्ठोन्मेष में दोष, सप्तमोन्मेष में शब्दालङ्कार एवं अष्टमोन्मेष में अर्थालङ्कारों का विवेचन किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ मम्मट के काव्य प्रकाश और रुय्यक के अलङ्कार सर्वस्व से सर्वथा प्रभावित है। आचार्य मल्लिनाथ ने १४वीं शताब्दी में इस ग्रन्थ की “तरला” नामक विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी है। एकावली में जितने भी उदाहरण हैं, वे स्वयं ग्रन्थकार द्वारा विरचित हैं। वास्तव में उन्होंने अपने आश्रयदाता नरसिंह देव के स्तवन में उनकी रचना की है। उन्होंने कहा भी है “एवं विधाथरस्तेषु कान्तासम्मितलक्षणम्। करोमि नरसिंहस्य चाटुश्लोकानुदाहरन्।।” प्रस्तुत ग्रन्थ का अलङ्कारशास्त्र के विनिर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
विद्यानाथ
प्रतापरुद्र, आन्ध्रप्रदेश के काकतीयवंश के राजा थे। इनकी राजधानी वारङ्गल (एकशिला) थी। इनके शिलालेख १२६८-१३१७ ई. तक समुपलब्ध हैं। प्रतापरुद्र ने देवगिरी नरेश रामदेव (१२७१-१३०६ ई.) को पराजित किया था। विद्यानाथ प्रतापरुद्र के समाश्रित विपश्चिद्रत्न थे। अतः, इनका भी समय १२७१ से १३१७ ई. के मध्य माना जा सकता है।
प्रतापरुद्रयशोभूषण
विद्यानाथ का अलङ्कारशास्त्र पर ‘प्रतापरुद्रयशोभूषण’ एकमात्र मान्य ग्रन्थ है। अन्य ग्रन्थों की भांति इसमें भी कारिका, वृत्ति तथा उदाहरण भागत्रय हैं। ग्रन्थकार ने ६ प्रकरणों में क्रमशः नायक, काव्य, नाटक, रस, दोष, गुण, शब्दालङ्कार, अर्थालङ्कार और मिश्रालङ्कर का सविस्तर विवेचन किया है। एकावली की भांति यह ग्रन्थ भी मम्मट के ‘काव्य प्रकाश’ और रुय्यक के ‘अलङ्कार सर्वस्व’ पर समाधारित है। प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ के पुत्र कुमारस्वामी ने इस ग्रन्थ की ‘रत्नापण’ नामक टीका की है। रुद्रट से विद्यानाथ तक विद्यानाथ २३७ विद्यानाथ ने इस ग्रन्थ के समस्त उदाहरण, अपने आश्रयदाता की स्तुति में प्रस्तुत किये हैं प्रतापरुद्रदेवस्य गुणानाश्रित्य निर्मितः। अलङ्कार प्रबन्धोऽयं सन्तः कर्णोत्सवोऽस्तुवः।। प्रतापरुद्रयशोभूषण, १-६ __इतना ही नहीं, इन्होंने इस ग्रन्थ के तृतीय प्रकरण में अपने आश्रयदाता की चाटुप्रवृत्ति में ‘प्रतापकल्याण’ नाटक का समावेश कर दिया है। २३८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र