०१. आनन्दवर्धन ०२. राजशेखर ०३. मुकुलभट्ट ०४. प्रतिहारेन्दुराज और भद्देन्दुराज ०५. धनञ्जय तथा धनिक ०६. (क) भट्टनायक ०७. (ख) भट्टतौत ०८. (ग) कुन्तक सन्दर्भ-ग्रन्थ विवरण १. ध्वन्यालोक- लोचन सहित । बालप्रिया दिव्याञ्जना टिप्पणी सहित। (सं. पट्टाभिरामशास्त्री) २. काव्यमीमांसा-विहारराष्ट्रभाषा परिषद्. द्वि. संस्करण, १६६५ ई. ३. अभिधावृत्तिमातृका चौखम्बा विद्याभवन प्र.सं. १६७३ ई. ४. दशरूपक चतुर्थ सं. चौखम्बा विद्याभवन प्र. सं. १६७३ ई. ५. वक्रोक्तिजीवित, द्वि. सं. ख चौखम्बा सं. सीरीज संस्थान वि. सं. २० ३३ ई. ६. व्यक्तिविवेक चौखम्बा विद्याभवन द्वि.सं. १६८० ई. ७. औचित्यविचार चर्चा, चौखम्बा विद्याभवन, द्वि.सं. १६८० ई. ८. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास डॉ. सुशीलकुमार डे, बिहार-हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, द्वि.सं. १६८८ ई. ६. संस्कृतशास्त्रों का इतिहास, आ.बलदेव उपाध्याय, शारदा मन्दिर वाराणसी १०. नाट्यशास्त्र, अभिनव भारती सहित (मधुसूदन शास्त्री) का.. हि.वि.वि. १३२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
आनन्दवर्धन
आनन्दवर्धन काव्यशास्त्र के ध्वनि-सम्प्रदाय प्रवर्तक आचार्य हैं। इन्होंने काव्यशास्त्र को नवीन दिशा दी। पण्डितराज जगन्नाथ के अनुसार’ ये अलंकार शास्त्र के मार्गव्यवस्थापक हैं। इन्होंने साहित्यशास्त्र में एक नवीन युग का प्रवर्तन किया। वह पूर्वाचार्यों के चिन्तन की परिणति या पराकाष्ठा कहीं जा सकती है। अभिनवगुप्त के शब्दों में ये सहृदयों के मनोमन्दिर में अनश्वरी (कभी न नष्ट होने वाली) प्रतिष्ठा को प्राप्त हैं। सहृदयचक्रवर्ती हैं।’ अद्वैत वेदान्त में जो स्थान शंकराचार्य को मिला है, अलंकारशास्त्र में वहीं स्थान आनन्दवर्धन को प्राप्त हुआ है, ऐसा विद्वानों का मत है। इनका प्रसिद्ध ‘ग्रन्थ’ ‘ध्वन्यालोक’ युगान्तरकारी ग्रन्थ रत्न हैं।
समय
__ कल्हणकृत राजतरंगिणी’ के अनुसार आनन्दवर्धन ने कश्मीर नरेश अवन्ति वर्मा की राजसभा को अलंकृत किया था। अवन्तिवर्मा का राज्यकाल इतिहासज्ञों के अनुसार ८५५-८८४ ई. निश्चित है। बलदेव उपाध्याय के अनुसार ८५५-८८३ ई.’ है। राजशेखर ने काव्यकारण के प्रसंग में आनन्दवर्धन का मत नाम ग्रहणपूर्वक उद्धृत किया है। उन्होंने परिकर श्लोक को भी उद्धृत किया है। राजशेखर का समय ८८०-६२० ई. सन् प्रायः निर्विवाद है। इसका निरूपण आगे किया जायेगा। मुकुलभट्ट ने भी आनन्दवर्धन के ध्वनि का निर्देश किया है, इनका समय भी नवमशती का अन्त तथा दशम शती का पूर्वार्ध है। ALANOAnate
१. ध्वनिकृतामलंकारसरणिव्यवस्थापकत्वात्। (दीपशिखा भूमिका में उयत) २. आनन्द इति च ग्रन्थकृतो नाम। तेन स आनन्दवर्धनाचार्य एतच्छास्त्रद्वारेण सहृदयहृदयेषु प्रतिष्ठा देवतायतनादिवदनश्वरी स्थितिं गच्छत्वितिभावः (लोचन पृ.४१) सहृदयचक्रवर्ती खल्वयं ग्रन्थकृत् (लोचन पृ. ४१) ४ संस्कृतशास्त्रों का इतिहास पृ. २०४ बलदेव उपाध्याय ५. मुक्ताकणः शिवस्वामी कविरानन्दवर्धनः। प्रथां रत्नाकरश्चागात् साम्राज्ये ऽवन्तिवर्मणः (राजतर ०५/३४) ६. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास (सुशील कुमार डे) अध्याय ४ आनन्दवर्धन। ७. संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ. ६०५ (संस्कृत शास्त्रों का इतिहास में इन्होंने भी ८८४ ही लिखा है) ८. प्रतिभाव्युत्पत्योः प्रतिभाश्रेयसी इत्यानन्दः (का. मी.पं. अ.) ६. अव्युत्पत्तिकृतो दोषः शक्त्या संव्रियते कवेः। यस्त्वशक्तिकतस्तस्य झगित्येवावभासते ध्व. लो. त्ट उ. (का. मी. पं. अ. में उद्धृत) १०. लक्षणामार्गवगाहित्वं तु ध्वनेः सहृदयैर्नूतनयोपवर्णितस्य विद्यतइति दिशमुन्मूलयितुमिदमत्रोक्तम् (अ.व. मा. १२वीं कारिका की वृत्ति) आनन्दवर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक ‘आनन्दवर्धन’
अन्तः साक्ष्यः
आनन्वर्धन ने ध्वन्यालोक में भरत’ भामहऔर भट्टोद्भट का का अनेक स्थलों पर स्मरण किया है। इनमें काव्यालंकार पर विवरण लिखने वाले भट्टोद्भट उक्त दोनों आचार्यों से परवर्ती है। वे अष्टम शताब्दी के अन्त और नवम शताब्दी के आरम्भ में विद्यमान थे। इससे सिद्ध होता है। कि आनन्दवर्धन भट्टोद्भट के परवर्ती तथा राजशेखर और मुकुलभट्ट के पूर्ववर्ती थे। अतः इनका पूर्व निर्धारित समय युक्त ही है। __ आनन्दवर्धन ने बौद्धमत की परीक्षा करने की प्रतिज्ञा की है। वहाँ “ग्रन्थान्तरे निरूपयिष्यामः” यह लुट्लकार भविष्यत् सामान्य का प्रयोग किया है, जिससे सिद्ध होता है कि उन्होंने ध्वन्यालोक की रचना तक उक्त परीक्षण नहीं की थी, प्रत्युत पश्चात् करेगें। ग्रन्थान्तर शब्द का अर्थ आचार्य अभिनव ने (प्रमाण) विनिश्चय ग्रन्थ की टीका धर्मोत्तरी या धर्मोत्तमा पर आनन्दवर्धन द्वारा लिखी गयी ‘विवृति लिखा है। धर्मोत्तमा का समय ८४७ ई. माना जाता है इससे भी आनन्दवर्धन का पूर्वोक्त समय ही सिद्ध होता है। आनन्दवर्धन के ‘देवीशतक’ नामक काव्य पर कैयट ने टीका लिखी है। वह टीका ६७७ ई. सन में लिखी गयी है। इस परिधि से भी आनन्दवर्धन का पूर्वोक्त समय युक्त ही प्रतीत होता है।
देश और वंशः
आनन्दवर्धन शारदादेश कश्मीर के निवासी हैं। इनका वंश कश्मीर का अतिप्रसिद्ध राजानक वंश है। आनन्दवर्धन के पिता का नाम नोण था। आनन्दवर्धन ने स्वरचित ‘देवीशतक’ में अपने को नोणसुत कहा है। इण्डिया आफिस लाइब्रेरी” में सुरक्षित ध्वन्यालोक की पाण्डुलिपि में तृतीय उद्योत के अन्तिम उल्लेख से भी सिद्ध है कि इनके पिता का नाम नोण या नोणोपाध्याय था। ये देवी तथा विष्णु के उपासक थे, दार्शनिक विद्वान्, शास्त्रज्ञ और ه १. ध्वन्यालोक पृ. ३३३, ३४०, ३६४ २. ध्व. लो. पृ. ११६, ४६६ ३. ध्व. लो. पृ. २३६, २५८ ४. यत्त्वनिर्देश्यत्वं सर्वलक्षणविषयं बौद्धानां प्रसिद्धं तत तन्मतपरीक्षायां ग्रन्थान्तरे निरूपयिष्यामः ध्व. लो. तृ. उ. पृ. ५१६ ५. ग्रन्थान्तर इति विनिश्चय टीकायां धर्मोत्तयाँ याविवृतिरमुना ग्रन्थकृता कृता तत्रैव तद् व्याख्यातम्"। (लोचन टीका ५१६ पृ.) ६. देव्या स्वप्नोद्गमादिष्टदेवीशतकसंज्ञया। देशितानुपमामाधादतो-नोणसुतो नुतिम् (देवीशतक) यह पद्य हेमचन्द्र के काव्यानुशासन में चित्रबन्धान्तर्गत चक्रबन्ध में उधत है, तथा नोणसुतः श्रीमानानन्दवर्धनाचार्यः यह व्याख्या उन्होंने की है (का. नु. शा. पृ. २७०) आनन्दवर्धन पृ. ५६ रेवाप्रसाद द्विवेदी तथा चण्डिकाप्रसाद शुक्ल दीपशिखा की भू. पृ. ५ ७. दीप शिखा (ध्व. लो. टीका) की भूमिका पृ. ५ . . .. … … …………….. ….. . १३४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र समालोचक तथा कवि एवं सहृदय थे। साथ ही सिद्धान्तव्यवस्थापक थे। यह इनके काव्यों तथा ग्रन्थों के परिशीलन से सिद्ध है।
ध्वन्यालोक
आनन्दवर्धन की कृतियों में सर्वश्रेष्ठ तथा विख्यात कृति ध्वन्यालोक है, जिसने इन्हें अमरकीर्ति प्रदान की। और सहृदयों के मनोमन्दिर में आनन्दवर्धन को आराध्यदेवता के समान प्रतिष्ठित किया। इस ध्वन्यालोक के तीन अंश हैं। कारिका, वृत्ति, उदाहरण। परिकर, संक्षेप तथा संग्रहश्लोक भी है जो वृत्ति के ही अंश हैं। इसमें उदाहरण तो वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, माघ, बाणभट्ट आदि महाकवियों के प्रख्यात महाकाव्यों से लिये गये है और अपने निजी ग्रन्थों से भी लिये गये हैं।
कारिका तथा वृत्तिः
परन्तु कारिका तथा वृत्ति इन दोनों भागों के लेखक आनन्दवर्धन हैं या कारिका किसी दूसरे आचार्य द्वारा रची गयी थी, उस पर केवल वृत्ति आनन्दवर्धन ने लिखी है ? इस विषय में बहुत बड़ा विवाद है। इस विवाद का मूल अभिनवगुप्तपादाचार्य की लोचन टीका है। इसमें कारिका को मूलकारिका’ तथा उसके रचयिता को कारिकाकार और मूलग्रन्थकार’ कहा गया है, और आनन्दवर्धन को वृत्तिकृत् वृत्तिकार कहा गया है। एक स्थान पर दोनों को सुस्पष्ट शब्दों में भिन्न कहा गया है “कर्तृ भेदे का संगतिः"५ इससे ज्ञात होता है कि कारिकाकार ने पहले कारिका लिखी थी, पश्चात् उस पर वृत्ति लिखी गयी। इस वृत्ति के तथा वृत्ति में आये हुए परिकर संग्रह आदि श्लोकों के लेखक आनन्दवर्धन हैं। क्योंकि ध्वन्यालोक के अन्त में वे स्वयं अपने को नामोच्चारण पूर्वक ध्वनि का विवरण (आलोक) कर्ता कहते हैं। परन्तु कारिकाकार कौन हैं, इसका सुस्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं है।
सहृदयः
ध्वन्यालोक की प्रथम कारिका तथा चतुर्थ उद्योत के अन्तिम पद्य में सहृदय शब्द आया है। इस आधार पर कल्पना की जा सकती है कि कारिकाकार का नाम सहृदय था। १. ध्व. लो लो. पृ. १६२। २. लोचन पृ. ६३, १६५-१६६, २८६, २२६, ३०४, ३१८, ५२७ ३. लोचन पृ. ३/२ लोचन पृ. १६२, १६३, १६५, १६६, २८६, २८६-६०, ३०४ ५. लोचन पृ. २६० ६. सत्काव्यतत्त्वनयवर्त्मचिरप्रसुप्तकल्पं मनस्सु परिपक्वधियां यदासीत्। तद्व्याकरोत् सहृदयोदयलाभहेतोरानन्दवर्धन इति प्रथिताभिधानः (ध्व. चतुर्थ उ. का अन्तिम पद्य) ७. सहृदयमनः प्रीतयेतत्स्व रूपम् (ध्व. लो. १/१) तव्याकरोतु सहृदयोदयलाभहेतोः (ध्व.लो. चतुर्थ उद्योत का अन्तिम पद्य) ..-
आनन्दबर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक ‘आनन्दवर्धन’ १३५ अभिनवगुप्त ने ध्वन्यालोक को सहृदयालोक’ तथा काव्यालोकरे कहा है, तथा भट्टनायक द्वारा रचित ध्वन्यालोक की टीका हृदयदर्पण को सहृदय दर्पण कहा है। मुकुलभट्ट भी ध्वनिकार के लिये सहृदय शब्द का ही प्रयोग करते हैं। उन्होंने तीन स्थानों पर सहृदय शब्द का प्रयोग किया है वह भी आदर सूचक बहुवचन के साथ। प्रतिहारेन्दुराज ने भी ध्वनिनिरूपणकर्ता को सहृदय ही कहा है। अतः डा. काणे महोदय ने कारिकाकार का नाम “सहृदय माना है।
कारिकाकार और वृत्तिकार में भेद
लोचन के आधार पर सर्व प्रथम बुहल ने इस तरफ विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया। जैकोबी ने लोचन के आधार पर ही कारिका के लेखक ध्वनिकार को वृत्तिकार से भिन्न माना है। डा. कीथ म. म. डा. पी. बी. काणे, डा. एस. के. डे., प्रोफेसर एम. पी. या एस.पी. भट्टाचार्य आदि ने भी कारिकाकार तथा वृत्तिकार को भिन्न माना है।
भेद में युक्तियाँ :
०१. “काव्यास्यात्मा ध्वनिरितिबुधैर्यः समाम्नातपूर्वः” इस पद्य में आये हुए ‘समाम्नातपूर्वः’ की व्याख्या से स्पष्ट है कि ध्वनि का निरूपण बहुत पहले हो चुका था। उसका गुरूशिष्य-परम्परा से विधिवत् प्रतिपादन किया जाता था। ०२. वृत्ति यद्यपि कारिका की व्याख्या है तो भी कारिका एवं वृत्ति में पूर्ण मतैक्य नहीं हैं। वृत्तिकार ने पर्याप्त विस्तार से व्याख्या, संशोधन, और परिवर्तन किया है। ०३. कारिकाकार ने जिसका विवेचन नहीं किया है, वृत्तिकार ने उसका बड़े विस्तार से RAKANTAS …………………..
१. अभिनवभारती ७ खण्ड ३४४. ५ खण्ड ११ पृ. २६६-३०० (संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास डा. एस. के. डे.) की टिप्पणी में उद्धृत पृ. ६५ २. काव्यालोके प्रथांनीतान् ध्वनिभेदान् परामृशत्। इदानीं लोचनं लोकान् कृतार्थान् संविधास्यति (ध्व. लो. तृ. ३. के लोचन का अन्तिम पद्य) ३. अभिनवभारती। (४-५) ४. अभिधावृत्तिमातृका।। का. की वृत्ति। दूसरी बार वहीं “महतिसमरे शत्रुध्नस्त्वं” की व्याख्या में। तीसरी बार वहीं लक्षणामार्गावगाहित्वं तु ध्वनेः सहृदयैर्नूतनतयोपवर्णितस्य। ५. द्रष्टव्य-लघुविवृति (का.ल.सा. सं. की (पर्यायोक्तप्रकरण-” कैश्चित् सहृदयै निरभिव्यञ्जकत्वभेदात्मा काव्यधर्मोऽभिहितः स कस्मादिह नोपदिष्टः उच्यते- एष्वलंकारेष्वन्तर्भावात् । (आनन्दवर्धन पृ. ४३ में उद्धृत) संस्कृत शास्त्रों का इतिहास पृ. २०५ बलदेव उपाध्याय ७. देखिये- सं. का. शा. का इतिहास पृ. ६६ डॉ. सुशीला कुमार डे। ८. वहीं पृ. ६५-६६ की टिप्पणी। . …. RELOD१३६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र विवेचन किया है। उदाहरण के लिए कारिकाकार ने वस्तु-अलंकार-रसरूप से ध्वनि का वर्गीकरण नहीं किया है, वृत्तिकार ने किया है। (यह बात लोचन’ में कही गयी ०४. वृत्तिकार ने काव्य में ‘अर्थानन्त्य’ के कारणों का विवेचन किया है, कारिकाकार ने नहीं किया है। (यह भी लोचन में कहा गया है। ०५. कारिका में अनिर्वचनीयतावाद का खण्डन नहीं है, वृत्ति में हैं। ०६. प्रथम उद्योत की कारिकाओं में ध्वनि के भेद का प्रतिपादन नहीं है। वृत्ति’ में सोदाहरण भेद प्रतिपादित है। ०७. कारिका के अर्थो में विकल्प या अनिश्चय भी दोनों में भेद बतलाता है। यदि कारिकाकार ही वृत्तिकार होते तो कारिका का अर्थ निश्चित ही होता विकल्प नहीं। जैसे “वृत्त्यनौचित्यमेव वा” की वृत्ति में लिखा है- “वृत्तेः व्यवहारस्य यदनौचित्यम्, यदि वा वृत्तीनां भरतप्रसिद्धानां कैशिक्यादीनां काव्यालंकारान्तरप्रसिद्धानामुपनागरिकाद्यानां वा यदनौचित्यमविषये निबन्धनं तदपि रसभंग हेतुः” । ०८. कारिकाकार गुणों को रसधर्म और शब्दार्थ धर्म मानना चाहते हैं। किन्तु वृत्तिकार का प्रयत्न केवल रसधर्म सिद्ध करने का है। ०६. कारिकाकार पदार्थसंवाद नहीं मानते परन्तु वृत्तिकार का तात्पर्य पदार्थसंवाद में भी है। १०. कहीं-कहीं वृत्ति भी श्लोक रूप में लिखी गयी है। ११. “प्रतीयमानं पुनरन्यदेव” इस कारिका की वृत्ति मानो पदच्छेद है। यदि कारिकार वृत्ति लिखते तो उसका अर्थ उज्जवलता के साथ लिखते १२. कारिकाकार अलग मंगलाचरण किये हैं “काव्यस्यात्मा ध्वनिः” यह वस्तुनिर्देशात्मक मंगल है। वृत्तिकाकार ने अलग किया है। (स्वेच्छाकेसरिणः) इत्यादि। १३. नामभेद : कारिका, वृत्ति तथा उदाहरण सहित ग्रन्थ का नाम ध्वन्यालोक, काव्यालोक या सहृदयालोक था। कारिका का नाम ध्वनिकारिका या सहृदय-कारिका था। इन सब युक्तियों से प्रतीत होता है। कि कारिकाकार एवं वृत्तिकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। १. लोचन टीका पृ.२६० २. ध्व. लो. लोचन पृ. ५२७ ३. ध्व. लो. पृ. १६३-६४ ४. ध्व. लो. पृ. १३६-१३८ ध्व. लो. पृ. ३६४ ६. इसमें ७-११ तक की युक्तियाँ आनन्दवर्धन पृ. ४५-४६ (ड. रेवा प्रसाद की है।) * प १३७ २. आनन्दवर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक ‘आनन्दवर्धन’
अभेद में युक्ति :
कारिका तथा वृत्ति के रचयिताओं में भेद सिद्ध करने हेतु जो युक्तियाँ दी गयी हैं, उनका समाधान तथा निराकरण भी किया जाता है। जिससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि कारिका तथा वृत्ति दोनों भागों के रचयिता आनन्दवर्धन ही हैं। वे समाधान क्रमशः नीचे उद्धृत हैं। १. “समाम्नातापूर्वः” की व्याख्या से कारिकाकार कोई दूसरे थे यह सिद्ध नहीं होता। अपितु यही सिद्ध होता है कि कारिका पहले लिखी गयी और उसपर वृत्ति बहुत बाद में लिखी गयी। यह एक ही व्यक्ति भी कर सकता है। जैसे वामन ने अपने काव्यालंकार सूत्रों की वृत्ति पीछे लिखी। “वृत्ति” और “कारिका” में मतभेद नहीं है, अपने पूर्व लिखी कारिकाओं को क्रमबद्ध करके उनका अभिप्राय व्यक्त करने के लिए विशद व्याख्या करनी ही पड़ती है। चूंकि वृत्ति बहुत बाद लिखी गयी, इसलिए उसमें नवीन पक्षों का समावेश भी हुआ। उसमें संशोधन एवं परिवर्तन आपाततः प्रतीत होता है, वस्तुतः संक्षेप में लिखी गयी कारिकाओं का तात्पर्य ही वही है। कारिका में विवेचित विषय का ही वृत्ति में प्रतिपादन है। रस, वस्तु, अलंकार रूप में ध्वनि का वर्गीकरण कारिकाओं में ही आगे किया गया है। (देखें ध्वन्यालोक द्वि. उ. का. ३,२१, २२, २५, २६) इसकी तीसरी कारिका में “रसध्वनि” २२वीं कारिका में “वस्तुध्वनि" शेष कारिकाओं में “अलंकारध्वनि” का विवेचन है। आगे किये गये इस वर्गीकरण को वृत्ति में प्रसंगतः पहले भी दर्शाया गया है। अर्थानन्त्य के कारणों का विवेचन कारिका ६-७ में किया गया है। वस्तुतः ४-७ तक को कारिकाओं में किया गया है। लोचनकार चतुर्थकारिका को संग्रहश्लोक होने का सन्देह करते हैं- “यदि वा उच्यते संग्रहश्लोकोऽयमिति भाव : (ध्व. लो. लोचन चतुर्थ उद्योत कीचतुर्थकारिका का उपक्रम) चतुर्थकारिका के संग्रहश्लोक होने में युक्ति देते हैं कि इस की वृत्तिग्रन्थ में व्याख्या नहीं की गयी है। (वहीं)। यह कोई समुचित युक्ति नहीं है, स्पष्ट अर्थ होने के कारण भी व्याख्या नहीं की जाती है। सभी ग्रन्थों में (ध्व. लो. के सभी संस्करणों में) यह कारिका की तरह मोटे अक्षरों में छपी भी है। लोचनकार भी सन्देह ही करते हैं, पक्षान्तर प्रस्तुत करते हैं, निश्चितरूप से नहीं कहते कि यह कारिका नहीं है। इस चतुर्थ कारिका में स्फुट अर्थानन्त्य का हेतु प्रतिपादित है" काव्ये रसपरिग्रहात्” । अनिर्वचनीयतावाद का खण्डन ध्वनिस्वरूप निरूपण से ही हो जाता है। जब लक्षण __करके ध्वनि का निर्वचन कर दिया गया तब वह अनिर्वचनीय कहाँ रह गया ? अतः अनिर्वचनीयतावाद के खण्डन के लिए दूसरी कारिका नहीं लिखी गयी। यही समझाने “Aristianimsinarini.com ५. m RAHATMaitannu १३८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र के लिए वृत्ति में उसका खण्डन किया गया है। यदि सामान्य तथा विशेष लक्षण कर देने पर भी ध्वनि अनाख्येय है तो सभी वस्तु अनाख्येय हो जायेगी। (ध्व.लो.पृ. १६३) वस्तुतः वह अनिर्वचनीयतावाद नहीं है, अनिर्वचनीयशब्द की शास्त्रीय व्याख्या दूसरी है। यह अनाख्येय या वाणी का अविषय है। ध्वनि का भेद-निरूपण ध्वन्यालोक के द्वितीय उद्योत की प्रथम, द्वितीय कारिका में हैं। यतः कारिकाकार ही वृत्तिकार है अतः उन्हें वह भेद ज्ञात है, उन्होंने वृत्ति लिखते समय प्रसंगवश प्रथम उद्योत में भी लिख दिया। भेद सिद्ध करने के लिए दिखाई गयी ७-११ तक की युक्तियाँ डा. रेवा प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘आनन्दवर्धन’ पृ. ४५-४६ से उद्धृत हैं, जो निस्सार हैं। उनका निराकरण कर भ्रान्ति निवारण करने के लिए यहाँ उद्धृत किया गया है। जैसे कारिका के अर्थ में अनिश्चय या विकल्प है (७वीं युक्ति) यह कहना उचित नहीं है। क्योंकि वहाँ वृत्ति शब्द से व्यवहार, तथा भरतोक्त कैशिकी आदि नाट्यवृत्तियाँ और काव्यालङ्कारान्तर में वर्णित उपनागरिका आदि त्रिविधवृत्तियों का ग्रहण है। इन तीनों प्रकार की वृत्तियों का अनौचित्य रसभंग में हेतु है। अतः इन सभी का ग्रहण अभीष्ट है। यहाँ वृत्ति में विकल्प होने की भ्रान्ति “यदि वा” शब्द देखकर हुई होगी। वस्तुतः यहाँ “वा” शब्द समुच्चयार्थक है। जैसे यत्रार्थः शब्दों वा” इस कारिका में वा शब्द समुच्चयार्थक है, अन्यथा वहाँ व्यक्तः यह द्विवचन प्रयोग निष्पन्न नहीं होता। __ यदि कहें कि वहाँ व्यक्तः यह द्विवचन प्रयोग “वा” शब्द के समुच्चयार्थक होने में निर्णायक है तो यहाँ भी “तदपि” शब्द जो वृत्ति में कहा गया है “वा" शब्द के समुच्चार्थक होने में निर्णायक है। ७. आठवीं युक्ति अनवबोधमूलक है। कारिका और वृत्ति दोनों में गुणों को मात्र रसधर्म माना गया है। (द्र. ध्व. लो. २/६-१० का. (वृत्तिकार ने लक्षणा से शब्दार्थ-धर्म भी माना है। (द्रष्टव्य गुणों का आश्रय क्या है ? इस प्रश्न का समाधान’ पदार्थसंवाद में कारिका एवं वृत्ति दोनों का तात्पर्य है। द्रष्टव्य अक्षरादिरचनेव योज्यते यत्र वस्तुरचना पुरातनी। नूतने स्फुरति काव्य-वस्तुनि व्यक्तमेव खलु सा न दुष्यति।। कहीं कहीं वृत्ति श्लोक रूप में लिखी गयी है। तो इससे वृत्तिकारकारिकार में भेद १. २. ध्व. लो. पृ. ३१२-१३ ध्व. लो. ४/१५ १३६ WARNIBATTA आनन्दबर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक ‘आनन्दवर्धन’ सिद्ध नहीं होता है तत्र वाच्यः प्रसिद्धोयः” इस कारिका का चतुर्थपाद “ततो नेह प्रतन्यते" यही है। “काव्यलक्ष्मविधायिभिः यह वृत्ति है, जो “अन्यैः, का अर्थ है। इसे वृत्तगन्धिगद्य भी कह सकते हैं। इसी तरह “अवस्थादिविभिन्नानां” इस कारिका का चतुर्थपाद “तत्तु भाति रसाश्रयात्" है," न तच्छक्यमपोहितुम् यह ग्रन्थ के मध्य में उपस्कर है। ११. इस युक्ति से भी वृत्ति एवं कारिकाकार में भेद सिद्ध नहीं होता। अतः सातवीं से ग्यारहवीं तक की युक्तियाँ निस्सार है। इनके अतिरिक्त एक और युक्ति जो अध्ययनाध्यापन में प्रचलित है जो वृत्तिकार से कारिकाकार को भिन्न सिद्ध करने के लिए दी जाती है वह मंगलाचरण है आनन्दवर्धन ने वृत्ति के आरम्भ में मंगलाचरण किया है- “स्वेच्छाकेसरिणः” इत्यादि। कारिकाकार ने भी ग्रन्थारम्भ में वस्तुनिर्देशात्मक मंगल किया है “काव्यस्यात्मा ध्वनिः” इत्यादि। यदि कारिका और वृत्ति दोनों ही एक ही की कृति होती तो दो मंगलाचरण करने की क्या आवश्यकता ? (जो कारिकारम्भ वृत्यारम्भ दोनों में की गयी है (इससे सिद्ध होता है कि दोनों के कर्तृत्व में भेद है। समाधान : यह कहा जा चुका है कि कारिका का निर्माण पहले हुआ तब वस्तुनिर्देशात्मक मंगल किया गया। पश्चात् जब वृत्ति लिखी गई तब आशीर्वादात्मक मंगल उन्होंने लिखा। भिन्न-भिन्न समय में की गयी रचनाओं में भिन्न-भिन्न मंगल उपयुक्त ही है। कुछ लोग यह भी समाधान देते हैं कि “काव्यस्यात्मा ध्वनिः" यह मंगल नहीं है, अपि तु ग्रन्थ है। मंगल “स्वेच्छाकेसरिणः" यह पद्य ही है जो वृत्ति तथा कारिका दोनों के आरम्भ में किया गया है। उसे आनन्दवर्धन ने किया है। अतः कारिका तथा वृत्ति दोनों भाग के रचयिता आनन्दवर्धन ही है। परन्तु यह समाधान समुचित नहीं प्रतीत होता, यदि यह मंगल कारिका लिखने के समय लिखा गया होता तो “काव्यस्यात्मा ध्वनिः" यह दूसरी कारिका होती। परन्तु सभी मुद्रितग्रन्थ में यह पहली कारिका है। उसपर संख्या (१) एक है। यदि कारिका बिना मंगलाचरण किये ही लिखी गयी होती तो यह शिष्टाचार का उल्लंघन होता। अतः प्रथम समाधान ही युक्त है।
विशद व्याख्या तथा मतभेद
कुछ लोग कहते हैं (एस.के.डे. ३ प्रभृति) कि कारिकाओं की विशद व्याख्या की गयी है तथा दोनों में (कारिका तथा वृत्ति में) मतभेद भी लक्षित होता है। अतः दोनों के कर्तृत्व १. २. ध्व. लो. १/३ ध्व, लो. ४/५ द्रष्टव्य-काव्यशास्त्रों का इतिहास पृ. ६६ ANDALLAHain. १४० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र में भेद है। इस पर हमारा निवेदन है कि व्याख्याकार तो विशद व्याख्या करता ही है केवल पदच्छेद और उसका पर्याय ही व्याख्या नहीं है। उदाहरण, प्रत्युदाहरण, वाक्याध्याहार आदि से व्याख्या पूर्ण होती है। महाभाष्यकार कहते हैं “न केवलं चर्चापदानि व्याख्यानानि। किं तर्हि ? उदाहरणं, प्रत्युदाहरणं, वाक्याध्याहारश्च" ।। वृत्तिकार-अपनी कारिका का पूर्णतया उहापोह करके वृत्ति लिखता है। यह केवल ध्वनि कारिका में ही नहीं है व्याकरण सूत्रों पर भी लिखी गई वृत्ति की यही स्थिति है। यहाँ दो एक उदाहरण देना अप्रासंगिक नहीं होगा, आवश्यक है। जैसे “द्विर्वनेऽचि” (पा.सू. १/१/५६) की वृत्ति लिखी गयी-“द्वित्वनिमित्तेऽचि परे अचआदेशों न स्यात् द्वित्वे कर्तव्ये”। यहाँ सूत्र में “द्विर्वचने” पद एक बार पढ़ा है, वृत्ति में इसे तंत्र या एकशेष मानकर दो अर्थ किया गया “द्वित्वनिमित्ते” तथा “द्वित्वे कर्तव्ये” । यही अर्थ संगत है, इसे मतभेद या अर्थरिवर्तन नहीं कहा जाता। इसी तरह-“सयोगान्तस्य लोपः” (पा. सू. ८/२/२३) इस सामान्य सूत्र से जब संयोग के अन्त में यण् का भी लोप प्राप्त हुआ तब उसे वारण करने के लिए वार्तिककार ने वार्तिक लिखा (यणः प्रतिषेधोवाच्यः) भाष्यकार ने लोप विधायक सूत्र में झलः की अनुवृत्तिकर यण के लोप का निषेध कर वार्तिका का खण्डन कर दिया। इस व्याख्या में सूत्र-वृत्ति भाष्य में विरोध या तीनों में मतभेद नहीं कहा गया। प्रत्युत इसी अर्थ में तीनों का तात्पर्य माना गया। और “यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्” के अनुसार प्रामाणिक इसी को माना गया। इसी तरह ध्वन्यालोक में भी कारिका का तात्पर्य ही उस वृत्ति में है, कारिका और वृत्ति में मतभेद या विरोध नहीं है। ऐसे स्थल पर मतभेद, विरोध या मतैक्य का अभाव कहना पाश्चात्त्य रीति है, भारतीय रीति नहीं। ध्वन्यालोक के कुछ दृष्टान्तः “क्रमेण प्रतिभात्यात्मा योऽस्यानुस्वानसन्निभः। शब्दार्थशक्तिमूलत्वात् सोऽपि द्वेधा व्यवस्थितः।। २ इस कारिका पर “शब्दार्थशक्तिमूलत्वात्” की वृत्ति लिखी गयी “शब्दशक्ति मूलोऽर्थशक्तिमूलश्चेति द्विप्रकारः”। परन्तु “शब्दार्थशक्त्याक्षिप्तोऽपि’ की वृत्ति लिखी गयी “शब्दशक्त्या-अर्थशक्त्या- शब्दार्थशक्त्या” १. म. भा. पश्पशाहिक व्याकरणाधिकरण २. ध्व. लो. २/२० RTAINA आनन्दवर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक ‘आनन्दवर्धन’ १४१ (उभयशक्त्या)। तो यह कारिका और वृत्ति में मतभेद या विरोध नहीं है, प्रत्युत एकशेष करके कारिका में लिखे गये पद का अर्थ ही यहीं है। “शब्दश्च अर्थश्च शब्दार्थों (द्वन्द्व)। शब्दार्थौ च शब्दार्थोच शब्दार्थों (एकशेष)। शब्दार्थयोःशक्त्या शब्दार्थशक्त्या (ष. तत्पु.)। द्वन्द्वान्त में आये हुए शक्ति शब्द का प्रत्येक में अन्वय है। अतः अर्थ हुआ “शब्दशक्त्या अर्थशक्त्या शब्दार्थशक्त्या। यहीं अर्थ संगत है। क्योंकि उभयशक्ति से भी व्यंग्य अर्थ द्योत्य होता है। उसका भी ग्रहण अपेक्षित है। कुछ लोक उसे शब्दशक्ति में और कुछ लोग उसे अर्थशक्ति में अन्तर्भूत कर लेते है, परन्तु वह व्यंग्य वस्तुतः उभयशक्ति से द्योत्य होता है। वाक्य में अनेक पद होते हैं। उसमें व्यंग्य अर्थ देने वाले कुछ पद ऐसे होते हैं, जिनका पर्यायपरिवर्तन करने पर भी व्यङ्ग्य अर्थ अभिव्यक्त होता है, उन्हें अर्थशक्त्युद्भव व्यंग्य कहते हैं। कुछ ऐसे पद होते हैं जो व्यंग्य अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं, परन्तु उनके स्थान पर अगर पर्यायवाची शब्द का प्रयोग कर दिया जाय तो फिर व्यंग्य अर्थ नहीं अभिव्यक्त होता। इस व्यंग्य के अभिव्यक्ति में वह शब्द ही मूल है अतः इसे शब्दशक्तिमूल कहते हैं। परन्तु एक ही वाक्य में यदि दोनों प्रकार के शब्दों का प्रयोग हो तो ऐसे स्थल पर व्यंग्य को उभयशक्तिमूल या शब्दार्थोभयशक्ति से आक्षिप्त कहते हैं। इस दृष्टि से वृत्तिकार ने शब्दशक्त्या, अर्थशक्त्या, शब्दार्थशक्त्या अर्थ लिखा जिसमें कारिका का भी तात्पर्य है। यह मतभेद या विरोध नहीं है। इसी तरह “रसादिभय एकस्मिन् कविः स्यादवधानवान्”। इस कारिका की वृत्ति में “प्रबन्ध में एक ही “अंगी” रस होना चाहिये” इस अर्थ को पुष्ट करने के लिए वृत्तिकार ने दृष्टान्त रूप में महाभारत को उपस्थित किया। प्रसंगवश उसमें अंगीरस शान्त है, अतः शान्तरस का विवेचन किया। यह अपेक्षित था। इसी तरह कई स्थलों पर कवियों को शिक्षा देने के लिए अलंकारों के विन्यास की शिक्षा, विषयानुरूप संघटना, अर्थानन्त्य आदि कई स्थानों पर विशद निरूपण किया गया है, तथा व्यंजना के विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन और उनका निराकरण आदि अनेक विषयों का उपपादन वृत्ति में किया गया है, जो आवश्यक था। यह मतभेद या विरोध नहीं है।
सहृदय
सहृदय किसी व्यक्ति की संज्ञा नहीं है, क्योंकि “सहृदयमनः प्रीतये” की वृत्ति १. २. ध्व. लो. २/२३ ध्व.लो. ४/५ १४२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र में आनन्दवर्धन लिखते हैं “सहृदयानां मनसि आनन्दो लभतां प्रतिष्ठाम्”। इसकी व्याख्या अभिनवगुप्त पादाचार्य करते हैं-“आनन्द इति ग्रन्थकृतों नाम। तेन स आनन्दवर्धनाचार्य एतच्छास्त्र द्वारेण सहृदयहृदयेषु प्रतिष्ठां देवतायतनादिवदनश्वरी स्थितिं गच्छत्विति भावः । यथा मनसि प्रतिष्ठा एवं विधमस्य मनः सहृदयचक्रवर्ती खल्वयं ग्रन्थकृदिति यावत्” । यहाँ “आनन्दः” का श्लेष द्वारा आनन्द (प्रीति) और आनन्दवर्धनाचार्य दो अर्थ उन्होंने किया, परन्तु सहृदय शब्द का दो अर्थ नहीं किया। न तो सहृदय नाम के किसी व्यक्ति का ही निर्देश किया, प्रत्युत ग्रन्थकार (कारिका, वृत्ति, उदाहरणादि इन तीनों अंशवाले ध्वन्यालोक) ग्रन्थ का कर्ता आनन्दवर्धन को ही माना, और उन्हें सहृदयचक्रवर्ती कहा। और सहृदयशब्द की व्याख्या में “येषां काव्यानुशीलनाभ्यासवशाद् विशदीभूते मनो-मुकुरे वर्णनीयतन्मयीभवनयोग्यता ते स्वहृदयसंवादभाजः सहृदयाः” अर्थात् काव्यानुशीलन करते-करते जिनका मनरूपी दर्पण निर्मल हो गया है, उसमें वर्णनीय विषय में तन्मय होने की योग्यता आ गयी है, वे अपने हृदय मे कवि हृदय का संवादभागी सहृदय कहलाते है। उन्होंने यह नहीं लिखा कि सहृदय • नाम का कोई व्यक्तिविशेष है। म वस्तुतः उन दिनों प्रधानव्यंग्य रूप ध्वनि अर्थ को जानने वालों की ही “सहृदय" संज्ञा प्रचलित थी। अतः ध्वन्यभाववादी भी ध्वनिमानने वालों को “अलीकसहृदयत्व-भावना मुकुलितलोचनैर्नृत्यते” इत्यादि शब्दों से “अलीक सहृदय” कहते हैं। ध्वन्यालोक की कारिका तथा वृत्ति में प्रायः १३’ बार सहृदय शब्द का प्रयोग हुआ है, संग्रहश्लोक में भी सहृदय शब्द का प्रयोग है। सहृदय का पर्यायवाची सचेता तथा काव्यतत्वज्ञ शब्द भी कारिका तथा वृत्ति में प्रयुक्त है। और सहृदयत्व की व्याख्या भी रसज्ञता की गयी है। कहीं व्यक्तिविशेष का सहृदयनाम नहीं कहा गया है। इस सहृदय शब्द का प्रयोग मुकुलभट्ट, प्रतिहारेन्दुराज, महिमभट्ट आदि ने भी ध्वनि को मानने जानने वालों के लिए किया है। अतः सहृदय नामक कोई व्यक्ति, जो कारिकाकार है, सिद्ध नहीं होता। प्रत्युत १. च.लो. का. १,२. वृत्ति में प्रथमकारिका की वृत्ति सहृदयजनमनः प्रकाशमान-स्यापि ३. अभाववाद में सहृदयहृदयाह्लादि शब्दार्थमयत्वम् ४. काँश्चित् सहृदयान् परिकल्प्य ५. अलीकसहृदयत्वभावना ६. सहृदयमनः प्रीतयेतत्स्वरूपं ब्रूभः ७. सहृदयानामानन्दो मनसि ८. संग्रहश्लोक ज्ञेयः सहृदयैर्जनैः (तृ.उ.) ६. सत्यकवयः सहृदयाश्च (३/४५ की वृत्ति १०. सहृदया एव काव्यानां रसज्ञाः (तृ.उ.) ११. स्फुरणेयं काचित् सहृदयानाम् (४/१६ का. के. मध्य में १२. किमिदं सहृदयत्वं नाम (तृ.उ.) १३. रसज्ञतैव सहृदयत्वम् (तृ.उ.) ध्व. लो. १/१२ का. च.लो. १/७ का. २. ३. १४३ आनन्दबर्थन से भट्टनायक और कुन्तक तक ‘आनन्दवर्धन’ मुकुलभट्ट के शब्दों से सहृदय आनन्दवर्धन ही सिद्ध होते हैं। उनके शब्द है “विवक्षितान्यपरवाच्यता सहृदयैः काव्यवर्त्मनि निरूपिता” इत्यादि। इसमें “विवक्षितान्यपरवाच्य"शब्द आनन्दवर्धन के हैं (वृत्ति में आये हैं) कारिका में नहीं आये है, कारिका में विवक्षिताभिधेय शब्द आया है) उन्हीं को सहृदय उन्होंने (मुकुल ने) कहा है, और ध्वनिनिरूपणकर्ता भी। इनका उद्धरण पहले दिया जा चुका है। प्रतिहारेन्दुराज ने भी उद्भट के “काव्यालंकारसारसंग्रह” पर अपनी लघुवृत्ति में जो “कैश्चित् सहृदयैः ध्वनिरभिव्यंजकत्वभेदात्मा काव्यधर्मोऽभिहितः"“कहा है वह सहृदय शब्द भी पारिभाषिक है। व्यक्तिवाची नहीं है। वह भी आनन्दवर्धन के लिए प्रयुक्त है। तथा स्वशब्दव्यापारास्पृष्टत्वेन प्रतीयमानैक-रूपस्यार्थस्य सद्भावः२ इयादि में जो प्रतीयमान अर्थ को स्वशब्दव्यापारास्पृष्ट “कहा है, वह वृत्ति में ही है” न तु साक्षाच्छब्दव्यापार विषय इति वाच्याद् विभिन्न एव। इस तरह इन्होंने आनन्दवर्धन को ही ध्वनि का प्रतिपादक माना है। राजशेखर ने तो सुस्पष्ट शब्दों में कारिका एवं वृत्ति दोनों के कर्ता को आनन्दः “कहा है तथा परिकर श्लोक का उद्धरण दिया है। कुन्तक भी वृत्तिकार को ही ध्वनिकार कहते हैं। रूढ़िशब्दवक्रता का उदाहरण “ताला जाअंति गुणा जाला दे सहिअएहिघेप्पति” इस पद्य को देते हैं। (यह पद्य ध्वन्यालोक में भी उदाहृत है । विषमवाणलीला का पद्य है) (और लिखते है “यस्माद्ध्वनिकारेण व्यंग्यव्यंजकभावोत्र सुतरां समर्थितः किं पौनरूक्त्येन। __ महिमभट्ट ने भी आनन्दवर्धन को ही कारिकाकार तथा वृत्तिकार दोनों ही माना है क्योंकि “अर्थ : सहृदयश्लाध्यः काव्यात्मा यो व्यवस्थितः” इस कारिका के लेखक को ही कहते हैं कि आपने “अर्थोवाच्यविशेष: यह विवरण स्वयं लिखा है। यह विवरण वृत्ति में है। अतः इनके मत में वृत्तिकर्ता कारिकाकर्ता एक ही व्यक्ति सिद्ध हुए। क्षेमेन्द्र ने भी ध्वनिकारिका “अविरोधी विरोधी वा रसोऽङ्गिनि रसान्तरे” को तदुक्तमानन्दवर्धनेन’ कहकर आनन्दवर्धन के नाम से उद्धृत किया है। हेमचन्द्र ने भी यासंबियते कोः ‘ज्वलो. ३४३१६. १. पर्यायोक्तप्रकरण (आनन्दवर्धन में उद्धत।) २. वहीं पर्यायोक्त प्रकरण में (का.ल. सार सं. की टीका) ३. ध्व. लो. पृ. ८० का. मी. ५/३८ पृ.। तथा “अव्युत्पत्तिकृतोदोषः शक्त्यासंक्रियते कवेः “ध्व.लो. ३/३१६Y. ध्वनिनातिगभीरेण काव्यतत्व-निवेषिणा। आनन्दवर्धनः कस्य नासीदानन्दवर्धनः” ध्व.लो. २/१७०पृ. व.जी.२/१६५ पृ. ७. व्य. वि.प्र. विमर्श पृ. ८८ ८. ध्व.लो. ३/२४ औचित्य वि.च.पृ. ६० * १४४ ANERNATHREAT अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र कारिका को आनन्दवर्धन की ही कृति मानी है’। स्वयं लोचनकार ने ही एक स्थान पर ऐसे शब्द का प्रयोग किया है जिससे प्रतीत होता है कि वे कारिका और वृत्ति दोनों के रचयिता को एक मानते हैं वे हैं आनन्दवर्धन। जैसे-द्वितीयोद्योत के प्रारम्भ में वृत्ति में लिखा है “एवमविवक्षितवाच्यविवक्षितान्यपरवाच्यत्वेन ध्वनिर्दिप्रकारः प्रकाशितः” यह भेद प्रथम उद्योत में वृत्ति में किया गया है। अतः ‘प्रकाशितः’ का प्रतीक लेकर लोचनकार कहते हैं” मया वृत्तिकारेण सता इति भावः” । इसका अर्थ हैं “वृत्तिकार होते हुए मेरे द्वारा” अर्थात् वृत्ति लिखते समय हमने लिखा है। इस “सता” शब्द की संगति तभी बैठती है। जब विभिन्न काल में लिखे गये कारिका एवं वृत्ति के लेखक को एक माना जाय, अन्यथा “सता” की क्या उपयोगिता ? तृतीय उद्योत के प्रारभ में “एवं व्यंग्यमुखेनैव ध्वनेः प्रदर्शिते सप्रभेदे स्वरूपे” इस पंक्ति में आये हुए व्यंग्यमुखेन” की व्याख्या करते हुए लोचनकार से पूर्व हुए चन्द्रिकाकार ने जो लिखा" व्यंग्यानां वस्त्वलंकाररसानां मुखेन" यह भेद (व्यंग्य का वस्तु अलंकर-रस रूप से त्रिविध भेद) (प्रथम उद्योत की वृत्ति में है, कारिका में नहीं, तो भी उन्होंने लिखा, इसका तात्पर्य है कि वे कारिका और वृत्ति दोनों का कर्ता एक ही व्यक्ति को मानते है, नहीं तो असंगत हो जायेगा। रूय्यक ने भी ध्वनिसिद्धान्त का प्रवर्तक आनन्दवर्धन को ही माना है। मम्मट का भी स्वारस्य इसी पक्ष में है। वे “उक्तं हि ध्वनिकृता" कहकर “अनौचित्यादृते नान्यद्रसभंगस्य कारणम्” को उद्धृत करते हैं। जो ध्व. लो. तृ. उ. की वृत्ति में है (का. प्र. स. उ.) और का. प्र. प. उ. में “व्यज्यन्तेवस्तुमात्रेण" इस कारिका को भी ध्वनिकार के नाम से उद्धृत करते हैं। उनकी दृष्टि में ध्वनिकार आनन्दवर्धन ही है। __ चित्रकाव्य के खण्डन के प्रसंग में विश्वनाथ भी आनन्दवर्धन को ही कारिका तथा वृत्ति का कर्ता मानते हैं। पण्डितराज जगन्नाथ ने भी आनन्दवर्धन को ही ध्वनिकारिका तथा वृत्ति के समुदितरूप का कर्ता माना है। अर्वाचीन पुराविदों में म.म. डॉ. कुप्पु स्वामी शास्त्री डॉ. ए. शंकरन, डॉ. शतकरी मुखर्जी, डॉ. के.सी. पाण्डेय : डॉ. के. कृष्णमूर्ति ने ध्वनि तथा वृत्ति के कर्ता को अभिन्न ही माना है। बलदेव उपाध्याय तथा तद्नुसार डॉ. रेवा प्रसाद द्विवेदी ने भी दोनों में भेद नहीं माना है। परन्तु डॉ. एस.के. डे ने अपने संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास पृ. ६६-६७ में इन एक मानने वालों को भ्रान्त माना है। उनका कथन है कि इस भ्रान्ति का कारण आनन्दवर्धन की विशदवृत्ति है तथा अव्यस्थित सिद्धान्त को व्यवस्थित करने की सफलता है, जिससे मूलकार पीछे छूट गये, लोग मात्र आनन्दवर्धन को ही ध्वनिकार मान बैठे। MATERI १. काव्यानुशासन आनन्दबर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक ‘आनन्दवर्धन’ १४५ परन्तु उनका यह कथन तब संगत होता, जब वे कारिकाकार का नाम और समय निश्चय कर पाते। वह तो हो नहीं पाया। डॉ. एस.के. डे ने स्वयं लिखा है।’ कि जैकोबी ने ध्वन्यालोक के अपने विद्वत्तापूर्ण अनुवाद की भूमिका में यह प्रश्न उठाया है कि यदि ध्वनिकार आनन्दवर्धन से भिन्न हैं तो वे कौन थे ? उनकी तिथि क्या थी ? परन्तु वे कोई समाधान प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। सोवनी की कल्पना कि ध्वनिकार का नाम सहृदय था निश्चयात्मक नहीं है। (इसका निराकरण पहले किया जा चुका है) अभाववाद में “तथाचान्येन कृत एवाऽत्रं श्लोकः इस. वृत्ति की लोचन टीका आनन्दवर्धन के समकाल होने वाले मनोरथ कवि का वर्णन करती है।" ग्रन्थकृत-समकालभाविना मनोरथ नाम्ना कविना"। यहाँ ग्रन्थकृत आनन्दवर्धन है। क्योंकि अभिनवगुप्त जिस ग्रन्थ की टीका लिख रहें है वह कारिका, वृत्ति, उदाहरण का मिला हुआ स्वरूप है ध्वन्यालोक। वह ग्रन्थ आनन्दवर्धन का ही है। कारिकाकार को अभिनवगुप्त मूलग्रन्थकार कहते हैं। ये मनोरथ कवि राजतरंगिणी में वर्णित जयापीड़ तथा उनके उत्तराधिकारी ललितापीड़ के राज्यकाल में (आठवीं शती के तृतीय चरण नवीं शती के प्रथम चरण लगभग ७८०-८१३ई. में होने वाले मनोरथ से भिन्न है।
कारिका का समय :
कारिका यदि पूर्व रची गयी है (वृत्ति से पहले) तो इसका काल क्या होगा ? इसका निर्णय कुछ कारिकाओं से ही हो जाता है। रसभाव को रसवदादि अलंकार से भिन्न सिद्ध करने वाली कारिका है प्रधानेऽन्यत्र वाक्यार्थे यत्रांगं तु रसादयः। काव्ये तस्मिन्नलंकारो रसादिरिति में मतिः।२ इस कारिका में आये हुए “मे मतिः” का तात्पर्य कारिकाकार के सिद्धान्त या पक्ष से है। वे रसध्वनि और भावध्वनि को रसवदलंकार और प्रेयोलंकार से भिन्न सिद्ध करना चाहते हैं। अतः कहते है कि वाच्यवाचकचारूत्व हेतूनां विविधात्मनाम्। रसादिपरता यत्र स ध्वनेर्विषयो मतः।। अर्थात् जहाँ रस-भाव-रसाभास-भावाभास रूप मुख्य अर्थ का अनुवर्तन करते हुए शब्द और अर्थ की चारूता के हेतु (अलंकार-गुण) अंगरूप से व्यवस्थित है वहाँ १. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास पृ. ६८ २. व.लो. २/५ ३. ध्व. लो. २/४१४६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र रसध्वनि, भावध्वनि आदि का विषय होता है। और जहाँ वाक्यार्थ प्रधान होते हैं, रस भाव आदि अंगरूप से रहते हैं उस काव्य में रसादि अलंकार होते हैं। यह मेरा पक्ष है। इन दोनों कारिकाओं से स्पष्ट है कि इनके पहले के आचार्य रस और भाव को रसवत् और प्रेयस्अलंकार कहते हैं। इन्होंने रसवत् और प्रेयोऽअलंकार से रसध्वनि भावध्वनि का विषय अलग सिद्ध किया है। अब प्रश्न उठता है रस को रसवदलंकार किसने माना है ? उत्तर स्पष्ट है, भामह-दण्डी, उद्भट ये तीन आचार्य रस को अलंकार रूप’ ही माने हैं। अतः उक्त कारिका उनके मत को निराकरण करने के लिए लिखी गयी उनसे परवर्ती काल की है। यद्यपि भामह से परवर्ती मानने पर भी उक्त कारिका का अभिप्राय (पक्ष) सिद्ध हो जाता है। तो भी प्रेयस् का स्वरूप स्पष्ट उद्भट से ही होता है। अतः उद्भट से भी पश्चात् कारिका का काल सिद्ध होता है। एक दूसरा स्थल भी है “वृत्यनौचित्यमेव वारे"। यहाँ वृत्ति शब्द से व्यवहार तथा भरतोक्त कैशिकी आदि वृत्तियाँ और दूसरे काव्यलंकार में उक्त उपनागरिका आदि वृत्तियाँ भी गृहीत हैं। इस उपनागरिका आदि वृत्तियों का प्रतिपादन उद्भट के ग्रन्थ में ही मिलता है। भामह और दण्डी के ग्रन्थ में नहीं। अतः कारिका का समय उद्भट के पश्चात् सिद्ध हुआ। आनन्दवर्धन का जो समय है। अतः कारिकाकार आनन्दवर्धन ही हैं और कोई नहीं। (परन्तु यह पक्ष तभी सिद्ध होगा जब वृत्ति में लिखे हुए अर्थों में कारिका का तात्पर्य माना जाय)।
वस्तुतः अभेद
कारिकाकार वृत्तिकार में भेद का बीज केवल अभिनवगुप्त ने बोया है। इन्हीं को मूल मानकर बूहलर, जैकोबी, सिवोनी, काणे, सुशील कुमार डे आदि ने भी भेद माना है। परन्तु वे लोग भी कहते हैं। कि अभिनवगुप्त किसी भ्रान्तिवश ऐसा कहते हैं, क्योंकि कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता जिसके आधार पर दोनों में भेद किया जा सके। कान्तिचन्द्र पाण्डेय ने अपने अभिनवगुप्त में (जिसकों डॉ रेवा प्रसाद द्विवेदी ने अपने आनन्दवर्धन में उद्धृत किया है (लिखा है कि अभिनव गुप्त का स्वभाव ही ऐसा है कि रचना दो प्रकार की हो तो रचनाकार में भेद मानकर व्याख्या करते हैं। उन्होंने अपने इस मन्तव्य को पुष्ट करने के लिए ईश्वरप्रत्यभिज्ञा विमर्शिनी, पृ. २२-२३ का उद्धहरण दिया है, कि अभिनव गुप्त को यह तथ्य विदित है कि कारिका, वृत्ति और उसकी टीका-इन तीनों के रचयिता उत्पलदेव हैं। अभिनव गुप्त ने कारिका पर ईश्वर प्रत्यभिज्ञा विमर्शिनी और ॐ २. ३. द्रष्टव्य भामह का.लं. ३/५-६ तथा काव्यादर्श, २/२७५ और का.लं. सा.सं. ध्व. लो. ३/१६ आनन्दवर्धन पृ. ४६-५० “”-
१४७ आनन्दबर्थन से भट्टनायक और कुन्तक तक ‘आनन्दवर्धन’ वृत्ति पर “ईश्वर प्रत्यभिज्ञा विवृति विमर्शिनी” नामक अलग-अलग टीका लिखी। उनमें ग्रन्थकार की वृत्ति से कुछ अधिक बातें लिख दी। इसकी सूचना देते हुए वे लिखते हैं “इयति च व्याख्याने वृत्तिकृता भरो न कृतः तात्पर्यव्याख्यानात्, टीकाकारेणाऽपि वृत्तिमात्रव्याख्यातुमुद्यतेन नेदं स्पृष्टम्” । वहाँ वृत्तिकार टीकाकार शब्द का प्रयोग किये हैं। दूसरी बात यह कि अभिनव गुप्त ने जिस ग्रन्थ पर ‘लोचन’ टीका लिखी है। उसका नाम ध्वन्यालोक है। परन्तु इसका भी विभिन्न नाम उन्होंने लिख दिया। काव्यालोक, सहृदयालोक आदि। यह तो उनका स्वभाव है। अभेद में भी भेद करने का अर्थात् अगर कृति दो प्रकार की है, तो दोनों की स्थापनाओं को अलग-अलग कर समीक्षा करने की। यह भी एक विधि है। वस्तुतः कारिका और वृत्ति दोनों के सम्मिलित रूप ध्वन्यालोक के रचयिता आनन्दवर्धन ही है।
ध्वनि सिद्धान्त
ध्वनि सिद्धान्त का मूल वैयाकरणों का स्फोट’ सिद्धान्त है जिसका निरूपण महाभाष्यकार पतञ्जलि तथा भर्तृहरि आदि विद्वानों ने बहुत पहले किया था। उन्होंने स्फोट के अभिव्यञ्जक मुख से उच्चारण किये गये शब्द को तथा अभिव्यक्त स्फोट को ध्वान कहा था। उन्हीं के सिद्धान्तों का अनुसरण करते हुए काव्यतत्त्वार्थदर्शिओं ने व्यंग्यव्यञ्जकभाव में तथा प्रधानभूत व्यंग्य के लिए ‘ध्वनि’ शब्द का व्यवहार किया। इससे यह सिद्ध होता है कि ध्वनि-सिद्धान्त बहुत पहले ही अध्ययन-अध्यापन की परम्परा में आ चुका था। जैसा कि “यः समाम्नान्त पूर्व :” की व्याख्या से स्पष्ट है। “परम्परया यः समाम्नतः सम्यक् आ समन्तात् म्नातः प्रकटित:२” यह आनन्दवर्धन ने लिखा है। और अभिनवगुप्त ने जिसकी व्याख्या की है-“अविच्छिन्नेन प्रवाहेण तैरेतदुक्तं विनाऽपि विशिष्टपुस्तकेषु विनिवेशनात् परन्तु किसी विशिष्ट पुस्तक में इस सिद्धान्त का विन्यास नहीं हुआ था। इस सिद्धान्त का विरोध भी यत्र तत्र किया जाता रहा होगा। कुछ आलंकारिकों ने (भामहादिने) इसे अमुख्य व्यवहार के अन्तर्गत कर लिया। वामन ने लक्षणा के अन्तर्गत वस्तु और अलंकार ध्वनि को कर लिया रसध्वनिको गुण के अन्तर्गत कर लिया। १. ध्व.लो.प्र.उ.पृ. १३२-१३५ सूरिभिः कथितः की वृत्ति। विद्वदुपज्ञेयमुक्तिः प्रथमें हि विद्वांसो वैयाकरणाः, व्याकरणमूलत्वात् सर्वविद्यानाम। ते च श्रूयमाणेषु वर्णेषु ध्वनिरिति व्यवहरन्ति। तथैवान्यैस्तन्मतानुसारिभिः सरिभिः काव्यतत्वार्थदर्शिभिर्वाच्यवाचकसम्मिश्रः शब्दात्मा काव्यमिति व्यपदेश्यो व्यञ्जकत्वसाम्याद् ध्वनिरित्युक्तः २. ध्व.लो.पृ. १० ३. ध्व. लो. लोचन पृ. ११ का.ल.सू.वृ. “सादृश्याल्लक्षणावक्रोक्तिः ” तथा “दीप्तरसत्वं कान्तिः। १४८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र उद्भट ने इसे अलंकार’ के अन्तर्गत कर लिया। कुछ लोग ध्वनि को जानते हुए भी मुग्ध सा इसे अनिर्वचनीय या वाणी का अविषय माने। सहृदयों में ध्वनिविषयक जिज्ञासा थी। अतः आनन्दवर्धन ने सकल विप्रतिपत्ति-निरास पूर्वक ध्वनिस्वरूप का निरूपण कर सहृदयों को आनन्दित किया, अतः वे सहृदयचक्रवर्ती हुए। पीछे कुछ विरोधी ऐसे हुए जो ध्वनि को तो मानते थे, परन्तु व्यंग्यार्थ को प्रतिपादन करने वाली व्यञ्जना वृत्ति को (शब्द की वृत्ति) नहीं मानते थे। जैसे भट्टानायक ने हृदयदर्पण में रसादिध्वनि का नहीं व्यंजना का विरोध किया। मुकुलभट्ट ने लक्षणा के अन्तर्गत माना” लक्षणामार्गावगाहित्वं तुध्वनेः कुन्तक ने वनि को वक्रोक्ति और व्यंजना को विचित्र अभिधा माना। धनिक धनज्जय ने तात्पर्य वृत्ति से काम चलाया। महिम भट्ट ने अनुमान से। और वह अनुमान भी तर्कशास्त्र के कर्कश अनुमान से पृथक् था, अन्यथा सुकुमार रस ही छिन्न भिन्न हो जाता। इस तरह ध्वनि-सिद्धान्त के प्रतिष्ठित हो जाने पर भी सौ वर्ष से अधिक काल तक व्यञ्जना का विरोध चलता रहा। अन्ततः सत्य के तथा सहृदयों के अनुभव के सामने सबको झुकना पड़ा। सब विरोधी सिद्धान्त अस्तप्राय हो गये। सहृदयों के द्वारा मान्य नहीं हुए। __ परवर्ती आचार्य अभिनव, मम्मट, हेमचन्द्र, जयदेव, विश्वनाथ, विद्याधर, विद्यानाथ जगन्नाथ आदि सब ध्वनि-सिद्धान्त के ही अनुयायी हुए जिससे ध्वनि प्रस्थान हो गया। जिसके प्रवर्तक आनन्दवर्धन ही हैं।
आनन्दवर्धन की कृतियाँ
__ आनन्दवर्धनाचार्य द्वारा निर्मित अन्य काव्यग्रन्थों, दार्शनिक तथा टीका ग्रन्थ की सूचना भी ध्वन्यालोक तथा लोचन से प्राप्त होती है। १. अर्जुनचरित महाकाव्य २. विषमबाणलीला (यह प्राकृत भाषा में निबद्ध है) ३. देवीशतक स्तुतिकाव्य । ४. तत्त्वालोक दार्शनिक ग्रन्थ ५. धर्मोत्तमाविवृति (टीका) 18218 SINESEBPatel ATION १. द्रष्टव्य का.लं. सा. सं. का पर्यायोक्तालंकार तथा उसपर प्रतिहारेन्दुराज की लघुविवृति। २. ध्वनिर्नामापरोयोऽपि व्यापारो व्यञ्जनात्मकः। तस्य सिद्धेऽपि काव्ये स्यादंशत्वं न रूपता।। (लोचन में उद्धत पृ. ३६ तथा काव्ये रसयिता सर्वो न बोद्धा न नियोगभाक्” ३. अभिधा-वृत्ति-मा. ४. वक्रोक्तिजीवितम् प्र. उ. ५. द. रू.च. उ. ६. व्य.वि.प्र.। १४६ आनन्दबर्थन से भट्टनायक और कुन्तक तक ‘आनन्दवर्धन’ इसमें अर्जुनचरित महाकाव्य की सूचना स्वयम् आनन्दवर्धन ने (ध्वन्यालोक के तृतीय उद्योग में) प्रबन्ध की रसव्यञ्जकता में कारण निरूपण करते हुए उदाहरण रूप में अपने अर्जुनचरित महाकाव्य को भी प्रस्तुत किया है। “यथा च मदीय-एवार्जुनचरिते महाकाव्ये’ दूसरी बार फिर इसकी सूचना रसविरोध परिहार में देते हैं। “एतच्च मदीये अर्जुनचरितेर्जुनस्य पातालावतरणप्रसंगे वैशयेन दर्शितम् । विषभबाणलीला की सूचना ४ स्थानों पर दिये है (१) उपमाध्वनि के उदाहरण के प्रसंग में कहते हैं “यथा वा ममैव विषमबाणलीलायामसुरपराक्रमणे कामदेवस्य” (२) विवक्षितान्यपरवाच्यध्वनि का अनुरणन रूप व्यंग्य भी किन्हीं प्रबन्धों में व्यक्त होता है। उसमें उदाहरण देते हैं। “यथा वा ममैव कामदेवस्य सहचरसमागमें विषमबाणलीलायाम्"। (३) अवस्था भेद से वाच्यानन्त्य का प्रतिपादन करते हुए लिखते हैं “दर्शितमेव चैतद् विषमबाणलीलायाम्”। (४) वहीं “इदं च प्रस्थानं कविव्युत्पत्तये विषमबाणलीलायां सप्रपञ्चं दर्शितम्” । इनके उद्धरणों से ज्ञात होता है कि यह प्राकृत काव्य है। देवीशतक स्तुतिकाव्य काव्यमाला में प्रकाशित है हेमचन्द्र ने इससे चक्रबन्ध काव्य का उदाहरण प्रस्तुत किया है, जिसका विवरण दिया जा चुका है। तत्त्वालोक-इसकी सूचना लोचन टीका से मिलती है। अभिनवगुप्त ने ध्वन्यालोक की “मोक्षलक्षण एवैकःपरः पुरूषार्थः शास्त्रनये, काव्यनये च तृष्णाक्षयसुखपरिपोषलक्षणः शान्तो रसो महाभारतस्यांगित्वेन विवक्षितइति सुप्रतिपादितम्”। इस पंक्ति में प्रयुक्त “शास्त्रनये" का प्रतीक लेकर लिखा है। “एतच्च ग्रन्थकारेण तत्त्वालोके वितत्योक्तम्” इससे ज्ञात होता है कि आनन्दवर्धन के द्वारा लिखा गया तत्त्वालोक ग्रन्थ है,- जो नाम से ही प्रतीत होता है कि दार्शनिक ग्रन्थ है। उसमें प्रसंगवश शास्त्रनय और काव्यनय का वर्णन किया गया है। धर्मोत्तमाविवृति : इसका निर्देश आनन्दवर्धन ने “ग्रन्थान्तरे निरूपयिष्यामः कह कर दिया है। ग्रन्थ का नाम नहीं लिया है। परन्तु “ग्रन्थान्तरे” का प्रतीक लेकर अभिनवगुप्त ने । १. ध्व. लो. तृ. उ. पृ. ३३६ २. ध्व. लो. तृ. उ.पृ.३३६ ३. ध्व.लो. तृ.उ.पृ. २६५ ४. ध्व.लो. तृ. उ.पृ. ३४६ ५. ध्व. लो. च.उ.पृ. ५३६ ६. व.लो.च.उ.पृ. ५४० ७. काव्यानुशासन पंचम अ. ८. ध्व.लो. लोचन च.उ.पृ. ५३३ ६. ध्व. लो. तृ. उ. पृ. ५१६ १५० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र लिखा है “विनिश्चय टीकायां धर्मोत्तर्यां या विवृतिरमुना ग्रन्थकृता कृता तत्रैव तद् व्याख्यातम्”। इससे प्रतीत होता है कि आनन्दवर्धन ने ध्वन्यालोक लिखने के पश्चात् धर्मकीर्ति के प्रमाणविनिश्चय पर जो धर्मोत्तमा नामक टीका है उसकी विवृति लिखी है। इन कृतियों से सिद्ध है कि आनन्दवर्धन काव्यतत्त्ववित्, सहृदय, शास्त्रतत्त्ववित्, समालोचक, महादार्शनिक, महाकवि, तथा ध्वनिसिद्धान्त के प्रतिपादक आचार्य हैं। ध्वन्यालोक में प्रतिपादित व्यंजक शब्द व्यंग्य अर्थ व्यंजनावृत्ति त्रिविध ध्वनि आदि विषय सर्वमान्य है। केवल न्याय मीमांसादिशास्त्र की वासना वाले कुन्तक, महिमभट्ट, धनञ्जय धनिक आदि ने व्यंजनावृत्ति का विरोध किया है। परन्तु वे भी विरोध कर नहीं पाये। कुन्तक को प्रसिद्ध अभिधा से अतिरिक्त विचित्र अभिधा व्यापार स्वीकृत करना पड़ा, शेष सभी ध्वनिभेदों को वक्रताभेद से मानना ही पड़ा है। महिमभट्ट भी केवल व्यंजना का खण्डन करते हैं। उन्हें भी व्यङ्ग्यार्थ को अनुमान से गतार्थ करना पड़ा, वह अनुमान भी तर्ककर्कश अनुमान से भिन्न है अन्यथा सुकुमार रस कर्कश अनुमान से छिन्न-भिन्न हो जाता। धनञ्जय धनिक को व्यंजना के स्थान पर तात्पर्यवृत्ति माननी पड़ी, जो व्यंग्यार्थप्रतीति तक जाती है, वह भी पदार्थों का अन्वयबोध कराने वाली तात्पर्यवृत्ति से अलग है। भट्टनायक को भोगकृत्व व्यापार मानना पड़ा (व्यंजना के स्थान पर)। इस तरह यह चतुर्थवृत्ति सबको माननी पड़ी है केवल नाममात्र में विवाद है। वस्तुतः उनके सारे सिद्धान्त सर्वमान्य है, आनन्दवर्धन ध्वनिसिद्धान्त के प्रतिपादक तथा ध्वनि प्रस्थान के प्रवर्तक आचार्य हैं। वे जैसे उत्कृष्ट कोटि के मूर्धन्य विद्वान् हैं, वैसे ही ये अवहित चेता सिद्धरस महाकवि हैं। उदाहरण के लिए दो एक पद्य उद्धृत कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा। श्लाध्याशेषतनुं सुदर्शनकरः सर्वांगलीलाजित- . त्रैलोक्यां चरणारविन्दललितेनाक्रान्तलोको हरिः। बिभ्राणां मुखमिन्दुरूपमखिलं चन्द्रात्मचक्षुर्दधत् स्थाने यां स्वतनोरपश्यदधिकां सा रूक्मिणीवोऽवतात् ।। इस पद्य में वाच्य व्यतिरेकालंकार को पुष्ट करने वाला श्लेष हैं। इसी तरह शब्दशक्त्युद्भव अनुरणनरूप विरोधालंकार का उदाहरण देखें सर्वैकशरणमक्षयमधीशमीशं धियां हरिं कृष्णम् चतुरात्मानं निष्क्रियमरिमथनं नमत चक्रधरम् ।। १. २. ३. ध्व. लो. लोचन तृ. उ. पृ. ५१६ ध्व. लो. द्वि. उ. पृ. २३७ ध्व. लो. द्वि. उ. पृ. २४६ १५१ आनन्दवर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक ‘आनन्दवर्धन’ रूपकध्वनि का उदाहरण
NEWS लावण्यकान्तिपरिपूरितदिङ्मुखेऽस्मिन् स्मेरेऽधुना तव मुखे तरलायताक्षि। क्षोभं यदेति न मनागपि तेन मन्ये। सुव्यक्तमेव जलराशिरयं पयोधिः ।। यहाँ तुम्हारा मुख चन्द्र है" यह रूपकालंकार ध्वनि है। साथ ही यहाँ श्रृंगार रस का भी आस्वाद सहृदयों को होता है। इनका एक पद्य इन्हें काव्यतत्त्ववित् शास्त्रतत्त्ववित् के साथ-साथ इन्हेदार्शनिक तथा भक्तिरसप्रवण भी सिद्ध करता है जिसे विरोधालंकार के साथ अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य ध्वनि के संकर के उदाहरण रूप में इन्होंने प्रस्तुत किया है: या व्यापारवती रसान रसयितुं काचित् कवीनां नवा दृष्टि र्या परिनिष्ठितार्थविषयोन्मेषा च वैपश्चिती। ते द्वे अप्यवलम्ब्य विश्वमनिशं निर्वणयन्तो वयं श्रान्ता नैव च लब्धमब्धिशयन त्वद्भक्तितुल्यं सुखम् ।। ध्वन्यालोक के मंगलाचरण से भी वे नृसिंह भगवान् के भक्त सिद्ध होते हैं।
वैदुष्य
ध्वन्यालोक के अध्ययन से पता चलता है कि आनन्दवर्धन व्याकरण-न्याय-मीमांसा वेदान्त-बौद्ध-दर्शन, रामायणादिकाव्य महाभारत आदि इतिहास के तत्त्वज्ञ विद्वान् तथा समालोचक थे।
ध्वन्यालोक की टीका
ध्वन्यालोक की तीन टीकायें हुई (१) चन्द्रिका, (२) विवरण (३) लोचन। इनमें प्रथम दो टीकायें अनुपलब्ध हैं। इनका ज्ञान केवल लोचन से होता है। भट्टनायक ने भी ध्वनि के विरोध में हृदयदर्पण लिखा था, वह भी अनुपलब्ध है। इसका भी ज्ञान लोचन से ही होता है। केवल लोचन टीका उपलब्ध है, इसके कई संस्करण हो चुके हैं। इस पर भी रामषारक कृत बालप्रिया, तथा गोस्वामी दामोदरशास्त्रीकृत दिव्याञ्जना नामक टिप्पणी भी प्रथम उद्योत के कुछ अंशों पर है। अनन्तर ध्वन्यालोक पर दीधिति टीका तथा दीपशिखा टीका भी लिखी गयी, जो लोचन के विरोध में ही अपनी इतिकर्तव्यता समझती है। वस्तुतः दीपशिखा तत्त्वज्ञानरूपी तैल के अभाव में बुझती हुई दीपशिखा है जो ध्वन्यालोक के अर्थ को प्रकाशित १. २. ध्व.लो. द्वि. उ. पृ. २६ । व.लो. तृ.उ.पृ. ५०८-६ १५२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र नहीं कर सकी है। लोचन का ही सहारा लेकर चली है। परन्तु बिना तत्त्व समझे लोचन का खण्डन भी की है। हिन्दी व्याख्याकार डॉ. रामसागर जी की हिन्दी व्याख्या भी उचित है। कुछ और भी हिन्दी टीकाएं है। १५३ १५३ आनन्दबर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक, राजशेखर
राजशेखर
। “यायावरीय” राजशेखर नाटककार तथा काव्यशास्त्रकार के रूप में विश्रुत हैं। इनकी काव्यविषयक मीमांसा (काव्यमीमांसा) अत्यन्त विलक्षण है।
समय
राजशेखर द्वारा रचित नाटकों में उनके समय का निर्धारण करने के लिए प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। उन्होंने स्वरचित नाटकों की प्रस्तावना में अपने को कान्यकुब्ज (कन्नौज) के राजा महेन्द्रपाल का गुरू बताया है’ और बालभारत जो उनकी अन्तिम कृति है, उसमें महेन्द्रपाल के पुत्र “महीपाल" को जिसका दूसरा नाम “निर्भयराज" था, अपना संरक्षक बतलाया है। “कर्पूरमञ्जरी” में अपने को उन्होंने निर्भयराज का उपाध्याय’ कहा है। इससे यह निश्चय होता है कि ये कन्नौज के राजा महेन्द्रपाल के विद्यागुरू थे तथा उनके पुत्र “महीपाल” (निर्भयराज) के भी उपाध्याय थे। राजा महेन्द्रपाल गुर्जरप्रतिहारवंश का राजा था। राजपूताने और गुर्जर प्रतिहारवंश के शासक “नागभट्ट ने (जिसकी राजधानी “भिन्नमाल या भिलमाल” थी) सर्वप्रथम कन्नौज पर शासन स्थापित किया। “नागभट्ट” के उत्तराधिकारी रामभट्ट ने ८३४-८४० ई. तक तथा उसके पुत्र मिहिरभोज” ने सन् ८४०- ८६० ई. तक शासन किया। इसने अपने को विष्णु का अवतार घोषित कर “आदिवराह” की उपाधि धारण की। इसी मिहिरभोज का पुत्र महेन्द्रपाल था। पंजाब को छोड़कर समस्त आर्यावर्त में इसका राज्य था। इसकी राजधानी गंगातट पर स्थित गाधिपुर थी। गाधिपुर और महोदय ये दोनों नाम कान्यकुब्ज (कन्नौज) के हैं। रायबरेली जिले के अशनी ग्राम में तथा सिडनी में प्राप्तशिलालेखों में राजा महेन्द्रपाल की चर्चा है। वह शिलालेख विक्रम सं. ६७४ (ई. सन् ६१७-१८) का है। इसके अनुसार कन्नौज के राजा “महेन्द्रपाल” का समय विक्रमाब्द ६४७ से. ६६५ (ई. सन् ८६०-६०८) तक १८ वर्षों का है। उसके पुत्र महीपालदेव का समय विक्रमाब्द ६६७-६६७ (ई. सन् ६१०-६४०) तक है। अतः राजशेखर का समय विक्रमाब्द ६३७-६७७ (ई. सन् ८८०-६२०) तक निर्विवाद माना जा सकता है। १. “किमपरमपरैः परोपकारव्यसननिधे गर्णितै र्गुणैरमुष्य। रघुकुलतिलकोमहेन्द्रपालः सकलकलानिलयः स यस्य शिष्यः।। (विद्धशालमजिका, प्र.अं.) २. बालकविः कविराजो निर्भयराजस्य तथोपाध्यायः। इत्यस्य परम्परया आत्मा माहात्यमारूढः।।" (कर्पूरमञ्जरी १/६) १५४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
अन्तः साक्ष्य :
“राजशेखर” ने “काव्यमीमांसा” में उद्भट,’ वामन, आनन्दवर्धन तथा कन्नौज के वाक्पतिराज का विभिन्न संदर्भो में उल्लेख किया है। इनमें सबसे परवर्ती “आनन्दवर्धन" हैं, जिसका काल ८५७-८८४ है। उनका भी उल्लेख किया है। तथा वाक्पतिराज और भवभूति के मतों का प्रत्यक्ष उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त “सामान्य आचार्य” शब्द से अनेक लेखकों को उद्धृत किया है। अपराजित समकालीन कवि तथा मृगाङ्कलेखाकथा के रचयिता है। राजशेखर ने अपने पूर्वज सुरानन्द तथा अपनी पत्नी अवन्तिसुन्दरी “पाल्यकीर्ति तथा “श्यामदेव"१० के भी मतों को उन विषयों पर उद्धृत किया है।
बहिःसाक्ष्य
“क्षेमेन्द्र” ने ‘औचित्य विचार चर्चा’ नामक अपने ग्रन्थ में वाक्यगतौचित्य के उदाहरण में राजशेखर का पद्य प्रस्तुत किया है और वहीं प्रत्युदाहरण के रूप में भी अभिनवगुप्त ने भी अभिनवभारती में राजशेखर के नाटकों के पद्य उद्धृत किये हैं। कर्पूरमंजरी सट्टक और “बालरामायण” का भी उल्लेख किया है।२ __ जैन सोमदेव ने अपने ‘यशस्तिलकचम्पू’ में राजशेखर का उल्लेख किया है। यशस्तिलकचम्पू की रचना ६६० ई. में हुई है। अतः आनन्दवर्धन के पश्चात् “सोमदेव" .- डत थ) १. का.मी. अ.६ पृ. ५६ तथा अ. ६ पृ. ११०। इन दोनों स्थलों पर ‘औद्भटाः’ शब्द का प्रयोग है। जिसका अर्थ है। (उद्भटाः एव औद्भटाः" स्वार्थ में अण् प्रत्यय है, सम्मान में बहुवचन का प्रयोग है) उद्भट । अथवा (उद्भटस्येमे औद्भटाः") उद्भट मतानुयायी। परन्तु प्रश्न उठता है कि ये मतानुयायी कौन है ? जो राजशेखर से पूर्व और उद्भट के पश्चात् हुए हैं। या जो ग्रन्थ तब लिखे गये हैं। उद्धृत विषय पर विवेचन उद्भट के काव्यालङ्कारसार संग्रह में ही मिलता है, अतः “उद्भट” अर्थ है। ये । कश्मीर के नरेश जयापीड (ई. स. ७७६-८१३) के सभापति थे (सभापण्डित थे) का.मी.,अ. ४, पृ. ३३, तथा अ. ५, पृ. ५०। इन दोनों स्थलों पर “वामनीयाः"शब्द का प्रयोग है। यह शब्द वामन के लिए प्रयुक्त है। उद्धृत विषय पर विवेचन ‘वामन’ के काव्यालङ्कार सूत्रवृत्ति में उपलब्ध है। वामन भी उद्भट के समकालीन हैं। ३. काव्यमीमांसा अ. ५, पृ. ३८ पर उद्धृत है। ४. काव्य मी.अ. १२, पृ. १५४। का.मी. अ. १३ पृ. ३२ ६. का.मी.अ. ६ पृ. ११३ कर्पूरमञ्जरी- १/८ ७. का.मी. अ. १३ पृ. १८७ ८. का.मी. अ. ५, पृ. ५० तथा अ. ६,११, में भी। ६. का.मी. अ.६, ११५ पृ. १०. का.मी. अ.४. २७ पृ. तथा ४/३० पृ. ५/४१ पृ., ११. औचित्य विचार चर्चा-पृ. २१ काल १०५० ई. १२. सं. का.शा. इतिहास (डा.एस. के डे) पृ. १११ १३. वहीं Meani आनन्दवर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक, राजशेखर १५५ के पूर्व ८८० ई. -६२० ई. के मध्य “राजशेखर” का काल मानना उचित है। वे परवर्ती लखकों में भी प्रिय हुए। इनमें म (११वीं शती ई.) ने “श्रीकण्ठचरित” में “राजशेखर" की चर्चा की है। “क्षेमेन्द्र” ने “सुवृत्ततिलक” में भी “राजशेखर” का उद्धरण दिया है। “भोजराज”, द्वितीय “वाग्भट" ने भी इनका उल्लेख किया है। “मम्मट" ने अपने “काव्यप्रकाश” में भी “राजशेखर" के नाटकों से उदाहरण दिया है। “हेमचन्द्र ने कई स्थलों पर शब्दशः इनका ग्रहण किया है। __ “राजशेखर” पहले नाटककार के रूप में विख्यात थे। पर “काव्यमीमांसा” के उपलब्ध होने पर वे “अलंकारशास्त्र" के निर्माता भी सिद्ध हुए। नाटकों में उन्होंने अपने को “यायावरीयः” लिखा है और काव्यमीमांसा में भी, अपने को “यायावरीयः कहा है। इससे यह सिद्ध हो जाता है नाटककार “राजशेखर” “काव्यमीमांसा" के भी लेखक हैं। उन्होंने “यायावरवंश” में हुए विद्वानों का अथवा अपने ही मतों का अनेक स्थलों पर “यायावरीय" शब्द से उल्लेख किया है। वस्तुतः अपने ही मतों का उल्लेख किया है क्योंकि “सुरानन्द" के मत को “सुरानन्दः" कहकर उद्धृत किया है। और कविसमय ख्याति में लोकशास्त्र विरूद्ध वर्णन को दोष नहीं माना है। “राजशेखर" कहते कि कविमार्गानुग्राही होने पर यह दोष नहीं है। “निमित्तं तर्हि वाच्यम्” इत्याचार्याः” इदमभिधीयते इति यायावरीयः” लिखा है। उस निमित्त का अभिधान-“राजशेखर" “काव्यमीमांसा” में करते हैं। वर्तमान काल का “अभिधीयते” यह प्रयोग है। अतः “यायावरीय” “राजशेखर ही हैं न कि उनके वंश में होने वाले पूर्व विद्वान्। (का. मी. १४, पृ. १६६) यह भी ऐतिहासिक विद्वान् समझते है कि सूक्ति मुक्तावली (जलण) में संगृहीत राजशेखर के पद्य संभवतः हरविलास काव्य के कविवर्णन प्रकरण के हों। डॉ. एस. के. डे. के अनुसार स्टेन् कोनो ने बल्लभदेव और शार्ङ्गधर की सूक्तिमुक्तावली में राजशेखर के नाम से उद्धृत अनेक पद्यों में से २४ पद्यों को राजशेखर के चार नाटकों में ढूढ़ निकाला है। किन्तु १० पद्य अभी तक उनकी किसी भी ज्ञात रचना में नहीं मिलते। ये पद्य तथा कवियों के स्मारक अधिकतर अन्य पद्य संभवतः कनिष्ठ राजशेखर द्वारा लिखे गये हों। कनिष्ठ राजशेखर प्रबंधकोश (१३४ ई.) के रचयिता जैन राजशेखर हो सकते है अथवा नहीं भी। परन्तु कवि प्रशस्ति में उद्धृत ये पद्य इसी राजशेखर के है। क्योंकि इनमें यायावरवंश के तथा राजशेखर से संबंधित अनेक कवियों के नाम है। जैसे तरल, सुरानन्द, कादम्बरीराम, कविराज, प्रभुदेवी, सुभद्रा आदि। १. “यायावरीयः संक्षिप्त मुनीनां मतविस्तरम्। व्याकरोत् काव्यमीमांसां कविभ्यो राजशेखरः” ।। (का.मी. १/पृ. ५) २. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास पृ. १०७ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र १५६ भवनकोश के विषय में ज्ञात होता है कि यह काव्यमीमांसा का एक प्रकरण है। काव्यमीमांसा राजशेखर का प्रधान ग्रन्थ है। वह अट्ठारह अधिकरणों में पूर्ण हुआ है। इसका कवि-रहस्य प्रथम अधिकरण ही प्राप्त हुआ है। शेष सत्रह अधिकरण अभी तक अप्राप्त है। यह अधिकरण १८ अध्यायों का है, इसका नाम कवि-रहस्य है। यह इतना महत्त्वशाली और नूतन विचारों से परिपूर्ण है कि इसे अपने विषय का अद्वितीय ग्रन्थ कहा जा सकता है। लेखक ने इसमें कवि के लिए आवश्यक समस्त सिद्धान्तों का एकत्र निरूपण बड़ी ही सुन्दरता तथा नवीनता के साथ किया है। यदि यह ग्रन्थ सम्पूर्ण रूप से उपलब्ध होता तो साहित्यशास्त्र का अमूल्य रत्न होता। यह राजशेखर की अन्तिमरचना है संभवत है इसे पूर्ण न कर पाये हों। परन्तु ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि उन्होंने पूरा ग्रन्थ लिखा था। परन्तु शेष अंश नष्ट हो गया या प्राप्त नहीं हुआ। अलंकार, कला, रीति के प्रसंगों पर वे लिखते हैं कि इसे अगले प्रकरण में कहेगें। जैसे उपकारक होने के कारण अलंकार वेद का सातवाँ अंग है- कहकर वे षडंगों के निरूपण के बाद कहते हैं कि अलंकारों की व्याख्या आगे करेगें’। कला को काव्य का जीवन मानते हुए कहते हैं-इसका निरूपण औपनिषदिक प्रकरण में करेंगें। रीति के विषय में लिखते हैं कि रीतियाँ तीन है इनको आगे कहेगें। इसी तरह इन्होंने लिखा है कि दुर्बुद्धि को सर्वत्र मतिभ्रम रहता है। उसकी बुद्धि नीले रंग से रंगे हुए वस्त्र के समान है जिसपर दूसरा रंग नहीं चढ़ता। हाँ यदि सरस्वती की कृपा हो जाय तब वह भी कवि बन सकता है। इसे हम औपनिषदिक प्रकरण में कहेगें। यद्यपि इससे दोनों बातें सिद्ध होती है। कि उन्होंने सम्पूर्ण ग्रन्थ लिखा था अथवा केवल विषय-विभाग करके रह गये ग्रन्थ पूर्ण नहीं कर सके। तो भी एक प्रमाण ऐसा है जिससे ग्रन्थ की पूर्णता सिद्ध होती है। केशव मिश्र ने ‘अलंकार-शेखर’ नामक ग्रन्थ के एकादश मरीचि में राजशेखर के दो पद्य उद्त किये हैं। तथा उन्नीसवीं मरीचि में समस्या पूर्ति विषयक राजशेखर का पद्य उद्धृत किया है। प्रतीत होता है कि वे पद्य क्रमशः उभयालंकारिक तथा वैनोदिक प्रकरण के हैं। (वस्तुतः एकादश मरीचि में उद्धृत दोनों पद्य LATE PRECASSET १. अलंकार-व्याख्यानं तु पुरस्तात् (का.मी.अ. २ पृ.८) २. स आजीवः काव्यस्य। तमौनिषदिके वक्ष्यामः(का. मी. अ. २ पृ. १२) ३. रीतयस्तु तिस्रस्तास्तु पुरस्तात् का.मी. अ. ३ पृ.२३ ४. तं यदि सारस्वतोऽ नुभावः प्रसादयति तमोपनिषदिके वक्ष्यामः (का.मी. अ. ४/२६पृ. ५. यदाहराजशेखर :- समानमधिकं न्यून सजातीयं विरोधि च। सकुल्यं सोदरं कल्पमित्याद्याः साम्यबाचकाः अलंकारशिरोरत्नं सर्वस्वंकाव्यसम्पदाम्। उपमा कविवंशस्य मातैवेतिमतिर्मम ।। (अ.शे. ११ म.) ६. उत्पादितैर्नभोभीतैः शैलैरामूलबन्धनात्। तांस्तानर्थान् समालोक्य समस्यां पूरयेत् कविः।। अ.शे. १६ मे. १५७ । आनन्दबर्थन से भट्टनायक और कुन्तक तक, राजशेखर औपभ्यप्रकरण के हैं, क्योंकि उपमा संबंधी हैं) इससे सिद्ध होता है कि ग्रन्थ पूर्ण लिखा गया था पर शेष अध्याय लुप्त हो गये हैं।
राजशेखर तथा अन्य भाषाएँ :
राजशेखर के समय में संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत, अपभ्रंश और भूतभाषाओं का प्रचार भी अधिक मात्रा में था। ब्रजभाषा की मूलभाषा शौरसेनी का भी प्रचार था। ये सभी भाषाएँ काव्यभाषा थीं। बालरामायण’ में इनकी प्रशंसा राजशेखर ने की है। राजशेखर इन सभी भाषाओं के विद्वान् थे। इनकी कर्पूरमंजरी प्राकृत भाषा की उत्कृष्ट रचना है। राजशेखर के मत में जो एक भाषा में महाकाव्य लिखता है वह महाकवि है। जो भिन्न-भिन्न भाषाओं में और भिन्न-भिन्न रसों में स्वतन्त्रतापूर्वक रचनाकर सकता हो वह कविराज’ है। ऐसे कविराज संसार में कुछ इने गिने ही हैं। राजशेखर अपने को बार-बार कविराज कहते हैं। किस देश में कौन सी भाषा का प्रयोग होता है इसका वर्णन करते हुए उन्होंने मध्यदेश के कवियों को सर्वभाषा में निष्णात’ कहा है। संस्कृत के किसी भी दूसरे समालोचक ने भाषाओं का इतना सूक्ष्म विवेचन नहीं किया है।
वंश और देशः
राजशेखर यायावर वंश में उत्पन्न हुए थे, यायावर शब्द का अर्थ है “पुनः पुनः अतिशयेन यातीति यायावरः" जो निरन्तर चलता रहे। दो प्रकार के गृहस्थ होते थे “यायावरः शालीनश्च” (मिताक्षरा) इसीलिए इन्होंने अपने मत का उल्लेख “यायावरीय” के नाम से किया है। ये महाराष्ट्र देश के प्रधान अंग विदर्भ देश के वासी थे। वह आजकल बारार नाम से प्रसिद्ध है परन्तु इनकी कर्मभूमि कन्नौज प्रदेश था। ये यहीं प्रतिहारवंशी राजा महेन्द्रपाल और महीपाल के गुरू थे। बाल रामायण की प्रस्तावना में राजशेखर ने अपना परिचय दिया है। कि वे महाराष्ट्रचूड़ामणि अकालजलद के चतुर्थ अर्थात् प्रपौत्र और दुर्दुक के पुत्र थे, इनके माता का नाम शीलवती था । इनके पिता किसी राजा के संभवतः मंत्री थे। यह भी इसी प्रस्तावना से ज्ञात होता है। क्योंकि इन्होंने अपने को मन्त्रिसुत कहा है।’ १. गिरः श्रव्या दिव्याः प्रकृतिमधुराः प्राकृतधुराः सुभव्योऽ पभ्रंशः सरसरचनंभूतवचनम् । विभिन्नाः पन्थानः किमिति कथनीयाश्च तइमे निबद्धायस्तेषां स इह कविराजोविजयतें (वा.रा. १०) मधुर मधुरावासभणितिः।। २. योऽन्यतमप्रबन्धप्रवीणः स महाकविः। यस्तु तत्र-तत्र भाषा विशेषेषु तेषु तेषु प्रबन्धेषु तस्मिंस्तस्मिँश्च रसे स्वतन्त्रः स कविराजः। ते जगन्त्यपि कतिपये। (का.मी.६अ.) गौडाद्याः संस्कृतस्था परिचितरूचयः प्राकृते लाटदेश्याः, सापभ्रंशप्रयोगाः सकलमरुभुवष्टक्कमादानकाश्च। आवन्त्याः पारियात्राः सह दशपुरजैर्भूतभाषां भजन्ते, यो मध्ये मध्यदेशनिवसति स कविः सर्वभाषानिषण्णः (का.मी.द.अ.) ४. तदामुष्यायणं महाराष्ट्रचूड़ामणेरकालजलदस्य चतुर्थो दौटुंकिः शीलवतीसूनुरूपाध्याय-श्रीराजशेखर इत्यपर्याप्तंबहुमानेन (बाल रामायण।) ५. “सूक्तमिदं तेनैव मन्त्रिसुतेन (वही) mmmma ..–.:..
१५८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अकालजलद, सुरानन्द, तरल, कविराज, आदि संस्कृत भाषा के मान्यकवियों ने इस वंश को अलंकृत किया है। अकालजलद का नाम इन्होंने बड़े गौरव के साथ लिया है जिससे ज्ञात होता है कि वे इस वंश के प्रतिष्ठित पुरूष थे। परन्तु इनकी कोई रचना अभी तक उपलब्ध नहीं हुई। वल्लभदेवकृत सुभाषितावली में एक पद्य “दाक्षिणात्य” के नाम से उद्धृत है जो शार्ङ्गधर-पद्धति में अकालजलद के नाम से संगृहीत है। इस पद्य में अकालजलद शब्द आया भी है संभवतः इसी सूक्ति के कारण उनका अकालजलद नाम पड़ गया हो। वह पद्य है भेकैः कोटरशायिभिर्भूतभिव क्ष्मान्तर्गतं कच्छपैः पाठीनैः पृथुपङ्ककूटलुठितै यस्मिन् मुहुर्मूर्छितम् । तस्मिन्शुष्कसरस्यकालजलदेनागत्य यच्चेष्टितं येनाकण्ठ-निमग्नवन्यकरिणां यूथैः पयः पीयते।। जह्नण की सुक्तिमुक्तावलि में उद्धृत राजशेखर की सूक्तियों से अकालजलद के काव्य की विशेषता ज्ञात होती है। इसी सूक्तिमुक्तावली से पता चलता है कि सुरानन्द राजशेखर के पूर्व वंशज चेदि देश के राजा रणविग्रह की सभा के रत्न थे । परन्तु इनकी भी कोई रचना उपलब्ध नहीं होती। राजशेखर ने इनके मत को काव्यमीमांसा में उद्धृत किया है। इसी तरह तरल तथा कविराज की भी कोई रचना उपलब्ध नहीं होती। तरल संभवतः सुवर्णबन्ध के लेखक थे। साथ ही साथ यह भी ज्ञात होता है कि अकालजलद के पद्यों को कादम्बरीराम ने अपने नाटक में स्वरचित के समान समाविष्ट कर लिया था। इनके अतिरिक्त अपने वंश के कीर्तिप्राप्त सदस्यों का जिनका उल्लेख बालरामायण (१/१३) तथा अन्य स्थलों पर किया है, उनके मतों का भी उद्धरण राजशेखर ने दिया है। चौहानवंशी अवन्तिसुन्दरी नामक एक विदुषी क्षत्रिय कन्या से इन्होंने अपना विवाह किया था। अवन्तिसुन्दरी संस्कृत तथा प्राकृत दोनों भाषाओं की विदुषी थी। अलंकारशास्त्र के विषय १. समूर्तोयत्रासीद गुणगण इवाकालजलदः सुरानन्दः सोऽपि श्रवणपुटपेयेनवचसा। नचान्ये गण्यन्ते तरलकविराजप्रभृतयो महाभागस्तस्मिन्नयमजनि यायावरकुले।। (वा.रा.१) अकालजलदेन्दोः सा हृद्या वचन चन्द्रिका। नित्यं कविचकोरै र्या पीयते नतुहीयते”।। ख- अकालजलदश्लोकैश्चित्रमात्मकृतैरिव । ख्यातः कादम्बरी रामो नाटके प्रवरः कवि :।। ३. नदीनां मेकलसुता नृपाणां रणविग्रहः। कवीनां च सुरानन्दश्चेदिमण्डलमण्डनम्।। ४. ‘सोऽयमुल्लेखवाननुग्राहयो मार्गः इति सुरानन्दः (का.मी. १३/१८७ पृ.। ५. यायावरकुलश्रेणेर्हरियष्टे श्चमण्डनम् । सुवर्णबन्धरुचिरस्तरलस्तरलो यथा।। (ज.सू.मु.) चाहुमान कुलमौलिमालिका राजशेखरकवीन्द्र-गेहिनी। भर्तुः कृतिमवन्तिसुन्दरी सा प्रयोक्तुमेव भिच्छति।। (कर्पूरमंजरी १/११ संस्कृत) आनन्दवर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक, राजशेखर १५६ में उसके कुछ मौलिक सिद्धान्त थे। उसका उद्धरण राजशेखर ने काव्यमीमांसा में विभिन्न विषयों पर प्रायः तीन बार पाँचवें, नवें तथा ग्यारहवें अध्याय में दिया है। राजशेखर ने कर्पूरमंजरी की रचना अपनी इसी विदुषी पत्नी के मनोविनोद के लिए की थी।
राजशेखर की रचनाएँ
राजशेखर की पाँच रचनाएँ उपलब्ध हैं। (१) कर्पूरमंजरी (सट्टक) (२) विद्धशाल-भंजिका (नाटिका) (३) बालरामायण (नाटक) (४) बालभारत या प्रचण्डपाण्डव (नाटक) (५) काव्यमीमांसा। काव्यमीमांसा इनका अन्तिम ग्रन्थ है, इसका पता भी बीसवीं शदी के तीसरे दशक के अन्त में चला है। इसका प्रकाशन गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज (नं.१) बड़ौदा से हुआ है। अनंतर उसी के आधार पर अन्यत्र भी प्रकाशन हुए। राजशेखर बाल-रामायण की प्रस्तावना में लिखते हैं। कि हमारी छह रचनाएँ हैं। ‘काव्यमीमांसा’ में इन्होंने ही भुवनकोश का नाम लिखा है। (इत्थं देशविभागो मुद्रामात्रेण सूत्रितः सुधियाम् । यस्तु जिगीषित्यधिकं पश्यतु मद्भुवनकोशमसौ (का.मी. १७ अ.पृ. २४०) वे बालरामायण की प्रस्तावना में जिन छः प्रबन्धों की चर्चा की है वे कौन-कौन है यह ज्ञात नहीं हो पाता। क्योंकि ‘बालभारत’ की रचना उन्होंने ‘बालरामायण’ के बाद महीपाल क समय में की है। बाल-रामायण की रचना ‘महेन्द्रपाल’ के समय की है। बालभारत के दा ही अंक उपलब्ध है। शेष, भ्रष्ट है या पूरा नहीं कर सके। नाटकों की रचना के अनन्तर इन्होंने अन्त में ‘काव्यमीमांसा’ लिखी है। उसमें बालभारत का नान्दी श्लोक उदाहरण के रूप में उद्धृत है। यद्यपि राजशेखर ने कहीं चर्चा नहीं की है तथापि परवर्ती आलोचकों के उदाहरणों से ज्ञात होता है कि “राजशेखर” ने ‘हर-विलास’ नामक महाकाव्य भी लिखा था। हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन में स्वनामांकता का उदाहरण, आशीः तथा सुजन दुजेन का स्वरूप हरविलास से उधृत किया है और उसे राजशेखर की रचना कही है। उज्ज्वलदत्त ने भी हरविलास काव्य से आधाश्लोक’ उद्धृत किया है। १. ब्रूते यः कोऽपि दोषंमहदिति समति-बलरामायणेऽस्मिन-प्रष्टव्योऽसौ पटीयानिह भणितिगुणो विद्यते वा नवेति । यद्यस्ति स्वस्ति तुभ्यं भव पठनरुचिर्विद्धिनःषटप्रबन्धान-नैवं चेद्दीर्घमास्तां नटवटुवदने जर्जरा काव्यकथा (बा.रा. १/११) .. २. स्वनामांकता यथा राजशेखरस्य हरविलासे ३. आशीर्यथा हरविलासे-ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म श्रुतीनां मुखमक्षरम् । प्रसीदतु सतां स्वान्तेष्वेकं त्रिपुरुषीमयम् (११ का.नु.) सुजनदुर्जनस्वरूपं यथा हरविलासे-“इतस्ततोभषन्-भूरि, न पतेत् पिशुनः शुनः। अवदाततया किञ्च न भेदो हसतःसतः। का.नु. ५. दशाननक्षिप्तरवुरप्रखण्डितः कचिंद्गता|हरदीथितिर्यथा। इति हरविलासे २. २८ १६० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र राजशेखर का भूगोल-संबंधी ज्ञान भी उत्कृष्ट था जिसका काव्यमीमांसा के १७वें अध्याय में उन्होंने वर्णन किया है। तथा ‘बालरामायण’ के दशवें अध्याय में भूगोल संबंधी अपनी जानकारी का प्रभूत प्रमाण दिया है। इससे यह भी सिद्ध होता है। कि नाटककार और काव्यमीमांसाकार दोनों एक ही है। राजशेखर ने अपने सम्बन्ध मे एक दैवज्ञ की उक्ति उद्धृत की है । वह प्रसिद्ध है पहले जो बाल्मीकि कवि था, वह दूसरे जन्म में भर्तृमेण्ठ के नाम से उत्पन्न हुआ, तीसरे जन्म में वहीं भवभूति के नाम से विख्यात हुआ। वहीं वर्तमान समय में चौथे जन्म में राजशेखर के रूप में अवतरित है।
प्रशस्तियाँ
कई कवियों ने राजशेखर की कविता की प्रशंसा लिखी है, उसमें “अपराजिता” ने उनके सम्बन्ध में एक प्राकृत सूक्ति लिखी है जिसे राजशेखर ने “कर्पूरमंजरी” में उद्धृत किया है “बालकई कइराओं णिब्भयराअस्स तह उबज्झाओ। इति अस्स परंपराए अत्ता माहात्तमारूढो।। (क. मं. १/८) कृष्णशर्मा ने इनकी कविता पर जो सूक्ति लिखी है उसे इन्होंने विद्धशालभंजिका की प्रस्तावना में उद्धृत किया है। “क्षेमेन्द्र” ने अपने “औचित्यविचार चर्चा” में राजशेखर का एक मनोरंजक श्लोक देशानौचित्य के उदाहरण में उद्धृत किया है। यह श्लोक अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। जिसका अर्थ है-कर्णाट देश की कामिनियों के दन्तक्षत से चिह्नित महाराष्ट्र की महिलाओं के तीक्ष्ण कटाक्षों से आहत, प्रौढ़ आन्ध्ररमणियों के स्तनों से (पीड़ित) प्रियतमाओं के भ्रूभंग से वित्रस्त, लाटललनाओं के भुजा से वेष्टित और मलयदेश की अंगनाओं से तर्जित यह राजशेखर कवि अब वाराणसी जाना चाहता है। वस्तुतः बालरामायण में इन्होंने प्रत्येक देश की स्त्रियों के विषय में श्लोक लिखा है। उसी को इन्होंने कविता की भाषा में इस रूप में लिख दिया। इन्हें स्त्री लम्पट न समझा जाय। १. बभूव बल्मीकभवः कविः पुरा ततः प्रपेदे भुविभर्तृमण्ठताम्। स्थितः पुनर्यो भव-भूतिरेखया स वर्तते सम्प्रति राजशेखरः। २. पातुं श्रोत्ररसायनं रचयितुं वाचः सतां सम्मताः -व्युत्पत्तिं परमामवाप्तुमवधिं लब्धं रसस्रोतसः। भोक्तुं स्वादुफलं च जीविततरो यद्यस्ति ते कौतुकं तद्भातः श्रृणु राजशेखरकवेः सूक्तीः सुधास्यन्दिनीः ।। (वि.शा. भ. प्रस्तावना) ३. कार्णाटीदशनांकितः शितमहाराष्ट्रीकटाक्षक्षतः प्रौढान्ध्रीस्तनपीडितः प्रणयिनीभ्रूभंगवित्रासितः। लाटी बाहुविवेष्टितश्च मलयस्त्रीतर्जनीतर्जितः सोऽयं सम्प्रति राजशेखरकविः वाराणसी वांछति (औ. वि.च. दे. नौ.) आनन्दबर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक, राजशेखर राजशेखर नाम के दो और विद्वान् हो चुके हैं। जिनमें एक दक्षिण देश का राजा था। शंकरदिग्वजय में इसकी चर्चा की गई है। यह शंकराचार्य के समकालीन है। प्राचीन ऐतिहासिक विद्वान् इसी को नाटकों का निर्माता समझते थे। वह नवीन गवेषणाओं से भ्रममात्र सिद्ध हो चुका है। दूसरा तेरहवीं शताब्दी का जैन राजशेखर, प्रबन्धकोष का निर्माता, जिसका उल्लेख पीछे किया जा चुका है। HINDI १. नृपतिः कश्चन राजशेखराख्यः (शं.दि.वि.) १६२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
मुकुलभट्टः
मुकुलभट्ट की एक मात्र कृति “अभिधावृत्तिमातृका” है। यह लघुकाय ग्रन्थ है, इसमें केवल १५ कारिकाएँ हैं, जिनपर मुकुलभट्ट ने ही वृत्ति लिखी है। यह पदवाक्य-प्रमाण का समान उपकारी है। लेकिन इसका-निर्माण लेखक ने विशेषतः साहित्य-शास्त्र के लिए किया है, जैसाकि उपसंहार में इन्होंने कहा है-“जो इसका उपयोग साहित्य शास्त्र में करेगा उसकी वाणी स्फीत (निर्मल) हो जायगी’। इन्होंने वाक्तत्त्व का दशधा विवर्त देखा है। इस विवर्त का मूल अभिधा है। अतः अभिधा ही दस प्रकार से विवृत्त हुई। अतः अभिधा के दसवृत्तों का इन्होंने इस ग्रन्थ में कारिका और वृत्ति द्वारा विवेचन किया है। इसमें चारवृत्त (भेद) अभिधा के हैं। छः वृत्त (भेद) अभिधा से प्रतीत हुए अर्थ-के सम्बन्ध से प्रतीत होने के कारण लक्षणा (अभिधा के पुच्छ) के हैं। अतः इस ग्रन्थ में अभिधा तथा लक्षणा वृत्ति का विवेचन है। चूंकि लक्ष्यार्थ प्रतीति में अभिधेयार्थ का सम्बन्ध कारण है, अभिधेयार्थ अभिधा से प्रतीत होते हैं अतः लक्षणा में भी मूल अभिधा ही है अतः साक्षात् और परम्परया अभिधा के ही सब वृत्त हुये। इस प्रकार इन दसों भेदों का मूल अभिधावृत्ति है वहीं इन वृत्तों की माता है। अतः इस ग्रन्थ का नाम अभिधावृत्तिमातृका” है। कुछ लोग १३ वीं कारिका में वृत्त शब्द देखकर इसका नाम अभिधावृत्तमातृका समझ गये हैं, यह उनका भ्रम है। अभिधावृत्ति इन वृत्तों की जननी है। अतः पूर्वोक्त नाम ही समुचित है।
प्रमाणभूत आचार्य
मुकुलभट्ट ने ग्रन्थ की वृत्ति में प्रमाणरूप से जिन आचार्यो या ग्रन्थों का निर्देश किया है वे हैं “महाभाष्यकार पतञ्जलि , वाक्यपदीय’, कुमारिलभट्ट तथा शबरस्वामी", Sid in १. पद-वाक्य-प्रमाणेषु तदेतत् प्रतिबिम्बितम् । यो योजयति साहित्ये तस्य वाणी प्रसीदति ।। (अ.वृ. मा. १४ का.) २. इत्येतदभिधा वृत्तं दशधात्र विवेचितम् (अ.वृ. मा. १३ का. डॉ. रेवा प्रसाद द्विवेदी, द्रष्टव्य-चौखम्भा विद्याभवन से प्रकाशित हिन्दी भाष्य सहित उक्त ग्रन्थ की भूमिका पृ. ११ “चतुष्टयी हि शब्दानां प्रवृत्ति भगवता महाभाष्यकारेणोपवर्णिता (अ.वृ.मा. का वृ.) ५. यदुक्तं वाक्यपदीये (नहिगौः अ.वृ.मा. १ १/२ का वृ. ६/2 का.वृ.) ६. तदुक्तं भट्टकुमारिलेन -निरुढा-लक्षणाः काश्चित् (अ.वृ.मा.) ७. यदुक्तमाचार्यशबरस्वामिना-कथं पुनः परशब्दः परत्र वर्तते ? (अ.वृ.भा. ६ का वृत्ति) x आनन्दबर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक, मुकुलभट्ट १६३ भर्तृमित्र’। साथ ही इन्होंने आनन्दवर्धन का सहृदय’ शब्द से निर्देश किया है। यह लघुकायग्रन्थ इतना ख्यातिप्राप्त तथा प्रामाणिक है कि आचार्य मम्मट जैसे विद्वान् ने अभिधा निरूपण में समग्ररूप से, लक्षणा में कुछ परिष्कार करते हुए इसका अनुसरण किया है। शुद्धा गौणी के भेद में जो पङ्क्ति मम्मट ने लिखी है, वह बिना अभिधावृत्तिमातृका को समझे समझ में नहीं आ सकती। ऐसे ही अभिधा निरूपण में परमाणु शब्द का पारिभाषिकगुणत्व प्रतिपादन का क्या प्रसंग है ? यह अभिधावृत्तिमातृका” से ही जाना जा सकता है। भोजराज भी इस ग्रन्थ से प्रभावित है। साथ ही विश्वनाथ भी। यह उपादानलक्षणा, लक्षणलक्षणा, आदि लक्षणा भेदों की संज्ञा भी इन्हीं से गृहीत है।
वंश का काल
ग्रन्थ की अन्तिम (१५वीं) कारिका से ज्ञात होता है कि “मुकुलभट्ट” के पिता का नाम ‘भट्टकल्लट’ था। वे कल्हणपण्डित के अनुसार काश्मीरनरेश अवन्तिवर्मा (८५५-८८३ ई.) के राज्यकाल में उत्पन्न हुए थे, इस प्रकार ‘आनन्दवर्धन’ और ‘रत्नाकर’ के समाकालीन थे। अतः इनका समय ‘नवमशताब्दी का अन्त" तथा दशमशताब्दी का आरम्भ में मानना उचित होगा। “उद्भट” के “काव्यालंकार-सारसंग्रह” पर लघु विवृति नामक टीका लिखने वाले “प्रतिहारेन्दुराज” इनके शिष्य हैं, वे स्वयं कहते हैं कि विद्वानों में अग्रगण्य “मुकुलभट्ट” से “अलंकारशास्त्र" का अध्ययन करके मैं “काव्यालंकारसंग्रह” की विवेचना करता हूँ। “प्रतिहारेन्दुराज” ने अपनी लघुविवृति के अन्त में मुकुलभट्ट की प्रशस्त प्रशंसा की है। उन्हें मीमांसा, व्याकरण तथा तर्कशास्त्र और साहित्यशास्त्र का मूर्धन्य विद्वान् कहा है। साथ ही बुधजन पुष्पों के लिए उन्हें ऋतुराज बसन्त, भगवच्चरणारविन्द का ,ग, सौजन्य का सागर, कीर्तिलता का आलवाल बतलाते हुए इनके गुणों का भी निर्देश किया है। उनसे शास्त्रों का अध्ययन कर कौंकण देशवासी “श्री इन्दुराज" ने काव्यालंकारसारसह पर लघु विवृति लिखी है, ऐसा उन्होंने निर्देश किया है। इस कथन से प्रतिहारेन्दुराज का समय भी दशमशताब्दी के प्रथमार्ध में निश्चित होता है। १. पञ्चप्रकारतयाचार्यभर्पमित्रेण प्रदर्शितम्-अभिधेयेन सम्बन्धात (आ. वृ.मा. ६ १/२ का.वृ.) २. लक्षणामार्गावगाहित्वं तु ध्वनेः सहृदयैतनतयोपवर्णितस्य विद्यत इति (अ.वृ. मा. ११. १/२ का.वृ.) इह लक्ष्यस्य लक्षकस्य च न भेदरूपं ताटस्थ्य म् (का.प्र. द्वि. उ.) ४. भट्टकल्लट पुत्रेण मुकुलेन निरूपिता। सूरिप्रबोधनायेयमभिधावृत्ति-मातृका।। (१५ वीं का. अ.. मा. अनुग्रहाय लोकानां भट्टाः श्री कल्लटादयः। अवन्तिवमर्णः काले सिद्धा भुवमवातरन्।। (रा.त. ५/६६) “विद्वदग्यानमुकुलादधिगम्य विविच्यते। प्रतिहारेन्दुराजेन काव्यालंकारसंग्रहः”। अन्तिम पद्य ७. मीमांसा सारमेघात् पदजलधिविधोस्तर्कमाणिक्यकोषात-साहित्यं श्रीमुरारेर्बुधकुसुममधोः सौरिपादाब्जगात्। श्रुत्वा सौजन्य सिन्धोर्द्विजवरमुकुलात् कीर्तिवल्ल्यालबालात-काव्यालंकाररसारे लघुविवृतिमधात् कौंकणः श्रीन्दुराजः (लघुविवृति अन्तिम पद्य) * १६४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र भट्टकल्लट काश्मीर के यशस्वी पुरुष, हैं, कल्हण इन्हें सिद्धपुरुष का अवतार कहते हैं। डॉ. काणे ने भी इन्हीं कल्लट को मुकुल का जनक माना है।
देश
ग्रन्थ की पुष्पिका में “मुकुलभट्ट” में लिखा है कि वे शारदा के चरण के धूलिकण से पवित्रस्थल’ के निवासी है, अतः उनका देश काश्मीर है इसमें कोई सन्देह नहीं।
वैदुष्य
ये प्रतिहाररेन्दुराज के अनुसार यद्यपि पद वाक्य-प्रमाण पारावारीण है, तथापि मुख्यतः वैयाकरण हैं, इनका सिद्धान्त भी वैयाकरणों का सिद्धान्त है। ये मुख्यार्थ जाति, गुण, क्रिया और यदृच्छा भेद से चार प्रकार का मानते हैं, इसमें प्रमाण महाभाष्यकारको देते हैं। विषय-विभाग में वाक्यपदीय का मत उद्धृत करते है। जातिशक्तिवादी मीमांसक का खण्डन करते हैं। “मीमांसक गौणीवृत्ति अलग (लक्षणा से भिन्न) मानता है। ये गौणी का लक्षणा में अन्तर्भाव करते है। मीमांसक की दृष्टि में प्रधान व्यंग्यार्थ (ध्वनि) है ही नहीं। यदि है तो भी वह अभिधावृतिवेद्य है। मुकुलभट्ट लक्षणावेद्य मानते हैं। अतः इन्हें मुख्यतः वैयाकरण मानना ही उचित है। मीमांसक लक्षणा को अलग वृति मानता है। ये वैयाकरणों के अनुसार लक्षणा के भेदों को भी अभिधावृत्तिवेद्य मानते हैं अतएव “अभिधावृत्तिमातृका” नाम गतार्थ होता है। हाँ ये सभी सभी शास्त्रों के प्रौढ़ विद्वान् थे, विशेषतः व्याकरण तथा साहित्य के। ‘आनन्दवर्धन’ का इनपर विशेष प्रभाव था। ध्वनि को इन्होनें स्वीकार किया, परन्तु व्यंजनावृत्ति को इन्होंने नहीं माना लक्षणा से ही प्रतीयमान अर्थ को गतार्थ किया है। १. इति शारदाचरणरजः कणपवित्रित स्थल-वास्तव्य श्री कल्लटात्मजभट्टमुकुलविरचितो (ग्रन्थ की अ.पु.) १६५ आनन्दबर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक, प्रतिहारेन्दुराज और भद्देन्दुराज
प्रतिहारेन्दुराज और भटृन्दुराजः
इन दोनों नामों में प्रतिहार और भट्ट उपाधि है। नाम तो इन्दुराज ही है। परन्तु समकाल में हुए भी ये दोनों इन्दुराज भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। इसी भेद को दिखाने के लिए ही “अभिनवगुप्त” अपने गुरू इन्दुराज को सर्वत्र भट्टेन्दुराज ही कहते हैं और इन्हें अस्मदुपाध्यायः “अस्मदगुरूभिः कहते हैं। अभिनव ने स्वरचित ‘लोचन’ टीका के अन्त में मंगलाचरण करते हुए भी “भट्टेन्दुराज” का स्मरण किया है। डॉ. एस.के. ई. के अनुसार पीटर्सन ने “प्रतिहारेन्दुराज” और “भट्टेन्दुराज” की अभिन्नता मानी है। समुद्रबन्धन में एक ऐसा उदाहरण है जो दोनों की अभिन्नता का भ्रम पैदा करता है परन्तु भगवद्गीता पर अभिनव की टीका से प्रतीत होता है कि भद्देन्दुराज श्री भूतिराज के पुत्र तथा कात्यायनगोत्रोत्पन्न श्री सौचुक के पौत्र थे। प्रतिहारेन्दुराज मुकुलभट्ट के शिष्य तथा कौंकण देशवासी थे। इससे अधिक कुछ भी ज्ञात नहीं होता। अभिनव गुप्त अपने गुरु तथा परमगुरु का उल्लेख किया हैं। उसमें “मुकुलभट्ट” का नाम नहीं है। इससे भी ज्ञात होता है कि “प्रतिहारेन्दुराज” इनके गुरू नहीं थे। भट्टेन्दुराज मुख्यतः कवि थे। ‘अभिनव’ के उद्धरणं से प्रतीत होता है कि उन्होंने संस्कृत और प्राकृत दोनों में कविता लिखी है। अभिनव ने उनके पद्यों को उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है। प्रतिहारेन्दु-राज ध्वनि सिद्धान्त से परिचित थे। परन्तु इन्होंने उद्भट के द्वारा ध्वनि का अन्तर्भाव पर्यायोक्त अलंकार में किये जाने का समर्थन किया है जबकि आनन्दवर्धन ध्वनि का अन्तर्भाव नहीं करते हैं “पर्यायोक्त का अन्तर्भाव ध्वनि में मानते हैं। ध्वनि को महाविषय बताते हैं। “भटृन्दुराज” ध्वनि समर्थक हैं ध्वन्यालोक के मंगलाचरण में त्रिविध ध्वनि की व्याख्या अभिनव को इन्होंने पढ़ाई है। “क्षेमेन्द्र” ने “भट्टेन्दुराज” के दो पद्यों को एक को अपादानौचित्य के प्रत्युदाहरण रूप में, दूसरे को सत्त्वौचित्य के प्रत्युदाहरणरूप m y
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१. भट्टेन्दुराजचरणाब्जकृताधिवास हृद्य श्रुतोऽभिनवगुप्तपदाभिधोऽहम् । लो. द्वि. मं. पद्य २. एवं वस्त्वलंकाररसभेदेन त्रिधाध्वनिरत्रश्लोके अस्मदगुरुभिारव्यातः (मंगलाचरण की व्याख्या लोचन) ३. श्रीसिद्धचेलचरणाब्जपरागपूतभट्टेन्दुराजमतिसंस्कृत-बुद्धिलेशः (लोचनके अन्त में मंगल पद्य) ४. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास पृ. ७०-७१ ५. सं. का. शा. का इतिहास की टिप्पणी पृ. ७० ६. सं. का. शा. का इतिहास पृ. ७१ . ७. “कौंकणः श्रीन्दुराजः” ल.वि.का अन्तिम पद्य आदायवारिपरितः सरितां मुखेभ्यः किं नाम साधितमनेन दुरर्णवेन। क्षारीकृतं च वडवादहने हुतं च पातालकुक्षिकुहरे विनिवेशितं च।। औ. वि. च. अपादानानौचित्य प्र. ११११६६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र में, उद्धृत किया है। ये पद्य अभिनव के गुरू “भट्टेन्दुराज" के हैं। सुवृत्तलिक में भी श्लोक २.२४/२६,३० में इनके उद्धरण हैं। ‘शांर्गधर’ ‘वल्लभदेव’ और ‘जहलण’ के काव्य-संग्रह में भटटेन्दुराज के नाम से पद्य उद्धृत हैं। ‘प्रतिहारेन्दुराज’ “उद्भट” के टीकाकार हैं। वे कोई प्रसिद्ध कवि नहीं हैं। मुख्यतः उन्होंने अलंकार पर लिखा हैं, उद्भट के अनुयायी हैं। ये ध्वनि सिद्धान्त से परिचित थे, परन्तु उसे “उद्भट” के अनुसार अलंकारों में अन्तर्भूत’ बतलाते हैं। ‘अभिनव भारती’ में रस संबंधी विषयों पर अभिनव ने भट्टेन्दुराज के विचारों का जैसा उद्धरण दिया है, उसका प्रतिहारेन्दुराज के विचारों से जो “उद्भट” की टीका में व्यक्त है मेल नहीं खाता। अतः दोनों इन्दुराज एक है-ऐसा नहीं कहा जा सकता। एक टीकाकार हैं। दूसरे कवि के साथ-साथ अभिनव के काव्यशास्त्रों के गुरू हैं। अतः काव्य विद्या में भी प्रवीण हैं। उन्हें अभिनव ने “विद्वत्कविसहृदयचक्रवर्ती” की उत्कृष्ट उपाधि लोचन में दी है। । अतः ये दोनों कुछ लोगों के द्वारा (पीटर्सन वनहट्टी द्वारा) अभिन्न मानने पर भी वस्तुतः भिन्न हैं हाँ समसामयिक हैं । दशवीं शती के प्रथमार्ध में दोनों हुए हैं। “प्रतिहारेन्दुराज" ने उद्भट पर टीका लिखी है। भट्टेन्दुराज का कोई ग्रन्थ नहीं मिलता। उद्धृत काव्य ही मिलते हैं। अभिनव की टीका से इनके मत का ज्ञान होता है। HERE १. आश्चर्य वडवानलः स भगवानाश्चर्यमम्भोनिधि, र्यत्कर्माऽतिशयं विचिन्त्यमनसः कम्पः समत्पद्यते। एकस्याश्रमघस्मरस्य पिबतस्तृप्तिर्नजाता जलैरन्यस्यापि महात्मनो न वपुषिस्वल्पोऽपिजातः श्रमः) औ. वि.पृ. १५६ २. ल. वि. पर्यायोक्तालंकार। आनन्दबर्थन से भट्टनायक और कुन्तक तक, धनञ्जय तथा थनिक १६७
धनञ्जय तथा धनिक
समस्त वेदों से सार-संग्रह कर स्वयं ब्रह्मा ने सार्ववर्णिक नाट्यवेद की रचना की जिसे “भरत" ने पंचमवेद कहा है। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र रूप में जिसको पल्लवित किया, उस विस्तृत नाट्यशास्त्र को जो विद्वानों के लिए भी दुर्जेय है उसे सर्वजनसुगम बनाने के लिए धनञ्जय ने संक्षिप्त कर दशरूपक नामक ग्रन्थ की रचना की।
वंश और काल
धनञ्जय विष्णु के पुत्र थे। ये मालवा के परमारवंश के राजा “मुञ्ज” के कविगोष्ठी के सदस्य थे। इन्हीं के (परमार राजा के राज्यकाल में इन्होंने दशरूपक की रचना की। इसका निर्देश स्वयं ग्रन्थान्त में इन्होंने किया है। “मुञ्ज” स्वयं सहृदय विद्वान् तथा विद्वत्प्रिय थे। ये परमार वंश के (मालवा के) सप्तम राजा थे। उनके शिलालेखों से पता चलता है कि वे ६७४ ई. में अपने पिता ‘हर्षदेव सीयक’ के पश्चात् राजसिंहासन पर बैठे, और लगभग ६६५ ई. तक उन्होंने राज्य किया। चालुक्य शिलालेखों से ज्ञात होता है। कि ‘चालुक्य तैलप’ ने उन्हें परास्त किया, बन्दी बनाकर उनका वध करवा दिया। सम्भवतः स्वयं एक कवि होने के नाते वाक्पतिराज नाम से प्रसिद्ध होने के अतिरिक्त वे कई और उपनामों से प्रसिद्ध थे। जैसे “अमोघवर्ष” “पृथिवी वल्लभ” “श्रीवल्लभ” । एक शिलालेख में उन्हें उत्पलराज कहा गया है। ‘शम्भु’ तथा पद्मगुप्त ने इस राजा को कविबान्धव “कविमित्र” कहा है। इसी ‘मुंज’ नरेश के राज्यकाल में (लगभग ६७४-६६५ ई. तक) दशरूपक की रचना हुई।
दशरूपक
यह “धनञ्जय" द्वारा कारिका रूप में लिखा गया। नाट्यशास्त्र के सिद्धान्तों का संक्षिप्त रूप है। नायिका भेद, शृंगाररस आदि कतिपय स्थानों पर किये गये कुछ परिवर्तनों के अतिरिक्त सर्वत्र “नाट्यशास्त्र" ही इसका आधारग्रन्थ है। परन्तु ‘नाट्यशास्त्रों’ में किये गये आंगिक, वाचिक या आहार्य अभिनय के विस्तृत वर्णनों को धनञ्जय ने छोड़ दिया है, वे अपने को वस्तु नेता तथा रस के विश्लेषण तथा रूपकों के प्रमुख दस भेदों के वर्णन तक ही सीमित रखते हैं। अतः दशरूपक बोधगम्य संक्षिप्त तथा सुव्यवस्थित हो गया है। ' PURNSama उद्धृत्योधृत्यसारं यमखिलनिगमान्नाट्यवेदं विरिञ्चिश्चक्रे यस्यप्रयोगं मुनिरपि-भरतस्ताण्डवं नीलकण्ठः । सर्वागीलास्यमस्य प्रतिपदमपरं लक्ष्म कः कर्तुमिष्टे नाट्यानां किन्तु किञ्चित् प्रगुणरचनया लक्षणं संक्षिपामि।। (द.रू.१/४) व्याकीणे मन्दबुद्धीनां जायते मतिविभ्रमः। तस्यार्थस्तत्पदैरेव संक्षिप्यक्रियतेऽञ्जसा (द.रू. १/५) … २. विष्णोः सुतेनापि धनञ्जयेन विद्वन्मनोरागनिबन्ध हेतुः । आविष्कृतं मुन्जमहीशगोष्ठी-वैदग्ध्यभाजा दशरूपमेतत्।। (दशरूपक ४/८६) ३. डॉ. एस. के. डे. कृत संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास पृ. ११२-१३ १६८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र इन गुणों के कारण यह ग्रन्थ इतना प्रचलित हो गया कि परवर्ती आचार्यों ने इसे ही अपना आधार बनाया। ‘विद्यानाथ’ के ‘प्रतापरूद्रीय’ का नायक-नायिकाभेद इसका स्पष्टतः ऋणी है। विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में यत्र तत्र भरत का उल्लेख किया है, तथा ‘नाट्यशास्त्र’ का उद्धरण भी दिया है। परन्तु नाट्यविषयक विवेचन में तृतीय परिच्छेद के नायक-नायिकाभेद, तथा षष्ठपरिच्छेद के दृश्य-काव्यविवेचना में दशरूपक का ही आश्रय लिया है। ‘भानुदत्त’ की ‘रसमंजरी’ रस व नायिकाभेद का ग्रन्थ भी इस से प्रभावित है। १३वीं शताब्दी का नाट्यदर्पण ‘गुणचन्द्र रामचन्द्र’ का लिखा हुआ नाट्यशास्त्र का ग्रन्थ भी दशरूपक को कुछ सीमा तक उपजीव्य बनाया है। __ दशमरूपक में चार प्रकाश हैं, इसमें मुख्यतः नाट्यविषय पर विवेचन किया गया है। चतुर्थ प्रकश में रस-विषय पर विवेचन किया गया है। प्रथम प्रकाश में नाट्य, रूप तथा रूपक की परिभाषा के बाद रूपकों के दश भेदों का नाम, नृत्य, नृत के भेद, रूपकों के भेदक तत्त्व, वस्तु, नेता, रस का निर्देश कर वस्तु विवेचन में वस्तु के दो भेद आधिकारिक तथा प्रासंगिक का वर्णन करके पताका के प्रसंग में ‘पताकास्थानकों’ का वर्णन किया गया है। फिर वस्तु के भेदों तथा पाँच अर्थप्रकृतियों, पाँच अवस्थाओं, पाँच सन्धियों, ६४ सन्ध्यङगों का सलक्षण वर्णन है। फिर विष्कम्भक, प्रवेशक, चूलिका, अङ्कास्य तथा अङ्कावतार इन पाँच अर्थोपक्षेपकों का वर्णन है। द्वितीय प्रकाश में : नायक, नायिका का भेद-प्रभेद सहित सलक्षण विवेचन, चार नाट्यवृत्तियों और उनके अंगों का विवेचन किया गया है। तृतीय प्रकाश में : दस प्रकार के रूपकों की प्रस्तावना तथा लक्षण इत्यादि पर विचार किया गया है। चतुर्थ प्रकाश में-रस निरूपण है। रस निष्पत्ति में विभाव, अनुभाव, सात्त्विकभाव, व्यभिचारी भाव, स्थायीभाव, का लक्षण सहित निरूपण करके धनञ्जय ने नाट्य में आठ ही रस माना है, शान्तरस को नहीं माना है। अनन्तर रस-निष्पत्ति प्रकार तथा रसों का भेद सहित निरूपण किया है। रस-निष्पत्ति में इन्होंने विभावादि के द्वारा भावित स्थायी के स्वाद को रस माना है। इनका रस-सिद्धान्त वस्तुतः किसी के सिद्धान्त से नहीं मिलता। अवलोक को अलग करके केवल धनञ्जय की कारिका से विवेचना करें तो इनकी रस-निष्पत्ति विषयक मीमांसा किसी पूर्वाचार्य से नहीं मिलती। पहले इन्होंने रस १. भावितः स्वदते स्थायी रसः स परिकीर्तितः (द.रू. ४/४६.५) आनन्दवर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक, धनञ्जय तथा थनिक १६६ को वाक्यार्थ माना है। इससे “यत्परः शब्दः स शब्दार्थः” सिद्धान्त के अनुसार अभिधावादी आचार्य सिद्ध होते हैं। कुछ-कुछ भट्टलोल्लट की ओर झुकते लगते हैं। साधारणीकरण भी मानते हैं। रसको सहृदयगत भी मानते हैं। स्वाद को काव्यार्थभावना से आत्मानन्द समुद्भव भी मानते है। यदि इनके “भावितः स्वदते स्थायी” का अर्थ ‘काव्यार्थभावना से भावित (साधारणीकृत) स्थायी का स्वादरस है’ यह अर्थ किया जाय तो “भट्टनायक मतानुयायी” सिद्ध होते हैं। परन्तु भोजकत्व के बिना ‘आत्मानन्दसमुद्भूति’ की बात कैसे आयेगी? । इसके लिए दो ही मार्ग है या तो “भट्टनायक" का भोगकृत्व व्यापार माना जाय, या भरत और आनन्दवर्धन की व्यञ्जनावृत्ति। अभिनव गुप्तपादाचार्य का तो विवेचन इनके समय तक था नहीं, (परन्तु आनन्दवर्धन का सिद्धान्त तो था, उसका इन्होंने अनुसरण नहीं किया। ‘दशरूपक’ के प्रथम प्रकाश में ६८ कारिका, द्वितीय में ७२ कारिका, तृतीय में ७६ का. तथा चतुर्थ में ८४ कारिकाएँ हैं। इस तरह कुल ३०० कारिकाएँ हैं, ग्रन्थोपसंहार में २ पद्य हैं।
धनिक
इस “दशरूपक" पर अवलोक नामक वृत्ति लिखने वाले “धनिक” भी विष्णु के पुत्र हैं। अतः ये धनञ्जय के ही भाई हैं। इनका काल भी वही है जो “धनञ्जय" का काल है। “धनिक" अच्छे कवि तथा काव्यशास्त्र के आलोचक भी हैं। ये संस्कृत प्राकृत-दोनों भाषाओं में कविता करते थे। दोनों का उद्धरण भी इन्होंने अपनी “अवलोक" टीका में दिया है। इन्होंने “काव्य-निर्णय" नामक ग्रन्थ भी लिखा है " इसमें काव्यशास्त्र के सामान्य विषयों का विवेचन हैं। कुछ लोगों ने भ्रान्तिवश कारिका तथा अवलोक दोनों का लेखक धनिक
१. वाच्या प्रकरणादिभ्यो वा बुद्धिस्था वा यथाक्रिया। वाक्यार्थः कारकैर्युक्तः स्थायीभावस्तथेतरैः (द.रु. ४/३७) २. द्रष्टव्यःभट्टलोल्लट का रस विषयक मत “मुख्ययावृत्त्या” इत्यादि (अभि. भा. छठा अ.) ता एव च परित्यक्तविशेषा रसहेतवः (द.रू. ४/४०.५) ४. रसिकस्यैव वर्तनात (द.रूपक ४/३७ १/२) (स्वादः काव्यार्थसम्भेदादात्मानन्दसमुदभवः (दशरूपक ४१.५) ५. द्रष्टव्यः-सावलोक दशरूपक के प्रथम, प्रकाश की अन्तिम पुष्पिका" इति श्री विष्णुसूनोर्धनिकस्य कृतौदशरूपकावलोके प्रथमः प्रकाशः समाप्तः।। ६. द.रू. २/३४ का. पर हेला का उदाहरण धनिक कृत प्राकृतपद्य है। “तह उत्ति से पअत्ता. इत्यादि। तथा प्रागल्भ्य का उदाहरणं “तथा व्रीडा विधेयाऽपि” इत्यादि संस्कृत पद्य धनिक का है द. स. २/३६ का. पर ऐसे अनेक उदाहरण धनिक रचित हैं। “यथावोचाम काव्य निर्णये-“तात्पर्यानतिरेकाच्च व्यञ्जनीयस्य न ध्वनिः । किमुक्तस्यादश्रुतार्थतात्पर्येऽन्योक्तिरूपिणि। एतावत्येव विश्रान्तिः तात्पर्यस्येति किं कृतम्। यावत् कार्यप्रसारित्वात् तात्पर्य न तुलाघृतम्।। (दशरूपक ४/१७ कारिका पर उद्धृत १-७ पद्य) ७. १७० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र को ही माना है। इसका निराकरण ग्रन्थ देखने से ही हो जाता है। धनिक ने मोहायित (जो यौवनावस्था में स्त्रियों के सत्वज बीस अलंकारों में एक है) के उदाहरण रूप में “पद्मगुप्त” का पद्य उद्धृत किया है।’ धनिक ने मुञ्ज का भी उल्लेख किया है। भोज (११वीं शती के पूर्वार्ध) ने धनिक का उल्लेख किया है। इन्होंने अपनी अवलोक वृत्ति के द्वारा दशरूपक को बोधगम्य तथा व्यवस्थित बना दिया। यह वृत्ति बड़े महत्त्व की है। कारिका और वृत्ति दोनों मिलाकर पढ़ने से ग्रन्थ का नया रूप सामने आ जाता है। ‘अवलोक’ में व्यञ्जना का खण्डन स्पष्ट है। ये तात्पर्य को ही रसनिष्पत्ति तक ले जाते हैं। विश्वनाथ ने इसका खण्डन किया है। यह वृत्ति कुछ समय वाद लिखी गयी है। यह पद्मगुप्त परिमल के ‘नवसाहसांक चरित’ के ६/४२ पद्य के उद्धरण से सिद्ध होता है, जिसकी रचना “मुञ्ज” के भाई तथा उत्तराधिकारी “सिन्धुराज” के समय में की गयी थी।
दशरूपक की अन्य टीकायें
‘नृसिंह भट्ट” ने अवलोक की लघुटीका लिखी है। देवपाणि-रचित टीका, कुरविराम रचित पद्धति, बहुरूप मिश्र की टीका। १. यथापद्मगुप्तस्यः-‘चित्रवर्तिन्यपिनृपे तत्वावेशेन चेतसि। व्रीडार्धवलितं चक्रे मुखेन्दुमवशैव सा"। (द.रूप. २/४० का.) २. देखिये साहित्यदर्पण तृ. प.। द्रष्टव्य- एस.के.डे. का संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास पृ. ११४ द्रष्टव्य संस्कृतशास्त्रों का इतिहास “बलदेव उपाध्याय पृ. २१२ لسد » आनन्दवर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक, थनिक तथा भट्टनायक १७१
भट्टनायक
अलंकारशास्त्र के प्रौढ़ विद्वान् तथा सूक्ष्म विवेचक “भट्टनायक" का यद्यपि कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता तथापि “अभिनवगुप्त" द्वारा “लोचन" में तथा ‘अभिनवभारती’ में उद्धृत “भट्टनायक" के मतों से तथा ग्रन्थ से इनके जिस ग्रन्थ का हमें ज्ञान होता है, वह ग्रन्थ “हृदयदर्पण” है। इसके उद्धरणों से ज्ञात होता है कि इसमें न केवल ध्वनि तथा व्यञ्जना का ही खण्डन था, प्रत्युत पूरे “ध्वन्यालोक” का खण्डन था। रस के विषय में इनका पूर्व प्रचलित सिद्धान्त से अलग मौलिक तथा युक्तियुक्त सिद्धान्त था। परवर्ती सभी आचार्य ने समग्ररूप से तो नहीं किन्तु कुछ अंशों में इन्हीं का अनुसरण किया है। साधारणीकरण की प्रक्रिया आप ही की देन है। उसे कुछ संशोधन कर सबने माना है। इन्होंने रस का स्वरूप, निष्पत्ति की प्रक्रिया तथा आस्वाद की सहृदय-निष्ठता सब सिद्ध कर दी है। इसपर सभी आचार्य मुग्ध हैं। अभिनवगुप्त जैसा सूक्ष्मातिसूक्ष्म समालोचक भी कह बैठा कि-अत्यन्त ऊँचे से ऊँचे स्थान पर आरूढ़ होकर बिना श्रम का अनुभव किये हमारी बुद्धि जिस अर्थतत्त्व (रसविषयक सिद्धान्त) का साक्षात्कार कर रही है, वह पूर्वाचार्यों के द्वारा रचे गये विवेक सोपान-परम्परा का फल है। इसलिए उन सज्जनों के मत को हमने दूषित नहीं किया है। केवल उनमें संशोधन ही किया है। वस्तुतः इन्होंने संशोधन ही किया “भट्टनायक” द्वारा साधारणीकरण के लिए स्वीकृत भावकत्व नामक काव्य-व्यापार का इन्होंने खण्डन किया, क्योंकि भावकत्व और कुछ नहीं भावना है, वह सहृदय का व्यापार है काव्य का नहीं। यह युक्त ही है, तथा रसास्वाद (रस की आनन्दात्मक अनुभूति) के लिए “भट्टनायक” ने भोजकत्व व्यापार माना, ‘आनन्दवर्धन’ ‘अभिनव गुप्त’ आदि ने व्यञ्जना मानी। केवल नाम मात्र का भेद है शेष सारी प्रक्रिया दोनों की समान है। व्यञ्जना को चूंकि भरत स्वयं मान चुके है तो उसे छोड़कर नये भोजकत्व की कल्पना युक्तिसंगत नहीं है। अतः “भट्टनायक” के मत को ही परवर्ती आचार्यों ने कुछ संशोधन के साथ स्वीकार किया है। पण्डितराज भी इसे स्वीकार करते हैं। परन्तु ध्वनि-सिद्धान्त पर इन्होंने निर्मम प्रहार किया है। अतः इनका “हृदयदर्पण" ध्वन्यालोक के खण्डन में लिखा गया था। इसे ध्वनि ध्वंस ग्रन्थ भी कहा गया है। स्वयं “अभिनवगुप्त" भी लोचन में एक स्थल पर १. ऊोर्ध्वमारुह्य यदर्थतत्त्वं धीः पश्यति श्रान्तिमवेदयन्ती। फलं तदाथैः परिकल्पितानां विवेकसोपानपरम्पराणाम्।। तस्मात् सतामत्र न दूषितानि, मतानि तान्येव तु शोधितानि (अ.भा. ६ अ.) २. द्रष्टव्य-र.गं.ध. प्र. आनन रसनिरूपण “अन्या तु सैव सरणिः” दर्पणो हृदयदर्पणाख्यो ध्वनिध्वंसग्रन्थोऽपि “व्य. वि. की टीका प्र. वि.” सहसा यशोऽभिसर्तुं समुद्यता अदृष्टदर्पणा ममधीः की व्याख्या १७२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र “भट्टनायक” की चुटकी लेते हुए कहते हैं कि “वस्तुध्वनि का खण्डन करते हुये आप रसध्वनि का समर्थन कर गये। यह अच्छा ध्वनिध्वंस हुआ। आपका क्रोध भी वरप्रसाद के सदृश है। अर्थात् आपका ध्वनिखण्डन भी रसध्वनि का समर्थन कर रहा है। यहाँ पर उन्होंने ध्वनिध्वंस कहा है।’ “अभिनवगुप्त” ने “भट्टनायक” के नाम से तथा ‘हृदयदर्पण’ के नाम से उनके मतों को उद्धृत किया है, और उसका खण्डन भी किया है। सर्वत्र खंण्डन के लिए ही नहीं उद्धृत किया है। कहीं-कहीं प्रमाणरूप में भी उद्धृत किया है, जैसे- सहृदय का लक्षण करके प्रमाणरूप में “भट्टनायक” का मत अभिनव ने उद्धृत किया है। इसी तरह विभावरूप सहचरी के मारे जाने से उद्भूत क्रौञ्च का शोक, आक्रन्दन आदि अनुभावादि से निष्पन्न करूण से पूर्ण मुनि की चितवृत्ति ही जल से भरे हुए घट के उछलने के समान “मा निषादप्रतिष्ठां त्वम.” इत्यादि श्लोक रूप में उछल पड़ी। अपनी इस उक्ति पर “हृदयदर्पण” का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। कि कवि जब तक रस से पूर्ण नहीं होता तब तक रस का उगिरण नहीं करता। रस ही काव्य की आत्मा है इसके विषय में अभिनव कहते हैं रस-चर्वणा ही काव्य की आत्मा है। इसे आप भी मानते हैं। जैसा कि आपने ही कहा है। __- काव्य में रसचर्वणा करने वाले ही अधिकारी हैं। जैसे इतिहासादि में सभी बोद्धा तथा वेदादि में सभी नियोज्य अधिकारी हैं। उसी तरह काव्य में सभी अधिकारी नहीं है। केवल रसयिता ही अधिकारी है। अन्यत्र भी “भट्टनायक" को प्रमाणरूप में प्रस्तुत किया है जैसे “सरस्वती उस अलौकिक आनन्दमयरस को स्वयं क्षरती है" इसके समर्थन में कहते हैं कि जैसा भट्टानायक ने कहा है कि सरस्वती (वाक्) रूप धेनु अपने सहृदयरूपी बछड़े पर स्नेह होने के कारण दिव्य रस को स्वयं क्षरती है। इसलिए योगियों के द्वारा जो रस दूहा जाता है वह रस इस रस के बराबर नहीं होता इसी तरह “हहा हा देविधीराभव" की व्याख्या में कहते हैं कि “हृदयदर्पण" में जो कहा गया है कि ‘हहा हा’ यह संरम्भार्थक है, له १. किंच वस्तुध्वनिंदूषयता रसध्वनिस्तदनुग्राहकः समर्थ्यत इति सुष्टुतरां ध्वनिध्वंसोऽयम्। यदाह-क्रोधोऽपिदेवस्यवरेण तुल्यः इति (ध्व.लो. १/६९ पृ.) “योऽर्थो हृदयसंवादी तस्य भावो रसोद्भवः। शरीरं व्याप्यते तेनशुष्कं काष्टमिवाग्निना" ।। इति लोचन पृ. ३६! ३. एतदेवोक्तंहृदयदर्पणे-यावत्पूर्णो न चैतेन तावन्नैव वमत्यमुम्) (लोचन १/१७ पृ.) ४. यथोक्तं त्वयैव- काव्येरसयिता सर्वो न बोद्धा न नियोगभाक् (इति लो. १/३६ प्र.) ५. वाग्धेनुर्दुग्ध एतं हि रसं यद्बालतृष्णया। तेन नास्य समःस स्यादुयते योगिभिर्हियः।। (लो. १/६१-६२ पृ.) ६. यत्तुहृदय दर्पणेउक्तम्-हहाहेति संरम्भार्थोऽयं चमत्कारः इति (लोचन २/१७१ पृ.) आनन्दबर्थन से भट्टनायक और कुन्तक तक, थनिक तथा भट्टनायक १७३ इसका कार्य चमत्कार है। वहाँ भी संरम्भ (आवेग) विप्रलम्भ का व्यभिचारी भाव है अतः रसध्वनि माना जायगा। परन्तु ‘रामोऽस्मि’ इस रामपद से अभिव्यक्त अर्थ की सहायता के बिना सरम्भ भी प्रतीत नहीं होगा। इत्यादि। इस तरह पाँच स्थल (चार स्थल तो प्रमाणरूप से उद्धृत है पाँचवे में समर्थन के साथ खण्डन भी है) प्रमाणरूप से उद्धृत है। इसी तरह “भम धम्मिअ"" अत्ता एत्थरे व्यंक्तः काव्यविशेष में व्यक्तः२ में द्विवचन, निःश्वासान्धइवादर्शः पर इव शब्द के योग से गौणता भी नहीं है। इत्यादि भट्टनायक की तथा “सर्वत्र तर्हि काव्यव्यवहारः यह हृदयदर्पण की उक्ति खण्डन के लिए ही अभिनव ने उद्धृत किया है। __‘रस-निरूपण’ में भट्टनायक का मत उद्धृत है “भट्टनायक” ने सांख्य-सिद्धान्त के अनुसार रस का भोग माना है, उस भोग के लिए भोगकृत्व (भोजकत्व) व्यापार की कल्पना की है। काव्य भावक है रस भाव्य है साधारणीकरण के अनन्तर सत्वोद्रेक होता है, भोगकृत्व से आत्मविश्रान्ति तुल्य रस का भोग हो जाता है। वह परब्रह्मास्वाद तुल्य है। इसमें तीन व्यापार इन्होंने माना है, अभिधा काव्य-विषयक व्यापार है, भावकत्व रस विषयक व्यापार है, भोगकृत्व, सहृदय विषयक व्यापार है। इन तीन अंशों को “भट्टनायक ने माना है। इस प्रकार “भट्टनायक” के सिद्धान्त का विशद विवेचन कर अभिनवगुप्तपादाचार्य ने कहा कि भावना में तीन अंश हैं (किं भाव येत् कथं भावयेत् केन भावयेत्) इसी तरह “काव्यं भावकं” रसान् भावयति” इस भावना में साधनाकांक्षा (करणाकांक्षा) में व्यञ्जनयाभावयत् यह स्वतः सिद्ध है - इत्यादि उक्तियों से व्यञ्जना सिद्ध कर रस को प्रतीयमान सिद्ध कर दिया। कुछ “भट्टनायक” की उक्ति का खण्डन भी किया है। इनके भुक्तिवाद को उन्होंने अभिव्यक्तिवाद में परिणत कर दिया है। कहा है कि इस तरह रसध्वनि के सिद्ध होने पर उसका भोग दैवसिद्ध है-इत्यादि वस्तुतः भट्टनायक ध्वनि का खण्डन तो करते हैं परन्तु निश्चयात्मक नहीं। वे सन्देहात्मक स्थिति में हैं, वे कहते हैं कि ध्वनि नाम का अभिधाभावना से दूसरा जो व्यञ्जना रूप व्यापार है वह सिद्ध भी हो जाय तो भी वह काव्य का एक अंश ही होगा, अंशी नहीं। इससे सिद्ध होता है कि वे भी समझ रहे हैं कि “आनन्दवर्धन” के द्वारा साधित यह अभिधा (लक्षणा) भावना से भिन्न व्यञ्जना व्यापार सिद्ध हो सकता है, अतः उसे अंशरूप में स्वीकार करते हैं।’ १. लोचन पृ. ५२ “यदूचेभट्टनायकेन २. अहमित्यभिनय-विशेषेणात्मदशावेदनाच्छाब्दमेतदपि यत्वाहभट्टनायकः लो. पृ. ७२ “तेन भट्टनायकेन यद् द्विवचनं दूषितं तद्गजनिमीलकयैव” (लो. पृ. १०४) ४. भट्टनायकेन तु यदुक्तम् इवशब्दयोगाद्गौणता अप्यत्र न काचित् लो. द्वि. उ:पृ. १७२ ५. लोचन पृ. ८८ ६. लोचन द्वि. उ.पृ. १९०-१८३ खण्डन पक्ष १८४ पृ. से १६० तक ७. “ध्वनिर्नामापरो योऽपि व्यापारोव्यञ्जनात्मकः। तस्य सिद्धेऽपि भेदेस्यादेशत्वं न रूपता।” लोचन पृ. ३६ १७४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र __ इस पर अभिनवगुप्त कहते हैं। कि ध्वनि को जो आपने अंशरूप माना है। वह कदाचित् वस्तुध्वनि, के विषय में कह सकते हैं। रसध्वनि को तो आपने ही अंशीरूप माना’ है, इस को जीवित (काव्य की) आत्मा आपने ही माना है।) अन्यत्र भी भट्टनायक ने काव्य को वेदादि शास्त्र तथा इतिहासादि से भिन्न सिद्ध करने के लिए कहा है कि “वेदादिशास्त्रों में शब्द की प्रधानता है, इतिहासादि में अर्थ की प्रधानता है काव्य में शब्द और अर्थ दोनों गौण है। व्यापार की प्रधानता है"। इस पर अभिनवगुप्तपाद कहते हैं यदि व्यापार पद से ध्वनन या व्यञ्जनव्यापार आपको इष्ट है तो कोई नई बात आप नहीं कहते। आनन्दवर्धन के द्वारा सिद्ध किया हुआ अर्थ का ही साधन किया। यदि अभिधाव्यापार विवक्षित है तो इसका खण्डन हम कर चुके हैं। इससे सिद्ध है कि “भट्टनायक” ने सर्वप्रथम व्यञ्जना और ध्वनि की समालोचना में ग्रन्थ लिखा, उसका नाम था" हृदयदर्पण"। उसे ध्वनिध्वंस ग्रन्थ भी कहा गया है, वह ग्रन्थ छन्दोबद्ध तथा रस आदि विषयों में गद्यात्मक भी था। इस ग्रन्थ में बड़ा ही सूक्ष्म विवेचन है, परन्तु यह ग्रन्थ आज तक उपलब्ध नहीं हो सका, केवल उक्त उद्धरणों तथा परवर्ती आचार्यों के उद्धरणों से ही इसका पता लगता है। हेमचन्द्र ने “शब्दप्राधान्यमाश्रित्य इत्यादि श्लोक को ‘हृदयदर्पण’ नामक ग्रन्थ से उद्धृत कहा है। महिमभट्ट और उनके टीकाकार ने भी इस श्लोक को उद्धृत किया है। जयरथ ने भी भट्टनायक को हृदयदर्पणकार कहा है। इससे सिद्ध होता है “हृदयदर्पण ही भट्टनायक” का वह ग्रन्थ है जो आनन्दवर्धन के ध्वनिसिद्धान्त के विरूद्ध लिखा गया है। इसका उल्लेख लोचन तथा “अभिनवभारती” में भी किया गया है। __ अतः आनन्दवर्धन और अभिनवगुप्तपादाचार्य के मध्यकाल में नवीं शती का अन्त दशवीं शती के आरम्भ में इनका काल निर्धारित करना उचित है। बलदेव उपाध्याय ने ६५० ई. निर्धारित की है। “कल्हण” ने एक भट्टनायक का नाम राजतरंगिणी (५.१५६) में उद्धृत किया है, जिसे कश्मीरनरेश अवन्तिवर्मा के पुत्र और उत्तराधिकारी शंकरवर्मा के राज्यकाल में हुआ बताया है। साथ ही ये काश्मीरी हैं। १. काव्येरसयिता सर्वो. पृ. ३६ २. शब्दप्रधान्यमाश्रित्य तत्रशास्त्रं पृथग्विदुः। अर्थतत्त्वेनयुक्तं तु वदन्त्याख्यानमेतयोः . द्वयोर्गुणत्वेव्यापारप्राधान्ये काव्यधीर्भवेत् ।। लोचन पृ. ८७ द्रष्टव्यः- डॉ. एस. के .डे. का संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास पृ. ३७ द्रष्टव्य-संस्कृत शास्त्रों का इतिहास पृ. २१४ ५. द्रष्टव्यः सं. का शा. का इतिहास डॉ. सुशील कुमार डे पृ. ४० आनन्दवर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक, थनिक तथा भट्टनायक १७५ भट्टनायक का मत सिद्धान्तरूप में प्रचलित था। समुद्रबन्ध ने कहा है कि विशिष्ट शब्द और अर्थ काव्य है। उस शब्द-अर्थ के वैशिष्टय के पक्ष में तीन पक्ष है। धर्ममुखेन, व्यापारमुखेन व्यङ्ग्यमुखेन। धर्म दो हैं अलंकार और गुण। व्यापार भी दो हैं, वक्रोक्ति (भणिति-वैचित्र्य) भोगकृत्व । इस तरह पाँच पक्ष हुए। इसमें पहला अलंकार-मुखेन वैशिष्ट्य उद्भटादि के द्वारा अंगीकृत है। गुणमुखेन वैशिष्ट्यवामन द्वारा स्वीकृत। भणितिवैचित्र्य को “कुन्तक" ने स्वीकार किया है। भोगकृत्व को “भट्टनायक” ने, व्यंग्यमुखेन वैशिष्टय को" आनन्दवर्धन ने स्वीकार किया है।’ HariOMTHAN १. अलं. स. की टीका।१७६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
भट्टतौतः
“भट्टतौत” अभिनवगुप्तपादाचार्य के उपाध्याय है। इनका स्मरण अभिनवगुप्त ने अपनी कृति ध्वन्यालोक की टीका लोचन में तथा ‘अभिनव भारती’ में अनेकशः किया है। इनके सिद्धान्तों का उद्धरण बड़े आदर के साथ अभिनव-भारती के विभिन्न भागों में इन्होंने दिया है। कहा जाता है कि जिस प्रकार “ध्वन्यालोक” पर लोचन टीका लिखने की प्रेरणा अभिनव को अपने गुरू भट्टेन्दुराज से प्राप्त हुई थी, उसी प्रकार “अभिनवभारती” लिखने की प्रेरणा इन्हें “भट्टतौत” से मिली थी। ये अपने समय के मान्य आलंकारिक थे।
समय
यद्यपि इनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है तथापि ये “अभिनवगुप्तपादाचार्य” के गुरू हैं। अतः अभिनव तथा अभिनव के समसामयिक “कुन्तक" से पूर्ववर्ती है।
रचना
आपकी रचना “काव्यकौतुक” नाम से ख्यात थी। यद्यपि वह उपलब्ध नहीं है। तथापि अभिनव गुप्त ने उनके मतों को उद्धृत किया है। “श्री शंकुक” के रस-सिद्धान्त पर उनकी विप्रतिप्रत्ति को भी उद्धृत किया है। “काव्यकौतुक” पर अभिनवगुप्त ने विवरण नाम की टीका लिखी थी। वह टीका मूल-ग्रन्थ के सहित लुप्त है। इसका निर्देश हमें “लोचन” टीका से मिलता है। सोमेश्वर ने भी “काव्य-प्रकाश" की टीका में इसका निर्देश किया है। __ “तच्च भट्टतौतेन काव्यकौतुके अभिनवगुप्तश्च तद्वृत्तौ निर्णीतम्’। अभिनव ने भी लोचन में इनके पद्यांश को उद्धृत किया है।” यदुक्तमस्मदुपाध्याय-भट्टतौतेन “नायकस्य कवेः श्रोतु : समानोऽनुभवस्ततः।२।। इससे ज्ञात होता है कि “काव्यकौतुक” में काव्य तथा रस संबधी विवेचन था। यह ग्रन्थ पद्यात्मक तथा रस विषय में गद्यात्मक था। इससे अधिक कुछ ज्ञात नहीं होता। १. संकेत टीका। सं.का. शा.का इतिहास पृ. १०२ टिप्पणी २. ध्व, लो. लोचन पृ. ६२ HORRAHASHODREATME आनन्दवर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक, कुन्तक १७७
कुन्तक
काव्यशास्त्र के इतिहास में “वक्रोक्तिजीवितकार के नाम से प्रसिद्ध आचार्य “कुन्तक" वक्रोक्ति-सिद्धान्त के प्रवर्तक हैं। इन्होंने वक्रोक्ति को ही काव्य का जीवनाधायक तत्त्व सिद्ध किया है। इसीलिए इनके ग्रन्थ का नाम “वक्रोक्तिजीवित" है। पहले इस ग्रन्थ के कुछ उद्धरण ही उपलब्ध होते थे, जैसे “महिमभट्ट” के “व्यक्तिविवेक’ में विद्याधर की ‘एकावली’ में (एतेन यत्र कुन्तकेन भक्तावन्तर्भावितो ध्वनिस्तदपि प्रत्याख्यातम् (एकावली पृ. ५१) नरेन्द्रप्रभसूरि के ‘अलंकारमहोदधि’ में ३ सोमेश्वर कृत ‘काव्यप्रकाश’ की टीका में, रूय्यककृत ‘अलंकार सर्वस्व’ में, विश्वनाथ कृत ‘साहित्यदर्पण में इसका उद्धरण या निदेश ही मिलता था। परन्तु डॉ. एस. के. डे ने दो अपूर्ण पाण्डुलिपियों के आधार पर इसे सम्पादित कर सर्वप्रथम सन् १६२३ में प्रकाशित किया। इसके पश्चात् इसका द्वितीयसंस्करण १६२८ तथा तृतीय संस्करण सन् १६६१ में प्रस्तुत किया। इन संस्करणों का विवेचन आगे किया जायेगा। . - जिससे यह ग्रन्थ सर्वसुलभ हुआ। यद्यपि यह ग्रन्थ अधूरा ही प्राप्त हुआ । परन्तु इसके उपलब्ध अंशों से “कुन्तक” की मौलिकता तथा सूक्ष्म विवेचन शैली का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है। इन्होंने सम्पूर्ण काव्यतत्त्वों को वक्रोक्ति में ही समाहित कर लिया है।
कुन्तक का काल
आचार्य “कुन्तक” (या कभी कभी कुन्तल भी) का एक ही ग्रन्थ “वक्रोक्तिजीवित” है, वह भी अपूर्ण । ग्रन्थ के प्रारम्भ में “कुन्तक" ने अपने संबंध में कुछ भी नहीं बताया है। ग्रन्थ यतः पूरा उपलब्ध नहीं है अतः अन्त न होने से उनके विषय में कुछ ज्ञात नहीं है। प्रथम उन्मेष के अन्त में अपना और अपने ग्रन्थ का केवल इतना ही परिचय ग्रन्थकार ने दिया है इति श्री राजानककुन्तक -विरचिते वक्रोक्तिजीविते काव्यालंकारे प्रथम उन्मेषः” इससे इतना ही पता चलता है। कि “काव्यालंकार विषयक ग्रन्थ के निर्माता “राजानक कुन्तक है। कुछ विद्वानों का मत है ग्रन्थ का नाम “काव्यालंकार” है और विषय का निर्देश १. “काव्यकाञ्चनकषाश्ममानिना कुन्तकेन निजकाव्यलक्ष्मणि “यस्य सर्व-निरवद्यतोदिता श्लोक एष स निदर्शितो मया”। (व्य.वि. २/२६) एतेन यत्र कुन्तकेन भक्तावन्तर्भावितो ध्वनिस्तदपि प्रत्याख्यातम् । (एका. पृ. ५१) ३. माधुर्य सुकुमाराभिधमोजो विचित्राभिधं तदुभयमिश्रत्वसम्भवं मध्यमं नाम मार्ग केऽपि बुधा : कुतु (न्त) कादयो अवदन्नुक्तवन्तः। यदाहुः सन्ति तत्र त्रयो मार्गाः कविप्रस्थान-हेतवः। सुकुमारो विचित्रश्च मध्यमश्चोभयात्मकः।। (अलं.महो. पृ. २०१-२०२) ४. सा.दर्प. प्र.प. १७८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र “वक्रोक्तिजीवित” से निर्दिष्ट है (अतः कुन्तक" के काल का निर्धारण अन्य ग्रन्थों के आधार पर ही अनुमित है।
“कुन्तक" के काल की पूर्व-सीमा
“कुन्तक” ने वक्रोक्तिजीवित" में ध्वन्यालोक की निम्नांकित कारिका उद्धृत की है: प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम्। यत्तत्प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवांगनासु ‘।। पुनः रसवदलंकार के प्रसंग में एक अन्य कारिका भी उद्धृत की है - PREETA प्रधानेऽन्यत्र वाक्यार्थे यत्रांगं तु रसादयः। काव्येतस्मिन्नलंकारो रसादिरिति मे मतिः।। इतना ही नहीं-उसकी वृत्ति में उद्धृत “क्षिप्तो हस्तावलग्नः इत्यादि तथा ‘किं हास्येन न में प्रयास्यति” आदि उदाहरणों का खण्डन किया है। इनके अतिरिक्त कुन्तक अन्यत्र अनेक प्रसंगों में ध्वन्यालोक के “वृत्त्यंश से उदाहरणादि दिये हैं। जैसे क्रिया-वैचित्र्यवक्रता” के उदाहरणार्थ ध्वन्यालोक वृत्ति के मंगल श्लोक “स्वेच्छाकेसरिणः" इत्यादि का निर्देश किया है। इन सब से निर्धान्त रूप से सिद्ध है कि “कुन्तक"-“ध्वन्यालोक” की कारिका और उसकी वृत्ति से पूर्णतः परिचित थे। साथ ही यह भी सिद्ध है कि “सवृत्ति ध्वन्यालोक” की रचना के परवर्ती हैं। । परन्तु इसके उपलब्ध अंशों से “कुन्तक” की मौलिकता तथा सूक्ष्म विवेचन शैली का पता चलता है। इन्होंने सम्पूर्ण काव्यतत्त्वों को “वक्रोक्ति” में समाहित कर लिया है। “कुन्तक" ने “आनन्दवर्धन" (८५० ई.) के ग्रन्थ “ध्वन्यालोक” की कारिका तथा वृत्ति-दोनों को उद्धृत किया है। साथ ही “राजशेखर" के ग्रन्थों का उद्धरण भी दिया है। १. ध्वन्यालोक- १/४ २. ध्वन्यालोक २/५ ३. क. ननु कैश्चित्प्रतीयमानं वस्तु लावण्यसाभ्यात् लावण्यमुत्पादितमिति प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्तिवाणीषु महाकवीनाम् । यत्त प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यभिवांगनासु" ध्वन्यालोक १/४, वक्रोक्तिजीवित प्रथमोद्योत पृ. १२० तथा प्राधान्येऽन्यत्र वाक्यार्थे" इत्यादि (ध्व.लो. २/५ वक्रो ३ उन्मेष पृ. ३१८ ख. “क्षिप्तो हस्तावलग्नः” तथा “किं हास्येन न मे प्रयास्यसि पुनः । व. जी. उन्मेष ३, ३१६-३२० (तथा स्वेच्छा केसरिण) वक्रो. जी. उन्मेष १, पृ.८ ४. “यथा बालरामायणे चतुर्थे अंके-लंकेश्वरानुकारी प्रहस्तानुकारिणा नटोनटेनानुवर्त्यमानः। तथा कर्पूर इव दग्धो ऽपिशिक्तिमान्यो जने जने। नमः श्रृंगारवीजाय तस्मै कुसुमधन्वने” (व.जी. उ. ४, ३६ पृ. ४३७) १७६ । आनन्दबर्थन से भट्टनायक और कुन्तक तक, कुन्तक आलोचना भी की है। अतः “कुन्तक” महिमभट्ट के पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। महिमभट्ट का समय एकादश शतक का अन्तिम भाग है। अतः राजशेखर (८८०-६२० ई.) के पश्चात् “महिमभट्ट” के पूर्व कुन्तक का समय अर्थात् दशमशतक का अन्त एकादश शतक का प्रारम्भ मानना उचित होगा। यही समय अभिनवगुप्त का भी है। अतः समसामयिक होते हुए भी कुन्तक अभिनव से ज्येष्ठ है। डॉ., मुखर्जी तथा डॉ. लाहिरी ने कुन्तक को अभिनव का पूर्ववर्ती स्वीकार किया है।’ “अभिनव कुन्तल के सिद्धान्त से (वक्रोक्तिजीवित से) परिचित थे, इसमें अनेक प्रमाण है। जैसे आचार्य आनन्दवर्धन ने ध्वन्यालोक में प्रतीयमान रूपक के उदाहरण रूप में “प्राप्त श्रीरेषकस्मात्” इस पद्य को उद्धृत किया है। “कुन्तक" ने इसे ही प्रतीयमान व्यतिरेक के उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया है, किन्तु आनन्द के मत को भी बड़ी श्रद्धा के साथ व्यक्त किया है-“तत्त्वाध्यारोपणात् प्रतीयमानतया रूपकमेव पूर्वसूरिभिराम्नाातम् । इस पर लोचन में अभिनव ने कहा है-“यद्यपि चात्रव्यतिरेकोभाति तथापि स पूर्ववासुदेवस्वरूपात् नाद्यतनात् । इससे स्पष्ट है अभिनव, कुन्तक के अभिप्राय को व्यक्त करते हुए आनन्दवर्धन का समर्थन कर रहे हैं। __ सक् चन्दानादिशब्द जहाँ शृंगाराभिव्यञ्जक नहीं है। वहाँ भी अर्थ को सुन्दर बना देते हैं। क्योंकि इनकी व्यञ्जकत्व शक्तिश्रृगांरादि स्थलों में देखी गयी है उसी वासना से सहृदयों को दूसरे अर्थ में भी सुन्दर लगते हैं। इसी उक्ति के समर्थन में अभिनव कहते है-“तथा हि तटीतारं ताम्यति” इत्यत्र तटशब्दस्य पुंस्त्वनपुंसकत्वे अनादृत्य स्त्रीत्वमेवाश्रितं सहृदयैः “स्त्रीति नामाऽपि मधुरमितिकृत्वा”। यह अभिनव की उक्ति “कुन्तक" की “नामैव स्त्रीति पेशलम्” इस कारिका की व्याख्या है।६ “कुन्तक” ने इसी कारिका की वृत्ति में “तटीतारं ताम्यति” इस अंश वाले १. राधेश्याम मिश्र द्वारा व्याख्यात वक्रोक्तिजीवित की भूमिका पृ. १० २. ध्व. लो. २/पृ. २६ । ३. व.जी. ३/पृ. ३८६ ४. ध्व.लो. लोचन पृ. २६२ ५. ध्व. लो.लोचन पृ. ३५६ ६. “सति लिंगान्तरे” स्त्रीलिंग च प्रयुज्यते। शोभा निष्पत्तयेयस्मान्नामैव स्त्रीति पेशलम्"। वक्रोक्तिजीवितम् २/२२ ७. यथेयं ग्रीष्मोष्मव्यतिकरवती पाण्डुरभिदा मुखोभिन्नल्मानानिलतरलवल्ली किसलया। तटीतारं ताम्यत्यतिशशियशाः कोऽपिजलद-स्तथा मन्ये भावी भुवनवलयाक्रान्तिसुभगा।। व. जी. २/७६ वृ. पृ. २४१ .-.—-…—-..
१८० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र पद्य को उद्धृत किया है। और वृत्ति में कहा है “अत्र त्रिलिंगत्वे सत्यपि तटशब्दस्य सौकुमार्यात् स्त्रीलिंगमेव प्रयुक्तम्"" “अभिनव भारती” में नाम, आख्यात, उपसर्ग आदि के वैचित्र्य का प्रतिपादन करते हुए विभक्तिवैचित्र्य की व्याख्या में “अभिनव ने” कहा है “अन्यैरपि सुबादिवक्रता"३। वहीं पाण्डिम्निग्नंवपुः यह उदाहरण दिया है। इसे “कुन्तक" ने भी उद्धृत किया है। वचन-वक्रता का उदाहरण अभिनव ने “त्वं हि रामस्य दाराः वहीं दिया है। “कुन्तक” ने लिंग वैचित्र्य वक्रता के उदाहरण में “मैथिली तस्य दाराः” यह उदाहरण दिया है। इससे स्पष्ट है। कि “अभिनव” को “वक्रोक्तिजीवित” का सम्यक् ज्ञान था। अतः “कुन्तक” अभिनव से पूर्ववर्ती हैं। परन्तु डॉ. संकरन, डॉ. डे, डॉ. राघवन, डॉ. काणे ने कुन्तक को अभिनव से पूर्ववर्ती स्वीकार नहीं किया है। डॉ. संकरन का तर्क है कि अभिनव ने जो “अन्यैरपि सुबादिवक्रता” कहा है। वहाँ अन्यैः पद से हम कुन्तक का ही ग्रहण नहीं कर सकते क्योंकि वक्रोक्तिजीवित में “सुबादिवक्रता” शब्दों से कोई कारिका प्राप्त नहीं होती। इस पर राधेश्याम मिश्र का कथन है कि डॉ. साहब का यह कथन सुविचारित नहीं हैं। अभिनव ने “सुबादिवक्रता” शब्द से किसी कारिका की ओर निर्देश नहीं किया है, वरन् विषय की ओर निर्देश किया है, यदि कारिका का निर्देश करना होता तो वे कहते “अन्यैरपि सुबादिवक्रतेत्यादि। वस्तुतः अभिनव ने जो “सुबादिवक्रता” शब्द कहा वह “वक्रोक्ति की ओर ही निर्देश करता है, ‘अन्यैः’ शब्द से कुन्तक ही उन्हें अभिप्रेत हैं, दूसरे किसी आचार्य ने वक्रता का प्रतिपादन कुन्तक जैसे विशद रूप में नहीं किया है। ये उदाहरण भी मिलते-जुलते यही निर्देश देते हैं। कि वे “कुन्तक” की वक्रोक्ति से पूर्ण परिचित थे। “कुन्तक” राजानक उपाधि से विभूषित थे, अतः ये काश्मीरी थे। अब रही बात डॉ. डे की यदि “कुन्तक” का वक्रोक्तिसिद्धान्त अभिनव के पहले प्रचलित था तो ध्वनि १. व.जी. २/पृ. २४२ २. नामाख्यात-निपातोपसर्ग. ना. शा. १४/४ अभिनव भारती पृ. २२७-२२६ “विभक्त्यः सपतिवचनानि तैः कारकशक्तयो लिंगाद्युपग्रहाश्चोपलभ्यन्ते। यथा पाण्डिम्निमग्नंवपुः। इति वपुष्येव मज्जनकर्तृत्वं तदायत्ता पाण्डिम्नश्चाधार तां गदस्थनीयतां द्योतयन्नतीव रञ्जयति न तु पाण्डुस्वभावं वपुरिति । एवं कारकान्तरेषु वाच्यम् । वचनं यथा “पाण्डवा यस्य दासाः” सर्वे च पृथक् चेत्यर्थः। तथा वैचित्र्येण “त्वं हि रामस्य दाराः” । एतदेवोपजीव्यानन्दवर्धनाचार्येणोक्तं सुपतिवचनेत्यादि। अन्यैरपि सुबादिवक्रता। ४. वृत्तिवैचित्र्यवक्रता का उदाहरण व.जी. १/५३ पृ. ७४ ५. व.जी. पृ. ७६/१, ५६ ६. व.जी. की भूमिका राधेश्याम मिश्र पृ. १२-१३ ७. व.जी. की भूमिका राधेश्याम मिश्र पृ. १३ आनन्दवर्धन से भट्टनायक और कुन्तक तक, कुन्तक १८१ समर्थक “अभिनव” ने उसकी आलोचना क्यों नहीं की? वस्तुतः “कुन्तक” ने ध्वनि-सिद्धान्त का खण्डन नहीं किया है, प्रत्युत ध्वनि को और सभी ध्वनि-भेदों को स्वीकार किया है, केवल उन्हें “वक्रोक्ति” नाम दे दिया है। अभिधा, लक्षणा से भिन्न व्यञ्जना को भी “प्रसद्धिाभिधानव्यतिरेकिणी विचित्रैवाभिधा” कहकर स्वीकार ही किया है। अतः इनका ध्वनि-सिद्धान्त से विरोध नहीं है प्रत्युत इन्होंने ध्वनि सिद्धान्त को अपनाया है। इनकी विशेषता यह है कि सभी काव्य प्रस्थानों, अलंकार, गुण, (व्यंग्य प्रतीयमान अर्थ व्यञ्जना ध्वनि आदि सबकों इन्होंने वक्रोक्ति (वक्रता) शब्द से ग्रहण कर लिया है। इनका प्रतिपादन भी ध्वन्यालोक से प्रभावित है यह सर्वविदित है। जिस वक्रोक्ति का निरूपण इन्होंने किया है उसका बीज “भामह" के “काव्यालंकार” में है। वह अंकुरित ध्वन्यालोक में हुआ है। उसी को कुन्तक ने प्रकाण्ड, शाखा, पुष्प पलाश फल आदि से सम्पन्न किया है। विरोध कहा है ? अतः इनका ध्वनिसिद्धान्त से विरोध नहीं है। उसे इन्होंने “वक्रता शब्द से ग्रहण किया है। नाममात्र के विवाद की आलोचना करना “अभिनव" ने आवश्यक नहीं समझा। अतः इस सिद्धान्त की उन्होंने आलोचना नहीं की, प्रत्युत “कुन्तक” को भी ध्वनि सिद्धान्तानुयायी मानकर सम्मान दिया “अन्यैः” शब्द में बहुबचन का प्रयोग कर।’
वक्रोक्तिजीवित का प्रतिपाद्य
(१) शब्द और अर्थ, (२) साहित्य, (३) वक्रकविव्यापार, (४) बन्ध और (५) तद्विदाह्लादकारित्व इन पाँच तत्वों का जो काव्य लक्षण में आये है। व्याख्यान किया गया है। कविव्यापार वक्रता का छ: भेद मुख्य है-(१) वर्णविन्यासवक्रता, (२) पदपूर्वार्धवक्रता (३) प्रत्ययाश्रयवक्रता, (४) काव्यवक्रता, (५) प्रकरणवक्रता (६) प्रबन्धवक्रता इनके अवान्तर भेद भी अनेक हैं। इन छ: वक्रताओं का सामान्यवर्णन प्रथम उन्मेष में है। विशेष वर्णन द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ उन्मेष में है। (उपयुक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए “कुन्तक" का काल निर्धारित किया गया है। कान्तिचन्द्र पाण्डेय के शोधप्रबन्ध में उनकी रचनाओं की समय-सीमा ६६०-६६१ ई. से ६६० ई. के मध्य निर्धारित की गई है। और महा. म.डॉ. मिराशी ने राजशेखर के बाल-रामायण की रचना का समय ६१० ई. के आसपास निर्धारित किया है।) (व.जी. पृ. ४८ (२) शब्दार्थों सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनि । बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाह्लादकारिणि ।। व.जी. १/७) साथ ही उन्होंने “राजशेखर" के अन्य ग्रन्थों-“बालभारत", कर्पूरमंजरी, “विद्धशालभंजिका” और काव्यमीमांसा आदि का समय भी (स्टडीज इंडालजी वाल्यू।) में “बालभारत” का रचनाकाल ६१५ ई.। इसी प्रकार अन्यग्रन्थों के समय का निर्धारण किया है।
१. व.जी. पृ. ४८ २. शब्दार्थों सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनि। बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाहलादकारिणि ।। व.जी. १/७ १८२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अतः अभिनवगुप्त के पूर्व-उनसे २५-३० वर्ष पहले राजानक “कुन्तक” का काल ६२५ ई. के आसपास माना जा सकता है। तब तक “राजशेखर” के पूर्वोक्त ग्रन्थ प्रसिद्ध हो चुके रहे होगें। यह सब अनुमान ही है। पर अनुमान के आधार ठोस है।
“वक्रोक्तिजीवित" के संस्करण
पहले कहा जा चुका है यह ग्रन्थ पहले उपलब्ध नहीं था। साहित्यशास्त्र के अनेक ग्रन्थों के केवल इसके उद्धरण मिलते थे। यह ग्रन्थ-वक्रोक्तिजीवितम्" काव्यालंकार विषयक था उसकी पुष्टि हुई। __ “वक्रोक्तिजीवित” का जो प्रथम अपूर्ण संस्करण डॉ. एस. के. डे, ने दो पाण्डुलिपियों के आधार पर १६२३ ई. में संपादित किया उसमें प्रथम दो उन्मेष थे। इसका द्वितीय संस्करण डॉ. डे ने पुनः १६२८ में संपादित कर प्रकाशित किया। इसमें तृतीय उन्मेष के कुछ अंश थे। इसके साथ-साथ उसके आगे के शेष-भाग के कतिपय अंश संपादित करने में, उनकी मूल पाण्डुलिपि अत्यन्त भ्रष्ट होने के कारण अपनी असमर्थता सूचित की थी। फिर भी पूर्वापरसंगति को आधार मानकर केवल अतिसंक्षिप्त (चतुर्थ उन्मेष की) विवेचना अवश्य कर दी थी। इसका तृतीय संस्करण “डॉ. डे" के ही द्वारा १६२८ ई. में पुनः प्रकाशित एवं संपादित किया गया। परन्तु उसमें यद्यपि द्वि.सं. की अपेक्षा कोई परिवर्तन परिवर्धन नहीं था-परन्तु आगे के अंश का संक्षिप्त विवेचन तो था ही साथ ही-उसमें मूल पाण्डुलिपि के स्थान पर स्वयं भी पाठों में यत्र तत्र परिवर्तन किया था। इनमें पाण्डुलिपियों के पाठ पाद टिप्पणी में मूल रूप से उद्धृत थे। __डॉ. डे के द्वारा संपादित उपुयक्त तीनों संस्करणों के अतिरिक्त “हिन्दी अनुसंधान परिषद् ग्रन्थमाला" में आचार्य विश्वेश्वर (सिद्धान्त शिरोमणि) की हिन्दी व्याख्या और दिल्ली विश्वविद्यालस हिन्दी विभागाध्यक्ष द्वारा लिखित भूमिका के साथ १६५५ ई. में प्रकाशित हुआ। इसमें “आचार्य विश्वेश्वर” ने जिस “वक्रोक्तिजीवितम्” को अपनी हिन्दी व्याख्या के सहित प्रकाशित किया था उसके आधार का कोई भी उल्लेख या निर्देश नहीं था। इसके विषय में डॉ. पी.वी. काणे ने (एच.एस.पी. फूटनोट, १ पृ. २१५-६) अपनी टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए कहा है: __ “आधुनिक हिन्दी में अनुवादयुक्त वक्रोक्तिजीवित” के चार उन्मेष वाला एक उत्तम संस्करण-दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ. नगेन्द्र की विस्तृत भूमिका (प्रस्तावना) के साथ १८३ आनन्दबर्थन से भट्टनायक और कुन्तक तक, कुन्तक प्रस्तुत किया गया है। जिसमें अनेक अशुद्ध पाठ हैं। इस संबंध के अनेक हस्तलेख हैं- पर (आचार्य-विश्वेश्वर ने यह नहीं बताया है कि किसके आधार पर यह संस्करण प्रकाशित है)’ __ “आचार्य विश्वेश्वर" के संस्करण का अध्ययन करने से लगता है कि डॉ. डे के तृतीय संस्करण के आधार पर ही वह प्रकाशित किया गया है, जैसाकि डॉ. काणे ने लिखा है-तदतिरिक्त अन्य कोई हस्तलेख उसका आधार नहीं है। “आचार्य” के अनेक अंशों के अध्ययन से ज्ञात होता है। कि उसमें अनेकत्र मनमानी भी की गयी है। इनके अतिरिक्त “श्री राधेश्याम मिश्र” ने भी “प्रकाशाख्य” टीका (हिन्दी व्याख्या) के साथ एक संस्करण प्रकाशित किया है। उसके अनेक संस्करण प्रकाशित हुए। वह लोकप्रिय हुआ। उसका पंचम संस्करण १६६० ई. का हमारे सामने है। उन्होंने स्वयं लिखा है “हमारे संस्करण का आधार पूर्णरूप से डॉ. डे का संस्करण है। हमने जहाँ कहीं परिवर्तन किया है। वह डॉ. डे के द्वारा उद्धृत पादटिप्पणी के आधार पर ही। इसके लिये हम “डॉ डे” सााहब के हृदय से आभारी हैं। यद्यपि डॉ. डे साहब का संस्करण बहुत ही विद्वत्तापूर्ण ढंग से संपादित किया गया है, फिर भी यत्र तत्र कुछ पाण्डुलिपियों के अंश संगत न लगे होगें जिनके स्थान पर उन्होंने अपनी ओर से पाठ दे दिया है। उनमें से जो अंश यहाँ हमें संगत प्रतीत हुए उनका मूलपाठ पाण्डुलिपि के आधार पर परिवर्तित कर दिया है। “वक्रोक्तिजीवितम्” (श्री राधेश्याम मिश्र, एम. ए.) (भूमिका-प्रस्तुत संस्करणं का महत्व पृ. ६६, पंचम संस्करण) निष्कर्ष (वक्रोक्तिजीवितम् के संस्करणों के संदर्भ में (उपर्युक्त विवरण से ज्ञात होता है इसके तीन संस्करण डॉ. डे ने क्रमशः-सन् १६२३ ई., सन् १६२८ तथा सन् १९६१ ई. में संपादित और प्रकाशित किया। सन् १६५५ ई. में आचार्य विश्ववेश्वर (सिद्धान्तशिरोमणि) का हिन्दी-अनुवाद डॉ. नगेन्द्र की विस्तृत प्रस्तावना (भूमिका) सहित प्रकाशित हुआ। श्री राधेश्याम मिश्र, एम.ए. का प्रथम संस्करण कब मुद्रित हुआ-यह तो मैं नहीं जान पाया। पंचम संस्करण सन् १६६० ई. में प्रकाश में आया। इसे देखने से लगता है कि प्रथम और पंचम संस्करण तक इसमें कोई परिवर्तन या परिवर्धन नहीं हुआ है। १. एन् एक्सलैंट एडिशन आफ दि फोर उन्मेष आफ दि वक्रोक्तिजीवित, विथ ए मार्डन हिन्दी कमेंटरी बाई आचार्य विशेश्वर एंड एक्साटिव इन्ट्रोडक्शन इन हिन्दी हैज बीन पब्लिशडरीसेंटली वाई डॉ. नगेन्द्र आफ दिल्ली यूनिवर्सिटी देयर आर शाटएवर मेनी मिसप्रिंट एण्ड इट नाटक्लियर ऑन व्हिच मैनस्क्रिप्ट्स आर एडिशन दि टेक्सर इन बेस्ट ….. .. “HTHANEEMERCEN T १८४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र