०५ भट्टि से वामन तक

भट्टि

यद्यपि अलंकार शास्त्र के इतिहासग्रन्थों में प्रायः भट्टि कवि का नाम प्रधानतः अलंकारशास्त्री अथवा आलंकारिक के रूप में उल्लिखित नहीं मिलता, तथापि उनमें (अलंकारशास्त्र के इतिहासों में) उनका स्मरण इसलिए आवश्यक है कि उन्होंने अपनी कृति में ३८ विभिन्न जातीय अलंकारों के उदाहरण प्रस्तुत किए है। उन उदाहरणों से अलंकारों के संख्यापरक विकास का पता चलता है। डॉ. सुशील कुमार दे ने अपने “संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास” में प्रसंगतः मूल और पाद टिप्पणी में इनका उल्लेख किया भी है। औरों ने भी किया है, पर प्रसंगतः ही। व्याकरणशास्त्र से हमारे आलंकारिकों ने प्ररेणाग्रहण की है और रचनाकारों ने सामग्री ली है। साहित्य को व्याकरण की प्रयोगशाला कहा जाता है। “ध्वनिवादी” आचार्यों ने ‘बुध’ या वैयाकरणों द्वारा समाम्नात स्फोट सिद्धान्त में ‘ध्वनि’ तत्त्व का संकेत प्राप्त किया था। महाकवि भट्टि निष्णात वैयाकरण थे। अतः लक्षणानुसारी प्रयोगों में उन्होंने अपनी चरितार्थता अनुभव की। एक ओर व्याकरणशास्त्र के लक्षणानुसारी प्रयोग और दूसरी और आलंकारिकों के अलंकार लक्षणों के अनुरूपउदाहरणों की इस महाकवि ने सृष्टि की। इतिहास में इस कवि का उल्लेख कई भिन्न-भिन्न नामों से पाया जाता है- भट्टि, भटिस्वामी, स्वामिभट्ट, भट्टपाद और भर्तृहरि भी। जयमंगल और मल्लिनाथ ने अपनी टीकाओं में इसे भट्टिनाम से ही स्मरण किया है। नारायणभट्ट, कन्दर्पचक्रवर्ती तथा भरतमल्लिक ने अपनी-अपनी टीकाओं में भर्तृहरि नाम से ही स्मरण किया है। कतिपय विद्वान् वाक्यपदीयकारभर्तृहरि से इन्हे अभिन्न समझते है और कतिपय भिन्न। विद्वद्वर दर्शनकेशरी ने प्रस्तावना में स्पष्ट उद्घोष किया है कि इस भट्टिमहाकाव्य का प्रेणता भट्टि है और इसी का दूसरा का नाम है-भर्तृहरि। पर दूसरे लोग स्पष्ट ही इन्हें प्रसिद्ध वाक्यपदीयकारभर्तृहरि से भिन्न समझते है। वस्तुस्थिति यह है कि भट्टि महाकाव्यप्रणेता महाकावि भट्टि ने स्वयं लिखा है “काव्यमिदं विहितं मया वलभ्यां श्रीधरसेननरेन्द्रपालितायाम्। कीर्तिरतो भवतान्नृपस्य तस्य, प्रेमकरः क्षितिपो यतः प्रजानाम् ।।” अर्थात यह काव्य श्रीधरसेन नरेन्द्र द्वारा पालित “वलभी” देश में मेरे द्वारा प्रणीत हुआ है। चुंकि वह राजा प्रजारंजनरत है- अन्वर्थनामा है- अतः उसका यश बना रहे, बढ़ता रहे। कुछ लोग भट्टि को भर्तृ का अपभ्रंशरूप मानते हैं- पर इसकी कोई

….- ust ruN u manduraisi—-mobimuslimensisiride Anta- meenakalinsaninindinanciatina tionalitimininiband भट्टि से वामन तक १११ प्रामाणिकता नहीं प्राप्त होती। दूसरे, यह भी कि एक का संबंध बलभी और दूसरे का उदयिनी से है। तीसरे, यह कि भर्तृहरि ने “आहध्वं वा रघूत्तमम्"-भट्टि के इस प्रयोग में प्रमाद भी लक्षति किया है। स्वयं ही कर्ता अपना प्रमाद कैसे अनावृत करेगा ? इस श्लोक से कई समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं। पहली समस्या पाठभेद की है। “श्रीधरसे ननरेन्द्र पालितायाम्” का पाठान्तर “जयमंगला” में मिलता है “श्रीधरसूनुनरेन्द्रपालितायाम्” । इस पाठान्तर से समस्या यह उपजती है कि जिस बलभी में यह काव्य लिखा गया वह श्रीधरसूनु नरेन्द्र से पालित थी अथवा श्रीधरसेन नरेन्द्र से ? पाठालोचन की वस्तुनिष्ठ परीक्षण-पाद्धति से देखने पर पहला पाठ ही प्रामाणिक प्रतीत होता है। इतिहास भी किसी श्रीधरसूनु-नरेन्द्र के विषय में मौन है। दूसरी समस्या यह अवश्य उत्पन्न होती है कि यह “श्रीधरसेन” कौन सा श्रीधरसेन है? पाँचवी शताब्दी के तीसरे चरण के अन्त में गुप्तवंश के विघटन का लाभ उठाकर संभवतः उन दिनों “सौराष्ट्र” के सेनापति एवं शासक ‘भटार्क’ ने उस सीमावर्ती प्रदेश में स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली हो। उसकी यह सफलता मैत्रक राजवंश की स्थापना में सहायक हुई और उसके वंशजों ने उसके भटार्क विरुद को अपने अभिलेखों और सिक्कों में अंकित कर उसे अमर बना दिया हो। स्वतंत्र शासक होने पर भी उसने अपनी ‘सेनापति’ उपाधि ही बरकरार रखी। सौराष्ट्र का स्वतंत्र शासक होने पर इसने वलभी नगर की स्थापना की और गिरिनगर से इस नए नगर में अपनी राजधानी स्थानान्तरित कर ली। इसने पाँचवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में राज्य किया। भटार्क के चार पुत्र थे-१. धरसेन प्रथम (४३६-६६) २. द्रोणसिंह, ३. ध्रुवसेन प्रथम (५११-४६) तथा ४. धरपट्ट का पुत्र एवम् उत्तराधिकारी था गुहसेन (५५३ ई.-६६ ई.) धरसेन द्वितीय इसी गुहसेन का उत्तराधिकारी था। इस धरसेन द्वितीय का पुत्र और उत्तराधिकारी था- शीलादित्य प्रथम। इस शीलादित्य प्रथम का पुत्र और उत्तराधिकारी हुआ- खरग्रह प्रथम। इसे ईश्वदग्रह भी कहा जाता था। धरसेन तृतीय का अनुज था ध्रुवसेन द्वितीय (६२४-४४)। धरसेनचतुर्थ ध्रुवसेन द्वितीय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था। इस प्रकार चार श्री धरसेन इस वंश में मिलते हैं। इनसे वह नगरी अर्थात वलभी पालित थी। इनमें से किसकी राजसभा का भट्टि अलंकरण था-यह विचारणीय है। चतुर्थ श्री धरसेन का शासनकाल इतिहासकारों ने ६४४ से ६५० ई. के बीच माना है। कारण, इसके शासनकाल के ताम्रपत्र वलभी सं. ३२६ (६४५ ई. से ३३० ई.) के बीच के हैं। इसके उत्तराधिकारी की प्रथमज्ञात तिथि वलभी सं. ३३२ (६५१ ई.) है। अतः इसका शासनकाल, जैसा कि ऊपर कहा गया है, ई. ६४४ से ई. ६५० है। मैत्रक राजवंश का यह सर्वाधिक शक्तिशाली नरेश इसलिए प्रतीत होता है कि इसने “परमभट्टारक, महाराजाधिराज परमेश्वर तथा चक्रवर्तिन्”- जैसी उपाधियाँ धारण की। कतिपय इतिहासविद् धरसेन चतुर्थ ११२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र को हर्ष का दौहित्र मानते हैं। यह “हिस्ट्री आफ सौराष्ट्र” (पृ.६० टिप्पणी १-२) के साक्ष्य पर “गुप्तोत्तरकालीन राजवंश” के लेखक डॉ. रामवृक्ष सिंह ने माना है कि संभवतः इसी के शासनकाल में भट्टि ने प्रस्तुत ग्रंथ (रावणवध या भट्टिकाव्य) की रचना की हो। ‘भट्टिकाव्य’ के टीकाकार श्री चन्द्रमौलि द्विवेदी ने इसके विपरीत दो मत रखा हैं- एक इसे श्रीधरसेन द्वितीय का और दूसरा श्रीधरसेन प्रथम का समसामयिक मानते हैं। श्रीधरसेन द्वितीय के पक्षधर तर्क देते हैं कि उसके एक शिलालेख में भट्टिनामक किसी विद्वान् को भूमिदान किया गया है। श्रीधरसेन प्रथम के पक्षधरों का तर्क सुपुष्ट नहीं है। इन लोगों का पक्ष यह है कि श्रीधरसेन प्रथम के ताम्रपत्र में लिखा है-‘दीनानाथोपजीव्यमानविभवः परमाहेश्वरः सेनापतिर्धरसेनः’ और भट्टि ने अपने महाकाव्य में इसी आशय की पुष्टि करते हुए लिखा है- ‘प्रेमकरः क्षितिपः यतः प्रजानाम्’। पर यह तर्क असाधारण रूप से श्रीधरसेन प्रथम पर ही लागू नहीं होता। यह विशेषता किसी भी प्रजापालक राजा की हो सकती है। डॉ. के. एम. मुंशी के निर्देशन में लिखी गई ‘दि क्लासिकल एज’ नामक पुस्तक (तृतीय वाल्यूम) के पंद्रहवे अध्याय में भी प्रसंगतः कविवर्य भट्टि का प्रसंग आया है। वहाँ सातवीं शती की सांस्कृतिक गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए उस अवधि के काव्यों, कवियों और उनकी प्रवृत्तियों पर भी प्रकाश डाला गया है। उन्होंने कहा है कि “जानकीहरण” सेनापतिभटार्क (संस्थापक) धरसेन प्रथम द्रोणसिंह ध्रुवसेन प्रथम धरपट्ट गुहसेन धरसेन द्वितीय शीलादित्य प्रथम खरग्रह प्रथम देरभट्ट शीलादित्य ध्रुवसेन द्वितीय खरग्रह द्वितीय धरसेन तृतीय ध्रुवसेन तृतीय धरसेन चतुर्थ SH ११३ भट्टि से वामन तक ‘जानकीहरण’ के प्रेणता ‘कुमारदास’ से कुछ पहले भट्टि की स्थिति मानी जा सकती है। फलतः अन्तिम श्रीधरसेन का समसामयिक माना जाय, तो भट्टि का समय ६४८ या ६५ ई. के आसपास हो सकता है। इन्होंने किसी पुष्ट तर्क का प्रयोग नहीं किया। ‘जयमंगला’ नामक टीका में ‘भट्टि’ के पिता का नाम दिया हुआ है- ‘श्री स्वामी’ जबकि टीकाकार ‘विद्याविनोद’ ने उनके पिता को ‘श्रीधरस्वामी’ कहा है। भट्टि-काव्य की कतिपय पांडुलिपियों में स्वयं ग्रंथकार का नाम दिया है- “भट्ट स्वामी’ कहीं-कहीं पांडुलिपियों में ‘भर्तृ’ नाम भी मिलता है और कहा जाता है कि ‘भट्टि’ उसी का अपभ्रष्टरूप है। रामवर्मा रिसर्च इंस्टीच्यूट की बुलेटिन के तेरहवें खंड (जो १६४६ का है) पृष्ठ संख्या २३-२४ में कहा गया है कि मलयालम लिपि में त्रिचूर में प्राप्त अनेक पांडुलिपियों में ‘भर्तृकाव्य’ संज्ञा है। म.म.पी.वी. काणे का मत है कि धरसेन द्वितीय अपने को ‘महाराजाधिराज’ (मुहर पर) पदवी से विभूषित करता है (बम्बई विश्वविद्यालय के जर्नल के तीसरे खंड के प्रथमभाग के पृष्ठ ७४ पर लिखे गए श्री गद्रे का लेख-पाँच वलभी के दान-पत्र देखें)। पाँचवा पत्र (प्लेट) दिविस्पति भट्टि के पुत्र स्कन्ध भट्ट द्वारा लिखा गया है। धरसेन चतुर्थ अपने आपको ‘महाराजाधिराज परमेश्वर चक्रवर्ती’ कहता है (देखिए आई.ए.एल. १५ पृ. ३३५ वलभी सं. ३३०ई. ६६४)। चूँकि भट्टि अपने काव्य के उपर्युक्त श्लोंक में बड़े सीधे सादे ढंग से श्रीधरसेन को केवल भरेन्द्र कह कर स्मरण करता है इससे स्पष्ट होता है कि उसका श्रीधरसेन, इन उपाधियों से रहित प्रथम श्रीधरसेन है। वलभी के दानपत्रों में इसे केवल सेनापति विशेषण से स्मरण किया गया है। (देखिए आई. ए.वाल्यूम ४ पृ.६, धरसेन द्वितीय का दानपत्र)। (वलभी सं. २६६ ई. ५८८) जबकि इसके छोटे भाई द्रोणसिंह, तथा धरभट्ट ‘महाराज’ कहे गए हैं और धरसेन द्वितीय ‘महासामन्तमहाराज’ कहा गया है। ध्रुवसेन के पालीटेना प्लेट में (धरसेन प्रथम का छोटाभाई ई.आर. वाल्यूम चार पृष्ठ. १०६) और उसी के भावनगर वाले प्लेट में (ई.आर.वाल्यूम १५ पृ. २५५) उसे ‘महासामन्त महाराज ध्रुवसेन’ कहा गया है। दोनों ही वलभी सं. २१० (ई. ५२६) में हैं। उसी के एक दूसरे दानपत्र में (वलभी सं. २१५ ई. ५३६) उसे ही ‘महाप्रतीहार महादण्डनायक महाकार्तावृतिक महासामन्त- कहा गया हैं (जे.आर.ए.एस. १८६५ पृ.३७६)। इनकी व्याख्या के लिये एच.आफ वाल्यूम तृतीय क्रमशः पृष्ठ सं. ६६६, ६६५, १००० देखें। ध्रुवसेन प्रथम के बड़ेभाई धरसेन प्रथम के उत्तराधिकारी द्रोणसिंह के दानपत्र की तिथि है- गुप्त सं. १८३ अर्थात ५०ई. । इसलिए धरसेन प्रथम निश्चय ही इससे पहले गद्दी पर आ चुका होगा। धरसेन द्वितीय का राज्यकाल लम्बा है ५६६-५६६ । धरसेन चतुर्थ का सबसे बाद वाला दानपत्र ३३२ वलभी सं. का है- ई. ६५१ का। इसलिए यदि भटि धरसेन प्रथम का समसामयिक रहा- तो उसे ई. ५०० के बाद का ही माना जा सकता है और यदि धरसेन द्वितीय का समसामयिक माना जाय तो ६००ई. के बाद का ११४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र नहीं माना जा सकता। यदि वह धरसेन चतुर्थ के समय का भी माना जाय तो भी उसका साहित्यिक कार्यकाल ६५० के बाद का नहीं। फलतः यही मानना ठीक है कि वह धरसेन प्रथम के काल में था। अर्थात् ई. ५०० से कुछ पूर्वः अथवा अधिक से अधिक धरसेन द्वितीय के समय का मानें तो ५७०-६०० के बीच समय होगा। वलभी के दानपत्रों में जो भट्टि नाम मिलता है- वह संभवतः प्रतिगृहीता दिविस्पतिभट्ट या राजस्थानीय भट्ट के लिए है (देखिए आई.ए.वाल्यूम ४ पृ १२१ ध्रुवसेन या बालादित्य का दानपत्र, दिविस्पतिवत्सभट्टि के लिए है) जे. आर.ए.एस. १८६५ पृ. ३६७ (२१७ वलभी संवत् ई. ५३६)। प्रो. काणे ने धरसेन प्रथम के समसामयिक माने जाने वाले पक्ष का ही संभवतः समर्थन किया है (देखिए, जे.आर.ए.एस. १६०९ पृ. ४३५)। नाट्यशास्त्र से भट्टिकाव्य की दूरी काफी जान पड़ती है। कारण, नाट्यशास्त्र में चार ही अलंकार हैं जबकि भट्टिकाव्य में ३८ अलंकार है नाट्यशास्त्रकार की अपेक्षा भट्टि भामह और दण्डी के अधिक नजदीक है। इन लोगों में संख्या की लगभग समानता है। इनमें अलंकारों का व्यवस्थित और तर्कसंगत उपस्थापन भी है। यह कहना समीचीन नहीं होगा कि भट्टि जितने अलंकार जानता था, सबको उपस्थापित और उद्धृत उसी प्रकार नहीं करता जैसे पाणिनि के सूत्रों को। पाणिनि के सभी सूत्र उसे ज्ञात हैं, पर उदाहरण सबके नहीं दिये हैं, व्याकरण-सूत्रों और अलंकार-लक्षणों में यह समानता कल्पित करना ठीक नहीं। कारण, सूत्र तो ज्ञात हैं, यह सही है, पर भामह और दण्डी तक अलंकार प्रकल्पन की संख्या लगभग चालीस से अधिक नहीं बढ़ पाई है। आठवीं शती तक अलंकारों की यही संख्या है। अतः स्पष्ट है कि भट्टि ने अपने समय तक ज्ञात प्रायः सभी अलंकारों को लक्षण उदाहरणसहित प्रस्तुत किया है। भट्टि-काल निर्णय के संदर्भ में प्रो. काणे ने एक बात और कही है। उसके विषय में भट्टि पर लिखने वाले प्रायः मौन हैं। उनका कहना है कि पाणिनि सूत्रों पर जयादित्य और वामन द्वारा की गई ‘काशिका’ नामक टीका के प्रास्ताविक श्लोकों में से एक श्लोक है “वृत्तौ भाष्ये तथा नामधातुपारायणादिषु। विप्रकीर्णस्य तन्त्रस्य क्रियते सारसंग्रहः।।” इस पर जिनेन्द्रबुद्धि की ‘काशिकाविवरणपंजिका’ या ‘न्यास’ नामक टीका है। इसमें कहा गया है कि चूल्लि, भट्टि और नल्लूर ने ‘काशिका’ से भी पहले पाणिनिसूत्रों पर व्याख्या लिखी थी। इत्सिंग के अनुसार, जिसने अपना ग्रंथ ६६१ में लिखा, जयादित्य ६८१ ई. में दिवंगत हुआ। फलतः यह संभव है कि पाणिनि के सूत्रों के अनुसार महाकाव्य लिखने वाले भट्टि ने उनके सूत्रों पर कोई टीका लिखी हो । यदि यह बात सही होती है तब भटि ११५ भट्टि से वामन तक का काशिका का प्रयोग मिलता है। इन टीकाओं में प्रत्येक अध्याय के अंत में कहा गया है __‘परमगुरुहरिविरचितटीकायाम्।’ टीकाकार के तीन नाम हैं- जयेश्वर, जयदेव और जयमंगल। इन उल्लेखों से कई संभावनाएँ जन्म लेती हैं। __ जयमंगला नामक टीका प्रायः सर्वाधिक प्राचीन है। यह केवल भामह और दण्डी को उधृत करती है न कि मम्मट को। फलतः यह टीकाकार जो अपने तीन नाम बताता है जयेश्वर, जयदेव और जयमंगल- ई. ८०० से १०५० के बीच हुआ होगा। ‘कामसूत्र’ पर भी एक टीका है- जयमंगला, निश्चय ही इस ‘जयमंगला’ का प्रणेता और प्रकान्त जयमंगला का प्रणेता-दोनों परस्पर भिन्न हैं। कामसूत्र की ‘जयमंगला’ के प्रणेता हैं-यशोधर (गुरुदत्तेन्द्रपाद)। फिर ‘कामसूत्र’ की ‘जयमंगला’ इस ‘जयमंगला’ से काफी पुरानी है। कारण इस प्रकार है इसकी एक पांडुलिपि बी.बी.आर.ए.एस. में भाऊदाजी के संग्रह में है। वह भी चातुक्य वासलदेव के ‘भारतीभण्डार’ में सुरक्षित पाँडुलिपि की प्रतिलिपि ३ है (१२४ श्रीमित्रवेदी की भट्टिकाव्य पर भूमिका-इससे वह इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। से १२६१ ई.) देखिए श्री भट्टिकाव्य के प्रेणता के तीन नाम हैं-भट्टि, भट्टस्वामी तथा भर्तृस्वामी और इनके पिता का नाम है-श्रीधरस्वामी या श्री स्वामी। इस संदर्भ में यह स्मरणीय है कि त्रिवेदी का संस्करण जिस पाँडुलिपि पर समाधृत है-जिसका समय शक १२३६ (ई. १४०४) है- उसकी पुष्पिका में लिखा है-‘श्रीधरस्वामिसूनोभेट्टिब्रहम्णःकृतौ’। कुछ विद्वान भट्टिकाव्य के प्रेणता भट्टि और प्रतिगृहीता भटिभट को एक मानते हैं। भट्टिभट्ट बप्प का पुत्र है। ध्रुवसेन तृतीय के दानपत्र में इसका उल्लेख है। ध्रुवसेन ततीय, धरसेन चतुर्थ का पुत्र है। धरसेन तृतीय का समय ३३४ वलभी संवत् है (६५३ ई.)। इस एकीकरण पर आपत्ति है (ई.आई. वाल्यूम प्रथम पृ. ६२)। श्री वी.सी. मजुमदार (जे.आर.ए.एस. १६०४ पृ. ३६५-३६७) ने भट्टिकाव्य के प्रणेता भट्टि को उस वत्सभटि से एकीकृत किया है जो मंदसौर के सूर्यमंदिर शिलालेख में आया है। इसका समय ४७३ ई. है (फ्लीट्स का गुप्ता अभिलेख नं. १८)। इस एकीकरण का आधार बताते हए कहा गया है कि शिलालेख के पद्यों और भट्टिकाव्य के ११ वें सर्ग के शरदऋतु के वर्णनपरक पद्यों की समानता है। यह तर्क भी उसी परिणाम की पुष्टि करता है कि भट्टि धरसेन प्रथम के आश्रय में था या उससे भी पूर्व । प्रो० ए.बी. कीथ ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण सझाव कहा है (जे.आर.ए.एस. १६०६ पृ. ४३५) और श्री मजूमदार ने कहा है कि वैसा नहीं है (जे.आर.ए.एस. १६०६ पृ. ७५६)। प्रो. कीथ और श्री मजूमदार दोनों ही इस तथ्य पर सहमत हैं कि भट्टि भारवि और दण्डी से पहले हैं और भट्टिकाव्य के प्रेणता maanindiARIRLICIOLATimbuciniawazam a RAMESHREFERREARS११६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र भर्तृहरि नहीं है। प्रो. काणे की भी धारणा है कि महज उपर्युक्त साम्यवश यह नहीं माना जा सकता कि मंदसौर के वत्सभट्टि और प्रकान्त भट्टि-दोनों एक ही है। _ ‘दी क्लासिकल एज’ की धारणा है कि भट्टि माध से पूर्ववर्ती है और भामह को यह ज्ञात है। इसके निकटतम परवर्ती कश्मीरी कवि भौमिक ने ‘रावणार्जुनीय’ लिखा है। माघ सातवीं शती के उत्तरार्ध के कवि है। ‘जयमंगला’ टीका में इनके पिता का नाम श्री स्वामी लिखा है परन्तु दूसरे टीकाकार ‘विद्याविनोद’ ने उनके पिता का नाम श्रीधर स्वामी दिया है। भट्टि काव्य की किसी पाण्डुलिपि में रचनाकार का नाम भट्टस्वामी मिलता है। ‘भर्तृ’ भी अन्य पाँडुलिपियों में उपलब्ध है। भट्टि उसी का अपभ्रंश है। रामवर्मा रिसर्च इंस्टीच्यूट ने वाल्यूम १३ (१६४६) के पृ.सं. २३-२४ में कहा है कि त्रिचूर में मलयालम लिपि की कई पाँडुलिपियों में इसे भर्तृकाव्य कहा गया है। प्रत्येक अध्याय की टीका में कहा गया है-“परमगुरुहरिविरचितटीकायाम्।" टीकाकार के तीन नाम उपलब्ध हैं- जयेश्वर, जयदेव और जयमंगल। इस भट्टिकाव्य पर अनेक टीकाएँ हैं जिनमें से ‘जयमंगला’ निर्णयसागर से प्रकाशित है। मल्लिनाथ वाली टीका का संपादन श्री के. पी. त्रिवेदी ने किया है-बम्बई संस्कृत सिरीज में।

भट्टिकाव्य

यह महाकाव्य बाईस अध्यायों में परिसमाप्त हुआ है। इसका मुख्य लक्ष्य है संस्कृत व्याकरण (अष्टध्यायी) के सूत्रों के अनुसार प्रयोग। यह महाकाव्य चार भागों में विभाजित है- ‘प्रकीर्णकाण्ड’ (१-५) ‘अधिकारकाण्ड’ (६-६) प्रसन्नकाण्ड (१०-१३) तथा ‘तिङन्तकाण्ड’। इसके साथ इन्होंने कुछ ऐसी भी सामग्री दी है जो अलंकार शास्त्र के लिए उपयोगी है। इस ग्रंथ के दशमसर्ग में (कहीं ७५ श्लोक हैं जबकि मल्लिनाथी में ७४ हैं) कुल अड़तीस अलंकारों के उदाहरण दिए गए हैं। इसमें दो शब्दालंकार हैं-अनुप्रास और यमक । ग्यारहवां अध्ययाय ४७ श्लोंको में ‘माधुर्यगुण’ का और बारहवाँ ‘भाविक’ का उदाहरण प्रस्तुत करता है। भामह ने ३/५३ तथा दण्डी (२-३६४) ने भी इसकी चर्चा की है। भामह इसे प्रबंध विषयक कहता है। भट्टि ने ‘भाविक’ को ८७ श्लोकों में उद्धृत किया है। तेरहवें सर्ग में ५० श्लोकों द्वारा ‘भाषासम’ को उद्धृत किया है। ये ‘संस्कृत’ भी हैं और ‘प्राकृत’भी। इन चार सर्गो द्वारा भट्टि अपना स्थान अलंकारशास्त्र के इतिहास में सिद्ध करता है। प्रायः भटि उन्हीं अलंकारों की चर्चा करता है जिन्हें भामह और दण्डी परिभाषित करते हैं। प्रायः यह वही क्रम अपनाता है जो भामह द्वारा अपनाया गया है-कहीं-कहीं अवश्य अलग होते है। उदाहरण के लिए जहाँ भामह रूपक, दीपक और आक्षेप को अर्थान्तरन्यास से पहले परिभाषित करते हैं वहीं भट्टि ने रूपक और आक्षेप से पहले दीपक और अर्थान्तरन्यास भट्टि से वामन तक ११७ को रखा हैं। भामह विरोध के तुरंत बाद तुल्ययोगिता का निरूपण करता हैं जबकि भट्टि उपमारूपक के बाद तुल्यपोगिता को उद्धृत करते हैं- विरोध का क्रम इसके बाद में आता हैं। भट्टि अप्रस्तुत प्रशंसा को उद्धृत नहीं करते जबकि भामह इसे परिभाषित करते हैं। भट्टि हेतु और वार्ता को उद्धृत करता है जबकि भामह उन्हें अलंकार के रूप में स्वीकार ही नहीं करता। भट्टि निपुण की चर्चा करता है। (१०/७४) जबकि भामह और दण्डी इस पर मौन हैं। भट्टि लेश और सूक्ष्म के उदाहरण नही देता- जबकि दण्डी इन्हें प्रकृष्ट अलंकार (हेतु के साथ) मानता है। भामह इन तीनों को नकार देता है। भट्टि यमक के निरूपण में बीस श्लोक लगा देता हैं नाट्यशास्त्र और काव्यादर्श में भी यही है, तो भामह इस संक्षेप में निपटा देते हैं। इससे स्पष्ट है कि भट्टि न तो भामह का अनुधावन करता है और न ही दण्डी का-फलतः यह माना जा सकता है कि इन दोनों का पूर्ववर्ती रहा होगा। भट्टि ने केवल उदाहरण दिए हैं-दशमसर्ग में किसी अलंकार का कण्ठतः नाम नहीं लिया है। पांडुलिपियों में अलंकारों का नाम दिया हुआ हैं, पर टीकाकार यत्र-तत्र उनसे अपना मतभेद व्यक्त करते हैं। ‘जयमंगला’ भामह की परिभाषाओं को उद्धृत करती है (२,३) एक नहीं तैतीस बार; जबकि ‘काव्यादर्श’ को (२-२७५) केवल एक बार ‘ऊर्जस्वि’ पर (+४६) पद्य है-‘प्रचयलमगुरु’ । १४ वीं शती के मल्लिनाथ जो ‘प्रतापरूदीय’ पर आश्रित हैं-‘जयमंगला’ से बीस बार अपनी असहमति व्यक्त करते हैं और कभी-कभी तो उसकी दुरालोचना भी करते हैं। जैसे, भट्टि काव्य के १०-२५ निम्नलिखित श्लोक में ‘जयमंगला’- ‘दीपक’ . मानती है- (मध्यदीपक) गरूडानिलतिग्मरश्मयः पततां यद्यपि संमता जवे। अचिरेण कृतार्थमागतं त ममन्यन्त तथाप्यतीव ते।। जबकि मल्लिनाथ कहते हैं- ‘अत्र गच्छन्नित्यादिश्लोकत्रये क्रमादाद्यन्त मध्यावसानेषुक्रियापदप्रयोगादाद्यन्तमध्यदीपकानी-त्युक्तं जयमंगलाकारेण तत्परममङ्गलं लक्षणपरिज्ञानात् । देखिए डॉ. डे.की.एच.एस.पी. वाल्यूम पृ. ५०-५७ तथा प्रो. एच.आर. दिवेकर जे.आर.ए.एस. १६२६ पृ. ८२५-८४१ भट्टि और भामह का साम्य (वैषम्य)।

भट्टिकाव्य (१०म सर्ग) के अलंकार- ३८

शब्दालंकार = अनुप्रास, यमक (आदि मध्य, चक्रवाल, समुद्ग, काँची, यमकावली, अयुक्पादयमक, पादाद्यन्तयमक, मिथुनयमक, वृन्तयमक, पुष्पयमक, आदिमध्ययमक, विपथयमक, मध्यान्तयमक, गर्भयमक, सर्वयमक, महायमक, श्लोकाद्यन्तयमक) अर्थालंकारः दीपक (आदि, मध्य अन्त) रूपक (परम्परित, कमलक, खण्ड, अर्थ, ललाम, उपमा) इव यथा, सहोपमा, तद्धितोपमा, लुप्ता, सम) अर्थान्तरन्यास, आक्षेप, व्यतिरेक, विभावना, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, यथासंख्य (वार्ता विशिष्टा निर्विशिष्टा) विशिष्टावार्ता ही स्वभावोक्ति, प्रेयस, ऊर्जस्वी, अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ११८ पर्यायोक्ति, समाहित, उदात्त या उदार (महानुभावतया, विविधरत्नयोग वश) श्लेष (शब्द-अभंगपद श्लेष) श्लेषसंकीर्णोपमा (हेतु श्लेष) अपहनुति, विशेषोक्ति उक्तनिमित्ता तथा अनुक्तनिमित्ता (व्याजस्तुति, उपमारूपक, तुल्ययोगिता, विरोध, उपमेयोपमा, परिवृत्ति, संदेह, अनन्वय, उत्प्रेक्षावयव, संसृष्टि, विषम, परिसंख्या, निपुण, (उदात्तान्तर्भूतआशिः, रसवत्, क्लिष्ट, सहोक्ति, हेतु। ११ वें में माधुर्य गुण। १२ वें में भाविक। १३ वें में भाषासम।

आचार्य उद्भट

अतीत के गर्भ में विलीन जिन अनेक कारयित्री एवं भावयित्री प्रतिभाओं की रक्षा कल्हण की लेखनी से हुई है- उद्भट भी उनमें से एक है। कल्हण की कृति ‘राजतरंगिणी’ से स्पष्ट ज्ञात होता है कि ये जन्मजात काश्मीरक हैं। उसी स्रोत से यह भी पता चलता है कि यह कश्मीरराज जयापीड के सभापति थे। कहा गया है कि विद्वान् दीनारलेक्षण प्रत्यहं कृतवेतनः।। भट्टोऽभूदुद्भटस्तस्य भूमि तुः सभापतिः।। राजतरंगिणी। यह ऐसा विद्वान था जिसका दैनिक वेतन लक्ष दीनार थे। इस निश्चय का न केवल एक ही स्रोत है प्रत्युत अनेकविधस्रोत हैं। निश्चय ही ‘काव्यालंकार सारसंग्रह का प्रणेता यही उद्भट है। आनन्दवर्धन ने उन्हें सादर अनेक स्थलों पर उदृत किया है। जिससे यह निश्चित होता है कि आनन्दवर्धन से पूर्व तो इनकी स्थिति थी ही। आनन्दवर्धन कश्मीरनरेश अवन्तिवर्मा के सभासद् थे। मुक्ताकणश्शिवस्वामी कविरानन्दवर्द्धनः।। प्रथां रत्नाकरश्चागात्सौराज्येऽवन्तिवर्मणः राजतरंगणी। अवन्तिवर्मा का समय है- ८३५-८८४ ई.। दूसरी ओर इन्होंने भामह के ‘काव्यालंकार’ पर टीका भी लिखी है और ‘काव्यालंकार’ में जिन अलंकारों का विवेचन किया है उन पर भामह का पर्याप्त प्रभाव भी लक्षित होता है। निष्कर्ष यह है कि यह भामह से पहले के तो नहीं हो सकते। इनका समय सातवीं ई. के अन्त से आठवीं ई. के मध्य तक अनुमित किया गया है। इस प्रकार इतना तो निर्धान्तरूप से निश्चित होता है कि भामह तथा आनन्दवर्धन के बीच उद्भट की स्थिति है। आनन्दवर्धन से बहुत पहले हो चुके हों- यह भी गुंजाइश नहीं है। जयापीड, जो इनके आश्रयदाता हैं- का समय है- ७७६-८१३ ई.। उद्भट इनकी राजसभा के अध्यक्ष थे। इस सभा के और भी कवि थे-मनोरथ, शंखदत्त, चटक, संधिमान् तथा वामन आदि। अतः ७५० ई. से पहले उद्भट का समय निर्धारित करना कठिन होगा। चूँकि आनन्दवर्धन नवम शतक के उत्तरार्ध के हैं-अतः इससे पहले भी ११६ भट्टि से वामन तक उद्भट को रखना होगा। इस प्रकार उद्भट ८०० ई. के आसपास ही होगें- अर्थात् ७५० से ८५० के बीच।

काव्यालंकार सारसङ्ग्रह

अलंकारशास्त्र के संदर्भ में इनकी प्रसिद्ध कृति है-‘काव्यालंकारसारसंग्रह’। कर्नल जैकब (जे.आर.ए.एस. के पृ. ८२०-८४४, १८६७ ई.) ने इसका रूपान्तरण किया। १६१५ ई. में यह ग्रन्थ निर्णय सागर प्रेस से प्रकाश में आया। प्रतीहारेन्दुराजकृत लघुवृत्ति भी इसके साथ थी। श्री एन.डी. अनहट्टी ने इसका सम्पादन बाम्बे संस्कृत सिरीज के लिए १६२५ में किया- इसके साथ प्रतीहारेन्दु राज की ‘लघृवृत्ति’ भी थी। इसमें भूमिका और टिप्पणी भी है। इसमें निर्णयसागर के संस्करण का संदर्भ है। उद्भट का ‘काव्यालंकारसारसंग्रह’ छः वर्गों में विभाजित है जिनमें ४१ अलंकार और ४७ कारिकाएँ है। लगभग सौ उदाहरण आचार्य उद्भट ने अपने ही ग्रंथ ‘कुमारसंभव’ से लिए हैं-अनेनग्रंधकृता स्वोपरचित कुमारसम्भवैकदेशो-त्रोदाहरणत्वेनोपन्यस्तः । यत्र पूर्वं दीपकस्योदाहरणनि। तदनुसन्धानाविच्छेदायात्र उद्देशक्रमः परित्यक्तः। उद्देशस्तु तथा न कृतो वृत्तभङ्गभयात् (पृ.१५) जो अलंकार परिभाषित और उद्धृत किए गए हैं- उनका क्रम इस प्रकार है प्रथम वर्ग-पुनरूक्तवदाभास, छेकानुप्रास, अनुप्रास (परूषावृत्ति, उपनागरिका, ग्राम्या या कोमला), लाटानुप्रास, रूपक, उपमा, दीपक (आदि, मध्य, अन्त) प्रतिवस्तृपमा। द्वितीय वर्ग - आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, समासोक्ति, अति शयोक्ति। तृतीय वर्ग - यथासंख्य, उत्प्रेक्षा, स्वभावोक्ति. । चतुर्थ वर्ग - प्रेयस, रसवत्, ऊर्जस्वी, पर्यायोक्त, समाहित, उदात्त (द्विविध) श्लिष्ट (द्विविध) पंचम वर्ग - अपह्नुति, विशेषोक्ति, विरोध, तुल्ययोगिता, अप्रस्तुतप्रशंसा, ब्याजस्तुति, निदर्शना, उपमेयोपमा, सहोक्ति, संकर (चर्तुविध) परिवृत्ति। षष्ठ वर्ग - अनन्वय, ससन्देह, संसृष्टि, भाविक, काव्यलिंग, दृष्टान्त। यहाँ पर ध्यान रखने की बात है कि इस ग्रंथ में अलंकारों का जो क्रम रखा गया है- उसमें भामह का अनुकरण है। भामह द्वारा परिभाषित कतिपथ अलंकारों को उद्भट द्वारा छोड़ दिया गया है- ऐसे अलंकार हैं- यमक, उपमारूपक, उत्प्रेक्षावयव जहाँ इन्होंने भामह परिभाषित कतिपय अलंकार छोड़े हैं वहीं कुछ जोड़े भी हैं- जैसे पुनरूक्तवदाभास, संकर, काव्यलिंग और दृष्टान्त। यह भी ध्यान रखने की बात है कि उद्भट ने ‘निदर्शना’ की जगह ‘विदर्शना’ का प्रयोग किया है। संभव है यह प्रतिलिपिकार का प्रमाद हो। उन्होंने एक ही प्रकार की निदर्शना को उद्धृत किया है। टीकाकार ने अलबत्ता दूसरे प्रकार की भी चर्चा कर दी है। भामह ने निदर्शना के दो प्रकार बनाए थे- टीकाकार ने इन्हीं में से SHAL १२० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र भावाशिष्ट की चर्चा की है- ‘यत्र तु पदार्थसमन्वय उपमानोपमेयावकल्पनया स्वात्मानमुपपादयति तस्य विदर्शनाभेदस्योदाहरणमुद्भट- पुस्तके न दृश्यते तस्यतु भामहोदितमिदमुदाहरणम् (भामह ३, ३४) अयं मन्दद्युतिर्भास्वानस्तं प्रति यियासति। उदयः पतनायेति श्रीमतो बोधयन्तरान् । इति पृ. ६२ उद्भट की कृति पर तिलक के विवेक ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि उद्भट ने भामह की दूसरे प्रकार की विदर्शना को अपने ग्रंथ में स्थान नहीं दिया है (पृ. ४५ जी.ओ.एस.एडी)। भामह के साथ उद्भट की तुलना करने पर कतिपय अलंकार ऐसे दिखाई पड़ेगें जिनमें शब्दशः ऐक्य मिलेगा, जैसे विभावना, अतिशयोक्ति, यथासंख्य, पर्यायोक्त, अपह्नुति, विरोध, अप्रस्तुतप्रशंसा, सहोक्ति, ससंदेह, अनन्वय। कुछ ऐसे है जिनमें पदबंध की एकता हैं- जैसे अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, रसवत् तथा भाविक। इसके पीछे कारण यह है कि उद्भट ने भामह के काव्यालंकार पर एक टीका लिखी थी-‘भामह विवरण’ । प्रतीहारेन्दुराज कहता है (पृ. १२) एकदेशवृत्तीत्यत्रहि एकदा अन्यदा ईशः प्रभविष्णुर्यो वाक्यार्थस्तवृत्तित्वं रूपकस्याभिमतम् । विशेषोक्तिलक्षणे च भामहविवरणे भट्टोद्भटेन एकदेशशब्द एवं व्याख्यातो यथेहास्माभिर्निरूपितः। तत्र विशेषोक्तिलक्षणं ‘एकदेशस्यविगमे या गुणान्तरसंस्तुतिः। विशेषप्रथनायासौ विशेषोक्तिर्मता यथा (भामह ३३-२३)। अबतो ‘भामहविवरण’ प्रकाशित होकर आ भी गया है। अतः मात्र उद्धरण से उसके अस्तित्व की चर्चा अनपेक्षित है। उद्भट की यह कृति काफी विस्तृत और पल्लवित है। प्रो. काणे को लगता है कि ‘काव्यालंकार’ सारसंग्रह उसी का संक्षिप्त रूप है। ‘काव्यालंकारसारसंग्रह’ यह नाम ही सूचित करता है कि यह ग्रंथ किसी का सारसंग्रह हैं परवर्ती टीकाकारों ने भी उद्भट के ‘भामहविवरण’ का उल्लेख बहुधा किया है। उदाहरणार्थ लोचनकार कहता है (ध्व. पृ. १०) ‘भामहोक्तं शब्दाश्छन्दोऽभिधानार्थ’ (भामह १-६) इत्यभिधानस्य शब्दाभेदं व्याख्यातुं भट्टोद्भटो बभाषे शब्दानामभिधानमभिधाव्यापारों मुख्यो गुणवृत्तिश्च इति (लोचन पृ. ४०) यत्तु विवरणकृद्दीपकस्य सर्वत्रोपमान्वयोस्तीति बहुनोदाहरणप्रपंचेन विचारितवांस्तदनुपयोगिनितरां स प्रतिक्षेपं च ‘निम्नलिखित कारिका पर आहूतोऽपि सहायैरोमित्युक्त्वा विमुक्तनिद्रोऽपि। गन्तुमना अपि पथिकः सड़कोचं नैव शिथिलयति।। (अनुक्तनिमित्ता विशेषोक्ति के उदाहरण रूप में ध्यन्यालोक के पृ. ३८ पर उद्धृत) लोचनकार की टिप्पणी है- शैत्याधिक्यजनित पीड़ा यहाँ निमित्त है। इसी प्रकार ध्वन्यालोक के पृ. १५६ पर ‘अन्यत्र’ पद पर टिप्पणी करते हुए लोचनकार कहता है- ‘भामह विवरणे’। प्रतीहारेन्दुराज ने पृ. ४६ पर लगता है ‘भामहविवरण’ से ही उद्धरण देते हुए कहा है ‘एषा च शृंगारादीनां नवानां रसानां स्वशब्दादिभिः पञ्चभिरवगतिः भवति। यदुक्तं भट्टोदभट्टेन १.१ १२१ भट्टि से वामन तक पञ्चरूपा रसा इति’ । तत्र स्वशब्दाः शृंगारादेर्वाचकाः शृंगारादय : शब्दाः। (यह अन्तिम वाक्य अलंकारसारसंग्रह के चतुर्थ वर्ग के ‘स्वशब्दस्थायिसंचारिविभावाभिनयास्पदम् पर टिप्पणी है।) विवेक पृ. ११० में हेमचन्द्र कहता है- एतेन रसवद्दर्शितस्पष्टशृंगारादिरसोदयम्। स्व शब्दाः आस्पदम्-इत्येतद्व्याख्यानावसरे यद्भट्टोद्भटेन पञ्चरूपा रसाः इत्युपक्रम्य स्वशब्दाः श्रृंगारादेवार्चकाः शृंगारादयः शब्दाः इत्युक्तं तत्प्रतिक्षिप्तम्’। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि हेमचन्द्र समासरूप से प्रतीहारेन्दुराज के शब्दों को उद्धृत करता है। संभव है ‘भामहविवरण’ उसके सामने न हो और रसवादा स्पदम्’ के संबंध में व्यामुग्ध हो। वस्तुतः यह उद्भट की अपनी परिभाषा है जो भामह के ‘रसवद्दर्शितस्पष्टशृंगारादिरसं यथा’। माणिक्यचंद्र द्वारा काव्यप्रकाश की टीका (काव्यप्रकाशसंकेत) में (पृ. २६६ मैसूर संस्करण) भी वहीं व्यामोह है। वह कहता है ‘एतेन शृंगाराद्याः शब्दाः शृंगारादेवार्चका इत्युद्भटोक्तं निरस्तम्’। यही बात सोमेश्चर भी कहता है- ‘एतेन रसवद् स्पदमित्यस्य व्याख्यायां पञ्चरूपा रसा इत्युपक्रम्य तत्र स्वशब्दाः शृंगारादयः शृंगारादेवार्चका इति भट्टोद्भटं निरस्तम्’ (विवेक पृ. १७ में) हेमचन्द्र ने भी कहा है- ‘एतावता शौर्यादि सदृशा गुणाः के यूरादि तुल्या अलङ्कनरा इति विवेकमुक्त्वा संयोग समवायाम्यां शौर्यादीनामस्ति भेदः इह तूभयेषां समवायेन स्थितिरित्यभिधाय ‘तस्माद्गडउड्रिका प्रवाहेण गुणालंकारभेदः-इति भामहविवरणेस्पद्महोद्भटोऽभ्यधात् तन्निरस्तम्’ माणिक्यचन्द्र ने (संकेत पृ. २८६ मैसूर सं.) भी स्पष्ट वही बात कही है- ‘शब्दार्थालंकाराणां गुणवत्समवायेन स्थितिरिति भामहवृत्तौ भट्टोद्भटेन भणनमसत् और इन सबके साथ सोमेश्वर भी यही मानता तथा कहता है (फोलियो ८८) समुद्रबंध (अलंकार सर्वस्व पृ. ८६) कहता है-‘उद्भटेन च काव्यालांकारविष्टतै सत्कवित्वविरहिताया विदग्धतया अस्थैर्यसया शोभनेस्य च प्रतिपादनाम निदर्शनद्वयमिति वदता का श्रीरित्यस्य श्रीरस्थिरेत्यर्थो अभिहितः’। उद्भट ने अलंकारशास्त्रीय चिन्तन के इतिहास में अपने प्रदेय के कारण महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। भामह को तो उसने ग्रस लिया। इस तथ्य की ख्याति तो उसे मिल ही चुकी थी कि उसकी पृष्ठभूमि में ‘भामह’ की कृति है और अभी उसे हुए काफी समय नहीं हुआ है। परवर्ती साहित्यशास्त्रियों द्वारा बड़े सम्मान से उन्हें प्रायः उद्धृत किया गया है यहाँ तक कि उनके द्वारा भी-जिनका उद्भट से मतभेद है। अलंकार सम्प्रदाय के यह सर्वोपरि समर्थक हैं। अलंकारशास्त्र में इनका नामोल्लेख अनेक सिद्धान्तों के सन्दर्भ में किया जाता है। उनकी अपनी अनेक मान्यताएँ है। ‘उद्भट’ स्वयम् ‘भामह’ से अनेक बिन्दुओं पर असहमत है। उदाहरण के लिए प्रतीहारेन्दुराज कहता है। ‘भामहो हि ग्राम्योपनागरिकावृत्तिभेदेन द्विप्रकारमेवानुप्रासं व्याख्यातवान्। तथा रूपकस्य ये चत्वारो भेदा वक्ष्यन्ते तन्मध्यादाद्यमेव भेदद्वितयं प्रादर्शयत्। ‘उद्भट’ ने अनुप्रास के तीन और रूपक के चार प्रकार बताएँ है। प्रतीहारेन्दुराज ने कहा (पृ. ४७) ‘भामहो हि तत्सहोक्तयुपमाहेतुनिर्देशात् N ૧૨૨ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र त्रिविधं यथा’ (भामह ३/१६) इति श्लिष्टस्य त्रैविध्यमाह’ अर्थात् ‘भामह’ ने श्लेष के तीन ही भेद कहे हैं जबकि उद्भट ने केवल दो भेद कहे हैं। लोचनकार कहता है-‘भामहेन हि गुरुदेवनृपतिपुत्रविषयप्रीतिवर्णनं प्रेयोलंकार इत्युक्तंउद्भटमते हि भावालंकार एव प्रेय इत्युक्तः (पृ. ७१-७२) भामह तीन वृत्तियों की बात नहीं करता-जैसे, परूषा, ग्राम्या और उपनागरिका जबकि उद्भट (देखिए लोचन, पृ.६) तीन वृत्तियों की बात करता है। जहाँ तक उद्भट के संबंध में सम्मान प्रदर्शन की बात है- ध्वन्यालोककार (पृ. १०८) कहता है ‘तत्रभवभिरूद्भटादिभिः।’ अलंकारसर्वस्वकार कहता है (पृ. ३) ‘इहतावद्भामहोद्भट प्रभृतयश्चिन्तरनालंकारकाराः। व्यक्तिविवेककार कहता है (पृ. ३) ‘इहहिचिरन्तनैरलंकार तन्त्रप्रजापतिभिर्भट्टोद्भटप्रभृतिभिः शब्दार्थधर्मा एवालंकाराःप्रतिपादिता नाभिधाधर्माः। परवर्ती आलंकारिकों द्वारा इस तरह के सम्मानसूचक अनेक उद्धरणों की संख्या कहाँ तक गिनाई जाय ? यहाँ उद्भट द्वारा स्थापित कतिपय मान्यताओं का उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है अ. अर्थभेदेन तावच्छब्दा भिद्यन्ते- इति भट्टोद्भटस्य सिद्धान्तः (पृ.५५ प्रतीहारेन्दुराज)। अर्थभेदे से शब्दभेद होता है- एक शब्द से एक ही अर्थ मिलता है। श्लेषस्थलपर अर्थभेद से शब्दभेद का प्रकल्पन करना पड़ता है। ब. श्लेष के दो भेद हैं-शब्दश्लेष और अर्थश्लेष साथ ही ये दोनों भेद अर्थालंकार के हैं। मम्मट ने इस मान्यता का खण्डन किया है (नवम उल्लास, काव्यप्रकाश) ‘शब्दश्लेष इति चोच्यते अर्थालंकारमध्ये च लक्ष्यते-इति कोऽयं नयः’ (पृ.५२७ वामनी) अर्थात् कहा जाय शब्दश्लेष और चर्चा हो अर्थश्लेष के मध्य, यह कौन सा मार्ग है ? स. एक आशय में श्लेष के साथ जब और भी अलंकार हों-तो उनमें श्लेष को ही वजनदार और प्रधान मानना चाहिए-अन्य अलंकारों को अप्रधान और दबा हुआ। व्यवहार वहाँ श्लेष का ही होगा। जैसा कि उद्भट चतुर्थ वर्ग में (पृ.५४) कहता है- ‘अलंकारन्तर्गतां प्रतिभा जनयत्पदैः।’ ध्वन्यालोककार (पृ.६६) इस पक्ष को प्रस्तुत करता है। मम्मट इस पक्ष को भी दूषित करते हैं। द. काव्यमीमांसाकार राजशेखर कहता है- तस्य (वाक्यस्य) च त्रिधाऽमिधाव्यापार इतिऔद्भटाः’- वाक्य की अभिधा का त्रिविध व्यापार हैं __ य. अर्थ के दो प्रकार है- विचाररितसुस्थ और अविचारित रमणीय। इनमें से पहले का संबंध शास्त्र से है और दूसरे का काव्य से (काव्यमीमांसा पृ. ४४) व्यक्तिविवेक’ की टीका (पृ. ४) में भी उद्भट के नाम से कुछ ऐसी ही बात कही गई है ‘शास्त्रेतिहासवैलक्षण्यं तु काव्यस्य शब्दार्थवैशिष्ट्यादेव नाभिधावैशिष्ट्यादिति भट्टोद्भटादीनां सिद्धान्तः’ अर्थात् शास्त्र और इतिहास से काव्य का वैलक्षण्य अभिधा के वैशिष्ट्य से नहीं होता बल्कि शब्दार्थ के वैशिष्ट्य से ही होता है।

भट्टि से वामन तक १२३ र. सड्घटानाया धर्मो गुणा इति भट्टोद्भटादयः (लोचन, पृ. १३४) संघटना का धर्म है गुण- यह उद्भट आदि का मत है। ल. व्याकरणिक प्रत्ययों के आधार पर उपमा के प्रभेदों का मम्मट द्वारा प्रकल्पन उद्भट को ही आधार मानकर किया गया है। व. उद्भट मानता है कि श्रृंगार जैसे प्रत्येक रस पंचविध होते हैं स्वशब्दस्थायि-संचारिविभावाभिनयास्पदम। मम्मट ने प्रथम को ‘स्वशब्दवाच्यत्वदोष’ कहा है। काव्यप्रकाश, उल्लास सप्तम में, व्यभिचारिरसस्थायिभावनां शब्दवाच्यता। रसे दोषा स्युरीदृशाः (६२) कर्नल जैकब (जे.आर.ए.एस. १८६७, पृ. ८४७) का सोचना है कि रसाद्यथिष्ठितं काव्यं जीवद्रूपतयायतः। कथ्यते तद्रसादीनां काव्यात्मत्वं व्यवस्थितम् ।। यह श्लोक उद्भट का ही है। फलतः उद्भट ने यह माना कि रस काव्य का आत्मा है। ऊपर जितने विभिन्न पाठों का संकेत दिया गया है उनमें सर्वाधिक विवादास्पद है चतुर्थ चरण। पाठविज्ञान के आधार पर यह तय करना है कि कौन सा पाठग्राह्य है ? आचार्य विश्वेश्वर को रामकृष्ण कवि और रामस्वामी शिरोमणि जैसे सम्पादकों द्वारा गृहीत सम्पादनपद्धति से बड़ा असन्तोष है। पाण्डुलिपि मूलक सम्पादन पद्धति ‘वैज्ञानिक पद्धति’ कही जाती है। इसके अनुसार मक्षिका स्थाने मक्षिका पाठ रखा जाता है। अतः शास्त्री जी ने ‘विवेकाश्रितसम्पादन पद्धति’ को प्रशस्त माना है। इस पद्धति से पाठ निर्धारण पांडुलिपि के आधार पर न होकर विवेक के आधार पर होता है, कि आत्मा है परन्तु अनेक परिस्थितियाँ इस स्थापना के विरूद्ध जाती हैं। प्रतीहारेन्दुराज ने इस श्लोक को प्रश्नाकुल कर उपस्थित किया है- (तदाड:- पृ. ७७) फलतः इसे केवल किसी अन्य का उद्धरण माना जाना चाहिए। यह श्लोक प्रतीहारेन्दुराज से किसी पूर्ववर्ती आचार्य का होना चाहिए। इसके अतिरिक्त इस श्लोक को उद्भट से जोड़ने पर उनकी मान्यताएँ विसंगत हो जाएँगी। वास्तव में यह श्लोक काव्यलिंग की टीका में है। काव्यलिंग को परिभाषित करने के बाद हम स्वभावतः उसका उदाहरण चाहते हैं और वह उदाहरण है छायेयं तव शेषांगकान्तेः किञ्चिदनुज्ज्वला। विभूषाघटनादेशान् दर्शयन्ती दुनोति माम् ।। .. यदि कर्नल जैकब का अनुगमन किया जाय तो उपयुक्त मान्यता वाला श्लोक ‘काव्यलिंग’ की परिभाषा और उदाहरण के बीच में आना चाहिए-जो असंगत है। दूसरे ‘रस काव्य की आत्मा है’-यह मान्यता उद्भट के ‘रसवद्’ के विरूद्ध जायगी। साथ ही ‘अलंकारसर्वस्व’ की यह मान्यता (पृ.५) ‘उद्भटादिभिस्तु गुणलंकाराणांप्रायशः साम्यमेव १२४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र सूचितम्। तदेवमलंकारा एव काव्ये प्रधानमिति प्राच्यानां मतम्- कैसे प्रतिष्ठित मानी जायेगी ? मुद्रित संस्करण में निम्नलिखित कारिका इस प्रकार बड़े टाइप में रखी गई है (पृ. ४२) ‘तद्विगुणं त्रिगुणं वा जैसे यह उद्भट की ही कारिका हो- पर वास्तव में यह कारिका रुद्रट की है (७.३५)। उद्भट के ‘कुमारसम्भव’ से इस लक्षणग्रंथ में जो उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं उनमें कालिदास के ‘कुमारसम्भव’ से पर्याप्त साम्य है। यह साम्य पदबंध और विचारों में ही नहीं है अपितु घटनाओं में भी है। उद्भट ने यह काव्य ही नहीं लिखा है भरतनाट्यशास्त्र पर एक टीका भी लिखी है। सूचना ‘सद्गुरुसन्तानपरिमल में कहा गया है कि ३८ वें अभिनव शंकर के समसामयिक हैं उद्भट क्षीरस्वामिमनोरथेशचटकश्रीसन्धिमच्छड्.खक श्रीदामोदरढड्.क्यवामनमहोपाध्यायमुख्यानकवीन् । अष्टावप्यभिभूय दुर्जयतया भट्टोद्भटः प्रत्यहं यो दीनारकलक्षवेतनवहः कोऽस्याग्रतस्सोप्यमत्।।