आचार्य भामह
आचार्यभरत के पश्चात् काव्यशास्त्र के सुविज्ञात आचार्यों में भामह प्रथम आचार्य हैं जिनका अलकार शास्त्रविषयक ग्रन्थ उपलब्ध है। बहुत दिनों तक भामह के इस ग्रन्थ - ‘काव्यालङ्कार’ का नाम मात्र से ही उल्लेख प्राप्त होता रहा अथवा इसके उद्धरण परवर्ती आचार्यों ओर टीकाकारों की रचनाओं में यत्र-यत्र प्राप्त होते रहे। आज इसके अनेक प्रकाशित संस्करण (अनुवादों और व्याख्याओं) के साथ उपलब्ध हैं। यथास्थान इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा हम आगे करेंगे।
भामह का स्थितिकाल
प्रायः पूरी एक शताब्दी के प्रयासों के पश्चात् भी आचार्य भामह के स्थितिकाल की समस्या का अभी तक कोई आत्यन्तिक और सर्वमान्य समाधान नहीं हो सका है और आज भी इस दिशा में हाथ पाँव मारना बन्द नहीं हुआ है। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर भामह के स्थिति काल की परवर्ती और पूर्ववर्ती सीमाओं का अड्कन मात्र किया जा सकता है।
परवर्ती सीमा
आचार्य कुन्तक व वक्रोक्तिसिद्धान्त बीजतः भामह के काव्यालङ्कार का ऋणी है (द्रष्टव्य-काव्या., १.३०, ३६, २.८५.५.६६) बिना ग्रन्थ या ग्रन्थकार का नामोल्लेख किए, वक्रोक्तिजीवितकार ने भामह के ‘काव्यालङ्कार’ से तीसों कारिकायें किसी न किसी रूप में प्रत्यक्षतः उद्धृत की हैं।’ कुन्तक का स्थितिकाल ६५० ई. से १०२५ ई. के मध्य माना जाता है। आचार्य आनन्दवर्धन ने ध्वन्यालोक (वृत्तिभाग) में चार स्थलों पर भामह को उद्धृत किया है- दो बार नामोल्लेखपूर्वक और दो बार उनकी पंक्तियों द्वारा। कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार आनन्दवर्धन कश्मीरनरेश अवन्तिवर्मा की राजसभा में थे। अतः इनका स्थितिकाल अवन्तिवर्मा (८५५-८८४ ई.) के शासनकाल में निश्चित ही है। इस प्रकार आनन्दवर्धन नवम शताब्दी ई. के हैं।
१. वक्रोक्तिजीवित (वृत्तिभाग), १,१५,१६,१७,३, १४, १५, १७,३५, ४५, ५२, ६८, ६६,७०, ७६, १२०,१२१, १२२, १२५, १२६, १२८, १२६, १३३, १३४,१५१,१५२, १५४,१५५, १७५-७८, १८३ः म.म.पी. वी. काणे- संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, पृ. २६४-६५ ध्वन्यालोक, १,१३ तथा ३.३६ ४. वही, ३.६ और ४.४ ५. प्रो. एस.के. दे.-संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास- पृ. ६४-६५ . . ૭૨ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र रुद्रट ने भामह का उल्लेख नहीं किया है किन्तु उनके टीकाकार नमिसाधु (१०६६ ई.) के अनुसार, भामहादि द्वारा अलङ्कार की रचना रुद्रट के पूर्व की जा चुकी थी।’ रुद्रट का स्थितिकाल नवीं शताब्दी ई. का पूर्वार्द्ध माना गया है। उद्भट ने अपने ‘काव्यालङ्कार सारसंग्रह’ में अनेक अलङ्कारों का लक्षण भामहकृत काव्यालङ्कार से ग्रहण किया है। उद्भट के टीकाकार प्रतिहारेन्दुराज और अन्य परवर्ती आचार्यों ने उल्लेख किया है कि उद्भट ने काव्यालङ्कार पर ‘भामह-विवरण’ नामक टीका की थी। इस विलुप्तप्राय टीका के कुछ अंशों को पाकर रोनियरो ग्नोली ने उन्हें सम्पादित करके प्रकाशित किया है। और उसकी भूमिका में प्रो. वी. राघवन की शङ्काओं का तर्कसङ्गत समाधान प्रस्तुत किया है कि ये अंश बहुचर्चित ‘भामह-विवरण’ के हैं या नहीं। इससे ज्ञात होता है कि भामह, उद्भट से पूर्व विद्यमान थे। उद्भट कश्मीर नरेश जयापीड के सभापति थे। जयापीड का शासनकाल ७७६-८१३ ई. है। अतः भामह का स्थितिकाल इसके पूर्व था। उद्भट के समकालिक आचार्य वामन के ग्रन्थ, ‘काव्यालङ्कार सूत्रवृत्ति में भामह के काव्यालङ्कार की छाया स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है। इस आधार पर भामह, वामन से पूर्ववर्ती अवश्य रहे। प्रसिद्ध बौद्ध तार्किक शान्तरक्षित (७०५-७६२ ई.) ७ ने अपने ग्रन्थ ‘तत्त्वसङ्ग्रह’ में अपोहवाद के तीन विरुद्ध मतों का उपस्थापना करके उनका खण्डन किया है। और विरोधियों के लिए ‘दुरात्मनः’ तथा ‘कुदृष्टयः’ विशेषणों का प्रयोग किया है। शान्तरक्षित के टीकाकार (कमलशील ने इन कारिकाओं में भामह के मत का उपस्थापन माना है। काव्यालङ्कार में ये कारिकायें कुछ पाठभेदों के साथ पायी जाती हैं। ६ १. रुद्रटकृत काव्यालङ्कार पर नमिसाधुकृत टीका १.२. २. म.म. पी.वी. काणे-संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, पृ. १६६ ३. · काव्यालङ्कार सारसंग्रह, २.१, २.६, ११ (भामहकृत काव्या., २.६६,६८,७७,८१) इसी प्रकार क्रमशः ३.२ (२.८८), ४,१, ३,६(३.१, ६,८), ५.३, ६, ८, १५ (३.२१, २५, २६, ३६), ६.२, ४ (३.४३,४५) 8. Roniero gnoli: Udbhata’s Commentary on the Kavyalamikara of Bhamaha, Roma, 1962 ५. ‘विद्वान् दीनारलक्षेण प्रत्यहं कृतवेतनः। भट्टोऽभूदुद्भटस्तस्य भूमिभर्तुः सभापतिः।।’ राजतरडिगी, ४, ४६५। काव्यालंकार सूत्र ४.२.१, ४. ३.१३, ५.२.१ क्रमशः काव्यालंकार २,३०, २. ७७, ६, ३२ ७. B. Bhattacharya-Tativasaingraha, foreword, p.XII-XVI. ८. तत्त्वसंग्रह, कारिका १००३ ६. वही. कारिका ६१२-१४ ६. ७३ आचार्य भामह और आचार्य दण्डी ७३ इस प्रकार, भामह के स्थितिकाल की अन्तिम सीमा ७०० ई. है।
पूर्ववती सीमा
आभ्यन्तर प्रमाणों का विवेचन कर आचार्य भामह के स्थितिकाल की पूर्ववर्ती सीमा का निर्धारण करना सम्भव है। भामह पाणिनीय व्याकरण के वैशध से अत्यन्त प्रभावित हैं। उन्होंने काव्यालङ्कार के ‘शब्द-शुद्धि’ नामक छठे परिच्छेद में अष्टाध्यायी के आधार पर काव्य में प्रयोज्याप्रयोज्य शब्दों की विवेचना की है। उन्होंने इसका उपसंहार करते हुए शालातुरीयमत की उदात्तता की सराहना की है। पाणिनि का समय प्रायः ५०० ई.पू. स्वीकार किया गया है। शब्द-शुद्धि की प्रस्तावना में भामह ने ‘पदों’ को व्याकरणरुपी सागर का ‘आवर्त’ (भेवर) और ‘पारायण’ को ‘रसातल’ कहा है। ‘पद’ से कात्यायन कृत ‘वार्तिक’ और ‘पारायण’ से पतञ्जलिकृत ‘महाभाष्य’ का उपस्थापन किया गया है। एक अन्य प्रसङ्ग में उन्होंने ‘उपसंख्यान’ और ‘इष्टि’ नामों से भी उन्हें संकेतित किया है।’ वार्तिकों का रचना काल ५०० ई. पू. से ३०० ई. पू. के मध्य तथा ‘महाभाष्य का रचनाकाल १५० ई.पू. के आसपास माना जाता है। उदात्तालङ्कार के पराभिमत स्वरूप का उदाहरण देते हुए भामह ने ‘चाणक्य’ और ‘नन्द’ का उल्लेख किया है। चाणक्य की सहायता से चन्द्रगुप्त मौर्य ने नन्द का वध करके ३२२ ई.पू.में मगध के साम्राज्य पर आधिपत्य किया था। स्पष्टतः चाणक्य और नन्द का समय चतुर्थ शताब्दी ई.पू. है। काव्यालङ्कार में ‘नरवाहनदत्त’ और ‘वत्सेश’ (उदयन) का उल्लेख मिलता है। टी. गणपति शास्त्री और विण्टरनित्ज ने इस उल्लेख का आधार भास कृत ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायण’ को माना है। किन्तु काणे महोदय इसका आधार गुणाढ्यकृत बृहत्कथा मानते हैं६ गुणाढ्य सातवाहन राजा हाल के आश्रय में था जो ईसा की प्रथम शताब्दी (७८ ई.) में रहा। भामह ने स्पष्ट रूप से आचार्य भरत अथवा नाट्यशास्त्र का उल्लेख नहीं किया है किन्तु अभिनेयार्थ काव्य की चर्चा, मात्र नाटक आदि कुछ भेदों तक सीमित रखते हुए इसका कारण अन्यों द्वारा किए गए विस्तृत विवेचन को बतलाते हैं। यहाँ भामह का संकेत
१. काव्यालडकार, ६, १-३ तथा ६.२६ २. S.K. Beivalkar: Systems of Sanskrit Grammer M.Krisnamachariar: A History of Classical Sanskrit Literature, Introduction, P.LXXI-LXXXI ४. काव्यालडकार ४.२६-४६ तथा ४.४६ 4. M. Vinternity - Some Problems of Indian Literature, p. 126 ६. म.म. पी.वी. काणे-संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, पृ. १५२-५४ ७४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ‘नाट्यशास्त्र’ की ओर हो सकता है। भरत ने चार अलङ्कारों का विवेचन किया है किन्तु भामह ने उसे दस गुना बढ़ाकर (४० कर के) भरत से अपनी अर्वाचीनता स्वयमेव प्रमाणित कर दी है। नाट्यशास्त्रअपने मूलरूप में तीसरी शताब्दी ई. तक आवश्य ही विद्यमान था।’ __ सव्यालङ्कार के पाँचवें परिच्छेद में भामह ने वसुबन्धु की प्रत्यक्ष और अनुमान की परिभाषाओं को उद्धृत किया है। वसुबन्धु के इस अनुमान-लक्षण का दिङ्नाग ने अपने ‘प्रमाणसमुच्चय’ में खण्डन किया है। वसुबन्धु और दिङ्नाग, दोनों ही प्रायः पाँचवीं शताब्दी ई. के हैं। इस प्रकार आ. भामह ५००-१००० ई. के बीच किसी कालखण्ड में रहे होंगे। इन दोनों सीमाओं के बीच भामह के काल-निश्चय का प्रश्न अब भी जटिल और विवादास्पद बना हुआ है। इसविवाद के मूल में कतिपय आचार्यों और कवियों के साथ उल्लिखित उनके सम्बन्ध और उनका परस्पर सन्दिग्ध पौर्वापर्य है। यहाँ हम इस पक्ष पर उपलब्ध विवरण को संक्षेपतः प्रस्तुत करेंगे। भामह और कालिदास-आचार्य भामह ने अपने ‘काव्यालङ्कार’ में ‘अयुक्तिमत्’ दोष की चर्चा करते हुए कहा है कि साधारणतया मेघ आदि को दूत नहीं बनाया जाना चाहिए ‘अयुक्तिमद् यथा दूता जलभृन्मारुतेन्दवः। तथा भ्रमरहारीत चक्रवाकशुकादयः।। अवाचोऽव्यक्तवाचश्च दूरदेशविचारिणः। कथं दूत्यं प्रपद्येरन् इति युक्त्या न युज्यते।। यदि चोत्कण्ठया यत् तदुन्मत्त इव भाषते। तथा भवतु भूम्नेदं सुमेधोमिः प्रयुज्यते।।’ (काव्यालंकार, १.४२-४४) __ सामान्यतया मेघ आदि को दूत बनाना ‘अयुक्तिमत्’ दोष कहा जाता है क्योंकि वाणीहीन अथवा अस्पष्ट वाणी होने से वे दूत का कार्य कर ही नहीं सकते। उन्मत्तावस्था में उन्हें दूत बनाया जा सकता है। क्योंकि अच्छी प्रतिभा वालों के द्वारा वे दूत के रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं। भामह के उपर्युक्त कथन से प्रतीत होता है कि ऐसा लिखते समय उनके समक्ष ‘मेघदूत’ था और कालिदास जैसे महाकवि द्वारा मेघ को दूत बनाये जाने के कारण ही उन्होंने ‘सुमेधोमिः प्रयुज्यते’ लिखा होगा। अतः भामह, कालिदास के उत्तरवर्ती होंगे। किन्तु इसके विरुद्ध म.म.टी. गणपति शास्त्री का मत हैं। कि भामह निश्चय ही कालिदास के पूर्ववर्ती हैं क्योंकि उन्होंने कालिदास का कहीं उल्लेख नहीं किया, जबकि मेधावी, रामशर्मा, १. म.म.पी. वी.काणे- संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, पृ. ५७ २. (क) ‘ततोऽर्थादिति केचन’-काव्याः,५.६.(ख) ‘तद्विदोनान्तरीयार्थ दर्शनं चापरं विदुः’- काव्या., ५.११ ३. Vidyalhushama-History of Indian Logic, p-266-67- . ७५ आचार्य भामह और आचार्य दण्डी अश्मकवंश, रत्नाहरण जैसे सामान्य और अप्रसिद्ध ग्रन्थकारों का नामोल्लेख किया है। इसका अभिप्राय यह है कि भामह को कालिदास का ज्ञान न था और उन्होंने मेघ आदि को दूत बनाने की चर्चा सहज समान्य रूप से की है।
भामह और भास
कुछ विद्वानों ने भामह और भास के पौर्वापर्य के सम्बन्ध में भी उहापोह किया है। भामह ने काव्यालङ्कार में वत्सेश (वत्सराज उदयन) और उनसे जुड़ी एक महत्त्वपूर्ण घटना की चर्चा की है विजिगीषुमुपन्यस्य वत्सेशं वृद्धदर्शनम् । तस्यैव कृतिनः पश्चादभ्यधाच्चरशून्यताम्।। अन्तर्योधशताकीर्ण सालकायननेतृकम्।। तथाविधं गजच्छद्म नाज्ञासीत् स स्वभूगतम्। यदि वोपेक्षितं तस्य सचिवैः स्वार्थसिद्धये। अहो नु मन्दिमा तेषां भक्तिर्वा नास्ति भर्तरि।। (काव्यालङ्कार ४. ३६-४१) म.म.टी. गणपति शास्त्री का मानना है कि भामह ने यह चर्चा भास-विरचित नाटक ‘प्रतिज्ञा-यौगन्धरायण’ के आधार पर की है क्योंकि आगे के श्लोक सं. ४३ में भामह ने लिखा है हतोऽनेन मम भ्राता मम पुत्रः पिता मम। मातुलो भागिनेयश्च रुषा संरब्धचेतसा।। ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायण’ में उपर्युक्त श्लोक से मिलती हुई पदावली वाला एक प्राकृत गद्यांश आया है-‘मम मादा हदो अणेण मम पिदा अणेण मम सुदो।’ इस प्रकार वत्सराज उदयन की चर्चा और इस गद्यमाग की समानता के आधार पर गणपति शास्त्री ने भामह को भास का परवर्ती सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। वस्तुतः वत्स-राज उदयन की कथा मूलतः ‘वृहत्कथा’ (गुणाढ्य कृत) में आती है तथा बृहत्कथा के आधार पर ही ‘बृहत्कथामञ्जरी’ (क्षेमेन्द्र) और ‘बृहत्कथा सरित्सागर’ (सोमदेव) का निर्माण हुआ है। उनमें भी वत्सराज की कथा है। अतः यह निष्कर्ष निकाल लेना कि भामह ने उक्त कथा ‘प्रतिज्ञा यौगान्धरायण’ से ली है, उचित नहीं है। वैसे तो भामह भास के उत्तरवर्ती हैं ही। क्योंकि महाकवि भास का स्थिति काल, पुष्ट प्रमाणों के आधार पर ४५० ई. पू. से ३७० ई.पू. के बीच माना जाता है। और, भामह की स्थिति काल ५०० ई. के पूर्व नहीं जाता।
*- १. डॉ. कपिलदेव द्विवेदी-संस्कृत साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ. २६४.७६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
भामह और भट्टि
भट्टि, ‘रावणवध’ महाकाव्य के प्रणेता हैं। यह एक शास्त्र काव्य है और इसमें अत्यन्त पाण्डित्यपूर्ण ढंग से काव्य के माध्यम से व्याकरण शास्त्र की शिक्षा दी गयी है। महाकवि के नाम इस काव्य की प्रसिद्धि ‘भट्टिकाव्य’ के रूप में विशेष हुयी है। इस महाकाव्य की रचना सौराष्ट्र काठियावाड़, गुजरात के वलभी नामक राज्य के राजा (श्री) धरसेन के शासनकाल में हुई है ‘काव्यमिदं विहितं मया वलभ्यां श्रीधरसेननरेन्द्रपालितायाम्। कीर्तिरतो भवतान्नृपस्य तस्य प्रेयःकरः क्षितिपो यतः प्रजानाम् ।।’ (भट्टिकाव्य, २२.३५)। इस काव्य के रचनाकाल के सम्बन्ध में किया गया यह स्पष्ट संकेत भी वस्तुतः अस्पष्ट ही है क्योंकि वलभी राज्य के इतिहास में श्रीधर सेन नामक चार राजा हो चुके हैं। कवि भट्टि ने इनमें से किस (श्री) धरसेन का उल्लेख किया है- यह कहना सम्भव नहीं है। प्रो. मजूमदार ने मन्दसौर सूर्यमन्दिर के ४७३ के उत्कीर्ण लेख में कथित वत्सभट्टि को ही भट्टिकाव्य का निर्माता स्वीकार किया है। किन्तु प्रो. काणे, प्रो. के.बी. पाठक और प्रो. कीथ ने प्रो. मजुमदार के मत का खण्डन किया है। अतः भट्टि के यथार्थ स्थितिकाल का निर्णय दुष्कर है। भट्टिकाव्य में उसके वैशिष्ट्य का प्रतिपादन करते हुए कवि कहता है ‘व्याख्यागम्यमिदं काव्यमुत्सवः सुधियामलम् । हता दुर्मेधसश्चास्मिन् विद्वत्प्रियतया मया।। (भट्टिकाव्य, २२.३४)। भामह के काव्यालङ्कार में भी एकदम इसी भाव को एक श्लोक में व्यक्त किया गया है ‘काव्यान्यपि यदीमानि व्याख्यागम्यानि शास्त्रवत्। उत्सवः सुधियामेव हन्त दुर्मेधसो हताः।। (काव्या., २.२०)। उपर्युक्त दोनों श्लोकों में इतना अधिक साम्य है कि निश्चित ही भामह और भट्टि में से किसी एक ने दूसरे का भावानुवाद किया है। किन्तु दोनों के ही निश्चित स्थिति काल अनिर्णय होने से इस सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता।
भामह और न्यासकार
महर्षि पाणिनिकृत ‘अष्टाध्यायी’ पर ‘काशिकावृत्ति और काशिका’ पर जिनेन्द्रबुद्धिकृत
७७ ‘काशिका विवरण पञ्जिका’ नामक टीका प्राप्त होती है। इस टीका की अधिक प्रसिद्धि इसके मूल नाम से न होकर ‘न्यास’ के नाम से अधिक है। जिनेन्द्रबुद्धि की इस टीका (न्यास) से पूर्व हरदत्त ने ‘पदमञ्जरी’ नामक टीका ‘काशिका’ पर की थी। डॉ. याकोबी ने भविष्यपुराण के आधार पर लिखा है कि हरदत्त की मृत्यु ८७८ ई. के आस-पास हो गयी थी।’ इसका तात्पर्य है कि हरदत्त नवम शताब्दी ई. में थे। डॉ. कीलहान आदि विद्वान् स्पष्ट रूप से मानते हैं कि जिनेन्द्रबुद्धि ने अपने ‘न्यास’ में अनकेत्र ‘पदमञ्जरी’ की नकल की है। इससे यह मानना पड़ेगा कि जिनेन्द्रबुद्धि, हरदत्त के परवर्ती (दशम शताब्दी ई.) हैं। भामह ने काव्यालङ्कार में एक जगह न्यासकार के मत का उल्लेख किया है ‘शिष्टप्रयोगमात्रेण न्यासकारमतेन वा। तृचा समस्तषष्ठीकं न कथञ्चिदुदाहरेत्।। सूत्रज्ञापकमात्रेण वृत्रहन्ता यथोदितः। अकेन च न कुर्वीत वृत्तिं तद्गमको यथा।। (काव्य., ६. ३६-३७)। इस आधार पर प्रो. पाठक ने यह मत प्रतिपादित किया कि भामह, न्यासकार जिनेन्द्र बुद्धि के पश्चात्वर्ती हैं। प्रो. पाठक ने इत्सिंग के यात्रा-विवरण के आधार पर जिनेन्द्रबुद्धि का समय सप्तम शताब्दी ई. में स्थिर किया और फिर भामह को अष्टम शताब्दी ई. का माना। किन्तु अधिकांश विद्वान् प्रो. पाठक के इस मत से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार भामह द्वारा उल्लिखित न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि नहीं है। ‘न्यास’ शब्द का प्रयोग प्रायेण व्याकरण ग्रन्थों की टीका या व्याख्या के लिए होता है। और जिनेन्द्रबुद्धि के पूर्व भी अनेक न्यासग्रन्थों का पता चलता है। माधवाचार्य ने अपनी ‘माधवीय धातुवृत्ति’ में क्षेमेन्द्र न्यास, न्यासोद्योत, बोधिन्यास, शाकटायन-न्यास आदि अनेक न्यासग्रन्थों का उल्लेख किया है। बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ में आए हुए ‘कृतगुरुपदन्यासाः’ पद की व्याख्या करते हुए टीकाकार शङ्कर ने लिखा है-“कृतोऽभ्यस्तो गुरुपदं दुर्बोधशब्दे न्यासो वृत्तिर्विवरणं 3:" यहाँ टीकाकार ने ‘न्यास’ का अर्थ वृत्ति या विवरण ही किया है, न कि जिनेन्द्रबुद्धि का ग्रन्थ विशेष ‘न्यास।’ अन्यथा जिनेन्द्रबुद्धि को बाणभट्ट से पूर्ववर्ती मानना होगा। अतः जो लोग न्यासकार पद का उल्लेख देखकर भामह को जिनेन्द्रबुद्धि के बाद होने वाला सिद्ध करना चाहते हैं, उनका मत उचित नहीं माना जा सकता।
भामह और दण्डी
भामह के कथनों के साथ दण्डी की उक्तियों की भी असाधारण समानता प्राप्त होती है। अनेक स्थल तो ऐसे है जो भामहकृत काव्यालङ्कार में जैसे हैं वैसे ही ज्यों के त्यों १. जे.आर.ए.एस. (जर्नल आफ रॉयल एसियाटिक सोसायटी), बम्बई, भाग २३, पृ.३१ ७८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र दण्डिकृत काव्यादर्श में भी समान प्रसंग में हैं। इनकी समानता देखकर विस्मय होता है। कि एक भी अक्षर इधर-उधर नहीं है। यहाँ हम ऐसे कुछ स्थलों को उद्धृत करते हैं १. ‘सर्गबन्धो महाकाव्यम्’-काव्यालङ्कार, १.१६ और काव्यादर्श, १.१४. २. ‘मन्त्रिदूतप्रयाणाजिनायकाम्युदयैरपि’-काव्यालङ्कार, १.२० और काव्यादर्श, १.१७. ३. ‘कन्याहरणसङ्ग्राम विप्रलम्भोदयादयः’-काव्यालङ्कार, १.२७ और काव्यादर्श, १.२६ ४. ‘अद्य या मम गोविन्द जाता त्वयि गृहागते। कालेनैषा भवेत्प्रीतिस्तवैवागमनात् पुनः।।’ काव्यालङ्कार, ३.५ और काव्यादर्श, २.२७६ ५. ‘तद् भाविकमिति प्राहुः प्रबन्धविषयं गुणम्’-काव्यालङ्कार, ३.५३ और काव्यादर्श, २.३६४ ६. ‘अपार्थं व्यर्थमेकार्थं विरोधि च’-काव्यालङ्कार, ४.१-२ और काव्यादर्श, ३.१२५-२६ ७. ‘समुदायार्थशून्यं यत् तदपार्थकमिष्यते’-काव्यालङ्कार, ४.८ और काव्यादर्श, ३.१२८. ‘गतोऽस्तमर्को भातीन्दुर्यान्ति वासाय पक्षिणः’-काव्यालङ्कार, २.८७ और काव्यादर्श, २.२४४, ६. ‘आक्षेपोऽर्थान्तरन्यासो व्यतिरेको विभावना’-काव्यालङ्कार, २. ६६ और काव्यादर्श, २.४. १०. ‘प्रेयो रसवदूर्जस्वि पर्यायोक्तं समाहितम्’-काव्यालङ्कार, ३.१ और काव्यादर्श, २.५ उपर्युक्त उदाहरण ऐसे हैं जो दोनों ही ग्रन्थों में अर्थतः तो एक हैं ही, शब्दतः भी एक रूप हैं। किसी में यदि भेद है भी तो नाम मात्र का। यथा, द्वितीय उदाहरण में काव्यालंकार में ‘च यत्’ के स्थान पर काव्यादर्श में ‘अपि’ का प्रयोग किया गया है। ऐसे ही अन्य कुछ उदाहरण में मामूली सा अन्तर दिखाई देता है। दोनों ग्रन्थों में कुछ स्थल ऐसे भी हैं जहाँ एक दूसरे के मत की आलोचना पाई जाती है। भामह ने काव्य के पाँच भेद करते हुए कथा को आख्यायिका से भिन्न माना है सर्गबन्धोऽभिनेयार्थं तथैवाख्यायिकाकथे। अनिबद्धं च काव्यादि तत्पुनः पञ्चधोच्यते।। (काव्यालङ्कार, १.१८). अर्थात्, महाकाव्य रूपक, आख्यायिका, कथा और मुक्तक-काव्य के पाँच भेद हैं। भामह ने इनमें कथा और आख्यायिका को अलग-अलग माना है। किन्तु भामह की इस मान्यता का खण्डन करते हुए दण्डी ने काव्यादर्श में अपना मत प्रतिपादित किया है ‘तत् कथाऽऽख्यायिकेत्येका जातिः संज्ञा द्वयाकिता।’ (१.२८) ७६ आचार्य भामह और आचार्य दण्डी । भामह ने अपने पूर्ववर्ती आचार्य मेधावी’ (या मेधाविरुद्र) के आधार पर उपमा के सात दोष बताये हैं किन्तु दण्डी ने इस मत की आलोचना करते हुए कहा है कि न लिङ्गवचने भिन्ने न हीनाधिकतापि वा। उपमा दूषणायालं यत्रोद्वेगो न धीमताम् ।। (काव्यादर्श, २.५१) भामह और दण्डी के ग्रन्थों में इस प्रकार के सारूप्य के अनेक स्थान प्राप्त होते हैं। इससे स्पष्टतः होता है कि इनमें से किसी एक ने दूसरे को लक्ष्य कर उसके आधार से ही अपने ग्रन्थ में उन प्रसङ्गो का उपन्यास किया है। इसी के अनुसार दोनों ही आचार्यों के पौर्वापर्य के सम्बन्ध में संस्कृत के आधुनिक समीक्षक विद्वानों में स्थापना और खण्डन का विवाद चला। सर्वप्रथम एम.टी. आयङ्गार ने इस प्रश्न को उठाया और आचार्य दण्डी को भामह से पूर्व सिद्ध करने का प्रयास किया किन्तु अनेक विद्वानों ने आयंगार के मत का खण्डन किया। प्रतापरुद्रयशोभूषण की भूमिका में त्रिवेदी ने, काव्यादर्श की भूमिका में प्रो. पाठक ने इस विषय की सविस्तार आलोचना करते हुए आयङ्गार के मत का खण्डन किया। डॉ. जैकोबी ने भी आयङगार के मत का खण्डन किया। अतः प्रायः सभी विद्वान् भामह को दण्डी के पूर्व ही मानने के पक्ष में हैं। Water १. काव्यशास्त्र के इतिहास में ज्ञात आचार्यों में भरत मुनि सर्वप्राचीन हैं और इनकी कृति ‘नाट्य शास्त्र’ भी उपलब्ध है। किन्तु इनके पश्चात् भामह ही अपनी कृति ‘काव्यालङ्कार’ सहित जाने जाते हैं। भरत और भामह के बीच प्रायः ६-७ सौ वर्षों का अन्तर है। इस काल खण्ड में काव्यशास्त्र का कोई आचार्य न हुआ हो- यह आश्चर्यप्रद और अविश्वसनीय लगता है। निश्चय ही आचार्य हुए होंगे किन्तु उनके और उनके कर्तृत्व के विषय में दुर्योगवश कोई भी जानकारी हमें उपलब्ध नहीं हैं। भामह, नमिसाधु और राजशेखर के ग्रन्थों से हमें ज्ञात होता है। कि भरत और भामह के बीच, मेधावी (अथवा, मेधाविरुद) नाम के अलङ्कारशास्त्र के एक आचार्य हुए थे। किन्तु उनका कोई ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। भामहादि के उल्लेख के आधार पर हमें उनके कुछ सिद्धान्तों का ज्ञान अवश्य होता है। मेधावी के उपमादोषों की चर्चा उत्तरवर्ती ग्रन्थों में हुई है। भामह ने काव्यालङ्कार में लिखा है ‘हीनताऽसम्भवो लिङ्गवचोभेदो विपर्ययः। उपमानाधिकत्वं च तेनासदृशतापि च।। त एत उपमादोषाः सप्त मेधाविनोदिताः। सोदाहरणलक्ष्माणो वर्ण्यन्तेऽत्र ते पृथक् ।। (काव्यालंकार, २.३६-४० इसी प्रकार यथासंख्य’ और ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार के सम्बन्ध में मेधावी के मत का उल्लेख करते हुए भामह ने लिखा है यथासंख्यमथोत्प्रेक्षामलकारद्वयं विदुः। संख्यानमिति मेधावीनोत्प्रेक्षाऽमिहिता क्वचित् ।। काव्या., २.८८. रुद्रट के टीकाकार नमिसाथ, काव्यलकार सूत्र के कर्ता वामन और काव्यादर्श के कर्ता दण्डी ने बिना । नाम लिए मेधावी के मतों का पर्यालोचन किया है। नमिसाधु ने अन्यत्र उन्हें मेधाविरुद्र के नाम से उद्धृत किया है तथा राजशेखर ने मेधाविरुद्र का उल्लेख एक कवि के रूप में भी किया है। २. जनरल ऑफ रॉयल एसियाटिक सोसायटी, १६०५, पृ. ३५५
अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र आचार्य दण्डी ने अपने को भारवि का प्रपौत्र कहा है। कुछ वर्षों पूर्व ‘अवन्तिसुन्दरी-कथा’ नामक एक ग्रन्थ मिला है जो दण्डी द्वारा निर्मित कहा जाता है। इसमें एक श्लोक में बाण और मयूर का उल्लेख है ‘भिन्नतीक्ष्णमुखेनापि चित्रं बाणेन निर्व्यथः। व्याहारेषु जहौ लीलां न मयूरः…।’ अतः, दण्डी को बाणभट्ट का पश्चाद्वर्ती मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है। आनन्दवर्धन के ‘ध्वन्यालोक’ के आधार पर भामह, बाणभट्ट से पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। ध्वन्यालोक चतुर्थ उद्योत में यह कारिका आई है दृष्टपूर्वा अपि यर्था काव्ये रसपरिग्रहात्। सर्वे नवा इवाभान्ति मधुमास इव द्रुमाः।। इसका अर्थ है कि पुराने अर्थ भी रस के सम्पर्क से उसी प्रकार नये लगने लगते हैं जैसे बसन्त मास में पुराने वृक्ष भी नये लगने लगते हैं। उपर्युक्त कारिका की व्याख्या करते हुए वृत्ति भाग में आनन्दवर्धन ने लिखा है “तथा हि विवक्षितान्यपरवाच्यस्यैव शब्दशक्त्युभवानुरणनरूप-व्यङ्ग्यप्रकार-समाश्रयेण नवत्वम्। यथा-‘धरणीधारणायाधुना त्वं शेषः’ इत्यादौ ‘शेषो हिमगिरिस्त्वं च महान्तो गुरवः स्थिराः’ इत्यादिषु सत्स्वपि।" इसका आशय है कि ‘शेषो हिमगिरिः’ इत्यादि प्राचीन श्लोक में वर्णित अर्थ ही ‘धरणीधारणायाधुना त्वंशेषः’ -इस वाक्य में नवीन रूप से कहा गया है। यहाँ शब्द-शक्त्युत्थ अलंकार ध्वनि के सन्निवेश से विशेष चमत्कार आ जाने से इसमें नूतनता दृष्टिगोचर हो रही है। आनन्दवर्धन के इस विवेचन से, पूर्वकवियों द्वारा वर्णित अर्थों में नवीनता का आधान किया जा सकता है। इस मत का समर्थन होता है। उपर्युक्त स्थान में आनन्दवर्धन द्वारा जो दो वाक्य उद्धृत किए गए हैं, वे विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। ‘शेषो हिमगिरिस्त्वं च’ श्लोक को प्राचीन माना गया है और ‘धरणीधारणाय’ को नवीन माना गया है। ‘शेषो हिमगिरि’ श्लोक भामहकृत ‘काव्यालङकार’ के तृतीय परिच्छेद का २८ वाँ श्लोक है। ‘धरणीधारणायाधुना’ इत्यादि वाक्य, बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ के चतुर्थ उच्छ्वास के १५वें अनुच्छेद में आया है। इसका स्पष्ट ही संकेत है कि बाणभट्ट का यह वाक्य भामह के वाक्य की अपेक्षा नवीन है। अतः भामह बाणभट्ट के पूर्ववर्ती हैं। दण्डी निश्चय ही बाणभट्ट के परवर्ती हैं। इस प्रकार भामह, दण्डी के पूर्ववर्ती हैं-यह प्रमाणित होता हैं। AAHESARStreams
ANAND आचार्य भामह और आचार्य दण्डी युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार, निरुक्त के टीकाकार स्कन्दस्वामी ने अपनी रचनाओं में भामह का एक श्लोक उद्धृत किया है। स्कन्दस्वामी का समय ६३० ई. के लगभग है। इससे भामह का सातवीं शताब्दी ई.से पूर्व होना अनुमित होता है। __ आचार्य भामह ने पाणिनि, कात्यायन और पतञ्जलि का सादर उल्लेख किया है। किन्तु स्फोटवाद का दृढ़तापूर्वक खण्डन किया है। यद्यपि स्फोटवाद के प्रतिष्ठापक साहित्यशास्त्रियों ने इसका बीज पतञ्जलिकृत महाभाष्य में माना है परन्तु व्याकरण दर्शन के इस पक्ष की स्थापना वस्तुतः भर्तृहरिकृत ‘वाक्यपदीय’ में हुयी है। इत्सिंग के अनुसार, भर्तृहरि का देहावसान ६६० ई. में हुआ था। भर्स्टहरि, बौद्धदार्शनिक दिङ्नाग के शिष्य और नालन्दा शिक्षा केन्द्र के प्रधान, धर्मपाल के समकालिक थे। धर्मपाल, ६३५ ई. में वर्तमान थे। उन्होंने वाक्यपदीय पर कोई टीका भी लिखी थी। स्कन्दस्वामी कृत निरुक्तटीका (६३०ई.) में वाक्यपदीय की कारिका उद्धृत की गयी है। इससे ‘वाक्यपदीय’ का रचनाकाल ६२५ ई. के पूर्व ही प्रमाणित होता है। इसलिए यह कहना उचित होगा कि भामह के समय में ही वाक्यपदीय की भी रचना हुयी। भर्तृहरि ने वाक्यपदीय को अपने गुरु (वसुरात) के सिद्धान्तों का सङ्ग्रह मात्र बताया है। भर्तृहरि का यह कथन अपने गुरु के प्रति विनम्र श्रद्धा प्रदर्शित करना भी हो सकता है, किन्तु यदि यह यथार्थ है तो भामह ने निश्चय ही स्फोटवाद का खण्डन करके आचार्य वसुरात के मत का खण्डन किया है, जिनका समय ६०० ई. के बाद नहीं माना जा सकता। उपर्युक्त विवेचनों के आधार पर, भामह को दिङ्नाग और बाणभट्ट के मध्य अर्थात् ५०० ई. से ६०० ई. तक रखा जा सकता है। भामह को ६०० ई. के बाद मानना तर्क संगत नहीं होगा।
भामह का परिचय
आचार्य भामह ने न तो स्वयं अपने विषय में विशेष कुछ लिखा हे और न ही अन्यत्र उनके बारे में कोई उल्लेख मिलता है। प्राचीन काल में स्वविषयक कथन के प्रति उदासीनता के कारण हमें संस्कृत वाङ्मय के जिन अनेक आचार्यों, लेखकों और महाकवियों के जीवन के सम्बन्ध में कोई भी प्रामाणिक जानकारी नहीं है, उनमें से भामह भी एक हैं। ॐ १. व्याकरणशास्त्र का इतिहास २. आचार्य सत्यव्रत ‘सामाश्रमी’- ‘निरुक्तालोचनम्’, कलकत्ता, १६०७ ३. काव्यालङ्कार, ६.१,२६, ६२ इत्यादि। वही, ६.१२ . इत्सिंग की भारतयात्रा, अनु. लाला सन्तराम, पृ. २७४-७५, प्रयाग, १६०५ ई. ६. श्रीनिवास शास्त्री- न्यायबिन्दु, भूमिका. पृ.६ ७. डॉ. भागीरथ प्रसाद त्रिपाठी-वाक्यपदीय (ब्रह्मकाण्ड), प्रस्तावना, पृ. ३४२ ६. युधिष्ठिर मीमांसक-व्याकरणशास्त्र का इतिहास, पृ. ३४२
८२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र आचार्य भामह ने काव्यालङ्कार के अन्त, में एक उपसंहारपरक पद्य में अपने तथा अपने पिता के नाम मात्र का कथन किया है अवलोक्य मतानि सत्कवीना-मवगम्य स्वधिया च काव्यलक्ष्म। सुजनावगमाय भामहेन ग्रथितं रक्रिलगोमिसूनुनेदम् ।। (काव्यालङ्कार, ६.६४) उपर्युक्त पद्य के आधार पर काव्यालङ्कार की रचना ‘रक्रिलगोमि’ या ‘रक्रिलगोमिन्’ के पुत्र ‘भामह’ के द्वारा की गयी है। इससे केवल यह ज्ञात होता है कि भामह के पिता का नाम रक्रिल-गोमिन् था। इसके अतिरिक्त भामह के व्यक्तिगत जीवन के विषय में स्पष्टतः कुछ भी नहीं ज्ञात होता। परम्परागत रूप से भामह को कश्मीरी विद्वान् के रूप में विद्वानों द्वारा स्वीकार किया जाता है।’ एम. कृष्णमाचार्य ने यह सम्भावना व्यक्त की है कि गौतम धर्मसूत्रपर टीका करने वाला ‘मस्करी’ भामह का पुत्र था। ##### भामह का धर्म भामह का व्यक्तिगत जीवन परिचय प्रायः अज्ञात है और स्थितिकाल भी सुनिश्चित नहीं है। यही बात उनके धर्म के विषय में है। ‘काव्यालङ्कार’ के मङ्गलाचरण में प्रयुक्त ‘सर्वज्ञ’ पद के आधार पर कुछ विद्वान् भामह को बौद्धधर्मानुयायी मानते हैं। यही नहीं भामह के पिता का नाम ‘रक्रिलगोमिन्’ भी ऐसा मानने में एक कारण है। अतः इस पर विचार अपेक्षित है। १. काव्यालङ्कार का मङ्गलाचरण इस प्रकार है “प्रणम्य सार्व सर्वज्ञ मनोवाक्कायकर्मभिः। काव्यालङकार इत्येष यथाबुद्धि विधास्यते।।" इसमें भामह ने ‘सार्वसर्वज्ञ’ को प्रणाम किया है। ‘सार्वसर्वज्ञ’ का अर्थ है-‘वह सर्वज्ञ, जो सबका हितकर हो।’ ‘सर्वज्ञ’ का अर्थ ‘बुद्ध’ है। अमरकोश में सर्वज्ञ के बुद्ध का पर्याय माना गया है। २. भामह के पिता का नाम रक्रिलगोमिन है। ‘गोमिन्’ बुद्ध के एक शिष्य का नाम है। ‘रक्रिल’ भी राहुल, सोमिल आदि बौद्ध नामों के समान है। د لله १. Bubler’s Report on Kashmir, पृ. ६४ २. M. Krishnamachariar-A History of Classical Sanskrit Literature, Para 815. कुछ भी संस्करणों में सार्वं सर्वज्ञ’ पाठ भी मिलता है। भामह ने काव्या. ६.५३ में ‘सार्व’ पद की व्यत्पत्ति भी बताई है जिससे प्रतीत होता है कि ‘सार्व’ पद भामह को प्रिय और अभिप्रेत है। ४. ‘सर्वज्ञः सुगतों बुद्धो धर्मराजस्तथागतः’ -अमर. १.१.१३ ……. ………:…:..:..
. आचार्य भामह और आचार्य दण्डी ३. भामह ने काव्यालङ्कार में न्याय-निरूपण करते हुए बौद्धन्याय का अनुमान किया उपर्युक्त बिन्दुओं के आधार पर विद्वानों ने भामह को बौद्ध सिद्ध करने का प्रयास किया है। अतः इन तथ्यों की व्यापक समीक्षा हुई है।’ संक्षेपतः इसे यहाँ प्रस्तुत करना असमीचीन न होगा। __ ‘सर्वज्ञ’ शब्द का व्यवहार केवल बुद्ध के लिए ही होता है-ऐसी बात नहीं है। जिस अमरकोश में इसे बुद्ध का पर्याय माना गया है, उसी अमरकोश के अनुसार ‘सर्वज्ञ’ शब्द ‘शङ्कर’ के पर्यायों में से एक हैं। २ ईश्वर को प्रायः सभी (ईश्वरवादी) सर्वज्ञ= सब कुछ जानने वाला मानते हैं। भामह ने ‘सर्वज्ञ’ के साथ ‘सार्व’ पद का भी पूर्व-प्रयोग किया है। यह ‘सार्वसर्वज्ञ’ बुद्ध के पर्यायों में कहीं भी नहीं रखा गया है। ‘सार्व’ का अर्थ है-‘सबके लिए हितकर।’ इस विशेषण की केवल सर्वज्ञ = बुद्ध के साथ ही सङ्गति हो-ऐसी कोई बाध्यता भी नहीं हैं। यह शब्द व्यापक रूप से किसी भी सत्पुरुष या दैवी पुरुष का विशेषण बनाया जा सकता है। अतः ‘सर्वज्ञ’ = शंकर के साथ भी ‘सार्व’पद विशेषण के रूप में सङ्गत है। प्रायः सभी कश्मीरी आचार्य उद्भट, भट्टनायक आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त शैवमतावलम्बी रहे। भामह भी कश्मीरी आचार्य थे, अतः इनके भी शैव मतावलम्बी होने में सन्देह का अवसर कम ही है। भामह ने मन, वाणी, शरीर और कर्म-इस प्रकार चतुर्धा ‘सार्वसर्वज्ञ’ को प्रणाम किया है। मङ्गलाचरण में इष्टदेव के अतिरिक्त ‘गुरु’ को भी प्रणाम करने की परम्परा है। चूंकि हमें भामह के व्यक्तिगत जीवन के सम्बन्ध में प्रायः कुछ भी नहीं ज्ञात है, अतः उनके विद्या-गुरु के विषय में भी कुछ नहीं कहा जा सकता। हो सकता है कि भामह के गुरु का नाम ‘सार्वसर्वज्ञ’ रहा हो और भामह ने उन्हें प्रणति निवेदन करके काव्यालङ्कार का प्रणयन आरम्भ किया हो। विद्वानों को केवल सर्वज्ञ का अर्थ ‘बुद्ध’ और ‘शङ्कर’ मानकर उसी में नहीं उलझना चाहिए, अपितु इस पक्ष पर भी विचार करना चाहिए। क्योंकि ‘कर्म’ के द्वारा प्रणाम करने का एक विशेष अभिप्राय है। आचार्य भामह के ग्रन्थ में वैदिक वाङ्मय का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है। वैदिक प्रक्रियायें वैदिक पुराकथायें स्थान-स्थान पर उल्लिखित हैं, इसके विपरीत वहाँ बौद्ध वाङ्मय का इस प्रकार का उल्लेख नहीं हुआ है। वैदिक कथादि से सम्बद्ध उदाहरण के श्लोक ‘काव्यालङ्कार’ में जो उपन्यस्त हैं, उन्हें यहाँ उद्धृत करना समीचीन होगा ERMA SHAMM १. म.म.पी. काणे-संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, पृ. १०४-१०६; के.पी. त्रिवेदी- प्रतापरुद्रयश्मेभूषण की भूमिका; पं. बलदेव उपाध्याय और प्रो. बटुकनाथ शर्मा- काव्यालङ्कार, भूमिका, पृ. ६-११. इत्यादि। २. ‘कृशानुरेताः सर्वज्ञो धूर्जटिर्नीललोहितः’-अमर, १.१.३३ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र १. युगादौ भगवान् ब्रह्मा विनिर्मित्सुरिव प्रजाः। (काव्य., २.५५) उदात्तशक्तिमान् रामो गुरुवाक्यानुरोधकः। विहायोपनतं राज्यं यथा वनमुपागमत् ।। (काव्या., ३.११) ३. समग्रगगनायाममानदण्डो रथाङ्गिणः। पादो जयति सिद्धस्त्रीमुखेन्दुनवदर्पणः।। (काव्या., ३.३६) ४. विदधानौ किरीटेन्दू श्यामाप्रहिमसच्छवी। रथाङगशूले विभ्राणौ पातां वः शम्भुशाङ्गिणौ।। (काव्या., ४.२१) कान्ते इन्दुशिरोरत्ने आदधाने उदंशुनी। पातां वः शम्भु- शर्वाण्याविति प्राहुर्विसन्ध्यदः।। (काव्या., ४,२७) HDHINursinutesanivasOMANImagessandesnessemensioniamonisonmmmmmmmmunesamacassessmssssssssm भृतां पतिसोमानां न्याये वर्त्मनि तिष्ठताम्। अलङ्करिष्णुना वंशं गुरौ सति जिगीषुणा।। (काव्या., ४.४८) SHARE ANSAR 10762 ithrasiAweloanxvisde ed MAHITIHANIMALINAWAHARAMMAR ७. भरतस्त्वं दिलीपस्त्वं त्वमेवैलः पुरूरवा। त्वमेव वीर प्रद्युम्नस्त्वमेव नरवाहनः।। (काव्या., ५.५६)। उपर्युक्त श्लोकों में शिव, विष्णु, ब्रह्मा, पार्वती आदि देवताओं का उल्लेख और वैदिक (याज्ञिक) सोमपानादि क्रियाओं का वर्णन, वैदिक (सनातन) धर्म के प्रति आचार्य भामह के अनुराग को स्पष्टतः ही सूचित करता है। भरत, दिलीप, राम, प्रद्युम्न, पुरुरवा आदि का उल्लेख भी सनातन धर्म के प्रति उनकी प्रेमभावना को ही सङ्केतित करता है। उनके एकमात्र (प्रमुख) ग्रन्थ काव्यालङकार में तत्त्वतः ऐसा कोई उल्लेख अथवा वर्णन नहीं उपलब्ध होता जिसके आधार पर उन्हें बौद्ध माना जा सके। अतः, आचार्य भामह को बौद्ध (धर्मावलम्बी) सिद्ध करने का प्रयास तर्कसङ्त नहीं है।
भामह का कर्तृत्व
अभी तक हमें आचार्य भामह का एक मात्र ग्रन्थ ‘काव्यालङ्कार’ ही उपलब्ध है। किन्तु साहित्य के अन्य अनेक ग्रन्थों के उद्धरणों से हमें यह ज्ञात होता है कि भामह की कुछ अन्य रचनायें भी अवश्य रही होंगी। अलङ्कारशास्त्र और छन्दःशास्त्र के वे ग्रन्थ दुर्भाग्य वश आज हमारे समक्ष नहीं हैं। भामह के नाम से उन ग्रन्थों के उद्धरण हमें अन्यत्र अवश्य मिलते हैं। अभिज्ञानशाकुन्तलम् की अपनी टीका में राघवभट्ट ने भामह के छन्दोविषयक मत का उल्लेख किया है आचार्य भामह और आचार्य दण्डी ८५ “क्षेमं सर्वगुरुर्दत्ते मगण्मे भूमिदैवतः।’ इति भामहोक्तेः।” इससे प्रतीत होता है कि उनका छन्दः शास्त्र विषयक कोई ग्रन्थ अवश्य रहा होगा। अभिज्ञान शाकुन्तला की ही टीका में राघवभट्ट ने ‘पर्यायोक्त’ अलङ्कार के सम्बन्ध में यह मत उद्धृत किया है “तल्लक्षणमुक्तं भामहेन पर्यायोक्तं प्रकारेण यदन्येनाभिधीयते। वाच्य-वाचकशक्तिम्यां शून्येनावगमात्मना।। इति। उदाहृतं च हयग्रीववधस्थं पद्यम् यं प्रेक्ष्य चिररूढापि निवासप्रीतिरुज्झिता। मदेनैरावणमुखे मानेन हृदये हरेः।।” भामह के नाम से राघवभट्ट ने पर्यायोक्त अलकार का जो लक्षण और उदाहरण यहाँ उद्धृत किया है, वह भामह के उपलब्ध ‘काव्यालङ्कार’ में नहीं मिलता। वर्तमान काव्यालङ्कार में पर्यायोक्त अलङ्कार का जो लक्षण और उदाहरण दिया गया है, वह प्रकार है पर्यायोक्तं यदन्येन प्रकारेणामिधीयते। उवाच रत्नाहरणे चैद्यं शाङ्गधनुर्यथा।। (काव्या. ३.८)। पर्यायोक्त अलङ्कार का लक्षण-उदाहरण यहाँ एक ही श्लोक में है जबकि राघवभट्ट द्वारा उद्धृत किया गया लक्षण और उदाहरण अलग-अलग है। लक्षण की प्रथम पंक्ति में तो कुछ हद तक शब्दसाम्य है कि द्वितीय पंक्ति एकदम भिन्न है। किन्तु मात्र इतने ही साक्ष्य से भामह के अन्य अलङ्कार शास्त्रविषयक ग्रन्थ की कल्पना करना युक्तिसङ्गत नहीं है। पर्यायोक्त अलङ्कार के उपर्युक्त भेद का कारण लिपिकारों का प्रमाद-अथवा उनके पाण्डित्यप्रदर्शन जन्य प्रक्षेपादि भी हो सकते हैं। जो भी हो, ‘काव्यालङ्कार’ जैसे विशद और प्रौढ़ ग्रन्थ की रचना करने के पश्चात् उन्हीं सिद्धान्तों, लक्षणों और उदाहरणों के हेरफेर से पिष्टपेषण करने के लिए भामह ने पुनः अलङ्कार शास्त्र विषयक कोई दूसरा ग्रन्थ लिखा होगा-यह क्लिष्टकल्पना ही प्रतीत होती है। हलांकि भोजराज ऐसे आचार्य हुए हैं। जिन्होंने ‘शृङ्गार प्रकाश’ और ‘सरस्वती कण्ठाभरण’ जो दो बृहद्ग्रन्थ काव्य-शास्त्रविषयक ही लिखे हैं। आचार्य मम्मट ने भी ‘काव्यप्रकाश’ के द्वितीय उल्लास में शब्दशक्तियों (या वृत्तियों) पर विमर्श करने के साथ ही अलग से भी ‘शब्दव्यापारविचार’ नामक एक लघुकाय ग्रन्थ भी लिखा है। अतः यदि भामह ने भी ऐसा किया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं किन्तु भामह के किसी अन्य ग्रन्थ की उपलब्धता न होने से अन्यग्रन्थ रचना के विषय में सन्देह तो है ही।८६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र __ भामह द्वारा छन्दःशास्त्रविषयक ग्रन्थ की रचना भी सम्भावित है क्योंकि इनके नाम से छन्दोविषयक मत उदाहृत किए गए हैं। पूर्व में हम राघवभट्ट द्वारा उद्धृत अंश को प्रस्तुत कर चुके हैं। वृत्तरत्नाकर की टीका में नारायण भट्ट ने भामह के मत को उद्धृत किया है REPRECANSAR “तदुक्तं भामहेन ‘अवर्णात् सम्पत्तिर्भवति मुदिवर्णात् धनशता न्युवर्णाद् अख्यातिः सरभसमृवर्णाद्धरहितात्। तथा ह्ययेचः सौख्यं ड. -ज-णरहितादक्षरगणात पदादौ विन्यस्ताद् भ-र-ब-ह-ल-हाहाविरहितात्।।" तथा च, तदुक्तं भामहेन देवतावाचकाः शब्दाः ये च भद्रादिवाचकाः। ते सर्वे नैव निन्द्याः स्युलिपितो गणतोऽपिवा।। कः खो गो घश्च लक्ष्मी वितरति वियशो डस्तथा चः सुखं छः प्रीतिं जो मित्रलम्भं भयमरणकरौ झ-जौ टठौ खेददुःखे। डः शोभां ढो विशोभा भ्रमणमथ च णस्तः सुखं थश्च युद्धं दो धः सौख्यं मुदं नः सुखभयमरणक्लेशदुःखं पवर्गः।। यो लक्ष्मी रश्च दाहं व्यसनमथ ल-वौ शः सुखंषश्च खेदं सः सौख्यं हश्च खेदं विलयमपि च लः क्षः समृद्धिं करोति। संयुक्तं चेह न स्यात् सुख-मरण-पटुवर्णविन्यासयोगः पद्यादौ गद्यवक्त्रे वचसि च सकले प्राकृतादौ समोऽयम्।। वृत्तरत्नाकर, नारायणभट्टकृत टीका, प्रारम्भिक भाग। उपर्युक्त के आधार पर भामह के छन्दोविषयक सिद्धान्त का ज्ञान होता है। इससे यह सम्भावना की जा सकती है कि आचार्य भामह का कोई ग्रन्थ छन्दः शास्त्र पर भी रहा होगा। आचार्य भामह के नाम से वररुचिकृत ‘प्राकृतप्रकाश’ की ‘प्राकृतमनोरमा’ नामक टीका उपलब्ध होती है। प्राकृत-व्याकरण में इस टीका का अत्यधिक महत्त्व स्वीकार किया जाता है। पिशेल ने ‘काव्यालङ्कार’ और ‘प्राकृतमनोरमा’-इन दोनों ग्रन्थों का कर्ता भामह को माना है। ये दोनों ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध हैं। ‘काव्यालङ्कार’ भामह का मौलिक और १. अ-वररुचिरचित प्राकृत प्राकृत प्रकाश लक्षणसूत्राणि लक्ष्यमार्गेण। बुद्ध्वा चकार वृत्तिं संक्षिप्तां भामहः स्पष्टाम्।। ८७ आचार्य भामह और आचार्य दण्डी स्वतन्त्र ग्रंथ है। जबकि ‘प्राकृतमनोरमा’ ‘प्राकृत प्रकाश’ की एक टीका मात्र है। भामह का तीसरा ग्रन्थ छन्दःशास्त्र विषयक रहा होगा-ऐसी सम्भावना की जाती है।’ ##### भामहकृत काव्यालङ्कार ‘काव्यालङ्कार’ अलङ्कारशास्त्र का प्रथम उपलब्ध ग्रन्थ है, जिसमें अलङ्कार एक स्वतन्त्र शास्त्र के रूप में दृष्टिगोचर होता है। इससे पूर्व भरत का ‘नाट्यशास्त्र’ काव्य की सभी विधाओं को व्यापक और मिला-जुला रूप प्रदर्शित करता है। नाट्यशास्त्र के नवम अध्याय में अलङ्कार, गुण, दोषादि के लक्षण दिए गए हैं किन्तु वे गौण रूप से ही हैं क्योंकि उन्हें नाट्यशास्त्र के अङ्ग के रूप में वहाँ प्रस्तुत किए गए हैं। स्वतन्त्रतया, अलङ्कार शास्त्र को एक पृथक् शास्त्र के रूप में प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ भामहकृत ‘काव्यालङ्कार’ ही है। काव्यालङ्कार की प्रथम मातृका (हस्तलिखित ग्रन्थ = Manuscript) ढूँढ निकालने का श्रेय प्रेसीडेंसी कालेज, मद्रास के प्रो. रङ्गाचार्य, एम.ए. को है, जिसका श्री आर. नरसिंहाचार ने अपने द्वारा सम्पादित ‘काव्यावलोकनम्’ (कन्नड़, १६०३ ई.) में किया है। इससे पूर्व मातृकाओं के खोजी बुह्लर ने इसे सर्वथा लुप्त घोषित कर दिया था। काव्यशास्त्र की इस अतिमहत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कृति को संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रेमी और सुधी पाठकों के समक्ष मुद्रित रूप में सर्वप्रथम प्रस्तुत करने का श्रेय श्री के.पी. त्रिवेदी को है। जिन्होंने अपने द्वारा सम्पादित ‘प्रतापरुद्रयशोभूषण’ के परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित किया। वहाँ उन्होंने एक विस्तृत सार्थक भूमिका तथा पाठभेदों के निर्देश के साथ इसका प्रथम सम्पादन करके मुद्रित श्री के.पी. त्रिवेदी के इस संस्करण का आधार दो हस्तलिखित ग्रन्थ (मातृकायें) थे, जो उन्हें क्रमशः महाराज संस्कृत पुस्तकालय, त्रिवेन्द्रम तथा गवर्नमेण्ट ओरियण्टल लाइब्रेरी, मद्रास से उपलब्ध हुए थे। दूसरी मातृका, पहली मातृका की प्रतिलिपि ही मानी जाती है और पहली मातृका भी अनेक स्थानों पर त्रुटिपूर्ण है। किन्तु सभी प्रकाशित संस्करणों का मूल आधार मात्र यही है, इसलिए ‘काव्यालाङ्कार’ का कोई निर्दोष संस्करण अभी तक प्रकाशित न हो सका। अभी तक इस ग्रन्थ के कुल छः संस्करण विभिन्न रूपों में प्रकाशित हुए हैं, जिनका विवरण अधोलिखित है REETE १. ब आचार्य भामह द्वारा विरचित एक चौथे ग्रन्थ की भी सम्भावना की जाती है। श्री एम. कृष्णाचार्य सचित करते हैं कि भामह के नाम से ‘रसिकरसायनम्’ नामक काव्यशास्त्र की एक रचना उपलब्ध है जिसके सात प्रकरणमें मे काव्यशास्त्र के प्रायः सभी विषयों का अच्छा विवेचन किया गया है। इसमें भरत द्वारा प्रतिपादित नाट्यालङ्कारों का भी पुनर्विवेचन किया गया है। इस पर एक वृत्ति भी है। जिसमें काव्यप्रकाश, भावप्रकाशन और मालतीमाधव से उद्धारण दिए गए हैं। किन्तु ‘रसिकरस यनम्’ भामह की ही कृति है-ऐसा निश्चयपूर्वक कहना कठिन है क्योंकि इसके लिए कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। २. काव्यालङकार, काशी संस्कृत सीरीज, भूमिका, पृ.३ 3. Buhler’s Kashmir Report, 1877, अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र १. ‘प्रतापरुद्रयशोभूषण’ के परिशिष्ट के रूप में श्री के.पी. त्रिवेदी द्वारा सम्पादित ‘काव्यालङ्कार’, बम्बई संस्कृत सिरीज, १६०६. श्री पी.वी. नागनाथ शास्त्री, अंग्रेजी अनुवाद सहित (प्रथमतया स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रकाशित), वल्लभ प्रिंटिंग हाउस, तंजौर, १६२७. ३. पं. बटुकनाथ शर्मा और पं. बलदेव उपाध्याय द्वारा विस्तृत भूमिका (अंग्रेजी) के साथ सम्पादित, काशी संस्कृत सिरीज, १६२८. श्री शैलजाचार्य द्वारा लिखित स्वोपज्ञ संस्कृत टीका (उद्यानवृत्ति) के साथ प्रकाशित, श्रीनिवास प्रेस, तिरुवदी, १६३४. श्री शङ्कर रामशास्त्री द्वारा अंग्रेजी अनुवाद के साथ (तृतीय परिच्छेद पर्यन्त मात्र) प्रकाशित, बालमनोरमा प्रेस, माइलपुर, मद्रास, १६५६. ६. डॉ. देवेन्द्रनाथ शर्मा कृत हिन्दी अनुवाद और सटिप्पणी विशद व्याकरण सहित प्रकाशित,’ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, १६६२. उपर्युक्त सभी संस्करणों का मूल आधार श्री के. पी. त्रिवेदी द्वारा प्रकाशित संस्करण। इस प्रकार भामह के ‘काव्यालङ्कार’ का व्यवस्थित और समालोचित अन्तिम संस्करण डॉ. देवेन्द्रनाथ शर्मा का है जो १६६२ ई. में प्रकाशित हुआ है। इसके पश्चात् अब तक इस ग्रन्थ की समीक्षायें और शोधलेख तो प्रकाशित होते रहे किन्तु मूल ग्रन्थ का कोई नवीन संस्करण मुद्रित होकर प्रकाशित नहीं हुआ। १६८४ ई. में काशी विद्यापीठ, वाराणसी से शोधछात्र (डॉ.) सच्चिदानन्द ने संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो. अमरनाथ पाण्डेय के निर्देशन में महत्त्पूर्ण शोधप्रबन्ध-‘भामहकृत काव्यालङ्कार का परिशीलन’-पी.एच.डी. उपाधि के लिए प्रस्तुत किया। अभी यह अप्रकाशित है।
काव्यालङ्कार का विभाजन और विषयविवेचन
‘काव्यालङ्कार’ छः परिच्छेदों में विभक्त है। इन छः परिच्छेदों में कुल मिलाकर काव्यशास्त्र से सम्बद्ध पाँच विषयों का विवेचन हुआ है। काव्यालङ्कार के अन्त में इस विषय में दो कारिकायें उपलब्ध होती हैं षष्ट्या शरीरं निर्णीतं शतषष्ट्या त्वलकृतिः। पञ्चाशता दोषदृष्टिः सप्तत्या न्यायनिर्णयः।। FACEBARE षष्ट्या शब्दस्य शुद्धिः स्यादित्येवं वस्तु पञ्चकम् । १. डॉ. शर्मा ने स्वकृत संस्करण की मूल प्रेरणा म.म.पी. काणे का अधोलिखित कथन बताया है Unfortunately all these printed editions are unsatisfactory. The manuscript material is meagre and the editors do not explain many knotty points, nor do they bring together all the various readings in Bhamaha’s text,…… A scholarly edition of Bhamaha’s work is a great desideratum." History of Sanskrit Poetics by P.V. Kane, p. 78.
३. दोष आचार्य भामह और आचार्य दण्डी उक्तं षड्भिः परिच्छेदैः भामहेन क्रमेण वः।।’ कुछ विद्वानों का यह मानना है कि ये दो कारिकायें ‘काव्यालङ्कार’ ग्रन्थ का अंग नहीं हैं और भामहविरचित भी नहीं है। किन्तु इस विषय में स्पष्टतः प्रामाणित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। हाँ, उपलब्ध संस्करणों में कारिकाओं की संख्या ठीक वैसी नहीं है। जैसा कि इन दोनों कारिकाओं में निर्देश किया गया है। इसे हम अधोलिखित प्रकार से देख सकते हैं क्रम सं. विषय परिच्छेद कारिकाओं की कारिकाओं निर्दिष्ट संख्या की उपलब्ध संख्या १. काव्यशरीर प्रथम ६० ५६ २. अलङ्कार द्वितीय + तृतीय १६० १५४ चतुर्थ ५० न्याय पञ्चम ७० ५. शब्दशुद्धि षष्ठ ६० ६६ योग = ४०० ३६६ इस अन्तर के सम्बन्ध में निश्चय पूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता। हो सकता है कि भामह द्वारा मूल ग्रन्थ के लेखन के समय उक्त कथन के अनुसार ही तत्तद् विषयों से सम्बद्ध कारिकाओं की संख्या रही हो। कालान्तर में प्रतिलिपियों अथवा टीकाकारों के हाथ उनका स्वरूप (संख्यागत) परिवर्तित हो गया हो। अब आगे काव्यालङ्कार में विवेचित विषयों का विवरण परिच्छेदानुक्रम से प्रस्तुत किया जा रहा है प्रथम परिच्छेद-प्रथम परिच्छेद को काव्यशरीर की संज्ञा दी गयी है। मङ्गलाचरण के पश्चात् काव्य प्रयोजनों की चर्चा की गयी है। तत्पश्चात् काव्यहेतु, काव्य का स्वरूप और फिर उसका विभाजन प्रदर्शित किया गया है। भामह ने ‘प्रतिभा’ को काव्य का मूल हेतु माना है। ‘शब्दार्थसाहित्य’ को काव्य का स्वरूप बतलाते हुए उन्होंने अनेक प्रकार से काव्य का विभाजन प्रदर्शित किया है। भामह ने देश भेद से काव्यभेद का निषेध किया है। परिच्छेद का समापन काव्यदोषों के निरूपण के साथ होता है।
१. काव्यालङ्कार, ६.६५-६६ HEH R Sachiatiuicles DISH ६० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र द्वितीय परिच्छेद-यह परिच्छेद अलङ्कारनिरूपक है। इस परिच्छेद के प्रारम्भ में गुणत्रय (माधुर्य, ओज और प्रसाद) का संक्षिप्त विवेचन किया गया है। अलङ्कार विवेचन के प्रसङ्ग में सर्वप्रथम अनुप्रास, यमक, रूपक, दीपक और उपमा इन पाँच अलङ्कारों का निरूपण करने के पश्चात् आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विभाव, समसोक्ति और अतिशयोक्ति का विवेचन किया गया है। तत्पश्चात् हेतु, सूक्ष्म तथा लेश के अलङ्कारत्व का खण्डन किया गया है। वक्रोक्तिहीन उक्ति को ‘वार्ता’ कहा गया और फिर यथासंख्य और उत्प्रेक्षा नामक दो अलङ्कारों का निरूपण किया गया। अन्त में स्वभावोक्ति को अलङ्कार मानते हुए उसका लक्षण-उदाहरण दिया गया इस परिच्छेद का उपसंहार करते हुए कहा गया है। कि अनावश्यक विस्तार न करके यहाँ संक्षेप में ही अलङ्कारों की चर्चा की गयी है। तृतीय परिच्छेद-तृतीय परिच्छेद में भामह ने तेईस अन्य अलङ्कारों का निरूपण किया है- प्रेय, रसवत्, ऊर्जस्वि, पर्यायोक्त, समाहित, उदात्त (दो प्रकार का), श्लिष्ट (तीन भेद), अपह्नुति, विशेषोक्ति, परिवृत्ति, ससन्देह, अनन्वय, उत्प्रेक्षावयव, संसृष्टि, भाविकत्व। इनके अतिरिक्त भामह ने अन्त में ‘आशीः’ अलङ्कार भी निरूपण किया है। अन्त में भामह का कहना है कि अलंकारों का यह विस्तार उन्होंने अपनी बुद्धि से निश्चय करके किया है। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि भामह ने द्वितीय परिच्छेद में अलङ्कार का निरूपण करके पुनः तृतीय परिच्छेद में भी अलङ्कारों का ही निरूपण आरम्भ से क्यों किया? इसके समाधान में कहा जा सकता है कि भामह ने द्वितीय परिच्छेद में सर्वप्रथम उन अलङ्कारों का निरूपण किया जिनका स्वरूप भामह के पूर्वतक स्थिर हो चुका था। तृतीय परिच्छेद में निरूपित अलङ्कारों का लक्षण करने में भामह ने स्वयं चिन्तन करके उनके स्वरूप का निर्धारण किया। चतुर्थ परिच्छेद-इस परिच्छेद में काव्यगत दोषों का निरूपण किया गया है। सर्वप्रथम दोषों का नामोल्लेख किया गया-अपार्थ, व्यर्थ, एकार्थ, ससंशय, उपक्रम, शब्दहीन, यतिभ्रष्ट, भिन्नवृत्त, विसन्धि, देश-काल-कला-लोक-न्याय-आगम-विरुद्ध, प्रतिज्ञा हेतु-दृष्टान्त-हीन। इस प्रकार कुल ग्यारह दोषों का परिगणन करने के बाद अन्तिम दोष को छोड़कर दस दोषों का विवेचन इस परिच्छेद में किया गया। पञ्चम परिच्छेद-चतुर्थ परिच्छेद में उल्लिखित ग्याहवें दोष-प्रतिज्ञा-हेतु- दृष्टान्त-हीन का विवेचन करने के लिए पञ्चम परिच्छेद की रचना हुई है। इस दोष के विवेचन के लिए प्रथमतः प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त का स्वरूप जानना आवश्यक है। यह विषय वस्तुतः न्याय शास्त्र का है, इसीलिए भामह ने इस परिच्छेद में संक्षेपतः न्याय प्रक्रिया का विवेचन किया है। N A RACTREPRE डा आचार्य भामह और आचार्य दण्डी भामह ने प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों की चर्चा करने के पश्चात् प्रतिज्ञा का स्वरूप प्रतिपादित करके प्रतिज्ञा के छः दोष प्रदर्शित किए है। सदोष प्रतिज्ञायें इस प्रकार हैं। तदर्थविरोधिनी, हेतुविरोधिनी, सिद्धान्तविरोधिनी, सर्वागमविरोधिनी, प्रसिद्धधर्मा और प्रत्यक्षबाधिनी। इसके बाद हेतु और दृष्टान्त का निरूपण किया गया है। प्रसिद्ध आगमों के न्याय को प्रदर्शित करते हेतु दोषों की त्याज्यता आदि पर प्रकाश डाला गया है। षष्ठ परिच्छेद-इस परिच्छेद के निर्माण का उद्देश्य काव्य में ग्राहय और त्याज्य शब्दों का निर्देश करना है। इसीलिए इस प्रकरण की संज्ञा ‘शब्दशुद्धि’ रखी गयी है। काव्य रचना में व्याकरण की उपयोगिता प्रदर्शित करने के पश्चात् व्याकरण के दार्शनिक पक्ष पर भी प्रकाश डाला गया है। स्फोट वादियों के मत की कटु आलोचना भी की गयी है। शब्द के द्वारा होने वाले अर्थबोध की प्रक्रिया में बौद्धों के अपोहवाद का खण्डन किया गया है। भामह ने शब्द के स्वाभिमत स्वरूप का उपस्थापन भी किया है। काव्योपयोगी शब्दों पर विचार करते हुए अप्रयुक्त, अप्रतीत, दुर्बोध, अपेशल, ग्राम्य और निरर्थक शब्दों के प्रयोग का निषेध करके भामह ने कहा है कि श्लिष्ट प्रयोगों के आधार पर असाधु शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। भामह ने इसी क्रम में छान्दस प्रयोगों का भी निषेध किया है। प्रयोज्य शब्दों के सम्बन्ध में विचार करते हुए भामह ने कहा है कि वार्तिक-सिद्ध और भाषा प्रमाणित परम्परागत, श्रुतिसुखद और अर्थयुक्त शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए। भामह ने पाणिनीय सूत्रों से निष्पन्न शब्दों की ग्राह्यता और अग्राह्यता का निर्देश दिया है। इस प्रकार का उद्देश्य कवि के शब्द रचना के सन्दर्भ में दिशा निर्देश करना है।।
काव्यालङ्कार के टीकाकार
अलङ्कारशास्त्र को स्वतन्त्र रूप से एक पृथक शास्त्र का आधार प्रदान करने वाला ग्रन्थ भामहकृत काव्यालङ्कार ही है। नवम शताब्दी ई. में कश्मीर नरेश जयादित्य की राजसभा के सभापति श्रीमान् उद्भट ने ‘भामह-विवरण’ नामक टीका लिखी थी। दुर्भाग्य है कि आज इसका नामोल्लेख मात्र मिलता है। उद्भट ने काव्यालङ्कार सारसंग्रह’ नामक अलंकार विषयक एक ग्रन्थ की रचना स्वयं भी की थी। यह प्रकाशित हो गया है। प्रतिहारेन्दुराज ने इस ग्रन्थ पर ‘लघुविवृति’ नामक टीका लिखी है। इस टीका में प्रतिहारेन्दुराज ने ‘भामहविवरण’ का उल्लेख इस प्रकार किया है __ ‘विशेषोक्तिलक्षणे च भामहविवरणे भट्टोद्भटेन एकदेशशब्द एवं व्याख्यातोयथे हास्माभिर्निरूपितः।’ आचार्य अभिनवगुप्त ने भी ‘लोचन’ में अनेकत्र ‘भामहविवरण’ का उल्लेख किया है। रेनियरो ग्लोनी ने आचार्य उद्भट कृत ‘भामह विवरण’ की उपलब्ध खण्डित पंक्तियों का ६२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अत्यन्त सावधानी से सम्पादन करके एक दुष्कर और महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। यह खण्डित टीका ग्रन्थ रोम से १६६२ ई. में प्रकाशित हुआ है। इस प्रकार आचार्य भामह और उनके कर्तृत्व के सम्बन्ध में एक संक्षिप्त चर्चा की गयी। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि भामह काव्यशास्त्र के आद्य आचार्य कहे जा सकतें हैं क्योंकि इन्हीं से लेकर काव्यशास्त्र का सुसम्बद्ध इतिहास उपलब्ध होता है। भामह का परवर्ती काव्यशास्त्र पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। और वामन, आनन्दवर्धन, कुन्तक, अभिनवगुप्त, मम्मट, रुय्यक आदि सम्मान्य आचार्यों ने आदर पूर्वक भामह की मान्यताओं का उल्लेख किया है। आचार्य विद्यानाथ ने तो भामह को आदरपूर्वक प्रणाम करके अपने ग्रन्थ ‘प्रतापरुद्रयशोभूषण’ का आरम्भ किया है पूर्वेभ्यों भामहादिभ्यः सादरं विहिताञ्जलिः। वक्ष्ये सम्यगलङ्कारशास्त्रसर्वस्वसंग्रहम् ।। (नायक प्रकरण, का.२)। काव्यशास्त्र के उस प्रारम्भिक काल में क्रमबद्धता का उचित पालन न करते हुए भी आचार्य भामह ने काव्यालङ्कार के प्रणयन द्वारा काव्यशास्त्र को एक दिशा प्रदान की और अपनी विद्वत्ता तथा सारग्राहिता जैसी विशेषताओं के कारण परवी आलंकारिकों के सम्मान के पात्र बने।
आचार्य दण्डी
आचार्य भामह के पश्चात् दण्डी ऐसे दूसरे आचार्य हैं, जिन्होंने अलङ्कारशास्त्र पर स्वतन्त्ररूप से एक व्यवस्थित प्रौढ़ ग्रन्थ का निर्माण किया, जिसका अनुकरण अथवा उपयोग परवर्ती अलङ्कार शास्त्रियों ने किया। दण्डी का काव्यशास्त्र विषयक वह ग्रन्थ है ‘काव्यादर्श। ‘शागधरपद्धति’ में अधोलिखित श्लोक राजशेखर के नाम से उपलब्ध होता है त्रयोऽग्नयस्त्रयो वेदास्त्रयों देवास्त्रयो गुणाः। त्रयो दण्डिप्रबन्धाश्च त्रिषुलोकेषु विश्रुताः।। (श्लोक सं. १७४)। निश्चय ही यह श्लोक आचार्य-महाकवि दण्डी की प्रशंसा में लिखा गया है और इसके द्वारा दण्डी के तीन प्रबन्धों (ग्रन्थों) को लोकविश्रुत बताकर उन ग्रन्थों की महत्ता प्रतिपादित की गयी है। कुछ समालोचकों ने इस आधार पर दण्डी का कर्तृत्व-विषयक अनुसन्धान करना प्रारम्भ कर दिया। फलतः दण्डी की कृतियाँ प्रकाश में आईं। उपर्युक्त श्लोक का अर्थ है कि तीन अग्नि, तीन वेद, तीन देव, तीन गुण (के साथ ही अथवा समान ही) और दण्डी के तीन प्रबन्ध (या ग्रन्थ) संसार में प्रसिद्ध हैं। प्रायः सभी आलोचकों ने इस आधार पर दण्डी के द्वारा लिखित तीन ग्रन्थों को ही मान्यता देकर उनके नाम से
। ६३ आचार्य भामह और आचार्य दण्डी मिलने वाले अथवा उल्लिखित अन्य ग्रन्थों को अमान्य या निरस्त करने का प्रयास किया है। क्योंकि अधिकांश ने इस श्लोक को आधार बनाकर एक पूर्वाग्रह-स्थिर कर लिया कि यह पता लगाना चाहिए कि दण्डी का वह तीसरा ग्रन्थ है कौन? प्रायः सभी विद्वानों का यह निश्चित मत है कि दण्डी द्वारा विरचित १. काव्यादर्श और २. दशकुमार चरित- ये दो ग्रन्थ तो लोक प्रसिद्ध हैं, किन्तु तीसरा ग्रन्थ कौन है? यह खोज की जानी चाहिए। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक ऐसी ही स्थिति थी। अस्तु, इस विषय में हम अभी आगे विस्तृत चर्चा करेंगे किन्तु प्रसङ्गतः यहाँ उस भ्रम का निवारण अवश्य कर्तव्य है जिसे आज तक लकीर पीटने वाले विद्वद्गण पाले हुए हैं। उपर्युक्त श्लोक का आशय यह सर्वथा ही नहीं है कि दण्डी के मात्र तीन ही ग्रन्थ हैं। श्लोक में स्पष्ट ही कहा गया है कि दण्डी के तीन प्रबन्ध लोकप्रसिद्ध हैं। श्लोक में कथित अन्य तथ्यों के साम्य से भी दण्डी के मात्र तीन ही ग्रन्थ होने का संकेत नहीं मिलता। क्या अग्नियाँ केवल तीन ही है? क्या वेद केवल तीन ही है? ’ क्या देव भी केवल तीन ही है? क्या गुण भी केवल तीन ही हैं? जो जानकार हैं, वे कहेंगे - “बिल्कुल नहीं? लोकदृष्टान्त से भी इसे समझा जा सकता है। किसी पिता की अनेक सन्तानों में से एक-दो अथवा कुछ ही अपने वैशिष्ट्य से लोक में ख्याति प्राप्त करती हैं। शेष नहीं। काव्यजगत् में भी अनेक रचनाओं करने वाले लेखक-कवियों की सभी रचनायें लोकविश्रुत नहीं होती। ऐसा दण्डी के साथ भी हो सकता है कि उनकी अनेक रचनाओं में से तीन ही रचनायें लोक प्रसिद्धि के योग्य रही हों और फलतः लोक विश्रुत रही हों। अतः दण्डी की केवल तीन ही रचनायें हैं- ऐसा कहने का कोई आधार उपर्युक्त श्लोक में नहीं परिलक्षित होता। उपर्युक्त श्लोक का मूल भाव ‘प्रसिद्धि’ है न कि संख्या-गणना। __ संस्कृत वाङ्मय की अनेक समस्याओं में एक रचनाकारों के नाम के सम्बन्ध में भी है। उनके वास्तविक नाम रहे कुछ और होंगे किन्तु वे प्रसिद्ध कुछ और नाम से ही हैं। आचार्य दण्डी के विषय में भी मुझे कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है। बड़े नामों को छोटा करके (यथा-भीमसेन को ‘भीम’) बोलने और छोटे नामों को सहज रूप से ग्रहण कर प्रचलित करने की लोकप्रवृत्ति से हम सभी परिचित हैं। बड़े नाम वाले व्यक्ति का यदि कोई छोटा । १. कम से कम महर्षि व्यास के समय से वेदों (संहिताओं) की संख्या चार है। दण्डी और राजशेखर निश्चित रूप से महर्षि व्यास के बहुत अधिक परवर्ती हैं। इन चारों वेदों में ऋक्, यजुः और साम- ये तीन वेद, अथर्व-वेद की अपेक्षा प्राचीनतर और लोकविश्रुत हैं। २. ‘गुण, व्यापक अर्थ वाला शब्द है। सांख्यादि दर्शनों में सत्त्व, रजस् और तमस् ये तीन ही गुण माने गये हैं किन्तु शास्त्रान्तर में गुणों की संख्या अनेक है। काव्य में भी कोई आचार्य तीन गुण कोई दस, गुण कोई बीस और कोई तो बहत्तर गुण मानते हैं। नाट्य शास्त्र में भी नायक-नायिका के अनेक गुण गिनाये गए हैं। और किसी व्यक्ति विशेष के भी अनेक गुण हो सकते हैं। ६४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र (स्वल्पाक्षर) नाम मिल जाय तो लोग उसी छोटे नाम को ही अपना लेते हैं। ‘मुख-सुख’ इसमें कारण होता है। दण्डी नाम की प्रसिद्धि के पीछे भी यही प्रवृत्ति कारण बन गयी होगी। निश्चित रूप से ‘दण्डी’ का वास्तविक नाम कुछ अन्य रहा होगा और हो सकता है कि वह बड़ा (अधिक अक्षरों वाला) रहा हो किन्तु इस आचार्य महाकवि की संज्ञा ‘दण्डी’ पड़ने के बाद, स्वल्पाक्षर होने से यही नाम स्वाभाविक रूप से प्रचलित होकर प्रसिद्ध हो गया। अब प्रश्न है कि आचार्य का यह ‘दण्डी’ नाम कब और कैसे पड़ा ? अनुमानतः ‘दशकुमार चरित’ की रचना करने के पश्चात् ही यह महोदय ‘दण्डी’ नाम से सम्बोधित हुए होंगे। विद्वानों का मत है कि ‘दशकुमारचरित’ के मङ्गलाचरण में कवि ने आठ बार ‘दण्ड’ पद का प्रयोग किया है और गद्य भाग में भी अनेक बार ‘दण्ड’ पद का प्रयोग हुआ है। एक ही पद्य में आठबार ‘दण्ड’ पद की आवृत्ति होने से, इस ‘दण्ड’-पद- प्रयोग- बाहुल्य के कारण लोगों ने उन्हें ‘दण्डी’ कहना आरम्भ किया हो और फिर धीरे-धीरे इनकी पहचान ‘दण्डी’ नाम से ही पक्की हो गयी। वर्तमान में यह अपने इसी एकमात्र ‘दण्डी’ नाम से ही प्रसिद्ध हैं। दण्डी के नाम और उनके प्रबन्धों के विषय में इस ‘आनुमानिक’- प्रसङ्ग को हम अब यहीं विराम देते हैं और अब दण्डी के काल निर्धारण का उपक्रम करते हैं। म.म.पी.वी.काणे और अन्य कई विद्वानों ने दण्डी के स्थिति-काल के सम्बन्ध में पर्याप्त मीमांसा की है। दण्डी के सम्बन्ध में की गयी यह काल-मीमांसा, पूर्वतः प्राप्त अन्तः और बाह्य साक्ष्यों तथा उन विद्वानों की अपनी मान्यताओं के धरातल पर है। यहाँ हम संक्षेपतः उसका उपस्थापन कर दण्डी का स्थितिकाल निर्धारित करने का प्रयास करेंगे।
आचार्य दण्डी का स्थितिकाल
आचार्य दण्डी के स्थितिकाल का निर्धारण करने के लिए हमें उनके समय की पूर्व सीमा और उत्तर सीमा का ज्ञान करना अनिवार्यतः आवश्यक है क्योंकि दण्डी का स्थितिकाल भी विवादरहित नहीं है। अन्तः और बाह्य साक्षों का अनुशीलन करके विभिन्न आलोचक विद्वानों ने इस सम्बन्ध में अपनी-अपनी जो मान्यतायें स्थापित की हैं, उनमें कहीं भी ऐकमत्य नहीं है। ब्रह्माण्डच्छत्रदण्डः शतघृतिभवनाम्भोरुहो नालदण्डः क्षोणीनौकूपदण्डः क्षरदमरसरित्पट्टिकाकेतु दण्डः । ज्योतिश्चक्राक्षदण्डस्त्रिभुवनविजयस्तम्भदण्डोऽछिदण्ड: श्रेयस्त्रैविक्रमस्ते वितरतु विबुधद्वेषिण्णां कालदण्डः।। (दशकुमार चरित, १.१) . संस्कृत वाङ्मय में अनेक आचार्य, कवि और लेखक अपने उपनामों से ही प्रसिद्ध हैं और उनके मूल नामों का अब पता भी नहीं है। २. ……… .-..-
..-.-… ६५ R आचार्य भामह और आचार्य दण्डी
पूर्व सीमा १. दण्डी के काव्यादर्श (१.३४) में प्राकृत-काव्य ‘सेतुबन्ध’ का उल्लेख हुआ है
‘सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्थादि यन्मयम् ।’ यह ‘सेतुबन्ध’ काव्य प्रवरसेन कृत माना जाता है। बाणभट्ट ने हर्षचरित की भूमिका में ‘सेतुबन्ध’ को प्रवरसेन का प्रसिद्ध काव्य कहा है।’ वाकाटक नरेश प्रवरसेन (प्रथम) का समय २८४ ई. से ३४४ ई. तक माना जाता है। कुछ विद्वान् इसे ही सेतुबन्ध का कर्ता मानते हैं। किन्तु अधिकांश विद्वानों की मान्यता है कि ‘सेतुबन्ध’ काव्य का कर्ता उसी राजवंश का नरेश प्रवर सेन (द्वितीय) है। यह प्रवरसेन (द्वितीय) चन्द्रगुप्त द्वितीय (३७५-४१३ ई.) की पुत्री प्रभावती के पति वाकाटक नरेश रुद्रसेन (द्वितीय) का पुत्र था। इस प्रकार इस प्रवरसेन (द्वितीय) का समय प्रायः ४५० ई. है। अतः दण्डी ४५० ई. के बाद ही हुए होंगे। २. शागधरपद्धति में विज्जिका के नाम से एक श्लोक है नीलोत्पलदलश्यामां विज्जिका मामजानता। वृथैव दण्डिना प्रोक्तं सर्वशुक्ला सरस्वती।।’ उपर्युक्त श्लोक में विज्जिका ने दण्डी द्वारा काव्यादर्श के मङ्गलाचरण में प्रयुक्त ‘सर्वशुक्ला सरस्वती’ पर व्यङ्ग्य करते हुए कहा है कि दण्डी को नीलकमलदलश्यामल मुझ विज्जिका का ज्ञान न था। उन्होंने व्यर्थ ही सरस्वती को सर्वशुक्ला कह दिया। विज्जिका के कथन का अभिप्राय यह है कि मैं सर्वश्यामा सरस्वती ही हूँ (सर्वशुक्ला सरस्वती से किसी भी मायने में कम नहीं हूँ)। विज्जिका की यह दर्पोक्ति मात्र नहीं है। सचमुच विज्जिका अत्यन्त उच्चकोटि की विदुषी कवियित्री थी। उसे सरस्वती के समान कहा गया है। जल्हणकृत ‘सूक्तिमुक्तावली’ तथा ‘शाङ्गंधरपद्धति’ में राजशेखर के नाम से एक श्लोक उद्धृत है सरस्वती कार्णाटी विजयाङ्का जयत्यसौ। या वैदर्भगिरां वासः कालिदासादनन्तरम् ।। अर्थात्, कर्णाटक निवासिनी विजयाका (विज्जिका) सरस्वती के समान विजयिनी हो, जो कि वैदर्भ मार्ग के काव्य में कालिदास के बाद स्थान रखती है। १. कीर्तिः प्रवरसेनस्य प्रयाता कुमुदोज्ज्वला। सागरस्य परं पारं कपिसेनेव सेतुना।। (हर्षचरित, १.१४) २. शाङ्गधरपद्धति, श्लोक, १८० ३. वही. श्लोक, १८४ .. .. .. …
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. . .६६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र विजयाङ्का (अथवा विज्जिका) पुलकेशी द्वितीय (६३४ ई.) के पुत्र चन्द्रादित्य (६६० ई.) की पत्नी विजयभट्टदारिका है जो राजकुलोत्पन्न महारानी होने के साथ ही श्रेष्ठ कवियित्री भी थी। अतः विजयाङ्का या विज्जिका का समय ६६० ई. के आसपास सुनिश्चित है। उसके द्वारा उल्लिखित होने के कारण दण्डी निश्चित ही ६६० ई. के पूर्व रहें होंगे। इसी आधार पर म.म. पी.वी. काणे ने दण्डी को ६०० ई. के आसपास माना ३. सुबन्धु ने अपने गद्यकाव्य (ग्रन्थ) वासवदत्ता में ‘छन्दोविचिति’ नामक ग्रन्थ का कई बार उल्लेख किया है ‘छन्दोविचितिरिव कुसुमविचित्र।’ ‘छन्दोविचितिरिव मालिनी सनाथा।’ दण्डी ने काव्यादर्श में स्वविरचित ग्रन्थ ‘छन्दोविचिति’ नामक ग्रन्थ का सकेत किया है ‘पद्यं चतुष्पदी तच्च वृत्तं जातिरिति द्विधा। छन्दोविचित्यां सकलस्तत्प्रपञ्चो निदर्शितः।।” दण्डी, सुबन्धु और बाणभट्ट-ये तीन उच्चकोटि के संस्कृत गद्यकाव्यकार हुए हैं। इन तीनों की गद्य शैली का परीक्षण करने से निश्चय ही दण्डी के परवर्ती सुबन्धु और सुबन्धु के परवर्ती बाणभट्ट प्रतीत होते हैं। प्रो. अमरनाथ पाण्डेय ने सुबन्धु को बाणभट्ट का परवर्ती सिद्ध किया है (द्रष्टव्य-प्रो. अमरनाथ पाण्डेय कृत ‘बाणभट्ट का आदान-प्रदान’)। इस आधार पर भी सुबन्धु दण्डी के परवर्ती सिद्ध होते हैं। सुबन्धु का स्थितिकाल कथमपि ६०० ई. से पूर्व नहीं है। अतः दण्डी का स्थिति काल भी ६०० ई. के पश्चात् नहीं हो सकता। प्रो. मैक्समूलर, बेवर, मैक्डानल, कर्नल जेकब प्रभृति पाश्चात्त्य विद्वान् इसी आधार पर दण्डी का समय छठी शताब्दी ई. मानते हैं। ४. काव्यादर्श में आया हुआ एक श्लोक शिशुपालवध के एक श्लोक से समानता रखता है। काव्यादर्श का श्लोक इस प्रकार है ‘रत्नमित्तिषु सङ्क्रान्तैः प्रतिबिम्बशर्तेर्वृतः । ज्ञातो लङ्केश्वरः कृच्छादाञ्जनेयेन तत्त्वतः।।’ (काव्यादर्श, २.३०२)। SAIGHALI १. काव्यादर्श, १. ११-१२ २. डॉ. कपिलदेव द्विवेदी : संस्कृत साहित्य का अलोचनात्मक इतिहास, पृ. ४८३. आचार्य भामह और आचार्य दण्डी ६७
शिशुपालवध का श्लोक इस प्रकार है रत्नस्तम्भेषु सक्रान्तप्रतिमास्ते चकाशिरे। एकाकिनोऽपि परितः पौरुषेयवृता इव।। (शिशुपालवध, २.४)। इसीप्रकार काव्यादर्श के एक श्लोक और बाणभट्ट के कादम्बरी (शुकनासोपदेश) के एक वाक्य में समानता मिलती है ‘अरत्नालोकसंहार्यमहायं सूर्यरश्मिभिः। दृष्टिरोधकरं यूनां यौवनप्रभवं तमः।। (काव्यादर्श, २.१६६) (कादम्बरी-शुकनासोपदेशः) इन तुलनाओं के आधार पर कुछ आलोचकों ने दण्डी को बाणभट्ट और माघ का परवर्ती सिद्ध करने का प्रयत्न. किया है। किन्तु मात्र इतनी समानता से इस प्रकार का निष्कर्ष निकालना उचित नहीं प्रतीत होता। ५. म.म.पी.वी. काणे ने ‘अवन्तिसुन्दरी कथा’ को दण्डी की कृति स्वीकार किया है। और इसे वर्तमान दशकुमार चरित की पूर्वपीठिका के रूप में माना है। यह ‘अवन्तिसुन्दरी कथा’ सर्वप्रथम १६२४ ई. में मद्रास से प्रकाशित हुई थी। अवन्तिसुन्दरी कथा में दण्डी का कुछ परिचय दिया गया है। दण्डी को दामोदर का प्रपौत्र बताया गया है। और दामोदर भारवि के मित्र थे। दामोदर चालुक्य राज विष्णुवर्धन के युवावस्था के मित्र थे। विष्णुवर्धन, पुलकेशी द्वितीय का अनुज था और उसका शासनकाल ६१५-६३३ ई. था। ऐहोल शिलालेख (बीजापुर जनपद में) के कर्ता कवि रविकीर्ति ने अपने को कालिदास और भारवि के समकक्ष बताया है। यह जैन कवि रविकीर्ति पुलकेशी द्वितीय का आश्रित था और ऐहोल शिलालेख का समय शकाब्द ५५६ अर्थात् ६३४ ई. है। अवन्तिसुन्दरी कथा में भारवि के सिंहविष्णु का आश्रित. कवि बताया गया है। सिंहविष्णु कांची का पल्लव नरेश था और उसका शासनकाल ५७५ से ६०० ई. है। अतः तीन पीढ़ियों का अन्तर यदि ७५ या उससे अधिक वर्ष माना जाय तो दण्डी को ६५०-६७५ ई. के आसपास होना चाहिए।
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१. म.म.पी.वी. काणे, संस्कृतकाव्यशास्त्र का इतिहास, पृ. १२१. येनायोजि नवेऽश्मस्थिरमर्थविधी विवेकिना जिनवेश्म। स विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदासभारविकीर्तिः।। .-. ६८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र
अपर सीमा
राष्ट्रकूट वंश के राजा नृपतुङ्ग (अमोघवर्ष) ने ‘कविराजमार्ग’ नामक एक ग्रन्थ की रचना की जो कन्नड़ भाषा में उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थों में से है। इसमें काव्यादर्श के अलङ्कारविषयक छः श्लोक उद्धृत हैं। उसके तृतीय परिच्छेद के प्रायः अधिकांश श्लोक दण्डी के तद्विषयक श्लोकों की छायानुकृति ही लगते हैं। काव्यादर्श में प्रतिपादित उपमा के तैंतीस भेदों में से प्रायः अधिकतर का कविराजमार्ग में (२.५६-८५) अनुसरण किया गया है। नृपतुङ्ग का शासनकाल ८१५ से ८७५ ई. के मध्य था। अतः काव्यादर्श (अथ च दण्डी) को ७५० ई. के बाद कक्षमपि नहीं रखा जा सकता। एच. जयतिलक द्वारा सम्पादित सिंहली भाषा के ग्रन्थ ‘सिया-वस-लकार’ (स्वीयभाषालङ्कार) पर काव्यादर्श का अत्यधिक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इस ग्रन्थ का प्रथम श्लोक काव्यादर्श के प्रथम श्लोक के समान है। दूसरे श्लोक में वामन, दण्डी आदि आचार्यों का उल्लेख किया गया है। इस सिंहली रचना में काव्यादर्श के तृतीय परिच्छेद को छोड़कर प्रायः शेष काव्यादर्श (प्रथम और द्वितीय परिच्छेद) अनूदित है। ‘सिया-वस-लकार’ के अन्त में कहा गया है। कि इस ग्रन्थ की रचना राजवंशप्रसूत भूपति ‘सिलमेघसेन’ ने की है। सिलमेघसेन अथवा सेन प्रथम ने ८३१ से ८५१ ई. तक लंका पर शासन किया था। इस प्रकार, दण्डी को इसके पूर्व ही होना सिद्ध है और उन्हें ७५० ई. के बाद नहीं रखा जाना चाहिए। ३. आचार्य वामन ने अपने ‘काव्यालङ्कारसूत्र’ में जिस ‘रीति’ को काव्य का आत्मा बताते हुए विस्तृत विवेचन किया है, आचार्य दण्डी ने उसे ही काव्यादर्श में ‘मार्ग’ शब्द से प्रतिपादित किया है। वामन के पूर्व रीति शब्द का इस अर्थ में व्यवहार न था। दण्डी ने दो ही ‘मार्ग’ स्वीकार किए है। किन्तु वामन ने रीति के तीन भेद किए हैं। इससे स्पष्ट है कि दण्डी, वामन के पूर्ववर्ती थे। वामन का समय कश्मीर नरेश जयापीड का शासन काल माना जाता है जो ७७६ से ८१३ ई. तक है। अतः दण्डी का स्थिति-काल इससे पूर्व ही होना चाहिए। प्रतिहारेन्दुराज ने उद्भटविरचित काव्यालाकारसारसङ्गह की स्वकृत टीका (लघुवृत्ति) में दण्डी को नाम्ना उघृत करते हुए लिखा है-“अतएव दण्डिना-‘लिम्पतीव तमोऽङ्गानि–३" प्रतिहारेन्दुराज का स्थिति काल प्रायः ६५० ई. है। १. म.म. पी.वी. काणे, संस्कृत काव्य शास्त्र का इतिहास, पृ. १२२. २. वही. पृ. १२३-२४ ३. काव्यादर्श, २.३६२ ४. म.म.पी.वी.काणे, संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, पृ. १२७ PRIMysale. ६६ आचार्य भामह और आचार्य दण्डी ५. आचार्य अभिनवगुप्त ने ध्वन्यालोक (३.७) की व्याख्या ‘लोचन’ में आचार्य दण्डी को उद्धृत करते हुए लिखा है-“यथा दण्डी-‘गद्यपद्यमयी चम्पू:"।" अभिनवगुप्त का स्थितिकाल भी दशम शताब्दी का उत्तरार्ध है। उपर्युक्त इन दोनों प्रमाणों के आधार पर भी दण्डी को ७५० ई. के बाद का नहीं माना जा सकता। २ दण्डी के स्थितिकाल के निर्धारण में काव्यादर्श में किए गए कुछ उल्लेखों पर भी ध्यान दिया जाना अपेक्षित है। काव्यादर्श के द्वितीय परिच्छेद में _ ‘इति साक्षात्कृते देवे राज्ञो यद्रातवर्मणः। ऐसा उल्लेख है। यहाँ ‘रातवर्मा’ और ‘राजवर्मा’- ये दो पाठ उपलब्ध होते हैं। ये दोनों ही नाम वस्तुतः पल्लवनरेश नृसिंहवर्मा द्वितीय के लिए प्रयुक्त होते थे। दण्डी को पल्लव नरेशों का राजाश्रय प्राप्त था। तृतीय परिच्छेद के यमक प्रकरण में आए ‘कालका’ शब्द से भी पल्लवनरेश नृसिंहवर्मा की उपाधि व्यञ्जित होती है। पल्लव नरेश नृसिंह वर्मा (या नरसिंहवर्मा) द्वितीय का शासनकाल सातवीं शताब्दी ई. का अन्तिम समय था। दण्डी इनके सभासद थे।’ तृतीय परिच्छेद के प्रहेलिका प्रकरण में भी दण्डी ने पल्लव, काञ्ची और पल्लवनरेश की ओर संकेत किया है। यहीं पहले, भामह के साथ दण्डी के पौर्वापर्य का विचार करते हुए दण्डी को भामह का पश्चाद्वर्ती माना गया है और भामह के स्थिति काल की अपर सीमा ६०० ई. तक सिद्ध की गई है। उपर्युक्त सभी साक्ष्यों का आलोचन करने के पश्चात् आचार्य दण्डी को सप्तम शताब्दी ई. में वर्तमान मानना युक्तिसङ्गत प्रतीत होता है। इस प्रकार दण्डी का स्थितिकाल सप्तम शताब्दी ई. निश्चित प्राय है।
दण्डी का परिचय
आचार्य दण्डी का प्रामाणिक परिचय प्रायः अज्ञात ही है। यदि ‘अवन्तिसुन्दरी-कथा’ को प्रामाणिक रूप से दण्डी की कृति स्वीकार किया जाय तो दण्डी का वास्तविक परिचय हमें मिल सकता है। ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ के अनुसार, नारायणस्वामी नामक विद्वान् के पुत्र भारवी (किरतार्जुनीयकार) थे। उनके तीन पुत्र हुए जिनमें से मध्यम पुत्र का नाम मनोरथ था। मनोरथ के चार पुत्रों में सबसे छोटे पुत्र का नाम वीरदत्त था। वीरदत्त की धर्मपत्नी minaipanisine १. ‘गद्यपद्यमयी काचिच्चम्पूरित्यभिधीयते।’- काव्यादर्श, १.३१ २. म.म.पी.वी. काणे, संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, पृ. १२७ ३. काव्यादर्श, २.२७६ ४. डॉ. रमाशकर त्रिपाठी-प्राचीन भारत का इतिहास, मोतीलाल बनारसीदास, १६८८, पृ. ३१६ ५. काव्यादर्श, ३.११२, ११४ AS HTTPUSH १०० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र का का नाम गौरी था। वीरदत्त और गौरी के पुत्र दण्डी थे। दण्डी की माता का निधन उनके शैशवकाल में हो गया था और दण्डी का उपनयन संस्कार होने के पश्चात् उनके पिता भी स्वर्गवासी हो गए थे। दण्डी कौशिक गोत्रीय ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। ये अपने प्रपितामह भारवि (दामोदर) के आश्रयदाता राजवंश के आश्रय में काञ्ची में निवास करते थे। पल्लव राज्य की इस राजधानी काञ्ची पर जब ६५५ ई. में शत्रु राजा द्वारा आक्रमण हुआ था तब दण्डी नगर से भागकर वन में जाकर छिप गए और सङ्कट टल जाने पर पुनः काञ्ची में वापस आ गए थे। जैसा कि कहा जा चुका है, दण्डी के वास्तविक नाम का ज्ञान नहीं है और वे अपने उपनाम अथवा उपाधि ‘दण्डी’ से ही विख्यात हैं। इनका नाम ‘दण्डी’ पड़ने का सम्भावित कारण प्रारम्भ में ही बताया जा चुका है।
दण्डी की वासभूमि
. दण्डी के पूर्वज गुजराज प्रान्त के आनन्दपुर से आकर दक्षिण देश के अचलपुर (वर्तमान एलिचपुर, बरार) में बस गए। दण्डी का जन्म इसी दक्षिण देश में हुआ होगा। दण्डी की कृतियों को देखने से उनका दाक्षिणात्य होना प्रमाणित होता है। काव्यादर्श में दण्डी ने महाराष्ट्री प्राकृत और वैदर्भ मार्ग की प्रशंसा की है। काव्यादर्श में ही काञ्ची, पल्लव और पल्लव नरेश का भी उल्लेख है। दशकुमारचरित में काञ्ची, कावेरी, चोल, कलिंग, मलयानिल. आदि का होना दण्डी को दक्षिणभारत का निवासी संकेतित करता है। __दण्डी के दाक्षिणात्य होने में यह भी तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि उदीच्य (विशेषतः कश्मीरी) आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में दण्डी के उद्धरण प्रायः नहीं के बराबर दिए हैं और किसी भी सन्दर्भ में (खण्डन-मण्डन के रूप में भी) उनके मत या सिद्धान्त की चर्चा नहीं की है। इससे स्थानकृत पक्षपात और परस्पर अनभिज्ञान अथवा प्रतिद्वन्द्विता भी व्यक्त होती है। इस तरह भी दण्डी सुदूर दक्षिण देश के निवासी प्रमाणित होते हैं।
दण्डी की कृतियाँ
आचार्य दण्डी के नाम से प्रचलित ग्रन्थ इस प्रकार हैं
काव्यादश . . .. . . .. २. दशकुमार चरित ३. अवन्ति सुन्दरी कथा ४. छन्दोविचिति ५. कलापरिच्छेद द्विसन्धानकाव्य ७. मृच्छकटिक (कुछ विद्वान् इसे दण्डीकृत सिद्ध करने का प्रयास करते हैं)। १०१ HTTPHimal TImeTMITTAMIRPTimilaiMMITHAPP आचार्य भामह और आचार्य दण्डी
१. काव्यादर्शः
काव्यशास्त्र का यह ग्रन्थ निर्विवादरूप से दण्डी की कृति के रूप में सभी द्वारा स्वीकार किया जाता है। सम्भवतः यह उनकी प्रौढ़ावस्था की कृति है। इसके सम्बन्ध में आगे विस्तारपूर्वक लिखा जायेगा। .
२. दशकुमार चरित
गद्य काव्य के इस प्रौढ़ ग्रन्थ को दण्डी की कृति के रूप में प्रायः सभी विद्वान् मान्यता प्रदान करते हैं। कुछ विद्वानों ने अवश्य ही संशय की अंगुली उठाई है किन्तु उनके तर्क बड़े ही कमजोर और लाचार हैं। भला जिस दशकुमार चरित के मङ्गलाचरण में आए हुए ‘दण्ड’ पद की आवृत्तियों के कारण महाकवि आचार्य दण्डी की प्रसिद्धि ‘दण्डी’ नाम से ऐसी हुयी कि उनका मूल नाम ही तिरोहित हो गया, उसी ग्रन्थ के दण्डीकृत होने का संशय खड़ा करना बौद्धिक दिवालिएपन के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? . __ ‘दशकुमारचरित’ वस्तुतः तीन भागों में विभक्त है-पूर्वपीठिका, मध्यभाग और उत्तरपीठिका। सम्पूर्ण दशकुमार चरित के दण्डीकृत होने में संशय खड़ा करने वाले समालोचक हैं- इग्लिंग (Eggeling)’ ,आगाशे (Agashe) विल्सन (Willson): कीथ (A.B. Keith) और त्रिवेदी’। ये सभी प्रायः इस मत के हैं कि दण्डी की कृति केवल मध्भाग है जिसमें आठ उच्छ्वास हैं। पूर्वपीठिका और उत्तरपीठिका दण्डी की रचना नहीं है। कथा को अविच्छिन्न बनाने के लिए किसी लेखक ने बाद में इनकी योजना कर दी है। इसके अतिरिक्त आगासे और त्रिवेदी यह भी संशय प्रकट करते हैं। कि काव्यादर्श और दशकुमारचरित के कर्ता दण्डी एक नहीं अपितु. भिन्न-भिन्न है। आगासे महोदय का तर्क है कि आचार्य दण्डी उग्र आलोचक हैं उन्होंने कवियों को सावधान किया है। कि हलका सा भी दोष काव्य के महत्त्व को घटा देता है। अतः सूक्ष्म भी दोष की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए “तदल्पमपि नोपेक्ष्यं काव्ये दुष्टं कथञ्चन। स्याद्वपुः सुन्दरमपि श्वित्रेणैकेन दुर्भगम् ।। (काव्यादर्श, १.७) साथ ही, “कन्ये कामयमानं मां न त्वं कामयसे कथम्। इति ग्राम्योऽयमर्थात्मा वैरस्याय प्रकल्पते।।” (काव्यादर्श, १.६३) inimi misinindi ANGADHI १. २. ३. ४. ५. India office Catulogue, Vol. VII, No. 4069/29 Agashe, दशकुमारचरित, बम्बई १६१६, पृ. २४ H.H. Wilson, दशकुमारचरित, लन्दन, 1846, Introduction’ p. 30 A. B. Keith, A History of Sanskrit Literatuis, 1948, pp. 297-99 श्री त्रिवेदी, प्रतापरुद्रयशोभूषण, प्रस्तावना, पृ..३१. . ., ParticipanieshARERNADARASHTRATEGRAH अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र १०२ कहते हए ‘कन्ये-’ इत्यादि निर्दोष वाक्य को भी ग्राम्य कहा है। किन्तु दशकुमारचरित में ग्राम्यता और अश्लीलता दोषों के अनेक स्थल हैं। इसके अतिरिक्त आगा से महोदय का यह भी तर्क है कि काव्यादर्श और दशकुमार चरित की शैली में बहुत अन्तर है। काव्यादर्श की शैली परिपक्व, अर्थगम्भीर, कोमल और निर्दोष है जबकि दशकुमारचरित की दोषग्रस्त और सुदीर्थसमासों वाली है। __आगा से महोदय की इन आपत्तियों का समाधान सहज ही किया जा सकता है। वस्तुतः सिद्धान्त और व्यवहार में बहुत बड़ा अन्तर होता है। इसे काव्यशास्त्र ही नहीं, हर क्षेत्र के लोग स्वीकार करते हैं। क्षेमेन्द्र ने तो औचित्यविचार चर्चा (कारिका २०, २१) में अपनी ही रचना में दोष प्रदर्शित किया है। यह भी कहा जा सकता कि दण्डी का ‘काव्यादर्श’ उनकी परिणत बुद्धि का कर्तृत्व है जबकि दशकुमारचरित की रचना तरुण कवि दण्डी द्वारा काव्यादर्श के पूर्व ही की जा चुकी होगी।’ अन्य विल्सन, कीथ प्रभृति विद्वानों ने दशकुमारचरित के कर्तृत्व के सम्बन्ध में अपने संशय के पक्ष में ये तर्क दिये हैं- (क) दशकुमार चरित की कुछ उपलब्ध पाण्डुलिपियों में मूलग्रन्थ (मध्यभाग) के साथ पूर्वपीठिका और उत्तरपीठिका संलग्न नहीं है। (ख) पूर्वपीठिका में प्रदत्त वंशावली का मूलभाग में उल्लिखित वंशावली से अन्तर है। (ग) व्याकरण और भाषा-शैली की दृष्टि से पूर्वपीठिका और उत्तरपीठिका शिथिल है। (घ) पूर्वपीठिका और उत्तर पीठिका के उपलब्ध हस्तलिखित ग्रंथों में पर्याप्त पाठभेद हैं। उपर्युक्त तर्क बहुत ठोस और सकारण नहीं प्रतीत होते। दशकुमारचरित की अनेक मातृकायें खण्डित और जीर्णशीर्ण दशा में प्राप्त हुई हैं। अतः ग्रन्थ के कुछ अंशों के खण्डित या अपूर्ण मिलने को अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। यही कारण हो सकता है कि मूल भाग के साथ उत्तरपीठिका और पूर्वपीठिका संलग्न न हो। कीथ ने वंशावली के अन्तर के जो उदाहरण दिए हैं, वे महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, और अतिसामान्य हैं। हस्तलिखित ग्रन्थों की जीर्णता के कारण पूर्वपीठिका के कतिपय नाम स्पष्ट नहीं पढ़े गए होंगे और लिपिकारों ने स्वविवेक से नाम लिखे होंगे। अन्तर का यही कारण जान पड़ता है। पाठभेद का कारण भी हस्तलिखित ग्रन्थों की अपूर्णता और अस्पष्टता ही है। इसी प्रकार व्याकरण सम्बन्धी तथा भाषा-शैली सम्बन्धी शिथिलता गन्थलेखक के कारण नहीं अपितु लिपिकारों तथा संशोधकों के प्रमाद के कारण सम्भावित है। वस्तुतः सम्पूर्ण दशकुमारचरित दण्डी की ही कृति है। इसके पक्ष में अधोलिखित तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं। १. म.म.पी.वी. काणे, संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, पृ. ११७ २. वरदाचार्य, संस्कृत साहित्य का इतिहास अनु. डा. कपिलदेव द्विवेदी, इलाहाबाद, १६६२, पृ. १७५-७६. १०३
. .. sanilus.ttiwarR.DreputatundMAKATA आचार्य भामह और आचार्य दण्डी (क) कथाग्रन्थ का नामकरण- ‘दशकुमारचरित’ करना। मूल भाग में केवल ७ राजकुमारों का वर्णन है। सात राजकुमारों का वर्णन तो पूरा है। किन्तु राजवाहन का वर्णन अधूरा ही है। शेष २/2 राजकुमारों का वर्णन पूर्वपीठिका में है। यदि मूलभाग ही अभीष्ट ग्रन्थ होता है। तो दण्डी इसका नामकरण ‘दशकुमारचरित’ न करते। भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से ग्रन्थ के तीनों भागों में साम्य परिलक्षित होता है। शब्दचयन और पद-विन्यास में भी समानता है। (ग) इस ग्रन्थ के आरम्भ में प्रयुक्त मङ्गलाचरण में ‘दण्ड’ की आठ बार तथा आगे के गद्य भाग में अनेक बार की गयी आवृत्ति के कारण ही ग्रन्थकार ‘दण्डी’ नाम से प्रसिद्ध हुए। अतः ‘दशकुमारचरित’ समग्रतया दण्डी की ही कृति है। अवन्तिसुन्दरी कथा- इस ग्रन्थ को दण्डी की रचना मानने में पर्याप्त मतभेद है। म. म. कुप्पुस्वामी शास्त्री ने ‘अवन्तिसुन्दरी कथा’ को दण्डी की कृति मानने में सन्देह प्रकट किया है।’ डॉ. राघवन के अनुसार, अप्पयदीक्षित विरचित ‘नामसङ्ग्रहमाला’ में यह कारिका पायी जाती है- ‘निरस्ता पल्लवेषु काञ्ची नाम नगरीत्यवन्तिसुन्दरीये दण्डिप्रयोगात्।’ इसके अतिरिक्त डॉ. राघवन् यह भी करते है कि त्रिवेन्द्रम्, संस्कृत सिरीज द्वारा प्रकाशित कालिङ्गरायविरचित ‘सूक्तिरत्नहार’ में ‘मर्त्ययन्त्रेषु’ आदि श्लोक को दण्डी का बताया गया है। उक्त श्लोक अवन्तिसुन्दरी कथा की प्रस्तावना का तृतीय श्लोक है। जिसे म.म.पी.वी. काणे ने स्वयं प्राप्त किया था। काव्यादर्श की ‘श्रुतिपालिनी’ टीका में काव्यादर्श १.८१ पर टीका करते हुए लिखा गया है-“आख्यायिका शूद्रकचरितप्रभृतिः सा आदिः येषां (यासां) अवन्तिसुन्दर्यादिकथानां तास्वित्यर्थः३” । म.म. पी.वी. काणे का कथन है कि उपर्युक्त प्रमाणों और मतों का पर्यालोचन करने के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ दण्डी की कृति है। और वर्तमान दशकुमारचरित की पूर्वपीठिका है। इसके विपरीत कुछ विद्वानों का स्पष्ट रूप से मानना है कि अवन्तिसुन्दरी कथा दण्डी की कृति नहीं है। दण्डी के परवर्ती किसी कवि ने दण्डी के नाम से यह ग्रन्थ लिखा होगा। यद्यपि श्री एम. आर. कवि ने इसे दण्डी की तीसरी कृति सिद्ध करने का भरपूर प्रयास किया है किन्तु कीथ को इसकी प्रामाणिकता के सम्बन्ध में पूर्ण सन्देह है। इस सम्बन्ध में विचारणीय है कि १. म.म.पी.वी. काणे, संस्कृत काव्यशास्त्र, का इतिहास, पृ. १२१. २. वही. पृ. १२१ ३. वही. पृ. १२१ ४. वही., पृ. १२१ . RASHARE ….-.:- • १०४ .—- …–
अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र इस ग्रन्थ में दण्डी के द्वारा आत्मपरिचय देने और बाण-मयूर का उल्लेख होने मात्र से यह ग्रन्थ कैसे अप्रमाणिक हो गया ? अभी पूर्व में हमने पर्याप्त विमर्श करके दण्डी का समय सप्तम शताब्दी ई. निर्धारित किया है। इस प्रकार वे बाण और मयूर के परवर्ती हैं। ऐसी स्थिति में उनके द्वारा इन दोनों का उल्लेख किया जाना कहीं से भी अनुचित सन्दिग्ध और अप्रामाणिक नहीं है। साथ ही, यह भी विचारणीय है कि अवन्तिसुन्दरीकथा जैसा ग्रन्थ कोई भी दण्डी के नाम से क्यों लिखेगा ? क्या उसे स्वयं के यश की इच्छा नहीं रही होगी ? अथवा क्या दण्डी या उनके वंशजों ने धन देकर उस कवि से यह कथाग्रन्थ दण्डी के नाम से लिखवाया होगा ? निश्चय ही ये बातें हास्यास्पद हैं, अतः उपेक्षणीय हैं। अतः जब तक कोई अत्यन्त पुष्ट विरुद्ध प्रमाण नहीं मिलता, तब तक अवन्तिसुन्दरीकथा’ को दण्डी की कृति मानना ही समीचीन होगा। ४. छन्दोविचिति-काव्यादर्श में दण्डी ने ‘छन्दोविचिति’ का उल्लेख किया है - ‘पद्यं चतुष्पदी तच्च वृत्तं जातिरिति द्विधा। छन्दोविचित्यां सकलस्तत्प्रपञ्चो निदर्शितः।। (काव्या., १. ११-१२) इस कारिका में आये हुए ‘निदर्शितः’ पद से ज्ञात होता है कि दण्डी द्वारा विरचित ‘छन्दोविचिति’ नामक कोई लघुकाय ग्रन्थ रहा होगा, जिसमें संक्षेपतः छन्दों का विवरण दिया गया होगा। म.म. पी.वी. काणे ने ‘छन्दोविचिति’ का सामान्य अर्थ ‘छन्दःशास्त्र’ ही माना है। और इस नाम के किसी ग्रन्थ की सम्भावना का निषेध किया है। काणे का मानना है कि छन्दोविचिति छन्दःविद्या का नाम है, जहां विशेष रूप से वैदिक छन्दों का निरूपण किया गया है और इसके निर्माता पिङ्गलनाग माने गये हैं। इसका उल्लेख जैमिनी सूत्र की टीका शाबर भाष्य (१.१.५) कौटिल्य अर्थशास्त्र (१.३.१) तथा आपस्तम्बधर्मसूत्र (२.४.८.११) में हुआ है। छन्दोविचिति नामक ग्रन्थ के मूल संस्करण का पर्यालोचन बुलेटिन आफ लन्दन सोसायटी आफ ओरियण्टल एण्ड अफ्रीका स्टडीज, भाग २२, खण्ड १, पृ. १६२ में :जुर संस्कृत मेट्रिक’ शीर्षक से (सम्पादक-डा. सेलिङ्लौफ) किया गया है। यह संस्करण तुर्फान, मध्य एशिया में प्राप्त एक मात्र मातृका एम.एस. पर आधारित है। आचार्य भरतकृत नाट्यशास्त्र के अध्याय १४-१५ में अनेक छन्दों की चर्चा हुई है। पन्द्रहवें अध्याय की पुष्पिका में लिखा है-“इति भारतीयनाट्यशास्त्रे छन्दोविचिति माध्यायः पञ्चदशः।" (गायकवाड ओरि. सिरीज संस्करण) १. म.म. पी. वी. काणे संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, पृ. ११५ १०५ आचार्य भामह और आचार्य दण्डी उपर्युक्त विवेचन से प्रतीत होता है कि ‘छन्दोविचिति’ का प्रयोग छन्दःशास्त्र या छन्दोविद्या के लिए सामान्य ढंग से सर्वत्र हुआ है। यहां भी काव्यादर्श के उपर्युक्त श्लोक में ‘निदर्शितः’ के साथ कर्ता का संकेत न होने से यह दण्डी का अपने पक्ष में विशेष कथन न होकर सर्वसामान्य कथन ही माना जाय-यही समीचीन होगा। यहां दण्डी के कथन का अभिप्राय है कि पद्य (वृत्त और जाति) का विवरण छन्दोविचिति (छन्दःशास्त्र) में निर्दिष्ट (प्रदर्शित) है। यह आशय नहीं प्रकट होता कि पद्यों का विवरण मेरे द्वारा विरचित छन्दोविचिति में दिया गया है। अतः ‘छन्दोविचिति’ नामक किसी ग्रन्थ की रचना दण्डी ने की है- यह मानना क्लिष्ट कल्पना ही होगी। ५. कलापरिच्छेद - दण्डी ने काव्यादर्श में ‘कलापरिच्छेद’ नामक अपनी रचना का उल्लेख किया है - ‘इत्थं कलाचतुःषष्टिविरोधः साधु नीयताम् । तस्याः कलापरिच्छेदे रूपमाविर्भविष्यति॥ (काव्या., ३.१७१) उपर्युक्त श्लोक में आये हुए ‘आविर्भविष्यति’ पद से ज्ञात होता है कि दण्डी द्वारा ‘कलापरिच्छेद’ नामक ग्रन्थ लिखने की योजना थी। पता नहीं दण्डी ने इसे लिखा या नहीं क्योंकि यह ग्रन्थ वर्तमान में अनुपलब्ध है। प्रो एस.एल. कात्रे ने ‘मालतीमाधव’ की जगद्धरकृत टीका में से दण्डी के ऐसे बहुत से उद्धरण एकत्र किए थे जो वर्तमान ‘काव्यादर्श’ में नहीं हैं।’ ‘कलापरिच्छेद’ में आये हुए परिच्छेद शब्द से प्रतीत होता है कि यह कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ न रहा होगा अपितु किसी ग्रन्थ का एक अंश मात्र (परिच्छेद) रहा होगा। ‘काव्यादर्श’ का विभाजन परिच्छेदों में हुआ है। अतः म.म. काणे महोदय के इस विचार से सहमत होना उचित प्रतीत होता है कि दण्डी ने इसे काव्यादर्श के एक भाग के रूप में लिखने का निश्चय किया होगा। ६. द्विसन्धानकाव्य-भोजराज के शृङ्गार प्रकाश में दण्डिकृत ‘द्विसन्धानकाव्य’ का उल्लेख हुआ है-‘द्वितीयस्य (द्विसन्धानप्रकारस्य) उदाहरणं यथा दण्डिनो धनञ्जयस्य वा द्विसन्धानप्रबन्धौ। (शृगार, अध्याय ११) किन्तु दण्डी के किसी ‘द्विसन्धान काव्य’ की उपलब्धता अब तक विदित नहीं हुई है और न ही शृङ्गारप्रकाश के अतिरिक्त अन्यत्र इसका उल्लेख ही प्राप्त हुआ है। ७. प्रो. पिशेल (मृच्छकटिक) ने ‘त्रयो दण्डिप्रबन्धाः’ के सन्दर्भ में दण्डी की तीसरी कृति का अनुसन्धान करते हुए पाया कि - १. म.म. पी.वी. काणे संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास पृ. ११४ २. वही पृ. ११४ .. …………. . . … .—
. १०६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र __ ‘लिम्पतीव तमोऽङ्गानि वर्षतीवाञ्जनं नमः। असत्पुरुषसेवेव दृष्टिर्निष्फलतां गता।।’ - श्लोक काव्यादर्श (२.३६२) और मृच्छकटिक (१.३४) में समानरूप से आया है। अतः उन्होंने ‘मृच्छकटिक’ को दण्डी की तीसरी कृति सिद्ध करने की चेष्टा की। किन्तु उनके इस ‘बाल प्रयास’ के सम्बन्ध में क्या कहा जाय ? ऐसे अनेक दृष्टान्त संस्कृत वाङ्मय में हैं। आर्षकाव्य रामायण और महाभारत के तो कई अध्याय या सर्ग पूरे-के-पूरे एक जैसे हैं। अन्यत्र भी कई-कई श्लोक समान रूप से मिलते हैं। कालिदास के ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ और भर्तृहरि के ‘नीतिशतक’ में भी एक श्लोक समानरूप से पाया जाता है। तो क्या अभिज्ञानशाकुन्तलम् को भर्तृहरि की अथवा नीतिशतक को कालिदास की रचना मान लिया गया ? __ भास के नाटकों के उपलब्ध हो जाने पर उपर्युक्त श्लोक ‘लिम्पतीव’ उनके चारूदत्त’ नाटक में भी मिला। निश्चय ही भास कृत इस श्लोक को शूद्रक और दण्डी ने ‘चारूदत्त’ से ही लेकर अपनाया होगा। __ अतः पिशेल का यह प्रयास कत्तई मान्य नही है और मृच्छकटिक दण्डी की रचना नहीं है। इस प्रकार दण्डी की दो कृतियां ‘काव्यादर्श’ और ‘दशकुमारचरित’ निर्विवाद रूप से मान्य है और ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ भी दण्डी की तीसरी कृति के रूप में स्वीकार्य है।
काव्यादर्श
RSSRAMROSAGarim __ आचार्य और महाकवि दण्डी के उपर्युक्त ग्रन्थों में से अलङ्कारशास्त्र अथवा काव्यशास्त्र का ग्रन्थ एक मात्र काव्यादर्श ही है। ‘काव्यादर्श’ भामह के ‘काव्यालङ्कार’ के पश्चात् अलङ्कारशास्त्र का प्रथम व्यवस्थित ग्रन्थ है। सर्वप्रथम इसका मुद्रण १८३३ ई. में कलकत्ता से प्रेमचन्द्र तर्कवागीश की टीका के साथ प्रकाशित हुआ। १८६० ई में बोथलिंग द्वारा किये गये जर्मन अनुवाद के साथ वहीं से प्रकाशित हुआ। प्रो. रङ्गाचार्य द्वारा यह ग्रन्थ दो टीकाओं के साथ १६१० ई. मे मद्रास से मुद्रित किया गया। पुनः भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे ने श्री बेलवेलकर आर. शास्त्री और श्री रङ्गाचार्य रेड्डी द्वारा सम्पादित एवं व्याख्याकृत काव्यादर्श को १६३८ में प्रकाशित किया इसके पश्चात् हिन्दी अनुवाद, टीका टिप्पणी के साथ इस ग्रन्थ के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए और हो रहे हैं। सामान्यतः काव्यादर्श में तीन परिच्छेद हैं किन्तु मद्रास से प्रकाशित प्रो. रङ्गाचार्य के संस्करण में चार परिच्छेद हैं। कलकत्ता और पूना वाले संस्करणों में कुल श्लोक संख्या १. भवन्ति नम्रास्तरवः फलोद्गमैर्नवाम्बुभिभूरिविलम्बिनो घनाः।। अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः स्वभाव एवैष परोपकारिणाम्।। - अभिज्ञानशाकुन्तलम्, ५.१२ तथा नीतिशतक, श्लोक ७० आचार्य भामह और आचार्य दण्डी १०७ समान रूप से ६६० है किन्तु मद्रास संस्करण में एक परिच्छेद की वृद्धि के बावजूद श्लोकों की संख्या मात्र तीन बढ़कर ६६३ श्लोक हैं। वस्तुत मद्रास संस्करण में तीसरे परिच्छेद को ही विभक्त कर दो भागों में कर दिया गया हैं और चौथे परिच्छेद का आरम्भ दोष निरूपण से किया गया हैं। कुल श्लोक संख्या में तीन का अन्तर जो है उसका विवरण इस प्रकार है-मद्रास संस्करण में कलकत्ता संस्करण की अपेक्षा तृतीय परिच्छेद के अन्त में दो श्लोक अधिक है और एक श्लोक चतुर्थ परिच्छेद के प्रारम्भ में अधिक पाया जाता है। इसके अतिरिक्त कलकत्ता संस्करण के तृतीय परिच्छेद के श्लोक सं. १६० के पश्चात् ‘आधिव्याधिपरीताय अद्य श्वो सा विनाशिने। को हि नाम शरीराय धमपितं समाचरेत्।। यह चौथा श्लोक अधिक पाया जाता है। किन्तु द्वितीय परिच्छेद का प्रसिद्ध श्लोक ‘लिम्पतीव तमोऽङ्गानि।।’ (२.२२६) मद्रास संस्करण में नहीं है। इस प्रकार इन दोनों संस्करणों में श्लोकों की संख्या में तीन का अन्तर रह जाता है। काव्यादर्श की शैली सरल और सारगर्भित हैं भामह की अपेक्षा दण्डी का विषय विवेचना प्रौढ़ है। भामह की तुलना में दण्डी का कवित्व भी उत्कृष्ट है। दण्डी के उदाहरण मौलिक है और कुछ ही स्थलों को छोड़कर, उन्होंने उदाहरणों को अन्यत्र उद्धृत नहीं किया है। काव्यादर्श को काव्यशास्त्र के किसी एक सम्प्रदाय में रखना युक्तियुक्त नहीं प्रतीत हाता। हालांकि उसे अलङ्कार शास्त्र का ग्रन्थ माना जाता है किन्तु अंशतः वह रीति सम्प्रदाय का भी समर्थक है। काव्यादर्श में गुण और अलङ्कारों का विशद वर्णन है। काव्यादर्श के अधिकांश संस्करणों में (केवल मद्रास संस्करण को छोड़कर) सामान्यतया तीन परिच्छेद हैं। इन तीनों परिच्छेदों में निरूपित विषय का विवरण इस प्रकार है: प्रथमपरिच्छेदः-सम्बन्ध चतुष्टय का निरूपण करने के पश्चात् दोषनिन्दा शास्त्रप्रयोजन देकर काव्य का लक्षण (काव्य शरीर), उसके त्रिविध भेद, सर्गबन्ध महाकाव्य, गद्यकाव्य के भेद- कथा आख्यायिका विषयक स्वमत का उपस्थापन किया गया है। भाषा के आधार पर साहित्य का चतुर्धाविभाजन-संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मिश्र-किया गया है। तत्पश्चात् काव्य के दश गुणों के लिए ‘वैदर्भ’ और ‘गौड’-दो मार्गों का निरूपण करके उसी क्रम में अनुप्रास के लक्षण और उदाहरण दिये गये है। अन्त में उत्तम कवि बनने के लिए प्रतिभा, श्रुत तथा अभियोग-इन तीन आवश्यक गुणों का वर्णन किया गया है। द्वितीय परिच्छेदः-अलङ्कार सामान्य का लक्षण करने के पश्चात् अधोलिखित ३५ अलङ्कारों के लक्षण उदाहरण दिये गये हैं १०८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र १. स्वाभावोक्ति, २. उपमा, ३. रूपक, ४. दीपक, ५. आवृत्ति, ६. आक्षेप, ७. अर्थान्तरन्यास ८. व्यतिरेक, ६. विभावना, १०. समासोक्ति, ११. अतिशयोक्ति, १२. उत्प्रेक्षा, १३. हेतु, १४. सूक्ष्म, १५. लेश ( या लव), १६. यथासंख्य (या क्रम), १७. प्रेय, १८. रसवत, १६. ऊर्जस्वि, २०. पर्यायोक्त, २१. समाहित, २२. उदात्त, २३. अपह्नति, २४. श्लेष २५. विशेषोक्ति, २६. तुल्य-योगिता, २७. विरोध, २८. अप्रस्तुतप्रशंसा, २६. व्याजोक्ति, ३०. निदर्शना, ३१, सहोक्ति, ३२. परिवृत्ति, ३३. आशीः, ३४. संसृष्टि, और भाविक। इन अलकारों के भेदोपभेदों का भी सविस्तर निरूपण किया गया है; यथा उपमा, रूपक, दीपक, आक्षेप, व्यतिरेक, अर्थान्तरन्यास, हेतु आदि अलंकारों के अनेक भेद प्रदर्शित किये गए हैं। तृतीय परिच्छेदः- इस परिच्छेद के प्रारम्भ में दण्डी ने यमक अलकार का अत्यन्त विस्तारपूर्वक निरूपण किया है। चित्रबन्ध के गोमूत्रिका, अर्धभ्रम, सर्वतोभद्र आदि भेदों तथा प्रहेलिका के दस भेदों का वर्णन किया है। तत्पश्चात् काव्यदोषों का निरूपण किया है। मद्रास संस्करण में दोषों का निरूपण चतुर्थ परिच्छेद में किया गया है। काव्यादर्श के विभिन्न संस्करण में प्रथम परिच्छेद में १०५ श्लोक, द्वितीय परिच्छेद में ३६८ श्लोक और तृतीय परिच्छेद में १८७ श्लोक हैं इस प्रकार कुल मिलाकर काव्यादर्श में ६६० श्लोक हैं।
काव्यादर्श के टीकाकारः
यद्यपि अलङ्कार शास्त्र के प्रथम आचार्य भामह माने जाते है और दण्डी, भामह के पश्चात हुए किन्तु अपने कर्तृत्व की उत्कृष्टता के कारण दण्डी भामह की अपेक्षा अधिक विख्यात हुए। भामह के काव्यालङ्कार पर मात्र एक ही टीकाकार ‘भामह-विवरण’ के नाम से ज्ञात है किन्तु वह भी अभी तक अनुपलब्ध है। काव्यादर्श पर अनेक टीकायें लिखी गयीं। काव्यादर्श पर प्रेमचन्द्र तर्कवागीशकृत टीका कलकत्ता से प्रकाशित हुई थी और तरुणवाचस्पतिकृत टीका तथा अज्ञातकर्तृका ‘हृदयङ्गमा’ टीका मद्रास से प्रकाशित हुई। महामहोपाध्याय हरिनाथ कृत ‘मार्जन’ नामक टीका, कृष्णाकिङ्कर तर्कवागीश द्वारा की गयी ‘काव्यतत्त्वविवेचनकौमदी’ टीका; वादिङ्घलकृत ‘श्रुतानुपालिनी’ टीका और जगन्नाथसुत माल्लिनाथ विरचित ‘वैमल्यविधायिनी’ टीका का उल्लेख मिलता है। काव्यादर्श पर की गयी टीकाओं में आधुनिककाल की संस्कृत हिन्दी टीकाओं की भी पर्याप्त संख्या है। काव्यादर्श जर्मन भाषा में भी बोथलिङ्क द्वारा अनुवाद हुआ है जो १८६० ई. में प्रकाशित हुआ है। टीकाओं और विभिन्न भाषाओं में किये गये अनुवादों से काव्यादर्श का सम्मान ज्ञात होता है। काव्यादर्श को वस्तुतः आदर्श ग्रन्थ मानकर इसके आधार पर सिंहली भाषा में सिय-वस-लकर (स्वभाषालङ्कार) नामक ग्रन्थ की रचना हुई है। कन्नड़ भाषा की AAROK HARA १०६ आचार्य भामह और आचार्य दण्डी . अलङ्कार ग्रन्थ ‘कविराजमार्ग’ भी काव्यादर्श के ही आधार पर लिखा गया है। इसे प्रायः काव्यादर्श का अनुवाद् कहा जाता है। अनुमान किया जाता है कि काव्यादर्श का दक्षिणभारत में व्यापक प्रचार-प्रसार तथा विशेष प्रभाव रहा होगा। दण्डी भी दक्षिणभारत के थे और काव्यादर्श की रचना भी दक्षिण भारत (काञ्ची, पल्लवराजाओं की राजधानी) में हुई है।