०३ आचार्य भरत और नाट्य शास्त्र

(क) नाट्यशास्त्र सम्पादन के स्वदेशी : विदेशी प्रयास

मध्यकाल में हमारी भारतीय चेतना का चतुर्मुख जागरण नहीं था। वह अपनी अन्तर्मुखता में जागरुक थी जहां यतमान सिद्धों में भी कोई एक उपलब्धि बनता है-पर व्यावहारिक जगत् में या तो उदासीन थी या यन्त्रवत् परिचालित । यह उदासीनता नवजागरण काल में भग्न हुई और इसके भग्न होने में विदेशी सत्ता भी किसी न किसी रूप में कारण बनी है। हमारी क्रमागत और आप्त-समादृत “दृष्टि” भी युगोचित परिष्कृत हुई। चेतना की आंखों में अंजन लगा। नवजागरण तो पीठ पर आंख लेकर आता ही है। हमने होश-हवास सम्भालकर अतीत को देखना और उपेक्षित विरासत को झाड़ना-पोछना आरम्भ किया। अपनी अस्मिता की नये आलोक में पहचान शुरू की। लोग हमें याद दिलाते हैं तो हमें अपने गौरव की याद आती है। अतीत के गौरव की पुनः प्रतिष्ठा और विकास हमारे लिए चुनौती है। यद्यपि विघटनकारी शक्तियो का सामना करने में हमारी शक्ति का पर्याप्त क्षय होता है-तथापि कुछ न कुछ हम कर रहे हैं। प्रक्रान्त विषय में भी हमारी चेतना में स्पन्दन दूसरों की सक्रियता और हस्तक्षेप से हुआ। विलियम जॉस नामक विद्वान ने १७८६ में कालिदास के शाकुन्तलम् का अंग्रेजी में अनुवाद किया तभी से पाश्चात्य मनीषियों में संस्कृत साहित्य के अध्ययन की रुचि बढ़ी। इस दौर में नाट्य शास्त्र की सबसे पहली चर्चा एच.एच. विलसन ने की। उसने अपने “सिलेक्ट स्पेसीमेन्स आव दी थियेटर आव हिन्दूज” (तीन भाग, कलकत्ता, १८२६-२७) में इसका उल्लेख किया। इसमें उसने कहा था कि अनेक टीकाओं और मूलग्रन्थों में उद्धृत और चर्चित नाट्यशास्त्र सदा के लिए विलुप्त हो चुका है। यह घोषणा अनुसंधायकों के लिए अत्यन्त निराशाजनक थी। लगभग चालीस वर्ष बाद सन् १८६५ में हाल ने धनंजय के दशरूपक का अंग्रेजी अनुवाद कलकत्ता में (१८६१-६५) कराया, इस कार्य में उसे कई वर्ष लगे। अन्ततः उसे नाट्यशास्त्र की पांडुलिपि प्राप्त हुई जिसका कुछ अंश इसी “दशरूपक" के अन्त में परिशिष्ट रूप में प्रकाशित कराया। उसका संकल्प तो था इस पांडुलिपि के प्रकाशन का, परन्तु एक तो वह पांडुलिपि एकमात्र थी-दूसरे खण्डित और अशुद्ध थी अतः उसका संकल्प बन्ध्या ही रह गया। प्रयत्न चलता रहा। १८७४ में जर्मन विद्वान हेमान ने तब तक की उपलब्ध सामग्री के आधार पर एक बैदुष्यपूर्ण निबन्ध लिखा जिसने इस क्षेत्र में सक्रिय विद्वानों को पर्याप्त प्रेरणा दी। फलतः इसके छह वर्ष बाद रंग्नो नामक एक फ्रेंच विद्वान ने (१८८० में) नाट्यशास्त्र के १७वें अध्याय का और बाद में (१८८४ में) पन्द्रहवें-सोलहवें और, और बाद में चलकर छठे-सातवें अध्याय का भी प्रकाशन कराया - यह नाट्यशास्त्र का प्रथम और अपूर्ण प्रकाशन था। आचार्य भरत और नाट्यशास्त्र इनके बाद इन्हीं के शिष्य ग्रोसे ने १८८८ में २८वें अध्याय कोई १८६८ में प्रथम चौदह अध्यायों का सुसम्पादित संस्करण प्रकाशित कराया। यद्यपि था यह अधूरा ही-तथापि इसका अपना महत्त्व था। इसी क्रम में एक और फ्रेंच विद्वान सिल्वालेवी ने “थियेटर इण्डियन" नामक ग्रन्थ लिखा (सन् १८६०)। उन्होंने १८ से २२ तथा ३४ इन अध्यायों का कुछ विवेचनात्मक उपस्थापन अपने ग्रन्थ में किया है -पर न तो वह अनुवाद ही है और न ही सम्पादन। विदेशी विद्वानों द्वारा आरब्ध कार्य का भार भारतीय पण्डितों द्वारा सम्भाला गया और सन् १८६४ में पं. शिवदत्त और पं. काशीनाथ पाण्डुरंग राव ने अशुद्धियों और संदिग्ध पाठ वाली दो पांडुलिपियों के आधार पर निर्णयसागर, बम्बई से सैंतीस अध्यायों का नाट्यशास्त्र प्रकाशित कराया। १६४३ ई. में इसी का वहीं से दूसरा संस्करण भी आया जिसमें अन्तराल में हुए सम्बद्ध प्रयासों की सहायता ली गई है और संस्करण ३७ की जगह ३६ का हो गया है। १८६४ से १६४३ के बीच नाट्यशास्त्र के दो संस्करण और आ चुके थे-एक काशी से और दूसरा बड़ौदा से। १६२६ में चौखम्भा से यह संस्करण पं. बटुकनाथ शर्मा तथा पं. बलदेव उपाध्याय ने प्रकाशित कराया। बड़ौदा से श्रीराम कृष्ण कवि ने नाट्यशास्त्र के तीन भाग १-७ (१६२६ में), ८-१८ (१६३४ में) और तृतीय भाग (२१-२७) सन् १९५४ में प्रकाशित कराया। २८ से ३४ का चौथा भाग १६६४ में प्रकाशित हुआ। काव्यमाला से प्रकाशित होने वाले दूसरे संस्करण में काशी तथा गायकवाड़ संस्करण में उपयुक्त (४०) पाण्डुलिपियों का सहारा लिया गया था। बड़ौदा संस्करण “अभिनव भारती" के साथ था। सातवें और आठवें अध्याय की “अभिनव भारती" नहीं थी। काशी संस्करण की आधारभूत पाण्डुलिपियों से बड़ौदा संस्करण की आधारभूत पांडुलिपियां भिन्न हैं। बड़ौदा वाली के प्रथम संस्करण में ४० का और द्वितीय संस्करण (१९५६) प्रथम भाग में ४४ पांडुलिपियों का सहारा लिया गया है। रामकृष्ण कवि ने इन आधारभूत पाण्डुलिपियों का द्विधा विभाजन किया है - उत्तर भारतीय तथा दक्षिण भारतीय। पहले को “अ” में और दूसरे को “ब” में रखा है। पहली का सम्बन्ध कश्मीर के स्फोटवादी भट्टतौत आदि से है। दूसरी का सम्बन्ध मीमांसा का तथा अन्य दर्शनों से सम्बद्ध आचार्य परम्परा से है। यह परम्परा लोल्लट तथा उद्भट आदि से सम्बद्ध है। अब तो लोग पश्चिमी परम्परा का भी नाम लेने लगे हैं। जबकि कुछ लोग रामकृष्ण कवि वाले विभाजन को भी मान्यता नहीं दे रहे हैं। बड़ौदा वाले द्वितीय (१ से ७ तक प्रथम भाग) संशोधित संस्करण के सम्पादक हैं-रामस्वामी शास्त्री। यह संस्करण कई माने में विशिष्ट है। इसी का तृतीय संस्करण १६८० में बड़ौदा से ही पकाशित हो चुका है। डॉ. के. कृष्णामूर्ति वाला नव्यतम संस्करण भी अब प्रकाशित है। निकट अतीत में नेपाल से भी अनेक पांडुलिपियों की उपलब्धि हुई है। प्रो. जी.एच. भट्ट को भी १६५३ में नेपाल की वीर लाइब्रेरी से पांडुलिपि मिली है।

:

…. …. ५० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र इन प्रयासों के अतिरिक्त श्री मनमोहन ने मूल तथा उसका अंग्रेजी अनुवाद तो प्रकाशित किया ही है - पाठभेद भी दिये हैं। साथ ही आवश्यक मतमतान्तर भी। अनुवाद के अन्य प्रयास हिन्दी में भी हुए हैं। डॉ. रघुवंश ने १-७ अध्यायों का मूल, पाठान्तर तथा अनुवाद प्रस्तुत किया है। दिल्ली विश्वविद्यालय की अनुसंधान परिषद से आचार्य विश्वेश्वर ने १६६० में १,२ तथा अध्याय की “अभिनव भारती" सहित व्याख्या प्रस्तुत की है। उन्होंने वैज्ञानिक पद्धति छोड़कर “विवेकाधृत पद्धति" पर पाठ-प्रकल्पन किया है। इनके अतिरिक्त पं. मधुसूदन शास्त्री ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (१६७१-१९८१) से तथा पं. बाबूलाल शुक्ल ने चौखम्बा, काशी से भी हिंदी रूपान्तर का प्रकाशन कराया है।

(ख) नाट्यशास्त्र का वर्तमान स्वरूप

इस प्रयास से नाट्यशास्त्र का जो स्वरूप उभरकर सामने आता है-वह इसके रचयिता और रचनाकाल से गहरा सम्बन्ध रखता है - अतः उस पर प्रसंगतः ही सही विचार आवश्यक है।

नाट्यशास्त्र का स्वरूप

नाट्यशास्त्र के स्वरूप के विषय में विद्वानों के बीच तरह-तरह के मत प्रचलित हैं। कुछ लोगों का मत है कि नाट्यशास्त्र भिन्न-भिन्न लोगों द्वारा खण्डशः लिखा गया है। बाद में संकलयिता ने बीच के व्यवधानों को भरकर प्रस्तुत रूप दिया होगा। दूसरी ओर कतिपय महाकाव्यों और नाटकों में नाट्यशास्त्र - प्रणेता के रूप में भरत का उल्लेख नहीं है जबकि कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने नाट्यशास्त्र-प्रणेता के रूप में भरत मुनि का उल्लेख किया है। परवर्ती लेखकों’ में भ-भाव , र-राग, त-ताल जैसे आद्य अक्षरों से “भरत” संज्ञा मानी है। नाट्यशास्त्र में भरत का नट के अर्थ में भी प्रयोग है। नव्यतम शोधियों की धारणा है कि किसी बड़े विद्वान ने जो नाट्यप्रयोग में पारंगत था - अनेक रचयिताओं द्वारा रचित कृतियों का संग्रह किया और व्यवधानों को पूर्ण कर भरत की देखरेख में संकलित तथा सम्पादित भी किया। इस तरह नटों की खोई हुई प्रतिष्ठा को उसकी दिव्य उत्पत्ति द्वारा पुनः प्रतिष्ठापित किया। इस प्रकार नाट्यशास्त्र की निर्माणविधि कालिदास से भी पहले बताई गई। स्वयं कालिदास ने “विक्रमोर्वशीय” में भरत को नाट्यशास्त्र के प्रणेता के रूप में स्मरण किया है। सबसे बड़ी बात यह है कि उसमें पर्याप्त व्यवस्था है, अन्तर्विरोध या वदतोव्याघात नहीं है और वह एक कर्तृक है - इसकी पुष्टि होती है। भाषा आद्यन्त स्वच्छ और प्रांजल है। PREM EिSEX SHELARIOMAMKARAMMARTMEnepaleone C HHAMAnim .१. वीरराघवकृत ‘उत्तररामचरित’ की टीका, पृ. १२२ “भावरागतालशास्त्राचार्यत्वमूलकृत्-तदाद्यक्षरघटित भरतनामकस्य” निर्णयसागर १६४६…. आचार्य भरत और नाट्यशास्त्र । वर्तमान में उपलब्ध नाट्यशास्त्र के छत्तीस (या कुछ संस्करणों में सैंतीस) अध्याय हैं तथा इसका आयाम छह सहस्र श्लोकों का है। इस तथ्य का संकेत अभिनव गुप्त ने अपनी ‘अभिनव भारती’ में दिया है -“षत्रिंशकं भरतसूत्रमिदम्”’ शारदातनय तथा उनके परवर्ती अनेक शास्त्रकारों ने नाट्यशास्त्र के दो संस्करणों या पाठों (स्वयं अभिनव ने भी दो पाठों) का उल्लेख किया है। इन लोगों के अनुसार नाट्यवेद के वृहत् तथा लघु दो पाठ थे जिनमें क्रमशः छह तथा बारह हजार श्लोक थे (एक श्लोक की संख्या ३२ मानकर)। म.म. रामकृष्ण कवि का मत है कि द्वादश साहस्री संहिता वृद्ध भरत की रचना थी जिसे संक्षिप्त कर भरतमुनि ने छह हजार का किया। प्राचीन ग्रन्थ का नाम नाट्यवेद था और इसी दीर्घकाय का पाठ प्राचीन पाठ था, जिसके कुछ अंश प्राप्त भी हैं पर और लोग इससे सहमत नहीं हैं। उनका पक्ष है कि षट्साहस्री संहिता का ही पाठ प्राचीन है - इसी का परिवर्धित रूप उत्तरवर्ती पाठ है। धनंजय, भोज एवं अभिनव गुप्त के समय तक दोनों पाठों की परम्पराएं चल रही थीं। धनंजय ने नाट्यशास्त्र के षट्साहस्री रूप को तो भोजराज ने द्वादशसाहस्री या बृहत पाठ को अपनी रचनाओं का आधार बनाया। अभिनव गुप्त का आधार षट्साहस्री ही था। इन दोनों पाठों का कारण शारदातनय ने अपने “भावप्रकाशन” में देते हुए कहा है कि मूल नाट्यवेद को मनु के आग्रह पर दो रूपों में विभाजित किया गया और ये दो रूप थे - षट्साहस्री तथा द्वादशसाहस्री। द्वादशसाहस्री का पाठ सदाशिव भरत की परम्परा में प्रचलित था। यमलाष्टक तंत्र के अनुसार नाट्यवेद का विस्तार छत्तीस हजार श्लोकों का था जिसका संक्षिप्तीकरण “द्वादशसाहस्री” में है - परन्तु इसकी पुष्टि कहीं से नहीं होती। वर्तमान रूप षटसाहस्री का ही प्रतीत होता है - दशरूपककार का साक्ष्य भी है - पर यह द्वादशसाहस्री का प्रतिषेधक नहीं है। इसका कारण है दशरूपक के टीकाकार बहुरूप मिश्र द्वारा प्रदत्त तथा अन्यत्र के उद्धरण। इन विवरणों पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है कि इनमें चर्चित ब्रह्मा, (सदा) शिव तथा भरत का व्यक्तित्व नाट्यशास्त्र के मुख्य उपदेष्टाओं में है जिनमें बाद में विष्णु तथा तण्डु को भी जोड़ लिया गया है। पर इन सब बातों को इतिहास की प्रामणिक परिधि में रखना सम्भव नहीं लगता।

पाठभेद

रामकृष्ण कवि ने ४० पांडुलिपियां एकत्र की और उन्हें दो भागों में विभाजित किया-उत्तरी एवं दक्षिणी। पहली अपेक्षाकृत परवर्ती और दूसरी पूर्ववर्ती। डा. घोष ने भी इस विभाजन को माना है। दक्षिण वाली में नन्दी कोहल का नामोल्लेख है। अभिनव की अभिनव भारती का आधार उत्तरखंड की पांडुलिपियां ही हैं - अतः बड़ौदा वाला (रामकृष्ण

१. नाट्यशास्त्र-अभिनवभारती, प्रथम अध्याय द्वितीय श्लोक (२) 1857/ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र कवि) संस्करण उत्तराखंड की पांडुलिपियों पर ही समाधृत है। दक्षिण वाली विशाल और प्राचीन है। अर्वाचीन आलंकारिक इस भेद के कारण हैं। के.एस. रामास्वामी उत्तर-दक्षिण के विभाजन को असंगत मानते हैं। ना.शा. के संस्करणों का अनुशीलन करें तो निम्नलिखित भेद दृष्टिगोचर होते हैं - (१) पांचवें अध्याय के अन्तिम ४० श्लोक स्वाभाविक हैं। शेष में प्रक्षिप्त होने के कारण सम्भवतः ये न समाकलित हुए हों। छठे के अन्त में कतिपय प्रतियों में “शान्तरस” परक प्रकरण अधिक हैं जो अन्य में नहीं हैं। भरत ने आठ रसों के ही लिये वर्ण-देवता आदि का निरूपण किया है। कालिदास ने भी आठ रसों का ही उल्लेख किया है। सर्वप्रथम उद्भट ने भी नव रसों का उल्लेख किया है। वह या उनसे पूर्ववर्ती किसी ने, सम्भव है ना.शा. में शान्तरस का समावेश किया हो। (३) कतिपय संस्करणों में - प्रतियों में - नवम अध्याय को दो भागों में विभाजित किया गया है। यही कारण है कि काशी और बड़ौदा तथा बम्बई के संस्करणों में अध्यायों की संख्या में भेद दिखाई पड़ता है। (४) पूरे बारहवें अध्याय में पाठभेद मिलता है। इसमें न केवल श्लोकों का क्रम ही अस्त-व्यस्त है अपितु पाठभेद भी है। यह सब बड़ौदा वाले संस्करण में बारहवें अध्याय के परिशिष्ट में दिया है। १४-१५वें अध्याय में छन्दोविवरण में पिंगलादि अर्वाचीन परम्परा का अनुसरण है। शेष प्रतियों में केवल गुरु-लघु क्रम का निर्वाह हुआ है। १४वें अध्याय के लक्षण, कतिपय प्रतियों में उपजाति में है और शेष अनुष्टुप में हैं। ना.शा. का अधिकांश भाग अनुष्टुप वृत्त में ही रचित है। १६वें अध्याय में लक्षणों के लक्षण कतिपय प्रतियों में उपजाति वृत्त में हैं जबकि शेष में अनुष्टुप में। अभिनव ने उपजातिवृत्त का ही अनुसरण किया है। इस अध्याय में गुण अलंकार को परिभाषित करने वाले श्लोक कुछ प्रतियों में सरल हैं कुछ में क्लिष्ट हैं। ना.शा. की भाषा सरल है। नवम की भांति सत्रहवां भी कतिपय प्रतियों में दो भागों में विभाजित है। (८) कतिपय प्रतियों में ३४वां अध्याय अन्यत्र २४वां हो गया है। कतिपय प्रतियों के ३४वें अध्याय का कुछ भाग शेष में २६वां एक विशेष अध्याय बन गया है। कतिपय प्रतियों का ३२वां अध्याय शेष प्रतियों में विधा विभाजित है। (१०) कतिपय प्रतियों का ३६वां अध्याय शेष प्रतियों में द्विधा विभाजित है। उपर्युक्त सारे परिवर्तन अभिनव गुप्त से पहले ही हो गए हैं - यह ज्ञातव्य है।

S

आचार्य भरत और नाट्यशास्त्र

(ग) नाट्यशास्त्र के वर्तमान स्वरूप का काल निर्धारण

ऊपर नाट्यशास्त्र के वर्तमान स्वरूप की बात कही गई है। सम्प्रति उसके इस रूप का निर्माण काल क्या होगा - यह विचारणीय है। इस सन्दर्भ में इसकी ऊपरी ओर निचली काल-सीमा की सम्भावना विभिन्न आधारों पर स्थिर की जा सकती है। विद्वानों ने ऐसा किया भी है। आज प्रकाशित विभिन्न संस्करणों के आधार पर जो औसत रूप हमारे सामने हैं - निश्चय ही इसके मूल रूप से लेकर वर्तमान रूप तक में अनेक लोगों द्वारा अनेक कालखण्डों में अनेक रूपों का समावेश हुआ होगा। फिर सम्पादनकाल में भी अपपाठों की भरमार से सम्पादक व्यग्र रहे हैं। आधारभूत पांडुलिपियों की प्रतिलिपि काल प्रामाणिक रूप से क्या है ? - उनकी वंश परम्परा कैसी है ? किस काल की लिपि को प्रामाणिक मानकर आदर्श पाठ निर्धारित किया गया है?-यह भी कहीं स्पष्ट नहीं है। जिन ग्रन्थों में नाट्यशास्त्र का उल्लेख है - या उद्धरण है - उनसे पूर्व तो नाट्यशास्त्र का अस्तित्व प्रमाणित हो जाता है - पर उससे उसका कौन सा रूप अस्तित्व में था - यह कैसे तय हो ? प्रो. डे का यह अनुमान ही है कि समावेशन की प्रक्रिया बहुत प्राचीनकाल में हुई होगी और प्रत्यक्ष रूप से आठवीं शती के अन्त तक समाप्त हो चुकी होगी। - जबकि इस ग्रन्थ को न्यूनाधिक वर्तमान आकार प्राप्त हो गया होगा। नेपाल से प्राप्त पांडुलिपियों का प्रतिलिपि-काल १२वीं से १५वीं शताब्दी के बीच का कहा जाता है। उत्तर-भारतीय और दक्षिण-भारतीय पांडुलिपियों का प्रतिलिपि-काल क्या है ? द्वितीय संस्करण के सम्पादक को इस उत्तर-दक्षिण विभाजन का कोई ठोस आधार प्राप्त नहीं है। वेद, शास्त्र की तरह संभव है इसके एक ही रूप को मौखिक या प्रतिलिपि परम्परा में संपूर्ण भारत में एक ही तरह से सुरक्षित रखा गया हो। ११वीं शती तक इस पर टीका की ही परम्परा चलती रही। दसवीं की तो “अभिनव भारती" ही है। मूल पाठ इससे सुरक्षित हो सकता है या वर्तमान रूप इनके ही इर्दगिर्द हो सकता है। प्रो. डे सम्भवतः इन्हीं सब आधारों पर आठवीं शती की बात करते हैं। दो पाठभेद की बात तो अभिनव गुप्त मानते ही हैं। कालिदास और दण्डी आठ रस की ही बात करते हैं जबकि उद्भट अपने “काव्यालंकार सार संग्रह” में नवरस की पुष्टि करते हैं। सम्भव है कि ४०० से ७५० के बीच “शान्त रस” का समावेश हुआ हो। मुद्रित संस्करणों में किसी भी “अष्टौरसाः” पाठ है तो “अभिनव भारती” के साथ जुड़े हुए पाठों में “शान्त” है। उपलब्ध संस्करणों में अध्याय भेद, अध्यायगत श्लोक संख्या-भेद, पाठभेद - जैसी विरूपताएं मिलती हैं। इस स्थिति में उनके औसत रूप को ही वर्तमान रूप मानकर काल-निर्धारण करना होगा। जिन पांडुलिपियों का सम्पादन में उपयोग किया गया है - उनमें से अधिकांश का काल -लिपिकाल अचर्चित है। अनुमान है कि ये पांडुलिपियां पांच-सात सौ वर्ष प्राचीन हैं। इसलिए इनके आधार पर भी वर्तमान रूप का काल-निर्धारण सम्भव TOPICADAmanimume-m ५४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र नहीं है। इस सन्दर्भ में दो पक्ष सम्भावित हैं - एक तो यह कि समावेशन कार्य की समाप्ति काल वर्तमान रूप का काल माना जाय ओर दूसरा यह कि कालिदास और अमरसिंह के द्वारा प्रत्यक्ष विवरण के अनुसार उनसे पूर्व जो रूप स्थिर हो चुका है-उसे ही वर्तमान रूप कहा जाय। १६५६ में रामास्वामी शास्त्री ने बड़ौदा से प्रकाशित नाट्यशास्त्र के द्वितीय संस्करण की भूमिका में सविस्तार स्पष्ट करने की कोशिश की है कि कालिदास और अमरसिंह ने “विक्रमोर्वशीयम्” तथा “अमरकोश” में जो विवरण और मामावली दे रखी है- उस आधार पर लगता है कि १ से ७ अध्याय तक के वर्ण्य विषय आज जिस रूप में उपलब्ध हैं - वे उनसे पूर्व या उनके समय में विद्यमान थे। फलतः वह रूप भी वर्तमान रूप कहा जा सकता है। श्री रामास्वामी कहते हैं - In any case, it seems to be certain that the text of these 7 chapters of the Natya-Shastras as available today appears to have existed, having atleast the same substance and the topics, even before Kalidas and Amarsingha in the 4th century." (नाट्यशास्त्र, प्रथम भाग, १-७ अध्याय, बड़ौदा, १६८० के सम्पादित संस्करण की द्वितीय संस्करण की भूमिका, पृष्ठ १३)। दूसरी ओर प्रो. डे का पक्ष है - “भरत की मौलिक रचना (यदि हो) और उनके नाट्यशास्त्र के उपलब्ध रूप में पहुंचने की बीच की अवधि में कोहल और अन्य लोग उत्पन्न हुए और इसलिए उनके विचार नाट्यशास्त्र के उस रूप में समाविष्ट हो गये जिसे अब भरतकृत कहते हैं और भावी पीढ़ियों के लोगों ने निस्संशय और निर्विवाद रूप से उसे असली मान लिया” (संस्कृत काव्य शास्त्र का इतिहास, बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी, पटना, भाग-१, सन् १६७३, पृष्ठ २३)। इस समावेशन में वृद्ध भरत या आदि भरत की द्वादशसाहस्री का संक्षिप्तीकरण, शिलालि और कृशाश्च सूत्रों का विलयन, तथा कोहल, राहुल, दत्तिल, हर्ष, नन्दिकेश्वर, वार्तिकार तथा उन ओर नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थ लिखने वालों का, जिनके ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं-भी होना सम्भव है। (देखिए, रामास्वामी का द्वितीय संस्करण की भूमिका, पृष्ठ ६)। उनका पक्ष है “समावेशन की प्रक्रिया बहुत प्राचीन काल में हुई होगी और प्रत्यक्ष रूप से आठवीं शती के अन्त तक समाप्त हो चुकी होगी जबकि इस ग्रन्थ को न्यूनाधिक वर्तमान आकार प्राप्त हो गया होगा” (सं. का.शा.इ., पृष्ट २४)। उद्भट ने उसी समय वास्तव में “नाट्यशास्त्र” के श्लोक १५ के पूर्वार्ध को अपने ग्रन्थ में (४१४) यथावत स्वीकार कर लिया और उसके उत्तरार्ध में केवल इतना परिवर्तन किया कि भरत द्वारा माने गए आठ रसों के अतिरिक्त शान्त नामक नवें रस का भी समावेश हो जाय। अभिनव गुप्त ने दसवीं शती के अन्त में विद्यमान पाठ पर टीका की है। उन्होंने स्वयं कई पूर्ववर्ती टीकाकारों के नाम गिनाए हैं। शायद उनमें से लोल्लट और शंकुक आठवीं और नवीं शती में हुए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नाट्यशास्त्र वर्तमान ५५ आचार्य भरत और नाट्यशास्त्र आकार में और पहले नहीं तो भी आठवीं शती में अवश्य विद्यमान था। (सं. का.शा.इ, पृष्ठ २४)। नाट्यशास्त्र के वर्तमान रूप के निर्धारण के सम्बन्ध में आधार भेद और दृष्टिभेद से मतभेद सम्भव है और ऊपर उन्हीं का संकेत किया गया है। नाट्यशास्त्र के रचनाकाल पर निर्णयात्मक विचार एक चुनौती है। चुनौती इसलिए है कि उसके स्वरूप और निर्माण पर अनेक परस्पर विरोधी विचार हैं। अधिकांश पाश्चात्य चिन्तक यह मानते हैं कि वर्तमान उपलब्ध नाट्यशास्त्र संकलनात्मक ग्रन्थ है - दूसरे वे लोग हैं जो इसे एक कर्तृक मानते हैं-गोकि ये लोग भी पाठभेद मानते हैं। अभिनव आद्यन्त अध्यायों और विवेच्य विषयों में ऐसी संगतिपूर्वक व्याख्या करते हैं - जैसे वह एक कर्तृक हो, यद्यपि वह भी स्वीकार करते हैं कि उनके सामने भी दो पाठ हैं। इस प्रकार जहां इसके निर्माण में एक कर्तृक और अनेक कर्तृक का पक्ष है- वहीं उसके स्वरूप पर भी मतभेद है। मतभेद उसके “मूल रूप” और “वर्तमान रूप” की भिन्नता और अभिन्नता को लेकर है। पाणिनि नट सूत्रकारों का उल्लेख करते हुए केवल कृशाश्व और शिलालिन् की बात करते हैं जबकि कोशकार अमरसिंह तीन की बात करते हैं शैलालिनस्तु शैलूषा, जायाजीवाः कृशाश्विनः। भरता इत्यपि नटाः चारणास्तु कुशीलवाः॥ ११, १०, १२ अर्थात उनके समय नाट्य की तीन परम्पराएं थीं जो नटों के तीन भिन्न-भिन्न अनुयायियों द्वारा प्रयोग में लायी जाती थीं। ये थे-शैलूष, जायाजीव और भरत।’ __तीनों के तीन आचार्य थे। इससे स्पष्ट है कि भरत और उनका मूल ग्रन्थ मूलतः था। “मालविकाग्निमित्र” और “उत्तररामचरित"३ में नाट्यशास्त्रकार भरत मुनि का उल्लेख है। रामकृष्ण कवि का तो यह भी पक्ष है कि “अमरकोश” और “विक्रमोर्वशीयम्” में १ से ७ तक के नाट्यशास्त्रीय वर्ण्य विषयों का वही रूप संकेतित है जो आज भी उपलब्ध है। इन सबसे यह स्पष्ट है कि कोई नाट्यशास्त्र भी अस्तित्व में आया और इस अस्तित्वापादन का श्रेय भी भरत नामक मुनि को है। इस प्रकार जो एक कर्तृक मानते हैं -उनकी दृष्टि में रचनाकाल का सवाल उन लोगों से भिन्न है जो संकलनात्मक मानते हैं।

१. एकस्य ग्रन्थस्यानेकववतृवचनसन्दर्भमयत्वे प्रमाणामावात् । स्वपरव्यवहारेण पूर्वपक्षोत्तरपक्षादीनां श्रुतिस्मृतिव्याकरणतर्कादिशास्त्रेष्वेकविरचितेष्वपि दर्शनात्। न तु मुनिविरचितमिति यदाहुर्नास्तिकधुर्योपा ध्यायास्तत्प्रत्युक्तम्। सर्वापनवनीयाबाधितशब्दलोकप्रसिद्धिविरोधाच्च। - नाट्यशास्त्र, अभिनवभारती, का.हि वि.वि., १६७११ देवानामिदमामनन्ति मुनयः शान्तं क्रतुं चाक्षुषम् - अंक - १, श्लोक-४॥ ३. भरतस्य तौर्यत्रिक सूत्रधारस्य-अंक-४, पृष्ठ १२२, निर्णयसागर, १६४६।

r-man—अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र संकलनात्मक मानने वाले समावेशन की प्रक्रिया का अन्त होने के काल को उसके पर्यवसित और प्रतिष्ठित वर्तमान रूप का काल-निर्धारण चाहेंगे। काल-निर्धारण में ये दो पृथक्-पृथक् वर्ग हैं। इसमें अन्तःसाक्ष्य और बहिःसाक्ष्य-दोनों का उपयोग किया गया है। आचार्य अभिनवगुप्त के काल में भी नाट्यशास्त्र के प्रणेतृत्व पर आचार्यों का मतभेद था। अभिनवगुप्त के शब्दों में कतिपय नास्तिकधुर्य उपाध्याय थे जो नाट्यशास्त्र का कर्ता एक भरतमुनि को नहीं मानते थे। अभिनव इससे असहमत हैं। रचनाकाल के सम्बन्ध में प्रमुख मत नीचे दिए जा रहे हैं –

(१) श्री एबी. कीथ

इन्होंने अपने “हिस्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर" तथा “संस्कृत ड्रामा”-दोनों पुस्तकों में प्रसंगतः कालनिर्णय की बात कही है। उनकी धारणा है कि अश्वघोष और भास की रचनाओं के साथ नाट्यशास्त्र की तुलना करके अधिक निश्चित निष्कर्ष निकाला जा सकता है। जिन प्राकृतों से नाट्यशास्त्र परिचित है वे स्पष्टतया अश्वघोष की प्राकृतों के बाद की हैं और भास के नाटकों में उपलब्ध प्राकृतों के साथ उसका अधिक सादृश्य है। पुनश्च, नाट्यशास्त्र ने अर्धमागधी की मान्यता दी है जो इन दोनों नाटककारों की रचनाओं में पाई जाती है किन्तु परवर्ती नाटकों में नहीं। इसके विपरीत परवर्ती नाटकों में पाई जाने वाली महाराष्ट्री की इन दोनों नाटककारों की ही भांति उपेक्षा की गई है। इसके अतिरिक्त भास ने एक नाट्यशास्त्र का स्पष्ट रूप से निर्देश किया है (अविमारक)। बहुत सम्भव है कि वे और कालिदास - दोनों वर्तमान ग्रन्थ के किसी पूर्व रूप से परिचित हों। भास ने अपने नाटकों के उपसंहार के आकार प्रकार में अथवा रंगमंच से मृत्यु के दृश्यों के बहिष्कार में नाट्यशास्त्र के नियमों का आंख मूदकर पालन नहीं किया है। इससे इतना ही सूचित होता है कि जिस समय उन्होंने अपने नाटकों की रचना की थी उस समय तक शास्त्र की नियामक शक्ति प्रतिष्ठित नहीं हुई थी। इस प्रकार अस्पष्ट रूप से संकेतित रचनाकाल का खण्डन करने के लिए कोई प्रमाण नहीं मिलता क्योंकि काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का निरूपण सरल एवं प्रारम्भिक है। मूल ग्रन्थ में समय-समय पर किये जाने वाले परिवर्तनों एवं परिवर्धनों की सतत सम्भावना की बात तो दूर रही, संगीत के विषय में की गई टिप्पणियों से भी प्रस्तुत कृति के रचनाकाल के विषय में कोई निष्कर्ष निकालना संभव नहीं है। इस प्रकार कीथ’ अपने मत का दृढ़ता पूर्वक पल्लवन नहीं कर पाते। वह अनुमानतः इसे भास तथा कालिदास के समय से थोड़ा पहले रखते हैं। श्री कीथ समावेशन के अनन्तर MAHARASHTRA E MARCONSTRATORS mail 1. We have no certain information on poetics until it occurs as a subordinate element in chapter XVI of the Bharatiya Natya Shastra, which is essentially a treatise of Dramaturgy and which may be placed conjecturally somewhat earlier than Bhasa and Kalidas, though there is no strict proof of date. - a.V. Kieth ‘A History of Sanskrit Literature, Oxford, 1920, page 372 ५७ आचार्य भरत और नाट्यशास्त्र परिणत वर्तमान रूप के काल पर विचार नहीं करते-अपितु मूल रूप पर भाषा विवेचन सम्बन्धी अन्तःसाक्ष्य के आधार पर अपना असन्तुष्ट पक्ष रखते हैं। इस प्रकार बिना किसी दृढ़ आश्वासन के इन्होंने तीसरी शती से पूर्व इसका काल-निर्धारण किया है।

(२) डा. मनमोहन घोष

डा. घोष ने अनेकविध अन्तःसाक्ष्य तथा बाह्य साक्ष्यों के आधार पर नाट्यशास्त्र का काल-निर्धारण किया है। उन्होंने अपन मत बदला भी है। पहले उनका पक्ष था कि नाट्यशास्त्र का समय २०० ई. सन् से लेकर १०० ई. पू. के बीच कहीं होना चाहिए पर बाद में उन्होंने कई कारणों से इसे बदल दिया। आगे चलकर इन्होंने नाट्यशास्त्र का लेखन या रचनाकाल ५०० ई.पू. माना। यह समय वर्तमान रूप का नहीं-मूल रूप का है जब वह लिखा गया होगा। तर्क निम्नलिखित हैं (१) इसमें प्रयुक्त संस्कृत भाषा का शब्दकोश ५००-३०० ई.पू. रखा जा सकता है। (२) इसमें प्रयुक्त छन्दों में वैदिक पद्धति का साम्य है-अतः ५०० ई.पू. ही इसके अस्तित्व में आने की संभावना है। (३) नाट्यशास्त्र के वाक्यालंकार का विधान भी इसे अश्वघोष के पूर्व की रचना सिद्ध करता है। रामायण और महाभारत में उपलब्ध पौराणिक तत्वों का नाट्यशास्त्र में उपलब्ध पौराणिक तत्वों से तुलना करने पर प्रतीत होता है कि इसकी रचना इन दोनों महाकाव्यों के अस्तित्व में आ जाने से पहले (लगभग ४०० ई.पू.) हो चुकी थी। चूँकि नाट्यशास्त्र में तीन बार अर्थशास्त्र का वर्णन आया है और उसके साथ कौटिल्य से व्यतिरिक्त वाचस्पति का सम्बन्ध दिखाया गया है, इससे लगता है कि भरत-चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधान धर्माधिकारी चाणक्य के समकालीन अथवा पूर्वकालीन थे। नाट्यशास्त्र में जिन भारतीय भू-भागों के नामों-अंग, बंग, प्राग्ज्योतिष, वाह्लीक और नेपाल-का उल्लेख मिलता है-उनका सम्बन्ध चन्द्रगुप्त तथा अशोक के साथ जोड़ना संगत प्रतीत होता है। (७) भास ने अपने ‘अविमारक’ नाम की कृति में नाट्यशास्त्र का उल्लेख किया है और डा. पुसालकर के अनुसार भास का समय ३५० बी.सी. अनुमित है। पाणिनि के From the flowing tone of Bhas’s Sanskrit and conversational style of his diologues which are short, easy, graceful and coloquial, we are in blind to think that Sanskrit was spoken language in Bhas’s time and so we place him after Panini before the letter’s grammer got a strong foothold and probably before Katyayan (350 B.C.). - The Natya Shastra. मनमोहन घोष, मनीषा ग्रन्थालय कलकत्ता, १६६७, पृष्ठ ६६॥ HAMMADRAMAnim RBACIAL::…….. ५८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र बाद और कात्यायन पहले की अवधि की भास की संस्कृत भाषा की है। भास से पूर्व नाट्यशास्त्र अस्तित्व में आ गया होगा। (८) चूंकि भास की प्राकृत में नाट्य पद्धति से भिन्न मनुसंहिताकालीन पद्धति का अनुकरण लक्षित होता है-फलतः घोष (४००-३५० ई.पू.) उन्हें रखना चाहते हैं और भरत भास से पूर्व हैं इसीलिए (भरत या) उनकी रचना का समय ५०० ई. पू. मानना चाहते हैं।

(३) रामकृष्ण कवि

इनका मत पहले संकेतित किया जा चुका है-तथापि इस सन्दर्भ में उसका सविस्तार निरूपण करना आवश्यक है। इनका पक्ष यह है कि १ से ७ अध्यायों का जो स्वरूप सम्प्रति उपलब्ध है-वह शब्दशः यथावत रहा हो या न रहा हो परन्तु उसका आशय और वर्ण्य विषय कालिदास और कोशकार अमरसिंह के समक्ष अवश्य विद्यमान था। इनका समय चतुर्थ शती का है। कालिदास ने अपनी ‘मालविकाग्निमित्र" नामक कृति के निम्नलिखित श्लोक में सातों अध्यायों के विवेच्य विषय का संकेत दे दिया है। NO- RELEASE देवानामिदमामनन्ति मुनयः शान्तं क्रतुं चाक्षुषं रुद्रेणेदमुमाकृतव्यतिकरं स्वागं विभक्तं द्विथा। त्रैगुण्योद्मवमत्र लोकचरितं नानारसं दृश्यते नाट्यं भिन्नरुवेर्जनस्य बहुधाप्येकं समाराधनम्।। १।। ४।। माल. मि. प्रथम चरण में नाट्यशास्त्र के पहले अध्याय का विषय संकेतित है। इस अध्याय में दवताआ की प्रार्थना पर उन्हें प्रसन्न करने के लिए ब्रह्मा ने कमनीय चाक्षुष यज्ञ के रूप म पचम नाट्यवेद की सृष्टि की-यह बात मुनि भरत ने ऋषियों से कही है। “क्रतु” का आशय वह कर्मकाण्ड भी है जिससे वेदी की भांति रंगमंडप और यज्ञशाला की भांति प्रेक्षागृह का निमाण द्वितीय अध्याय में बताया गया है। “मुनयः” कहकर सम्मानवाचक ढंग से भरतमुनि का संकेत स्पष्ट है। दूसरी पंक्ति द्वारा रुद्र और उमा से सम्बद्ध ताण्डव और लास्य जैसे चतुर्थ अध्याय के वर्ण्य विषय नृत्य का निर्देश स्पष्ट है। रंगदैवतपूजन वाले तीसरे अध्याय से “क्रतु” द्योतित कर्मकाण्ड तो बहुत ही स्पष्ट है। पंचम में पूर्वरंग के अंगों का ही पल्लवन है। तीसरे और चौथे चरण में “नानारस” के द्वारा छठे और सातवें अध्याय में विवेचित भाव और रस का ही कथन है। सत्वप्रधान, रजःप्रधान और तमःप्रधान प्रकृति या रुचि वाले लोक का नानारस सम्पन्न नाट्य कितना उत्तम समाराधन है। इससे स्पष्ट है कि आज जिस रूप में हम नाट्यशास्त्र को पा रहे हैं यही रूप कालिदास के भी समक्ष रहा हो। आचार्य भरत और नाट्यशास्त्र ५६ __ इसी प्रकार अमरसिंह के विषय में भी कहा जा सकता है कि उन्हें भी नाट्यशास्त्र के वर्तमान सातों अध्यायों के विषय ज्ञात थे। अमरकोश में उन्होंने श्रृंगार को परिभाषित करते हुए कहा है-“श्रृंगारः शुचिरुज्जवलः।" भरत भी शृंगार को परिभाषित करते हुए कहते हैं-“श्रृंगारः उज्जवलवेषात्मकः। यत् किंचिल्लोके शुचि मेध्यमुज्ज्वलम्। २-इत्यादि। अमरसिंह जब “शुचि” और “उज्ज्वल” को श्रृंगार के पर्याय रूप में रखता है तब लगता है कि उन्हें भरत का ज्ञान है और उनकी रचना देखी है। अमरकोश का पूरा नाट्यवर्ग तथा कतिपय पारिभाषिक तथा अन्य छंदों को प्रयोग और उनकी व्याख्या सिद्ध करते हैं कि उन्हें नाट्यशास्त्र के उस रूप का ज्ञान था जिसे हम आज देख रहे हैं। ये शब्द हैं- सात्विक, आंगिक, अनुभाव (शैलालिन, कृशाश्व, भरत, नृत्य, नाट्य, अष्टरस, तत, अवनद्ध, धन, सुषिर, तत्व, बोध तथा विलम्बित)। भरत से पूर्ववर्ती दो नटसूत्रकार- कृशाश्व और शिलालिन का भी इन्हें ज्ञान था। इनका उल्लेख सूत्रकार के रूप में पाणिनि ने भी किया था-पर इन दोनों के नाम के अलावा और कुछ भी किसी को आज ज्ञात नहीं है। हो सकता है इन दोनों के सूत्रों का अन्तर्भाव भरत के नाट्यशास्त्र में हो गया हो। संभव है “द्वादशसाहस्री” से भरतकृत “षट्साहस्री” में संक्षिप्तीकरण के समय इनका भी समावेश हो गया हो। यह तो निर्धान्त सत्य है कि भरत के अनुयायी नट भी भरत कहे जाते हैं। भरत की यह सरणि दिव्य-उद्भववाली कही गई है। ब्रह्मा को नाट्यवेद का प्रणेता कहा गया है। शंकर ने इसमें ताण्डव और लास्य की और विष्णु ने वृत्तियां भर दीं। भरत ने अपने नाट्यशास्त्र के उद्भव के विषय में ये बातें कही है। संभव है इसमें आदि भरत और वृद्ध भरत का कर्तृत्व भी समाहित हो। इस प्रकार रामकृष्ण कवि का पक्ष है। कि नाट्यशास्त्र का वर्तमान रूप कालिदास और अमरकोशकार (चतुर्थ शती) से पूर्व का है। निचली सीमा तो यह है ही।

(४) डा. एस. के. डे

इनका भी अभिमत संक्षेप में ऊपर दिया गया है। पर यहाँ तर्क और प्रमाण के साथ सविस्तार उपस्थापित किया जा रहा है। इन्होंने काल-निर्धारण के सम्बन्ध में एक नया पक्ष रखा है। इनका कहना है। कि प्रणेता भरत की मूल रचना का जब स्वरूप ही सामने नहीं है तब उसके काल पर क्या विचार किया जाय ? विचार यह करना है कि आज जो रूप हमारे सामने है वह अपने मूल रूप का कहाँ तक प्रतिनिधित्व करता है ? दूसरा विचारणीय प्रश्न यह है कि नाट्यशास्त्र का जो रूप इस समय प्राप्त है-भरतोत्तर काल में उसका पाठ १. अमरकोश, १-७-१७। २. नाट्यशास्त्र-बड़ौदा, १६८०, पृष्ठ १३५ । ६० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अनेक हाथों में पड़कर अनिश्चित, अव्यवस्थित और असन्तोषजनक हो गया है। फलतः अब इसी वर्तमान रूप का काल क्या है। ? वही विचारणीय है। स्वयं अभिनव गुप्त कहतें हैं कि उन्हें नाट्यशास्त्र का जो रूप प्राप्त था, वह छत्तीस’ अध्यायों का था। साथ ही यह कि उन्हें कुछ अध्यायों में दो भिन्न-भिन्न पाठों का भी पता था। नाट्यशास्त्र के वर्तमान रूप या पाठ में ऐसे कई स्थल है। जो समय-समय पर इसमें किए गए प्रयोगों तथा इसके स्वरूप पर सम्भवतः कुछ आलोक विकीर्ण करते हैं। इनकी धारणा है कि भरतप्रणीत मूलग्रन्थ और उसके वर्तमान उपलब्ध रूप में पहुँचने के बीच की अवधि में कोहल और अन्य लोग उत्पन्न हुए और इसीलिए उनके विचार नाट्यशास्त्र के उसमें समाविष्ट हो गए जिसे अब भरतकृत कहते हैं। और भावी पीढ़ियों के लोगों ने निस्संशय और निर्विवाद रूप से उन्हें असली मान लिया। ये मध्यवर्ती लोग हो सकते हैं। नंदिकेश्वर, मतंग, कोहल, दत्तिल (धूर्तिल), शांडिल्य, भरतपूर्ववर्ती आचार्य, काश्यप, शातकर्णी, विशाखिल, पराशर, नखकुट्ट, पौराणिक नारद- आदि। डा. डे का विचार है कि इन लोगों का विभिन्न ग्रन्थों में भी उल्लेख मिलता है और इन्हें नाट्योपयोगी विभिन्न पक्षों का विचारक और ग्रन्थप्रणेता कहा गया है। इन लोगों के ग्रन्थ मिले तो नाट्यशास्त्र की पाठ समस्या पर कुछ प्रकाश पड़े। सम्भवतः अभिनव गुप्त को कुछ ऐसे ग्रन्थ उपलब्ध थे। डा. डे की धारणा है कि समावेशन की प्रक्रिया बहुत प्राचीनकाल में हुई होगी और प्रत्यक्ष रूप में आठवीं शती के अन्त तक समाप्त हो चुकी होगी जबकि इस ग्रन्थ को न्यूनाधिक वर्तमान आकार प्राप्त हो गया होगा। अभिनव गुप्त ने इसी वर्तमान रूप की टीका की है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि नाट्यशास्त्र वर्तमान आकार में और पहले नहीं तो भी आठवीं शती में अवश्य विद्यमान था। डा. डे ने मूलपाठ के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न खड़े किए हैं। एक अन्यथा स्थिति की कल्पना भवभूति द्वारा भरत का “तौर्यत्रिक सूत्रधार” के रूप में उल्लेख से पैदा होती है। भवभूति भरत को सूत्रधार कह रहे हैं और नाट्यशास्त्र में रससूत्र जैसे संकेत भी विद्यमान हैं। पाणिनि ने भी कृशाश्व और शिलालिन् का नट सूत्रकार के रूप में उल्लेख किया है-अमरकोशकार ने उनके साथ भरत का स्मरण भी किया है। हो सकता है कि षष्ठ अध्याय का शेष अंश उसी की वृत्ति या भाष्य हो-जो गद्य रूप में विवेचन और श्लोकों से पूर्ण है। ऐसा भी कहा गया है कि ऋषियों के निवेदन पर भरत ने “संग्रह" “कारिका” और “निरुक्त” के लक्षणों की व्याख्या की और प्रसंगवश पाठ के अंश को “सूत्र” रूप देकर “सूत्रग्रन्थ” का यह उदाहरण दिया। यह आवश्यक नहीं कि सूत्रपाठ कारिकापाठ से प्राचीन हो क्योंकि वर्तमान सूत्रपाठ में ही अनुबद्ध" और “आनुवंश्य’ श्लोकों की वृत्तियों १. षट्त्रिंशकं भरतसूत्रमिदं विवृण्वत् वंदेशिवं श्रुतितदर्थविवेकधाम-अभिनव भारती अध्याय-११२॥ द्विविधः पुस्तकपाठो दृश्यते-अभिनव भारती, अध्याय-१५, श्लोक दो पर, १६७५, का.हि.वि.वि. संस्करण, पृष्ठ १२०२। ६१ ARTA आचार्य भरत और नाट्यशास्त्र के उद्धरण हैं जिनसे सिद्ध होता है कि वैसी सामग्री भी पहले विद्यमान थी साथ ही इस परम्परागत विश्वास का खण्डन भी होता है कि भरत ही नाट्यवेद के प्राचीनतम आचार्य थे। फिर भी यदि यह मानलिया जाय कि भरत की मूल रचना सूत्रबद्ध थी तो विद्यमान पाठ का यह अंश मूल रूप से अवशेष माना जा सकता है। सूत्र-भाष्य पद्धति में इस प्रकार के अवशेष भी यहां मिलते हैं। इस तरह इसे सूत्रग्रन्थ के रूप में माना जाय या कारिकाबद्ध ? सातवीं शती में ही भवभूति उन्हें सूत्रकार कह रहे हैं और उसी शती के अन्त में उद्भट कारिकाकाकर मान रहे हैं-लोल्लट आदि तथा शंकुक भी उन्हीं कारिकाओं पर टीका भी कह रहे हैं। हो सकता है भवभूति पौराणिक भरत से ऐतिहासिक भरत को एक करके “तौर्यत्रिक सूत्रकार” कह रहे हों। जो भी हो, पाठ सम्बन्धी यह भी एक समस्या है। पाठ सम्बन्धी समस्या यहीं समाप्त नहीं हो जाती। अध्याय १७, २८, २६, ३१ तथा ३४ में कारिकाओं के बीच गद्यखण्ड भी हैं-वे पाठ के अभिन्न अंग हैं-“वृत्ति” नहीं है। अनुबंध और आनुवंश्य श्लोक भी चूंकि आर्या और अनुष्टुप छन्द में हैं-अतः दो पृथक् स्रोतों से आये होंगे और यथास्थान उनका सन्निवेश कर लिया गया होगा। इस प्रकार चर्चाधीन पाठ में प्रत्यक्ष रूप से ऐसी अवशिष्ट सामग्री है जिसमें-(१) स्वतन्त्र रूप से विद्यमान गद्य अंश हैं (२) सूत्र-भाष्य रीति के स्थल हैं और (४) वर्तमान कारिका रूप भी हैं। फलतः इन सबके पारस्परिक सम्बन्ध की समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। डा. डे ने नाट्यशास्त्रीय रचनाओं के विविध रूपों के विकास के अनेक सोपानों की सम्भावना व्यक्त की है और इस विकास क्रम में इस प्रकार भेद निर्दिष्ट किया है (१) गद्य ग्रन्थों के निर्माण की अवस्था (२) कारिका लेखन की प्रयोगात्मक अवस्था (३) सूत्र-भाष्य पद्धति की अवस्था तथा (४) संहिता ग्रन्थों के संकलन की अन्तिम अवस्था जिसमें फिर से कारिका शैली अपना ली गई। इस तरह नाट्यशास्त्र के विद्यमान पाठ में इन सभी शैलियों और रूपों के अवशेष सम्मिलित हैं। म.म. काणे के अनुसार भी नाट्यशास्त्र का मूल बीज रूप गद्य और पद्य मिश्रित था। डा. डे ने विविध पाठान्तरों की समस्या से हटकर नाट्यशास्त्र के विषयसार की दृष्टि से भी विचार किया है और अन्तःसाक्ष्य के आधार पर बताया है कि संगीत विषयक अंश का संकलन चौथी ई. के लगभग हुआ होगा। यह भी सम्भव है कि ग्रन्थ के शेष अंश भी उसी समय अपना वर्तमान स्वरूप धारण कर चुके हों। अलंकारों के विकासक्रम तथा कालिदास द्वारा भरतसम्मत तथ्यों की चर्चा के कारण भरत के ग्रन्थ निर्माण की ऊपरी सीमा चौथी अथवा पांचवीं शती ई. तक तो मानी ही जा ४ ………-maime …–.—-………..

अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ૬૨ सकती है। साथ ही यह भी कि ग्रन्थ अपने वर्तमान रूप में कम से कम आठवीं शती ई. में विद्यमान था। सूत्रकार के रूप में मान्यता दी जाय तो ईसा से ठीक पहले की कुछ शतियों में रचा गया मानना होगा। सूत्र-भाष्य शैली कारिका पाठ वाली शैली से बहुत प्राचीन है।

(५) म.म. पी.वी. काणे

मुद्रित और प्रकाशित संस्करणों तथा आधारभूत पांडुलिपियों की तुलना से उपलब्ध नाट्यशास्त्र के पाठ में विभिन्न प्रकार की विषमताओं’ का सविस्तार विवरण देते हुए श्री काणे ने दो प्रश्न उठाए हैं-पहला यह कि नाट्यशास्त्र का मूल रूप क्या रहा होगा और दूसरा यह कि इसका रचयिता कौन था? उन्होंने उपलब्ध नाट्यशास्त्र की पांच प्रत्यभिज्ञापक विशेषताएं बताई हैं (१) ६, ७, १४, १५, १६, २८, ३३ तथा ३५वें अध्यायों में गद्यबद्ध प्रघट्टक हैं। (२) कम से कम १५ श्लोक और १६ आर्याएं आनुवंश्य श्लोक के रूप में उपलब्ध हैं। (३) अनेक श्लोक “अनुबद्ध” आर्या के रूप में हैं। लगभग १०० श्लोक भिन्न रूप से यत्र-तत्र प्रासंगिक रूप से कहे गये हैं। (५) अनुष्टुप (३२ अक्षर) में लगभग ५००० श्लोक हैं - इनमें से कतिपय आर्या और उपजाति भी हैं। गद्यभाग “निरुक्त” की तरह हैं। सूत्र और भाष्य पद्धति पर तो हैं ही। निरुक्त में पारिभाषिक शब्दों के निर्वचन हैं। “सूत्र” लक्षण या परिभाषाएं हैं और भाष्य में उनका विवेचनात्मक परीक्षण है। कारिकाएं तो हैं ही सूत्र भी कारिका रूप में कहे गये हैं। इनसे स्पष्ट है कि नाट्यशास्त्र का मूल रूप गद्यपद्यमय रहा होगा। “आनुवंश्य" शीर्षक से जो श्लोक यहां आये हैं वे पिता-पुत्र या गुरु-शिष्य परम्परा से चले आ रहे हैं और उन्हें प्रसंग विशेष में उपयोगी समझकर ग्रन्थकर्ता द्वारा ग्रन्थ में डाल दिया गया है। ये श्लोक ग्रन्थकर्ता द्वारा रचित नहीं हैं। “अनुविद्ध या अनुबद्ध” शीर्षक श्लोक से आशय है-प्रक्रान्त सूत्र से सम्बद्ध । सम्भव है ये श्लोक ग्रन्थकार द्वारा निर्मित हों। “अत्रार्याः" शीर्षक से जो श्लोक हैं-सम्भव है प्रक्रान्त विषय से सम्बद्ध पूर्ववर्ती चिन्तकों के हों-जिन्हें उधृत कर दिया गया हो। अभिनव गुप्त की टिप्पणियों के साक्ष्य पर कहा जा सकता है कि आर्याएं ग्रन्थकार की रचना नहीं हैं। “भावप्रकाशन” में वासुकि के कतिपय पद्य हैं जो वर्तमान नाट्यशास्त्र में उपलब्ध हैं “भवन्ति चात्र श्लोकाः” कहकर उन्हें लिया गया है। शेष जो अंश बचते हैं वे नाट्यशास्त्र के संस्करणों और पांडुलिपियों में इतने बेमेल हैं कि यह कहना कठिन हो जाता है कि नाट्यशास्त्र का मूल रूप क्या था? इसी के साथ तिथि निर्धारण की बात भी जुड़ी हुई है। Krica ARIES 1. History of Sanskrit Poetics - M.M. Kene, 1951, Nirnaya Sagar, page 11.14 आचार्य भरत और नाट्यशास्त्र कामचलाऊ रूप से ही कुछ कहना हो तो कहा जा सकता है कि ६-७, ८-१४ तथा १७-३५ तक के अध्याय एक समय में बने होंगे। अध्याय ६-७ के गद्य भाग और आर्याएं कदाचित २०० ई. पूर्व बन चुकी होंगी और जब विस्तृत नाट्यशास्त्र ने रूप लिया होगा तब ये सब उसमें डाल दिये गये होंगे। १-५ तक के अध्याय ५वीं शती से पूर्व जुड़ गये होंगे। कारण, कालिदास, भवभूति तथा दामोदर गुप्त इन सबने भरतमुनि को नाट्यशास्त्र के प्रणेता के रूप में उल्लेख किया है। शेष अध्याय तीसरी या चौथी शती ई. में अस्तित्व में आ गये होंगे। इस प्रकार अनेकविध संकल्प-विकल्प करते हुए म.म. काणे कहते हैं कि तृतीय या चतुर्थ शती में किसी विद्वान ने इसकी पुनर्योजना की होगी जिसमें सूत्र-भाष्य शैली के गद्यभाग क्रमागत आर्या और श्लोक को पुनर्योजक द्वारा रचित कारिकाओं का समावेश किया होगा। फिर भिन्न-भिन्न कालखण्डों और स्थानों पर और-और विद्वानों ने पद्यों को यहाँ-वहाँ जोड़ दिया होगा। फिर भी नाट्यशास्त्रीय पाठ, प्रणेता और इनकी तिथि की समस्या को उलझा हुआ ही समझना चाहिए। नाट्यशास्त्र की तिथि पर अन्तिम रूप से अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए अन्य विद्वानों’ का भी पक्ष: उन्होंने रखा है। पाठ की अस्तव्यस्तता और प्रक्षेप की सम्भावित प्रचुरता के रहते नाट्यशास्त्र के काल और उसके प्रणेता का निर्धारण निश्चयात्मक नहीं हो सकता। म.म. हर प्रसाद शास्त्री ने दूसरी शती ई.पू. तिथि तय की है (जे.ए.एस.वी., १६१३, पृष्ठ ३०७)। प्रो. लेवी ने अपने वैदुष्यपूर्ण निबन्ध में नाट्यशास्त्र का समय (रचनाकाल) इण्डो-सीथियन क्षत्रप काल स्थापित किया है। आधार है नाट्यशास्त्र में प्रयुक्त सम्बोधन - स्वामिन्, सुग्रहीतनामन्, भ्रदमुख। शकराज नहपान (११६ से १२४ ई. तक) तथा चसुन (ई. ७८) को उनके शिलालेखों में उन्हीं सम्बोधनों से स्मरण किया गया है। म.म. काणे ने इस मत की समीक्षा की है। कहा गया है एक तो “स्वामिन्” सम्बोधन राजा के लिए नहीं, नाट्यशास्त्र में युवराज के लिए किया गया है और दूसरे “भद्रमुख” नाट्यशास्त्र में प्रयुक्त ही नहीं है बल्कि “साहित्यदर्पण" में है। म.म. काणे ने अन्यत्र रससिद्धान्त और नाट्यशास्त्र पर विचार करते हुए बताया है कि नाट्यशास्त्र ३०० ई. से पहले अस्तित्व में था। प्रो. कीथ ने भी तीसरी शती से पहले इसकी तिथि नहीं मानी है। प्रो. मनमोहन घोष के मत पर पहले कहा ही जा चुका है कि उन्होंने (क) भाषायी आधार (ख) छंदोविधान (ग) चार अलंकार (घ) पौराणिक सन्दर्भ और (ङ) भौगोलिक वृत्त-इन विभिन्न आधार पर विचार करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि ई.पू. १०० से २०० ई. के बीच इसका समय होना चाहिए। परन्तु डा. मोहम्मद इसराइल खां ने अपने “संस्कृत नाट्य सिद्धान्त के अनालोचित पक्ष” (पृष्ठ ३६) में डा. घोष की पुस्तक The Natya Shastra (पृष्ठ ६०) से उद्धरण देकर बताया है कि उन्होंने अपनी उपर्युक्त पूर्व स्थापना को नवीन कलेवर दिया है और

देखिए - History of Sanskrit Poetics, page 39 to41 ६४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र इसे ५ शती ई. पू. की रचना बताया है। म.म. काणे ने इसकी भी समीक्षा की है और अपनी असहमति जताई है। डा. डी. सी. सरकार का पक्ष है कि नाट्यशास्त्र “नेपाल” और “महाराष्ट्र” का उल्लेख करता है अतः नाट्यशास्त्र का रचनाकाल दूसरी शती के बाद ही होगा। म.म. काणे ने इनका खण्डन किया है। म.म. काणे का अन्दाज है कि ई. सन् के आरम्भ से पुराना इसका रचनाकाल तो नहीं हो सकता । रही बात इसकी काल सम्बन्धी निचली सीमा की, तो इस सन्दर्भ में इनके तर्क हैं। जिससे उनका निष्कर्ष है कि यह निचली सीमा ३०० ई. के आसपास है। डा. वाचस्पति गैरोला का पक्ष है कि नाट्यशास्त्र के मूल रूप की रचना कालिदास (ई. पू. प्रथम शती) से पूर्व हो चुकी थी। डा. ए.ए. मैकडोनल का पक्ष है कि नाट्यशास्त्र काव्यशास्त्र का प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसका समय इन्होंने ६०० ई. के निकट माना है। श्री आई.शेखर का भी कहना है कि नाट्यशास्त्र का जो रूप हमारे सामने है - यह पहले इसी रूप में नहीं था। यह मूल ग्रन्थ का संस्कृत तथा परिष्कृत रूप है। इनकी दृष्टि में यह ग्रन्थ उत्तरोत्तर समावेशन की प्रक्रिया में विस्तार पा रहा था। यह प्रक्रिया ८०० ई. तक परिपूर्ण हो चुकी होगी। इसकी ऊपरी सीमा का निर्धारण भिन्न मानों से सम्भव है। उनका ख्याल है कि नाट्यशास्त्र के आरम्भिक पांच और अन्तिम दो अध्याय बाद में जुड़े हैं। इस प्रकार इन अध्यायों की अपेक्षा शेष अध्याय अपेक्षाकृत प्राचीन हैं और नाट्यशास्त्र अपने मूल रूप से २०० ई.पू. तक अस्तित्व में आ चुका था। श्री पी. आर. भण्डारकर ने अपने लेख Contribution to the study of Ancient Hindu Music में माना है कि नाट्यशास्त्र में प्रक्षिप्तांश हैं। इन्होंने भारतीय संगीत के प्रसंग में नाट्यशास्त्र के संगीत सम्बन्धी अध्याय का विवेचन किया है और उसकी प्राचीनता सिद्ध करने के अभिप्राय से नाट्यशास्त्र का समय तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर निश्चित किया है। इनका पक्ष है कि नाट्यशास्त्र अमरकोश के बाद की रचना है-पर अमरकोश का समय बेवर और मैकनानल ११वीं तथा ५वीं शती मानते हैं-मतलब अमरकोश के समय का ही निश्चय नहीं है। भाण्डारकर ने भरत, कालिदास तथा अमर द्वारा संगीत सम्बन्धी “मार्जना” और “मूर्च्छना” शब्दों के प्रयोग के आधार पर इन तीनों का समय निर्धारित किया है। कालिदास की कृति में “मार्जना" शब्द का प्रयोग मिलता है परन्तु यह शब्द अमरकोश में नहीं मिलता। इससे ज्ञात होता है कि इस शब्दकोश की रचना कालिदास के पूर्व हो चुकी थी। “मूर्च्छना” शब्द का प्रयोग भरत तथा कालिदास दोनों ने AAAA AZARSIDASTRatan 9. The oldest and most important work on poetics is the Natya Shastra, which probably goes back to the sixth century A.D. : - A History of Sanskrit Literature (London, 1905 It is unfortunate that like his identity, the issue of the authentisity of the text should have remained unsettled. Whatever may have been the nature of rehandling, it is believed that text existed in the second century B.C. - Sanskrit Drama (1960 Leden), page 44. आचार्य भरत और नाट्यशास्त्र किया है परन्तु यह भी अमरकोश में नहीं मिलता। परम्परानुसार अमर कालिदास के समकालीन माने जाते हैं। यदि इस समय को १०० वर्ष और पीछे कर दिया जाय तब भी भाण्डारकर के अनुसार नाट्यशास्त्र का समय (४००) ४०० ई. पूर्व से नहीं माना जा सकता। इनके मत से इस शास्त्र की रचना इस काल के बाद की है (संस्कृत नाट्यशास्त्र के अनालोचित पक्ष, पृष्ठ ४२-४३)। प्रसिद्ध वैयाकरण मीमांसक पं. युधिष्ठिर ने अपने “व्याकरण शास्त्र के इतिहास” में बताया है कि नाट्यशास्त्र के “वाचिकाभिनये छन्दोविभागः" नामक पन्द्रहवें अध्याय पर “कातंत्र व्याकरण” का प्रभाव है। उपलब्ध कातंत्र व्याकरण के काल निश्चितप्राय लगभग ५०० ई.पू. का है। यद्यपि यह ऐसा कोई ठोस आधार नहीं है फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि नाट्यशास्त्र का वह एवं वैसा ही और अंश ५०० ई.पू. से पूर्व का प्रणीत तो नहीं है। सम्भव है सूत्रात्मक एवं मूल नाट्यशास्त्र -जो आदि भरत की वृत्ति था-इससे भी पूर्व का हो। निचली सीमा के निर्धारण में तो ठोस प्रमाण मिल जाते हैं। _ “कुट्टनीमतम्" प्रणेता दामोदर भट्ट, दशरूपककार धनंजय, आनन्दवर्धन, कालिदास, अमरसिंह, भवभूति, बाण, अभिनव और काव्य प्रकाशकार आदि ने नाट्यशास्त्र और उसके प्रणेता के रूप में भरत का उल्लेख किया है। म.म. गणपति शास्त्री ने तो उस भास का जिसमें नाट्यशास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग मिलता है-समय कौटिल्य से भी पहले का माना है। इन विभिन्न विद्वानों के मतों का विहंगावलोकन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि इन लोगों ने अन्तःसाक्ष्य और बहिःसाक्ष्य के आधार पर अपने-अपने निर्णय लिये हैं। इन सब विचारों को संपिंडित किया जाय तो कहा जा सकता है कि अन्तःसाक्ष्य के रूप में निम्नलिखित आधारों को अपनाया गया है - (क) नाट्यशास्त्र में नाट्योत्पत्ति, पूर्व रंग एवं नाट्यावतरण के संदर्भ में उल्लिखित अनेक वैदिक तथा पौराणिक काल के देवगण (ख) प्राचीन जातियों और जनपदों का उल्लेख. (ग) संस्कृत और प्राकृत भाषा के विशिष्ट रूप (घ) शैली की विविधता | (ङ) प्राचीन काव्यशास्त्रीय सामग्री (अ) अलंकार (ब) छन्द (च) पूर्वाचार्यों और प्राचीन ग्रन्थों का उल्लेख : (छ) प्राचीन विभिन्न कालीन शिलालेखों में नाट्यशास्त्रीय सामग्री का समानान्तर उल्लेखअष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र StriH MAHARMARCHIRGatement

बहिःसाक्ष्य के रूप में

(क) नाट्यशास्त्र और अश्वघोष तथा भास के नाटक (ख) नाट्यशास्त्र और कालिदास के नाटक (ग) स्मृति-पुराण का साक्ष्य (घ) नाट्यशास्त्र में पात्र विशेष के लिये प्रयुक्त प्रतीक नामों की स्थिति और नाट्यकारों द्वारा उसकी अपेक्षा तथा उपेक्षा। (ङ) काव्यग्रन्थों का साक्ष्य (च) अन्य शास्त्रीय ग्रन्थ (छ) नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थ __ साक्ष्य चाहे आन्तरिक हो या बाह्य-कमोवेश विद्वानों ने दोनों का सहारा लेकर अपना-अपना पक्ष रखा है और अनेक विन्दुओं पर विभक्त हैं। उनका कहना है कि जिस पाठ को आधार बनाकर कुछ निर्णय लिया जा सकता है या किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है - वहीं अभी विवादग्रस्त है। हर सम्पादक कहता है कि अभी इस क्षेत्र में आगे वालों के लिए कार्य शेष है। आचार्य विश्वेश्वर पाठ सम्पादन की वैज्ञानिक पद्धति से हटकर विवेकाघृत पद्धति की बात करते हैं। कालिदास और अमरसिंह का ही काल मतभेदग्रस्त है - अतः उनसे पूर्व कह देना एक बात है पर वह पूर्व बिन्दु निश्चित रूप से, सर्वसम्मत रूप से कौन सा है क्या कहा जाय ? विचारकों में भी कुछ नाट्यशास्त्र के अस्तित्व में आने के समय पर यानी मूल रूप पर विचार रखते हैं और कुछ समावेशन की प्रक्रिया की समाप्ति के काल पर अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार नाट्यशास्त्र ई.पू. ५०० से लेकर वीं शती के बीच झूल रहा है। इसलिए इस विषय में लोगों की उधेड़बुन वाली स्थिति को ही रखा जा सकता है - न कि किसी निर्णीत और सर्वसम्मत पक्ष का। इस सम्भावित या प्रत्याशित स्थिति में भी कभी हम पहुंच सकेंगे-अभी यह कहना कठिन है। कोई समस्या अपने समाधान में कठिनाई पैदा करती हो-इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपना प्रयास ही छोड़ दें। अभी तो हम पूर्ववर्ती चिन्तन का आंकलन कर सकते हैं और आगे बढ़ने के आधारों की खोज कर सकते हैं। प्रयास जारी है और डा. के.कृष्णामूर्ति का नया सम्पादन बड़ौदा से इसी प्रत्याशा की परिणति है। समस्या कृति के काल निर्णय तक ही सीमित नहीं है- समस्या यह भी है कि यह उपलब्ध कृति एक कर्तृक है या अनेक कर्तृक ? जो लोग एक कर्तृक इसके मूल रूप को मानते हैं - वे उस एककर्ता का क्या परिचय देते हैं ? यदि वह बहुश्रुत भरत हैं तो यह भरत कौन हैं ? कोई ऐतिहासिक व्यक्ति हैं या पौराणिक ? कहीं भी वर्तमान अर्थ में इस भरत के ऐतिहासिक रूप का परिचय नहीं दिया है। m h +

in-HALAAMANAantivanidisminainaxi आचार्य भरत और नाट्यशास्त्र परम्परा’ कहती है कि नाट्य के आद्य उद्भावक भरत हैं पर यह भरत हैं कौन और कहां से इनका सम्बन्ध है ? यह गवेषणा का विषय है। यों प्राचीन साहित्य में “भरत” का विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है। एक तो वैदिक युग की भरत जाति ही थी - इस नाम से एक वैदिक कबीला ही जाना जाता है। एक दुष्यन्त-शकुन्तला पुत्र भरत हो गया है जो प्रथम सार्वभौम राजा था। एक भरत नाट्यशास्त्र-प्रणेता के रूप में परम्परा में विश्रुत हैं और अन्ततः नाट्यशास्त्र में नट के रूप में भी “भरत” संज्ञा का प्रयोग उपलब्ध है। मान्धाता का पौत्र भी भरत है। भाव, राग और ताल के आद्य अक्षरों को लेकर भी “भरत” शब्द की परिकल्पना की गई है। इन परिस्थितियों में यह निर्धारण करना कि नाट्यशास्त्र से जिस भरत का सम्बन्ध है-वह कौन है काफी कठिन है। वैदिक जातिपरक भरत और सार्वभौम दौष्यन्ति भरत की सम्भावना तो विद्वानों ने निरस्त कर दी है। शेष दो में किसे नाट्यशास्त्र-प्रणेता के रूप में माना जाय-(१) उस रहस्यमय तत्त्वदर्शी ऋषि को जिसे भरतों (नटों) ने समादर (Pastule) दिया है अथवा उसे (२) जो वस्तुतः कोई व्यक्ति-विशेष या जिसे भरतगण अपना आचार्य मानते थे। “भरत” से कोई महात्मा या नट - कैसे समझा जाय ? सन्दर्भ तो ऐसा कोई संकेत देता नहीं। और हो भी - तो मात्र एक पौराणिक ऋषि (Mythological) है अथवा वस्तुतः कोई ऐतिहासिक व्यक्ति विशेष ? एक पौराणिक ऋषि (कपोल कल्पित) नाट्यशास्त्र लिखेगा - यह बात बुद्धिमानों के गले उतरती नहीं। यह बात भी समझ में नहीं आती एक नट या नट समुदाय (भरत) भरत नाट्यशास्त्र लिखेगा ? इनसे भिन्न कोई अर्थ हो - या “भरत” संज्ञा से समझा जाय - यह भी सम्भव नहीं। वैदिक भरत जाति का लेखक रूप में किसी ने सम्भावना की ही नहीं। नाट्यशास्त्र में भी भरतपुत्र के रूप में भरत या भरतों का सामूहिक रूप में स्मरण किया गया है (ना.शा. १, २६-३६ । ३०, २६)। वैदिक सूक्तों या मण्डलों के रचयिता के रूप में जिस तरह कुल-विशेष का उल्लेख मिलता है उससे उक्त धारणा भी विश्वसनीय बनाई जा सकती है। वैदिक आर्यों की साहित्यिक परम्परा में यह विश्वास उक्त परम्परा के कारण हो सकता है। वैसे सूक्त, सूक्तों या मण्डलों के रचयिता रूप में एक व्यक्ति भी हैं। ऋग्वेद के सातवें मण्डल के रचयिता रूप में वसिष्ठों का उल्लेख किया जाता है जो वसिष्ठ कुल के हैं। क्या इस आधार पर यह नहीं माना जा सकता कि . … morememinindianpirinter- 9. Drama is Sanskrit Literature - R.V. Jagirdar, M.A., (London), Popular Book Depot, Bombay-7, 1947 २. भरत के नाम से जो ग्रन्थ जुड़ा हुआ है - सम्भव है लुप्त नट-सूत्रों का (Prolong) हो अथवा उन्हीं सूत्रों का Amplification हो। ये भरत सूत्र अथवा मंच निर्देश हैं जिसके कारण नट किसी अपने मूलं आचार्य की कल्पना करते हों। Indian Theatre, page-30. ६५ SHARMA PAUSTRIASISNEL SANS अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र भरतगण नाट्यशास्त्र के प्रणेता हैं ? और नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में भरत के सौ पुत्रों का उल्लेख है। प्रथम अध्याय में ही नहीं - और-और अध्यायों में भी है (ना.शा. ३६)। इस पारम्परिक विश्वास पर भरतकुल का कर्तृत्व विचारणीय हो सकता है। यह भरतकुल ही था जिसने सर्वप्रथम मंचन किया। यह प्रतिष्ठित प्रातिभ क्षमता-सम्पन्न परिवार था। एक समय आया जब इस परिवार ने अपनी क्षमता, प्रतिभा और परम्परा खो दी। संयोगवश भरत के भाग्य से ऐन्द्र पद पर नहुष आ गया। इसने भरतकुल को संरक्षण दिया और तब से मंचन फिर सुदृढ़ परम्परा में आ गया। रंगकर्मियों का नारी के प्रति जो व्यवहार होता था उससे समाज में उनकी प्रतिष्ठा नहीं थी। कला में ऊँचाई और व्यवहार में नीचापन व्यवहार को सह्य नहीं था - फलतः भरतगण यहां-वहां घूमते रहे। कुरु प्रदेश में उन्हें शरण नहीं मिली - फलतः राजपूताना होते हुए वे लोग दक्षिण-पश्चिम में विन्ध्य की ओर बढ़े। यहां अनार्य नहुष ने उन्हें शरण दी। इन सब विवरणों से यह स्पष्ट होता है कि नाट्यशास्त्र के सन्दर्भ में ये भरत एक वैदिक कबीला था। नाट्यशास्त्र में ऐसी पंक्तियां भी हैं जो भरत से “भरतकुल” का ही आशय नहीं देती - विपरीत इसके एक व्यापक और महत्त्वपूर्ण आशय भी व्यक्त करती हैं। वह (भरत) कहता है कि मैं भरतों की सूची दे रहा हूँ (ना.शा २५, ६६-६६)" दृश्य व्यवस्थापक, दूषक (विदूषक), गायक, नर्तक, मंच व्यवस्थापक, निर्माता, वेशभूषा का विज्ञ, चित्रकार, रजक आदि। ये सभी इसलिए भरत कहे जाते थे कि इनसे नाट्य का भरण होता था (भृ भरणे से व्युत्पन्न)। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भरत या भारत नट नहीं थे, विपरीत इसके वे पूरे मंचन में मंच-निर्माण से लेकर रंगपूजन तक सक्रिय रहने वाले लोग थे। अभिनय तो इसके बाद नटों से सम्पन्न होता था। इससे भिन्न आशय भरत या भरतकुल के लिये संगत नहीं था। ये भरत व्यवस्थापक और निर्माता थे। “वेणीसंहार" और “प्रसन्नराघव” में सूत्रधार को भरत कहा गया है। इस सबसे निष्कर्ष यह निकला कि नाट्यशास्त्र में प्रयुक्त “भरत” संज्ञा प्रथम स्तर पर एक वैदिक जाति भरत और उसके कबीले के अर्थ में प्रयुक्त है। यह परिवार नाट्य के व्यवस्थापन और उपास्थापन में संलग्न था। बाद में यह परिवार निर्वश हो गया या उसकी सत्ता निःशेष हो गई। कुछ समय बाद भरत उन सबको कहा जाने लगा जो मंचन से जुड़े रहते थे। __“भरत” का जो अर्थ ऊपर दिया गया है - उससे कई समस्याएं पैदा होती हैं। पहली यह कि लोग भरत को (नाट्यशास्त्र से कल्पित प्रणेता) एक पौराणिक व्यक्ति मानते हैं (ऐतिहासिक नहीं) वे स्पष्ट ही उनके नाट्यशास्त्र के कर्तृत्व का निषेध कर देते हैं - फलतः नाट्योत्पत्ति की कथा को भी पौराणिक भरत से सम्बद्ध होने के कारण कल्पित मान लेते हैं। ये लोग संस्कृत नाट्य की उत्पत्ति से भरत को खारिज कर देते हैं और उनसे रहित नाट्य-सिद्धान्त की स्थापना करते हैं और उसका स्रोत आदिम जातियों के कर्मकाण्ड में E NASNS HAPPY आचार्य भरत और नाट्यशास्त्र खोजते हैं। शोधक्रम में यह सिद्धान्त थोड़ा परिष्कृत हुआ है। प्राचीनतर सिद्धान्त इसे वैदिक कर्मकाण्ड से सम्बद्ध करते हैं। आद्यरंगाचार्य’ का पक्ष है कि नाट्यशास्त्र का सम्बन्ध परम्परा में भरतमुनि से जोड़ा गया है। पर मुनि का व्यक्तिगत विवरण कहीं नहीं मिलता। यह भी स्पष्ट नहीं होता कि नाट्यशास्त्र का भरत व्यक्तिवाचक है या जातिवाचक। नाट्यशास्त्र के अनुशीलन से यह भी स्पष्ट नहीं होता कि यह वृत्ति आद्यन्त एक व्यक्ति की रचना है या अनेक-एक समय की रचना है या विभिन्न काल की। दूसरी बात यह भी है कि भरत नाट्य के प्राचीन आचार्य हैं। पर नाट्यशास्त्र में नृत्य और संगीत को इतना महत्व दिया गया है कि इस ग्रन्थ का नाम नाट्यशास्त्र रखा जाना भी संगति की अपेक्षा करने लगता है। दूसरी तरफ यह भी लगता है कि बाद में कुछ लोगों ने इस प्रति में तमाम कलाओं के विषय में प्राच्य सूचनायें एकत्र कर दी हैं-वस्तुतः यह कहना बड़बोलापन है कि यहां ऐसा ज्ञान, शिल्प, कला शास्त्र और विद्या कुछ भी नहीं है जो न हो। श्री आद्य रंगाचार्य, श्री जागीरदार, म.म. काणे प्रभृति सभी आधुनिक चिन्तक नाट्यशास्त्र प्रणेता के रूप में परम्परानुमोदित “भरत” नामक व्यक्ति-विशेष को नहीं मानते। उनका व्यक्तित्व ऐतिहासिक नहीं है। उनके ऐतिहासिक होने में कोई प्रमाण नहीं है या उपलब्ध नहीं है। यदि कोई वैदिक चरणों में भरत जाति नाट्य प्रणेता या प्रयोक्ता होती तो पाणिनि, कृशाश्व और शिलालिन के साथ उसका उल्लेख अवश्य करते। अमरकोशकार यह काम करता है और किसी भरत-परम्परा का नाम लेता है। क्या ये उल्लेख और अनुल्लेख कुछ सोचने को बाध्य नहीं करते ? परम्परा बड़ी दृढ़ता से भरत मुनि के अस्तित्व में आस्था व्यक्त करती है - अभिनव गुप्त इसकी पुष्टि करते हैं - साथ ही “नामूला प्रसिद्धि” भी है। नाट्यशास्त्र के “प्रणयन" और “प्रयोग” से “भरतादि” को भी “भाव प्रकाशन” में जोड़कर कहा गया है। मतलब परम्परा में व्यक्ति-विशेष या वंश-विशेष से भी नाट्यशास्त्र के प्रणयन की बात कही गई है और यह “भरत” से जुड़ी है। “भरत" यादृच्छिक संज्ञा है या व्युत्पादित ? “द्वादश साहस्री” से किसी वृद्ध भरत या आदि भरत को भी जोड़ा गया है। सभी “भरत” नाम से जोड़े जा रहे हैं-फलतः इस संज्ञा में कुछ वजन तो है-जो अन्वेषणीय है। नाट्यशास्त्र के प्रणयन और प्रयोग से “भरतादि’ का जोड़ने और “भरत” को व्युत्पन्न संज्ञा मानने में तो आधुनिकों को भी आपत्ति नहीं है। आपत्ति व्यक्ति-विशेष के वाचक मुनि रूप में है। कारण, ऐतिहासिक प्रमाण का अभाव बताया गया है। १. Introduction to Bharata’s Natya Shastra - Adya Rangacharya, Popular Prakashan, Bombay 1966. ७० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र नोट :- डा. के.सी पाण्डेय ने भी अपने “अभिनवगुप्त” नाम की पुस्तक में भरत की तिथि पर संक्षिप्त विचार किया है। उन्होंने कहा कि भरत की उपस्थापन शैली बिलकुल पौराणिक है। पुराणों के विषय में माना जाता है कि उनको अन्तिम रूप चौथी शती ईस्वी में मिला होगा। नाट्यशास्त्र की शैली और भाषा के आधार पर ही उसकी तिथि पर विचार सम्भव है। ऊपरी सीमा का युक्तियुक्त निर्धारण सम्भव नहीं है, पर निचली सीमा उतनी अनिश्चित नहीं है। नाट्यशास्त्र के वर्तमान रूप की तिथि के निर्धारण के सम्बन्ध में पक्का प्रमाण उपलब्ध है। छठी शती ईस्वी में अपने वर्तमान रूप में वह विद्यमान था। कारण कन्नौज के हर्षवर्धन का इस पर वार्तिक है। अभिनवगुप्त ने (अभिनवभारती, भाग-१, पृष्ठ ६७, १७२, १७४, २०७, २११, २१२) “इति हर्षवार्तिकम्” कहा है। इस पर से डा. पाण्डेय का अनुमान है कि शास्त्रप्रणेता भरत की स्थिति चौथी से पांचवीं शती के बीच रही होगी। साथ ही इस तथ्य से असहमत होने का कोई कारण नहीं है कि नाट्यविज्ञान की क्रमागत एक लम्बी मौखिक परम्परा रही होगी। pondias e ttelated