०२ काव्य का उद्भव और विकास

काव्य का उद्भव वेदों तथा उपनिषदों में

जब हम भारतीय सन्दर्भ में किसी विद्या और कला के प्रारम्भ होने के विवरण का अन्वेषण करने में प्रवृत्त होकर तत्सम्बन्धी प्राचीन ग्रन्थों का आलोचन करते हैं, तब उन विवरणों को पढ़ते हुए भारतीय चिन्तन की एक विशेष पद्धति “हासवाद” को अपने ध्यान में ले लेना होता है। किसी विद्या या कला के प्रारम्भ के विस्तृत विवरण पढ़ने पर यह लगता है कि अपने प्रारम्भिक रूपों में कितनी विस्तृत और अपार सौन्दर्य से ओत-प्रोत उन-उन विद्याओं और कलाओं का हमारे काल तक आते-आते इतना हास हो गया कि आज उन प्रारम्भिक रूपों को अपनी कल्पना के सहारे भी साकार कर पाने में हम स्वयं को असमर्थ अनुभव करते हैं। काव्य-विद्या का आदियुग में जो उज्ज्वल एवं उदात्त स्वरूप था वह आज हमारे काल में सर्वथा परिवर्तित हो चुका है। आज हमारे लिये आदि-काव्यों के निर्मित-क्षणों को अपने मस्तिष्क में रूपायित कर पाना कठिन है। __अपने उद्भव और अनन्तर के काल में काव्य-विद्या अपने चरम उत्कर्ष पर थी। यह तथ्य संसार के सर्वपुरातन ग्रन्थ ऋग्वेद के मन्त्राक्षर सन्दर्भो से ही प्रमाणित हो जाता है। वैदिक सन्दर्भो में सारे विश्व को ही एक अजर-अमर काव्य की संज्ञा देते हुये उसके ईश्वर नामधारी महान् निर्माता को भी ‘कवि’ ही कह दिया गया है। सभ्यता के तथाकथित विकासोन्मुखी प्रवाह में भी प्रारम्भिक काल में साहित्य का रूप काव्यमय ही प्रकट होता है। यह बात अन्वेषण से प्रमाणित की जा चुकी है। हमारे यहाँ तो समस्त विश्व का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ ऋग्वेद संहिता है। ऋग्वेद संहिता ऋचाओं का संकलित संग्रह है। वह छन्दोबद्ध है। अतः काव्य से ही वाङ्मय का प्रारम्भ होना युक्तिसिद्ध एवं प्रमाणित हो जाता है। यद्यपि समस्त छन्दोबद्ध रचनाएं काव्य ही नहीं होती तथा छन्द से इतर गद्य रचनाएं भी काव्य होती हैं। तथापि छन्दः तत्त्व का कविता के साथ आदिकाल में सम्बन्ध तो माना ही जा सकता है। विशेष कर तब जब कि ऋग्वेद में कविता के समस्त रस छन्द, अलंकार आदि तत्त्व स्पष्टतया विद्यमान हैं। ब्राह्मणों में गद्य-पद्य उभय मिलते हैं। उपनिषद् तथा आरण्यक वाङ्मय में गद्यकाव्य तथा छन्दःकाव्य दोनों धाराएं अपनी समस्त अलौकिक अभिव्यक्तियों के साथ प्रकट तथा परिलक्षित हो रही है। उपनिषद् साहित्य के आधार पर संसार के सम्पूर्ण साहित्य में कितनी-कितनी लोकोत्तर काव्य-रचनाएं हुई है, इसका लेखा-जोखा करना एक स्वतंत्र अनुसन्धानात्मक प्रबंध का विषय है। जयशंकर प्रसाद का “कामायनी", प्रगीति-महाकाव्य ब्राह्मण-ग्रन्थ के आधार पर विरचित होकर सारे संसार में अपनी ख्याति फैला चुका है। इस प्रकार वैदिक वाङ्मय की काव्यधारा ने न केवल अपना ओजोमय रूप अपने साक्षात अध्येताओं को ही प्रदान किया, अपितु कालक्रम से भाषा की कठिनता के कारण जब वेदों, MEDIA

." काव्य का उद्भव और विकास उपनिषदों और ब्राह्मण-साहित्य की भाषा जन सामान्य की पहुँच से दूर हो गई तो भी वहाँ की कविता ने अपने नये रूप को ग्रहण करके संसार के जनमानस को आलोक धाराएँ प्रदान की। वैदिक वाङ्मय की काव्यधारा के अनन्तर उपलब्ध होने वाले वर्तमान लौकिक वाङ्मय के सर्व पुरातन ग्रन्थ वाल्मीकि रामायण में काव्य-धारा ने अपना सुविकसित रूप ग्रहण किया। आदि काव्य में महर्षि वाल्मीकि ने एक विलक्षण दृश्यावली का दर्शन कराया। सर्वलोक मंगलकारी भगवान् राम के चरित्र का विवरण, नवरस-मण्डित होकर प्रादुर्भूत हुआ है। यही आदिकवि का आदिकाव्य जिसे “वाल्मीकि रामायणम्” संज्ञा मिली हुई है वेद के पश्चात् कविता की अवतारणा है __“आम्नायादन्यत्र छन्दसामवतारः (भवभूति, उत्तर रामचरितम्) वाल्मीकि के हृदय में कविता की अवतारणा की जो घटना है वह एक अपूर्व सारस्वत आविर्भाव को प्रकाशित करती है “मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।” काव्य के उद्भव का विचार करते हुए हमें इतिहास में प्रारम्भ के काव्य-स्वरूपों के अन्वेषण परिशीलन के साथ ही यह भी देखना होगा कि काव्य-मानव व्यक्तित्व में शाश्वत सार्वदेशिक और सार्वकालिक प्रवृत्ति है। इसका उद्भव और विकास भी शाश्वत है। काव्य के उद्भव और विकास की उसी शाश्वतता को लक्ष्य बनाकर जिस मानसिकता की खोज काव्यजगत् के आचार्यों ने की वहीं नवरसों के प्रामुख्य की भूमिका है। रसों का यह विवरण हमें काव्य के उद्भव और विकास के बिल्कुल समीप ले आता है। रस मन के भावों की वह परिणति है जिसकी पहिचान संसार के मूल वेदान्त के परब्रह्म, सांख्य के पुरुष अथवा तत्तत् शास्त्रों में पारिभाषिक परिवेश में मूल तत्त्व से अभिन्नतया की गई है “रसों वै सः” । उक्त “रसो वै सः" वाक्य या महावाक्य स्वयं में कितना बड़ा अर्थ छिपाये है। यदि “रसो वै ब्रह्म” कहा जाता तो सांख्यादि से ब्रह्म का मेल नहीं बैठता। अतः “सः" शब्द का उच्चारण ऋषि ने किया कि यह विभिन्न आगमों में समस्त संसार के मूल के रूप में जो भी तत्त्व अथवा जिस संज्ञा वाला तत्त्व निर्दिष्ट हुआ है, “सः" उस सबको समेटकर समझाता दिखाई दे रहा है। उस सबको रस से अभिन्न बतला रहा है। जो आदि सृष्टि में संसार का मूल बना, वही आज भी उसी प्रकार हमारे तथा हमारे दृश्यमान जगत् का मूल बना हुआ है। यह सहृदय के हृदय-मात्र का स्वरूप-निष्पन्द है। कहीं साक्षात् रस का आस्वाद या अमृत अनुभव है, कहीं रस के उपकरण, साधन, समवायी, असमवायी निमित्त कारण, अथवा विभाव, अनुभाव, संचारिभाव है, और उनके अनन्त संयोगों के दृश्य है। सर्वत्र अनुभव जगत् या रस चर्चा में विभाव, अनुभाव तथा१६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र संचारिभावों का संयोग जब शाब्दिक विधि से नहीं होता तब उसे मानसिक उपस्थिति से मध्यमा या पश्यन्ती वाक् पूरा करती हैं। खण्ड-काव्य, महाकाव्यों तथा नाटकों एवं बड़ी रचनाओं में रचयिता को विभाव, अनुभाव तथा संचारिभावों के शब्दतः उपस्थित करने और उन्हें अपने मनोरम गुम्फनों में संयुक्त कर देने का अवसर मिलता है। परन्तु ऐसे भी कोटिशः काव्य परिस्पन्द है जहाँ शब्दतः इन सबका उपस्थापन नहीं होता। जिसका शाब्दिक प्रयोग हो जाता है, उसके अतिरिक्त भावों का वह अनुमान करा देता है। यह स्थिति मुक्तक काव्यों की होती है जिनका परिमाण गणनातीत है। इसीलिये इन सबका संकलन करने के लिये ध्वनि की कल्पना करनी पड़ी। छन्दों की ये इकाइयाँ इतनी आकर्षक है कि लक्षणग्रन्थ प्रायः मुक्तक पद्यों के उदाहरणों से ही भरे पड़े हैं। प्रबन्ध काव्यों से तो लक्षण ग्रन्थों में बहुत कम उदाहरण दिये गये है। काव्य के उद्भव का पता जानने के लिये मुक्तक प्रधान आश्रय बनते हैं। प्रबन्ध-काव्य या खण्ड-काव्य, महाकाव्य या गद्य-पद्य की लम्बी विधाओं का निर्वाह कर लेना सबके वश में नहीं होता। किन्तु छन्दो-धारा प्रवाहित करने की और बहती छन्दो-धाराओं में अवगाहन की शक्ति अल्पाधिक मात्रा में सभी के पास होती है। विधान, नियम, कानून या शास्त्र इन सभी को अपनी विवेचना में समेटते चलते हैं, इसलिये मुक्तक काव्यों का स्थान उद्भव और विकास के विचार में अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। काव्य के मार्ग से बिना चले तो केवल पशु सदृश ही रह सकता है जिसके लिये लोकोक्ति है “साहित्य-संगीतकला विहीनः, साक्षातूपशुः पुच्छविषाणहीनः।" अर्थात् अनेकों पूर्वजन्मों की बहुत अधिक जड़ता यदि इकट्ठी हो गई हो तो बात अलग है। अन्यथा काव्य के प्रति रुझान तो मानव मात्र की सामान्य प्रवृत्ति है। उसका उद्भव अनुभव के साथ ही होने लगता है, कुछ सुन्दर कहने को, कुछ सुन्दर सुनने को, कुछ सुन्दर देखने को सभी का जी चाहता है। यह सौन्दर्य की विविध चाह ही स्थायी भावों के रूप में हमारे पास रहती है। काव्य का उद्भव इन्हीं स्थायी भावों के विभाव, अनुभाव तथा संचारिभावों के संयोग से अनुभव या रस बन जाने के रूप में हो उठता है। ये स्थायी भाव काव्य-जगत् में आचार्यों की वैसी ही पहिचान है जैसे पाणिनि-व्याकरण में उन चतुर्दश शिव सूत्रों का अन्वेषण हुआ, जिनके आधार पर प्रत्याहार बने और उन प्रत्याहारों के प्रयोग से पाणिनि अपने अष्टाध्यायी सूत्रों के इतने संक्षेपीकरण में सफल हो गए, जिनमें एक मात्रा का लाघव हो जाने पर वैयाकरणों के यहाँ पुत्रोत्सव मनाया जाता है। अपने अत्यन्त संक्षेपीकरण के विलक्षण ताने-बाने के कारण ही आज इस क्म्प्यूटर युग में पाणिनि के सूत्र कम्प्यूटर-प्रणाली में सर्वसम्मत समादृत हुए। यही स्थिति काव्य के क्षेत्र में स्थायी के आविष्कार ने उत्पन्न कर दी। संसार के अनन्त प्राणियों की अनन्तानन्त

.

..

Silpapase काव्य का उद्भव और विकास मनःसंस्थितियों को, अतीत-अनागत-वर्तमान में फैली अगणनीय मनोवृत्तियों को आचार्यो की समाधि प्रतिभा प्रभा ने नौ स्थायिभावों के रूप में प्रस्तुत करके पाणिनि-संक्षेपीकरण का कौशल प्रस्तुत कर दिखाया।

नाट्यशास्त्रः आरम्भकर्ता-भरतमुनि

__काव्य के व्याकरण या लक्षण की चर्चा का प्रारम्भ आचार्य भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से होता है। नाट्य में भरत मुनि ने स्थायिभावों के विभाव, अनुभाव, संचारिभावों के संयोग से रसनिष्पत्ति को सूत्रित कर शान्त रस या शम स्थायी भाव को छोड़ दिया। इसके कारण के रूप में परवर्ती आचार्यों ने इस पक्ष में अपने तर्क भी दिये। निर्वेद का चित्तवृति में उदय हो जाने पर नट में अभिनय के प्रति आकर्षण ही नहीं रह जायगा। तब तो नट निर्वेदभावापन्न होकर नाट्य से ही विरत हो जायगा, और तब निर्वेद विभावादि से संवलित होकर शान्त रस तक पहुँचने की स्थिति में ही नहीं आ सकेगा। अतः श्रव्यकाव्य में तो निर्वेद स्थायी भाव और शान्त रस स्वीकार किया जा सकता है, परन्तु “अष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः” नाट्य में आठ ही रस माने गये। परन्तु परवर्ती आचार्यों ने शान्तरस-प्रधान नाट्य-रचनाओं को ध्यान में रखकर शान्तरस का नाट्य में समावेश स्वीकार कर लिया। इस सारी चर्चा में केन्द्रबिन्दु है यह कि जहाँ विभाव, अनुभाव, संचारिभाव चर्चित ही नहीं हो सके, शब्दतः कथित ही नहीं हुए वहाँ उनका जब शाब्दिक उपस्थापन ही नहीं हो सका तो उनके संयोग और उससे रस निष्पत्ति या रसानुभव की बात तो दूर ही रह जायगी और तब उन अनन्त मुक्त-काव्यों, जल्पनाओं मुहावरों, शब्दानन्दों की काव्य में स्थिति का अनुशीलन करना होगा कि काव्य में ये कहां है। वहीं काव्य या कविता होगी जिसमें शुरू से ही सौन्दर्य के रंगीन पर्दे झलकते, अनुभव में आने लगे। भले वह सिनेमा, नाटक, नौटंकी, मण्डली-नृत्य गीत, बंगाल की “जात्रा” आदि नाना नामों से कहीं कुछ कहा जाय-साहित्य शास्त्र के अनुसार वे सब काव्य है। काव्य के उद्भवकाल की नातिचमत्कृत उक्तियों को भी अल्प सौन्दर्य प्रस्तुत करने की क्षमता रखने से उदारचेता आचार्यों ने यहाँ तक उदारता के शब्द लिखे कि जहाँ तक यह अनुभव साथ देता रहे कि “इदमत्र नायोग्यम्"- यह यहाँ अशोभन नहीं लगता, वहाँ तक उसमें कविता है। इसलिये शुकसारिका, कुक्कुर आदि के प्रति भी स्वाभाविक आकर्षण रहता है और इसीलिए सारा संसार कविता में उपादेय या हेय रूपों में वर्णनीय बन उठता है। सद्योजात बालक को माता प्रतिक्षण नवीन, प्राणदायिनी सर्वस्व लगती ही जाती है। क्षणमात्र भी सद्योजात बालक को मातृ-वियोग सह्य नहीं हो पाता। काव्य भी तो सद्योजात है वह अपनी जननी रूप संसार की गोद क्षण मात्र के लिये भी कैसे छोड़ सकता है। यही कारण है कि बालक के अनिर्धारित हास्य-रुदन की तरह कविता का भी “इदमित्थम्" निर्धारण कभी भी संभव नहीं हो सकता। हाँ लक्षणकरण-शालीन-बुद्धियों ने कभी हार नहीं

१८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र मानी। आचार्यता के पद का अनुभव करने की धन्यता की अभिव्यक्ति करने वालों ने निवेश-प्रवेश, अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असंभव, अतिचार चर्चाओं से अपने ग्रन्थों को भर दिया। इनका समूह आगे चलकर काव्य-शास्त्र कहलाने का अधिकारी हुआ। जहाँ कविता या काव्य एकमात्र आनन्द का जनक होकर प्रकट होता था वहाँ इन भारी भरकम बोझिल चर्चाओं से साहित्य के अध्येता को दो-दो हाथ करने पड़े। काव्य का उद्भव होना ही तो पर्याप्त नहीं है, उसका विकास भी तो होना अपेक्षित है। काव्य का उद्भव तो अपने प्राकृतिक क्रम से हो गया। मुक्तक-अमुक्तक, गीत, लोकगीत, स्फुट छन्द, गाथा आदि विविध रूपों में, परन्तु उसका विकास कथानक को ढूढ़ता रहा है। वहीं आगे चलकर गद्य काव्य, महाकाव्य, नाट्य-वाङ्मय आदि में अपना विकास क्रम बनाता है।

काव्य और कवि-शब्द

“काव्य” और “कवि” शब्द संसार के प्राचीनतम वाङ्मय में उपलब्ध हैं। ऋग्वेद में अग्नि, (१/३१) वायु (१/१४६/३) आदित्य (४/२४/२) को कवि कहा गया। इस प्रकार अग्नि, वायु, आदित्य के विशेषण रूप में ऋग्वेद में ‘कवि’ शब्द का उल्लेख है। भाष्यकारों ने यहाँ “कवि" का अर्थ “क्रान्तदर्शी" और “मेधावी” किया है। क्रान्तदर्शी को भी भाष्यकार उवट ने स्पष्ट किया है कि जो अतीत, अनागत और वर्तमान को एक साथ देखने की क्षमता से सम्पन्न होता है वह क्रान्तिदर्शी है। “यो अध्वराय पारिणीयते कविः (ऋ.३/२१७) अग्निर्होता कविक्रतुः (ऋ.१/१/५)” यहाँ क्रांतकर्मा अर्थ भाष्यों में मिलता है। “धीरासोहिष्ठाः कवयो विपश्चितस्तान्वएना ब्रह्मणा विध्यामसि” (ऋ.४/३६/७) यहाँ ऋभु देवताओं के लिये कवि शब्द आया है। यजुर्वेद के ४० वे अध्याय के “ईशावास्योपनिषद्” में “कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः” आदि मन्त्र में ईश्वर के लिये ‘कवि’ शब्द का प्रयोग हुआ है। ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में मनुष्यों के लिये ‘कवि’ शब्द आया है-ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनाम्” (ऋ.६/६६/६)। __मन्त्र में बिखरे हुये पद जोड़ देने में प्रवीणों को भाष्यकार माधवाचार्य ने कवि माना है। निरुक्त में सूर्य, रश्मि तथा इन्द्रियाँ कवि शब्द का अर्थ बतलायी गयी है। काव्य शब्द का प्राचीनकाल में प्रयोग पुल्लिंग और नपुंसक दोनों में हुआ है। पुल्लिंग काव्य शब्द में “उसका काव्य" वेदत्रय रूप छन्द है। गीता में- “कवयो यत्र मोहिताः" प्रसिद्ध ही है। निरुक्त में कवि की व्युत्पत्ति में “कवते इति कविः” (जो काव्य रचना करता है वह कवि है यह स्पष्ट किया गया है।) निरुक्त की दूसरी व्युत्पत्ति “कविः क्रान्तदर्शनो वेति" है। ‘कवते’ गमनार्थक धातु बतलाया गया है। अमरकोष में “संख्यावान् पंडितः कविः” कहते हुए विद्वानों में ‘कवि’ का प्रयोग बतलाया गया है। वहाँ कवि की व्युत्पत्ति ‘कु’ शब्दे इस धातु से बतलायी गई है। ‘कबृ’ वर्णे धातु से भी ‘कवि’ शब्द निष्पन्न बतलाया जाता है। १६ काव्य का उद्भव और विकास वेद से लेकर यास्क के ‘निरुक्त’ (एवं व्युत्पत्ति) तक के विहंगावलोकन से एक संदेह होता है कि इन भिन्नार्थो में कवि और काव्य शब्दों के प्रयोगों को देखते हुए क्या इन दोनों शब्दों को मूलतः अनेकार्थक माना जाय अथवा मूल में एक ही अर्थ के रहते उसका अर्थ-विकास हुआ- यह स्वीकार किया जाय ! वैदिक उद्धरणों के अर्थो और व्युत्पत्तिलभ्य अर्थों पर ध्यान देने से लगता है कि यह इन दोनों शब्दों के अर्थो के विकास का ही एक भाषा वैज्ञानिक अर्थविकास लोक-सम्मत प्रक्रिया वाला ही स्वरूप है। प्रारम्भ में इन कवि और काव्य शब्दों का प्रयोग निपुण समीक्षक और सामर्थ्यवान् के अर्थ में हुआ। इसी कारण अग्नि वायु, आदित्य को कवि कहा गया है। देवों को त्रिकालाबाधित ज्ञान रहता है और समस्त शक्तियों का उनमें अप्रतिहत समावेश और सामर्थ्य है। अतः वे मन्त्रों में कवि कहे गये। सर्वनियन्ता जगदीश्वर को भी इसी अर्थ की चरम विकसित अवस्था में संस्थित होने के कारण कवि कहा गया और उसकी इस संसार-रचना को काव्य कहा गया-“पश्य देवस्य काव्यम्” विद्वानों में भी निपुण निरीक्षण शक्ति और अनुपम सामर्थ्य रहता है इसलिये उन्हें भी कवि कहा गया। वेद में भी कहा गया है- ‘विश्वा रूपाणि प्रातिमन्यते कविः’ । यह कवित्त्वशक्ति अत्यन्त मेधावी होने पर ही मिलती है। वाणी का सम्बन्ध यहीं जुड़ता है, वाणी ही जगत् के रूप में परिणत होती है। यह शतपथ ब्राह्मण में स्पष्ट है। पदार्थ-निर्माण की निपुणता तथा शब्द-रूप शास्त्रों का ज्ञान और उनका परिवर्धन दोनों ही प्रारम्भ में कवि और काव्य शब्दों के क्षेत्र रहे। किन्तु आगे पदार्थ निर्माण का अर्थांश कवि शब्द से स्थानांतरित (अर्थपरिवर्तन) हो गया और शब्दों की आराधना कवि का प्रधान अर्थ हो गया। यह नवीन शब्द संसार-निर्मिति के विधाता के रूप में कवि शब्द और उसकी रचना के लिए काव्य शब्द के अर्थ का चरम विकास हुआ। आज हम विभिन्न शास्त्रों के महान् अध्येताओं, आचार्यों और लेखकों को कवि शब्द से सीधा सम्बोधित नहीं करते अपितु जो सरस रचना में निपुण होते है उन्हें की कवि और उनकी सरस रचना को ही काव्य कहते हैं। यह रचना अपने आप में इतनी सौन्दर्य पूर्ण मानी गई कि आचार्य मम्मट ने अपने ‘काव्य-प्रकाश’ ग्रन्थ के प्रारम्भिक मंगल पद्य में ब्रह्मा की निर्मिति को भी कवि-निर्मिति के सामने धूल चटा दी नियतिकृतनियमरहितां हलादैकमयीमनन्यपरतन्त्राम्। नवरसरुचिरा निर्मितिमादधती भारतीकवेर्जयति।। (काव्य-प्रकाश-१/१) इसी प्रकार की अन्य सहस्रों उक्तियों में काव्य को सर्वोच्च आसन दिया गया। स्पष्ट है कि सौन्दर्य या काव्य के उद्भव की अनादिता और अनन्तता के साथ उसके विकास की धारा भी अनादि और अनन्त है। इसीलिए वेद ने सारे विश्व को ही एक ऐसा काव्य कहा जो- न मरता है न जीर्ण ही होता है, “पश्य देवस्य-काव्यं, न ममार न जीर्यति” । २० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र संसार काव्य का यह अल्पाक्षर सारभूत वैदिक चित्रण है। उस पर आधारित काव्य कृतियों की ओर भी यह संकेत कर रहा है। वेदमन्त्र की कविता वाल्मीकि-व्यास, भास, कालिदास, प्रभृति सहस्रशः संस्कृत भाषा के कवियों के काव्य हैं। फिर प्राकृत पाली, अपभ्रशं, व्रज, डिंगल, आधुनिक लोकभाषा आदि समस्त भारतीय भाषाओं के काव्य, अंग्रेजी, फारसी, उर्दू, फ्रेंच, जर्मन आदि समृद्ध भाषाओं में विरचित काव्य “न ममार न जीर्यति" की कोटि पर पहुँचे हुये है। __ यद्यपि सभी रचनाएँ इन गुणों से विभूषित नहीं होती- तथापि काव्य की विकासावस्था या चरमावस्था “न ममार न जीर्यति" वाली ही होती है। जब लक्षण का प्रसंग आयेगा तब हम काव्य शब्द के वाच्यार्थ को शब्द-निरूपितता के साथ संकुचित करेगें। किन्तु इस समय तो “सौन्दर्यमलंकारः” “अलंकारः काव्यम्” इस दृष्टि से इस कथन का आशय मान लेने की प्रार्थना करते हुये उपर्युक्त पक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है।

काव्य के उद्भव और विकास के तत्त्व

काव्य के उद्भव और विकास में जिन अनेक तत्त्वों का अनुभवपरक विश्लेषण करना आचार्यों को अभीष्ट है, उनमें बहुत से तत्त्व तो ऐसे हैं जो काव्य को विकसित करने के उपादान कारण है। कुछ असमवायिकारण है तथा बहुत परिमाण में निमित्त कारण है। उनकी पहचान कर लेना भी काव्य के उद्भव और विकास को समझने में परम उपयोगी होता है। परन्तु सबसे पहली अनिवार्यता है सहृदयता की। काव्य का रचयिता और काव्य के आस्वादयिता या काव्य सौन्दर्य के दर्शक का सहृदय होना अत्यन्त आवश्यक है। जो सहृदय नहीं, पिपासु नहीं, प्रशसंक नहीं, मुग्ध होने वाला नहीं, गाने-गुनगुनाने, हंसने, प्रशंसा देने वाला, समझने वाला नहीं, वह न कविता की रचना का अधिकारी है, न कविता सुनने का, न सिनेमा देखने का, न नाटक देखने का, न लोक-नृत्य, लोक-नाट्य देखने का। ऐसे लोगों को भी देखते है जो इनमें ही सम्मिलित है। परन्तु जो सहृदय हैं वहाँ उनके भी रुचि के क्षेत्र भिन्न-भिन्न है। अपने ज्ञान और प्रवीणता के अनुसार भाषा, सभ्यता, जीवन-पद्धति आदि की सीमाएँ सहृदयता को सीमित करती हैं। परन्तु परम सहृदयता प्राप्त होने पर ये सीमाएँ भी टूटने लगती हैं और एक ऐसी मधुमती भूमिका मिल जाती है जहाँ भाषा, भाव, सभ्यता आदि की सीमाएँ बाधक नहीं रह जाती। साधारणीकरण जैसी शब्दावली का प्रयोग इसी भावभूमि के लिये लक्षणकारों ने किया है। यह योगदर्शन या महर्षि पतंजलि के द्वारा दिखाए गये योगमार्ग की समाधि-अवस्था के रूप में हमें उपलब्ध होती है तथा कुछ अशों तक मधुमती भूमिका का भी स्पर्श करती है। समाधि अवस्था प्राप्त करना योग की दृष्टि से जीवन की चरम उपलब्धि है। वह ऐसी स्थिति है जिसके लिए हमने संसार में जन्म ग्रहण किया है। उस स्थिति को प्राप्त करना ही संसार काव्य का उद्भव और विकास में आगमन की सफलता माना गया और वर्तमान में सारा का सारा वैज्ञानिक परिवेश इनकी पुष्टि कर रहा है। काव्य से आस्वादित होने वाला अनुभव भी अपने विकास की चरम अवस्था में समाधि का ही अनुभव है। परन्तु काव्यास्वादानुभव और समाधि अवस्था में एक बहुत बड़ा अन्तर है। रसास्वाद (कलास्वाद-काव्यास्वाद या साहित्यास्वाद) क्षणस्थायी है। समाधि अवस्था का आनंदानुभव चिरकालस्थायी होता है। परन्तु समाधि के अनुभव में और काव्य के अनुभव में एक और भेद भी निवृत्ति और अनिवृत्ति का माना गया है। समाधि भी स्वरूपतः दो प्रकार की है। एक वह जिसमें पुनरुत्थान होता है और दूसरी वह जिसमें अपने ध्येय में लय हो जाता है- जिसे लौकिक भाषा में कहा जाता है कि “अमुक ने समाधि ले ली” अर्थात अब उनका उत्थान नहीं होगा। काव्य का अनुभव उस समाधि-भेद के अन्तर्गत माना जाता है तो द्वितीय कोटि का समाधिभेद है। जिससे उत्थान होता है। काव्य का तो प्रयोजन लोक में पूर्ण दक्षता से निर्वाह माना गया है। समाधि के रूप में भले ही तारतम्य हो परन्तु अनुभवांश दोनों का एक ही स्वरूप का है। वह विगलित-वेद्यान्तर आनन्द मात्र ही है। काव्य के समुद्भव और विकास की चर्चा में अनन्त मनोवृत्तियों के नौ स्थायी भावों के रूप में संक्षेपीकरण के साथ ही काव्य के शास्त्र पक्ष के समुद्भव और विकास का स्वरूप भी स्वतः प्रकट हो जाता है। काव्य तो आनन्दानुभव है। उस अनुभव की सम्प्राप्ति की अनेकानेक विधियों का उद्भव और विकास बाद में स्वतः होता है। पहले लक्ष्य होते है, फिर लक्षणों की बारी आती है। वे विधियां लक्ष्यों की सरलता और कलात्मकता के साथ निखार और अनुभूति के लिये होती है। परन्तु जब कुछ विशेष विद्वत्तापूर्ण जहाँ होती हैं वहाँ प्रयोजन पाण्डित्य प्रकाशन, असत् उपस्थापनों का निराकरण आदि भी स्वतः हो जाता है। लक्षणकरण-शालीनता का भी काव्य के क्षेत्र में इसी रीति से समुद्भव और विकास हुआ। इस क्षेत्र में ऐसा साहित्य भी प्रभूत परिमाण में निर्मित हुआ होगा। ऐसा हेतुओं के आथर पर अनुमान होना सहज है।

काव्य और काव्य-लक्षणों का उद्भव एवं विकास

उपलब्ध लक्षणपरक रचनाओं में सर्व पुरातन भरतमुनि का नाट्य शास्त्र ही है। वह श्रव्य और दृश्य दोनों काव्य-भेदों का (नाट्य के सन्दर्भ में) ही विवेचन करता है। इस आदिलक्षण ग्रन्थ में जो बातें दृश्य और श्रव्य दोनों काव्यों में समान महत्त्व की होती हैं उनका विवेचन उभयत्र समान रूप से उपयोगी सिद्ध हुआ है। रस की उत्पत्ति के संदर्भ में नाट्यशास्त्र में भरतमुनि ने तो-विभावानुभावव्यभिचारि-संयोगाद्रसनिष्पत्तिः’ यह सूत्र-रचना की, वही आज तक रस की विवेचना का मूल स्रोत बनी हुई है। १. नाट्यशास्त्रम्-षष्ठाध्याय-पृ.७१ (काशी संस्कृत ग्रन्थमाला ६०, द्वितीय संस्करण चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी) marat. .. २२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र मूल-ग्रन्थ तो प्रायः ऋषि या मुनियों द्वारा निर्मित हुए। परन्तु उनके मनन-चिन्तन के उपरान्त जो विचार नवीन या विस्तार के साथ उनकी बुद्धियों में समुदभूत हुए उन विचारों के प्रकटीकरण के लिए उन आचार्यों ने स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना के स्थान पर उन ग्रन्थों पर अपनी व्याख्या, टीका या भाष्य लिखते हुए अपनी बुद्धि में समद्भूत विचारों को प्रकाशित किया। यही कारण है कि मूलग्रन्थों से भी अधिक उन पर विरचित व्याख्याग्रन्थों का महत्व बढ़ गया। मूल-ग्रन्थ भी उन-उन व्याख्याओं के कारण ही अधिक महत्त्वपूर्ण हो गए। पाणिनि के अष्टाध्यायी-सूत्रों का कोई तात्पर्य या अर्थ ही किसी के पल्ले नहीं पड़ता यदि उसपर कात्यायन अपने वार्तिक और आचार्य पतंजलि अपने महाभाष्य की रचना न करते। यही स्थिति काव्य के क्षेत्र में नाट्यशास्त्र ग्रन्थ की भी है। उस पर भी श्रीशंकुक भट्टलोल्लट, भट्ट तौत, भट्टनायक और सर्वोपरि अभिनवगुप्ताचार्य का आसन जमा हुआ है। इन आचार्यों ने भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की व्याख्या लिखते हुए अपनी बुद्धि से विलक्षण उद्भावनाएँ और पक्ष उपस्थित किये। उन व्याख्याग्रन्थों की भी आज हमें उपलब्धि नहीं हो रही है। आचार्य श्रीमदभिनवगुप्त ने भरतनाट्यशास्त्र को अपनी भाष्यकल्प ‘अभिनवभारती’ नामक व्याख्या से तो विभूषित किया ही, अपने पूर्ववर्ती आचार्यो के मतों का भी अपनी भाषा में सारांश प्रकट करके उन आचार्यों के मन्तव्यों को भी साहित्य के समस्त अध्येताओं के लिए सर्वदा के लिए उपलब्ध बना दिया। __ आचार्य अभिनव गुप्त की व्याख्या के ही कारण “ध्वन्यालोक” के सिद्धान्त सुप्रतिष्ठित और सर्वसमादृत होकर सर्वमान्य हो गए। यह श्रीमदभिनवगुप्तपादाचार्य की प्रतिभा का काव्यलक्षण जगत में ऐसा प्रवेश हुआ और आसन जमा कि आज तक पूरा काव्य का लक्षणपक्ष जगमगा रहा है। उससे आगे की बात जो थोड़ी बहुत सोचकर प्रकट की वह केवल पण्डितराज जगन्नाथ ने अपने “रसगंगाधर” के सन्दर्भो में। आचार्य अभिनव गुप्त यदि न होते तो कदाचित् नाट्यशास्त्र भी हमारे हाथों में आता या नहीं इसमें सन्देह है। ध्वन्यालोक बच पाता या नहीं इसमें आशंका है। आचार्य मम्मट, विश्वनाथ, जगन्नाथ जिनका स्मरण सर्वोपरि आचार्य के रूप में करके अपने को कृतकृत्य मान रहे हैं-इन आचार्यों ने भरत का नाम भले ही न लिखा हो, आनन्दवर्धन का नाम भले ही न लिखा हो परन्तु आचार्य श्रीमदभिनवगुप्त और उनके ग्रन्थ में प्रदर्शित भट्ट लोल्लट, श्रीशंकुक, भट्टनायक के मत को सर्वाधिक आदर से सिद्धान्तरूप में अपने ग्रन्थ के हृदय में प्रतिष्ठित किया।

काव्य-लक्षण का विकास

संस्कृत के लक्षण जगत में वाचस्पति मिश्र, नागेश भट्ट और अभिनव गुप्त ये तीन ऐसे नाम हैं जो व्याख्याकार होते हुए भी अपने-अपने शास्त्र के प्रवर्तक आचार्यों के समकक्ष और कई अर्थों में तो उनसे ऊँची प्रतिष्ठा रखते हैं। ये अनेक विषयों पर अपनी समान ओजोमयी लेखनी चला चुके हैं। SEARESTRAImamimum २३ काव्य का उद्भव और विकास काव्य के लक्षण-विचारों का जो श्रीगणेश हमें ई. पू. की रचना भरत नाट्यशास्त्र में मिला, उसका विकासक्रम भामह दण्डी, उद्भट, रूद्रट, रूद्रभट्ट, आनन्दवर्धन, कुन्तक, क्षेमेन्द्र, महिमभट्ट विश्वनाथ, मम्मट अप्यदीक्षित की श्रृंखला को पार करता हुआ पण्डितराज जगन्नाथ के “रसगंगाधर” पर आकर अपनी चरम विकसित अवस्था में विद्यमान है। पंडितराज के उपरान्त भी यह विकास निरन्तर गतिमान् है। यह स्थिति काव्य की लक्ष्यभूत रचनाओं-खण्डकाव्य, मुक्तककाव्य, गीतकाव्य, महाकाव्य, चम्पूकाव्य, दशविधरूपक-रचना, कथा, उपन्यास, वार्ता, यात्रा आदि की है, वही स्थिति लक्षण-रचनाकारों की सूक्ष्म से सूक्ष्म विवेचना शब्दावली को समेटती हुई प्रवहमान रूप से हमारे सामने है। काव्य के रहस्यमय उद्भव औ विकास की इस वर्णना के प्रसंग में वाल्मीकि का प्रसंग सर्वत्र चर्चित और व्याख्यात है कि निषाद के बाण से हत क्रौंच पक्षी के विरह में कातर भावग्रस्ता क्रौंची के वेदना भरे स्वर ने वाल्मीकि के अन्तर् तक को हिला दिया और उस घटना को अपने ठीक सामने घटित देखकर स्तब्ध वाल्मीकि के मुख से अनायास ही पहली बार वेद के बाहर लोकवाङ्मय में छन्द फूट पड़ा-. “मा निषाद प्रतिष्ठांत्वमगमः शास्वतीः समाः। यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्”। (वाल्मीकि रामायण सर्ग-२, पद-१५ तथा उ.रा. द्वि. अंक- ५ श्लोक) . इस कविता में कवि ने निषाद को शापग्रस्त किया कि उसे अनन्त काल तक कोई प्रतिष्ठा नहीं मिल सकेगी। यह शाप क्रौंची पक्षी के तीव्र क्रन्दन को सुनकर उसके पक्ष से ही वाल्मीकि के मुख से निकला। इसलिए इस उद्गार में स्थायी. चित्तवृति करुणा या शोक को स्वीकार किया गया। यदि अपने प्रति किये गये किसी अपराध के फलस्वरूप वाल्मीकि की ऐसी उक्ति होती तो शायद स्थायिभाव अमर्ष या क्रोध और रस रौद्र होता। करुण रस से कविता का उद्भव होना एक विलक्षण घटना थी, इसका चरम विकास भवभूति की रचनाओं में हुआ। वहाँ उन्होंने घोषणापूर्वक कह दिया कि रस तो एकमात्र करूण ही सर्वत्र है, वही आश्रयभेद से नौ विवों के रूप में प्रकट हो जाया करता है। एको रसः करुण एव निमित्तभेदाद् भिन्नः पृथक् पृथगिवाश्रयते. विवर्तान् । आवर्त्तबुदबुदतरङ्मयान् विकारानम्भो यथा सलिलमेव हि तत्समस्तम्।। (उत्तर रामचरित अंक ३ श्लोक ४७)

अनुष्टुप् छन्द और काव्य का उदभवः

काव्य का उद्भव जिस अनुष्टुप् छन्द में हुआ उसके विकास की गाथा तो बड़ी विराट् है। समस्त रामायण, महाभारत, समस्त पुराण, उपपुराण, गाथा, इतिहास ग्रन्थ, शास्त्रों के । indin. २४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र लक्षणग्रन्थ, इतनी विपुल मात्रा में अनुष्टुप् छन्द में लिखे गये कि यह छन्द सर्वगम्य, सर्वसरल, सर्वजनीन, जन-जन का कण्ठहार हो बैठा। छन्दो रूप से काव्य के उद्भव और उसके विकास की यह गाथा इतनी विराट् है कि यदि अनुष्टुप् छन्द में विरचित अब तक की समस्त इकाइयों की गणना की जाय तो वह किसी के वश की बात नहीं है। वह करोड़ों पद्यों से अधिक होगी। वाङ्मय के विकास में इस छन्द का जितना अधिक उपयोग हुआ उतना अन्य किसी भी छन्द का नहीं हुआ, यह विना किसी संशय के कहा जा सकता है। यह भी एक विलक्षण संयोग ही था कि काव्य के उद्भव के इतिहास में प्रथम काव्य के रूप में जो रामायण महाकाव्य की रचना हुई, वह कोई भूतकाल के कथानक को आधार बनाकर नहीं अपितु वर्तमान के सर्वोज्ज्वल, सर्वसमर्थ जीवित चरित्र को आधार बनाकर हुई। महर्षि वाल्मीकि भगवान रामचन्द्र के चरित्र के प्रत्यक्ष द्रष्टा कहे जा सकते है। नारद ने वाल्मीकि मुनिपुगंव को रामकथा-सार सुनाया। उसी रामायणकार वाल्मीकि ने अपने आदिकाव्य में वही सब लिखा जिसे उन्होंने अपने सामने घटित होते देखा या वर्तमान के रूप में सुना । तभी तो उनके रामायण का इतना विकास हुआ। उसी विषय पर योगवासिष्ठ, भुशुण्डि-रामायण, अध्यात्म-रामायण, आदि रामायण प्रभृति संस्कृत एवं विभिन्न देशीय . अनेक रामायण रचनाएँ है। यही नहीं इस रचना का उत्तरवर्ती रचनाओं पर इतना अधिक प्रभाव है कि इस कथानक के वर्णानात्मक विकास की परम्परा भारत की सभी प्राचीन, मट यकालीन, आधुनिक भाषाओं में अपने मोहक रूप में आविर्भूत हुई। भारत के बाहर बृहत्तर भारत के देशों में रामकथा व्याप्त हो गई। तुलसी के “रामचरित मानस” का “वारान्मिकोव” ने रूसी भाषा में पद्यानुवाद कर डाला। आज भी मारीशस, त्रिटिनाट, सुरिनाम में तथा इन्डोनेशिया, जावा, सुमात्रा, लंका आदि में वह प्रवहमान है। रामायण के कथानक पर जितनी काव्य-रचनाएँ विरचित हुईं, नाना भाषाओं और नाना विधाओं में समस्त संसार के साहित्य में किसी एक चरित्र पर उतनी रचनाएँ किसी अन्य के लिये विरचित नहीं हुई। आज भी यह रामकथा-रचनाएँ अपनी अबाध विकास-परिणति को दिखाती जा रही हैं। संसार में काव्य के उद्भव और विकास की एक कहानी आचार्य राजशेखर ने भी अपने “काव्य-मीमांसा" ग्रन्थ में लिखी है। वहाँ काव्य की पुरुष के रूप में उत्पन्न होने की कल्पना की गई है और उसकी विविध साधनसम्पन्नता को चर्चित करते हुए उसकी मनोरम यात्रा का चित्र प्रस्तुत किया है। यह एक रूपक शैली है जिसका अनुकरण अन्य शास्त्रों के लिए भी हुआ है। मीमांसाशास्त्र में यज्ञपुरूष की कल्पना, व्याकरण में शब्द की वृषभ रूप में कल्पना इसी रूपकवर्णन की श्रृंखला में आती है।

काव्य का प्रथम उन्मेषः अलिखित

यह निस्सन्देह माना जा सकता है कि काव्य का उद्भव जब अपने प्रथम या प्रारम्भिक रूप में हुआ तब वह अलिखित रूप में था। पहले काव्य वाचिक और कण्ठ के काव्य का उद्भव और विकास माध्यम से ही प्रकाश में आया और पल्लवित हुआ। वैदिक छन्दों की श्रुतिसंज्ञा का रहस्य यही है। वह सारा काव्य पहले अलिखित और कंठगत रूप में ही चलता रहा है। इसे निरुक्तकार (यास्क) ने स्पष्ट किया है-“साक्षाकृतधर्माण ऋषयोवभूतस्ते वरेभ्यो साक्षात्कृत धर्मेभ्य उपदेशेन, मन्त्रान् सम्प्रददुः । उपदेशाय ग्लायन्तोवरे विल्मग्रहणायेमं ग्रन्थं समाम्नासिषुर्वेद च वेदांगानि च” पहले उपदेश या मौखिक कथन और श्रवण या श्रुति में गमन ही वैदिक काव्य का स्वरूप था, आगे के छात्र-श्रोताओं की धारणा-शक्ति में जब हास, आया और वे सारे सुने हुए को धारण करने में ग्लानि का, कष्ट का, पीड़ा का अनुभव करने लगे तो वेदों और वेदांगों को ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। काव्य के उद्भव और विकास के इन विविध पक्षों पर दृष्टिपात करते हुए हम विगत ऐतिहासिक रूप से स्वीकृत कविता के १५ हजार वर्षों के वैदिक सन्दर्भ को लेते हुए इतिहास का आकलन करने में समर्थ होने के साथ ही काव्यविधा के अत्यन्त रोचक उद्भव और विकास-क्रम से अपने को अभिभूत और उपकृत अनुभव करते हैं। और यह भी पाते हैं कि काव्य के स्वरूप का परिशीलन, काव्य का अध्ययन कवियों के संसार में विचरण जीवन का सर्वश्रेष्ठ या चरम लक्ष्य है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह जो चर्तुवर्ग पुरुषार्थ के रूप में व्याख्यात है, वह भी काव्य से आनन्दपूर्वक प्राप्त होता है।

काव्य के लक्षण-प्रयोजन और हेतु-“लक्षण का लक्षण”

लक्षण शब्द कुछ ऐसा नहीं जिससे सुनकर भय मालूम हो। अवच्छेदक भाषा के प्रभुत्वकाल में दोषों की उद्भावना और उनके परिहार जिसकी सम्मिलित संज्ञा परिष्कार थी-लक्षणों पर तैयार की जाती थी। फलतः लक्षण का मुँह सुरसा के मुख के समान फैलता जाता था। इसीलिए लक्षण शब्द आगे चलकर छात्रों के आगे कुछ भयजनक सा हो उठा। वस्तुतः लक्षण वस्तु या पदार्थ को स्वरूप से और गुणों से समझने के लिये होता है। यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है- जब हम पदार्थ को स्वरूपतः और गुणतः स्वयं समझकर उसी आधार पर अन्य ऐसे को समझाने के लिये प्रवृत्त होते हैं जिसने उस वस्तु या पदार्थ को नहीं देखा है, तब हमें उसे समझाने के लिए शब्दों का आश्रय लेना पड़ता है। और तब स्वभावतः इस बात का भय पैदा हो जाता है कि उस बात को कहने के लिए हम जिन शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं वे ऐसे शब्द हैं जो उस पदार्थ के किसी भी अंश का परिचय देने में सर्वथा अक्षम हैं। यदि है तो वह शब्दावली असंभव-दोषग्रस्त मानी जायेगी। फलतः उस पदार्थ का परिचय करा देने का हमारा लक्ष्य सर्वथा विपरीत फल देने लगेगा। दूसरा उससे भी बड़ा भय यह है कि यदि हमने वस्तु या पदार्थ का स्वरूपतः या गुणतः परिचय देते हुए शब्दावली का प्रयोग करते समय असंभवदोष को हटाते हुए शब्दों का प्रयोग किया तो उन शब्दों ने उस पदार्थ का तो परिचय अवश्य दिया। परन्तु केवल वही पदार्थ उस शब्दावली की सीमा में न आकर उससे मिलते-जुलते कुछ अन्य पदार्थ भी २६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र उन शब्दों की सीमा में आ गये। फलतः जिस पदार्थ का परिचय देना अभीष्ट नहीं था उसमें भी लक्षण शब्दों के अर्थतः प्रविष्ट हो जाने से लक्षण चर्चा में अतिव्याप्ति-दोष कहा जाता है। इससे भी लक्षण के शब्दों को जब सावधानी से बचाया जाय और केवल उसी पदार्थ मात्र को बतलाने वाली शब्दावली प्रयोग में लाई जाय जो लक्षणीय पदार्थ से बाहर के किसी पदार्थ का संकेत न कर सके तो तीसरे प्रकार का दोष उपस्थित हो सकता है। वह यह कि लक्षण की शब्दावली बचाते-बचाते ऐसी बचायी गयी कि लक्षणीय पदार्थ के एक अंश का परिचय तो मिल गया परन्तु उसका शेष अंश लक्षण-शब्दों की पकड़ से बाहर चला गया। तब उस स्थिति में लक्षण को अव्याप्तिदोष शब्द से ग्रस्त कहा जाता है। जहाँ तक लक्षण के उक्त तीनों दोषों का प्रसंग है, कहीं-कहीं लक्षणों में ऐसी शब्दावली होती है, जहाँ तीनों दोष साथ-साथ दिखाई देते हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट हो जाना आवश्यक है कि लक्षण भी दो प्रकार के होते हैं एक होता है “स्वरूप-लक्षण" तथा दूसरा होता है “तटस्थ-लक्षण”। जब हम अपने शब्दों से अपने से भिन्न व्यक्ति को किसी पदार्थ को ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हुए समझाते हैं जो उस पदार्थ का बाह्य स्वरूप या इन्द्रिय-ग्राह्य-स्वरूप प्रकट करने वाले हों, तब वह लक्षण स्वरूप-लक्षण कहा जाता है। पर जब ऐसे शब्दों का प्रयोग किसी वस्तु या पदार्थ को समझाने के लिए किया जाय जिनसे उस पदार्थ के गुणों का प्रभाव का परिचय मिलता हो तब उस लक्षण को कहा जाता है “तटस्थ-लक्षण" । ये दोनों ही प्रकार के लक्षण सभी मूर्त या अमूर्त तत्त्वों के परिचय देने के लिए प्रयोग में लाये जाते हैं। कभी-कभी लक्षण निर्माताओं ने ऐसे भी लक्षणों का निर्माण किया है जो उस पदार्थ या वस्तु के निकृष्ट स्वरूप को हटाकर केवल उत्कृष्ट अर्थ को ही हृदयंगम कराता है। उस स्थिति में सामान्य दृष्टि से उस लक्षण में अव्याप्ति दोष होने पर भी जब यह कह दिया जाय कि यह अमुक पदार्थ के उत्कृष्ट रूप का ही लक्षण है निकृष्ट रूप का नहीं तो अव्याप्ति दोष भी स्वतः विगलित हो जाता है।

काव्य लक्षण

(क) काव्य में शब्द की प्रधानता

काव्य लक्षण की जब चर्चा की जाती है तब यह विचार सामने आता है कि काव्य में प्रधानता शब्दों की होती है। अतः काव्यरूप से लिखे गये शब्द ही काव्य शब्द से सम्बोधित होगें। काव्यरूप से गुम्फित शब्द अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा सुन्दर अर्थ को प्रकट अव्यात्यतिव्याप्त्यसम्भव दोषत्रयशून्यत्वं “लक्षण" लक्षणम्। यह न्याय वैशेषिकशास्त्र की मान्यता सर्वशास्त्र स्वीकत है अर्थात लक्षण “परिभाषा” में असंभव अतिव्याप्ति और अव्याप्तिदोष का अभाव ही शुद्ध लक्षण है। . . . . .-…

MANTRA काव्य का उद्भव और विकास करने वाले होगें। अतः रमणीय अर्थ को प्रकट करने वाले शब्द ही “काव्य" शब्द से कहे जाने योग्य है। यही “रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम् ’ (रस गंगाथर-प्रथम आनन) का तात्पर्य है। इसी बात को इससे पहले अष्टादशभाषावारविलासिनीभुजंग उपाधिथारण करने वाले आचार्य विश्वनाथ ने-‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ इन शब्दों में प्रकट किया था जिसपर पण्डितराज ने अव्याप्ति दोष लगाकर इस लक्षण को दोषयुक्त कर दिया। शब्द की प्रधानता में तात्पर्य दोनों का एक ही है। “पण्डितराज” ने जिस बात को “रमणीयार्थप्रतिपादक" शब्द से कहा है वहीं विश्वनाथ ने “रसात्मक” शब्द से प्रकट किया है। इसी प्रकार “इष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली" कहने वाले दण्डी और जयदेव इसी कोटि में आते है। इन काव्य-लक्षण-शब्दावलियों में शब्दों को प्रधानता देते हुए अर्थ को द्वितीय स्थान दिया गया है। तर्क भी इस पक्ष का स्पष्ट ही है कि कालिदास के शब्द ही कालिदास के काव्य कहे जाते हैं। वे शब्द निश्चित ही रमणीय अर्थो के प्रतिपादक या रसात्मक या अभीष्ट अर्थ को प्रकाशित करने वाली पदावली हैं।

(ख) काव्य में अर्थः

दूसरे वर्ग के विचारकों को, यहाँ शब्दों को खुली प्रधानता देते हुए अर्थ को द्वितीय स्थान काव्य में हमेशा के लिए प्रदान कर देना नहीं अच्छा लगा। वे यह भी नहीं कह सकते कि काव्य में शब्द का स्थान दूसरी कोटि में आता है और अर्थ का स्थान प्रथम रहता है। तत्त्वतः कवि के द्वारा गुम्फित शब्दों को ही तो उस कवि का काव्य कहने के अतिरिक्त काव्य-व्यवहार की शरण और क्या है। परन्तु अर्थ-सौन्दर्य का भी काव्य-जगत में शब्द के समान ही स्थान है। अतः काव्य के लक्षण में अर्थ के सौन्दर्य का ग्रहण भी शब्द की समान कोटि में रखकर ही किया जाना चाहिए। रही कवि संरम्भ-गोचरता या कवि के प्रयत्न की बात। वह कवि जैसे अपने काव्य में उत्तमोत्तम शब्दों के प्रयोग का प्रयत्न करता दिखाई देता है, वैसे ही अपने कल्पना-जगत में वह मनोरम अर्थो की भी सृष्टि किया करता है। बहुधा ऐसे कवि के द्वारा सर्जित अर्थों को जो बाह्य जगत् में उपलब्ध नहीं होते “कविसमय" शब्द से कहा जाता है। यह कवि के द्वारा कल्पनाशक्ति से समुद्भावित अर्थ कवि की ही अर्थ सृष्टि है। जैसे कवि ने शब्दों का अन्वेषण र गुम्फन किया है, वैसे ही अर्थो को भी अपनी समाहित बुद्धि से ढूढ़ निकाला है। आचार्य ‘मम्मट’ इन शब्दार्थ-काव्यवादियों की श्रृंखला में सर्वाधिक स्पृहणीय आचार्य है और उनका काव्य लक्षण भी वही है-“तददोषौ शब्दार्थों यद्यपि पण्डितराज जगन्नाथ ने विशेष रूप में “शब्द” को ही काव्य कहा तथापि विशेषण रूप में “शब्द” की विशेषता बताते हुये “रमणीय विशेषण विशिष्ट अर्थ प्रतिपादकता” को शब्द में अनिवार्य वैशिष्ट्य बताया। २८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र BansaARDASRE: :

. " . .. सगुणाव-नलंकृती पुनः क्वापि” (काव्य प्रकाश-प्रथम उल्लास कारिका-३) वे शब्द-अर्थ जो दोषों से रहित हों, गुणों से युक्त हों तथा अलंकारों से झंकृत हों, कहीं यदि स्पष्ट दिखाई देने वाले अलंकार न भी हो तो भी कोई बात नहीं, काव्य कहे जाने के अधिकारी हैं। “अदोष" शब्द और अर्थ को काव्य के स्वरूप या लक्षण में कह देने का अर्थ यह होगा कि जहाँ काव्य के शब्दगत, अर्थगत या उभयगत दोष होगें वह दोष सहित हो जाने के कारण काव्य-संज्ञा से बहिर्भूत हो जायगा। काव्यप्रकाश का काव्य लक्षण पुराना होने के कारण विश्वनाथ और जगन्नाथ को इस लक्षण की आलोचना में अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोष दिखाने का अवसर हाथ आ गया। विश्वनाथ पहले “अदोषौ” शब्द के कटु समालोचक हैं। यह तो “अव्याप्ति” दोषग्रस्त लक्षण हैं। क्योंकि अनेक ध्वनिकाव्यों में भी दोषों का अस्तित्व विद्यमान है। इस आलोचना का मम्मट के व्याख्याकार यही उत्तर देते हैं वि वाग्देवतावतार आचार्य मम्मट ने यह काव्य-लक्षण शिक्षार्थियों के लिये निर्मित किया है जो काव्य के शिक्षार्थी हैं, काव्य निर्माण की शिक्षा ग्रहण करना चाहते है उन्हें यह बतलाना आवश्यक है कि काव्य में दोषवाले शब्द अर्थ नहीं देना चाहिये। तभी इस प्रकार की दृष्टि से निर्मित काव्य उपहासास्पद नहीं होता। ओज, प्रसाद, माधुर्य नामक काव्य गुणों की स्थिति जब होती है तब रसों का जमाव अपने आप वहाँ हो ही जाता है। इसलिए काव्य में प्रयुक्त होने वाले शब्दों और अर्थो को सगुण या ओज, प्रसाद और माधुर्य गुणों से युक्त कह देने भर से रमणीयता, सरसता आदि की स्वतः उपलब्धि हो जाती है अथवा यह रमणीय या रस समर्पक अर्थ “ सगुणौ” शब्द से ही प्रकाशित हो जाता है। काव्य लक्षण के अन्तिम भाग “अनलंकृती पुनः क्वाऽपि” पर तो अनेक आचार्यों का कटाक्षपात हुआ। ध्वनि और रस की चर्चा से पहले तो केवल अलंकार ही काव्य का प्रमुख तत्त्व माना जाता था। “काव्यं ग्राह्यमलंकारात्" (वामन) अर्थात् काव्य का अध्ययन इसीलिये आवश्यक माना गया कि अलंकारों का उससे स्वतः ज्ञान और उनसे होने वाले चित्त-चमत्कार की अनायास उपलब्धि हो जाती है। अलंकारों को काव्य में प्रधान तत्त्व के रूप में स्वीकार करने वाले आचार्य अलंकारवादी कहे जाते थे। (समस्त सहित्य के रसिक कवि और विद्वान् भी आलंकारिक शब्द से ही सम्बोधित हुआ करते थे, आज भी होते हैं।) प्राचीन आचार्यो के द्वारा काव्य में प्रधान रूप में स्वीकृत अलंकार की मम्मट के काव्य-लक्षण में स्थिति यह हो गई कि यदि काव्य में स्फुट अलंकार न भी हो तो भी काम चल जायगा, उसे काव्य कहा जा सकता है। इस पर आचार्य जयदेव ने आक्रामक होकर कारिकाबद्ध आक्रमण कर ही दिया कि R “अंगीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती। असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती।। (चन्द्रलोक प्रारम्भ) २६ काव्य का उद्भव और विकास जो लोग काव्य में अलंकारों की अनिवार्यता को अस्वीकार करते हैं उन्हें तो उष्णता-शून्य अग्नि की सत्ता को भी स्वीकार करना चाहिये। इनके विचार से काव्य में अलंकारों का वही स्थान है जो अग्नि के स्वरूप में उष्णता का है। वस्तुतः व्यंग्य अर्थ की प्रधानता में ध्वनि व्यवहार और ध्वनि-विशेषरूप रस का स्वरूप जब पूर्णतया आविष्कृत नहीं हो सका था, तब काव्य के तत्त्वों पर (पारिशेष्यात्) सर्व-प्रधान स्थान शब्दालंकारों और अर्थालंकारों को प्राप्त होना अनिवार्य था। परन्तु ध्वनि, वक्रोक्ति या औचित्य के रूप में सूक्ष्म-विवेचन, ग्रन्थों में जब प्रबल तर्को द्वारा प्रतिष्ठित कर दिया गया, तब उसके सामने अलंकारों का स्थान द्वितीय कोटि में आ जाना स्वाभाविक था। इसीलिए काव्य-भेदों में अलंकार-प्रधान काव्य को तीसरी श्रेणी का काव्य माना गया है। काव्य-लक्षण की परिचर्चा में यह विचार आवश्यक है कि आचार्यों के द्वारा अपने-अपने ग्रन्थों में काव्य का स्वरूप बताने के लिये अव्याप्ति आदि दोषों के प्रवेश निषेध को ध्यान में रखकर जिस परिमित शब्दावली का उपयोग किया गया, उससे काव्य का स्वरूप संकेत मात्र से ही समझ में आ सकता है। वस्तु-स्वरूप के पूर्णतया प्रकाश की शक्ति शब्दों में है ही नहीं। शब्दों के द्वारा किसी भी वस्तु का एक अणुतम अंश ही समझाया जा सकता है। इसीलिए जैनदर्शन में स्याद्वाद या सप्तभंगी नयका आश्रय लिया गया है पदार्थ को समझाने के लिये।

(ग) काव्य में शब्द और अर्थ-स्वरूपलक्षण

काव्यलक्षणों की उक्त चर्चा स्वरूप-लक्षण को लक्ष्य में रखकर की गई है। शब्द और अर्थ का स्वरूप में निवेश करने की भोज की उक्ति (सरस्वती कण्ठाभरण) से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि काव्य का, शब्द स्थूल शरीर है तथा अर्थ सूक्ष्म शरीर है। परन्तु यह अर्थ-रूप सूक्ष्म शरीर वाच्यार्थ पर्यन्त ही निरूपित होता है। आगे के लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ तत्रापि ध्वन्यर्थ उसमें भी रसरूप अर्थ तो कारण शरीर और आत्मस्थानीय होते हैं। जब काव्य के तटस्थ-लक्षण की ओर देखते है तब तो काव्य के तटस्थलक्षण के विषय में विशाल ग्रन्थों की रचना न केवल संस्कृत में अपितु अंग्रेजी, हिन्दी तथा अन्य साहित्यों में विस्तार से हुई है। स्वरूपलक्षण में जिस प्रकार शब्दावली दोषों से प्रयत्नपूर्वक हटाकर स्थित की जाती है, तटस्थ लक्षण में वैसी स्थिति नहीं होती है वहाँ तो काव्य के प्रभावों का विवरण दिया जाता है और स्वरूपलक्षण सुनने पर काव्य का जो एक खाका खिचता है, चित्त पर वह अपने पूरे विवरण और विस्तार से समझ की परिधि में आने लगता है। समस्त संसार के कारण परब्रह्म का भी “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” यह स्वरूप लक्षण है तथा “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते”-आदि तटस्थ-लक्षण हैं। वस्तुतः जब लक्षण की चर्चा होती है तब स्वरूप-लक्षण ही सामने आता है, तटस्थलक्षण तो यत्र-तत्र प्रकीर्ण भाव से फैले हुए मिलते हैं। जब से लक्षण या स्वरूप समझाने के क्षेत्र में मनोविज्ञान का प्रवेश हुआ, तब ३० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र से तो वस्तु-स्वरूप निरूपण या लक्षण-कथन के अनेक आयाम विस्तार पा गये और वर्तमान में काव्य स्वरूप की एक-एक रचनाकार की विवेचनाओं में इतना विस्तार है कि संक्षेप से समझने की प्रक्रिया बहुत दूर छूटी हुई प्रतीत होती है। काव्य के क्षेत्र के विस्तार के साथ ही काव्य के स्वरूप में भी विस्तार हुआ। ऐसा मनोवैज्ञानिकों का कथन है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के गंभीर निबन्ध इस बात के निदर्शन है कि काव्य की मूलभूत मनोवृत्तियाँ स्थायिभाव, विभाव, अनुभाव, संचारीभाव किसी प्रकार की विवेचनाओं के अनन्तर ही सम्यक रूप से हृदयंगम होते है। वहाँ शब्दान्तर भले ही हों, परन्तु अव्याप्ति आदि दोषों के परिहार कर चर्चा में अनेकानेक पृष्ठ भरे दिखाई देते हैं। स्वरूप-लक्षण और फैले हुए तटस्थ-लक्षण काव्य की अपनी समग्रता में समझने के प्रयास और प्रयत्न मात्र है। फिर भी काव्य की स्वरूपतः पूर्ण व्याख्या हो गई यह नहीं कहा जा सकता। क्योंकि जिन पक्षों को हम पूर्णतया निरस्त हुआ समझते हैं, उन पर भी विद्वानों की नई-नई उद्भावनाएं प्रकट होती रहती हैं और काव्य का स्वरूप अपनी आदिम स्थिति में पहुंचता प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ ध्वनिकार के सिद्धान्त अभिनवगुप्त के भाष्य, मम्मट सदृश आचार्यों के समर्थन के उपरान्त ध्वनिवाद या रसवाद ही काव्य में सर्वोपरि तत्त्व के रूप में प्रतिष्ठित हो सका और अलंकारों का स्थान उसकी अपेक्षा गौण हो गया। ऐसी धारणा बन जाती है। परन्तु कुछ नये ग्रन्थ लिखे गये हैं जिनमें अलंकारों की काव्य में प्रधानता को पुनः प्रतिष्ठित करने का उपक्रम किया गया है। स्पष्ट है कि काव्य के स्वरूप के विषय में ‘इदमित्थं’ निर्धान्त-निर्णय की स्थिति आज भी नहीं हैं। महिमभट्ट का अनुमितिवाद मम्मट के प्रहारों से समाप्त समझा जाने लगा था, परन्तु नये ग्रन्थों में अनुमितिवाद को नये तर्को से सुसज्जित करके प्रस्तुत किया गया है। यही स्थिति “वक्रोक्तिवाद” और “औचित्यवाद” आदि विचारों की भी है। इन सभी पर मनोविज्ञान के सिद्धान्तों से गर्भित नई उद्भावनाएं प्रकाश में आ रही हैं। यह कोई भ्रान्ति फैलाने जैसी नहीं अपितु काव्य को स्वरूपतः समझने के प्रयासों के विविध नूतन आयामों का उद्घाटन है।

काव्य के प्रयोजन

काव्य के स्वरूप-विचार या लक्षण परिशीलन के अनन्तर प्रयोजन की चर्चा सामने आती हैं। संस्कृत में ग्रन्थकारों की यह स्वीकृत परिपाटी रही है कि वे अपने ग्रन्थ के आरम्भ में चार बातों का विवरण प्रायः देते हैं जिन्हें पारिभाषिक संज्ञा दी गई है “अनुबन्ध-चतुष्टय” । पहली बात ग्रन्थकार यह बतलाता है कि उसके ग्रन्थ का विषय क्या है ? दूसरी बात यह बतलाई जाती है कि इस विरच्यमान ग्रन्थ के निर्माण से ग्रन्थकार तथा अध्येताओं का का प्रयोजन सिद्ध होगा। तीसरी बात यह बतलाने की परिपाटी है कि इस ग्रन्थ के अध्ययन का अधिकारी कौन है और चौथी बात यह होती है कि विषय तथा ३१ काव्य का उद्भव और विकास अधिकारी एवं प्रयोजन का आपस में क्या सम्बन्ध या एकसूत्रता है। इन अनुबन्धचतुष्टय (विषय, प्रयोजन, संबंध और अधिकारी) में प्रयोजन का निरूपण अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रयोजन में यह बतलाना अभीष्ट होता है कि काव्य के निर्माता कवि का काव्य के निर्माण के द्वारा कौन से प्रयोजन सिद्ध हो रहे हैं तथा काव्य के अध्येता सहृदयों के किस प्रयोजन की सिद्धि हो रही है। दृश्यकाव्य के प्रयोजनात्मक पक्ष में अभिनेताओं के पक्ष भी जड़ जाता है। इस पर भी ध्यान देना आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार काव्य के प्रयोजन का अन्वेषण-बहुमुखी आयाम रखते हुए विचारकोटि का अवगाहन करता है। विशेषकर कवि पक्ष, अध्येता पक्ष या सहृदय पक्ष और अभिनेता पक्ष से इस प्रयोजन को ढूढ़ निकाला गया है। प्रयोजन के विवेचन का क्रम भी आचार्य भरतमुनि के “नाट्यशास्त्र" से ही प्रारम्भ हो जाता है “धयं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवर्धनम् । लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति” ।। (नाट्यशास्त्र-अ.१/८१) आचार्य भामह अपने “काव्यालंकार" ग्रन्थ में काव्य के प्रयोजन का निरूपण करते हुये कहते हैं धर्मार्थकाममोक्षेषु. वैचक्षण्यं कलासु च करोति कीर्तिं प्रीतिं च साधुकाव्यनिषेवणम्।। (भामह का काव्यालंकार) आचार्य कुन्तक चतुवर्गफल प्राप्ति से भी ऊंचे प्रयोजन का सिद्ध होना काव्य से मानते हैं।

यश

काव्य के अन्य तत्त्वों के समान ही “काव्य प्रकाश” में प्रयोजन को भी संकलित करते हुये कहा गया है “काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे” (काव्य प्रकाश उल्लास१/२) इसमें काव्य-प्रयोजन में प्रथम स्थान दिया गया है यश को। कवि का काव्यनिर्माणोत्साह इसी प्रयोजन को सामने रखकर होता है। उसके मन में कदाचित रहता है कि उसके निर्माण के कारण कवि को यश की उपलब्धि होगी। महाकवि कालिदास ने भी “रघुवंश महाकाव्य” के प्रारम्भ में अपने काव्य का उद्देश्य कवि को प्राप्त होने वाला यश ही बतलाया है ३२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र “मन्दः कवियशः प्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम्। (रघुवंश सर्ग१, श्लोक३) सिद्ध कवियों को उनके काव्य के द्वारा मिलने वाला यशः शरीर कभी जरामरण के भय से युक्त नहीं होता- जैसा कहा है “जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः। नास्ति येषां यशःकाये जरामरणजं भयम्।।” काव्य-निर्माण में स्वाभाविक एवं प्रारम्भिक प्रवृत्ति का मूल कारण काव्य से मिलने वाला यश ही है। आज भी वाल्मीकि, भास, कालिदास, अश्वघोष, भवभूति, भारवि, माघ, श्रीहर्ष, सूर, तुलसी आदि अपने यश रूपी शरीर से हमारे बीच अमर अनुभूत हो रहे है। काव्य-रचना का यह प्रयोजन उनके काव्य के द्वारा सिद्ध हो रहा है। इतना ही नहीं जो काव्य के अध्येता सहृदय हैं उन्हें भी काव्य के अध्ययन, उन पर ऊहापोह, उनकी समालोचना, उन पर व्याख्या, उनका सरस उच्चारण आदि से यश की प्राप्ति हो रही है। आज भगवान् वेदव्यास के अमर काव्य श्रीमद्भागवत के सरस उच्चारण और भाव-परिस्पन्द पूर्ण प्रवचनों से प्रवचन कर्ताओं को कितना विपुल यश मिला हुआ है कि उनके नाम मात्र का श्रवण कर हजारों लाखों सहृदय श्रोताओं की भीड़ जुट जाती है। गोस्वामी तुलसीदास के अमर काव्य रामचरित मानस के वक्ता (कथा-श्रावक) जिन्हें ‘व्यास’ संज्ञा प्रदान की जाती है, मानस के मर्मो का सार्वजनिक उद्घाटन करने के कारण विपुल यश के भागी बनते हैं। यह काव्य के द्वारा मिलने वाला वह यश है जो काव्य के निर्माण और उसके अध्ययन का प्रथम प्रयोजन आचार्य मम्मट ने घोषित किया। दृश्य काव्य से तनमन से जुड़े अभिनेताओं का तो यश बड़ा अतुलनीय होता है। वर्तमान में चलचित्र या सिनेमा, दृश्यकाव्य का ही एक रूप होता है। “दूरदर्शन" में भी यह पुष्कल मात्रा में देखा जा सकता है। इसके प्रचलन से पूर्व नाटकों का प्रस्तुतीकरण अभिनेताओं के द्वारा विपुल मात्रा में होता था। इस बात का अनुभव वर्तमान के वैज्ञानिक दृश्यकाव्य, चलचित्रों के अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों को मिलने वाले यश से सहज ही हो जाता है। इस विचार से काव्य के प्रथम प्रयोजन रूप यश की सर्वमान्यता सिद्ध है।

(२) वित्तोपलब्धिः

आचार्य मम्मट" के काव्य का दूसरा प्रयोजन बताया है- “अर्थकृते" अर्थात धन की उपलब्धि के लिए काव्य का निर्माण और अध्ययन किया जाता है। प्राचीन राजाओं के राज्य-काल में विभिन्न राजाओं के यहाँ कवियों का समूह ही आश्रय पाता था। विक्रमादित्य और भोज की काव्य-सभाएँ तो इतिहास और किंवदन्तियों में विख्यात है ही। मुध्ययुगीन साहित्य-निर्माण काल में केशवदास, विहारी, भूषण, मतिराम, पद्माकर, पण्डितराज जगन्नाथ आदि सुप्रसिद्ध राज्याश्रित कवि थे। काव्य का उद्भव और विकास ३३ स्पष्ट है कि काव्य निर्माण की क्षमता के कारण ही इन कवियों को समस्त वैभव राजाओं की ओर से उपलब्ध कराये जाते थे। एक-एक दोहे पर अंजुली भर मुहर प्राप्त होती थी महाकवि विहारी को। भोज के लिये तो बार-बार लिखा गया है कि जिस कवि की जिस रचना पर महाराज भोज मुग्ध हुए उसी को “प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ”-कविता के एक-एक अक्षर पर एक-एक लाख मुद्रा देते थे। यह काव्य के द्वारा स्पष्ट ही अर्थप्राप्ति रूपी प्रयोजन की सिद्धि के उदाहरण है। वर्तमान काल में राजा तो समाप्त हो गए। परन्तु राजाओं का कवियों के प्रति पोषण- कार्य प्रजातंत्र की सरकार ने अपने हाथ में अपना कर्तव्य समझकर लिया और सभी प्रान्तों में साहित्य अकादमियों की स्थापना कर काव्य रचनाओं और विपुल मात्रा में पुरस्कार देने की व्यवस्था की गई। उसी अनुकरण पर अनेकानेक धनाढ्य साहित्य प्रेमियों ने बड़े-बड़े पुरस्कार कवियों के लिये स्थापित किये जो स्वातन्त्र्योत्तर काल से प्रतिवर्ष दिये जा रहे हैं। अर्थोपलब्धि के रूप में काव्यों के प्रकाशकगण भी कवियों की पत्र-पुष्प सेवा करते रहते है। मम्मट ने “अर्थकृते" का जो उदाहरण स्वयं दिया है, वह तो आदर्श उदाहरण नहीं कहा जा सकता-“श्रीहर्षादेर्धावकादीनामिवधनम्" अर्थात् रचनाकर्ता कवि ने अपनी रचना करके प्रचुर धन लेकर अन्य को अपनी कृति समर्पित कर दी और वह धन देने वाले की रचना हो गई। यह धनलाभ का आचार्य मम्मट का दिया हुआ उदाहरण स्पृहणीय भी नहीं है। यह एक प्रकार से “निर्मिति” का विक्रय है। यह प्रशस्त नहीं कहा जा सकता। __ मम्मट ने इसी प्रवृति की ओर संकेत किया है। कवि को अपनी कृतियों के द्वारा अर्थोपार्जन प्रचुर मात्रा में होता है। और यह वर्तमान में भी काव्य-निर्माण का प्रमुख प्रयोजन है। मानव-जीवनरूपी वृक्ष में धनलाभ पुष्प और फल के समान होता है। वह काव्य-निर्माण के द्वारा प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है।

(३) व्यवहार-ज्ञान

“काव्यप्रकाश” में व्यवहारज्ञान काव्य का तीसरा प्रयोजन कहा गया। कवि को अपने वर्णनीय देश, काल, चरित्र, वेशभूषा, वाणी का आदान-प्रदान, परस्पर व्यवहारों में उच्चावचभाव आदि व्यवहार-जगत् का पूर्ण ज्ञान और परिचय होने पर उसकी रचना में जो निखार आता है वह काव्य का एक मौलिभूत प्रयोजन है। एक-एक विषय को रचना में लेने के लिये कवि को कितना श्रम व्यवहारज्ञान के लिये करना पड़ता था, इसके निदर्शन किंवदन्तियों में फैले हुए है। रचना-काल में कवि व्यवहार-जगत् का जितना सूक्ष्म निरीक्षण करता है, उसकी रचना में उतनी ही प्राणवत्ता आती है। और उसके काव्य की लोकप्रियता में और अधिक वृद्धि होती है। जब तक अध्ययन कर्ताओं का समूह अपने व्यवहारों का अध्ययन, अपने अभीष्ट काव्य में नहीं देखता तब तक काव्य पर उसका विश्वास ही नहीं जमता। इसीलिये ३४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र वैदेशिक काव्य-रचनाओं को पढ़ने में सामान्यतया रूचि उत्पन्न नहीं हो पाती। क्योंकि वैदेशिक व्यवहार हमारे व्यवहारों से सर्वथा भिन्न होते हैं। परन्तु ऐसी ही काव्य-रचनाओं के द्वारा उन-उन देशों में जो व्यवहार वर्णित हुआ है, उस सबका ज्ञान काव्य के द्वारा अनायास और शीघ्र हो जाता है। वहुधा देखा जाता है कि ज्ञान के अभाव की भी अनेक अशों में पूर्ति व्यवहारज्ञान के द्वारा होती है। __ जो काव्य से विमुख रहने वाले हैं वे व्यवहार ज्ञान के सन्दर्भ में कूपमण्डूक ही बने रह जाते हैं। उन्हें संसार कोई प्रतिष्ठा नहीं देता। विशेषकर विगत अतीत में संस्कृत-सेवी समाज व्यवहार जगत् से दूर चला गया और व्यवहारिक ज्ञान की संस्कृत समाज में शून्यता आ गई। परन्तु काव्यों का निरन्तर अध्ययन करने से तथा काव्य-रचना में प्रवृत्ति रखने से व्यवहार का ज्ञान अवश्य होगा ही। न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न.सा विद्या न सा कला। न स योगो न तत्कर्म यन्नाट्येऽस्मिन्न दृश्यते।। (नाट्यशास्त्र १-११६) ऐसा ज्ञान या शिल्य या विद्या या कला नहीं है, जो कि काव्य का अंग नहीं बनती है, कवि को उन सबका ज्ञान रहता है। कवि के ऊपर इस विचार से पर्याप्त भार होता है। इस प्रसंग में उदाहरण के लिये एक नाम पर्याप्त होगा- वह है कालिदास का ‘रघुवंश’। उसमें रघुदिग्विजय के प्रसंग में भौगोलिक ज्ञान का जैसा सुन्दर निदर्शन हुआ है वह लौकिक भूगोल विषयक ज्ञान के लिये अध्येताओं के व्यवहारज्ञान की सीमा में वृद्धि करता है। एक और अन्य उदाहरण देने का लोभ संवरण नहीं हो रहा है। वाल्मीकि के रामायण का “सुन्दरकाण्ड”, जिसमें रावण की राज्यशासन-व्यवस्था का जैसा शास्त्रसंमत दर्शन श्री हनुमान ने किया वह राजनीति शास्त्रीय व्यवहारज्ञान के लिये पठनीय और मननीय है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं-“किरातार्जुनीयम्" “शिशुपालवधम्” एवं “नैषधीय-चरितम्” में।

(४) शिवेतरक्षति- अशुभनिवारण

… काव्य के चतुर्थ प्रयोजन के रूप में “शिवेतरक्षति” को बतलाया गया है। यह बहुत व्यापक प्रयोजन है। संसार के सभी प्राणी शिवेतर से, अशिव से, आधिव्याधियों से सर्वदा आक्रान्त रहते है। शारीरिक व्याधियाँ जब सभी औषधोपचारों से भी शान्त नहीं होती तब काव्य की आराधना से उन्हें शान्त होते देखा सुना गया है। प्रसिद्ध उदाहरण है “मयूर-कवि” का जिनका किसी अपराध के कारण कुष्ठ रोग से आक्रान्त होना तथा सूर्यभगवान की स्तुति में “सूर्यशतक” काव्य का निर्माण कर उसके पाठ से भगवान् सूर्य को संतुष्ट कर कुष्ठ रोग से पूर्ण मुक्त होना। आज भी कुष्ठ रोग से मुक्ति के लिए सूर्य उपासना और सूर्य-शतक काव्य के सहस्त्रों पाठ कराए जाते हैं क्षेत्र-विशेष में सूर्यशतक काव्य के पाठ करने-कराने की परम्परा आज भी सुप्रचलित है और उससे पर्याप्त लाभ काव्य का उद्भव और विकास प्राप्त होकर अशिव की क्षति सम्पादित की जा रही है। दारिद्र्य-रूपी अशिव के उन्मूलनार्थ भगवान् आद्यशंकराचार्य विरचित “कनकधारा स्तोत्र-काव्य सद्यःफलदायक माना जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी को जब एक बार भीषण बाहुपीड़ा हुई तब उन्होंने बाहुपीड़ा निवारणार्थ “हनुमानबाहुक” काव्य की रचना की। और उसके हनुमान जी को विधिवत् पाठ सुनाए जिससे उनकी बाहुपीड़ा दूर हुई। इस प्रकार काव्यों के द्वारा शिवेतर, अशिव, अकल्याणरूप आधिव्याधियों की क्षति सुप्रसिद्ध है। __ वस्तुतः कवि जब अपने इष्टदेव के साथ अभिन्न भाव से जुड़ता है और उस समय जो काव्योद्गार प्रकट करता है, वह अनुपम शक्तिशाली या मन्त्र की शक्ति को अपने में एकत्रित कर लेता है। फलतः उससे शिवेतर क्षति का प्रयोजन अवश्य तत्काल सिद्ध होता देखा जाता है। “शिवतरक्षति” रूपी विशेष प्रयोजन को प्राप्त करने के उद्देश्य से जो काव्य रचना की जाती है, वह प्रायः स्तोत्रकाव्य के भेद के अन्तर्गत आती है, जिसका प्रारम्भ वैदिक सूक्तों से ही मिलता है। आज तक पाठ आदि के रूप में अविच्छिन्न गति से काव्य के द्वारा यह शिवेतर-क्षति-रूप प्रयोजन निरन्तर सिद्ध किया जा रहा है।

(५) सद्यः परनिर्वृति-काव्यानन्द की प्राप्ति

पांचवाँ प्रयोजन आचार्य मम्मट ने काव्य का बतलाया है:-“सद्यः परनिर्वृति” इसका अर्थ है कि काव्य पढ़ने-सुनने, नाटक आदि देखने के साथ ही साथ मन में परमानन्द की तरंगों का उठना। जब हम कोई कथा, कहानी, उपन्यास, खण्डकाव्य, मुक्तककाव्य, महाकाव्य पढ़ते-सुनते समझने लगते हैं तो साथ ही साथ हमें यह अनुभव होने लगता है . कि हम समस्त चिन्ताओं, दुविधाओं से मुक्त हो आनन्द-मात्र में अवस्थित है। जब हम नाटक, सिनेमा आदि दृश्यकाव्य देखते हैं तब तत्काल अन्य सब कुछ भूलकर दृश्यों से अपने को एकाकार अनुभव करते हुए उतने काल के लिये केवल नाटक या सिनेमा के दृश्यों में डूबे रहते हैं। यही काव्य का ‘सद्यः परनिर्वृति’ रूप प्रयोजन है। कहने की. आवश्यकता नहीं कि कवि भी काव्य रचनाकाल में अपने को पूर्ण निश्चिन्तता में पाता है। तभी वह अन्य सहृदयों को निश्चिन्तता के साम्राज्य में प्रवेश दिला सकता है। . . . . . इस विषय में प्राच्य तथा पाश्चात्त्य काव्य-समीक्षकों में कुछ मतभेद है। अनेक पाश्चात्त्य समीक्षकों के मतानुसार कवि अनेक लेखनानुभव में बड़े कष्ट और पीड़ा का अनुभव प्राप्त करता है। वह अपनी रचना में अपने अनुभवों को अपने से अलग करता हुआ उन्हें अभिव्यक्ति देता है। ऐसा करते हुए उसे ऐसा अनुभव होता है जैसे वह अपने शरीर का अंश स्वयं काट-काटकर लिख रहा हो। इस क्रम में स्पष्ट है कि रचनाकार को काव्य-निर्माण-काल में स्वयं वेदनाओं के अनुभव से गुजरना होता है। वास्तविक जीवन में जिन वेदनाओं और संवेदनाओं का साहित्यकार अनुभव करता है एवं जिन्हें भाषा के Padalaimades.३६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र माध्यम से (अथवा अन्य ललित कलाकार अपनी कथाओं का) शब्दायित या रूपायित करता है उनकी वेदना का भी अनुभव करता है। परन्तु भारतीय काव्य-तत्त्व-चिन्तन इस विचार का समर्थक नहीं है। कवि और श्रोता, अध्येता, दर्शक आदि सभी को “सद्यः परनिर्वृति” होना अभीष्ट है। यह एक अलग बात है कि कवि को अपनी रचना पढ़ते समय अतिशय आनन्द की प्राप्ति होती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-“निज कवित्त केहि लाग न नीका”। वस्तुतः कवि जब स्वयं अपनी रचना का अध्ययन करता है तब उसका आनन्द दुगुना हो जाता है। कर्तृत्व के आनन्द के साथ-साथ वर्ण्य का आनन्द भी उसमें मिल जाता है। परन्तु काव्य निर्माण काल में जब कवि अपनी रचना का पाठक नहीं अपितु उसका निर्माता है, तब भी उसे प्रतिपद विन्यास-आनन्द की अनुभूति होती है। सहृदय अध्येताओं को तो “सद्यः परनिर्वृत्ति या तत्काल आलौकिक आनन्द की प्राप्ति होना अनिवार्य एवं निर्विवाद ही है। इस “सद्यःपरनिर्वृत्ति या तत्काल “विगलित-वेद्यान्तर-आनन्द" की प्राप्ति में साधारणीकरण व्यापार का अथवा तत्कल्प साधारण-भवन के सहयोग सर्वाधिक महत्त्वशाली है। लौकिक सुखोपभोगों में भी “सद्यःपरनिर्वृति” तत्काल परमानन्द की प्रतीति अनुभव सिद्ध है। जिह्वा से नाना अभीष्ट रसों का स्वाद लेते समय असीम आनन्द का अनुभव होता है। मनोरम लुभावने दृश्य अपार आनन्द देते हैं। अपनी प्रेयसी के साथ रतिलीला में आनन्द प्राप्त होता ही है। परन्तु काव्य से होने वाले आनन्द को इन लौकिक आनन्दों से इसीलिए ऊँचा माना गया है कि काव्यानन्द मे साधारणीकरण अथवा साधारणीभवन का व्यापार (विभावन-व्यापार) चल रहा है। लौकिक आनन्द की व्यक्तिनिष्ठता और गोपनीयता इस अलौकिक व्यापार के कारण यहाँ नही रहती। पूरा परिवार एक साथ बैठकर शृगाररस से परिपूर्ण नाटक या चलचित्र देखता है और सभी उसकी एक दूसरे से आलोचना, प्रशंसा करते हैं यह अलौकिक व्यापार काव्य का ही है। (पाश्चात्त्य मत से ललित कलाकार का)। आचार्य मम्मट ने इसी दृष्टि को ध्यान में रखते हुए इसे सुख नहीं कहा, आनन्द भी नहीं कहा, कहा उन्होंने परनिर्वृति। निर्वृति शब्द आनन्द से भी अधिक सूक्ष्मता का संकेतात्मक समर्पण कर रहा है। लौकिक विषयास्वाद काल में आगा-पीछा सोचना पड़ता है, परिवेश में बंधे रहना पड़ता है, स्वच्छन्दता नहीं रहती। वह सुखमात्र है जो दुःखों का भी अपने अनुभव-काल में भी उसमें ऐसी संवेदना नहीं रहती जो “अग्नि" उचारण से उष्णता दें अथवा “द्राक्षा" कहने से “अंगूर" का स्वाद मिले। काव्यानन्द केवल निर्वृत्यात्मक है। अहसास रखता है। परन्तु काव्य से समर्पित होने वाली निर्वृति में दुःख सामान्य का निषेध है। संकोच या सिकुड़न की कोई गुंजाइश यहाँ नहीं रहने दी जा सकती। जितने काल आप नाटक, सिनेमा देखेंगें, काव्य, उपन्यास पढ़ेंगे या सुनेंगें उतने काल तक आपको अपनी abSFERROPPEAREER काव्य का उद्भव और विकास संकुचितता का उस काल में बोध नहीं होगा। आत्मविस्मृति-रूपी परनिर्वृति आयेगी। परन्तु गहन निद्रा के समान नहीं अपितु पूर्ण चैतन्य के साथ, ठीक विषयानन्द के चरम विकास काल की तरह ही नहीं उससे भी अधिक। सभी काव्यकृतियों के साथ समानता से यह प्रयोजन सभी को सिद्ध होता हो यह बात नहीं। इसमें अपनी-अपनी सहृदयता कारण बनती है। नाट्यदर्शक या दूरदर्शन के लिये इसे ही सामाजिक या सहृदय सामाजिक कहा गया है। कोई रचना किसी को पसन्द है, दूसरे को दूसरी रचना आस्वाद दे रही है। इसी को विवेचनाओं से वर्तमान की विभिन्न भाषाओं विशेषकर हिन्दी में आलोचना-साहित्य देखने में आ रहा है। ऐसा पहले भी हुआ है। कविकुल गुरुः कालिदासो विलासः। उत्तरे रामचरिते भवभूतिर्विशिष्यते। उदिते नैषधे काव्ये क्व माघः क्व च भारविः। उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम् । नैषधे पदलालित्यं माघेसन्ति त्रयो गुणाः। कवीनामगलद्दो नूनं वासवदत्तया। आदि उद्गार अपनी-अपनी सहृदयता की सूचना देने वाले है। इस प्रकार सद्यःपरनिर्वृति को आचार्य मम्मट ने कवियों और सहृदय श्रोता, पाठक, सम्मानित दर्शकों का सामान्य प्रयोजन बतलाया। ६. ###### (६) कान्तासमित उपदेश (६) अन्तिम प्रयोजन बतलाया गया है- ‘कान्तासम्मित उपदेश’ यदि किसी काव्य से कुछ करने की प्रेरणा नहीं मिलती तो वह काव्य व्यर्थ का वागाडम्बर ही सिद्ध होगा। पाठक को यह पता होना चाहिए कि अमुक काव्य या नाटक, चित्रपट, दूरदर्शन प्रभृति का पढ़ना, सुनना, देखना, आदि हमें क्या करने का मार्ग दिखा रहा है। वही उस काव्य का हमें उपदेश है। रामायण पढ़ने के उपरान्त हमारे मन में यह स्वतः आ जाता है कि ‘रामादिवद्वर्तितव्यम् न रावणादिवत्’ । रामायण में एक ओर राम है, लक्ष्मण है, भरत है, शत्रुघ्न है, दशरथ, वशिष्ठ, विश्वामित्र है तो दूसरी ओर रावण, कुम्भकर्ण मेघनाथ आदि हैं। पढ़ते-पढ़ते हमारे भीतर यह उपदेश खचित हो जाता है कि हमारा प्रिय राम है, रावण नहीं। हमें अपना व्यवहार राम की तरह रखना चाहिए, रावण की तरह नहीं। यह उपदेश बड़ा ही प्रभावशाली है। इसका नामकरण जो ‘कान्तासम्मित’ उपदेश रखा गया, उसका आशय यह है कि उपदेश तीन प्रकार से संसार में हमें मिला करते हैं। ३८ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र (१) प्रथम प्रकार का उपदेश ‘प्रभुसम्मित-उपदेश’ कहलाता है। सभी किसी न किसी आज्ञाप्रदाता अपने प्रभु स्वामी या ‘बॉस’ के अधीन है। प्रभु यदि हमें कुछ करने के लिये कहता है तो उस कार्य के सम्पादन का कारण जानने का हमें अधिकार नहीं होता। हमें तो अपने प्रभु का आदेश पालन करना पड़ता है। यही कार्य जब शब्द करते हैं तब उन्हें “प्रभुसम्मित उपदेश” की संज्ञा मिलती है वेदों, धर्मशास्त्रों, स्मृतियों आदि में जो करने को लिखा या अपने-अपने अन्य धर्मग्रन्थों में जो जैसे करने को लिखा है, उस पर कोई प्रश्नोत्तर नहीं चलने दिया जायगा। वह तो करना ही है। जब यह स्थिति हो कि मन बढ़ गया। हम किसी को प्रभु नहीं मानेगें। जैसी इच्छा होगी वैसा करेगें। ऐसी मनोवृत्ति वालों का पतन न हो जाय, इस दृष्टि से इतिहास, पुराण, साहित्य सामने आते हैं। उस मनोवृति वाले व्यक्ति अपने अभिन्न मित्र रखते हैं और उनके परामर्श पर चलते हैं। अच्छा मित्र उन्हें गुणदोष दिखाता है कि ऐसा करने से लाभ-हानि होती है। अतः ऐसा करो, ऐसा न करो। (२) मित्र के इस कार्य को सम्पादित करने वाला शब्दसमूह “सुहृत्सम्मित उपदेश" कहा जाता है। जिसमें घटना-चित्रण-प्रधान साहित्य का समावेश होता है।। (३) परन्तु मन और भी अधिक स्वच्छन्द हो जाने पर मित्रों के उपदेश को भी नहीं सुनता। उस समय वह अपनी सुख-दुःखसंगिनी प्राणप्रिया प्रेयसी की ही बात केवल सुनता है। प्रेयसी अपने प्रिय को जब कोई मार्ग दिखाना चाहती है, तब पहले अपने प्रिय को अपने ललित-मधुर व्यवहार से रंजित करती और चरमानन्द के क्षणों में वह उसे कुछ करने को, कुछ से बचने को कहती है। इसी प्रकार से सरस क्षणों में कहे गये अक्षर जादू का असर रखते हैं। मनुष्य कभी उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता। यही कार्य जब शब्दों के द्वारा सम्पादित होता है तब उन्हें “कान्तासम्मित उपदेश" की संज्ञा मिलती है, जिन्हें हम “काव्य" या “कविता” या “कल्पनालोक’ आदि कहते है। ललित कला मात्र से यही अनुरोध होता है। काव्य के वर्तमान में अन्य भी अनेक प्रयोजन आविष्कृत हुए हैं, जो उन्हीं के विस्तार में जाने पर स्पष्ट हो जाते हैं जैसे एकता का अनुभव, जागर्ति या जागरण, उदारता का अनुभव, स्फूर्तिलाभ, विपुलता की उपलब्धि, अपने आप में स्थिति, सत्य, शिव, सुन्दर की विपुलता की उपलब्धि, अपने मत या सिद्धान्त का प्रचार आदि। पण्डितराज ने “रसगंगाधर” में कहा है कि काव्य के समस्त प्रयोजन गिनाना असंभव है। कुछ विशेष- विशेष प्रयोजन ही कहे जा सकते हैं। ##### काव्य के हेतु काव्य के हेतु या कारण के निरूपण में आचार्य मम्मट और पण्डितराज जगन्नाथ की निरूपण प्रक्रिया में थोड़ा सा अन्तर है। आचार्य मम्मट ने काव्य प्रकाश में कहा है-’ NARIORRORampal १. शक्तिः-शक्रोति पुमान् काव्यनिर्माणायानुभवाय चानयेति शक्तिःकवित्वबीजरूप इति/काव्यप्रकाश बालबोधिनी पृ.११ ३६ A काव्य का उद्भव और विकास “शक्तिनिपुणता लोकशास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात् । काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे (काव्यप्रकाश प्रथम उल्लास कारिका-२) अर्थात शक्ति, लोकदर्शन, शास्त्रालोचन तथा काव्य आदि के मनन-चिन्तन से उपार्जित निपुणता तथा काव्यज्ञों से शिक्षा प्राप्त करते हुए अभ्यास करते रहना ये तीन एकत्र (एक साथ) होने पर उसी प्रकार काव्य के कारण होते हैं जैसे दण्ड चक्र, चीवर, आदि घट के निर्माण में कारण कहे जाते हैं। केवल दण्ड या केवल चक्र से घट निर्माण नहीं हो सकता। इसीलिए शक्ति, निपुणता और अभ्यास (तीनो) का नाम लेकर “इति हेतुः" कहते हुए पद में एक वचन का प्रयोग किया गया। इसके विपरीत उदाहरण है अग्निरूपी कार्य का। अग्नि के तृण, अरणि मणि आदि कारण होते हैं। वर्तमान में जो व्यवहार में आ रहे है (माचिस, लाइटर, गैस आदि) वे अग्नि के कारण हैं। परन्तु अग्निरूपी कार्य को उत्पन्न करने के लिए अग्नि के सभी उत्पादक कारणों का सम्मिलित होना कथमपि आवश्यक नहीं। किसी एक के रहने पर भी अग्नि उत्पन्न हो जायगी। परन्तु घट बिना तीनों कारणों के इकट्ठा हुए उत्पन्न नहीं होगा। __ वैसे ही काव्य भी शक्ति, निपुणता और अभ्यास तीनों के एक साथ होने की अपेक्षा करता है अपने उद्भव के लिए। यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि कारण भी तीन प्रकार के होते है। समवायिकारण, असमवायिकारण और निमित्त कारण। काव्य के ये तीनों समवायिकारण या उपादानकारण है उत्पादक जनक। तीनों कारणों में प्रधानता समवायिकारण या उपादान कारण की होती है। असमवायिकारण और निमित्त कारण द्वितीय कोटि में आते हैं। काव्य के उपादान-कारण शब्द और अर्थ होते है। शक्ति को जब काव्य के कारणों में प्रथम स्थान दिया गया तो शक्ति का स्वरूप भी स्पष्ट करना आवश्यक हो गया। शक्ति का अर्थ है, उन शब्दों और उन अर्थो का मस्तिष्क या बुद्धि में उपस्थित हो जाना जो काव्य की संरचना के अनुकूल हो। शक्ति के स्पष्टीकरण में उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि सामान्यतया अन्यत्र प्रयोग में लाये जाने वाले शब्दों और अर्थो से काव्य में प्रयुक्त होने वाले शब्द और अर्थ सर्वदा भिन्न कोटि के होते हैं। यहाँ ऐसे शब्द नहीं लिये जाते जो केवल अपने वाच्यार्थ बोध कराकर पूर्ण हो जाते हैं। यहाँ उन शब्दों की पकड़ होती है जो अनुरणनरूप व्यंग्यार्थ को प्रस्तुत कर देने में समर्थ होते हैं। क्योंकि यदि केवल शब्दकोष में कहे गये शब्दों के अर्थो तक ही शब्दों की सीमा मान ली जायगी तब तो काव्यगत तथा काव्येतर शब्दों में अन्तर ही क्या रहा। यहाँ तो वे ही शब्द आदरणीय और अन्वेषणीय होते है जो वाच्यार्थ को गौण बनाते हुए व्यंजनावृत्ति से उपस्थापित व्यंग्य अर्थ को अपने में समेटने वाले होते हैं। . .- .- ……

… … . . …. ४० अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ऐसे शब्दों और अर्थों का काव्यकार के मन में स्फुरण होना काव्य का प्रथम कारण बतलाया गया। दूसरा हेतु अधिक बड़ा है। इसमें लोकदर्शन से शास्त्राध्ययन से तथा काव्यालोचन से मिलने वाली निपुणता काव्य का कारण कहा गया है। लोक के दर्शन या सूक्ष्म गवेषणा से जो निपुणता सिद्ध होती है, उससे काव्य निरतिशय आदर का पात्र बनता है। अपने अभीष्ट और परिचित विवरण को सुनकर सहृदय अध्येता काव्य से चमत्कृत होते है। शास्त्रों के अवेक्षण से प्राप्त होने वाली निपुणता नितान्त अपेक्षित और अनिवार्य है काव्य में। उक्त निपुणता के अभाव में शास्त्र का अर्थ है विभिन्न विषयों को विकसित करने वाले नियम और उपनियम और उनकी तर्क-संगत हृदयंगम व्याख्याएँ । इनका ज्ञान होने का रहस्य यह है कि ये नियम, उपनियम और व्याख्याएं जिन्हें एक व्यापक संज्ञा दी गई है “शास्त्र”, वह सहस्राब्दियों के अनुभवों के उपरान्त परिपक्व होने पर सार या निष्कर्ष रूप से उपनिबद्ध हुए हैं। और इन शास्त्रों या नियमोपनियमों की निर्मिति का उद्देश्य भी सरलता से बड़े परिवेश को समझाकर आगे के मार्ग को और वेग से बढाना है। ये शास्त्र भी जगत् के विभिन्न अनुभवों के निष्यन्द हैं। इनमें जागतिक परिवर्तनों के साथ निरन्तर परिवर्तन होते रहते है। जो भी ईकाई परिवर्तन को आत्मसात् करने की क्षमता से बाहर हो जाती है, वह कार्य में अक्षम, पंगु, जीर्ण या मृत मान ली जाती है अतः शास्त्र भी परिवर्तनशील ही होते हैं। नये-नये अनुभव किसी निश्चित के अनन्तर परिपक्व होकर नियम का रूप धारण करते जाते हैं। ये ही संचित लिखित रूप में प्रतिष्ठित होकर शास्त्र की कोटि में प्रविष्ट हो जाते हैं। __ आवश्यक नहीं कि सभी शास्त्र या लिखित नियम सबके द्वारा स्वीकृत हो ही जाय। परन्तु व्यापक मान्यता न होने की दशा में कतिपय समूह तक ये भी अपना शासन चलाते रहते हैं। इन्हें “एकदेशी शास्त्र” या “एकदेशीय नियम" जैसी संज्ञाएं प्राचीन ग्रन्थों से दी गई है। जब अपने अनुयायी न हों, शास्त्र न हो तब तक केवल नियमों के लिख दिये जाने मात्र से वह शास्त्र नहीं हो जाता। उसे शास्त्ररूप में पहुँचने के लिये उससे अनुशासित होने वाले चाहिए। “शासनात् शास्त्रम्” - यह व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ घटित होना चाहिए। अन्यथा वह भी मृत कोटि में पहुँच जाता है। काव्य का तीसरा कारण है काव्यज्ञों से शिक्षा लेकर अभ्यास। यह भी सुविख्यात है। प्रसिद्ध किंवदन्ती है कि महाकवि श्री हर्ष ने नैषधीयचरित महाकाव्य का निर्माण करके उसे आचार्य मम्मट को दिखाया तो उसका अवलोकन करके आचार्य मम्मट ने यह टिप्पणी की कि यदि यह ग्रन्थ ‘काव्य-प्रकाश’ की रचना से पहले मिल गया होता तो दोष-प्रकरण के सारे उदाहरण एक ही जगह से दे दिये जाते। यद्यपि काव्य में उच्च कोटि के बहुत से अत्यन्त ललित और सरस स्थल भी भरे पड़े हैं कहते हुए प्रशंसा भी की। (यह किंवदन्ती मात्र है) …..

. ४१ काव्य का उद्भव और विकास काव्यमर्मज्ञ जब तक काव्य की समालोचना-पूर्वक प्रशंसा न करें तब तक काव्य प्रतिष्ठित नहीं होता। ऐसे मर्मज्ञों से शिक्षा प्राप्त करते हुए काव्य अनुपहसनीय और यशस्वी बनाया जाता रहा है-यही एक कारण बन जाता है काव्य के निर्माण का।

पण्डितराज जगन्नाथ की दृष्टि

इस प्रकार काव्य के हेतुओं को आचार्य मम्मट ने प्रकट किया है। परन्तु पण्डितराज जगन्नाथ ने इन हेतुओं में परिष्कार करते हुए काव्य का हेतु केवल कवि की प्रतिभा को ही माना। कवि प्रतिभा कैसे बनी इसके हेतु के रूप में व्युत्पत्ति ‘अभ्यास’ देवता-प्रसाद आदि सामने आते हैं काव्य के प्रति सीधी हेतुता केवल कवि प्रतिभा को ही जाती है। कवि प्रतिभा ही कवि को काव्य का प्रजापति बनाती है। ध्वन्यालोक के चतुर्थ उद्योत में कवि प्रतिभा के आधार पर वर्णनों में अनन्तता आने की बात कही गई है। ध्वनेर्यः सगुणीभूतव्यंग्यस्याध्या प्रदर्शितः अनेनानन्त्यमायाति कवीनां प्रतिभागुणः। (ध्वन्यालोक-४/१) जब कवि में प्रतिभा का जागरण होता है तभी काव्य का निर्माण संभव हो पाता है। प्रतिभा का स्वरूप बतलाते हुये आचार्य जगन्नाथ का कथन है कि काव्य निर्माण के अनुकूल शब्दों और अर्थों की बुद्धि में उपस्थिति का नाम ही प्रतिभा है। वही रसगंगाधरकार के मत में काव्य का एक मात्र कारण है। इस प्रकार के शास्त्र के अवेक्षणों से प्राप्त होने वाली निपुणता, अप्रतिहत विचार शक्ति काव्य का कारण है। काव्यादि का अवेक्षण, अध्ययन, मनन, चिन्तन भी नूतन काव्य निर्माण का कारण बनता है। आदि शब्द बड़ा व्यापक है। तत्काल तो उसमें पुराण, इतिहास, प्राचीन काव्य, मनोविज्ञान प्रभृति का समावेश हो ही जाता है। वर्तमान में तो जितनी नई कहीं जाने योग्य ज्ञान धाराएँ अपने विस्तारों के साथ विकसित होकर सामने हैं, वे सभी कवि की निपुणता की सीमा में आती हुई काव्य का कारण बनती है। उससे काव्य सर्वकाल समर्पक होता रहता है। काव्य के लिये अनिवार्य गुण संवेदनीयता है। जब तक काव्य का सहृदय-सामाजिक से संबंध न होगा तब तक वह सार्थक और आस्वाद्य नहीं हो सकता। दृश्यकाव्य (जिसके अन्तर्गत नाटक, सिनेमा, दूरदर्शन आदि सभी अन्तर्भुक्त है) श्रव्य काव्य, दृश्य-काव्य (जिसमें आकाशवाणी, रेडियों काव्यादि आते है)- सभी के लिये सहृदय-संवेद्यता अनिवार्य गुण है। यह गुण प्रतिभा के बल से उत्पाद्य है। साहित्यकार की प्रतिभा ही इस चमत्कार की जननी है।

रससम्प्रदाय का आरम्भिक परिचय

“रस” शब्द का प्रयोग वेद से ही मिलना प्रारम्भ हो जाता है। परन्तु वैदिक सन्दर्भो में “रस” शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थो में हुआ है। कहीं जल के लिए रस शब्द आया है, कुछ स्थलों पर रस शब्द दुग्ध रूप अर्थ का वाचक है, किसी मन्त्र में सोमवल्ली के सार ४२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र रूप पेय पदार्थ के लिए रस शब्द का प्रयोग हुआ है इस प्रकार रस शब्द के विभिन्नार्थक प्रयोग वेद स्थलों में उपलब्ध होते हैं। परन्तु तैत्तिरीय उपनिषद् में दृश्य-काव्य (नाटक आदि) देखते समय, अथवा श्रव्य-काव्य का आनन्द लेते हुए जो एक अनिर्वचनीय अलौकिक आनन्द अनुभव में आता है, उसको बतलाने के लिए भी ‘रस’ शब्द का प्रयोग हुआ है “रसो वै सः” “रसं ह्येवाऽयं लब्ध्वा आनन्दीभवति-अर्थात् वह आनन्द रस है” यह (सहृदय-दर्शक) रस लाभ करके ही आनन्दित होता है। जब हम रस-सिद्धान्त के प्रतिपादन के इतिहास की ओर दृष्टिपात करते है तो उपयुक्त तैत्तिरीय श्रुति ही रस-सम्प्रदाय का प्रथम सूत्र बनी हुई दिखाई देती है। यहाँ इस विषय का भी खुले अक्षरों में कथन हो गया कि रस संसार के कारणरूप परब्रह्म का ही अंशरूप है। अद्वैतवाद की मान्यता में जीवात्मा और परमात्मा या ब्रह्म किंवा परब्रह्म सब एक है। अतः यह बात सुप्रसिद्ध और विज्ञान से भी सिद्ध है कि अंश का अपने अंशी या घन की ओर स्वाभाविक झुकाव या आकर्षण रहता है। जैसे जलरूप अंश का अंशी की ओर स्वभावतः आकर्षण या झुकाव है अथवा जैसे प्रज्वलित अग्निरूप अंश का अपने सूर्य की ओर अर्थात ऊर्ध्व दिशा में स्वाभाविक झुकाव है। इसीलिए यह मनुष्य रूप अंश भी अपने घन रस या आनन्द की ओर या परब्रह्म की ओर सर्वदा झुका हुआ है। यह तैत्तिरीय उपनिषद के उपर्युक्त रस महावाक्य का आशय हैं। इसी उपनिषद वाक्य का आश्रय लेकर भरतमुनि आदि आचार्यों ने दृश्यकाव्य तथा श्रव्यकाव्य से समुद्भूत आनन्द-प्राप्ति के सन्दर्भ में रस-शब्द का प्रयोग किया है। रस का दूसरा प्रस्थान आदिकवि वाल्मीकि से माना जाता है। उन्होंने वेद के अतिरिक्त लौकिक भाषा में छन्द की अवतारणा की। वह घटना सुप्रसिद्ध ही है कि एक निषाद (शिकारी) कामासक्त वृक्षस्थित क्रौंचयुगल में से बाण से एक को मार दिया। दूसरी क्रौंची शोक से व्याकुल होकर रोने-चिल्लाने को विवश हुई। इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी आदिकवि वाल्मीकि बिना प्रयत्न के ही अकस्मात् बोल उठे– “मा निषादप्रतिष्ठांत्वमगमः शाश्वतीः समाः यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्। (वाल्मीकि रामायण सर्ग-२, श्लोक-१५) निषाद जब तक संसार रहेगा तब तक तुम कभी अच्छे भाव से नहीं बखाने जा सकोगें, क्योंकि तुमने काम-मोहित क्रौंचमिथुन में से एक को मार गिराया है। इस श्लोक के उच्चारण के साथ आदिकवि बड़े चकित हुए। यह कैसा विलक्षण वाक्य-विन्यास मेरे मुँह से निकल पड़ा। स्वयं ही उन्होंने अपना समाधान भी निकाल लिया कि- “शोकार्तस्य प्रवृत्तो में श्लोको भवतु नान्यथा” यह मेरा शोक ही श्लोक के रूप में जन्म

काव्य का उद्भव और विकास ले चुका है। यह शोक क्रौंच पक्षी की बाण से मृत्यु के उपरान्त क्रौंची के आर्तस्वर को सुनकर ही हुआ था। इसी घटना का समर्थन करते हुए रघुवंश महाकाव्य में कविकुल गुरू कहते है “निषादविद्धाण्डजदर्शनेन-श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोकः” आदि कवि वाल्मीकि का यह छन्द लौकिक वाङ्मय में काव्य का प्रथम समुन्मेष है। इस प्रथम पद्य पर आगे विचार की एक आलोचना धारा प्रवृत्त हुई। पहली बात यह कि यह अनुभवमूलक प्रथम काव्य है संसार का। इसका कारण सभी ने यही माना है कि शोक ही इसका कारण है। करूणरस का स्थायी भाव है शोक। वही करूणरस का स्थायी भाव शोक इस छोटे से पद्य में अपने विभाव, अनुभाव तथा संचारिभावों से पुष्ट होकर अखण्डकाव्य के रूप में प्रकट हो गया था। इसी से यह भी स्पष्ट हो गया कि स्थायिभाव जब अपने विभाव, अनुभाव तथा संचारिभावों से शब्दतः पुष्ट होकर रस के रूप में परिणत हो जाय वही काव्य होता है। इसका कारण है विभाव…. . वाल्मीकि के हृदय में क्रौची के विलाप-स्वर को सुनकर उत्पन्न हुए दयाभाव का अनुभव ही इस काव्य का जनक है। क्योंकि महर्षि वाल्मीकि ने जिस पश्चात्ताप को झेला वही इस काव्य को सुनने के अनन्तर अन्य मानस में वैसे ही अनुभव को उत्पन्न करने की क्षमता से सम्पन्न है। इस आदि काव्य का जनक जो शोक है वह “करूणरस" का स्थायीभाव है। अतः यह भी सिद्ध हुआ कि रस का अनुभव ही काव्य का जनक होता है। ध्वन्यालोककार आचार्य आनन्दवर्धन भी इस मत को पुष्ट करते हुए कहते हैं- “काव्यस्यात्मा स एवार्थस्तथा चादिकवेः पुरा। क्रौंचद्वन्द्ववियोगोत्थः शोकः श्लोकत्वमागतः (ध्वन्यालोक-१-५)। __ महर्षि वाल्मीकि की इस प्रथम काव्यरचना के प्रादुर्भूत होने पर तथा उसकी उपर्युक्त घटनात्मक भूमिका से यह स्पष्ट हुआ कि गंभीर अनुभव की शाब्दिक परिणति ही ‘रस’ कहा जाता है। यह सहृदय-पाठक के हृदय में स्वानुरूप यथार्थ अनुभव पहुँचा देने में समर्थ हैं। वाल्मीकि के अनन्तर ‘रस’ के स्वरूप को समुल्लसित करने वाला प्रकरण या आकर ग्रन्थ आचार्य ‘भरत का नाटय शास्त्र’ ही है। वाल्मीकि और आचार्य भरत के काल के अन्तराल में सामाजिकों को रस का अनुभव कराने के लिये नाट्याचार्यों ने सूत्रों, ग्रन्थों में नियमों को उपनिषद किया। यह बात पाणिनि सूत्रों में शिलालि और कृशाश्व इन दोनों नामों के उल्लेख से और इन शब्दों के प्रत्यय के विधान करने से अनुमित होती है “पाराशर्यशिलाालिभ्यां भिक्षुनटसूत्रयोः। । इस पाणिनि सूत्र से यह सिद्ध हो रहा है कि पाणिनि के समक्ष नाट्य-सूत्र थे जिन्हें Avnimanima ४४ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र अभ्यास के रूप में अभिनयकर्ता जानते थे। जब तक पहले लक्ष्य न हों तब तक लक्षण-ग्रन्थों का निर्माण अप्रासंगिक हो जाता है। अतः उस अन्तराल में अनेक नाटकों की रचना हुई। उनके अभिनय से अभिनयकर्ता सामाजिकों का मनोरंजन करते थे। यद्यपि उपलब्ध नाटकों में सबसे प्राचीन नाटक भास के ही हैं, उनसे पहले के किसी नाटक की आज तक उपलब्धि नहीं हो सकी है। किन्तु पाणिनिसूत्र में आया ‘नाट्यसूत्र’ का उल्लेख उस काल में नाटक-ग्रन्थ थे इसका अनुमान कराता है। व्याकरण महाभाष्य में भी उल्लेखों से उस समय नाटकों की रचना का अनुमान किया जाता है। “ये तावदेते शोभनिका नामैते प्रत्यक्षं कंसं घातयन्ति प्रत्यक्षं च बलिं बन्धयन्ति”-ये अभिनेता प्रत्यक्ष ही कंस को मारते हैं और प्रत्यक्ष बलि को बांधते हैं, (पातज्जल महाभाष्य) __ रस का सम्पूर्ण स्वरूप सबसे पहले ‘भरत नाट्यशास्त्र’ में ही दिखाई देता है। नाट्यशास्त्र में रससिद्धान्त अपने विकसित रूप में संगीत, इतिहास, नाट्य आदि से भलीभाँति पुष्ट होकर वर्णित मिलता है। सैंतीस या छत्तीस अध्यायों के विस्तृत कलेवर में लिखे गये नाट्यशास्त्र ग्रन्थ का प्रयोजन दर्शकों के चित्त में नाट्याभिनय देखने से रस की अनुभूति कैसे होती है। यह बतलाना ही है। इसीलिए यह आकर ग्रन्थ काव्यप्रतिपादन का परम उपनिषद् है, सार स्वरूप है। ‘नाट्यशास्त्र के छठे अध्याय की एक कारिका में नाट्यशास्त्र में वर्णनीय विषयों का संकलन किया है रसा भावा त्यभिनया धर्मो वृत्तिप्रवृत्तयः सिद्धिः स्वरास्तथातोद्यं मानरङ्गश्च संग्रहः (अ.छ. श्लोक १०) भरत के अनुसार कारिका में कहे गये ग्यारह तत्त्व (१) रस, (२) भाव, (३) अभिनय (४) धर्म, (५) वृत्ति (६) प्रवृत्ति, (७) सिद्धि, (८) स्वर (६) आतोद्य (१०) रंगमंच (११) संग्रह मिलकर नाट्य के स्वरूप का निर्माण करते हैं। इनमें प्रधानता रस की ही है। आचार्य भरतमुनि कहते हैं “तत्र रसानेव तावदादौ व्याख्यास्यामः। न हि रसादृते-कश्चिदर्थः प्रवर्त्तते"। (नाट्य, अध्याय ६ कारिका ३१ की व्याख्या) रस के अतिरिक्त अन्य दस नाट्य तत्त्व रस की उद्भावना के साधन के रूप में है। रस की उत्पत्ति का विवरण भरत के अपने प्रसिद्ध रस सूत्र विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः में प्रकट कर दिया है। यही सूत्र समस्त रस चर्चा का मूल आधार या स्तम्भ है। रस के स्वरूप की व्याख्या में आचार्य भरतमुनि कहते हैं कि दस प्रकार के रूपकों का जब चतुर अभिनेताओं के द्वारा रंगमंच पर अभिनय RSERSHISSDASARAM

. … …… . १. नाट्यशास्त्र अ.६/३१ कारिका के नीचे काव्य का उद्भव और विकास दिखाया जाता है, तब सहृदय दर्शक अपने-अपने देश काल और परिस्थिति को भूलकर तत्काल अलौकिक आनन्द में निमग्न हो जाते है। उस अवस्था में जैसा कुछ अनिर्वचनीय अनुभव होता है वही ‘रस’ कहा जाता है। भरत के नाट्य शास्त्र में ‘रस तत्त्व’ का जो मौलिक प्रतिपादन हुआ उसे आगे के काव्य तत्त्व समालोचकों ने केवल नाट्य प्रस्तुतियों तक ही सीमित माना। दृश्य-काव्य के अतिरिक्त श्रव्य काव्य के क्षेत्र में भरत के रसवाद को इन काव्यालोचकों ने स्वीकार नहीं किया। यद्यपि नाट्यालोचन के सन्दर्भ में कोहल, मातृगुप्त, हर्ष आदि ने ग्रन्थ रचना के द्वारा भरत मुनि के द्वारा प्रारम्भ की गई चर्चा को आगे बढ़ाया और उनमें भी रससिद्धान्त की व्याख्यायें हुई, परन्तु इन आचार्यो के ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हो रहे है। उपलभ्य ग्रन्थों में उक्त कोहल आदि आचार्यों के नाम से अनेक उद्धरण मिलते हैं। इन्हीं उद्धरणों को श्रेय प्राप्त है कि जिन्होंने इन आचार्यों की सत्ता को इतिहास में सुरक्षित बनायें रखा है। भरत के पश्चात् आचार्य भामह का काव्यालोचन जगत् में आचार्य के रूप में दिखाई देता है। भामह ने अपने “काव्यालंकार ग्रन्थ में ‘मेधावि’ आदि कुछ ग्रन्थकारों का उल्लेख किया है। परन्तु काल चक्र ने उन रचनाओं को भी लुप्त कर दिया। __आचार्य भामह “रससिद्धान्त” को कोई आदर नहीं दे सके। उनके मत में काव्य में सर्वोपरि स्थान अलंकारों को प्राप्त है। ये ही अलंकार काव्य को काव्य बनाने के लिये काफी है। भरत-मुनि के अनुरोध में भामह ने नाट्य-प्रस्तुतियों में रस को मौन या सांकेतिक रूप से भले ही स्वीकार कर लिया। परन्तु श्रव्य काव्यों में उन्होंने सबसे ऊँचा स्थान अलंकार को ही प्रदान किया। रस की अनुभूति को उन्होंने रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वित् आदि अलंकारों के अन्तर्गत ही स्वीकार किया। दण्डी ने अपने ‘काव्यादर्श’ में रस की प्रधानता का तो स्वीकार नहीं किया परन्तु भामह के अलंकार-प्राधान्य-मत से अलग हटकर गुणों को प्रधान तत्त्व मानते हुए गुणों के समर्पक ‘रीतितत्त्व’ को काव्य में सर्वोपरि स्थान दिया। ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ यह आचार्य वामन की खुली धोषणा सुनने में आई। यद्यपि अलंकारवाद, ध्वनिवाद आदि से रीति, वक्रोक्ति, औचित्य, अनुमिति आदि वादों में यह अन्तर देखने में आता है कि ध्वनि और अलंकार प्रधानवाद के मतों के समुद्भावक आचार्यों के अतिरिक्त उनके समर्थन में बड़ी ओजस्वी रचनाएं एक से एक बढ़कर सामने आई। परन्तु रीति, वक्रोक्ति, औचित्य, अनुमिति मत अपने व्याख्याकारों के अतिरिक्त समर्थन नहीं पा सके। इन तत्त्वों का काव्यजगत् में स्थान तो सभी को अभीष्ट है परन्तु इनकी प्रधानता की घोषणा इनके उद्भावकों तथा व्याख्याताओं के अतिरिक्त अन्यों ने प्रायः नहीं की।४६

ARTER अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र दण्डी का रीति-प्राधान्यवाद वर्तमान में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण में समर्थित होता है जहाँ ‘शैली’ या ‘स्टाइल’ को ही रचनाकार की पहचान माना जाता है। कालिदास, भवभूति आदि कवियों की पदावली की अपनी एक अलग पहचान हैं पद्य सुनते ही लगता है हम कालिदास को सुन रहे हैं, यह रीति या शैली की ही महिमा है। रीति को भी आचार्य दण्डी ने अपने विश्लेषण से पर्याप्त सीमाबद्ध किया है। दण्डी ने रस को भी काव्य में वही स्थान दिया है जो स्थान उन्होंने गुणों का माना। आचार्य वामन ने दण्डी के रीतिवाद को ही और पुष्ट किया। “दीप्तरसत्वं कान्तिः” कहकर कान्ति नामक गुण में रस का नाम भर लेकर उन्होंने रस से किनारा कस लिया। उदभट् आचार्य का (अपने काव्यालंकार ग्रन्थ में) रस चर्चा में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने समाहित नामक अलंकार को जोड़कर उसमें रस के स्वरूप का विश्लेषण करने के साथ ही नाटक में अनेक तर्को से शान्त रस की प्रतिष्ठापना किया। आचार्य रुद्रट ने पहली बार खुलकर काव्य-तत्वों मे रस की प्रधानता का समर्थन किया। रसमय भाव में ही उन्होंने काव्य को चरम सफल माना। रुद्रट ने भरतमुनि की रसचर्चा को आगे बढ़ाते हुए रस की संख्या में शान्त रस तथा प्रेय रस की वृद्धि करते हुये रस की संख्या को दस तक पहुँचाया। आचार्य रुद्रट अपने ‘काव्यालंकार’ ग्रन्थ में कहते हैं। कि समस्त व्यभिचारिभाव तथा सात्त्विक भाव अपनी चरम अवस्था तक पहुँच कर पृथक-पृथक रस हो जाते हैं। अलंकारों में रस का अन्तर्भाव तो रुद्रट को कथमपि अभिमत नहीं है। रुद्रभट्ट के श्रृंगार तिलक से ज्ञात होता है कि काव्य में रस के प्राधान्य की चर्चा ने काफी महत्त्व पा लिया। आनन्दवर्धनाचार्य की “ध्वन्यालोक” रचना के अनन्तर काव्य के अब तक के समस्त मानदण्ड एकाएक परिवर्तित हो गए। अब तक की काव्य परीक्षा को सहृदयों ने “अन्धगजन्याय” से ही परीक्षा माना। प्रज्वलित प्रकाश से आलोकित करता हुआ “ध्वन्यालोक” ग्रन्थ सामने आया। इसी रचना के उपरान्त काव्यजगत् में रस का स्थान निर्विवाद रूप में सर्वोच्च रूप से प्रतिष्ठित हुआ। आनन्दवर्धन की घोषणा है कि काव्य में ध्वनि ही सर्वप्रमुख है।’ ध्वनि में भी रस की प्रमुखता है। फलतः रस ही सर्वप्रमुख सिद्ध हुआ। ध्वनि तो काव्य की आत्मा है, उसके बिना तो काव्य का स्वरूप ही नहीं बनता। उसके बिना काव्य की श्रेष्ठता की तो बात ही कहाँ आती है। अलंकार, गुण, रीति आदि का काव्य में उपयोग रस के सौन्दर्यवर्धन के लिए ही है। ध्वनिसिद्धान्त के अनुयायी आचार्यो ने ध्वनि (१) वस्तुध्वनि, (२) अलंकार ध्वनि, तथा (३) रस ध्वनि ये तीन भेद माने और उनमें प्रधान माना रस-ध्वनि को जो अन्यगुण, अलंकार, रीति आदि तत्त्व हैं वे रस के सौन्दर्यवर्धन में केवल सहायक माने गये। TET राम १. काव्यास्यात्मा-ध्वनिरिति बुधैरित्यादि /ध्वन्यालोक प्रथम उद्योत ४७ . …………… काव्य का उद्भव और विकास आचार्य आनन्दवर्धन ने अपने को “ध्वनिसिद्धान्त” का आविष्कर्ता कहीं नहीं कहा, अपितु यही बतलाया कि किन्हीं लक्षणवेत्ताओं को ध्वनि स्पष्ट न होने पर भी लक्ष्य ग्रन्थों में तो सर्वत्र ध्वनि का ही साम्राज्य है। ध्वनि इस संज्ञा का प्रारम्भ करने का भार भी आनन्दवर्धनाचार्य ने अपने ऊपर न लेकर वैयाकरणों के अनुकरण की बात कह दी। अतः आनन्दवर्धनाचार्य के कई शतक पहले आचार्य भरतमुनि के समय ही ध्वनि सिद्धान्त प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका था यह स्पष्टतः अनुमित होता है आगे प्रतीहारेन्दु राज, भट्टनायक तथा धनंजय ने रस को मान्यता तो दी परन्तु ये लोग ध्वनि को समर्थित नहीं कर सके। काव्य विवेचना के क्षेत्र में आचार्य अभिनवगुप्त का पदार्पण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना है। जो स्थान वेदान्त में श्री शंकराचार्य का तथा जो स्थान व्याकरण में महाभाष्यकार पतंजलि का है, वही स्थान काव्य-जगत की विवेचना के क्षेत्र में आचार्य अभिनवगुप्त का है। उन्होंने भरतनाट्यशास्त्र के मर्मो का विशद उद्घाटन करते हुए अपनी “अभिनवभारती” नामक विस्तृत व्याख्या लिखी तथा ध्वन्यालोक ग्रन्थ पर “लोचन" नाम की विस्तृत व्याख्या लिखकर “काव्यजगत्" के समस्त ऊहापोहों को धराशायी कर दिया। उन्होंने पूरी दार्शनिक गम्भीरता के साथ नाट्यशास्त्र के रससिद्धान्त की व्याख्या करते हुए प्राचीन मतों का सारांश लिखकर उनको भी सुरक्षित कर दिया। __ आचार्य अभिनवगुप्त कश्मीर के आगमदर्शन के सर्वमान्य आचार्य हैं। तन्त्रालोक, तन्त्रसार जैसे महाग्रन्थों के तथा अन्य अनेक आगम ग्रन्थों के रचयिता हैं उनकी काव्यजगत् में अवतारणा होने पर यहाँ भी विलक्षण दीप्ति का संचार होकर व्यापक परिवेश बन गया। आगे जो वक्रोक्तिसंप्रदाय औचित्यसम्प्रदाय तथा अनुमितिवाद प्रकाश में आये वे ठहर नहीं सके। उनमें काव्यों की आलोचनाओं की तो सरस व्याख्याएं मिली, परन्तु सिद्धान्त प्रतिष्ठा में वे कहीं ठहर नहीं सके। आचार्य मम्मट ने समस्त श्रव्यकाव्य तत्त्वों का काव्यप्रकाश में इतना तर्क-सिद्ध सम्पादन कर दिया कि वहीं एकमात्र ग्रन्थ सिद्ध हो रहा है। वर्तमान में काव्य-तत्त्वों को प्रामाणिकता से जानने का, जिसका प्रमाण यह है कि स्वयं काव्यप्रकाश पर लिखी गई व्याख्याओं की संख्या शताधिक हैं। काव्यतत्त्वों के विचारों को समृद्ध करते हुए प. रा. जगन्नाथ ने “रसगंगाधर” का निर्माण किया। इस प्रकार रस-सिद्धान्त आज भी निर्विवाद रूप से काव्यालोचन में सर्वोपरि प्रतिष्ठित है। . .

. .

. .

.. । .. … ——

….