(क) काव्यशास्त्र का उद्भव विवरण
काव्यशास्त्र के उपकारक तत्त्वों और उसके बीच विभिन्न पक्षों का विकास कब हुआ-इसकी चर्चा यथास्थान आगे की जायगी। यहाँ सर्वप्रथम ‘काव्यमीमांसाकार’ ‘राजशेखर’ द्वारा दिए गए शास्त्रों के उद्भव के पौराणिककल्प विवरण को देने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। इसमें बताया गया है कि स्वयंभू ने सरस्वती से उत्पन्न सारस्वत ‘काव्यपुरुष’ को त्रैलोक्य में काव्यशास्त्र का प्रचार करने के लिए नियुक्त किया। काव्य पुरुष ने इस शास्त्र का उपदेश अट्ठारह अधिकरणों में किया और अपने संकल्पोद्भूत सत्रह शिष्यों को संबद्ध विषयों का उपदेश दिया। वहीं यह भी बताया गया है कि इन ऋषियों ने स्वाधीत अंशोपर पृथक्-पृथक् ग्रंथों का निर्माण किया। __ इसीक्रम में आगे बताया गया है (१) सहस्राक्ष ने कवि-रहस्य’, (२) उक्तिगर्भ ने औक्तिक, (३) सुवर्णनाभ ने रीति, (४) प्रचेतायन ने अनुप्रास, (५) चित्राङ्गद ने यमक और चित्र (काव्य) (६) शेष ने शब्दश्लेष, (७) पुलस्त्य ने वास्तव, (८) औपकायन ने उपमा, (E) पराशर ने अतिशय, (१०) उतथ्य ने अर्थश्लेष, (११) कुबेर ने उभयालंकार, (१२) कामदेव ने वैनोदिक, (१३) भरत ने रूपक, (१४) नन्दिकेश्वर ने रस, (१५) धिषण ने दोष, (१६) उपमन्यु ने गुण, (१७) कुचमार ने औपनिषदिक-शास्त्र का अभ्यास-किया। इस प्रकार काव्यपुरुष ने अपने उपर्युक्त सत्रह शिष्यों को उपदेश दिया, और काव्याङ्ग के उपर्युक्त विषयों पर उन शिष्यों ने तत्तद्विषयक ग्रंथों का पृथक् पृथक् निर्माण किया। १. सोष्टादशाधिकरिणी दिव्येभ्यः काव्यविद्यास्नातकेभ्यः सप्रपञ्चं प्रोवाच। तत्र कविरहस्यं सहस्राक्षः समाम्नासीत्-औक्तिकमुक्तिगर्भः, रीतिनिर्णयं सुवर्णनाभः आनुप्रासिकं प्राचेतायनः, यमो यमकानि चित्रं चित्राङ्गदः शब्दश्लेषं शेषः, वास्तवं पुलस्त्यः, औपम्यमोपकायनः, अतिशयं पाराशरः अर्थश्लेष मुतथ्यः, उभयालङ्कारिकं कुबेरः वैनोदिकं कामदेवः, रूपकनिरूपणीयः भरतः रसाधिकारिक नन्दिकेश्वरः, दोषाधिकरणं धिषणः, गुणोपादानमुपमन्युः, औपनिषदिकं कुचमार इति। ततस्ते पृथक् पृथक् स्वशास्त्राणि विरचयाञ्चक्रुः इत्थंकारं च प्रकीर्णत्वात् सा किञ्चिदुच्चिच्छिदे काव्यमीमांसा-राजशेखरकृत गायकवाडओरियंटला सिरीज नं. १, संकरण-१६२० प्रथम अध्याय पृ. १ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र सारांश यह है कि काव्यशास्त्र के उपर्युक्त ‘पौराणिक’ मूलस्रोत, मूलग्रंथकार और उनके ग्रन्थों की स्मृति लुप्त है। मूल स्रोत ग्रंथ और उनके नाम भी आज अनुपलब्ध हैं। काव्यशास्त्र के वर्तमान उपलब्ध ग्रंथों में इस प्रसंग की चर्चा नहीं है। केवल ‘भरत’ ने अपने ‘नाटयशास्त्र’ में और ‘वात्स्यायन’ ने अपने कामशास्त्र में इनकी थोड़ी चर्चा की है। __ ‘नाट्यशास्त्र (अध्याय १, श्लोक १) में ही कहा गया है- “नाट्यशास्त्रं प्रवक्ष्यामि ब्रह्मणा यदुदाहृतम्। (अर्थात् ‘ब्रह्मा ने जिस नाटयशास्त्र का उदाहरण किया है उसे बता रहा हूँ। वहीं आगे कहा गया है। “आत्रेय प्रभृति ‘भरत’ के प्रमुख शिष्यों ने ‘नाट्यशास्त्र’ के मनीषी ‘भरत’ से ‘नाट्यशास्त्र’ ( = नाट्यवेद = नाट्यविद्या) की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न पूछा। उसके उत्तर में मुनिपुंगव ने ‘नाट्यवेद’ का आख्यान सुनाया और इस प्रसङ्ग में उन्होंने लम्बी चौड़ी कथा सुनाई और कहा कि देवगण स्वयं अनुभव करते हैं कि वे (देवगण) इस नाट्यवेद को ग्रहण, धारण, ज्ञान और प्रयोग-निष्पादन में असमर्थ हैं’। महेन्द्रादि देववचन को सुनकर ब्रह्मा के आदेश से, भरत ने अपने मुनिस्वरूप शतपुत्रों को नाट्यवेद पढ़ाया (यही प्रसंगतः ‘नाटयशास्त्र’ के उक्त संस्करण, अध्याय १ श्लोक २६-४० तक सौ पुत्रों के नाम दिए गए हैं। यहीं आगे नाट्य की तीन वृत्तियाँ (१) भारती, (२) सात्त्वती और (३) आरभटी भी बताई गई हैं और आगे मनः संभूत अप्सराओं के नाम भी हैं। इसी प्रकार की कुछ चर्चा ‘काम शास्त्र’ में भी हैं। यहाँ इस प्रसङ्गान्तर पर दो शब्द लिखने का उद्देश्य इतना ही है। ‘भरत’, ‘वात्स्यायन’ और ‘राजशेखर’ के ग्रंथों में जो चर्चाएँ की गई हैं वे भले ही पौराणिक हैं, ऐतिहासिक नहीं, फिर भी, उनमें इतना निचित संकेत मिलता है कि वर्तमान उपलब्ध ‘काव्यशास्त्र की विभिन्न शाखाओं के उपलब्ध ग्रन्थों की मूल धारा प्राचीनतर रही है। उनकी परंपरा भी प्राचीन थी। उनपर ग्रन्थ भी लिखे गए थे। पर वे पुरातन की तमिस्रा में खो गए हैं। उनमें से कुछ के नाम आज भी ग्रंथों में उपलब्ध हैं। अवश्य ही उनकी कृतियाँ रहीं होंगी जो आज लुप्त हैं। ‘कामसूत्र’ (१,१.१३.१७) में ‘सुवर्णनाम’ और ‘कुचमार’ (कुचुमार) के नाम उल्लिखित हैं। वे दोनों अवश्य ही ‘कामशास्त्र’ के प्रामाणिक ग्रंथ निर्माता-आचार्य थे। ‘राजशेखर ने उक्त उद्धहरण में इनके नाम उद्धृत किए हैं। ऐसे ही ‘रूपक के आचार्य’ के रूप में उन्होंने (राजशेखर ने) ‘भरत’ का नामोल्लेख किया है। ‘भरत’ का वर्तमान ‘नाट्यशास्त्र’ जिस रूपमें उपलब्ध हैं, वह एक प्रकार से केवल ‘दृश्यकाव्य’ का ही नहीं अपितु समग्र काव्य शास्त्र’, अंशतः व्याकरण शास्त्र और छन्दःशास्त्र का भी महाकोश हैं। ‘नन्दिकेश्वर’ का नामोल्लेख भी, कामशास्त्र, नाट्यकला, व्याकरण, संगीत और तंत्रशास्त्र के ग्रंथों में मिलता है।’ HANI T १. ‘जर्नल आफ दि डिपार्टमैंट आबूलेटर्स’ IV पृ. ६५, कलकत्ता यूनिवर्सिटी। श्रीशौवन्दे ‘राजशेखर’ ने ‘नन्दिकेश्वर’ को ‘रस-सम्प्रदाय’ के प्रवर्तक आचार्य के रूप में रेखांकित किया है। ‘राजशेखर’ के पूर्वोक्त सत्रह आचार्यों के नामोल्लेख के संबंध में ऐतिहासिकता संदिग्ध हो सकती है। तथापि सुदूर अतीत में उनके अस्तित्व में पूर्वोक्त विषयों की चर्चा का निश्चित संकेत-उक्त वक्तव्य से मिल जाता है। इस ग्रंथ में अनेकत्र ‘भरत’ और ‘भरत-मत का उल्लेख (उदाहरणार्थ श्लोक १२, १२८, १४६, १५६, १६२) मिलता है। किन्तु संस्कृतवाङ्मय में ‘नन्दिकेश्वर’ की प्रसिद्धि ‘रसाचार्य के रूप में कम, ‘संगीत शास्त्राचार्य’ के रूप में अधिक हैं। शार्डगदेव-कृत ‘संगीत रत्नाकार’ (१३वीं शती) में ही नहीं वरन् उनके टीकाकार कल्किनाथ (पृ. ४७) ने नन्दिकेश्वर को संगीतरत्नाकर’ का स्रोत ग्रंथकार माना है। कुछ अन्य कृतियाँ भी संगीत शास्त्र में नन्दिकेश्वर’ विरचित मानी गई है। : ‘नन्दिकेश्वर मते तालाध्यायः, (बेवस् १७२६ ई.) ‘भरतार्णव’ माना जाता है। इसमें ‘नाट्य मुद्राओं और तान का वर्णन है। ‘अक्लराज’ रचित ‘रसरत्नदीपिका’ में भी नन्दिकेश्वर’ रचित एक ग्रंथ- नाट्यार्णव का उल्लेख मिलता है। भरतकृत नाट्यशास्त्र में टीकाकार अभिनव गुप्त ने नन्दिकेश्वर के ग्रंथ के संबन्ध में लिखा है। (गायकवाड संस्करण-अध्या.२६,) साक्षान्न दृष्टं…. यत्तुकीर्तिपरेण दर्शितं तत्प्रत्ययात्। उन्होंने कहा है कि संक्षेप में मैं ‘नन्दिकेश्वर’ के मत का वर्णन करूँगा। इसका आधारस्रोत था ‘नन्दिमत’। उस कृति से आचार्य अभिनवगुप्तपाद परिचित थे। यह भी बताया गया है कि ‘नन्दि’ और ‘तण्डु’ एक ही व्यक्ति थे, और ‘तण्डु’ मत तत्त्वतः ‘नन्दि’ का ही मत है। __भरत के ‘नाट्य शास्त्र’ के उत्तर भाग में संगीतशास्त्रीय पक्षों का विवरण है। इससे दोनों के बीच कुछ संबंध की परिकल्पना की जा सकती हैं। ऐसा लगता है उपर्युक्त ‘नन्दिकेश्वर’ के ग्रंथ से विवेचित पक्षों के अनुरूप ही परवर्ती युग के ग्रंथों में पुनः संग्रहण या उसे नूतन रूप में अभिव्यक्ति दी गई। _ ‘लक्ष्मण-भास्कर’-निर्मित ग्रंथ का भी (‘भंडारकर ओरिएंटल इंस्टिट्यूट’) (१२. ४६०-६३ एवं मद्रासकेटलॉग, २२, १३००६-८) से ‘मतग-भरत’ की सूचना प्राप्त है। ‘मतङ्ग’ कोई विशिष्ट प्राचीन आचार्य थे। अभिनवगुप्त ने उन्हें ‘मतङ्ग-मुनि’ आख्या से आदर पूर्वक रेखांकित किया है। और उनके कुछ अनुष्टुप् श्लोक भी (अध्याय ३० में) उद्धृत किए हैं। आचार्य ‘शाहूंगदेव’ और उनकेटीकाकार ने (१.३.२४-२५, १.४.६ आदि) उनकी चर्चा की है। शिङ्गभूपाल’ ने भी उनका नाम लिया है। इसी प्रकार ‘अरुणाचलनाथ १. ‘नाट्यशास्त्र’ के विषय को लेकर ‘अभिनय दर्पण’ (संपा. मनमोहन घोष-कलकत्ता- १६३४ई. इसमें लगभग ३३० पद्य हैं।) इसका भी अनुवाद दिया है ‘कुमारस्वामी’ तथा जी.के. डुगीराला के ब्रिज ने। २. देखिए ‘डा. सुशील कुमार दे’ का ‘संस्कृत काव्य शास्त्र का इतिहास पृ.२० बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी, पटना, द्वितीय संस्करण-१६८८ ई. ASTISS RS अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र (रघुवंश टीका पृ.१००) ने भी उनका नामेल्लेख किया हैं ‘त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सिरीज, १६२८ ई. में ‘मतङ्ग’ के नाम से एक ग्रंथ भी प्रकाशित है। उपर्युक्त पंक्तियों में जिन प्राचीन परम्परा प्रचलित प्रकीर्ण उल्लेखोंकी चर्चा हुई है, वे कुछ संकेत तो अवश्य करते हैं, परन्तु उनसे कुछ सोचने और अनुशीलन करने की प्रेरणामात्र मिलती है। कुछ ठोस ऐतिहासिक आधार नहीं मिलता जो ‘इदमेवेत्थं’ विषय, परम्परा और तथ्य का निर्धारण कर सकें। यह एक विलक्षण-तथ्य है कि वेदाङ्गाख्य परंपरावादी वाङ्मय में ‘काव्यशास्त्र’ या ‘अलंकारशास्त्र’ का कहीं भी नाम नहीं मिलता। इतना ही नहीं, वेदों (संहिता-ब्राह्मण प्राचीन उपनिषदों) में भी इसकी कोई आधारिक चर्चा नहीं है। परन्तु यह भी विचित्र बात है कि स्वयं ऋग्वेद-संहिता में ही ‘उपमा’ शब्द का प्रयोग’ मिलता है। पर ‘सायण ने अपने भाष्य में उसका अर्थ ‘उपमान’ बताया है। पर सामान्य ‘औपम्य’ के अर्थ में प्रयुक्त यह शब्द कोई असामान्य वैशिष्ट्य संपृक्त नहीं हैं। ‘यास्क’ और ‘पाणिनि के मत और उल्लेख केवल इतना ही संकेत करते हैं यह औपम्यबोधक सामान्य शब्द प्रयुक्त थे। ‘यास्क’ और ‘पाणिनि’ के द्वारा यह भी ज्ञात होता है वैदिक भाषा के स्वरसंचार’ पर भी उनका पर्याप्त प्रभाव है। वैदिक भाषा में प्रयुक्त अलंकार सहज हैं। वे अलंकार शास्त्रीय नहीं हैं। (वैसे भी यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘अलंकार’ शास्त्र भी ‘लक्षणशास्त्र’ है। भाषा में लक्षित लक्ष्यों का आधार लेकर उनकी परिकल्पना की गई है।) सहज एवं स्वाभाविक प्रयोग में प्रवहमान पक्षों का बहुकालानन्तर लक्षण-शास्त्रों में आकलन किया जाता है।
(ख) अलंकारशास्त्रीय शब्द बीजों का परिचय
यह निः संकोच कहा जा सकता है कि ‘वैदिक निघण्टु और उसके टीकाकार ‘यास्क’ द्वारा भाषा विषयक चिन्तन में प्रसंगतः ऐसे कुछ बीज मिलतें हैं जो कुछ ठोस तथ्य हमारे समाने रखते हैं। इनका ‘अलंकारशास्त्र’ के विकास में परम्परया या परोक्ष रूप से अवदान माना जा सकता है। भाषा के सहज रूप की कतिपय विशेषताओं पर प्राचीन काल में निघंटुकार एवं निरुक्तकार, ‘यास्क’ ‘स्फोटायन’, शाकल्य, गार्ग्य, और पाणिनि आदि ने सूक्ष्म विचार किया था। (पाणिनि की अष्टाध्यायी भी एक लक्षण ग्रन्थ ही है। अतः उसके पूर्व लक्ष्य का अस्तित्व अवश्य रहा होगा।) ‘निरुक्त’ में यद्यपि ‘अलङ्करिष्णु’ शब्द मिलता है, पर काव्यालंकार अथवा यमक-उपमादि पारिभषिक अलंकार से वह संपृक्त नहीं है। पाणिनि के सूत्र में (अष्टाध्यायी, अध्याय ३, पाद २ सूत्र सं. १३६-कृदन्तप्रकरण) ‘अलंकरिष्णु’ पद की व्यौत्पत्तिक व्याख्या की है। ‘छान्दोग्योपनिषद्’ (८, ८,५.) में तथा शतपथ ब्राह्मण, में (१३, ८.४.७ तथा ३ ५.१.३६) भी यह शब्द मिलता है। १. ऋग्वेद संहिता- ५. ३४.६ तथा १, ३१, १५ श्रीशौवन्दे ‘निघंटु’ में उपमा-द्योतक शब्दों (३, १३) के अनेक अव्ययों = निपातों की सूची से ज्ञात होता है कि निम्नोक्त पद औपम्य-द्योतक रूप में प्रयुक्त होते थेः इव, यथा, न, चित्, नु, एवं आ। उपमार्थे निपाताः (१.४) अन्तर्गत इन्हें व्याख्यात किया गया है और कर्मोपमा’ कहा है। ‘यास्क’ ने ही इसी प्रसंग में ‘रूपोपमा’ ‘भूतोपमा, ‘सिद्धोपमा’, लुप्तोपमा अथवा ‘अर्थोपमा’ में निपातों के प्रयोग और अंतर दिखाते हुए उनकी व्याख्या भी की है। और यथासंभव उदाहरण भी दिए हैं। विस्तार भय से इनका दिनिर्देश यहाँ। दिया गया है। यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि ‘यास्क’ की ‘लुप्तोपमा’ ही बाद के कतिपय अलंकार ग्रंथों में रूपकालंकार बन बैठी। इसी प्रसंग में ‘यास्क’ ने अपने पूर्ववर्ती आचार्य गार्ग्य के उपमा-विषयक परिभाषा की भी चर्चा की है जो पर्याप्त महत्त्व रखती है। ‘उपमा यत् अतत् तत्सदृश-भिति गार्ग्यः तद् आसां कर्म ज्यायसा वा गुणेन प्रख्याततमेन वा कनीयांसं वा प्रख्यातं वोपमीयतेऽथापि ज्यायांसम्’ (इसी की व्याख्या में निरुक्त के व्याख्याकार ‘दुर्गाचार्य’ ने कहा है-एवमेतत् तत्स्वरूपेण गुणेन गुणसामान्या (= साम्या)-दुपमीयते इत्येवं गार्याचार्योमन्यते ।) (इस व्याख्या का सारांश यह है कि उपमा का प्रयोग वहाँ किया जाता है जहाँ कोई असदृश वस्तु सादृश्य के कारण तादृश वैशिष्ट्यवती अन्य वस्तु के सदृश प्रतीत हो।) सामान्यतः यह कहा जाता है कि उपमेय की अपेक्षा उपमान के गुण सुष्ठुतर और प्रसिद्धतर होने चाहिए। पर प्रतिलोम रूप में भी यह ग्राह्य है- अर्थात् उपमेय की अपेक्षा उपमान के गुण और उनकी प्रसिद्धिन्यून भी होती है। इसके उदाहरण भी ‘ऋग्वेद’ से दिए गए हैं। पर स्थानाभाव से इतना ही संकेत इस प्रसंग में पर्याप्त हैं। यह भी संकेत करना अनवसर न होगा कि उपर्युक्त परिभाषा में अतिव्याप्ति दोष है, पर ‘काव्य प्रकाशकार ने भी कुछ-कुछ ऐसी ही बात कही है। ‘पाणिनि’ के सूत्र उपमानानि सामान्यवचनैः (अष्टा. २.१.५५) तथा ‘उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याऽ प्रयोगे’ (अष्टा. २.१.५६) आदि में उपमा के सम्बन्ध में स्पष्ट संकेत हैं। उन्होंने उपमान, उपमित, सामान्य (तथा सामान्य-के अर्थ में प्रयुक्त अन्य शब्द) उदाहरणार्थ ‘उपमा’ जो अलंकार शास्त्रियों की दृष्टि से ‘उपमान’ के अर्थ का द्योतक है तथा ‘औपम्य’, ‘उपमार्थ, ‘सदृश’) मिलतें हैं। यहाँ इस ओर भी ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक है कि ‘अष्टाध्यायी में लगभग पचास स्थलों पर यथाप्रसंग वैयाकरणों की दृष्टि से प्रत्ययों और अनुबन्धों के प्रसंग में (प्रत्यय-कृत्, तद्धित, स्त्रीप्रत्यय) और कारकों में भी उपमालंकार-संपृक्त संकेत इतस्ततः, बिखरें हैं। समासान्त प्रत्यय एवं स्वर संचार (उदात्तानुदात्तस्वरित प्रयोग) आदि में प्रत्यक्षतः या परम्परया इसकी चर्चा है। HAMARIKualatamPandinineअष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ‘कात्यायन’ के वार्तिकों में साम्य की आकल्पना भी मिलती है। ‘फिट’-सूत्रों में इन साम्यमाव प्रयोगों को ढूंढा जा सकता है। महाभाष्यकार ‘पतञ्जलि’ ने ‘पाणिनि’ के ‘उपमान’ शब्द की व्याख्या सोदाहरण की है। “मानं हि नामानितिज्ञानार्थमुपादीयतेऽनितिमर्थ ज्ञास्यामीति तत्समीपे यन्नात्यन्ताय मिमीते तदुपमानं गौरिव गवयः इति” कीलहान संस्करणः, पृ. ३६७) __ महाभाष्य की मान्यता के अनुसार ‘मान’ वह वस्तु है जिसका उपयोग किसी अज्ञात प्रमेय के निर्धारण में किया जाय। ‘मान’ का समीपवर्ती ‘उपमान’ है। अतः समग्रतः तो नहीं पर अंशतः भाव को निर्धारित तो करता ही है। ‘गौरिव’ ‘गवयः’ कहने से ‘गौ’ से बहुत कुछ भिन्न होने पर भी ‘गवय’, ‘गौ’ की आंशिक समता सूचित करता है। यद्यपि काव्यशास्त्री या अलंकारशास्त्री की इस उपर्युक्त उदाहरण को उपमा’ का उदाहरण नहीं मानते। जहाँ कोई लालित्य या चारुत्व लक्षित होता है वहीं उपमेयोपमान उपमालंकारपरक कहे जा सकते हैं। ‘चित्रमीमांसाकार ने स्पष्ट ही उपर्युक्त उक्ति खण्डन करते हुए कह दिया है- ‘गो’ सदृशो ‘गवय’ इति कोपमा। फिर भी इतना तो निर्धान्त रूप से कहा जा सकता है कि ‘व्याकरण’ की प्राचीन ‘उपमा’ के आकलन में वह मूल है जो काव्यशास्त्रीय उपमा के लालित्यबोध को विकसित करने में सहायक हुआ। इतनाही नहीं, ‘भर्तृहरि’ की रचना ‘वाक्यपदीय’ में उपमा का संकल्पन पूर्णरूपेण सिद्ध प्रतीत होता है। प्राचीन वैयाकरणों, नैरुक्तों, पाणिनिकात्यायन-पतंजलि की उक्तियों एवंअष्टाध्यायी के तद्धित एवं कृत्-प्रत्ययों द्वारा श्रौती-आर्थी उपमा के भेदों का ठोस आधार बन गया था। उपमालंकार के उपर्युक्त द्विविध विभाजन श्रौती और आर्थी-उद्भट के पूर्व तक स्वीकृत हो चुका था। इनमें श्रौती उपमा के आधार के प्रमाण में अष्टाध्यायी के सूत्र-‘तेन तुल्यं क्रिया चेद्वतिः, (५/१/११५) तथा तत्र तस्येव (५/१/११६) उद्धृत किए जा सकते हैं। इस उपमा में औपम्यभाव, ‘इव’ यथा, और ‘वा’ निपातों द्वारा अथवा ‘वति’ वत् प्रत्यय द्वारा व्यक्त होता है। उपर्युक्त सूत्रों द्वारा विहित ‘वत्’ प्रत्यय का प्रयोग-‘षष्ठी’ या ‘सप्तमा’ विभक्ति में प्रयुक्त उपमान (मान) के साथ इव अर्थ में होता है। तथा तृतीयांत से तुल्य अर्थ में होता है। यह कथन उदाहरण से ही स्पष्ट होगा। ऐसी दशा में अर्थ ‘तेन’ (तृतीयान्तेन) ‘तुल्यम्’ अर्थात् उसके सदृश या तुल्य होगा और साथ ही यह साम्य ‘क्रिया के साथ’ ही होगा न कि ‘गुणवाचक’ के साथ। ‘मथुरावत्’ कहने से भाव होगा-मथुरायामिव । अन्यत्र ‘पाटलिपुत्रे प्राकारः । (सप्तमी का उदाहरण)। (षष्ठी का उदाहरण) चैत्रवन् मैत्रस्य गावः। HARE श्रीशौवन्दे ‘ब्राह्मणेन तुल्यं ब्राह्मणवत्। आदि रूप मिलते हैं। किन्तु ‘चैत्रवत् कृशः रूप नहीं मिलते।’ __अष्टाध्यायी के सूत्र-‘कृत्यानां-कर्तरि वा’ (२,४,७१) पर वार्तिककार का वार्त्तिक है ‘इवेन नित्य- समासो विभक्त्यलोपश्च’। इसके अनुसार-‘कुम्भाविव स्तनौ’ में समासगता उपमा मानी गई है। यह समासगा ‘श्रौती’ उपमा मानी जाती है। इसीक्रम में ‘उपमाना दाचारे’ (३.१.१०) पाणिनिसूत्र के अनुसार समान-आचार-द्योतन के हेतु कर्मभूत उपमान सुबन्त के साथ ‘क्यच्’ प्रत्यय (=य) का प्रयोग किया जाता है। इससे ‘पौरं जनं सुतीयसि’ जैसे प्रयोग होते हैं। अर्थ है आपका पौर जनों के प्रति आचरण (व्यवहार) पुत्र के समान है। अर्थात् आप पौरजनों के प्रति अपने पुत्र-समान व्यवहार करते हैं। ‘कर्तुः क्यङ् सलोचश्च’ (पा.सू., ३,१,११) के अनुसार क्यङ् (य)’। प्रत्यय का प्रयोग आचार-द्योतन के लिए वहाँ होता है जहाँ कर्ता कारक के प्रयुक्त उपमानवाची (‘कर्तृ-सुबन्त’) रहता है। यथा ‘तव सदा रमणीयते श्रीः’ में दिखाई देता है। ‘वार्तिककार’ और महाभाष्यकार’ के ग्रन्थों में भी अनेकत्र ये शब्द बिखरे मिलते हैं। यहाँ साक्ष्यों और प्रमाणों की भीड़ न जुटाकर इतना ही कहना है। कि उपर्युक्त वक्तव्य से सिद्ध हो जाता है कि काव्यशास्त्रीय अनेक पक्ष व्याकरणमूलक हैं या पहले ही निरुक्त और व्याकरणशास्त्र में बीजतः उपलब्ध हैं। पूर्वोक्त एवं इसीक्रम के अनेक मूलतथ्य ‘पाणिनि के लक्षणग्रंथ से पहले ही प्रयुक्त होने लगे थे- वे स्थापित हो चुके थे। यह अवश्य कहा जा सकता है कि वैयाकरणों के ये आकलन इतने व्यवस्थित और ठोस नहीं हैं कि पाणिनि की अष्टाध्यायी में पचीसों से अधिक सूत्र साम्य या उपमा से संपृक्त हैं- उनमें कुछ नीचे दिए जा रहें हैं। (१) जीविकोपनिषदादौपम्ये (१।४७६) (२) अव्ययं विभक्ति-समीप-समृद्धि व्यृद्ध्यर्था भावात्ययासंप्रतिशब्दप्रादुर्भाव-पश्चाद्यथानुपूर्व्ययोगपद्य-सादृश्य-संपत्ति साकल्यान्तवचेनषु। २।१।६ (३) यथाऽसादृश्ये। २।१७।। (४) उपमानानिसामान्यवचनैः। २।१५५ (५) उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयागे। २१११५६ (६) पूर्वसदृशसमोनार्थ-कलह-निपुण-श्लक्ष्णैः। २।१।३१ . (७) तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यां तृतीयाऽन्यतरस्याम् । २।३७२ (८) उपमानादाचारे। ३।१।१० (६) कर्तर्युपमाने। ३१२७६ (१०) उपमाने कर्मणि च। ३।४।४५ (११) उरुत्तरपदादौपम्ये च। ४।१।६६ (१२) प्राग्वतेष्ठञ्। ५।१।१८ (१३) तेनतुल्यं क्रिया चेद् वतिः। ५।१।११५ (१४) तत्र तस्येव । ५१११११६ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र ..Tecialinikinjadadalitnore काव्यशास्त्रीय परवर्ती परम्परा के अस्तित्व के अनुमान को सिद्धकर सकें। परन्तु पश्चाद्वर्ती काव्यशास्त्रीय भाषा और प्रयोग के पुरातन स्रोत का संकेत तो अवश्य ही देते हैं। यहाँ इतना ही आकलन किया जा सकता है कि ‘काव्यशास्त्र’ (= अलंकारशास्त्र) के विकास में भाषा के चारुत्व और प्रभाव के विश्लेषणात्मक व्याख्या की परिणति है। काव्य-निर्मिति के नियम-विवेचन के क्रियात्मक उद्देश्य से शास्त्रकारों ने यह पक्ष विकसित किया। यहाँ यह तथ्य अवधेय है कि वैयाकरणों का ‘काव्यशास्त्र’ प्रत्यक्षतः न सही तो परोक्षतः अवश्य ऋणी है। भाषापरक चिन्तन और विवेचन के द्वारा वैयाकरणों से प्रेरणा अवश्य ही मिली। ‘काव्यशास्त्र’ के कतिपय पुरातन विचक्षणों के बिखरे वचनों औरः अन्तः साक्ष्य इसके प्रमाण हैं। ‘ध्वन्यालोकलोचन’ में ‘काव्यस्यात्माध्वनिरिति बुधैः’ के ‘बुधैः’ की व्याख्या भी ‘वैयाकरणैः’ पद से की गई है। केवल वैयाकरण ही नहीं ‘यास्क’ आदि निरुक्त कारों का भी इसमें परोक्ष योगदान था। इसी से आनन्दवर्धन ने अपने सिद्धान्त को वैय्याकरणों की मान्यता मूलक बताते हुए कहा है-‘प्रथमे हि विद्वांसो’ वैयाकरणाः। व्याकरणमूलत्वात्सर्वविद्यानाम् (पृ. ४७) (देखिए संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, हिन्दी संस्करण, बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी पटना) ‘भरत’ का नाट्यशास्त्र’ निर्धान्त रूप से केवल ‘दृश्य काव्य’ का ही नहीं, अनेक दृष्टियों से अभिनय, नृत्य, संगीत, अंशतः व्याकरण और कुछ दृष्टियों से ‘श्रव्यकाव्य’ आदिका भी महाकोश है। पर विशुद्ध काव्यशास्त्र की दृष्टि से काव्यशास्त्र के विचार से आचार्य ‘भामह का ‘काव्यालङ्कार’ अधिकांश विद्वानों के मत से ‘काव्यशास्त्र’ के अबतक के प्राप्त ग्रंथों में प्राचीनतम है। उसमें षष्ठ परिच्छेद शब्दशुद्धि परक है। उसके आरंभ में ही छह पद्यों में व्याकरण की महिमा और अलंकारशास्त्र में आधारभूतता वर्णित है ‘व्याकरणार्णव का पार पाए बिना शब्दरत्न का अलंकरण अगम्य है’ (६.३)। उसी परिच्छेद के ६३वें पद्य में कहा है- ‘श्रद्धेयं हि मतं पाणिनीयम्’ इत्यादि। ‘वामन’ के ‘काव्यालंकारसूत्र, वृत्ति में भी इसी आशय की घोषणा मिलती है। इससे इतना तो अनुमित निष्कर्ष निकाला ही जा सकता है कि ‘काव्यशास्त्र’ अनेक मूलभूत संप्रत्यय ‘कन्सेप्टस’ वैयाकरणों के विचार पर आधारित हैं। एक उदाहरण लीजिए ‘जिस संकेत के द्वारा अभिधा से बोध्य अभिधेयार्थ का अधिगम होता है-वह वैयाकरणों की मान्यता पर ही आघृत है। मीमांसकों-नैयायिकों से भिन्न वैयाकरणों की मान्यता है ‘चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः-अर्थात् जाति, व्यक्ति (द्रव्य), क्रिया गुणपरक कहा गया है। ‘मम्मट’ और ‘मुकुल भट्ट एवं टीकाकारों ने महाभाष्य का उद्धरण देते हुए ‘चतुष्टयी’ शब्दों की प्रयोग-प्रवृत्ति को मान्य ठहराया है। ‘मम्मट’ ने चतुर्थ भेद को यदृच्छा शब्द कहा है। शब्द और अर्थ की दो शक्तियों-अमिधा और लक्षणा को वैयाकरणों ने सबसे पहले उद्घोष PARRESTHome श्रीशौवन्दे करते हुए परिभाषित एवं परिष्कृत किया। वहीं ‘अलंकारशास्त्र’ या ‘काव्यशास्त्र’ में भी विश्लेषित हुआ। ‘रस’ की या ‘ध्वनि’ की परिकल्पना में जिस तृतीय व्यंजना शक्ति को आधार बनाया वह, पाणिनि ‘पूर्ववर्ती महावैयाकरण ‘स्फोटायन’ के वाक्य स्फोट या स्फोट सिद्धान्त पर ही आधारित है। इस सिद्धान्त का विस्तृत विकास है-‘भर्तृहरि’ की वाक्यपदीयाख्य रचना में। ‘शब्द और अर्थ’ के सम्बन्ध में विचार करने वाले कुछ दर्शनों में भी इस प्रसंग से संपृक्त पक्षों पर विचार मिलता है। इसी प्रकार व्यंजनावृत्ति से परोक्ष-परम्परया संबंध रखने वाले स्फोट-सिद्धान्त का कुछ अन्य दर्शनों में भी महनीय स्थान है। व्यंजनावृत्ति द्वारा अभिव्यङ्ग्य अर्थ या गुण किसी ‘नूतन’ गुण को व्यक्त न कर वहाँ विद्यमान वैशिष्ट्य का अभिव्यंजक होता है। जैसा कि सांख्य दर्शन के सत्कार्यवाद के अनुसार किसी भी ‘कार्य’ की नव उत्पत्ति नहीं होती वरन् वह कारण में पहले से ही मूलतः निहित रहता है। अद्वैत वेदान्त का मोक्ष भी नवीन पदार्थ न होकर माया के आवरण का लोपमात्र है। ऊपर यह इंगित किया गया है कि ‘काव्यशास्त्र’ में निरूपित अमिधा और लक्षणा का विचार-व्याकरण में ही नहीं मीमांसान्याय दर्शनों में भी पर्याप्त सूक्ष्मता से विवेचित है। विस्तार में न जा कर यहाँ इतना ही संकेत पर्याप्त है। न्याय सूत्र (१.३.३३ ३,१,७ आदि) में इसका विचार देख सकते हैं। वेदान्त सूत्र (२,३,१६ और ३,१,१७’ तथा सांख्यसूत्र (४,६७) और लघुमंजूषा (व्याकरण) ग्रंथों में उस लक्ष्य (अमुख्य) अर्थ को विभिन्न शब्दों से संकेतित किया गया है। यह अमुख्यार्थ या साहित्यिकों का लक्ष्यार्थ कहीं भाक्त, गौण, औपचारिक या लाक्षणिक कहा गया है। प्रायः सभी दर्शनों में एतदमुख्याख्यार्थ चर्चित है। अनेक दर्शनों के साथ साहित्य शास्त्रीय ‘लक्ष्यार्थ’ विवेचन में साम्य भी लक्षित होता है। अब तक के उपलब्ध श्रव्यकाव्यीय ‘भामह’ का काव्यालंकार प्राचीनतम है। उसमें भी अर्थाभिव्यक्ति- संपृक्त एवं तर्कान्यदता की, शब्दशक्तियों की पर्याप्त चर्चा है। अन्नंभट्ट का ‘तर्क-संग्रह’, एवं ‘कारिकावली’ (मुक्तावली-सहित) में तो उपमान’ = उपमा) को चार प्रमाणों में (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) उपमान एवं (४) शब्द-में एक प्रमाण ही माना गया है। इससे ‘प्रमेय’ की सिद्धि दर्शायी गई है। यद्यपि ‘कणाद’ के दर्शन में (और ‘कपिल’ के दर्शन में भी) उसे पुष्ट और स्वतंत्र प्रमाण नहीं स्वीकार किया गया है। तथापि ‘प्रमा’, प्रमेय’ और प्रमाण की चर्चा में न्याय दर्शन ने उपमान प्रमाण को महनीय स्थान दिया है। ‘मैत्रेयी’ उपनिषद् में तीन प्रमाणों-(१) दृष्ट (प्रत्यक्ष = ज्ञानेन्द्रियावगत) (२) लिङ्ग (अनुमान) और (३) उपमा का उल्लेख किया है। वात्स्यायन के कामसूत्र (१,३) पर टीकाकार ने ‘सामीप्यमानमुपमानं’ कहा है। ५ . 31.:. . … . …… .. … . . .. . . .—- अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अभिधान (वाचक शब्द) और अभिधेय (वाच्य अर्थ = मुख्य अर्थ) के संबन्ध निर्धारण में ‘उपमान’ प्रमाण का भी उपयोग है। इसीलिए कहा गया है। ‘शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद्व्यवहारतश्च ‘इत्यादि" ‘पञ्चावयव वाक्य’ में भी ‘उपमान’ की सहकारिता स्वीकृत है। परन्तु भोजराज के ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ ३-५० में साहित्य ग्रंथ-इसी नामका उनका एक व्याकरण ग्रंथ भी है। में ‘उपमा’ को ‘उपमान’ से भिन्न अलंकार बताया है। पर काव्यशास्त्रज्ञों में केवल ‘अप्पयभट्ट’ इस मत के पोषक हैं। ‘नागेश भट्ट’ ने अपनी टीका में ‘तत्त्वाख्यानोंपमा में इसका समावेश किया है। यहाँ पर मीमांसकों द्वारा उपमान और ‘अतिदेश’ की व्याख्या विस्तारभय और अनावश्यक होने से नहीं की जा रही है। उपर्युक्त तथ्यों का ‘काव्यशास्त्र’ से परोक्ष संबंध ही है। यह भी कहा जा सकता है। कि परंपरया ये विकीर्ण संदर्भ का अवदान परोक्ष रूप से ही ‘काव्यशास्त्र’ के विकास में रहा है, पर उसके (काव्यशास्त्र का) पुरातन युग का इससे निर्धारण नहीं होता। प्राचीन ग्रंथों में छान्दोग्योपनिषद, (बोहरलिंग संस्करण - ७, १,२,४), की विविध विद्याओं के नामोल्लेख में ‘काव्य शास्त्र’ का कहीं नाम नहीं हैं। आपस्तम्ब (२, ४, ११) में भी केवल छः वेदागों (१) शिक्षा, (२) कल्प, (३) व्याकरण (४) निरुक्त, (५) छन्दः १, और (६) ज्योतिष की ही चर्चा है। (यद्यपि नवम शताब्दी के ‘कविराज’ ‘राजशेखर इसे (साहित्य विद्या को ) वेद का सप्तम वेदाङ्ग कहा है। ‘याज्ञवल्क्य, विष्णुपुराण’ आदि में न तो चतुर्दश विद्याओं और न अष्टादश विद्याओं में साहित्य विद्या या ‘काव्यशास्त्र’ का उल्लेख किया है। ‘ललित विस्तार’ (एस. लोकमान सं. पृ. १५६) की ‘विद्या’ या ‘शास्त्र की सूची में अवश्य ही ‘काव्य-व्याकरण ग्रंथ’ का और ‘नाट्य का उल्लेख है। जो ‘काव्यशास्त्र’ और ‘नाट्यशास्त्र’ की ओर इंगित करतें हैं। ‘अलंकार शास्त्र’ का नाम सर्वप्रथम ‘शुक्रनीति में बत्तीस ३२ शास्त्रनामों -शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र अर्थशास्त्र आदि के साथ परिगणित है। कदाचित् अंगुत्तर निकाय (१, ७२, ३,१०१) और संयुत्त निकाय पालि ग्रंथ में ऐसे एक शास्त्र का उल्लेख है पर यह ऐतिहासिकता के विचार से महत्ता रखता है। कारण यह कि इनमें इस शास्त्र को निन्दापात्र के रूप में वर्णित किया गया है। परन्तु निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि उक्त उल्लेख ‘अलंकार शास्त्र’ का ही है- ऐसा ‘इदमित्थं’ के रूप में कहना कठिन है। कौटिल्य 22. Aadministram m CHANDANA a r .
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१. ‘शक्तिग्रह’ अर्थात् अभिधान और अभिधेय अर्थ का द्योतनके मध्य ‘अमिधा’ शक्ति का सम्बन्ध का कार्य जैसे ‘व्याकरणशास्त्र’ से होता है वैसे ‘उपमान’, शब्दार्थकोश’ प्रामाणिक यथार्थवक्ता के वाक्य’ और व्यवहार आदि से भी होता है। देखिए-पादटिप्पणी १ संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास पृ. १ (१२) बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी, पटना) ले खक एस. के.डे. द्वि.सं. १६८८ ई.) २. श्रीशौवन्दे के अर्थशास्त्र में ‘शासन-लेखन विधि के क्रम में अर्थक्रम, परिपूर्णता, माधुर्य, औदार्य और स्पष्टता को आवश्यक बताया गया है। वे अलंकार-ग्रंथों में उल्लिखित हैं। तथा कि वे उक्त शास्त्रीय (अलंकार शास्त्रीय) विधान को निश्चित नहीं करते- सामान्य वैशिष्ठ ही बतातें हैं। ‘महाभाष्यकार पतञ्जलि’ ने काव्यशास्त्र’ संबद्ध अनेक ग्रंथों का विभिन्न स्थलों पर अवश्य उल्लेख किया है।’ उक्त उल्लेख सूचित करतें हैं कि उनके युग में ‘काव्यशास्त्रीय’ नियमों की आकलना-परिकल्पना की जा रही थी, निरूपण हो रहा था। किन्तु स्पष्ट रूप से ‘अलंकार शास्त्रीय’ वाङ्मय में कुत्रापि उल्लेख नहीं है। इससे इतना निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ईसवी शती के पूर्व द्वितीय शती से लेकर ईसवी प्रथम शती में इस शास्त्र का उद्भव हो गया था। माना जाता है गुप्त शासन-काल में केवल शास्त्रों की ही नहीं, ललित कलाओं के सहित समग्र संस्कृत वाङ्मय की अभ्युन्नति हुई। ‘लासेन’ ने संस्कृत काव्य के विकास की गुप्तयुगीन चर्चा की है। वह पुरातत्त्वीय (एफिग्राफिक) अनुसंधानों से प्रमाणित है। इसके लेखक ‘बूहलर’ थे। इन पुरातत्त्वीय लेखों को एतद्विषयक अनुसंधान का मूलाधार कहा जा सकता है। उनसे प्रामाणित होता है। उन पुरातत्त्वीय लेखों के लेखक, अलंकृत गद्य-पद्यलेखन में पूर्ण कुशल और निष्णात थे। साथ ही ‘संस्कृत-काव्य शास्त्रीय नियमों के पूर्ण अभिज्ञाता थे। क्योंकि उन अभिलेखों से स्पष्टतः सिद्ध है वे अलंकृत गद्यपद्यकाव्य शैलीलेखन के सिद्धान्तों के ज्ञाता और उनमें पूर्ण कुशल थे। बूहलर (व्हूलर) के सप्रमाणवक्तव्यो ने यह सिद्ध करने का सफल प्रयास किया है। कि ‘भामह’ और दण्डी’ के प्राचीन ग्रंथों में इन अभिलेखों के गुणों का अनुरणन था। यह भी सिद्ध होता है ‘अलंकारशास्त्र’ अथवा ‘काव्यनिर्माण कला- अस्तित्व में आ चुकी थी। स्वयं ‘वाल्मीकि रामायण’ में उपमादि अलंकारों और शब्दालंकारों के पर्याप्त प्रयोग मिलतें हैं (१) ‘महाभारत’ में पर्याप्त प्रयोग है। कुछ काव्य शास्त्रीय शब्दों-जैसे-आख्यायिका कथा, उपमा, काव्य नाटक आदि पदों के प्राचीनतर प्रयोग हैं। परन्तु ईसाकी द्वितीय शती तक अवश्य ही काव्य शास्त्रीय सिद्धांतों का उद्भव हो गया था। यह तथ्य उपर्युक्त ‘गिरनार’ के शिलालेख से प्रमाणित है। १. देखिए महाभाष्य-कीलहान संस्करण १ एवं २, ३४, १०२, १०७, ११६, ३१३, ३१५ तथा २८३, ३४०, ४२६, ४४४ तथा ३, १४३, ३३८ आदि २. Die Indichen Insepiriften जिसका अंग्रेजी अनुवाद- ‘इडियन एंटिकेस १३, १६१३ ई. में देखा जा सकता है। __ ‘हूलर’ के ग्रंथ (पृ. २४३) में इस वक्तव्य के प्रमाण में ईसा द्वितीय शताब्दी के गिरिनार शिलालेख ‘स्फुट लघुमधुर-चित्र-कान्त-शब्द-समयोदारालंकृत-गद्य-पद्य- इत्यादि। सिद्ध किया जा सकता है। वहाँ स्फुट, मथुर, कान्त और स्फुट आदि अलंकृत काव्य शैली का संकेत है। १२ अष्टम खण्ड-काव्य शास्त्र PAH अश्वघोष के बुद्धचरित में ‘उपमा’, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलंकारों का ही नहीं वरन् ‘यथासंख्य’ और अप्रस्तुत प्रशंसादि अनेक अलंकार प्रयुक्त हैं। अनेक ‘काव्य शास्त्रीय’ शब्दों का जैसे ‘उपमा’ एवं नाट्यशास्त्रीय रस-संपृक्त ‘हाव’ ‘भाव’ आदि (४, १२) का प्रयोग किया गया है। इन संकेतों से ‘हूलर’ के कथन को आधार मिलता है। कि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में ‘अलंकारशास्त्र’ का उद्भव-उत्तर भारत में होने लगा था। ‘महाकवि’ ‘कालिदास’ की (भारतीय मान्यता के अनुसार जिसका काल, ‘विक्रम प्रथम शती है) की रचना में काव्यालङ्कार तत्त्व संदर्भ विकीर्ण हैं। परवर्ती काव्यशास्त्रीयों ने अनेकत्र उनके उद्धरण प्रचुरमात्रा में प्रयुक्त किए हैं। ‘कालिदास’ और अश्वघोष’ आदि ने काव्यशास्त्रीय नियमों का अनुसरण और विनियोग-उपयोग भी पर्याप्त किया हैं। ‘सुबन्धु’ की वासदत्ताख्य रचना में स्वयं आख्यायिकाकार कवि ने बड़े दर्प के साथ कहा हैं ‘प्रत्यक्षर श्लेष मय-प्रपंच-विन्यास-वैदग्ध्यनिधि प्रबन्धम्। सरस्वती-दत्तवरप्रसादश्चक्रे सुबन्धुः सुजनैकबन्धुः ।। के हर्षचरित-एवं ‘बाणभट्ट-कादम्बरी गद्य काव्यों में इन सबका ललित प्रयोग आद्यन्त द्रष्टव्य है। अपनी रचना में सुबन्धु ने सप्रयास अलंकरण किया है। वह सहज न होकर भी प्रशंस्य हैं। वहाँ ‘श्लेषालंकार’ का लालित्य तथा ‘दीर्घोच्छ्वासमय ‘वक्र प्रयोग किया है। आख्यायिका के इस गुण की चर्चा ‘भामह’ ‘काव्यालंकार’ (१.२५+२६) १ तथा ‘दण्डी’ ‘काव्यादर्श’ में (१, २६+२७) २ सत्काव्यों के संदर्भ में वर्तमान हैं। साथ ही सुबन्धु ने भी आक्षेप’ और उत्प्रेक्षा’ अलंकारों का भी विशेषतः उल्लेख किया है। और भी बहुत कुछ वहाँ मिलता है। ‘बाणाभट्ट की ‘कादम्बरी’ के श्लोकों में ‘काव्यशास्त्र’-संबद्ध कुछ श्लोक अत्यंत महत्त्व के हैं। वहाँ एक पद्य में उपमा, जाति = स्वभावोक्ति’, ‘दीपक’ और ‘श्लेष’ अलंकारों १. प्रकृतानाकुलश्रव्यशब्दार्थपदवृत्तिना। गद्येन युक्तोदात्तार्था सोच्छ्वासाख्यायिका मता। वृत्तमाख्यायते तस्यां नायकेन स्वचेष्टितम् । वक्त्रं चापरवक्त्रंच काले भाव्यार्थशंसि च। वक्त्रं चापरवक्त्रं च सोच्छ्वासत्वं च भेदकम्। चिनमाख्यायिकायाश्चेत्प्रसड़ेगन कथास्वपि।। आर्यादिवत् प्रवेशः किं न वक्त्रापरवक्त्रयोः। भेदश्च दृष्टो लम्भादिरुच्छ्वासो वास्तु किं ततः।। क-सत्कविकाव्यरचनामिवालंकारप्रसाधितम् पृ. ३०३ ख-दी|छ्वासरचनाकुलं सुश्लेष वक्त्र घटना पटु- सत्काव्यादिरचनामिव (२३८- ३६) ग-उत्प्रेक्षाक्षेपौ काव्यालंकारेषु। एस.के. डे ‘संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, पा.टि. पेज १५ में देखें। वहीं यह भी लिखा है कि -‘अलंकारो नाम धर्मकीर्तिकृतो ग्रन्थविशेषः। पर अभी तक ‘धर्मकीर्ति’ का अलंकार’ निरूपण परक ग्रंथ अप्राप्त हैं। घ (संस्करण) पृ. ७ में ‘सुबन्धु’ ने (पृ. १४६) में शृंखलाबद्ध’ की चर्चा है। ४. स्फुरत्कलालापविलासकोमला करोति रागं हृदि कौतुकाधिकम्। रसेन शय्यां स्वयमभ्युपागता कथा जनस्याभिनवा वधूरिव।। ८ हरन्ति कं नोज्जवल दीपकोपमैर्नवैः पदार्थैरुपपादिताः कथाः। निरन्तरश्लेषघनाः सुजातयो महास्रजश्चम्पककुड्मलैरिव।। ६ श्रीशौवन्दे को दिया गया है। उन्हीं में यथावासर ‘कादम्बरी’ और हर्षचरित में शब्द-‘प्रहेलिका’ के संबध में ‘अक्षरच्युत’ ‘बिन्दुमती’ ‘प्रहेलिका’ और गूढचतुर्थपाद’ के नाम तथा ‘कथा’ और ‘आख्यायिका’ के नाम सूचित किए हैं जिन दोनों में अलंकार शास्त्रियों ने भेद दिखाया है। ‘हर्षचरित’ के ‘भरतमार्ग-मननगीतम्’ में नाटयशास्त्रीय’ आरभटी ‘वृत्ति मे नटों के अभिनय का उल्लेख किया है।
निष्कर्ष
यतः ‘भामह’ ने स्वपूर्वकालीन ‘मेधावी आचार्य’ का उल्लेख किया है। ‘दण्डी’ के ‘काव्यादर्श’ में भी पूर्वाचार्यों का निर्देश है। उनके उद्धरण भी मिलते हैं। स्वयं ‘भरत’ के ‘नाट्यशास्त्र’ में भी जो ‘दृश्य-काव्य-परक एवं दृश्य-श्रव्य काव्यपरक ग्रंथों में आज उपलब्ध सर्वप्राचीन हैं। अभिनय-संबद्ध भाषा के अलंकारक साधनों अर्थात् काव्य गुणों और अलंकारों की विवेचना पूरे एक अध्याय में उपलब्ध हैं। यह सब प्रमाण सूचित करते हैं कि अलंकारशास्त्रीय (काव्यशास्त्रीय) परंपरा ‘भरत’ के पूर्व विकसित हो चुकी है। निरुक्त और व्याकरण के भी अप्रत्यक्ष उपमा विषयक संकेतों . का भी इस शास्त्र की आकलना और परिकल्पना में कुछ न कुछ अवदान आवश्य था। अतः ‘भामह’ और ‘दण्डी’ के ग्रन्थों से तत्रोपलब्ध वचनों से और विषय निरूपण की प्रौढ़ता से वक्रोक्ति, रीति, गुण आदि शब्दों के लक्षण निरूपणबिना उनके प्रयोगों को देखकर भरत के पूर्ववर्ती काल से श्रव्यकाव्यपरक अलंकार शास्त्र’ विकसित हो चला था। हाँ, नाट्यशास्त्र’ का उद्भव पाणिनि से भी पूर्व हो चुका था। उन्होंने दो सूत्रों में (४ अध्याय. ३ पाद., ११० पाराशर्यशिलालिभ्यां भिक्षुनटसूत्रयोः तथा ४, ३, १११ कर्मन्दकृशाश्वादिनिः।) शिलालि और कृशाश्व के नटसूत्रों का उल्लेख किया है। उसी अभिनय -संम्पृक्त परम्परा से सर्वप्रथम हमें ‘भरत’ के ‘रससूत्र’ से ‘काव्यशास्त्रीय’ महिमा ‘रस’ पदार्थ (रस-सिद्धान्त) और आगे चलकर ‘आनन्दवर्धन’ के ध्वन्यालोक ग्रंथ से महत्तम ‘ध्वनिवाद’ का विकास हुआ। परमशैव’ अभिनवगुप्तपादाचार्य’ द्वारा ‘नाट्यशास्त्र’ की ‘अभिनव भारती’ व्याख्या का योगदान अपनी महिष्ठता के कारण अविस्मरणीय है। अतएव नाट्यशास्त्र विषयक प्राचीन विवेचनों के परिपुष्ट विकसितता के परिणाम स्वरूप ‘भामह’ ‘दण्डी’ और वामन आदि ने अपने-अपने अलंकारशास्त्रीय ग्रंथों में दृश्य काव्य का निरूपण नहीं किया। अतः निर्धान्त रूप से घोषित किया जा सकता है कि ‘भामह-दण्डी-वामन’ आदि से पूर्व ही अलंकार शास्त्र (अर्थात्-‘दृश्य काव्यशास्त्र’ का विकास प्रारंभ हो चुका था। उपर्युक्त लेखकों की तत्तत्कृतियाँ शास्त्रप्रवर्तक न होकर उनके प्रौढ विकास में अवदान करने वाली हैं। यद्यपि ‘भरत’ के नाट्यशास्त्र एवं ‘भामह-दण्डी’ के ग्रंथों से प्रत्न दृश्यकाव्य शास्त्रीय ग्रंथ आज सर्वथा अनुपलब्ध हैं, तथापि निश्चय ही ‘भरत’ और ‘भामह-दण्डी’ के ग्रन्थों के पूर्व से ही इस शास्त्र का उद्भव हो चुका था।