[[साहित्यसुधासंग्रहः (द्वितीयबिन्दुः) Source: EB]]
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* ओ३म् *
* साहित्य सुधा संग्रहस्य*
द्वितीयबिन्दोर्भूमिका
अयिगीर्वाणवाणीप्रणयिनः सहृदयमहाभागाः!
नेदं न विदितं विद्वद्वराणां श्रीमतां
यदद्यत्वे सर्वतः सर्वैरवधीर्यमाणा कां दयनीयदशामुपेयुषीयमशेषभाषाभूषाभूता सुरवरसत्कृता भारतीय भारती। यस्यां, हि गिरि स पूर्वेषामपि गुरुः प्रथम-संप्रदाय-प्रवर्त्तको भूतभावनो जगदेक-पावनो भगवान् विद्योतयामास निरवद्यामतिहृद्यां वेदविद्याम्। यस्यां मातृभाषायां बाल्यस्वभाव-सुलभ-स्खलितललितैरव्यक्तवर्णरमणीयैर्जल्पितैरनल्पहर्षवर्षमकार्षु र्महर्षयो निज-जननी-जनक श्रवण शष्कुलीषु। यस्यां वाल्मीकि व्यास कालिदास प्रभृतयः कविकोकिला विपञ्ची-न्यञ्चन-चतुरं पञ्चममुदञ्चयन्तो न्यषिञ्चन्सहृदयहृदयेषु पीयूष यूषम्। यस्यां प्रत्यक्षीकृतमन्त्रैः सर्वतन्त्रस्वतन्त्रैरपास्तसमस्तसंशीतितमस्कैर्मैत्र्यादिभाव भावना प्रसादितमनस्कैः प्रशमपथपथिकप्रशस्यानि सरहस्यानि प्रणीतानि ब्राह्मणानि ब्रह्मविद्भिर्ब्राह्मणैः। यस्यां, जगति गृहीत-मनुष्य-जनुषां पुरुषाणां कः परमपुरुषार्थ इति विचारणाचणैर्विचक्षणैः कपिलकणादादिभि र्निरूपितं स्वरूपमभ्युदयनिःश्रेयसयोः। किं बहुना, यस्याम्, ऐहिकामुष्मिक-सकलप्रयोजनौपयिकार्थशास्त्र, परमार्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र,
ज्यौतिषाऽऽयुर्वेदादिकं न किञ्चिन्नगुम्फितं निसर्गदयार्द्रहृदयैर्महोदयैर्जगदुद्दिधीर्षुभिः सर्वहितचिकीर्षुभि रस्मत्पूर्वजैः प्राज्यप्रज्ञैः स्वोपज्ञं ज्ञान-विज्ञान-जातम्।
परं धिग्विधेरविधेयताम्। यतः सैव सर्वभाषा जननी कमनीयतमाऽमृतमयी सत्यपि अद्य मृतभाषेत्यभिधीयमाना मानवैरवमन्यमाना नाभिनन्द्यते। येषां कृते भगवता पतञ्जलिनाऽलेखि–“ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्चेति” तेऽपि दुर्वासनावासितान्तः करणाः “वरमद्यकपोतःश्वो मयूरात्” इति न्याय मनुसरन्तोऽप्यन्याय मनुसरन्तोऽयमेव लोको नाऽपर इति दृढं विश्वसन्तः पश्यन्तोऽपि न पश्यन्तः आपातमधुरं क्षणिकैश्चर्यमेव सर्वस्वं मन्यमाना अग्रजन्मानोऽपि हरिवर्षभाषावधू-प्रसाधन-व्यग्रजन्मानो विडम्ब्यन्ते सन्ततमिति कैव कथाऽवरेषां परेषाम्।
परं नैकान्ततोऽत्र मन्तूयन्ते पाठका एवेत्यपि मुक्तकण्ठमुररीक्रियते मया। यतो देवगिरमधिजिगांसमाना अपि जना न पारयन्ति तां पठितुं समुपयुक्त–पाठ्यपुस्तकानामभावात्। कानिचित् समुपलभ्यमानान्यपि पुस्तकानि नोपेक्षणीयाऽक्षोदीयोदोपराशि लाञ्छितानीति हन्त का गतिः। सन्ति हि पठनपाठनयोः प्रायेण प्रयुज्यमानानि प्रचुराणि गद्यपद्य तदुभयमयानि च काव्यानि परं सर्वाण्येव तानि तथा शृङ्गार–तरङ्गितानि यथा नववयस्कानां सुकुमारमतीनां कुमार–कुमारीणां करयोर्निःशङ्कमर्पयितुं न पार्यन्ते। न च तानि शालीनो गुरुः शिष्यान्, पिता पुत्रं, भ्राता भगिनीं वा विशकलय्य पाठयितुं प्रभवतीतिनाऽत्युक्तियुक्तेयमुक्तिरभियुक्तानाम्।
इतिसर्वामनर्थपरम्परां परामृश्यैव गुरुकुल–विश्वविद्याल-
यस्याऽऽचार्यवर्येण प्रेर्यमाणा वावां प्रावर्त्तिष्व हि दृढ़तराध्यवसायवज्जनसाध्ये बह्वपाये प्यस्मिन्महति व्यवसाये महाविद्यालय विभागस्थ-विद्यार्थिना मुपयोगाय संस्कृतसाहित्य-संग्रह-संपादनकार्य-रूपे। अन्यएव योग्यतरः कश्चिन्महानुभावो निरवक्ष्यच्चेत्कार्यमिदं तर्हि समीचीनतरमभविष्यत्। यतो हि नीरक्षीर-विवेके हंसाना मेव क्रमते मति र्न सर्वेषाम्। तथापि तदभावे—“भवे हि सर्वथाऽभावात् किञ्चिद्भावो विशिष्यते” इति, “अकरणान्मन्दकरणं श्रेयः” इति वा सिद्धान्तानुसार मस्मदीयमिम मुद्योगं निष्पक्षपातचक्षुषानिरीक्षिष्यन्ते चेत्सन्तः कृतार्था वावां भविष्यावइति नौ मतिः।
अस्य हि संग्रहस्य प्रथमो विन्दुः हायनद्वयपूर्व मेव मुद्रितो विक्रयार्थं प्रस्तुतोऽपि च गुरुकुलमुद्रणालये निहित एव दैवदुर्विपाकादागते गत जलप्लावने विलय मुपेयिवानिति कस्य सहृदयस्य नारुन्तुदः स्यादुदन्तः। एतादृशेषु व्यतिकरेषु “करोति यत्किंचिदपि प्रभुर्मे तदस्ति सर्वं मम मंगलाय” इति भावनयैव संतुष्यन्ति मतिमन्तः इति कृतं तत्कृते परिदेवनेन। तस्य द्वितीयमुद्रणं चारुतरं भवेदिति क्रियते च तदर्थं प्रयत्नः।
अयं च प्रस्तुतो द्वितीयविन्दुः श्रीमतां पाणिपंकजमुपतिष्ठते। देवगिरि निरवद्यगद्यलेखनाऽभ्यासं कामयमानाना मन्तेवासिनां कृते सरसगुणरीत्यलंकारै रलंकृतां कादम्बरी मतिरिच्य न किमप्यन्यदनुकरणार्हं वस्त्यस्तीति तस्या एव किंचिदूनः पूर्वभागः संक्षिप्य मुख्यतयाऽत्र संगृहीतः। न च कश्चिदप्यवश्यसंग्राह्यों ऽशः परित्यक्तः स्यादिति कणेहत्य प्रयतितम्। कादम्बरीपठनेन बाणकालिकी यादृशी दृश्यते दशा धर्म, समाज, राजनीतिक्षेत्रेषु, तद्द्योतका अंशा अपि न विसृष्टाः। बाणस्य कविताया मेकोदोषो दोषज्ञानां सविशेषं
हृदयोद्वेग मावहति। सचाऽयं, यत्स यत्किमपि वस्तु वर्णयन् विशेषणजालैः कथाभागं तथा पिदधाति यथा वर्षाकाल स्तृणगुल्मादिभिरुद्यान-राजीम्। तत्र च न केवलं तत्कालोपयोगिभिर्विशेषणैरेव विशेष्यं विशिनष्टि, प्रत्युत यावच्छक्यमुपलभ्यमानैर्भूतभविष्यत्सम्बन्धिभिरपि व्यतिकरनिकरैरवकरमिवकरोति। अयमादीनवोऽस्य सुधासमधुरायां मधुरायां कवितायां शर्करा—कर्करायते। उदाहरणार्थमस्य परमरमणीयमच्छोदसरोवरवर्णनमेव निर्वर्णयत। चन्द्रापीडोऽदृष्टचरं सरो ददर्श। अस्मिन् प्रसङ्गे– यदि तेन प्रत्यक्षं निरीक्ष्यमाणानां वस्तूनामेव वर्णनं कविरकरिष्यत् तदा साध्वभविष्यत्। परं स्थितिः सर्वथा प्रतीपावर्त्तते। प्रत्यक्षमुपलभ्यमानैः पदार्थैः सह कविर्नायकेनाऽननुभूयमानानपि विषयान् वर्णयति। यथा–“आसन्न कैलासाऽवतीर्णस्य च शतशो भगवतः खण्डपरशोर्मज्जनोन्मज्जन क्षोभचलित चूड़ामणि चन्द्रखण्डच्युतेनाऽमृतरसेन जलक्षालित वामार्धकपोल–गलित–लावण्य प्रवाहानुकारिणा मिश्रित–जलम्” इत्यत आरभ्य—“क्वचिदैरावतदशनमुसलखण्डितकुमुदखण्डम्” इति पर्यन्तं प्रायेण सर्वाण्येव विशेषणानि निर्दिष्ट-दोषदूषितानि सन्ति। संक्षेपकरणायैतादृंशि विशेषणानि दूरीकृतानि। उल्बणशृंगारांशोऽपि सर्वथा पृथक्कृतः।
श्रीमता कृष्णमाचार्येण संगृहीतः कादम्बरी-संग्रहोऽपि आवयोर्लोचन-गोचरोऽभूत्।आचार्य महोदयेन तत्र श्लेष विरोधाभासादीनां बाणशैली–वैशिष्ट्यानां नितान्त मेव परित्यागोऽकारीति सरलतातिशयात्स संग्रहो महाविद्यालय विभागेनोपयोगमर्हतीत्यावयोर्धारणा। तस्मादावाभ्यां द्राघीयांसि वर्णनानि लघूकुर्वद्भ्यामपि बाणप्रणाली प्राणरक्षायै विहितो विशेषः श्रमः।
अत्र च संगृहीतानामंशानां पौर्वापर्यं कवीनां काल–क्रमेणैव
नियन्त्रितम्। यद्यप्यद्याऽपि विवादास्पद मेव विषयोऽयं तथापि यथामति बहुविविच्य यन्निर्धारयितुं पारितं खलु तदेव श्रीमतां पुरस्तादुपन्यस्तम्। अस्मिन्त्संग्रहे समुपात्तानां काव्यांशानां तत्कवीनां च विषये पुस्तकान्ते प्रदास्यमानासु टिप्पणीषु किंचिद्विवेचन माचरिष्यावइत्यलमत्राऽप्रसक्ताऽनुप्रसक्त्या।
अन्ते च ‘गच्छतः स्खलनं क्वापीति’ नयानुसार मस्मदीयप्रमादादिनिमित्तकंदोषजात मुपेक्षिष्यन्ते सन्त इति मुहुर्मुहुरभ्यर्थयेते—
द्वितीय चैत्र सुदि रामनवम्याम्
विदुषां वशंवदौ
सं० १९८३ वैक्रमाब्दे
भवानीप्रसादः-
कांगड़ी गुरुकुल विश्वविद्यालयस्य
वागीश्वरश्च
पञ्चकुटीरे
अनुक्रमणिका
| विषयाः | |
| १. | श्रीयजुर्वेदात्-पुरुष सूक्तम् |
| २. | दूतवाक्यम्- महाकविभासप्रणीतम् |
| ३. | श्रीमद्भागवतात्- अर्जुन विलापः |
| ४. | मृच्छकटिकात्- वसन्तसेना गृह वर्णनम् |
| ** वासवदत्तायाः** | |
| ५. | चिन्तामणि वर्णनम् |
| ६. | मकरन्दोपदेशः |
| ७. | सूर्यास्त वर्णनम् |
| ८. | सन्ध्या वर्णनम् |
| ९. | तिमिर-प्रचार-वर्णनम् |
| १०. | तारा वर्णनम् |
| ११. | निशा समय स्वभाव वर्णनम् |
| १२. | श्री पुलिकेशिनः शिलालेखः |
| ** हर्षचरितात्** | |
| १३. | यशोवत्याश्चितारोहण निश्चयः |
| १४. | मालबराज पराजयाय राज्यवर्धनप्रयाणम् |
| १५. | सेनापतिः सिंहनादस्य भाषणम् |
| १६. | श्रीहर्षदेवस्य भाषणम् |
| ** कादम्बरीतः** | |
| १७. | परमात्मवन्दना कविवंश-वर्णनम् |
| १८. | शूद्रक वर्णनम् |
| १९. | चाण्डाल कन्याऽऽगमनम् |
| विषयाः | |
| २०. | चाण्डाल कन्याया राजदर्शनम् |
| २१. | चाण्डाल कन्यावर्णनम् |
| २२. | वैशम्पायनपरिचयः |
| २३. | शुकविषये राज्ञः सचिवं प्रति प्रश्नः |
| २४. | सचिवस्योत्तरम् |
| २५. | राजसभा विसर्जनवर्णनम् |
| २६. | नरपते रन्तःपुर गमनं स्नानञ्च |
| २७. | देवपूजन-भोजने विश्रामश्च |
| २८. | वैशम्पायनेन सह राज्ञो वार्तालापः |
| २९. | वैशम्पायनकृतं विन्ध्याटवी वर्णनम् |
| ३०. | अगस्त्याश्रम वर्णनम् |
| ३१. | पम्पासरोवर वर्णनम् |
| ३२. | विशाल शाल्मली वर्णनम् |
| ३३. | शुककुलवर्णनम् |
| ३४. | वैशम्पायनस्य स्वजननी निधन वर्णनम् |
| ३५. | अन्येद्युः प्रभाते कानन विक्षोभवर्णनम् |
| ३६. | लुब्धक कुल कोलाहलाऽऽकर्णनम् |
| ३७. | वन्यसत्व विद्रवः |
| ३८. | वनचरचमूवर्णनम् |
| ३९. | मातङ्ग सेनापति विलोकनम् |
| ४०. | शबर सेना प्रस्थानम् |
| ४१. | अन्यतम शबरस्य शुकशावक शातनम् |
| ४२. | पितुर्मृत्युरात्मनो गोपनं च |
| ४३. | पुलिन्दगमनम् |
| ४४. | वैशम्पायनस्य जलाशय जिगमिषा |
| ४५. | हारीतवर्णनम् |
| ४६. | शुक शिशुमादाय हारीतस्य सरोवरगमनम् |
| विषयाः | |
| ४७. | तपोवन वर्णनम् |
| ४८. | महर्षि जाबालिदर्शनम् |
| ४९. | जाबालि प्रभाव वर्णनम् |
| ५०. | जाबालेः शुक प्रत्यभिज्ञानम् |
| ५१. | मुनिपरिषदः शुकविषये प्रश्नः |
| ५२. | सन्ध्यावर्णनम् |
| ५३. | निशामुखे तपोधनपरिषदाऽऽयोजनम् |
| कादम्बरी चन्द्रापीड कथारम्भः | |
| ५४. | उज्जयिनीवर्णनम् |
| ५५. | तारापीड वर्णनम् |
| ५६. | राज्ञोदैनिक व्यापारादि वर्णनम् |
| ५७. | विलासवत्या अनपत्यता-जन्यो विषादः |
| ५८. | राज्ञः समाश्वासनम् |
| ५९. | विलासवत्या व्रतानुष्ठानम् |
| ६०. | राज्ञः स्वप्नदर्शनम् |
| ६१. | विलासवत्या गर्भधारणम् |
| ६२. | राज्ञः कुमारदर्शनम् |
| ६३. | शुकनास सदने सुत जन्म |
| ६४. | नामकरणम् |
| ६५. | कुमारयोर्गुरुकुल गमनम् |
| ६६. | यौवनाऽवतारः |
| ६७. | गुरुकुलात् प्रत्यावर्तनम् |
| ६८. | इन्द्रायुध वर्णनम् |
| ६९. | नगर प्रवेशः |
| ७०. | राजप्रासाद वर्णनम् |
| ७१. | शुकनास सदनगमनम् |
| विषयाः | |
| ७२. | विश्राम भोजन शयनादिकम् |
| ७३. | मृगया वर्णनम् |
| ७४. | पत्रलेखा परिचयः |
| ७५. | चन्द्रापीडं प्रति शुकनासोपदेशः |
| ७६. | राज्याभिषेको विजययात्रा च |
| ७७. | सैन्य समारोहः |
| ७८. | वैशम्पायनस्य तारापीड प्रतापवर्णनम् |
| ७९. | सर्वलोक विजयः |
| ८०. | चन्द्रापीडस्य किन्नरमिथुनानुसरणम् |
| ८१. | अच्छोद सरोवरदर्शनम् |
| ८२. | संगीतध्वन्यनुसरणम् |
| ८३. | दिव्य कन्यकाऽऽवलोकनम् |
| ८४. | कन्यका कृतं चन्द्रापीडाऽऽतिथ्यम् |
| ८५. | चन्द्रापीडस्य कन्याविषये जिज्ञासा |
| ८६. | महाश्वेतायाः स्वपूर्व कथा निवेदनम् |
| ८७. | महाश्वेताया अच्छोद सरोवर गमनम् |
| ८८. | मुनिकुमार विलोकनम् |
| ८९. | महाश्वेता मुनिकुमारयोरनुरागः |
| ९०. | कुसुममञ्जर्याः परिचयः |
| ९१. | अक्षमाला स्खलनम् |
| ९२. | कपिञ्जलस्य पुण्डरीक प्रबोधनम् |
| ९३. | महाश्वेतायाः रत्नावली प्रत्यर्पणम् |
| ९४. | महाश्वेतायाः स्वभवन गमनम् |
| ९५. | तरलिकायाः पत्रिकाऽऽनयनम् |
| ९६. | कपिंजलस्य महाश्वेता भवनाऽऽगमनम् |
| ९७. | पुण्डरीक दशानिवेदनम् |
| विषयाः | |
| ९८. | कपिंजल प्रतिगमनम् |
| ९९. | महाश्वेतायाः पुण्डरीकान्तिक गमनम् |
| १००. | सरस्तीरे क्रन्दनाऽऽकर्णनम् |
| १०१. | महाश्वेताया विलापो मूर्च्छनं च |
| १०२. | चन्द्रापीडस्य महाश्वेतामूर्च्छापनर्नयम् |
| १०३. | दिव्यपुरुषस्यावतरणम् |
| १०४. | महाश्वेतायाः समाश्वासनम् |
| १०५. | कादम्बरी परिचयो विश्रामश्च |
| १०६. | केयूरकाऽऽगमनम् |
| १०७. | महाश्वेता चन्द्रापीडयोर्हेमकूटगमनम् |
| १०८. | कादम्बरी प्रासादप्रवेशः |
| १०९. | कादम्बरी दर्शनम् |
| ११०. | उचित शिष्टाचारः |
| १११. | सुभाषितानि |
ॐ
साहित्य-सुधा-संग्रहः
द्वितीय बिन्दुः
पुरुष सूक्तम्
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमिं सर्वत स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥१॥
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥२॥
एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥३॥
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि॥४॥
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥५॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये॥६॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥७॥
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥८॥
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥९॥
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्यासीत्किं बाहू किमूरू पादा उच्येते॥१०॥
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥११॥
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत॥१२॥
नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णोद्यौः समवर्त्तत।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ २॥ अकल्पयन्॥१३॥
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।
वसन्ताऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥१४॥
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम्॥१५॥
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्तयत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥१६॥
अद्भ्यः सम्भूतः पृथिव्यै रसाच्चविश्वकर्मणः समवर्त्तताग्रे।
तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे॥१७॥
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥१८॥
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते।
तस्य योनिं परिपश्यन्ति धीरास्तस्मिन्ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा॥१९॥
यो देवेभ्य आतपति यो देवानां पुरोहितः।
पूर्वो यो देवेभ्यो जातो नमो रुचाय ब्राह्मये॥२०॥
रुचं ब्राह्मं जनयन्तो देवा अग्रे तदब्रुवन्।
यस्त्वैवं ब्राह्मणो विद्यात्तस्य देवा असन्वशे॥२१॥
श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि।
रूपमश्विनौ व्यात्तम्। इष्णन्निषाणामुंम इषाण सर्वलोकं
म इषाण २२॥ (यजुर्वेदात्)
ऋषिः – नारायणः १– १६ उत्तरनारायणः, १७–२२। देवता–पुरुषः १, ३, ४, ६, ८–१६, ईशानः’ २, स्रष्टा ५, स्रष्टेश्वरः ७, आदित्यः १७–१९, २२ सूर्यः २०, विश्वेदेवाः २१। छन्दः – निचृदनुष्टुप् १–३, ८ – ११, १४, अनुष्टुप् ४, ५, ७, १२, १३, १५, २०, २१, विराडनुष्टुप् ६, विराट् त्रिष्टप् १६, भुरिक् त्रिष्टुप् १७, १९, निचृत् त्रिष्टुप् १८, निचृदार्षात्रिविप् २२। स्वरः गान्धरः १–१५, २०, २१, धैवतः १५ – १९, २२।
*ओ३म्*
महाकविश्रीभासप्रणीतं
दूतवाक्यम्।
(नान्द्यन्ते ततः प्रविशति सूत्रधारः)
सूत्रधारः—
पादः पायादुपेन्द्रस्य सर्वलोकोत्सबःस वः।
व्याविद्धो नमुचिर्येन तनुताम्रनखेन खे॥१॥
एवमार्यमिश्रान् विज्ञापयामि। अये किन्नु खलु मयि विज्ञापनव्यग्रे शब्द इव श्रूयते। अङ्ग! पश्यामि।
(नेपथ्ये)
भो भोः प्रतिहाराधिकृताः! महाराजो दुर्योधनः समाज्ञापयति।
सूत्रधारः—
भवतु, विज्ञातम्।
उत्पन्नेधार्तराष्ट्राणां विरोधे पाण्डवैः सह।
मन्त्रशालां1 रचयति भृत्यो दुर्योधनाज्ञया॥२॥
(निष्क्रान्तः)
स्थापना।
(ततः प्रविशति काञ्चुकीयः)
** काञ्चुकीयः**—
भो भोः प्रतिहाराधिकृताः महाराजो दुर्योधनः समाज्ञापयति
—
अद्य सर्वपार्थिवैः सह मन्त्रयितुमिच्छामि। तदाहूयन्तां सर्वे राजान इति। (परिक्रम्यावलोक्य) अये अयं महाराजो दुर्योधन इत एवाभिवर्तते। य एषः,
श्यामो युवा सितदुकूलकृतोत्तरीयः
सच्छत्रचामरवरो रचिताङ्गरागः।
श्रीमान् विभूषणमणिद्युतिरञ्जिताङ्गो
नक्षत्रमध्य इव पर्वगतः शशाङ्कः॥३॥
(ततः प्रविशति2 यथानिर्दिष्टो दुर्योधनः)
** दुर्योधनः—**
उद्धूतरोषमिव मे हृदयं सहर्षं
प्राप्तं रणोत्सवाममं सहसा विचिन्त्य।
इच्छामि पाण्डवबले वरवारणाना-
मुत्कृत्तदन्तमुसलानि मुखानि कर्तुम्॥४॥
काञ्चुकीयः—
जयतु महाराजः। महाराजशासनात् समानीतं सर्वराजमण्डलम्।
** दुर्योधनः—**
सम्यक् कृतम्। प्रविश त्वमवरोधनम्।
** काञ्चुकीयः—**
यदाज्ञापयति महाराजः। (निष्क्रान्तः )
दुर्योधनः—
आर्यौ! वैकर्णवर्षदेवौ! उच्यताम्—
अस्ति ममैकादशाक्षोहिणीबलसमुदयः। अस्य कः सेनापतिर्भवितुमर्हति।
किं किमाहतुर्भवन्तो—
महान् खल्वयमर्थः। मन्त्रयित्वा वक्तव्यमिति।
सदृशमेतत्3। तदागम्यता मन्त्रशालामेव प्रविशामः। आचार्य! अभिवादये। प्रविशतु भवान् मन्त्रशालाम्। पितामह! अभिवादये प्रविशतु भवान् मन्त्रशालाम्। मातुल! अभिवादये। प्रविशतु भवान् मन्त्रशालाम्। आर्यौ! वैकर्णवर्षदेवौ! प्रविशतां भवन्तौ। भोभोः सर्वक्षत्रियाः! स्वैरं प्रविशन्तु भवन्तः। वयस्य! कर्ण! प्रविशामस्तावत्।
(प्रविश्य)
आचार्य! एतत्4 कूर्मासनम्, आस्यताम्। पितामह! एतत्5सिंहासनम्, आस्यताम्। मातुल! एतच्च6र्मासनम्, आस्यताम्। आर्यो! वैकर्णवर्षदेवौ! आसातां भवन्तौ। भो भोः सर्वक्षत्रियाः! स्वैरमासतां भवन्तः।
किमिति किमिति महाराजो नास्त इति। अहो सेवाधर्मः। नन्वयमहमासे। वयस्य! कर्ण! त्वमप्यास्स्व (उपविश्य)
———————————————————————————————————————
किं ब्रूयेति शेषः।
———————————————————————————————————————
आर्यौ! वैकर्णवर्षदेवौ! उच्यताम्—अस्ति ममैकादशाक्षौहिणीबलसमुदयः। अस्य कः सेनापतिर्भवितुमर्हतीति।
किमाहतुर्भवन्तौ—अत्रभवान् गान्धारराजो वक्ष्यतीति? भवतु मातुलेनाभिधीयताम्।
किमाह मातुलः—अत्रभवति गाङ्गेये स्थिते कोऽन्यः सेनापतिर्भवितुमर्हतीति।
सम्यगाह मातुलः। भवतु भवतु। पितामह एव भवतु। वयमप्येतदभिलषामः।
सेनानिनादपटहस्वनशङ्खनादै-
श्चण्डानिलाहतमहोदधिनादकल्पैः।
गाङ्गेयमूर्ध्नि पतितैरभिषेकतोयैः
सार्धं पतन्तु हृदयानि नराधिपानाम्॥५॥
(प्रविश्य)
काञ्चुकीयः
**—**जयतु महाराजः। एष खलु पाण्डवस्कन्धावाराद्दौत्येनागतः पुरुषोत्तमो नारायणः।
दुर्योधनः—
मा तावद् भो बादरायण!। किं किं कंसभृत्यो दामोदरस्तव पुरुषोत्तमः? स गोपालकस्तव पुरुषोत्तमः? बार्हद्रथापहृतविषय कार्त्तिभोगस्तवं पुरुषोत्तमः? अहो पार्थिवासन्नमाश्रितस्य भृत्यजनस्य समुदाचारः। सगर्वं खल्वस्य वचनम्। आ अपध्वंस!
** काञ्चुकीयः—**
प्रसीदतु महाराजः। संभ्रमेण समुदाचारो विस्मृतः। (पादयोः पतति)
दुर्योधनः—
संभ्रम इति। आ मनुष्याणामस्त्येव संभ्रमः। उत्तिष्ठोत्तिष्ठ।
** काञ्चुकीयः—**
अनुगृहीतोऽस्मि।
दुर्योधनः—
इदानीं प्रसन्नोऽस्मि। क एष दूतः प्राप्तः।
काञ्चुकीयः—
दूतः प्राप्तः केशवः।
दुर्योधनः—
केशव इति। एवमेष्टव्यम्। अयमेव समुदाचारः। भो भो राजानः! दौत्येनागतस्य केशवस्य किं युक्तम्। किमाहुर्भवन्तः—
अर्घ्यप्रदानेन पूजयितव्यः केशव इति। न मे रोचते। ग्रहणमस्यात्र हितं पश्यामि।
ग्रहणमुपगते तु वासुभद्रे
हृतनयना इव पाण्डवा भवेयुः।
गतिमतिरहितेषु पाण्डवेषु
क्षितिरखिलापि भवेन्ममासपत्ना॥६॥
अपि च योऽत्र केशवस्य प्रत्युत्थास्यति, स मया द्वादशसुवर्णभारेण दण्ड्यः। तदप्रमत्ता भवन्तु भवन्तः। कोनुखलु ममाप्रत्युत्था [प?] नस्योपायः। हन्त दृष्ट उपायः। बादरायण! आनीयतां स चित्रपटो ननु, यत्र द्रोपदीकेशाम्बरावकर्षणमालिखितम्। (अपवार्य) तस्मिन्दृष्टिविन्यासं कुर्वन् नोत्थास्यामि केशवस्य।
काञ्चुकीयः—
यदाज्ञापयति महाराजः।(निष्क्रम्य प्रविश्य) जयतु महाराजः। अयं स चित्रपटः।
** दुर्योधनः—**
ममाग्रतः प्रसारय।
** काञ्चुकीयः—**
यदाज्ञापयति महाराजः। (प्रसारयति)
** दुर्योधनः—**
अहो दर्शनीयोऽयं चित्रपटः। एषदुःशासनो द्रौपदीं केशहस्ते गृहीतवान्। एषा खलु द्रोपदी,
दुःशासनपरामृष्टासम्भ्रमोत्फुल्ललोचना।
राहुवक्त्रान्तरगता चन्द्रलेखेव शोभते॥७॥
एषदुरात्मा भीमः सर्वराजसमक्षमवमानितां द्रौपदीं दृष्ट्वा प्रवृद्धामर्षः सभास्तम्भं तुलयति। एष युधिष्ठिरः,
सत्यधर्मघृणायुक्तो द्यूतविभ्रष्टचेतनः।
करोत्यपाङ्गविक्षेपैः शान्तामर्षंवृकोदरम्॥८॥
एषइदानीमर्जुनः,
रोषाकुलाक्षः स्फुरिताधरोष्ठ-
स्तृणाय मत्वा रिपुमण्डलं तत्।
उत्सादयिष्यन्निव सर्वराज्ञः7
शनैः समाकर्षति गाण्डिवज्याम्॥९॥
एषयुधिष्ठिरोऽर्जुनं निवारयति। एतौ नकुलसहदेवौ,
कृतपरिकरबन्धौचर्मनिस्त्रिंशहस्तौ
परुषितमुखरागौ स्पष्टदष्टाधरोष्ठौ।
विगतमरणशङ्कौ सत्वरं भ्रातरं मे
हरिमिव मृगपोतो तेजसाभिप्रयातौ॥१०॥
एष युधिष्ठिरः कुमारावुपेत्य निवारयति—
नीचोऽहमेव विपरीतमतिः कथं वा
रोषं परित्यजतमद्य नवानयज्ञौ।
द्यूताधिकारमवमानममृष्यमाणाः
सत्त्वाधिकेषु वचनीयपराक्रमाः स्युः॥११॥
इति। एष गान्धारराजः,
अक्षान् क्षिपन् सकितवं8 प्रहसन् सगर्वं
सङ्कोचयन्निव मुदं द्विषतां स्वकीर्त्त्या।
स्वैरासनो द्रुपदराजसुतां रुदन्तीं9
काक्षेण पश्यति लिखत्य (भिखां?) नयज्ञः॥१२॥
एतावाचार्यपितामहौ तां दृष्ट्वा लज्जायमानौ पटान्तान्तर्हितमुखौ स्थितौ। अहो अस्य वर्णाढ्यता। अहो भावोपपन्नता। अहो युक्तलेखता। सुव्यक्तमालिखितोऽयं चित्रपटः। प्रीतोऽस्मि। कोऽत्र।
** काञ्चुकीयः—**
जयतु महाराजः।
** दुर्योधनः—**
बादरायण! आनीयतां स विहगवाहनमात्रविस्मितो दूतः।
** काञ्चुकीयः**
**—**यदाज्ञापयति महाराजः। (निष्क्रान्तः)
दुर्योधनः–
वयस्य! कर्ण!
प्राप्तः किलाद्य वचनादिह पाण्डवानां
दौत्येन भृत्य इव कृष्णमतिः स कृष्णः।
श्रोतुं सखे! त्वमपि सज्जय कर्ण! कर्णौ
नारीमृदूनि10 वचनानि युधिष्ठिरस्य॥१३॥
(ततः प्रविशति वासुदेवः काञ्चुकीयश्च)
वासुदेवः—
अद्य खलु धर्मराजवचनाद् धनञ्जयाकृत्रिममित्रतया चाहवदर्पमनुक्तग्राहिणं सुयोधनं प्रति मयाप्यनुचितदौत्यसमयोऽनुष्ठितः। अथच,
कृष्णापराभवभुवा रिपुवाहिनीभ-
कुम्भस्थलीदलनतीक्ष्णगदाधरस्य।
भीमस्य कोपशिखिना युधि पार्थपत्रि-
चण्डानिलैश्च कुरुवंशवनं विनष्टम्॥१४॥
इदं सुयोधनशिविरम्। इह हि,
आवासाः पार्थिवानां सुरपुरसदृशाः स्वच्छन्दविहिता
विस्तीर्णाः शस्त्रशाला बहुविधकर (रै? णै) शस्त्रैरुपचिताः
हेषन्ते मन्दुरास्थास्तुरगवरघटा बृंहन्ति करिण
ऐश्वर्यं स्फीतमेतत् स्वजनपरिभवादासन्नविलयम्॥१५॥
भोः !
दुष्टवादी गुणद्वेषी शठः स्वजननिर्दयः।
सुयोधनो हि मां दृष्ट्वा नैव कार्यं करिष्यति॥१६॥
भो बादरायण! किं प्रवेष्टव्यम्।
** काञ्चुकीयः—**
अथकिमथकिम्। प्रवेष्टुमर्हति पद्मनाभः।
वासुदेवः
—
(प्रविश्य) कथं कथं मां दृष्ट्वा संभ्रान्ताः सर्वक्षत्रियाः। अलमलं संभ्रमेण। अलमलं संभ्रमेण स्वैरमासतां भवन्तः
दुर्योधनः
—
कथं कथं केशवं दृष्ट्वा संभ्रान्ताः सर्वक्षत्रियाः। अलमलं संभ्रमेण। स्मरणीयः पूर्वमाश्रावितो दण्डः। नन्वयमहमाज्ञप्ता।
वासुदेवः
—
भोः सुयोधन! किमास्से।
दुर्योधनः
—
(आसनात् पतित्वा आत्मगतम्) सुव्यक्तं प्राप्त एवकेशवः।
उत्साहेन मतिं कृत्वाप्यासीनोऽस्मि समाहितः।
केशवस्य प्रभावेन चलितोऽस्म्यासनादहम्॥१७॥
अहो बहुमायोऽयं दूतः। (प्रकाशम्) भो दूत! एतदासनमास्यताम्।
वासुदेवः—
आचार्य! आस्यताम्। गाङ्गेयप्रमुखा राजानः! स्वैरमासतां भवन्तः। वयमप्युपविशामः। (उपविश्य) अहो दर्शनीयोऽयं चित्रपटः। मा तावत्। द्रोपदीकेशधर्षणमत्रालिखितम्। अहोनुखलु,
सुयोधनोऽयं स्वजनावमानं
पराक्रमं पश्यति बालिशत्वात्।
को नाम लोके स्वयमात्मदोष-
मुद्घाटयेन्नष्टघृणः सभासु॥१८॥
आः अपनीयतामेष चित्रपटः।
** दुर्योधनः—**
बादरायण! अपनीयतां किल चित्रपटः।
काञ्चुकीयः—
यदाज्ञापयति महाराजः। (अपनयति)
** दुर्योधनः—**
भो दूत!
धर्मात्मजो वायुसुतश्च भीमो
भ्रातार्जुनो मे त्रिदशेन्द्रसूनुः।
यमौ च तावश्विसुतौ विनीतौ
सर्वे सभृत्याः कुशलोपपन्नाः॥१९॥
** वासुदेवः—**
सदृशमेतद् गान्धारीपुत्रस्य। अथकिमथकिम्।
कुशलिनः सर्वे। भवतो राज्ये शरीरे बाह्याभ्यन्तरे च कुशलमनामयं च पृष्ट्वा विज्ञापयन्ति युधिष्ठिरादयः पाण्डवाः—
अनुभूतं महद् दुःखं संपूर्णः समयः स च।
अस्माकमपि धर्म्यं यद् दायाद्यं तद् विभज्यताम्॥२०॥
इति।
** दुर्योधनः—**
कथं कथं दायाद्यमिति।
वनेपितृव्यो मृगयाप्रसङ्गतः
कृतापराधो मुनिशापमाप्तवान्।
तदाप्रभृत्येव स दारनिस्स्पृहः
परात्मजानां पितृनां कथं व्रजेत्॥२१॥
** वासुदेवः—**
पुराविदं भवन्तं पृच्छामि।
विचित्रवीर्यो विषयी विपत्तिं
क्षयेण यातः पुनरम्बिकायाम्।
व्यासेन जातो धृतराष्ट्र एष
लभेत राज्यं जनकः कथं ते॥२२॥
मा मा भवान्,
एवं परस्परविरोधविवर्धनेन
शीघ्रं भवेत् कुरुकुलं नृप!नामशेषम्।
तत् कर्तुमर्हति भवानपकृष्य रोषं
यत् त्वां युधिष्ठिरमुखाः प्रणयाद् ब्रुवन्ति॥२३॥
** दुर्योधनः—**
भो दूत! न जानाति भवान् राज्यव्यवहारम्।
राज्यं नाम नृपात्मजैः सहृदयैर्जित्वा रिपून् भुज्यते
तल्लोके न तु याच्यते न तु पुनर्दीनाय वा दीयते।
काङ्क्षा चेन्नृपतित्वमाप्तुमचिरात् कुर्वन्तु ते साहसं
स्वैरं वा प्रविशन्तु शान्तमतिभिर्जुष्टंशमायाश्रमम्॥२४॥
** वासुदेवः—**
भो सुयोधन! अलं बन्धुजने परुषमभिधातुम्।
पुण्यसञ्चयसम्प्राप्तामधिगम्य नृपश्रियम्।
वञ्चयेद् यः सुहृद्बन्धून् स भवेद् विफलश्रमः॥२५॥
** दुर्योधनः—**
स्यालं तवगुरोर्भूपं कंसं प्रति न ते दया।
कथमस्माकमेवं स्यात् तेषु नित्यापकारिषु॥२६॥
वासुदेवः—
अलं तन्मद्दोषतो ज्ञातुम्।
कृत्वा पुत्रवियोगार्तां बहुशो जननीं मम।
वृद्धंस्वपितरं बद्ध्वा हतोऽयं मृत्युना स्वयम्॥२७॥
दुर्योधनः—
सर्वथा वञ्चितस्त्वया कंसः। अलमात्मस्तवेन। न शौर्यमेतत्। पश्य,
जामातृ11नाशव्यसनाभितप्ते
रोपाभिभूते मगधेश्वरेऽथ।
पलायमानस्य भयातुरस्य
शौर्यं तदेतत् क्व गतं तवासीत्॥२८॥
वासुदेवः—
भोः सुयोधन! देशकालावस्थापेक्षितं खलु शौर्यं नयानुगामिनाम्। इह तिष्ठतु तावदस्मद्गतः परिहासः। स्वकार्यमनुष्ठीयताम्।
कर्तव्यो भ्रातृषु स्नेहो विस्मर्तव्या गुणेतराः।
सम्बन्धो बन्धुभिः श्रेयान् लोकयोरुभयोरपि॥२९॥
** दुर्योधनः—**
देवात्मजैर्मनुष्याणां कथं वा बन्धुता भवेत्।
पिष्टपेषणमेतावत् पर्याप्तं छिद्यतां कथा॥३०॥
** वासुदेवः**—
(आत्मगतम्)
प्रसाद्यमानः साम्नायं न स्वभावं विमुञ्चति।
हन्त संक्षोभयाम्येनं वचोभिः परुषाक्षरैः॥३१॥
(प्रकाशम्) भोः सुयोधन! किं न जानीषेऽर्जुनस्य वलपराक्रमम्।
दुर्योधनः—
न जाने।
वासुदेवः—
भोः! श्रूयतां,
कैरातं वपुरास्थितः पशुपतिर्युद्धेन सन्तोषितो
वन्हेः खाण्डवमश्नतः सुमहती वृष्टिः शरैश्छादिता।
देवेन्द्रार्तिकरानिवातकवचा नीताः क्षयं लीलया
नन्वेकेन तदा विराटनगरे भोष्मादयो निर्जिताः॥३२॥
अपिच, तवापि प्रत्यक्षंपरं कथयामि।
ननु त्वंचित्रसेनेन नीयमानो नभस्तलम्।
विक्रोशन् घोषयात्रायां फाल्गुनेनैव मोक्षितः॥३३॥
किं बहुना,
दातुमर्हसि मद्वाक्याद् राज्यार्धं धृतराष्ट्रज!।
अन्यथा सागरान्तां गां हरिष्यन्ति हि पाण्डवाः॥३४॥
** दुर्योधनः—**
कथं कथम्। हरिष्यन्ति हि पाण्डवाः।
प्रहरति यदि युद्धे मारुतो भीमरूपी
प्रहरति यदि साक्षात् पार्थरूपेण शक्रः।
परुषवचनदक्ष! त्वद्वचोभिर्न दास्ये
तृणमपि पितृभुक्ते वीर्यगुप्ते स्वराज्ये॥३५॥
** वासुदेवः**—
भोः कुरुकुलकलङ्कभूत! अयशोलुब्ध! वयं किल तृणान्तराभिभाषकाः।
** दुर्योधनः—**
भो गोपालक! तृणान्तराभिभाष्यो भवान्।
अवध्यां प्रमदां हत्वा हयं गोवृषमेव च।
मल्लानपि सुनिर्लज्जो वक्तुमिच्छसि साधुभिः॥३६॥
** वासुदेवः—**
भोः सुयोधन! ननु क्षिपसि माम्।
दुर्योधनः—
आः अभाष्यस्त्वम्।
अहमवधृतपाण्डरातपत्रो
द्विजवरहस्तधृताम्बुसिक्तमूर्धा।
अवनतनृपमण्डलानुयात्रैः
सह कथयामि भवद्विधैर्न भाषे॥३७॥
वासुदेवः—
न व्याहरति किल मां सुयोधनः। भोः!
शठ! बान्धवनिःस्नेह! काक12! केकर! पिङ्गल!।
त्वदर्थात् कुरुवंशोऽयमचिरान्नशमेष्यति॥३८॥
भो भो राजानः! गच्छामस्तावत्।
** दुर्योधनः—**
कथं यास्यति किल केशवः। दुःशासन! दुर्मर्षण दुर्मुख! दुर्बुद्धे! दुष्टेश्वर! दूतसमुदाचारमतिक्रान्तः केशवो बध्यताम्। कथमशक्ताः। दुःशासन! न समर्थः खल्वसि।
करितुरगनिहन्ता कंसहन्ता स कृष्णः
पशुपकुलनिवासादानुजीव्यानभिज्ञः।
हृतभुजबलवीर्यः पार्थिवानां समक्षं
स्ववचनकृतदोषो बध्यतामेष शीघ्रम्॥३९॥
अयमशक्तः। मातुल! बध्यतामयं केशवः। कथं पराङ्मुखः पतति।
भवतु, अहमेव पाशैर्बध्नामि। (उपसर्पति)
वासुदेवः—
कथं (वि? बन्धु) कामो मां किल सुयोधनः। भवतु, सुयोधनस्य सामर्थ्यं पश्यामि। (विश्वरूपमास्थितः)
** दुर्योधनः—**
भो दूत!
सृजसि यदि समन्ताद् देवमायाः स्वमायाः
प्रहरसि यदि वा त्वं दुर्निवारैः सुरास्त्रैः।
हयगजवृषभाणां पातनाज्जातदर्पो
नरपतिगणमध्ये बध्यसे त्वं मयाद्य॥४०॥
आः तिष्ठेदानीम् कथं न दृष्टः केशवः। अयं केशवः। अहो ह्रस्वत्वं केशवस्य। आः तिष्ठेदानीम्। कथं न दृष्टः केशवः। अयं केशवः। अहो दीर्घत्वं केशवस्य। कथं न दृष्टः केशवः। अयं केशवः। सर्वत्र मन्त्रशालायां केशवा भवन्ति। किमिदानीं करिष्ये। भवतु, दृष्टम्। भो भो राजानः! एकेनैकः केशवो बध्यताम्। कथं स्वयमेव पाशैर्बद्धाः पतन्ति राजानः। साधु भो जम्भक13! साधु।
मत्कार्मुकोदरविनिःसृतबाणजालै-
र्विद्धक्षरत्क्षतजरञ्जितसर्वगात्रम्।
पश्यन्तु पाण्डुतनयाः शिबिरोपनीतं
त्वां बाष्परुद्धनयनाः परिनिःश्वसन्तः॥४१॥
(निष्क्रान्तः)
** वासुदेवः—**
भवतु, पाण्डवानां कार्यमहमेव साधयामि। भोः सुदर्शन इतस्तावत्।
(ततः प्रविशति सुदर्शनः)
** सुदर्शनः—**
एष भोः!
श्रुत्वा गिरं भगवतो विपुलप्रसादा-
न्निर्वावितोऽस्मि परिवारिततोयदौघः।
कस्मिन् खलु प्रकुपितः कमलायताक्षः
कस्याद्य मूर्धनि मया प्रविजृम्भितव्यम्॥४२॥
क्वनुखलु भगवान् नारायणः।
अव्यक्तादिरचिन्त्यात्मा लोकसंरक्षणोद्यतः।
एकोऽनेकवपुः श्रीमान् द्विषद्वलनिषूदनः॥४३॥
(विलोक्य) अये अयं भगवान्, हस्तिनपुरद्वारे दूतसमुदाचारेणोप
स्थितः। कुतः खल्वापः कुतः खल्वापः। भगवति! आकाशगङ्गे! आपस्तावत्। हन्त स्रवति। (आचम्योपसृत्य) जयतु भगवान् नारायणः। (प्रणमति)
** वासुदेवः—**
सुदर्शन! अप्रतिहतपराक्रमो भव।
** सुदर्शनः—**
अनुगृहीतोऽस्मि
वासुदेवः—
दिष्ट्या भवान् कर्मकाले प्राप्तः।
सुदर्शनः—
कथं कथं कर्मकाल इति। आज्ञापयतु भगवानज्ञापयतु।
किं मेरुमन्दरकुलं परिवर्तयामि
संक्षोभयामि सकलं मकरालयं वा।
नक्षत्रवंशमखिलं भुवि पातयामि
नाशक्यमस्ति मम देव! तव प्रसादात्॥४४॥
** वासुदेवः**
—
भोः सुदर्शन! इतस्तावत्। भोः सुयोधन!
यदि लवणजलं वा कन्दरं वा गिरीणां
ग्रहगणचरितं वा वायुमार्गं प्रयासि।
मम भुजबलयोगप्राप्तसंजातवेगं
भवतु चपल! चक्रं कालचक्रं तवाद्य॥४५॥
** सुदर्शनः—**
भोः सुयोधनहतक! (इति पुनर्विचार्य) प्रसीदतु प्रसीदतु भगवान् नारायणः।
महीभारापनयनं कर्तुं जातस्य भूतले।
अस्मिन्नेवं गते देव! ननु स्याद् विफलः श्रमः॥४६॥
** वासुदेवः—**
सुदर्शन! रोषात् समुदाचारो नावेक्षितः। गम्यतां स्वनिलयमेव।
सुदर्शनः—
यदाज्ञापयति भगवान् नारायणः। कथं कथं गोपालक इति। त्रिचरणातिक्रान्तत्रिलोको नारायणः खल्वत्रभवान्।
शरणं व्रजन्तु भवन्तः। यावद् गच्छामि। अये एतद् भगवदायुधवरं शार्ङ्गं प्राप्तम्।
तनुमृदुललिताङ्गं स्त्रीस्वभावोपपन्नं
हरिकरधृतमध्यं शत्रुसङ्घककालः।
कनकखचितपृष्ठं भाति कृष्णस्य पार्श्वे
नवसलिलदपार्श्वे चारुविद्युल्लाव॥४७॥
भो भोः! प्रशान्तरोषो भगवान् नारायणः। गम्यतां स्वनिलयमेव। हन्त निवृत्तः। यावद् गच्छामि। अये इयं कौमोदकी प्राप्ता।
मणिकनकविचित्रा चित्रमालोत्तरीया
सुररिपुगणगात्रध्वसने जाततृष्णा।
गिरिवरतटरूपा दुर्निवारातिवीर्या
व्रजति नभसि शीघ्रं मेघवृन्दानुयात्रा॥४८॥
हे कौमोदकि! प्रशान्तरोषो भगवान् नारायणः। हन्त निवृत्ता। यावद् गच्छामि। अये अयं पाञ्चजन्यः प्राप्तः।
पूर्णेन्दुकुन्दकुमुदोदरहारगौरो
नारायणाननसरोजकृतप्रसादः।
यस्य स्वनं प्रलयसागरघोषतुल्यं
गर्भा निशम्य निपतन्त्यसुराङ्गनानाम्॥४९॥
हेपाञ्चजन्य! प्रशान्तरोषो भगवान्। गम्यताम्। हन्त निवृत्तः। अये नन्दकासिः प्राप्तः।
वनिताविग्रहो युद्धे महाऽसुरयभयंकरः।
प्रयाति गगने शीघ्रं महोल्केव विभात्ययम्॥५०॥
हे नन्दक! प्रशान्तरोषोभगवान्। गम्यताम्। हन्त निवृत्तः। यावद्गच्छामि। अये एतानि भगवदायुधवराणि।
सोऽयं खङ्गः खरांशोरपहसिततनुः स्वैः करैर्नन्दकाख्यः
सेयं कौमोदकी या सुररिपुकठिनोरःस्थलक्षोददक्षा।
सैषाशार्ङ्गाभिधाना प्रलयघनरवज्यारवा चाप (रेखा
सोऽयं गम्भी) रघोषः शशिकरविशदः शङ्खराट् पाञ्चजन्यः॥५१॥
हे शार्ङ्ग! कौमोदकी! पाञ्चजन्य!
दैत्यान्तकृन्नन्दक! शत्रु—
वह्ने!।
प्रशान्तरोषो भगवान् मुरारिः
स्वस्थानमेवात्र हि (गच्छ ता) वत्॥५२॥
हन्त निवृत्ताः। यावद् गच्छामि। अये अत्युद्धूतो वायुः। अतितपत्यादित्यः। चलिताः पर्वताः। क्षुब्धाः सागराः। पतिता वृक्षाः। भ्रान्ता मेघाः। प्रलीना वासुकिप्रभृतयो भुजङ्गेश्वराः। किन्नु खल्विदम्। अये अयं भगवतो वाहनो गरुडः प्राप्तः।
सुरासुराणां परिखेदलब्धं
येनामृतं मातृविमोक्षणार्थम्।
आच्छिन्नमासीद् द्विषतो मुरारे-
स्त्वामुद्वहामीति वरोऽपि दत्तः॥५३॥
हेकाश्यपप्रियसुत! गरुड़! प्रशान्तरोषोभगवान् देवदेवेशः। गम्यतां स्वनिलयमेव। हन्त निवृत्तः। यावद् गच्छामि।
एते + + + + + + + + +
-
-
- संभ्रमचलन्मुकुटोत्तमाङ्गाः।
रुष्टेऽच्युते विगतकान्तिगुणाः प्रशान्तं
श्रुत्वा श्रयन्ति सदनानि (नि) वृत्ततापाः॥५४॥
- संभ्रमचलन्मुकुटोत्तमाङ्गाः।
-
यावदहमपि कान्तां मेरुगुहामेव यास्यामि। (निष्क्रान्तः)
वासुदेवः—
यावदहमपि पाण्डवशिविरमेव यास्यामि।
(नेपथ्ये)
नखलु नखलु गन्तव्यम्।
वासुदेवः—
अये वृद्धराजस्वर इव। भो राजन्! एष स्थितोऽस्मि।
(ततः प्रविशति धृतराष्ट्रः)
** धृतराष्ट्रः—**
क्वनुखलु भगवान् नारायणः। क्वनुखलु भगवान्पाण्डवश्रेयस्करः। क्वनुखलु भगवान् विप्रप्रियः। क्वनुखलु भगवान्देवकीनन्दनः।
मम पुत्रापराधात् तुशार्ङ्गपाणे! तवाधुना।
एतन्मे त्रिदशाध्यक्ष! पादयोः पतितं शिरः॥५५॥
(पतति)
वासुदेवः—
हा धिक्। पतितोऽत्रभवान्। उत्तिष्ठोत्तिष्ठ।
** धृतराष्ट्रः—**
अनुगृहीतोऽस्मि। भगवन्! इदमर्घ्यंपाद्यं च प्रतिगृह्यताम्।
** वासुदेवः—**
सर्वं गृह्णामि। किं ते भूयः प्रियमुपहरामि।
** धृतराष्ट्रः—**
यदि मे भगवान् प्रसन्नः, किमतःपरमिच्छामि।
** वासुदेवः—**
गच्छ, भवान् पुनर्दर्शनाय।
** धृतराष्ट्रः—**
यदाज्ञापयति भगवान् नारायणः (निष्क्रान्तः)
(भरतवाक्यम्)
इमां सागरपर्यन्तां हिमवद्विन्ध्यकुण्डलाम्।
महीमेकातपत्राङ्कां राजसिंहः प्रशास्तु नः॥५६॥
(निष्क्रान्ताः सर्वे)
दूतवाक्यं समाप्तम्।
———
शुभं भूयात्।
* अर्जुन विलापः *
सूत उवाच
एवं कृष्णसखः कृष्णो भ्रात्रा राज्ञा विकल्पितः।
नानाशङ्कास्पदं रूपं कृष्णविश्लेषकर्शितः॥१॥
शोकेन शुष्यद्वदनहृत्सरोजो हतप्रभः।
विभुं तमेवानुध्यायन्नाशक्नोत्प्रतिभाषितुम्॥२॥
कृच्छ्रेण संस्तभ्य शुचः पाणिनामृज्य नेत्रयोः।
परोक्षेण समुन्नद्धप्रणयौत्कण्ठ्यकातरः॥३॥
सख्यं मैत्रीं सौहृदं च सारथ्यादिषु संस्मरन्।
नृपमग्रजमित्याह वाष्पगद्गदया गिरा॥४॥
अर्जुन उवाच
वञ्चितोऽहं महाराज हरिणा बन्धुरूपिणा।
येन मेऽपहृतं तेजो देवविस्मापनं महत्॥५॥
यस्य क्षणवियोगेन लोको ह्यप्रियदर्शनः।
उक्थेन रहितो ह्येष मृतकः प्रोच्यते यथा॥६॥
यत्संश्रयाद्द्रुपदगेहमुपागतानां,
राज्ञां स्वयंवरमुखे स्मरदुर्मदानाम्।
तेजो हृतं खलु मयाभिहतश्च मत्स्यः,
सज्जीकृतेन धनुषाधिगता च कृष्णा॥७॥
यत्संनिधावहमु खाण्डवमग्नयेऽदा-
मिन्द्रं च सामरगणं तरसा विजित्य।
लब्धा सभा मयकृताद्भुतशिल्पमाया,
दिग्भ्याऽहरन्नृपतयो बलिमध्वरे ते॥८॥
यत्तेजसा नृपशिरोऽङ्घ्रिमहन्मखार्थे,
आर्योऽनुजस्तव गजायुतसत्त्ववीर्यः।
तेनाहृताः प्रमथनाथमखाय भूपा,
यन्मोचितास्तदनयन्बलिमध्वरे ते॥९॥
पत्न्यास्तवाधिमखक्लृप्तमहाभिषेक-
श्लाघिष्ठचारुकबरं कितवैः सभायाम्।
स्पृष्टंविकार्य पदयोः पतिताश्रुमुख्या,
यैस्तत्स्त्रियोऽकृत हतेशविमुक्तकेशाः॥१०॥
यो नो जुगोप वनमेत्य दुरन्तकृच्छ्राद्-
दुर्वाससोऽरिविहितादयुताग्रभुग्यः।
शाकान्नशिष्टमुपभुज्य यतस्त्रिलोकीं,
तृप्ताममंस्त सलिले विनिमग्नसङ्घः॥११॥
यत्तेजसाथ भगवान्युधि शूलपाणि-
र्विस्मापितः स गिरिजोऽस्त्रमदान्निजं मे।
अन्येऽपि चाहममुनैव कलेवरेण,
प्राप्तो महेन्द्रभवन महदासनार्धम्॥१२॥
तत्रैव मे विहरतो भुजदण्डयुग्मं,
गाण्डीवलक्षणमरातिवधाय देवाः।
सेन्द्राः श्रिता यदनुभावितमाजमीढ,
तेनाहमद्य मुषितः पुरुषेण भूम्ना॥१३॥
यद्बान्धवः कुरुबलाब्धिमनन्तपार-
मेको रथेन ततरेऽहमतीर्यसत्वम्।
प्रत्याहृतं बहु धनं च मया परेषां,
तेजास्पदं मणिमयं च हृतं शिरोभ्यः॥१४॥
यो भीष्मकर्णगुरुशल्यचमूष्वदभ्र-
राजन्यवर्यरथमण्डलमण्डितासु।
अग्रेचरो मम विभो रथयूथपाना-
मायुर्मनांसि च दृशा सह ओज आर्च्छत्॥१५॥
यद्दोष्षुमा प्रणिहितं गुरुभीष्मकर्ण-
द्रोणित्रिगर्तशलसैन्धवबाह्लिकाद्यैः।
अस्त्राण्यमोघमहिमानि निरूपितानि,
नो पस्पृशुर्नृहरिदासमिवासुराणि॥१६॥
सौत्ये वृतः कुमतिनात्मद ईश्वरो मे,
यत्पादपद्ममभवाय भजन्ति भव्याः।
मां श्रान्तवाहमरयो रथिनो भुविष्ठं,
न प्राहरन्यदनुभावनिरस्तचित्ताः॥१७॥
नर्माण्युदाररुचिरस्मितशोभितानि,
हे पार्थ हेऽर्जुन सखे कुरुनन्दनेति।
संजल्पितानि नरदेव हृदिस्पृशानि,
स्मर्तुलुंठन्ति हृदयं मम माधवस्य॥१८॥
शय्यासनाटनविकत्थनभोजनादि,
ष्वैक्याद्वयस्य ऋतवानिति विप्रलब्धः।
सख्युः सखेव पितृवत्तनयस्य सर्वं,
सेहे महान्महितया कुमतेरघं मे॥१९॥
सोऽहं नृपेन्द्र रहितः पुरुषोत्तमेन,
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्यः।
अध्वन्युरुक्रमपरिग्रहमङ्ग रक्ष-
न्गोपैरसद्भिरबलेव विनिर्जितोऽस्मि॥२०॥
तद्वै धनुस्त इषवः स रथो हयास्ते,
सोऽहं रथी नृपतयो यत आनमन्ति।
सर्वं क्षणेन तदभूदसदीशरिक्तं,
भस्मन्हुतं कुहकराद्धमिवोप्तमूष्याम्॥२१॥
(श्रीमद्भागवतात्)
(प्रथमस्कन्ध १५ शाऽध्यायात्)
*वसन्तसेना-गृह-वर्णनम्*
** विदूषकः—**
आश्चर्यं भोः, तपश्चरणक्लेशविनिर्जितेन राक्षसराजो रावणः पुष्पकेण विमानेन गच्छति। अहं पुनर्ब्राह्मणोऽकृततपश्चरणक्लेशोऽपि नरनारीजनेन गच्छामि।
चेटी—
प्रेक्षतामार्योऽस्मदीयं गेहद्वारम्।
** विदूषकः—**
अहो सलिलसिक्तमार्जितकृतहरितोपलेपनस्य विविधसुगन्धिकुसुमोपहारचित्रलिखित-भूमिभागस्यगगनतलावलोकनकौतूहलदूरोन्नामितशीर्षस्य दोलायमानावलम्बितैरावणहस्त-भ्रमागतमल्लिकादामगुणालंकृतस्य समुच्छ्रितदन्तिदन्ततोरणावभासितस्य महारत्नोपरागोपशोभिना पवनबलान्दोलनाललच्चञ्चलाग्रहस्तेन ‘इत एहि’ इति व्याहरतेव मां सौभाग्यपताकानिवहेनोपशोभितस्य तोरणधरणस्तम्भवेदिकानिक्षिप्तसमुल्लसद्धरितचूतपल्लवललामस्फटिक-मङ्गलकलशाभिरामोभयपार्श्वस्य महासुरवक्षःस्थलदुर्भेद्यवज्रनिरन्तरप्रतिबद्ध कनककपाटस्य दुर्गतजनमनोरथायासकरस्य वसन्तसेनाभवनद्वारस्य सश्रीकता। यत्सत्यं मध्यस्थस्यापि जनस्य बलाद्दृष्टिमाकारयति।
** चेटी—**
एत्वेतु। इमं प्रथम प्रकोष्ठंप्रविशत्वार्यः।
विदूषकः—
(प्रविश्यावलोक्य च।)
आश्चर्यं भोः, अत्रापि प्रथमे प्रकोष्ठे शशिशङ्खमृणालसच्छाया विनिहितचूर्णमुष्टिपाण्डुराविविधरत्ननप्रतिबद्धकाञ्चनसो-
पानशोभिताः प्रासादपङ्क्तयोऽवलम्बितमुक्तादामभिः स्फटिकवातायनमुखचन्द्रैर्निध्यायन्तीवोज्जयिनीम्। श्रोत्रिय इव सुखोपविष्टो निद्राति दौवारिकः। सदध्ना कलमोदनेन प्रलोभिता न भक्षयन्ति वायसा बलिं सुधासवर्णतया। आदिशतु भवती।
चेटी—
एवेत्वार्यः। इमं द्वितीयं प्रकोष्ठं प्रविशत्वार्यः।
** विदूषकः—**
(प्रविश्यावलोक्य च)
आश्चर्यं भोः’ इहापि द्वितीये प्रकोष्ठे पर्यन्तोपनीतयवसबुसकवलसुपुष्टास्तैलाभ्यक्तविषाणा बद्धाः प्रवहणबलीवर्दाः। अयमन्यतरोऽवमानित इव कुलीनो दीर्घं निःश्वसिति सैरिभः। इतश्चापनीतयुद्धस्य मल्लस्येव मर्द्यते ग्रीवा मेषस्य। इत इतोऽपरेषामश्वानां केशकल्पना क्रियते। अयमपरः पाटच्चर इव दृढबद्धो मन्दुरायां शाखामृगः। इतश्च कूरच्युततैलमिश्रं पिण्डं हस्ती प्रतिग्राह्यते मात्रपुरुषैः। आदिशतु भवती।
चेटी—
एत्वेत्वार्यः। इमं तृतीयं प्रकोष्ठं प्रविशत्वार्यः।
** विदूषकः—**
(प्रविश्य दृष्ट्वा च)
आश्चर्यं भोः, इहापि तृतीये प्रकोष्ठे इमानि तावत्कुलपुत्रजनोपवेशननिमित्तं विरचितान्यासनानि। अर्धवाचितं पाशकपीठे तिष्ठति पुस्तकम्। एतच्च स्वाधीनमणिमयसारिकासहितं पाशकपीठम्। इमे चापरे संधिविग्रहचतुरा विविधवर्णिकाविलिप्तचित्रफलकाग्रहस्ता इतस्ततः परिभ्रमन्ति गणिका वृद्धविटाश्च। आदिशतु भवती।
चेटी—
एत्वेत्वार्यः। इमं चतुर्थं प्रकोष्ठं प्रविशत्वार्यः।
** विदूषकः—**
(प्रविश्यावलोक्य च)
आश्चर्यं भोः, इहापि चतुर्थे प्रकोष्ठे युवतिकरताडिता जलधरा इव गम्भीरं नदन्ति मृदङ्गाः, क्षीणपुण्या इव गगनात्तारका निपतन्ति काँस्यतालाः, मधुकरविरुतमिव मधुरं वाद्यते वंशः। इमा अपराः कुसुमरसमत्ता इव मधुकर्योऽतिमधुरं प्रगीता गणिकादारिका नर्त्यन्ते, नाट्यं पाठ्यन्ते। अपवल्गिता गवाक्षेषु वातं गृह्णन्ति सलिलगर्गर्यः। आदिशतु भवती।
** चेटी—**
एत्वेत्वार्यः। इमं पञ्चमं प्रकोष्ठं प्रविशत्वार्यः।
** विदूषकः—**
(प्रविश्य दृष्ट्वा च)
आश्चर्यं भोः, इहापि पञ्चमे प्रकोष्ठेऽयं दरिद्रजनलोभोत्पादनकर आहरत्युपचितो हिङ्गुतैलगन्धः। विविधसुरभिधूमोद्गारैर्नित्यं संताप्यमानं निःश्वसितीव महानसं द्वारमुखैः। अधिकमुत्सुकायते मां साध्यमानबहुविधभक्ष्यभोजनगन्धः। अयमपरः पटच्चरमिव हतपशूदरपेशिं धावति रूपिदारकः। बहुविधाहारविकारमुपसाधयति सूपकारः। बध्यन्ते मोदकाः, पच्यन्तेऽपूपकाः अपीदानीमिह भुङ्क्ष्व इति पादोदकं लप्स्ये। इह गन्धर्वाप्सरोगणैरिव विविधालंकारशोभितैर्गणिकाजनैर्बन्धुलैश्च यत्सत्यं स्वर्गायतइदं गेहम्। भोः, के यूयं बन्धुला नाम।
बन्धुलाः—
वयं खलु
परगृहललिताः परान्नपुष्टाः
परपुरुषैर्जनिताः पराङ्गनासु।
परधननिरता गुणेष्ववाच्या
गजकलभा इव बन्धुला ललामः॥२८॥
विदूषकः—
आदिशतु भवती।
** चेटी—**
एत्वेत्वार्यः। इमं षष्ठं प्रकोष्ठं प्रविशत्वार्यः
** विदूषकः—**
(प्रविश्यावलोक्य च)
आश्चर्यं भोः, इहापि षष्ठे प्रकोष्ठेऽमूनि तावत्सुवर्णरत्नानां कर्मतोरणानि नीलरत्नविनिक्षिप्तानीन्द्रायुधस्थानमिव दर्शयन्ति। वैदूर्यमौक्तिकप्रवालकपुष्परागेन्द्रनीलकर्केतरकपद्मरागमरकतप्रभृतीन्रत्नविशेषानन्योन्यं विचारयन्ति शिल्पिनः। बध्यन्ते जातरूपैर्माणिक्यानि। घट्यन्तेसुवर्णालंकाराः। रक्तसूत्रेण ग्रथ्यन्ते मौक्तिकाभरणानि घृष्यन्तेधीरं वैदूर्याणि छिद्यन्ते शङ्खाः। शाणैर्घृष्यन्ते प्रवालकाः। शोष्यन्त आर्द्रकुङ्कुमप्रस्तराः। सार्यते कस्तूरिका। विशेषेण घृष्यते चन्दनरसः। संयोज्यन्ते गन्धयुक्तयः। दीयते सकर्पूरं ताम्बूलम्। अवलोक्यते सकटाक्षम्। प्रवर्तते हासः। पीयते चानवरतं ससीत्कारं मदिरा। इमे चेटाः, इमाश्चेटिकाः।
** चेटी—**
एत्वेत्वार्यः। इमं सप्तमं प्रकोष्ठ प्रविशत्वार्यः।
विदूषकः—
(प्रविश्यावलोक्य च)
आश्चर्यं भोः, इहापि सप्तमे प्रकोष्ठे सुश्लिष्टविहङ्गवाटीसुखनिषण्णान्यन्योन्यचुम्बनपराणि सुखमनुभवन्ति पारावतमिथुनानि। दधिभक्तपूरितोदरो ब्राह्मण इव सूक्तं पठति पञ्जरशुकः। इयमपरा संमाननालब्धप्रसरेव गृहदासी अधिकं कुरकुरायते मदनसारिका। अनेकफलरसास्वादप्रहृष्टकण्ठा कुम्भदासीव कूजति परपुष्टा। आल-
म्बिता नागदन्तेषु पञ्जरपरम्पराः। योध्यन्ते लावकाः। आलाप्यन्ते कपिञ्जलाः। प्रेष्यन्ते पञ्जरकपोताः। इतस्ततोविविधमणिचित्रित इवायं सहर्षं नृत्यन्रविकिरणसंतप्तपक्षोत्क्षेपैर्विधुवतीव प्रासादं गृहमयूरः। इतः पिण्डीकृता इव चन्द्रपादाः पदगतिं शिक्षमाणानीव कामिनीनां पश्चात्परिभ्रमन्ति राजहंसमिथुनानि। एतेऽपरे वृद्धमहल्लका इव इतस्ततः संचरन्ति गृहसारसाः। आश्चर्यं भोः, प्रसारणं कृतं गणिकया नानापक्षिसमूहैः। यत्सत्यं खलु नन्दनवनमिव मे गृहं प्रतिभासते। आदिशतु भवती।
चेटी—
एत्वेत्वार्यः। इममष्टमं प्रकोष्ठं प्रविशत्वार्यः।
विदूषकः—
(प्रविश्यावलोक्य च)
भवति, क एष पट्टप्रावारकप्रावृतोऽधिकतरमत्यद्भूतपुनरुक्तालंकारालंकृतोऽङ्गभङ्गैः परिस्खलन्नितस्ततः परिभ्रमति।
** चेटी—**
आर्य, एष आर्याया भ्राता भवति।
** विदूषकः—**
कियत्तपश्चरणं कृत्वा वसन्तसेनाया भ्राता भवति। अथवा। मा तावद्यद्यप्येष उज्ज्वलः स्निग्धश्च सुगन्धश्च।
तथापि श्मशानवीथ्यां जात इव चम्पकवृक्षोऽनभिगमनीयो लोकस्य। (अन्यतोऽवलोक्य) भवति, एषा पुनः का पुष्पप्रावारकप्रावृतोपानद्युगलनिक्षिप्ततैलचिक्कणाभ्यां पादाभ्यामुच्चासन उपविष्टा तिष्ठति।
चेटी—
आर्य, एषा खल्वस्माकमार्याया माता।
** विदूषकः—**
अहो अस्याः कपर्दकडाकिन्या उदरविस्तारः। तत्किमेतां प्रवेश्य महादेवमिव द्वारशोभा इह गृहे निर्मिता।
** चेटी—**
हताश, मैवमुपहसास्माकं मातरम्। एषा खलु चातुर्थिकेन पीड्यते।
** विदूषकः—**
(सपरिहासम्)
भगवँश्चातुर्थिक, एतेनोपकारेण मामपि ब्राह्मणमवलोकय।
चेटी—
हताश, मरिष्यसि।
विदूषकः—
(सपरिहासम्)
दास्याः पुत्रि, वरमीदृशः शूनपीनजठरो मृत एव।
सीधुसुरासवमत्ता
एतावदवस्थां गता हि माता।
यदि म्रियतेऽत्र माता
भवति शृगालसहस्रपर्याप्तिका॥२९॥
** चेटी—**
आर्य, अवनमय दृष्टिम्। पश्यार्याम्।
(मृच्छकटिकात्)
* वासवदत्ता *
सरस्वतीस्तुतिः
करवदरसदृशमखिलं भुवनतलं यत्प्रसादतः कवयः।
पश्यन्ति सूक्ष्ममतयः सा जयति सरस्वती देवी॥१॥
विष्णुस्तुतिः
खिन्नोऽसि मुञ्च शैलंबिभृमो वयमिति वदत्सु शिथिलभुजः।
भरभुग्नवितथबाहुषु गोपेषु हसन् हरिर्जयति॥२॥
कठिनतरदामवेष्टनलेखासन्देहदायिनो यस्य।
राजन्ति वलिविभङ्गाः स पातु दामोदरो भवतः॥३॥
शिवस्तुतिः
स जयति हिमकरलेखा चकास्ति यस्योमयोत्कया निहिता।
नयनप्रदीपकज्जलजिघृक्षया शिरसि रजतशुक्तिरिव॥४॥
सुजनप्रशंसा
भवति सुभगत्वमधिकं विस्तारितपरगुणस्य सुजनस्य।
वहति विकासितकुमुदो द्विगुणरुचिं हिमकरोद्द्योतः॥५॥
दुर्जनगर्हा
विषधरतोऽप्यतिविषमः खल इति न मृषा वदन्ति विद्वांसः।
यदयं नकुलद्वेषीस कुलद्वेषो पुनः पिशुनः॥६॥
अतिमलिने कर्तव्ये भवति खलानामतीव निपुणा धीः।
तिमिरे हि कौशिकानां रूपं प्रतिपद्यते दृष्टिः॥७॥
हस्त इव भूतिमलिनो यथा यथा लङ्घयति खलःसुजनम्।
दर्पणमिव तं कुरुते तथा तथा निर्मलच्छायम्॥८॥
विध्वस्तपरगुणानां भवति खलानामतीव मलिनत्वम्।
अन्तरितशशिरुचामपि सलिलमुचां मलिनिमाभ्यधिकः॥९॥
कवेर्निर्वेदः
सा रसवत्ता विहता नवका विलसन्ति चरति नोकङ्कः।
सरसीव कीर्तिशेषं गतवति भुवि विक्रमादित्ये॥१०॥
सुभाषित प्रशंसा
अविदितगुणापि सत्कविभणितिः कर्णेषु वमति मधुधाराम्।
अनधिगतपरिमलापि हि हरति दृशं मालतीमाला॥११॥
गुणज्ञप्रशंसा
गुणिनामपि निजरूप प्रतिपत्तिः परत एव संभवति।
स्वमहिमदर्शनमक्ष्णोर्मुकुरतलेजायते यस्मात्॥१२॥
चिन्तामणि नृपति वर्णनम्
अभूदभूतपूर्वः, सर्वोर्वीपतिचक्रचारुचूडामणिश्रेणीशाणकोणकवणनिर्मलीकृतचरणनखमणिः, नृसिंह इव दर्शितहिरण्यकशिपुक्षेत्रदानविस्मयः, कृष्ण इव कृतवसुदेवतर्पणः, नारायण इव सौकर्यसमासादितधरणीमण्डलः, कंसारातिरिव जनितयशोदानन्दसमृद्धिः आनकदुन्दुभिरिव कृतकाव्यादरः, सागरशायीव अनन्तभोगिचूडा मणिमरीचिरञ्जितपादः, वरुण इवाशान्तरक्षणः, अगस्त्य इव दक्षिणाशाप्रसाधकः, जलनिधिरिव वाहिनीशतनायकः समकरप्रचारश्च, हर इव महासेनानुयातो निर्जितमारश्च, मेरुरिव विबुधालयो विश्वकर्माश्रयश्च, रविरिव क्षणदानप्रियः छायासन्तापहरश्च, कुसुमायुध इव जनितानिरुद्धसंपत्रतिसुखप्रदश्च, विद्याधरोऽपि सुमनाः, धृतराष्ट्रोऽपि गुणप्रियः, क्षमानुगतोऽपि सुधर्माश्रयः, बृहन्नलानुभा-
वोऽपि अन्तस्सरलः, महिषीसंभवोऽपि वृषोत्पादी, अतरलोऽपि महानायकः, राजा चिन्तामणिर्नाम।
यत्र च शासति धरां छलजातिनिग्रहप्रयोगो वादेषु, नास्तिकता चार्वाकेषु, कण्टकयोगो योगेषु, परीवादो वीणासु, खलसंयोगः शालिषु, द्विजिह्वसंगृहीतिः अहितुण्डिकेषु, करच्छेदः कुड्मलग्रहणेषु, नेत्रोत्पाटनं मुनीनाम्, राजविरुद्धता पङ्कजानाम्, सार्वभौमयोगो दिग्गजानाम्, सूचिभेदो मणीनाम्, शूलभङ्गो युवतिप्रसवेषु, अग्नितुलाशुद्धिः स्वर्णानाम्, दुश्शासनदर्शनं महाभारते, करपत्रविदारणं जलजानाम्, परमेवं व्यवस्थितम्।
महावराहो गोत्रोद्धरणप्रवृत्तोऽपि गोत्रोद्दलनमकरोत्। राघवः परिहरन्नपि जनकभुवं जनकभुवा सह वनं विवेश। भरतो रामे दर्शितभक्तिरपि राज्ये विराममकरोत्। नलस्य दमयन्त्या मिलितस्यापि पुनर्भूपरिग्रहो जातः। पृथुरपि गोत्रसमुत्सारणविस्तारितभूमण्डलः। तदित्थं नास्ति वागवसरः पूर्वतरेषु राजसु।
स पुनरन्य एव देवो न्यक्कृतसर्वोर्वीपतिचक्रचरितः। तथाहि। स पर्वतः कटकसञ्चारिणो गन्धर्वान् दर्शितशृङ्गोन्नतिः सुखयन्न विरराम। स हिमालयो नावश्यायोच्छलितः, नो मायाजन्मने हितश्च। स हिमानीगिरिस्थितः, वृषध्वजश्च। स सदागतिः, अवधूताखिलकान्तारः, पावकाग्रेसरः, न भोगोत्सुकः, सुमनोहरश्च। स रत्नाकरः, अनहिभयः, अगाधः, समर्यादः नोद्रोकः विस्मयः, सदा हिमकराशयः, अमृतमयः सत्पात्रः, तस्याचलो न क्रोधः, महानदीनः, समुद्रश्च। स क्षणदानन्दकरः, कुमुदवनबन्धुः, सकलकलाकुलगृहम्, नतारातिबलः, चन्द्रश्च। स मित्रो-
दयहेतुः, काञ्चन शोभां बिभ्रत्, अचलाधिकलक्ष्मीः, सुमेरुश्च। यस्य च रिपुवर्गः सदा पार्थोऽपि न महाभारतरणयोग्यः, भीष्मोऽप्यशान्तनवेहितः, सानुचरोऽपि न गोत्रभूषितः। स त्रिशंकुरपि न नाक्षत्रपथच्युतः, शंकरोऽपि न विषादी, पावकोऽपि न कृष्णवर्त्मा, आश्रयाशोऽपि न दहनश्च। नान्तक इवाकस्मादपहृतजीवनः, न राहुरिव मित्रमण्डलग्रहणसंवर्धितरुचिः, न नल इव कलिविजितविग्रहः, न चक्रीव सृगालवधलब्धस्तुतिसमुल्लसितः, नन्दगोप इव यशोदयान्वितः, जरासन्ध इव घटितसन्धिविग्रहः, भार्गव इव सदानभोगः, दशरथ इव सुमित्रोपेतः सुमन्त्राधिष्ठितश्च, दिलीप इव सुदक्षिणान्वितः रक्षितगुश्च, राम इव जनितकुशलवयोरूपोच्छ्रायः।
(वासवदत्तायाः)
-:०ः-
मकरन्दोपदेशः
अथ तस्य प्रियसखो मकरन्दो नाम कथमपि लब्धप्रवेशदर्शनः कन्दर्पकेतुमुवाच।
‘सखे, किमिदमसाम्प्रतमसाधुजनोचितमध्वानमाश्रितोऽसि। तवैतच्चरितमालोक्य वितर्कडोलासु निवसन्ति सन्तः। खलाः पुनस्त्वदनुचितमनिष्टमाचारमाचरन्ति। अनिष्टोद्भावनरसोत्तरं हि भवति खलहृदयम्। को नामास्य तत्वनिरूपणे समर्थः। तथाहि। भीमोऽपि नबकद्वेषी, आश्रयाशोऽपि मातरिश्वा, अतिकटुकोऽपि महारसः। सर्पपस्नेह इव करयुगलालितोऽपि शिरसा धृतोऽपि न काटवं जहाति। तालफलरस इवापातमधुरः परिणामे विरसस्तिक्तश्च। पादपराग इवावधूतोऽपि मूर्द्धानं कषाययति। विषतरुप्रसूनमिव यथायथानुभूयते, तथा तथा मोहमेव द्रढयति। नीचदेशस्येव न वारिविरहोऽस्य जायते। निदाघदिवस इव बहुमत्सरस्सु-
मनसां सन्तापं वहति। अन्धकार इव दोषानुबन्धचतुरः विश्वकर्माऽवलोपनोद्यतश्च। रुद्र इव विरूपाक्षः, विष्णुरिव चक्रधरः, शक्राश्व इव उच्चैश्श्रवाः नदेशजप्रशंसी च। शरस्येव विभिन्नस्यापि सतः स्नेहं दर्शयतः तक्राट इव हृदयं विलोडयति। यक्षबलिरिव आत्मघोषमुखरो मण्डलभ्रमणकश्च। मातङ्ग इव स्ववशालोलमुखोऽधरीकृतदानश्च। वृषभ इव सुरभियानविकलः, कामीव गोत्रस्खलनविधुरो वामाध्यानुरक्तश्च। जीर्णरोग इव कलेवरे वचसि मन्दिमानं वहति। वञ्चक इव रक्तः कटपले, विभावरीरक्तश्च। परेत इव बन्धुतापदर्शनः। परशुरिव भद्रश्रियमपि खण्डयति। कुद्दाल इव दलितगोत्रःक्षमाभाजः प्राणिनश्च निकृन्तति। रतिकील इव जघन्यकर्मलग्नो ह्रेपयति साधून्। दुष्टशूर्पश्रुतिरिव काननरुचिरनुगतमपि यवसं सततं नानुमोदते। अबीजादेव जायन्ते, अकाण्डादेव प्ररोहन्ति खलव्यसनाङ्कुराः। दुरुच्छेदाश्च भवन्ति। असतां हृदि प्रविष्टो दोषलवः करालायते। सतां तु हृदयं न प्रविशत्येव। यदि कथमपि प्रविशति तदा पारद इव क्षणमपि न तिष्ठति। मृगा इव विनोदविन्दोर्वशगा न भवन्ति साधवः। सुखं जना हि भवादृशाश्शरत्समया इव हरन्ति मित्रमण्डलस्य। न च सचेतना विसदृशमुपदिशन्ति। अचेतनानामपि मैत्री समुचितपक्षे निक्षिप्ता। तथा हि। माधुर्यशैत्यशुचित्वसन्तापशान्तिभिः पयइतिशब्दसाम्याच्चमित्रतामुपगतस्य मत्संगमादभिवर्द्धितस्य क्षीरस्य क्वाथेः पुरतो ममैव क्षयो युक्त इति विचिन्त्येव वारिणा क्षीयते। तदिदमसांप्रतमाचरितम्। गृहाण साधुजनोचितमध्वानम्। साधवो हि दिङ्मोहादुत्पथप्रवृत्ता अपि पुनर्गृहीतसत्पथा भवन्ति।” इत्यादि
( वासवदत्तायाः )
* सूर्यास्तवर्णनम् *
अत्रान्तरे भगवानपि मरीचिमाली वृत्तान्तमिमं कथयितुमिव मध्यमं लोकमवततार।
अथ वासरताम्रचूडचूडाचक्राकारः, चक्रवाकहृदयसंक्रामितसन्तापतयेव मन्दिमानमुद्वहन्, अस्तगिरिमन्दारस्तबकसुन्दरः, सिन्दूरराजिरञ्जितसुरराजकुम्भिकुम्भविभ्रमं बिभ्राणः, ताण्डवचण्डवेगोच्चलितधूर्जटिजटाजूटमकुटबद्धबन्धुर-विकटवासुकिभोगमणिताटङ्कसनाभिमण्डलः, सन्ध्यासंधिनीसरसयावकपत्रचारुः, वरुणरमण्यरुणामणिकुण्डलकान्तिः कालकरवालकृत्तवासरमहिषस्कन्धचक्राकारः, मधुरमधुपूर्णकपाल इव गगनकपालिनः, अम्लानकुसुमस्तबक इव नभः—श्रियः, पुष्पगुच्छ इव गगनाशोकतरोः, कनकदर्पणइव प्रतीचीविलासिन्याः, बलभद्र इव वारुणीसंगतः सरागश्च, दुर्विध इव परित्यक्तवसुः सविषादश्च, शाक्य इव रक्तांशुकधरः, सूरिरिव संज्ञोपेतः, भगवान् दिनमणिरपराऽकूपारपयसि तरलतरङ्गवेगोच्चलितविद्रुमविटपाकृतिर्ममज्ज।
* सन्ध्यावर्णनम् *
ततः क्रमेण च रजोलुठितोत्थितकुलायार्थिपरस्परकलहविकलकलविङ्ककुलकलकलवाचालशिखरेषु शिखरिषु वसतिसाकाङ्क्षेषुध्वाङ्क्षेषु, अनवरतदह्यमानकालागरुधूपपरिमलोद्गारेषु वासागारेषु, दूर्वाञ्चिततटिनीतटनिविष्टविदग्धजन-प्रस्तूयमानकथाश्रवणोत्सुकशिशुजनकलकलरवनिवारणश्रद्धेषु वृद्धेषु, आलोलिकातरलरसनाभिः कथितबहुकथाभिर्जरतीभिरतिलघुकरताडनजनितसुखे ताभिरनुगते शिशयिषमाणे शिशुजने, सन्ध्यावन्दनोप-
विष्टेषु शिष्टेषु, रोमन्थमन्थरकुरङ्गकुटुम्बकाध्यास्यमानम्रदिष्ठगौष्ठीनपृष्टासु अरण्यस्थलीषु, निद्राविद्राणद्रोणकाककुलकलितकुलायेषु ग्रामतरुनिचयेषु, कापेयविकलकपिकुलकलिलेषु आरामतरुषु, निर्जिगमिषति जरत्तरुकोटरकुटीरकुटुम्बिनि कौशिककुले, तिमिरतर्जननिर्गतासुदहनप्रविष्टदिनकरकरशाखास्विव प्रस्फुरन्तीषु दीपलेखासु, मुखरितधनुषि वर्षति शरनिकरमशेषसांसारिकशेमुषीमुषि मकरध्वजे, शम्भलीभाषितभाजि भजति भूषां भुजिष्याजने, सैरन्ध्रीबध्यमानरशनाकलापजल्पाकजघनस्थलासु जनीषु, विश्रान्तकथानुबन्धतया प्रवर्तमानानेककथकजनगृहगमनत्वरेषु चत्वरेषु, समासादितकुक्कुटेषु किरातगृहनिष्कुटेषु, कृतयष्टिसमारोहणेषु बार्हणेषु, विहितसन्ध्यासमयव्यवस्थेषु गृहस्थेषु, सपदि संकोचोदञ्चदयाञ्चदुच्चकेसरकोटिसंकटकुशेशयोदरकोटरकुटीरकुटिलशायिनि षट्चरणचक्रे, अनेनैव पथा भगवता भास्वता गन्तव्यमिति सर्वतः पट्टमयैर्वसनैः परिवृता मणिकुट्टिमालिरिव विरचिता वरुणेन रवेः, कालकरवालकृत्तस्य दिवसमहिषस्य रुधिरधारेव, विद्रुमलतेव चरमार्णवस्य, रक्तकमलिनीव गगनतटाकस्य, काञ्चनकेतुरिव कन्दर्परथस्य, मञ्जिष्ठारागारुणपताकेव गगनहर्म्यस्थलस्य, लक्ष्मीरिव स्वयंवरगृहीतपीताम्बरा, भिक्षुकीव तारानुरागरक्ताम्बरधारिणी, बभ्रुरिव कपिलतारका, भगवती सन्ध्या समदृश्यत।
* तिमिर प्रचार वर्णनम् *
ततः क्षणेन क्षणदानुरागरचनाचतुरासु सन्ध्यास्विव वेश्यासु, तुलाधारशून्यायां पण्यवीथिकायामिव दिवि, घनघटमानदलपुटासु पुटकिनीषु, तिमिरप्रतिहतेष्विव तत इतः परिभ्रमत्सु कमलसरसि
मधुकरनिकरेषु, विकलकुररीकूजितच्छलेन रविविरहविधुरासु विलपन्तीष्विव सरोजिनीषु, प्रतिफलितसन्ध्यारागराज्यमानसलिलस्थितासु पतिविनाशहृत्पीडया दहनप्रविष्टास्विव कमलिनीषु, गणक इव नक्षत्रसूचके प्रदोषे, हरकण्ठकालिमसनाभि, दैत्यबलमिव प्रकटतारकम्, भारतसमरमिव वर्धमानोलूकशकुनिकलकलम्, धृष्टद्युम्नवीर्यमिवकुण्ठितद्रोणप्रभावम्, नन्दनवनमिव संचरत्कौशिकम्, कृष्णवर्त्मज्वलनमिव निखिलकाष्ठापहारकम्, सगर्भमिव घनतरपाषाणकर्कशासु गिरितटीषु, सचक्षुरिव सुप्तप्रबुद्धसिंहनयनच्छविच्छटाकपिलेषु सानुषु, सजीवमिव तमोमणिभिः, संवर्द्धितमिवाग्निहोत्रधूमलेखाभिः, मांसलितमिवकामिनीकेशपाशसंस्कारधूपपटलैः, उद्दीपितमिव घनतरनिलीनमधुकरपटलमेचकितपेचकिकपोलतलगलितदानधाराशीकरैः, पुञ्जीकृतमिव वितततमालकाननच्छटाच्छायासु, लीयमानमिव कज्जलरसश्यामभोगिभोगेषु, प्रावरणमिव रजनीषांसुलायाः, पलितौषधमिव वृद्धवारयोषिताम्, अपत्यमिव रजन्याः, सुहृदिव कलिकालस्य, मित्रमिव दुर्जनहृदयस्य, बौद्धदर्शनमिव प्रत्यक्षद्रव्यमपह्नुवानं तिमिरमुदजृम्भत।
मुदितमिव मत्तमातङ्गमण्डलमनोहरगण्डस्थले, फलितमिवातिसान्द्रबहुलच्छदवितततमालकानने, परिस्फुरितमिवातिकान्तकान्ताघनतरकेशसंहतौ, उन्मीलितमिवेन्द्रनीलरश्मिषु, अतिशयमांसलितमिवावटतटेषु, साटोपमिव स्फुटपाटवोत्कटविशङ्कटानेकविटपिविटपोत्कटस्फुटकुसुमपुटपिहितपदषट्पदावलिषु, घनतरघोरदन्तिघस्मरविषधरभोगभासुरम्, मदभरमत्तदन्तिदन्तद्युतितर्जनजर्जरितम्, दिवाकरोदयारम्भणमिव संकुचत्कुवलयम्, असतां महत्त्वमिव तिरस्कृतसकलान्तरम्, निमीलन्नीलोत्पलव्याजरचिताञ्जलिपुटेन नभदिवागतं निशापतिं तिमिरमजायत।
* तारावर्णनम्*
अथ क्षणेनैव, सन्ध्याताण्डवाडम्बरोच्चलितमहानटजटाजूटकूटकुटिलस्खलनविवर्तितजह्नुकन्यावारिधाराबिन्दव इव विकीर्णाः, दुर्भरधरणिभारभुग्नभीमदिङ्मातङ्गमण्डलकरविमुक्तशीकरच्छटा इव तताः, अतिदवीयोनभःस्थलभ्रमणखिन्नदिनकरतुरङ्गमास्यविवरवान्तफेनस्तबका इव विस्तीर्णाः, गगनमहासरःकुमुदसन्दोहसंदेहदायिनः, विश्वंगणयतो विधातुः शशिकठिनीखण्डेन तमीमषीश्यामे अजिन इव वियति संसारस्यातिशून्यत्वात् शून्यबिन्दव इव विलिखिताः, जगत्त्रविजिगीषाविनिर्गतस्य मकरकेतो रतिकरविकीर्णा इव लाजाञ्जलयः, गुलिकास्त्रगुलिका इव विक्षिप्ताः पुष्पधनुषः, वियदम्बुराशिफेनस्तवकाइव वितताः, रतिविरचिता गगनाङ्गणे आतर्पणपञ्चाङ्गुलय इव, व्योमतललक्ष्मीहारमुक्तानिकरा इव विशीर्णाः, हरकोपानलदग्घकामचिताचक्रादिन्दोर्वात्यावेशविप्रकीर्णाः कामकीकसखण्डाइव, तिमिरोद्गमधूमधूमलसन्ध्यानलपरितप्तगगनकटाहभृज्ज्यमानस्फुटितलाजानुकारास्तारा व्यराजन्त। एताभिः श्वित्रीव वियदशोभत।
* निशासमयस्वभाववर्णनम् *
ततो दीर्घोच्छ्वासरचनाकुलं सुश्लेषवक्त्रघटनापटु सत्काव्यविरचनमिव, चक्रवाकमिथुनमतीवाखिद्यत। कमलिनीसंचरणलग्नमकरन्दविन्दसंन्दोहनुमुग्धमुखरमधुकरमालाशबलगात्रम्, कालपाशेनेव मूर्त्तिमद्रामशापेनेवाकृष्यमाणं रविविरहविधुरायाः कमलिन्या हृदयमिव द्विधापपाट चक्रवाकमिथुनम्। आगमिष्यतो हिमकरदयितस्य पार्श्वे संचरन्ती कुमुदिन्या भ्रमरमाला दूतीवालक्ष्य-
त। तारकानयनजलबिन्दुभिरस्तं गतस्य दिवाकरदयितस्य शोकादिव ककुभो व्यरुदन्। भास्वतो निजदयितस्य विरहादभिनवकिञ्जल्कराजिव्याजेन शोकानलमुर्मुरो नलिनीकोशहृदये जज्वाल। ततो रविरश्मिदवाग्निभस्मीकृतनभोवनमपीराशिरिव, श्रुतिवचनमिव क्षपितदिगम्बरदर्शनम्, कृष्णरूपमपि तिरस्कृतविश्वरूपभावविशेषम्, सद्यो द्रावितराजतपटद्रवप्रवाह इव, शार्वरमन्धतमसमजृम्भत।
अथ क्षणेन क्षणदाराजकन्याकन्दुक इव, कन्दर्पकनकदर्पण इव, उदयगिरिबालमन्दारपुष्पस्तवक इव, प्राचीललनाललामललाटतटघटितबन्धूककुसुमतिलकवक्राकारः, कनककुण्डलमिव नमःश्रियः, दिग्वधूप्रसाधिकाहस्तस्रस्तालक्तकपिण्ड इव, शातकुम्भकुम्भ इव गगनसौधतलस्य, प्रस्थानमङ्गलकलश इव त्रिभुवनविजयविनिर्गतस्य कस्यापि, गगनगामिविद्याधरीकरतलावस्थितलीलाशुकपञ्जर इव, पूर्वाचलशिखरविश्रान्तकिन्नरमिथुनरक्त-वस्त्रकञ्चुकितवीणालाबुरिव, गरुड इव हरिणाधिष्ठितः, राम इव लक्ष्मणान्वितः, वानरेन्द्र इव अनुरक्ततारः, वृषभ इव रोहिणीप्रियः, सुराजेव रक्तमण्डलः, जाम्बवानिव ऋक्षपरिवृतो रजनीपतिरुदयमाससाद।
ततश्चक्राङ्गनानयनयुगलपीत इव, रक्तकुमुदकोशालीढइव, क्षीणतां जगाम क्षणेन क्षणदाकरगतो रागः। अनन्तरं शर्वरीव्रजाङ्गनाविष्कृतनूतननवनीतस्वस्तिक इव, कुसुमकेतोर्मुखच्छायामुद्रितइव मुकुरः, श्वेतातपत्रमिव मकरकेतोः, दन्तपालिचक्रमिव वियन्महाखङ्गस्य, श्वेतचामरमिव गगनमहाराजस्य, बालपुलिनमिव निशायमुनायाः, स्फाटिकलिङ्गमिव गगनमहातापसस्य, अण्डमिव कालोरगस्य,कम्बुरिव गगनमहार्णवस्य, स्फाटिककमण्डलुरिव नभोव्रतिनः, चैत्यमिव मदनारिदग्धस्य मकरकेतोः, चिताचक्रमिव
कलङ्ककालाङ्गारशबलं सङ्कल्पजन्मनः, पुण्डरीकमिव गगनगामिगङ्गायाः, फेनसञ्चय इव गगनमहार्णवस्य, पारदपिण्ड इव कालधातुवादिनः, राजतकलश इव दूर्वाप्रवालशबलो मनोभवाभिषेकस्य, श्वेतचक्रमिच कालरथस्य, चूडामणिरिव उदयगिरिनागराजस्य, श्वेतपारावत इव अम्बरमहाप्रासादस्य, गगनसरिद्धौतसिन्दूरं कुम्भस्थलमिवैरावतस्य, भुग्नशृङ्गपुराणगोमुण्डखण्ड इव ताराश्वेतगोधूमशालिनो नभःक्षेत्रस्य, मलयजपिण्डपाण्डुरराजततालवृन्तमिव सिद्धाङ्गनाहस्तविस्रस्तम्, क्षीणरागोभगवानुडुपतिरुज्जगाम। यश्च पुण्डरीकं लोकलोचनमधुकराणाम्, शयनीयसैकतं चित्तराजहंसानाम्, स्फाटिक व्यजनं च यामिनीकामिन्याः।
(वासवदत्तायाः)
* श्री पुलकेशिनःशिलालेखः*
जयति भगवाञ्जिनेन्द्रो……ज……..रक्षणजन्मनो यस्य।
ज्ञानसमुद्रान्तर्गतमखिलं जगदन्तरीपमिव॥१॥
तदनु चिरमपरिचेयश्चुलुक्यकुलविपुलजलनिधिर्जयति।
पृथिवीमौलिललामो यः प्रभवः पुरुषरत्नानाम्॥२॥
शूरे विदुषि च विभजन्दानं मानं च युगपदेकत्र।
अविहितयाथातथ्यो जयति च सत्याश्रयः सुचिरम्॥३॥
पृथिवीवल्लभशब्दो येषामन्वर्थतां चिरं जातः।
तद्वंशे (श्ये) षुजिगीषुषु तेषु बहुष्वप्यतीतेषु॥४॥
नानाहेतिशताभिघातपतितभ्रान्ताश्वपत्तिद्विपे
नृत्यद्भीमकबन्धखड्गकिरणज्वालासहस्रे रणे।
लक्ष्मीर्भावितचापलादिव कृता शौर्येण येनात्मसा-
द्राजासीज्जयसिंहवल्लभ इति ख्यातश्चुलुक्यान्वयः॥५॥
तदात्मजोऽभूद्रणरागनामा दिव्यानुभावो जगदेकनाथः।
अमानुषत्वं किल यस्य लोकः सुप्तस्य जानाति वपुः प्रकर्षात्॥६॥
तस्याभवत्तनूजः पुलकेशी यः श्रितेन्दुकान्तिरपि।
श्रीवल्लभोऽप्ययासीद्वातापिपुरीवधूवरताम्॥७॥
यत्त्रिवर्गपदवीमलं क्षितौ नानुगन्तुमधुनापि राजकम्।
भूश्च येन हयमेधयाजिना प्रापितावभृथमज्जना वभौ॥८॥
नलमौर्यकदम्बकालरात्रिस्तनयस्तस्य बभूव कीर्तिवर्मा।
परदारविवृत्तचित्तवृत्तेरपि धीर्यस्य रिपुश्रियानुकृष्टा॥९॥
रणपराक्रमलब्धजयश्रिया सपदि येन विरुग्णमशेषतः।
नृपतिगन्धगजेन महौजसा पृथुकदम्बकदम्बकदम्बकम्14॥१०॥
तस्मिन्सुरेश्वरविभूतिगताभिलाषे
राजाभवत्तदनुजः किल मङ्गलीशः।
यः पूर्वपश्चिमसमुद्रतटोषिताश्वः
सेनारजःपटविनिर्मितदिग्वितानः॥११॥
स्फुरन्मयूखैरसिदीपिकाशतैर्व्युदस्य मातङ्गतमिस्रसंचयम्।
अवाप्तवान्यो रणरङ्गमन्दिरे कलच्चुरि श्रीललनापरिग्रहम्॥१२॥
पुनरपि च जिषुक्षोः सैन्यमाक्रान्तसालं
रुचिरबहुपताकं रेवतीद्वीपमाशु।
सपदि महदुदन्वत्तोयसंक्रान्तबिम्वं
वरुणबलमिवाभूदागतं यस्य वाचा॥१३॥
तस्याग्रजस्य तनये नहुषानुभावे
लक्ष्म्या किलाभिलषिते पुलकेशिनाम्नि।
सासूयमात्मनि भवन्तमतः पितृव्यं
ज्ञात्वापरुद्धचरितव्यवसायबुद्धौ॥१४॥
स यदुपचितमन्त्रोत्साहशक्तिप्रयोग-
क्षपितबलविशेषो मङ्गलीशः समन्तात्।
स्वतनयगतराज्यारम्भयत्नेनसार्धं
निजमतनु च राज्यं जीवितं चोज्झति स्म॥१५॥
तावत्तच्छत्रभङ्गे जगदखिलमरात्यन्धकारोपरुद्धं
यस्यासाह्यप्रतापद्युतिततिभिरिवाक्रान्तमासीत्प्रभातम्।
मृत्यद्विद्युत्पताकैः प्रजविनि मरुति क्षुण्णपर्यन्तभागै-
र्गजद्भिर्वारिवाहैरलिकुलमलिनं व्योम या (जा) तं कदा वा॥१६॥
लब्ध्वा कालं भुवमुपगते जेतुमाप्यायिकाख्ये
गोविन्दे च द्विरदनिकरैरुत्तराम्भोधिरथ्याः।
यस्यानीकैर्युधि भयरसज्ञत्वमेकः प्रयात-
स्तत्रावाप्तंफलमुपकृतस्यापरेणापि सद्यः॥१७॥
वरदातुङ्गतरङ्गरङ्गविलसद्धं सानदीमेखलां
वनवासीमवमृद्गतः सुरपुरप्रस्पर्धिनीं संपदा।
महता यत्न्य बलार्णवेन परितः संछादितोर्वीतलं
स्थलदुर्ग जलदुर्गतामिवगतं तत्तत्क्षणे पश्यताम्॥१८॥
गङ्गाम्बु पीत्वा व्यसनानि सप्त हित्वा पुरोषार्जितसंपदोऽपि।
यस्यानुभावोपगताः सदासन्नासन्नसेवामृतपानशौण्डाः॥१९॥
कोङ्कणेषु यदादिष्टचण्डदण्डाम्बुवीचिभिः।
उदस्तास्तरसा मौर्यपल्वलाम्बुसमृद्धयः॥२०॥
अपरजलधेर्लक्ष्मीं यस्मिन्पुरीं पुरभित्प्रभे
मदगजघटाकारैर्नावां शतैरवमृद्गति।
जलदपटलानीकाकीर्णं नदोत्पलमेचकं
जलनिधिरिव व्योम व्योम्नः समोऽभवदम्बुधिः॥२१॥
प्रतापोपनतायस्य लाटमालवगूर्जराः।
दण्डोपनतसामन्तवर्या वर्याइवाभवत्॥२२॥
अपरिमितविभूतिस्फीतसामन्तसेना-
मुकुटमणिमयूखाक्रान्तपादारविन्दः।
युधि पतितगजेन्द्रानीकबीभत्सभूतो
भयविगलितहर्षो येन चाकारि हर्षः॥२३॥
भुवमुरुभिरनीकैः शासतो यस्य रेवा
विविधपुलिनशोभावन्ध्यविन्ध्योपकण्ठा।
अधिकतरमराजत्स्वेन तेजोमहिम्ना
शिखरिभिरिभवर्ज्या वर्ष्मणां स्पर्धयैव॥२४॥
विधिवदुपचिताभिः शक्तिभिःशक्रकल्प-
स्तिसृभिरपि गुणौघैः स्वैश्च माहाकुलाद्यैः।
अनमदधिपतित्वं यो महाराष्ट्रकाणां
नवनवतिसहस्रग्रामभाजां त्रयाणाम्॥२५॥
गृहिणां स्वगुणैस्त्रिवर्गतुङ्गा विहितान्यक्षितिपालमानभङ्गाः।
अभवन्नुपजातभीतिलिङ्गा यदनीकेन सकोसलाः कलिङ्गाः॥२६॥
पिष्टं पिष्टपुरं येन जातं दुर्गमदुर्गमम्।
चित्रंयस्य कलेर्वृत्तं जातं दुर्गमदुर्गमम्॥२७॥
संनद्धवारणघटास्थगितान्तरालं
नानायुधक्षतनरक्षतजाङ्गरागम्।
आसीज्जलं यदवमर्दितमभ्रगर्भा-
र्केणालमम्बरमिवोर्जितसांध्यरागम्॥२८॥
उद्भूतामलचामरध्वजशतच्छत्रान्धकारैर्बलैः
शौर्योत्साहरसोद्धतारिमथनैर्मलादिभिः षड्विधैः।
आक्रान्तात्मबलोन्नतिं बलरजः–संछन्नकाञ्चीपुरः
प्राकारान्तरितप्रतापमकरोद्यः पल्लवानां पतिम्॥२९॥
कावेरी द्रुतशफरीविलोलनेत्रा
चोलानां सपदि जयोद्यतस्य यस्य।
प्रश्च्योतन्मदगजसेतुरुद्धनीरा
संस्पर्शं परिहरति स्म रत्नराशेः॥३०॥
चोलकेरलपाण्ड्यानां योऽभूत्तत्र महर्द्धये।
पल्लवानीकनीहारतुहिनेतरदीधितिः॥३१॥
उत्साहप्रभुमन्त्रशक्तिसहिते यस्मिन्समन्ताद्दिशो
जित्वा भूमिपतीन्विसृज्य महितानाराध्य दैवद्विजान्।
वातापीं नगरीं प्रविश्य नगरीमेकामिवोर्वीमिमां
चञ्चन्नीरधिनीरनीलपरिखां सत्याश्रये15 शासति॥३२॥
त्रिंशत्सु त्रिसहस्रेषु भारतादाहवादितः।
सहाब्दशतयुक्तेषु श (ग) तेष्वब्देषु पञ्चसु (३७३५)॥३३॥
पञ्चाशत्सु कलौकाले षट्सुपञ्चशतासु च (५५६)।
समासु समतीतासु शकानामपि भूभुजाम्॥३४॥
तस्याम्बुधित्रयनिवारितशासनस्य
सत्याश्रयस्य परमाप्तवता प्रसादम्॥
शैलं जिनेन्द्रभवनं भवनं महिम्नां
निर्मापितं मतिमता रविकीर्त्तिनेदम्॥३५॥
प्रशस्तेर्वसतेश्चास्या जिनस्य त्रिजगद्गुरोः।
कर्ता कारयिता चापि रविकीर्तिः कृती स्वयम्॥३६॥
येनायोजि नवेऽश्मस्थिरमर्थविधौ विवेकिना जिनवेश्म।
स विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदासभारविकीर्तिः॥३७॥
* हर्षचरितम् *
* देव्या यशोवत्या श्चितारोहण निश्चयः *
प्रशान्ते च मन्युवेगे सस्नेहमुत्थापयामास सुतम्। हस्तेन चास्य प्ररुदितस्य दृष्टिमुन्ममार्ज। स्वयमपि राजतराजहंसास्यसमुद्गीर्णेन पयसा प्रक्षाल्य मुखकमलं फलमूकलोकविधृते वासःशकले शुचिनि समुन्मृज्य पाणी सुतवदनविनिहितनिभृतनयनयुगला चिरं स्थित्वा पुनः पुनरायतं निश्वस्यावादीत्।
‘वत्स’ नासि न प्रियो निर्गुणो वा परित्यागार्होवा। स्तन्येनैव सह त्वया पीतं मे हृदयम्। अस्मिंश्च समये प्रभूतप्रभुप्रसादान्तरिता त्वां न पश्यति दृष्टिः। अपि च पुत्रक, पुरुषान्तरविलोकनव्यसनिनी राज्योपकरणमकरुणा वा नास्ति लक्ष्मीः क्षमा वा। कुलकलत्रमस्ति चारित्रधना धर्मधवले कुले जाता। किं विस्मृतोऽसिमां समरशतशौण्डस्य पुरुषप्रकाण्डस्य केसरिण इव केसरिणीं गृहिणीम्। वीरजा वीरजाया वीरजननी च मादृशी पराक्रमक्रीता कथमन्यथा कुर्यात्।
एवंविधेन पित्रा ते भरतभगीरथनाभागनिभेन नरेन्द्रवृन्दारकेण गृहीतः पाणिः। आसेवितः सेवासंभ्रान्तानन्तसामन्तसीमन्तिनीसमावर्जितजाम्बूनदघटाभिषेकः शिरसा। लब्धो मनोरथदुर्लभोमहादेवीषबन्धरजसो ललाटेन। आपीतौ युष्मद्विधैः पुत्रैरमित्रकलत्रवन्दीवृन्दविधूयमानचामरमरच्चलचीनांशुकधरौपयोधरौ। सपत्नीनां शिरःसुनिहितं नमन्निखिलिकटककुटुम्बिनीकिरीटमाणिक्पमालार्चितं चरणयुगलकम्। एवं कृतार्थसर्वावयवा
किमपरमपेक्षे क्षीणपुण्या। भर्तुमविधवैव वाञ्छामि। न च शक्नोमि दग्धस्य भर्तुरार्यपुत्रविरहिता रतिरिव निरर्थकान्प्रलापान्कर्तुम्। पितुश्च ते पादधूलिरिवप्रथमं गगनगमनमावेदयन्ती बहुलताभविष्यामि शूरानुरागिणीनां सुराङ्गनानाम्। प्रत्यग्रदृष्टदारुणदुःखदग्धायाश्च मे किं धक्ष्यति धूमध्वजः। मरणाच्चमे जीवितमेवास्मिन्समये साहसम्। अतिशीतलः पतिशोकागलादक्षपस्नेहेन्धनादस्मादनलः। कैलासकल्पे प्रवसति जीवेश्वरे जरतृणकणिकालघीयसि जीविते लोभ इति क्व घटते। अपि च जीवन्तीमपि मां नरपतिमरणावधीरणमहापातकिनीं न स्प्रक्ष्यन्ति पुत्र! पुत्रराज्यसुखानि। दुःखदग्धानां च भूतिरमङ्गला चाप्रशस्ता च निरुपयोगा च भवति। वत्स, विश्वस्तानां यशसा स्थातुमिच्छामि लोके न वपुषा। तदहमेव त्वां तावत्तात! प्रसादयामि न पुनर्मनोरथप्रातिकूल्येन कदर्थनीयास्मि।’ इत्युक्त्वा पादयोरपतत्।
(पंचमोच्छ्वासात्)
* मालवराजपराजयाय राज्यवर्धन प्रयाणम् *
अथ संभ्रान्तो भ्रात्रा सह स्वयं देवो राज्यवर्धनस्तं पर्यपृच्छत्—
‘भद्र’ भण किमस्मद्व्यसनमव्यवसायवर्धनबद्धधृतिः, अवनिपतिमरणमुदितमतिः, अधृतिकरमपरमधिकतरमितः समुपनयति विधिः’ इति। स कथं कथमप्यकथयत्—‘देव’ पिशाचानामिव नीचात्मनां चरितानि छिद्रप्रहारीणि प्रायशो भवन्ति। यतो यस्मिन्नहन्यवनिपतिरूपरत इत्यभूद्वार्ता तस्मिन्नेव देवो ग्रहवर्मा दुरात्मना मालवराजेन जीवलोकमात्मनः सुकृतेन सह त्याजितः। भर्तुदारिकापि राज्यश्रीः कालायसनिगडयुगलचुम्बितचरणा चौराङ्गमेव संयता कान्यकुब्जे कारायां निक्षिप्ता। किंवदन्ती च यथा किलाऽ-
नायकं साधनं मत्वा जिघृक्षुःसुदुर्मतिरेतामपि भुवमाजिगमिषति।’ इति विज्ञापिते प्रभुः प्रभवतीति।
ततश्च तादृशमनुपेक्षणीयमसंभावितमाकस्मिकमपरं व्यतिकरमाकर्ण्याश्रुतपूर्वत्वात्परिभवस्य, परपरिभवासहिष्णुतया च स्वभावस्य, दर्पबहुलतया च नवयौवनस्य, वीरक्षेत्रसंभवत्वाच्च जन्मनः, कृपाभूमिभूतायाश्च स्वसुः स्नेहात्, स तादृशोऽपि बद्धमूलोऽप्यत्यन्तगुरुरेकपद एवास्य ननाश शोकावेगः। विवेश च सहसा केसरीव गिरिगुहागृहं गम्भीरं हृदयं भयंकरः कोपावेगः। केशिनिषूदनशङ्काकुलकालियकुलभङ्गाभ्रूभङ्गतरङ्गिणी श्यामायमाना यमस्वसेव प्रधीयसि ललाटपट्टे भीषणा भ्रुकुटिरुदभिद्यत। दर्पात्परामृशन्नखकिरणसलिलनिर्झरैः समरभारसंभावनाभिषेकमिवचकार दिङ्नागकुम्भकूटविकटस्य बाहुशिखरकोषस्य वामः पाणिपल्लवः। संगलत्स्वेदसलिलपूरितोदरो निर्मूलं मालवोन्मूलनाय गृहीतकेश इव दुर्मदश्रीकचग्रहोत्कण्ठयेव च कम्पमानः पुनरपि समुत्ससर्प भीषणं कृषाणं पाणिरपरः। शस्त्रग्रहणमुदितराजलक्ष्मीक्रियमाणदिष्टवृद्धिविधुतसिन्दूरधूलिरिवकपिलः कपोलयोरदृश्यत रोषरागः। समासन्नसकलमहीपालचूडामणिचक्राक्रमणजाताहंकार इव च समारुरोह वाममूरुदण्डमुत्तानितश्चरणो दक्षिणः।
अथ तथाविधोऽनुजमवादीत्—‘आयुष्मन्, इदं राजकुलम्, अमी बान्धवाः, परिजनोऽयम्, इयं भूमिः, भूपतिभुजपरिघपालिताश्चैताः प्रजाः’ गतोऽहमद्यैव मालवराजकुलप्रलयाय। इदमेव तावद्वल्कलग्रहणम्, इदमेव तपः, शोकापगमोपायश्चायमेव यदत्यन्ताविनीतारिनिग्रहः। सोऽयं कुरङ्गकैः कचग्रहः केसरिणः, भेकैः करपातः कालसर्पस्य, वत्सकैर्बन्दिग्रहो व्याघ्रस्य, अलगर्दैर्गलग्रहो गरुडस्य, दारुभिर्दाहादेशो दहनस्य, तिमिरै
तिरस्कारो रवेः, यो मालवैः परिभवः पुष्पभूतिवंशस्य। अन्तरितस्तापो मे महीयसा मन्युना। तिष्ठन्तु सर्व एव राजानः करिणश्च त्वयैव सार्धम्। अयमेको भण्डिरयुतमात्रेण तुरङ्गमाणामनुयातु माम्।’ इत्यभिधाय चानन्तरमेव प्रयाणपटहमादिदेश।
तं च तथा समादिशन्तमाकर्ण्य जामिजामातृवृत्तान्तविज्ञानप्रकोपाधानदूयमाने मनसि निवर्तनादेशेन दूरप्ररूढप्रणयपीड इव प्रोवाच देवो हर्षः—‘कमिवदोषं पश्यत्यार्यो ममानुगमनेन। यदि बाल इति नितरां तर्हि न त्याज्योऽस्मि, रक्षणीय इति भवद्भुजपञ्जरं रक्षास्थानम्, अशक्त इति क्वपरीक्षितोऽस्मि, संवर्धनीय इति वियोगस्तनूकरोति, अक्लेशसह इति स्त्रीपक्षे निक्षिप्तोऽस्मि, सुखमनुभवत्विति त्वयैव सह तत्प्रयाति, महानध्वनः क्लेश इति विरहोऽविषह्यतरः, कलत्रं रक्षत्विति श्रीस्ते निस्त्रिंशमधिवसति, पृष्ठतस्तिष्ठत्विति तिष्ठत्येव प्रतापः, राजकमनधिष्ठितमिति तत्सुबद्धमार्यगुणैः, न वाह्यः सहायो महत इति व्यतिरिक्तमिव मां गणयति, प्रलघुपरिकरः प्रपामीति पादरजसि कोऽतिभार, द्वयोर्गमनमसारप्रतामात मामनुगृहाण गमनाज्ञया, कातरोभ्रातृस्नेह इति सदृशो दोषः। का चेयमात्मंभरिता भुजस्य ते यदेकाकी क्षीरोदफेनपटलपाण्डुरममृतमिव यशः पिपासति। अवञ्चितपूर्वोऽस्मि प्रसादेषु। तत्प्रसीदत्वार्यो नयतु मामपि’ इत्यभिधाय क्षितितलविनिहितमौलिः पादयोरपतत्।
तमुत्थाप्य पुनरग्रजोजगाद—‘तात’ किमेवमतिमहारम्भपरिग्रहणेन गरिमाणमारोप्यते बलादतिलघीयानप्यहितः। हरिणार्थमतिह्रेपणः सिंहसंभारः। तृणानामुपरि कति कवचयन्त्याशुशुक्षणयः। अपि च तवाष्टादशद्वीपाष्टमङ्गलकमालिनी मेदिन्यस्त्येव विक्रमस्य
विषयः। नहि कुलशैलनिवहवाहिनो वायवः संनह्यन्त्य तितरले तूलराशौ। न सुमेरुवप्रप्रणयप्रगल्भा वा दिक्करिणः परिणमन्त्यणीयसि वल्मीके। ग्रहीष्यसि सकलपृथ्वीपतिप्रलयोत्पातमहाधूमकेतुं मांधातेव चारुचामीकरपत्रलतालंकाराङ्ककायं कार्मुकं ककुभां विजये। मम तु दुर्निवाराचामस्यां विपक्षक्षपणक्षुधि क्षुभितायां क्षम्यतामयमेकाकिनः कोपकवल एकः। तिष्ठतु भवान्।’ इत्यभिधाय च तस्मिन्नेव वासरे निर्जगामाभ्यमित्रम्।
(षष्ठोच्छ्वासात्)
* सेनापतेः सिंहनादस्य वक्तृता *
‘देव’ न क्वचित्कृताश्रयया मलिनया मलिनतराः कोकिलया काका इव कापुरुषा हतलक्ष्म्या विप्रलभ्यमानमात्मानं न चेतयन्ते। श्रियो हि दोषान्वतादयः कामला विकाराः। छत्रच्छायान्तरितरवयो विस्मरन्त्यन्यं तेजस्विनं जडधियः। किं वा करोतु वराकः येनातिभीरुतया नित्यपराङ्मुखेन नतु दृष्टान्येव सर्वातिशायिशौर्यातिशयश्वयथुकपिलकपोलपुलकपल्लवितकोपानलानि कुपितानां तेजस्विनां मुखानि।
नासौ तपस्वी जानात्येवं यथाभिचारा इव विप्रकृताः सद्यः सकलकुलप्रलयमुपहरन्तिमनस्विनः। जलेऽपि ज्वलन्ति ताडितास्तेजस्विनः। सकलवीरगोष्ठीवाह्यस्य तस्यैवेदमुचित मनुत्तारनिरयनिपातनिपुणं कर्म। मनस्विनां हि प्रधनप्रधानधने धनुषि ध्रियमाणे, सति च कमलाकलहंसीकेलिकुवलयकाननेकृपाणेकृपणोपायाः पयोधिमथनप्रभृतयोऽपि श्रीसमुत्थानस्य किं पुनरीदृशाः। येषां च धात्रा धरित्रीं त्रातुं नियुक्ताः स्वयमसमर्था इव कुलिशकर्कशभुजपरिघप्रहरणहेतोरुद्गिरन्ति गिरयोऽपि लोहानि ते कथमिव
बाहुशालिनो मनसापि विमलयशोबान्धवा ध्यायेयुरकार्यम्। सर्वग्रहाभिभवभास्वराणां हि सुभटकराणामग्रतो दिग्ग्रहणे पङ्गवः पतङ्गकराः। महामहिषशृङ्गतरङ्गभङ्गभङ्गुरभीषणान्तराला लोकप्रवादमात्रेण दक्षिणाशा परमार्थतो भटभ्रुकुटिरधिवासो यमस्य।
चित्रं च यदुन्मुक्तसिंहनादानां सहसा साहसरसरोमाञ्चकण्टकनिकरेण सह ननिर्वपन्ति सटाः शूराणां रणेषु। द्वयमेव च चतुःसागरसंभूतस्य भूतिसंभारस्य भाजनं प्रतिपक्षदाहि दारुणं वडवामुखं वा महापुरुषहृदयं वा। तेजस्विनः सकलाननवाप्य पयोराशिसहजस्य कुतो निवृत्तिरुष्मणः। वृथाविततविपुलफणाभारो भुजङ्गानां भर्ता–विभर्ति यो भोगेन मृत्पिण्डमेव केवलम्। अप्रतिहतशासनाक्रान्त्युपभोगसुखरसं तु रसाया दिक्कुञ्जरकर भारभास्वरप्रकोष्ठा वीरबाहव एव जानन्ति। रविरिवोन्मुखपद्माकरगृहीतपादपल्लवः सुखेनाखण्डिततेजा दिवसान्नयति शूरः।
कातरस्य तु शशिन इव हरिणहृदयस्य पाण्डुरपृष्ठस्य कुतो द्विरात्रमपि निश्चला लक्ष्मीः। अपरिमितयशःप्रकरवर्षी विकासो वीररसः। पुरःप्रवृत्तप्रतापप्रहृताः पन्थानः पौरुषस्य। शब्दविद्रुतद्विषन्ति भवन्ति द्वाराणि दर्पस्य। शस्त्रालोकप्रकाशिताः शून्या दिशः शौर्यस्य। रिपुरुधिरशीकरासारेण भूरिव श्रीरप्यनुरज्यते। बहुनरपतिमुकुटमणिशिलाशाणकोणकपणेन चरणनखराजिरिव राजताप्युज्ज्वलीभवति। अनवरतशस्त्राभ्यासेन करतलानीव रिपुमुखानि श्यामीभवन्ति। विविधव्रणबद्धपट्टकशतैः शरीरमिव यशोऽपि धवलीभवति। कवचिषु रिपूरःकवाटेषुपात्यमानाः पावकशिखामिव श्रियमपि वमन्तिनिष्ठुरा निस्त्रिंशप्रहाराः। यश्चाहितहतस्वजनो मनस्विजनो द्विषद्योषिदुरस्ताडनेन कथयति हृदयदुः-
खम्, परुषासिलतानिपातपवनेनोच्छ्वसिति, निरुच्छ्वसितशत्रुशरीराश्रुधारापातेन रोदिति विपक्षवनिताचक्षुषा ददाति जलं स श्रेयान्नेतरः। न च स्वप्नदृष्टनेष्टष्विव क्षणिकेषु शरीरेषु निबध्नन्ति बन्धुबुद्धिं प्रबुद्धाः। स्थायिनि यशसि शरीरधीर्वीराणाम्। अनवरतप्रज्वलिततेजःप्रसरभास्वरस्वभावं च मणिप्रदीपमिव कलुषः कज्जलमलो न स्पृशत्येव तेजस्विनं शोकः।
स त्वं सत्त्ववतामग्रणीः, प्राग्रहरः प्राज्ञानां, प्रथमः समर्थानां, प्रष्ठोऽभिजातानाम्, अग्रेसरस्तेजस्विनाम्, आदिरसहिष्णूनाम्। एताश्च सततसंनिहितधूपायमानकोपाग्नयः, सुलभासिधारातोयतृप्तयो, विकटबाहुवनच्छायोपगूढा धीरताया निवासशिशिरभूमयः स्वायत्ताः सुभटानामुरःकवाटभित्तयः। यतः, किं गौडाधिपेनैकेन। तथा कुरु यथा नान्योऽपि कश्चिदाचरत्येवं भूयः।सर्वोर्वीश्रद्धाकामुकानामलीकविजिगीषूणां संचारय चामराण्यन्तःपुरपुरंध्रिनिश्वसितैः। उच्छिन्धि रुधिरगन्धान्धगृध्रमण्डलच्छादनैश्छत्रच्छायाव्यसनानि। अपाकुरु कदुष्णशोणितोदकस्वेदैः कुलक्ष्मीकुलटाकटाक्षचक्षूरागरोगान्। उपशमय निशितशरशिरोवेधैरकार्यशौर्यश्वयथून्। उन्मूलय लोहनिगडापीडमालामलमहौषधैः पादपीठदोहददुर्ललितपादपटुमान्द्यानि। क्षपय तीक्ष्णाज्ञाक्षरक्षारपातैर्जयशब्दश्रवणकर्णकण्डूः। अपनय चरणनखमरीचि चन्दनचर्चाललाटलेपैरनमितस्तिमित मस्तकस्तम्भविकारान्। उद्धर करदानसंदेशसंदंशैर्द्रविणदर्पोपष्मायमाणदुःशीललीलाशल्यानि। भिन्धि मणिपादपीठदीधितिप्रदीपिकाभिः शुष्कसुभटाटोपभ्रुकुटिबन्धान्धकारान्। जय चरणलङ्घनलाघवगलित-शिरोगौरवारोग्यैर्मिथ्याभिमानमहासंनिपातान्। मृदय सततसेवाञ्जलिमुकुलितकरसंपुटोष्मभिरिष्वसनगुणकिणकार्कश्यानि।
येनैव ते गतः पिता पितामहः प्रपितामहो वा तमेव मा हासीस्त्रिभुवनस्पृहणीयं पन्थानम्। अपहाय कुपुरुषोचितां शुचं प्रतिपद्यस्व कुलक्रमागतां केसरीवकुरङ्गीं राजलक्ष्मीम्। देव, देवभूयं गते नरेन्द्रेदुष्टगौडभुजङ्गजग्धजीविते च राज्यवर्धने, वृत्तेऽस्मिन्महाप्रलये धरणीधारणायाधुना त्वं शेषः। समाश्वासय अशरणाः प्रजाः। क्ष्मापतीनां शिरःसु शरत्सवितेव ललाटंतपान्प्रयच्छ पादन्यासान्। अहितानामभिनवसेवादीक्षादुःखसंतप्तश्वासधूममण्डलैर्नखपंचैः प्रचलितचूडामणिवक्रवालबालातपै-श्चायाहि कल्माषपादताम्।
अपि च ये पितर्येकाकी तपस्वीमृगैः सह संवर्धितः सहजब्राह्मण्यमार्दवसुकुमारमनाः कृतनिश्चयश्चण्डचापवनाऽटनिटांकारनादनिर्मदीकृतदिग्गजं, गुञ्जज्ज्याजालजनितजगज्ज्वरं, समग्रमुद्यतमेकविंशतिकृत्वः कृत्तवंशमुत्खातवान्राजन्यकं परशुरामः। किं पुनर्नैसर्गिककायकार्कश्यकुलिशायमानमानसो मानिनां मूर्धन्यो देवः। तदद्यैव कृतप्रतिज्ञो गृहाण गौडाधमजीवितध्वस्तये जीवितसंकलनाकुलकालाकाण्डदण्डयात्राचिह्नध्वजं धनुः। न ह्ययनरातिरक्तचन्दनचर्चाशिशिरोपचारमन्तरेण शाम्यति परिभवानलपच्यमानदेहस्य देवस्य दुःखदाहज्वरः सुदारुणः। निकारसंतापशान्त्युपायपरिक्षये हि हिडिम्बाचुम्बनास्वादितमिव रिपुरुधिरामृतममन्दरोपायमपायि पवनात्मजेन। जामदग्न्येन च शाम्यन्मन्युशिखिशिखासंज्वरसुखायमानस्पर्शशीतलेषु क्षत्रियक्षतजह्रदेष्वस्नायि।’ इत्युक्त्वा व्यरंसीत्।
(षष्ठोष्छ्वासात्)
* श्री हर्षदेवस्य वक्तृता *
देवस्तु हर्षस्तं प्रत्यवादीत्—‘करणीयमेवेदमभिहितं मान्येन। इतरथा हि मे गृहीतभुवि भोगिनाथेऽपि दायाददृष्टिरीर्ष्यायलोर्भु-
नस्य। उपरि गच्छतीच्छति निग्रहाय ग्रहगणेऽपि भ्रूलता चलितुम्। अनमत्सुशैलेष्वपि कचग्रहमभिलषति दातुं करः। तेजोदुर्विदग्धानर्ककरानपि चामराणि ग्राहयितुमीहते हृदयम्। राजशब्दरुषा मृगराजानामपि शिरांसि वाञ्छति पादः पादपीठीकर्तुम्। स्वच्छन्दलोकपालस्वेच्छागृहीतानामाक्षेपादेशाय दिशामपि स्फुरत्यधरः किं पुनरीदृशे दुर्जाते जाते जातामर्षनिर्भरे च मनसि नास्त्येवावकाशः शोकक्रियाकरणस्य।
अपि च हृदयविषमशल्ये मुसल्ये जीवति जाल्मे जगद्विगर्हिते गौडाधिपाधमचण्डाले जिह्रेमि शुष्काधरपुटः पोटेव प्रतिकारशून्यं शुचा सूत्कर्तुम्। अकृतरिपुबलाऽबलाविलोचनोदकदुर्दिनस्य मे कुतः करयुगलस्य जलाञ्जलिदानम्। अदृष्टगौडाधमचिताधूममण्डलस्य वा चक्षुषः स्वल्पमप्यश्रुसलिलम्।
श्रूयतां मे प्रतिज्ञाशपाम्यार्यस्यैव पादपांशुस्पर्शेन यदि परिगणितैरेव वासरैः सकलचापलदुर्ललितनरपतिचरणरणरणायमाननिगडां निर्गौडां न करोमि मेदिनीं ततस्तनूनपाति पीतसर्पिषि पतङ्ग इव पातकीं पातयाम्यात्मानम्। इत्युक्त्वा च महासंधिविग्रहाधिकृतमवन्तिमन्तिकस्यमा दिदेश—‘लिख्यताम्। आ रविरथचक्रचीत्कारचकितवारणमिथुनमुक्तसानो रुदयावलात्, आ त्रिकूटकटककुट्टाकटङ्कलिखितकाकुस्थलंकालुण्ठनव्यतिकरात्सुवेलात्, आ वारुणीमदस्खलित वरुण वरनारी नूपुररधमुखरकुहरकुक्षेरस्तगिरेः, आ गुह्यकगेहिनीपरिमलसुगन्धिगन्धपाषाण वासितगुहागृहाच्च गन्धमादनात्, सर्वेषां राज्ञां सज्जीक्रियन्तां कराः करदानाय शस्त्रग्रहणाय वा, गृह्यन्तां दिशश्चामराणि वा, शेखरीभवन्तु पादरजांसि शिरस्त्राणि वा, घटन्तामञ्जलयः करिघटाबन्धा वा, मुच्यन्तां भूमय इषवो
वा, समालम्ब्यन्तां वेत्रयष्टयः कुन्तयष्टयो वा, सुदृष्टः क्रियतामात्मा मच्चरणनखेषु कृपाणदर्पणेषु वा। परागतोऽहम्। पङ्गोरिव मे कुतो निवृत्तिस्तावद्यावन्न कृतः सर्वद्वीपान्तरसंचारी सकलनरपतिमुकुटमणिशिलाऽऽलोकमयः पादलेपः।‘इति कृतनिश्चयश्च मुक्ताऽऽस्थानो विसर्जितराजलोकः स्नानारम्भाकाङ्क्षी सभामत्याक्षीत्। उत्थाय च स्वस्थवन्निःशेषमाह्निकमकार्षीत्। अगलच्य दर्पप्रसर इव भूतप्रतिज्ञस्य शाम्यदुष्मा दिवसस्त्रिभुवनस्य।
(षष्ठोच्छ्वासात्)
कादम्बरी
* परमात्म बन्दना *
रजोजुषे जन्मनि सत्त्ववृत्तये स्थितौप्रजानां प्रलये तमःस्पृशे।
अजाय सर्गस्थितिनाशहेतवे त्रयीमयाय त्रिगुणात्मने नमः॥१॥
* शंकरस्तुतिः*
जयन्ति बाणासुरमौलिलालिता दशास्यचूडामणिचक्रचुम्बिनः।
सुरासुराधीशशिखान्तशायिनो भवच्छिदस्त्र्यम्बकपादपांसवः॥२॥
* विष्णुस्तुतिः *
जयत्युपेन्द्रः स चकार दूरतो बिभित्सया यः क्षणलब्धलक्ष्यया।
दृशैव कोपारुणया रिपोरुरः स्वयं भयाद्भिन्नमिवास्रपाटलम्॥३॥
* गुरुवन्दना *
नमामि भत्सोश्चरणाम्बुजद्वयं सशेखरैर्मौखरिभिः कृतार्चनम्।
समस्तसामन्तकिरीटवेदिकाविटङ्कपीठोल्लुठितारुणाङ्गुलि॥४॥
* दुर्जन निन्दा–सज्जन प्रशंसा च *
अकारणाविष्कृतवैरदारुणादसज्जनात्कस्य भयं न जायते।
विषं महाहेरिव यस्य दुर्वचः सुदुःसहं संनिहितं सदा मुखे॥५॥
कटु क्वणन्तो मलदायकाः खलास्तुदन्त्यलं बन्धनशृङ्खला इव।
मनस्तु साधुध्वनिभिः पदे पदे हरन्ति सन्तो मणिनूपुरा इव॥६॥
सुभाषितं हारि विशत्यधो गलान्न दुर्जनस्यार्करिपोरिवामृतम्।
तदेवधत्ते हृदयेन सज्जनो हरिर्महारत्नमिवाति निर्मलम्॥७॥
* कथा प्रशंसा *
हरन्ति कं नोज्ज्वलदीपकोपमैर्नवैः पदार्थैरुपपादिताः कथाः।
निरन्तरश्लेषघनाः सुजातयो महास्रजश्चम्पककुड्मलैरिव॥८॥
* कविवंश वर्णनम्*
बभूववात्स्यायनवंशसंभवो द्विजो जगद्गीतगुणोऽग्रणीः सताम्।
अनेकगुप्तार्चितपादपंकजः कुबेरनामांश इव स्वयंभुवः॥९॥
उवास यस्य श्रुतिशान्तकल्मषे सदा पुरोडाशपवित्रिताधरे।
सरस्वती सोमकषायितोदरे समस्तशास्त्रस्मृतिबन्धुरे मुखे॥१०॥
जगुर्गृहेऽभ्यस्तसमस्तवाङ्मयैःससारिकैः पञ्जरवर्तिभिः शुकैः।
निगृह्यमाणा वटवः पदे पदे यजूंषि सामानि च यस्य शङ्किताः॥११॥
हिरण्यगर्भो भुवनाण्डकादिव क्षपाकरः क्षीरमहार्णवादिव।
अभूत्सुपर्णो विनतोदरादिव द्विजन्मनामर्थपतिः पतिस्ततः॥१२॥
विवृण्वतो यस्य विसारि वाङ्मयं दिने दिने शिष्यगणा नवा नवाः।
उषःसु लग्नाः श्रवणेऽधिकां श्रियं प्रचक्रिरे चन्दनपल्लवा इव॥१३॥
विधानसंपादितदानशोभितैः स्फुरन्महावीरसनाथमूर्तिभिः।
मखैरसंख्यैरजयत्सुरालयं सुखेन यो यूपकरैर्गजैरिव॥१४॥
स चित्रभानुं तनयं महात्मनां सुतोत्तमानां श्रुतिशास्त्रशालिनाम्।
अवाप मध्ये स्फटिकोपलोपमं क्रमेण कैलासमिवक्षमाभूताम्॥१५॥
महात्मनो यस्य सुदूरनिर्गताः कलङ्कमुक्तेन्दुकलामलत्विषः।
द्विषत्मनः प्राविविशुः कृतान्तरा गुणा नृसिंहस्य नखाङ्कुरा इव॥१६॥
दिशामलीकालकभङ्गतां गतस्त्रयीवधूकर्णतमालपल्लवः।
चकार यस्याध्वरधूमसंचयो मलीमसः शुक्लतरं निजं यशः॥१७॥
सरस्वतीपाणिसरोजसंपुटप्रमृष्टहोमश्रमशीकराम्भसः।
यशोऽशुशुक्लीकृतसप्तविष्टपात्ततः सुतो बाण इति व्यजायत॥१८॥
द्विजेनतेनाक्षतकण्ठकौण्ठ्यया महामनोमोहमलीमसान्धया।
अलब्धवैदग्ध्यविलासमुग्धया धिया निबद्वेयमतिद्वयी कथा॥१९॥
* शूद्रकवर्णनम् *
‘आसीदशेषनरपतिशिरःसमभ्यर्चितशासनः पाकशासन इवापरः, चतुरुदधिमालामेखलाया भुवो भर्ता, प्रतापानुरागावनतसमस्तसामन्तचक्रः, चक्रवर्तिलक्षणोपेतः, चक्रधर इव करकमलोपलक्ष्यमाणशङ्खचक्रलाञ्छनः, हर इव जितमन्मथः, गुह इवाप्रतिहतशक्तिः, कमलयोनिरिव विमानीकृतराजहंसमण्डलः, जलधिरिव लक्ष्मीप्रसूतिः, गङ्गाप्रवाह इव भगीरथपथप्रवृत्तः, रविरिव प्रतिदिवसोपजायमानोदयः मेरुरिव सकलोपजीव्यमानपादच्छायः, दिग्गज इवानवरतप्रवृत्तदानार्द्रीकृतकरः, कर्ता महाश्चर्याणाम्, आगमः काव्यामृतरसानाम्, उदयशैलोमित्रमण्डलस्य, उत्पातकेतुरहित-
जनस्य, प्रवर्तयिता गोष्ठीबन्धानाम्, आश्रयो रसिकानाम्, प्रत्यादेशो धनुष्मताम्, धौरेयः साहसिकानाम्, अग्रणीर्विदग्धानाम्, वैनतेय इवचापकोटिसमुत्सारितारातिकुलाचलो राजा शूद्रको नाम।
नाम्नैवयो निर्भिन्नारातिहृदयो विरचितनारसिंहरूपाडम्बरम्, एकविक्रमाक्रान्तसकलभुवनतलो विक्रमत्रयायासितभुवनत्रयं च हसति स्मेववासुदेवम्। अतिचिरकाललग्नमतिक्रान्तकुनृपतिसहस्रसंपर्ककलङ्कमिव क्षालयन्ती यस्य कृपाणधाराजले चिरमुवास लक्ष्मीः। यश्च मनसि धर्मेण, कोपेयमेन, प्रसादे धनदेन, प्रतापे वह्निना, भुजे भुवा, दृशि श्रिया, वाचि सरस्वत्या, मुखे शशिना, बले मरुता, प्रज्ञायां सुरगुरुणा, रूपे मनसिजेन, तेजसि सवित्रा च वसता सर्पदेवमयस्य प्रकटितविश्वरूपाकृतेरनुकरोति भगवतो नारायणस्य।
यस्य च मदकलकरिकुम्भपीठपाटनं विदधतो लग्नस्थूलमुक्ताफलेन, दृढमुष्टिनिपीडन्निष्ठ्यूतधाराजलबिन्दुदन्तुरेणेव, कृपाणेनाकृष्यमाणा समीपं सकृदगाद्राजलक्ष्मीः। यस्य च हृदिस्थितानपि भर्तृृन्दिवक्षुरिवप्रतापानलो वियोगिनीनामपि रिपुसुन्दरीणामन्तर्जनितदाहो दिवानिशं जज्वाल। यस्मिंश्च राजनि जितजगति पालयति महीं चित्रकर्मसु वर्णसंकराः, काव्येषु दृढ़बन्धाः, शास्त्रेषु चिन्ताः, स्वप्नेषु विप्रलम्भाः, ध्वजेषु प्रकम्पः, गीतेषु रागविलसितानि, करिषु मदविकाराः, चापेषु गुणच्छेदाः, गवाक्षेषु जालमार्गाः, शशिकृपाणकवचेषु कलङ्काः, सार्यक्षेषु शून्यगृहा न प्रजानामासन्। यस्य च परलोकाद्भयम्, अन्तःपुरिकाकुन्तलेषु भङ्गः, नूपुरेषु मुखरता, विवाहेषु करग्रहणम्, अनवरतमखाग्निधूमेनाश्रुपातः, तुरङ्गेषु कशाभिघातोभूत्।
तस्य च राज्ञः कलिकालभयपुञ्जीभूतकृतयुगानुकारिणी, त्रिभुवनप्रसवभूमिरिव विस्तीर्णा, जलावगाहनागतजयकुञ्जरकुम्भसिन्दूरसंध्यायमानसलिलया, उन्मदकलहंसकुलकोलाहलमुखरी-कृतकूलया, वेत्रवत्या परिगता विदिशाभिधाना नगरी राजधान्यासीत्।
स तस्यामवजिताशेषभुवनमण्डलतया विगतराज्यचिन्ताभारनिर्वृतः, द्वीपान्तरागतानेकभूमिपालमौलिमालालालितचरणयुगलो वलयमिव लीलया भुजेन भुवनभारमुद्वहन्, अपरगुरुमपि प्रज्ञयोपहसद्भिरनेककुलक्रमागतै-रसकृदालोचितनीतिशास्त्रनिर्मलमनोभिरलुब्धैः स्निग्धैः प्रबुद्धैश्चामात्यैः परिवृतः समानवयोविद्यालंकारैरनेकमूर्धाभिषिक्त-पार्थिवकुलोद्गतैरखिलकलाकलापालोचनकठोरमतिभिरतिप्रगल्भैः कालविद्भिः प्रभावानुरक्तहृदयैः, अप्राम्योपहासकुशलैः, इङ्गिताकारवेदिभिः, काव्यनाटकाऽऽख्यानकाऽऽख्यायिका-लेख्यव्याख्यानादिक्रियानिपुणैः, अतिकठिनपीवरस्कन्धोरुबाहुभिः, असकृदवदलितसमदरिपुगजघटापीठबन्धैः, केसरिकिशोरकैरिव विक्रमैकरसैरपि विनयव्यवहारिभिः, आत्मनः प्रतिविम्बैरिव राजपुत्रैः सह रममाणः प्रथमेवयसि सुखमतिचिरमुवास। स कदाचिदनवरतदोलायमानरत्नवलयो, घर्घरिकास्फालनप्रकम्पझणझणायमानमणिकर्णपूरः, स्वयमारब्धमृदङ्गवाद्यः, संगीतकप्रसङ्गेन; कदाचिदविरलविमुक्तशरासारशून्यीकृतकाननो मृगयाव्यापारेण, कदाचिदाबद्धविदग्धमण्डलः काव्यप्रबन्धरचनेन, कदाचिच्छास्त्रालापेन, कदाचिद्दर्शनागतमुनिजनचरणशुश्रूषया, कदाचिदक्षरच्युतकमात्राच्युतकबिन्दु-मतीगूढचतुर्थपादप्रहेलिकाप्रदानादिभिः सुहृत्परिवृतो दिवसमनैषीत्। यथैव च दिवसमेवमारब्धविविधक्रीडापरिहासचतुरैः सुहृद्भिरुपेतोनिशामनैषीत्।
* चाण्डाल कन्याऽऽगमनम् *
एकदा तु नातिदूरोदिते, नवनलिनदलसंपुटभिदि, किंचिदुन्मुक्तपाटलिम्नि, भगवति सहस्रमरीचिमालिनि राजानमास्थान-मण्डपगतमङ्गनाजनविरुद्धेन, वामपार्श्वावलम्बिना, कौक्षेयकेण संनिहितविषधरेव चन्दनलता भीषणरमणीयाकृतिः, चूडामणिप्रतिबिम्बच्छलेन राजाक्षेवमूर्तिमती राजभिः शिरोभिरह्यमाना, शरदिव कलहंसधवलाम्बरा, जामदग्न्यपरशुधारेववशीकृतसकलराजमण्डला, विन्ध्यवनभूमिरिव वेत्रलतावती, राज्याधिदेवतेव विग्रहिणी प्रतीहारी समुपसृत्य क्षितितलनिहितजानुकरकमला सविनयमब्रवीत्—देव, द्वारस्थिता सुरलोकमारोहतस्त्रिशङ्कोरिव कुपितशतमखहुंकारनिपातिता राजलक्ष्मीर्दक्षिणापथादागता चाण्डालकन्यका पञ्जरस्थं शुकमादाय देवं विज्ञपति—‘सकलभुवनतलरत्नानामुदधिरिवैकभाजनं देवः। विहंगमश्चायमाश्चर्यभूतो निखिलभुवनतलरत्नमिति कृत्वा देवपादमूलमादायागताहमिच्छामि देवदर्शनसुखमनुभवितुम्’ इति। एतदाकर्ण्य ‘देवः प्रमाणम्’ इत्युक्त्वाविरराम। उपजातकुतूहलस्तु राजा समीपवर्तिनां राज्ञामालोक्य मुखानि ‘को दोषः प्रवेश्यताम्’ इत्यादिदेश।
* चाण्डालकन्याया राजदर्शनम् *
अथ प्रतीहारी नरपतिकथनानन्तरमुत्थाय तां मातङ्गकुमारीं प्रावेशयत्। प्रविश्य च सा नरपतिसहस्रमध्यवर्तिनमशनिभयपुञ्जितकुलशैलमध्यगतमिवकनकशिखरिणम्, अनेकरत्नाभरणकिरणजालकाऽन्तरितावयव-मिन्द्रायुधसहस्रसंछादिताष्टदिग्भागमिव जलधरदिवसम्, अवलम्बितस्थूलमुक्ताकलापस्य कनकशृङ्खलानियमितमणिद-
ण्डिकाचतुष्टयस्य गगनासधुफेनपटलपाण्डुरस्य नातिमहतो दुकूलवितानस्याधस्तादिन्दुकान्तपर्यङ्किकानिषण्णम्, उद्धूयमानसुवर्णदण्डचामरकलापम्, उन्मयूखमुखकान्तिविजयपराभयप्रणते शशिनीव स्फटिकपादपीठे विन्यस्तवामपादम्, इन्द्रनीलमणिकुट्टिमप्रभासंपर्कश्यामायमानैः प्रणतरिपुनिःश्वासमलिनीकृतैरिव चरणनखमयूखजालै-रुपशोभमानम्, आसनोल्लसितपद्मरागकिरणपाटलीकृतेनाचिरमृदितमधुकैटभरुधिरारुणेन हरिमिवोरुयुगलेन विराजमानम्, अमृतफेनधवले गोरोचनालिखितहंसमिथुनसनाथपर्यन्ते चारुचामरवायुप्रनर्तितान्तर्देशे दुकूले वसानम्, अतिसुरभिचन्दनानुलेपनधवलितोरःस्थलम्, उपरिविन्यस्तकुङ्कुमस्थासकम्, अन्तरान्तरानिपतितबालातपच्छेदमिवकैलासशिखरिणम्, अपरशशिशङ्कया नक्षत्रमालयेव हारलतया कृतमुखपरिवेषम्, अतिचपलराज्यलक्ष्मीबन्धनिगडकटकशङ्कामुपजनयतेन्द्रमणिकेयूरयुग्मेन मलयजरसगन्धलुब्धेन भुजङ्गद्वयेनैव वेष्टितबाहुयुगलम्, ईषदालम्बितकर्णोत्पलम्, उन्नतघोणम्, उत्फुल्लपुण्डरीकनेत्रम्, अमलकलधौतपट्टायत-मष्टमीचन्द्रशकलाकारमशेषभुवनराज्याभिषेकपूतपूर्णासनाथं ललाटदेशमुद्वहन्तम्, आमोदिमालतीकुसुमशेखरमुषसि शिखरपर्यस्वतारकापुञ्जमिव पश्चिमाचलम्, आभरणप्रभापिशङ्गिताङ्गतया लग्नहरहुताशमिव मकरध्वजम्, अमलमणिकुट्टिमसंक्रान्तसकलदेहप्रतिविम्बतया पतिप्रेम्णा वसुंधरयाहृदयेनेवोह्यमानम्, अपरिमितपरिवारजनमप्यद्वितीयम्, अनन्तगजतुरगसाधनमपि खड्गपात्रसहायम्, एकदेशस्थितमपि व्याप्तभुवनमण्डलम्, आसने स्थितमपि धनुषि निषण्णम्, उत्साहितद्विपदिन्धनमपि ज्वलत्प्रतापानलम्, आयतलोचनमपि सूक्ष्मदर्शनम्, महादोषमपि सकलगुणाधिष्ठानम्, अविरतप्रवृत्तदानमप्यमदम्, अत्यन्तशुद्धस्वभावमपि कृष्णचरितम्, अकरमपि हस्तस्थितभुवनतलं राजानमद्राक्षीत्।
अलोक्य च सा दूरस्थितैव प्रचलितरत्नवलयेन रक्तकुवलयदलकोमलेन पाणिना जर्जरितमुखभागां बेणुलतामादाय नरपतिप्रतिबोधनार्थं सकृत्सभाकुट्टिममाजघान, येन सकलमेवतद्राजकमेकपदे वनकरियूथमिव तालशब्देन युगपदावलितवदनमवनिपालमुखादाकृष्य चक्षुस्तदभिमुखमासीत्।
* चाण्डालकन्यावर्णनम् *
अवनिपतिस्तु ‘दूरादालोकय’ इत्यभिधाय प्रतीहार्या निर्दिश्यमानांतां वयःपरिणामशुभ्रशिरसा रक्तराजीवनेत्रापाङ्गेनानवरतकृतव्यायामतया यौवनापगमेऽप्यशिथिलशरीरसंधिना सत्यपि मातङ्गत्वे नातिनृशंसकृति-नानुगृहीतार्थवेषेण शुभ्रवाससा पुरुषेणाधिष्ठितपुरोभागाम्, आकुलाकुलकाकपक्षधारिणा कनकशलाकानिर्मित-मप्यन्तर्गतशुकप्रभाश्यामायमानं मरकतमयमिव पञ्जरमुद्वहता चाण्डालदारकेणानुगम्यमानाम्, असुरगृहीतामृतापहरण-कृतकपटपटुविलासिनीवेषस्य श्यामतया भगवतो हरेरिवानुकुर्वतीम्, संचारिणीमिवेन्द्रनीलमणिपुत्रिकाम्, गुल्फावलम्बिनीलकञ्चुकेनावच्छन्नशरीराम्, उपरिरक्तांशुकरचितावगुण्ठनाम्, नीलोत्पलस्थलीमिवनिपतितसंध्यातपाम्, एककर्णावसक्तदन्तपत्रप्रभाधवलितकपोलमण्डलाम्, उद्यदिन्दुकिरणच्छुरितमुखीमिव विभावरीम्, उरःस्थलनिवास-संक्रान्तनारायणदेहप्रभाश्यामलितामिव प्रियम्, कुपितहरहुताशनदह्यमानमदनधूममलिनीकृतामिव रतिम्, उन्मदहलिहलाकर्षणभयपलायितामिव कालिन्दीम्, अतिबहलपिण्डालक्तकरसरागपल्लवितपादपङ्कजा-मचिरमृदितमहिषासुररुधिररक्तचरणामिव कात्यायनीम, आलोहिताङ्गुलिप्रभापाटलितनखमयूखाम्, अतिकठिनमणिकुट्टिमस्पर्शमसहमानाम्, क्षितितले
पल्लवभङ्गानिव निधाय संचरन्तीम्, अतिस्थूलमुक्ताफलघटितेन शुचिना हारेण गङ्गास्रोतसेव कालिन्दीशङ्कया कृतकण्ठग्रहाम्, शरदमिव विकसितपुण्डरीकलोचनाम्, प्रावृषमिव घनकेशजालाम्, मलयमेखलामिव चन्दनपल्लवावतंसाम्, नक्षत्रमालामिव चित्रश्रवणाभरणभूषिताम्, श्रियमिवहस्तस्थितकमलशोभाम्, मूर्च्छामिव मनोहारिणीम्, अरण्यभूमिमिवरूपसंपन्नाम्, दिव्ययोषितमिवाकुलीनाम्, निद्रामिव लोचनग्राहिणीम्, अरण्यकमलिनीमिव मातङ्गकुलदूषिताम्, अमूर्तामिव स्पर्शवर्जिताम्, मधुमासकुसुमसमृद्धिमिवाजातिम्, यक्षाधिपलक्ष्मीमिवालकोद्भासिनीम्, अचिरोपारूढ़यौवनाम्, अतिशयरूपाकृतिमनिमिषलोचनो ददर्श।
* वैशम्पायन परिचयः *
राजानमीषदवगलितकर्णपल्लवावतंसा प्रगल्भवनितेव कन्यका प्रणनाम। कृतप्रणामायां च तस्यां मणिकुट्टिमोपविष्टायां स पुरुषस्तं विहङ्गमं शुकमादाय पञ्जरगतमेव किंचिदुपसृत्य राज्ञे न्यवेदयत्। अब्रवीच्च–‘देव’ विदितसकलशास्त्रार्थः, राजनीतिप्रयोगकुशलः, पुराणेतिहासकथालापनिपुणः, वेदिता गीतश्रुतीनां, काव्यनाटकाख्यायिकाख्यानक-प्रभृतीनामपरिमितानां सुभाषितानामध्येता स्वयं च कर्ता, परिहासालापपेशलः, वीणावेणुमुरजादीनामसमः श्रोता, नृत्तप्रयोगदर्शननिपुणः, चित्रकर्मणि प्रवीणः, द्यूतव्यापारे प्रगल्भः, सकलभूतलरत्नभूतोऽयं वैशम्पायनो नाम शुकः सर्वरत्नानामुदधिरिव देवोभाजनमितिकृत्वैनमादायास्मत्स्वामिदुहिता देवपादमूलमायाता। तदयमात्मीयः क्रियताम्’ इत्युक्त्वा नरपतेः पुरो निधाय पञ्जरमसावपससार।
अपसृते च तस्मिन्स विहङ्गराजो राजाभिमुखो भूत्वोन्नमय्य दक्षिणं चरणमतिस्पष्टवर्णस्वरसंस्कारया गिरा कृतजयशब्दो राजानमुद्दिश्यार्यामिमां पपाठ—
‘स्तनयुगमश्रुस्नातं समीपतरवर्ति हृदयशोकाग्नेः।
चरति विमुक्ताहारं व्रतमिव भवतो रिपुस्त्रीणाम्॥
* शुकविषये राज्ञः सचिवं प्रति प्रश्नः *
राजा तु तामार्यां श्रुत्वा संजातविस्मयः सहर्षमासन्नवर्तिनम्, अतिमहार्घहेमासनोपविष्टम्, अमरगुरुमिवाशेषनीतिशास्त्रपारगम्, अतिवयसम्, अग्रजन्मानम्, अखिले मन्त्रिमण्डले प्रधानममात्यं कुमारपालितनामानमब्रवीत्—‘श्रुता भवद्भिरस्य विहङ्गमस्य स्पष्टता वर्णोच्चारणे, स्वरेच मधुरता। प्रथमं तावदिदमेव महदाश्चर्यम्, यदयमसंकीर्णवर्णप्रविभागामभिव्यक्तमात्रानुस्वारसंस्कारयोगां विशेषसंयुक्तां गिरमुदीरयति। तत्र पुनरपरमभिमतविषये तिरश्चोऽपि मनुजस्येव संस्कारवतो बुद्धिपूर्वा प्रवृत्तिः। तथा हि। अनेन समुत्क्षिप्तदक्षिणचरणेनोच्चार्य जयशब्दमियमार्या मामुद्दिश्य परिस्फुटाक्षरं गीता। प्रायेण हि पक्षिणः पशवश्च भयाहारमैथुननिद्रासंज्ञामात्रवेदिनो भवन्ति। इदं तु महच्चित्रम्’
* सचिव स्योत्तरम् *
इत्युक्तवति भूभुजि कुमारपालितःकिंचित्स्मितवदनोऽवादीत्—‘किमत्र चित्रम्। एते हि शुकसारिकाप्रभृतयो विहङ्गविशेषा यथाश्रुतां वाचमुच्चारयन्तीत्यधिगतमेव देवेन। तत्राप्यन्यजन्मोपात्तसंस्कारानुबन्धेन वा पुरुषप्रयत्नेन वा
संस्कारातिशय उपजायत इति नातिचित्रम्। अन्यत्-एतेषामपि पुरा पुरुषाणामिवातिपरिस्फुटाभिधाना वागासीत्। अग्निशापत्त्वस्फुटालापता शुकानामुपजाता, करिणां च जिह्वापरिवृत्तिः’ इति। एवमुच्चारयत्येव तस्मिन्नशिशिरकिरणमम्बरतलस्य मध्यमध्यारूढमावेदयन्नाडिकाच्छेदप्रहतपटुपटहनादानुसारी मध्यान्हशङ्खध्वनिरुदतिष्ठत्। तमाकर्ण्य च समासन्नस्नानसमयो विसर्जितराजलोकः क्षितिपतिरास्थानमण्डपादुत्तस्थौ।
* राजसमाजविसर्जनवर्णनम् *
अथ चलति महीपतावन्योन्यनतिरभससंचलनचालिताङ्गदपत्रभङ्गमकरकोटिपाटितांशुकपटानाम्, आक्षेपदोलायमानकण्ठदाम्नाम्, अर्धावलम्बिभिः कर्णोत्पलैश्चुम्ब्यमानगण्डस्थलानाम्, गमनप्रणामलालसानामहमहमिकया वक्षःस्थलप्रेङ्खोलितहारलतानाम्, उतिष्ठतामासीत्संभ्रमो महीपतीनाम्। सरभसप्रचलितसामन्तशतचरणतलाभिहतस्य चास्थानमण्डपस्य निर्घोषगम्भीरेण कम्पयतेव वसुमतीम्, प्रतिहारिणां च पुरःससंभ्रमसमुत्सारितजनानां दण्डिनां समारब्धहेलमुच्चैरुच्चरतामालोकयन्त्विति तारतरदीर्घेण, भवनप्रासादकुञ्जेषूच्चरितप्रतिच्छन्दतया दीर्घतामुपगतेनालोकशब्देन राज्ञां च ससंभ्रमार्जितमौलिलोलचूडामणीनां प्रणमता ममलमणिशलाकादन्तुराभिः किरीटकोटिभिरुल्लिख्यमानस्यमणिकुट्टिमस्य निःस्वनेन, प्रणामपर्यस्तानामतिकठिनमणिकुट्टिमनिपतितरणरणायितानां च मणिकर्णपूराणां निनादेन, मङ्गलपाठकानां च पुरोयायिनां च जयजीवेति मधुरवचनानुयातेन पठतां दिगन्तव्यापिना कलकलेन, संक्षोभादतित्वरितपदप्रवृत्तैरवनिपतिभिः केयूरकोटिता-
डितानां क्वणितमुखररत्नदाम्नां च मणिस्तम्भानां रणितेन सर्वतः क्षुभितमिव तदास्थानभवनमभवत्।
* नरपतेरन्तःपुरगमनं स्नानं च *
अथविसर्जितराजलोको ‘विश्रम्यताम्’ इति स्वयमेवाभिधाय तां चाण्डालकन्यकां, “वैशम्पायनः प्रवेश्यतामभ्यन्तरम्” इति ताम्बूलकरङ्कवाहिनीमादिश्य, कतिपयाप्तराजपुत्रपरिवृतो नरपति रभ्यन्तरं प्राविशत्। अपनीताभरणश्चदिवसकर इव विगलितकिरणजालः, चन्द्रतारकासमूहशून्य इव गगनाभोगः समुपाहृतसमुचितव्यायामोपकरणां व्यायामभूमिमयासीत्। स तस्यां च समानवयोभिः सह राजपुत्रैः कृतमधुरव्यायामः, दण्डिभिरुपदिश्यमानमार्गः, विततसितवितानाम्, अनेकवारणगणनिबध्यमानमण्डलाम्, गन्धोदकपूर्णकनकमयजलद्रोणीसनाथमध्याम्, उपस्थापितस्फाटिकस्नानपीठाम्, एकान्तनिहितैः, अतिसुरभिगन्धसलिलपूर्णैः परिमलावकृष्टमधुकर- कुलान्धकारितमुखैः आतपभयान्नीलकर्पटावगुण्ठितमुखैरिव स्नानकलशैरुपशोभितां स्नानभूमिमगच्छत्। अवतीर्णस्य जलद्रोणीं परिचारिकाकरमृदितसुगन्धामलकलिप्तशिरसो राज्ञः परितः समुपतस्थुरंशुकनिबिडनिबद्धपरिकराः, दूरसमुत्सारितवलयबाहुलताः, समुत्क्षिप्तकर्णाभरणाः, कर्णोत्सङ्गोत्सारितालकाः, गृहीतजलकलशःः, स्नानार्थमभिषेकदेवता इव वारयोपितः। द्रोणीसलिलादुत्थाय च स्नानपीठममलस्फटिकधवलं वरुण इव राजहंसमारुरोह। ततस्ताः काश्चिन्मरकतकलशप्रभाश्यामायमाना नलिन्य इव मूर्तिमत्यः पत्रपुटैः, काश्चिद्रजतकलशहस्ता रजन्य इव पूर्णचन्द्रमण्डलविनिर्गतेन ज्योत्स्नाप्रवाहेण, काश्चित्कलशोत्क्षेपश्रमस्वेदा-
र्द्रशरीरा जलदेवता इवस्फाटिकैः कलशैस्तीर्थजलेन, काश्चिन्प्रलयसरित इव चन्दनरसमिश्रेण सलिलेन, काश्चिदुत्क्षिप्तकलशपार्श्वविन्यस्तहस्तपल्लवाः प्रकीर्यमाणनखमयूखजालकाः प्रत्यङ्गुलिविवरविनिर्गतजलधाराः सलिलयन्त्रदेवता इव, काश्चिज्जाड्यमपनेतुं दिवसश्रिय इव कनककलशहस्ताः कुङ्कुमजलेन वाराङ्गना यथायथं राजानमभिषिषिचुः। अनन्तरमुदपादि च स्फोटयन्निव श्रुतिपथमनेकप्रहतपटुपटहझल्लरीमृदङ्गवेणुवीणागीतनिनादानुगम्यमानो वन्दिवृन्दकोलाहलाकुलो भुवनविवरव्यापी स्नानशङ्कानामापूर्यमाणानामतिमुखरो ध्वनिः।
“देवपूजन भोजने विश्रामश्च”
एवं च क्रमेण निर्वर्तिताभिषेको विषधरनिर्मोकपरिलघुनी धवले परिधाय धौतवाससी शरदम्बरैकदेश इव जलक्षालननिर्मलतनुः, अतिधवलजलधरच्छेदशुचिना दुकूलपटपल्लवेन तुहिनगिरिरिव गगनसरित्स्रोतसा कृतिशिरोवेष्टनः, संपादितपितृजलक्रियो मन्त्रपूतेन तोयाञ्जलिना दिवसकरमभि प्रणम्य देवगृहमगमत्। उपरचितपशुपतिपूजश्च निष्क्रम्य देवगृहान्निर्वर्तिताग्निकार्यो विलेपनभूमौ झङ्कारिभिरलिकदम्बकैरनुबध्यमानपरिमलेन मृगमदकर्पूरकुङ्कुमवाससुरभिणा चन्दनेनानुलिप्तसर्वाङ्गो विरचितामोदिमालतीकुसुमशेखरः कृतवस्त्रपरिवर्तो रक्षकर्णपूरमात्राभरणः समुचितभोजनैः सह भूपतिभिराहारमभिमतरसास्वादजातप्रीतिरवनिपो निर्वर्तयामास।
परिपीतधूमवर्तिरुपस्पृश्य च गृहीतताम्बूलस्तस्मात्प्रमृष्टमणिकुट्टिमप्रदेशादुत्थाय नातिदूरवर्तिन्या ससंभ्रमप्रधावितया प्रतीहार्या प्रसारितबाहुमवलम्ब्य वेत्रलताग्रहणप्रसङ्गादतिजरठकिसलयानुकारिक-
रतलकरेणाऽभ्यन्तरसंचारसमुचितेन परिजनेनानुगम्यमानो, धवलांशुकपरिगतपर्यन्ततया स्फटिकमणिमयभित्ति-निबद्धमिवोपलक्ष्यमाणम्, अतिसुरभिणा मृगनाभिपरिगतेनामोदिना चन्दनवारिणा सिक्तशिशिरमणिभूमिम्, अविरलविप्रकीर्णेन विमलमणिकुट्टिमगगनतलतारागणेनेव कुसुमोपहारेण निरन्तरनिचितम्, उत्कीर्णशालभञ्जिकानिवहेन संनिहितगृहदेवतेनेव गन्धसलिलक्षालितेन कलधौतमयेन स्तम्भसंचयेन विराजमानम्, अतिबहलाऽगरुधूपपरिमलम्, अखिलविगलितजलनिवहधवलजलधरशकलानुकारिणा कुसुमामोदवासितप्रच्छदपटेन पट्टोपधानाध्यासितशिरोधाम्ना मणिमयप्रतिपादुकाप्रतिष्ठितपादेन पार्श्वस्थरत्नपादपीठेन तुहिनशिलातलसदृशशयनेन सनाथीकृतवेदिकं भुक्त्वाऽऽस्थानमण्डपमयासीत्। तत्र च शयने निषण्णः क्षितितलोपविष्टया शनैः शनैरुत्सङ्गनिहितासिलतया खड्गवाहिन्या नवनलिनदलकोमलेन करसंपुटेन संवाह्यमानचरणस्तत्कालोचितदर्शनैरवनिपतिभिरमात्यैर्मित्रैश्च सह तास्ताः कथाः कुर्वन्मुहूर्तमिवाऽऽसांचक्रे। ततो नातिदूरवर्तिनीम् ‘अन्तःपुराद्वैशम्पायनमादायागच्छ’ इति समुपजाततद्वृत्तान्तप्रश्नकुतूहलो राजा प्रतीहारीमादिदेश। सा क्षितितलनिहितजानुकरतला ‘यथाज्ञापयति देवः’ इति शिरसि कृत्वाज्ञां यथादिष्टमकरोत्।
“वैशम्पायनस्याऽऽनयनम् तेन सह राज्ञो वार्त्तालापश्च”
अथ मुहूर्तादिव वैशम्पायनः प्रतीहार्या गृहीतपञ्जरः कनकवेत्रलतावलम्बिना किंचिदवनतपूर्वकायेन सितकञ्चुकावच्छन्नवपुषा जराधवलितमौलिना गद्गदस्वरेण मन्दमन्दसंचारिणा विहङ्गजातिप्रीत्याजरत्कलहंसेनेव कञ्चुकिनानुगम्यमानो राजान्तिकमाजगाम। क्षितित-
लनिहितकरतलस्तु कञ्चुकी राजानं व्यज्ञापयत्—‘देव, देव्योविज्ञापयन्ति, ‘देवाऽऽदेशादेववैशम्पायनः स्नातः कृताहारश्चदेवपादमूलंप्रतीहार्यातीतः’ इत्यभिधाय गते च तस्मिन्राजा वैशम्पायनमपृच्छत्—‘कश्चिदभिमत मास्वादितमभ्यन्तरे भवता किंचिदशन जातम्’ इति। स प्रत्युवाच—‘देव’ किंवा नास्वादितम्, आमत्तकोकिललोचनच्छविर्नीलपाटलः कषायमधुरः प्रकाममापीतो जम्बूफलरसः, हरिनखरभिन्नमत्तमा तङ्गकुम्भमुक्तरक्तार्द्रमुक्ताफलत्विषि खण्डितानि दाडिमबीजानि, नलिनीदलहरिन्ति द्राक्षाफलस्वादूनि च चूर्णितानि स्वेच्छया प्राचीनामलकीफलानि। किं वा प्रलपितेन बहुना। सर्वमेव देवीभिः स्वयं करतलोपनीयमानममृतायते’ इति। एवंवादिनो वचनमाक्षिप्य नरपतिरब्रवीत्—
‘आस्तां तावत्सर्वम्। अपनयतु नः कुतूहलम्। आवेदयतु भवानादितः प्रभृति कार्त्स्न्येनात्मनो जन्म कस्मिन्देशे, भवान्कथं जातः, केन वा नाम कृतम्, का ते माता, कस्ते पिता, कथं वेदानामागमः, कथं शास्त्राणां परिचयः, कुतः कला आसादिताः, किंहेतुकं जन्मान्तरानुस्मरणम्, अथवा विहङ्गवेषधारी कश्चिच्छन्नं निवससि, क्व वा पूर्वमुषितम्, कियद्वा वयः, कथं पञ्जरबन्धनं, कथं चाण्डालहस्तगमनम्, इह वा कथमागमनम्’ इति। वैशम्पायनस्तु स्वयमुपजातकुतूहलेन सबहुमानभवनिपतिना पृष्टो मुहूर्तमिव ध्यात्वा सादरमब्रवीत्—
‘देव’ महतीयं कथा। यदि कौतुकमाकर्ण्यताम्—
“वैशम्पायनकृतं विन्ध्याटवी वर्णनम्”
अस्ति पूर्वापरजलनिधिवेलावनलग्ना, मध्यदेशालंकारभूता मेखलेवभुवः, वनकरिकुलमदजलसेकसंवर्धितैरतिविकच-धवलकुसुमनिकरमत्युच्चतया तारकागणमिव शिखरप्रदेशसंलग्नमुद्वहद्भिः
पादपैरुपशोभिता, मदकलकुररकुलदश्यमानमरिचपल्लवा, करिकलभकरमृदिततमालकिसलयामोदिनी, पथिकजनरचितलवङ्गपल्लवसंस्तरैरतिकठोरनालिकेरकेतकीकरीरबकुलपरिगतप्रान्तैः, ताम्बूलीलतावनद्धपूगखण्ड-मण्डितैर्वनलक्ष्मीवासभुवनैरिव विराजिता लतामण्डपैः, उन्मदमातङ्गकपोलस्थलगलितसलिलसिक्तेनैवाऽनवरतमेलालतावनेन मदगन्धिनान्धकारिता, नखमुखलग्नेभकुम्भमुक्तफललुब्धैः शबरसेनापतिभिरभिहन्यमानकेसरिशता, प्रेताधिपनगरीव सदासंनिहितमृत्युभीषणा महिपाधिष्ठिता च समरोद्यतपताकिनीव बाणसमारोपितशिलीमुखा विमुक्तसिंहनादा च, कात्यायनीव प्रचलितखड्गभीषणा रक्तचन्दनालंकृता च, कर्णीसुतकथेव संनिहितविपुलाचला शशोपगता च, कल्पान्तप्रदोषसंध्येव प्रनृत्तनीलकण्ठापल्लवारुणा च, अमृतमथनवेलेव श्रीद्रूमोपशोभिता वारुणपरिगता च, प्रावृडिव घनश्यामलाऽनेकशतह्रदालंकृता च, चन्द्रमूर्त्तिरिव सततमृक्षसार्थानुगता हरिणाध्यासिता च, राज्यस्थितिरिव चमरमृगबालव्यजनोपशोभिता समदगजघटापरिपालिता च, गिरितनयेव स्थाणुसंगता मृगपतिसेविता च, जानकीव प्रसूतकुशलवा निशाचरपरिगृहीता च, बालग्रीवेव व्याघ्रनखपंक्तिमण्डिता गण्डकाभरणा च, क्वचित्प्रलयवेलेव महावराहदंष्ट्रासमुत्खातधरणिमण्डला, क्वचिद्दशमुखनगरीव चटुलवानरवृन्दभज्यमानतुङ्गशालाकुला, क्वचिदचिरनिर्वृत्तविवाहभूमिरिव हरितकुशसमित्कुसुमशमीपलाशशोभिता, क्वचिदुद्वृत्तमृगपतिनादभीतेव कण्टकिता, क्वचिन्मत्तेव कोकिलकुलप्रलापिनी, क्वचिदुन्मत्तेववायुवेगकृततालशब्दा,क्वचिद्विधवेवोन्मुक्ततालपत्रा,क्वचित्समरभूमिरिव शरशतनिचिता, क्वचिदमरपतितनुरिव नेत्रसहस्रसंकुला, क्वचिन्नारायणमूर्तिरिव तमालनीला, क्वचित्पार्थरथपताकेव कप्याक्रान्ता, क्वचिदवनिपतिद्वारभूमिरिव वेत्रलताशतदुःप्रवेशा, क्वचि-
द्विराटनगरीव कीचकशताकुला, क्वचिदम्बर श्रीरिव व्याधानुगम्यमानतरलतारकमृगा, क्वचिद्गृहीतव्रतेव दर्भचीरजटावल्कलधारिणी, अपरिमितबहलपत्रसंचयापि सप्तपर्णोपक्षोभिता, क्रूरसत्त्वापि मुनिजनसेविता पुष्पवत्यपि पवित्रा विन्ध्याटवी नाम।
“अगस्त्याऽऽश्रमवर्णनम्”
तस्यां च दण्डकाऽरण्यान्तःपाति, सकलभुवनविख्यातम्, उत्पत्तिक्षेत्रमिव भगवतो धर्मस्य, सुरपतिप्रार्थनापीतसकलसागरजलस्य, मेरुमत्सराद्गगनतलप्रसारितविकटशिरः सहस्रेण, दिवसकररथगमनपथमपनेतुमभ्युद्यतेन, अवगणितसकलसुरवचसा विन्ध्यगिरिणाप्यनुल्लङ्घिताज्ञस्य, जठरानलजीर्णवातापिदानवस्य, सुरासुरमुकुटमकरपत्रकोटिचुम्बितचरणरजसः, दक्षिणाशामुखविशेषकस्य, सुरलोकादेकहुँकारनिपातितनहुषप्रकटप्रभावस्य भगवतो महामुनेरगस्त्यस्य भार्यया लोपामुद्रया स्वयमुपरचितालबालकैः, करपुटसलिलसेकसंवर्धितैः सुतनिर्विशेषैरुपशोभितं पादपैः, तत्पुत्रेण च गृहीतव्रतेनाषाढिना पवित्रभस्मविरचितत्रिपुण्ड्रकाभरणेन, कुशचीवरवाससा, मौञ्जमेखलाकलितमध्येन, गृहीतहरितपर्णपुटेन प्रत्युटजमटता भिक्षां दृढ़दस्युनाम्ना पवित्रीकृतम्, अतिप्रभूतेध्माहरणाच्च यस्येध्मवाह इति पिता द्वितीयं नाम चकार। दिशि दिशि शुकहरितैश्च कदलीवनैः श्यामलीकृतपरिसरं सरिता च कलशयोनिपरिपीतसागरमार्गानुगतयेव बद्धवेणिकया गोदावर्या परिगतमाश्रमपदमासीत्।
यत्र च दशरथवचनमनुपालयन्नुत्सृष्टराज्यो दशवदनलक्ष्मीविभ्रमविरामो रामो महामुनिमगस्त्यमनुचरन्सह सीतया लक्ष्मणोपर-
चित रुचिरपर्णशालः पञ्चवट्यां कंचित्कालं सुखमुवास। बलिकर्मकुसुमान्युद्धरन्त्याः सीतायाः करतलादिव संक्रान्तो यत्र रागः स्फुरति लताकिसलयेषु। यत्र च दशरथसुतनिशितशरनिकरनिपातनिहतरजनीचरबलबहलरुधिरसिक्तमूलमद्यापि तद्रागाविद्ध-निर्गतपलाशमिवाभाति नवकिसलयमरण्यम्। अधुनापि यत्र जलधरसमये गम्भीरमभिनवजलधरनिवहनिनादमाकर्ण्य भगवतो रामस्य त्रिभुवनविवरव्यापिनश्चापघोषस्य स्मरन्तो न गृह्णन्ति शष्पकवलमजस्रमश्रुजललुलितदृष्टयो वीक्ष्य शून्या दश दिशो जराजर्जरितविषाणकोटयो जानकीसंवर्धिता जीर्णमृगाः। यस्मिन्ननवरतमृगयानिहतशेषवनहरिणप्रोत्साहित इव कृतसीताविप्रलम्भः कनकमृगो राघवमतिदूरं जहार। यत्र च मैथिलीवियोगदुःखदुःखितो रावणविनाशसूचकौ चन्द्रसूर्याविव कबन्धग्रस्तौ समं रामलक्ष्मणौ त्रिभुवनभयं महच्चक्रतुः। अत्यातश्च यस्मिन्दशरथसुतबाणनिपातितो योजनबाहोर्बाहुरगस्त्यप्रासादनागतनहुषाजगरकायशङ्कां चकार ऋषिगणस्य। जनकतनया च भर्त्रा विरहविनोदनार्थमुटजाभ्यन्तरलिखिता यत्र रामनिवासदर्शनोत्सुका पुनरिव धरणीतलादुल्लसन्ती वनचरैरद्याप्यालोक्यते।
* पम्पा सरोवरवर्णनम् *
तस्य च संप्रत्यपि प्रकटोपलक्ष्यमाणपूर्ववृत्तान्तस्य, अगस्त्याश्रमस्य नातिदूरे जलनिधिपानप्रकुपितवरुणप्रोत्साहितेन, अगस्त्यमत्सरात्तदाश्रमसमीवर्त्यपर इव वेधसा जलनिधिरुत्पादितः, प्रलयकालविघट्टिताष्टदिग्विभागसंधिबन्धंगगनतलमिव भुवि निपतितम्, आदिवराहसमुद्धृतधरामण्डलस्थानमिव जलपूरितम्, ‘उत्फुल्लकुमुदकुवल-
यकह्लारम् उन्निद्रारविन्दमधुद्रवबद्धचन्द्रकम्, अलिकुलपटलान्धकारितसोगन्धिकम्, सारसितसमदसारम्, अम्बुरुहमधुपानमत्तकलहंसकामिनीकृतकोलाहलम्, अनेकजलचरपतङ्गशतसंचलनचलितवाचालवीचिमालम्, एकदेशावतीर्णमुनिजनापूर्यमाण-कमण्डलुकलजलध्वनिमनोहरम्, उन्मिषदुत्पलवनमध्यचारिभिः सवर्णतया रसितानुमेयैः कादम्बैरासेवितम्, उपान्तकेतकीरजःपटलबद्धकूलपुलिनम्, आसन्नाश्रमाऽऽगततापस-क्षालितार्द्रवल्कलकषायपाटलतटजलम्, उपतटवृक्षपल्लवानिलवीजितम्, अविरलतमालवीथ्यन्धकारिताभिः, बालिनिर्वासितेन संचरता प्रतिदिनमृष्यमूकवासिना सुग्रीवेणावलुप्तफललघुलताभिः, उदवासितापसानां देवतार्चनोपयुक्तकुसुमाभिः, उत्पतज्जलचरपक्षपुटविगलित-जलबिन्दुसेकसुकुमारकिसलयाभिः वनराजिभिरुपरुद्धतीरम्, अपरसागराशङ्किभिः सलिलमादातुमवतीर्णैर्जलधरैरिव बहलपङ्कमलिनैर्वनकरिभिरनवरत-मापीयमानसलिलम्, अगाधमनन्तमप्रतिममपां निधानं पम्पाभिधानं पद्मसरः। यत्र च विकचकुवलयप्रभाश्यामायमानपक्षपुटान्यद्यापि मूर्तिमद्रामशापग्रस्तानीव मध्यचारिणालोक्यन्ते चक्रवाकनाम्नां मिथुनानि।
* विशाल शाल्मलि वर्णनम्*
तस्यैवंविधस्य सरसः पश्चिमे तीरे राघवशरप्रहारजर्जरिततालतरुखण्डस्य च समीपे दिग्गजकरदण्डानुकारिणा जरदजगरेण सततमावेष्टितमूलतया बद्धमहालवाल इव, तुङ्गस्कन्धावलम्बिभिरनिलवेल्लितैरहिनिर्मोकैर्धृतोत्तरीय इव, दिक्चक्रवालपरिमाणमिवगृह्णता भुवनान्तरालविप्रकीर्णेन शाखासंचयेन प्रलयकालताण्डवप्रसारितभुजसहस्रमुडुपतिशेखरमिव विडम्बयितुमुद्यतः, निखिलशरीरव्या-
पिनीभिरतिदूरोन्नताभिर्जीर्णतया शिराभिरिव परिगतो व्रततिभिः जरातिलकबिन्दुभिरिव कण्टकैराचिततनुः, इतस्ततः परिपीतसागरसलिलैर्गगनागतैः पत्ररथैरिव शाखान्तरेषु निलीयमानैः क्षणमम्बुभारालसै रार्द्रीकृतपल्लवै र्जलधरपटलैरप्यदृष्टशिखरः, तुङ्गतया नन्दनवनश्रियमिवालोकयितुमभ्युद्यतः, स्वसमीपवर्तिनामुपरि संचरतां गगनतलगमनखेदायासितानां रविरथतुरङ्गमाणां सृक्कपरिस्रुतैः फेनपटलैः संदेहितमूलराशिभिर्धवलीकृतशिखरशाखः, वनगजकपोलकण्डूयनलग्नमदनिलीनमत्तमधुकरमालेन लोहशृङ्खलाबन्धननिश्चलेनेव कल्पस्थायिना मूलेन समुपेतः, कोटराभ्यन्तरनिविष्टैःस्फुरद्भिः सजीव इवमधुकरपटलैः नवजलधरव्यूह इव नभसि दर्शितोन्नतिः, अखिलभुवनतलावलोकनप्रासाद इव वनदेवतानाम्, अधिपतिरिव दण्डकारण्यस्य, शाखाबाहुभिरुपगुह्येवविन्ध्याटवीं स्थितो महाञ्जीर्णः शाल्मली।
* शुक कुल वर्णनम्*
तत्र च शाखाग्रेषु कोटरोदरेषु पल्लवान्तरेषु स्कन्धसंधिषुमहावकाशतया विश्रब्धविरचितकुलायसहस्राणि, दुरारोहतया विगतभयानि, नानादेशसमागतानि शुकशकुनिकुलानि प्रतिवसन्ति स्म। यैः परिणामविरलदलसंहतिरपि स वनस्पतिरविरलदलनिचयश्यामल इवोपलक्ष्यते दिवानिशं निलीनैः। ते च तस्मिन्नतिवाह्यातिवाह्य निशामात्मनीडेषु प्रतिदिनमुत्थायोत्थायाहारान्वेषणाय नभसि विरचितपंक्तयो, दिवसकररथतुरगप्रभानुलिप्तमिव गगनतलं प्रदर्शयन्तः, गगनावततैः पक्षपुटैः कदलीदलैरिव दिनकरखरकरनिकरपरिखेदितान्याशामुखानि वीजयन्तः, वियति विसारिणींशष्पवी-
थीमिवारचयन्तः, सेन्द्रायुधमिवान्तरिक्षमादधाना विचरन्ति स्म। कृताहाराश्च पुनः प्रतिनिवृत्यात्मकुलायावस्थितेभ्यः शावकेभ्यो विविधान्फलरसान्कलममञ्जरीविकारांश्च प्रहतहरिणरुधिरानुरक्तशार्दूलनखकोटिपाटलेन चञ्चपुटेन दत्त्वा दत्वाधरीकृतसर्वस्नेहेनासाधारणेन गुरुणापत्यप्रेम्णा तस्मिन्नेवक्रोडास्तर्निहिततनयाः क्षपाः क्षपयन्ति स्म।
* वैशम्पायनस्यस्वजनन जननीनिधन वर्णनम् *
एकस्मिंश्च जीर्णकोटरे जायया सह निवसतः पश्चिमे वयसि वर्तमानस्य कथमपि पितुरहमेको विधिवशात्सूनुरभवम्। अतिप्रबलया चाभिभूता ममैव जायमानस्य प्रसववेदनया जननी मे परलोकमगमत्। अभिमतजायाविनाशशोकदुःखितोऽपि खलु तातः सुतस्नेहादभ्यन्तरे निरुध्य पटुप्रसरमपि शोकमेकाकी मत्संवर्धनपर एवाभवत्। अतिपरिणतवयाश्च कुशचीरानुकारिणीमल्पा-वशिष्टजीर्णपिच्छजालजर्जरामवस्रस्तांसदेश शिथिलामपगतोत्पतनसंस्कारां पक्षसंततिमुद्वहन्, उपारूढ़कम्पतया संतापकारिणीमङ्गलग्नां जरामिव विधुन्वन्नकठोरशेफालिकाकुसुमनालपिञ्जरेण कलममञ्जरीदलनमसृणितक्षीणोपान्त्यलेखेन स्फुटिताग्रकोटिना चञ्चपुटेन परनीडपतिताभ्यः शालिवल्लरीभ्यस्तण्डुलकणानादाय वृक्षमूलनिपतितानि च शुककुलावदलितानि फलशकलानि समाहृत्य परिभ्रमितुमशक्तो मह्यमदात्। प्रतिदिवसमात्मना च मदुपभुक्तशेषमकरोदशनम्।
* अन्येद्युः प्रभाते कानन विक्षोभ वर्णनम् *
एकदा तु प्रभातसंध्यारागलोहिते गगनतलकमलिनीमध्वनुर-
क्तपक्षपुटे वृद्धहंस इव मन्दाकिनीपुलिनादपरजलनिधितटमवतरति चन्द्रमसि, परिणतरङ्कुरोमपाण्डुनि व्रजति विशालतामाशाचक्रवाले, गजरुधिररक्तहरिसटालोमलोहिनीभिः प्रतप्तलाक्षिकतन्तुपाटलाभिः, आयामिनीभिः, अशिशिरकिरणदीधितिभिः पद्मरागशलाकासंमार्जनीभिरिव समुत्सार्यमाणे गगनकुट्टिमकुसुमप्रकरे तारागणे, संध्यामुपासितुमुत्तराशावलम्बिनि मानससरस्तीरमिवावतरति सप्तर्षिमण्डले, तटगतविघट्टितशुक्तिसंपुटविप्रकीर्णम्, अरुणकरप्रेरणाधोगलितमुडुगणमिव मुक्ताफलनिकरमुद्वहति धवलितपुलिनमुदन्वति पूर्वेतरे, तुषारविन्दुवर्षिणि विबुद्धशिखिकुले विजृम्भमाणकेसरिणि क्षपाजलजडकेसरं कुसुमनिकरमुदयगिरिशिखरस्थितं सवितारमिवोद्दिश्य पल्लवाञ्जलिभिः समुत्सृजति कानने, रासभरोमधूसरासु वनदेवताप्रासादानां तरूणां शिखरेषु पारावतमालायमानासु धर्मपताकास्विव समुन्मिषन्तीषु तपोवनाग्निहोत्रधूमलेखासु, अवश्यायसीकरिणि लुलितकमलवने चलितपल्लवलतालास्योपदेशव्यसनिनि विघटमानकमलखण्डमधुसीकरासारवर्षिणि कुसुमामोदतपितालिजाले निशावसानजातजडिम्नि मन्दमन्दसंचारिणि प्रवाति प्राभातिके मातरिश्वनि, कमलवनप्रबोधमङ्गलपाठकानामिभगण्डडिण्डिमानां मधुलिहां कुमुदोदरेषु विघटमानदलपटनिरुद्धपक्षसंहतीनामुच्चरत्सु हुँकारेषु, प्रभातशिशिरवाय्वाहतमुत्त-प्तजतुरसाश्लिष्टपक्ष्ममालमिव सशेषनिद्राजिह्मतारं चक्षुरुन्मीलयत्सु शनैः शनै रूपरशय्याधूसरक्रोडरोमराजिषु वनमृगेषु, इतस्ततः संचरत्सु वनचरेषु, विजृम्भमाणे श्रोत्रहारिणि पम्पासरःकलहंसकोलाहले, समुल्लसति नर्तितशिखण्डिनि मनोहरे वनगजकर्णतालशब्दे, क्रमेण च गगनतलमवतरतो दिवसकरवारणस्यावचूलचामरकलाप इवोपलक्ष्यमाणे मञ्जिष्ठरागलोहिते किरणजाले, शनैः शनै-
रुदिते भगवति सवितरि, पम्पासरःपर्यन्ततरुशिखरसंचारिण्यध्यासितगिरिशिखरे दिवसकरजन्मनि हृततारे पुनरिव कपीश्वरे वनमभिपतति बालातपे, स्पष्टे जाते प्रत्यूषसि, नचिरादिव दिवसाष्टमभागभाजि स्पष्टभासि भास्वति भूते, प्रयातेषु च यथाभिमतानि दिगन्तराणि शुककुलेषु, कुलायनिलीननिभृतशुकशावकसनाथेऽपि निःशब्दतया शून्य इव तस्मिन्वनस्पतौ, स्वनीडावस्थित एव ताते मयि च शैशवादसंजातबलसमुद्भिद्यमानपक्षपुटे पितुः समीपवर्तिनि कोटरगते, सहसैव तस्मिन्महावने संत्रासितसकलवनचरः सरभससमुत्पतत्पतत्रिपक्षपुटशब्दसंततः भीतकरिपोतचीत्कारपीवरः प्रचलितलताकुलमत्तालिकुलक्वणितमांसलः परिभ्रमदुद्धोणवनवराहरवघर्घरो गिरिगुहासुप्तप्रबुद्धसिंहनिनादोपबृंहितः कम्पयन्निव तरुन्भगीरथावतार्यमाणगङ्गाप्रवाहकलकलवहलो भीतवनदेवताकर्णितो मृगयाकोलाहलध्वनिरुदचरत्। आकर्ण्य च तमहमश्रुतपूर्वमुपजातवेपथुरर्भकतया जर्जरितकर्णविवरो भयविह्वलः समीपवर्तिनः पितुः प्रतीकारबुद्ध्या जराशिथिलपक्षपुटान्तरमविशम्।
* लुब्धककुलकोलाहलाऽऽकर्णनम् *
अनन्तरं च सरभसम् ‘इतो गजयूथपतिलुलितकमलिनीपरिमलः, इतः क्रोडकुलदश्यमानभद्रमुस्तारसामोदः, इतो निपतितशुष्कपत्रमर्मरध्वनिः, इतो वनमहिषविषाणकोटिकुलिशभिद्यमानवल्मीकधूलिः, इतो मृगकदम्बकम्, इतो वनवराहयूथम्, इतो वनमहिषवृन्दम्, इतः शिखण्डिमण्डलनिरुतम्, इतः कपिञ्जलकुलकलकूजितम्, इतः कुररकुलक्वणितम्, इतोमृगपतिनखभिद्यमानकुम्भकुञ्जररसितम्, इयमार्द्रपङ्कमलिना वराहपद्धतिः, इयमभिनवशष्पकवलरसश्यामला हरि-
णरोग्रन्थफेनसंहतिः, इयमुन्मदगन्धगजगण्डकण्डूयनपरिमलनिलीनमुखरमधुकरविरुतिः, एषा निपतितरुधिरबिन्दु-सिक्तशुष्कपत्रपाटला रुरुपदवी, एतद्द्विरदचरणमृदितविटपपल्लवपटलम्, एतत्खड्गिकुलकीडितम्, चमरीपंक्तिरियमनुगम्यताम्, उच्छुष्कमृगकरीषपांसुला त्वरिततरमध्यास्यतामियं वनस्थली, तरुशिखरमारुह्यताम्, आलोक्यतां दिगियम्, आकर्ण्यतामयं शब्दः, गृह्यतां धनुः, अवहितैः स्थीयताम्, विमुच्यन्तां श्वानः’ इत्यन्योन्यमभिवदतो मृगयासक्तस्यमहतो जनसमूहस्य तरुगहनान्तरितविग्रहस्य क्षोभितकाननं कोलाहलमशृणवम्।
* वन्यसत्वविद्रवो वैशम्पायनस्य तन्निमित्तजिज्ञासा च *
अथ नातिचिरादेवानुलेपनार्द्रमृदङ्गध्वनिधीरेण, गिरिविवरविजृम्भितप्रतिनादगम्भीरेण शबरशरताडितानां केसरिणां निनादेन संत्रस्तयूथमुक्तानामेकाकिनां च संचरतामनवरतकरास्फोटमिश्रेण जलधररसितानुकारिणा गजयूथपतीनां कण्ठगर्जितेन, सरभससारमेयविलुप्यमानावयवानामालोलतरलतारकाणामेणकानां च करुणकूजितेन, निहतयूथपतीनां वियोगिनीनां अनुगतकलभानां च स्थित्वा स्थित्वासमाकर्ण्य कलकलमुत्कर्णंपल्लवानामितस्ततः परिभ्रमन्तीनां प्रत्यग्रपतिविनाशशोकदीर्घेण करिणीनां चीत्कृतेन कतिपयदिवसप्रसूतानां च खड्गिधेनुकानां त्रासपरिभ्रष्टपोतकान्वेषिणीनामुन्मुक्त-कण्ठमारसन्तीनामाक्रन्दितेन, तरुशिखरसमुत्पतिताना माकुलाकुलचारिणां च पत्ररथानां कोलाहलेन, रूपानुसारप्रधावितानां च मृगयूथानां युगपदतिरभसपादपाताभिहताया भुवः कम्पमिव जनयता चरणशब्देन, कर्णान्ताकृष्टज्यानां च मदकलकुररकामिनीकण्ठकूजितकल-
शबलितेन शरनिकरवर्षिणां धनुषां निनादेन, पवनाहतिक्वणितधाराणामसीनां च कठिनमहिषस्कन्धपीठपातिनां रणितेन, शुनां च सरभसविमुक्तघर्घरध्वनीनां वनान्तरव्यापिना ध्यानेन सर्वतः प्रचलितमिव तदरण्यमभवत्। अचिराच्च प्रशान्ते तस्मिन्मृगयाकलकले निर्वृष्टमूकजलधरवृन्दानुकारिणि मथनावसानोपशान्तवारिणि सागर इव स्तिमिततामुपगते कानने, मन्दीभूतभयोऽहमुपजातकुतूहलः पितुरुत्सङ्गादीषदिव निष्क्रम्य कोटरस्थ एव शिरोधरां प्रसार्य संत्रासतरलतारकः शैशवात्किमिदमित्युपजातदिदृक्षस्तामेव दिश चक्षुः प्राहिणवम्।
* वनचरचमूदर्शनम् *
अभिमुखमापतच्च तस्माद्वनान्तरादर्जुनभुजदण्डसहस्रविप्रकीर्णमिव नर्मदाप्रवाहम्, अनिलचलितमिव तमालकाननम्, एकीभूतमिव कालरात्रीणां यामसंघातम्, अञ्जनशिलास्तम्भसंभारमिव क्षितिकम्पविघूर्णितम्, अन्धकारपुञ्जमिव रविकिरणाकुलितम्, अन्तकपरिवारमिव परिभ्रमन्तम्, अवदारितरसातलोद्भूतमिव दानवलोकम्, अशुभकर्मसमूह मिवैकत्र समागतम्, अनवरतशरनिकरवर्षिरामनिहतखरदूषणबलनिवहमिव तदपध्यानात्पिशाचतामुपगतम्, कलिकालबन्धुवर्गमिवैकत्र संगतम्, अवगाहप्रस्थितमिव वनमहिषयूथम् अचलशिखरस्थितकेसरिकराकृष्टिपतनविशीर्णमिव कालाभ्रपटलम्, अखिलरूपविनाशाय धूमकेतुजालमिव समुद्गतम्, अन्धकारितकाननम्, अनेकसहस्रसंख्यम्, अतिभयजनकमुत्पातवेतालव्रातमिव शबरसैन्यमद्राक्षम्।
* मातङ्गाभिधमातङ्गसेनापतिविलोकनम् *
मध्ये च तस्य महतः शबरसैन्यस्य प्रथमे वयसि वर्तमानम्, अतिकर्कशत्वादायसमयमिव निर्मितम्, एकलव्यमिव जन्मान्तरगतम्, उद्भिद्यमानश्मश्रुराजितया प्रथममदलेखामण्ड्यमानगण्डभित्तिमिव गजयूथपतिकुमारकम्, असितकुवलयश्यामलेन देहप्रभाप्रवाहेण कालिन्दीजलेनेव पूरितारण्यम्, आकुटिलाग्रेण स्कन्धावलम्बिना कुन्तलभारेण केसरिणमिव गजमदमलिनीकृतेन केसरकलापेनोपेतम्, आयतललाटम्, अतितुङ्गघोरघोणम्, आपाटलया मृगकुलक्षयरात्रिसंध्यायमानया शोणितार्द्रयेव दृष्ट्या रञ्जयन्तमिवाऽऽशाविभागान्, जानुलम्बेन कुञ्जरकरप्रमाणमिव गृहीत्वा निर्मितेन भुजयुगलेनोपशोभितम्, अन्तरालग्नाऽऽश्यानहरिणरुधिरबिन्दुना स्वेदजलकणिकाचितेन गुञ्जाफलमिश्रैः करिकुम्भमुक्ताफलैरिवरचिताभरणेन विन्ध्यशिलाविशालेन वक्षःस्थलेनोद्भासमानम्, अविरतश्रमाभ्यासादुल्लिखितोदरम्, भमदमलिनमालानस्तम्भयुगल-मुपहसन्तमिवोरुदण्डद्वयेन, लाक्षालोहितकौशेयपरिधानम्, अकारणेऽपि क्रूरतया बद्धत्रिपताकाभ्रुकुटिकराले ललाटफलके प्रवलभक्त्याराधितया मत्परिग्रहोऽयमिति कात्यायन्या त्रिशूलेनेवाङ्कितम्, उपजातपरिचयैरनुगच्छद्भिः श्रमवशाद्दूरविनिर्गताभिः स्वभावपाटलतया शुष्काभिरपि हरिणशोणितमिवक्षरन्तीभिर्जिह्वाभिरावेद्यमानखेदैः विवृतमुखतया स्पष्टदृष्टदन्तांशून्दंष्ट्रान्तराललग्नकेसरिसटानिव सृक्कभागानुद्वहद्भिः स्थूलवराटकमालिकापरिगतकण्ठैर्महावराहदंष्ट्रा-प्रहारजर्जरैरल्पकायैरपि महाशक्तित्वादनुपजातकेसरैरिव केसरिकिशोरकैः, मृगवधूवैधव्यदीक्षादानदक्षैरनेकवर्णैःश्वभिः, अतिप्रमाणाभिश्च केसरिणामभयप्रदानयाचनार्थमागताभिः सिंहीभिरिव कौलेयककुटुम्बिनीभिरनुगम्यमानम्,
कैश्चिद्गृहीतचमरबालगजदन्तभारैः, कैश्चिदच्छिद्रपर्णबद्धमधुपुटैः, कैश्चिन्मृगपतिभिरिव गजकुम्भमुक्ताफलनिकरसनाथपाणिभिः कैश्चिद्यातुधानैरिव गृहीतपिशितभारैः, कैश्चित्प्रमथैरिव केसरिकृत्तिधारिभिः, कैश्चित्क्षपणकैरिव मयूरपिच्छधारिभिः, कैश्चिच्छिशुभिरिव काकपक्षधरैः, कैश्चित्कृष्णचरितमिव दर्शयद्भिः समुत्खातविधृतगजदन्तैः, कैश्चिज्जलदागमदिवसैरिव जलधरच्छायामलिनाम्बरैः अनेकवृत्तान्तैः शबरवृन्दैः परिवृतम्, अरण्यमिव सखङ्गधेनुकम्, अभिनवजलधरमिव मयूरपिच्छचित्रचापधारिणम्, बकराक्षसमिव गृहीतैकचक्रम्, अरुणानुजमिवोद्धृतानेकमहानागदशनम्, भीष्ममिव शिखण्डिशत्रुम्, निदाघदिवसमिव सतताविर्भूतमृगतृष्णम्, घटोत्कचमिव भीमरूपधारिणम्, हिरण्याख्यदानवमिव महावराहदंष्ट्राविभिन्नवक्षः स्थलम्, पिशिताशनमिव रक्तलुब्धकम्, गीतकलाविन्यासमिव निषादानुगतम्, अम्बिकात्रिशूलमिव महिषरुधिरार्द्रकायम्, अभिनवयौवनमपि क्षपितबहुवयसम्, कृतसारमेयसंग्रहमपि फलमूलाशनम्, कृष्णमप्यसुदर्शनम्, स्वच्छन्दचारमपि दुर्गैकशरणम्, क्षितिभृत्पादानुवर्तिनमपि राजसेवानभिज्ञम्, अपत्यमिव विन्ध्याचलस्य, अंशकावतारमिव कृतान्तस्य, सहोदरमिव पापस्य, सारमिव कलिकालस्य, भीषणमपि महासत्वतया गम्भीरमिवोपलक्ष्यमाणम्, अनभिभवनीयाकृतिंमातङ्गनामानं शबरसेनापतिमपश्यम्। अभिधानं तु पश्चात्तस्याहमश्रौषम्।
* शाल्मलितरुतले विश्रम्य शबरसेनाप्रस्थानम् *
आसीच्चमे मनसि—‘अहो, मोहप्रायमेतेषां जीवितं साधुजनगर्हितं च चरितम्। तथा हि– पुरुषपिशितोपहारे धर्मबुद्धिः, आ-
हारः साधुजनगर्हितो मधुमांसादिः, श्रमो मृगया, शास्त्रं शिवारुतम्, समुपदेष्टारः सदसतां कौशिकाः, प्रज्ञा शकुनिज्ञानम्, परिचिताः श्वानः, राज्यं शून्यास्वटवीषु, आपानकमुत्सवः, मित्राणि क्रूरकर्मसाधनानि धनूंषि, सहाया विषदिग्धमुखा भुजंगा इव सायकाः, कलत्राणि बन्दीगृहीताः परयोषितः, क्रूरात्मभिः शार्दूलैः सह संवासः, पशुरुधिरेण देवार्चनम्, मांसेन बलिकर्म, चौर्येण जीवनम्, यस्मिन्नेव कानने निवसन्ति तदेवोत्खातमूलमशेषतः कुर्वते’ इति चिन्तयत्येव मयि शबरसेनापतिरटवीभ्रमणसमुद्भवं श्रममपनिनीषुरागत्य तस्यैव शाल्मलितरोरधश्छायायामवतारितकोदण्डस्त्वरितपरिजनोपनीतपल्लवासने समुपाविशत्। अन्यतरस्तु शबरयुवा ससंभ्रममवतीर्य तस्मात्करयुगलपरिक्षोभिताम्भसः सरसो वैडूर्यद्रवानुकारि प्रलयदिवसकरकिरणोपतापादम्बरैकदेशमिव विलीनम्, इन्दुमण्डलादिव प्रस्यन्दितम्, द्रुतमिवमुक्ताफलनिकरम्, अत्यच्छतया स्पर्शानुमेयम्, हिमजडम्, अरविन्दकोशरजःकषायमम्भः कमलिनीपत्रपुटेन प्रत्यग्रोद्धृताश्च धौतपङ्कनिर्मला मृणालिकाः समुपाहरत्। आपीतसलिलश्च सेनापतिस्ता मृणालिकाः शशिकला इव सैंहिकेयः क्रमेणादशत्। अपगतश्रमश्चोत्थाय परिपीताम्भसा सकलेन तेन शबरसैन्येनानुगम्यमानः शनैःशनैरभिमतं दिगन्तरमयासीत्।
* अन्यतमशबरस्य तत्तरुमारुह्याऽशेषशुकशावकशातनम् *
एकतमस्तु जरच्छबरस्तस्मात्पुलिन्दवृन्दादनासादितहरिणपिशितः, पिशिताशन इव विकृतदर्शनः पिशितार्थी तस्मिन्नेव तरुतले मुहूर्त्त-
मिव व्यलम्बत। अन्तरिते च शबरसेनापतौ स जीर्णशबरः पिबन्निवास्माकमायूंषि रुधिरबिन्दुपाटलया कपिलभ्रूलतापरिवेषभीषणया दृष्ट्या गणयन्निव शुककुलकुलायस्थानानि श्येन इव विहगामिषस्वादलालसः सुचिरमारुरुक्षुस्तं वनस्पतिमा मूलादपश्यत्। उत्क्रान्तमिव तस्मिन्क्षणे तदालोकनभीतानां शुककुलानामसुभिः। किमिव हि दुष्करमकरुणानाम्। यतः स तमनेकतालतुङ्गमभ्रंकषशाखाशिखरमपि सोपानैरिवायत्नेनैव पादपमारुह्य ताननुपजातोन्पतनशक्ती-न्कांश्चिदल्पदिवसजातान्गर्भच्छविपाटलाञ्छाल्मलिकुसुमशङ्कामुपजनयतः कांश्चिदुद्भिद्यमानपक्षतया नलिनसंवर्तिकानुकारिणः, कांश्चिदर्कफलसदृशान्, कांश्चिल्लोहितायमानचञ्चुकोटीन्, ईषद्विघटितदलपुटपाटलमुखानां कमलमुकुलानां श्रियमुद्वहतः, कांश्चिदनवरतशिरःकम्पव्याजेन निवारयत इव प्रतीकारासमर्थानेकैकतया फलानीव तस्य वनस्पतेः शाखान्तरेभ्यश्च शुकशावकानग्रहीत्। अपगताऽसूंश्च कृत्वा क्षितावपातयत्।
* पितुर्मृत्यु वैशम्पायनस्याऽऽत्मनो गोपनं च *
तातस्तु तं महान्तमकाण्ड एव प्राणहरमप्रतीकारमुपप्लवमुपनतमालोक्य द्विगुणतरोपजातवेपथुर्मरणभयादुद्भ्रान्ततरलतारको विषादशून्यामश्रुजलप्लवां दृशमितस्ततो दिक्षु विक्षिपन्, उच्छुष्कतालुरात्मप्रतीकाराक्षमस्त्रासस्रस्तसंधिशिथिलेन पक्षसंपुटेनाच्छाद्य मां तत्कालोचितं प्रतीकारं मन्यमानः स्नेहपरवशो मद्रक्षणाकुलः किंकर्तव्यताविमूढः क्रोडविभागेन मामवष्टभ्य तस्थौ। असावपि पापः शाखान्तरैः संचरमाणः कोटरद्वारमागत्य जीर्णासितभुजंगभोगभीषणं प्रसार्य विविधवनवराहवसाविस्रगन्धिकरतलं कोदण्ड-
गुणाकर्षणव्रणाङ्कितप्रकोष्ठ मन्तकदण्डानुकारिणं वामबाहुमतिनृशंसो मुहुर्मुहुर्दत्तचञ्चुप्रहारमुत्कूजन्तमाकृष्य तातं गतासुमकरोत्। मां तु स्वल्पत्वाद्भयसंपिण्डिताङ्गत्वात्सावशेषत्वाच्चायुषः कथमपि पक्षसंपुटान्तरगतं नालक्षयत्। उपरतं च तमबनितले शिथिलशिरोधरमधोमुखममुञ्चत्। अहमपि तच्चरणान्तरे निवेशितशिरोधरो निभृतमङ्कनिलीनस्तेनैव सहापतम्। अवशिष्टपुण्यतया तु पवनवशेन पुञ्जितस्य महतः शुष्कपत्रराशेरुपरि पतितमात्मानपश्यम्। अङ्गानि येन मे नाशीर्यन्त। यावच्चासौ तस्मात्तरुशिखरान्नावतरति तावदहमवशीर्णपत्रसवर्णत्वादस्फुटोपलक्ष्यमाणमूर्तिः पितरमुपरतमुत्सृज्य नृशंस इव प्राणपरित्यागयोग्येऽपि काले बालतया कालान्तरभुवः स्नेहरसस्यानभिज्ञो जन्मसहभुवा भयेनैव केवलमभिभूयमानः किंचिदुपजाताभ्यां पक्षाभ्यामीषत्कृतावष्टम्भो लुठन्नितस्ततः कृतान्तमुखकुहरादिव विनिर्गतमात्मानं मन्यमानो नातिदूरवर्तिनः शबरसुन्दरीकर्णपूररचनोपयुक्तपल्लवस्य विन्ध्याटवीकेशपाशश्रियमुद्रहतः, दिवाप्यन्धकारितशाखान्तरस्य, अप्रविष्टसूर्यकिरणमतिगहन मपरस्येव पितुरुत्सङ्गमतिमहतस्तमालविटपिनो मूलदेशमविशम्।
*पुलिन्दगमनम्*
अवतीर्य च स तेन समयेन क्षितितलविप्रकीर्णान्संहृत्य शुकशिशूनेकलतापाशसंयतानाबध्य पर्णपुटेऽतित्वरितगमनः सेनापतिगतेनैव वर्त्मना दिशमगच्छत्। मां तु लब्धजीविताशं प्रत्यग्रपितृमरणशोकशुष्कहृदयमतिदूरपातादायासितशरीरं संत्रासजाता सर्वाङ्गोपतापिनी बलवती पिपासा परवशमकरोत्। अनया च कालकलया सुदूरमतिक्रान्तः स पापकृदिति परिकलय्य किंचिदु-
न्नमितकन्धरो भयचकितया दृशा दिशोऽवलोक्य तृणेऽपि चलति पुनः प्रतिनिवृत्त इति तमेव पदे पदे पापकारिणमुत्प्रेक्ष-माणो निष्क्रम्य तस्मात्तमालतरुमूलात्सलिलसमीपं सर्तुं प्रयत्नमकरवम्।
*वैशम्पायनस्य जलाशयजिगमिषा*
अजातपक्षतया नातिस्थिरतरचरणसंचारस्य मुहुर्मुहुर्मुखेन पततो मुहुस्तिर्यङ्निपतन्तमात्मानमेकया पक्षपाल्या संधारयतः क्षितितलसंसर्पणश्रमातुरस्याऽनभ्यासवशादेकमपि दत्त्वा पदमनवरतमुन्मुखस्य स्थूलस्थूलं निश्वसतो धूलिधूसरस्य संसर्पतो मम समभून्मनसि—‘अतिकष्टास्ववस्थास्वपि जीवितनिरपेक्षा न भवन्ति खलु जगति प्राणिनां प्रवृत्तयः। नास्ति जीवितादन्यदभिमततरमिह जगति सर्वजन्तूनामेव। उपरतेऽपि सुगृहीतनाम्नि ताते यदहमविकलेन्द्रियः पुनरेव प्राणिमि। धिङ्मामकरुणमतिनिष्ठुरमकृतज्ञम्। अहो सोढपितृमरणशोकदारुणं येन मया जीव्यते, उपकृतमपि नापेक्ष्यते, खलं हि खलु मे हृदयम्। मया हि– लोकान्तरगतायामम्बायां नियम्य शोकावेगमाऽऽप्रसवदिवसात्परिणतवयसापि सता तैस्तैरुपायैः संवर्धनक्लेशमतिमहान्तमपि स्नेहवशादगणयता यत्तातेन परिपालितस्तत्सर्वमेकपदे विस्मृतम्। अतिकृपणाः खल्वमी प्राणाः, यदुपकारिणमपि तातं क्वापि गच्छन्तमद्यापि नानुगच्छन्ति। सर्वथा न कचिन्न खलीकरोति जीविततृष्णा, यदीदृगवस्थमपि मामयमायासयति जलाभिलाषः। मन्ये चागणितपितृमरणशोकस्य निर्घृणतैव केवलमियं मम सलिलपानबुद्धिः। अद्यापि दूर एव सरस्तीरम्। तथा हि— जलदेवतानूपुररवानुकारि दूरेऽद्यापि कलहंसविरुतमेतत्। अस्फुटानि श्रयन्ते सारसरसितानि। विप्रकर्षादाशामुखविसर्प-
णविरलः संचरति नलिनीखण्डपरिमलः। दिवसस्येयं कष्टादशा वर्तते। तथा हि— रविरम्बरतलमध्यवर्ती स्फुरन्तमातपमनवरतमनलधूलिनिकरमिव विकिरति करैः अधिकामुपजनयति तृषाम्। संतप्तपांसुपटलदुर्गमा भूः। अतिप्रबलपिपासावसन्नानि गन्तुमल्पमपि मे नालमङ्गकानि। अप्रभुरस्यात्मनः। सीदति मे हृदयम्। अन्धकारतामुपयाति चक्षुः। अपि नाम खलो विधिरनिच्छतोऽपि मे मरणमथोपपादयेत्।
*हारीतवर्णनम्*
एवं चिन्तयत्येव मयि— तस्मात्सरसोऽदूरवर्तिनि तपोधने जाबालिर्नाम महातपा मुनिः प्रतिवसति स्म। तत्तनयश्च हारीतनामा मुनिकुमारकः सनत्कुमार इव सर्वविद्यावदातचेताः, सवयोभिरपरैस्तपोधनकुमारकैरनुगम्यमानस्तेनैव पथा, द्वितीय व भगवान्विभावसुः, अतितेजस्वितया दुर्निरीक्ष्यमूर्तिः, उद्यतो दिवसकरमण्डलादिबोत्कीर्णः, तडिद्भिरिव रचितावयवः, उत्तप्तलोहलोहिनीनामनैकतीर्थाभिषेकपूतानामंसस्थलावलम्बिनीनां जटानां निकरेणोपेतः, स्तम्भितशिखाकलापः खाण्डववनदिधक्षया कृतकपटवटुवेष इव भगवान्पावकः, तपोवनदेवतानूपुरानुकारिणा धर्मशासनकटकेनैव स्फाटिकेनाक्षवलयेन दक्षिणश्रवणविलम्बिना विराजमानः, ललाटपट्टके भस्मत्रिपुण्ड्रकेणालंकृतः, गगनगमनोन्मुखबलाकानुकारिणा स्वर्गमार्गमिव दर्शयता सततमुद्ग्रीवेण स्फटिकमणिकमण्डलुनाध्यासितवामकरतलः, स्कन्धदेशावलम्बिना कृष्णाजिनेन नीलपाण्डुभासा तपस्तृष्णानिपीतेनान्तर्निपतता धूमपटलेनेव परीतमूर्तिः, अभिनवबिससूत्रनिर्मितेनेव परिलघुतया पवनलोलेना निर्मासविरलपार्श्वकपञ्जर
मिव गणयता वामांऽसावलम्बिना यज्ञोपवीतेनोद्भासमानः, देवतार्चनार्थमागृहीतवनलताकुसुमपरिपूर्ण- पर्णपुटसनाथशिखरेणाषाढदण्डेन व्यापृतसव्येतरपाणिः, विषाणोत्खातामुद्वहता स्नानमृदमुपजातपरिचयेन नीवारमुष्टिसंवर्धितेन कुशकुसुमलताऽऽयास्यमानलोलदृष्टिना तपोवनमृगेणानुयातः, विटप इव कोमलवल्कलावृतशरीरः, गिरिरिव समेखलः, राहुरिवासकृदास्वादितसोमः, पद्मनिकर इव दिवसकरमरीचिषः, नदीतटतरुरिव सततजलक्षालनविमलजटः, द्रौणिरिव कृपानुगतः, नक्षत्रराशिरिव चित्रमृगकृत्तिकाश्लेषोपशोभितः, धर्मकालदिवस इव क्षपितबहुदोषः, जलधरसमय इव प्रशमितरजःप्रसरः, वरुण इव कृतोदवासः, हरिरिवापनीतनरकभयः, प्रदोषारम्भ इव संध्यापिङ्गलतारकः, प्रभातकाल इव बालातपकपिलः, रविरथ इव दृढनियमिताक्षचक्रः, सुराजेव निगूढमन्त्रसाधनक्षपितविग्रहः, जलनिधिरिव करालशङ्खमण्डलावर्तगर्तः, भगीरथ इवासकृद्दृष्टगङ्गावतारः, भ्रमर इवासकृदनुभूतपुष्करवनवासः, वनचरोऽपि कृतमहालयप्रवेशः, असंयतोऽपि मोक्षार्थी, सामप्रयोगपरोऽपि सततावलम्बितदण्डः सुप्तोऽपि प्रबुद्धः, संनिहितनेत्रद्वयोऽपि परित्यक्तवामलोचनस्तदेव कमलसरः सिस्नासुरुपागमत।
*शुकशिशुमादाय हारीतस्य सरोवरगमनं स्नानं च*
प्रायेणाकारणमित्राण्यतिकरुणार्द्राणि सदा खलु भवन्ति सतां चेतांसि। यतः स मां तदवस्थमालोक्य समुपजातकरुणः समीपवर्तिनमृषिकुमारकमन्यतममब्रवीत्—‘अयं कथमपि शुकशिशुरसंजातपक्षपुट एव तरुशिखरादस्मात्परिच्युतः। श्येनमुखपरिभ्रष्टेन वाऽऽनेन भवितव्यम्। तथा हि– अतिदवीयस्तया प्रपातस्याल्पशेषजीवितोऽय-
मामीलितलोचनो मुहुर्मुहुर्मुखेन पतति, मुहुर्मुहुरत्यु
ल्बणं श्वसिति, मुहुश्चञ्चुपुटं विवृणोति, न शक्नोति शिरोधरां धारयितुम्। तदेहि। यावदेवायमसुभि र्न विमुच्यते तावदेव गृहाणेमम्। अवतारय सलिलसमीपम्’ इत्यभिधाय तेन मां सरस्तीरमनाययत्। उपसृत्य च जलसमीपमेकदेशनिहितदण्डकमण्डलुरादाय स्वयं मामामुक्तप्रयत्नमुत्तानितमुखमङ्गुल्या कतिचित्सलिलबिन्दूनपाययत्। अम्भःक्षोदकृतसेकं चोपजातनवीनप्राणमुपतटप्ररूढस्य नवनलिनीदलस्य जलशिशिरायां छायायां निधाय स्वोचितमकरोत्स्नानविधिम्। अभिषेकावसाने चानेकप्राणायामपूतो जपन्पवित्राण्यघमर्षणानि प्रत्यग्रभग्नैरुन्मुखो रक्तारविन्दैर्नलिनीपत्रपुटेन भगवते सवित्रे दत्त्वार्घमुदतिष्ठत्। आगृहीतधौतधवलवल्कलश्चसहज्योत्स्न इव संध्यातपः करतलनिर्धूननविशदसटः प्रत्यग्रस्नानार्द्रजटेन सकलेन तेन मुनिकुमारकदम्बकेनानुगम्यमानो मां गृहीत्वा तपोवनाभिमुखं शनैरगच्छत्।
*तपोवनवर्णनम्*
अनतिदूरमिव गत्वा दिशिदिशि सदासंनिहितकुसुमफलैः, तालतिलकतमालहिन्तालबकुलबहुलैः; एलालताकुलित-नालिकेरीकलापैः, लोललोध्रलवलीलवङ्गपल्लवैः, उल्लसितचूतरेणुपटलैः, अलिकुलझङ्कारमुखरसहकारैः, उन्मदकोकिलकुलकलापकोलाहलिभिः, उत्फुल्लकेतकीरजःपुञ्जपिञ्जरैः, पूगीलतादोलाधिरूढवनदेवतैः, तारकावर्ष-मिवाऽधर्मविनाशपिशुनं कुसुमनिकर मनिलचलित मनवरत मतिधवलमुत्सृजद्भिः, संसक्तपादपैः काननैरुपगूढम्, अचकितप्रचलितकृष्णसारशतशबलाभिः, उत्फुल्लकमलिनीलोहिनीभिः, दण्डकारण्यस्थलीभिरुपशोभित-
प्रान्तम्, आगृहीतसमित्कुशकुसुममृद्भिः, अध्ययनमुखरशिष्यानुगतैः, सर्वतः प्रविशद्भिर्मुनिभिरशून्योपकण्ठम्, अनवरताज्याहुतिप्रीतैश्चित्रभानुभिः सशरीरमेव मुनिजनममरलोकं निनीषुभिरुद्धू यमानधूमलेखाच्छलेनाऽऽबध्यमान-स्वर्गमार्गगमनसोपानसेतुभिरिवोपलक्ष्यमाणम्, आसन्नवर्तिनीभिः, तपोधनसंपर्कादिवापगतकालुष्याभिः, तरंगपरम्परा-संक्रान्तरविबिम्बाभिः, तापसदर्शनागतसप्तर्षिमालाविगाह्यमानाभिरिव विकचकुमुदवनमृषिजनमुपासितुमवतीर्णं ग्रहगणमिव निशासूद्वहन्तीभिर्दीर्घिकाभिः परिवृतम्, अनिलावनमितशिखराभिः प्रणम्यमानमिव वनलताभिः, अनवरतमुक्तकुसुमैरभ्यर्च्यमानमिव पादपैः, आबद्धपल्लवाञ्जलिभिरुपास्यमानमिव विटपैः, उटजाजिरप्रकीर्णशुष्यच्छ्यामाकम्, उपसंगृहीतामलकलवलीकर्कन्धू-कदलीलकुचचूतपनसतालीफलम्, अध्ययनमुखरबटुजनम्, अनवरतश्रवणगृहीतवषट्कारवाचालशुककुलम्, अनेकसारिकोद्घुष्य-माणसुब्रह्मण्यम्, एणीजिह्वापल्लवोपलिह्यमानमुनिबालकम्, अग्निकार्यार्धदग्धमिसमिसायमानसमित्कुशकुसुमम्, उपलभग्ननालि-केररसस्निग्धशिलातलम्, अचिरक्षुण्णवल्कठरसपाटलभूतलम्, इतस्ततो विक्षिप्तभस्मलेखाकृतमुनिजनभोजनभूमिपरिहारम्, परिचितशाखामृगकराकृष्टिनिष्कास्यमानप्रवेश्यमानजरदन्धतापसम्, ऋषिजनार्थमेणकैर्विषाणशिखरोत्खल्यमानविविधकन्दमूलम्, अम्बुपूर्णपुष्करपुटैर्वनकरिभिरापूर्यमाण-विटपाऽऽलबालकम्, उपजा
तपरिचयैः कलापिभिः पक्षपुटपवनसंधुक्ष्यमाण-मुनिहोमहुताशनम्, आरब्धामृतचरुपचनचारुगन्धम् उपचर्यमाणातिथिवर्गम्, अर्च्यमानहरिहरपितामहम्, व्याख्यायमानयज्ञविद्यम्, आलोच्यमानधर्मशास्त्रम्, वाच्यमानविविधपुस्तकम्, विचार्यमाणसकलशास्त्रार्थम्, आरभ्यमाणपर्णशालम्, उपलिप्यमानाजिरम्, उपमृज्यमानोटजाभ्यन्तरम्, आबध्यमानध्यानम्, साध्यमानमन्त्रम्,
अभ्यस्यमानयोगम्, निर्वर्त्यमानमोञ्जमेखलम्, क्षाल्यमानवल्कलम्, उपसंगृह्यमाणसमिधम्, उपसंस्क्रियमाणकृष्णाजिनम्, गृह्यमाणगवेधुकम्, शोष्यमाणपुष्करबीजम्, ग्रथ्यमानाक्षमालम्, न्यस्यमानवेत्रदण्डम्, सत्क्रियमाणपरिव्राजकम्, आपूर्यमाणकमण्डलुम्, अदृष्टपूर्व कलिकालस्य, अपरिचितमनृतस्य, अश्रुतपूर्वमनङ्गस्य, अब्जयोनिमिव त्रिभुवनवन्दितम्, असुरारिमिव प्रकटितनरहरिवराहरूपम्, सांख्यमिव कपिलाधिष्ठितम्, मधुरोपवनमिव बलाबलीढदर्पितधेनुकम्, उदयनमिवानन्दनवत्सकुण्ठम्, निदाघसमयावसानमिव प्रत्यासन्नजलप्रपातम्, जलधरसमयमिव वनगहनमध्यसुखसुप्तहरिम्, हनूमन्तमिव शिलाशकलप्रहारसंचूर्णिताऽक्षाऽस्थिसंचयम्, खाण्डवविनाशोद्यतार्जुनमिव प्रारब्धाग्निकार्यम्, सुरभिविलेपनधरमपि सतताविर्भूतहव्यधूमगन्धम्, मातङ्गकुलाध्यासितमपि पवित्रम्, उल्लसितधूमकेतुशतमपि प्रशान्तोपद्रवम्, परिपूर्णद्विजपतिमण्डलसनाथमपि सदासंनिहिततरुगहनान्धकारम्, अतिरमणीयमपरमिव ब्रह्मलोक माश्रममपश्यम्।
यत्र च मलिनता हविर्धूमेषु न चरितेषु, मुखरागः शुकेषु न कोपेषु, तीक्ष्णता कुशाग्रेषु न स्वभावेषु, चञ्चलता कदलीदलेषु न मनःसु, पक्षपातः कृकवाकुषु न विद्याविवादेषु, भ्रान्तिरनलप्रदक्षिणासु न शास्त्रेषु, गणना रुद्राक्षवलयेषु न शरीरेषु, मुनिबालनाशः क्रतुदीक्षया न मृत्युना, रामानुरागो रामायणेन न यौवनेन, मुखभङ्गविकारो जरया न धनाभिमानेन। यत्र च महाभारते शकुनिवधः, वयः परिणामेन द्विजपतनम्, उपवनचन्दनेषु जाड्यम्, अग्नीनां भूतिमत्वम् एणकानां गीतश्रवणव्यसनम्, शिखण्डिनां नृत्यपक्षपातः, भुजंगमानां भोगः, कपीनां श्रीफलाभिलाषः, मूलानामधोगतिः।
*महर्षिजाबालि दर्शनम्*
तस्य चैवंविधस्य मध्यभागमण्डलमलंकुर्वाणस्याऽलक्तकलोहितपल्लवस्य मुनिजनालम्बितकृष्णाजिनजलकरकसनाथ-शाखस्य तापसकुमारिकाभिराऽऽलवालदत्तपीतपिष्टपञ्चाङ्गुलस्य हरिणशिशुभिः पीयमानाऽऽलवालकसलिलस्य मुनिकुमारकाबद्धकुशचीरदाम्नो हरितगोमयोपलेपनविविक्ततलस्य तत्क्षणकृतकुसुमोपहाररमणीयस्य नातिमहतः परिमण्डलतयाविस्तीर्णावकाशस्य रक्ताशोकतरोरधश्छायायामुपविष्टम्, उग्रतपोभिर्भुवनमिव सागरैः कनकगिरिमिव कुलपर्वतैः समन्तान्महर्षिभिः परिवृतम्, कम्पितदेहया विहितकेशग्रहया कृतभ्रूभङ्गया आकुलितगमनया प्रकटिततिलकया जरया धवलीकृतविग्रहम्, आयामिनीभिः पलितपाण्डुराभिस्तपसा विजित्य मुनिजनमखिलं धर्मपताकाभिरिवोच्छ्रिताभिः अमरलोकमारोढुं पुण्यरज्जुभिरिवोपसंगृहीताभिर्जटाभिरुपशोभितम्, उपरचितभस्म-त्रिपुण्ड्रकेण तिर्यक्प्रवृत्तत्रिपथगास्रोतस्त्रयेण हिमगिरिशिलातलेनैव ललाटफलकेनोपेतम्, अधोमुखचन्द्रकला-ऽऽकाराभ्यामवलम्बितवलिशिथिलाभ्यां भ्रूलताभ्यामवष्टभ्यमानदृष्टिम्, अनवरतमन्त्राक्षराभ्यासविवृताधरपुटतया निपतद्भिरतिशुचिभिः दशनमयूखैर्धवलितपुरोभागम्, सुगन्धिनिश्वासावकृष्टैर्मर्तिमद्भिः शापाक्षरैरिव सदा मुखभागसंनिहितैः परिस्फुरद्भिरलिभिरविरहितम्, अतिकृशतया निम्नतरगण्डगर्तम्, उन्नततरहनुघोणम्, आकरालतारकम्, अवशीर्यमाणविरलनयनपक्ष्ममालम्, उद्गतदीर्घरोमरुद्धश्रवणविवरम्, आनाभिलम्बकूर्चकलापम्, आननमादधानम्; अतिचपलानामिन्द्रियाश्वानामन्तःसंयमनरज्जुभिरिवातताभिः कण्ठनाडीभिर्निरन्तरावनद्धकन्धरं, समुन्नतविरलास्थिपञ्जरम् अंसावलम्बियज्ञोपवीतं, वायुवशजनिततनुतरंगभङ्गम्, उत्प्लवमानमृणा-
लमिव मन्दाकिनीप्रवाहमकलुषमङ्गमुद्वहन्तम्, अमलस्फटिकशकलघटितमक्षवलयम् अत्युज्वलस्थूलमुक्ताफलग्रथितं सरस्वतीहारमिव चलदङ्गुलीविवरगतमावर्तयन्तम्, अनवरतभ्रमिततारकाचक्रमपरमिव ध्रुवम्, उन्न
मता शिराजालकेन जरत्कल्पतरुमितव परिणतलवासंचयेन निरन्तरनिचितम्, अमलेन चन्द्रांशुभिरिवामृतफेनैरिव गुणसंतानतन्तुभिरिव निर्मितेन, मानससरोजलक्षालितशुचिना, दुकूलवल्कलेन द्वितीयेनैव जराजालकेन संच्छादितम्; आसन्नवर्तिना मन्दाकिनीसलिलपूर्णेन, त्रिदण्डोपविष्टेन, स्फाटिककमण्डलुना विकचपुण्डरीकराशिमिव राजहंसेनोपशोभमानम्; वैनतेयमिव स्वप्रभावोपात्तद्विजाधिपत्यम्, कमलासनमिवाश्रमगुरुम्, जरच्चन्दनतरुमिव भुजंगनिर्मोकधवलजटाकुलम्, प्रशस्तवारणपतिमिव प्रलम्बकर्णवालम्, वृहस्पतिमिवाजन्मसंवर्धितकचम्, दिवसमिवोद्यदर्कबिम्बभास्वरमुखम्, शरत्कालमिव क्षीणवर्षम्, शन्तनुमिव प्रियसत्यव्रतम्, अम्बिकाकरतलमिव रुद्राक्षवलयग्रहणनिपुणम्, शिशिरसमयसूर्यमिव कृतोत्तरासङ्गम्, वडवानलमिव संततपयोभक्षम्, शून्यनगरमिव दीनानाथविपन्नशरणम्, पशुपतिमिव भस्मपाण्डुरोमाश्लिष्टशरीरं भगवन्तं जाबालिमपश्यम्।
*जाबालि प्रभाववर्णनम्*
अवलोक्य चाहमचिन्तयम्—अहो प्रभावस्तपसाम्। इयमस्य शान्तापि मूर्त्तिरुत्तप्तकनकावदाता परिस्फुरन्ती सौदामिनीव चक्षुषः प्रतिहन्ति तेजांसि। सततमुदासीनापि महाप्रभावतया भयमिवोपजनयति प्रथमोपगतस्य। शुष्कनलकाशकुसुमनिपतिताऽनलचटुलवृत्ति नित्यमसहिष्णु तपस्विनां तनुतपसामपि तेजः प्रकृत्या भवति,
किमुत सकलभुवनतलवन्दितचरणानामनवरततपःक्षपितमलानां करतलामलकवदखिलं जगदालोकयतां दिव्येन चक्षुषा भगवतामेवंविधानामधक्षयकारिणाम्। पुण्यानि हि नामग्रहणान्यपि महामुनीनाम्, किं पुनर्दर्शनानि। धन्यमिदमाश्रमपद-मयमधिपतिर्यत्र। अथवा, भुवनतलमेव धन्यमखिलमनेनाधिष्ठितमवनितलकमलयोनिना। पुण्यभाजः खल्वमी मुनयो यदहर्निशमेनमपरमिव नलिनासनमपगतान्यव्यापारा मुखावलोकननिश्चलदृष्टयः पुण्याः कथाः शृण्वन्तः समुपासते। सरस्वत्यपि धन्या याऽस्य तु सततमतिप्रसन्ने करुणाजलनिस्यन्दिन्यगाधगाम्भीर्ये रुचिरद्विजपरिवारा, मुखकमलसंपर्क मनुभवन्ती निवसति हंसीव मानसे। चतुर्मुखकमलवासिभिश्चतुर्वेदैः सुचिरादिवेदमपरमुचितमासादितं स्थानम्। अहो महासत्त्वेयं जरा यास्य रजनिकरकिरणपाण्डुशिरोरुहे जटाभारे फेनपुञ्जधवला गङ्गेव पशुपतेः, क्षीराहुतिरिव शिखाकलापे विभावसोः, निपतन्ती न भीता। बहलाज्यधूमपटलमलिनीकृताश्रमस्य भगवतः प्रभावाद्भीतमिव रविकिरणजालमपि दूरतः परिहरति तपोवनम्। एते च पवनलोलपुञ्जीकृतशिखाकलापा रचिताञ्जलय इवाऽत्र मन्त्रपूतानि हवींषि गृह्णन्त्येतत्प्रीत्याशुशुक्षणयः। तरलितदुकूलवल्कलोऽयं चाश्रमलताकुसुमसुरभिपरिमलो मन्दमन्दवारी सशङ्क इवास्य समीपमुपसर्पति गन्धवाहः। सर्वतेजस्विनामयं चाग्रणीः। द्विसूर्यमिवाभाति जगदनेनाधिष्ठितं महात्मना। निष्कम्पेव क्षितिरेतदवष्टम्भात्। एष प्रवाहः करुणारसस्य, संतरणसेतुः संसारसिन्धोः, आधारः क्षमाम्भसाम्, परशुस्तृष्णालतागहनस्य, सागरः संतोषामृतरसस्य, उपदेष्टा सिद्धिमार्गस्य, अस्तगिरिरसद्गतस्य, मूलमुपशमतरोः, स्थितिवंशो धर्मध्वजस्य, तीर्थं सर्वविद्यावताराणाम्, वडवानलो लोभार्णवस्य निकषोपलः शास्त्ररत्नानाम्, दावानलो रागपल्ल-
वस्य, मन्त्रः क्रोधभुजंगस्य, दिवसकरो मोहान्धकारस्य, अर्गलाबन्धो नरकद्वाराणाम्, अध्यतनं मङ्गलानाम्, अभूमिर्मदविकाराणाम्, दर्शकः सत्पथानाम्, उत्पत्तिः साधुतायाः, नैमिरुत्साहचक्रस्य, आश्रयः सत्त्वस्य, प्रतिपक्षः कलिकालस्य, कोशस्तपसः, सखा सत्यस्य, क्षेत्रमार्जवस्य, प्रभवः पुण्यसंचयस्य, अदत्तावकाशो मत्सरस्य, अरातिर्विपत्तेः, अस्थानं परिभूतेः, अननुकूलोऽभिमानस्य, असंमतो दैन्यस्य, अनायत्तो रोषस्य, अनभिमुखः सुखानाम्। अस्य भगवतः प्रभावादेवोपशान्तवैरमपगतमत्सरं तपोवनम्। अहो प्रभावो महात्मनाम्। अत्र हि शाश्वतिकमपवहाय विरोधमुपशान्तात्मानस्तिर्यञ्चोऽपि तपोवनवसतिसुखमनुभवन्ति। तथाहि। एष विकचोत्पलवनरचनानुकारिणमुत्पतच्चारु-चन्द्रकशतं हरिणलोचनद्युतिशबलमभिनवशाद्वलमिवविशति शिखिनः कलापमातपाहतो निःशङ्कमहिः। अयमुत्सृज्य मातरमजातकेसरैः केसरिशिशुभिः सहोपजातपरिचयः क्षरत्क्षीरधारं पिबति कुरङ्गशावकः सिंहीस्तनम्। एष मृणालकलापाशङ्किभिः शशिकरधवलं सदाभारमामीलितलोचनो बहु मन्यते द्विरदकलभैराकृष्यमाणं मृगपतिः। इदमिह कपिकुलमपगतचापलमुपनयति मुनिकुमारकेभ्यः स्नातेभ्यः फलानि। किं बहुना। तापसाग्निहोत्रधूमलेखाभिरुत्सर्पन्तीभि-रनिशमुपपादितकृष्णाजिनोत्तरासङ्घशोभाः फलमूलभूतो वल्कलिनो निश्चेतनास्तरवोऽपि सनियमाः इव लक्ष्यन्तेऽस्य भगवतः समीपवर्त्तिनः। किं पुनः सचेतना
णिनः इति।
*जाबालेःशुक प्रत्यभिज्ञानम्*
एवं चिन्तयन्तमेव मां तस्यामेवाऽशोकतरोरधश्च्छायायामेकदेशे
स्थापयित्वा हारीतः पादावुपगृह्य कृताभिवादनः पितुरनतिसमीपवर्तिनि कुशासने समुपाविशत्। आलोक्य तु मां सर्व एव मुनयः ‘कुतोऽयमासादितः शुकशिशुः’ इति तमासीनमपृच्छन्। असौ तु तानब्रवीत् ‘अयं मया स्नातुमितो गतेन कमलिनीसरस्तीरतरुनीडनिपतितः शुकशिशुरातपजनितक्लान्तिः, उत्तप्तपांसुपटलमध्यगतो दूरनिपतनविह्वलतनुः, अल्पावशेषायुः, आसादितः। तपस्विदुरारोहतया च तस्य वनस्पते र्न शक्यते स्वनीडमारोपयितुमिति जातदयेनानीतः। तद्यावदयमप्ररूढपक्षतिरक्षमोऽन्तरिक्षमुत्पतितुं तावदत्रैव कस्मिंश्चिदाश्रमतरुकोटरे मुनिकुमारकैरस्माभिश्चोपनीतेन नीवारकणनिकरेण फलरसेन च संवर्ध्यमानो धारयतु जीवितम्। अनाथपरिपालनं हि धर्मोऽस्मद्विधानाम्। उद्भिन्नपक्षतिस्तु गगनतलसंचरणसमर्थो यास्यति यत्रास्मै रोचिष्यते। इहैव वोपजातपरिचयः स्थास्यति’। इत्येवमादिकमस्मत्संबद्धालापमाकर्ण्य किंचिदुपजातकुतूहलो भगवाञ्जाबालिरीषदावलितकंधरः पुण्यजलैः प्रक्षालयन्निव मामतिप्रशान्तया दृष्ट्या दृष्ट्वा सुचिरमुपजातप्रत्यभिज्ञान इव पुनः पुनर्विलोक्य ‘स्वस्यैवाविनयस्य फलमनेनानुभूयते’ इत्यवोचत्। स हि भगवान्कालत्रयदर्शी तपःप्रभावाद्दिव्येन चक्षुषा सर्वमेव करतलगतमिव जगदवलोकयति। वेत्ति जन्मान्तराण्यतीतानि। कथयत्यागामिनमप्यर्थम्। ईक्षणगोचरगतानां च प्राणिनामायुषः संख्यामावेदयति।
* मुनिपरिषदः शुकविषये प्रश्नः *
सर्वैव सा तापसपरिषच्छ्रुत्वा विदिततत्प्रभावा ‘कीदृशोऽनेनाविनयः कृतः, किमर्थं वा कृतः, जन्मान्तरे वा कोऽयमासीत्’ इति कौतूहलिन्यभवत्। उपनाथितवती च तं भगवन्तम् ‘आवेदय, प्रसीद भग-
वन्, कीदृशस्याविनयस्य फलमनेनानुभूयते। कश्चायमासीज्जन्मान्तरे। विहगजातौ वा कथमस्य संभवः। किमभिधानो वायम्। अपनयतु नः कुतूहलम्। आश्चर्याणां हि सर्वेषां भगवान्प्रभवः’। इत्येवमुपयाच्यमानस्तपोधनपरिषदा स महामुनिः प्रत्यवदत्— ‘अतिमहदिदमाश्चर्यमाख्यातव्यम्। अल्पशेषमहः। प्रत्यासीदति च नः स्नानसमयः। भवतामप्यतिक्रामति देवार्चनविधिवेला। तदुत्तिष्ठन्तु भवन्तः। सर्व एवाचरन्तु यथोचितं दिवसव्यापारम्। अपराह्णसमये भवतां पुनः कृतमूलफलाशनानां विस्रब्धोपविष्टानामादितः प्रभृति सर्वमावेदयिष्यामि–योऽयम्, यच्चानेन कृतमपरस्मिञ्जन्मनि, इह च लोके यथास्य संभूतिः। अयं च तावदपगतक्लमः क्रियतामाहारेण। नियतमयमप्यात्मनो जन्मान्तरोदन्तं स्वप्नोपलब्धमिव मयि कथयति सर्वमशेषतः स्मरिष्यति’ इत्यभिदधदेवोत्थाय सह मुनिभिः स्नानादिकमुचितदिवसव्यापारमकरोत्।
* सन्ध्यावर्णनम् *
अनेन च समयेन परिणतो दिवसः। स्नातोत्थितेन मुनिजनेनार्घविधिमुपपादयता यः क्षितितले दत्तस्तमम्बरतलगतः साक्षादिव रक्तचन्दनाङ्गरागं रविरुदवहत्। ऊर्ध्वमुखैरर्कबिम्बविनिहितदृष्टिभिः उष्मपैस्तपोधनैरिव परिपीयमानतेजःप्रसरो विरलातपस्तनिमानमभजत्। उद्यत्सप्तर्षिसार्थस्पर्शपरिजिहीर्षयैव संहृतपादः पारावतपादपाटलरागो रविरम्बरतलादवालम्बत। आलोहितांशुजालं जलशयनमध्यगतस्य मधुरिपोर्विगलन्मधुधारमिव नाभिनलिनं प्रतिमागतमपरार्णवे सूर्यमण्डलमलक्ष्यत। विहायाम्बरतलमुन्मुच्य च कमलिनीवनानि शकुनय इव दिवसावसाने तरुशिखरेषु पर्वताग्रेषु च
रविकिरणाः स्थितिमकुर्वत। आलग्नलोहितातपच्छेदा मुनिभिरालम्बिताऽऽलोहितवल्कला इवाश्रमतरवः क्षणमदृश्यन्त। अस्तमुपगते च भगवति सहस्रदीधितावपरार्णवतलादुल्लसन्ती विद्रुमलतेव पाटलासंध्या समदृश्यत। यस्यामाबध्यमानध्यानम्, एकदेशदुह्यमानहोमधेनुदुग्धधाराध्वनिधन्यतरातिमनोहरम्, अग्निवेदिविकीर्यमाणहरित्कुशम्, ऋषिकुमारिकाभिरितस्ततो विक्षिप्यमाणदिग्देवताबलिसिक्थमाश्रमपदमभवत्। क्वापि विहृत्य दिवसावसाने लोहिततारका तपोधनधेनुरिव कपिला परिवर्तमाना संध्या तपोधनैरदृश्यत। अचिरप्रोषिते सवितरि शोकविधुरा कमलमुकुलकमण्डलुधारिणी हंससितदुकूलपरिधाना मृणालधवलयज्ञोपवीतिनी मधुकरमण्डलाक्षवलयमुद्वहन्ती कमलिनी दिनपतिसमागमव्रतमिवाचरत्। अपरसागराम्भसि पतिते दिवसकरे वेगोत्थित्तमम्भःसीकरनिकरमिव तारागणमम्बरमधारयत्। अचिराच्च सिद्धकन्यकाविक्षिप्तसंध्यार्चनकुसुमशबलमिव तारकितं वियदराजत। क्षणेन चोन्मुखेन मुनिजनेनोर्ध्वविप्रकीर्णैः. प्रणामाञ्जलिसलिलैः क्षाल्यमान इवागलदखिलः संध्यारागः।
* निशा
मुखे पुनस्तपोधनपरिषदाऽऽयोजनम् *
क्षयमुपागतायां संध्यायां तद्विनाशदुःखिता कृष्णाजिनमिव विभावरी तिमिरोद्गममभिववमवहत्। अपहाय मुनिहृदयानि सर्वमन्यदन्धकारतां तिमिरमनयत्। क्रमेण च रविरस्तं गत इत्युदन्तमुपलभ्य, जातवैराग्यो धौतदुकूलवल्कलधवलाम्बरः सतारान्तःपुरपर्यन्तस्थिततनुः, तिमिरतमालवृक्षलेखं, सप्तर्षिमण्डलाध्युषितम्, अरुंधतीसंचरणपूतम्, उपहिताषाढम्, आलक्ष्यमाणमूलम्, एकान्तस्थितचारुतारकामृगममरलोकाश्रममिव गगनतलममृतदीधितिरध्यतिष्ठत्। चन्द्राभर-
णभृतः, तारकाकपालशकलालंकृतात्, अम्बरतलात्, त्र्यम्बकोत्तमाङ्गादिव गङ्गा सागरानापूरयन्ती हंसधवला धरण्यामपतज्जयोत्स्ना। विगलितसकलोदयरागं रजनिकरबिम्बम्, अम्बरापगावगाहधौतसिन्दूरम्, ऐरावतकुम्भस्थलमिव तत्क्षणमलक्ष्यत। शनैःशनैश्च दूरोदिते भगवति हिमततिस्रुति, सुधाधूलिपटलेनेव धवलीकृते चन्द्रातपेन जगति, अवश्यायजलबिन्दुमन्दगतिषु समुपोढनिद्राभरालसतारकैः, अन्योन्यग्रथितपक्ष्मपुटैः, आरब्ध
रोमन्थमन्थरमुखैः, सुखासीनैः, आश्रममृगैरभिनन्दितागमनेषु प्रवहत्सु निशामुखसमीरणेषु, अर्धयाममात्रावखण्डितायां विभावर्यां, हारीतः कृताहारं मामादाय सह सर्वैस्तैर्महामुनिभिरुपसृत्य चन्द्रातपोद्भासिनि तपोवनैकदेशे वेत्रासनोपविष्टमनतिदूरवर्तिना जालपादनाम्ना शिष्येण दर्भपवित्रधवित्रपाणिना मन्दमुपवीज्यमानं पितरमवोचत्— ‘हे तात, सकले
यमाश्चर्यश्रवणकुतूहलाकलितहृदया समुपस्थिता तापसपरिषदाबद्धमण्डला प्रतीक्षते। व्यपनीतश्रमश्च कृतोयं पतत्रिपोतः। तदावेद्यतां यदनेन कृतम्। अपरस्मिञ्जन्मनि कोऽयमभूद्भविष्यति च’ इति। एवमुक्तस्तु स महामुनिरग्रतः स्थितं मामवलोक्य तांश्च सर्वानेकाग्राञ्छ्रवणपरान्मुनीन् बुद्ध्वा शनैः शनैरब्रवीत्— ‘श्रूयतां यदि कौतूहलम्–
* अथ कादम्बरी चन्द्रापीड चरितवर्णनम् *
उज्जयिनी वर्णनम्
अस्ति सकलत्रिभुवनललामभूता, प्रसवभूमिरिव कृतयुगस्य, आत्मनिवासोचिता भगवता महाकालाभिधानेन भुवनत्रय-सर्गस्थितिसंहारकारिणा प्रमथनाथेनाऽपरेव पृथिवी समुत्पादिता, द्वितीयपृथिवीशङ्कया जलनिधिनेव रसातलगभीरेण परिखावलयेन परिवृता, महाविपणिपथैरुप-
शोभिता, सुरासुरसिद्धगन्धर्वविद्याधरोरगाध्यासिताभिश्चित्रशालाभिरलंकृता, मथनोद्धतदुग्धसिन्धुधवलितमन्दरद्यूतिभिः, कनकमयामलकलशशिखरैः, अनिलदोलायितसितध्वजैः, उपरिपतदभ्रगङ्गैरिव तुषारगिरिशिखरैः, अमरमन्दिरैर्विराजितशृङ्गाटका, सुधावेदिकोपशोभितोदपानैः, अनवरतचलितजल-घटीयन्त्रसिच्यमानहरितोपवनान्धकारितैः, केतकीधूलिधूसरैरुप-शल्यकैरुपशोभिता; मदमुखरमधुकरकुलान्ध-कारितनिष्कुटा, स्फुरदुपवनलताकुसुमपरिमलसुरभिसमीरणा; स्तिमितमुरजरवम्भीरगर्जितेषु, सलिलसीकरासारस्तबकरचितसुरचापचारुषु, धारागृहेषु मत्तमयूरैः, मण्डलीकृतशिखण्डैः, ताण्डवव्यसनिभिराबध्यमानकेकाकोलाहला, विकचकुवलयकान्तैरुद्भासिता सरोभिः; भगवतो महाकालस्य शिरसि सुरसरितमालोक्य जातेर्ष्ययैव सततं समाबद्धतरंगभ्रुकुटिलेखया, खमिव क्षालयन्त्या, सिप्रया परिक्षिप्ता; सकलभुवनख्यातयशसा, मैनाकेनेवाऽविदितपक्षपातेन, मन्दाकिनीप्रवाहेणेव प्रकटितकनकपद्मराशिना, स्मृतिशास्त्रेणेव सभावसथकूपप्रपाऽऽरामसुर-सदनसेतुयन्त्रप्रवर्तकेन, मन्दरेणेवोद्धतसमग्रसागररत्नसारेण, संगृहीतगारुडेनापि भुजंगभीरुणी, खलोपजीविनापि प्रणयिजनोपजीव्यमानविभवेन, वीरेणापि विनयवता, प्रियंवदेनापि सत्यवादिना, अभिरूपेणापि स्वदारसंतुष्टेन, अतिथिजनाभ्यागमार्थिनापि परप्रार्थनानभिज्ञेन, कामार्थपरेणापि धर्मप्रधानैन, महासत्त्वेनापि परलोकभीरुणा सकलविज्ञानविशेषविदा, वदान्येन, दक्षेण, स्मितपूर्वाभिभाषिणा, परिहासपेशलेन, उज्ज्वलवेषेण वक्रोक्तिनिपुणेन, आख्यायिकाख्यानपरिचयचतुरेण, सर्वलिपिज्ञेन, महाभारतपुराणरामायणानुरागिणा, बृहत्कथाकुशलेन, सुभाषितव्यसनिना, प्रशान्तेन, सुरभिमासमारुतेनैव सततदक्षिणेन, दिवसेनैव मिश्रानुवर्त्तिना, बौद्धेनेवसर्वास्तिवादशूरेण, सांख्यागमेनैव प्रधानपुरुषोपेतेन, जिनधर्मेणेव जीवानुकम्पिना, बिला-
सिजनेनाधिष्ठिताः; सशैलेव प्रासादैः, सशाखानगरेव महाभवनैः, सकल्पवृक्षेव सत्पुरुषैः, दर्शितविश्वरूपेव चित्रभित्तिभिः, गरुडमूर्तिरिवाऽच्युतस्थितिरमणीया, प्रभातवेलेव प्रबुद्धसर्वलोका, शेषतनुरिव सदासन्नवसुधाधरा, प्रस्तुताभिषेकभूमिरिव संनिहितकनकघटकसहस्रा, अदितिरिव देवकुलसहस्रसेव्या, रक्तवर्णापि सुधाधवला अवलम्बितमुक्ताकलापाऽपि विहारभूषणा, बहुप्रकृतिरपि स्थिरा विजितामरलोकद्युतिरवन्तीषूज्जयिनी नाम नगरी।
यस्यामुत्तुङ्गसोधोत्संगसंगीतसङ्गिनीनामङ्गनानामतिमधुरेण गीतरवेणाकृष्यमाणाधोमुखरथतुरंग, पुरःपर्यस्तरथ-पताकापटः, कृतमहाकलप्रणाम इव प्रतिदिनं लक्ष्यते गच्छन्दिवसकरः। यस्यां च निशि निशि पवनविलोलैः, दुकूलपल्लवैः, उल्लसद्भिः, मालवीमुखकमलकान्तिलज्जितस्येन्दोः कलङ्कमिवापनयन्तो दूरप्रसारितध्वजभुजाः प्रासादा लक्ष्यन्तं यस्यां चाऽनिर्वृतिर्मणिप्रदीपानाम्, अन्तस्तरलता हाराणाम्, अस्थितिसंगीतमुरजध्वनीनाम्, द्वन्द्ववियोगश्चक्रनाम्नाम्, वर्णपरीक्षा कनकानाम्, अस्थिरत्वं ध्वजानाम्, मित्रद्वेषः कुमुदानाम्, कोशगुप्तिरसी नाम्। किं बहुना। यस्यां सुरासुरचूडामणिमरीचिचुम्बितचरणनखमयूखः, निशितशूलदारितान्धकमहासुरः, प्रलयानलशिखाकलाप-कपिलजटाभारभ्रान्तसुरसिन्धुः, अन्धकारातिः, भगवान् उत्सृष्टकैला सवासप्रीतिर्महाकालाभिधानः स्वयं वसति।
तारापीड वर्णनम्
तस्यां चैवंविधायां नगर्यां नलनहुषययाति धुन्धुमारभरतभगीरथदशरथप्रतिमः, भुजबलाऽर्जित भूमण्डलः, फलितशक्तित्रयः, मतिमान्, उत्साह संपन्नः, नीतिशास्त्राखिन्नबुद्धिः, अधीतशास्त्रः, तृतीय इव ते जसा कान्त्या च सूर्याचन्द्रमसो, अनेकसप्ततन्तुपूतमूर्तिः, उपशमि
तसकलजगदुपप्लव महामुनिजनसंसेवितस्य मधुसूदनचरण इव सुरसरित्प्रवाहस्य प्रभवः सत्यस्य; शिशिरस्यापि रिपुजनसंतापकारिणः, स्थिरस्यापि नित्यं भ्रमतः, निर्मलस्यापि मलिनीकृताऽरातिवनितामुखकमलद्युतेः, अतिधवलस्यापि सर्वजनरागकारिणः, सुधासूतेरिव सागर उद्भवो यशसः; दशरथ इव सुमित्रोपेतः; पशुपतिरिव महासेनाऽनुयातः; नर्मदाप्रवाह इव महावंशप्रभवः; अवतार इव धर्मस्य; प्रतिनिधिरिव पुरुषोत्तमस्य; परिहतप्रजापीडो राजा तारापीडोऽभूत्।
यस्तमःप्रसरमलिनवपुषा पापबहुलेन कलिकालेन चालितमामूलतो धर्मं दशाननेनेव कैलासं पशुपतिरिवावष्टभ्य पुनरपि स्थिरीचक्रे। यं च जलनिधितरंगधौतमेखलात्, उद्यदिन्दुबिम्बविगलदमृतबिन्द्वासारार्द्रचन्दनात्, अशिशिरकररथतुरगखुर-शिखरोल्लेखखण्डितो-ल्लसल्लवङ्गपल्लवात्, आशैलादुदयनाम्नः; कपिबलविलुप्तविरललवलीलताफलात्, उदधि-विनिर्गतजलदेवतावन्द्यमानराघवपादात्, नलकरतलाकलितशैलसहस्रसंभूतात्, आसेतुबन्धात्; अच्छनिर्झरजलधौत-तारकासार्थात्, अमृतमथनोद्यतवैकुण्ठकेयूर-पत्रमकरकोटिकषणमसृणितग्राव्णः, अमृतसीकरसिक्तसानोः, आमन्दरात्; नरनारायणचरणमुद्राङ्कितबदरिकाश्रमरमणीयात्, कुबेरपुरसुन्दरीभूषणरवमुखरशिखरात्, सप्तर्षिसंध्यो-पासनपूतप्रस्रवणाम्भसः, वृकोदरोद्दलितसौगन्धिकखण्डसुगन्धिमण्डलात्, आगन्धमादनात्; सेवाञ्जलिकमलमुकुलदन्तुरैः शिरोभिर्भयचकिततरलतारकदृशो भुजबलविजिताः प्रणेमुरवनिपाः।
यस्मै च मन्ये सुरपतिरपि स्पृहयांचकार। यस्माच्च धवलीकृतभुवनतलः सकललोकहृदयानन्दकारी क्रौञ्चादिव हंसनिवहो निर्जगाम गुणगणः। यस्य च धवलीकृतसुरासुरलोकया दशसु दिक्षु अभ्रम्यत
कीर्त्या। यस्य चातिदुःसहप्रतापसंतापखिद्यमानैव क्षणमपि न मुमोचाऽऽतपत्रच्छायां राजलक्ष्मीः। तथाच यस्य दिष्टिवृद्धिमिव शुश्राव, उपदेशमिव जग्राह, मङ्गलमिव बहु मेने, मन्त्रमिव जजाप, आगममिव न विसस्मार चरितं जनः। यस्मिंश्च राजनि गिरीणां विपक्षता, प्रत्ययानां परत्वम्, ध्वजानामुन्नतिः, धनुषामवनतिः, कुसुमानां बन्धनस्थितिः, इन्द्रियाणां निग्रहः, वनकरिणां वारिप्रवेशः, तैक्ष्ण्यमसिधाराणाम्, व्रतिनामग्निधारणम्, ग्रहाणां तुलारोहणम्, अगस्त्योदये विषशुद्धिः, केशनखानामायतिभङ्गः, जलददिवसानां मलिनाम्बरत्वम्, रत्नोपलानां भेदः, मुनीनां योगसाधनम्, करिणां दानविच्छित्तिः, अक्षक्रीडासु शून्यगृहदर्शनं पृथिव्यामासीत्।
तस्य च राज्ञो निखिलशास्त्रकलापावगाहगम्भीरबुद्धिः, आशैशवादुपारूढनिर्भरप्रेमरसः, नीतिशास्त्रप्रयोगकुशलः, भुवनराज्यभारनौकर्णधारः, महत्स्वपि कार्यसंकटेष्वविषण्णधीः, धाम धैर्यस्य, स्थानं स्थितेः सेतुः सत्यस्य, गुरुर्गुणानाम्, आचार्य आचाराणाम्, धाता धर्मस्य, शेषाहिरिव महीभारधारणक्षमः, सलिलनिधिरिव महासत्त्वः, जरासंध इव घटितसंधिविग्रहः, त्र्यम्बक इव प्रसाधितदुर्गः, युधिष्ठिर इव धर्मप्रभवः, सकलवेदवेदाङ्गवित्, अशेषराज्यमङ्गलैकसारः, बृहस्पतिरिव सुनासीरस्य, कविरिव वृषपर्वणः, वसिष्ठ इव दशरथस्य, विश्वामित्र इव रामस्य, धौम्य इवाजातशत्रोः, दमनक इव नलस्य, सर्वकार्येष्वाहितमतिरमात्यो ब्राह्मणः शुकनासो नामासीत्।
यं चासाद्य दर्शिताऽनेकराज्यफला लतेव पादपमनेकप्रतानगहना विस्तारमुपययौ प्रज्ञा। यस्य चानेकचारपुरुषसहस्र-संचारनिचिते चतुरुदधिवलयपरिधिप्रमाणे धरणीतले भवन इवाविदितमहरहः, समुच्छ्वसितमपि राज्ञां नासीत्।
राज्ञो दैनिक व्यापारादि वर्णनम्
स राजा बाल एव सुरकुञ्जरकर पीवरेण राज्यलक्ष्मी लीलोपधानेन बाहुना विजित्य सप्त द्वीप वलयां वसुंधरां तस्मिञ्छुकनास नाम्नि मन्त्रिणि सुहृदीव राज्यभारमारोप्य सुस्थिताः प्रजाः कृत्वा प्रशमिताऽशेष विपक्षतया विगताऽऽशङ्कः प्रायो यौवनसुखान्यनुबभूव। तथा हि—
कदाचित् कामिनी कर पुट विनिर्गताभिः, कुङ्कुम जल धाराभिः पिञ्जरीक्रियमाणकायः, लाक्षा जल च्छटा प्रहार पाटलीकृत दुकूलः, कनकशृङ्गकोशैश्चिरं चिक्रीड। कदाचित् उद्दलितनालपर्यस्तनलिननिपतित धूलिपटलम्, अनवरतकरास्फालन स्फुरत्फेन बिन्दु चन्द्रकितं, सावरोधजनो जल क्रीडया गृहदीर्घिकाणा मम्भश्चकार।
कदाचिन्मृगपतिरिव स्कन्धाऽवलम्बिकेसरमालः क्रीडा पर्वतेषु विचचार। कदाचिन्मधुकर इव विजृम्भमाण कुसुममुकुलदन्तुरेषु लतागृहेषु बभ्राम। कदाचिच्च अनवरत दह्यमान कृष्णाऽगुरु धूम रक्तैरिव पारावतैरधिष्ठित विटङ्केषु प्रासादकुक्षिषु कतिपयाऽऽप्तसुहृत्परिवृतो वीणा वेणुमुरजमनोहरम् अवरोधसंगीतकं ददर्श। किं बहुना यद्यदतिरमणीय मविरुद्ध मायत्यां तदात्वे च तत्तदनाक्षिप्तचेताः परिसमाप्तत्वा दन्येषां पृथिवीव्यापाराणां सिषेवे, न त्वतिव्यसनितया। प्रमुदित प्रजस्य, परिसमाप्त सकल मही प्रयोजनस्य, नरपते र्विषयोपभोग लीला भूषणम्। इतरस्य तु विडम्बना। प्रजानुराग हेतोरन्तराऽन्तरा दर्शनं ददौ। सिंहासनं च निमित्तेष्वारुरोह। शुकनासोऽपि महान्तं राज्य भार मनायासेनैव प्रज्ञाबलेन बभार। यथैव राजा कार्याण्यकार्षीत्तद्वदसावपि द्विगुणीकृत प्रजानुरागो राजकार्याणि चक्रे। तमपि चलित चूडामणि मरीचि मञ्जरी जालिभिः, मौलिभिः,
आवर्जितकुसुम शेखरच्युत मधुसीकरसिक्तनृपसभं, दूरावनति प्रेङ्खोलित मणिकुण्डल कोटि, संघट्टिताङ्गदं राजकमाननाम।
एवं तस्य राज्ञो मन्त्रिविनिवेशित राज्य भारस्य, यौवन सुखमनुभवतः कालो जगाम। भूयसा च कालेनाऽन्येषामपि जीव लोक सुखानां प्रायः सर्वेषामन्तं ययौ। एकं तु सुतमुखदर्शनसुखं न लेभे। यथा यथा च यौवनमतिचक्राम, तथा तथा विफल मनोरथस्याऽनपत्यताजन्माऽवर्धतास्य संतापः। नरपति सहस्र परिवृत मप्यसहायमिव, चक्षुष्मन्त मप्यन्ध मिव, भुवनाऽऽलम्बन मपि निरालम्बमिव, आत्मानममन्यत।
महिष्याविलासवत्या अनपत्यताजन्यो विषादः
अथ तस्य चन्द्रलेखेव हर जटा कलापस्य, कौस्तुभ प्रभेव कैटभाऽराति वक्षःस्थलस्य, लतेव पादपस्य, पुष्पोद्गतिरिव सुरभि मासस्य, चन्द्रिकेव चन्द्रमसः, कमलिनीव सरसः, तारा पंक्तिरिव नभसः, हंस मालेव मानसस्य, भूषणमभूत् त्रिभुवन विस्मयजननी, जननीव वनिताविभ्रमाणां, सकलान्तःपुरप्रधानभूता, महिषी विलासवती नाम। एकदा च स तदावासगत स्तां चिन्तास्तिमितदृष्टिना, शोक मूकेन, परिजनेन, परिवृताम्, अनतिदूर वर्तिनीभि श्चान्तःपुरवृद्धाभिः आश्वास्यमानाम्, अविरलाश्रुपाताऽऽर्द्रीकृत दुकूलाम्, अनलंकृताम्, वामकरतलविनिहित मुख कमलाम्, रुदती ददर्श। कृताभ्युत्थानां च ता मुपवेश्य स्वयं चोपविश्याऽविज्ञात बाष्प कारणोभीत भीत इव करतलेन विगत बाष्पाम्भःकणौ कुर्वन्कपोलौ भूपालस्तामवादीत्–‘देवि, किमर्थमन्तर्गत गुरु शोक भार मन्थरम्, अशब्दम्, रुद्यते। ग्रथ्नन्ति हि मुक्ताफल जालक मिव बाष्प बिन्दुनिकर मेतास्तव पक्ष्म पंक्तयः। किमर्थं च कृशोदरि! नालंकृतासि। प्रसीद, निवेदय देवि! दुःखनिमित्तम्। एते हि पल्लवमिव सरागं मे हृदयमा-
कम्पयन्ति तरलीकृत स्तनांशुका स्तवायताः श्वास मरुतः। कच्चिन्मयापराद्धमन्येन वा केनचिदस्मदनुजीविना परिजनेन। अतिनिपुणमपि चिन्तयन्न पश्यामि खलु स्खलितमप्यात्मनस्त्वद्विषये। कथ्यतां सुन्दरि! शुचः कारणम्’ इत्येवमभिधीयमाना विलासवती यदा न किंचित्प्रतिवचः प्रतिपेदे तदा विवृद्धबाष्पहेतुमस्याः परिजनमपृच्छत्।
अथ तस्यास्ताम्बूलकरङ्कवाहिनी सततप्रत्यासन्ना मकरिका नाम राजानमुवाच—देव, कुतो देवादल्पमपि परिस्खलितम्। अभिमुखे च देवे का शक्तिः परिजनस्यान्यस्य वा कस्यचिदपराद्धुम्। किं तु महाग्रहग्रस्तेव विफल राज समागमास्मीत्ययमस्या देव्याः संतापः। महांश्च कालः संतप्यमानायाः। प्रथममपि स्वामिनी शयनस्नानभोजनभूषणपरिग्रहादिषु समुचितेष्वपि दिवसव्यापारेषु कथं कथमपि परिजनप्रयत्नात्प्रवर्त्यमाना सशोकैवासीत्। देवहृदयपीडापरिजिहीर्षया च न दर्शितवती विकारम्। अद्य तु चतुर्दशीति भगवन्तं महाकालमर्चितुमितो गतया तत्र महाभारते वाच्यमाने श्रुतम्—‘अपुत्राणां किल न सन्ति लोकाःशुभाः। पुंनाम्नो नरकात् त्रायत इति पुत्रः’ इत्येतच्छ्रुत्वा भवनमागत्य परिजनेन सशिरःप्रणाममभ्यर्थ्यमानापि नाहारमभिनन्दति, न भूषणपरिग्रहमाचरति, नोत्तरं प्रतिपद्यते। केवलमविरलबाष्पदुर्दिनान्धकारितमुखी रोदिति। एतदाकर्ण्य देवः प्रमाणम्’ इत्येतदभिधाय विरराम।
राज्ञः समाश्वासनवचनम्
विरतवचनायां तस्यां भूमिपालस्तूष्णीं मुहूर्तमिव स्थित्वा दीर्घमुष्णं च निश्वस्य निजगाद—‘देवि, किमत्र क्रियतां दैवायत्ते वस्तुनि। अलमतिमात्रं रुदितेन। न वयमनुग्राह्याः प्रायो देवतानाम्।
आत्मजपरिष्वङ्गामृतास्वादसुखस्य नूनमभाजनमस्माकंहृदयम्। अन्यस्मिञ्जन्मनि न कृतमवदातं कर्म। जन्मान्तरकृतं हि कर्म फलमुपनयति पुरुषस्येहजन्मनि। न हि शक्यं दैवमन्यथाकर्तुमभियुक्तेनापि। यावन्मानुष्यके शक्यमुपपादयितुं तावत्सर्वमुपपाद्यताम्। अधिकां कुरु देवि, गुरुषु भक्तिम्। द्विगुणामुपपादय देवतासु पूजाम्। ऋषिजनसपर्यासु दर्शितादरा भव। परं हि दैवतमृषयः, यत्नेनाराधिता यथासमीहितफलानां दुर्लभानामपि वराणां दातारोभवन्ति। श्रूयते हि पुरा चण्डकौशिकप्रभावान्मगधेषु बृहद्रथो नाम राजा जनार्दनस्य जेतारमतुलभुजबलमप्रतिरथं जरासन्धं नाम तनयं लेभे। दशरथश्च राजा परिणतवया विभाण्डक महामुनि सुतस्य, ऋष्यशृङ्गस्य प्रसादात् नारायणभुजानिवाऽप्रतिहतान्, उदधीनिवाक्षोभ्यान्, अवाप चतुरः पुत्रान्। अन्ये च राजर्षयस्तपोधनानाराध्य पुत्रदर्शनामृतस्वादसुखभाजो बभूवुः। अमोघफला हि महामुनिसेवा भवन्ति। अहमपि खलु देवि, कदा समुपारूढगर्भभरालसाम्, आपाण्डुमुखीम्, आसन्नपूर्णचन्द्रोदयामिव पौर्णमासीनिशां देवीं द्रक्ष्यामि। कदा मे तनयजन्ममहोत्सवानन्दनिर्झरो हरिष्यति पूर्णपात्रं परिजनः। कदा हारिद्रवसनधारिणी, सुतसनाथोत्सङ्गा, द्यौरिवोदितरविमण्डला, सबालातपा, मामानन्दयिष्यति देवी। कदा सर्वौषधिपिञ्जरजटिलकेशः, गोरोचनाचित्रकण्ठसूत्रग्रन्थिः, उत्तानशयः, दशनशून्यस्थिताननः, पुत्रको जनयिष्यति मे हृदयाह्लादम्। कदा गोरोचनाकपिलद्युतिः, अन्तपुरिकाकरतलपरंपरासंचार्यमाणमूर्तिः, अशेषजनवन्दितो मङ्गलप्रदीप इव मे शोकान्धकारमुन्मूलयिष्यति चक्षुषोः। कदा च क्षितिरेणुधूसरोमण्डयिष्यति मम हृदयेन दृष्ट्या च सह परिभ्रमन्भवनाङ्गणम्। कदा मातुश्चरणयुगलरागोपयुक्तशेषेण, पिण्डालक्तकरसेन, वृद्धकञ्चुकिनां विडम्बयिष्यति मुखानि। कदा कुतूहलचञ्चललोचनो मणि-
कुट्टिमेष्वधोदत्तदृष्टिरनुसरिष्यति स्खलद्गतिरात्मनः प्रतिबिम्बानि। कदा नरेन्द्रसहस्रप्रसारितभुजयुगलाभिनन्द्यमानागमनो भूषणमणिमयूखाकुलीक्रियमाणलोलदृष्टिराऽऽस्थानस्थितस्य मे पुरः सर्पिष्यति सभान्तरेषु। इत्येतानि चिन्तयतोऽन्तः-संतप्यमानस्य प्रयान्ति रजन्यः। मामपि दहत्येवायमहर्निशमनल इवानपत्यतासमुद्भवः शोकः। शून्यमिव मे प्रतिभाति जगत्। अफलमिव पश्यामि राज्यम्। अप्रतिविधेये तु विधातरि किं करोमि। तन्मुच्यतामयं देवि, शोकानुबन्धः। आधीयतां धैर्ये धर्मे च धीः। धर्मपरायणानां हि सदा समीपसंचारिण्यः कल्याणसंपदो भवन्ति’ इत्येवमभिधाय सलिलमादाय स्वय माननमस्याः साश्रुलेखं ममार्ज। पुनःपुनश्च प्रियशतमधुराभिः, शोकाऽपनोद निपुणाभिः, धर्मोपदेशगर्भाभिः, वाग्भिराश्वास्य सुचिरं स्थित्वा नरेन्द्रो निर्जगाम। निर्गते च तस्मिन्मन्दीभूतशोका विलासवती यथाक्रियमाणाऽऽभरण परिग्रहादिक मुचितं दिवस व्यापारमन्वतिष्ठत्।
संतानार्थविलासवत्या व्रतानुष्ठानम्
ततःप्रभृति सुतरां देवताराधनेषु ब्राह्मण पूजासु गुरुजनसपर्यास्वादरवती बभूव। यद्यच्च किंचित्कुतश्चिच्छ्रुश्राव गर्भतृष्णया तत्तत्सर्वं चकार। न महान्तमपि क्लेशमजीगणत्। पुण्यसलिलपूर्णैः, शातकुम्भकुम्भैः, गोकुलेषु वृद्धगोपवनिताकृतमङ्गलानां लक्षणसंपन्नानां गवामधः सस्रौ। दर्शितप्रत्ययानि संनिधानमातृकाभवनानि जगाम। प्रसिद्धेषु नागकुलह्रदेषु ममज्ज। अश्वत्थप्रभृतीनुपपादितपूजान्महावनस्पतीन्कृतप्रदक्षिणा ववन्दे। स्वयमुपहृतपिण्ड-पात्रान्भक्तिप्रवणेन मनसा सिद्धादेशान्नग्नक्षपणकान्पप्रच्छ। विप्रश्निकाऽऽदेशवचनानि बहु मेने। निमित्तज्ञानुपचचार। शकुनज्ञानविदामादरमदर्शयत्। अनेकवृद्धपरंपरासमागतानि रहस्यान्यङ्गीचकार। दर्शनागतद्विजजनमात्मजदर्शनोत्सुका वेदश्रुतीरकारयत्। रक्षाप्रतिसरो-
पेतान्योषधीसूत्राणि बबन्ध। स्वप्नदर्शनाश्चर्याण्याऽऽचचक्षे। चत्वरेषु शिवबलिमुपजहार।
राज्ञः स्वप्नदर्शनम् शुकनासस्यतदभिप्रायवर्णनं च
एवं च गच्छति काले कदाचिद्राजा क्षीणभूयिष्ठायां रजन्याम् स्वप्ने सितप्रासादशिखरस्थिताया विलासवत्या आनने सकलकलापूर्णमण्डलं शशिनं प्रविशन्तमद्राक्षीत्। प्रबुद्धश्चोत्थाय हर्षविकाशस्फीततरेण चक्षुषा धवलीकृतवासभवनस्तस्मिन्नेव क्षणे शुकनासं समाहूय स्वप्नमकथयत्। स तं समुपजातहर्षः प्रत्युवाच—‘देव, संपन्नाः सुचिरादस्माकं प्रजानां च मनोरथाः। कतिपयैरेवाऽहोभिः असंदेहमनुभवति स्वामी सुतमुखकमलाऽवलोकन सुखम्। अद्य खलु मयापि निशि स्वप्ने धौतसकलवाससा, शान्त मूर्तिना, दिव्याकृतिना द्विजेन विकचपुण्डरीकमुत्संगे देव्या मनोरमाया निहितं दृष्टम्। आवेदयन्ति हि प्रत्यासन्नमानन्दमग्रेपातीनि शुभानि निमित्तानि। किं चान्यदानन्दकारणमतो भविष्यति। अवितथफला हि प्रायो निशावसानसमयदृष्टा भवन्ति स्वप्नाः। सर्वथा नचिरेण मान्धातारमिव धौरेयं सर्वराजर्षीणां भुवनानन्दहेतुं आत्मजं जनयिष्यति देवी। येनेयं अविच्छिन्नसंताना भविष्यति कुलसंततिः स्वामिनः’ इत्येवमभिदधानमेव तं करेण ग्रहीत्वा नरेन्द्रः प्रविश्याभ्यन्तरमुभाभ्यामपि ताभ्यां स्वप्नाभ्यां विलासवतीमानन्दयांचकार।
विलासवत्या गर्भधारणम्
कतिपयदिवसापगमे च देवताप्रसादात्सरसीमिव प्रतिमाशशी विवेश गर्भो विलासवतीम्। दर्पणश्रीरिव गर्भच्छलेन संक्रान्तमवनिपाल-प्रतिबिम्बमुवाह। शनैः शनैश्च प्रतिदिनमुपचीयमानगर्भा निर्भरपरिपीत-
सागरसलिलभरमन्थरेष मेघमाला मन्दं मन्दं संचचार। मुहुरनुबद्धजृम्भिकम्, आजिह्मितलोचनं सालसं निशश्वास। तथावस्थां तामहरहः स्वयमनैकरसवाञ्छितपानभोजनां, प्रावृषमिवश्यामायमानपयोधरमुखीं, केतकीमिव गर्भच्छविपाण्डुराम्, आलोक्येङ्गितकुशलः परिजनो विज्ञातवान्।
अथ तस्याः सर्वसेवकवर्गप्रधानभूता, कुलवर्धना नाम महत्तरिका प्रशस्ते दिवसे प्रदोषवेलायामभ्यन्तराऽऽस्थानमण्ड-पगतम्, गन्धतैलाऽवसेकज्वलितदीपिकासहस्रपरिवारम्, उडुनिकरमध्यवर्तिनमिव पौर्णमासीशशिनम्, प्रधाननरेन्द्रैः परिमितैः परिवृतम्, अनन्तरमुत्तुङ्गवेत्रासनोपविष्टेन समुपारुदविश्रम्भनिर्भरास्तास्ताः कथाः शुकनासेन कुर्वाणं भूमिपालमुपसृत्य रहः कर्णमूले विदितं विलासवतीगर्भवृत्तान्तमकार्षीत्।
तेन तु तस्या वचनेन, अश्रुतपूर्वेण, असंभाव्येन, अमृतरसेनैव, सिक्तसर्वाङ्गस्य, सद्यःप्ररूढरोमाञ्चनिकरकण्टकित-तनोः; स्मितविकसितकपोलस्थलस्य; राज्ञः शुकनासमुखे आनन्दजलबिन्दुक्लिन्नपक्ष्ममालं तत्क्षणं पपात चक्षुः। अनालोकितपूर्वं तु हर्षप्रकर्षमभिसमीक्ष्य भूपतेः, कुलवर्धनां च स्मितविकसितमुखीमागतां दृष्ट्वा, तस्य चाऽर्थस्य सततं मनसि विपरिवर्तमानत्वात्, अविदितवृत्तान्तोऽपि तत्कालोचितम्, अपरम्, अतिमहतो हर्षस्य कारणम् अपश्यञ्छुकनासः स्वयमुत्प्रेक्ष्य समुत्सर्पितासनः समीपतरमुपसृत्य नातिप्रकटमाबभाषे—‘देव! अस्ति किंचित्तस्मिन्स्वप्नदर्शने सत्यम्। अत्यन्तमुत्फुल्ललोचना हि कुलवर्धना दृश्यते। देवस्यापीदं आनन्दजलपरिप्लुतं, तरलतारकं, विकसत्, आवेदयति महत्प्रहर्षकारणम् ईक्षणयुगलम्। उपारूढमहोत्सवश्रवणकुतूहलम्, उत्सुकोत्सुकं क्लाम्यति मे मनः। तदावेद-
यतु देवः किमिदम्’ इत्युक्तवति तस्मिन्राजा विहस्याब्रवीत्—‘यदि सत्यम्–अनया यथा कथितं तथा सर्वम्, अवितथं स्वप्नदर्शनम्। अहं तु न श्रद्दधे। कुतोऽस्माकमियती भाग्यसंपत्। अभाजनं हि वयमीदृशानां प्रियवचनश्रवणानाम्। अवितथवादिनीमप्यहं कुलवर्धनामेवंविधानां कल्याणानामसंभावितमात्मानं मन्यमानो विपरीतामिवाद्य पश्यामि। तदुत्तिष्ठ। स्वयमेव गत्वा किमत्र सत्यमिति देवीं पृष्ट्वा ज्ञास्यामि’ इत्यभिधाय, विसृज्य सकलनरेन्द्रलोकम्, उन्मुच्य स्वाङ्गेभ्यो भूषणानि कुलवर्धनायै दत्त्वा, तया च शिरःप्रणामेनाभ्यर्चितः, सह शुकनासेनोत्थाय, हर्षविशेषनिर्भरेण त्वर्यमाणो मनसा, दक्षिणेनाक्ष्णा परिस्फुरताऽभिनन्द्यमानः, पुरःसंसर्पिणीनाम् अनिललोलस्थूलशिखानाम् प्रदीपिकानामालोकेन समुत्सार्यमाणकक्षान्तरतिमिरसंहतिः, अन्तःपुरमयासीत्।
तत्र च सुकृतरक्षासंविधाने, नवसुधानुलेपनधवलिते, प्रज्वलितमङ्गलप्रदीपे, पूर्णकलशाधिष्ठितपक्षके, वासभवने, शयनशिरोभाग विन्यस्त धवल निद्रामङ्गलकलशम्, आबद्धविविधौषधिमूलयन्त्रपवित्रम्, इतस्ततोविप्रकीर्णगौरसर्षपम्, आसक्तहरितारिष्टपल्लवम्, उत्तुङ्गपादपीठप्रतिष्ठितम्, इन्दुदीधितिधवलप्रच्छदपटम्, गर्भोचितं, शयनतलम्, अधिशयानां; पटलकप्रज्वलितैश्च शीतलप्रदीपैः, गोरोचनामिश्रगौरसर्षपैश्च, सलिलाञ्जलिभिश्च, आचारकुशलेन अन्तःपुरजरतीजनेन क्रियमाणावतरणकमङ्गलाम्; गोरोचनाचित्रितदशम्, अनुपहतम्, अतिधवलं, दुकूलयुगलं, वसानां विलासवतीं ददर्श। ससंभ्रमपरिजनप्रसारितकरतलाऽऽलम्बनावष्टम्भेन वामजानुविन्यस्तहस्तपल्लवां प्रचलितभूषणमणिरवमुखरम् उत्तिष्ठन्तीं विलासवतीम् अलमलमत्यादरेण। देवि, नोत्थातव्यम्’ इत्यभिधाय सह तया तस्मिन्नेव शयनीये पार्थिवः समुपाविशत्। प्रमृष्टचामीकरचारुपादे धवलोप-
च्छदे चासन्ने शयनान्तरे शुकनासोऽपि न्यषीदत्। अथ तामुपारूढगर्भामालोक्य हर्षभरमन्थरेण मनसा प्रस्तुतपरिहासो राजा ‘देवि, शुकनासः पृच्छति ‘यदाह कुलवर्धना किमपि तत्किं तथैव’ इत्युवाच। अव्यक्त स्मितच्छुरितकपोलाधरलोचना लज्जया विलासवती तत्क्षणमधोमुखी तस्थौ। पुनःपुनश्चानुबध्यमाना ‘किं मामतिमात्रं त्रपापरवशां करोषि। नाहं किंचिदपि वेद्मि’ इत्यभिदधाना तिर्यग्वलिततारकेण चक्षुषावनतमुखी राजानं साभ्यसूयमिवापश्यत्। शुकनासः ‘देव, किमायासयसि देवीम्। इयमनया कथयापि लज्जते। त्यज कुलवर्धनाकथितवार्तासंबद्धमालापकम्’ इत्यब्रवीत्। एवंविधाभिश्च नर्मप्रायाभिः कथाभिः सुचिरं स्थित्वा शुकनासः स्वभवनमयासीत्। नरेन्द्रोऽपि तस्मिन्नेव वासगृहे तां निशामत्यवाहयत्।
ततः क्रमेण समीहितगर्भदोहदसंपादनप्रमुदिता पूर्णे प्रसवसमये पुण्येऽहन्यनवरतगलन्नाडिकाकलितकालकलैः, बहिरागृहीतच्छायैः, गणकैः, गृहीतेलग्ने प्रशस्तायां वेलायामिरंमदमिव मेघमाला सकललोकहृदयानन्दकारिणं विलासवती सुतमसूत। तस्मिञ्जाते सरभसमितस्ततः प्रधावितस्य परिजनस्य चरणशतसंक्षोभचलितक्षितितलः, भूपालाभिमुखप्रसूत-स्खलद्गतिशून्यकञ्चकिसहस्रः, जनसंमर्दनिष्पिष्यमाणपतितकुब्जवामनकिरातगणः, विस्फार्यमाणान्तःपुर-जनाभरणझङ्कारमनोहरः, पूर्णपात्राऽऽहरण विलुप्यमान वसन भूषणः, राजकुले दिष्टिवृद्धिसंभ्रमोऽतिमहानभूत्। अनन्तरं च मङ्गलपटहपटुरवसंवर्धितेन, अनेकजनसहस्रकलकलबहुलेन त्रिभुवनमापूरयता उत्सवकोलाहलेन ससामन्ताः, सान्तःपुराः, सप्रकृतयः सराजलोकाः, सबालवृद्धाः, ननृतुरागोपालमुन्मत्ता इव हर्षनिर्भराः प्रजाः। पार्थिवस्तु तनयाननदर्शनमहोत्सवहृतहृदयोऽपि दिवसवशेन मौहूर्तिकगणोपदिष्टे, प्रशस्ते मुहूर्ते, निवारितनिखिल-
परिजनः, शुकनासद्वितीयः; मणिमय मङ्गल कलश युगलाशून्येन, विविध नव पल्लव निवह निरन्तर निचितेन, वन्दनमालिकान्तराल घटित घण्टागणेन, द्वारेण विराजमानम्; उभयतश्च द्वारपक्षकयोः मर्यादानिपुणेन हारिद्रवविच्छुरणपिञ्जरिताम्बरधारिणीं भगवतीं षष्ठीं देवीं कुर्वता; चन्दन जल धवलितेषु, भित्तिशिखरभागेषु, पञ्चराग विचित्र चेल चीर कलापचिह्नाम् आपीतपिष्टपङ्काङ्किताम् वर्धमानपरंपराम्, अन्यानि च सूतिकागृहमण्डन मङ्गलानि संपादयता; पुरंध्रिवर्गेण समधिष्ठितम्; उपद्वारसंयतविविधगन्धकुसुममालालंकृत जरच्छागम्, अनवरतदह्यमानाज्यमिश्रभुज-गनिर्मोकमेषविषाण क्षोदम्, अनल प्लुष्यमाणाऽरिष्टतरुपल्लवोल्लसित-रक्षाधूमगन्धम्, अध्ययनमुखरद्विजगणविप्रकीर्यमाणशान्त्युदकलवम्, अनेकवृद्धाङ्गनारब्धसूति-कामङ्गलगीतिकामनोहरम्, अमल हाटकयष्टि प्रतिष्ठापितैः, अन्तःशुभशतानीवध्यायद्भिः, निश्चलशिखैः, मङ्गलदीपैरुद्भासितम् , उत्खातासिलतासनाथपाणिभिः, सर्वतो रक्षापुरुषैः परिवृतंसूतिकागृहमपश्यत्।
राज्ञः सूतिकागृहगमनंकुमारदर्शनं च
अम्भः पावकं च स्पृष्ट्वा विवेश। प्रविश्य च प्रसवपरिक्षामपाण्डुमूर्तेरुत्सङ्गगतं विलासवत्याः, स्वप्रभासमुदयोपहतगर्भगृहप्रदीपप्रभम्, अपरित्यक्तगर्भरागत्वात् उदयपरिपाटलमण्डलमिव सवितारम्, अपरसंध्यालोहितबिम्बमिव चन्द्रमसम्, विद्रुमकिसलयदलैरिव बालातपच्छेदैरिव पद्मरागरश्मिभिरिव रचितावयवम्, सुरवनिताकरपरिभ्रष्टमिवामरपतिकुमारकम्, उत्तप्तकल्याणकार्तस्वरभास्वरया स्वदेहप्रभया पूरयन्तमिव वासभवनम्, उद्भासमानैः सहजभूषणैरिव महापुरुषलक्षणैरु-
पेतम्, आह्लादहेतुमात्मजं ददर्श। विगतनिमेषनिश्चलयक्ष्मणा च दूरविस्फारितेन स्निग्धेन चक्षुषा पिवन्निव मनोरथसहस्रप्राप्तदर्शनं सस्पृहं निरीक्षमाणस्तनयाननं मुमुदे। कृतकृत्यं चात्मानं मेने। समृद्धमनोरथः शुकनासस्तु शनैः शनैरङ्गप्रत्यङ्गान्यस्य निरूपयन्प्रीतिविस्तारितलोचनं भूमिपालमवादीत्—‘देव, पश्य पश्य। अस्य कुमारस्य गर्भसंपीडनवशादस्फुटावयवशोभस्यापि माहात्म्यमाविर्भावयन्ति चक्रवर्तिचिह्नानि। तथाहि—अस्य संध्यांऽशुरक्तबालशशिकलाकारे ललाटपट्टे नलिननालभङ्गतन्तुतन्वीयमूर्णा परिस्फुरति। एतद्विकचपुण्डरीकधवलं कर्णान्तायतं लोचनयुगलम्। दूरायता कनकलेखेव नासिका। रक्तोत्पलकलिकालोहिततलौ भगवतो विष्टरश्रवस इव शङ्खचक्रचिह्नौ प्रशस्तलेखालाञ्छितौ करौ। अभिनवकल्पतरुपल्लवकोमलं लेखामयैर्ध्वजरथतुरगात-पत्रकमलैरलंकृतम्, अनेकनरेन्द्रसहस्रचूडामणिचक्रचुम्बनोचितं चरणयुगलम्। एष च दुन्दुभेरिवातिगम्भीरः स्वरयोगोऽस्य रुदतः श्रूयते।
शुकनास सदनेऽपि सुतजन्म, राज्ञस्तत्रगमनं च।
इत्येवं कथयत्येव तस्मिन्ससंभ्रमापसृतेन राजलोकेन द्वारिस्थितेन दत्त मार्गः, त्वरितगतिः, आगत्य प्रहर्षोद्गमपुलकिततनुः, स्फारीभवल्लोचनो मङ्गलकनामा प्रहृष्टवदनः पुरुषः पादयोः प्रणम्य राजानं व्यजिज्ञपत्—‘देव, दिष्ट्या वर्धसे। प्रतिहतास्ते शत्रवः। चिरं जीव। जय पृथिवीम्। त्वत्प्रसादादत्रभवतः शुकनासस्यापि ज्येष्ठायां ब्राह्मण्यां मनोरमाभिधानायां तनयो जातः। श्रुत्वा देवः प्रमाणम्’ इति।
अथ नृपतिरमृतवृष्टिप्रतिममाकर्ण्य तद्वचनं प्रीतिविस्फारिताक्षः प्रत्यवदत्–‘अहो कल्याणपरंपरा। सत्योऽयं लोकप्रवादो यद्विपद्विपदं
संपत्संपदमनुबध्नातीति। इत्यभिधाय प्रीतिविकसितमुखः सरभसमाऽऽलिङ्ग्य विहसन्स्वयमेव शुकनासस्योत्तरीयं पूर्णपात्रं जहार। तस्मै च प्रीतमनाः प्रियवचनानुरूपं पुरुषायापरिमितं पारितोषिकमादिदेश। उत्थाय च तथैव तेन, चरणविकुट्टनक्वणितनूपुरसहस्त्रमुखरितदिगन्तरेण, सरभसोत्क्षेपचालितमणिवलयावलोवाचालितभुजलतेन, सिन्दूर-तिलकलुलितालकलेखेन, विप्रकीर्णपिष्ठातकपांसुपुञ्जपिञ्जरितकेशपाशेन, प्रनृत्तकलमूककुब्जकिरातवामनबधिरजड-जनपुरःसरेण, उत्तरीयांशुकग्रीवाबद्धावकृष्टविडम्बितजरत्कञ्चुकिकदम्बकेन, वीणावेणुमुरजकांस्यताललयानुगतेन, कलमधुरमुद्गायता नृत्तक्रीडाप्रसक्तेनान्तःपुरिकाजनेन, निर्दयप्रहतभेरीमृदङ्गमर्दलपटहनिनादानुगतकाहलशङ्कर-वजनितरभसेन चरणसंनिपातै-र्दारयतेव वसुधां राजपरिजनेन; प्रवृत्तनृत्येन च चारणगणेन विविधमुखवाद्यकृत-कोलाहलेन पठता गायता चानुगम्यमानः शुकनासभवनं गत्वा द्विगुणतरमुत्सवमकारयत्।
नामकरणम्
अतिक्रान्ते च षष्ठीजागरे, प्राप्ते दशमेऽहनि, पुण्ये मुहूर्ते, गाः सुवर्णं च कोटिशो ब्राह्मणसात्कृत्वा ‘मातुरस्य मया परिपूर्णमण्डलश्चन्द्रः स्वप्ने मुखकमलमाविशन्दृष्टः’ इति स्वप्नानुरूपमेव राजा स्वसूनोश्चन्द्रापीड इति नाम चकार। अपरेद्युः शुकनासोऽपि कृत्वा ब्राह्माणोचिताः सकलाः क्रिया राजानुमतमात्मजस्य विप्रजनोचितं वैशम्पायन इति नाम चक्रे।
द्वयोः कुमारयोर्गुरुकुलगमनम्
क्रमेण च कृतचूडाकरणादिक्रियाकलापस्य शैशवमतिचक्राम चन्द्रापीडस्य। तारापीडो व्यासङ्गविघातार्थं बहिर्नगरादनुसिप्रमर्धक्रोशमात्रायामम्, अतिमहता तुहिनगिरिशिखरमालानुकारिणा सुधा-
धवलितेन प्राकारमण्डलेन परिवृतम्, अनुप्राकारमाहितेन महता परिखावलयेन परिवेष्टितम्, उद्घाटितैकद्वारप्रवेशम्, एकान्तोपरचिततुङ्गबाह्यालीविभागम् अधःकल्पितव्यायामशालम्, विद्यामन्दिरमकारयत्। सर्वविद्याचार्याणां च संग्रहे यत्नमतिमहान्तमन्वतिष्ठत्। तत्रस्थं च तं केसरिकिशोरकमिव पञ्जरगतं कृत्वा प्रतिषिद्धनिर्गमम्, आचार्यकुलपुत्रप्रायपरिजनपरिवारम्, अपनीताशेषशिशुजनक्रीडाव्यासङ्गम, अनन्यमनसम्, अखिलविद्योपादानार्थ-माचार्येभ्यश्चन्द्रापीडं शोभने दिवसे वैशम्पायनद्वितीयमर्पयांबभूव। चन्द्रापीडोऽप्यनन्यहृदयतया तथा यन्त्रितो राज्ञाऽचिरेणैव यथास्वमात्मकौशलं प्रकटयद्भिः पात्रवशादुपजातोत्साहैराचार्यैरुपदिश्यमानाः सर्वा विद्या जग्राह। मणिदर्पण इवातिनिर्मले तस्मिन्संचक्राम सकलः कलाकलापः। तथाहि–पदे, वाक्ये, प्रमाणे, धर्मशास्त्रे, राजनीतिषु, व्यायामविद्यासु, सर्वेष्वायुधविशेषेषु, रथचर्यासु, गजपृष्ठेषु, वीणावेणुमुरजकांस्यतालदर्दुरपुरप्रभृतिषु वाद्येषु, भरतादिप्रणीतेषु नृत्तशास्त्रेषु, नारदीयप्रभृतिषु गान्धर्ववेदविशेषेषु, हस्तिशिक्षायाम्, तुरङ्गवयोज्ञाने, पुरुषलक्षणे, चित्रकर्मणि, पत्रच्छेद्ये, पुस्तकव्यापारे, लेख्यकर्मणि, सर्वासु द्यूतकलासु, शकुनिरुतज्ञाने, ग्रहगणिते, रत्नपरीक्षासु, दारुकर्मणि, दन्तव्यापारे, वास्तुविद्यासु, आयुर्वेदे, यंत्रप्रयोगे, विषापहरणे, सुरङ्गोपभेदे, तरणे, लङ्घने, प्लुतिषु, इन्द्रजाले, कथासु, नाटकेषु, आख्यायिकासु, काव्येषु, महाभारतपुराणेतिहासरामायणेषु, सर्वलिपिषु, सर्वदेशभाषासु, सर्वसंज्ञासु, सर्वशिल्पेषु, छन्दःसु, अन्येष्वपि लोकविशेषेषु परं कौशलमवाप। सहसा चाऽजस्रमभ्यस्यतो वृकोदरस्येव शैशव एवाविर्बभूव लोकविस्मयजननी महाप्राणता। यदृच्छया क्रीडताप्यनेन करतलावलम्बितकर्णपल्लवावनताङ्गाः सिंहकिशोरकक्रमाक्रान्ता इव गजकलभकाश्च-
लितुमपि न शेकुः। एकैकेन कृपाणप्रहारेण तालतरूम्मृणालदण्डानिव लुलाव। सकलराजस्यवंशवनदावानलस्य परशुरामस्येवास्य नाराचाः शिखरिशिलातलभिदो बभूवुः। दशपुरुषसंवाहनयोग्येन चाऽयोदण्डेन श्रममकरोत्। ऋते च महाप्राणतायाः सर्वाभिरन्याभिः कलाभिरनुचकार तं वैशम्पायनः। चन्द्रापीडस्य तु सकलकलाकलापपरिचयबहुमानेन शुकनासगौरवेण सहपांसुक्रीडनतया सहसंवृद्धतया च सर्वविश्रम्भस्थानं द्वितीयमिव हृदयं वैशम्पायनः परं मित्रमासीत्। निमेषमपि तेन विना स्थातुमेकाकी न शशाक। वैशम्पायनोऽपि तमुष्णकरमिव वासरोऽनुगच्छन्न क्षणमपि विरहयांचकार।
यौवनाऽवतारः
एवं तस्य सर्वविद्यापरिचयमाचरतश्चन्द्रापीडस्य सकललोकहृदयानन्दजननश्चन्द्रोदय इव प्रदोषस्य, कुसुमप्रसव इव कल्पपादपस्य, अभिनवाभिव्यज्यमानरागरमणीयः सूर्योदय इव कमलवनस्य, विविधलास्यविलासयोग्यः कलाप इव शिखण्डिनो यौवनारम्भः प्रादुर्भवन्रमणीयस्यापि द्विगुणां रमणीयतां पुपोष। लक्ष्म्या सह वितस्तार वक्षःस्थलम्। बन्धुजनमनोरथैः सहापूर्यतोरुदण्डद्वयम्। अरिजनेन सह तनिमानमभजत मध्यभागः। त्यागेन सह प्रथिमानमाततान नितम्बभागः। प्रतापेन सहाऽऽरुरोह रोमराजिः। चरितेन सह धवलतामभजत लोचन युगलम्। स्वरेण सह गम्भीरतामाजगाम हृदयम्।
गुरुकुलात् प्रत्यावर्त्तनम्
एवं च क्रमेण समारूढयौवनारम्भं, परिसमाप्तसमग्रकलाविज्ञानम्, अधीताशेषविद्यं चावगम्याऽनुमोदितम् आचार्यैः, चन्द्रापीडमानेतुं राजा बलाधिकृतं बलाहकनामानमाहूय अतिप्रशस्तेऽहनि प्राहिणोत्। स
गत्वा विद्यागृहं द्वाःस्थैः समावेदितः प्रविश्य शिरसा प्रणम्य स्वभूमिसमुचिते राजसमीप इव सविनयमासने राजपुत्रानुमतो न्यषीदत्। स्थित्वा च मुहूर्तमात्रं बलाहकश्चन्द्रापीडमुपसृत्यदर्शितविनयो अजिज्ञपत्—‘कुमार, महाराजः समाज्ञापयति– ‘पूर्णा नो मनोरथाः। अधीतानि शास्त्राणि। शिक्षिताः सकलाः कलाः। गतः सर्वास्वायुधविद्यासु परां प्रतिष्ठाम्। अनुमतोऽसि विनिर्गमाय विद्यागृहात्सर्वाचार्यैः। उपगृहीतशिक्षं अवगतसकलकलाकलापं पौर्णमासीशशिनमिव नवोद्गतं पश्यतु त्वां जनः। व्रजन्तु सफलतामतिचिरदर्शनोत्कण्ठितानि लोकलोचनानि। दर्शनं प्रति ते समुत्सुकान्यतीव सर्वाण्यन्तःपुराणि। अयमत्रभवतो दशमः संवत्सरो विद्यागृहमधिवसतः प्रविष्टोऽसि षष्ठमनुभवन्वर्षम्। एवं संपिण्डितेनाधुना षोडशेन प्रवर्धसे। तदद्यप्रभृति निर्गत्य दर्शनोत्सुकाम्यो दत्त्वा दर्शनमखिलमातृभ्योऽभिवाद्य च गुरून् अपगतनियन्त्रणो यथासुखमनुभव राज्यसुखानि नवयौवनललितानि च। संमानय राजलोकम्। पूजय द्विजातीन्। परिपालय प्रजाः। आनन्दय बन्धुवर्गम्। अयं च त्रिभुवनेकरत्नमनिलगरुडसमजव, इन्द्रायुधनामा तुरङ्गमः प्रेषितो महाराजेन द्वारि तिष्ठति। एष खलु देवस्य पारसीकाधिपतिनाश्चर्यमितिकृत्वा ‘जलधिजलादुत्थितमयोनिजमिदमश्वरत्नमासादितं मया महाराजाधिरोहणयोग्यम्’ इति संदिश्य प्रहितः। तदयमनुगृह्यतामधिरोहणेन। इदं च मूर्धाभिषिक्तपार्थिवकुलप्रसूतानां विनयोपपन्नानां शूराणां अभिरूपाणां कलावतां च कुलक्रमागतानां राजपुत्राणां सहस्रं परिचारार्थमनुप्रेषितं तुरङ्गमारूढं प्रणामलालसं प्रतिपालयति’। इत्यभिधाय विरतवचसि बलाहके चन्द्रापीडः पितुराज्ञां शिरसि कृत्वा नवजलधरध्यानगम्भीरया गिरा ‘प्रवेश्यतामिन्द्रायुधः’ इति निर्जिगमिषुरादिदेश।
इन्द्रायुधवर्णनम्
अथ वचनानन्तरमेवप्रवेशितम्, उभयतः खलीनकटकावलग्नाभ्यां पदे पदे कृताकुञ्चनप्रयत्नाभ्यां पुरुषाभ्यामवकृष्य-माणम्, अतिप्रमाणम्, ऊर्ध्वकरपुरुषप्राप्यपृष्ठभागम्, आपिवन्तमिव संमुखागतमखिलमाकाशम्, अतिनिष्ठुरेण मुहुर्मुहुः प्रकम्पितोदररन्ध्रेण ह्रेपारवेण निर्भर्त्सयन्तमिवालीकवेगदुर्विदुग्धं गरुत्मन्तम्, रंहःसंघातमिव मूर्तिमन्तम्, अत्यायत्तमतिनिर्मासतया समुत्कीर्णेमिव वदनमुद्वहन्तम्, आननमण्डलनिहितारुणमणिसमुद्गतैरशुकलापैरुपेतेन अघसक्तरक्तचामरेणेव निश्चलशिखरेण कर्णयुगलेन विराजमानम्, अश्वालंकारनिहितमरकतरत्नप्रभाश्यामायमानदेहतया गगनतलनिपतितदिवसकररथतुरङ्गमशङ्का-मिवोपजनयन्तम्, अतितेजस्वितया जवनिरोधरोपवशात्प्रतिरोकूपमुद्गतानि सागरपरिचयलग्नानि मुक्ताफलानीव स्वेदलयजालकानि वर्षन्तम्, इन्द्रनीलमणिपादपीठानुकारिभिः अञ्जनशिलाघटितैरिव अनवरतपतनोत्पतनजनितविषमस्वरमुखरैः पृथुभिः खुरपुटैर्जर्जरितवसुंधरैः मुरजवाद्यमिवाभ्यस्यन्तम्, उत्कीर्णमिव जङ्घासु, विस्तारितमिवोरसि, श्लक्ष्णीकृतमिव मुखे, प्रसारितमिव कंधरायाम्, उल्लिखितमिव पार्श्वयोः, द्विगुणीकृतमिव जघनभागे, त्रैलोक्यसंचरणसहायमिव मारुतस्य, वेगसब्रह्मचारिणमिव मनसः, हरिचरणमिव सकलवसुंधरोल्लङ्घनक्षमम्, वरुणहंसमिव मानसप्रचारम्, ग्रीष्मदिवसमिव महायाममुग्रतेजसं च, भुजंगमिव सदागत्यभिमुखम् उदधिपुलिनमिव शङ्खमालिकाभरणम्, भीतमिव स्तब्धकर्णम्, विद्याधरराज्यमिव चक्रवर्तिनरवाहनोचितम्, सूर्योदयमिव सकलभुवनार्घार्हम्, अश्वातिशयमिन्द्रायुधमद्राक्षीत्। दृष्ट्वा च तमदृष्टपूर्वम् अमानुषलोकोचिताकारम् अशेषलक्षणोपपन्नम् अश्वरूपातिशयमतिधीरप्रकृतेरपि चन्द्रापीडस्य पस्पर्श विस्मयं हृदयम्। आसीच्चास्य मनसि—‘सरभस-
परिवर्तनचलितवासुकिभ्रमितमन्दरेण मथ्नता जलधिजलमिदमश्वरत्नमनभ्युद्धरता किं नाम रत्नमुद्धृतं सुरासुरलोकेन। अनारोहता च मेरुशिलातलविशालमस्य पृष्ठमाखण्डलेन किमासादितं त्रैलोक्यराज्यफलम्। उच्चैःश्रवसा विस्मितहृदयो वञ्चितः खलु जलनिधिना शतमखः। मन्ये च भगवतो नारायणस्य चक्षुर्गोचरमियता कालेन नायमुपगतो येनाद्यापि तां गरुडारोहणव्यसनितां न त्यजति। अहो खल्वतिशयितत्रिदशराज्यसमृद्धिरियं तातस्य राज्यलक्ष्मीः। यदेवंविधान्यपि सकलत्रिभुवनदुर्लभानि रत्नान्युपकरणतामागच्छन्ति। अतितेजस्वितया महाप्राणतया च सदैवतेवेयमस्याकृति-र्यत्सत्यमारोहणे शङ्कामिव मे जनयति। न हि सामान्यवाजिनाममानुषलोकोचिताः सकलत्रिभुवनविस्मयजनन्य ईदृश्यो भवन्त्याकृतयः। दैवतान्यपि हि मुनिशापवशादुज्झितनिजशरीराणि शापवचनोपनीतान्येतानि शरीरान्तराण्यध्यासत एव। असंशयमनेनापि महात्मना केनापि शापभाजा भवितव्यम्। आवेदयतीव मदन्तःकरणमस्य दिव्यताम्, इति विचिन्तयन्नेवारुरुक्षुरासनादुदतिष्ठत्। मनसा च तं तुरङ्गमुपसृत्य महात्मन्नर्वन्, योऽसि सोऽसि। नमोस्तु ते। सर्वथा मर्षणीयोऽयमारोहणातिक्रमोऽस्माकम्। अपरिगतानि दैवतान्यप्यनुचितपरिभवभाञ्जि भवन्ति’ इत्यामन्त्रयांबभूव। विदिताभिप्राय इव स तमिन्द्रायुधश्चटुलशिरः-केसरसटाहत्याकूणिताऽऽकेकरवारकेण तिर्यक्चक्षुषा विलोक्य हेषारवमकरोत्। अथानेन मधुरहेषितेन दत्तारोहणाभ्यनुज्ञ इवेन्द्रायुधमारुरोहचन्द्रापीडः। समारुह्य तं प्रादेशमात्रमिव त्रैलोक्यमखिलं मन्यमानो निर्गत्य जलधरविमुक्तोपलासारपरुषेण जर्जरयतेव रसातलमतिनिष्ठुरेण खुरपुटानां रवेण रजोनिरुद्धघ्राणघोरघोषेण च हेषितेन बधिरीकृतसकलत्रिभुवनविवरम्, अदृष्टपर्यन्तमश्वसैन्यमपश्यत्। तच्च सागरजलमिव चन्द्रोद-
येन चन्द्रापीडनिर्गमेन सकलमेव संचचालाश्वीयम्। अहमहमिकया च प्रणामलालसाः सरभसापनीतातपत्रशून्यशिरसः परस्परोत्पीडनकुपिततुरङ्गमनिवारणायस्ता राजपुत्रास्तं पर्यवारयन्त। एकैकशश्च प्रति नामग्राहमावेद्यमाना बलाहकेन विचलितमुकुटपद्मरागकिरणोद्गमच्छलेनानुराग-मिवोद्वमद्भिः दूरावनतैः शिरोभिः प्रणेमुः। चन्द्रापीडस्तु तान्सर्वान्मानयित्वायथोचितम्, अनन्तरं तुरङ्गमाधिरूढेनानुगम्यमानः वैशम्पायनेन, राज्यलक्ष्मीनिवासपुण्डरीकाकृतिना स्थूलमुक्ताकलापजालकावृतेन, उपरिचिह्नीकृतं केसरिणमुद्वहता अतिमहता, कार्तस्वर दण्डेन, ध्रियमाणेन, आतपत्रेण निवारितातपः; पुरः प्रधावता तरुणवीरपुरुषप्रायेण, अनेकसहस्रसंख्येन, पदातिपरिजनेन, ‘जय जीवेति’ च मधुरवचसा मङ्गलप्रायमनवरतमुच्चैः पठता बन्दिजनेन स्तूयमानः, नगराभिमुखं प्रतस्थे।
नगर प्रवेशः
क्रमेण च तं समासादितविग्रहम् अनङ्गमिवावतीर्ण, नगरमार्गमनुप्राप्तम्, अवलोक्य सर्व एव परित्यक्तसकल-व्यापारः,रजनिकरोदयपरिबुध्यमानकुमुदवनानुकारी जनः समजनि। सत्यस्मिन्मुखकुमुद-कदम्बकविकृताकृतिः कार्तिकेयो विडम्बयति कुमारशब्दम्। अहो, वयमतिपुण्यभाजो यदमानुषीमस्याकृतिमन्तःसमारूढप्रीति-रसनिःस्यन्दविस्तारितेन लोचनयुगलेनानिवारिताः पश्यामः। सफला नोऽद्य जाता जन्मवत्ता। सर्वथा नमोऽस्मै रूपान्तरधारिणे भगवते चन्द्रापीडच्छद्मने पुण्डरीकेक्षणाय’ इति वदन्नारचितप्रणामाञ्जलिः नगरलोकः प्रणनाम। सर्वतश्च समुपावृतकपाटपुटप्रकटवातायनसहस्रतया चन्द्रापीडदर्शनकुतूहलात् नगरमपि समुन्मीलितलोचननिव-
हम् इवाऽभवत्। अनन्तरं च ‘समाप्तसकलविद्यो विद्यागृहान्निर्गतोऽयं चन्द्रापीडः—’इति समाकर्ण्यालोकनकुतूहलिन्यः सर्वस्मिन्नेव नगरे ससंभ्रममुत्सृष्टार्धपरिसमाप्तप्रसाधनव्यपाराः, हर्म्यतलानि ललनाः समारुरुहुः। अन्याश्च मरकतवातायनविवर-विनिर्गतमुखमण्डला विकचकमलकोशपुटामम्बरतलसंचारिणीं कमलिनीमिव दर्शयन्त्यो ददृशुः। तासामापीयमान इव लोचनपुटैः, अनुगम्यमान इव हृदयैः, अनुबध्यमान इवाभरणरत्नरश्मिरज्जुभिः, चन्द्रापीडो राजकुलसमीपमाससाद।
राजप्रासादवर्णनम्
क्रमेण च द्वीपान्तरागतदूतशतसंकुलं राजद्वारमासाद्य तुरगमादवततार। अवतीर्य च करतलेन करे वैशम्पायनमवलम्ब्य पुरः सविनयं प्रस्थितेन बलाहकेनोपदिश्यमानमार्गः, त्रिभुवनमिव पुञ्जीभूतम्, आगृहीतकनकवेत्रलतैः सितवारबाणैः सितोष्णीषैः श्वेतद्वीपसंभवैरिव महाप्रमाणैः दिवानिशमालिखितैरिव उत्कीर्णैरिव तोरणस्तम्भनिषरणैर्द्वारपालैरनुज्झितद्वारदेशम्; अनेकसंयवनचन्द्रशालाविटङ्कवेदिकासंकटशिखरैः अपहसितसित-कैलासशोभैः अमलसुधावदातैः सप्रालेयशैलमिव महाप्रासादैः विराजमानम्; अन्तर्गतायुधनिवहाभिराशीविष-कुलसंकुलाभिः पातालगुहाभिरिवातिगम्भीराभिरायुधशालाभिरुपेतम्; अवलाचरणालक्तकरसंरक्तमणिशकलैः शिखर-निलीनशिखिकुलकृतकेकारवकलकलैः क्रीडापर्वतकैरुपशोभितम्; आलानस्तम्भनिषण्णेन अनवरतसंगीतकमृदङ्गध्वनिं निश्चलकर्णतालेनाकर्णयता, आमीलितलोचनत्रिभागेण, वामदशनकोटिनिषण्णहस्तेन, सलीलमुभयपार्श्वावलम्बिवर्ण-कम्बलतया विन्ध्यगिरिणेवाविष्कृतधातुविचित्रितपक्षसंपुटेन, मदजलसलिनेन कपोलतलदोलायमानेन, मधुकरकुलेनालं-क्रियमाणेन, अत्यु-
दग्रतया पूर्वकायस्य वामनतया च जघनभागस्य पातालादिवोत्तिष्ठता निशासमयेनेव, वामनरूपेणेव कृतत्रिपदोविलासेन, प्रसाधितेनेवालोलकर्णपल्लवाहनमुखेन, गन्धमादननाम्ना गन्धहस्तिना सनाथीकृतैकदेशम्; भूपालवल्लभैर्मन्दु-रागतैस्तुरङ्गमैरुद्भासितम्; अधिकरणमण्डपगतैश्चार्यवेषैरत्युच्चवेत्रासनोपविष्टं धर्ममयैरिव धर्माधिकारिभिर्महापुरुषै-रधिष्ठितम्, अधिगतसकलग्रामनगरनामभिः एकभवनमिव जगदखिलमालोकयद्भिरालिखितसकलभुवनव्यापारतया धर्मराजनगरव्यतिकरमिव दर्शयद्भिरधिकरणलेखकैरालिख्यमानशासनसहस्रम्; आस्थानमण्डपगतेन च यथोचिता-सनोपविष्टेन, आस्फालयता परिवादिनीम्, आलिखता चित्रफलके भूमिपालप्रतिबिम्बम् आबध्नता काव्यगोष्ठीम्, आतन्वता परिहासकथां, विन्दता बिन्दुमतीं, चिन्तयता प्रहेलिकां, भावयता नरपतिकृतकाव्यसुभाषितानि, आकर्णयता वैतालिकगीतम्, अनेकसहस्रसंख्येन, धवलोष्णीषपटाश्लिष्ट-विकटकिरीटसंकटशिरसा, मूर्धाभिषिक्तेन सामन्तलोकेनाधिष्ठितम्; एकदेशनिषण्णचामीकरशृङ्खलासंयतश्वगणम्; इतस्ततः प्रचलितपरिचितामितकस्तूरिकाकु-रङ्गपरिमलवासितदिङ्मुखम्; अनेककुब्जकिरातवर्षवरवधिरवामनमूकसंकुलम्; उपाहृत-किन्नरमिथुनम्; आनीतवनमानुषम्; आरब्धमेषकुक्कुटकुररकपिञ्जललावक-वर्तिकायुद्धम्; उत्कूजितचकोरकादम्बहारी-तकोकिलम्; आलप्यमानशुकसारिकम्; इभपतिपरिमलामर्षजृम्भितैश्च निःकूजद्भिः शिखरिणां जीवितैरिव गिरिगुहानिवासिभिर्गृहीतैः पञ्जरकेसरिभिरुद्भास्यमानम्; उत्रास्यमानैः, काञ्चनभवनप्रभाजनितदावानलशङ्कैः, लोलतारकैः, भ्रमद्भिः, भवनहरिणकदम्बकैः, लोचनप्रभया शबलीकृतदिगन्तरम्; उद्दामकेकारनुमीयमान-मरकतकुट्टिमस्थितशिखण्डिमण्डलम्; अन्तः पुरेण च बालिकाजनप्रस्तुतकन्दुक-पाञ्चालिकाक्रीडेन, अनवरतसंवाह्यमान-
दोलाशिखरक्वणितघण्टाटङ्कारपूरिताशामुखेन, धृतधौतधवलदुकूलोत्तरीयैः, कलधौतदण्डावलम्बिभिः, पलितपाण्डुरमौलिभिः; गम्भीराकृतिभिः कञ्चुकिभिरधिष्ठितेन समुपेताभ्यन्तरम्; जलधरसनाथमिव कृष्णागुरुधूमपटलैः; सबालातपमिव रक्ताशोकैः; सतारागणमिव मुक्ताकलापैः; सवर्षासमयमिव धारागृहैः; सतडिल्लतमिव हेममयीभिर्मयूरयष्टिभिः; सगृहदैवतमिव शालभञ्जिकाभिः; उत्कृष्टकविगद्यमिव विविधवर्णश्रेणिप्रतिपाद्यमानाभिनवार्थसंचयम्; अप्सरोगणमिव प्रकटमनोरमारम्भम्; नाटकमिव पताकाङ्कशोभितम्; शोणितपुरभिव वाणयोग्यावासोपेतम्; संपूर्णचन्द्रोदयमिव मृदुकरसहस्रसंवर्धितरत्नालयम्; दिग्गजमिवाऽविच्छिन्नमहादानसंतानम्; व्याकरणमिव प्रथममध्यमोत्तमपुरुषविभक्तिस्थितानेकादेशकारका-ऽऽख्यातसंप्रदानक्रियाऽव्ययप्रपञ्चसुस्थितम्; उदधिमिव भयान्तःप्रविष्टसपक्षभूभृत्सहस्रसंकुलम्; उषाऽनिरुद्धसमागममिव चित्रलेखादर्शितविचित्रसकलत्रिभुवनाऽऽकारम्; संध्यासमयमिव दृश्यमानचन्द्रापीडोदयम्; स्कन्दमिव शिखिक्रीडारम्भचञ्चलम्; कुलाङ्गना प्रचार मिव सर्वदोषजातशङ्कम्; वासरारम्भमिव पद्मरागारुणीक्रियमाणनिशान्तम्; दिव्यमुनिगणमिव कलापसनाथश्वेतकेतुशोभितम्; भारतसमरमिव कृतवर्मबाणचक्रसंभारभीषणम्; पातालमिव महाकञ्चुक्यध्यासितम्; महाद्वारमपि दुष्प्रवेशम्; अवन्तिविषयगतमपि मागधजनाधिष्ठितम्; राजकुलं विवेश। ससंभ्रमोपगतैश्च कृतप्रणामैः प्रतीहारमण्डलैरुपदिश्यमानमार्गः, सर्वतः प्रचलितेन च राजलोकेन प्रत्येकशः प्रतीहारनिवेद्यमानेन सादरं प्रणम्यमानः, पदे पदे चाभ्यन्तरविनिर्गताभिः आचारकुशलाभिरन्तःपुरवृद्धाभिः क्रियमाणावतरणमङ्गलः, भुवनान्तराणीव विविधप्राणिसहस्रसंकुलानि सप्तकक्षान्तराण्यतिक्रम्य, अभ्यन्तरावस्थितम्, अनवरतशस्त्रग्रहणश्यामि-
कालीढकरतलैः करचरणलोचनवर्जमसितलोहजालकावृतशरीरैः, कुलक्रमागतैः, उदात्तान्वयैः, अनुरक्तैः, महाप्राणतयाऽतिकर्कशतया च दानवैरिव, सर्वतः शरीररक्षाधिकारनियुक्तैः पुरुषैः परिवृतम्, उभयतो बारविलासिनीभिश्चानवरत-मुद्धूयमानधवलचामरम्, हंसधवलशयनतले निषण्णं पितरमपश्यत्। ‘आलोकये’ ति च प्रतीहारवचनानन्तरमतिदूरावनतेन शिरसा कृतप्रणामम् एह्येहीत्यभिदधानो दूरादेव प्रसारितभुजयुगलः शयनतलादीपदुच्छ्वसितमूर्तिः, आनन्दजलपूर्यमाणलोचनः तं पिता विनयावनतमालिलिङ्ग। आलिङ्गितोन्मुक्तश्च पितुश्चरणपीठसमीपे पिण्डीकृतमुत्तरीयमात्मताम्बूलकरङ्कवाहिन्या सत्वरमासनीकृतमपनयेति शनैर्वदन्नग्रचरणेन समुत्सार्य चन्द्रापीडः क्षितितल एव निषसाद। अनन्तरं निहिते चास्यासने राज्ञा सुतनिर्विशेषमुपगूढ़ो वैशम्पायनो न्यषीदत्। मुहूर्तमिव स्थित्वा ‘गच्छ वत्स! पुत्रवत्सलां मातरमभिवाद्य दर्शनलालसां, यथाक्रमं सर्वा जननी र्दर्शनेनानन्दय’ इति विसर्जितः पित्रा, सविनयमुत्थाय निवारितपरिजनो वैशम्पायनद्वितीयोऽन्तःपुरप्रवेशयोग्येन राजपरिजनेनोपदिश्यमानवर्त्माऽन्तःपुरमाययौ। तत्र धवलकञ्चुकावच्छन्नशरीरैरनेकशतसंख्यैः समन्तात्परिवृतां शुद्धान्तर्वंशिकैः, अतिप्रशान्ताकाराभिश्च कषायरक्ताम्बरधारिणीभिः संध्याभिरिव सकललोकवन्द्याभिः, विदितानेककथावृत्तान्ताभिर्भूतपूर्वाः पुण्याः कथाः कथयन्तीभिः, इतिहासान्वाचयन्तीभिः, पुस्तकान्दधतीभिः, धर्मोपदेशान्निवेदयन्तीभिः, जरत्प्रव्रजिताभिर्विनोद्यमानाम्; अनवरताभिधूयमानबालव्यजनकलापाम्; अङ्गनाजनेन च वसनाभरणकुसुमपटवासताम्बूलतालवृन्ताङ्गरागभृङ्गारधारिणा मण्डलोपविष्टेनोपास्यमानाम्; पयोधरावलम्बि-मुक्तागुणाम्; आसन्नदर्पणपतितमुखप्रतिबिम्बाम्; समुपसृत्य मातरं प्रणनाम। सा तु तं ससंभ्रममुत्थाप्य सत्यप्याज्ञा-
संपादनदक्षे पार्श्वपरिवर्तिनि परिजने स्वयमेव कृतावतरणका प्रस्नुतपयोधरक्षरत्पयोबिन्दुच्छलेन द्रवीभूय स्नेहाकुलेन निर्गच्छतेव हृदयेनान्तः शमशतानीव ध्यायन्ती मूर्धन्युपाघ्राय तं सुचिरमाशिश्लेष। अनन्तरं च तथैव कृतयथोचितसमुपचारमाश्लिष्टवैशम्पायना स्वयमुपविश्य विनयादवनितले समुपविशन्तमाकृष्य बलादनिच्छन्तमपि चन्द्रापीडमुत्सङ्गमारोपितवती। ससंभ्रमपरिजनोपनीतायामासन्द्यामुपविष्टे च वैशम्पायने चन्द्रापीडं पुनः पुनरालिङ्ग्य ललाटदेशे वक्षसि भुजशिखरयोश्च मुहुर्मुहुः करतलेन परामृशन्ती विलासवती तमवादीत्—‘वत्स, कठिनहृदयस्ते पिता येनेयमाकृतिरीदृशी त्रिभुवनलालनीया क्लेशमतिमहान्तमियन्तं कालं लम्भिता। कथमसि साढवानतिदीर्घामिमां गुरुजनयंत्रणाम्। अहो, बालस्यापि सतः कठोरस्येव ते महद्धैर्यम्। अहो, विगलितशिशुजनक्रीडाकौतुकलाघव मर्भकस्यापि ते हृदयम्। अहो गुरुजनस्योपरि भक्तिरसाधारणी। यथा पितुः प्रसादात्समस्ताभिरुपेतो विद्याभिरालोकितोऽस्येवमचिरेणैव कालेनानुरूपाभिर्वधूभिरुपेतमालोकयिष्यामि’ इत्येवमभिधाय लज्जास्मितावनतं कपोले पर्यचुम्बदेनम्। एवं च तत्रापि नातिचिरमेव स्थित्वा क्रमेण सर्वान्तःपुराणि दर्शनेनानन्दयामास।
शुकनास सदन गमनम्
निर्गत्य च राजकुलद्वारात् बहिःस्थितविविधगजघटासंकटम्, अनेकतुरङ्गसहस्रसंबाधम्, अपरिमितजनसमूहसहस्र-संमर्दसंकुलम्, अभ्यन्तरप्रविष्टानां च सामन्तानां अतिचिरावस्थाननिर्वेदप्रसुप्ता- धोरणाभिः अपर्याणाभिः सपर्याणाभिश्च शतसहस्रशः करिणीभिराकीर्णं शुकनासगृहद्वारमासाद्य सत्वरप्रधावितैर्द्वारदेशावस्थितैः प्रतीहारपुरुषैरनिवार्यमाणोऽपि राजकुल इव राजपुत्रो बाह्याङ्गण एव तुरगाद-
वततार। द्वारदेशावस्थापिततुरङ्गश्च वैशम्पायनमवलम्ब्य पुरः प्रधावितैः समुत्सारितपरिजनैः तत्प्रतीहारमण्डलैः उपदिश्यमानमार्गः, तथैव नरेन्द्रवृन्दैः सेवासमुपस्थितैः प्रणम्यमानः, तथैव च प्रचण्डप्रतीहारहुँकारभयमूकी-भवत्परिजनानि कक्षान्तराणि निरीक्षमाणः, तथैव च नवनवसुधावदातप्रासादनिरन्तरं द्वितीयमिव राजकुलं शुकनासभवनं विवेश। प्रविश्य चानेकनरेन्द्रसहस्रमध्योपस्थितमपरमिव पितरमुपदर्शितविनयो दूरावनतेन मौलिना शुकनासं ववन्दे। शुकनासस्तं ससंभ्रमं समुत्थायानुपूर्व्येणोत्थितराजलोकः सादरमभिमुखदत्ताविरलपदः प्रहर्षविस्फारितविलोचना-गतानन्दजलकणः समं वैशम्पायनेन प्रेम्णा गाढमालिलिङ्ग। आलिङ्गितोन्मुक्तश्च सादरोपनीतमपहाय रत्नासनमवनावेव राजपुत्रः समुपाविशत्। तदनु च वैशम्पायनः। उपविष्टे च राजपुत्रे शुकनासवर्जम् अन्यदखिलमवनिपालचक्रम् उज्झितनिजासनम् अवनितलमभजत। स्थित्वा च तूष्णीं क्षणमिव शुकनासः समुद्गतप्रीतिपुलकैरङ्गैरावेद्यमान-हर्षप्रकर्षस्तमब्रवीत्—‘तात, अद्य खलु देवस्य तारापीडस्य समाप्तविद्यमुपारूढयौवनमालोक्य भवन्तं सुचिराद्भुवनराज्यफलप्राप्तिरुपजाता। अद्य समृद्धाः सर्वा गुरुजनाशिषः। अद्य फलितमनेकजन्मान्तरोपात्तमवदातं कर्म। अद्य प्रसन्नाः कुलदेवताः। न ह्यपुण्यभाजां भवादृशास्त्रिभुवनविस्मयजनकाः पुत्रतां प्रतिपद्यन्ते। क्वेदं वयः। क्वेयममानुषी शक्तिः। क्व चेदमशेषविद्याग्रहणसामर्थ्यम्। अहो, धन्याः प्रजा यासां भरतभगीरथप्रतिमो भवानुत्पन्नः पालयिता। किं खलु कृतमवदातं कर्म वसुंधरया ययासि भर्ता समासादितः। हरिवक्षःस्थलनिवासाऽसद्ग्रहव्यसनितया हंता खलु लक्ष्मीः, या विग्रहवती भवन्तं नोपसर्पति। सर्वथा कल्पकोटीर्महावराह इव दंष्ट्रा वलयेन वह बाहुना वसुंधराभारं सह पित्रा’ इत्यभिधाय च स्वयमाभरणवसनकुसुमाङ्गरागादिभिरभ्यर्च्य विसर्जयांचकार।
विश्राम भोजनशयनाऽऽदिकम्
विसर्जितश्चोत्थायान्तःपुरं प्रविश्य दृष्ट्वा वैशम्पायनमातरं मनोरमाऽभिधानां निर्गत्य समारुह्येन्द्रायुधं पित्रा पूर्वकल्पितम्, प्रतिच्छन्दकमिव राजकुलस्य, द्वारावस्थितसितपूर्णकलशम्, आबद्धहरितचन्दनमालम्, उल्लसितसितपताकासहस्रम्, अभ्याहतमङ्गलतूर्यरवपरिपूरितदिगन्तरम्, उपरचितविकचकमल-कुसुमप्रकरम्, अचिरकृताग्निकार्यम्, उज्वलविविक्तपरिजनम्, उपपादिताशेषगृहप्रवेशमङ्गलं कुमारो भवनं जगाम। गत्वा च श्रीमण्डपावस्थिते शयने मुहूर्तमुपविश्य सह तेन राजपुत्रलोकेनाभिषेकादिमशनाव- सानमकरोद्दिवसविधिम्। अभ्यन्तरे च शयनीयगृह एवेन्द्रायुधस्याऽवस्थानमकल्पयत्।
एवंप्रायेण चास्योदन्तेन तदहः परिणतिमुपययौ। गगनतलादवपतन्त्या दिवसश्रियः पद्मरागनूपुरमिव स्वप्रभापिहितरन्ध्रं रविमण्डलमुन्मुक्तपादं पपात। कमलिनीपरिमलपरिचयागतालिमालाकुलितकण्ठं कालपाशैरिव चक्रवाकमिथुनमाकृष्यमाणं विजघटे। क्रमेण च प्रतीचीकर्णपूररक्तोत्पले लोकान्तरमुपगते भगवति गभस्तिमालिनि, उल्लसितायां संध्यायाम्, कृष्णागुरुपङ्कपत्रलतास्विव तिमिरलेखासु स्फुरन्तीषु, कमलिनीनिपीतमातपमुन्मूलयितुमन्धकारपल्लवेष्विव प्रविशत्सु रक्तकमलोदराणि मधुकरकुलेषु, शनैः शनैश्च निशाविलासिनीमुखावतंसपल्लवे गलिते संध्यारागे, भवनसहकारशाखावलम्बिपञ्जरेषु विगतालापेषु शुकसारिकानिवहेषु, कृतस्वस्त्ययनेषु निष्क्रामत्सु पुरोहितेषु, विसर्जितराजलोकविरलपरिजनेषु विस्तारितेष्विव राजकुलकक्षान्तरेषु, प्रज्वलितदीपिकासहस्रप्रतिबिम्बचुम्बितेषु कृतविकचचम्पकदलोपहारेष्विव मणिभूमिकुट्टिमेषु, निद्रालसेषु पञ्जरकेसरिषु, प्रवृत्ते प्रदोषसमये, चन्द्रा-
पीडः राजकुलं गत्वा पितुः समीपे मुहूर्तं स्थित्वा दृष्ट्वा च विलासवतीम्, आगत्य स्वभवनम्, अनेकरत्नप्रभाशबल-मुरंगराजफणामण्डलमिव हृषीकेशः शयनतलमधिशिश्ये।
मृगया वर्णनम्
प्रभातायां च निशीथिन्या समभ्यनुज्ञात पित्राऽभिनवमृगयाकौतुकाकृष्यमाणहृदयो भगवत्यनुदित एव सहस्ररश्मावारु-ह्येन्द्रायुधमग्रतो बालेयप्रमाणान् कौलेयकान् चामीकरशृङ्खलाभिऽऽराकर्षदभिः, जरदव्याघ्रचर्मशबल वसनकञ्चुकधारिभिः, आबद्धनिबिडकक्षैः, अनवरतश्रमोपचितोरु पिण्डिकैः, कोदण्डपाणिभिः, अनवरतकृतकोलाहलैः, प्रधावद्भिः, श्वपोषकैर्द्विगुणी-क्रियमाणगमनोत्साहः; बहुगजतुरगपदातिपरिवृतोवनं ययौ। तत्र च कर्णान्ताकृष्टमुक्तैर्भल्लैर्मद-कलकलभकुम्भभित्तिभिदुरै-श्चनाराचैः वनवराहान्केसरिणः शरभांश्चमराननैककुरङ्गकांश्च सहस्रशो जघान। अन्यांश्च जीवत एव महाप्राणतया स्फुरतो जग्राह। समारूढे च मध्यमह्णः सवितरि स्नानोत्थितेनेव श्रमसलिलबिन्दुवर्षमनवर- तमुज्झता, मुहुर्मुहुर्दशनविघट्टनैः खणखणायित-खरखलोनेन, श्रमशिथिलमुख-विगलितफेनिलरुधिरलवेन, इन्द्रायुधेनोह्यमानः; अनेकरूपानुसरणसंभ्रमपरिभ्रष्टच्छत्रधरतया छत्रीकृतेन नवपल्लवेन निवार्यमाणातपः; विविधवनलताकुसुमरेणुधूसरो वसन्त इव विग्रहवान्; दूरविच्छिन्नेन पदातिपरिजनेन शून्योकृतपुरोभागः; प्रजवितुरङ्गमाधिरूढैरल्पावशिष्टः सह राजपुत्रैः ‘एवं मृगपतिः, एवं वराहः, एवं महिषः, एवं शरभः, एवं हरिणः’ इति तमेव मृगयावृत्तान्तमुच्चारयन्स्वभवनमाजगाम। अवतीर्य च तुरङ्गमात्ससंभ्रमप्रधावितपरिजनोपनीत उपविश्यासने वारबाणमवतार्य, अपनीय चाशेषं तुरङ्गाधिरोहणोचितं वेषपरिग्रहम्, इतस्ततः प्रचलिततालवृन्तपवनापनी-
यमानश्रमो मुहूर्तं विशश्राम। विश्रम्य च मणिरजतकनककलशशतसनाथाम्, अन्तर्विन्यस्तकाञ्चनपीठां, स्नानभूमिमगात्। निर्वर्तिताभिषेकव्यापारस्य च विविक्तवसनपरिमृष्टवपुषः स्वच्छदुकूलपल्लवाकलितमौलेः गृहीतवाससः कृतदेवार्चनस्य अङ्गरागभूमौ समुपविष्टस्य राज्ञा विसर्जिता राजकुलपरिचारिकाः पटलकविनिहितानि विविधान्याभरणानि माल्यान्यङ्गरागान्वासांसि चादाय पुरतस्तस्योपतस्थुरुपनिन्युश्च। यथाक्रममादाय च ताभ्यः प्रथमं स्वयमुपलिप्य वैशम्पायनम् उपरचिताङ्गरागः, दत्वा च समीपवर्तिभ्यो यथार्हमाभरणवसनाङ्गरागकुसुमानि, विविधमणिभाजनसहस्रसारं शारदमम्बरतलमिव स्फुरिततारागणम् आहारमण्डपमगच्छत्। तत्र च द्विगुणितकुथासनोपविष्टः समीपोपविष्टेन तद्गुणोपवर्णनपरेण वैशम्पायनेन यथाहं भूमिभागोपवेशितेन राजपुत्रलोकेन ‘इदमस्मै दीयताम्, इदमस्मै दीयताम्’ इति प्रसादविशेषदर्शनसंवर्धितसेवारसेन च सह आहारविधिमकरोत्। उपस्पृश्य च गृहीतताम्बूलस्तस्मिन्मुहूर्तमिव स्थित्वा इन्द्रायुधसमीपमगमत्। तत्र चानुपविष्ट एव तद्गुणोपवर्णनप्रायालापाः कथाः कृत्वा सत्यप्याज्ञाप्रतीक्षणोन्मुखे पार्श्वपरिवर्तिनि परिजने तद्गुणहृतहृदयः स्वयमेवेन्द्रायुधस्य पुरो यवसमाकीर्य निर्गत्य राजकुलमयासीत्। तेनैव च क्रमेणावलोक्य राजानम् आगत्य निशामनैषीत्।
पत्रलेखा परिचयः
अपरेद्युः प्रभातसमय एव सर्वान्तःपुराधिकृतम्, अवनिपतेः परमसंमतम्, अनुमार्गाऽऽगतया च, प्रथमे वयसि वर्तमानया, राजकुलसंवासप्रगल्भयाप्यनुज्झितविनयया, किंचिदुपारूढयौवनया, शक्रगोपकालोहितरागेणांशुकेन रचितावगुण्ठनया, अङ्गलावण्यप्रभाप्रवाहेणामृतरसनदी-
पूरेणेव भवनमापूरयन्त्या, ज्योत्स्नयेव राहुग्रहग्रासभयादपहाय रजनिकरमण्डलं गामवतीर्णया, समसुवृत्ततुङ्गनासिकया, विकसितपुण्डरीकलोचनया, मुक्ताफलप्रायालंकारया, राधेयराज्यलक्ष्म्येवोप- पादिताङ्गरागया, नववनलेखयेव कोमलतनुलतया, महानुभावाकारया, अनुगम्यमानं कन्यया, कैलासनामानं कञ्चुकिनमायान्तमपश्यत्। स कृतप्रणामः समुपसृत्य क्षितितलनिहितदक्षिणकरो विज्ञापयामास–‘कुमार’, महादेवी विलासवती समाज्ञापयति—‘इयं खलु कन्यका महाराजेन पूर्वं कुलूतराजधानीमवजित्य कुलूतेश्वरदुहिता पत्रलेखाभिधाना बालिका सती बन्दीजनेन सह आनीयान्तःपुरपरिचारिकामध्यमुपनीता। सा मया विगतनाथा राजदुहितेति च समुपजातस्नेहया दुहितृनिर्विशेषमियन्तं कालमुपलालिता संवर्धिता च। तदियमिदानीमुचिता भवतस्ताम्बूलकरङ्कवाहिनीति कृत्वा मया प्रेषिता। न चास्यामायुष्मता परिजनसामान्यदृष्टिना भवितव्यम्। बालेव लालनीया। स्वचित्तवृत्तिरिव चापलेभ्यो निवारणीया। शिष्येव द्रष्टव्या। सुहृदिव सर्वविश्रम्भेष्वभ्यन्तरीकरणीया। दीर्घकालसंवर्धितस्नेहतया स्वसुतायामिव हृदयमस्यामस्ति मे। महाऽभिजनराजवंशप्रसूता चार्हतीयमेवंविधानि कर्माणि। नियतं स्वयमेवेयमतिविनीततया कतिपयैरेव दिवसैः कुमारमाराधयिष्यति। अविदितशीलश्चास्याः कुमार इति संदिश्यते। सर्वथा तथा कल्याणिना प्रयतितव्यं यथेयमतिचिरमुचिता परिचारिका ते भवति’। इत्यभिधाय विरतवचसि कैलासे कृताभिजातप्रणामां पत्रलेखामनिमिषलोचनं सुचिरमालोक्य चन्द्रापीडः ‘यथाज्ञापयत्यम्बा’ एवमुक्त्वा कञ्चुकिनं प्रेषयामास। पत्रलेखा तु ततः प्रभृति दर्शनेनैव समुपजातसेवारसा न दिवा न रात्रौ न सुप्तस्य नासीनस्य नोत्थितस्य न भ्रमतो न राजकुलगतस्य छायेव राजसूनोः पार्श्व
मुमोच।चन्द्रापीडस्यापि तस्या दर्शनादारभ्य प्रतिक्षणमुपचीयमाना महती प्रीतिरासीत्। आत्महृदयादव्यतिरिक्तामिव चैनां सर्वविश्रम्भेष्वमन्यत।
चन्द्रापीडं प्रतिशुकनासस्योपदेशः
एवं समतिक्रामत्सु दिवसेषु राजा चन्द्रापीडस्य यौवराज्याभिषेकं चिकीर्षुः प्रतीहारानुपकरणसंभारसंग्रहार्थमादिदेश। समुपस्थितयौवराज्याभिषेकं च तं कदाचिद्दर्शनार्थमागतमारूढविनयमपि विनीततरमिच्छन् शुकनासः सविस्तरमुवाच — ‘तात चन्द्रापीड, विदितवेदितव्यस्य, अधीतसर्वशास्त्रस्य ते नाल्पमप्युपदेष्टव्यमस्ति। केवलं च निसर्गत एवाभानुभेद्यम् अरत्नालोकोच्छेद्यम् अप्रदीपप्रभापनेयम् अतिगहनं तमो यौवनप्रभवम्। अपरिणामोपशमो दारुणो लक्ष्मीमदः। कष्टम् अनञ्जनवर्तिसाध्यम् अपरम् ऐश्वर्यतिमिरान्धत्वम्। अजस्रम् अक्षपावसानप्रबोधा घोरा च राज्यसुखसंनिपातनिद्रा भवतीति विस्तरेणाभिधीयसे। गर्भेश्वरत्वम् अभिनवयौवनत्वम् अमानुषशक्तित्वं चेति महतीयं खल्वनर्थपरंपरा सर्वा। अविनयानामेकैकमप्येपामायतनम्, किमुत समवायः। यौवनारम्भे च प्रायः शास्त्रजलप्रक्षालननिर्मलापि कालुष्यमुपयाति बुद्धिः। अनुज्झितधवलतापि सरागैव भवति यूनां दृष्टिः। अपहरति च वात्येव शुष्कपत्रं समुद्भूतरजोभ्रान्तिः अतिदूरम् आत्मेच्छया यौवनसमये पुरुषं प्रकृतिः। इन्द्रियहरिणहारिणी च सततदुरन्तेयमुपभोगमृगतृष्णिका। नवयोवनकषायितात्मनश्च सलिलानीव तान्येव विषयस्वरूपाण्यास्वाद्यमानानि मधुरतराण्यापतन्ति मनसः। नाशयति च दिङ्मोह इवोन्मार्गप्रवर्तकः पुरुषमत्यासङ्गो विषयेषु। भवादृशा एव भवन्ति भाजनान्युपदेशानाम्। अपगतमले हि
मनसि स्फटिकमणाविव रजनिकरगभस्तयो विशन्ति सुखेनोपदेशगुणाः। हरत्यतिमलिनमन्धकारमिव दोषजातं प्रदोषसमयनिशाकर इव गुरूपदेशः। अयमेव चानास्वादितविषयरसस्य ते काल उपदेशस्य। कुसुमशरशरप्रहारजर्जरिते हि हृदि जलमिव गलस्युपदिष्टम्। अकारणं च भवति दुष्प्रकृतेरन्वयः श्रुतं च विनयस्य। चन्दनप्रभवो न दहति किमनलः। किं वा प्रशमहेतुनापि न प्रचण्डतरीभवति वडवानलो वारिणा। गुरूपदेशश्च नाम पुरुषाणाम् अखिलमलप्रक्षालनक्षमम् अजलं स्नानम्, अनुपजातपलितादिवैरूप्यम् अजरं वृद्धत्वम्, अनारोपितमेदोदोषं गुरूकरणम्, नोद्वेगकरः प्रजागरः। विशेषेण राज्ञाम्। विरला हि तेषामुपदेष्टारः। प्रतिशब्दक इव राजवचनमनुगच्छति जनोभयात्। उद्दामदर्पश्वयथुस्थगितश्रवणविवराश्चोपदिश्यमानमपि ते न शृण्वन्ति। शृण्वन्तोऽपि च गजनिमीलितेनावधीरयन्तः खेदयन्ति हितोपदेशदायिनो गुरून्। आलोकयतु तावत्कल्याणाभिनिवेशी लक्ष्मीमेवं प्रथमम्। इयं हि खड्गमण्डलोत्पलवनविश्रमभ्रमरी लक्ष्मीः क्षीरसागरात्–पारिजातपल्लवेभ्यो रागम् इन्दुशकलादेकान्तवक्रताम्, उच्चःश्रवसश्चञ्चलताम्, कालकूटान्मोहनशक्तिम्, मदिराया मदम्, कौस्तुभमणेर्ज्यैष्ठम्, इत्येतानि सहवासपरिचयवशाद्विरहविनोदचिह्नानि गृहीत्वेवोद्गता। न ह्यवंविधमपरिचितमिह जगति किंचिदस्ति यथेयमनार्या। लब्धापि खलु दुःखेन परिपाल्यते। दृढगुणसंदाननिस्पन्दोकृतापि नश्यति। उद्दामदर्पभटसहस्रोल्लासिताऽसिलतापञ्जरविधृताप्यपक्रामति। न परिचयं रक्षति। नाभिजनमीक्षते। न रूपमालोकयते। न कुलक्रममनुवर्तते। न शीलं पश्यति। न वैदग्ध्यं गणयति। न श्रुतमाकर्णयति। न धर्ममनुरुध्यते। न त्यागमाद्रियते। न विशेषज्ञतां विचारयति। नाचारं पालयति। न सत्यमनुबुध्यते। न लक्षणं
प्रमाणीकरोति। गन्धर्वनगरलेखेव पश्यत एव नश्यति। अद्याप्याऽऽरूढमन्दरपरिवर्तावर्तभ्रान्तिजनित-सस्कारेव परिभ्रमति। कमलिनीसंचरणव्यतिकरलग्ननलिननालकण्टकेव न क्वचिदपि निर्भरमाबध्नाति पदम्। पारुष्यमिवोपशिक्षितुमसिधारासु निवसति। अप्रत्ययबहुला च दिवसान्तकमलमिव समुपचितमूलदण्डकोशमण्डलमपि मुञ्चति भूभुजम्। लतेव विटपकानध्यारोहति। गङ्गेव वसुजनन्यपि तरंगबुद्बुदचञ्चला, दिवसकरगतिरिव प्रकटितविविधसंक्रान्तिः, पातालगुहेव तमोबहुला, प्रावृडिवाचिरद्युतिकारिणी, दुष्टपिशाचीव दर्शितानेकपुरुषोच्छ्राया स्वल्पसत्त्वमुन्मत्तीकरोति। सरस्वतीपरिगृहीतमीर्ष्ययेव नालिङ्गति। जनं गुणवन्तमपवित्रमिव न स्पृशति। उदारसत्वममङ्गलमिव न बहु मन्यते। शूरं कण्टकमिव परिहरति। दातारं दुःस्वप्नमिव न स्मरति। विनीतं पातकिनमिव नोपसर्पति। मनस्विनमुन्मत्तमिवोपहसति। परस्परविरुद्धं चेन्द्रजालमिव दर्शयन्ती प्रकटयति जगति निजं चरितम्। तथाहि—संततमूष्माणमुपजनयन्त्यपि जाड्यमुपजनयति। उन्नतिमादधानापि नीचस्वभावतामाविष्करोति। तोयराशिसंभवापि तृष्णां संवर्धयति। ईश्वरतां दधानाप्यशिवप्रकृतित्वमातनोति। विग्रहवत्यप्यप्रत्यक्षदर्शना। पुरुषोत्तमरतापि खलजनप्रिया। रेणुमयीव स्वच्छमपि कलुषीकरोति। यथा यथा चेयं चपला दीप्यते तथातथा दीपशिखेव कज्जलमलिनमेव कर्म केवलमुद्वमति। इयं संवर्धनवारिधारा तृष्णाविषवल्लीनाम्, व्याधगीतिरिन्द्रियमृगाणाम्, निवासजीर्णवलभी धनमदपिशाचिकानाम्, तिमिरोद्गतिः शास्त्रदृष्टीनाम्, पुरःपताका सर्वाऽविनयानाम्, उत्पत्तिनिम्नगा क्रोधावेगग्राहाणाम्, आपानभूमिर्विषयमधूनाम, संगीतशाला भ्रूविकारनाट्यानाम्। आवासदरी दोषाऽऽशीविषाणाम्, उत्सारणवेत्रलता सत्पुरुषव्यवहाराणाम्, प्रस्तावना
कपटनाटकस्य, वध्यशाला साधुभावस्य, राहुजिह्वा धर्मेन्दुमण्डलस्य। न हि तं पश्यामि यो ह्यपरिचितयाऽनया न निर्भरमुपगूढः यो वा नः विप्रलब्धः। नियतमियमालेख्यगतापि चलति, श्रुताप्यभिसंधत्ते, चिन्तितापि वञ्चयति। एवंविधयापि चानया दुराचारया कथमपि दैववशेन परिगृहीता विक्लवा भवन्ति राजानः सर्वाविनयाधिष्ठानतां च गच्छन्ति। तथाहि—अभिषेकसमय एव चैतेषां मङ्गलकलशैरिव प्रक्षाल्यते दाक्षिण्यम्, अग्निकार्यधूमेनेव मलिनीक्रियते हृदयम्, पुरोहितकुशाग्रसंमार्जनीभिरिवापसार्यते परलोकदर्शनम्, चामरपवनैरिवापह्रियिते सत्यवादिता, वेत्रदण्डैरिवोत्सार्यन्ते गुणाः। तथाहि—केचित् संपद्भिः प्रलोभ्यमानाः अनेकदोषोपचितेन दोषासृजेव रागावेशेन बाध्यमानाः, विविधविषयग्रासलालसैः पञ्चभिरप्यनेकसहस्रसंख्यैः इवेन्द्रियैः आयास्यमानाः, प्रकृतिचञ्चलतया लब्धप्रसरेणैकेनापि शतसहस्रतामिवोपगतेन मनसाकुलीक्रियमाणाविह्वलतामुपयान्ति। धनोष्मणा पच्यमाना इव विचेष्टन्ते, गाढप्रहाराऽऽहता इवाङ्गानि न धारयन्ति, कुलीरा इव तिर्यक्परिभ्रमन्ति, मृषावादविपाकसंजातमुखरोगा इवातिकृच्छ्रेण जल्पन्ति, सप्तच्छदतरव इव कुसुमरजोविकारैः पार्श्ववर्तिनां शिरःशूलमुत्पादयन्ति आसन्नमृत्यव इव बन्धुजनमपि नाभिजानन्ति, कालदष्टा इव महामन्त्रैरपि न प्रतिबुध्यन्ते, तृष्णाविषमूर्च्छिताः कनकमयमिव सर्वं पश्यन्ति, इषव इव पानवर्धिततैक्ष्ण्याः परप्रेरिता विनाशयन्ति, दूरस्थितान्यपि फलानीव दण्डविक्षेपैः महाकुलानि शातयन्ति, अकालकुसुमप्रसवा इव मनोहराकृतयोऽपि लोकविनाशहेतवः, श्रूयमाणा अपि प्रेतपटहा इवोद्वेजयन्ति, चिन्त्यमाना अपि महापातकाध्यवसाया इवोपद्रवमुपजनयन्ति, अनुदिवसमापूर्यमाणाः पापेनेवाध्यातमूर्तयो भवन्ति, तदवस्थाश्च वल्मीकतृणाग्रावस्थिता जल-
बिन्दव इव पतितमप्यात्मानं नावगच्छन्ति। अपरे तु स्वार्थनिष्पादनपरैः धनपिशितग्रासगृध्रैः द्यूतं विनोद इति, परदाराभिगमनं वैदग्ध्यमिति, मृगयां श्रम इति, पानं विलास इति, स्वदारपरित्यागमव्यसनितेति, गुरुवचनावधीरणं न परप्रणेयत्वमिति, नृत्तगीतवाद्यवेश्याभिसक्तिं रसिकतेति, स्वच्छन्दतां प्रभुत्वमिति, देवावमानं महासत्त्वतेति, वन्दिजनख्यातिं यश इति, तरलतामुत्साह इति, अविशेषज्ञतामपक्षपातित्वमिति दोषानपि गुणपक्षमध्यारोपयद्भिः; अन्तः स्वयमपि विहसद्भिः; धूर्तैरमानुषलोकोचिताभिः स्तुतिभिः प्रतार्यमाणां दिव्यांशावतीर्णमिव सदैवतमिव अतिमानुषमात्मानमुत्प्रेक्षमाणा आरब्धदिव्योचितचेष्ठानुभावाः सर्वजनस्योपहास्यतामुपयान्ति। दर्शनप्रदानमप्यनुग्रहं गणयन्ति। दृष्टिपातमप्युपकारपक्षे स्थापयन्ति। संभाषणमपि संविभागमध्ये कुर्वन्ति। मिथ्यामाहात्म्यगर्वनिर्भराश्च न प्रणमन्ति देवताभ्यः, न पूजयन्ति द्विजातीन्, न मानयन्ति मान्यान्, नाभ्युत्तिष्ठन्ति गुरून्, जरावैक्लव्यप्रलपितमिति न पश्यन्ति वृद्धोपदेशम्, आत्मप्रज्ञापरिभव इत्येसूयन्ति सचिवोपदेशाय, कुप्यन्ति हितवादिने। सर्वथा तमभिनन्दन्ति, तं पार्श्वे कुर्वन्ति, तं संवर्धयन्ति, तेन सह सुखमवतिष्ठन्ते, तस्य वचनं शृण्वन्ति, तत्र वर्षन्ति योऽहर्निशमनवरतमुपरचिता-ञ्जलिरधिदैवतमिव विगताऽन्यकर्तव्यः स्तौति, यो वा माहात्म्यमुद्भावयति। किंवा तेषां असांप्रतं येषामतिनृशंसप्रायोपदेशनिर्घृणं कौटिल्यशास्त्रं प्रमाणम्, अभिचारक्रियाक्रूरैकप्रकृतयः पुरोधसोगुरवः, पराभिसंधानपरा मन्त्रिण उपदेष्टारः, सहजप्रेमार्द्रहृदयानुरक्ता भ्रातर उच्छेद्याः। तदेवंप्रायातिकुटिलचेष्टासहजदारुणे राज्यतन्त्रे अस्मिन् महामोहकारिणि च यौवने कुमार! तथा प्रयतेथा यथा नोपहस्यसे जनैः, न निन्द्यसे साधुभिः, न धिक्क्रियसे गुरुभिः, नोपालभ्यसे
सुहृद्भिः। न शोच्यसे विद्वद्भिः। यथा च न प्रकाश्यसे विटैः, न प्रतार्यसे कुशलैः, नास्वाद्यसे भुजङ्गः, नावलुप्यसे सेवकवृकैः, न प्रलोभ्यसे वनिताभिः, न विडम्ब्यसे लक्ष्म्या, ननर्त्यसे मदेन, नोन्मत्तीक्रियसे मदनेन, नाक्षिप्यसे विषयैः। कामं भवान्प्रकृत्यैव धीरः, पित्रा च समारोपितसंस्कारः। तरलहृदयमप्रतिबुद्धं च मदयंति धनानि, तथापि भवद्गुणसंतोषो मामेवं मुखरीकृतवान्। इदमेव च पुनः पुनरभिधीयसे। विद्वांसमपि सचेतनमपि महासत्त्वमपि अभिजातमपि धीरमपि प्रयत्नवन्तमपि पुरुषमियं दुर्वनीता खलीकरोति लक्ष्मीरिति। सर्वथा कल्याणैः पित्रा क्रियमाणमनुभवतु भवान्नवराज्याऽभिषेकमङ्गलम्। कुलक्रमागतामुद्वह पूर्वपुरुषैरूढां धुरम्। अवनमय द्विषतां शिरांसि। उन्नमय स्वबन्धुवर्गम्। अभिषेकानन्तरं च प्रारब्धदिग्विजयः परिभ्रमन्विजितामपि तव पित्रा सप्तद्वीपभूषणां पुनर्विजयस्व वसुंधराम्। अयं च ते कालः प्रतापमारोपयितुम्। आरूढप्रतापो हि राजा त्रैलोक्यदर्शीव सिद्धादेशो भवति, इत्येतावदभिधायोपशशाम। उपशान्तवचसि शुकनासे चन्द्रापीडस्ताभिरुपदेशवाग्भिः प्रक्षालित इव, उन्मीलित इव, अलंकृत इव, पवित्रीकृत इव, उद्भासित इव प्रीतहृदयो मुहर्तं स्थित्वा स्वभवनमाजगाम।
राज्याभिषेकोदिग्विजययात्रा च
ततः कतिपयदिवसापगमे च राजा स्वयमुत्क्षिप्तमङ्गलकलशः सह शुकनासेन पुण्येऽहनि पुरोधसा संपादिताशेषराज्या-भिषेकमङ्गलम्, आनन्दबाष्पजलमिश्रेण मन्त्रपूतेन वारिणा सुतमभिषिषेव। अभिषेकसलिलाऽऽर्द्रदेहं च तं चन्द्रापीडं लतेव पादपान्तरं निजपादपममुञ्चत्यपि तारापीडं तत्क्षणमेव संचक्राम राज्यलक्ष्मीः। अनन्तरमखिलान्तः पुरपरिवृतया च प्रेमार्द्रहृदयया विलासवत्या स्वयमापादतलात्
आमोदिना चन्द्रातपधवलेन चन्दनेनाऽनुलिप्तमूर्तिः, इन्दुधवलं दुकूलयुगलं वसानः, पुरोहितप्रतिबद्धप्रतिसरप्रसाधितपाणिः, हारेणाऽऽलिङ्गितवक्षःस्थलः, तत्कालप्रतिपन्नवेत्रदण्डेन पित्रा स्वयं पुरःप्रारब्धसमुत्सारणः सभामण्डपमुपगम्य काञ्चनमयं शशीव मेरुशृङ्गं चन्द्रापीडः सिंहासनमारुरोह। आरूढस्य चास्य, कृतयथोचितसकलराजलोकसंमानस्य मुहूर्त स्थित्वा दिग्विजयप्रयाणशंसी प्रलयघनघटाघोषघर्घरध्वनिः कनककोणैरभिहन्यमानः प्रस्थानदुन्दुभिरामन्थरं दध्वान। येन ध्वनता वधिरीकृतानीव रवेण भुवनान्तराणि, विश्लेषिता इव च दिशामन्योन्यबन्धसंधयः। ततो दुन्दुभिरवमाकर्ण्यजयजयेति च सर्वतः समुद्घुष्यमाणजयशब्दः सिंहासनात् सह द्विषतांश्रिया संचचाल चन्द्रापीडः। समन्तात्ससंभ्रमोत्थितैश्च अनुगम्यमानो नरपतिसहस्रैरास्थानमण्डपान्निरगात्। निर्गत्य च पूर्वारूढया पत्रलेखयाध्यासिताऽन्तरासनां उपपादितप्रस्थानसमुचितमङ्गल्यालंकारां करेणुकां आरुह्य मुक्ताफलजालिना शतशलाकेनआतपत्त्रण निवार्यमाणातपो निर्गन्तुमारेभे। विनिर्गतश्च आप्तसेनापतिनिर्दिश्यमाननामभिः अवनिभुजां चक्रवालैः प्रणम्यमानः बहुलसिन्दूररेणुपाटलेन सितकुसुममालाजालशबलशिरसा मेरुगिरिणेव गन्धमादनेनानुगम्यमानः; कनकालंकारप्रभाकल्माषितावयवेन इन्द्रायुधेन सनाथीकृतपुरोभागः शनैः शनैः प्रथममेव शातक्रतवीमाशामभिप्रतस्थे।
सैन्यसमारोहः
अथ चलितगजघटाकम्पिताऽऽतपत्रवनम्, अनेककल्लोलपरंपरापतितचन्द्रमण्डलप्रतिबिम्बसहस्त्रं महाप्रलयजलधि-जलमिव प्लावितमहीतलम्, उद्भूतकलकलमखिलंसंचचाल बलम्। उच्चलितस्य चास्य स्वभवनादुपपादित-प्रस्थानमङ्गलो धवलदुकूलवासाः सितकुसुमाङ्गरागो महता बलसमूहेन नरेन्द्रवृन्दैःश्चानुगम्यमानो धृतधवलातपत्रो द्वितीय इव युवराजस्त्वरितपद-
संचारिण्या करिण्या वैशम्पायनः समीपमाजगाम। अनन्तरमितश्चेतश्च ‘निर्गतो युवराजः’ इति समाकर्ण्य प्रधावतां बलानां भरेण तत्क्षणमाचकम्पे मेदिनी। क्षणेन च तुरगमयमिव महीतलम्, कुञ्जरमयमिव दिक्चक्रवालम्, आतपत्रमण्डलमयमिषान्तरिक्षम, ध्वजवनमयमिवाम्बरतलम्, इभमदगन्धमय इव समीरणः, भूपालमयीव प्रजासृष्टिः, आभरणांशुमयीव वृष्टिः, जयशब्दमयमिव त्रिभुवनमभवत्। बलकोलाहलभीता इव धवलध्वजनिवहनिरन्तरावृता ययुः क्वापि दश दिशः। प्रबलवेत्रिवेत्रलतासमुत्सार्यमाणा इव तुरगखुररजोधूसरताभीताऽर्ककिरणा मुमुचुः पुरोभागम्। इभकरसीकरनिर्वापणत्रस्त इवाऽऽतपत्रसंच्छादितातपो दिवसो ननाश। बलभरजर्जरीकृता मदकलकरिचरणशतखण्डिता द्वितीयेव प्रयाणभेरी भैरवं भूमीररास। मङ्गलशङ्खशब्दसंवर्धितध्वनीनां च प्रयाणपटहानां निनादेन, मुहुर्मुहुरितस्ततस्ताड्यमानानां च डिण्डिमानां निःस्वनेन, जर्जरीकृतश्रवणपुटस्य मूर्च्छेवाभवज्जनस्य। शनैः शनैश्च बलसंक्षोभजन्मा त्रिपथगाप्रवाह इव हरिचरणप्रभवः, कुपित इव मुञ्चन्क्षमाम्, आरब्धपरिहास इव रुन्धन्नयनानि, उत्पातराहुरिव दिवसकरमण्डलमकाण्ड एवं पिबन्, क्रकचकृत चन्दनक्षोदधूसरो रेणुरुत्पपात। नरपालबलभरमसहमाना पुनरिव भारावतारणार्थममरलोकमारुरोह रजोमिषेण मही। मुहूर्तेन च गर्भवासमिव कृतान्तजठरमिव, महाकालमुखमिव, नारायणोदरमिव, विवेश पृथिवी। मृन्मयइव बभूव दिवसः। एकमहाभूतमयमिव त्रैलोक्यमासीत्।
वैशम्पायनस्य तारापीडप्रतापवर्णनं शिविरसन्निवेशश्च
अथ दन्तिनां दिशि दिशि करविवरनिःसृतैः शीकरासारैः, हे
षारवविप्रकीर्णैश्च वाजिनां लालाजललवजालकैरुपशमिते रजसि, पुनरपि जातालोकासु दिक्षु, सागरादिवो-
न्मग्नमालोक्य तदपरिमाणं बलमुपजातविस्मयः सर्वतोदत्तदृष्टिर्वैशम्पायनश्चन्द्रापोडमाबभाषे—‘युवराज, किं न जितं देवेन महाराजाधिराजेन तारापीडेन यज्जयसि, का दिशो न वशीकृता या वशीकरिष्यसि, कानि दुर्गाणि न प्रसाधितानि यानि प्रसाधयिष्यसि, कानि रत्नानि नोपार्जितानि यान्युपार्जयिष्यसि, के वा न प्रणता राजानः। एते हि चतुरुदधिजलावगाहदुर्ललितबलमदावलिप्ताः कुलाभिमानशालिनः सोमपायिनः मूर्धाभिषिक्ताः चूडामणिपल्लवैः उद्वहन्ति मङ्गल्यां भवच्चरणरजःसंहतिम्। एतानि चाप्यमीषां आप्लावितदशदिगन्तरालानि सैन्यानि भवन्तमुपासते। तथाहि–पश्य पश्य यस्यां यस्यां दिशि विक्षिष्यते चक्षुस्तस्यां तस्यां रसातलमिवाद्गिरति, वसुधेव सूते, ककुभ इव वमन्ति, गगनमिव वर्षति, दिवस इव सृजति बलानि। अपरिमितबलभराक्रान्ता मन्ये स्मरति महाभारतसमरसंक्षोभस्याद्य क्षितिः। एष शिखरदेशे स्खलितमण्डलोध्वजान्गणयन्निव कुतूहलाद्भ्रमति कदलिकावनान्तरेषु मयूखमालो। सर्वथा चित्रं यन्नाद्य विघटितसकलकुलशैलसंधिबन्धा सहस्रशः शकलीभवति बलभरेण धरित्री, इत्येवं वदत एव तस्य युवराजः समुच्छ्रितानेकतोरणां, तृणमयप्राकारमन्दिरसहस्रसंबाधां, उल्लासितधवलपटमण्डपशतशोभिनीं, आवासभूमिमवाप। तस्यां चावतीर्य राजवत्सर्वाः क्रियाश्चकार। अतिवाहितदिवसश्च यामिनीमपि स्वशयनीयस्य नातिदूरनिहितशयननिषण्णेन वैशम्पायनेन, अन्यतश्च समीपे क्षितितलविन्यस्तकुयप्रसुप्तया पत्रलेखया सह, अन्तरा पितृसक्तम्, अन्तरा मातृसंबद्धम्, अन्तरा शुकनासमयं कुर्वन्नालापं नातिजातनिद्रः प्रायेण जाग्रदेव निन्ये।
सकललोकविजयः।
प्रत्यूषे चोत्थाय तेनैव क्रमेणाऽनवरतप्रयाणकैः प्रतिप्रयाणकमुपचीयमानेन सेनासमुदायेन जर्जरयन्वसुंधराम्, आकम्प-यन्गिरीन्, उत्सिञ्चन्सरितः, रिक्तीकुर्वन्सरांसि, चूर्णयत्काननानि, समीकुर्वन् विषमाणि, दलयन्दुर्गाणि पूरयन्निम्नानि, निम्नयन्स्थलानि प्रातिष्ठत। शनैः शनैश्च स्वेच्छया परिभ्रमन्, नमयन्नुन्नतान्, उन्नमयन्नवनतान्, आदिशन्देशव्यवस्थाम्, स्थापयन्स्वचिन्हानि, लेखयन् शासनानि, प्रणमन् मुनीन्, पालयन्नाश्रमान्, आरोपयन्प्रतापम्, उपचिन्वन् यशः, आमृद्गश्च वेलावनानि, बलरेणुभिराधूसरीकृतसकलसागरसलिलः पृथिवीं विचचार। प्रथमं प्राचीम्, ततस्त्रिशङ्कुतिलकाम्, ततोवरुणलाञ्छनाम्, अनन्तरं च सप्तर्षिताराशबलां दिश विजिग्ये। वर्षत्रयेण चात्मीकृताशेषद्वीपान्तरं सकलमेव बभ्राम महीमण्डलम्। तत, क्रमेण कदाचित्कैलाससमीपचारिणां हेमकूटधाम्नां किरातानां सुवर्णपुरं नाम निवासस्थानं नातिविप्रकृष्टं पूर्वजलनिधेः जित्वा जग्राह। तत्र च निखिलधरणीतलपर्यटनखिन्नस्य निजबलस्य विश्रामहेतोः कतिपयान्दिवसानतिष्ठत्।
चन्द्रापीडस्य किन्नरमिथुनानुसरणं, मार्गं विस्मृत्य विषादश्च
एकदा तु तत्रस्थ एवेन्द्रायुधमारुह्य मृगयानिर्गतो विचरन्कानने शैलशिखरादवतीर्ण यदृच्छया किंनरमिथुनमद्राक्षीत्। अपूर्वतया तस्य तु समुपजातकुतूहलः कृतग्रहणाभिलाषः समुपसर्पत् अदृष्टपूर्वपुरुषदर्शनत्रासप्रधावितं च तत्पलायमानमनुसरन् अनवरतपार्ष्णिप्रहारद्विगुणीकृतजवेनेन्द्रायुधेनैकाकी निर्गत्य बलसमूहात्सुदूरमनुससार। ‘अत्र गृह्यते, इदं गृहीतम्’ इत्यतिरभसाकृष्टचेता महाजवतया तुरंगमस्य
मुहूर्तमात्रेणैव तस्मात्प्रदेशात्पञ्चदशयोजनमात्रमध्वानं जगाम। तच्चानुबध्यमानमालोकयत एवास्य संमुखापतितमचल-तुङ्गशिखरमारुरोह। आरूढे च तस्मिञ्शनैः शनैस्तदनुसारिणीं निवर्त्य दृष्टिम्, अचलशिखरप्रस्तरप्रतिहतगतिप्रसरो विधृततुरङ्गश्चन्द्रापीडस्तस्मिन्काले समुपारुढश्रमस्वेदार्द्रशरीर-मिन्द्रायुधमात्मानं चालोक्य क्षणमिव विचार्य स्वयमेव विहस्याचिन्तयत्–‘किमिति निरर्थकमयमात्मा मया शिशुनेवायासितः। किमनेन गृहीतेनागृहीतेन वा किंनरयुगलेन प्रयोजनम्। यदि गृहीतमिदं ततः किम्, अथ न गृहीतं ततोऽपि किम्। अहो मे मूर्खतायाः प्रकारः अहो यत्किंचनकारितायामादरः। अहो निरर्थकव्यापारेष्वभिनिवेशः। साधुफलं कर्म क्रियमाणं वृथा जातम्। अवश्यकर्तव्या क्रिया प्रस्तुता विफलीभूता। राजधर्मः प्रवर्तितो न निष्पन्नः। गुर्वर्थः प्रारब्धो न परिसमाप्तः। कस्मादहमाविष्ट इवोत्सृष्टनिजपरिवार एतावतीं भूमिमायातः। कस्माच्च मया निष्प्रयोजनमिदमनुसृतमश्वमुखद्वयमिति- विचार्यमाणे सति अयमात्मैव मे पर इव हासमुपजनयति। न जाने कियताध्वना विच्छिन्नमितो बलमनुयायि मे। महाजवो हीन्द्रायुधो निमेषमात्रेणातिदूरमतिक्रामति। न चागच्छता मया तुरगवेगवशात्किंनरमिथुने बद्धदृष्टिना अस्मिन्नविरलतरुशत-शाखागुल्मलतासंतानगहने महावने पन्था निरूपितो येन प्रतिनिवृत्त्य यास्यामि। श्रुतं हि मया बहुशः कथ्यमानम्– उत्तरेण सुवर्णपुरं सीमान्तलेखा पृथिव्याः सर्वजनपदानाम्, ततः परतो निर्मानुषमरण्यम्, तच्चातिक्रम्य कैलासगिरिरिति’। अयं च कैलासः। तदिदानीं प्रतिनिवृत्यैकाकिना स्वयमुत्प्रेक्ष्योत्प्रेक्ष्य दक्षिणा माशां केवलमङ्गीकृत्य गन्तव्यम्। आत्मकृतानां हि दोषाणां नियतमनुभवितव्यं फलमात्मनैव, इत्यवधार्य वामकरतलचलितरश्मिपाशस्तुरंगमं व्यावर्तयामास।
अच्छोद सरोवरदर्शनम्
निवर्तिततुरंगमश्च पुनश्चिन्तितवान्— ‘अयमुद्भासितप्रभाभास्वरो भगवान्भानुरधुना नभस्तलमध्यमलंकरोति। परिश्रान्त-श्चायमिन्द्रायुधः। तदेनं तावदागृहीतकतिपयदूर्वाप्रवालकवलं कस्मिंश्चित्सरसि शिलाप्रस्रवणे वा सरिदम्भसि वा स्नातपीतोदकमपनीतश्रमं कृत्वा स्वयं च सलिलं पीत्वा कस्यचित्तरोरधश्छायायां मुहूर्तमात्रं विश्रम्य ततो गमिष्यामि’ इति चिन्तयित्वा सलिलमन्वेषमाणो मुहुर्मुहुरितस्ततो दत्तदृष्टिः पर्यटन्नलिनीजलाऽवगाहोत्थितस्य अचिरादपक्रान्तस्य महतो गिरिचरस्य वनगजयूथस्य चरणोत्थापितैः पङ्कपटलैरार्द्रीकृतम्, मार्गमद्राक्षीत्। उपजातजलाशयशङ्कश्च तं प्रतीपमनुसरन् उपरिछत्रमण्डलाकारैः सरलसाल-सल्लकीप्रायैः पादपैरुपेतेन, स्थूलकपिलवालुकेन, पाषाणभेदकमञ्जरीभिर्जटिलीकृत-शिलान्तरालेन वनमानुषमिथुनाध्यासित-तटगुहामुखेन गन्धपाषाणपरिमलामोदिना, कैलासतटेन कंचिदध्वानं गत्वा पूर्वोत्तरे दिग्भागे जलभारालसं जलधरव्यूहमिव अत्यायतं तरुखण्डं ददर्श। संमुखागतेन शोकरिणा जलतरङ्गमारुतेन आलिंग्यमान इव कमलमधुपानमत्तानां कलहंसानां कोलाहलैराहूयमान इव च तं विवेश। प्रविश्य च तस्य तरुखण्डस्य मध्यभागे मणिदर्पणमिव त्रैलोक्यलक्ष्म्याः, त्रिभुवनपुण्यराशिमिव सरोरूपेणावस्थितम्, शरदभ्रवृन्दमिव द्रवीभूयैकत्र निस्यन्दितम्, मुनिमनोभिरिव सज्जनगुणैरिव हरिणलोचनप्रभाभिरिव मुक्ताफलांशुभिरिव निर्मितम्, आपूर्णपर्यन्तमप्यन्तः स्पष्टदृष्टसकलवृत्तान्ततया रिक्तमिवोपलक्ष्यमाणम्, यौवनमिवोत्कलिकाबहुलम्, महापुरुषमिव मीनमकरकूर्म-चक्रप्रकटलक्षणम्, भारतमिव पाण्डुधार्तराष्ट्रकुलपक्षकृतक्षोभम्, अमृतमथनसमयमिव तीरावस्थितशितिकण्ठपीय-मानविषम्, दिव्यमिवा-
निमिषलोचनरमणीयम्, अरण्यमिव विजृम्भमाणपुण्डरीकम्, अतिमनोहरमाह्लादनं दृष्टेरच्छोदं नाम सरो दृष्टवान्। आलोकमात्रेणैवापगतश्रमो दृष्ट्वा मनस्येवमकरोत्–‘अहो निष्फलमपि मे तुरङ्गमुखमिथुनानुसरणमेतदालोकयतः सरः सफलतामुपगतम्। अद्य परिसमाप्तमीक्षणयुगलस्य द्रष्टव्यदर्शनफलम्, आलोकितः खलु रमणीयानामन्तः, दृष्ट आह्लादनीयानामवधिः, प्रत्यक्षीकृता प्रीतिजननानां परिसमाप्तिः, इदमुत्पाद्य सरःसलिलम् अमृतरसमुत्पादयता वेधसा पुनरुक्ततामिव नीता स्वसृष्टिः। इदमपि खल्वमृतमिव सर्वेन्द्रियाह्लादनसमर्थम्, अतिविमलतया चक्षुषः प्रीतिमुपजनयति, शिशिरतया स्पर्शसुखमुपहरति, कमलसुगन्धितया घ्राणमाप्याययति, हंसमुखरतया श्रुतिमानन्दयति, स्वादुतया रसनामाह्लादयति। नियतं चास्यैव दर्शनतृष्णया न परित्यजति भगवान्कैलासनिवासव्यसनमुमापतिः। न खलु सांप्रतमाचरति जलशयनदोहदं देवो रथाङ्गपाणिर्यदिदममृतरससुरभिसलिलमपहाय लवणरसपरुषपयस्युदन्वति स्वपिति।
विश्रामः, दूरात्संगीतध्वनिं निशम्य तदनुसरणं च।
इति विचारयन्नेव तस्य शिलाशकलकर्कशवालुकाप्रायम्, दक्षिणतीरमासाद्य तुरगादवततार। अवतीर्य च व्यपनीत-पर्याणमिन्द्रायुधमकरोत्। क्षितितललुठितोत्थितं च गृहीतकतिपययवसग्रासं सरोऽवतीर्य पीतसलिलमिच्छया स्नातं चोत्थाप्य अन्यतमस्य समीपवर्तिनस्तरोर्मूलशाखायामपगतखलीनं बद्ध्वा स्वयमपि सलिलमवततार। ततश्च प्रक्षालितकरयुगलश्चातक इव कृत्वा जलमयमाहारम्, सरःसलिलादुदगात्। प्रत्यग्रभग्नशिशिरैश्च कमलिनीपलाशैर्लता-मण्डपपरिक्षिप्ते शिलातले स्रस्तरमास्तीर्य, निधाय शिरसि पिण्डीकृतमुत्तरीयं, निषसाद। मुहूर्त विश्रान्तश्च तस्य
सरस उत्तरे तीरप्रदेशे समुच्चरन्तं, उन्मुक्तकवलेन निश्चलश्रवणपुटेन तन्मुखीभूतेनोद्ग्रीवेणेन्द्रायुधेन प्रथममाकर्णितं,श्रुतिसुभगं, वीणातन्त्रीझंकारमिश्रम् अमानुषं गीतशब्दमशृणोत्। श्रुत्वा च कुतोऽत्र विगतमर्त्यसंपाते प्रदेशे गीतध्वनेः संभूतिरिति समुपजातकौतुकः कमलिनीदलसंस्तरादुत्थाय तामेव गीतसंपातसूचितां दिशं चक्षुः प्राहिणोत्। अतिदवीयस्तया तु तस्य प्रदेशस्य प्रयत्नव्यापृतलोचनोऽपि विलोकयन्न किंचिद्ददर्श। तमेव केवलमनवरतं शब्दं शुश्राव। कुतूहलवशाच्च गीतध्वनिप्रभवजिज्ञासया कृतगमनबुद्धिर्दत्तपर्याणमिन्द्रायुधमारुह्य प्रियगीतैः प्रथमप्रस्थितैरप्रार्थितैरपि वनहरिणैरुपदिश्यमानवर्त्मा पश्चिमया वनलेखया निमित्तीकृत्य तं गीतध्वनिमभिप्रतस्थे।
सिद्धायतने दिव्य कन्यकाऽवलोकनम्।
क्रमेण च संमुखागतैः, अच्छनिर्झरजलकणजालजनितजडिमभिः, नमेरुकुसुमपांसुपातिभिः पुण्यैः कैलासमारुतैः अभिनन्द्यमानो गत्वा च तं प्रदेशं सर्वतो मरकतहरितैः, हारिहारीतरुतिरमणीयैः, उन्मदकोकिलकुलकवलीकृतसहकारकोमलाग्रपल्लवैः, उन्मदषट्चरणचक्रवालवाचालितविकच-चूतकलिकैः, चम्पकपरागपुञ्जपिञ्जरकपिञ्जलजग्धपिप्पलीफलैः, प्रक्रीडितकपिकुलकर-तलताडनतरलितताडीपुटैः, अन्योन्यकुपितकपोतपक्षपालीपातितकुसुमैः, कुसुमरजोराशिशार-शारिकाश्रितशिखरैः, शुकशतमुख-नखशिखरशकलितफलस्फीतैः, आरब्धपञ्चतपःक्रियैरिवोच्छिख-शिखिमण्डलपरिवृतैः, दीक्षितैरिव कृतकृष्णसार-विषाणकण्डूयनैः, इन्द्रजालिकैरिव दृष्टिहारिभिः पादपैः परिवृतं, चन्द्रप्रभनाम्नस्तस्य सरसः पश्चिमे तीरे संनिविष्टं, भगवतः शूलपाणेः शून्यं सिद्धायतनमपश्यत्। तच्च प्रविश्या-
द्राक्षीच्चतुःस्तम्भस्फटिकमण्डपिकातलप्रतिष्ठितम्, अचिरोद्धृतैरार्द्रार्द्रैः शुचिभिर्मन्दाकिनीपुण्डरीकैः कृतार्चनम्, अशेषत्रिभुवनवन्दितचरणम्, चराचरगुरुम्, भगवन्तं त्र्यम्बकम्। तस्य च दक्षिणां मूर्तिमाश्रित्याभिमुखीमासीनाम्, उपरचितब्रह्मासनाम्, अतिविस्तारिणा दीर्घकालसंचितेन तपोराशिनेव सर्वतो विसर्पता धवलदेहप्रभावितानेन सगिरिकाननं चन्द्रमयमिव तं प्रदेशं कुर्वतीम्, अन्यथैव धवलयन्तीं कैलासगिरिम्, पञ्चमहाभूतमयमपहायोपकरणकलापं धवलगुणेनेव केवलेनोत्पादिताम्, रतिमिव मदनदेहनिमित्तं हरप्रसादनार्थमागृहीतहराराधनाम्, त्रयीमिव कलियुगध्वस्तधर्मशोकगृहीतवनवासाम्, श्वेतद्वीपलक्ष्मामिवान्यद्वीपावलोकन-कुतूहलागताम्, काशकुसुमविकाशकान्तिमिव शरत्समयमुदीक्षमाणाम्, धर्महृदयादिव विनिर्गताम्, मृणालैरिव विरचितावयवाम्, दन्तदलैरिव घटिताम्, इयत्तामिव धवलिम्नः, स्कन्धावलम्बिनोभि रुन्मि
षत्तडित्तरलतेजस्ताम्राभि र्जटाभिरुद्भासितशिरोभागाम्, ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम्, आप्रपदीनेन च स्वभावसितेन दुकूलपटेन प्रावृतनितम्बाम्, उत्सङ्गगतां च दन्तमयीं दक्षिणकरेण वीणामास्फालयन्तीम्, प्रत्यक्षामिव गन्धर्वविद्यां मणिमण्डपिकास्तम्भलग्नाभिरात्मानुरूपाभिः सहचरीभिरिव सवीणाभिर्विलासवतीभिः प्रतिमाभिरुपेताम्, गीत्या देवं विरूपाक्षमुपवीणयन्तीम्, निर्ममाम्, निरहंकाराम्, निर्मत्सराम्, अमानुषाकृतिम्, दिव्यत्वादपरिज्ञायमानवयःपरिमाणामप्यष्टादशवर्षदेशीयामिवोपलक्ष्यमाणाम्, प्रतिपन्नपाशुपतव्रतां कन्यकां ददर्श। ततोऽवतीर्य, तरुशाखायां बद्ध्वा तुरङ्गमं, उपसृत्य भगवते भक्त्या प्रणम्य त्रिलोचनाय, तामेव दिव्ययोषितमनिमिषपक्ष्मणा चक्षुषा पुनः पुनर्निरूपयामास। उदपादि चास्य तस्या रूपसंपदा कान्त्या प्रशान्त्या चाविर्भूतविस्मयस्य मनसि—‘अहो जगति जन्तूनामसमर्थितोपन-
तान्यापतन्ति वृत्तान्तान्तराणि। तथाहि—मया मृगयायां यदृच्छया निरर्थकमनुबध्नता तुरङ्गमुखमिथुनमयमतिमनोहरो मानवानामगम्यो दिव्यजनसंचरणोचितः प्रदेशो वीक्षितः। अत्र च सलिलमन्वेषमाणेन हृदयहारि सरो दृष्टम्। तत्तीरलेखाविश्रान्तेन चाऽमानुषं गीतमाकर्णितम्। तच्चानुसरता मानुषदुर्लभदर्शना दिव्यकन्यकेयमालोकिता। न हि मे संशीतिरस्या दिव्यतां प्रति। आकृतिरेवानुमापयत्यमानुषताम्। कुतश्च मर्त्यलोके संभूतिरेवंविधानां गान्धर्वध्वनिविशेषाणाम्। तद्यदि मे सहसा दर्शनपथान्नापयाति, नोत्पतति वा गगनतलम्, ततः ‘का त्वम्, किमभिधाना वा किमर्थं वा प्रथमे वयसि प्रतिपन्ना व्रतम्’ इति सर्वमेवैतदेनामुपसृत्य पृच्छामि। अतिमहानयमवकाश आश्चर्याणाम्, इत्यवधार्य तस्यामेव स्फटिकमण्डपिकायामन्यतमं स्तम्भमाश्रित्य समुपविष्टो गीतसमाप्त्यवसरं प्रतीक्षमाणस्तस्थौ।
कन्यकाकृतं चन्द्रापीडाऽऽतिथ्यम्
अथ गीतावसाने मूकीभूतवीणा सा कन्यका समुत्थाय प्रदक्षिणीकृत्य कृतहरप्रणामा परिवृत्य चन्द्रापीडमाबभाषे—‘स्वागतमतिथये। कथमिमां भूमिमनुप्राप्तो महाभागः। तदुत्तिष्ठ। आगम्यताम्। अनुभूयतामतिथिसत्कारः’ इति। एवमुक्तश्च तया संभाषणमात्रेणैवानुगृहीतमात्मानं मन्यमान उत्थाय भक्त्या कृतप्रणामः ‘भगवति! यथाज्ञापयसि’ इत्यभिधाय दर्शितविनयः शिष्य इव तां व्रजन्तामनुवव्राज। व्रजंश्च समर्थयामास—‘हन्त, तावन्नेयं मां दृष्ट्वा तिरोभूता। कृतं हि मे कुतूहलेन प्रश्नाशया हृदि पदम्। यथा चेयमस्यास्तपस्विजनदुर्लभदिव्यरूपाया अपि दाक्षिण्यातिशया प्रतिपत्तिरभिजाता विभाव्यते, तथा संभावयामि नियतमियमखिलमात्मोदन्तम-
भ्यर्थ्यमाना मया कथयिष्यति’ इत्येवं च कृतमतिः पदशतमात्रमिव गत्वा निरन्तरैर्दिवापि रजनीसमयमिव दर्शयद्भिस्तमालतरुभिरन्धकारितपुरोभागाम्, हिमहारहरहासधवलैश्वोभयतः क्षरद्भि र्निर्झरैर्द्वारावलम्बितचलच्चामर-कलापामिवोपलक्ष्यमाणाम्, अन्तःस्थापितमणिकमण्डलुमण्डलाम्, शङ्खमयेन भिक्षाकपालेनाधिष्ठिताम्, गुहामद्राक्षीत्। तस्याश्च द्वारि शिलातले समुपविष्टो वल्कलशयनशिरोभागविन्यस्तवीणां ततः पर्णपुटेन निर्झरादागृहीतमर्घ्यजलमादाय तां कन्यकां समुपस्थिताम् ‘अलमतियन्त्रणया। कृतमतिप्रसादेन। भगवति, प्रसीद। विमुच्यतामयमत्यादरः। त्वदीयमालोकनमपि सर्वपापप्रशमनमघमर्षणमिव पवित्रीकरणायालम्। आस्यताम्’ इत्यब्रवीत्। अनुबध्यमानश्च तया तां सर्वामतिथिसपर्यामतिदूरावनतेन शिरसा सप्रश्रयं प्रतिजग्राह। कृतातिथ्यया च तया द्वितीयशिलातलोपविष्टया क्षणमिव तूष्णीं स्थित्वा क्रमेण परिपृष्टो दिग्विजयादारभ्य किंनरमिथुनानुसरणप्रसङ्गेनागमनमात्मनः सर्वमाचचक्षे। विदितसकलवृत्तान्ता चोत्थाय सा कन्यका भिक्षाकपालमादाय तेषामायतनतरूणां तलेषु विचचार। अचिरेण च तस्याः स्वयं पतितैः फलैरपूर्यत भिक्षाभाजनम्। आगत्य च तेषां फलानामुपयोगाय नियुक्तवती चन्द्रापीडम् ।आसीच्च तस्य चेतसि—‘नास्ति खल्वसाध्यं नाम तपसाम्। किमतःपरमाश्चर्यं यदत्र व्यपगतचेतना अपि सचेतना इवास्यै भगवत्यै समतिसृजन्तः फलान्यात्मानुग्रहमुपपादयन्ति वनस्पतयः। चित्रमिदमालोकितमस्माभिरदृष्टपूर्वम्’ इत्यधिकतरो-पजातविस्मयश्चोत्थाय तमेव प्रदेशमिन्द्रायुधमानीय व्यपनीतपर्याणं नातिदूरे संयम्य निर्झरजलनिर्वर्तित-स्नानविधिस्तान्यमृतस्वादून्युपभुज फलानि पीत्वा च तुषारशिशिरं प्रस्रवणजलमुपस्पृश्य चैकान्ते तावदवतस्थे यावत्तयापि कन्यकया कृतो जलफलमूलमयेष्वाहारेषु प्रणयः।
चन्द्रापीडस्य कन्यकाविषये जिज्ञासा
अथ परिसमापिताहारां निर्वर्तितसंध्योचिताचारां शिलातले विश्रब्धमुपविष्टां निभृतमुपसृत्य नातिदूरे समुपविश्य मुहूर्तमिव स्थित्वा चन्द्रापीडः सविनयमवादीत्—‘भगवति’ त्वत्प्रसादप्राप्तिप्रोत्साहितेन कुतूहलेनाकुलीक्रियमाणो मानुषतासुलभो लघिमा बलादनिच्छन्तमपि मां प्रश्नकर्मणि नियोजयति। उपजनयति हि प्रभुप्रसादलवोऽपि प्रागल्भ्यमधीरप्रकृतेः। स्वल्पाप्येकदेशावस्थाने कालकला परिचयमुत्पादयति। अणुरप्युपचारपरिग्रहः प्रणयमारोपयति। तद्यदि नातिखेदकरमिव ततः कथनेनात्मानमनुग्राह्यमिच्छामि। अतिमहत्खलु भवद्दर्शनात्प्रभृति मे कौतुकमस्मिन्विषये। कतरन्मरुतामृषीणां गन्धर्वाणां गुह्यकानामप्सरसां घा कुलमनुगृहीतं भगवत्या जन्मना। किमर्थं वास्मिन्कुसुमसुकुमारे नवे वयसि व्रतग्रहणम्। क्वेदं वयः, क्वेयमाकृतिः, क्वाऽयं लावण्यातिशयः, क्व चेयमिन्द्रियाणामुपशान्तिः। तदद्भुतमिव मे प्रतिभाति। किं सुरलोकसुलभान्यपहाय दिव्याश्रमपदान्येकाकिनी वनमिदममानुषमधिवससि। कश्चायं प्रकारो यत्तैरेव पञ्चभिर्महाभूतैरारब्धमीदृशं धवलतां धत्ते ते शरीरम्। नेदमस्माभिरन्यत्र दृष्टश्रुतपूर्वं वा। अपनयतु नः कौतुकम्। आवेदयतु भवती सर्वमिदम्’ इत्येवमभिहिता सा किमप्यन्तर्ध्यायन्ती तूष्णीं मुहूर्तमिव स्थित्वा निःश्वस्य स्थूलस्थूलैः, अच्छाच्छैः, अमलकपोलस्थलस्खलितैः, अवशीर्णहारमुक्ताफलतरलपातैः, वल्कलावृतकुचशिखरजर्जरितसीकरैः, अश्रुभिरामीलितलोचना निःशब्दं रोदितुमारेभे। तां च प्ररुदितां दृष्ट्वा चन्द्रापीडस्तत्क्षणमचिन्तयत्—‘अहो दुर्निवारता व्यसनोपनिपातानाम्, यदीदृशीमप्याकृतिमनभिभवनीयामात्मीयां कुर्वन्ति। सर्वथा न कंचन न स्पृशन्ति शरीरधर्माणमुपतापाः। बलवती हि द्वंद्वानां प्रवृत्तिः। इदमपरमधिकतरं जनितमतिमहन्मनसि मे कौतुक-
मस्या वाष्पसलिलपातेन। न ह्यल्पीयसा शोककारणेन क्षेत्रीक्रियन्ते एवंविधा मूर्तयः। न हि क्षुद्रनिर्घातपाताभिहता चलति वसुधा’ इति संवर्धितकुतूहलश्च शोकस्मरणहेतुतामुपगतम् अपराधिनमिवात्मानम् अवगच्छन् उत्थाय प्रस्रवणात् अञ्जलिना मुखप्रक्षालनोदकमुपनिन्ये। सा तु तदनुरोधादविच्छिन्नवाष्पजलधारासंतानापि किंचित्कषायितोदरे प्रक्षाल्य लोचने वल्कलोपान्तेन वदनमपमृज्य दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य शनैः शनैः प्रत्यवादीत्-
* महाश्वेतायाः स्वपूर्ववृत्तान्त निवेदनम् *
वंशपरिचय जन्मादिवर्णनम्
‘राजपुत्र, किमनेनाति निर्घृणहृदयाया मम मन्दभाग्यायाः पापाया जन्मनः प्रभृति वैराग्यवृत्तान्तेनाऽश्रवणीयेन श्रुतेन। तथापि यदि महत्कुतूहलं तत्कथयामि। श्रूयताम्। एतत्प्रायेण कल्याणाभिनिवेशि नः श्रुतिविषयमापतितमेव यथा विबुधसद्मन्यप्सरसो नाम कन्यकाः सन्तीति। तासां चतुर्दश कुलानि। एकं भगवतः कमलयोनेर्मनसः समुत्पन्नम्, अन्यद्वेदेभ्यः संभूतम्, अन्यदग्नैरुद्भूतम्, अन्यदमृतान्मथ्यमानादुत्थितम्, अन्यज्जलाज्जातम् अन्यदर्ककिरणेभ्यो निर्गतम्, अन्यत्सोमरश्मिभ्यो निपतितम्, अन्यद्भूमेरुद्भूतम्, अन्यत्सौदामिनीभ्यः प्रवृत्तम्, अन्यन्मृत्युना निर्मितम्, अपरं मकरकेतुना समुत्पादितम्, अन्यत्तु दक्षस्य प्रजापतेरतिप्रभूतानां कन्यकानां मध्ये ये द्वे सुते मुनिररिष्टा च बभूवतुस्ताभ्यां गन्धर्वैः सह कुलद्वयं जातम्। एवमेतान्येकत्र चतुर्दश कुलानि। गन्धर्वाणां तु दक्षात्मजाद्वितयसंभवं तदेव कुलद्वयं जातम्। तत्र मुनेस्तनयः चित्रसेनादीनां पञ्चदशानां भ्रातॄणामधिको गुणैः षोडशश्चित्ररथो नाम समुत्पन्नः। स किल सर्वेषां गन्धर्वाणामाधिपत्यं शैशव एवाप्तवान्।
इतश्च नातिदूरे किंपुरुषनाम्नि वर्षे वर्षपर्वतो हेमकूटो नाम तस्य निवासः। तत्र च तद्भुजयुगपरिपालितान्यनेकानि गन्धर्वशतसहस्राणि प्रतिवसन्ति। तेनैव चेदं चैत्ररथं नामातिमनोहरं काननं निर्मितम्, इदं चाच्छोदाभिधानमतिमहत्सरः स्वानितम्, अयं च भवानीपतिरुपरचितो भगवान्। अरिष्टायास्तु पुत्रस्तस्मिन्द्वितीये गन्धर्वकुले गन्धर्वराजेन चित्ररथेनैवाभिषिक्तो बाल एव राज्यपदमासादितवान्। अपरिमितगन्धर्वबलपरिवारस्य तस्यापि स एव गिरिरधिवासः। यत्तु तत्सोमपीयूषसंभूतानामप्सरसां कुलं तस्मात् त्रिभुवननयनाभिरामा, भगवती द्वितीयेव गौरी, गौरीति नाम्ना हिमकिरणकिरणावदातवर्णा कन्यका प्रसूता। तां च द्वितीयकुलाधिपतिर्हंसःप्रणयिनीमकरोत्। सा तु भगवता मकरकेतनेनेव रतिः, हंसेन संयोजिता सदृशसमागमोपजनितामतिमहतीं मुदमुपगतवती। निखिलान्तःपुर
स्वामिनी च तस्याभवत्। तयोश्च तादृशयोर्महात्मनोरहमीदृशी विगतलक्षणा शोकाय केवलम्, अनेकदुःखसहस्रभाजनम्, एकैवात्मजा समुत्पन्ना। तातस्त्वनपत्यतया सुतजन्मातिरिक्तेन महोत्सवेन मम जन्माभिनन्दितवान्। अवाप्ते च दशमेऽहनि कृतयथोचितसमाचारो महाश्वेतेति यथार्थमेव नाम कृतवान्। साहं पितृभवने बालतया कलमधुरप्रलापिनी वीणेव गन्धर्वाणामङ्कादङ्कं संचरन्त्यविदितशोकायासं शैशवमतिनीतवती। क्रमेण च कृतं मे वपुषि वसन्त इव मधुमासेन, मधुमास इव नवपल्लवेन, नवपल्लव इव कुसुमेन, कुसुम इव मधुकरेण, मधुकर इव मदेन, नवयौवनेन पदम्।
वसन्ते महाश्वेताया अच्छोदसरोवरगमनम्
अथ विजृम्भमाणनवनलिनवनेषु, कोमलमलयमारुतावतारतरङ्गितानङ्गध्वजांशुकेषु, मधुकरकुलकलङ्ककालीकृत-कालेयककुसुमकुड्मलेषु, विकसन्मुकुल-परिमलपुञ्जिताऽलिजालमंजुसिञ्चितसुभगसहका-
रेषु, अविरलकुसुमधूलिवालुकापुलिनधवलितधरातलेषु, उत्फुल्ल पल्लवलवलीलीयमानमत्तकोकिलोल्लासितमधु-शीकरोद्दामदुर्दिनेषु, सकलजीवलोकहृदयानन्ददायकेषु, मधुमासदिवसेष्वेकदाहमम्बया सह मधुमास-विस्तारितशोभं प्रोत्फुल्लनवनलिनकुमुदकुवलयक
ह्लारमिदमच्छोदं सरः स्नातुमभ्यपतम्। अत्र च बहलकुसुमरजःपटल-मग्नकलहंसपदलेखम्, अतिरमणीयमिदं तीरतरुतलमिति स्निग्धमनोहरतरोद्देशदर्शनलोभाक्षिप्तहृदया सह सखीजनेन व्यचरम्।
मुनिकुमारविलोकनं कुसुममंजरीदर्शनं च।
एकस्मिंश्च प्रदेशे झटिति वनानिलेनोपनीतं निर्भरविकसितेऽपि काननेऽभिभूतान्यकुसुमपरिमलम्, विसर्पन्तम्, अतिसुरभितयानुलिम्पन्तमिव तर्पयन्तमिव पूरयन्तमिव घ्राणेन्द्रियम्, अहमहमिकया मधुकरकुलैरनुबध्यमानम्, अनाघ्रातपूर्वम्, अमानुषलोकोचितं कुसुमगन्धमभ्यजिघ्रम्। कुतोऽयमित्युपारूढकुतूहला चाहं कतिचित्पदानि गत्वा हरहुताशनेन्धनीकृत-मदनशोकविधुरं वसन्तमिव तपस्यन्तम्, अयुग्मलोचनं वशीकर्तुकामं काममिव सनियमम्, उन्मिषन्त्या देहप्रभया कपिलीकृतकाननं कनकमयमिव तं प्रदेशं कुर्वाणम्, सर्वहरिणैरिव दत्तलोचनशोभासंविभागम्, अप्राप्तहृदयप्रवेशेन नवयौवनरागेणेव सर्वात्मना पाटलीकृताधररुचकम्, अनुद्भिन्नश्मश्रुत्वादनासादितमधुकरावली-वलयपरिक्षेपविलासमिव बालकमलमाननं दधानम्, एकेन सनालबकुलफलाकारं कमण्डलुम् अपरेण स्फटिकाक्षमालिकां करेण कलयन्तम्, मौञ्जमेखलागुणेन परिक्षिप्तजघनभागम्, अभ्रगङ्गास्रोतोजलप्रक्षालितेन जरच्चकोरलोचनपुटपाटलकान्तिना मन्दारवल्कलेनोपपादिता-
म्बरप्रयोजनम्, अलंकारमिव ब्रह्मचर्यस्य, यौवनमिव धर्मस्य, स्वयंवरपतिमिव सर्वविद्यानाम्, आत्मानुरूपेण सवयसा परेण देवतार्चनकुसुमान्युच्चिन्वता तापसकुमारेणानुगतम्, अतिमनोहरम्, स्नानार्थमागतं मुनिकुमारकमपश्यम्। तेन च कर्णावतंसीकृतां यौवनलीलामिव कुसुमलक्ष्म्याः, कृत्तिकातारास्तबकानुकारिणीम्, अमृतबिन्दुनिस्यन्दिनीम्, अदृष्टपूर्वां कुसुममञ्जरीमद्राक्षम्।
महाश्वेतामुनिकुमारयोः अनुरागः।
अस्याः परिभूतान्यकुसुमामोदो नन्वयं परिमलः’ इति मनसा निश्चित्य तं तपोधनयुवानमीक्षमाणाहमचिन्तयम्– ‘अहो रूपातिशयनिष्पादनोपकरणकोशस्याक्षीणता विधातुः, यत्त्रिभुवनाद्भुतरुपसंभारं भगवन्तं कुसुमायुधमुत्पाद्य तदाकारा-तिरिक्तरूपातिशयराशिरयमपरो मुनिमायामयो मकरकेतुरुत्पादितः। मन्ये च सकलजगन्नयनानन्दकरं शशिविम्बं विरचयता, लक्ष्मीलीलावास भवनानि कमलानि सृजता, ब्रह्मणैतदाननाकारकरणकौशल्याभ्यास एव कृतः। अन्यथा किमिव हि सदृशवस्तुविरचनायां कारणम्। अलीकं चेदं यथा किल सकलाः कलाः कलावतो बहुलपक्षे क्षीयमाणस्य सुषुम्नारश्मिना रविरापिबतीति, ताः खल्वस्य गभस्तयः समस्ता वपुरिदमाविशन्तीति। कुतोऽन्यथा रूपापहारिणि क्लेशबहुले तपसि वर्तमानस्येदं लावण्यम्’ इति चिन्तयन्तीमेव मामविचारितगुणदोषविशेषो रूपैकपक्षपाती नवयौवनसुलभः कुसुमायुधः परवशामकरोत्। विस्मृतनिमेषेण किंचिदामुकुलितपक्ष्मणा दक्षिणेन चक्षुषा सस्पृहमापिबन्तीव, ‘देहि हृदयेऽवकाशम्’ इत्यर्थितामिव दर्शयन्ती, हा हा, किमिदमसांप्रतमतिह्रेपणमकुलकुमारी-जनोचितमिदं मया प्रस्तुतम्’ इति जानानाप्यप्रभवन्ती करणानाम्, स्तम्भितेव, लिखितेव,
निस्पन्दसकलावयवा तमतिचिरं व्यलोकयम्। उत्क्षिप्य नीयमानैव तत्समीपमिन्द्रियैः पुरस्तादाकृष्यमाणेव हृदयेन, पृष्ठतः प्रेर्यमाणेव केनाऽपि कथमपि, मुक्तप्रयत्नमप्यात्मानमधारयम्। आसीच्च मम मनसि–‘शान्तात्मनि दुरीकृतरागव्यतिकरेऽस्मिञ्जने मां निक्षिपता किमिदमनार्येणासदृशमारब्धं मनसिजेन। एवं च नामातिमूढं हृदयमङ्गनाजनस्य, यदनुरागविषययोग्यतामपि विचारयितुं नालम्। क्वेदमतिभास्वरं धाम तेजसां तपसां च, क्व च प्राकृतजनाभिनन्दितानि मन्मथपरिस्पन्दितानि। नियतमयं मामेवं मकरलाञ्छनेन विडम्ब्यमानामुपहसति मनसा। चित्रं चेदं यदहमेवमवगच्छन्त्यपि न शक्नोम्यात्मनो विकारमुपसंहर्तुम्। यावदेव सचेतना
त्स्म, यावदेव च न परिस्फुटमनेन विभाव्यते मे मदनदुश्चेष्टितलाघवमेतत्, तावदेवास्मात् प्रदेशादपसर्पणं श्रेयः। कदाचिदनभिमतस्मर-विकारदर्शनकुपितोऽयं शापाभिज्ञां करोति माम्। ‘अदूरकोपा हि मुनिजनप्रकृतिः’ इत्यवधार्यापसर्पणाभिलाषिण्यहमभवम्। अशेषजनपूजनीया चेयं जातिरिति कृत्वा अस्मै प्रणाममकरवम्।
अथ कृतप्रणामायां मयि अविनयबहुलतया नवयौवनस्य, चपलतया मनोवृत्तेः, तथाभवितव्यतया च तस्य तस्य वस्तुनः, किं बहुना मम मन्दभाग्यदौरात्म्यादस्य चेदृशस्य क्लेशस्य विहितत्वात् मद्विकारापहृतधैर्यं तमपि प्रदीपमिव पवनस्तरलतामनय द्विकारः। तया तु तस्यातिप्रकटया विकृत्या तत्क्षणमहमवर्णनयोग्यां कामप्यवस्थामन्वभवम्।
मुनिकुमारस्य कुसुममंजर्याश्च परिचयः।
प्राप्तप्रसरा चोपसृत्य तं द्वितीयमस्य सहचरं मुनिबालकं प्रणामपूर्वकमपृच्छम्–‘भगवान्किमभिधानः। कस्य वायं तपोधनस्य युवा। किंनाम्नश्च तरोरियमनेनाऽवतंसीकृता कुसुममञ्जरी। जनयति हि मे मनसि महत्कौतुकमस्याः समुत्सर्पन् असाधारणसौरभोऽयमनाघ्रातपूर्वो गन्धः, इति। स तु मामीषद्विहस्याब्रवीत्—‘बाले’ किमनेन पृष्टेन प्रयोजनम्। अथ कौतुकमावेदयामि। श्रूयताम्—
अस्ति त्रिभुवनप्रख्यातकीर्तिः महामुनिर्दिव्यलोकनिवासी श्वेतकेतुर्नाम। तस्य च भगवतः अशेषत्रिभुवनसुन्दरम् रूपमासीत्। स कदाचिद्देवतार्चनकमलान्युद्धर्तुं मन्दाकिनीमवततार। अवतरन्तं च तं तदा विकचसहस्रपत्रपुण्डरीकोपविष्टा देवी लक्ष्मीर्ददर्श। तस्यास्तु तमवलोकयन्त्याः रागपरवशं मन आसीत्। तयोः कुमारः समुदपादि। ततस्तमुत्सङ्ग आदाय सा ‘भगवन्’ गृहाण तवायमात्मजः’ इत्युक्त्वा तस्मै श्वेतकेतवे ददौ। असावपि बालजनोचिताः सर्वाः क्रियाः कृत्वा तस्य पुण्डरीकसंभवतया तदेव पुण्डरीक इति नाम चक्रे। प्रतिपादितव्रतं च तमागृहीतसकलविद्याकलापमकार्षीत्। सोऽयम्। इयं च— सुरासुरैर्मध्यमानात्क्षीरसागरादुद्गतो यः पारिजातनामा पादपस्तस्य मञ्जरी। यथा चैषा व्रतविरुद्धमस्य श्रवणसंसर्गमासादितवती तदपि कथयामि। अद्य चतुर्दशीति भगवन्तमम्बिकापतिं कैलासगतमुपासितुममरलोकान्मया सह नन्दनवनसमीपे नायमनुसरन्निर्गत्य साक्षात् कयाचित् वनदेवतया पारिजातकुसुममञ्जरीमिमामादाय प्रणम्याभिहितः—‘भगवन्’ सकलत्रिभुवनदर्शनाभिरामायास्तवाकृतेरस्याः सदृशोऽयमलंकारः प्रसादीक्रियताम्। व्रजतु सफलतां जन्म पारिजातस्य इत्येवमभिदधानां चायमात्मरूप-
स्तुतिवादत्रपावनमितलोचनस्तामनादृत्यैव गन्तुं प्रवृत्तः। मया तु तामनुयान्तीमालोक्य ‘को दोषः सखे, क्रियतामस्याः प्रणयपरिग्रहः’ इत्यभिधाय बलादियमनिच्छतोऽप्यस्य कर्णपूरीकृता। तदेतत्कार्त्स्न्येन योऽयम्, यस्य चायम्, या चेयम्, यथा चास्य श्रवणशिखरं समारूढा तत्सर्वमावेदितम्।
कुसुममंजरीसमर्पणं, अक्षमालास्खलनं च।
इत्युक्तवति तस्मिन्स तपोधनयुवा किंचिदुपदर्शितस्मितो मामवादीत्— ‘अयि कुतूहलिनि, किमनेन प्रश्नायासेन। यदि रुचितसुरभिपरिमला गृह्यतामियम्, इत्युक्त्वा समुपसृत्यात्मीयाच्छ्रवणादपनीय मदीये श्रवणपुटे तामकरोत्। स च मत्कपोलस्पर्शसुखेन तरलीकृताङ्गुलिजालकात्करतलादक्षमालां लज्जया सह गलितामपि नाज्ञासीत्। अथाहं तामसंप्राप्तामेव भूतलमक्षमालां गृहीत्वा सलीलं कण्ठाभरणतामनयम्।
कपिंजलस्य पुण्डरीकप्रबोधनम्।
इत्थंभूते च व्यतिकरे छत्रग्राहिणी मामवोचत्—‘भर्तृदारिके, स्नाता देवी। प्रत्यासीदति गृहगमनकालः। तत्क्रियतां मज्जनविधिः’ इति। अहं तु तेन तस्या वचनेन नवग्रहा करिणीव प्रथमाङ्कुशपातेनानिच्छया कथंकथमपि समाकृष्यमाणा तन्मुखात् अतिकृच्छ्रेण दृष्टिं समाकृष्य स्नातुमुदचलम्। उच्चलितायां च मयि द्वितीयो मुनिदारकस्तथाविधं तस्य धैर्यस्खलितमालोक्य किंचित्प्रकटितप्रणयकोप इवावादीत्—‘सखे पुण्डरीक, नैतदनुरूपं भवतः। क्षुद्रजनक्षुण्णः क एष मार्गः। धैर्यधना हि साधवः। किं यः कश्चन प्राकृत इव विक्लवीभवन्तमात्मानं न रुणत्सि। क्व ते तद्धैर्यम्, क्वासा-
विन्द्रियजयः, क्व तत्कुलक्रमागतं ब्रह्मचर्यम्, क्व सा सर्वविषयनिरुत्सुकता, क्व ते गुरूपदेशाः, क्व तानि श्रुतानि, क्व ता वैराग्यबुद्धयः, क्वासौ तपस्यभिनिवेशः, क्व सा भोगानामुपर्यरुचिः, क्व तद्यौवनानुशासनम्। सर्वथा निष्फला प्रज्ञा, निर्गुणो धर्मशास्त्राभ्यासः, निरर्थकः संस्कारः, निरुपकारको गुरूपदेशविवेकः, निःप्रयोजना प्रबुद्धता, निःकारणं ज्ञानम्, यदत्र भवादृशा अपि रागाभिषङ्गैः कलुषीक्रियन्ते। प्रमादैश्चाभिभूयन्ते। कथं करतलाद्गलितामपहृतामक्षमालामपि न लक्षयसि। अहो विगतचेतनत्वमपहतानामेवम्। इदमपि तावद्ध्रियमाणमनयानार्यया निवार्यतां हृदयम्’
महाश्वेताया अक्षमालास्थाने रत्नावलीप्रत्यर्पणम्।
इत्येवमभिधीयमानश्च तेन किंचिदुपजातलज्ज इव प्रत्यवादीत्—‘सखे कपिञ्जल, किं मामन्यथा संभावयसि। नाहमेव-मस्या दुर्विनीतकन्यकाया मर्पयाम्यक्षमालाग्रहणापराधमिमम्’ इत्यभिधायालीककोपकान्तेन प्रयत्नविरचितभीषणभृकुटि-भूषणेन मुखेन्दुना मामवदत्—‘चञ्चले, प्रदेशादस्मादिमामक्षमालामदत्त्वा पदात्पदमपि न गन्तव्यम्’ इति। तच्च श्रुत्वाहमात्मकण्ठादुन्मुच्य एकावलीम् ‘भगवन्, गृह्यतामक्षमाला’ इति मन्मुखासक्तदृष्टेः शून्यहृदयस्यास्य प्रसारिते पाणौ निधाय स्वेदसलिलस्नातापि पुनः स्नातुमवातरम्।
महाश्वेतायाः स्वभवनगमनं विषादश्च।
उत्थाय च कथमपि प्रयत्नेन निम्नगेव प्रतीपं नीयमाना सखीजनेन, बलादम्बया सह तमेव चिन्तयन्ती स्वभवन-मयासिषम्। गत्वा च प्रविश्य कन्यान्तःपुरं ततः प्रभृति किमागतास्मि,
किं तत्रैव स्थितास्मि, किमेकाकिन्यस्मि, किं परिवृतास्मि, किं जागर्मि, किं सुप्तास्मि, किं दुःखमिदम्, किं सुखमिदम्, किं दिवस एषः, किं निशेयम्, कानि रम्याणि, कान्यरम्याणीति सर्वं नावागच्छम्। क्व गच्छामि, किं करोमि, किं शृणोमि, किं पश्यामि, किमालपामि, कस्य कथयामि, कोऽस्य प्रतीकार इति सर्वं च नाज्ञासिषम्। केवलमारुह्य कुमारीपुरप्रासादं विसर्ज्य च सखीजनं द्वारि निवारिताशेषपरिजनप्रवेशा, सर्वव्यापारानुत्सृज्यैकाकिनी मणिजालगवाक्षनिक्षिप्तमुखी, तामेव दिशं तत्सनाथतया प्रसाधितामिव पूर्णचन्द्रोदयालंकृतामिव दर्शनसुभगामीक्षमाणा, तस्माद्दिगन्तरादागच्छन्तमनिलमपि वनकुसुमपरिमलमपि शकुनिध्वनिमपि तद्वार्तां प्रष्टुमीहमाना निष्पन्दमतिष्ठम्।
तरलिकायाः पत्रिकाऽऽनयनम्।
अथ ताम्बूलकरङ्कवाहिनी मदीया तरलिका नाम मयैव सहागता स्नातुमासीत्। सा च पश्चाच्चिरादिवागत्य तथावस्थितां शनैःशनैर्मामवादीत्–भर्तृदारिके, यौ तौ तापसकुमारकौ दिव्याकारावस्माभिरच्छोदसरस्तीरे दृष्टौ, तयोरेको येन भर्तृदुहितुः इयं कर्णाऽवतंसीकृता सुरतरुमञ्जरी सः—तस्माद्द्वितीयादात्मनो रक्षन्दर्शनमतिनिभृतपदः कुसुमितलतासंतानगहनान्तरेणोपसृत्य मामागच्छन्तीं पृष्ठतो भर्तृदारिकामुद्दिश्याप्राक्षीत्—‘बालिके, केयं कन्यका, कस्य वापत्यम्, किमभिधाना क्व वा गच्छति’ इति। मयोक्तम्—‘एषा खलु देवस्य सकलगन्धर्वमुकुटमणिशलाका-शिखरोल्लेखमसृणितचरणनखचक्रस्य गन्धर्वाधिपतेर्हंसस्य दुहिता महाश्वेता नाम गन्धर्वाधिवासं हेमकूटाचलमभिप्रस्थिता’ इति कथिते च मया किमपि चिन्तयन्मुहूर्तमिव तूष्णीं स्थित्वा विगत-
निमेषेण चक्षुषा चिरमभिवीक्षमाणो मां सानुनयमर्थितामिव दर्शयन् पुनराह—‘बालिके, कल्याणिनी तवाविसंवादिन्यचपला बालभावेऽप्याकृतिरियम्। तत्करोषि मे वचनमेकमभ्यर्थ्यमाना’ इति। ततो मया सविनयमुपरचिताञ्जलिपुटया दर्शितादरमभिहितः—‘भगवन्, कस्मादेवमभिधत्से। काहम्। महात्मानः सकलत्रिभुवनपूजनीयाः त्वादृशाः पुण्यैर्विना निखिलकल्मषापहारिणीमस्मद्विधेषु दृष्टिमपि न पातयन्ति, किं पुनराज्ञाम्। तद्विश्रब्धमादिश्यतां कर्तव्यम्। अनुगृह्यतामयं जनः’ इति। एवमुक्तश्च मया सस्नेहया दृष्टया मामभिनन्द्य निकटवर्तिनस्तमालपादपात्पल्लवमादाय निष्पीड्य तटशिलातले तेन रसेनोत्तरीयवल्कलैकदेशाद्विपाट्य पट्टिकां स्वहस्तकमलकनिष्ठिकानखशिखरेणाभिलिख्य “इयं पत्रिका त्वया तस्यै कन्यकायै प्रच्छन्नमेकाकिन्यै देया” इत्यभिधायार्पितवान्। इत्युक्त्वा च सा ताम्बूलभाजनादाकृष्य तामदर्शयत्। अहं तु तस्याः करतलादादाय तां वल्कलपत्रिकां तस्यामिमामभिलिखितामार्यामपश्यम्—
दूरं मुक्तालतया बिससितया विप्रलोभ्यमानो मे।
हंस इव दर्शिताशो मानसजन्मा त्वया नीतः॥’
अनया च दिङ्मोहभ्रान्त्येव प्रणष्टवर्त्मनः, लोकायतिकविद्ययेवाधर्मरुचेः, दोषविकारोपचयः सुतरामक्रियत मे मनसः, येनाकुलीक्रियमाणा सरिदिव पूरेण विह्वलतामभ्यगमम्। तां च द्वितीयदर्शनेन कृतमहापुण्यामिव मन्यमाना, ‘तरलिके, कथय कथं स त्वया दृष्टः, किमभिहितासि तेन, कियन्तं कालमवस्थितासि तत्र, कियदनुसरन्नस्मानसावागतः’ इति पुनः पुनः पर्यपृच्छम्। अनयैव च कथया तया सह तस्मिन्नेव प्रासादे तथैव प्रतिषिद्धाशेषपरिजनप्रवेशा दिवसमत्यवाहयम्।
सायंकाले कपिंजलस्य महाश्वेता भवनाऽऽगमनम्
अथ मदीयेनेव हृदयेन कृतरागसंविभागे लोहितायति गगनतलावलम्बिनि रविबिम्बे, मुकुलितरक्तपङ्कजपुटप्रविष्ट-मधुकरावलीषु विरहमूर्च्छान्धकारितहृदयास्विव प्रारब्धनिमीलनासु पद्मिनीषु, विघटमानेषु रथाङ्गनाम्नां युगलेषु सा छत्रग्राहिण्यागत्याकथयत्—‘भर्तृदारिके, तयोर्मुनिकुमारयोरन्यतरो द्वारि तिष्ठति। कथयति चाक्षमालामुपया-चितुमागतोऽस्मि’ इति। अहं तु मुनिकुमारनामग्रहणादेव स्थानस्थितापि गतेव द्वारदेशं समुपजाततदागमनाशङ्का समाहूयान्यतमं कञ्चुकिनम् ‘गच्छ। प्रवेश्यताम्’ इत्यादिश्य प्राहिणवम्। अथ मुहूर्तादिव तं तस्य सखायं कपिञ्जलनामानं जराधवलितस्य कञ्चुकिनोऽनुमार्गेण चन्द्रातपस्येव बालातपमनुयायिनं अपश्यम्। अन्तिकमुपागतस्य चास्य पर्याकुलमिव आकारमलक्षयम्। उत्थाय च कृतप्रणामा सादरं स्वयमासनमुपाहरम्। उपविष्टस्य च बलादनिच्छतोऽपि प्रक्षाल्य चरणौ भूमावेव तस्यान्तिके समुपाविशम्। अथ मुहूर्तमिव स्थित्वा किमपि विवक्षुरिव स तस्यां समीपोपविष्टायां तरलिकायां चक्षुरपातयत्। अहं तु विदिताभिप्राया दृष्ट्यैव ‘भगवन्, अव्यतिरिक्तेयमस्मच्छरीरात्। अशङ्कितम-भिधीयताम्’ इत्यवोचम्।
पुण्डरीकदशा निवेदनम्
एवमुक्तश्च मया कपिञ्जलः प्रत्यवादीत् ‘राजपुत्रि, किं ब्रवीमि। वागेव मे नाभिधेयविषयमवतरति त्रपया। क्व कन्दमूलाशी शान्तो वननिरतो मुनिजनः, क्व वायमनुपशान्तजनोचितो विषयोपभोगाभिलाषकलुषोरागप्रायः प्रपञ्चः। सर्वमेवानुपपन्नमालोकय। किमारब्धं दैवेन।
न जाने किमिदं वल्कलानां सदृशम्, उताहो जटानां समुचितम्, किं तपसोऽनुरूपम्, अपूर्वेयं विडम्बना केवलम्। अवश्यकथनीयमिदम्। अपर उपायो न दृश्यते। अकथ्यमाने च महाननर्थोपनिपातो जायते। प्राणपरित्यागेनापि रक्षणीयाः सुहृदसव इति कथयामि—‘अस्ति भवत्याः समक्षमेव स मया तथा निष्ठुरमुपदर्शितकोपेनाभिहितः। तथा चाभिधाय परित्यज्य तं तस्मात् प्रदेशादुपजातमन्युरुत्सृष्टकुसुमावचयोऽन्यप्रदेशमगमम्। अपयातायां च भवत्यां मुहूर्तमिव स्थित्वैकाकी किमयमिदानीमाचरतीति संजातवितर्कः प्रतिनिवृत्त्य विटपान्तरितविग्रहस्तं प्रदेशं व्यलोकयम्। तत्र तं नाद्राक्षं च। तेन तु जन्मनः प्रभृत्यनभ्यस्तेन तस्य क्षणमप्यदर्शनेन दूयमानः पुनरचिन्तयम्—‘स कदाचिद्धैर्यस्खलनविलक्षः किंचिदनिष्टमपि समाचरेत्। न हि किंचिन्न क्रियते ह्रिया। तन्न युक्तमेनमेकाकिनं कर्तुम्’ इत्यवधार्यान्वेष्टुमादरमकरवम्। अन्वेषमाणश्च यथायथा नापश्य तं तथातथा सुहृत्स्नेहकातरेण मनसा तत्तदशोभनमाशङ्कमानस्तरुलतागहनानि चन्दनवीथिका लतामण्डपान्सरःकूलानि च वीक्षमाणो निपुणमितस्ततो दत्तदृष्टिः सुचिरं व्यचरम्।
अथैकस्मिन्सरःसमीपवर्तिनि लतागहने कृतावस्थानम्, उत्सृष्टसकलव्यापारतया लिखितमिव प्रसुप्तमिव योगसमाधिस्थमिव सानुरागमपि पाण्डुतामावहन्तम्, ईक्षणयुगलेन वाष्पजलदुर्दिनमुत्सृजन्तम्, प्रभातचन्द्रमिव पाण्डुतया परिगृहीतम्, निदाघगङ्गाप्रवाहमिव क्रशिमानमागतम्, अन्तर्गतानलं चन्दनविटपिनमिव म्लायन्तम्, अन्यमिवाऽदृष्टपूर्वमिवाऽपरिचितमिव ग्रहगृहीतमिवोन्मत्तमिव छलितमिवान्धमिव बधिरमिव मूकमिव तमहमद्राक्षम्। अपगतनिमेषेण
चक्षुषा तदवस्थं चिरमुद्वीक्ष्य समुपजातविषादो वेपमानेन हृदयेनाचिन्तयम्—‘एवं नामाऽयमतिदुर्विषहवेगो मकरकेतुः, येनानेन क्षणेनायमीदृशमवस्थान्तरप्रकारमप्रतीकारमुपनीतः। कथमेवमेकपदे व्यर्थीभवेदेवंविधो ज्ञानराशिः। अहो बत महच्चित्रम्, तथा नामाऽयमाशैशवाद्धीरप्रकृतिरस्खलितवृत्तिर्मम चान्येषां च मुनिकुमारकाणां स्पृहणीयचरित आसीत्। अत्र त्वितर इव परिभूय ज्ञानम् अवगणय्य तपःप्रभावम् उन्मूल्य गाम्भीर्यं, मन्मथेन जडीकृतः इति। उपसृत्य च तस्मिन्नेव शिलातलैकपार्श्वे समुपविश्यांसावसक्तपाणिस्तमनुन्मीलितलोचनमेव ‘सखे पुण्डरीक, कथय किमिदम्’ इत्यपृच्छम्। अथ सुचिरसंमीलनाऽऽलग्नमिव कथमपि प्रयत्नेनानवरतरोदनवशात् समुपजातारुणभावं चक्षुरुन्मील्य मन्थरमन्थरया दृष्ट्या सुचिरं विलोक्य मामायततरं निःश्वस्य लज्जाविशीर्यमाणाक्षरम् ‘सखे कपिञ्जल, विदितवृत्तान्तोऽपि किं मां पृच्छसि’ इति कृच्छ्रेण शनैः शनैरवदत्। अहं तु तदाकर्ण्य तदवस्थयैवाप्रतीकारविकारोऽयं तथापि सुहृदा सुहृदसन्मार्गप्रवृत्तो यावच्छक्ति सर्वात्मना निवारणीय इति मनसावधार्याब्रुवम्—‘सखे पुण्डरीक, सुविदितमेतन्मम। केवलमिदमेव पृच्छामि, यदेतदारब्धं भवता किमिदं गुरुभिरुपदिष्टम्, उत धर्मशास्त्रेषु पठितम्, उत धर्मार्जनोपायोऽयम्, उतापरस्तपसां प्रकारः, उत स्वर्गगमनमार्गोऽयम्, उत व्रतरहस्यमिदम्, उत मोक्षप्राप्तियुक्तिरियम्, आहोस्विदन्यो नियमप्रकारः। कथमेतद्युक्तं भवतो मनसापि चिन्तयितुम्, किं पुनराख्यातुमीक्षितुं वा। अप्रबुद्ध इवानेन मन्मथहतकेनोपहासास्पदतां नीयमानमात्मानं नावबुध्यसे। मूढो हि मदनेनायास्यते। का वा सुखाशा साधुजननिन्दितेष्वेवंविधेषु प्राकृतजनबहुमतेषु विषयेषु भवतः। स खलु धर्मबुद्ध्या विषलतां सिञ्चति, कुवलयमालेति निस्
त्रिंशलतामालिङ्गति, कृष्णागुरुधूमलेखेति कृष्णसर्पमव-
गूहति, रत्नमिति ज्वलन्तमङ्गारमभिस्पृशति, मूढो विषयोपभोगेष्वनिष्टानुबन्धिषु यः सुखबुद्धिमारोपयति। कोऽयमनङ्गो नाम। धैर्यमवलम्ब्य निर्भर्त्स्यतामयं दुराचारः’ इत्येवं वदत एव मे वचनमाक्षिप्य प्रतिपक्ष्मान्तरालप्रवृत्तवाष्पवेणिकं प्रमृज्य चक्षुः करतलेन मामवलम्ब्यावोचत्–‘सखे, किं बहूक्तेन। सर्वथा सर्वथा स्वस्थोऽसि। आशीविषविषवेगविषमाणामेतेषां कुसुमचापसायकानां पतितोऽसि न गोचरे। सुखमुपदिश्यते परस्य। परस्य यस्य चेन्द्रियाणि सन्ति, मनो वा वर्तते, यो वा शुभमिदं न शुभमिदमिति विवेक्तुमलं स खलूपदेशमर्हति। मम तु सर्वमेवेदमतिदूरापेतम्। अवष्टम्भो ज्ञानं धैर्यं प्रतिसंख्यानमित्यस्तमितैषा कथा। कथमप्येव मेऽयत्नविधृतास्तिष्ठन्त्यसवः। तद्गत इदानीमुपदेशकालः। यावत्प्राणिमि तावदस्य संतापस्य प्रतिक्रियां क्रियमाणामिच्छामि। पच्यन्त इव मेऽङ्गानि, उत्क्वथ्यत इव हृदयम्, प्लष्यत इव दृष्टिः, ज्वलतीव शरीरम्। अत्र यत्प्राप्तकालं तत्करोतु भवान्’ इत्यभिधाय तूष्णीमभवत्। एवमुक्तेऽप्यहमेनं प्राबोधयं पुनः पुनः। यदा शास्त्रोपदेशविशदैः सनिदर्शनैः सेतिहासैश्च वचोभिः सानुनयं सोपग्रहं चाभिधीयमानोऽपि नाकरोत् कर्णे, तदाहमचिन्तयम्—‘अतिभूमिमयं गतः, न शक्यते निवर्तयितुम्। इदानीं निरर्थकाः खलूपदेशाः। तत्प्राणपरिरक्षणेऽपि तावदस्य यत्नमाचरामि’ इति कृतमतिरुत्थाय तस्मिन्नेव लतागृहशिलातले शयनमस्याकल्पयम्।
पुनश्चाचिन्तयम्—‘प्राणास्तावदस्य येनकेनचिदुपायेन शुभेनाशुभेन वा रक्षणीयाः। तेषां च तत्समागममेकमपहाय नास्त्यपरः संरक्षणोपायः। सततमतिगर्हितेन कृत्येनापि रक्षणीयान्मन्यन्ते सुहृदसून्साधवः। तदतिह्रेपणमकर्तव्यमप्येतद-स्माकमवश्यकर्तव्यतामापतितम्। किं
चान्यत्क्रियते। का चान्या गतिः। सर्वथा प्रयामि तस्याः सकाशम्। आवेदयाम्येतामवस्थाम्, इति चिन्तयित्वा कदाचिदनुचितव्यापारप्रवृत्तं मां विज्ञाय संजातलज्जो निवारयेदित्यनिवेद्यैव तस्मै तत्प्रदेशात्सव्याजमुत्थायागतोऽहम्। तदेवम स्थिते यदत्रावसरप्राप्तम्, ईदृशस्य चानुरागस्य सदृशम्, अस्मदागमनस्य चानुरूपम्, आत्मनो वा समुचितं तत्र भवती प्रभवति’ इत्यभिधाय किमियं वक्ष्यतीति मन्मुखासक्तदृष्टिस्तूष्णीमासीत्।
कपिंजलप्रतिगमनम्
अहं तु तदाकर्ण्य सुखामृतमये ह्रद इव निमग्ना, सर्वानन्दानामुपरीव वर्तमाना सर्वमनोरथानामग्रमिवाधिरूढा, तत्कालोपजातया लज्जया किंचिदवनम्यमानवदना तत्क्षणमचिन्तयम्—इत्थंभूते किं मयापि प्रतिपत्तव्यम्, अस्य वा पुरः किमभिधातव्यम्, इति। एतावत्येव प्रविश्य ससंभ्रमा प्रतीहारी मामकथयत्—‘भर्तृदारिके, त्वमस्वस्थशरीरेति परिजनादुपलभ्य महादेवी प्राप्ता, इति। तच्च श्रुत्वा कपिञ्जलो महाजनसंमर्दभीरुः सत्वरमुत्थाय ‘राजपुत्रि, महानयमुपस्थितः कालातिपातः। भगवांश्च भुवनत्रयचूडामणि-रस्तमुपगच्छति दिवसकरः। तद्गच्छामि। इत्यभिधाय प्रतिवचनकालमप्रतीक्ष्यैव पुरोयायिनाऽम्बायाः परिजनेन सर्वतः संरुद्धे द्वारदेशे कथमप्यवाप्तनिर्गमः प्रययौ। अम्बा तु मत्समीपमागत्य सुचिरं स्थित्वा स्वभवनमयासीत्। तथा तु तत्रागत्य किं कृतं किमभिहितं किमाचेष्टितमिति शून्यहृदया सर्वं नालक्षयम्। गतायां च सत्यामस्तमुपगते भगवति सवितरि, तिमिरेणावष्टभ्यमाने जीवलोके किंकर्तव्यतामूढा तामेव तरलिकामपृच्छम्—‘अयि तरलिके, कथं न पश्यसि दृढमाकुलं मे हृदयम्। न स्वयमण्वपि कर्तव्यमलमस्मिञ्ज्ञातुम्। उपदिशतु मे भवती यदत्र
सांप्रतम्। अयमेवं त्वत्समक्षमेवाभिधाय गतः कपिञ्जलः। यदि तावत् इतरकन्यकेव विहाय लज्जाम्, अचिन्तयित्वा जनापवादम्, उल्लङ्घ्य शीलम्, अवगणय्य कुलम्, अननुज्ञाता पित्रा, अननुमोदिता मात्रा, स्वयमुपगम्य ग्राहयामि पाणिम् एवं गुरुजनातिक्रमादधर्मो महान्। अथ धर्मानुरोधादितरपक्षाऽवलम्बनद्वारेण मृत्युमङ्गीकरोम्येवमपि प्रथमं तावत्स्वयमागतस्य कपिञ्जलस्य प्रणयप्रसरभङ्गः। पुनरपरं यदि कदाचित्तस्य जनस्य मत्कृतादाशाभङ्गात्प्राणविपत्तिरुपजायते तदपि मुनिजनवधजनितं महदेनो भवेत्, इत्येवमुच्चारयन्त्यामेव मयि चन्द्रोदयजन्मना विरलविरलेनालोकेन वसन्तवनराजिरिव कुसुमरजसा धूसरतां वासवी दिगयासीत्।
महाश्वेतायाः पुण्डरीकाऽन्तिकगमनम्
ततः शशिकेसरिविदार्यमाणतमःकरिकुम्भसंभवेन मुक्ताफलक्षोदेनेव धवलतामुपनीयमानम्, पश्चिमेतरमिन्दुधाम्ना दिगन्तरमदृश्यत। तदनु रसातलादवनीमवदार्योद्गच्छता शेषफणामण्डलेनेव रजनीकरबिम्बेनाराजत रजनी। अथ तरलिका मां कृतपादप्रणामा बद्धाञ्जलिरवादीत्—‘भर्तृदारिके, प्रसीद। प्रेषय माम। आनयामि ते हृदयदयितं जनम् \। उत्तिष्ठ। स्वयं वा तत्र गम्यताम्। इत्यभिधीयमाना मूर्च्छाखेदचिह्नठैरङ्गैः कथंचिदवलम्ब्य तामेवादतिष्ठम्। उच्चलितायाश्च मे दुर्निमित्तनिवेदकमस्पन्दत दक्षिणं लोचनम्। उपजातशङ्का चाचिन्तयम्—‘इदमपरं किमप्युपक्षिप्तं दैवेन’ इति।
अथ नातिदूरोद्गतेन त्रिभुवनप्रासादमहाप्रणालानुकारिणा सुधासलिलप्लवानिव वहता चन्दनरसनिर्झरनिकरानिव क्षरता अमृतसागरपूरानिवोद्गिरता श्वेतगङ्गाप्रवाहसहस्राणीव वमता चन्द्रमण्डलेन
प्लाव्यमाने ज्योत्स्नया भुवनान्तराले, चन्द्रोदयानन्दनिर्भरे महोदधाविव प्रीतिमये जीवलोके, तरलिकयानुगम्यमाना रक्तांशुकेन कृतशिरोवगुण्ठना केनचिदात्मीयेनापि परिजनेनानुपलक्ष्यमाणा तस्मात्प्रासादशिखरादवातरम्। अवतीर्य च प्रमदवनपक्षद्वारेण निर्गत्य तत्समीपमुदचलम्। तत्कालोचितैरालापैस्तया सह अचिरेण तमुद्देशमभ्युपागमम्। तत्र च मार्गलताकुसुमरजोधूसरं चरणयुगलं कैलासतटाच्चन्द्रोदयप्रस्तुतचन्द्रकान्तमणिप्रस्रवणे क्षालयन्ती यस्मिन् प्रदेशे स आस्ते तस्मिन्नेव चास्य सरसः पश्चिमे तटे पुरुषस्येव रुदितध्वनिं विप्रकर्षान्नातिव्यक्तमुपालक्षयम्। दक्षिणेक्षणस्फुरणेन च प्रथममेव मनस्याहितशङ्का तेन सुतरां विदीर्णहृदयेव किमप्यनिष्टमन्तः कथयतेव विषण्णेनान्तरात्मना ‘तरलिके किमिदम्’ इति सभयमभिदधाना वेपमानगात्रयष्टिरभिमुख-मतित्वरितमगच्छम्।
सरस्तीरे दूरात्क्रन्दनाऽऽकर्णनम्
अथ निशीथप्रभावाद्दूरादेव विभाव्यमानस्वरमुन्मुक्तार्तनादम् ‘हा हतोऽस्मि। हा किमिदमापतितम्। किं वृत्तम्। आः पापे दुष्कृतकारिणि दुर्विनीते महाश्वेते, किमनेन तेऽपकृतम्। आः पाप दुश्चरित चन्द्र चाण्डाल, कृतार्थोऽसि। इदानीमपगतदाक्षिण्य दक्षिणानिलहतक, पूर्णास्ते मनोरथाः। कृतं यत्कर्तव्यम्। वहेदानीं यथेष्टम्। हा भगवन् श्वेतकतोपुत्रवत्सल, न वेत्सि मुषितमात्मानम्। सखे, प्रतिपालय माम्। अहमपि भवन्तमनुयास्यामि। न शक्नोमि भवन्तं विना क्षणमप्यवस्थातुमेकाकी। कथमपरिचित इवादृष्टपूर्व इवाद्य मामेकपदे उत्सृज्य प्रयासि’ इत्येतानि चान्यानि च विलपन्तं कपिञ्जलमश्रौषम्। तच्च श्रुत्वा पतितैरिव
प्राणैर्दूरादेव मुक्तैकताराक्रन्दा, यथाशक्तित्वरितैरज्ञातसमविषमभूमिभागविन्यस्तैः पादप्रक्षेपैः प्रस्खलन्ती पदे पदे, केनाप्युत्क्षिप्य नीयमानेव तं प्रदेशं गत्वा धृतसरसबिससूत्रयज्ञोपवीतम्, अंसावसक्तकदलीगर्भपत्रचारुचीरम्, किंचिद्विवृताधरतया जीवितमपहर्तुमन्तःप्रविष्टैरिवेन्दुकिरणैर्निर्गच्छ द्भदंशनांशुभिर्धवलितपुरोभागम्, अन्तिकस्थितेन चाऽचिरोद्गतजीवितमार्गमिवोद्ग्रीवेण विलोकयता तपः सुहृदा कमण्डलुना समुपेतम्, कण्ठाभरणीकृतेन च मृणालवलयेन रजनीकरकिरणपाशेनेव संयम्य लोकान्तरं नीयमानम्, कपिञ्जलेन मम दर्शनात् ‘अब्रह्मण्यम्’ इत्यूर्ध्वहस्तेन द्विगुणीभूतवाष्पोद्गमेनाक्रोशता कण्ठे परिष्वक्तं तत्क्षणविगतज्जीवितं तमहं पापकारिणी मन्दभाग्या महाभागमद्राक्षम्।
उपरतं पुण्डरीकं विलोक्यमहाश्वेताया विलापो मूर्च्छनञ्च
उद्भूतमूर्च्छान्धकारा च तदा क्वाहमगमम्, किमकरवम्, किं व्यलपम्, इति सर्वमेव नाज्ञासिषम्। असवश्च मे तस्मिन् क्षणे किमतिकठिनतयास्य मूढहृदयस्य, किमनेकदुःखसहस्रसहिष्णुतया हतशरीरकस्य, किं विहिततया दीर्घशोकस्य, केन हेतुना नोद्गच्छन्ति स्म तदपि न ज्ञातवती। केवलमतिचिराल्लब्धचेतना दुःखभागिनी वह्नाविव पतितमसह्यशोकदह्यमानमात्मानमवनौ विचेष्टमानमपश्यम्। अश्रद्दधाना चासंभावनीयं तत्तस्य मरणमात्मनश्च जीवितमुत्थाय, ‘हा, किमिदमुपनतम्’ इति मुक्तार्तनादा, ‘हा अम्ब, हा तात, हा सख्यः’ इति व्याहरन्ती ‘हा नाथ जीवितनिबन्धन, आचक्ष्व। क्व मामेकाकिनीमशरणामकरुणं विमुच्य यासि। पृच्छ तरलिकां त्वत्कृते मया यानुभूतावस्था। किमिति न करोषि दयाम्। कथय किमपराद्धम्। दासीजनमकारणात्
परित्यज्य व्रजन्न बिभेषि कौलीनात्। हा, कमुपयामि शरणम्। अयि दैव, दर्शय दयाम्। भगवत्यो वनदेवताः, प्रसीदत। प्रयच्छताम्य प्राणान्, इत्येतानि चान्यानि च व्याक्रोशन्ती, कियद्वा स्मरामि, ग्रहगृहीतेवाऽऽविष्टेवोन्मत्तेव भूतोपहतेव व्यलपम्। प्रलयोर्मय इवोदतिष्ठन्नन्तर्वाष्पवेगानाम्, जलयन्त्राणीवामुच्यन्ताश्रुप्रवाहाणाम्, प्ररोहा इव निरगच्छन्प्रलापानाम्, प्रसूतय इवोदपाद्यन्त मूर्च्छानाम्’—इत्येवमात्मवृत्तान्तं निवेदयन्त्या एव तस्याः समतिक्रान्तं कथमप्यतिकष्टमवस्थान्तरमनुभवन्त्या इव चेतनां जहार मूर्च्छा।
चन्द्रापीडस्य महाश्वेतामूर्च्छापनयनं सान्त्वनं च
मूर्च्छावेगान्निष्पतन्तीं च शिलातले तां ससंभ्रमं प्रसारितकरः परिजन इव जातपीडश्चन्द्रापीडो विधृतवान्। अश्रुजलार्द्रेण च तदीयेनैवोत्तरीयवल्कलप्रान्तेन शनैः शनैर्वीजयन्संज्ञां ग्राहितवान्। उपजातकारुण्यश्च वाष्पसलिलोत्पीडेन प्रक्षाल्यमानकपोलो लब्धचेतनामवादीत्—‘भगवति, मया पापेन तवायं पुनरभिनवतां नीतः शोकः, येनेदृशीं दशामुपनीतासि। तदलमनया कथया। संह्रियतामियम्। अहमप्यसमर्थः श्रोतुम्। अतिक्रान्तान्यपि हि संकीर्त्यमानानि प्रियजनविश्वासवचनान्यनुभवसमां वेदनामुपजनयन्ति सुहृज्जनस्य दुःखानि। तन्नार्हसि कथंकथमपि विधृतानिमानसुलभानसून् पुनः शोकानल इन्धनतामुपनेतुम् इत्येवमुक्ता दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य वाष्पायमाणलोचना सनिर्वेदमवादीत्—‘राजपुत्र, या तदा तस्यामतिदारुणायां हतनिशायामेभिरतिनृशंसैरसुभिर्न परित्यक्ता ते मामिदानीं परित्यजन्तीति दूरापेतम्। नूनमपुण्योपहतायाः पापाया मम भगवानन्तकोऽपि परिहरति दर्शनम्। कुतश्च मे कठिनहृदयायाः शोकः। किं वा परमतः कष्टतरमाख्येयमन्यद्भविष्यति यन्न शक्यते
श्रोतुमाख्यातुं वा केवलमस्य वज्रपातस्यानन्तरमाश्चर्यं यदभूत्तदावेदयामि—ततश्च तथाभूते तस्मिन्नवस्थान्तरे मरणैकनिश्चयात्तत्तद्बहु विलप्य तरलिकामब्रुवम्—‘अयि उत्तिष्ठ निष्ठुरहृदये, कियद्रोदिषि। काष्ठान्याहृत्य विरचय चिताम्। अनुसरामि जीवितेश्वरम्’ इति।
दिव्यपुरुषस्याऽवतरणं, महाश्वेतामाश्वास्य पुण्डरीकशवमुत्क्षिप्य तदुत्पतनंच।
अत्रान्तरे झटिति चन्द्रमण्डलनिर्गतोगगनादवतीर्य कुमुदधवलदेहः, महाप्रमाणः पुरुषः, ऐरावतकरपीवराभ्यां बाहुभ्यां तमुपरतमुत्क्षिपन्, दुन्दुभिगम्भीरेण स्वरेण ‘वत्से महाश्वेते, न त्याज्यास्त्वया प्राणाः। पुनरपि तवानेन सह भविष्यति समागमः’ इत्येवं पितेवाभिधाय सहैवानेन गगनतलमुदपतत्। अहं तु तेन व्यतिकरेण सभया सविस्मया सकौतुका चोन्मुखी किमिदमिति कपिञ्जलमपृच्छम्। असौ तु ससंभ्रममदत्त्वैवोत्तरमुदतिष्ठत्। ‘दुरात्मन्, क्व मे वयस्यमपहृत्य गच्छसि’ इत्यभिधायोन्मुखः संजातकोपो बध्नत्सावेगमुत्तरीयवल्कलेन परिकरम्, उत्पत्योत्पतन्तं तमेवानुसरन्नन्तरिक्षमुदगात्। पश्यन्त्या एव च मे सर्व एव ते तारागणमध्यमविशन्। मम तु तेन द्वितीयेनेव प्रियतममरणेन कपिञ्जलगमनेन द्विगुणीकृतशोकायाः सुतरामदीर्यत हृदयम्। किंकर्तव्यतामूढा च तरलिकामब्रूवम्—‘अयि न जानासि। कथय किमेतत्’ इति। सा तु तदवलोक्य स्त्रीस्वभावकातरा तस्मिन्क्षणे शोकाभिभाविना भयेनाऽभिभूता वेपमानाङ्गयष्टिर्मम मरणशङ्कया च वराकी विषण्णहृदया सकरुणमवादीत्—‘भर्तृदारिके, न जानामि पापकारिणी। किंतु महदिदमाश्चर्यम्। अमानुषाकृतिरेष पुरुषः। समाश्वासिता चानेन गच्छता सानुकम्पं पित्रेव भर्तृदारिका। अतो युक्तं विचार्यात्मानम-
स्मात्प्राणपरित्यागव्यवसायान्निवर्तयितुम्। अपि च तमनुसरन्गत एव कपिञ्जलः तस्माच्च ‘कुतोऽयम्, को वायम्, किमर्थं वानेनायमपगतासुरुत्क्षिप्य नीतः, क्व वा नीतः, कस्माच्चासंभावनीयेनामुना पुनः समागमाशाप्रदानेन भर्तृदारिका समाश्वासिता’ इति सर्वमुपलभ्य जीवितं वा मरणं वा समाचरिष्यसि। अदुर्लभं हि मरणमध्यवसितम्। पश्चादप्येतद्भविष्यति’। इत्यभिदधाना पादयार्मे न्यपतत्। अहं तु सकलोकदुर्लङ्घ्यतया जीविततृष्णायाः, कपिञ्जलस्य प्रत्यागमनकाङ्क्षया च, तस्मिन्काले तदेव युक्तं मन्यमाना नोत्सृष्टवती जीवितम्। आशया हि किमिव न क्रियते। तां च पापकारिणीं कालरात्रिप्रतिमां वर्षसहस्रायमाणां यातनामयीमिव तथैव क्षितितले विचेष्टमाना रेणुकणधूसरैः शिरोरुहैरुपरुद्धमुखी तस्मिन्नेव सरस्तीरे तरलिकाद्वितीया क्षपां क्षपितवती।
प्रत्यूषसि तूत्थाय तस्मिन्नेव सरसि स्नात्वा कृतनिश्चया, तत्प्रीत्या, तमेव कमण्डलुमादाय, तान्येव च वल्कलानि तामेवाक्षमालां गृहीत्वा बुद्ध्वा निःसारतां संसारस्य, ज्ञात्वा च मन्दपुण्यतामात्मनः, चिन्तयत्वा चातिबहुलदुःखतां स्नेहस्य, अवधार्य चाकाण्डभङ्गुरतां सर्वसुधानाम्, अविगणय्य तातमम्बां च, परित्यज्य सह परिजनेन सकलबन्धुवर्गम्, निवर्त्य विषयसु भ्यो मनः, संयम्येन्द्रियाणि, गृहीतब्रह्मचर्या देवं त्रैलोक्यनाथमनाथशरणमिमं शरणार्थिनी स्थाणुमाश्रिता। अपरेद्युश्च कुतोऽपि समुपलब्धवृत्तान्तस्तानः सहाम्बया सह बन्धुवर्गेणागत्य सुचिरं कृताक्रन्दस्तैस्तैरुपायैः गृहगमनाय मे महान्तं यत्नमकरोत्। यदा च नेयमस्माद्व्यवसायात्कथंचिदपि शक्यते व्यावर्तयितुमिति निश्चयमधिगतवान्, तदा निराशोऽपि दुस्त्यजतया दुहितृस्नेहस्य पुनःपुनर्मया विसृज्यमानोऽपि बहून्दिवसान्स्थित्वा सशोक एवान्तर्दह्यमानहृदयो गृहानयासीत्। गते च ताते ततः-
प्रभृति तस्य जनस्याश्रुमोक्षमात्रेण कृतज्ञतां दर्शयन्ती, तदनुरागकृशमिदमपुण्यबहुलमस्तमितलज्ज-मङ्गलभूतमनेकक्लेशायाससहस्रनिवासं दग्धशरीरकं बहुविधैर्नियमशतैः शोषयन्ती, वन्यैश्च फलमूलवारिभिर्वर्तमाना उपव्याजेन तद्गणगणानिव गणयन्ती, त्रिसंध्यमत्र सरसि स्नात्वा प्रतिदिनमर्चयन्ती देवं त्र्यम्बकम्, अस्यामेव गुहायां तरलिकया सह दीर्घ शोकमनुभवन्त्यवसम्। साहमेवंविधा पापकारिणी निर्लक्षणा निर्लज्जा निःप्रयोजनोत्पन्ना निःफलजीविता निरवलम्बना निःसुखा च। किं मया दृष्ट्या पृष्ट्या वा कृतब्राह्मणवधमहापातकया करोति महाभाग’ इत्युक्त्वा पाण्डुना वल्कलोपान्तेन आच्छाद्य वदनं दुर्निवारवाष्पवेगमपारयन्ती निवारयितुमुन्मुक्तकण्ठमतिचिरमुच्चैः प्रारोदीत्।
चन्द्रापीडस्य महाश्वेतायाः पुनः समाश्वासनम्।
चन्द्रापीडस्तु प्रथममेव तस्या रूपेण विनयेन मधुरालापतया प्रशान्तत्वेन च निराभमानतया च महानुभावत्वेन च शुचितया चोपारूढगौरवाऽभूत्। तदानीं तु तेनापरेण दर्शितसद्भावेन स्ववृत्तान्तकथनेन तया च कृत
ज्ञतयाहृतहृदयः सुतरामारोपितप्रीतिरभवत्। आर्द्रीकृतहृदयश्च शनैः शनैरेनामभाषत—‘भगवति’ क्लेशभीरुरकृतज्ञः सुवासङ्गलुब्धो लोकः स्नेहसदृशं कर्मानुष्ठातुमशक्तो निष्फलेनाश्रुपातमात्रेण साहमुपदशयन्रोदिति। त्वया तु कर्मणैव सर्वमाचन्त्या किमिव न प्रेमोचितमाचेष्टितम्, येन रोदिषि। तदर्थमाजन्मत प्रभृति समुपचितपरिचयः प्रयानसंस्तुत इव परित्यक्तो बान्धवजनः। संनिहिता अपि तृणावज्ञयावधीरिता विषयाः। गृहीतं ब्रह्मचर्यम्। आयोजितस्तपसि महत्यात्मा। वनिताजनदुष्करमपि कृतमरण्यावस्थानम्। अपि चानायासेनैवात्मा दुःखाभिभूतैः
परित्यज्यते। यदेतदनुमरणं नाम तदतिनिष्फलम्। अविद्वज्जनाचरित एष मार्गः। मोहविलसितमेतत्, रभसाचरितमिदम्, क्षुद्रदृष्टिरेषायदुपरते पितरि सुहृदि भर्तरि वा प्राणाः परित्यज्यन्ते। स्वयं चेन्न जहति न परित्याज्याः। अत्र हि विचार्यमाणे स्वार्थ एव प्राणपरित्यागोऽयमसह्यशोकवेदनाप्रतीकारत्वादात्मनः। उपरतस्य तु न कमपि गुणमावहति। न तावत्तस्यायं प्रत्युज्जीवनो, न शुभलोकोपार्जनहेतुः, न निरयपातप्रतीकारः, न दर्शनोपायः, न परस्परसमागमनिमित्तम्। अन्यामेव स्वकर्मफलपाकोप-चितामसाववशोनीयते भूमिम्। असावप्यात्मघातिनः केवलमेनसा संयुज्यते। जीवंस्तु जलाञ्जलिदानादिना बहूपकरोत्युपरतस्यात्मनश्च, मृतस्तु नोभयस्यापि। स्मर तावत्प्रियामेकपत्नीं रति भगवति भर्तरि मकरकेतौ हरहुतभुदिग्धेऽप्यविरहितामसुभिः। पृथां च वार्ष्णीयीं शूरसेनसुतामभिरूपे पाण्डौ किदममुनिशापानलेन्धनतामुगतेऽप्यपरित्यक्तजीविताम्। उत्तरां च विराटदुहितरं बालां बालशशिनीव नयनानन्दहेतौ विनयवति विक्रन्ते च पञ्चत्वमभिमन्यावागतेऽपि धृतदेहाम्। प्रोन्मुच्येतापि जीवितं संदिग्धोऽप्यस्य समागमो यदि स्यात्। भगवत्या तु पुनः स्वयमेव समागमसरस्वती समाकर्णिता। कथं च तादृशानामप्राकृताकृतीनां महात्मनामवितथगिरां गरीयसापि कारणेन गिरि वैतथ्यमास्पदं कुर्यात्। उपरतेन च सह जीवत्याः कीदृशी समागतिः। अतो निःसंशयमसावुपजातकारुण्योमहात्मा पुनः प्रत्युज्जीवनार्थमेवैनमुत्क्षिप्य सुरलोकं नीतवान्। अचिन्त्यो हि महात्मनां प्रभावः। बहुप्रकाराश्च संसारप्रवृत्तयः। अपि च सुनिपुणमपि विमृशद्भिः किमिवान्यत्तदपहरणे कारणमाशङ्क्यते जीवितप्रदानादृते। न चासंभाव्यमिदमवगन्तव्यं भगवत्या। चिरप्रवृत्त एष पन्थाः। तथा हि—अर्जुनं अश्वमेधतुरगानुगामिनम्,
आत्मजेन बभ्रुवाहननाम्ना समरशिरसि शरापहृतप्राणम्, उलूपी नागकन्यका सोच्छ्वासमकरोत्। अभिमन्युतनयं च परीक्षितमश्वत्थामास्त्रपावकपरिप्लुष्टम्, उदरादुपरतमेव विनिर्गतम्, उत्तराप्रलापोपजनितकृपो भगवान्वासुदेवो दुर्लभानसून्प्रापितवान्। उज्जयिन्यां च संदीपनिद्विजतनयमन्तकपुरादपहृत्य त्रिभुवनवन्दितचरणः स एवानीतवान्। अत्रापि कथंचिदेवमेव भविष्यति। प्रभवति हि भगवान्विधिः। आत्मेच्छया न शक्यमुच्छ्वसितुमपि। न क्षमते दीर्घकालमव्याजरमणीयं प्रेम। प्रायेण च निसर्गत एवानायतस्वभावभङ्गुराणि सुखानि, आयतस्वभावानि च दुःखानि। तथा हि—कथमप्येकस्मिञ्जन्मनि समागमः, जन्मान्तरसहस्राणि च विरहः प्राणिनाम्। अतोनार्हस्यनिन्द्यमात्मानं निन्दितुम्। आपतन्ति हि संसारपथमतिगहनमवतीर्णानामेते वृत्तान्ताः। धीरा हि तरन्त्यापदम्’ इत्येवंविधैरन्यैश्च मृदुभिरुपसान्त्वनैः संस्थाप्य तां पुनरपि निर्झरजलेनाञ्जलिपुटोपनीतेनानिच्छन्तीमपि बलात्प्रक्षालितमुखीमकारयत्।
कादम्बरीपरिचयोविश्रामश्च
अत्रान्तरे च श्रुतमहाश्वेतावृत्तान्तोपजात शोक इव समुत्सृष्टदिवसव्यापारी रविराप भगवानधोमुखतामयासीत्। अथ क्षीणे महाश्वेता मन्दंमन्दमुत्थाय भगवतीमुपास्य पश्चिमां संध्यां कमण्डलुजलेन प्रक्षालितचरणा वल्कलशयनीये सखेद
डुष्ण निषसाद। चन्द्रापीडोऽप्युत्थाय सकुसुमं प्रस्रवणजलाञ्ज एव कृतसंध्याप्रणामस्तस्मिन्द्वितीये शिलातले मृदुभिर्लतापल्लवैः शय्यामकल्पयत्। उपविष्टश्च तस्यां पुनःपुनस्तमेव मनसा महाश्वेतावृत्तान्तमन्वभाषयत्। पुनः पप्रच्छ चैनाम्—‘भगवति, सा तव परिचारिका वनवासव्यसनमित्रं दुःखसब्रह्मचारिणी तरलिका क्व गता’
इति। अथ साकथयत्—‘महाभाग! यत्तन्मया कथितममृतसंभवमप्सरसां कुलं, तस्मान्मदिरेति नाम्ना मदिरायतेक्षणा कन्यकाभूत्। तस्याश्चासौ देवश्चित्ररथः पाणिमग्रहीत्। अन्योन्यप्रेमसंवर्धनपरयोश्च तयोः कालेनाश्चर्यभूतमेकजीवितमिव पित्रोः, दुहितृरत्नमुदपादि कादम्बरीति नाम्ना। सा च मे जन्मनः प्रभृत्येकाऽशनशयनपानासना परं प्रेमस्थानमखिलविस्रम्भधाम द्वितीयमिव हृदयं बालमित्रम्। एकत्र तया मया च गीतनृत्यकलासु कृताः परिचयाः। शिशुजनोचिताभिश्च क्रीडाभिरनियन्त्रणनिर्भरमपनीतो बालभावः। सा चामुनैव मदीयेन हतवृत्तान्तेन सपु
त्रजातशोका निश्चयमकार्षीत्—‘नाहं कथंचिदपि सशोकायां महाश्वेतायामात्मनः पाणिं ग्राहयिष्यामि’ इति। सखीजनस्य पुरतः सशपथमभिहितवती च—‘यदि कथमपि मामनिच्छन्तीमपि बलात्तातः कदाचित्कस्मैचिद्दातुमिच्छति तदाहमनशनेन वा रज्वा वा विषेण वा नियतमात्मानमुत्स्रक्ष्यामि’ इति। सर्वं च तदात्मदुहितुः कृतनिश्चययं निश्चलभावितं कर्णपरम्परया परिजनसकाशाद्गन्धर्वराजश्चित्ररथः स्वयमशृणोत्। गच्छति काले समुपारुढनिर्भरयौवनामालोक्य स तां बलवदु
पतापपरवशः क्षणमपि न धृतिमलभत, एकापत्यतया च न शक्तः किंचिदपि तामभिधातुम्। अपश्यंश्चान्यदुपायान्तरम् इदमत्र प्राप्तकालमिति मत्वा तया महादेव्या मदिरया सहावधार्य क्षीरोदनामानं कञ्चुकिनम् ‘वत्से महाश्वेते, त्वद्व्यतिकरेणैव दग्धहृदयानामिदमपरमस्माकमुपस्थितम्। इदानीं तु कादम्बरीमनुनेतुं त्वं शरणम्’ इति संदिश्य मत्समीपं प्रत्यूषसि प्रेषितवान्। ततो मया गुरुवचनगौरवेण सखीप्रेम्णा च क्षीरोदेन सार्धं सा तरलिका ‘सखि कादम्बरि, किं दुःखितमपि जनमतितरां दुःखयसि। जीवन्तीमिच्छसि चेन्मां तत्कुरु गुरुवचनमवितथम्’ इति संदिश्य विसर्जिता। नातिचिरंगतायां च तस्यामन-
न्तरमेवेमां भूमिमनुप्राप्तो महाभागः’ इत्यभिधाय तूष्णीमभवत्।
अत्रान्तरे लाञ्छनच्छलेन विडम्बयन्निव शोकानलदग्धमध्यं महाश्वेताहृदयम्, धूर्जटिजटामण्डलचूडामणिर्भवानुदगा-त्तारकाराजः। क्रमेण चोद्गते शशाङ्कमण्डले, चन्द्रापीडः सुप्तामालोक्य महाश्वेतां पल्लवशपने शनैः शनैः समुपाविशत्। ‘अस्यां वेलायां किं नु खलु मामन्तरेण चिन्तयति वैशम्पायनः, किं वा वराकी पत्रलेखा, किं वा राजपुत्रलोकः’ इति चिन्तयन्नेव निद्रां ययौ।
प्रभाते तरलिकया सह केयूरकाऽऽगमनम्।
अथ क्षीणायां क्षपायामुषसि संध्यामुपास्य शिलातलोपविष्टायां पवित्राण्यघमर्षणानि जपन्त्यां महाश्वतायां निर्वर्तित-प्राभातिकविधौ चन्द्रापीडे तरलिका षोडशवर्षवयसा, सावष्टम्भाकृतिना, अग्राम्याकृतिना, राजकुटसंपर्कचतुरेण, गन्धर्वदारकेण केयूरकनाम्नानुगम्यमाना प्रत्यूषस्येव प्रादुरासीत्। आगत्य च कोऽयमित्युपजातकुतूहला चन्द्रापीडं सुचिरमवलोक्य महाश्वेतायाः समीपमुपसृत्य कृतप्रणामा सविनयमुपाविशत्। अनन्तरं चातिदूरावनतेनोत्तमाङ्गेन प्रणम्य केयूरकोऽपि महाश्वेतादृष्टिनिसृष्टं नातिसमीपवर्ति शिलातलं भेजे। उपविष्टश्च तमदृष्टपूर्वं रूपातिशयं चन्द्रापीडस्य दृष्ट्वा विस्मयमापेदे।
कादम्बरी संदेशं निशम्य महाश्वेताचन्द्रापीडयोः हेमकूटगमनम्।
परिसमाप्तजपा तु महाश्वेता पप्रच्छ तरलिकाम्—‘किं त्वया दृष्टा प्रियसखी कादम्बरी कुशलिनी। करिष्यति वा तदस्मद्वचनम्’ इति। अथ सा तरलिका विनयावनतमौलिः
अतिमधुरया गिरा व्यजिज्ञपत्—‘भर्तृदारिके, दृष्टा खलु मया भर्तृदारिका कादम्बरी सर्वतः कुशलिनी। विज्ञापिता च निखिलं भर्तृदुहितुः संदेशम्। आकर्ण्य च यत्तया संततमुक्तस्थूलाश्रुबिन्दुवर्षं रुदित्वा प्रतिसंदिष्टम्, तदेष तयैव विसर्जितस्तस्या एव वीणावादकः केयूरकः कथयिष्यति’ इत्युक्त्वा विरराम। अथ केयूरकोऽब्रवीत् भर्तृदारिके महाश्वेते, देवी कादम्बरी दृढदत्तकण्ठग्रहा त्वां विज्ञापयति— ‘यदियमागत्य मामवदत्तरलिका तत्कथय किमयं गुरुजनानुरोधः, किमिदं मच्चित्तपरीक्षणम्, किं वा प्रकोपः। जानास्येव मे सहजप्रेमनिस्यन्दनिर्भरं हृदयम्। एवमतिनिष्ठुरं संदिशन्ती कथमसि न लज्जिता। तथा मधुरभाषिणी केनासि शिक्षिता वक्तुमप्रियं परुषमभिधातुं वा। सुहृद्दुःखखेदिते हि मनसि कैव सुखाशा, कीदृशाः संभोगाः, कानि वा हसितानि। दिवसकरास्तमयविधुरासु नलिनीषु सहवासपरिचयाच्चक्रवाकयुवतिरपि पतिसमागमसुखानि त्यजति, किमुत नार्यः। यत्र भर्तृविरहविधुरा परिहृतपरपुरुषदर्शना दिवानिशं निवसति प्रियसखी कथमिव तन्मम हृदयमपरः प्रविशेज्जनः। यत्र च भर्तृविरहविधुरा व्रतकर्षिताङ्गी प्रियसखी महत्कृच्छ्रमनुभवति, तत्राहमवगणय्यै तत्कथमात्मसुखार्थिनी पाणिं ग्राहयिष्यामि कथं वा मम सुखं भविष्यति। तदयमञ्जलिरूपरचितः, अनुगृहाण माम्, वनमितो गतासि मे जीवितेन सहेति मा कृथाः स्वप्नेऽपि पुनरिममर्थं मनसि’ इत्यभिधाय तूष्णीमभूत्। महाश्वेता तु तच्छ्रुत्वा सुचिरं विचार्य ‘गच्छ। स्वयमेवाहमागत्य यथार्हमाचरिष्यामि’ इत्युक्त्वा केयूरकं प्राहिणोत्। गते च केयूरके चन्द्रापीडमुवाच— ‘राजपुत्र, रमणीयो हेमकूटः, चित्रा च चित्ररथराजधानी, सरलहृदया महानुभावा च कादम्बरी। यदि नातिखेदकरमिव गमनं कलयसि, अतिसुखदायि वाश्चर्यदर्शनम्, इममप्रत्याख्यानयोग्यं वा जनं मन्यसे, ततो नार्हसि निष्फलां कर्तुम-
भ्यर्थनामिमाम्। इतो मयैव सह गत्वा हेमकूटमतिरमणीयतानिधानं तत्रं दृष्ट्वा च मन्निर्विशेषां कादम्बरीमपनीय तस्याःकुमतिमनोमोहविलसितमेकमहो विश्रम्य श्वोभूते प्रत्यागमिष्यसि। मम हि निष्कारणबान्धवं भवन्तमालोक्यैव उच्छ्वसितिमिव चेतसा। श्रावयित्वा स्ववृत्तान्तमिमं सह्यतामिव गतः शोकः। दुःखितमपि जनं रमयन्ति सज्जनसमागमाः’। इत्युक्तवतीं चैनां चन्द्रापीडोऽब्रवीत्—‘भगवति, दर्शनात्प्रभृति परवानयं जनः कर्तव्येषु यथेष्टमशङ्कितया नियुज्यताम्’ इत्यभिधाय तया सहैवोदचलत्।
कादम्बरीप्रासादप्रवेशः।
क्रमेण च गत्वा हेमकूटमासाद्य गन्धर्वराजकुलं समतीत्य काञ्चनतोरणानि सप्तकक्षान्तराणि कन्यान्तःपुरद्वारमवाप। महाश्वेतादर्शनप्रधावितेन दूरादेव कृतप्रणामेन प्रतीहारजनेनोपदिश्यमानमार्गः, प्रविश्यासंख्येयनारीशतसहस्रसंबाधं सौन्दर्यमयमिव, कुतूहलमयमिव, सौकुमार्यमयमिव, कुमारः कुमारीपुराभ्यन्तरं ददर्श। यत्र च, लोचनान्येव कर्णोत्पलानि, आलापा एव तन्त्रीनिनादाः, करतलान्येव लीलाकमलानि, निजदेहप्रभैवांशुकावगुण्ठनम्। यत्र चालक्तरसोऽपि चरणातिभारः, अवतंसकुसुमधारणमपि श्रमः, कुसुमावचयेषु द्वितीयपुष्पग्रहणमप्ययुवतिजनोचितम्, कन्यकाविज्ञानेषु माल्यग्रन्थनमसुकुमारजनव्यापारः।
तस्य चैवंविधस्य किंचिदभ्यन्तरमतिक्रम्येतश्चेतश्च परिभ्रमतः कादम्बरीप्रत्यासन्नस्य परिजनस्य अतिमनोहरानालापान् शृण्वन्नेव कादम्बरीभवनमुपययौ।
कादम्बरी दर्शनम्
अथ सेवार्थमागतेनोभयत ऊर्ध्वस्थितेन स्त्रीजनेन प्राकारेणेव लावण्यमयेन कृतदीर्घरथ्यामुखाकारं मार्गमद्राक्षीत्। तन्मध्ये च प्रतिस्रोत इव गत्वा प्रतिहारीमण्डलाधिष्ठितपुरोभागं श्रीमण्डपं ददर्श।
तत्र च मध्यभागे नीलांशुकप्रच्छदपटप्रावृतस्य नातिमहतः पर्यङ्कस्योपाश्रये धवलोपधानन्यस्तद्विगुणभुजलता-वष्टम्भेनावस्थिताम्, अकृतपुण्यमिव मुञ्चन्ती बालभावम्, गौरीमिव श्वेतांशुकरचितोत्तमाऽङ्गाभरणाम्, दिनमुखलक्ष्मीमिव भास्वन्मुक्तांशु-भिन्नपद्मरागप्रसाधनाम्, समीपे संमुखोपविष्टम्, ‘कोऽसौ, कस्य वापत्यम्, किमभिधानो वा, कीदृशमस्य रूपम्, कियद्वा वयः, कथं चास्य महाश्वेतया सह परिचय उपजातः, किमयमत्रागमिष्यति’ इति मुहुर्मुहुश्चन्द्रापीडसंबद्धमेवालापं तद्रूपवर्णनामुखरं केयूरकं पृच्छन्तीं कादम्बरीं ददर्श।
उचितशिष्टाचारः।
तस्य तु दृष्टकादम्बरीवदनचन्द्रलेखालक्ष्मीकस्य सागरस्येवामृतमुल्ललास हृदयम्। आसीच्चास्य मनसि— ‘शेषेन्द्रियाण्यपि मे वेधसा किमिति लोचनमयान्येव न कृतानि। इत्येवं चिन्तयत एवास्य तस्या नयनयुगले निपपात चक्षुः। तदा तस्या अपि नूनमयं स केयूरकेणावेदित इति चिन्तयन्त्या रूपातिशयविलोकनविस्मयस्मेरं निश्चलनिबद्धलक्षं चक्षुस्तस्मिन्सुचिरं पपात। कादम्बरी तु कृच्छ्रादिव दत्तकतिपयपदा महाश्वेतां स्नेहनिर्भरं चिरदर्शनजातोत्कण्ठां सोत्कण्ठं कण्ठे जग्राह। महाश्वेतापि दृढतरदत्तकण्ठग्रहा तामवादीत्—‘सखि कादम्बरि, भारते वर्षे राजा रक्षितप्रजापीडस्तारापीडो नाम। तस्यायं निजभुजशिलास्तम्भ-विश्रान्तविश्वविश्वंभरापीडश्चन्द्रापीडो नाम सूनुर्दिग्विजयप्रसङ्गेनागतोभूमिमिमाम्। एष च दर्शनात्प्रभृति प्रकृत्या मे निष्का-
रणबन्धुतां गतः। दुर्लभो हि दाक्षिण्यपरवशो निर्निमित्तमित्रमकृत्रिमहृदयो विदग्धजनः। यतो दृष्ट्वा चेममहमिव त्वमपि निर्माणकौशलं प्रजापतेः, स्थानाभिनिवेशित्वं च लक्ष्म्याः, सुरलोकातिरिक्ततां च मर्त्यलोकस्य, एकस्थानसमागमं च सर्वकलानाम्, अग्राम्यतां च मनुष्याणां ज्ञास्यसीति बलादानीतोऽयम्। कथिता चास्य मया बहुवारं प्रियसखी। तदपूर्वदर्शनोऽयमिति विमुच्य लज्जाम्, अनुपजातपरिचय इत्युत्सृज्याविश्रम्भताम्, अविज्ञातशील इत्यपहाय शङ्कां यथा मयि तथात्रापि प्रवर्तितव्यम्। एष ते मित्रं च बान्धवश्च परिजनश्च’ इत्यावेदिते तथा चन्द्रापीडः प्रणाममकरोत्। कादम्बरी तु सविभ्रमकृतप्रणामा महाश्वेतया सह पर्यङ्के निषसाद। ससंभ्रमं परिजनोपनीतायां च हेमपादाङ्कितायां पीठिकायां चन्द्रापीडः समुपाविशत्। महाश्वेतानुरोधेन च विदितकादम्बरीचित्ताभिप्रायाः संवृतमुखन्यस्तहस्तदत्तशब्दनिवारणसंज्ञाः प्रतीहार्यो वेणुरवान्वीणाघोषान्गीतध्वनी न्मागधीजयशब्दांश्च सर्वतो निवारयांचक्रुः। त्वरितपरिजनोपनीतेन च सलिलेन कादम्बरी स्वयमुत्थाय महाश्वेतायाश्चरणौ प्रक्षाल्योत्तरीयांशुकेनापमृज्य पुनः पर्यङ्कमारुरोह। चन्द्रापीडस्यापि कादम्बर्याः सखी रूपानुरूपा सर्वविश्रम्भभूमिर्मदलेखेति नाम्ना बलादनिच्छतोऽपि प्रक्षालितवती चरणौ। महाश्वेता तु कादम्बरीमनामयं पप्रच्छ। सा तु सखीप्रेम्णा गृहनिवासेन कृतापराधेवानामयेनैव लज्जमाना कृच्छ्रादिव कुशलमाचचक्षे। मुहूर्तापगमे च ताम्बूलदानोद्यतां महाश्वेता तामभाषत ‘सखि कादम्बरि, संप्रतिपन्नमेव सर्वाभिरस्माभिरयमभि-नवागतश्चन्द्रापीड आराधनीयः इति। तदस्मै तावद्दीयताम्’ इत्युक्ता च किंचिद्विवर्तितावनमितमुखी शनैरव्यक्तमिव ‘प्रियसखि, लज्जेऽहम् त्वमेवास्मै प्रयच्छ’ इत्युवाच। पुनः पुनरभिधीयमाना च तया कथमपि महा-
श्वेतामुखादनाकर्षितदृष्टिरेव वेपमानाङ्गयष्टिः, कृतप्रयत्ना प्रसारयामास ताम्बूलगर्भं हस्तपल्लवम्। चन्द्रापीडस्तु जयकुञ्जरकुम्भस्थलास्फालनसंक्रान्तसिन्दूरमिव स्वभावपाटलम्, प्रसारितवान्पाणिम्। तत्र च सा तेनानिबद्धलक्ष्यतया शून्यप्रसारितेन हस्तेन स्वेदसलिलपातपूर्वकम् ‘गृह्यतामयं दासजनः’ इत्यात्मानमिव प्रतिग्राहयन्ती, ताम्बूलमदात्। गृहीत्वा चापरं ताम्बूलं महाश्वेतायै प्रायच्छत्।
(कादम्बरीपूर्वभागात्)
इति
सुभाषितानि
प्रमदा प्रशंसा
येऽप्यङ्गनानां प्रवदन्ति दोषान् वैराग्यमार्गेण गुणान्विहाय।
ते दुर्जना मे मनसो वितर्कः सद्भाववाक्यानि न तानि तेषाम्॥१॥
प्रब्रूत सत्यं कतरोऽङ्गनानां दोषोऽस्ति यो नाऽऽचरितो मनुष्यैः।
धाष्टर्येन पुंभिः प्रमदा निरस्ता गुणाधिकास्ता मनुनाऽत्र चोक्तम्॥२॥
जाया वा स्याज्जनित्री वा संभवः स्त्रीकृतो नृणाम्।
हे कृतघ्ना स्तयोर्निन्दां कुर्वतां वः कुतः शुभम्॥३॥
दम्पत्योर्व्युत्क्रमे दोषः समः शास्त्रे प्रतिष्ठितः।
नरा न तमवेक्षन्ते तेनात्र वरमङ्गनाः॥४॥
बहिर्लोम्ना तु षण्मासान् वेष्टितः खरचर्मणा।
दारातिक्रमणे भिक्षां देहीत्युक्त्वा विशुध्यति॥५॥
अहो धार्ष्ट्यमसाधूनां निन्दतामनघाः स्त्रियः।
मुष्णतामिव चौराणां तिष्ठ चौरेति जल्पताम्॥६॥
पुरुषश्चटुलानि कामिनीनां कुरुते यानि पुरो न तानि पश्चात्।
सुकृतज्ञतयाऽङ्गना गतासूनवगूह्य प्रविशन्ति सप्तजिह्वम्॥७॥
श्रीवराहमिहिराचार्यकृतबृहत्संहितायाः।
* * *
आस्तां तावदियं प्रसूतिसमये दुर्वारशूलव्यथा,
नेरुच्ये तनुशोषणं मलमयी शय्या च सांवत्सरी।
एकस्यापि न गर्भभारभरणक्लेशस्य यस्याः क्षमो,
दातुं निष्कृतिमुन्नतोऽपि तनयस्तस्यै जनन्यै नमः॥८॥
श्री आदि शंकराचार्यकृत मातृस्तुतिः
* * *
भार्यां पतिः संप्रविश्य स यस्माज्जायते पुनः।
जायायास्तद्धि जायात्वं पौराणाः कवयो विदुः॥९॥
अर्द्धं भार्या मनुष्यस्य भार्या श्रेष्ठतमः सखा।
भार्या मूलं गृहस्थस्य भार्या कूलं तरिष्यतः॥१०॥
भार्यावन्तः क्रियावन्तः सभार्या गृहमेधिनः।
भार्यावन्तः प्रमोदन्ते भार्यावन्तः क्रियान्विताः॥११॥
सखायः प्रविविक्तेषु भवन्त्येताः प्रियंवदाः।
पितरो धर्मकार्येषु भवन्त्यार्तस्य मातरः॥१२॥
आत्माऽऽत्मनैव जनितः पुत्र इत्युच्यते बुधैः।
तस्माद्भार्यां नरः पश्येन्मातृवत् पुत्रमातरम्॥१३॥
दह्यमाना मनोदुःखैर्व्याधिभिश्चाऽऽतुरा नराः।
ह्लादन्ते स्वेषु दारेषु घर्मार्त्ताः सलिलेष्विव॥१४॥
सुसंरब्धोऽपि रामाणां न कुर्यादप्रियं नरः।
रतिं प्रीतिञ्च धर्मञ्च तास्वायत्तमवेक्ष्य हि॥१५॥
आत्मनो जन्मनः क्षेत्रं पुण्यं रामाः सनातनम्।
ऋषीणामपि का शक्तिः स्रष्टुं रामामृते प्रजाम्॥१६॥
अपि मुदमुपयान्तो वाग्विलासैः स्वकीयैः
परभणितिषु तोषं यान्ति सन्तः कियन्तः।
निजघनमकरन्दस्यन्दपूर्णालवालः,
कलशसलिलसेकं नेहते किं रसालः॥१७॥
वार्ता च कौतुकवती विमला च विद्या,
लोकोत्तरः परिमलश्च कुरङ्गनाभेः।
तैलस्य बिन्दुरिव वारिणि दुर्निवार-
मेतत्त्रयं प्रसरति स्वयमेव भूमौ॥१८॥
प्रसन्नराघवात्
न जातु कामान्न भयान्न लोभात्,
धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः।
धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये,
जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥१९॥
उद्भटः
इति द्वितीयो बिन्दुः
]
-
“‘पर्येति मन्त्रशालायां भृ’ क. ख. पाठः.” ↩︎
-
“‘ति दु’ क. पाठः,” ↩︎
-
“‘द् आग’ क. ग. पाठः,” ↩︎
-
“‘तदासन’ क ग. पाठः” ↩︎
-
“‘तदासन’ क. ग. पाठः” ↩︎
-
“‘तदासन’ क ग पाठः” ↩︎
-
“*समासान्तविधेरनित्यत्वमाश्रयणीयम् । ‘सर्व राजान्’ इति वा पाठो भवेत्” ↩︎
-
“सकैतवमित्यर्थः ‘स कितवः’ इति वा पाठो भवेत् ।” ↩︎
-
“*रुदधातोस्तुदादित्वमप्यत एव प्रयोगात् कल्प्यम् ।” ↩︎
-
“नारीमृदूनि स्त्रीवचन विक्लवानि । वृत्तौनारीशब्दो नारीसमवेतवचनक्रियावर्ती ।” ↩︎
-
“जामाता कंसः ।” ↩︎
-
“काक ! इति दुश्चापलात्, केकर ! इति विकृताज्ञत्वात्, पिङ्गल ! इति मार्जारवृत्तित्वाद् वानरवृत्तित्वाद्वा क्षेपपराणि संबोधनानि ।” ↩︎
-
“जम्भको मायावी ।” ↩︎
-
“१ कदम्बाः केचन क्षत्रियास्त एव कदम्बाः वृक्षविशेषास्तेषां कदम्बक समूहम्” ↩︎
-
“१ सत्याश्रय इति पुस्तके शिमहीपतेर्नामान्तरम्” ↩︎