संस्कृत-वाङ्मय का बृहद् इतिहास सप्तम-खण्ड आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास (आधुनिक महाकाव्य-लघुकाव्य-गद्यरचना-रूपक-नाटक-प्रहसन) प्रधान सम्पादक पद्मभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय सम्पादक डॉ. जगन्नाथ पाठक मHA RANA उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ प्रकाशक : अरुण कुमार ढौंडियाला कर निदेशक : उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ प्राप्ति स्थान : विक्रय विभाग : उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, नया हैदराबाद, लखनऊ-२२६ ००७ . . 130491 289.2000 प्रथम संस्करण : कार वि.सं. २०५६ (२००० ई.) प्रतियाँ : ११०० मूल्य : रु. ३६०/ © उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ छह मकर राज्य मुद्रक : शिवम् आर्ट्स, निशातगंज, लखनऊ । दूरभाष : ३८६३८६ परोवाकनाथी भात ETERE का TE TET कलागतात कामाला 1 की “सरस्वत्यास्तत्त्वं कविसहृदयाख्यं विजयते” नकली इदं महते प्रमोदाय यत् “आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास” नामा “संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास” नाम्नो ग्रन्थस्य सप्तमः खण्डः प्रकाशमासादयतीति। मया स्वेन हिन्दी-भाषायां लिखिते संस्कृतसाहित्येतिहासे ‘आधुनिकः कालः" न लेखन्या विषयतां नीतः। तदानीमिदमनिवार्यमिति नानुभूतम्। किन्तु प्रवर्तमाने ऽस्मिन्नायोजने आधुनिकस्य कालस्य निवेशोऽनिवार्य इत्यनुभवगोचरीकृतः। कतिपये विद्वांसः इतिहासकृभिरयं कालः कथन्न लिखित इति विचारयभिर्नणीतं यत् प्राचीनसंस्कृतसाहित्यस्य तुलनायां नायं काल आरोहतीति। परं नैषा भूतार्थव्याहृतिरिति मामकीनः पक्षः। तस्मिन् काले सामग्येण आधुनिक साहित्यमुपलब्धू शक्यं नाभवत्। नैके चाधुनिकस्य कालस्य ग्रन्थाः स्वातन्त्र्योत्तरे काले प्रकाशमासादिताः । यथा चानकैर्विद्वद्भिराधुनिकस्य साहित्यस्य सकलने विगतेषु दशकेषु प्रयासः कृतः तथा तदानीं केनापि न कृत इति मन्ये । कृष्णमाचार्यैरवश्यमनेके आधुनिकाः संस्कृतरचनाकाराश्चर्चा विषयमानीताः, किन्तु तेषां विषये सामान्या संक्षिप्ता च सूचना तैरुपहता। अस्तु, मया स्वीये “काशी की पाण्डित्य परम्परा” नाम्नि ग्रन्थे नैके आधुनिका रचनाकाराश्चर्चिताः। गाउ आधुनिकेषु संस्कृतरचनाकारेषु नैके ते सन्ति ये परम्परामनुसृत्येव काव्यलेखने समीचीनां योग्यतां प्रमाणयितुं सामर्थ्य भजन्ति। तादृशेषु रचनाकारेषु, मद्गुरुचरणा महामहोपाध्यायाः पं. रामावतारशर्माणः स्मृतिपथमिदानीमवरतन्तिः। तैलिखितं मारुतिशतकं पठन को नाम महाकविना मयूरेण लिखितस्य सूर्यशतकस्य न स्मरेत् ? अस्मिन्नेव क्रमे, मया श्रुतं यत् क्रान्तदर्शिना योगिराजेन श्रीमता ऽरविन्देन कारागारे किमपि लघुकाव्यं लिखितम्, तत् भवानी भारतीति नाम्ना पाण्डिचेयाँ स्थितेन अरविन्दाश्रमेण प्रकाशं नीतमिति। तस्मिन् का ऽप्योजः सम्पन्ना भाषा तेन सम्प्रस्तुता। एवं मया श्रुतं यत् माधव श्रीहरि अणे महाशयैः लोकामान्यानां बालगङ्गाधरतिलकमहाशयानामुदात्तं चरित्रं विषयीकुर्वद्भिस्तिलकयशोऽर्णव इति महाकाव्यं लिखितं यत् पुणेस्थतिलकविद्यापीठतः त्रिषु भागेषु प्रकाशं नीतमिति । अयञ्च मत्कृते कश्चन चमत्काराधायकः समाचार आसीत्। इतिहासे ऽस्मिन् त्रीन् प्रभावशालिन आलोचननिपुणान् रचनाकारांश्चाश्रित्य युगविभाजन सम्प्रस्तुतम् । ते सन्ति-राशिवडेकरोपावा अप्पाशास्त्रिमहाशयाः, भट्टोपावा मथुरानाथशस्त्रिणः, वेंकट राघवन् महाशयाश्च, ते कथमस्मिन्नितिहासे युग-प्रवर्तने हेतुभूता इति सम्पादकेन स्फुटतां नीतम्। आशासे, इतिहास्यास्याध्येतारो युगविभाजनमिदमङ्गीकरिष्यन्ति। इतिहासस्याध्यायेषु सर्वा अपि प्रचलिताः काव्यविधा आलोचिताः। लघुकाव्याध्याये गीतिकाव्याध्याये च नैके रचनाकारा द्विरालोचिताः, कतिपये च रचनाकाराः प्रायः सर्वेष्वध्यायेषु नामग्राहं यत्किञ्चिदालोचिताः। अध्यायानां लेखकानामालोचनपद्धतिः काव्यस्य आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास प्रतिमानविषयका विचाराः अस्मिन्नितिहासे पठतामायास्यन्ति विचारपदवीम् । सा च स्वाभाविकी स्थितिः, किन्तु प्रायः सर्वेऽप्यालोचकाः प्राचीनाचार्येनिर्दिष्टां काव्यालोचनपद्धतिमनुसरन्तीति मयाऽऽकलितम् । सत्यप्येवं सर्वैरपि आधुनिकसमीक्षाया विशेषः पन्था अपि नोपेक्षाविषयतां नीतः। अस्यां समीक्षायां रचयितुः परिवेशो ऽपि विचार्यते। प्राचीने काले परिवेशविषयको विचारो न प्रवर्तितः । वस्तुतस्तस्यापि महत्त्वम्, किन्तु कतिपये आधुनिकम्मन्याः काव्यसमीक्षकाः प्राचीनानाचार्यानुपेक्षमाणाः प्रतीयन्त इति खेदः । नासीदीदृशी दृष्टिः काव्यालोचननिपुणानामाचार्य रामचन्द्रशुक्लवर्याणाम्। प्राचीनालोचनपद्धत्या ये गुणास्ते ऽद्यापि काव्ये विचारणीयाः आधुनिकाश्च ये पाश्चात्या विचारास्ते ऽपि विचारपदवीं नेया विद्वद्भिरित्यस्माकं मतम् । इतिहासेऽस्मिन् न केवलमाधुनिकाः संस्कृतरचनाकाराः, परं समकालिका अपि आलोचिता इति वैशिष्ट्यम् । अपि च अस्मिन् खण्डे दर्शनस्य शास्त्रस्य चाध्यायो निवेशितः। अस्मिन् प्रसङ्गै नैके विद्वासः संक्षेपेण निर्दिष्टाः । खण्डोऽयमुपयोगी सेत्स्यत्यस्माकं विश्वासः।। गा। अनेन खण्डेन सम्बद्धः सम्पादको जगन्नाथ पाठकः तस्य सहयोगिनो लेखकाश्च, संस्थानस्य पूर्वनिदेशकः श्री मधुकरद्विवेदी, निदेशकपदे वर्तमाना श्रीमती अलका श्रीवास्तवा, अधिकारी श्रीचन्द्रकान्तद्विवेदी च, सनितान् प्रति आशीर्वचांसि व्याहरन विरमामि । गुरु-पूर्णिमा विक्रम सं. २०५६ बलदेव उपाध्यायः विद्याविलासः लाजीशानशामलीला रवीन्द्रपुरी, वाराणसी। प्रस्तावनायक नगर विका “संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास” का सप्तम खण्ड “आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास" प्रकाश में आ रहा है यह मेरे लिए प्रसन्नता और सन्तोष का विषय है। मैं अपने “संस्कृत साहित्य का इतिहास” ग्रन्थ में आधुनिक काल के साहित्य का अध्याय नहीं जोड़ सका था। उस समय सम्भवतः इसकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई थी, क्योंकि तब इसके प्रति ऐसा कुछ नहीं लग रहा था कि यह अध्याय इतिहास के लिए अनिवार्य है। कुछ लोगों ने ऐसी कल्पना कर ली कि इस अध्याय के प्रति इस कारण उदासीनता बरती गई कि प्राचीन संस्कृत साहित्य की तुलना में अर्वाचीन संस्कृत का साहित्य नाना कारणों से न्यून समझा जा रहा है, किन्तु मेरा निजी विचार इसके विपरीत रहा। मैने स्वयं ऐसे अनेक प्रतिभाशाली रचनाकारों को देखा और सुना तथा उनमें प्राचीन रचनाकारों जैसी गरिमा लक्षित की। जैसे अपने गुरु म.म. रामावतार शर्मा जी की रचनायें मैंने पढ़ीं और इसी प्रकार कई उत्कृष्ट कोटि के अन्य साहित्यकारों के विषय में क्रमशः अवगत हुआ, “काशी की पाण्डित्यपरम्परा” के लेखनक्रम में मैंने काशी से जुड़े ऐसे अनेक विद्वानों, साहित्यकारों के विषय में अपनी क्षमता के अनुसार लिखा जो आधुनिक काल में प्रतिष्ठित हुए। “बृहद् इतिहास” की योजना में स्वतन्त्र रूप से “आधुनिक काल” उन्नीसवीं तथा बीसवीं शती को जोड़ना मुझे अनिवार्य लगा, क्योंकि अब तक देश के कई विद्याकेन्द्रों में इस कार्य के अन्तर्गत आने वाले साहित्यकारों के विषय में अध्ययन और शोध कार्य को बहुत प्रश्रय दिये जाने से उनके विषय में प्रामाणिक सामग्री प्रकाश में आ चुकी है, ऐसा मैने अनुभव किया। अब इस काल-खण्ड के इतिहास को एक व्यवस्थित रूप देने के प्रसंग में इसके विषय के अनेक पक्षों को सुना और इसमें यथास्थान परामर्श भी दिया। मैंने अनुभव किया कि इतिहास का यह एक उपयोगी “खण्ड” सिद्ध होगा। प्रस्तुत खण्ड जिस अर्थ में एक साहित्य के इतिहास से अपेक्षा की जा सकती है उसकी बहुत कुछ पूर्ति में समर्थ होगा ऐसा मुझे विश्वास है। इसके अध्याय के सभी लेखक साहित्य के आधुनिक युग में विकास ग्रहण करते काव्यरूपों तथा शैलियों से सुपरिचित ही नहीं, स्वयं निर्माण में दक्ष भी हैं। उन्हें सामाजिक तथा राजनैतिक परिवर्तनों का भी विशेष ज्ञान है। इतना होने पर भी काव्य के मूल्यांकन की उनकी दृष्टि निजी भी है, इस कारण सम्भव है निर्णय तक पहुंचने में एक-दूसरे से अलग, या कही-कहीं एक दूसरे के विरोधी भी प्रतीत हो सकते हैं। साथ ही, इतना मुझे लगा है कि सभी भारतीय परम्परा के प्रति निष्ठावान हैं। उन्होंने आधुनिक युग के काव्यचिन्तन को भी आत्मसात् करते हुए अपनी गुणग्राहिणी दृष्टि का भी परिचय दिया है। इस कारण भी यह खण्ड उपयोगी बन पड़ा है। आधुनिक काल में काव्य की सभी विधाओं में बहुत मात्रा में लेखन हुआ। संस्कृत भाषा की यह विलक्षणता ही कही जा सकती है कि इस काल में भी अखिल भारतीय स्तर आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास पर रचनायें प्रस्तुत हुईं। एक ओर संस्कृत के प्रतिष्ठित शास्त्रज्ञ पण्डितों ने प्रौढ़ तथा उच्च कोटि की रचना की तो दूसरी ओर जयदेव की ‘कोमल कान्त पदावली" में लिखने वालों की कोई कमी नहीं रही। मुझे यह जानकर आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता की अनुभूति हुई कि भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के एक सहपाठी बिहार के निवासी कमलेश मिश्र ने संस्कृत में लोक-गीत की परम्परा स्थापित की, उनका “कमलेशविलास” स्वातन्त्र्योत्तर काल में प्रकाश में आया। इससे जिस परम्परा को भट्ट मथुरानाथ शास्त्री से प्रवर्तित माना जाता रहा वह उनसे पूर्व भी प्रवर्तित हो चुकी थी यह तथ्य इस इतिहास में स्पष्ट रूप से प्रकाश में आया है। आधुनिक काल में जहां तक आरम्भ की बात है मैंने अपने एक पत्र में इस खण्ड के सम्पादक को सूचित किया था कि यह तब से आरम्भ होता है जब से नागेश भट्ट ने काशीवास आरम्भ किया। मेरा तात्पर्य यह था कि नागेश भट्ट के कारण शास्त्रीय चिन्तन की धारा में एक विशेष परिवर्तन लक्षित होता है। उन्होंने न केवल व्याकरण शास्त्र के ग्रन्थों पर व्याख्यान प्रस्तुत किया, प्रत्युत काव्यप्रकाश की व्याख्या “प्रदीप” पर भी अपनी गम्भीर टिप्पणी ‘उद्योत’ नाम से प्रस्तुत की। फिर भी राजनैतिक और सामाजिक स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में आधुनिक काल के जो विभाजन लोगों ने सुझाये हैं वे सामान्यतः भिन्न होने पर भी, मुझे ठीक लगे हैं। आधुनिक काल में ही दो मुख्य घटनाएं घटित हुईं। एक तो भारत पर वैदेशिकों का प्रभुत्व स्थापित होने के कुछ समय बाद स्वातन्त्र्य के लिए संघर्ष का युग और स्वातन्त्र्य की प्राप्ति के पश्चात् उसे लेकर राष्ट्र के अभ्युत्थान के लिए सोत्साह प्रयास का युग। इसमें संस्कृत का जो साहित्य स्वातन्त्र्य-संघर्ष काल में रचित हुआ वह अपने आप में विशेष ओजस्वी लक्षित होता है। यह मुझे जानकर और भी प्रसन्नता हुई कि इस युग के क्रान्तिकारी चेतना से सम्पन्न रचनाकार श्री अरविन्द ने प्रचंड ओजस्वी शैली में एक लघुकाव्य लिख रखा था जो बाद में “भवानी भारती” के नाम से प्रकाशित हुआ। मुझसे जब इस खण्ड के सम्पादक ने एक बात की और सूचना पहले ही दी थी कि स्वातन्त्र्य संग्राम के एक प्रखर योद्धा माधव श्रीहरि अणे महाशय ने अपने गुरु लोकमान्य बालगंगाधर तिलक को लेकर “तिलकयशोऽर्णवः” महाकाव्य की रचना की है और उसका तीन भागों में प्रकाशन हुआ है, तो मैं इस समाचार से चमत्कृत हो उठा। जिस प्रकार गांधीजी के सम्बन्ध में संस्कृत में पण्डिता क्षमाराव ने उनके जीवनकाल में ही सत्याग्रहगीता जैसी रचना प्रस्तुत की और उसकी प्रमाणिकता निर्विवाद सिद्ध हुई उसी प्रकार बापू जी अणे की भी यह महीयसी रचना अपने विषय के अनुरूप गम्भीर और उदात्त सिद्ध होगी, ऐसी मेरी अवधारणा है। इस इतिहास में जो एक और विशेष बात, सम्भवतः इदम्प्रथमतया सामने आयी है वह यह कि इसका एक दूसरे ढंग से युग-विभाजन किया गया है। सम्भव है हिन्दी साहित्य के इतिहास में जिस प्रकार भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग आदि की चर्चा चलती आ रही है उसका भी इस प्रकार के युग-विभाजन पर कुछ प्रभाव हो। निःसन्देह यह युग-विभाजन हमारे लिए विचारणीय है। आधुनिक साहित्यधारा को अप्पाशास्त्री राशिवडेकर, भट्ट मथुरानाथ शास्त्री और डा. राघवन् इन तीन साहित्यकार मनीषियों ने अपने उदार कृतित्व से प्रभावित किया है। अतः इनके आधार पर इस इतिहास में राशिवडेकरयुग, भट्टयुग ओर राघवन्युग के आधार पर विभाजन मुझे एक समुचित और स्वस्थ प्रयास लगा है। आधुनिक काल के साहित्य में भी मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि रचनाकारों ने भारतीय संस्कृति के प्रति अपने अपने ढंग से निष्ठा और आदर व्यक्त किया है, भरत, भामह, आनन्दवर्धन आदि प्राचीन आचार्यों के सिद्धान्तों को बहुत कुछ मान्यता प्रदान की है। इसके साथ ही उन्होंने आधुनिक साहित्य की समीक्षा में आने वाले तत्त्वों पर भी ध्यान दिया है। आज जो काव्य-समीक्षा में विशेष तत्त्व विचार कोटि में आता है वह, मेरे विचार में परिवेश है। रचनाकार का अपना परिवेश निश्चित रूप से उसकी रचना के अस्तित्व में आने में कारण बनता है। प्राचीन काल में इस पर विचार नही किया गया। प्राचीन समीक्षा में जहां सहृदय को केन्द्र में रखा जाता था वहां आज रचनाकार केन्द्र में प्रतिष्ठित किया जाने लगा है। म संस्कृत के क्षेत्र में अब भी स्वतन्त्र आधुनिक समीक्षा दृष्टि का विकास हुआ हो, यह मेरे संज्ञान में नहीं है, यदि नहीं हुआ हो तो प्रबुद्ध संस्कृतज्ञ समाज को इस दिशा में ध्यान देना चाहिए। प्राचीन आचार्यों के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलते हुए आज के युग में, प्रकाश में आ रहे साहित्य का पर्यालोचन अवश्य करना चाहिए। तभी साहित्य को गति और दिशा मिल सकेगी। अन्यथा उसके गतिहीन तथा दिशाहीन होने का भय बना रहेगा। __इस इतिहास के निर्मित होने में जिन दो विद्वानों की पुस्तकों का विशेष योगदान है वे हैं -नागपुर के श्रीधर भास्कर वर्णेकर जी और मध्य प्रदेश के डा. हीरालाल शुक्ल जी। इसी प्रकार डॉ. रामजी उपाध्याय और डा. राघवन् ने भी आधुनिक संस्कृत साहित्य को मान्य कोटि तक पहुंचाने का स्तुत्य प्रयास किया है। ये लोग आधुनिक संस्कृत साहित्य के प्रत्येक जिज्ञासु के लिए मान्य हैं। इस इतिहास में काव्य की प्रचलित नाना विधाओं के अध्यायों के साथ दर्शन और शास्त्र के अध्याय को जोड़ना आवश्यक समझा गया और इसके सम्पादक को इस सम्बन्ध में प्रयास के लिए निर्देश दिया गया। वास्तव में, आधुनिक काल में अनेक विभूतियां उत्पन्न हुई जिन्होंने शास्त्रचिन्तन को गति प्रदान की। इनमें धर्मदत्त (बच्चा झा, नकछेद राम द्विवेदी, स्वामी करपात्री जी महाराज जैसी विभूतियों को कौन नहीं जानता? आज अपने स्वतन्त्र राष्ट्र में संस्कृत की स्थिति निरन्तर दयनीय से दयनीयतर होती जा रही है। यदि ऐसी ही स्थिति बनी रही तो शास्त्रीय ग्रन्थ तो दूर, चाल्मीकि, व्यास और कालिदास को भी लोग भूल *जायेंगे। “बृहद् इतिहास” के निर्माण की इस योजना से लोगों के समक्ष संस्कृत साहित्य अपनी समग्र गरिमा के साथ प्रकट होगा और इसके अध्ययन, आकलन और मनन की ओर लोगों की प्रवृत्ति बढ़ेगी। प्राचीन कवियों के साथ आधुनिक संस्कृत के रचनाकारों के प्रति भी उनके मन में आकर्षण उत्पन्न होगा। आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास - इस इतिहास में, न केवल आधुनिक काल के संस्कृत रचनाकारों का समावेश हुआ है प्रत्युत समकालिक संस्कृत के रचनाकारों का साहित्य भी अधिक मात्रा में चर्चित हुआ है। इससे समकालिक रचनाकारों में उत्साहसंवर्धन के साथ और भी स्तरीय रचनाओं के निर्माण की प्रवृत्ति स्फुरित होगी और संस्कृत का आधुनिक तथा समकालिक साहित्य अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य के बीच देदीप्यमान होगा। निक या मैं इस खण्ड के सम्पादक अपने शिष्य जगन्नाथ पाठक तथा उनके सहयोगी सभी लेखकों को साधुवाद और आशीर्वाद देता हूँ। साथ ही डा. रमाकान्त झा ने सम्पूर्ण सामग्री को मुझे सुनाया और मेरे निर्देश का पालन करते हुए इसमें यथास्थान कुछ परिवर्तन और परिवर्धन किया उसके लिए उन्हें तथा ‘संस्थान" के पूर्व निदेशक श्री मधुकर द्विवेदी और वर्तमान निदेशक श्रीमती अलका श्रीवास्तवा और अधिकारी चन्द्रकान्त द्विवेदी को इतिहास के प्रकाशन में अपेक्षित सहयोग के लिए आशीर्वाद देता हूँ। गरुपर्णिमा सरकार किया वि.सं. २०५६ २८ जुलाई, १EEE मारी बलदेव उपाध्याय विद्याविलास रवीन्द्रपुरी, वाराणसी। उत्तरमाण वा सम्पादकीयम संस्कृत-साहित्यस्य प्राचीनत्वं महत्त्वञ्च ना __यदैव संस्कृतं ‘भाषा’मात्रमिति प्रस्तूयते तदैव प्रतीयते यद् गङ्गा काचिदेका ‘नदी’ मात्रमिति परिचाय्यते। ‘दैवी वाक्’ ‘सुर-भारती’ वेति सुबहोः कालात् प्रतिष्ठापिता खल्वियं संस्कृत-भाषा न केवलं विश्वस्य प्राचीनासु भाषासु अन्यतमा, परं तस्यां साहित्यमपि, न केवलं शताब्देभ्यः परं सहस्त्राब्देभ्यो निर्मीयमाणमस्तीति नाविदितं समेषाम् । विश्व-मानवस्य, इदम्प्रथमतया ज्ञातः, ऋग्वेदो नाम प्रथम काव्यं पञ्चसहस्त्रवर्षेभ्यः प्राक्कालिक इत्यपि निर्विवादमेव । त्यागेन तपसा चानुप्राणितं स्वीयं सांस्कृतिक निधानमनुसन्धातुं संस्कृतसाहित्यमनिवार्यतया ऽस्माभिरवगायते। सुबहोः कालाच्च प्रशस्ते निर्मले च संस्कृतसाहित्यादर्श भारतीय जन-मानसं जन-जीवनञ्च प्रतिफलितमुत्यश्यामः। अतः संस्कृतसाहित्यं भारतीयायाः संस्कृतेहिनमिति कृत्वा प्रत्येक भारतीयेनाकलनीयम् ।
- ऋग्वेदादयो दिव्या वैदिका ग्रन्थाः, गम्भीरा उपनिषदः, अनुपमं वेदाङ्गसाहित्यम्, वाल्मीकेरादिकवे रामायणम्, कृष्णद्वैपायनस्य महर्षेासस्य महाभारतञ्चेति इतिहासौ, पुराण-साहित्यञ्च, संस्कृतभाषायामीदृशं साहित्यमस्ति यदद्यत्वेऽपि पवित्रयत्युल्लासयति चास्मान् । पाणिनि-कात्यायन-पतञ्जलीनां त्रयाणां मुनीनां व्याकरणम्, कौटल्यस्य चाणक्यस्य अर्थशास्त्रम्, चरक-सुश्रुत-वाग्भटादीनामायुर्वेदशास्त्रग्रन्थाः, प्रखरचिन्तकत्वेन प्रसिद्धिं गताना मादिशङ्कराद्याचार्याणां धर्मकीर्तिप्रमुखानां बौद्धाचार्याणां जैनमनीषिणाञ्च दार्शनिका ग्रंथाः संस्कृत- साहित्यं विलक्षणनिधितया प्रख्यापयितुमद्यापि प्रभवन्ति। कविकुलगुरुकालिदास-अश्वघोष-भारवि-माघ-भवभूति-श्रीहर्षप्रभृतीनां काव्यानि संस्कृत साहित्यस्य महार्हाणि रत्नानि-इत्यद्यत्वेऽपि सङ्ग्राह्याणि समाकलनीयानि च। -संस्कृतातिरिक्तासु प्राकृतपाल्यपभ्रंशभाषास्वपि विपुलतया साहित्यनिर्माणं समजनि । तासु निर्मितमपि साहित्यमस्माकं समुज्ज्वलायाः सांस्कृतिक्याश्चेतनायाः परमं प्रमाणम्। किन्तु कालक्रमेण संस्कृतभाषायाः प्रभविष्णुतायाः समक्षं तासु भाषासु साहित्यनिमार्णप्रवृत्तिः शिथिलता गतवती। संस्कृतसाहित्यधारा सर्वेष्वपि युगेष्वप्रतिहतगतिका प्रवहन्ती प्रावर्ततत्याश्चर्यम्। इतोऽप्यधिक माश्चर्यं यद् विगतायां प्रवर्तमानायाञ्च शताब्द्यां विशालमुच्चकोटिकं संस्कृतसाहित्य मद्यत्वेऽप्याकलनविषयतां गच्छतीति । संस्कृतभाषाया नैकासामपि भारतीयानां भाषाणां जननीत्वं तु निर्विवादमेव। सा सम्प्रति सर्वकारेण प्रदत्तमान्यतासु भाषास्वन्यतमेत्यवगन्तव्यम्। तस्यां निर्मितमाधुनिक साहित्यं नैकासां समकालिकीनां भाषाणां साहित्येन समं सुप्रतिष्ठितम् ।। _अत इदमावश्यकं यदस्माभिः शताब्दीद्वयकालखण्डेऽस्मिन् विनिर्मितस्याधुनिकस्य संस्कृत साहित्यस्य सर्वाङ्गीणं वस्तुपरञ्च ऐतिहासिकं पुनराकलनं विधेयमिति।आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास प्राचीने काले संस्कृतसाहित्येतिहासस्य लेखनं न प्रावर्तत। ऐदम्प्राथम्येनास्येतिहासस्य लेखनं विगतायां शताब्या पाश्चात्यैर्विद्वद्विः प्रवर्तितम् । ततोऽनेके भारतीया विद्वांसोऽस्यां दिशि प्रवृत्ता अभूवन, येषु समुल्लेख्याः सन्ति, डॉ. कृष्णमाचारियरमहाशयाः, आचार्य पं. बलदेवोपाध्याश्च । कृष्णमाचारियरमहाशयानतिरिच्य नैकेनापि विदुषा संस्कृतसाहित्येतिहासः ख्रिस्तीयसप्तदशशताब्दीतोऽग्रे समुल्लिखितः। -
- अत्र सम्भाव्यमेतदपि यत् पाश्चात्या भारतीयाश्च ते विद्वांसः ख्रिस्तीयसप्रदशशताब्दी तोऽये समुल्लिखितं संस्कृतसाहित्यं प्राचीनसंस्कृतसाहित्यतुलनायां न्यूनमित्यकल्पयन् इति। यद्वा तद् वाऽस्तु, पण्डितराजानन्तरं निर्मितं संस्कृतसाहित्य, विशेषेण विगतायां प्रवर्तमानायाञ्च शताब्यां निर्मितं संस्कृतसाहित्यं समग्रामपि भारतीयां चेतना नवनवेष्वायामेषु समुद्घाटयितुं प्रवृत्तमद्यत्वेऽपि गतिशीलामस्माकं जीवनधारा महता प्रामाणिकत्वेनाकलयितुमेकमनिवार्य साधनमित्यतः अस्माकं पक्षतः सर्वथा सङ्ग्राह्यमाकलनीयञ्च। हाकिमनिट संस्कृतसाहित्यस्याधुनिकः कालः संस्कृतसाहित्येतिहासस्यास्याधुनिकः कालः कस्मात् कालविशेषादारब्ध इति प्रश्नः । आधुनिकेषु विचारकेष्वस्मिन् विषये निश्चयेन यः कश्चन मतभेदः संलक्ष्यते। अथ च किन्तावदाधुनिकत्वं संस्कृतसाहित्यस्य, इत्यपि विचारणीयः प्रश्नः । यद् विगतं तत् प्राचीनम्, यच्च प्रवर्तमानम्, तदाधुनिकमितीदृग् विचार आधुनिकत्वस्य निर्णायकतथ्यतया नैव मान्यः । कालिदासेनापि स्वपूर्ववर्ति काव्यं पुराणमिति, तदपेक्षया स्वकाव्यं नवमिति, अभिहितम्। किन्तु नाधारः साहित्येतिहासस्य सन्दर्भे व्यवहार्य इति प्रतीयते । प्रसङ्गेऽस्मिन् डॉ. राधावलल्भत्रिपाठिनो वक्तव्यमिदं विचारणीयम्-“विश्वस्मिन् देशे च परिवर्तमानानां राजनैतिकीनां सामाजिकीनाञ्च स्थितीनां बाघेन समं समग्रस्य राष्ट्रस्य ऐकात्म्यमधिश्रिता दृष्टिः न्यूनान्न्यूनमेकं व्यावर्तकमस्ति, या कालस्य विषयवस्तुनश्च दृष्ट्या आधुनिकस्य साहित्यस्योपक्रमं विधत्ते।” (“नवोन्मेषः”, राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुर, पृ. ११८) प्राध्यापकैर्वर्णेकरमहाशयैरर्वाचीनकालस्यारम्भः सप्तदशशताब्दीतः स्वीकृतः, किन्तु तेषां विचारेण स्पष्टतया स्वीयामसहमति प्रकटयदिः स्वीय एकस्मिन् व्यक्तिगते पत्रे आचार्यैः पं. बलदेवोपाध्यायैरर्वाचीनकालस्यारम्भः १७५० ख्रिस्तीयाब्दतः स्वीकृतः, यदारभ्य नागेशभट्टस्य काशीवासः समभूत् । तैरेव स्वीये पत्र एकस्मिन् (३.६ ६१ दिनाके लिखिते) आधुनिक संस्कृतसाहित्यस्य कालखण्डेन १८५० तः १६६० पर्यन्तं भाव्यमिति स्वीयो निर्देशः कृतः। _संस्कृतसाहित्यस्याधुनिक कालं सन्निर्धारयता केनचिदपि समग्रे ऽपि भारते परिवर्तमाना राजनैतिक्यः सामाजिक्यश्च स्थितयो नैवोपेक्षितुं शक्याः। पण्डितराजानन्तरं साहित्यक्षेत्रे कश्चन गतिरोधः, एक गतिहीनत्वं वा, स्फुटतया प्रतीतिपथमवतरति । सम्भवत इदमेव कारणं यदितिहासकाराणां ध्यानं न तं विषयमनु गतम् । यद्यपि तथ्यमेतद् यद् ‘गतिरोधस्य’ तादृशी स्थितिः खिस्तीयद्वादशशताब्दीत एव संलक्ष्यते, तथापि सा पण्डितराजानन्तरं सुस्पष्टतयाऽनुभूतिपथमायातेति शक्यतेऽमिधातुम्। मा सम्पादकीयम् ।। IITH डॉ. हीरालालशुक्लैः १७६४ वर्ष संस्कृतस्य नवजागरणदृष्ट्या महत्त्वपूर्णमिति स्वीकृतम्। यतः, अस्मिन्नेव काले सर विलियम जोन्समहाशयस्य प्रयासेन कलिकातायां ‘रायल एशियाटिक सोसाइटी’ इव्याख्यायाः संस्थायाः स्थापनं जातम् । अनया संस्थया संस्कृतस्य पाडुलिपीनां समुद्धारोऽभूत्, संस्कृतक्षेत्रे ऽनुसन्धानस्य प्रवर्तनञ्च सञ्जातम्। अस्मिन्नेव काले श्रीमद्भगवद्गीतायाः, हितोपदेशस्य, शकुन्तलोपाख्यानस्य चाड्नलानुवादाः प्रकाशिताः । इदम्प्रथमतया संस्कृतभाषायाः साहित्यं मुद्रणालये मुद्रितं सत् प्रकाशितम्, अथ च सम्पूर्ण एव यूरोपदेशे प्रचारितम् । अनेन संस्कृतं प्रत्याकर्षणं संवर्धितम् । ततः, १७६१ वर्षे शाकुन्तलस्य शर्मण्य (जर्मन) भाषायामनुवादः प्रस्तुतः, यमालोक्य शर्मण्य (जर्मन) भाषाया महाकविः गेटेमहाशयः सुतरां प्रभावितः सञ्जातः । वाराणस्यां संस्कृतमहाविद्यालयः १७६१ वर्षे स्थापितः। डॉ. शुक्लमहाशयाः कारणैरेभिः “संस्कृतस्य भावधारासु विशेषमेकं परिवर्तनम"नुभवन्ति। तैरिदमप्यनुभूतं यत् “संस्कृतभाषायां नवसम्भावनानां सिंहद्वारमुद्घाटितमि"ति। किन्तु १८३५ वर्षे भाषाविषयके मेकाले महाशयस्य प्रस्तावे शासनेन स्वीकृते सति सम्पूर्ण एव संस्कृतजगति व्याप्तः कश्चन विक्षोभः, तत्प्रतिक्रियायाञ्च संस्कृतस्य रक्षार्थ नवेनोत्साहेन सर्वेषां सम्मिलितानां प्रवृत्तिः, डॉ. शुक्लाः संस्कृतसाहित्यस्याधुनिककालस्यारम्भ इति मन्वते । अथ च, ते १८३५ त आरम्य १६२० पर्यन्तं लिखितं संस्कृतसाहित्यं “राजसभासंवेदना”-(दरबारी संवेदना) साहित्यतः सर्वथैव पृथक् हृदयरक्तसिक्तं निःसीममुर्वरमिति परिकल्पयन्ति, अपि च, ‘अवधिमिमं, नवजागरणस्य विकासकाल इति कथनमुपयुक्तमभिप्रयन्ति। (“आधुनिक संस्कृत-साहित्य” भूमिका) संस्कृतसाहित्यस्याधुनिकः कालः (‘देववाणी-सुवासः’, प्र.खं. भूमिकायाम्) डॉ. राजेन्द्रमित्रैरेवं विभज्यते-१. पुनर्जागरणकालः (१७८४-१८८४), २. स्थापना-कालः (१८८४-१८५०), तथा, समृद्धिकालः (१६५०-अद्यावथि)। एकेन विदुषा, शतद्वयवर्षावधिकः काल एवं विभक्तः ॥ १८००-१६०० ऊनविंशतिशताब्दी, स्वतन्त्रतापूर्वकालः, कति जिनकी १६००-१६५० विंशतिशताब्धाः पूर्वार्धभागः, स्वतन्त्रतासंघर्षकालः। १६५०-१६६० विंशतिशताब्धाः उत्तरार्धभागः, स्वातन्त्र्योत्तरकालः। APP इमानि विभाजनानि राजनैतिकानि परिवर्तनान्यालक्ष्य प्रस्तुतानीति निश्चितम् । ईदृशानि परिवर्तनानि साहित्ये यत्किञ्चित्प्रभावमातन्वत इति न शक्यतेऽस्वीकर्तुम, तथापि संस्कृत साहित्यस्याधुनिकः कालोऽन्येनापरेणापि दृष्टिकोणेन शक्यते विभक्तुमिति विचारणीयमस्माभिः । स च विचारः साहित्यमेव सर्वात्मना समालम्बत इति प्रस्तूयते। राजनैतिकी सामाजिकी या काचिदपि घटना साहित्यस्य रचनासंसारमपि स्वप्रभावसीमाया मानयत्येव, किन्तु तस्याः प्रभावस्तस्मिन्नेव काले स्फुटतामापद्यमानो न प्रतीयते, कदाचित्तस्मिन दशकानि व्यतियान्ति। तथाहि, राजनीतिक्षेत्रे महात्मगान्धिनामुदयः, तेषाञ्च नेतृत्वे स्वातन्त्र्य-सङ्घर्षस्य नवीनया दिशा च प्रवर्तनं जातम्, किन्तु तेषामनुभावेन प्रभाविताः १० आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास संस्कृतरचनाकारास्तद्विषये लेखितुमेकदशकानन्तरमेव प्रायः प्रवृत्ताः। एवञ्च, शाकुन्तलसदृशस्य संस्कृतग्रन्थस्यानुवादप्रकाशन-समकालमेव संस्कृतक्षेत्रे पाश्चात्यसम्पर्कप्रभावजन्यः कश्चन नवः प्रयोगो नारब्धः। काश युगेषु विभाजनम् कामात पूर्वमाधुनिकसंस्कृतसाहित्यस्य कालविभाजनमधिनित्य विदुषां ये विचारा निर्दिष्टास्तानवलम्ब्य कस्यचिदपि विवादस्य कृते प्रश्रयमदत्वा काश्चन युगान्तरकारिणो रचनाकारान् पुरस्कृत्य कालविभाजनं कथं न प्रवर्तनीयम् ? विशेषेण, तान् रचनाकारान् पुरस्कृत्य, यैरन्यापेक्षया सुदूरतः संस्कृते साहित्यलेखनं प्रभावितम्, व्यापकतया स्वकाले रचनाकर्मणि प्रवृत्तेम्यो मार्गदर्शनञ्च कृतम्। एवं संस्कृतसाहित्यस्याधुनिकः कालस्त्रिषु युगेषु विभजनीयः -राशिवडेकरयुगम्, १८६० तः १E३० यावत्, भट्टयुगम् १६३० तः १६६० यावत् तथा राघवयुगम, १९६० तः १६८० यावत् । एतद्विषयकः सङ्केतः गद्यसाहित्याध्यायस्य लेखकेन श्रीकलानाथशास्त्रिणा स्व-‘पृष्ठभूमी’ समुपन्यस्तः । मया समं परस्परं परामर्शकाले श्रीशास्त्रिणा पूर्व स्व-सहमतिरपि प्रकटीकता। यादृशी युगानां सीमारेखा निर्धारिता, तत्र मामकः कश्चन मतभेदोऽपि विद्यते, तथापि सकेतोऽयं प्रायो मान्यः। अप्पाशास्त्रिराशिवडेकराः (१८७३-१६१३) मौलिका रचनाकारास्त्वासन्नेव, सममेव च तै: ‘संस्कृतचन्द्रिका ख्यायाः ‘सूनृतवादिनी ‘त्याख्यायाश्च पत्रिकायाः सम्पादनेन नवयुग-प्रवृत्त्यनुसारेण संस्कृते लेखनं, सतीष्वपि नानाबाधासु प्रोत्साहितम्, येन च तदानीन्तनः संस्कृतसमाजो जागरूकः समजनि। शासनतन्त्रस्य रोषपात्रैरपि सद्भिस्तैः कारावासकष्टमप्यनुभूतम्, तथापि तेषां साधना न बाधिता। चत्वारिंशद्वर्षावधिके ऽल्पीयसि स्वजीवनकाले साहित्यतः प्रशस्तिगानमूला प्रवृत्तिः येन विधिना पृथग्भवेत् स विधिरवलम्बितः, तस्मिन् राष्ट्रियया चेतनया च समं न केवल प्रसादगुणमयी भाषा प्रवृत्तिविषयता नीता, प्रत्युत पाण्डित्यप्रदर्शनग्रासतो यथासम्भवं संरक्षिताऽपि । श्रीकलानाथशास्त्रिणा, अप्पाशास्त्रिवर्याणां स्वर्गवासानन्तरमपि प्रभाव मन्यमानेन राशिवडेकर-युगं १८६० तः १६३० पर्यन्तं सङ्केतितमिति प्रतिभाति। राशिवडेकरयुगस्यान्ये ऽपि कतिपये मनीषिणः प्रसङ्गेऽस्मिन् सादरमुल्लेख्याः सन्ति, यथा पं. हृषीकेशभट्टाचार्याः, म.म. रामावतारशर्माणः, म.म. विधुशेखरभट्टाचार्याश्च। भट्ट-युगं भट्टमथुरानाथशास्त्रिणां (१६८६-१६६०) नाम्ना प्रवर्तितम्। भट्टमहोदयैः संस्कृतरत्नाकरः’ इत्याख्यायाः, ‘भारती’ त्याख्यायाश्च पत्रिकायाः सुबहूनि वर्षाणि यावत् सम्पादनं कृतम् । स्वयञ्च तैर्नवासु विधासु संस्कृते लेखनं प्रवर्त्य लेखने प्रवृत्तेभ्यः संस्कृत रचनाकारेभ्यो मार्गदर्शनमपि कृतम्। प्रवर्तमानं गद्यलेखनमपि तैर्मसृणतां नीतम्। तस्मिन् नवाया गतेः प्रवाहमयत्वस्य च प्रवर्तनेन समं तत् परिनिष्ठितं स्यादित्यपि प्रयतितम् । संस्कृतं मृतभाषा नास्तीति यः पक्षो देशे प्रवर्धमानपाश्चात्त्यप्रभावतः शिथिलतां गत आसीत् स सम्पादकीयम् पुनः प्रतिष्ठापितः। भट्टयुगस्यान्येषु लेखकेषु यतीन्द्रविमल चौधुरी (१६०८-१६६४) महाशया उल्लेखनाहाः। म राघव-युगस्य प्रवर्तकः डॉ. वेंकटराघवन् महाशयैः (१६०५-१६७६) यावता नवदेहलीस्थायाः साहित्याकादेम्याः पत्रिकायाः “संस्कृतप्रतिभे"त्याख्यायाः सम्पादनमारब्धं तावता सा (पत्रिका) कामप्यखिलभारतीयां प्रतिष्ठामधिगतवतीत्येव न, किन्तु तद्द्वाराऽखिलभारतीय स्तरीयं साहित्यं स्थानादेकस्मात् प्रकाश्यमानं समपद्यत, व्याकीर्णतां गतञ्च तदेकदिक्क्त्वमेकलक्ष्यत्वमप्यवाप्नोत् । डॉ.राघवमहाशयाः स्वलिखितैर्निबन्थैराधुनिकसंस्कृतसाहित्यस्य महत्त्वं प्रतिष्ठापितवन्तः । समकालिकीनां भाषाणां यानि साहित्यानि तेषु संस्कृतसाहित्यस्य आधुनिके युगे प्रस्तुतस्य महत्त्वप्रतिष्ठापने तेषां विशिष्टं योगदानमासीत्। स्वयञ्च तैर्महाकाव्यस्यैकस्य लेखनेन समं नाटकानां निर्माणपुरःसरं रङ्मञ्चे ऽभिनयोऽपि कृतः। तदीयैः प्रयासैः समकालिके संस्कृत साहित्यक्षेत्रे नवायाः कस्याश्चिदुर्जस्वितायाः सञ्चारः समजनि, तत्र ते नानाप्रयोगाः समघटन्त, येऽखिलभारतीयस्तरे मान्यताभाजः समपद्यन्त। आधुनिकस्य संस्कृतसाहित्यस्य सम्प्रवर्तने नैकेषामप्यन्येषां विदुषां स्व-स्वरचनाधर्मितया समं प्रशंसनीय योगदानमासीत्, येषु कतिपये राशिवडेकरयुगस्य मनीषिणो नामग्राहमुल्लिखिताः पूर्वमस्माभिः। राघवयुगस्यापि ये समुल्लेखनीयास्तेषु सन्ति-डॉ. रामजी-उपाध्यायाः, यैराधुनिकसंस्कृत-नाटकानां सङ्कलनपुरस्सरं ग्रन्थोऽपि लिखितः, सागरविश्वविद्यालये आधुनिकान् संस्कृतरचनाकारानाधृत्य महता समारम्भेण शोधकार्यमपि प्रवर्तितम्। राशिवडेकरयुगारम्भः ऊनविंशतिशताब्या अन्त्ये दशके जातः। ततः पूर्वं लिखितं साहित्यमाधुनिकं सदपि सर्वथा सामूहिकबोधसमन्वितं नासीदिति शक्यते वक्तुम् । “संस्कृतचन्द्रिकातः” पूर्व तादृशस्य बोधस्य साहित्यलेखनक्षेत्रे समुत्पादनार्थ कोऽपि तादृशः प्रयासो न जातः। ततः पूर्व प्रकाशितानां पत्रिकाणामुद्देश्य प्रायः अप्रकाशितानां संस्कृतग्रन्थानां प्रकाशनं शास्त्रीयाणां धार्मिकाणाञ्च विचाराणां प्रसारश्चासीत्। अत एव ऊनविंशतिशताब्दया नवमं दशकं यावत् संस्कृतरचनाक्षेत्रे सुमहद्, व्याकीर्णत्वं प्रतीतिपथमायाति। कालेऽस्मिन् आङ्ग्लशासनप्रभावात् खिस्तीयं धार्मिक वाङ्मयमाधिक्येन प्राकाश्यमापद्यत। मा राशिवडेकर-युगे संस्कृतलेखने समासबाहुल्यं शिथिलतां गतम्, तच्च बोधगम्यं प्रवाहमयञ्च विधातुं प्रयासः कृतः । प्राचीनादेव कालात संस्कृतभाषा व्याकरणशास्त्रस्य नियमः समधिकतया ग्रस्ता। तस्याञ्च गद्यापेक्षया पद्येषु लेखनमधिकतरं जातमिति निर्विवादम्। राशिवडेकर-युगे गद्यलेखनम्प्रति रचनाकृभिर्ध्यानं दीयमानमाकलयितुं शक्यम् । अस्मिन् युगे संस्कृते कविता निर्माण सम्प्रवृत्ताः सुकवयः कवितायाः कलाविलासरूपं पक्षं शिथिलीकृत्य मानवस्य सुखदुःखयोरभिव्यञ्जनेऽवहिता अभूवन्। भट्टयुगे विशेषेण परिष्कारः सम्प्रवर्तितः। किमप्यतिरिक्तमोजः प्रवाहमयत्वञ्चानु भूतिपथमागतम्, गद्यविधासु वैचारिका निबन्धा अलिख्यन्त, तत्र च सामयिकेभ्यो विषयेभ्यः १२ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास प्रश्रयो दत्तः । युगमिदं राशिवडेकरयुगमधिनितम् । तस्मिन् युगे आधुनिक संस्कृतसाहित्यमेकखण्डक भवनमिव सुविनिर्मितमिति शक्यते वक्तुम् । राधवन-युगे तदेकखण्डकं भवनं द्विखण्डकभवनस्पतया निर्मितं सत् समधिकतया भव्यतां गतम्। तस्मिन् नानावर्णाः कलाकृतयः शृङ्गाणि च सुविनिर्मितानि। युगेनानेन आधुनिक- संस्कृतसाहित्यभवनं सुदर्शनं कृतम्। पत्र-पत्रिकाणां योगदानम् । आधुनिकसंस्कृतसाहित्येतिहासे यानि परिवर्तनानि, यानि वा नवासु विधासु लेखनस्य प्रवर्तनानि सम्पन्नानि, तत्र पत्र-पत्रिकाणां योगदान महत्त्वपूर्णम् । प्रायः संस्कृतपत्रपत्रिकाणां प्रकाशनमपि संस्कृतसाहित्ये आधुनिककालस्य प्रवर्तनेन साकमेव समारब्धम्। आरम्भकालिकीषु पत्रिकासु, काशीविद्यासुधानिधिः, प्रत्नकम्रनन्दिनी, विद्योदयः, षड्दर्शनचिन्तनिका इत्येतासामुल्लेखस्तु, मैक्समूलरमहाशयेन कृतः । परवर्तिनि काले याः पत्रिकाः प्राकाश्यं गतास्तासु, पण्डितः, संस्कृतचन्द्रिका, मित्रगोष्ठी, सूक्तिसुधा, सहृदया, शारदा-इत्येतासां नामान्युल्लेख्यानि । ततः सुप्रभातम्, उद्योतः, सूर्योदयः, श्रीः, कालिन्दी, मञ्जूषा, पीयूषपत्रिका-इत्येतासां सूचनोपलम्यते। एतासु, सूर्योदयः अद्यत्वेऽपि वाराणसीतः प्रकाश्यते। १८७२ वर्षे ‘विद्योदय’नाम्नः पत्रस्य हृषीकेशभट्टाचार्यस्य सम्पादकत्चे लवपुरात् (लाहौरतः) प्रकाशनारम्भः समजनि, यस्य पत्रस्य पञ्चाशद्वर्षकालिकः संस्कृतसेवाया इतिहासोऽस्ति। अप्पाशास्त्रिराशिवडेकरस्य सम्पादकत्वे प्रकाशितया ‘संस्कृतचन्द्रिकया’ पत्रिकया राष्ट्रियान्दोलनेऽपि सक्रिया भूमिका नियूंढा। अनया पत्रिकया संस्कृतक्षेत्रे एकः सामूहिको बोधः समुत्पादित एव, सममेव च सामयिकीषु समाजस्य दुःस्थितिषु टिप्पण्यो ऽपि प्रकाशिताः। पत्रिकासु नैकाः त्रैमासिक्यः, मासिक्यः, पाक्षिक्यः, साप्ताहिक्यश्च प्रकाशिता अभूवन् । पूर्व जयपुरतः, पश्चात् वाराणसीतः प्रकाशितायाः “संस्कृतरत्नाकरः’ इत्याख्यायाः पत्रिकाया विशिष्टं साहित्यिक महत्त्वमासीत। अनूदितं साहित्यम् सन्तान जमिनिताका प्रयाग आधुनिकस्य संस्कृतसाहित्यस्य विकासे संस्कृतेऽनूदितस्य साहित्यस्य योगदानमपि किञ्चिन्न्यूनं महत्त्वपूर्ण नास्ति । आरम्भतः, बाङ्लासाहित्यस्य अनेके उपन्यासाः संस्कृतभाषायामनूदिताः। ततश्च पूर्व, ‘बिहारीसतसई’ नाम्नः काव्यस्थ दोहाछन्दसि अनुवादः परमानन्दपण्डितेन कृतः। स्वातन्त्र्योत्तरे काले नैके वैदेशिका ग्रन्थाः संस्कृतभाषायामनूदिताः प्रकाशिताश्चाभूवन्। अनेनानूदितेन साहित्येन संस्कृतस्य प्रसारः प्रचारश्च सजातावेव, इतोऽप्यधिकमनया भाषया अन्यासां भाषाणां भावानात्मसात् कृत्वा तासामभिव्यञ्जनस्यापारं सामर्थ्यमपि साधितम्। पर अनूदितमिदं प्रभूतमपि साहित्यं साहित्यस्य श्रीवृद्ध्यै समपेक्ष्यत एव, परं तस्य मौलिक सम्पादकीयम् साहित्यमिव महत्त्वं नैव स्वीकर्तुं शक्यते। यद्यपि संस्कृतस्य प्रथम उपन्यास इति स्वीकृतः श्रीमदम्बिकादत्तव्यासरचित उपन्यासः ‘शिवराजविजयो’ ऽपि एकाऽनूदितैव रचनेति कैश्चिद् विद्वद्भिः प्रमाणपुरस्सरमुपस्थाप्यते, लथापि विचारकैस्तत्र पं. व्यासमहोदयानां विलक्षणायाः प्रतिभाया योगदानमपि मन्यत एव। अतः, ‘सा एका मौलिकी रचने ति नात्र विप्रतिपत्तव्यम् । आधुनिकाः संस्कृतज्ञा विशेषेण गुणग्रहीतार उदारचेतस इत्यत्रापि नास्ति सन्देहः । तैर्न केवलं, पवित्र ‘बाइबिल’-आदयः ख्रिस्तीया धार्मिका ग्रन्थाः संस्कृतेऽनूदिताः, परं पवित्र कुराण’ स्यापि संस्कृतेऽनुवादः कृतः। डॉ. वनेश्वरपाठकः ‘यीशुचरितम्’ इतिनाम्ना ‘बाइबिल-न्यूटेस्टामेण्ट’ इत्यस्य संस्कृतपद्यानुवादः १८८६ वर्षे रांचीतः प्राकाश्यं नीतः। इतोऽपि पूर्व आचार्यैः स्व. धर्मेन्द्रनाथमहाभागैः ‘सादिनः पुष्पलोकः’ इतिनाम्ना ‘गुलिस्ताने सादी’ नामा प्रसिद्धः पारसीको ग्रन्थः संस्कृतहिन्दीभाषयोरनूध निखिलभारतीयभाषापीठतः ससंरम्भं प्रकाशितः। ज्ञानेश्वरी (मराठी-भाषायां प्रस्तुता सन्तज्ञानेश्वरस्य भगवद्गीता-व्याख्या), लोकमान्यबालगङ्गधर तिलकमहाशयस्य गीतारहस्यम्, इति द्वयमपि संस्कृते ऽनूदितं विलसति। एवमाधुनिक संस्कृतानुवाद- साहित्यं सर्वथा महनीयं संग्राह्यम्, संस्कृतविदुषां जागरुकत्वस्य च परिचायकम् । किन्तु प्रसङ्गेऽस्मिन्नेतदप्यमिधातुं शक्यं यद् भारतीयमभारतीयञ्च साहित्य संस्कृतेऽनूदितम्, परं संस्कृतस्याधुनिक मौलिकं साहित्यमन्यासु भारतीयासु भाषासु कांश्चिदपवादान् विहाय नानूदितमिति। आधुनिकं संस्कृतसाहित्यं कथं तथा भारतीयानां भाषाणां संस्कृतज्ञान् भारतीयान् वैदेशिकान् वा नाद्यत्वे समाकर्षतीति प्रश्नः। विषयेऽस्मिन् संस्कृतस्य आधुनिकै रचनायां प्रवृत्तैः समालोचनायाञ्चाभिनिविष्टैः साहित्यकृद्भिश्च सम्भूय विचारणीयम्। आधुनिककालस्य काश्चन विशिष्टाः प्रवृत्तयो विधाश्च आरम्भतः, प्राचीनैः समकक्षतां स्वलेखनस्य प्रमाणयितुं प्रवृत्ता अनेके न केवलं शास्त्रज्ञाः स्वं ‘अभिनवपाणिनिः’ इति ‘अभिनवपतञ्जलिः इति ‘अभिनवशकर’ इति उपाधिभिः प्रतिष्ठापयितुं प्रायतन्त, प्रत्युत काव्यनिर्माणे प्रवृत्ता अपि केचन ‘अभिनवकालिदासाः, ‘अभिनवबाणभट्टा’ अभूवन् इति विदितमस्माकम् । किन्तु गच्छति काले क्रमेण तादृशी भावना शिथिलतां गता। आधुनिकै रचनाकृद्भिः परम्परातः प्राप्तया लेखनपद्धत्याऽसंस्पृष्टां स्वीयां लेखनपद्धतिं प्रस्तुवद्भिः स्वपरिचयं पृथगेव स्थापयितुं प्रयतितम्। समसामयिके युगे गद्यापक्षया पद्ये लेखने समधिका प्रवृत्तिरभिलक्षिता भवतीति सत्यम्, तथापि गद्यलेखन तथा समुपेक्षितं नास्तीत्यपि लक्ष्यते। एतदपि सुमहदाश्चर्यकरं यदन्यासां भारतीयानां भाषाणां साहित्ये महाकाव्यविधायां लेखनं प्रायोऽवरुद्धमिव जातम्, किन्तु संस्कृतस्याधुनिके साहित्ये समधिकतया महाकाव्यानि सुविरचितानि । इदमपि च समुल्लेखनीयं यन्महाकाव्यानां नायकत्वेन गुरुगोविन्दसिंहः, स्वामी दयानन्दः, लोकमान्यो बालगङ्गाधरस्तिलकः, महात्मा गान्धी, पं. जवाहरलाल नेहरुः- एवमादयो राष्ट्रिया नेतारो मनीषिणश्च वृता इति। यत्किञ्चित् समधिकतया प्रवर्धमाने गद्यलेखने सत्स्वपि बाङ्लाप्रभृतिसाहित्येभ्योऽनूदितेषु उपन्यासेषु मौलिका उपन्यासा अलिख्यन्त। समकालिके ऽपि युगेऽनेके मौलिका उपन्यासाः आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास प्रस्तुताः, तथाहि, डॉ. केशवचन्द्रदाशैरनेके उपन्यासा लिखिता एव, डॉ. रामकरण शर्मणामुपन्यासद्वयम्, सीमा (१६८७), रयीशः (१६६४) अपि प्रकाशितं विराजते। कालेऽस्मिन् गीतिकाव्यस्य लेखनं प्रभूततया समजनि। गीतगोविन्दस्य रागकाव्यपरम्परातः पृथक् पाश्चात्त्य- लीरिक परम्परायाः प्रभावः सर्वात्मनानुभूतिगोचरी भवति। क्षेत्रेऽस्मिन्, विशेषेण उत्तरभारते, भट्टमथुरानाथशास्त्रिणः, ललितललामाः श्रीजानकीवल्लभशारित्रणश्च सुप्रतिष्ठितहस्ताक्षरतया स्वीकृता अभूवन् । ततश्च, छन्दोमुक्तायामपि शैल्यां गीतिलेखन प्रवृत्तम्, नैकानि मेघदूतपरम्परायां दूतकाव्यानि निरमीयन्त । लोकगीतीना प्रवर्तनमपि ‘भारतेन्दु’ हरिश्चन्द्रस्य सवयसा कमलेशमिश्रेण कृतम् । कमलेशमिश्रस्य गीतिसङ्ग्रहः ‘कमलेशविलासः’ १६५५ तमे खिस्ताब्दे प्राकाश्यत। अस्मिन् गजलगीतयोऽपि समुल्लसन्तीत्यवधेयम्। आधुनिकसंस्कृतसाहित्यस्य मूलभूतेषु स्वरेषु राष्ट्रियः स्वरः सविशेषं गणयितुं शक्यते। लोकमान्यो बालगङ्गाधरस्तिलकः ऐतिहासिकं स्वदेशीयान्दोलनं प्रवर्तितवान्। ततोऽपि पूर्व बाङ्लासाहित्यस्य मूर्धन्येनेनोपन्यासकारण बकिमचन्द्रचट्टोपाध्यायेन (१८३८-१८६४) लिखितस्य ‘आनन्दमठ’ इत्याख्यस्य उपन्यासस्य प्रकाशनं १८८२ वर्षे जातम्। तस्य भूमिका राष्ट्रिय आन्दोलने सविशेषाऽजनि, तस्य ‘वन्दे मातरम्’ इति संस्कृतगीतेन शताब्दीम्यः प्रसुप्तं राष्ट्र प्रबुद्धं सजातमिति। ततः परमिदमेव गीतं स्वातन्त्र्यान्दोलनस्य प्रधानतया प्रेरकतां गतम् । तदनन्तरं प्रायः संस्कृतस्य, समग्रमेव लेखनं राष्ट्रियभावनाप्रधान समपद्यत । श्रीधरपाठकेन ‘भारतस्तवः’ लिखितः, वन्दे भारतदेशमुदारम् । सुषमासदनसकलसुखसारम्। -….. पराधीनताजन्यं कष्टमनुभवता अन्नदाचरणतर्कचूडामणिना लिखितम् धन्यस्त्वमेव विहग स्वत एव विश्व संसारबीजमनिशस्मरणीयकीर्तिम्। गायन् पुनः पुनरहो विचरस्यजनम्, स्वाधीनताशुभविभूषणभूषितः सन्।। (संस्कृतचन्द्रिका, ७-५-१८६७,- डॉ. शुक्ल, संस्कृत का समाजशास्त्र पृष्ठ ६४) संस्कृतस्य रचनाकाराणां या दृष्टिः, विगताभ्यः शताब्दीभ्यः, वाणी चमत्कार सम्पन्नामलङ्कृताञ्च विधातुं स्वाश्रयदातॄश्च प्रशस्तिगानेन प्रसादयितुं प्रवृत्ताऽऽसीत्, काश्चनापवादान् विहाय, पारतन्येण पीडितस्य भारतीयस्य जनसामान्यस्य पीडा विषयीकृतवती, अथ च सा जनोन्मुखीभूताऽवर्तत। अत्र विशेषेणोलेखनीयं यत्, योगिराजो महामनीषी श्रीअरविन्दो यदा स्वीय उग्रवाद परे राजनैतिके जीवने तिलकमहाशयादिभिः प्रभावितो राष्ट्रनेताऽऽसीत् तदा स्वकारावासकाले १६०४ तः १६०८ यावत्, लघु संस्कृतकाव्यमेकं निर्मितवान्। तत् काव्यं ‘भवानीभारती’ इतिनाम्ना पुदुच्चेरिस्थ-श्रीअरविन्दाश्रमात् १६८७ वर्षे, इदम्प्रथमतया सम्पादितं प्रकाशितञ्च । सम्पादकीयम् १५ श्रीअरविन्दस्तस्मिन् लिखति-“भौतिकचिन्तनपरायणः सुखशप्यामधिश्रितो यावन्निद्रापरिगतोऽभवम्, तावद् भूमिः चीत्कृतवती। ततः कालीरूपा महाशक्तिः साक्षादाविर्भूता मम वक्षः स्वीयेन भयड्करेण पाणिना स्पृशति सम”, इति। श्रीअरविन्दस्तस्याः स्वरूपमेभिः शब्दैवर्णयति नरास्थिमालां नृकपालकाञ्ची वृकोदराक्षीं क्षुधितां दरिदाम् । पृष्ठे व्रणाङ्कामसुरप्रतोदैः सिहीं नदन्तीमिव हन्तुकामाम् । क्रूरैः क्षुधातैर्नयनैनुलद्विर्विद्योतयन्ती भुवनानि विश्वा। हुङ्काररूपेण कटुस्वरेण विदारयन्तीं हृदयं सुराणाम् ।। ५,६ इयं समयैव शब्दावली भारतभूमेः प्रवर्तमानां दुःस्थितिं सुस्पष्टतयाऽभिव्यनक्ति, अस्माकं राष्ट्रियताबोधञ्च जागरयति। एवमेव, पं. रामावतारशर्मणां ‘भारतवन्दना’ समाकलनीया, यस्थाः प्रासद्दिकत्वमद्यापि शक्यतेऽनुभवितुम्। अस्मिन्नेव क्रमे ब्रह्मश्रीकपालिशास्त्रिणां ‘भारतीस्तव’ उल्लेखनीयः। महाकाव्यम् संस्कृते महाकाव्यलेखनं समधिकं प्राचीनम् । श्रीमद्वाल्मीकीयं रामायणं महाभारतञ्च विकसनशीलं महाकाव्यमिति मन्यते । संस्कृतस्य प्राचीनेषु काव्यकारेषु कालिदास- अश्वघोष भारवि-माघ-रत्नाकर-श्रीहर्षप्रभृतीनां नामान्युल्लेख्यानि सन्ति, परवर्तिनि काले ऐतिहासिकीन, धार्मिकाणि च महाकाव्यानि निर्मितानि। चरितप्रधानेषु विशेषेणैतिहासिकेषु महाकाव्येषु राज्ञामाश्रयदातॄणां प्रायः प्रशस्तिगानमुपलभ्यते। यथासमयं कतिपयैरालङ्कारिकैर्महाकाव्यस्य लक्षणान्यपि निर्मितानि । भामहेन, दण्डिना, साहित्यदर्पणका विश्वनाथेन च निर्मितानि महाकाव्यलक्षणानि प्रसिद्धिं गतानि। _ यथा च पूर्वमभिहितमस्माभिः, आधुनिके काले महाकाव्यविधायां संस्कृते लेखनं भारतीयानामन्यासां भाषाणां साहित्यापेक्षया समधिकतया प्राप्तप्रश्रयं जातम्। अपि च, आधुनिकैरनेकैर्महाकाव्यकृभिः प्राचीनाचार्यै निर्मितानां लक्षणानामनुपालने सर्वथा स्वातन्त्र्यमप्याचरितम्। एकतः, परम्परागतानि रूढलक्षणानुसारीणि महाकाव्यान्यालिख्यन्त, अन्यतः, परम्पराविषये आग्रहमुक्तैः कविभिर्महाकाव्यानि व्यरच्यन्त। महाकाव्यलेखनार्थमाधुनिके काले यः प्रश्रयः प्रदत्तः, तस्यानेकानि कारणानि कल्पयितुं शक्यन्ते, यथा-१, महनीयचरितस्य कस्यापि महापुरुषस्य गुणगानपुरःसरमात्मानं तेन संयोज्य प्रतिष्ठापितुं मनीषितम्, २. महाकाव्यस्य लेखनेन महाकवित्वेनात्मनः प्रतिष्ठापनम् (महाकाव्यनिर्माणकर्ता महाकविपदवाच्यो भवतीति यद्यपि नायं कश्चन सिद्धान्तः), ३. स्वकवित्वस्य विस्तृत एकस्मिन् आयामे प्रस्तुतीकरणेन कस्यचिच्चमत्कारस्य प्रदर्शनम् इत्यादि। वार्णिकानां विविधानां छन्दसा प्रयोगदृशा महतः आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास कस्यचिच्चरितस्य विस्तरेण प्रस्तावने च कोऽप्यं महाकविभिः प्राचीनैः क्षुण्णो मार्ग इति सौविध्यमनुभूतमाधुनिकैर्महाकाव्यकृभिरिति मामकीनमनुमानम् । आधुनिके काले महाकाव्यस्य निर्माणेन कस्यचित् क्षुद्रस्य लाभस्योद्देश्येन प्रशस्तिगानपरं मानसिकत्वं शिथिलतां गतम् । ततश्च कानिचिदुत्तमकोटिकानि महाकाव्यानि तैरस्मिन् काले सुविरचितानि, येषु वैविध्येन समं राष्ट्रिया चेतना समुचितं स्थानमधिगतवती। गद्यकाव्यम् संस्कृते प्राचीनादेव कालाद् गद्यस्यानेकासु विधासु विधाद्वयं मुख्यतया प्रवृत्तम्-कथा, आख्यायिका चेति। महाकवेर्बाणभट्टस्य रचनाद्वयं, हर्षचरितं कादम्बरी चेति, संस्कृतस्यालङ्कृताया गद्यशैल्याः सर्वोत्कृष्टः प्रयोग इत्यङ्गीकृतम्। तस्मिन्नादर्श नैकाः शताब्दीर्यावत् संस्कृते गद्यलेखनस्य प्रवृत्तिरभिलक्षिता भवति। यद्यप्याधुनिके काले संस्कृते उपन्यासा लघुकथाः इत्यादयोऽनेका विधा विकासमधिगताः, तथापि नैके गद्यकारा बाणभट्टस्य प्रभावत आत्मानं मोचयितुं न प्रामवन्। अयं प्रसन्नताया विषयः, यत् प्राचीनेभ्यो गद्यकारेभ्यः कमपि प्रभावं गृह्णन्तोऽपि आधुनिकाः संस्कृतगद्यकाराः सर्वथा नूतनामेकां सामान्यैरपि संस्कृतायां लेखनपद्धति प्रकल्पितवन्तः, अथ च काल्पनिकीभ्यः कथानकवढिम्यः समुन्मोच्य रचना यथार्थभूमौ प्रस्तोतुं प्रयासे किमपि साफल्यमपि तेऽर्जितवन्त इति। यद्यपि, इदमपि तथ्यं यदाधुनिकेऽपि काले पद्यापेक्षया गद्य लेखनं किञ्चिन्यूनं भवति, तथापि पत्रिकासु क्रमेण गद्यलेखनं प्रश्रयमवाप्नुवानमिव लक्ष्यते। गीतिकाव्यम् संस्कृते गीतिकाव्यस्य परम्पराऽपि प्राचीना। वेदस्यानेकासु ऋक्षु वैदिकानामृषिकवीनां भावभरितस्य हृदयस्य स्पन्दनं गीतात्मकत्वञ्चानुभवितुं शक्यम् । इदमप्यनुमीयते यत् तासामृचा माधारः प्राचीनतराणि लोकगीतानि भवेयुरिति । कालिदासस्य मेघदूतेऽपि गीतात्मकत्वमनुभूयते। प्राचीनैराचार्मेघदूतं खण्डकाव्यमिति निर्दिष्टम् । तस्यानेकेषु पद्येषु कान्ताविरहजन्याया विह्वलतायाः प्रेम्णश्च सहजाऽभिव्यक्तिर्भवति। संस्कृतस्यानेकानि मुक्तककाव्यानि पाश्चात्त्येतिहासकाराणां प्रभावतः गीतिकाव्यानीति मन्यन्ते। भर्तृहरेः शतकत्रयम्, मयूरादेः सूर्यशतकादीनि स्तोत्र-काव्यानि, अमरुकशतकम्, बिल्हणस्य चौरपञ्चाशिका-इमानि सर्वाणि मुक्तककाव्यानि गीतिकाव्य विधान्तर्गतानि मतानि। हालसातवाहनस्य ‘गाहासत्तसई’ ग्रन्थस्य प्रभावेण आचार्यगोवर्धनस्य ‘आर्यासप्तशती’त्याख्यो ग्रन्थोऽपि गीतिकाव्यत्वेन परिगणितः। केवलं स्तोत्रकाव्यत्वेन मुक्तकत्वेन वा न काऽपि रचना गीतिकाव्यविधान्तर्गता भवितुमर्हति। यदा कश्चिद् रचनाकारः ‘प्रकृतेः रम्यत्वं निरीक्ष्य, प्रियाया विरहेण, ईश्वरप्रेम्णा राष्ट्रप्रेम्णा वा कामपि भावोच्छ्वसिता स्वानुभूतिक्षणसंवलितां भावस्थितिमभिव्यनक्ति तदा गीतिकाव्यं सम्पादकीयम् सृष्टं भवति। सर्वाणि स्तोत्रकाव्यानि मुक्तककाव्यानि वा गीतिकाव्यानि वा भवितुं नार्हन्ति । श्लेषप्रधानं यमकमयं किमपि स्तोत्रकाव्यं मुक्तककाव्यं वा गीतिकाव्यमिति न शक्यममिधातुम् । तत्र हि कवेः प्रायः सहजस्वानुभूतिप्रकाशनातिरिक्त एव व्यापारः सम्प्रतीयते। पण्डितराजस्य स्तोत्रकाव्यं ‘गङ्गालहरी’ भवितुमर्हत्येव गीतिकाव्यम् । बाह्यनीतिविषयकतया भर्तृहरेः नीतिशतकं बाह्यशृङ्गारपरकतया चामरुकशतकं गीतिकाव्यमिति सन्देहास्पदमेव। आसु रचनासु गीतिकाव्यतत्त्वानि लभ्यन्ते, परं नाधिक्येन। ऊनविंशतिशताब्या कानिचिद् गीतिकाव्यानि भिन्न प्रकाराण्यरच्यन्त। प्रथमतस्तेषु प्रशस्तिपरत्वमभिलक्षितम् । ततो राष्ट्रिया चेतना स्फुटतामवाप्तवती । राष्ट्रियां प्रतिष्ठामवाप्नुवानं बङ्किमचन्द्रस्य गीतं, ‘वन्देमातरमि’त्याख्यं संस्कृत एव सुविरचितमिति नाविदितं सर्वेषाम् । क्रमेण स्वातन्त्र्यसङ्ग्रामे प्रवर्तमाने यथा यथा राष्ट्रिया भावना प्रवर्धमानेव समजायत तथा तथा राष्ट्रप्रेमसंवलितानि गीतान्यलिख्यन्त। सममेव च सामाजिकीः कुरीतीविषमताश्चाश्रित्य ‘विधवाश्रमार्जनम्’ इत्यादीनि गीतान्यालिख्यत्त। मेघदूतस्य प्रभावतः, एकतो दूतकाव्यानि, अन्यतो भक्तिभावनासंवलितानि स्तोत्रकाव्यानि व्यरच्यन्त। ‘गीतगोविन्दा’नुगतायां रागकाव्य परम्परायामपि विश्वनाथसिंहस्य सङ्गीतरघुनन्दनसदृशानि रागकाव्यानि निरमीयन्त। अन्नदाचरणतर्करत्नमहाशयैः ‘तदतीतमेव’ इतिशीर्षकमतीतगौरवगानपरं दीर्घगीतं लिखितम् । विंशतितमायां शताब्यां गीतिकाव्यानि व्यापकतया मार्मिकतया च निर्मितानि । आरम्भतः, गीतिकारेषु, पण्डिता क्षमा, भट्टमथुरानाथशास्त्री, जानकीवल्लभशास्त्री-एवमादय उल्लेखनीयाः सन्ति। ततः गीतिकाराणां विस्तृता सूची वर्तते, यस्यां रामनाथपाठकः प्रणयी, वाराणस्याः ‘कविभारती’ त्याख्यायाः संस्थाया अनेके प्रतिष्ठिताः कवयः, मधुकरगोविन्दमाइणकरश्च समुल्लेख्याः। नैकासां पत्रपत्रिकाणां प्रकाशनेनापि गीतिकाव्यविधा समधिकं प्रश्रयमुपलब्धवती । गीतिकाव्य विधामूलामिमां प्रवृत्तिं नवतामानेतुं पाश्चात्त्यस्य साहित्यस्य बालासाहित्यस्य च प्रभावः, तत्रापि विशेषेण श्रीरवीन्द्रनाथस्य ‘गीताञ्जलेः प्रभावः, संस्कृतगीतिकारेषु सुतरां समन्वभूयत। (‘लघुकाव्यमितिनाम्ना संस्कृतसाहित्ये न काऽपि काव्यविधा विद्यते। महाकाव्यातिरिक्ता श्रव्या लघुप्रबन्धरचना प्राचीनैः खण्डकाव्यम्’ इत्यभिहिता । किन्तु ‘गीतिकाव्य’विधायां रागकाव्यातिरिक्तासु अनेकासु कृतिषु संगृहीतासु नैकाः कृतयोऽवशिष्टास्तिष्ठन्ति, यानि समाहर्तुं ‘लघुकाव्यानि, इति नवीनोऽध्यायः अस्माभिः सन्निवेशितः। नैकानि काव्यानि, खण्डकाव्येषु लघुकाव्येषु चान्तर्भावयितुं शक्यानि। अतः, गीतिकाव्याध्यायस्य खण्डकाव्याध्यायस्य च लेखकाभ्यां स्वस्वानुसारेण स्वाध्याययोसल्लिखितानि। अत्र मतभेदस्यावसरः। परं नास्त्यत्रास्माकमाग्रहः । वस्तुतः, लघुकाव्याध्याये व्यापकदृष्ट्या नानालघुकाव्यकृतयः समाहर्तुं शक्यन्त इति लघुकाव्याध्यायः इतिहासेऽस्मिन् निवेशितः ।) नाट्यसाहित्यम् आधुनिककालस्य संस्कृतनाट्यसाहित्यं, यस्मिन् रूपक-भेदाः नाटकप्रहसनादयः समाहृताःआधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास समधिकतया निर्मिताः । अस्यामन्यासु विधास्विव, एकतः रामायणमहाभारतायुपजीव्य-रचनाश्रितानि रूपकाण्यलिख्यन्त, अन्यतः अनैकैलेखकैः स्वातन्त्र्य-समामस्य समर्थनार्थ तं बलवत्तरताञ्च नेतुं नैकेषां महापुरुषाणां वीराणाञ्च चरितान्याधिश्रितानि । आधिक्येन पूर्वरचनानां शाकुन्तलादीनां पुनरावृत्तिरप्यभूत् । तथापि नैकासु रचनासु नवः प्रयोगोऽपि लक्ष्यते, यथा सुन्दरवीररघूद्वहस्य भोजराजाकः, यत्र धारानृपतेर्भोजस्य मुञ्जस्य च सम्बद्धा घटनाः समाश्रिताः। पं. अम्बिकादत्ताव्यासस्य ‘सामवतम् अपि एका शोभना कृतिः। राजराजवर्मणः प्रतीकच्छायाशैल्या नाटक ‘गैर्वाणीविजयम्’ संस्कृतभाषाया दुःस्थितिं प्रकाशयितुं प्रस्तुता काचिदुत्तमा नाट्यकृतिः। परशुरामनारायणपाटकरस्य ‘वीरधर्मदर्पण’ नाम्नी कृतिः नानादृष्टिभिरेका श्रेष्ठा रचना, या भट्टनाराणस्य वेणीसंहारेण तुलयितुं शक्यते। अस्या हिन्दीभाषायामनुवादः ‘जयद्रथवध’नाम्ना कृतः । इयञ्च पाठ्यपुस्तकरूयेणापि निर्धारिता। अस्याः प्रशस्तिः ‘सरस्वती’ त्याख्यायां पत्रिकायाम्, आचार्यमहावीरप्रसादद्विवेदिभिः प्रकाशिता। स्वतन्त्रतासङ् ग्रामे योद्धृतां वहदिः, १९०७ तमे वर्षे ‘अलीपुर बमकाण्डे’ बन्दिभिः पञ्चाननतर्करत्न-महाशयैः ‘अमरमङ्गल’-नाम्नी ऐतिहासिकी नाट्यकृतिळरच्यत, या महाराणाप्रतापतनयस्य अमरसिंहस्य जीवनघटनाः समधिश्रिताऽस्ति । इयमप्येकाऽऽकलनीया कृतिः। राष्ट्रियस्य जागरणकालस्य मुख्या नाट्यकृतिकाराः सन्ति हरिदाससिद्धान्तवागीशः, मूलशङक्रमाणिकलालः, मथुराप्रसाददीक्षितश्च मथुराप्रसादीक्षितस्य भारतविजयनाम्नी कृतिः आमलशासने प्रतिबन्धमधिगताऽऽसीत्। तदनन्तरनेका नाट्यकृतयः प्रकाशिताः, यासु संविधानदृशा पाश्चात्त्यनाट्यविधानां विशेषण प्रभावः समलक्ष्यत। । नाट्यसाहित्याच्यायस्य लेखकेन डॉ. जयशङक्रत्रिपाठिना स्व० ब्रह्मदेवशास्त्रिणो नाटिकाद्वयी-वेला, सावित्री च सविशेष प्रशंसिता। परं भाषाजन्यास्त्रुटयस्तयोराधिक्येन समुपलभ्यन्ते। शास्त्रं दर्शनञ्च अयमध्यायो माननीयानां प्रधानसम्पादकमहोदयानां निर्देशानुसारेण नियोजितोऽस्माभिः । आधुनिकस्य संस्कृतसाहित्यस्यैतदभिन्नमगमित्यत्र नास्ति सन्देहः । शास्त्रीये दार्शनिके च क्षेत्रेऽनेके श्रेष्ठा ग्रन्थकाराः समभूवन् । यैः परम्परागते चिन्तने नवं किञ्चिन् न्ययोजि, नवा विचारमनी वा प्रवर्तिता, तेषु सन्ति केचित्-स्वामी दयानन्दसरस्वती, म.म. सुधाकरद्विवेदी, म.म. मधुसूदन-ओझाः, पं. धर्मदत्त (बच्चा) झाः, उमापति (नकच्छेदराम) द्विवेदी, स्वामी करपात्रः, पं. रामेश्वर झाः चेति स्वस्वक्षेत्रे महच्चिन्तनं प्रवर्तितमेभिः सुमहच्च योगदानमेषामाधुनिके संस्कृतसाहित्ये। एवं, न वयं जैनानां मनीषिणां योगदानमपि विस्मर्तुं शक्नुमः, यैः न केवलं धर्म-दर्शनयोः प्रत्युत काव्यनिर्माणक्षेत्रेऽपि नवैर्निर्माणैः संस्कृत-साहित्यस्य श्रीवृद्धिः कृता। (ऊनविंशतिशताब्द्या सम्पादकीयम् जैनसाहित्यसम्बद्धा सामग्री सत्यपि प्रयासे नास्माभिरुपलब्धेति खेदः । अतः, नास्मिन्नितिहासे, तस्या निवेशो जातः।) चम्पूकाव्यम् विधानां दृष्ट्याऽध्यायानां क्रियमाणायां व्यवस्थायां चम्पूकाव्यनाम्नी विधा कथकारं शक्येत त्यक्तुम् अस्मिन् कालावधावपि चम्पूकाव्यानि बाहुल्येन विरचितानि; किन्तु नाय मध्यायः पृथक्तया परिगणितः, परं गद्याध्यायेन सममेव तदङगतयाऽत्र संक्षिप्य नियोजितः। स्वातंत्र्योत्तरकाले संस्कृतसाहित्यस्य विकासः यदा १९५४ वर्षे नवदेहल्यां ‘साहित्य-अकादमी’ प्रतिष्ठापिता तत आरभ्य भारतीयानां भाषाणां साहित्यग्रन्थानुवादस्यापि व्यवस्था प्रवर्तिता। अनयाऽखिलभारतीयया संस्थया प्रमुखमखिलमपि भारतीय साहित्यं समाकलनविषयीकृतम्। साहित्याकादम्या संस्कृतकवीनां मौलिक्यः कृतयोऽपि पुरस्कृताः। ततः क्रमेण नैकेषु राज्येषु संस्कृताकादमी-संस्था प्रतिष्ठापिता, संस्कृतस्य नैके विश्वविद्यालयाः, केन्द्रीयाणि च विद्यापीठानि स्थापितानि । अखिलभारतीयानि राज्यस्तरीयाणि च संस्कृतकविसम्मेलान्यायोज्यन्त। आकाशवाण्या दूरदर्शनस्य च केन्द्रेभ्यः समकालिक संस्कृतसाहित्य प्राप्तप्रश्नयञ्च जातम्। संस्कृतसाहित्यस्य महत्त्वमनयाऽपि दृष्ट्याऽमन्यत, यत् तत् एकमात्रमीदृशं साहित्यमस्ति यद् देशे क्षेत्रीयाः सीमाः समुल्लङ्थ्य कांश्चिदेव भागानपहाय, कश्मीरतः कन्याकुमारी यावत् सुपठितानां जनानां मध्ये साहित्यसमुचितस्य व्यवहारस्य माध्यमभूतमस्ति। समकालिकस्य संस्कृतसाहित्यस्य विकासे तिस्र उपयोगिन्यः स्थितयः, कारणानि वा सजातानि, यथा-नैकेषु विश्वविद्यालयेषु आधुनिकसंस्कृतस्य रचनाकाराणां साहित्यमाश्रित्य शोधकार्यस्य प्रवर्तनम्, यथासमयं नै केषु स्थानेषु अखिलभारतीयानामाधुनिक संस्कृतसाहित्यमधिश्रितानां सङ्गोष्ठीनामायोजनम्; समकालिकस्य संस्कृतसाहित्यस्य संवर्धनार्थं नैकासां संस्कृतपत्रिकाणां प्रकाशनम्। पूर्वमेवोक्तमस्माभिर्यत् आधुनिकसंस्कृतसाहित्यमधिश्रितो विचारः शोधकार्य वा मध्यप्रदेशस्य सागरविश्वविद्यालये संस्कृतविभागतः समारब्धः, यस्य कृते श्रेयः, विभागा ध्यक्षेभ्यः प्रो. रामजी-उपाध्यायेभ्यः सम्प्रदातुं शक्यते, प्रो. श्रीधरभास्करवणेकरस्य, प्रो. हीरालाल शुक्लस्य च ग्रन्थाभ्यामाधुनिकं संस्कृतसाहित्यं समाकलनविषयीकृतम् । वर्णेकरमहोदयानां ‘अर्वाचीनसंस्कृतसाहित्य’ इत्याख्यो मराठीग्रन्थः १९६३ वर्षे, शुक्लमहोदयानां ‘आधुनिकसंस्कृतसाहित्य’ इत्याख्यो हिन्दीग्रन्थश्च १६७१ वर्षे प्रकाशितौ। सममेव च डॉ. रामगोपालमिश्रस्य ग्रन्थः “संस्कृतपत्रकारिता का इतिहास” १६७६ अपि प्रसझे ऽस्मिन्नुल्लेखनीयः। विश्वविद्यालयानुदानायोगस्यार्थिकेन साहाप्येन सङ्गोष्ठ्याः परिसंवादस्य वा समायोजन सागरविश्वविद्यालयत एवारब्धम्, यत्र पठितानां निबन्धानां सङ्कलनं ‘आधुनिक २० आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास संस्कृतसाहित्यानुशीलनम्’ इति नाम्ना १६६५ वर्षे प्रकाशितम् । मुम्बय्या भारतीयविद्याभवनतः ‘भारतीयविद्ये" त्याख्यायाः त्रैमासिक्याः पत्रिकायाः भागे १६८० वर्षे, विंशतिशताब्द्याः संस्कृतसाहित्यमधिश्रितायां विश्वविद्यालयानुदानायोगस्यार्थिकेन साहाय्येन १६७२ वर्षस्य दिसम्बर मासे सम्पन्नायां सङ्गोष्ट्यां पठिताश्च लेखा दिसम्बर मासे १६६२ वर्षे प्रकाशिताः। जयपुरस्थाया राजस्थानसाहित्याकादम्याः सहयोगेन १६८७ वर्षे जोधपुर-विश्वविद्यालयस्य संस्कृतविभागेन अखिलभारतीय संस्कृत-लेखकसम्मेलनमायोजितम्, तस्मिन् पठितानां निबन्धानां सङ्कलनं ‘आधुनिकसंस्कृतसाहित्य’ इति नाम्ना १६८८ वर्षे प्रकाशितम्। पुनश्च, अस्या एवाकादेम्याः सहयोगेन १६८८ वर्षे जयपुरस्थराजस्थानविश्वविद्यालयस्य संस्कृतविभागेन सङ्गोष्ठी समायोजिता, यस्यां पठितानां निबन्धानां विद्यालयानुदानायोगस्यार्थिकेन साहाय्येन सम्पादित सङ्कलनं ‘नवोन्मेष’ इत्याख्यं १६६० वर्षे प्रकाशितम्। स्वातन्त्र्योत्तरं संस्कृतसाहित्यमधिश्रिता सङ्गोष्ठी नागपुरविश्वविद्यालयस्य स्नातकोत्तरसंस्कृतविभागेपि समायोजिता, यस्यां पठितानां निबन्धानां सङ्कलनं पोस्ट ‘इण्डेपेण्डेण्ट संस्कृत लिटरेचर’ इतिनाम्ना १६६० वर्षे प्रकाशितम्। एतदतिरिच्य, विश्वविद्यालयानुदानायोगस्यार्थिकेन साहाय्येन सागरविश्वविद्यालये १६८६ वर्षे अखिलभारतीया सङ्गोष्ठी, कलिकातास्थायाः साहित्याकादेम्याः, रामकृष्णमिशन इन्स्टिच्यूट आफ कल्चर’ इत्याख्यायाश्च संस्थायाः सहयोगेन १६६२ वर्षे आधुनिकसंस्कृतसाहित्यस्य परम्परामभिनवं परिवर्तनञ्चाधिश्रिता राष्ट्रिया सङ्गोष्ठी समायोजिता, ययोः पठिता निबन्धाः प्रकाशिता न वेति न ज्ञायते।। उक्तासु सङ्गोष्ठीषु अखिलभारतीये स्तरे समाकालिकानां संस्कृतरचनाकाराणां मनीषिणाञ्च मध्ये नितान्तमुपयुक्तो विचार-विमर्शः समपद्यत, येन समकालिक संस्कृतसाहित्यं परिवर्धितम्, इति यत्किञ्चिदनुभवितुं शक्यम्। अद्यत्वे याः संस्कृतपत्रपत्रिकाः समकालिक संस्कृतसाहित्यं गतिशीलतां नेतुमुपक्रमन्ते तासु प्रमुखाः सन्ति-‘संस्कृतप्रतिभा’ (साहित्यअकादमी, नवदेहली), ‘दूर्वा’ (मध्यप्रदेशसंस्कृताकादमी, भोपाल), ‘सागरिका’ (सागरिकासमितिः, सागर), ‘स्वरमङ्ला’ (राजस्थानसंस्कृताकादमी, जयपुर), “विश्वसंस्कृतम्’ (साधुआश्रम, होशियारपुर) ‘भारती’ (भारती-भवन, जयपुर), ‘संवित्’ (भारतीय विद्याभवन, मुम्बई), ‘अजस्ना’ (अखिल भारतीय संस्कृतपरिषद्, लखनऊ) सूर्योदयः (भारतधर्ममहामण्डलम्, वाराणसी), अर्वाचीनसंस्कृतम् (वाणीविहार, दिल्ली) च। समकालिकस्य संस्कृतसाहित्यस्य केषाञ्चित् कवीनां सुभाषितसङ्ग्रहः ‘षोडशी’ इति नाम्ना डॉ. राधावल्लभत्रिपाठिभिः सम्पादितः साहित्याकादेम्या १६६२ वर्षे प्रकाशितः । लघुकथासङ्ग्रहोऽप्येकः सद्यः प्रकाश्यत इति मन्ये। इतः पूर्व डॉ. शिवदत्तशर्मचतुर्वेदेन (वाराणसेयेन) ‘अभिनवकथा-निकुञ्ज’ नामा कथासङ्ग्रइः १६६ वर्षे प्रकाशितः। सर्वमिदं प्रमाणयति यत् समकालिकस्य संस्कृतस्य रचनाकारः अखिलभारतीये स्तरे समकालिकीनां भारतीयानां भाषाणां साहित्यस्य रचनाकारैः समं स्वलेखनं गतिशीलतां नेतुं नैरन्तर्येण जागरूक इति। इदानीं संस्कृतं मृतभाषेतिवादिनां भ्रान्तिः यथासम्मवमुच्छिन्नेति वक्तुं शक्यते। सम्पादकीयम् एवं सत्यपि, स्वदेशस्यैव कतिपये आधुनिकम्मन्याः पाश्चात्यानायातितान् सिद्धान्तान् शिरसि वहन्तः सन्ति, ते प्रायः संस्कृतलेखने प्रवृत्तान् रचनाकारान् ‘पुराणपथावलम्बिन’ इति मन्यमाना सन्ति । तैरिदमवगन्तव्यं यत् संस्कृतस्य समकालिको रचनाकारो न कदाचित् तादृशी गतानुगतिकतामवलम्बत इति। स हि राष्ट्रस्य हिताय सदैव जागरूकः, नवञ्च स्वागतीकतुं सदैव तत्परश्चास्ति । अपि च, स्वपरिचयं स्थापयितुं निरन्तरं प्रयतमानश्चास्ति। सर्वात्मना च भारतीय इत्यात्मानं प्रख्याप्य गौरवमनुभवति, स्वपरम्परां सादरभरमवेक्षते च। तदीया सादरा दृष्टिरियं न तस्य मोह इत्यवगन्तव्यम्, स स्वभूम्या सर्वथा सम्पृक्त इति च मन्तव्यम्। आधुनिकेन संस्कृतसाहित्येन भारतीयाय वाङ्मयाय अनेके महान्तः साहित्यकाराः समुपहृताः। अद्यप्रभृति तेषां साहित्यिकस्य योगदानस्य समुचितं मूल्याङ्कनं नाभवदिति खेदः । साम्प्रतमन्यासां भारतीयानां भाषाणां मध्ये संस्कृतमप्येका भाषा, सा काचिद् दैवी वागिति काममास्ताम्, तस्याः साहित्यस्य विकासार्थ संस्कृतस्य प्रवर्तमानो रचनाकारः किमपि स्वीयं नियोजयितुकामः समभिलक्ष्यते, तत्साहित्यं समृद्धतरमपि कर्तुं चेष्टते। आगामिन्यां शताब्यां संस्कृतसाहित्यमन्यदेव किमपि नवतरं भविता, नास्मिन् केवलमखिलभारतस्तरीयाः, प्रत्युत विश्वस्तरीया रचनाकाराः साहित्यरचनायां प्रवृत्ता भविष्यन्तीत्यस्माकं द्रढीयान् विश्वासः । किमपि विचारणीयम् समकालिकस्य संस्कृतसाहित्यस्य विकासमूलां गतिं तीव्रतरतां नेतुं प्रयतमानैरस्माभिरिदमव धेयं यदद्यत्वेऽपि संस्कृतस्य मानकं व्याकरणं पाणिनीयमेवेति। पाणिनीयानां नियमानामवहेलनं नास्माकं पक्षतः कामप्यौचितीं बिभर्ति। भाषायाः स्वाभाविकी विकासमूलां गति रूढा जटिलाश्च व्याकरणनियमा बाधन्त इत्यपि सत्यम्, तथापि संस्कृतस्य विषये पाणिनीयानां नियमानां सीमा परमावश्यकी समुचिता च। संस्कृतस्य लेखने किमपि शैथिल्य समालम्ब्यते चेत् संस्कृतस्य संस्कृतत्वमेवोच्छिन्नं स्यात् । तथैव वार्णिकानां मात्रिकाणामपि छन्दसां नियमानां पालनं पिङ्गलच्छन्दःशास्त्रानुसारेण कर्तव्यम् । छन्दोबन्धमुक्तस्य काव्यस्य निर्माणे तु भिन्ना स्थितिः। आधुनिकस्य संस्कृतसाहित्यस्य कालावधिः शताब्दद्वयमध्यवर्ती। नायं कालः केवलं भारतस्य, प्रत्युत विश्वस्येतिहासस्य दृष्ट्या नैकेषामुद्वेलनानां परिवर्तनानाञ्च कालः। कालावधावस्मिन् विश्वयुद्धद्वयं घटितम्, जापानदेशस्य नगरद्वये, हिरोशिमाख्ये नागासाकीत्याख्ये च अणुबम-प्रहारजन्या मानवसंहाररूपा दुःस्थितिरुत्पन्ना, भारते आङ्ग्लशासनस्य विरोधे प्रबलः सङ्घर्षः प्रवृत्तः, यस्य स्वातन्त्र्यप्राप्तिरूपः परिणामः समजनि, भारतस्य विभाजनेन सममेव साम्प्रदायिकाः कलहाः प्रावर्तन्त। वर्षेकावधिक एव काले महात्मगान्धिनां बलिदानं दुर्घटितम्, अनेके महान्तो विभूतिमत्सत्त्वरूपा नेतारः समजनिषत, यैः स्वदेशे राष्ट्रियाया भावनायाः समुद्बोधनं सामाजिकीषु कुरीतिषु प्रहारश्च कृतः, स्वातन्त्र्यप्राप्त्यनन्तरं भारतमेकमखण्डं आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास राष्ट्र लोकतन्त्रात्मकगणराज्यरूपेण च प्रतिष्टितम् । परं, सत्यपि राजनीतिमूले स्वातन्त्र्यलाभे क्रमेण वयं मनसा पाश्चात्यानां भोगमूलाना दुष्प्रभावाणां वशीभूता जाताः, अस्माकं नैतिकस्य चारित्र्यस्य शतमुखो विनिपात इव संलक्ष्यते। सर्वमिदमन्यासां भारतीयानां भाषाणां साहित्येष्विव संस्कृतभाषारूपे आधुनिकसाहित्यदर्पणे ऽपि स्फुटतया निभालयितुं शक्यते। किन्तु तत्किं कारणं यदाधुनिकं संस्कृतसाहित्यं नाकर्षणकेन्द्रतां गतम्! प्रायः, आधुनिके संस्कृतसाहित्ये सर्वासु प्राचीनासु नवविकसितासु च विधासु लेखनं संवृत्तं सम्प्रवर्तमानञ्चास्ति । ये तु संस्कृतस्य सामर्थ्य सन्देहसंवलितया दृशाऽऽकलयन्ति तेऽपि विदित्वैतत् आश्चर्यभरिताः स्युः। परं न वयं दृढतया वक्तुं समर्था यदाधुनिके संस्कृतसाहित्ये कश्चन रवीन्द्रनाथः, कश्चन शरच्चन्द्रो वा, कश्चन प्रेमचन्दो वा, कश्चन मुहम्मद इकबालः सुब्रह्मण्यमारती वा सञ्जात इति । न स्यात् कस्यापि आधुनिकसंस्कृतरचनाकारस्य, अनुवाद माध्यमेन विश्वस्तरीयमाकलनम्, परमखिलभारतस्तरीयमप्याकलनं न जातम् ! इदमपि शक्यते वक्तुं यदाधुनिकस्य संस्कृतरचनाकारस्य तादृशे साहित्यनिर्माणक्षमत्वे सत्यपि सम्यगालोचन मद्यावधि न जातमिति। समीक्षाग्रन्थानामभावः आधुनिकसंस्कृतसाहित्येतिहासे साहित्यसमीक्षारूपोऽध्यायः न निबद्धः। आधुनिकान् संस्कृतरचनाकारानधिश्रितस्य मौलिकस्य समीक्षात्मकस्य ग्रन्थचयस्यामावस्तत्र कारणम् । यदि केनापि किञ्चिल्लिखितमपि तत् न तथा मार्मिकमिति प्राय उपेक्षितमेव सञ्जातम् । दौर्भाग्येण, टी. गणपतिशास्त्रिणा (१८६०-१६२६) विशाखविजय-महाकाव्यमधिश्रितः समीक्षात्मको ग्रन्थो नास्मामिरधिगतः । अस्माकमाधुनिकेषु साहित्यविचारकेषु काचिदाधुनिकी मौलिकी च समीक्षा दृष्टिर्नास्तीति नास्माकं मन्तव्यम् । अन्येषामप्याधुनिकानामयमेवानुभवः, यथा डॉ. राधावल्लभत्रिपाटिभिरभिहितम्-“साहित्यिक प्राखयं सक्रियत्वञ्च समालोचनायामुत्प्रेरकत्व मापद्यते। आधुनिके काले लिखितासु रचनासु काचिदीदृशी सर्वाङ्गपूर्णा समीक्षाकृतिः न दृष्टिपथमागता, यया समग्रतया साहित्यस्याकलनं कृतं स्यात् । साहित्यिक उत्कर्ष एव प्रकृष्टां समीक्षामुत्पादयति। एवं समुचितायाः समीक्षाया अभावः आधुनिकस्य साहित्यस्य कृते चिन्तनीया स्थितिः।” इतः परमनेकेषां पाश्चात्यया पौरस्त्यया च दृशा सम्पन्नानां समीक्षकाणां ध्यानमस्या रिक्ततायाः पूरणार्थमाकृष्टं भवितेत्यस्माकं विश्वासः । अद्यत्वे, आधुनिकसंस्कृतसाहित्यक्षेत्रे यावती कारयित्री प्रतिभा विकासमधिगता न तावती भावयित्री प्रतिभेत्याश्चर्यम् ! साम्प्रतं कविता मानवीयां संवेदनामभिव्यञ्जयितुं प्रयतमानाऽभिलक्ष्यते। अस्मासु बहूनां दृष्टिरद्यत्वेऽपि न तथा तस्यां निपतति, कथ्यमुपेक्ष्य विशेषेण कथनप्रकार मेवाश्रयन्ती सा परिलक्ष्यते। अद्यापि बहवः प्राचीनानामेव गतानुगतिकतामाश्रयन्ति। केवलं महाकाव्यस्य रचनयैव न कस्यापि महाकवित्वं सिध्यति, तदर्थ विशेषेण नवार्थघटना ऽपेक्ष्यते, यथा नैषधकारैः स्वकाव्यविषयेऽभिहितम्-एकामत्यजतो नवार्थघटनामिति । न हीतिवृत्तमात्रस्य २३ सम्पादकीयम् निर्वाह एवं कस्याश्चिद् रचनाया उत्कर्ष सूचयति। यदा वयं कस्याश्चिदरचनाया आलोचनायां प्रवर्तामहे तदाऽस्माकं प्राचीनाः काव्यालोचनमूलाः संस्कारा मध्ये समुपायान्ति, पाश्चात्या वा विचाराः समापतन्ति। अस्माकं प्रतिभानाश्रितः काव्यमूल्याङ्कनपक्षोऽद्यत्वे स्वातन्त्र्येण विचारणीयः। आशास्महे ऽजागते काले पक्षेऽस्मिन्नपि किमपि परिवर्तनं घटिष्यते। विंशतिशताब्द्या दशकेष्वेषु प्राचीनकविताया नवीनकविताया मध्ये या विभाजिका रेखा सा क्रमेण स्पष्टतामापद्यमाना प्रतीयते। छन्दसामलङ्काराणाञ्च योजनायामेकां सीमां यावद् व्यामोहेन ग्रस्तोऽप्याधुनिकः कविः जनसामान्यस्य सुखानि दुःखानि चात्मसात् कृतवान्, वायव्यकल्पनापक्षत्योरारोहापेक्षया यथार्थभूमेराधिक्येन रसं गृह्णाति, गर्हितं श्लथञ्च शृझरमपि नासेवते, निर्मोकतो मुक्ताया इव तस्य कवितायाः किमपि श्लक्ष्णं रूपमनुभूयमानमप्यस्ति, किन्तु स्पष्टतया नवलेखने प्रवृत्तानामपि रचनाकाराणां समक्ष काचन कुज्झटिकेव समभिलक्ष्यते, यस्यां दिग्भ्रान्ता इव कतिपये प्रतीयन्ते। अद्यत्वे, हिन्दीसाहित्यक्षेत्र इव, कस्यचित् ‘अज्ञेयस्य’ आवश्यकत्वमनुभूयते, यः ‘तन्त्रीसप्तकस्य’ योजनया संस्कृतस्य नवां कविता प्रकाशमानयेत, नवानाञ्च प्रतिमानानामालोके तस्या व्याख्यामपि कुर्यात् । साम्प्रतं कैश्चिदाधुनिकी रचनाधर्मितामालक्ष्य संस्कृतक्षेत्रे ‘प्रचारवादः’ सीमामेकामतिक्रम्य समधिकतया समाश्रीयते, स हि सर्वथा यथार्थभूमिनिष्टस्य साहित्यस्य विकासेऽवरोधमुपस्थापये दिति न केवलमुपेक्षणीयः, ततः सावधानेनापि भाव्यम्। आधुनिकसंस्कृतसाहित्यस्य व्यवस्थित इतिहासः सतीष्वपि नानाविधासु त्रुटिषु स्वासु सीमासु च प्रस्तुत इतिहासः किमपि व्यवस्थित रूपमवाप्नुयादिति प्रयतितम् । कियदस्मामिरस्मिन् प्रयासे साफल्यमधिगतमिति निर्णयः सहृदयेषु पाठकेष्वधीनः। अस्माभिः ‘इतिहासस्य’ लेखनाथं सूचनासामग्रीरूपा अनेके ग्रन्था लेखाश्च परिशीलिताः। प्रा. वर्णेकरमहाशयानां मराठीग्रन्थः, डॉ. शुक्लमहोदयानां ‘आधुनिकसंस्कृत साहित्य’ इत्याख्यो हिन्दीग्रन्थश्च सविशेषमस्माकं कृत उपयोगाही सिधौ । एकतः, वर्णेकरमहाशयैः, सप्तदशशताब्दीतः १६६० पर्यन्तं संस्कृतसाहित्यस्य पर्यालोचनं कृतम्, अन्यतः, डॉ. शुक्लमहाशयैः, ‘निरपेक्षतया तटस्थतया च नवजागरणस्येतिहास प्रस्तोतुं प्रयतितम् । एवमेव, प्रो. रामजी उपाध्यायानाम् ‘आधुनिक संस्कृत नाटक’ नामाऽपि ग्रन्थो ऽस्माभिरुपयोगविषयीकृतः। डॉ. शुक्लानां ‘संस्कृत का समाजशास्त्र’ नाम्नि ग्रन्थे कतिपय उपयोगिनोऽध्याया निबद्धा, येषु स्वातन्त्र्यसङ्ग्रामस्य सन्दर्भ संस्कृतसमाजस्य योगदान महता साफल्येन स्फुटतां नीतम्। - इतिहासस्य सामग्री न इतिहास इति वक्तव्यं नापेक्ष्यते। कियन्ति रामपरकाणि, कृष्णपरकाणि वा काव्यानि निर्मितानीति गणनया कश्चिद् ‘इतिहास’: स्वरूपं न गृह्णाति । यदि महाकाव्य विधायां लिखितानां काव्यानां गणनाप्रसने आत्मचरिताश्रितं महाकाव्यमाधुनिकयुगस्यावदानमिति, एतावताऽपि कस्यचिदितिहासस्य स्वरूपनिष्पत्तिर्न भवति। वस्तुतः सर्वमिदं सामग्रीजात समधिकतया ग्रन्थानां नामाधुल्लेखपूर्व, कस्याश्चिद् गतिशीलताया निवेदनं यावद् विरतव्यापारं आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास भवति। प्रो. शुक्लमहोदयैरुल्लिखितः संस्कृतसमाजस्य सङ्घर्षो यत्किञ्चिदुपयोगित्वं बिभर्ति, परं तेन साहित्यविषया काचिदैतिहासिकी दृगुन्मीलितेति न शक्यते सम्भावयितुम् । विद्वद्भिरेभिरितिहासस्य पृष्ठभूमिर्निर्मितेति तेषां श्रमस्य महत्त्वम्। आधुनिकस्य संस्कृतसाहित्यस्य सामग्रीमाकलयतां मनस्यनेके प्रश्नाः उत्पद्यन्ते, येषां समाधानं सङ्ग्रहकारैरमीभिर्न प्रस्तूयते, यथा ‘आधुनिकसंस्कृतेतिहासः’ इत्यनेन किमभिप्रेतम् ? आधुनिके कालखण्डे (विगत-प्रवर्तमानशताब्दीद्वयरूपे) लिखितस्य संस्कृतसाहित्यस्येतिहासः ? अथवा, संस्कृते यत् आधुनिक साहित्यं तस्येतिहासः? आधुनिककाले लिखितं समग्रमपि सामग्रीजातमाधुनिकमिति न शक्यते वक्तुम्। अपि च, संस्कृतसाहित्यस्य सन्दर्भेऽद्यावधि किन्तावदाधुनिकत्वमिति प्रश्नोऽपि न समाहितो विद्धतिः। आधुनिकतामूलकोऽयं प्रश्नो यदाऽस्माभिः साहित्येतिहाससंस्कृतिविषयाणां प्रख्यातस्यविचारकरस्य प्रा. गोविन्दचन्द्रपाण्डेयस्य समक्षमुपस्थापित स्तदा तेषां समाधानमिदमासीत्-“रचनायामाधुनिकत्वं कामं माऽस्तु, यदि तस्यां न्यूनानन्यूनं कोऽप्युत्कर्षः, दोषाभावश्च भवेत्, तदा सा स्वीकार्या, सत्यपि तस्यामाधुनिकत्वस्याभावे। अत्र, जगन्नाथदासरत्नाकरस्य हिन्दीकाव्यम्, ‘उद्ववशतकम्’ उदाहार्यम्, यत् स्वस्मिन्नुत्कर्षण प्रतिष्ठाभाजनं समजनि”, इति। संस्कृतस्य आधुनिककालिक साहित्यं परम्परागतायां कस्याञ्चिद् बद्धमूलायां परिपाट्यां व्यलिख्यत, इत्यस्य तात्पर्य नास्ति यत् आधुनिकानां संस्कृतकवीनां चिन्तनं जडीभूतमासीत् । देशे प्राचीनादेव कालात् प्रवहन्ती धार्मिकी व्यवस्था सक्रियाऽऽसीत्, तयैव सार्धमनिवार्यतया ताः परिपाट्यो बद्धमूला व्यवस्थाश्च सम्प्राप्ताः। भाषाया यद् व्यवस्थित स्वरूपमासीत् तस्मिन्नेव तत्सर्वं सुचारुतया समञ्जसमभूत् । एतदेव कारणं यत् कविभिस्तस्य मोहः सुबहोः कालात् अपि न त्यक्तः । अन्यच्चेदं कारणं स्पष्टतया प्रतीतिपथमायाति-संस्कृतलेखने कवित्वस्य पाण्डित्यस्य च सामञ्जस्यं सम्भवतः श्रीहर्षस्य प्रभावात् समधिकतया समलक्ष्यत ‘सुकुमार वस्तुनः साहित्यस्य’, दृढन्यायग्रह-ग्रन्थिलस्य तर्कस्य’ च एकस्मिन्नेव रचनाकारे प्रस्फुटितत्व मुदाहतुं शक्यते । संस्कृतस्य समर्थन रचनाकारेण पण्डितराजेन शास्त्रस्य काव्यस्य च लेखनेन समानतया चमत्कारः प्रस्तुतः, अस्य पूर्ववर्ती, प्रसन्नराघवकारो जयदेवः सममेव कविस्तार्किकश्चासीत्। आधुनिके काले सर्वतन्त्रस्वतन्त्राः पं. धर्मदत्त (बच्चा) झाशर्माणः स्वीयेन विलक्षणेन कवित्वबलेन ‘सुलोचनामाधवचम्यू’ काव्यं रचयामासुः। अस्मिन्नेव क्रमे म. म. गङ्गाधरशास्त्रिणः (अलिविलासिसंलापकाराः) म. म. रामावतारशर्माणः (मारुतिशतककाराः), कवितार्किकचक्रवर्तिनः पं. महादेवशास्त्रिवर्याः (भारतशतककाराः) समुल्लेख्याः सन्ति। किं तादृशाः पण्डितकवयः आधुनिकस्य संस्कृतसाहित्यस्येतिहासे न स्थानमर्हन्ति ?
- प्रस्तुते साहित्येतिहासे ऽस्माभिः समकालिकस्यापि साहित्यस्यालोचनं कृतम्। अत्र ‘इतिहासस्य’ सन्दर्भ समालोचनाया दायित्वमपि यथाकथञ्चिन्निवोढुं प्रयतितम, येन ‘इतिह्मसो’ऽयं भविष्यत्कालोन्मुखोऽपि क्रियेत। यद्यप्यय मितिहासः एकः सामूहिकः प्रयास इति कृत्वा क्रमिक विकासमालोचनात्मकमैकलप्यञ्च प्रस्तोतुं कोऽपि सफलः प्रयोगो नापि सिध्येत्, तथाप्यनेन सम्पादकीयम् नवानां रचनाप्रवृत्तानां विचारकाणाञ्च दृष्टेरुन्मीलने किमपि योगदानं क्रियेत चेत् तदाऽस्माकं प्रयासः सार्थकत्वमापद्येत।। संस्कृतक्षेत्रे व्यापकतयाऽऽधुनिकानां रचनाकाराणामद्यावधि वस्तुपरा तटस्था च समीक्षा प्रवत्येत, इत्यस्माकमुद्देश्यम्, विशेषेण चिन्तनीयञ्च । इतः पूर्व ये प्रयासा विहिताः (येषामुल्लेखः संक्षेपणास्मामिः कृतः) ते सर्वे वस्तुतो भूमिकामात्रमिति वक्तुं शक्यते। समकालिक: संस्कृतरचनाकारः सर्वतोभावेन प्रबुद्धः समर्थश्चेति निश्चितम् । न केवलं सुवर्णस्य ‘उत्पादक’ एव, प्रत्युत तस्य ‘परीक्षाक्षमो’ऽपि। इतः परं तेन निःसङ्कोचमुपस्थातव्यम् । प्रस्तुत एष ‘इतिहासः’ तस्य कृत ‘आह्वानम्’ । न स कस्यचित् ‘मृतस्य’ उपासकः, परम्, ‘अमृतस्य’ सन्देशवाहक इति। __ग्रन्थोऽयमुत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेन (लक्ष्मणपुरस्थेन) तदध्यक्षाणां पद्मभूषण-आचार्य पं. बलदेवोपाध्यायानां प्रधानसम्पादकत्चे प्रकाश्यमानस्य ‘संस्कृतवाङ्मय का बृहद् इतिहास’ इत्याख्यस्य महाग्रन्थस्य सप्तमः खण्डः । अस्य निर्माणदिशि प्रयासः प्रधानसम्पादकमहोदयानामादेशेन मार्गनिर्देशेन च १EE१ वर्षत आरब्धः। अस्मिन् सहयोगिभिर्य योगदानं कृतं ते सन्ति प्रो. राधावल्लभत्रिपाठी (सागर), डॉ. जयशङ्कर त्रिपाठी, डा. हरिदत्तशर्मा (प्रयाग), श्रीकलानाथ शास्त्री (जयपुर), डॉ. श्रीमती कमला दुबे (प्रयाग) डॉ. (श्रीमती) दीपा अग्रवाल (प्रयाग)। एभिः क्रमशः गीतकाव्यम्, नाट्यसाहित्यम, लघुकाव्यानि, गद्यकाव्यम्, शास्त्राणि/दर्शनानि, जैनानां मुनीनां मनीषिणाञ्च योगदानम्- इमेऽध्याया लिखिताः। आरम्भतः, येषां त्रयाणां सहयोगिनां बहुमूल्येन सहयोगेन वयं तेषां कार्याधिक्यजन्यव्याकीर्णतावशतः वञ्चिताः ते सन्ति-प्रो. शिवकुमार मिश्रः (गङ्गनाथ झा केन्द्रीय संस्कृतविद्यापीठम्, प्रयाग), प्रो. सुरेशचन्द्र पाण्डेयः (पूर्वविभागाध्यक्षः, संस्कृतविभागस्य, प्रयाग वि.वि., प्रयाग) प्रो. राधवप्रसाद चौधरी (प्राचार्यः, श्रीरणवीरकेन्द्रीय संस्कृतविद्यापीठम्, जम्मू") प्रत्येक-मध्यायस्य लेखका स्वस्य लेखनस्य दायित्वं विभति। कृतज्ञताप्रकाशः समायोजनेऽस्मिन् नैकैर्विद्भिर्मनीषिभिश्च उदारतया सहयोगः, स्वरचनानामालोचनात्मक सामग्र्याश्च सम्प्रदानेन कृत इति वयमनुगृहीतास्तेभ्यः सर्वेभ्योऽपि कार्तव्यं विनिवेदयामः। ते च विद्वांसः मनीषिणश्च सन्ति __प्रो. श्रीधरभास्कर वर्णेकरः (नागपुर), डॉ. रामकरणशर्मा (दिल्ली), प्रो. गोविन्दचन्द्र पाण्डेयः (प्रयाग), प्रो. सत्यव्रत शास्त्री (दिल्ली), प्रो. व्रजमोहन चतुर्वेदी (दिल्ली), डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी (उज्जैन), डॉ. वनेश्वर पाठकः (रांची), डॉ. विश्वनारायण शास्त्री (गुवाहाटी), डॉ. केशवचन्द्रदाशः (पुरी), डॉ. राजेन्द्र मिश्रः (शिमला) पं. विश्वनाथ मिश्रः(बीकानेर), प्रो. कैलाशपति त्रिपाठी (वाराणसी), प्रो. रेवा प्रसाद द्विवेदी (वाराणसी), डॉ. शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी (वाराणसी), डॉ. प्रभात शास्त्री (प्रयाग), आचार्य प्रियव्रत शर्मा (वाराणसी), डॉ. रहसविहारी द्विवेदी (जबलपुर), डॉ. रामनारायणदासः (गुरूवायूर), प्रो. जी.बी. पलसुले आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास (पुणे), डॉ. श्रीधरवासुदेव सोहोनी (पुणे), प्रो. कृष्णलालः (दिल्ली), डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी (सागर), श्रीकलानाथ शास्त्री (जयपुर) प्रो. ब्रज बिहारी चौबे, (होश्यारपुर), डॉ. माधवस्वरूप बहलः (जालन्धर),डॉ. मारुतिनन्दन पाठकः (बोधगया), श्री दिगम्बर महापात्रः (राउरकेला), डॉ. रजनसूरिदेवः (पटना), डॉ. आनन्द कुमार श्रीवास्तवः (प्रयाग), प्रो. इन्द्रनाथ चौधुरी (सचिवः, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली), श्रीमती कुमुद शर्मा (धर्मपत्नी, स्व. प्रो. नलिनविलोचन शर्मा) डॉ. दरबारी लाल कोठिया (बीना), श्रीसन्तोष सिंहई (दमोह), श्रीनीरज जैन (सतना), श्री कमलेश कुमार जैनः ‘भाईजान’ (जबलपुर), डॉ. शिव शङ्कर पण्डितः (रांची) प्रा. एच. (आर.) ए. शाण्डिल्यः (मुम्बई), डॉ. कस्तूर चन्द कासलीवालः (जयपुर), डॉ. ब्रह्मानन्द त्रिपाठी (वाराणसी), डॉ. पी. सी. मुरलीमाधवः (गुरुवायूर)। डॉ. किशोरनाथ झा (प्रयाग)। उल्लिखितनामानः ‘इतिहासस्या’ स्यास्मत्सहयोगिनोऽध्यायानां लेखका ते सर्वेऽप्यस्माकं धन्यवादस्य पात्राणि। श्रीमधुकर द्विवेदी (पूर्व निदेशकः उ.प्र. संस्कृतसंस्थानम्, लखनऊ) वर्तमान-निदेशकः, डॉ. श्रीमती अलका श्रीवास्तवा, संस्थानस्यान्ये सहयोगिनः, डॉ. चन्द्रकान्त द्विवेदी-प्रभृतयः एतेभ्यो शुभकामना व्याहरामः, एतैर्यथासमयमावश्यकः सहयोग उपकल्पितः। प्रधानसम्पादकान् श्रीगुरुचरणान् (पद्यभूषण-आचार्य पं. बलदेव-उपाध्यायान्) प्रति कैः शब्दैः कार्तवय विनिवेदयामः ? वस्तुतः अस्माकमिदं समग्रमयोजनं तेषामेव शुभाशीर्वादानां सत्प्रेरणानाञ्च परिणामः । तैः इतिहासस्यास्य सम्पादकत्वं मयि सहजस्नेहवशादेव समुपन्यस्तम्, इति वक्तुं शक्नोमि। अस्याधुनिकसाहित्यखण्डस्य सम्पादने प्रकाशने च ममाभिन्नः सखा डॉ. रमाकान्त झा महोदयोऽपि प्रभूतं साहाय्यमकरोदतः सोऽपि साधुवादार्हः। के मदनुजेन चि. कृष्णानन्देन, भातृजेन चि. अनिलकुमारेण यथासमयमस्मिन्नध्यवसाये मयं सहयोगः कृतः, एतदर्थं ताभ्यां शुभाशीर्वादान् व्याहराभि । ‘इतिहासस्य’ प्रस्तुतीकरणे ज्ञाता अज्ञाताश्च नानात्रुटियोऽस्माभिः कृताः । अनेके संस्कृतस्य प्रतिष्ठिता रचनाकारा अचर्चिता अल्पचर्चिताश्च । तेषां कृतीनामनुपलम्भोऽपि तत्र कारणं, भवितुमर्हति। त्रुटीनां कृते सुधियः क्षमाप्रदानेनास्माननुग्रहीष्यन्तीति विश्वासः, अपि च ते मार्गदर्शनेन इतिहासमिमं परिष्कर्तुं सहयोगमस्मभ्यं वितरिष्यन्तीति विश्वसिमः। वसन्त पञ्चमी २५.१.६ ३/१४, एम.आई.जी., झूसी इलाहाबाद-२११०१E जगन्नाथ पाठकः (सम्पादकः) सम्पादकीय संस्कृत साहित्य की प्राचीनता और महत्त्व जब भी संस्कृत को एक “भाषा” मात्र के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तब ऐसा लगता है, जैसे गंगा की पहचान केवल एक “नदी” के रूप में की जा रही है। संस्कृत, जिसे हम ‘दैवी वाक्" या “सुरभारती” के रूप में मान्यता और प्रतिष्ठा देते चले आ रहे है, हमारी सबसे प्राचीन भाषा है और उसमें शताब्दियों से ही नहीं, सहस्राब्दियों से साहित्य-रचना होती आ रही है। कहते हैं, विश्व-मानव का प्रथम काव्य ऋग्वेद ईसा पूर्व पांच हजार वर्षों से अधिक प्राचीन है। त्याग और तप से अनुप्राणित अपनी सांस्कृतिक विरासत के अनुसन्धान के लिए हम संस्कृत में निर्मित साहित्य का अनिवार्य रूप से अवगाहन करते आ रहे हैं। संस्कृत साहित्य के प्रशस्त तथा निर्मल आदर्श में हम भारतीय जन-मानस तथा जन-जीवन को बहुत काल से प्रतिफलित देखते आ रहे हैं। इस प्रकार, संस्कृत का साहित्य भारतीय संस्कृति का वाहन है और इस कारण प्रत्येक भारतीय के लिए आकलनीय है। दिव्य वैदिक ग्रन्थ ऋग्वेद आदि, गम्भीर उपनिषत् साहित्य, अनुपम वेदाङ्ग साहित्य, महनीय इतिहास ग्रन्थ आदिकवि वाल्मीकि निर्मित रामायण, महर्षि व्यास विरचित महाभारत तथा पुराण साहित्य संस्कृत भाषा में निर्मित ऐसा साहित्य है जो हमें आज भी पवित्र और उल्लसित करता है। पाणिनि, कात्यायन और पतञ्जलि जैसे महान् त्रिमुनि का व्याकरण शास्त्र, चाणक्य का अर्थशास्त्र, चरक, सुश्रुत और वाग्भट आदि के महनीय आयुर्वेद-ग्रन्थ, प्रखर चिन्तक आदिशङ्कराचार्य, बौद्ध धर्मकीर्ति, श्रीरामानुजाचार्य और जैन मनीषियों के दार्शनिक ग्रन्थ संस्कृत साहित्य को विलक्षण निधि के रूप में परिचित कराते हैं। कविकुलगुरू कालिदास, अश्वघोष, भारवि, माघ, भवभूति, श्रीहर्ष जैसे महान कवियों की रचनाओं का निधान संस्कृत साहित्य अपने आपमें हमारे लिए आज भी संग्राह्य तथा आकलनीय बना हुआ है। प्राचीन भारत में संस्कृत के अतिरिक्त पालि प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में विशाल साहित्य निर्मित हुआ, जो हमारी सांस्कृतिक चेतना का बहुत ही समुज्ज्वल प्रमाण है। किन्तु कालक्रम से संस्कृत की प्रभविष्णुता के समक्ष उन भाषाओं में साहित्य का निर्माण शिथिल होता गया। संस्कृत साहित्य की धारा किसी युग में व्याहत नहीं हुई और यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि आधुनिक काल अर्थात् विगत शताब्दी और प्रवर्तमान शताब्दी में उसमें निर्मितआधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास उच्च कोटि का विशाल साहित्य हमारे आकलन का विषय हो रहा है। संस्कृत अनेक भारतीय भाषाओं की जननी तो है ही, वह आज भारत की विभिन्न मान्यता प्राप्त भाषाओं में से एक है और अखिल भारत को जोड़ने का एक प्रबल माध्यम के रूप में भी स्वीकार्य है। उसमें निर्मित आधुनिक साहित्य को आज भारत की विभिन्न समकालिक भाषाओं के साहित्य के साथ प्रतिष्ठित किया गया है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि हम आधुनिक काल (१६वीं तथा २०वीं शताब्दियों) में निर्मित संस्कृत साहित्य का एक सर्वागीण वस्तुपरक ऐतिहासिक पुनराकलन करें। प्राचीन काल में भारत में संस्कृत साहित्य के इतिहास का लेखन नहीं हुआ। इसके लेखन की परम्परा पहले, विगत शताब्दी में पाश्चात्य विद्वानों ने स्थापित की। फिर अनेक भारतीय विद्वान इस दिशा में प्रवृत्त हुए जिनमें डॉ. कृष्णमाचारियर और आचार्य पं. बलदेव उपाध्याय विशेष उल्लेख्य हैं। कृष्णमाचारियर को छोड़ किसी ने संस्कृत साहित्य के इतिहास को ईसा की सत्तरहवीं शताब्दी से आगे नहीं बढ़ाया। सम्भव है पाश्चात्य तथा भारतीय संस्कृत-साहित्य के इतिहासकार परवर्ती शताब्दियों में रचित संस्कृत-साहित्य को प्राचीन संस्कृत साहित्य की तुलना में न्यून समझते रहे हों। चाहे जो भी हो पण्डितराज के बाद निर्मित संस्कृत साहित्य, विशेष रूप से विगत और प्रवर्तमान शताब्दियों में निर्मित आधुनिक संस्कृत साहित्य भारतीय चेतना के नये आयामों को उद्घाटित करता है, और आज हमारी गतिशील जीवन-धारा को बहुत ही प्रामाणिकता के साथ आकलित करने का एक अनिवार्य माध्यम है, अतः हमारे लिए संग्राह्य है, आकलनीय है। संस्कृत साहित्य का आधुनिक काल ना संस्कृत साहित्य के इतिहास के आधुनिक काल का आरम्भ कब से माना जाय? निश्चित रूप से अनेक विचारकों में इस सम्बन्ध में यत् किञ्चित् मत-भेद लक्षित होता है। इसी के साथ साहित्य के सन्दर्भ में आधुनिकता क्या है, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। जो विगत है वह प्राचीन है और जो प्रवर्तमान है वह आधुनिक है ऐसा विचार, आधुनिकता के निर्णायक तथ्य के रूप में मान्य नहीं है। कालिदास ने अपने समय से पूर्व रचित काव्य-साहित्य को “पुराण” और उसकी अपेक्षा अपने काव्य को “नव” कहा था, किन्तु यह आधार साहित्य के इतिहास के सन्दर्भ में व्यवहार्य प्रतीत नहीं होता। इस प्रसंग में डा. राधावल्लभ त्रिपाठी का यह वक्तव्य विचारणीय है-“विश्व और देश में बदलती राजनीतिक, सामाजिक स्थितियों के बोध के साथ समग्र राष्ट्र के ऐकात्म्य के प्रति दृष्टि कम से कम एक व्यावर्तक है, जो काल और विषयवस्तु की दृष्टि से आधुनिक साहित्य का उपक्रम कराता है।” (‘नवोन्मेष’ राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुर, पृ. ११८)। २८ सम्पादकीय प्रो. वर्णेकर जी ने अपने मराठी ग्रन्थ ‘अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में अर्वाचीन काल का आरम्भ सत्तरहवीं शताब्दी से माना है, किन्तु उनके इस विचार से स्पष्ट रूप से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए अपने एक व्यक्तिगत पत्र में आचार्य पं. बलदेव उपाध्याय जी ने अर्वाचीन काल का आरम्भ १७५० ई.से माना है, जब नागेश भट्ट का काशीवास हुआ। उन्होंने एक अन्य पत्र (३/६/६१ को लिखित) में आधुनिक संस्कृत साहित्य का काल-खण्ड १८५० ई. से लेकर १६९० तक होना चाहिए, ऐसा भी सुझाव दिया था। (संस्कृत साहित्य के आधुनिक काल को रेखांकित करते हुए, सम्पूर्ण भारत में परिवर्तमान हो रही राजनैतिक तथा सामाजिक स्थितियों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। पण्डितराज के बाद के साहित्य में एक ठहराव, एक गतिहीनता स्पष्ट रूप से झलकती है। सम्भवतः यही कारण था कि इतिहासकारों का ध्यान उस पर आकृष्ट नहीं हुआ। वैसे तो “ठहराव” की स्थिति पण्डितराज से पूर्व बारहवीं शती से ही अनुभूत होने लगती है, फिर भी उसे पण्डितराज के बाद स्पष्ट अनुभूत किया जा सकता है।) डा. हीरालाल शुक्ल ने अपने ग्रन्थ ‘आधुनिक संस्कृत साहित्य में १७८४ को संस्कृत के नवजागरण के प्रसंग में महत्त्वपूर्ण माना है, क्योंकि सर विलियम जोन्स के प्रयास से कलकत्ता में “रॉयल एशियाटिक सोसाइटी” की स्थापना इसी काल में हुई थी। इस संस्था द्वारा संस्कृत के हस्तलिखित ग्रन्थों का उद्धार और संस्कृत के क्षेत्र में अनुसन्धान का प्रवर्तन किया गया। इसी काल में श्रीमद्भगवद्गीता, हितोपदेश और शकुन्तलोपाख्यान के अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित हुए। संस्कृत का साहित्य प्रथम बार प्रेस में मुद्रित होकर प्रकाश में आया और इसी माध्यम से संस्कृत का सम्पूर्ण यूरोप में प्रचार हुआ। इसके फलस्वरूप संस्कृत के प्रति आकर्षण बढ़ा, फिर शाकुन्तल का (१७६१) जर्मन में अनुवाद प्रस्तुत हुआ था, जिसे देखकर जर्मन के महाकवि गेटे बहुत प्रभावित हुए थे। वाराणसी में संस्कृत कालेज १७E9 में स्थापित हुआ था। डॉ. शक्ल इन सब कारणों से ‘संस्कत की। भाव-धाराओं में एक विशेष परिवर्तन’ का अनुभव करते हैं और उन्हें लगता है कि संस्कृत भाषा में नई सम्भावनाओं का सिंह-द्वार खुल गया, किन्तु १८३५ में भाषा-विषयक मेकाले का प्रस्ताव शासन द्वारा स्वीकृत कर लिये जाने पर सम्पूर्ण संस्कृत जगत् में व्याप्त विक्षोभ की भावना तथा उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप संस्कृत की रक्षा के लिए नये उत्साह के साथ मिल कर कार्य करने से डॉ. शुक्ल, सम्भवतः संस्कृत साहित्य के आधुनिक काल का आरमा मानते हैं और १५३५ से लेकर १६२० तक के लिखे गये संस्कृत साहित्य को दरबारी संवेदना साहित्य से बिल्कुल अलग हृदय के रक्त से सिंचा हुआ बेहद उर्वर मानते हैं, और साथ ही, इस अवधि को संस्कृत के नवजागरण का विकासकाल कहना उपयुक्त समझते हैं। संस्कृत साहित्य के आधुनिक काल को डॉ. राजेन्द्र मिश्र ने देववाणी सुवास; (प्र.भा.) की भूमिका में पनर्जागरण काल (१७८४-१८८४), २. स्थापना काल (१८८४-१६५०) तथा ससाहित्य के रचनाकारों परनक) के रूप में तीन भागों में विभक्त किया है। एक र में विभक्त करते हैं: आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास /१८००-१६०० तक १६वीं शताब्दी-स्वतन्त्रतापूर्वकाल… १६००-१६५० २०वीं-पूर्वार्ध स्वतन्त्रता संघर्षकाल । १६५०-१६६० २०वीं शताब्दी उत्तरार्ध-स्वातन्त्र्योत्तरकाल ‘निश्चित रूप से ऐसे विभाजनों को राजनीतिक परिवर्तनों की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है और इस प्रकार के परिवर्तनों के साहित्य पर पड़ने वाले प्रभाव को नकारा भी नहीं जा सकता, फिर भी हम समझते हैं कि संस्कृत-साहित्य के आधुनिक काल का एक और भी दृष्टिकोण से विभाजन विचारणीय होना चाहिए, जो बहुत कुछ मूलतः साहित्य की दृष्टि को ध्यान में रखकर प्रस्तावित है। कोई भी घटना, वह चाहे राजनैतिक हो अथवा सामाजिक, साहित्य के रचना-संसार को प्रभावित करती ही है, किन्तु उसका प्रभाव उसी काल में व्यक्त नहीं होता। कभी-कभी तो इसमें कई दशक लग जाते हैं, जैसे राजनीति के क्षेत्र में महात्मा गांधी का आगमन हुआ, उनके नेतृत्व में स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष ने एक नया मोड़ लिया, किन्तु उनके व्यक्तित्व से प्रभावित संस्कृत के रचनाकारों ने बहुत बाद में उन पर लेखनी उठायी। इसी प्रकार, जिस काल में अभिज्ञानशाकुन्तल जैसे संस्कृत के ग्रन्थ अनूदित होकर विदेशों में पहुंचे, उसी काल में संस्कृत के क्षेत्र में पश्चिम से सम्पर्क को लेकर किसी प्रकार का सहित्य में “नया” कुछ आरम्भ नहीं हो गया। युगों में विभाजन हमारा विचार है कि आधुनिक संस्कृत साहित्य के इतिहास के उक्त काल विभाजनों को लेकर किसी प्रकार के विवाद को प्रश्रय न देते हुए, संस्कृत के युगान्तरकारी रचनाकारों को काल-विभाजन का आधार क्यों न बनाया जाय ? विशेष रूप से उन रचनाकारों को, जिन्होंने अपेक्षाकृत दूर तक साहित्य लेखन को प्रभावित किया और व्यापक रूप से प्रवृत्त रचनाकारों का मार्ग-दर्शन भी किया। या संस्कृत साहित्य के आधुनिक काल को मुख्यतः तीन युगों में विभाजित किया जाना चाहिए-राशिवडेकर-युग-१८६०-१३०, भट्ट-युग १E३०-१६० तथा राघवन-युग १६६०-१६८७। इसका संकेत गद्य साहित्य के हमारे लेखक श्री कलानाथ शास्त्री ने अपनी “पृष्ठभूमि” में दिया है। परस्पर विचार-विमर्श के दौरान श्री कलानाथ शास्त्री ने मेरे इस विचार पर सहमति व्यक्त की थी, हालांकि उन्होंने जो विभाजन की सीमा निर्दिष्ट की है इसके साथ मेरा कुछ मतभेद है फिर भी उनका यह संकेत मुझे बहुत कुछ मान्य है। अप्पाशास्त्री राशिवडेकर (१८७३-१६१३) एक मौलिक रचनाकार तो थे ही, साथ ही “संस्कृतचन्द्रिका” और “सूनृतवादिनी’ पत्रिकाओं के सम्पादक के रूप में उन्होंने संस्कृत में नयी युगीन प्रवृत्ति में लेखन को नाना कठिनाइयों के बावजनलोजित किया और संस्कृत के विस्तृत समाज में एक जागरूकता लायी। उन्हें - सम्पादकीय का पात्र होकर जेल भी जाना पड़ा, फिर भी उनकी साधना बाधित नहीं हुई। अपने चालीस वर्षों के अल्प जीवनकाल में उन्होंने साहित्य को प्रशस्तिगान वाली प्रवृत्ति से अलग करने का प्रयास किया, उसमें राष्ट्रीय चेतना के साथ प्रसाद गुण वाली भाषा को महत्त्व दिया और पाण्डित्य प्रदर्शन की मानसिकता से ग्रस्त होने से बचाया। श्री कलानाथ शास्त्री ने संभवतः उनकी मृत्यु के बाद भी उनके प्रभाव को स्वीकारते हुए राशिवडेकर युग को १८६० से १६३० के बीच माना है। इस युग के कुछ और मनीषियों के नाम लिये जा सकते हैं जैसे हषीकेश भट्टाचार्य, म.म. रामावतार शर्मा, म.म. विधुशेखर भट्टाचार्य आदि, जिनका साहित्य में आधुनिकता को प्रवर्तित होने में बहुत कुछ योगदान है। भट्ट-युग पं. भट्ट मथुरानाथ शास्त्री (१८८६-१६६०) के नाम से प्रवर्तित हैं। भट्टजी ने भी संस्कृत रत्नाकर और भारती जैसी पत्रिकाओं का सम्पादन किया और स्वयं संस्कृत में नयी विधाओं में लेखन करके नये लेखकों के लिए मार्ग प्रशस्त किया। इन्होंने गद्य-लेखन को कुछ तराशा और उसमें नयी गति या प्रवाहमयता को लाने के साथ उसे परिनिष्ठित करने का भी प्रयास किया। “संस्कृत मृतभाषा नहीं है” यह पक्ष देश में बढ़ते हुए पाश्चात्त्य प्रभाव के कारण जो शिथिल पड़ गया था उन्होंने उसे पुनः स्थापित किया और अपने विभिन्न निबन्धों द्वारा उस स्थापित सत्य को गरिमा दी। भट्ट-युग के अन्य उल्लेखनीय रचनाकार हैं, यतीन्द्र विमल चौधुरी (१६०८-१६६४)। राघवन-युग के प्रवर्तक डॉ. वेंकट राघवन् (१६०८-१६७६) ने साहित्य-अकादेमी की “संस्कृत प्रतिभा’ का सम्पादन १६५६ से आरम्भ किया। तब उसे अखिल भारतीय प्रतिष्ठा तो मिली ही, उसके माध्यम से अखिल भारतीय स्तर का साहित्य एक स्थान से प्रकाशित होने लगा और व्याकीर्ण लेखन अखिल भारतीय स्तर पर एक दिशा और लक्ष्य की ओर प्रवर्तित हुआ। स्वयं डॉ. राघवन् ने आधुनिक संस्कृत साहित्य में प्रकाशित सामग्री का अपने विभिन्न लेखों के माध्यम से महत्त्व बताया। इस प्रकार आधुनिक संकृत साहित्य के समकालिक भारतीय भाषाओं के साहित्य के समकक्ष स्थापित होने में उनका विशिष्ट योगदान रहा। डॉ. राघवन् ने आलोचनात्मक लेखन के साथ अनेक नाटकों का भी लेखन किया और उन्हें रंगमंच पर अभिनीत भी किया। उनके प्रयास से समकालिक संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ और उसमें नये प्रयोग घटित होने लगे, जिन्हें अखिल भारतीय स्तर पर मान्यता मिली। आधुनिक संस्कृत साहित्य के सम्प्रवर्तन और संवर्धन में अपनी स्वयं की रचनाधर्मिता के साथ ही अन्य भी अनेक मनीषियों का सराहनीय योगदान रहा, जिनमें राशिवडेकर युग के कुछ मनीषियों का उल्लेख ऊपर हुआ है। राघवन् युग के अन्य मनीषियों में उल्लेखनीय हैं-डॉ. रामजी उपाध्याय, जिन्होंने आधुनिक संस्कृत नाटकों पर लेखन किया और आधुनिक संस्कृत साहित्य के रचनाकारों पर शोध कार्य को सागर विश्वविद्यालय में प्रवर्तित किया। आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास राशिवडेकर युग का आरम्भ उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक से होता है। इसके पूर्व रचित साहित्य मात्रा में कुछ कम न हुआ, किन्तु उसमें सामूहिक बोध का अभाव रहा। संस्कृतचन्द्रिका के पूर्व प्रकाशित होने वाली संस्कृत पत्रिकाओं में साहित्य के स्तर पर लगभग सामूहिक बोध को प्रवर्तित करने की दिशा में प्रयास नहीं किया गया। उनका उद्देश्य केवल अप्रकाशित कृतियों का प्रकाशन था अथवा शास्त्रीय (या धार्मिक) विचारों का प्रसार था। इस कारण हम उन्नीसवीं शती के नवम दशक तक की रचनाओं को बहुत व्याकीर्ण पाते हैं। इस काल में अंग्रेजी शासन के प्रभाव से अनूदित होकर ईसाई धार्मिक साहित्य पुष्कल मात्रा में प्रकाशित हुआ। राशिवडेकर युग में संस्कृत की समासबहुलता शिथिल हुई और उसे बोधगम्य बनाने के साथ प्रवाहमय बनाने का भी प्रयास हुआ। संस्कृत व्याकरण के नियमों से सर्वाधिक ग्रस्त भाषा है तथा उसमें वार्णिक वृत्तों में लेखन गद्य की अपेक्षा अधिक हुआ है। इन दोनों विशेषताओं के साथ रचनाकारों के ध्यान को कविता को कलाविलास की सीमा से हटाकर मानव के सुख-दुःख की अभिव्यजक बनाने का प्रयास भी हुआ। भट्ट-युग में विशेषरूप से उक्त परिष्कार को बढ़ावा मिला, साथ ही नयी विधाओं में लेखन प्रस्तुत हुआ। इससे संस्कृत में एक अतिरिक्त ओज और प्रवाहमयता का अनुभव होता है। गद्य में वैचारिक निबन्धों में सामयिक विषयों को प्रश्रय मिला। यह युग राशिवडेकर-युग के आधार पर निर्मित हुआ और उसने आधुनिक संस्कृत साहित्य के भवन को एक-मंजिला बनाने में बहुत सफलता अर्जित की। राघवन्-युग में आकर उस भवन की एक और मंजिल निर्मित हुई और आधुनिक संस्कृत साहित्य एक भव्य भवन के रूप में अपनी समन छटा के साथ प्रतिष्ठित हुआ। उसमें विभिन्न वर्गों, कलाकृतियों तथा गुम्बजों का निर्माण हुआ। इस युग ने आधुनिक संस्कृत साहित्य के उस भव्य भवन को बहुत कुछ एक समग्न तथा दर्शनीय रूप दिया। पत्र-पत्रिकाओं का योगदान आधुनिक संस्कृत साहित्य के इतिहास में जो भी परिवर्तन तथा नयी विधाओं के लेखन में प्रवर्तन आदि घटित हुए, उनमें पत्र-पत्रिकाओं का योगदान महत्त्वपूर्ण है। संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी लगभग आधुनिक काल के प्रवर्तित होने के साथ ही आरम्भ हुआ। आरम्भ की पत्रिकाओं में काशीविद्यासुधानिधि, प्रत्नक्रमनन्दिनी, विद्योदय और षड्दर्शनचिन्तनिका का उल्लेख तो मैक्समूलर ने किया है। आगे चलकर जो पत्रिकाएं प्रकाश में आयीं, उनमें पण्डित, संस्कृतचन्द्रिका, सूनृतवादिनी, विद्योदय, मित्रगोष्ठी, सूक्तिसुधा, सहृदया और शारदा के नाम उल्लेखनीय हैं। फिर, सुप्रभात, उद्योत, सूर्योदय, श्री, कालिन्दी, मञ्जूषा, पीयूष पत्रिका की सूचना मिलती है। इनमें “सूर्योदय” अब भी वाराणसी से प्रकाशित हो रही है। सम्पादकीय १८७२ में “विद्योदय” पत्र का प्रकाशन हृषीकेश भट्टाचार्य के सम्पादकत्व में लाहौर से होने लगा था, जिसका पचास वर्षों तक का संस्कृत की सेवा का इतिहास है। संस्कृतचन्द्रिका (अप्पाशास्त्री के सम्पादकत्व में प्रकाशित) ने राष्ट्रीय आन्दोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई। इन पत्रिकाओं ने संस्कृत के क्षेत्र में एक प्रकार का समूह बोध तो उत्पन्न किया ही और साथ ही सामयिक सामाजिक दुःस्थितियों पर आलोचनात्मक टिप्पणियां भी निकाली। विभिन्न त्रैमासिक, मासिक, पाक्षिक तथा साप्ताहिक पत्रिकाओं के, अपना-अपना स्वरूप तथा उद्देश्य थे। जयपुर आदि स्थानों से कई वर्षों तक प्रकाशित ‘संस्कृत रत्नाकर’ का भी अपना एक साहित्यिक महत्त्व था। आधुनिक काल की कुछ प्रवृत्तियाँ तथा विधायें आरम्भ में प्राचीन रचनाकारों की होड़ में उनके समान ही स्तरीय लेखन की प्रवृत्ति के कारण न केवल शास्त्रज्ञ पण्डितों में अभिनवपाणिनि, अभिनवशकर आदि के रूप में प्रतिष्ठापित किये जाने की भावना रही, प्रत्युत गद्य या पद्य के रचनाकारों में भी अभिनव बाणभट्ट या अभिनवकालिदास कहलाने की भावना भी लक्षित होती रही; किन्तु बाद के रचनाकारों ने अपनी अलग पहचान बनाने तथा परम्परा से कुछ हटकर अपने लेखन को प्रतिष्ठापित करने की और अधिक अभिरुचि दिखलायी।। आधुनिक काल में गद्य की अपेक्षा पद्य में लेखन को ही अधिक प्रश्रय मिला, जबकि अन्य भारतीय भाषाओं में गद्य में लेखन को ही अधिक समर्थन दिया गया। यह कम आश्चर्य का विषय नहीं है कि महाकाव्य विधा में लेखन जहाँ अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में बहुत कुछ उपेक्षित हुआ, वहाँ संस्कृत में उसे बहुत अधिक प्रश्रय मिला। महाकाव्यों के विषय के रूप में स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, नेहरू आदि राष्ट्रीय नेता तथा महापुरुषों को विषय बनाया गया। संस्कृत में गद्य लेखन को आधुनिक युग में अधिक बढ़ावा मिला। बंगला आदि अनेक भाषाओं के संस्कृत गद्य में अनुवाद प्रकाशित हुए, फिर भी मौलिक उपन्यास और लघु कथा साहित्य के लेखन की प्रवत्ति बढती गयी। इस काल में गीतियों का लेखन बहुत हुआ, जिस पर गीतगोविन्द की परम्परा से हटकर पाश्चात्त्य “लीरिक” विधा का प्रभाव अधिक पड़ा। गीत के क्षेत्र में भट्ट मथुरानाथ शास्त्री और ललितललाम जानकीवल्लभ शास्त्री का योगदान विशेष उल्लेखनीय है। बाद में मुक्त छन्द्र में गीत लेखन की प्रवृत्ति भी विकसित हुई। इसी विधा में मेघदूत के अनुकरण पर सन्देशकाव्यों की परम्परा में लेखन भी आधुनिक काल में हुआ। संस्कृत में लोकगीत भी लिखने की परम्परा रही। उसके एक प्रवर्तक भारतेन्दुकालिक कवि कमलेश मिश्र थे, जिन्होंने “कमलेश विलास” का प्रणयन किया, ये भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के पूर्ववर्ती गीतकार आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास थे, जो साहित्य में चर्चित नहीं हो सके। आधुनिक संस्कृत कविता में मूल राष्ट्रीय स्वर भी आधुनिक काल की एक विशेष प्रवृत्तियों में परिगणनीय है। १६वीं शती के उत्तरार्ध में कुछ आरम्भिक काल को छोड़कर निर्मित होने वाले संस्कृत साहित्य का मूल स्वर राष्ट्रीयता की भावना हो गया। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जैसे महान् राष्ट्रवादी नेता ने स्वदेशी आन्दोलन छेड़ रखा था। बंगला के प्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय (१८३४-१८६४) के प्रसिद्ध उपन्यास “आनन्द मठ”, जिसका प्रकाशन १८८२ में हुआ, की भूमिका राष्ट्रीय आन्दोलन में विशेष रही। उसका एक गीत ‘वन्दे मातरम्’ ने शताब्दियों से सुप्त राष्ट्र को जगा दिया। आगे यही गीत स्वतन्त्रता आन्दोलन का भी मुख्य प्रेरक बना। इसे राष्ट्रीय मर्यादा भी मिली। इसके बाद तो संस्कृत का आधुनिक लेखन लगभग राष्ट्रीय भावना प्रधान यत्किञ्चित् उससे संस्पृष्ट या प्रेरित हो गया। श्रीधर पाठक ने “भारतस्तवः” लिखा वन्दे भारतदेशमुदारम्, सुषमासदनसकलसुखसारम्। पराधीनता के कष्ट की अनुभूति को अभिव्यक्ति देते हुए स्वतन्त्र “वन-विहग” को सम्बोधित करते हुए अन्नदाचरण तर्कचूडामणि लिखते हैं - धन्यस्त्वमेव विहग स्वत एव विश्व संसारबीजमनिशस्मरणीयकीर्तिम् । गायन पुनः पुनरहो विचरस्यजस्रं, स्वधीनताशुभविभूषणभूषितः सन् ।। (संस्कृतचन्द्रिका ७.५.१८६७) (श्री शुक्ल, संस्कृत का समाज शास्त्र, पृ. ६४) (हे पक्षी, तू ही धन्य है, जो तू स्वाधीनता के शुभ अलंकरण से विभूषित होकर स्वतः सदा स्मरणीय कीर्तिवाले, संसार के बीज भगवान् का गुणगान करता हुआ विचर रहा है!) संस्कृत के रचनाकारों की जो दृष्टि विगत कुछ शताब्दियों से वाणी को चमत्कारपूर्ण करने, अलंकृत करने में तथा, बहुत कुछ अपने आश्रयदाताओं के गुणगान में लगी रही, कुछ अपवादों को छोड़ कर देश की पीड़ित जन-सामान्य की व्यथा की ओर गयी और इस प्रकार जनोन्मुख हो गयी। 7 एक और विशेष उल्लेख्य बात यह है कि योगिराज महामनीषी श्री अरविन्द ने, जो अपने उग्रवादी राजनैतिक जीवन में तिलक आदि से प्रभावित राष्ट्रवादी नेता थे, अपने कारावास के दिनों, १६०४ से १६०८ के बीच, संस्कृत में एक काव्य की रचना को, जो “भवानीभारती’ के नाम से, श्री अरविन्दाश्रम, पाण्डिचेरी से १९८७ में प्रथम बार सम्पादित होकर प्रकाश में आया। श्रीअरविन्द लिखते हैं कि भौतिक चिन्तन में परायण मैं सुखशय्या सम्पादकीय सुन्दरवीर रघुबह का भोजराजाक, जिसमें धारा के राजा भोज और मुञ्ज से सम्बद्ध घटनाओं को आधार बनाया गया है। नाटकीय कथा-विन्यास की दृष्टि से इसे एक सफल प्रयोग कहा जा सकता है। पं. अम्बिकादत्त व्यास का सामवतम् भी एक सुन्दर रचना है। राजराजवर्मा का प्रतीक छाया शैली का नाटक “गर्वाणीविजय” संस्कृत भाषा की दुःस्थिति के प्रकाशन के उद्देश्य से लिखी गयी एक अच्छी नाट्यकृति है। परशुराम नारायण पाटणकर का “वीरधर्मदर्पण” कई दृष्टियों से एक उत्तम कोटि की रचना है, जिसकी तुलना वेणीसंहार (भट्टनारायणकृत) से की जा सकती है। इसका हिन्दी अनुवाद “जयद्रथवध” नाम से हुआ। इसे पाठ्य पुस्तक में निर्धारित किया गया। इसकी प्रशंसा “सरस्वती” में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने की थी। पञ्चानन तर्करत्न, जिन्होंने स्वतन्त्र्य संग्राम में भाग लिया था और अलीपुर बमकाण्ड में १६०७ में बन्दी बनाये गये थे, का अमरमङ्गल नाटक एक ऐतिहासिक नाट्यकृति है, जो महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह के जीवन की घटनाओं पर आधारित है। यह भी एक आकलनीय नाट्यरचना है। राष्ट्रीय जागरण काल के मुख्य नाटककार हैं-हरिदास सिद्धान्तवागीश, मूलशङ्कर माणिकलाल, मथुरा प्रसाद दीक्षित, श्री जीव न्यायतीर्थ तथा वेंकटराम राघव । मथुरा प्रसाद दीक्षित की एक रचना “भारतविजय” को अंग्रेज शासन में जब्त कर लिया गया था। आगे ऐसी अनेक रूपक कृतियां भी प्रकाश में आयीं जिन पर संविधान की दृष्टि से, पाश्चात्त्य नाट्यविधाओं का विशेष प्रभाव लक्षित होता है। डॉ. जयशंकर त्रिपाठी (नाट्य साहित्य के अध्याय के लेखक) ने स्व. ब्रह्मदेव शास्त्री की काव्य नाटिकाओं, वेला और सावित्री की विशेष प्रशंसा की है। हालांकि उनमें भाषाजन्य त्रुटियों का आधिक्य है। शास्त्र/दर्शन आधुनिक संस्कृत साहित्य में दो अध्यायों, शास्त्र /दर्शन तथा जैन मनीषियों का योगदान को बाद में माननीय प्रधान सम्पादक महोदय के निर्देशानुसार जोड़ा गया। निःसन्देह आधुनिक संस्कृत साहित्य के ये अनिवार्य और अभिन्न अंग हैं। दर्शन और अन्य शास्त्रीय क्षेत्रों में आधुनिक काल में अनेक उत्कृष्ट ग्रन्थकार हुए जिन्होंने एक ओर परम्परागत चिन्तन को या तो गति प्रदान की या नया मोड़ दिया। स्वामी दयानन्द सरस्वती, पं. सुधाकर द्विवेदी, म.म. मधुसूदन ओझा, पं. धर्मदत्त झा (बच्चा झा), नकच्छेदराम द्विवेदी, स्वामी करपात्री जी महाराज, पं. रामेश्वर झा आदि अपने-अपने क्षेत्र के महान चिन्तक थे, जिन्होंने आधुनिक संस्कृत साहित्य के विकास में मूल्यवान् योगदान दिया। इसी प्रकार, हम उन जैन मनीषियों के योगदान को भी नहीं भूल सकले जिन्होंने न केवल धर्म और दर्शन के क्षेत्र में, प्रत्युत साहित्य के क्षेत्र में अपने नये निर्माणों द्वारा आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि की है। खेद है कि हमने उन्नीसवीं सदी के जैन-साहित्य के सम्बन्ध में बहुत प्रयास करने पर भी जानकारी नहीं पायी। इस कारण वह काल इस सन्दर्भ में अनुल्लिखित ही रह गया। चम्पूकाव्य विधाओं की दृष्टि से जब हमने इतिहास के अध्यायों को व्यवस्थित किया तो चम्पू काव्य, जो प्राचीन काल से चली आ रही एक विधा है कैसे छूट सकती है ! निश्चित रूप से हमारे आलोच्य “इतिहास” की कालावधि में प्रभूत चम्पूकाव्यों की रचना हुई। किन्तु इसे हमने एक अलग अध्याय के रूप में न रखकर गद्य साहित्य के अध्याय के एक दूसरे भाग के रूप में जोड़ना ठीक समझा। आधुनिक संस्कृत साहित्य का विकास जब से १६५४ में नई दिल्ली में साहित्य अकादेमी स्थापित हुई तब से भारतीय भाषाओं के साहित्य को एक-दूसरे से अनूदित करके प्रस्तुत करने का भी एक व्यवस्थित तथा उपयोगी प्रयास आरम्भ हुआ। इस अखिल भारतीय संस्था के माध्यम से अनेक विकसित भाषाओं का साहित्य आलोचित होकर प्रस्तुत हुआ। साहित्य अकादेमी के माध्यम से समकालीन संस्कृत रचनाकारों के मौलिक ग्रन्थ पुरस्कृत होने लगे। उसके बाद तो देश में, विभिन्न राज्यों में संस्कृत अकादेमी की स्थापना का आरम्भ हुआ। संस्कृत के कई विश्वविद्यालय तथा केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ स्थापित हुए। अखिल भारतीय और राज्यस्तरीय संस्कृत कवि-सम्मेलन आयोजित होने लगे, आकाशवाणी के केन्द्रों (बाद में, दूरदर्शन के केन्द्रों) द्वारा भी समकालिक संस्कृत साहित्य को भी प्रश्रय मिलने लगा। संस्कृत साहित्य का महत्त्व इस अर्थ में भी माना गया कि वह एक मात्र ऐसा साहित्य है जो देश में क्षेत्रीय सीमाओं को पार करके, कुछ भागों को छोड़कर, कश्मीर से कन्याकुमारी तक परस्पर व्यवहार का माध्यम है, हालांकि इसका व्यवहार कुछ सुपठित लोगों के बीच ही है। (यहां ‘व्यवहार’ का तात्पर्य लेखन, विचार-विमर्श के सीमित व्यवहार से है)। समकालिक संस्कृत साहित्य के विकास में तीन उपयोगी स्थितियां अथवा कारण बने। १. विभिन्न विश्वविद्यालयों में आधुनिक संस्कृत रचनाकारों के साहित्य पर शोधकार्य का आरम्भ। २. विभिन्न कालों में अनेक स्थानों पर, अखिल भारतीय स्तर पर आयनिक संस्कृत साहित्य पर संगोष्ठियों का आयोजन, ३. समकालिक संस्कृत साहित्य को बढ़ावा देने वाली कई संस्कृत पत्रिकाओं का प्रकाशन । हम कह चुके हैं कि आधुनिक संस्कृत साहित्य पर विचार और शोध कार्य का आरम्भ सबसे पहले, मध्य प्रदेश के सागर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग ने किया, H INI सम्पादकीय जिसका श्रेय विभागाध्यक्ष प्रो. रामजी उपाध्याय को जाता है। आधुनिक संस्कृत साहित्य के विषय में चिन्तन तथा शोथ कार्य को बढ़ावा देने का जो एक और भी उल्लेखनीय महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ वह है, डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर द्वारा लिखित मराठी ग्रन्थ “अर्वाचीन संस्कृत साहित्य” का १६६३में तथा डॉ. हीरालाल शुक्ल द्वारा लिखित आधुनिक संस्कृत साहित्य का १७१ में प्रकाशन। साथ ही डॉ. राम गोपाल मिश्र द्वारा लिखित “संस्कृत पत्रकारिता का इतिहास” का १६७६ में प्रकाशन भी इस क्रम में उल्लेखनीय है। आधुनिक संस्कृत साहित्य पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के आर्थिक सहयोग से संगोष्ठी या परिसंवाद के आयोजन का शुभारम्भ भी सागर विश्वविद्यालय से होता है, जिसमें पठित निबन्धों का संकलन “आधुनिक संस्कृत साहित्यानुशीलन” नाम से १८६५ में प्रकाशित हुआ। भारतीय विद्या भवन, बम्बई से प्रकाशित “भारतीय विद्या” (त्रैमासिक पत्रिका) के भाग १, २-३ १९८० में बीसवीं शताब्दी के संस्कृत साहित्य पर दिसम्बर १६७२ में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के आर्थिक सहयोग से आयोजित संगोष्ठी में पठित लेख प्रकाशित हुए। राजस्थान अकादमी (जयपुर) की ओर से १६८७ में जोधपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग ने अखिल भारतीय संस्कृत लेखक सम्मेलन का आयोजन किया। उसमें पठित निबन्धों का सम्पादित संकलन “आधुनिक संस्कृत साहित्य” १६८८ में प्रकाशित हुआ। फिर इसी अकादमी के सहयोग से १६८८ में राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के संस्कृत विभाग द्वारा संगोष्ठी आयोजित की गयी, जिसमें पठित निबन्धों का सम्पादित संकलन ‘नवोन्मेषः" नाम से १६६० में प्रकाशित हुआ। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के आर्थिक सहयोग से स्वातन्त्र्योत्तर संस्कृत साहित्य पर नागपुर विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग में १८८५ में अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित संगोष्ठी में पठित निबन्धों का संकलन, “पोस्ट-इण्डेपेण्डेन्ट संस्कृत लिटरेचर” नाम से १६६० में प्रकाशित हुआ। इनके अतिरिक्त सागर विश्वविद्यालय, सागर में यू.जी.सी. के आर्थिक सहयोग से १९८६ में अखिल भारतीय संगोष्ठी तथा साहित्य अकादेमी तथा रामकृष्ण मिशन इन्स्टीट्यूट ऑफ कल्चर, कलकत्ता के सम्मिलित सहयोग से १६६२ में आधुनिक संस्कृत साहित्य परम्परा और अभिनव परिवर्तन पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित हुई, जिनके निबन्धों का प्रकाशन हमारी जानकारी के अनुसार अब तक नहीं हुआ है। कहने की आवश्यकता नहीं कि उक्त “संगोष्ठियों” में अखिल भारतीय स्तर पर आधुनिक एवं समकालिक संस्कृत के रचनाकारों तथा मनीषियों द्वारा बहुत उपयोगी विचार-विमर्श प्रस्तुत हुआ, जिसके समकालिक संस्कृत साहित्य को बहुत गति मिली। आज जो संस्कृत की पत्रिकायें समकालिक संस्कृत लेखन को गति प्रदान कर रही हैं उनमें प्रमुख हैं-संस्कृत प्रतिभा (साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली) “दूर्वा" (मध्य प्रदेशआधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास संस्कृत अकादमी, भोपाल), सागरिका (सागरिका समिति, सागर), स्वरमङ्गला (राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुर), विश्वसंस्कृतम् (साधुआश्रम, होशियारपुर), भारती (भारतीभवन, जयपुर), अजस्रा (अखिल भारतीय संस्कृत परिषद्, लखनऊ), सूर्योदय (भारतधर्म महामण्डल, वाराणसी) और अर्वाचीनसंस्कृतम् (६, वाणीविहार, दिल्ली-५६ ) आदि। समकालिक संस्कृत साहित्य के कुछ कवियों का सुभाषित संग्रह ‘षोडशी" नाम से डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी द्वारा संकलित तथा सम्पादित होकर साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली से १६६२ में प्रकाश में आया है और एक लघु कथा संग्रह भी सद्यः प्रकाशित होने वाला है। इसके पूर्व डॉ. शिवदत्त चतुर्वेदी (वाराणसी) द्वारा ‘अभिनव कथानिकुञ्ज’ १६६६ में प्रकाशित हुआ था। यह सब कुछ इस बात का प्रमाण है कि समकालिक संस्कृत का रचनाकार अखिल | भारतीय स्तर पर समकालिक भारतीय भाषाओं के साहित्य के रचनाकारों के साथ अपने कलेखन को गति देने में निरन्तर जागरूक है। अब संस्कृत को “मृतभाषा” समझने तथा र कहने वाले लोगों की भांति का एक सीमा में बहुत कुछ उच्छेद हो चुका है, ऐसा हम * समझते हैं। लेकिन फिर भी, अपने देश में ही, अपने को तथाकथित “आधुनिक” सिद्ध करने वाले आयातित मान्यताओं को सिर पर ढोने वाले कुछ लोगों में संस्कृत लेखन में प्रवृत्त रचनाकारों को पुराणपंथी" कहने और मानने की प्रवृत्ति अब भी बनी हुई है। उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि संस्कृत का रचनाकार परम्परा से सदैव जुड़ा रहा। राष्ट्र के हित के प्रति वह सदैव जागरूक तथा नवीन के स्वागत के लिए तत्पर भी रहा है। वह अपना परिचय स्थापित करने की दिशा में सदा प्रवृत्त है और वह सर्वात्मना भारतीय होने में गौरव अनुभव करता है। उसकी अपनी परम्परा के प्रति आदर की भावना को उसका मोह" नहीं समझा जाना चाहिए। आधुनिक संस्कृत साहित्य ने भारतीय साहित्य को अनेक महान् साहित्यकार दिये हैं। खेद है कि अभी तक उन रचनाकारों के साहित्यिक योगदान का समुचित मूल्याङ्कन नहीं हुआ है। आज अन्य भारतीय भाषाओं के बीच संस्कृत एक भाषा है। ऐसा भी नहीं कि आज उसे कोई “दैवी वाक्” या देव-वाणी नहीं मानता, (नहीं मानने वालों की संख्या नगण्य ही कही जा सकती है, फिर भी आज का संस्कृत का रचनाकार उसकी उस प्राचीन प्रतिष्ठा को स्वीकार करते हुए उसके साहित्य के विकास में अपनी ओर से कुछ और जोड़ना चाहता है तथा उसे और भी समृद्ध करना चाहता है। आगे आने वाली शताब्दी में संस्कृत का साहित्य कुछ और अधुनातन रूप में प्रस्तुत होगा और उसमें अखिल भारतीय ही नहीं, विश्व स्तर के रचनाकार साहित्य रचना में प्रवृत्त होंगे, वह हमारा दृढ़ विश्वास है। समकालिक संस्कृत साहित्य के विकास की गति को तीव्र करते हुए यह हमें ध्यान में रखना है कि संस्कृत का मानक व्याकरण पाणिनीय व्याकरण है। उसके द्वारा स्थापित सम्पादकीय नियमों की अवहेलना हमारे लिए ठीक नहीं है। यह ठीक है कि किसी भाषा के विकास की गति को व्याकरण के रूढ़ तथा जटिल नियम बाधित करते हैं, तथापि संस्कृत के विषय में पाणिनीय नियमों की सीमा में रहना आवश्यक भी है और उचित भी। (आधुनिक संस्कृत के लिए व्याकरण की सीमा पर समयानुसार तथा आवश्यकतानुसार विचार-विमर्श भी होना चाहिए। संस्कृत के लेखन में यदि इस प्रकार की शिथिलता को प्रश्रय दिया गया तो संस्कृत का संस्कृतत्व उच्छिन्न हो सकता है। साथ ही, वार्णिक तथा मात्रिक छन्दों में पद्यों के निर्माण में छन्दःशास्त्र के नियमों का पालन भी आवश्यक है। अनजाने में त्रुटियां किसी से भी हो सकती हैं, किन्तु जान बूझकर व्याकरण शास्त्र तथा छन्दशास्त्र के नियमों का उल्लंघन या उनके प्रति उपेक्षा प्रवर्तमान संस्कृत साहित्य के लिए बाधक हो सकती है। __ आधुनिक संस्कृत साहित्य की कालावधि लगभग दो शताब्दियों (१६वीं-२०वीं) की है। यह काल न केवल भारत के इतिहास, प्रत्युत विश्व के इतिहास की दृष्टि से बड़े उद्वेलन और परिवर्तन का काल है। इसमें दो विश्व युद्ध घटित हुए, हिरोशिमा, और नागासाकी पर अणुबम के प्रहार द्वारा मानव-संहार की विकट दुःस्थिति उत्पन्न हुई। भारत में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध प्रबल संघर्ष छिड़ा, जिसके फलस्वरूप भारत स्वतन्त्र हुआ। भारत-विभाजन के साथ साम्प्रदायिक दंगों की लपटें फैली और इस शती के सबसे महान नेता महात्म गांधी की हत्या हुई। इस बीच, भारत में नाना विभूतियों ने जन्म लिया और उनमें से अनेक ने भारत में राष्ट्रीय चेतना को जगाने के साथ सामाजिक कुरीतियों पर भी प्रबल प्रहार किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत एक अखण्ड राष्ट्र तथा लोकतन्त्रात्मक “गणराज्य” के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। खेद है कि हम राजनैतिक परतंत्रता से तो मुक्त हुए, किन्तु मानसिक तौर पर हम उन्हीं पाश्चात्त्य भोगवादी दुष्प्रभावों के वशीभूत या गुलाम होते गये और हमारा नैतिक चारित्र्य पतन की ओर जाता हुआ प्रतीत हुआ। यह सब कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के नव विकसित साहित्य की भांति आधुनिक संस्कृत साहित्य के दर्पण में भी स्पष्ट देखा जा सकता है। आधुनिक संस्कृत साहित्य में साहित्य की लगभग सभी प्राचीन तथा नव विकसित विधाओं में लेखन हुआ और हो रहा है। हालांकि हम यह दृढ़तापूर्वक नहीं कह सकते आधुनिक संस्कृत साहित्य ने कोई रवीन्द्रनाथ, कोई शरच्चन्द्र और कोई प्रेमचंद, को मुहम्मद इकबाल, या कोई सुब्रह्मण्य भारती को प्रस्तुत किया है, जिसकी कृतियां विश्वस्त पर नहीं तो भारत की विभिन्न भाषाओं में अनूदित होकर बड़ी चाव से पढ़ी गयी हों, फिर भी हम निराश नहीं हैं। आधुनिक संस्कृत साहित्य के अनेक रचनाकारों में उस प्रकार की उत्तम लेखन क्षमता अवश्य है, किन्तु खेद है कि इस साहित्य का अब तक सही अर्थ में आलोचन या आकलन नहीं हुआ। बहुत लोगों को यह भी स्पष्ट रूप से अवगत नहीं है। कि अब भी संस्कृत में नवीन रचनायें हो रही हैं। आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास समीक्षा ग्रन्थों का अभाव आधुनिक संस्कृत साहित्य के इतिहास में समीक्षात्मक साहित्य का अध्याय इस कारण नहीं जोड़ा जा सका कि संस्कृत के विचारकों ने उन्मुक्त हृदय से गहरे पैठ कर किसी रचनाकार पर या किसी कृति-विशेष पर लेखन नहीं किया। यदि किसी ने कुछ लिखा भी तो वह बहुत मार्मिक समीक्षा न होने के कारण उपेक्षित रह गया। दुर्भाग्य से टी. गणपति शास्त्री (१८६०-१E२६) द्वारा लिखित विशाखविजय महाकाव्य की समालोचना को हम उपलब्ध नहीं कर सके। हमारा ऐसा कभी दृष्टिकोण नहीं है कि हमारे विचारक विद्वानों में आधुनिक समीक्षा दृष्टि का अभाव रहा है। हमारे अनेक प्रतिष्ठित रचनाकार मूलतः समीक्षक की भूमिका भी अपना कर प्रतिष्ठित हो चुके हैं। हमसे मिलता-जुलता अनुभव स्वातन्त्र्योत्तर काल के एक रचनाकार डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी का है जिसे उन्होंने अपने । एक लेख में इन शब्दों में व्यक्त किया है “साहित्यिक प्रखरता और सक्रियता आलोचना के लिए उत्प्रेरक बनती है। आधुनिक काल में संस्कृत पर लिखी रचनाओं पर ऐसी कोई र सर्वानापूर्ण समीक्षाकृति नहीं दिखाई पड़ती, जो समग्रता में इस साहित्य का आकलन करती -हो। साहित्यिक उत्कृष्टता ही प्रकृष्ट समीक्षा को जन्म देती है तो अच्छी समीक्षा का अभाव संस्कृत के आधुनिक साहित्य के लिए ऐसी चिन्तनीय स्थिति है।” (आधुनिक संस्कृत हित्य", राजस्थानी ग्रन्थकार, जोधपुर १६८८, पृ. ४)
- हमारा विश्वास है कि अब हमारे पाश्चात्त्य और पौरस्त्य समीक्षा-दृष्टि से सम्पन्न विचारकों का ध्यान इस रिक्तता की ओर विशेष रूप से जायेगा। जैसा कि कहा गया है कि संस्कृत के कवियों में सर्जनशीलता के क्षरण की स्थिति को महसूस करके ही कदाचित् आनन्दवर्धन ने अपने काल तक दो तीन या छः कालिदास प्रभृति महाकवियों की बात कही है। यही कारण था कि काव्य का चिन्तन कवि-केन्द्रित न होकर सहृदयकेन्द्रित हो गया। अर्थात् कारयित्री प्रतिभा का स्थान भावयित्री प्रतिभा ने ले लिया। आधुनिक संस्कृत साहित्य में आकर कुछ पाश्चात्त्य प्रभाव से जो भी परिवर्तन आया उसे अमान्य करार नहीं दिया जा सकता है, फिर भी आधुनिक संस्कृत के अनेक रचनाकार गतप्नुमतिकता से अपने को मुक्त नहीं कर सके हैं। उसे आज जब कविता मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति को लक्ष्य करके निर्मित होने कहीं है, हमारी दृष्टि में अब भी उसका महत्त्व उतना नहीं है, कथ्य की अपेक्षा को न-प्रकार का महत्त्व संस्कृत के क्षेत्र में अब भी बना हुआ है। यह भी सही है कि आधुनिक काल में अनेक काव्य शास्त्रीय ग्रन्थों के निर्मित होने भी आधुनिक सर्जनात्मकता को उससे प्रभावित होते अनुभव नहीं किया जा रहा है. कतर हमारे रचनाकार परम्परानुगत होकर ही लेखन में प्रवृत्त हैं और अब भी संस्कृत का आधुनिक कवि अपनी संकीर्ण सीमाओं से उबर नहीं सका है। केवल प्राचीन लक्षणों पर आधारित किसी महाकाव्य की रचना करके ही कोई महाकवि पद पर प्रतिष्ठित नहीं हो सम्पादकीय जाता, उसके लिए विशेष रूप से नव्यार्थ का संयोजन अनिवार्य होता है। नैषधकार श्रीहर्ष जैसे कवियों ने “नवार्थघटना’ पर बहुत बल देते हुए अपने काव्य को “एकामत्यजतो नवार्थघटनाम” की बात कही है, केवल मात्र किसी इतिवृत्त के सफलतापूर्वक निर्वाह तथा कुछ अलंकारों का प्रयोग मात्र कविता को प्रतिष्ठित नहीं करते। आज हम जब भी किसी रचना का मूल्यांकन करने के लिए प्रवृत्त होते हैं तब तो कुछ हमारे संस्कारगत काव्यालोचन के तत्त्व उभर आते हैं या पाश्चात्त्य चिन्तकों से आयातित विचारों की सरणियां आड़े आ जाती हैं। इस प्रकार हमारा मूल्यांकन पक्ष अब भी विचारणीय है और हमारा विश्वास है कि भविष्य में आधुनिक संस्कृत के साहित्य में इस पक्ष में बहत कछ परिवर्तन घटित होगा। आधुनिक संस्कृत साहित्य के बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के इन दशकों में प्राचीन कविता और नवीन कविता के बीच की विभाजक रेखा स्पष्ट से स्पष्टतर होती जा रही है। छन्द और अलंकार योजना के प्रति एक सीमा में व्यामोह के बावजूद संस्कृत का नव आधुनिक कवि जन सामान्य के सुख-दुःख को आत्मसात् कर चुका है। वह वायवीय कल्पना के पंख पर उड़ान की अपेक्षा यथार्थ की भूमि से अधिक रस ग्रहण कर रहा है और श्लथ शृङ्गार के लिजलिजेपन को भी वर्जित कर चुका है। एक निर्मोक से मुक्त संस्कृत कविता का भास्वर रूप अब कुछ-कुछ खिलने लगा है। किन्तु बहुत स्पष्ट रूप से अब भी नये लेखन में प्रवृत्त रचनाकारों की आंखों के समक्ष एक सघन धुंध सा बना हुआ है जिससे वे प्रायः अपनी दिशा को खोते तथा भटकन के पात्र होते प्रतीत होते हैं। आज, हिन्दी के समान ही संस्कृत को भी किसी ‘अज्ञेय’ की आवश्यकता है जो “तन्त्रीसप्तकम्’ की योजना बनाकर संस्कृत की नवकविता को प्रकाश में ला सके और नये प्रतिमानों के आलोक में उसकी व्याख्या करके उसे उजागर कर सके। इधर, कुछ लोगों द्वारा रचनाधर्मिता के नाम पर संस्कृत में “प्रचारवाद” को एक सीमा से अधिक प्रश्रय मिल रहा है। निश्चय ही संस्कृत कविता में नव चेतना के स्फुरण में ऐसे तत्त्व बहुत बाधक सिद्ध हो रहे हैं, जिनसे समय के रहते सावधान हो जाने की आवश्यकता है। आधुनिक संस्कृत साहित्य का एक व्यवस्थित इतिहास अपनी नाना त्रुटियों तथा सीमाओं के बावजूद प्रस्तुत ‘इतिहास” को एक व्यवस्थित रूप देने का प्रयास किया गया है। हमें इसमें कहां तक सफलता मिली है इसका निर्णय करना हमारा काम नहीं है। हमें “इतिहास” के लेखन के लिए सूचना सामग्री के रूप में अनेक ग्रन्थ और लेख मिले। प्रो. श्री. भा. वर्णेकर और प्रो. हीरालाल शुक्ल के ग्रन्थ अर्वाचीन संस्कृत साहित्य (१६६३ मराठी ग्रन्थ) और आधुनिक संस्कृत साहित्य (१९७१) हमारे लिए विशेष उपयोगी सिद्ध हुए। आधुनिक संस्कृत साहित्य की प्रभूत मात्रा में लिखित ४६ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास व्याकीर्ण सामग्री को इन दोनों विद्वानों ने विधाओं के अनुसार विभाजित करके संकलन का रूप दिया। जहां वर्णेकर जी ने १७वीं शती से १६६० तक के संस्कृत साहित्य का पर्यालोचन किया है वहां हीरालालजी शुक्ल ने “निरपेक्ष तथा तटस्थ रूप से संस्कृत के नवजागरण के इतिहास को” प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसी प्रकार हमने प्रो. रामजी उपाध्याय के “आधुनिक संस्कृत नाटक” का भी उपयोग किया। डॉ. शुक्ल का एक ग्रन्थ “सस्कृत का समाज शास्त्र” (स्वतन्त्रता संग्राम और संस्कृत साहित्य) १६८६ में प्रकाश में आया, जिसमें उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण अध्याय जोड़े, जिनमें स्वतन्त्रता संग्राम के सन्दर्भ में संस्कृतज्ञ समाज के योगदान को बड़ी सफलता के साथ उजागर किया गया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इतिहास की सामग्री इतिहास नहीं होती। कितने रामपरक, कितने कृष्णपरक या शिवपरक तथा राजभक्तिपरक ग्रन्थ लिखे गये तथा कितनी विधाओं में लेखन हुआ इसकी गणना से “इतिहास” का स्वरूप नहीं बनता। यदि महाकाव्य विधा में लिखित ग्रन्थों की चर्चा करते हुए यह बात कह दी गयी कि आत्मचरितपरक महाकाव्य आधुनिक युग की देन हैं तो इतने मात्र से एक इतिहास का लक्ष्य सिद्ध नहीं हुआ। निश्चय ही इन विद्वानों ने ‘इतिहास" का एक ढांचा तैयार किया। इस अंश में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। आधुनिक संस्कृत साहित्य के इतिहास की सामग्री को आकलित करते हुए अनेक प्रश्न और जिज्ञासाएं उदित होती रहीं हैं, जिनका समाधान इन संग्रहकारों के ग्रन्थों से नहीं मिला। एक तो यही मन में बात उठती है कि “आधुनिक संस्कृत साहित्य के इतिहास’ से क्या लिया जाय? क्या आधुनिक काल खण्ड (१६वीं तथा २०वीं शती) में लिखे जाने वाले संस्कृत साहित्य का इतिहास अधवा क्या ‘संस्कृत के आधुनिक साहित्य का इतिहास’ ? यह प्रश्न जब मैंने इतिहास, संस्कृति और साहित्य के प्रख्यात विचारक प्रो. गोविन्द चन्द्र पाण्डे के समक्ष रखा तो उनका यह समाधान था कि रचना भले ही आधुनिक न हो, किन्तु उसमें दोष की मात्रा कम से कम हो और उसमें “उत्कर्ष” हो उसे आधुनिक साहित्य के इतिहास में प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए भले ही उसमें आधुनिकता न हो। प्रो. पाण्डे ने इस सन्दर्भ में “उद्धवशतक” (जगन्नाथ दास “रत्नाकर” द्वारा लिखित हिन्दी काव्य) का उदाहरण दिया, जो छायावाद युग में लिखा गया और हिन्दी के क्षेत्र में अपने उत्कर्ष के कारण प्रतिष्ठित हुआ। यह एक “समाधान” के रूप में प्रो. पाण्डे का मत हमारे लिए विचारणीय है। फिर भी आधुनिक काल में लिखित स्तोत्रकाव्यों को बहुत मान्यता देने के पक्ष में वे भी नहीं लगे। संस्कृत का आधनिक काल का साहित्य परम्परागत परिपाटी या प्राचीन सांचों के अन्तर्गत लिखा गया, इसका यह तात्पर्य नहीं कि संस्कृत कवियों का चिंतन जड़ीभूत था। इसके पीछे देश की प्राचीनकाल से अविश्रान्त रूप से प्रवहमान धार्मिक आस्था उस चिन्तन सम्पादकीय के पीछे काम कर रही थी, ठीक उसके साथ ही वे परिपाटियां और सांचे भी अनिवार्य रूप से आ गये। संस्कृत भाषा का एक जो व्यवस्थित स्वरूप बना हुआ था वह उनमें ही सुचारु रूप से समञ्जस हो पाता था। इसी कारण संस्कृत के कवियों ने उसका मोह बहुत समय तक नहीं छोड़ा। एक और दूसरा कारण जो स्पष्ट प्रतीत होता है, संस्कृत के लेखन में कवित्व और पाण्डित्य का सामञ्जस्य या योगायोग श्रीहर्ष नैषधकार) के प्रभाव से अधिक मात्रा में लक्षित होने लगा था। “सुकुमारवस्तु” साहित्य और “दृढन्यायग्रहग्रन्थिल” तर्क को एक ही रचनाकार में प्रस्फुटित होने के अनेक उदाहरण हैं। संस्कृत के समर्थ रचनाकार पडितराज जगन्नाथ ने भी शास्त्र और काव्य दोनों के लेखन द्वारा अपनी प्रतिभा का समान चमत्कार प्रस्तुत किया। इनके पूर्ववर्ती प्रसन्नराघवकार जयदेव एक ही साथ कवि और तार्किक दोनों थे। आधुनिक काल के प्रसिद्ध नैयायिक सर्वतन्त्रस्वतन्त्र पं. धर्मदत्त (बच्चा) झा ने विलक्षण कवित्व के बल पर “सुलोचनामाधवचम्पू” जैसे उत्कृष्ट काव्य का निर्माण किया। इसी क्रम में म.म. गंगाधर शास्त्री (अलिविलासिसंलाप) म.म. रामावतार शर्मा (मारुतिशतक" और “मुद्गरदूत”) और ‘कवितार्किकचक्रवर्ती महादेव शास्त्री (भारतशतक) आदि के नाम उल्लेख्य हैं। क्या इस कोटि के शास्त्र-कवियों की रचनाओं को आधुनिक संस्कृत साहित्य के इतिहास में स्थान नहीं दिया जा सकता? हमने प्रस्तुत इतिहास के माध्यम से केवल विगत को समुल्लिखित नहीं किया है, किन्तु अपने समकालिक साहित्य को भी आलोचित किया है। यहां इतिहास के सन्दर्भ में समालोचना को भी हमने एक दायित्व के रूप में निभाने का प्रयास किया है, जिससे हम अपने इतिहास को भविष्य की ओर भी उन्मुख कर सकें। यद्यपि यह इतिहास एक सामूहिक प्रयास होने के कारण क्रमिक विकास या आलोचनात्मक एकरूपता प्रस्तुत करने की दिशा में कोई सफल प्रयोग भले न सिद्ध हो, तथापि इसमें नये रचनाकारों तथा आधुनिक विचारकों की दृष्टि के उन्मीलन में यदि इसका कुछ योगदान हुआ तो हमारा प्रयास सार्थक होगा। हमारी प्रमुख चिन्ता इस बात की है कि अब तक व्यापक पैमाने पर आधुनिक काल तथा समकालीन संस्कृत के रचनाकारों की तटस्थ वस्तुपरक समीक्षा प्रस्तुत करने की दिशा में कोई जागरूकता नहीं आयी। अब तक के प्रयासों को उस दिशा में एक भूमिका मात्र कहा जा सकता है। निश्चय ही समकालीन संस्कृत साहित्य का रचनाकार सर्वतोभावेन प्रबुद्ध और समर्थ है। वह सुवर्ण का उत्पादक ही नहीं, उसकी परीक्षा में भी क्षम है, अतः उसे खुलकर सामने आना चाहिए। प्रस्तुत “इतिहास” एक प्रकार से उसके लिए “आह्वान” है। वह किसी ‘मृत’ का उपासक नहीं, प्रत्युत “अमृत" का सन्देशवाहक है। यह इतिहास ग्रन्थ, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ द्वारा उसके अध्यक्ष पदमभूषण आचार्य पं. बलदेव उपाध्यायजी के प्रधान सम्पादकत्व में प्रकाश्यमान संस्कत 남독 आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास वाङ्मय के “बृहद् इतिहास” का सप्तम खण्ड है। इसके निर्माण की दिशा में प्रयास प्रधान सम्पादक महोदय के आदेश तथा मार्गनिर्देश में १६६१ में आरम्भ हुआ। जिन सहयोगी लेखकों तथा लेखिकाओं का सोत्साह योगदान है वे हैं-प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी (सागर), डॉ. जयशङ्कर त्रिपाठी (प्रयाग), डॉ. हरिदत्त शर्मा (प्रयाग), श्री कलानाथ शास्त्री (जयपुर), डॉ. (श्रीमती) कमला दुबे (प्रयाग) और डॉ. (श्रीमती) दीपा अग्रवाल (प्रयाग)। इन लेखकों ने क्रमशः गीतिकाव्य, नाट्यसाहित्य, लघुकाव्य, गद्यकाव्य, दर्शन तथा शास्त्रीय ग्रन्थ और जैन साहित्य पर स्वतन्त्र लेखन किया है। मैंने महाकाव्य (अध्याय) को लिखा। खेद है कि आरम्भ में हम जिन तीन सहयोगी विद्वानों के मूल्यवान् सहयोग से, उनकी मुख्यतः व्यस्तता के कारण वञ्चित रहे हैं वे हैं-प्रो. शिव कुमार मिश्र, आचार्य गंगानाथ झा केन्दीय संस्कृत विद्यापीठ प्रयाग, प्रो. सुरेश चन्द्र पाण्डेय (पूर्व अध्यक्ष, संस्कृत विभाग प्रयाग वि.वि. प्रयाग) तथा डॉ. राघव प्रसाद चौधरी (प्राचार्य, श्री रणवीर केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, जम्मू)। यहां हम यह स्पष्ट कर देना आवश्यक समझते हैं कि प्रत्येक अध्याय के लेखक पर ही उसके लेखन का विशेष उत्तरदायित्व है। उनके सहयोग से ही यह कार्य सम्पन्न हो सका। इस समायोजन में हमारा अनेक विद्वानों तथा मनीषियों ने उदारतापूर्वक सहयोग करके अपनी रचनाओं, आलोचनात्मक सामग्री आदि द्वारा हमें अनुगृहीत किया है, हम उनके प्रति हृदय से कृतज्ञ हैं। वे विद्वान् तथा मनीषी हैं प्रो. श्रीधर भास्कर वर्णेकर (नागपुर), प्रो. गोविन्द चन्द्र पाण्डे (प्रयाग), डॉ. रामकरण शर्मा (दिल्ली), प्रो. सत्यव्रत शास्त्री (दिल्ली), प्रो. ब्रजमोहन चतुर्वेदी (दिल्ली), डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी (उज्जैन), डॉ. वनेश्वर पाठक (रांची), डॉ. विश्व नारायण शास्त्री (गुवाहाटी), डॉ. केशवचन्द्र दास (पुरी), डॉ. राजेन्द्र मिश्र (शिमला), डॉ. विश्वनाथ मिश्र (बीकानेर), प्रो. कैलाशपति त्रिपाठी (वाराणसी), प्रो. रेवा प्रसाद द्विवेदी (वाराणसी), डॉ. शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी (वाराणसी), डॉ. प्रभात शास्त्री (प्रयाग), आचार्य प्रियव्रत शर्मा (वाराणसी) डॉ. रहसबिहारी द्विवेदी (जबलपुर), श्री कलानाथ शास्त्री (जयपुर), प्रो.राधवल्लभ त्रिपाठी (सागर), डॉ. रामनारायण दास (गुरुवायूर), प्रो. जी.बी. पलसुले (पुणे), डॉ. श्रीधर वासुदेव सोहोनी (पुणे), प्रो. कृष्णलाल (दिल्ली), प्रो. व्रजबिहारी चौबे (होश्यारपुर), डॉ.माधवस्वरूप बहल (जालन्धर), डॉ. बलजिन्नाथ पण्डित (जम्मू), डॉ. श्रीरञ्जन सूरिदेव (पटना), डॉ. मारुति नन्दन पाठक (बोध गया), श्री दिगम्बर महापात्र (राउरकेला), डॉ. आनन्द कुमार श्रीवास्तव (प्रयाग), प्रो. इन्द्रनाथ चौधुरी (सचिव, साहित्य अकादमी नई दिल्ली), श्रीमती कुमुद शर्मा (धर्मपत्नी, स्व. प्रो. नलिन विलोचन शर्मा), डॉ. दरबारी लाल कोठिया (बीना), श्री सन्तोष सिंहई (दमोह), श्री नीरज जैन (सतना), श्री कमलेश कुमार जैन “भाईजान” (जबलपुर), डॉ. शिव शङ्कर पण्डित (रांची), प्रो. एच. आर.ए. शांडिल्य (उल्हासनगर, बम्बई), डॉ. कस्तूर चंद कासलीवाल (जयपुर), YE सम्पादकीय डॉ. ब्रह्मानन्द त्रिपाठी (वाराणसी), डॉ. पी.सी. मुरलीमाधवन् (गुरुवायूर, केरल) डॉ. किशोरनाथ झा (प्रयाग)। श्री मधुकर द्विवेदी (पूर्व निदेशक, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान), लखनऊ और वर्तमान निदेशक डॉ. श्रीमती अलका श्रीवास्तव तथा संस्थानके उनके अन्य सहयोगी डॉ. चन्द्रकान्त द्विवेदी आदि के हम आभारी हैं जिन्होंने हमें पूरा सहयोग प्रदान किया है। इस खण्ड के सम्पादन और प्रकाशन में हमारे अभिन्न मित्र डॉ. रमाकान्त झा का सहयोग विशेष उपादेय है अतः मैं डॉ. झा को हृदय से साधुवाद देता हूँ। प्रधान सम्पादक अपने गुरु प्रातःस्मरणीय पद्मभूषण आचार्य पं. बलदेव उपाध्याय जी का किन शब्दों में आभार प्रकट करूं! वस्तुतः हमारा यह पूरा आयोजन उनके शुभाशीर्वाद तथा सत्प्रेरणा का परिणाम है। उन्होंने आधुनिक संस्कृत साहित्य के प्रस्तुत इतिहास के सम्पादन का दायित्व मुझ पर अपने सहज स्नेहवश ही सौंपा, ऐसा कह सकता हूँ। निश्चय ही इस इतिहास के प्रस्तुतीकरण में जाने-अनजाने हमसे और भी अनेक त्रुटियां हुई हैं। अनेक संस्कृत के प्रतिष्ठित रचनाकार या तो अचर्चित रह गये हैं या कम चर्चित हुए हैं। कुछ हमारी विवशता इस अंश में रही है कि हमें उनकी कृतियों को देखने का अवसर नहीं मिला। हमारा विश्वास है कि सुधीजन हमारी त्रुटियों के लिए क्षमा करते हुए हमारा मार्ग-दर्शन करेंगे और आगे के संस्करणों में आधुनिक संस्कृत साहित्य के इतिहास को और भी परिष्कृत करने में हमें सहयोग प्रदान करेंगे। मेरे अनुज चि. कृष्णानन्द पाठक तथा भ्रातृज चि. अनिल कुमार पाठक ने मुझे इस कार्य में अपेक्षित सहयोग प्रदान किया है, इसके लिए उन्हें शुभार्शीवाद देता हूं। जगन्नाथ पाठक सम्पादक बसन्त पञ्चमी २५-१-E६ ३/१४, एम.आई.जी., झूसी इलाहाबाद-२११०१ संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास सप्तम खण्ड : आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास विषय-सूची प्रथम अध्याय महाकाव्य १-१२० पृष्ठभूमि १-६, संक्रान्तिकाल के कवि :-११, जगज्जीवन भट्ट /११,१२, रूपनाथ झा ११-१३, विश्वेश्वर पाण्डेय १३,१४, सुब्रह्मण्य, आरूर माघवन अडितिरि, श्याम भट्ट भारद्वाज १४, उन्नीसवीं शती के महाकाव्यकार १४, गोदवर्म युवराज १४-१६, चण्डीदास १७, १८, परमेश्वरन् मूत्ततु १८,१६, सीताराम भट्ट पर्वणीकर १६,२०, शिवकुमार मिश्र २०, अन्नदाचरण तर्कचूडामणि २०, २१, रामनाथ तर्करत्न २२,२३, बीसवीं शती में प्रकाश में आये महाकाव्यकार २३, अखिलानन्द शर्मा २३-२५, सखाराम शास्त्री भागवत २५-२८, मेधाव्रत २८,२६, बदरीनाथ झा २६,३०, क्षमा राव ३०-३४, गंगा प्रसाद उपाध्याय ३४, ३५, भगवदाचार्य ३५-३८, काशीनाथ द्विवेदी ३८, ३६, उमापति शर्मा द्विवेदी ३६-४१, विन्ध्येश्वरी प्रसाद मिश्र ४१-४३, गोस्वामी बलभद्र प्रसाद शास्त्री ४३, ४४, विश्वनाथ केशव छत्रे ४३, बालकृष्ण भट्ट ४४, सत्यव्रत शास्त्री ४४-५०, ब्रह्मानन्द शुक्ल ५०, ५१,२मधारि सिंह शर्मा ५१, १२, कालीपद तर्काचार्य ५२, भोलाशंकर व्यास ५२-५५, रेवा प्रसाद द्विवेदी ५५-५६, श्रीधर भास्कर वर्णेकर ५६-६०, प्रभुदत्त स्वामी ६०-६२. त्र्यम्बक आत्माराम भण्डारकर ६२-६४, उमाशंकर शर्मा त्रिपाठी ६४-६६, परमानन्द शास्त्री ६६-७०, पी.के. नारायण पिल्लई ७०,७१, राजेन्द्र मिश्र ७१-७४, माधव श्रीहरि अणे ७४-६६, गणेश गंगाराम पेण्डारकर ७७-७८, नारायण शुक्ल ७८, रमेशचन्द्र शुक्ल ७८, ७६, वसन्त त्र्यम्बक शेवडे ७-८१, रामावतार मिश्र ८१-८३, रसिक बिहारी जोशी ८३-८५, सुबोध चन्द्र पन्त ८५-८७, पी.सी. देवस्य ९७, ८८, कालिका प्रसाद शुक्ल ८८, ८६, जग्गू बकुलभूषण ८६-६२, प्रभुदत्त शास्त्री ६२-६४, रामचन्द्र मिश्र E४-६६, निगम बोध तीर्थ ६६, ६७, हरिहर पाण्डेय ६७, ६८, द्विजेन्द्र लाल शर्मा पुर विषय-सूची -कायस्थ ६८, ६६, पद्मशास्त्री E-१०२, हरिनारायण दीक्षित १०२-१०५, द्विजेन्द्र नाथ शास्त्री १०५, हरिप्रसाद द्विवेदी शास्त्री १०५, १०६, नारायण शास्त्री १०६, छज्जुराम शास्त्री १०६, भवानीदत्त शर्मा १०६,१०७, काशीनाथ पाण्डेय ‘चन्द्रमौलि’ १०७, रघुनन्दन शर्मा १०८, स्वयम्प्रकाश शर्मा १०८, १०६, श्यामवर्ण द्विवेदी १०६, रघुनाथ प्रसाद चतुर्वेदी १०६, पी. उमामहेश्वर शास्त्री १०६, के. एन. एझतचन ११०, राम कुबेर मालवीय ११०, सुधाकर शुक्ल १११, साधुशरण मिश्र १११, श्रीकृष्ण प्रसाद शर्मा घिमिरे १११, मुतुकुलम् श्रीधर ११२, के. बालराम पनिक्कर ११२, शान्तिभिक्षु शास्त्री ११२, ओगेटि परीक्षित् शर्मा ११३, के.एस. नागराजन ११३, रघुनाथ शर्मा ११४, वनमालिदास शास्त्री ११४, मधुकर शास्त्री ११५, रामरूप पाठक ११५, जगन्नाथ मिश्र ११६, श्रीनिवास रथ ११६, दिगम्बर महापात्र ११६, श्री जीवन्याय तीर्थ ११७, विष्णुदत्त शर्मा ११७, पशुपति झा ११८, राजकिशोर मणि त्रिपाठी ११८, ११६, इन्द्रदेव द्विवेदी १२०, बलभद्र शास्त्री १२०, शिवकुमार शास्त्री १२०, त्रिपुरारिशरण पाण्डेय १२० । द्वितीय अध्याय लघुकाव्य १२१-२३६ स्वरूप १२१, देशकाल १२१, प्रवृत्तियां और विधायें १२२, पुराकथाश्रित, देवस्तुतिपरक तथा राष्ट्र भक्तिपरक काव्य १२३, चरितनायक-परक काव्य १२४, सामाजिक समस्यामूलक और शुद्ध रसात्मक काव्य १२५, प्रकृतिवर्णन परक और दूतकाव्य १२६, अन्योक्तिपरक तथा हास्यव्यङ्ग्य परक काव्य १२६, वैदेशिक यात्रा वृत्त विषयक तथा अन्तर्राष्ट्रीय चेतना-परक काव्य १२८, छन्दोमुक्त निबन्ध काव्य और बालकाव्य १२६, शतक काव्य और लहरी काव्य १३०, चित्रकाव्य तथा नीतिसूक्ति परक काव्य १३१, प्रकीर्ण १४२, और अनूदित काव्य १३२। उन्नीसवीं शताब्दी-कवि और काव्य १३३-१४२ महेश चन्द्र तर्कचूड़ामणि १४२, केरल वर्मा १४३, मानविक्रम तम्पुरान १४३, अप्पाशास्त्री राशिवडेकर १४४, १४५, रामावतार शर्मा १४५, विधुशेखर भट्टाचार्य १४६, भट्ट मथुरानाथ शास्त्री १४७।आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास बीसवीं शताब्दी-कवि और काव्य १४७-१४E प्रभुदत्त शास्त्री १४६, श्रीकान्त पति शर्मा त्रिपाठी १५०, बदरी नाथ झा १५०, महीधर वेट राम शास्त्री १५१, विद्याधर शस्त्री, १५२, अमृत वाग्भवाचार्य १५३, ओटूर उष्णि नम्बूदरीपाद १५३, ब्रह्मानन्द शुक्ल १५४, रमेश चन्द्र शुक्ल १५४-१५६, जगदीश चन्द्र आचार्य १५६, रघुनाथ प्रसाद चतुर्वेदी १५७-१५६, सत्यव्रत शर्मा ‘सुजन’ शास्त्री १५६, परमेश्वर अय्यर १६०, यज्ञेश्वर शास्त्री १६१, विष्णुदत्त शुक्ल १६२, जीवन्याय तीर्थ १६३, ईशदत्त शास्त्री ‘श्रीश’ १६३, कृष्ण वारियर १६४, केशवन नायर १६५, व्यासराज शास्त्री १६६, जयराम व्यंकटेश १६७, पुलिवर्ति शरभाचार्य १६७, द्विजेन्द्र लाल शर्मा पुरकायस्थ १६८, बेलूरि सुब्बारावु शर्मा १६८, श्रीधर भास्कर वर्णेकर १६६, कृष्ण प्रसाद शर्मा घिमिरे १७०, सुरेश चन्द्र त्रिपाठी १७१, गोस्वामी बलभद्र प्रसाद शास्त्री १७२, श्रीभाष्यम् विजय सारथि १७२-१७४, यतीन्द्र नाथ भट्टाचार्य १७४, महालिङग शास्त्री १७४, अर्क सोमयाजी १७५, स्वयम्प्रकाश शर्मा शास्त्री, मधुकर शास्त्री, गरकपाटि लक्ष्मीकान्तैया १७६, कृष्णमूर्ति शास्त्री, बालकृष्ण भट्ट शास्त्री सी.आर. स्वामिनाथन् १७७, श्रीशैल लाताचार्य १७८, श्री.भि. वेलणकर, राजाराम शुक्ल, के. एस. नागराजन १७६, रामनाथ आचार्य, चुन्नी लाल ‘सूदन’, रामकृष्ण भट्ट, रामशरण शास्त्री १८०, मिजाजी लाल शर्मा, लछमन सिंह अग्रवाल १८१, राजनारायण प्रसाद मिश्र १८२, मथुरा प्रसाद दीक्षित, विश्वेश्वर विद्याभूषण १८३, रेवा प्रसाद द्विवेदी १८४-१८६, परमानन्द शास्त्री १५६, १८७, सुन्दरराज १८८, रामाशीष पाण्डेय १८६, हजारी लाल शास्त्री १८६, शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी १६०-१, विठलदेव मुनि शर्मा १६१, सत्यव्रत शास्त्री १E२-३, वागीश शास्त्री १E३-४, रुद्रदेव त्रिपाठी १६४-५, रमाशङकर तिवारी १६५-६, राजेन्द्र मिश्र १६६-१६६, कृष्णलाल १६६-२०१, देवदत्त भट्टि २०१-२, केशव चन्द्र दास २०२-३, हर्षदेव माधव २०३-२०६, इन्द्रमोहन सिंह २०६, विशन लाल गौड़ ‘व्योमशेखर’ २०७-८, रमाकान्त शुक्ल २०८-२१०, उमाकान्त शुक्ल २१०, नलिनी शुक्ला २११, जगन्नाथ पाठक २१२-१३, राधावल्लभ त्रिपाठी २१४-५, रसिक बिहारी जोशी २१५ प्रिय व्रत शर्मा २१६, भोला नाथ मिश्र, आनन्द झा २१७, श्रीकृष्ण सेमवाल २१८, प्रशस्य मित्र शास्त्री २१६-२०, हरिनारायण दीक्षित २२०, इच्छाराम द्विवेदी २२१-२, कृपाराम त्रिपाठी २२२-३, मधुसूदन मिश्र २२४, श्यामानन्द झा २२४, वासुदेवन् इलयत २२५, निष्ठल सुब्रह्मण्य २२५, हरिकान्त झा २२६, विषय-सूची कालिका प्रसाद शुक्ल २२६, अखण्डानन्द सरस्वती २२८, विन्ध्येश्वरी प्रसाद मिश्र ‘विनय’ २२६, हरिपद दत्त २२६, दीपक घोष २३०, दिगम्बर महामात्र २३१, पुल्लेल रामचन्द्रुजु २३१, रामचन्द्र (हरिशरण) शाण्डिल्य २३२, वनेश्वर पाठक २३३, वासुदेव कृष्ण चतुर्वेदी २३४ । अन्य कवि और काव्य २३४-२३६ तृतीय अध्याय गीतिकाव्य २३७-३६२ उन्नीसवीं शती का संस्कृत गीतिकाव्य, प्रमुख प्रवृत्तियां २३६, सामाजिक चेतना २३६, वैविध्य तथा काव्य समृद्धि २४०, नयी विधाएँ २४१, पुनरुत्थानवादी स्वर २४२, व्यक्तिवाद तथा आत्माभिव्यक्ति २४३, समाज-समीक्षा २४३, शास्त्रकाव्य २४४, लल्ला दीक्षित २४४, श्रीधरन नम्बी २४४, विश्वनाथ सिंह २४५, सदाशिब २४५, तारानाथ तर्कवाचस्पति २४६, बाबू रेवाराम २४६-८, स्वाति तिरुनाल रामवर्म कुलशेखर २४८-६, सीताराम भट्ट पर्वणीकर २४६, रघुराज सिंह २५०, गोमतीदास रामस्वामी शास्त्री २५१, राम वारियर २५२, वीर राघव २५२, उमापति त्रिपाठी २५३, गोपीनाथु दाधीच २५३, श्रीकृष्ण राम भट्ट २५४-५, हरिवल्लभ भट्ट २५५, तारानाथ तर्कभूषण २५६, महेश चन्द्र तर्कचूड़ामणि २५७, प्रमथनाथ २५७, कमलेश मिश्न २५८, केरल वर्मा २५६, मानविक्रम तम्पूरन २६०, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र २६०, गंगाधर शास्त्री/२६१. रामशास्त्री तैलंग २६२. नारायण भद्र २६३. परमेश्वर झा २६३, शिवकुमार शास्त्री २६४, शीतला प्रसाद त्रिपाठी २६५, कन्हैयालाल शास्त्री २६५, यादवेश्वर तर्करल २६५-६, विधुशेखर भट्टाचार्य २६७, लक्ष्मीराज्ञी, श्रीनिवास दीक्षित, लक्ष्मण सूरि २६८, ए. आर. राजवर्मा २६६, महावीर प्रसाद द्विवेदी २६०-२७३, अन्नदाचरण २७३-२७५, रामावतार शर्मा २७५-२७७, अप्पाशास्त्री राशिवडेकर २७७-२७६, रामनाथ २७६-८०। बीसवीं शताब्दी का गीतिकाव्य २८०, संस्कृत कविता की राष्ट्रीय धारा, श्री अरविन्द आदि २८२-२६०, आधुनिक संस्कृत कविता की समकालिकता २६०-३००, प्रतीकात्मक गीतिकाव्य २६४, संस्कृत काव्यानुवाद २६५, चित्रकाव्य की परम्परा २६६, विषयों की नवीनता ३००, लक्ष्मण शास्त्री तैलंग आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास ३००-३०२, गिरिधर शर्मा ‘नवरत्न’ ३०२, श्रीधर पाठक ३०३, भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ३०४-५, क्षमाराव ३०५-५, दत्तदीनेश चन्द्र ३०१-३०८, महादेव शास्त्री ३०६, मेधावत ३१०, महालिङग् शास्त्री ३११-३, नागार्जुन ३१३-४, अमीरचन्द्र शास्त्री ३१४, स्वामीनाथ पाण्डेय ३१५ जानकीवल्लभ शास्त्री ३१६-६, बटुकनाथ शास्त्री खिस्ते ३१६, रतिनाथ झा ३१८-६, रामनाथ पाठक ‘प्रणयी’ ३२०, मधुकर गोविन्द माईणकर ३२०-२२, परमेश्वर अय्बर ३२२, श्री भि, वेलणकर ३२३, बच्चूलाल अवस्थी ३२३-४, हरिदत्त पालीवाल ३२४-३२६, मञ्जुनाथ भट्ट ३२७-८, रामकरण शर्मा ३२८-३३१, श्रीनिवास रथ ३३१, शडकर देव अवतरे ३३२, जगन्नाथ पाठक ३३३, शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी ३३४-५, सुन्दर राज ३३६, व्योमशेखर ३३६, अमरनाथ पाण्डेय ३३६, रामकैलाश पाण्डेय ३३८, उमाकान्त शुक्ल ३३६, दीपक घोष ३४०, भास्कराचार्य त्रिपाठी ३४१, राजेन्द्र मिश्र ३४२-३, पुष्पा दीक्षित ३४३-४, हरिदत्त शर्मा ३४४-५, राधा वल्लभ त्रिपाठी ३४५, विन्ध्येश्वरी प्रसाद ३४६, केशवचन्द्र दाश ३४७-६, महाराजदीन पाण्डेय ३४६-५०।
- अन्य प्रमुख मुक्तक कवि तथा उनके काव्य ३५० वेंकटराघवन आदि ३५०-३५५, रेवाप्रसाद द्विवेदी ३५५-५७, शोकगीति ३५८, हजारी लाल विद्यालकार, सत्यदेव वर्मा ३५८, रमेशचन्द्र शालिहास, आचार्य राधाकृष्ण, रामेश्वर दत्त शर्मा, अनन्तराम मिश्र, हरिश्चन्द्र रेणापुरकर, शिवशरण शर्मा ३५६, परमानन्द शास्त्री, ओमप्रकाश ठाकुर, इन्द्रदेव द्विवेदी, विष्णुकान्त शुक्ल ३६०, रुद्रदेव त्रिपाठी, नलिनी शुक्ला, राम किशोर मिश्र, इच्छाराम द्विवेदी ३६१, देवदत्त भट्टि ३६२। चतुर्थ अध्याय नाट्य साहित्य ३६३-४३६ पृष्ठभूमि ३६३-३६६, १८०० से १८७० ई. का अतीत स्मरणकाल ३६६-३७५, कस्तूरि रंगनाथ ३६६, वीर राधव ३६०, वल्ली सहाय ३६०-३७२, सुन्दरवीर रघूवह ३७२-७५। १८७० से १६२० तक का वर्तमान-दर्शन काल-३७५-३६६ पण्डित अम्बिकादत्त व्यास ३७६-७, सुन्दर राज ३७७-८०, शङ्कर लाल ३८०-८३, नारायण शास्त्री ३८३-८६, राजराज वर्मा ३८६-८८, परशुराम नारायण पाटणकर ३८८-३६०, पञ्चानेन तर्करत्न ३६०-६३, श्रीनिवास शास्त्री ३६३, कविराज रणेन्द्र नाथ गुप्त ३६४, गोपीनाथ । दाधीच ३६५, प्रभुनारायण सिंह ३६५। विषय-सूची १९२० से १६५० ई. तक राष्ट्रीय भावनाओं का जागरण-काल ३६६-४१५ हरिदास सिद्धान्तवागीश ३६८-४०२, मूलशंकर माणिकलाल याज्ञिक ४०२-४०८, मथुराप्रसाद दीक्षित ४०८-४११, जीव न्यायतीर्थ ४११, जग्गू, बकुलभूषण ४११-१२, महालिङन्ग शास्त्री ४१२-३, रमानाथ मिश्र ४१३। १E५० से १E६० ई. तक-स्वतन्त्रता का उत्साह-काल ४१५-४३४ । प्रमुख कवि और उनके रूपक ४१६-४३४ विश्वेश्वर ४१६, विष्णुपद भट्टाचार्य ४१६, लीला राव ४१७, यतीन्द्र विमल चौधुरी ४१६, रमा चौधुरी ४१८-६ वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य ४२०, श्रीराम वेलणकर ४२१, सत्यव्रत वेदविशारद, श्रीकृष्ण कुमार, हरिनारायण दीक्षित, हरिशंकर त्रिवेदी ४२२, सुब्बाराम, विश्वनाथ केशव छत्रे ४२३, विश्वनाथ मिश्र, गजेन्द्र शंकर लालशंकर पण्ड्या , गजानन बालकृष्ण पलसुले, विष्णुदत्त त्रिपाठी, शिवसागर त्रिपाठी, वेला देवी, रेवा प्रसाद द्विवेदी, ओगेटि परीक्षित् शर्मा, भवानीशंकर त्रिवेदी, वीणापाणि पाटनी, शिवप्रसाद भारद्वाज, कपिलदेव द्विवेदी, हरिदत्त शर्मा ४२४, हनुमंत राव, श्रीकृष्ण जोशी, कृष्ण लाल, कलानाथ शास्त्री, रमाकान्त शुक्ल, रामलिंग शास्त्री, भगवान दास सफाड़िया, वासुदेव पाठक ४२५ ब्रह्मदेव शास्त्री ४२६-४३३, सिंहावलोकन ४३४-४३६ । पञ्चम भाग गद्यसाहित्य ४३७-४३६ पृष्ठभूमि ४३६-४४१ उपन्यास ४४१-४६८ / अम्बिकादत्त व्यास ४४४-४४७, कथा-साहित्य में अनुवाद ४४७-८, सामाजिक उपन्यास ४४८-४५४, श्रीनिवास शास्त्री ४५४-, नवीन कथ्य ४५८-४६१, विश्वनारायण शास्त्री “४६१, गणेशराम शर्मा ४६१, रुद्रदत्त पाठक ४६२, दुर्गादत्त शास्त्री ४६३ श्रीनाथ हसूरकर ४६३-४, सत्यप्रकाश सिंह ४६४, श्यामविमल, श्रीकान्त आचार्य, कृष्णकुमार ४६५, हरिनारायण दीक्षित ४६६, रामशरण त्रिपाठी शास्त्री ४६६, आत्मकथा-शैली का उपन्यास ४६७, अलंकृत शैली की परम्परा ४६७, जग्गू बकुलभूषण ४६८, जगदीश चन्द्र आचार्य ४६८। आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास लघुकथा ४६८-४६६ भारतीय परम्परा ४७०-४७२, पत्रकारिता का योगदान४७२, छात्रोंपयोगी कथायें ४७६-८, भट्टजी का अवदान ४७-४८१, अन्य कथाओं का प्रभाव ४८१-४८५, नवयुगीन कथा ४८५-४६६ । निबन्ध ४६६, नई निबन्ध परम्परा ५००-२, हृषीकेश भट्टाचार्य का अवदान ५०२-५०५, निबन्ध संकलन ५०५, भट्टजी का अवदान ५०७,-५१२, नई दिशाएं ५१२-५१४, गणेशराम शर्मा, स्वामिनाथ आत्रेय, परमानन्द शास्त्री, विष्णुकान्त शुक्ल ५१४, कलानाथ शास्त्री ५१५ यात्रावृत्त ५१६५१६ जीवनवृत्त ५१६-५२६ आत्मकथा ५२७-८ पत्रसाहित्य ५२६-५३४ चम्पूकाव्य ५३५-५४० राघवाचार्य ५३६, धर्मदत्त (बच्चा) झा ५३६-८, बदरीनाथ झा ५३८, हरिनन्दन भट्ट ५३६, रघुनन्दन त्रिपाठी ५३६ षष्ठ अध्याय दर्शन और शास्त्र ५४१-६८६ पृष्ठभूमि ५४१-२ वेद ५४२-५४८, महर्षि दयानन्द सरस्वती ५४३-४, सत्यव्रत भट्टाचार्य ‘सामग’ ५४४, स्वामी हरिप्रसाद ‘वैदिक मुनि’ ५४५, मधुसूदनँ ओझा ५४५, स्वामी हरिहरानन्द सरस्वती ‘करपात्री’ ५४६, विशुद्धानन्द मिश्र ५४७, राजेन्द्र प्रसाद मिश्र ५४७, सीताराम शास्त्री, दामोदर झा, स्वामी गङगेश्वरानन्द, श्रीकिशोर मिश्र ५४८, शिक्षा ग्रन्थ ५४E सूर्य नारायण सूरावधानी, राजा घनपाठी, शिवराम आचार्य, वेंकटेश शास्त्री, गोपाल चन्द्र मिश्र ६४६ ५७ विषय-सूची मीमांसा ५४६-५५३ कृष्णाचार्य, अन्नाशास्त्री वारे, वामन शास्त्री किञ्जवाडेकर, कृष्ण शास्त्री घुले, विद्याधर गौड़ अग्निहोत्री ५५०, चिन्न स्वामी द्राविड़ ५५०, डि.टि. शैलताताचार्य, व्ही.पी. नम्पुतीरी, के. सूर्यप्रकाश शास्त्री ५५१, कुलमणि मिश्र, मण्डन मिश्र ५५२, मीमांसा-सूत्र पर शावर भाष्य की टीकाएं ५५३-३। ५५५ वैशेषिक सूत्र पर व्याख्याएं ५५३-५५५ उत्तमूर वीर राघवाचार्य ५५३, स्वामी हरिप्रसाद, ब्रह्ममुनि परिब्राजक, काशीनाथ शर्मा ५५४, सांख्य दर्शन योग दर्शन ५५६ न्याय वैशेषिक दर्शन गिरिधर उपाध्याय, पट्टाभिराम शास्त्री, शतकोटिराम शास्त्री ५५७ राखालदास न्यायरत्न, शशिनाथ झा, लोकनाथ झा, सुब्रह्मण्य शास्त्री, अभेदानन्द भट्टाचार्य, रामानुज ताताचार्य ५५८, बदरीनाथ शुक्ल १५६, न्यायविषयक ग्रन्थों पर टीकाएं ५६, न्यायसूत्र पर टीकाएं ५५६, तत्त्व चिन्तामणि की टीकाएं ५६०, माधुरी से सम्बन्धित टीकाएं ५६२, जागदीशी से सम्बन्धित टीकाएं ५६२, तर्कभाषा की टीकाएं वैशषिक दर्शन के ग्रन्थों की टीकाएं ५६३, उदयनकृत लक्षणावली की टीका एवं व्याख्याएं ५६४, उदयन कृत न्यायमुक्तावली की टीका ५६४। न्याय-वैशेषिक दोनों दर्शनों से सम्बद्ध ग्रन्थों की टीकाएं ५६४, तर्कामृत की टीका ५६४, न्यायकुसुमाञ्जलि की टीकाएं ५६४, हरिदासी कुसुमाञ्जली के व्याख्याकार ५६५, कारिकावली (भाषा परिच्छेद) की टीकाएं ५६५, न्यायसिद्धान्त मुक्तावली पर टीका ग्रन्थ ५६५-६, तर्कसंग्रह की व्याख्याएं ५६७, शाब्दबोध प्रक्रियाविषयक ग्रन्थों पर टीकाएं ५६८, व्युत्पत्तिवाद पर टीकाएं ५६८, शक्तिवाद पर व्याख्याग्रन्थ ५६६, शब्दशक्तिप्रकाशिका की टीकाएं ५६६, पदवाक्यरत्नाकर की व्याख्या ५६६, न्याय-वैशेषिक दर्शन से सम्बद्ध अन्य ग्रन्थ ५७०-७१। LETE LLIHELHI आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास वेदान्त दर्शन ५७१, २, शङ्कराचार्य का अद्वैतवाद ५७३-५८०, अद्वैत विषय अन्य रचनाएं ५८०, अद्वैतविषयक व्याख्या ग्रन्थ, उपनिषदों पर टीकाएं ५८२-५८५, भगवद्गीता पर टीकाएं ५८५, दशश्लोकी पर टीका ५८५, विवेक चूडामणि पर व्याख्या ५८६, भामती पर टीका ५८६, पञ्चदशी पर टीकाएं ५८६, जीवन्मुक्तिविवेक पर टीका, अनुभूति प्रकाश की टीका, खण्डन खण्ड खाद्य की टीकाएं, वेदान्त सिद्धान्तमुक्तावली की व्याख्या १८६, अद्वैतसिद्धि की टीका ५८८, सिद्धान्तबिन्दु पर टीका, वेदान्तसार की टीका ५८७, विविध टीका ग्रन्थ ५८६-५६०। रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत वेदान्त ५९०-५६४ मध्वाचार्य का द्वैतवेदान्त ५६४-५६६ वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत वेदान्त ५E६-५६८ निम्बार्काचार्य का द्वैताद्वैत वेदान्त ५६८-५६E चैतन्य का अचिन्त्यभेदाभेद वेदान्त ५६६ रामानन्दाचार्य का दर्शन ५६६ काश्मीर शैवदर्शन ५६६-६०२ वीरशैव धर्म-दर्शन ६०२-६१० शाक्तदर्शन ६१०-६११ तन्त्र ६११-६१४ स्वामिनारायण दर्शन ६१४-६१५ पुराण दर्शन भक्ति दर्शन ६१५-६१६ विज्ञान दर्शन ६१६ परमार्थ दर्शन ६१७ अन्य दर्शन ६१७-६१८ सर्व दर्शन ६१८-६१६ अरविन्द का पूर्णाद्वैत दर्शन ६१-६२१ आधुनिक तान्त्रिक सन्दर्भ में श्रीतन्त्रालोक ६२१-६२२ धर्मशास्त्र ६२२-६२६ व्याकरण ६२६-६४२ ज्योतिष ६४२-६४६ आयुर्वेद ६४६-६६० ६१५ विषय-सूची काव्यशास्त्र समीक्षा शास्त्र ६६०-६७० ६७१ ६७१ ६७२-६७५ ६७५ ६७६ ६७६ सौन्दर्य-शास्त्र सङ्गीतशास्त्र कामशास्त्र मनोविज्ञान भाषा विज्ञान गणित और विज्ञान वास्तु शास्त्र भूगोल इतिहास राजनीतिशास्त्र कृषि पाककला, आखेट, मनोरञ्जन कोश ग्रन्थ शास्त्रीय कोश इतिहास-कोश शास्त्रीय निबन्ध दर्शनपरक काव्यग्रन्थ ६७७ ६७७ ६७७ ६७७ ६७८ ६७८ ६७E EVE ६८१-६८३ ६८३ ६८३-६८३ ६६६ सप्तम अध्याय जैन मनीषियों का योगदान
- मुनि सुधर्मसागर, ६६० मुनि ज्ञानसागर, ६६०-६६६ कुन्थुसागर मुनि, ६६६-६६८ मूलचन्द्र शास्त्री, ६९-७०० दयाचन्द्र शास्त्री, ७०० जवाहरलाल सिद्धान्त शास्त्री, ७०१ जुगल किशोर मुख्तार,७०१ पं. बारे लालजी जैन, ७०१ पं. नेमिचन्द्र शास्त्री, ७०२ आचार्य, तुलसी, ७०२-७०४ आचार्य महाप्रज्ञ (नथमल मुनि), ७०४-७०७ आचार्य चन्दन मुनि, ७०७-७१४ पन्नालाल साहित्याचार्य, ७१४-७१७ आचार्य विद्यासागर, ७१७-७१६ व्याकरण शास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थ, ७१६-७२१ जैन आर्यिकायें, ७२१-७२२॥ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास (सप्तम खण्ड) विषय एवं लेखक सकत विषय प्रथम अध्याय : महाकाव्य डॉ. जगन्नाथ पाठक, पूर्व-प्राचार्य गङ्गानाथ झा केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, इलाहाबाद। ३/१४, एम.आई.जी., झूसी, इलाहाबाद-२११ ०१ द्वितीय अध्याय : लघुकाव्य डॉ. हरिदत्त शर्मा, प्रवाचक, संस्कृत विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद तृतीय अध्याय : गीति काव्य प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी, आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.) चतुर्थ अध्याय : नाट्य साहित्य डॉ. जयशङ्कर त्रिपाठी, पूर्व अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, ईश्वरशरण डिग्री कालेज, इलाहाबाद। बेदौली, पो. भारतगंज, इलाहाबाद पञ्चम अध्याय : गद्य साहित्य श्री कलानाथ शास्त्री, पूर्व भाषा निदेशक, राजस्थान सरकार तथा पूर्व अध्यक्ष, राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुर पञ्चम अध्याय : चम्पू काव्य डॉ. जगन्नाथ पाठक षष्ठ अध्याय : दर्शन और शास्त्र डॉ. (श्रीमती) कमला दुबे, अध्यक्ष संस्कृत विभाग, जगत तारन गर्ल्स डिग्री कालेज, इलाहाबाद। नाजरेथ अस्पताल कैम्पस १३ ए, कमला नेहरू रोड, इलाहाबाद सप्तम अध्याय : आधुनिक डॉ. (श्रीमती) दीपा अग्रवाल संस्कृत साहित्य को जैन प्रवाचक, इलाहाबाद डिग्री कालेज, इलाहाबाद मनीषियों का योगदान २/१३६ एम.आई.जी., झूसी, इलाहाबाद-२११०१