+०८ आधुनिक संस्कृत साहित्य को जैन मनीषियों का योगदान

भारतीय परम्परा में धर्म और साहित्य दोनों की धाराएं बहुत पहले से ही अविच्छिन्न होकर प्रवाहित हो रही हैं। आधुनिक काल में, विज्ञान के प्रभाव से दोनों धारायें एक दूसरे से स्वतन्त्र और पृथक् होकर प्रवाहित होने लगी हैं। यह कुछ विलक्षण बात है कि जैन मनीषियों ने आधुनिक काल में भी भारतीय परम्परा को प्रश्रय देते हुए धर्म और साहित्य की धारा को लगभग एक साथ प्रवाहित किया है। खेद है कि हमें १६वीं शताब्दी में रचित जैन ग्रन्थों की सामग्री इतिहास के उपयोग के लिए नहीं प्राप्त हो सकी। यहां हमने अनेक जैन मनीषियों द्वारा रचित वाङ्मय को विचार का विषय बनाया है। जैन मनीषियों ने जहां साहित्य, जिसे धार्मिक साहित्य भी कहा जा सकता है का निर्माण किया, वहां शुद्ध धर्म-दर्शन परक ग्रन्थ भी लिखे। साथ ही अपनी ओर से व्याकरण आदि शास्त्रीय विषयों में ग्रन्थों का निर्माण किया। यहां उनके क्रमशः जीवन और ग्रन्थ चर्चित हैं। । भारतवर्ष की प्रतिष्ठास्वरूप संस्कृत भाषा तथा भारतीय संस्कृति सार्वदेशिक, सार्वजनीन तथा सर्वग्राही है। जहां हमारी संस्कृति देश, धर्म, जाति, वर्ण, भाषा सम्प्रदाय, आचार-व्यवहार सभी को अपने में समेटे हुए कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक सभी को एकता के सूत्र में (भारतीयता में) बांधे हुए अपनी अविच्छिन्नता, प्राचीनता तथा उदारता के कारण सर्वथा नवीन तथा अलौकिक रूप में शोभायमान है, वहीं संस्कृत भाषा जो कि भारतीय संस्कृति की संरक्षिका तथा संवाहिका है सभी देश, जाति, वर्ण तथा धर्म के धर्मावलम्बियों, चिन्तकों. मनीषियों तथा कवियों द्वारा सहस्राब्दियों से आज तक पल्लवित, पुष्पित तथा संवर्धित होती रही है। संस्कृत साहित्य और भारतीय तत्त्वज्ञान के उद्भव और विकास में जितना योगदान वैदिक दार्शनिक चिन्तनधारा का है, लगभग उतना ही योगदान श्रमणचिन्तन धारा का भी है। यह अलग बात है कि श्रमणचिन्तनधारा का क्षेत्र अधिक व्यापक नहीं हो पाया और उसमें रचित वाङ्मय अधिसंख्य प्रबुद्ध समाज के पठन, मनन का विषय नहीं बन पाया। श्रमणचिन्तनधारा में भी जैनधर्म तथा दर्शन के क्षेत्र में बौद्धधर्म और दर्शन की अपेक्षा अधिक गतिशीलता रही है। जैन मनीषियों ने प्रभूत मात्रा में ईसा की प्रथम शताब्दी से ही अपने मूल परम्परागत सिद्धान्त के आलोक में, संस्कृत, प्राकृत, आदि भाषाओं में अपने ग्रन्थ लिखे। जहां बौद्ध धर्म-दर्शन की धारा सूखती सी गयी, वहां जैन धर्म-दर्शन के क्षेत्र ६८८ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास में आधुनिक काल में भी निर्माण की प्रवृत्ति बनी हुई है। जैन मनीषी लोकव्यवस्था के लिए किसी परोक्ष शक्ति की कल्पना नहीं करते। उनके अनुसार यह लोक अनादिनिधन तथा अकृत्रिम है। मनुष्य का उत्थान और पतन उसके हाथ में है। जैनधर्म योगप्रधान है। काम को साधकर इन्द्रियों को अपने अधीन कर, वहां केवल ज्ञानप्राप्ति का लक्ष्य है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह ही शरीर को साधनायोग्य बनाते हैं। ये धर्मरूपी वृक्ष के आवश्यक अंग हैं। सोलह संस्कार, त्यागोन्मुख भोग पर विश्वास, कर्मफल के सिद्धान्त पर आस्था के साथ जैन धर्म एवं दर्शन का प्रचार-प्रसार जैन मनीषियों के उद्देश्य थे। इसी कारण अपने ग्रन्थ में बाईस परीषहों, सोलह कारण भावनाओं, श्रावक के द्वारा ग्यारह प्रतिमाओं का ग्रहण, जिससे मानव मुक्ति, आचार्यत्व तथा तीर्थकरत्व को प्राप्त करता है, आदि को व्याख्यायित करना उनके जीवन का मूलमंत्र था। जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक बस्तु में अर्थक्रियाकारिता होती है। अपेक्षा की दृष्टि से वस्तु में सद् असद् तथा अवक्तव्य ये तीन गुण होते हैं। व्यक्ति रागद्वेष रहित होकर सन्तोष को धारण करे, दुःख-सुख में समभाव रखे तथा आचार-व्यवहार का पालन करे तो आत्मकल्याण के साथ लोककल्याण भी कर सकता है। संस्कृत में जैन मनीषियों ने न केवल धर्म और दर्शन के ग्रन्थ लिखे, प्रत्युत काव्य, कोष, छन्द, अलंकार, गणित, ज्योतिष आदि विषयों में भी ग्रन्थों की रचना की।गा संस्कृत में “तत्त्वार्थसूत्र” नामक दार्शनिक ग्रन्थ की रचना ईसा की प्रथम शती में हुई। द्वितीय शताब्दी के दार्शनिक कवि समन्तभद्र ने संस्कृत में “स्वयम्भूस्तोत्र”, “स्तुतिविद्या”, “देवागमस्तोत्र”, “युक्त्यनुशासन”, “रत्नकरण्ड-श्रावकाचार”, “जीवसिद्धि”, “तत्त्वानुशासन प्रमाण पदार्थ”, “कर्मप्राभृतटीका’ तथा ‘गन्धहस्तिमहाकाव्य” नाम के ग्रन्थों की रचना की। द्वितीयशती के ही सिद्धसेन ने द्वात्रिंशिकाओं का प्रणयन किया। पाँचवी शती के उत्तरार्ध के जैनाचार्य देवनन्दी ने जैनेन्द्रव्याकरण “सर्वार्थसिद्धि” समाधितन्त्र, इष्टोपदेश और दशभक्ति ग्रन्थ लिखे। सातवीं शती के मानतुंग का भक्तामरस्तोत्र बहुत प्रसिद्ध हुआ। सातवीं शती में ही तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण प्रभृति महापुरुषों के चरितों पर प्रबन्धकाव्य लिखने की परम्परा स्थापित हुई। रविषेण नै विमलसूरि की प्राकृत में रचित रामकथा को संस्कृत के ललित छन्दों में पद्मचरित निबद्ध किया। जटासिंह नन्दि ने वराङ्गचरित महाकाव्य लिखा। आठवीं शती में वीरसेन ने संस्कृत प्राकृत मिश्रित भाषा में षट्खण्डागम की धवला टीका और जयधवला टीका लिखी। सम्भवतः इस काल के कवि धनञ्जय ने द्विसन्धान महाकाव्य की रचना की। आठवीं शती के जैन नैयायिक अकलकदेव ने लघीयस्त्रयवृत्ति-न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसङ्ग्रह, तत्त्वार्थवार्तिक तथा अष्टशती आदि ग्रन्थ लिखे। इसी शती के आचार्य हरिभद्र ने सहस्राधिक ग्रन्थों का प्रणयन किया, जिसमें पचास से अधिक उपलब्ध जैन मनीषियों का योगदान हैं, जिनमें षड्दर्शनसमुच्चय तथा अनेकान्तविजयपातका प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। नवम शती के जैन साहित्यकारों में जिनसेन प्रथम ने महापुराण तथा जिनसेन द्वितीय ने पार्वाभ्युदय नामक खण्डकाव्य की रचना की। इसी शताब्दी के विद्यानन्द ने “अष्टसहस्री"तथा “तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक’ ग्रन्थों का प्रणयन किया। नवम शती के ही वादीभसिंह का “गद्यचिन्तामणि” ख्यातिप्राप्त ग्रन्थ है। दशम शताब्दी में जैनकवियों द्वारा संस्कृत में महाकाव्यों का प्रणयन किया गया, जिनमें अलग का वर्धमानचरित तथा “शान्तिनाथचरित” वीरनन्दि का चन्द्रप्रभचरित हरिचन्द का “धर्मशर्माभ्युदय” प्रसिद्ध महाकाव्य हैं। ग्यारहवीं शती के जैन कवियों की परम्परा में वादिराज के “पार्श्वनाथचरित” महाकाव्य तथा “यशोधरचरित" खण्डकाव्य हैं। सोमदेव ने “यशस्तिलकचम्पू" तथा “नीतिवाक्यामृत’ की रचना की। ११हवीं शती में ही महासेन ने “प्रद्युम्नचरित” महाकाव्य तथा धनपाल ने “तिलकमञ्जरी” का प्रणयन किया। १२ हवीं शती के जैन साहित्यकारों में प्रसिद्ध हैं वाग्भट, धनेश्वर, श्रीपाल, हेमचन्द्र, जिनचन्द्र, पद्मानन्द, चन्द्रप्रभ मुनिचन्द्र, देववन्द्र, रामचन्द्र, गुणचन्द्र। इनमें कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्र ने व्याकरण, अलंकारशास्त्र तथा कोषग्रन्थों का निर्माण किया। उनका “काव्यानुशासन” तथा “हेमशब्दानुशासन” दोनों ही अपने-अपने विषय के आकलनीय ग्रन्थ हैं। १३हवीं शती के जैनकवि तथा आचार्य हस्तिमल्ल के द्वारा जैननाटक की रचना की गयी। इस शती में जैनकवियों द्वारा अधिकाधिक महाकाव्यों का प्रणयन किया गया जिनमें धर्मकुमार का “शीलभद्रचरित”, माणिकचन्द्रप्रणीत “पार्श्वनाथचरित”, अर्हद्दास का “मुनिसुव्रत’ वस्तुपाल का “नरनारायणानन्द” बालचन्द्र का “वसन्तविलास”, वर्द्धमान भट्टारक का ‘चरागचरित”, अमरचन्द्र का “पद्मानन्द”, जिनपाल उपाध्याय का “सनत्कुमारचरित” महाकाव्य उल्लेखनीय हैं। १४हवीं शती के साहित्यकारों में जिनप्रभसूरि ने “श्रेणिकचरित” मानतुङ्ग ने “श्रेयांसनाथचरित”, कमलप्रभसूरि ने “पुण्डरीकचरित” तथा मेरुतुङ्ग ने “जैनमेघदूत” ग्रन्थों की रचना की। १५हवीं तथा १६हवीं शताब्दी में उत्पन्न जैनमनीषियों ने अपनी संस्कृत रचनाओं को विविध आयाम दिये। भट्टारक सकलकीर्ति ने अनेक काव्य तथा चरितग्रन्थ लिखे। मेधावी पण्डित का “चित्रबन्धस्तुतिकाव्य”, मुनिभद्र का “शान्तिनाथचरित", चरित्रसुन्दर का ‘कुमारचरित" महाकाव्य इन्हीं शताब्दियों में निर्मित हुए। इस प्रकार अन्य धर्मों की तरह जैनधर्म भी भारतभूमि का प्राचीनतम धर्म है, जिसमें अनेक तीर्थड्कारों के साथ आचार्य तथा सन्त पुरुषों ने धर्मानुसरण, उपदेश, व्याख्यानमाला तथा ग्रन्थों के प्रणयन द्वारा मुक्ति तथा आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है। सन्त पुरुषों की इसी परम्परा में बीसवीं शती के साहित्यजगत् में आचार्य मुनि ज्ञानसागर जी आदि मनीषियों ने अपने व्यक्तित्व तथा आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास कृतित्व के द्वारा संस्कृतभाषा तथा सम्पूर्ण मानव जाति को अमूल्य मानवतावादी दृष्टिकोण प्रदान किया है।