०५ वैशेषिकसूत्र पर व्याख्याएं

उत्तमूर वीरराघवाचार्य

न्याय एवं विशिष्टाद्वैत के प्रतिष्ठित विद्वान् “परमार्थभूषणम्” के प्रणेता। उपाधि-“तार्णव” । वैशेषिकदर्शन पर “रसायन” व्याख्या-मद्रास से १६५८ ई. में प्रकाशित। इस कृति में विद्वान लेखक ने वैशेषिकदर्शन की प्रमुख टीकाओं, भाष्यों प्रशस्तपादभाष्य, व्योमवती, न्यायकन्दली, किरणावली आदि का आलोडन करके प्रामाणिक सूत्रपाठ प्रस्तुत किया है, जिसके अनुसार कुल सूत्र संख्या ३७३ हैं। व्याख्या की शैली प्रौढ़, प्राञ्जल एवं गम्भीर है। मतान्तरों के आक्षेपों का निराकरण करते हुए वैशेषिक सिद्धान्तों की परिरक्षा की गयी है- कार्यकारणभाव, सामान्य-विशेष-समवाय का निरूपण, वायु का अतीन्द्रियत्व, अनुमान, हेत्वाभासादि, परमाणु की स्थापना, आगम-प्रामाण्य, पाकज प्रक्रिया, ल दर्शन और शास्त्र ५५३ ईश्वरसिद्धि आदि इस दर्शन के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त-स्थलों पर व्याख्याकार का वैदुष्य एवं विषय विवेचन सामर्थ्य दर्शनीय है।

(स्वामी) हरिप्रसाद

वैशेषिकसूत्र की “वैदिकवृत्ति” निर्णयसागर प्रेस बम्बई से १६६१ ई. में प्रकाशित। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह वैशेषिक सूत्रों की वेदानुसारिणी वृत्ति है। इसमें शङ्कर मिश्र कृत “उपस्कार” के सूत्रपाठ का अनुसरण किया गया है। सूत्रों की संख्या ३७३ है। इस वृत्ति की विशेषता यह है कि इसमें वेदों के अनुसार सूत्रों में उक्त पदार्थों का विवेचन है, जैसे-पृथिवी के विवेचन-स्थल में श्रुति का प्रमाण देते हुए उसका स्वाभाविक रूप ‘कृष्ण’ सिद्ध किया गया है, अग्नि का स्वाभाविक रूप “लोहित” माना गया है जबकि नव्य नैयायिकों वैशेषिकों के मतानुसार वह भास्वर शुक्ल है, मन को अणुपरिमाण न मानकर मध्यम परिमाण माना गया है, ज्ञान आदि गुणों को मनःसंयोग विशिष्ट आत्मा के गुण माना गया है, कूटस्थ आत्मा के नहीं। मोक्ष को आनन्दमय माना गया है जो दुःख की अत्यन्त निवृत्ति पर ही संभव है, अतः वैशेषिक सूत्र में “दुःख की अत्यन्त निवृत्ति’ को मोक्ष कह दिया गया है, आत्मा को “विभु” न मानकर अणु परिमाण वाला माना गया है। कारणत्व विवेचन के प्रसंग में सभी दर्शनों की कारण विषयक मान्यताओं में समन्वय-स्थापना, परमाणुओं को सांख्य के गुणों अथवा वेदान्त दर्शन की प्रकाश, क्रिया, आवरणशक्ति के समानान्तर बताना आदि इस वृत्ति की प्रमुख उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं।

(स्वामी) ब्रह्ममुनि परिव्राजक

इन्होंने ५८ ग्रन्थों की रचना की थी। वैशेषिक दर्शन पर “ब्रह्ममुनि” भाष्य- आर्यकुमार महासभा, बड़ौदा से १६६२ में प्रकाशित। इस भाष्य में सूत्रगत प्रत्येक पद को अन्वयानुसार लेकर उसकी व्याख्या की गयी है। अनेक स्थलों पर शास्त्रीय विषयों को लौकिक उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया गया है। इस भाष्य में आत्मा के निरूपक सूत्र में सिद्ध किया गया है कि सूत्रकार परमात्मा और जीवात्मा दोनों को मानते हैं। परमात्मा विभु है, जबकि जीवात्मा एकदेशीय व शरीरवर्ती होने से अविभु (अणु) है। भाष्यकार ने अनेकस्थलों पर शकर मिश्र, जयनारायण एवं चन्द्रकान्त आदि के मतों से अपनी असहमति दर्शायी है, जैसे प्रथम आह्निक के द्वितीय सूत्र में आये “अभ्युदय” पद का अर्थ भाष्यकार ने “सांसारिक सुख और ऐश्वर्य” किया है, जबकि शङ्कर मिश्र इसका अर्थ तत्त्वज्ञान या “स्वर्ग” करते हैं। इन्होंने इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में लिखित अपने प्राक्कथन में कहा है कि “वैशेषिक” आदि दर्शनों के सभी नाम यौगिक हैं। सभी दर्शन वेदों के उपाङ्ग होने से वेदों के साथ ही हुए हैं, अतः सभी दर्शन समकालीन हैं। उनमें पौर्वापर्य की कल्पना अनुचित है। इन्होंने वैशेषिक दर्शन के निमित्त कारण को “वैशेषिक” नाम से अभिहित किया है, यह एक नवीन उद्भावना है।

काशीनाथ शर्मा

वैशेषिक दर्शन पर ‘वेदभास्कर” भाष्य लेखक द्वारा ही १६७२ ई. में हिमाचल प्रदेश से प्रकाशित इस भाष्य में परम्परागत शास्त्रीय पद्धति से नहीं, अपितु वर्तमान विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में “पदार्थ" विद्यास्वरूप वैशेषिक दर्शन की व्याख्या की गयी है। व्याख्या के साथ अथवा पादटिप्पणी में वैज्ञानिक परिभाषाएँ या आंग्ल पर्याय भी दिये।५५४ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास गये हैं, जिससे इस भाष्य की विज्ञानपरकता अधिक व्यक्त होती है। शर्मा जी ने प्रथम सूत्र में आये “अर्थ" शब्द को मंगलवाचक नहीं माना है। विशेष पदार्थ की वैज्ञानिक व्याख्या की है। इस दर्शन के प्रवर्तक को गली में पड़े हुए कणों को खाने वाला कोई भिक्षुक न मानकर साक्षात् वामदेव महेश्वर को ही “कणाद” माना है, जिसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार दी है- “वमति सृष्ट्यादौ कणान् परमाणूनिति वामदेवोऽहङ्कारः । अत्ति आत्मसात्करोति कणान् परमाणून्सर्गान्त इति कणादोऽहङ्कारः”। इस भाष्य में धातुओं को ‘तेजस’ नहीं अपितु पार्थिव ही माना गया है। इस प्रकार इसमें अनेक मौलिकताएँ हैं। भाष्यकार ने अपने मतों को वेद से प्रमाणित किया है, अतः इस भाष्य का नाम “वेदभास्कर” सर्वथा सटीक है।