०४ मीमांसा

बालशास्त्री रानाडे

(१८३९-१८८२) मूलतः महाराष्ट्रीय किन्तु काशीवासी विद्वान्। बृहज्योतिष्टोमपद्धतिः। श्री बालशास्त्री ने अपने जीवन में ज्योतिष्टोम यज्ञ का सम्पादन किया था। वे वैदिक कर्मकाण्ड तथा शास्त्र दोनों के प्रकाण्ड पण्डित थे। ऋग्वेदीय शास्त्रों के मार्मिक विद्वान होने के साथ-साथ वे औद्गात्र के लिए आवश्यक सामगान के मधुर गायक भी थे।

प्रभुदत्त अग्निहोत्री

(१८६४-१९२९) श्री प्रभुदत्त अग्निहोत्री का अध्यापन क्षेत्र काशी रहा। गे निष्ठावान् वैदिक ब्राह्मण थे। इनका उपनाम गौड़ था, परन्तु सर्वदा अग्निहोत्र व्रत का निर्वाह करने के कारण इनका उपनाम ‘अग्निहोत्री’ पड़ गया। म. म. पं. शिवकुमार शास्त्री इनके अनन्य मित्र थे। इनका श्रौतपदार्थविवेचनम् यज्ञयागादि के पारिभाषिक शब्दों का अत्यन्त उपादेय कोश है। ५४ ए दर्शन और शास्त्र

कृष्णाचार्य

महाराष्ट्र (१८६९-१८६६) पूना के निकट निरनरसिंहपुर ग्राम के निवासी। ऋग्वेद १/५ (वे विरूपे.) पर संस्कृत टीका। यद्यपि इस सूक्त के देवता इन्द्र हैं, परन्तु व्याख्याकार ने इसकी नृसिंहपरक व्याख्या की है।

अन्नाशास्त्री वारे

(१८६९-१९३९) ये नासिक के निवासी विश्रुत वैदिक विद्वान थे। इन्होंने कई वैदिक ग्रन्थों का सम्पादन, किया, अनेक टीकाएँ लिखीं और धर्मशास्त्रपरक मौलिक ग्रन्थों की रचना की। उनमें से उल्लेखनीय ये हैं १. शुक्लयजुर्वेदकर्मकाण्डप्रदीपः २. शुक्लयजुर्वेदशान्तिकाण्डप्रदीपः ३. प्रतिष्ठासरणिप्रदीपः ४. गृह्यकर्मकाण्डप्रदीपः ५. श्रोतकर्मकाण्डप्रदीपः ६. पूर्व कर्मकाण्डप्रदीपः ७. शुक्लयजुर्विधानम् ८. भाषिकसूत्रटिप्पणी ६. मन्त्रभ्रान्तिहरसूत्रटिप्पणी १०. प्रत्यगिरास्क्तसुधा ११. दत्तकनिर्णयामृतम्

वामन शास्त्री किञ्जवाडेकर

महाराष्ट्र (१६ वीं शती) ये अपने समय के मूर्धन्य मीमांसक थे। इनके ग्रन्थ है-१. अग्न्याधानपद्धतिः २. अग्निहोत्रचन्द्रिका ३. दर्शपूर्णमासप्रयोगः ४. आश्वलायनगृह्यप्रयोगः ५. पश्वालम्भनमीमांसा।

कृष्ण शास्त्री धुले

महाराष्ट्र (१८७३-१६५३) ये नागपुर के निवासी थे। संस्कृत की प्राचीन परम्परा के विद्वान होने के साथ-साथ ये आधुनिक विवेचनात्मक शोधपद्वति के भी मर्मज्ञ थे। ग्रन्थ-हौत्रध्वान्तदिवाकरः।

विद्याधर गौड़ अग्निहोत्री

(१८८६-१६४१) - इनका जन्म तत्कालीन पञ्जाब (आधुनिक हरियाणा) प्रान्त के रोहतक जिले में अपने नाना के घर हुआ था। इनके पिता पं. प्रभुदत्त गौड़ काशी के लब्धप्रतिष्ठ वैदिक विद्वान थे। विद्याधर गौड़ की सारस्वत सेवा का केन्द्र भी वाराणसी ही रही। ये पं. शिवकुमार शास्त्री के शिष्य थे। १. कात्यायन श्रौतसूत्र की ‘सरला’ टीका - यह कात्यायन श्रौतसूत्र के ऊपर कर्काचार्य के भाष्य की टीका है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में ७५ पृष्ठों की भूमिका है, जो बड़ी प्रामाणिक और विद्वत्तापूर्ण है। इस भूमिका में यज्ञ की प्रक्रिया को बड़े सरल और सुबोध ढंग से समझाया गया है। विद्याधर जी वैदिक कर्मकाण्ड के सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक उभय पक्षों के मर्मज्ञ विद्वान थे। अतः इस व्याख्या में उन्होंने दोनों पक्षों को बड़े उत्तम और विशद ढंग से स्पष्ट किया है। इस टीका का लन्दन और जर्मनी के संस्कृत विद्वत्समाज में बड़ा आदर हुआ। अच्युत ग्रन्थमाला कार्यालय, काशी से सन् १६३० ई. में प्रकाशित। २- कात्यायन शुल्ब सूत्र की टीका- इनकी यह टीका भी बड़ी व्यावहारिक और विषयोपयोगी है। गौड़ जी ने स्मार्तप्रभु, प्रतिष्ठाप्रभु, विवाहपद्धति, उपनयनपद्धति, वास्तुशान्तिपद्धति, शिलान्यासपद्धति, चूडाकरणपद्धति आदि अन्य कर्मकाण्डपरक ग्रन्थों की भी रचना की। परन्तु कात्यायनश्रौतसूत्र पर ‘सरला’ टीका ही उनके पाण्डित्य का प्रतिनिधि मेरुदण्ड है।

श्री चिन्नस्वामी “द्राविड़”

तमिलनाडु (१८८८-१८५६ ई.) - म. म. पं. चिन्नस्वामी द्राविड़ (मूल नाम-वेंकट सुब्रह्ममण्य शास्त्री) का जन्म तमिलनाडु प्रदेश के उत्तर आरकाट ५५० आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास जिले में “मण्डकोन्नतूर” नामक स्थान में सन् १८८६ ई. में हुआ था। इनके पिता अप्पा स्वामी शास्त्री वेद के बहुत बड़े विद्वान थे। इन्होंने प्रारम्भ में अपने पिता से कृष्णयजुर्वेद तथा पं. वेकटरमण शास्त्री से व्याकरण तथा काव्य शास्त्र की शिक्षा ली। बाद मे मद्रास के मैलापुर संस्कृत महाविद्यालय में म. म. कुप्पूस्वामी शास्त्री से साहित्यशास्त्र, पं. चन्द्रशेखर शास्त्री तथा म. म. पं. वेंकट सुब्बाशास्त्री से मीमांसाशास्त्र का गहन अध्ययन किया। महामना मालवीय जी के आग्रहों पर इन्होंने १६१८ ई. से लेकर १६३८ ई. तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में मीमांसा तथा धर्मशास्त्र का अध्यापन कार्य किया। ये मीमांसा के निष्णात विद्वान् थे। शास्त्री जी की निम्न कृतियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं _१-आपदेवकृत मीमांसान्यायप्रकाश की ‘सारविवेचनी’ टीका - “मीमांसान्यायप्रकाश" की यह टीका मीमांसाशास्त्र के दुरूह सिद्धान्तों को सरल रूप में प्रस्तुत करती है। हरिदास संस्कृत सीरीज १५ में १६२५ ई., १६४६ ई. में प्रकाशित। २-तन्त्रसिद्धान्तरत्नावली - यह मीमांसा शास्त्र का मौलिक प्रकरण ग्रन्थ हैं, जिसमें मीमांसा के सिद्धान्तों का विविध उदाहरणों द्वारा विवेचन किया गया है। यह शास्त्री जी के गम्भीर पाण्डित्य का परिचायक ग्रन्थ है। (काशी से १८४४ ई. में प्रकाशित) ३-वैदिकयज्ञमीमांसा ४-यज्ञतत्त्वप्रकाशः इन दोनों ग्रन्थों में यज्ञ का रहस्य सुबोध रीति से समझाया गया है। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त शास्त्री जी ने कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का विमर्शात्मक सम्पादन भी किया, जिसमें उनकी भूमिकाएँ तथा टिप्पणियाँ वैदिक वाङ्मय तथा मीमांसाशास्त्र के अनुशीलन के लिए अत्यन्त उपादेय हैं। ये ग्रन्थ निम्नलिखित हैं १-मीमांसाकौस्तुभ २-बृहती ३-ताण्ड्यब्राह्मण ४-आपस्तम्बगृह्यसूत्र - आपस्तम्बश्रौतसूत्र ६- बौधायनधर्मसूत्र ७- विधितत्त्वसंग्रह -तौतातिकमततिलकम्।

डि. टि. शैलताताचार्य

( १८-२० वीं शती) संस्कृत कालेज, तिरुवाडि (तजौर) में मीमांसा विषय में प्रोफेसर रहे। मीमांसाभ्युदयः संस्कृत कालेज तिरुवाडि से १E२५ ई. में प्रकाशित। ग्रन्थ ६ अधिकारों (अध्यायों) में विभक्त है, जिसमें मीमांसा सम्बन्धी विषयों, ग्रन्थों, ग्रन्थकारों (पाश्चात्य एवं पौरस्त्य) तथा उनके द्वारा प्रस्तुत विचारों पर निबन्धात्मक शैली में विचार किया गया है।

व्ही. पी. नम्पुतीरी (त्रिवेन्द्रम)

मीमांसान्यायप्रकाश - कारिकावली १९६२ ई.। पट्टाभिराम शास्त्री- श्री पट्टाभिराम शास्त्री मीमांसा शास्त्र के अधिकृत विद्वान थे। इनके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ निम्नलिखित हैं १-यज्ञतत्त्वप्रकाश-इस ग्रन्थ में शास्त्री जी ने बड़े आकर्षक ढंग से यागों का विस्तृत वर्णन किया है। २-मीमांसानयमञ्जरी-इस ग्रन्थ की रचना दो भागों में है। इस उत्कृष्टमीमांसाशास्त्रीय ग्रन्थ में आठ अध्यायों में मीमांसादर्शन से सम्बद्ध प्रत्येक सिद्धान्त का गहन विवेचन किया गया है।

रेमिल्ल सूर्यप्रकाश शास्त्री

आन्ध्रप्रदेश-श्री सूर्यप्रकाश शास्त्री आन्ध्रप्रदेश के मीमांसाशास्त्र और वेद के मूर्धन्य विद्वान् हैं। वे श्री गौतमी विद्यापीठ संस्कृत कालेज के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। नित्यकाम्यकर्ममीमांसा - हैदराबाद से १६६० ई. में मुद्रित। इस ग्रन्थ में ५ अध्याय हैं जिनमें वेदविहित नित्य और काम्य कर्मों का विवेचन किया गया है।

श्री कुलमणि मिश्र, उड़ीसा

श्री सदाशिव केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ में धर्मशास्त्र के प्राध्यापक थे। पारस्करगृह्यसूत्र की व्याख्या “मार्गदर्शिनी” प्रकाशक - डॉ. हरिहर झा, प्राचार्य, श्री सदाशिव केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, पुरी उड़ीसा। १९८१ ई. में प्रथम बार प्रकाशित। इनके प्रधानसम्पादकत्व में महत्त्वपूर्ण ‘धर्मकोश’ का प्रकाशन पुरी से हुआ है।

मण्डन मिश्र (श्री ला. ब. ब. शास्त्री राष्ट्रिय विद्यापीठ के कुलपति पद से अवकाश प्राप्त) इन्होने मीमांसादर्शन लिखा।

मीमांसा सूत्र पर शाबर भाष्य की टीकाएँ -

हरिहरकृपालु द्विवेदी, उत्तर प्रदेश (१८७०-१६४८) इनका जन्म प्रयाग जनपद में त्रिवेणी संगम के समीपवर्ती पण्डितपुर गाँव में हुआ था। इनके पिता पं. बलभद्र द्विवेदी बरॉव राज्य के प्रधान पण्डित थे। म. म. हरिहरकृपालु द्विवेदी जी ने काशी आकर पं. राममिश्र शास्त्री से वेदान्तमीमांसादि दर्शनों का अध्ययन किया था। प्रसिद्ध नैयायिक वामाचरण भट्टाचार्य तथा वेदान्तशिरोमणि लक्ष्मणशास्त्री द्राविड़ इनके सहपाठी थे। कल्पलतिका (मीमांसासूत्रों पर शाबरभाष्य की तर्कपादान्त टीका) - यह मीमांसा के प्रमेयों का विस्तार से वर्णन करने वाली तथा बोद्धों के विज्ञानवाद, क्षणभङ्गाबाद आदि का विशदता से खण्डन करने वाली एक प्रौढ़ रचना है (७०० पृष्ठ)। वासुदेवशास्त्री अभ्यङ्कर, महाराष्ट्र-आपदेव के मीमांसान्यायप्रकाश की टीका (१६३७ ई.)। नरहरिशास्त्री मारुलकर, महाराष्ट्र मीमांसासूत्रों पर टीका “बालबोधिनी” कोल्हापुर से १६५१ में प्रकाशित। मदनमोहन पाठक (१६वीं शती) १-आपदेवकृत “मीमांसान्यायप्रकाश” पर टिप्पणी बनारस से १६०६ ई. में प्रकाशित । २-वैद्यनाथ तत्सत्कृत ‘न्यायबिन्दु’ पर टिप्पणी बम्बई से १E१५ ई. में प्रकाशित। जीवानन्द विद्यासागर (१६ वीं शती) लौगाक्षिभास्करकृत “अर्थसंग्रह पर टीका कलकत्ता से १९७४ एवं १६०१ ई. में प्रकाशित। कृष्णताताचार्य (१६ वीं शती का उत्तरार्ध)- तिरुप्पुत्कुज्कि के निवासी। भाट्टसार - मद्रास से प्रकाशित। कृष्णनाथ भट्टाचार्य “न्यायपञ्चानन” (१८ वीं शती-उत्तरार्ध) ये नवद्वीप के समीप पूर्वस्थली के निवासी थे। लौगाक्षिभाकरकृत अर्थसंग्रह की प्रतिपादिका नाम्नी टीका कलकत्ता से १६०० ई. में प्रकाशित। रचनाकाल- १८६८ ई.। ५५२ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास प्रमथनाथ तर्कभूषण (१६ वीं शती उत्तरार्ध) लौगाक्षिभास्करकृत अर्थसंग्रह पर ‘अमला’ टीका कलकत्ता से १८६६ में प्रकाशित। गङ्गानाथ झा (१८७१–१६४१) गङ्गानाथ झा संस्कृत के अंग्रेजीवेत्ता विद्वानों में मूर्धन्य थे। इन्होंने मीमांसा, वेदान्त, धर्मशास्त्र सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ एवं निबन्ध अंग्रेजी में लिखे। ये इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। मण्डनमिश्रकृत “मीमांसानुक्रमणिका” पर मण्डनटीका- चौखम्बा संस्कृत ग्रन्थमाला ६८ में वाराणसी से प्रकाशित, १६३० ई. । सुदर्शनाचार्य, पंजाब (१६-२०वीं शती) पार्थसारथि मिश्र के ग्रन्थ ‘शास्त्रदीपिका” पर “प्रकाश’ नाम्नी टीका, वाराणसी से १६०७ ई. में प्रकाशित।। नित्यानन्द “पर्वतीय” (१८६७-१६३१) मूलतः पर्वतीय परन्तु काशी के निवासी विद्वान्। १- कृष्ण यज्चा की “मीमांसापरिभाषा" पर “लघुटिप्पणी” द्वितीय संस्करण वाराणसी से १६१५ ई. में प्रकाशित। यह ग्रन्थ मीमांसाशास्त्र में प्रारम्भिक प्रवेश हेतु बड़ा उपयोगी है। इसमें मीमांसाशास्त्र में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों को न्याय के लक्षण-समन्वय की पद्धति से स्पष्ट कर उनके अर्थ का विशदीकरण किया गया है। -कातीयेष्टिदीपकः - १६२४ ई.। यह कात्यायन श्रौतसूत्रसम्मत इष्टिनिरूपणात्मक ग्रन्थ है। रामसुब्रह्मण्य (रामसुब्बा) शास्त्री - (१६-२० वीं शती) खण्डदेव की भाट्टदीपिका पर ‘कल्पतरु’ व्याख्या- तंजौर से १६१५ ई. में प्रकाशित। एन.एस. अनन्तकृष्ण शास्त्री (१८८६)-मीमांसाशास्त्रसारः (मीमांसासिद्धान्ततत्त्वार्थप्रकाशः (बम्बई से १६३१ में प्रकाशित टी. यू. वीरराघवाचार्य -आपदेवकृत “मीमांसान्यायप्रकाश" पर “मीमांसान्यायसुधा” टीका- तिरुवाडि से १८३५ ई. में प्रकाशित। एन. आर. शर्मा- कृष्णयज्वा की “मीमांसापरिभाषा” पर टिप्पणी पञ्चम संस्करण बम्बई से १६५० ई. में प्रकाशित। ए. चटर्जी- मीमांसाप्रकाश - कलकत्ता से १६५६ ई. में प्रकाशित।