०२ वेद

अर्वाचीन काल में नित्य नयी वैज्ञानिक गवेषणाओं ने पारम्परिक शास्त्रचिन्तन को अत्यधिक प्रभावित किया। वेद, जो भारतीय ज्ञान की निधि समझे जाते हैं, उनमें विज्ञान के तत्वों की खोज की जाने लगी। पं. मधुसूदन ओझा ने वेद के मन्त्रों की आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से व्याख्या की, जिसे वैदिक विज्ञान’ नाम दिया। उन्नीसवीं शती में आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी वेदों को समस्त आधिभौतिक एवं आधिदैविक ज्ञान-विज्ञान का आगार माना था। उन्होंने वेदों के उपासनाप्रकरण में आये अग्नि, वायु, इन्द्र आदि पदों को भौतिक पदार्थों अथवा विभिन्न देवताओं का वाचक न मानकर भिन्न-भिन्न शक्तियों से समन्वित एक ही परमात्मा का वाचक माना। इस प्रकार वेदों की व्याख्या में युक्ति अथवा तर्कसङ्गतता ने प्रवेश किया। दयानन्द सरस्वती ने ब्राह्मण,आरण्यक आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास आदि को वेद के अन्तर्गत नहीं माना। इसकी विद्वानों के बहुसंख्यक वर्ग पर तीव्र प्रतिक्रिया भी हुई। फलस्वरूप करपात्री जी ने ‘वेदार्थपारिजात’, ‘वेदस्वरूपविमर्श’ आदि ग्रन्थ लिखकर इसका तीव्र खण्डन किया, जिसका खण्डन पुनः दयानन्द सरस्वती के समर्थक विशुद्धानन्द शास्त्री की ओर से ‘वेदार्थकल्पद्रुम’ लिखकर किया गया। करौली के राजा तथा शाहपुरा नरेश ने वेद के स्वरूप-निर्णय के सम्बन्ध में अपने सभापण्डितों से पत्र द्वारा शास्त्रार्थ कराया, जो ‘वेदनिर्णय’ के नाम से प्रकाशित है। सत्यव्रत सामग ने ‘त्रयीपरिचयः’ नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा जिसमें संहिताओं के पौर्वापर्यादि पर विचार किया गया था तथा इसमें भी ब्राह्मण एवं आरण्यकादि वेद के अन्तर्गत हैं इसे प्रदर्शित किया गया था। इस काल में वेदमन्त्र केवल ‘अपूर्व’ के जनक नहीं रह गये, उनके अर्थ पर व्यावहारिक सार्थकता की दृष्टि से भी विचार हुआ। दामोदर झा ने अपनी रचना ‘मन्त्रार्थचन्द्रोदय’ में विभिन्न कर्मकाण्डों में प्रयुक्त वैदिक मन्त्रों की व्याख्या की।

महर्षि दयानन्द सरस्वती (१८२४-१८८३) - महर्षि दयानन्द सरस्वती आधुनिक युग के क्रान्तिकारी विचारक और ‘आर्यसमाज’ के संस्थापक थे। उन्होंने वेदों की नवीन ढंग से व्याख्या की, तत्सम्बन्धी विपुल साहित्य का प्रणयन किया और वैदिक वाङमय के प्रचार हेत अहर्निश कार्य किया। उनकी मान्यता थी कि हमारा मूल धर्म वह है जो वेदों में प्रतिपादित है, जो ‘आर्यधर्म’ है। वेद का मन्तव्य सबको ज्ञात हो सके, इसके लिए उन्होंने वेदों पर भाष्य लिखा और उनके तात्पर्य को विवेचित किया। महर्षि द्वारा प्रणीत संस्कृत भाषा में उपनिबद्ध ग्रन्थ इस प्रकार हैं-१-सन्ध्या-रचनाकाल-१E२० वि. (१८६३ ई.)२-भागवत खण्डनम्-र. का. १E२३ वि. (१८६६ ई.) ३- अद्वैतमतखण्डनमू-र. का.-१E२७ वि. (१६७० ई.) ४- सन्ध्योपासनादि-पञ्चमहायज्ञ-विधिः (भाष्यसहित) रचनाकाल-१६३१ वि. (१८७४ ई.) ५-वेदविरुद्धमतखण्डनम्-१८३१ वि. (१८७४ ई.)६-शिक्षापत्रीध्वान्तनिवारणम् -१६३१ वि. (१८७४ ई.) ७-वेदभाष्यनिदर्शनाङ्कः -१६३१ वि. (१८७४ ई.) ८-संस्कारविधिः-१६३२ वि. (१८७५ ई.) E-चतुर्वेद-विषयसूची-१६३३ वि. (१८७६ ई.) १०-वेदभाष्यनिदर्शनाङ्कः (पुनः)-१६३३ वि. (१८७६ ई.)११-ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका-१६३३ वि० (१८७६ ई.) १२-पञ्चमहायज्ञविधिः (पुनर्निबद्ध)-१६३४ वि. (१८७७ ई.) १३-ऋग्वेदभाष्यम् (मं. ७, सू. ६१, मन्त्र २ पर्यन्त) १६३४ वि.(१८७७ ई.) १४-यजुर्वेदभाष्यम् (सम्पूर्ण) १६३४ वि. (१८७७ ई.) ‘सत्यार्थप्रकाश’ इनका हिन्दी में उपनिबद्ध लोकप्रिय ग्रन्थ है।

इन ग्रन्थों की रचना स्वामी जी ने अपने जीवन-काल के अन्तिम दशक में की। यदि किसी दुरात्मा ने विष देकर उनकी हत्या न कर दी होती तो संस्कृत साहित्य सम्भवतः और भी ग्रन्थों से समृद्ध होता। । स्वामी जी के वेद-भाष्य-महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद आरम्भ करने के ३७ दिन के अनन्तर ही यजवेदभाष्य लिखना आरम्भ कर दिया था। ऋग्वेद भाष्य का लिखना १E३४ वि. मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि को आरम्भ हुआ और यजुर्वेदभाष्य १६३४ वि. की पौष शुक्ल त्रयोदशी (गुरुवार) को। इस प्रकार ये दोनों गम्भीर भाष्य साथ-साथ लिखे गये, दर्शन और शास्त्र इससे स्वामी जी की अपार प्रतिभा और अपने लक्ष्य के प्रति प्राणपण से समर्पण की भावना सूचित होती है। ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ का प्रथम संस्करण काशी के लाजरस कम्पनी प्रेस में (३३३ पृ. पर्यन्त) मुद्रित हुआ, शेष ३७६ पृ. बम्बई के निर्णयसागर प्रेस से छपे (१९७७-७८ ई.)। बाद में इसके वैदिक प्रेस (स्वामी जी द्वारा स्थापित) से ११ संस्करण निकले, कलकत्ता से वेदतत्त्व प्रकाश नामक संस्करण निकला तथा आर्य-साहित्य मंडल, अजमेरु द्वारा संस्करण निकाले गये। ऋग्वेदभाष्य का प्रथम संस्करण १८७८-७E ई. में निर्णयसागर प्रेस तथा अवशिष्ट भाग स्वामी जी द्वारा स्थापित वैदिक प्रेस से प्रकाशित हुए। इसके अनन्तर इसके तीन और संस्करण प्रकाशित हुए। चौथा संस्करण पं. युधिष्ठिर मीमांसक के सम्पादकत्व में करनाल (हरियाणा) से प्रकाशित है। स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेद-दर्शन-‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ से स्वामी जी की वेदविषयक अवधारणा सुस्पष्ट रूप में विदित होती है। स्वामी जी के अनुसार वेद अपौरुषेय और नित्य हैं। वे परब्रह्म से निःश्वास के समान प्रादुर्भुत हैं। वैदिक मन्त्रों के ऋषि उनके द्रष्टा हैं, रचयिता नहीं। वेद में किसी देश, जाति या व्यक्तिविशेष का वर्णन नहीं है। उसमें कोई नाम रूढ नहीं है, सभी नाम धातुज (यौगिक) हैं। अतः उसमें यत्र-तत्र प्रतीयमान कथाएं आलङ्कारिक हैं, वास्तविक नहीं। वेद में सम्पूर्ण सत्य ज्ञान निहित है। यह समस्त आधिभौतिक एवं आधिदैविक ज्ञान-विज्ञान का अगार है, किन्तु इसका मुख्य तात्पर्य अध्यात्मज्ञान में पर्यवसित होता है। वेदों में निर्दिष्ट अग्नि, वायु, इन्द्र, आदि देवतावाची पद उपासनाप्रकरण में परब्रह्म के ही वाचक होते हैं, भौतिक पदार्थों के नहीं। उनमें पशुहिंसा तथा अन्य अनर्थकारी विषयों का वर्णन लेश भर भी नहीं है। वेद प्रकाश के समान स्वतः प्रमाण हैं, जबकि अन्य लौकिक-वैदिक साहित्य परतः प्रमाण हैं। वह जहां वेद के अनुकूल है, वहाँ प्रमाण है, अन्यत्र नहीं। इसके विपरीत, वेदार्थ की व्याख्या में व्याकरणादि वेदागों, मीमांसादि दर्शनशास्त्रों, शाखा-ब्राह्मण-आरण्यक-उपनिषद्-कल्पसूत्र आदि से सहायता ली जा सकती है, परन्तु इन शास्त्रों से विरुद्ध होने पर कोई मन्त्रार्थ अप्रमाण नहीं माना जा सकता, जब तक कि वह स्वयं वेद से विरुद्ध न हो। याज्ञिक क्रियाओं की आधिदैविक सृष्टियज्ञ में परिसमाप्ति होती है।

सत्यव्रत भट्टाचार्य ‘सामग’ (१९ वीं शती उत्तरार्ध ) त्रयीपरिचयः

१८१५ शक, तदनुसार १८६३ ई. में रचित। कलकत्ता के सत्य प्रेस से ग्रन्थकार द्वारा ही प्रकाशित। इसमें वेद के विभिन्न नामों का निर्वचन, संहिता के लक्षण, उनके पाट प्रकार, उनकी शाखाओं का परिगणन, संहिताओं के पौवापर्य पर विचार, ब्राह्मण ही वेद के आदि भाष्य हैं, आरण्यक भी त्रयी के अन्तर्गत हैं, उपनिषदों का आधुनिकत्व, वेदों की उत्पत्ति का काल, वेदों का ऋषियों द्वारा दृष्ट होना, वेद का विषय, प्रयोजन, सम्बन्ध तथा अधिकारी एवंविध वेदविषयक अन्यान्य बातों पर विचार किया गया है।

स्वामी हरिप्रसाद “वैदिक मुनि”

(१९-२०वीं शती) आत्माराम के शिष्य। वेदान्तसूत्रवैदिकवृत्तिः-चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणस्वी से १६८२ ई. में प्रकाशित द्वितीय संस्करण। इसका प्रथम संस्करण निर्णय सागर प्रेस, बम्बई से १६१४ ई. में निकाला था। यह सम्पूर्ण ब्रह्मसूत्र का वैदिक दृष्टि से किया गया भाष्य है।

मधुसूदन ओझा (१८६६-१९३९ बिहार)

ये वेद एवं धर्मशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे। ये पं. वैद्यनाथ झा के पुत्र तथा काशी के मूर्धन्य विद्वान पं. शिवकुमार शास्त्री के शिष्य थे। इन्होंने वेद के मन्त्रों की आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से व्याख्या की। लगभग पाँच दशकों तक अनवरत अनुसन्धान करके इन्होंने सैकड़ो ग्रन्थों की रचना की, जिनमें अधिकांश प्रकाशित हैं। ओझा जी के शब्दों में “वैदिक विज्ञान” के सिद्धान्त का स्वरूप है यत्र प्रदा विषयाः पुरातनाः, यत्र प्रकारोऽभिनवः प्रदर्शने। यत्र प्रमाणं श्रुतयः सयुक्तयः, तद् ब्रह्मविज्ञानमिदं विमृश्यताम्।। अर्थात् जहाँ पुराने विषयों का ही प्रदर्शन किया गया है, परन्तु प्रदर्शन का प्रकार अर्थात् शैली नवीन है। जहाँ श्रुति के साथ युक्तियों को भी प्रमाण माना गया है, वह “ब्रह्मविज्ञान” वेदविज्ञान का स्वरूप है। ओझा जी के अनुसार वैदिक विज्ञान का रहस्य मीमांसकों द्वारा उपेक्षित उपपत्ति या अर्थवाद है जो ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों तथा उपनिषदों में उपलब्ध होती है। शतपथ ब्राह्मण का अधिकांश भाग इन्हीं उपपत्तियों से परिपूर्ण है। इन्हीं उपपत्तियों के अनुशीलन से इनको वैदिक परिभाषाएँ प्राप्त हुईं, जिनके आधार पर इन्होंने वैदिक विज्ञान के रहस्य का उद्घाटन किया। ओझा जी के अनेकानेक मुद्रित अमुद्रित मिलाकर २४५ ग्रन्थों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निम्न हैं ब्रह्मसिद्धान्तः (सिद्धान्तवादः) गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी की सिद्धान्तप्रकाशिका" व्याख्या के साथ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से १६६१ ई. में प्रकाशित यह ग्रन्थ विस्तृत और ओझा जी के वेदविज्ञानसम्बन्धी सिद्धान्तों का एकत्र संग्रहात्मक मौलिक ग्रन्थ है। ऋग्वेद के प्रसिद्ध नासदीय सूक्त का अनुशीलन कर जगत् के मूलतत्त्व के विषय में प्रचलित दस मतों का इसमें वैज्ञानिक विवेचन किया गया है। पहले ये अलग-अलग १० लघु स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में लिखे गये थे। बाद में “सिद्धान्तवाद” नाम से इनमें निहित प्रमेयों का संग्रह-ग्रन्थ निकाला गया। उपर्युक्त ग्रन्थ में ओझा जी ने वैदिक ग्रन्थों के आलोडन, अनुशीलन के उपरान्त सृष्टि के सम्बन्ध में अपने दार्शनिक विचार इस प्रकार प्रस्तुत किये हैं- जगत् का मूलतत्त्व ब्रह्म है, जिसे “रसो वै सः” श्रुति के आधार पर इस सिद्धान्त में “रस” नाम दिया गया है। उसकी एक त्रिगुणात्मिका शक्ति है, जो न सत् है न असत्, अपितु अनिवर्चनीय है। यह स्वतन्त्र नहीं अपितु “ब्रह्म” के आश्रित अर्थात् “परतन्त्र” है, इसीलिए इस सिद्धान्त को दर्शन और शास्त्र ५४५ “ब्रह्माद्वैतवाद” कहा गया है। ब्रह्म की शक्ति को इस दर्शन में “बल” कहा गया है। बल, शक्ति और क्रिया -ये तीनों शब्द अवस्थाभेद से एक ही तत्त्व के वाचक हैं। प्रसुप्त दशा में वह “बल” है, कार्योन्मुख होने पर “शक्ति” और कार्यरूप में परिणत होने पर “क्रिया’ है। इस प्रकार यह एक सर्वथा विशिष्ट दर्शन है। २-छन्दोनिरुक्ति:- यह मधुसूदन ओझा जी के द्वारा वैदिक छन्दःशास्त्र के विज्ञान के ऊपर किया गया बड़ा ही मार्मिक विवेचन है। जो “पिमाल छन्दःशास्त्र” की भूमिका के रूप में निर्णय सागर प्रेस से १६३८ ई. में प्रकाशित किया गया है। इस विवेचन में ओझा जी ने ब्राह्मण ग्रन्थों में छन्द के स्वरूप, प्रकार आदि का बड़े विस्तार से उदाहरण देकर निरूपण किया है। यह छन्द का सामान्य विवेचन मात्र नहीं है, अपित उसे वैदिक अध्यात्मशास्त्र से जोड़ा गया है। ३-महर्षिकुलवैभवम्-ओझा जी के शिष्य म.म. गिरिधर या चतुर्वेदी ने इसके प्रथम खण्ड पर संस्कृत व्याख्या लिखी है। उस व्याख्या के साथ यह ग्रन्थ राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर, जयपुर द्वारा १६५६ ई. में प्रकाशित है। इस ग्रन्थ के २ खण्ड हैं। मूल ग्रन्थ सूत्रशैली में निबद्ध है, जिसमें वेद में ऋषितत्त्व तथा सृष्टितत्त्व की विवेचना की गयी है। ये ऋषियों को मन्त्र का “द्रष्टा” तथा “कर्ता’ दोनों मानते हैं। ऋषियों को दिव्य वेद का ज्ञान ईश्वर के अनुग्रह से अवश्य प्राप्त होता है, अतः वेद इस अर्थ में ‘पौरुषेय” ही है। इस ग्रन्थ पर चतुर्वेदी जी की व्याख्या दृष्टान्तों से परिपूर्ण और परिष्कारमयी है। ४-देवतानिवित्-इसमें यज्ञ के देवताओं का वैज्ञानिक वर्णन है। ५-वेदधर्मव्याख्यानम्-मधुसूदन ओझा जी के पौत्र श्री पद्मलोचन शर्मा द्वारा सम्पादित और १६५२ ई. में प्रकाशित (द्वितीय संस्करण)।

स्वामी हरिहरानन्द सरस्वती “करपात्री”

उत्तर प्रदेश (१६०७-१६८२) स्वामी हरिहरानन्द सरस्वती “करपात्री” आधुनिक युग के नैष्ठिक चिन्तक, वेदरहस्यमर्मज्ञ, तन्त्रज्ञ एवं भक्त साधक थे। इनका जन्म प्रतापगढ़ जिले के भटनी गाँव में सन् १९०७ ई. में हुआ था। इनके पिता का नाम पं. रामनिधि ओझा था, जो बड़े सात्त्विक प्रकृति के व्यक्ति थे। करपात्री जी का संन्यासपूर्व का नाम हरनारायण था। संन्यास के पश्चात् कर को ही पात्र बनाकर उसमें भोजन करने के कारण ये अपने वास्तविक नाम (हरिहरानन्द सरस्वती) की अपेक्षा उपनाम ‘करपात्री जी’ से ही अधिक प्रसिद्ध हुए। स्वामी जी ने वेद, तन्त्र तथा भक्ति शास्त्र पर बड़े महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे। उनकी प्रमुख रचनाओं का परिचय इस प्रकार है १. वेदार्थपारिजात-(राधाकृष्ण प्रकाशन संस्थान, कलकत्ता से १६८० में प्रकाशित) यह गन्थ दो भागों में तथा दो हजार पृष्ठों में है तथा स्वामी जी द्वारा रचित वेद-भाष्य शुक्लयजुर्वेद संहिता के चालीसों अध्यायों का अध्यात्मपरक शैली में विस्तृत भाष्य) की भूमिका है। इसमें वेदों के अपौरुषेयत्व तथा एवंविध अन्य सिद्धान्तों की पुष्टि युक्ति द्वारा की गयी है। इसमें स्वामी दयानन्द सरस्वती के ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में प्रतिपादित मत का विरोध कर सनातनधर्मानुसार वेद की व्याख्या की गयी है। २. वेदस्वरूपविमर्श- (भक्तिसुधा साहित्य परिषद्, कलकत्ता से १६६६ ई. में प्रकाशित) इस ग्रन्थ में ४ अध्याय हैं-१, वेदस्वरूपविमर्शः २. वेदप्रामाण्यविमर्शः ३. वेदापौरुषेयत्वविमर्शः ४. ब्राह्मणानां वेदत्वविमर्शः। प्रथम अध्याय में वेद की अनन्तता, यज्ञमीमांसा आदि विषयों के विवेचन के साथ-साथ वेद में विज्ञान और इतिहास की खोज करने वालों का विस्तृत खण्डन किया गया है। द्वितीय अध्याय में वेद के नित्यत्व तथा स्वतःप्रामाण्य का निरूपण है। इसी में बुद्ध की सर्वज्ञता का खण्डन किया गया है तथा अन्त में वेद के अधिकारी का निरूपण है। तृतीय अध्याय में वेद के अपौरुषेयत्व के सम्बन्ध में गहन विचार किया गया है तथा वैयाकरणों के वेदविषयक सिद्धान्त का बड़ी विद्वत्ता के साथ प्रतिपादन किया गया है। चतुर्थ अध्याय में बड़े ऊहापोहपूर्वक यह दिखलाया गया है कि ब्राह्मण भाग श्रुति का अविभाज्य अंग है। इस प्रकार वेदसम्बन्धी समस्त उपयोगी ज्ञान तथा वेदप्रामाण्यमीमांसा के लिए यह महनीय ग्रन्थ है (४५० पृ.)। ३. वेदप्रामाण्यमीमांसा- (धर्मसंघ शिक्षा मण्डल, दुर्गाकुण्ड, वाराणसी से प्रकाशित, १६६० ई.) उपर्युक्त ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय के विषयों का ही हसमें कुछ विस्तार से प्रतिपादन है। ४. वेदार्थपारिजातभाष्य - माध्यन्दिनीय संहिता का बृहद् भाष्य। राधाकृष्ण धानुका प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित। स्वामी करपात्री जी नवीन शैली से वेदों की व्याख्या करने में संलग्न थे। उन्होंने “अध्यात्मिक शैली” को महत्त्व प्रदान कर उसी का पूर्णतः उपयोग वेदभाष्य में किया है।

विशुद्धानन्द मिश्र शास्त्री

व्याकरणाचार्य, दर्शनवाचस्पति, वेदवेदाङ्ग पुरस्कार से सम्मानित, गुरुकुल विश्वविद्यालय (वृन्दावन) के पूर्व कुलपति तथा राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, दिल्ली के भारत सरकार द्वारा मनोनीत सदस्य । ग्रन्थ-वेदार्थकल्पद्रुमः। स्वामी करपात्री जी के ‘वेदार्थपारिजात’ के खण्डन हेतु प्रणीत ग्रन्थ । १६E२ ई. में आर्षसाहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली द्वारा प्रकाशित। इसमें स्वामी करपात्री जी के ‘वेदार्थपारिजात’ में किये गये स्वामी दयानन्द सरस्वती के मत के खण्डन का युक्ति और प्रमाणपुरस्सर चतुरस्र खण्डन किया गया है और दयानन्द सरस्वती के मत का निर्दोषत्व प्रतिपादित किया गया है। ग्रन्थकार की आलोचना शास्त्रीय प्रौढ़ि से परिपूर्ण और भाषा प्राञ्जल है। यह ग्रन्थ ३ खण्डों में रचित है।

राजेन्द्र प्रसाद मिश्र,

जयपुर ऋङ्मन्त्रार्थसमालोचनम् - वैदिक मन्त्रों की आदित्यमूला व्याख्या का प्रतिपादक ग्रन्थ, पृ. सं. ५८६ । रसकपूर मुद्रणालय, जयपुर से १६८८ ई. में प्रकाशित। दर्शन और शास्त्र

सीताराम शास्त्री

(पुणे) म. म. सीताराम शास्त्री कलकत्ता के गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज में सीनियर रिसर्च फेलो रहे थे। ग्रन्थ-वेदार्थविचार:-संस्कृत कालेज कलकत्ता से १६६१ ई. में प्रकाशित । गौरीनाथ शास्त्री ने इस ग्रन्थ पर प्राक्कथन लिखा है। प्राचीन और अर्वाचीन, वेद व्याख्याओं के सम्यक् अनुशीलन के पश्चात् उनसे वेदार्थ का सम्यग् अवधारण नहीं होता इस मन्तव्य पर पहुँचकर अपनी मौलिक गवेषणात्मक दृष्टि से ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ के पर्यालोचन से शास्त्री जी के अगाध वैदिक और ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान का परिचय मिलता है।

दामोदर झा

ये दरभङ्गा मण्डल के अन्तर्गत साहपुर ग्राम के निवासी वैदिक विद्वान श्री विद्यानाथ झा के सुपुत्र और गिद्धौर राजकीय श्रीरावणेश्वर संस्कृत विद्यालय में अध्यापक थे। श्री बालकृष्ण शास्त्री के समकालीन। ग्रन्थ-मन्त्रार्थचन्द्रोदय-वाराणसी के ज्योतिष प्रकाश प्रेस से १६४० ई. में ग्रन्थकार के जीवनकाल में ही मुद्रित। यह संस्कृत में मन्त्रार्थविषयक संभवतः प्रथम और अन्तिम ग्रन्थ है। इसमें १८ परिच्दैद हैं, जिनमें नित्यकृत्य, रुद्राभिषेक, षोडश संस्कार आदि स्मात कर्मकाण्ड में उपयोगी सभी वैदिक मन्त्रों और आश्वमेधिक मन्त्रों की स्पष्टार्थक रमणीय व्याख्या की गयी है। त्र्यम्बक बलवन्त अभ्यङ्कर, (पुणे) ग्रन्थ-स्वरमज्जरी-१६४१ ई. में प्रकाशित। यह वैदिक बलाघात पर रचित एक लघु छन्दोबद्ध ग्रन्थ है।

म. म. स्वामी गङ्गेश्वरानन्द

(२० वीं शती) अर्थर्ववेदभाष्य अथर्ववेद के जिन काण्डों का भाष्य सायण ने नहीं किया था, उनका भाष्य अभिनवसायणभाष्य के नाम से स्वामी गङ्गेश्वरानन्द जी ने किया है। प्रकाशक गुरु गङ्गेश्वर चतुर्वेद संस्थान, १३ ए, पार्क एरिया, करोलबाग, नयी दिल्ली।

श्री किशोर मिश्र

वाराणसी १. वेदशाखापर्यालोचनम् तथा कात्यायनीयचरणव्यूह टीका २. मधुपर्कपर्यालोचनम् तथा अथर्ववेदीयमधुपर्कप्रयोग व्याख्या ३. कातीयमूल्या ध्यायपरिशिष्टव्याख्या ४. वैदिकच्छन्दःपर्यालोचनम् ५. याज्ञिकन्यायमालाविस्तरः। अन्य वेदनिर्णय-वेदविषयक शास्त्रार्थपूर्ण पत्रों का संग्रह। राजपुताने के, करौली के राजा तथा शाहपुरा के नरेश इनके वेद के विषय में विभिन्न मत थे। इन्होंने वेद के स्वरूप निर्णय के लिए अपने राजपण्डितों से पत्र द्वारा शास्त्रार्थ कराया। उन्हीं पत्रों का संग्रहभूत यह ग्रन्थ है, जो शाहपुरा के नरेश नाहरसिंह वर्मा द्वारा हितचिन्तक प्रेस, काशी से सन् १८६६ ई. में मुद्रित है। ५४८ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास