०१ पृष्ठभूमि

भारतीय वाङ्मय में १६-२०वीं शती, जिसे हम ‘अर्वाचीन युग’ कहते हैं, कई विशेषताओं से समन्वित है। १६वीं शती में विश्व में कई क्रान्तिकारी वैज्ञानिक आविष्कार हुए, जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व के पारम्परिक चिन्तन की दिशा बदल दी। भारतवर्ष में भी १८४५ ई. में रेलमार्ग बनना आरम्भ हुआ। १८५७ ई. में भारत में लन्दन यूनिवर्सिटी के आधार पर कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। इससे बहुविध लाभ हुए। पाश्चात्त्य ज्ञान-विज्ञान से भारतीयों का सीधा सम्पर्क हुआ और उनमें विवेचनात्मक चिन्तन की प्रवृत्ति जागी। विषयप्रतिपादन अमूर्त दार्शनिकता से हटकर वस्तुपरक और व्यवहारवादी हुआ। आयुर्वेद, ज्योतिष आदि विषय, जो व्यावहारिक विज्ञान थे उनमें यह प्रवृत्ति अधिक स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हुई। इस काल से पहले आयुर्वेद अधिकांश में दर्शन था, अब वह शुद्ध अर्थों में चिकित्साविज्ञान’ बना। स्मरणीय है कि कलकत्ता मेडिकल कालेज में १८३५ ई. में पहली बार भारतीय पण्डित मधुसूदन दत्त ने मृतदेह में नश्तर लगाया था। आयुर्वेद में इस काल में शारीरिक संरचना, रोगनिदान, शल्यचिकित्सा संबन्धी ग्रन्थ लिखे गये, नये रोगों के लक्षणों और उनकी चिकित्सा पर विचार हुआ। ज्योतिष के ग्रन्थों में पाश्चात्त्य प्रणाली के आधार पर गणित की उपपत्तियाँ दी जाने लगीं। शास्त्रों में प्रकरण के अनुसार विषय की प्रस्तुति होने लगी। वेदादि विशुद्ध आस्थामूलक शास्त्रों में भी इस काल में विज्ञान और युक्तिसङ्गतता का अन्वेषण किया जाने लगा। म.म. मधुसूदन ओझा ने ‘वैदिकविज्ञान’ सम्बन्धी कई ग्रन्थ लिखे । स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ब्राह्मण भाग को वेद के अन्तर्गत ही नहीं माना, क्योंकि वे कई स्थान पर श्रुतियों के मन्तव्य से भिन्न थे और युक्ति द्वारा उन्हें उनके मन्तव्य के अनुकूल नहीं पाया जा सका। इस काल में भारतवर्ष में आर्यसमाज और ब्राह्मसमाज की स्थापना ने धर्मशास्त्र पर विशेष प्रभाव डाला। ‘विधवा विवाह’ के ज्वलन्त प्रश्न पर खण्डन-मण्डनात्मक ग्रन्थ लिखे गये। कर्मकाण्ड शिथिल हुए, संस्कारों के स्वरूप और पद्धति का विवेचन किया गया, क्योंकि उनमें ‘व्यक्ति’ और तद्द्वारा समाज का निर्माण करने की सम्भावनाएँ निहित थीं। धीरे-धीरे विश्वविद्यालयों एवं उच्च शिक्षा के अन्य केन्द्रों की संख्या बढ़ी। इनमें शास्त्रों पर शोध आरम्भ हुआ। लोगों ने ऐतिहासिक और विवेचनात्मक, समीक्षात्मक दृष्टिकोणों से प्राचीन ग्रन्थों की विषय-वस्तु को परखा। प्राचीन ग्रन्थों को संपादित किया ५४१ दर्शन और शास्त्र गया, उनके रचनाकारों के कालनिर्णय किये गये और उनके अवदान को निर्धारित किया गया। इन ग्रन्थों का अधिकाधिक प्रकाशन हुआ। इससे पुस्तकालयों में सहस्राब्दियों से प्रसुप्त ज्ञान लोगों के समक्ष प्रकट हुआ। इन संपादकों ने प्रायः अपने संपादित ग्रन्थों पर टीका, विषम स्थलों पर टिप्पणियाँ आदि लिखीं। इस काल में अनेक क्रोडपत्रों का भी प्रकाशन हुआ, जिससे विद्वानों के व्यक्तिगत परिष्कार, जो उनकी वर्शपरम्परा में ‘थाती’ के समान संगृहीत थे और दाय के रूप में शुरू से शिष्य को प्राप्त होते थे, सार्वजनिक जानकारी हेतु सुलभ हुए। इन प्रकाशनों से हमारे ज्ञान-क्षितिज का कितना विस्तार हुआ, इसे आंका नहीं जा सकता। अठारहवीं शती के अन्त में एशयाटिक सोसायटी की स्थापना हो चुकी थी। इससे यूरोपियनों का भी भारतविषयक अध्ययन तेजी से बढ़ा। सर विलियम जोन्स ने यह पहचाना कि संस्कृत, यूनानी और लैटिन भाषाएँ सगोत्र हैं। इससे भारतीय विद्वानों की भी उत्सुकता बढ़ी और दोनों ने संस्कृत का अपने-अपने ढंग से भाषावैज्ञानिक अध्ययन किया। पश्चिम के विद्वान् पाणिनि के व्याकरण की वैज्ञानिकता से चमत्कृत हुए तो हमने भी ‘ग्रीवास्थ ग्रैवेयक’ न्याय से उसे नये सिरे से उलट-पुलट कर रखा। कोलबुक ने संस्कृत व्याकरण के साथ-साथ गणित ज्योतिष आदि की ओर भी पाश्चात्त्य जगत् का ध्यान आकृष्ट किया तो मैक्समूलर, मैक्डानल आदि के समर्पित प्रयासों से वेदों का महत्त्व उनके समक्ष उद्भासित हुआ। इन सबका प्रभाव भारतीय चिन्तन-प्रवृत्ति पर स्वाभाविक रूप से पड़ा। वे भी उन विद्वानों के सम्पर्क में आये, उनके ज्ञान का अनुसन्धान किया और उससे प्रेरित हो स्वतन्त्र ग्रन्थों का प्रणयन भी किया। यद्यपि अंग्रेजी और हिन्दी में ऐसे ग्रन्थ अधिक लिखे गये, परन्तु संस्कृत में भी इन ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है। मनोविज्ञान, सौन्दर्यशास्त्र, यूरोपीयदर्शन, इतिहास आदि पर संस्कृत ग्रन्थ लिखे गये हैं और लिखे जा रहे हैं। इस काल में संस्कृत में अनेक शोधात्मक, समीक्षात्मक और रचनात्मक, निबन्ध लिखे गये, जिनकी संख्या लाखों में पहुँचती है। ये संस्कृत में स्वतन्त्र चिन्तन की प्रवृत्ति के परिचायक हैं।