इस विधा में गद्य तथा पद्य का मिला-जुला प्रयोग होता है, जैसाकि कहा है “गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते”। इसकी विशेषता इस अंश में कही जा सकती है कि इस विधा में कवि को गद्य तथा पद्य दोनों के प्रयोग में अपना कवित्व प्रदर्शित करने का पूर्ण अवसर मिलता है। जिन्हें गद्य काव्य के अन्तर्गत कथा या आख्यायिका कहा गया है उनमें भी गद्य के साथ पद्यों का प्रयोग होता है, किन्तु वह नगण्य होता है। कुछ ऐसा भी नहीं कि चम्पू के कवि भावात्मक विषयों का वर्णन पद्य में तथा वर्णनात्मक विषयों का विवरण गद्य में करते हों। काव्य की विधा की दृष्टि से चम्पू विधा कुछ विलक्षण नहीं, फिर भी प्राचीन काल में इसमें अनेक काव्य प्रस्तुत हुए, जिनका संस्कृत साहित्य में विशिष्ट स्थान है। इस सन्दर्भ में कुछ प्राचीन चम्पुओं का नामोल्लेख अनुपयुक्त न होगा। नलचम्पू (त्रिविक्रम, सप्तम तथा एकादश्शती का मध्यभाग), यशस्तिलकचम्पू (सोमप्रभसूरि, १० वीं शती), चम्पूरामायण (भोजराज, ग्यारहवीं शती), यात्राप्रबन्धचम्पू (समरपुङ्गव दीक्षित १६ वीं का उत्तरार्थ) वरदाम्बिकापरिणयचम्पू (तिरुमलाम्बा) नीलकण्ठविजयचम्पू (नीलकण्ठदीक्षित, सत्तरहवीं शती) और इसी शती के वेंकटाध्वरी की रचना विश्वगुणादर्शचम्पू का नाम उल्लेख्य है। यहां अपनी रोचकता के कारण “विश्वगुणादर्शचम्पू” संस्कृत का एक महत्त्वपूर्ण चम्पूकाव्य है, जो परम्परा से अलग अपना परिचय रखता है। इसमें दो गन्धों , विश्वावसु और कृशानु विमान पर होकर तीर्थों की यात्रा करते हैं और उनके दोषों तथा गुणों का क्रमशः वर्णन करते हैं। यह भी ध्यातव्य है कि चम्पूविधा में लेखन के प्रति रुझान दक्षिण के, विशेषतः केरल और आन्ध्र के रचनाकारों में अधिक रहा है। गद्य-साहित्य /चम्पूकाव्य ५३५ आधुनिक काल में भी इन्हीं क्षेत्रों के रचनाकारों ने चम्पूकाव्य रचे। विश्वगुणादर्शचम्पू के आदर्श पर श्रीशैलश्रीनिवासाचार्य के पुत्र अण्णय्याचार्य ने तत्त्वगुणादर्शचम्पू की रचना की जिसमें जय और विजय के बीच संवाद द्वारा शैव और वैष्णव मतों के गुणदोषों को सूचित कराया गया है। राजापुर (महाराष्ट्र) के एक संस्कृत विद्यालय के आचार्य दत्तात्रेय वासुदेव निगुडकर (१६ वीं-२० वीं शती) ने अपने गङ्गागुणादर्शचम्पू काव्य में हा हा और हू हू नाम के दो गन्धों के बीच गङ्गा के गुण-दोषों के वर्णन द्वारा गङ्गा की श्रेष्ठता प्रतिपादित है। जहां काव्य की अन्य विधाओं की भाँति राम, विष्णु, शिव आदि के चरित्रों से सम्बद्ध रचनाएं आधुनिक काल में प्रस्तुत हुई, वहां ऐसे चम्पू काव्य तो लिखे ही गये, साथ ही तीर्थ क्षेत्रों का माहात्म्य, आश्रयदाताओं का प्रशस्तिगान तथा यात्राविवरण से सम्बद्ध चम्पूकाव्य भी लिखे। इस प्रकार आधुनिक काल में चम्पूकाव्यों को कुछ व्यापक पृष्ठभूमि मिली, ऐसा डॉ. हीरालाल शुक्ल जैसे विद्वानों का विचार है। __ मैं नहीं समझता कि एक इतिहास में रामादि परक कृतियों का विभाजन पूर्वक उल्लेख या विभाजन कितना विशेष महत्त्व रखता है, फिर भी यहां उस दृष्टि से आधुनिक काल के कुछ चम्पू काव्यों का उल्लेख किया जाता है। रामचरित विषयक चम्पू काव्य-आसुरी अनन्ताचार्य (१७६०-१८५०) द्वारा रचित चम्पूराघव, जिस पर वेंकटनरसिंहाचार्य की टीका है तथा जो विजयवाडा से मुद्रित है। मैसूर के नरसिंह अय्यंगार की कन्या तथा कस्तूरी रंगाचार्य की शिष्या सुन्दरवल्ली (१६ वीं शती) कृत छः सर्गों में निबद्ध तथा बंगलौर से मुद्रित रामायणचम्पू, मद्रास से मुद्रित चम्पूरामायण (सीताराम शास्त्री, काकपरती, आंध्र) तीस सर्गों में विभाजित तथा १८६६ में प्रकाशित रामायणसंग्रहचम्पू (वि. उ. व्यंकटेश्वर, मुम्बई से प्रकाशित) रघुनाथविजयचम्पू (कृष्णकवि) मुम्बई से ही प्रकाशित) रामचर्यामृतचम्पू (कृष्णयंगार्य) मद्रास से मुद्रित, रामचम्पू (बंदलामुडीरामस्वामी) रामभद्रविजयचम्पू (एलत्तूर सुन्दरराजआयंगार १८४१-१६०५)। कृष्णपरक चम्पूकाव्य - १८६६ में निर्मित तथा सुन्दराज कृत सुमनोरञ्जिनी टीका के साथ मुद्रित कंसवधचम्पू (केरलकालिदास केरलवर्म वलियकोइल तम्पुरान, १८४५-१६१४) पूतनामोक्षचम्पू (रविवर्मकोइल तम्पुरान् १८६२-१६००)। शिवपरक चम्पूकाव्य-गौरीविलास चम्पू (भट्ट श्रीनारायणशास्त्री १८६०-१६११) पुराणकथाश्रित चम्पूकाव्य-धीरानन्दतरङ्गिणीचम्पू (कृष्णचन्द्रतर्कालङ्कारकृत तथा १८६५ में कलकत्ता से बंगाक्षरों में प्रकाशित ।) इसी प्रकार आश्रयदाताओं के चरित को लेकर लिखे गये चम्पूकाव्य भी हैं, किन्तु हम यहां आधुनिक काल के कुछ चम्पू काव्यों की विशेष चर्चा करना चाहते हैं।
राघवाचार्य (१८-१९वीं शती)
ये अहोबिलमठ के एक आचार्य थे। इन्होंने अपने ग्रन्थ वैकुण्ठविजयचम्पू काव्य में विष्णु की श्रेष्ठता निरूपित की। विश्वगुणादर्शचम्पू की भाँति ५३६ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास इसमें भी जय और विजय के बीच संवाद कराया गया है। साथ ही भूलोक के वैकुण्ठ श्रीरङ्मानगर, उसमें स्थित देवता, गरुड, कावेरी आदि नदियों की स्तुति की है, महीशूर नगर के यादवाद्रिक्षेत्र सह्यादि तथा अयोध्या, गङ्गा, काशी द्वारका आदि के माहात्म्य का संकीर्तन किया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि रचनाकार जहां एक ओर अपने वैष्णव दर्शन-सिद्धान्त को प्रतिष्ठापित करने के उद्देश्य से शिव की अपेक्षा विष्णु की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करते हैं वहां दूसरी ओर नाना वर्णनों के आटोप से बाणभट्ट वाली शैली को पुनरुज्जीवित करते हुए अपना कवित्व भी प्रदर्शित करते हैं। यह डॉ. के. ई. गोविन्दन द्वारा सम्पादित होकर, गंगानाथ का केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, इलाहाबाद से १६८७ में प्रकाशित है।
धर्मदत्त (बच्चा) झा
(१८६०-१६१८) मिथिला (बिहार) के नवानी ग्राम में उत्पन्न बच्चा झा द्वारा विरचित सुलोचनामाधवचम्पू का प्रकाशन मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा से १६७७ में हुआ, जिसका सम्पादन डॉ. श्री बाबू मिश्च शर्मा ने किया। यह चम्पू काव्य पद्मपुराण के एक प्रेमाख्यान पर आधारित है तथा छत्तीस उच्छ्वासों में विभक्त है। इसका कथानक संक्षेप में इस प्रकार आरम्भ होता है-किसी समय विक्रम नाम के चक्रवर्ती हुए जिनकी सुशीला नाम की पट्टमहिषी से माधव नाम का पुत्र हुआ। उनकी नगरी “तालध्वजा” थी। पिता द्वारा राज्याभिषेक संस्कार से सम्पन्न माधव नीतिपूर्वक शासन करने लगा। एक दिन प्रातःकाल दण्डक छन्द में निबद्ध गीत सुन कर माधव जगा और सेनापति तथा सेना के साथ आखेट के लिए जंगल चला गया। मृगया-विहार के पश्चात् सेना को सेनापति के साथ राजधानी भेजकर स्वयं अकेला उस सरोवर की ओर चला, जहां उसने अपना रथ छोड़ येक्षा था। वहां रक्ताशोक वृक्ष के नीचे वह विश्राम करने लगा, तभी उसकी दृष्टि स्नान करती एक तरुणी चन्द्रकला पर पड़ी। उस पर वह मुग्ध हो गया, किन्तु उसने प्रसंगतः उससे अपनी प्रियसखी सुलोचना के बारे में बताया और कहा कि प्लक्षद्वीप में दीव्यन्तिका एक नगरी है, वहां के राजा गुणाकर और रानी सुशीला की कन्या सुलोचना है। स्वयं वह (चन्द्रकला) कैसे वहां आ गयी इस बारे में वह (माधव) जानने का हठ न करे। जब चन्द्रकला ने देखा कि माधव सुलोचना को दुर्लभ मान कर विषादग्रस्त हो गया तब उसने प्लक्षद्वीप पहुंचने का उपाय बताया। यह एक विस्तृत कथानक है और इसके अन्त में सुलोचना के अनुरोध पर महाराज सुसेन की कन्या जयन्ती का विवाह माधव के साथ होता है और दोनों, माधव तथा जयन्ती सुखपूर्वक रहने लगते हैं। यह स्वाभाविक है कि पुराणोक्त मूल कथानक में चम्पूकार ने अपने अनुसार परिवर्तन भी किया है। नाना गम्भीर शास्त्रों के अवगाहन में समर्थ, अनेक दुरूह टीका ग्रन्थों के अविश्रान्त लेखक सुप्रसिद्ध नैयायिक कविवर बच्चा झा जी के इस विशाल चम्पू ग्रन्थ का आकलन करते हुए महाकवि श्रीहर्ष द्वारा रचित नैषाधीय चरित का ध्यान बरबस आने लगता है और यह सुप्रसिद्ध पद्यार्ध भी स्मृति में स्फुरित होने लगता है ५३७ गध-साहित्य/चम्पूकाव्य “साहित्ये सुकुमारवस्तुनि दृढन्यायग्रहग्रन्थिले तर्के वा मयि संविधातरि समं लीलायते भारती।” इस महीयसी रचना में गद्य और पद्य, दोनों के निर्माण में कवितार्किकशिरोमणि बच्चा झा जी को समान रूप से सफलता प्राप्त हुई है, ऐसा लगता है। यहां उनका यह पद्य (अन्तःपुर के सौधवर्णन के प्रसंग में लिखित, द्वितीय उच्छावासपृ. ५०) उद्धृत है वामाभिस्तुण्डुलादेरवहतिषु समालोचनीयस्मरश्री मूलाञ्चबाहुमूलं कुचयुगलसमुज्जृम्भितापूर्वशोभम्। उत्सिप्ताः पातिताश्चाभरणरणितकारब्धपुष्पेषुकीत्यु द्गानं धैर्याणि यूनां दृढलघुमुसलाश्चूर्णयामासुरुच्चैः।। १३५।। (सुन्दरियों द्वारा तण्डुल आदि अन्नों के कूटने के अवसर पर उठाये तथा गिराये जाने वाले मजबूत और हल्के मुसलों ने तरुण जनों का धैर्य चूर्ण कर डाला, उस अवसर में उन सुन्दरियों का बाहुमूल स्मरलक्ष्मी के मूल होने के कारण दर्शनीय हो गया, उनके कुचयुगल की अपूर्वशोभा बढ़ गयी, उनके आभरणों की अवाज मानों कामदेव का यशोगान रूप प्रतीत हुई) यह सम्पूर्ण पद्य वर्ण्य वस्तु को आंखों के सामने प्रस्तुत कर देने में समर्थ है और कवि के अद्भुत वर्णन-पाटव का परिचायक है। यह रचना अद्भुत वर्णनों का भाण्डागार है।
बदरीनाथ झा
कविशेखर बदरीनाथ झा का जन्म मिथिला के मधुबनी जिले के सरिसब ग्राम में १२ जनवरी १८६३ में खौआलवंशीय सिमरवारशाखा के काश्यपगोत्रीय श्रोत्रिय मैथिल परिवार में हुआ। संस्कृत में अनेक विधाओं में काव्य निर्माण में प्रवृत्त कविशेखरजी ने “गुणेश्वरचरितचम्पू" काव्य की रचना की, जो राजकीय मुद्रणालय, दरभंगा से १६५२ में प्रकाशित हुआ। पद्य-रचनाओं के पश्चात् गद्य-रचना में इनकी प्रवृत्ति अपने एक सहाध्यापक मित्र की प्रेरणा से हुई। प्रस्तुत चम्पूकाव्य के नायक महाराज गुणेश्वर मिथिला के शासकों में से एक थे। यह काव्य चार उच्छ्वासों में विभक्त है। प्रथम उच्छ्वास मे मिथिला की नाम-निरुक्ति, सीमाओं, नदियों, तीर्थों, देवताओं, आश्रमों, महात्माओं श्रेष्ठ पण्डितों तथा श्रुति-स्मृति-इतिहास प्रसिद्ध कथानकों का वर्णन है। द्वितीय में महाराजाधिराज माधवसिंह की सन्तति का वर्णन है तो तृतीय और चतुर्थ उच्छ्वासों में महाराज गुणेश्वरसिंह के समस्त इतिवृत्त और सन्तानपरम्परा का साहित्य के स्तर पर वर्णन हुआ है। कवि ने काव्य के आरम्भ में सरस्वती, अभ्यास, व्युत्पत्ति और प्रतिमा से इसके निर्माण में सहयोग के लिए प्रार्थना की है, क्योंकि “कस्याप्यद्य महात्मनः सुचरितं वक्तुं प्रवर्तामहे"। मिथिला के वर्णन से ही कवि ने बाणभट् और नलचम्पूकार त्रिविक्रम भट्ट की परम्परागत शैली, अर्थात् श्लिष्ट उपमाओं तथा परिसंख्या अलंकारों से ग्रस्त शैली में प्रवृत्त ५३८ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास हो गया है, फलतः ‘कथारस" उपेक्षित ही नहीं, बाधित भी हुआ है, फिर भी कहीं-कहीं वह अपने मोहक पद-न्यासों की छटा से विशेष उजागर हुआ है। मिथिला के दधि-मिश्रित चिपिटान्न (चूड़ा-दही) का भी कविशेखरजी इन शब्दों में उल्लेख करते हैं मृदु सुरभि स्वादीयश्चिपिटान्नं स्विन्नशालीनाम्। हरति स्वान्तं यस्यां दध्ना बध्नाति चेत् सख्यम् ।। १/६४ द्वितीय उच्छ्वास में कवि ने शाब्दिक शिरोमणि जीवनाथ शर्मा के मुख से चिन्ता को लेकर उसके त्याग का जो उपदेश कराया है उसे एक संक्षिप्त “शुकनाशोपदेश” कहा जा सकता है। कविशेखरजी की प्रौढकवित्वपूर्ण गद्य-निर्माण की क्षमता के प्रमाण-स्वरूप इस रचना में अनेक प्रसङ्ग हैं, जिनको उद्धृत करने का मोह स्थानाभाव के कारण बरबस संवरण करना पड़ रहा है। युवा राजकुमार की मनःस्थिति का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं “अथाभ्युदियाय ध्वलदलविधुकलेव तस्य लोकलज्जा, उन्मिमेष धर्षितामर्षिपुरुषेयेव तस्य परोपचिकीर्षा, उज्जगाम करीरप्रवेक इव तस्य विवेकः, उल्ललास सूद्यमविभव इव सामाजिकमर्यादारक्षणक्षपातः, उन्ननाम बालतालवनमिष तस्य मानसम्, उन्मिमील सायन्तनप्रदीपशिखेव तस्य साधुसुधीसुहृत्सम्मेलनप्रियता, दृढीबभूव दृषत्सेतुरिव तस्य धर्मनिष्ठा, अपससार प्रातस्तिमिरमिव तस्य बालचायल्यम्, प्रससार राकामुखाचन्द्रातप इव तस्य कीर्तिकलापः, प्रादुर्बभूव पौरस्त्यपुण्डरीकबन्धुमण्डलमिव तस्य प्रागल्भ्यम्, प्ररुरोह शिशिरापगमसरसीरुहमिव तस्य क्रियाकौशलम्,…।” (धवल चन्द्रकलाकी भांति उसकी लोकलज्जा उदित हुई, क्रोधी व्यक्ति की ईर्ष्या को धर्षित करने वाली उसकी परोपकार करने की इच्छा उन्मिषित हुई, श्रेष्ठ करीर की भाँति उसका विवेक उद्भूत हुआ, उद्यमी के विभव की भाँति सामाजिक मर्यादाओं की रक्षा का उसका पक्षपात उल्लसित हुआ, नये ताल वन की भाँति उसका मन बढ़ा, उसकी साधु, सुधी तथा सुहुजनों के सम्मेलन के प्रति प्रीति सांयकाल के प्रदीप की शिखर की भाँति उन्मीलित हुई, उसकी धर्मनिष्ठा पत्थर के सेतु की भाँति दृढ हो गयी, उसके बचपन की चपलता प्रातः काल के अन्धकार की भाँति छंट गयी, उसका कीर्तिकलाप सायंकाल के चन्द्रातप की भांति फैल गया, उसका प्रागल्भ्य सूर्यमण्डल की भांति प्रादुर्भूत हुआ, उसका क्रियाकौशल शिशिर काल के समाप्त होने पर कमल की भाँति बढ़ गया है…)
हरिनन्दनभट्ट
गया (बिहार) राजकीय विद्यालय के संस्कृत अध्यापक हरिनन्दन भट्ट द्वारा विरचित ‘सम्राट्चरितम’ चम्पू काव्य १६३३ में प्रकाशित हुआ, पञ्चम जार्ज के प्रति ‘राजभक्ति से प्रेरित कवि की यह रचना तब प्रकाश में आयी जब सम्पूर्ण भारत-वर्ष स्वतन्त्रता के लिए जूझ रहा था। अपने वर्तमान ‘सम्राट’ के प्रजानुरञ्जन के सभी कार्यों का वर्णन करना उसका लक्ष्य है, जिसे पढ़कर उसके छात्र-गण बाल्यकाल से दृढ़ राजभक्त बनें। काव्य के चरित नायक अपने युवराजत्व काल में भारत आकर उसके समुद्र, समुद्रतट, गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य काशी आदि का वर्णन किया। इस ग्रन्थ में कवि ने इन सबका वर्णन किया है, इसके अतिरिक्त लंदन नगरी, सम्राट की पितामही विक्टोरिया की राज्यशासनप्रणाली, पिता सप्तम एडवर्ड के राज्य काल का वर्णन है। कवि के कवित्व का बहुत अंश वस्तुवर्णन-परक हो गया है अतः उतना प्रभावोत्पादक नहीं बन पड़ा है। भाषा अवश्य सरल और कुछ मधुर भी है। सम्पूर्ण काव्य दस स्तबकों में विभक्त है। इसमें लक्ष्मी, सरस्वती, धर्म और नास्तिक की प्रश्नोत्तर रूप में आपस में बातचीत (चतुरालाप) जिसे कवि ने लगभग १११० पद्यों में प्रस्तुत किया है, कुछ ठीक बन पड़ा है, कवि ने गद्यांश बहुत अल्पमात्रा में नियोजित किया है।
रघुनन्दन त्रिपाठी
गया (बिहार) के कल्याणपुर ग्राम के निवासी व्याकरण-साहित्याचार्य रघुनन्दन त्रिपाठी ने श्रीहरिहरचरितम् नामक चम्पूकाव्य का निर्माण कर अपने गुरु म.म. हरिहरकृपालु द्विवेदी (१८७०-१६४१) को चरित-नायक के रूप में प्रतिष्ठित किया है। काव्य का प्रकाशन सेट श्रीरामनिरज्जन दास मुरारका संस्कृत कालेज, पटना सिटी द्वारा वि. सं. १९६८ (१६४१-४२ ई.) में किया गया। अपने उस समय के एक प्रख्यात पण्डित तथा अपने गुरु के चरित गान में समर्पित यह काव्य इतिवृत्तात्मक है। रुद्रदेव त्रिपाठी द्वारा रचित ‘इन्दिराकीर्तिकौमुदी" (चम्पू) श्रीलाल बहादुरशास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ नयी दिल्ली १९८६ में प्रकाशित हुई, जो स्व. प्रधान मन्त्री श्रीमती इन्दिरागान्धी के चरित पर आधारित है। वैसे स्वातन्त्र्योत्तर काल में चम्पू विधा में संस्कृत काव्य रचना में बहुत शिथिलता आ गयी, ऐसा प्रतीत होता है। 4 . षष्ठ अध्याय