उद्विकास
जिस कथा-विधा को आज हम लघुकथा, कहानी, शॉर्ट स्टोरी या गल्प (बांगला) आदि नामों से जानते हैं उसमें भी संस्कृत लेखक कम से कम दो सदियों से तो उसी शैली और रुझान में लिख रहा है जिसमें अन्य भारतीय भाषाओं के कहानी लेखक लिखते रहे हैं। यह माना जाता है कि लघुकथा का यह प्रकार पाश्चात्त्य साहित्य से भारतीय साहित्यकार के साक्षात्कार की एक परिणति है। डॉ. राघवन् की यह अभ्युक्ति बहुधा उद्धृत की जाती है कि लघुकथा संस्कृत में पनप रही नवीन विधाओं में सर्वाधिक उल्लेखनीय है, यद्यपि कथा संस्कृत के लिए कोई नई चीज नहीं है। किन्तु जिस नये रूप में आज वह लिखी जा रही है वह विधा पश्चिम की ऋणी है। भारतीय साहित्य में चाहे वह किसी भी भाषा की हो, आधुनिक युग में लघुकथा के इस रूप का उद्विकास पाश्चात्त्य साहित्य के, विशेषकर अंग्रेजी साहित्य के प्रभाव की देन माना भी जाता रहा है। किन्तु यह सर्वाश सत्य नहीं है। केवल अंग्रेजी साहित्य को संस्कृत लघुकथाओं का प्रेरक मानना उचित नहीं होगा। संस्कृत के लघुकथाकार पर इस प्रकार का पाश्चात्त्य प्रभाव सीधे अंग्रेजी कथाओं के प्रभाव के रूप में कम और अंग्रेजी कथाओं से प्रभावित अन्य भारतीय भाषाओं के कथा साहित्य के रूप में अधिक सही तरह से आकलित किया जा सकता है। दूसरे यह प्रभाव केवल अंग्रेजी साहित्य का नहीं था, बल्कि अंग्रेजी में अनूदित अन्य, विदेशी भाषाओं (जैसे अरबी) के कथासाहित्य का भी था। संस्कृत के कथानक साहित्य पर अंग्रेजी के साहित्य का सीधा प्रभाव कुछ विशेष साहित्यकारों के संदर्भ में भले ही देखा जा सके जो दक्षिण में या बंगाल में लिख रहे हों और अंग्रेजी उपन्यास या कहानी पढ़कर उसका प्रभाव ग्रहण करते हुए संस्कृत में लिखने लगे हों, किन्तु सामान्यतः यह कहना अधिक सही होगा कि अंग्रेजी कथानक साहित्य का जो प्रभाव संस्कृत लेखक की उस मातृभाषा के साहित्य पर पड़ा जो उस लेखक की अपनी भाषा रही है (जैसे बंगला, कन्नड़, मराठी) और जिस भारतीय भाषा की कहानी या उपन्यास उसने अपने बाल्यकाल में या कैशौर्य में पढ़े इस प्रकार का प्रभाव उसकी कारयित्री प्रतिभा पर अवश्य पड़ा होगा। अरबी साहित्य की प्रसिद्ध कहानियों (अलिफलैला) का प्रभाव भी भारतीय भाषाओं पर रहा और वह अंग्रेजी अनुवादों के माध्यम से आया। अतः वह भी सीधा प्रभाव नहीं कहा जा सकता। “अरेबियन नाइट्स” में से कुछ कहानियों की अंग्रेजी से या मराठी से संस्कृत में अनुबाद अप्पाशास्त्री ने अवश्य किया था, किन्तु उसे अंग्रेजी कथासाहित्य का प्रभाव कैसे कहा जा सकता है। यह अवश्य कहा जा सकता है कि संस्कृत पर कथासाहित्य के क्षेत्र में पाश्चात्त्य प्रभाव अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से आया और अन्य भाषाओं के साहित्य का प्रभाव अंग्रेजी के माध्यम से। यह आकलन इसलिए भी अधिक सटीक सिद्ध होगा कि किसी भी संस्कृत लेखक की मातृभाषा अंग्रेजी रही हो ऐसी जानकारी नहीं है। ४६६ गय-साहित्य/चम्पूकाव्य सर्जनात्मक प्रभाव सामान्यतः बाल्य या कैशोर्य में पड़ता है और उस अवस्था में पढ़ा हुआ मातभाषा का साहित्य ही लेखक की सर्जनात्मक प्रतिभा को आकार देता है। बाद में चाहे वह द्वितीय भाषा के रूप में अंग्रेजी पढ़ ले या जर्मन फ्रेंच और उनकी किसी रचना का सीधे अनुवाद करने में भी प्रवृत्त हो जाए पर इसका निष्कर्ष यह निकालना कि उस अंग्रेजी या योरपीय विधा का सीधा प्रभाव संस्कृत पर पड़ा है, समुचित नहीं होगा। कुछ दक्षिण के संस्कृतज्ञों ने अंग्रेजी कहानियों, उपन्यासों या शेक्सपीयर के नाटकों का अनुवाद कर दिया हो या अरबी कहानियों के अंग्रेजी अनुवाद से संस्कृत में अनुवाद कर दिया गया हो, उससे यह निष्कर्ष निकालना कि संस्कृत कहानी, उपन्यास या नाटक साहित्य पर अंग्रेजी साहित्य का सीधा प्रभाव पड़ा है, सही नहीं होगा। ऐसा प्रभाव सभी भारतीय भाषाओं में देखा जा सकता है जो तत्कालीन समग्र परिवेश की देन है और अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही संस्कृत में प्रतिफलित हुआ है, सीधे नहीं, ऐसा हमारा मन्तव्य है। अंग्रेजी के माध्यम से विश्व के समग्र कथासाहित्य का प्रभाव भारतीय भाषाओं पर आया, यही आकलन सही होगा।
भारतीय परम्परा
वैसे कथा विधा की परम्परा संस्कृत में शताब्दियों ही नहीं सहस्राब्दियों पुरानी है। वेद और पुराण के उपाख्यान भी कथाएं हैं और संक्षिप्त हैं। पंचतंत्र की कथाएं तो अतिप्राचीन होते हुए भी इतनी सुगठित हैं कि उन्हें विश्व के कथासाहित्य की जननी मानने में तनिक भी संकोच नहीं करना चाहिए। वैसे भी उनमें कथा के सारे तत्त्व विद्यमान हैं। उनके प्रभाव से ही अरबी और अन्य भाषाओं में कथा-लेखन हुआ, विशेषकर फेबल्स (पशु-पक्षियों की कथाओं) का। उसका प्रभाव पश्चिम पर पड़ा यह तो आज विश्व के सारे इतिहासकार मानते ही हैं। ठीक उसी परम्परा में अनेक शिक्षाप्रद कथाएं निरन्तर संस्कृत में लिखी जाती रहीं। जिनमें हितोपदेश, भोजप्रबन्ध आदि आते हैं। घटनाप्रधान कथाएं भी वेतालपंचविंशति आदि सुप्रसिद्ध हैं। ऐसे अनेक कथाग्रन्थ प्रत्येक युग में लिखे जाते रहे होंगे यह अनुमान इन्हें देखकर आसानी से किया जा सकता है। दशकुमारचरित में एक श्रृंखला में गूंथी गई कथाएँ प्रत्येक अपने आप में एक पूर्ण लघुकथा के रूप में देखी जा सकती हैं और उन पर कोई परदेशीय प्रभाव किसी ने आज तक नहीं बताया है। इन सब तथ्यों को देखते हुए आज की लघुकथा को भी पाश्चात्त्य प्रभाव मान लेने से पूर्व गंभीरता से सोचना होगा। संस्कृत में अरेबियन नाइट्स के तर्ज पर लिखी लघुकथाएं भी सदियों से मिलती हैं और तोता-मैना के किस्सों की तर्ज पर लिखी लघु कथाएं भी। ऐसी अटकलें भी लगाई जाती रहीं हैं कि तोता-मैना के किस्से ‘शुकसप्तति" जैसी संस्कृत कथाओं की देन हैं या संस्कृत में ऐसी कथाएं अन्य भाषाओं की कथाओं को देखकर लिखी जाने लगी थीं। जो भी हो, कम से कम डेढ़ हजार वर्षों से तो इस प्रकार की लघुकथाएं संस्कृत में लिखी ही जाती रही हैं जिनका नमूना एक ओर तो गुणाढ्य की सदियों पुरानी बढकहा (जो शायद मूलतः “वृद्धकथा" रही हो और बाद में “बृहत्कथा” कही जाने लगी आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास हो) के प्रभाव से प्रसूत गद्य पद्य आदि में लिखित कहानियों में देखा जा सकता है जिसमें क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामंजरी, सोमदेव का कथासरित्सागर आदि तथा सिंहासनद्वात्रिंशिका, वेतालपंचविशति आदि कथाएं आती हैं। दूसरी ओर पंचतंत्र के प्रभाव से प्रसूत उपदेशकथाओं या नीतिकथाओं में देखा जा सकता है जिनमें पशुपक्षियों की कथाएं भी आती हैं (हितोपदेश जैसी) और सामाजिक कथाएं भी (जैसी दशकुमारचरित मे संकलित कथाओं में मिलती हैं) जिनमें सदाचार आदि की समीक्षा निहित होती है। नव इन कथाओं में “शॉर्टस्टोरी” या कहानी के प्रायः सभी तत्त्व विद्यमान हैं, घटनाक्रम, पात्र, चरित्रचित्रण, परिवेश और एक सन्देश। इससे यह स्पष्ट होता है कि संस्कृत में कहानी सदियों से लिखी जाती रही थी, पाश्चात्त्य प्रभाव से उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्थ और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में उसकी शैली में कुछ परिवर्तन अवश्य आ गया। ऐसे परिवर्तन प्रत्येक युग में युगानुरूप परिवेश और शैली को आत्मसात् करने की दृष्टि से होते रहते हैं। उपर्युक्त पृष्ठभूमि में यह समझ लेना आसान होगा कि पंत्रतंत्र और गुणाढ्य के समय से संस्कत कथा-साहित्य का जो इतिहास प्रारम्भ होता है उसी के विभिन्न पडाव इन विभिन्न युगों और बदलती शैलियों में आकलनीय हैं। दशकुमारचरित की कथाओं में सामाजिक सरोकार और परिवेश भी उसमें जुड़े देखे जा सकते हैं। १२वीं सदी से तो विक्रम-वेताल के संवादों की शैली में लोककथाओं के उत्स से उगत कहानियों की श्रृंखलाएं निरन्तर मिलती हैं। इनमें सहज और अनलंकृत गद्य हैं, कहीं-कहीं पद्य भी बीच में मिलते है। “वेतालपंचविंशतिका” नाम से शिवदास (१२वीं से १५वीं सदी), जंभलदत्त, दामोदर झा आदि की लिखी हुई कथाश्रृंखलाएं गत ८-१० सदियों से निरन्तर पाई जाती हैं। विक्रमादित्य और भोज राज के संदर्भ में ‘सिंहासनद्वात्रिंशिकाएं" भी लिखी जाती रही हैं। ये सब लोक साहित्य की पृष्ठभूमि पर अवस्थित हैं। किस प्रकार विक्रमादित्य के सिंहासन पर राजा भोज बैठना चाहता है पर वह तब तक नहीं बैठ सकता जब तक सिंहासन में जड़ी हुई ३२. पुतलियों के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे देता। प्रत्येक प्रश्न में एक लोककथा अनुस्यूत है। इनमें जो ३२ कथाएं हैं उनमें से कुछ पद्यबद्ध भी हो सकती हैं, कुछ गद्यबद्ध, किन्तु प्रत्येक में घटना का उतार चढ़ाव है, एक गुत्थी है। यह हो सकता है कि लोकभाषाओं में जो सिंहासनबत्तीसियाँ प्रचलित हैं उन्हीं से प्रभावित होकर संस्कृत कथाकारों ने इन्हें लिखा हो। यह भी हो सकता है कि ये संस्कृत कथाएं स्रोत हों और उनसे “वेताल पच्चीसी” “सिंहासनबत्तीसी”, “सुआबहत्तरी’ आदि निकली हों। यह भी हो सकता है कि गुणाढ्य की मूल लोककथाएँ इन दोनों का उत्स हों। यह अन्तिम मन्तव्य अधिक विश्वसनीय है क्योंकि गुणाढ्य से प्रभावित कथासंग्रहों (जैसे “कथा-सरित्सागर) में विक्रम-वेताल की कथाएं भी मिलती हैं और तोता-मैना की कथाओं के मूल स्रोत भी। सिंहासनद्वात्रिशिकाएं भी विभिन्न लेखकों की कृतियों के रूप में प्रचलित हैं। इनके लेखकों में कालिदास, नन्दीश्वरयोगी, सिद्धसेन दिवाकर, वररुचि आदि अनेक नाम लिये जाते हैं। इनका समय १६वीं सदी से प्रारम्भ होता है। इनके अनेक संस्करण, रूपान्तर ४७, गथ-साहित्य/चम्पूकाव्य उत्तर भारत और दक्षिण भारत में मिलते हैं। उत्तरी भारत के संस्करण के ४ अध्यायों में ३ पद्यबद्ध हैं, एक गद्य में। इसी प्रकार स्त्री-पुरुष के संबंधों और वफादारी, बेवफाई आदि की कथावस्तु को लेकर ‘शुकसप्तति” की कथाएँ मिलती हैं। इन सबका प्रेरणास्रोत संस्कृत का प्राचीन साहित्य ही रहा हो, यह आवश्यक नहीं। अन्य देशों में प्रचलित कथानकों से तथा भारत में प्रचलित लोक-कथाओं से प्रभावित होकर संस्कृत कथाकार ने उन्हें संस्कृत में अपनी शैली में ढाला हो यह भी हो सकता है। तभी तो १५वीं सदी के पं. श्रीधरने यूसुफ जुलेखा की कथा पर आधारित “कथाकौतुकम्” लिखा, ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं (भारतीयवाङ्मय कोशः, श्रीधर भास्कर वर्णेकर)। नारायण बालकृष्ण गोडगोले ने मराठी में लिखी ईसप की कथाओं (फेबल्स) का संस्कृतनुवाद ‘ईसबनीतिकथा” नाम से किया ही था। आधुनिक काल से पूर्व भी विद्यापति की “पुरुषपरीक्षा” में, हेमविजयगणी के “कथारत्नाकर” में तथा अन्य कथा ग्रन्थों में संस्कृत कथाएँ मिलती हैं जो विभिन्न प्रदेशों और युगों में फैली हुई हैं। विक्रमादित्य की पृष्ठ-भूमि में ‘कालकाचार्यकथा’ की भी लंबी परम्परा रही है। महेन्द्र, देवेन्द्र, प्रभाचन्द्र, शुभशील, विनयचन्द्र आदि अनेक नामों से जैन साहित्य में कालकाचार्य कथानक लिखे मिलते हैं। सिद्धर्षि गणी की “उपमितिभवप्रपंच कथा’ रूपकात्मक कथासाहित्य के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में सुविदित है ही। बल्लाल सेन ने भोजप्रबन्ध” में भोजराज के संदर्भ में अनेक प्रसिद्ध कवियों के कथानक मनोरंजक और सुरुचिर शैली में निबद्ध किये गये थे। ये मौलिक संस्कृत कथासाहित्य का एक निदर्शन कहे जा सकते हैं, जबकि ऊपर उल्लिखित कथाग्रन्थों की श्रृंखला विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित लोककथाओं के प्रभाव से प्रसूत हैं। इस पृष्ठभूमि से यह निष्कर्ष सहज ही निकलता है कि प्रत्येक युग में संस्कृत कथाकार कहानियाँ लिखता रहा है और उसके प्रेरणास्रोत विविध रहे हैं। उसने कहीं से भी प्रभावग्रहण किया हो,अपनी भाषा और शैली में कहानियाँ लिखी हैं। उस समय अकेली एक कहानी के प्रसार का कोई माध्यम या परिणाम उपलब्ध न होने के कारण वह कभी तो इन्हें किसी हलके से सूत्र में पिरोकर पूरी कथामाला बनाता रहा जिसकी परम्परा गुणाढ्य से लेकर शुकसप्तति या भोजप्रबन्ध से होती हुई आधुनिक काल तक आती है, और कभी किसी एक नायक जैसे विक्रमादित्य को केन्द्र में रखकर उसके चारों ओर कहानियों का जाल बिछाते हुए उन बिखरी कहानियों को भी एक ग्रन्थ का रूप देता रहा जिससे उसकी एक पूरी पांडुलिपि बन जाए और उसे लेखकीय यश प्राप्त हो सके। इस प्रकार आधुनिक काल से पूर्व सुगुम्फित कथामालाएं ही मिलती हैं, छोटी कहानियों के अलग-अलग लिखने और छपने की प्रक्रिया आधुनिक काल में ही प्रारम्भ हुई दिखत्लाई देती है।
पत्रकारिता का योगदान
इसका एक प्रमुख कारण संस्कृत पत्रकारिता के प्रारम्भ के फलस्वरूप संस्कृत पत्रिकाओं में एक छोटी कहानी के प्रकाशित होने की सुविधा उपलब्ध होना रहा है, अतः संस्कृत लघुकथा की सुदृढ और सुदीर्घ परम्परा के आधुनिक काल में ४७२ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास प्रारम्भ होने का श्रेय भी संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं को देना अनुचित नहीं होगा। इसी सुविधा के कारण अप्पाशास्त्रीयुग में “संस्कृतचन्द्रिका” जैसी पत्रिकाओं से लेकर भट्ट मथुरानाथयुग की “संस्कृतरत्नाकर” और “भारती” जैसी पत्रिकाओं तक विभिन्न परिवेश और उद्देश्य को लेकर लिखी गई सैकड़ों कहानियाँ प्रकाशित हुईं, बाद में उनके संकलन पुस्तकाकार में भी निकलते रहे। इसी कारण संस्कृत लघुकथा के उद्विकास का आकलन संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं की तलाश के बिना नहीं किया जा सकता। इतिहासकार को सुविधा इस प्रक्रिया में अवश्य होती है कि वह उपलब्ध कथासंग्रह को देखकर उनका मूल्यांकन आसानी से कर लेता है, क्योंकि वे पुस्तकालयों में सुविधापूर्वक प्राप्त हो जाते हैं। संस्कृत साहित्य के इतिहास के अध्येता के लिए भी इन संग्रहों का संदर्भ लेकर उन्हें समझना सरल होता है अतः हम भी यहाँ अधिकाँश निर्देश उन्हीं के आधार से करके आधुनिक कथा की एक रूपरेखा प्रस्तुत करेंगे। संस्कृतचन्द्रिका से लेकर संस्कृतरत्नाकर आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित और आजकल भी संस्कृतप्रतिभा, स्वरमंगला, दूर्वा, भारती आदि पत्रिकाओं में (जिनमें विभिन्न संस्कृत अकादेमियों की मुखपत्रिकाएं शामिल हैं) प्रकाश्यमान विभिन्न स्वरूपों की इन कहानियों को अनेक वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। प्रमुखतः दो वर्ग किये जा सकते हैं मौलिक और अनूदित। मौलिक को भी दो वर्गों में बाँटा जा सकता है- स्वोपज्ञ और प्रेरित। उन्नीसवीं सदी के अन्तिम चरण में विभिन्न भाषाओं की कहानियों के अनुवाद बहुत प्रकाशित हुए जो संस्कृत पाठक को अरबी, अंग्रेजी आदि भाषाओं की हृदयावर्जक कहानियों से परिचित कराने के उद्देश्य से उन भाषाओं से अनूदित की गई थीं। अरबी भाषा की कहानियों से हमारा तात्पर्य है अलिफलैला की उन कहानियों से जो अरबी साहित्य की निधि हैं और जिनमें अल्लादीन का चिराग से लेकर सिन्दबाद जहाजी की कथाएं भी गिनाई जा सकती हैं। निःसन्देह इनका अनुवाद सीधे अरबी से किया गया हो ऐसी स्थिति नहीं है। प्रमुखतः ऐसी कहानियाँ अंग्रेज़ी से अनूदित थीं या अंग्रेज़ी से मराठी, बांगला आदि भाषाओं में किये अनुवादों से। अप्पाशास्त्री राशिबडेकर ने संस्कृतचन्द्रिका के चौथे वर्ष से उस का संपादन सम्हाला तो उत्कृष्ट, मनोमोहक कहानियों को उसमें प्रस्तुत करने का उनका मानस बना। उन्होंने स्वयं विभिन्न स्रोतों से जो कहानियाँ पढ़ी होंगी उन्हें तो नये सिरे से अपनी शैली में लिखकर संस्कृतचन्द्रिका में प्रकाशित किया ही, सहस्ररजनीचरित्र जैसी कहानियों का प्रकाशन भी करना चाहा। इस उद्देश्य से उन्होंने समय-समय पर भाँति-भाँति की जो योजनाएं बनाई उनसे यह स्पष्ट हो जाएगा कि इस प्रकार की मनोमोहक कहानियों को संस्कृत में लाने की उनकी ललक कितनी तीव्र थी। १८६८ ई. में चन्द्रिका के छठे वर्ष के प्रथम अंक में इन्होंने विज्ञप्ति निकाली कि यदि ३०० हक सहमत हों तो प्रतिमास आठ पृष्ठ और बढ़ाकर इस पत्रिका का कलेवर बड़ा कर दिया जाय जिससे अरेबियन नाइट्स की कहानियों का क्रमिक प्रकाशन इसमें हो सके। उन ३०० ग्राहकों को ही यह बड़ा वाला अंक दिया जाएगा जिसमें अलिफलैला का धारावाहिक अनुवाद छपेगा, बाकी ग्राहकों को गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य ४७३ नहीं। इस बड़े कलेवर वाले अंक के लिए उन ग्राहकों को प्रतिवर्ष ग्यारह आने और देने होंगे आदि। लगता है यह योजना सफल नहीं हो पाई। २४ पृष्ठों की संस्कृतचन्द्रिका प्रतिमास निकलती रही पर उसमें अतिरिक्त पृष्ठ जोड़कर अलिफलेला का धारावाहिक प्रकाशन नहीं हो पाया। तब उन्होंने एक योजना बनाई “कथाकल्पद्रुम’ नाम से एक अलगपत्रिका निकालने की जिसमें अरेबियन नाइट्स का अनुवाद क्रमिक रूप से निकले। इस हेतु १८२० शकाब्द की संस्कृतचन्द्रिका के एक अंक में उन्होंने यह विज्ञप्ति निकाली IL “We have intended to publish a monthly named Katha Kalp druma if 300 subscribers are available it will contain free translation of Ara bian Nights in Sanskrit with necessary changes suitable to Hindus. As to the beauty of language in the sanskrit chandrika in itself the proof of it. It is greatly hoped that all the patrons of Sanskrit will pay regard to this and help us in this noble work” यह योजना भी नहीं चल पाई। “कथाकल्पद्रुम” मासिक निकालने का उनका स्वप्न, साकार नहीं हो पाया। केवल अल्लादीन के चिराग की कुछ कहानियां अरेबियन नाइट्स से किया अनुवाद ही संस्कृतचन्द्रिका में प्रकाशित हो पाया या इससे यह अवश्य प्रमाणित होता है कि कथाविधा उस समय देश में कितनी लोकप्रिय हो गई थी और अरेबियन नाइट्स की कहानियाँ अंग्रेजी ही नहीं, भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर भारतीय पाठक का हृदय जीत चुकी थीं। उनसे न तो संस्कृत लेखक अछूता रहा, न संस्कृत पाठक । यह माना जाता है कि “अल्लादीन का चिराग” का “अल्लाउद्दीनस्य विस्मापको दीपः” नाम से संस्कृतानुवाद अप्पाशास्त्री ने अरेबियन नाइट्स के अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर मराठी में अनूदित कथा के अनुवाद के रूप में किया था। इस विवरण से स्पष्ट होगा कि उन्नीसवी सदी के अन्त में संस्कृत लघुकथा क्षेत्र में जो नवजागरण आया उसमें मूल प्रेरणास्रोत तथा आधारभूमि संस्कृत में सदियों से चल रही कथा परम्परा ही थी, किन्तु विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध कहानियों के संपर्क से उसके लेखन का एक ऐसा अभियान नये सिरे से चला जिसमें भारतीयेतर उत्स की कथाओं ने उद्दीपन की भूमिका निभाई- इन्हें सर्वप्रमुख मंच तो मिला संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं में जिनका उद्गम “विद्योदय” (१८७३) से माना जाता है। वैसे विद्योदय में अधिकांशतः निबन्ध निकलते थे, कहानियों की शुरुआत “संस्कृतचन्द्रिका” तथा दक्षिण भारत की “सहृदया” बंगला की “परिषत् पत्रिका’ आदि पत्रिकाओं में हुई। यह परम्परा काशी के सूर्योदय, अमरभारती, सारस्वती सुषमा आदि तक चलती रही। “संस्कृतचन्द्रिका” के संपादक अपाशास्त्री राशिवडेकर की रुचि कहानियों में कितनी थी यह तो पिछले विवरण से स्पष्ट हो जाता है, किन्तु उन्होंने स्वयं जो कहानियां लिखीं89 * आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास उनकी संख्या अधिक नहीं है। उन्होंने कुछ कहानियां तो भारतीय परिवेश की लिखीं और कुछ अलिफलैला की कथाओं के अनुवाद किये। उनकी लिखी कथा “राजकुमारः कमलानन्दः” प्रसिद्ध है जिसमें एक राजकुमार के पैदा होते ही षड्यंत्रकारियों के कुचक्र चल जाते हैं, उसकी धाय (धात्री) उसे बचाती है, एक नदी में एक टोकरी में सुरक्षित कर उसे छोड़ देती है, वह पुलिन्दों के सरदार द्वारा पाला जाता है, पराक्रमी हो जाता है, अन्त में एक त्रिकालदर्शी महात्मा उसे बतलाते हैं कि वह तो राजकुमार है, वह अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लेता है। यह कहानी बाद में संस्कृतपाठ्यपुस्तकों में भी पढ़ाई जाती रही। उनकी अन्य कहानियों में मणिकुंडलोपाख्यान, दधीच्युपाख्यान, पौराणिकी काचित्कथा पौराणिक कथानकों पर आधारित हैं, दशापरिणतिः, चित्रकारचातुर्यम्, कुटिलमतिर्नाम गोमायुः, बकचापलम्, भगवद्भक्तः, किमर्थ सद्गुरुः शिक्षाप्रद कथाएँ हैं। प्राधान्यवादः, “थिङ्मुग्धे विप्रलब्धाऽसि” “श्रीमती विद्यासुन्दरी देवी” आदि सामाजिक कथाएँ हैं तथा वेषमाहात्म्यम्, पुरोहितधौर्त्यम्, व्यसनविमोक्षः आदि मनोरंजक कहानियाँ हैं। सच पूछा जाय तो इनमें से अधिकांश तो एक पृष्ठ या आधे पृष्ठ के लघुकथानक हैं, जिनमें एक मनोरंजक या शिक्षाप्रद घटना ‘स्किट” या बोधकथा शैली में निबद्ध है, किन्तु इनका ऐतिहासिक महत्त्व इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि ये संस्कृत लघुकथा के जन्मकाल की रचनाएं हैं तथा इनकी शैली इतनी सहज और सरल है कि नूतन शैली की पत्रकारिता-सलम (पत्रकारोचित) भाषा का प्रतिमान स्थापित करती हैं। कोई राजा काना था, किन्तु अपना वास्तविक चित्र बनवाने का शौकीन था। सभी चित्रकार विफल रहे, पर एक चित्रकार ने उसे बन्दूक चलाते हुए एक आँख बन्द किये चित्रित कर दिया, जिससे राजा भी नाराज़ न हो और चित्र में भी यथार्थता रहे- यह छोटी सी घटना पंत्रतंत्र शैली की संस्कृत में “कस्यचित् चित्रकारस्य चार्तुयम्” में निबद्ध है। कुटिलमतिर्नाम गोमायुः" तो पंचतंत्र शैली की ही कहानी है। “पुरोहितधौर्त्यम्” में किसी धनवान् किन्तु मूर्ख यजमान को ठगने चले अधकचरे पुरोहित की यह घटना निबद्ध है कि जब कोई विद्वान् वैदिक उसके पौरोहित्य की आलोचना करने पहुंचा तो सब के बीच में असलियत बताने से कतराते हुए एक अनुष्टुप को ही आहुतिमंत्र के रूप में बोलते हुए उसने इशारा किया कि इस अनुष्ठान की दक्षिणा “महिषी शतम्। तवाधं च ममा च मा कोलाहलमाचर। अतस्तूष्णीं भव”। इस पर वह विद्वान पुरोहित मामला समझ गया और दोनों ने पचास-पचास भैसें बाँट लीं। “प्राधान्यवाद:” आदि कथाएं आधे पृष्ठ की हैं। १८६८ से १६०१ के बीच निकली ये छोटी-छोटी कहानियाँ मनोरंजक, सरल और प्रवाहमय संस्कृत का नमूना प्रस्तुत करती हैं। इनसे प्रेरणा लेकर विभिन्न कथाकारों ने व्यापक फलक पर विविध कथा-वस्तुओं और शैलियों का प्रयोग करते हुए एक नये युग का सूत्रपात किया यह महत्त्व इनके साथ अनुस्यूत है। इसी शैली की कथाएँ “संस्कृतचन्द्रिका” ४७५ गध-साहित्य/चम्पूकाव्य संपादक जयचन्द्र सिद्धान्तभूषण की भी इस पत्रिका में छपी हैं। इस प्रकार का कथालेखन पूरे भारत में हो रहा था। पं. अंबिकादत्त व्यास छोटी आयु में ही पूर्ण संमान और यश प्राप्त कर चुके थे और भारतरत्न की उपाधि से अलंकृत हो चुके थे। संस्कृतचन्द्रिका में उनका उपन्यास शिवराजविजयः जिस प्रकार प्रभूत संमानोल्लेखपूर्वक धाराबाहिक रूप से निकल रहा था (भारतरत्न श्रीमदम्बिकादत्तव्यासस्य आदि उपाधियों सहित) उसी प्रकार उनकी लिखी कहानियाँ भी विभिन्न प्रकारों से प्रसारित हो रही थीं। यह माना जाता है कि उनकी आठ कथाओं का संकलन “रलाष्टकम्” संभवतः संस्कृत लघुकथाओं का सर्वप्रथम प्रकाशित संग्रह हो। “कथाकुसुमम्” नाम से भी उनके एक कथासंग्रह का उल्लेख डा. हीरालाल शुक्ल ने किया है, किन्तु अन्य शोधप्रबन्धों में इसके रचयिता के रूप में वी. वेंकटरामशास्त्री का नाम मिलता है। १८९८ में वी.वी. शास्त्री (वी. वेंकटरामशास्त्री) का कथा संकलन “कथाशतकम्” भी मद्रास से प्रकाशित हुआ है, जिसमें देशी भाषाओं की सौ छोटी कहानियाँ संकलित थीं। (हंड्रेड पापुलर टेल्स एंड फेबिल्स इन प्रोज) इसी आधार पर यह अभ्युक्ति आधुनिक संस्कृत साहित्य के अनेक शोधविद्वानों ने की है कि उन्नीसवीं शती का अन्तिम व बीसवीं सदी का प्रथम दशक संस्कृत की लघुकथाओं के सर्वाधिक उन्मेष की अवधि मानी जानी चाहिए। सन् १६०० ई. में मैदपल्ली वेंकटरमणाचार्य की शेक्सपीयर नाटक कथावली" प्रकाशित हुई जो मेरी लैम्ब के “टेल्स फ्राम शेक्सपीयर” नामक सुप्रसिद्ध गद्यकथाग्रन्थ के अनुवाद के रूप में निकली। इसी वर्ष केरलवर्म वलिय कोइतम्बुरान् का सामाजिक कथाओं का संकलन “कथासंग्रह” भी निकला। एक-दो वर्ष पूर्व “संस्कृतचन्द्रिका” में अरेबियन नाइट्स के अनुवादों के धारावाहिक प्रकाशन की जो और योजना संस्कृतचन्द्रिका में निकली थी उसे देखकर ही शायद अनेक शोधविद्वानों ने “कथाकल्पद्रुम” नामक अलिफलैला के अनुवाद भूत कथासंकलन का भी उल्लेख कर दिया है, किन्तु जहाँ तक हमें ज्ञात हो पाया है ऐसा कथासंकलन प्रकाशित नहीं हो पाया था- जैसा कि पिछले पृष्ठों में दिये विवरण से स्पष्ट होता है। इस योजना के अन्तर्गत केवल ‘अलाउद्दीनस्तस्य विस्मापको दीपश्च" ही निकल पाई। सन् १९०१ में अनन्ताचार्य कोडम्बकम् के दो कथासंकलन निकले बताये जाते हैं-‘‘कथामंजरी" तथा “नाटककथासंग्रह”। १६०४ में मन्दिकल रामशास्त्री का कथासंकलन “कथासप्तति” के नाम से निकला। १६१० में तिरुनारायण अय्यंगार का कथासंकलन “गद्यकथासंग्रहः” निकला। डॉ. हीरालाल शुक्ल ने “कथासप्ततिः” और “गद्यकथासंग्रहः। को उस युग के कहानी-संग्रहों में सर्वोत्कृष्ट बताया है।
- जैसा हमने अप्पाशास्त्री राशिवडेकर की कुछ अतिलघुकथाओं की कथावस्तु के संदर्भ से स्पष्ट किया है, इस युग की प्रारंभिक कथाएँ कभी तो संस्कृत जगत् में सुप्रचलित मनोरंजक कथाओं की सरल संस्कृत में लिखकर प्रसारित करने के उद्देश्य से लिखी मिलती हैं, कभी लोकभाषाओं की मनोरम मानवीय घटनाओं को पाठकों के प्रमोदार्थ संस्कृतबद्ध की ४७६ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास गई लगती हैं, कभी छात्रों को नवीन पाठ्य सामग्री देने के उद्देश्य से प्राचीन उपाख्यानों, नीतिकथाओं या महापुरुषों के जीवनवृत्तों को सरल गद्य में निबद्ध कर प्रणीत भी हुई लगती हैं इन सभी को प्रेरित कथाएँ ही कहा जा सकता है, अनूदित नहीं। बंगला, अंग्रेजी आदि भाषाओं से सीधे भी कुछ कथानुवाद हुए थे, उन्हें ही अनुवाद कहा जाना उपयुक्त होगा।
छात्रोपयागी कथाएँ
बालपाठ्यसामग्री प्रस्तुत करने के उद्देश्य से लिखी गई कहानियों के अनेक संकलन बीसवीं सदी में निकले है। प्रारंभिक अप्पाशास्त्री-युग में निम्नलिखित कथासंकलनों के प्रकाशन की जानकारी मिलती है १. संस्कृतगद्यावली ले .-पी.वी. काणे (बम्बई १६१३) २. चरितरत्नावली (दो भागों में) लेखक पी. शिवरामशास्त्री, (कुंभकोणम् १६२२ व 9E२४) ३. कथारत्नाकर (तिरुनारायण अय्यंगार, १६१०) इसके बाद तो अनेक कथासंकलनों का प्रकाशन हुआ जो आज तक जारी है। इनके अतिरिक्त प्राचीन संस्कृत साहित्य के काव्य, गद्यकथा प्रबन्धों या नाटकों की कथाओं को संक्षिप्त और सरल रूप में छात्रों के लिए लिपिबद्ध करने के प्रयत्न भी निरन्तर होते रहे हैं। प्रारम्भिक प्रयत्नों में आर.वी. कृष्णमाचारियर तथा महामहोपाध्याय वी.वी. मिराशी जैसे विद्वानों द्वारा संक्षिप्तीकृत कादम्बरीकथा या वासवदत्ताकथा गिनाई जा सकती हैं, साथ ही बी. अनन्ताचार्य, वाई. महालिंग शास्त्री, को. ल. व्यासराजशास्त्री, कैलाशनाथ आदि विद्वानों द्वारा भास, कालिदास, आदि के नाटकों की संक्षिप्त सरलकथाओं के संकलन भी गिनाए जा सकते हैं। मद्रास के पंचियप्पाकालेज (पंचयप्पकलाशाला) के संस्कृत प्राध्यापक पं. वी, अनन्ताचर्य ने मुद्राराक्षस, वेणीसंहार, मृच्छकटिक, मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय, शाकुन्तल, मालतीमाधव, महावीरचरित और उत्तररामचरित इन संस्कृत नाटकों की कथाओं को सरल संस्कृत कथाओं के रूप में लिखकर छात्रों के हितार्थ प्रकाशित करवाया था। इसी का नाम है- “नाटककथासंग्रहः । श्री अनन्ताचार्य की १२/४/३४ की भूमिका से ऐसा प्रतीत होता है कि यह संग्रह उन्होंने १६३४ में किया था। (१६४० में रामनारायण लाल, इलाहाबाद से प्रकाशित) श्री अनन्ताचार्य कोडंबनिवासी थे अतः लगता है इसी “नाटककथासंग्रह” को कोडंबकं अनन्ताचार्य के नाम से शोधविद्वानों ने १६८१ में प्रकाशित कथासंग्रह के नाम से उल्लिखित किया होगा। यह भी संभव है कि इन्होंने १६०१ में इसका प्रथम संस्करण दक्षिण भारत से प्रकाशित करवाया हो और अन्य संस्करण बाद में उत्तर भारत से निकाला हो। इन्हीं वी. अनन्ताचार्य ने हर्षचरितसार, चंद्रापीडचरितम् (१६०६) उदयनचरितम् १८ अध्यायों में वासवदत्ताकथासार, आदि भी इसी श्रृंखला में प्रकाशित करवाए। इसी प्रकार के कथासंक्षेपण के प्रयत्न हैं दत्तात्रेय वासदेव निगडकर का ‘रघवंशसार” (१६००), वाई महालिङ्गशास्त्री का भासकथासार त्र्यंबकशर्मा काले, नन्दलाल शर्मा तथा आर.वी. कृष्णमाचार्य के कादम्बरीकथासार, काशीनाथ शर्मा की संक्षिप्तकादम्बरी। आर.वी. कृष्णमाचार्य ने भी हर्षचरितसार तैयार किया। गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य (90 इस प्रकार के छात्रोपयोगी तथा सरल संग्रहों ने कथाकथन की सरल, अनलंकृत और निसर्गसहज शैली के निखार में पर्याप्त सहायता की। इसी प्रकार बंगला आदि भारतीय भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित हो रही कहानियों के अनुवाद या उनकी छाया को लेकर लिखी गई कहानियों ने भी इस प्रारम्भिक युग में संस्कृत की कहानी को स्थापित किया और अलग पहचान दी। संस्कृतचन्द्रिका के संपादक जयचन्द्र सिद्धान्तभूषण ने इस पत्रिका के लिए अनेक कहानियाँ लिखीं, जिनमें से कुछ बंगला कथासाहित्य से प्रभावित थीं, कुछ संक्षिप्त मनोरंजनात्मक कथाएँ थीं और कुछ नीतिकथाएँ जो शिक्षा देने के उद्देश्य से “पंत्रतंत्र” की तर्ज पर लिखी गई थीं। व्याघीविवाहार्थी श्रृंगालः, धर्मस्य सूक्ष्मगतिः, ईश्वरस्य धनदानक्रमः, वशीकृतभूतः, राक्षसप्रश्नम्, बुद्धिमाहात्म्यम् आदि इसी प्रकार की कहानियाँ हैं। संस्कृत कथाओं की विपुलता का प्रमुख कारण संस्कृत पत्र-पत्रिकाएं रहीं, जिनमें एक अंक में एक कहानी पूरी हो सकती थीं और पाठकवर्ग का ध्यान आकर्षित कर सकती थीं, यह तो सविदित है ही। सम्पादकों को भी कहानी एक आकर्षक विधा लगती थी। यही कारण है कि जिस प्रकार संस्कृतचन्द्रिका के संपादक (पहले सहकारी संपादक) अप्पाशास्त्री ने अनेक कहानियाँ स्वयं लिखकर पत्रिका में प्रकाशित की, उसी प्रकार उससे अगले युग में संस्कृतरत्नाकर के संपादक (पहले सहकारी संपादक) भट्टश्रीमथुरानाथ शास्त्री ने बहुत बड़ी संख्या में विविध भावभूमियों की कहानियाँ इस पत्र में प्रकाशित की। इस कारण हमारे कालविभाजन की सरणि पर अप्पाशास्त्रियुग में जिन विधाओं का सूत्रपात संस्कृत कथासाहित्य में हुआ उसमें निखार और विस्तार भट्टमथुरानाथ-युग में हुआ परिलक्षित होता है। चूँकि बंगाल कथासाहित्य की प्रमुख विहारभूमि रही है तथा बंगला साहित्य ने संस्कृत कथालेखन को भी बहुत अंशों में प्रेरणा दी है, अतः यह स्वाभाविक ही था कि बंगाल से निकलने वाली पत्रिकाओं में कथासाहित्य की विपुलता देखने को मिले। यही कारण है कि बंगाल की प्रतिष्ठित चिरंजीवी और सुप्रसिद्ध पत्रिका बंगीय “संस्कृत साहित्य परिषत्पत्रिका” में तीसरे दशक से लेकर लगभग पूरी आधी सदी तक संस्कृतकहानियाँ प्रकाशित होती रही हैं। इसमें भी तीनों तरह की कहानियाँ सम्मिलित हैं, अनूदित, प्रेरित और मौलिक। जिस प्रकार बंगला उपन्यासों के अनुवादों या उनसे प्रेरित संस्कृत उपन्यासों के साथ आधुनिक संस्कृत उपन्यास-साहित्य का प्रथम चरण प्रारम्भ होता है उस प्रकार यद्यपि संस्कृत कथा का प्रथमावतार बंगला साहित्य के अनुवाद से नहीं होता, तथापि प्रारंभिक कथाएँ जो विभिन्न प्रेरणाओं से प्रसूत तथा विभिन्न उद्देश्यों को लेकर लिखी गयीं थीं, उनके बाद शैली परिष्कार और भावप्रवणता की अवतारणा की दृष्टि से बंगला साहित्य का पर्याप्त प्रभाव संस्कृत कहानियों पर परिलक्षित होता है। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि लगभग १८६० से लेकर १६१० तक दो दशाब्दियों में संस्कृत कहानी पंचतंत्र की विरासत के अनुरूप छोटी-छोटी शिक्षाप्रद और मनोरंजक कथाओं के रूप में प्रारंभ हुई। इस अवधि में चाहे सामाजिक कहानियाँ पर्याप्त मात्रा में लिखी गईं, उन पर बंगला कहानी की उस ४७८ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास “भावप्रवणता” की उतनी छाया नहीं मिलती जो उसका वर्गचरित है। यहाँ तक कि संस्कृतचन्द्रिका के प्रधान संपादक जयचन्द्र भट्टाचार्य की भी प्रारंभिक कहानियाँ छात्रोपयोगी शैली में अधिक हैं, बंकिम और शरद् की शैली में नहीं। बांगला साहित्य का प्रभाव भट्टयुग की कहानियों में अधिक परिलक्षित होता है। स्वयं भट्टमथुरानाथशास्त्री की प्रारंभिक कथाएं और आदर्शरमणी जैसे उपन्यास (१६०६) बांगला से अधिक प्रभावित थे।
भट्टजी का अवदान
भट्टजी ने जयपुर से सन १६०४ में संस्कृतरत्नाकर का संपादन प्रारंभ किया था और यह पत्र १६४६ तक जयपुर से निकलता रहा था। इसके प्रकाशन के दूसरे वर्ष से ही इसमें भट्टजी की संस्कृत कहानियाँ नये परिवेश, नई शैली और नई भावभूमि पर निकलना प्रारंभ हुई, जिनकी धूम सारे देश में मच गई। कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले विद्योदय के (जिसके संपादकद्वय स्व, हृषीकेश भट्टाचार्य के बाद श्री विभूतिविद्याभूषण और भवभूति विद्यारत्न बन गये थे) प्रत्येक अंक में संस्कृतरत्नाकर की प्रशंसापूर्ण विज्ञप्ति होती थी। बांगला की भावप्रवण पारिवारिक कथाओं, प्रेमाख्यानों तथा सामाजिक विद्रूपों पर प्रहार करने वाली कहानियों से प्रभावित होकर भट्ट जी ने कथावस्तु, परिवेश और शैली में पूर्ण नवीनता लिए हुए जो कहानियाँ लिखीं, उन्होंने नये युग का सूत्रपात किया। इस शैली में अनेक कथाकारों ने कहानियाँ लिखना शुरू किया। बीसवीं सदी के दूसरे दशक में भट्टजी की सरला, निराशप्रणया आदि कहानियाँ प्रकाशित हुई जो नारी की “अबला” और “विवशा” वाली छवि पर आधारित थीं। इसके बाद सैकड़ों कहानियाँ प्रकाशित होती रहीं जिनमें ‘दयनीया” “अनादृता” “प्रेम्णोः विजयः” प्रेम्णः प्रतिदानम्", “एक बार आदि नारी की स्थिति को केन्द्र में रखकर लिखी गई थीं। “असमसाहसम्” “अद्भुतचिकित्सा”, “दीक्षा”, “विषमा समस्या” आदि सामाजिक कथाओं में आधुनिक परिवेश और शैली स्पष्ट देखी जा सकती है। भट्टजी की कहानियों को वर्गों में विभाजित करके देखना बहुत कठिन है, क्यों कि उन्होंने इतने बड़े व्यापक और वैविध्यपूर्ण परिवेशों की कथाएं लिखी हैं, जिसमें अनेक प्रकार समाहित हो सकते हैं। कुछ भावपूर्ण प्रेमकथाएँ हैं, कुछ सामाजिक कुरीतियों का चित्रण कर उनके कारुणिक प्रभाव उभारती हैं तो दूसरी ओर कुछ हास्यव्यंग्य की हलकी फुलकी कहानियाँ हैं, कुछ मनोविज्ञान की गुत्थियों पर लिखी गई हैं और कुछ पूर्णतः प्रतीकात्मक है। एक अलग वर्ग ऐतिहासिक कथाओं का है, जिनमें बुद्ध और अंगुलिमाल के संवाद की घटना से लेकर सिकंदर और पोरस के युद्ध, सोमनाथ मंदिर के ध्वंस, पथ्वीराज राणासांगा. हम्मीर बँदी के राजवंश. औरंगजेबकालीन राजाओं आदि मगलकालीन घटनाओं तक को आधार बनाकर लिखी गई हैं। इन्हें निश्चय ही अलग वर्ग में विभाजित किया जा सकता है। शेष सामाजिक कथाओं को शोधार्थियों ने मनोवैज्ञानिक, प्रेमसंबंधी, प्रतीकात्मक, हास्यविनोदात्मक, व्यंग्यात्मक, प्रयोगात्मक आदि अनेक वर्गों में विभाजित किया है। कथावस्तु का वैविध्य इनकी प्रमुख विशेषता है जिससे संस्कृत कथाकार के चिन्तन के आधार-फलक का विस्तार स्पष्टतः समझ में आ जाता है। भावप्रवण कथाओं में कहीं गध-साहित्य/चम्पूकाव्य ४७E तो किसी विशेष बालविधवा पर पहली दृष्टि से पवित्र स्नेह की वर्षा करने वाले युवक को विवाह से मनाकर देने वाली विवश नारी की छवि है जो विवाह से तो मनाकर देती है पर एक दृष्टि में ही प्रिय को अपना हृदय निछावर कर देती है, उसकी एक झलक पाकर ही प्राणोत्सर्ग करती है सरला। कहीं विवशतावश अन्य युवती से विवाह कर लेने वाले पति को क्षमाकर देने वाली नारी की छवि है (निराशप्रणयः)। नारी के विभिन्न रूपों से सहानुभूति ऐसी कथाओं का प्रमुख स्वर है। दूसरी ओर कुछ ऐसी विनोदात्मक कथाएं बिलकुल अलग ही भावभूमि पर आधारित हैं जिनकी कल्पना भट्टजी की मौलिकता का प्रमाण है। “चपंडुकः” नामक कहानी इस दृष्टि से विशेष उल्लेख की पात्र हैं, जिसमें एक प्राचीन प्रौढ़ता के हामी और अभिमानी पंडितजी अपने कालेजीय छात्रों को कठिन-कठिन अप्रचलित शब्द बोलकर चकित करते रहते हैं। उन्हें छकाने के लिए कुछ छात्र ऐसी योजना बनाते हैं कि एक बार कक्षा में एक छात्र ‘चपंडुक” शब्द का प्रयोग कर देता है। पंडित जी इस शब्द से अनभिज्ञ होने के कारण आश्चर्य चकित हो जाते हैं पर वह छात्र उन्हें बताता है कि चपंडक का अर्थ होता है “कुशल और विलक्षण”। इसके प्रमाणस्वरूप वह “वाचस्पत्यम्” कोष भी दिखला देता है। अब तो पंडित जी बड़ी-बड़ी गोष्ठियों में चपंडुक का प्रयोग करने लग जाते हैं। एक बार बड़ी विद्वद्गोष्ठी में इस शब्द को चुनौती दी जाती हैं तो वे प्रमाणस्वरूप “वाचस्पत्य” कोष निकालकर दिखलाना चाहते हैं पर उसमें शब्द मिलता ही नहीं। पंडित जी की बड़ी हँसी होती है। अन्त में बिलकुल सरल होकर उस छात्र से अपनी स्थिति बतलाते हैं और पूछते हैं कि यह सब क्या था ? छात्र बतलाता है कि उनकी गर्वभंगी को झटका देने के लिए कुछ छात्रों ने यह योजना बनाई थी और वाचस्पत्य कोष में एक फर्मा नये सिरे से नकली बनवा कर जिल्द में बँधवा लिया था जिसमें ‘चपंडुक" शब्द भी था। तब वह भला अन्य प्रतियों में कैसे मिलता? इस पर पंडित जी का गर्व और अप्रचलित शब्दों के प्रयोग में गौरव की भावना समाप्त हो जाती है। इसी प्रकार कुछ मित्रगण विनोद में एक सुन्दर साथी को नवयुवती का रूप देकर एक विद्वान् से संस्कृत पढ़ने भेज देते हैं। पंडितजी उस शिष्य को श्रृंगार काव्य भी पढ़ाते हैं और जब रहस्य खुलता है तो सारी बात विनोद में समाप्त हो जाती है। यह “शिष्या" नामक कहानी की कथावस्तु है। किस प्रकार साधु संन्यासी बनकर ठग लोग अन्धविश्वासी व्यवसायियों को ठगते हैं इस पर “पश्यतोहर:” कहानी है जो सामाजिक कुरीति पर प्रहार करती है और व्यंग्यात्मक कथा का उदाहरण है। मनोवैज्ञानिक स्थितियों का चित्रण करने वाली शैली प्रधान कहानियों में एक है “दानी दिनेशः”, जिसमें एक बालक बड़े चाव से - अपना प्रिय खिलौना अपने पिता से खरीदवाता है पर एक गरीब बच्चे को खिलौने के लिए तरसता देख वह प्राणप्रिय खिलौला भी उसे दे देता है। एक प्रयोगात्मक कहानी है “करुणा कपोती च” जिसमें एक बालिका की नादानी से ४८० आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास उसके शैशव में एक कबूतरी को बिल्ली खा लेती है, बालिका देखती रहती है। उसी के विवाह के बाद जब उसका पति एक बार मगर द्वारा निगल लिया जाता है तो किस प्रकार उसे बचपन की यह घटना याद आती है- यह मनोवैज्ञानिक तरीके से चित्रित है। “अद्भुतफलम्” बीसवीं सदी के दूसरे दशक की कहानी है जिसमें बीमार लेखक इलाज़ के लिये जाते समय मध्य प्रदेश के बीहड़ जंगलों के किसी झाड़ीदार पेड़ में फंसी बंदर की बच्ची को बचाता है। उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए बंदर उसे ऐसा फल देता है जिसमें अद्भुत रोगनाशक और स्वास्थ्यवर्धक गुण हैं जिनसे लेखक का रोग दूर हो जाता है। किसी इलाज़ की ज़रूरत नहीं पड़ती। इस प्रकार की अनेक कहानियाँ भट्टजी ने आत्मकथा याने आपबीती के रूप में उत्तमपुरुष में लिखी हैं जो आधुनिकता का ही एक निदर्शन है। उनकी कहानियाँ कभी-कभी केवल एक पत्र द्वारा घटनाएँ बयान करने की शैली में मिलती हैं, कभी केवल कथोपकथन के माध्यम से एक कहानी जिसे निबन्ध भी कहा जा सकता है, ऐसी है जिसका प्रत्येक शब्द “म” से शुरू होता है किन्तु फिर भी भाषा जटिल नहीं हुई है, एक पूरी कहानी बन जाती है, वर्णनात्मक निबन्ध भी। इसका शीर्षक है, “मकारमहामेलकम्” जिसमें बतलाया गया है कि मालवा में “म” कारों का मेला लगा जिसमें अन्य अक्षरों की अपेक्षा “म” का महत्त्व स्थापित किया गया, जलसा हुआ, भाषण हुए, शोभा यात्रा निकली आदि। इस प्रकार की शताधिक कहानियाँ भट्टजी की कृतियों में शामिल हैं, जिन्होंने जिस प्रकार शैली के नूतन आयाम स्थापित किये उसी प्रकार कथावस्तु के वैविध्य का कीर्तिमान भी स्थापित किया। शायद ही किसी अन्य कथाकार ने इतनी विविध विषयक और विविध शैली निबद्ध कहानियाँ लिखी हों। इस दृष्टि से बीसवीं सदी के दूसरे दशक के बाद जो युग आरम्भ हुआ उसमें संस्कृत की नई कहानी द्वारा लाया गया युगान्तर स्पष्ट परिलक्षित होता है। इस नई कथावस्तु में प्रेम है, रोमांस है, राजनीति है, घटनाचक्र की गति है, कौतूहल और अद्भुतरस (जिन्हें अंग्रेजी में सस्पेंस और सरप्राइज कहा जाता है) हैं। शैली में भी चरित्रचित्रण की गहराई है, परिवेशांकन की चित्रोपमता है, भाषा में सहजता है, कथोपकथन है लालित्य है, हृदयावर्जकता है। जैसा पहले बताया जा चुका है, बाणभट्ट की शैली का संमोहन भी संस्कृत लेखकों में बना रहा जो एक शाश्वत प्रवृत्ति लगती है, किन्तु नये युग की करवट के साथ जो नई कहानी आई उसने आजतक मुड़कर नहीं देखा है। वह नये-नये प्रयोग करती जा रही है। इसमें तीनों प्रकार की कहानियों को गिनाया जा सकता है, मौलिक, प्रेरित और अनूदित। इसके अतिरिक्त पंचतंत्र की शैली में बालपाठ्य शिक्षाप्रद कहानियों की धारा भी निरन्तर चलती रही है। यों तीन धाराओं में इस युग की संस्कृत कथात्रिवेणी बहती रही है-बाणभट्ट-प्रेरित अलंकृत कथा,पंचतंत्र शैली की बालपाठ्य कथाएँ तथा आधुनिक कहानी। आधुनिक के तीन उपभेद भी प्रारम्भ में अधिक स्पष्ट रहे, बंगला तथा अन्य भाषाओं की कहानियों के अनुवाद जिस विपुल मात्रा में प्रारम्भ में हुए, बंगला आदि गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य ४८१ भाषाओं की कथाशैली से प्रेरित कहानियाँ जिस बड़ी मात्रा में लिखी गई वह धीरे-धीरे कम होती गई और संस्कृत कहानी ने शीघ्र ही अपनी मौलिक शैली विकसित कर एक अलग पहचान बना ली जो अब स्थापित है।
अन्य भाषाओं का प्रभाव
जिन कथाओं के अनुवाद ने प्रारम्भ में संस्कृत कथाकारों को अपनी शैली उद्विकसित करने हेतु प्रेरित किया उनमें केवल बंगला कहानियाँ ही नहीं थीं अलिफलैला की कहानियाँ भी थीं, शेख सादी के गुलिस्ताँ की कथाएँ भी थीं। बंगाल की ‘संस्कृतसाहित्य परिषत् पत्रिका’ में १६३० के दशक में फारसी कहानियों के अनुवाद भी छपे। बाद में डॉ. राघवन्-युग में तोल्सतोय आदि की कथाओं के भी। जयपुर के पद्मशास्त्री ने तो विश्व की सभी भाषाओं की १०० कथाओं के अनुवाद पिछले दिनों “विश्वकथाशतकम्” नाम से प्रकाशित किये हैं। पिछली अर्धशती में तेलुगुकी हास्यकथाओं के अनुवाद भी हुए, “आन्ध्रदेशहास्यकथा” आन्ध्र प्रदेश साहित्य अकादमी, हैदराबाद १६६४, आन्ध्रकाव्यकथाः सूर्यनारायणशास्त्री १८७२, अरविन्दाश्रम, पांडिचेरी की माता जी की कथाओं के अंग्रेजी से अनुवाद भी। बंगला के भावप्रवण कथाकारों ने जिस प्रकार जयपुर के भट्टमथुरानाथशास्त्री, बम्बई के रमानाथ शास्त्री, मथुरा के बालभद्रशर्मा, बंगाल के जयचन्द्र सिद्धान्तभूषण और महाराष्ट्र के अप्पाशास्त्री आदि को प्रेरित किया उसी प्रकार हास्य व्यंग्य के बंगला उपन्यासकारों और कथाकारों की भी प्रेरणा प्रचुरता से दृष्टिगोचर हुई। प्रभात मुखोपाध्याय की विनोदपत्र शैली की बंगला कथाओं और उपन्यासों के अनुवाद भी हुए और उनकी प्रेरणा से मौलिक सामाजिक हास्य कथाएँ भी लिखी गईं। “रसमयीर रसिकता” उपन्यास का अनुवाद “रसमयी” नाम से सं.सा. परिषत् पत्रिका में छपा, ऐन्द्रजालिकः, वायुपरिवर्तनम, प्रतिज्ञापूरणम् आदि कथाएँ भी इसी पत्रिका में छपी। टैगार की ‘‘यज्ञेश्वरेर यज्ञ” कहानी का इसी नाम से अनुवाद तुहिनिका देवी ने किया जो (फरवरी ३३) की परिषत्पत्रिका में छपा।
- बंगला कथा में आधुनिक परिवेश के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तनों, पुरानी मान्यताओं के साथ नये युग की टकराहट आदि का चित्रण दोनो रसों में बड़ी मनोरम शैली में हुआ था, करुण रस और हास्य रस, दोनों रसों के अंगी के रूप में श्रृंगार जैसी प्रमुख रस की जो योजना बंगीय कथाकारों ने की, उसने संस्कृत लेखक को बहुत आकर्षित किया। भट्टमथुरानाथ शास्त्री ने दूसरे दशक में “मिस्टरस्य गीताज्ञानम्” कथा में जो बंगला कथा से प्रभावित है ऐसे ही एक युवक गौरचन्द्र का चित्रण किया है जिसके हृदय में प्रेम के अंकुर फूटने लगे हैं और वह गीता के श्लोकों के निर्वचन के साथ कभी अपने प्रेमोद्गार प्रकट करता है, कभी अपनी प्रेयसी के सामने प्रणय निवेदन करना चाहते हुए भी एकाध प्रमुख -शब्द बोलना भूल जाता है या हकला जाता है। “ममाध्यापनम्’ शीर्षक उनकी कहानी में एक युवक एक किशोरी की ट्यूशन करने जाता है पर प्रेम-बन्धन में बँधने की सी अनुभूतिकर प्रेमपत्र लिख डालता है जो किशोरी के पिता के हाथ लग जाता है, ट्यूशन छूट १८२ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास जाती है। भट्टजी की वे कथाएँ प्रारंभिक दशकों की हैं (१६१०-१६३०) और इनमें बंगला साहित्य के प्रेरक प्रभाव तलाशे जा सकते हैं। 18 FI
- इस युग की कहानियों में संस्कृत भाषा व्याकरणशुद्ध होते हुए भी ललित है, साथ ही पूर्णतः संस्कृत की प्रकृति के अनुरूप वाक्य-गठन है। केवल आधुनिक उपकरणों जैसे टेबिल-कुर्सी, चश्मा, कार, साइकिल, बिजली का बल्ब के लिए संस्कृत नाम लेखक को बताने पड़े हैं। भट्टजी ने कहीं टेबिल को “त्रिवली” बना दिया है, कुर्सी को आसन्दी कहा है, तिवारी को “त्रिद्वारिका” कहना पड़ा है आदि। परिवेश चित्रण, कथोपकथन और घटना प्रस्तुतीकरण बिल्कुल आधुनिक शैली में हैं। इस रूपान्तरण के माध्यम से संस्कृत कथा ने अपनी अलग पहचान स्थापित की यह आसानी से कहा जा सकता है। इस कथा की आँधी को सर्वाधिक प्रेरणा पत्र-पत्रिकाओं से मिली और आज भी मिल रही है इसे पुनः दोहराया जाना अनावश्यक है। संस्कृतचन्द्रिका, संस्कृतरत्नाकर, सहृदया, उद्यान-पत्रिका, विद्यादेय, परिषत् पत्रिका, मधुरवाणी, अमरवाणी, (काशी), सूर्योदयः आदि प्रमुख पत्रिकाओं ने जिस प्रकार बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में संस्कृत कहानियों का प्रभूत मात्रा में प्रकाशन किया उसी प्रकार संस्कृत प्रतिभा, भारती, संस्कृतभवितव्यम्, विश्वसंस्कृतम् सारस्वतीसुषमा, शारदा आदि पत्रिकाओं ने उत्तरार्ध में इस प्रवाह को मूर्तरूप देने में मूल्यवती भूमिका निभाई। डा. राघवन् के संपादकत्व में केन्द्रीय साहित्य अकादमी की “संस्कृतप्रतिभा’ का प्रकाशन जब से आरम्भ हुआ, सारे देश के कथाकारों की कथाएँ इसमें प्रकाशित हुई हैं। इसके अतिरिक्त विविध कथासंकलनों के पुस्तकाकार प्रकाशन से भी कथासाहित्य की विपुलता निरन्तर बढ़ रही है, इन सब के एक सामान्य आकलन से कथा-साहित्य की प्रवृत्तियों का मूल्यांकन सरलता से हो सकता है। मान नि विद्योदय के संपादक भवभूति विद्यारत्न की अनेक कहानियाँ ‘संस्कृत परिषत् पत्रिका’ में निकली थीं। ये बृहदाकार भी थीं, छोटे आकार की भी ‘लीला’ शीर्षक कथा २६ पृष्ठों में फैली है पर इसे उपन्यास कहना उचित नहीं होगा, ‘उपन्यासिका’ अवश्य कहा जा सकता है। जिस प्रकार एक बालविधवा अपने बाल्यकाल से साथ रहे प्रेमपात्र के लिए हृदय में असीम प्रेम होते हुए भी विवाह न कर पाने तथा समाज की मान्यताओं से विवश होने के कारण अपना मन मसोस कर उसे भूलने और उसे भाई बताने तक की स्थिति में आ जाती है जिससे उसका जीवन सुखमय बीते। उत्तम पुरुष में आपबीती की शैली में लिखी गई यह कहानी नारी की उसी छवि का प्रतिनिधित्व करती है जो बंगला साहित्य द्वारा स्थापित है और जो भट्ट-युग की संस्कृत कहानियों का प्रमुख स्वर है। भवभूति विद्यारत्न की ही “विद्याधरस्य दुःखम्” शीर्षक लघुकथा में एक स्त्री पति द्वारा दी गई स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर किस प्रकार एक आधुनिका उच्छृखल हो जाती है यह बताया गया है। इसका प्रतिपाद्य है पन स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति।” शासन’ । नरेन्द्रनाथ चौधुरी की कहानी “विपाकः” भी स्त्री के स्वातंत्र्य के विरोध में जाती है। वसन्तकुमार विद्यारत्न की “कुललक्ष्मी” शीर्षक कथा में बतलाने का प्रयास किया गया है ४८३ गध-साहित्य/चम्पूकाव्य कि चाहे चार माह के लिए ही सही, विवाहित रही पत्नी का सही स्थान पतिगृह ही है, पितगृह नहीं। इसमें प्राचीन संस्कृत नाटकों की तरह अभिजात पात्रों और महिलाओं के कथोपकथन की भाषा तो संस्कृत है, पर अशिक्षित स्त्रियों के संवाद प्राकृत में निबद्ध हैं। नायिका संस्कृत बोलती है पर उसकी माता, सास, नौकरानियाँ प्राकत बोलती हैं (परिषत्पत्रिका १E३३, ३४ोति मत मतानला IFREE EFF PHAHDOFF THE तारिणीकान्त चक्रवर्ती की कहानी “पुष्पांजलिः (परिषत्पत्रिका १६२४) में लेखक सीधे-सीधे इस बात की शिक्षा देता प्रतीत होता है कि मद्यपान, दुश्चरित्रता आदि किस प्रकार अधःपतन की ओर ले जाते हैं। इसी प्रकार “आख्यायिका” शीर्षक कथा (परिषत्पत्रिका १६३३-३४) भी उपदेश का संदेश लेकर अवतरित हुई है। बंगला की विनोदप्रधान तथा व्यंग्यपरक शैली से प्रभावित अनेक कहानियों में घटनाओं और परिवेश की नूतनता, काल्पनिकता तथा दृश्ययोजना ने नये आयाम छुए हैं। उदाहरणार्थ, वेणुधर तर्कतीर्थ की काल्पनिक कथा “यमपुरीपर्यटनम्” (परिषत्पत्रिका १६२८-२६) में स्वप्न में यमपुरी का भ्रमण करते हुए लेखक क्या-क्या देखता है इस कथातन्तु में देश में फैले सभी कदाचारों | पर बहुत अच्छे व्यंग्यात्मक प्रहार किये गये हैं-दहेज प्रथा, अशिक्षा, शिक्षाजगत् के | भ्रष्टाचार, हड़तालें, राजनीति, फैशनपरस्ती आदि के कारण यमपुरी में क्या-क्या भुगतना | पड़ता है यह बतलाते हुए लेखक बंगला की शैली में नये-नये प्रयोग भी करता है जैसे - “चक्षुषा सर्षपकुसुमं द्रष्टव्यम्” “भारस्योपरि शाकगुच्छ” एकपदे उपस्थातव्यम् आदि। इसी हास्य-व्यंग्य शैली में लेखक वहाँ यह प्रश्न उठा देता है कि यमराज का क्षेत्राधिकार केवल हिन्दुओं पर ही है या म्लेच्छों पर भी (जैसे अंग्रेज)। इस पर यमराज भी हतप्रभ रह जाते हैं। लेखक को यह काम दिया जाता है कि वह तुरन्त भारतदेश में जाकर वहाँ पंडितों की व्यवस्था-सभा बुलाए और इस पर धर्मनिर्णय करवाए। तभी कहानी समाप्त हो जाती है। _त बंगला से प्रभावित कहानियों की यह विशेषता उल्लेखनीय है कि उनमें उपन्यास की तर्ज़ पर परिच्छेद-विभाजन किया मिलता है। कहीं-कहीं ऐसी कहानियों में परिच्छेदों को १,२,३,४ आदि क्रमांक देकर विभाजित किया गया है, कहीं उनके भी शीर्षक दे दिये गये हैं। इस दृष्टि से उपन्यास में और कथा में कोई बड़ा भेद नहीं है, यह एहसास इन्हें देखने से होता है। कहानियों का आकार छोटा हो और उपन्यास का बड़ा केवल यही विभेदक लक्षण मानकर चलना भी भान्ति ही होगी। आज का साहित्य दोनों में तात्त्विक भेद मानता है। जहाँ एक जीवन का, युग का या किसी स्थिति विशेष-देश, परिवार आदि का संपूर्ण चित्रण हो उसे उपन्यास और जहाँ कुछ घटनाओं का, जीवन की या किसी अन्य इकाई की कुछ स्थितियों मात्र का चित्रण हो उसे लघुकथा माना जाता है। उपन्यास का आकर छोटा होने पर भी पूरे जीवन चित्र को उपन्यास ही कहा जाएगा और कुछ स्थितिविशेषों का चित्रण उससे भी बड़े आकार का क्यों न हो, कहानी ही कहा जाएगा। इस दृष्टि से भट्टयुग की संस्कृत कथाओं में जहाँ परिच्छेद-विभाजन है या उन्हें शीर्षक भी दे दिये गये हैं, उपन्यास मान लेने की प्रान्ति स्वाभाविक है। सं.सा.परिषत्पत्रिका में छपी अनेक कहानियाँ४८४ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास इसी रूप में मिलती हैं। कहीं-कहीं तो उनमें आगे पीछे लेखक का नाम ही नहीं मिलता, क्योंकि इस पत्रिका में उन दिनों विषय-सूची नहीं छपती थी। कहानियाँ धारावाहिक छपती थीं। प्रत्येक धारावाहिक कहानी का पृष्ठांकन अपने क्रम से होता था, पत्रिका के उस अंक के क्रम से नहीं। यह स्थिति संस्कृतचन्द्रिका, संस्कृतरत्नाकर आदि के तत्कालीन मुद्रण प्रकार में निरपवाद रूप से सर्वत्र देखी जाती थी। एक अंक में किसी कहानी का एक फर्मा लगा दिया गया तो उसके पृष्ठांकन १७ से २४ हुए फिर किसी अन्य धारावाहिक के पृष्ठांकन ६ से १५ हुए। यो एक अंक अनेक धारावाहिकों के भागों को मिलाकर जिल्द में दिया जाता था। परिषत्पत्रिका में फर्मे अलग नहीं होते थे-एक पृष्ट में पुराने धारावाहिक का एक अंश समाप्त होता था तो दूसरे धारावाहिक का कोई अंश उसी से शुरू हो जाता था। लेखक का नाम नहीं छपता। विषयसूची होती नहीं थी अतः छुट-पुट अंकों को देखकर तो लेखक का पता लगाना भी कठिन हो जाता था। इस पत्रिका में विविध रसों, शैलियों और भावभूमियों की कहानियाँ निकलती थीं। यही स्थिति “सहृदया” और “उद्यानपत्रिका” आदि की भी थी। इन पत्रिकाओं की एक विशेषता यह भी थी कि प्रान्त विशेष की सीमाओं को पूरी तरह नकार कर संस्कृत लेखक इनमें लिखा करते थे। दक्षिण के लेख बंगाल की पत्रिकाओं में छपते थे, बंगाल, महाराष्ट्र आदि के लेख दक्षिण की पत्रिकाओं में। “संस्कृतचन्द्रिका’ के युग के पहले से यही एकात्मता की भावना सारे संस्कृत जगत् में थी। स्वयं हृषीकेश भट्टाचार्य बंगाल के थे, पर लाहौर के कालेज में सेवारत थे। उनका “विद्योदय” प्रथमतः लाहौर से ही निकलने लगा, उनके बंगाल लौटने पर बंगाल से निकला। पत्र-पत्रिकाएँ सारे देश के संस्कृत पाठकों तक जाती थीं। एक युगान्तर, एक पुर्नजागरण का माहौल था। प्रान्तभेद, प्रदेश की सीमाएँ कोई अर्थ नहीं रखती थीं । अप्पाशास्त्री और जयचन्द्र सिद्धान्तभूषण क्रमशः महाराष्ट्र और बंगाल के थे पर दोनों मिलकर ‘संस्कृतचन्द्रिका’ निकालते थे। वह भी कभी बंगाल से, कभी महाराष्ट्र से। सारा देश संस्कृत के नवसर्जन की जागृति के आलोक से प्रकाशित था। सौहार्द, सद्भाव और सहयोग का ऐसा अपूर्व युग बहुत कम देखने को मिलता है। अप्पाशास्त्री के निधन पर दूर-दूर से निकलने वाली संस्कृत पत्रिकाओं ने जिस भावभीने हृदय से श्रद्धांजलि दी उससे इस एकात्मता का कुछ अनुमान हो सकता है। अस्तु।
नवयुगीन कथा
“संस्कृत साहित्य परिषत् पत्रिका” में दक्षिण के आर. रंगाचार्य शिरोमणि की एक कहानी “आई.सी.एस. जामाता’ विशुद्ध हास्य का अच्छा उदाहरण है (१६३५-३६)। किस प्रकार आई.सी.एस. दामाद अपने आपको ऊँचा दिखलाने के प्रयास में हास्यास्पद हरकतें करता है यह इसमें बड़ी चुटीली शैली में चित्रित है। इसकी भाषा में भी नये प्रयोग मिलते हैं जैसे “ग्रावस्त्राव विलेपुः अथवा स मुंड: कूष्मांडपातं पतितः”। ऐसी ही एक कहानी है “अहो कनीयान् ग्रामीणः’ (१६३७-३८)। एक अन्य कहानी “नगरपरिपालनसभा” भी रंगाचार्य की लिखी हुई है जिसमें नगरपालिका के चुनाव के लिए एक वृद्ध महिला तथा एक अन्य महिला खड़ी होती हैं। चुनावी राजनीति के भष्टाचारों और ४८५ गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य जोड़-तोड़ का इस प्रसंग में अच्छा चित्रण हुआ है। चुनाव में संघर्ष हो जाता है, मामला न्यायालय में जाता है जो चार वर्ष तक चलता है, तब तक उनका कार्यकाल ही समाप्त हो जाता है। प्रेमकथा के रूप में “नलिनीवसन्तम् (सं.सा.प.पत्रिका १६३५-३७) शिवशंकर शास्त्री ने लिखी थी, जिसमें नलिनी और वसन्त का प्रेम “रोमियो जूलियट” की शैली में वर्णित है। इसमें समस्त पद घटित संस्कृत भाषा के लंबे वाक्य और प्रौढ व्याकरण निबद्ध शैली में लिखी सपाट प्रेमकथा है। कुछ यथार्थ लगने वाली कथावस्तु पर लिखी कहानियाँ भी इन दिनों इस पत्रिका में छपी थीं जैसे भामिन्या मदनतापः (१६३५-३६), जिसमें लेखक ने एक अधेड़ उम्र के (लगभग ४४ वर्ष के) व्यक्ति के विवाहित एक अष्टादशवर्षीय युवती की स्थिति वर्णित की है जो वृद्ध से विवाहित होने के कारण असन्तुष्ट रहती है, एक इक्कीस वर्ष के युवक से प्रणयनिवेदन करती है किन्तु उसके पति को इसकी जानकारी हो जाती है। इसके बावजूद वह उसे क्षमा कर देता है। अन्ततः नायिका को यह एहसास हो जाता है कि इस प्रकार के आपातिक सुख चरम सन्तोष नहीं दे सकते (अल्पं मदनसुखम्)। वह पातिव्रत का निर्वाह करती है और अगले जन्म में वही पति युवक रूप में उसे मिलता है। इसके लेखक हैं के.आर. शंकरनारायण शास्त्री। __ इस प्रकार चौथे और पाँचवे दशक की कथाओं में वस्तु वैविध्य और शैली के नये प्रयोग शुरू होते हैं जो अगले दशकों में और विस्तार पाते हैं। चौथे दशक के लेखकों में पी.वरदराज शर्मा भी उल्लेखनीय हैं जिनकी कथाएँ “कस्यायमपराधः” (सं.सा.प.पत्रिका १६३६-३७) “किमिदमाकूतम्” (१६३७-३८), गर्ते पतेत् क्रोधनः” (१६३७-३८), “किं स्वतंत्रा अहो अनाथाः” (१६३६-४०) “कस्याहम्” ? (१९३६-४०) आदि नई सामाजिक चेतना से अनुप्राणित हैं। “कस्यायमपराधः” और “किं स्वतंत्राः” दोनों कथाएँ तत्कालीन रूढिबद्ध समाज द्वारा अबलाओं पर किये जा रहे अत्याचारों तथा रूढ़ियों में जकड़ी नारी की विवशता का कारुणिक चित्र उपस्थित करती हैं। “कस्यामपराधः’ की नायिका विधवा होते ही कुलवधू की बजाय उपेक्षित नारी बन जाती है, अन्ततः उसे शरीर बेचने को विवश होना पड़ता है। उसकी उक्ति कहानी का जीवन-दर्शन स्पष्ट करती है “स्त्रीत्वमेव निन्दाभाजनम् । न विद्या, न स्वाधीना वृत्तिः, न वाऽर्जनशक्तिः। स्त्रियो नाम पुरुषैः परवत्यः। दिष्टदोषेण यदि या काऽपि विधवात्वमापाद्यते, कथन्तरा खिलीक्रियते। अवृत्तिकार्जिता हि स्त्री प्रदुष्येत्, स्थितिमत्यपीति बिभ्यति धार्मिकाः। सति चैवमनाथामशरणामकिंचनां च गेहाद् विद्रावयन्ति । न ताभ्यो ऽशं दित्सन्ति । क्षते क्षारार्पणमिव सामुदायिकेभ्यो बहिष्कुर्वते मूर्तममंगलं मन्यन्ते। न वीथ्यामपि संचरितव्यम् । परिवाद्यस्य परा भूमिः । कष्टानामन्त्या काष्ठा । शुनीमिव न्यक्कुर्वन्ति । भुजगीमिव परिहरन्ति। किं न तस्या आसते बाह्याभ्यन्तराणि करणानि ? कामादयो वा ?” लेखक “गर्ते पतेत् क्रोधनः” तथा “कस्याहम्” में तीखे व्यंग्य के साथ सामाजिक स्थितियों पर प्रहार करता है। इस समय की कहानियों में शैली के नये प्रयोग भी होने लगे, ४८६ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास एक ललित गद्यशैली विकसित हो रही थी। एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा, जिसमें भावज्ञान का वर्णन लेखक करता है- पांडुरां मे मुखच्छायामालोक्य साकूतनिरीक्षणेनानक्षरमाशयमा विश्चकार।” जिला बीसवीं सदी के मध्यकालीन चार-पाँच दशकों (१९३० से १६७०) में कथासाहित्य का विपुल विस्तार सभी दृष्टियों से उल्लेखनीय है। इस अवधि में कुछ लेखकों ने तो निरन्तर कथालेखन का क्रम जारी रखा, जिनमें भट्टमथुरानाथ शास्त्री का नाम सर्वोपरि है। कुछ ने अन्य विधाओं में लेखन के साथ-साथ कहानियाँ भी लिखी जो पत्र-पत्रिकाओं में छपी। कुछ ने इस युग से कथालेखन शुरू किया और बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में कथालेखन के क्रम को बढ़ाते रहे। म.म.पं. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, पं. सूर्यनारायणाचार्य आदि जयपुर के विद्वानों ने, पं. बलदेव उपाध्याय, बटुकनाथ शास्त्री खिस्ते आदि वाराणसेय विद्धानों ने अन्यान्य विधाओं में गम्भीर साहित्य प्रणयन करने के साथ-साथ किसी प्रसंग या हेतु से एकाध लघुकथाएँ लिख दी जो प्रकाश में आई, या संकलित हुईं। कुछ विद्वान् अच्छी संख्या में निरन्तर लिखते रहे जिनमें पं. गणेशरामशर्मा (डूंगरपूर, राजस्थान) श्रीधरप्रसाद पन्त सुधांशु (पीलीभीत, उत्तर प्रदेश) आदि के नाम लिये जा सकते हैं। इनमें गणेशरामशर्मा आदि जो भट्टयुग में उद्गत होकर राघवन् युग तक निरन्तर लिखते रहे, अपनी शैली में युगानुरूप नवीन प्रयोग करते रहे। बीसवीं सदी के अन्तिम चरण में जो नये कथाकार विकसित हुए उन्होंने शैलीगत प्रयोगों को और आगे बढ़ाया तथा युग-परिवेश का चित्रण अधिक सजीव रूप में किया। ऐसे नये कथाकारों के बारे में विस्तृत चर्चा करने से पूर्व, जिनमें हरिकृष्णशास्त्री, अभिराज राजेन्द्र मिश्र, स्वामिनाथ आत्रेय, रेवाप्रसाद द्विवेदी, केशवचन्द्र दाश, राधावल्लभ त्रिपाठी, पद्म शास्त्री आदि शामिल हैं, भट्टयुग की कुछ अन्य प्रवृत्तियों की ओर ध्यान आकर्षित करना अनुचित नहीं होगा। बीसवीं सदी के तृतीय दशक से लेकर पंचम दशक तक ३० वर्षों का समय राष्ट्रीय भावनाओं के उद्वेलन का, स्वतंत्रता आन्दोलन का और युगपरिवर्तन का समय था। जब देश स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था, संस्कृत साहित्य में भी राष्ट्रियता, देशभक्ति, आत्मगौरव और स्वदेशी भावनाओं का एक ज्वार आया था। इसी’ युग में पंडिता क्षमा राव जैसी कवयित्रियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन के समर्थन में काव्य-रचना भी की और सामाजिक दुःखान्त कहानियाँ भी लिखीं। इस युग के कथाकारों की कहानियों में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट होती हैं। एक तो सीधे-सीधे राष्ट्रीय आन्दोलन के समर्थन में लिखी गई कहानियाँ, जिनमें अंग्रेजों के अत्याचार, उनके विरोध में देशभक्ति जगाते नेताओं या स्वाधीनता के कार्यकर्ताओं की घटनाएँ निबद्ध थीं, दूसरे उन्हीं दिनों प्राचीन भारत और मध्यकालीन भारत में हुई स्वदेश प्रेम की देशभक्ति में प्राणों का उत्सर्ग कर देने वाले वीरों की कथाएँ भी लिखी गईं, जो चाहे गुप्तकालीन हों महाराणा प्रताप और शिवाजी आदि के समय की हों या बालचर आन्दोलन से अथवा युद्ध में जूझने वाले वीरों से जुड़ी हों। यही कारण है कि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री की अनेक कहानियाँ भारत के इतिहास से ४८७ गय-साहित्य/चम्पूकाव्य संबंधित हैं- जिनमें बहुत सी राजपूतकालीन युद्धों की पृष्ठभूमि में निबद्ध हैं। उनकी लिखी “अलक्ष्येन्द्रश्च दस्युश्च”, “वीरबालकः”, “वीरपरीक्षा”, “धन्योऽसि धर्मवीर”, “सिंहदुर्गे सिंहवियोगः”, “पुरुराजस्य पौरुषम्”, “अंगुलिमालः”, पृथ्वीराजपौरुषम्”, “मातृसेवायां चिरममरे बलिदाने”, “सामन्तसंग्रामः”, “सत्यो बालचरः”, “वीरो बालचर::”, “धन्यो भारतीयवीरः”, “विजयघंटा”, कृत्रिमबुन्दी”, “भारतध्वजः आदि कथाएँ, सिकंदर और पोरस, बुद्ध और अंगुलिमाल, पृथ्वीराज और मुहम्मद गोरी से लेकर सिंहगढ़ पर आक्रमण करने वाले शिवाजी तक की कथावस्तु पर आधृत हैं। बालचरों और आधुनिक योद्धाओं की कर्तव्यनिष्ठा पर भी कुछ कहानियाँ हैं जिनमें से अधिकांश उनके द्वारा संपादित संस्कृतरत्नाकर में प्रकाशित हुई (१६०४ से लेकर १६४६ तक)। पंडिता क्षमाराव की कुछ कथाओं में भी भारत के गौरव की भावधारा परिलक्षित होती है। उनकी कुछ कहानियाँ तो उनके प्रिय अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध हैं-जो कथापंचकम् (बम्बई १६३३) में संकलित हैं। उनकी गद्यकथाओं में कुछ की कथावस्तु तत्कालीन परिस्थितियों से संबंधित हैं और कुछ में सामाजिक रूढ़ियों से त्रस्त नारी की या शोषित वर्ग की दुर्दशा और त्रासदी चित्रित है। उनकी अधिकांश कहानियाँ दुखान्त है। कुछ कहानियों की कथावस्तु राष्ट्रीय आन्दोलन से भी संबद्ध हैं। कथामुक्तावली (बम्बई १६५४) में उनकी १५ गद्यकथाएँ संकलित है। इनमें से कुछ दुःखान्त प्रेमकथाएँ हैं जहाँ प्रेमी प्रेमिका का मिलन बर्फ से दब कर मृत्यु के समय ही होता है (हैमसमाधिः)। एक कहानी में पिता अपनी संतति का मुख देखने को तरस जाता है, क्योंकि उसने अपनी पत्नी का परित्याग कर दिया था और पत्नी ने मरते समय यह प्रतिज्ञा की थी कि उसकी संतान को उसके पति को न दिखाया जाय। एक कहानी में एक मछुवारा साधु बन जाता है, बरसों जब वह अपने नगर आता है तो उसकी माँ उसे पहचान लेती है किन्तु पड़ोसियों को जब मालूम पड़ता है कि यह तो मछुआरा है तो माँ-बेटे दोनों का बहिष्कार कर दिया जाता है। “खेटग्रामस्य चक्रोद्भवः” जैसी कहानियों में गुजरात के खेड़ा जैसे गाँवों में बस के पहुंचने पर जो सामाजिक परिवर्तन होता है उसका मनोरम चित्रण गुजरात के ग्रामीण परिवेश से संबद्ध कथाओं में है। इसी प्रकार की सामाजिक परिवेश की कथावस्तुओं पर लिखी पं. क्षमाराव की कहानियाँ आधुनिक लघुकथा का अच्छा निदर्शन सिद्ध होती हैं। उनमें विषयवैविध्य भी है, शैली भी शुद्ध एवं सुन्दर है। गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री भी भट्टयुग के कथालेखक हैं यद्यपि उनकी कथाओं के संकलन पुस्तक रूप में बहुत बाद में प्रकाशित हुए। उनकी “ललितकथाकल्पलता” में भाँति-भाँति की छोटी बड़ी १५ कहानियाँ हैं, जिनमें कुछ तो चम्पू शैली में गद्यमय है यद्यपि उनमें गद्य अधिक है, कहीं-कहीं कवि ने पद्य में कथोपकथन या वर्णन समाविष्ट कर दिये - हैं। कुछ ३० पृष्ठों की हैं, कुछ ४-५ पृष्ठों की। कुछ एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। “प्रतिफलम्” और “यदस्मदीयं न हि तत् परेषाम्” शीर्षकों से एक ही सूत्र से जुड़ी दो कहानियाँ इसमें मुद्रित हैं। एक उदारमना ठाकुर जसवन्तसिंह (जिसका नाम संस्कृतीकृत ४८८ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास करके लेखक ने यशस्वत सिंह कर दिया है) के यहाँ माली का काम करने वाला वीरू बहुत ईमानदार है। मालिक कुछ दिन के लिए जाता है पर महीनों तक नहीं लौटता है, पर माली ईमानदारी से काम करता रहता है। सहसा दो हजार रूपये की थैली उसका वकील माली को लाकर देता है कि मालिक की मृत्यु हो गई पर वे तुम्हारे लिए वसीयत में यह छोड़ गये हैं। इसे अपनी ईमानदारी का प्रतिफल जानकर माली खुश हो जाता है। यह है “प्रतिफलम्” की संक्षिप्त कथा। उसी माली के दो हजार रुपयों को ठगकर खसोट लेने वाले एक व्यापारी से दूसरी कहानी संबद्ध है जो उसके धन की पोटली ऐंठ लेता है और पुराने पेड़ के कोटर में छिपाकर प्रसन्न हो जाता है, जबकि दैवयोग से माली को तत्काल ही वह पोटली मिल जाती है- यह है “यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम्” का अर्थ ।
- ऐसी कथाओं में प्राचीन शैली से घटना का वर्णन है। परिवेश या चरित्रचित्रण की शिल्पात्मक नूतनता नहीं है। किन्तु ये कहानियाँ एक व्यापक फलक का स्पर्श करती हैं। लेखक द्वारा १९७६ में इनका प्रकाशन किया गया था। – भट्टयुग में शिक्षाप्रद, बालपाठ्य और सरल कथाएँ लिखने की धारा भी यथावत् चलती रही। ऐसी कथाएँ पत्र-पत्रिकाओं में निकलकर पाठ्यपुस्तकों में तो संकलित होती ही रहीं, अलग से भी कथासंकलन प्रकाशित हुए। भट्ट जी ने स्वयं भी ऐसी १५-२० कथाएँ स्वलिखित बालपाठ्यपुस्तकों में संकलित की हैं जो स्वयं उन्हीं की लिखी हुई हैं। “संस्कृतसुबोधिनी” नाम पाठ्यपुस्तक के दोनों भागों में ऐसी कहानियाँ देखी जा सकती हैं, जिनमें से किसी में माता-पिता का महत्त्व वर्णित है, किसी में शिवाजी की गुरुभक्ति, किसी में समय का मूल्य। “भारती” संस्कृत पत्रिका में, जिसका संपादन १६५२ से १६६४ तक भट्ट जी ने भी किया था विविध कथाकारों की कथाएँ प्रकाशित हुई। इनमें से कुछ संकलित हुई जो “लघुकथासंग्रहः” शीर्षक से श्रीगिरिराजशर्मा के संपादन में १६७५ में जयपुर से प्रकाशित हैं। १६८५ में प्रकाशित कथामृतम् (गणपति शुक्ल) शिक्षाप्रदकथाओं का संकलन है। राघवन्-युग के कथाकारों में नवीन शैली के प्रयोग करने वाले अनेक लेखकों की कहानियाँ “संस्कृत प्रतिभा’ पत्रिका में निकलती रही हैं जो केन्द्रीय साहित्य अकादेमी की मुख पत्रिका के रूप में संस्कृत की साहित्यिक पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व १E५४ से निरन्तर कर रही है। डॉ. राघवन के स्वर्गारोहण के बाद डॉ. विद्यानिवास मिश्र, डॉ. मल्लदेवरू आदि विद्वानों के संपादकत्व में यह निकलती रही है। इसी अवधि में पंजाब से निकलने वाले “विश्वसंस्कृतम्”, नागपुर से निकलने वाले “संस्कृतभवितव्यम्” तथा विभिन्न प्रान्तों से निकलने वाली अन्य पत्रिकाओं में भी कहानियाँ तो बराबर प्रकाशित होती ही रही है। इस बीच विभिन्न संस्कृत अकादमियों से भी संस्कृतमुख पत्रिकाएँ निकलने लगी हैं। राजस्थान संस्कृत अकादमी की त्रैमासिक पत्रिका “स्वरमंगला”, मध्य प्रदेश संस्कृत अकादमी की “दूर्वा”, दिल्ली संस्कृत अकादमी की “संस्कृतमंजरी” आदि इसी प्रकार की पत्रिकाएँ हैं, जो कहानियों को सर्वाधिक उपयुक्त पाती हैं। इन पत्रिकाओं की अपेक्षा की गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य ४८६ पूर्ति के लिए लिखी जाने वाली संस्कृत कथाओं ने जिस प्रकार आधुनिक कथालेखकों को मिली सर्जनात्मक प्रेरणा के फलस्वरूप संस्कृतकथासाहित्य को समेधित किया है उसी प्रकार विभिन्न परीक्षाओं के पाठ्यक्रमों में आधुनिक संस्कृत की पाठ्यवस्तु रखने की नीति ने भी आधुनिक लेखकों को नया साहित्य लिखने की प्रेरणा दी है। इसके फलस्वरूप माध्यमिक उच्च माध्यमिक, स्नातक आदि स्तरों के संस्कृत पाठ्यक्रमों में निर्धारित “संस्कृत गद्य” की पाठ्यवस्तु के लिए पाठ्यपुस्तक बनाने वाले संकलनकर्ताओं ने नई कहानियों को भी अपने गद्यसंकलनों में रखा है। अधिकांश पाठ्य चर्याओं में जो गद्य ग्रन्थ नियत हैं उनमें कादम्बरी के शुकनासोपदेश या पंचतंत्र और हितोपदेश की कथाओं के साथ नये लेखकों की कहानियाँ भी संकलित हुई, जिनमें अप्पाशास्त्री, भट्टमथुरानाथशास्त्री आदि के अतिरिक्त अन्य आधुनिक लेखक भी समाविष्ट किये गये। कभी-कभी इन संकलनों की अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए भी लेखकों ने कहानियाँ लिखकर दी। ऐसे कथासंकलन देश के विभिन्न प्रान्तों से निकले। काशी के शिवदत्तशर्मा चतुर्वेदी ने १६६६ में ‘अभिनवकथानिकुंजः” नाम से जो कथासंकलन प्रकाशित किया उसमें भट्टमथुरानाथ शास्त्री, सूर्यनारायणाचार्य, गिरिधरशर्मा चतुर्वेदी आदि के अतिरिक्त द्विजेन्द्रनाथ मिश्र, “निर्गुण" (जो संस्कृत विद्वान् होने के साथ-साथ हिन्दी के भी यशस्वी कथाकार रहे),पं. बलदेव उपाध्याय, पं. बटुकनाथशास्त्री खिस्ते, जगन्नाथ पाठक, म.म. परमेश्वरानन्द शास्त्री, गजानन शास्त्री मुसलगांवकर आदि की कहानियाँ भी सम्मिलित हैं, जिनमें से कुछ संकलनकर्ता के अनुरोध पर ही लिखी गई थीं। इनमें एक बिन्दु सभी में समानता से परिलक्षित होता है, वह है सरल, सहज और अनलंकत भाषा। शेष तत्त्वों में किसी कहानी में चरित्र चित्रण प्रधान है, किसी में चित्रोपम वर्णन, किसी में घटनावैचित्र्य और किसी में कथोपकथन । कुछ कथाओं को छोड़कर अधिकांश की कथावस्तु आधुनिक युग की सामाजिक स्थितियों से ली गई है। बहुत कम ऐसी हैं जिनमें अपाला आत्रेयी जैसे वैदिक पात्र या पौराणिक पात्र कथानायक हों। यदि पुराने पात्रों को लेकर कथाएं लिखी भी गई हैं तो कुछ ऐसे प्रयोग भी हुए हैं कि आज जयदेव और पद्मावती दिल्ली में रह रहे होते तो उनका जीवन कैसा होता। इस प्रकार के प्रयोग ए.आर. रलपारखी जैसे सर्जकों ने “जयदेवपद्मावतीयम्” जैसी कथोपकथानात्मक नाट्यरचनाओं में भी किये हैं। इसके आधार पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि नये युग की छाप जिस विधा में सर्वाधिक प्रतिफलित हुई है वह विधा है कथानक, जिसमें लघुकथा और उपन्यास दोनों आते हैं। “संस्कृत प्रतिभा” में छपी कहानियों में उपर्युक्त समस्त प्रवृत्तियाँ देखी जा सकती हैं। प्राचीन साहित्य की उक्तियों को लेकर पूर्णतः नये परिवेश में उन्हें जोड़कर चमत्कार विनोद या हास्य व्यंग्य की उद्भावना के नये प्रयोगों का निदर्शन अशोक अकलूजकर की कुछ कथाएँ हैं, जिनमें कहीं तो “ममैव जन्मान्तरपातकानां विपाकविस्फूर्जथुरप्रसह्यः” जैसी उक्ति पर एक विश्वविद्यालय में संगोष्ठी किये जाने पर उद्भूत हास्य विनोद है, कहीं “ततो ४६० आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास जयमुदीरयेत्” पर विनोदात्मक निबन्ध है। उपनिषद् की उक्ति को हास्य विनोद की समर्थक बतलाते हुए लेखक उसे थोड़ा रूपान्तरित कर पैरोडी सी बनाकर रखता है “आनन्दं भाषणे विद्वान् न बिभेति कुतश्चन।” शीम श्री स्वामीनाथ आत्रेय भी प्रसिद्ध कथाकार हैं। उन्होंने राजनैतिक परिवेश की पृष्ठभूमि में “बुबुदपृष्ठे मशकः" जैसी कथाएँ लिखी हैं। राधावल्लभ त्रिपाठी (जो “दूर्वा” पत्रिका के संपादक भी रहे हैं) की कथा ‘महाकविः कंटका" भी एक ऐसे कवि की बौद्धिक सनक पर व्यंग्य करती है जो राजनीति की महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होकर हास्यास्पद स्थितियों को जन्म देता रहा है। शुद्ध हास्य-विनोद की कथाओं में वाई.महालिंग शास्त्री की “शाकल्यस्य स्वभावोक्तिः” आती है जिसमें एक भोला सा छात्र स्वभाबोक्ति का पद्य बनाना चाहता है और रात को जोर से उसे पढ़ता है। जिसकी कालीमा “आखू पुरो भित्तिबिलं विधत्तः प्रधावतः संप्रति भूरिमायौ।” इसे सुनकर चोर जो सेंध लगाने आते हैं यह समझकर भाग खड़े होते हैं कि यह हम पर कही जा रही उक्ति है। पी.एस. शुभरामभट्ट (पट्टर) की उंछवृत्तिः भी ऐसा ही प्रयोग है। श्री डी.टी.ताताचार्य की कथा “वधविनिश्चयः, सामाजिक आधनिक पारिवारिक कथावस्त पर आधारित है। जी. राम की कहानी “हा हन्त । हन्त विधिना परिवंचितोऽस्मि” परीक्षाकक्ष में एक शरारती छात्र द्वारा नकल आदि अवैध तरीकों से पास होने के प्रयत्नों का चित्रण करती है जिसमें प्राध्यापक तक की मिलीभगत होती है। अन्त में छात्र रंगे हाथों पकड़ा जाता है और इसे विधि की विडम्बना बताता है। गि कथालेखकों में को.ल.व्यासराजशास्त्री ने “हसत” शीर्षक से छोटे-छोटे चुटकुले लिखने में विशेष रुचि ली है। उनका एक चुटकुला है ‘दारिकापहरणम्” जिसमें एक वृद्धा माता इस बात पर हायतौबा मचाती है कि उसकी पुत्री का अपहरण हो गया है। वस्तुतः जामाता द्वारा कन्या के ले जाने की घटना को ही यह दारिकापहरण कहती है। रेवाप्रसाद द्विवेदी की लघुकथाएँ भी आधुनिक सामाजिक स्थितियों पर आधारित हैं। “त्रिपादी’ शीर्षक कहानी में त्रिपादी याने रिक्शा चलाने वाले एक युवक की मनःस्थिति वर्णित है जो विश्वविद्यालयीय शिक्षा के लिए बनारस आता है, जीविका के लिए रिक्शा चलाता है पर इसमें हेठी नहीं समझता, क्योंकि वह कबीरमठ में रहता है और कबीर के जीवनदर्शन के अनुसार निःसंग और सार्थक जीवनयापन करता है। “कस्य दोषः” शीर्षक कहानी में द्विवेदी जी ने नारीत्व के इस अभिशाप का मार्मिक चित्रण किया है कि क्रूर पति के हाथों पीटी जाने पर पत्नी को उसी की होकर रहना पड़ता है और वैधव्य का अभिशाप भी भोगना पड़ता है। श्रीनिवास दीक्षित ने अपनी कहानी “रागधारा” में बारह वर्ष की एक लड़की की करुण कथा चित्रित की है जिसे अपने बाप का योगक्षेम चलाने के लिए निरन्तर गाते रहना पड़ता है, अन्त में कैंसर से पीडित हो जाने से उसका गाना बन्द हो जाता है। दीक्षित जी ने “अमृता” आदि शीर्षक से अन्य करुण कथाएँ भी लिखी हैं। कि शिकिी ABBETE दिल दी कि मलाडीको नाला ४६१ मी गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य सामाजिक कथावस्तु के अतिरिक्त अन्य विविध प्रकार की वस्तु और शैली की कथाएँ भी पत्रपत्रिकाओं में बराबर निकल रही हैं। हमने पहले प्राचीन पात्रों को आधुनिक युग में लाकर उनके कारण हास्यजनक स्थितियाँ चित्रण करने वाली कथाओं का संकेत दिया है। उसी प्रकार प्राचीन पात्रों की मनःस्थिति का आधुनिक मनोविश्लेषण की दृष्टि से चित्रण करने वाली कहानियाँ भी लिखी गई हैं। उदाहरणार्थ विश्वनारायणशास्त्री की कथा “देवराजकुतूहलात्” में गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या की मनःस्थिति का वर्णन है। वह अपने आपको नितान्त अकेली, उपेक्षित और अपने पति द्वारा तिरस्कृत अनुभव करती है। ऐसी स्थितियों में इन्द्र के सानिध्य में उसका मन लगना स्वाभाविक बताया गया है। देशी-विदेशी कहानियों के अनुवादों का क्रम तो निरन्तर चल ही रहा है। ऐसी कहानियाँ पत्र-पत्रिकाओं में तो निकलती ही रहती हैं (जैसे गणपति शुक्ल ‘वात्स्यायन” ने एक नीमाडी लोककथा का अनुवाद संस्कृत प्रतिभा के प्रवेशांक में किया था- तथा डॉ. राघवन् ने स्वयं १६६६ में एक आर्मीनियाई कहानी का अनुवाद किया था) संकलनों के रूप में भी निकली हैं। विभिन्न देशों की सौ कहानियों का हिन्दी व संस्कृत में अनुवाद जयपुर के पद्म शास्त्री ने “विश्वकथाशतकम्” नाम से दो भागों में सन् १९८७ में प्रकाशित किया है। इसका संकेत दिया जा चुका है। यह कथासंग्रह: विभिन्न कथालेखकों के कथासंकलनों के प्रकाशन का क्रम भी निरन्तर चल रहा है। कुछ संकलनों के नामों और प्रकारों से इसकी निरन्तरता का अनुमान हो सकता है- किन १. इझुगन्धा ताशयाना अभिराज राजेन्द्र मिश्र (इलाहाबाद १६८६) २. कथासप्तकम् नलिनी शुक्ला (कानपुर १६८४) ३. कथानकवल्ली शिश कलानाथ शास्त्री (रा.सें.अका., जयपुर १६८७) ४. बृहत् सप्तपदी दुर्गादत्तशास्त्री (कांगडा १६६१) ५. कथासरः न वी वेलणकर द्वारा संपादित (बंबई १६८३) ६. संस्कृतभवितव्यम् लकार श्रीधरभास्कर वर्णेकर (नागपुर १६५४) ७. गल्पकुसुमांजलिः ल ग क म.म कालीप्रसादशास्त्री (अयोध्या १६६०) हा कि ८.कौमुदीकथाकल्लोलिनी के ही रामशरणशास्त्री (वाराणसी १६६१) मारक ६. कथावलिः ति शामर नही । तिरुवेंकटाचार्य (चित्तूर १६७२) छ मिल जाय १०. संस्कृतकथाकुंजम् जगा जांगणेशरामशर्मा (राज.सं.अकादमी १६७२) अनुन 5 ११. अनन्तमार्गः छिया डॉ. कृष्णलाल (दिल्ली) उतर है कि नातिकाजा १२. कथामंजरी कर्णवीरनागेश्वर राव (गंटर का एक १३. अभिनवकथनिकुंजः शिवदत्तशर्मा चतुर्वेदीसंपादित काशी १९६६ १४. आन्नदेश्यहास्यकथाः सूर्यनारायणशास्त्री, डॉ. वेंकटरमणः हैदराबाद १६६४ में EिSE लि. सागारी YER आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास १५. आन्ध्रकाव्यकथा सूर्यनारायणशास्त्री हैदराबाद १९७२ १६. कथासंवर्तिका भागीरथप्रसाद त्रिपाठी (वागीश) शास्त्री वाराणसी १६८० १७. उपाख्यानत्रयम् नरसिंहाचार्य, मैसूर १८. राजस्थानस्याधुनिकाः संपा-पुष्करदत्तशर्मा रा.सं.अकादमी १६८० संस्कृतकथालेखकाः १६. रंजनकथामाला डॉ कमल अभ्यंकर, मुम्बई २०. सुबोधकथासंग्रहः मुम्बई २१. अभिनवसंस्कृतकथा नारायणशास्त्रीकांकर, जयपुर १६८७ २२. नाट्यकथासागरः भि. बेलणकर संपादित : बंबई १९८४ २३. कथाकौमुदी प्रभुनाथ द्विवेदी वाराणसी १६८८ २४. संस्कृतव्यंग्यविलासः प्रशस्यमित्रशास्त्री इलाहाबाद २५. निम्नपृथिवी केशवचन्द्रदाश पुरी २६. दिशा विदिशा केशवचन्द्रदाश २७. महान् (बालकथा) केशवचन्द्रदाश पुरी २८. एकदा (बालकथा) केशवचन्द्रदाश २६. सिद्धेश्वरीवैभवम् द्वारकाप्रसादशास्त्री रायबरेली १६७८ ३०. श्रीमाताकथामंजरी अनवादकः जगन्नाथवेदालंकारः, पांडिचेरी १५७ ३१. बालकथाकुंजः भि. वेलणकरः ३२. विपंचिका अनु. नागराजः सुधर्मा, मैसूर १६७६ ३३, कथावल्लरी श्रीधर भास्कर वर्णेकर १६६३ यह सूची संकेत और निदर्शन मात्र के उद्देश्य से यथोपलब्ध सूचनाओं के आधार पर इस दृष्टि से दी गई है कि इससे उस व्यापक फलक और शैली वैविध्य का कुछ अनुमान हो सकता है कि किस प्रकार संस्कृत में कथाएँ अनूदित और संकलित होती रही हैं- और समय-समय संकलकों और संपादकों ने इस युग के संस्कृतकथालेखन की जानकरी के प्रसारार्थ अपने-अपने क्षेत्र की कहानियों के संकलन में किस प्रकार की रुचि ली है। इनमें से कुछ की समीक्षा पहले की जा चुकी है। वागीश शास्त्री (भागीरथप्रसादत्रिपाठी) की कथासंवर्तिका में १३ कहानियाँ दशार्णदेश की लोककथाओं की वस्तु एवं शैली का आस्वादन संस्कृत पाठक को बड़े ही रोचक एवं मार्मिक ढंग से करा देती हैं। __“इक्षुगन्धा” को साहित्यअकादेमी पुरस्कार मिल चुका है। इसके प्रणेता अभिराज राजेन्द्र मिश्र कविता, नाटक आदि अनेक विधाओं में सर्जन कर रहे हैं। इनकी कथाओं में भी आधुनिक परिवेश, मनःस्थितियों का चित्रण, सामाजिक रूढ़ियों की विडम्बनाओं पर गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रहार आदि युगीन तत्त्व, सुगठित शैली में निबद्ध मिलते हैं। नारी के अबला पक्ष का इन्होंने भी मार्मिक चित्रण किया है। “शतपर्विका” कथा में भी यही पक्ष उभरा है। “जिजीविषा” में कामकाजी महिला के संघर्ष का चित्रण है, “भग्नपंजर” में विधवा की दुर्दशा का। पुत्र की चाह में किस प्रकार कन्याएँ पैदा होती हैं। इन सबको पिता के आक्रोश, उपेक्षा और तिरस्कार का पात्र केवल इसीलिए बनना पड़ता है कि वे कन्याएँ हैं। यही वस्तु शतपर्विका की कथायें हैं। कन्याओं की उपेक्षा करने वाला पिता अचानक एक दिन कन्या के गुण देखकर पुत्र-पुत्री में भेदभाव की पीड़ा भूल जाता है- सुखान्त परिणति हो जाती है। “भग्नपंजर” में बालविधवा वन्दना बाप की झिड़कियां और संयम के उपदेश सुनती रहती है, किन्तु “परोपदेशे पांडित्यम्” का एहसास उसे तब होता है जब उसका बूढ़ा बाप माँ से प्रेमालाप करने लगता है। जब सांसारिक सुखों की अनदेखी वृद्धावस्था में भी लोग नहीं कर पाते तो मैं क्यों सारा जीवन रूढिग्रस्त होकर बिताऊँ, यह सोचकर वह अपने निष्कपट प्रेमी जयदेव के लिए घर से निकल पड़ती है। ‘जिजीविषा" में सेवारत लड़की “तपती” बॉस को शरीर देकर नौकरी कर पाती है, उसकी माँ उसका हाथ एक भले लड़के को सौंपने का सपना मात्र पाल रही है। उल्लेखनीय है कि इन कथाओं में विषय परिस्थितियों का करुण चित्रण होते हुए भी अन्त में आशा के स्वर से ही होता है। “इक्षुगन्धा’ कहानी में नायक का प्रेम बचपन में जिस ग्रामकन्या बिट्टी से होता है वह किसी और को ब्याह दी जाती है। संयोग से नायक कलक्टर बनकर उसी जिले में आ जाता है जहाँ बिट्टी का पति कलक्टरी में काम कर रहा होता है। नायक को मालूम होता है कि बिट्टी ही उसके घर में नौकरानी का काम कर रही है। अन्त में वह अपनी पत्नी प्रभावती को इस बात पर राजी कर लेता है कि जिस बिट्टी का विवाह निर्धन होने के कारण नायक से नहीं हो पाया था उसी के लड़के के लिए वह बिट्टी की सुन्दर सुशील किन्तु निर्धन कन्या का हाथ स्वयं माँग लेगा। इस प्रकार सुखान्त परिणति में कथा समाप्त होती है। इस प्रकार आधुनिक कथालेखक अपने परिवेश में जिन स्थितियों को देखता है उन्हें जिस आधुनिक भारतीय भाषा की कहानियाँ वह पढ़ता है उनके अनुरूप शैली में ढालकर लिख रहा है। इसी कारण उनमें देश और काल की पूरी प्रतिच्छाया देखने को मिलती है। राजेन्द्र मिश्र में भोजपुरी गीतों की भावभूमि ही नहीं उनके उद्धरण भी जिस प्रकार देखे जा सकते हैं उसी प्रकार केशवचन्द्र दाश में उड़ीसा के देशकाल, भाषा और लोकसंस्कृति का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। उनकी ५० छोटी-छोटी कहानियाँ “दिशा विदिशा” में संकलित हैं। सभी में नवयुग की सेवारत नारी, पुरानी और नई पीढ़ी के विचारों का अन्तराल, पति-पत्नी, सास-बहू के संघर्ष आदि की पृष्ठभूमि पर मार्मिक कथाएँ हैं। ‘दूरस्थलोके” एक पत्नी का दूरस्थ पति को मार्मिक पत्र है कि बेटी बहुत याद करती है, -लौट आओ वह लिखती है। “पश्यत, पैसा (धन) कदापि न मनसि शान्तिमाप्तुं प्रभवति।।” ‘रजोमहोत्सवः’ में रमा और नलिनी दो सहेलियाँ हैं किन्तु बड़े घर में ब्याह कर एक अभिजात बन जाती हैं तो कितनी दूरी आ जाती है दोनों में! ‘झरी", “स्त्रीप्रत्ययः"४४ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास “शीतलकंकणम्” “चन्द्रशाला” आदि कथाओं में वही करुणा की टीस है। लेखक ने लोतक शब्द आँसू के लिए जगह-जगह प्रयुक्त किया है। भाषा और शैली में नये प्रयोगों के निदर्शन भी दाश की कथाओं और उपन्यासों में स्पष्ट ढूँढे जा सकते हैं। यहाँ आते-आते ऐसा लगता है कि बाणभट्ट के युग से समय का चक्र बिलकुल विपरीत ध्रुव पर आ गया है। बाणयुग में जहाँ लम्बे समस्त शब्द और लम्बे वाक्य उत्कृष्टता के प्रतीक थे वहाँ दाश में बहुत छोटे वाक्य दो या तीन शब्दों से स्थितियों का संकेत देते हैं। अधिकांश वाक्यों में क्रियापद नहीं है। उड़िया और बोगला भाषाओं के प्रभाव से किये गये ये नये प्रयोग नवयुगीन लेखन की एक अलग पहचान सी बनाते लगते हैं- “काग जा जि - “शूकररक्षी कोदंडः। परिभ्रमणी तस्य इच्छानुसारिणी। वसतिः संध्यानुवर्तिनी । शूकरचारणं तस्य जीविका। बाल्यात् स शूकरसंचारकः । मालिकस्तु अन्यः।” (चन्द्रमंडलम्) (दिशा विदिशा : I EPF FE कहीं-कहीं तो दाश के दो-तीन अनुच्छेदों में एक भी क्रिया पद नहीं आता, उसे “ऊहित” कर पाटक समझ लेता है यह बांगला, उड़िया आदि भाषाओं के कथालेखन की शैली का प्रतिबिम्ब है। सिद्धिः” नामक कहानी में एक भोला नागरिक अपने मुहल्ले के मन्दिर को जीर्ण-शीर्ण देखकर चाहता है कि उसकी मरम्मत करा दी जाए, आखिर वह सार्वजनिक पूजा-स्थल है। उसकी अपीलों का असर नहीं होता। लोगों की उपेक्षा से वह खिन्न रहता है। एक दिन वही होता है, आँधी-तूफान में मंदिर ध्वस्त हो जाता है। दूसरे दिन वह देखता है कि मन्दिर के टूटे पत्थरों को उठाकर लोगों ने अपने-अपने घरों के सोपान बना लिए हैं। दाश की कहानियाँ अति संक्षिप्त होती हैं। लेखक बहुत सी बातें पाठकों के समझने के लिए छोड़ देता है। केवल भावभूमि की एक क्षीण सी रेखा खींच देता है। कहीं-कहीं क्षेत्रीय भाषाओं के शब्द यों की यों आ जाते हैं, कहीं पाणिनीय व्याकरण की अधिक परवाह नहीं की गई है। क्षेत्रीय प्रभाव ग्रहण कर आज का लेखक जो नई शैली बना रहा है वह बहुतों को प्राचीन परंपरा से कटने का सा आभास दे सकती है, बहुतों को संस्कृत भाषा की “जीवन्तता” का प्रमाण लग सकती है। आखिर युगपरिवर्तन के साथ समाज और स्थितियों के बदलने पर उसके चित्रण के लिए शैली में, शब्दों में और भाषा में सभी में परिवर्तन की अपेक्षा स्वाभाविक ही तो है ! “दिशा विदिशा” कहानी की (जिसके नाम पर संकलन का नामकरण हुआ है) नायिका विदिशा को अपने परिवार के दस सदस्यों का पेट भरने के लिए अपने आप को हर रात बेचना पड़ता है। डा. दाश पुरी के जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय में दर्शन के प्रोफेसर हैं और उपन्यास, कथा, कविता सभी में प्रयोगधर्मी नव शैली के समर्थ हस्ताक्षर के रूप में स्थापित हो चुके हैं। “कथानकवल्ली” में कलानाथशास्त्री के एक उपन्यास और पाँच कहानियों का संकलन भी आधुनिक परिवेश के कालेज में पढ़ने वाले छात्र और छात्रा का प्रतिभाशाली THITHAT HET TETT AT HIP FE गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य होने के कारण उद्भूत स्नेह का चित्रण करने वाली कहानी “दिग्भ्रमः” पड़ोस में रहने वाले एक युवक और युवती का मौन प्रेम, किन्तु रूढ़िग्रस्त परिवार के होने के कारण उस समय युवक का संकुचित हो जाना और वर्षों बाद दोनों के अपने-अपने क्षेत्रों में स्थापित और विवाहित हो जाने के बाद अचानक मिलने पर इस बात का सन्तोष कि रूढ़ि में बँधे और दकियानूस होने के कारण ही सही, उन्होंने उन भोले क्षणों में कोई गलती न की तो अच्छा ही रहा (मर्यादा) ऐसी कहानियाँ नई भावभूमि, परिवेश और घटनाओं का नई शैली में प्रस्तुतीकरण करती हैं। “अस्पृश्यताया रहस्यम्” में एक पुराना संस्कृतविद्वान् एक नवयुवक को संस्कृत पढ़ाने से इन लिए मना कर देता है कि वह सवर्ण नहीं है, किन्तु वही नवयुवक डाक्टर बन कर एक बार उसकी मन लगाकर चिकित्सा करता है। बुढ़ापे में ऐसी भयंकर गैंग्रीन जैसी व्याधि से ग्रस्त पंडित जी को तब मालूम होता है कि वस्तुतः रोग के कारण अस्पृश्य तो वे हो गये हैं, सामाजिक रूढ़ियों से बनी अस्पृश्यता को लेकर चलना उनकी गलती ही थी। “दभज्वरः” में नये-नये प्रशासनिक सेवा में आए दो नवयुवक एक धोती पहने विद्वान के साथ प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रहे होते हैं और उसे पुराणपंथी समझकर अंग्रेजी में आपस में उसकी आलोचना करते हैं किन्तु अन्त में मालूम होता है कि वह विद्वान् अंग्रेजी का प्रोफेसर है और उस कमिश्नर का गुरु है जिसके नीचे काम करने वे जा रहे हैं। । कथालेखन में कुछ अनूठे प्रयोग भी कलानाथ शास्त्री ने किए हैं। प्राचीन भारतीय परंपरा के विरुद्ध नये युग में किस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में मूल्यों का हास हुआ है इसके लिए लेखकों ने कहानियों में आधुनिक युग की विकृतियों का चित्रण तो किया ही है, एक नया प्रयोग इस प्रकार का भी किया गया कि एक ही शीर्षक से दो कहानियाँ अलग-अलग परिवेश की लिख दी जायँ- जिनमें एक प्राचीन भारतीय परिवेश की हो जिसकी उदात्तता और उत्कृष्टता स्वतः प्रकट होती हो, दूसरी उसी क्षेत्र की आधुनिक परिवेश की कहानी ऐसी हो जिसमें विकृति का चित्रण हो। लेखक अपनी ओर से तुलना या मूल्यांकन हेतु एक शब्द भी न लिखे, पाठक दोनों शब्दचित्रों की पारस्परिक भिन्नता का आकलन स्वयं कर ले। “धर्मक्षेत्रे” नाम से दो शब्दचित्र संस्कृतरत्नाकर (१३/४ अक्टूबर १६४८) में प्रकाशित हुए- एक में प्राचीन भारतीय गुरुकुल के धर्माचरण का शब्दचित्र है- दूसरे में आज के भारत में धर्मसुधार के अतिवादी प्रयत्लों का है। इसी प्रकार “कुरुक्षेत्रे’ शीर्षक से दो शब्दचित्र हैं- एक में प्राचीन भारत के धर्मयुद्ध की अच्छी परम्पराओं का, जिसमें सायंकाल होते ही दोनों पक्षों के योद्धा युद्धविराम कर देते थे, कोई धोखा नहीं किया जाता था, दूसरे में आधुनिक बम युद्ध का, जिसमें छिपकर घात करने या धोखे से मारने का ही लक्ष्य रहता - है (सं. रत्नाकर १३/६, दिसम्बर १६४८) भी है इसी प्रकार के प्रयोग केवल नये तरीके से बात करने की दृष्टि से ही किये गये थे। चूंकि ये प्रयास लेखक की छात्रावस्था के थे अतः इनमें अपरिपक्वता दृष्टिगोचर होती है। एक अन्य प्रयोग केवल विनोद की दृष्टि से किया गया था, जिसमें यह बतलाना चाहा था ४६६ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास कि मनुष्य के शरीर में मस्तिष्क के होने से ही वह चित्रण और उधेड़बुन में पड़ा रहता है, वह न हो तो आदमी सानन्द जीवन बिताये। “मस्तिष्कम्” (भारती, ६/२) एक छोटी सी कहानी है जिसमें एक शल्यचिकित्सक किसी के सिर का आपरेशन करता है पर दिमाग वापस रखना भूल जाता है। मरीज छुट्टी पाकर चला जाता है। उसे ढूंढते हुए वह उसका मस्तिष्क वापस लगाने उसके पास पहुँचता है तो पाता है कि मरीज स्वस्थ-सानन्द है और मस्तिष्क जैसी इल्लत वापस फिर करवाना नहीं चाहता। यह केवल काल्पनिक व्यंग्यकथा है, केवल नये प्रयोग के उद्देश्य से ही लिखी गई है। शायद लेखक ने ऐसे प्रयोगों को महत्त्वहीन मानकर अपने किसी कथासंकलन में इन्हें स्थान नहीं दिया है पर नवलेखन में हो रहे अतिनूतन प्रयोगों के नमूने की दृष्टि से यहाँ इनका उल्लेख किया गया है। डॉ. कृष्णलाल के कथासंकलन “अनन्तमार्ग’ में “भद्रं प्रेम समानुषस्य कथमप्येकं हि तत् प्राप्यते”, “अवांछिता”, “अन्धत्वेन न हीयते ज्योत्स्ना”, “वंचना” आदि शीर्षक से जो कहानियाँ हैं उनमें अधिकांशतः जीवन-मूल्यों पर विचार, उपदेश आदि भी निहित हैं। “भद्र प्रेम” मे एक पथभ्रष्ट युवक पत्नी को भी छोड़ देता है, अन्त में पश्चात्ताप कर अध्यापक का जीवन जीता है। महाराष्ट्र से प्रकाशित कथासंकलनों में श्रीधर भास्कर वर्णेकर की कथाएँ उल्लेखनीय हैं। डॉ. वर्णेकर ने भी काव्य, नाटक, गीति सभी विधाओं में लेखनी साधिकार चलाई है। “संस्कृतभवितव्यम्” के संपादक के रूप में संस्कृतजगत् उनके विपुल कृतित्व से सुपरिचित है। उनकी कथाओं के अनेक संकलन हैं। “संस्कृतभवितव्यम्” में भी वे कथाएँ लिखते रहे हैं। “कथावल्लरी” की कथाएँ जयपुर के “संस्कृत मासिक” भारती में भी धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुई हैं। इनकी कथाओं में सामाजिक कथावस्तु और वर्तमान युग की विसंगतियों का मार्मिक चित्रण मिलता है। मूल्यह्रास की स्थितियों से उद्विग्न समाज की क्या दुर्दशा होती है इसका चित्र अनेक कहानियों में देखा जा सकता है। शराबी पति द्वारा तिरस्कृत भारतीय महिला किस कठिनाई से जीवन यापन करती है, कभी अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह कर संन्यास या समाज सेवा का जीवन बिताने को बाध्य हो जाती है पर वहाँ भी उसका अतीत उसका पीछा नहीं छोड़ता (“अन्नपूर्णा”-कथावल्लरी”) वी. वेलणकर बंबई के संस्कृत नाटककार के रूप में सुविदित हैं। उनके मंचन योग्य संस्कृतनाटक “श्रीरामसुधासंस्कृतनिधि” से प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने काव्य भी लिखे हैं। इस सबके साथ उन्होंने छोटी-छोटी कथाओं के संकलन और नाटकों के कथासारों का संकलन भी निकाला है। “कथासार’ में उन्होंने अनेक कथाकारों की कथाएँ संकलित एवं संपादित की हैं। कमल अभ्यंकर की ‘चन्दनपेटिका” जशवंती दवे की “सुखम् अनु”, एस. जी. देसाई की “शतं प्रति सौजन्यम्" यामुनेय की ‘पुरुषस्य भाग्यम्" आदि कथाएँ इसमें हैं। कमल अभ्यंकर ने विख्यात हिन्दी कथाकार प्रेमचन्द की “प्रायश्चित्त” कहानी का संस्कृतानुवाद किया है। जयपुर के डॉ. नन्दकिशोर गौतम ने सामाजिक स्थितियों पर जो कथाएँ लिखी हैं उनमें बहुत सी दहेज के अभिशाप पर हैं। दहेज की इस कथावस्तु पर आधारित कथाओं ४६७ गय-साहित्प/चम्पूकाव्य का संकलन उन्होंने “यौतुकवर्तनम्" नामक पुस्तक में किया है। डूंगरपुर के गणेशराम शर्मा कविता, निबन्ध, पत्रकारिता आदि के क्षेत्र में सुविदित हैं। उनकी कहानियों में सामाजिक कथावस्तु पर आधारित व्यंग्यविनोदात्मक, अनूदित, प्रेरित, सभी तरह की कथाएँ आती हैं। उनकी कथाओं का एक संकलन राजस्थान संस्कृत अकादमी में उपलब्ध है। संस्कृतकथाकुंजम् (१६७२) में लेखक की कथाएँ संकलित है। इनमें कथावस्तु का वैविध्य दृष्टिगोचर होता है। शैली विस्तारपरक, कहीं वर्णनात्मक और आख्यानात्मक है। अलंकृत और समस्तपदघटित शैली का पाण्डित्य प्रदर्शन नहीं है। “वक्रदर्शनो हनूमद्भक्तः” में बताया गया है कि एक धूर्त पुजारी हनुमान जी के एकान्तस्थ मन्दिर को पुजाने के लिए निकट के बन्दरों को चने खिला-खिलाकर हिला लेता है और अन्धभक्तों में प्रचारित कर देता है कि हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए उनके बन्दरों को खिलाना आवश्यक है। उसकी खुद की चने की दुकान चल निकली है। अन्त में एक बार कुछ बन्दरों का एक झुंड उसके पीछे पड़ जाता है जबकि उसके पास चने नहीं होते। वह घायल हो जाता है और चुपचाप गाँव से चला जाता है। ‘गर्दभपुरे नापिताचार्यस्य प्रतिष्ठानम्" एक ऐसे विनोदी और प्रत्युत्पन्नमति नापित की कथा है जो पढ़ालिखा है और हजामत बनाते समय गर्दों पर संस्कृत के श्लोक सुनाता जाता है। कुछ कहानियाँ बड़ी हैं ३०-४० पृष्ठों तक की, कुछ २-३ पृष्ठों की हैं। लेखक की कहानियाँ देश की पत्र-पत्रिकाओं में वर्षों तक छपती रही थीं, उनके संकलन भी प्रकाशित हैं। गणेशरामशर्मा की कुछ अन्य कथाओं के शीर्षकों से उनके वस्तुवैविध्य का अनुमान हो सकता है- सिद्धो रासायनिकः, शठे शाठ्यम्, स्वाभिमानः, अकिंचनस्यौदार्यम्, हास्यपरवशो राजकुमारः, त्रयस्तमाखुव्यसनिनः, भ्रातृस्नेहः, वीरपरीक्षा, भाग्यं पुरुषार्थश्च, श्रमदेवी, एका वाणी सत्या, पराधीना अतिथिदेवाः, पूर्वाग्रहः, स्पर्धा, भोजनभट्टानां सुहृद्गोष्ठी, धूर्तपुरोहितः, विधानभंगः। “संस्कृतकथाकुंजम्” की द्वितीय वीथी में १६ कहानियाँ और प्रकाशित हैं, भैरवतांडवम्, भवितव्यम, सस्वरं रोदनम्, स्नेहानुरोधाः, यदृच्छा, मिथ्याकीर्तिलेखकमहाराजः, श्रमसिद्धिः, भाग्योदयः, पारपत्रम्, स्वाभिमानः, पश्चात्तापः, निरक्षरोऽपि सिद्धो वैद्यराजः, व्यक्तित्वपरिचयः, कर्मकौशलम्, दांभिकः, संस्कृतपांडितस्योत्तराधिकारः, पाषाणशंकरः। डॉ. नारायणशास्त्री कांकर की अभिनवसंस्कृतकथा (१६८७) में १५ छोटी-छोटी कहानियाँ संकलित हैं। “कर्त्तव्यपरायणः द्राक्तरः”, “प्रक्षिप्तम् अपि पुनः प्राप्तम्”, दुर्दान्तः दस्युराजः, ‘न्यायकारी निदेशकः" आदि शीर्षकों से इनकी कथावस्तु का आभास हो जाता है। “न्यायकारी निदेशकः’ में बताया गया है कि किस प्रकार छात्रसंघ के चुनाव में दो प्रत्याशियों के बराबर-बराबर मत आ जाने पर संघर्ष को टालने के लिए पुलिस के सुझाव पर संस्थान के निदेशक ने एक प्रत्याशी के लिए एक नया “संरक्षक” पद निर्धारित कर स्थिति को संभाल लिया, क्योंकि पर्ची उठाने से विजयी पक्ष तो संतुष्ट हो जाता है, पराजित पक्ष नहीं। कांकर जी ने सरलता पर विशेष ध्यान दिया है, छोटे अनलंकृत वाक्य तो लिखे ही हैं, संधियाँ भी नहीं की हैं। समस्त पदों के अलावा अन्यत्र कहीं भी ‘संधि’ न करने ४६८ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास की उनकी शैली ने एक अलग ही पहचान बना ली है। अब तो वे जहाँ कहीं लिखते या बोलते हैं, इसी संधिविहीन शैली का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार लघुकथा लेखन विभिन्न शैलियों और वस्तुओं को लेकर आज भी निरन्तर प्रवर्तमान है। शिक्षाप्रद कथाएँ, लोककथात्मक कहानियाँ, प्रेमकथाएँ, ऐतिहासिक कहानियाँ, सामाजिक कथावस्तु पर आधारित प्रेरक कथाएँ, बोधकथाएँ, बालपाठ्य कथाएँ, प्रयोगधर्मी कथाएँ, सहज और अनलंकृत शैली में भी लिखी जा रही है और बाणभट्ट वाली अलंकृत शैली में भी। इसके अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं की कथाओं के अनुवाद भी हो रहे हैं। संस्कृत में कहानियाँ लिखने का क्रम आज भी चल रहा है और स्तरीय कहानियाँ लिखी जा रही हैं इस तथ्य का एहसास उस समय भी हुआ था जब इस सदी के पाँचवे दशक में अंग्रेजी दैनिक हिन्दस्तान टाइम्स ने एक अखिल भारतीय कथा प्रतियोगिता अंग्रेजी तथा विभिन्न भारतीय भाषाओं के लिए आयोजित की थी। इस अंग्रेजी पत्र के निदेशकों को तब आश्चर्य हुआ था जब संस्कृत की कहानियों की अनेक प्रविष्टियां उन्हें प्राप्त हुई, उन पर निर्णायक मंडल ने विचार किया और यह पाया कि संस्कृत कथाकार भी आधुनिक परिवेश की उतनी ही जीवन्त कहानियाँ लिख रहा है। जहाँ तक हमें स्मरण है इसमें बल्लभ डोभाल की “कृषकाणां नागपाशः” कहानी प्रथम आई थी। इस प्रतियोगिता में पुरस्कार पाने वाली सभी भारतीय कहानियों का अंग्रेजी अनुवाद इस अंग्रेजी दैनिक ने प्रकाशित भी किया था। कुछ आकाशवाणी केन्द्रों से संस्कृत कार्यक्रम प्रारम्भ हुए तो उनमें संस्कृत के उत्कृष्ट साहित्य से परिचय कराने के उद्देश्य से हिन्दी आदि प्रादेशिक भाषाओं की वार्ताएँ तो प्रसारित होने ही लगीं, कभी-कभी संस्कृत कविता, कहानियाँ आदि भी प्रसारित हुई। जयपुर के आकाशवाणी केन्द्र को इस दृष्टि से गिनाया जा सकता है। यहाँ से कुछ वर्षों तक संस्कृत कार्यक्रम के लिए निर्धारित समय में मौलिक कहानियाँ भी प्रसारित हुई। सामान्यतः ६-१० मिनट की अवधि में प्रसारित ये कहानियाँ अधिकतर मौलिक थीं। ऐसे कथाकारों में, जिन्होंने ऐसे प्रसारण किये आचार्य धर्मेन्द्रनाथ, कलानाथ शास्त्री, डा. नन्दकिशोर गौतम, डॉ. नारायण कांकर आदि अनेक कथालेखकों के नाम आते हैं। यही स्थिति देश के अन्य अनेक आकाशवाणी केन्द्रों की भी रही। - र पं. विष्णुकान्त शुक्ल जैसे गद्यकार और कवि जिन्होंने सर्जनात्मक प्रतिभा पाई है, कविता और ललित निबन्ध आदि के साथ लघुकथा भी लिखते रहे हैं। उनकी “अग्रजः” (स्वरमंगला) आदि कहानियाँ निरन्तर पत्र-पत्रिकाओं में देखी जाती रही हैं।
निबन्ध
आजकल निबन्ध नायक गद्यविधा से जिस विधा का बोध सामान्यतः भारतीय भाषाओं में हो रहा है वह अंग्रेजी के (Essay) के पर्याय के रूप में है जिसमें एक विषय-विशेष, उसके एक अंग विशेष या विचार-बिन्दु को लेकर लेखक ने अपने विचार निबद्ध किये हों। इस परिभाषा में बहुधा दो अन्य प्रकार भी समाविष्ट माने जाते हैं। एक तो ऐसा संक्षिप्त शोधलेख जिसमें लेखक नै किसी अन्वेषणीय बिन्दु पर नई खोज गय-साहित्य/चम्पूकाव्य ४६६ की हो और उसकी जानकारी संक्षेप में लेखबद्ध कर रहा हो (ग्रन्थाकार में नहीं) जिसे सामान्यतः शोधलेख, शोधपत्र (रिसर्चपेपर) ट्रीटिज (Treatise) या मोनोग्राफ (Mono graph) भी कहा जा सकता है जिसमें लेखक के व्यक्तिगत मौलिक विचार मात्र हों यह जरूरी नहीं, उसकी खोज से निकले तथ्य मात्र भी हो सकते हैं, निष्कर्ष भी। दूसरे इस प्रकार में वह विधा भी समाविष्ट है जिसमें किसी विषय पर लेखक के मौलिक विचार निबद्ध हों, भावनाएँ ललित शैली में गुंफित की गई हों, विचारसरणि मनोरम ढंग से अभिव्यक्त हो। इसे अंग्रेजी में पर्सनल एसे (Personal Essay) कहा जाता है और इसकी परिभाषा भी पाश्चात्त्य जगत् में बड़े सोच विचार के साथ की गई है। इसमें शोध, तथ्य या स्थापनाएँ नहीं होती, विचारों और भावनाओं की ललित अभिव्यक्ति होती है अतः हिन्दी में भी इसे “व्यक्तिव्यंजक निबन्ध” कहा जाता है, कभी “ललितनिबन्ध’। यह विधा मौलिक गद्यलेखन की एक उत्कृष्ट विधा मानी जाती है, सर्जनात्मक विधा कही जाती है। इस सर्जनात्मक विधा में केवल विमर्शात्मक, समालोचनात्मक, शोधात्मक और स्थापनालक्ष्यक सामग्री नहीं आती वह तो शोधप्रबन्ध, शोधलेख, ग्रन्थ आदि नामों से अभिहित की जाती है। इसे तो मौलिक एवं सर्जनात्मक इसी आधार पर माना गया है कि इसमें लेखक के मौलिक, वैयक्तिक विचार उसकी मौलिक शैली में निबद्ध होते हैं। एक ही विषय पर अलग-अलग लेखकों के विचार बिलकुल अलग, विभिन्न और विपरीत शैलियों में निबद्ध हो सकते हैं। ऐसा शोध-लेख में नहीं हो सकता, उसमें तो तथ्यों पर चलना होगा। रिक गुप्तकाल को ईसा की चौथी शताब्दी में ही बताया जाएगा, अलग-अलग लेखक इसका समय अलग-अलग बतायें ऐसा नहीं होगा जबकि अरुणोदय या उषःकाल के बारे में या सबेरे जल्दी उठना किन-किन विचारों को जन्म देता है इसके बारे में प्रत्येक ललित निबन्धकार अपनी दृष्टि से अलग-अलग विचार रख सकता है और अलग शैली में अलग बात कह सकता है। हमारी प्राचीन परम्परा में भी इस प्रकार के निबन्धों का इतिहास विद्यमान है जिसमें गद्यबद्ध विमर्शात्मक निबन्ध, प्रबन्ध आदि भी आते हैं और मौलिक विचारों को अभिव्यक्त करने वाले निबन्ध भी, यद्यपि इस दूसरे प्रकार के उदाहरण बहुत कम मिलते हैं जिसे “ललित निबन्ध’ कहा जा सके। विमर्शात्मक निबन्ध अधिकतर विवेचनात्मक प्रबन्धों (जैसे हेमाद्रि आदि के गद्यबद्ध ग्रन्थ, जिन्हें धर्मशास्त्र के इतिहास में निबन्ध के नाम से ही पुकारा जाता है। ) ग्रन्थों, भाष्यग्रन्थों आदि के रूप में लिखे मिलते हैं, जिन्हें कभी-कभी संदर्भ कहा जाता था, जैसे पंडितराज जगन्नाथ ने अपने रसगंगाधर को ‘संदर्भ’ कहा है या बंगाल के कुछ विद्वानों ने श्रीमद्भागवत पर लिखे गद्यग्रन्थों को भागवतसंदर्भ कहा है। यदि ललित निबन्धों के उदाहरण प्राचीन साहित्य में खोजें तो उन्हें भी अलंकृत शैली में लिखे गये स्तुतिपरक “दंडकों” तक भी ले जाया जा सकता है, किन्तु वैसा साहित्य सही अर्थों में पाश्चात्य साहित्य के सम्पर्क का परिणाम है यह मानने में संकोच करना उपयुक्त प्रतीत नहीं ५०० आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास होता।
नई निबन्ध-परम्परा
सामान्यतः विश्वसाहित्य में यह माना जाता है कि इस प्रकार के व्यक्तिव्यंजक या ललित निबन्ध का उद्भव यूरोप में, विशेषकर फ्रांस में हुआ और मॉन्तें (मानटेन) नामक फ्रांसीसी साहित्यकार इसका प्रवर्तक था। उसने (जिसका नाम मिचेल द मौन्ते : Monlaigne, Michel de है जिसका जन्म सन् १५३३ में और मृत्यु १५६२ में हुई) पेरिस से सन् १५८० में अपने निबन्धों का जिसे उसने ESSAIS नाम दिया था संकलन प्रकाशित किया जिसमें नागरिकता, सभ्यता, धर्म आदि पर उसके मौलिक व्यक्तिगत विचार बड़ी सुन्दर शैली में निबद्ध थे। वह विधा इतनी लोकप्रिय हुई कि इंग्लैण्ड में भी इसे Essay नाम से अपनाया गया और वेकन से लेकर एडिसन और ए.जी.गार्डिनर आदि अनेक साहित्यकार निबन्धकारों के रूप में विश्वप्रसिद्ध हो गये। धीरे-धीरे इस विधा में शैली की मौलिकता प्रमुख हो गई और इसने विश्व की समस्त भाषाओं में अपनी लोकप्रियता प्राप्त की कि आज यह भी सर्जनात्मक गद्यसाहित्य की एक प्रमुख विधा मानी जाती है। लघु कथा की तरह निबन्ध को भी इस तीव्रता और शीघ्रता से लोक प्रिय बनाने में सर्वाधिक योगदान पत्रकारिता का रहा जिसकी अपेक्षा यही होती है। कि जिसने अधिक संक्षेप में जितनी अच्छी तरह से एक बात कही जा सकती है, कह दी जाए जो कम कागज घेरे, जल्दी छापी जा सके और जल्दी पढ़ी जा सके। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लाखों निबन्ध किसी एक विषय पर जानकारी देने वाले ही नहीं, विमर्श और मीमांसादृष्टि प्रस्तुत करने वाले भी निकलते रहते हैं किन्तु हम उन्हें पत्रकारिता के क्षेत्र की एक विधा मानते हैं। साहित्य के क्षेत्र की विधा ‘ललित निबन्ध’ ही है। यह विधा भी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से सर्वाधिक पनपी है। समस्त भारतीय भाषाओं में यह निबन्ध साहित्य लिखा जा रहा है। जैसा ऊपर के संकेतों से स्पष्ट है, संस्कृत में विमर्शात्मक गद्य का इतिहास तो बहुत पुराना है, कथात्मक गद्य की तरह किन्तु ललितनिबन्धात्मक गद्य साहित्य या व्यक्तिव्यंजक गद्यसाहित्य का इतिहास पुराना नहीं है। इस दृष्टि से यह कहने में संकोच नहीं है कि इस विधा में लेखन भी पाश्चात्त्य लेखन की प्रवृत्तियों को आत्मसात् करने वाली भारतीय भाषाओं के साहित्य के संदर्भ का परिणाम रहा। विमर्शात्मक गद्य को शास्त्र-लेखन की परिधि में ही माना जाना चाहिए जिसमें ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों के अतिरिक्त पातंजलमहाभाष्य से लेकर शंकर, रामानुज आदि के भाष्य भी आते हैं और धर्मशास्त्र, मीमांसा, काव्यशास्त्र आदि पर लिखे गये प्रबन्ध भी। ये तो हुए शास्त्रीय गद्यबद्ध ग्रन्थ, किन्तु जिन निबन्धों में अद्वैतवाद या ध्वनिसिद्धान्त, स्फोटवाद या वैदिक विज्ञान आदि का विमर्श है वे भी शास्त्रीय निबन्ध हैं, सर्जनात्मक साहित्य का अंग नहीं। अतः वे हमारी विमर्शपरिधि में नहीं आते। इस दृष्टि से कालिदास के कालनिर्धारण पर लिखा गया शोध लेख भी सर्जनात्मक निबन्ध नहीं है और उसी प्रकार शेक्सपीयर और कालिदास की तुलना करने वाला निबन्ध भी। ये सब समीक्षाशास्त्र के अंग हैं, सर्जनात्मक गद्यसाहित्य के नहीं। गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य ច។ इसी कारण जहाँ तक निबन्ध का प्रश्न है विमर्शात्मक और सर्जनात्मक निबन्ध की विभाजक रेखा समझने में कितनी सरल लगती है, परिभाषित करते समय उतनी ही कठिनाई उपस्थित कर सकती है।
- उदाहरणार्थ यदि कालिदास आज के युग में जीवित होते तो क्या करते इस पर लिखा गया काल्पनिक निबन्ध निश्चित ही सर्जनात्मक गद्य है, ललित निबन्ध है (यदि वह कथा की शैली में है तो काल्पनिक कथा हो जाएगी), विमर्शात्मक गद्य नहीं। किसी वयोवृद्ध पंडित से किया गया साक्षात्कार उससे हुई भेंट का संस्मरण किसी विद्वान् के निधन पर लिखा संस्मरणात्मक निबन्ध, बहुत वर्षों बाद काशी में जाकर किसी पंडित को कैसा लगा इसका विवरण देने वाला निबन्ध ये सब जिस प्रकार सर्जनात्मक गद्य के उदाहरण हैं उसी प्रकार वृन्दावन में पहुँचकर भक्तिरस का अनुभव, श्रीकृष्ण के सांनिध्य की काल्पनिक अनुभूति का लेखबन्धन आदि भी सर्जनात्मक निबन्ध है। यात्रा का जहाँ वृत्त निबद्ध हो उसे भी निबन्ध का ही प्रकार माना जाता है, यद्यपि यह निबन्ध और कथा या आत्मकथा के बीच का कोई प्रकार है यह मानकर आजकल उसे “यात्रावृत्त” की अलग विधा में विभाजित कर दिया गया है। । अब प्रश्न रह जाता है निरूपणात्मक या विवेचनात्मक निबन्धों का, जिनमें किसी ने “शुद्ध संस्कृत कैसे लिखी जाए” यह बताया हो या श्रमपूर्वक अध्ययन करने और गुरु से विनीत व्यवहार करने की सीख दी हो। वे किस वर्ग में विभाजित होंगे? हमारा यह मन्तव्य है कि वे सर्जनात्मक गद्य की श्रेणी में नहीं आते बल्कि उसी प्रकार धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि के अंग हैं जिस प्रकार सन्ध्यावन्दन की पद्धति या यात्रा करने का शकुन लेने की विधि बताने वाले मौहूर्तिकों के शास्त्रग्रन्ध। विश्व की अन्य भाषाओं के साहित्य में भी ऐसे विमर्शात्मक गद्य को विज्ञान, शास्त्र आदि के वर्गों में विभाजित किया जाता है तथा उसके सामयिक विवेचन को पत्रकारिता वर्ग में रखा जाता है। दोनों ही सर्जनात्मक गद्य नहीं माने जाते।
हृषीकेश भट्टाचार्य का अवदान
इसी सरणि पर हम यहाँ संक्षेप में व्यक्तिव्यंजक निबन्यों को ही सर्जनात्मक गद्य का अंग मानते हुए आधुनिक युग में उसके उद्भव और विकास का संकेत करेंगे, यद्यपि प्रसंगवश उनके साथ ही विवेचनात्मक निबन्धों के प्रारम्भ और विकास का संदर्भ या संकेत आ सकता है यदि अपरिहार्य हो। वैसे आधुनिक काल में सर्वप्रथम जिस प्रकार के निबन्ध लिखे गये वे कुछ अपवादों को छोड़कर व्यक्ति व्यंजक या ललितनिबन्ध न होकर विवेचनात्मक या विमर्शात्मक निबन्ध ही थे, क्योंकि इनका उद्भव प्रमुखतः दो प्रकार की अपेक्षाओं के कारण हुआ। एक तो पत्रकारिता के उद्भव के साथ संस्कृत की साहित्यिक पत्रिका के प्रत्येक अंक में प्रकाशनार्थ ऐसे निबन्धों की उपयुक्तता ‘अनुभव हुई जो किसी एक बिन्दु पर पाठक को नई और रोचक जानकारी दे सकें, इसलिए ऐसे पत्रों के संपादकों तथा अन्य लेखकों द्वारा विवेचनात्मक लेख लिखे गये। दूसरे संस्कृत की परीक्षाओं के पाठ्यक्रम विभिन्न कालेजों, विश्वविद्यालयों आदि में बने, जिनमें शास्त्रीय ५०२ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास विषयों के साथ-साथ दूरदर्शी पाठ्यक्रम निर्धारकों ने निबन्ध लेखन, रचना, अनुवाद आदि के अभ्यास के पाठ्यक्रम और प्रश्नपत्र भी रखे, जिनकी आवश्यकता की पूर्ति हेतु अच्छे निबन्धों के संकलनों की ज़रूरत महसूस हुई और उसकी पूर्ति हेतु जो पाठ्य पुस्तकें बनी उनमें विमर्शात्मक निबन्ध ही अधिक थे। उदाहरणार्थ “विद्योदय” और “संस्कृतचन्द्रिका” जैसी पत्रिकाओं में उनके संपादकों द्वारा कभी बंगाल के कवि चंडीदास के कृतित्व का परिचय कराने हेत निबन्ध लिखा गया (हषीकेश भट्टाचार्य का ‘चंडीदासस्य”) कभी कालिदास की कृतियों का तुलनात्मक और विमर्शात्मक विवेचन करने के हेतु निबन्ध लिखे गये (अप्पाशास्त्री का धारावाहिक निबन्ध “कालिदासः”), कभी तत्कालीन घटनाओं का आकलन करने वाले पत्रकारिता के क्षेत्र में गणनीय लेख लिखे गये। तथापि उस समय के निबन्धों में कुछ ऐसे भी थे, जिन्हें व्यक्तिव्यंजक निबन्ध निःसंकोच कहा जा सकता है। ये वे निबन्ध हैं जिन्हें अपवाद के रूप में सर्जनात्मक कहा जाएगा। उदाहरणार्थ, विद्योदय के संपादक हृषीकेश भट्टाचार्य ने “आत्मवायोरुद्गारः” शीर्षक से जो निबन्ध लिखे उनका उद्देश्य स्पष्टतः अपने व्यक्तिगत विचारों को सुललित शैली में किसी प्रतीक के माध्यम से या किसी भी विचार सूत्र को पकड़ते हुए, मौलिक अभिव्यक्ति देना ही था। इस श्रृंखला में कहीं उन्होंने भारतीयों की रूढ़िवादिता एवं स्वार्थपरता पर प्रहार किया है, कहीं एक काल्पनिक पात्र दुर्गानन्द स्वामी की आत्मकथा का रूप देकर उसी विचारसरणि पर चलते-चलते “अथातो ब्रह्मजिज्ञासा” की शैली में “उदर” को ही ब्रह्म बताते हुए कुछ “उदरसूत्र” लिखे हैं।
- ये निबन्ध संस्कृत में व्यक्तिव्यंजक निबन्धों के सर्वप्रथम प्रतिनिधि या व्यक्तिव्यंजक निबन्धों के प्रवर्तक पूर्व पूरुष कहे जा सकते हैं। “विद्योदय” संपादक पं. हृषीकेश भट्टाचार्य किसी अंक में प्राप्तपत्रम्’ शीर्षक से उन्हें प्राप्त किसी पत्र का छद्मसंदर्भ देते हुए किसी विषय पर अपने लिखते थे तो किसी में पूना निवासिनी अनामिका देवी की ओर से मिले पत्र के रूप में महिलाओं के महत्त्व पर और आजकल जो उनकी दशा स्वार्थी और रूढ़िग्रस्त भारतीयों ने बना रखी है उस पर अपने सटीक विचार रख देते थे। इस प्रकार के चमत्कार में डूबोकर नई शैली और शुद्ध, अलंकृत भाषा में लिखे उनके लम्बे लेखों ने उन दिनों सारे देश को मंत्रमुग्ध कर रखा था। तभी तो ‘विद्योदय’ के अंकों से संकलित और स्वयं लेखक द्वारा संपादित व पुनरीक्षित निबन्धों को देशविख्यात विद्वान वक्ता, लेखक और नेता पं. पद्मसिंह शर्मा ने, जो हिन्दी साहित्य के भी सुविदित साहित्यकार थे, उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी के उद्भट अध्येता थे और हृषीकेशभट्टाचार्य के परम प्रशंसक थे, बाद में प्रबन्धमंजरी शीर्षक से प्रकाशित किया था। यह संकलन बहुचर्चित रहा था, पाठ्यपुस्तक के रूप में भी निर्धारित रहा था और संस्कृत गद्य के आधुनिक इतिहास में मील का पत्थर बन गया था। इसी कारण भट्टाचार्य की प्रतिभा मौलिक, सर्जनात्मक और विलक्षण मानी जाती थी। ये कुछ ऐसे निबन्ध थे जो अन्य, सामान्य विमर्शात्मक या विवेचनात्मक निबन्धों के बीच मौलिक प्रतिभाप्रसूत ललित निबन्धों के निदर्शन प्रस्तुत करते 모역 गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य हैं। अन्यथा सामान्यतः ‘कालिदासः” जैसे निबन्ध पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर छपते ही रहे हैं। पं. हृषीकेश भट्टाचार्य (१८५०-१६१३) बांगलाभाषा के अच्छे ज्ञाता, साहित्यमर्मज्ञ, अनुवादक, बांगलाव्याकरणकार आदि भी रहे हैं, हिन्दी अंग्रेज़ी आदि भाषाओं के ज्ञाता भी। वे बंगाल में जन्मे और शिक्षित हुए किन्तु उच्चतर अध्ययन के लिए गर्वनमेन्ट संस्कृत कालेज लाहौर में पहुंचे जहाँ बाद में ससम्मान उन्होंने संस्कृत प्राध्यापक के रूप में भी कार्य किया। उन्होंने लाहौर में संस्कृत, अंग्रेज़ी आदि की शिक्षा प्राप्त कर परीक्षाएं दी थीं, अन्य भाषाओं के साहित्य का व्यापक अध्ययन किया था। अतः उनकी विचार परिधि, दृष्टिकोण आदि विस्तृत, व्यापक और विश्वजनीन हो गये थे। उन्होंने लाहौर के लीटनर, बुलनर आदि विद्धानों को प्रभावित किया था, यहाँ तक कि मैक्समूलर जैसे विद्वान भी उनका लोहा मानते थे। इस व्यापक अध्ययन, संपर्क और दृष्टिकोण विकसित कर लेने पर जिस प्रकार की मौलिक प्रतिभा का विकास होता है वहीं भट्टाचार्य जी के साथ हुआ जो “विद्योदय” पत्रिका के प्रवर्तन उसके संपादन, मौलिक निबन्ध लेखन आदि में प्रतिफलित देखा जा सकता है। प्राचीन पद्धति से पढ़े होने के कारण हृषीकेश भट्टाचार्य में संस्कृत का प्रौढ पांडित्य भी था। नव साहित्य के संपर्क से दृष्टिकोण व्यापक हो जाने के कारण प्रतिभा में निखार भी आया। निष्कपट, मधुर व्यक्तित्व के धनी होने के कारण उनकी मित्रमंडली भी बढती गई। अतः उनमें एक ऐसे साहित्यकार, निबन्धकार और विद्वान् संपादक का उद्विकास हुआ जो संस्कृत के इतिहास में अमर रहेगा।
- भट्टाचार्य के गद्य की यह विशेषता थी कि उसमें थोड़ी बाणभट्ट वाली शैली के भी दर्शन होते थे, वर्णनात्मक वाक्य लम्बे, अलंकृत और बहुधा समस्तपदघटित होते थे, यद्यपि उनमें बात नई होती थी और नये ढंगसे कही जाती थी। उन दिनों अच्छे गद्य का मापदंड भी बाणभट्ट के आसपास भी घूमता था। तभी तो भट्टाचार्य की संस्कृत के लिए यह पद्यात्मक प्रशस्ति उन दिनों देश में सुविदित हो गई थी “मुद्रयति वदनविवरं मृतभाषावादिनां मुहेराणाम् । स्मरयति च भट्टबाणं भट्टाचार्यस्य सा वाणी।।” (मुहेरो मूर्खः)। इसमें भट्टाचार्य के गद्य की दो विशेषताएं स्पष्ट की गई हैं। एक तो वह जीती-जागती संस्कृत का नमूना होता है, दूसरे भट्ट बाण का सा सुन्दर होता है। आधुनिक गद्य लेखकों व निबन्धकारों में ऐसी अलंकृत शैली का रुझान भट्टाचार्य तक ही रहा, अप्पाशास्त्री से लेकर भट्टमधुरानाथ शास्त्री और समस्त परवर्ती लेखक उससे दूर होते गये और एक सहज, सरल गद्यशैली अन्य आधुनिक भाषाओं की तरह पनप गई। भट्टाचार्य में भी अलंकृत और सहज (अनलंकृत) शैली के बीच सन्तुलन की स्थिति स्पष्ट देखी जा सकती है। उनके कुछ पत्रात्मक निबन्ध नितान्त सरल शैली के हैं, संपादकीय अधिकतर सहज शैली में निबद्ध हैं। वे अलंकृत शैली के चमत्कार के मोह में अपने “आत्मवायोरुद्गारः"५०४ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास (जिसे वे आटोबायोग्राफी का विनोदमय अनुवाद मानते है) धारावाहिक निबन्ध में एक पत्र को यो प्रारम्भ करते हैं “ओं स्वस्ति सर्वोपमायोग्य-सर्वविलासिनी-भुजङ्ग-भुजङ्गाधीशोपमामलयश: सलिलक्षालितदिङ्मालिन्यानन्यसाधारण कोलीन्यवदान्यगुणिगणाग्रगण्य सर्वजनमान्य धन्यतैकधामाभिराम-गुणग्राममंडित-पंडितप्रवर-श्रीलश्रीपंचभाजन-सज्जनमहाजन-सर्वजनरंजन परमानन्दसंदोहप्रदानदक्ष मदेकपक्षपातनिरत दुर्गानन्दस्वामिमहोदय महादय सदोदय सदादय-सदाश्रयेषु। भवच्चरणकमल गायमाणचेतसोऽकिञ्चनदासजनस्य भूम्यवलुठिताष्टांगप्रणाम-पुरः सर-सविनयविज्ञापनवचनानि विलसन्तुतराम्।” _ पर जब इन्हें नई बात कहनी होती है तो सहज सरल और लघुवाक्यघटित शैली अपना लेते हैं-“वस्तुतो भवतां प्रयत्न एष सम्यगस्थाननिहित एव। इदानी संस्कृतभाषां न कोऽप्याद्रियते। महामहोपाध्यायवंशधरा अर्थकरी राजकीयविद्यामभ्यस्यन्ति।” आदि।। जैसा पहले बताया जा चुका है यह पत्र भट्टाचार्य जी की अप्रतिम शैली में एक पात्र दुर्गानन्द स्वामी के साथ हुए काल्पनिक पत्राचार का एक अंग है। इसमें विद्योदय के संपादक को दुर्गानन्द स्वामी उलाहना देता रहता है, कभी ठीक ढंग का पारिश्रमिक ने भेजने पर, कभी संस्कृत भाषा के प्रचार जैसे निरर्थक कार्य के पीछे पड़े रहने पर। उसके उत्तर में संपादक उन्हें “उदरसूत्र” जैसी ललितोक्तिगर्भित झिड़कियाँ भेजता रहता है, कभी ऐसा शरारत भरा पश्चात्ताप करता रहता है कि मैं आपको अधिक द्रव्य भेंट कर पाऊँ इस चिन्ता में सूख रहा हूँ, जैसे पहले श्रोत्रियों को वेदाभ्यासजड़ कहा जाता था, वैसे मैं “विद्योदयजड” हो गया हूँ आदि। ऐसे पत्राचारों में, निबन्धों में तत्कालीन दशाओं पर सटीक टिप्पणियाँ इसी शैली में होती थीं। दुर्गानन्दस्वामी अपने आपको अवतार बताने के प्रयत्न में आटोबायोग्राफी “आत्मवायोरुद्गारः” लिखना चाहते हैं। यह आत्मप्रचारक विद्वानों पर ही नहीं आडम्बरी साधुओं पर भी प्रच्छन्न व्यंग्य है। भट्टाचार्य जी के दो अन्य निबन्ध हैं- उद्भिज्जपरिषद् और ‘महारण्यपर्यवेक्षणम्”। प्रथम में यह बतलाया गया है कि वनस्पतियों की दृष्टि में मनुष्य कितना स्वार्थी, तुच्छ और निरर्थक है, दूसरे में जंगल के पशुपक्षियों की दृष्टि से मानवसमाज की विद्रूप स्थितियों का मनोरम चित्रण है। अश्वत्थदेव की अध्यक्षता में हुई उद्भिज्जों की सभा में मानव पर जो विचार होता है वह उभिज्जपरिषद् में निबद्ध है और जंगल के राजा सिंह की अध्यक्षता में पशुओं की सभा में किस प्रकार मानव को सदा से डरा-डरा सा, तनावों में रहता बताया गया है वह ‘महारण्यपर्यवेक्षणम्" में निबद्ध है। इस प्रकार ये निबन्ध आधुनिक संस्कृत के प्रथम व्यक्त्तिव्यंजक निबन्ध कहे जा सकते हैं। ऐसे निबन्ध जो समय-समय पर “विद्योदय’’ में प्रकाशित हुए थे “प्रबन्धमंजरी” में संकलित हैं। यह संकलन १८२६ में निकला किन्तु निबन्ध उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशकों गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य ५०५ में लिखे गये, अतः प्रारंभिक युग के कहे जा सकते हैं।
निबन्ध संकलन
वैसे संकलनों के प्रकाशन की दृष्टि से इससे पूर्व मुद्रित निबन्ध संकलन भी उपलब्ध हैं जिनमें से दो हैं- सियालकोट के विद्वान पं. नृसिंहदेव शास्त्री द्वारा लिखित निबन्धों की पुस्तक “प्रस्तावचन्द्रिका” जो मेहरचन्दलक्ष्मणदास ने लाहौर से १२० में प्रकाशित की और साहित्याचार्य प्रो. रेवतीकान्त भट्टाचार्य लिखित “प्रबन्धकल्पलतिका” जो १E२८ में कलकत्ता से प्रकाशित हुई। ये दोनों शास्त्री आदि परीक्षाओं के विद्यार्थियों को पाठ्यसामग्री उपलब्ध कराने की दृष्टि से लिखी गई थीं। प्रस्तावचन्द्रिका में लाहौर कालेज के प्रिसिंपल बुलनर साहब को धन्यवाद देते हुए बताया गया है कि छात्रों के लिए निबन्ध लेखन पाठ्यक्रम में रखा गया है पर पाठ्यपुस्तकें नहीं मिलतीं, अतः यह पुस्तक निकाली जा रही है। इसमें निबन्ध कैसे लिखे जाएँ आदि सिद्धान्त या लक्षण संक्षेप में ३१ पद्यों में बता दिया गया है, शेष लेखक के स्वलिखित १६ निबन्ध हैं जिन्हें “प्रस्ताव” कहा गया है। इनके विषय हैं (2) सत्संगः, (२) मरालस्य मानसम् (३) दारिद्र्यम् (४) विद्वानेव हि जानाति विद्वज्जनपरिश्रमम् (५) विद्याः (६) सन्तोषः परमं सुखम् (राजभक्तिः) (८) सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः (E) अर्थस्य पुषषो दासः (१०) बुद्धिर्बलं बुद्धिमताम् (११) आमरणादपि विरुतं कुर्वाणाः स्पर्धया सह मयूरैः । किं जानन्ति वराकाः काकाः केकारवं कर्तुम् । (इसमें कुर्वाणाः छप नहीं पाया) (१२) दुर्जनः परिहर्तव्यः (१३) छिद्रेष्वना बहुलीभवन्ति, (१४) धर्मो रक्षति रक्षतिः (१५) धर्मः, (१६) रसः। जैसा कि विषय-शीर्षकों से स्पष्ट है इनके विषय विवेचनात्मक हैं तथा उनका विवेचन भी शास्त्रीय ढंग से किया गया है। शास्त्रों और सुभाषितों के उद्धरण देते हुए इन्हें छात्रोपयागी बनाने का प्रयत्न किया गया है। यद्यपि एक विद्वान् के लिखे हुए होने के कारण इनका स्तर, भाषा शुद्ध और प्रौढ किन्तु अनलंकृत और सहज है। स्वाभाविक है कि इन विषयों के विवेचन में बाणभट्ट की शैली का प्रयोग हो भी नहीं सकता। कहीं-कहीं लेखक का अपना मन्तव्य भी दृष्टिगोचर होता है, किन्तु निबन्ध शुद्धतः विवेचनात्मक, विमर्शात्मक और “धर्म” “रस” जैसे विषयों का शास्त्रीय प्रतिपादन करने वाले हैं। अतः इन्हें ऊपर स्पष्ट की गई परिधि में न तो साहित्यिक गद्यविधा कहा जा सकता है न व्यक्तिव्यंजक निबन्ध, जबकि हृषीकेश भट्टाचार्य के निबन्ध साहित्यिक गद्यविधा के ही स्पष्टतः निदर्शन हैं। यही स्थिति, थोड़े परिवर्तन के साथ रेवतीकान्त भट्टाचार्यके निबन्धों में पाई जाती है। इनका भी उद्देश्य छात्रों के लिए पाठ्यसामग्री प्रस्तुत करने का है। इसमें प्रारम्भ में E७ पृष्ठों में निबन्ध लिखने की शिक्षा निबद्ध है किन्तु इसमें भाषा के गुण, दोष, रीति, अलंकार, रस आदि शास्त्रीय प्रकार के विषयों का विवेचन किया गया है। विरामादि चिन्हों के प्रयोग की जो जानकारी दी गई है वह अवश्य नवयुगीन अपेक्षाओं की पूर्ति करने वाली है। इसके बाद कुछ निबन्धों के लिए रूपरेखात्मक संकेत दिये गये हैं, जिन्हें हिन्ट्स कहा गया है- जैसे पर्वत, नदी, भूकंप, बाजार आदि के बारे में क्या-क्या विषयवस्तु रखी जाए। फिर वृत्तान्तात्मक प्रबन्ध, चिन्ताघटित रचना (अर्थात्, विवेचनात्मक) पौराणिकेतिवृत्तानि ចទី आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास इन वर्गों में विभाजित निबन्ध मुद्रित हैं जिन्हें “प्रबन्ध” कहा गया है। पुनः अन्त में वर्णनीय विषयों के मार्गदर्शनार्थ पद्यों में निबद्ध सूचनाएँ दी गई हैं कि वसन्त, वर्षा आदि ऋतुओं पर विवाह, स्वयंवर, हाथी, मृगया, सुरा आदि के वर्णनों पर क्या-क्या विषय वस्तु होगी, फिर सफेद, काले रंगों के उपमानों की सूची दी गई है (जैसे कर्पूर, चन्द्र, सुधा, गंगा, काश, कर्पास आदि सफेद, कज्जल, काली, कोयला, यमुना, गज आदि काले, बन्धूक हंसचंचु आदि लाल रंग के प्रतिमान हैं)। इस प्रकार “रचनाशिक्षा” के उद्देश्य से लिखित यह पुस्तक “प्रबन्धकल्पलतिका” का प्रथम स्तबक बताया गया है जो कलकत्ता से सन् १६२८ में प्रकाशित हुआ था। इसी प्रकार के छात्रोपयोगी प्रकाशन निबन्धसंकलनों के रूप में प्रत्येक क्षेत्र से बीसवीं सदी के तृतीय दशक से लेकर पंचम दशक तक निकलते रहे हैं। इसमें कभी-कभी प्राचीन गद्य के छात्रपाठ्य अंश भी संकलित कर दिये जाते थे, कभी लेखक या संकलनकर्ता के स्वलिखित निबन्ध । उदाहरणार्थ सन् १E३८ में दो निबन्धसंग्रह प्रकाशित हुए- म.म. पं. गिरिधरशर्मा चतुर्वेदी के नाम से (संकलनकर्ता और संपादक के रूप में) निबन्धादर्शः दिल्ली से प्रकाशित हुआ और कविरत्न मायादत्त पांडेय द्वारा संपादित “संस्कृतप्रवन्धरत्नाकर:’ चन्दौसी (उत्तर प्रदेश) से। प्रथम में चरकसंहिता, जातकमंजरी, उपमितभवप्रपंचकथा, कादम्बरी आदि से लेकर “आर्यविधासुधाकर” तक के गद्यांश पाठ्य के रूप में संकलित हैं और कोई निबन्ध लेखन शिक्षा जैसी चीज नहीं है। दूसरे में प्रारम्भ में निबन्धों के वर्णनात्मक, चरितात्मक, आलोचनात्मक, और कल्पनात्मक चार भेद बतलाकर कुछ सिद्धान्त विवेचन, फिर सुलेख, निपुणता, मनन आदि घट साधनों की शिक्षा भी छात्र हितार्थ दी गई हैं। इसमें सुलेख शिक्षा में विरामादि चिह्नों का विवेचन है। तदनन्तर लेखक के ‘आदर्शनिबन्धः” (नमूने के निबन्ध) शीर्षक के अन्तर्गत मुद्रित १७ निबन्ध हैं जिनमें “मातृभूमिः" मातापितरौ, ब्रह्मचर्यम् आदि शीर्षक से बालपाठ्य निबन्ध भी हैं और कुछ सर्जनात्मक रेखा को स्पर्श करने वाले निबन्ध भी कहे जा सकते हैं, क्योंकि लेखक ने निबन्धों के ४ भेद बताते हए ‘‘कल्पनात्मक" निबन्ध का एक प्रकार भी बतलाया है अतः उसके नमूनों का संकलन भी उसका लक्ष्य रहा होगा। ऐसे निबन्धों में “आशे ! त्वमालम्बनम्। ‘देवो दुर्बलघातुकः आदि गिनाये जा सकते हैं, जिनमें कहीं तो लेखक ने आशा की डोर में बँधे व्यक्ति किस प्रकार संकट के क्षणों को बिता लेते हैं इस पर अपने विचार व्यक्त किये हैं, कहीं इस संसार में दुर्बल सेवा कितना बड़ा अभिशाप है इस पर टिप्पणी दी है। शेष “धर्मो रक्षति रक्षितः” ‘नीतिर्थमाय कल्पते" आदि निबन्ध लेखक के स्वलिखित निबन्ध होने पर भी छात्रपाठ्य श्रेणी के ही हैं और हमारी पूर्ववर्णित परिधि में व्यक्तिव्यंजक या ललित निबन्ध नहीं बन पाते। ऊपर दिये गये विवरण का आशय यही है कि जब से संस्कृत परीक्षाओं के पाठ्यक्रमों में निबन्ध विषय रखा गया तब से प्रतिभाशाली और वरिष्ठ विद्वानों और लेखकों की दृष्टि बालपाठ्य विवेचनात्मक निबन्धों का लेखन, संकलन, प्रकाशन आदि करने पर ५०७ गध-साहित्य/ चम्पूकाव्य रही, उनमें कहीं-कहीं सर्जनात्मक प्रतिभा-प्रसूत ललित निबन्ध भी आ गये, यह बात अलग है। इससे पूर्व पत्रकारिता की परिधियों में जो निबन्ध लिखे गये (जैसे हृषीकेश भट्टाचार्य के निबन्ध) उनमें मौलिक प्रतिभा का प्रतिफलन स्पष्टतः परिलक्षित होता है। अतः संस्कृत निबन्धों के मीमांसकों को यह वर्गीकरण स्पष्टतः प्रस्तुत कर देना चाहिए कि निबन्ध साहित्य इन दो क्षेत्रों में अलग-अलग शैली और अलग प्रकारों में अब तक पनप रहा है।
भट्टजी का अवदान
इस दृष्टि से मौलिक सर्जनात्मक प्रतिभा के प्रसूत निबन्धों की सर्वाधिक विविधता, विपुलता और उत्कृष्टता भट्टश्रीमथुरानाथशास्त्री के निबन्धों में खोजी जा सकती है। भट्टजी ने अधिकांश निबन्ध पत्रकारिता की अपेक्षाओं की पूर्ति के दृष्टिकोण से लिखे थे। उनका उद्देश्य यह रहा था कि अन्य भारतीय या पाश्चात्त्य भाषाओं में निबन्धों की जो चमत्कारजनक विविधता और प्रभावोदपादक शैली है, संस्कृत वैसे साहित्य से वंचित रहे यह स्थिति नहीं आनी चाहिए। इसी उद्देश्य से उन्होंने बीसवीं सदी के प्रथम चरण से ही “संस्कृतरत्नाकर” आदि पत्रों में ललितनिबन्ध, व्यंग्यात्मक निबन्ध, विनोदात्मक निबन्ध, प्रतीकपरक निबन्ध, स्थलवृत्तात्मक निबन्ध, यात्रावृत्तात्मक निबन्ध, वर्णनात्मक, विवेचनात्मक, भावात्मक, शोधात्मक, विचारात्मक, आलोचनात्मक, मनस्तात्त्विक सभी तरह के निबन्ध लिखे। यहाँ तक कि कछ ऐसी नई निबन्ध विधाओं की भी उन्होंने उदभावना की जो अन्य किसी भी भाषा में नहीं हो सकते थे, संस्कृत की विशिष्ट भाषिकी के कारण उसी में संभव थे। उनके अवदानों में एक ऐसी ही विशिष्ट निबन्ध विधा है चमत्कारात्मक निबन्ध, जिसमें एकाक्षर प्राधान्य के कारण चमत्काराधान अभीष्ट है। उनका इस विधा का एक निबन्ध है “मकारमहामेलकम्” जिसमें प्रत्येक शब्द “म” से शुरू होता है, किन्तु न तो यह चित्रकाव्य की तरह दुरूह और लगभग निरर्थक बन जाता है बल्कि सुललित भाषा में निबद्ध एक मनोरंजक वृत्तान्त संप्रेषित करता है जो कहानी की सी लगती है, ललित निबन्ध भी। इसमें भाषा में विशेषतः संस्कृत में मकार का महत्त्व बतलाने के लिए मकारों के एक कल्पित सम्मेलन का वृत्तान्त निबद्ध है- जिसमें प्रस्ताव पास होते हैं, निर्णय लिये जाते हैं। ऐसा निबन्ध केवल संस्कृत में ही संभव है। भट्टजी के निबन्धों का वैविध्य एक बहुत बड़ी व्यापक परिधि को छूता है और उसमें प्रतिभा का मौलिक और सर्जनात्मक पक्ष स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। उनका एक अन्य ललित निबन्ध “किन्तोः कुटिलता” है जिसमें विभिन्न प्रसंगों और कल्पित घटनाओं के शब्दचित्रों में यह बतलाया गया है, बात बनते एक “किन्तु” शब्द के आते ही कैसे पलट जाती है। । उनके निबन्ध लेखन की समय-सीमा १६०४ से १६६४ तक साठ वर्षों की रही, जो संभवतः एक कीर्तिमान है। संस्कृतरत्नाकर मासिकपत्र का प्रारम्भ जयपुर से सन् १९०४ में हुआ था। तभी से भट्टजी ने इसके सहायक संपादक के रूप में इसमें संपादकीय, निबन्ध एवं कहानियाँ लिखना शुरू किया। उनका यह लेखन क्रम सन् १९६४ में उनकी मृत्यु पर्यन्त चलता रहा। इस दौरान उनके द्वारा लिखे गये निबन्धों की संख्या गणनातीत है। ये निबन्ध ५०८ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास भट्टजी द्वारा संपादित संस्कृतमासिक पत्रों (जैसे संस्कृतरत्नाकर, भारती) में तो नियमित रूप से प्रकाशित होते ही रहे, देश के अन्य संस्कृत पत्रों में भी प्रकाशित हुए, जैसे काशी की अमरभारती, सारस्वती सुषमा, सूर्योदय आदि पत्रिकाएँ । साथ ही भट्टजी की लिखी कुछ पाठ्य पुस्तकों में भी ये संकलित हुए, जैसे “संस्कृतसुबोधिनी, सुलभसंस्कृत, संस्कृतसुधा आदि। कम भट्टजी के लिखे बालपाठ्य निबन्धों में तो सामान्यतः वैसे ही निबन्ध शामिल हैं जिन्हें सही अर्थों में सर्जनात्मक नहीं कहा जा सकता जैसे मातापितरौ, विद्याया महिमा, सदाचारः, षड़ ऋतवः जिनमें यद्यपि भट्टजी की मौलिकता का प्रतिफलन स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है तथापि ये पाठ्य निबन्धों की श्रेणी के ही हैं। इसके बावजूद वायुयान, कश्मीर यात्रा, ग्रामश्च नगरं च आदि निबन्धों में उनकी सर्जनात्मकता इन्हें केवल वर्णनात्मक निबन्ध की बजाय विचारात्मक या विवेचनात्मक निबन्ध बना देती है। बालपाठ्य निबन्धों के अतिरिक्ति उनके लिखे अन्य सभी निबन्ध सही अर्थों में सर्जनात्मक कहे जा सकते हैं और अधिकांश ललित निबन्ध या व्यक्तिव्यंजक निबन्ध के रूप में आदर्श प्रस्तुत करते हैं। ‘दन्तकथा” (सं. रत्नाकर १०/E) में वे दन्तशब्द का हमारे वाङ्मय में क्या स्थान है इस पर चिन्तन करते हुए दन्त कथाओं के रूप में उड़ने वाली अफवाहों से लेकर दन्त को लक्ष्य कर निबद्ध की गई काव्यात्मक अभिव्यक्तियों तक को उद्धृत करते हुए जो कुछ लिखते हैं वह मान्ते शैली के “पर्सनल ऐसे” का स्पष्ट उदाहरण बन जाता है जिसे अंग्रेजी विद्वान् डॉ. जॉनसन ने लूज शैली ऑफ माइण्ड" कहा है। सांप्नतिक शिक्षा या धनभिक्षा (अमरभारती १, ७) संस्कृतज्ञानां महाशयता (सं.रत्नाकर १०/१०-११), साहित्यस्य सत्ता, मानवस्य महत्ता (सं. रत्नाकर १२/८) इत्यादि इसी प्रकार के व्यक्तिव्यंजक निबन्ध हैं। आंग्लसंस्कृतिरपसार्यताम्, भारती ८/८) चरित्रबलम् (भारती १०/१) अन्येषामुपकारको भवेत् (सं.रत्नाकर ६/११) आदि निबन्ध सामयिक स्थितियों से उद्धृत विचारों को अभिव्यक्ति देने हेतु लिखे गये हैं। अतः इन्हें विचारात्मक निबन्ध कहा जा सकता है। अमरकंटकः, हिमालयाञ्चले मणिकूटपर्वतः आदि अनेक निबन्ध स्थल वृत्तात्मक है, कांकरोली यात्रा (सं. रत्नाकर ६/७) उत्तरखंडयात्रा, भारतपर्यटनम् (संरत्ना ७/६-११-१२) आदि अनेक निबन्ध यात्रावृत्तात्मक हैं। “प्रिये मधुरवाणि! " शीर्षक एक निबन्ध सं. रत्नाकर के सम्पादक की हैसियत से भट्ट जी ने इस पत्र की ओर से एक अन्य पत्र मधुरवाणी (कनार्टक से प्रकाशित होने वाली संस्कृतमासिक पत्रिका) को संबोधित करके लिखा है जो निबन्ध है। अतः उसे पत्रात्मक निबन्ध भी कहा जा सकता है। इसमें संबोधन केवल शीर्षक में है, निबन्ध में मधुरवाणी की संस्कृत भाषा की अतिजटिलता तथा “अदमुईचाम” जैसे प्रयोगों की जो आलोचना संस्कृतरत्नाकर में की गई थी वह दोषदृष्टि नहीं थी, हित की बात थी, यह बतलाया गया है और प्रथम पुरुष में ही मुधरवाणी के प्रति संदेश है। “शृणोतु प्रियसखी सावधाना भूत्वा तद्विषयकम् प्रसंगं सर्वमपि’ आदि। युग के साथ भाषा का व्यवहार बदलता है इसके उदाहरण देते हुए तथा ललित शैली में युगानुरूप व्याकरण सुविधा की वकालत करते हुए ५० गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य जिस प्रकार इसमें समझाने की मुद्रा अपनाई गई है वह रूठी सखी को मनाने की एक नई ही शैली है। प्रारम्भ में एक छोटे पद्य से बात शुरू की गई है-“विषत्यागोत्तरं जातो रलाकर इति स्थितौ । क्रुधाविष्टेव निर्वक्षि मुधा मधुरवाणि किम् ?” र जवाब-सवाल और विषय विवेचन के उद्देश्य से लिखे निबन्ध में सानुप्रास किन्तु सहज सरल, ललित शैली में निबद्ध यह नई विधा है जो भट्टजी के शैली-विस्तार के व्यापक फलक का निदर्शन है। इसी प्रकार विषयविशेष के विवेचन के लिए मनोरंजक मानवीय स्थिति के सूत्र से प्रारम्भ कर अपनी बात को कहने की विधा भी मट्टजी ने अपनाई। गन्धर्वसेनस्य स्वर्गयात्रा” शीर्षक उनका निबन्ध काशी से निकलने वाले “संस्कृतरत्नाकर’ (१२/४, १४/८) आदि पत्रों में छपा था जिसका प्रतिपाद्य यह था कि संस्कृत को “मृतभाषा” कहने का फैशन कैसे चल पड़ा इसकी खोज करते हुए उन्होंने पाया कि किसी भी भाषाशास्त्री ने इसे मृतभाषा कभी नहीं कहा, कुछ पाश्चात्य भाषाशास्त्रियों ने जीवित भाषा अवश्य कहा है। यह भेडियाधंसान अविचारित रूप से चल पड़ी थी यह बतलाते हुए उन्होंने निबन्ध का प्रारम्भ एक कल्पित कथा से किया था। एक धोबी प्रातःकाल रोकर कहने लगा “हाय, गन्धर्वसेन मर गये।” सारा गाँव रोने लगा कि कोई महापुरुष मर गया। बाद में मालूम हआ कि धोबी ने अपने गधे का नाम गन्धर्वसेन रख छोड़ा था। शेष लोग बिना सोचे समझे ही शोक मना रहे थे। इस प्रसंग से निरर्थक प्रवाद के रूप में फैले संस्कृत के मृतभाषाव का उन्होंने निबन्ध के शेष भाग में सुललित शैली में खंडन किया है। शैली की रमणीयता निबन्ध को सर्जनात्मक प्रतिभा का स्पर्श देकर किस प्रकार मौलिक बनाती है इसका निदर्शन भट्टजी के प्रत्येक निबन्ध में मिल जाएगा। “महर्धता पिशाची” (सं. रत्नाकर E/६) में वे द्वितीय विश्वयुद्ध के समय विश्व में फैली मॅहगाई और अभाव की स्थिति पर प्रहार करते हुए कागज़ की कमी से पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं के छाप पाने की दुर्दशा का चित्रण करते हैं। पर अपनी रुचिकर शैली से इसे पठनीय बना देते हैं - केवल विवरणात्मक निबन्ध नहीं रहने देते। “श्रूयते केषुचित् स्थानेषु महर्घतयाऽनया पुनः प्राकृतपरिस्थितिरुपस्थाषिता, अर्थात परिचालितानि पत्राणि (कागज) विहाय ईश्वरसष्टेषु पत्रेषु (“वृक्षपल्लवेषु) लेखकार्यमारब्धम् ।” ऐसे विनोदों के साथ वे वस्तुस्थिति का चित्रण भी मुहावरेदार संस्कृत में करते हैं - “स्कूलकालेजेषु पनविनाकृता त्रैमासिकपरीक्षैव खपुष्पायिता। अभूच्च शिक्षाध्यक्षाणामनुल्लंघनीयं शासनम् “परीक्षाणामुत्तरपुस्तकेषु नैकापि रेखा भवेल्लेखाच्छून्या।” इदानी पत्राणां (मासिकादिपत्राणां) पत्र (कागज) कथा श्रूयताम् ।” इत्यादि। इस प्रकार भट्टजी की विभिन्न निबन्ध विधाओं में सर्जनात्मक लालित्य उल्लेखनीय है जिसके कारण ये निबन्ध साहित्य का भी अंग बन जाते हैं, केवल पत्रकारिता या शास्त्र लेखन की परिधि में नहीं रहते। यहाँ तक कि उनके शोधपत्रों में भी जो कभी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक अनुसंधान को लेखबद्ध करने हेतु लिखे जाते थे। (जैसे नासाभूषण क्या मुगलकाल से पहले भी था?) कभी शास्त्रीय विषय का प्रतिपादन करने हेतु (जैसे ५१० आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास सांख्यशास्त्रस्य चिरविस्मृतो ग्रन्थकारः), किन्तु सब में लालित्य या चमत्कारपूर्ण भाषा का पुट मिलता है। नासाभूषण मुग़लों से पहले भी था इस विषय पर लिखे शोधलेख का शीर्षक ही सानुप्रास है” अपि नासाभूषणमिदमासां यवनजातीनां सहवासादनुकृतम्’? (सं. रत्नाकरः/६-७-८-६)। अनुप्रास, श्लेष, स्वाभावोक्ति आदि अलंकार हास्य-विनोद का पुट और युगानुरूप तथा विवेकपूर्ण अभिगम उनकी शैली की विशेषता कही जा सकती है। समस्त पदों के बिना सहज और ललित वाक्यों का प्रयोग उनकी भाषा की पहचान है। जैसा पहले बताया जा चुका है, एक निबन्ध उन्होंने भाषा का चमत्कार बताने के लिए ही लिखा है। जिसका हर शब्द “म” से शुरू होता है किन्तु उसमें भी प्रसाद गुण आश्चर्यजनक रूप से दृष्टिगोचर होता है। यह इस प्रकार शुरू होता है। “मकारमहामलेकम्” मन्यामहे मान्यमनीषिणां मानसमुदन्तेनामुना महान्तं मोदमासादयेद्यन् मालबमंडलान्तर्मन्दसौरमेदिन्यां माघमासस्यामायां मंगलवारे मकाराणां महामेलकमेकमघटत।” मकारों के सम्मेलन में जो विचार-विमर्श होता है उसका विवरण भी मनोरंजक है। “म” की तारीफ होते-होते उसके विपरीत अभिमत भी सुनाई देते हैं। “मेलकमालोकयितुमागतानामीक्षकाणामेको मन्दमुपहस्य मध्ये मन्द्रमवोचत्” मर्कटमकरादिषु, मूर्खता-मिथ्यादिषु मद्यमांसादिषु मलिनेष्वपि मकारमहोदयो मूर्तिमात्मीयामाविष्करोत्येव ।।" …..मकारमहाशयानां मंडलमक्षुभ्यत्।" जिस प्रकार की काल्पनिक कथा इसमें निबद्ध हैं उसे देखते हुए इसे कहानी विधा में भी वर्गीकृत किया जा सकता है, किन्तु स्वयं लेखक ने इसे निबन्ध मानकर एक नई विधा “चमत्कारात्मक निबन्ध’ का नाम दिया है अतः इसे निबन्ध ही माना गया है, क्योंकि इसमें भारतीय लिपियों और भाषाओं में मकार के महत्त्व का विवरण अन्तर्निविष्ट है।
- भट्टजी के निबन्धों का एक संकलन, जिसके साथ उनका लिखा निबन्ध लेखन विधा का अनुदेश भी है प्रकाशित हो चुका है (केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, जयपुर, सन् १८८७)। लेखक ने अपने जीवनकाल में विभिन संग्रहों और निबन्ध लेखनमार्गदर्शिकाओं का अध्ययन कर एक सर्वागपूर्ण ग्रन्थ बनाने के उद्देश्य से इसे लगभग १६४० के आसपास पूर्ण कर लिया था, किन्तु यह उनके जीवन काल में प्रकाशित नहीं हो पाया। लगभग आधी सदी बाद, उनके निधन से २०-२५ वर्ष वाद यह छपा और इसमें विभिन्न निबन्धविधाओं के प्रतिनिधि के रूप में उनके १३ निबन्ध भी संकलित किये गये। इसमें निरूपणात्मक निबन्ध का प्रथम प्रकार बतलाया गया है जिसके उपभेद है-वर्णनात्मक, यात्रावर्णनात्मक स्थलवृत्तात्मक आदि। दूसरा प्रकार है विचारात्मक निबन्ध का, तीसरा विवेचनात्मक निबन्ध का, चौथा शोधात्मक निबन्ध का और पाँचवाँ ललित निबन्ध का, जिसके दो उपभेद बतलाये गये हैं “रूपकात्मक और चमत्कारात्मक । चमत्कारात्मक निबन्ध का उदाहरण है “मकारमहामेलकम्” जिसकी समीक्षा पिछले पृष्ठों में की गई है। रूपकात्मक निबन्ध के रूप में एक सर्जनात्मक विधा का उदाहरण लेखक के दो निबन्धों द्वारा दिया गया है एक है “बालकभृत्य” जिसमें लेखक अपने यहाँ नियोजित ऐसे भोले बालक का चित्रण करता है जो घरेलू नौकर के रूप गय-साहित्य/चम्पूकाव्य में मालिक को हर तरह से प्रसन्न करना चाहता है पर अफरातफरी में कोई न कोई गलती उससे हो ही जाती है- जैसे कभी चाय बहुत गर्म होती है, कभी लुढक जाती है, कभी दिया गिर कर टूट जाता है। अनजाने की ये गलतियाँ क्षम्य हैं यह बतलाने के लिए निबन्ध के उत्तरार्ध में लेखक इस रूप को स्पष्ट करता है कि हम संसारी जीव भी ईश्वर के सामने अनजाने ऐसी अनेक गलतियाँ करते हैं, क्यों न हम यह सब जानकर उसकी प्रार्थना करें, उससे क्षमा प्रार्थना करें-अन्त में इसी आशय की एक स्वलिखित संस्कृत गजल लेखक उद्धृत करता है। इस रूपक के पीछे अन्य एक रूपक है। जिसमें लेखक बिना कुछ कहे यह बतला देता है कि मनुष्य को निर्णय का अधिकार नहीं है। वह यदि अपनी इच्छा से अपने परिवेश को चलाना चाहता है तो यह उसकी हिमाकत है, दुःसाहस है, ‘प्रान्ति है। यह एक अनूठी ही निबन्ध विधा है। रूपकात्मक निबन्ध का एक अन्य प्रकार “हीरकः” शीर्षक के उदाहृत है, जिसमें एक हीरे की आत्मकथा है कि वह किस प्रकार से भाँति-भाँति के लोगों के हाथ पड़ता रहा, अधिकांशतः नाकद्रे, अगुणग्राही लोगों के हाथ। इस रूपक से लेखक एक गुणी की व्यथ बतलाना चाहता है जिसे विवशतावश अगुणग्राही लोगों से जीवन भर पाला पड़ता है। इसकी रूपकात्मकता लेखक प्रारम्भ में दिये गये एक यथार्थ से संकेत भी कर देता है “लोकातिशायिगुणशालिभिरप्यकस्मादासाद्यते न कुहचिद् गुणतत्त्ववेदी।” अंग्रेजी सहित्य के सुप्रथित निबन्धकार एडिसन का एक निबन्ध विश्वसाहित्य में बहुचर्चित है जिसमें एक “शिलिंग” अपनी आत्मकथा कहता है। भारतीय भाषाओं में भी इसी विषय वस्तु को लेकर कुछ आत्मकथात्मक ललित निबन्ध लिखे गये हैं। भट्टजी ने संस्कृत में भी “रूपकरामस्यात्मकथा” शीर्षक से एक रुपये की रामकहानी लिखी थी। “प्रबन्धपारिजातः” वस्तुतः पाठ्यपुस्तक और सर्जनात्मक निबन्धसंकलन का एक समन्वित रूप है जिसमें प्रथम खंड निबन्धों के विषय में सिद्धान्त विवेचन, भेद निरूपण, मार्गदर्शन आदि के द्वारा छात्रों और अध्येताओं के शिक्षणार्थ लिखा गया है, किन्तु निदर्शन के रूप में द्वितीय खंड में जो निबन्ध संकलित हैं उनमें से अधिकांश लेखक की सर्जनात्मकता के कारण साहित्य का अंग बन गये हैं, पाठ्य वस्तु मात्र नहीं हैं।
नई दिशाएँ
इस दृष्टि से बीसवीं सदी में प्रकाशित निबन्धों और निबन्धसंग्रहों के इतिहास का आकलन किया जाय तो दो ही बातें स्पष्ट होती हैं। एक तो यह कि अधिकांशतः निबन्ध पाठ्यवस्तु के रूप में लिखे गये थे अतः उनमें सर्जनात्मकता कम और खानापूरी की प्रवृत्ति अधिक परिलक्षित होती है। तथापि उनमें कुछ समस्यात्मक मौलिक निबन्ध तलाशे जा सकते है। दूसरी यह कि निबन्ध लेखकों में जो स्वयं पत्रकार थे या जिन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में भेजने की दृष्टि से या स्वान्तःसुखाय स्वविचाराभिव्यंजन की दृष्टि से मौलिक प्रतिभा प्रकट करते हुए निबन्ध लिखे वे साहित्य का अंग बनने लायक हैं- चाहें निबन्धविधा को छात्रपाठ्य मान लिये जाने के कारण उन पर अब तक साहित्येतिहासकारों की दृष्टि न गई हो। ५१२ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास ऐसे निबन्धकार प्रायः प्रत्येक दशक में प्रकाशित होते रहे हैं। इनमें से अधिकांशतः मौलिक निबन्ध लेखक रहे यद्यपि कुछ अच्छे निबन्धों के अनुवाद भी हुए (जैसे गणेशराम शर्मा ने हिन्दी और गुजराती के कुछ निबन्धों के अनुवाद किया जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। बालपाठ्य निबन्ध लेखकों के कुछ नये विषयों पर लिखे निबन्धों के लिए हंसराज अग्रवाल का संस्कृत प्रबन्ध प्रदीप (लुधियाना १६५५) देखा जा सकता है, जिसमें नई विषय वस्तुओं पर निबन्ध संकलित हैं- काश्मीर की समस्या, खाद्यसमस्या विश्व के देशों के संविधान आदि। इसी प्रकार श्रुतिकान्तशर्मा की “लघुनिबन्धमणिमाला” में हुक्का, घोड़े और साइकिल का संवाद, फुटबाल मैच, तृतीय श्रेणी की रेल यात्रा, धर्मनिरपेक्षता, संयुक्तराष्ट्रसंघ, चुनाव और मित्रता, सिनेमाघर, घुमक्कड, पिकनिक, मनोरंजन, खेल भावना आदि विषयों पर जो निबन्ध हैं उनके मौलिक सर्जनात्मक प्रतिभा के दर्शन होते हैं। “गल्पकुसुमांजलि’ में कुछ ऐतिहासिक घटनाएँ वर्णित हैं। संस्कृत निबन्ध संकलनों में डॉ.मंगलदेवशास्त्री का प्रबन्धप्रकाश, पं. चारुदेवशास्त्री की “प्रस्तावतरंगिणी” डॉ.रामजी उपाध्याय की संस्कृत निबन्धकलिका और संस्कृतनिबन्धावली, आचार्य केशवदेव शुक्ल का “निबन्धवैभव” डॉ. कपिल देव द्विवेदी का “संस्कृतनिबन्धशतकम्” डॉ. रामकृष्ण आचार्य की “संस्कृतनिबन्धांजलि, डॉ. पारसनाथ द्विवेदी का संस्कृतनिबन्धनवनीतम्, “डॉ. राममूर्ति शर्मा का “संस्कृत निबन्धादर्श” कैलाशनाथ द्विवेदी का “कालिदासीय निबन्ध विषय”, डॉ. रमेशचन्द्र शुक्ल का “प्रबन्धरत्नाकर” आदि प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें संकलित निबन्धों में अनेक व्यक्तिव्यंजक निबन्ध की श्रेणी में भी आते हैं, कुछ विवेचनात्मक है, कुछ विवरणात्मक। डॉ. रामजी उपाध्याय जैसे विद्वानों ने सुरुचिर संस्कृत में भारतस्य सांस्कृतिकनिधिः, महाकविकालिदास, आदि गद्य ग्रन्थ लिखे हैं जिनमें भारतीय संस्कृति का इतिहास, भारत के महाकवि आदि पर संस्कृत में विवरण और विवेचन है। इस प्रकार के विवेचनात्मक गद्य का जो विपुल भांडागार वर्तमान संस्कृत में अवतीर्ण हुआ है जिसका विवरण यहाँ अप्रासंगिक होगा, वह शास्त्रीय ग्रन्थों के अध्याय में देखा जा सकता है। * निबन्ध संकलनों में श्री कर्णवीर नागेश्वर राव की “वाणीनिबन्धमणिमाला” (मद्रास) पं. रधुनाथ शर्मा की “चित्रनिबन्धावलि” (बनारस १६६४) डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय की निबन्धचन्द्रिका (बनारस १६७६), पं. नवलकिशोर कांकर का “प्रबन्धमकरन्द” (जयपुर १६७८), पं. बटुकानाथ शास्त्री खिस्ते की “साहित्यमंजरी” (बनारस १६७E), नरसिंहाचार्य की साहित्यसुधालहरी (आन्ध्रप्रदेश), डॉ. कृष्णकुमार अवस्थी का संस्कृतनिबन्धशेखर (लखनऊ), वासुदेवशास्त्री द्विवेदी की बालनिबन्धमाला और संस्कृतनिबन्धादर्शः (बनारस १६७८), नृसिंहनाथ त्रिपाठी की निबन्धकुसुमांजलि (लखनऊ), डॉ. शिवबालक द्विवेदी की संस्कृतनिबन्धचन्द्रिका (कानपुर १६८५) और निबन्धरत्नाकर (कानपुर १६८५) भी प्रकाशित हैं जिनमें अधिकांश मूलतः पाठ्यपुस्तकों की दृष्टि से लिखे गये निबन्धों के संकलन हैं। ५१३ गप-साहित्य/चम्पूकाव्य इनमें अनेक निबन्ध ऐसे भी हैं जो लेखक ने अपनी प्रतिभाके प्रस्फुरण को वाणी देते हुए लिखे थे, किसी पत्रिका में भी प्रकाशित हुए थे और बाद में संकलन में शामिल कर लिये गये। ऐसे निबन्ध साहित्य के स्थायी अंग बनेंगे। ललित-निबन्ध की विधा के मूलतः लिखने वाले अनेक लेखक बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भी लिखते रहे जिनमें भट्टजी के अतिरिक्त गणेशराम शर्मा (डूंगरपुर) हरिकृष्ण शास्त्री (महापुरा) स्वामिनाथ आत्रेय, विष्णुकान्त शुक्ल (सहारनपुर) नवलकिशोर कांकर, नारायण कांकर, कलानाथशास्त्री (जयपुर) परमानन्द शास्त्री(अलीगढ़) आदि के नाम सुविदित हैं। ऐसे निबन्ध प्रमुखतः पत्र-पत्रिकाओं में ही निकलते रहे। पाठ्यपुस्तक की दृष्टि से जिनकी वाणिज्यिक खपत शीघ्र संभावित थी उन निबन्धों के संकलनों के प्रकाशक तो मिल गये अतः वे ग्रन्थाकार में संकलित भी हो गये और प्रकाशित भी, किन्तु ललित निबन्धों के संकलन बहुत कम निकल पाये। विष्णुकान्त शुक्ल ‘पूर्णकुंभः (१८८३) जैसे संकलन ही इसके अपवाद रहे या विभिन्न संस्कत अकादमियों ने जहाँ संस्कत के निबन्धकारों के प्रतिनिधि संकलन के प्रकाशन का निर्णय किया वहाँ अकादमी की ओर से प्रकाशित निबन्ध संकलन भी इसके अपवाद के रूप में गिनाये जा सकते हैं जैसे राजस्थान संस्कृत अकादमी का “राजस्थानस्य आधुनिकाः संस्कृतनिबन्धलेखकाः । वैसे संयोग यह रहा कि इस निबन्ध संकलन में भी ललित निबन्ध दो ही हैं, शेष काव्यशास्त्रीय विषयों के या अन्य विमर्शनीय बिन्दु के विवेचक या प्रतिपादक लेख ही हैं।
गणेशराम शर्मा
सर्जानात्मक लेखक की विभिन्न विधाओं में लिखते रहे अतः उनके निबन्धों में कहीं विनोद, कहीं व्यंग्य उसी शैली में समाविष्ट हैं जो ललित निबन्ध को पहचान देती है। “जाने त्वां संस्कृतपंडितम्”, “मिथ्याकीर्तिलेखकमहाराजः आदि विषयों में संस्कृत के दंभी विद्वानों का विनोदमय चित्र उपस्थित होता है। धन्यवादस्यात्मचरितम्” “खेलन्ती खट्वा? ‘घंटागौरवम्” “मर्कटमहाशयाः” शीर्षकों से इनकी विषयवस्तु का ही नहीं, शैली का भी अनुमान सहज ही हो सकता है। यही भावभूमि और शिल्प व्यक्तिव्यंजक निबन्ध का होता है। इस भावभूमि पर विनोदमय शैली में “सायंतनं भ्रमणम्” (सं. रत्नाकर १०/६/२७) ‘‘सुरभिसमयावसानम् (सं. १०/११) आदि निबन्धों में हरिकृष्णशास्त्री ने पंडित कवियों के सायंकालीन भ्रमण के समय के विनोदालयों, एक दूसरे पर फब्ती कसते हुए बनाए गये पद्यखण्डों को उद्धृत करते हुए भी विनोदमय गद्य लिखा है और वसन्त समय समाप्त होने पर निराश हुई सुन्दरता को ईश्वर द्वारा दी गई सान्त्वना का काल्पनिक रूपक भी खींचा है। संस्कृत प्रतिभा में प्रकाशित उनका वसन्तवर्णनात्मक निबन्ध शिल्प के दूसरे पक्ष को प्रस्तुत करता है। इसमें सरस और ललित गद्य में वसन्त का वर्णन है।
स्वामिनाथ आत्रेय
(तमिल के प्रसिद्ध लेखक, तंजौर निवासी) के निबन्ध भी ललित निबन्धों वाली हल्की-फुलकी शैली में कभी तो विवाह पद्धति में आने वाली शुभकामना पंक्ति ‘मूर्धानं पत्युरारोह” को शीर्षक बनाकर कथोपकथनात्मक गद्य में यह बतलाते हैं कि पत्नी को इस उपदेश का पालन करने के बाद पति की “मूर्धा’ से उतर आना चाहिए,५१४ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास मूर्धा पर चढ़े ही नहीं रहना चाहिए, कभी इसी, विनोदमय शैली में प्राचीन उक्तियों पर आधुनिक संदर्भो को घटाते हुए अपनी बात कह देते हैं। उनके निबन्ध संस्कृत प्रतिभा में छपते रहे हैं।
परमानन्द शास्त्री
(अलीगढ़) भी व्यक्तिव्यंजक और ललित निबन्धों में कभी प्रचलित सूक्तियों को आधार बनाकर हलके-फुलके वैचारिक प्रवाह को गूंथते चलते हैं- जैसे सौवर्णी वाचालता” (स्वरमंगला १६/४) में ‘कालिदासकविता नवं वयः, माहिषं दधि सशकरं पयः ।” आदि पद्य में कालिदास कविता का साहित्य, दधि से संबंध बिठाते हुए पद्य के एक-एक बिन्दु को लेते हैं, कभी आज के संदभों से संस्कृत की प्राचीन उक्तियों को जोड़कर निबन्ध की सृष्टि करते हैं।
विष्णुकान्त शुक्ल
के ललित निबन्धों में इसी प्रकार का शिल्प, व्यक्तिव्यंजक वैचारिक श्रृंखला में नई उद्भावनाएँ तथा सहज और ललित भाषा एक उत्कृष्ट स्तर का प्रतिनिधित्व करते हैं। “अहमपि भारतीयः” (स्वरमंगला) में वे आधुनिक भारतीय परिवारों में छुरी-काँटे से खाना, केक काटकर जन्मदिन मनाना आदि पद्धतियों पर करारा व्यंग्य करते हैं। “कालमहिमा” में वे “बन्धौ ! काल !!” को संबोधित कर आज की स्थिति का चित्रण करते हैं। देश के सभी अंचलों में विपुल मात्रा में शास्त्रीय शोधात्मक, विवेचनात्मक और प्राचीन वाड्मय के विभिन्न बिन्दुओं की व्याख्या करने वाले छोटे-बड़े प्रबन्धों का लेखन और प्रकाशन होता रहा है यह सुविदित है। ऐसे निबन्धों के लेखकों में से कुछ ने विवेचनात्मक निबन्धों के साथ-साथ कुछ सर्जनात्मक, व्यक्तिव्यंजक निबन्ध भी लिखे हैं, जिन्हें उनके समग्र गद्यलेखन में से तलाश कर पहचानने का काम अभी बाकी है। उदाहरणार्थ राजस्थान के लक्ष्मीनारायण पुरोहित के काव्यशास्त्रीय तथा अन्य विवेचनात्मक निबन्ध पाँचवे, छठे, सातवें दशकों में प्रकाशित होते रहे हैं। उनकी कविताएँ भी प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने कुछ ललित निबन्ध विधा के निबन्ध भी लिखे हैं। जैसे “ज्ञकारस्यात्मनिवेदनम” इसमें “ज्ञ” को वर्णमाला में निचली पंक्ति में स्थान मिलने की शिकायत और उसकी दोहरी दुविधा का चित्र आत्मकथा शैली में खींचा गया है।
कलानाथ शास्त्री
ने कथाओं, उपन्यासों आदि के अतिरिक्त ललित निबन्ध भी लिखे हैं जो समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं। “भारती”, स्वरमंगला आदि का संपादन कार्य करने के कारण उन्हें जो स्तंभलेखन करना पड़ा उसमें चुटकले, छोटे-मोटे व्यंग्यात्मक गद्य, फब्तियाँ, टिप्पणियाँ आदि भी हलके-फुलके गद्य के वर्ण में आती हैं जिनका विपल मात्रा में लेखन इन्होंने किया है। चुटकुले स्वसंपादित अंकों में खाली स्थान पर देने के अतिरिक्त “वाक्कोलस्य वाक्कीलनम्” (भारती, ६/६) जैसे शीर्षकों से “नहले पर दहला” शैली के करारे जवाबों को गद्यबद्ध करके, कभी एक नई शैली का चित्रकाव्यात्मक गद्य लिखकर भी इन्होंने नई जमीन तोड़ी है। उदाहरणार्थ, “राष्ट्रभाषाविषये विचित्रसंमतिः” में ऐसा गद्य है जिसे पूरा पढ़ने पर संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने का तर्क प्रमाणित होता है, किन्तु उसी को ५१५ गध-साहित्य/चम्पूकाव्य एक पंक्ति छोड़-छोड़कर पढ़ने पर उसका विरोध और हिन्दी के राष्ट्रभाषात्व का समर्थन हो जाता है। इन सब छुट-पुट नमूनों के अतिरिक्त व्यक्तिव्यंजक निबन्धों के कुछ उदाहण हैं- “अहमपि लेखको भविष्यामि” (भारती ३/E), जिसमें लेखक बनने का चाव सबमें पनपता बताया है पर अच्छे लेखक के क्या गुण होने चाहिएं उनकी ओर कम का ध्यान जाता बताया गया है। “पंडितरामानन्दस्य पत्रम्” (भारती ८/E) जैसे हलके-फुलके ललित निबन्धों में किसी कल्पित पात्र द्वारा संपादक को लिखे विनोदमय पत्र के रूप में तत्कालीन स्थितियों पर व्यंग्य है तो “कूपे भंगा कथं पतिता (भारती १०/१) जैसे छोटे नमूनों में चुटकुला शैली की घटनाएँ निबद्ध हैं। ललित निबन्ध का एक उदाहरण है “मा च याचिष्म कंचन” (सं. प्रतिभा ७/१) जिसमें याचना की लम्बी भारतीय परम्परा वामन और बलि के प्रसंग से लेकर आजकल के चन्दा माँगने वालों तक ले आई गई है और ललित उद्धरण देते हुए मित्रों के पारिवारिक वार्तालाप की शैली में निबद्ध है। यह निबन्ध “याचनापुराणम्” शीर्षक से एक निबन्ध संकलन में सम्मिलित भी है (राजस्थानस्य आधुनिकाः संस्कृतनिबन्धलेखकाः,) रा.सं.अका.१६८७॥ __ इस प्रकार उन लेखकों ने, जो संपादक भी रहे हैं अनेक प्रसंगों और आवश्यकताओं के क्रम में ललित निबन्धों की सृष्टि की है। यह क्रम निरन्तर चल रहा है। जैसा कि पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है ऐसे निबन्धों का प्रमुखतः प्रकाशन पत्रपत्रिकाओं ने ही दिया है, बाद में वे चाहे किसी संकलन में संकलित हो गये हों (जिनकी संख्या बहुत कम है)।
यात्रावृत्त-आधुनिक साहित्य में गद्यबद्ध विधाओं में “यात्रावृत्त’ और ‘जीवनवृत्त” भी संमिलित माने जाते हैं। इन्हें उपन्यास, कथा, निबंध आदि से पृथक् विधा मानने का कारण शायद यही हो कि इनमें कल्पना या मौलिक उद्भावना का तत्त्व कम और वृत्तवर्णन, स्थलवर्णन या “रिपोर्टिंग” का तत्व अधिक होता है। सच पूछा जाये तो यात्रावृत्त पत्रकारिता का ही अंग है। इसमें समाचार घटनापरक न होकर यात्रावर्णनपरक होता है। इसलिए इसे पत्रकारिता और साहित्य की मध्यरेखा पर स्थित विधा अथवा दोनों का संमिश्रण एवं समन्वय करके उद्भावित विधा कहा जा सकता है। पाश्चात्त्य साहित्य में इसे “ट्रैवलॉग” या रिपोतार्ज़ विधा कहा जाता है जिसमें स्वयं की गई यात्रा या प्रत्यक्ष देखी किसी भी घटना, विशेषकर यात्रा का रोचक वर्णन कर रमणीयता पैदा की जाती है। प्राचीन साहित्य में यात्राओं के वर्णन तो मिलते हैं, सुललित पद्य या गद्य में निबद्ध उनका वर्णनात्मक साहित्यिक रूप भी उपलब्ध होता है पर उसे अलग से विधा या काव्यभेद नहीं माना गया। काव्य, गद्यकाव्य या चम्पू के अन्तर्गत ही यात्रावर्णनादि समाविष्ट होते रहे हैं-जैसे विश्वगुणादर्शचम्पू में विभिन्न देशों, प्रान्तों का वर्णन है किन्तु यह यात्रावृत्त मात्र नहीं है, इसका प्रतिपाद्य कुछ और है। प्राकृत साहित्य में व्यापारियों की श्रावकों की या तीर्थयात्रियों की यात्राओं के वर्णन मिलते हैं इनमें से कुछ यात्रावर्णन का प्रमुख उद्देश्य लेकर ही लिखे गये हैं जैसे “वसुदेवहिंडी”। हो सकता है इन सब में यात्रावृत्त वास्तविक न हो, कल्पनानिबद्ध हो। उस स्थिति में वह उपन्यास या कथा की विधा में आएगा,
आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास यात्रावृत्त विधा में नहीं, क्योंकि यात्रावृत्त स्वयं की यात्रा का स्वनिबद्ध विवरण ही होता है। इसी प्रकार जीवनवृत्त विभिन्न ऋषियों या महापुरुषों के चरित्र या उपाख्यान के रूप में हमारे यहाँ वर्षों से लिखे जाते रहे हैं, किन्तु आधुनिक साहित्य में जीवनी या बायोग्राफी के रूप में जो विधा विकसित हुई है उसका प्रमुख विषय है व्यक्तिचरित का वर्णन जिसे आपने प्रत्यक्ष देखा हो। स्वयं दृष्ट व्यक्ति का चरितनिबन्धन जीवनी (बायोग्राफी) और स्वयं का आत्मचरित निबन्ध आत्मकथा (आटोबायोग्राफी) कहा जाता है और ये दोनों आधुनिक साहित्य की गद्य-विधाएँ मानी जाती हैं। संस्कृत में इन दोनों की इस रूप में अवतारणा बहुत सीमित मात्रा में हुई है। जिस प्रकार बॉसवेल नामक जीवन चरित लेखक अठारहवीं सदी के प्रसिद्ध अंग्रेजी कोषकार, विद्वान् और समीक्षक डॉ जानसन के चरित लेखक के रूप में अंग्रेजी साहित्य में प्रसिद्ध है उस प्रकार के उदाहरण संस्कृत में बिरले ही हैं। बाणभट्ट का हर्षचरित उस विधा के निकट अवश्य पहुँचता है, क्योंकि यह माना जाता है कि बाणभट्ट श्रीहर्ष की राजसभा में थे तथापि यह उनके जीवनचरित की तरह न लिखा जाकर वर्णनात्मक गद्यकाव्य के रूप में लिखा गया है। इस दृष्टि से हर्षचरित प्राचीनतम गद्यबद्ध जीवनचरित की श्रेणी में अग्रणी पंक्ति में आता है। - संस्कृत रचनाकारों में यात्राएँ करने और उनका वर्णन पद्य या कभी-कभी गद्य में करने की प्रवृत्ति तो सदियों से चली आ रही है, किन्तु उनका प्रकाशन कभी-कभी ही हो पाता था। तीर्थयात्रा की परम्परा सदियों से है और संस्कृत विद्वज्जन भी बदरीनाथधाम की या जगन्नाथपुरी की यात्रा करते थे। उसका विवरण भी लिखते थे। यही कारण है कि ऐसी तीर्थयात्राओं के वर्णन करने वाले गद्य बीसवीं सदी से ही प्रकाशित रूप में मिल जाते हैं। संस्कृतचन्द्रिका में तथा अमरभारती में लक्ष्मण शास्त्री तैलंग का जगदीशपुरयात्रा वर्णन प्रकाशित हुआ था (अमरभारती १/१०-११) उत्तराखण्ड यात्रा के वर्णन तो अनेक गद्यकारों ने किये हैं। एस.पी. भट्टाचार्य की “उत्तराखंडयात्रा (कलकत्ता १६४८) सुविदित है। मथुरानाथ शास्त्री ने “अस्माकम् उत्तरखंडयात्रा” संस्कृतगद्य में लिखी थी, जिसका कुछ अंश स्वसंपादित ‘भारती” मासिक पत्रिका में प्रकाशित भी किया था। इसका बहुत सा अंश “प्रबन्धपारिजातः” में मुद्रित है। पं. हरिहरसुरूप शर्मा ने हिमालयांचल की यात्रा की थी। इस पर गद्य व पद्य दोनों में यात्रावर्णन लिखे थे। संस्कृतरत्नाकर मासिक “शिमलाशैललावण्यम्” शीर्षक से आर्याछन्दों में निबद्ध शिमला वर्णन बीसवीं सदी के प्रथम दशक में छपा था। इन्होंने अपनी काश्मीर यात्रा का वर्णन “मम काश्मीरयात्रा” शीर्षक से किया था जो “शारदा” पत्रिका (969) में छपा है। टी. गणपतिशास्त्री का “सेतयात्रावर्णन भी सुविदित है जिसमें धार्मिक आचारों का तो विवरण है ही, कुछ आधुनिक विकृतियों का भी बेबाक विश्लेषण है। बी.एस.रामस्वामि शास्त्री ने “त्रिबिल्वदलचम्पू” (मदुरा १६३७) में अपनी पूरी भारतयात्रा का वर्णन करते हुए न केवल तीर्थस्थानों का विवरण दिया है बल्कि विश्वविद्यालयों अन्य शिक्षासंस्थाओं, प्राचीन ५१७ गद्य-साहित्य/ चम्पूकाव्य पुरातात्त्विक स्थलों, दर्शनीय स्थानों आदि का वर्णन भी किया है। रामस्वामिशास्त्री केवल संस्कृत पंडित ही नहीं थे, मदुरै के प्रसिद्ध वकील भी थे। सखाराम शास्त्री ने १८२४ में अपनी कोंकणयात्रा का वर्णन निबद्ध किया है। बहादुरचन्द छाबड़ा (चापोत्कट) ने अपनी हालैण्ड यात्रा के बाद वहाँ की शोभा का वर्णन “न्यक्तरजनपदशोभा’ शीर्षक से संस्कृतपद्यों में किया था जो बंगलौर की पत्रिका अमृतवाणी (१९५३) में छपा था। इसी प्रकार पद्यबद्ध वर्णन सी. कुन्हन राजा द्वारा “पर्सिपोलिस” नगरी का किया गया है जो “ब्रह्मविद्या” (आड्यार लायब्रेरी पत्रिका दिसम्बर १६५३ १७/४) में छपा है। ऐसे वर्णनों से लगता है, यात्रावृत्तों का भी पद्यों में गुम्फन ही संस्कृत पंडितों को अधिक भाया है। वैसे गद्य में भी यात्रावृत्त बड़ी संख्या में निबद्ध है। पत्र के रूप में भी यात्रावृत्त लिखे गये हैं- उदाहरणार्थ एम.रामकृष्णभट्ट (जो बंगलोर की पत्रिका अमृतवाणी के संपादक भी रहे) ने अपनी ईस्ट अफ्रीका की यात्रा का वर्णन संस्कृत में लिखे एक पत्र के रूप में, “संस्कृतभवितव्यम्” के संपादक को संबोधित किया था। गद्य और पद्य की प्रत्येक विधा में अनुवाद की परम्परा आधुनिक संस्कृत साहित्य की एक विशिष्ट प्रवृत्ति के रूप में सर्वत्र परिलक्षित होती है। संस्कृत रचनाकार अन्य किसी भी भाषा की उत्कृष्ट कृति से प्रभावित पाकर सर्वप्रथम उसे अपनी भाषा में लाना चाहता रहा है, साथ ही उसे हृदयंगम कर अपने ढंग से उस विधा में मौलिक रचना भी करता रहा है। यही कारण है कि यात्रावृत्तों के अनुवाद भी बीसवीं सदी के अन्तिम चरण से लेकर आजतक संस्कृत में किसी न किसी रूप में होते रहे हैं। प्रसिद्ध यूरोपीय पर्यटक पियरे लोती ने अपनी भारतयात्रा का सुन्दर विवरणात्मक वृत्त “यात्रावृत्त” की अपनी शैली में बीसवीं सदी के प्रारंभ में लिखा था। संस्कृतरत्नाकर के संपादक भट्टमथुरानाथ शास्त्री ने प्रथमदशक में “भारतपर्यटनम्” शीर्षक से इस यात्रावृत्त की अपने ढंग से संस्कृत में अवतारणा की, जो संस्कृत-रत्नाकर में धारावाहिक रूप में मुद्रित हुई। उस समय के भारत में किसी प्रकार की महामारी के फैलने पर यात्राएँ कितनी कम हो जाती थीं, रेलें चलने लगी थीं, पर भारतीय यात्री उनमें बैठने से कतराते थे, इस सबका विवरण लोती ने आत्मवृत्त की तरह दिया है। इस नई विधा में संस्कृत अछूती न रहे, यही दृष्टि इसकी संस्कृत में अवतारणा के पीछे भट्टजी की रही प्रतीत होती है।। ऐसे आधुनिक संस्कृत साहित्य के इतिहासकारों की यह मान्यता है कि इस युग में गद्यकाव्य के रूप में यात्राप्रबन्ध को प्रतिष्ठापित करने का श्रेय श्रीशैल दीक्षित को जाता है जिन्होंने दो यात्राप्रबन्धों की रचना की है। प्रथम यात्रावृत्त है “कावेरीगद्यम्” जिसमें कावेरी यात्रा (कुर्ग) का वर्णन है। द्वितीय यात्राप्रबन्ध है “प्रवासवर्णनम्” जिसमें भारतीय प्रदेशों की यात्रा का वर्णन है। ए. राजगोपालचक्रवर्ती ने “तीर्थाटनम्” शीर्षक से पाँच अध्यायों में भारत के प्रमुख तीर्थों का चित्रण किया है। नारायणचन्द्र स्मृतितीर्थ ने आधुनिक उड़ीसा के प्रवास का वृत्त लिखते हुए “भुवनेश्वरवैभवम्” की रचना की है। अरबी के प्रसिद्ध कथाग्रन्थ “अलिफलैला” (सहस्ररजनीचरित) में जहाजी सिन्दबाद की यात्राओं का जो वर्णन आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास है वह यात्रावृत्त की विधा में नहीं आता, वह काल्पनिक कथा है, जिसमें जहाज से समुद्र की यात्रा करते समय घटी रोचक और विस्मयकर घटनाओं का वर्णन है। इसका अनुवाद भी संस्कृत में हुआ है। म.म. लक्ष्मण शास्त्री तैलंग का लिखा “सिन्दुवादवृत्तम्” पुस्तकाकार में भी प्रकाशित हो चुका है (शारदा प्रकाशन, वाराणसी १६७६)। अलिफलैला की कहानियों के अनुवाद के क्रम में सिंदबाद जहाजी की कहानियों के संस्कृतानुवाद “संस्कृतचन्द्रिका” आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं, किन्तु जैसा पहले हम स्पष्ट कर चुके हैं, अन्य किसी की यात्रा का वर्णन यात्रावृत्त की विधा में नहीं आता। -
- जयपुर के विद्वान् पं. नवलकिशोर कांकर ने “यात्राविलासम्” नामक एक उत्कृष्ट गद्यकाव्य की रचना की है जिसमें अपनी उत्तराखंड-यात्रा का प्रारम्भ से अन्त तक सुललित वर्णन अलंकृत संस्कृत गद्य में किया है जो पूर्णतः बाणभट्ट से प्रभावित शैली में है। इस गद्यकाव्य की प्रशंसा सारे देश में हुई, इसी के आधार पर संस्कृत सेवी संस्थाओं की ओर से उन्हें “गद्यसम्राट्” की उपाधि मिली, अनेक पुरस्कार मिले तथा अभिनन्दन हुए। यह यात्रा का प्रत्यक्षानुभूत वर्णन है और इसमें यथार्थ चित्रण, तत्कालीन वस्तुस्थितियों का सजीव विवरण तथा क्रमबद्ध कथन है। अतः यह सही अर्थों में यात्रावृत्त है। यद्यपि इसे लेखक ने भारत की अतिप्राचीन परम्परा का अनुसरण करते हुए अथवा अन्य किसी कारण से स्ववृत्त कथन का रूप न देकर तथा आत्मवृत्त लिखने की बात न कहकर उत्तमपुरुष की बजाय प्रथम पुरुष में, एक प्रोफेसर की सपत्नीक तीर्थयात्रा के काव्यमय वर्णन का रूप दे दिया है। इसके पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यात्रा करने वाला प्रोफेसर स्वयं लेखक ही है। “यात्राविलासम्” काव्यम् (जयपुर से प्रकाशित) अनेक विश्वविद्यालयों तथा संस्थाओं की संस्कृत परीक्षाओं में पाठ्यपुस्तक के रूप में भी निर्धारित रहा है। - जयपुर के युवा कवि पं. पद्मशास्त्री (पद्मादत्त ओझा) जो “लेनिनामृतम्” (लेनिन की जीवनी पर आधारित संस्कृत काव्य) आदि काव्यों तथा “विश्वकथाशतकम्” आदि कथासंग्रहों के प्रणेता हैं, “लेनिनामृत’ काव्यलेखन के उपलक्ष्य में सोवियत रूस की यात्रा पर भारत के अन्य विख्यात साहित्यकारों के साथ गये थे। इस यात्रा का प्रत्यक्ष वर्णन उन्होंने “मदीया सोवियतयात्रा” शीर्षक से किया है, जो पत्र-पत्रिकाओं में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ था। सरल और सहज शैली में लिखे गये इस यात्रावृत्त में रूस के उन नगरों का, जिन्हें इन लेखकों ने देखा था सटीक वर्णन भी है, घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण भी है, अपनी टिप्पणियाँ भी हैं। यात्रावृत्त की परिभाषा पर खरा उतरने वाला यह यात्रावृत्तात्मक गद्य प्रबन्ध ट्रैवलाग के नमूने के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। आधुनिक संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं में जो यात्रावृत्त समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं उनमें देश और विदेश दोनों की यात्राएँ वर्णित मिलती हैं। व्रजगन्धा में वाराणसी के प्रसिद्ध मूर्धन्य विद्वान स्व. रघुनाथशर्मा ने “मदीया व्रजयात्रात्रयी’ में तीन बार की गई व्रजयात्राओं का वर्णन किया है। गय-साहित्य/चम्पूकाव्य ५१६
जीवनवृत्त
जैसा पहले स्पष्ट किया जा चुका है, किसी उत्कृष्ट व्यक्ति का जीवन चरितलेखन जो एक आधुनिक विधा के रूप में विकसित हुआ है, पृथक् किसी काव्य विधा या गद्य विधा के रूप में संस्कृत साहित्य में वर्गीकृत नहीं है। तथापि जीवन चरितों का संस्कृत में लेखन प्रभूत मात्रा में होता रहा है। इस प्रकार के महापुरुष चरितों को सर्वाधिक पद्य में ही निबद्ध किया गया है, कभी-कभी चम्पू में, गद्य में बहुत कम। धर्मगुरुओं, महान् विद्वानों, साधु-सन्तों को यह देश सर्वाधिक आदर देता रहा है, साथ ही राजाओं की भी महिमा सर्वसमादृत रही है। “ना विष्णुः पृथिवीपतिः।” पृथ्वीपति को तो विष्णु का स्वरूप तक माना गया था। तभी तो बाणभट्ट ने हर्षचरित में कान्यकुब्जेश्वर स्थाण्वीश्वर जनपद नरेश हर्षवर्धन का चरित “हर्षचरितम्” में निबद्ध किया है। इसे सर्वप्रथम गद्यबद्ध जीवनवृत्त कहा जा सकता है। शंकराचार्य के जीवन और कृतित्व ने इस देश पर जो प्रभाव छोड़ा है उसे देखते हुए यह स्वाभाविक ही था कि उनका जीवनवृत्त भी लिखा जाए। “शंकरदिगविजय” आदि शीर्षकों से विभिन्न विद्वानों ने शंकराचार्य का जीवन चरित्र विभिन्न शैलियों में लिखा है। इनमें सभी अधिकांश पद्यबद्ध ही हैं। के आधुनिक काल में भी पद्यबद्ध जीवन चरित विपुल मात्रा में लिखे जाते रहे हैं। म. म. पं. शिवकुमार मिश्र (काशी) का ‘यतीन्द्रदेशिकचरितम” यति भास्करानन्द का जीवन खंडकाव्य के रूप में ही लिखा गया है। किन्तु अ.ति. कुमारताताचार्य का “चंडमारुताचार्यजीवनचरितम्” (विद्ववर चंडमारुताचार्य की जीवनी) गंगाधर शास्त्री का “राजारामशास्त्रिजीवनचरितम्” तथा “बालशास्त्रिजीवनचरितम्”, श्रीशैलतातातचार्य का “रामशास्त्रिचरितम्”, के मार्कण्डेयशर्मा का “श्रीदीक्षितचरितम्” तथा मेधाव्रताचार्य के ‘नारायणस्वामिचरितम्” और “महर्षिविरजानन्दचरितम्” जीवनी साहित्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इनमें से कुछ तो निबन्धरूप में संस्कृतचन्द्रिका आदि पत्रों में छपे हैं, कुछ ग्रन्थाकार में भी उपलब्ध हैं। मेधावताचार्य स्वयं गद्यकार (उपन्यासकार) हैं अतः स्वाभाविक था कि वे गद्यबद्ध जीवनियाँ ही लिखते। सो विद्वानों, गुरुओं, साधु-सन्तों की जीवनियाँ अधिक लिखी गई, यह संस्कृत साहित्यकार के रुझान का एक संकेत है वैसे शासकों की जीवनियाँ भी लिखी गई हैं- जैसे “श्रीशाहू चरितम्” में आत्माराम लाटकर ने कोल्हापुर के छत्रपति की जीवनी लिखी है। श्रीशैल दीक्षित ने “श्रीकृष्णाभ्युदयम्” शीर्षक से मैसूर के कृष्णराज की जीवनी लिखी है। आत्मराम लाटकर ने “अनन्तचरितम्’ शीर्षक से बम्बई के संस्कृत सेठ अनन्तराम सदाशिव टोपीवाले की जीवनी भी लिखी है। अंग्रेजी सम्राटों की जीवनी लिखने में भी संस्कृत लेखक पीछे नही रहे। जिस प्रकार भारतसम्राट् के रूप में विभिन्न ब्रिटिश सम्राटों की प्रशस्तियों लिखी गई, उसी प्रकार जी.पी. पद्मनाभाचार्य ने ‘जार्जदेवचरितम्” शीर्षक से पंचम जार्ज की जीवनी में भी लिखी। ब्रिटिश शासन काल में यह सब स्वाभाविक ही था। तत्कालीन शासक को स्मरण करने की प्रवृत्ति सदा से रही है। किन्तु संस्कृत साहित्यकार की चिरन्तन प्रवृत्ति श्रद्धेय महापुरुषों के जीवन को सम्मान देने की ही रही है। स्वतंत्रता-संग्राम के समय तथा उसके ५२० आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास अनन्तर ऐसे श्रद्धेय पुरुषों में स्वतंत्रता सेनानी अविभाज्य रूप से जुड़ गये थे। यही कारण है कि गांधी, तिलक आदि स्वतंत्रता सेनानियों पर जिस प्रकार विपुलमात्रा में संस्कृत काव्य सर्जन हुआ, उसी प्रकार उनकी जीवनियाँ भी प्रभूत मात्रा में लिखी गई। भारत के विभिन्न प्रदेशों में स्थित धार्मिक संप्रदायों के प्रधान आचार्यो, सन्तों, आदि की जीवनी के लेखन का क्रम भी कुछ मठों में बड़े उत्साह से चलाया जाता है। ऐसी जीवनियाँ पद्य के अतिरिक्त गद्य में भी लिखी गईं। विभिन्न शंकराचार्यों के जीवन पर काव्यादि तो लिखे ही गये (जैसे कुछ वर्ष पूर्व ही गोवर्धनपीठाधीश श्रीनिरंजनदेवतीर्थ जी के जीवन पर सविवरण काव्य कविवर श्री दीनानाथ त्रिवेदी मधुप ने लिखा था जो प्रकाशित है) गद्यबद्ध जीवनवृत्त चम्पू, गद्यकाव्य आदि के रूप में भी लिखे गये। इस प्रकार के जीवनवृत्त लिखने और प्रकाशित करने की परम्परा रामानन्दाचार्यमठ, पालडी, अहमदाबाद में अनेक वर्षों से चली आ रही है। कोसलेन्द्र मठनाम से स्थापित इस मठ से काशी के जगद्गुरु रामानन्दाचार्य जी पर अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं- इस मत का यह प्रयत्न तो है ही कि रामानन्द संप्रदाय को एक स्वतंत्र संप्रदाय के रूप में स्थापित बताया एवं सिद्ध किया जाए, रामानुजसंप्रदाय के अंग या उद्भव के रूप में नहीं। इसके साथ ही रामानन्द संप्रदाय की दार्शनिक सिद्धान्तभित्ति को भी सुदृढ बनाने का प्रयत्न यहाँ किया जाता रहा है। इसी क्रम में जयपुर के एक विद्वान् कवि और गद्यकार पं. गोस्वामी हरिकृष्णशास्त्री ने “आचार्यविजयः” नामक चम्पूकाव्य में जगद्गुरु रामानन्दाचार्य का जीवन चरित विस्तार से लिखा जो १६७७ में कोसलेन्द्रमठ, पालड़ी, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ। इसमें प्रमुखतः सरस, अलंकृत गद्य का ही प्रयोग है, कहीं-कहीं प्रसंगवश एक दो पद्य आ जाते हैं। इसमें आचार्य के जीवन का पूर्ण विवरण तो है ही, उनके दार्शनिक सिद्धान्तों का परिचय भी है, अलंकृत शैली में काव्यात्मक वर्णन भी हैं। यह प्रौढ़ गद्यरचना काव्यात्मक जीवनियों में इस गद्यग्रन्थ को प्रतिष्ठापित करती है। हरिकृष्ण शास्त्री इस मठ के सम्मानित विद्वान् ही थे, मठाधीश नहीं। बाद में इस मठ के आचार्य रामप्रपन्नाचार्य जी के शिष्य रामेश्वरानन्दाचार्य जी ने भी संस्कृत में अपने संप्रदाय के प्रचारार्थ ग्रन्थ लिखे। इन्हें एक विशालकाय ग्रन्थ में संकलित भी किया गया है। इसमें रामानन्दाचार्य जी का संस्कृतगद्य में जीवन चरित है। अन्य आचार्यों के जीवन चरित भी निबद्ध हैं। इस रामानन्दाचार्यजीवन में विमर्शात्मक, सहज गद्य है, घटनाओं का तिथियों सहित वर्णन है, संप्रदाय के सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। इसी कारण शैली में काव्यात्मक अलंकृत शैली के प्रयोग का प्रयास परिलक्षित नहीं होता। यह जीवनीग्रन्थ का ही शुद्ध उदाहरण कहा जा सकता है। संस्कृत का साहित्यकार जिस प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलनों का सुरुचि प्रेक्षक रहा है, उनका समर्थक रहा है, उनका इतिहासकार बना है, उसी प्रकार उसने राष्ट्रनेताओं को चरितनायक बनाकर अनेक उत्कृष्ट संस्कृत कृतियाँ भी लिखी हैं। महात्मा गांधी पर लिखे संस्कृत ग्रन्थों की कल्पना कष्टसाध्य है। गाँधी जन्मशताब्दी के अवसर पर गाँधी शान्ति गद्य-साहित्य/ चम्पूकाव्य ५२१ प्रतिष्ठान द्वारा एक ऐसी सूची निकाली गयी थी जिसमें गाँधी जी पर लिखे लगभग ३० महाकाव्यों तथा अन्य अनेक काव्यों की जानकारी थी। पंडिता क्षमा राव, भगवदाचार्य, चारुदेव शास्त्री, वासुदेव शास्त्री बागेवाडीकर, पंढरीनाथाचार्य आदि अनेक समर्थ सर्जक गाँधी जी का चरित्र पद्यबद्ध कर चुके हैं। उनपर संस्कृत गद्य में भी बहुत लिखा गया है। ठीक उसी प्रकार लोकमान्य तिलक, जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गाँधी, सुभाष बोस, डॉ. राजेन्द्रप्रसाद, डॉ. राधाकृष्णन आदि राष्ट्रनेताओं, टैगोर आदि राष्ट्रकवियों, यहाँ तक कि जगदीशचन्द्र वसु आदि भारतीय वैज्ञानिकों तथा अपने-अपने क्षेत्रों के संस्कृत विद्वानों पर | भी संस्कृत का लेखक कुछ न कुछ लिखता रहा है। इनमें से कुछ जीवनी ग्रन्थ हैं, कुछ जीवन परिचय देने वाले लेख, निबन्ध या लघुप्रबन्ध है। संस्कृत के युगपुरुषों की जीवनियां तो लिखी ही गई हैं, जैसा स्वाभाविक भी था। इनमें से अधिकांशतः तो पद्यबद्ध हैं किन्तु अनेक ललित सरल और प्रवाहपूर्ण गद्य में भी लिखी गई हैं। उदाहरण स्वरूप कुछ का संक्षित विवरण दिया जा रहा है। जिस प्रकार पं. बासुदेव शास्त्री बागेवाडीकर ने “श्रीगान्धिचरितम्” शीर्षक से गाँधी जी की जीवनी लिखी, जिसकी भूमिका डॉ. श्रीप्रकाश ने लिखी थी और जो १६५६ में शोलापुर में छपी उसी प्रकार उन्होंने “श्रीतिलिकचरित्रम” शीर्षक से लोकमान्य तिलक की जीवनी लिखी जिसकी भूमिका भूतपूर्व राज्यपाल माधव श्रीहरि अणे ने लिखी थी जो गांधिचरित से पूर्व तिलकजन्मशताब्दी के अवसर पर १६५६ में शोलापुर से ही छप चकी थी। भूमिका में माधव श्रीहरि अणे ने लिखा है कि महात्मा गाँधी जिस प्रकार स्वतंत्रभारत के पिता हैं, उसी प्रकार लोकमान्य तिलक पितामह हैं और दादाभाई नौरोजी प्रपितामह हैं। सभी का गुणानुकीर्तन हमारा कर्त्तव्य है। लगता है इसके अनुसरण में संस्कृत लेखक ने सभी के जीवन चरित लिखे हैं। बागेवाडीकर के “श्रीतिलकचरित्रम्" में तथ्यनिरूपणात्मक दृष्टिकोण से एक इतिहासकार की दृष्टि का प्रमाण देते हुए कालक्रम से अपने चरित्रनायक का जीवन चरित्र लेखक ने सहज भाषा में स्वाभाविक शैली में निबद्ध किया है। इसी से यह भी ज्ञात होता है कि तिलक ने जिस प्रकार गीतारहस्य मॉडले जेल में लिखा था उसी प्रकार ब्रह्मसत्र का भाष्य भी उन्होंने जेल में ही लिखा था। जीवन चरित अध्यायों में या शीर्षक-बद्ध खंडों में विभाजित नहीं है- केवल १, २, ३, और ४ क्रमांकों से ४ विभाग बना दिये गये हैं। इसी कलेवर में जन्म से मृत्यु तक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के जीवन, संघर्ष और कृतित्व का तथ्यात्मक विवरण दे दिया गया है। “तिलक” का यह वंशनाम वस्तुतः “टिलक” है। इसी कारण तिलक का एक अन्य जीवन चरित्र जो “मधुरवाणी” संपादक पंढरीनाथाचार्य गलगली द्वारा लिखा गया है, अपना नाम “लोकमान्यटिलकचरित्रम्” ही बताता है। तिलकजन्मशताब्दी के प्रसंग में शताब्दी समारोहानन्तर प्रकाशित यह जीवनचरित्र १५ अध्यायों में विभक्त है और जन्म से मृत्यु तक अपने चरित्रनायक का जीवनवृत्त सहज शैली में लेखबद्ध करता है। इसमें भी “बालाचार्य टिलक” रचित ब्रह्मसूत्रवृत्ति का उल्लेख है। यह भी बताया है कि “भारत छोड़ो” आन्दोलन ५२२ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास का नामकरण तिलक की ही देन थी जो वस्तुतः जगन्नाथ पंडितराज के प्रसिद्ध अन्योक्तिश्लोक की प्रेरणा का फल था। “स्थितिं नो रे दध्याः” का अर्थ, “रुको मत, छोड़ भागो।” जगन्नाथ पंडितराज का यह श्लोक लोकमान्य तिलक को इतना पसंद आया था कि उन्होंने इसे अपने मुखपत्र ‘केसरी" का आदर्शवाक्य ही बना लिया था। उसके प्रथम पृष्ठ पर यह पद्य छपता था – “स्थितिं नो रे दध्याः क्षणमपि मदान्धेक्षण सखे गजश्रेणीनाथ त्वमिह जटिलायां बनभुवि। असौ कुंभम्रान्त्या खरनखरविद्रावितमहा गिरिग्रावग्रामः स्वपिति गिरिगर्भे हरिपतिः।” इसमें मस्त हाथी से कहा गया है कि इससे पहले कि पराक्रमी सिंह जो हाथी समझकर पहाड़ तक को चीर डालता है, जब तक सो रहा है तब तक भाग लो। पराक्रमी भारतीय जनता की उदासीनता समाप्त होते ही उसका आन्दोलन मदान्ध विदेशी शासन को रौंद डालेगा यह बताते हुए “भारत छोड़ो’ की चेतावनी विदेशी शासन को देने का यह अद्भुत तरीका था लोकमान्य तिलक का। यही “भारत छोड़ो” आन्दोलन का प्रेरक था यह बात बहुत कम लोगों को मालूम होगी। “लोकमान्यतिलकचरित्रम्” इसी पद्य से और लेखक द्वारा स्थापित इसी बात से प्रारम्भ होता है। इसमें भी तिलक के जीवन, वैदुष्य, प्रेरणास्रोत, परिवार, कृतित्व, राष्ट्रीयता आन्दोलन में उनके संघर्ष आदि से लेकर उनके विचारों तक का विवरण देते हुए अन्त तक का वृत्त निबद्ध है। मुखपृष्ठ पर उनके चित्र में नीचे “महतस्तेजसो बीजं बालोऽयं प्रतिभात्यहो” मुद्रित है और “बालो” पर विशेष अंकन है। जीवनचरित्र लेखन की नई इतिहासाकलनात्मक शैली तथा चरितनायक का चित्र मुखपृष्ठ पर मुद्रित करने का औचित्य तिथि एवं स्थान के विवरण सहित महत्त्वपूर्ण घटनाओं का कालक्रमानुसारी विवरण देने की प्रवृत्ति जीवन चरित को पृथक् विधा मानने का अच्छा आधार बनता है यह ऐसे जीवन चरित्रों को देखकर स्वतः हो जाता है। इस प्रकार ‘महात्मचरितम्” (पंढरीनाथपाठक, भूमिकालेखक पंढरीनाथाचार्य गलगली, “मधुरवाणी” संपादक) जैसे ग्रन्थों द्वारा जिस रूप में गाँधी जी की जीवनी लेखबद्ध की गई उसी प्रकार देश के बड़े-बड़े नेताओं के जीवन चरित्र पुस्तकाकार में प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त विभिन्न राष्ट्रनेताओं की जीवनियाँ सरल संस्कृत में गद्यबद्ध कर प्रकाशित करने के भी अनेक प्रयास हुए। स्तोत्रों या प्रशस्तियों के रूप में तो संस्कृत कवि राष्ट्रनेताओं के समर्थन में काव्य बराबर लिखता ही रहा, “देशभक्तपंचकम्” आदि संकलनों में विभिन्न नेताओं को समर्पित काव्यों के संग्रह भी प्रकाशित होते रहे हैं, किन्तु छोटी-छोटी जीवनियों के रूप में राष्ट्रनेताओं के चरित्र भी प्रकाशित हुए हैं। “भारतीयनररत्नसमुच्चयः” ऐसा ही गद्यबद्ध जीवनी संकलन है। यह गुना (मध्य प्रदेश) के एक छोटे से उपनगर राधोगढ़ से गाँधी जी की जन्मतिथि पर सन् १८७६ में प्रकाशित हुआ था जिसमें तिलक, गाँधी, गय-साहित्य/चम्पूकाव्य ५२३ मोतीलाल नेहरू, पटेल, टैगोर, नेताजी सुभाषबोस, राजेन्द्रप्रसाद, राधाकृष्णन और जवाहरलाल नेहरू की संक्षिप्त जीवनियाँ हैं। प्रत्येक जीवनी के साथ उस नेता को संबोधित एक संस्कृत गीति (प्रसिद्ध कवि सद्रदेव त्रिपाठी) मालवमयूर के संपादक (द्वारा लिखित) मुद्रित है। प्रारम्भ में इसके संपादक रुद्रदेव त्रिपाठी ने भूमिका में बताया है कि राष्ट्रीयता आन्दोलन पर ही इतना (संस्कृत में ) लिखा गया है कि उसका आकलन सरल नहीं है। उन्होंने स्वयं इस प्रकार के ५०-६० ग्रन्थ संकलित कर रखे हैं, पत्र-पत्रिकाओं में निकले ऐसे साहित्य का तो अन्त ही नहीं है। पर जयपुर के कुछ संस्कृत विद्वानों के जीवन चरित्र लिखने का श्रृंखलाबद्ध प्रयत्न जयपुर से प्रकाशित संस्कृत मासिक पत्रिका ‘भारती" के संपादक पं. जगदीश शर्मा ने भी किया। पं. जगदीश शर्मा के पिता पं. बिहारीलाल शर्मा जयपुर के प्रसिद्ध संस्कृत विद्यापीठ महाराजा संस्कृत कालेज में साहित्य के आचार्य एवं विभागाध्यक्ष थे। उनका संस्कृतगद्यबद्ध जीवनचरित्र “विहारिस्मारिका” शीर्षक से उन्होंने लिखा जो जयपुर से प्रकाशित है। इसमें प्राचीन पंडितों की शैली की प्रौढ़ संस्कृत भाषा उल्लेखनीय है। जन्मकाल से लेकर निधन पर्यन्त समस्त महत्त्वपूर्ण घटनाओं का कालक्रम से विवरण देते हुए किसी विद्वान का जीवन चरित्र व्याकरणानुमत भाषा में किस प्रकार लिखा जाता है इसका उदाहरण प्रस्तुत करते हुए पं.जगदीश शर्माजी की लिखी अनेक विद्वानों की जीवनियाँ जयपुर से प्रकाशित हैं। दक्षिण भारत के शास्त्रज्ञ विद्वान और यशस्वी प्राध्यापक पं. वीरेश्वर शास्त्री द्राविड जो वाराणसी होते हुए जयपुर आ बसे थे, जयपुर के मूर्धन्य विद्वानों में गिने जाते थे। इनका जीवन चरित्र उसी शैली में “वीरेश्वर-प्रत्यभिज्ञानम्" शीर्षक से राजस्थान संस्कृत अकादेमी से प्रकाशित हुआ, जिसमें पं. वीरेश्वरजी की डायरी का विवरण भी है और उनके प्रमुख शिष्यों का वर्णन भी लेखक (पं. जगदीश शर्मा) ने दिया है। महामहोपाध्याय पदवी से सम्मानित एक अन्य जयपुरीय विद्वान् जो लाहौर के प्रसिद्ध गवर्नमेंट संस्कृत कालेज में प्रोफेसर रहे, पं. शिवदत्त शर्मा दाधिमथ नाम से प्रसिद्ध हैं। इन्होंने निर्णय सागर से प्रकाशित अनेक ग्रन्थों तथा काव्यमाला के ग्रन्थ पुष्पों का सम्पादन भी किया था। इनकी जीवनी भी “शिवदत्तप्रत्याभिज्ञा’ शीर्षक से पं. जगदीश शर्मा ने लिखी जो “भारती” मासिक में क्रमिक रूप से प्रकाशित हुई। इस प्रकार विद्वानों की जीवनियों का प्रकाशन भी एक सतत प्रक्रिया है। विद्वानों के जीवनवृत्तों के संकलन के प्रयास भी उल्लेखनीय हैं। “कविचरितामृतम्” शीर्षक से संस्कृत के प्राचीन कवियोंके जीवनवृत्तों का एक संकलन म.म. पं. परेश्वरानन्द शास्त्री जी ने किया था जिसमें वाल्मीकि, व्यास, कालिदास आदि कवियों के जीवन चरित्र निबद्ध थे, किन्तु यह बालपाठ्यपुस्तक के रूप में चरित्रात्मक निबन्धों का संकलन मात्र था किन्तु स्तरीय रचना, शुद्ध, ललित भाषा आदि को देखकर इसे अनेक विश्वविद्यालयों ने संस्कृत गद्य की पाठ्य पुस्तक के रूप में स्वीकृत कर लिया था। अर्वाचीन संस्कृत विद्वानों के जीवन चरित्रों का संस्कृत में निबन्धन भी अपेक्षित था।५२४ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास राजस्थान के वरिष्ठ अर्वाचीन संस्कृत विद्वानों के जीवन वृत्त प्रेरणादायक होंगे इस उद्देश्य से “विद्वज्जनचरितामृतम्” शीर्षक से जयपुर के कलानाथशास्त्री द्वारा लिखित (ग्यारह) प्रसिद्ध विद्वानों के जीवनवृत्तों को सरल गद्य में निबद्ध संकलन कोणार्क प्रकाशन दिल्ली से सन् १८८३ में प्रकाशित हुआ। इसमें जयपुर के वेदविद्यावाचस्पति पं. मधुसूदन ओझा, म.म. पं. दुर्गा प्रसाद द्विवेदी, काव्यमाला संपादक म.म. पं. दुर्गाप्रसादशर्मा, म.म. पं. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, कविशिरोमणि भट्टमथुरानाथ शास्त्री, शेखावटी के पं. रामधारी शास्त्री, झालावाड के कवि गिरिधरशर्मा नवरत्न, जोधपुर के आशुकवि पं. नित्यानन्दशास्त्री और डूंगरपुर के पं. गणेशराम शर्मा के जीवन वृत्त सम्मिलित हैं। प्रारम्भ में भूमिका में लेखक ने राजस्थान में हुए संस्कृत लेखन का संक्षिप्त आकलन भी किया है। यह पुस्तक राजस्थान विश्वविद्यालय की बी.ए. कक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम में भी नियत की गई थी जिससे संस्कृत में जीवनवृत्तों की उपादेयता प्रकट हुई थी। कलानाथशास्त्री ने भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र वसु की संक्षिप्त जीवनी एक लेख के रूप में “भारती” नामक संस्कृत मासिक पत्रिका (जयपुर) में E५०-५३ के बीच लिखी थी जिसे उसी दशक में उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षार्बोड ने अपनी संस्कृतपाठ्यपुस्तक में संकलित कर इस बात का प्रमाण दिया था कि ऐसी छोटी-छोटी प्रेरक जीवनियाँ सरल संस्कृत में निबद्ध हों तो छात्रपाठ्य के रूप में भी बहुत उपयोगी हो सकती हैं। संपादककुलगुरु अप्पाशास्त्री राशिवडेकर का जीवन चरित्र पं. वासुदेव शास्त्री औदुम्बरकर ने लिखा है जिसे शारदा पत्रिका ने अपने पन्द्रहवें वर्ष के विशेषांक और उपहारग्रन्थ के रूप में सन् १९७३ में प्रकाशित किया था। राशिवडेकर जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में निकला यह जीवनचरित्र न केवल विस्तार से चरित्रनायक के व्यक्तित्व और कृतित्त्व का सरल सुललित और प्रवाहपूर्ण संस्कृत में विवरण देता है, बल्कि स्थान-स्थान पर अप्पाशास्त्री के उद्धरण देते हुए उनके कृतित्व का परिचय भी देता है, उनके संबन्ध में अन्य विद्वानों के उद्गारों को भी उद्धृत करता है तथा सारणियों के रूप में अप्पाशास्त्री के जीवन की घटनाओं को संकलित करने के अतिरिक्त अप्पाशास्त्री के साहित्य को भी सूचीबद्ध करता है। इसे संस्कृत जीवनी लेखन का एक अनूठा नमूना कहा जा सकता है। लगभग ३०० पृष्ठों का यह ग्रन्थ पूर्वपर्व, प्रथमपर्व, मध्यमपर्व, उत्तमपर्व, उत्कृष्टपर्व, उत्तरपर्व और पश्चिमपर्व नामक ७ भागों में विभक्त है। पूर्वपर्व में तत्कालीन भारत की स्थिति तथा अप्पाशास्त्री से पूर्व तक की संस्कृत की स्थिति की पृष्ठभूमि दी गई है। प्रथमपर्व में अप्पाशास्त्री की जन्मभूमि, पर्वपरम्परा, जन्म, बाल्यकाल आदि का विवरण है। इसमें प्राचीन परम्परा के चरित्रलेखन की शैली में जन्मकुण्डली भी दी गई है और आधुनिक परम्परानुसार उनके मानस पर पड़े प्रभावों का भी चित्रण है। अप्पाशास्त्री ने अपना लेखकीय जीवन किस प्रकार शुरू किया इसका विवरण तत्कालीन पत्रिकाओं में प्रकाशित विज्ञप्तियों को उद्धरण देते हुए लेखक ने दिया है। मध्यमपर्व में संस्कृतचन्द्रिका का प्रारम्भ, अप्पाशास्त्री का बहुआयामी लेखन, उनका गध-साहित्य/चम्पूकाव्य ५२५ सम्मान, यशःप्रसार, पत्रकारिता में दक्षता और देशव्यापी कीर्ति आदि का वर्णन है। उत्तमपर्व में संस्कृतचन्द्रिका में लिखने वाले प्रतिष्ठित विद्वानों से पत्राचार, संपर्क, प्रतिक्रियाएं, पत्रिका के आयामों में विस्तार, आर्थिक कठिनाइयाँ, विभिन्न संस्थाओं द्वारा “चन्द्रिका” का अभिज्ञान, सम्मान स्वीकार आदि का विवरण है। इसमें चन्द्रिका के अंकों से उद्धरण देते हुए यह परिदृश्य भी चित्रित किया गया है कि उस समय देश में कौन-कौन सी संस्कृत पत्रिकाएँ प्रमुख थीं और चन्द्रिका की सहयोगिनी थीं। अप्पाशास्त्री लिखित ग्रन्थों का, अनुवादों का, महाभारत तथा विष्णुपुराण आदि के उनके द्वारा लिये मराठी अनुवाद का तथा समय-समय पर उनके द्वारा तत्कालीन घटनाओं पर की गई टिप्पणियों का अच्छा विवरण है। लॉर्ड कर्जन ने जब भारतीयों की आलोचना में कुछ उद्गार व्यक्त किये तो उसके विरोध में अप्पाशास्त्री ने यह उल्लेख करते हुए कि कर्जन साहब के देश वाले भारतीयों की कितनी प्रशंसा कर चुके हैं, उन्हीं के तर्कों से उनका अनौचित्व स्पष्ट करने वाली टिप्पणी लिखी थी। इस प्रकार की टिप्पणियों को लेखक ने उद्धृत कर यह सिद्ध करना चाहा है कि “संवादनिबन्धने कृतहस्ता अपाशास्त्रिर्णा लेखनी समुचिताभिप्रायाविष्करणे दीक्षिता आसीत् तथा अनुतिष्ठद्भिः न एतैः गणिताः शासका अपि। संदृश्यताम् एतत् एकादशखंडीये संवादसंग्रहे विद्योतमानं संवादाभिप्रायरत्नम्।’ लेखक ने इसी प्रकार की सरल शैली का प्रयोग किया है। कठिन सन्धि, समास आदि से उसने बचने का प्रयास किया है। अप्पाशास्त्री ने सिद्ध किया था कि चेचक का टीका पाश्चात्त्यों ने ही खोज निकाला हो ऐसा नहीं है आयुर्वेदग्रन्थों में “गोस्तन्यमसूरिकावेध’’ का जो संकेत मिलता है उससे स्पष्ट है कि हमारे यहाँ भी ऐसा वैक्सीनेशन किया जाता था। गोस्तन्यमसूरिका का धार्मिक आधार पर विरोध करने वाले केरलीयों के प्रतिवाद में अप्पाशास्त्री ने यह आलेख लिखा था। इसका विवरण लेखक ने दिया है “लसीकावेधो भारतीयानाम् आयुर्वेदीयः’ उपशीर्षक से। अध्यायों में छोटे-छोटे प्रसंगों को उपशीर्षकों द्वारा विभाजित करने की पत्रकारीय प्रक्रिया से विभाजित यह जीवनी संप्रेषण और सुखावबोध के पूर्णतः अनुकूल है। उपशीर्षक अंकों द्वारा क्रमांकित भी कर दिये गये हैं। सतत्कालीन घटनाओं के उल्लेखों के उद्धरण लेखक ने तिथि वर्ष आदि सहित दिये हैं जो शोधार्थियों के लिए तो उपयोगी हैं ही, विवरण को प्रामाणिक भी बनाते हैं और ऐतिहासिक महत्त्व के सिद्ध होंगे। उत्कृष्ट पर्व में सूनृतवादिनी साप्ताहिक पत्रिका का प्रारम्भ किस प्रकार किया गया इसका पूर्ण विवरण, पत्रिका के मुखपृष्ठ की प्रतिकृति तथा टिप्पणियों के उद्धरण सहित दिया गया है। अन्य विद्वानों के उद्गारों, अप्पाशास्त्री के मनोभावों आयोजनों तथा घटनाओं का रुचिकर वर्णन पाठक को बाँधे रखता है। वाई और कोल्हापुर की संस्कृत जगत् संबंधी घटनाओं के विवरण के साथ अप्पाशास्त्री की मान्यताओं, प्रगतिशील सुधारवादी और सुलझे हुए विचारों का चित्रण करते हुए लेखक उनके द्वारा संस्कत प्रेस खरीदना और स्थापित करना, विभिन्न संस्थाओं की स्थापना और प्रेरणा आदि का वर्णन भी करता है। स्वतंत्रता आन्दोलन का समर्थन करके अप्पाशास्त्री ने राजकोप भी ५२६ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास झेला था जिसके फलस्वरूप उन्हें कोल्हापुर छोड़ना पड़ा था। वे मराठी पत्रिकाओं में भी लिखते थे और प्रतिष्ठित पत्रकार के रूप में भारत में जाने जाते थे। में जीवनीलेखक ने अप्पाशास्त्री के जीवन परिचय के साथ ही तत्कालीन स्थितियों के चित्रण के उद्देश्य से तत्कालीन प्रमुख संस्कृतलेखकों के नाम भी उद्धृत किये हैं, विज्ञानचिन्तामणि, विद्योदय, सद्धर्म, संस्कृतरत्नाकर, सहृदया, मंजुभाषिणी, विद्वद्गोष्ठी, विचक्षणा, विद्वत्कला, काव्यकादम्बिनी आदि तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं के नाम भी उद्धृत किये हैं और चरित्रनायक की अनेक संपादकीय टिप्पणियों को भी उद्धृत किया है। एक स्थान पर तो तत्कालीन भारतीय भाषाओं व अंग्रेजी की पत्र-पत्रिकाओं की भी सूचना लेखक ने इसी दृष्टिकोण से दे दी है कि उस समय के पत्रकारिता परिवेश की जानकारी पाठक को हो सके। जीवनीलेखक की भूमिका को चरितार्थ करते हुए लेखक चरित्रनायक के व्यक्तिगत जीवन की पारिवारिक घटनाओं को भी यथार्थ रूप से अभिलिखित करता है, उदाहरणार्थ, उत्तरपर्व के आरम्भ में वह यह वर्णन करते हुए कि तीन विवाह करने के बाद भी जब अप्पाशास्त्री अपनी ततीय पत्नी के एक सन्तान को जन्म देने के बाद दिवंगत हो जाने के कारण अकेले रह गये यह स्पष्ट करता है कि अपनी माता के कहने से उन्होंने १८३२ शाके में चौथा विवाह किया। उस समय उनकी आयु ३७ वर्ष की थी। उस समय की एक दिलचस्प घटना को जनश्रुति से सुनकर लेखक ने अंकित किया है कि नाना पहलवान नामक एक अतिथि ने विवाह समारोह की भोजन पंक्ति में जलेबियों से भरी एक बड़ी तपेली खा ली थी। उत्तरपर्व में चरित्रनायक के वार्धक्य की घटनाएँ तथा पत्राचार लेखन आदि से सम्बद्ध जानकारी निबद्ध की है। उनकी माता का निधन हो गया। जब उनके साथियों ने पुनः उनसे विवाह का आग्रह किया तो उसे न टाल पाने के कारण उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा। अन्ततः औदुम्बर ग्राम के पं. नारायणशास्त्री की चतुर्दशवर्षीया कन्या वत्सला के साथ उन्होंने ४० वर्ष की आयु में फिर विवाह किया। उत्तरपर्व में अप्पाशास्त्री की दिनचर्या, शौक, आदत आदि का विवरण देकर २५ अक्टूबर १६१३ को उनके निधन का समाचार देते हुए लेखक ने अध्याय की समाप्ति की है। फिर पश्चिमपर्व नामक अन्तिम अध्याय में उनके निधन पर देश के विद्वानों, संस्थाओं, पत्रिकाओं, महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों आदि के शोकोद्गार उद्धत हैं। साथ ही सारणी के रूप में उनके जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं की तिथियाँ, उनकी रचनाओं के विवरण आदि है। इसका शीर्षक है “अप्पाशास्त्रिजीवनालेखः। अन्त में अकारादिक्रम की अनुक्रमणिका भी है। संक्षेप में जीवनपरिचय के रूप में संस्कृत जीवनी एक प्रतिमान के रूप में प्रस्तुत की जा सकती है। शारदा पत्रिका द्वारा समय-समय पर प्रकाशित विशेष उपहारग्रन्थों की “शारदागौरवग्रन्थमाला” का यह एक महत्त्वपूर्ण पुष्प है। जिस विद्वान् पत्रकार ने केवल ४० वर्ष की आयु पाने के बावजूद संस्कृत पत्रकारिता के इतिहास के स्वर्णिम अध्याय लिख डाले उसका जीवन एक समूचे जीवनीग्रन्थ के योग्य है यह सिद्ध करते हुए सहज संस्कृत में सभी महत्त्वपूर्ण गध-साहित्य/चम्पूकाव्य १२७ चरित्रतत्त्वों, तथ्यों, परिवेश चित्रण हेतु आवश्यक संदर्भो और उद्धरणों व तिथियों से सम्मिलित यह जीवनवृत्त इस बात का प्रयास है कि संस्कृत में सभी नवीनतम साहित्य विधाओं की अवतारणा हो रही है। वैसे पहले से ही संस्कृत पंडित विभिन्न सत्ताधारियों के चरित्रलेखन के क्रम में अंग्रेजों तक की जीवनी लिखते रहे हैं। रानी विक्टोरिया पर “वरूथिनीचम्पू” नामक जीवनी चम्पूविधा में लिखी बताई जाती है जो गुरुप्रसन्नभट्टाचार्य लिखित है। “शोकमहोर्मिः” नाम से विक्टोरिया के निधन पर जो शोकोद्गार पं. कुलचन्दशर्मा ने व्यक्त किये थे, वे भी गद्य-पद्य में, वाराणसी से सन् १६०२ में छपे बताये गये हैं।
आत्मकथा
संस्कृत में आत्मकथाएँ भी लिखी गई हैं यद्यपि उनकी संख्या बहुत कम है। प्रकाशित आत्मकथाओं में बहुत कम की जानकारी फैल पाई है। आत्मकथा दो प्रकार की हो सकती हैं। एक तो वै किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के अपने जीवन का वृत्त स्वयं अभिलिखित करने की दृष्टि से लिखी हों जैसे गाँधी जी की आत्मकथा, जिसका उन्होंने (अंग्रेजी मूल) शीर्षक रखा था “माई एक्सपेरिमेंट्स विथ थ” या इसी प्रकार के विशिष्ट व्यक्ति के आत्मचरित, जिसमें अपने जीवन का यथार्थ चित्रण या अभिलेख उन्होंने लिपिबद्ध किया हो। दूसरे प्रकार की आत्मकथाएँ वे भी हैं जो यथार्थवृत्त तो लिपिबद्ध नहीं करती हैं किन्तु एक कल्पित पात्र के द्वारा किसी भी नाम से उसकी आत्मकथा के रूप में लिखी गई हों जबकि वस्तुतः वे उस पात्र के उद्भावक अर्थात् उस तथाकथित आत्मकथा के लेखक द्वारा लिखा एक काल्पनिक कथानक ही है, उसमें लेखक के स्वयं के जीवन के कुछ छायाचित्र या प्रभाव परोक्ष रूप से चाहे प्रतिफलित हो जाते हों- जैसे “बाणभट्ट की आत्मकथा’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का लिखा आत्मकथा शैली का उपन्यास है, जिसमें बाणभट्ट ने अपनी आत्मकथा किस प्रकार लिखी है यह बतलाने के लिए पहले ऐसा रुपक रचा गया है कि बाणभट्ट की लिखी आत्मकथा किसी को मिल गई, वह यही हैं आदि। इस दूसरी विधा की आत्मकथाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं जो किसी लेखक ने अपने द्वारा उद्भावित किसी पात्र की आत्मकथा के रूप में लिखी हैं और जिनमें सर्जनात्मक प्रतिभा प्रतिफलित भी हुई है किन्तु वे आत्मचरित नहीं हैं। ऐसी आत्मकथाओं को उपन्यास ही माना जाता है अतः हमने उनका संकेत उपन्यास के अध्याय में दिया है। विद्योदय के संपादक पं. हृषीकेश भट्टाचार्य का लिखा “आत्मवायोरुद्गारः” ऐसी ही एक आत्मकथा है। उन्होंने आटोबायोग्राफी के अनुवाद के रूप में ही आत्मवायोरुद्गारः शब्द उद्भावित किया है और उसमें बताया है कि दुर्गानन्दस्वामी नामक किसी विचित्र चरित्र के विद्वान् ने अपने जीवन की संस्कृत वैदुष्य संबंधी घटनाओं को किस प्रकार लिपिबद्ध किया था और उसने अपनी आत्मकथा लिखने के लिए ही यह उपक्रम किया था। ये दुर्गानन्द स्वामी हृषीकेश भट्टाचार्य जी की कल्पना के ही उत्पाद हैं। कुछ विद्वानों ने इसे आत्मकथात्मक चम्पू मान लिया है। १२८ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास इसी प्रकार कलानाथ शास्त्री ने “संस्कृतोपसिकाया आत्मकथा लिखी है जो एक संस्कृत की अध्येत्री महिला की कैशोर्य से लेकर यौवन तक की आत्मकथा शैली में लिखा विवरण है जो मनोरंजक उपन्यास का ही प्रकार है यद्यपि उसका शीर्षक “आत्मकथा” है। आत्मकथा की लेखिका कल्पना लेखक की कल्पना की उपज है। यह मानसी कल्पना का उद्भव ही था इसी को संकेतित करते हुए लेखक ने जब इसका जयपुर की संस्कृत मासिक पत्रिका “भारती” में धारावाहिक प्रकाशन करवाया तो इसकी लेखिका का नाम “मानसी” छपता था। यह ‘मानसी” नामक लेखिका भी लेखक की कल्पना से प्रसूत थी। इस प्रकार की उपन्यास विधा में लिखी तथाकथित आत्मकथाएँ आत्मचरित नहीं कही जा सकती। जिन लेखकों द्वारा आत्मचिरत लिखे गये हैं उनमें डॉ. मंगलदेव शास्त्री, पं. रमेशचन्द शुक्ल आदि का नाम लिया जाता है। किन्हीं श्री तपोवनस्वामी (१८EE-1EYE) की आत्मकथा चम्पूविधा में लिखीं भी बताई गई है जिसमें कवि ने अपना आत्मचरित भी लिखा है और उसके साथ-साथ ईश्वरसिद्धि, जैसे विषयों पर प्रासंगिक टिप्पणी देते हुए आध्यात्मिक रुझान भी दिया है। इसमें पद्यांश अधिक है। आत्मकथा का शीर्षक “तपोवनचरितम्” अपरनाम ईश्वरदर्शनम्” है। अपनी शिक्षा-दीक्षा, अंग्रेजी व संस्कृत का अध्ययन आदि वृत्तान्त “उल्लासों” में विभक्त हैं। प्रथम खण्ड में दस, द्वितीय खंड में बीस उल्लास है।
पत्रसाहित्य
एक उत्कृष्ट लेखक द्वारा अपने मित्रों या अन्य विद्वानों आदि को लिखे गये पत्रों को भी गद्य साहित्य की एक विधा मानने की परम्परा कुछ भारतीय और भारतीयेतर भाषाओं में है। इसका कारण तो यही है कि जिस प्रकार एक ललित निबन्ध में किसी भी विषय या विषयों पर लेखक अपने आपको अभिव्यक्त करता है तो उत्कृष्ट लेखक होने के नाते उसकी शैली का लालित्य, अभिव्यक्ति का अनूठापन और उक्तिभंगी उसे साहित्य का ही एक पठनीय प्रकार बना देती हैं उसी प्रकार अपने पत्र में एक लेखक अपनी बात को आत्मीय और अन्तरंग क्षणों में व्यक्त करते हुए भी अभिव्यक्ति-सौष्ठन के लिहाज से साहित्यिक रचना जैसी ही करता चलता है यह मानकर अच्छे साहित्यिक पत्रों को स्थायी साहित्य का अंग मानना उचित समझा गया। यह सही है कि प्राचीन काल में चाहे डाक व्यवस्था नहीं रही हो, किन्तु पत्रों के आदान-प्रदान का इतिहास बहुत पुराना है। शकुन्तला के दुष्यन्त को पत्र लेखन की तरह अनेक पत्रों का हवाला तो काव्यादि में मिलता ही है, विद्वानों, राजाओं आदि द्वारा परस्पर संदेशों का आदान-प्रदान करने चले पत्रों तथा पंचनामा या निर्णय पत्र जैसे पत्रों का भी उल्लेख और अस्तित्त्व मिलता है। धार्मिक या सामाजिक निर्णय कुछ विद्वानों के समूह द्वारा किये गये हों, तो उनके निष्कर्ष अंकित कर उन पर हस्ताक्षर “स्वहस्तोऽयं मम” जैसी अभिव्यक्तियों से या “अभिमतं गागाभट्टस्य’, या “संमतिर्मम श्रीनिवासशास्त्रिणः” जैसे संकेतों से होते थे। मिर्जाराजा जयसिंह (जयपुर नरेश) और शिवाजी के बीच का पत्राचार संस्कृत में हुआ या उसका अनुवाद संस्कृत में हुआ यह कहा नहीं जा सकता, किन्तु ऐसे संस्कृत पत्राचार कुछ दशक पूर्व एक संस्कृतपत्रिका में प्रकाशित हुआ था। सवाई जयसिंह (जयपुर गध-साहित्य/चम्पूकाव्य ५२६ नरेश) के समय ‘कृष्ण की राधा परकीया थी या स्वकीया थी” इस पर विद्वानों का विमर्श हुआ था। इसी क्रम में सवाई जयसिंह ने विभिन्न विद्वानों के अभिमत मँगवाये थे। पं. श्यामाचरण सुबलानन्द, जगन्नाथ, गोपीरमण आदि विद्वानों का एक पत्र सुन्दर संस्कृत गद्य में इसी के उत्तर में उन्हें लिखा मिला है जिसमें राधा और कृष्ण के रहस्यात्मक सनातन संबंध को स्पष्ट किया गया है। इसी प्रकार श्रीचैतन्य क्या श्रीकृष्ण के ही अवतार थे ? इस विषय पर एक चैतन्यसम्प्रदायी विद्वान् का सुललित संस्कृत गद्य में निबद्ध पत्र, जयपुर नरेश को भेजा हुआ जयपुर के रिहायसी व्यक्तिगत पुस्तकालय “पोथीखाना” में उपलब्ध है। इसके उद्धरण मुद्रित भी हैं। विद्वानों के पारस्परिक पत्राचार में जहाँ व्यक्तिगत समाचारादि ही न होकर कोई विमर्श बिन्दु भी है और अभिव्यक्ति की भाषा उत्कृष्ट है वह साहित्य का अंग होने लायक विधा होगी ही, यह आसानी से कहा जा सकता है। ऐसे ही कारणों से पत्रसाहित्य भी गद्यविधा का एक प्रकार माना जाता है। किन्तु संस्कृत के साथ यह विशिष्ट स्थिति है कि यहाँ पत्रलेखन का जो इतिहास मिलता है उसमें, पद्य का ही प्रयोग अधिक है, गद्य का बहुत कम। शकुन्तला का दुष्यन्त को पत्र भी कालिदास ने आर्या में लिखवाया है, बाणभट्ट ने पुंडरीक का महाश्वेता को पत्र भी आर्या में लिखवाया है। आधुनिक काल में भी विद्वानों का बहुत सा पत्राचार पद्य में ही हुआ है। सन् १८३५ में मेकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षानीति के विरुद्ध कलकत्ता की एक पाठशाला के विद्वानों ने अपने विद्यालय के बन्द होने की स्थिति का करुण चित्रण करते हुए एक पत्र एच.एच. विल्सन को लिखा था। विल्सन ने उसका उत्तर भी उसी प्रकार संस्कृत में दिया था। पाठशाला बन्द होने से बच गई थी। यह पत्राचार संस्कृत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में उल्लेखनीय है। यह भी पद्यों में हुआ है इसी में विल्सन की वह प्रसिद्ध उक्ति है जिसे अयोध्या के “संस्कृतम्” पत्र ने अपना मुखवाक्य बनाकर हर अंक में छापा था। ‘‘यावद् भारतवर्ष स्याद् यावद् विन्ध्यहिमाचलौ। यावद् गंगा च गोदा च तावदेव हि संस्कृतम् ।।” इस प्रकार संस्कृत के आधुनिक पत्र-साहित्य में भी बहुत सा पद्यबद्ध होने के कारण पद्यखंड में विवरण का अधिकारी है। कुछ शोध विद्वानों ने ऐसे साहित्य का संकलन और उस पर अध्ययन प्रस्तुत भी किया है। अनेक आधुनिक विद्वानों का गद्य में भी पत्राचार हुआ है। उसके संकलन, अध्ययन आदि के प्रयास किये जा रहे हैं। “विद्योदय” और “संस्कृतचन्द्रिका” जैसे पत्रों में भी विद्वानों के ऐसे पत्र प्रकाशित होते रहते थे जो किसी विषय विशेष पर अपना मत रखने हेतु लिखे जाते थे। इनमें बहुत से सुललित, विचारात्मक, सहजसंप्रेषक गद्य में हैं और अपनी विशिष्ट शैली के कारण साहित्य की एक विधा के रूप में गणनीय लगते हैं। “संस्कृतरत्नाकर”, “भारती” आदि पत्रिकाओं में भी ऐसे पत्र छपे हैं। जैसा हमने हृषीकेश भट्टाचार्य के निबन्ध ५३० आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास साहित्य के विश्लेषण के प्रसंग में उल्लेख किया था, उन्होंने एक काल्पनिक गद्यशैली के उद्भव की दृष्टि से ही एक कल्पित पात्र के नाम एक पत्र लिखा था, उस पात्र के उत्तर की भी कल्पना की थी। वह पारस्परिक पत्राचार एक विशिष्ट रस की सृष्टि करता है अतः यह भी एक विधा है किन्तु जब पत्रलेखक वास्तविक न हो तो उसे पत्र-साहित्य न मानकर ललितनिबन्ध या कथा साहित्य का अंग ही माना जाता है। इस दृष्टि से ऐसा साहित्य पत्रलेखन विधा में नहीं आएगा। संस्कृतचन्द्रिका में अप्पाशास्त्री राशिवडेकर ने यह प्रथा भी चलाई थी कि किसी पाठक विशेष की जिज्ञासा किसी बिन्दु पर होती और पत्र द्वारा उसने उसे अभिव्यक्त किया होता तो वह पत्र ही ज्यों की त्यों वे छाप देते थे। उसके उत्तर में कोई अच्छा समाधान प्राप्त होता था तो उसे भी ज्यों का त्यों छाप देते थे। ऐसे पत्रों से विचारों के आदान-प्रदान का एक विशिष्ट और मौलिक आकर्षण उद्भूत हो जाता था। उदाहरणार्थ, संस्कृतचन्द्रिका के नवम वर्ष में किसी जिज्ञासु ने शंका की थी कि किरातार्जुनीय के दशम सर्ग के १३ वें श्लोक में “सदृशमतनुमाकृतेः प्रयत्न” इत्यादि में मल्लिनाथ ने एकावली अलंकार बतला दिया है जो ठीक नहीं लगता। इसका उत्तर तिरुवल्लुवर के अ.नारायणशर्मा ने अपने पत्र दि. आश्विन वदि ३० को दिया। इसे तथा इसके सहगामी पत्र को अप्पाशास्त्री ने नवमवर्ष के अन्तिम संयुक्तांक में अविकल छाप दिया (“प्राप्तपत्रद्वयम्’’ शीर्षक से) सहयोगी पत्र यों है-गुरुभ्यो नमः। शुभकृत्-विरुवालूर आश्विनवदि ३० स्वस्ति श्रीमति कोल्हापुरनगरे संस्कृतचन्द्रिकायाः सहकारिसंपादकान् तत्रभवतो महाशयान् अप्पाशास्तिद्यिावाचस्पतीन् अ.नारायणशर्मा सप्रणाम प्रार्थयते । यथा-अतीतायां चन्द्रिकायां केनापि जिज्ञासुना किरातार्जुनीयपद्यस्य सदृशमतन्वित्यस्य व्याख्यायां महामहोपाध्यायमल्लिनाथकृतायां यदाशंकि तत्र यथामति यदधो मया लिख्यते तद् यदि प्रकटनाहं भवेत् तर्हि पत्रिकायां तस्यावकाशदानेन मामार्योऽनुगृह्णन्विति । सर्व शिवम् । भवतां विधेयो अ. नारायणशर्मा” इसके बाद “जिज्ञासोरुत्तरम्” उपशीर्षक से यह समाधान है कि यहाँ जो एकावली अलंकार मल्लिनाथ ने बताया है वह संगत ही है। यह उत्तर भी संक्षिप्त है। कुल २६ पंक्तियों में है। इसी में एक अन्य पत्र है काव्यामाला संपादक म.म. पं. दुर्गाप्रसाद शर्मा के पुत्र पं. केदारनाथ शर्मा का जिसमें उन्होंने सूचित किया है कि वात्स्यायन के कामसूत्र का संपादन और प्रकाशन उन्होंने निर्णयसागर प्रेस से करवाया था, प्रतियाँ प्राप्त हो गई थीं, अतः पुनः छपवा दी गई हैं जो उनके पास ४ रु. ६ आने में उपलब्ध हैं। इच्छुक लोग उनके पते से मँगवा सकते हैं। इस ग्रन्थ को शालीन ढंग से छापा गया है, कहीं कोई अभद्रता नहीं है आदि। इसे भी ज्यों की त्यों पत्र के रूप में छाप दिया गया है। ऐसे पत्र “पत्रसाहित्य” में गिने जा सकते हैं। ऐसे पत्रों का प्रकाशन संस्कृत की पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर होता रहा है। कभी-कभी इसमें पारस्परिक उत्तर-प्रत्युत्तर और घात-प्रतिघात भी देखने को मिलते थे, जिनका स्वाद अलग ही होता था। संस्कृतरत्नाकर पत्र में (जयपुर) में मधुसूदन ओझा के गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य ५३१ पुत्र प्रद्युम्न शर्मा और ओझा जीके शिष्य नवलकिशोर कांकर के बीच उपालंभों का आदान-प्रदान बड़ी रोचक शैली में हुआ था। दोनों मनोरंजक संस्कृत गद्य में लिखे गये थे। आधुनिक संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं में से बहुत सी ऐसी हैं जिन्होंने पाठकों के पत्रों का स्तम्भ ही प्रकाशित करने की परम्परा चला रखी है। काशी की पत्रिकाओं “अमरभारती”, “सूर्योदयः” “सुप्रभातम्” “सारस्वती सुषमा’ आदि में भी किसी न किसी रूप में पत्र छपते रहते थे यद्यपि अलग से स्तम्भ उनमें पत्रों का नहीं था। पूना की “शारदा पत्रिका में नियमित रूप से वसन्त गाडगिल (संपादक) पाठकों के पत्रों को प्रकाशित करते रहते थे जो उन्हें संबोधित होते थे। इनमें से बहुत से व्यक्तिगत पत्र भी होते थे-जैसे वसन्त जी के एक भयानक सड़क दुर्घटना में आहत हो जाने या स्वस्थ हो जाने पर उन्हें लिखे गये पत्र या उनके अपने प्रशंसकों को लिखे गये पत्र । इनमें पत्राचार का वह अन्तरंग पक्ष भी स्पष्ट हो जाता है जो पत्र साहित्य के अपने विशिष्ट मौलिक स्वरूप को व्यक्त करता है। मथुरा से निकलने वाली “व्रजगन्धा” (संपादक वासुदेव कृष्ण चतुर्वेदी) में भी संपादक को संबोधित पत्र छपते हैं। दिल्ली से प्रकाशित “अर्वाचीनसंस्कृतम्” में भी पत्र छपते हैं। ए व्रजगन्धा के संपादक वासुदेव कृष्ण चतुर्वेदी ने छठे वर्ष के चतुर्थांक में स्वामी दयानन्द सरस्वती के एक दुर्लभ अप्रकाशित पत्र को उद्धृत कर उसकी समीक्षा भी प्रकाशित की है। यह पत्र पूर्णतः निजी है, बोल-चाल की या पत्राचार की संस्कृत भाषा में है और उसी प्रकार लिखी गई लिपि में है, जिस प्रकार पुराने पंडित परसवर्ण प्रयोग को प्राथमिकता देते हुए तथा अनुस्वार को अपर्याप्त मानते हुए लिखा करते थे। नमूना यों है। श्रीरस्तु । स्वस्ति श्री श्रेष्ठोपमायोग्याय गंगादत्तशर्मणे दयानन्दसरस्वतीस्वामिन आशीर्वादो विदितो भवत्वत्र शं वर्तते तत्राप्यस्तु ।। भवत्पत्रमागतं तत्रस्थो वृत्तान्तोऽपि विदितः। भवान् बुद्धिमान् पत्रं तु प्रेषितवान् परन्तु स्वयं च पत्रप्रेषणवन्नागत इदम्महदाश्चर्यम् ।। इदम्पत्रन्दृष्ट्वैव शीघ्रमागन्तव्यमागत्य यस्मिन्दिने पाठशालायाम्पाठनारम्भ करिष्यति तस्मिन्नेव दिने एकमासस्य विचारितस्य तु प्रेषणगृहम्प्रति कार्यमिति निश्चयो वेदितव्यो नात्र कार्या विचारणा।। इयं शकाऽपि भवता न कार्या जीविका तत्र भवेद् वा नेति।। इदानीन्तु प्रतिदिनम्मका जीविकास्त्यत्र परन्तु यदा यदाभवतो गुणप्रकाशो भविष्यति तदा तदधिकाधिका जीविका निश्चिता भविष्यतीति विज्नेयम् । इदानीन्तु भवतात्रैव स्थितिः कार्या पुनरन्यत्र वात्रैवाजीविका निश्चिता स्थास्यति न जाने भवेदाजीविका न वेति गमने कृते सति समयीति भवतोऽपि शंकाऽपि माभूत् ।। अत्रागमने कृते सति भवति सर्व शोभनम्भविष्यति।। परन्तु भवतात्रागमने क्षणमात्रोऽपि विलम्बो न कार्यः किम्बहुना लेखेनाभिज्जेषु । संवत् १६२७ भाद्रपदशुक्लषषष्ठ्यां वृहस्पतिवासरे लिखितमिदम्पत्रं विदितम्भवतु। इस पत्र में स्वामी दयानन्द ने अपने मित्र गंगादत्त चतुर्वेदी को अपने पास पाठशाला में अध्यापक पद पर बुलाने का तकाजा किया है। यह प्रसिद्ध है कि स्वामी जी व्यक्तिगत पत्राचार में और बोलचाल में संस्कृत का बहुत प्रयोग करते थे। अनेक ग्रन्थ उन्होंने हिन्दी में लिखे हैं, पत्रादि भी हिन्दी में लिखे हैं, प्रवचन भी हिन्दी में दिये हैं किन्तु दंडी विरजानन्द ५३२ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास के पास मथुरा में पढ़ने के समय से ही बोलने-लिखने का अभ्यास उन्होंने किया था, इस पत्र में उसी प्राचीन पंडितक्षुण्ण पद्धति से संस्कृत लिखी गई है। ज्ञ और क्ष का उसमें प्रयोग न कर उन्होंने ज्वा और क्ष ही लिखा है, यह अवश्य नई बात है। नि “आधुनिक संस्कृत साहित्य” ग्रन्थ के लेखक डॉ. हीरालाल शुक्ल ने ऐसे अनेक विद्वानों का उल्लेख किया है जिनके समय-समय पर लिखे पत्रों के संग्रह के प्रयत्न हुए हैं। उदाहरणार्थ केरल नरेश के आस्थान विद्वान् राजराजवर्मा कोइतम्बुरन् के अपने आश्रयदाता को लिखे पत्रों और नरेश द्वारा उन्हें लिखे पत्रों का संग्रह तिरुअनन्तपुरम् के संग्रहालय में बताया गया है। इसी प्रकार दरभंगानरेश के आस्थान कवि चित्रधर मिश्न के पत्र दरभंगा शोध संस्थान में बताये गये हैं। राजराजवर्मा उन्नीसवीं सदी के प्रथम चरण में हुए थे। केरल वर्मा उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हुए और उन्होंने भी अनेक विद्वानों को संस्कृत में पत्र लिखे, जिनका प्रकाशन “राजकीयलेखमाला” (त्रिवेन्द्रम) में हुआ भी है। किन्तु इसमें से प्रायः सभी संस्कृत पद्यों में है। अप्पाशास्त्री राशिवडेकर का पत्राचार देश के बहुत से संस्कृत पंडितों से निरन्तर होता रहता था। इनमें से अधिकांश गद्य में हैं। यद्यपि अप्पाशास्त्री को जो विद्वान् पत्र लिखते थे उनमें से अधिकांशतः पद्य में होते थे- जैसे केरल के मानविक्रम एट्टन तम्बुरन, केरलवर्म वलिय तम्बरन आदि उन्हें संस्कत पद्यों में पत्र लिखा करते थे। श्रीनिवास शास्त्री दीक्षित भी उन्हें पद्यों में लिखते थे। यह प्रसिद्ध ही है कि हिन्दी के मूर्धन्य संपादक (सरस्वती संपादक) महावीरप्रसाद द्विवेदी संस्कृत के अच्छे कवि थे। इन्होंने अप्पाशास्त्री को मैत्री और विनोदपूर्ण पत्राचार के दौरान ही एक मुक्तक काव्य “समाचारपत्रसम्पादकस्तवः।” लिख डाला था जिसे अप्पाशास्त्री ने संस्कृतचन्द्रिका में छाप भी दिया था। एक पाठक ने इसे पढ़कर इसका उत्तर भी पद्यों में लिखा था। उसे भी अप्पाशास्त्री ने संस्कृतचन्द्रिका में प्रकाशित कर दिया। “राजकीय लेखमाला” का संपादन पुन्नशेरि नीलकंठशर्मा (१८५८-१९३५) ने किया है जिसमें अनेक विद्वानों के पत्रों का संकलन है। दक्षिण भारत के अनेक विद्वानों के जो पत्र इसमें संकलित हैं उनमें से अधिकांशतः पद्यबद्ध हैं। ए.आर. राजराजवर्मा कोइतम्बुरन के पत्रों का संग्रह उनके “साहित्यकुतूहल” शीर्षक ग्रन्थ में देखा जा सकता है। कुडग्गल्लूर कुंजि कुट्टिन (रामवर्मा) तंबुरन (१८६१-१६१३) के लिखे पत्रों का उल्लेख भी मिलता है। इन्होंने मानविक्रम एटन तम्बुरन, केरलवर्मा, वलिय कोइतम्बुरन, के.सी. केशव पिल्लै, चीरट्टमन्तु विष्णु मूष आदि को जो पत्र लिखे थे उनमें से कुछ ही मलयालयमासिकों में छप पाये, शेष अप्रकाशित हैं, कटतनाट रविवर्मा तंबुरन (१८७२-१६१४) के पत्र “पद्यटिका” (तंजौर १८११) के दशवें परिच्छेद में संगृहीत हैं। स्पष्ट है कि ये पद्यबद्ध हैं। अप्पाशास्त्री राशिवडेकर का पत्राचार देश के बहुसंख्यक संस्कृत विद्वानों से था जिसमें से कुछ नमूने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व ग्रन्थों में छपे देखे जा सकते हैं। बहुधा अप्पाशास्त्री “संस्कृतचंद्रिका” में अन्य विद्वानों के ऐसे पत्रों को भी प्रकाशित करते थे जो गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य उन्हें संबोधित न होकर किन्हीं अन्य विद्वान् को संबोधित होते थे, पर पाठकों के परिज्ञान हेतु जरूरी होते थे। उदाहरणार्थ पं.बलभद्रशर्मा ने जयपुर के कविशिरोमणि भट्टमथुरानाथ शास्त्री के नाम जो खुला पत्र लिखा वह संस्कृतचन्द्रिका (वर्ष १४-अंक ४-E) में छपा है। यह परस्परालोचन से संबद्ध पत्राचार है। बलभद्रजी को अप्पाशास्त्री को लिखा पत्र चंद्रिका के १३-७ व १४-२/४ अंकों में भी छपे हैं जिनमें साहित्यचर्चा है। अप्पाशास्त्री ने अन्य विद्वानों को जो पत्र लिखे उनमें से कुछ ही मुद्रित हो पाये हैं। डॉ. हीरालाल शुक्ल ने उनके लिखे १४१ पत्रों के प्राप्त होने का उल्लेख किया है। इनमें से कुछ संस्कृतचन्द्रिका, सनतवादिनी. सहदया. संस्कतरत्नाकर, मंजषा, शारदा आदि संस्कत पत्रिकाओं में, कछ ‘सरस्वती’ हिन्दी मासिकपत्रिका में (अप्पाशास्त्री के मित्र महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित) और कुछ “काव्यानन्द शकटीबालाचार्य पुणेकर जीवनचरित” नामक कन्नड ग्रन्थ में मिलते हैं। पं. चिन्तामणि रामचन्द्र सहस्रबुद्धे द्वारा सन् १९१२ ई. में प्रकाशित ‘पत्ररत्नमाला” में अप्पाशास्त्री के १०० पत्र संगृहीत हैं, ऐसा डॉ शुक्ल ने उल्लेख किया है। डॉ. शुक्ल ने अप्पाशास्त्री के अनेक अप्रकाशित पत्र स्व. डॉ. कुतकोटि शंकराचार्य से प्राप्त किये थे। उन्होंने यह उल्लेख भी किया है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर रसिक विहारी जोशी जो ब्यावर (राजस्थान) के उद्भट विद्वान् पं. रामप्रतापशास्त्री के पुत्र हैं, के पास भी अप्पाशास्त्री के अनेक पत्र हैं जो उनके पिता पं. रामप्रताप शास्त्री को संबोधित हैं। म.म. पं. गिरिधरशर्मा चतुर्वेदी का पत्राचार भी अप्पाशास्त्री राशिवडेकर आदि सैकड़ों विद्वानों से था। म.म. गिरिधरशर्माजी के कनिष्ठ पुत्र डॉ. शिवदत्तशर्मा चतुर्वेदी ऐसे मत्रों का संकलन एवं प्रकाशन करने का प्रयत्न कर रहे हैं। अप्पाशास्त्री का पत्राचार जिन विद्वानों से था उनमें प्रमुख हैं-म.म.पं. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, पं.बलभद्रशर्मा, महेशचन्द्र तर्कचूडामणि, शिवरामशास्त्री, महाराज सुढलदेव, ति.अ.ति. कुमारताताचार्य, सम्पत्कुमार नरसिंहाचार्य, कस्तूरी रंगाचार्य, शंकरलाल श्रोत्रिय, श्रीनिवास शास्त्री, मानशंकर शर्मा, नरोत्तम चन्द्र शास्त्री, बालचन्द्र शास्त्री, गोवर्धन शर्मा, कोटीश्वरशास्त्री, श्रीमाली द्विवेदी, एम.एन. सुब्रह्मण्य शास्त्री, दशरथ शर्मा, आरुढभानु शास्त्री, वैद्यनाथ शास्त्री, वेंकटरामानुज रायसेतुमाधवाचार्य, गजेन्द्रगडकर, लक्ष्मणाचार्य, कृष्णशर्मा, वेंकट, रामलाल, काशीनाथ शास्त्री, अर्जुनवाडकर, नरेश शर्मा, घनश्यामदास, रामचरणाचार्य, रा. त्यागराज, राधाकृष्ण पौराणिक, चिन्तामणि शर्मा, विद्युशेखर भट्टाचार्य, चन्द्रशेखर शर्मा, भारतीदासन्, श्रीनिवासशर्मा, गोपालदेशिकाचार्य, जी.वी. धर्मभिक्षु, आवारिसुब्रह्मण्य, लिंगेशशर्मा विद्याभूषण, नारायणशास्त्री, भास्कर शास्त्री, यज्ञशास्त्री, विक्रमकविराजकुमार, शकरी बालाचार्य खुपरेकर, पुन्नशेरि नीलकंठ शर्मा, आर.वी. कृष्णमाचार्य, महावीरप्रसाद द्विवेदी, पाडुरंग शास्त्री, गोपीचन्द्र सांख्यतीर्थ आदि। अप्पाशास्त्री के पत्रों की भाषा सजीव, सरल, संप्रेषक और ललित होती है, साथ ही उसमें पंडितोचित शास्त्रीय दृष्टि के साथ-साथ तत्कालीन समस्याओं पर भी मीमासादृष्टि५३४ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास और गहरा पर्यवेक्षण भी होता था। डॉ. हीरालाल शुक्ल ने अप्पाशास्त्री पर शोध किया है, अतः उनके शोधग्रन्ध में इस पर विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। अप्पाशास्त्री के अधिकांश पत्र गद्यबद्ध हैं और पत्र की सी शैली में ही लिखे गये हैं-पत्र के रूप में प्रेषित या संबोधित कविता या अलंकृत पद्य रचना मात्र नहीं है। __ आधुनिक संस्कृत विद्वानों के जो पारस्परिक पत्राचार होते थे उनके संकलन, शोच, प्रकाशन आदि पर भी इन दिनों विद्वानों का ध्यान गया है। जयपुर के प्रसिद्ध लेखक पं. नवल किशोर कांकर ने अपने पास उपलब्ध पत्रों का संकलन “पत्रसाहित्यम्” शीर्षक से प्रकाशित करवाने हेतु एक शोधार्थी को दिया था। डॉ. शिवांगना शर्मा ने इसका संपादन कर इसका प्रकाशन करा दिया है। जिस प्रकार दिल्ली के विद्वान, डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने पद्यबद्ध पत्रों का संकलन प्रकाशित करवाया है उसी प्रकार पद्य-गद्यात्मक पत्रों का यह संकलन जयपुर से प्रकाशित है। जयपुर के डॉ. शिवसागर त्रिपाठी ने वेदकाल से लेकर अब तक पत्र लेखन की जो संस्कृत परम्परा रही है उस पर अनेक शोधलेख लिखे हैं। उनके निर्देशन में एक शोध प्रबन्ध भी राजस्थान में इसी विषय पर अनुमत हुआ है।