०२ उपन्यास

कथासाहित्य की लोकप्रिय विधा उपन्यास को पाश्चात्य या भारतीयेतर साहित्य की देन मानने वाले नितान्त भ्रान्त हैं यह बात अनेक विद्वानों ने स्पष्ट की है। जिस प्रकार कथासाहित्य के प्राचीनतम उत्स (पंचतंत्र आदि) भारत में खोजे गये हैं उसी प्रकार उपन्यास विधा का अस्तित्व भी लगभग एक हजार वर्षों से किसी न किसी रूप में भारत में उपलब्ध गध-साहित्य/चम्पूकाव्य ४४१ होता है। सुबन्धु की वासवदत्ता और बाणभट्ट की कादम्बरी तत्त्वतः उपन्यास नहीं हैं तो क्या है ? हो सकता है उसमें आज के उपन्यास के तथाकथित तत्त्वों (जैसे कथा वस्तु, पात्र और चरित्र चित्रण, कथोपकथन, देशकाल और वातावरण, उद्देश्य या सन्देश) तथा शैली आदि में से कुछ तत्त्व उस रूप में विद्यमान न हों जिस रूप में आज के उपन्यासों में हम उन्हें पाते हैं, किन्तु एक विधा की दृष्टि से जीवन की समग्रता का एक कथात्मक चित्रण जिस विशालफलक पर इन उपन्यासों में हुआ है वही तो उपन्यास का तात्त्विक रूप में भेदक, पहचान कराने वाला तत्त्व है। आज से इतनी शताब्दियों पूर्व शायद ही किसी अन्य भाषा के साहित्य में इतनी उत्कृष्ट शैली और उत्कृष्ट स्तर के उपन्यास उपलब्ध होते हों। इस दृष्टि से उपन्यास विधा को भारत में आयातित मानना निरी भूल है। यह बात अवश्य है कि आधुनिक काल में संस्कृत के नवलेखन का जो पुनर्जागृतियुग आया उसमें उपन्यास की विधा में भी युगान्तर आया तथा जो आधुनिक उपन्यास उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में लिखे गये या बीसवीं सदी के प्रारंभ में प्रसारित हुए वे स्पष्टतः पाश्चात्य उपन्यास की उस विधा से प्रभावित थे, जिसे भारत में बंगला उपन्यासों के माध्यम से विभिन्न भाषाओं ने एक नवीन कथाकृति शैली के रूप में अपनाया और बहुत मनोमोहक पाया। यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि ‘उपन्यास’ शब्द का आज के अर्थ में (नॉवेल के पर्याय की तरह) प्रयोग अवश्य ही आधुनिक युग की देन है। इससे पूर्व उपन्यास का यह अर्थ संस्कृत में नहीं लिया जाता था। उपन्यास शब्द का प्रयोग तो नाट्यशास्त्र में नाट्यसंधियों के एक उपभेद के रूप में हमें मिलता है जिसे “उपन्यासः प्रसादनम्” द्वारा परिभाषित किया गया है या “उपपत्तिकृतो मर्थ उपन्यासः प्रकीर्तितः" द्वारा। इसके अतिरिक्त किसी भी पक्ष को प्रस्तुत करने के लिए सामान्य भाषा में उपन्यास शब्द प्रयुक्त होता ही रहा है, जिसका एक उदाहरण है अमरुक का बहूद्धृत पद्य “निर्यातः शनकैरलीकवचनोपन्यासमालीजनः।” अंग्रेजी में नॉवेल शब्द के पर्याय के रूप में उपन्यास शब्द का प्रचलन बीसवीं सदी की देन है यह अवश्य निर्विवाद है। जो नॉवल पाश्चात्त्य कथाविधा के प्रभाव के फलस्वरूप लिखे गये उनके वाचक शब्द विभिन्न भारतीय भाषाओं ने अपने-अपने ढंग से गढ़े। गुजराती जैसी भाषाओं ने शब्दसाम्य के आधार पर “नवलकथा” अभिधान बनाया तो मराठी जैसी भाषाओं ने इसे भारतीय परंपरा से जोड़कर “कादम्बरी” ही कहना शुरू कर दिया। मराठी में उपन्यास को कादंबरी नाम से जाने जाने की प्रथा अपने आप में हमारी पूर्वोक्त बात का एक प्रमाण ही है कि यह विधा भारत में आयातित नहीं है। ( यह बतलाने की आवश्यकता भी नहीं है कि संस्कृत के वरेण्य साहित्य में उपन्यास की इसी प्रकार की विधा को पहले “कथा” या “आख्यायिका” का नाम दिया गया था तथा लक्षणकारों ने बड़ी विस्तृत सोदाहरण समीक्षा के साथ इसकी परिभाषाएँ, लक्षण आदि भी बनाये थे और वासवदत्ता, कादम्बरी आदि को उनके उदाहरणों के रूप में उल्लिखित किया था। जैन कथाकार सिद्धर्षि गणी की ‘उपमितभवप्रपंचकथा" जैसे पूर्णतः प्रतीकात्मक ४४२ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास उपन्यास एक अलग विधा का प्रतिनिधित्व अवश्य करते हैं, जिनमें अत्यन्त सुगठित गद्य है, किन्तु कथानक संसार सागर के आवर्त-विवों में जकड़े संसारियों के भवबन्धन को दान्तिक बनाकर अलेगरी (Allagory) के रूप में किसी बन्धन में जकड़े व्यक्ति की कथा गूंथी गई है। रामा आधुनिक काल में संस्कृत के उपन्यासों की एक लम्बी श्रृंखला जो शुरू हुई वह भी कोई अलग-अलग घटना के रूप में नहीं देखी जानी चाहिए बल्कि कादम्बरी जैसी विशाल कथा लिखने की संस्कृत रचनाकार की प्रवृत्ति के नये युग और नई शैली से साक्षात्कार करने के बाद पारस्परिक नैसर्गिक आदान-प्रदान के फलस्वरूप रूपान्तरण मात्र के रूप में मूल्यांकित की जानी चाहिए, क्योंकि जिस संस्कृत उपन्यास शिवराजविजय को अधिकांश विद्वान् आधुनिक युग का पहला संस्कृत उपन्यास मानते हैं उससे पूर्व भी कादम्बरी की परम्परा में लिखे उपन्यासों की अनवरत श्रृंखला संस्कृत में रही होगी इसके अनेक प्रमाण दुष्टिगोचर होते हैं। एक उदाहरण है विश्वेश्वर पाण्डेय की ‘मन्दारमंजरी’ जो अठारहवीं सदी के प्रारम्भ में लिखी गई मानी जाती है। यह अल्मोड़ा अंचल में लिखी गई बताई जाती है, किन्तु इसमें आंचलिक या युगीन प्रभावों का कोई स्पर्श नहीं है, दीर्घ समासबहुल वाक्यों में अलंकारों का चमत्कार उल्लेखनीय है। की यह कथा लेखन-परम्परा ईसापूर्व से लेकर आजतक चली आ रही सर्जनश्रृंखला की समय-समय पर बदलती हुई और नवीकृत होती हुई परम्परा के रूप में समझी जा सकती है। ईसापूर्व की चारुमती (वररुचि) तरंगवती, शूद्रककथा (रामिल सौमिल्ल) आदि, बाद की मालती (हरिश्चन्द्र), शृंगारमंजरी (भोज), आश्चर्यमंजरी (कुलशेखर), त्रैलोक्यसुन्दरी (रुद्रट), मृगांकलेखा (अपराजित) की परम्परा में माधवानल कथा (आनन्दधर, १०वी सदी) तिलकमंजरी (धनपाल, ११ वी सदी) उदयसुन्दरी (सोड्ढल, ११ वीं सदी) आदि भी लिखी गई जिन्हें चाहे नायिकाप्रधान आख्यायिकाएँ होने के कारण उपन्यास समझ लें या प्रेमकथा (रोमांस), किन्तु हैं वे बड़ी कहानी और उपन्यास के निकट की ही कथा विधाएँ। जैसा कि स्वाभाविक है कि एक कालजयी कृति अपना प्रभाव किसी भी साहित्य के इतिहास में इतना गहरा छोड़ती है कि उससे प्रभावित शैली में सदियों तक लेखन की परम्परा चलती रहती है। इस दृष्टि से यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि बाण की कादम्बरी ने जो प्रभाव छोड़ा उसके कारण उस शैली के उपन्यासों की परम्परा संस्कृत में १२-१३ सदियों तक चलती रही और उसकी तरह अलंकृत गद्य लिखने की प्रवृत्ति भी बराबर बनी रही और प्रेमकथा, काल्पनिक कथा, रोमांस आदि से संबद्ध विषयवस्तु लेने की प्रवृत्ति भी, जो मंदारमंजरी से लेकर जयन्तिका और मकरंदिका जैसे उपन्यास में आज तक देखी जा सकती है। इस परम्परा में जो मोड़ आया वह दोहरे परिवर्तन का कारण बना-विषयवस्तु में भी सामाजिक मानवीय सरोकारों तथा समसामयिक घटनाओं पर आधारित कथावस्तु ली जाने लगी और शैली भी अधिक प्रसन्न, सहज और युगानुरूप होने लगी। यह मोड़ अवश्य है। आधुनिक युग की नई विधाओं का परिचय भारतीय भाषाओं को होने का एक परिणाम था जो प्रमुखतः गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य बंगलाभाषा के माध्यम से हुआ। जैसा पहले बताया जा चुका है इस प्रकार की नई सर्जना को प्रोत्साहन संस्कृत की उन साहित्यिक पत्रिकाओं से मिला जिनके संपादक स्वयं अच्छे और प्रगतिशील रचनाकार थे।

अम्बिकादत्त व्यासः

आधुनिक युग का सर्वप्रथम संस्कृत उपन्यास पं. अम्बिकादत्त व्यास का शिवराजविजयः माना जाता है जिसकी रचना सन् १८८८ में आरम्भ हुई, १५ वर्ष तक चली और जिसका प्रथमतः धारावाहिक प्रकाशन संस्कृतचन्द्रिका में छठे व सातवें वर्ष में (१८६E-१६००) हुआ। बाद में यह पुस्तकाकार में प्रकाशित हुआ और अपनी नूतन शैली और प्रेरक विषयवस्तु के कारण इतना लोकप्रिय हुआ कि इसके अनेक संस्करण, टीका, अनुवाद आदि निकले, क्योंकि यह अनेक संस्कृत परीक्षाओं के लिए पाठ्यपुस्तक के रूप में वर्षों से नियत होता रहा है। इसकी विषयवस्तु है भारत में मुगलों के साम्राज्य, अत्याचार आदि के विरुद्ध हुए आन्दोलनों के प्रतीक रूप में शिवाजी महाराज द्वारा किया गया सशस्त्र संघर्ष। उन दिनों विदेशी शासन के विरुद्ध आन्दोलन की जो राष्ट्रीय चेतना देश में पनप रही थी उसका प्रतिफल पूर्वी भारत में साधुओं के सशस्त्र संगठन के रूप में भी हो रहा था। ऐसे मठों का सशस्त्र गुरु संगठन बंकिमचन्द्र के “आनन्दमठ" जैसे उपन्यासों में संकेतित है जो अब सुविदित हो गये हैं। शिवराजविजय में ऐसे ही एक सशस्त्र संगठन की भित्ति पर शिवाजी के इतिहास की कथा को मनोरम ढंग से गूंथा गया है। पं. अम्बिकादत्त व्यास (१८५८-१९००) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की मंडली के संस्कृत विद्वान थे और राष्ट्रभक्ति की धारा से सिक्त थे। उनमें जो सर्जनात्मक प्रतिभा थी उसके प्रमाण ४२ वर्ष की स्वल्प आयु प्राप्त करने के बावजूद उनके उत्कृष्ट और प्रभूत साहित्यसर्जन में देखे जा सकते हैं। संस्कृत में २७ और हिन्दी में ६४ ग्रन्थ इतनी सी आयु में लिख जाने वाले इस विद्वान में जो अलौकिक प्रतिभा थी उसका पूर्ण प्रतिफलन इस उपन्यास में मिलता है। इसे इस दृष्टि से युगान्तरकारी कहा जा सकता है कि पहली बार एक साथ कथ्य और शिल्प दोनों की नवीनता के साथ नई तकनीक से उपन्यास की अवतारणा इस साहित्यकार ने की जिसमें कादम्बरी के चिरन्तन प्रभाव से काफी कुछ अलग रहते हुए भारत के मध्यकालीन इतिहास को विषयवस्तु बनाया गया। कथोपकथन और दृश्य परिवर्तन बिलकुल नई शैली में ढाले गये, बीच-बीच में गीतियाँ गूंथी गईं, परिच्छेदों का विभाजन किया गया तथा प्रसादगुण और कथा की गति पर विशेष ध्यान रखा गया। अलंकृत शैली न अपनाने पर भी लेखक कादम्बरी के अपरिहार्य प्रभाव से तो नहीं बच पाया, स्थान-स्थान पर वर्णानात्मक शैली में उसी प्रकार अनुप्रास, मालोपमा, उत्प्रेक्षा जैसे अलंकार, समस्त पद, क्रियाओं के गुच्छे, लघुवाक्यांशों की माला आ गई है पर कुल मिलाकर शिल्प आधुनिक ही कहा जाएगा। १. डॉ. हीरानाथ शुक्ल ने १८७० में लिखे जाने का उल्लेख किया है जबकि पं. केदारनाथ मित्र ने १८८८ में। पं. केदारनाथ मिश्र का हिन्दी अनुवाद सुप्रसिद्ध है।४४४ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास यह उपन्यास व्यास जी की मौलिक कृति है या अनुवाद इस पर पिछले दिनों विद्वानों में बहुत विचारमन्थन हुआ। कुछ आधुनिक इतिहासकारों ने इसे रमेशचन्द्र दत्त के बंगला उपन्यास महाराष्ट्रजीवनप्रभात का अनुवाद बताया है जो बहुत अंशों में सच भी है। यह भी निर्विवाद है कि उन दिनों बंगला साहित्य का प्रभाव देश की प्रायः सभी भाषाओं पर था। क्योंकि कलकत्ता भारत की राजधानी थी, बंगला में पत्र पत्रिकाएँ बहुत विकसित और उत्कृष्ट स्तर की थीं, साहित्यकारों का सम्मान सर्वोच्च था और बंगला विश्व की नवीन भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य के निरन्तर सीधे संपर्क में आ रही थी। यह भी निर्विवाद है कि व्यासजी ने बंगला पढ़ी थी और महाराष्ट्रजीवनप्रभात जैसे उपन्यास भी पढ़े थे। स्वाभाविक है कि वे उन से प्रभावित हुए और उनकी प्रेरणा से उन्होंने शिवराजविजय लिखा। डॉ. हीरालाल शुक्ल ने “आधुनिक संस्कृत साहित्य” में उल्लेख किया है कि पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ५ मार्च १६०० के अप्पाशास्त्री को संबोधित अपने पत्र में व्यास जी का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया था कि संस्कृतचन्द्रिका में छप रहा उनका यह उपन्यास दत्त के उपन्यास का अनुवाद है और व्यासजी ने यह स्वीकार भी किया था, किन्तु उनके असामयिक निधन के कारण पुस्तकाकार में छपे इस उपन्यास की भूमिका में यह तथ्य उल्लिखित होने से रह गया। डॉ.शुक्ल ने तो महाराष्ट्रजीवनप्रभात के कृष्ण मोहनलाल जव्हेरी द्वारा किये गये अंग्रेजी अनुवाद “शिवाजी” से उदाहरण देते हुए उसके वाक्यों को शिवराजविजय के वाक्यों से मिलाकर बताया भी है कि यह किस प्रकार उक्त कृति का संस्कृतानुवाद है। उन दिनों बंगला के उपन्यासों के संस्कृत में अनुवाद करने की सुदीर्घ परम्परा भी प्रारम्भ हुई थी, अतः इसमें संदेह की आवश्यकता भी नहीं है कि ऐसा ही हुआ होगा तथापि शोधार्थियों ने उक्त बंगला उपन्यास, उसके अंग्रेज़ी अनुवाद तथा शिवराजविजय का तुलनात्मक अध्ययन कर यह स्पष्ट किया है कि अनेक स्थलों पर अनुवादात्मक होने पर भी किस प्रकार व्यासजी ने इसमें अपनी मौलिक प्रतिभा का प्रयोग करते हुए न केवल शैली को पूरी तरह नया रूप देकर संस्कृत गद्य की अलंकृत शैली के निकट ला दिया है (जो बंगला में बिलकुल नहीं था) बल्कि गीतियाँ आदि जोड़कर रूपान्तरण भी किया है, साथ ही घटनाओं में भी परिवर्तन किया है। अन्य अनेक स्रोतों से नई घटनाएँ जोड़ी हैं। रौशनआरा (रसनारी) द्वारा शिवाजी को प्रणाम संदेश भेजना, माल्य श्रीक, वृद्ध पुरोहित और भूषणकवि का जयसिंह के पास भेजा जाना आदि अनेक घटनाएँ व्यास जी ने अपने ढंग से जोड़ी हैं। उन पर न केवल महाराष्ट्रजीवनप्रभात का प्रभाव है बल्कि “अंगुरीयविनिमय” जैसे पूर्ववर्ती उनन्यासों का भी प्रभाव है। व्यास जी ने सभी पात्रों के नामों का संस्कृतीकरण भी अनूठी शैली में किया है जो तत्कालीन पंडितों की प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करता है-अवरंगजीव (औरंगजेब) मायाजिह्नुः (मुअज्जम) स्तन्यजीवः (तानाजी) रसनारी (रौशन आरा) अवजलखान (अफलखों) रूष्टतमः (रूस्तम) आदि। यहीं नहीं, मोहर्रम को मोहरमः रमजान को रामयानम्, गोलकुंठा को गोलखंड: आदि लिखकर उन्होंने इन्हें संस्कृत प्रातिपदिक बनाया है। गध-साहित्य/चम्पूकाव्य ४४५ शार इस सबसे यही प्रतीत होता है कि तत्कालीन बंगला उपन्यासों से प्रभावित होकर व्यासजी ने शिवाजी के जीवन पर उसी प्रकार की शैली में किन्तु उसे संस्कृत परंपरा में ढालकर एक नई कृति रचनी चाही थी। इस क्रम में उन्होंने कुछ उपन्यास और इतिहास ग्रन्थों से सामग्री लेकर तीन विरामों (खण्डों) व १२ निःश्वासों (अनुच्छेदों) में विभक्त यह उपन्यास लिखा। इस पर तत्कालीन हिन्दी उपन्यासों की शैली का प्रभाव भी है-जैसे देवकीनन्दन खत्री अपने तिलस्मी उपन्यासों अनुच्छेदों के प्रारंभ में दृश्य पटल बदलकर बतलाते हैं, बंगला उपन्यासों का भी और संस्कृत की परंपरा का भी। उनकी अलंकृत शैली संस्कृत परंपरा की है अद्य हि वेदा विछिद्य वीथीषु विक्षिप्यन्ते, धर्मशास्त्राण्युधूय धूमध्वजेषु भायन्ते, पुराणानि पिष्ट्वा पानीयेषु पात्यन्ते, भाष्याणि अंशयित्वा भ्राष्ट्रेषु भय॑न्ते। क्वचिन्मन्दिराणि भिद्यन्ते क्वचित्तुलसीवनानि छिद्यन्ते"- इस प्रकार के सानुप्रास वाक्यांश अथवा सूर्यास्तादि वर्णन के संदर्भ-“अथ जगतः प्रभाजालमाकृष्य वारुणीसेवनेनेव मांजिष्ठमंजिमरंजितः अनवरत प्रमणपरिश्रान्त इव सुषुप्सुः” इत्यादि पूर्णतः संस्कृतपरंपरा के हैं, किन्तु पात्र का नाम देकर नाटक की सी शैली में कथोपकथन.पात्रों के आन्तरिक चिन्तन का विवरण, घटनाओं का गतिशील चित्रण आधुनिक भारतीय भाषाओं का थोड़ा सा प्रभाव सूचित करते हैं। मुगलकालीन तहज़ीब का, शस्त्रों और वस्तुओं का सजीव वर्णन लेखक ने किया है और उसके लिए संस्कृत शब्द गढ़े भी हैं, किन्तु सारा उपन्यास संस्कृत की परंपरागत शैली, व्याकरण गठन और पंडितसहज रुझान में रचा-बसा है, न तो अनुवाद लगता है न कृत्रिम । कवि की कारयित्री प्रतिभा किस प्रकार अन्य भाषाओं के साहित्य के प्रभाव ग्रहण करते हुए भी विषयवस्तु और शैली को मौलिक और सहज चमत्कार-प्रवण बना देती है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं अंबिकादत्त व्यास। उपन्यास का कथानक तीन विरामों में विभक्त है। प्रत्येक विराम में चार-चार निःश्वास हैं। उपन्यास का आरम्भ एक आश्रम के एक बटु के सूर्योदय होते ही पुष्पचयन के लिये निकलने से होता है जो देवस्मरणात्मक मंगलाचरण कहा जा सकता है। फिर, वीर शिवराज के, मातृभूमि को म्लेच्छों के आधिपत्य से मुक्त कराने के संघर्ष का विवरण है जो प्रायः पूरा ही इतिहास पर आधारित है। कहीं-कहीं कुछ पात्र, घटनाएँ या विवरण कविकल्पना-प्रसूत भी हैं। बीजापुर दरबार में भेजे गये अफजल खाँ का वध, यशवन्तसिंह से भेंट, रोशनआरा से प्रणय, शाइस्ता खाँ पर आक्रमण, जयसिंह (जयपुरनरेश मिर्जाराजा) से भेंट व संधि, दिल्ली दरबार में उपस्थित होना, औरंगजेब द्वारा बन्दी बना लिया जाना, रोगी होने के बहाने यहाँ से छद्मवेश में बच निकलना, सतत प्रयत्नों के बाद सतारा नगरी को राजधानी बनाना एवं सूखपूर्वक महाराष्ट्र में शासन करना-यह प्रधान कथावस्तु है। इसके साथ-साथ ही एक उपकथा रघुवीरसिंह और सावर्णी की अलग से चलती है जिसमें एक अनाथ राजपूत बालिका सौवर्णी अपने कुलपुरोहित के यहाँ पलती है और रघुवीरसिंह नामक युवक से प्रेम और विवाह में यह कथा परिणत हो जाती है। एक अन्य उपकथा ४४६ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास गौरसिंह, वीरेन्द्रसिंह की आती है जिसमें एक सूदूर स्थल में मातृभूमि के भक्त और स्वातंत्र्य के पक्षधर राजपूत युवक चित्रित किये गये हैं। उदयपुर के जागीरदार खड्गसिंह के पुत्र गौरसिंह, श्यामसिंह और बहिन सौवर्णी और जयपुर राजघराने का वीरेन्द्रसिंह जो ब्रह्मचारी गुरु के रूप में स्वतंत्रता संघर्ष में सहयोग अलग से आश्रम में रहकर करता है-कल्पित पात्र हैं, जो लेखक द्वारा महाराष्ट्र और राजपूताने के समन्वय-सहयोग की दृष्टि से निबद्ध किये गये लगते हैं। __ इस प्रकार कथावस्तु, चरित्रचित्रण, कथोपकथन, भाषा, शैली उद्देश्य आदि सभी तत्त्वों की उत्कृष्टता के साथ एक आदर्श उपन्यास के रूप में खरा उतरने वाला ‘शिवराजविजय" नई चाल के उपन्यासों का प्रवर्तक माना जा सकता है।

कथासाहित्य के अनुवाद- व्यास-युग में ही नई चाल के उपन्यासों की एक ऐसी लम्बी श्रृंखला शुरू हुई जिसमें बंगला उपन्यासों की तरह घटनाओं की गति और कथोपकथन की यथार्थता के पुट से यथार्थवादी परिवेश का संस्कृत कथा-लेखन में प्रवेश हुआ, कादम्बरी वाली अलंकृत शैली से मुक्ति का सतत प्रयत्न परिलक्षित हुआ, जिसने भट्ट मथुरानाधशास्त्री-युग में आते-आते अधिक आधुनिक और यथार्थपरक रूप धारण कर लिया तथा नये प्रयोगों की ओर रुझान शुरू हुआ। बीसवीं सदी के प्रथम दो दशकों में बंगला उपन्यासों के अनुवाद की ऐसी प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है जो पूर्वी और उत्तरी भारत के ही नहीं, दक्षिणी भारत के साहित्यकारों में भी पैठ गई लगती है। बंगला साहित्य के इस प्रभाव से उपन्यास और कथालेखन की नई धारा इस युग में प्रारम्भ हुई जिसमें विभिन्न भारतीय भाषाओं के उपन्यासों और कथाओं के अनुवाद भी निकले, उन कृतियों का आधार लेकर तथा कुछ नवीनता और मौलिकता का पुट देकर लिखे जाने वाले रूपान्तर भी निकले और उनसे प्रेरणा लेकर लिखे गये मौलिक उपन्यास और कहानियाँ भी निकलीं। इनमें से अनेक संस्कृतचन्द्रिका, सूनृतवादिनी, मंजूषा, सहृदया (श्रीरंगम्) संस्कृतसाहित्यपरिषत् पत्रिका, सूर्योदयः, संस्कृतरत्नाकरः आदि में धारावाहिक रूप से निकले और बाद में पुस्तकाकार में भी प्रकाशित हुए। संस्कृतचन्द्रिका के संपादक श्री अप्पाशास्त्री राशिवडेकर कथालेखन के प्रति इतने अधिक आकर्षित हुए कि एक बार तो उन्होंने ‘कथाकल्पद्रुमः’ नामक एक पत्रिका प्रकाशित करने का मानस भी बना लिया, इसकी घोषणा भी कर डाली तथा अलिफलैला की कहानियों का संस्कृतानुवाद नियमित प्रकाशित करने की योजना भी बना डाली, किन्तु लगता है यह मूर्त रूप नहीं ले पाई। अलाउद्दीन के जादुई चिराग पर कुछ कहानियाँ अवश्य लिखी गई, कुछ छपी। इसी प्रकार बंकिमचंद के कुछ उपन्यासों का अनुवाद भी अप्पाशास्त्री ने प्रारम्भ किया, जिनमें “लावण्यमयी” को संस्कृतचन्द्रिका में धारावाहिक प्रकाशित किया, फिर १६०६ में पुस्तकाकार प्रकाशन हुआ। देवी कुमुद्धती १६०३ और इन्दिरा १६०४ तथा कृष्णकान्तस्य निर्याणम् १६६७ में भी प्रकाशित होने लगे, पर पूर्ण न हो सके। अप्पाशास्त्री की शैली सहज और प्रसन्न थी तथा बाणभट्ट की लीक पर चलने की ललक से वे मुक्त थे। बीसवीं सदी के तीन दशकों में अनेक लेखक इसी शैली में

गय-साहित्य/चम्पूकाव्य भारतीय भाषाओं के उपन्यास के अनुवाद करते देखे जा सकते हैं-विधुशेखर भट्टाचार्य ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर के उपन्यास का अनुवाद “जयपराजयम्” शीर्षक से किया (१६०६), चन्द्रप्रभा भी उन्हीं का है। श्रीशैलताताचार्य ने बंकिम की क्षत्रियरमणी का अनुवाद (9EEE) किया। बंकिम की दुर्गेशनन्दिनी का उनका अनुवाद संस्कृत साहित्य परिषद् पत्रिका में छपा (१९२३)। ए. राजगोपाल चक्रवर्ती ने शैवालिनी (मैसूर, १६१७) और कुमुदिनी, “विलासकुमारी संगरः” नामक उपन्यास तमिल साहित्य के अनुवाद के आधार पर लिखे। बंगला उपन्यासों के अनुवाद की श्रृंखला हरिचरण भट्टाचार्य का “कपालकुण्डला (बंकिमचन्द्र) १६१८ में प्रकाशित हुआ (पुस्तकाकार १६२६ में कलकत्ता से)। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने बंगला के “पणरक्षा” (प्रवासी मासिक पत्रिका में प्रकाशित) उपन्यास का प्रभाव ग्रहण कर “आदर्शरमणी” नामक उपन्यास लिखा जो पहले संस्कृतरत्नाकर में धारावाहिक छपा, फिर १९०६ में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। इसमें एक आदर्शवादी युवक द्वारा एक कुलीन किन्तु निर्धन कन्या से विवाह कर आदर्श स्थापित किये जाने की कथा है। भट्टजी बंगला साहित्य और बंगला पत्र-पत्रिकाओं के सजग पाठक थे। उनके पुस्तकालय में बंगला साहित्य के शतशः ग्रन्थ रहते थे तथा प्रवासी, मातृभूमि आदि अनेक बंगला पत्रिकाओं के वे नियमित पाठक थे। बंगला साहित्य से प्रभावित कथालेखन संस्कृत में इस काल में खूब होता रहा, जिसमें कथानक का आधार लेकर कथाकार अपनी भाषा में उपन्यास लिखता था, कभी-कभी पात्रों के नाम भी बदल देता था। बंगाल की संस्कृत साहित्य परिषद् पत्रिका में ऐसे उपन्यास प्रकाशित हों यह स्वाभाविक ही था। निगेन्द्रनाथ सेन का “कल्याणी” (१९१८) रेणुदेवी का रजनी (१६२०) और राधा (१E२२), राधारानी (१६३०), बलभद्र शर्मा का वियोगिनी बाला (संस्कृतचन्द्रिका, १०६) गोपालशास्त्री की अतिरूपा (अतिरूपाचरितम्) (सं.सा.परिषद् पत्रिका १६०८) भट्ट मथुरानाथ शास्त्री की “अनादृता” असमसाहसम् जैसी कहानियाँ, जिन्हें लघु उपन्यास भी कहा जा सकता है (संस्कृतरत्नाकर में धारावाहिक रूप से प्रकाशित), बंगला उपन्यासों की भावप्रवणता और शैली से प्रभावित हैं। तमिल उपन्यासों के अनुवाद भी हुए। दोरैस्वामी अय्यंगार के तमिल उपन्यास “मेनका” का डी.टी. कुमार ताताचार्य कृत अनुवाद तिरुवायूर की उद्यानपत्रिका में छपा था। मुडुम्बी श्रीनिवासाचार्य ने तमिल उपन्यासों का आधार लेकर दो प्रेमकथात्मक उपन्यास लिखे, “प्रवालवल्ली” तथा “मणिमेखला”। काव्यकंठ गणपतिशास्त्री के “पूर्णा” शीर्षक उपन्यास को भी प्रसिद्धि मिली।

सामाजिक उपन्यास

दक्षिण भारत के प्रसिद्ध विद्वान् आन्ध्रप्रदेश के विजयनगर नरेश आनन्द गजपतिनाथ के राजपंडित सिंहाचलम् के पं. नरसिंहाचार्य (१८४२-१६००) ने भी कुछ उपन्यास लिखे। उनका “सौदामिनी” (मद्रास १६०५) ८ भागों में विभक्त है। “उज्ज्वलानन्द” भी उन्हीं का लिखा हुआ है। मद्रास से ही राजम्मा (जन्म १८७७) के उपन्यास भी निकले, जिनमें सामाजिक सरोकारों की विषमताओं पर प्रहार करने वाला “चन्द्रमौलि” प्रसिद्ध है। बालकुन्नन नम्बुद्रि (१८६१-१९४६) के “सुभद्रा” में नारीजीवन आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास की पीड़ाएँ चित्रित हैं। इसी प्रकार श्रीनिवासाचार्य के कैरविणी और चिरक्यल रामवर्मा बलियतम्बुरान् (१८८१-१९६२) का काल्पनिक कथावस्तु पर आधारित वनमाला भी उल्लिखित है। बंगाल में हरिदास सिद्धान्तवागीश (१८७६) ने “सरला” और नगेन्द्रनाथ सेन ने “कल्याणी’ (१६१८) लिखा। परमेश्वर झा (१८५६-१E२४) के भावपूर्ण उपन्यास “कुसुमकलिका” को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। इसका एक गद्यांश इस प्रकार है: वाद्यन्ते चाव्यक्तमधुराणि पदानि बालक इवांगनाः कोमलांगा मृदंगाः, आलाप्यते चालिंग्य नवोढा कृशांगीव तंत्री। शयनीयशयने शयने सारंगी, संयोज्यन्ते वयस्या इव तुल्यकालाः कांस्यतालाः, परामृश्यते च शनकैः कामिनीव मानिनी क्रोडीकृता करांगुलीभिः सगुणा वीणा।” इसी प्रकार की वर्णनात्मक ललित शैली का प्रयोग करते हुए प्रसाद गुणयुक्त भाषा के माध्यम से सामाजिक कथा कहने की प्रवृत्ति इस काल में स्पष्ट है जो संस्कृतचंद्रिका में प्रकाशित सामाजिक उपन्यासों में सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। रमानाथ शास्त्री की “दुःखिनी बाला” और भट्ट श्री बलभद्रशर्मा की “वियोगिनी बाला” इसी क्रम में आते हैं। वियोगिनी बाला का प्रारंभिक प्रसंग इस प्रकार है “संप्रति वर्षासमयः । शनैः शनैः सिंचति धरां पयोधरः । प्रस्थिता वियति बलाकावलिः । दोधूयन्ते सुरभिसमीरेण सलिलसिक्तास्तरुशाखाः। हरियते च चेतः सुमनसां नीपसुमनसा सुगन्धेन। नभसि भासते समुदितं धनुस्तुरासाहः। शैलशिखरेभ्य इतः प्रपतन् पयोनिर्झरः प्रस्तरात् प्रस्तरमुपैयिवान् नव्यां भव्यां च क्षणमुत्पादयतीव शोभाम्, प्रकीर्णानि सरसीषु मृणालकन्दानि। उड्डयन्ते इतस्ततः पयःप्रपातविधुरा भमराः। भंगीसंगमगीकुर्वन्ति मरुता सरांसि। उदंचयति चंचु चातकः । मधुरमधुरं शब्दायन्ते केकिनः। कलयति चासौ पुँस्कोकिलकाकली कंठक्रमं पंचम (?) कामिनीनाम्। रसयति रसं रसालानां मधुरगंभीरस्वरः कीरः। “इससे तत्कालीन उपन्यासों की शैली का रुझान स्पष्ट होता है। समस्तपदघटित वाक्यों का युग समाप्त होने तथा नई चाल के प्रकृतिवर्णनों तथा देशकाल-परिवेश के चित्रण की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। अप्पाशास्त्रियुग के बाद सरलता की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है, चरित्रचित्रण और कथोपकथन अधिक यथार्थपरक होते जाते हैं। यह निःसंकोच मान लेना चाहिए कि बीसवीं सदी के सामाजिक उपन्यासों की शैली पर अन्य भारतीय भाषाओं के उपन्यासों की शैली का सर्जनात्मक प्रभाव विपुल मात्रा में रहा है। ऊपर उद्धृत सभी गद्यांशों में एक विशेष प्रकार की समानता का पाया जाना इसी का एक प्रमाण है। सहृदया के संपादक परवस्तु आर. कृष्णाचार्य उद्भट गद्यलेखक थे (१६६६-१६२४), जिन्होंने भारतीय नारी के समर्पित जीवन की कथावस्तुओं पर अनेक उपन्यास लिखे तथा कुछ ऐतिहासिक महापुरुषों पर भी पातिव्रत्यम्, पाणिग्रहणम्, सुशीला, वररुचिः आदि उपन्यास (या दीर्घ कथाएँ) उनकी यशोगाथा के आधारस्तंभ हैं। उनका चन्द्रगुप्तः सहृदया में (१९०१) छपा था। इस प्रकार की कृतियों में संस्कृत में नये मौलिक उपन्यासों के उद्विकास के दर्शन होते हैं। कठिन से कठिन विपरीत स्थितियों में पति का अनुगमन करने वाली भारतीय पतिव्रता नारी का चित्रण, भारत में विवाह निर्धारण की कठिनाताओं का गाय-साहित्य/चम्पूकाव्य ४४ कथानक समाज के गीतिरिवाजों से दबी नारी की व्यथा-ये सब सामाजिक सरोकारों से संबद्ध कथावस्तु वाले उपन्यास इस बात के प्रमाण देते हैं कि बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक आते-आते नई चाल के मौलिक उपन्यास भी सामने आने लगे थे। सामाजिक उपन्यासों में उपेन्द्रनाथ सेन रायचौधुरी के अपेक्षाकृत पूर्वकालिक उपन्यास भी गिनाये जा सकते हैं जिनमें मकरन्दिका (१८६४) कुन्दमाला (१८६४) सरला (१८६६) आदि का नाम आता है। लम्बी कहानी या उपन्यास के वर्ग में परिगणनीय ऐसी कृतियाँ सहृदया जैसी पत्रिकाओं में छपती रहती थीं। नारायणशास्त्री का “सीमन्तिनी” भी सहृदया में छपा था। मनुजेन्द्र दत्त का उपन्यास “सती छाया’ १८६५ की कृति है जिसकी कथा में घटनाचक्र की मनोरंजकता तथा गति हिन्दी फिल्मों की सी कथावस्तु उपस्थित करती है। डॉ. हीरालाल शुक्ल ने इसकी कथावस्तु को इस प्रकार प्रस्तुत किया है “सती छाया में एक महाविद्यालय की छात्रा इन्द्रप्रिया तथा उसकी पुत्री छाया की कहानी है। इन्द्रप्रिया पर एक राजकुमार रमणीमोहन मुग्ध है तथा वह उससे चोरी से विवाह कर लेता है। किन्तु इन्द्रप्रिया पर रमणीमोहन का मित्र अतुल भी मोहित है तथा उसे छलकपट से अपने वश में करना चाहता है। इन्द्रप्रिया अपनी माता के दर्शन के लिये विकल रहती है और रमणीमोहन उसे सांत्वना दिया करता है। कुछ ही मास के पश्चात् वह गर्भ धारण करती है। उसी समय अतुल की कुटिलता से रमणीमोहन के पिता उसका दूसरा विवाह करना चाहते हैं। राजकुमार पर उसकी कुटिलता काम कर जाती है और वह अपने पिता का निश्चय इन्द्रप्रिया को सुनाता है। इन्द्रप्रिया की प्रार्थना से भी वह द्रवित नहीं होता और अपने विवाह की बात पर अटल रहता है। बेचारी इन्द्रप्रिया नदी में डूबकर आत्महत्या करना चाहती है और तभी पीछे से आकर यशोदा उसे पकड़ लेती है। उसे उसके उदरस्थ शिशु की सौगंध दिलाती है। वह इन्द्रप्रिया को अपनी मालकिन के घर ले जाती है जहाँ वह शिशु को जन्म देती है। नवजात कन्या पर इन्द्रप्रिया का स्नेह स्वाभाविक था। एक बार जब इन्द्रप्रिया अपने घर की छत पर थी उसने रमणीमोहन को बारात के साथ वर के रूप में देखा। यहाँ इन्द्रप्रिया अपने वस्त्रालंकार को बेचकर अपना खर्च चलाती है। इन्द्रप्रिया ने अपनी पुत्री का नाम सती छाया रखा था। इन्द्रप्रिया के पिता तथा भाई वर्षों तक उसकी खोज करते रहे। और अंत में वह मिली। इन्द्रप्रिया ने अपनी पुत्री को यशोदा के हाथ अपने पिता के हवाले कर दिया। सती छाया अब अपने मातुल के घर पलने लगी। मामा के अतिरिक्त अन्य कोई उससे स्नेह नहीं करता था। मातुल सती छाया की शिक्षा घर में ही करते हैं। इधर छाया पर यतीन्द्र बहादुर का आकर्षण बढ़ने लगता है। इस प्रकार “सती छाया’ की कहानी में अत्यधिक प्रवाह है। दत्त महोदय ने सरल संस्कृत में लिखकर उसे और भी आकर्षक बना दिया है। पंचम परिच्छेद में छाया की दीनावस्था का चित्रण है। अनाथ होने के कारण उसका विवाह नहीं होता, मातुलानी उसे घर से निकाल देती है। प्रभावोत्पादकता व सामाजिक यथार्थता की दृष्टि से वह एक सफल कृति है।

  • अप्पाशास्त्रीयुग में एक अन्य धारा सदियों से चली आ रही थी, प्राचीन भारतीय ४५० आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास आख्यानों के आधार पर कथानक लेखन की। उसके क्रम में भी उपन्यास की शैली में ग्रन्थ लिखे जाते रहे, जैसे लक्ष्मणसूरि ने रामायणकथा के आधार पर रामायणसंग्रह (१६०४) लिखा, महाभारतकथा में भीष्मविजयम् (१६०४) और महाभारतसंग्रामः (१९०५) लिखे। मेधाव्रत शास्त्री (१८६३-१६६४) गुजरात के प्रसिद्ध लेखक थे जिन्होंने आर्यसमाज के विचारों का अनुसरण करते हुए गुरुकुलों में अध्ययन किया तथा विपुल साहित्य लिखा। उनके ‘कुमुदिनीचन्द्र” उपन्यास में (३५० पृष्ठों में, १६१६) चन्द्रसिंह नायक है और कुमुदिनी नायिका। यह सोलह अनुच्छेदों में विभक्त है जिन्हें ‘कला” का नाम दिया गया है। वन्यभूमि की घटनाओं पर आधारित होते हुए भी इस उपन्यास की शैली सरल और यथार्थपरक है। कपिष्ठलं कृष्णमाचार्य (१८८३-१६३३) की “मन्दारवती”, श्रीनिवासाचार्य की “कैरविणी” सभी में इसी प्रकार का कथानक और इसी प्रकार की शैली दृष्टिगोचर होती है। मैसूर के प्रसिद्ध विद्वान जग्गू बकुलभूषण ने ‘जयन्तिका” नामक उपन्यास (१९००) सुललित शैली में लिखा है जिस पर अनेक दशकों के बाद अनेक पुरस्कार मिले हैं। इसमें भी ललित वर्णनात्मक शैली अपनाई गई है। उनकी “उपाख्यानरत्नमंजूषा” और “यदुवंशचरितम्’ में दूसरी ही शैली है। डॉ. राघवन् ने सहृदया (श्रीरंगम्) पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशित कल्याणरामशास्त्री के “कनकलता” उपन्यास का उल्लेख किया है जो शेक्सपीयर की काव्यकथा लूक्रीस का गद्यरूपान्तरण है। ६० पृष्ठों की यह प्रेमकथा सुललित संस्कृत गद्य में निबद्ध है। गोपालशास्त्री की “अतिरूपा”, परशुरामशर्मा वैद्य की “विजयिनी”, नारायण शास्त्री की “सीमन्तिनी”, चिदम्बरशास्त्री की “सती कमला” और “कमलाकुमारी” और सहृदया संपादक परवस्तु आर. कृष्णाचार्य की सुशीला भी सहृदया में ही छपे थे। कमलाकुमारी में नारी जीवन के गर्हित पक्ष को और सती कमला में सराहनीय पक्ष को प्रस्तुत करने का प्रयास है। कुप्यूस्वामी ने ‘सुलोचना” (१६०६) में भी अबला जीवन का मार्मिक चित्रण किया हैं। बंगला और तमिल साहित्य के अतिरिक्त अंग्रेजी साहित्य से भी प्रभाव ग्रहण कर संस्कृत में उपन्यास लिखे गये जिनका एक उदाहरण कनकलता तो ऊपर संकेतित है ही। ए आर राजवर्मा ने भी शेक्सपीयर के नाटक ऑथेलों का उपन्यास में रूपान्तरण किया “उद्दालचरितम्” शीर्षक से। इसमें भी पात्रों के नामों का संस्कृतीकरण करके मौलिक स्पर्श देने का प्रयत्न परिलक्षित होता है (आथेलो को उद्दाल कहना)। ए आर राजवर्मा कोइनतम्बुरान का समय १८६३ से १६१८ के बीच का है। कादंबरी तिरुमलाचार्य ने शेक्सपीयर के कामेडी आफ एरर्स नाटक को संस्कृत गद्य में “प्रान्तिविलास” शीर्षक से रूपान्तरित किया है जिसे उपन्यास कहा जा सकता है। रंगाचार्य ने गोल्डस्मिथ के विकार ऑफ वेकफील्ड उपन्यास का अनुवाद “प्रेमराज्यम्” नाम से किया है। गब-साहित्य/चम्पूकाव्य हिन्दी, मराठी आदि भाषाओं की कृतियों के रूपान्तरण भी किये गये। प्रतिवादिभयंकर अनन्ताचार्य ने हिन्दी उपन्यासकार जगन्नाथप्रसाद के उपन्यास संसारचक्र का अनुवाद “संसारचरितम्” नाम से किया (उन्नीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों में) तथा वासुदेव आत्माराम लाटकर ने नरसिंह चिन्तामणि केलकर के उपन्यास का अनुवाद ‘बलिदानम्” नाम से प्रकाशित किया। “संसारचरितम्” का वर्णन कांजीवरम् की मंजुभाषिणी में प्रकाशित हुआ। इस प्रकार संस्कृत के आधुनिक उपन्यास का प्रारम्भ अन्य भाषाओं की इस नूतन विधा के प्रभाव ग्रहण कर लिखे उपन्यासों से हुआ और शीघ्र ही इसकी अपनी मौलिक परम्परा बनने लगी। आज तक अनुवादों की, रूपान्तरणों की और मौलिक उपन्यासों की तीनों धाराएं चली आ रही हैं। शैली में यथार्थपरकता, सरलता और कथानक, चरित्रचित्रण, देशकाल आदि पर अधिक ध्यान आधुनिक उपन्यास की इन प्रवृत्तियों का प्रतिफलन परवर्ती उपन्यासों में अधिकाधिक होता गया यद्यपि परवर्ती दशकों में लघुकथालेखन पर अधिक जोर परिलक्षित होता है तथापि बड़ी संख्या के उपन्यासों का लेखन, प्रकाशन आदि भी होता रहा। कुछ उपन्यास विभिन्न पत्रिकाओं में इसी प्रकार धारावाहिक रूप से प्रकाशित होते रहे जिस प्रकार संस्कृत चन्द्रिका के युग में होते थे। पं. नारायण शास्त्री खिस्ते के उपन्यास ‘दरिद्राणां हृदयम्’, दिव्यदृष्टि (१९३६) आदि काशी से सामाजिक उपन्यासों की शङ्खला को अविरत बढ़ाते पाये जाते हैं। इनमें कथ्य और शैली, दोनों की मौलिकता और मार्मिकता देखी जा सकती है। बीसवीं सदी के मध्य में कुछ उपन्यासकारों ने शैली और वर्ण्यवस्तु-दोनों में अनेक नये प्रयोग करते हुए साथ ही आधुनिक सामाजिक संदर्भो को उजागर करते हुए अनेक उपन्यास प्रकाशित किये। बीसवीं सदी के मध्य का संस्कृत उपन्यासकार उस समय तक की समस्त उपन्यासविधाओं का प्रेक्षण करते हुए उन सभी शैलियों के साथ एक उपन्यास में भी प्रतिफलित कर सकता है इस का एक कारण है कलकत्ता के श्रीनिवासशास्त्री का “चन्द्रमहीपतिः” उपन्यास, जिसमें कथ्य और शैली-सभी की दृष्टि से अनेक उपन्यास विधाओं और संस्कृत तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं की गद्यशैलियों का प्रभाव एक साथ देखा जा सकता है। अतः इसकी विस्तृत समीक्षा निदर्शन के रूप में प्रस्तुत की जाएगी। ऐतिहासिक नायकों और उपाख्यानों पर उपन्यास लेखन का क्रम भी निरन्तर जारी रहा। देवेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय का वंगवीर प्रतापादित्य (साहित्य परिषत् पत्रिका १६३०-३१), इन्द्रनाथ वन्द्योपाध्याय का गौरचन्द्र (साहित्यपरिषत् पत्रिका, १६३२-३३) श्रीकान्त आचार्य का प्रतापविजयः,जगद्राम शास्त्री का छत्रसालविजयः आदि इस क्रम को आगे बढ़ाते हैं। __प्राचीन कथानक को आधुनिक शैली में आधुनिक संदर्भो के आलोक में प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति आज तक संस्कृत कथाकार में देखी जा सकती है। इसी श्रृंखला में रामस्वरूप शास्त्री की त्रिपुरदाहकथा (अलीगढ़ १E५६) के.एम. कृष्णमूर्तिशास्त्री का वैदेहीविवाहम् आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास (१६५६) क.न. वरदराज अय्यंगार्य के सुधन्वचरितम् (सुधर्मा प्रकाशन, मैसूर १६७५), चन्द्रहासचरितम् (मैसूर १९७५), डॉ. ठाकुरप्रसाद मिश्र का चाणक्यचरितम् (१९८१) आदि को गिनाया जा सकता है। क्योंकि ये पौराणिक या प्राचीन वाङ्मय में चर्चित पात्रों के आख्यान के रूप में परिगणित किये जाएंगे- जीवनचरित के रूप में नहीं, अतः इनकी चर्चा हमने यहीं करनी उचित समझी है, जीवनचरित (बायोग्राफी) के परिच्छेद में नहीं। पाठक ऐसे आख्यानों में प्राचीन उपाख्यानों की दृष्टि से रुचि लेता है, अतः ये रोचक बन पाते हैं। रामायण, महाभारत आदि के पात्रों या प्रसंगों को लेकर उन्हें आधुनिक कथोपकथन शैली में ढालने या मनस्तात्त्विक अभिगम के साथ प्राचीन आख्यानों को नये ढंग से लिखने की प्रवृत्ति भट्ट युग” से प्रारम्भ हुई जो जब तक चली आ रही है। वैसे कुछ विद्वानों द्वारा किये जा रहे इस प्रकार के प्रयत्न भी बराबर चलते रहे जिनमें रामायण या महाभारत की पूरी कथा को गद्य में निबद्ध किया गया हो। ऐसी एक उत्कृष्ट गद्यात्मक महाभारतकथा अजमेर (पुष्कर) के दाधीच पं. शिवदत्त त्रिपाठी द्वारा लिखी गई थी, जो १६३५ में दो भागों में प्रकाशित हुई। “गद्यभारतम्’ शीर्षक से मुद्रित इस गद्यग्रन्थ में महाभारत के समस्त पर्वो की कथा (जिसमें हरिवंश पर्व भी शामिल है) सुन्दर, शुद्ध और सुपाठ्य गद्य में लिख दी गई है। इसका गद्य कादंबरी के प्रभाव से मुक्त है। लगभग ४०० पृष्ठों में समस्त महाभारत कथा आ गई है। बीसवीं सदी के तीसरे दशक से संस्कृतपत्रपत्रिकाओं में निखार आने लगा। वे अन्य भारतीय भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं से प्रभाव ग्रहण कर नई-नई विधाओं पर अधिक सामग्री देने लगी, साथ ही संस्कृत साहित्य सम्मेलनों तथा अन्य साहित्यिक गतिविधियों के फलस्वरूप संस्कृत विद्वानों में यात्रापरकता, गतिमत्ता, पारस्परिक आदान-प्रदान का क्रम अधिक तीव्र हो गया। इसके फलस्वरूप पत्रपत्रिकाओं में विविध विधाओं की लघुकथाओं का प्रकाशन बड़े व्यापक आयामों में होने लगा, जिस पर पृथक् से विचार किया जाएगा। उपन्यासों का भी धारावाहिक प्रकाशन पत्रपत्रिकाओं में होता रहा, साथ ही नई-नई विधाओं में मौलिक उपन्यासों का लेखन और अन्य भाषाओं से अनुवाद होते रहे। यह संभव है कि प्रकाशकों की अनुपलब्धता आदि अनेक कारणों से ग्रन्थाकार में प्रकाशित उपन्यास कम निकले हों क्योंकि बीसवीं सदी के तीसरे, चौथे, और पाँचवे दशकों में प्रकाशित ऐसे उपन्यास हमें बहुत कम संख्या में प्राप्त हो पाये। छठे दशक से अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को जिस प्रकार प्रोत्साहन मिला, साहित्य अकादेमी आदि सरकारी, अर्धसरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से सर्जनात्मक साहित्य को पुरस्कृत करने की योजनाएँ शुरू हुई तथा उसके प्रकाशन हेतु अनुदान आदि की योजनाएँ भी प्रारम्भ हुई। उससे संस्कृत लेखकों और प्रकाशकों में प्रकाशन के प्रति अधिक रुचि जागृत हुई। शायद यही कारण हो कि १६६० से अब तक संस्कृत उपन्यासों के प्रकाशन का विपुल अभिलेख प्राप्त होता है। कलकत्ता के श्रीनिवासशास्त्री ने अपना चन्द्रमहीपति उपन्यास १६३५ में शुरू किया, किन्तु वह १६५६ में जाकर प्रकाशित हुआ। विभिन्न संस्कृत पाठ्यक्रमों में आधुनिक संस्कृत उपन्यास व कथानक भी निर्धारित गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य ४५३ किये जाएँ, यह प्रवृत्ति भी १९६० के बाद ही परिलक्षित होती है। इसके फलस्वरूप चन्द्रमहीपति, “कुसुमलक्ष्मी” (ए.आर. रत्नपारखी लिखित) आदि उपन्यास, डॉ. रामजी उपाध्याय की कृतियाँ तथा नवीन कथा संकलन विविध पाठ्यक्रमों में निर्धारित किये गये।

श्रीनिवासशास्त्री

इनका “चन्द्रमहीपतिः” बीसवीं सदी के संस्कृत उपन्यासकार की सभी तरह की प्रवृत्तियों का नमूना प्रस्तुत कर देता है। श्रीनिवासशास्त्री राजस्थान के लाम्बी ग्राम के मूल निवासी हैं। इनके पिता नवरंगरायशास्त्री राजगढ़ (बीकानेर) के प्रसिद्ध वैयाकरण थे। श्रीनिवास जी ने संस्कृत और आयुर्वेद का अध्ययन कर कलकत्ता में वैद्य के रूप में कार्य शुरू किया। इधर संस्कृत में कविता, गीतियाँ, उपन्यास आदि बराबर लिखते रहे। “चन्द्रमहीपतिः” इन्होंने १E३५ के आसपास लिखा था किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उसके बाद इसकी पांडुलिपि को निरन्तर निखार की प्रक्रिया से गुजारते हुए वे इसे एक आदर्श आधुनिक उपन्यास बनाने हेतु आधुनिक तत्त्वों, विचारधाराओं और शैलियों को जहाँ-जहाँ पाते गए उनका समावेश इस उपन्यास में करते गए और उपन्यास बढ़ता रहा। अन्ततोगत्वा सन् १९६० के आसपास यह प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास लगभग ३०० पृष्ठों में पूरा हुआ है और इसका मूल कथानक “चन्द्र” नामक एक राजा का जीवन-वृत्त है।
मूल कथानक यह है कि राजनगर का राजा चन्द्र अपने जीवन के विविध प्रकार के उतार-चढ़ावों को पारकर अन्त में बहुत समृद्धिशाली बन जाता है, किन्तु अपना सारा राज्य सर्वोदय सिद्धान्त के अनुरूप जनता के हित में लगा देता है, जनतांत्रिक चुनाव करवाता है और एक आदर्श राज्य की स्थापना करता है। बाल्यकाल में ही चन्द्र के पिता राजा नवेन्दु ने विमलपुर के राजा रामपाल की राजकुमारी कमला के साथ चन्द्र का विवाह करना स्वीकार कर लिया था। जिस दिन राजकुमार चन्द्र युवराज के रूप में अभिषिक्त होने वाले थे उसके पहले दिन वे शिकार खेलने निकले और एक शेर का पीछा करते-करते साथियों से विछुड़ गए, घायल हो गए और विमलपुर पहुंच गए। एक संन्यासी की परिचर्या से वे स्वस्थ हुए और वहीं उनकी मुलाकात राजकुमारी कमला से हुई। दोनों स्नेहसत्र में बंध गए। चन्द्र ने ‘शशधर" के छद्म नाम से राजा रामपाल के यहाँ ही नौकरी शुरू कर दी और अपने पराक्रम से उसे इतना प्रभावित किया कि जब उसे यह मालूम पड़ा कि शशधर नाम से स्वयं राजकुमार चन्द्र उसके यहाँ रह रहा है तो उसने निश्चय किया कि राजकुमारी का विवाह धूमधाम से वहीं उनके साथ कर दिया जाएगा। इसी बीच खलनायक कान्तिसिंह और उसके कुछ साथी जो कमला को हथिया लेना चाहते थे उसे अचानक महल से उठा ले गए और एक गुप्त सुरंगों वाले सूने महल में उसे बंद कर दिया। वहाँ राजा कामेश्वरसिंह का राज्य था। उनकी भतीजी सरोजिनी जो स्वयं युद्धविद्या में निपुण थी इस इलाके में घूमती थी और कान्तिसिंह के कुकृत्यों पर भी नज़र रखती थी। चन्द्र कमला को ढूंढते हुए वहाँ पहुँचे और संयोग सेआधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास एक शेर के आक्रमण से सरोजिनी को बचाकर उन्होंने उसका भी स्नेह प्राप्त कर लिया। सरोजिनी ने वीरतापूर्वक कान्तिसिंह की कैद से कमला को छुड़वाया और चन्द्र ने कमला और सरोजिनी दोनों से विवाह कर लिया। उधर चन्द्र के अचानक गायब हो जाने के कारण उनके पिता उनकी खोज करवा रहे थे। उनके मंत्री का पुत्र शक्तिधर उन्हें खोजते-खोजते विमलपुर पहुंचा और यह तय हुआ कि चन्द्र सरोजिनी और कमला, दोनों रानियों तथा पुत्र के साथ अपने राज्य लौटेगा, किन्तु समुद्र-यात्रा में दुर्घटनावश सब बिछुड़ गए। चन्द्र किसी दूसरे राज्य में जा पहुंचा और अपने बुद्धिबल से वहाँ का राजा बन गया। संयोगवश कमला और उसका पुत्र उससे उसी राज्य (चित्रपुर) में मिल गए और वे सब सानंद अपने पैतृक राज्य राजनगर में लौट आए। राजा चन्द्र ने आदर्श शासन शुरू किया। एक बार बाढ़ के कारण जब सारे राज्य की प्रजा त्रस्त हो गई तो राजा ने अपनी सारी सम्पत्ति और महल आदि प्रजा को सौंप दिए। उन्होंने सर्वोदय सिद्धान्त का नये संदर्भो में प्रतिपादन किया और अपने राज्य में जनतांत्रिक शासन शुरू किया। यह कथानक मूलतः प्राचीन आख्यायिकाओं की सी कथावस्तु पर बना है, किन्तु वर्णनों तथा विचार-शैली में सब जगह आधुनिक संदर्भ, विचारधाराएँ तथा स्थितियाँ जुड़ी हुई हैं। उपन्यास की एक विशेषता यह भी है कि आधुनिक समय में प्रयुक्त होने वाले शस्त्रास्त्रों, भोज्यपदार्थों तथा अन्य वस्तुओं के लिए नये-नये शब्द लेखक को गढ़ने पड़े हैं। आधुनिक परिवेश के वर्णन के लिए, ध्वनि-साम्य तथा अर्थबोध के लिहाज से संस्कृत व्याकरण के अनुसार नये शब्द गढ़ने की प्रवृत्ति संस्कृत विद्वानों में, विशेषकर आधुनिक काल में, बहुत अधिक देखी जा सकती है। श्रीनिवासजी ने भी इसी प्रकार के सैकड़ों नये शब्द इस उपन्यास में प्रयुक्त किए हैं। कुछ ध्वनिसाम्य के आधार पर बनाये गये हैं जैसे “गैस” के लिए “गैष”, टैंक के लिए “आटंकन” और तारपीड़ों के लिए “तारपीड़क”, व कुछ अर्थ के आधार पर बने हैं, जैसे पैराटूपर के लिए “छत्रधारी सैनिक”, एन्टीएयर क्राफ्ट गन के लिए “वायुयान विध्वंसक तोप” आदि। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि लेखक संस्कृत में आधुनिक शब्दों का समावेश करके संस्कृत की विपुलता का अहसास कराने के लिए ही ऐसे संदर्भ जानबूझकर जोड़ रहा है। लेखक ने उपन्यास की भूमिका में यह इच्छा भी की है कि इसे पाठ्यक्रम में लगाया जाए ताकि उस नवलेखन से छात्र परिचित हो सकें। उपन्यास-लेखक का यह भी प्रयत्न प्रतीत होता है कि विविध प्रकार की प्राचीन और नवीन शैलियों और शिल्पों का समावेश एक साथ ही इसमें मिल जाए। इसीलिए कहीं-कहीं बाणभट्ट की तरह अलंकृत शैलियों का प्रयोग, वर्णनों में मिलता है। जैसे-“एकाकिनी अनीकिनीव कामस्य कमला एकस्यां निम्बानोदुम्बरकदम्बजम्बूजम्बीरशोभितायां चलदलबकुलकुलसंकुलायां कर्कन्धूबन्धूकबन्धुरायां लोललताललितायां मसृणश्वेतशिलायां कमलकुड्मलेषु सानन्दमुपविष्टा कमलेव राजते। (तृतीय निःश्वास) और, कहीं-कहीं आधुनिक गध-साहित्य/चम्पूकाव्य शैली के छोटे-छोटे कथोपकथन भी मिलते हैं। उपन्यास निश्वासों में विभक्त है। कुल ६ निश्वास हैं। प्रत्येक निश्वास के प्रारम्भ में उसकी कथावस्तु से मेल खाते हुए प्राचीन कवियों के तथा कुछ नव-निर्मित पद्य उद्धृत किए हुए हैं। बीच-बीच में प्रसंगवश गीतियाँ और कविताएँ दी गई हैं। स्वयं लेखक भी एक पात्र बनकर उपन्यास में आता है। “कविताकांत” लेखक की उपाधि है। उसका संक्षेप के.के. शास्त्री बनाकर उसे ही एक पात्र के रूप में लेखक ने राजा चन्द्र से मिलाया है। राजा को यह कवि अनेक कविताएँ सुनाता है। उपन्यास के नायक चन्द्रमहीपति के मुख से लेखक ने अपने सामाजिक और राजनैतिक सिद्धान्त विवेचित करवाए हैं। उसकी मान्यता है कि विदेशी साम्यबाद या समाजवाद इस देश में नहीं पनप सकता। हमें अपने ढंग का समाजवाद लाना होगा। इस समाजवाद को लेखक ने “सर्वाभ्युदयवाद” की संज्ञा दी है और चन्द्रमहीपति के राज्य में इसी के अनुसार शासन चलना बतलाया है। _ संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि उपन्यास में कथा-लेखन की विविध शैलियों, शिल्पों और कथ्यों का एक जगह समावेश है। देवकीनन्दन खत्री के “चन्द्रकान्ता संतति” जैसे उपन्यासों की तरह तिलिस्म और औत्सुक्य की भी योजना है। नायक चन्द्र, खलनायक कान्तिसिंह के आदमियों से निपटने के लिए कई प्रकार के प्रयोगों का आश्रय लेता है। खलनायक के आदमी संकेत भाषा में पत्र लिखते हैं और अपना पता नहीं देते। पते के स्थान पर ‘श्वेत कन्दरा” लिख देते हैं। नायक चन्द्र जब कामेश्वरसिंह के राज्य में जाता है तो बहुत जल्दी वहाँ के आदमियों के भ्रष्टाचार और अराजकता की थाह पा लेता है। इसके अतिरिक्त छद्मवेश में राजनैतिक गतिविधियों पर आँख रखने वाले संन्यासी और पुरुष-वेश में घोड़े की सवारी करने वाली महिलाएँ तथा तलवार लेकर घूमने वाले सामाजिक भी उपन्यास में औत्सुक्य, उत्साह और कुतूहल की सृष्टि करते हैं। जहाँ इस प्रकार के सस्पेन्स और टेरर के तत्त्व इस उपन्यास में मिलते हैं वहाँ नायक और नायिका के पूर्वराग के वर्णन में श्रृंगाररस की मधुर सरिता भी बहती है। विवाह के दृश्यों में चन्द्र के साथ-नव-युवतियों की चुहलबाज़ी तथा उसका कमला के साथ प्रगाढ़ प्रेम एक रूमानी वातावरण की सृष्टि करते हैं। नायक का तीन रानियों के साथ विवाह करना, आधुनिक औचित्य की कसौटी पर कसा जाए तो अवश्य अवांछनीय लगेगा, किन्तु लगता है इस प्रसंग में लेखक ने प्राचीन राजघरानों की परम्परा को ध्यान में रखा है। अन्य अनेक मान्यताएँ आधुनिक युग से संगति रखती हुई हैं। स्थान-स्थान पर लेखक ने कभी नये शब्द बनाने की आवश्यकता को देखते हुए और कभी प्रौढ़ता लाने की लालसा में व्याकरण से अननुमत प्रयोग भी किए हैं। वे आधुनिक युग की प्रवृत्ति का परिचय देते हैं। राजसभा में एक नर्तकी नृत्य के साथ एक गीत गाती है। “मम मनों व्याकुलम् । रात्रिंदिवमलिमिलनं चिन्तत् ।।” आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास यह गीति “मन मौरा बावरा” की धुन पर है। अन्य अनेक गीत राजस्थानी लोकगीतों की धुन पर हैं। स्पष्ट है कि ऐसी आधुनिक गीतियों के गुम्फन में नव-लेखक की व्याकरण के बन्धनों में कुछ शिथिलता बरतनी होती है। श्रीनिवास शास्त्री की अन्य कृतियाँ भी हैं। जैसे, ‘सूर्यप्रभा किं वा वैभवपिशाचः’, किन्तु पुस्तक रूप में प्रकाशित यही कृति सामान्यतः परिज्ञात है। आज के साहित्य-संकुल युग में अन्य भारतीय भाषाओं में जो नये-नये प्रयोग हो रहे हैं उनके प्रतिबिम्ब यदि संस्कृत जैसी पुरानी भाषा में, आज तक, नवचेतना के प्रतीक के रूप में प्रतिफलित हो रहे हैं तो यह इस भाषा की जीवन्तता का आश्चर्यजनक प्रमाण है। श्रीनिवासजी जैसे आधुनिक संस्कृत लेखकों को इसका श्रेय जाता है। पिछले वर्षों में ऐसा बहुत कम हुआ है कि “संस्कृतचन्द्रिका” काल की तरह पत्र-पत्रिकाओं में उपन्यास धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुए हों, तथापि कर्णाटक की सुधर्मा जैसी पत्रिकाओं में कुछ उपन्यास क्रमिक रूप में भी निकले। केशवचन्द्र दाश (उड़ीसा) के तिलोत्तमा (१६८३), मधुपानम् (१८८४) शीतलतृष्णा (१९८३) आदि उपन्यास इसी प्रक्रिया से सामने आये। उत्तर प्रदेश के वेदव्यास शुक्ल उपन्यासों की रचना में निरन्तर संलग्न हैं। सामाजिक संदर्भो से जुड़े उनके अनेक उपन्यास पुस्तकाकार में देवरिया से प्रकाशित हुए हैं, जिनमें सौप्रभम्, कौमारम् (१६८८) आदि गिनाये जा सकते हैं। डॉ. रामजी उपाध्याय जो स्वयं सर्जनात्मक गद्य-साहित्य के प्रणेता हैं और गंभीर विवेचक तथा साहित्येतिहासकार भी, अनेक स्तरीय उपन्यासों की सृष्टि करते रहे हैं। उनके ‘द्वा सपुर्णा", “सत्यहरिश्चन्द्रोदयम्” सुप्रसिद्ध हैं। “सागरिका” पत्रिका के संपादक के रूप में संस्कृत के सुधी पाठक उनसे सुपरिचित हैं। र देश की गरीब जनता को वर्ण्यविषय बनाकर प्रकाशित उपन्यासों में जैसे “दरिद्राणां हृदयम्” (पं. नारायणशास्त्री खिस्ते) का नाम प्रथमतः आता है उसी प्रकार “जयदरिद्रनारायणम्” (आचार्य रामदेव) भी काशीविद्यापीठ मुद्रणालय, काशी से निकला है (१E६६)। बिहारीलाल शर्मा का लिखा “मंगलायतनम्” भी १६७५ में वाराणसी से प्रकाशित हुआ। विद्याधर द्विवेदी ने “चक्रवत् परिवर्तन्ते” लिखा जो १६७८ में मिर्जापुर से प्रकाशित हुआ। राजनैतिक समस्याओं और सामाजिक गुत्थियों पर संस्कृत का उपन्यास-लेखक जागरूकता के साथ लिख रहा है इसका प्रमाण जिस प्रकार सामाजिक घटनाओं पर लिखी लघुकथाओं में मिलता है इसी प्रकार उपन्यासों में भी। “मंजूषा” पत्रिका में १५० से निरन्तर धारावाहिक रूप से प्रकाशित ‘‘सीमासमस्या" जैसे उपन्यास (जिसमें एक वामपन्थी विचार धारा के युवक को केन्द्र में रखकर इसके लेखक श्रीगंगोपाध्याय ने सीमा की समस्या को वर्ण्य विषय बनाया है) इसका एक निदर्शन है। जैन उपन्यासकारों का अवदान बहुत प्राचीनकाल से संस्कृत में बहुमूल्य माना जाता रहा है। रूपकात्मक उपन्यास का एक विलक्षण उदाहरण है सिद्धार्थ गणी की “उपमितिभवप्रपंचकथा” जिसमें सांसारिक कर्मबन्धनों की पीड़ा तथा जन्ममृत्यु के चक्र को चित्रित करने हेतु एक कथानक का रूपक बाँधा गया है और अप्रस्तुत विधान द्वारा एक उपन्यास की सृष्टि की गई है। अलंकृत, समस्तपदघटित गय-साहित्य/चम्पूकाव्य ४५७ और प्रौढ शैली में इस रूपक को जिस आकार में लिखा गया है उसे उपन्यास के वर्ग में ही वर्गीकृत किया जा सकता है। यह प्राचीन उपन्यास जैन समाज में ही नहीं, कथासाहित्य के व्यापक इतिहास में भी उल्लेखनीय माना जाता है। जैन मुनियों में संस्कृत वैदुष्य प्राप्त कर लेखन करने की जो परम्परा आजतक प्रचलित है उसी की यह देन हैं कि आज भी श्री चन्दन मुनि जैसे कथाकार संस्कृत कथा व उपन्यास लिख रहे हैं। उनके “आर्जुनमालाकारम्” विराटनगर (नेपाल) चिकपैठ बैंगलौर से १६६६ में और “प्रभवप्रबोधकाव्यम्" विलेपार्ले बंबई से १६७० में प्रकाशित हुए। मुनिगुलाबचन्द्र निर्मोही की रत्नपालकथा अहमदाबाद से १९७१ में प्रकाशित हुई।

नवयुगीन कथ्य

आधुनिक नगर जीवन के, राजनैतिक उठापटक के, आर्थिक उतार-चढ़ावों के, सरकारी नौकरी और व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के घात-प्रतिघातों के समसामयिक परिवेश का आधुनिक शैली में, कथोपकथन प्रणाली का प्रयोग करते हुए आधुनिक उपन्यासों का सर्जन भी आज विपुल मात्रा में हो रहा है। ऐसे अनेक उपन्यासकार हैं जो इस प्रकार के आधुनिक परिवेश का चित्रण करते हुए समसामयिक कथावस्तु पर आधारित उपन्यास लिख रहे हैं। इनके प्रतिनिधि के रूप में उड़ीसा के केशवचन्द्रदाश का नाम लिया जा सकता है जो पुरी के जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय में न्यायदर्शन विभाग के अध्यक्ष हैं। श्री केशवचन्द्रदाश के शीलतृष्णा, प्रतिपद्, निकषा, अरुणा, अंजलिः, आवर्तम्, ऋतम्, मधुयानम्, तिलोत्तमा, शिखा, विसर्गः, शशिरेखा, ओंशान्तिः आदि उपन्यास तथा निम्नपृथिवी, दिशा विदिशा, ऊर्मिचूडा, पताका, महान, एकदा आदि लघुकथासंग्रह प्रकाश में आ चुके हैं। उनके लिखे १५-२० उपन्यास अब तक दृष्टिपथ में आ चुके हैं, जिनमें वर्तमान भारतीय जनजीवन और राजनीति अथवा नगरजीवन की घटना को लेकर सहज और अनलंकृत शैली में उपन्यास की प्रस्तुति की गई हैं। छोटे-छोटे वाक्य, सरल किन्तु संकेतात्मक शैली में परिवेश तथा मानवीय मनःस्थितियों का चित्रण, यथार्थपरक वार्तालाप की शैली के कथोपकथन इन सब योजनाओं के फलस्वरूप ये उपन्यास आधुनिकता की कसौटी पर कसे जा सकते हैं। आज के परिवेश में ग्रामजीवन के निष्कपट समाज को छोड़कर व्यापार से धन कमाने या राजनीति और चुनाव की सफलताओं द्वारा चमकदमक का जीवन जीने के लिए किस प्रकार नवयुवक नगर जीवन की फैशन, उन्मुक्त विलासिता की ओर आकृष्ट हो जाते हैं, किन्तु यथार्थ की कड़वी सच्चाई कुछ और ही है अतः अन्त में किस प्रकार उनका मोहभंग होता है यह उनके कुछ उपन्यासों की कथावस्तु रही है। शिखा नामक उपन्यास में गाँव के समृद्ध भूमिपति कुलमणि का पुत्र विलास किस प्रकार पढ़ लिख कर बड़े शहर में पहुँच कर राजनीति और व्यापार में सफलता के प्रयत्न करता है, विलास बाबू बन जाता है, अपने पुराने विश्वस्त नौकर मुर्मू की सेवा के बल पर कुलमणि जीवित रहता है। विलास की संगिनी शम्पा आधुनिका है, रोजा उसकी सेक्रेटरी है। किन्तु ४५८ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास चुनावी उतार-चढ़ाव, व्यापार के घाटे, ऋणभार आदि के कारण विलास अन्त में टूट जाता है। कुलमणि की मृत्यु के समय भी वह नहीं पहुंच पाता। उसका वफादार नौकर, मुर्मू ही उसे मुखाग्नि देता है। अपनी पुत्री रजनी के नाम कुलमणि संपत्ति सौप जाता है, विलास लापता हो जाता है। __ देशों और प्रदेशों की सीमाओं के आपसी झगड़ों से प्रेरित होकर शायद रामकरण शर्मा (जन्म १९२७) ने “सीमा” उपन्यास लिखा है। इसकी शुरुआत होती है लेखक (जो एक संस्कृत पंडित है) के अभिन्न मित्र यूसुफ के साथ चर्चा से। वह अपने पिता से सुनी एक पुरानी कहानी उसे सुनाता है जिसमें बतलाता है कि पहले वारुणदेव में परमर्षि गालव ने महासीमासिद्ध के प्रयोग अपने प्रज्ञाबल से किये थे। उस समय सौर विज्ञान का धनी ऐन्द्र देश, कौबेर देश, दुर्ग, वासव इत्यादि देश भी थे। किस प्रकार विभिन्न आक्रमण और प्रत्याक्रमण आदि की आशंकाओं के निवारण के लिये परमर्षि सौहार्द और सौमनस्य के ऐसे परमाणु अपने सिद्ध प्रयोग से बिखेरते हैं कि अन्ततः सारे देशों का हृदय परिवर्तन हो जाता है और वे परस्पर समन्वय के साथ रहने लगते हैं। न सीमा के झगड़ों में शक्ति व्यय होती है, न आशंकायें रहती हैं। विकास और समृद्धि बढ़ती रहती है। इस देश का नामकरण मनोहर किया है लेखक ने। उपन्यास सात खंडों में विभक्त है, जिनके अलग से शीर्षक नहीं दिये गये हैं केवल संख्यांकन किया गया है। ब्रह्मर्षि का पात्र इसमें सर्वोच्च आध्यात्मिक शक्ति संपन्न है, वही नायक है। उपन्यास की शैली प्रौढ़ और ललित है। विषयवस्तु ही ऐसी है कि अलंकृत और दीर्घसमासघटित शैली इसके साथ न्याय नहीं कर सकती, अतः सुदीर्घ-समस्तपद, बहुत लम्बे वाक्य आदि इसमें नहीं है, तथापि प्रौढ़ता के लिहाज से समासों-अन्वयापेक्षी वाक्य खंडों तथा कहीं औपम्यादि अलंकारों की छटा का योजन लेखक ने किया है। रयीशः" उपन्यास “रईस’ हिन्दी शब्द का संस्कृतीकरण है, किन्तु इसकी कल्पना यह है कि रयि (धन) के ईश धनपति आज जिस प्रकार षड्यंत्रों, आतंकों, व्यस्तता में फंसे हैं, अपराध और उपद्रव नये युग के महानगरों की परिभाषा बन गई है, उससे ऊपर उठकर क्या ऐसी स्थितियाँ कभी रहीं होंगी कि हम धनपति, सुसमृद्ध, सुशासनबद्ध रहें, किन्तु अपराध, छलप्रपंच न हों, नगरीकरण की व्यस्तता न हो। इसीलिये इसमें लेखक ने पाटलिपुत्र के प्राचीन परिवेश (सुमनःपुर) के संदर्भ में ऐसी स्थितियों का चित्रण किया है-जिनमें रयीश लोग गाँवों और कस्बों में शांतिपूर्वक रहते हैं। महानगरों और राजधानियों में नहीं पढ़े लिखे हों, शास्त्र साहित्य, संगीत, उपवन, पशुपालन आदि में रुचि रखते हों, विज्ञान उनका अनुचर हो। अपराधियों की आँखें चौधियाने, उन्हें निष्क्रिय बनाने के नवीनतम वैज्ञानिक प्रज्ञानिःसृत उपकरण हों। ऐसे आदर्श प्रदेश को देखकर बड़े-बड़े सत्ताधारी चमत्कृत होते हैं। उपन्यास बारह खंडों में विभक्त है। इसमें संख्यांकन द्वारा खंड विभाजन है, अलग-अलग शीर्षक नहीं दिये गये हैं। ४५६ गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य रामकिशोर मिश्र लिखित “विद्योत्तमा”, “अन्तर्दृष्टि” आदि की जानकारी भी मिली है। राजस्थान के युवालेखक उमेश शास्त्री “मधु” के लिखे उपन्यास भी अधुनातन शैली में निबद्ध हैं। उन्होंने कथावस्तु चाहे मध्यकालीन इतिहास के सुप्रसिद्ध पात्रों की ली हो, किन्तु कथोपकथन, परिवेशचित्रण और घटनाक्रम का निवेश सहज सरल और जीती-जागती शैली में किया है। उनका उपन्यास “बिल्वमंगलम्” इस नाम के प्रसिद्ध भक्त की प्रेमकथा पर आधारित है। कृष्णवेणी नदी के तट के एक छोटे से गाँव के निवासी पं. रामदास के पुत्र बिल्वमंगल का प्रेम चिन्तामणि नाम की वेश्या से किस प्रकार हो जाता है, उसके न्यक्कार के फलस्वरूप बिल्वमंगल को भौतिक मोहावेश से विरक्ति हो जाती है, वह स्वयं अपने नेत्र फोड़ लेता है और भक्तिरस में आकंठ डूब जाता है, इस घटना को उपन्यास का रूप देकर उन्होंने १६८६ में इसे जयपुर से प्रकाशित किया है। उमेशशास्त्री मूलतः हिन्दी में भी कथाएँ और उपन्यास लिखते रहे हैं। उनके कुछ उपन्यासों और कहानियों का संस्कृत अनुवाद भी हुआ है। कुछ का उन्होंने स्वयं किया है, कुछ का अन्य विद्वानों ने। ऐसा ही एक उपन्यास है “रसकपुरम्”। इसका कथानक जयपुर राज्य की एक मध्यकालीन घटना पर आधारित है। जयपुर के मुगलकालीन राजा जगतसिंह का प्रेम रसकपूर नामकी नृत्यांगना से हो जाता है। वे अपना सबकुछ उस पर न्यौछावर कर देते हैं- उसे आधा राज्य तक देने का निर्णय कर लेते हैं। अन्तःपुर के और सामन्तों के षड्यंत्रों के बावजूद रसकपूर का वर्चस्व वर्षों तक पूरी रियासत पर रहता है, किन्तु धीरे-धीरे षड्यंत्रकारियों की योजनाएँ सफल हो जाती हैं और रसकपूर को नजरबन्द कर दिया जाता है। उसे दयनीय स्थितियों में जीवन के अन्तिम दिन बिताने होते हैं। हिन्दी में श्रीउमेश शास्त्री के लिखे इस उपन्यास का अनुवाद “रसकपूरम्” नाम से पं. मोहनलाल पांडेय ने किया है। होने को तो यह अनुवाद है किन्तु यह शैली, वाक्यविन्यास और वर्णन-प्रसंगों में पूर्णतः मौलिकता लिये हुए है। कथा का आधार-पात्र लेकर श्री पांडेय अपनी ललित और अलंकृत शैली में वर्णनों को कलात्मक विस्तार देते हैं- वाक्यों का विस्तार कर उन्हें अलंकृत संस्कृत गद्यकाव्य का सा रूप देते हैं तथा कहीं-कहीं पधों को गद्यकाव्य का सा रूप देते हैं और कहीं-कहीं पद्यों का भी समावेश कर देते हैं। श्रीपांडेय मूलतः संस्कृतकवि हैं। भाषा पर उनके अधिकार और काव्यरचना-कौशल का प्रमाण इस उपन्यास में स्थान-स्थान पर मिलता है। यह उपन्यास भी बीसवीं सदी के अन्तिम दशक में जयपुर से प्रकाशित हुआ है। जयपुर के कथाकार गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री ने रविठाकुर के “चोखेर बाली” का अनुवाद “उद्धेजिनी’ शीर्षक से और चतुरसेन शास्त्री के “वैशाली की नगरवधू” का अनुवाद “आम्रपाली” नाम किया था ऐसी जानकारी मिली है किन्तु ये प्रकाशित नहीं हैं। राजस्थान में फतेहपुर के वैद्य शंकर लाल शर्मा कवि के रूप में सुपरिज्ञात और समादृत हैं। इनका उपन्यास “शशिप्रभा” एक अलग पहिचान रखता है। यह उपन्यास, वर्णनात्मक निबन्ध, विमर्शात्मक गद्यकाव्य और चम्पूकाव्य सभी का समन्वय प्रतीत होता है। मूलतः इसकी कथावस्तु सेठ कृपासागर, उसकी पत्नी शशिप्रभा और उसके पुत्र रवि पर ४६० आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास आधारित है तथा विदेश में जाकर उसके डाक्टरी में निष्णात हो जाने तथा सेठ माणिक्यचन्द्र की पुत्री रमा से इसके विवाह की घटना के सूत्र पर अवलम्बित है। किन्तु इस कथासूत्र के साथ कश्मीरवर्णन, षड्ऋतुवर्णन, विवाह, समारोह-वर्णन आदि काव्यात्मक गद्यपद्य निबद्ध वर्णनों तथा सेठ कृपासागर द्वारा अपने पुत्र को दिये जा रहे पुरुषार्थ चतुष्टय, वर्णाश्रम, धर्माचरण की प्रक्रिया आदि के उपदेशों को गुम्फित कर लेखक ने इसे एक नया ही रूप दे दिया है और इसे गद्यकाव्य कहा है। कुल मिलाकर इसे उपन्यास विधा की ही रचना माना जाएगा। जयपुर से १६८५ में प्रकाशित यह उपन्यास संस्कृत कवियों द्वारा लिखे जा रहे गद्य का प्रतिनिधि नमूना प्रस्तुत करता है जिसमें उनकी अलंकृत शैली और काव्यात्मकता सहज रूप से गुथी रहती है। ऊपर के अनुच्छेद में “रसकपूरम्” आदि उपन्यासों की जो शैली संकेतित है उसी मार्ग पर ऐसे उपन्यास बड़ी संख्या में इस सदी मैं लिखे गये हैं।

विश्वनारायण शास्त्री

दूसरी ओर कुछ ऐसे उपन्यास हैं जिनमें संस्कृत भाषा परिमार्जित होते हुए भी काव्यात्मकता बहुत सीमित रखी गई है। घटना, परिवेश, चरित्रचित्रण और कथोपकथन उपन्यासोचित हैं। ऐसा एक उपन्यास है “अविनाशि” जिसके लेखक हैं आसाम के सुप्रथित विद्वान् विश्वनारायण शास्त्री। इस पर उन्हें केन्द्रीय साहित्यअकादमी का साहित्य पुरस्कार (संस्कृतभाषा) भी मिल चुका है। यह आसाम के (प्राग्ज्योजिष के) हर्षकालीन राजा भास्कर वर्मा को नायक बनाकर लिखा गया ऐतिहासिक उपन्यास है। भास्करबर्मा के पिता सुस्थितवर्मा के समय आसाम (कामरूप) पर गौड़ों का आक्रमण हुआ था। उसके पुत्र सुप्रतिष्ठित वर्मा और भास्कर वर्मा थे। बड़े भाई के निधन के कारण भास्कर वर्मा ६०१ ई. में सिंहासन पर बैठा। वह विवेकी और प्रतापी था। थानेश्वर नरेश प्रभाकर वर्धन के ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन (राज्यश्री का भाई) मालव विजय के लिए रवाना होता पर गौड राजा उसे षड्यन्त्रपूर्वक मरवा डालता है और ६०६ ई. में हर्षवर्धन थानेश्वर की गद्दीपर बैठता है। इस हर्षवर्धन से सन्धि कर उसके सहयोग से किस प्रकार भास्कर वर्मा गौडों पर चढाई करता है, उन्हें खदेड़ देता है, स्वयं उनकी भूमि पर आधिपत्य स्थापित करता है, विद्वानों को दान देता है, हर्षवर्धन द्वारा कान्यकुब्ज में भी उसका ससम्मान स्वागत किया जाता है, आदि घटनाओं पर लिखा यह उपन्यास आधुनिक उपन्यासों की शैली में अलंकत वर्णनों और काव्यात्मक अतिरंजनाओं से बचते हुए लिखा गया है। लेखक ने स्वयं भी यह दावा किया है कि यह आधुनिक निखालिस उपन्यास शैली में लिखा गया है। यद्यपि भूमिका में उसने स्वयं इस पर हर्षचरित का प्रभाव स्वीकार किया है। यह प्रभाव कथात्मक भी हो सकता है और शैलीगत भी। वैसे उपन्यास में कथोपकथन सजीव और सहज बन पड़े हैं। लम्बे अलंकृत वाक्य न होकर कथानक और परिवेश को बनाने वाले छोटे प्रवाहमय वाक्य हैं। लेखक असमिया और अंग्रेज़ी में लिखता रहा है तथा पारस्परिक अनुवादकार्य करता रहा है।

गणेशराम शर्मा

जयपुर के गणेशराम शर्मा के तीन उपन्यास सुविदित हैं- “जीवतोऽपि प्रेतभोजनम्” ४६१ गय-साहित्प/चम्पूकाव्य “मूढचिकित्सा” और “मामकीनो जीवनसंघर्षः”। इनमें अन्तिम तो लेखक की आत्मकथा ही है जिसे उपन्यास न कहकर आत्मचरित या आत्मकथा कहना ही उपयुक्त होगा। शेष दो उपन्यास हैं। “जीवतोऽपि प्रेतभोजनम्” को लेखक ने एक सत्य घटना पर आधारित बनाया है। यह सात परिच्छेदों में विभक्त है और सामाजिक कथावस्तु और रुढिग्रस्त मानसिकता पर प्रहार इसके नाम से ही स्पष्ट हो जाता है। मृत्युभोजों की खडि के कारण किस प्रकार अनेक परिवार ऋणग्रस्त या बर्बाद हो जाते हैं इसे स्पष्ट करते हुए लेखक ने ऐसी घटना चनी है जिसमें मध्यवित्त रुढिग्रस्त परिवार के एक सदस्य की मृत्यु की सूचना आ जाने पर ग्राम के पंच और बान्धव उसकी मुक्ति के लिए मृत्यु भोज आवश्यक बनाते हैं। कोई साधन न होने के कारण उसके बहनोई आदि मिलकर उसके गरीब पिता की जिसका निधन पहले ही हो चुका होता है, सारी संपत्ति बेचकर प्रेतभोजन कराते हैं, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि उसकी मृत्यु की खबर झूठी होती है। वह अन्ततः गाँव लौटता है और पाता है कि उसके पास अब जीने का कोई सहारा नहीं बचा है, सारी संपत्ति बिक चुकी है। और अधिक आश्चर्य की बात यह होती है कि बहनोई को ज्ञात होता है कि वह मरा नहीं है पर वह गाँव से यह छिपाता है। अब उस तथाकथित “जीवित प्रेत” के पास आक्रोश के अलावा और कोई चारा नहीं रहता। उपन्यास यहीं समाप्त हो जाता है। यह गुरुकुलपत्रिका में धारावाहिक प्रकाशित हुआ था (वर्ष २२ अंक ७,८,९,१० मार्च-जून १६७०)। इसमें रुढ़ियों पर प्रहार का उद्देश्य सफल हुआ। मृत्यु भोज की रुढि के साथ लेखक ने यह भी चित्रित किया है कि मृत्युभोज पर प्रतिबन्ध होने के कारण प्रशासन और पुलिस ने उसे रोकना भी चाहा था पर उसी बिकी संपत्ति में से रिश्वत देकर आयोजक राजकीय प्रतिबंध से बचे रहे। । “मूढचिकित्सा” उपन्यास २१ प्रकरणों में विभाजित है। इसमें भी घटनावैचित्र्य मिलता है। मूढतापूर्वक पहले इलाज कैसे किया जाता था इसके अनूठे तरीके बतानेवाली घटनाओं के साथ-साथ शिक्षाप्रद सन्देश भी अन्त में निष्कृष्ट होता है। लेखक की एक कहानी इसी शीर्षक से प्रकाशित है। उसके आधार पर यह उपन्यास लिखा गया है। इसमें अर्धदग्ध गंवार तांत्रिक और ओझा रोगों के इलाज के नाम पर किस प्रकार टोने-टोटके करके लोगों को पीड़ित किया करते थे यही आधारभूत कथावस्तु है। औषध प्रयोग की बजाय टोने-टोटके करने यहाँ तक कि अच्छे भले पढ़े लिखे व्यक्ति को भी झाड़-फूंक और गर्म सलाखों से दागने तक की पीड़ा देने में उसके अन्धविश्वासी ग्रामीण संबंधी नहीं हिचकते यह सब इसमें वर्णित है। आधुनिक शैली के सशक्त उपन्यासों के उल्लेखनीय सर्जक के रूप में हसूरकर परिवार ने भी चिरस्मरणीय लेखन किया और वह श्रृंखला अब भी चल रही है यह हर्षप्रद है। प्रसिद्ध विद्वान् श्रीपाद शास्त्री हसूरकर विख्यात सर्जनात्क लेखन के धनी भी थे यह सुविदित है। उन्होंने अन्य विधाओं की कृतियों के साथ-साथ गद्यग्रन्थ भी लिखे हैं।

रुद्रदत्त पाठक

(जन्म-१६१७) बिहार के वर्तमान औरंगाबाद जिला के प्रसिद्ध “देव” ४६२ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास ग्राम के निवासी थे गया तथा कलिकाता में सुगृहीतविद्य स्व. पाठकजी द्वारा लिखित “भारतीय रत्नचरितम्” का प्रकाशन १६६२ में तथा द्वितीय सं. का प्रकाशन १६८३ में हुआ। (प्रकाशक श्री विष्णुप्रकाशन, देव, औरंगाबाद बिहार) इसमें सप्तम वैवस्वत मनु से लेकर १६४७ तक के भारत की प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं का संक्षिप्त किन्तु काव्यात्मक वर्णन किया गया है। इसकी घटना-प्रधानता के कारण इसमें लेखक का कवित्वपक्ष दब गया है, फिर भी भाषा विषय के उपयुक्त होने के कारण उद्वेजक नहीं है। राष्ट्रीय भावना से भरी यह रचना पठनीय तो है ही, साथ ही संस्कत के प्रवर्तमान गद्य लेखकों के लिए बहत कुछ अनुकरणीय भी है।

दुर्गादत्त शास्त्री

ग्राम नलेटी, तहसील देहरा जिला कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) के निवासी हैं। अनेक रचनाओं जैसे राष्ट्रपथप्रदर्शनम् (काव्य), तर्जनी (काव्य), मधुवर्षणम् (काव्य), वत्सला (नाटक), तृणजातकम् (एकाकी) तथा लघुकृतियों, छायाविलासः, अनारकली, रेलमंत्री के रचनाकार शास्त्री जी की उपन्यास रचना ‘वियोगवल्लरी’ का प्रकाशन १९८७ में हुआ। उसकी कथावस्तु मौलिक, किन्तु प्राचीन कथाओं की शैली में निबद्ध है, जिसमें कथानक-रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है। लेखक के अनुसार “लुप्त हो रही भारतीय संस्कृति, हमारी प्राचीन सभ्यता एवं राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की एक वेदना का परिणाम ही यह संस्कृत गद्यकाव्य है।”

श्रीनाथ हसूरकर (१९२४-१९८८, मध्य प्रदेश)

“संस्कृतभारतनररत्नमाला” नाम से ख्यात ग्रन्थ श्रृंखला के प्रणेता श्रीपाद शास्त्री हसूरकर (जन्म १८८२) के सुयोग्य पुत्र श्रीनाथ हसूरकर की आरम्भिक शिक्षा इन्दौर में हुई। मध्य प्रदेश के शासकीय संस्कृत महाविद्यालय, नीमच में ये प्राचार्य रहे। इन्होंने संस्कृत में गद्यलेखन १६७२ से आरम्भ किया। इनके कई ऐतिहासिक उपन्यास प्रकाश में आये -अजातशत्रुः (श्रीलाल बहादुरशास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ नई दिल्ली से १८८४ में प्रकाशित), सिन्धुकन्या (लेखक द्वारा नीमच से स्वयं प्रकाशित, १६८२), प्रतिज्ञापूर्तिः (उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी, लखनऊ से १९८३ में प्रकाशित) दावानलः (उत्तर प्रदेश सं. अकादमी, लखनऊ से १६६१ में प्रकाशित)। इनके अतिरिक्त उन्होंने ‘चेन्नमा” और “व्रती” लिखे। चेन्नमा उपन्यास क्रमशः “दूर्वा” (मध्य प्रदेश संस्कृत अकादमी की पत्रिका) में छपा। ‘सिन्धुकन्या" पर हसूरकरजी को “साहित्य अकादमी” पुरस्कार प्राप्त हुआ। “प्रतिज्ञापूर्ति” में चाणक्य की दो प्रतिज्ञाओं-भारत से यवनों का निष्कासन एवं नन्दवंश का समूल विनाश, की पूर्ति की कथा वर्णित है। यहाँ पहली की अपेक्षा दूसरी प्रतिज्ञा को प्रमुख लक्ष्य मानकर कथावस्तु का विस्तार किया गया है। यह २२ परिच्छेदों में विभक्त है। लेखक ने ऐतिहासिक कथावस्तु में कल्पनाप्रसूत प्रसंगों को भी अनुस्यूत किया है। इसमें तत्कालीन राजनैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक परिस्थितियों का चित्रण रोचक है। संस्कृत भाषा पर लेखक का अधिकार है। कथा-नायक चाणक्य राजनीति तथा कूटनीति में गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य ४६३ निपुण है, तथापि भोग-विलास से सर्वथा निर्लिप्त है, वह दृढप्रतिज्ञ, कर्मठ और विहिताविहित उपायों का प्रयोक्ता है। उसके चरित्र का चरम उत्कर्ष उपन्यास के अन्त के इस कथन से अभिव्यक्त हो जाता है एवञ्च पूर्णप्रतिज्ञस्य मम मानसं पुनरपि निवृत्तिमार्गमनुसतुं व्याकुलम् । महान खलु अतीतः कालः पापैर्यवनैर्विध्वंसितं तदाश्रमपदं परित्यज्य प्रतिज्ञापूर्त्यर्थं देशाद् देशान्तरं प्रवसतो मम। आचार्यचरणानां तां चरमामाज्ञां पालयितुमहर्निशं प्रयतमानेन मया ऽवधीरितः श्रेयस्करो निवृत्तिमार्गः। स्वीकृतः क्लेशबहुलः प्रवृत्तिमार्गः । आश्रितः कपटकुटिलो राजनीतेर्मायावी पन्थाः । प्रदर्शितश्च दुष्टसांसारिकपुरुषवत् अन्यविनिपातने स्वबुद्धिविलासप्रकर्षः । दिष्ट्या सुष्टु परिणतं सर्वम् । इत ऊर्ध्वमपि राजनीतिमार्गमिममशान्तिसकर दुर्नीतिबहुलमनुसतुं तु नेच्छति ममान्तरात्मा। निर्विण्णोऽस्मि विश्वासघातिभिरेतैः शाठ्यबहुलैः राजनैतिकव्यापारैः । शमधना वासनाविजयमेव विजयमनुत्तमं मन्यमाना अस्मादृशा आश्रमवासिनः क्व, क्व चायं समुद्वेगकारीयोदनः चिन्ताकुलो मार्गः। दिष्ट्या प्रतिपन्नमेवायुष्मता यावनसङ्कटस्य मूलतो विनाशनमार्यसंस्कृते रक्षणञ्च। तत् श्व एव ब्राझे मुहूर्ते प्रतिज्ञापूर्त्यर्थं किञ्चित्कालपर्यन्तमुग्झितं निवृत्तिपथमनुसतुं बर्न शान्तं यास्यामि। (पृ.१६८) (इस प्रकार मैंने प्रतिज्ञा पूरी कर ली, फिर मेरा मन निवृत्ति के मार्ग पर चलने के लिए व्याकुल है। पापी यवनों द्वारा नष्ट किये गये शान्त उस आश्रम-पद को छोड़, प्रतिज्ञापूर्ति के लिए देश-देशान्तर में भटकते मेरा अधिक समय बीत गया। आचार्य चरण की उस अन्तिम आज्ञा के पालन के लिए दिन-रात प्रयत्न करते हुए मैंने कल्याणकारी निवृत्ति के मार्ग की उपेक्षा की, क्लेश से भरा प्रवृत्ति का मार्ग पकड़ा, कपट से टेढे राजनीति के मायावी मार्ग का आश्रयण किया, दुष्ट सांसारिक व्यक्ति की भाँति दूसरों को गिराने में अपनी वृद्धि का प्रकर्ष दिखलाया। भाग्य से परिणाम अब अच्छा हुआ। इसके बाद भी, मेरी अन्तरात्मा अशान्ति से ग्रस्त, दुर्नीति से भरे इस राजनीति के मार्ग पर चलना नहीं चाहती। शम के धन वाले, वासना पर विजय को ही श्रेष्ठ मानते हुए हम जैसे आश्रमवासी कहां और यह ईर्ष्या से उदग्र, समुद्वेग उत्पन्न करने वाला, चिन्ताकुल मार्ग कहाँ ? सो कल ही ब्राह्म मुहूर्त में, प्रतिज्ञा-पूर्ति के लिए कुछ काल तक छोड़े निवृत्ति मार्ग पर पुनः चलने के लिए शान्त वन के लिए प्रस्थान करूंगा।) दावानल (उपन्यास) में सोलह परिच्छोदों में सोमनाथ मन्दिर के ऊपर महमूद गजनवी के आक्रमण तथा वहां की स्थिति का सामना करने के लिए राजा जयपाल द्वारा प्रयुक्त प्रभावकारी कदम का वर्णन है। इसमें जयपाल, उसके पुत्र आनन्दपाल और पौत्र सुखपाल, त्रिलोचनपाल तथा धर्मपाल की वीरता एवं कूटनीति का वर्णन उपलब्ध होता है। लेखक ने महमूद की महत्त्वाकांक्षा का वर्णन करते हुए कहा है कि वस्तुतः वह अपनी आकांक्षाओं का दास था। उसकी लोकेषणा और वित्तेषणा की कोई सीमा न थी, उसमें पाप-पुण्य का कोई विवेक न था, सिंहासन-प्राप्ति के हेतु अपने भाई इस्माइल के साथी भी छल-बल का प्रयोग करने में उसे कोई संकोच नहीं था।आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास हम कह सकते हैं कि हसूरकर जी को प्रायः उनकी सभी रचनाओं में शिल्प और कथ्य, दोनों दृष्टियों से सफलता मिली है।

सत्यप्रकाश सिंह

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में आचार्य रहे। इनका वैचारिक ग्रन्थ ‘अरविन्ददर्शनम्’ प्रकाशित है तथा इनका उपन्यास ‘गुहावासी’ १६६१ में मेहरचंद लछमनदास प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ। ओमानन्द रचनाकार का सहाध्यायी है, जो बचपन से विषय से निवृत्त चित्त का है, काशी में अध्ययन करते हुए वह अकस्मात् संन्यास लेकर कहीं चला जाता है। वह रचनाकार को भ्रमण के प्रसंग में हिलालय की एक गुहा में मिलता है। यहाँ यथार्थ-बहुल जीवन-सत्य का अन्वेषण रचनाकार का अभिप्रेत है। पूरी रचना प्रतीक रूप है। यहां वर्णित गुहा मानव के अन्तःपुर की गुहा को संकेतित करती हैं। उपन्यास की भाषा ललित-मधुर है।

श्याम विमल

इनका उपन्यास ‘व्यामोही’ सूर्य-प्रकाशन, दिल्ली से १६E9 में प्रकाशित हुआ। लेखक ने इसे पहले हिन्दी में लिखकर स्वयं संस्कृत में लिखा है। बंगला साहित्य के उपन्यासकार श्रीशरच्चन्द्र की भावुकता का लेखक श्याम विमल पर पुष्कल प्रभाव लक्षित होता है उनकी यह ‘आत्मकथा’ नारी के इर्दगिर्द प्रवाहित है। मनःस्थितियों के चित्रण में लेखक सफल है। हिमालय की उपत्यकाएँ, बदरिकाश्रम तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्र इसकी कथावस्तु के अन्तर्गत आते हैं।

श्रीकान्त आचार्य

(कुकरेती) द्वारा लिखित ‘प्रतापविजयः’ उपन्यास पन्द्रह निःश्वासों में निबद्ध है तथा १६६३ नागपब्लिसर्स, जवाहर नगर, दिल्ली से प्रकाशित है। महाराणा प्रताप के जीवन पर आधारित यह उपन्यास पं. अम्बिकादत्त व्यास के उपन्यास ‘शिवराज विजयः’ को स्मृतिपथारूढ करने वाला है, फिर भी इसकी अपनी विशेषताएँ हैं, इसकी भाषा सम्मार्जित तथा प्रवाहमयी है, अतः इसे पढते हुए ‘ऊब नहीं होती, यह एक पठनीय ऐतिहासिक उपन्यास है।

कृष्णकुमार (जन्म १९२५, उत्तर प्रदेश)

मुरादाबाद में जन्मे तथा गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय में अध्ययन सम्पन्न करके कृष्णकुमार जी उत्तर प्रदेश के विभिन्न राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालयों में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए। इनके दो उपन्यास ‘उदयनचरितम्’ (द्वि. सं. १६८२) और ‘तपोवनवासिनी’ मयंक प्रकाशन, मिश्राबाग, हनुमनगढ़ी कनखल, हरिद्वार, १६E४ से प्रकाशित हुए। जैसा कि “उदयनचरितम्” नाम से विदित हो जाता है, प्रसिद्ध वत्सराज उदयन और वासवदत्ता की कथा पर आधारित यह उपन्यास रचनाकार के अनुसार, सहृदयों के मनोरंजन के लिए प्रस्तुत है। उन्होंने कथासरित्सागर आदि विभिन्न स्रोतों से प्राप्त उदयन-चरित का समन्वय करके प्रस्तुत गद्यकाव्य का विन्यास तो किया ही है, फिर भी इसकी चरम परिणति लेखक की कल्पना-प्रसूत है। गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य दूसरी कृति “तपोवनवासिनी” में शाकुन्तलीय कथा को आधुनिक उपन्यास विधा में प्रस्तुत करने का कृष्ण कुमार जी का प्रयास इस अंश में विशेष स्तुत्य है कि नारी के स्वाभिमान को यहाँ उन्होंने शकुन्तला के माध्यम से प्रतिष्ठापित किया है। संस्कृत के क्षेत्र में प्राचीन कथा को पुनरुक्त करने का पहले भी प्रयास किया गया है, जैसे लक्ष्मणसूरि का श्रीभीष्मविजयम् । श्रीकृष्णकुमार पर प्राचीन कथाकारों बाणभट्ट आदि की शैली का प्रभाव लक्षित नहीं होता, यह प्रसन्नता की बात है, प्रवाहमयता को बहुत कुछ सुरक्षित रखने वाली संस्कृत के लेखन में इन्हें बहुत कुछ सफलता मिली है।

हरिनारायण दीक्षित

(जन्म १९३६ उत्तर प्रदेश) जिला जालौन के ग्राम पड़कुला में जन्मे दीक्षितजी कुमायूं विश्वविद्यालय, नैनीताल में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष हैं। इनके द्वारा लिखित “गोपालबन्धुः। ईस्टर्न बुकलिंकर्स, दिल्ली-७ से १६८८ में प्रकाशित हुआ। इस कथाकाव्य में एक ऐसे बालक के चरित को अभिव्यक्ति मिली है, जो बहुत ही कम उम्र का है, पिछड़ी जाति में पैदा हुआ है, पिता की छत्रछाया से वञ्चित है और निर्धन तथा वृद्ध माता की इकलौती सन्तान है। वह मातृकल्पनाकल्पित गोपाल नामक अपने अग्रज की सत्ता पर पूर्णतया विश्वास कर लेता है। फलस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को उसका गोपालनामक बड़ा भाई तथा राधा को उसकी भाभी बनकर उसका साथ देना पड़ता है। (काव्यपरिचय) भाषा के रोचक, किन्तु प्राचीन बाणभट्टीय शैली से प्रभावित होने के साथ भावुकता के आधार पर बुना गया कथा-पट आधुनिक मन तक सम्प्रेषित होने में समर्थ नहीं लगता। इस कारण इस रचना का कथ्य भले ही किसी भगवद्भक्त के मन को मुग्ध कर दे बुद्धिवादी आधुनिक पाठक को प्रभावित नहीं कर सकता।

रामशरण त्रिपाठी शास्त्री (१९०५-१९७७)

उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के एक ग्राम ‘मरका’ में जन्मे शास्त्री जी संस्कृत के एक समर्पित तथा परिनिष्ठित एकान्त साधक थे। श्रमपूर्वक अध्ययन के पश्चात् उन्होंने विभिन्न पाठशालाओं तथा कालेजों में अध्यापन किया और अन्तिम दिनों में प्रयाग में निवास किया। उनकी दो गद्य-रचनायें प्रकाश में आयी हैं-कौमुदीकथाकल्लोलिनी (चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी १६६१), और व्याकृतिवत्सराजम् (श्रीगङ्गानाथ झा केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, इलाहाबाद, १६८६)प्रथम ग्रन्थ भट्टि काव्य के आदर्श पर वैयाकरण सिद्धान्तकौमुदी के क्रम को लक्ष्य बनाकर कथासरित्सागर के नरवाहनदत्तवृत्तान्त में सूत्रों के दृष्टान्त (प्रयोग) अनुस्यूत करते हुए निर्मित एक प्रौढ़ रचना है। रचनात्मक साहित्य के रूप में इस रचना का मूल्य भले ही कम हो, पर उपयोगिता की दृष्टि से तथा एक प्रकार के चमत्कार का अनुभव कराने वाली रचना के रूप में इसे अधिक प्रतिष्ठा मिली। पं. श्रीनिवासशास्त्री ने अपने संस्कृत उपन्यास ‘सूर्यप्रभा किंवा वैभवपिशाचः में इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में यह आर्या लिखी दीक्षितपदानुयाता व्याकरणक्षीरपूरिता वितता। कल्लोलिनी सुललिता हाह्या रामशरणस्य।। ४६६ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास शास्त्री जी की दूसरी गद्यरचना भी उक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए रचित है। इसमें चार विलास हैं, १. कारक निर्देशात्मक, २. समासस्त्रीप्रत्ययनिर्देशात्मक, ३. ससासतद्धित निर्देशात्मक और ४. कृदन्तनिर्देशात्मक। यह संस्कृत एम.ए. कक्षा के छात्रों के उपयोग में आने वाले अध्यायों को आधार बनाकर प्रस्तुत है। इसमें वासवदत्ता के साथ विवाह तक का आख्यान है। शास्त्रीजी के इन ग्रन्थों में यत्र तत्र उनकी प्रखर कवित्व प्रतिभा का भी परिचय मिलता है, जैसे इस प्रयोग में-“अविरलगलन्मधुमञ्जरीपुञ्जपिन्जरितसरससहकारवन निकुञ्जपुजितपक्षिकुलकलरवरमणीये क्रीडोहाना………।। (क.क.पृ. १०६), “अपि दद्याद् दयोदन्वान् दीननाथो दीनाया मे दयमानो दयितेन मदीयेन सङ्गतिम्” (वही, पृ. ११४), ‘व्याकृतिवत्सराजम्’ शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार समझी जानी चाहिए-“व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा अनया विद्यया इति व्याकृतिः, वत्सराजमधिकृत्य कृतमाख्यानं वत्सराजम् व्याकृतेर्बोधक तच्च वत्सराजम् इति व्याकृतिवत्सराजम् ।

आत्मकथा-शैली का उपन्यास

जयपुर के कलानाथ शास्त्री (जन्म १६३६) ने आत्मकथा शैली में एक उपन्यास लिखा है “संस्कृतोपासिकाया आत्मकथा”, जिसमें प्रारंभ से ही संस्कृत शिक्षा लेने वाली एक युवती का पूर्वराग अपने संस्कृताध्यापक युवक से हो जाने, उस युवक के नगर छोड़ जाने किन्तु बाद में आई.ए.एस. परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रशासनिक सेवा में आ जाने और अनजाने ही उसी युवक से उसका विवाह हो जाने की घटना वर्णित है। यह उपन्यास ‘कथानकवल्ली” संकलन में राजस्थान संस्कृत अकादमी द्वारा प्रकाशित है। इसमें उस युवती द्वारा आत्मकथा-शैली में स्मृत्यालोक (फ्लैश बैक) के रूप में अपनी प्रेमकथा लिखी गई है, इस आधारभूमि को लेकर आधुनिक परिवेश और सामाजिक स्थितियों का चित्रण है। इस उपन्यास में संस्कृत के अध्येता के जीवन में कालिदास तथा अन्य वरेण्य साहित्यकारों की कृतियों का मानस पर पड़ने वाला प्रभाव भी मनस्तात्त्विक विश्लेषण की दृष्टि से अनुस्यूत है यद्यपि कहीं भी मनौवैज्ञानिक मीमांसा जैसी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई हैं। जीवन की स्थितियों में कभी कालिदास की, कभी भवभूति की कोई उक्ति किस प्रकार सटीक बैठती है, इसकी स्मृति आना उसके अध्येता के लिए स्वाभाविक ही है। उसी का संकेत या उद्धरण स्मृत्यालोक के साथ सहज रूप में समाविष्ट हो जाता है। युवक अध्यापक और किशोरी छात्रा का पूर्वराग एक झीने से आकषर्ण के रूप में चित्रित है, कहीं कोई निकट संपर्क नहीं होता। विवाह के अनन्तर नायिका को मसूरी में नायक अपने जीवन के उतार-चढ़ाव की कथा कहता है कि किस प्रकार संघर्ष कर वह प्रतियोगिता परीक्षा में सफल हुआ और किस प्रकार उसके पिता ने कन्या के पिता से यह संबंध तय कर लिया। संस्कृत साहित्य का अध्ययन दोनों के जीवन का ऐसा संपर्कसूत्र रहता है जिसके कारण उनका गय-साहित्य/चम्यूकाव्य परस्पर परिचय प्रारंभ में होता है। उसी के कारण दाम्पत्य जीवन में भी उनका घनिष्ट स्नेह और सद्भाव बना रहता है। ३५ पृष्ठ की यह उपन्यासिका शैली और परिवेश के क्षेत्र में एक नये प्रयोग के रूप में देखी जा सकती है।

अलंकृत शैली की परंपरा

बाणभट्ट की अलंकृत शैली की यय संस्कृत साहित्य पर इतनी गहरी है कि कादम्बरी की सी समस्तपदघटित अलंकारयक्त लम्बे वाक्यों की लडी में गद्यरचना करने वाले उपन्यासकारों की कला प्रत्येक दशक में एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया बन गई है। उसी प्रकार की काल्पनिक प्रेमकथा (जिसे रोमेन्स कहा जाता है अंग्रेजी साहित्य में) भी सदा से कथावस्तु के रूप में अपनाई जाती रही है।

जग्गु बकुलभूषण

जग्गू बकुलभूषण ने वर्षों पूर्व “जयन्तिका” उपन्यास लिखा था जिस पर कादम्बरी की छाप स्पष्टतः देखी जा सकती है। श्री जग्गू बकुलभूषण पुरानी पीढ़ी के मूर्धन्य - साहित्यकार और चूडान्त विद्वान हैं अतः उनके स्तर की उत्कृष्टता और गुणवत्ता निर्विवाद है तभी “जयन्तिका” को वर्षों बाद जब १८८३ में पुरस्कृत किया गया तो नई पीढ़ी को एहसास हुआ कि काव्यशास्त्र के विमर्शकारजग्गू बकुलभूषण आज भी हैं और सर्जनरत हैं।

जगदीशचन्द्र आचार्य

राजस्थान के कवि गद्यकार जगदीशचन्द्र आचार्य ने भी कादम्बरी की शैली में ही उसी प्रकार की स्वमानी प्रेमकथा पर नायिका प्रधान उपन्यास ‘मकरन्दिका” लिखा है जो राजस्थान से १६८५ में प्रकाशित हुआ है। इस प्रकार के अलंकृत शैली के उपन्यासों में कादम्बरी की शैली का स्पष्ट प्रभाव किस प्रकार प्रतिफलित हुआ है इसके उदाहरण के रूप में मकरन्दिका का एक उद्वरण ही पर्याप्त होगा। “रुद्रसेनोऽतीव प्रसन्नमुखमुद्रः, शीतलसमीरणतरंगदोलायितनिजमानसतरंगः, पार्श्ववर्तिजीर्णभवनांगणे नृत्यकलारतं मयूरं दृष्ट्वा तन्नर्तनमुद्रा निरीक्षमाणः परां मुदं लेभे। नीलकंठकंठाश्लेषमेषितुकामा सकामा, प्रियतमालिंगन-प्रधावितपाणिलतायुगलाभिरामा रामेव, चंचुपुटसंवहनप्रकटीकृतप्रेमगरिमाऽन्योन्य दृगविरलप्रतिबिम्बितत्वेन प्रमथनाथानलदग्धवपुषोऽपि समस्तप्राणिमंडलानि सांगावयवकरणदक्षतया विवशीकुर्वतोऽनंगोपाधिमनर्थयतः स्मरस्य सायकजन्मोद्दीपनाकलितनृत्यभंगा मयूरपार्श्वे स्थिता मयूरी रतिरिव भ्राजमाना नरपतेश्चित्तपटले किमपि कामोद्दीपनं ससर्ज।” __इस उपन्यास में कादम्बरी की शैली में सुदीर्घसमासघटित लम्बे वाक्य, उपमा, विरोधाभास, परिसंख्या आदि अलंकारों की योजना, परिवेश और प्रकृति के वर्णन के अलंकृत परिच्छेद इत्यादि के प्रयोग से इसे बाणभट्ट की परंपरा का अंग बनाने का कवि का स्पष्ट प्रयास परिलक्षित होता है। बाणभट्ट की इस विरासत में भागीदारी की परंपरा सदियों से चल रही है और अब भी क्षीण नहीं हुई है, यह एक आश्चर्यजनक सत्य है। १. खेद है कि अब जग्गू बकुलभूषण जी नहीं रहे (सं.) आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास