०१ पृष्ठभूमि

विश्व की भाषाओं के साहित्य के इतिहास का आकलन करें तो यह तथ्य स्पष्ट होता है कि उनमें से अधिकांश के साहित्य के उद्भवकाल में पद्य साहित्य ही प्रमुखतः लिखा गया, गद्य साहित्य का उद्भव बहुत बाद में हुआ। इसके कारणों का विश्लेषण भी इतिहासकारों ने किया है और कुछ ऐसे बिन्दुओं का उल्लेख किया गया है जिनके कारण पद्यबद्ध साहित्य को ही वरेण्य माने जाने के फलस्वरूप वही साहित्य संरक्षित हो पाया, गद्य साहित्य उपलब्ध नहीं हुआ। पद्य के आसानी से हृदयंगम हो जाने तथा स्मृतिबद्ध हो जाने के कारण उसे अभिलिखित रखना तथा सुरक्षित रखना सुविधा से संभव था, पद्य साहित्य के संक्षिप्त तथा सुगठित होने के कारण वह पीढ़ियों तक रक्षित और संचित रहा, गद्य विलुप्त होता गया। ऐसे अनेक कारणों से प्राचीन भाषाओं (जिनमें ग्रीक, लैटिन, अवेस्ता आदि शमिल हैं) तथा अर्वाचीन भाषाओं (जिनमें अंग्रेजी जैसी पाश्चात्य तथा राजस्थानी, अवधी, मैथिली, गुजराती, बांगला आदि भारतीय भाषाएँ हैं) के साहित्येतिहास में प्राचीनतम प्रारंभिक युगों का पद्य साहित्य ही मिलता है, गद्य का विकास बाद में हुआ माना जाता है। इसके विपरीत संस्कृत में प्राचीनतम काल से पद्य और गद्य का प्रचुर साहित्य उपलब्ध है। वेदों का वाङ्मय पद्य और गद्य दोनों में निबद्ध है और प्राचीनतम काल से दोनों का साहित्य मिलता है। ऋग्वेद पद्यबद्ध है तो यजुर्वेद गद्य में। इनके काल में थोड़ा पौर्वापर्य भी मान लें तो यह तो फिर भी स्पष्ट है कि ऋग्वेद की ऋचाएँ कुछ समय पूर्व भी लिखी गई हों और यजुर्वेद का गद्य बाद में, तथापि हैं तो दोनों वैदिक काल के ही साहित्य । श्रौतसूत्र, धर्मसूत्र आदि भी पद्यबद्ध नहीं हैं, गद्य में हैं, यद्यपि उन्हें गद्य विधा में वर्गीकृत नहीं किया जाता। ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद्, आदि गद्यबद्ध हैं और उनका गध इतना परिपक्व, सुगठित और उच्चस्तरीय है कि वह आदिमकालीन या प्रारंभिक अवस्था का न होकर चरम, परिपक्व और विकसित अवस्था का परिलक्षित होता है। मध्यकाल में शंकराचार्य रामानुज, वल्लभ, आदि के भाष्यों का गद्य, इससे पूर्व पतंजलि के महाभाष्य का गद्य इसके स्पष्ट प्रमाण हैं कि संस्कृत में प्रत्येक युग में प्रभूत और प्रकृष्ट गद्य लेखन होता रहा हैं। उपर्युक्त गद्य साहित्य विमर्श और शास्त्रीय विचारणा का है यद्यपि उसमें साहित्यिक गुण भी अनेक स्थानों पर प्रत्यक्ष हैं। कथात्मक गद्य साहित्य भी संस्कृत में अतिप्राचीनकाल से उपलब्ध है। पंचतंत्र की कथाएँ विश्व के प्राचीनतम कथा-साहित्य में गिनी जाती हैं। आज जिस रूप में पंचतंत्र गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य उपलब्ध है वह हमारे प्राचीन संस्कृत कथा-साहित्य का नवीन और परिवर्धित रूप माना जाता है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि पंचतंत्र की कथाओं का उत्स जिस संस्कृत कथा-सागर से माना जाता है वह कितना प्राचीन होगा! लगता है पौराणिक उपाख्यानों तथा लोककथाओं का निबन्धन, पद्य और गद्य दोनों में होता रहा। गद्यबद्ध कथाओं का निदर्शन है पंचतंत्र, जिसमें सरल कहानी कहने की शैली में घटनाएँ तथा कथोपकथन निबद्ध हैं। साहित्यिक, अलंकृत (काव्यात्मक) गद्य साहित्य का इतिहास भी संस्कृत में बहुत पुराना है। सुबन्धु की वासवदत्ता कथा, दण्डी का दशकुमारचरित और बाणभट्ट का हर्षचरित एवं कादम्बरी इतिहास में सुविदित हैं। इसी प्रकार गद्यबद्ध कथासाहित्य संस्कृत में कम से कम ढाई तीन हजार वर्षों से मिलता है और जिसे साहित्यिक और अलंकृत गद्य का नाम दिया जाता है वह भी संस्कृत में कम से कम डेढ दो सहस्त्राब्दियों पुराना है। इन कथा ग्रन्थों की शैली इतनी परिपक्व है कि वह प्रारंभिक अवस्था की न होकर परिनिष्ठित और परिणत स्थिति की सिद्ध होती हैं जिससे यह अनुमान सहज ही हो सकता है कि इससे पूर्व भी उत्कृष्ट गद्य-कथा-लेखन की परम्परा रही होगी। कथा-लेखन की एक समृद्ध और चिरन्तन परम्परा तो लोक साहित्य के प्रभाव से पनपी जिसका प्रतिनिधित्व गुणाढ्य करते हैं। प्राकृतों के आख्यान-कथन की यह परंपरा कभी विक्रमादित्य के नाम से संबद्ध वैतालपंचविंशतिका’ की हृदयवर्जक कहानियों में, कभी सिंहासनद्वात्रिंशिका की कहानियों में परिलक्षित होती है तो कभी सामाजिक सबंधों को लेकर लिखी शुकसप्तति जैसी कथाओं में। मुगलकाल में यूसुफ जुलेखा जैसे प्रेमाख्यानों पर भी कथाकौतुकम् जैसी कहानियाँ लिखी गई थीं। नाटकों के कथोपकथन में तो गद्य सहस्त्राब्दियों से लिखा जा रहा है। हमारे नाटक गद्य और पद्य के समन्वित सहकार के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इस प्रकार शास्त्रीय लेखन में (विमर्शात्मक लेखन में), नाटकों तथा कथासाहित्य में जो संस्कृत गद्य मिलता है उसे आज की शब्दावली में इन तीनों विधाओं की गद्य-धारा के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त संस्कृत विद्वान् जो परस्पर पत्र व्यवहार करते थे या धार्मिक विवादों के अलावा विभिन्न धर्मशास्त्रीय समस्याओं के समाधानार्थ जो पंचनिर्णय होते थे उन्हें भी गद्य में अभिलिखित किया जाता है। बहुधा उस पर निर्णायक विद्वानों के हस्ताक्षर होते थे। इस " गद्य की शैली अनूठी और विशिष्ट होती थी। यही शैली प्राचीन और मध्यकालीन राजाओं के शिलालेखों और दानपत्रों में प्रयुक्त मिलती है। कुछ शिलालेखों और ताम्रपत्रों में तो काव्यात्मक और अलंकृत गद्य भी मिलता है जिसके अन्त में ‘स्वहस्तोयं मम भोजराजस्य’ आदि वाक्यांशों से हस्ताक्षर का उल्लेख कर उसे राजकीय अभिलेख का रूप दिया होता है। शिलालेखों, ताम्रपत्रों और निर्णयलेखों का यह गद्य एक पृथक् विथा मानी जा सकती है जो संस्कृत की अपनी है, किन्तु इस विधा का अनुवर्तन आधुनिक काल में नहीं हुआ ४३८ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास है अतः यह विधा मध्यकाल तक ही सीमित रह जाती है। पत्र-लेखन की विधा अवश्य ही निरन्तर अनुवर्तमान है और आज भी संस्कृत विद्वानों के आपसी पत्राचार में देखी जा सकती है। संस्कृत के गद्य साहित्य के इतिहास की यह पृष्ठभूमि स्पष्ट करती है कि गद्य की कुछ प्राचीन विधाएँ संस्कृत साहित्य के आदिकाल से ही मिलती हैं। संस्कृत गद्य की इस चिरन्तन धारा में युगानुरूप विकास भी हुआ है और तत्कालीन समाज, अन्य भाषाओं के साहित्य के साथ होने वाली अन्तःक्रिया तथा सर्जकों की प्रतिभा द्वारा नवीन आयाम स्थापित करने की अभिलाषा के फलस्वरूप नई विधाएँ भी विकसित हुई हैं। कादम्बरी जैसी प्राचीन कृतियाँ उपन्यास-विधा की पूर्वज तो हैं ही किन्तु आधुनिक उपन्यास की शैली में जो तत्त्व दृष्टिगत होते हैं उनकी कसौटी पर खरी उतरने वाली नई उपन्यास-विधा में भी आधुनिक काल में आते आते संस्कृत-लेखन हुआ है। लघुकथा की नवीन विधा संस्कृत में आधुनिक काल में पनपी है, ललित निबन्ध लिखे जाने लगे हैं, यात्रावृत्तान्त और फन्तासियाँ लिखी जाने लगी हैं, नई गद्य गीत शैली में लेखन हुआ है। आधुनिक काल में विधाओं के आयामों का यह विस्तार एक दृष्टि से अभूतपूर्व है और आधुनिक काल की विशिष्ट देन कहा जा सकता है। इससे पूर्व किसी भी युग में साहित्य-लेखन की इतनी विविध विधाओं, विशेषकर गद्य विधाओं का उद्भव संस्कृत में नहीं हुआ था। इसके कारकों की तलाश की जाए तो दो-तीन बिन्दु स्पष्टतः इस बहुआयामी विस्तार के कारणों के रूप में निर्धारित किये जा सकते हैं। निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाय तो इसका प्रमुख कारण है अन्य भारतीय व विदेशी भाषाओं के परिचय, आदान-प्रदान और पारस्परिक अन्तःक्रिया के फलस्वरूप उनके साहित्य में पनप रही नवीन उद्भावनाओं, विधाओं और शैलियों का सर्जनात्मक प्रभाव। आनुषंगिक कारण है कि इस पारस्परिक अन्तःक्रिया के फलस्वरूप आई एक पनर्जागति, देश में मद्रणयंत्रों के प्रसार के कारण सभी भाषाओं के साहित्य के प्रसार के फलस्वरूप साहित्य रचना का नवजागरण तथा नवयुगीन प्रवृत्तियों के अनुसार संस्कृत जगत् में पनप रही एक विश्वदृष्टि, जो व्यापकता लिए हुए है। इन सब कारकों का समन्वय कर नवचेतना का प्रसार करने का सर्वप्रथम माध्यम था संस्कृत पत्रकारिता का उदय, जो उन्नीसवीं सदी की देन था और जिसके कारण ही उपयुक्त समस्त कारक प्रभावी हो पाये। पत्रकारिता संभव हई मद्रणकला के प्रसार के कारण और पत्रकारिता से ही अन्य भाषाओं के साहित्य का परिज्ञान फैला, संस्कृत लेखक में सर्जनात्मक प्रवृत्ति बढ़ी, उसका लिखा पूरे देश में प्रसार और ख्याति पाने लगा, उसमें संकुचित दृष्टि की बजाय एक व्यापक दृष्टिकोण पनपा जो अन्य क्षेत्रों के उत्कृष्ट साहित्य का प्रभाव ग्रहण करने में हेठी नहीं समझता था, बल्कि विश्व के साहित्य में जहाँ कहीं जो भी कुछ उत्कृष्ट पाता था उसे अमरभाषा संस्कृत में अवतरित करना उसके साहित्य भांडागार को समृद्ध ४३ गद्य-साहित्य/चम्पूकाव्य करने का महनीय कार्य मान कर चलता था, हेय कार्य नहीं। पत्रकारिता ने इस युग में उद्गत संस्कृतसेवी संस्थाओं को भी बल दिया जिनका उद्भव इस युग की विशिष्ट घटना मानी जा सकती है। इससे पूर्व के युगों में चाहे भारत में अन्य भाषाओं के साहित्य का पदार्पण हुआ हो और उसका परोक्ष अपरोक्ष प्रभाव अन्य भारतीय भाषाओं पर पड़ा हो, किन्तु संस्कृत साहित्य पर इस प्रकार का सर्जनात्मक प्रभाव कभी नहीं पड़ा था। संस्कृत ने प्राकृत जैसी लोकभाषाओं से गाथाएँ ली थीं, आर्या छन्द लिया था, नाटकों में प्राकृत भाषा को भी प्राकृत जनों द्वारा बोले जाने वाली भाषा के रूप में शामिल कर लिया था। सब विधाओं का विस्तार (अन्य भाषाओं के प्रभाव के फलस्वरूप) भी इसी प्रकार सीमित रहा। जयदेव ने गीतिकाव्य और गेय पदों की विधा की संस्कृत में अवतारणा कर एक नये युग का सूत्रपात अवश्य किया था। इसके बाद किसी नई विधा का जन्म हुआ हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। इसका कारण यही था कि भारत में फारसी आदि विदेशी भाषाओं का पदार्पण अवश्य हुआ किन्तु प्रसार के माध्यमों के अभाव में उनका फैलाव सामन्ती समाज तक ही सीमित रहा, वे न तो जनसामान्य के हृदय में स्थान बना सकी और न भारतीय भाषाओं, विशेषकर संस्कृत के सर्जकों पर कोई सर्जनात्मक प्रभाव छोड़ सकीं। इसलिए उनका शिल्प, शैली या उनकी साहित्य विधाएँ संस्कृत में नहीं उतरीं । उन्नीसवीं सदी से जो सर्जनात्मक प्रभाव संस्कृत साहित्य में दृष्टिगोचर होने लगते हैं वे इसीलिए अभूतपूर्व कहे जाते हैं। इसी कारण अनेक साहित्येतिहासकारों ने इस युग को पुनर्जागरण युग या जनजागृतिकाल की संज्ञा दी है। संस्कृत गद्य साहित्य में नई-नई विधाओं का उद्गम गद्य साहित्य में अभूतपूर्व विपुलता तथा उसके देश विदेशों में प्रचार के पीछे तो संस्कृत पत्रकारिता का सर्वाधिक योगदान रहा। सर्वप्रथम संस्कृत उपन्यास कहा जाने वाला शिवराजविजय सर्वप्रथम ‘संस्कृत चन्द्रिका’ पत्रिका में ही धारावाहिक रूप से निकला था। उस समय की अधिकांश कहानियों, उपन्यासों निबन्धों, पत्रों आदि का जन्म संस्कृत पत्रकारिता के अहाते में ही हुआ था। अप्पाशास्त्री राशिवडेकर के देवी कुमुद्धती आदि उपन्यास संस्कृत चन्द्रिका में, भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के संस्कृत रलाकर में, अनेक सर्जकों के उपन्यास सुधर्मा जैसी पत्रिकाओं में निकलते रहे हैं। ललित निबन्ध, व्यंग्य विनोद, चुटकुले आदि कुछ नवीन विधाएँ पत्रकारिता की ही देन हैं। संस्कृत रत्नाकर मासिक (जयपुर) के संपादक भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने ‘विनोद वाटिका’ शीर्षक से जो स्तंभ अपने मासिक पत्र में शुरू किया था उसमें छोटे-छोटे चुटकले नियमित रूप से प्रकाशित होते थे, जो संस्कृत जगत् में बहुत लोकप्रिय हुए। साहित्य समीक्षा, समाचार समीक्षा आदि भी पत्रकारिता के अवदान ही हैं। यह भी एक सुखद संयोग रहा है कि संस्कृत की सुप्रचारित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों ने स्वयं भी उत्कृष्ट और विपुल गद्य पद्यादि की नूतन रचना की और नये लेखकों को नवसर्जन के लिए भरपूर प्रोत्साहन भी दिया। ऐसे संपादकों में विभिन्न काल खंडों में प्रमुखतः उल्लेखनीय हैं अप्पाशास्त्री राशिवडेकर (१९७३-१६१३), जिन्होंने ‘संस्कृत चन्द्रिका’ ४४० आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास में स्वयं अनेक उपन्यास, कहानियाँ आदि लिखीं तथा जिनके कार्यकाल में अनेक विख्यात लेखक पनपे । फिर भट्ट मथुरानाथ शास्त्री (१८८८-१६६४) ने ‘संस्कृत रत्नाकर’ में शतशः कथाएँ, उपन्यास, निबन्ध आदि लिखे, नई विधाएँ पनपाई और नये लेखक बनाए। इसी प्रकार डॉ. वेंकटराघवन् (१६०-७६) ने देश की साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका * ‘संस्कृत प्रतिमा’ द्वारा भारत के संस्कृत नवलेखकों को प्रोत्साहित और स्वयं मंच-नाटक काव्य आदि में नूतन सर्जना की। इस दृष्टि से आधुनिक काल की संस्कृत सर्जना को इन तीन युगों में विभाजित कर देखा जा सकता है- अप्पाशास्त्री युग (१८६०-१६३०) भट्ट मथुरानाथ शास्त्री युग (१९३०-१६६०) और राघवन युग (१६६०-१६८०)। इन तीन युगों में संस्कृत गद्य में भी क्रान्तिकारी विकास हुआ। नई विधाएँ पनपी तथा नये शिल्प के आयामों में अभूतपूर्व विस्तार हुआ। विद्योदय के संपादक हृषीकेश भट्टाचार्य, सहृदया के संपादक कृष्णाचार्य, मित्रगोष्ठी के संपादक विधुशेखर भट्टाचार्य आदि भी उत्कृष्ट मौलिक सर्जक तथा गद्य लेखक रहे। यह तो बात हुई विधाओं और शिल्प की, अर्थात् कलापक्ष की। इसके अतिरिक्त विषयवस्तु में, कथ्य के परिवेश में अर्थात् भावपक्ष में भी आधुनिक युग का संस्कृत सर्जन बहुआयामी है। आधुनिक युग की विषयवस्तु में न केवल बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ है बल्कि विस्तार भी हुआ है। आधुनिक युग का संस्कृत कवि या गद्यकार देवी-देवताओं की स्तुति या उपाख्यान ही नहीं लिखता, अब उसके नायक हैं राष्ट्रनेता, समाजसेवक, उसकी विषय वस्तु है विश्वशान्ति की आवश्यकता, गुलामी की जंजीरों को तोड़ने का आन्दोलन, सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार, राजनीति का प्रदूषण, भ्रष्टाचार, विश्वक्षितिज पर हो रही घटनाएँ । सामाजिक सरोकारों पर वह संस्कृत में उपन्यास और कहानियाँ लिख रहा है, आधुनिक युग की विषमताओं पर व्यंग्य और ललित निबन्ध लिख रहा है, विश्व राजनीतिक की घटनाओं का मूल्यांकन कर रहा है। विषयवस्तु की यह नवीनता और कथ्य की परिधि में यह विस्तार भी आधुनिक युग की विशिष्ट देन है। यही कारण है कि आधुनिक युग का संस्कृत लेखन विशेषतः गद्य-लेखन इतना बहुआयामी और विस्तृत फलक वाला हो गया है कि उसका समग्र मूल्यांकन और आकलन अतीव दुष्कर कार्य हो जाता है। इसके साथ ही गद्य की शिल्पात्मक प्रवृत्तियों और विधाओं का जो विस्तार हुआ है वह इसे एक इतनी विराट् व्यापकता दे देता है जिसे समेटना एक नई जमीन तोड़ने का कार्य होगा। निदर्शन विधया यहाँ गद्य साहित्य की विविध विधाओं पर दृष्टिपात कर इस प्रकार के आकलन का प्रयास किया जा रहा है।