उन्नीसवीं शती को संस्कृत साहित्य के इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात कह सकते हैं। योरोप से संपर्क और नयी राजनीतिक चेतना ने संस्कृत कविता के क्षेत्र में नये वातायन खोल दिये। पारंपरिक विद्या में दीक्षित पंडितों ने नये युग और नयी धरती भी खोजी। संस्कृत ही नहीं, देश की अन्य भाषाओं के साहित्य में भी उन्नीसवीं शती का काल नवजागरण और नयी चेतना के साहित्य का काल है। पर धीरे-धीरे परिस्थितियां बदलीं। मैकाले की शिक्षानीति लागू होने के पूर्व तथा अंग्रेजी शासन की नीतियों का विकृत रूप जब तक स्पष्ट नहीं हुआ था तब तक संस्कृत के रचनाकारों में अपनी भाषा के गौरव और अपनी रचनाशीलता के प्रति अदम्य विश्वास था। अंग्रेजी को सारे देश में माध्यम की भाषा के रूप में थोपे जाने और शिक्षानीति में परिर्वतन से उनका मोह भंग हुआ। शनैः शनैः एक हताशा की भावना उनमें घर करने गीतिकाव्य २८१ लगी। जिस संरम्भ से उन्नीसवीं शती में संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं ने नये से नये काव्य, योरोपीय साहित्य के अनुवाद, नये विषयों पर चिंतन और नयी विधाओं में लेखन का समारम्भ किया गया था, वह छीजता चला गया। पत्रिकाओं की संख्या भी घटने लगी। संस्कृतचन्द्रिका, सूनूतवादिनी, ज्योतिष्मती जैसी पत्रिकाएं, जो स्वातन्त्र्यसंग्राम के यज्ञ में आहुति दे रही थीं अंग्रेजों के द्वारा बन्द करायीं गयीं। संस्कृत के कवि और पण्डित स्वतंत्रता के आन्दोलन में सक्रिय थे। कांग्रेस की तो स्थापना ही मुंबई के संस्कृत महाविद्यालय में हुई थी। पर स्वतन्त्रता के पश्चात् अंग्रेजों के द्वारा छोड़ी गयी बद्धमूल औपनिवेशिक मानसिकता, मूल्यबोध का क्षरण और पंरपराओं की उपेक्षा ने वैसे कवियों और पण्डितों को समाज की मुख्य धारा से काट सा दिया। समाज में बड़े समुदाय ने संस्कृत को अतीत की वस्तु और उसके साहित्य को भी प्राचीन धरोहर मात्र मान लिया, संस्कृत की जीवनी शक्ति और उसमें रचना के सातत्य को अनदेखा किया जाने लगा। सबसे बड़ी विडम्बना यह थी कि स्वयं संस्कृत के ही पण्डितों या आधुनिक पद्धति से अधीत विद्वज्जनों में संस्कृत में नयी काव्यरचना के प्रति एक तिरस्कारणूर्ण दुराग्रह का भाव पनपने लगा। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत काव्यरचना का नैरन्तर्य बना रहा, उत्कृष्ट कविताएं भी लिखी जाती रहीं। पर उनको प्रचार, विवेचन और समादर न मिलने से अपरिचय के तिमिर ने आवृत कर लिया। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् तीन दशकों में यह अपरिचय का अंधेरा कम होने के स्थान पर अधिक घना ही हुआ। स्वातन्त्र्योत्तरकाल के तीसरे दशक से इस स्थिति में परिवर्तन आया, जब डा. राघवन् आदि विद्वानों ने नये और समकालिक संस्कृत काव्य पर समीक्षएँ, शोधलेख प्रकाशित कराना आरम्भ किया। अन्य भाषाओं में लिखी जा रही समाकलिक कविता के समक्ष आधुनिक संस्कृत काव्य के वैशिष्ट्य और श्रेष्ठता की पहचान भी की जाने लगी। मात्रा की दृष्टि से इस शती में जितना संस्कृत काव्य रचा गया है, उतना विपुल काव्य इस भाषा में भी कदाचित् अन्य किसी युग में न रचा गया हो। प्रतिवर्ष सहस्रो लघु काव्य पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाशित हो रहे हैं तथा पुस्तकाकार भी निरन्तर सामने आ रहे हैं। बीसवीं शती ने संस्कृत के समसामयिक रचनाकर्म में नये वातायन भी खोले हैं। एक और संस्कृत कवियों का प्राचीन काव्य का संस्कार, रसात्मक बोध और भाषा के परिनिष्ठित रूप तथा शब्द.की साधुता का अवधान जागृत है, तो दूसरी ओर प्रजातन्त्र की नयी व्यवस्था, बदलते राजनीतिक, सामाजिक पर्यावरण और विश्व की घटनाओं ने उन्हें प्रभावित विचलित भी किया है। विश्व साहित्य के अद्यतन रचनाकर्म और उसकी नयी प्रवत्तियों से भी युवा संस्कृत कवि परिचित और प्रभावित हुए हैं। इसी शती के आरम्भिक दशकों में राष्ट्रीय भावना का एक प्रबल ज्वार संस्कृत काव्य में आया। उन्नीसवीं शती के अंत तक अंग्रेजी शासन के प्रति पण्डितों में जो विश्वास भाव बना हुआ था, अब वह भी चुक गया। संस्कृत कवि ने भारत की स्वतन्त्रता का स्वर गुंजित २८२ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास किया, गान्धी, तिलक, जवाहर, बोस आदि राष्ट्रीय विभूतियों के गौरव का गान किया। या यह एक विस्मयकर तथ्य है कि संस्कृत भाषा ने नये से नये वातावरण, जीवनानुभव या परिस्थितियों को व्यक्त करने के लिये कवियों को उत्प्रेरित किया। कुछ ऐसे कवियों ने संस्कृत में इस काल में अत्यन्त प्राणवान् काव्यरचना की जो सीधे-सीधे आजादी की लड़ाई में सम्मिलित थे।
संस्कृत कविता की राष्ट्रीय धारा
राष्ट्रीयता, राष्ट्रबोध और सारी परम्परा और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में इस राष्ट्र के भवितव्य की पहचान के प्रयास का इस शती के संस्कृत काव्य की एक प्रमुख प्रवृत्ति कह सकते हैं।
श्री अरविन्द (१५ अगस्त १८७२-५ दिसम्बर १६५०) का ‘भवानीभारती’ इस प्रवृत्ति का प्रथम ज्वलन्त उदाहरण है
राष्ट्रीय काव्यधारा की एक अनुपम मुक्तक रचना महायोगी महर्षि अरविन्द की “भवानी-भारती’ है। श्री अरविन्द ने अपना अधिकांश साहित्य अंग्रेजी में लिखा तथा संस्कृत नाटकों, काव्यों के अनुवाद या संस्कृत-साहित्य-विषयक लेख तथा ग्रन्थ भी उन्होंने अंग्रेजी में प्रस्तुत किये हैं। ‘भवानी-भारती’ उनका एकमात्र संस्कृत काव्य है, जो अपूर्ण मिलता है। यह काव्य उन दिनों लिखा गया जब वे क्रान्तिकारियों के आन्दोलन में कार्यरत थे। १६०१ ई. से १६०८ ई. तक का यह काल श्री अरविन्द के जीवन में अभूतपूर्व संक्रान्ति का काल है। इसी अवधि में उन्हें सशस्त्र क्रान्ति की योजना में सक्रिय होने के कारण बन्दी बना कर अलीपुर जेल में रखा गया। जेल में रह कर उन्होंने संस्कृत में यह मौलिककाव्य लिखना आरभ किया, जिसे पुलिस ने जप्त कर दिया। इसकी पाण्डुलिपि बहुत समय बाद पुराने दस्तावेजों में मिली है, और अब यह पाण्डिचेरी के अरविन्द आर्काइब्ज में सुरक्षित है। इस अरविन्द की हस्तलिखित पाण्डुलिपि के आधार पर इस काव्य का संपादन व प्रकाशन हो चुका है (श्री अरविन्दाश्रम, पुदुच्चेरी प्र. सं. १६८७)। भवानी-भारती उसी स्वप्नद्रष्टा महाकवि की रचना है, जिसने आगे चल कर अंग्रेजी में विश्वप्रसिद्ध “सावित्री” महाकाव्य लिखा है। काव्य के आरंभ में भोग और वैराग्य, गार्हस्थ्य और राष्ट्रसेवा के द्वन्द्व से ग्रस्त कवि स्वप्न में माता भारती का साक्षात्कार करता है, जो भारतपुत्रों को राष्ट्र के उद्धार के लिये पुकार रही है। राष्ट्रदेवी का कवि द्वारा यह साक्षात्कार तथा उसका आह्वान युगद्रष्टा कवि की भाषा में निबद्ध है। द्वन्द्व और संशय से ग्रस्त कवि सहसा भारती भवानी को अपने आगे खड़ा देखता है। राष्ट्रदेवी का स्वरूप यहाँ काली के समान चित्रित किया गया है, असुरों के अस्त्रों से उसका देह व्रणित है, फिर उसकी आँखों में अपार तेज है १, सम्पूर्ण काव्य का हिन्दी अनुवाद मुरलीधर कमलाकान्त द्वारा किया गया, जो मूल काव्य के साथ ‘संस्कृत और राष्ट्र की एकता’ (सं. राधावल्लम त्रिपाठी) पुस्तक में प्रकाशित है। गीतिकाव्य नरास्थिमालां नृकपालकाञ्ची वृकोदराक्षीं झुधितां दरिद्राम्। पृष्ठे व्रणाङ्कामसुरप्रतोदैः सिंहीं नदन्तीमिव हन्तुकामाम् ।। ५|| क्रूरैः क्षुधार्नयनचलभिर्विद्योतयन्ती भुवनानि विश्वा। हुङ्काररूपेण कटुस्वरेण विदारयन्तीं हृदयं सुराणाम् ।।६।। उसके आलोल केशों में से पर्वत शिखर ढह जाते हैं, कराल दंष्ट्राओं से प्रसृत हो जाते हैं, उसके श्वास से नभ विर्दीर्ण हो जाता है, और चरण धरने से धरती डोलती है आलोलकेशः शिखरान्निगृहय करालदंष्ट्रैश्च विसार्य सिन्धून। श्वासेन दुद्राव नभो विदीर्ण न्यासेन पादस्य च भूश्चकम्पे।। (८) यह कराल देवी भारत माता के रूप में कवि का आह्वान करती है मातास्मि भो पुत्रक भारतानां सनातनानां त्रिदशप्रियाणाम्। शक्तो न यान पुत्र विधिर्विपक्षः कालोऽपि नो नाशयितुं यमो वा।। १२।। यह भारतमाता उन भारतीयों को फटकारती है, जो अपने आपको ब्राह्मण कहते हैं पर म्लेच्छ अंग्रेजों के चरण चूमते हैं म्लेच्छस्य पूतश्चरणामृतेन गवं द्विजोऽस्मीति करोति कोऽयम् (१७) वह भारतपुत्रों को अग्नि के समान बन जाने के लिये पुकारती है उतिष्ठ भो जागृहि सर्जयाग्नीन् साक्षाद्धि तेजोऽसि परस्य शौरेः। वक्षःस्थितेनैव सनातनेन शत्रूनु हुताशेन दहन्नटस्व।। (१८) EE छन्दों में उपलब्ध यह काव्य स्वतन्त्रतासंग्राम के यज्ञ में एक सार्थक आहुति है। स्वप्नदर्शी कवि भारतीय स्वातन्त्र्य संघर्ष के द्वारा समग्र विश्व में होने वाली उथल-पुथल और उसकी परिणति में आने वाले परिवर्तनों को साक्षात देखता है। को भवानी-भारती’ राष्ट्रीय नवजागरण की गीता है, एक क्रान्तिकारी का शंखनाद है, ओजस्विता और शक्ति का सन्धान है तथा भारत राष्ट्र के भवितव्य का स्वप्न और देश की अखण्डता का आह्वान भी है। प्रत्येक देशवासी को जागृत और स्फूर्त करना कवि का लक्ष्य है, चाहे वह किसी प्रान्त का हो, किसी भी सम्प्रदाय या धर्म का अनुयायी हो भो-भो अवन्त्या मगधाश्च बङ्गा अङ्गाः कलिङ्गाः कुरवश्च सिन्धोः। भो दाक्षिणात्याः शृणुतान्प्रचोलाः वसन्ति ये पञ्चनदेषु शूराः।। ये के त्रिमूर्ति भजथैकमीशं ये चैकमूर्ति यवना मदीयाः। माताहवये वस्तनयान् हि सर्वान् निद्रां विमुञ्चध्वमये शृणुध्वम् ।। (२३,२४)आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास यह काव्य संस्कृत भाषा की अपूर्व जीवनी शक्ति का परिचायक भी है। जिस काल में रवीन्द्रनाथ राष्ट्रीय गीत लिख रहे थे या बंकिमचन्द्र के वन्दे मातरम् से भारत गूंज रहा ने था, उसी काल में संस्कृत में एक आर्ष प्रतिभा के धनी कवि ने इस काव्य की रचना आरम्भ की, जिसके स्तर का काव्य उस काल में अन्य किसी भाषा में एकाध को छोड़ कर कठिनाई से मिलेगा। यद्यपि भवानी-भारती में कहीं व्याकरण की अशुद्धियां हैं, क्योंकि मई १० ई. में कलकत्ता पुलिस के द्वारा इसकी एकमात्र पाण्डुलिपि जप्त कर लेने के बाद कवि को इसे न पूर्ण करने का अवसर मिला, न संशोधित करने का। पर अभिव्यक्ति के अबाध प्रवाह में ऐसी अशुद्धियाँ आर्ष काव्य का प्रत्यय देती हैं। बीसवीं शती के पूर्वार्ध में राष्ट्रीयता की भावना का अभूतपूर्व उन्मेष हुआ, विशेषतः महात्मा गांधी के सत्याग्रह आन्दोलन तथा उनके जीवन दर्शन ने सारे देश को प्रेरणा के सूत्र में बाँध दिया। इस काल का संस्कृत साहित्य इस युगनिर्माता महापुरुष के चरित्र और सन्देश से अत्यधिक प्रभावित हुआ तथा उसे केन्द्र में रख कर स्वाधीनता संग्राम पर अनेक काव्य संस्कृत में लिखे गये। स्वयं गान्धी जी के जीवन को ले कर लिखे गये खण्डकाव्यों या मुक्तककाव्यों की संख्या सैकड़ों में है। इनमें उल्लेखनीय काव्यश्रृंखला सुकवयित्री क्षमा देवी ने प्रस्तुत की, जिसकी कड़ियाँ है-सत्याग्रहगीता, उत्तरसत्याग्रहगीता, उत्तरजयसत्याग्रहगीता तथा स्वराज्यविजय। यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि गान्धी के चरित्र को आधार बना कर लिखे गये काव्यों को गीता की संज्ञा दी गयी । यद्यपि क्षमा देवी के इन काव्यों में महाकाव्यों के तत्त्व भी मिलते हैं, पर उन्होंने स्वयं इनकी रचना गीता के कलेवर को दृष्टि में रख कर की है। क्षमा देवी द्वारा इस प्रकार आधुनिक संस्कृत साहित्य में स्वाधीनता-संग्राम तथा गान्धीजी के जीवन या आदर्शों को विषय बना कर गीता-काव्यों की रचना का सूत्रपात किया गया और उनके पश्चात् अनेक गीतिकाव्य इस दिशा में रचे जाते रहे। क्षमा देवी के काव्यों में तथ्यों की प्रामाणिकता, गान्धीजी के प्रति आस्था तथा भाषा और शैली की सहजता व प्राजलता प्रभावकारी हैं। क्षमा देवी का अनुसरण करते हुए प्रो. इन्द्र ने गान्धीगीता अथवा अहिंसायोग (१६५६, राजहंसप्रकाशन दिल्ली) नामक काव्य की रचना की। इस काव्य में संपूर्ण गान्धी दर्शन का प्रतिपादन किया गया है। जिस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता में कुरुक्षेत्र में अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रश्न करता है, उसी प्रकार चम्पारण के सत्याग्रह के प्रसंग में यहाँ राजेन्द्रप्रसाद गान्धीजी से उनकी नीति और जीवनदृष्टि के विषय में प्रश्न करते हैं, जिनके समाधान में इस काव्य के अट्ठारह अध्याय रचे गये हैं। कवि ने अहिंसा के स्वरूप और जीवन में उसकी व्याप्ति की स्थापना संरम्भपूर्वक की है। भाषा में सहजता और काव्यात्मकता है। अहिंसा के स्वरूपविवेचन में परिकर अलंकार का प्रयोग सुन्दर रूप में किया गया है। यथा अहिंसा शोणिताकांक्षाशमयित्री रिपोरपि। अहिंसा निष्क्रिया नैव प्रक्रिया शक्तिशालिनी। नेयं निवृत्तिरूपास्ति प्रवृत्तिः परमा मता।। (३/४१) गीतिकाव्य २८५ के. एल. बी. शास्त्री के ‘महात्मविजयः’ नामक काव्य में १०६ श्लोकों में गान्धी जी के आन्दोलन तथा सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। व्रजानन्द का गान्धीचरित शतककाव्य है, जिसके १०० पद्यों में गान्धीजी का जन्म, शिक्षा, अफ्रीका यात्रा तथा स्वाधीनतासंग्राम में उनका कर्तृत्व चित्रित है। कहीं-कहीं असंस्कृत शब्दों का प्रयोग भी कवि ने इस काव्य में किया है। यथा हा सर्वतो दास्यममी भजन्ते कुलीति कौलीन्यमतो लभन्ते। विगर्हिता जीवनयापनाय करातिमारेण भवन्ति खिन्ना।। (५६) (गुरुकुलपत्रिका में दिसम्बर १६१६ में प्रकाशित) (हाय, ये सब ओर से दासता करते हैं, “कुली” यह संज्ञा रूप निन्दा प्राप्त करते हैं, जीवन-यापन के लिए विनिन्दित होते हैं तथा अतिशय कर-भार से खिन्न होते हैं।) ‘गान्धीनिर्वाणकाव्यम्’ में ५० पद्य हैं। इसके रचयिता शम्भुशर्मा हैं। साम्प्रदायिक दंगों, रक्तपात और हिंसा का दुःखद चित्रण करते हुए कवि राष्ट्र में सौहार्द और एकता की स्थापना चाहता है। गान्धीजी के चरित्र पर लिखे गये अन्य काव्य हैं -महात्मा (व्ही. राघवन) गान्धीगीता (अनन्त विष्णु काणे), गान्धीशतश्लोकी, (गणपति शंकर शुक्ल) गान्धीमहात्म्य (विजयराघवाचार्य), गान्धीचरितम् (चारुदेवशास्त्री १६३१ ई.), मोहनपञ्चाध्यायी (१६३१ ई.), मोहनगीता, गान्धीप्रवहणम् (महाभिक्षु) वर्णव्यवस्था (दीपचन्द्राचार्य) (१६३३ ई.) आदि। इन काव्यों की परम्परा में श्रीधरभास्कर वर्णेकर ने ‘ग्रामगीता’ (अनूदित, १६८४) तथा ‘श्रमगीता’ लिखी। इन मौलिक काव्यों के अतिरिक्त चिन्तामणि द्वारकानाथ देशमुख ने ‘गान्धीसूक्तिमुक्तावली’ में गान्धीजी के द्वारा समय-समय पर प्रकट की गयी सदुक्तियों को सुन्दर भाषा में पद्यबद्ध किया है। (गान्धी स्मारक-निधि, नयी दिल्ली, १६५७) अनुवाद के साथ अंग्रेजी में मूल उक्ति भी दी गयी है। अनुवाद में अलग-अलग उक्तियों के साथ अलग-अलग छन्दों का चयन किया गया है। एक उदाहरण शिखरिणी में प्रस्तुत उक्ति का देखिये हृदि प्रत्येकस्य प्रतिवसति सत्यं तनुभृत स्ततस्तत्रैवास्थाऽस्त्युचितमनुसन्धानमपि तत्। यथादृष्टं सत्यं भवति पथदर्शि स्वकलितं परं सत्यं नान्यः प्रसभमनुसार्योऽधिकृतितः।। (२५) (प्रत्येक प्राणी के हृदय में सत्य का निवास है। इस कारण उसका अनुसन्धान भी वहीं उचित है, जो जैसा देखा गया ऐसा स्वकलित सत्य ही मार्गदर्शक होता है, बलपूर्वक अधिकार से दूसरे को पराये सत्य का अनुसरण करने के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए।) सत्यदेव वासिष्ठ ने सत्याग्रहनीतिकाव्यम् में १६३६ ई. के हैदराबाद-सत्याग्रह का चित्रण किया है। २८६ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास । ब्रह्मानन्द शुक्ल बीसवीं शताब्दी के श्रेष्ठ संस्कृत पण्डितों में तथा महाकवियों में गणनीय हैं। इन्होंने १११ पद्यों में गान्धिचरितम् काव्य लिखा है (खुरजा, १६६४)। इसी श्रृंखला में रमेशचन्द्र शुक्ल ने १२५ पद्यों में “गान्धिगौरवम्” (१६६६ ई.) की रचना की है। आचार्य रमेशचन्द्र शुक्ल ने लालबहादुरशास्त्रिचरितम् तथा बङ्गलादेशः शीर्षक खण्डकाव्यों की भी रचना की है। इनके ब्रह्मानन्दशतकम् (१९७५) तथा इन्दिरायशस्तिलकम् (१९७६) काव्य संस्कृतकवियों में प्रशस्तिपरकता के भाव से रचे काव्य हैं। श्री लक्ष्मीनारायण का ‘राष्ट्रसभापतिगौरवम्’ काव्य कांग्रेस के इतिहास को प्रस्तुत करता है। कवि ने इसकी रचना कांग्रेस महासभा की ५० वीं वर्षग्रन्थि के अवसर पर की। इसमें विशेष रूप से कांग्रेस के जितने सभापति निर्वाचित हुए, उनका गौरवास्पद चित्रण किया गया है। महात्मा गान्धी के अवदान तथा आदर्श के लिये कवि के मन में स्पृहा है। मुखपृष्ठ पर ही उसने काव्य के प्रेरणासूत्र के रूप में यह पद्य प्रस्तुत किया है सत्याहिंसासत्त्वबोधस्त्रिवेणेश्चक्र धृत्वा भारते या पताका। स्वातन्त्र्यं या स्वाश्रितेभ्यो ददाना सर्वोत्कृष्टा राजते भूतलेऽस्मिन् ।। (भारत में जो पताका सत्य-अहिंसा-सत्त्वबोध की त्रिवेणी के चक्र को धारण करके अपने आश्रित जनों को स्वातन्त्र्य दे रही है वह इस जगत में सब से बढ़ कर शोभायमान है।) काव्य के परिशिष्ट में कवि ने गान्धीजी के तीन सिद्धान्तों-खादी, संस्कृत भाषा का महत्त्व तथा विश्वशान्ति की उपस्थापना की है। केशिराजु वेंकट नृसिंह अप्पाराव ने ‘पञ्चवटी’ नामक काव्य में गान्धीजी के जीवन-दर्शन को अत्यन्त सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया है। गान्धीजी की सत्य, अहिंसा आदि के विषय में अवधारणाएँ यहाँ रमणीय दृष्टान्तों के द्वारा काव्यात्मक बना कर हृदयङ्गम करायी गयी हैं। रामराज्य का स्वरूप कवि ने इस प्रकार प्रतिपादित किया है स्वार्थायान्यानपकृतिपरान् यः करोत्यासुरोऽसौ त्यागेनान्यानुपकृतिपरान् यः करोत्येष दैवः। सर्वेषामप्युपकृतिपराः कस्यचिन्नापकार विश्वप्रीतिं विदधति जना यत्र तद् रामराज्यम् ।। (६१) (जो दूसरों को स्वार्थ के लिए अपकार में संलग्न करता है वह ‘आसुर’ है, जो त्याग द्वारा दूसरों को उपकार में प्रवृत्त करता है वह देवता है। जहाँ लोग सभी के उपकार में संलग्न रहते हैं और किसी का अपकार नहीं करते तथा विश्व-प्रेम करते हैं वह रामराज्य हैं।) राष्ट्रीय विभूतियों पर रचे गये अन्य खण्डकाव्यों में विष्णुकान्त झा का ‘राष्ट्रपतिराजेन्द्रप्रशस्तिः’, जयराम शास्त्री का श्रीजवाहरवसन्तसम्राज्यम्, श्रीधर भास्कर वर्णेकर का ‘जवाहरतरङ्गिणी’ तथा राम वेलणकर का ‘जवाहरचिन्तनम्’ महत्त्वपूर्ण रचनायें हैं। गीतिकाव्य २८७ इस काल में संस्कृत में अनेक काव्यात्मक रचना ऐसी भी लिखी गयीं, जिनका गान्धी जी के जीवन से प्रत्यक्ष संबंध भले ही न हो, पर उन पर गान्धीवाद का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है। पण्डिता क्षमादेवी की ही दो कथात्मक काव्यकृतियों-ग्रामज्योतिः तथा कथापञ्चकम् में संकलित पद्यबद्ध कथाओं की विषयवस्तु गान्धीवादी जीवनमूल्यों को मार्मिक घटनासंविधान के द्वारा उपस्थित करती हैं। गणपतिशंकर शुक्ल के द्वारा रचित “भूदानयज्ञगाथा’ भी इसी प्रकार का खण्डकाव्य है। इसमें विनोबा के भूदानयज्ञ का विवरण भी दिया गया है तथा अहिंसा का स्वरूप और हमारे समय की अन्य विचारधाराओं-साम्यवाद, समाजवाद आदि के परिप्रेक्ष्य में उसकी विशेषता का निरूपण भी किया गया है। अत्यन्त सरल भाषा में कवि ने अपने वैचारिक दर्शन को प्राचीन पौराणिक आस्थानों से उदाहरण देते हुए सुन्दर ढंग से प्रकट किया है। यथा- कारिजाका भगवान् वामनः किन्तु करुणाप्रेमशक्तितः। रक्तपातं विना लेभे विजयं सहजेन हि।। (७७) (किन्तु भगवान् वामन ने करुणा और प्रेम की शक्ति से, बिना रक्तपात के सहज रूप से विजय प्राप्त की।) धर्मदेव विद्यामार्तण्डकृत ‘महापुरुषसङ्कीर्तनम्’ सात खण्डों का काव्य है। इसमें गान्धीजी का व्यक्तित्व तथा चरित्र केन्द्र में है, उसके साथ-साथ महामना मालवीय, राजेन्द्रप्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन आदि के जीवन और कृतित्व का भी निरूपण किया गया है। स्वाधीनतासंग्राम के इतिहास-निरूपण की दृष्टि से कवि श्री प्रीतमलाल नरसिंहलाल कच्छी का ‘मातृभूमिकथा’ नामक काव्य की उल्लेखनीय है। इसमें अशोक के काल से लेकर १६३० ई. तक की ऐतिहासिक घटनाओं का अंकन है। रालेट एक्ट के विरुद्ध जलियाँवाला बाग में हुई सभा पर बर्बर गोलीकाण्ड की घटना का मार्मिक चित्रण कवि ने किया है। गान्धी-इरविनसन्धि तथा असहयोग आन्दोलन का भी विवरण इस काव्य में दिया गया है। नारायण प्रसाद त्रिपाठी की ‘श्रीभारतमातृमाला’ (ज्ञानमण्डल, काशी, १६३६ ई.) में स्वतन्त्र भारत के स्वप्न और राष्ट्र के नवनिर्माण की आकांक्षा को अभिव्यक्ति दी गयी है। भारतीय कृषकों की दयनीय दशा का करुण चित्रण इस काव्य में कवि ने किया है कङ्कालशेषा नृपिशाचरूपा विशीर्णवस्त्राः करभारमग्नाः। प्रातश्च सायं विलपन्ति दैवं समाजदोषोपहतस्वभावाः।। (२२) (कंकालशेष, नरपिशाचरूप, फटे वस्त्रों वाले, कर-भार से दबे, सामाजिक दोषों के कारण दुष्ट स्वभाव वाले लोग प्रातः सायं भाग्य को रो रहे हैं। भारतीय इतिहास का स्वाधीनता-युग तक चित्रण करने वाली काव्यकृतियों में उमाशंकर कृत ‘काव्यकलिका’ की चर्चा भी की जा सकती है। इस खण्डकाव्य में तीन सर्ग हैं। पहले सर्ग में भारत का प्राचीनकाल से लेकर संक्षिप्त इतिहास है, द्वितीय सर्ग में सन् १६४७ के पश्चात् घटी २८८ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास स्थितियों का चित्रण है तथा तृतीय सर्ग में विश्वशान्ति के निमित्त से की गयी पं. नेहरू की इस यात्रा का चित्रण किया गया है। समूचे विश्व में नये उभरते हुए परिदृश्य को नेहरू जी के विशद वक्तव्य के द्वारा कवि ने उपस्थापित किया है देशेऽत एव शान्त्यै ग्रहणीया सहयोगभावना । जनहानिनिरोघहेतवेऽवनसिद्धान्तमिमं चरिष्यथ ।। (अतएव देश में शान्ति के लिए सहयोग की भावना को प्रश्नय देना चाहिए, जनता को हानि न हो इसलिए रक्षण के इस सिद्धान्त का पालन करें।) का मंगलदेवशास्त्री का ‘अमृतमन्थन’ काव्य यद्यपि दार्शनिक चिन्तन तथा वैचारिक दिशाओं को उन्मीलित करता है। पर स्वतन्त्रभारत के नवनिर्माण और राष्ट्र नेताओं की युगदृष्टि का प्रभाव इस पर भी है। सम्पूर्ण ग्रन्थ का कलेवर भी गीता के समान सहज स्वच्छ भाषा में विचारों को प्रस्तुत करता है। प्रथम भाग का शीर्षक लक्ष्यानुसन्धान है। इसमें कवि ने ब्रह्मचर्य तथा आत्मसंयम को मानवजीवन की आधारशिला माना है। दूसरे भाग जीवनपाथेय में उन नैतिक आदर्शों का निरूपण है, जिनसे मनुष्य अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। तृतीय भाग प्रज्ञा-प्रसाद में जीवन की उदात्त स्थिति का वर्णन है। यहीं पर कवि ने वर्तमान भारत के भवितव्य के निर्माण में तीन महापुरुषों दयानन्द, महात्मा गान्धी तथा रामकृष्ण परमहंस के महान् योगदान पर भी विचार किया है। कवि ने स्वयं अपने आप को गान्धीदर्शन से प्रभावित माना है। सत्य का तत्त्व निरूपित करते हुए वह गान्धीवाद की उपस्थापना को अंगीकार भी करता है तस्मात् सत्यपरो भूत्वा निर्द्वन्द्वं विचरेन्नरः । (२/४६) तथा सत्याश्रयेण लोकस्य व्यवहारः प्रसिद्ध्यति। सत्ये सत्येव विश्वासो व्यवहारस्तदुद्भवः।। (इसलिए, सत्यनिष्ठ होकर मनुष्य निर्द्वन्द्व विचरण करे। सत्य के आश्रयण से ही लोक का व्यवहार सिद्ध होता है, सत्य के रहते ही विश्वास होता है तथा उसके कारण व्यवहार होता है। शिवप्रसाद भारद्वाज का ‘भारतसन्देशः’ (होशियारपुर, १६६२ ई.) स्वतन्त्र भारत की नवचेतना का काव्य है। इसके प्रथम भाग में सारे देश के प्रमुख नगरों का वर्णन करते हुए कवि ने राष्ट्र में हो रही सर्वतोमुख प्रगति का दिग्दर्शन प्रस्तुत किया है। दूसरे भाग में देश के नागरिकों के नाम राष्ट्रपति के सन्देश का सुन्दर रूपान्तर प्रस्तुत किया गया है। कवि ने दूतकाव्य की विधा का स्वरूप अंशतः स्वीकार करके उसे राष्ट्रवादी धारा से सफलतापूर्वक जोड़ा है। मन्दाक्रान्ता छन्द का प्रयोग प्रभावशाली है। राष्ट्रगौरव का जागरण कवि का ध्येय है गीतिकाव्य देवः सोऽयं विदितमहिमा योनिराश्चर्यभूम्नां क्षोणीचूडाभरणशिखरस्फारहीरायमाणः। यस्मिन्नन्धं तम उपचितं च्छिन्नविज्ञानरेखं छिन्दन् मित्रोऽपर इव परं ज्योतिराविर्षभूव ।। (३) (यह वह देश है, जिसकी महिमा ज्ञात है, जो अनन्त आश्चर्यों का जन्म स्थान है, जो पृथ्वी के सिर के आभरण के उच्च-भाग पर चमकते हीरे जैसा है, जहाँ, विज्ञान की रेखा को छिन्न करने वाले बढ़े हुए अन्धकार को काटता हुआ दूसरे सूर्य जैसा ‘परंज्योतिः’ आविर्भूत हुआ है।) राष्ट्रवादी धारा की रचनाओं में ही श्री बालकृष्ण भट्ट का ‘स्वतन्त्रभारतम्’ काव्य भी उल्लेखनीय है। कवि श्री भट्ट टिहरी गढ़वाल में प्राचार्य रहे। स्वतन्त्रभारतम् पूर्वपीठिका तथा उत्तर पीठिका- दो भागों में विभाजित है। इसकी रचना स्वतन्त्रता - प्राप्ति के अवसर पर हुई, किन्तु उत्तर पीठिका में शनैः शनैः परिवर्धन करते हुए कवि ने इसमें देश की १६६६ ई तक की प्रमुख घटनाओं तथा विभिन्न क्षेत्रों में हुई प्रगति का भी उल्लेख यथावसर इस काव्य में प्रस्तुत कर दिया है। पूर्वपीठिका में ५८२ तथा उत्तरपीठिका में ४६६ पद्य है। भारत के स्वाधीनता संग्राम के रोमांचक वर्णन के साथ हमारे अतीत की झलक भी इसमें दी गयी है। स्वाधीनताप्राप्ति के अनन्तर हुए दंगों तथा देश में नैतिक अवमूल्यन पर कवि ने हार्दिक क्लेश व्यक्त किया है। यवनों तथा अंग्रेजों के द्वारा भारतीय जनता पर किये गये अत्याचारों का वर्णन यहाँ बड़ा हृदयद्रावक है। - इसी धारा की एक अन्य रचना ‘वीरोत्साहवर्धनम्’ है, जिसके रचयिता श्री सुरेशचन्द्र त्रिपाठी हैं। ये सारस्वत खत्री पाठशाला इण्टर कालेज, प्रयाग में संस्कृत के अध्यापक रहे हैं। इस काव्य की रचना श्री त्रिपाठी ने १६६२ ई. में चीन द्वारा भारत पर किये गये आक्रमण के समय की थी। इसमें संग्रामरत सैनिकों के मनोबल को बढ़ाने के लिये कवि ने ओजस्वी भावों को अभिव्यक्ति दी है तथा भारतीय जनता द्वारा इस युद्ध के लिये दी गयी सहायता का भी चित्रण किया है। प्राचीनी आक्रमण के समय इस प्रकार के अनेक काव्य संस्कृत में लिखे गये। इनका सामयिक महत्त्व ही अधिक है। गढ़वाल निवासी तथा पंजाब विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में पूर्व प्राध्यापक श्री शशिधर शर्मा का ‘वीरतरङ्गिणी’ (१E६७ ई.) काव्य भी १६६२ ई. में ही लिखा गया। इस काव्य में दो खण्डों में कुल २४२ पद्य हैं। वीररस के प्रवाह तथा भाषा और अभिव्यक्ति के चमत्कार की दृष्टि से यह परिपक्व रचना है। गोलियों से देह के छलनी हो जाने पर भी अंतिम सांस तक युद्धरत रहने वाले एक भारतीय सैनिक का वर्णन करते हुए कवि कहता है गोलकगलितोऽगोलः क्षितितलगोलेरमित्रसङ्घातान् । स जहार सप्तहोराः स्वरूपसिंहः स्वरूपतः सिंहः।। (उत्तरखण्ड-६०) २६० आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास समग्र काव्य राष्ट्रीय एकात्म्य के भाव से ओतप्रोत है। विभिन्न प्रान्तों के सैनिकों के एकत्र संग्राम में सम्भूयसमुत्थान का चित्रण करते हुए कवि कहता है जातिप्रदेशदलमुखभिदाच्छिदस्ते प्रवीर्यगणाः। उत्साहवारबाणा दास्यववारप्रचारणा रेजुः ।। (पद्य-४०) राष्ट्रभक्ति से प्रेरित हो कर रचे गये अन्य संस्कृत गीतिकाव्यों या खण्डकाव्यों में श्री यज्ञेश्वरशास्त्री का ‘राष्ट्ररत्नम्’ देश के अनेक सपूतों का उज्ज्वल चरित्र प्रस्तुत करता है। इसमें रानी लक्ष्मीबाई, दयानन्द, तिलक, मालवीय जी, गान्धीजी, नेहरू, राधाकृष्णन आदि महापुरुषों, तथा भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद आदि क्रान्तिकारियों के गौरवमय जीवन की कथाएं पद्य-बद्ध की गयी हैं। ओजस्विता तथा प्रवाह की दृष्टि से रचना चमत्कृत करती है। युद्धरत झांसी की रानी की शौर्यगाथा का चित्रण करते हुए कवि कहता है सा पृष्ठदेशे स्वसुतं बबन्ध जग्राह वल्गाग्रमहो मुखेन। दोभ्या कृपाणद्वयशोभिताभ्यां शत्रून समुत्सारयितुं प्रवृत्ता।। (उसने पीठ पर अपने पुत्र को बाँध रखा था, घोड़े की लगाम के अग्रभाग को मुख से पकड़ रखा था, दो कृपाणों से शोभित दोनों भुजाओं से शत्रुओं को खदेड़ने में लग गयी।) इसी परंपरा में श्रीकृष्णदत्तशास्त्री (जन्म १६३० ई.) ने अनेक राष्ट्रप्रेमपूरित रचनायें प्रस्तुत की हैं, जैसे-भारतदर्शनम्, प्रतापप्रशस्तिः, कृपाणसैनिकः तथा सैनानीसुभाषः।