०१ स्वरूप

शास्त्रीय दृष्टि से संस्कृत में लघुकाव्य नामक कोई पृथक् काव्यविधा नहीं है। किसी आचार्य ने अपने लक्षण-ग्रन्थ में एक पृथक विधा के रूप में इसको लक्षित नहीं किया है। उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी के विगत दो सौ वर्षों के काव्यों का पर्यालोचन किया जाय तो हमें महाकाव्य, नाट्यकाव्य, गद्यकाव्य एवं गीतिकाव्य के अतिरिक्त सैकड़ों की संख्या में ऐसे काव्यों का बाहुल्य दिखाई पड़ता है जिन्हें हम केवल खण्डकाव्य या स्फुटकाव्य नाम दें तो लक्षण अव्याप्त ही रहेगा। वस्तुतः इस कालावधि में इतने प्रकार के वैविध्यपूर्ण काव्यों का सर्जन हुआ कि उक्त चार-पाँच प्रसिद्ध विधाओं के अतिरिक्त जितने भी प्रकार के संस्कृत-काव्य रचे गए, सबको एक श्रेणी में बद्ध करने के लिए सामान्य रूप से ‘लघुकाव्य’ संज्ञा दी जा सकती है। यह बात सुनिश्चित है कि इस प्रकार के काव्य स्वरूप की दृष्टि से प्रायः लघु कलेवर वाले ही हैं। हाँ, कतिपय काव्य कलेवर की दृष्टि से कुछ विशाल होते हुए भी स्वरूप की दृष्टि से “लघुकाव्य’ श्रेणी में ही अन्तर्भूत होते हैं। अतः यह विधा अर्वाचीन संस्कृत-साहित्य के एक बहुत बड़े भाग को अपने आप में समाविष्ट करती है और इसके अन्तर्गत आने वाले काव्यों की संख्या बहुत अधिक है। संरचना एवं शैली की दृष्टि से पर्यालोचन किया जाय तो हम देखेंगे कि ये लघुकाव्य प्रायः प्राञ्जल भाषा एवं सहज शैली में निबद्ध हुए हैं। भाषा कठिनता से सरलता की ओर उन्मुख है। अलङ्कारादि के प्रयोगों में नवीनता आई है। अधिकांश लघुकाव्यों की रचना पारस्परिक वार्णिक एवं मात्रिक छन्दों में हुई है। विगत दो दशकों से एक धारा छन्दोमुक्त कविता की भी प्रचलित हुई है, जो संस्कृत-काव्यजगत् में एक अभिनव प्रयोग है। लगभग दो सौ वर्षों के अन्तराल में फैले इन काव्यों में विविधता के दर्शन प्रभूततया होते हैं। अतः आन्तरिक एवं बाह्य स्वरूप की दृष्टि से सभी लघुकाव्य एक से नहीं, अपितु वैविध्यपूर्ण हैं।

देश-काल

संस्कत के इन समस्त लघुकाव्यों की रचनाभूमि भारतवर्ष है। भारत-भूखण्ड तथा विश्व की तत्कालीन ऐतिहासिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों ने इस युग के संस्कृत-साहित्य को पर्याप्त मात्रा में प्रभावित किया। विशेष रूप से उन्नीसवीं शताब्दी १२२ आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास के मध्यकाल से लेकर बीसवीं शताब्दी तक का मध्यकाल भारत में भयङ्कर राजनैतिक उथल-पुथल का काल रहा । भारत में अंग्रेजी सत्ता का आधिपत्य, १८५७ का विप्लव, महान् । धार्मिक एवं राजनीतिक जननायकों के जन्म, स्वतन्त्रता-सङ्ग्राम का लम्बा संघर्ष, प्रथम तथा द्वितीय विश्वयुद्ध, १E४७ में भारत को स्वतन्त्रता-प्राप्ति- इन शताधिक वर्षों में घटते घटना-क्रमों ने संस्कृत-कविता को भी प्रभूत मात्रा में प्रभावित किया। एक ओर स्वतन्त्रता-आन्दोलन के सूत्रधारों एवं स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानायकों के चरितों एवं कठिन कर्म-व्यापारों पर स्स्कृत-कवियों की लेखनी चली तो दूसरी ओर राष्ट्रभक्ति एवं देशप्रेम की प्रबल धारा कविता में प्रवाहित हुई। न केवल वर्तमान, अपितु अतीत में परतन्त्रता के उन्मूलन हेतु राष्ट्र की बलिवेदी पर अपने प्राण निछावर करने वाले वीरों के कर्तृत्व पर भी सैकड़ों काव्य इस काल में लिखे गए। संस्कृत का कवि अधिनायकवाद, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, और विस्तारवाद के विरुद्ध लेखनी से लड़ाई लड़ता रहा। अन्ततः भारत को स्वतन्त्रता-सङ्ग्राम में विजय प्राप्त हुई और स्वराज्य की स्थापना के बाद देश की परिस्थितियों में एक दूसरे प्रकार का मोड़ आया। ६६२ में भारत पर चीन का आक्रमण, १६६५ का भारत-पाकिस्तान युद्ध तथा १६७१ का बंगलादेश के जन्म का युद्ध भारत के राष्ट्रीय जीवन पर छाये रहे, जिसके कारण इन विषयों को लेकर संस्कृत-काव्यों की झड़ी लग गई। भारत में फैले आतङ्कवाद, भ्रष्टाचार, नारी पर होने वाले अत्याचार, सामाजिक कुरीतियों, वैज्ञानिक विकास, वैचारिक क्रान्ति, बदलते राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश ने संस्कृत के अन्दर प्रविष्ट होकर उसे विषयवस्तु दी। परिणामस्वरूप संस्कृत-लघुकाव्यों की रचना भी परिवर्तित परिवेश में आधुनिक युगबोध के अनुरूप हुई।