०३ उन्नीसवीं शती के महाकाव्यकार

गोदवर्म युवराज (केरल) १८००-१८५१

कोटिलिंगपुर (कोटुगल्लूर) के राज-भवन के विद्वान् इलय तम्पुरान के नाम से प्रसिद्ध इस कवि ने श्रीरामचरितम्’ नाम के महाकाव्य की रचना की। इनका दूसरा महाकाव्य सोलह सर्गों का बाल्युभव या महेन्द्रविजय बताया जाता है, जो कवि की आरम्भिक रचना है। विद्वयुवराज ने रामचरित को अपने जीवन काल के अन्तिम दिनों में लिखा था, अतः इसके १३वें सर्ग के ३१वें श्लोक मात्र तक वे लिख सके। इस रचना को उसी परिवार के कविसार्वभौम रामवर्म कोच्चुण्णि तम्पुरान या कोच्चुण्णिराज (१८५८-१६२६) ने चालीस सर्गों में लिखकर पूरा किया। श्रीरामचरित का प्रकाशन निर्णय सागर प्रेस, बम्बई से हुआ था। इधर इसे १E८५ ई. में पं. के. पी. नारायण पिषारोटि, प्राध्यापक, कलिक्कट आदर्श संस्कृत विद्यापीठ, बालुश्शेरी (केरल) ने सम्पादित करके इसी विद्यापीठ से प्रकाशित किया। विद्वयुवराज की अन्य अनेक प्रसिद्ध रचनाओं में रससदनभाण उल्लेखनीय है। संयोग से कोच्चुण्णिराज द्वारा रचित “विद्वयुवराजचरितम्” उक्त नये संस्करण के ३३८ से ३४६ तक के पृष्ठों में प्रकाशित है, जिससे कवि के जीवन और कृतित्व के सम्बन्ध में अत्यन्त प्रामाणिक सूचना प्राप्त होती है। प्रस्तुत महाकाव्य श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण की कथा पर ही आधारित है। दोनों ही रचनाकारों ने मूल कथा में कोई परिवर्तन नहीं किया है। सम्पूर्ण महाकाव्य चालीस साँ में रचित है। इसे तीन भागों में विभक्त किया गया है-प्रथम तो विद्वयुवराज निर्मित १-१३, द्वितीय भाग और तृतीय भाग कोच्चुण्णिराजरचित १४ से ३२ सर्ग तथा १-८ सर्गों का महाकाव्य १५ उत्तररामचरितम् । यह सही अर्थ में एक महत् काव्य है, क्योंकि इसके संयोजन में दोनों ही रचनाकारों ने बड़े आटोप का आश्रयण किया है। वर्णनों के प्रति यहां विशेष आग्रह लक्षित होता है। जो बात या जो घटना थोड़े में कहीं जा सकती है उसे पूरे सर्ग में विस्तारपूर्वक प्रस्तुत करके तथा वर्णनों में नाना अलंकारों का नये तथा अछूते रूपों में संयोजन करके दोनों ही कवियों ने अपनी विलक्षण प्रतिभा का प्रदर्शन किया है। कवि ने प्रथम और द्वितीय सों में राम आदि के जन्म से लेकर सीता आदि के साथ उनके विवाह के प्रसंगों को अधि कतर सामान्य इतिवृत्तात्मक शैली में प्रस्तुत करके तृतीय से सप्तम सर्ग तक सीता और राम की काम-लीलाओं, वसन्त आदि ऋतुओं, उद्यान, सन्ध्या, चन्द्रोदय, रात्रि एवं प्रभात आदि वर्णनों की एक और भरमार कर दी है और वहीं दूसरी ओर दशम तथा द्वादश में शूर्पणखा द्वारा राम के तथा रावण द्वारा सीता के केशादिपादान्त का वर्णन करके श्लथ शृङ्गार को एक सीमा तक प्रश्रय दे डाला है। क्या ही अच्छा होता कि केशादिपादान्त वर्णनों को राम और सीता की ओर से एक दूसरे को देखकर प्रस्तुत किया जाता! राम और सीता की काम-लीलाओं का वर्णन कुमारसम्भव के अष्टम सर्ग की याद दिलाता है जैसे ददर्श पश्यन्नपि तत्कलेवरं चुचुम्ब पश्यन्नपि तन्मुखाम्बुजम्। अजस्रमालिङ्गितवानपि प्रियः स्तनोपपीडं मुहुरालिलिङ्ग ताम् ।। ३/८० (प्रिय ने बार-बार उसके अङ्ग को देखते हुए भी देखा, देखते हुए भी उसके मुख का चुम्बन किया, बार-बार आलिङ्गि करके भी उसका निरन्तर आलिङ्गन किया) ऋतुओं के वर्णन में कवि ने कालिदास और माघ की अनुकृति पर द्रुतविलम्बित में यमक अलकार की अद्भुत योजना की है। छन्दों के प्रयोग में भी दोनों ही कवियों ने अच्छी सूझ-बूझ का परिचय दिया है। रूपक का एक प्रयोग उदाहरणार्थ, चन्द्रोदय वर्णन के प्रकरण का सन्ध्याचूडैरनिबिडतमस्ताम्रचूडैरुडूनि प्रासूयन्त स्फुटमधिवियद्भाण्डमण्डानि यानि। दृष्ट्वा तानि ध्रुवमुपगतः सैन्धवादन्तरीपात् ग्रासं ग्रास चरति परितः कश्चिदेणाङ्कहूणः।। ६/६६ (सन्ध्या के (लाल) चूड वाले ताम्रचूड ने आकाश के भाण्ड में जिन तारों के अंडों को पैदा कर रखा है उन्हें देखकर समुद्र के अन्तरीप से मानो आया कोई चन्द्रमा रूप हूण कौर-कौर करके निगलता जा रहा है।)

  • यहां कवि ने मुर्गों के अंडों की चर्चा की है जबकि मुर्गियों के अंडे होते हैं। प्रा. कुञ्जुनि राजा का यह कथन कि कवि के पाण्डित्य के कारण कहीं उसका कवित्व म्लान नहीं हुआ है, बहुत सही है। आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास सप्तम में सूतजनों द्वारा उद्बोधन के अवसर पर वधू-वर युगल के निद्रा रस में निमग्न होने की स्थिति का प्रस्तुतीकरण सुन्दर हुआ है व्यत्यस्तीकृतभुजकल्पितोपधानं ग्रस्तोष्ठं व्यतिमिलितोरु मीलिताक्षम् । अत्यन्तस्थिरपरिरम्भगूढभेदं तद्वन्द्वं स्वपनरसे चिरं ममज्ज ।। ७/२६ (एक दूसरे की भुजाओं को उपधान बना लिया, होठ पकड़ लिये, दोनों की जांधे परस्पर संश्लिष्ट हो गयीं, दोनों अत्यन्त स्थिर प्रगाढ़ आलिङ्न में गुथ गये- इस प्रकार वह जोड़ी निद्रा-सुख में देर तक डूब गयी) मेरे विचार में यदि कवि ने महाराज दशरथ के भवन में नववधुओं के आगमन को लेकर पारिवारिक जनों के बीच के उल्लास का वर्णन प्रसत किया होता तो निश्चय ही वह एक नया और अनूठा प्रयोग होता। खेद है कि ऐसे प्रसङ्गों की उद्भावना की ओर से वह नितान्त विरत है। इस प्रकार मार्मिक प्रसड्.गों की उपेक्षा प्रायः खटकती है। कोच्चुण्णिराज द्वारा निर्मित भाग में जटायु-रावण युद्ध का वर्णन अच्छा है रुषा निबद्धं रुधिरावनधं वीर्याविरुधं नखरादिसिद्धम्। जगत्प्रसिद्ध सविधस्थसिद्धं तद्वन्द्वयुधं प्रबभौ समिद्धम् ।। १३/८३ (दोनों रोष से भिड़ गये, रुधिर निकलने लगा, पराक्रम के अनुरूप, नखों के प्रहार से सिद्ध, प्रख्यात, सिद्ध जनों के समीप रहते, प्रबल द्वन्द्वयुद्ध हुआ।) उत्तररामचरित का सबसे मार्मिक प्रसङ्ग, सीता-परित्याग के अवसर पर राम के प्रति सीता का सन्देशवचन है। किन्तु वह लगभग रघुवंश के चतुर्दश सर्ग का विस्तार से शब्दान्तरण मात्र होकर रह गया है। किन्तु जब वाल्मीकि के साथ सीता राम की सभा में आती हैं तब उनका यह स्वरूप बहुत प्रभावित करता है सुधांशुलेखेव नितान्तरम्या तेजोमयी वायुसुहृच्छिखेव । निजाममात्राभरणा नदीव ग्रीष्मेण याता नियमेन कार्यम् ।। ८/१E (चन्द्रलेखा की भांति बहुत रमणीय, तेजोमयी, अग्नि-शिखा-सी, मात्र अपने अङ्गों के आभरण वाली, तथा ग्रीष्म से नदी की भांति नियम-पालन से कृशकाय सीता विराजमान प्रस्तुत रचना अपने आप में इतनी समग्र एवं प्रभावोत्पादक होने पर भी आधुनिक भावसम्प्रेषण की दृष्टि से हमे कुछ निराश करती है। फिर भी जिनके मन में प्राचीन कवियों की प्रतिष्ठित रचनाओं की प्रतियोगिता में आधुनिक काल की किसी रचना को प्रस्तुत करने की बात को लेकर यदि कोई आशङ्का हो तो उनके समक्ष यह गरिमामयी रचना रखी जा सकती है। महाकाव्य १७

चण्डीदास (हरियाणा) १८०४

पुण्डरीकपुर या पुण्डरी में जनमे कवि चण्डीदास ने वाराणसी में १८३४ ई. तक अध्ययन किया। उन्हें पंजाब के महाराज रणजीत सिंह के दरबार में सम्मानित पद मिला। बाद में, कवि चण्डीदास पटियाला, जयपुर और अन्त में जम्मू-कश्मीर की राजसभा में प्रतिष्ठित हुए। महाराज रणवीर सिंह के समसामयिक इस कवि ने कई ग्रन्थ लिखे। इनकी प्रतिष्ठा का आधारभूत ग्रन्थ है, १३ सर्गों में लिखित ‘श्रीरघुनाथगुणोदय’ महाकाव्य। इस महाकाव्य का प्रकाशन डॉ. गंगादत्त शर्मा विनोद के सम्पादकत्व में श्री रणवीर केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, जम्मू से १६७६ में हुआ। श्री रघुनाथ गुणोदय रामकथा पर आधारित है। प्रथम सर्ग में अयोध्या वर्णन के पश्चात् महिषी और राजा के बीच रात्रि के एकान्त में संवाद या साकूत सूक्ति के प्रसंग में पुत्र के लिए चिन्ता प्रकट की गयी है गतोऽद्यावधि कालोऽयमावाभ्यां विमलाशये। नानुभूतं त्वदुद्भुतसुतस्पर्शसुखं मनाक् ।। ११०६ (आज तक का समय बीत गया, हे विमल आशयवाली, हम दोनों ने तुझसे उत्पन्न सुत के सुखद स्पर्श का सुख थोड़ा भी अनुभव नहीं किया।) दूसरे, तीसरे और चौथे सर्गों में रामादि के जन्म, ताटकादि का वध और वनप्रान्त का वर्णन है। कवि बहुत कुछ प्राचीन कल्पनाओं को पुनरुक्त करता है। चतुर्थ सर्ग में वियोगिनी छन्द में कवि ने राम के गुणों का वर्णन किया है। राम को देखकर जब जनक प्रभावित हुए और एक सखी को इसकी जानकारी हुई तो उसने जाकर सीता को राम के गुणों के विषय में बताया। वर्णन के पश्चात् वह यह प्रकट करती है कि सीता और राम एक दूसरे के अनुरूप हैं सदृशस्तव तन्वि पश्य तं त्वमपि श्रीरिव तस्य शागिणः। अनुरूपगुणं क्वचिद् भवेद् यदनूनानतिरिक्तयोयम् ।। ५/६० (हे कृश अंगों वाली उसे देख, वह तेरे जैसा है और तू भी लक्ष्मी की भांति विष्णु जैसी है। न कुछ कम, न कुछ अधिक गुणों वाली जोड़ी संयोग से कहीं होती है।) षष्ठ सर्ग में राम के पति सीता के अनुकूल मनोभाव से अवगत होकर वह सखी राम के पास आती है और सीता के मन के भाव को निवेदित करती हुई सीता के सौन्दर्य का बखान करती है पश्य राम हृदयं यथा निजं तन्मनोऽपि च तथैव निश्चिनु । अस्ति तन्न च तथेति संशये साक्षि चित्तमुभयोर्हि नापरम्।। ६/१२ (हे राम, देखो जैसा तुम्हारा हृदय है वैसा ही उसका मन भी समझो। संशय की SE आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास स्थिति में दोनों के चित्त से बढ़कर दूसरा साक्षी नहीं है।) सप्तम में राम-लक्ष्मण के मिथिला में प्रवेश होने पर नारियों की उनके अवलोकन की त्वरा और अन्त में रामादि का वैवाहिक उत्सव वर्णित है। अष्टम सर्ग में कवि ने राम के राज्याभिषेक के प्रकरण में नीति वचनों का निर्माण किया है। यह प्रकरण भले ही कवित्व की दृष्टि से महत्त्व नहीं रखता, किन्तु यहां मानवीय गुणों के सम्बन्ध में कवि की अपनी दृष्टि का उल्लेख होने के कारण इसे विशेष आकलनीय माना जा सकता है। बाद के सर्गों में कथानक को आगे बढ़ाते हुए कवि एकाक्षरपाद, एकव्यजन, नाना यमकों, चित्रबन्धों के प्रदर्शनमूलक प्रयोग में लग गया है। फलतः कवित्व की उच्च भूमि से नीचे आ जाने के कारण उसकी रचना स्तरीयता को खोती प्रतीत होती है। ऐसे भी अनेक स्थलों पर हमारी दृष्टि गयी जिनके सम्बन्ध में कवि द्वारा की गयी पाणिनीय परम्परा की या तो उपेक्षा प्रतीत हुई या उसके अज्ञान का अनुमान हुआ। कवि चण्डीदास के सम्बन्ध में उनके ऊपर किसी प्रकार के अज्ञान या अक्षमता का दोष लगाना अनुचित भी लगता है, फिर भी विचारकों पर इस दिशा में निर्णय लेने की बात छोड़ते हुए हम कहना चाहते हैं कि आलोच्य महाकाव्य में आधुनिकता को लेकर कुछ विशेष उल्लेखनीय बात नहीं लगती। कवि ने दरबारी होते हुए भी अपने आश्रयदाता के गुणों का गान न करके उसके कुलदेवता श्रीरघुनाथ के गुणोदय को विषय बनाया है। अष्टम सर्ग में नीति-वचनों में उसने मानवीय गुणों के आख्यान के प्रसंग में राष्ट्र का उल्लेख किया है अनुरक्षति यो रक्ष्यान रक्षन्नात्मानमग्रतः। राष्ट्रं विवर्धते तस्य स चिरं सुखमश्नुते ।। ८/६४ (अपनी रक्षा करता हुआ जो आगे रक्षा के योग्य जनों की रक्षा करता है, उसका राष्ट्र सवंर्धन को प्राप्त होता है और वह चिरकाल तक सुख का अनुभव करता है।) संस्कृत साहित्य के इतिहास में, अपकर्षकाल की रचनाओं में लोकोन्मुखता का अभाव होता गया। आधनिक काल में इसे प्रश्रय मिला. जिसका एक क्षीण सा संकेत कवि चण्डीदास ने इस सर्ग में किया है, ऐसा लगता है।

परमेश्वरन् मूत्ततु (केरल) १८१६-१८८३

अपने समय के प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान तथा वैद्य परमेश्वरन् मूत्ततु गोदवर्म युवराज के शिष्य थे। ये वैक्कम् जनपद के व्याघ्रालपेश क्षेत्र के पास के निवासी थे। इनका “परमेश्वर शिवद्विज” के नाम से भी उल्लेख किया गया है। व्याकरण और ज्योतिःशास्त्र में भी इनकी अप्रतिहत गति थी। इन्हें कन्याकुमारी जनपद के अन्तर्गत शुचीन्द्रपुर के स्थाणु क्षेत्र में “वट्टपल्लि” के “स्थानी” होने का गौरव कुलपरम्परा से प्राप्त था। इन्होंने आठ सर्गों में रामवर्ममहाराजचरित काव्य का निर्माण किया, जो आइल्यम महाकाव्य १E तिरुनाल महाराज (१८६०-१९८०) के जीवन-चरित पर आधारित है। इसमें वञ्चिराज्य की कथा भी वर्णित है। इस काव्य के पद्यों में “अष्टाध्यायी’ के पाणिनीय सूत्रों का आरोह क्रम से यथासम्भव उपयोग किया गया है। इस काव्य को म. म. पण्डित वेड्कट राम शर्मा ने सम्पादित करके तिरुवनन्तपुर (त्रिवेन्द्रम) से १६५७ में प्रकाशित किया। कवि ने मनालाचरण में अक्षराम्नाय रूप श्रीपति भगवान के अपने तल्प (पर्यक) पर धारण करने वाले अद्भुत व्याकृति-भाष्य (पाणिनीय सूत्रों पर महाभाष्य) के कर्ता शेष के चरण को शिरोधार्य किया है और ‘अष्टाध्यायी” के आरम्भ के तीन सूत्रों, “वृद्धिरादैच्”, “अदेङ्गुणः” और “इको गुणवृद्धी” को समेटते हुए इस प्रकार काव्य का आरम्भ किया है गुणान् सवृद्धीन प्रथयन् स्वया दृशा विभाति वर्णेः पृथगीड्या त्रिभिः । पदागमः किं गुणवृद्धिवाचकैश्चतुर्पु, वर्णेषु, स वञ्चिभूपतिः।।१/२।। इस काव्य के नायक चूंकि आश्लेषा नक्षत्र में उत्पन्न हुए थे, अतः कवि ने उनके चरित को भी श्लेष के आधार पर काव्य का रूप दिया है। प्रसंगतः इसमें सूर्योदय आदिका वर्णन भी है। पाणिनीय सूत्रों के उदाहरण के रूप में इसके प्रत्येक पद्य में कुछ कहने की प्रवृत्ति ने कवि को अपनी सीमा से ऊपर उठ कर कहने की स्वतन्त्रता नहीं दी है। इसमें सन्देह नहीं कि कवि इस काव्य के माध्यम से एक अतिरिक्त चमत्कार के प्रदर्शन के लोभ से ग्रस्त है। इस कारण यह कहना कठिन है कि उसकी कविता उससे प्रभावित नहीं हुई है। इसे “ध्वनिकाव्य” कह कर भी “उत्तम काव्य” की संज्ञा तो नहीं दी जा सकती।

सीताराम भट्ट पर्वणीकर

(उन्नीसवीं शती) सवाई राजा जय सिंह तृतीय के शासनकाल (१८१८-१८३४) में थे और इन्होंने अनेक शास्त्रीय ग्रन्थों की रचना की तथा इनके द्वारा रचित चार महाकाव्यों, नृपविलास, नलविलास, जयवंश तथा राधवचरित्रम्, में से दूसरा जयवंशमहाकाव्य प्रकाशित है। नृपविलास महाकाव्य सटीक एवं १६ सर्गों में पूर्ण हुआ है। यह श्रीहर्ष के नैषधीयचरित के आदर्श पर रचित है, किन्तु नैषध वाली क्लिष्टता इसमें नहीं है। इसमें किसी “नृपवीर” राजा के कथानक को आधार बनाया गया है। राजस्थान वि. वि. में इस पर शोध कार्य भी किया गया है। नलविलास महाकाव्य में ३२ सर्ग है। पहले के २२ सर्ग नैषधीय चरित के कथानक पर आधारित हैं और शेष १० सर्ग महाभारत के नलोपख्यान पर। राधवचरित्रम्, श्रीराम के कथानक पर आधारित है और इस पर भी शोध कार्य सम्पन्न हो चुका है। लघुरघुकाव्य कवि पर्वणीकर का पाचवां महाकाव्य है जो १६ सर्गों में रचित एवं कालिदास के रघुवंश के आदर्श पर प्रस्तुत किया गया है। जयवंशमहाकाव्य राजस्थान विश्वविद्यालय से पं. पट्टाभिराम शास्त्री द्वारा सम्पादित होकर १६५२ में प्रकाशित हुआ। यह एक ऐतिहासिक महाकाव्य है तथा इसमें १E सर्ग हैं। कवि ने अपने आश्रयदाता सवाईजयसिंह तृतीय और उनके वंशजों के कथानक को आधार बनाया है। कालिदास की शैली में कवि ने जयवंश के गुणों के वर्णन में अपनी अक्षमता प्रकट की है आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास अमन्दसम्बन्धिपदं लघीयानारोदुमिच्छाम्यतिमन्दबुद्धिः। सेयं मदिच्छोच्चमहीरुहाणां पुष्पोच्चिचीषा खलु वामनस्य ।। १/३ (छोटा, अति मन्दबुद्धि वाला में महान् पद पर आरूढ़ होना चाहता हूँ। मेरी यह इच्छा ऊचे पेड़ों से फूल चुनने की, बौने व्यक्ति की इच्छा जैसी है।)

शिवकुमार मिश्र

(उत्तर प्रदेश १८४७-१८१८ ई.) इन्होंने काशी के शास्त्रार्थी विद्वानों में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त की. कछ समय मिथिला में भी अध्यापन किया तथा दरभंगा नरेश लक्ष्मीश्वर सिंह तक दरभंगा के नरेशों की वंशावली “लक्ष्मीश्वरप्रतापः” नाम के महाकाव्य के माध्यम से प्रस्तुत की। हरिनाथ शास्त्री (मनीष्यानन्द) उत्तर-प्रदेश अनु. १८४७-१६२३ ये काशी में रहते थे। इन्होंने सन्यस्त जीवन बिताया, तथा “मनीष्यानन्द” नाम से विदित हुए। इन्होंने भवानन्दचरित महाकाव्य ( डा. हीरालाल शुक्ल के अनुसार, यतीन्द्रचरितामृतमहोदधि महाकाव्य) की रचना की। भवानन्द तीर्थ इनके दीक्षागरु थे। कहते है कि इनकी म. म. शिवकुमार शास्त्री से बिलकुल नहीं पटती थी। आचार्य पं. बलदेव उपाध्याय के अनुसार भवानन्द चरित १५ सौ तथा नाना वृत्तों में निबद्ध है तथा काव्य की दृष्टि से बड़ा ही रोचक, सुबोध एवं आध्यात्मिक शिक्षण समन्वित है। दुःखभंजन कवि (उत्तर प्रदेश) अनुमानतः १८४६, वाराणसी के संस्कृत कवि-समाज में आज भी इनका सादर स्मरण किया जाता है। ये अनेक विषयों के विद्वान् तथा मर्मज्ञ थे। त्रिपुरा के उपासक भी थे। साथ ही श्लेष के चमत्कारी कवि थे। इन्होंने राजा चन्द्रशेखर त्रिपाठी के विषय में एक प्रशस्तिकाव्य चन्द्रशेखर-चरित महाकाव्य के नाम से लिखा। इनकी छन्दःशास्त्र पर रचित “वाग्वल्लभ” अपने विषय की प्रसिद्ध रचना है। ए. आर. राजराजवर्मा (केरल) १८६३-१६१८ मलयालम भाषा तथा केरलीय साहित्य के विकास में विशेष योगदान के द्वारा नवोत्थान करने वाले इस कवि ने संस्कृत में ‘आजलसाम्राज्यम्’ की रचना २३ सर्गों में की। उसका प्रथम श्लोक है अस्ति प्रशस्तेष्वतलान्तिकाब्धिक्षिप्तेषु विष्वक् पुरमण्डलेषु। तिसानदीतीरवतंसभूतं भूमण्डनं लण्डननामधेयम् ।। (अटलापिटक महासागर में फैले प्रशस्त नगरों में से एक टेम्स नदी का तटवर्ती पृथ्वी का अलड्.करण लन्दन नाम का नगर है।)

अन्नदाचरण तर्कचूडामणि

(बंगाल) अनु. १८६२ में इनका जन्म पूर्वी बंगाल के नोआखाली जिले के सोमपाड़ा ग्राम में हुआ। काशी में इन्होंने अध्यापन किया। १६२२ में अंग्रेज सरकार ने इन्हें महामहोपाध्याय की पदवी से अलङ्कृत किया। “संस्कृतचन्द्रिका” में समय-समय पर इनकी रचनाएं प्रकाशित होती थीं, जिनका संग्रह “सुमनोऽञ्जलिः” नाम से १६०१ में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। इनके दो महाकाव्य प्रकाश में आये-‘रामाभ्युदयम्’ और ‘महाप्रस्थानम् । रामाभ्युदयम् १८६७ ई. में नोआखाली से प्रकाशित हुआ। इसमें १६ महाकाव्य सर्ग हैं तथा राम के बाल्यकाल से विवाह तक की घटनाएं वर्णित हैं। अयोध्या के वर्णन में दशरथ के वैभव का विशद वर्णन है तथा यज्ञवर्णन (षष्ठ सर्ग), बालक्रीडाओं का वर्णन है। सीता-स्वयंवर के प्रसंग में सीता का वर्णन और राम के आनन्दित होने की स्थिति कवि की सूक्ष्म वर्णन दृष्टि की परिचायक है। कवि द्वारा सीता का यह वर्णन आकलनीय है जयति जयति सीता विश्वचित्ताम्बुधीन्दुः, युवतिजनतरूणां पारिजातः सपुष्पः। स्मितवदनसरोजा रत्नमाला धरिण्याः, जनकनयनतारा मानसानां नियन्त्री। १७/६३ (संसार के चित्तरूपी समुद्र का चन्द्रमा, युवति-जन रूपी वृक्षों के बीच पुष्पों से भरा पारिजात, सस्मित मुखकमल वाली, पृथ्वी की रत्नमाला, जनक के नेत्र की तारा, मन को नियन्त्रित करने वाली सीता की जय हो, जय हो।) महाप्रस्थानम् महाभारत कथा पर आधारित है तथा इसमें पाण्डवों के स्वर्गारोहण की कथा है। इसमें २२ सर्ग हैं। यह अर्जुन के वर्णन से आरम्भ होता है, किन्तु इसके नायक युधिष्ठिर हैं। बसन्त का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है नवनवोज्ज्वलवेशविभूषिते निखिलजीवमनोहरणक्षमे। सुमधुरे सरसे जगतीतले सुरुचिरे रुचिरे न चलाः श्रियः।। ८/२४ ( नये-नये उज्ज्वल वेशों से विभूषित, निखिल जीवों के मन को हर लेने में समर्थ, संसार में सुमधुर तथा सरस, रुचिर वसन्त में श्री (लक्ष्मी, या शोभा) अचल रही)। मन्दिकल सी. एन. रामशास्त्री (मैसूर १८४६) मैसूर के महाराज कृष्णराज वाडियर ने इनसे प्रभावित होकर इन्हें “कविरत्न” की उपाधि से अलङ्कृत किया तथा महाराजा संस्कृत कालेज, मैसूर का प्रधान पण्डित नियुक्त किया। इन्होंने कृष्णराजाभ्युदयमहाकाव्य की रचना की। फिर इन्होंने “सीतारावणसंवादझरी” नाम से चित्रकाव्य की रचना करके अपने अतिरिक्त काव्यनिर्माण-चातुरी का परिचय दिया। त्रिविक्रम शास्त्री (मैसूर) अनुमानतः १८५० ई. इन्होंने मैसूर के महाराजा कृष्णराज पर “कृष्णराजगुणालोकः (महाकाव्य) की रचना की। / विश्वनाथदेव वर्मा (उड़ीसा १८५०-१६२० ई.) ये आठगढ़ (उड़ीसा) के महाराज थे। इन्होंने रुक्मिणीपरिणय महाकाव्य का निर्माण किया। चण्डमारुताचार्य (तमिलनाडु १८५०-१८६E) इनका जन्म कांजीवरम के आलिसुर नाम के गांव में हुआ था। इनका उपनाम परिमल था। मद्रास के सेन्ट थामस कालेज तथा मैलापुर मिशनरी कालेज में इन्होंने अध्यापन कार्य किया। ६ सर्गों का “अनिलराजकथा’ एक अपूर्ण महाकाव्य है, जो इनकी मृत्यु के कारण अपूर्ण रह गया। सोंठी भद्रादि रामशास्त्री (आन्ध्र-प्रदेश) १८५६-१६१५, आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास पूर्वी गोदावरी जिला के पीठापुरम् ग्राम के निवासी इस कवि ने ‘श्रीरामविजयम्’ महाकाव्य की रचना की। लिक्ष्मण सूरि (तमिलनाडु १८५६-१६१६ ई.) रामनाथुपरम् ज़िला के श्रीवेल्लिपुलूर के निकट पुनाल वेदी में उत्पन्न इस कवि ने ‘कृष्णलीलामृतम्’ महाकाव्य का निर्माण किया। ये मद्रास के पचयप्पा कालेज में संस्कृत के प्राध्यापक थे। इन्होंने उपन्यास, नाटक तथा सन्देशकाव्य भी लिखे। दिवाकर कवि (उत्तर प्रदेश, अनु. १८६० ई.) इन्होंने १४ सगों में पाण्डवचरितकाव्यम् की रचना की। भट्टनारायणशास्त्री (तमिलनाडु अनु. १८६०-१९०१ ई.) तंजोर के नाडुकावेरी के निवासी तथा ब्रह्मविद्या के सम्पादक श्रीनिवास शास्त्री के अनुज, अप्पयदीक्षित के वंशज इस कवि ने छोटे-बड़े ६६ रूपकों की रचना की, “सीमन्तिनी” नाम का लघु उपन्यास लिखा। इनका २४ सर्गों का महाकाव्य “सौन्दर्यविजयः” है। योगीन्द्रनाथ तर्कचूडामणि- (बंगाल अनु. १८६०-) इन्होंने ‘दशाननवधकाव्य’ नाम के महाकाव्य की रचना की। अभिनव रामानुजाचार्य (आन्ध्र प्रदेश अनु. १८६० ई.-) तिरुपति के निवासी इस कवि ने भगवान वेंकटेश की प्रशस्ति में ‘श्रीनिवासगुणाकरः’ (महाकाव्य) का प्रणयन किया तथा इसके प्रथम आठ सर्गों की व्याख्या भी स्वयं की। शेष की व्याख्या कवि के भ्रातृज वरदराज ने की। रामचन्द्र (आन्ध्रप्रदेश अनु. १८६० ई.-) कृष्णा जिला के मछलीपट्टम के नोबल कालेज में संस्कृत के प्रधान पण्डित ईडपल्ली निवासी इस कवि ने ‘देवीविजयम्’ (महाकाव्य) की रचना की।

रामनाथ तर्करत्न

(शान्तिपुर बंगाल १८४०-५० के बीच जनमें ) कालिदास विद्यावागीश के सुपुत्र इस कवि ने अठारह सगर्गों में ‘वासुदेवविजय’ महाकाव्य की रचना की, जिसका प्रकाशन कलकत्ता के २ नं. नवाव दि ओस्तागार लेन स्थित इंराजियन्त्र में श्रीपीताम्बर बन्द्योपाध्याय द्वारा किया गया था। इस महाकाव्य की रचना कवि ने १८८३ में की थी तथा १८६० में प्रकाशित हुआ था। इसके अतिरिक्त इनकी दो और रचनाओं की सूचना मिलती है- आर्यालहरी (रचनाकाल १८६३) और विलापलहरी (रचनाकाल १८६२)। हरिवंश पुराण के पारिजातहरण के प्रसङ्ग पर आधारित इस पारम्परिक महाकाव्य रचना में कवि का उत्कृष्ट कवित्व प्रकट हुआ है। कालिदास आदि कवियों का इस पर कुछ प्रभाव लक्षित होता है। इसके अतिरिक्त कवि का कवित्व अपनी विलक्षणता से उद्भासित है ऐसा दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है। वैदशिक आंग्लशासन से ग्रस्त अपने राष्ट्र के मान संवर्धन के प्रति कवि के हृदय में जागरूकता इसके त्रयोदश सर्ग के पद्यों में लक्षित होती है, जैसे कीर्तिस्तमालिति तं वृणीते सौभाग्यसम्पत् तमुपैति लक्ष्मीः। प्रीतिर्मुहुस्तं भजते प्रकामं गृह्णाति केशेष्वहितश्रियं यः।। १३/२४ (उसका कीर्ति आलिङ्गन करती है, सौभाग्य-सम्पत्ति उसे वरण करती है, उसे लक्ष्मी अपनाती है प्रीति उसकी सेवा करती है, जो दृढ़ता से शत्रु की लक्ष्मी के बाल पकड़ कर उस पर अपना अधिकार कर लेता है) पारतन्त्र्य नरक को व्यक्त करता है, क्योंकि वह शौर्य महाकाव्य को नष्ट कर देता है, सुरुचि को रोक लेता है, चित्त को तोड़ देता है, धन को बांट देता है, नीति को रगड़ डालता है, तथा दासता को ला देता है। पारतन्त्र्य को लेकर कवि की पीड़ा इन शब्दों में व्यक्त हुई है हिनस्ति शौर्य सुरुचिं रुणद्धि भिनत्ति चित्तं विवृणोति वित्तम्। पिनष्टिं नीतिञ्च युनक्ति दास्यं हा पारतन्व्यं निरयं व्यनक्ति।। १३/३२ इसलिए वह एक निर्णय लेता है असुव्यपायेष्वपि नो जहीमः स्वतन्त्रतामन्त्रमतन्द्रिणोऽध। उपागतायां परतन्त्रतायां यशोधनानां शरणं हि मृत्युः।। १३/३४ (आज हम तन्द्रारहित हैं, और प्राणों के चले जाने पर भी स्वतन्त्रता के मन्त्र को नहीं छोड़ेंगे। क्योंकि परतन्त्रता के प्राप्त हो जाने पर यश के धनी लोगों के लिए मृत्यु शरण है)। रामचरण भट्टाचार्य (बंगाल १८६३-१६२८) स्वामी विशुद्धानन्द के शिष्य इस कवि ने ‘उमाचरितचित्तम्’ महाकाव्य (कलकत्ता, १६००) लिखा । पञ्चानन तर्करत्न (१८६६-१६४१) ये बंगाल के भट्टपली ग्राम के निवासी थे। इन्होंने विदेशी शासक के विरुद्ध “अनुशीलनी” नाम की क्रान्तिकारी संस्था स्थापित की तथा १९०७ ई. में अलीपुर बम विस्फोट काण्ड में जेल गये थे। इन्होंने दो महाकाव्य लिखे ‘पार्थाश्वमेध’ ‘विष्णुविक्रम’। डा. हीरालाल शुक्ल ने विष्णुविक्रम को उत्कृष्ट कोटि की रचना माना है। इनके नाटक भी हैं- अमरङ्गलम् तथा कलङ्कमोचनम्। तिरुमल बुक्कपट्टनम् श्रीनिवासाचार्य (आन्धप्रदेश अनु. १८७० ई.) इन्होंने ‘आङ्ग्लजर्मनीयुद्धविवरणम्’ नामक ऐतिहासिक महाकाव्य की रचना की।