०२ सङ्क्रान्तिकाल के कवि

राम पाणिवाद

(केरल १७०७-१७८०) अट्ठारवीं शताब्दी के इस महान संस्कृत कवि ने ‘राघवीयम्’ (त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सीरीज में प्रकाशित, सं. १४६) महाकाव्य के अतिरिक्त अनेक विधाओं में काव्य रचना की। इनके काल और परिचय को लेकर विद्वानों मैं पर्याप्त मत-भेद है। कुछ विद्वान् इन्हें कुंजन नम्बियार से अभिन्न मानते हैं तो कुछ भिन्न । यद्यपि इन्हें हम आधुनिक संस्कृत साहित्य की काल-सीमा के अन्तर्गत नहीं रख सकते, नथापि प्राचीन काल और आधुनिक काल के बीच की कड़ी के रूप में रखना उचित समझते हैं, क्योंकि इनमें एक ओर कुछ स्पष्ट रूप से प्राचीनता भासित होती है तो इन पर कुछ झीना-झीना सा आधुनिकता का भी आवरण झलकता है। डॉ. हीरालाल शुक्ल ने इन्हें आधुनिक काल में स्थान दिया है। आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास राम पाणिवाद के द्वारा रचित राघवीयम् बीस सर्गों का महाकाव्य है, जो राम के जन्म से लेकर राज्याभिषेक की कथा पर आधारित है। मूल रामकथा में कवि ने कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया है। महाकाव्य के परम्परागत लक्षण पर आधारित यह काव्य एक ओर भगवान राम के उज्ज्वल चरित्र को बड़ी सफलता के साथ तो प्रस्तुत करता ही है, राम कथा के अनेक पात्रों के चित्रणों में भी एक अलग आकर्षण की अनुभूति कराता है। इसका मूल कथ्य मानव जीवन में परोपकार के महान् लक्ष्य को प्रस्तुत करना प्रतीत होता है। एकादश सर्ग में वालि-वध के बाद वानरराज सुग्रीव जब राम को अपने दिये वचन को भूल जाता है तब उसके प्रति कोप का भाव मन में रखकर राम लक्ष्मण से कहते हैं यः परार्थपरवत्तया परं शेष इत्यभिहितो भुजङ्गराट् । तं कथञ्चिदनुयातुमीहते यः स एव भुवने पुमान् पुमान् ।। ३८|| अर्थात् जो नागराज परकार्य में प्रवृत्त होने के कारण ‘शेष’ कहे जाते हैं उन्हें किसी प्रकार जो अनुगमन करना चाहता है संसार में वह पुरुष पुरुष है। इसी क्रम में राम कहते हैं- अपना प्रयोजन सिद्ध करते हुए भी कोई स्वभावतः दूसरे का कार्य भी कर देता है, जैसे अग्नि इन्धन का भक्षण करता है और साथ ही अन्धकार को दूर करता है। हमारे बाण उन्हें छोड़कर कहां गिरेंगे, जो अपने कार्य की सिद्धि के लिए दूसरों के प्रयोजन के लिए वचन देकर भी उदासीन हो जाते हैं। प्रस्तुत महाकाव्य में कला-पक्ष और भाव-पक्ष दोनों सहज भाव से निभाये गये हैं और वस्तुतः कवि को इसमें पर्याप्त सफल माना जा सकता है। एक और अनेक प्राकृतिक दृश्यों के वर्णनों में स्वाभाविकता है तो दूसरी ओर उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा जैसे अर्थालङ्कारों के साथ श्लेष, यमक और अनुप्रास को भी यकिञ्चित् प्रश्रय मिला है। कवि की शैली विषय के अनुरूप कहीं-कहीं परिवर्तित होती रहती है। भाव-पक्ष को बड़ी सावधानी के साथ कवि ने निभाया है। कैकेयी द्वारा दो वरों के मांगने के प्रसङ्ग में कवि ने रूपक का आश्रय लिया है केकयेन्द्रदुहितुर्मुखगर्तादुत्सृता वरयुगद्विरसज्ञा। वाङ्मयी तमथ मूर्छयति स्म द्राङ्नरेन्द्रमपि कालभुजङ्गी ।। ५/३८।। (कैकेयी के मुख के गर्त से निकली, दो वरों की दो जीभों वाली वाणी की काली नागिन ने उस नरेन्द्र (राजा दशरथ, श्लेष से सपेरे) को भी मूर्च्छित कर डाला।) लड़का में हनूमान जब प्रथम बार सीता को देखते हैं तब उन्हें एक ही साथ नाना रसों (भावों) की अनुभूति होती है सैवेयं जनकात्मजेति मुमुदे शोकानलज्वालया व्यालीटेति शुशोच रावणहृतेत्युच्चैरदृप्यत् क्रुधा। महाकाव्य यत्नो मे फलवानसूनजहती यद् दुर्बलानप्यसौ संदृष्टेति समाश्वसीदिति हरि नारसोऽभूत क्षणम् ।। १२/६३।। (यह वही जनक-पुत्री है इस कारण प्रसन्न हुए, शोकाग्नि की ज्वाला से ग्रस्त है इस कारण दुखी हुए, रावण द्वारा हृत है, इस कारण क्रुद्ध हुए, यह दुर्बल प्राणों को भी नहीं त्याग करती हुई मेरे दृष्टिगोचर हो रही है अतः मेरा यत्न सफल हुआ, इस कारण आश्वस्त हुए, इस प्रकार हनुमान ने नाना रसों का एक ही साथ अनुभव किया।)

जगज्जीवन भट्ट

(राजस्थान १७४०) मारवाड के शासक महाराजा अजित सिंह के चरित्र पर समसामयिक कवि जगज्जीवन भट्ट द्वारा लिखित ऐतिहासिक अजितोदय’ महाकाव्य श्री नित्यानन्द दाधीच द्वारा सम्पादित होकर १९८६ ई. में प्रकाशित हुआ। (प्रकाशन-महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाशन, मेहरानगढ़ म्यूजियम, जोधपुर)। ३२ सगों का यह महाकाव्य राजपताना के इतिहास के १६७४ से लेकर १७२४ तक के कालखण्ड पर आधारित है। इस कालखण्ड में अवरंगजेब’ ने मारवाड़ को हथियाने का प्रयास किया, पर बाद में वह दकन की ओर मुड़ने के लिए बाध्य हुआ, जहां १७०७ में उसकी मृत्यु हुई। यह महाकाव्य जसवन्त सिंह (प्रथम) की मंदाब नदी के तट पर पठानों पर विजय की घटना से आरम्भ होता है और मथुरा में अजित सिंह के उत्तराधिकारी पुत्र अभय सिंह को जयपुर के महाराज जयसिंह की कन्या के साथ विवाह की घटना तक समाप्त होता है। कवि जगज्जीवन भट्ट श्री कृष्ण का मक्त है, क्योंकि वह मङ्गलाचरण पद्य में श्रीकृष्ण के प्रति नमन निवेदित करता है और आगे भी उसने कृष्ण-भक्ति परक अनेक पद्य लिखे हैं (१८/०-९३)। वह प्रथम सर्ग के दूसरे पद्य में विनय निवेदित करते हुए कहता है शास्त्रज्ञो न च शाब्दिकोऽस्म्युत महासाहित्यविन्नास्म्यहं नो जानाम्यहमद्भुतार्थविलसत्सत्काव्यसंयोजनाम्। देवी काचिदिहाब्जयोनितनया पाणिस्थवीणाकल क्वाणानन्दरता निरीक्ष्य सुजडं ब्रूते तु मत्कण्ठगा।। अर्थात न मैं शास्त्रों का ज्ञाता हूँ, न वैयाकरण हूं, न साहित्य का ज्ञान रखता हूँ और न ही चमत्कारी अर्थों से युक्त सत्काव्य की संयोजना जानता हूं। केवल मुझ जड़ को देखकर वीणावादिनी देवी सरस्वती मेरे कण्ठ में स्थित होकर बोल रही है। आरम्भ के दस सर्गों में केवल वसन्ततिलका और बाद के सर्गों में शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा तथा अन्य कुछ छन्दों में रचित इस विशाल ऐतिहासिक महाकाव्य की कथानक-संरचना में कवि काल्पनिक पौराणिकता का भी आश्रय लेता है। जैसे, चिन्तित नारद का स्वर्ग में इन्द्र के पास जाना, इन्द्र को लेकर ब्रह्मा के पास और ब्रह्मा का क्षीरसागर के तट पर आकर 4. आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास भगवान विष्णु से प्रार्थना करना आदि। यहां काव्य-नायक अजित सिंह को इन्द्र के अवतार के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि आद्योपान्त ऐतिहासिक स्थानों, व्यक्तियों और घटनाओं से भरपूर इस काव्य का कवित्वपक्ष दबा हुआ प्रतीत होता है, तथापि कवि अपनी बात कहने के लिए अलंकारों का आश्रयण लेता है। जैसे, विनोक्ति का प्रयोग सूर्य विना दिनगणः सदनं विनार्थमृद्धिं विना वितरणं सुवचो विना वै। सद्गौरवं सरसिजं च विना सरो हि सुश्रीकतामपि न याति कुलं विपुत्रम् ।। ३/६ (सूर्य के बिना दिनसमूह, धन के बिना गृह, समृद्धि के बिना दान, सुवाणी के बिना सद्गौरव, कमल के बिना तालाब और पुत्र के बिना कुल सुशोभित नहीं होता।) यह कवि भी संस्कृत साहित्य के इतिहास के प्राचीन और आधुनिक काल की देहली पर स्थित है। एक ओर जहां राम पाणिपाद ने महाकाव्य में भारभूत वर्णनों के आधिक्य को कम प्रश्रय दिया, वहां दूसरी ओर जगज्जीवन भट्ट ने अपने कवित्व को सर्वथा कल्पना-जाल के वशीभूत नहीं किया और बहुत कुछ अपने नायक के जीवन से सम्बद्ध घटनाओं की ऐतिहासिकता को सुरक्षित रखा। उल्लेख्य है कि बालकृष्ण ने भी दस सर्गों में अजितोदय महाकाव्य लिखा है, जिसमें डॉ. हीरा लाल शुक्ल के अनुसार जगज्जीवन की रचना की अपेक्षा कुछ रसमयता है।

रूपनाथ झा

(मध्य प्रदेश अनुमानतः १७६०)- कवि रूपनाथ या रूपनाथोपाध्याय मूलतः मिथिला (बिहार) के निवासी थे, किन्तु उनके पूर्वज मध्यप्रदेश में जा बसे थे। मध्यप्रदेश के माडला या माहिष्मती से पूर्व इन्होंने रामटेक में भी निवास किया था, जहां इनके द्वारा उपार्जित धन-राशि को लुटेरे लूट ले गये। इन्होंने दो महाकाव्यों की रचना की श्रीरामविजयमहाकाव्य और गढेशनृपवर्णनम्। दूसरा ऐतिहासिक महाकाव्य है जिसमें डॉ. ही. ला. शुक्ल के अनुसार मांडला के गोंड राआओं का वर्णन है। इसके अन्तिम ५४ श्लोकों में अन्तिम शासक सुमेदसाहि (१७८६) की चर्चा है तथा जो १७६०-१७६६ के बीच रचित है। श्रीरामविजय महाकाव्य गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज, बनारस से १६३२ में पं. गणपतिलाल झा शर्मा द्वारा सम्पादित होकर पं. नारायण शास्त्री खिस्ते की भूमिका के साथ प्रकाशित हुआ । इसके सर्गों में मृगया के लिए वन गये दशरथ को मुनि द्वारा शाप दिये जाने के प्रसंग से लेकर रावण-बध के पश्चात् श्रीराम के राजसिंहासनाधिरोहण तक का कथा-भाग उपनिबद्ध है। महाकाव्य के परम्परागत लक्षणों पर आधारित इस रचना का आरम्भ शाक्त कवि ने उग्र काली (श्यामा) की स्तुति से किया है। - प्रथम सर्ग में महाराज दशरथ मृगया के लिए वन जाते हैं और उनके बाण से श्रवण के मरने और उसके माता-पिता के द्वारा शाप दिये जाने का मार्मिक प्रसङ्ग है। कवि ने शिखरिणी छन्द में निर्मित सर्ग के अनेक पद्यों के तृतीय पाद में यमक अलंकार का प्रयोग किया है जो “अपृथग्यत्ननिर्वयं” न होने के कारण काव्यार्थ बोध में बाधक हो गया है, किन्तु बाद के विभिन्न छन्दों में निर्मित सर्गों में इस आरोपित यमक-प्रयोग के आग्रह के महाकाव्य मुक्त हो जाने से कवि की रचना में सम्प्रेषणीयता आ गयी है। छोटे से फलक पर भी एक बृहद् राम-कथा के प्रसंगों को उल्लिखित करने के कारण कवि कहीं तो घटना को संकेतित करके आगे बढ़ जाता है तो कहीं रम जाता है। द्वितीय सर्ग के धनुर्भङ्ग प्रसङ्ग में परशुराम-लक्ष्मण संवाद पर गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस का प्रभाव ग्रहण ही नहीं, कविने अनुवाद भी निःसंकोच किया है। यही बात भरत द्वारा कैकेयी की भर्त्सना के प्रसंग में है। कवि ने कहीं समुचित शब्द शय्या एवं अलंकार द्वारा वर्ण्यविषय को आकर्षक बना दिया है। राम के शुभ विवाह में जनक के आमन्त्रण पर बारात को लेकर महाराज दशरथ मिथिला पहुँचे। घोड़ों, ऊटों की स्वाविभाविक स्थिति का कवि ने वर्णन किया है वाहा रयैर्निर्जितगन्धवाहा उरोविशाला लघुकर्णशालाः। आवर्तयुक्ताः शुभशंसिशुक्तियुता निबद्धाः पटमण्डपेषु ।।३/४१ उत्तारिते पृष्ठत एव वाहाः पल्याणके क्षोणितले लुठित्वा। स्कन्धान मुहुः सन्दुधुवुः सपाशून् सशब्दभाण्डं परिधूतखेदम् ।। श्रीवृक्षकी वाजिवरः शुभंयुर्वक्षोभवावर्तचतुष्टयेतः। कण्ठे महावर्तविरोचमानः समीप एवाजिनृपस्य तस्थौ।। भारे समुत्तारित एव चोष्ट्रवृन्दं प्रदीयश्छदनं विहाय। आनादिकं निम्बपलाशमा रुचिबिभिन्ना खलु जीवजातेः।। उक्षाण उत्तारितभार एव तले निषण्णा धरणीरुहाणाम् । रोमन्थकं चक्रुरल श्रमेण चलत्कपोलं सुनिमीलिताक्षम् ।। ३/४१-४५ (विशाल वक्ष तथा छोटे कानों वाले, आवर्त तथा “शक्ति” के शुभ लक्षणों से युक्त पट-मण्डपों में बंधे घोड़े वेग से हवा को जीतने की क्षमता रखते थे। वे घोड़े पलान के पीठ से हटा दिये जाने पर, जमीन पर लोट कर धूल-भरे कंधे बारबार झाड़ने लगे और भड़-भडू की आवाज करने लगे। उनमें श्रीवृक्षकी नाम का श्रेष्ट घोड़ा, जिसकी पीठ पर चार “आवर्त” थे और कण्ठ में बड़ा “आवर्त” था, राजा के समीप ही खड़ा हो गया। और उष्ट्र-वृन्द भार के उतारे जाने पर मृदु छाया वाले आम आदि को छोड़ नीम के पत्तों को ग्रहण करने लगा। प्राणियों की रुचि अलग-अलग होती है। और भार उतारे जाने पर पेड़ों के नीचे बैठे, आंखें बंद किये, कपोल का चालन करते हुए बैल “पगुरी” (रोमन्थ) करने लगे।

विश्वेश्वर पाण्डेय

(उत्तर प्रदेश १७०६-१७८८)- ये अल्मोड़ा लिजे के पाटिया ग्राम के निवासी थे। ये एक ही साथ कवि, गद्यकार और काव्यशास्त्र के आचार्य थे। आचार्य पं. बलदेव उपाध्याय के शब्दों में, ये अपने युग के महान् साहित्य स्रष्टा थे। इन्होंने लक्ष्मीविलास काव्य की रचना की। इनकी कृतियों में आर्यासप्तशती (मुक्तक काव्य) मन्दारमञ्जरी (गद्यकाव्य) और अलङ्कारकौस्तुभ अलङ्कार ग्रन्थ अत्यन्त प्रसिद्ध हुए।आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास

सुब्रह्मण्य

(केरल १७२४-१७६८) रामलिङ्गम् और कोकिलाम्बा के सुपुत्र सुब्रह्मण्य कार्तिक तिरुनाल रामवर्म महाराज के दरबार के कवि थे। कल्पना है कि ये तमिल बाह्मण थे। इन्होंने आठ सर्गों में पद्मनाभविजय महाकाव्य लिखा। नैषधकार के ढंग से इन्होंने प्रत्येक सर्ग के अन्त में अपने परिचय का पद्य लिखा।

आरूर माधवन् अडितिरि

(केरल १७६५-१८३६) -केरल के प्राचीन कुच्चि राज्य के पेसवन से कुछ दूरी पर स्थित चेरु वत्तेरि स्थान के अरुरमठ में इनका जन्म हुआ। इन्होंने मनोरमा तम्बुराटी, देशमङ्गलम् आदि गुरुओं से विद्यार्जन किया तथा कोटिलिंग राजकुमारों को पढ़ाया। इनका उत्तरनैषधम् १६ सर्गों का महाकाव्य है जो १८३० ई. में पूर्ण हुआ।

श्याम भट्ट भारद्वाज

(महाराष्ट्र) अट्ठारहवीं शती के उत्तरार्ध में इनका जन्म हुआ। ये भारद्वाज गोत्रीय दाक्षिणात्य ब्राह्मण थे तथा कोल्हापुर में रहते थे। इनके कुल में वाराणसी के प्रसिद्ध विद्वान् बाल शास्त्री और दामोदर शास्त्री हुए। इनके द्वारा १८२५ में निर्मित चालुक्यराजअय्यणवंशचरितम् १७ सर्गों का ऐतिहासिक महाकाव्य है, जो श्रीलालबहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली से १६६६ में प्रकाशित हुआ।