०१ पृष्ठभूमि

महाकाव्य प्रेरित किया। संस्कृत के साहित्यकारों के समक्ष दूसरी कठिनाई उतनी नहीं थी। उन्हें नई चेतना को अभिव्यक्ति देने के लिए परम्परा से एक शक्त भाषा एवं साहित्य दोनों उपलब्ध थे। किन्तु उनके मन में अपनी परम्परा के प्रति एक अतिरिक्त मोह अवश्य आड़े आया। वे अपनी मध्यकालीन स्तावक प्रवृत्ति के अनुरूप, अंग्रेजों के शासन को बहुत कुछ स्वीकार कर चुके थे। इसलिए अंग्रेज शासकों की प्रशस्ति में भी उन्होंने काव्य रचे। अंग्रेज शासकों ने संस्कृत के कालेज खोले और शास्त्रज्ञ पण्डितों को उनमें प्रतिष्ठित किया। किन्तु यह दृष्टि शनैः शनैः निस्तेज होती गयी और सम्पूर्ण राष्ट्र में शिव के तृतीय नेत्र के रूप में जो क्रान्ति की ज्वाला धधक उठी उसने संस्कृत के साहित्यकारों के समक्ष भी लेखन के नये क्षितिज आलोकित किये। आत्मसम्मान के प्रति जागरूकता आयी और समाज में व्याप्त नाना कुप्रथाओं के उन्मूलन के लिए भी साहित्य के स्तर पर प्रयास आरम्भ हो गया। इतना तो सही है कि इस संक्रमणकाल में नये समाज के निर्माण की ओर प्रवृत्त होने वालों के समक्ष जो बड़ी चुनौतियां थीं, उनपर विजय पाने के लिए साहित्य का अवलम्बन सम्पूर्ण तथा साधकतम उपाय नहीं था। साहित्य अपनी सीमा में ऐसे समर्पित उदारचेता महानुभावों के प्रति श्रद्धा-सुमन समर्पित करके तथा उनके उच्च विचारों को और भी समर्थ भाषा देकर अपना कर्त्तव्य पूरा कर सकता था, जो उसने कुछ अंश में किया। किसी समय जिस भाषा में लिखना लेखकों के लिए प्रचार-साधन के अभाव में, स्वान्तःसुखाय मात्र था, बाद में मुद्रण-कला के विकास के साथ राष्ट्र में बदले हुए परिवेश के कारण जन-सामान्य को आदर्शभूत चरित्रों से अवगत करा कर तथा राष्ट्र के लिये उनके कर्तव्य के प्रति उन्हें सचेत करा कर उस भाषा में लेखन अपना लेखकीय उद्देश्य बन गया। बाद में तो राष्ट्र के शत्रुओं के प्रति जन-सामान्य के मन में घृणा का भाव उत्पन्न करना आदि भी उद्देश्य बने। साथ ही अपने देवता एवं पूर्वज शिव, विष्णु, राम और कृष्ण के चरित को नये अर्थ का आयाम देकर लिखने की प्रवृत्ति विकसित हुई। और कुछ ने आत्मचरितपरक लेखन को भी प्रश्रय दिया, जिसे सर्वथा आधुनिक प्रवृत्ति के रूप में स्वीकार किया गया। महाकाव्य के लक्षण- जैसा कि हम कह चुके हैं, प्राचीन आचार्यों ने महाकाव्य-विधा के लक्षण प्रस्तुत किये। निश्चय ही, उनमें से प्राचीन भामह तथा दण्डी के महाकाव्य के लक्षण मुख्यतः श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण जैसे महान काव्यों को ध्यान में रखकर या उन्हें आदर्श मान कर निर्मित हुए। प्राचीन महाकाव्य-लक्षणों में जो उनकी गरिमा के अनुरूप व्यापकता एवं उन्मुक्तता थी वह बाद के महाकाव्य लक्षणों में नहीं मिलती। वे अधिकतर कठोर एवं रूढिबद्ध होते गये और उन्होंने बहुत कुछ परवर्ती रचनाकारों को भी प्रभावित किया। महाकाव्य, प्राचीन लक्षणकारों के अनुसार एक तो “प्रबन्धकाव्य” होता है तथा जिसका सर्गबद्ध होना भी आवश्यक माना गया है। उसमें महान चरित्र वर्णित होता है और वह आकार में बड़ा भी होता है। उसमें अर्थ-सौष्ठव के साथ अलङ्कृत भाषा होती है।आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास प्रसङ्गतः मन्त्रणा, दूतप्रेषण, युद्ध तथा नायक के अभ्युदय की चर्चा होती है। नाटकीय सन्धि का प्रयोग होता है। धर्म आदि पुरुषार्थ चर्चित होते हैं और व्यवहार एवं रसों का असंकीर्ण रूप से संयोजन होता है।

  • दण्डी ने कुछ और स्पष्ट करते हुए कहा है कि सर्ग न तो बहुत बड़े हों और न ही बहुत छोटे। साथ ही उनकी संख्या आठ से अधिक हो और सर्ग के अन्त में आगामी कथावस्तु की सूचना हो। सन्ध्या, सूर्योदय आदि प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन किया जाय तथा वीररस के प्रसंगों में युद्ध आदि वर्णित हों। प्रबन्ध काव्य में रसों के संयोजन के औचित्य को लेकर आचार्य आनन्दवर्धन ने बहुत सूक्ष्म चर्चा की है। आगे के आचार्यों ने जिनमें रुद्रट, हेमचन्द्र, विश्वनाथ मुख्य हैं, उपर्युक्त बातों को ही कुछ और जटिल या रूढिबद्ध कर डाला है। जैसे, छन्द के प्रयोग की बात को लीजिये। प्रत्येक सर्ग में छन्द या तो एक ही हो और सर्ग के अन्त में उसमें परिर्वतन किया जाय और ऐसा भी नहीं, अनेक छन्द भी प्रयुक्त हो सकते हैं। जहां तक सों के न बहुत बड़े या न बहुत छोटे होने की बात है उसकी कोई इयत्ता निर्धारित न करके आचार्यों ने रचनाकारों को बहुत छूट दे रखी है। सर्गों में कहीं तो शताधिक पद्य होते हैं और कहीं पच्चीस या तीस । सर्गों की संख्या पर भी किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं रखा गया है। केवल आठ सर्गों से अधिक की बात तो कही गयी, किन्तु उनकी अन्तिम सीमा निर्धारित नहीं की। फलतः कुछ महाकाव्य के सर्ग पचास-साठ की संख्या भी पार कर गये। वीररस और युद्ध आदि की चर्चा करके महाकाव्य के नायक को क्षत्रिय एवं राजा होने की सीमा में बांधने की भी बात है। नायक के देवता या उदात्त-चरित व्यक्ति होने की भी बात कही गयी है। आधुनिक काल में, जिसकी काल सीमा संस्कृत में १८ वीं शती के अन्त से अब तक मानी गयी है, महाकाव्यों की लेखन-परम्परा मात्र अक्षुण्ण ही नहीं रहीं, बल्कि उसमें एक भिन्न प्रकार की गति एवं कुछ विशेष परिवर्तन भी लक्षित किये गये। संस्कृत में महाकाव्य लेखन की जो सुदीर्घ परम्परा आज भी अक्षुण्ण बनी हुई है, यह कुछ कम आश्चर्य की बात नहीं, जब कि समकालीन भाषाओं के साहित्य में वह बहुत कुछ शिथिल या उपेक्षित हो गयी। संस्कृत ही एक ऐसी भाषा है जिसमें साहित्य का निर्माण लगभग अखिल भारतीय स्तर पर होता है, इस तथ्य का अपलाप नहीं किया जा सकता। संस्कृत में महाकाव्य लेखन-परम्परा के आज भी अक्षुण्ण बने रहने के कारणों के तथा अन्य समकालीन भाषाओं के साहित्यों में उस परम्परा के शिथिल हो जाने के कारणों के विश्लेषण के पचड़े में हम यहां पड़ना नहीं चाहेंगे। मात्र हम यहां यह कहना चाहेंगे, कि संस्कृत में महाकाव्य विधा को लेकर जहां परम्परागत लक्षण मान्य रहे, वहीं अन्य साहित्यों में पाश्चात्त्य साहित्य के पुष्कल प्रभाव के कारण बहुत कुछ बदल दिये गये अथवा बहुत उपेक्षित हो गये। समकालीन भाषाओं के साहित्य में, आधुनिक काल में भी पद्य ही भावाभिव्यक्ति का बड़ा शक्त माध्यम बना रहा और “महाकाव्य” विधा में आज के संस्कृत के कवि ने अपने न केवल महाकाव्य कवित्व को सहजता से अभिव्यक्ति देने में सौविध्य का अनुभव किया, प्रत्युत गृहीत विषय को एक व्यापक आयाम भी देने के अपने लक्ष्य की सिद्धि में उसने अपने को बहुत कुछ समर्थ अनुभव किया। यहां तक कि उसे अन्य समकालीन भाषाओं के साहित्यकारों की भांति भाषा के स्तर पर किसी प्रकार के संमार्जन के अतिरिक्त प्रयास की अपेक्षा नहीं हुई। उसे संस्कृत के प्राचीन महाकवियों द्वारा क्षुण्ण एवं प्रशस्त राजमार्ग मिला और अपनी सर्जनाशक्ति को सहज अभिव्यक्ति देने के लिए संस्कृत के विविध छन्द मिले। यद्यपि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ठीक कहा है- “इसमें सन्देह नहीं कि संस्कृत के वर्णवृत्तों का माधुर्य अन्यत्र दुर्लभ है, पर उसमें भाषा इतनी जकड़ जाती है कि वह भाव धारा के मेल में पूरी तरह से स्वच्छन्द होकर नहीं चल सकती। (हि. सा. का इति. प्रकरण ४ काव्यखण्ड) किन्तु हम दृढ़ता से इतना कह सकते हैं कि संस्कृत के आधुनिक महाकाव्यकारों ने उस जकड़ी हुई भाषा में भी भावधारा को स्वछन्द होकर संचालित करने के प्रयास में कुछ अवश्य सफलता अर्जित की है। संस्कृत के प्रशस्त राजमार्ग पर चलने वाला आधुनिक संस्कृत कवि महाकाव्य विधा में “कथ्य” को बड़ी सरलता से ढाल लेता है। जहां तक महाकाव्य के लक्षणों के अनुगत होकर चलने के बात है, संस्कृत के आधुनिक कवि ने प्राचीन लक्षणकारों, जैसे भामह और दण्डी के विचारों को तो कुछ स्वीकार किया, किन्तु विश्वनाथ द्वारा “साहित्यदर्पण’ में प्रस्तुत “महाकाव्य” के लक्षण के अनुगमन को सम्पूर्णतया स्वीकार नहीं किया; क्योंकि उसमें अधिक पारतन्त्र्य का उसे अनुभव हुआ। साथ ही उसने “महाकाव्य विधा” को अपनी प्रतिभा के आधार पर युगानुरूप कुछ परिवर्तित एवं कुछ सम्मार्जित करने का भी प्रयास किया। उसने कल्पनालोक में उड़ान भरने की अपेक्षा वास्तविक जगत के सुख-दुःख के अनुगुम्फन को अधिक प्रश्रय दिया और मानवीय संवेदना के स्तर पर भी समधिक जागरूकता दिखायी। इस प्रकार परम्परागत रूढ़ियों से कुछ मुक्त होकर आधुनिक संस्कृत कवि ने “महाकाव्य विधा” में लेखन को एक नये आयाम में प्रस्तुत किया। इस नये आयाम की बात को समझने के लिए हमें नैषधीयचरित के बाद अकस्मात् महाकाव्य लेखन-परम्परा के लुप्त नहीं तो शिथिल हो जाने की स्थिति पर ध्यान देना होगा। वास्तव में नैषध के बाद संस्कृत में ऐसा महाकाव्य निर्मित नहीं हुआ जो उसके जैसा प्रभावोत्पादक होता। बिल्हण के विक्रमाकदेवचरित और नीलकण्ठ दीक्षित के शिवलीलार्णव को उत्तम कोटि की रचना के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, फिर भी उनमें रूढ़ियों की गतानुगतिकता और उबाऊपन अधिक होने के कारण कोई नई काव्यचेतना का स्पर्श नहीं है। नैषध के बाद अट्ठारहवीं शती तक के महाकाव्यों में कोई विशिष्ट रचना इस कारण नहीं आ सकी, क्योंकि कवियों ने अधिकतर तो किसी आश्रयदाता के गुणगान में महाकाव्य लिखे और उनका काव्यनिर्माण “स्थिति का निर्वाह” मात्र होकर रह गया, सहृदयों को रसाप्लावित करना उसका लक्ष्य नहीं रहा। यदि आश्रयदाता का गुणगान नहीं किया तो आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास किसी देवी-देवता को लेकर उनका चरितगान कर दिया। वैसे यह प्रवृत्ति पूरे संस्कृत काव्य-जगत में, यहां तक कि आधुनिक काल में भी प्रवर्तमान रही, फिर भी आगे चल कर इसमें बहुत कुछ अन्तर भी आया। उन्नीसवीं शताब्दी में, जब भारत पश्चिमी सभ्यता के सम्पर्क में आया, अंग्रेजी के माध्यम से पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान का चमत्कार फेला, तब संस्कृत कवि का मन उससे अप्रभावित न रहा। उसे लेखन के नये आयाम सहज रूप से मिलते गये, और बाद में तो राष्ट्रियता की लहर ने उसे सराबोर कर दिया, किन्तु फिर भी उसकी ‘गुणगान’ वाली मानसिकता बनी रही। उसने अंग्रेज शासकों के गुणगान में भी काव्य लिखे। और आगे चलकर तो अनेक राष्ट्रभक्त नेताओं के तथा समाज सुधारकों के उदात्त जीवन को लेकर आधुनिक संस्कृत साहित्य के कवियों में महाकाव्य लेखन की होड़ सी लग गई। जहां तक आधुनिक संस्कृत साहित्य में महाकाव्य-लेखन की बात है, रामपाणिबाद (१७०७-१७८१) के महाकाव्य राघवीयम् से माना जा सकता है। यद्यपि ऐसी कोई रेखा खींच सकना कि महाकाव्य लेखन में कब प्राचीन युग समाप्त हुआ और कब नवीन युग, जिसे आधुनिक काल कहते हैं, आरम्भ हुआ, बहुत कठिन है। वैसे जहां तक प्राचीनता और नवीनता की मूल धाराओं की बात है, दोनों आधुनिक काल के महाकाव्यों में सम्मिलित रूप से प्रवाहित रही हैं। आधुनिक संस्कृत साहित्य के कवियों ने शताब्दियों से चली आ रही “सर्गबन्ध” वाली इस विधा को बहुत कुछ भामह, दण्डी, उद्भट, विश्वनाथ द्वारा प्रस्तुत लक्षणों के अनुसार ही कुछ परिवर्तनों के साथ अपनाया और इस प्रकार उनके द्वारा महाकाव्य-लेखन को प्रश्रय मिला। * परवर्ती काल में, जब महाकाव्य का लेखन अपकर्ष की ओर था, कवियों ने अपने आश्रयदाताओं को जीवन का आधार बनाकर चरितप्रधान महाकाव्य के लेखन पर अधिक ध्यान दिया। इसके साथ ही परम्परा से चले जा रहे उपजीव्य ग्रन्थों-रामायण, महाभारत तथा पुराण आदि से कथानकों को लेकर महाकाव्य का लेखन कभी शिथिल नहीं हुआ। 1) यद्यपि इसका कोई विशेष महत्त्व नहीं कि कितने रामपरक, किलने कृष्णपरक तथा कितने शिवपरक महाकाव्य लिखे गये तथापि आधुनिक संस्कृत साहित्य के विचारकों (प्रो. श्रीधर भास्कर वर्णेकर और प्रो. हीरालाल शुक्ल) ने इस प्रकार के विभाजनों पर विचार किया। यह सही भी है कि भारतीय जीवन को बहुत दूर तक इन महनीय चरितों ने प्रभावित किया है और आधुनिक काल के कवि के लिए भी यह एक प्रशस्त राजपथ सिद्ध हुआ। संस्कृत के आधुनिक रचनाकार ने, चाहे वह महाकाव्य का रचयिता हो चाहे अन्य विधाओं में लिखता हो, युग के प्रवर्तमान से कुछ प्रभावित होने पर भी अपने को अपनी उदात्त परम्परा से कभी अलग नहीं किया है। महाकाव्य-विधा में उसका लेखन इस तथ्य का सबसे पुष्ट प्रमाण है। फिर भी उसने न केवल कथानक या पात्र के चयन में नवीन युग से प्रभाव ग्रहण किया वरन् भावाभिव्यक्ति और भाषा के सौष्ठव को भी नये युग के अनुरूप करने का प्रयास किया। महाकाव्य आधुनिक काल के उदय के पूर्व, लगभग सभी मुख्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में लेखन किसी न किसी रूप में विकसित हो चुका था, किन्तु प्रायः सबने, पं. रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, चिरकाल से संस्कृत की परिचित और भावपूर्ण पदावली का आश्रय किया था (हि. सा. का इति. पृ. २४४) । संस्कृत के मूल उत्स से प्रभाव ग्रहण करके उनके रचनाकार अधिकतर अपने को स्थापित करते रहे, किन्तु आधुनिक काल में, सबमें अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की चेतना विकसित हुई। इसके मूल में उन्नीसवीं शताब्दी की बदली हुई राजनैतिक एवं सामाजिक परिस्थिति का मुख्य योगदान माना जा सकता है। और जब, १६४७ ई. में भारत राष्ट्र के क्षितिज पर स्वातन्त्र्य का सूर्योदय हुआ, तब और भी उद्दाम गति से वह धारा प्रवाहित होने लगी। स्वातन्त्र्यपूर्व जो मुक्ति के लिए संघर्ष था, स्वातन्त्र्य प्राप्ति के पश्चात् वह एक प्रबल उल्लास में परिवर्तित हो गया। तब महाकाव्य जैसी गम्भीर विधा में लेखन, और वह भी प्रभूत मात्रा में हुआ। इसे आधुनिक संस्कृत कवियों की एक अतिरिक्त सुदृढ़ मानसिकता का परिचायक तो माना ही जा सकता है। हम कह चुके हैं कि नवजागरण काल ने भारतीय साहित्य की धारा को एक गति दी और साथ ही एक नया आयाम भी दिया। संस्कृत का साहित्यकार भी शताब्दियों से चली आ रही परम्परा के प्रतिबद्ध होकर भी राष्ट्रवाद की चेतना से मुखर हुआ। यद्यपि उसने अंग्रेज शासकों की प्रशस्ति में भी महाकाव्य की रचना की, तथापि उसने सब ओर से नवयुग में उत्पन्न होने वाली समाज की प्रत्येक धड़कन को सुना और क्रान्ति के गीत गाये। धीरे-धीरे, बीसवीं शती में तो वह प्रखर भाषा में लेखन में प्रवृत्त हुआ। और जब राष्ट्र स्वतन्त्र हुआ तब वह उल्लसित होकर नाना विधाओं में लेखन करने लगा। उसने अनेक राष्ट्रीय वीर महापुरुषों के जीवनचरित को आधार बनाया और इतनी मात्रा में महाकाव्य लिखे जितनी मात्रा में अन्य भाषाओं के साहित्य में नहीं लिखे गये। यहां तक कि उसने परम्परा की लीक से हट कर उच्च कोटि की आदर्शभूत महिलाओं के जीवन पर महाकाव्य रचे। आधुनिक संस्कृत साहित्य के महाकाव्यों के एक आलोचक डा. रहस बिहारी द्विवेदी को, स्वतन्त्रताप्राप्ति के बाद संस्कृत की दीर्घकाय विधा, महाकाव्य के लेखन की ओर कवियों की साधना सुखद आश्चर्य का विषय लगती है, किन्तु यह संस्कृत के रचनाकार की विवशता भी हो सकती है; क्योंकि उसे शताधिक महाकवियों द्वारा क्षुण्ण एवं प्रशस्त महाकाव्य के राजमार्ग पर चलने में जितना सौविध्य प्राप्त था उतना अन्य विधाओं, विशेषकर गद्यविधा के लेखक को नहीं। यह भी बहुत सरलता से स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए कि उसने जितनी मात्रा में अधिक महाकाव्य लिखे उतनी ही मात्रा में उसका कवित्व भी अपनी गुणवत्ता के कारण अपना विशेष महत्त्व स्थापित कर सका है। इस दिशा में अभी और गहराई में उतर कर विशकलन की अपेक्षा है।” __यह अलग बात है कि आधुनिक संस्कृत कवियों ने अपने महाकाव्य में जिन स्वनामधन्य महापुरुषों के चरित को आश्रय बनाया उनके कारण उनकी वाणी एक अतिरिक्त पवित्रता के स्पर्श से सार्थक हो गयी। आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास वैसे तो आधुनिक संस्कृत साहित्य के रचनाकार ने महाकाव्य लेखन में प्राचीन रचनाकारों की गतानुगतिकता को प्रश्रय दिया तथापि उन्होंने कुछ विशेष आकलनीय प्रयोग भी किये। कुछ कवि ऐसे हैं, जिन्होंने सम्पूर्णतया प्राचीन माघ, भारवि, श्रीहर्ष की अलङ्कृत शैली पर महाकाव्य रचे तो कुछ ने प्राचीन कथावस्तु में नये युग की जीवन-दृष्टि को अनुस्यूत करने का प्रयास किया। कुछ तो काव्यलेखन के नाम पर शुद्ध इतिवृत्तात्मक पद्धति अपना कर ही महाकाव्यकारों की श्रेणी में उल्लेखनीय हो गये। निश्चय ही कुछ कवियों में अपने कवित्व के प्रति पूर्ण जागरूकता है, किन्तु ऐसे भी रचनाकार महाकाव्य-लेखन में प्रवृत्त हुए जिनमें संस्कृत व्याकरण तथा छन्दःप्रयोग के परिनिष्ठित ज्ञान का बहुत कुछ अभाव प्रतीत होता है। मात्र उनकी दृष्टि में, किसी उदात्त चरित या किसी राष्ट्रनायक के प्रशस्तिगान की त्वरा या सस्ते यशोलाभ के उद्देश्य का सहज अनुमान होता है। प्रकाशन एवं प्रचार के इस युग में, जो जितना सफल होता है उसे ही आदर्श मान लिया जाता है, किन्तु यथार्थ की खोज करने वाली दृष्टि कुछ और ही चाहती है। निश्चय ही संस्कृत का आधुनिक कवि, वह चाहे महाकाव्य का रचयिता हो अथवा गीतकार हो कुछ अपवादों को छोड़कर समाज के सुख-दुःख की सहानुभूति का भाव रखता है, और सर्वथा समाजोन्मुख है। उसने मध्यकाल की श्लथ शृगार वाली प्रवृत्ति से लगभग संन्यास ले लिया है। यह उसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि वह भले ही अपने को किसी जातिविशेष के संस्कार से घिरा अनुभव करे, किन्तु उसका कथ्य सर्वथा विश्वजनीन होता है। उसने लघुचेतस् लोगों की प्रवृत्ति को कभी प्रश्रय नहीं दिया। उसकी राष्ट्रिय चेतना किसी एक देश या किसी जाति विशेष से प्रतिबद्ध नहीं है। जहां तक महाकाव्य-विधा में लेखन का प्रश्न है, इस युग में राम पाणिवाद (१७०७-१७८१) से लेकर एडवर्डवंशम् के रचयिता उर्वीदत्त शास्त्री (१८७५) तथा उनके जैसे अनेक समासामयिक महाकाव्यकारों तक पूर्वकाल से चली आ रही इस विधा में अनुगत लेखन को प्रश्रय मिला। एक और कवियों ने कालिदास, भारवि, माघ और नैषध की परम्परा में महाकाव्य लिखे तो दूसरी ओर महापुरुषों के उदात्तचरित को अपना कर लिखने की प्रवृत्ति को प्रश्रय दिया। ये महापुरुष किसी प्रकार के शासक नहीं थे। ऐसे काव्य हैं- महेशचन्द्र तर्कचूडामणि का भूदेवचरित, दुःखभञ्जन कवि का चन्द्रशेखरचरित, रामवर्म तम्पुरान का शकरगुरुचरित, वेमूरी रामशास्त्री का गुरुकल्याणम्, अखिलानन्द शर्मा का दयानन्ददिग्विजयम् आदि। विशेष उल्लेखनीय है कि इस युग में कामाक्षी का अभिनवरामायण महाकाव्य लिखा गया, जो किसी नारी द्वारा सम्भवतः संस्कृत में लिखित सबसे पहला महाकाव्य है। इसी युग में, परम्परागत महाकाव्य लेखन की पद्धति से बिल्कुल अलग, आत्मचरितपरक महाकाव्य भी रचित हुए, जैसे कोरदरामचन्द्र कवि का स्वोदयकाव्यम् और चुनक्कर राम वारियर का २० सर्गों में प्रस्तुत रामात्मचरित। इसी क्रम में मधुसूदन मिश्र का स्वेतम् (महाकाव्य) भी उल्लेखनीय है। अपने विशिष्ट कवित्व या पाण्डित्य के प्रकाशन महाकाव्य के लिए इस काल में ऐसे भी काव्य रचे गये जिन्हें व्यर्थी काव्य या पाणिनीय सूत्रों की योजना के अनुसार लिखित भट्टिकाव्य की परम्परा का काव्य कहा जा सकता है, जिनका महत्त्व भले ही कालक्रम से घटता गया, पर लिखे जाते रहे हैं।
  • आज जब बीसवीं शताब्दी के हम अन्तिम दशक में पहुंच गये हैं, आधुनिक संस्कृत के महाकाव्य-लेखन में भी और अधिक विकास और सामाजिक राष्ट्रिय चेतना का सम्मिश्रण अनुभव करते हैं। इस काल के कवियों ने अपनी परम्परा का अनुसरण तो किया, किन्तु उनकी लेखनी में सामायिक चेतना के अनुकूल कथावस्तु को ढालने की विशेष प्रवृत्ति लक्षित होती है। साथ ही उन्होंने लक्ष्मीबाई जैसी वीराङ्गना के चरित को भी महाकाव्य लेखन का आधार बनाया। यहां तक कि अपने राष्ट्र की सीमा से ऊपर उठकर लेनिन जैसे क्रान्तिकारी महापुरुष पर भी महाकाव्य का प्रणयन किया। और फिर रामचरित का, राष्ट्र की सीमा से बाहर फैले स्वरूप को आत्मसात् करके उसने महाकाव्य की रचना की है। परवर्ती संस्कृत के आधुनिक साहित्यकारों, विशेषकर महाकाव्यों की दृष्टि से जो परिवर्तन स्पष्ट लक्षित होता है वह शृङ्गार के प्रति सम्मान का शैथिल्य है। शृङ्गार, जो अधिकांश में प्राचीन संस्कृत साहित्यकारों की रचनाधर्मिता को एक प्रकार से ग्रस चुका था और दूर तक श्लथ शृङ्गारप्रधान वर्णनों में पर्यवसित हो चुका था, इन कवियों द्वारा प्रायः उपेक्षित हुआ। उसका स्थान वीर रस ने लिया। राष्ट्र के प्रति समर्पित हुतात्मा वीरों का शौर्य-वर्णन इन रचनाकारों का मुख्य उद्देश्य हो गया। साथ ही ऐसे साधुचरित महापुरुषों को इन्होंने आश्रय बनाया जिनकी देश की सामाजिक कुरीतियों के निराकरण में बहुत महनीय भूमिका रही, जैसे स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द आदि । इस प्रकार वीररस के अतिरिक्त यदि दूसरा रस अपनाया गया तो वह शान्त रस था। और एक विशेष बात यह भी प्रतीत होती है कि जो प्राचीन कवियों की अपने आश्रयदाताओं की प्रशस्तिगान वाली मानसिकता थी वह इन कवियों में सम्पूर्णतया शिथिल हुई और वर्णनों में संक्षिप्तता के साथ मौलिकता भी आयी, वर्णन मात्र के लिए वर्णन की परम्परा का भी सम्पूर्णतया हास हुआ।