ऐतिहासिक शोध सामग्री के रूप में प्राचीन भारतीय अभिलेखों का विशेष महत्त्व है। भारतीय इतिहास को स्वरूप प्रदान करने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। अतः उन सभी विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर कक्षाओं में, जहाँ संस्कृत, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व का अध्ययन-अध्यापन होता है, इसे पाठ्यक्रम में विशेष स्थान है। अट्ठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजी-शासन के अनेक अधिकारियों का ध्यान यत्र-तत्र देश में बिखरी हुई प्राचीन वस्तुओं की ओर गया और उनकी कलात्मकता के प्रति आकृष्ट होकर उनका संग्रह करना आरम्भ किया। इसी क्रम में उन लोगों में इस देश के इतिहास, कला तथा पुरातन वस्तुओं के सम्बन्ध में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त करने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। __ पुरातात्त्विक सामग्री का संकलन करते समय इन लोगों की दृष्टि में पत्थर, ताम्रपत्र आदि पर लिखे अनेक अभिलेख आए और उनमें लिखित तथ्यों की स्वाभाविक जिज्ञासा भी उत्पन्न हुई। __आरम्भ में इन अभिलेखों को पढ़ने में सबसे बड़ी कठिनाई यह आई कि वे अभिलेख ऐसी लिपियों में लिखे थे, जिनका स्वरूप देश में प्रचलित लिपियों से सर्वथा भिन्न था और इन प्राचीन कालीन लिपियों को जानने-समझने वाले इस देश में बहुत कम लोग थे। __१६वीं शताब्दी में जब पुर्तगाली बम्बई के तटीय प्रदेशों में अधिकार कर एलिफेन्टा स्थित लयम में पहुंचे तो उन्हें वहाँ एक अभिलेख मिला। सम्भवतः यूरोपीय विद्वानों द्वारा देखा जाने वाला यह प्राचीनतम भारतीय अभिलेख था। परन्तु, इसे पढ़ने वाला एक भी व्यक्ति नहीं मिल सका। यह अभिलेख अशोक के अभिलेखों से लगभग एक हजार वर्ष बाद का यानी आठवीं नवीं शताब्दी की लिपि में था। पुनः कठिनाई आने पर भी यूरोपीय विद्वानों ने स्वयं इन्हें पढ़ने का प्रयास किया। १७८५ ई. में चार्ल्स विल्किन्स ने पहले पहल दीनाजपुर (बंगाल) जिले के बदल नामक स्थान से प्राप्त एक पालकालीन स्तम्भ अभिलेख पढ़ने में सफलता प्राप्त की। उसके बाद राधाकान्त शर्मा ने चौहान नरेश बीसलदेव की एक प्रशस्ति का पाठोद्धार किया। धीरे-धीरे और भी राजपूत नरेशों के अभिलेख पढ़े गये। ये सब लेख अधिक पुराने नहीं थे तथा उनकी लिपि देवनागरी लिपि से अधिक निकट थी। अतः इनके पढ़ने में अधिक कठिनाई नहीं हुई। इन अभिलेखों के पाठोद्धार से पूर्ववर्ती लिपियों के पाठोद्धार का मार्ग प्रशस्त हो गया। अभिलेखीय साहित्य ३२७ १८३४ ई. में ट्रायर एवं मिल ने मिलकर समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति के पढ़ने का प्रयास किया। तदनन्तर स्कन्दगुप्त का भितरी स्तंभलेख पढ़ा गया। १८३७-३८ ई. आते-आते प्रिंसेथ ने पूर्णरूप से गुप्तलिपि के सम्पूर्ण अक्षरों को पहचान लिया। गुप्तकाल से पूर्व की लिपि के पाठोद्धार की दिशा में प्रगति का आरम्भ १८३६ ई. में उस समय हुआ जब लेसेन (Lassan) ने भारतीय यवन-नरेश अगथुक्लेस (Agathokles) के द्विभाषिक सिक्कों पर यूनानी लिपि की सहायता से उसके नाम की ब्राह्मी लिपि में भी अंकित होने का अनुमान प्रस्तुत किया। इस सूत्र से ज्ञात चार-पाँच अक्षरों तथा सांची की वेदिका के स्तम्भों पर अंकित दान-लेखों में अन्त में समान रूप से अकित अक्षर-द्वय को दानं अनुमान कर और गुप्तकालीन लिपियों की सहायता लेकर प्रिंसेथ ने अशोककालीन लेखों का तुलनात्मक अध्ययन किया और इस प्रकार अशोककालीन ब्राह्मीलिपि के वर्षों को पहचानने में उन्होंने सफलता प्राप्त की। इन प्रयासों के फलस्वरूप तीसरी शताब्दी ई.पू. से १२वीं शताब्दी ई. तक लिपियों का परिचय मिला और ज्ञात हुआ कि वे सब ब्राह्मी नामक एक प्राचीन लिपि से निकली हुई हैं। उसके बाद समय-समय पर आवश्यक संशोधन-परिवर्तन कर विद्वानों ने विभिन्न कालों के लिपि-स्वरूपों को स्थिरकर भारतीय लिपियों के क्रमिक विकास पर प्रकाश डाला है। इस प्रकार के इतिहास प्रस्तुत करने वालों में ब्युहलर (Buhler) का नाम सादर लिया जाता है। इस प्रकार प्राचीन भारतीय लिपियों की जानकारी प्राप्त होने के बाद भारतीय अभिलेखों की दिशा में अधिक प्रगति हुई। फलतः प्राचीन अभिलेखों के पठन-पाठन, सम्पादन और प्रकाशन में गति आई। कनिंघम ने अधिक अभिलेख पढ़े और प्रकाशित भी किए। जेम्स वर्गेस ने १८७२ ई. से प्रकाशित की जानेवाली ‘इण्डियन ऐण्टीक्वेरी’ ऐशियेटिक सोसाइटी की लंदन एवं कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं में अधिक संख्या में अभिलेख प्रकाशित हुए। उनके मूल अनुवाद तथा लियोग्राफ प्रकाशित करने वाले तत्कालीन विद्वानों में ब्युहलर, फ्लीट, एंगलिड्, राइस, भण्डारकर, और भगवान् लाल इन्द्रजी के नाम उल्लेखनीय हैं। कनिंघम ने इस प्रकार प्रकाश में आये अभिलेखों का काल-क्रम से प्रकाशित करने की एक योजना बनाई थी। उस योजना के अन्तर्गत १८७७ ई. में कार्पस् इन्सक्रिपशनम् इण्डिकोरम् के प्रथम खण्ड के रूप में अशोक के अभिलेख प्रकाशित किए गए। १८८१ ई. में एक अभिलेखकी सर्वेक्षण-संस्थान की स्थापना हुई और १८८३ ई. में फ्लीट (Fleet) इस योजना के अंतर्गत इस कार्य को बढ़ाने के लिए नियुक्त किए गये। उन्होंने ‘कार्पस् इन्सक्रिपशनम् इण्डिकोरम्’ वाली योजना के अन्तर्गत गुप्तवंश से सम्बद्ध तथा तत्कालीन अभिलेखों का संकलन प्रस्तुत किया। १८८६ में मद्रास सरकार ने ई. हुल्श को अपना अभिलेखक नियुक्त किया। उन्होंने १८६० ई. में दक्षिण भारतीय-अभिलेख-ग्रन्थ के रूप ३२८ गध-खण्ड में प्रकाशित किया। पश्चात् भारतीय पुरातत्त्व-विभाग के अन्तर्गत प्रकाशित होने वाले अभिलेखों के प्रकाशनार्थ ‘एपिग्राफिका इण्डिका’ नामक त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ जो नियमित रूप से प्रकाशित हो रही है। इस पत्रिका के अतिरिक्त अन्य इतिहास संबंधी पत्रिकाओं में भी समय-समय पर अभिलेख प्रकाशित होते रहते हैं। इस प्रकार कतिपय हजार की संख्या में अभिलेख अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। पुनरपि बहुत से अभिलेख अभी भी अप्रकाशित हैं। 7 कनिंधम की योजना के अन्तर्गत अशोक तथा गुप्तकालीन अभिलेख तो विगत शताब्दी में ही प्रकाशित हो गये थे। इधर इसके अन्तर्गत १६१६ में स्टेनेकोनी ने खरोष्ठी अभिलेखों को प्रकाशित किया। १६५५ में वी. वी. मीराशी ने ‘कलचुरी-चेदि-सम्वत्’ से सम्बद्ध अभिलेखों का सम्पादन किया है। हिन्दी में अभिलेखों का प्रकाशन धीमी गति से होने लगा है। पुनरपि अशोक के लेखों को श्री जनार्दन मिश्र (ज्ञानमण्डल, काशी) श्री गौरी शंकर हीराचन्द्र ओझा (नागरी-प्रचारिणी सभा, काशी) और श्री राजबली-पाण्डेय (ज्ञानमण्डल, काशी) ने अपने-अपने ढंग से सम्पादित कर प्रकाशित किया है। गुप्तकालीन शिलालेखों से सम्बद्ध स्व. डॉ. वासुदेव उपाध्याय का कार्य भी प्रशंसनीय है। प्राचीन अभिलेख शिलाखण्ड, शिलापट्ट, स्तम्भ, स्तूप, गुफाभित्ति, ताम्रपत्र, सिक्का एवं मुहरों पर अंकित मिलते हैं। प्राचीन भारतीय अभिलेख नाना विषयों से संबंद्ध हैं। डॉ. दिनेश चन्द्र सरकार ने उन्हें धर्मलेख, प्रशस्ति, दान एवं विविध-चारवर्गों में विभाजित किया है। डा. राजबली पाण्डेय ने उन्हें भागद्वय में विभाजित किया है। पुनः राजकीय अभिलेख धर्मशास्त्रीय आधार पर इस प्रकार विभाजित किए गए हैं-शासन, जयपत्र, आज्ञापत्र और प्रज्ञापत्र। __ इन अभिलेखों का महत्त्व हमारी दृष्टि से इस कारण है कि उनसे हमें प्राचीन इतिहास से सम्बधित अनेक ऐसी जानकारी प्राप्त होती है जो अन्य सूत्रों से आज अनुपलब्ध है। इनसे प्राप्त जानकारी अन्य सूत्रों से प्राप्त जानकारी की अपेक्षा अधिक विश्वस्त और प्रामाणिक मानी जा सकती हैं। यह जानकारी विशेषतः निम्नलिखित दिशाओं में प्राप्त होती है क. भौगोलिक परिचय ख. राजवंशीय परिचय ग. सामाजिक एवं धार्मिक परिचय घ. आर्थिक (स्थितीय) परिचय, एवं ङ. साहित्य परिचय। प्राचीनतम अभिलेखों के रूप में अशोक के अभिलेखों की गणना की जाती है। उनकी भाषा को लोगों ने मागधी-पालि होने का अनुमान किया है। प्राकृत का प्रयोग सातवाहन वंशी नरेशों के लेखों में मुख्य रूप से मिलता है। पश्चिम क्षत्रपों के अभिलेखों में प्राकृत ३२६ अभिलेखीय साहित्य संस्कृत की ओर झुकती हुई दिखाई देती है। चौथी शताब्दी के पश्चात् प्रायः सभी शिलालेख संस्कृत में ही लिखे जाते रहे। अभिलेखों के लिखने के लिए जिन सामग्रियों का उपयोग हुआ है, उनको उपकरण और आधार सामग्री के रूप में वर्ग-द्वय में बांट सकते हैं। उपकरण के रूप में लेखनी और स्याही प्रधान है। लेखनी में कलम, कुँची, खुरचकर लिखने की शलाका, पत्थर टॉकने वाली छेनी आदि सभी आ सकते हैं। स्याही एवं रंग का प्रयोग प्राचीन अभिलेखों में बहुत ही कम हुआ है। अजन्ता के भित्ति-चित्रों में कहीं-कहीं इस प्रकार के लेख देखने में आये हैं। वैसे स्याही का प्रयोग पुस्तक आदि के लिखने के लिए ही किया जाता रहा है। आधार सामग्री के रूप में अभिलेखों के लिए धातु एवं शिलाफलक ही प्रधान रहे हैं। कहीं-कहीं उनके लिए काठ का प्रयोग भी दृष्टिगोचर होता है। पर ऐसे लेखों की संख्या बहुत ही कम है। एकाध काष्ठ के यूप-स्तम्भ भी अभिलेख-युक्त मिले हैं। मुहरों की छाप के लिए मिट्टी का प्रयोग होता रहा ह। अतः मिट्टी, पत्थर, हड्डी और हाथी-दांत के बनाए जाते थे।