१४ पूर्वमध्यकालीन अभिलेख

५१. विजयसेन का देवपारा अभिलेख

बंगाल के राजशाही मण्डल में देवपारा है। इस अभिलेख की लिपि देवनागरी है एवं इसकी भाषा संस्कृत है। सेन-वंशीय नृप विजयसेन के द्वारा शिव-मन्दिर के निर्माण के साथ-साथ सेन-वंश का वर्णन ही इस अभिलेख का उद्देश्य है। यहाँ शिव को प्रद्युम्नेश्वर के नाम से अभिहित किया गया है। __ अभिलेख का समय १२वीं शताब्दी है। वीरसेन एक चन्द्रवंशीय नरेश थे। ये मूलतः दाक्षिणात्य थे। इनकी कीर्ति चतुर्दिशा में व्याप्त थी। यह सेन-वंश ‘ब्रह्म-क्षत्रिय वंश’ के नाम से जाना जाता था। डॉ. आर.डी. भण्डारकर के अनुसार ये ब्राह्मण थे जिन्होंने अपने ब्राह्मणोचित कर्म को छोड़ कर क्षत्रिय का कर्म-करना आरम्भ कर दिया था। ४०२ गद्य-खण्ड

  • ये चन्द्रवंशीय नृप मूलतः कर्णाट प्रदेश के शासक थे। माधाई नगर के ताम्रपत्र में इनका उल्लेख कर्णाट-क्षत्रिय के रूप में किया गया है। इस वंश का कुलभूषण सामन्तसेन था, जिसका जन्म ‘नईहाटी’ दानपत्र के अनुसार राद्देशीय राज-वंश में हुआ था। डॉ. आर. सी. मजुमदार की धारणा है कि इनका मूलस्थान “धरवार” मण्डल (कर्णाट-प्रदेश) था। सामन्तसेन का पुत्र हेमन्तसेन हुआ। पुत्र के कंधे पर राज्य-भार सौंप कर सामन्तसेन गंगा-तट पर आश्रम में निवास करने लगा। ऐसा अनुमान किया जाता है कि हेमन्तसेन ही वंगप्रदेश का प्रथम सेन-वंशी नृप था। इसकी पत्नी महारानी यशोदेवी थी। वह अतिसुन्दरी थी और इनके चरण-कमल मित्र और शत्रुओं की स्त्रियों के मस्तक पर सुशोभित होते थे। बैरकपुर के दानपत्र में भी हेमन्तसेन को ही ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि सर्व प्रथम मिलती है। हेमन्तसेन और यशोमती का पुत्र विजयसेन हुआ, जिसकी राज्य-सीमा चतुःसमुद्र से बनती थी। यह दाशरथि राम और अर्जुन के समान वीर था। इससे सम्बद्ध अभिलेख-द्वय उपलब्ध हैं। बैरकपुर-दानपत्र के अनुसार इसकी पत्नी विलासदेवी थीं जिन्होंने ही प्रद्युम्नेश्वर-मन्दिर और उसके सामने एक तालाब खुदवाया, जिसका वर्णन इस अभिलेख में किया गया है। विजयसेन का पुत्र वल्लालसेन था, जिसकी धर्मपत्नी रामदेवी चालुक्यवंशीय ललना थी। इसका भी ‘नई-हाटी दानपत्र’ उपलब्ध हुआ है। वल्लालसेन का सुप्रसिद्ध पुत्र ‘लक्ष्मणसेन’ हुआ, जिसका विवाह ‘चन्द्रादेवी’ के साथ सम्पन्न हुआ। इन्होंने लक्ष्मण संवत् का श्रीगणेश किया। इससे सम्बद्ध भी कतिपय लेख उपलब्ध हए हैं। इनकी राज्य-सभा की शोभा जयदेव, उमापतिधर, धोयी, गोवर्द्धन, शरण आदि कवियों से होती थी। लक्ष्मणसेन के भी पुत्र-द्वय थे- विश्वरूपसेन और केशवसेन। ये ही सेनवंशीय अन्तिम राजे थे। मुसलमानों के आक्रमण से सेन-वंश छिन्न-भिन्न हो गया। प्रशस्ति में विजयसेन-पर्यन्त ही वर्णन मिलता है। विजयसेन ने कामरूप के नृप को भगा दिया एवं कलिङ्ग को शीध्र ही जीत लिया। सर्वप्रथम मेटकाफ ने इस अभिलेख को १८६५ ई. सं. में पाया। यह अभी कलकत्ता-संग्रहालय की शोभा-वृद्धि कर रहा है। इन्होंने इसका सम्पादन ए.सो. बंगाल में किया है और कीलहॉर्न ने एपिग्राफिका-इण्डिका में किया। डॉ. नोनी गोपाल मजुमदार ने इसे ‘इन्सक्रिप्सन्स् ऑफ बंगाल’ में प्रकाशित किया। देवपारा-शिलालेख के कवि उमापतिधर हैं। प्रस्तुत प्रशस्ति में इन्होंने सेनवंश के नृप-त्रय-सामन्तसेन, हेमन्तसेन और विजयसेन का ही वर्णन किया है। परन्तु ‘मेरुतुङ्ग’ कृत ‘प्रबन्धचिन्तामणि’ के अनुसार उमापति लक्ष्मणसेन की राजसभा को भी सुशोभित करते थे। ‘गीतगोविन्द’ के रचयिता ‘जयदेव’ ने भी इन्हें लक्ष्मणसेन की राजसभा का एक देदीप्यमान रत्न के रूप में उल्लेख किया है ४०३ अभिलेखीय साहित्य गोवर्द्धनश्च शरणो जयदेव उमापतिः। कविराजश्च रत्नानि समिती लक्ष्मणस्य च।। इसकी पुष्टि भागवतपुराण की ‘भावार्थ-दीपिनी टीका’ की वैष्णवतोषिणी टीका से भी होती है। यहाँ उमापति का स्पष्टतः उल्लेख है-‘श्रीजयदेव सहचरेण महाराजलक्ष्मणसेन-मन्त्रिवरोमापतिधरेण।’ सूक्तिकर्णाभृत, सुभाषितमुक्तावली, एवं शार्ङ्गधर-पद्धति में भी इनके कतिपय पद्य संगृहीत हैं। __ प्रशस्ति के अन्त में कवि ने अपने विषय में “एषा कवेःपद-पदार्थ-विचार-शुद्ध बुद्धेरुमापति-धरस्य कृतिः प्रशस्तिः" लिखा है। कवि उमापतिधर की बुद्धि पद-पदार्थ के अध्ययन से विशुद्ध हो गयी थी। इससे यह स्फुट होता है कि उमापतिधर शब्दकवि हैं। शब्द-क्रीड़ा ही इनकी विशेषता है। हर्षचरित की भूमिका में बाणभट्ट ने लिखा है कि गौडदेशीय कवि की विशेषता अक्षरडम्बरता है। गीतगोविन्दकार जयदेव ने उमापतिधर के विषय में लिखा है- “वाचः पल्लवयत्युमापतिधरः।" कवि किसी भी बात को एक नये ढंग से कहते हैं। उक्ति-वैचित्र्य ही इनका वैशिष्ट्य है। __ जयदेव की उक्ति की टीका करते हुए नारायण ने लिखा है-“उमापतिधरो नाम कविः वाचो वचनानि पल्लवयति विस्तारयति, न तु गुणान्।" दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि उमापतिधर की कृति की विशेषता शब्द-विस्तार ही है। __ उमापति के काव्य में दो विशेषताएँ स्पष्ट हैं-(क) शब्द का विस्तार, (ख) दीर्घ समस्तपदों का व्यवहार। इनके प्रचुर उदाहरण यत्र-तत्र उपलब्ध होते हैं। प्रथम पद्य की प्रथम एवं द्वितीय पंक्तियाँ ही उदाहरणस्वरूप देखी जा सकती हैं वक्षोंशुकाहरण-साध्वस-कृष्ट-मौलि-माल्य-च्छटाहत-रतालय-दीपभासः। इसमें १३ पद समस्त हैं। प्रायः प्रत्येक पद्य में समस्त-पद दिखायी पड़ते हैं। इन दीर्घ समस्त-पदों के साथ-साथ सरल लघु शब्दों का प्रयोग बड़ा ही रुचिकर प्रतीत होता है - गणयतु गणशः को भूपतींस्ताननेने प्रतिदिन-रणभाजा ये जिता वा हता वा। इस जगति विशेहे स्वस्य वंशस्य पूर्वः पुरुष इति सुधांशौ केवलं राज-शब्दः।।१६।। १. सं.श.कौ., परि., पृ. ८० २. दे.अ., पृ. ३५ ३. इ.च., प. ८ … गौडेष्वक्षरडम्बरः।। ४०४ गद्य-खण्ड मन्दिर के सुवर्ण-कलश का वर्णन कवि इतनी सरलता के साथ कर सकता है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। शब्द-प्रयोग में ये बड़े ही कुशल प्रतीत होते हैं। एक भी शब्द को हम उनके स्थान से हटा नहीं सकते। समस्त-पदों से काव्य-प्रवाह बाधित नहीं होता। जहाँ तक शब्दालङ्कार की बात है, प्रायः प्रत्येक पद्य में अनुप्रास की छटा परिलक्षित होती है वंशे तस्यामर-स्त्री-वितत-रत-कला-साक्षिणो दाक्षिणात्य क्षोणीन्द्रैर्वीरसेन-प्रभृतिभिरभितः कीर्तिमद्भिर्बभूव ।।४।। यहाँ वृत्त्यनुप्रास और छेकानुप्रासगत सौन्दर्य परिलक्षित होता है। अर्थालङ्कार में उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा के साथ-साथ विभावना’, भ्रान्तिमान प्रर्यायोक्ति और प्रतीप के उदाहरण भी उपलब्ध होते हैं। उपमा का एक उदाहरण देखा जा सकता है यत्सिहांसनमीश्वरस्य कनकप्रायं जटामण्डलं गङ्गा-शीकर-मंजरी-परिकरैर्यच्चामर-प्रकिया। श्वेतोत्फुल्ल-फणांचलः शिव-शिरः सन्दानदामोरग श्छत्रं यस्य जयत्यसावचरमो राजा सुधा-दीधितिः।।३।। गङ्गायाः शीकरमंजर्यः परिकराः इव तैः यत् चामर-प्रक्रिया-गङ्गा के जल-बिन्दु किङ्कर के समान जहाँ चँवर डुलाने का काम कर रहे हों-ऐसा विग्रह करने पर उपमा अलङ्कार हो जाता है और यह उपमा सर्वथा कवि-जगत् में नूतन और रमणीय प्रतीत होती है। पुनः धवल फूले हुए सों के फण ही जहाँ आंचल हो (श्वेताः फुल्लाः फणाः एवं अंचलः यत्र) विग्रह करने से रूपक की प्रतीति हो जाती है। कनक-प्राय (मानो सोने के बने हैं। में उत्प्रेक्षा परिलक्षित होती है। इस प्रकार एक ही पद्य में अलंकार-त्रय की सत्ता दृष्टिगत होती है। सबकी एकत्र स्थिति से संसृष्टि अलङ्कार भी यहाँ हो जाता है। कवि का अलङ्कार-कौशल भी अतिशय प्रशंसनीय प्रतीत होता है। प्रस्तुत अभिलेख में समालङ्कार का भी निम्नलिखित उदाहरण बहुत ही रोचक प्रतीत होता है १. २. ३. दे.अ., प. १७ वही, १२, २ (क), वही ५ वही, २८ ४०५ है अभिलेखीय साहित्य प्रत्यर्थि-व्यय-केलि-कर्मणि पुरः स्मेरं मुखं विभ्रतो रेतस्यैतदसेश्य कोशलभभूदाने द्वयोरद्भुतम्। शत्रोः कोऽपि दधेऽवसादमपरः सख्युः प्रसादंव्यथा देको हारमुपाजहार सुहृदामन्यः प्रहारं द्विषाम् ।।१३॥ शत्रुओं को अवसाद की प्राप्ति हुई तो सखा को प्रसादागम हुआ, मित्रों को एकावली की प्राप्ति हुई, तो अरि-वर्ग को प्रहार। कवि-विरचित पद-शय्या सहज ही प्रशंसनीय प्रतीत होती है - दुर्वृत्तानामयमरि-कुलाकीर्ण कर्णाट-लक्ष्मी लुण्टाकानां कदनमतनोत्तादृगेकाङ्गवीरः। यस्मादद्याप्यविहत-वसा-मांस-भेद-सुभिक्षां हृष्यतूपौरस्त्यजति न दिशं दक्षिणां प्रे (त)-भर्ता ।।८।। यहाँ नृप सामन्तसेन की वीरता समस्त पदों के द्वारा व्यजित होती है। कवि उमापतिधर छन्दःशास्त्र में भी अतिनिपुण हैं। ३६ पद्यों के कलेवर वाले इस अभिलेख में छन्दों-स्रग्धरा (कु. १४ पद्य), शार्दूलविक्रीडित (७ पद्य), वसन्ततिलका (७ प.), पृथ्वी (३ प.), मन्दाक्रान्ता (२ प.), उपजाति (२ प.), शिखरिणी (१ प.), मालिनी (१ पद्य) और इन्द्रवज्रा (१ प.) का प्रयोग किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि का सर्वप्रिय छन्द स्रग्धरा ही है। राज-परिवर्तन के साथ-साथ छन्द-परिवर्तन भी परिलक्षित होता है। संदर्भः कीलहॉर्न, ए.ई., १, पृ. ३०५।

५२. नेपाली संस्कृत-अभिलेख

नेपाल भारतवर्ष के उत्तर में है। यह भारत का निकटतम पड़ोसी देश है। भारत से इसका सम्बन्ध घनिष्ठ है। प्राचीन काल में भारतीय शासक ही वहाँ भी शासन करते थे। गुप्त-सम्राट् समुद्रगुप्त ने नेपाल पर अपना अधिकार कर लिया था। तीसरी शताब्दी से लिच्छवी लोगों का नेपाल पर अधिकार था। नेपाल के लिच्छवी वंशीय नृपों के द्वारा सन् ४६३ ई. से ७४४ ई. के बीच प्रायः ८६ अभिलेख उत्कीर्ण कराए गये, जो पंचम शताब्दी से अष्टम शताब्दी के मध्यभाग पर्यन्त भारत और नेपाल के सुहृद् सांस्कृतिक संबंधो को प्रकाशमान करते हैं। इन अभिलेखों में ३ स्तम्भ लेख हैं, प्रथम, द्वितीय एवं उनसठवाँ । एक तामपत्र अभिलेख है अरसठवाँ और शेष पच्चासी शिलालेख हैं। __ ये सभी अभिलेख दिग्विजय, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक घटनाओं की स्मृति में उत्कीर्ण हुए थे। इनके रचनाकार राजकवियों ने स्वरचित प्रशस्तियों में ३४०६ गद्य-खण्ड साहित्यिक सौन्दर्य के गागर में सागर भरने का प्रयास किया है। फलतः ये साहित्यिक कृति के रूप में हमारे सामने उभर कर प्रस्तुत हुए हैं।’ इन नवासी अभिलेखों में केवल सत्रह अभिलेखों को छोड़कर शेष खण्डित रूप में उपलब्ध हैं। इन अभिलेखों में १० अभिलेख पद्यबद्ध हैं। उन्चास अभिलेख गद्यात्मक हैं और तीस अभिलेख चम्पूकाव्यात्मक हैं। इनमें ६५ अलंकार है तथा १४३ पद्यों में १३ छन्द प्रयुक्त हैं। मात्रिक छन्द में मात्र आर्या ही प्रयुक्त है। __ शिलालेख की एक झलक इस बात की पुष्टि कर देती है कि संस्कृत-साहित्य की परम्परा नेपाली संस्कृत-साहित्य में अक्षुण्ण है। सन ४६४ ई. में उत्कीर्ण राजामानदेव का प्रशस्ति-स्तम्भ-लेख उपलब्ध होता है। इसमें १६ शार्दूलविक्रीडित छन्द में निबद्ध एक अत्युत्कृष्ट संस्कृत-काव्य का दर्शन होता है, जो काव्यगुणों के निकषोपल पर अति-मधुर एवं पुष्ट रचना प्रमाणित होता है। यह भाव, भाषा एवं काव्यकला की साक्षात् त्रिवेणी रही है। __ पति की मृत्यु के बाद पत्नी की क्या दुर्दशा होती है, यह सहज ही अनुमेय है। मानदेव की विधवा माँ संसार से विमुख हो पति का अनुगमन करने के लिए तत्पर है। परन्तु अपने लाडले मानदेव के मुखकमल से आविर्भूत अश्रुकणों से क्लिन्न जाल में फंस खिन्न विहगी के समान स्थिर हो जाती है - किं भौगैर्मम किं हि जीवितसुखैस्त्वद्विप्रयोगे सति प्राणन् पूर्वमहजहानि परतस्त्वं यास्यसीतो दिवम्। इत्येवं मुखपङ्कजान्तरगतै नेत्राम्बुमित्रै ढं वाक्-पाशै विहगीव पाशवशगा बद्धा ततस्तस्थुषी।।१०।। निम्नलिखित पद्य उल्लेखालङ्कार का उत्कृष्ट उदाहरण है पुत्रेऽप्यूर्जित-सत्त्व-विक्रम-धृतिः क्षान्तः प्रजावत्सलः कर्ता नैव विकत्थनः स्मितकथः पूर्वाभिभाषी सदा। तेजस्वी न च गर्वितो न च परां लौकज्ञतान्नाश्रितः दीनानाथ सुहृत् प्रियातिथिजनः प्रत्यर्थिना माननुत् ।।१२।। The object that prompted the engraving of these inscriptions was generally the recording of some pious donation of village or the building of temple or even that of describing the exploits of a king. In all these cases, it is therefore futile to expect any flashes of literary merit in these compositions recorded in inscriptions. But some time, when a court-poet sets himself to the task of extolling the virtues and exploits of his patron king and his ancestors, the result is sometimes recorded in the excellent specimens of Sanskrit Kavya or artificial poetry. These prasatis very often contain …. but also words and phrases similar to those found in the standard classical poetry of the Masters of Sanskrit literature. Diskalkar, D.B./ Selections from Sanskrit Inscriptions. PP. 9. २. नेपाली संस्कृत-अभिलेखों का हिन्दी अनुवाद, पृ. ८ ३. १. आर. नोली, ने.इं.शु.कै.सं. १, १०. (न.सं.अ.हि.अ. से उद्धृत) ४०७ अभिलेखीय साहित्य क गण्डकी नदी की विशालता, भयानक भँवर महातरंगों से तरङ्गायित चंचल धारा का साधु वर्णन अल्पसमस्त-पदों और तद्रसानुकूल वर्गों के प्रयोग से व्यक्त होता है अद्यैव प्रियभातुलोर विभवक्षोभार्णव-स्पर्धिनाम् भीमावर्त्ततरङ्गचंचलजलं त्वं गण्डकीमुत्तर। सन्नद्धै बर वाजितैजर-शतैरन्धेभि तीर्खा नदी त्वत्सेनामिति निश्चयान्नरपतिरुतीर्य प्रतिवस्तदा।।८।। इस पद्य की तुलना विशाखदत्त के मुद्राराक्षस के पद्य-विशेष के साथ की जा सकती है।’ अभिलेख का अन्तिम पद्य अति सरल प्रतीत होता है एवं प्रसाद गुणयुक्त है-जित्वा मल्लपुरी ततस्तु शनकैरम्याजगाम स्वकं देशं, प्रीतमनास्तदा खलु …. प्रादाद् द्विजेम्यो धनम् । राज्ञी राज्यवती च साध्यमतिना प्रोक्तां दृढं सूनु (ना), भक्त्याम्ब त्वमपि प्रसन्न-हृदया दानं प्रयच्छस्व तत् ।।१६।। _ प्रस्तुत काव्यात्मक शैली के अवलोकन से यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि ऐसी शैली की परम्परा का विकास कतिपय शताब्दियों से होता आ रहा होगा। राजा मानदेव की सभा के प्रसिद्ध कवि अनुपरम थे। उनका ‘द्वैपायन स्तोत्र-अभिलेख एवं राजा जयदेव के सभाकवि बुद्धकीर्ति की रचना पशुपति-राजवंश-प्रशस्ति-अभिलेख संस्कृत-वाङ्मय के इतिहास में अपना अद्वितीय स्थान रखते हैं। ४० अभिलेखों के १४१ पद्यों में चौदह छन्द प्रयुक्त हुए हैं-अनुष्टुप् शार्दूल, मालिनी, वशस्थ, मन्दाक्रान्ता, प्रहर्षिणी, शिखरिणी, आर्या, उपगीति, रुचिरा, मंजुभाषिणी, स्रग्धरा, उपजाति और वसन्ततिलका। इन अभिलेखों का एक और भी वैशिष्ट्य है। परवर्ती कवियों ने स्मरण, परिणाम, उल्लेख, प्रतिवस्तूपमा, विनोक्ति, परिकर, परिकरांकुर, अप्रस्तुतप्रशंसा, अर्थान्तरन्यास, असंगति, अन्योन्य, सम, प्रसम अधिक अत्युक्ति, विशेष, कारणमाला, पर्याय परिसंख्या, विकस्वर, उत्तर आदि अलंकारों का सफल प्रयोग किया है। श्रृंगार को छोड़कर शेष आठ रस का वर्णन यहाँ उपलब्ध होता है। साथ ही परवर्ती वात्सल्य और भक्ति की चर्चा भी मिलती है। अभिलेखों में यत्र-तत्र दिग्विजय, प्राकृतिक सीमा एवं मार्मिक स्थलों के वर्णन रुचिकर शब्दचित्र के उदाहरण प्रतीत होते है। भव्य-वैशिष्ट्य के सफल पारखी डी.आर. रिग्मी ने महाकविबुद्धकीर्ति के साथ-साथ राजदेव-द्वितीय को भी एक महान् कवि की संज्ञा दी है। १. मु.रा., २.२३ सभी सद्य २. नं.सं.अ.हि.अ., पृ. ६ ४०८ गध-खण्ड __बाणभट्ट, सुबन्धु आदि के वाग्वैचित्र्य, कविकल्पना एवं प्रौढ़ पाण्डित्य का प्रदर्शन उनकी अलंकृत काव्यशैली में परिलक्षित होता है। ऐसा वर्णन राजा जयदेव-द्वितीय के पशुपति-राजवंश-प्रशस्ति-अभिलेख में पाया जाता है नालीनालीकमेतन्न खलु समुहितो राजतो राजतोऽहं पद्मपद्मासनाब्जं कथमनुहरतो मानवा मानवा ये। पृथ्व्याम् पृथ्व्यान्न मादृग्भवति हृतजगन्मानसेवाः । भास्वान् भास्वान् विशेषं जनयति न हि मे वा सरो वासरो वा।।’ अर्थात् रजतकमल कहता है-निश्चय ही मैं कमल हूँ, यह मिथ्या नहीं है, किन्तु मैं वह कमल नहीं हूँ जो सरोवर में विकसित होता हुआ शोभित हो रहा है, अपितु मैं राजा द्वारा समर्पित किया गया, शोभायमान रजतकमल हूँ। हे मानवो! लक्ष्मी और ब्रह्माजी के कमल मेरी तुलना कैसे कर सकते हैं ? क्योंकि मेरी जैसी नवीनता उनमे नहीं है। वे तो पुराने हैं। दूसरी बात यह है कि मैं मानवी (मानवकृत) हूँ, किन्तु वे अमानवी (देवी) हैं। इस विस्तीर्ण पृथ्वी पर मेरे जैसा कमल न तो जगत् के किसी मनुष्य के हृदय में है, न ही किसी सरोवर में है। मुझ-चमकते हुए दिव्य कमल में सूर्य या दिन अथवा सरोवर ने ही कोई विशेष परिवर्तन या विकार उत्पन्न किया है, अर्थात् सूर्य, दिन एवं सरोवर के बिना भी मैं सदैव देदीप्यमान (विकसित) रहता हूँ।

गद्यकाव्य

गद्यकाव्य की दृष्टि से नेपाली अभिलेख बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। संस्कृत-गद्य-साहित्य के संवर्धन में इनका योगदान भी महत्त्वपूर्ण है। राजाशिवदेव प्रथम के अभिलेखों की गद्य-शैली उत्कलिकाप्राय ही है। सीमा निर्धारण या मुनियों द्वारा राजाज्ञा-प्रसारण आदि का विवरण, नेपाल के अभिलेखों में समास-विरहित मुक्तक गद्य-शैली में है। इसका एक उदाहरण-१. ओऽम् स्वस्ति मानगृहात् सु ……………. गा ………. कल्याणो निरुपगगुण …… (भ) ट्टारक ….. महाराज-श्रीशिवदेवः कुशली …… (दिवसांते) नः प्रधानपुरस्सरान् ग्रामकुटम्बिनः फु ४. शिलामाभाष्य सम (ज्ञा) पन्नति विदिराग् भवतु भवतां यथायाने ५. (न) ……… प्रणत …. ञ्च ……… चरणयुगलेन प्रख्याता …….. १. २. आर., नोली, ने.इं.गु.कै. सं, हा, प. २३ ने.सं.अ.हि.अ., पृ.६ अभिलेखीय साहित्य ४०६ १४. राजाज्ञा सम्यक् पालनीयेति सभाज्ञापना दूतकश्चात्र रचात्रा १५. रामशीणवार्त।’ संवत् १०६ वैशाखमासे शुक्ल दिवा दशम्याम् परन्तु राजा नरेन्द्रदेव तथा राजा जयदेव-द्वितीय के अभिलेख में उत्कलिकाप्राय एवं चूर्णक गद्य-शैली-द्वय का मिश्रित रूप मिलता है। राजा जयदेव-द्वितीय के “नवसल नारायए। अजोविका-शिलालेख में मुक्तक गद्य-शैली का प्रयोग अतिरुचिकर प्रतीत होता है व्यवहार-परिनिष्ठित-जातं द्रव्यस्य जपग्रपरंचालिकेन दातव्यम् । वस्तु द्रव्यं न प्रयच्छेत् स्वस्थानवास्तव्य स्यान्यस्थानीयस्य च धारणकस्यात्रैव रौधोपरौधो भवेत्। कतिपय नेपाली अभिलेखों से उदत्त चरित्र एवं दार्शनिक विचारों की अभिव्यक्ति के लिए दीर्घसमासात्मक कोमलकान्त पदों का प्रयोग किया गया है। राजा नरेन्द्र-देव के अमात्य प्रियजीव को “यैगाहिटि लागनटोले त्र्यगुहार शिलालेख” में राजा के उदात्त चरित्र का चित्रण उत्कलिकाप्राय शैली में ही है। राजा भीमार्जुनदेव के लागन टोलेकर दण्डमुक्ति शिलालेख पर महाकवि-हरिषेण-विरचित “इलाहाबाद समुद्रगुप्तप्रशस्ति का स्तंभलेख” की छाप पूर्णतः परिलक्षित होती है। भावों के अनुरूप कोमल एवं ओजपूर्ण पदों का प्रयोग निम्नलिखित गद्य-खण्ड में दिखायी पड़ता है __वो यथानेन स्वगुण-मभि-मयूखालोक-ध्वस्ताज्ञान-तिमिरेण भगवद्-भवपाद-पङ्कज प्रणामानुष्ठान-तात्पर्योपात्तायतिहित श्रेयसा स्वभुज-युग-वलोत्खाताखिल-चारिवर्गेण श्री-महासामन्तांशु-वर्मणा मां विज्ञाप्य मदनुज्ञातेन सता युष्माकं सर्वाधिकरणाप्रवेशेन प्रसादः कृतः। अतः हम ऐसा कह सकते हैं कि नेपाली संस्कृत-अभिलेखों का काव्यात्मक सौन्दर्य भारतवर्ष के हरिषेण, वत्सभट्टि, वासुल प्रभृति के अभिलेखों से किसी भी प्रकार कम महत्त्वपूर्ण प्रतीत नहीं होते।

५३. बृहत्तर भारत और भारतीय अभिलेख

भारतीय व्यापारियों के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार मध्य एशिया, पूर्वी द्वीप-समूह, चीन और जापान तक हो गया। भारतीय वाङ्मय के आधार पर हमें यह पता चलता है कि सुमात्रा (=सुवर्ण द्वीप) में सर्वप्रथम ईश्वर-वर्मा का शुभागमन हुआ और वहाँ भारतीय उपनिवेश बनाया गया। वहाँ १. ने.सं.अ.हि.अ., पृ. ४१-६२ भी.प.प्रा.लि.शि.-२३ २. वही पृ. १२ ३. वही पृ. १५४, पं.-१-२ ये ला. य.शि. ४. आर.नोली. ने. इ. गु.कै., १, सं. ३१, ५-७ (खो.क.नि.शि.) ४१० गध-खण्ड के अभिलेख में उस देश को सुवर्णभूमि या सुवर्ण-द्वीप कहते हैं। सभी अभिलेख संस्कृत में हैं और उनकी लिपि पाँचवी शताब्दीय भारतीय लिपि से मिलती-जुलती हैं। लेखों के आधार पर यह पता चलता है कि श्रीविजय नामक स्थान तत्कालीन संस्कृत विद्या का केन्द्र बन गया। सुमात्रा में हिन्दू-धर्म और महायान का विशेषतः प्रचार था। मलय के संस्कृत लेखों से बोद्ध धर्म के प्रचार का विवरण मिलता है। ये सभी पंचम शताब्दीय गुप्त-लिपि में उत्कीर्ण हैं। जावा में प्राप्त संस्कृत-लेखों से जावा पर संस्कृत का विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है। पंचम शताब्दी से वहाँ संस्कृत में लेख भी उत्कीर्ण हुए एवं उनकी लिपि उत्तर भारत की है। षोडश महादान की चर्चा भारतीय अभिलेखों में मिलती है। जावा का शैलेन्द्रवंशीय इतिहास वहाँ के अभिलेखों में ही संरक्षित है। __भारत के प्राचीन अभिलेखों से सुवर्णभूमि (=सुमात्रा) से वर्मा और मलाया का भी बोध होता है। वर्मा के लेख और मलाया की प्रशस्तियाँ चतुर्थ और पंचम शताब्दीय संस्कृत-भाषा में लिखित हैं, जिनमें दान का वर्णन किया गया है। बोर्नियो में चतुर्थ शताब्दी से ही भारतीय उपनिवेश स्थापित होते थे। संस्कृत-लेख-मूर्तियों की आधार-शिला किंवा स्तम्भ पर उत्कीर्ण हुए। एक यूप-प्रशस्ति में वहाँ के मूलवर्मन् नामक राजा के धार्मिक कृत्यों का उल्लेख उपलब्ध होता है। __ बालि द्वीप से भी संस्कृत-भाषा के लेख प्राप्त हुए हैं। उनमें धर्मादमन नामक एक राजा का विशेषः उल्लेख मिलता है। हिन्द-चीन (इण्डोचाइना) के विभिन्न प्रदेश-चम्पा (अनाम), कम्बोज (कम्बोडिया) आदि से जो भी लेख मिले हैं, सबकी भाषा संस्कृत ही है। अनाम की प्रशस्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत वहाँ की राजभाषा के पद पर आसीन थी और उसकी लिपि ब्राह्मी थी। चम्पा में प्राप्त एक चतुर्थ शताब्दीय शिलालेख में नरबलि का उल्लेख भी मिलता है। दक्षिणी चम्पा से उपलब्ध एक संस्कृत-लेख में मारवंशी नृपों का उल्लेख छन्दोब्द्ध पद्यों में किया गया है।

५४. कम्बोडिया के संस्कृत अभिलेख

कम्बोडिया का प्राचीन नाम ‘कम्बोज’ है। वहाँ के संस्कृत अभिलेख से बहुत सी बातों पर प्रकाश पड़ता है। उन प्रशस्तियों में दान का विवरण, दानग्राही ब्राह्मणों की विद्या, रामायण, महाभारत, हिन्दूशास्त्र और बौद्ध-ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है। नवीं शताब्दी की प्रशस्तियों में भारतीय षड्दर्शन की भी चर्चा है। हैं १. प्रा.भा. अ., पृ. २१६-२२१ ४११ अभिलेखीय साहित्य वीं शताब्दी से १०वीं शताब्दी के मध्य वहाँ संस्कृत भाषा की अतिशय वृद्धि हुई और अधिकाधिक अभिलेख संस्कृत में उत्कीर्ण हुए। एक लेख में कम्बोजनृप यशोवर्मन् के द्वारा महाभाष्य पर लिखित एक टीका का भी निर्देश है।’ डॉ. एम.के. शरण के अनुसार तो कतिपय कम्बोजीय अभिलेखों के पद्य भारतीय अभिलेखों के पद्यों से भी अच्छे प्रतीत होते हैं। कम्बोज में अभी तक १४८ संस्कृत के अभिलेख मिले हैं। यहाँ मेवीन अभिलेख पर कुछ प्रकाश डाला जा रहा है। __ यह सुन्दर अभिलेख कई भागों में भग्न हो चुका है, एक भाग तो लुप्त भी हो गया है। इसका पता सर्वप्रथम एम. मार्शल (M. Marchal) ने १६२२ के अक्टूबर महीने में लगाया। अंगकोरधॉम के निकट ‘मेवोन’ के स्मारक में उत्खनन के क्रम में यह मिला। बाहर प्राचीर के इ-गोपुर की ओर जानेवाले मुख्यमार्ग में यह पाया गया था। इसे पुनः उसी के पास खड़ा करके स्थापित कर दिया गया। इस अभिलेख में कुल २१८ पद्य हैं, जो संस्कृत भाषा में विरचित हैं। इसका समय ८७४ शकसंवत् ( = ६५२ ई. स.) है। अभिलेख में माघमास के शुक्लपक्ष के प्रतिपद का निर्देश है। यह नृप राजेन्द्रवर्मन् की प्रशंसा में उत्कीर्ण है एवं उनके कतिपय धार्मिक कार्यों का उल्लेख यहाँ किया गया है। सिद्धशिवपुर में स्थित लिङ्गसिद्धेश्वर के लिए दान और साथ ही वहाँ शिवलिङ्ग एवं पार्वती के मूर्ति-द्वय की स्थापना का विशेषतः उल्लेख ही इस अभिलेख का उद्देश्य है। इसके अतिरिक्त कई मूर्तियों-शिव-पार्वती, विष्णु, ब्रह्मा और अष्ट शिवलिङ्ग की स्थापना की भी चर्चा इसमें है। __ अभिलेख के आरम्भ में भगवान् शङ्कर की स्तुति की गयी है। इसके उपरान्त राजेन्द्रवर्मन्-द्वितीय की वंशावली का उल्लेख मिलता है। इनके वंश के पूर्वपुरुष सोमा कौण्डिन्य- वंशीय थे, जिनका प्रातःस्मरणीय नाम बालादिव्य था। वे अनिन्दितपूर-निवासी थे। उन्होंने रणभूमि में शत्रुओं की पत्नियों को वैधव्य प्रदान किया और स्वर्ग द्वार-पुर जो इन्द्रपुरी की शोभा से ईष्या करती थी, में एक शिवलिङ्ग की स्थापना की और उसकी पूजा के निमित्त अत्यधिक सम्पत्ति दान-स्वरूप दिया। । ब्रह्म-क्षत्रियवंश की उसकी भागिनेयी थी, जिसका नाम सरस्वती था। उसका पाणिग्रहण ब्राह्मणों में श्रेष्ठ विश्वरूप के साथ हुआ। इन दोनों से भुवन के लिए हितकारी, जन्मतः पवित्र, अपरा लक्ष्मी के समान महेन्द्रदेवी नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई। इसका १. वही, पृ. २२३ २. से. कम्बो. इ. पृ. ७, Some of these Sanskrit Inscriptions exced the best composi tions at home, and my visit to the country fo South-East Asia served as an incentive to write this… ४१२ गद्य-खण्ड विवाह ….पुराधीश के पुत्र राजा महेन्द्र वर्मा के साथ सम्पन्न हुआ। जिस प्रकार कश्यप ने अदिति के गर्भ से सूर्य को उत्पन्न किया, उसी प्रकार महेन्द्रदेवी के गर्भ से महेन्द्र वर्मा ने एक पुत्र को उत्पन्न किया, जिसका नाम राजेन्द्र वर्मा पड़ा। यह बालक अवर्णनीय तेज से सम्पन्न था। इसी राजा की वीरता, विद्या एवं शासन-कुशलता का वर्णन पूरी प्रशस्ति में किया गया है। इसका शासनकाल ६४४ ई. स. से ६६८ ई. सं. है। २१८ पद्यों का यह प्रस्तुत शिलालेख एक लघुकाय काव्य के सदृश प्रतीत होता है। इसके ५१ पद्य क्षतिग्रस्त हैं। इसका पद्य-चतुष्टय पूर्णतः अपठनीय है। कतिपय पद्यों का पूर्वार्ध क्षतिग्रस्त है, तो अन्यों का उत्तरार्ध ही पूर्णतः क्षत है। किसी-किसी पद्य का एक पाद अपठनीय है, तो दूसरों के पादत्रय ही। पद्य-विशेष के आरम्भ में ही एक-दो पद्य अपठनीय हैं, तो अन्य द्वित्रा पद्यों के अन्तिम एक-दो पद ही लुप्त हैं। यह अभिलेख साहित्यिक-सौन्दर्य की एक गुहा जैसा प्रतीत होता है। अलङ्कार के क्षेत्र में शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार दोनों ही उपलब्ध होते हैं। शब्दालकार में अनुप्रास की छटा सर्वत्र परिलक्षित होती है। वृत्त, छेक, श्रुति एवं अन्त्यानुप्रास के उदाहरण यत्र-तत्र मिलते हैं दिवःपृथिव्योरपि गीयमानञ्जिष्णोर्यशोप्यर्जितवीर्यसम्पत्। कर्णासुखं श्रोत्रसुखस्य शङ्के, यस्योपमाहं यशसो न जातम् ।। ६०॥ इस पद्य के प्रथम पाद में व-व की आवृत्ति से वृत्यनुप्रास, तृतीय पाद में सुख-सुख की आवृत्ति से छेकानुप्रास एवं द्वितीय पाद में ज्, य, श, ष, स, की उपस्थिति से श्रुत्यनुप्रास के उदाहरण भी उपलब्ध हो जाते है। . इसके अतिरिक्त निम्नलिखित पद्य में यमक का उदाहरण भी दृष्टिगत होता है आसाद्यशक्तिं विबुधोपनीतां माहेश्वरी वानमयीममोघाम्। कुमारभावे विजितारिव! यो दीपयामास महेन्द्रलक्ष्मीम् ।।२०।। छ यहाँ कुमार शब्द से शिव-पुत्र स्कन्द और साथ ही महेन्द्रवर्मन् के पुत्र राजेन्द्रवर्मा का भी बोध होता है। पूर्वार्ध में अन्त्यानुप्रास भी है। अर्थालङ्कार के क्षेत्र में सुन्दर-सुन्दर उपमाएँ इतस्ततः बिखरी हुई मिलती हैं। यहाँ उपमा के एक-दो उदाहरणों की समीक्षा की जा सकती है १. मे.अ.प. १३ देव्यान्तस्यामदित्यान्दिवसकर इवोत्पादितः कश्यपेन श्रीभद्राजेन्द्रवर्मावनिपतिरभवत्तेजसा भास्करो यः ।।१३।। २. वही, प.सं. ४८, ५०, ५२, और ५४ (४ पद्य) ३. मे.अ., प.सं. १०८, १८६ और १६१ = ३ पद्य १) मा ४१३ अभिलेखीय साहित्य दुग्धाम्बुराशेरिव पूर्णचन्द्रश्चण्डांशुरत्नादिव चित्रभानुः। शुद्धान्वयाद् यो नितरां विशुद्धः प्रादुर्बभूवाखिलभूपवन्धः।।१४।। जैसे क्षीरसागर से राकेश एवं सूर्य से अग्नि का प्रादुर्भाव होता है, उसी प्रकार परम पवित्र ब्रह्म-क्षत्रिय वंश में सभी नृपों से बन्ध परमविशुद्ध महेन्द्रवर्मा का जन्म हुआ। राकेश से नृप के लावण्य और ‘चण्डांशुरत्न’ से उसके असह्य तेज का बोध होता है। दिन-प्रतिदिन महेन्द्रवर्मा की अनिंद्य सुन्दरता बढ़ती जा रही थी। सौन्दर्य-वृद्धि में कदापि कमी नहीं आयी। सतत प्रवर्धमान लावण्य के फलस्वरूप उसने चन्द्रमा की सुन्दरता का उपहास भी किया। विवर्द्धमानोऽन्वहमिद्धकान्तिर्वपुर्विशेषेण मनोहरेण। यस्सर्वपक्षोदयमादधानस्तिरश्चकारैव हिमांशुलक्ष्मीम् ।।१७।। यहाँ व्यतिरेकालकार व्यंग्य होता है निम्नलिखित पद्य में रूपकालकार अतीव रुचिकर प्रतीत होता है शिष्टोपदिष्टं प्रतिपद्य सद्यःक्षेत्रं यमुत्कृष्टमकृष्टपच्यम्। श्रद्धाभ्मसा सिक्तमरुक्षदुच्चैः शास्त्रस्य चास्त्रस्य बीजमग्र्यम् ।।२२।। नृप महेन्द्रवर्मा में बोये गए शात्र-अस्त्र के पुष्ट बीज श्रद्धारूपी जल के सिंचन से प्रचुर फलदायक हुए। पद्-शय्या भी मनोहारिणी प्रतीत होती है। नृप राजेन्द्रवर्मा में असंख्य गुण कूट-कूट कर भरे थे, जिसकी प्रशंसा हजारों मुख से की जाती थी। उनकी संभावना एक ऐसे भाष्य के रूप में की जाती है, जिसकी टीका करने में विद्वान् भी असमर्थ हो जाते थे -

  • सहस्रमुखसंकीत्यं गम्भीरं गुणविस्तरम्। यस्य भाष्यमिव प्राप्य व्याख्या खिन्नापि धीमताम् ।।२०० ।। यहाँ कवि पतञ्जलिकृत-महाभाष्य की ओर संकेत कर रहा है। प्रस्तुत पद्य में उत्प्रेक्षा का गौरव सहज ही प्रतीत हो रहा है। राजा की कीर्तिरूपी क्षीर-सागर इस भुवन को आप्लावित कर रहा था। पृथ्वी ने जलमग्न होने के भय से छाया के रूप में चन्द्र का आश्रय ले लिया भुवनाभुवनाप्लावनोद्वेले यत्कीर्त्तिक्षीरसागरे। छायाव्याजेन भूीत्या नूनमिन्दुमुपाश्रिता।।१०६ ।। गध-खण्ड ४१४ ‘कीर्तिक्षीरसागर’ में रूपक है और ‘नूनम्’ की उपस्थिति से उत्प्रेक्षा-अलङ्कार हो जाता है। पुनः अलङ्कार-द्वय नीर-क्षीर-न्याय से उपस्थित है। अतः यहाँ ‘सकर’ अलकार हो जाता है। राजा राजेन्द्रवर्मा के द्वारा सम्पादित लाखों यज्ञों के धूम से सभी दिशाएँ आच्छन्न हो गयीं। इनसे भगवान् भास्कर की किरणें भी बाधित होने लगीं। इतना ही नहीं, उसने इसके साथ-साथ स्वर्ग और इन्द्र के यश को भी धूमिल बना दिया - लक्षाध्वरोत्त्थैः स्थगयद्भिराशा धूमैर्निरुद्धार्ककराकरैर्य्यः । दिवञ्च शातक्रतवीञ्च कीर्तिं मलीमसत्वं युगपन्निनाय।। ६२।। यहाँ सह (युगपत्) के बल पर सहोक्ति अलङ्कार हो जाता है। वह राजा सदाचारी था। अतः वह परस्त्री-विमुख भी था। पुनरपि संग्रामभूमि में वह शत्रुस्त्री के साथ आनन्द-विभोर हो पाणिग्रहण-समारोह सम्पन्न करता था - परस्त्रीविमुखो योऽपि सदाचारविपक्षयाः। केनाप्याजो परस्त्रीणां पाणिग्रहविधिं व्यधाद ।।१५५।। प्रस्तुत पद्य विरोधाभास का बहुत ही सुन्दर उदाहरण प्रतीत होता है। कोई नृप उस राजेन्द्रवर्मा के कुछ गुणों की समता कर सकता था। परन्तु वह इसकी महिमा को चुराने में सर्वथा समर्थ नहीं हो सकता था। ठीक उसी प्रकार, जैसे मयूर नाचता भी है, उसके कण्ठ भी नीले होते हैं। परन्तु वह भगवान् शंकर कदापि नहीं हो सकता - __ अन्योऽपि सन् केनचिद्देवतुल्यो गुणेन नो यन्महिमानमाप। नृत्तव्रतो याति हि नीलकण्ठो न तावतैवेश्वरतां मयूरः।। ६८।। उक्ति-वैचित्र्य सहज ही मनोहारी प्रतीत होता है। कवि छन्दःशास्त्र में भी निपुण प्रतीत होता है। इस अभिलेख में इन्होंने ५ छन्दों-शार्दूलविक्रीहित रा-४, व-१०, १२७, वसन्ततिलका (५-७), स्रग्धरा (८, ११, १३, २, ८, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति (१४-१०४, २०६-२१७), श्लोक (१०५-२०५) का प्रयोग किया है। सर्वाधिक उपजाति (इन्द्रवन्जा + उपेन्द्रवज्रा) का ही प्रयोग हुआ है। संभवतः यह उनका सर्वाधिकप्रिय छन्द रहा है। कवि का शब्द-भाण्डार, काव्यशास्त्र’ एवं व्याकरण-सम्बन्धी ज्ञान भी प्रशंसनीय प्रतीत होता है। १. मे.अ. क प. २१६- न धर्महेतोः पुनरुक्तदोषः। ख प. ७३, …….. संव्यश्नुते शब्दगुणानुबन्धम् ……।। २. वही प. १४३ विभक्तिप्रकृतीनां यः सप्तधा विदधत् पदे। तद्धितार्थपरश्चासीदागमाख्यातकृत्यवित् ।। अभिलेखीय साहित्य ४१५ वस्तुतः भारत से सुदूर कम्बोज देश में विरचित यह अभिलेख भारतवर्ष विरचित कतिपय अभिलेखों से भी अच्छा प्रतीत होता है। संदर्भ-बी.इ. एफ. इ. ओ., टोम २५, १६२५. पृ. ३०६-५२; सं.क.इ., पृ. ३६-३७। पालि, प्राकृत और संस्कृत अभिलेखों पर दृष्टिपात करने के उपरान्त यह प्रतीत होता है कि ये अभिलेख मात्र अभिलेख ही नहीं हैं, जिनसे भारतवर्ष के विभिन्न नृपों के जीवन-चरित और उनके क्रिया-कलापों पर प्रकाश पड़ता है। ये अभिलेख, विशेषतः संस्कृत के अभिलेख ही, संस्कृत-वाङ्मय के अनूठे रत्न हैं। समुद्रगुप्त का प्रयागस्तम्भ अभिलेख, मन्दसौर अभिलेख (पट्टवायश्रेणी), यशोधर्मन्-कालीन मन्दसौर अभिलेख, ईशानवर्मन् का हड़ाहा-अभिलेख, और विजयसेन का देवपाराअभिलेख तो संस्कृत-वाङ्मय के इतिहास-गगन में देदीप्यमान नक्षत्र हैं। इनके अभाव में वस्तुतः संस्कृत-वाङ्मय का इतिहास-गगन पूर्णतः तो नहीं, परन्तु आंशिकरूप से तमसाछन्न अवश्य ही हो जाता। यही बात कम्बोज-देशीय महोन अभिलेख के विषय में भी चरितार्थ होती है। सच पूछा जाय तो यह संस्कृत-काव्य के समग्र गुणों से विभूषित एक लघुकाव्य है। जिस प्रकार हमारे सभी धार्मिक कृत्यों के अन्त में होमादि का विधान है, इसके अभाव में ये अनुष्ठान अपूर्ण होने के फलस्वरूप फलद नहीं होते; उसी प्रकार अभिलेख-साहित्य के बिना हमारा संस्कृत-वाङ्मय सर्वधा अपुष्ठ और अंग-विहीन ही रह जाता।

5.1, P.F.E.PP IX-X.-“inscriptions in Sanskrit and Prakrit constitute an important branch of Indian literature. No study of Classical Sanskrit and Prakrit can be complete without a knowledge of the enormous mass of literary material, both in prose and verse, embodied in inscriptions. In epigraphic records, references are quite abundent to various aspects of Indian life and thought. Their study is therefore not only indispensable to the student of political history, but also to all who are interested in India’s contribution to the civilization of the world. Students of the history of Indian philosophy, literature, law, society, geography, etc., have all got to supplement their knowledge by a study of epigraphic literature. Attention may, by way of illustration be invited to (1) the mention of Sankaracharya in a Cambodian record and (2) of Kalidasa and Bharavi in a Deccan epigraph of 634 A.D., (3) the reference to a Mahesvara Sect in a Mathura inscription of 380 A.D., (4) to the system of trial by ordeal in a Vishnukund in record. (5) to the Brahmana ancestry of the Kadarbas who later on ranked as Kshatriyas, (6) the help offered by epigraphy in the identifi cation of Sravasti, etc. Cont……४१६ गद्य-खण्ड