१३ गुप्तोत्तर-कालीन अभिलेख

४२. ईश्वरवर्मन् का जौनपुर अभिलेख

उत्तरप्रदेश के जौनपुर नगर के जामामस्जिद के दक्षिण द्वार के ऊपर एक प्रस्तरखण्ड पर यह अभिलेख उत्कीर्ण है। यह उत्तरी ब्राह्मी लिपि में अंकित है। इस अभिलेख की भाषा संस्कृत है। एकाध स्थलों पर प्राकृत का प्रभाव स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है। ३८७ अभिलेखीय साहित्य अभिलेख का उद्देश्य मौखरि-नरेश ईश्वरवर्मन् का वर्णन करना ही है। प्रसंगतः धारा नगरी, आन्ध्रकुल, सुराष्ट्र प्रदेश और रैवतक पर्वत का नाम भी दिखायी पड़ता है। अभिलेख की भाषा प्रवाहपूर्ण है। यहाँ छः पदों का एक समस्त-पद भी उपलब्ध होता है,’ पुनरपि अर्थाभिव्यक्ति सहज ही हो जाती है। अनुप्रास की छटा भी प्रशंसनीय है। अनुप्रास के अतिरिक्त यमक अलङ्कार भी सहज ही सुशोभित हो रहा है। पष्ठ पंक्ति में पादान्त में “सिंहसन" की जगह “सिंहासनम्” पाठ उचित प्रतीत होता है। __ अभिलेख में कुल २८ पद्य हैं। प्रथम श्लोक-चतुष्टय में भगवान् शङ्कर की बड़ी मनोहारिणी स्तुति है। कवि की छन्दो-योजना प्रशंसनीय है। अभिलेख में-पुष्पिताग्रा (प.-१), शिखरिणी (प. २, २३), मालिनी (प. ५, ११, १३, १७, १८, २०, २१, २२, २६, २८), उपजाति (इन्द्रवज्रा + उपेन्द्रवज्रा-४, १२), वसन्ततिलका (६, ७) स्रग्धरा (८, १०, २७), शार्दूलविक्रीडित (E), इन्द्रवज्रा (१०), श्लोक (१४-१६), आर्या (२१), तथा मन्दाक्रान्ता (२५)-कुल ११ छन्द प्रयुक्त हुए हैं। ग्यारह पद्यों में मालिनी का प्रयोग हुआ है। संभवतः यह कवि का अत्यधिक प्रिय छन्द रहा हो। __अलङ्कार के क्षेत्र में अनुप्रास और उपमा का अत्यधिक प्रयोग हुआ है। जिस प्रकार हिमालय पर्वत से गङ्गा का उन्नत और नम्र प्रवाह एवं चन्द्रमा से रेवा नदी का जलसमूह निःसरित हुआ, उसी प्रकार अतिशय महिमामण्डित षष्ठिदत्त से नागर व्यापारियों के विशुद्ध कुल का प्रसार हुआ हिमवत इव गाङ्गस्तुग-नम्रः प्रवाहः शशभृत इव रेवा-वारि-राशि प्रथीयान्। () परमभिगमनीयः शुद्धिमानन्ववायो यत उदित-गिरिम्णस्तायते नैगमानाम् ।। (२) भगवद्दोष का वर्णन कवि ने अनुप्रास-यमक-मिश्रित उपमा के सहारे बड़े ही रुचिकर ढंग से किया है बहु-नय-विधि-वेधा गवरे (5) प्यर्थ-मार्गे विदुर इव विदूरं प्रेक्षया प्रेक्षमाणः। वचन-रचन-बन्धे संस्कृत-प्राकृते यः कविभिरुदितरागं गीयते गीरभिज्ञः।। (१७) १. जो. अ. पं. ५ …(कृ) पानुराग-शमित क्रूरागमोपद्रवैः २. वही, ६ अधिष्ठितं क्षितिभुजां सिंहेन सिंहासनम्। ३. वही, पा.टि. २ ४. वही, विन्ध्याद्रेः प्रतिरन्ध्रमन्ध्रपतिना …. ३८८ गद्य-खण्ड __अभिलेख की भाषा प्रवाहमयी है। कवि की वर्णना-शक्ति अनुपम है। श्लोकद्वय में ही मधुमास का बड़ा ही रोचक वर्णन उपस्थित किया गया है। भावानुकूल पद-योजना भी कम प्रशंसनीय नहीं है। यत्र-तत्र पुनरुक्ति-दोष दृष्टिगोचर होता है। पुनरपि कवि कवि-कर्म से सुपरिचित प्रतीत होता है। संदर्भ-फ्लीट, कॉ.इं.इं., ३, सं. ३५, कीलहॉर्न, इं.ऐं., १८, पृ. २२०; २०, पृ. १८८; सरकार, सं.इं., पृ. ४११; पाण्डेय, हि.लि.इं., पृ. १३१; दिसकलकर, सं.सं.इं. पृ. ८४-६५।

४३. ईशानवर्मन् का हड़ाहा अभिलेख विक्रम संवत् ६११ (= ५५४)

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी मण्डल में हड़ाहा के समीप एक गाँव से उपलब्ध शिलाखण्ड पर यह अभिलेख अंकित है। आजकल यह लखनऊ संग्रहालय की शोभा-वृद्धि कर रहा है। इसकी लिपि षष्ठ शताब्दीय उत्तरी ब्राह्मी है एवं इसकी भाषा संस्कृत है। __ मौखरि-नृप ईशानवर्मन् के सुपुत्र सूर्यवर्मा के द्वारा वन-स्थित एक प्राचीन शिवालय के जीर्णोद्धार का उल्लेख करना ही प्रस्तुत शिलालेख का उद्देश्य है। कुमारशान्ति के पुत्र रविशान्ति ने इस अभिलेख की रचना की एवं मिहिरवर्मा ने इसे उत्कीर्ण किया। इसका समय वि.सं. ६११ (=५५४ ई. सं.) है। अभिलेख का कलेवर २३ ललित पद्यों का है। प्रारम्भ में पद्य-द्वय में भगवान महादेव की बहुत ही सुन्दर स्तुति है। उसके बाद मौखरि-नरेश हरिवर्मा का उल्लेख मिलता है। उनके बाद उनका पुत्र आदित्य वर्मा राजा हुए। आदित्य वर्मा का पुत्र ईश्वर वर्मा हुआ। ये इन्द्रवत् पराक्रमी थे। ययाति के समान ये यशस्वी थे। इनका पुत्र ईशान वर्मा हुआ और ईशान वर्मा का सुपूत्र सूर्य वर्मा हुआ। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि यह अभिलेख मौखरिवंश का एक संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करता है। __ साहित्यिक दृष्टि से यह अभिलेख अतिमहत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। अनुप्रास की छटा तो प्रायः प्रति पद्य में दृष्टिगोचर होती है। प्रथम पद्य के प्रथम चरण में ही श्रुत्यनुप्रास की मधुर ध्वनि श्रुतिगोचर होती है। लोकाविष्कृति-संक्षय-स्थिति कृतां यःकारणं वेधसाम् ध्वस्त-ध्वान्तवयाः परस्त-रजसो ध्यायन्ति यं योगिनः। यस्यार्द्ध-स्थित-योषितोऽपि हृदये नास्थायि चेतोभुवा भूतात्मा त्रिपुरान्तकः सः जयति श्रेयःप्रसूतिर्भवः।।१।। अभिलेखीय साहित्य श्रुत्यनुप्रास के अतिरिक्त यहाँ छेकानुप्रास और वृत्त्यनुप्रास की शोभा भी दर्शनीय है। अर्थालङ्कारों में उपमा के कतिपय सुन्दर उदाहरण मिलते हैं। उदाहरण-स्वरूप यह पद्य तस्मात् पयोधेरिव शीत-रश्मि रादित्यवर्मा बभूव। वर्णाश्रमाचार-विधि-प्रणीतो यं प्राप्य साफल्यमियाय धाता।।६।। देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त मालोपभा का यह उदाहरण भी हृदयावर्जक प्रतीत होता है तस्मात् सूर्य इवोदयाद्रि-शिरसो धातुर्गरुत्वानिव क्षीरोदादिव तर्जितेन्दु-किरणः कान्तप्रभः कौस्तुभः। भूतानामुदपद्यत स्थितिकरः स्थेष्ठं महिम्नः पदं राजनराजकमण्डलाम्बर-शशी श्रीशानवर्मा नृपः।।११।। विषयानुरूप कवि की शैली बदलती रहती है। निम्नलिखित पद्य में सूर्य वर्मा की वीरता का वर्णन बड़ा ही रोचक प्रतीत होता है। ज्याधात-व्रण-रूढि-कर्कश-भुजा व्याकृष्टशाङ्ग-च्युता न्यात्यावाध्य पतत्त्रिणो रणमुखे प्राणान्मुञ्चन्द्विषः। यस्मिन् शासति च क्षितिं क्षितिपतौ जातेव भूयस्त्रयी तेन ध्वस्त-कलि-प्रवृत्ति-तिमिरः श्रीसूर्यवर्मा (5) जनि ।।६।। वर्ण्य-वस्तु के अनुरूप यहाँ ओज-गुण-विशिष्ट गौड़ी रीति है। रूपक के अतिरिक्त ऊपर के पद्य में ‘कलि-प्रवृत्ति-तिमिर’ में रूपकालङ्कार की उपस्थिति की प्रतीति भी होती है। इस प्रकार यहाँ संसृष्टि अलङ्कार की शोभा भी प्रस्फुटित हो जाती है। कवि की उत्प्रेक्षा भी बड़ी ही मनोहारिणी प्रतीत होती है यो बालेन्दु-सकान्ति कृत्स्न-भुवन-प्रेयो दधद्यौवनम् शान्तः शास्त्रविचारणाहित-मनाः पारङ्कलानाङ्गतः। लक्ष्मी-कीर्ति-सरस्वती-प्रभृतयो यं स्पर्धयेवाश्रिता लोके कामित-कामि-भाव-रसिकः कान्ताजनो भूयसा।। ७॥ पद-शय्या भी रमणीय है। इनके अतिरिक्त संदेहालङ्कार की अवस्थिति भी यहाँ दिखायी पड़ती है। १. ह.अ., प.-७ हुतभुजि मख-मध्यासङ्गिनि ध्वान्तनीलम् वियति पवन-जन्म-भ्रान्ति-विक्षेप-भूयः। मुखरयति समन्तादुत्पतद्धूम-जालम् शिखिकुलमुरुमेधाशकि यस्य प्रसक्तम् ।। ३६० गद्य-खण्ड कवि का छन्दःशात्रीय कौशल भी सहज ही अनुमेय है। २३ पद्यों वाले इस अभिलेख में शार्दूलविक्रीडित (प. १, २, ४, ८, १०-१४, १६-१६) उपगीति २ (प. ३), उपजाति (प. १५), इन्द्रवज्रा (प. ६), मालिनी (प. ७), स्रग्धरा (प. ६, २२), द्रुतविलम्बित (प. १५), वसन्ततिलका (प. २०), अनुष्टुप् (प. २१, २३)- नव छन्दों का प्रयोग हुआ है। __ शार्दूलविक्रीडित के साथ-साथ स्रग्धरा जैसे विशालकाय छन्द भी प्रयुक्त है। शार्दूलविक्रीडित का सर्वाधिक प्रयोग (१३ बार) हुआ है। अतः यह कवि का अतिप्रिय छन्द प्रतीत होता है। नृपान्तर के साथ ही प्रायः छन्द में भी परिवर्तन हो जाता है। संदर्भ-हीरानन्द शास्त्री, ए. ई., पृ. ११०-२०; सरकार, सं. ई., पृ. ३८५; दिसकलकर से.सं.ई., पृ. ६६-१०५; दशरथशर्मा, ज.प्रे.रि., मद्रास, ६, १६३५, पृ. ७८-प्र.; जट.पू.सां.इं., २७, भा. १, १६६५, पृ. १०३।

४४. शर्ववर्मन का असीरगढ़ मुद्रा-अभिलेख

यह अभिलेख मूलतः एक मुद्रा पर उत्कीर्ण था जो आज लुप्त हो चुकी है। इसकी प्रतिकृति मध्यप्रदेश के बरहानपुर नगरी से प्रायः १७ किलोमीटर पूर्वोत्तर दिशा में स्थित असीरगढ़-किला में महाराजसिन्धिया की एक पेटिका से उपलब्ध हुयी थी। इसकी लिपि उत्तरी ब्राह्मी है जिसकी मात्राएँ लम्बी और लहरिया हैं। इसकी भाषा संस्कृत है। प्रस्तुत अभिलेख का उद्देश्य मौखरि-नरेश राजा शर्ववर्मन् की वंशावली का उल्लेख करना है। __इसका समय-शर्ववर्मन् के वंश का आरम्भ महाराज हरिवर्मा से होता है। इसकी धर्मपत्नी जयस्वामिनि-भट्टारिका देवी से इनके पुत्र श्रीमहाराजादित्य वर्मा हुए। इनकी पत्नी का नाम हर्षगुप्ताभट्टारिका देवी था, जिनसे इनके पुत्र श्रीमहाराजेश्वर वर्मा उत्पन्न हुए। इनकी सहधर्मिणी उपगुप्ता भट्टारिका देवी से महाराजाधिराज श्रीशानवर्मा का जन्म हुआ। इसकी धर्मपत्नी लक्ष्मीवती भट्टारिका थी, जिनकी कोख से परम तेजस्वी परम माहेश्वर महाराजाधिराज श्री शर्ववर्मा नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। न गर प्रस्तुत अभिलेख मात्र सात गद्य पंक्तियों का है। काव्यगत सौन्दर्य का अभाव यहाँ प्रतीत नहीं होता। अनुप्रास के द्विविध-भेद-वृत्यनुप्रास और छेकानुप्रास यत्र-तत्र परिलक्षित होते हैं।’ अर्थालङ्कार के क्षेत्र में एक सुन्दर उपमा-“चक्रधर-इव प्रजानामातिहरः श्रीमहाराज हरिवर्मा । की आभा से अभिलेख आलोकित सा प्रतीत होता है। संदर्भ-प्रिंसेप, ज.ए.सो.बं., ५, पृ. ४८२; विलसन, ज.रो.र.सो., ३, पृ. ३७७; फ्लीट, कॉ.इं.इं. ३, सं. ४७. १. २. अ.मु., पं. २ अ.मु., पं. २ अभिलेखीय साहित्य ३६१

४५. अनन्तवर्मन् का बराबर-गुहा अभिलेख

बिहार प्रदेश के गया नगर से प्रायः २२ किलोमीटर पूर्वोत्तर की ओर पनारी गाँव के समीप बराबर पहाड़ी की लोमश ऋषि की गुफा के प्रवेश-द्वार पर यह अभिलेख अंकित है। इसकी लिपि उत्तरी ब्राह्मी है। इसकी भाषा संस्कृत है। मौखरि-नृप अनन्तवर्मा के द्वारा बराबर (प्रवरगिरि) की गुफा में भगवान् श्रीकृष्ण की मूर्ति की स्थापना एवं स्वकीय पिता श्रीशार्दूल-वर्मा का यशोगान ही इस अभिलेख का उद्देश्य है। यहाँ इस अभिलेख के समय का निर्देश नहीं किया गया है। यह अभिलेख गद्यमय है। इसमें कुल छः पंक्तियाँ हैं। भाषा सरल है। छोटे-छोटे समस्त-पद भी मिलते हैं। एक समस्त-पद तो सप्त पदों’ का समूह हैं, परन्तु अर्थप्रतीति में कोई कठिनाई नहीं होती। शब्दालङ्कार में अनुप्रास और यमक परिलक्षित होते हैं। अर्थालङ्कार में मात्र दो उदाहरण उपमा का दृष्टिगोचर होता है-“कान्ताचित्त-हरःस्मरप्रतिसमः पाता व बभूव क्षितेः”। शार्दूल देखने में साक्षात् कामदेव सदृश ही था। उपमा के अतिरिक्त एक रोचक उत्प्रेक्षा भी मिलती है-लोके यश (6) स्वं रचितुमिव मुदाचीकरत्कान्तिमत्सः। लघुकाय होने पर भी इस अभिलेख में साहित्यिक सौन्दर्य का अभाव प्रतीत नहीं होता। संदर्भ-प्रिंसेप, ज.ए.सो.बं., ६, पृ. ६७४; भगवानलाल जी इन्द्रजी, इं.ऐं., १३, पृ. ४२८, नो. ५५३, फ्लीट, कॉ. इं.इं., ३, सं. ४८.।

४६. हर्षवर्धन का मधुवन ताम्र-पट्ट अभिलेख हर्ष-संवत्-२५

उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ के मधुवन गाँव से उपलब्ध एक ताम्रपट्ट पर यह अभिलेख उत्कीर्ण है। इसकी लिपि पश्चिमोत्तरी ब्राह्मी है एवं इसकी भाषा संस्कृत है। महाराज हर्षवर्धन के द्वारा श्रावस्ती भुक्ति के कुण्डधानी विषयक सोमकुण्ड गाँव का कूटदान-पत्र के फलस्वरूप भोगनेवाले वामरथ्य नामधारी ब्राह्मण से इसे आक्षिप्तकर वातस्वामी एवं शिवदेव स्वामी नाम वाले ब्राह्मण-द्वय को दान के रूप में समर्पित करने का उल्लेख करना ही इस अभिलेख का उद्देश्य है। १. ब.गु.अ., पं. ६, तत्वाकर्ण-विकृष्ट-शाङ्ग-शरधि-व्यस्तशरोत्त(न्त) न्विहः ….। २. वही, पं. १, श्रीशार्दूलस्ययोऽभूज्जनहृदयहरोऽनन्तवर्मा सुपुत्रः (1) ३. वही. पं. २ कृष्णस्याकृष्णकीर्तिः …। कि ४. न.गु. ५० ५. वहीं, पं. २ ३६२ गध-खण्ड __ ऐसा प्रतीत होता है कि यह अभिलेख हरिषेण के ‘समुद्रगुप्त का प्रयाग-स्तम्भ-अभिलेख’ के अनुकरण पर ‘चम्पू’ शैली में विरचित है। आरम्भ में ६ गद्य पंक्तियाँ हैं। इसी पंक्ति के अन्त से ही एक पद्य का आरम्भ हो जाता है। पुनः ७वीं पंक्ति के अन्त से ही गद्य-पंक्तियाँ पुनः आरम्भ हो जाती हैं और १५वीं पंक्ति-पर्यन्त ये चलती रहती हैं। इसके बाद दो पद्य हैं। अंत में भी एक गद्य-पंक्ति है, जिसमें अभिलेख की तिथि दी हुई है।’ __ महाराज हर्षवर्धन के पुनीत वंश का शुभारम्भ महाराज श्रीनरवर्धन से होता है। इनकी धर्मपत्नी श्रीमती वजिणी देवी थी। इनके गर्भ से परमादित्यभक्त महाराज श्रीराज्यवर्द्धन उत्पन्न हुए। इनकी भार्या श्री अप्सरा देवी थी, जिनकी दक्षिणकुक्षि से परमसूर्योपासक श्रीमदादित्यवर्द्धन का जन्म हुआ। इनका पाणिग्रहण सौभाग्यवती श्रीमहासेनगुप्ता के साथ हुआ, जिन्होंने प्रभाकरवर्द्धन नामक कुलदीपक को उत्पन्न किया। ये वर्णाश्रमधर्म के व्यवस्थापक थे। इनके प्रताप और अनुराग से सभी राजा वशवर्ती थे। इनकी कीर्ति चतुस्समुद्र के उस पार तक फैली हुई थी। ये पिता के समान ही आदित्यभक्त थे। इनकी पत्नी श्रीयशोमती थी। इनसे परमसौगत, प्रजा के हित में रत, कुबेर, वरुण, इन्द्रादि लोकपालों के तेज से समन्वित, परम वीर राज्यवर्द्धन का जन्म हुआ। जिसप्रकार दुष्ट घोड़े को कशाप्रहार से वश में किया जाता है, उसी प्रकार इन्होंने देवगुप्तादि दुष्ट नृपों को अपने वश में किया। इनका अनुज हर्षवर्धन था जो शिव का परमभक्त था एवं भगवान् शिव के समान सभी जीवों पर दया की भावना रखता था। इस प्रकार यह अभिलेख एक प्रकार से महाराज हर्षवर्धन की वंशावली ही है। गद्य की भाषा सरल ही है। अल्पकाय समस्त पद मिलते हैं। एक स्थान में तो दस पदों का एक समस्त-पद परिलक्षित होता है, परन्तु अर्थप्रतीति सुगमता के साथ हो जाती है। यत्र-तत्र कुछ अलङ्कार भी दृष्टिगोचर होते हैं। शब्दालङ्कार में अनुप्रास और यमक’ की शोभा मनोहारिणी प्रतीत होती है। अर्थालङ्कार में उपमा की छटा भी यत्र-तत्र दिखायी पड़ती है।’ जिसप्रकार दुष्ट अश्व को वशीभूत करने के लिए कशाभिधात की आवश्यकता होती है उसी प्रकार राजवर्द्धन ने देवगुप्तादि को युद्ध में परास्त कर वशीभूत किया-“परमभट्टारक-महाराजाधिराज-श्रीराज्यवर्द्धनः। राजानो युधि दुष्ट-वाजिन-इव बाला १. म.ता.प.अ., पं. ५-सत्पथोपार्जितानेक-द्रविण-भूमिप्रदान-सम्प्रीणितार्थिहृदयो …| २. म. ता. प. अ., पं. ५-सत्पथोपार्जितानेक-द्रविण-भूमिप्रदान-सम्प्रीणितार्थि-हृदयः ……। ३. वही, पं. ८, तस्यानुजस्तत् पादानुष्यातः परममाहेश्वरी महेश्वर इव सर्व-सत्त्वानुकम्पी परम-भट्टारक-महाराजाधिराज-श्रीहर्षः ….। ४. वही, पं. ३ …वर्णाश्रम-व्यवस्थापन-प्रवृत्त-चक्र एक-चक्र-रथ इव प्रजानामार्तिहरः। ५. वही, क पं. ६, श्रीयशोमत्यामुत्पन्नः परमसौगतः सुगत इव परहितैकरतः ..। ख) द्र.पा. टि. ३ (ग) पद्य-२ “लक्ष्म्यास्तडित्सलिल-बुदबुद-चंचलायाः ….। अभिलेखीय साहित्य ३६३ TV श्रीदेवगुप्तादयः कृत्वा येन कशाप्रहार-विमुखाः सर्वे समं संयताः।।” (पं. ६७)। वस्तुतः उपमा बहुत ही सटीक है। अभिलेख में पद्य-गद्य हैं। प्रथम पद्य शार्दूलविक्रीडित में निबद्ध है एवं द्वितीय और तृतीय पद्य क्रमशः वसन्ततिलका एवं अनुष्टुप् में हैं। शत्रुवशीकरण कठिन कार्य है। अतः शार्दूलविक्रीडित जैसे विशाल छन्द का प्रयोग किया है। हर्षवर्धन की कुल-प्रशंसा के लिए वसन्ततिलका भी उपयुक्त ही है। __इस अभिलेख को सामन्तमाहेश्वरगुप्त की आज्ञा से ‘गज्जर’ ने उत्कीर्ण किया। ऐतिहासक निर्देशों एवं साहित्यिक सौन्दर्य-दोनों ही दृष्टियों से अभिलेख-साहित्य में इस ताम्रपट्ट का एक पृथक् महत्त्व है।

४७. शशाङ्ककालीन मिदनापुर-ताम्रपट्ट अभिलेख

बंगाल के मिदनापुर मण्डल के समाहर्ता बी.आर. सेन को १६३७ में किसी व्यक्ति ने ताम्रपट्ट-द्वय पर अंकित यह अभिलेख दिया। इस अभिलेख का प्राप्ति-स्थान अज्ञात है। __ इसकी लिपि षष्ठ-शताब्दीय पूर्वोत्तरी ब्राह्मी है। यह संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण है। इस अभिलेख का उद्देश्य प्रथम पट्ट के अनसार राजा शशाङक के अधीन दण्डभक्ति तथा उत्कल के शासक सोमदत्त के द्वारा भट्टेश्वर नामक ब्राह्मण को महाकुम्भारपद्रक गाँव के दान (प्रथम पट्ट) एवं द्वितीय पट्ट के उल्लेखानुसार दाम्यस्वामी नामक ब्राह्मण को कुम्भारपद्रक गाँव की कुछ भूमि के दान का उल्लेख करना है। इसका समय ६१६ ई. स. के आसपास का है। प्रथम पट्ट में कुल १५ पंक्तियाँ हैं। १४वीं पंक्ति के आरम्भ के कतिपय अक्षर एवं १५वीं पंक्ति के आरम्भ में और अन्तिम पद के पूर्व भी कुछ अक्षर नष्ट हो गए हैं। प्रथम पट्ट में ११ पद्य हैं। इसकी भाषा सरल है। छोटे-छोटे समस्त पद हैं। एक समस्त पद तो अष्ट पदों का समूह है।’ __ शब्दालड्कार में अनुप्रास की छटा यत्र-तत्र परिलक्षित होती है-विष्णोः पोत्राग्र-विक्षेप-क्षणभा (वित-साध्वसां) साम् (शेषा)-शेषशिरो-मध्य-मध्यासीन-महातनुं (नुम्)।। १।। और श्रीशशाङ् के महीं पाति चतुर्जलधि-मेखलां (लाम्) ।।२।। श्रुत्यनुप्रास एवं छेकानुप्रास के उदाहरण भी उपलब्ध होते हैं। एक स्थल पर तो यमकालङ्कार का प्रयोग सर्वथा अभिनव और मनोहर प्रतीत होता है १. मि.ता.अ., प्र. पट्ट, प. १… शेषा ।। -शेष-शिरोमध्यासीन-महातन्त्र २. मि.वही. ३. प्र. पट्ट, पं. ३, तस्य पादन (ख-ज्योत्स्ना)-विभूषित-शिरोमणी ३. वही पं. ८, तया नित्यं यः पूज्यैः पूज्यते द्विजैः।। ३६४ गद्य-खण्ड यस्य गाम्भीर्य-लावण्य-व (ब) छु-रत्नतया (5) नया (6) न समः क्षारकालुष्य-व्यालोपयतप्रोदधि ()।। (३) (द्वि.पं.) महाराज शशाङ्क में गाम्भीर्य, सौन्दर्य (लवणस्य भावः लावण्यम्) और बहुरत्नता को देख कर उदधि लाज से गड़ जाता है और उसका क्षारकालुष्य (= लावण्य) कम जाता है। यमक के अतिरिक्त यहाँ व्यतिरेक की प्रतीति भी होती है। अतः यहाँ संकरालङ्कार की अवस्थिति भी हो जाती है। अर्थाङ्कार में उपमा का एक सुन्दर उदाहरण भी परिलक्षित होता है-तस्य पाद-न (ख-ज्योत्सना)-विभूषित-शिरोमणौ। श्रीमान्-महाप्रति (ती) हारे शुभ-कीर्ती विचक्षणे।। (प. ४), (टि.प.) यहाँ पद-नख-ज्योत्स्ना का विग्रह यदि हम “पद-नखः चन्द्र इव” करें और “चन्द्र” पद का लोप कर दें, तो यहाँ उपमालङ्कार हो सकता है। यदि “पद-नख” एवं “चन्द्रः” ऐसा विग्रह करें, तो यहाँ रूपक भी हो सकता है। “अलङ्कार-द्वय की स्थिति के फलस्वरूप यहाँ संदेह-सङ्कर अलङ्कार भी हो जाता है। __प्रथम पट्ट में ११ पद्य एवं द्वितीय पट्ट में १० पद्य हैं। ये सभी अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध हैं। प्रथम पट्ट के पद्य १० के द्वितीय पाद में अष्टाक्षर के स्थान में सप्ताक्षर ही है एवं चतुर्थ पाद में अष्टाक्षर के स्थान में १० अक्षर हैं। अतः छान्दस दोष हो जाता है। इसी प्रकार द्वितीय पट्ट के षष्ठ पद्य के तीसरे पद्य में अष्टाक्षर के स्थान में सप्ताक्षर ही है। इसके अतिरिक्त पद्य नव में चार पादों के स्थान में दो ही पाद प्राप्य हैं। रामायण, महाभारत एवं पुराणों में ऐसे उदाहरण अत्यधिक मिलते हैं। संदर्भ- रमेशचन्द्र मजुमदार, ज.रो.ए.सो.कं. (ले.), २, १६४५, पृ. १-६।

४८. पुलकेशी-द्वितीय का ऐहोल अभिलेख शक-संवत्-(६३४ ई. स.) ५५६

कर्णाटकप्रदेश के बीजापुर मण्डल के ऐहोल गाँव के मेगुटि मन्दिर की पूर्ववर्ती-दिवाल पर यह अभिलेख अंकित है। __ इसकी लिपि दक्षिणी ब्राह्मी (बाक्सनुमा) है और इसकी भाषा संस्कृत है। चालुक्य-नरेश पुलकेशी-द्वितीय की राजसभा के कवि रविकीर्ति के द्वारा स्वकीय आश्रयदाता की वीर गाथाओं का वर्णन, उनकी वंश-प्रशस्ति एवं जैन-मन्दिर के निर्माण का उल्लेख करना ही प्रस्तुत अभिलेख का उद्देश्य है। अभिलेख का समय ६३४ ई. स. है। जैन मन्दिर के निर्माण के वर्णन-क्रम में चालुक्य-वंशीय नृप पुलकेशी-द्वितीय एवं उसके कुल का भव्य वर्णन भी प्रस्तुत किया गया है। पुलकेशी-द्वितीय का ही अपर नाम सत्याश्रय था। इस वंश के अनेक नृपों की उपाधि ‘पृथिवीवल्लभ’ थी। इसी वंश में जयसिंह वल्लभ नामक अतिपराक्रमी राजा उत्पन्न हुआ। उसके बाद उसका पुत्र रणराग राजा हुआ। उसके शरीर की विशालता को देखकर लोग उसे देवता अभिलेखीय साहित्य ३६५ ही समझते थे। रणराग का सुपुत्र पुलकेशी-प्रथम हुआ। इसने वातापी में अपनी राजधानी बनायी। वह धर्म, अर्थ और काम के सम्पादन में अद्वितीय था। उसका आत्मज कीर्तिवर्मा हुआ, जिसने मौर्य और कदम्बवंशीय नृपों को हरा दिया। इसी कीर्तिवर्मा के पञ्चत्त्व को प्राप्त करने पर उसका अनुज मङ्गलेश राज्यारूढ़ हुआ। इसकी राज्यसीमा पूर्व समुद्र-तट से लेकर पश्चिम समुद्र-तट तक था। इसने कटच्छुरि-वंशीय राजा को परास्त कर उसके कुल की ललना का पाणिग्रहण किया। पुनः उसने रेवती-द्वीप पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। मंगलेश अपने पुत्र का राज्याभिषेक करना चाहता था, परन्तु कीर्तिवर्मा का आत्मज पुलकेशी-द्वितीय को यह बात अच्छी न लगी। मंत्र और उत्साह-शक्ति के प्रयोग से उसने मंगलेश का पूर्णतः विनाश कर दिया। इस समय आक्रमण का अच्छा अवसर देख कर राज्य के शत्रु आप्यायिक और गोविन्द ने भीमरथी नदी के उत्तरी भाग को अपने अधीन करने के लिए विशाल हस्ति-सेना का प्रयोग किया, परन्तु पुलकेशी के सामने उन्हें मुँह की खानी पड़ी। आप्यायिक भाग गया और इसने उससे मित्रता कर ली। इसके उपरान्त पुलकेशी ने वरदा नदी के तटवर्ती दुर्ग को ले लिया। पुनः उसने गंग और आलुपवंशीय राजाओं को भी पराजित किया। उसने अपने सेनापति-द्वय दण्डचण्ड को भेज कर कोंकण-प्रदेश के शासक मौर्य-वंशीय नृप को भी परास्त कर दिया। उसकी वीरता के सामने लाट, मालव और गुर्जर देश के राजा भी उसके अधीन हो गए। उत्तर भारत के सम्राट हर्षवर्धन को भी हर्ष-रहित कर दिया। उसके शासन-काल में नर्मदा नदी के सुन्दर तटों से शोभायमान विन्ध्ययर्वतीय उर्वर प्रदेश की कीर्ति दिग्दिगन्त में फैल रही थी। सम्यक् प्रवृद्ध शक्तित्रय के फलस्वरूप ६६ सहन गाँवों में फैले हुए तीनों महाराष्ट्र प्रदेशों को भी जीत लिया। इतना ही नहीं, दूसरे राजाओं के मद को दूर करने वाले कोशल और कलिंगदेशीय नप भी उसकी समृद्ध सेना से भयभीत हो गए। इसने दुर्गा की नगरी ‘पिष्टपुर’ को भी जीत कर कुनाल नामक झील पर आक्रमण कर उसे भी अपने अधीन कर लिया। पुनः मौल आदि छः प्रकार के सैनिकों की सहायता से पल्लवनरेश महेन्द्रवर्मन् को परास्त कर उसे कांची-नगरी के भीतर ही रहने के लिए विवश कर दिया। अन्ततः कावेरी नदी को पार कर उसने चोल, केरल और पाण्ड्य राजाओं से भेंट की और वे उसके मित्र बन गए। कलियुग में शकसंवत् के ५५६ वें वर्ष बीत जाने पर पुलकेशी की सहायता से रविकीर्ति ने प्रस्तर का एक जैन-मन्दिर निर्मित करवाया। प्रशस्तिकार भी स्वयं रविकीर्ति ही है। यह साहित्यिक दृष्टि से यह अभिलेख अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसमें कालिदास और भारवि-सदृश दो विख्यात कवियों की चर्चा की गयी है। इससे इनकी तिथि-निर्धारण १. ह.च., प्र. ३०, प. ८३६६ गद्य-खण्ड की अन्तिम सीमा निश्चित हो जाती है। ये दोनों कवि ६३४ ई.सं. पर्यन्त लब्ध-प्रतिष्ठ हो चुके थे। __ हर्षचरित में दाक्षिणात्यों की उत्प्रेक्षा की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है’ और वस्तुतः रविकीर्ति की उत्प्रेक्षाएँ प्रशंसनीय भी हैं। इनकी कविता पर कालिदास और भारवि की छाया स्पष्टतः परिलक्षित होती है। ऐतिहासिक और भौगोलिक नामों से यह अभिलेख भरा पड़ा है। ये काव्य-प्रवाह के अवरोधक जैसे प्रतीत होते हैं। शब्दालङ्कारों में कवि की रुचि स्पष्ट प्रतीत होती है ! अनुप्रास और यमक यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। अर्थालङ्कार के क्षेत्र में रूपक, उपमा और उत्प्रेक्षा उल्लेखनीय हैं। __ कवि की शैली तो वैदर्भी ही है, परन्तु पुलकेशी के युद्ध-वर्णन के क्रम में वीर रस के पाक के हेतु ओजगुण-विशिष्ट गौडी-रीति अपेक्षित ही है। संस्कृत-साहित्य में अन्त्यानुप्रास की परिपाटी कम दिखायी पड़ती है, परन्तु यहाँ प्रस्तुत पद्य में गृहिणां स्वस्वगुणैस्त्रिवर्गतुङ्गा, विहितान्यक्षितिपाल-मानभङ्गाः। __ अभवन्नुपजातभीतिलिङ्गा यदनीकेन सकोशलाः कलिङ्गाः।।२६।। में बहुत ही रुचिकर अन्त्यानुप्रास दिखाई पड़ता है।’ इसी प्रकार यमक के भी बड़े सुन्दर उदाहरण यत्र-तत्र मिलते हैं - रण-पराक्रम-लब्ध-जय-श्रिया, सपदि ये विरुग्णमशेषतः। नृपति-गन्धगजेन महौजसा, पृथुकदम्ब-कदम्ब-कदम्बकम् ।।१०।। __ मेरे विचार से इस अभिलेख के २६वें पद्य में कुनाल झील का वर्णन करते हुए कवि का कथन है कि आहत मनुष्यों के खून रूपी अंगराग से उस झील का रक्ताभ जल मेघयुक्त सायंकालीन लालिमा से रज्जित आकाशवत् प्रतीत हो रहा है - सन्नद्व-वारण-घटा-स्थगितान्तरालं, मानायुधक्षत-वरक्षतजाङ्गरागम् । आसीज्जलं यदवमर्दितमभ्रगर्भ कौनालम्बरमिवोर्जितसान्ध्यरागम् ।।२८।। कोई भी सहृदय इस पद्य की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता। मगलेश कटच्छुरि-वंश की जय के बाद रेवती’ द्वीप को चारो ओर से घेर लेता है। समुद्र के जल में उसकी सेना का प्रतिबिम्ब ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो मंगलेश की आज्ञा से ही वरुण की सेना उपस्थित हो गयी हो १. ऐ.अ., पं. २७, ३५ अभिलेखीय साहित्य ३६७ पुनरपि च जिघृक्षोस्सैन्यमाक्रान्तसालं, रुचिरबहु-पताकं रेवतीद्वीपसात्रु। सपदि महद्वदन्वत्तोयसंक्रान्तबिम्बं वरुणबलनिवादागतं यस्य वाचा।।१३।। कितनी सुन्दर उत्प्रेक्षा है। शङ्कर के समान कान्तिवाले पुलकेशी ने पश्चिम सागर की प्रसिद्ध नगरी को जीतने के लिए मदमस्त हस्ति-सेना की आकृतिवाली असंख्य नौकाओं से उस पर आक्रमण कर दिया, तब जलद-सेना से व्याप्त नील कमलवत् नीला नभमण्डल समुद्रवत् और सागर आकाशकल्प परिलक्षित होने लगा जलदपटलोनीकाकीर्ण नवोत्पलमेचकं जलनिधिरिव व्योम व्योम्नः समोऽभवदम्बुधिः।। २१।। यह पद्य उपमेयोपमा का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रतीत होता है। विरोधाभास के भी एक-दो उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं - नल-मौर्य-कदम्बकाल-रात्रिस्तनयस्तस्य बभूव कीर्तिवर्मा। परदार-निवृत्त-चित्तवृत्तेरपि धीर्यस्य रिपुश्रियानुकृष्टा।। ६।। पुलकेशि-पुत्र कीर्तिवर्मा परस्त्रीपराङ्मुख होकर भी शत्रुकी राजलक्ष्मी की ओर " आकृष्ट हो जाता है। अभिलेख के इस महत्त्वपूर्ण पद्य में उपमा और रूपक दोनों के उदाहरण एक साथ ही मिल जाते हैं रण-पराक्रम-लब्ध-जयश्रिया, सपदि येन विरुग्णमशेषतः। नृपतिगन्धगजेन महौजसा, पृथु-कदम्ब-कदम्ब-कदम्बकम् ।।१०।। रविकीर्ति ने अपनी प्रशस्ति में कालिदास एवं भारवि के केवल नामोल्लेख ही नहीं, वरन् उनके काव्यगत पद और अर्थ का भी अनुहरण किया है शिलालेख रघुवंश किरातार्जुनीयम् ६ वयुः प्रकर्षात् ३/४२ ३/२ १ वीत जरा मरण जन्मनो-वीतजन्म जरसाम् ५/१२ १० पृथुकदम्ब-पृथु-कदम्ब-कदम्बकम् ५/६ इस प्रशस्ति में कुल पद्य ३७ हैं और कवि ने कुल १७ छन्दों’, का प्रयोग किया है। छन्द-परिवर्तन से नृपों के परिवर्तन की ओर संकेत होता है। आर्या (प. १-४, ७, ३७ शार्दूलविक्रीजित (प. ५, २६, ३२), उपजाति) इन्द्र. + उपे.; ६०६, २६), रथोद्धता (४. ८), मालभारिणी (प. ६), भुगङ्गप्रयात (प. १०), वसन्ततिलका (प. ११, १४, - २८, ३५), वंशस्थ (प.-१२), मालिनी (प. १३, १५, २३, २४, २५), स्रग्धरा (प. १६), मन्दाक्रान्ता (प. १७), (प. १८), इन्द्रवज्रा (प. १६), अनुष्टुप् (प. २०, २२, २७, ३१, ३३, ३४, ३६), हरिणी (प. २१), प्रहर्षिणी (प. ३०) ३६८ गद्य-खण्ड रविकीर्ति अपनी प्रशंसा में चाहे जो भी कहें, उनमें न विलक्षण कालिदासीय उपमा की छटा है और न भारवि के समान अलौकिक अर्थगौरव ही। संदभ-फ्लीट, इं.ऐं. ५, पृ. ६७ अ., पृ. २३७ अ.; अॅ.स.वे.इं., ३, पृ. १२६ अ.; कील्हॉर्न, ए.इं. ६, पृ. १-१२ अ.; दिसकलकर, से.से.इं., पृ. १३७-५८

४९. महेन्द्रपाल का पेहवा अभिलेख

हरियाणा राज्य के कुरुक्षेत्र मण्डल के पेहवा नगरस्थ एक भवन की भित्ति में संलग्न प्रस्तर-खण्ड पर यह अभिलेख अंकित है। __ इसकी लिपि नवमी-दसमी-शताब्दीय देवनागरी है। अभिलेख की भाषा संस्कृत है। तोमरवंशीय नरेश जज्जुक के पुत्र त्रय-गोग्ग, पूर्णराज एवं देवराज के द्वारा विष्णु के तीन मन्दिरों के निर्माण एवं उसके संपोषण के निमित्त यक्षपालक, जेज्जर और पाटल नामक ग्रामत्रय के दान का उल्लेख ही इस अभिलेख का उद्देश्य है। प्रस्तुत अभिलेख २७ पद्यों का है। २, ४, ७, २६ और २७ पद्यों में कुछ अक्षर विनष्ट हो गए हैं। अभिलेख का आरम्भ माधव के नमस्कार से होता है। इसके बाद शार्गी (= विष्णु) की बड़ी ही मनोरम स्तुति शार्दूलविक्रीडित छन्द में की गयी है याते यामवती-पतौ-शि (ख) रिषु क्षा (मे) षु सर्वात्मना ध्वस्ते ध्वान्त-रिपौ जने विघटिते सस्ते च तारागणे। भ्रष्टे भूवलये गतेषु च तथा रत्नाकरेष्वेकता मेको यस्स्वपिति प्रधान-पुरुषः पायात्स वः शाङ्गंभृत् ।।१।। प्रस्तुत पद्य में वृत्यनुप्रास, छेकानुप्रास और श्रुत्यनुप्रासे की छटा प्रशंसनीय प्रतीत होती है। इसके अतिरिक्त एक यमक का भी सुन्दर उदाहरण दिखायी पड़ता है। ४ अर्थालङ्कार में उपमा और रूपक के पर्याप्त उदाहरण इतस्ततः परिलक्षित होते हैं। राजा महेन्द्रपाल की प्रशंसा करते हुए कवि कहता है-सश्श्रीमाञ्जयति महेन्द्रपालदेवः शान्तश्शशधर-सुन्दरः शरण्यः।। राजा महेन्द्रपाल चन्द्रमा के समान गौर एवं सुन्दर थे। यहाँ कवि ने मात्र एक शब्द ‘शशधर’ के प्रयोग से राजा के शारीरिक सौन्दर्य का बोध कराने में समर्थ हो जाता है। नृप वज्रट के यहाँ चन्द्रमा के समान एक सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई। उसका नाम मङ्गला था और वह भगवान् शङ्कर की कान्ता गिरिजा के समान प्रतीत होती थी तस्य स्फुरदिन्दुरुचिः शौरेरिवजलधिकन्यका जाता। नाम्ना मङ्गलदेवी जाया गिरिजेव गिरिशस्य ।।१०।। अभिलेखीय साहित्य ३६६ एक मालोपमा की सुषमा का अवलोकन भी अप्रासंगिक प्रतीत नहीं होता है पोत-(स्संसार-सिं) धौ सुरपथगमने स्यन्दनस्साधु-(वर्ग …….तवर्षों-प्रलय-जलधरस्सम्पतत्सान्द धारः। नाना-व्याधि-प्रव (ब) न्ध-प्रचुरतम पङ्क-विध्वंस-भानु-र्नीरञ्चैतत्समन्ता (द्) द्यतु दुरित-(गणं चारू) (सा) रस्वतं वः।। ४।। विष्णु ही संसार-सिन्धु को पार करने वाली नौका के समान हैं, सुरपथ पर ले जाने वाले रथ के समान है, साधु-वर्ग को पीड़ित करने वाले ………. रूपी अग्नि के लिए मेघ की धारासम्पात-वृष्टि के समान हैं, नाना व्याधि-रूपी घोर अन्धकार के लिए विनाशक सूर्य के समान है। तोमर-वंश में अपूर्व चरित वाला ‘जाउल’ नामक एक राजा हुआ था। वह साधु चरित का था एवं दुर्वृत्त-रूपी पर्वत के लिए वज्र का प्रहार ही था। आसीत्तोमर-तुङ्ग-वंश-ति (लकश्चण्ड-प्र) तापोज्च (ज्ज्व) लो राजा रंजित-साधुवृत्त-(हृदयो दु) वृत्त-शैलाशनिः।।६।। यहाँ दुर्वृत्त-शैलाशनिः में रूपक अलङ्कार है। इस अलङ्कार से दुर्वृत्त लोगों की शक्ति और नृप में उस शक्ति के प्रतिरोध की क्षमता व्यक्त होती है। नृप जाउल की कीर्ति के वर्णन-क्रम में कवि ने समस्त पदों का प्रयोग किया है, जिससे इस वर्णन में उसके गौरव की प्रतीति होती है प्रतिदिश (ममरा) णां मन्दिराण्युच्छिताग्र स्थगित-शशधराणि स्फारमारोपितानि। जगति वितत-भासा येन दूरं विभान्ति स्व-यश इव निरोधुं शङ्कवो दिङ्निखाताः।। ८।। यहाँ ‘स्वयश इव निरोधम्’ में उत्प्रेक्षा की भी प्रतीति हो जाती है। कवि छन्दःशास्त्र में कुशल प्रतीत होता है। २७ पद्यों के इस अभिलेख में उसने १२ छन्दों का प्रयोग किया है। एक ओर उसने ६ अक्षरों के छन्द विद्युल्लेखा का प्रयोग किया है, तो दूसरी ओर विशालकाय छन्द स्रग्धरा का भी व्यवहार किया है। अनुष्टुप् का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है। इसमें पाँच पद्य निबद्ध हैं। १. शार्दूलविक्रीहित (प.-१, ६, ७, ६), मन्दाक्रान्ता (प. २, २०), वसन्तलिलका (प. ३, १२, २३), नग्धरा (प. ४), प्रहर्षिणी (प. ५, १४, १८), मालिनी (प. ८, २६), आर्या (प. १०), शालिनी (प. ११), अनुष्टुप् (प. १३, २१, २२, २४, २७), द्रुतविलम्बित (प. १७), पृथिवी (प. १५, १६) और विद्युल्लेखा (प. २५) ४०० गद्य-खण्ड कवि कालिदास के मेघदूत से अच्छी तरह परिचित प्रतीत होता है।’ इस सरस और ललित प्रशस्ति को विनयी भट्टराम के सुपुत्र ने लिखा। इसके सूत्रधार ‘दुर्लभादित्य’ उपाधि-धारी धीमान्त ‘बालादित्य’ थे। संदर्भः-व्यूलर, ए.ई., १, पृ. २४२।

५०. विग्रहराज देहली स्तम्भलेख

शाकम्भरी (साम्भर) के अधिपति श्रीमान् आवेल्लदेव थे। इनके पुत्र दिल्ली के चाहमान-तिलक विग्रहराज थे। इनका इतर नाम ‘वीशलदेव’ था। हिमालय की उपत्यका में टोपरा (हरियाणा) में सम्राट अशोक के एक स्तम्भ पर विग्रहराज ने प्रस्तुत अभिलेख को उत्कीर्ण कराया था। १५वीं शताब्दी में दिल्ली के शासक फिरोजखाँ ने उपर्युक्त स्तम्भ को वहाँ से स्थान्तरित करवा दिया, जो अभी फीरोजशाह तुगलक के कोटला नामक स्थान को सुशोभित कर रहा है। इसकी लिपि बारहवीं शताब्दी की देवनागरी है। अभिलेख की भाषा संस्कृत है। इसका समय विक्रमसंवत् १२२० (= ११६३ ई.सं.) है। विग्रहराज की वीरता, उनकी यशःख्याति और उनके राज्य की सीमा का उल्लेख करना ही इस अभिलेख का उद्देश्य है। विग्रहराज की विजययात्रा के क्रम में रिपुयुवतियों के नयनों में अश्रुकण परिलक्षित होते थे और शत्रुओं के दांतों के नीचे तृण दृष्टिगोचर होते थे। इस समय अनाचार मार्ग के साथ ही शत्रुओं के हृदय भी शून्य हो जाता था। ललनाओं के मानस-मन्दिर में केवल उनका ही निवास था, जिसने युद्ध में नहीं, बल्कि तीर्थ-यात्रा के क्रम में ही हिमालय और विन्ध्यपर्वत के बीच का भू-भाग जीत लिया था। म्लेच्छों का समूल नाश कर उन्होंने आर्यावर्त को वस्तुतः आर्यावर्त बना दिया और वहाँ के राजाओं को कर देने के लिए भी विवश कर दिया। शेष पंजाब आदि प्रदेशों को अधिकृत करने के लिए उन्होंने अपने पुत्रों को प्रयत्नशील होने का आदेश दिया। विक्रमसंवत् १२२० (= ११६३) वैशाख-पूर्णिमा, दिन गुरुवार को विग्रहराज के आदेशानुसार ‘श्रीतिलकराज’ नामक ज्योतिषी के सामने गौड़वंशीय कायस्थ माहवपुत्र ‘श्रीपति’ ने इस अभिलेख को लिखा। इस समय राजपुत्र ‘श्री-सल्लक्षणपाल’ विग्रहराज के महामंत्री थे। विग्रहराज सम्राट हर्षवर्द्धन के बाद उत्तर भारत का चौहानवंशीय शासक था। पृथ्वीराज इसी वंश के अन्तिम हिन्दू राजा थे। १. पे.अ.,प. १७ …. स्निग्ध-च्छायस्तरुरिव ….। तुल., मे.दू., प. १… स्निग्धछायातरुषु ….। अभिलेखीय साहित्य ४०१ पद्य-चतुष्टय के कलेवर वाले इस लघु अभिलेख में साहित्यिक सौन्दर्य का अभाव नहीं है। शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार के क्षेत्र में अनुप्रास और अर्थापत्ति की गरिमा प्रशंसनीय है। प्रथम पद्य में अनुप्रास की छटा दर्शनीय है ओं अम्भो नाम रिपुप्रियानयनयोः प्रत्यर्थिदन्तान्तरे प्रत्यक्षणि तृणानि, वैभवमिलत्काष्ठं यशस्तावकम्। अब हम अर्थापत्ति का एक उदाहरण देखें लीलामन्दिर सोदरेषु भवतु स्वान्तेषु वामध्रुवाम् शत्रूणां तु न विग्रहक्षितिपते न्याययोज वासस्तव। शङ्का वा पुरुषोत्तमस्य भवतो नास्त्येव वारांनिथे र्निमथ्यापहृतश्रियः किमु भवान् क्रोडे न निद्रायितः।।२।। - यहाँ “किमु न निद्रायितः" का अर्थ “ओम् निद्रायितः” हुआ। कवि छन्दोशास्त्र में भी निपुण प्रतीत होता है। पद्य ३ स्रग्धरा छन्द में है, शेष शार्दूलविक्रीडित छन्द में निबद्ध हैं। कवि शार्दूलविक्रीडित एवं स्रग्धरा जैसे पुष्टकलेवर वाले छन्दों में भी सिद्धहस्त है, इस बात की पुष्टि होती है। __ भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है। छोटे-छोटे समस्त-पद मिलते हैं। अर्थावबोध सहज ही हो जाता है। सन्दर्भः-राधाकान्त शर्मा, अ.स.इ.ऐ.रि.१, पृ. ३७६-८२; कोलबुक, एं.रि., ७, पृ. १७६-८१; कैप्टन विल्फोर्ड, ऐ.रि. ६, पृ. १७८-७६; कीलहॉर्न, इ.ऐ. १६, पृ. २१५