१० गुप्तकालीन अभिलेख

२६. समुद्रगुप्त का प्रयाग-स्तम्भ-लेख

उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद के किले में अवस्थित उस प्रस्तर स्तम्भ पर, जिस पर सम्राट अशोक का अभिलेख उत्कीर्ण है, यह लेख अंकित है। मूलतः यह कौशाम्बी में था, परंतु मुगल-सम्राट् अकबर महान् ने वहाँ से लाकर इसकी स्थापना अपने किले में की। __ प्रशस्ति के लेखक कुशल कवि हरिषेण हैं, जो समुद्रगुप्त के संधिविग्रहिक भी थे। इस अभिलेख की भाषा संस्कृत है और इसकी लिपि उत्तरी ब्राह्मी है। __ इस अभिलेख का उद्देश्य समुद्रगुप्त की वंशावली के साथ उसके महान् व्यक्तित्व एवं यज्ञ का उल्लेख करना है। यहाँ उसकी दिग्विजय का सविस्तर वर्णन भी मिलता है। प्रशस्ति में इसके रचना-काल का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि इसकी रचना ई. स. ३५० के समीप हुई होगी। __ प्रशस्ति के आरम्भ में आठ पद्य हैं और अन्त में भी एक पद्य है। दोनों के बीच एक बड़ा गद्य-खण्ड है। आरंभ के पद्य-द्वय प्रायः नहीं के बराबर ही हैं। पुनरपि उनसे पता चलता है कि समुद्रगुप्त को अपने पिता के जीवनकाल में ही कतिपय युद्धों का सामना करना पड़ा था और उसने अनेक शत्रुओं को अच्छी तरह पराजित कर दिया था। तृतीय पद्य से उसके शास्त्र और ललित कलाओं की शिक्षा पर प्रकाश पड़ता है। चतुर्थ श्लोक से यह पता चलता है कि समुद्रगुप्त से प्रसन्न होकर पिता ने आशीर्वाद प्रदान करते हुए उसे अपना युवराज उद्घोषित कर दिया। समस्त पदों से गौडी रीति की छटा भी परिलक्षित होती है। उदाहरण स्वरूप सुवर्णसिकता एवं पलाशिनी नदीद्वय के जलप्लावन के वर्णन में यह वैशिष्ट्य स्पष्टतः परिलक्षित होता है। १. प्र.स्त. ले. प. ४ यः पित्राभिहितो निरीक्ष्य निखिला पाह्येवमुर्वीमिति।। २. पं. ५-७ सुवर्णसिकता-पलाशिनी-प्रभृतीनां…..शिखर-तरु-तटाट्टालकोपत (ल्प)..द्वार शरणोच्छ्रय __-विध्वंसिना युगनिधन-सदृश-परम-घोरवेगेन वायुना…. ३७० गद्य-खण्ड __ कवि अलङ्कारों के द्विविध भेद शब्दालङ्कार एवं अर्थालङ्कार से पूर्णतः अवगत है। शब्दालङ्कारोंमें अनुप्रास का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है। समान ध्वनिवाले पदांश, पद एवं वर्णों की आवृत्ति प्रायः परिलक्षित होती है। एक स्थल पर तो पद में एक ध्वनि वाले स्वरों और व्यंजनों की आवृति बड़ी ही निपुणता के साथ की गयी है। अर्थालङ्कारों में उपमा का वर्णन स्थलत्रय में परिलक्षित होता है। एक उत्प्रेक्षा का उदाहरण भी दिखाई पड़ता है। अत्यधिक वर्षा के फलस्वरूप जलप्लावन से पृथ्वी मानो समुद्र बन गयी थी। ‘अतिभृशं दुर्दशनम्’ में श्लेषालङ्कार के निमित्त विफल प्रयत्न किया गया है। इसी अभिलेख का ‘स्फुट-लघु-मधुर-चित्र-कान्त शब्द-समयोदारालंकत-गद्य-पद्य-काव्य प्रवीणेन’ ६ पं. १४ वाक्य-खण्ड अतिमहत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। संस्कृत-काव्य के विकास के इतिहास पर यह प्रकाश डालता है। इससे पता चलता है कि दूसरी शताब्दी के मध्य तक उत्तम-काव्य की विशेषताओं के लिए मानदण्डों का स्थिरीकरण हो चुका था जिसका उल्लेख दण्डी के ‘काव्यादर्श’ में हुआ है। साथ ही हम ऐसा भी अनुमान करते हैं कि उस समय वैदर्भी रीति में लिखित काव्यों की रचना हो रही थी। उस युग में संस्कृत काव्य इतना विकसित हो चुका था कि विदेशी शक-राज भी उससे अति प्रभावित थे। इतना ही नहीं वे भी गद्य-पद्य-विधान में अपनी प्रवीणता का भी निदर्शन करते थे। __गिरिनार अभिलेख की भाषा साधारणतया प्रवाहमयी है, परन्तु यत्र-तत्र प्राकृत का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इसके वर्ण-विन्यास में ल>ळ का प्रयोग मिलता है, प्रणाली, पाली एवं पाल के स्थान में क्रमशः प्रणाली पाली एवं पाल का प्रयोग दिखाई पड़ता है। पंक्ति ७ में ‘विशदुत्तराणि’ के बदले ‘धीशदुत्तराणि पाठ है। ऐसे प्रयोग रामायण, महाभारत एवं पुराणों में पाये जाते हैं। इसी प्रकार इसकी १२वीं पंक्ति में ‘नीर्व्याजमवजीत्यावजीत्य’ पाठ प्राकृत-प्रभाव का ही उदाहरण माना जा सकता है। इसके स्थान में शुद्ध पाठ ‘निर्व्याजमवजि त्यावजित्य’ होगा। यह क्षति-पूर्ति-नियम (Law of mora) के फलस्वरूप होता है। इसी तरह ‘विषयाणां पतिना" वाक्य-खंड (पंक्ति ११) पाणिनि की दृष्टि से चिन्त्य है। इसके स्थान पर ‘पत्या’ होना चाहिए। इसी प्रकार पंक्ति १० में ‘अन्यत्र ग्रामेषु’ की जगह ‘अन्यत्र ग्रामेभ्यः’ पाठ अपेक्षित है। पंक्ति १० में “प्रत्याख्यातारम्भम्” के बदले, “प्रत्याख्यातारम्भे” ही शिष्ट प्रयोग माना जायगा। 2 पाँचवीं पक्ति में “पर्जन्येन एकार्पवभूतायामिव पृथिव्याम् कृतायाम्” इस वाक्य खण्ड में अलंकार की छटा दर्शनीय है। १. समग्राणां…..विषयाणाम् पं. ११ अविधेयानां यौधेयानाम् (पं १२) प्रभृतीनां नदीनां (पं. ६) गद्यपद्य (पं. १४, पौरजानपदं पं. १५, पौरजानपदजनानुग्रहार्थम् (पं. १-२) २. (क) पर्वतपादप्रतिस्पर्धि…(पं १-२) (ख) मरुधन्वकाल्पक (पं. ८), (ग) युगनिधन-सदृशं….(पं. ७) ३. पं. ५ पर्जन्येन एकार्णवभूतायामिव पृथिव्यां कृतायाम्…। ४. पं. ८ अभिलेखीय साहित्य ३७१ प्रस्तुत अभिलेख में बहुत ही कम क्रियाओं का प्रयोग मिलता है। मात्र तीन क्रियाएँ ही प्रयुक्त हुई हैं-‘आसीत्’ का दो बार प्रयोग ७वीं एवं आठवीं पंक्तियों में एवं ‘वर्तते’ का एक बार प्रयोग इसी पंक्ति में हुआ है। आगे के श्लोक-द्वय (५-६) यत्र-तत्र अपठनीय हैं। उनमें किसी युद्ध का संकेत मिलता है, जिसमें उसके शत्रु पराजित भी हुए और उससे क्षमा याचना भी कर ली। समुद्रगुप्त अपने भ्राताओं में अनुपम वीर था। वह उच्च कोटि का विद्वान् भी था। इतना ही नहीं वह एक योग्य शासक भी था। अतः युवराज पद पर प्रतिष्ठित हुआ था। अतः भ्रातृगण उससे युद्ध करने के लिए तत्पर हो गए। पिता के निधन के उपरान्त समुद्रगुप्त भारतीय सम्राटों की परम्परा के अनुसार दिग्विजय के लिए निकल पड़ा। पद्य ७-८ और गद्यांश में उसके विजय-अभियान का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। इस क्रम में उसने विशेष रूप से तीन युद्ध किए-(क) सर्वप्रथम उसने ई. स. ३४४ के आसपास उत्तर भारत में एक सामान्य युद्ध किया। इस युद्ध में उसने अहिच्छत्र नरेश अच्युतनाग, मथुरानरेश नागसेन और पद्मावती-नरेश गणपति नाग को पराजित किया। ऐसा प्रतीत होता है कि ये तीनों नागवंशी नरेश ही थे। (ख) इसके बाद उसने दक्षिण भारत पर आक्रमण किया और कौशलनरेश महेन्द्र, महाकालान्तर का व्याघ्रराज, करेल-राज, मण्टराज, पिष्टपुर-नरेश महेन्द्र, कोट्टरराज स्वामिदत्त, एरण्डपल्लीया दमन, कांची-नरेश विष्णुगोप, अवमुक्त-स्वामी नीलराज, वेगी-नरेश हस्तिवर्मन, पाल्लकराज उग्रसेन, देवराष्ट्राधिप कुबेर एवं कुस्थलपुरेश धनंजय को पराजित कर दिया। इन द्वादशनरेशों के मुखिया केरल-नरेश मण्टराज और कांची नरेश विष्णुगोप थे। इन राजाओं के राज्यों का गुप्तसाम्राज्य में विलय नहीं किया गया; बल्कि उनके शासकों को लौटा दिया गया। (ग) दक्षिण भारत से लौटने पर उत्तर भारत के संगठित नरेशों के साथ उसे पुनः युद्ध करना पड़ा। संगठित राजाओं की नामावलि यह है-रुद्रदेव, मातिल नागदत्त, चन्द्रवर्मन, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नन्दी एवं बलवर्मन। यह युद्ध कहाँ हुआ, इसका कोई भी संकेत नहीं मिलता है। परन्तु, ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि वह युद्धस्थल कौशाम्बी ही रहा होगा। अतः उसकी स्मृति में पहले से वहाँ वर्तमान अशोक सम्राट् के स्तम्भ पर ही उसने (समुद्रगुप्त ने) अपनी प्रशस्ति उत्कीर्ण करा दी। १. प्र.स्त. ले. पृ. २०, सर्वदक्षिणपथराजग्रहण-मोक्षानुग्रहजनित-प्रतापोन्मिश्रितमहाभाग्यस्य……। ३७२ गद्य-खण्ड __मध्य भारत के सभी आटविक’ नृपों को सेवकीभूत किया एवं सीमाप्रदेश के राजाओं और गणराज्यों को कर-प्रदान करने के लिए विवश किया। इन विजयों के फलस्वरूप सुदूरवर्ती नृपगण ने भी उससे मैत्री का सम्बन्ध जोड़ा। इस प्रकार दिग्दिगन्त में उसकी विजयपताका फहराने लगी। समुद्रगुप्त पराक्रमी तो था ही, साथ ही वह सरस्वती और लक्ष्मी का वास्तविक उपासक था। वह ‘कविराज’ की उपाधि से मण्डित था। वह शास्त्रज्ञ भी था इतना ही नहीं, वह निपुण वीणावादक भी था।" साहित्यिक विशेषता-इस अभिलेख के पद्यों की भाषा सरल एवं स्वाभाविक है। समासों का सर्वथा अभाव है। यहाँ वैदर्भी रीति की रमणीयता प्रशंसनीय है। ‘आरंभ’ के आठ पद्यों के उपरान्त गद्य में लिखित एक दीर्घ वाक्य है और पुनः अन्त में एक पद्य है। वस्तुतः यह प्रशस्ति एक ही वाक्य में समाप्त हो जाती है। गद्य भाषा में दीर्घ समास परिलक्षित होते हैं। विषयानुकूल शब्द-योजना है। एक समस्त पद तो १२० अक्षरों का है। दीर्घ समास होने पर भी दुर्बोधता नहीं आ पायी है। ऐसे स्थलों पर ओजगुण की प्रधानता के कारण गौडी रीति की झलक दिखाई पड़ती है। अलङ्कारों में शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार की कमनीयता परिलक्षित होती है। जहाँ तक शब्दालङ्कार की बात है, अनुप्रास और श्लेष का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। अर्थालङ्कार के क्षेत्र में उपमा के सुन्दर उदाहरण मिलते हैं। रूपक के उदाहरण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं।" १. प्र.स्त. ले. पृ. २१ “परिचारीकृत सर्वाटविकराज्यस्य……" २. वही पृ. २२ ये सीमावर्ती राज्य ५ थे-समतट, डवाक, कामरूप, नेपाल और कर्तृपुर। (समतट-डवाक-कामरूप-नेपाल-कर्तृपुरादि नृपतिभिः…….) ३. वही पृ. २२-२३ गणराज्य नौ थे-मालवा, आर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, आर्जुन, सनकानीक, काक और खरपरिक। मालवार्जुनायन-यौधेय-माद्रकाभीर-प्रार्जुन-सनकानीक-काक-खरपरिकादिभिश्च सर्वकरदानाज्ञाकरण-प्रणामागमनपरिपोषित….शासनस्य ४. वही पृ. २३-२४ उसकी अधीनता में रहकर गर्व का अनुभव करने वाले विदेशी नरेश ये थे कुषाण-वंशज दैवपुत्र शाहिशाहानुशाह, २. शक मुरुण्ड, एवं ३. सिंहल तथा अन्य द्वीपवासी राजा। दैवपुत्र-षाहि-शाहानुशाहि-शकमुरुण्डैः सैंहलकादिभिश्च सर्वद्वीपवासिभिरात्मनिवेदन-कन्योयायन-दान. …सेवाकृत-बाहुवीर्यप्रसर-धरणि-बन्धस्य-पृथिन्यामप्रतिरथस्य…. ५. वही. पृ. २७…… अनेककाव्यक्रियाभिः प्रतिष्ठितकविराजशब्दस्य…! ६. वही पृ. १ … अनेककाव्याक्रियाभिः प्रतिष्ठितकविराजशब्दस्य…। ७. वही पृ. २७ … निशित-विदग्धमति-गान्धर्व-ललितै ब्रीडित-त्रिदशपतिगुरुतुम्बुरु नारदादे… प्र. स्त. प. १-४ स्नेहव्याकुलितेन वाष्पगुरुणा तत्त्वेक्षिणा चक्षुषा…. वही पृ. २५ साध्वसाधूदय-प्रलय हेतु-पुरुषस्याचिन्त्यस्य…. १०. वही, पद्य ८ धर्मप्राचीर बन्धः शशिकर-शुचयः कीर्तयः सप्रताना वैदुष्यं तत्त्व-भेदि प्रशम….. तार्थम् । अध्येयः सूक्तमार्गः कविमति-विभवोत्सारणं चापि काव्यं को नु स्याद्योऽऽस्मिन् स्याद्गुणमतिविदुषां ध्यानपात्रं य एकः।। और प. ६ में भी ११. द्र. प. टि. ३/५ अभिलेखीय साहित्य ३७३ हरिषेण ने यहाँ स्रग्धरा जैसे बड़े छन्द का भी प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त शार्दूलविक्रीडित’, मन्दाक्रान्ता एवं पृथिवी छन्द भी प्रयुक्त हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हरिषेण के इस गद्य से ही आगे चलकर सुबन्धु और बाणभट्ट ने प्रेरणा प्राप्त की। कवि की वर्णना-शक्ति अनुपम है, जिसकी प्रतीति हमें समुद्रगुप्त के कीर्ति-वर्णन में होती है। सम्राट की कीर्ति को कवि ने एक नारी के रूप में चित्रित किया है। समस्त विश्व का आलिङ्गन करने के बाद भी पृथिवी पर उसे रहने के लिए स्थानाभाव हो गया। अतः स्तम्भ के मार्ग से वह ऊपर की ओर देवलोक को प्रस्थान करती है। वहाँ इसकी तुलना स्वर्गगङ्गा से की गयी है। विद्वानों की धारणा है कि वासवदत्ता, दशकुमारचरित और कादम्बरी में राजाओं के वर्णन पर इस अभिलेख के सम्राट् चन्द्रगुप्त के वर्णन की छाप है। इससे यह प्रमाणित होता है कि चतुर्थ शताब्दी में Court Poetry की परम्परा स्थापित हो चुकी थी। जहाँ तक कृत्रिमता की बात है वह दीर्घ समस्त पद के प्रयोग में ही सीमित है। यह अभिलेख चम्पूकाव्य का एक उत्कृष्ट उदाहरण माना जा सकता है।

२७. समुद्रगुप्तकालीन एरण स्तम्भ-अभिलेख

मध्य-प्रदेश के सागर मण्डल के अन्तर्गत एरण (एरिकिण) गाँव के सुविख्यात जीर्ण शीर्ण वराह-मन्दिर के निकटवर्ती एक चतुर्भुजी स्तम्भ-खण्ड पर यह अभिलेख अंकित है। आजकल यह इण्डियन म्यूजियम में सुरक्षित है। __ लिपि-मध्यभारतीय ब्राह्मी लिपि में यह अंकित है। इस लिपि का अपर नाम ‘बौक्स हेडेड’ है। अभिलेख की भाषा संस्कृत है। __ किसी अधिकारी या राज्यपाल के द्वारा एरण में वराहमन्दिर के निर्माण का उल्लेख एवं तत्कालीन सम्राट् समुद्रगुप्त की प्रशंसा करना ही इसका उद्देश्य प्रतीत होता है। अभिलेख में तिथि का कोई निर्देश नहीं है। अभिलेख के ७ श्लोक वसन्ततिलका में निबद्ध १. प. २. पा. टि.-१ ३. पद्य-६ ४. पद्य-६ ५. पुनासि भुवन-त्रयं नु पशुपतेर्जटान्तर्गुहा निरोध-परिमोक्ष-शीघ्रमिव पाण्डु-गाङ्गं पयः।। ६. काव्या. गद्य-पद्यमयं काव्यं चम्पूरिव्यभिधीयते। संदर्भ-फ्लीट कॉ. इं. इं, ३, सं.-१; सरकार से इं., पृ. २६२; पाण्डेय, हि. भि. पृ. ७२; छाबड़ा, इं. हि. क्वा., २४, पृ. १०४-१३; राघवन, ज.ओ.रि. मद्रास, १६ पृ. ५६-६२; साधुराम वी. इं. ज., ३, भा. १, पृ. १०५-६; दिसकलकर, से.स.इ. पृ. २५-४३ ३७४ गद्य-खण्ड हैं। ऊपर के भाग के टूट जाने से प्रथम छः पंक्तियाँ नष्ट हो गयी हैं। २०-२२ वीं (तीन पंक्तियाँ) भी क्षतिग्रस्त हैं। अभिलेख की भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है।’

२८. चन्द्रगुप्त (द्वितीय)-कालीन मथुरा-स्तम्भ-अभिलेख

उत्तर प्रदेश की मथुरापुरी की प्रसिद्ध चण्डूल-मण्डूल वाटिका में अवस्थित स्तम्भ पर यह अभिलेख मध्य ब्राह्मी लिपि में अंकित है। इसकी भाषा संस्कृत अवश्य ही है, परन्तु यत्र-तत्र प्राकृत का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। इसका उद्देश्य पाशुपत आचार्य उदित के द्वारा अपने गुरुद्वय उपमित-विमल एवं कपिल-विमल की उपमितेश्वर एवं कपिलेश्वर नामक प्रतिमाद्वय की स्थापना का उल्लेख करना है। इसका समय ६१ गुप्तसंवत् = ३७० ई.स. है। सरल संस्कृत गद्य में यह अभिलेख प्रस्तुत किया गया है। इसमें कुल १७ पंक्तियाँ हैं।’

२९. चन्द्रगुप्त-द्वितीय-कालीन उदयगिरिगुहा-अभिलेख

मध्य-प्रदेश के अन्तर्गत विदिशा के समीप उदयगिरि की ‘तवा’ गुहा के पीछे की दिवाल पर यह अभिलेख अंकित है। इसकी लिपि उत्तरी ब्राह्मी है, जो सम्राट् समुद्रगुप्त के प्रयाग-स्तम्भ-लेख से न्यूनाधिक समानता रखती है एवं यह संस्कृत भाषा में है। अभिलेख का समय ४०१ ई. है। __चन्द्रगुप्त द्वितीय के सकल-पृथिवी-जयार्थ अभियान के अन्तर्गत मंत्री के साथ-साथ वीरसेन के द्वारा भगवान् शम्भु की गुफा के निर्माण की स्मृति दिलाना ही इस अभिलेख का उद्देश्य है। वह पाटलिपुत्र का निवासी था एवं शब्दार्थ-न्याय-लोकज्ञ कवि था। __सभी पद्य अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध हैं। अभिलेख संस्कृत में है। इसमें मात्र पाँच वाक्य हैं। अभिलेख की भाषा आडम्बरहीन और सरल है।

३०. चन्द्रगुप्त (द्वितीय) कालीन सांची स्तूप प्राचीर अभिलेख

मध्यप्रदेश के विख्यात सांची-स्तूप के पूर्वीद्वार के बाहर दायीं ओर की भित्ति पर यह अभिलेख अंकित है। इसकी लिपि दक्षिण-ब्राह्मी है जो मन्दसौर अभिलेख की लिपि से किंचित् साम्य रखती है। इसकी भाषा संस्कृत है। इसका समय गुप्तसंवत् ६३ = ४१३ ई. स. है। १. संदर्भ-फ्लीट, का.इं. इं. ३, सं. २; सरकार सं., इ., पृ. २६८, पाण्डेय हि. लि. ई., पृ. ७६ मिराशी, इ.ऐ., तृतीय सीरिज १,३, १६६४, पृ. १७४-७६ २. श्री भण्डारकर ए.इ. २१, पृ.-८; डी.बी. दिसकलकर, ऐ.भ.ओ.रि.ई., १८, पृ. १६६; सरकार सं. इं., पृ. २७७; हि. क्वा, १८, पृ. २७२; पाण्डेय, हि. लि. इ., पृ. ७८ अभिलेखीय साहित्य ३७५ चन्द्रगुप्त द्वितीय के अधिकारी आम्रकार्ददव ने काकनाद वोट-महाविहार के आर्य संघ को ईश्वर-वासक गांव एवं २५ दिनारों को दान-स्वरूप दिया था। इस बात का उल्लेख करना ही इस अभिलेख का उद्देश्य है। __ अभिलेख संस्कृत गद्य में है। कुल चार की वाक्य हैं, जिसमें प्रथम वाक्य ६६ पदों का एक लम्बा वाक्य है।’

३१. महाराज चन्द्र का मेहरौली लौह-स्तम्भ-अभिलेख

दिल्ली से नौ मील दक्षिण की ओर मेहरौली नामक एक गाँव है। वहाँ कुतुबमीनार के समीप स्थित एक लौह-स्तम्भ है, जिस पर शार्दूलविकीडित छन्द में निब्द्ध तीन पद्यों का प्रस्तुत लघु अभिलेख उत्कीर्ण है। हम लेख की लिपि ईसवी सन् की पाँचवी शताब्दी के आरम्भ की ब्राह्मी लिपि है। प्रिंसेप ने इसे तीसरी चौथी शताब्दी के मध्यकाल की लिपि माना है। इसकी भाषा संस्कृत है। लेख का उद्देश्य राजा चन्द्र द्वारा विष्णुपद पहाड़ी पर विष्णु-मंदिर के सामने ध्वज के रूप में स्तम्भ की स्थापना का उल्लेख करना है। स्तम्भ में उल्लिखित नृप की वीरता एवं उसकी विजयों का वर्णन किया गया है। __ अभिलेख में न तिथि का निर्देश है और न उल्लिखित नृप-चन्द्र के जीवन से सम्बद्ध बातों की चर्चा है। अभिलेख से मात्र इतना ही पता चलता है कि किसी चन्द्र नामक नृप ने बंगाल में अपने शत्रुओं को वक्षस्थल से पीछे ढकेल दिया, सिन्धु नदी की सात धाराओं को पार कर ब्राह्लीकों को भी वशीभूत किया और अपनी भुजाओं से पृथ्वी पर एकाधिपत्य स्थापित कर उसका भोग अनेक वर्षपर्यन्त किया। इस अभिलेख की तिथि पंचम शताब्दी मानी जाती है। _ अभिलेख में चर्चित ‘चन्द्र’ नामक नृप के विषय में ऐतिहासिकों में मतभेद है। कतिपय ऐतिहासिक इसे गुप्त-सम्राट् चन्द्रगुप्त-प्रथम मानते हैं। इस मत के समर्थक फ्लीट और डॉ. कृष्ण-स्वामी आयंगर हैं। __ विन्सेन्ट स्मिथ और डॉ. सरकार प्रभृति ऐतिहासिक ‘चन्द्र’ शब्द से गुप्तवंशीय सम्राट् चन्दगुप्त-द्वितीय को निर्दिष्ट मानते हैं। मेरी भी धारणा है कि प्रस्तुत अभिलेख में प्रयुक्त ‘चन्द्र’ शब्द गुप्तवंशीय सम्राट् चन्द्रगुप्त-द्वितीय की ओर ही संकेत करता है, क्योंकि वह एक विशाल साम्राज्य का शासक था। १. प्रिंसेप, ज. ए. सो. ५, पृ. ४५१; फ्लीट का. इं. इं., सं. ०५; सरकार पृ. २८०। २. मे. लौ. स्त., म. ३. सुचिरं चैकाधिराज्यं क्षितौ….३७६ गद्य-खण्ड __ अनिर्दिष्टनामा कवि छन्द-शास्त्र का एक निष्पात पंडित प्रतीत होता है। श्लोक-त्रय १६ अक्षर वाले शार्दूलविक्रीडित जैसे दीर्घकाय छन्द में निबद्ध है। पद्य में रूपक’, उत्प्रेक्षा’, उपमारे की छटा मनोहारिणी है। वह कविकर्म में निपुण प्रतीत होता है। तृतीय पद्य के अंतिम चरण में प्रयुक्त ‘प्रान्शु’ शब्द चिन्त्य प्रतीत होता है। बालीक शब्द यहाँ ‘बालिक’ के रूप में प्रयुक्त हुआ है। सम्भवतः यह छन्दोनुरोध से प्रयुक्त किया गया है। ‘धावेन’ शब्द भी विचारणीय है। इसका एक अर्थ ‘पवित्र विचार वाला’ बताया जाता है। यहाँ यह धातव्य है कि पंजाब में ‘धवन’ एक उपाधि भी है।

३२. कुमारगुप्त-प्रथमकालीन बिलसड स्तम्भ-अभिलेख गुप्तसंवत्-९६

उत्तर प्रदेश के एटा मण्डल के अन्तर्गत बिलसड नामक गाँव से प्राप्त एक स्तम्भ पर यह लेख उत्कीर्ण है। इसकी लिपि उत्तरी ब्राह्मी है। इस अभिलेख की एक विशेषता यह है कि इस वर्ग के इतर अभिलेखों की तुलना में इसकी मात्राएँ अधिक लम्बी परिलक्षित होती हैं। अभिलेख संस्कृत भाषा में है। एकाध स्थलों में प्राकृत का प्रभाव भी स्पष्टरूपेण दृष्टिगत होता है। इसका समय ४१५-१६ ई. सन् माना जाता है। भगवान् कार्तिकेय के मन्दिर में ध्रुवशर्मा नामक व्यक्ति के द्वारा प्रतोली, धर्म-सत्र निर्माण एवं प्रस्तुत अभिलेखांकित विशिष्ट स्तम्भ की स्थापना का वर्णन ही इस अभिलेख का उद्देश्य है। __अभिलेख की प्रथम चार पंक्तियों के नष्टांश के पाठ का पुनर्निर्माण सम्राट् समुद्रगुप्त के प्रयागस्तम्भ एवं स्कन्दगुप्त के भिटारी स्तम्भाभिलेख की सहायता से किया गया है। अष्टम, नवम, द्वादश एवं त्रयोदश पंक्तियों के कुछ अंश भी नष्ट हैं। अभिलेख में गुप्तवंशीय श्रीगुप्त, श्रीघटोत्कच, श्रीचन्द्रगुप्त-प्रथम, लिच्छवि दौहित्र समुद्रगुप्त, महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त-द्वितीय, ध्रुवदेवी और महाराजाधिराज कुमारगुप्त का उल्लेख मिलता है। १. वही १. वीर्यानिलै : ….. २. वही म. २. खिन्नस्येव विसृज्य गां नरपते….. ३. वही म. ३. समग्रचन्द्रसदृशीं वक्त्रश्रियं विभ्रता। वही-तेनायं प्रणिधाय भूमिपतिना धावेन विष्णौ मतिं… फ्लीट, कॉ. इं.इं., ३, सं ३२; डी. आर. भण्डारकर, ज.ब.प्रां. रो.ए.सो. १०, पृ. ३६; सरकार, से इं. पृ. पाण्डेय हि, इ. पृ ८० दिसकलकर, से.ई. पृ. १७-२२ अभिलेखीय साहित्य ३७७ १३ पंक्तियों के इस गद्य-पद्यमय अभिलेख में रूपक’ एवं उपमारे स्वाभाविक रूप में प्रयुक्त हुए हैं। अन्त में पद-द्वय मिलते हैं, जिनमें प्रथम पद्य स्रग्धरा छन्द में है और द्वितीय शार्दूलविक्रीडित छन्द में। अभिलेख की भाषा सरल एवं स्वाभाविक है।

३३. कुमारगुप्त-प्रथम का मन्दसौर-अभिलेख मालव संवत् ५२६

मध्यप्रदेश के मन्दसौर नगर (प्राचीन ग्वालियर राज्य) मे शिवना नदी के एक घाट के मंदिर की भित्ति में संलग्न प्रस्तर खण्ड पर यह अभिलेख अंकित है। यह प्रस्तर-खण्ड उस मन्दिर से विस्थापित कर वर्तमान स्थान पर स्थिरीकृत है। इस अभिलेख की लिपि दक्षिण ब्राह्मी है। यह पंचम शताब्दीय पश्चिम मालवा लिपि का उत्कृष्ट रूप माना जाता है। इसकी भाषा संस्कृत है। __ प्रस्तुत अभिलेख का उद्देश्य लाट प्रदेश के दशपुर (मन्दसौर) रेशमी बुनकरों के आकर निवास, उनके द्वारा सूर्य-मन्दिर का निर्माण आगे चलकर इसी मन्दिर के जीर्णोद्वार का वर्णन करना है। इसका समय मालव संवत् ४८५ और ५२६ ४३६ और ४७६ ई.सं. है। ४४ पद्यों का यह अभिलेख वत्सभट्टि के द्वारा विरचित है। इस अभिलेख में कुमारगुप्त प्रथम का उल्लेख मिलता है। कुमारगुप्त ने राजा विश्वकर्मा को राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया। उसके बाद उसका आत्मज बन्धुवर्मा राजा हुआ। इसके सुचारु शासन के फलस्वरूप ही ही पट्टवायश्रेणी राजाज्ञा से भगवान् भानु के भव्य भवन का निर्माण कर सकी। जहाँ तक ऐतिहासिक तथ्यों का प्रश्न है, प्रस्तुत अभिलेखों में उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त कोई विशेष ऐतिहासिक घटना का उल्लेख नहीं मिलता। साहित्यिक दृष्टि से यह अभिलेख अतिमहत्त्वपूर्ण है। अभिलेख वैदर्भी रीति का एक सुन्दर उदाहरण है। कवि ने अभिलेख को संवारने और सजाने का अथक प्रयास किया है। १. वि. स्तू. अभि. पं. १० स्वर्ग-सोपान (ख) पाश २. वही, कोबेरच्छन्दाबिम्बां स्फटिकमणिदलाभास-गौरां प्रतोलीम्। ३. संदर्भ-कनिंघम, आ.स.इ., २, पृ. १६ फ्लीट को. इ.इ., ३, सं. १०; सरकार, सं. ई., पृ. २८५; ४. म.शि. पं. २३ कुमारगुप्त …प्रशस्ति ५. वही प. २४ रणेषु यः पार्थसमानकर्मा बभूव गोप्तां नृप विश्ववर्मा ।। ६. वही पं. २६ तस्यात्मजः….बन्ध्वर्तिहर्ता नृपबन्धुवर्मा द्विड् (दृ) प्त पक्ष क्षपणैकदक्षः ७. वही पं. २६, तस्मिन्नेव….बन्धुवर्मण्युदारे…. श्रेणी भूतैर्भवनमतुलं कारितं दिनकरस्य ८. म.शि. प. ३३ गद्य-खण्ड ३७८

  • जहाँ तक अलङ्कारों का प्रश्न है, शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार दोनों का मनोरम प्रयोग परिलक्षित होता है। शब्दालङ्कार में अनुप्रास का विशेष प्रयोग हुआ है।’ अर्थालङ्कार में उपमा, रूपक एवं उत्प्रेक्षा अधिकांशतः प्रयुक्त हुए हैं। निम्नलिखित पद्य में उपमा की छटा प्रशंसनीय है चलत्पताकान्यबलासनाथान्यत्यर्थशुक्लान्यधिकोन्नतानि। तडिल्लताचित्रसिताभ्रकूटतुल्योपमानानि गृहाणि यत्र ।।१०।। इस पद्य पर कालिदासकृत ‘मेघदूत’ के उत्तरमेध के प्रथम पद्य की स्पष्ट छाप दिखायी पड़ती है। अधोलिखित पद्य साङ्गरूपक का एक मनोरम उदाहरण है चतुःसमुद्रान्तविलोलमेखलां सुमेरुकैलासबृहत्पयोधराम्। वनान्तवान्तस्फुटपुष्पहासिनी कुमारगुप्ते पृथिवीं प्रशासति ।।२३।। इसी प्रकार निम्नलिखित पद्य में कविकल्पित उत्प्रेक्षा की कमनीयता सहज ही प्रशंसनीय है अत्युन्नतमवदातं नभः स्पृशन्निव मनोहरैः शिखरैः। शशिभान्वोरभ्युदयेष्वमलमयूरवायतनमभूतम् ॥३८।। यहाँ मन्दिर मन्दिर नहीं है, बल्कि शशि-रवि के उदयकालीन रश्मिपुंज का विश्रामस्थल हो। कवि की छान्दस निपुणता विशेष रूप से अवलोकनीय है। यहाँ कुल बारह छन्दों शार्दूलविक्रीडित पद्य-२, (वसन्ततिलका) प. ३, ५-६, ११, १४, १८, २०, २२, २५, २७, ३०-३२, ४० (आर्या) ४, १३, २१, ३३, ३८-३६), उपेन्द्रवज्रा (७-६, २४), उपजाति (१०, १२, २८), द्रुतविलम्बित (१५) हरिणी (१६), इन्द्रवज्रा (१७, २६) मालिनी (१६, ४३), वंशस्थ (२३), मन्दाक्रान्ता (२६) और श्लोक (३४-३७, ४४) का प्रयोग किया गया है। संभवतः वसन्ततिलका कवि का सर्वप्रिय छन्द है, जिसका सर्वाधिक प्रयोग हुआ है। __पद्य-द्वय ३३ और ३६ में आर्या छन्द में यतिभग दोषभी दृष्टिगोचर होता है। कालिदास के अतिरिक्त प्रस्तुत अभिलेख पर वासवदत्ता और बृहत्संहिता की छाप भी १. वही, प. ६, ७, १६, २५ ३३ आदि २. द्र. से. ई. पृ. ३०० ३७६ अभिलेखीय साहित्य परिलक्षित होती है। कवि की वर्णन शैली प्रभावोत्पादक है। शिशिर का वर्णन (पं. ४-१३) कालिदास के ऋतुसंहार से साम्य रखता है। यह सग्धरा छन्द में निबद्ध तीन पद्यों का है। भाषा सरल है एवं स्वाभाविक है। प्रथम पंक्ति में अष्टपदों का एक समस्त-पद है। छेकानुप्रास’, वृत्त्यनुप्रास एवं श्रुत्यनुप्रास के एक-दो उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं। यत्र-तत्र उपमा और रूपक स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त हुए हैं। अभिलेख का द्वितीय पंक्ति में प्रयुक्त ‘वंश’ (वन्श) शब्द उत्कीर्णकर्ता के प्रमादवश हो गया है।

३४. स्कन्दगुप्त का जूनागढ़- प्रस्तराभिलेख गुप्त-संवत् १३६-१३८

प्रस्तुत अभिलेख गुजरात स्थित जूनागढ़ पर्वत पर उत्कीर्ण है। स्कन्दगुप्त के अभिलेखों में इसका स्थान विशिष्ट है क्योंकि इसमें उसके शासन-काल की प्रधान घटनाओं की ओर संकेत मिलता है। इसी शिला पर सम्राट अशोक के १४ अभिलेख एवं रुद्रदामन् का अभिलेख भी अंकित है। नयी दिल्ली के संग्रहालय के मुख्यद्वार के सामने यह स्थापित है। __ अभिलेख की लिपि दक्षिणवर्ग की ब्राह्मी है। फ्लीट ने इसका नाम पंचम शताब्दीय सौराष्ट्री अथवा काठियावाड़ी दिया है। इसके अक्षर रुद्रदामन के अभिलेखाक्षरों के विकसित रूप माने जाते हैं। __ स्कन्दगुप्त के द्वारा सुराष्ट्र के गोप्ता के रूप में पर्णदत्त की नियुक्ति एवं उसके पुत्र चक्रपालित के द्वारा सुदर्शन झील के भग्न बांध का संस्कार एवं एक विष्णु-मन्दिर के १. म. शि., प. १३-रहसि कुचशालिनीभ्यां प्रीतिरतिभ्यां स्मरागमिव ।। तुल. वासव.-रेवया प्रियतमयेव प्रसारितवीचिहस्तयोरुपगूढः। बृ.सं.-रहसि मदनसक्तया रेवया कान्तयोपगूढम्। संदर्भ-फ्लीट का. इं.इं., ३, सं. ८१, अ.; सरकार से.इं. पृ. २६६; पाण्डेय, हि.लि. इं., पृ. ६४, जगन्नाथ ज. ई., हि., १८, पृ. ११८%, दशरथपाण्डेय इं.क. ६, पृ. ११०; दिसकलकर, से.सं. दू. पृ. ६१-७७ २. क. स्त. अ., पं. १० श्रेयोऽत्यर्थ भूतभूत्यै पथि…। वही पं. पुण्यस्कन्धं स चक्रे जगदिदमखिलं….। वही पं. १२, शैलस्तम्भ : सुचारु गिरिवर…। ५. वही पं. ३, राज्ये शक्रोपमस्य क्षितिपशत-पतेः स्कन्दगुप्तस्य… ६. वही पं. ५ ख्यातेऽस्मिन् ग्रामरत्ने कुकुभ इति… । ७. वही पं. २, गुप्तानां वंशजस्य…। संदर्भ-फ्लीट का. इं.इं., ३, सं. १५; सरकार सं. ई., पृ. ३१६; पाण्डेय, हि. स्मि. क्वा. २२, पृ. २६८। ३८० गद्य-खण्ड निर्माणका उल्लेख ही इस अभिलेख का उद्देश्य प्रतीत होता है। अभिलेख का समय १३६-१३८ गुप्त स. माना जाता है। प्रस्तुत अभिलेख में ३६ पद्य हैं, जिनमें ६ पद्य (२४, २५, ३०, ३१, ३२, ३५, ३६, ३८, ३६) यत्र-तत्र खण्डित हैं। मंगलाचरण में विष्णु की जय मनायी गयी है। तत्पश्चात् कुमारगुप्तात्मज राजाधिराज स्कन्दगुप्त का वर्णन मिलता है। स्कन्दगुप्त ने मान और अहंकार से युक्त सर्प-सदृश दुर्दम्य राजाओं को अपने वश में किया था। वह राजकीय गुणों का भण्डार स्वरूप था। उसकी सम्पत्ति विपुल थी। पिता के देहावसान के बाद वह चतुःसमुद्र मेखलायुक्त पृथिवी का एकाधिपति हुआ। उसके गुणों से वशीभूत होकर राजलक्ष्मी ने उसके अन्य भाइयों का परित्याग कर उसे ही पति के रूप में वरण कर लिया था। शासन-व्यवस्था को सुदृढ़ करने के हेतु उसने सभी प्रदेशों में राज्यपालों की नियुक्ति की और इसी प्रकार सुराष्ट्र के लिए सर्वगुणसम्पन्न शासक की खोज करने लगा और अन्ततः पर्णदत्त को सुराष्ट्र के राज्यपाल के पद पर नियुक्त कर निश्चिन्त हो गया। स्कन्दगुप्त सुराष्ट्र के शासक के लिए विशेष चिन्तित था। ऐसी संभावना की जा सकती है कि भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित यह प्रदेश है जिधर से प्रायः हूण-आक्रमण से देश त्रस्त होता रहा होगा। कालान्तर में पर्णदत्त ने विश्व के सभी गुणवान् पुरुषों के लिए उपमान-स्वरूप चक्रपालित नामक अपने पुत्र को स्वराष्ट्र का राज्यपाल नियुक्त किया। चक्रपालित यथासम्भव धर्म, अर्थ और काम का सेवन कर ही रहा था कि एक दिन वर्षा-ऋत में अनवरत घनघोर वर्षा हई. जिसके फलस्वरूप गुप्तवंश के १३६वें वर्ष के भाद्रपद की षष्ठी की रात में सुदर्शन झील अकस्मात् टूट गयी और जलाधिक्य के कारण वह विशाल सागरवत् दिखायी पड़ने लगी। पितृभक्त चक्रपालित ने नृप एवं नगर के कल्याणार्थ दो महीने के अथक प्रयास से ज्येष्ठ-कृष्ण प्रतिपद को अगणित सम्पत्ति को व्यय कर सुदर्शन झील को सदा के लिए प्रतिसंस्कृत कर दिया। झील की बांध के प्रतिसंस्कार का समय ४५६ ई. माना जाता है। इस अभिलेख का कवि अज्ञात है। काव्य की दृष्टि से इसका वैशिष्ट्य प्रतीत होता है। काव्य में प्रवाह अवश्य ही है। कवि की छन्दो-योजना दर्शनीय है। ३६ पद्यों के इस अभिलेख में इन्द्रवज्रा, वंशस्थ, मालिनी, वसन्ततिलका, उपजाति एवं आर्या-छः छन्द प्रयुक्त हैं। उपजाति का प्रयोग सर्वाधिक (चौदह पद्यों में) हुआ है। जहाँ तक अलंकारों की बात है, शब्दालंकार एवं अर्थालंकार दोनों ही उपलब्ध होते हैं। शब्दालंकार के अन्तर्गत अनुप्रास की छटा सर्वत्र दिखायी पड़ती है-ष्णु-ष्णु, त्या-त्या, क्त-क्त, स्म-स्म, एषु-एषु, आन्-आन्।’ १. जू.प्र. पृ. ३, पृ. ६, पृ. ११ अभिलेखीय साहित्य ३८१ अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा और दृष्टान्त’ के भी उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं। जिस प्रकार पश्चिम दिशा में वरुण को नियुक्त कर देवगण संतुष्ट हो गए, उसी प्रकार पर्णदत्त को पश्चिम दिशा का शासक नियुक्त कर राजाधिराज स्कन्दगुप्त कृतकृत्य हो गए नियुज्य देवा वरुणं प्रतीच्यां, स्वस्था यथा नोन्मनसो बभूवुः। पूर्वेतरस्यां दिशि पर्णदत्तं नियुज्य राजा धृतिमांस्तथाऽभूत् ।।३।। प्रस्तुत उपमा अति रमणीय प्रतीत होती है रूपक का भी एक उदाहरण देखा जा सकता है तदनु जयति शश्वत् श्रीपरिक्षिप्त-वक्षाः स्वभुजजनित-वीर्यो राजराजाधिराजः।। नरपति भुजगानां मानदर्पोत्फणानां प्रतिकृतिगरुडा (ज्ञां) निर्विषी (०) चावकर्ता।।२।। राजा, राज-मस्तक और प्रतिकार पर क्रमशः सर्प, फण एवं गरुडाज्ञा का क्रमशः आरोप है। निम्नलिखित उत्प्रेक्षा की प्रशंसा किए बिना कोई भी पाठक नहीं रह सकता अवेक्ष्य वर्षागमणं महोद्गमं महोदधेसर्जयता प्रियेप्सुना। अनेकतीरान्तजपुष्प-शोभितो नदीमयो हस्त इव प्रसारितः।।२६।। असके अतिरिक्त अनन्वय’ का भी उदाहरण मिलता है। यत्र-तत्र समासगत दोष, और वाक्यगत दोष भी दृष्टिगोचर होते है। यदा-कदा एक-दो सगस्त-पद भी दिखायी पड़ते हैं। सरल लघुकाव्य पद-विन्यास से व्यक्त प्रसादगुण की छटा से वेदर्भी रीति की प्रतीति होती है। अभिलेख के अन्त में कवि ने ‘इति सुदर्शनतटाकसंसकार-ग्रन्थ रचना समाप्त’ लिखा है। ३६ पद्य के कलेवर-विशिष्ट अभिलेख को कवि ने ग्रन्थ की संज्ञा दी है। संदर्भ-फ्लीट, का.इं.इं., ३, संख्या-१३; सरकार, से.इं., पृ. ३२१; पाण्डेय, हि.भि.इं., पृ. ६६, उपेन्द्रठाकुर, इ.हि.भ्वा., ३७, पृ. २७६-८६; जगन्नाथ, इं.हि.क्वा., २२, पृ. ११२; ए.म. ओ.रि.इ. (१६६८), स्वर्ण-जयन्ती खण्ड, पृ. ३२५-२७; दशरथ शर्मा, ग.इ.हि., ४३, भा. १, पृ. २१६-२५। १. वही, पृ. २५ २. जू.प्र. पृ. १, पृ. १६ ३. नैकानहोरात्रगणान् स्वमत्या …. ४. वही क २३ संरंज्ण्यां च प्रकृतीर्बभूव.. ३८२ गद्य-खण्ड

३५. स्कन्दगुप्त का भितरी-स्तम्भ-अभिलेख

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर मण्डल में सयीदपुर (सैदपुर) के निकट भितरी गाँव के बाहर एक स्तम्भ पर प्रस्तुत लेख अंकित है। यह उत्तरी ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं जो चन्द्रगुप्त-द्वितीय के मथुरा अभिलेख के समान परिलक्षित होती है। __अभिलेख का उद्देश्य स्कन्दगुप्त (४५५-६७ ई. सं.) के द्वारा भगवान् शार्णी (विष्णु) की मूर्ति और प्रस्तुत स्तम्भ की स्थापना का उल्लेख करना है। साथ ही, इस मन्दिर के निमित्त भितरी गाँव के दान की चर्चा भी आवश्यक प्रतीत होती है। __ अभिलेख के आरम्भ में पाँच पंक्तियों में गुप्तवंशीय नृपों-श्रीगुप्त से लेकर कुमारगुप्त पर्यन्त का नामतः उल्लेख है। तदुपरान्त स्कन्दगुप्त का सुललित वर्णन आरम्भ होता है जो बारहवीं पंक्ति तक चलता है। पंक्ति १४, १६ एवं १७ में यत्र-तत्र कतिपय अक्षर विलुप्त हो गए हैं। प्रथम पाँच पंक्तियाँ गद्य-पद्य हैं। पञ्चम पंक्ति के बाद १२ पद्य हैं जो विभिन्न छन्दों में निबद्ध हैं।’, पंचम पंक्ति के अभिलेख की भाषा प्रांजल है। समस्त-पद मिलते हैं, परन्तु छोटे-छोटे। सबसे बड़ा समस्तपद ‘महाराजाधिराज-श्रीकुमारगुप्तस्य’ १४ अक्षरों का है ! शब्दालङ्कार में अनुप्रास (वृत्ति तथा छंद) एवं यमक दृष्टिगोचर होते हैं। अर्थालङ्कार में मात्र उपमा की रमणीयता प्रशंसनीय है। संदर्भ-फ्लीट, का.इं.इं., ३, संख्या-१३; सरकार, से.इं., पृ. ३२१; पाण्डेय, हि.भि. इं., पृ. ६६, उपेन्द्रठाकुर, इ.हि.क्वा., ३७, पृ. २७६-८६; जगन्नाथ, इं.हि.क्वा., २२, पृ. ११२; ए.म.ओ.रि.इ. (१६६८), स्वर्ण-गायत्री खण्ड, पृ. ३२५-२७; दशरथ शर्मा, ग.इ.हि., ४३, भा. १, पृ. २१६-२५ ।

३६. सकन्दगुप्तकालीन कहाऊँ-स्तम्भ-अभिलेख गुप्तसंवत् १४१

उत्तरप्रदेश के गोरखपुर मण्डलान्तर्गत कहाऊँ (या कहवें) गाँव के समीप उत्तर दिशा में अवस्थित स्तम्भ पर यह लेख अंकित है। इसकी लिपि भी उत्तर ब्राह्मी है। यह समुद्रगुप्त के प्रयाग-स्तम्भ अभिलेख की लिपि से मिलती-जुलती है। १. (भि.स्त., पुष्पिताग्रा (प. १) मालिनी (२-६), शार्दूलविक्रीडित (पं. ७-८), श्लोक ६-१२) २. वहीं, पं. ६ ३. वही, क प्रथित-पृथुमति-स्वभाव-शक्तः पृथुयशसः पृथिवीपतिः पृथू-श्री। (वृत्त्यनुप्रास) ख) पं. ७ …. पितृ-परिंगत-पाद-पद्मवर्ती …. (छेकानुप्रास) ४. वही, पं. ६-विनय-बल-सुनीतै विक्रमेण क्रमेण ….. ५. वही, पा.टि. ३(ख) और पृ. ६ जितमिति परितोषान्मातरं सास्रनेत्रां हतरिपुरिव कृष्णो देवकीमभ्युपेतः। ३८३ अभिलेखीय साहित्य मद्र नामक व्यक्ति के द्वारा पंच आदिकर्ता जैन तीर्थङ्करों की मूर्तियों एवं प्रस्तुत स्तम्भ की स्थापना का उल्लेख करना ही इस अभिलेख का उद्देश्य है। अभिलेख का समय ४६० ई. सं. है। यह स्रग्धरा छन्द में निबद्ध तीन पद्यों का है। भाषा सरल एवं स्वाभाविक है। प्रथम पंक्ति में अष्टपदों का एक समस्त पद है। छेकानुप्रास,’ वृत्यनुप्रास’ एवं श्रुत्यनुप्रास के एक-दो उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं। यत्र-तत्र उपमा (वही, पं. राज्ये शक्रोपमस्य क्षितिप-शत-पतेः स्कन्दगुप्तस्य) और रूपक’ स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त हुए हैं। अभिलेख की द्वितीय पंक्ति में प्रयुक्त ‘वन्श’ (वंश) राजवंशज शब्द चिन्त्य है। सन्दर्भ-फ्लीट का इं. इं., ३, सं. ७५, सरकार, से.ई., पृ. ३१६; पाण्डेय, हि.लि.इ., पृ. ६२, इ.हि.क्वा., २४, पृ. २६८।

३७. कुमारगुप्त-द्वितीय का भितरी-मुद्रालेख

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर मण्डल के भितरी ग्राम में एक भवन की नींव की खुदाई के क्रम में उपलब्ध एक मुद्रा पर यह अभिलेख अंकित है। इसकी लिपि पंचम-षष्ठ शताब्दी की उत्तरी ब्राह्मी लिपि है। इसकी भाषा संस्कृत है। इसका समय ४७३ ई. सं. है। आरम्भ से लेकर कुमारगुप्त-द्वितीय तक के गुप्तवंश की वंशावली का उल्लेख ही मुद्रालेख का उद्देश्य है। अभिलेख-पत्र आठ पंक्तियों का है। सभी पंक्तियाँ प्रायः समान लम्बाई की हैं। वंशारंभ महाराज श्रीगुप्त से होता है। इसके बाद महाराज घटोत्कच, चन्द्रगुप्त-प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त-द्वितीय, कुमारगुप्त, पुरुगुप्त, नरसिंहगुप्त एवं परम भागवत कुमार गुप्त-द्वितीय का उल्लेख मिलता है। __ प्रायः सभी राजाओं की रानियों के नाम भी उल्लिखित हैं। सच पूछा जाय तो यह मुद्रालेख-मात्र नहीं है, वरन् गुप्तसाम्राज्य का एक लघु इतिहास ही है। संदर्भ-गुप्त, आ. स.इ.ऐ.रि., १६१४-१५, पृ. १२४-२५; सरकार सं.इ., पृ. ३३१, पाण्डेय, हि.लि.इ, पृ. १०३; इ.हि.क्वा. १६, पृ. ११६ अ. और पृ. २७२। १. क. स्त. ७५०, पृ. १०, श्रेयोऽत्यर्थं भूतभूत्यै पथि ….। २. वही, पृ. ६ पुण्यस्कन्धं स चक्रे जगदिदमरिवलं ….। ३. वही, पं. १२ शैलस्तम्भः सुचारुर्गिरिवर ….| ४. वही ५ ख्यातेऽस्मि ग्रामरत्ने ककुभ इति ….। ५. मि.मु.लठे. पं. ३ (दव्या) मु (त्प) न्न परमभागवतो महाराजाधिराज श्रीकुमार (1) गुप्तः। ६. से.ई., पृ. ३३१ पा.टि. १. गद्य-खण्ड

३८. बुद्धगुप्त-कालीन सारनाथ बौद्ध-प्रतिमा अभिलेख गुप्त संवत् १५७ (= ४७६ ए.डी.)

उत्तरप्रदेश के काशीनगर के निकट सुप्रसिद्ध बोद्धतीर्थ स्थल सारनाथ से उपलब्ध एक बुद्धमूर्ति के नीचे यह अभिलेख उत्कीर्ण है। इसकी लिपि ब्राह्मी है। अभिलेख का उद्देश्य भिक्षु अभयमित्र के द्वारा भगवान् बुद्ध की मूर्ति की स्थापना का उल्लेख करना है। अभिलेख की भाषा संस्कृत है, जो सरल एवं रोचक प्रतीत होती है। __ बोद्ध परम्परा के अनुसार बुद्धगुप्त उस क्षेत्र, जिसके अन्तर्गत नालन्दा भी सम्मिलित था, का शासक था। भ्रान्ति के फलस्वरूप बुद्ध को बुध और शक्रादित्य को महेन्द्रादित्य (कुमारगुप्त-प्रथम) मान लिया गया। इस प्रकार बुधगुप्त कुमारगुप्त-प्रथम का आत्मज माना गया। परन्तु, इधर कतिपय प्रमाण ऐसे मिले हैं, जिनसे प्रमाणित होता है कि बुधगुप्त पुरुगुप्त का पुत्र और कुमारगुप्त प्रथम का पौत्र था।’ : _ अभिलेख का कलेवर मात्र पद्य-चतुष्टय का है। ये पद्य अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध हैं। ये अनुप्रास चित्रवि (न्या) स-चित्रिताम् ।।) की छटा से भी आप्लावित है। संदर्भ-गुप्त, आ. स.इ.ऐ.रि, १६१४-१५, पृ. १२४-२५; सरकार सं.इ., पृ. ३३१, पाण्डेय, हि.लि.इ, पृ. १०३; इ.हि.क्वा. १६, पृ. ११६ अ. और पृ. २७२।