बौद्ध भिक्षुणियों के गीत (थेरीगाथा)
थेरीगाथा के अन्तर्गत ७३ बौद्ध भिक्षुणियों के गीत पालि भाषा के खुद्दक निकाय में प्राप्त होते हैं। इसकी शैली में सङ्गीत तथा निश्छल आत्माभिव्यक्ति का अनोखा सङ्गम प्राप्त होता है। यह बौद्ध भिक्षुणियों के अपने जीवनगत अनुभवों का गीतिकाव्य है, जिसमें तृष्णा, दुःख, शोक, नश्वर पार्थिव सुखभोग के बन्धन से सर्वथा मुक्ति पाकर वैराग्य के आकाश में उदित प्रशम की स्निग्ध ज्योत्स्ना के आलोक से विभास्वर भिक्षुणियों की हृदयतन्त्री का तापापहारी झङ्कार सुनायी देती है। महिला कवियों की रचना की दृष्टि से थेरी गाथाएँ साहित्य की अनमोल निधि हैं। निर्वाण की स्पृहणीय उपलब्धि पाकर भगवान् बुद्ध की ये शिष्याएँ संसारी जीवों को विषम-वेदना-प्रद संसृति-चक्र से मुक्ति का अमर सन्देश इन गीतों में प्रदान करती हैं। इन बौद्ध भिक्षुणियों के नाम निम्नस्थ हैं : १. मुक्ता २. पूर्णा तिष्या ४. धीरा मित्रा ६. भद्रा कुण्डलकेशा उपशमा ८. धम्मदिन्ना विशाखा सुमना रही उत्तरा १३. अभिरूपा नन्दा १४. जयन्ती १५. सुमङ्गल माता १६. अड्ढकासी १७. चित्रा १८. मैत्रिका १६. अभया २०. अभय-माता २१. श्यामा २२. उत्तमा २३. दन्तिका २४. उब्बिरी २५. शुक्ला २६. शैला २७. सोमा २८., भद्रा कापिलायनी २६. वङ्गदेसी ३०. विमला ३१. सुन्दरी नन्दा ३२. सिंहा ३३. नन्दुत्तरा ३४. मित्तकाली धम्मा बौद्ध भिक्षुणियों के गीत २८१ ३५. सकुला ३६. सोणाली ३७. पटाचारा ३८. चाला ३६. उपचाला ४०. शिशूप चाला ४१. वड्ढमाता ४२. कृशा गौतमी ४३. उत्पलवर्णा ४४. पूर्णिका ४५. अम्बपाली ४६. रोहिणी ४७. चन्द्रा ४८. वासिष्ठी ४६. क्षेमा ५०. सुजाता ५१. अनुपमा ५२. महाप्रजापति गौतमी ५३. गुप्ता ५४. विजया ५५. उत्तरा ५६. चापा ५७. सुन्दरी ५८. शुभा ५६. ऋषिदासी ६०. सुमेधा ६१. अज्ञात नाम वाली भिक्षुणी इनमें एक नाम की कई भिक्षुणियाँ हैं जिनको मिलाकर इनकी कुल सङ्ख्या तिहत्तर परिगणित की जाती है। यहाँ इनमें से कतिपय के परिचय एवं भावोद्गार का हिन्दी गद्य में आशय प्रस्तुत है। __१. धम्म दिन्ना-भिक्षुणी धम्मदिन्ना का जन्म राजगृह के एक वैश्यकुल में हुआ था। एक दिन उसके पति ने भगवान् बुद्ध का दर्शन प्राप्त कर ज्ञान लाभ किया। अब तक वह सर्वथा वीतराग हो चुका था। अतः घर आकर उसने अपनी पत्नी से कहा कि शास्ता तथागत का उपदेश पाकर अब मैं स्त्रीशरीर तथा सुस्वादु भोजन प्रभृति सांसारिक विषयों में रमने योग्य नहीं हूँ। अतः अब यदि तुम इस घर में रहना चाहो तो रहो, अन्यथा यदि इच्छानुसार धनराशि लेकर अपने माता-पिता के घर जाना चाहो तो वैसा करो। पति के मुख से ऐसी बातें सुनकर उसने भी प्रव्रज्या को स्वीकार करना ही वरणीय समझा। प्रव्रज्या-ग्रहण करने के बाद निर्वाण-लाभ के उद्देश्य से जब वह साधना में निरत थी, तब उसके द्वारा कही गयी गाथा का अर्थ इस प्रकार है : “अन्तः करण की अशेष वृत्तियों को एकाग्र कर जो शान्ति की स्पृहा करता है और सांसारिक भोगतृष्णा के प्रलोभन से आकृष्ट नहीं होता है, वही इस संसार-प्रवाह से ऊपर (ऊर्ध्वस्रोत) में अवस्थित कहा जाता है।” । २. अभिरूपा नन्दा-अभिरूपा नन्दा कपिलवस्तु के निवासी शाक्यकुलोत्पन्न क्षेमक नामक क्षत्रिय की दुहिता थी। नाम तो उसका नन्दा था, परन्तु अपने रूप-लावण्य के उत्कर्ष के कारण उसका उपनाम ‘अभिरूपा’ भी नाम के समान ही सुप्रसिद्ध हो चुका था। उसके २८२ गद्य-खण्ड विवाह-हेतु आयोजित स्वयम्वर के दिन उसके सम्भावित वर का संयोगवश निधन हो गया। इसके बाद उसके माता-पिता ने अपनी इच्छा से उसे प्रप्रज्या को अङ्गीकार करने के लिए कहा। उसे अपने सौन्दर्य का बड़ा ही अभिमान था और वह यह जानती थी कि तथागत शारीरिक सौन्दर्य के प्रति दोषदर्शी हैं। अतः उनके सम्मुख जाने में उसका मन सङ्कोच से ग्रस्त हो रहा था। जिस किसी प्रकार जब वह उनके सम्मुख उपस्थित हुई, तब उन्होंने उसे अपनी योगशक्ति के बल से उससे भी अधिक सुन्दरी का दर्शन कराया। तत्पश्चात्, उसे उसके जराजीर्ण रूप की कुत्सित दशा दिखलायी। इसे देखकर उसका मन बड़ा ही आहत हुआ। तब तथागत ने उसे ज्ञानप्राप्ति के उपयुक्त मानकर उससे एक गाथा कही, जिसे वह बराबर गाया करती थी। उक्त गाथा का आशय इस प्रकार है। __ “नन्दे ! यह शरीर अपवित्र है, दुर्गन्ध से दूषित है तथा व्याधि से ग्रस्त है। इसे ध्यानपूर्वक देखो। समस्त सांसारिक प्रपञ्च को अनित्य, दुःखात्मक तथा अशुचि समझने का अभ्यास करो। चित्त के अन्तर्गत, निवास करने वाले अहङ्कार रूपी मल का त्याग करो। अहङ्कार ही सारे दु:खों का मूल है। इसका भलीभाँति दमन कर लेने पर तुम प्रशान्त और निष्कलुष चित्त से विचरण करोगी।" __३. उब्बिरी-उब्बिरी का जन्म श्रावस्ती नगरी के उच्चकुल में हुआ था। इसके अनिन्द्य सौन्दर्य से आकृष्ट होकर कोसल-नरेश ने इसे अपने अन्तःपुर में सादर स्थान दिया। कालक्रम से यह एक पुत्री की माता बनी जिसका नाम जीवन्ती रक्खा गया। उस कन्या के जन्म से कोसल-नरेश ने प्रसन्न होकर इसकी माता को राजमहिषी के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। परन्तु जीवन्ती बचपन में ही कालकवलित हो गयी। अब, उसकी माता तो शोक से पागल हो गयी। वह प्रतिदिन उस श्मशान में जाती थी जहाँ उसकी पुत्री का दाह-संस्कार किया गया था और वहाँ बैठकर आर्त्तस्वर से क्रन्दन किया करती थी। एक समय वह भगवान् बुद्ध के सम्मुख उपस्थित हुई और उनके चरणों की वन्दना कर एक किनारे बैठ गयी। फिर, चित्तोद्वेग के कारण वह वहाँ से तुरंत उठी और पुनः अचिरावती नदी के तट पर उसी श्मशान में जाकर अपनी कन्या का नाम ले-लेकर रोने लगी। भगवान् बुद्ध अपनी कुटी में बैठे ही बैठे इस करुण दृश्य को देखकर योगबल से उसके समक्ष उपस्थित हुए और उससे रोने का कारण पूछा। शोक-विह्वल उब्बिरी ने उत्तर दिया कि भगवन् ! मैं अपनी मृत पुत्री के लिए रोती हूँ। 1 इस पर भगवान् बुद्ध ने उससे कहा कि इसी श्मशान में तुम्हारी चौरासी हजार पुत्रियों का दाह-संस्कार किया गया है। कहो तो, उनमें से किस पुत्री के लिए विलाप कर रही हो। और, इतना कह कर अपने प्रातिहार्य के प्रभाव से उन्होंने उसे श्मशान में वे सारे स्थान दिखलाये जहाँ उसकी सहस्रों कन्याओं का दाह-संस्कार किया गया था। भगवान् बुद्ध के इस वचन से उसे बोध उदित हुआ और वह ध्यान-लीन रहने लगी। अन्त में उसका २८३ बौद्ध भिक्षुणियों के गीत चित्त शोक-मोह के द्वन्द्व से सर्वथा मुक्त हो गया। उसके द्वारा कही गयी गाथा का सार निम्नस्थ है - “आज मेरे हृदय का शल्य निकल गया। पुत्री के शोक से मेरा हृदय विषाक्त हो गया था और मुझे प्राणहारी प्रतीत हो रहा था। उसका वियोग परन्तु, अब मैं शोकमुक्त हूँ। आज मेरा हृदय शान्त, अव्याकुल, निर्मल तथा वीतशोक है। मैं अपने को भगवान् बुद्ध, धर्म एवं सङ्घ को समर्पित करती हूँ।" ४. सोमा-राजगृह में मगध-नरेश महाराज बिम्बिसार के पुरोहित की पुत्री के रूप में सोमा का जन्म हुआ था। सांसारिक बन्धनों से मुक्ति के सुख में मग्न होकर एक समय वह अन्धकवन में जब ध्यानलीन थी, तब मार ने उसे मार्गच्युत करना चाहा परन्तु प्रशम में प्रतिष्ठित सोमा द्वारा वह धर्षित हुआ। इस अवसर पर सोमा द्वारा कही गयी गाथा का आशय प्रस्तुत है :
- “जिसका चित्त समाधि में स्थित है, जीवन ज्ञान से उज्ज्वल है और अन्तःकरण में धर्म का सम्यक् दर्शन प्रतिष्ठित हो चुका है तब स्त्री-मात्रता के कारण उसकी क्या हानि होगी ? मैंने अज्ञान के अंधकार को ध्वस्त कर दिया है जिससे मेरी सारी वासनाएँ विनष्ट हो चुकी हैं। अरे पापी मार ! तू इसे भलीभाँति जान ले कि आज तेरा अन्त कर दिया गया।” ५. चापा-आजीवक सम्प्रदाय का एक तपस्वी था उपक। उसकी दृष्टि रास्ते में भगवान् बुद्ध पर पड़ी, जो सम्यक् सम्बुद्ध होकर धर्मचक्र प्रवर्त्तन-हेतु सारनाथ (वाराणसी) जा रहे थे। उनकी तप्त काञ्चन भास्वर देहाति और शान्त-गम्भीर मुखमुद्रा देख कर उसने पूछा कि मित्र! तुमने किस हेतु सांसारिक जीवन का परित्याग किया ? तुमने किस गुरु से अध्यात्म-उपदेश पाया है ? किस मत में तुम्हारी आस्था है? इस पर भगवान् बुद्ध ने उससे कहा- “मैंने स्वयं सम्बोधि प्राप्त की है, मैं सर्वविजेता हूँ, सर्वज्ञ हूँ। तृष्णा का मूलोच्छेद कर मैं दुःखों से मुक्त हूँ तथा संसार से अलिप्त हूँ। मेरा गुरु कोई नहीं है। मैं धर्म-चक्र प्रवर्त्तन-हेतु सारनाथ (वारणसी) जा रहा हूँ। अज्ञान के गहन अन्धकार में सुप्त जनता को सद्धर्भ के दुन्दुभि-नाद से मैं जगाऊगा, मुक्त करुगा।” यह सुनकर तपस्वी उपक ने उनसे कहा कि “जाओ मित्र ! तुम्हारा महान् निश्चय सफल हों” उनसे ऐसा कहकर वह तपस्वी दूसरे रास्ते से वङ्कहार जनपद की ओर चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर वह एक व्याधमुख्य का अतिथि बना। उसने उसका यथोचित आतिथ्य-सत्कार किया और अपनी पुत्री चापा को उसकी सेवा का आदेश देकर मृगया के २६४ गद्य-खण्ड उद्देश्य से स्वयं जंगल चला गया। व्याधमुख्य की पुत्री अनुपम सुन्दरी थी। तपस्वी उसके रूप-यौवन से मोहित हो गया। जब चापा का पिता जंगल से लौटा तब उस तपस्वी ने उससे अपना मनोगत भाव प्रकट किया और कहा कि मैं आपके द्वारा लाये गये शिकार को खरीद कर बाजार में बेचने का काम करूँगा और इसी विधि से अपनी गृहस्थी चलाऊँगा। यह सुनकर व्याघमुख्य ने चापा के साथ उस तपस्वी का विवाह कर दिया। कालक्रम से चापा ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम सुभद्र पड़ा।
- वह शिशु जब-जब रोता था तब-तब चापा अपने पति को लक्ष्य कर उपहास के स्वर में यह कह-कह कर शिशु को चुप कराती कि हे उपक के पुत्र ! चुप हो जाओ, हे तपस्वी के पुत्र ! चुप हो जाओ। हे व्याध के पुत्र चुप हो जाओ। उपक को उसकी ऐसी बातें अच्छी नहीं लगतीं थी। परन्तु उसकी पत्नी स्वामी के खीझने पर आनन्द का अनुभव करती थी। एक दिन उपक विरक्त होकर चला गया और अपने पूर्व परिचित भगवान् बुद्ध के सम्मुख उपस्थित होकर उसने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। कुछ दिनों के बाद चापा ने अपने शिशु को पितामही की देखरेख में छोड़कर स्वयं भी प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। __व्याध-कन्या चापा की कथा में अपने स्वामी के साथ हुए उसके वार्तालाप से हम परिचित होते हैं। उपक कहता है कि “मैं पहले एक दण्डधारण करने वाला तपस्वी था, किन्तु आज तृष्णा के महापङ्क को पार करने में असमर्थ होकर मैं एक व्याध हो गया हूँ। मुझे अपने रूप-यौवन के जाल में आबद्ध देख कर मेरी पत्नी अपने शिशु के मनोविनोद के लिए मेरा परिहास किया करती थी। मैंने चापा की आसक्ति का त्याग कर प्रव्रज्या का जीवन अपना लिया है।” चापा कहती है कि “हे महान् तपस्वी! मुझ पर क्रोध न करो। क्रोध से आत्मशुद्धि की प्राप्ति नहीं होती है। हे उपक! लौट आओ और सांसारिक जीवन के सुखों का उपभोग करो। मैं खिले हुए गुलाब के समान रूप और यौवन से रमणीय हूँ। तुम्हारी मनःप्रीति के लिए मैं केसर-मिश्रित चन्दन का लेप करूँगी और काशी में निर्मित कौशेय वसन धारण करूँगी। मुझ जैसी रूपवती का परित्याग कर तुम जाओगे कहाँ ? देखो उपक ! मैंने तुम्हें पुत्ररूपी अनमोल फल दिया है। तुम्हीं तो इस शिशु के पिता हो। मुझ पुत्रवती को छोड़कर तुम जाओगे कैसे ? फिर भी यदि तुम जाने का हठ नहीं छोड़ोगे तो मैं अभी ही तुम्हारे इस पुत्र को छुरी से मारकर गिरा दूंगी तब तो पुत्र-मोह के कारण तुम नहीं जा सकोगे!” __ उपक कहता है कि “मुझे अब तुम्हारा रूप-सौन्दर्य बाँधकर नहीं रख सकता है। ज्ञान सम्पन्न पुरुष पुत्र, विभव और परिवार का परित्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण किया करते हैं। अब पु पने निश्चय से विचलित नहीं कर सकता है। म सो बौद्ध भिक्षुणियों के गीत २८५ कि भगवान् बुद्ध निरंजना नदी के तट पर सभी प्राणियों को सर्वदुःखहारी सद्धर्म का उपदेश प्रदान करते हैं। मैं उन्हीं के शरण में जाऊँगा।” स्वामी के निश्चय को जानकर चापा ने उससे कहा कि उस सम्यक् सम्बुद्ध तथागत को मेरी भी चरण वन्दना निवेदित करना, उनकी प्रदक्षिणा करना और मेरी भी दक्षिणा उनके पादपद्मों पर समर्पित कर देना।” __ इसके बाद उपक भगवान् बुद्ध के समीप गया जहाँ वे निर्वाण के साधन-स्वरूप चार आर्य-सत्यों का उपदेश दे रहे थे। उसने उनके चरणों पर शीश झुकाया और चापा की विनती भी पूरी की। तत्पश्चात् भगवान् बुद्ध से उसने प्रव्रज्या ग्रहण की और बुद्ध-शासन में परिपूर्णता का लाभ किया। यहाँ उद्धृत हैं उसकी गाथा।
चापा
“लट्ठिहत्थो पुरे आसिं सो दानि मिगलुद्दको । आसाय पलिपा घोरा नासक्खि पारमेत से ।। सुमत्तं मं मञ्चमाना चापा पुत्तमतोसयि । चापाय बन्धनं छेत्वा पब्बजिस्सं पुनो म’हं ।। मा मे कुज्झि महावीर मा मे कुज्झि महामुनि । न हि कोधपरेतस्य सुद्धि अत्थि कुतो तपो ? ॥ एसो हि भगवान बुद्धो नदि नेरञ्जरं पति । सब्बदुक्खपहानाय धम्म देसेसि पाणिनं । तस्सा हं सन्तिके गच्छं सो मे सत्था भविस्सति ।। तस्स पादानि वन्दित्वा कत्वानां नं पदक्खिणं । चापाय आदिसित्वान पब्बजि अनगारियं । तिस्सो विज्जा अनुप्पत्ता कतं बुद्धस्य सासनं ।। ५. भद्रा कुण्डलकेशा-राजगृह नगर के कोषाध्यक्ष की पुत्री थी भद्रा। तारुण्य में पदार्पण करने पर एक दिन उसने अपने महल से देखा कि राजपुरोहित के पुत्र सत्थुक को चौर्य के अपराध में पकड़े जाने के कारण प्राणदण्ड देने के लिए वधिक ले जा रहे हैं। वह उसे देखकर तत्क्षण उसके प्रति आसक्त हो गयी। उसने प्रण कर लिया कि इसके साथ मेरा विवाह होगा तो मैं जीवित रहूँगी अन्यथा मृत्यु का वरण करूँगी। पुत्री के प्रति अतिशय स्नेह के कारण उसके माता-पिता ने वधिकों को धन देकर सत्थुक को छुड़ा लिया और हीरे-जवाहरात के बहुत सारे आभूषणों से पुत्री को अलङ्कृत कर उसके साथ विवाह करा दिया। कुछ दिन जब आमोद-प्रयोद में बीत गये तब एक दिन पत्नी के रत्नमय आभूषणों में२८६ गद्य-खण्ड के लोलुप सत्थुक ने उससे कहा कि वध से मुक्ति पाने पर पर्वत पर अवस्थित देवता को अर्ध्य-समर्पण करने की बात मैंने मन में स्थिर की थी। अतः, तुम अर्ध्य प्रस्तुत करो। हम दोनों आज, साथ ही वहाँ चलेंगे। तदनुसार अर्घ्य-सामग्री लेकर रत्नाभरणों से सुसज्जित भद्रा उसके साथ पर्वत की ओर चल पड़ी। उसके पति ने उसके साथ आ रही परिचारिकाओं को लौट जाने को कहा और स्वयं भद्रा के साथ पर्वत पर चढ़ गया। वहाँ, उसने भद्रा से अपने सारे आभूषणों को उतार देने को कहा। इस पर जब भद्रा ने उससे पूछा कि यह मेरे किस अपराध का दण्ड है तब उसने कहा कि अर्घ्यदान तो एक व्याज था। वस्तुतः मैं तो तुम्हारे रत्नाभूषण लेने के लिए ही तुम्हें यहाँ लाया हूँ। भद्रा ने बहुत अनुनय-विनय किया परन्तु वह तो प्रकृति से ही दुष्ट था। उसने उसकी एक न सुनी। भद्रा एक प्रत्युत्पन्नमति स्त्री थी। अतः उसने उससे कहा कि मैं इन वस्त्राभूषणों के साथ एक बार तुम्हारा आलिङ्गन-सौख्य प्राप्त कर लेना चाहती हूँ। इस पर जब वह सम्मत हो गया तब आलिङ्गन के व्याज से भद्रा ने उसे इतने जोर का धक्का दिया कि वह औंधे मुंह पहाड़ से नीचे गिरकर मर गया। इसके बाद भद्रा ने सांसारिक जीवन को त्याग कर जैन साधुओं के आश्रम में आश्रय लिया। नियमानुसार, वहाँ उसके केशों का लुंचन किया गया। परन्तु उसके बाद उसके सिर पर जो केश उगे वे कुण्डलाकृति थे। तब से उसे कुण्डलकेशा कहा जाने लगा। जैन-आश्रम में रहकर उसने हेतुविद्या का अध्ययन किया और उसमें निष्णात हो गयी। एक बार सुप्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु सारिपुत्र से शास्त्रार्थ में निरुत्तर होकर जब उसने उन्हें अपनी शरण में लेने का अनुरोध किया तब उसने उसे भगवान् बुद्ध की शरण में जाने को कहा। तदनुसार, सर्वलोक शरण्य भगवान बुद्ध की शरण में जाकर उसने स्पृहणीय अर्हत्पद की प्राप्ति की। उसने अपनी गाथा में निर्वाण पद की प्राप्ति की। उसने अपनी गाथा में निर्वाण की अक्षोभ्य शान्ति की महिमा गायी है जो इस प्रकार है। “अस्त-व्यस्त विवर्ण केशों से आच्छन्न मुख लिये पङ्कलिप्त हो एकवस्त्रा नारी के रूप में मैं पहले इतस्ततः भ्रमण किया करती थी। उपादेय कर्मों से विमुख होकर मैं केवल हेय कर्मों में संसक्त रहा करती थी। परन्तु एक दिन मैंने गृधकूट पर्वत के शिखर पर जाकर, भिक्षु-सङ्घ से अभिवन्दित भगवान् बुद्ध का दर्शन प्राप्त किया। मैंने उनके सम्मुख घुटनों के बल बैठ कर प्रणाम की मुद्रा में अञ्जलि बाँधी और उनकी अभिवन्दना की। __ भगवान् ने मुझे कहा-“भद्रे ! आओ” और इस प्रकार मैंने उपसम्पदा प्राप्त की। तत्पश्चात्, उस दिन से लेकर आज तक मैं निरन्तर काशी, कोसल, मगध प्रभृति जनपदों में चारिका-परायण रही। और, इस प्रकार पचास वर्षों की अवधि बीत गयी। इतने समय में मैं अर्हत् के रूप में राष्ट्र की सेवा करती रही।” बौद्ध भिक्षुणियों के गीत २८७ ६. सुमेधा-सन्तावती नाम की नगरी में क्रौञ्च नामक राजा राज्य करता था। उसके एक पुत्री थी जिसका नाम था सुमेधा। वह बाल्यावस्था से ही भिक्षुणी-संघ की सत्सङ्गति में आ चुकी थी जिसके फलस्वरूप उसका चित्त निर्वेद की भूमि पर प्रतिष्ठित निर्वाण की स्निग्ध-शीतल छाया के सौख्य में निमग्न रहने लगा था। माता-पिता ने जब उसे तारुण्योन्मुख देखा तब वारणवती नगरी के राजा ‘अनिकरत्त’ से उसका विवाह स्थिर किया। अपने विवाह की वार्ता से अवगत होकर उसने अपने माता-पिता से अपने प्रव्रजित होने का निर्णय स्पष्ट शब्दों में कह सुनाया। माता-पिता ने उसे प्रव्रजित होने से मना किया। उसके माता-पिता द्वारा उसके लिए सङ्कल्पित वर राजा अनिकरत्त ने भी उसे धन, ऐश्वर्य और सांसारिक सुखों से सम्भृत गृहस्थ-जीवन का महत्त्व समझाया और अपना राज्य उसे अर्पित कर दिया। परन्तु वह तो निर्वाण के प्रति समर्पित थी। सो, वह अपने निर्णय पर अविचल रही। उसने अपने हाथों अपने केशपाश को काट लिया और प्रव्रज्या का जीवन अपना लिया। कठोर साधना के द्वारा उसने अनुत्तम बोध प्राप्त किया और अपने माता-पिता को भी धर्मोपदेश देकर बौद्धमत में दीक्षित किया। उसकी गाथा में उसकी स्वानुभूति का साक्षात्कार किया जा सकता हैं :
सुमेधा
“निब्बाणाभिरता हं असस्सतं भवगतं यदि पि दिब्बं । किमङ्ग पन तुच्छा कामा अप्पसादा बहुविधाता।। चत्तारो विनिपाता द्व च गतियो कथञ्चि लब्भन्ति। न च विनिपातगतानं पब्बज्जा अत्थि निरयेसु।। “उद्वेहि पुत्तक किं सोचितेन दिन्नां सि वारणवतिम्हि । राजा अनिकरत्तो अभिरूपो तस्स त्वं दिन्ना।। अज्झोसिता असारे कलेवरे अट्ठिन्हारुसङ्गाते। खेलस्सुमुच्छास्सव परिपुण्णे पूतिकायम्हि।। दिवसे दिवसेंति सत्तिसत्तानि नवनवा पतेय्युं कायम्हि । वस्ससतम्पि च घातो सेय्यो दुक्खस्स चैव खयो।। चातुर्दीपो राजा मन्धाता आसि कामभोगिनं अग्गो अतित्तो कालङ्गतो न चस्स परिपूरिता इच्छा।। सत्तिसूलूपमा कामा रोगो गण्डो अघं निघं। अङ्गारकासुसदिसा अघमूलं भयं वधो।। २८८ गद्य-खण्ड सर रूपं फेनपिण्डोपमस्स कायकलिनो असारस्स। खन्थे पस्स अनिच्चे सराहि निरये बहुविधाते।। आदीपिता तिणुक्का गण्हन्तं दहन्ति नेव मुञ्चन्तं । उक्कोपमा हिकामा दहन्ति ये ते न मुञ्चन्ति।। एवं भणति सुमेधा सङ्गारगते रतिम लभमाना। अनुनेन्ती अनिकरत्तं केसे व छमं छुपि सुमेधा। अच्छरियं अब्भुतं तं निब्बाणं आसि राजकम्भाय। पुब्बे निवासचरितं यथा ब्याकरि पच्छिमें काले।। सो हेतु सो पभवो तं मूलं सत्थुसासने सन्ति। तं पढमं समोधानं तं धम्मरताय निब्बाणं।। (थेरीगाथा) ८. उत्पलवर्णा-श्रावस्ती नगरी के कोषाध्यक्ष की पुत्री थी उत्पलवर्णा । नीलोत्पल की सी देहधति के कारण उसका नाम उत्पलवर्णा रक्खा गया था। उसके अनुपम सौन्दर्य की वार्ता से आकृष्ट होकर अनेक राजपुत्रों और श्रेष्ठियों ने उसके पिता से उसके साथ विवाह की इच्छा प्रकट की। पिता के सामने समस्या थी कि वह सबको सन्तुष्ट कैसे करे। अतः उसने अपनी पुत्री से पूछा कि क्या वह बुद्ध शासन में दीक्षित होना चाहती है ? उत्पलवर्णा ने इस पर प्रसन्नता के साथ कहा कि मैं अभी इसी क्षण प्रव्रज्या के अङ्गीकार हेतु उद्यत हूँ। उसकी सहर्ष स्वीकृति पाकर पिता ने आदर-सम्मानित उसे भिक्षुणी सङ्घ में ले जाकर दीक्षित कराया। साधना के बल पर उस कन्या ने अर्हत्पद की प्राप्ति की और भिक्षुणी सङ्घ में विशेष गौरव की अधिकारिणी बनी। उसने अपनी गाथा में साधना से उपलब्ध आत्यन्तिक मनः प्रसाद का वर्णन किया है जो इस प्रकार है : _ “साधना के बल पर मैंने पूर्वजन्मों का स्मरण प्राप्त किया। मेरे चर्मचक्षु शुद्ध हो गये। मैंने दिव्यदृष्टि पायी। मुझे दूसरों के मनोभावों का ज्ञान हो गया। मेरे चित्त-गत मलों का क्षय हो गया। बुद्ध के शासन में मैंने परिपूर्णता प्राप्त की। अपने योगबल से निर्मित चार घोड़ों से युक्त रथ पर आरूढ़ होकर मैं भगवान् बुद्ध के समीप उपस्थित हुई और मैंने उनकी चरण-वन्दना की।” ६. अनुपमा-साकेत नगर में मध्य नामक एक महाधनी श्रेष्ठी रहता था। उसे एक पुत्री थी जो रूप में अद्वितीय थी। इसीलिए वह अनुपमा के नाम से सुप्रसिद्ध हुई। उसने जब यौवन वयस में प्रवेश किया तब अनेक श्रेष्ठी, श्रेष्ठिपुत्र, राजपुत्र और महामात्य नै उसके पिता के समीप दूत के माध्यम से उसके साथ विवाह की इच्छा प्रकट की। उन्होंने अनुपमा के पिता को कहा कि वे उनकी पुत्री को तोल कर उसके आठ गुने अधिक रत्न बौद्ध भिक्षुणियों के गीत २८६ और सुवर्ण उसे प्रदान करने को प्रस्तुत है। परन्तु अनुपमा का स्वभाव से ही गृहस्थ-जीवन के प्रति अत्यधिक वितृष्णा थी। वह प्रव्रजित होकर सौगत पन्थ की अनुगामिनी होना चाहती थी। अपने पिता से उसने अपने महान् लक्ष्य का उल्लेख कर भगवान् बुद्ध के परम कल्याणकारी धर्मोपदेशपरक वचन सुने और तदनुरूप आचरण के द्वारा ज्ञान की पराकाष्ठा तक वह पहुँची। उसकी गाथा में उसके अपने अनुभव का आख्यान निहित है। महाऐश्वर्यशाली अभिजात कुल में मैंने जन्म ग्रहण किया। रूप और गुण में मैं सचमुच ही अनुपमा थी। कितने उच्च कुलोत्पन्न श्रेष्ठिपुत्रों और राजकुमारों ने मेरे साथ विवाह की आतुरता प्रकट की और मेरे पिता को स्वर्ण तथा रत्नराशि का प्रलोभन दिया। __परन्तु मैं विश्ववन्दनीय भगवान् बुद्ध के पावन दर्शन करने चली गयी। उनके पास पहुँच कर मैंने उनका दर्शन किया, पादाभिवन्दन किया और उनके उपदेश-वचन सुने। मैं कृतार्थ हो गई, धन्य हो गई। फिर, केशवपन करा कर मैंने प्रव्रज्या ग्रहण की। इस घटना को हुए छः रात्रियाँ व्यतीत हो गयीं। आज सातवीं रात्रि को मेरी अशेष वासनाओं का अन्त हो गया।”
अनुपमा
उच्चे कुले अहं जाता बहुवित्ते महद्धने। वण्णरूपेन सम्पन्ना धीता मज्झस्स अत्रजा।। सांहं दिस्वान सम्बुद्धं लोकजेटुं अनुत्तरं। तस्स पादानि वन्दिला एकमन्तं उपाविसिं।। सो मे धम्मं अदेसेसि अनुकम्पाय गोतमो। निसिन्ना आसने तस्मि फुसयिं ततियं फलं ।। (थेरीगाथा-पृ. १५.१६) १०. अम्बपाली-अम्बपाली का जन्म वैशाली के आम्रकानन में हुआ था। इसी से उसका नाम अम्बपाली रक्खा गया। वह अपने समय की अनुपम सुन्दरी थी। जब उसकी देहयष्टि में यौवन कुसुमित हो उठा, तब उससे विवाह करने के लिए वैशालिक गणों में परस्पर स्वर्धा उत्पन्न हो गयी। कलह को शान्त करने के लिए गणसभा के अध्यक्ष ने यह निर्णय किया कि वह किसी एक की वधू न होकर नगरवधू बन कर रहेगी। कालक्रम से अम्बपाली जब वृद्धा हो गयी तब एक बार वैशाली में भगवान् बुद्ध का शुभागमन हुआ था। वहाँ वे उसीके आम्रकानन में ठहरे थे। अम्बपाली ने उनके सम्मुख उपस्थित होकर उनका पादाभिवन्दन किया और भोजन हेतु उन्हें भिक्षुसंघ के साथ अपने प्रासाद में निमन्त्रित किया। भगवान् बुद्ध ने उसका निमन्त्रण स्वीकार किया और भोजन के बाद उसे सद्धर्म का उपदेश प्रदान किया। अम्बपाली ने अपना आम्रकानन भिक्षुसंघ को दान कर दिया। २६० गद्य-खण्ड तत्पश्चात् बौद्ध-सम्प्रदाय में प्रव्रज्या लेकर दीक्षित अपने पुत्र विमल कौण्डिन्य के धर्मोपदेश के अनुसार संसार से प्रव्रजित होकर उसने भिक्षुओं की जीवनचर्या अपना ली और अपना शेष जीवन धर्मसाधना में व्यतीत कर दिया। उसकी गाथा में जराजनित विक्षोभकारी शारीरिक विकृतियों के वर्णन की पृष्ठभूमि में भगवान बुद्ध के उपदेशवचन और त्रैकालिक सत्यता के प्रति उसकी अविचल निष्ठा अभिव्यक्त हुई है जो इस प्रकार है :
अम्बपाली
“काननं व सहितं सुरोपितं कोच्छ सूचितविचितग्ग सोभित। तं जराय विरलं तहिं तहिं सच्चवादिवचनमनजथा। कङ्कणं व सुकतं सुनिहितं सोभते सु मम कण्णपीलयो पुरे। ता जराय वलीहि पलम्बिता सच्चवादिकवचनम नजथा।। कञ्चनस्स फलकं व सुमद्धं सोभते सु कायो पुरे मम। सो वलीहि सुखुमाहि ओततो सच्चवादिवचनम नजथा।। एदिसो अहु अयं समुस्सयो जज्जरो बहुदुक्खानमालयो। सो पलेपपतितो जराघरो सच्चवादिवचनम नजथा” ।। (थेरी गाथा पृ. २४-२५) बौद्ध भिक्षुणियों द्वारा रचित गीतों का साहित्य एक ही स्वर में मुखरित है, और वह स्वर है निर्वाण की स्पृहणीयता। सांसारिक जीवन को विविध दुःखों और सन्त्रासों से अनुविद्ध पाकर विषसम्पृक्त भोजन की भाँति इन्होंने उसे परम हेय घोषित किया है। विश्वमैत्री, करुणा और अहिंसा पर प्रतिष्ठित भगवान् सुगत की शरणागति में ही इन भिक्षुणियों ने अपनी सद्गति का मार्ग ढूंढा है और अपनी अनन्य निष्ठा और ध्यान की एकाग्रता के बल पर इन्होंने अर्हत्पद की प्राप्ति की है। प्राचीन भारत के उस अतिचिरन्तन युग में सत्य के आलोक से उद्भासित निर्वाण के पथ पर सर्वस्व-परित्यागपूर्वक अग्रसर होनवाली इन काषाायवसना भिक्षुणियों के गीतों के उल्लेख के बिना महिला कवयित्रियों का परिचय अधूरा ही रह जाता है। यद्यपि इनके गीत संस्कृत में न होकर पालि भाषा में हैं, फिर भी उनका एक स्वतन्त्र महत्त्व और आकर्षण हैं और यही कारण है कि प्रसक्तानुप्रसक्त रीति का अनुसरण कर संस्कृत कवयित्रियों के विशद परिचय के परिशिष्टांश के रूप में उनकी रचनाओं की एक झलक यहाँ प्रस्तुत की गयी है।
सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची
१. ऋग्वेदसंहिता (सायणभाष्यसहित) मैक्समूलर-सम्पादित, चौखम्बा, १६६६ । २. वैदिक साहित्य और संस्कृति, पद्मभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय-प्रणीत बौद्ध भिक्षुणियों के गीत २६१ (पञ्चम संस्करण) शारदा संस्थान ३७-बी. रवीन्द्रपुरी दुर्गाकुण्ड, वाराणसी। ३. बृहद्देवता, (शौनक-प्रणीत) सम्पादक और अनुवादक-रामकुमार राय (बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी) चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी। ४. कन्ट्रीव्यूशन्स ऑफ वीमेन टु संस्कृत लिटरेचर, डॉ. यतीन्द्र विमल चौधरी, पी.एच. डी. (लन्दन) (कलकत्ता विश्वविद्यालय) ३-फेडरेशन स्ट्रीट, कलकत्ता। ५. वीमेन इन ऋग्वेद, भगवतशरण उपाध्याय एस. चाँद एण्ड कम्पनी (प्राइवेट लिमिटेड १६७४) रामनगर, नई दिल्ली-११००५५।। ६. थेरीगाथा, सम्पादक-एन. के. भागवत एम. ए. प्रोफेसर, सेन्ट जेवियर्स कालेज, बम्बई १६३७। ७. परमत्थदीपनी, (पालि टेक्स्ट सोसायटी) सम्पादक-मैक्समूलर, लन्दन, १८६३ । ८. साम्स ऑफ द सिस्टर्स, श्रीमती आर. डेविड्स द्वारा अंग्रेजी अनुवादात्मक संस्करण, लन्दन, १६०६। ६. ए हिस्ट्री ऑफ पील लिट्रेचर, बी.सी.ला. (प्रथम भाग ) लन्दन, १६३३। १०. कवीन्द्रवचनसमुच्चय, एफ. डब्ल्यू. टामस द्वारा सम्पादित बिब्लियोथिका इण्डिका (न्यू सीरीज) एशियाटिक सोसायटी ऑफ बङ्गाल, कलकत्ता, १६१२। ११. सदुक्तिकर्णामृत-श्रीधरदास-सङ्कलित, पण्डित श्रीरामावतारशर्मा द्वारा सम्पादित, बम्बई संस्कृत प्रेस, १६३३। १२. शाङ्गधरपद्धति-शाधरप्रणीत पी. पिटर्सन द्वारा सम्पादित, बम्बई, १८८६। १३. सुभाषितावली, वल्लभदेव सङ्कलित पी. पिटर्सन द्वारा सम्पादित, एडुकेशन सोसायटी प्रेस, बम्बई, १८८६। १४. हिस्ट्री ऑफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, एम. कृष्णमाचारियर-प्रणीत, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली-१६७४। १५. संस्कृत वाङ्मयकोष, श्रीधर भास्कर वर्णेकर-विरचित, भारतीय भाषा परिषद् कलकत्ता। १६. मिथिला इन द एज ऑफ विद्यापति, राधाकृष्ण चौधरी-विरचित चौखम्बा, वाराणसी, १६७६। १७. संस्कृत पोयटेसेज, डॉ. रमा चौधुरी ३, फेडरेशन स्ट्रीट, कलकत्ता, १६४१।
नीतिशास्त्र का इतिहास
स्वच्छ आचरण एवं आदर्श चरित्र का विज्ञान रूप नीतिशास्त्र भारतीय साहित्य का एक प्रधान अङ्ग है। इसमें शान्तिपूर्ण, सुखमय तथा उन्नतिकर जीवन जीने की कला का उपदेश अनुभव के आधार पर सरल भाषा तथा सुबोध शैली में छोटे-छोटे वाक्यों के द्वारा दिये गये हैं, जो अधिक हृदयग्राही होने से जन-जन के कण्ठों में सुरक्षित रहे हैं। __ संस्कृत साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थों में इस तरह के नैतिक उपदेश पुष्कल रूप में सङ्कलित है। महाभारत तो नीतिवचनों का खान ही है। यहीं से नितान्त लोकप्रिय विदुरनीति’ का उद्भव हुआ है। यहाँ गृहस्थ जीवन के लिए आवश्यक चार वस्तुओं का घर में होना आवश्यक कहा गया है-वृद्ध दूर के संबन्धी, विपन्न कुलीन व्यक्ति, दरिद्रमित्र तथा सन्तानरहित बहिन। सुरक्षा की दृष्टि से सन्तानहीन बहिन को अपने परिवार में रखने का निर्देश दिया गया है। चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रियाभिजुष्टस्य गृहस्य धर्मे। वृद्धो ज्ञातिरवसन्नः कुलीनः सखा दरिद्रो भगिनी चानपत्या।। केवल भोजनाच्छादन पर निर्भर इन चारों के रहने से घर की सुरक्षा एवं गृहकार्य कुशलतापूर्वक सम्पन्न हो सकता है। वेतन के बिना भृत्यत्व का निर्वाह इन सबों से स्वतः ही संभव होगा। __आरोग्य, ऋण से ग्रस्त नहीं रहना, अप्रवास, सज्जनों के साथ उठना-बैठना, आश्रितों का पालन और भयरहितवास जीवलोक के सुख कहे गये हैं आरोग्यमानृण्यमविप्रवासः सद्भिर्मनुष्यैः सह सम्प्रयोगः। स्वप्रत्ययावृत्तिरभीतवासः षङ्जीवलोकस्य सुखानि राजन् ।। _इसी तरह कहा गया है कि मनुष्यों को निम्नोक्त छह गुणों का कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए-सत्य, दान, अनालस्य, अनसूया, क्षमा और धैर्य। षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्या कदाचन। सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः।। रामायण, भागवत तथा अन्य पुराणों के साथ बौद्ध तथा जैन साहित्यों में भी नीतिवचनों की भरमार है। सुभाषितसंग्रह तथा अन्योक्तिपरक काव्यों में भी नीतिवचन १. महाभारत उद्योगपर्व ३३ से ४० अध्याय। २६३ नीतिशास्त्र का इतिहास उपलब्ध होते हैं, किन्तु प्राचीनकाल से ही स्वतन्त्र रूप से भी नीतिशास्त्रीय ग्रन्थों के प्रणयन की परम्परा रही है, जो आज हमलोगों के समक्ष विद्यमान हैं। - प्रो. लुडविक् स्टर्नवाख महाशय का कहना है कि भारतीय मनीषियों ने मानव-प्रकृति की दुर्बलताओं को समझकर उन पर विजय पाने तथा जीवन की जटिल परिस्थितियों से मुक्ति हेतु धैर्यपूर्वक सदासार परिपालन का सही निर्देश दिया है। भारतीय चिन्तकों का यह दृढ विश्वास रहा है कि मनुष्य का वर्तमान जीवन इसके पूर्वजन्मार्जित कर्मों का फल है और वर्तमान कर्म ही उसके भविष्यद् जीवन के निर्माण में सहायक होगा। फलतः अग्रिम जीवन में शुभ फलों की प्राप्ति हेतु वर्तमान जीवन में नीतिपूर्ण आचरण आवश्यक है। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु नीतिशास्त्र का उद्भव हुआ जो सूक्ति, सुभाषित, छन्दोबद्ध नीतिवाक्य तथा लोकोक्तियों के रूप में यथाक्रम विकसित होता रहा है। _ अनुष्टुप् छन्दों में अधिकतर निबद्ध नीतिवचन दीर्धकाल से लोककण्ठों में सुरक्षित रहे हैं। आरम्भ में वे लिपिबद्ध होकर किसी एक ग्रन्थ में सङ्कलित नहीं हो पाये थे। अवसर-विशेष में प्रसङ्ग आने पर संबद्ध सूक्तियाँ विद्वानों के द्वारा कुशलतापूर्वक उल्लिखित होती रही हैं। नीतिवचनों में केवल हितकर, सुन्दर तथा विवेकपूर्ण विचार ही नहीं अपितु उनकी अभिव्यक्ति भी आकर्षक, स्पष्ट और हृदयग्राही होती रही है। जीवन के विविध मार्मिक प्रसङ्गों को लेकर सटीक शब्दों में कर्तव्याकर्तव्य का उपदेश, सूक्ष्म विचार, व्यङ्ग्य-विनोद तथा विविध प्रकार की संवेदनाओं की अभिव्यक्ति यहाँ दर्शनीय है। अतएव सार्वभौम सत्य के निदर्शक ये नीतिवचन सर्वत्र समानरूप से सर्वदा समादृत होते रहे हैं। बौद्ध विद्वानों के अनुसार सुन्दर शब्दों में वर्णित वे उपदेश नीतिवचन हैं, जिनमें धर्म का वर्णन है अधर्म का नहीं। सत्य का अभिधान है असत्य का नहीं। अतएव धम्मपद तथा बोधिचर्यावतार आदि नीतिशास्त्र में परिगणित किये जा सकते हैं। जैन धर्मावलम्बियों का स्थानाङ्ग भी इसी कोटिका है। __ यद्यपि लोक-कण्ठों में विद्यमान इन नीतिवचनों के मूल रचयिता का परिचय उपलब्ध नहीं है तथापि आज हम लोगों के समक्ष विद्यमान इस नीतिशास्त्र के रचयिता के रूप में प्राचीन दो प्रमुख विद्वानों का नाम आदर के साथ लिया जाता रहा है। इनमें प्रथमतः उल्लेखनीय हैं कालजयी राजनीतिवेत्ता चाणक्य और अपर नाम है भर्तृहरि, जिनका नीति आदि शतकत्रय अधिक लोकप्रिय हुआ। नीतिशास्त्र के सबसे प्राचीन तथा स्वतन्त्र ग्रन्थ चाणक्यनीतिदर्पण में यद्यपि मनुस्मृति, महाभारत तथा मार्कण्डेयपुराण आदि के पद्य भी उपलब्ध होते हैं तथापि महान् राजनीतिवेत्ता कालजयी पुरुष चाणक्य को इस नीतिदर्पण के रचयिता कहना शायद समाजसुधारक के रूप में भी इनकी ख्यापि को प्रमाणित करता है। शताब्दियों से सांसारिक ज्ञान एवं दूरदृष्टि के लिए चाणक्यनीति विख्यात रही है। कामन्दक के नीतिसार में चाणक्य २६४ . गद्य-खण्ड के प्रति जो सम्मान दिखाया गया है इससे स्पष्ट है कि उस समय में व्यवहार तथा नीति के क्षेत्र में चाणक्य सर्वाधिक प्रतिष्ठित रहे हैं। इनके नीतिवाक्य मुक्तक पद्य की तरह अपने में सर्वधा परिपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए दो एक पद्य यहाँ उद्धृत हैं -यथा उद्योग करने पर दारिद्र्य नहीं रहता, जप करने वालों को पाप नहीं होता, मौन रहने पर कलह नहीं होता और जागते रहने पर भय नहीं होता है - उद्योगे नास्ति दारिद्र्यं जपतो नास्ति पातकम्। मौने च कलहो नास्ति नास्ति जागरतो भयम्।। शुष्कमांस, वृद्धा स्त्री, उदयकालिक सूर्य, पुराना दही, प्रातः काल की रतिक्रीडा तथा निद्रा ये छह सद्यः प्राण हरण करने वाले होते हैं - शुष्कं मांसं स्त्रियो वृद्धा बालार्कस्तरुणं दधि। प्रभाते मैथुनं निद्रा सद्यः प्राणहराणि षट् ।। यहीं कहा गया है कि संसार के ताप से जले हुए लोगों के लिए तीन विश्रामस्थल हैं, पुत्र, पत्नी तथा सज्जनों का समागम। संसारतापदग्धानां त्रयो विश्रान्तिहेतवः। अपत्यं च कलत्रं च सतां सङ्गतिरेव च।। विदुरनीति में जैसे मनुष्य के छह गुण बताए गये हैं उसी तरह यहाँ कल्याणकामी मानव को छह दोषों से बचने के लिए कहा गया है-निद्रा, तन्द्रा, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता। इनसे लोगों को सदेव बचना चाहिए षड्दोषा पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।। निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।। यद्यपि कहीं-कहीं एक ही तथ्य को विभिन्न दृष्टियों से यहाँ प्रस्तुत किया गया है तथापि उनमें पुनरुक्ति दोष की प्रतीति नहीं होती। अनेक विद्वानों का कहना है कि चाणक्य ने कुछ ही नीतिवाक्यों की रचना की थी। पश्चात् उसको आधार मानकर नीतिपद्य या नीतिवाक्य लिखने की एक परम्परा चल पड़ी, जिसका र्निवाह समय-समय पर विद्वान् रचनाकारों के द्वारा होता रहा है और उन पद्यों या वाक्यों के साथ चाणक्य का नाम जुड़ता रहा है। फलतः नीतिपरक रचनाओं का एक संग्रह है चाणक्यनीति, जिसका रचयिता अकेला चाणक्य नहीं अपितु भारतीय जीवन के आदर्श को परखने वाले अनेक कुशाग्रबुद्धि विद्वान् हुए हैं। लोकजीवन की व्यवस्था के २६५ नीतिशास्त्र का इतिहास अभिन्न अङ्ग की तरह मान्य यह चाणक्यनीतिसंग्रह सर्वत्र भारत में पाठ्य के रूप में समादत हआ। फलतः इसके असंख्य हस्तलेख यत्र-तत्र उपलब्ध होते रहे हैं। इस संग्रह की प्रतिलिपि के समय विद्वानों ने अपनी रुचि से पाठ का परिवर्तन-परिवर्धन या संशोधन भी किया है जिससे मूलपाठ को पहचानना ही पश्चात् असंभव हो गया। खुष्टीय बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ओक्रेस्लर महाशय ने चाणक्यनीति पर अपना शोध निबन्ध प्रस्तुत कर विद्वानों का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया। इन्होंने सत्रह हस्तलेखों के आधार पर इसका प्रामाणिक संस्करण भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया। पश्चात् इस शताब्दी के चतुर्थ चरण में लुडविक स्टर्नवाख महाशय ने तीन सौ से अधिक मातृकाओं का संग्रह एवं परीक्षण कर तथा क्रेस्लर साहब के संस्करण की सहायता से छह पाठों में विभक्त कर चाणक्यनीतिसंग्रह का प्रामाणिक संस्करण विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान होशियारपुर से प्रस्तुत किया है। प्रो. स्टर्नवाख महाशय का दीर्घकाल-साध्य परिश्रम, अनुसन्धान बुद्धि, धैर्य तथा भारतीय विद्या के प्रति अनुराग सर्वथा श्लाघनीय है। इन्होंने अपने इस दीर्घकाल-साध्य परिशीलन को चाणक्यनीतिशाखा-सम्प्रदाय नाम से अभिहित किया है। इस ग्रन्थ के दो पाठ वृद्ध चाणक्य नाम से, एक चाणक्यनीतिशास्त्र नाम से, एक चाणक्यसारसंग्रह नाम से, एक लघुचाणक्य नाम से तथा अन्तिम चाणक्य राजनीतिशास्त्र नाम से क्रमशः प्रकाशित हुए हैं। इन सभी पाठों के आधार पर इस ग्रन्थ के मूलपाठ के निर्णय का प्रयास भी यहाँ किया गया है। १. चाणक्यनीतिदर्पण नाम से प्रसिद्ध वृद्ध चाणक्य का प्रथम या अलङ्कृत पाठ में तीन सौ बयालिस श्लोक संकलित हैं, जो सत्रह अध्यायों में विभक्त हैं। २. इसके दूसरे या सामान्य पाठ में केवल आठ अध्याय तथा १०६ से १७३ पद्य संकलित हैं। यह प्रथम पाठ का एक तरह से संक्षिप्त रूप है। दोनों ही पाठों में भूमिका के रूप में आरम्भ में तीन पद्य कहे गये हैं, जहाँ शैली में कोई भेद नहीं प्रतीत होता है। इसका तीसरा पाठ चाणक्यनीतिशास्त्र नाम से परिचित है। चाणक्यशतक भी इसी का नामान्तर है। यहाँ आरम्भ के दो पद्यों में इसका गुणगान इस प्रकार किया गया है। यह ग्रन्थ नानाशास्त्रों से उद्धृत राजनीतिका समुञ्चय है तथा सभी शास्त्रों के बीच यहाँ निहित है। चाणक्य द्वारा कहे गये इस मूलसूत्र के ज्ञान से मूर्ख भी विद्वान् बन जाता है। ३. नाना शास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीतिसमुच्चयम्। सर्वबीजमिदं शास्त्रं चाणक्यं सारसंग्रहम् ।। मूलसूत्रं प्रवक्ष्यामि चाणक्येन यथोदितम्। यस्य विज्ञानमाश्रेण मूर्यो भवति पण्डितः।।२६६ गद्य-खण्ड इस पाठ में अनुष्टुप्छन्द में निबद्ध केवल एक सौ आठ पद्य विद्यमान हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार आचार्य बलदेव उपाध्याय का कहना है कि चाणक्यनीतिका यही मूलपाठ रहा होगा, अतः इसे प्राचीनतम तथा प्रथमपाठ मानना चाहिए। अष्टोत्तरशत की संख्या भारतीय अवधारणा में माङ्गलिक मानी गयी है, संभव है इसी वासना से लेखक ने इसे यहाँ अपनाया होगा। ४. चतुर्थ पाठ का नाम चाणक्यसारसंग्रह है। भारत के पूर्वोत्तरक्षेत्र तथा नेपाल में इस पाठ का अधिक प्रचार पाया जाता है। इसमें अनुष्टुप् छन्द के तीन सौ श्लोक संगृहीत हैं, जो शतकत्रय में यथाक्रम विभक्त हैं। यहाँ मंगल के चार पद्य उपलब्ध हैं, दो वृद्धचाणक्य के मंगल पद्य से मिलते जुलते हैं, तीसरा पद्य भिन्न प्रकार का है और चौथा चाणक्यनीतिशास्त्र के दूसरे पद्य के समान है। इसमें लोकनीति के साथ राजनीति के भी विस्तृत उपदेश दिये गये हैं। इसके अध्ययन से कार्य-अकार्य, शुभ-अशुभ, धर्म-अधर्म आदि के साथ विनय का ज्ञान भी सुलभतया संभव है। यहाँ अन्तिम पद्य में सारचतुष्टय की शिक्षा के समय काशीवास का महत्त्व ख्यापित किया गया है। इस असार संसार में चार वस्तुएँ ही सार रूप में विद्यमान हैं, काशी में वास, सज्जनों की सङ्गति, गङ्गाजल और भगवान् शिव की सेवा। असारे खलु संसारे सारमेतच्चतुष्टयम् । काश्यां वासः सतां सङ्गः गङ्गाम्भः शम्भुसेवनम् ।। आचार्य बलदेव उपाध्याय का कहना है कि इस संग्रह का संग्राहक निश्चय ही कोई काशीवासी अथवा काशी के प्रति निष्ठावान् व्यक्ति रहा होगा, क्योंकि उक्त सारचतुष्टय काशी में ही सुलभ है। कर ५. इसका पञ्चम पाठ लघुचाणक्य नाम से प्रसिद्ध है। यह भारत की अपेक्षा युरोप में गत शताब्दी से ही अधिक लोकप्रिय रहा है। तिरासी से सन्तानवे तक पद्य यहाँ संकलित हैं, जो आठ अध्यायों में विभक्त हैं और प्रत्येक अध्याय में दश से तेरह तक पद्य विद्यमान हैं। कुछ विद्वानों की दृष्टि में सबसे अधिक उपयोगी यही संग्रह है। गेलेनोस नामक युनानी संस्कृतज्ञ ने इसके मूल संस्कृत से युनानी भाषा में अनुवाद कर सृष्टीय उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ही इसे प्रकाशित किया था जो क्रमशः अन्य अनुवादों के माध्यम से सम्पूर्ण युरोप में लोक-प्रिय हुआ। यहाँ भी वृद्धचाणक्य के आरम्भ में उपलब्ध तीन मङ्गल पद्य अविकल रूप से सुरक्षित हैं। ६. सर्वाधिक विशाल संग्रह इसका षष्ठ पाठ चाणक्यराजनीतिशास्त्र नाम से प्रसिद्ध है। आठ अध्यायों में विभक्त पाँच सौ चौतिस श्लोकों के इस संग्रह में तीन सौ सन्तानवे १. द्रष्टव्य संस्कृत साहितय का इतिहास पृ. २८६ (आ. बलदेव उपा.) नीतिशास्त्र का इतिहास २६७ पद्य केवल यहीं उपलब्ध हैं अन्य पाँच पाठों में नहीं। चूँकि चतुर्थ और पञ्चम अध्यायों में वर्णित विषयों का सम्बन्ध मुख्यरूप से राजनीति से है, अतः राजनीतिशास्त्र इसका नामकरण अन्वर्थक है। यहाँ चतुर्थ अध्याय में राज तथा इसके व्यवहार का उपदेश है और पञ्चम अध्याय में राजा के सेवक, मन्त्री, पुरोहित तथा सेनापतिआदि के कर्तव्य का वर्णन और कर वसूल करने की प्रणाली आदि निर्दिष्ट हैं। यह पाठ यद्यपि भारत में बहुत प्रचारित नहीं हो पाया तथापि हजारों वर्ष पूर्व भारत से बाहर इसकी लोकप्रियता का प्रमाण तिब्बती तन्जूर में किया गया सृष्टीय नवमशतक का अनुवाद है। चूँकि प्रसिद्ध कादम्बरी के पद्य-अकारणाविष्कृतवैरदारुणात् आदि पद्य यहाँ उद्धृत हैं अतः इसका समय सृष्टीय सप्तम शतक के पश्चात् ही मानना होगा किन्तु क्रमशः सृष्टीय दशमशतक में यह अपने चरम उत्कर्ष पर विद्यमान था। इस समय तक इसके तिब्बती अनुवाद का भी पूरा प्रचार एवं आदर हो चुका था। ऐतिहासिकों का मानना है कि सुभाषित संग्रहों में तथा गरुडपुराण की बृहस्पतिसंहिता में इसी पाठ से पद्यों का संग्रह किया गया है। इससे इस पाठ का महत्त्व भारत में भी कुछ कम नहीं प्रतीत होता है। प्रो. लुडविक स्टर्नवाख महाशय ने उपर्युक्त इन छह पाठों के आधार पर चाणक्यनीति के मूलरूप का अनुसन्धानपूर्वक संघटन बड़े परिश्रम तथा विवेक से किया है। इनके अनुसार चाणक्यनीति के मूलग्रन्थ में १११६ श्लोक हैं, जबकि चाणक्य के नाम से सुभाषितसंग्रहों में विकीर्ण पद्यों की संख्या दो सहन से भी अधिक हैं - ऐसा आचार्य बलदेव उपाध्याय ने अपने इतिहास में कहा है। अभिप्राय यह है कि चाणक्यनीति भारतीय साहित्य का एक विशिष्ट ग्रन्थरत्न है, जिसका प्रचार मानव जीवन के सुधार के लिए तथा राजाओं को नीतिशिक्षा के लिए भारत तथा भारत से बाहर भी व्यापक रूप में दीर्घकाल से होता रहा है इसी से इसकी लोकप्रियता आँकी जा सकती है। चाणक्यनीति के मूल एवं उपबृंहण की समस्या आज भी पूर्णतः समाहित नहीं हो सकी है, न तो इसके वास्तविक प्रणेता के प्रसङ्ग में इदमित्थंतया कुछ कहा जा सकता है।
भारत से बाहर चाणक्यनीति का प्रसार
भारतीय संस्कृति के द्वीपान्तर में प्रवेश तथा प्रसार के साथ नीतिवचन तथा सुभाषितों का भी प्रवेश तथा प्रसार हुआ है। बृहत्तर भारत के देशों में ये सुभाषित या नीतिवचन इतनी सुन्दरता से प्रविष्ट हो गये हैं कि वहाँ के निवासी अपने ज्ञानवर्धन हेतु निरन्तर इनका आश्रय लेकर जीवन को सुखमय तथा शुभमय बनाते रहे हैं। इन नीतिमयी सूक्तियों की लोकप्रियता बृहत्तर भारत के समस्त देशवासियों में देखी जाती है। तिब्बती, मंगोली, मंचुरियन, नेपाली, सिंघली, वरमी, सियामी, चाम रूमेर, जाबा तथा बाली निवासियों में गद्य-खण्ड २६८ इनका व्यापक प्रचार देखा जाता है। पहले ही कहा जा चुका है कि तिब्बती के प्रख्यात ग्रन्थ समुच्चयतन्जूर में चाणक्यनीतिमयी सुक्तियाँ उपलब्ध हैं। मसुराक्ष नामक विद्वान् का नीतिशास्त्र चाणक्यराजनीतिशास्त्र का सम्पूर्णतः अनुवाद है। विमलप्रश्नोत्तररत्नमाला, सुभाषितरत्ननिधि तथा शेखदौगबू नामक ग्रन्थों में भी नीतिपरक सूक्तियाँ संगृहीत हैं। इस मूल संस्कृत के तिब्बती अनुवाद का अनुवाद मंगोल, पश्चिमी मंगोल तथा मनचूरिया की भाषा में भी किया गया है। इस तरह चाणक्यनीति चीन के रास्ते अन्य देशों के विभिन्न प्रदेशों की भाषाओं में भी प्राप्त है, जिससे इस भाषा के लोग भी चाणक्य की उदात्तनीतियों से पूर्ण परिचित हो सके। सिंघली साहित्य भी चाणक्यनीतियों से परिचय रखता है। सम्पूर्ण चाणक्यनीतिशास्त्र सिंघली साहित्य में उपलब्ध है। दो बहुमूल्य भारतीय नीतिपरक ग्रन्थ सिंधली साहित्य में उपलब्ध हैं व्यासकारय और प्रत्ययशतकय। चाणक्यनीति तथा भर्तृहरिशतक के पद्य यहाँ व्यासकारय में संकलित हुए है तथा प्रत्ययशतकय में भी चाणक्यनीति, पञ्चतन्त्र तथा हितोपदेश के पद्य अधिकतर मिलते हैं। सिंघली भाषा में उपलब्ध सुभाषित संस्कृत मूलक ही पाये जाते हैं जो तमिल भाषा के माध्यम से वहाँ तक पहुँच पाये हैं। वर्मा में भी चाणक्यनीति खूब लोकप्रिय हुई। ये सूक्तियाँ वरमीभाषा में पालिसाहित्य के लोकनीतिनामक ग्रन्थ से संगृहीत हैं। लोकनीति का वर्मी अनुवाद नीति में चाणक्यनीतिशास्त्र सम्पूर्ण रूप से उपलब्ध है। वर्मा की लोकनीति नामक पालिग्रन्थ थाईलैण्ड, चाम तथा रूमेर की संस्कृति में भी प्रविष्ट है। थाईदेशवासियों में चाणक्यनीति का तीसरा पाठ पूर्ण लोकप्रिय है। चम्पा, कम्बुज, लाओस तथा मलय देश में भी पालि लोकनीति प्रचलित रही है। प्राचीन जाबा साहित्य में ये नीतियाँ मूल संस्कृत से सीधे आयी हैं, किन्तु अन्य देशों में इस चाणक्यनीति का प्रवेश पालि भाषा के माध्यम से हुआ है। भारत के पश्चिम में भी फारस देशवासियों ने चाणक्यनीतिशास्त्र का फारसी में अनुवाद किया है तथा स्पेन के एक विद्वान् ने खुष्टीय द्वादश या त्रयोदश शतक में इसका अरबी अनुवाद प्रस्तुत किया था। फलतः चाणक्यनीति की यह भ्रमणकथा इसकी उपादेयता, व्यावहारिकता तथा लोकप्रियता का साक्षात् उदाहरण मानी जा सकती है। पहले ही कहा जा चुका है कि महान् राजनीतिवेत्ता चाणक्य के बाद नीतिग्रन्थों के रचयिताओं में दूसरा नाम भर्तृहरि का उल्लेख योग्य है। विविधता, विशदता, सरलता तथा आलङ्कारिक कल्पना आदि पर पूरा अधिकार रखनेवाला इस कवि ने संस्कृत जैसी नियमबद्ध भाषा में अपनी कृति-शतकत्रय, नीति, श्रृङ्गार तथा वैराग्यशतक-का प्रणयन कर प्राचीन भारतीय साहित्यकारों की प्रथम पंक्ति में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है। वाक्यपदीय के रचयिता वैयाकरण भर्तृहरि से भिन्न इस शतकत्रय के प्रणेता भर्तृहरिका समय डॉ. डी.डी. कौशाम्बी महाशय ने वृष्टीय प्रथमशतक युक्ति तथा प्रमाणों के बल पर नीतिशास्त्र का इतिहास ૨૬૬ निर्धारित किया है, जो ऐतिहासिकों को भी मान्य है। यद्यपि इनकी कृति में नीति से अधिक नीतिबोधक उपदेश लम्बे छन्दों में उपलब्ध हैं तथापि चाणक्यनीति की तरह की यह कृति भी पर्याप्त लोकप्रिय हुई तथा नैतिक शिक्षा इससे भी मिलती ही रही है। दो सौ से भी अधिक उपलब्ध संस्करण इसकी लोकप्रियता का साक्षात् प्रमाण है, उनमें प्रो. डी. डी. कौशाम्बी का सामीक्षिक संस्करण विद्वानों में अधिक समादृत हुआ। इन्होंने ३७७ मातृकाओं के आधार पर पूर्ण परिश्रम एवं विवेक से अपना संस्करण प्रस्तुत किया है। यद्यपि शतकत्रय नामकरण के आधार पर इनमें तीन सौ पद्य ही अपेक्षित हैं तथापि इसका लगभग तीन गना अधिक पद्य सम्पादन के समय सम्पादक को उपलब्ध हुए थे, जिनमें केवल दो सौ ही ऐसे पद्य थे, जो सभी मातृकाओं में समान रूप से उपलब्ध थे। भर्तृहरि ही शायद पहले कवि हैं जिन्होंने सत्रहवीं शताब्दी में ही यूरोप के विद्वानों के बीच प्रसिद्धि पायी। उस समय पद्मनाभनामक पण्डित ने अब्राहमरोजर को इस शतकत्रय का अभिप्राय समझाया था।’ भर्तृहरि के नाम से निर्दिष्ट कुछ और कृतियाँ मिलती हैं। इनमें ८४ पद्यो में निबद्ध ‘विटवृत्त नामक कृति में विट, धूर्त आदि से बचने के लिए सांसारिक उपदेश दिये गए हैं। ‘विज्ञानशतक'३ १०३ मुक्तक पद्यों में विरचित है। ‘राहतकाव्य’ तथा ‘रामायण में २२ पद्य हैं। किन्तु विटवृत्तादि उपर्युक्त रचनाएँ शतकत्रयादि के प्रणेता भर्तृहरि के नहीं है। महाकवि शिल्हण का ‘शान्तिशतक’ भूर्तृहरिके वैराग्यशतक का पूर्णतः अनुसरण करता है। इसके चार परिच्छेदों में विभिन्न छन्दों में विरचित १०४ श्लोक हैं। K. Schonfeld ने सर्वप्रथम आलोचना के साथ १६१० ई. में इसका सम्पादन किया था। उन्होंने इसे दो श्रेणियों में विभक्त किया है। वे इसके १०४ श्लोकों को भौतिक मानते हैं और १८ श्लोक शिल्हण-कृत होने में सन्देह करते हैं। १८१७ ई. से लेकर आजतक शान्तिशतक के १५ से अधिक संस्करण हो चुके हैं। इससे इसकी लोकप्रियता प्रमाणित होती है। शान्तिशतक के अनेक श्लोक भर्तृहरि के वैराग्यशतक’ से लिए गए हैं, या उनके आधार पर लिखे गए हैं। इसके अतिरिक्त श्रीहर्ष के नागानन्द,६ बिल्हण-काव्य तथा १. द्रष्टव्य History of Indian Litrature वाल्यूम ४ भाग। पृ. ५०-५१ २. एम.एस. मद्रास MSS Library. No. /D ११६८३ द्र. Ludwik Stirnbach कृत Gnomic And Didactic Peotry ३. भर्तृहरि-शतकादित्रय के साथ १८६७ में नागपुर से प्रकाशित। द्र. वही पृ. ५४ ४. वही पृ. ५४ ५. प्र. वही पृ. ५५ फुटनोट संख्या- २७८ तथा २७६ ६. प्र. वही पृ. ५५ फुटनोट संख्या- २७८ तथा २७६ ७. शान्तिशतक श्लोक संख्या ॥, ५ = बिल्हन काव्य ५३ ३०० गद्य-खण्ड हितोपदेश’ से भी कतिपय नीति-श्लोक लिए गए हैं। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि शान्तिशतक एक संकलनात्मक कृति है। यह शिल्हण की स्वतन्त्र रचना है। शिल्हण काश्मीर के निवासी थे। यह इनके नाम से ही स्पष्ट है। इनके शिल्हण, शिलहण, सिल्हण, सिहलण के साथ बिल्हण नाम भी मिलते हैं। लक्ष्मण भट्ट-आकोलकर अपनी पद्यरचनामें शान्तिशतक से गृहीत पद्योंको बिल्हणविरचित बतलाते हैं। इससे प्रतीत होता है कि शिल्हण और बिल्हण एकही व्यक्ति हैं। इनके कतिपय पद्य सदुक्तिकर्णामृत (१२०५) में संगृहीत हैं। अतः इनका समय बारहवीं शताब्दी के आसपास माना जाता है। __इसी प्रसङ्ग में उन परवर्ती कृतियों का भी उल्लेख करना समुचित है जो भर्तृहरि के शतकत्रय के आदर्शपर विरचित हैं। इनमें धनदराजकृत शतकत्रय-शृङ्गारशतक, नीतिशतक और वैराग्यशतक’ में क्रमशः १०३, १०३ तथा १०८ श्लोक हैं। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर धनदराज के शतकत्रय में वह हृदयस्पर्शी भाव-गाम्मीर्य नहीं है जो भर्तृहरि के शतकत्रय में मिलते हैं। धनदराज के पिता का नाम देहल था। १४३४ ई. में इन्होंने अपने शतकत्रय की रचना की थी। __ जनार्दनभट्ट ने भी उसी आदर्श पर शृङ्गारशतक तथा वैराग्यशतक की रचना की थी। इनके प्रत्येक शतक में १०१ श्लोक हैं। इन्होंने शृङ्गारशतक को अत्यधिक सरस और मांसल बनाने का प्रयास किया है। कवि नरहरि-विरचित ‘शृङ्गारशतक’ में ११५ श्लोक हैं। यह भी काव्यमाला के खण्ड १२ में प्रकाशित है। संस्कृत साहित्य के इतिहास में नरहरि नाम के अनेक व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है। उपर्युक्त शृङ्गारशतक किस नरहरि की रचना है यह इदमित्थंतया कहना कठिन है। व्याकरण, दर्शन तथा साहित्यशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र नारायणदीक्षित के सुपुत्र परम विश्रुत अप्पय दीक्षित ने २०१ श्लोकात्मक ‘वैराग्यशतक'५ की भी रचना की थी। ये पण्डितराज जगन्नाथके समकालीन थे। इनका समय १६वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और १७वीं का पूर्वार्द्ध माना जाता है। वैराग्यशतक भक्ति और वैराग्य से ओत-प्रोत उच्च कोटि की रचना है। १. शान्तिशतक ||, २३ = हितोपदेश ४, ६७ २. Ludwik Sternbach के अनुसार शिल्हण का समय ११३० से १२०५ के बीच मानना उचित है। वही पृ. ५५ ३. काव्यमाला त्रयोदश गुच्छक द्र. वही पृ. ५६ ४. काव्यमाला गुच्छक ११ और १३ । वही पृ. ५६ ५. काव्यमाला प्रथम गुच्छक, पृ. ६१-६६ नीतिशास्त्र का इतिहास ३०१ भर्तृहरि के शतकत्रय के प्रतिरूप प्राकृतभाषा में चार सौ गाथाओं का एक संग्रह है। इसे वैरोचन नामक एक बौद्ध दार्शनिक ने ‘रसिअपञसन’ शीर्षक से संकलित किया था।’ पण्डितराज जगन्नाथ का ‘भागिनीविलास’ भी बहुत कुछ शतकत्रय के ही आदर्श पर विरचित है। इसमें चार विलास हैं। नीति और अन्योक्तिपरक प्रास्ताविक विलास में १२६, द्वितीय शृङ्गार विलास में १८३, तृतीय करुणा विलास में २६ और अन्तिम शान्त विलास में ४६ श्लोक हैं। भामिनीविलास के पद्य पण्डितराज के कवि-कर्मकौशल के चूड़ान्त निदर्शन हैं। उनके जीवन के विभिन्न अनुभवों के दर्पण हैं। अपनी प्रियतमा भामिनी के मनोभावों का अभिव्यञ्जन जो उन्होंने शृङ्गार विलास में किया है उसमें भावाभिव्यक्ति की पराकाष्ठा है। आन्ध्र प्रदेशीय मुगुज ग्राम वास्तव्य पेरु भट्टात्मज पण्डितराज जगन्नाथ (१६वीं शताब्दी) तैलङ्ग ब्राह्मण थे। वे अनेक शास्त्रों के विज्ञाता, प्रणेता तथा विशिष्ट विवेकी आलोचक थे। जैनाचार्य अमितगति (द्वितीय) द्वारा संकलित ३२ अध्यायों में विभक्त एक विशिष्ट कृति है - है ‘सुभाषितरत्नसन्दोह’ । इसमें ६२२ श्लोक हैं। १०वीं-११वीं शताब्दी में इसका संकलन हुआ था। इसमें जैनधर्म के नियम, उपदेश, आचरण आदिका एक-एक अध्यायमें वर्णन किया गया है। एक अध्याय में एक ही छन्द का प्रयोग हुआ है, जो पूर्व-पूर्व प्रयुक्त छन्दों से भिन्न है। सुभाषित-संग्रहों की तालिका में एक संग्रह है ‘शतकावली’। इसमें अमरुशतक, शान्तिशतक, सूर्यशतक, भर्तृहरि-शतक आदि के श्लोक संकलित हैं। नीत्युपदेशात्मक पद्यों के प्रसङ्ग में ‘अमरुशतक’ के भी पद्य संगृहीत है, इससे सिद्ध होता है कि शृङ्गार प्रधान होने पर भी इसकी गणना नीत्युपदेशात्मक कृतियों में भी होती है। इसके अनेक पद्य उपदेशपरक हैं ही। निम्नलिखित पद्य में द्रष्टव्य है जो भावी प्रोषित-पतिका अपने जीवन को उपदेश दे रही हैं। १. जर्नल आफ दि एशियाटिक सोसाइटी, बंगाल, १६१०, पृ. १६७-१७८ । २. खेमराज श्रीकृष्णदास, श्रीवेङ्कटेश्वर प्रेस, मुम्बई, १९६३ ई. भामिनीविलास के अनेक 1 संस्करण उपलब्ध हैं, जिनमें श्लोक-संख्या भिन्न-भिन्न है। ३. भामिनीविलास, द्वितीय विलास, १५-२७, ६२।। ४. जैनिष्टिक लिटरेचर, एल. स्टर्नबाख, (महावीर और उनकी शिक्षा) Mahavir and hie Teaching __स्मृति ग्रन्थ, मुम्बई १६७४ ई.. ५. वङ्गाक्षर में कलकता से प्रकाशित, १८५० ई. द्र.| History of Indian Litrature Vol.-IV, P.३३ ३०२ गद्य-खण्ड प्रस्थानं वलयैः कृतं प्रियसखै रौ रजस्रं गतं धृत्या न क्षणमासितं व्यवसितं चित्तेन गन्तुं पुरः। यातुं निश्चितचेतसि प्रियतमें सर्वे समं प्रस्थिता-गन्तव्ये सति जीवित ! प्रिय सुहृत्सार्थः किमु त्यज्यसे।। प्रियतम के जाने पर मेरे प्राण! तुम्हे जाना ही है तो फिर अपने जाते हुए इन मित्रों का साथ क्यों छोड़ते हो? इस मार्मिक उपदेश को सहृदय भलीभाँति जानते हैं। लिखन्नासते भूमिं बहिरवनतः प्राणदयितो निराहाराः सख्यः सतत रुदितोच्छून नयनाः। परित्यक्तं सर्वं हसित पठितं पञ्जर-शुकै स्तवावस्था चेयं विसृज कठिने ! मानमधुना।। यहाँ मानिनी नायिका को शीघ्र मान छोड़ने का कितना सुन्दर उपदेश है। काव्य प्रकाश में इसे उत्तम काव्य का उदाहरण माना गया है। इस पर अर्जुनवर्मदेव (१३वी शताब्दी) की ‘रसिकसञ्जीवनी’ नामकी और वेम भूपाल की ‘शृङ्गारदीपिका’ नामकी टीका अति प्रसिद्ध है। ‘कुट्टनी-मत" कविवर दामोदर गुप्त की सरस मनोरम उपदेशात्मक काव्य की अनूठी रचना है। ये काश्मीरनरेश जयापीड (७७६-६१३ ई.) के प्रधान अमात्य थे। तत्कालीन काश्मीर का राजनैतिक इतिहास समाज की विशृङ्खल तथा अनियन्त्रित परिस्थिति को बतलाता है। राजाओं, राजकुमारों और दरबारियों का इतना चारित्रिक पतन हो चुका था कि वे वेश्याओं, कुट्टनियों से ही घिरे रहते थे। दामोदर गुप्त ने बहुत नजदीक से उनके चरित्रों को परखा था। ‘राजा कालस्य कारणम्’ इसके अनुसार सामाजिक जीवन भी इससे प्रभावित हो गया था। इसी सामाजिक पृष्ठभूमि में कुट्टनीमत की रचना हुई थी। समाजके परिष्कार तथा परिशोधन के लिए इस उपदेशात्मक काव्य को प्रस्तुत किया गया था, जो काव्य-पक्ष से भी अत्यन्त भव्य, आवर्जक तथा रोचक है। १०५६ आर्याओं में गुम्फित यह काव्य अपनी मधुरता के लिए संस्कृत काव्यके इतिहासमें अति प्रसिद्ध है। ‘विकराला’ नामकी कुट्टनी के वर्णन में उसकी कुरूपता प्रत्यक्ष नाचने लगती है। १. काव्यमाला तृतीय गुच्छक। प. मनसुख राम त्रिपाठी कृत संस्कृत व्याख्या सहित मुम्बई से प्रकाशित। अत्रिदेव विद्यालंकार कृत हिन्दी अनुवाद के साथ १६६१ में काशी से प्रकाशित। २. द्र. आ. बलदेव उपाध्याय का संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ. ४००-४०१ नीतिशास्त्र का इतिहास ३०३ कामि-जनों से धन ऐंठने के लिए जो वह वेश्याओं, गणिकाओं को विस्तारसे शिक्षा देती है, उसमें वह कामशास्त्र का सम्पूर्ण सार बतला देती है।
- प्रसिद्ध ‘आर्यासप्तशती’ के रचनाकार गोवर्धनाचार्य (११वी शती) से तीन सौ वर्ष पूर्व ही दामोदरगुप्त ने प्रसादमयी सरस मनोहर आर्याओं की रचना से आर्या के प्रथम परिष्कारक महाकवि के रूप में अपने को सुप्रतिष्ठित कर लिया था। __ अपनी आर्याओं की प्रशस्ति में गोवर्धनाचार्य की प्रसिद्ध उक्ति में किञ्चित् परिवर्तन करते हुए आचार्य बलदेव उपाध्याय ने जो कविवर दामोदरगुप्त के सम्बन्ध में कहा है वह सर्वथा सत्य है - “मसृण-पद-रीति-गतयः सज्जन-हृदयाभिसारिकाः सुरसाः। मदनाद्वयोपनिषदो विशदा दामोदरस्यार्याः ।। अतएव आचार्य मम्मट तथा रुय्यकने अपने लक्षण-ग्रन्थों में और वल्लभदेव तथा शार्ङ्गधरने अपने सुभाषित-संग्रहों में इनकी आर्याओं को उद्धृत किया है। आचार्य मम्मट ने, जहाँ शब्दालंकार रसाभिव्यञ्जन में उपकारक होता है उसे स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करने के लिए “कुट्टनीमत-की निम्नलिखित आर्या को उदाहृत किया है अपसारय घनसारं कुरु हारं दूर एव किं कमलैः। अलमलमालि मृणालैरिति वदति दिवानिशं बाला।। यहाँ विरहिणी मालती की मनोदशा का वर्णन है। अनङ्गतप्ता वह बाला दिन-रात अपनी सखियों से कहती रहती है-ए सखि ! कपूर को हटाओ, मौक्तिक हारको दूरही रखो, कमल और कमल-नालों का क्या प्रयोजन ? इन सबों से शरीर का ताप शान्त होने वाला नहीं। यहाँ रेफ और लकार के मञ्जुल प्रयोग से निष्पन्न शब्दानुप्रास विप्रलम्भ शृङ्गार के अभिव्यञ्जन में परमोपकारक है। वेश्याओं की तुलना चुम्बक के साथ करते हुए कवि ने कितना सुन्दर और सटीक वर्णन किया है परमार्थकठोरा अपि विषयगतं लोहकं मनुष्यं च। चुम्बकपाषाणशिला रूपाजीवाश्च कर्षन्ति।। १. संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ. ४०१ २. कुट्टनीमत, आर्या १०३ काव्यप्रकाश, अष्टमोल्लास, कारिका ३६ पर उदाहृत। ३. कुट्टनीमत, आर्या ३२० । ३०४ गद्य-खण्ड जैसे परमार्थ कठोरा-अत्यन्त कठोर होनेवाला चुम्बक पत्थर विषयगत-अपनी पहुँचमें आए हुए लोहे को खींच लेता है, वैसे ही परमार्थकठोरा-परिणाम में पीड़ा देने वाली रूपसे जीविका प्राप्त करने वाली वेश्याएँ विषयगत-काम-विषय में आसक्तजनों को निश्चयही खींच लेती हैं। कवि की प्रकृत रचना में शास्त्रीय विषय को भी सरलता से व्यक्त करने का चमत्कार देखा जा सकता है। व्याकरण से राजा की उपमा में विच्छिति द्रष्टव्य है - तत्रापि वृद्धियोगस्तस्मिन्नपि पुरुष-गुण-गणख्यातिः। परिभाषा तत्रापि व्याकरणान्नातिरिच्यसे तेन।’ वृद्धि, पुरुष, गुण, गण, ख्याति, परिभाषा से मण्डित व्याकरण के समान राजा के कोश में जो वृद्धि हो रही है उससे राज-पुरुषों के विविध गुण सर्वत्र विख्यात होते हैं। इस प्रकार साहित्यिक सौन्दर्य से ‘कुट्टनीमत’ महिमा-मण्डित है। इस तरह सरस सुन्दर साहित्यिक रचना के माध्यम से तत्कालीन समाज के दुर्गुणो को स्पष्ट प्रदर्शित करते हुए उनके दुष्परिणामों को बतलाकर कविवर दामोदरगुप्त ने उनसे विरत होने का इसमें सदुपदेश दिया है। ‘औचित्यविचारचर्चा’ की रचना से औचित्य सम्प्रदाय के प्रवर्तक रूप में बहुचर्चित काश्मीरी विद्वान् मनीषी क्षेमेन्द्र कवि (१०१०-१०७०) अपनी व्यङ्ग्यात्मक रचना के लिए भी अति प्रसिद्ध हैं। इन्होंने अपने ‘कविकण्ठाभरण’ में विद्वानों को अच्छे कवि होने के लिए जो उपदेश दिए हैं वे वस्तुतः कवियों के कण्ठाभरण हैं। इन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों के गुण-दोषों का ऐसा मार्मिक व्यङ्ग्यात्मक चित्र दिखलाया है, जिसमें तत्कालीन समाज का रूप स्पष्ट दीखता है और इसमें समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त होता है। क्षेमेन्द्र की रचानाओं को साधारणतः १ उपदेशात्मक, २ व्यङ्ग्यनिष्ठ उपदेशात्मक, ३ काव्यात्मक, ४ काव्यशास्त्र-छन्दः शास्त्रपरक तथा ५ सामान्यकोटिक इन पाँच वर्गों में विभक्त करते हैं। प्रकृत में प्रथम और द्वितीय कोटिक कृतियों की ही चर्चा की जाती है। चारुचर्या-शतक, चतुर्वर्ग-संग्रह तथा आंशिक रूपसे कविकण्ठाभरण ये सभी शुद्ध उपदेशात्मक हैं। कलाविलास, दर्पदलन, देशोपदेश, नर्ममाला, सेव्य-सेवकोपदेश, समयमातृका इन कृतियों में कवि ने व्यङ्ग्यके माध्यम से उपदेश दिया है। १. वही आर्या ७८२ २. काव्यमाला द्वितीय खण्ड पृ. १२८-३८ क्षेमेन्द्र लघुकाव्य-संग्रह में पुनर्मुद्रित (पृ. १३५-१४४), गुप्ता प्रेस, कलकता (१६०७-१६१०-१६६६) कई अन्य संस्करण भी इसके हुए हैं। नीतिशास्त्र का इतिहास ३०५ इनमें चारुचर्या अनुष्टुप् छन्द में रचित १०० श्लोकों का संग्रह है। इसमें प्रधानतया धर्म और अर्थ का प्रतिपादन है और व्यावहारिक जीवन में उन्हें लाने का उपदेश है, श्लोक के पूर्वार्द्ध में नीतिमूलक सदुक्ति है और उत्तरार्द्ध में उसके सम्पोषक पौराणिक उदाहरण हैं। इसके पद्य बाद के सुभाषित-संग्रहों में अनेकत्र संगृहीत हैं। द्वाद्विवेद की ‘नीतिमञ्जरी’ तो चारुचर्या के आदर्श पर ही निर्मित है। __‘चतुर्वर्ग-संग्रह’ चार परिच्छेदों में विभक्त है। प्रथम में २७, द्वितीय में २५, तृतीय २५ और चतुर्थ परिच्छेद में २१ श्लोक हैं। इनमें क्रमशः धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का प्रतिपादन है और जीवनोपयोगी उपदेश हैं। __‘कलाविलास'२ में दश सर्ग हैं, जिनमें क्रमशः ६६, ८६, ७६, ४०, ४६, ३३, २६, २६, ७३ तथा ४३ आर्याछन्द में रचित सुललित श्लोक हैं। इस कृति में क्षेमेन्द्र ने तत्कालीन समाज का यही चित्र दिखलाकर उन कुरीति और दुःस्थितियों से बचने का उपदेश दिया है। ‘कलाविलास’ में मूलदेवनामक एक व्यक्ति अपने शिष्य चन्द्रगुप्त के साथ वार्तालापक्रम में विभिन्न प्रकार के प्रतारण, लोभ, कामासक्त जनों की दुःस्थिति, नारी-चरित्र, कायस्थों के सन्दिग्ध चरित्र, मद्यपों की विभिन्न दुरवस्था, नर्तक, वैतालिक, गायक, अभिनेता, स्वर्णकार आदि के विशेष चरित्रों का सजीव वर्णन है और अन्त में युवजनों को उनसे बचने का सदुपदेश है। इन्होंने विभिन्न उदाहरणों द्वारा अपने कथ्य का समर्थन किया है। कवि ने इस कृति में अपने वैदुष्य, ज्ञान तथा विषयानुकूल उच्च कोटिक संस्कृत भाषा का प्रदर्शन किया है। ‘दर्पदलन'३ क्षेमेन्द्रका एक दूसरा व्यंग्यप्रधान उपेदशात्मक काव्य है, जो सात विचारों में विभक्त है, जिनमें क्रमशः ८२, ११३, १५४, ७५, ४५, ५४, तथा ७३ श्लोक विभिन्न छन्दों में निबद्ध हैं। यह मुख्यतः उपदेशात्मक कृति है। प्रत्येक विचार में एक-एक सूक्ति के आधार पर उसका व्यङ्ग्यात्मक कथानक से निरूपण किया गया है, जिससे उच्चवंश, धन, प्रभुत्व, ज्ञान, सौन्दर्य, वीरता, दान, तप आदि के आधार पर होनेवाले दर्पका दलन होता है। । ‘देशोपदेश’ आठ उपदेशों में विभक्त है, जिनमें क्रमशः २४, ३६, ४८, ३४, २८, काव्यमाला, खण्ड ५, पृ. ७५-८८ क्षेमेन्द्र-लघुकाव्य-संग्रह’ में पुजर्मुद्रित, पृ. ११६-१३४ २. काव्यमाला, प्रथम खण्ड, पृ. ३४-७६, ‘क्षेमेन्द्र-लघुकाव्यसंग्रह’ में पुनर्मुद्रित, पृ. २१६-७१ R.Schmidt द्वारा इसका जर्मन में अनुवाद हुआ है। द्र. एस.जी.डी.एल. पृ. ७७ काव्यमाला गुच्छक ७ में प्रकाशित, पृ. ६६-११८ क्षे.ल.का. संग्रह में पुनर्मुद्रित। इसका भी R. Schmidt द्वारा जर्मन में अनुवाद हुआ है। द. वही पृ. ७८ ४. काश्मीर संस्कृत सीरिज, सं. ४० में प्रकाशित, श्रीनगर १६२४३०६ गद्य-खण्ड २५, ३१ तथा ५२ श्लोक विभिन्न छन्दों में गुम्फित हैं। इसमें ठग, कृपण, वारवनिता, धूर्त, विट, काश्मीर में आकर अध्ययन करने वाले गौड़ छात्र, वृद्ध के साथ युवती का विवाह, कायस्थ, कवि, असंयत पत्नी, व्यापारी, धूर्त तपस्वी, वैयाकरण, रसायनवेत्ता, छद्म-वैद्य आदिपर व्यङ्ग्यात्मक उपहास किया गया है। फलतः उनसे सावधान रहने का सदुपदेश दिया गया है। यों तो देशोपदेश के सभी स्थल हास्य-व्यङ्ग्य से भरे पड़े हैं, कुछ स्थलों में क्षेमेन्द्र ने अत्यन्त तीखे व्यङ्ग्य-बाणों से प्रहार किया है : कृपण के घर किसी सगे-सम्बन्धी या अतिथि के आ जाने पर वह अपनी स्त्री से बनावटी कलह कर लेता है और समस्त परिवार उपवास रख लेता है, जिससे अतिथि भी उपवास करने के लिए मजबूर हो जाता है। (द्वितीय उपदेश/१८) वह बहुत पुराने अन्न का भी विक्रय नहीं करता और दुर्भिक्ष पड़ने की कामना करता रहता है कि उस समय अधिक दाम लेकर विक्री करेगा (२/३३)। तृतीय में वेश्या के विविध चरित्रों का यथार्थ वर्णन है। चतुर्थ में कुट्टनी का कलुषित चरित्र चित्रित है। इसपर दामोदरगुप्त के ‘कुट्टनीमत’ का पूर्ण प्रभाव है। इसी से सम्बद्ध विट का चरित्र पाँचवें में वर्णित है। छठे उपदेश में उन गौड़ देशीय छात्रों का सजीव वर्णन है जो विद्याध्ययन के लिए कश्मीर आते थे, परन्तु भोजन तथा वार-वनिताओं के साथ रमण में लिप्त होकर ही अध्ययन को चरितार्थ करते थे। वे काश्मीरी लिपि को कतई नहीं जानते, पर वे उसी लिपि में लिखे भाष्य, न्याय, मीमांसा आदि ग्रन्थों का अध्ययन शुरू कर देते अलिपिज्ञोऽहंकार-स्तब्धो, विप्रतिपत्तये। गौडः करोति प्रारम्भं भाष्ये तर्के प्रभाकरे।।’ दम्भके भार दवा हुआ वह गौड़ छात्र अपने को परस्पर्श से बचाता है और अपनी चादर अपने बगल में ही दबाये रहता है, किन्तु छिपकर कुत्सित कर्मों में लिप्त रहता है। इसमें छात्रों के निन्दनीय कुकृत्यों का सजीव वर्णन किया गया है। सप्तम उपदेश में समाज में प्रचलित अनमेल विवाह पर तीखा व्यङ्ग्य-बाण छोड़ा गया है। एक अत्यन्त रुग्ण वृद्ध करोड़पति सेठ की नई नवेली दुलहिन को लक्ष्य कर क्षेमेन्द्र ने बड़ा ही मनोरञ्जक विवरण प्रस्तुत किया है। कन्या के वरण-कालमें वह वृद्ध ज्वर का १. देशोपदेश ६१८॥ २. स्पर्श परिहरन याति गौडः कक्षाकृताञ्चलः। कञ्चितेनैव पार्वेन दम्भ-भार-भरादिव।। वही ६१८। ३. कृतारुचिः पृथुश्वास-तमोदृष्टि विरागवान्। कन्याया वरणे वृद्धो मूर्तो ज्वर इवागतः।। वही लिका ३०७ नीतिशास्त्र का इतिहास जीता-जागता स्वरूप सा लोगों में अरुचि उत्पन्न करने वाला, जोर-जोर से खाँसने, धुंधली दृष्टिवाला दीख रहा था, परन्तु कन्या का पिता अपनी पुत्री को मधुर शब्दों में उसके गुणों का वर्णन करता था। ऐसे विवाह के परिणाम स्वरूप उस वृद्धपति के जीते ही वधू की केलि-लीलाएँ होने लगती थीं। अन्तिम उपदेश में वैद्य, भट्ट, कवि, बनिया, गुरु, कायस्थ आदि पात्रों का मार्मिक चित्रण है जो तत्कालीन समाज का स्वच्छ दर्पण हैं। कविवर क्षेमेन्द्रने हास्यव्यपदेशयुक्ति द्वारा सामाजिक सुधार करने का इसमें स्तुत्य प्रयास किया है। हास से लज्जित होकर व्यक्ति दुष्कर्म में प्रवृत्त नहीं होता है - हासेन लज्जितोऽत्यन्तं न दोषेषु प्रवर्त्तते। जनस्तदुपकाराय ममायं स्वयमुद्यमः।।’ A
नर्ममाला
नर्ममाला एक प्रकार से देशोपदेश की पूरक कृति है। इसमें भी व्यङ्ग्यात्मक ही उपदेश दिये गये हैं। देशोपदेश की तरह इसके व्यङ्ग्य, वैसे चुभने लायक न होने पर भी, अपने उद्देश्य में सफल हैं, नर्ममाला में तीन परिहास हैं, जिनमें प्रथम में १४८, द्वितीय में १४५ और तृतीय में ११४ श्लोक हैं। क्षेमेन्द्र ने इस कृति में राजकीय प्रशासन, कायस्थ अधिकारी, कर-ग्रहीता अधिकारी, गृह-कृत्याधिपति (गृहमन्त्री), परिपालक (राज्यपाल), चाक्रिक (खुफिया पुलिस), लेखकोपाध्याय (हिसाब-किताब करने वाला), गञ्जदिविर (अर्थमन्त्री), ग्रामदिविर (पटवारी), गुरु, वैद्य, देवज्ञ आदि के बड़ाही स्वाभाविक तथा रोजक चित्र प्रस्तुत किये हैं, जो तत्कालीन कुव्यवस्थाओं को भलीभाँति दर्शाते हैं। करग्रहीता जब गाँवो में कर वसूलने जाता है तो वहाँ लूट-खसोट करने लगता है। लगता है कि वहाँ कोई चढ़ाई करने आ गया है। कायस्थ अपने कूटलेख और स्याही तथा कलम के प्रभाव से जो समाजका उत्पीड़न करता है उसका निम्नलिखित पद्यमें चित्र द्रष्टव्य है : अहो भगवती कार्य-सर्वसिद्धिप्रदा मसी। अहो प्रबलवान कोऽपि कलमः कमलाश्रयः।। १. देशोपदेश के साथ काश्मीर संस्कृत सीरिज में प्रकाशित तथा क्षेमेन्द्र लघु काव्य-संग्रह में पुनमुद्रित ३०७-३४६ २. देशोपदेश के साथ काश्मीर संस्कृत सीरिज में प्रकाशित तथा क्षेमेन्द्र लघु काव्य-संग्रह में पुनर्मुद्रित ३०७-३४६ ३. नर्ममाला, १/१३०। ४. अपि सुजन-विनोदायोम्भिता हास्य-सिद्धयै। कथयति फलभूतं सर्वलोकोपदेशम्।। वही ३/११४ ३०८ गद्य-खण्ड लोकोपदेश के लिए हास्यापदेशक एक विशिष्ट प्रकार के काव्य की रचना क्षेमेन्द्रने कुशलता से की है। ‘सेव्यसेव्यकोपदेश’ भी इसी श्रेणी की रचना है। इसमें विभिन्न छन्दों में गुम्फित ६१२ श्लोक हैं, जिनमें सेव्य और सेवक के सम्बन्ध और कर्तव्य पर अच्छा प्रकाश डाला गया है तथा दोनों के समुचित कर्तव्यों का उपदेश दिया गया है। माना जा व्यङ्ग्य के माध्यम से उपदेशात्मक काव्य रचने की शृङ्खला में आचार्य क्षेमेन्द्र की अन्तिम कड़ी है ‘समयमातृका । यह शृङ्गार-प्रधान काव्य है। इसमें आठ समय (विभाग) हैं, जिनमें क्रमशः ५२, १०८, ३७, १३४, ६०, ३६, ५६ तथा १२६ श्लोक हैं जो अनुष्टुप् तथा आर्यामें निबद्ध हैं। इसपर ‘कुट्टनीमत’ का स्पष्ट प्रभाव है। एक कुट्टनी नयी वाराङ्गना को अपने मायाजाल में ग्राहक को फसाकर रखने और अपने व्यवसाय में समृद्ध होने का उपदेश करती है। वह यह भी कहती है कि प्रमदा तभी तक किसी पुरुष की दासी है जबतक उसके हाथ रत्नों से भरे हैं। ज्योंहि उसका हाथ रिक्त हो जाता, वह उसके लिए कठोर और दुर्लभ हो जाती है। क्षेमेन्द्र ने इस कृतिमें काश्मीर के तत्कालीन रईसों के वास्तविक जीवन का सही चित्रण किया है और वारवनिताओं के माया-पाश से बचने का व्यङ्ग्यात्मक उपदेश दिया है। __ इस प्रकार की अपनी रचनाओं के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए क्षेमेन्द्र ने ठीक ही कहा है अपि सुजन-विनोदायोम्भिता हास्य-सिद्धयै। कथयति फलभूतं सर्वलोकोपदेशम् ।। भोजविरचित ‘चारुचर्या’ में १३५ मुक्तक श्लोक हैं, जिनमें दैनिक आचरण, सदाचार और आहिक कृत्यों का निर्देश है। यह ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की रचना है। __दक्षिणामूर्ति-लिखित ‘लोकोक्तिमुक्तावली'६ में भक्तिप्रधान नीत्युपदेशात्मक ८४ श्लोक हैं। विभिन्न छन्दों में रचित यह ६ पद्धतियों में विभक्त है। इस रचना की यह हैं १. काव्यमाला, २ गुच्छक, पृ. ७६-८५, क्षे.ल. का. सं. में पुनर्मुद्रित। २. काव्यमाला, ३ गुच्छक, पृ. ३२-११६ । ३. समयमातृका ८/११५। ४. नर्ममाला ३/११४ ५. डा. वी. राघवन द्वारा सम्पादित उनके मलयमारुत २ में तिरुपति से १६७१ ई. में प्रथम बार प्रकाशित। ६. काव्यमाला, गुच्छक ११, पृ. ७८-६१। सामने है नीतिशास्त्र का इतिहास ३०६ विशेषता है कि प्रत्येक श्लोक के पूर्वार्द्ध में जिस सद्धर्म का उल्लेख किया गया है उत्तरार्द्ध में उसका समर्थन किया गया है। दक्षिणामूर्ति का जीवनकाल १४५० से १६०० ई. के बीच माना जाता है। __ नीत्युपदेशपरक घटकर्पर की कृति ‘नीतिसार” २१ मुक्तक श्लोकों का एक संग्रह है। इसमें शूकर और सिंह के सम्वाद रूप में नीति तथा उपदेशों का प्रतिपादन है। इसके अनेक नीति-वचन महाभारत, चाणक्यनीतिदर्पण, हितोपदेश तथा धर्मविवेक से गृहीत हैं। __ घटकर्पर अपने ‘घटकपरकाव्य या यमक-काव्य के लिए अतिप्रसिद्ध हैं। इसमें एक विरहिणी नायिका के मनोभाव का आर्याछन्द में रचित २२ श्लोकों में मनोरम वर्णन है। मेघदूत की तरह इसमें भी मेघ को दूत बनाकर नायिका अपने प्रियतम के पास सन्देश भेजती है। यमककाव्य की रचना में कवि अपने को अद्वितीय मानता है। उसका कहना है कि यदि कोई उसे यमक-काव्य की रचना में पराजित करेगा तो वह उसके यहाँ घटकर्पर से पानी भरने का काम करेगा। प्रायः इसी ‘घटकर्पर’ शब्द-प्रयोग के कारण उसका नाम ही घटकर्पर हो गया। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि यह घटकर्पर विक्रमादित्य के नवरत्नों में अन्यतम घटकर्पर से भिन्न है या अभिन्न। इस लघुकाव्य पर सात से अधिक विद्वानों की टीकाएँ हैं। इसका जर्मन, फ्रैंच, अंग्रेजी आदि भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। __ गोवर्धनाचार्य बंगाल के अन्तिम राजा लक्ष्मणसेन की सभा के सम्मान्य कवि थे। एकमात्र ‘आर्यासप्तशती’ की रचना से ही ये अमर हैं। आर्याछन्द में निबद्ध इसके पद्य सरस, मधुर और शृङ्गार-रस से सराबोर हैं, जिनमें नायक और नायिका के मनोभावेंका हृदयावर्जक वर्णन के साथ उपदेश भी समाहित है। शृङ्गार रसके मधुर सुन्दर वर्णन करने में गोवर्धन का जोड़ा नहीं है, यह जयदेव कवि का कहना यथार्थ है। अम नायक के प्रति हृदय से अनुरक्त एक नायिका अपने अनुराग को मुखसे प्रकट करने में असमर्थ है। दूसरी ओर वाक्पटु नायक केवल मुख से ही अनुराग व्यक्त करता है। इस प्रकृत विषय को कविने गुञ्जा (जो पूर्णतः अनुरक्त है, केवल मुख से कृष्ण है) और शुक (जो केवल मुख से लाल है और पूर्णतः हरित है) के अनुराग-लालिमा से तुलना कर चमत्कारपूर्ण बना दिया है - १. काव्य-संग्रह, ५०४-६, कलकता १८४७, J.Haelurlin द्वारा संकलित। २. जे. बी. चौधरी द्वारा संपादित दूतकाव्य-संग्रह ६, कलकता १६५३ ३. द्र.सु.नो. डा.लि. पृ. ६२। ४. काव्यमाला, प्रथम गुच्छक। एस. मुखर्जी द्वारा सम्पादित, ढाका; १६२१ ई. ५. शृङ्गारोत्तरसत्प्रमेयरचनै राचार्यगोवर्धनस्पर्धी कोऽपि न विश्रुतः । ३१० गद्य-खण्ड है सा सर्वथैव रक्ता रागं गुजेव न तु मुखे वहति। वचनपटोस्तव रागः केवलमास्ये शुकस्येव।। अधोलिखित आर्या में अपभ्रंश भाषा के साथ नायिका की तुलना अत्यन्त मर्मस्पर्शी है। नायक के विरह में नायिका में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया है। अब उसका न तो वह स्वाभाविक वर्ण है, न रूप है, न संस्कार है और न वह स्वभाव है। वह उस अपभ्रंश भाषा के समान हो गई है जिसमें प्रकृत-संस्कृत-भाषा की तरह न तो सवर्ण होता है, न रूप होता है, न संस्कार होता है और न उसमें प्रकृति-संस्कृत की धातु आदि रहती है।
- न सवर्णो न च रूपं न संस्क्रिया कापि नैव सा प्रकृतिः। बाला त्वविरहादपि जातापभ्रंश भाषेव।। गुमानीपन्त की नीत्युपदेशात्मक दो रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। १. ‘गुमानी-नीति” में ७१ पद्य हैं, जिनमें तीन चरण संस्कृत में और एक चरण लोकोक्तिरूप हिन्दी अथवा कुमौनी में है। रामायण, महाभारत आदि पर आधारित सभी पद्य नीतिपरक हैं। २. ‘उपदेशशतक'२ में १०२ मुक्तक पद्य हैं। सभी आर्या छन्द में गुम्फित हैं। इसमें भी उसी शैली में पद्य के एक भाग में प्रामाणिक वचनों के आधार पर उसका समर्थन किया गया है। गुमानी कवि (१६वीं शती, इसका जन्म १७६० ई. में हुआ था) संस्कृत, हिन्दी, कुमौनी भाषाओं में निपुण थे और इन्होंने इन तीनों भाषाओं में रचनाएँ की हैं। महाराज लक्ष्मणसेन (१२वीं शती) के सभासद हलायुध की एक सुन्दर रचना है ‘धर्मविवेक’,३ इसमें विविध छन्दों में विरचित २० श्लोक है। इसमें धर्म, नीति आदि विषयक उपयोगी उपदेश दिये गए हैं। ये दशम शताब्दी के वैयाकरण हलायुध से भिन्न हैं। काश्मीरी विद्वान् कवि जल्हण विरचित ‘मुग्धोपदेश में शार्दूलविक्रीडित छन्द में निबद्ध ६६ श्लोक हैं, जिनमें वारवनिता के वाग्जाल से बचने का उपदेश दिया गया है। यह ‘कुट्टनीमत से पूर्ण प्रभावित है। जल्हण का समय बारहवीं शताब्दी है, अतः ये ‘सूक्ति मुक्तावली’ कार जल्हण (१३वीं शती) से भिन्न हैं। सूक्तिमुक्तावली की रचना १२५८ ई. में हुयी थी। १. इण्डियन एन्टोक्वेरी १६०६ पृ. १७७। २. काव्यमाला गुच्छक २, पृ. २०-२८ ३. तत्त्वविवेक प्रेस, मुम्बई, १६२०। काव्यसंग्रह, जीवानन्द विद्यासागर द्वारा संकलित। ४. काव्यमाला, अष्टम गुच्छक, पृ. १२५-३५ ३११ नीतिशास्त्र का इतिहास कल्यलक्ष्मीनृसिंह कृत ‘कविकौमुदी” में विभिन्न छन्दों में विरचित १४७ श्लोक हैं। प्रथम शतक अंश में १०१ और द्वितीय अंशमें ४६ पद्य हैं। कवि कल्यलक्ष्मीनृसिंह अहोबलसुधी के शिष्य थे। इनका समय १८वीं शती है। __ कृष्णवल्लभ (१८वी शती) विरचित ‘काव्यभूषण-शतक'२ विभिन्न छन्दों में निबद्ध १०३ श्लोकों का संग्रह है। यह शृङ्गार-प्रधान है। __ कुसुमदेवकृत ‘दृष्टान्तशतक'३ या ‘दृष्टान्तकलिका’ नीत्युपदेशात्मक १८८ श्लोकों का संग्रह है। यह १५वीं शताब्दी की रचना है। वल्लभदेवकी सुभाषितावली में दृष्टान्त शतक के कतिपय श्लोक संगृहीत हैं। अन्योक्ति रूप में विरचित ‘अन्यापदेशशतक ११० श्लोकों का संग्रह है। इसके लेखक मधुसूदन मिथिलानिवासी पद्मनाभ के सुपुत्र थे। इनकी माता का नाम सुभद्रा था। प्रायः सुपद्मव्याकरण के प्रणेता पद्मनाभदत्तमिश्र (१४वीं शताब्दी) से इनके पिता पद्मनाभ अभिन्न थे। इस तरह अन्यापदेशशतक का रचना-काल १४वीं शती ठहरता है। भक्तिप्रधान उपदेशात्मक १८ श्लोकों का एक संग्रह ‘मोहमुद्गर’ नाम से सम्पूर्ण भारत में ही नहीं, विदेशों में भी प्रसिद्ध है। अनुश्रुति के आधार पर यह शंकराचार्य की रचना मानी जाती है। इसमें संसारकी नश्वरता, जीवन की क्षण-भगुरता के प्रतिपादन के साथ धन, बल, यौवन आदि पर गर्व नहीं करने का उपदेश दिया गया है। इसका अंग्रेजी, फ्रेञ्च, जर्मन आदि विदेशी भाषाओं में तथा विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। अन अज्ञातकर्तृक २६ श्लोकों के संग्रह ‘मूर्खशतक’ में १०० मूों का वर्णन किया गया है। मूखों के परिचय द्वारा लेखक ने उनसे सावधान रहने का उपदेश दिया है। व नीलकण्ठ दीक्षित (१७वीं सदी का पूर्वार्द्ध) जो ‘नीलकण्ठचम्पू’ तथा ‘शिवलीलार्णव’ महाकाव्य की विशिष्ट रचना से संस्कृत साहित्य में महामनीषी के रूप में अतिविश्रुत हैं, नीति और उपदेशात्मक अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियों के द्वारा भी संस्कृत जगत् में लब्ध-प्रतिष्ठ हैं। इनकी इस कोटिकी रचनाओं में - १. के. कृष्णमूर्ति द्वारा सम्पादित तथा अनूदित, कर्नाटक विश्वविद्यालय धारवाड़., १६६५ ई. . २. काव्यमाला, गुच्छक ६, पृ. ३१-४६। ३. नवविभाकर प्रेस, कलकता, १६१६ ई. ४. काव्यमाला, नवम गुच्छक, पृ. ६४-७६। ५. काव्य-संग्रह, २६५-८/ इसके ४० से अधिक विभिन्न संस्करण हो गए हैं। मा कुरु धन-बल-यौवनगर्वम् हरति निमेषात् कालः सर्वम्। श्लोक ३। ७. हरप्रसाद शास्त्री द्वारा संकलित एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल खण्ड-७ की विवरणात्मक संस्कृत पाण्डुलिपि-सूची में संगृहीत, कलकता १६३४ ई.। ३१२ गद्य-खण्ड १. ‘अन्यापदेशशतक’ में १०१ श्लोक, २. ‘कलिविडम्बन'२ में १०२ श्लोक, ३. ‘सभारञ्जनशतक’ में १०५ श्लोक, ४. ‘शान्तिविलास” में ५१ श्लोक और ५. ‘वैराग्यशतक'५ में १०१ श्लोक हैं। इनमें प्रथम शार्दूलविक्रीडित छन्द में, द्वितीय और तृतीय अनुष्टुप् में, चतुर्थ मन्दाक्रान्ता में तथा पञ्चम उपजाति और आर्याछन्दों में विरचित हैं। परमविश्रुत अप्पयदीक्षित के अनुज आच्चान दीक्षित के पौत्र, नारायण दीक्षित के पुत्र नीलकण्ठदीक्षित ऐसे बहुश्रुत विद्वान् थे, जिन्होंने व्याकरण, दर्शन, धर्मशास्त्र आदि शास्त्रीय विषयों पर अनेक उत्कृष्ट रचनाओं के अतिरिक्त शिवलीलार्णव महाकाव्य, नलचरित नाटक, नीलकण्ठ-विजयचम्पू, चण्डीरहस्य, मुकुन्दविलास आदि अनेक काव्य-ग्रन्थों की रचना की। __अन्यापदेशिक में अन्योक्ति द्वारा सदाचरण पर महत्त्वपूर्ण उपदेश दिये गये हैं। कलिविडम्बन में सामाजिक विभिन्न कदाचारों पर व्यङ्ग्य-प्रहार है। सभारञ्जनशतक में सदुक्तियों के संग्रह द्वारा नीतियों का उपदेश है। शान्तिविलास और वैराग्य-शतक में जैसा कि नाम से ही सूचित है, जागतिक नश्वरता के साथ चिरशान्ति के लिए वैराग्यमार्ग का उपदेश है। __अपने शास्त्रीय पाण्डित्य और कवि-कर्म-कौशल के लिए अतिप्रसिद्ध रससिद्ध कवि पण्डितराजजगन्नाथ (जीवनकाल १५६०-१६६५ ई. के आसपास) रसगङ्गाधर, भामिनीविलास, आसफविलास, जगदाभरण, प्राणाभरण आदि विशिष्ट कृतियों के कारण विश्व-विश्रुत हैं ही, साथ ही नीत्युपदेशात्मक कृति ‘अश्वधाटी’ की रचना से भी इस क्षेत्र में प्रसिद्ध हैं। मत्तेभ छन्द में निबद्ध ७० मुक्तक पद्यों की यह अपूर्व कृति है, जिसमें नीति और भक्ति का सुन्दर मार्मिक वर्णन है। पञ्चरत्न, षड्रत्न, सप्तरत्न, अष्टरत्न तथा नवरत्न क्रमशः ५, ६, ८, ६ श्लोकों १. काव्यमाला, गुच्छक ६, पृ. १४३-१५८/ २. वही गुच्छक ५, पृ. १३२-१४२ । ३. वही गुच्छक ४, पृ. १८६-६८। ४. वही गुच्छक ६, पृ. १२-२०। वही प्रथग गुच्दक, पृ. ६१-६६। ये सभी कृतियाँ P.S. Filliozat द्वारा Institut Eranaca. d’ Indologic Pondichery १६६७ में सानुवाद प्रकाशित। ६. निर्णयसागर प्रेस, मुम्बई १८७८ ई.। कुछ लोग अश्वधाटी को भामिनीविलासकार जगन्नाथ की रचना में सन्देह करते हैं। नीतिशास्त्र का इतिहास ३१३ के संग्रह’ हैं, जिनमें नीति और उपदेशों का सुन्दर वर्णन है। इन रत्नों के प्रणेता का नाम अज्ञात है। सुभाषितमुक्तावली और सुभाषितहारावली में भी इनके अनेक पद्य संगृहीत हैं। इनमें नवरत्न अधिक चर्चित है। यह श्रीलङ्का के संस्कृत साहित्य में भी उल्लिखित है।’ _ अज्ञातकर्तृक ‘पूर्वचातकाष्टक’ तथा ‘उत्तरचातकाष्टक’ विभिन्न छन्दों में निबद्ध उपदेशात्मक आठ-आठ पद्योंका मनोहर लघुकाव्य है। इसका जर्मन, अंग्रेजी आदि भाषाओं में सानुवाद प्रकाश्न हो चुका है। इसमें मेघोन्मुख पिपासु चातक पक्षी का बहुत सुन्दर कलात्मक ढंग से वर्णन किया गया है और इस व्याख्या से स्वाभिमान की रक्षा का उपदेश दिया गया है। राक्षसकवि-विरचित ‘कविराक्षासाय’ उपदेशात्मक पद्यों का एक संग्रह है। यह दक्षिण भारत में अधिक प्रसिद्ध है। कविका परिचय सर्वथा अज्ञात है। उपर्युक्त संग्रह का प्रथम श्लोक अप्पय दीक्षित के कुवलयानन्द में उद्धृत है। इससे निश्चित होता है कि कवि १६वीं शताब्दी से पूर्व के हैं। सदुक्तिकर्णामृत (पद्य संख्या ४५०) तथा शार्ङ्गधर-पद्धति (३०१०-११) में राक्षस प्रणीत पद्य इस राक्षस कवि के नहीं है, क्योंकि ये पद्य उपदेशात्मक नहीं हैं। __ कवि रामचन्द्र-विरवित ‘रसिकरञ्जन’’ विभिन्न छन्दों में निबद्ध नीत्युपदेशात्मक १३० पद्यों का मनोरम लघुकाव्य है। इसका प्रत्येक पद्य व्यर्थक है। इसमें भक्ति और शृङ्गार का चमत्कृत मञ्जुल वर्णन है। रसिकरञ्जन के रचयिता रामचन्द्र लक्ष्मण भट्ट के पुत्र थे। १५२४ ई. में अयोध्या में इसकी रचना हुई थी। यह व्याख्या के साथ प्रकाशित है। शम्भु कवि-विरचित ‘अन्योक्तिमुक्तालता’ २६ शार्दूलविक्रीडित तथा मन्दाक्रान्ता छन्दों में गुम्फित अन्योक्तिपरक १०८ श्लोकों का एक संग्रह है। इसका प्रत्येक श्लोक व्यर्थक है। शम्भु कवि काश्मीर के राजा हर्षदेव (११वीं शताब्दी) के सभापण्डित थे। इन्होंने अपने राजा की प्रशस्ति में शार्दूलविक्रीडित छन्द में ७५ श्लोकात्मक ‘राजेन्द्रकर्णपूर'६ नामक १. हरप्रसाद शास्त्री द्वारा संकलित वही पूर्वोक्त पाण्डुलिपि-सूची, कलकत्ता १६३४ ई.। २. द्र.सु.नो.डा.लि. पृ. ६७ ३. के. एस. एच. २३७-६, २४०। के. एसजी, ३२७-३३०। ४. के. सी. चटर्जी द्वारा सम्पादित तथा वाइ. महालिङ्ग शास्त्री द्वारा अनूदित, कलकता ओरियन्टल जर्नल में प्रकाशित ५. के. सी. चटर्जी द्वारा सम्पादित तथा वाइ. महालिङ्ग शास्त्री द्वारा अनूदित, कलकता ओरियन्टल जर्नल में प्रकाशित ६. काव्यमाला, प्रथम गुच्छक, पृ. २२-३४
३१४ गद्य-खण्ड काव्यकी रचना भी की थी। इसके अनेक पद्य वल्लभदेव की सुभाषितावली में संगृहीत हैं। इनके पद्य सारगर्भित तथा मनोहर हैं। शंकर-विरचित ‘शतश्लोकी” स्रग्धरा छन्द में निबद्ध १०१ श्लोकों का एक संग्रह है। इसमें वेदान्त के सिद्धान्त का निरूपण है। यह आदि शंकराचार्य की रचना है अथवा किसी अन्य शंकराचार्य की यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। श्री कुरुनारायण कवि-प्रणीत ‘सुदर्शनशतक'२ भी नीत्युपदेशात्मक १०१ श्लोकों का संग्रह है। स्रग्धरा छन्द में गुम्फित इसके पद्य हृदयावर्जक हैं। अज्ञातकर्तृक ‘शृङ्गारज्ञान-निर्णय’ रम्भा और शुक के सम्वाद रूप में विरचित ३२ श्लोकों का संग्रह है। इसमें रम्भा की उक्ति में शृङ्गार और शुक की प्रत्युक्ति में ईश्वरीय तत्त्वबोधक चैतन्य का सुन्दर प्रतिपादन है। ‘वानराष्टक’ तथा ‘वानर्यष्टक’ आठ-आठ श्लोकों का वानर और वानरी के परस्पर सम्वाद रूप में किसी अज्ञात नामक कवि द्वारा विभिन्न छन्दों में विरचित नीत्युपदेशात्मक सूक्तिसंग्रह है। वञ्चनाथ-विरचित ‘महिषशतक'५ या ‘वञ्चेश्वर-महिष-शतक’ १०० श्लोकों का संग्रह है, जिसमें दुर्जनों से परिवेष्टित एक महिषात्मक राजा का वर्णन है, जो विद्वज्जनों का तिरस्कार और मूर्खजनों का सत्कार करता है। वञ्चनाथ प्रायः वही कृष्ण कवि हैं, जिनके पिता तञ्जोर के राजा सहाजी (१६८४-१७१०) के उच्च पदाधिकारी थे। लेखक के पौत्र ने ‘महिषशतक’ पर ‘श्लेषार्थचन्द्रिका’ नामकी व्याख्या लिखी थी। __ वररुचि-रचित ‘नीतिरत्न’ १५ श्लोकों का एक संग्रह है। इसमें विभिन्न छन्दों के पद्यों में नीति का उपदेश दिया गया है। ‘नीतिरत्न’ के श्लोक चूँकि चाणक्य के नीतिग्रन्थ, हितोपदेश तथा परम्परागत श्लोकों से संगृहीत हैं, अतः यह प्रसिद्ध वररुचि की रचना नहीं है, उनकी प्रतिष्ठा में उनके नाम से सम्बद्ध कर दिया गया है। प्राचीन काल से बहुचर्चित १. सेलेक्ट वर्क्स ऑफ श्रीशंकर, मद्रास १६११ ई. श्रीरङ्गम १६१० तथा इलायाद १६१४ में प्रकाशित। २. काव्यमाला, गुच्छक ८, पृ. १-५१। द्र.सु.नो.डा.लि. पृ. ६० और ६६। ४. वही पृ. ६६ ५. सरस्वती निलय प्रेस, मद्रास (१८७५ ई.) से शंकर गुरुकुल सीरिज १४ में व्याख्या के साथ प्रकाशित। श्लोक संख्या ३, ४, ६, १०, १२ तथा १४। ७. श्लोकाङ्क-४ तथा १४ __ ३१५ नीतिशास्त्र का इतिहास “काकः कृष्णः पिकः कृष्णः एतयोः कियदन्तरम् ? मधुमासे समायाते काकः काकः पिकः पिकः।।” __ यह ‘नीतिरत्न’ का तेरहवाँ श्लोक है। वेदान्तदेशिक या वेङ्कटनाथ देशिक-विरचित ‘सुभाषितनीवी" जो बारह-बारह पद्यों की १२ पद्धतियों में विभक्त है, गर्व, सेना, दया, शान्ति, आदि विषयों से सम्बद्ध विभिन्न छन्दों में निबद्ध एक उपदेशात्मक कृति है जिसमें १४४ पद्य हैं। इसमें इनका ‘वैराग्यपञ्चक'२ पाँच पद्यों का वैराग्यपरक व्यवहार- वर्णनात्मक रचना है। इनमें कतिपय पद्य व्यर्थक हैं, जो वेदान्तदेशिक के वैदुष्य और काव्य-कौशल को भलीभाँति अभिव्यक्त करते हैं। वेदान्तदेशिक का समय १२६८ से १३७६ के बीच माना जाता है। __वेतालभट्ट-कृत ‘नीतिप्रदीप'३ नीत्युपदेशपरक १६ सुन्दर काव्यात्मक पद्यों का एक लघु संकलन है। इसके पद्य चाणक्यनीति, पञ्चतन्त्र, हितोपदेश आदि के नीत्युपदेशों पर आधारित हैं। _ विश्वेश्वर-विरचित ‘अन्योक्तिशतक" शादूलविक्रीडित तथा स्रग्धरा छन्दों में निबद्ध १०५ पद्यों की अन्योक्तिपरक एक सुन्दर रचना है। इसके उपदेशात्मक पद्य मनोहर एवं व्यावहारिक हैं। इस प्रकार के नीत्युपदेशात्मक पद्यों का प्रसङ्गानुकूल उपयोग वल्लाल-प्रणीत ‘भोजप्रबन्ध में भी किया गया है। _ नीत्युपदेशात्मक कृतियों में उपर्युक्त कुछ विशिष्ट रचनाओं की चर्चा की गयी है। इनके अतिरिक्त अनेक इस कोटिकी रचनाएँ संस्कृत पाण्डुलिपियों में ही सुरक्षित हैं। इनमें कतिपय कृतियों की जानकारी यहाँ दी जा रही है। चक्रकविकृत ‘चित्ररत्नाकर'६ में हास्यपरक उपदेशात्मक पद्यों का संग्रह है। माधवकृत “जडवृत्त” अपूर्ण है। यह मुक्तक शैली में रचित पद्यों का एक संग्रह है। इसमें जड़ व्यक्ति द्वारा ग्राम्य तरीकों से प्रदर्शित प्रेम का वर्णन है। १. काव्यमाला, अष्टम गुच्छक, पृ. १५१-६८/ २. वही। ३. काव्यसंग्रह ५२६-२८ । काव्यसंग्रह जीवानन्दविद्यासागर संकलित १, ३६६-७७। संस्कृत काव्य संग्रह-दीनानाथन्यायरत्न, कलकता, १८६६ ई.। ४. काव्यमाला, पञ्चम गुच्छक, पृ. १०१-१६ | ५. डॉ. जयमन्तमिश्र द्वारा सम्पादित सानुवाद प्रकाशित, सरस्वतीप्रकाशन, दरभंगा १६५५ । ६. आड्यार पुस्तकालय संस्कृत पाण्डुलिपि संख्या ५१२-४ ७. डी. सी.-२०, ११६७० द्र. सुभा.नो.डाइ.लिट. पृ. ७१३१६ गद्य-खण्ड __अज्ञात नामक कविद्वारा विरचित ‘कुचशतक", जिसमें कामिनी के शारीरिक सौन्दर्य का वर्णन है। यह उपदेशात्मक काव्य में इसलिए आता है कि इसमें बतलाया गया है कि शारीरिक सौन्दर्य मात्र पर लटू होकर व्यक्ति को नैतिक कर्तव्य से च्युत नहीं होना चाहिए। अज्ञातकर्तक ‘कुशोपदेश तीन अष्टकों में विभक्त है। इसमें सांसारिक व्यावहारिक ज्ञान का वर्णन है। ‘लक्ष्मी-सरस्वतीविवाद'२ ११० पद्यों का संग्रह है। इसमें लक्ष्मी और सरस्वती के परस्पर वादरूप में उनके अपने-अपने वैशिष्ट्यों का वर्णन है और अन्त में लक्ष्मी की विजय दिखलाई गई है। अज्ञातनामक व्यक्ति द्वारा संगृहीत ‘मदनमुख-चपेटिका में १०० श्लोक हैं। इसमें एक युवती और एक संन्यासी के परस्पर आलापों का मनोरम वर्णन है, जिसमें युवती के आकर्षक वचनों का विरागी द्वारा तिरस्कार दिखलाया गया है। यह १८८० ई. की रचना है। __ कवि ककनरचित ‘मृगाङ्कशतक'५ १०० पद्यों का एक संग्रह है; जिसमें प्रेमभाव के संचारक चन्द्रमा की प्रशस्ति है। अज्ञातनामा कवि द्वारा विरचित ‘नीतिदीपिका'६ एक खण्डित संग्रह है। वङ्गप्रान्तीय पूर्वस्थल के निवासी कृष्णमोहन कविविरचित ‘नीतिशतक’ १०८ मुक्तक श्लोकों का संग्रह है जिसमें चार संग्रह हैं। इनमें प्रथम संग्रह (सर्ग) के ३२ श्लोकों में बाल्य-जीवन, द्वितीय सर्ग के २६ श्लोकों में युव-जीवन, तृतीय सर्ग के २८ श्लोकों में परिपक्व गृहस्थ-जीवन तथा अन्तिम सर्ग के २६ श्लोकों में वार्धक्य-जीवन का सजीव वर्णन है। __ अज्ञातकर्तृक ‘परनारी-रति-निषेध-पञ्चक’ एक लघु संग्रह है, जिसमें नामानुरूप परनारी-संसर्ग का निषेध किया गया है। कामराज दीक्षित के आत्मज व्रजनराजदीक्षित-विरचित ‘रसिक जन-रञ्जन'६ १. डी.सी.-२० ११६३६ २. यह व्याख्या के साथ है एच.सी.-७, ५४६६ ३. एच.सी.-७, ५५१५ ४. एच.सी.-७, ५५२० ५. डी.सी.-२०, ११६८१ ६. डी.सी.-७, ५५१० ७. एच.सी.-७, ५५०८ ८. एच.सी.-७, ५५२१ ६. डी.सी.-२०, ११६८२ ३१७ है नीतिशास्त्र का इतिहास शतकत्रय, इसी कोटि की रचना है। इसमें वनिता सौन्दर्य-मोह का अच्छा वर्णन है। __रामचन्द्रगमीकृत ‘सिद्धान्तसुधातटिनी" एक अपूर्ण कृति है। इसमें पति और पत्नी के परिसम्वाद रूपमें वर्णन किया गया है। __ अज्ञातकर्तृक एक संग्रह ‘स्तनपञ्चक'२ भी इसी कोटिकी कृति में आता है। इसमें नारी के एक अङ्ग-विशेष का पाँच श्लोकों में वर्णन है। एलेश्वर नगर के महोपाध्याय के वंशज पेद्दिभट्ट द्वारा संगृहीत एक अपूर्ण कृति है ‘सूक्तिवारिधि'३, जिसमें नीति और सदाचार का वर्णन है। धीरेश्वर-विरचित ‘विद्यामञ्जरी’ दो अध्यायों में विभक्त १०० पद्यों का संग्रह है। इसमें विद्याकी महिमा वर्णित है। यह १८१४ ई. की रचना है। विद्या और सुन्दर इन दो प्रेमियों के परिसम्वाद रूप में वर्णित चौर कवि की रचना ‘विद्या-सुन्दर" ५५ पद्यों का एक सुन्दर संग्रह है। __ अज्ञातकर्तृक ‘विबुधोपदेश'६ में संस्कृतज्ञों को विविध उपदेश दिए गए हैं। लक्ष्मीधरके तनुज पं. विश्वेश्वर-विरचित ‘विश्वेश्वरार्या-शतक आर्याछन्द में १०० श्लोकों का संग्रह है। इसमें नारी के गुण और सौन्दर्य का मनोरम वर्णन है। इसपर विश्वेश्वरार्यासप्तशती नामकी व्याख्या की गई है। उपर्युक्त उपदेशात्मक इन लघु कृतियों के अतिरिक्त लुडविक स्टर्नबाख महोदयने निम्नलिखित कुछ और अप्रसिद्ध उपदेशात्मक रचनाओं का तथा अन्योक्तिपरक पद्यों के संग्रहों और प्रहेलिकाओं का उल्लेख किया है - (क) उपदेशात्मक - १. देवराज की आर्यामञ्जरी, रामचन्द्र, सीताराम तथा विश्वनाथ की आर्याविज्ञप्ति, ३. साहिब्राम की नीतिकल्पलता तथा कविकण्ठाभरण, ४. शम्भुराज की नीतिमञ्जरी, ५. सदानन्द की नीतिमाला तथा नीतिसार, नीतिशास्त्र-समुच्चय, & १. एच.सी.-७, ५५११ २. डी.सी.-२०, ११६६१ ३. एच.सी.-२०१२१४३ ४. एच.सी.-७, ५५१८ ५. एच.सी.-७, ५११४ ६. एच.सी.-७, ५५१२ ७. डी.सी.-२०, १६८४-५ - ३१८ गद्य-खण्ड ६. श्रीनिवासाचार्य, सुन्दराचार्य, वेकटराय तथा एक और अज्ञातकर्तृकनीतिशतक, ७. अप्पा वाजपेयीकृत नीतिसुमावली, ८. हरिदास तथा सुब्रह्मण्यकृत शान्तिविलास, ६. पद्मानन्द, शंकराचार्य तथा सोमनाथकृत वैराग्यशतक, १०. व्रजराज शुक्ल-विरचित नीतिविलास तथा पञ्चतन्त्र-संग्रह। (ख) अन्योक्तिपरक संग्रह १. एकनाथ काश्यपीकृत अन्यापदेशशतक, २. गणपतिशास्त्रीकृत अन्यापदेशशतक, ३. गीर्वाणेन्द्रकृत अन्यापदेशशतक, ४. घनश्यामकृत अन्यापदेशशतक, ५. जगन्नाथकृत अन्यापदेशशतक, ६. अज्ञातकर्तृक अन्यापदेशशतक, ७. आच्चान दीक्षितविरचित अन्योक्तिमाला,’ ८. लक्ष्मीनृसिंह-विरचित अन्योक्तिमाला,२ ६. हरिकृष्णकृत अन्योक्तिसंग्रहाध्याय, १०. भट्टवीरकृत अन्योक्तिशतक, ११. दर्शन विजयमणिकृत अन्योक्तिशतक, १२. सोमनाथकृत अन्योक्तिशतक १३. न्यायवाचस्पति रुद्रक-विरचित भावविलास, १४. गणपतिशास्त्रीकृत अन्यापदेशपञ्चाशत, १५. अज्ञातकर्तृक अन्यापदेशपद्धति, एल. स्टर्नबाख महोदय ने इस प्रसङ्ग में महासुभाषित संग्रह की भूमिका में और सूचनाएँ दी हैं।’ १६. कविमयूरकृत मयूराष्टक,५ १७. उत्प्रेक्षावल्लभ (शिवदास १४वीं शती) कृत भिक्षाटनकाव्य, जो ४० पद्धतियों में विभक्त हैं, शिवचरित से सम्बन्ध रखता है। १. द्र. लुडविक स्टर्नबाखकृत सुभा. मो. डाइ. लिट. पृ. ७२ २. डॉ. के. कृष्णमूर्ति द्वारा यह सम्पादित तथा प्रकाशित है। ३. द्र. वही पृ. ७२ ४. एल. स्टर्नबाख द्वारा सम्पादित महासुभाषितसंग्रह की भूमिका, वो.-१, दिल्ली १६७२ ५. जर्नल ऑफ दि अमेरिकन ओरियन्टल सोसाइटी, न्यू हवोन, ३१, पृ. ३४३-३४४ में G.B. Quackenbcs का लेख- ‘मयूर के संस्कृत पद्य"। नीतिशास्त्र का इतिहास ३१६ (ग) प्रहेलिका _संस्कृत काव्यशास्त्र में प्रहेलिकारूप काव्य को रसानुभूति में बाधक होने के कारण अधम काव्य में परिगणित किया गया है। प्रहेलिकारूप अलंकार भी रस-परिपन्थी होने से अलंकार कोटि में मान्य नहीं है-रसस्य परिपन्थित्वान्नालंकारः प्रहेलिका। किन्तु आलोचकों ने उपदेशात्मक काव्यमें प्रहेलिका को परिगृहीत किया है। किसी विषय को प्रत्यक्षतः अभिधासे नहीं स्पष्ट कर परोक्षतः व्यञ्जना द्वारा व्यक्त करने से काव्य में एक चमत्कार का अनुभव होता है। इसीलिए आनन्दवर्धन आदि ध्वनिवादी आचार्य ध्वन्यमान अर्थ को अधिक महत्त्व देते हैं। कहने की इसी व्यङ्ग्यात्मक शैली में एक कलात्मक रचना है-प्रहेलिका ।’ यह चतुष्पष्टि कलाओं में एक स्वतन्त्र कला रूप मानी जाती है, प्रहेलिका द्वारा भी परोक्षरूप से उपदेश दिया जाता है, अतः इसे उपदेशात्मक काव्य-परिवार का भी अङ्ग माना जाता है। ब्रह्म और अध्यात्मविषयक रहस्य तथा कूटात्मक वर्णन एवं ब्रह्मोद्यकथा वैदिक वाङ्मय में भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद की वाजसनेयिसंहिता, तैत्तिरीय संहिता, अथर्ववेद, शतपथ-ब्राह्मण, ऐतरेय-ब्राह्मण, कौषितकि-ब्राह्मण, तैत्रिरीय-ब्राह्मण, बृहदारण्यकोपनिषद्, आपस्तम्ब-श्रौतसूत्र, आश्वलायन-श्रौतसूत्र, कात्यायन-श्रौतसूत्र, लाट्यायन-श्रौतसूत्र, सांख्यायन-श्रौतसूत्र, वैतान-सूत्र आदि में कूटात्मक-रहस्यात्मक उपदेश मिलते हैं। महाभारत, बौद्ध-साहित्य, जैन-साहित्य आदि में भी उपदेशात्मक ऐसे वचन भरे पड़े हैं। सुभाषितसंग्रहों में अनेक कूटात्मक उपदेश संगृहीत हैं। काव्य-शास्त्रमें प्रहेलिका के अनेक भेद-प्रभेद किए गए हैं। प्रहेलिकाओं के अनेक संकलन मिलते हैं। इनमें धर्मदासकृत “विदग्धमुखमण्डन"४ अति प्रसिद्ध है। इसके अनेक श्लोक शाळ्धरपद्धति में तथा जल्हण-विरचित सूक्ति मुक्तावली में संगृहीत हैं। इसीसे यह भी निश्चित होता है कि विदग्धमुखमण्डनकार धर्मदास १२५० ई. के पूर्व ही विद्यमान थे। जिनप्रभ सूरि ने इस पर एक टीका लिखी है। १२६३ से १३६३ के बीच जिनप्रभ सूरि का कार्यकाल ज्ञात है। इससे भी धर्मदास का १२५० ई. से पूर्व का होना सिद्ध होता है। १. प्रहेलिका एक पारिभाषिक शब्द है। विदग्धमुखमण्डन में उसकी निम्नलिखित परिभाषा दी गई है व्यक्तीकृत्य कमप्यर्थ स्वरूपार्थस्य गोपनात्। यत्र बाह्यान्तरावौँ कथ्येते सा प्रहेलिका। इसमें प्रतिपादय अर्थ को गुप्त रखकर किसी अन्य अर्थको बतलाया जाता है। इसके आर्थी और शाब्दी दो प्रभेद होते हैं। ‘विदग्धमुखमण्डन’ में इसका उदाहरण दिया गया है-तरुण्यालिङ्गितः कण्ठे नितम्बस्थलमाश्रितः। गुरूणां सन्निधानेऽपि कः कूजति मुहुर्मुहुः ?। इसका उत्तर है-किञ्चित ऊन (खाली) जलपूर्ण घट।) २. द्र. सुभा. नो. डा. लि. पृ. ७३ ३. काव्यादर्श ३, ६८-१२३।। ४. काव्य-संग्रह, २६६-३११, Hacberlin द्वारा संकलित, कलकता १८४७ ई। ताराचन्द्र की विद्वन्मन्धरा के साथ संस्कृत प्रेस, बनारस से भी १८६६ ई. में प्रकाशित। ३२० गद्य-खण्ड है प्रहेलिका, आलाप, अन्तरालाप आदिरूपमें विरचित ‘विदग्धमुखमण्डन’ धर्मदास के कवि-कर्म-कौशल का चूडान्त निदर्शन है। काव्यकला की दृष्टि से इसका बहुत महत्त्व है। यह चार अध्यायों में विभक्त है। कुल २२० श्लोक हैं। प्रहेलिका का अर्थ समझना कठिन है, इसलिए इस पर अनेक व्याख्याएँ की गई हैं। नागराज या नागनाथ-रचित ‘भावशतक’ प्रहेलिकात्मक पद्यों का एक दूसरा प्रसिद्ध संग्रह है। इसमें विभिन्न छन्दों में रचित मुख्यतः संस्कृत में आनुषङ्गिकतया प्राकृत में भी कूटात्मक कुल १०२ पद्य हैं।
- इसी श्रेणी की रचनामें निम्नलिखित कृतियाँ भी आती हैं - १. अज्ञातकर्तृक ‘समस्यादीप'२ में १७५ श्लोक हैं, जिसमें ७६ श्लोकों में समस्यात्मक पङ्क्तियाँ हैं। २. अज्ञातकर्तृक ‘सीताविनोदकाव्य'२ में १२० पद्य हैं। इसमें श्रीराम के वियोगमें सीता के मनोभावों का सुन्दर वर्णन है। ३. कवि काशीनाथ-विरचित ‘दृष्टकूटार्णव’” इसी कोटि की कृति है। ४. हिमकरशर्मा-लिखित ‘संसार-विहारकाव्य’, ‘प्रहेलिकापहृति कूटाख्यान'६ तथा लक्ष्मीनारायण-विरचित ‘समस्यापूर्ति’ आदि प्रहेलिकारूप उपदेशात्मक काव्य हैं। इनमें अनेक प्रहेलिकाओं के अर्थ स्वयं लेखक ने अथवा उनके व्याख्याकारों ने स्पष्ट किए हैं। नीत्युपदेशात्मक काव्यके पूर्वोक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि संस्कृत वाङ्मय में नीति और उपदेश को अनेक पद्धतियों से व्यक्त किया गया है। कहीं तो कवि ने अपने प्रतिपाद्य विषय को अभिव्यक्त करने के लिए शृङ्गारात्मक शैली को अपनाया है तो कहीं शान्ति और वैराग्य मार्ग के द्वारा अपने विचारों को प्रकट किया है। कहीं तो रामयण, महाभारत, पुराण, महाकाव्य आदि में प्रतिपादित नीत्युपदेशपरक वचनों को संकलित कर ५. काव्यमाला, चतुर्थगुच्छक, पृ. ४६-६४ तथा ग्रन्थ-रत्न-माला, खण्ड १ मुम्बई १८८७ १. हरप्रसाद शास्त्री द्वारा संकलित संस्कृत पाण्डुलिपि, एशियाटिक सोसाइटी, बंगाल,-५५३४ २. वही-७, ५५४१ ३. वही-७, ५५३२ ४. वही-७, ५५३६ वही-७, ५५४२ ६. वही-७, ५५३६ • नीतिशास्त्र का इतिहास ३२१ उनका संग्रह किया है और अनेक मनीषियों ने नीति और उपदेशविषयक स्वतन्त्र रचनाएँ की हैं। इन स्वतन्त्र रचनाओं में भी विभिन्न शैलियों को अपनाया है। कहीं पति-पत्नी के परस्पर सम्वाद रूपमें, जैसे रामचन्द्रागमी की ‘सिद्धान्त-सुधातटिनी’ में, कहीं दो प्रेमियों के बीच पारस्परिक आलापमें, जैसे चोर कवि-कृत ‘विद्यासुन्दर’ में, ‘रम्भा-शुक सम्वाद’ में, कहीं एक युवती के साथ एक परिव्राजक के वार्तालाप में, जैसे ‘मदनमुखचपेटिका’ में, कहीं दो पशुओं के बीच जैसे शूकर और सिंह के सम्वादरूप घटकर्पर के ‘नीतिसार’ में, कहीं शिव-पार्वती के परिसम्वाद में नीत्युपदेशात्मक काव्य लिखे गए हैं। उपर्युक्त शैलियों के अतिरिक्त उपदेशात्मक वर्णन अन्योक्तिशैली में और प्रहेलिका के रूपमें भी दिया गया है। किसी विषयको प्रत्यक्षतः नहीं कहकर परोक्ष रूप से कहने में एक विशिष्ट चमत्कार आ जाता है। अतः कवियों ने इन शैलियों में अभीष्ट विषयों का निरूपण किया है। उपदेशात्मक काव्य में धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का निर्देश/उपदेश रहता है, इसलिए शृङ्गार और वैराग्य के द्वारा भी वह व्यक्त किया जाता है। अतएव नोत्युपदेशात्मक संस्कृत काव्य किसी एक शैली में आबद्ध नहीं है।