गद्य और पद्य के विशिष्ट संमिश्रण से निर्मित काव्य को चम्पू कहते हैं। गद्य-काव्य अपने अर्थगौरव और विन्यास शैली से महिमा मण्डित होता है तथा पद्यकाव्य सुललित राग-लय के साथ रमणीय अर्थ के प्रतिपादन से गौरवशाली बनता है। इन दोनों के एकत्र संमिश्रण से चम्पू-काव्य अधिक चमत्कारी होता है। जैसे मनोहर वाद्य के साथ सुमधुरगान अधिक आनन्द प्रदान करता है, वैसे ही अर्थ गौरवाश्रित गद्य रागलयाश्रित पद्य के साथ मिलकर अपूर्व काव्य-सौन्दर्य को प्रकट करता है। चम्पू की अलंकारशास्त्रीय परिभाषाओं के विवेचन से पूर्व काव्य के प्रमुख भेदों का उल्लेख करना आवश्यक है। काव्य के दो भेद हैं-श्रव्य एवं दृश्य।’ सरस्वतीकण्ठाभरणकार भोजने श्रव्य एवं दृश्यकाव्य का अन्तर बतलाते हुए लिखा है कि दृश्यकाव्य के समान श्रव्यकाव्य का अभिनय नहीं होता है। वह सुना जाता है, देखा नहीं जाता। उससे कानों को सुख मिलता है, आँखों को नहीं। श्रव्यकाव्य के तीन भेद हैं-गद्यकाव्य, पद्यकाव्य एवं मिश्रकाव्य। गद्य छन्दोहीन होता है परन्तु पद्य छन्दोमय। गद्य में अक्षरों एवं पदों का कोई निश्चित मान नहीं होता है जबकि पद्य में अक्षरों एवं पदों का निश्चित मान होता है। गद्य के किसी पद में भी छन्द का आंशिक रूप दृष्टिगोचर हो सकता है किन्तु उसे पद्य नहीं माना जा सकता है, क्योंकि पद्य छन्दोमय चार चरणों में पूर्णता को प्राप्त करता है। मिश्रकाव्य गद्य-पद्य की मिश्रित शैली में निबद्ध होता है । गद्य एवं पद्यों का मिश्रण रूपकों में भी मिलता है किन्तु वे दृश्काव्य की श्रेणी में आते हैं। मिश्रकाव्य में गद्यकाव्य का अर्थगौरव एवं पद्यकाव्य की रागमयता का एकत्र समावेश रहता है। अग्निपुराण में दो प्रकार के मिश्रकाव्यों का १. दृश्यश्रव्यत्वभेदेन पुनः काव्यं द्विधा मतम्। दृश्यं तत्राभिनेयं तद् रूपारोपात्तु रूपकम् ।। - साहित्यदर्पण-६/१, नाटयशास्त्र-३२/३८५ श्रव्यं तत् काव्यमाहुः यन्नेक्ष्यते नाभिनीयते। श्रोत्रयोरेव सुखदं भवेत् तदपि षड्विधम् ।।
- सरस्वतीकण्ठाभरण २/१४० ३. गद्यं पद्यं च मिश्रं च तत् त्रिधैव व्यवस्थितम्। दण्डी-काव्यादर्श- १/११ गद्यं पद्यं च मिश्रं च काव्यं यत् सा गतिः स्मृता। - सरस्वतीकाण्ठाभरण-२/१८ गद्यं पद्यं च मिश्रं च काव्यादि त्रिविधं स्मृतम् ।
- अग्निपुराण-३३७/८ । ४. वृत्तगन्धोज्झितं गद्यम्-साहित्यदर्पण-६/३३० ६२ गद्य-खण्ड उल्लेख किया गया है-ख्यात एवं प्रकीर्ण।’ ख्यात मिश्रकाव्य प्रबन्धात्मक होता है, जैसे चम्पू। प्रकीर्ण मिश्रकाव्य के अधोलिखित भेद मिलते हैं:- करम्भक, विरुद, घोषणा (जयघोषणा), आज्ञापत्र (दानपत्र) आदि। (क) करम्भकः-विविध भाषाओं में रचित प्रशस्ति को करम्भक कहते हैं, जैसे कविराज विश्वनाथप्रणीत प्रशस्तिरत्नावली। __ (ख) विरुदः गद्य-पद्य की मिश्रशैली में प्रणीत राजस्तुति को विरुद कहते हैं, जैसे रघुदेव मिश्र के द्वारा विरचित विरुदावली तथा दिगम्बर ठक्कुर द्वारा प्रणीत विरुदावली। (ग) घोषणा या जयघोषणाः-सुमतीन्द्रजयघोषणा में शाहजी की जयघोषणा प्रस्तुत की गई हैं। (घ) आज्ञापत्र या दानपत्रः-शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों में आज्ञापत्र एवं दानपत्र मिलते हैं जिनकी भाषा गद्यपद्यमयी रहती है। चम्पू शब्द की व्युत्पत्ति चुरादिगणीय गत्यर्थक चपि धातु से उ प्रत्यय लगाकर होती है:-चम्पयति चम्पति इति वा चम्पूः। हरिदासभट्टाचार्य के अनुसार-“चमत्कृत्य पुनाति सहृदयान् विस्मितीकृत्य प्रसादयति इति चम्पूः।" वस्तुतः चमत्कारप्रदर्शन की प्रवृत्ति चम्पूकाव्य में सर्वाधिक रहती है। दण्डी के काव्यादर्श में सर्वप्रथम चम्पू का उल्लेख मिलता है। गद्यपद्यमयी काचिच्चम्पूरित्यपि विद्यते। इस परिभाषा से ऐसा प्रतीत होता है कि सप्तम शताब्दी में चम्पू का अस्तित्व अवश्य था। हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन में चम्पू की परिभाषा करते हुए लिखा है :
- गद्यपद्यमयी साङ्का सोच्छ्वासा चम्पू: । इसकी पुष्टि वाग्भट ने भी अपने काव्यानुशासन में की है। __ रामायणचम्पू के रचयिता भोजने चम्पूकाव्य में गद्यपद्य की मिश्रित शैली से मिलने वाले आनन्द की तुलना वाद्य एवं गीत के सम्मिश्रण से उत्पन्न माधुर्य से की है: १. देखें ३३७/३८ २. करम्भकं तु विविधाभिः भाषाभिर्विनिर्मितम्। -साहित्यदर्पण ६/३३७ ३. गद्यपद्यमयी राजस्तुतिर्विरुदमुच्यते-वहीं ४. देखें वी.पी. एस्. शास्त्री के द्वारा सम्पादित सरस्वती महल लाइब्रेरी तंजौर कैटलोग-८/४२३७ ५. देखें चालुक्य बादशाह विनयादित्य का दानपत्र जर्नल ऑफ ओरियण्टल रिसर्च, मद्रास १/१७१ देखें १/३/उत्तरार्ध। ७. देखें ८/९ ८. देखें प्रथम अध्याय। चम्पू-काव्य ६३ गद्यानुबन्धरसमिश्रितपद्यसूक्ति हृद्या हि वाद्यकलया कलितेव गीतिः। तस्माद्दधातु कविमार्गजुषां सुखाय चम्पूप्रबन्धरचनां रसना मदीया।।' कविराज विश्वनाथ ने उदाहरणस्वरूप दशराजचरित नामक चम्पूकाव्य का उल्लेख करते हुए चम्पूकाव्य की परिभाषा इस प्रकार की है : गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते। एक अज्ञातकर्तृक परिभाषा का उल्लेख डा. सूर्यकान्त ने नृसिंहचम्पू की भूमिका में किया है, वह इस प्रकार है गद्यपद्यमयी साङ्का सोच्छ्वासा कविगुम्फिता। उक्तिप्रत्युक्तिविष्कम्भशून्या चम्पूरुदाहृता।। __ किन्तु यह परिभाषा भी समीचीन नहीं है। कारण, गद्यपद्यमयी रचनाएँ तो अनेक हैं जो चम्पू नहीं हैं, जैसे ऐतरेयब्राह्मण, कठोपनिषद्, जातकमाला, हितोपदेश, पञ्चतन्त्र आदि। साङ्कता विशाल चम्पूसाहित्य में केवल दो चम्पूकाव्यों में मिलती है-नलचम्पू एवं गङ्गावतरणचम्पू। सोच्छ्वासता पारिजातहरणचम्पू, नलचम्पू, कुमारभार्गवीयचम्पू, नृसिंहचम्पू, गझवतरणचम्पू, वीरभद्रचम्पू आदि में उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त कुछ चम्पू काव्य ऐसे हैं जिनमें अध्याय-विभाजन है ही नहीं यथा बालकविकृष्णदत्तरचित जानराजचम्पू। शेष चम्पूकाव्यों में कुछ स्तबकों में विभक्त हैं तो कुछ आश्वासों में, कुछ उल्लासों में तो कुछ काण्डों में, कुछ तरङ्गों में, कुछ कल्लोलों में तो कुछ मनोरथों में, कुछ बिन्दुओं में तो कुछ परिच्छेदों में। जहाँ तक उक्तिप्रत्युक्ति के अभाव का प्रश्न है विश्वगुणादर्शचम्पू, वीरभद्रविजयचम्पू, विद्वन्मोदतरङ्गिणी आदि उक्ति-प्रत्युक्तिसम्पन्न हैं। जहाँ तक विष्कम्भकशून्यता का प्रश्न है चम्पू के दृश्यकाव्य नहीं होने के कारण विष्कम्भक की सत्ता की सम्भावना ही नहीं है। __ नलचम्पू की भूमिका में डा. कैलासपति त्रिपाठी ने अधोलिखित परिभाषा का उल्लेख किया है: जो डा. छविनाथ त्रिपाठी के चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन शोधप्रबन्ध के ४६ वें पृ. से उद्धृत है। गद्यपद्यमयं श्रव्यं सबन्धं बहुवर्णितम्। सालङ्कृतं रसैः सिक्तं चम्पूकाव्यमुदादृहृतम् ।। इस प्रकार गद्यपद्यमयता, श्रव्यता, प्रबन्धकाव्यत्व, वर्णनाधिक्य, सालङ्कारता, रसमयता आदि चम्पूकाव्य की मुख्य विशेषताएँ हैं जो इसे अन्य मिश्रशैली की रचनाओं से पृथक् करती हैं। चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन शीर्षक गवेषणात्मक ग्रन्थ के प्रणेता डा. छविनाथ त्रिपाठी के अनुसारः-गद्यपद्यमिश्रित काव्य चम्पूकाव्य कहलाता है। १. चम्पूरामायण-बालकाण्ड-श्लोक सङ्ख्या-३ २. साहित्यदर्पण-६/३३६ ६४ गद्य-खण्ड चम्पूकाव्य में गद्यपद्य की मात्रा निश्चित नहीं है। गद्य और पद्य वर्णन के किसी विशेष अङ्ग के लिए सुरक्षित न रहकर समान रूप से व्यवहृत हुए हैं। चम्पूकाव्य में वर्ण्यविषय का क्षेत्र व्यापक है। इसके मुख्य स्रोत पुराण रहे हैं। चम्पूकाव्य का अङ्गीरस कोई भी हो सकता है। __ काव्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा चम्पू की कुछ अपनी विलक्षणता है जिसके कारण यह सहृदयग्राही होता है। गद्यपद्यमिश्रणरूप प्रबन्धात्मक चम्पूकाव्य में सम्मिश्रणजन्य चमत्कार केवल गद्य अथवा पद्य में नहीं प्राप्त होता। गद्यकाव्य के अर्थगौरव एवं पद्य काव्य की सरसता का इसमें एकत्र समावेश रहता है। इसीलिए चम्पूकारों ने चम्पूकाव्य के अध्ययन से प्राप्त आनन्द की विलक्षणता के प्रसङ्ग में कहा है कि वह आनन्द किशोरी कन्या, वाद्ययुक्त सङ्गीत’, माध्वीक एवं मृद्वीक तथा सुधा और माध्वीक’ के सम्यक् संयोग के प्राप्त आनन्द के समान है। इसकी रमणीयता पद्मरागमणियुक्त मुक्तामाला अथवा कोमल-किसलय कलित-तुलसी के हार के समान आकर्षक होता है। चम्पूविहार रसिकजनों के लिए जलविहार के सदृश होता है। गद्यप्दयमिश्रण की परम्परा तो अतिप्राचीन है। वैदिक वाङ्मय में कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय, कठ एवं मैत्रायणी तीनों संहिताओं में यह पाया जाता है। ऐतरेय ब्राह्मण के हरिश्चन्द्रोपाख्यान में तथा उपनिषदों में कठ, केन श्वेताश्वतर, प्रश्न एवं मुण्डक में गद्य पद्य की मिश्रित शैली है। पालिजातकों में भी मिश्रशैली ही पाई जाती है। अवदानशतक एवं जातकमाला में भी गद्यपद्य का मिश्रण पाया जाता है। पञ्चतन्त्र-हितोपदेश वेतालपञ्चविंशतिका-सिंहासनद्वात्रिंशिकादि नीतिपरक उपदेशप्रद कथाएँ भी गद्यपद्य की मिश्रित शैली में ही लिखी गई हैं। पुराणों में विष्णुपुराण एवं भागवतपुराणों में गद्य एवं पद्य का मिश्रण मिलता है। दृश्यकाव्यों में अर्थात् रूपकों एवं उपरूपकों में पद्य एवं गद्य दोनों मिलते हैं। ताम्रपत्रों, शिलालेखों में भी गद्यपद्य मिश्रित शैली पाई जाती है। अब प्रश्न उठता है कि पञ्चतन्त्र, हितोपदेश आदि में गद्य एवं पद्य का मिश्रण तो है ही तथापि उसे चम्पूकाव्य की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जाता है ? प्रबन्धात्मकता चम्पूकाव्य की रीढ़ है, जो उपरिलिखित मिश्रशैली की रचनाओं में नहीं पाई जाती है। नीतिकथाओं में १. पृ. ३८ २. ‘द्राक्बाल्यतारुण्यवतीव कन्या।। -जीवन्धरचम्पू १/६ ३. ‘हृदया हि वाद्यकलया कलितेव गीतिः।। -चम्पूरामायण-बालकाण्ड-३ ४. सङ्गः कस्य हि न स्वदेत मनसे माध्वीकमृद्वीवकयोः।। -विश्वगुणादर्श-१/४ ५. सुधामाध्वीकयोर्योगवत्-कुमारसम्भवचम्पू-१/६ ६. पार्वाभिव्यक्तमुक्ताफल…पद्यरागोज्ज्वला स्रग्-तत्त्वगुणादर्श-१/४ ७. तुलसी प्रबालविचकिलकलिता मालेवः-बालभागवत। ८. किमु सुतनु नीरविहारो नहि नहि चम्पूविहारोऽयम्।। -गोपालचम्पू-अन्तिम श्लोक मनाशीम ६५ चम्पू-काव्य नीतिसम्बन्धी श्लोक रहते हैं, जिनकी विवरणात्मक कथा गद्य में लिखी गई होती है। सभी कथाएँ अपने आप में पूर्ण एवं स्वतन्त्र रहती हैं। चम्पूकाव्य में कथावस्तु में परस्पर सम्बद्धता रहती है और उसमें मनोभावात्मक विषयों के वर्णन पद्यों में किये जाते हैं और चरितनायक के वर्णनात्मक विषयों के वर्णन गद्यखण्डों में किये जाते हैं। चम्पू में पद्यांशों एवं गद्यांशों की मात्रा के प्रसङ्ग में कोई सर्वसम्मत मापदण्ड नहीं है। भिन्न२ चम्पूकाव्यों में इनकी पारस्परिक मात्रा में भिन्नता पाई जाती है। इनके आकार में भी भिन्नता पाई जाती है। नारायण एवं राम वर्मा के चम्पू केवल एक ही परिच्छेद के हैं, जब कि आनन्दवृन्दावन-चम्पू २२ स्तबकों का है। कथावस्तु कहीं एक घटनाश्रित होती है तो कहीं बहुघटनायुक्त। मुख्य एवं प्रासङ्गिक कथाओं के अतिरिक्त अवान्तर कथाओं का भी समावेश रहता है। प्रबन्धात्मकता होने के कारण चम्पूकाव्य में कथावस्तु का सन्निवेश अत्यावश्यक है। हाँ, कुछ चम्पूकाव्यों में कथावस्तु का या तो सर्वथा अभाव रहता है या कथावस्तु बहुत ही क्षीण रहती है। वर्ण्यविषय की कोई निश्चित सीमा नहीं है। चम्पूकाव्य के मुख्य स्रोत रामायण, महाभारत एवं पुराण हैं। गद्य-पद्य की एकागिता नहीं रहती है; दोनों से अधिक रमणीय होता है चम्पूकाव्य । अङ्गीरस वीर, श्रृङ्गार या शान्त कोई भी रहता है अन्य रस अङ्ग के रूप में रहते हैं। कीथ के अनुसार चम्पूकाव्य में पद्य-प्रयोग का उद्देश्य कथा के संक्षिप्तीकरण के लिए अथवा किसी विशेष वर्ण्य अंश की प्रभाववृद्धि के लिए या किसी महत्त्वपूर्ण भाव या विचार को और अधिक प्रभावोत्पादक बनाने के लिए हुआ है। परन्तु, डॉ. दासगुप्ता के अनुसार, चम्पूकाव्य में पद्य, किसी विशेष उद्देश्य, जैसे किसी मुख्य भाव, कवित्वपूर्ण वर्णन, प्रभावपूर्ण भाषण, नैतिक सङ्केत, आवेगपूर्ण भावाभिव्यक्ति आदि के लिए सुरक्षित नहीं रखे गये हैं। वे सामान्य विवरण और वर्णन के लिये भी वैसे ही प्रयुक्त हुए हैं जैसे गद्य । उपरिलिखित मुख्य स्रोतों के अतिरिक्त धार्मिक ग्रन्थ, इतिहास, देवताओं के महोत्सव, उनके माहात्म्य, मात्रा, धर्मगुरु, विविधसम्प्रदायों के सन्त, कवियों के आश्रयदाता राजा भी चम्पूकाव्य के स्रोत हैं। देवता, गन्धर्व, राजा, ऋषि, मुनि, विद्वान्, आचार्य, जागीरदार, जमीन्दार, सेठ आदि धीरोदात्त एवं धीरप्रशान्त नायक होते हैं। चम्पूकाव्यों की नायिकाएँ भी राजकन्या से लेकर भिल्ल कन्याओं तक होती हैं। नायक एवं नायिका के अतिरिक्त देव, असुर से लेकर सामान्य कोटि के मनुष्य यहाँ तक कि पशुपक्षी भी, पात्र के रूप में समाविष्ट रहते हैं। पात्रों की संख्या पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। कथावस्तु की दृष्टि से उपलब्ध चम्पू-काव्यों का, अधोनिर्दिष्ट प्रकार से, वर्गीकरण किया गया है : १. ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर-पृ. ३३२ २. ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर-(चम्पू) पृ. ४६३-६४गद्य-खण्ड or mov9 bp DO १ रामायण पर आधारित चम्पू __ महाभारत पर आधारित चम्पू पुराणों पर आधारित चम्पू जैन ग्रन्थों पर आधारित चम्पू ५ महापुरुषों के जीवनवृत्त पर आधारित चम्पू __यात्राप्रबन्धात्मक चम्पू ७ देवताओं एवं महोत्सवों पर आधारित चम्पू २३ ८ दार्शनिक चम्पू ६ काल्पनिक चम्पू ०५ २४७ इस तालिका में परिगणित चम्पू के अतिरिक्त जिन बीस चम्पूकाव्यों का यहाँ उल्लेख है उनमें मिथिला में लिखे गये दो चम्पूकाव्य हैं। बालकविकृष्णदत्तविरचित जानराज चम्पू और धर्मदत्त प्रसिद्ध बच्चा झा प्रणीत सुलोचनामाधवचम्पू। जानराजचम्पू में भोंसला वंशीय राजाओं विशेषकर रघूजी महाराज तथा उनके सुपुत्र जानूजी महाराज के जीवन के इतिवृत्तों पर आधारित है अतः उपर्युक्त वर्गीकरण के अनुसार यह पाँचवीं कोटि में आता है। सुलोचनामाधवचम्पू की कथा पद्यपुराण के क्रियायोगसार खण्ड के पञ्चम एवं षष्ठ अध्याय में वर्णित है। अतएव यह उपरिलिखित वर्गीकरण के आलोक में तृतीय कोटि में आता है। । सप्तम शताब्दी के आचार्य दण्डी के समय से पूर्व चम्पू का उदय हो चुका था जो आचार्यकृत चम्पू के लक्षण से ही स्पष्ट होता है, किन्तु उस समय के चम्पूकाव्यों का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है। आचार्य बलदेव उपाध्याय के शब्दों में: __ “दशमशती के आरम्भ में चम्पूकाव्य पाषाण की गोद से निकलकर साहित्य के चिकने धरातल पर आ चमका और तन से १८ शती तक साहित्य के चमत्कारी विधा के रूप में समादृत होता रहा"।’ प्रसन्नता का विषय है कि उन्नीसवीं एवं बीसवीं शती में भी अनेक चम्पूकाव्यों की रचनाएँ हुई हैं, जिनमें श्रीनिवासप्रणीत आनन्दरङ्गविजयचम्पू, रामनाथरचित चन्द्रशेखर चम्पू, अच्युत शर्मा के द्वारा लिखित भागीरथीचम्पू, कृष्णकविविरचित रघुनाथविजयचम्पू, सीतारामसूरिप्रणीत कविमनोरञ्जकचम्पू, शरभोजी द्वितीय विरचित कुमारसम्भवचम्पू, धर्मदत्त प्रसिद्ध बच्चा झा लिखित सुलोचनामाधवचम्पू तथा कविशेखर बदरीनाथ झा प्रणीत गुणेश्व रचरितचम्पू उल्लेखनीय है। स्वातन्त्र्योत्तर काल में रचित चम्पूकाव्यों में पाँच का उल्लेख किया गया है। उपलब्ध चम्पूकाव्यों का ऐतिहासिक दृष्टि से तथा विषय क्रम से विवरण निम्म्नलिखित है। १. द्रष्टव्य, संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ. ४१४ २. डॉ. छविनाथ त्रिपाठी, चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन चम्पू-काव्य ६७ १. रामायणचम्पू - रामायणचम्पू अथवा चम्पूरामायण के प्रणेता थे धारानरेश परमारवंशी राजा भोज जो दानशीलता के कारण विश्वविख्यात रहे। सरस्वतीकण्ठाभरण, शृङ्गारप्रकाश आदि इनकी प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियाँ हैं। इनका शासनकाल १०१८ ई. से १०६३ ई. माना जाता है। रामायण की भाँति ही रामायणचम्पू काण्डों में विभक्त है। इसमें छः काण्ड हैं, जिनमें प्रारम्भिक, पाँच बालकाण्ड से सुन्दरकाण्ड तक, भोज की रचना है। युद्धकाण्ड लक्ष्मणसूरि की कृति है। इस तथ्य की पुष्टि लक्ष्मणसूरि ने स्वयं ही की है ग्रन्थ के अन्तिम श्लोक में: साहित्यादिकलावता सनगरग्रामावतंसायित श्रीगङ्गाधर-धीरसिन्धुविधुना गङ्गाम्बिकासूनुना। प्राग्भोजोदितपञ्चकाण्डविहितानन्दे प्रबन्धे पुनः । काण्डो लक्ष्मणसूरिणा विरचितः षष्ठोऽपि जीयाच्चिरम्।। रामायणचम्पू वाल्मीकिरचित रामायण पर आधारित हैं। भोज ने लिखा है : वाल्मीकिगीतरघुपुङ्गवकीर्तिलेशै स्तृप्तिं करोमि कथमप्यधुना बुधानाम् । चम्पूरामायण के पद्यांश के सौन्दर्य से थोड़ा भी कम नहीं है गद्यांश का सौन्दर्य । गद्य-भाग में शैलीगत विविधता है। कहीं अत्यन्त सरल और छोटे-छोटे वाक्य हैं तो कहीं अनुप्रास की छटा से युक्त समस्त-पदावली वाले बड़े-बड़े वाक्य। कादम्बरी में बाणभट्ट ने श्लेषबन्ध के द्वारा उपमा की सृष्टि कर पाठकों को आह्लादित किया है। उसी प्रकार भोज ने भी चम्पूरामायण में किया है। आरण्यकाण्ड का हेमन्तवर्णन, किष्किन्धाकाण्ड का वर्षा-वर्णन तथा सुन्दरकाण्ड का सन्ध्या-वर्णन वर्णन-सौन्दर्य की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। पूर्ववर्ती कवियों के काव्य-सौन्दर्य को एक ही चम्पू-काव्य में रखने का प्रयास किया है। उन्होंने कहीं कालिदास की शैली का अनुकरण किया है तो कहीं माघ की शैली का, कहीं अलङ्कारों का चमत्कार दिखलाया है तो कहीं रस-परिपाक पर ध्यान केन्द्रित किया है। शब्दालंकारों में रामायणचम्पू में यमक की छटा दर्शनीय है। राम के राज्याभिषेक की घोषणा १. चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी, १६५६, १६७६ के संस्करण का उपयोग। २. बालकाण्ड-श्लोक संख्या ४ (पूर्वार्द्ध) ३. देखें बालकाण्ड-पृ. ४६ ४. देखें आरण्यकाण्ड-पृ. २१६ तथा बालकाण्ड पृ. ८७ ५. देखें बालकाण्ड पृ. ३६ ६. बालकाण्ड श्लो. सं. ७८, ७६ तथा ८१ ७. बा. का. श्लो. सं. १६ तथा अर. का. श्लोक सं. २ और ४ गद्य-खण्ड होने पर प्रजा की आनन्दमग्नता’, वनगमन के समाचार सुनने पर सीता की मनोदशा तथा बालिवध के बाद तारा का विलाप काव्य की कसौटी पर खरे उतरने वाले स्थल हैं। काव्य की कसौटी पर कवि की अन्तर्वेदना मुखरित हो उठी है। __लक्ष्मणसूरि ने भी लङ्कायुद्ध में पूर्ववर्ती काण्डों में विद्यमान भोज की शैली का सफलतापूर्वक अनुकरण किया है। लङ्काकाण्ड के प्रारम्भ में ही चन्द्रोदय का वर्णन पढ़ने के बाद यह निर्णय नहीं हो पाता है कि वह भोज की ही रचना है या किसी और की। प्रसादमयी शैली में नवीन भावों का समावेश रामायणचम्पू की विशेषता है। मेघों में बिजली के कौंधने के विषय में मनोरम उत्प्रेक्षा का एक उदाहरण द्रष्टव्य है - अम्भोपिधाने सलिलेन साकमापीतमौग्निशिखाकलापम्। तप्तोदरा वारिधरा वमन्ति विद्युल्लतोन्मेषमिषेण नूनम् ।। वर्षाकाल में दामिनी कौंध रही है। मानो समुद्र से जल लेते समय मेघों ने जिस वडवानल की शिखाराशि को उदरस्थ कर लिया था, वह अग्नि जब उसके उदर में दाह उत्पन्न करने लगी तब वे मेघ उस शिखाराशि को विद्युत्प्रकाश के बहाने उगल रहे हैं। २. अमोघराघवचम्पू -विश्वेश्वर के पुत्र दिवाकर की रचना है अप्रकाशित अमोघराघवचम्पू जो रामायण पर आधारित है। इसकी रचना शाके १२२१ तदनुसार १२६६ ई. में हुई थी। आदिकवि वाल्मीकि की स्तुति करते हुए चम्पूकार ने लिखा है: वाणी वासमवाप यस्य वदनद्वारिप्रतीक्ष्येव हृत पद्मस्थाम्बुजनामनाभिनिवसल्लोकेशसेवाक्षणम्। वल्मीकप्रभवाय कल्मषभिदे तस्मै परस्मै नमो रामोदात्तचरित्रवर्णनवचः प्रोद्योगिने योगिने।। कालिदास की कविता की रमणीयता का वर्णन चम्पूकार ने इस प्रकार किया है: रम्या श्लेषवती प्रसादमधुरा श्रृङ्गारसङ्गोज्ज्वला चाटूक्तैरखिलप्रियैरहरहस्यम्मोहयन्ती मनः। लीलान्यस्तपदप्रचाररचना सद्वर्णसंशोभिता भाति श्रीमति कालिदासकविता कान्तेव तान्ते रता। १. अयो. का. श्लो. सं. ४ २. वही श्लो. सं. १३ ३. किष्किन्धाकाण्ड श्लो. सं. १८ ४. अयो. का. श्लो. सं.६० ५. रामायणचम्पू ४/३१ ६. अप्रकाशित, ट्रिएनियल कैटलाग, मद्रास-V-६३६५ ७. द्र., हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिट्रेचर, कृष्णमाचारी, पृ. ५१७ चम्पू-काव्य __३. काकुत्स्थविजयचम्पू-आचार्यदिग्विजयचम्पू के प्रणेता वल्लीसहाय कवि की दूसरी रचना है काकुत्स्थविजयचम्पू जो अप्रकाशित है। इस चम्पू का उपजीव्य वाल्मीकि रामायण है। इसमें आठ उल्लासों में राम की कथा वर्णित है। ४. उत्तररामचरितचम्पू -इस चम्पू का भी प्रकाशन वेङ्कटाध्वरि की रचना के रूप में ही हुआ है। यह रामायण के उत्तरकाण्ड की कथावस्तु पर आधारित है। यह चम्पूकाव्य अपूर्ण सा प्रतीत होता है, क्योंकि भवभूति के उत्तररामचरित में वर्णित कथावस्तु का इसमें अभाव है। इसमें रामचन्द्र के अनुरोध पर अगस्त्य मुनि के द्वारा रावण, बालि एवं हनुमान् का चरित विशद रूप में चित्रित किया गया है। प्रस्तुत चम्पू में रचना की प्रौढ़ता सर्वत्र परिलक्षित होती है। चाहे वह कैलास का शृङ्गारिक वर्णन हो चाहे राम-रावण-युद्ध का वीररस से ओत-प्रोत वर्णन। उक्ति-वैचित्र्य एवं शब्दालङ्कारों की छटा दर्शनीय हैं। __ कविता की प्रौढ़ता का एक उदाहरण द्रष्टव्य है: चकितहरिणशावचञ्चलाक्षी मधुररणन्मणिमेखलाकलापम्। चलवलयमुरोजलोलहारं प्रसभमुमा परिसष्वजे पुरारिम् ।। ५. चम्पूरामायण युद्धकाण्ड-लक्षमणसूरि ने युद्धकाण्ड की रचना कर यह सिद्ध कर दिया कि प्रौढि में वे भोज से कम नहीं हैं। सैन्य-वर्णन, प्रकृति-वर्णन एवं युद्धवर्णन की प्रौढता देखकर ऐसा अनुभव होता है कि वह भोज की रचना के समान ही है। अलङ्कारों के प्रयोग में भी वह अन्यून है। ६. उत्तरचम्पू -उत्तरचम्पू की कथावस्तु वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड पर आधारित है। इसके रचयिता भगवन्त कवि थे। ये एकोजि भोसले (१६८७-१७११) के मुख्य अमात्य गङ्गाधर के पुत्र थे। अतः इनका समय सत्रहवीं शताब्दी का अन्त एवं अट्ठारहवीं शताब्दी का प्रारम्भ माना जाता है। इसमें मुख्यतः राम के राज्याभिषेक का वर्णन किया गया है। १. इण्डिया आफिस कैटलाग ४०३८/२६२४ २. गोपाल नारायण कम्पनी बम्बई से प्रकाशित। ३. द्र. श्लोक ७८ ४. द्र. श्लोक १७४ ५. संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ. ४२६ में उद्धृत ६. भोजकृत चम्पूरामायण के साथ ही प्रकाशित। ७. तोर कैटलाग-VI-४०२८, अप्रकाशित १०० गद्य-खण्ड उत्तरचम्पू की रचना-शैली साधारण कोटि की है। प्रवाशायीकाक ७. मारुतिविजयचम्पू’-सत्रहवीं शताब्दी के आस-पास के रघुनाथ कवि (कुप्पाभट्ट रघुनाथ) द्वारा विरचित सात स्तबकों वाले इस चम्पूकाव्य में वाल्मीकि के रामायण के सुन्दरकाण्ड के आधार पर हनुमान जी के महनीय कार्यों की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। ग्रन्थ के आरम्भ में गणेश एवं हनुमान जी की वन्दना की गई हैं। इस चम्पूकाव्य में ४३६ श्लोक हैं। या ८. रामचन्द्रचम्पूर-रीवां नरेश महाराज विश्वनाथ सिंह (१७२१ से १७४० ई.) की यह रचना रामायण की कथा पर आश्रित है। इसमें आठ परिच्छेद हैं। चम्पूकार ने स्वयं इस चम्पूकाव्य पर रामचन्द्रिका नाम की टीका भी लिखी है। २. महाभारत पर आश्रित चम्पू-६. नलचम्पूर-यह उपलब्ध चम्पूकाव्यों में प्राचीनतम है। साहित्यिक दृष्टि से भी यह महत्त्वपूर्ण है। इसके रचयिता त्रिविक्रमभट्ट नेमादित्य अथवा देवादित्य के पुत्र तथा श्रीधर के पौत्र थे। शाण्डिल्यगोत्रीय कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों का यह परिवार था। त्रिविक्रमभट्ट हैदराबाद के मान्यखेटनरेश राष्ट्रकूट वंशीय इन्द्रराज के सभापण्डित थे। बड़ौदा के समीप नौसारी ग्राम में प्राप्त ताम्रलेख के अनुसार इन्द्रराज का राज्याभिषेक २४ फरवरी सन् ६१५ ई. में हुआ। धारवाड़ के धत्तित्तूर ग्राम में प्राप्त एक अन्य अभिलेख के आधार पर भी राज्याभिषेक का काल ६१५-६१६ ई. ही सिद्ध होता है। घारानरेश भोज ने अपने सरस्वतीकण्ठाभरण में नलचम्पू के षष्ठ उच्छ्वास के एक श्लोक को उद्धृत किया है। भोज का कार्यकाल १०१५ ई. से १०५५ ई. है। अतएव दशम शताब्दी त्रिविक्रमभट्ट का कार्यकाल माना जाता है। नलचम्पू की कथावस्तु महाभारत के वनपर्व में वर्णित प्रसिद्ध नल-दमयन्ती-कथा पर आधारित है। यह अपूर्ण है। केवल प्रारम्भिक सात उच्छ्वास ही उपलब्ध हैं। चमत्कारपूर्ण एवं श्लेषमय सूक्तियों से युक्त यह चम्पू अपने १. अप्रकाशित, तञ्जोर कैटलॉग नं. ४१०६ २. आर. एल. मित्र कैटलॉग-वोल्यूम १ नं. ७३ ३. निर्णयसागर प्रेस बम्बई से १६३१ तथा चौखम्बा संस्कृत सिरीज वाराणसी से १६३२ में प्रकाशित ४. गुजरात के वगुभ्रानामक गग्रम में प्राप्त ६१४ ई. के एक अभिलेख के अनुसार इनके पिता का नाम नेमादित्य था। ५. देंखें नलचम्पू-प्रथम उच्छ्वास-श्लोक संख्या-१६ ६. वहीं ७. नल-दमयन्ती-कथा पर आधारित अनेक रचनाएँ हैं जिनमें हर्षप्रणीत नैषधीयचरित, लक्ष्मीधररचित नलवर्णन, श्रीनिवासदीक्षितविरचित नैषधानन्द प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त नलविक्रम, विधिविलासिता, दमयन्तीपरिणय आदि ग्रन्थों की भी रचना हुई। नलोपाख्यान पर आधारित नलीय-नाटक (जयजगत्प्रकाशमल्लविरचित) की हस्तलिखित प्रति वीर पुस्तकालय, काठमाण्डू में सुरक्षित हैं (क्रमांक प्र. ३६७) मादित्य था। चम्पू-काव्य १०१ काव्यगत वैशिष्टय के कारण चम्पू-साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। पाण्डित्य प्रधान पद-बन्धों से यह सुसज्जित है। चम्पूकार की मान्यता भी यही है। उन्होंने कहा है: किं कवेस्तेन काव्येन किं काण्डेन धनुष्मता। परस्य हृदये लग्नं न घूर्णयति यच्छिरः। अर्थात् कवि के ऐसे काव्य से क्या जो श्रोता के हृदय को मुग्ध न कर सके और वह सिर हिला-हिलाकर उसकी प्रशंसा न करे। धनुर्धर के ऐसे बाण से क्या जो शत्रु की छाती में लग कर उसके सिर को हिला न दे। पद-विन्यास पर चम्पूकार का विशेष ध्यान रहा है और उन्होंने इसमें दक्षता नहीं प्राप्त करने वाले अप्रगल्भ कवियों की निन्दा भी की है। कुकविनिन्दा के क्रम में उन्होंने कहा है अप्रगल्भाः पदन्यासे जननीरागहेतवः। सन्त्येके बहुलालापाः कवयो बालका इव ।। चम्पूकार को अलङ्कारों में श्लेष सर्वाधिक प्रिय है। सरल शैली में जिस निपुणता के साथ श्लेष की चमत्कारपूर्ण योजना नलचम्पू में की गई है वैसी अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होती है। परिसंख्या एवं विरोधाभास के प्रयोग में भी त्रिविक्रमभट्ट निष्णात हैं। उदाहरण के लिए उनकी अधोलिखित पङ्क्ति पर दृष्टिपात किया जा सकता है।:-“अव्ययभावो व्याकरणोपसर्गेषु न धनिनां धनेषु, दानविच्छित्तिरुन्मादयत्करिकपोलमण्डलेषु न त्यागि-गृहेषु, भोगभङ्गो भुजङ्गेषु न विलासिलोकेषु, स्नेहक्षयो रजनीविरामविरमत्प्रदीपपात्रेषु न प्रतिपन्नजन हृदयेषु, कूटप्रयोगो गीततानविशेषेषु न व्यवहारेषु, वृत्तिकलहो वैयाकरणच्छात्रेषु न स्वामिभृत्येषु, स्थानकभेदश्चित्रकेषु न सत्पुरुषेषु।। सभङ्गश्लेष के उदाहरण तो भरे पड़े हैं। उदाहरणार्थः “नमिताः फलभारेण न मिताः शालमञ्जरीः। केदारेषु हि पश्यन्तः के दारेषु विनिःस्पृहाः।। नास्ति सा नगरी यत्र न वापी न पयोधरा। दश्यते न च यत्र स्त्री नवा पीनपयोधरा।।६ १. नलचम्पू-प्रथम उच्छ्वास-श्लोक संख्या ५ २. वहीं-श्लोक संख्या ६ ३. देखें वहीं-उच्छ्वास ६, श्लोक संख्या २६ तथा ३२ ४. देखें वहीं-उच्छ्वास १, पृष्ठ संख्या ३० ५. देखें वहीं-उच्छ्वास २, श्लोक संख्या २ ६. देखें वहीं-उच्छ्वास १, श्लोक संख्या २६ मंत्री हजार १०२ गद्य-खण्ड “यस्य च चरणाम्भोजयुगलं विमलीक्रियेत न मज्जनेन । हा न मज्जनेन। यः शरङ्गारं जनयति नारीणां नारीणाम, यः करोत्याश्रितस्य नवं धनं न बन्धनम्, यो गुणेषु रज्यते न रमणीनां नरभणीनाम्, यस्य च नमस्याग्रहारेषु श्रूयते नलोपाख्यानं न लोपाख्यानम्।’ चम्पूकार की चित्रणशैली अद्भुत सुन्दर है। समुद्र में आधे डूबे हुए अस्त होते सूर्य-बिम्ब के वर्णन में इनका कल्पना-चमत्कार दर्शनीय है : रक्तैनाक्तं विनिहितमधोवस्त्रमेतत्कपालं तारामुद्राः किमु कलयता कालकापालिकेन। सन्ध्यावध्वाः किमु विलुठिता कौङ्कुमी शुक्तिरेवं शङ्कां कुर्वञ्जयति जलधावर्धमग्नार्कबिम्बम् । अर्थात् “क्या कापालिक रुधिर भरे कपाल को नीचे उलट कर तारकमुद्राओं को धारण कर रहा है ? सन्ध्यावधू की कुङ्कुमभरी शक्ति क्या उलट गई हैं ? समुद्र में अधडूबा सूर्यबिम्ब इन शङ्काओं को उत्पन्न कर रहा है।” नलचम्पू के छठे उच्छ्वास के अधोलिखित प्रारम्भिक श्लोक में कवि की निराली कल्पना ने त्रिविक्रम को यामुनत्रिविक्रम की संज्ञा ही दे डाली “उदयगिरिगतायां प्राक्प्रभापाण्डुताया- मासिक मनुसरति निशीथे शृङ्गमस्ताचलस्य। जयति किमपि तेजः साम्प्रतं व्योममध्ये सलिलमिव विभिन्नं जाहवं यामुनं च।।” अर्थात् “इधर उदयगिरि के शिखर पर प्रभा के कारण प्रकाश चमक रहा है, उधर अन्धकार अस्ताचल की चोटी पर निवास करने के लिए जा रहा है। इस समय आकाश के बीचोबीच कोई अवर्णनीय तेज (प्रकाश एवं अन्धकार के सम्मिश्रण से उत्पन्न तेज) शोभित हो रहा है। जान पड़ता है मानो नीलवर्णा यमुना के जल से सङ्गत पुण्य सलिला श्वेतनीरा आकाशगंगा का जल हो।३ चम्पूकार की चमत्कारिणी सूक्ति में श्लेष की प्रसन्नता द्रष्टव्य है १. देखें वहीं-उच्छ्वास २, पृष्ठ संख्या १३८-१३६ २. वहीं-उच्छ्वास-५ श्लो. सं. ७६ । ३. आचार्य बलदेव उपाध्याय, संस्कृत साहित्य का इतिहास प्र. ४१५ चम्पू-काव्य १०३ भवन्ति फाल्गुने मासि वृक्षशाखा विपल्लवाः।। जायन्ते न तु लोकस्य कदापि च विपल्लवाः।’ आर्यावर्त का वर्णन है। वहाँ फाल्गुन महीने में वृक्षों की शाखाएँ (वि + पल्लव) पल्लवरहित होती हैं, परन्तु वहाँ के रहने वालों को कभी भी (विपद् + लवाः) छोटी सी विपत्तियाँ भी नहीं होतीं। विपल्लवाः में श्लिष्टार्थ वस्तुतः साफ-सुथरा है। १०. अभिनवभारतचम्पू- महाभारत की कथा को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करता है अभिनव कालिदास का दूसरा अप्रकाशित चम्पूकाव्य-अभिनवभारतचम्पू जिसका उल्लेख डा. त्रिपाठी ने किया है। ११. भारतचम्पू- भारतचम्पू का दूसरा नाम चम्पूभारत भी है। किंवदन्ती के अनुसार इसके रचयिता अनन्तभट्ट ग्यारहवीं शताब्दी के भागवतचम्पूकाव्य के प्रणेता अभिनव कालिदास के समसामयिक थे। भारतचम्पू में महाभारत की प्रमुख घटनाएँ सङ्ग्रहीत हैं। चम्पूरामायण की तरह चम्पूभारत में भी पद्यभाग का आधिक्य है। गद्य-खण्ड उसी की भाँति यहाँ भी छोटे-छोटे हैं। इस चम्पूकाव्य में बारह स्तबक हैं, जिनमें कुल १०४१ श्लोक तथा लगभग २०० से अधिक ही गद्य-खण्ड हैं। महाभारत के कथा-क्रम का ही अनुसरण किया गया है। _यह चम्पू एक वीररसप्रधान काव्य है। प्रकृति-वर्णन एवं वसन्त-वर्णन तो रमणीय हैं ही, युद्धवर्णन में भी चम्पूकार ने पूरी सफलता पायी है। ओजोगुणविशिष्ट शैली में युद्ध-वर्णन बड़ा ही मार्मिक बन पाया है। भारतचम्पू पर सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कार्यरत मानवेद की टीका के आधार पर इतिहासकारों ने इन्हें सोलहवीं शताब्दी से पूर्ववर्ती माना है। चम्पूभारत पर छः टीकाएँ उपलब्ध हैं। मध्ययुगीन अतिशयोक्ति के प्रभाव से प्रभावित कवि द्वारा नायिका के कटिप्रदेश का अभाव देखकर हाथ में सुनहली करधनी लेकर ठिठकने वाली सखी का यह वर्णन उर्दू कवियों की शैली का द्योतक है सकलमपि वपुर्विभूष्य तन्व्याःसपदि सखी विपुलेक्षणाम्बुजापि। चिरतरमनवेक्ष्य मध्ययष्टिं करधृतकाञ्चनकाञ्चिरेव तस्थौ” । १. नलचम्पू १/२७ २. देखें, लेविस राइस कैटलाग (२४६) ३. देखें, चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन पृ. ११७ ४. चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी १६५७ ५. कृष्णमाचार्य, हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिट्रेचर पृ. ५११, आचार्य बलदेव उपाध्याय संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ. ४१६ १०४ गद्य-खण्ड १२. राजसूयप्रबन्ध’ - नारायण का दूसरा चम्पूकाव्य राजसूयप्रबन्ध युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का विवरण उपस्थित करता है। महाभारत के सभापर्व में इस राजसूय यज्ञ का वर्णन है। यह प्रस्तुत चम्पूकाव्य का आधार है। युधिष्ठिर के द्वारा दिए गए प्रचुर दान का विस्तृत वर्णन इसमें किया गया है। १३. द्रौपदीपरिणयचम्पू - द्रौपदीपरिणयचम्पू के प्रणेता चक्रकवि सत्रहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में थे ऐसा माना जाता है, क्योंकि इन्होंने नीलकण्ठ दीक्षित का उल्लेख किया है और नीलकण्ठ का समय है ६३७ ई.। चक्रकवि के पिता थे लोकनाथ एवं माता थी अम्बा। रुक्मिणीपरिणय, जानकीपरिणय, पार्वतीपरिणय एवं चित्ररत्नाकर चक्रकवि की अन्य रचनाएँ हैं। महाभारत के आदि पर्व की कथावस्तु पर आधारित यह चम्पू पाण्डवों के एकचक्रानगरी में निवास से लेकर द्रौपदी के स्वयंवर, धृतराष्ट्र द्वारा पाण्डवों को आधा राज्य एवं युधिष्ठिर के राज्य करने तक का वर्णन करता है। यह छः आश्वासों में विभक्त है। ग्रन्थारम्भ में आदि कवि वाल्मीकि से लेकर भारवि पर्यन्त कवियों की वन्दना की गई है। चतुर्थ आश्वास में पाँचों पाण्डवों का वर्णन उनकी चारित्रिक विशेषताओं को उजागर करता है। द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तान्त पञ्चम आश्वास में वर्णित है। आश्वासों के अन्तिम श्लोकों में चम्पूकार ने अपना एवं अपनी रचनाओं का परिचय दिया है। १४. भारतचम्पूतिलक - सत्रहवीं शताब्दी के ही अन्तिम भाग में या अट्ठारहवीं के प्रारम्भ में गगाम्बिका एवं गङ्गाधर के पत्र लक्ष्मणसरि ने महाभारत के आधार पर पाण्डवों के जन्म से लेकर युधिष्ठिर के राज्य करने तक की कथा के वर्णन करने वाले भारतचम्पूतिलक नामक चम्पूकाव्य का प्रणयन किया। लक्ष्मणसूरि के पिता गङ्गाधर एवं पितामह दत्तात्रेय ने भी चम्पूसाहित्य को अपनी रचनाओं से समृद्ध किया। लक्ष्मणसूरि ने भोज के चम्पूरामायण के युद्धकाण्ड की रचना उसी शैली में कर उसे भी पूर्ण किया। भारतचम्पूतिलक चार आश्वासों में विभाजित है। ग्रन्थान्त में कवि ने अपना परिचय देते हुए अपने निवास स्थान शनगर ग्राम का भी उल्लेख किया है। ३ पुराणों पर आधारित चम्पू १५. मदालसाचम्पू - त्रिविक्रमभट्ट की दूसरी रचना है मदालसाचम्पू। यह मार्कण्डेय पुराण के अध्याय १८ से २१ तक वर्णित मदालसा एवं कुवलयाश्व के आख्यान पर १. संस्कृत साहित्य परिषद् कलकत्ता की पत्रिका xvi न. १० में प्रकाशित २. वाणी विलास प्रेस, श्रीरङ्गम् से प्रकाशित ३. अप्रकाशित, डिस्क्रिप्टिव कैटेलाग, मद्रास, न. १२३३२ ४. सन् १८८२ ई. में जे.बी. मोदक द्वारा सम्पादित होकर पूना से प्रकाशित चम्पू-काव्य १०५ आधारित है। यह उपाख्यान कवि, नाटककारों एवं चम्पूकारों की रचनाओं का प्रसिद्ध स्रोत रहा है। मदालसा के उपाख्यान की प्रमुख घटनाएँ हैं-नायक कुवलयाश्व का चरित्रचित्रण, पातालकेतु का वध, मदालसा का विवाह, मदालसा-वियोग, नागराज के घर पर कुवलयाश्व का जाना और मदालसा एवं कुवलयाश्व का पुनर्मिलन। १६. भागवतचम्पू-भागवतचम्पू कृष्णकथापरक चम्पूकाव्यों में प्राचीनतम है। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध की कथावस्तु पर रचित इस चम्पूकाव्य के रचयिता हैं अभिनव कालिदास। इन्होंने अपना परिचय ग्रन्थ में नहीं दिया है। कृष्णमाचार्य के अनुसार ये वेल्लालकुल के थे और अनुमानतः इनका समय एकादश शतक माना गया है। इन का नाम अज्ञात है। अभिनव कालिदास इनकी उपाधि है। भागवतचम्पू में छः स्तबक हैं, जो भक्तिपरक नहीं होकर मुख्यतया शृङ्गारपरक हैं। ग्रन्थारम्भ शिव और पार्वती की स्तुति से होता है। अन्तिम स्तबक में राधाकृष्ण के मिलन का पूर्णतया भौतिक पक्ष अत्यधिक शृङ्गारिक पद्यों के द्वारा दर्शाया गया है। अभिनव कालिदास अपने उपजीव्य श्रीमद्भागवत की भक्तिभावना को अपने चम्पूकाव्य में समाविष्ट करने में सर्वथा असफल रहे। उन्होंने उद्दाम शृङ्गारिक संयोगपक्ष के चित्रण में ही अपनी निपुणता दिखलायी है। हाँ, कृष्ण के वियोग में विलखती हुई गोपियों के वर्णन में उन्होंने विप्रलम्भ श्रृङ्गार का आश्रयण किया है, किन्तु वह स्थल उतना मार्मिक नहीं बन पाया है जितना उचित था। १७. रुक्मिणीपरिणयचम्पू-रुक्मिणीपरिणयचम्पू एक अप्रकाशित चम्पूकाव्य, जिसके रचयिता थे अम्मल, जिनका समय लगभग सोलहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना गया है। वेदान्तकल्पतरु, शास्त्रदर्पण एवं पञ्चपादिका-व्याख्या के रचयिता अमलानन्द का चम्पूकार अम्मल के साथ तादात्म्य मानकर कुछ लोग चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इनका काल मानते हैं। __इस चम्पूका आधार है हरिवंशपुराण एवं भागवतपुराण में वर्णित रुक्मिणी के विवाह की कथा जो विष्णुपुराण’ एवं ब्रह्मवैवर्तपुराण’ में भी वर्णित है। Te १. मदालसाचम्पू पर आधारित उपलब्ध रचनाएँ-मदालसा डा. रामकरण शर्मा की काव्यरचना है। मुदित मदालसा नाटक एवं कुवलयाश्वीय नाटक क्रमशः गोकुलनाथ एवं कृष्णदत्त की नाटक कृतियाँ हैं। नेपाल के वीर पुस्तकालय में जगज्-ज्योतिर्मल्लविरचित मुदितकुवलयाश्वनाटक (क्रमाक ३६१) एवं जयजितामित्रमल्लप्रणीत मदालसाहरण नाटक (क्रमाङ्क ३५४) हस्तलिखित प्रतियाँ सुरक्षित हैं। २. गोपाल नारायण कम्पनी कालबादेवी बम्बई से १६२६ ई. में प्रकाशित। ३. हिस्ट्री ऑफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर-पृ. ५०६ ४. मैसूर कैटलॉग-नं. २७०, अप्रकाशित ५. विष्णुपर्व-अध्याय ४७ से ६० तक ६. दशम स्कन्ध-अध्याय ५३ से ५४ तक१०६ गद्य-खण्ड की १८. आनन्दवृन्दावनचम्पू -आनन्दवृन्दावनचम्पू एक विशालकाय चम्पूकाव्य है। इसमें २२ स्तबक हैं। श्रीमद्भागवतमहापुराण के दशम स्कन्ध के आधार पर प्रस्तुत चम्पू काव्य में कृष्ण के जन्म से प्रारम्भ कर उनकी किशोरावस्था की लीलाओं का चित्रण किया गया है। __इस ग्रन्थ के रचयिता थे श्रीपरमानन्ददास जो कविकर्णपूर के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुए। इनका जन्म बंगाल के नदिया जिले के काञ्चनपल्ली नामक गाँव में सन् १५२४ ई. में हुआ था। इनका पहला नाम था पुरीदास। श्रीचैतन्यमहाप्रभु की अनन्य कृपा से इनका मूकत्व जाता रहा और भक्ति की धारा श्लोकबद्ध होकर मुँह से निकल पड़ी। कर्णपूर नाम चैतन्यमहाप्रभु ने ही इन्हें दिया। चैतन्यचन्द्रोदय, कृष्णाहिकपद्धति प्रभृति इनकी अन्य रचनाएँ हैं। __चन्द्रोदयवर्णन में चम्पूकार का उत्प्रेक्षा-विलास दर्शनीय हैं:-“समुदियाय तुहिनकिरणः स च प्रथमं कोपारुण-मुखकमलायाः कमलायाः कपोलपोलककनकताटक इव युवजनहृत्पटरङ्गकुण्डवलय इवानङ्गरञ्जकस्य नभः कुण्डताण्डविता रसमयसमयनिश्चय वटिका पात्रीव ताम्रमयी सितपरमण्डप इव रश्मिरश्मिवितानितऋतुराजस्य सपल्लवो राजतकुम्भ इव…. मधुरिमजलराशेः सौध इव सौन्दर्यदेवतायाः सैकतवलय इवाकाश गङ्गायाः…." __ वंशीरव सुनकर सुध-बुध खोकर दौड़ पड़ने वाली गोपिकाओं का चित्रण देखने योग्य है: उत्तरीयमपि चान्तरीयतामन्तरीयमपि चोत्तरीयताम्। यज्जगाम किमभूत् परस्परं पूजनं तदपि नूनमङ्गयोः।। वसन्त ऋतु के अनेकविध पुष्पों से सजी राधा का वर्णन तो देखिए कचौघे पुन्नागं बकुलमुकुलानि भ्रमरके ष्वशोक सीमन्ते श्रवसि सहकारस्य कलिकाः। स्तनाग्रे वासन्तीकुसुमदलमालेति कुसुमैः । स्वयं वृन्दा राधां सपदि मुमुदेऽलङ्कृतवती।। १. देखें V. २६ २. देखें उत्तरार्ध -अध्याय १०५ से १०८ तक ३. बंगलालिपि में वृन्दावन से तथा देवनागरी लिपि में वाराणसी से प्रकाशित। १०७ चम्पू-काव्य चम्पूकार ने ग्रन्थ में अपने नृत्य एवं सङ्गीत सम्बन्धी ज्ञान की विशदता का पूर्ण परिचय दिया है। चम्पू का प्रधान रस है श्रृङ्गार। नायक हैं श्रीकृष्ण और नायिका राधिका। वीर, अद्भुत, हास्य आदि रसों का भी स्थान-स्थान पर समावेश हुआ है। माधुर्य एवं प्रसादगुणों का बाहुल्य है। १६. गोपालचम्पू’ - गोपालचम्पू के प्रणेता जीवराज महाराष्ट्र के भारद्वाज गोत्र में उत्पन्न कामराज के पौत्र और ब्रजराजकविराज के पुत्र थे। ये महाप्रभुचैतन्य के समसामयिक थे। गोपालचम्पू की कथावस्तु भी आनन्दवृन्दावनचम्पू की भाँति श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध पर आधारित है। ग्रन्थारम्भ में गंगा की स्तुति की गई है। चम्पूकाव्य से मिलने वाले आनन्द की तुलना चम्पूकार ने ग्रन्थान्त में विहार से प्राप्त होने वाले आनन्द से की है: मामा मदयति मनो मदीयं तनुजघनभारतीरसविलासः। पालिका किमु सुतनु नीरविहारो नहि नहि चम्पूविहारोऽयम् ।। २०. कुमारभार्गवीयचम्पू -रसमञ्जरी, रसतरङ्गिणी, रसपारिजात, गीतगौरी पति. अलङकारतिलक. चित्रचन्द्रिका आदि अनेक ग्रन्थरत्नों के प्रणेता कविराज भानदत्त मिश्र की रचना है कुमारभार्गवीयचम्पू। भानुदत्त मिश्र मिथिला के प्रसिद्ध श्रोत्रिय वंश सोदरपुर मूल की सरिसव शाखा में उत्पन्न महामहोपाध्याय गणपति मिश्र के पुत्र थे। गणपति मिश्र गणेश्वर तथा गणनाथ के नाम से भी प्रख्यात थे। इनके द्वारा रचित सुललित पद्यों को इनके पुत्र भानुदत्त ने रस पारिजात में सुरक्षित रखा है। भानुदत्त का जन्म पन्द्रहवीं शताब्दी के तृतीय चरण में हुआ था और सोलहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध इनकी साहित्य-सेवा का काल माना जाता है। इन्होंने देवगिरि के द्वितीय निजाम (१५०८-१५५३), विजयनगर के कृष्णदेवराय (१५०६-१५३०), रीवा के वीरभानु (१५२३-१५५५), गढ़मण्डला के सङ्ग्राम सिंह (१४८०-१५३०) तथा सम्राट् शेरशाह (१५४०-१५४५) का आश्रय प्राप्त कर सारस्वत-साधना की। इन आश्रयदाता नरपतियों की प्रशंसा में लिखे गये श्लोक रसपारिजात में संगृहीत हैं। कुमारभार्गवीयचम्पू बारह उच्छ्वासों में विभक्त है। इसमें शिव एवं पार्वती के परिणय तथा कुमार कार्तिकेय के जन्म से लेकर उनके द्वारा किए गए तारकासुरवध तक की कथा १. वृन्दावन से बंगलालिपि में प्रकाशित __२. कविराज भानुदत्तग्रन्थावली में संगृहीत, मिथिला संस्कृत विद्यापीठ, दरभङ्गा से १६८८ में प्रकाशित/ लेखक द्वारा सम्पादित। ३. यथा गणपतेः काव्यं काव्यं भानुकवेस्तथा। उभयोः सङ्गतः श्लाध्यः शर्कराक्षीरयोरिव ।। (श्लोक २) १०८ गद्य-खण्ड वर्णित है। कथाका मूलस्रोत है शिवपुराण का कुमारखण्ड, स्कन्दपुराण का माहेश्वरखण्ड एवं अन्य पुराणों में आनुषङ्गिक रूप में चर्चित कुमार कार्तिकेय का जीवन-वृत्त। ग्रन्थ के आरम्भ में भानुदत्त ने वराहावतार भगवान् की महिमा गाते हुए आशीर्वादात्मक मङ्गल का विधान किया है। इसके बाद सज्जन-प्रशंसा एवं दुर्जन-निन्दा की गई है। रोचक यात्रावर्णन के क्रम में काशी एवं प्रयाग का वर्णन अत्यन्त मनोहारी है। __ श्रीविश्वनाथ की अर्चना करने वाले भक्त का चित्रण करते हुए चम्पूकार कहते हैं। माल्यति कला सुधांशोरुष्णीषति वीचिरमरवाहिन्याः। हारति फणी हुताशस्तिलकति भाले महेशमर्चयताम्। शादी काशी की गङ्गा का वर्णन बड़ा ही चमत्कारपर्ण है : “अथ महापुरुषमिव गम्भीरं, शशिनमिव स्वच्छं, गरलवलयमिव नहिमकररञ्जितं, गोपतरुणमिव प्रबलतरङ्गविद्योतमानप्रमोदं, महराजमिवं प्रबलपराक्रममीनसमुचित विलासभाजनं, जलधिमिव नारायणसम्भेदसुभगं, देवकीतनयभिव अजं बालरूपं, मन्थनसमयसागरमिव अजगरप्रवेशभीषणं, जगन्नाथक्षेत्रमिव महोच्चकमठमेदुरमुदकमादधानां, सन्ध्यासमयचक्रवाकीमिव मन्दरनिवर्तमानलोचनप्रान्तां कल्पलतामिव बहुविधमर्थमर्पयन्ती भगवतीभ्रमरतरङ्गवतीं ददर्श " कुमार स्वयंवर के पश्चात् कराया है। तत्पश्चात् कुमार कार्तिकेय का जन्म होता है। कार्तिकेय के बाल्य एवं युवावस्था के वर्णन-क्रम में ही राक्षसों के साथ युद्ध एवं राक्षसों के वध की कथा भी कही गई है। युद्धवर्णन देखने योग्य है:-“अथाकस्मादेव बहलकलकलविक्षोभितदिक्कालकुसुम (म) रिकुलकलावतीनयनयुगलजलकलापकल्पितजलधिसहस्रप्रपञ्चरोमाञ्चित गण्डमण्डलमाखण्ड-लनगरीमयचपलदगञ्चलरचिततामरसतोरण मत्तरलतरवारिविरावितप्रतिन (प) तिमनोविनोद-शतमनवरतविपक्षपक्षदैन्यं सैन्यं प्रतिद्वन्द्विप्रतिपक्षं प्रत्यधावतु।)" गद्य एवं पद्य दोनों में अलंकारो का भरपूर प्रयोग हुआ है। उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, यमक आदि प्रसिद्ध अलंकार प्रयुक्त हैं। __२१. कल्याणवल्लीकल्याण-लिङ्गपुराण के गौरी-कल्याण पर आधारित यह चम्पू रामानुजदेशिक की रचना है। चम्पूकार रामानुजचम्पू के प्रणेता रामानुजाचार्य के पितृव्य एवं गुरु थे। इसका उल्लेख रामानुजचम्पू के उपसंहार में हुआ है। सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध इनका समय है। १. ॥-४ पृ. ४०० २. पृ. ४०१ मा पानी का ३. देखें पृ. ५१५ ४. अप्रकाशित, डिस्क्रिप्टिव कैटलॉग मद्रास-२१/८२७५ मिकी चम्पू-काव्य १०६ २२. भागवतचम्पू’ - ग्रन्थकारम्भ में विजयनगर के राजा अच्युतराय का वर्णन है, जिनका शासनकाल १५२६ ई. से. १५४२ ई. है। डा. त्रिपाठी के अनुसार भागवतचम्पू के प्रणेता अनुमानतः ‘अच्युतरायाम्भुदय’ के रचयिता राजनाथ ही हैं। इनका पूरा नाम अय्यलराजु रामभद्र था। इनके पिता का नाम अवकलाचार्य (मद्रासवाले हस्तलेख के अनुसार अरुण गिरिनाथ) था। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के आधार पर कंसवध तक की घटनाएँ इस चम्पू में वर्णित हैं। २३. भागवतचम्पूर - कौशिक गोत्रोत्पन्न सूर्यनारायणाध्वरि के पौत्र एवं अनन्तनारायण के पुत्र थे चिदम्बर, जिन्होंने भागवतचम्पू की रचना की। इसका समय १५८६ ई. निर्णीत हो चुका है। ये विजयनगर के राजा वेङ्कट प्रथम के आश्रित थे। राघवयादवपाण्डवीय, शब्दार्थचिन्तामणि, चिदम्बरविलास आदि इनकी काव्य-रचनाएँ इनके प्रौढ़ पाण्डित्य का परिचय देती हैं। __ श्रीमद्भागवत की कथा को आधार मानकर लिखे गए इस चम्पूकाव्य में तीन स्तबक हैं। अपनी काव्यकृति के प्रसङ्ग में अत्यन्त विनीतभाव से वे कहते हैं: काव्येषु सत्स्वपि महत्सु कवीश्वराणां प्रायो मितापि भणितिः प्रमुदे मदीया। कूलङ्कषेषु भुवने सरितां कुलेषु कुल्यापि किं न सरसा कुरुते प्रमोदम् ।। चम्पू की भाषा सरल एवं प्रसाद गुणसम्पन्न है। २४. पारिजातहरणचम्पू - काशिराज के अनुज महाराजाधिराज नरोत्तम के आदेश से नरसिंहसूरि के पुत्र शेषकृष्ण ने पारिजातहरणचम्पू की रचना की। इसकी कथावस्तु का मूल स्रोत है हरिवंशपुराण के विष्णुपर्व का अध्याय ६४ से ७६, पद्यपुराण-उत्तरखण्ड अध्याय २७५ तथा विष्णुपुराण-पञ्चमभाग-अध्याय ३० जिसमें यह लोकप्रिय प्रसिद्ध कथा विस्तार से वर्णित है। शेषकृष्ण का समय सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है। १. अप्रकाशित, तजौर कैटलॉग VII-४०६९-७० चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन पृ. १५० ३. अप्रकाशित तजौर कैटलॉग VII-४०६७ ४. स्तबक १-श्लोक-६ अप्रकाशित, तञ्जोर कैटलॉग-VII-३०८२ तथा डिस्क्रिण्टिभ कैटलाँग कुप्पुस्वामी VI-२६४० ५. निर्णयसागर बम्बई से १६२६ में काव्यामाला में प्रकाशित ११० गद्य-खण्ड - कृष्ण नारदमुनि से पारिजातपुष्प उपहार के रूप में प्राप्त करते हैं और रुक्मिणी को भेंट करते हैं। इससे सपत्नी की ईर्ष्या से सत्यभामा जलती हैं और कृष्ण से मानकर बैठती हैं। कृष्ण उन्हें मनाते हैं। सत्यभामा पारिजात-वृक्ष ले आने का हठ कर बैठती हैं। कृष्ण इन्द्र पर आक्रमण कर पारिजात-वृक्ष का अपहरण कर सत्यभामा की इच्छा पूर्ण करते हैं। आरम्भ के चार उच्छ्वास श्रृङ्गार प्रधान हैं केवल अन्तिम पञ्चम उच्छ्वास के युद्धवर्णन में वीर-रस है। - चम्पूकार ने अपने आश्रयदाता महाराजाधिराज नरोत्तम का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन तो ओजोगुण विशिष्ट समासबहुल गद्यखण्ड में प्रारम्भ में किया ही है। साथ ही प्रत्येक उच्छ्वास के अन्त में उनका गुणगान किया है। कृष्ण से मान कर बैठी सत्यभामा का शब्दचित्र बड़ा ही हृदयग्राही है। किञ्चित्कुञ्चितलोचनं विरचितभ्रूभङ्गमभ्युन्नम न्मध्यं वेल्लित बाहुवल्लिसरस व्याक्रोशवक्त्राम्बुजम्। प्रोदञ्चत्कुचमानमत्तनुगलद्वेणीमिलभूतलं सज्या कामधनुर्लतेव हरति व्याजृम्भमाणा मनः।। कुचगिरिमधिरुयोत्सर्पिणी भोगिनीव व्यथयति कबरीयं हारनिर्मोकमुक्ता। इह बहिरुपयान्त्या नाभिमूलाद् गभीरातू सरणिरुदयतेऽस्या रोमराजीमिषेण ।। अविरल अश्रुधारा से स्तन-कनक-शम्भु का स्नपन करती हुई सत्यभामा का वर्णन दर्शनीय है। श्रीकृष्ण कहते हैं करकिसलयशय्याशायि निःश्वासतापा दविरलगलदश्रु त्वन्मुखं मां दुनोति। द्विजपतिमभिभूयोद्भूतपापानुतापं कुचशिवमभिषिञ्चत्स्वं किमेतत्पुनीते।। २५. आनन्दकन्दचम्पू - आनन्दकन्दचम्पू समरपुङ्गव की दूसरी चम्पूरचना है। इसमें आठ आश्वास हैं। इसमें शैव सन्तों का चरित्र चित्रित है। आदि से अन्त तक कोई १. उच्छ्वास २-श्लोक १५ २. वहीं श्लोक १५ ३. वहीं श्लोक ५६ ४. अप्रकाशित, इण्डिया आफिस कैटलॉग VII-४०३६/२६० है चम्पू-काव्य १११ एक आख्यान नहीं है। सन्तों के जीवनचरित्र का यह एक संग्रह है। इस चम्पूकाव्य के उपसंहार से पता चलता है कि इसकी रचना १६१३ ई. में हुई थी। २६. नृसिंहचम्पू - नृसिंहचम्पू के प्रणेता दैवज्ञ सूर्य का जन्म भारद्वाज कुल में गोदावरी नदी के तट पर वार्था नामक नगर में हुआ था। इनके पिता का नाम था ज्ञानराज और पितामह का नाम नागनाथ। ये स्वयं अपना परिचय सङ्गीतागमकाव्यनाटकपटु के रूप में देते है। ये दैवज्ञ तो थे ही लीलावती एवं बीजगणित की टीकाएँ इनकी उपलब्ध कृतियों में हैं। लीलावती की टीका की रचना इन्होंने १५४१ ई. में की थी अतः सोलहवीं शताब्दी का मध्यभाग इनका समय माना जाता है। नृसिंहचम्पू का वर्ण्यविषय है नृसिंहावतार भगवान् द्वारा हिरण्यकशिपु का वध’ । इसमें पाँच उच्थ्वास हैं। प्रथम में केवल दस पद्य हैं जिनमें विष्णुधाम वैकुण्ठ एवं भगवान् नृसिंह की स्तुति की गई है। द्वितीय में हिरण्यकशिपु द्वारा अपने पुत्र भक्त प्रह्लाद को दी गई अमानुषिक यातनाओं का विवरण है। तृतीय में नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु के वध की कथा चित्रित की गई है। चतुर्थ में नृसिंह की स्तुति है और पञ्चम में असुरसंहारजन्य नृसिंह की प्रसन्नता एवं शान्ति का विवरण है। चम्पूकार ने स्वयं कहा है कि प्रस्तुत चम्पू में सभी रसों का एकत्र समावेश है। डा. सूर्यकान्त के शब्दों में :-“चम्पूश्चेयं सर्वैरपि गुणैरहीना अलङ्काररीतिलक्षणैरदीना रसभावपराचीना चेति सर्व निरवद्यम्।।३ चम्पूकार की भाषा में लालित्य है। लक्ष्मी का यह वर्णन उनके पदबन्ध का द्योतक है सौन्दर्येण भृशं दृशोर्नरहरेः साफल्यमातन्वती सभ्रूभङ्गमपाङ्गवीक्षणवशादाकर्षयन्ती मनः। स्फूर्जत्कंकणकिंकिणीगणझणत्कारैः कृतार्थे श्रुती कुर्वन्ती शनकैर्जगाम जगतामाश्चर्यदात्री रमा।। (नृसिंहचम्पू ५/३) २७. माधवचम्पू - माधवचम्पू के प्रणेता भी चिरञ्जीव भट्टाचार्य ही हैं। इसकी कथा काल्पनिक है। माधव अर्थात् कृष्ण का कलावती के साथ परिणय ही प्रस्तुत चम्पूकाव्य का प्रतिपाद्य विषय है। इसमें पाँच उच्छ्वास हैं। १. डा. सूर्यकान्त द्वारा सम्पादित जालन्धर से प्रकाशित २. यह कथा महाभारत, श्रीमद्भागवत, विष्णुपुराण, मत्स्यपुराण, विष्णुधर्मोत्तर, नरसिंहपुराण, नादरीयपुराण, धर्मपुराण आदि में वर्णित है। ३. भूमिका ४. कलकत्ता से प्रकाशित
गद्य-खण्ड ११२ प्रथम उच्छ्वास में अपने सेवक कुवलयाक्ष के साथ नायक माधव का वृन्दावन में, मृगया-वर्णन है। द्वितीय उच्छ्वास में अपनी सखियों के साथ स्नानार्थ सरोवर में आयी हुई कलावती नाम की सुन्दरी स्त्री के कटाक्ष से माधव आहत हो जाते हैं। तभी एक शुक मनुष्य की वाणी में माधव से उनका परिचय पूछता है और सेवक कुवलयाक्ष परिचय देता है। शुक से कलावती के प्रति अपनी आसक्ति की बात माधव कहते हुए सहायता करने का अनुरोध करते हैं। शुक कलावती के कुल एवं उसकी अवस्था का पता लगाता है। कलावती उत्कल नरेश मुकुन्दसेन की कन्या है और वह भी माधव के प्रति अत्यधिक अनुरक्त होकर वियोग में खिन्न है। तृतीय उच्छ्वास में कलावती के स्वयंवर में उपस्थित अनेक राजाओं का वर्णन है। स्वयंवर में वरमाला माधव के गले में पड़ती है और कलावती एवं माधव का विवाह होता है। चतुर्थ उच्छ्वास में राक्षसराज द्वारा माधव से कलावती की याचना की जाती है। कृष्ण-बलराम इसे अस्वीकार कर देते हैं। भयङ्कर युद्ध होता है, जिसमें राक्षसराज की मृत्यु होती है। राक्षसराज की पत्नी के द्वारा किए गए विलाप का वर्णन है। पञ्चम उच्छ्वास में माधव एवं कलावती का केलिवर्णन है। नारद के कथनानुसार माधव द्वारका जाते हैं। कलावती का दूत बनकर हंस द्वारका जाता है और विरहविधुरा कलावती की दयनीय दशा का वर्णन करता है और माधव रुक्मिणी को छोड़कर मथुरा लौट आते हैं और कलावती के साथ पुनर्मिलन होता है। चम्पूकाव्य का अङ्गीरस श्रृंगार है। वीररस अङ्ग है। श्रृङ्गाररस अपनी पूर्णता को प्राप्त किए हुए है। पद्यांश अधिक रमणीय हैं। गद्यखण्ड सरल है, अन्य चम्पूकाव्यों की तरह समासबहुल गौडीरीति में निबद्ध नहीं। __ वर्णन की दृष्टि से सम्पूर्ण चम्पूकाव्य मनोहर है। प्रभात-वर्णन के अधोलिखित श्लोक में श्रीहर्षप्रणीत नैषधीयचरित’ १२५ की छाया दिखाई पड़ती है : करनखरविदीर्णध्वान्तकुम्भीरकुम्भात् तुहिनकणमिषेण क्षिप्तमुक्ताप्ररोहः। अयमुदयधरित्रीधारिमूर्धाधिरूढो नयनपथमुपेतो भानुमत्केशरीन्द्रः ।।१२६२ २८. मत्स्यावतारप्रबन्ध-मत्स्यावतारप्रबन्ध के प्रणेता केरल राज्य के निवासी नारायणीय नामक स्तोत्रकाव्य के रचयिता नारायणभट्ट ने चौदह चम्पूकाव्यों की रचना की। इनके पिता का नाम मातृदत्त था। वे मीमांसक थे। १. सर्ग १६ श्लो. ६ २. उच्छ्वास ५ श्लोक २ ११३ चम्पू-काव्य नारायण कालीकट के मानविक्रम, कोचीन के वीरकेरल वर्मा, वटक्कुङ्कुर के गोदवर्मा तथा अम्पलयुक के देवनारायण नामक राजाओं के द्वारा सम्मानित हुए। इन राजाओं के आश्रित रहकर बहुमुखी प्रतिभा के अधिकारी नारायणभट्ट ने चम्पूकाव्यों के अतिरिक्त व्याकरणशास्त्र, मीमांसाशास्त्र आदि के ग्रन्थों की भी रचनाएँ कीं। इनका काल १५६० ई. के बीच माना जाता है। मार मत्स्यावतारप्रबन्ध सड़सठ पद्यों एवं बारह गद्यखण्डों का एक लघुकाय चम्पूकाव्य है जिसमें मत्स्यावतार की कथा कही गई है। यह रचना श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध के चौबीसवें अध्याय पर आधारित है। भगवान ने किस प्रकार मत्स्य रूप धारण कर वेदों को चुराने वाले हयग्रीव नामक राक्षस का वध कर वेदों का उद्धार किया, यही प्रस्तुत ग्रन्थ की कथावस्तु है। २६. नृगमोक्षचम्पू’ -प्रस्तुत चम्पूकाव्य में राजा नृग का उपाख्यान वर्णित है। इसके रचयिता भी नारायणभद्र हैं। इस उपाख्यान का आधार है श्रीमदभागवत के दशम स्कन्ध का ६४ वां अध्याय। ब्रह्मशापवश गिरगिट का शरीर प्राप्त करने वाले राजा नृग को इस योनि से किस प्रकार भगवान् कृष्ण ने मुक्ति दिलायी, यही चम्पू का वर्ण्य विषय है। ३०. हस्तगिरिचम्पू - यह चम्पू जिसका दूसरा नाम वरदाभ्युदयचम्पू भी है, वेङ्टाध्वरि की दूसरी रचना है जिसमें लक्ष्मी एवं नारायण के परिणय का वृत्तान्त वर्णित है। यह चम्पू पाँच विलासों में विभक्त है। प्रस्तुत चम्पू का मूल स्रोत पुराण है। इस कथा को ब्रह्मा ने भृगु को और भृगु ने नारद को सुनाई - या कथा लोकधात्रैव वर्णिता कर्णिता मया। कथये तामहं, तुभ्यं निधये तपसां मुदे।। - चम्पू का मङ्गलाचरण है - वि कल्याणैकनिकेतनं तदनद्यं कालाम्बुदश्यामलं चित्ते नृत्यतु शेषभूधरशिरोरतं चिरत्नं महः, यस्योरस्यनिशं सुता जलनिधेर्यस्यास्ति तन्मेखला पार्वे यस्य पदे च तत् प्रियतमा यत्तत्र शेते स्वयम् ।। १. डिस्क्रिप्टिव कैटलाग, मद्रास, सं. १२३१६ अप्रकाशित २. मैसूर से १६०८ में प्रकाशित ३. विलास । श्लोक । ११४ गद्य-खण्ड हस्तगिरिचम्पू में विश्वादर्शचम्पू की अपेक्षा गद्यावतरणों का आधिक्य है। ३१. आनन्दकन्दचम्पू’-गोपाचल (ग्वालियर) निवासी परशुराम मिश्र के पुत्र मित्र मिश्र की रचना है यह आनन्दकन्दचम्पू। इस ग्रन्थ के अतिरिक्त तीन और इनकी रचनाएँ हैं-१. वीरमित्रोदय याज्ञवल्क्स्मृ ति की टीका २. स्वतन्त्र धर्मशास्त्रग्रन्थ तथा ३. स्वतन्त्र गणितग्रन्थ। मित्रमिश्र ओरछानरेश वीरसिंह देव (१६०५ से १६२७ ई.) के आश्रित थे। आनन्दकन्दचम्पू की रचना का समय ‘शाकेशाङ्कगजतुभूपरिमिते’ को अशुद्ध मानकर ‘शाकेसाष्टगजतुभूपरिमिते’ के रूप में शुद्ध कर तदनुसार संवत् १६८८ (१६३१ ई.) माना गया है। प्रस्तुत चम्पू में श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के आधार पर श्रीकृष्ण-लीला वर्णित है। इसमें आठ उल्लास हैं। अन्तिम उल्लास के उत्तरार्ध में आश्रयदाता वीरसिंहदेव की प्रशस्ति, ओरछानगर का वर्णन तथा कविपरिचय है। । आनन्दकन्दचम्पू में अधिकांशतः समासबहुत ओजोगुणविशिष्ट गौडीरीति का प्रयोग किया गया है। वर्णनों में कहीं-कहीं पूर्ववर्ती कवियों के श्लोकों का अनुकरण दीखता है। भाषा में देशी शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। अलङ्कार की दृष्टि से वृन्दावन के अधोलिखित वर्णन में सौन्दर्य है : “ये खलु पत्रिणोऽपि न पत्रिणो नापत्रिणोऽपि, अविपल्लवा अपि सविपल्लवाः सपल्लवाश्च, फलिनोऽपि न फलिनः, लतोपनद्धा अपि नल तोपनद्धाः, विपुल स्कन्ध बन्धुरा अपि न वि पुलस्कन्धबन्धुराः, चीरैकमात्रपरिच्छदा अपि न चीरैकमात्रपरिच्छदाः रामादयः, उल्लसत्करवीरा अपि बोल्लसत्करवीराः वाहिनाः, अर्जुनसहिता अपि नार्जुनसहिताः युधिष्ठिरादयः १… ..(देखें २.५४५५)।” __ आश्रयदाता वीरसिंहदेव की प्रशस्ति एवं कंस-कृष्ण से युद्ध के वर्णन में चम्पूकार मित्रमिश्र ने भले ही सफलता प्राप्त की हो, काव्यसौष्ठव एवं भक्ति-भावना-निरूपण में आनन्दवृन्दावनचम्पूकार कर्णपूर की तुलना में ये बहुत पीछे रह जाते हैं। ३२. नृसिंहचम्पूरे - लौगाक्षी परिवार के श्री केशवार्य नृसिंहचम्पू अथवा प्रह्लादचम्पू के रचयिता केशवभट्ट के पितामह थे और अनन्त इनके पिता। इस चम्पू की रचना १६८४ ई. में हुई। यह चम्पूकाव्य उमापति दलपति की आज्ञा से लिखा गया है। इसमें १. म. म. गोपीनाथ कविराजद्वारा सम्पादित होकर वाराणसी से १६३१ में प्रकाशित। २. कृष्णा जी गणपत प्रेस बम्बई से १६०६ ई. में प्रकाशित चम्पू-काव्य ११५ ६: स्तबक हैं जिनमें, पुराणों में वर्णित नृसिंहावतार की कथा पर आधारित, पह्लाद एवं नृसिंहावतार की कथा वर्णित है। इसमें भ्रमवश प्रह्लाद को उत्तानपाद का पुत्र कहा SHAN गया है। मङ्गलाचरण में श्रीकृष्ण का वर्णन बड़ा ही सुन्दर है : कनकरुचिदुकूलः कुण्डलोल्लासिगण्डः शमितभुवनभारः कोऽपि लीलावतारः। त्रिभुवनसुखकारी शैलधारी मुकुन्दः परिकलितरथाङ्गो मङ्गलं नस्तनोतु।’ ३३. नीलकण्ठविजयचम्पू - नीलकण्ठविजयचम्पू के रचयिता थे नीलकण्ठ दीक्षित। इनके पिता का नाम था नारायण दीक्षित एवं पितामह का अच्चा दीक्षित। भूमि देवी इनकी माता थी। अच्चा दीक्षित प्रख्यात विद्वान् अप्पय दीक्षित के सहोदर अनुज थे। नीलकण्ठ को अपने पितामह भ्राता का अपार स्नेह प्राप्त था। __नीलकण्ठविजयचम्पू की रचना कलिवर्ष ४७३८ अर्थात् सन् १६३६ में हुई ऐसी चम्पूकार की अपनी ही उक्ति है : अष्टत्रिंशदुपस्कृतसप्तशताधिकचतुः सहस्रेषु। कलिवर्षेषु ग्रथितः किल नीलकण्ठविजयोऽयम् ।। अतः सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध नीलकण्ठ का समय निर्धारित किया जाता है। यह चम्पू पाँच आश्वासों में विभक्त है। समुद्रमन्थन, उससे पूर्व एवं उसके बाद की प्रसिद्ध पौराणिक कथा ही इस का वर्ण्य-विषय है। किस प्रकार देवों एवं दैत्यों के संघर्ष में देवगण पराजित होकर देवगुरु बृहस्पति की आज्ञा से ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के शरणापन्न हुए ? कैसे देवगुरु ने देवों एवं दैत्यों की सन्धि की योजना बनाई ? कैसे समुद्र-मन्थन का उद्योग हुआ एवं कैसे नागराज वासुकि एवं मन्दराचल के द्वारा समुद्र-मन्थन सम्पन्न हुआ जिससे लक्ष्मी, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि, अमृत, हलाहल प्रभृति चौदह रत्न निकले ? लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर किस प्रकार शङ्कर ने विष-पान किया ? मोहिनीरूप धारण कर विष्णु ने कैसे अमृत-वितरण किया ? पुनः किस प्रकार देवों एवं असुरों के बीच संघर्ष हुआ जिसमें देवगण विजयी हुए ? ये सारी घटनाएँ नुिपणता से नीलकण्ठविजयचम्पू में वर्णित हैं। १. स्तबक-१, श्लोक-१ २. बालनोरमा प्रेस, माइलापुर-मद्रास से १६४१ में प्रकाशित ३. देखें आश्वास-१, श्लोक १०११६ गद्य-खण्ड चम्पूकार की वर्णन-निपुणता महेन्द्रपुरी के विलास-वर्णन, युद्ध-वर्णन, क्षीरसागर -वर्णन आदि में स्पष्ट परिलक्षित होती है। विरोधाभास, उपमा, उत्प्रेक्षा, परिसंख्या आदि अलङ्कारों का प्रचुर प्रयोग है। ग्रन्थान्त में शिव-स्तुति चम्पूकार की भक्ति-भावना की चरम अभिव्यक्ति है। __३४. भैष्मीपरिणयचम्पू - भैष्मिीपरिणयचम्पू के रचयिता हैं रत्नखेट श्रीनिवासमखी। इनके पिता का नाम था लक्ष्मीधर। दन्तिद्योति दिवाप्रदीप, वड़भाषाचतुर, अद्वैतविद्यागुरु आदि उपाधियों से विभूषित थे। इन उपाधियों के आधार पर राजचूडामणि दीक्षित के पिता के साथ इनका तादात्म्य मानकर इनका समय सत्रहवीं शताब्दी का मध्योत्तर भाग माना जाता है। श्रीमद्भागवत के आधार पर रुक्मिणी एवं श्रीकृष्ण का विवाह इस चम्पू का वर्ण्य-विषय है। इसमें गद्य एवं पद्य दोनों में यमकालङ्कार के प्रयोग की प्रचुरता है। यह ग्रन्थ अपूर्ण है। __३५. बाणासुरविजयचम्पू - बाणासुरविजयचम्पू के प्रणेता श्रीनिवासाचार्य के पुत्र वेङ्कट या वेङ्कटाचार्य हैं। ये सुरसिद्धगिरि नगर के रहने वाले थे। ये वाधुलकुल के थे। इन्होंने अट्ठारहवीं शताब्दी के पूर्वभाग में विद्यमान घनश्याम कवि, जिनकी एक उपाधि कण्ठीरव थी, की वन्दना ग्रन्थारम्भ में की है। इसलिए इनका काल सत्रहवीं शताब्दी के अन्तिम दशक से अट्ठारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना गया है। इस चम्पूकाव्य की कथावस्तु श्रीमद्भागवत में वर्णित उषा एवं अनिरुद्ध की कथा पर आधारित है। इसमें छ: उल्लास हैं। ३६. मद्रकन्यापरिणयचम्पू - सत्रहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में ही चार उल्लासों में विभक्त भद्रकन्यापरिणयचम्पू की रचना गङ्गाधर ने की, जिसमें मद्रराज बृहत्सेन की पुत्री लक्ष्मणा एवं कृष्ण के परिणय की कथा वर्णित है। श्रीमद्भागवत की कथा पर आधारित है यह चम्पूकाव्य। _मद्रकन्या लक्ष्मणा पूर्व से ही कृष्ण से स्नेह करती थी। शुक से श्रीकृष्ण के स्नेह की चर्चा सुनकर वह और भी उनमें आसक्त हो जाती है। तत्पश्चात् मद्रनरेश बृहत्सेन स्वयंवर का आयोजन कर विवाह सम्पन्न कराते हैं। __ डा. त्रिपाठी ने चम्पूकार गङ्गाधर की दो अन्य रचनाओं का उल्लेख किया है। १. शिवचरित्रचम्पू तथा २. महानाटकसुधानिधि। १. अप्रकाशित, डिस्क्रिण्टिव कैटलॉग, मद्रास, नं. १२३३३ २. अप्रकाशित, डिस्क्रिप्टिव कैटलॉग, मद्रास, नं. १२३१६ ३. अप्रकाशित, डिस्क्रिप्टिव कैटलॉग, मद्रास. नं. १२३३४ पाया गया ४. देखें चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन- पृ. २१४ साना कि । ११७ चम्पू-काव्य ३७. श्रीकृष्णविलासचम्पू’ - आत्रेय गोत्रोत्पन्न नरसिंहसूरि की यह रचना श्रीमद्भागवत की कथा का वर्णन सोलह आश्वासों में करती है। नरसिंह के पिता का नाम था नारायण एवं माता का लक्ष्मी। गागा महा । ग्रन्थ वासुदेव कृष्ण की वन्दना से प्रारम्भ होता है। भाषा प्रवाहमयी है और वर्णन विस्तृत। ३८. शिवचरितचम्पू - तृतीय आश्वास के मध्य से खण्डित इस चम्पू में भगवान् शिव के महान् कार्यों का वर्णन है। इसका प्रथम आश्वास नृसिंह, पद्म एवं मार्कण्डेय पुराणों में वर्णित मार्कण्डेय की कथा पर आधारित है। द्वितीय आश्वास का प्रतिपाद्य विषय है समुद्र-मन्थन से उत्पन्न कालकूट के शिव के द्वारा पान कर त्रैलोक्य की रक्षा एवं तृतीय आश्वास का दक्षयज्ञविध्वंस। चम्पू की शैली पौराणिक है। इसके रचयिता कवि वादिशेखर हैं। ३६. शिवविलासचम्पू - यह चम्पू विरूपाक्ष की रचना है। कवि ने इस चम्पू में अपना स्वल्प परिचय दिया है जिसके अनुसार इनका गोत्र कौशिक था। इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम गोमती था। चार उल्लासों में विभक्त इस चम्पू का भी वर्ण्य-विषय है शिवभक्ति की महत्ता। चम्पू का आरम्भ शिव की वन्दना से होता है ईश्वरं सर्वभूतानां निश्चलं निर्मलं विभुम्। निगुर्णं शाश्वतं शान्तं शिवं वन्देऽहमद्वयम् ।। मार्कण्डेय, वायु, स्कन्द आदि पुराणों में वर्णित कथा के आधार पर इस चम्पू में शिवभक्ति की महिमा से मार्कण्डेय की दीर्घायुत्वप्राप्ति का वर्णन किया गया है। कथा का उपसंहार मृत्यविजयी मार्कण्डेय का अपने माता-पिता के पास प्रत्यावर्तन से हुआ है। ४०. राधामाधवविलासचम्पू - जयराम पिण्ड्येरचित। प्रस्तुत चम्पू का ऐतिहासिक महत्त्व बहुत ही अधिक है। शिवाजी के पिता शाहजीराजा भोसले की स्तुति इसका प्रतिपाद्य विषय है। बंगलोर के शासक के रूप में प्रतिष्ठित होने के समय से ही जयराम शाहजी के आश्रित थे। के. वी. लक्ष्मण राव के अनुसार जयराम ने राधामाधवविलास चम्पूकाव्य की रचना शाहजी के पुत्र एकोजी के शासनकाल में की। प्रस्तुत चम्पू में दस उल्लास हैं साथ ही एक परिशिष्ट भी। प्रारम्भिक पाँच उल्लासों में राधा-कृष्ण का वर्णन है और बाद के पाँच उल्लासों में शाहजी की प्रशंसा है। परिशिष्ट में संस्कृतेतर भाषा में जयराम सहित अन्य र नको १. अप्रकाशित, डिस्क्रिप्टिव कैटलाग, मद्रास, नं. १२२२ २. डिस्क्रिप्टिव कैटलाग मद्रास न. १२३१८ ३. तजौर कैटलाग न. ४१६० ११८ गद्य-खण्ड कवियों के द्वारा शाहजी एवं अन्य राजपुरुषों के सम्मुख की गई कविता एवं समस्यापूर्तियों का सङ्कलन है। चम्पू में जयराम द्वारा शाहजी की दिनचर्या का वर्णन वैशिष्टयपूर्ण है। __४१. जीवन-चरित पर आधारित चम्पू - ४१. आचार्यविजयचम्पू - अप्रकाशित चम्पूकाव्यों में एक है। आचार्यविजयचम्पू जिसका दूसरा नाम वेदान्ताचार्यविजयचम्पू भी है। इसके रचयिता वेङ्कटाचार्य के पुत्र वेदान्ताचार्य थे। यह चम्पूकाव्य भी खण्डित है। इसमें छः स्तबक हैं। इसमें आचार्य वेदान्तदेशिक के जीवनवृत्त एवं अद्वैत वेदान्ती श्रीकृष्ण मिश्र प्रभृति के साथ हुए शास्त्रार्थ का शब्दचित्र उपस्थित किया गया है। वेदान्तदेशिक का काल चौदहवीं शताब्दी का मध्य भाग है। अतएव यह चम्पूकाव्य उसके बाद की रचना है। _ग्रन्थारम्भ में वेदान्ताचार्यों की स्तुति की गई हैं। प्रस्तुत चम्पूकाव्य का गद्य-खण्ड भी बाण एवं दण्डी के गद्य के समान ही पदलालित्य एवं दीर्घसमास से युक्त है। दर्शन एवं काव्य-तत्त्व का अपूर्व सम्मिश्रण इस चम्पूकाव्य में परिलक्षित होता है। ४२. आचार्यदिग्विजयचम्पूरे - आचार्यदिग्विजयचम्पू के रचयिता थे बल्लीसहाय कवि। इन्होंने इसकी रचना १५३६ ई. के. लगभग की। यह चम्पू भी अपूर्ण है और सातवें कल्लोल में खण्डित है। आनन्दगिरिविरचित शङ्करदिग्विजय नामक काव्य पर ही आधारित है यह चम्पू। इसमें शङ्कराचार्य के दिग्विजय का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है कि अपने नौ शिष्यों को साथ लेकर किस प्रकार रामेश्वरक्षेत्र, अनन्तशयनक्षेत्र, सुब्रह्मण्यक्षेत्र, गुणपुर, भवानीपुर, कुवलयपुर, उज्जैन, अनुमल्ल, वरूथपुरी, अर्थपुर, इन्द्रप्रस्थ, धर्मप्रस्थ, प्रयागक्षेत्र, वाराणसी आदि स्थानों में शङ्कराचार्य ने विरोधियों को शास्त्रार्थ में परास्त कर अद्वैतवाद में दीक्षित किया। इस चम्पू का आरम्भ शिव की स्तुति से होता है: जटाबन्धोदञ्चच्छशिकरहृताज्ञानतमसे जगत्सृष्टिस्थेमश्लथनकलनस्कारयशसे। वटक्ष्मारुण्मूलप्रवणमुनिविस्मेरमनसे नमस्तस्मै कस्मैचन भुवनमान्याय महसे।। ४३. श्रीरामानुजचम्पू-श्रीरामानुजचम्पूकाव्य के प्रणेता रामानुजाचार्य का समय सोलहवीं शताब्दी का अन्तिम भाग माना गया है। जीवनचरितात्मक चम्पूकाव्य की श्रेणी में आने वाले इस चम्पूकाव्य में दस स्तबक हैं। ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में सन् १०१७ ई. में उत्पन्न विशिष्टाद्वैत के आदि आचार्य श्रीरामानुज की विस्तृत जीवनी इस ग्रन्थ में १. अप्रकाशित, डिस्क्रिप्टिव कैटलाग मद्रास सं. १२३६५ २. अप्रकाशित, डिस्क्रिप्टिव कैटलॉग मद्रास नं. २३८० ३. मद्रास से १६४२ ई. में प्रकाशित चम्पू-काव्य ११६ प्रतिपादित की गई है। श्रीरामनुज के जन्म, यज्ञोपवीत संस्कार, पिता से वेदवेदाङ्ग की शिक्षा, यादवप्रकाश से विद्याध्ययन, ‘कप्यास’ शब्द के अर्थ को लेकर शिष्य पर गुरु का क्रोध, गुरुकुल से रामानुज का निष्कासन, पुनः शिष्य को बुलाना, रामानुज एवं गोविन्द दो शिष्यों के साथ यादवप्रकाश की वाराणसी-यात्रा इस उद्देश्य से कि यात्रा में गङ्गा की धारा में रामानुज को डुबो दिया जाय, गोविन्द द्वारा रामानुज को इस रहस्य का उद्घाटन, विन्ध्य के वनों में चुपके से रामानुज का खिसकना, प्रभु के रूप में ही भयभीत रामानुज को शबरदम्पती का दर्शन, रामानुज का उनके साथ काञ्चीपुरी आना, रामानुज द्वारा एक राजकन्या को ब्रह्मराक्षस से मुक्त करना, महापूर्ण एवं रामानुज का साथ साथ-रहना, दोनों की पत्नियों के बीच कलह, महापूर्ण का श्रीरंङ्ग चला जाना, रामानुज द्वारा भी श्रीरङ्ग जाकर महापूर्ण से क्षमा-याचना, रामानुज का विरक्त होकर संन्यासग्रहण, तत्पश्चात् श्रीरङ्ग में भगवान् की मूर्ति की वन्दना, काशी जाकर काशिराज की सभा को अलङ्कृत करना, श्रीभाष्य की रचना का विस्तृत विवरण किया गया है। इस काल में रामानुजाचार्य की अलौकिक शक्ति के चमत्कारों का भी वर्णन किया गया है। समासबहुल गौडी रीति में लिखे गये इस चम्पूकाव्य के गद्य भाग में यमक एवं अनुप्रास अलङ्कारों का प्राचुर्य है।
- महाभूतनगरी का वर्णन गद्य खण्ड एवं पद्यों में किया गया है। वर्णन-विस्तार होने पर भी प्रमुखता आचार्य के चरितवर्णन को ही दी गई है। विन्ध्य के वनों में अकेले भटकते हुए रामानुज एवं शबर-दम्पती के शब्दचित्र अत्यधिक हृदयग्राही हैं।
- दशम स्तबक में यवनकन्या के विरह का चित्रण गद्य-खण्डों एवं पद्यों में दिया गया है जो बड़ा ही मार्मिक है। शबर जातीय स्त्री का निम्न चित्रण अत्यन्त स्वाभाविक है। विस्तीर्णे कर्णपत्रे द्विपदशनमये कर्णयो र्धारयन्ती गुञ्जामाला दधाना गलभुविवलये शंखक्लृप्ते वहन्ती। कस्तूरीचित्रकोद्यन्निटिलशशिकला देवतेवाटवीनां काचित् कान्तारपाचे विलसति किमयं व्याघयूथाग्रगण्यः।। (रामानुजचम्पू ३१४६) ४४. वीरभद्रचम्पू-प्रस्तुत चम्पूकाव्य के चरितनायक चम्पूकार के आश्रयदाता रीवाँनरेश वीरभद्र स्वयं भी कवि थे। उन्होंने कन्दर्पचूडामणि नामक काव्य का प्रणयन १५७७ ई. में किया। प्रस्तुत चम्पू की रचना भी विक्रम संवत् १६३४ (तदनुसार १५७७ ई.) : युगरामर्तुशशाङ्के वर्षे चैत्रे सिते प्रथमे। श्रीवीरभद्रचम्पूः पूर्णाभूच्छ्रेयसे विदुषाम् ।। १२० गद्य-खण्ड हिस्ट्री ऑफ तिरहुत के रचयिता श्यामनारायण सिंह ने पद्मनाभ को मैथिल विद्वान् माना है। डॉ. रामप्रकाश शर्मा ने भी अपने ग्रन्थ मिथिला का इतिहास में वीरभद्रचम्पू के रचयिता पद्यनाभ मिश्र को मिथिला-निवासी माना है। डॉ. वर्णेकर के अनुसार ये मूलतः वङ्गाली थे पर काशी में इनका निवास था। डा. सुरेश चन्द्र बनर्जी ने भी अपने ग्रन्थ ‘कण्ट्रिव्युशन ऑफ बिहार टु संस्कृत लिटरेचर’ में इन्हें बिहार प्रान्तीय माना है। गुसन प्रस्तुत चम्पू सात उच्थ्वासों में विभक्त है। प्रथम उच्छ्वास में अपने पिता रामचन्द्र के साथ वीरभद्र की ससैन्य बान्धवगढ़ की यात्रा का विवरण है जहाँ से रामचन्द्र विजय-यात्रा पर निकलते हैं। पर की द्वितीय एवं तृतीय उच्ध्वास में यात्रा-वर्णन के क्रम में भारत के विभिन्न भागों का वर्णन है। चतुर्थ में रामचन्द्र की प्रशस्ति का वर्णन है। पञ्चम उच्छ्वास में प्रयाग, श्याम वट अलर्क नगरी, विन्ध्याचल, बन्धु-बान्धव पर्वत, रीवाँ राज्य एवं रामचन्द्र का वर्णन है। षष्ठ उच्छ्वास में रामचन्द्र के पुत्र चरितनायक वीरभद्र का विशद वर्णन है। रीवाँ राज्य के महापुरुषों के जीवनवृत्त के चित्रण के साथ समसामयिक राजवंशों के विस्तृत विवरण प्रस्तुत करने के कारण यह उच्छ्वास ऐतिहासिक महत्त्व का है। सप्तम उच्छास में रत्नपुर का वर्णन है और उसंहार के रूप में कविवंश-वर्णन। इस चम्पू में ऐतिहासिकता के साथ कल्पना का सुन्दर संयोग प्रस्तुत किया गया है। भाषा ललित एवं आलंकारिक हैं। ४५. धर्मविजयचम्पू-धर्मविजयचम्पू के रचयिता हैं भूमिनाद’ (नल्ला) दीक्षित। इसमें भोसल वंशीय तजौर के शासक अभिनव भोजराज नामक उपाधिधारी व्यकोजीपुत्र-शाहजी का चरित वर्णित है। शाहजी का शासन-काल १६८४ से १७१० ई. है। अतः सत्रहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग से अट्ठारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध चम्पूकार का समय माना जाता है। __ यह चम्पू चार स्तबकों में विभाजित है। चम्पूकार ने भोसल वंश का सम्बन्ध मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम से बतलाया है। ग्रन्थारम्भ में राम की वन्दना की गई है। आश्रयदाता शाहजी के गुणों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है जो दरबारी कवियों की वर्णन-परम्परा के सर्वथा अनुकूल ही है। १. पृ. १५५-१५६ २. संस्कृत वाङ्मयकोष-प्रथम खण्ड-प्र. ३६३ मा ३. पृ. ७८ ४. अप्रकाशित, तञ्जोर कैटलॉग, नं. ४२३१ ५. डॉ. वर्णेकर के अनुसार ‘भूमिनाथ’, देखें संस्कृत वाङ्मयकोश ||-१४८ ६. डॉ. वर्णेकर ने इसे चम्पूकार की उपाधि के रूप में उल्लिखित किया है किन्तु ग्रन्थ के उपसंहार वाक्य से स्पष्ट है कि यह उपाधि शाहजी की है। चम्पू-काव्य १२१ ४६. भोसल-वंशावली-चम्पू - तञ्जोरनरेश शरभोजी भोसले के राजकवि वेङ्कटेश की यह रचना भोसलवंशावलीचम्पू एक ही आश्वास की है जिसमें धर्मराजपुत्र वेङ्कटेश ने भोसले वंश के वर्णन की पृष्ठभूमि में प्रधानतः शरभोजी के जीवनचरित का वर्णन किया है। इसका रचना-काल १७११ से १७२८ ई. के बीच माना जाता है जो शरभोजी भोसले का राज्यकाल है। ४७. श्रीनिवासविलासचम्पू - श्रीनिवासविलासचम्पू का प्रकाशन वेङ्काटाध्वरि के नाम से हुआ है, किन्तु वरदाभ्युदय का उपसंहार प्रस्तुत चम्पू के उपसंहार से सर्वथा भिन्न है। अतः सम्भवतः यह किसी दूसरे वेङ्कट कवि की रचना प्रतीत होती है। कृष्णमाचारी ने वेङ्कटेशकवि को प्रस्तुत चम्पू का रचयिता माना है। ग्रन्थ के अन्तिम श्लोक में लिखा है। “वेङ्कटेशस्य काव्ये” जब कि उपसंहारात्मक गद्य-खण्ड में “श्रीमद्वेङ्कटाध्वरि विरचिताया श्रीनिवासविलासाभिधाशालिन्यां चम्प्वाम्” है। पूर्वविलास एवं उत्तरविलास नामक दो भागों में यह चम्पूकाव्य विभाजित है। पूर्व विलास में पाँच उच्छ्वास हैं और उत्तरविलास में पाँच उल्लास। पूर्वविलास में कथावस्तु का विकास है और उत्तरविलास में वाग्विलास का चमत्कार। पूर्वविलास के प्रथम उच्छ्वास में राजा श्रीनिवास का वर्णन है। द्वितीय में नारद का आगमन एवं नारद के द्वारा आनन्दकानन, प्रयाग, कुरुक्षेत्र, गोदावरी, करवीपुर, रामसेतु आदि का वर्णन है। साथ ही श्रीनिवास द्वारा पद्मावती का साक्षात् दर्शन एवं परस्पर आकर्षण का चित्रण है। तृतीय उच्छ्वास में श्रीनिवास एवं पद्मावती का विरह वर्णित है। चतुर्थ-उच्छ्वास में श्रीनिवास द्वारा भेजी गई वकुला-का आकाशभूपति के पास जाकर श्रीनिवास के हेतु पद्मावती का हाथ मांगने का वर्णन है। पञ्चम उच्छ्वास में पद्मावती और श्रीनिवास के पाणिग्रहण का वर्णन है। उत्तरविलास के प्रथम उल्लास में दो कवियों के वाग्विलास के चमत्कार का चित्रण है। द्वितीय उल्लास में हंस, शुक, नीलकण्ठ आदि की सूक्तियाँ हैं। तृतीय उल्लास में पद्मावती, कमलिनी, केतकी, मालती आदि के वाग्विलास का वर्णन है। चतुर्थ उल्लास में परादेवी, वराह, पद्मावती ओर श्रीनिवास के संवाद है। पञ्चम उल्लास में तोण्डिमान एवं कुमार को आधा-आधा राज्य देकर श्रीनिवास-एवं पद्मावती का शेषाचल चले जाने का वर्णन है। श्लेष एवं यमक के चमत्कार से सम्पूर्ण चम्पूकाव्य भरा पड़ा है। ४८. आनन्दरङ्गविजयचम्पू -आठ स्तबकों में पूर्ण आनन्दरङ्गविजयचम्पू के रचयिता थे श्रीनिवास कवि। इनके पिता का नाम था गङ्गाधर एवं माता का नाम पार्वती १. अप्रकाशित, तञ्जोर कैटलॉग, नं. ४२४० २. गोपाल नारायण कम्पनी बम्बई से प्रकाशित। ३. देखें कृष्णमाचारी का हिस्ट्री ऑफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर-पृ. ५२१ ४. डा. वी.राधवन् द्वारा सम्पादित होकर मद्रास से प्रकाशित, डिस्क्रिप्टिव कैटलाग, मद्रास-न. १२३८१
१२२ गद्य-खण्ड था। ये वत्स गोत्रीय थे। प्रस्तुत चम्पूकाव्य में फ्रांसीसी शासक डुप्ले के प्रमुख सेवक पाण्डिचेरी निवासी आनन्दरङ्ग पिल्लइ के जीवन-वृत्तों का वर्णन किया गया है। यह काव्य ऐतिहासिक महत्त्व का है। विजयनगर एवं चन्द्रगिरि के राजवंशों का वर्णन इस काव्य का प्रमुख वैशिष्ट्य है। पिल्लइ के पूर्वजों का भी वर्णन यहाँ संक्षेप में किया गया है। प्रस्तुत चम्पू अट्ठारहवीं शताब्दी की रचना है। __इस चम्पू में ऐतिहासिक वृत्त के उपयुक्त-गद्य-पद्य का प्रयोग बड़ी सूझ-बूझ के साथ किया गया है। न लम्बे-लम्बे समासों का बाहुल्य है और न श्लेष का प्रयोग। शैली प्रसादमयी है। इसमें नये-नये विषयों का भी समावेश मनोरंजक ढंग से किया गया है। चरितनायक आनन्दरङ्ग ने पाण्डिचेरी में विशाल महल बनवाया था जिसके ऊपर बजने वाली एक बड़ी घड़ी लगा रखी थी। यह उस युग के लिए अजीब चीज थी। कवि ने इसका सुन्दर वर्णन किया है निर्मलं यत्र घण्टा ध्वनति च भवने बोधयन्ती मुहूर्तान् दैवज्ञान् हर्षयन्ती समयमविरतं ज्ञातुकामानशेषान्। प्राप्तुं श्रीरङ्गभूपात् फलमनुदिवमागच्छतां भूसुराणां तत्सिद्धिं सूचयन्ती प्रकटयतितरामद्भुतां रागभङ्गीम्।। (आ.रं. च. ४/२२) ४६. यतिराजविजयचम्पू’ - यतिराजविजयचम्पूकाव्य भी अप्रकाशित चम्पूकाव्यों में एक है। इसके प्रणेता थे अहोबलसूरि। इनके पिता का नाम था वेङ्कटाचार्य और माता का लक्ष्माम्बा। इनका एक दूसरा भी चम्पूकाव्य है जिसका नाम है विरूपाक्षवसन्तोत्सव। इस ग्रन्थ के आधार पर अहोबल का काल चौदहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना गया है। __ यतिराजचम्पू में सत्रह उल्लास हैं। अन्तिम उल्लास अपूर्ण है। इस चम्पूकाव्य में यतिराज रामानुजाचार्य के जीवनचरित को चित्रित किया गया है। भाषा में सरलता है। दीर्घसमासों का अभाव है जो ग्रन्थारम्भ में वैकुण्ठनगर के वर्णन से ही परिलक्षित होता है। ५०. वसुचरितचम्पूरे - सोलहवीं शताब्दी के कविकालहस्ति सुप्रसिद्ध विद्वान् अप्पय दीक्षित की यह रचना श्रीनाथप्रणीत तेलुगु भाषामय वसुचरित्र पर आधरित हैं। ग्रन्थारम्भ में गणपति की स्तुति की गई है। तत्पश्चात् पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख किया गया है। ग्रन्थान्त में कामाक्षीदेवी की वन्दना निम्नलिखित रूप में की गई हैं: १. अप्रकाशित, डिस्क्रिप्टिव कैटलॉग ऑफ संस्कृत मैनुस्क्रिप्ट्स ऑफ गवर्मेण्ट ओरियण्टल लाइब्रेरी मद्रास नं. १२३३८ काय याची २. अप्रकाशित, तजोर कैटलॉग नं. ४१४६ १२३ चम्पू-काव्य कामाक्षि देवि करुणामयि कामकोटि काञ्चीपुरीश्वरि कदम्बवनीनिवासे। कान्तैकचूतपतिना कलितावधाना कर्णामृतं कलय काव्यमिदं मदीयम् ।।’ ५. जैन साहित्य पर आधारित चम्पू-५१ यशस्तिलकचम्पूर-सुप्रसिद्ध जैनकवि श्रीसोमदेव या सोमभ्रम सूरि यशस्तिलकचम्पू के प्रणेता हैं। चालुक्यराज अरिकेसरिन् द्वितीय के बड़े पुत्र वााज इनके आश्रयदाता थे। ये राष्ट्रकूट के राजा कृष्णराजदेव तृतीय के समकालिक थे। अतएव इस चम्पू का रचनाकाल सन् ६५६ ई. के आस-पास माना जाता है। इसका मूल स्रोत है गुणभद्ररचित जैनों का उत्तरपुराण। इस चम्पू में अवन्ती के राजा यशोधर के चरित का वर्णन करते हुए जैनधर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। आठ आश्वासों में विभक्त इस चम्पूकाव्य के प्रारम्भिक पाँच आश्वासों में यशोधर के आठ जन्मों की कथा का वर्णन है। अन्तिम तीन में जैनधर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन। यशोधर का उज्ज्वल चरित्र उनकी पत्नी की धूर्तता, राजा यशोधर का देहावसान एवं आठ जन्मों में नाना योनियों में जन्म एवं अन्त में जैनधर्म में दीक्षा इस चम्पू का प्रतिपाद्य है। आलङ्कारिक शैली में रचित इस चम्पूकाव्य में बाणभट्टप्रणीत कादम्बरी जैसी वर्णनचातुरी एवं प्रौढि है। इसके वर्णनों को देखने से चम्पूकार की बहुमुखी प्रतिभा एवं विवधशास्त्रमर्मज्ञता स्पष्टतः परिलक्षित होती है। पद-पद से पाण्डित्य टपकता है। परम धार्मिक सन्तपरुष हैं चम्पूकार किन्तु उनके पद्य की रमणीयता एवं सरसता किसी से कम नहीं है। स्त्री-पुरुष के पारस्परिक अनुराग का यह वर्णन दृष्टान्तस्वरूप उद्धृत किया जा सकता है : “एषा हिमांशुमणिनिर्मितदेहयष्टिः त्वं चन्द्रचूर्णरचितावयवश्च साक्षात्। एवं न चेत् कथमिमं तव सङ्गमेन प्रत्यङ्गनिर्गतजला सुतनुश्चकास्ति’ ।। वर्षाकाल में जलधारा से प्रताडित कुरङ्गी की दशा का वर्णन भी दर्शनीय है: “भूयः पयः प्लवनिपातितशैलशृङ्गे पर्जन्यगर्जितवितर्जितसिंहपोते। १. देखें डा. त्रिपाठी कृत चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन कैटलॉग __ मद्रास नं. १२ ३०६ २. म.म. शिवदत्त एवं वासुदेवशास्त्री पणशीकर द्वारा सम्पादित होकर सन् १९१६ ई. में निर्णयसागर प्रेस बम्बई से प्रकाशित। ३. आश्वास २, श्लोक संख्या २१६ १२४ गद्य-खण्ड सौदामनीद्युतिकरालितसर्वदिक्के __ कं देशमाश्रयतु डिम्भवती कुरङ्गी ।।” प्रस्तुत चम्पूकाव्य में नीतिसम्बन्धी सूक्तियों का भी आधिक्य है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है विचक्षणः किन्तु परोपदेशे न स्वस्य कार्ये सकलोऽपि लोकः। __नेत्रं हि दूरेऽपि निरीक्षमाणमात्मावलोके त्वसमर्थमेव।। इस पद्य में ‘परोपदेशे पाण्डित्यम्’ का स्पष्ट समर्थन है। ५२. जीवन्धरचम्पूर जीवन्धरचम्पू के रचयिता हैं हरिचन्द्र, जिन्होंने इसमें जैन उत्तरपुराण में वर्णित राजा सत्यन्धर एवं विजया के सुपुत्र जैन राजकुमार जीवन्धर का जीवनचरित चित्रित किया है। जैनों के पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथजी के चरित पर आधारित धर्मशर्माभ्युदय काव्य के प्रणेता हरिचन्द्र के साथ इनका तादात्म्य कीथ ने माना है। यदि इसे स्वीकार कर लिया जाय तो हरिचन्द्र नोमक वंश में उत्पन्न कायस्थ थे, जिनके पिता का नाम था आर्द्रदेव और माता का रय्या देवी। इनका कोई निश्चित समय नहीं माना गया है। सन् ६०० ई. से लेकर ११०० ई. तक की अवधि में कभी ये थे, ऐसा इतिहासकारों का अभिमत है। हर्षचरित के प्रारम्भ में उल्लिखित चम्पूकार के नामधारी भट्टारहरिचन्द्र इनसे सर्वथा भिन्न हैं। गद्य-रचना में बाणभट्ट चम्पूकार के आदर्श हैं। इस चम्पू में ग्यारह लम्भक हैं। जीवन्धर के चरित्र-चित्रण के क्रम में स्थान-स्थान पर जैनधर्म के अनुसार उपदेशों का समावेश बड़ी कुशलता से किया गया है। _चम्पूकाव्य में गद्य-पद्य के समन्वय से उत्पन्न आनन्द की समकक्षता चम्पूकार हरिचन्द्र ने अज्ञात यौवना वयःसन्धि-प्राप्ता नायिका के द्वारा प्रदत्त आनन्द से की है। ५३. भरतेश्वराभ्युदयचम्पू (अप्रकाशित)-आदितीर्थङ्कर ऋषभ के पुत्र भरत के जीवन-चरित पर आधारित भरतेश्वराभ्युदयचम्पू के प्रणेता थे दिगम्बर जैनी आशाधर। जिनसे नरचित आदिपुराण के छब्बीसवें से अड़तीसवें पर्व तक भरत के चरित का विस्तृत वर्णन किया गया है। आशाधर का काल तेरहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है। ५४. पुरुदेवचम्पू - आशाधर के शिष्य अर्हत् या अर्हदास की रचना हैं पुरुदेवचम्पू। इसमें जैन सन्त पुरुदेव के जीवनचरित को प्रस्तुत किया गया है। चम्पूकार का समय १. आश्वास १, श्लोक संख्या ६६ २. संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ. ४१७ में उद्धृत ३. टी. एस. कुप्पूस्वामी शास्त्री द्वारा सम्पादित होकर सन् १६०५ ई. में सरस्वती विलास सिरीज में तंजौर से प्रकाशित। ४. देखें त्रिपाठीः चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-पृ. १०६ पादटिप्पणी-१ ५. अप्रकाशित चम्पू-काव्य १२५ तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है। पुरुदेव के चरित का वर्णन आदिपुराण, उत्तर पुराण तथा मुनिसुव्रतपुराण में किया गया है। इसकी भाषा अनुप्रासमयी एवं समस्तपदावली से युक्त है। उदाहरणार्थ अलका नगरी के वर्णन की प्रारम्भिक पङ्क्तियाँ: “अथ विशालवाजिमालाविक्षिप्तविविधमौक्तिक पुञ्जसञ्जातमरालिका भ्रमसमागतदृढालिङ्गनमङ्गल तरङ्गित….. रजताचलस्योत्तरश्रेण्यामलकाभिधाना पुरी वरीवर्ति।’ इस चम्पूकाव्य में जैनपुराणों पर आधारित चम्पू काव्यों की परम्परा का अनुपालन करते हुए अहिंसा के प्रभाव का वर्णन किया गया है और सभी जीवों के प्रति दया का उपदेश दिया गया है। __६. विविध विषयक चम्पू-५५. उदयसुन्दरीकथाचम्पूर-ग्यारहवीं शती के कोकड़ के राजा मुम्मुनिराज के आश्रित दक्षिण गुजरात के लाटदेश के निवासी सोड्ठल इस चम्पू के प्रणेता हैं। बाण की गद्य-शैली का अनुकरण करते हुए चम्पूकार ने प्रतिष्ठान नगर के राजा मलयवाहन का नागराज शिखण्डतिलक की कन्या उदयसुन्दरी के साथ विवाह का वर्णन किया है। सोड्ढल ने भी बाण की तरह आत्मवृत्तान्तसहित पूर्ववर्ती कवियों के विषय में प्रशंसात्मक श्लोक लिखे हैं। चम्पू की भाषा का लालित्य एवं माधुर्य दर्शनीय है। आकाश में छिटकी चाँदनी का वर्णन बड़ा ही मनोरम है। कल्पना की नवीनता देखने योग्य है। जैसे निम्न लिखित श्लोक में चान्द्रं महीमण्डलभाजनस्थं दुग्धं यथा यामवती-महिष्याः। वियोगिनां दृगुदहनोग्रतापैरुल्लासितं व्योमतले लुलोठ। _ अर्थात् “छिटकी चाँदनी क्या है ? वही महीमण्डलरूपी भाजन में रात्रिरूपी महिषी का चन्द्ररूपी दुग्ध है, जो वियोगियों के जलते हुए नयनों से दृष्ट होने पर उफान लेने वाले दूध के समान आकाश में बिखर गया है।“३ ५६. विरूपाक्षवसन्तोत्सवचम्पू - अहोबल सूरि की यह रचना भी खण्डित है। यह चार काण्डों में विभक्त है। इसमें विरूपाक्ष महादेव के वसन्तोत्सव का वर्णन है। आरम्भ के तीन काण्डों में रथयात्रा का तथा चौथे में मृगयामहोत्सव का चित्रण है।
- गद्यलेखन में बाणभट्ट की शैली का अनुकरण किया गया है। अनुकरण में भी स्वाभाविकता एवं आपेक्षिक सरलता है। प्रसङ्गवश चम्पूकार ने कुछ कवियों का उल्लेख किया है। वे हैं-विद्यारण्य, वेङ्कटाचलपति, जयदेव, हरदत्ताचार्य, दीक्षित, विद्यासागर आदि। १. प्रथम स्तबक २. गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज न. ६६ सन् १६२० ई. में प्रकाशित ३. आचार्य बलदेव उपाध्याय, संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ. ४१८ ४. आर. एस. पञ्चमुखी द्वारा सम्पादित, मद्रास से प्रकाशित१२६ गद्य-खण्ड वर्ण्य वसन्तोत्सव में भाग लेने हेतु आए हुए सामन्तों का उल्लेख चम्पू के ऐतिहासिक महत्त्व को दर्शाता है। ५७. वरदाम्बिकापरिणयचम्पू -विजयनगर के महाराजा अच्युतराय की राजमहिषी तिरुमलाम्बा वरदाम्बिकापरिणयचम्पू की प्रणेत्री हैं। अच्युतराय का कार्यकाल १५२६ से १५४२ ई. है। इस चम्पू की कथावस्तु विजयनगर के राजपरिवार से सम्बद्ध है। ओषधपति से प्रारम्भकर अच्युतराय के पुत्र चिनवेङ्कटाद्रि के युवराज पद पर अभिषिक्त होने की कथा इस चम्पू में वर्णित है। अच्युतराय के पिता नृसिंह की विजय-गाथा का भी सविस्तर वर्णन किया गया है। नृसिंह के निधन के बाद अच्युतराय के राज्याभिषेक का वर्णन है। तत्पश्चात् किस प्रकार उद्यानस्थित कात्यायनीमन्दिर में वरदाम्बिका नामक परम सुन्दरी कन्या को देखकर महाराज अच्युतराय मुग्ध हो गये और कालक्रम में दोनों का विवाह हुआ, इसका मनोरम विवरण ही इस चम्पूकाव्य का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। विवाह के बाद चिन वेङ्कटाद्रि नामक पुत्र की उत्पत्ति की कथा है और तदनन्तर बाल्यकाल में ही उनके युवराजपद पर अभिषिक्त होने की कथा। __ अच्युतराय के राज्यकाल में विजययात्रा आदि का कोई वर्णन नहीं किया गया है। उनकी रूपमाधुरी, कामुकता, विलासिता आदि का श्रृङ्गारिक वर्णन निपुणतापूर्वक किया गया है। स्त्री होते हुए भी कचयित्री ने जो अपने पति महाराज अच्युतराय के अङ्ग-प्रत्यङ्ग का चमत्कारपूर्ण वर्णन किया है वह पाठक को आश्चर्यचकित कर देता है। पुरुष के सौन्दर्य का ऐसा वर्णन शायद ही कहीं किया गया हो। यह चम्पू आश्वासों या स्तबकों में विभक्त नहीं है। एक ही प्रकरण वाला है। यह प्रणयकाव्य है। __चम्पू के ओजोगुणविशिष्ट समासबहुल गद्य-खण्ड बाणभट्ट की गद्य शैली की समता रखते हैं। कवयित्री की वर्णनचातुरी सर्वत्र परिलक्षित होती है। स्थल-स्थल पर ललित पद्यों का समावेश पाठक को मुग्ध कर देता है। गद्य-पद्य दोनों का सौष्ठव दर्शनीय है। नृसिंह के युद्धवर्णन में वीर-रस या अच्युत की प्रणयगाथा के वर्णन में श्रङ्गार-रस अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचा-सा प्रतीत होता है। राज-कन्या की विरहदशा का चित्रण विप्रलम्भ का अनूठा उदाहरण है। सायंकाल के वर्णन में अधोलिखित पद्य-युगल में कवयित्री की अनुपम कल्पना परिलक्षित होती है: अपरगिरितरक्षोरातपच्छायलेशैर्हरितमलिनवणे रञ्जितस्यांशुमाली। कवलितदिनधेनोः कण्ठरक्तेन रक्तं विसृमरनिजपादैः श्मश्रुलं प्रोथमासीत् ।। १. डा. लक्ष्मणस्वरूप द्वारा सम्पादित तथा लाहौर से प्रकाशित २. श्लोक-१५६ १२७ चम्पू-काव्य अरविन्दबन्धुकुरुविन्दपिधाने, चपलेन बालशशिना व्यपनीते। मिना व्यपनीते। घुसृणं वियन्मघवनीलकरण्डाद्, गलितं यथाघनमदृश्यत सन्ध्या।।’ पद्य-भाग में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षादिअलङ्कारों के प्रयोग के साथ ही अर्थान्तरन्यास का विन्यास कालिदास की रचनाओं का स्मरण कराता है। उदाहरणार्थः-सतां प्रसादः सहजो न रोषः२ - तीव्रानुरागं हि तनोत्युपेक्षा’ इत्यादि। आचार्य बलदेव उपाध्याय ने इस चम्पू को संस्कृत भाषा के ऊपर प्रशंसनीय प्रभुता, अलङ्कारों के विन्यास तथा चयन में अद्भुत सामर्थ्य के कारण चम्पू-काव्य का एक श्रेष्ठ प्रतिनिधि माना है। ५८. तीर्थयात्राचम्पू -दक्षिण के वटवन नामक नगर के निवासी वाधूल गोत्रीय वेङ्कटेश एवं अनन्तम्मा के पुत्र समरपुङ्गव दीक्षित द्वारा विरचित तीर्थयात्राचम्पू में तीर्थयात्रा का मनोहर वर्णन है। ‘कनकाढपाठ’ समरपुङ्गव का विरुद था। नवम आश्वास के अन्त में चम्पूकार ने लिखा है: __ “कनकाढपाठविरुदाङ्कस्य…. समरपुङ्गवदीक्षितस्य कृतौ चम्पूकाव्ये….. नवम आश्वासः अप्पय दीक्षित समरपुङ्गव के गुरु थे। इनका काल १५५१ ई. से १६२३ ई. तक है। अतः समरपुङ्गव का काल सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध एवं सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होता है। उन्होंने ग्रन्थनायक के जन्म की जिस ग्रहस्थिति का विवरण अपने चम्पूकाव्य में दिया है वह लगभग १५७४ ई. की है। इससे भी उनके काल की पुष्टि होती है। ग्रन्थनायक कोई दूसरा नहीं उनका सोदर भाई ही है। सूर्यनारायण एवं धर्म उनके दो भाई थे। डॉ. त्रिपाठी के अनुसार ग्रन्थनायक धर्म ही प्रतीत होता है। तीर्थयात्रावर्णनात्मक इस चम्पूकाव्य में नौ आश्वास हैं। प्रथम आश्वास में मङ्गलाचरण, वटवन नगरी का वर्णन, वेङ्कटेश का विवाह, देवियों एवं देवों की स्तुति, पुत्रप्राप्तिहेतु तथा अनन्तम्मा का गर्भधारण वर्णित हैं। द्वितीय में पुत्रोत्पत्ति, विद्याध्ययन, विवाहादि का ३. १. श्लोक-१५७ २. श्लोक ४७ का अन्तिम चरण। श्लोक १४३ का अन्तिम पाद। ४. देखें पृ. ४२४, संस्कृत साहित्य का इतिहास की ५. निर्णयसागर बम्बई से १६३६ में काव्याला में प्रकाशित ६. पृ. १७६ ७. चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन पृ. १५६
गद्य-खण्ड १२८ वर्णन है। तृतीय में वसन्तवर्णन, तीर्थयात्राहेतु प्रस्थान, काञ्चीपुरी, पुरी एवं एकामेश्वर का वर्णन है। चतुर्थ में सूर्योदय, संन्ध्या, चन्द्रोदय, सम्भोगादि का वर्णन है। पञ्चम आश्वास से अष्टम आश्वास तक विभिन्न तीर्थस्थलों का वर्णन है, साथ ही तत्तत्स्थानीय देवी-देवताओं की स्तुति भी। अन्तिम नवम आश्वास में वाराणसी की यात्रा, वाराणसी एवं विश्वनाथ की स्तुति है। __ यात्रावर्णन में केवल भारत का पश्चिमी भाग छूटा हुआ है। उत्तर में बदरिकाश्रम, दक्षिण में रामेश्वर एवं पूरब में कामाख्या तक की तीर्थयात्रा का विवरण है। महाकाव्य की तरह इस चम्पूकाव्य में भी विवेच्य विषय के अतिरिक्त नगर, पर्वत, नदी, ऋतु, सूर्योदय, सन्ध्या आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। विभिन्न देवताओं की स्तुति भी विस्तार से की गई हैं। कावेरीवर्णन, यमुनावर्णन एवं वाराणसी-वर्णन मनोहारी है। अतएव अपने गुणों के कारण विद्वत्समाज में प्रस्तुत चम्पूकाव्य को विशेष स्थान दिया जाता है। ५६. स्वाहा-सुधाकरचम्पू - इस चम्पू के लेखक भी नारायणभट्ट ही हैं। इसमें अग्नि-पत्नी स्वाहा एवं सुधाकर चन्द्रमा की प्रणय-लीला का वर्णन किया गया है। ६०. कोटिविरह-नारायणभट्ट का यह चम्पू भी एक श्रृङ्गारिक चम्पूकाव्य है जिसमें श्रृङ्गार के दोनों पक्षों, मिलन एवं वियोग, का सफल चित्रण हुआ है। इसमें दो खण्ड हैं पूर्व एवं उत्तर। पूर्व खण्ड में मिलन चित्रित है और उत्तर खण्ड में विरह । इसमें कालिदास आदि पूर्ववर्ती कवियों के अनेक पद्य उद्धृत किये गये हैं। ६१. व्याघ्रालयेशाष्टमीमहोत्सवचम्पूर-व्याघ्रालयेशाष्टमीमहोत्सवचम्प या अष्टमी महोत्सवचम्पू के रचयिता भी नारायणभट्ट ही हैं। इसमें कार्तिककृष्ण की अष्टमी तिथि को सम्पन्न होने वाले ट्रावनकोर के वैक्कम के शिवमन्दिर के महोत्सव का विशद वर्णन किया गया है। इस महोत्सव के अवसर पर समीपस्थ ग्राम उदयपुरम् से कार्तिकेय की प्रतिमा शिवमन्दिर में लायी जाती है, तब विशिष्ट महोत्सव होता है। भाषा की प्रौढि एवं अनुप्रासमयी शैली के आद्यन्त निर्वाह को देखते हुए डॉ. त्रिपाठी ने इसे नारायणभट्ट की अन्तिम रचना के रूप में माना है। ६२. विश्वगुणादर्शचम्पू-इस चम्पू के रचयिता हैं १७ शती के वेङ्कटाध्वरि। ये आचार्य रामानुज के अनुयायी थे और महालक्ष्मी के परम भक्त। इनके पिता का नाम था रघुनाथ दीक्षित और माता का नाम सीताम्बा। इनके नाना का नाम था अप्पय। ये १. काव्यमाला में निर्णय सागर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित। २. काव्यमाला में निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित। दिमाक साहस ३. डिस्क्रिप्टिव कैटलॉग-मद्रास XXI-१२३७६, अप्रकाशित। ४. निर्णयसागर प्रेस बम्बई में १६२३ ई. में प्रकाशित। चम्पू-काव्य १२६ अप्पय चित्रमीमांसाकार अप्पय दीक्षित से भिन्न थे। वेङ्कराध्वरि की दो अन्य रचनाएँ भी हैं-हस्तिगिरिचम्पू और लक्ष्मीसहस्रम्। _ विश्वगुणादर्शचम्पू उच्छ्वासादि में विभक्त नहीं है। इसमें कुल ५६७ श्लोक हैं। गद्यावतरणों की संख्या अपेक्षाकृत कम है-केवल २५४ मात्र। ग्रन्थ की शैली सरल एवं लालित्यपूर्ण है। रामानुज के मतानुयायियों के दो वर्ग थे-वडघले और तेंगले। वडघले मतानुयायियों ने तेंगलों की जो अवमानना की, जो स्पर्धा की, जो छल किया, उसी को स्पष्ट करने के लिए कवि ने इस ग्रन्थ की रचना की। किन्तु केवल इसे ही ग्रन्थ-प्रणयन का प्रयोजन नहीं माना जा सकता। वस्तुतः विश्ववैचित्र्य की अभिव्यक्ति ही इस ग्रन्थ का उद्देश्य है। __विश्वको देखने के उत्सुक दोषैकट्टक् कृशानु एवं गुणैकपक्षपाती विश्वावसु नामक दो गन्धर्वो की कल्पना प्रस्तुत चम्पूकाव्य में की गई है। उनके कथोपकथन के रूप में यह चम्पू-काव्य प्रस्तुत किया गया है। वेङ्कटाध्वरि के विषय में एक किंवदन्ती है कि स्तुतिनिन्दात्मक विश्वगुणादर्शचम्पू काव्य की रचना के कारण वे देवकोप से अन्धे हो गए थे। लक्ष्मीसहस्त्रम् की रचना के पश्चात् ही उन्हें फिर से खोई हुई दृष्टि वापस मिली। ग्रन्थ के नाम से ऐसा पता चलता है कि सम्पूर्ण विश्व का गुण-वर्णन इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय है। किन्तु इतना सच है कि प्रस्तुत चम्पू में वर्णन की बहुविधता है। __उपोद्घात में मङ्गलाचरण, कवि-परिचय, चम्पूकाव्यप्रशस्ति तथा कृशानु और विश्वावसु के परिचय हैं। तत्पश्चात् क्रमशः सूर्य, भूगोल, बदरिकाश्रम, अयोध्या, गंगा, काशी, समुद्र, जगन्नाथक्षेत्र, गुर्जरदेश, यमुना, महाराष्ट्र, आन्ध्र, कर्णाटक, वेङ्कटगिरि, वन, घटिकाचल, वीक्षारण्य, रामानुज, चन्नपट्टन, काञ्ची, वेदान्तदेशिक, कामासिकानगर, नृसिंह, त्रिविक्रम, कामाक्षी, एकानेश्वर, क्षीरनदी, वाहानदी, तुण्डीरमण्डल, चञ्चीपुरी, पिनाकिनी, गरुडनदी, श्रीदेवनायक, श्रीमुष्णक्षेत्र यज्ञवराह, कावेरी, श्रीरङ्ग, जम्बुकेश्वर, चोलदेश, कुम्भघोणशागपाणि, चम्पकारण्य, श्रीराजगोपाल, सेतु, ताम्रपर्णी, कुरुकानगर, श्रीशठकोपमुनि, पाण्ड्यचोलदेशनिवासिस्मार्त शैवादित्य-वेदान्ति-ज्यौतिषिक-भिषक्-कवि-तार्किक-मीमांसक वैयाकरण-वैदिक राजसेवक, दिव्यक्षेत्रादिके वर्णन के साथ उपसंहार एवं कविवाक्य वर्णित हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि यहाँ व्यक्ति, सम्प्रदाय, तीर्थस्थान, नदी, समुद्र स्थानीय देवता एवं विभिन्न प्रान्तों का वर्णन कथोपकथन की प्रक्रिया से किया गया है। विश्वावसु पहले इनके गुणों का वर्णन करता है। तब कृशानु उनमें दोषों का उद्घाटन करता है। फिर विश्वावसु दोषों का निराकरण करता है। १. देखें श्लोक संख्या २४६ एवं २५० १३० गद्य-खण्ड ग्रन्थान्त में ग्रन्थकर्ता ने अपनी नम्रता दिखलाते हुए पाठकोंसे अनुरोध-किया है कि उनके “इस ग्रन्थ में स्पष्टतया दोषों की बहुलता होने पर भी दया के नाते प्रसन्नचित्त सज्जन वृन्द कृशानुवत् (दोषद्रष्टा की तरह) न हों अपितु विश्वावसु की तरह (गुणग्राही) बनें। __ इस चम्पू के रचयिता कवि का संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार था। उनकी भाषा प्रतिपाद्य विषय के अनुकूल सरल एवं प्राञ्जल है। राजा की नौकरी करने वाले भृत्य की दशा का कितना सटीक एवं सजीव चित्रण निम्न पद्य में किया गया है नैषां सन्ध्याविधिरविकलो नाच्युतार्चाऽपि साङ्गा न स्वे काले हवननियमो नापि वेदार्थ-चिन्ता। न क्षुद्वेलानियममशनं नापि निद्रावकाशो न द्वौ लोकावपि तनुभृतां राजसेवापराणाम् ।। काशी के विषय में कवि का निम्न चमत्कारी पद्य द्रष्टव्य है वाराणसि त्वयि सदैव सरोगभूमावारोग्यभूमिरिति काममलीकवादः। संतस्थुषां भवति यत्र वपुः सशूलं जन्मान्तरेऽपि जलभारवदुत्तमाङ्गम् ।। (विश्वचम्पूश्लो) ६३. त्रिपुरविजयचम्पू - इस त्रिपुरविजयचम्पूकाव्य के प्रणेता तञ्जोर के भोंसला राजा एकोजि के अमात्य नृसिंहाचार्य हैं जो भारद्वाज कुलोत्पन्न आनन्दयज्चा के पुत्र थे। कैलास के वर्णन से कथारम्भ कर त्रिपुरदहन की कथा का वर्णन संक्षेप में किया गया है। ६४. केरलाभरण - केरलाभरण के रचयिता रामचन्द्र दीक्षित केशव (यज्ञराम) दीक्षित के पुत्र थे जो रत्नखेट श्रीनिवास दीक्षित के परिवार से सम्बन्धित थे। इनका काल सत्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है। यह चम्पूकाव्य यात्रा-प्रबन्धात्मक है। इन्द्र की सभा में उपस्थित वसिष्ठ एवं विश्वामित्र में विवाद छिड़ता है कि कौन सा प्रदेश अत्यधिक रमणीय है। का “कतमो देशो रम्यः कस्याचारो मनोहरो महताम्। हिला - इति वादिनि देवपतौ संघर्षोऽभूदू वसिष्ठगाधिजयोः।। १. दृष्ट श्लोक सं. ५६६ २. अप्रकाशित तजोर कैटलाग न. ४०३६ ३. अप्रकाशित, तञ्जोर कैटलाग न. ४०३१ ४. श्लोक १८ चम्पू-काव्य १३१ इस पर देवराज इन्द्र के आदेशानुसार दो गन्धर्व-मिलिन्द एवं मकरन्द भू-परिक्रमा पर निकलते हैं और केरल देश की प्रकृतिक रमणीयता से मुग्ध होकर उसे ही सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हैं। इस चम्पू में भाषा की प्रौढ़ता एवं अनुप्रासमयता है। पद्यों से रमणीयता टपकती हैं। ६५. गोदापरिणयचम्पू-गोदापरिणयचम्पू के रचयिता वेदाधिनाथभट्टाचार्य केशवनाथ थे। इसमें पाँच स्तबक हैं। तमिल की सुप्रसिद्ध कवयित्री गोदा (आण्डाल) का श्रीरङ्गम् के अधिष्ठातृ देवता रङ्गनाथजी के साथ विवाह ही इस चम्पूकाव्य का वर्ण्य-विषय है। सत्रहवीं शताब्दी का अन्तिम चरण केशवनाथ का समय माना जाता है। __ गोदा के प्रसंग में एक किंवदन्ती है।’ षष्ठ शताब्दी के सुप्रसिद्ध सन्त पेरियाल्वार (विष्णुचित्त) की पोषिता पुत्री थी गोदा। वह पिता के द्वारा बनाई गई मालाओं को रङ्गनाथ जी को अर्पित किए जाने से पहले ही पहन कर अपने को सुसज्जित कर लेती थी। बाद में उन मालाओं को देवता को अर्पित किया जाता था। इस रहस्य के खुल जाने पर पेरियाल्वार ने गोदा को खरी-खोटी सुनायी और दूसरी माला से रङ्गनाथ जी की पूजा कराने की ठानी। इस पर आकाशवाणी हुई कि दूसरी माला स्वीकार नहीं की जायेगी। गोदावरी के द्वारा पहनी गई माला ही स्वीकार की जायेगी। पुत्री की कृष्णभक्ति से मुग्ध पिता ने वही किया और अन्त में गोदा के द्वारा हठ किए जाने पर उसका विवाह रङ्गनाथ जी से ही कर दिया। सोलह वर्ष की अवस्था में ही वह रङ्गनाथ जी में विलीन हो गई। यही किम्वदन्ती चम्पूकाव्य का आधार है। ६६. वैकुण्ठविजयचम्पू - वैकुण्ठविजयचम्पू के प्रणेता हैं राघवाचार्य। इनके पिता वत्सगोत्रीय श्रीनिवासाचार्य थे। राघवाचार्य रामानुजाचार्य के मत के अनुयायी थे। इनका समय है सत्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध । इन्होंने भी विशिष्टाद्वैतावादी कवियों की परम्परा का अनुसरण करते हुए ग्रन्थारम्भ में वेदान्ताचार्यों की स्तुति की है। __ इस चम्पू में जय एवं विजय नामक दो पात्रों की कल्पना की गई है जो विश्वभ्रमण पर निकलते हैं। उसी क्रम में अनेक स्थानों का भ्रमण करते हैं। अनेक तीर्थों एवं मन्दिरों का वर्णन इसमें सुललित भाषा में किया गया है। ६७. वेङ्कटेशचम्पू - सत्रहवीं शताब्दी के तञ्जोर निवासी धर्मराज कवि के द्वारा विरचित यह वेङ्कटेशचम्पूकाव्य तिरुपतिक्षेत्र के देवता वेङ्कटेश की महिमा का वर्णन करता है। ग्रन्थारम्भ में मङ्गलाचरण के पश्चात् सज्जनप्रशंसा एवं दुर्जन-निन्दा की गई है। १. डिस्क्रप्टिव कैटलाग मद्रास, नं. १२२३०, अप्रकाशित। २. अप्रकाशित, तञ्जोर कैटलॉग नं. ४१५८ १३२ गद्य-खण्ड पद्यभाग में कहीं-कहीं तीखा व्यङ्ग्य दिखाई पड़ता है। गद्यभाग में तो कादम्बरी तथा दशकुमारचरित जैसी रचना की रमणीयता स्पष्ट परिलक्षित होती है। ६८. तत्त्वगुणादर्शचम्पू’ - इस चम्पू के रचयिता अण्णाचार्य हैं। ये श्रीशैल-परिवार के थे। इनका समय १६वीं शती का अन्त और १८ वीं शती का पूर्वभाग माना जाता है। __कथोपकथन की शैली में लिखा यह चम्पूकाव्य जय-विजय के संवाद के रूप में शैव एवं वैष्णव सिद्धान्तों के गुण-दोषों का वर्णन करता है। जय शैव मत को उपस्थापित करता है, विजय वैष्णव मत के गुण-दोषो का वर्णन करता है। तत्त्वार्थ-निरूपण एवं कवित्व-चमत्कार दोनों का सम्यक् समावेश प्रस्तुत चम्पूकाव्य में देखने को मिलता है। वेङ्कटाध्वरि का विश्वगुणादर्शचम्पू इसका आदर्श है।…. ६६. जानराजचम्पूर- जानराजचम्पू का उल्लेख न तो डॉ. त्रिपाठी के द्वारा किया गया है। न ही डॉ. वर्णेकर के द्वारा। इसके रचयिता थे कृष्णदत्त उपाध्याय, जो बाल्यकाल से ही काव्य-रचना में कुशल होने के कारण बालकवि कृष्णदत्त के नाम से मिथिला में प्रसिद्ध हुए। अपने गीतगोपीपतिकाव्य में कृष्णदत्त ने लिखा है कि वे उद्यान (उजान) ग्रामवासी थे: “उद्यानवास्तव्य समस्त विद्यश्रीकृष्णदत्तस्य कवित्वमेत् । कृष्णदत्त मिथिला में अपने सारस्वत वैभव के लिए प्रसिद्ध सोदरपुर मूल’ की कन्हौली शाखा में उत्पन्न मैथिल श्रोत्रिय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम था भवेश एवं माता का नाम भगवती देवी। डॉ. सदाशिव लक्ष्मीधर कात्रे ने सन् १७४० से १७८० ई. तक का समय कृष्णदत्त की रचनाओं का काल माना है। से जानराजचम्पू के रचयिता भोसलावंशीय जानूजी महाराज के आश्रित एवं समसामयिक थे। अतः अट्ठारहवीं शताब्दी में ये साहित्यिक रचना में संलग्न थे। पुरञ्जनचरितनाटक एवं जानराजचम्पू में इन्होंने समसामयिक भोसलावंशीय महाराजों एवं राजकुमारों का उल्लेख किया है। G १. डिस्क्रिप्टिव कैटलाग मद्रास, न. १२३३३ २. गङ्गानाथ झा केन्द्रीय संस्कृत विदयापीठ, प्रयाग से… प्रकाशित डा. जगन्नाथ पाठक द्वारा सम्पादित। ३. स्व. डा. गंगानाथ झा द्वारा सम्पादित होकर १६३० में … प्रकाशित। ४. XII-२८ ५. सोदरपुर कुलजातकविकृष्णम्-गीतगोपीपति XI-२६ ६. विद्वद्वंशवतंसितः सुचरितस्तातो भवेशाभिधो ज्येष्ठा यस्य पुरन्दरप्रभृतयः षट्शास्त्रपारङ्गताः। लब्धा शैशव एव येन सकला विद्या प्रसाद्याम्बिकां तेनाकारि बुधेन कृष्णकविना श्रीगीतगोपीपतिः।। वही-XII-२७ ७. पुरञ्जनचरितनाटक (भूमिका)-विदर्भ संशोधन मण्डल नागपुर से सन् १६६१ में प्रकाशित। १३३ चम्पू-काव्य चम्पूकार कृष्णदत्त के प्रसंग में किंवदन्ती है कि बचपन में ही एक रात स्वप्न में शारदा देवी ने उन्हें स्तनपान कराया। फलतः इन्हें लोकोत्तर प्रतिभा प्राप्त हुई। इनके विषय में अन्य अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं जिनका उल्लेख म.म. डॉ. गंङ्गानाथ झा. पण्डित त्रिलोकनाथ मिश्र, डा. जगन्नाथ पाठक, डा. पुष्टिनाथ झा प्रभृति विद्वानों ने अपने-अपने ग्रन्थों में किया है। जानराजचम्पू गद्य-पद्यमय एक अनूठा चम्पूकाव्य है। यह पद्यबहुल है। पद्यों की संख्या ३०५ है और गद्य-खण्ड हैं ३७ मात्र । ऐतिहासिक एवं साहित्यिक दोनों दृष्टियों से यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। इस चम्पूका ऐतिहासिक महत्त्व यह है कि इसमें नागपुर के भोसलावंशीय राजाओं विशेषकर रघूजी महाराज और उनके सुपुत्र जानूजी महाराज के जीवन के इतिवृत्तों का विशद वर्णन प्रस्तुत किया गया है। इन नरेशों की कीर्ति-कौमुदी को अक्षुण्ण रखने का श्रेय इसी ग्रन्थ को है। भोसलावंशीय नरेशों की धार्मिकता, दानशीलता, शूरता आदि का तथ्यपूर्ण वर्णन इस चम्पू का वर्ण्य-विषय है। जानूजी महाराज के पूर्वजों एवं चम्पूकार के समसामयिक जानूजी के वंशजों का परिचय नामोल्लेख पुरस्सर दिया गया है। साहित्यिक दृष्टि से भी यह चम्पू-काव्य अपना विशिष्ट स्थान रखता है। रीतियों में वैदर्भी, गौडी एवं पाञ्चाली-त्रिविध रीतियों का प्रयोग यथास्थान किया गया है। गुणों में माधुर्य, ओजः एवं प्रसाद तीनों गुणों का समावेश यत्र-तत्र किया गया है। __सभी मुख्य अलङ्कारों का प्रयोग किया गया है। शब्दालङ्कार में अनुप्रास की छटा गद्यांशों एवं पद्यांशों में पायी जाती हैं। अर्थालङ्कारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, श्लेष, अर्थान्तरन्यास, अतिशयोक्ति, स्वभावोक्ति, विशेषोक्ति, अपझुति, समासोक्ति, तुल्ययोगिता तथा काव्यलिङ्ग के अधिक उदाहरण हैं। हाँ, दीपक, व्याजस्तुति, उल्लेख, दृष्टान्त, पर्यायोक्त, व्यतिरेक, विषम, निदर्शना, विनोक्ति, असङ्गति, भ्रान्तिमान् आदि अलङ्कारों के भी उदाहरण जानराजचम्पू में मिलते हैं। जानराजचम्पू का अङ्गी रस है वीर किन्तु स्थान-स्थान पर परिस्थिति के अनुसार अन्य रसों का भी सम्यक परिपाक हआ है। रघजी एवं जानजी महाराजों के द्वारा जो शत्र राजाओं के साथ युद्ध किए गए उनके वर्णन वीररस से लबालब भरे हैं। वीररस के चारों भेदों-युद्धवीर, दानवीर, दयावीर तथा धर्मवीर के उदाहरण प्रस्तुत चम्पूकाव्य में उपलब्ध हैं। अन्य रसों में रसराज शृंगार, हास्य, भयानक, रौद्र तथा शान्त रस के भी उदाहरण इस चम्पूकाव्य में उपलब्ध हैं। __जानराजचम्पू के रचयिता यद्यपि दोषपरिहार के लिए पूर्ण सयत्न प्रतीत होते हैं तथापि दुःश्रवत्व, च्युतसंस्कार, क्लिष्टत्व तथा अश्लीलत्व के कुछ उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं। __जहाँ तक छन्दों के प्रयोग का प्रश्न है कृष्णादत्त ने सर्वाधिक श्लोक शार्दूलविक्रीडित छन्द में लिखे हैं। तत्पश्चात् स्रग्धरा, शिखरिणी, मालिनी, हरिणी, भुजङ्गप्रयात, पुष्पिताग्रा, १३४ गद्य-खण्ड उपजाति, वसन्ततिलका, वंशस्थ, अनुष्टुप्, आर्या, मन्दाक्रान्ता, द्रुतविलम्बित, प्रहर्षिणी, रथोद्धता, वियोगिनी, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, स्वागता, पृथ्वी, अतिरुचिरा, मञ्जुभाषिणी के भी प्रयोग मिलते हैं। राजनीतिविषयक, धर्मविषयक, नैतिकताविषयक एवं सामान्य सूक्तियाँ प्रस्तुत चम्पूकाव्य में यत्र-तत्र भरी पड़ी हैं। वर्णन-नैपुण्य कृष्णदत्त की विशिष्टता है। प्राकृतिक वस्तुओं, दृश्यों, ऋतुओं एवं युद्धों के वर्णन में कवि ने अपनी अनुपम प्रतिभा का परिचय दिया है। गोदावरी नदी का वर्णन, उपवन का वर्णन, सरोवर का वर्णन, सूर्यास्त का वर्णन तथा चन्द्रोदय का वर्णन दर्शनीय है। युद्धों के वर्णन में इनकी प्रवीणता और भी निखरी है। __७०. चोलचम्पू-विरूपाक्ष कवि प्रस्तुत चम्पू-काव्य के रचयिता हैं। इनका समय अनुमानतः सत्रहवीं शताब्दी माना गया है। चोलचम्पू का आधार है भविष्योत्तरपुराणान्तर्गत बृहदीश्वरमाहात्म्य का चतुर्थ से अष्टम अध्याय जहाँ कुलोत्तुङ्ग एवं देवचोल का वर्णन किया गया है। इस चम्पूकाव्य में वर्ण्य-विषय निम्नलिखित है: रवर्वट-ग्राम-वर्णन, कुलोत्तुङ्गवर्णन, कुलोत्तुङ्ग की शिवभक्ति, वर्षागम, शिवदर्शन, शिवद्वारा कुलोत्तुङ्ग को राज्य-दान, कुबेरागमन, तञ्जासुर की कथा, कुबेर की प्रेरणा से कुलोत्तुङ्ग का राज्यग्रहण, राज्य का वर्णन, पुत्रजन्म-महोत्सव, राजकुमार को अनुशासन, कुमार चोलदेव का विवाह, पट्टाभिषेक, अनेक वर्षों तक कुलोत्तुङ्ग का राज्य करने के पश्चात् सायुज्य-प्राप्ति एवं देवचोल के शासन करने की सूचना। मूलतः शिव-भक्ति का वर्णन ही प्रस्तुत चम्पू का प्रतिपाद्य विषय है। ७१. कार्तवीर्यप्रबन्ध-कार्तवीर्य प्रबन्धनामक चम्पूकाव्य के प्रणेता थे ट्रावनकोर के युवराज अश्विन श्रीराम वर्मा। इनका समय है अट्ठारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध । इनकी अन्य उपलब्ध रचनाओं में श्रृङ्गारसुधाकरभाण, स्थानन्दूरपुरवर्णन आदि हैं। प्रस्तुत चम्पूकाव्य का वर्ण्य-विषय है रावण एवं कार्तवीर्य का युद्ध एवं कार्तवीर्य की विजय। पराजित होने पर रावण बन्दी बना लिया गया और अन्त में रावण के पितामह पुलस्त्य ऋषि ने कार्तवीर्य को प्रसन्न कर रावण को मुक्त करवाया। इस चम्पूकाव्य का अङ्गीरस है वीर-रस। ओजोगुणविशिष्ट शैली में युद्ध का वर्णन किया गया है। गद्यखण्डों की पदावली ललित एवं अनुप्रासमयी है। ७२. गङ्गावतरणचम्पूप्रबन्ध - शङ्कर दीक्षित (मिश्र) की ही दूसरी चम्पू-रचना है गङ्गावतरणचम्पू-प्रबन्ध। यह सात उच्छ्वासों में विभाजित है। रामायण एवं पुराणों में १. मद्रास गवर्नमेण्ट ओरियण्टल सिरीज एवं सरस्वती महल सिरीज, तञ्जोर से प्रकाशित। २. १६४७ में त्रिवेन्द्रम से युनिवर्सीटी मैनुस्क्रिप्ट लाइब्रेरी, त्रिवेन्द्रम न. ४ प्रकाशित। ३. पाद.टि. अप्रकाशित, इण्डिया आफिस लाइब्रेरी कैटलाग टप ४०४१/११४ डी.। । चम्पू-काव्य १३५ वर्णित गङ्गावतरण की सुप्रसिद्ध कथा ही इस चम्पूकाव्य का प्रतिपाद्य विषय है। ग्रन्थ का प्रारम्भ गणेश की स्तुति से हुआ है। वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति आदि पूर्ववर्ती सुप्रसिद्ध कवियों का भी उल्लेख किया गया है। गद्य-खण्डों में अनुप्रासमयी समस्त पदावली का प्रयोग है। ग्रन्थान्त में कपिलमुनि के शाप से सगर-पुत्रों की मुक्ति का वर्णन है।