चम्पू-काव्य
समस्त ज्ञान, विज्ञान तथा सारी विद्याओं का मूल वेद ही है। “भूतं भवद् भविष्यं च सर्व वेदात् प्रसिद्ध्यति" (मनु. १२।६७) यह मनुवचन सर्वविदित है। “पश्य देवस्य काव्यम्" (ऋग्वेद) के अनुसार वेद अपौरुषेय काव्य है। वह महर्षि वेदव्यासद्वारा किए गए विभाजन के पूर्व एक अखण्ड मिश्रशैली में था। विभाजन के पश्चाद् पद्यांश को ऋक्, गद्यांश को यजुष् तथा गीति को साम कहा गया। तब भी कृष्णयजुर्वेद की तैत्तरीय, मैत्रायणी तथा कठशाखाएँ मिश्रशैली में हैं। ब्राह्मण-ग्रन्थों के उपाख्यानों में मिश्रशैली अपनाई गई है। ऐतरेय ब्राह्मण का हरिश्चन्द्रोपाख्यान (३३ अध्याय) मिश्रशैली का वैदिक निदर्शन है। इसमें प्रबन्धात्मकता भी है-“हरिश्चन्द्रो ह वैधस ऐक्ष्वाको राजाऽपुत्र आस। तस्य ह शतं जाया बभूवुः। तासु पुत्रं न लेभे। तस्य ह पर्वतनारदौ गृह ऊषतुः। सह नारदं पप्रच्छ इति”। यं विमं पुत्रमिच्छन्ति ये विजानन्ति ये च न। किं स्वित् पुत्रेण विन्दते तन्म आचक्ष्व नारद ।। इति (१। पृ. २११) किं एकया पृष्टो दशभिः प्रत्युवाच इति। ऋणमस्मिन् संनयत्यमृतत्वं च गच्छति। पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेज्जीवतो मुखम् ।। (२।। पृ. २११) उपनिषदों में कठोपनिषद् का प्रारम्भ मिश्रशैली में ही है। अतः पौरुषेय लौकिक वाक्य का भी शैलीभेद से तीन भेद स्वीकार किया गया। “गद्यं पद्यं च मिश्रं च" (अ.पु. ३३७।८)। _ गद्य में अर्थगौरव तथा वर्णन का वैशिष्ट्य होता है पद्य में गेयता, सरसता तथा लय ताल का वैशिष्ट्य होता है। मिश्र काव्य में दोनों का समन्वय एक अद्भुत चमत्कार उत्पन्न करता है। अतः उसकी उपमा बाल्यतारुण्यवती कन्या से दी गयी है। (जीव. च. १६) _ कहीं वाद्यकलासमन्वित गीति से (चम्पूरामा. वा. का. ३) तथा पद्मरागमणि के मिश्रण से गुम्फित मुक्ताहार से (तत्त्वगुणादर्श १।४) उपमा दी गई है। चम्पू में अलङ्कृत शब्दार्थ, कल्पनासौन्दर्य, विशेषणबाहुल्य, सप्रासप्राचुर्य, चमत्कारजनकता की विशेषता होती है। चम्पूकाव्य शिलालेखों में ही सीमित थे, कोई पुराना ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। यद्यपि ८ “गद्यपद्यमयी काचि" चम्पूरित्यपि विद्यते"। (का.द.१।३१) इस दण्डीकृत चम्पूलक्षण में “विद्यते” शब्द का प्रयोग दण्डी के समय में चम्पू की सत्ता सिद्ध करता है, तो भी वहीं “काचित्” का प्रयोग सिद्ध करता है कि उन्हें उपलब्ध नहीं था। चम्पू-काव्य १३७ परन्तु दशमशती के प्रारंभ में त्रिविक्रमभट्ट की रचना ‘नलचम्पू’ अपने सौन्दर्य, माधुर्य से सहृदयों को आह्लादित करती हुई काव्य-जगत् में अवतीर्ण हुई। तब से इसकी धारा १६वीं शती तक अविच्छिन्न प्रवाहित होती रही। यद्यपि आज धारा क्षीणप्राय है, तो भी शुष्क तो नहीं ही है। पं. शिवप्रसाद द्विवेदी की रचना ‘नवरत्नावलीयम्’ चम्पू १९८३ ई. में प्रकाशित हुई है।
उपलब्ध चम्पू-काव्यों का विवरण
क्र. सं. नाम काल लेखक विवरण स्रोत १. नलचम्पू (दशम शताब्दी त्रिविक्रमभट्ट प्रकाशित महाभारत अथवा का प्रारम्भ) (नलोपाख्यान) दमयन्ती-कथा २. मदालसाचम्पू १०वीं शती का " " मार्कण्डेयपुराण प्रारम्भ ३. यशस्तिलक- दशम शती का जैन कवि सोमदेव " __चम्पू - मध्यभाग उत्तरपुराण ४. जीवन्धर- दसवीं शती से हरिश्चन्द्र गुणभद्र का चम्पू ११वीं शती तक उत्तरपुराण ५. रामायणचम्पू ११वीं शती का धारापति भोजराज " वाल्मीकि मध्य । रामायण ६. उदयसुन्दरी- ११वीं शती सोड्ढल हर्षचरित का अनुकरण लक्षित होता है ७. भागवतचम्पू ११वीं शती अभिनव कालिदास " श्रीमद्भागवत (उपाधि) दशम स्कन्ध जैनों का कथा नाम अज्ञात अप्रकाशित महाभारत ८. अभिनव- ११वीं शती । भारतचम्पू ६. भारतचम्पू ११वीं शती १०. भरतेश्व- १३वीं शती राभ्युदय- का पूर्वार्द्ध प्रकाशित महाभारत अनन्तभट्ट आशाधर (दिगम्बर जैनी गृहस्थ) अप्रकाशित आदिपुराण चम्पू १३८ गद्य-खण्ड ११. पुरुदेव- चम्पू १३वीं शती का उत्तरार्द्ध अर्हत् या अर्हदास प्रकाशित _आदिपुराण, उत्तरपुराण, सुव्रत पुराण अप्रकाशित वाल्मीकिरामायण दिवाकर १२. अमोघराघव- १२६६ ई. चम्पू १३. यतिराज- १४वीं शती का विजयचम्पू उत्तरार्द्ध अहोबलसूरि । अप्रकाशित रामानुज के जीवन पर आधारित राजाओं का चरित १४. विरूपाक्ष " प्रकाशित वसन्तोत्सव चम्पू अप्रकाशित हरिवंशपुराण , अप्रकाशित वेदान्तदेशिक का जीवनवृत्त प्रकाशित । श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध प्रकाशित १५. रुक्मिणी- " अम्मल परिणयचम्पू (कमलानन्द) १६. आचार्य- या वेदान्ताचार्य वेदान्ताचार्य विजय- विजयचम्पू चम्पू १५वीं के बाद १७. आनन्द- १६वीं शती का (कवि कर्णपुर) वृन्दावन- उत्तरार्ध परमानन्ददास चम्पू १८. गोपालचम्पू १६वीं शती जीवराज का मध्य १६. आचार्य- १६वीं शती वल्लीसहाय दिग्विजय- का पूर्वार्द्ध चम्पू २०. काकुत्स्थ- " विजयचम्पू २१. वरदाम्बिका-" तिरुमलाम्बा परिणयचम्पू २२ वसुचरित्र- १६वीं शती कवि कालहस्ति चम्पू अप्रकाशित शङ्करदिग्विजय वाल्मीकि रामायण प्रकाशित राजकथा अप्रकाशित वसुचरित्र चम्पू चम्पू-काव्य १३६ २३. नाथमुनि- १६वीं शती रामानुजदास अप्रकाशित वेदान्ताचार्य का विजयचम्पू विवरण २४. श्रीरामानुज- १६वीं शती का रामानुजार्य प्रकाशित रामानुज चम्पू अंत भाग जीवन-चरित २५. कल्याणवल्ली- " श्रीरामानुज अप्रकाशित लिंगपुराण का कल्याण देशिक गौरीकल्याण २६. भागवत- रामभद्र (तंजोर के प्रथम प्रति के अप्रकाशित श्रीमद्भागवत _अनुसार राजनाथ मद्रासवाली प्रति में) कंसवधपर्यन्त २७. भागपत- १५८६-१६१४ ई. चिदम्बर अप्रकाशित श्रीमद्भागवत चम्पू २८. पञ्चकल्याण- " चिदम्बर अप्रकाशित - चम्पू २६. पारिजातहरण- १६वीं शती शिवकृष्ण । प्रकाशित हरिवंशपुराण चम्पू ३०. तीर्थयात्रा- १६वीं शती का समरपुंगवदीक्षित प्रकाशित हरिवंशपुराण __ प्रबन्धचम्पू अंत १७वीं आदि तीर्थयात्रा ३१. आनन्दकन्द- १६वीं का अंत " अप्रकाशित संग्रहात्मक चम्पू १७वीं प्रारम्भ चरित्र का. ३२. नृसिंहचम्पू १५वीं का मध्य दैवज्ञसूर्य प्रकाशित पुराण ३३. मन्दारमान्द- १६वीं का उत्तरार्ध श्रीकृष्ण कवि प्रकाशित लक्षणग्रन्थ __ चम्पू १७वीं का पूर्वार्द्ध ३४. विद्वन्मो- १६वीं शती चिरंजीव भट्टाचार्य प्रकाशित दर्शन दतरङ्गिणी १५१२ ई. (वामदेव ३५. माधवचम्पू १६वीं शती चिरञ्जीव भट्टाचार्य प्रकाशित काल्पनिक ३६. वीरभद्रदेव- १५७७ ई. पद्मनाभ मिश्र प्रकाशित राजवर्णन चम्पू उक्त ३६ चम्पू दशम शती ई. के प्रारम्भ से १६वीं शताब्दी तक के निर्मित हैं। सोलहवीं शती के बाद के चम्पू-काव्यों का विवरण निम्नाङ्कित है। ३७. मत्स्यावतार- १५६० से नारायण भट्ट प्रकाशित पुराण प्रबन्ध १६६६ के मध्य १४० गद्य-खण्ड ३८. राजसूयप्रबन्ध " महाभारत सभापर्व ३६. पाञ्चाली- " अप्रकाशित " आदिपर्व स्वयंवर ४०. स्वाहा- " प्रकाशित प्रणयकाव्य सुधाकरचम्पू ४१. कोटिविरह " " प्रणयकाव्य ४२. नृगमोक्ष " वा अप्रकाशित श्रीमद्भागवत __ मत्स्यावतार भूमिका पृ. ३ पर नारायण रचित ८ निम्नाङ्कित चम्पू का वर्णन है। ४३. सुभद्राहरण, ४४. पार्वतीस्वयंवर, ४५. नलायणीचरित, ४६. कौन्तेयाष्टक, ४७. दूतवाक्य, ४८. किरात, ४६. निरनुनासिकचम्पू, ५०. दक्षयाग उसमें ४५-५० तक छः चम्पू काव्यों का मलयालम संस्करण उपलब्ध है। (केरली साहित्य दर्शन पृ. ५४-५५)। ५१. व्याघ्राल- १७वीं शती नारायण भट्ट अप्रकाशित पुराण येशाष्टमी महोत्सवचम्पू ५२. आनन्द- १७वीं शती मित्रमिश्र प्रकाशित भागवत कन्दचम्पू का पूर्वार्ध ५३. नृसिंह- १६८४ ई. केशवभट्ट प्रकाशित पुराण चम्पू (प्रलाद चम्पू) ५४. विश्वगुणा- सत्रहवीं शती, वेंकटाध्वरिन् काल्पनिक दर्शचम्पू पूर्वार्धा ५५. वरदाभ्युदय पौराणिक (हस्तगिरिच.) ५६. उत्तर- " " प्रकाशित रामायण रामचरितचम्पू ५७. नीलकण्ठ- १६३६ ई. श्रीनीलकण्ठदीक्षित प्रकाशित पुराण विजयचम्पू ५८. त्रिपुरविजय- १७वीं का मध्य अतिराजयाजिन् अप्रकाशित पुराण चम्पू १४१ चम्पू-काव्य ५६. त्रिपुर- १७वीं का मध्य नरसिंहाचार्य अप्रकाशित पुराण विजयचम्पू ६०. केरलाभरणम् १७वीं शती का रामचन्द्र दीक्षित अप्रकाशित उत्तरार्ध ६१. वैकुण्ठ- १७वीं शती का उत्तरार्ध श्रीनिवासाचार्य विजयचम्पू ६२. उत्तर- " अप्रकाशित चम्पूरामायण रामायण ६३. द्रौपदी- " चन्द्रकवि प्रकाशित महाभारत परिणयचम्पू आदिपर्व ६४.गोदा- " केशवनाथ भट्टाचार्य अप्रकाशित लोकोक्ति परिणयचम्पू ६५.गौरीमायूर- १७वीं शती का अप्पादीक्षित अप्रकाशित मायावरम माहात्म्यचम्पू अन्त १८वीं का आदि माहात्म्य ६६.वेंकटेशचम्पू १७वीं शती धर्मराज अप्रकाशित पौराणिक कथा का अंत ६७.भैष्णी- १७वीं शती का श्रीनिवास मखिन अप्रकाशित श्रीमद्भागवत परिणयचम्पू उत्तरार्ध ६८. बाणासुर- १७वीं शती वेंकटार्य " " विजयचम्पू का उत्तरभाग ६६.तत्त्वगुणादर्शचम्पू १७वीं का अंत श्रीअणायार्य ” सम्प्रदाय १८वीं पूर्वार्ध ७०.धर्मविजयचम्पू १७वीं का अंत नल्ला दीक्षित या भूमिनाद " शैव वंशज १८वीं का पूर्वभाग
- राजा का वर्णन ७१. भोसलवंशावलीचम्पू १८वीं का वेंकटेश (नैध्रुव) " आदिभाग वंशावली ७२. श्रीनिवास- " वेंकटाध्वरि प्रकाशित राजचरित या वेंकटकवि ७३. दत्तात्रेयचम्पू १७वीं शती का दत्तात्रेय अप्रकाशित पुराण उत्तरार्ध या अनिर्णीत १४२ गद्य-खण्ड ७४. भद्रकन्या- १७वीं शती का अप्रकाशित श्रीमद्भागवत __ परिणयचम्पू अन्तिम गङ्गाधर ७५. भारतचम्पू- अनिर्णीत लक्ष्मणसूरि अप्रकाशित महाभारत तिलक ७६.चम्पूरामायण " लक्ष्मण कवि प्रकाशित रामायण युद्धकाण्ड ७७.कुमार भानुदत्त अप्रकाशित पुराण भार्गवीय ७८. उत्तरचम्पू १७वीं शती का भगवन्तकवि अप्रकाशित रामायण उ.का. अंत १८वीं का आदि ७६.विक्रमसेन नारायण राय " चरितकाव्य चम्पू काल्पनिक ८०. श्रीकृष्ण- - नरसिंहसूरि " श्रीमद्भागवत विलासचम्पू ८१. शङ्करा- - गुरु स्वयंभूनाथ राम" महाभारत नन्दचम्पू ८२. विवुधानन्द- १८वीं शताब्दी वेंकटकवि यात्राप्रबन्ध प्रबन्धचम्पू ८३. दिव्यचाप- चक्रवर्ती श्रीवेंकटाचार्य पौराणिक कथा विजयचम्पू ८४. मार्गसहाय- - नवनीत " देवपूजा का चम्पू ८५. मारुतिविजय- रघुनाथकवि (कुमारभट्ट रघुनाथ) " रामायण चम्पू ८६.मीनाक्षी- कन्दुकुरीनाथ अप्रकाशित हालास माहात्म्य कल्याणचम्पू ८७.भिल्लकन्या- कोई नृसिंह भक्त नाम अज्ञात अप्रकाशित लोककथा परिणयचम्पू ८८. रामायण १७वीं शताब्दी राजचूड़ामणि दीक्षित अप्रकाशित रामायण (युद्धकाण्ड) चम्पू-काव्य १४३ प६.शिवच कविवादिशेखर अप्रकाशित पुराण रित्रचम्पू ६०. चोलचम्पू १७वीं शती विरूपाक्ष कवि प्रकाशित भविष्योत्तर (अनुमानित) पुराण संस्कृत लिटरेचर-लेखक ने १४वीं शती का माना है, इनकी दूसरी कृति नरकासुरविजय है ६१. शिव- - विरूपाक्ष कवि अप्रकाशित पुराण विलासचम्पू ६२. कार्तवीर्य- - श्रीराम वर्मा प्रकाशित रामायण उ.का. प्रबन्ध ६३. शङ्कर- १८वीं शती का शङ्करमिश्र अप्रकाशित काशीवर्णन चेतोविलास उत्तरार्ध (दीक्षित) काशीनरेश चम्पू चेतसिंह का ६४. गङ्गाव- " पुराण तरणचम्पू ६५. रामचन्द्रचम्पू १८वीं का पूर्वार्ध महाराज अप्रकाशित रामायण विश्वनाथ सिंह ६६.चित्रचम्पू १८वीं शती श्रीवागेश्वर प्रकाशित पुराणाश्रित मलमल का पूर्वार्ध विद्यालङ्कार कल्पना ६७.आनन्दरंग- १८वीं शती श्रीनिवास कवि प्रकाशित वाजवंशवर्णन विजयचम्पू ६८. चन्द्रशेखर- १६वीं शती रामनाथ कवि प्रकाशित काल्पनिक चम्पू का अंत २०वीं का प्रारम्भ ६६. भागीरथीचम्पू - अच्युत शर्मा प्रकाशित पुराण १००. रघुनाथ- ई. १८६५ में कवि सार्वभौम कृष्ण प्रकाशित चरित __ विजयचम्पू १०१. कविमनो- १८७० ई. प्रकाशित तीर्थयात्रा रञ्जकचम्पू (रामस्वामी) 5 १०२. कुमार- १८००-१८३२ ई. शरभोजी (द्वितीय) प्रकाशित पुराण सम्भवचम्पू १४४ गद्य-खण्ड अन्य प्रकाशित तथा अप्रकाशित चम्पू जो कम प्रसिद्ध हैं। १०३. भोजप्रबन्ध - वल्लाल पण्डित प्रकाशित १०४. राज- - कवि कुञ्जर अप्रकाशित डी.सी. मद्रास शेखरचरित
- ८१६७ १०५. मुक्तचरित्र रघुनाथदास प्रकाशित १०६. रामायण- - रामानुजदेशिक अप्रकाशित डी.सी. २१ चम्पू ८५०४ १०७. त्रिपुर नीलकण्ठ दीक्षित " तंजोर कैट विजयचम्पू बरवल पृ. १५८ १०८. शाहराज- - लक्ष्मण कवि अप्रकाशित तंजोर कैट पृ. सभा सरोवर्णिनी ४२३५ १०६. रामायण- - घनश्याम दीक्षित अप्रकाशित ए.एन.आर. युद्धकाण्ड १६८१ ११०. रामायण- - मुक्तीश्वर दीक्षित. " ए.एन.आर. ३, युद्धकाण्ड १६८१ १११. वीरभद्र- - - एकाग्रनाथ दीक्षित " टियनियल कैट विजय १,१, १९१० १३ ११२. रुक्मिणी- - गोवर्धन बना" या कलकत्ता कैट. चम्पू पानीका १, ५२७। ११३. सुमतीन्द्र- - तंजोर कैट. जय घोषणा ४२३७। ११४. भद्राचलचम्पू राघवार्य प्रकाशित ११५. कर्णचम्पू कक्का भट्ट अप्रकाशित जी.आर.ए.एस. बम्बई, ११६. शिवचरित्रचम्पू का गङ्गाधरकवि अप्रकाशित बी. १, १२४३ ११७. श्रीनिवासमु - श्रीनिवास रामानुजदासीय कि अप्रकाशित टी.सी. नियात्राविलास ३,२८८२। ११८. " " गोविन्दास, अप्रकाशित टी.सी.,२८८५। ११६. श्रीनिवास-कृष्णकवि, प्रकाशित, विलासचम्पू सुमतीन्द्र चम्पू-काव्य १४५ अप्रकाशित डी.सी. मद्रास १२२२८ । १२०. कृष्ण- लक्ष्मणकवि, विलासचम्पू १२१. श्रुतकीर्तिविलासचम्पू सूर्यनारायण, १२२. इन्दिराभ्युदयचम्पू रघुनाथ, १२३. उषापरिणयचम्पू अज्ञात देवराज १२४. अनिरुद्ध- - चम्पू १२५. दमयन्तीपरिणय अप्रकाशित डी.सी. २१, ८५६३। अप्रकाशित मैसूर कैट. २६४ अप्रकाशित डी.सी. मद्रास १२३०२। प्रकाशित सरस्वती भवन वाराणसी अप्रकाशित टी.सी. ५, ६४१५ संस्कृतसिरीज में कार्बेटनगर से प्रकाशित। अप्रकाशित डी.सी. मद्रास १२२२६। अप्रकाशित मैसूर कैट.२६७। ट्रावंकोर कैट. ८१। अज्ञात अज्ञात १२६. पद्मावती- - श्रीशैल परिणय १२७. कालिन्दी- - मुकुन्दचम्पू १२८. मीनाक्षीपरिणय - आदि नारायण १२६. पद्मनाभचरित कविकृष्ण, अप्रकाशित चम्पू १३०, यमुना- पण्डितराज जगन्नाथ वर्णनचम्पू १३१. श्रीकृष्णचम्पू कृष्णकवि कृष्णदास गांगेय १३२. सत्राजिती परिणयचम्पू १३३. आञ्जनेयविजय १३४. हनुमदापादान प्रकाशित भारतीय सा शा. बलदेवोपाध्याय अप्रकाशित डी.सी. २१, ८१८६। अप्रकाशित टी.सी. ३, २७३२ अप्रकाशित मैसूर २६१। तंजोर कैट. वो ४, ४३६७। " मैसूर २७४। नृसिंह कवि, १३५. पुरुषोत्तमचम्पू नृसिंह आचार्य१४६ गद्य-खण्ड १३६. वीरभद्रविजय मल्लिकार्जुन आई.सी. ४, ६११३। १३७. कलाकौमुदीचक्रपाणि सी.सी.१, ७७७। १३८. सत्यसन्धचरित कल्पवल्लीकवि मैसूर २७१। १३६. चिन्तामणिविजय शेष कवि " मैसूर २६४। १४०. यादवशेखरचम्पू भाष्यकार " २६६। १४१. जैनाचार्यविजय अज्ञात अप्रकाशित डी.सी. २६।६७४६। १४२. सीताविजय घण्टावतार अप्रकाशित मैसूर २७२। १४३. वकवध अज्ञात या नारायणभट्ट (?) अप्रकाशित तंजोरकैट ३. ४०११। १४४. कुमाराभ्युदय अज्ञात
- अप्रकाशित तंजोर कैट . ३, ३५२१। १४५. पञ्चेन्द्रोपाख्यान अज्ञात अप्रकाशित टी.सी. ३, ३४२०। १४६. हयवदनविजय वेंकटराघव मैसूरकैट. २७२। १४७. कुमारविजय वमास्कर। टी.सी. ४, ५८८१। १४८. कल्याणचम्पू पप्ययाराध्य। अप्रकाशित टी.सी. ५६५७५। १४६. भार्गवचम्पू अज्ञात प्रकाशित /गोपाल नारायण कम्पनी बम्बई १५०. सम्पत्कुमार रंगनाथ अप्रकाशित डी.सी. विलास २१८८५०। १५१. जप्येज्ञोत्सव वेंकटसुब्बा अप्रकाशित मैसूर २६४। १५२. कृष्णचम्पू शेषसुधि। गोदावरी जिले के पी.बी. सुब्रह्मण्य शास्त्री राजोले के पास हस्तलिखित प्रति प्राप्य। १५३. गोपालचम्पू विश्वनाथ सिह अप्रकाशित, मित्रा कैट. बा.ल. १, ७३। चम्पू-काव्य १४७ १५४. बालभागवतम् १५५. भागवतचम्पू पद्मराज सोमशेखर प्रकाशित अप्रकाशित १५६. बालकृष्णचम्पू जीवनशर्मा प्रकाशित (राजमाहेन्द्री से) टी.सी. ३, ३१४५। मित्रा कैट. वोल्यूम १, ७१ बम्बई से। तंजोर कैट. ७, ३१६८। मैसूर कैट. १५७. श्रीनिवासचम्पू श्रीनिवास अप्रकाशित १५८. रामकथासुधोदयम् " कवि E २६६। । " " २६८। १५६. मुकुन्दचरित १६०. बल्लीपरिणय सुब्रह्मण्य यज्ञ, प्रकाशित मद्रास से। १६१. काव्यकलापचम्पू महानन्दधीर अप्रकाशित मित्रा कैट. वोल्यूम २, ६३१ १६२. अश्वत्थक्षेत्रयागचम्पू अज्ञात " त्रावंकोर कैट. ७६। १६३. कृष्णचम्पू परशुराम कवि " म. १०६। १६४. आनन्ददामोदरचम्पू भुवनेश्वर कवि " क.ए.सो.वा. २३। १६५. उत्तरचम्पू ब्रह्मपण्डित - कृष्णमाचारी का इतिहास, उल्लेखमात्र १६६. उत्तरचम्पू राघवभट्ट जीवन १६७. आनन्दवृन्दावन माधवानन्द अप्रकाशित अवध २१, ६२। १६८. गोपालचम्पू किशोरविलास अप्रकाशित क.क.३,३५। १६६. कृष्णविजय वीरेश्वर " टी.सी. २, २२६०। १७०. कृष्णविजय कवि कृष्णराज राइसकैट. २४८। १७१. वृन्दावनविनोद रुद्रन्यायवाचस्पति " १७२. यदुगिरिभूषणचम्पू अप्पलाचार्य कु. वोल्यूम ४, ३००५। १४८ गद्य-खण्ड टी.सी. ३, १७३. हरिश्चन्द्रचरित्रचम्पू गुरुराम कु. वोल्यूम ३, २०८३। १७४. गौरीपरिणयचम्पू पिन्नावेंकटसूरि " ३०८१। १७५. रुक्मिणीवल्लभपरिणय नृसिंह ताता मैसूर १७०। १७६. वीरचम्पू पद्मानन्द त्रावंकोर कैट. १८२। १७७. सुदर्शनचम्पू कृष्णानन्दकवीन्द्र प्रकाशित । काव्यमाला बम्बई। १७८. वज्रमूक्तिविलास, योगानन्द अप्रकाशित १७६. मृगयाचम्पू कविराज अप्रकाशित टी.सी.४, ३२१८। १८०. पार्वतीपरिणयचम्पू रामेश्वर जा अप्रकाशित टी.सी. ३,४१३८ १८१. उत्तरचम्पू हरिहरानन्द अप्रकाशित एन.डब्लू. २७०। १८२. रामायणचम्पू-युद्धकाण्ड गरलपुरीशास्त्रिन् प्रकाशित मैसूर से। १८३. भागवतचम्पू गोपाल शास्त्रिन् कृष्णमाचारी का इतिहास उल्लेख। १८४. भारतचरित भागवतकृष्ण शर्मा प्रकाशित मद्रास। १८५. अभिनवभारतचम्पू श्रीकण्ठ और अप्रकाशित मैसूर कैट. चन्द्रशेखर २६३। १८६. कृष्णराजाभ्युदय, भागवतकृष्ण शर्मा प्रकाशित ग मद्रास। १८७. जगद्गुरुविजय श्रीकण्ठशास्त्री प्रकाशित मैसर १८८. शम्बरासुरविजय सोंठी भद्राद्रिराम प्रकाशित मद्रास। शास्त्रिन् १८६. रामायणचम्पू । सुन्दरवल्ली - " र “पक १६०. रामचर्यामृत कृष्णायंगर " मैसूर। १६१. रामाभ्युदय अवांचिराम शास्त्री अप्रकाशित टी.सी. २,१८१८ | १६२. सीतारामचम्पू गुडूरामास्वामी - कृष्णमाचारी का इतिहास उल्लेख। १६३. रामचम्पू बन्दलामुडिरामस्वामी मद्रास से प्रकाशित। चम्पू-काव्य १४६ १६४. वासुदेवनन्दिनी शान गोपालकृष्ण अप्रकाशित सी.सी. १, वाम १६१।। १६५. महीसुराभिवृद्धि वेंकटराम शास्त्री अप्रकाशित - - १६६. महीसुरदेशाभ्युदय सीताराम कवि अप्रकाशित - - १६७. कृष्णप्रभावोदय अनवत्ति श्रीनिवासाचार्य अप्रकाशित - - १६८. कृष्णराजकालोदय यदुगिरि अनन्ताचार्य अप्रकाशित - - १६६. कृष्णराजेन्द्रयशोविलास एस.नरसिंहाचार्य अप्रकाशित - - २००. श्रीकृष्णराजाभ्युदय गीताचार्य मैसूर संस्कृत कालेज जर्नल में प्रकाशित १-४| २०१. श्रीकृष्णनृपोदयप्रबन्ध कुक्के सुब्रह्मण्यशास्त्री, अप्रकाशित __ उपर्युक्त छः रचनायें ऐतिहासिक हैं। मैसूर के राजा कृष्ण के अभ्युदय का वर्णन करती हैं। सबका रचनाकाल १६वीं शताब्दी है। र २०२. सारावतीजलपातवर्णनम् कुक्के सुब्रह्मण्यशास्त्री, कर अप्रकाशित २०३. गङ्गाविलासचम्पू गोपाल अप्रकाशित सी.सी. २, ३२। २०४. जगदम्बाचम्पू सी.सी. २, ३७। २०५. बाणायुधचम्पू कोंकडी तम्बीरन् अप्रकाशित २०६. गजेन्द्रचम्पू पन्तविठ्ठल ये पूना से प्रकाशित २०७. विशाखातुलाप्रबन्ध ए.आर. राजवर्मा अप्रकाशित । २०८. विशाखासेतुयात्रावर्णनम् गणपति शास्त्रिन् अप्रकाशित । २०६. विशाखाकीर्तिविलास रामास्वामी शास्त्रिन् अप्रकाशित २०७ से २०६ तक तीनों चम्पू त्रावंकोर के महाराज विशाखकी स्तुति तथा चरित वर्णन करते हैं। २१०. शङ्करचम्पू लक्ष्मीपति अप्रकाशित मैसूर। २१७ २११. अभिनवरामायण लक्ष्मणदात्ते अप्रकाशित भण्डारकर " लिस्ट १, (१८६३) नं. ३६। १५० गद्य-खण्ड २१२. लक्ष्मीश्वरचम्पू रमाबाई कलकत्ता से प्रकाशित । २१३. स्यानन्दूरपूरवर्णचम्पू रामवर्म अनन्तशयनम् से प्रकाशित। २१४. लक्ष्मीश्वर अनन्तसूर्य बम्बई से प्रकाशित । २१५. राघवचम्पू असूरि अनन्ताचार्य बैजवाड़ा से प्रकाशित। २१६. गङ्गागुणादर्श दत्तात्रेयशास्त्री बम्बई से प्रकाशित। २१७. रथशेखरचरित दयावर्धन गणि “माया २१८. कुवलयाश्वविलासचम्पू त्रिविक्रम कवि, " " २१६. शङ्करमन्दारसौरभम् नीलकण्ठ अप्रकाशित, बम्बई युनिव. मैन्यू. वाल्यू. २, २२६०। २२०. मानभूपालचरितम् वेदान्तरामानुज अप्रकाशित मैन्यू. त्रिवेन्द्रम् __ नं. ३८८। २२१. प्रदोषमाहात्म्य प्रभाकरतालमण, त्रिचूर से प्रकाशित । २२२. शङ्कराचार्यचम्पूकाव्यम् बालगोदावरी बम्बई से प्रकाशित। २२३. बेहुलानरुखिन्दरम् भगवच्चन्द्र, कलकत्ता से प्रकाशित। २२४. पुरुदेवचम्पू जिनदास शास्त्री बम्बई से प्रकाशित। २२५. गुणेश्वरचरितचम्पू बद्रीनाथ झा, काशी से प्रकाशित। २२६. प्रतापचम्पू दिलीपकवि प्रकाशित। २२७. भारतचम्पू मथुराप्रसाद प्रकाशित। उपर्युक्त २२६-२२७ चम्पू-काव्यों का उल्लेख डॉ. सूर्यकान्त ने नृसिंहचम्पू की भूमिका में किया है। राइस और गुस्ताव आफ्रेट के कैटलाग में निम्नलिखित चम्पूकाव्यों का उल्लेख हुआ २२८. उक्लचम्पू २२६. यादवचम्पू २३०. अश्वमेधचम्पू उक्ल अज्ञात अज्ञात अप्रकाशित राइस २२८५ । अप्रकाशित आफ्रेट ५१४०। अप्रकाशित आफ्रेट वोल्यूम २, १८८५ ई. पृ. ६७। " पृ. ६७१। अज्ञात २३१. चूड़ामणिचम्पू २३२. दशारामचम्पू चम्पू-काव्य २३३. दीक्षाटन चम्पू २३४. लक्ष्मणचम्पू २३५. प्रणयीमाधवचम्पू माधवकवि, पिटरसंस थर्ड रिपोर्ट, २१६। २३६. अभिनवचम्पूरामायण शाम्बशास्त्री अप्रकाशित। २३७. उत्तरचम्पू शङ्कराचार्य अप्रकाशित २३८. उत्तरचम्पू यतिराज २३६. उत्तरचम्पू वेंकटकृष्ण २४०. किरातार्जुनीयचम्पू देवराज २४१. किशोरचरितचम्पू अज्ञात २४२. नृसिंहचम्पूसंकर्षण २४३. रामचन्द्रचम्पू रामचन्द्रदीक्षित २४४. शालिवाहनकथा शिवदाससूरि - प्रकाशित। २४५. समतादिताकथा अज्ञात अप्रकाशित। विशेषः-२३६ से २४५ तक के चम्पूकाव्यों का उल्लेख कृष्णमाचारी ने अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास में किया है। २४६. जानराजचम्पू - १८वीं का उत्तरार्ध बालकवि कृष्णदत्त जीवनचरित (राजवंश) २४७. सुलोचनामाधवचम्पू १६वीं शती का अन्त पं. धर्मदत्त, प्रसिद्ध नाम बच्चा झा। इन चम्पूकाव्यों के विवरण का आधार- इन चम्पूकाव्यो के विवरण का आधार है ‘संस्कृत साहित्य का इतिहास’ (बलदेव उपाध्याय) तथा (छविनाथ त्रिपाठी निर्मित) चम्पूकाव्यों का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन। संस्कृतसाहित्य का इतिहास (कृष्णमाचारी) यद्यपि दसवीं शती के प्रारम्भ से सोलहवीं शती तक कुल ३६ चम्पूकाव्यों की ही रचना हुई है, परन्तु साहित्यिक सौन्दर्य की दृष्टि से ये रचनाएं महत्त्वपूर्ण हैं। शेष ६६ चम्पूकाव्यों की रचना १७वीं तथा १८वीं के पूर्वार्ध तक हुई है। इस प्रकार १०२ चम्पूकाव्यों का विवरण प्राप्त है। शेष १४५ चम्पू का निर्माण १८वीं से २०वीं शती तक के प्रारम्भ तक हुआ है। अब चम्पूकाव्यनिर्माण की धारा शुष्क सी होती प्रतीत हो रही है। केवल ‘नवरत्नावलीयम्’ एक ही चम्पू सन् १६८३ में प्रकाशित हुई है, जिसकी सं. २४८ वीं है। my १५२ गद्य-खण्ड काव्य में अनुभूतियों तथा अभिव्यक्तियों की प्रधानता होती है। अभिव्यक्ति का माध्यम गद्य, पद्य अथवा मिश्र शैली है। इन शैलियों का उपयोग वेदों, ब्राह्मणों उपनिषदों, पुराणों, जातक ग्रन्थों, जैनसाहित्यों, प्रशस्तियों, शिलालेखों में किया गया है। यद्यपि नीतिकाव्य पञ्चतन्त्र आदि भी मिश्रित शैली में निबद्ध, हैं। विरुद, घोषणापत्र आदि भी मिश्र शैली में हैं परन्तु वे चम्पू नहीं हैं। अग्निपुराण में मिश्रकाव्य के दो भेद किए गये हैं। ख्यात और प्रकीर्ण (अग्निपु. ३३७।३८) इसमें जो ख्यात वृत्त है वही चम्पूकाव्य कहलाता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है, कि वैदिक साहित्य में जो मिश्र रचना का बीज उपलब्ध होता है, वह ब्राह्मण ग्रन्थों में अङ्कुरित तथा उपनिषदों में कन्दलित, पुराणों में पल्लवित, प्रशस्तियों और जातकग्रन्थों में पुष्पित तथा चम्पूकाव्य रूप में फलित हुआ है। उसने सर्वप्रथम नलचम्पू रूप में सहृदयों को अपने रसास्वाद से आह्लादित किया। __इन्हीं चम्पूकाव्यों में ‘कविराज देवराजकृत ‘अनिरुद्धचम्पू’ काव्य भी है जो विषयवस्तु, वर्णनशैली, साहित्यिक सौन्दर्य, अलङ्कार-विन्यास, सरसता में किसी प्रकार न्यून नहीं है, परन्तु वह आज तक समालोचकों की दृष्टि से ओझल ही रहा है, इसका कारण है इसका प्रकाशित न हो पाना। यद्यपि डॉ. उर्मिला मिश्रा हमारे (डॉ. वायुनन्दन पाण्डेय के) निर्देशकत्व में १६८० ई. में इस चम्पू पर शोध कर विद्यावारिध की उपाधि प्राप्त कर चुकी हैं। इस चम्पू का परिचय इस प्रसंग में अत्यन्त उपयोगी है; अन्यथा न्यूनता रह जायेगी। अतः इसे प्रस्तुत कर रहा हूँ . अनिरुद्धचम्पू काव्य का परिचय-१. कविपरिचय, २. कथावस्तु, ३. मूलस्रोत ४. काव्यसौन्दर्य, वर्णनसौन्दर्य, ५. प्रकृतिवर्णन, ६. शैली, ७. पद्य तथा गद्य की मात्रा, ८. अलङ्कारप्रयोग, ६. छन्दोविन्यास, १०. गुण, ११. रसनिरूपण, उपसंहार। _१. कविपरिचय-अनिरुद्धचम्पू-काव्य के निर्माता कविवर देवराज प्राचीन कवियों के समान ही अपने इतिवृत्त के विषय में मौन हैं। प्रबन्धों में कविवंश-वर्णन का नियम है। उसका पालन करते हुए अपने वंश तथा स्थान का अति स्वल्प निर्देश इन्होंने किया है। तदनुसार निम्नाङ्कित तथ्य सामने आते हैं: परापवाद से सर्वथा पराङ्मुख, समस्त वाङ्मय को कण्ठस्थ करने वाले, प्रसिद्ध शाण्डिल्य महर्षि के निर्मल वंश में उत्पन्न, दम, दया दान आदि गुणों से सुशोभित, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पर विजय प्राप्त करने वाले सदाचारसम्पन्न, श्रौतस्मार्त यज्ञादि का अनुष्ठान करने वाले, श्रोत्रिय शिरोमाला के मकरन्द से प्रक्षालित चरणयुगल, भगवान् राघवेन्द्र रामचन्द्र के द्वारा सम्मानपूर्वक बसाये गये सरयू के उस पार (उत्तर तट पर) ब्राह्मण गण निवास करते हैं, जो परम पराक्रमी शीर्णेत (सिखेत) राजाओं से पूजित हैं।
चम्पू-काव्य १५३ __ उनमें एक गौरीकान्त नामक विद्वान् जो ज्ञान-गम्भीरता की सीमा थे तथा वाग्देवता के स्वच्छन्द निवासस्थान थे। उन्हें देखने से ज्ञात होता था कि ब्रह्मतेज ही आकारग्रहण कर आ गया है, उनका यश विश्वविश्रुत था। उनसे सर्वविद्यानिष्णात, शीलसम्पन्न, रघुपति नामक पुत्र हुआ, जो सकल सद्गुणों का निधि था। वे गोदावरी के पति थे, उनका निष्कलङ्क यश, त्रिलोक में व्याप्त था। __उन्हीं मनीषी रघुपति तथा गोदावरी से ‘देवराज’ नामक पुत्र हुआ। उसने शिवलाल के आश्रय में रहकर नाना रसों का उगिरण करने वाले सर्वश्रेष्ठ इस अनिरुद्धचम्पू का निर्माण किया। (अनिरुद्धचम्पू १। ७-१३) इस वर्णन से ज्ञात होता है कि ये सरयूपारीण (साखावारीण सखरिया) ब्राह्मण थे, शाण्डिल्य महर्षि के वशंज थे, (शाडिल्य गोत्र के त्रिपाठी तिवारी थे) शीर्णेत राजाओं से पूजित थे। शीर्णेत राजाओं की राजधानी बांसी (बस्ती जनपद) उनवलराज्य, सत्तासी (रुद्रपुर) (इनका राज्य सत्तासी कोश में था) अतः सत्तासी नाम से प्रसिद्ध थे। गोरखपुर जनपद में, तथा मझौली थी। इनमें किस राजा से ये पूजित थे, इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। अपने आश्रयदाता शिवलाल का भी कोई विवरण इन्होंने नहीं दिया है। बी. राघवन् के ‘कैटलागस कैटलागोरम’ तथा आफेक्ट के और एम. कृष्णमाचारी के ‘हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर’ एवं ‘हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर विन्टरनिट्ज’ इत्यादि से मात्र इतना ज्ञात होता है कि देवराज रघुपति के पुत्र और गौरीकान्त के पौत्र थे। __ इन्होंने मङ्गलाचारण करते हुये कवियों में सर्वप्रथम वाल्मीकि का स्मरण किया है, तत्पश्चात् कृष्ण कवि की प्रशंसा की है। एम. कृष्णमाचारी के ‘हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर’ नामक पुस्तक के काव्यकार तथा व्याख्याकार के रूप में प्रायः इक्कीस कृष्ण कवि वर्णित हैं, परन्तु देवराज ने जिस कृष्ण कवि का स्मरण किया है, वे गोविन्द का यशोगान करने वाले थे। “सुगन्धि गोविन्दयशः करम्बिता जयन्ति कृष्णस्य सरस्वती सुधा।। बुधा मनोहृत्य चिरं निपीय यां व्रजन्ति विक्षेपमुदस्य निर्वृतिम् ।।” __(अनि. च. १। ५) __ इनकी उक्ति ‘उषापरिणय’ चम्पू के निर्माता से सम्बद्ध है, एम. कृष्णमाचारी के अनुसार उषापरिणयचम्पू के निर्माता कृष्ण कवि ही थे (देखें हिस्ट्री आ. क्ला. सं. लि. ६५४ पृ.) ये १६वीं शती (ई.) में विद्यमान थे। इससे सिद्ध है कि देवराज इनके परवर्ती हैं। __छविनाथ त्रिपाठी के अनुसार उषापरिणयचम्पू का कर्ता अज्ञात है। ये प्रायः बी. राघवन् का सहारा लिए हैं। १५४ गद्य-खण्ड अनिरुद्धचम्पूकाव्य की प्रतियाँ जो (हस्तलिखित) उपलब्ध हैं, उनमें विभिन्न काल दिया हुआ है। जैसे-‘एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल’, वाल्यूम ७ काव्य मैन्यूस्क्रिप्ट में अठारवीं शताब्दी। ‘कैटलाग आफ द संस्कृत मैन्युस्क्रिप्ट इन द लाइब्रेरी आफ द इण्डिया आफिस लन्दन’ में संवत् १८४७ मिति श्रावणमास कृष्णपक्ष द्वितीया तिथि सोमवार (ई. १७८०) लिखा हुआ है। ‘नोटिसेज आफ संस्कृत मैन्युस्क्रिप्ट बाई राजेन्द्रलाल मित्रा बंगाल’ में १६१५ ई. है। इन लिपिकालों से इतना तो निश्चित ही है कि अठारहवीं शताब्दी के पूर्व ही इस चम्पू की रचना हो चुकी थी। २. कथावस्तु-द्वारका नाम की नगरी है। वहाँ सुदर्शन चक्र को धारण करने वाले पृथिवी के भार को उतारने के लिए मनुष्य रूप में देवकी के गर्भ से उत्पन्न होकर भगवान् श्रीकृष्ण निवास करते थे जिनके भुजबल का आश्रय पाकर विजयश्री ने चञ्चलता त्याग दी। जिन्होंने कंस, केशी, अघासुर, वकासुर आदि दैत्यों का विनाश किया। जिन्होंने सान्दीपनी से सभी विद्याओं तथा चौसठ कलाओं का अध्ययन किया है। जिन्होंने पारिजात को पृथिवी पर लाकर स्वर्गीय सुखों को पृथिवी पर सुलभ कर दिया, जिनके राज्य में प्रजा अतिप्रसन्न थी। उनकी रुक्मिणी-सत्यभामा आदि ८ पटरानियाँ थीं। उनमें भीष्मक राजा की पुत्री रुक्मिणी से प्रद्युम्न नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह पराक्रम में श्रीकृष्ण के समान तथा सौन्दर्य में साक्षात् कामदेव था। प्रद्युम्न को उत्पन्न होते ही शम्बरासुर सूतिकागृह से ही चुरा ले गया। वहाँ मायावती से माया-विद्या का अध्ययन कर प्रद्युम्न शम्बरासुर को मारकर द्वारवती लौटे। पारिजात-हरण के समय प्रद्युम्न इन्द्र के पुत्र जयन्त को भी पराजित कर दिये थे। युद्ध में प्रद्युम्न के मण्डलाकार धनुष को देखकर ही शत्रु भयभीत हो जाते थे। द्वन्द्वयुद्ध में इनका प्रतिद्वन्द्वी कोई नहीं था। रुक्मिी की पुत्री शुभाङ्गी के स्वयम्वर में इन्होंने भाग लिया। शुभाङ्गी की सखी ने प्रद्युम्न का परिचय कराया-चन्द्रवंश में ययाति नाम के राजा हुए। इनसे यदु, यदु से शूर, शूर से वसुदेव, उनसे श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए, उन श्रीकृष्ण के पुत्र ये प्रद्युम्न हैं। ये परम पराक्रमी, शूरता, वीरता, उदारता आदि सकल गुणों से मण्डित, सौन्दर्य से कामदेव के भी मद को खण्डित करने वाले हैं। ये ही तुम्हारे वल्लभ हो सकते हैं, तुम इनका वरण करो। शुभाङ्गी ने कर्णरसायन इस वर्णन को सुनकर जयमाल से इनके कण्ठ को विभूषित किया। अनन्तर विवाह संस्कार में कन्यादान, पाणिग्रहण, लाजाहवन, सप्तपदी आदि संस्कार सम्पन्न हुये। वरातियों के साथ अङ्गानाओं का हास-परिहास तो बड़े ही मनोरम ढंग से वर्णित है। विदाई के समय वधू को गृहस्थोचित परिवार सञ्चालन की उपयोगिनी शिक्षा दी गई है। अनन्तर दोनों के प्रणय-वर्णन के साथ प्रथम उच्छ्वास पूर्ण हुआ है। है चम्पू-काव्य १५५ द्वितीय उच्छ्वास अनन्तर शुभाङ्गी गर्भवती हुई। वह गर्भ से अलसाई हुई जिस वस्तु की कामना करती थी, उसे तत्काल उपस्थित देखती थी। उसको पुंसवन, सीमन्तोन्नयन आदि संस्कारों से संस्कृत किया गया। अनन्तर ग्रहों के उच्चस्थान में स्थित होने पर शुभ वेला में शुभाङ्गी ने पुत्र को जन्म दिया। उस समय अप्सराएँ नृत्य करने लगीं, गन्धर्व गान करने लगे, दुन्दुभी की मधुर ध्वनि सुनाई देने लगी, आकाश निर्मल हो गया, शीतल मन्द सुगन्धित वायु बहने लगा, पक्षी कलरव करने लगे। पूर्णपात्र बांटे गये। कारागार में बन्दी बनाए गये शत्रु राजाओं को मुक्त कर दिया गया। याचकों को विविध दान से सम्मानित किया गया। वैदिक विद्वान् जातकर्म संस्कार सम्पन्न कराए। कविगण श्रीकृष्ण का यशोगान करने लगे। सर्वत्र नगाड़े बजने लगे। नट, नर्तक, विदूषकों की क्रीडा से यह महोत्सव दिनों दिन बढ़ने लगा। षष्ठी महोत्सव मनाया गया। अनन्तर सविधि नामकरण संस्कार सम्पन्न हुआ। रणाङ्गण में इसका कोई भी शत्रु निरोध नहीं कर सकता, इसलिए शिशु का ‘अनिरुद्ध’ नाम रखा गया। यह बालक अत्यन्त सुन्दर तथा महापुरुषों के लक्षणों से युक्त था। इस बालक को व्याघ्रनखमण्डित माला पहनाई गई। इसका, विविध बाल-क्रीडाओं के साथ शैशव काल व्यतीत हुआ। अब यह गुरुजनों से लिपि तथा गणित विद्या सीखने लगा। अनन्तर ‘सान्दीपनि’ से वेद-वेदाङ्ग-पुराण-न्याय-मीमांसा-धर्मशास्त्र-सांख्य-योग-आयुर्वेद-धनुर्वेद गान्धर्व-अर्थशास्त्र-वार्ता (वाणिज्य) कोश-काव्य-रूपक-आख्यायिका-इतिहास-कथा-कला पञ्चवक्त्रीकरणादिकौतुक-मुष्टिज्ञान-चिन्ताज्ञान-सामुद्रिकशास्त्र-शालिहोत्र-हस्तितन्त्र- पाकशास्त्र मल्लविद्या-इन्द्रजाल-वीणावाद्य-चित्रकर्म-वास्तुशिल्प तथा अट्ठारह लिपिओं का ज्ञानार्जन किया। अनिरुद्ध के बल को देखकर बलराम भी विस्मित हो गये। इस प्रकार बाल्य-किशोर अवस्था को पारकर अनिरुद्ध यौवन में प्रवेश किए, पुष्पित कल्पतरु के समान इनका सौन्दर्य द्विगुणित हो गया। __एक दिन सोये हुवे प्रभातवेला में अनिरुद्ध ने स्वप्न में एक अद्भुत नगर देखा। उसमें तीनों लोक के अधिपति के निवास योग्य राजभवन देखा। दैवगति से उसमें प्रवेश कर कुछ कक्षाओं को पारकर वायु से भी दुर्गम कन्याओं का अन्तःपुर देखा। वहाँ क्षीरसागर के तरङ्गमध्य में स्थित लक्ष्मी के समान सुन्दरी कन्या को देखा जो शैशवावस्था को पारकर यौवन में प्रवेश कर रही थी। वह कन्या भी अनिरुद्ध को देखकर चिरपरिचित के समान अत्यन्त प्रसन्न हुई। अनन्तर कामविवश दोनों का समागम हुआ। परन्तु परस्त्री समागम को अनुचित मानते हुए अनिरुद्ध पश्चात्ताप करने लगे। नींद खुल गई। पुनः उसके दर्शन की कामना से अनिरुद्ध सोने का अभिनय करने लगे। परन्तु निद्रा की प्रार्थना करने पर भी नींद नहीं आई। ये विचार करने लगे कि प्रायः देखी या सुनी गयी ही वस्तु का स्वप्न में दर्शन होता है, परन्तु यह तो न देखी गई थी न तो सुनी गई है, तो कैसे स्वप्न में दीखी।१५६ गद्य-खण्ड अवश्य कोई कारण होगा। स्वप्न, शकुन, अङ्गस्फुरण, चित्तवृत्तियाँ भावी अर्थ की सूचना देती हैं। इतने में उषाकाल की लालिमा गगन में फैल गयी। पक्षियों का कलरव होने लगा, बन्दीगण मङ्गलपाठ करते हुए कुमार को जगाने लगे। तृतीय उच्छ्वास-अनिरुद्ध शय्या त्यागकर उचित कृत्यों को सम्पन्न किये। पश्चात् अपने प्रियमित्रों के साथ विविध उपकरणों से सजी हुई व्यायामशाला में गये। वहाँ व्यायाम कर स्नानगृह में सुगन्धित तथा थोड़े उष्ण जल से भरी हुई स्वर्ण-द्रोणी में उतर गये। वहाँ स्नान-क्रिया सम्पन्न कर वस्त्रयुगल धारण कर देवशाला में गए। वहाँ सूर्य भगवान् को अर्ध देकर जप किये, ब्राह्मणों को गोदान दिये। अनन्तर समवयस्कों के साथ षड्रस भोजन कर पान की बीड़ा कूचते हुये वस्त्राभरण धारण कर सभामण्डप में गए। वहाँ इनका मन नहीं लगा, अतः वलभी (एकान्तगृह) में जाकर उस स्पप्न में देखी हुई सुन्दरी के विषय में सोचने लगे। विरह सन्तप्त इनके मन को वहाँ भी शान्ति नहीं मिली, तब मित्रों के कहने पर मृगया के लिए चञ्चल तुरङ्ग पर आरूढ़ होकर वासुदेव के वसन्तवल्लभ नामक उपवन में प्रवेश किये। घुड़सवार इनके पीछे-पीछे चल रहे थे, कुछ क्षण वहाँ विश्राम कर बहुत बड़े वन में घुसे और मृगों को व्याकुल करने के लिए बहेलियों को आदेश दिये, स्वयं धनुष पर डोर चढ़ा लिये, भटों का कोलाहल सुनाई देने लगा। यहाँ मचान बनाओ, यहाँ जाल बिछाओ, यहाँ कृष्णसार मृग है, यहाँ हाथी है, यहाँ वाराह है, इस कोलाहल से वह अरण्य क्षुब्ध हो गया। कुमार ने विविध मृगों का आखेट किया। तब अनाधृष्टिनन्दन ने कुमार से कहा-महाभाग ! भगवान् सूर्य अपने प्रखर किरणों से मृगया का निषेध कर रहे हैं। तब कुमार ‘मित्रों की जैसी इच्छा’, कहकर आखेट से विरत हो गये और भ्रमण करते हुये एक रमणीय स्थान पर पहुंचे। वहाँ तपस्वियों की पर्णकुटी देखे और प्रसन्न होकर कहने लगे कि आश्चर्यजनक तपोबल का प्रभाव है। कहीं तो रङ्कु मृग चावल की रखवाली कर रहा है, कहीं वानर आगन्तुकों का पैर धो रहे हैं। कहीं सोये हुये बालक को चमरी अपने पूंछ की बालों से हवा कर रही है। क्या सुन्दर यह काल है जिससे पाँचों भूतों में विशेषता आ गई है। अनन्तर वसन्त-वर्णन से यह उच्छ्वास पूर्ण हुआ। __चतुर्थ उच्छ्वास-सेनापति के पुत्र द्वारा वर्णित वसन्तागमन जानकर स्वप्नसुन्दरी (स्वप्न में देखी गयी सुन्दरी) के वियोग से अनिरुद्ध अत्यन्त खिन्न हो गये। वे धैर्य से अपने मन को संयत कर कान में शूल के समान पीड़ा देने वाले कोकिल-कूजन को सुनते हुये कुशस्थली लौट आए। सायं सन्ध्योपासन कर अपने वासभवन में गये। संगीत-श्रवण के बाद इन्हें थोड़ी सी नींद आई थी कि आंखें खुल गईं। समीप में ही अलौकिक वेशभूषा धारने करने वाली एक परम सुन्दरी गौरागी को देखा। अकस्मात् उसे देखकर सोचने लगे कि क्या यह स्वप्न है या इन्द्रजाल है या मन का मोह है ? निश्चय ही यह कोई देवता विशेष का आविर्भाव हुआ है, ऐसा सोचते हुए बोले-प्रथम बार आये हुए अतिथि का स्वागत चम्पू-काव्य १५७ है, आप कहाँ से आ रही हैं, क्या प्रयोजन है ? इतना कहकर जब अनिरुद्ध चुप हो गये तो वह मधुर वाणी में बोली। सुभग ! सुजनता के उच्च शिखर पर आरूढ़ आप सत्कार के योग्य हैं। भद्रमुख ! यह तुम्हारा दर्शन त्रिलोकी को ढूढने का फल है। हिरण्यकशिपु के कुल में शरणागतों के रक्षक, याचकों के मनोरथ को पूर्ण करने वाले, बड़े-बड़े यज्ञों को सम्पन्न करने वाले, दूसरों के दुःख को हरण करने वाले, महाराज बलि हुए हैं। उनका पुत्र समस्त राजाओं के मुकुटमणि से प्रकाशित चरण वाला, बारहों सूर्य के समान तेजस्वी, धनुष के टङ्कार से दसों दिशाओं को गुंजित करने वाला महाराज बाणासुर हैं। वे कार्तिकेय की विभूति को देखकर “मैं भी इस विभूति को प्राप्त करूँ” इस इच्छा से भगवान् शिव और पार्वती को प्रसन्न करने के लिए हजारों वर्ष तक दुश्चर तप किये। भगवान् शिव उनके तप से सन्तुष्ट होकर वर देने के लिए प्रकट हुए। तब उन्होंने वर माँगा कि मैं आप तथा माँ पार्वती का वात्सल्यभाजन पुत्र बन जाऊँ और आप माता पार्वती के साथ हमारे नगर में सदा निवास करें। तब से शिव शिवा के साथ उस नगरी में निवास करते हुए दनुजराज को बहुत दिनों बाद एक उषा नाम की कन्या हुई। वह राजकन्योचित शिक्षा प्राप्त कर सारी कलाओं में निपुण हो गई। वह बाल्यतारुण्य के संगम में प्रविष्ट हुई तब एक दिन शिव-पार्वती के परस्पर प्रणय को देखकर मन में सोचने लगी कि मैं भी माँ गौरी की कृपा से कब इस सुख का अनुभव करूँगी। माँ गौरी इसके मन की बात समझ गयीं और बोलीं-वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को अर्धरात्रि में सोती हुई तुम को जो सम्भोग सुख से मोहित करेगा वही तुम्हारा वर होगा। मैं बाणासुर के मन्त्री कुम्भाण्ड की पुत्री उषा की सखी चित्रलेखा हूँ। वह मुझ पर अत्यंत विश्वास करती है। __एक दिन रात में सोई हुई उषा सहसा उठकर रोने लगी। उसके रोने से सारी सखियाँ व्याकुल हो गईं। सब उसके रोने का कारण पूछने लगीं। तब वह उन्हें अपना स्वप्न सुनाई और उस स्वप्न में देखे हुए पुरुष पर वह अनुरक्त हो गई और उसके वियोग में व्याकुल हो गई तब सखियों ने उसकी माँ से उसकी व्यथा सुनाई। माँ के बहुत पूछने पर उषा ने कहा-“माँ ! क्या कहूँ, भोजन, उत्सव, भाषण आदि कुछ भी हमें अच्छा नहीं लगता। केवल अङ्ग टूटता है, पसीना आता है, प्यास लगती है, जलन होता है”। यह सुनकर उसकी माँ ने वैद्यों से कहा। वैद्यों ने परस्पर में एक दूसरे के मुख को देखते हुए कहा कि यह भगवती की कृपा से शीघ्र स्वस्थ हो जायेगी। यह सुनकर माँ चली गई। तब उषा मुझसे बोली कि सखि, तुम मेरी उपेक्षा क्यों करती हो। तब मैंने कहा कि मैं जिसका नाम-गोत्र-स्थान नहीं जानती उसका क्या कर सकती हूँ। परन्तु सात दिनों के अन्दर ही सुर-असुर-नर-नाग में जितने कुलीन सुन्दर पुरुष हैं सबका चित्र लिखकर तुम्हारे सामने ला दूंगी। तुम उन्हें देखकर पहचान लेना। तब जैसा सम्भव होगा वैसा करूँगी। तब मैंने सात दिनों में सबका चित्रपट लिखकर उसको दिखाया, वह भूलोकवासी पुरुषों के चित्र को देखती हुई कृष्ण के चित्र को देखकर विस्मित हुई। प्रद्युम्न को देखकर १५८ गद्य-खण्ड सन्देह में पड़ गयी परन्तु जब आपके चित्र को देखा तो बोल पड़ी यही चितचोर है। और पूछी किसका चित्र है, कहाँ रहता है, किस कुल का है ? तब मैंने कहा कि सखि! भगवती गौरी के प्रसाद से तुम्हारा मनोरथ सफल हो गया, तुम गुणज्ञा हो, योग्य पुरुष पर आसक्त हुई हो। वह भी सखि ! तुम मेरी प्राणरक्षा के लिए वचनबद्ध हो ऐसा कहकर चुप हो गई। __ तब मैं नारद मुनि से सर्वमोहिनी विद्या प्राप्त कर यहाँ आई हूँ। आप कामवेदना से अत्यन्त दुखी हमारी सखी की रक्षा करें। यह सुनकर अनिरुद्ध ने कहा कि मैं भी उसे स्वप्न में देखकर उसके वियोग में व्याकुल हूँ, तुमने हमारी चिन्ता को आज हल्का कर दिया। मैं स्वप्न में भी उसे देखता हूँ, जागरण में भी देखता हूँ। परन्तु उसे जब पकड़ना चाहता हूँ तो वह न जाने कहाँ छिप जाती है। मैं विरह-सागर में डूब रहा हूँ, मुझे हाथ का सहारा दो। यह सुनकर चित्रलेखा बोली-मैं आज ही अपनी सखी से मिलाकर तुम दोनों की विरह-व्यथा का अंत कर देती हूँ। ऐसा कहकर योगसिद्धि से साधित विमान द्वारा वह योगिनी आकाशमार्ग से अनिरुद्ध को लेकर चली गई। पञ्चम उच्छ्वास-अनिरुद्ध शोणितपुर पहुँचकर कन्या के अन्तःपुर में विमान से उतर गए। वहाँ से अपने विरह से पीड़ित उषा को देखे। उसके सौन्दर्य को देखकर मुग्ध हो गए। अकस्मात् आए हुए अनिरुद्ध को देखकर लजाई हुई उषा से चित्रलेखा ने कहा, “सखि ! सदाचार को क्यों भूल रही हो, इनका सत्कार करो। ये भी तुम्हें स्वप्न में देखकर तुम्हारे वियोग से अत्यन्त कातर हैं। भगवती गौरी ने तुम्हारे पति के रूप में इन्हीं का निर्देश किया था। शकुतन्ला के समान तुम भी इनके साथ गान्धर्व विवाह करो”। ऐसा कहकर उषा का हाथ अनिरुद्ध के हाथ में देकर फिर बोली-“दैत्य कुल के अधिपति बाणासुर की पुत्री उषा को मैंने तुम्हें प्रदान किया। यह तुम्हारी प्रीतिपात्र सहचरी होवे”। __ तत्पश्चात् उषा को आभूषणों से सजाकर मोहनमन्दिर में ले गई। वहाँ सारिकाएँ कामसूत्र का पाठ करती थीं। कृत्रिम परिचारिकाएँ कमलपत्र से पंखा झलती थीं। वहाँ दोनों का प्रेम-मिलन हुआ। अनिरुद्ध वहाँ चतुर सखियों से रक्षित अपने घर के ही समान स्वच्छन्द निवास करने लगे। कभी क्रीडा-पर्वत पर, कभी जल-क्रीडा के लिए वापी में, कभी प्रमदवन में विहार करते थे, कभी वीणावादन, कभी सरसकाव्य से मनोविनोद करते थे। __ इस प्रकार दोनों का अनुराग धीरे-धीरे बढ़ता गया, और प्रकाश में आने लगा। एक दिन कन्यान्तःपुर-रक्षकों को भी ज्ञात हो गया। वे बाणासुर से कहे कि महाराज ! हम सदा सावधानी से अन्तःपुर की रक्षा करते हैं, तो भी कोई कपटी मन्त्रादि के बल से कन्यागृह में प्रवेश कर गया है। यह सुनकर क्रुद्ध बाणासुर ने अपने योद्धाओं को उसे पकड़ने के लिए चम्पू-काव्य १५६ आदेश दिया। योद्धा शस्त्र लेकर कन्यागृह को घेर लिए। अकस्मात् भटों का कोलाहल सुनकर उषा घबड़ा गई, परन्तु अनिरुद्ध ने लगे लोहे के पुष्ट परिघ को लेकर सेनिकों को ललकारा। अनिरुद्ध के प्रहार से व्याकुल सैनिक रक्तवमन करते हुए बाणासुर के पास जाकर कहे कि महाराज ! यह कोई महापराक्रमी है, हम इस पर विजय नहीं प्राप्त कर सकते। तब बाण ने रथी सैनिकों को आदेश दिया, वे भी पराजित हो गये। तब स्वयं बाणासुर युद्ध करने के लिए वहाँ पहुँच कर कार्तिकेय के समान अनिरुद्ध को देखकर सोचने लगा, यह अतिवीर है। कुम्भाण्ड ने भी सोचा-यह किसी महाकुलमें प्रसूत वीरवर है। अनन्तर सिंहनाद करते हुए दोनों का युद्ध प्रारम्भ हुआ। अनिरुद्ध के पराक्रम से अतिविस्मित बाणासुर उन्हें शस्त्रयुद्ध में जीतना असम्भव जानकर मायाबल से युद्ध प्रारम्भ किया। वह तामसी विद्या से स्वयं अदृश्य हो गया और अनिरुद्ध पर बाणों की वर्षा करने लगा, अनिरुद्ध उसे देख ही नहीं सके। बाणासुर ने उन्हें नागपाश में बाँध दिया और मारना चाहा, परन्तु मन्त्री ने कहा “महाराज यह कोई महान् योद्धा है, महान् कुल में उत्पन्न है, अकेला होने पर भी इसे भय नहीं है, अतः इसका पता लगाया जाय कि यह कौन है। तत्पश्चात् जैसा उचित होगा किया जायगा”। तब बाणासुर ने सैनिकों को उनकी रक्षा का प्रबन्ध करने का आदेश दिया। __उषा अनिरुद्ध को नागपाश में बँधा देखकर विलाप करने लगी। अनिरुद्ध ने उसे धैर्य बँधाया। अनिरुद्ध ने अपनी कुलदेवता पराम्बा की स्तुति की जिससे उनका बन्धन शिथिल हो गया। वहाँ अंतरिक्ष में खड़े नारद जी युद्ध को देख रहे थे, वे अनिरुद्ध को नागपाश में बंधा देखकर द्वारका के लिए प्रस्थान किये। __रोती हुई उषा को चित्रलेखा ने समझाया-“सखि ! धैर्य धारण करो, शीघ्र ही कृष्ण पधारेंगे, और विजय प्राप्त कर अनिरुद्ध को मुक्त करेंगे"। । षष्ठ उच्छ्वास-इधर द्वारका में अनिरुद्ध को न देखकर सब स्त्रियाँ दास-दासियाँ चिन्तित हो गईं, अनिरुद्ध की माँ पुत्रवियोग में मूर्च्छित हो गईं। अन्तःपुर में करुण-क्रन्दन होने लगा जिसे सुनकर यदुवंशी वहाँ पहुँच गए, कृष्ण की सभा में सब वीरों को एकत्र किया गया। । तब श्रीकृष्ण ने कहा-“अनिरुद्ध का किसी ने हरण कर लिया है। पहले शाल्ब ने आहुक का हरण किया था, भयङ्कर युद्ध कर उन्हें छुड़ाया गया। जन्म लेते ही प्रद्युम्न को शम्बरासुर ने हर लिया, वे स्वयं युवावस्था में उसे पराजित कर लौट आए। आज तक कहीं यादवों का शिर नहीं झुका। अनिरुद्ध का हरण चिन्ता का विषय है"। __ इस पर आहुक ने गुप्तचरों द्वारा ढूढने का प्रस्ताव रखा। अनाधृष्टि ने पारिजात हरण से क्षुब्ध हुए इन्द्र पर संदेह किया। अक्रूर ने इन्द्र को कृष्ण का आश्रित बताकर इस १६० गद्य-खण्ड सन्देह का खण्डन किया। इतने में ढूढने के लिए गये हुए भट सब धूलधूसरित हो वहाँ आये और कहने लगे कि यादवेन्द्र, हमने सारे जङ्गल-झाड़ियों तथा ऋक्षवन्त, रैवतक आदि पर्वतों की गुफाओं को कई बार ढूढ लिए परन्तु कहीं भी अनिरुद्ध नहीं मिले। इतने में रात्रि व्यतीत हो गयी। सभा विसर्जित कर श्रीकृष्ण प्रातःकृत्य-सन्ध्योपासन, हवन, गोदान आदि सम्पन्न कर पुनः यादवों के साथ सभामण्डप में प्रवेश किए और कहे कि स्त्रियों का विलाप हमसे सहा नहीं जाता। इस पर बलराम ने कहा-“कृष्ण ! वीरों की शोकज्वाला शत्रुनारियों की अश्रुधारा से बुझती है, शोक से नहीं”। कृष्ण ने कहा - “आर्य! हमें आप पर भरोसा है, तो भी किसी कार्य के करने से पहले पाँच छः बुद्धिमानों की सहमति आवश्यक है”। उद्धव ने कहा कि यह कार्य असुरों का है तो सुर स्वयं इसका पता लगाकर हमको सूचना देंगे। कुछ दिन प्रतीक्षा करनी चाहिए। __ इतने में नारद मुनि वहाँ पधारे, श्रीकृष्ण ने उनका यथोचित सत्कार किया। नारद जी ने सबका मुख मलिन देखकर विषाद का कारण पूछा, श्रीकृष्ण ने अनिरुद्ध-हरण की बात सुनाई। इस पर नारद जी ने कहा-प्रत्यक्ष देखा हुआ वृत्तान्त आप सुनें– चारों तरफ धधकती हुई अग्नि की ज्वाला से घिरा हुआ शोणितपुर नामक नगर है। वहाँ बाणासुर निवास करता है। उसके हजार बाहु हैं, वह दिशाओं को जीतने के लिए प्रस्थान किया, परन्तु कोई उससे युद्ध करने ही नहीं आया। तब वह शिवजी से निवेदन किया-“प्रभो ! आपकी कृपा से हमारे सारे मनोरथ पूर्ण हैं। परन्तु यह हजार बाहु भारभूत हैं, कपाकर कोई प्रतिभट दें, जिससे युद्ध कर मैं संतष्ट होऊँ। “इस पर शिवजी ने हसते हुए कहा- तुम्हें शीघ्र ही प्रतिभट मिलेगा। __उसकी पुत्री उषा जो बिना समुद्र से निकली लक्ष्मी है। पार्वती से पतिरूप में अनिरुद्ध को पाने का वर प्राप्त की है। उसकी सखी चित्रलेखा अनिरुद्ध को तामसी माया से आच्छन्न कर हर ले गयी। वहाँ गान्धर्वविधि से विवाह कर, अनिरुद्ध प्रणय-लीला करने लगे। कन्या रक्षकों को ज्ञात हो गया, वे बाणासुर को सूचित किए। उसके आदेश से सैनिकों ने कन्या गृह को घेर लिया, अनिरुद्ध का उनके साथ विकट युद्ध हुआ। परन्तु यदुपते ! आपके पौत्र के पौरुष का क्या वर्णन करें, सभी सैनिकों को क्षणमात्र में पराजित कर दिए। तब बली बाणासुर स्वयं युद्ध करना प्रारम्भ किया, कुछ क्षण में ही वह समझ गया कि इसको प्रत्यक्ष युद्ध में पराजित करना असम्भव है अतः वह मायायद्ध का सहारा लिया। और स्वयं तिरोहित होकर ‘नागपाश’ में अनिरुद्ध को बाँध रखा है। इतना वृत्तान्त कह कर नारद जी श्रीकृष्ण से पूजित होकर पुनः युद्ध देखने की लालसा से तथा अनिरुद्ध को सांत्वना देने के लिए शोणितपुर पहुँच गये। इधर श्रीकृष्ण चम्पू-काव्य १६१ ने भी सेनापति को प्रस्थान का आदेश देकर स्वयं यादव वीरों सहित सज्जित होने के लिए राजभवन में प्रवेश किया। क सप्तम उच्छ्वास-विजय-यात्रा की घोषणा सैनिकों में कर दी गई। युद्धकलाप्रवीण सेनापति वायु-समान वेगवाले घोड़े पर सवार होकर श्रीकृष्ण से निवेदन किए कि प्रस्थान के लिए सुसज्जित सेना हस्तिनख पर प्रतीक्षा कर रही है। श्रीकृष्ण ने सहायकों के साथ उग्रसेन को परी की रक्षा का भार सौंप कर दारुक द्वारा लाए गए गरुडध्वज ‘शतानन्द’ नामक रथ पर आरूढ होकर प्रस्थान किया। यादवों की हजारों शिविकाएँ पीछे-पीछे चलीं। मित्र सहायक राजा हाथियों पर चढ़कर चले। मार्ग में समृद्ध ग्रामों का वर्णन दारुक उन्हें सुना रहा था। चलते-चलते मध्याह्न हो गया, सूर्य के प्रखर ताप से सन्तप्त सैनिकों को विश्राम हेतु सेनापति ने आदेश दिया। वहाँ रात्रि व्यतीत कर सेना पुनः प्रस्थान की। इस प्रकार वनों, उपवनों, पर्वतमालाओं को लाँघते हुए चतुरङ्गिणी सेना मार्ग में विश्राम करती हुई हिमालय की शीतल तलहटी में पहुँची। वहाँ से जब रमणीय प्रदेशों को देखते हुए आगे बढ़ी तब सभी सैनिक तथा वाहन सहसा पीतवर्ण के हो गए। बलराम ने कृष्ण से पूछा कि हम सब क्यों पीले हो गए हैं ? क्या सुमेरु के समीप आ गए हैं। श्रीकृष्ण ने कहा - “हम शोणितपुर पहुंच गए हैं, वह पुरी प्रदीप्त अग्नि से घिरी हुई हैं, उसी की ज्वाला से हम सब पीले हो गए हैं। अब हम सबको सेना सहित यहीं विश्राम करना चाहिए”। नीतिज्ञों की मन्त्रणा हुई, उद्धव ने बाणासुर के पास किसी निर्भीक तथा चतुर दूत को भेजने का प्रस्ताव रखा, जो दूत शत्रु की भावना, वहाँ का दुर्ग-विधान, सैनिक शक्ति आदि को भी जानकर सन्धि का प्रस्ताव रखे। अगर वह सन्धि कर लेता है, तो युद्ध करना उचित नहीं है। _ तब मन्त्री ने विकटवर्मा को सन्देशवाहक बनाकर भेजा। उसको दूत समझ कर नगरी के रक्षकों ने उसे प्रवेशमार्ग दे दिया। उसने दैत्यराज के समीप जाकर सम्मानपूर्वक सावधानी से सन्देश सुनाया। श्रीकृष्ण आपके कुशल की कामना करते हुए आदेश देते हैं “अर्धरात्रि में सोये हुए अनिरुद्ध को हरकर बहुत दिनों से अपने यहाँ रोककर रखे हो यह उचित नहीं है। परन्तु तुम शिव के परम भक्त हो अतः मैं क्षमा करता हूँ। प्रह्लाद के वंशजों पर कठोर प्रहार नहीं करूँगा। तुम अनिरुद्ध को साथ लेकर नगर के बाहर आकर मिलो”। यह सुनकर हसता हुआ बाणासुर ने अपने मन्त्री से कहा कि आप इस दुर्मुख का प्रलाप सुनें, इनकी धृष्टता देखो, ये अपने पापों को दूसरे पर लगाकर मधुर वाणी बोलने में नहीं लजाते। शिव की पूजा तथा प्रह्लाद के वंशज होने का फल मुझे मिल रहा है कि कृष्ण मुझे क्षमा कर रहे हैं। अनाथ बालक को नन्द ने पाला, यदुवंशियों ने अपना बन्धु बना लिया, यह निर्बल कंसादिकों को मारकर अब हमारे ऊपर दया करने आया है। दूत भेजा है। विष्णु भी वाराह, नृसिंह, वामन आदि की भूमिका में हास्यास्पद छल किए हैं, १६२ गद्य-खण्ड वे हमारे पूर्वजों के साथ कब साक्षात् युद्ध किए हैं। यह गोप हो या यदुवंशी, वैकुण्ठनाथ हो या सैनिकों से सनाथ हो, जब मेरे सामने पड़ जायगा तब मेरे प्रहार से जीवित कैसे बचेगा ? यह सुनकर दूत ने कहा - “बाणासुर ! पृथिवी का भार उतारने के लिए माया से मनुष्य में रूप में अवतरित कृष्ण गोपाल हों या मायावी हों परन्तु तुम अब दानवों के साम्राज्य को बचाओ। दण्डनीतिज्ञों के मत का पालन करो। आज या तो अनिरुद्ध को आगे कर कृष्ण की शरण में जाओ या रणयज्ञ में अपने अहङ्कार की आहुति दो”। यह सुनते ही बाण का क्रोध दूना हो गया, बोला-“तुम दूत हो, बको मत, यहाँ से चले जाओ”। __ दूत के चले जाने पर कुम्भाण्ड ने बाणासुर को समझाया कि कृष्ण अमित पराक्रमी हैं, इनसे शान्तिवार्ता ही उचित है, इस सम्बन्ध में भी बहुत लाभ है। यह सुनकर बाण ने कहा कि कुम्भाण्ड ! तुम भी कायरों की भाँति ऐसा कहते हो। सन्धिवार्ता से हमें लज्जा आती है। यह शिर शिव के अतिरिक्त किसी के सामने नहीं झुकेगा। सङ्ग्राम की तैयारी करो। इधर दूत आकर कृष्ण से निवेदन किया कि महाराज वह अहंकारी है, सन्धि करना नहीं चाहता। अष्टम उच्छ्वास-दूत का वचन सुनकर कृष्ण का आदेश पाते ही यादवों की सेना समुद्र के उत्तुङ्ग तरङ्ग के समान आगे बढ़ चली। प्राकाररक्षकों द्वारा आग्नेय यन्त्रों से निवारण करने पर भी दुर्निवार यादव सेना गोपुर में प्रवेश कर वहाँ की सेना को तलवार से काट गिरायी। श्रीकृष्ण ने गरुड़ को स्मरण किया, वे आकाशगङ्गा में जाकर हजारों मुँह बनाकर उसमें जलभर वर्षा करने लगे, जिससे नगरी के चारों तरफ जलने वाली अग्नि बुझ गई। तब अङ्गिरा नामक अग्नि ने शेष अग्नियों को साथ लेकर बाण बर्षाते हुए यादव सेना को ढक दी। तब श्रीकष्ण के प्रहार से अग्नि गिर पडा. शेष गण भाग गए। नारद ने आकर कृष्ण को सूचना दी कि प्रमथ-गणों के साथ रुद्र भी युद्ध के लिए तत्पर हैं। इधर गुप्तचरों ने बाण को सूचना दी कि श्रीकृष्ण की सेना नगर में प्रवेश कर चुकी है। यह सुनकर क्रुद्ध असुरराज स्वस्त्ययन कराकर रथारूढ़ हुए, त्रिलोचन भी नन्दी पर सवार होकर गणेश और कार्तिकेय के साथ रणभूमि के लिए प्रस्थान किये। सङ्ग्राम प्रारम्भ हुआ। यादवों के प्रहार से भीत दानव-सेना शीघ्र ही क्षीण हो गई। तब कार्तिकेय शिखिध्वज पर चढ़कर असुरसेना के आगे चलते हुए यादवों पर बाण वृष्टि करने लगे। इतना बाण वर्षाये कि संग्रामभूमि में कोई टिक नहीं सका, चारों तरफ रक्त की धारा बहने लगी। तब अपनी सेना को पराङ्मुख देखकर प्रद्युम्न, गज, साम्ब, सारण, आदि यादवों ने ‘मारों इन कीटों को’ कहते हुये दैत्य सेना पर आक्रमण किया। भयङ्कर चम्पू-काव्य १६३ युद्ध हुआ। प्रद्युम्न का युद्धकौशल देखकर सिद्ध-चारण साधुवाद देने लगे। इतने में बलदेव भी समरभूमि में आ गये। असुरसेना व्यग्र होकर भाग चली। तब तीन शिर, तीन पैर, छः हाथ, नव नेत्र वाला ज्वर भस्म का प्रहार करता हुआ रणभूमि में आया और बलभद्र पर मुष्टिप्रहार कर गर्जा। उसके प्रहार से बलराम के शरीर में जलन होने लगी, उनके हाथ से शस्त्र छूट गया, प्यास से व्याकुल हो गये। इतने में श्रीकृष्ण आकर बलराम को अपने हृदय से लगाकर ज्वरमुक्त किए और वैष्णव ज्वर का निर्माण किए। उसे ज्वर पर प्रहार करने के लिए कहे, उसने बलराम के शरीर से ज्वर को निकालकर शिला पर पटक कर रगडने लगा तब आकाशवाणी हई- कष्ण ज्वर की रगड़ने लगा तब आकाशवाणी हुई- कृष्ण ज्वर की रक्षा करो। तब श्रीकृष्ण ने अपने ज्वर को रोक दिया। ज्वर ने श्रीकृष्ण को प्रणाम कर प्रार्थना की, भगवन् ! आप हमारी रक्षा किए हैं, अब एक वर दीजिए, प्रभो मैं एक ही ज्वर रहूँ। एक ही मैं संसार को पीड़ित कर सकता हूँ तो दूसरे ज्वर की क्या आवश्यकता ? श्रीकृष्ण ने एवमस्तु कहा और अपने बनाए ज्वर को अपने में लीन कर लिया। का फिर ज्वर से कहे, तुम बहुत शक्तिशाली हो, तुम्हारे समग्र ताप को विश्व में कोई सहन नहीं कर सकता, अतः तुम अपने को (स्थावर जङ्गमों में) विभक्त कर लो। ज्वर ने इसे स्वीकार कर कहा कि प्रभो मैं धन्य हुआ। अब कोई आदेश दीजिए। तब श्रीकृष्ण ने कहा-“जो मुझे प्रणाम कर इस कथा को सुनेगा या पढ़ेगा उसे तुम मुक्त कर देना”। इस आदेश को स्वीकार कर श्रीकष्ण को प्रणाम कर ज्वर चला गया। अब कूपकर्ण का बलभद्र के साथ, कार्तिकेय का प्रद्युम्न के साथ, युद्ध होने लगा। गणेशजी हाथ में परशु लिए हुए प्रमथ-गणों के साथ पधारे। उनको देखकर सब योद्धा इधर-उधर भाग गए। बलराम गदा लेकर सामने आये। दोनों का विकट सङ्ग्राम हुआ। प्रमथगण भाग गए, असुरों के शरीर से रणभूमि ढक गयी। तब भगवान् शङ्कर सङ्ग्राम भूमि में आये। उधर दारुक के रथ पर सवार श्रीकृष्ण भी वहाँ पहुँच गए। त्रिलोचन के मुख से सधूम ज्वालाएँ निकलने लगीं। चारों तरफ दिग्दाह होने लगा। इनके सङ्ग्राम को सहन करने में असमर्थ पृथ्वी ने ब्रह्मा के शरण में जाकर निवेदन किया- “भगवान श्रीकृष्ण और इनके भार से मैं खण्डखण्ड होती जा रही हूँ, आप हमारी उपेक्षा क्यों करते हो” ? ब्रह्मा धरणी को धैर्य धारण करने के लिए कहकर चन्द्रशेखर के समीप जाकर बोले, “भगवन्। आप स्वयं पृथिवी का भार उतारना चाहते हैं तो असुरों के वध में विघ्न क्यों कर रहे हैं। आप कृष्ण के साथ युद्ध न करें। आप दोनों एक ही हैं”। तब त्रिलोचन ने कहा, “मैं युद्ध नहीं करूँगा, श्रीकृष्ण पृथिवी का भार उतारें”। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण का आलिङ्गन कर शिव चले गए। मुनियों ने दोनों की स्तुति की। का इधर कुम्भाण्ड के रथ पर सवार बाणासुर सैनिकों पर प्रहार करने लगा। तब श्रीकृष्ण ने चक्र उठाया। रुद्र के आदेश से लम्बा उसकी रक्षा करने के लिए नग्न उपस्थित १६४ गद्य-खण्ड हुई, कृष्ण मुँह फेरकर उससे बोले-कि तुम व्यर्थ में विघ्न न करो चली जाओ, वह बोली आप सकल लोक के रक्षक हैं, हमें वर दीजिये कि हमारा पुत्र जीवित रहेगा। तब श्रीकृष्ण ने कहा कि मैं केवल इसके बाहुओं का जो भारभूत है जिसके मद से यह उन्मत्त रहता है छेदन करूँगा। तब लम्बा चली गई, श्रीकृष्ण ने चक्र से उसके बाहुओं का छेदन कर डाला, केवल दो भुजा बचे रहे। तभी भगवान् शिव उपस्थित हुए और कहे कि कृष्ण चक्र का उपसंहार कर लो, कृष्ण ने चक्र का प्रहार रोक लिया। सङ्ग्राम समाप्त हो गया। अब बाहु कटने से छटपटाते हुए बाणासुर से नन्दी ने कहा, बाण रथ पर चढ़कर तुम शीघ्र जाकर शिवजी के सामने नृत्य करो। तब वह जाकर शिवजी के सामने नृत्य करने लगा, प्रसन्न होकर शिव ने कहा बाण ! तुम जो चाहो वर माँग लो। बाणासुर ने कहा ! प्रभो बाहु कटने से उबड़-खाबड़ हुए हमारे शरीर को सम कर दें और बाहु कटने की पीड़ा मिट जाय, मैं द्विबाहु होकर भी अजर, अमर तथा प्रमथ-गणों का प्रधान होकर आपके समीप में सदा रहूँ और जो लोग आपके सामने हमारे समान नृत्य करेंगे उन्हें आप धन-पुत्र आदि सम्पत्ति से सम्पन्न कर देंगे। शिव ने उसे वर प्रदान कर उसके शरीर को सम तथा पीड़ा निवृत्त कर दिए और कहे तुम अजर, अमर प्रमथ-गणों के अधिपति महाकाल नाम से प्रसिद्ध होगे। । उधर श्रीकृष्ण गरुड़ पर चढ़कर नारद को आगे करके अनिरुद्ध को देखने गए। वहीं गरुड को भेजकर अनिरुद्ध को नागपाश से मुक्त किए। अनिरुद्ध कुछ लजाते हुए श्रीकृष्ण, बलराम, नारद, प्रद्युम्न, गरुड आदि को प्रणाम किए। बलराम और कृष्ण ने अनिरुद्ध का मस्तक सूंघकर उन्हें छाती से लगा लगाए। उषा भी लजाती हुई जाली के पीछे से सबको प्रणाम की। अनन्तर मङ्गल वाद्य बजने लगे। नवम उच्छ्वास-अनन्तर इन्द्र के भेजने पर नारद जी वहाँ आए और कृष्ण को शत्रुपराजय, युद्ध में विजय तथा पौत्रमिलन की बधाई दिए। सभी ने नारद को प्रणाम किया। अनिरुद्ध के विवाहोत्सव की तैयारी होने लगी। कुम्भाण्ड वहाँ आया, श्रीकृष्ण ने उसे राजमुकुट पहनाकर उस राज्य का अधिपति बना दिया। उसे अभयदान देकर श्रीकृष्ण ने कहा, “आप यहाँ के अधिपति हैं, हम अनिरुद्ध के लिए कन्या की इच्छा से आपके पास आये हैं”। मन्त्री कुम्भाण्ड अत्यन्त प्रसन्न हुये और विवाहमण्डप सजाकर श्रीकृष्ण को बुलाने के लिए पूर्णभद्र नामक प्रतीहार को भेजा। उसने श्रीकृष्ण को प्रणाम कर निवेदन किया कि यदुपते ! पुरोहित के साथ सचिव विवाह मण्डप में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। तब मङ्गल स्नान किए हुए, विवाहोचित वस्त्राभूषण धारण किए हुए अनिरुद्ध को आगे कर जाति-वृद्धों के साथ श्रीकृष्ण ने मण्डप में जाने के लिए प्रस्थान किया। वरयात्री भी सजधज कर पान चबाते हुए चले। पूर्ण कलश के साथ उपस्थित लोग अगवानी कर इन्हें विवाहमण्डप में ले गये। तब कुम्भाण्ड ने स्वस्त्ययन पाठ कराकर यादवों को प्रणाम चम्पू-काव्य १६५ कर मङ्गलमाला पहने हुए वर को बहुमूल्य आसन पर बैठाकर विष्टर, पाद्य, अर्ध आदि प्रदान किया। अब वधू को भी स्वर्णघट में भरे हुए सुगन्धित जल से स्नान कराकर बहुमूल्य वस्त्राभूषण से सजाकर मङ्गलगान करती हुई सोहागिन स्त्रियों के साथ चित्रलेखा लेकर आई। तब दोनों (वर-वधू) पक्षों का गोत्रोच्चार ब्राह्मणों ने किया, अनन्तर मन्त्री (कुम्भाण्ड) ने अग्नि की साक्षी में कुश, दूर्वा, अक्षत जलसहित उषा के हाथ को अनिरुद्ध के हाथ में देकर गोत्रनामकीर्तनपूर्वक पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न किया, अनन्तर हवन, लाजाहवन, सप्तपदी आदि विवाहकृत्य ब्राह्मणों द्वारा वेदोच्चारपूर्वक सम्पन्न कराया। ब्राह्मणों को बहुत से मणि, सुवर्ण, वस्त्र आदि दक्षिणा दिए गये। नट, नर्तक, याचक, दीन-दुखियों को दान-मान से सन्तुष्ट किया गया। अनन्तर बरातियों को विविध मिष्टान्नों पकवानों से भोजन कराकर तृप्त किया गया, सुबासिनियाँ मधुर ध्वनि में सरस गाली गान की, हास-परिहास पूर्वक भोजन सम्पन्न हुआ। उन्हें लवङ्ग-इलायची-पान दिया गया। इस प्रकार प्रेमपूर्वक सत्कार से सन्तुष्ट बराती कई दिनों तक वहाँ रुके रहे। अनन्तर श्रीकृष्ण ने कुम्भाण्ड से कहा कि आपके नित्य नूतन सत्कार से हम लोग तो द्वारकापुरी जाना भूल ही गये हैं। परन्तु राजा उग्रसेन चिन्तित होंगे, उनके दर्शन के लिए मन शीघ्रता कर रहा है। कुम्भाण्ड ने कहा-“त्रिलोकीतिलक ! आपके दर्शन से कौन तृप्त होगा, आपके सम्बन्ध से यह कुल पवित्र हुआ। मेरे लिए क्या आज्ञा है”। श्रीकृष्ण ने कहा कि आप अब इस समृद्ध राज्य का उपभोग करें। सम्बन्धी के रूप में हमारा भी स्मरण करना। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने कुम्भाण्ड के शिर पर मुकुट बाँध दिया। कुम्भाण्ड ने भी यौतुक में इतनी मणि-रत्न, सुवर्ण आदि तथा घोड़े-हाथी रथ आदि दिये, सवत्सा बहुत सी गायें प्रदान किए। (विषाद से मूक) उषा की माँ ने उषा को छाती से लगाकर विदा किया। अनन्तर उषा, माँ गौरी को प्रणाम की, गौरी ने अपने शरीर के वस्त्राभूषणों से विभूषित कर उषा को आशीर्वाद दिया, सुभगे ! पति की प्यारी बनी रहो। दस सहस्र दासियाँ प्रदान की गई। इस प्रकार आनन्द विनोदपूर्वक श्रीकृष्ण ने प्रस्थान करने का मन्त्री को आदेश दिया। सेनासहित श्रीकृष्ण प्रस्थान किए, कई दिनों के बाद यात्रा के बाद द्वारकापुरी दृष्टिगोचर हुई। श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य शंख बजाया। दूतों ने जाकर उग्रसेन को उषासहित अनिरुद्ध तथा श्रीकृष्ण के आने की सूचना दी। जान वसुदेव, उग्रसेन आदि मङ्गलोपचारपूर्वक प्रजा के साथ नगर के बाहर आये, बाल वृद्ध सब दौड़े। श्रीकृष्ण ने वसुदेव उग्रसेन को प्रणाम किया, सबसे मिले, पुर में प्रवेश किए। अनिरुद्ध सभी कुलवृद्धों को प्रणाम कर अपने माता के चरणों पर पड़े, उषा ने सास को तथा सभी बड़ी स्त्रियों को प्रणाम किया। उषा के सौन्दर्य की सभी प्रशंसा करने लगीं। कृष्ण ने गरुड को विदाकर बन्धु-बान्धवों के साथ सभामण्डप में प्रवेश कर ब्राह्मणों, बन्दीगण, नट-नर्तक, याचकों को इच्छित वस्तु प्रदान कर सन्तुष्ट किया। नट-नर्तकों ने१६६ गद्य-खण्ड है विविध कौतुकपूर्ण कला से सबको सन्तुष्ट किया। अनिरुद्ध के आनन्द की सीमा ही नहीं रही। अनिरुद्धचम्पू का मूल-(उपजीव्य) अनिरुद्धचरित अनेक पुराणों में तथा हरिवंश में वर्णित है। यद्यपि उनमें वर्णित कथा में भेद भी है, परन्तु मूलतः भेद कहीं नहीं है। १. श्रीमद्भागवत (१०।६२-६३ अ.) में अनिरुद्ध-चरित वर्णित है, परन्तु वहाँ अनिरुद्ध के माता का नाम ‘रुक्मवती’ लिखा है, चम्पू में शुभाङ्गी नाम है। २. ब्रह्मवैवर्त के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड में (११४-१२० अ.) अनिरुद्धोपाख्यान वर्णित है। परन्तु यहाँ अनिरुद्ध ही स्वप्न में उषा को अपना परिचय देते हैं, और उषा भी अपना परिचय देकर अपने पिता से आदेश लेने का निर्देश देती है। अनिरुद्ध भी पुनः स्वप्न में “श्रीकृष्ण के ओदश के बिना मैं तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ” कहते हैं। तथा बाण स्वयं कन्यादान करता है। परन्तु चम्पू में यह कथा नहीं है। ३. पद्मपुराण (२५० अ.) में अनिरुद्ध-कथा में बाण स्वयं नागपाश से अनिरुद्ध को मुक्त करता है तथा कन्यादान करता है। चम्पू में गरुड को देखकर नाग भागते हैं। कुम्भाण्ड कन्यादान करता है। ब्रह्मपुराण (२०५ अध्याय) में भी अनिरुद्ध चरित है, वहाँ हरिहर का युद्धवर्णन है। २०६ अ. में ज्वर का कृष्ण के साथ युद्ध वर्णित है। परन्तु चम्पू में बलराम के साथ। विष्णुपुराण (५/३२) में संक्षिप्त विवाह-वर्णन है। शिवपुराण में (५१-५५ अ.) उषाचरित वर्णित है। हरिवंश के २/११७-१२८ अध्यायों में उषा-अनिरुद्ध-कथा वर्णित है। अनिरुद्धचम्पू काव्य का मूल हरिवंश की ही कथा है। यद्यपि चम्पू में हरिवंश की कुछ कथा छोड़ दी गई है। कहीं-कहीं काव्य के अनुरूप नवीन कथा की कल्पना की गई है, यह कवि का कौशल है। शैली-चम्पूकाव्य मिश्र काव्य है, इसमें गद्य-पद्य का मिश्रण रहता है। गद्य चार प्रकार का होता है, उन चारों भेदों के उदाहरण का दिग्दर्शन प्रस्तुत है। __मुक्तक-“तस्य केशेष्वेव मालिन्यं न चरितेषु, भुवोरेव कौटिल्यं न मनसि, रङ्ग एवातङ्को नाङ्गे, मध्य एव तनुता न यशसि, मतङ्जेष्वेवावग्रहो न देशेषु”। इत्यादि स्थलों में मुक्तक गद्य की छटा दर्शनीय है। वृत्तगन्धि का उदाहरण जैसे छठे उच्छ्वास में- “ततो मुकुन्दस्य मुखारविन्दम्” इस अंश में उपेन्द्रवज्रावृत्त के पाद का गन्ध है। उत्कलिका का उदाहरण द्वारवती नगरी के वर्णन में मिलता है - १६७ चम्पू-काव्य “जलधिनिकषोपलोल्लितविश्वकर्मनिर्माणनैपुणस्वर्णरेखेव शोभमानाः” …..मुकुन्दोत्सङ्गसङ्गिश्रीसनाभिशोभाशातकुम्भमयी….इत्यादि। चूर्णक का उदाहरण-(‘यश्च मीन इव धृताखिलश्रुतिः, कूर्म इव सहसामन्दरा धारसोल्लासः वाराह इवोद्धृतगोत्रः नृसिंह इव प्रणतप्रह्लादवर्धनः, वामनदर्शितविक्रमः, राम इवोन्मूलितार्जुनः, दाशरथिरिव सुमित्रानन्दनानुरक्तः, बलदेव इव धेनुकान्तकरः, बुद्ध इव याज्ञिकावमानक्षमः, कल्कीव यवननाशकृतक्रमः,….इत्यादि।
- वर्णन-यह अनिरुद्धचम्पू प्रबन्धकाव्य है। इसमें दण्डी निर्दिष्ट सारे लक्षण सङ्गत होते हैं। इसमें प्रकृतिवर्णन तथा वस्तुवर्णन दोनों निबद्ध हैं। मङ्गलाचरण के पश्चात् द्वारकानगरी-वर्णन, नदी-(मन्दाकिनी) वर्णन-आश्रमवर्णन, तपःप्रभाव, अरण्यानी-वर्णन, ऋतु-वर्णन में ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर, वसन्त-ऋतुओं का वर्णन, प्रातः, सन्ध्या, रात्रि-चन्द्रोदय-वर्णन, मृगया, जलक्रीडा-वर्णन, समुद्र, वन, पर्वत-वर्णन, सामाजिक वर्णनों में संस्कार, वरयात्रा, विवाह, भोजनादि वर्णन, विविध-शिक्षा, कलादि का वर्णन, सांस्कृतिक कृत्य-वर्णन, नीति-वर्णन, अत्यन्त मनोहर सरस रीति से किए हैं जो सहृदयों के मन को बलात् आकृष्ट करते हैं। निदर्शन के लिए मन्दाकिनी वर्णन के कुछ वाक्य उद्धृत हैं। “जलके लिलोलनागरी गरीयस्तनकलशकस्तूरिका, जम्बालमलिनतया कलिन्दकन्यामनुकुर्वती मत्तदन्तिकपोलगलितमदबिन्दुबद्धचन्द्रकद्युतिः फुल्लपुष्प परागरञ्जितजला, जलहंसमिथुनकेलिविदलितकमलदला…. श्रान्तवककुला, मन्दाकिनी नाम नदी, पश्यतां दीनतां न न दलयति। (तृ. उ.) आश्रमवर्णनम् वालेयानजिरेषु रक्षति धृतान् रङ्कुः क्वचितन्दुलान् आगन्तोः क्वचिदाचरत्यपि कपिः प्रक्षालनं पादयोः ।….(३।८४) ग्रीष्मवर्णन-यत्र च शिशिरं कूपोदकं, वटस्यच्छाया, पाटलवासिता वाताः, प्रिया अभवन्, यत्र मध्यदिने कृषकाणां गोष्ठी चिरं न विरमति। … यत्र पदे पदे मही पादनखम्पचा भवति। यत्र धूलीचये कुकूलता जायते। यत्रामृतममृतं छत्रं छत्रभवति। यत्र पयः पायं पायमपि जनाः पिपासवः। (पञ्चम उच्छ्वासः) वसन्त-वर्णन-अत्र सरित्पूरेषु कृतप्लवनः कुसुमिततरुमालेषु सञ्चरन् सुगन्धिः धीरः समीरो मन्दमन्दमुपैति। …..(तृ.उ.) नीतिवर्णन के कुछ पद्य उद्धृत हैं। कौटिल्यमेव साधीयो धिगनर्थकमार्जवम् । नमन्ति प्रतिपच्चन्द्रं न राकाशशिनं जनाः।। (६८६) १६८ गद्य-खण्ड धिक् तद्बलं येन न निःसपत्नं, धिक् तद्धनं येन न दानभोगौ। धिक् तच्छ्रुतं येन गतो न मोहो धिक्तत्तपो येन मनो न शुद्धम् ।। (६।६०) अस्वीकृत्य क्षतान्युग्राण्यकृत्वा साहसं महत्। अनभ्युपेत्य हिंसां च राज्यं मध्विव दुर्लभम्।। (६।६२) अविनीतात्मनः शास्त्रमरण्यरुदितं धूवम्। भूयोऽपि जनुषाऽन्धस्य निध्यञ्जनमपार्थकम् ।। दुर्मेधसि प्रभौ सर्व राज्याङ्गमवसीदति। किं कार्य करणैः सद्भिरात्मैव विगुणो यदि।। (६।१०६-१०) महाकवि देवराज का वैदुष्य एवं कवित्वः के इस चम्पू के अध्ययन से प्रतीत होता है कि देवराज विद्या, कवित्व, प्रतिभा इन तीनों शक्तियों से सम्पन्न थे। वे व्याकरणशास्त्र, छन्दः शास्त्र, कोष, धर्मशास्त्र, राजशास्त्र, साहित्यशास्त्र, दर्शन, पुराणोतिहास, आदि विद्याओं में निपुण तथा लोकवृत्त के ज्ञाता थे। छन्दस् तथा अलङ्कार इनके वशवर्ती थे। ये रसानुरूप छन्दों में पद्य निर्माण करते हैं, तथा दुष्कर यमक आदि का भी बड़ी ही सरलता से प्रयोग करते हैं। - साथ ही चित्रकाव्य-निर्माण में भी ये पटु हैं। प्रहेलिका, एकाक्षर, बन्ध निरोष्ठ्य प्रयोग, कर्तृगुप्त, क्रियागुप्त, बिन्दुच्युतक, मात्राच्युतक, आदि का भी निर्माण इन्होंने किया है। सिट __ छः अंकों के चक्रबन्ध (षडरचक्रबन्ध) में उन्होंने अपना तथा अपने काव्य का नाम निर्देश किया है, सभवतः इस चक्र में जन्मस्थान का तथा अन्यत्र किसी नगर में जाने का भी निर्देश है। यह षडरचक्रबन्ध अगले पृष्ठ पर विद्वज्जनमनोविनोद के लिए अकित है। प प्रज्ञं देवभु अप्रमेयचरितं शुद्धप्रमं जन्मना जन्मावस्थिति निर्गति प्रचयदं पञ्च प्रभाकृत्परा। कम नभ्रं राजति रुद्रभाः प्रचरिता श्रीः पूः सुनीतिः पदे, देवः स प्रणुतो जगाम नगरी नाना वराणां मुदे।। अगले पृष्ठ पर अकित चक्रबन्ध में ‘प्र’ से प्रारम्भ कर यह पद्य निबद्ध है। ‘प्र’ वर्ण जहाँ है उसे पूर्वदिशा मानकर प्रत्येक अरों में लिखे तीसरे वर्ण को पढ़ें तो वाक्य बनेगा ‘देवराजकृति’। और छठे वर्ण को पढ़ें तो वाक्य बनेगा-“अनिरुद्धचम्पू"। और पूर्व से तीसरे अर में छठा तथा सातवां वर्ण रुद्र है, और मध्य कोष्ठ में अङ्कित च से नीचे की तरफ पाँचवा वर्ण ‘पू’ है। इन तीनों वर्गों से शब्द बनता है ‘रुद्र पू.’। अर्थात्! रुद्रपुर। यह जन्मस्थान का परिचय है। वहाँ से फिर नगर में जाने का निर्देश है परन्तु नाम स्फुट नहीं है। पद्य का तीसरा और चौथा चरण देखें। इस पद्य में श्लेष से १६६ चम्पू-काव्य श्रीकृष्ण भगवान का द्वारका नगरी में जाना वर्णित है, तथा कवि, काव्य का नाम, जन्मस्थान, वहाँ से जाना आदि भी वर्णित है। __षडरश्चक्रबन्धः-इस अनिरुद्ध चम्पू काव्य में बड़े-बड़े नौ उच्छ्वास हैं। इसमें लम्बे-लम्बे २०० गद्यखण्ड तथा १६४६ पद्य हैं। गद्य एवं सरस पद्य निर्माण में ये त्रिविक्रम भट्ट से पीछे नहीं है। कथा में प्रवाह एवं सरसता है रचना विशेषणों से भरपूर तथा अलङ्कृत है। छन्दोविन्यास रसानुरूप है। छन्दोविन्यास-चम्पू काव्यों में छन्दों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। “छन्दःपादौ तु वेदस्य" के अनुसार छन्दस् वेदाङ्ग हैं। लोक में छन्दों का प्रथम अवतार वाल्मीकि के द्वारा हुआ। इनका निरूपण महर्षि पिङ्गल ने किया है। योग इस अनिरुद्धचम्पू में प्रयुक्त छन्दों का निर्देश-प्रहर्षिणी, वंशस्थ, शालिनी, वसन्ततिलका, उपजाति, अनुष्टुप्, आख्यानिकी, विपरीताख्यानिकी, पुष्पिताग्रा, सुन्दरी, रथोद्धता, मालिनी, प्रमिताक्षरा, अतिरुचिरा, मञ्जुभाषिणी, हरिणी, शार्दूलविक्रीडितम्, कालभारिणी, मन्दाक्रान्ता, पृथिवी, शिखरिणी, स्वागता, कलहंस, द्रुतविलम्बित, अपरवक्त्र, प्रवरललित, इन्द्रवज्रा, स्रग्धरा, उपेन्द्रवज्रा, मालती, मत्ता, विद्युन्माला, भुजङ्गप्रयात, प्रमाणिका, स्रग्विणी, दोधक, नाराच, मृगेन्द्रमुख, हंसी, तोटक, कुसुमितलतावेल्लिता, पञ्चचामरम्, प्रियंवदा, विपिनतिलक, मत्तमयूर, जलोद्धतगति, सोमराजी, नर्कुटकम्, इन्द्रवंशा, आर्या, उपगीति, गीति आर्यागीति। इन विविध छन्दों का प्रयोग उपयुक्त प्रसङ्ग में इन्होंने किया है। अलङ्कार प्रयोग-बिना अलङ्कार के कवि-भारती शोभित नहीं होती, प्रत्युत “अर्थाऽलङ्काररहिता विधवेव सरस्वती” (अग्निपु. ३४४।२) के अनुसार मलिन विवर्ण नीरस हो जाती है। जैसे बिना उष्णता के आग नहीं, वैसे बिना अलङ्कार के काव्य नहीं होता। (चन्द्रा.) चम्पू में तो विशेषकर अलङ्कृत वाक्य-विन्यास ही शोभाधान करता है। अलङ्कार मम्मट के अनुसार तीन वर्ग में विभाजित किए गए हैं। १. शब्दालङ्कार, २. अर्थालङ्कार, ३. उभयालङ्कार। इस दृष्टि से देवराज ने जिन अलङ्कारों का प्रयोग किया है, वे निम्नाङ्कित हैं शब्दालङ्कारों में अनुप्रास, लाटानुप्रास, यमक, श्लेष का बाहुल्येन प्रयोग है। अर्थालङ्कारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, भ्रान्तिमान् अतिशयोक्ति, व्यतिरेक, अपह्नुति अर्थान्तरन्यास, परिसंख्या, विरोधाभास, उल्लेख, स्वभावोक्ति, अर्थापत्ति, काव्यलिङ्ग, स्मरण, अनन्वय, सहोक्ति, सन्देह, तद्गुण, अतद्गुण, विनोक्ति, निदर्शना, विभावना, विषम, सङ्कर, संसृष्टि आदि का प्रयोग वर्ण्य-विषय को चमत्कारी बना देता है। उभयाऽलंकार पुनरुक्तवदाभास का भी प्रयोग है। गुण विवेचन-गुण काव्यात्मा रस के धर्म हैं, वे तीन प्रकार के माने गए हैं। ओज, प्रसाद, माधुर्य, इन तीनों गुणों का यथावसर प्रयोग हुआ है। माधुर्य का उदाहरण-अञ्जनं नयनयोरबलानां रजनं प्रिय दृशो विततान। १७० गद्य-खण्ड ह गञ्जनं व्यधित भूरिसपल्या खञ्जनं मलिनमावहदुच्चैः”। (च.उ.) ओजोगुण - “उन्मीलन् मौलिरत्नधुतिरतनुतनुश्चण्डदोर्दण्डनिष्टैः कोदण्डैः कालजालैरसि परशुमहापट्टिशै डामरश्रीः। (८।२२७) प्रसाद गुण - ब्राह्यं तेजः स्वीकृताकारसम्पद् वाचो देव्याः स्वैरसंवासभूमिः। आसीत्तेषु ज्ञानगाम्भीर्यसीमा गौरीकान्तो विश्वविश्रान्तकीर्तिः।। १। रस निरूपणम्-काव्य की आत्मा रस ही है, अग्निपुराण में कहा है (सा.दं.प्र.प. में उद्धृत “वाग्वैदग्ध्यप्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम्"। काव्य में वाग्विदग्धता की प्रधानता होने पर भी काव्य का जीवन तो रस ही है। वह रस स्वप्रकाश अखण्ड एक है तो भी स्थायीभाव के भेद से रस नौ प्रकार का हो जाता है। वे शृङ्गार-हास्य-करुण-रौद्र-वीर-भयानक-बीभत्स-अद्भुत-शान्त कहलाते हैं। चम्पूकाव्य में भी महाकाव्य के समान एक ही रस अङ्गी होता है “शृङ्गार-वीर-शान्तानामेकोऽङ्गीरस इष्यते” (सा.द. ६।३१७) तदनुसार अनिरुद्धचम्पू में शृङ्गार रस अङ्गी है, अन्य आठ रस अङ्ग रूप में वर्णित हैं। कतिपय उदाहरण चुम्बित्वा चिरमाननं मधुरसस्फीतं निपीयाधरं श्लिष्यन् कण्ठतटीं पयोधरपरीरम्भेण रोमाञ्चितः। इत्यादि (२०६२) सम्भोग शृङ्गार के उदाहरण हैं। विप्रलम्भका उदाहरण क्व लपानि किं सहसा व्रजानि वा कथमाप्यते कमललोचना नु सा। हास्य : - दधिनारदस्य सुविलम्बि कूर्चके स ननर्त हासयितुमिन्दिरापतिः (३।३) वीररस - यद् दोर्दण्डपविप्रपातविगलन्मस्तिष्कपङ्कप्लुतै – (६६२) रेते सम्प्रति जर्जरैरवयवैरावृण्वते मेदिनीम्" (५।१४८) शान्तरस - “विषय विषाटवीमटसि किं विकटां हृदय, त्यज सुतसुन्दरीद्रविणदेहवृथाऽभिरतिम् ।। इत्यादि (८।२०३) भक्ति-यद्यपि आचार्यों ने भक्ति को भाव माना है रस नहीं, तो भी भक्तिसम्प्रदाय (गौडी) के आचार्यों ने अप्राकृतालम्बन में भक्तिरस माना है, उसका उदाहरण अहो सुलभमद्भुतं शरणमस्ति तेषां द्वयं, पदं जलधिजापतेश्चरणमिन्दुचूडस्य वा। (८।२०२) १७१ चम्पू-काव्य उपसंहार-कल्पना-कुशल, चमत्कारी वर्णन में निपुण, प्रतिभाशाली कविराज देवराज के द्वारा निर्मित यह अनिरुद्धचम्पू काव्य अत्यन्त मनोहर है। इनकी पद्यरचना, शब्दसौष्ठव भावमाधुर्य, आरोहावरोहणमति से विभूषित है तो गद्य भी परिष्कृत प्राञ्जल विविधालङ्कारों से अलङ्कृत सरस प्रवाहमय है। _इस चम्पू की सुकोमल शब्दशय्या तथा ललितबन्ध, पदलालित्य, अर्थगौरव आदि गुण वरवश अध्येताओं को आकृष्ट कर लेते हैं। हि इसमें भारतीय सभ्यता, संस्कृति, धार्मिक, सामाजिक, नैतिक व्यवस्था, श्रेय तथा प्रेयो मार्ग का प्रतिपादन अत्यन्त मनोरम ढंग से किया गया है। __ इस काव्य में दुर्बोध शब्दों का प्रयोग नहीं है, अलङ्कार-योजना रसानुरूप है। नीतिवर्णन में शिशुपाल वध की छाया है, काव्यकला में नैषध की, गद्यबन्ध में बाणभट्ट की तथा त्रिविक्रमभट्ट की छाया झलकती है। __ ‘नवरत्नावलीयम्’-इस चम्पू के निर्माता पं. शिवप्रसाद द्विवेदी देवरिया मण्डल के पकड़ी ग्राम के निवासी थे। तमकूही और पड़रौना राज्य के सम्मानित विद्वान् थे, वहीं ये ३५ वर्ष तक अध्यापन कर काशी आए, वहाँ अस्सी संगम पर अपनी ही कुटी में निवास करते हुए छात्रों को पढ़ाते थे। इन्होंने अपने चम्पू का नाम, ‘रत्नावली’ गोस्वामी तुलसीदास जी की पत्नी के नाम पर रखा है। इसमें नौ (६) रत्न हैं। गो. तुलसीदास जी का इतिवृत्त वर्णित है। इसमें पद्य तो सरस हैं, परन्तु गद्य सामान्य ही है अलङ्कृत भाषा नहीं है। सुगमता की दृष्टि से अच्छी है। इनकी दूसरी कृति ‘शुकदूतम्’ है, जिसका ज्ञान प्रकाशकीय लेख से होता है। यह चम्पू १६८३ में प्रकाशित हुई है।