- संस्कृत वाङ्मय में गद्य-संरचना अत्यन्त प्राचीन काल से निरन्तर होती आ रही है। यद्यपि मुस्लिम तथा आंग्ल शासकों की शासनावधि में यह रचना-प्रवाह शिथिल पड़ गया था, तथापि इसकी धारा अवरुद्ध नहीं थी। आधुनिक युग में अनेक प्रतिभासम्पन्न कवि, लेखक आविर्भूत हुए हैं जिनमें पं. अम्बिकादत्त व्यास, पण्डित हृषीकेश भट्टाचार्य, पण्डिता क्षमाराव प्रभृति का नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय है। __पं. अम्बिकादत्त व्यास के पूर्वजों का मूलस्थान जयपुर के ‘रावतजी की धूला’ नामक ग्राम में था। इनके पूर्वपुरुष आदि गौड़, पराशर गोत्रीय यजुर्वेदीय ब्राह्मण थे। इनके वृद्धप्रपितामह भीड़ा वंशावतंस श्रीगोविन्दराज जी, राजस्थान के मानसिंह के द्वितीय पुत्र दुर्जनसिंह के वंश में उत्पन्न दलेल सिंह के राजपण्डित थे। पं. गोविन्दराम जी के प्रपौत्र पं. राजाराम जी तीर्थयात्रा-प्रसङ्ग से काशी आए थे और काशीवासियों के स्नेहपूर्ण आग्रह वश मानमन्दिर मुहल्ले में स्थायी रूप से बस गए। पं. राजाराम जी के ज्येष्ठपुत्र पं. दुर्गादत्त गद्य-काव्य ८७ संस्कृत और हिन्दी साहित्य के विद्वान् तथा लेखक थे। इनका विवाह जयपुर के सिलावटों के मुहल्ला में सम्पन्न हुआ, जहाँ उनके द्वितीय पुत्र अम्बिकादत्त का जन्म चैत्र शुक्ल अष्टमी सम्वत् १६१५ वि. तदनुसार १८५८ ई. को हुआ। बालक अम्बिकादत्त विलक्षण प्रतिभा के थे। बारह वर्ष की अल्पावस्था से ही कवि-गोष्ठियों में सम्मिलित होकर समस्यापूर्ति में जुटते थे। तत्कालीन हिन्दी साहित्य के युगप्रवर्तक कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एक कवि-गोष्ठी में अम्बिकादत्त की समस्यापूर्ति से मुग्ध होकर अपना वरदहस्त प्रदान किया था।
- बालक अम्बिकादत्त की शिक्षा-दीक्षा काशी में ही सम्पन्न हुई। उन्होने साहित्यदर्पण तथा काव्यशास्त्र का अध्ययन पं. ताराचरण तर्करत्न से, न्याय-शास्त्र कुञ्जलाल वाजपेयी और कैलाशचन्द्र भट्टाचार्य से, सांख्य-दर्शन राममिश्र शास्त्री से और आयुर्वेदशास्त्र तथा बंगला भाषा की शिक्षा विश्वनाथ कविराज से ग्रहण की थी। १३ वर्ष की अल्पायु में ही सं. १६२८ में उनका विवाह हो गया। जब व्यासजी १६ वर्ष के थे तभी इनकी माता का और जब ये २२ वर्ष की यौवनावस्था में पहुँचे, उसी समय इनके पिता पं. दुर्गादत्त का स्वर्गवास हो गया। ज्येष्ठ भ्राता इनके अकारण द्वेषी थे। लघुभ्राता के निधन से सं. १६४२ से ही समस्त पारिवारिक गृहस्थी के सञ्चालन का बोझ इन पर आ गया, लेकिन ऐसी विषम परिस्थिति में भी विलक्षण प्रतिभासम्पन्न व्यास जी ने विविध ग्रन्थों की रचना की। यह प्रभुप्रदत्त प्रतिभा का ही फल था। कविता लिखने में इनकी अद्वितीय गति थी। ‘द्रव्यस्तोत्र’ का प्रणयन उन्होनें एक रात्रि में ही कर दिया था। एक घड़ी में शत श्लोक बनाने की क्षमता के कारण व्यास जी को ‘घटिकाशतक’ की उपाधि मिली थी। इन्हें लोग ‘शतावधान’ भी कहते थे। व्यासजी का समग्र जीवन संस्कृत भाषा तथा सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु समर्पित था। विहार के मधुबनी में अपने अध्यापन के समय ही ‘धर्म-सभा’, ‘सुनीतिसंचारिणी सभा’ ऐसी संस्थाओं की स्थापना इन्होंने की और पटना में ‘विहारसंस्कृतसंजीवन’ को पुनर्जीवित करने में व्यासजी का योगदान बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। साहित्य के अतिरिक्त व्यासजी न्याय, वेदान्त-दर्शन-व्याकरण-शास्त्र के भी आधिकारिक विद्वान् थे। हिन्दी और संस्कृत दोनों में उन्होंने ग्रन्थों की रचना की थी। पाणिनि की सूत्र-पद्धति पर व्यास जी ‘आर्यभाषासूत्राधार’ नामक हिन्दी व्याकरण लिखना प्रारम्भ किया था, पर अपूर्ण रह गया। अप्रतिम प्रतिभाशाली व्यासजी ने लगभग छोटी-बड़ी ८० (अस्सी) रचनाएँ कीं, जिनमें ‘शिवराजविजय’ (उपन्यास), ‘सामवत्तम्’ (नाटक), ‘गुप्ता-शुद्धि-प्रदर्शन’, अबोधनिवारणम्’ एवं विहारी-विहार’ (हिन्दी काव्य) प्रमुख हैं। बड़े दुःख का विषय है कि ऐसा प्रतिभावान् व्यक्ति दीर्घायु नहीं हो सका। बयालीस वर्ष की अवस्था में जब ये गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज पटना में प्रोफेसर थे, तभी सोमवार मार्गशीर्ष त्रयोदशी सं. १६५७ तदनुसार १६०० ई. में इनका निधन हो गया। ८८ गद्य-खण्ड शिवराजविजय’-पं. अम्बिकादत्त व्यास का संस्कृत गद्य में निबद्ध यह एक ऐतिहासिक उपन्यास है। इस ग्रन्थ का प्रणयन उन्होंने सं. १६४५ में प्रारम्भ कर सं. १६५० में पूरा कर दिया था। इसका कथानक ऐतिहासिक है, किन्तु अपनी प्रतिभा और कल्पना से कवि ने इसे उच्च कोटि का साहित्यिक ग्रन्थ बनाने का स्पृहणीय सफल प्रयास किया है। इस ग्रन्थ की कथावस्तु की संघटना की प्रेरणा व्यास जी ने प्राच्य और पाश्चात्त्य शिल्प के समन्वय से ग्रहण की है। इसमें कथानक की दो स्वतन्त्र धाराएँ समानान्तर रूप से प्रवाहित होती हैं-एक के नायक महाराष्ट्राधीश्वर वीर शिवाजी हैं और दूसरी का नायक रघुवीर सिंह। दोनों धाराएँ स्वतन्त्र नहीं हैं, प्रत्युत परस्प अन्योन्याश्रित तथा एक दूसरे के पूरक हैं। कथानक तीन विरामों में विभक्त है। प्रत्येक विराम में चार निःश्वास हैं। ‘शिवराजविजय’ की संरचना पाञ्चाली रीति के माध्यम से की गई है। व्यासजी ने अवसर के अनुकूल दीर्घ समासबहुला पदावली तथा सरललघु पदावली दोनों का प्रयोग किया है। इनकी समासरहित सुन्दर पदावलियाँ अत्यन्त हृदयावर्जक हैं:
- “बटुरसौ आकृत्या सुन्दरः, वर्णेन गौरः, जटाभिर्ब्रह्मचारी, वयसा षोडशवर्षदेशीयः, कम्बुकण्ठः, आयतललाटः, सुबाहुर्विशाललोचनश्चासीत्।” __ व्यासजी विद्वान् थे अतः भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार था और उनमें भावाभिव्यक्ति की पूर्ण क्षमता विद्यमान थी। यद्यपि व्यासजी बाण की कृतियों से विशेषरूप से प्रभावित हैं, तथापि उन्होंने अपने काव्यग्रन्थ को अलंकारों के अनावश्यक बोझ से बोझिल करने का प्रयत्न नहीं किया है। इनकी अलंकार योजना बड़ी अनुकूल तथा औचित्यपूर्ण है। अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, उपमा, दीपक, श्लेष, यथासंख्य आदि सभी अलंकारों की योजनाएँ इन्होंने की हैं। विरोधाभास के प्रयोग में ये बाण का ही अनुकरण करते प्रतीत होते हैं। शिवाजी के वर्णन में विरोधाभास की शोभा दर्शनीय है: “खर्वामप्यखर्वपरिक्रमाम् श्यामामपि यशः समूहश्वेतीकृतत्रिभुवनाम् कुशासनश्रयामपि सुशासनाश्रयाम्, पठनपाठनादि परिश्रमानभिज्ञामपि नीतिनिपुणताम्, स्थूलदर्शनामपि सूक्ष्मदर्शनाम्, ध्वसंकाण्डव्यसनिनीमपि धर्मधौरेयीम्, कठिनामपि कोमलाम्, उग्रामपि शान्ताम्, शोभिताविग्रहामपि दृढ़सन्धिबन्धाम्, कलितगौरवामपि कलितलाघवाम्।” ‘शिवराजविजय’ का प्रधान रस वीर है तथा अन्य सभी शास्त्रीय रसों का समावेश अङ्गी के उपकारी के रूप में हुआ है। शिवाजी के शौर्य का अद्भुत वर्णन गौर सिंह ने अफजल खाँ से किया है। व्यासजी ने शृंगार का वर्णन शिष्ट, मर्यादित एवं सात्त्विक रूप से किया है। १. प्रकाशक पं. कृष्णकुमार व्यास, मूल तथा हिन्दी अनुवाद सहित, पुस्तकालय वाराणसी, १६६६ ई. गद्य-काव्य संस्कृत कवियों में प्रकृति-वर्णन की परम्परा रही है। कवि की काव्यगत सफलता का मापदण्ड प्रकृति-चित्रण रहा है। अतः व्यासजी ने सूर्योदय, सूर्यास्त, चन्द्रोदय, चन्द्रास्त एवं रात्रि के मनोरम पक्ष का वर्णन कर अपनी अत्यन्त कुशलता का परिचय दिया है। प्रकृति के भीषण रूप के वर्णन में व्यास जी उतने प्रवीण नहीं हैं। - ‘शिवराजविजय’ के प्रायः सभी पात्र प्रतिनिधि पात्र के रूप में चित्रित किये गये हैं। शिवाजी तथा उनके सहयोगी देश-प्रेम, जाति-प्रेम एवं धर्म-प्रेम से युक्त हैं। वे सभी एक प्रकार की भावना से भावित वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। व्यासजी ने ‘शिवराजविजय’ में नाटकीय तथा प्रभावशाली सम्वादों की योजना प्रस्तुत कर संस्कृत-गद्य-काव्य के लिए एक नूतन दिशा प्रदान की है। संन्यासी (गौरसिंह) तथा द्वारपाल और तानरंग (गौरसिंह) तथा अफजल खाँ का संवाद नाटकीय रोचकता को लेकर उल्लेखनीय है। काव्यशास्त्र के परम्परागत-“काव्यं यशसेऽर्थकृते …." प्रयोजनों के अतिरिक्त ‘शिवराजविजय’ के प्रणयन में व्यास जी ने देश, जाति और धर्म के गौरव की प्रतिष्ठा तथा उससे जनमानस को अनुप्राणित तथा आप्लावित करने के प्रयोजन को उजागर कर संस्कृत कवियों को एक नयी दिशा में प्रेरणा प्रदान की है। इस उपन्यास-ग्रन्थ के द्वारा व्यासजी का यह भी उद्देश्य था कि संस्कृत वाङ्मय में एक नवीन मनोरम तथा चमत्कारपूर्ण मार्गों का आधान किया जाय, जिससे संस्कृत के विद्वान् कवि प्रेरित होकर इस नयी विधा की ओर प्रवृत्त होकर संस्कृत साहित्य के भण्डार की श्रीवृद्धि करें। व्यासजी को सफलता मिली और नासिक के मेघाव्रत कविरत्न ने ‘शिवराजविजय’ के अनुकरण पर ‘कुमुदिनी-चन्द्र’ नामक उपन्यास की रचना की है। जिस प्रकार व्यासजी ने ‘शिवराजविजय’ में मुगलकालीन तत्कालीन भारतीय पतनोन्मुख सामाजिक परिस्थितियों को प्रकाश में लाया है, उसी प्रकार बंगलौर की श्रीमती राजम्मा ने ‘चन्द्रमौलि’ नामक उपन्यास को लिखकर समाज की कुरीतियों का उद्घाटन किया है। पण्डित अम्बिकादत्त व्यासजी आमूलचूल सनातन धर्मावलम्बी व्यक्ति थे। अपने काव्य का प्रारम्भ ही उन्होंने धार्मिक चित्रण से किया है, जिसमें भगवान् सूर्य की महिमा तथा स्वरूप का सुन्दर वर्णन है। यवन-शासकों के अत्याचार से प्रपीड़ित हिन्दू समाज विशेषरूप से बलशाली हनुमान की पूजा में प्रवृत्त है। इस हेतु जगह-जगह हनुमान्-मन्दिर का वर्णन काव्य में उपलब्ध है। इस व्याज से व्यास जी ने सन्देश दिया है कि उत्पीड़न से रक्षा के लिए तथा प्रतिरोध हेतु बलबुद्धि के देवता हनुमान् मात्र ही आराध्य देव हैं। __ ‘शिवराजविजय’ की संरचना में व्यासजी अपने पूर्ववर्ती संस्कृत गद्य-साहित्य के मूर्धन्य निर्माताओं सुबन्धु, बाण और दण्डी की कृतियों तथा शैलियों से प्रभावित हैं। व्यास ६० गद्य-खण्ड जी एक जागरूक साहित्यकार थे इसी से अपनी युगीन आधुनिकता की भी उपेक्षा नहीं कर सकते थे। अतः अपनी पूर्ववर्ती संस्कृत गद्य-परम्परा का अनुकरण कर उन्होंने अपने ‘शिवराजविजय’ को आधुनिक औपन्यासिक तत्त्वों से सजाकर एक सर्वथा नूतन विधा के रूप में प्रस्तुत किया। वस्तुतः ‘शिवराजविजय’ महाकवि बाण और दण्डी के द्वारा स्थापित काव्यात्मक मापदण्डों तथा आधुनिक मापदण्डों का एक मञ्जुल सम्मिश्रित रूप कहा जा सकता है। ‘शिवराजविजय’ बाण की काव्यशैली से विशेष रूप से प्रभावित है। इसी से आधुनिक संस्कृत साहित्य के समीक्षकों ने व्यासजी को अभिनव बाण “व्यासस्त्वभिनवो बाणः” तक कह दिया है। यह सत्य है कि पं. अम्बिकादत्त व्यासजी अलंकृत संस्कृत गद्य-काव्य परम्परा में महाकवि बाण के सच्चे उत्तराधिकारी माने जायें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।