०७ विश्वेश्वर पाण्डेय

पण्डितप्रवर विश्वेश्वर पाण्डेय ने ‘कादम्बरी’ की शैली में एक गद्य-काव्य का प्रणयन किया है जो ‘मन्दारमंजरी’ के नाम से प्रसिद्ध है। इनके पूर्वज भारद्वाज गोत्रीय पर्वतीय ब्राह्मण थे जिनका मूलस्थान अलमोड़ा जिले के पाटिया नामक ग्राम में था। इनके पिता लक्ष्मीधरसूरि निखिलशास्त्रगुरु थे और शास्त्र अध्येताओं के लिए पारिजाततरु थे। वे वृद्धावस्था में काशी चले आए और सन्तान के अभाव से दुःखित अपने को बाबा विश्वनाथ की आराधना में लगा दिया। कथा प्रचलित है कि भक्तानुकम्पी भगवान् आशुतोष ने स्वप्न में उनसे कहा कि “तुझे अदृष्टानुसार सन्तान का योग नहीं है। मैं क्या करूँ। तुम्हारी भक्ति के वशीभूत होकर मैं स्वयमेव उन्हारे पास आऊँगा।” उसी स्वप्न के उपरान्त पत्र का जन्म हुआ। भगवान् की अलौकिक कृपा से उत्पन्न हुए पुत्ररत्न का नामकरण उन्हीं के नाम पर विश्वेश्वरसूरि रखा गया। विश्वेश्वरसूरि जो साक्षात् विश्वेश्वर थे, ने सभी शास्त्रों का अध्ययन अपने पिता लक्ष्मीधरसूरि के चरणों में बैठकर काशी में ही किया। पाँच वर्ष की अवस्था में बालक विश्वेश्वर अक्षरारम्भ से अपने बुद्धिवैचित्र्य का प्रदर्शन करने लगे। दशवर्ष तक पहुँचते-पहुँचते जिस शास्त्र का अध्ययन करते थे उसमें ही ग्रन्थ का निर्माण करना प्रारम्भ कर दिया। काव्याध्ययन के उपरान्त काव्यग्रन्थों, व्याकरण के अध्ययन से बुद्धि के परिपक्व होने पर व्याकरण शास्त्रीय और सभी शास्त्रों में इस अलौकिक प्रतिभा के धनी विलक्षण-शेमुषी सम्पन्न विद्वान् कवि ने ग्रन्थों का प्रणयन किया। इनके द्वारा निर्मित कपितय ग्रन्थ निर्णयसागर बम्बई और कतिपय काशी-संस्कृत ग्रन्थमाला के द्वारा प्रकाशित १. द्रष्टव्य : जयति यथाजातानां वाग्जातसुजातपरिजातश्रीः। श्रीलक्ष्मीधरविबुधावतंसचरणाब्जरेणुकणः।।" ‘मन्दारमंजरी’, प्रस्तावना श्लोक १२ गद्य-काव्य हुए हैं और आज उपलब्ध भी हैं। पण्डित विश्वेश्वर व्याकरण, न्याय और काव्यशास्त्र के अद्वितीय विद्वान् थे। इन्होंने ‘अष्टाध्यायी’ की विशद व्याख्या के रूप में ‘वैयाकरणसिद्धान्तसुधानिधि’ नामक ग्रन्थ की रचना की जो पाणिनीय व्याकरण का एक प्रौढ़ विस्तृत ग्रन्थ है’। ‘नव्यन्यायदीधिति’ की टीका के रूप में इन्होंने ‘तर्ककुतूहल’ और ‘दीधितिप्रवेश’ इन दोनों ग्रन्थों की रचना की थी। ‘अलंकारकौस्तुभ’ ‘रसचन्द्रिका’, ‘अलंकारप्रदीप’, ‘अलंकारमुक्तावली’, ‘काव्यतिलक’, ‘काव्यरत्न’ इनके अलंकारशास्त्र के उपयोगी ग्रन्थ हैं। इनके काव्य-ग्रन्थों में ‘रोमावलीशतक’, ‘आर्यासप्तशती’ ‘होलिकाशतक’ ‘वक्षोजशतकम्’, ‘षड्ऋतुवर्णन’, ‘लक्ष्मीविलास’ उल्लेखनीय हैं। इन्होंने नैषाधीय काव्य की टीका तथा ‘रसमञ्जरी’ की टीका की भी रचना की थी। ऐसी किंवदन्ती है कि उनके द्वारा प्रणीत अनेक ग्रन्थ भगवती गंगा को समर्पित कर दिए गए। विश्वेश्वर का समय-‘वैयाकरणसिद्धान्तसुधानिधि’ में विश्वेश्वर ने स्थान-स्थान पर भट्टोजिदीक्षित तथा उनके ग्रन्थों का उल्लेख किया है। अतः ये अवश्य ही भट्टाजि के परवर्ती हैं। विद्वानों ने भट्टोजि का समय १५६० से १६१० ई. के मध्य निर्धारित किया है। पर विश्वेश्वर ने भट्टोजि के पौत्र तथा नागोजिभट्ट के गुरुवर्य हरिदीक्षितकृत ‘लघुशब्दरत्न’ तथा ‘बृहत्शब्दरत्न’ का नामोल्लेख नहीं किया है। इससे अनुमान होता है कि वे उनके पूर्ववर्ती होंगे, लेकिन कर्णाकर्णिकापरम्परा से सुनने में आता है कि विश्वेश्वर हरिदीक्षित महादेय के समय में थे और हरिदीक्षित ने इनके दर्शन भी किए थे। ‘रसमञ्जरी’ की एक टीका के अन्त में “ग्रन्थकृत्पुत्रजयकृष्णो विलिलेखेदं पुस्तकमिति” तथा उसके द्वारा निम्नलिखित ‘दिग्गुणर्तुशशलाञ्छनयुक्ते शालवाहनशके जयकृष्णः। श्रावणीयसितपक्षदशम्यां निर्मितिं पितुरिमां विलिलेख। पद्य के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि विश्वेश्वर-पुत्र १६४३ शक सम्वत् में विद्यमान थे। अतः विद्वानों का अनुमान है कि विश्वेश्वर का समय ईसा की अष्टादश शताब्दी का पूर्वार्द्ध है। प्रायः सभी शास्त्रों में ग्रन्थनिर्माण करने से कवि के पाण्डित्य का परिचय सहजरूप से लग जाता है। इनके सभी ग्रन्थ तत् तत् शास्त्रीय वैशिष्ट्य से युक्त हैं। ग्रन्थनिर्माण में इन्होंने प्राचीन ग्रन्थों के शब्दों में परिवर्तन कर अपने कौशल का प्रदर्शन मात्र नहीं किया, अपितु पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों का मत प्रदर्शन कर वस्तुतः अपने मत की स्पष्ट अभिव्यक्तिपूर्वक ‘वैयाकरणसिद्धान्तसुधानिधि’ सदृश ग्रन्थों का निर्माण किया है। अतः १. यह ग्रन्थ काशी संस्कृत ग्रन्थमाला से मुद्रित हुआ तथा प्रारम्भिक तीन अध्यायों के साथ चौखम्बा ग्रन्थमाला से भी प्रकाशित है। २. यह सटीक-निर्णयसागर प्रेस से मुद्रित ३. आचार्य बलदेव उपाध्यायकृत ‘संस्कृत शास्त्रों का इतिहास’ पृष्ठ ५०२-३ । ४. वही, पृष्ठ ४१० ६२ गद्य-खण्ड उन-उन ग्रन्थों की रचना से कवि-प्रतिभा कैसी थी यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है। निगम-आगम की पारावारीणता को प्राप्त विश्वेश्वर पाण्डेय बयालीस वर्ष की अवस्था के लगभग ही दिवंगत हो गए, ऐसी जनश्रुति है। _ ‘मन्दारमंजरी” इसी सर्वशास्त्रपण्डित एवं विलक्षणप्रतिभासम्पन्न कवि की गद्यकाव्यात्मक एक प्रौढ़ रचना है। यह ग्रन्थ-पूर्वभाग तथा उत्तरभाग दो भागों में है। पूर्वार्ध विश्वेश्वरपाण्डेय द्वारा विरचित है, लेकिन उत्तरभाग परम्परावश उनके किसी शिष्य की कृति है जो आज समग्र रूप से उपलब्ध नहीं है। उत्तरार्ध के मङ्गलाचरण में निम्नलिखित दो श्लोक मिलते हैं। स्वर्गस्रवत्सुरसरिद्विरलप्रवाहकल्लोलडम्बरविडम्बिभिरेव गद्यैः। विश्वेश्वराभिधकवीश्वरनिर्मितेयं तोषं कथा न हृदि कस्य चरीकरोति।। अस्या अपूर्तिजनितेन हि नोद्यमानो दुःखेन चापलमहं प्रकटीकरोमि। मालां करीन्द्रवरकुम्भजमौक्तिकीयां ग्रथ्नन्व रौप्यकृतबीजगणैर्हसाय।। इन मङ्गलश्लोकों के निर्माता ने अपना नामोल्लेख नहीं किया है। इस भाग के अन्त के भी चार पाँच पृष्ठ अप्राप्त हैं। अतः ग्रन्थकर्ता का पता नहीं चलता। मन्दारमञ्जरी के पूर्वभाग का प्रारम्भ २६ आर्या छन्दों से किया गया है जिनमें सर्वप्रथम परमात्मा, ताण्डवनृत्य में प्रसक्त शिव, गौरी, गणेश, लक्ष्मी एवं सरस्वती इन विविध देवताओं की वन्दना की गई है। तदनन्तर आदिकवि वाल्मीकि तथा ‘भारत’ इस ग्रन्थ के निर्माता पाराशर मुनि वेदव्यास को प्रणाम करते हैं। तत्पश्चात् महाकवि कालिदास की प्रशस्ति श्लेष के चमत्कार के माध्यम से इस निम्नलिखित श्लोक में प्रस्तुत की गई है जिसमें कविता तथा काली का श्लेष है नेत्रीकृताग्निमित्रा कुमारसूर्जनितमेघरघुभावा। कवितामिषेण काली वशं गता कालिदासस्य।। राजा अग्निमित्र को नायक बनाने वाली तथा ‘कुमारसम्भव’ ‘मेघदूत’ और ‘रघुवंश’ ऐसे काव्यों की जननी कवि की कविता के व्याज से स्वयमेव भगवती काली ही कालिदास के वश में हो गई हैं। सकलकविमान्य कालिदास की संस्तुति हर ग्रन्थकर्ता, भवभूति के सम्बन्ध में कहता है कि इनके वियोग और मर्यादा को संरक्षण प्रदान करने वाली वाणी के रचनाभेदों के यथार्थत्व का परिमार्जन स्वयं प्रजापति ब्रह्मा भी नहीं कर सकते। शब्दराशि १. पं. तारादत्त पंत की कुसुम व्याख्यासहित इस ग्रन्थ का पूर्वभाग मात्र पर्वतीय-पुस्तक प्रकाशन मण्डल २३/५८ दूधविनायक, बनारस से सं. १६६५ में प्रकाशित है प्रकाशित ह क द्रष्टव्य : भवभूतेविच्छित्तिव्यभिचारमुचो गिरा गुम्फाः। विधिना दुर्निवारं तेषां खलु भावभूतत्वम्।। ‘मन्दारमञ्जरी’ प्रस्तावना - श्लोक ६ गद्य-काव्य की शेवधि, गुणोंमात्र से रसों की अभिव्यञ्जना करने वाले एवं महाकवियों को भी आह्लादजनक काव्य वासवदत्ता के रचयिता सुबन्ध की परिशंसना करता है।’ बाण की संस्तुति करते हुए कवि उल्लेख करता है कि इस भूतल पर बहुत से कवियों ने बाणी की देवी सरस्वती की अपने सरस रचनाओं से उपासना की, पर बाण ने केवल परिशीलनमात्र नहीं किया, प्रत्युत उन्होंने अपने को सरस्वती के साथ आत्मसात् कर दिया कि वाणी वशीभूत होकर अपने स्त्रीस्वभाव का परित्याग कर पुरुष रूप में बाण का रूप धारण कर लिया। ठीक इसी तरह गोवर्धनाचार्य ने कहा है कि अतिशय चमत्कार प्राप्त करने के लिए “वाणी बाणो बभूवेति” । जान ‘मन्दारमञ्जरी’ गद्यकाव्य का एक कथा-ग्रन्थ है। अतः कवि ने “आदौ पद्यैर्नमस्कारः खलादेर्वृत्तकीर्तनम्” इस अलंकार शास्त्रीय निर्धारित नियमानुसार पूज्यों को नमस्कार कर दुर्गम आत्मा वाले खल की माया, पिशुनसंसद्, सज्जनों की सत्ता, ब्रह्मा की सृष्टि से विलक्षण अनिर्वचनीय महाकवियों की कविता की संस्तुति एवं उग्रप्रकति ककवियों की निन्दा आदि की है। कथा का प्रारम्भ प्राची दिशा के वर्णन से होता है, जहाँ मगध प्रदेशों में पुष्पपुर अथवा पाटलिपुत्र नामक एक नगर था। वहाँ पल्लव राजा राजशेखर राज्य करता था। उसकी रानी का नाम महादेवी मलयवती था और समस्त शास्त्रीय तथा व्यावहारिक गुणों से सम्पन्न बुद्धिनिधि नाम का प्रधान अमात्य था। राजा का प्रताप अद्वितीय था, परन्तु सन्तान के अभाव से वह बड़ा दुःखी था। एकरात्रि स्वप्न देखता है और उसी के अनुसार पुत्रीयानुष्ठानयज्ञ करवाता है। मलयवती गर्भवती होती है। पुत्र उत्पन्न होता है। पुत्रजननोत्सव, जातककर्मादि षष्ठीमहोत्सव और नामकरण संस्कारादि किए जाते हैं। बालक का नाम चित्रभानु रखा जाता है। कुमार समस्त विद्याओं को ग्रहण करता है तथा सर्वशास्त्रनिपुण प्रधानामात्य बुद्धिनिधि, चित्रभानु को सभी आवश्यकीय शिक्षाओं से अवगत करा देता है। एक समय जब राजा, कुमार के साथ सभामण्डप में बैठा है, उसी समय आकाश से इन्द्र का सारथि मातलि अपने स्वामी के रथ को लेकर पृथ्वीतल पर आता है और राजा इन्द्र के सन्देश को सुनाकर प्रस्थान कर देता है। राजा उदयगिरि, काञ्चनाचल, जम्बूपादप, जम्बूसरित, अमरावती, गन्धमादनगिरि होते हुए कैलासपर्वत पर पहुँचता है। अपने समस्त परिवार के साथ वहाँ लोहितशैल, वैद्युत अचल, सरयू नदी, शिवगिरि को देखते हुए गृत्समद ऋषि के तपोवन में प्रवेश करता है। वहीं पुरन्दर (इन्द्र) का दर्शन होता है। स्थानीय विकल्प १. यः शब्दराशिशेवधिरवभाति सुवंशलक्षणान्वयतः। गुणमात्रग्राह्यरसः स सुबन्धुर्बन्धुरनिबन्धः।। वही, श्लोक १० २. परिशीलितैव सरसं कविराजैर्बहुभिरिव वाग्देवी। बाणेन तु वैजात्यात्कथयति नामैव वाणीति।। श्लोक ११ मा ८४ गद्य-खण्ड बिन्दुसरोवर के तट पर चित्रभानु गन्धर्वराज चित्रसेन की पुत्री मदयन्तिका से मिलता है जो अपनी सखी विद्याधरेन्द्र चन्द्रकेतुकन्या मन्दारमंजरी को दिखलाती है। चित्रभानु और मन्दारमंजरी का पास्परिक अनुराग उत्तरोत्तर बढ़ने लगता है और पूर्वभाग की कथा का अवसान हो जाता है। काव्य शब्दतः और अर्थतः परछायारहित होने से ही विलक्षणशोभाधायक होता है। दूसरे काव्यों के इधर-उधर से लाए गए तथा अपने काव्य में विन्यस्त शब्द अर्थ-दारिद्र्य के सूचक हैं और अन्य के सौन्दर्य का अभिवर्धन नहीं कर सकते। ऐसी विश्वेश्वरकी परिनिष्ठित मान्यता थी। जैसा उन्होंने ‘मन्दारमन्जरी’ की प्रस्तावना में उपन्यस्त किया है : “विशकलितैः परकीयैः पदार्थजातैः स्वकाव्यविन्यस्तैः। याचितकमण्डनैरिव न भवति शोभा विजातीया।।” अतः यद्यपि विश्वेश्वर सुबन्धु और बाणभट्ट की कृतियों से विशेष रूप से प्रभावित परिलक्षित होते हैं, तथापि उन्होंने स्पष्ट रूप से उपर्युक्त आर्या छन्द के द्वारा उद्घोषणा कर दी है कि “मेरी ‘मन्दारमञ्जरी’ समस्त काव्यों से विचित्र होगी। विद्वान् कवियों के अन्तःकरण की काव्यमयी वृत्ति मालिन्य दोष से रहित स्वच्छ रहती है, तभी यथार्थतः आत्मप्रतीति के बोधक चैतन्यसूचक अर्थ का स्फुरण होता है"।’ इस उपर्युक्त उक्ति से सिद्ध हो जाता है कि ‘मन्दारमंजरी’ कवि की स्वतन्त्र तथा अन्य कवियों से अप्रभावित एक विलक्षण रचना है। टीकाकार पं. तारादत्तपन्त ने उल्लेख किया है कि “मन्दारमञ्जरी तु अतीव रुचिरा लौकिकशास्त्रीय-व्यवहारवर्णनपरा कादम्बरीतोऽपि विलक्षणा, वासवदत्ताया अपि विचित्रा।" संस्कत के गद्यकाव्यों में लौकिक पदार्थों के वर्णन-प्राधान्य को देखकर विश्वेश्वर के सन्मुख यह समस्या थी कि दर्शन के कार्यकारणभाव, व्याप्यव्यापकभाव, बाध्यबाधकभाव-प्रमाणप्रामाण्य इत्यादि गंभीर पदार्थों को किस रूप से सुगमता और सरलता से काव्य में निरूपण किया जाय कि दर्शन के अध्ययन से विमुख सुकुमारमति पाठकों को काव्य के माध्यम से इन दार्शनिक पदार्थों का ज्ञान हो सके। विशेषरूप से पद्यकाव्यों की अपेक्षा गद्यकाव्यों के लिए यह बड़ा अपेक्षित विषय है। इन दार्शनिक पदार्थों के ज्ञान के बिना दर्शन के अप्रगल्भ काव्य-पाठक काव्यशास्त्रीय अलंकारों का यथार्थतः आस्वादन से वञ्चित रह जाते हैं। कार्यकारणभाव के ज्ञान के बिना हेत्वलकार, काव्यलिङ्ग और असंगति का, व्याप्यव्यापकभाव के ज्ञान बिना अनुमानादि का, बाध्य-बाधकभावज्ञान के बिना विरोधाभासादि का, सादृश्यज्ञान के बिना उपमा, आहार्यज्ञान के बिना रूपक आदि अलंकारों का वास्तविक आत्मसातीकरण सम्भव नहीं हो सकता। इसी उद्देश्य की पूर्ति को ध्यान में रख कर विश्वेश्वर ने अपनी कथा ‘मन्दारमञ्जरी’ की संरचना की है। इसीलिए इस ग्रन्थ में सर्वशास्त्रप्रवीण रचयिता ने १. द्रष्टव्य : काव्यमयी विबुधानामन्तःकरणस्य वृत्तिरमलेयम्। अर्थश्चैतन्यमपि प्रतिफलति यथार्थतो यत्र ।। गद्य-काव्य ८५ लौकिक पदार्थों के वर्णनप्रकार से दर्शनशास्त्रीय पदार्थों का प्रतिपादन किया है-“काणादं पाणिनीयञ्च सर्वशास्त्रोपकारकम्"। इसे ही ध्यान में रखकर कवि विश्वेश्वरने प्रथमतः सादृश्यसम्बन्ध का अनुसरण कर कुसुमपुरवर्णनप्रसङ्ग में प्रमाणप्रमेयादि पदार्थों का वर्णन किया है। इसी प्रकार अन्य प्रसङ्गों की संगति से तथा अवसर सङ्गतियों के माध्यम से दार्शनिक तथा लौकिक पदार्थों का वर्णन किया गया है। यह विचारणीय और अनुसन्धेय है। ‘मन्दारमञ्जरी’ की उल्लेखनीय विशेषता है कि इसकी मूलकथा आदि से अन्य तक प्रवाहित होती चली गई है। उपकथाएँ, मूलकथा में मिलती हैं, पर कथा का प्रवाह उत्तरोत्तर वर्धनशील ही रहता है। ‘कादम्बरी’ की तुलना में यह इस कथाग्रन्थ का वैशिष्ट्य है। ‘कादम्बरी’ से प्रभावित होने पर भी कवि विश्वेश्वर ने सर्वत्र नवीनता के आनयन का एक श्लाघनीय प्रयास किया है। श्लेषनिष्ठ उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, व्यतिरेक, विरोधाभास, परिसंख्या प्रभृति अलंकारों का प्रयोग पर्याप्त रूप से हुआ है। अलंकारों के बोझ से काव्य को बोझिल बनाने का यत्न परिलक्षित नहीं होता। राजा राजशेखर के शासन-सौभाग्य का वर्णन आमूलचूल परिसंख्या अलंकार के माध्यम से वर्णित है। वर्णन की विपुलता होते हुए भी परिसंख्या का प्रयोग नितान्त दर्शनीय है: “यस्मिन् सर्वोत्तरपुण्यचरितरत्नाकरे शासति महीं गुणच्छेदो मृणालेषु अङ्गप्रचारो गणितागमेषु, वर्णव्यत्ययः सात्त्विकभावेषु, सङ्करोऽलंकारेषु, वैषम्यं छन्दःप्रभेदेषु……. जातिनिराकरणं सौगतसिद्धान्तेषु, ईश्वरद्वेषो मीमांसकेषु,…….करग्रहणं विवाहविधिषु न ब्राह्मणेषु,……अश्लीलभाषणमश्वमेधविधिषु रतप्रयोगेषु च न सद्गोष्ठीषु, द्विजपरीक्षणं लक्षणविचारेषु न दानेषु, श्रुतिलङ्घनं वधूनां कटाक्षेषु न जनेषु समभवन्।" __कवि लघु तथा दीर्घ दोनों प्रकार के वाक्यों का प्रयोग करते हैं। समासबहुल पदावली यत्र तत्र प्रयुक्त हुई है, पर समस्तपदों की परियोजना श्रमसाधित नहीं प्रतीत होती। संस्कृत गद्य की प्रौढ़ता तथा कमनीयता काव्य को सर्वथा प्रशंसनीय बना देती है। पारस्परिक सम्वादों में भाषा का प्रवाह बड़ा प्राञ्जल है। सन्तान की अनुत्पत्ति तथा पाताललोक में भागकर गये दावनेन्द्र के नाश सम्बन्धिनी चिन्ता से ग्रस्त राजा और मन्त्री बुद्धिनिधि के मन्त्रणाप्रसङ्ग में भाषागत सौन्दर्य दर्शनीय है: “विज्ञातमप्येतदार्यस्य स्मार्यते इह किल कर्मणामविच्छेदेन प्रतायमाने संसारे जीवानां सुखदुःखान्यतरभोगाय तदनुरूपशरीरग्रहः समुल्लसति,…. स तु ममापि प्रायेण सञ्जात एव, यत्तु पित्र्यं तृतीयमृणं तत्पुत्रमात्रपरिहार्यमिति तद् बद्धोऽहं सकलातिशायिनीमपि सम्पदमिमां न बहु मन्ये, सम्पदो हि चलप्रायाः कालक्रमेणाविर्भवन्ति तिरोभवन्ति च, तासां हि सद्भावे सुखविशेषोऽभावे तु न कश्चिदप्यनिष्टलेशः”…इत्यादि।गद्य-खण्ड कुमार चित्रभानु के विद्याओं के ग्रहण करने के उपरान्त महामहिम सर्वज्ञ प्रधानामात्य बुद्धिनिधि का मानव के सहज चाञ्चल्य, स्नेह, राजादेश, स्वामिभक्ति, स्वाधिकार इत्यादि के संबंध में राजकुमार को सत्परामर्श अपने शास्त्र तथा लौकिक व्यवहारगत पाण्डित्य से परिपूर्ण है, वहीं इसके वाक्यविन्यास अत्यन्त लघु तथा सारगर्भित हैं। यह उपदेश ‘कादम्बरी’ के शुकनासोपदेश की स्मृति को जागृत कर देती है। माना। ‘मन्दारमञ्जरी’ प्रकृति के वर्णनों से रहित नहीं है। स्थान-स्थान पर चन्द्रोदय, रात्रि, प्रभात, सन्ध्या प्रकृति के विभिन्न अवयवों का वर्णन हुआ, पर कवि ने प्रकृति को उद्दीपन रूप में चित्रित किया है। विरह-विदग्धा मदयन्तिका सन्ध्या का वर्णन करती हुई कहती है-“ततः स्वल्पसमयमात्रावस्थायिनी रागबहुला मदीया जीवनसंभावनेवाऽऽविरभवत्सन्ध्या, किञ्चिन्मात्रसंचारिणो मदीयाः प्राणाः इवार्यम्णः किरणा मन्दतामगाहन्त, विरलायमानप्रकाशो मदीयकल्पनाभिनिवेश इव विरराम दिवसः, तत्तदनुपपत्तिप्रतिसन्धानेन प्रियतमलाभसंभाव नेवोद्गच्छता तमसा तिरोधीयत माहेन्द्री हरित्…..

  • जनान्तराऽनधिगम्यं द्वीपान्तरमिव ममैव हृदयं प्राविशन्निदाघदाहः, सरसीभूतं च मत्सर्वाङ्गमिव वारि समवाय जाड्यम्।” _ ‘मन्दारमंजरी’ कवि विश्वेश्वर की एकमात्र गद्य-काव्यमयी उदात्त तथा प्रौढ़ रचना है। काव्यात्मक प्रख्यात गुणों से विभूषित इस रचना में लोकप्रियता की योग्यता विद्यमान है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। यद्यपि इस कृति के प्रणयन में कवि विश्वेश्वर संस्कृतगद्यम्कवि सम्राट् बाणभट्ट की कादम्बरी से अवश्य प्रभावित हुए हैं, तथापि उन्होंने सर्वत्र नवीनता लाने का एक श्लाघनीय एवं अनुकरणीय प्रयास किया है।