अलंकृत शैली में निबद्ध वादीभसिंह की ‘गद्यचिन्तामणि’ संस्कृत वाङ्मय की एक महनीय, उल्लेखनीय एवं रोचक गद्यकाव्य है, जिसके प्रत्येक लम्भ की परिसमाप्ति पर निम्नलिखित प्रकार का पुष्पिकावाक्य अङ्कित है : १. द्रष्टव्यः यह ग्रन्थ एल.डी. इन्स्टीच्यूट आफ इण्डोलाजी अहमदाबाद से सन् १६०६ ई. प्रकाशित हो चुका है जिसके सम्पादक एन.एम. अन्सार है। २. द्रष्टव्यः-प्रकाशित हेमचन्द्र सभा, पटना द्वारा १६१६ ३. द्रष्टव्यः शारदापीठ प्रदीप Vol. XII, NO. 2, A अगस्त १६७२ में प्रकाशित ७४ . गद्य-खण्ड “इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचिते गद्यचिन्तामणौ सरस्वतीलम्भो नाम प्रथमो लम्भः “….। सन इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘गद्यचिन्तामणि’ के रचयिता वादीभसिंह ही हैं। इस ग्रन्थ की उपलब्ध चार हस्तलिखित प्रतियों में से तीन के अन्त में नीचे लिखे दो श्लोक उपलब्ध होते हैं : श्रीमद्वादीभसिंहेन गद्यचिन्तामणिः कृतः। स्थेयादोड्यदेवेन चिरायास्थानभूषणः।। १॥ स्थेयादोड्यदेवेन वादीभहरिणा कृतः। कृतः। गद्यचिन्तामणिर्लोके चिन्तामणिरिवापरः।। २।। इन उपर्युक्त दोनों श्लोकों के आधार पर ऐसा अनुमान होता है कि कवि का जन्मजात नाम ‘ओड्यदेव’ था और वादीभसिंह उनकी उपाधि थी। श्रवणवेलगोला के शिलालेख संख्या ५४’ की मल्लिषेण प्रशस्ति में वादीभसिंह उपाधिधारी किसी आचार्य मुनि अजितसेन का निर्देश है। _ अतः श्री टी.एस. कुप्पुस्वमी,२ श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री और पं. के. भुजबली शास्त्री प्रभृति समीक्षकों की मान्यता है कि मुनि अजितसेन और ‘गद्यचिन्तामणि’ के निर्माता वादीभसिंह दोनों अभिन्न व्यक्ति हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ ‘गद्यचिन्तामणि’ की पूर्वपीठिका में ग्रन्थकार ने उल्लेख किया है-“अपने गुरु पुष्पसेन की शक्ति से ही मैं मूढबुद्धि मनुष्य ‘वादीभसिंहता’ को प्राप्त कर सका।” इस अन्तःसाक्ष्य के प्रमाण से अनुमान होता है कि श्रवणवेलगोला शिलालेख में निर्दिष्ट अजितसेन ही ओड्यदेव हैं, जिन्होंने अपनी न्यायशास्त्रीय वाक्पटुता तथा शास्त्रदक्षता के कारण ‘वादीभसिंह’ जैसी उपाधि धारण कर ली थी। १. द्रष्टव्यः ‘सकलभुवनपालनम्रमूर्धावबद्ध स्फुरितमुकुटचूडालीढ़पादारविन्दः मदवदखिलवादीभेन्द्रकुम्भप्रभेदी गणमृदाजितसेनो भाति-वादीभसिंहः।।” ५७ २. द्रष्टव्यः टी. एस. कुप्पस्वामी द्वारा सम्पादित ‘गद्यचिन्तामणि’ की प्रस्तावना। ३. ‘न्यायकुमुदचन्द्रोदय’ प्रथम भाग प्रस्तावना पृष्ठ-1|| ४. जैनसिद्धान्तभास्कर’ भाग ६ अंक २ पृष्ठ ७८-८० ५. “श्रीपुष्पसेनमुनिनाथ इति प्रतीतो दिव्यो मनुर्हदि सदा मम संविदध्यात्। यच्छक्तितः प्रकृतिमूढ़मतिर्जनोऽपि वादीभसिंहमुनिपुङ्गवतामुपैति।।” गद्यचिन्तामणि प्रारम्भ श्लोक ६ ६. जैन साहित्य और इतिहास पृष्ठ ३२२ द्वितीय संस्करण। गद्य-काव्य ७५ वादीभसिंह की जन्मभूमि के उल्लेख के अभाव में इनके मूलनाम ओड्यदेव के आधार पर श्री पं.के. भुजबली शास्त्री ने इन्हें तमिलप्रदेश निवासी कहा है और वी. शेषगिरि राव ने अनुमान किया है कि वादीभसिंह मूलतः कलिङ्ग (तेलुगु) के गंजाम जनपद के निवासी हो सकते हैं। भुजबली शास्त्री का कथन है कि तमिल निवासी होते हुए भी वादीभसिंह की साहित्यिक साधना की भूमि मैसूर प्रान्त ही थी, क्योंकि मैसूर प्रान्तान्तर्गत पोम्बुच्च तथा अन्य कई स्थानों में उपलब्ध शिलालेख इस उपर्युक्त तथ्य के साक्षीभूत हैं।’ स्थितिकाल-बाण की दोनों कृतियों ‘हर्षचरित’ और ‘कादम्बरी’ से वादीभसिंहकृत ‘गद्यचिन्तामणि’ प्रभावित है; क्योंकि प्रस्तुत ग्रन्थ का कथानायक कुमार जीवन्धर के लिए विद्यागुरु आर्यनन्दी द्वारा प्रदत्त उपदेश, ‘कादम्बरी’ के शुकनासोपदेश की छाया ही है। इसके अतिरिक्त ‘गद्यचिन्तामणि’ के बहुत से वर्णन-स्थल ‘हर्षचरित’ के अनुरूप हैं। अतः वादीभसिंह निर्विवाद रूप से बाण के परवर्ती हैं। जिन वादीभसिंह की दार्शनिक शास्त्रीय रचना ‘स्याद्वादसिद्धि’ के षष्ठ प्रकरण की १६वीं कारिका में भट्ट तथा प्रभाकर के नामोल्लेख के साथ-साथ उनके अभिमत भावनानियोगरूप वेदवाक्यार्थ का निर्देश है। इसके अतिरिक्त कुमारिलभट्ट के ‘मीमांसाश्लोकवार्तिक’ की कई कारिकाएँ ‘स्याद्वादसिद्धि’ में उद्धृत हैं और उनकी कटु आलोचना भी की गई है। कुमारिलभट्ट और प्रभाकर दोनों समसामयिक थे तथा उनका समय ईसा की सातवीं शती है। अतः वादीभसिंह उनके भी परवर्ती सिद्ध होते हैं। सोमदेवविरचित ‘यशस्तिलकचम्पू’ के टीकाकार श्रुतसागरसूरि ने कवि वादिराजरचित निम्नलिखित श्लोक “कर्मणा कवलितोऽजनि सोऽजा तत्पुरान्तरजनङ्गमवाटे। कर्मकोद्रवरसेन हि मत्तः किं किमेत्यशुभधाम न जीवः।।३ के आधार पर उल्लेख किया है कि वादीभसिंह और वादिराज दोनों गुरुभाई थे और सोमदेव उनके गुरु थे। सोमदेव ने ‘यशस्तिलकचम्पू’ की रचना शकाब्द ५८१ तदनुसार ६५६ ई. में की थी तथा वादिराज ने ‘पार्श्वचरित’ का निर्माण शकाब्द ६४७ तदनुसार १०२५ ई. में किया था। अतः वादीभसिंह का समय ईसा की एकादश शताब्दी होना चाहिए। आचार्य पण्डित बलदेव उपाध्याय जी ने भी उपर्युक्त तिथि ही मानी है। । वादीभसिंह की रचनाएँ:-वादीभसिंह दार्शनिक तथा कवि दोनों थे। ‘गद्यचिन्तामणि’ इनकी प्रमुख गद्यप्रबन्धात्मक संरचना है। कवि ने उसी की ही कथा को अनुष्टुप् जैसे सरल छन्दों में एक अन्य ‘क्षत्रचूड़ामणि’ नामक पद्य काव्य का प्रणयन किया जिसमें ७४१ श्लोक १. द्रष्टव्य : ‘क्षत्रचूडामणि’ उत्तरार्द्ध की प्रस्तावना पृष्ठ ४ २. जैन साहित्य और इतिहास पृष्ठ ३२४ द्वितीय संस्करण। ३. द्रष्टव्यः ‘यशस्तिलकचम्पू’ आश्वास द्वितीय श्लोक १२६ की टीका। ४. आचार्य बलदेव उपाध्यायकृत ‘संस्कृत साहित्य का इतिहास’ पृष्ठ ४०६गद्य-खण्ड है ७६ हैं। दोनों ग्रन्थ एकादश लम्भों में लिपिबद्ध हैं। ‘क्षत्रचूड़ामणि’ का उल्लेखनीय वैशिष्ट्य है कि इसमें कुमार जीवन्धर के जीवनचरित के वर्णन के साथ-साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थचतुष्टय का वर्णन नीतिपुरस्सर किया गया है। इस दृष्टिकोण से इस ग्रन्थ का समस्त संस्कृत वाङ्मय में अद्वितीय महत्त्व है। इस ग्रन्थ का मूलरूप में प्रकाशन सर्वप्रथम टी. एस. कुप्पुस्वामी तदनन्तर पं. निद्धामल्ल जी तथा पं. मोहनलाल जी ने भी किया है। गद्यचिन्तामणि-अलंकृत शैली में निबद्ध ‘गद्यचिन्तामणि’ संस्कृत गद्य का एक अन्यतम ग्रन्थ है जिसमें जिनसेन के महापुराण में वर्णित कुमार जीवन्धर की कथा ११ लम्भों में रची गई है। ग्रन्थ का प्रारम्भ जितेन्द्रदेव, गणधर, जिनधर्म और ‘स्याद्वाद’ से चिह्नित जिनवाणी की मंगल संस्तुति करके समन्तभद्रादि पूर्व मुनियों का स्मरण किया गया है। स्याद्वाद की वाणी की गर्जना से दिग्गज विद्वानों के मद को चूर करने वाले शास्त्रकला में दक्ष वादीभसिंह ने समन्तभद्रादि मुनियों को “वाग्वज्रनिपातपाटितप्रतीपराद्धान्तमहीघ्रकोटयः”। कहकर उनके गौरव को प्रकाशित किया है। तत्पश्चात् गुरु पुष्पसेन का स्मरण कर परम्परागत पद्धति का अनुगमन करते हुए सुजन-प्रशंसा और दुर्जननिन्दा कर श्रेणिक के प्रश्न पर सुधर्मा गणनायक के द्वारा जीवन्धर की कथा का प्रारम्भ किया गया है। जम्बद्वीप के भरतखण्ड में हेमांगद देश की राजपरी नामक नगरी है, जहाँ का राजा सत्यन्धर है और विजया उसकी राजमहिषी है। मन्त्री काष्ठांगार छल से राजा को परास्त कर स्वयं राजा बन जाता है। गर्भवती निःसहाय विजया श्मशान में एक पुत्र को जन्म देती, जिसका पालन-पोषण गन्धोत्कूट नामक वैश्य करता है। नवजात शिशु का नाम जीवन्धर रखा जाता है। आर्यनन्दी नामक गुरु की शिक्षा-दीक्षा से वर्धिष्णु युवक अल्पकाल में ही एक योग्य विद्वान् बन जाता है। भीलों के दल को परास्त कर गोपालों की गाय के प्रत्यावर्तन से जीवन्धर का सुयश सर्वत्र फैल जाता है और उसका मित्र पद्मास्य गोपपुत्री गोविन्दा को प्राप्त करता है। इसी बीच वैश्य श्रीदत्त एक वीणास्वयंवर का आयोजन करता है, जिसमें नित्यानित्य नगर के नृपति गरुड़देव की पुत्री गन्धर्वदत्ता, जीवन्धर का वरण करती है और दोनों का विवाह सम्पन्न हो जाता है। वसन्तोत्सव से लौटते हुए जीवन्धर के पंचनमस्कार मन्त्र के प्रभाव प्रभाव से मरणोन्मुख कुत्ता सुदर्शन यक्ष बन जाता है। पुनः प्रमुख श्रेष्ठी की पत्री गुणमाला के साथ जीवन्धर का द्वितीय विवाह होता है। अपने हाथी के पराजित हो जाने की कुण्ठा से राजा काष्ठांगार जीवन्धर को मृत्युदण्ड से दंडित करता है जिससे समस्त नगरी में विषाद छा जाता है। सुदर्शन यक्ष के साहाय्य से जीवन्धर को जीवनलाभ मिल जाता है। तदनन्तर वह तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान करता है और पल्लव देश में पहुँचता है। यहाँ भी सुदर्शन यक्ष के द्वारा प्रदत्त विषापहारी मन्त्र से राजा लोकपाल की पुत्री पद्मा को सर्प-विद्या से मुक्त करने के कारण जीवन्धर का तृतीय पाणिग्रहण संस्कार पद्मा के साथ हो जाता है। पद्मा को राजभवन में छोड़कर किसी रात्रि जीवन्धर तापसों के वन में गद्य-काव्य ७७ पहुँचकर जैन धर्म स्वीकार कर लेता है। यहाँ राजश्रेष्ठी सुभद्र की पुत्री क्षेमश्री का जीवन्धर के साथ चतुर्थ विवाह सम्पन्न कराया जाता है। पावस ऋतु के बीत जाने पर जीवन्धर यहाँ से भी चल देता है जहाँ से वह हेमाभपुरी में पहुँचता है जहाँ राजा दृढ़मित्र, जीवन्धर को अपने पुत्रों को बाणविद्या सिखाने के लिए नियुक्त कर लेता है और राजा अपनी पुत्री का विवाह जीवन्धर के साथ कर देता है। इस स्थान पर जीवन्धर की बाल्यावस्था के सभी मित्र पद्मास्य प्रभृति मिलते हैं और उनसे अपनी माता विजया का कुशल-क्षेम मिलने पर जीवन्धर अपनी नगरी राजपुरी को लौट आता है। यहाँ पुनः सागरदत्त श्रेष्ठी की पुत्री विमला के साथ जीवन्धर का छठवाँ विवाह हो जाता है। कामदेव के मन्दिर में राजपुत्री सुरमंजरी से बड़े छलछद्म तथा अपना कौशल प्रदर्शन कर जीवन्धर सप्तम विवाह सम्बन्ध सम्पन्न करता है। जीवन्धर शर्त के अनुसार एक ही बाण से वराहों के तीन पुतलों को बेधकर गोविन्द महाराज की पुत्री लक्ष्मणा को स्वयंवर में प्राप्त करता है। यहाँ इसका पूर्ववृत्तांत प्रकट हो जाता है। अपनी नगरी राजपुरी का शासक नियुक्त हो जाता है और अपने विरोधियों को परास्त कर देता है। अन्त में वैराग्य उत्पन्न होने पर मुनिराज के उपदेश से अपनी सभी आठों स्त्रियों के साथ भगवान् महावीर के समवसरण की ओर प्रस्थान करता है। जिन धर्म में दीक्षित होकर परम संयम स्वीकार करता है। उसी समय सुदर्शन यक्ष आकर उसकी स्तुति करता है तथा कठोर तपस्या के उपरान्त निर्वाण प्राप्त कर लेता है। देवियाँ स्वर्ग चली जाती हैं। यहीं इस गद्यकाव्य की कथा की समाप्ति हो जाती है।
काव्यगत विशेषता
वादीभसिंह की दोनों रचनायें ‘गद्यचिन्तामणि’ और ‘क्षत्रचूड़ामणि’ पूर्ववर्ती कवियों कालिदास, सुबन्धु, बाण, दण्डी आदि की कृतियों से प्रभावित हैं। धर्म और दर्शन के वर्णन में समन्तभद्र पूज्यपाद शिवार्ण और अकलंक का प्रमाण स्पष्ट परिलक्षित होता है। कवि ने क्लिष्ट अलंकृत गद्य शैली में ‘गद्यचिन्तामणि" इस संस्कृत गद्य प्रबन्धकाव्य का प्रणयन किया है। यह काव्य क्षत्रचूडामणि’ के समान ही एकादश लम्भों में विभक्त है। इसमें कवि की अद्वितीय कल्पना-वैभव तथा वर्णन-पटुता का पाण्डित्यपूर्ण प्रदर्शन हुआ है। मानवीय जीवन का विस्तृत तथा व्यापक चित्रण होने के कारण कवि को मानवीय भावनाओं के मार्मिक वर्णन करने का पर्याप्त अवसर उपलब्ध हुआ है। पूर्ववर्ती कलावादी कवियों सुबन्धु, बाणभट्ट के समान ही वादीभसिंह ने अपनी शाब्दिक-क्रीडा का खुलकर प्रदर्शन १. द्रष्टव्य, यह ग्रन्थ वाणी विलास प्रेस, श्रीरङ्गम् से १६१६ ई.; भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी से हिन्दी अनुवाद और संस्कृत टीका सहित पं. पन्नालाल साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित वि.सं. २०१५ में प्रकाशित हो चुका है। ७८ गद्य-खण्ड किया है। प्रस्तुत काव्य में सानुप्रासिक समासान्त पदावली एवं विरोधाभास और परिसंख्या आदि अलंकारों का चमत्कार सर्वथा दर्शनीय है। काव्य की शब्दगत सुषमा को सुरक्षित रखने के लिए कवि ने पुनरुक्ति से बचने हेतु नये-नये शब्दों का भी सृजन किया है जैसे चन्द्रमा के लिए यामिनीवल्लभ, निशाकान्त, सूर्य के लिए नलिनसहचर, इन्द्र के लिए बलनिषूदन, पृथिवी के लिए अम्बुधिनेमि, मुनि के लिए यमधन इत्यादि। दण्डी भाषा के प्रवाह तथा पदों के लालित्य के लिए प्रसिद्ध हैं तथापि ‘दशकुमारचरित’ में ग्रन्थ के प्रारम्भ में भाषा का जो प्रवाह प्रदर्शित हुआ है वह उत्तरोत्तर क्षीण होता गया है। यहाँ तक कि अन्त में तो कथानक केवल अस्थिपञ्जरमात्र अवशिष्ट रह गया है। इसके विपरीत ‘गद्यचिन्तामणि’ में कथानक पौराणिक होते हुए भी कवि ने उस काव्य में ललित वेष-भूषा से प्रस्तुत करने का स्तुत्य प्रयास किया है और भाषा के प्रवाह को महानदी के प्रवाह के समान प्रारम्भ से अन्त तक अखण्डधारा में प्रवाहित किया है। ‘वासवदत्ता’ कथा की अत्यल्पता, श्लेषादि अलंकारों की भरमार से बोझिल हो गई है, किन्तु ‘गद्यचिन्तामणि’ की रोचक कथा में सरस गद्यधारा पर सारगर्भित अलंकार उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। ‘कादम्बरी’ की अल्पकथा जहाँ लम्बायमान विशेषणबहुल गधों में उलझ गई है, वहाँ ‘गद्यचिन्तामणि’ की भाषा की प्रवाहयुक्तता अभीष्ट रस की अभिव्यक्ति में सहायक सिद्ध होती है। प्रस्तुत काव्य की इन्हीं उपर्युक्त विशेषताओं का उल्लेख करते हुए इसके प्रथम सम्पादक पं. कुप्पुस्वामी ने कहा है कि यह काव्य पदों की सुन्दरता, श्रवणीय शब्दों की रचना, सरल कथासार, चित्त को आश्चर्य में डालने वाली कल्पानाएँ, हृदय में प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला धर्मोपदेश आदि से सुशोभित है : __ “अस्य काव्यपथे पदानां लालित्यं, श्राव्यः शब्द-संनिवेशः, निरर्गला वाग्वैखरी, सुगमः कथासारागमः;-चित्त-विस्मापिकाः कल्पनाश्चेतः प्रसादजनको-धर्मोपदेशो…विलसन्ति विशिष्टगुणाः।" ‘गद्यचिन्तामणि’ में सूर्योदय, सूर्यास्त, लहराता समुद्र, रात्रि का घोर अन्धकार, वसन्त, पावस एवं ग्रीष्म ऋतुओं का सरस वर्णन, अन्तरिक्ष में व्याप्त चन्द्र-ज्योत्स्ना का रमणीय वर्णन संस्कृत वाङ्मय में एकत्र दुर्लभ प्रतीत होता है। इसके षष्ठ लम्भ में वर्णित जीवन्धर के द्वारा निरीक्षित तपोवन की शोभा दर्शनीय तथा प्रशंसनीय है - “विहितप्रगेतनविधिस्ततो विनिर्गत्य सात्यन्धरिन्धकारित परिसराणि क्वणदलिकदम्ब कबलिताशिखरकुसुमतुङ्गतरुसहस्राणि विश्रृङ्खलखेलत्कुरङ्गखुरपुट मुद्रितसिकतिल स्थलाभिरम्याणि स्वच्छसलिलसरःसमुद्भिन्नकुमुदकुवलयमनोज्ञानि…. कानिचित्काननानि नयनयोरुपायनीचकार।” १. गद्यचिन्तामणि-षष्ठ लम्भ, १६८ पैराग्राफ-मध्य-पृष्ठ २५५-५६ गद्य-काव्य ७६ काव्यशास्त्रीय सभी नवरसों का ‘चिन्तामणि’ में परिपाक सम्यक् रीति से हुआ है। इस गद्य-प्रबन्ध का अंगी रस शान्त है और समस्त श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स और अद्भुत शेष अङ्ग रस स्थान-स्थान पर अपनी गरिमा प्रकट करते हैं। कथानायक जीवन्धर की गन्धर्वदत्ता आदि आठ नई नवेली वधुएँ हैं। उनके साथ पाणिग्रहणोपरान्त शृङ्गार रस के संयोग तथा वियोग उभयपक्ष का परिपाक हुआ है, पर कवि ने वर्णन में अश्लीलता नहीं आने दी है। ‘गद्यचिन्तामणि’ की सांस्कृतिक महनीयता भी उपेक्षणीय नहीं है। जीवन्धर स्वयं आठ विवाह करता है। इससे स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में बहुविवाह-प्रथा प्रचलित थी। क्षत्रिय नायक, गुणमाला, क्षेमश्री, विमला और सुरमंजरी प्रभृति चार वैश्य कन्याओं के साथ विवाह करता है। इससे पता चलता है कि समाज में क्षत्रिय और वैश्य वर्गों में वैवाहिक संबंध होता था, लेकिन शूद्रवर्ण के साथ उच्च वर्णवालों का ऐसा सम्बन्ध प्रचलित नहीं था; क्योंकि जीवन्धर नन्दगोप की कन्या गोदावरी के साथ स्वयं विवाह न कर अपने मित्र पद्मास्य का उससे सम्बन्ध करा देता है। विवाह के लिए स्वयंवर की प्रथा का प्रचलन भी था। समाज में पुरुष और स्त्री अधोवस्त्र और उत्तरच्छद दोनों प्रकार के वस्त्रों का प्रयोग करते थे। स्त्रियाँ दोनों वस्त्रों के अतिरिक्त स्तनवस्त्र को भी धारण करती थीं। स्त्रियाँ हाथों में मणि के वलय, कमर में सुवर्ण अथवा मणिखचित मेखला पहनती थीं एवं गले में मोती की माला। दाक्षिणात्य कवियों की कृतियों में अवगुण्ठन (बूंघट) तथा पादफटक का वर्णन नहीं मिलता। राजा अपनी आवश्यकतानुसार ४-६ मन्त्रियों को नियुक्त करता था। उनमें एक प्रधान होता था। धार्मिक कार्यों के लिए एक पुरोहित अथवा राजपण्डित भी रहता था। राजदरबार में रानी का भी स्थान होता था। राजा अपना उत्तराधिकारी युवराज के रूप में निश्चित कर सकता था। प्रधान अपराधों का न्याय स्वयं राजा करता था। यातायात के साधन सीमित थे। युद्ध में रथ, घोड़े, हाथियों की सवारी का उल्लेख मिलता है। अन्य समय में शिविका का उपयोग स्त्रियों के लिए किया जाता था। वैदिक धर्म तथा श्रमण धर्म दोनों का समाज में प्रचार-प्रसार था।