०४ दण्डी

दण्डी दाक्षिणात्य या विदर्भ देश के निवासी प्रतीत होते हैं। कलिङ्ग और आन्ध्र देशों के उल्लेख से, ‘कावेरीतीरपत्तन’ जैसे शब्दों के प्रयोग से दक्षिण भारत में प्रचलित सामाजिक तथा पारिवारिक प्रथाओं के वर्णन से दण्डी का दाक्षिणात्य होना ही सिद्ध होता है। ‘काव्यादर्श’ में भी उन्होंने महाराष्ट्री प्राकृत तथा वैदर्भी शैली की प्रशंसा की है, जिससे उनके दाक्षिणात्य होने की ओर संकेत मिलता है। दण्डी का जन्म कौशिक अथवा विश्वामित्र शाखा के शिक्षित ब्राह्मण-कुल में पल्लव नरेशों की राजधानी काञ्ची नगरी (आधुनिक काञ्चीवरम्) में हुआ था। इनके पिता का नाम वीरदत्त और माता का नाम गौरी था। दुर्भाग्यवश इनकी द्रष्टव्यः श्रीवीरदत्त इत्येषां मध्यमो वंशवर्द्धनः। यवीयानस्य च श्लाघा गौरी नामाभवत्प्रिया।। ततः कथंचित्सा गौरी द्विजाधिपशिरोमणेः। कुमारं दण्डिनामानं व्यक्तशक्तिमजीजनत्।। अवन्तिसुन्दरी-कथा प्रारम्भ गद्य-काव्य बाल्यावस्था ही में माता-पिता का निधन हो गया। अतः बालक दण्डी निराश्रित ही रहने लगे। दैवदुर्विपाकवश उसी समय काञ्ची में एक महान् विप्लव उपस्थित हो गया और बालक को अपना निवास-स्थान का परित्याग कर जंगलों में भटकना पड़ा। कालान्तर में जब विप्लव शान्त हो गया, तब दण्डी काञ्ची लौट आए और पल्ल्व राजाओं की छत्र-छाया में सम्मानित होकर काल-यापन करने लगे। स्थितिकाल-महेन्द्रविक्रम के वंशज परमेश्वर वर्मा प्रथम के शासनकाल में दण्डी ने अपनी कृतियों का प्रणयन किया था। दण्डी का यह समय ईसा की सप्तम शती का अन्तिम चरण था। दण्डी अष्टम शती के प्रारम्भ में भी विद्यमान थे, जब नरसिंह वर्मा द्वितीय शासन करते थे। प्रो. एम. रंगाचार्य के अनुसार दक्षिण भारत में एक किंवदन्ती प्रचलित है कि कविवर दण्डी ने पल्ल्ववंशीय राजकुमार को अलंकार-शास्त्र की शिक्षा देने के लिए ‘काव्यादर्श’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी। ‘काव्यादर्श’ की अधोलिखित प्रहेलिका के व्याख्या-प्रसङ्ग में टीकाकार तरुण वाचस्पति ने उल्लेख किया है कि इसमें काञ्चीनगरी तथा उसके शासक पल्लव-नरेशों का संकेत सन्निहित है : नासिक्यमध्या परितश्चतुर्वर्णविभूषिता। अस्ति काचित् पुरी यस्यामष्टवर्णावया नृपाः।। ‘काव्यादर्श’ अतः यह निर्विवाद है कि दण्डी की जन्मभूमि तथा कर्मभूमि दोनों काञ्चीनगरी ही थी। ‘अवन्तिसुन्दरी-कथा’ की अवतारणा से यह विदित होता है कि दण्डी के पितामह दामोदर और महाकवि भारवि में गाढ़ी मित्रता थी, जिसके फलस्वरूप भारवि के सहयोग से दामोदर की मित्रता पल्लवनरेश विष्णुवर्धन के साथ सम्भव हो सकी थी’ और दामोदर का प्रवेश राजदरबार में हो गया था। डॉ. बेलवेल्कर तथा प्रो. पाठक की मान्यता है कि ‘काव्यादर्श’ में उल्लिखित राजवर्मा तथा नरसिंहवर्मा द्वितीय दोनों एक हैं। अतः कवि दण्डी इसी पल्लवनरेश नरसिंहवर्मा द्वितीय के सभापण्डित थे और उसी के शासनकाल में उन्होंने अपनी विश्रुत तीनों ग्रन्थों की रचना की थी। शैवधर्मावलम्बी पल्लवराज नरसिंहवर्मा का शासन-काल ६६० ई. से लेकर ७५०ई. के मध्य था। अतः अधिकांश समीक्षकों का अनुमान है कि दण्डी का स्थिति-काल ईसा की सप्तम शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। प्रो. पाठक का निर्णय है कि ‘काव्यादर्श’ में विवेचित हेतु-अलंकार का निवर्त्य, विकार्य तथा प्राप्य इन १. स मेधावी कविर्विद्वान् भारविप्रभवं गिराम्। अनुरुध्याकरोन्मैत्री नरेन्द्रे विष्णुवर्धने ।। _ ‘अवन्तिसुन्दरी-कथा’-१.२३ २. द्रष्टव्य : ‘काव्यादर्श’ द्वितीय परिच्छेद पर टिप्पणी पृष्ठ १७६-७७ __३. द्रष्टव्य : इण्डियन ऐण्टिक्वेरी १६१२ पृष्ठ ६० गध-खण्ड तीनों प्रभेदों में विभागीकरण परम वैयाकरण भर्तृहरि विरचित ‘वाक्यपदीय’ के अनुसार किया गया है।’ भर्तृहरि का समय ६५० ई. है। अतः दण्डी को भर्तृहरि का परवर्ती स्वीकार करना युक्तिसंगत है। ‘काव्यादर्श’ के अधोलिखित श्लोक में ‘कादम्बरी’ में वर्णित ‘शुकनासोपदेश’ के अन्तर्गत लक्ष्मी-वर्णन की छाया परिलक्षित होती है: अरत्नालोकसंहार्यमवार्य सूर्यरश्मिभिः। दृष्टिरोधकरं यूनां यौवनप्रभवं तमः।। उपर्युक्त श्लोक तथा कादम्बरी के लक्ष्मीवर्णन-“निसर्गत एवाभानुभेद्यमरत्नालोकोच्छेदम प्रदीपप्रभापनेयमतिगहनं तमो यौवनप्रभवम् ।” भावसाम्य से सिद्ध हो जाता है कि दण्डी, बाण के भी परवर्ती हैं। यद्यपि दण्डी बाण के पूर्ववर्ती हैं या परवर्ती यह संस्कृत साहित्य के इतिहास का विवादास्पद विषय है, तथापि पिटर्सन, याकोबी प्रभृति पाश्चात्त्य समीक्षकों की मान्यता है कि दण्डी परवर्ती ही हैं। राष्ट्रकूटनरेश अमोघवर्षविरचित कन्नड़ भाषा के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ ‘कविराजमार्ग’ के सम्पादक प्रो. पाठक ने अनेक प्रमाणों के साथ सिद्ध करने का प्रयास किया है कि इस ग्रन्थ पर दण्डी के ‘काव्यादर्श’ का पूर्ण प्रभाव है। ‘कविराजमार्ग’ का निर्माण ८१५ ई.-८७५ ई. के मध्य हुआ है। इसी प्रकार राजसेन प्रथम के राज्यकाल (८४६-८६६ ई.) में निर्मित सिंघली भाषा का ग्रन्थ ‘सिय-वस-लकर’ (स्वभाषालंकार) के सम्बन्ध में डॉ. वारनेट का कथन है कि यह ग्रन्थ ‘काव्यादर्श’ को ही आधार लेकर लिखा गया है। ‘कविराजमार्ग’ के प्रायः सभी उदाहरण ‘काव्यादर्श’ से ही लिये गये हैं। यहाँ तक कि अतिशयोक्ति तथा हेतु प्रभृति अलंकारों के लक्षण तो मूलग्रन्थ से अक्षरशः मिलते हैं। इन दोनों दाक्षिणात्य भाषीय अलंकार-ग्रन्थों का रचनाकाल जब ईसा की नवम शती का पूर्वार्द्ध है, तब प्रो. पाठक, डा. वारनेट प्रति विद्वानों का अनुमान है कि ‘काव्यादर्श’ की रचना इनसे पूर्व की है। यह ऊपर उल्लेख किया गया है कि दण्डी पल्लवराज नरसिंहवर्मा के सभासद थे तथा उनके ग्रन्थों के आधार पर ‘कविराजमार्ग’ और ‘सिय-वस-लकर’ के ग्रन्थों का निर्माण निर्विवाद रूप से हुआ है एवं ‘कादम्बरी’ से ‘काव्यादर्श’ प्रभावित है, तो दण्डी का समय बाण के पश्चात् ईसा के सप्तम शती के अन्त तथा अष्टम का प्रारम्भ मानना सर्वथा औचित्यपूर्ण है। __दण्डी की रचनाएँ-जल्हण द्वारा निर्दिष्ट तथा ‘शार्ङ्गधरपद्धति’ में राजशेखर के नाम से एक श्लोक उद्धृत है, जिसमें कहा गया है कि तीन अग्नियों, तीन देवों, तीन वेद और तीन गुणों की भाँति आचार्य दण्डी के तीन प्रबन्ध तीनों लोकों में विश्रुत हैं : १. द्रष्टव्यः वही २. द्रष्टव्य : जरनल आफ दी रायल एशियाटिक सोसायटी १६०५ ३. द्रष्टव्य : आचार्य बलदेव उपाध्यायकृत ‘संस्कृत साहित्य का इतिहास’ पृष्ठ ४०१ गद्य-काव्य त्रयोऽग्नयस्त्रयो देवास्त्रयो वेदास्त्रयो गुणाः। त्रयो दण्डिप्रबन्धाश्च त्रिषु लोकेषु विश्रुताः।। यद्यपि राजशेखर ने उन कृतियों का नामोल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं किया है, तथापि उनमें निःसन्देह एक ग्रन्थ ‘काव्यलक्षण’ अथवा ‘काव्यादर्श’ है। यह काव्यशास्त्रीय रचना है, जिससे दण्डी की व्यक्तिगत साहित्यशास्त्रगत स्थापनाओं का परिचय मिलता है और विशेषरूप से यह पता चलता है कि आचार्य दण्डी की मान्यता है कि इतिहास और उपन्यास में कोई भिन्नता नहीं है। काव्य की उत्तम शैली वैदर्भी है जिसके दस गुणों से अलंकारों का आविर्भाव हुआ है। द्विसन्धान-यह दण्डी की द्वितीय कृति श्लेषप्रधान द्वयर्थक महाकाव्य है, जो सम्भवतः कालकवलित है। इस काव्य में एक साथ श्लेष के माध्यम से महाभारत और रामायण की कथाएँ वर्णित हैं। यह बड़ा आश्चर्यजनक प्रतीत होता है कि वैदर्भी रीति के प्रशंसक, समर्थक एवं पोषक दण्डी ने ऐसे चित्रकाव्य का प्रणयन किया होगा? लेकिन वैदर्भी के विषय में दण्डी की मान्यताएँ बड़ी व्यापक हैं जिनसे काव्य की प्रत्येक विधा का सृजन सम्भव हो सकता है। आधुनिक विद्वान् डॉ. राघवन् ने उल्लेख किया है कि दण्डीकृत ‘द्विसन्धान’ सरलता तथा स्पष्टता से युक्त है।’ भोजराज ने अपने ‘शृंगारप्रकाश’ में दण्डी के ‘द्विसन्धान’ का दो बार संकेत किया है तथा उसके प्रथम श्लोक को भी उद्धृत किया है। भोजराज ने राजशेखर के उस श्लोक का भी निर्देश किया है, जिसमें दण्डी की तीन प्रख्यात कृतियाँ थीं, यह लेख है। इन्होंने ‘काव्यादर्श’, द्विसन्धान’ तथा ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ से श्लोकों को भी उद्धृत किया है। संस्कृत साहित्य के समीक्षक डॉ. कृष्णमाचार्य का भी मत है कि दण्डी की तीन रचनाएँ थीं। __ ‘काव्यादर्श’ के प्रारम्भिक तथा अन्तिम परिच्छेद ‘छन्दोविचित’ तथा ‘कलापरिच्छेद’ को भी कतिपय आलोचक स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में स्वीकार करते हैं; लेकिन ‘छन्दोविचित’, छन्दशास्त्र का एक अपर अभिधान है। दण्डी ने इसे विद्या मानी है जो काव्य में प्रवेश पाने वालों के लिए आवश्यक है-सा विद्या नौविविक्षणाम्-‘काव्यादर्श १.१०। ‘कलापरिच्छेद’ भी ‘काव्यादर्श’ का अनुपलब्ध अंश है। दण्डी द्वारा विरचित एक अन्य गद्य-काव्य ‘दशकुमारचरित’ भी आज प्रसिद्ध है। यह ग्रन्थ पूर्वपीठिका (भूमिका), दशकुमारचरित (मूलग्रन्थ) और उत्तरपीठिका (पूरक अंश) १. द्रष्टव्यः डॉ. राघवन् ‘भोजराज शृंगारप्रकाश’ पृष्ठ ८३६-३८ (मद्रास १६६३) २. द्रष्टव्यः ‘दण्डिनो धनञ्जयस्य वा द्विसन्धाने…. सप्तम प्रकाश रामायण-महाभारतयोर्दण्डिद्विसन्धानमिव…. अष्टम प्रकाश __३. द्रष्टव्यः सरस्वतीकण्ठाभरण पृष्ठ २६२ ४. द्रष्टव्यः हिस्ट्री ऑफ क्लासिकल संस्कृत लिट्रेचर पृष्ठ ४६१ गद्य-खण्ड इन तीन भागों में उपलब्ध है। श्री एम. रामकृष्ण शास्त्री’ तथा श्री अप्पयदीक्षित के शोधपूर्ण प्रयासों के फलस्वरूप यह प्रकाश में आया है कि ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ दण्डी की मौलिक रचना है ‘दशकुमारचरित’ नहीं; क्योंकि दशकुमारचरित की पूर्वपीठिका में ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ का वृत्त वर्णित है। ऐसा प्रतीत होता है कि कालान्तर में ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ का सारांश ‘दशकुमारचरित’ की पूर्वपीठिका के रूप में उपनिबद्ध कर दिया गया है। अतः ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ ही दण्डी की विश्रुत प्रबन्धत्रयी में समाहित मौलिक कृति है। __दशकुमारचरित-यह कौतूहलवर्धक तथा रोमाञ्चक आख्यानों से भरा हुआ एक संस्कृत गद्य का उपन्यास है, जो कवि दण्डी की कृति के रूप में प्रसिद्ध है। यह ग्रन्थ खण्डों में उपलब्ध है-पूर्वपीठिका, दशकुमारचरित और उत्तरपीठिका। जैसा कि उल्लेख किया गया है कि पूर्वपीठिका के पाँच उच्छ्वासों में ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ की कथावस्तु वर्णित है। मूलग्रन्थ ‘दशकुमारचरित’ के रूप में आठ उच्छ्वासों में प्राप्त है, जिसमें मात्र आठ ही कुमारों का चरित चित्रित है। सम्भवतः दशकुमारचरित इस शीर्षक की सार्थकता सिद्ध करने के लिए पूर्वपीठिका में अन्य दो कुमारों का चरित-वर्णन जोड़ दिया गया है। ‘दशकुमारचरित’ यह अपूर्ण ग्रन्थ है। अतः इसे पूर्ण बनाने के लिए उत्तरपीठिका, मूलग्रन्थ में जोड़ दी गई है। इस प्रकार प्रारम्भ में पूर्वपीठिका तथा परिसमाप्ति पर उत्तरपीठिका से सम्पुटित सम्पूर्ण ग्रन्थ ही आज ‘दशकुमारचरित’ के नाम से दण्डी की अन्य रचना के रूप में प्रसिद्ध है। उत्तरपीठिका में मात्र एक उच्छ्वास है। अतः सम्पूर्ण ‘दशकुमारचरित’ चौदह उच्छवासों (५.८.१) में विभक्त है, जिसमें दश कुमारों की रोमाञ्चक घटनाएँ अनुस्यूत हैं। इस ग्रन्थ की प्रधान कथा निम्न प्रकार है : मगधराज राजहंस युद्ध में मालवनरेश मानसार से पराजित होकर वन में चला जाता है जहाँ उसकी रानी राजवाहन नामक राजकुमार को जन्म देती है। ठीक इसी समय राजहंस के चार मन्त्रियों को भी एक-एक पुत्र उत्पन्न होते हैं। कुछ समय के उपरान्त अन्य पाँच राजकुमारों को बड़े विचित्र ढंग से राजा के पास वन में लाया जाता है, जहाँ सभी दश कुमारों का पालन-पोषण तथा विविध ज्ञान-विज्ञान में उनका प्रशिक्षण एक साथ होता है। बड़े होने पर राजवाहन अपने साथियों के साथ दिग्विजय के लिए प्रस्थान करता है। एक दिन राजकुमार विन्ध्याचल के वनों में ब्राह्मण मातङ्ग से मिलता है, जिसे वह पाताल-लोक की साधना की सिद्धि में यथेष्ट सहायता करता है। तत्पश्चात् राजवाहन पुनः अपनी यात्रा प्रारम्भ करता है। भाग्य की विडम्बनावश सभी कुमार एक दूसरे से अलग होकर पृथक-पृथक देशों में पहुँच जाते हैं। इसी बीच सभी कमार राजवाहन का अन्वेषण करते AL १. द्रष्टव्यः New Catalogus Catalogorum of the University of Madras २. प्रसिद्ध वेदान्ती से भिन्न अप्पयदीक्षित की ‘नामसंग्रहमाला’ में “इत्यवन्तिसुन्दरीये दण्डिप्रयोगात्” ३. द्रष्टव्य : आचार्य बलदेव उपाध्यायकृत ‘संस्कृत साहित्य का इतिहास’ पृष्ठ ४०२ गद्य-काव्य हुए एक उद्यान में पहुँचते हैं जहाँ सभी साथी एकत्र होते हैं और अपनी-अपनी आप-बीती साहसपूर्ण घटनाओं का रोचक वर्णन आपस में करते हैं। ‘दशकुमारचरित’ इन्हीं दश कुमारों के द्वारा वर्णित घटनाओं का आख्यान-ग्रन्थ है। जे.जे. मेयर दशकुमारचरित को धूर्तता तथा शठतापूर्ण उपन्यास कहते हैं। डॉ. पिशेल इसे एक नैतिक उपन्यास की संज्ञा प्रदान किए हैं तथा इसी प्रकार अन्य पाश्चात्त्य संस्कृत साहित्य के समीक्षकों ने इस ग्रन्थ को कथा-उपन्यास कहा है। इसमें अपरहारवर्मा, उपहारवर्मा तथा अर्थपाल कुमारों के उपाख्यान कपटपूर्ण षड्यन्त्रों, शठता एवं नीचता से परिपूर्ण हैं। अतः डॉ. हर्टेल का कथन है कि ‘दशकुमारचरित’ एक राजनयिक उपन्यास है तथा उनकी सम्मति में ‘तन्त्राख्यायिका’ की तरह यह ग्रन्थ वर्णनात्मक है, जिसका उद्देश्य उपदेश प्रदान करना है। इस कथन में सत्यता नहीं दीखती; क्योंकि यद्यपि कषि ने अपने अर्थशास्त्रगत पाण्डित्य का प्रदर्शन किया है, तथापि इस ग्रन्थ का प्रणयन सरस साहित्यिक कथा के रूप में किया गया है। __ इस ग्रन्थ के सभी उपाख्यानों में शाखाओं की तरह रोमाञ्चक उल्लासमयी घटनाएँ जुड़ी हुई हैं। घटनाओं की वर्णन-दुरूहता कभी-कभी तो इतनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है कि पाठक को मूलकथा का सूत्र ही भूल जाता है। सभी घटनाओं का विस्मयप्राधान्य संशय की स्थिति को जागरूक रखता है। उदाहरणार्थ प्रत्येक वस्तु पहले से निश्चित है। घटनाएँ होती हैं जैसे उन्हें घटित होना है। आन्तरिक आवश्यकता-वश नहीं, प्रत्युत शाप, स्वप्न, भविष्यवाणी के परिणामस्वरूप घटित होती हैं। नायक के साथ कोई अशुभ होता है, तो पाठक को भय नहीं अनुभव होता; क्योंकि उसे ज्ञात रहता है कि उससे मुक्त हो जाएगा। समग्र ग्रन्थ में शृंगार-वर्णन अर्थात् नायक-नायिका के प्रेम की प्रधानता है। कवि पक्षपातपूर्वक रुक-रुककर नारी-सौन्दर्य तथा प्रेम-दृश्य के चित्रण में प्रवृत्त हो जाता है। इन सभी वर्णनों से सिद्ध हो जाता है कि दण्डी कामशास्त्र के पूर्ण पण्डित हैं तथा काव्यशास्त्र के भी मर्मज्ञ हैं। पंचम उच्छ्वास के प्रारम्भ में जहाँ प्रमति वर्णन करता है कि किस प्रकार वह अरण्य और अचानक उठने पर अपने को सुन्दर रमणियों की गोष्ठी मध्य पाता है और उनमें सबसे सुन्दर राजकुमारी नवमालिका उसके निकट विद्यमान है। दण्डी ने अपनी हास्यपटुता का प्रदर्शन अपहारवर्मा के प्रसङ्ग में काममञ्जरी नामक वेश्या द्वारा मरीचि-ऋषि की प्रवञ्चना के सन्दर्भ के अवसर पर बड़ी विदग्धता के साथ किया है। भाषा के विषय में दण्डी ने काव्य के गुणों से अलंकृत शैली के प्रवीण प्रयोग-कर्ता के रूप में अपने को प्रदर्शित किया है। ‘दशकुमारचरित’ में कवि दण्डी ने साधारण वर्णन कर्ता की सरल भाषा का कम प्रयोग किया है। दण्डी ने ‘दशकुमारचरित’ की कथावस्तु की संरचना की प्रेरणा गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ से ग्रहण की है। ‘कथासरित्सागर’ के अध्यायों (६६-१०३) में एक राजकुमार का आख्यान वर्णित है, जिसके दश मन्त्रियों के कुमार साथी हैं। भाग्यवश ये सभी राजकुमार गद्य-खण्ड से बिछुड़ जाते हैं जो पुनः एक स्थान पर मिलते हैं और अपनी आप-बीती आपस में एक दूसरे को सुनाते हैं। ‘कथासरित्सागर’ की कथाओं तथा ‘दशकुमारचरित’ की अधिकतर समानान्तर घटनाएँ और उनकी समताओं के आधार पर यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि दण्डी ने अपने इस गद्य-काव्य के प्रणयन की प्रेरणा ‘बृहत्कथा’ से ली थी। उनके समय तक वह ग्रन्थ विद्यमान रहा होगा और दण्डी ने उसका उपयोग किया होगा। ‘दशकुमारचरित’ की बहुत सी कथाएँ जातकों में उपलब्ध होती हैं। अतः यह सिद्ध हो जाता है कि ‘दशकुमारचरित’ का मूल कथानक दण्डी की मौलिक रचना नहीं है। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती साहित्य से प्रेरणा तथा सामग्री का चयन किया है। दण्डी जनता के कवि हैं। यद्यपि इनका जीवन पल्लवनरेशों की छत्र-छाया में व्यतीत हुआ, तथापि अपनी रचना ‘दशकुमारचरित’ में इन्होंने राजकीय दरबार से कोसों दूर रहने वाले अपने तत्कालीन समाज के निम्नवर्ग का बड़ा यथार्थ तथा मार्मिक वर्णन किया है। अतः इस ग्रन्थ का साहित्यिक दृष्टिकोण के अतिरिक्त सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व भी है। विशेषरूप से समाज के अशोभनपक्ष के जीवन तथा कार्यकलापों की अनुभूति दण्डी की बड़ी सूक्ष्म तथा तीखी है। अतः कवि ने बड़े विनोदपूर्ण तथा व्यंग्यात्मक ढंग से वेश्याओं, धूर्तों, शठों, विषदूकों चोरों, जुवाड़ियों के आचरण और कार्यों का वर्णन बड़ा सजीवपूर्ण किया है। कपटी तापसी तथा छली वेश्या का यथार्थ व्यंग्य-चित्रण अपहारवर्मा के प्रसङ्ग में मरीचि तापस और काममंजरी नामक वेश्या के आख्यान के संदर्भ में हुआ है। दण्डी ने बड़ी सूक्ष्मता से नारी-हृदय का निरीक्षण किया तथा उसकी यथातथ्य अभिव्यक्ति की है। इसका परिचय पतिवंचक निष्ठुरहृदया धयिनी तथा पतिपरायणा सती साध्वी गोमिनी के चरित्र-चित्रण में उपलब्ध होता है। वेश्याओं के जीवन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति हुई है और इसका पूर्ण ज्ञान हमें प्राप्त हो जाता है। तत्कालीन समाज में वेश्या व्यवसाय प्रभु-प्रदत्त माना जाता था तथा उसे राजकीय संरक्षण प्राप्त था। षष्ठ उच्छ्वास में निम्बवती के उपाख्यान में कामजनित वासना-प्रेम की पूर्ण-अभिव्यञ्जना हुई है तथा उससे समाज में नारी की दशा का पूर्ण परिचय मिल जाता है। महाकवि दण्डी कामशास्त्र, राजतन्त्र एवं चौर-विद्या के निष्णात पण्डित हैं। उन उपर्युक्त शास्त्रों के उनके विचित्र पाण्डित्य तथा व्यापक ज्ञान का परिचय ‘दशकुमारचरित’ से मिल जाता है। अष्टम उच्छ्वास वीरभद्र के आख्यान का नीतिशास्त्रगत ऐतिहासिक महत्त्व है, जहाँ राजकीय-जीवन के दिन-प्रति का वर्णन बड़ी सूक्ष्मता से किया गया है तथा जिसका ‘कौटिल्य-अर्थशास्त्र’ से बड़ा साम्य लक्षित होता है। ईसा की सप्तम तथा अष्टम शतियों में वर्तमान भारतीय जनता के आमोद-प्रमोद, आचार-व्यवहार एवं मनोविनोदात्मक विविध क्रीडाओं को जानने के लिए ‘दशकुमारचरित’ की उपादेयता उल्लेखनीय है। जनपदों में सार्वजनीन सभा-गृह निर्मित थे, जहाँ संगीत के माध्यम से जनता अपना मनोरञ्जन करती थी। समाज में विविध उत्सव मनाए जाते थे, गद्य-काव्य जिनमें आधुनिक होलिकोत्सव के सदृश कामोत्सव विशेषरूप से उल्लेखनीय है। निम्नवर्गीय लोग मुर्गों की लड़ाई के द्वारा अपना मनोविनोद करते थे, जिसे देखने के लिए जनसमुदाय उमड़ पड़ता था।’ __मित्रगुप्त के उपाख्यान से अवगत होता है कि उस समय भारतीय जलपोतों में बैठकर विदेश की यात्रा करते थे और व्यवसाय-व्यापार भी करते थे। इसी प्रकार वैदेशिक व्यावसायिक भी जहाजों से आकर हिन्दमहासागर के रास्ते से व्यापार के लिए भारत आते थे। बंगदेशीय आधुनिक ताम्रलिप्ति उस समय दामलिप्ति के नाम से प्रसिद्ध बन्दरगाह था जहाँ से मित्रगुप्त जलयान से किसी अज्ञात द्वीप के लिए प्रस्थान किया था तथा दुर्भाग्यवश चट्टानों से टकराकर चकनाचूर हो जाने पर किसी यवन नाविक के जहाज के पास पहुँच गया था, जिसके नायक रामेषु पर किसी अन्य वैदेशिक युद्ध-पोत मद्गु ने आक्रमण कर दिया था। प्रस्तुत ग्रन्थ के तृतीय-उच्छ्वास में ‘खनति’ नामक यवन व्यवसायी का कथानक आया है, जिसमें उससे मूल्यवान् हीरा प्रवञ्चना से ले लिया जाता है। इन उपर्युक्त उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि दण्डी के युग में भारत का व्यापार समृद्धशाली था और देशिक तथा वैदेशिक यवन व्यापारी परस्पर सभी प्रकार की वस्तुओं का व्यापार करते थे जिसकी पुष्टि गुप्त-कालीन ऐतिहासिक तथ्यों से भी होती है, जिनके अनुसार भारतीय नौ-सेना का व्यापारी बेड़ा देश-देशान्तरों से व्यापार करने में संलग्न था। __ धार्मिक स्थिति-यद्यपि दण्डी व्यक्तिगत रूप से वैदिक वैष्णव मतानुयायी थे, तथापि ‘दशकुमारचरित’ के उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि उनके समय में दक्षिण भारत में शैव, बौद्ध, जैन इन तीनों धर्मों का प्रचार-प्रसार था। प्राधान्य शैव धर्म का ही था तथा अधिकतर जनता इसी धर्म को ही मानती थी। उज्जयिनी प्रमुख नगरी थी जहाँ ‘महाकाल’ का शिवमन्दिर था जिसकी चर्चा महाकवि कालिदास ने अपने ‘मेघदूत’ में की है। दण्डी के समय उज्जयिनी धर्म तथा विद्या दोनों की सांस्कृतिक पीठस्थली थी जहाँ धार्मिक श्रद्धालु-जन शिव-दर्शन हेतु आते थे तथा जिज्ञासु अध्ययन-शील विद्योपार्जन के लिए आकृष्ट होते थे। जैन तथा बौद्ध दोनों धर्म अपनी ह्रासोन्मुख अवस्था में थे, जैसा कि वर्णन मिलता है कि भिक्षुणियाँ वैवाहिक कार्यों के सम्पादन में दूती का कार्य करती थीं और कहीं-कहीं जैन-विहार भी वर्तमान थे। अवन्तिसुन्दरीकथा-यह दण्डी की मौलिक गद्य-काव्यात्मक रचना है जो बाणभट्ट के हर्षचरित तथा कादम्बरी से पूर्णरूप से प्रभावित है। इस ग्रन्थ का प्रारम्भ हर्षचरित की तरह प्राचीन श्रेष्ठ कवियों के संस्तुतिपरक श्लोकों से हुआ है, जिसका साहित्यिक विकास-क्रम के आकलन में महत्त्व है। तदनन्तर वर्णनात्मक गद्य का आरम्भ काञ्ची नगरी १. द्रष्टव्य : ‘दशकुमारचरित’ पृष्ठ १६६ जिसमें श्वेत बलाका जाति के तथा कृष्ण नारिकेल जाति के मुर्गों के युद्ध का वर्णन है। २. द्रष्टव्य : आचार्य पं. बलदेव उपाध्यायकृत संस्कृत साहित्य का इतिहासगद्य-खण्ड के वर्णन से होता है। पल्लवनरेश सिंहविष्णु दण्डी के प्रपितामह दामोदर को अपने दरबार में आमन्त्रित करता है तथा कवि अपने पूर्वजों के वृत्तान्त से अपनी आत्म-कथा की अवतारणा करता है। तत्पश्चात् दण्डी अपने मित्रों से कथा प्रारम्भ करता है तथा मगध, उसकी राजधानी कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) और उसके राजा राजहंस का वर्णन करता है। युवक राजहंस अपने चार मन्त्रियों-सुमति, सुमित्र, सुश्रुत एवं सुमन्त्र को शासनभार समर्पित कर अपनी रानी वसुमती के साथ षड्ऋतुओं के आनन्द का अनुभव करने लगता है। नरवाहनदत्त के साथ वासवदत्ता की तरह वसुमती गर्भवती होती है। इसी बीच गुप्तचर आजिक मालव (अवन्ति) से आता है और सूचित करता है कि राजहंस का पराजित पुराना शत्रु राजा मानसार आमरदक शिव के प्रसादस्वरूप दैवी खड्ग प्राप्त कर आक्रमण करना चाहता है। युद्ध का विस्तृत वर्णन है। अवन्तिसुन्दरी यह कथा ग्रन्थ है, जिसकी संरचना उदात्तशैली में की गई है। समास-बहुल तथा असमस्त दोनों प्रकार के पदों का प्रयोग प्रचुर रूप से हुआ है। यह कथा अपूर्ण रूप से प्राप्त है।

दण्डी की काव्यगत शैली

अवन्तिसुन्दरी-कथा में ‘कादम्बरी’ का कथानक संक्षिप्त रूप से वर्णित है। अतः महाकवि दण्डी का आविर्भाव बाणभट्ट के अनन्तर है। दोनों उनकी कृतियों-अवन्तिसुन्दरी-कथा और दशकुमारचरित पर बाणभट्ट के दोनों ग्रन्थों-हर्षचरित और कादम्बरी का प्रभाव विशेषरूप से पड़ा है। ऐसा प्रतीत होता है कि हर्षचरित को निदर्शन बनाकर ही दण्डी ने ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ का प्रारम्भ किया है। दण्डी बाणभट्ट के अनुरूप अपने वर्ण्य विषय की शैली में परिवर्तन करते हैं। वे समास बहुल तथा असमस्त दोनों शैलियों में सिद्धहस्त हैं। वर्णन की गाढ़बन्धता में समासों की बहुलता दृष्टिगत होती है। उपदेशात्मक स्थलों में दण्डी की भाषा सरल, सुबोध, भावगर्भित एवं समस्त पदों से भरी हुई है। दण्डी ने अपनी भाषा को अलंकारों के कृत्रिम आडम्बर से सदा बचाए रखने का प्रयास किया है, तथापि दशकुमारचरित में आनुप्रासिक पदविन्यास की छटा-दर्शनीय है। आनुप्रासिक चमत्कार के साथ ही यमक का समावेश अतीव मनोहर हो गया है, उदाहरणार्थ _ “तत्र वीरभटपटलोत्तरङ्गतुरङ्गकुञ्जरमकरभीषणसकलरिपुगणकटकजलनिधिमथन मन्दरायमाणसमुद्दण्डभुजदण्डमण्डलः पुरन्दरपुराङ्गणपवनविहरणपरायण- तरुणगणिकागणजे गीयमानयाऽतिमानया शरदिन्दुकुन्दघनसारनीहारहारमृणालमरालसुरगजनीर- क्षीरगिरिशाट्ट हासकलासकाशनीकाशमूर्त्या रचितदिगन्तरालपूर्त्या कीर्त्याऽभितः सुरभितः स्वर्लोकशिखरोरु रुचिररत्नरत्नाकरवेलामेखलायितधरणीरमणीसौभाग्यभोगभाग्यवान…..विरचितारातिसंतापेन प्रतापेन सतततुलितवियन्मध्यहंसः…….तस्य वसुमती नाम सुमतिः लीलावतीकुलशेखरमणी रमणी बभूव।" गद्य-काव्य उपर्युक्त गद्य-खण्ड में “वीरभटपटलोत्तरङ्ग… में दण्डी का शब्द-शिल्प-कौशल प्रशंसनीय है तथा “वसुमती सुमती शेखरमणी रमणी" में अनुप्रास अलंकार के साथ यमकालंकार का विन्यास सर्वथा सराहनीय है। दण्डी ललित पदों के विन्यास में बड़े दक्ष हैं। इसी से संस्कृत जगत् में यह आभाणक “दण्डिनः पदलालित्यम्” दण्डी की काव्यकला का मापदण्ड माना जाता है। इसी उपर्युक्त उक्ति को लक्ष्य कर संस्कृत साहित्य के समीक्षकों ने यह उच्चस्वर से उद्घोषित कर दिया है कि “कविर्दण्डी कविर्दण्डी कविर्दण्डी न संशयः”। पदों के लालित्य के साथ-साथ दण्डी की भाषा की द्वितीय विशेषता है-अर्थ की स्पष्टता तथा रस की सुन्दर अभिव्यक्ति। दशकुमारचरित में निम्नलिखित लक्ष्मी-वर्णन में पदों का लालित्य तथा अर्थाभिव्यक्ति की स्पष्टता दर्शनीय है : “रज्जुरियम् उद्बन्धनाय सत्यवादितायाः, विषमियं जीवितहरणाय माहात्म्यस्य, शस्त्रमियं विशसनाय सत्पुरुषवृत्तानाम्, अग्निरियं निर्दहनाय धर्मस्य, सलिलमियं निमज्जनाय सौजन्यस्य; धूलिरियं धूसरीकरणाय चारित्रस्य” संस्कृत भाषा के कोष-ग्रन्थों ने दैनन्दिन प्रयोग में आने वाली व्यावहारिक वस्तुओं के सूचक शब्दों का अर्थ संकेत किया है, पर शब्दों का प्रयोग संस्कृत साहित्य में सुलभ नहीं था। संस्कृत वाङ्मय में सर्वप्रथम कवि दण्डी ने अपनी कृतियों में व्यावहारिक वस्तुओं के परिचायक शब्दों का प्रयोग प्रारम्भ किया। यह उनकी मौलिक देन है। उदाहरणार्थ अधोवस्त्र धोती के लिए ‘उद्गमनीय’, साधु-संन्यासी जनों की लंगोटी के निमित्त ‘मलमल’, अन्नों के बाहरी छिलका भूसी के लिए ‘किशारु’, जनपद-गोष्ठी के लिए ‘पंचवीर-गोष्ठ’ प्रभृति अनेक शब्दों का प्रयोग दण्डी ने प्रसङ्गानुसार अपनी दोनों कृतियों में किया है। इस दिशा में प्रथम श्लाघनीय प्रयास कर दण्डी ने संस्कृत साहित्य के निर्माताओं को प्रेरणा प्रदान किया कि संस्कृत भाषा को भी व्यवहार-प्रधान बनाया जा सकता है, जिस दोषारोपण से यह भाषा ग्रस्त है। दण्डी ने व्यवहार-जगत् के शब्दों का प्रयोगमात्र ही नहीं किया, प्रत्युत इस भाषा को व्यावहारिक प्रयोग के लिए सक्षम तथा सामर्थ्यशालिनी बनाने का भी प्रयत्न किया। संस्कृत गद्य के इतिहास में दण्डी की अपनी पृथक् शैली है। उन्होंने सुबन्धु के समान अपने काव्य के प्रत्येक अक्षर को श्लेषालंकार के प्रयोग से कृत्रिम बनाने की चेष्टा नहीं की अथवा महाकवि बाणभट्ट के सदृश समस्तपदों की गाढ़बन्धता से अपने वर्णनों को विभूषित कर उन्हें दुर्गम बनाने का भी प्रयास नहीं किया। उन दोनों संस्कृत गद्य साहित्य के महारथियों की शैली का अनुगमन न कर दण्डी ने एक नूतन विधा की उद्भावना की। धनपाल- सुबन्धु, बाण और दण्डी ने अपनी साहित्यिक साधना से संस्कृत वाङ्मय के क्षेत्र में अपने गद्यप्रबन्धों के माध्यम से जिस प्रकाश-स्तम्भ को प्रज्वलित किया, धनपाल ने उसी की ही ज्योति को और अधिक प्रसारित तथा अग्रसारित किया। धनपाल ने बड़े न गद्य-खण्ड अभिनिवेश से इन मूर्धन्य कवियों के द्वारा प्रचारित काव्य-शैली को आत्मसात् कर अनुकर्ता की अपेक्षा बाण का अपने को एक योग्य सफल उत्तराधिकारी सिद्ध करने का श्लाघनीय प्रयास किया। तत्कालीन प्रचलित गद्य-पद्य दोनों की ही शैलीगत विधाओं की परम्पराओं को समन्वित कर धनपाल ने गद्य-काव्य के निर्माण के क्षेत्र में एक नूतन विधा का सूत्रपात किया जिसमें सामयिक साहित्यिक तथा संस्कृत वाङ्मय के विविध शास्त्रीय पाण्डित्यपूर्ण मर्यादाओं का संरक्षण विद्यमान है। परवर्ती कथालेखकों-प्रभाचन्द्र, मेरुतुङ्ग प्रभृति ने धनपाल के जीवन-इतिवृत्त का विस्तृत वर्णन सुरक्षित रखा था, पर दुर्भाग्यवश सब कालकवलित हो गया। तथापि प्रभावकचरित के ‘महेन्द्रसूरिप्रबन्ध’, प्रबन्धचिन्तामणि के ‘धनपालप्रबन्ध’, रत्नमन्दिरगणि के ‘भोजप्रबन्ध’ इत्यादि में कई आख्यान सुरक्षित हैं जिनसे कवि के जीवन पर प्रकाश पड़ता है। पता चलता है कि धनपाल काश्यपगोत्रीय ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए थे। इनके पितामह देवर्षि मध्यप्रदेश के सांकाश्य नामक ग्राम (वर्तमान फरुखाबाद जनपदान्तर्गत संकिस ग्राम) के मूल निवासी ब्राह्मण थे। तत्कालीन श्रीसम्पन्न उजयिनी नगरी में आकर बस गये थे। धनपाल यहीं के निवासी विद्वान् ब्राह्मण सर्वदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे। इनके अनुज का नाम शोभन तथा बहन का नाम सुन्दरी था। किंवदन्ती है कि पिता सर्वदेव को एक जैनमुनि श्रीवर्धमानसूरि के प्रभाव से घर में ही एक संचित निधि की प्राप्ति हुई थी तथा मुनि की शर्त के अनुसार पिता को ब्राह्मणधर्माभिमानी ज्येष्ठ पुत्र धनपाल की असम्मति के कारण अपने द्वितीय पत्र शोभन को ही जैनधर्म में दीक्षित कराना पड़ा था जो आगे चलकर एक तपस्वी जैन मुनि बन गये और उन्हीं के उपदेश तथा प्रभाव से धनपाल ने भी जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। स्थितिकाल-धनपाल का साहित्यिक अवदान-काल ६५५ ई. से लेकर १०५५ ई. के मध्य था, जिस समय इतिहासप्रसिद्ध धारा नगरी के परमारवंशीय नरेशों का वैभव अपनी पूर्ण विकासावस्था में था। परमारनृपतियों के दरबार से धनपाल का बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध था। ‘पृथ्वी-वल्लभ’ विरुद से विभूषित महीपति मुञ्ज ने धनपाल की काव्य-कला से प्रभावित होकर उन्हें ‘सरस्वती’ इस उपाधि से सम्मानित किया था जिसका उल्लेख ‘तिलकमंजरी’ के प्रारंभिक उपोद्धात में निम्न प्रकार से मिलता है : “तज्जन्मा जनकाध्रिपंकजरजःसेवाप्तविद्यालवो, विप्रः श्रीधनपाल इत्यविशदामेतामबध्नात् कथाम्। अक्षुण्णोऽपि विविक्तसूक्तिरचने यः सर्वविद्याब्धिना, श्रीमुञ्जेन सरस्वतीति सदसि क्षोणीभृता व्याहृतः।।” १. द्रष्टव्य : “आसीद् द्विजन्माऽखिलमध्यदेशप्रकाशसांकाश्यनिवेशजन्मा। अलब्धदेवर्षिरितिप्रसिद्धिं यो दानवर्षित्वविभूषितो-तिलकमंजरी-उपोद्धात् २-५ श्लोकोऽपि।। गद्य-काव्य ६६ धनपाल मुञ्ज के उत्तराधिकारी राजा भोज के भी विद्वत्सभा के समादृत सभापण्डित थे। अतः मुञ्ज तथा भोजराज का समसामयिक होने के नाते धनपाल का समय ईसा की एकादश शती मानना सर्वथा समीचीन है। संस्कृत तथा प्राकृत के प्रख्यात विद्वान्-कवि धनिक, हलायुध, पद्मगुप्तपरिमल, अमितगति प्रभृति धनपाल के समकालीन थे। धनपाल की रचनाएँ:-‘पाइयलच्छीनाममाला’, ‘ऋषभपंचाशिका’ और ‘वीरघुई’ ये धनपाल की प्राकृत-भाषा में निबद्ध कृतियाँ हैं। संस्कृत में धनपाल की प्रसिद्ध रचना ‘तिलकमंजरी’ है जिसका प्रणयन उन्होंने भोजराज’ के जिनागमोक्त कथा सुनने के कुतूहल निवृत्ति हेतु की थी। ‘तिलकमंजरी’ एक गद्य-कथाग्रन्थ है जिसका नामकरण नायिका के नाम से किया गया है। इस कथा में राजकुमार हरिवाहन और दैवी राजकुमारी तिलकमंजरी तथा राजकुमार समरकेतु और अर्धदैवी राजकुमारी मलयसुन्दरी-इन दो युग्मों की प्रणय-गाथा वर्णित है। इस प्रणय-कथा का दृश्य अयोध्या से काञ्ची और पुनः दक्षिण हिन्दसागर में अवस्थित रत्नकूट द्वीप से हिमालय पूर्वोत्तरीय विन्ध्यपर्वत के एक शृंग-शिखर पर घूमते हुए वस्तुतः परम्परागत समस्त बृहत्तर भारत-हिमालय से श्रीलंका और मलद्वीपों से हिन्द-एशिया के द्वीपों को अपनी परिधि में समाविष्ट कर लेते हैं। अयोध्या के इक्ष्वाकु-नृपति मेघवाहन के घृत्तान्त से कथा का प्रारम्भ होता है। उसकी रानी का नाम मदिरावती है। निःसन्तान होने से दम्पती अत्यन्त दुःखी हैं। विद्याधर मुनि के अनुरोध से राजा-रानी महल में ही श्रीदेवी की उपासना करते हैं। उन्हें देवी की प्रसन्नता से पुत्र-प्राप्ति का वरदान एवं बालारुण नामक अंगूठी प्राप्त होती है। पुत्र का नाम हरिवाहन रखा जाता है। वर्धिष्णु राजकुमार समस्त विद्याओं में पारंगत बन जाता है। एक दिन तिलकमंजरी के चित्र को सहसा देखकर हरिवाहन उसके प्रेम में आसक्त हो जाता है। एक विद्याधर के साहाय्य से वह रथनूपुरचक्रवाल देवनगर में पहुँच जाता है। वहाँ तप के प्रभाव से वह राजकुमारी तिलकमंजरी के प्रणय का अधिकारी बन जाता है। ये दोनों प्रेमी पूर्वजन्म के ज्वलनप्रभ और प्रियङ्गसुन्दरी ही थे। इस प्रधान कथानक में सिंहलद्वीप के राजा चन्द्रकेतु के समरकेतु की कथा जोड़ दी गयी है। पिता के द्वारा नियोजित अपने विजययात्राप्रयाण में समरकेतु रत्नकूटद्वीप में मलयसुन्दरी को देखता है और उसके प्रेम में आबद्ध हो जाता है। दुर्भाग्यवश समरकेतु के गले में एक पुष्पमाला के विक्षेपणमात्र से मलयसुन्दरी अन्तर्धान हो जाती है। आत्म-हत्या करने को उद्यत समरकेतु दैवीशक्तियों १. द्रष्टव्य : ‘निःशेषवाङ्मयविदोऽपि जिनागमोक्ताः, श्रोतं कथाः समुपजातकुतूहलस्य। तस्यावदात्तचरितस्य विनोदहेतो राज्ञः स्फुटाद्भुतरसा रचिता कथेयम्।।” तिलकमंजरी-उपोद्धात श्लोक ५०वाँ । ७० गद्य-खण्ड द्वारा बचा लिया जाता है। अपनी वियुक्त प्रिया के निर्देश से वह कांची पहुँचता है और वहाँ राजा कुसुमशेखर की प्रिया को आत्म-हत्या करने से बचाता है। यही समरकेतु की प्रेमिका मलयसुन्दरी है। सैनिक दबाव के कारण पिता विवश होकर अपनी पुत्री मलयसुन्दरी को एक विद्याधर को समर्पित करना चाहता है। इसी बीच अयोध्या के सेनापति वज्रायुध उसे मुनि शान्तातप के आश्रम में भेज देता है। वहाँ भी वह आत्म-हत्या करने के लिए प्रवृत्त होती है, पर दैव-बल से रक्षित होकर एक पर्वत-शृंग पर पहुँच जाती है और वहीं अपने प्रेमी की प्राप्ति-हेतु उपासना में लग जाती है। राजकुमार समरकेतु रात्रि के समय अयोध्या पर आक्रमण करता है. पर श्रीदेवी के द्वारा प्रदत्त बालारुण अंगठी के प्रभाव से उसका प्रयास विफल हो जाता है और कैद कर लिया जाता है। राज्य की दैवी शक्ति की ओर समरकेतु आकृष्ट होता है और राजकुमार हरिवाहन का प्रमुख साथी बना दिया जाता है। दोनों राजकुमार देशान्तर-भ्रमण के लिए निकलकर कामरूप पहुँच जाते हैं। एक हाथी ‘हरिवाहन को गायब कर देता है और समरकेतु अपने मित्र को खोजते हुए वैताढ्य पर्वत पर अदृष्टपार नामक सरोवर के पास पहुँचता है। वहाँ अपने मित्र हरिवाहन और एक गन्धर्व को देखकर बड़ा प्रसन्न होता है। वहीं हरिवाहन, तिलकमंजरी के दर्शन और मलयसुन्दरी की तपस्या की सूचना से समरकेतु को अवगत कराता है। दोनों युग्मों का प्रेम पूर्ण परिपक्व होता है। इसी बीच एक महर्षि इन चारों को उनके पूर्वजन्म के वृतान्त को प्रकट करता है। अन्त में हरिवाहन का विवाह तिलकमंजरी से और समरकेतु का मलयसुन्दरी के साथ सम्पन्न हो जाता है और यहीं कथा की परिसमाप्ति हो जाती है। का इस कथानक में लगभग ५२ पुरुष और २६ स्त्रीपात्र हैं। प्रसङ्गानुसार दैवी हार, दैवीप्रदत्त बालारुण अंगूठी, अभिशप्त शुक, नाविक सामुद्रिक यात्रा, त्रिकालज्ञ महर्षि का इतिवृत्त भी मूलरूप से जोड़ दिया गया है जो तत्कालीन परम्परागत लोकप्रचलित रूढ़ियों की ओर संकेत करते हैं। र बाणकृत ‘कादम्बरी’ और ‘तिलकमञ्जरी’ की कथावस्तु में अत्यधिक साम्य है। दोनों ग्रन्थों का प्रारम्भ पद्यों द्वारा होता है जिनमें दोनों कवियों ने कथा, गद्य, चम्पू प्रभृति के विषय में अपने विचार व्यक्त किए हैं। दोनों उपर्युक्त कृतियाँ उपविभागों में विभक्त नहीं हैं। ‘कादम्बरी’ की गन्धर्वकुलोत्पन्न कादम्बरी विद्याधरी तिलकमंजरी की चन्द्रापीड तथा वैशम्पायन हरिवाहन और समरकेतु की, उज्जयिनी के राजा-रानी तारापीड-विलासवती निःसन्तान होने से दुःखित मेघवाहन और रानी मदिरवती की स्मृति सहज ही जागृत कर देते हैं। ‘तिलकमंजरी’ का अयोध्या का शक्रावतार सिद्धायतन कादम्बरी के महाकाल देवायतन की याद दिलाता है। मलयसुन्दरी की तपोविधि का वर्णन महाश्वेता की ही भाँति है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि धनपाल ने बाण की ‘कादम्बरी’, उद्योतनसूरि की ‘कुवलयमाला’ इन पूर्ववर्ती कवियों की कृतियों को उपजीव्य बनाकर इस अपने कथा-ग्रन्थ गद्य-काव्य ७१ की निर्मिति की है। धनपाल ने ‘तिलकमंजरी’ के प्रारम्भ में वाल्मीकि, कानीन वेदव्यास’, गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’, कथाग्रन्थ ‘तरङ्गवती’, कवियों की वाणी को मलिन करने वाले कालिदास’, ‘हर्षचरित’ और ‘कादम्बरी’ इन दो रचनाओं से कवियों के दर्प को चूर करने वाले बाण, काव्य-रचना के लिए कवियों को उत्साहहीन बनाने वाले भारवि तथा माघ, नाट्यरचना में नर्तनशील भवभूति की भारती, गौड़वहो के रचयिता वाक्पतिराज, यायावर कवि राजशेखर, त्रैलोक्यसुन्दरीकथा-अनेक कवि तथा ग्रन्थों की संस्तुति कर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता का ज्ञापन किया है। इससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि कवि धनपाल इन उपर्युक्त कवियों तथा उनकी रचनाओं से अपने ग्रन्थविशेष की निर्मिति में अवश्य प्रेरणा ग्रहण की है। इस उल्लेख का यह भी महत्त्व है कि इससे पूर्ववर्ती कवियों तथा ग्रन्थों के तिथि-निर्धारण में भी सहायता मिलती है। धनपाल की काव्यगत शैली-स्निग्ध मनोहर वर्णों की योजना से युक्त श्लेषों के अत्यधिक बोझ से बोझिल रचना को अनुकरणीय न मानने वाले कवि धनपाल ने सुबन्धु की ‘प्रत्यक्षरश्लेषमय’… शैली को प्रश्रय नहीं दिया। बाण की अलौकिक प्रतिभा से अभिभूत उन्होंने उन्हीं की पांचाली शैली का अनुसरण किया, लेकिन उसे अपेक्षाकृत सुबोध तथा प्राञ्जल बनाने का सफल प्रयास किया। बाण ने जिस प्रकार शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों के प्रयोग द्वारा घटना और वर्णन को बोझिल बनाया है, धनपाल ने उन अलंकारों की योजना से रमणीयता का संचार कर वर्णनों में नूतनता का पूर्ण स्फुरण किया। उपमा और उत्प्रेक्षा धनपाल के प्रिय अलंकार हैं, पर अवसर उपलब्ध होने पर परिसंख्या तथा विरोधाभास के प्रयोग के लोभ का सम्वरण भी नहीं कर सकते। परिसंख्या का यह रमणीय प्रयोग द्रष्टव्य है : __“यस्मिन् राजनि अनुवर्तितशास्त्रमार्गे प्रशासति वसुमतीम्, धातूनां सोपसर्गत्वम्, इथूणां पीडनम्, पदानां विग्रहः, तिमीनां गलग्रहः, कुकविकाव्येषु यतिभ्रंशदर्शनम्, उदधीनामपवृद्धिः, द्विजातिक्रियाणां शाखोद्धरणम्, सारीणामक्षप्रसरदोषेण परस्परं बन्धवधभारणानि बभूवुः।" . १. द्रष्टव्य : प्रस्तावनादिपुरुषौ रघुकौरववंशयोः। वन्दे वाल्मीकिकानीनौ सूर्याचन्द्रमसाविव ।। तिलकमंजरी, पूर्वोद्धात श्लोक २०वाँ २. म्लायन्ति सकलाः कालिदासेनासन्नवर्तिना। गिरः कवीनां दीपेन मालतीकलिका इव ।। वही श्लोक २५वाँ ३. केवलोऽपि स्फुरन् बाणः करोति विमदान् कवीन्। किं पुनः क्लृप्तसन्धानपुलिन्दकृतसन्निधिः।। कादम्बरीसहोदर्या सुधया बैबुधे हृदि। हर्षाख्यायिका ख्याति बाणोऽब्धिरिव लब्धवान् ।। वही श्लोक २६-२७वाँ ४. माघेन विनितोत्साहा नोत्सहन्ते पदक्रमे। स्मरन्तो भारवेरेव कवयः कपयो यथा।। वही श्लोक २८वाँ ५. १. द्रष्टव्यः-वर्णयुक्तिं दधानाऽपि स्निग्धाञ्जनमनोहराम्। नातिश्लेषघनां श्लाघां कृतिलिपिरिवाश्रते।। तिलकमंजरी-पूर्वोद्धात् श्लोक १६वाँ + ७२ गद्य-खण्ड संदर्भ के अनुसार धनपाल समासबहुल तथा असमस्त दोनों प्रकार की पदावलियों से युक्त शैली के प्रयोग में निपुण हैं। इनके गद्य की उल्लेखनीय विशेषता है कि उसमें विस्तृत तथा अनेकों पदों से युक्त समास की बहुलता का अभाव है। ‘तिलकमंजरी’ के प्रारम्भ में ही धनपाल ने विस्तृत गद्य को व्याघ्र तक कह दिया है जिससे भयाक्रान्त हो पाठक काव्य के अध्ययन से विरत हो जाता है।’ कवि की भाषा गतिशील प्रभावशालिनी तथा प्रवाहमयी है। अधिक श्लेषालंकार की भरमार तथा विशेषणों के आडम्बर के अभाव के कारण मूल कथा के आस्वादन में गतिरोध नहीं उत्पन्न होता। श्रुत्यनुप्रास के प्रयोग के द्वारा कवि ने भाषा को श्रवण-मधुर तथा प्राञ्जल बनाने का सर्वथा प्रयास किया है। भाषागत प्राञ्जलता तथा प्रवाह हेतु निम्नलिखित वाक्य निदर्शनस्वरूप हैं: “यथा न धर्मः सीदति, यथा नार्थः क्षयं व्रजति, यथा न राज्यलक्ष्मीरुन्मनायते, यथा न कीर्तिर्मन्दायते, यथा न प्रतापो निर्वाति, यथा न गुणाः श्यामायन्ते, यथा न श्रुतमुपहस्यते, यथा न परिजनो विरज्यते, यथा न मित्रवर्गो म्लायति, यथा न शत्रवस्तरलायन्ते, तथा सर्वमन्वतिष्ठत्”। धनपाल ने अपनी ‘तिलकमंजरी’ को ‘अद्भुतरसारचिता’ कहा है जिसमें श्रृंगाररस की अभिव्यंजना के अवसर पर नारी के सौन्दर्य का वर्णन जिस प्रकार शास्त्रीय विधि के अनुसार कोमलकान्त पदावली में हुआ है, उसी प्रकार वीररस की अभिव्यक्ति हेतु युद्धों की भीषणता का वर्णन भी ऐसी कठोरतापूर्वक किया गया है कि पढ़ने मात्र से ही युद्ध विभीषिका नेत्रों के समक्ष उपस्थित हो जाती है। यह गद्य-प्रबन्ध अपने वर्णन-वैविध्य तथा वैचित्र्य हेतु सदा समादृत होता रहेगा। कवि मानवीय जीवन के व्यावहारिक पक्ष का विशेष रूप से निरीक्षक, अनुभवी एवं पारखी है। अतः जीवन के व्यावहारिक विषयों के यथातथ्य आकलन तथा वर्णन से ‘तिलकमंजरी’ पाठकों को हठात् अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। विषय के प्रतिपादन में कवि की भाषा भी व्यावहारिक बन गई है। धनपाल की उल्लेखनीय देन है कि उन्होंने अपनी इस प्रस्तुत संरचना के माध्यम से संस्कृत गद्य के व्यावहारिक रूप का निदर्शन प्रस्तुत किया है। इस क्षेत्र में धनपाल ने अपने को बाण से भी आगे बढ़ा हुआ सिद्ध कर दिया है। ‘तिलकमंजरी’ में तत्कालीन सामाजिक जीवन, राजाओं के राजकीय वैभव तथा उनके मनो-विनोद के साधनों, सामयिक गोष्ठियों, अनेक प्रकार के वस्त्राभूषणों के नाम, नाविक-तन्त्र, युद्धास्त्रों का वर्णन उपलब्ध होता है जो इसकी सांस्कृतिक महनीयता का परिचायक है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से इस गद्य-प्रबन्ध का एक अपना विशिष्ट महत्त्व है; क्योंकि इसके प्रारम्भ में धारा-नगरी के इतिहास-प्रसिद्ध परमारवंशीय नरेशों की बैरिसिंह १. द्रष्टव्य-अखण्डदण्डकारण्यभाजः प्रचुरवर्णकात्। व्याघ्रादिव भयाक्रान्तो गद्याद् व्यावर्तते जनः।। तिलकमंजरी पूर्वोद्धात श्लोक १५वाँ गद्य-काव्य ७३ से प्रारम्भ कर भोजराजपर्यन्त वंशावली मिलती है। कवि स्वयं परमार नृपति मुञ्ज की विद्वत्-परिषद का एक सम्मानित सभासद था। जैन धार्मिक भावनाओं से प्रभावित तथा चित्रित होने के कारण दीर्घकाल तक ‘तिलकमंजरी’ ब्राह्मण-धर्मावलम्बी साहित्यकारों से उपेक्षित रही है। धनपाल जैन धर्मानुयायी थे, पर कट्टर साम्प्रदायिक नहीं थे। वे एक उदार तथा समन्वित दृष्टिकोण के विद्वान् कवि थे। कवि की उदारता पर प्रतिष्ठित तथा संस्कृत गद्य की अलंकृत शैली में निबद्ध ‘तिलकमंजरी’ ने अनेक विद्वान् कवियों को अपनी ओर आकृष्ट किया। परिणामस्वरूप ईसा की त्रयोदश शती के प्रारम्भ से ही इस ग्रन्थ का संक्षेपण प्रारम्भ हो गया। जिस प्रकार संस्कृत के अनेक कवियों की कृतियों के उपजीव्य प्राकृत की पैशाची भाषा में लिपिबद्ध गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ को जो सम्मान तथा गौरव प्राप्त हुआ कि उसके सोमदेवकृत ‘कथासरित्सागर’, क्षेमेन्द्रविरचित ‘बृहत्कथामंजरी’ और बुद्धस्वामीप्रणीत ‘बृहत्कथाश्लोकसंग्रह’ तथा बाणभट्ट की ‘कादम्बरी’ के ‘कादम्बरीकथासार’ एवं दण्डी की ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ के ‘अवन्तिसुन्दरीकथासार’ के रूप में संक्षेपण हुए, उसी प्रकार ‘तिलकमंजरी’ को उसकी कथावस्तु के प्रसार-प्रचार हेतु लगभग पांच संक्षेपण होने का गौरव उपलब्ध हुआ। सर्वप्रथम १२०४ ई. में पल्लिपाल धनपाल ने मूलग्रन्थ का संस्कृत पद्यों में ‘तिलकमंजरीसार’ नाम से रूपान्तर किया है। तदनन्तर पण्डित लक्ष्मीधर ने सन् १२२४ ई. में ‘तिलकमंजरीकथासार’ नामक द्वितीय संक्षेपण का प्रणयन किया। यह भी ग्रन्थ संस्कृत पद्यों में ही है। तृतीय संक्षेपण ‘तिलकमंजरीकथोद्धार’ की रचना पण्डित पद्मसागर ने सन् १५८६ ई. में संस्कृत पद्यों में ही की। चतुर्थ ‘तिलकमंजरीसंग्रह’ का प्रणयन १६२५ ई. में अभिनवभट्ट बाण पण्डित आर. वी. कृष्णमाचार्य ने संस्कृत गद्य में की तथा पंचम संक्षेपण पन्यास सुशीलविजय ने संस्कृत गद्य में किया है। इसके अतिरिक्त एक गुजराती उपन्यास में भी ‘तिलकमंजरी’ की कथा वर्णित मिलती है।