बाणभट्ट का समय-महाकवि बाणभट्ट संस्कृत साहित्य के सर्वप्रथम कवि हैं जिन्होंने अपनी कृतियों में अपना तथा अपने वंश का ही नहीं, प्रत्युत संस्कृत वाङ्मय के प्रमुख निर्माताओं का यथासाध्य परिचय देने का अनुकरणीय प्रयास किया है। यह बाण की अभूतपूर्व देन है, जिससे संस्कृत साहित्य की निर्मिति में महत्त्वपूर्ण योगदान हुआ है। सौभाग्यवश बाण के तिथि-निर्धारण में कतिपय बाह्य तथा आन्तः साक्ष्य-प्रमाण भी उपलब्ध हैं, जिनका विवरण निम्नरूप से प्रस्तुत किया जाता है:-१. आचार्य रुय्यक ने अपने ‘अलंकारसर्वस्व’ में अनेक बार बाण की कृतियों ‘हर्षचरित’ तथा ‘कादम्बरी’ का उल्लेख किया है। ‘अलंकारसर्वस्व’ से यह भी विदित होता है कि बाण ने किसी ‘हर्षचरितवार्तिक’ ग्रन्थ का भी प्रणयन किया था।’ ‘अलंकारसर्वस्व’ की निर्मिति-तिथि ११५० ई. है। अतः बाण का साहित्यिक अवदान-काल इससे पूर्व है। १. द्रष्टव्यः “एषा उत्प्रेक्षा च समस्तोपमाप्रतिपादकाविषयेऽपि हर्षचरितवार्तिके साहित्यमीमांसायां च तेषु प्रदेशेषूदाहृता" अलंकारसर्वस्व पृष्ठ ६ १८ गद्य-खण्ड परम आलंकारिक क्षेमेन्द्र ने अपनी ‘औचित्यविचारचर्चा’ तथा ‘कविकण्ठाभरण’ में कई बार बाणभट्ट, उनकी ‘कादम्बरी’ एवं उससे उद्धरणों को प्रस्तुत किया है। क्षेमेन्द्र ने . बाण की ‘कादम्बरी’ की अनुकृति पर एक ‘पद्यकादम्बरी’ की भी संरचना की थी, जिसके पद्यों का उल्लेख उन्होंने ‘कविकण्ठाभरण’ में किया है। क्षेमेन्द्र ने अपने ‘कविकण्ठाभरण’ तथा ‘सुवृत्ततिलक’ की संरचना कश्मीरनरेश अनन्तराज (१०२८-१०६३) के शासनकाल में की थी। अतः क्षेमेन्द्र का समय ईसा की एकादश शती का उत्तरार्द्ध है। रुद्रट के ‘काव्यालंकार’ के टीकाकार नमिसाधु ने ‘हर्षचरित’ तथा ‘कादम्बरी’ बाण की इन दोनों कृतियों की गद्यसंरचना के क्रमशः आख्यायिका तथा कथा के दृष्टान्त के रूप में उल्लेख किया है। उनकी टीका के अन्तिम श्लोक से स्पष्ट होता है कि नमिसाधु का समय १०६६ ई. है। भोजकृत ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ में कतिपय निर्देश बाण के उपलब्ध होते हैं। भोज ने एक स्थान पर यह भी उल्लेख किया है कि “यादृग्गद्यविधौ बाणः पद्यबन्धे न तादृशः”। ऐसा प्रतीत होता है कि भोजराज ईसा की दशमी शती के अन्त में सिंहासनारूढ़ थे। _धनञ्जय ने अपने अलंकारशास्त्रीयग्रन्थ ‘दशरूपक’ में “यथा हि महाश्वेतावर्णनावसरे भट्टबाणस्य"" के रूप में बाण का “यथा कादम्बर्यां वैशम्पायनस्य"२ के द्वारा ‘कादम्बरी’ का नामोल्लेख किया है। धनञ्जय के आश्रयदाता राजा मुञ्ज थे जैसा ‘दशरूपक’ के अन्तिम श्लोक से स्पष्ट होता है। मुञ्ज, भोजराज के पितृव्य थे, अतः धनञ्जय का समय ईसा की दशम शती होता है। किसी अभिनन्द कवि ने ‘कादम्बरी’ की अनुकृति पर ‘कादम्बरीकथासार’ एक पृथक् ग्रन्थ की रचना की थी। यह ग्रन्थ आमूलचूल पद्य में है तथा क्षेमेन्द्र ने इसके अनुष्टुप् छन्दों की संस्तुति अपने ‘सुवृत्ततिलक’ में की है। अभिनन्द ने उल्लेख किया है कि इनके परप्रपितामह शक्तिस्वामी कर्कोटवंशीय कश्मीरनरेश मुक्तापीड़ के मन्त्री थे। आलंकारिक मूर्धन्य अभिनवगुप्त ने भी ‘कादम्बरीकथासार’ का उल्लेख अपने ‘ध्वन्यालोकलोचन’ में किया है, पर उनका निर्देश कि इस पद्यरचना का प्रणयन भट्टजयन्त ने की थी जो अभिनन्द के पिता थे जैसा वृत्तिकार का कथन है। आनन्दवर्धनाचार्य में अपने ‘ध्वन्यालोक’ में बाण और उनकी दोनो गद्यात्मक कतियों ‘हर्षचरित’ और ‘कादम्बरी’ का नामोल्लेख किया है तथा उनसे उपयुक्त उद्धरणों को भी यथास्थान प्रस्तुत किया है। कल्हण की ‘राजतरङ्गिणी’ से अवगत होता है कि १. द्रष्टव्य: दशरूपक II, ३५ २. वहीं IV,६६ ३. द्रष्टव्य : “आविष्कृतं मुञ्जमहीशगोष्ठी वैदग्ध्यभाजा दशरूपमेतत् ।” ४. द्रष्टव्य : “अनुष्टुप्सततसक्ता साभिनन्दस्य नन्दिनी।” ५. द्रष्टव्यः “कथातात्पर्ये सर्गबन्धो यथा भदृजयन्तस्य कादम्बरीकथासारम्” पृष्ठ १४२ गद्य-काव्य १६ ध्वन्यालोकरचयिता आनन्दवर्धन कश्मीरनरेश अवन्तिवर्मा (८५५-८८३ ई.) के सभापण्डित थे। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जब ‘ध्वन्यालोक’ निर्माता ने बाण की कृतियों से उद्धरणों को प्रस्तुत किया है, तब अवश्य ही ईसा की नवम शती के उत्तरार्द्ध तक बाण तथा उनकी दोनों गद्यरचनाएँ पूर्णरूप से प्रसिद्धि में आ गई थीं। __ आलंकारिक वामन ने अपने ‘काव्यालंकारसूत्रवृत्ति’ में ‘कादम्बरी’ से कुछ शब्दों “अनुकरोति भगवतो नारायणस्य” को प्रस्तुत किया है। अभिनवगुप्त का विचार है कि समासोक्ति तथा आक्षेप इन दोनों अलंकारों के विषय में परस्पर विरोधी कथनों को प्रस्तुत करते समय आनन्दवर्धन के सम्मुख वामन और भामह के विरुद्ध विचार थे। इसीलिए उन्होंने “अनुरागवती सन्ध्या …..।" के दृष्टान्त का उल्लेख किया है। इन उपर्युक्त तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर डॉ. पी.वी. काणे ने वामन का आविर्भाव काल ईसा की अष्टम शती का उत्तरार्द्ध निश्चित किया है। अतः वामन के प्रासङ्गिक उल्लेख से सिद्ध हो जाता है कि अष्टम शताब्दी तक ‘कादम्बरी’ की ख्याति सम्यक्प से होगई थी। इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि ईसा की द्वादश शती से लेकर अष्टम शती तक संस्कृत साहित्य के अनेक निर्माताओं ने बहुशः बाण तथा उनकी ‘कादम्बरी’ और ‘हर्षचरित’ का उल्लेख किया है तथा इन दोनों कृतियों से अभीष्ट पंक्तियों को उद्धृत किया है। इनके अतिरिक्त ‘नलचम्पू’ तथा ‘कीर्तिकौमुदी’ के रचयिताओं ने भी बाण का निर्देश किया है। बाण ने अपने ‘हर्षचरित’ के तृतीय उच्छ्वास से अष्टम पर्यन्त वर्धनवंशीय सम्राट हर्षवर्धन का इतिवृत तथा अपने व्यक्तिगत साक्षात्कार को साहित्यिक रूप से प्रस्तुत किया है, जिससे सिद्ध हो जाता है कि बाण, हर्ष के समसामयिक थे। हर्ष का शासनकाल ६०६ ई. से ६४२ ई. तक था। अतः बाण का आविर्भाव-काल ईसा की सप्तम शती का पूर्वार्द्ध है। यह विवादरहित है, जिसकी पुष्टि चीनी बौद्धयात्री हेनसाँग के यात्रा-विवरण से होती है जो ६२६ ई. से ६४५ ई. तक भारत में रहे। हेनसाँग ने अपने भारत यात्रा-विवरण में तत्कालीन उत्तरी भारत के प्रशासक हर्षवर्धन का विस्तत वर्णन किया है। यद्यपि चीनी यात्री तथा सभापण्डित बाणभट्ट के वर्णनों में यत्र-तत्र विसंगतियाँ हैं, तथापि समता इतनी अत्यधिक है जिससे प्रमाणित होता है कि बाण के आश्रयदाता तथा हेनसाँग के उत्तरापथ के सम्राट हर्ष दोनों अभिन्न हैं। अतः बाण का आविर्भाव-काल ईसा की षष्ठ शती का उत्तरार्द्ध तथा सप्तम शती का पूर्वार्द्ध मानना ही सर्वथा समीचीन है।’ __बाण का आविर्भाव-काल संस्कृत वाङ्मय के निर्माताओं के कालक्रमानुसार तिथि निर्धारण हेतु एक विशिष्ट उल्लेखनीय महत्त्व रखता है। बाण ने अपने ‘हर्षचरित’ के प्रथम उच्छ्वास के प्रारम्भ में ‘भारत’ नामक ग्रन्थ के कर्ता सर्वविद वेदव्यास, वासवदत्ता, १. द्रष्टव्य : डॉ. पी. वी. काणे-हर्षचरित की भूमिका, पृष्ठ XIV २० गद्य-खण्ड गद्यबन्धनृपति भट्टार हरिश्चन्द्र, सुभाषितकोश-निर्माता सातवाहन, सेतु-रचयिता प्रवरसेन, नाटकों के प्रणेता भास, सूक्तिसम्राट् कवि कालिदास, हरलीला के सदृश विस्मयकारिणी बृहत्कथा एवं उत्साहकृत आढ्यराज का उल्लेख किया है। इन उपर्युक्त कवियों तथा ग्रन्थों की अन्तिम तिथि ईसा की सप्तम शती का पूर्वार्द्ध तक है। इस संदर्भ में प्रसिद्ध पाश्चात्त्य समीक्षक डॉ. पिटर्सन के मत की चर्चा अप्रासङ्गिक नहीं प्रतीत होती, जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी ‘कादम्बरी’ के सम्पादन की भूमिका में किया है। विद्वान् समालोचक की मान्यता है कि भास तथा कालिदास, बाण के समकालीन तथा निकट पूर्ववर्ती थे। बाण के प्रशंसित ‘वासवदत्ता’ के निर्माता सुबन्धु उनके पश्चात्वर्ती थे, पर यह विचारणीय मत नहीं प्रतीत होता; क्योंकि स्वयं पिटर्सन ने बल्लभदेवविरचित ‘सुभाषितावलि’ के प्राक्कथन में ‘कादम्बरी’ की भूमिका में निर्दिष्ट सुबन्धु और बाण की सम्बद्ध अवस्थिति को छोड़ दिया है। अतः डॉ. पी.वी. काणे प्रभृति विद्वानों की मान्यता है कि पिटर्सन का उपर्युक्त मत माननीय नहीं है, क्योंकि ‘राघवपाण्डवीय’ महाकाव्य के प्रणेता कविराज ने सुबन्धु, बाणभट्ट तथा कविराज (स्वयं) को वक्रोक्तिमार्ग में निपुण उल्लेख किया है। उनका कथन है कि इन तीनों के अतिरिक्त कोई चतुर्थ नहीं है। कविराज का यह उल्लेख सर्वथा कालक्रमानुसार है। इसी प्रकार कविवर मंखकृत ‘श्रीकण्ठचरित’ के द्वितीय सर्ग में एक श्लोक है जिसमें प्रथमतः सुबन्धु की संस्तुति है तत्पश्चात् भारवि तथा बाण की है। प्राकृत महाकाव्य ‘गौडवहो’ के रचयिता वाक्पतिराज ने सुबन्धु की रचना का उल्लेख किया है। ‘वासवदत्ता’ के प्रणेता के अतिरिक्त अन्य सुबन्धु विदित नहीं हैं। अतः विद्वानों का अनुमान है कि वाक्पतिराज का निर्देश प्रस्तुत ‘वासवदत्ता’ के निर्माता तक ही सीमित है। वाक्पतिराज, कान्यकुब्जेश्वर यशोवर्मा के सभापण्डित थे तथा उन्होंने महाकवि भवभूति के मित्र तथा शिष्य होने के कारण प्रशंसा की है। ‘गौडवहो’ के सम्पादक पण्डित का निष्कर्षात्मक निर्णय है कि वाक्पतिराज ने अपने काव्य की रचना (७००-७२५ ई.) के मध्य की थी। इसके अतिरिक्त इस प्रसङ्ग में उल्लेखनीय यह है कि जहाँ वाक्पतिराज ने सुबन्धु की कृति के निर्देश के साथ भास तथा कवि कालिदास का नामोल्लेख किया है, वहाँ बाण तथा उनकी रचनाओं के विषय में सर्वथा मौन हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सामयिक होते हुए भी बाण की कृतियाँ उस समय तक ख्यातिप्राप्त नहीं हो सकी थीं। २. १. द्रष्टव्य : वही पृष्ठ १३३ द्रष्टव्य : “मेण्ठे स्वर्विरूदाधिरोहिणि वशंयाते सुबन्धौ विधेः। बन्नी विधानामा का पारा शान्ते हन्त च भारवौ विघटिते बाणः विषादस्पृशः।।” श्लोक ५३ ३. द्रष्टव्य : “भासम्मि जलणमित्ते कन्तीदेवे अजस्स रहुआरे। सोबन्धवे अ बन्धम्मि हारिबन्दे अ आणन्दो।।” पण्डित-गौडवहो, श्लोक ८०० ४. द्रष्टव्य : वही- भूमिका पृष्ठ, १०० गद्य-काव्य
बाणभट्ट का व्यक्तिगत जीवन
यह बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि इस आधुनिक युग में भी संस्कृत वाङ्मय के निर्माताओं तथा विशेषरूप से कवियों का व्यक्तिगत जीवनवृत्त जानने के लिए ऐतिहासिक सामग्रियाँ अत्यन्त स्वल्प एवं नगण्य हैं। अधिकांश कवियों के विषय में तो हमें उनके नाम-मात्र के अतिरिक्त कुछ भी ज्ञात नहीं है। कालिदास प्रभृति कवियों के सम्बन्ध में ऐसी परम्परागत कल्पनाप्रसूत जनश्रुतियाँ अनुस्यूत की गई हैं कि उनसे यथातथ्य-स्थिति की अवगति एक दुष्कर व्यापार बन गई है। कतिपय कवियों के विषय में हमें सामयिक शिलालेखों, दानपत्रों तथा साहित्यिक-लेखों से कुछ सूचनाएँ प्राप्त होती हैं जो सन्तोषजनक नहीं हैं, लेकिन कतिपय बिल्हण, मंख इत्यादि ऐसे कवि हैं, जिन्होंने अपनी कृतियों ‘विक्रमाङ्कदेवचरित’ तथा ‘श्रीकष्ठचरित’ में अपने जीवनवृत्त के विवरण के साथ अपने समसामयिकों के विषय में भी सूचनाएँ दी है। ऐसे उपर्युक्त कोटि के कवियों में बाणभट्ट प्रथमस्थानीय हैं, जिन्होंने अपनी ‘कादम्बरी’ में अपने वंश का संक्षिप्त तथा अपने ‘हर्षचरित’ में अपने पूर्वजों तथा अपना व्यक्तिगत विस्तृत परिचय दिया है। ‘हर्षचरित’ के प्रथम दो उच्छ्वासों में बाण ने अपने वंश, पूर्वजों तथा अपना व्यक्तिगत इतिवृत्त प्रस्तुत किया है। उनके वैयक्तिक जीवन का वर्णन तो तृतीय उच्छ्वास तक चला गया है। हर्षचरित के प्रारम्भ में अपने वात्स्यायन-कुल का वर्णन बाण ने पौराणिक शैली में किया है। उनके कुल के आदि-पुरुष वत्स थे, जिनका सम्वर्धन तथा परिपालन सरस्वती और दधीच के आत्मज सारस्वत के साथ-साथ सम्पन्न हुआ था। इसी वत्स से वात्स्यायन-वंश की परम्परा प्रवाहित हुई, जिसमें बाण ने जन्म लिया। वत्स के अनन्तर कालान्तर में कुबेर नामक ब्राह्मण उत्पन्न हुए, जिनके अच्युत, ईशान, हर तथा पाशुपत-ये चार पुत्र युगारम्भ के सदृश हुए। उनमें भू-भार के सदृश कुल-मर्यादा के रक्षक महात्मा पुत्र अर्थपति का जन्म पाशुपत से हुआ। अर्थपति के रुद्रों के समान एकादश पुत्र उत्पन्न हुए-जो भृगु, हंस, शुचि, कवि, महीदत्त, धर्म, जातवेदस्, चित्रभानु, त्र्यक्ष, अहिदत्त और विश्वरूप इन नामों से प्रसिद्ध हए। उनमें से चित्रभानु ने राजदेवी नामक ब्राह्मणी में बाण नामक पुत्र प्राप्त किया। बाण के दो पारशव भाई (शूद्रा स्त्री से उत्पन्न) चित्रसेन तथा मित्रसेन एवं चार चचेरे भाई-गणपति, अधिपति, तारापति तथा श्यामल-थे। ‘कादम्बरी’ के प्रारम्भिक श्लोकों में भी इसी वंश-वृक्ष का वर्णन निम्रप्रकार से उपलब्ध है। कुबेर, वात्स्यायन गोत्रीय एक ब्राह्मण थे जो गुप्तनरेशों के द्वारा समादृत थे। कुबेर के आत्मज अर्थपति थे जिनके चित्रभानु पुत्र १. द्रष्टव्यः हर्षचरित के अनुसार वात्स्यायन-वंश-वृक्षका परिचय वत्स (दधीच तथा सरस्वती के पुत्र की सारस्वत के पितृव्य पुत्र) कुबेर = (वत्स के वंशज) अच्युत, ईशान, हर, पाशुपत = अर्थपति = भृगु, हंस, शुचि, कवि, महीदत्त, धर्म, जातवेदस्, चित्रभानु, त्र्यक्ष, अहिदत्त और विश्वरूप। गद्य-खण्ड हुए। यही चित्रभानु, बाण के पिता थे। हर्षचरित के अनुसार पाशुपत, बाण के प्रपितामह थे, पर ‘कादम्बरी’ में उनका उल्लेख नहीं किया गया है। _माता सरस्वती के प्रभाव से सारस्वत में यौवनावस्था के आरम्भ में ही समस्त विद्याओं का प्राकट्य हो गया, जिनका संचार उन्होंने अपने समवयस्क प्राणप्रिय मित्र वत्स में कर दिया। यही बाण के सर्वप्रथम कुल-पुरुष थे। सारस्वत ने वत्स का विवाह कर दिया तथा हिरण्यबाहु (आधुनिक शोणभद्र) नदी के तट पर प्रीति के कारण प्रीतिकूट नामक निवास-ग्राम वत्स के लिए बसा दिया। दैवदुर्विपाकवश बाण बाल्यावस्था में ही मातृहीन हो गए। स्नेहवश पिता चित्रभानु ने मातृस्थान की पूर्ति कर बाण का पालन-पोषण किया। बाण के उपनयनादि संस्कार यथाकाल सम्पन्न हुए। बाण की आयु चौदह वर्ष की भी पूर्ण न हो पाई थी कि उनके पिता बिना वृद्धावस्था में पहुँचे ही दिवंगत हो गए। पिता की मृत्यु से दुःखी बाण ने अपना कुछ समय घर में ही व्यतीत किया। स्वतन्त्र बाण की अनुशासनहीनता उत्तरोत्तर बढ़ती गई तथा वह कौमारावस्थाजनित अनेक चपलताओं का शिकार बन अवारा (इत्वर) बन गया। बहुत से समवयस्यक मित्र और सहायक बन गए। बाण ने अपने हर्षचरित के प्रथम उच्छ्वासकी परिसमाप्ति पर अपने इस अवस्था की मित्रमण्डली की विस्तृत सूची प्रस्तुत की है। यद्यपि पैतृक ब्राह्मणोचित धन-सम्पत्ति बाण के गृह में परम्परा से चली आरही थी तथा विद्या-प्रसङ्ग भी अविच्छिन्न रूप से चल रहा था, तथापि किशोरावस्था के अल्हड़पन के कारण विवश होकर बाण देश-देशान्तरों को देखने के कौतूहल से वशीभूत अपनी मित्र-मण्डली के साथ अपने घर से निकल पड़े। ग्रहाभिभूत की तरह स्वतन्त्र रूप से इतस्ततः विचरण करते हुए बाण सामाजिक श्रेष्ठ-जनों की हँसी के पात्र बन गए। बाण बड़े-बड़े राजकुलों में भी गए जिनके उदार-व्यवहार ने उन्हें आकृष्ट कर लिया। इस यात्राक्रम में बाण ने अनिन्द्य विद्याओं के अध्ययनाध्यापन से उद्भासित गुरु-कुलों की सेवा की, गुणी जनों की गोष्ठियों में भी सम्मिलित हुए तथा गम्भीरबुद्धिप्रधान विदग्धजनों की मण्डलियों का सेवन किया। परिणामस्वरूप संस्कारवशात् बाण ने विद्या, बुद्धि एवं अनुभवों के धनी बनकर अपनी पैतृकमूल विद्वज्जनप्रकृति को संयोग से प्राप्त कर लिया। बहुत दिनों के उपरान्त पुनः बाण अपने प्रीतिकूट ग्रामकी निवासभूमि पर लौट आए। बन्धुजनों ने आदरपूर्वक अभिनन्दन किया तथा अपनी बालमण्डली के मध्य बाण ब्रह्मानन्द के समान सौख्य का अनुभव करने लगे। प्रचण्ड भीषण ग्रीष्म ऋतु में एक दिन जब मध्याह्न का भोजन समाप्त कर बाण अपने गृह में बैठे हुए थे, उसी समय उनके पारशव भ्राता चन्द्रसेन ने भीतर प्रवेश कर निवेदन किया कि महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीहर्षदेव के भाई कृष्ण का सन्देशवाहक आया है। लेखहारक मेखलक ने पत्रसहित सन्देश दिया कि “आपकी अनुपस्थिति में कतिपय दुर्जनों ने सम्राट् से विपरीत निवेदन कर दिया है, पर वास्तविकता ऐसी नहीं है। प्रायः शैशवावस्था गद्य-काव्य इस प्रकार के चाञ्चल्य से पूर्ण होती है। सम्राट् ने इसे स्वीकार किया है। अतः आप अविलम्ब राजकुल में आ जाइए। निष्फल वृक्ष की तरह ग्राम में समय-यापन करना सर्वथा अनुचित है।" प्रथमतः राज-दरवार की कष्टमयी विषय सेवा-वृत्ति के प्रति अपनी अनभिज्ञता तथा अकुशलता के कारण बाण संकल्प-विकल्पात्मक अन्तर्द्वन्द्व में पड़ गए, पर अन्ततोगत्वा उन्होंने ‘जाना ही पड़ेगा’ ऐसा अपरिहार्य निर्णय कर भगवान् आशुतोष शंकर के प्रति शरणागत हो प्रस्थान करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। दूसरे दिन प्रास्थानिक माङ्गलिक कृत्यों का विधिपूर्वक सम्पादन कर बाण राजदरबार के लिए अपने निवास स्थान से निकल पड़े। प्रथम दिन चण्डिकावन नामक ग्राम को पार कर मल्लकूट ग्राम में पहुँच गए। वहीं यात्रिक पड़ाव किया तथा अपने अभिन्न मित्र जगत्पति की आवभगत से कृतकृत्य होकर गंगा पार यष्टिगृहक नाम के वन-ग्राम में रात बिताई। दूसरे दिन अजिरवती नदी के तट पर मणिपुर नामक ग्राम के समीप अवस्थित स्कन्धवार में पहुंच गए और राजभवन के पास ही ठहर गए। अवसर मिलने पर एक दिन अपराहण के समय जब राज-दरबार सभासदों से भरा था तथा सम्राट् हर्ष के पास मालवराजकुमार विद्यमान था, तब दौवारिक के साहाय्य से बाण का प्रवेश महाराज के समीप हुआ। बाण के पहुंचने पर श्रीहर्ष ने अवज्ञापूर्ण वचनों में कहा कि “जब तक यह मेरे प्रसाद का पात्र नहीं बनेगा, तब तक मैं इसे नहीं देलूँगा। यह तो बड़ा भारी भुजङ्ग है।" बाण ने प्रत्युत्तर में अपनी सफाई दी और सम्राट भी “मैंने ऐसा ही सुना है।” बस इतना ही कहकर मौन हो गए। “मैं सर्वथा वही करूँगा जिससे समय आने पर सम्राट् मुझे सम्यक् रूप से जान लेंगे।" ऐसा निश्चय कर बाण स्कन्धवार से निकलकर अपने शुभ हितैषियों के घर ठहरने के लिए चले गए। बाण राज-दरबार के समीप कुछ दिन ठहरे तथा समयानुसार सम्राट् उनके स्वभाव तथा पाण्डित्यपूर्ण विद्वत्ता से परिचित होकर नितान्त प्रसन्न हो गए। बाण राज-भवन में प्रविष्ट हो गए। थोड़े ही दिनों में सम्राट् ने बाण को अपने प्रसादजनित सम्मान, प्रेम, विश्वास, धन-सम्पत्ति एवं प्रभाव की पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया। राजकीय सम्मान से समादृत होकर बाण अपने ग्राम लौट आए। मित्रों, सम्बन्धियों एवं कौटुम्बिक जनों ने बाण का हार्दिक अभिनन्दन किया। वाचक सुदृष्टि ने वायुपुराण के वाचन से उनका स्वागत किया। उसी अवसर पर बन्दी सूची-बाण ने मधुर-स्वर से दो आर्या छन्दों का गायन किया जिनमें श्रीहर्ष के जीवन-वृत्त के प्रति संकेत था। आर्याओं का श्रवणकर बाण के चारों चचेरे भाई परस्पर एक दूसरे का मुख कौतूहलवश देखने लगे और तदनन्तर उन चारों में कनीयान्, बाण के प्राण-प्रिय श्यामल ने निवेदन किया कि “हे तात। द्वितीय महाभारत के सदृश हर्ष के चरित को सुनने के लिए किसके मन में कुतूहल न होगा। अतः आप वर्णन करें। यह भार्गव-वंश उस पुण्यकीर्ति राजर्षि के पावन चरित को २४ गद्य-खण्ड सुनकर और भी पवित्र हो जाएगा।” बाण ने सम्राट हर्ष के महान् कार्यों के यथावत् वर्णन करने में सर्वथा अपनी असमर्थता प्रकट की, लेकिन उस दिन तो दिवसावसान समीप था। अतः हर्षचरित का वर्णन दूसरे दिन से प्रारम्भ होगया। बाण के जीवनवृत्त के उत्तर-भाग का वर्णन सुलभ नहीं है। ‘कादम्बरी’ को अपूर्णावस्था में छोड़कर बाण दिवंगत हो गए। उसके उत्तरार्द्ध को पूरा कर उनके पुत्र ने पूर्ण बनाया। ‘हर्षचरित’ में वर्णित बाण की आत्मकथा का अंश समाप्त हो जाता है और तृतीय उच्छ्वास से हर्षचरित का मूल वर्णन प्रारम्भ होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि हर्षवर्धन के समक्ष उपस्थित होने के पूर्व बाण का वैवाहिक संस्कार सम्पन्न हो चुका था और वे एक पूर्ण गृहस्थ बन चुके थे। सम्भवतः सन्ततियुक्त हो चुके थे; क्योंकि प्रथम साक्षात्कार के अवसर पर हर्ष की उपेक्षाजनित “महान् अयं भुजङ्गः।” उक्ति का प्रत्युत्तर देते हुए बाण ने निवेदन किया है कि “दारपरिग्रहादभ्यागारिकोऽस्मि ..।” __ संस्कृत के अन्य अधिकांश कवियों के सर्वथा विपरीत बाण एक सुसम्पन्न धनी परिवार में उत्पन्न हुए थे। इनका परिवार ब्राह्मण विद्वानों का एक प्रतिष्ठित कुल था, जिसमें पिता-पितामहों द्वारा उपार्जित ब्राह्मणजनोचित सम्पदा विद्यमान थी। ऐसा उन्होंने हर्षचरित के प्रथम उच्छ्वास के अन्त में उल्लेख किया है।’ बाण को लक्ष्मी तथा सरस्वती दोनों का दुर्लभ संयोग प्राप्त था जो साहित्यकारों के लिए अप्राप्य है। यह भी विदित होता है कि सम्राट् हर्ष ने बाण को ‘वश्यवाणीकविचक्रवर्ती’ की उपाधि से विभूषित किया था। जैसा कि चालुक्यवंशीय राजा जगदेकमाला के सभापण्डित कवि दुर्गासिंह ने अपनी रचना ‘कर्नाटक पंचतन्त्र’ में उल्लेख किया है। बाण वस्तुतः कवियों के चक्रवर्ती थे। यह उनकी दोनों गद्यात्मक कृतियों से स्वतः सिद्ध हो जाता है। बाण जन्म से स्वभावगम्भीरधीर थे तथा उच्चकोटि के पारंगत विद्वान् थे। उन्होंने स्वयमेव उल्लेख किया है कि “सम्पक पठितः साङ्गो वेदः। श्रुतानि यथाशक्ति शास्त्राणि।” उनकी रचनाओं के सिंहावलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि बाण साहित्यशास्त्र, व्याकरणशास्त्र के निष्णान्त विद्वान् थे तथा वैशेषिक, वेदान्त एवं बौद्धप्रभृति भारतीय आस्तिक-नास्तिक दर्शनों से सम्यक् रूप से परिचित थे। अपनी दोनों कृतियों का प्रारम्भ बाण ने भगवान् शिव की संस्तुति से की है। अपने जीवन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यात्रा का प्रारम्भ उन्होंने भगवान् शिव की सर्वाङ्गीण पूजा की है। अतः यह स्पष्ट है बाण एक निष्ठावान् आस्तिक शिवभक्त थे। ‘मानवीय जीवन की प्रचण्ड प्रताड़नाओं तथा वेदनाओं से प्रताड़ित-मर्माहत कविमात्र ही सरस्वती का उत्कृष्ट उपासक १. द्रष्टव्य : “सत्स्वपि पितृपितामहोपात्तेषु ब्राह्मणजनोचितेषु विभवेषु….. गृहान्निरगात्।" हर्षचरित पृष्ठ ४२ द्रष्टव्य : “परस्परविरोधिन्योरेकसंश्रयदुर्लभम् । संगतं श्रीसरस्वत्यो भूतयेस्तु सदा सताम् ।।” विक्रमोर्वशीयम् ५, २४ रघुवंशम् ६.२६ गद्य-काव्य २५ हो सकता है अन्य नहीं, ऐसी आंग्ल भाषा के महान् कवि कीट्स की मान्यता है। बाण इसके अपवाद थे। भौतिक सुविधाओं के उत्तुङ्ग शिखर से जीवन के यथार्थ स्थल पर उतरकर मानव की भीषण यातनाओं का अनुभव तथा आत्मसात् कर बाण ने भारतीय संस्कृति के शाश्वत सार्वभौम सार्वजनिक सन्देश का उद्घोष किया है। वह अद्वितीय तथा अपूर्व है।
बाण तथा उनके पुत्र
निःसन्देह बाण के पुत्र योग्य पिता के योग्य पुत्र थे। यद्यपि एक महान् कवि के रूप में नहीं, जैसे उनके पिता थे, तथापि अपूर्ण ‘कादम्बरी’ को पूर्णता प्रदान कर उन्होंने संस्कृत जगत् को अघमर्ण बना दिया। बाण के पुत्र ने बड़ी शालीनता के साथ उल्लेख किया है कि “में कवित्वदर्प से प्रेरित होकर नहीं, प्रत्युत पितृ-ऋण से उऋण होने के लिए पिता के दिवंगत होने के एक वर्ष की अवधि में प्रस्तुत ग्रन्थ ‘कादम्बरी’ को पूर्ण बनाया।’ पितृचरण के प्रभाव से उनके सदृश गद्य-संरचना कर सका हूँ, अन्यथा कादम्बरी (मदिरा) के रस से मदोन्मत्त होकर विवेकशून्य मुझे भय है कि रसवर्जित अपने वचनों से उसकी पूर्ति कर विद्वज्जनों की कहीं हँसी का पात्र न बन जाऊँ।” उन्होंने यह भी निवेदन कर दिया है “मैंने पितृ-कृति को इस योग्यता से पूर्णता प्रदान की है कि विदग्धजन बड़ी कठिनाई से व्यवधान का अनुभव कर सकेंगे। यद्यपि मुझे अपेक्षित सीमा तक सफलता नहीं मिली, तथापि मैंने पूरा यत्न किया।” विनय-भावना से भावित होकर बाण-तनय ने कादम्बरी के उत्तरार्द्ध में अपना नामोल्लेख तक नहीं किया है; क्योंकि उनकी हार्दिक अनुभूति तथा श्रद्धा-समन्वित विश्वास था कि मूलतः उनका कोई योगदान नहीं है। उनकी इस मौनता ने आधुनिक संस्कृत-साहित्य के समीक्षकों के लिए समस्या उपस्थित कर दी है कि उनका नाम क्या था ? डॉ. पिटर्सन का कथन है कि बाण-तनय का नाम भूषण था तथा उनका निर्देश है कि इस नाम को प्रकाश में लाने का श्रेय डॉ. बूल्हर को है। यह मत अन्य समालोचकों को स्वीकार्य नहीं है। जम्बू में संगृहीत शारदा-लिपिबद्ध ‘कादम्बरी’ की एक हस्तलिखित प्रति के उत्तरभाग के अन्त में बाणपुत्र का नाम भट्टपुलिन्द अङ्कित है। जिसकी १. द्रष्टव्य : “याते दिवं पितरि तद्वचसैव साधू, विच्छेदमाप भुवि यस्तु कथाप्रबन्धः । दुःखं सतां तदसमाप्तिकृतं विलोक्य, प्रारब्ध एष च मया न कवित्वदर्यात्।।" ‘कादम्बरी’ उत्तरार्द्ध का चतुर्थ श्लोक’ २. द्रष्टव्य : “कादम्बरीरसभरेण समस्त एव मत्तो न किञ्चिदपि चेतयते जनोऽयम्। भीतोऽस्मि यन्न रसवर्णविवर्जितेन तच्छेषमात्मवचसाऽयनुसंदधानः।।" वही ३. द्रष्टव्य : डॉ. पिटर्सन द्वारा सम्पादित ‘कादम्बरी की भूमिका’ पृष्ठ-४०२६ गद्य-खण्ड लेखन-तिथि शकाब्द १५६६ तदनुसार १६४७ ई. है।’ उदयपुर के विक्टोरिया संग्रहालय में उपलब्ध एक दूसरी हस्तलिखित प्रति तथा नाथद्वार के महाराजाधिराज के संग्रह की एक अन्य प्रति में पुलिन्द नाम मिलता है। महाकवि बाणभट्ट के हर्षचरित की अनुकृति पर कविवर धनपाल ने अपनी ‘तिलकमंजरी’ में अपने पूर्ववर्ती कवियों का नामोल्लेख किया है। उन्होंने बाण की संस्तुति के संदर्भ में स्पष्ट उल्लेख किया है कि बाण-तनय का नाम पुलिन्द था। धनपाल का समय ईसा की एकादश शती है। अतः इससे स्पष्ट है कि बाण-पुत्र का नाम पुलिन्द ही था भूषणबाण अथवा भूषणभट्ट नहीं।
बाण तथा मयूर
सम्राट हर्षवर्धन के दरबार को सुशोधित करने वाले कवियों में बाण के साथ मयूर का नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने ‘सूर्य्यशतक’ की रचना की थी। ‘सूर्य्यशतक’ की अपनी ‘भावबोधिनी’ टीका में मधुसूदन ने उल्लेख किया है कि मयूरभट्ट श्वसुर थे और कादम्बरी-कर्ता उनके जामाता। ‘प्रबन्ध चिन्तामणि’ के रचयिता मेरुतुङ्ग का कथन है कि बाण, मयूर की बहन के पति थे। बाण और मयूर के सम्बन्ध में एक जनश्रुति प्रचलित है कि एक दिन मयूर प्रातःकाल काव्यरचनोपरान्त बाण के घर उनसे मिलने गए। उस समय बाण पति-पत्नी पारस्परिक स्वाभाविक प्रेम-कलह में लिप्त थे। दोनों अपने अन्तःकक्ष में विद्यमान थे। मयूर दरवाजे पर ही रुक गए। भीतर प्रवेश का दुःसाहस नहीं किया। बाण, पत्नी को श्लोक रचना कर सुना रहे थे जिसका तीन चरण पूरा कर पा रहे थे, पर चतुर्थ विस्मत हो जाता था। मयर ने चतर्थ पाद की पर्ति कर दी। बाण अत्यन्त प्रसन्न हो गए। पत्नी ने प्रेम-कलह में हस्तक्षेप से क्रुद्ध हो पिता को कुष्ठ रोग से ग्रस्त होने का शाप दे दिया। पतिनिष्ठ पत्नी के शापवश मयूर असाध्य कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गए, परन्तु १. द्रष्टव्य : डॉ. स्टीन की जम्बू संस्कृत हस्तलिखित सूचीपत्र पृष्ठ २६६ २. द्रष्टव्य : प्रो. एस.आर. भण्डारकर शोधविवरण हस्तलेख १६०४-५, १६०६ ३. द्रष्टव्यः “केवलोऽपि स्फुरन्बाणः करोति विमदान् कवीन्। किं पुनः क्लृप्तसन्धानपुलिन्ध्र (न्द) कृतसन्निधिः।।” ४. द्रष्टव्यः “मालवराजस्योज्जयिनीराजधानीकस्य कविजनमूर्धन्यस्य रत्नावल्याख्यनाटिकाकर्तुमहाराजश्रीहर्षस्य सभ्यौ महाकवी पौरस्त्यौ बाणमयूरावास्ताम्। तयोर्मध्ये मयूरभट्टः श्वसुरः। बाणभट्टः कादम्बरीग्रन्थकर्ता तस्य जामाता।” ५. बाणरचित पद्य के तीन चरण इस प्रकार हैं गतप्राया रात्रिर्विगत-कल-शशी शीर्यत इव प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णत इव। प्रणामान्तोमानस्तदपि न रुषं मञ्चसि प्रिये मयूर-कुचप्रत्यासत्या हृदयमपि ते चण्डि कठिनम्।। गद्य-काव्य २७ ‘सूर्य्यशतक’ की संरचना से पुनः स्वस्थ हो गए।’ आलंकारिक आचार्य मम्मट ने भी अपने ‘काव्यप्रकाश’ के प्रारम्भ में इस घटना की ओर संकेत किया है। बाण ने भी स्पर्धावश भगवती चण्डी की संस्तुति में शतश्लोकों में ‘चण्डीशतक’ का निर्माण किया था। जनश्रुति के अनुसार भगवती स्वयमेव उपस्थित हुई और बाण पूर्ण स्वस्थ हो गए। अनुश्रुति के कथांश में जो भी सत्यता हो, पर इतना तो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि बाण तथा मयूर दोनों समसामयिक थे। राजशेखर ने भी उपर्युक्त कथन का समर्थन करते हुए उल्लेख किया है कि बाण और मयूर दोनों श्रीहर्ष के सभापण्डित थे। कविवर पद्मगुप्त ने भी अपने ‘नवसाहसाकचरित’ में इसका संकेत किया है। आनन्दवर्धनाचार्य ने अपने ‘ध्वन्यालोक’ में सूर्यशतक के कतिपय श्लोकों को उद्धृत किया है। ‘सुभाषितावलि’ में मयूरकृत सूर्य्यशतक के कुछ श्लोक अंकित हैं, पर वे प्रस्तुत प्राप्त ग्रन्थ में सुलभ नहीं हैं, ‘सुभाषितावलि’ की श्लोक संख्या २५१५ में उल्लिखित है कि हर्ष, मयूर के आश्रयदाता थे। अतः यह निर्विवादपूर्वक कहा जा सकता है कि बाण तथा मयूर समसामयिक थे। डॉ. हाल, ५ डॉ. पिटसर्न ६ तथा स्वर्गीय विष्णुशास्त्री चिपलुकण ने उल्लेख किया है कि कवि मयूर, बाण के साथी थे जैसा कि हर्षचरित के प्रथम उच्छ्वास के अन्त में बाण के समवयस्क घुमक्कड़ साथियों की सूची में ‘जागुलिको मयूरकः’ उल्लिखित है। इन उपर्युक्त समीक्षकों के निर्देश के प्रति एतावन् मात्र निवेदन पर्याप्त है कि मयूरक गारुड़िक सपेरा था वह कवि मयूर बाण का श्वसुर नहीं हो सकता।
बाण के काव्य-गुरु
बाण ने अपने ‘हर्षचरित’ में अपनी आत्म-कथा के वर्णन-प्रसङ्ग में अपने गुरु की चर्चा नहीं की, लेकिन प्रथम साक्षात्कार के अवसर पर जब परमेश्वर हर्षवर्धन ने उपस्थित गण्य-मान्य सभा-सदस्यों के सम्मुख उपेक्षाभाव प्रदर्शित करते हुए बाण को देखकर कह डाला कि “यह बड़ा भारी भुजङ्ग है।"; तब मर्माहत बाण का ब्राह्मण-सुलभ स्वाभिमान जाग उठा और उसने कहा है कि “समयानुसार मेरे उपनयनादि संस्कार हुए हैं। मैंने अङ्गों १. द्रष्टव्यः इसी प्रकार की अनुश्रुतियाँ पण्डितराजजगन्नाथ तथा उनकी ‘गंगालहरी’, मानतुङ्गकृत ‘भक्तामरस्त्रोत’ तथा वेङ्कटाध्वरि और उनकी ‘लक्ष्मीसहस्र’ के विषय में प्रचलित हैं। २. द्रष्टव्यः “आदित्यादेर्मयूरादीनामिवानर्थनिवारणम्” ३. द्रष्टव्यः “अहो प्रभावो वाग्देव्याः, यन्मातङ्गदिवाकरः। श्रीहर्षस्याभवत्सभ्यः समो बाणमयूरयोः।। शाङ्गंधरपद्धति श्लोक १८० ४. द्रष्टव्य : “स चित्रवर्णविच्छिन्निहारिणीरवनीपतिः। श्रीहर्षः इव संघट्ट चक्रे बाणमयूरयोः।। श्लोक २, १८ ५. द्रष्टव्य : डॉ. हाल ‘वासवदत्ता की भूमिका’ पृष्ठ १२ ६. द्रष्टव्य : डॉ. पिटसर्न-सुभाषितावलि की भूमिका पृष्ठ १३३ २८ गद्य-खण्ड सहित वेदों का सम्यक् अध्ययन किया है। यथाशक्ति सभी शास्त्रों का भी श्रवण तथा मनन किया है"।’ इसके अतिरिक्त ‘हर्षचरित’ तथा ‘कादम्बरी’ ऐसी रचनाएँ ज्वलन्त प्रमाण हैं कि इनका रचयिता समस्त संस्कृत वाङ्मय तथा अन्य शास्त्रों का उत्कृष्ट विद्वान् था। प्रभुप्रदत्त-प्रतिभा होने पर भी बाण ने अवश्य बाल्यावस्था में सभी शास्त्रों का सम्यक् अध्ययन किया होगा अन्यथा ऐसा कैसे सम्भव हुआ? बाण अपने गुरु का नामोल्लेख अपनी कृतियों में नहीं करते, तो अब प्रश्न उपस्थित होता है कि वह कौन सर्वशास्त्रनिष्णात कवि-गुरु था, जिसके चरणों में बैठकर बाण ने शास्त्रों का अभ्यास किया था जिसके परिणाम-स्वरूप बाण एक महान् कवि हुए थे। ‘हर्षचरित’ के अतिरिक्त ‘कादम्बरी’ पूर्वार्द्ध के प्रारम्भिक उपोद्धात के चौथे श्लोक में बाण ने अपने काव्य-गुरु का किञ्चिन्त्रात्र परिचय दिया है। उस पद्य में बाण ने ‘भर्यु’ के चरणकमलद्वय को प्रणाम समर्पित किया है। यही ‘भर्बु’ बाण के गुरु थे, क्योंकि निर्दिष्ट पद्य के अव्यवहित पूर्व देवस्तुति है तथा उसके अनन्तर खलवर्णन है। अतः यह अनुमान करना युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि उपर्युक्त पद्य में बाण ने अपने गुरु की वन्दना की है। ‘कादम्बरी’ के टीकाकार भानचन्द्र ने इन्हीं को ही बाण का गरु बताया है। अन्तर इतना ही है कि भानुचन्द्र ने ‘भर्वोः’ के स्थान पर ‘भत्सोः’ पाठान्तर का उल्लेख किया है। अतः टीकाकार के अनुसार बाण के गुरु का नाम ‘भर्नु’ नहीं ‘भत्सु’ था। ‘सदुक्तिकर्णामृत’ में भर्तु कवि के नामोल्लेखसहित उनका एक पद्य भी उद्धृत है। इसी प्रकार ‘शागधरपद्धति’ में प्रस्तुत कविविशेष के दो पद्य मिलते हैं तथा ‘सुभाषितावलि’ में ‘शाहूंगधरपद्धति’ के ही दो पद्य ‘भश्चु’ नामक कवि के नाम से उल्लिखित है। इसके अतिरिक्त इनका एक अन्य तीसरा भी पद्य उद्धृत है। सूक्ति-ग्रन्थों के भर्नु, भर्चु तथा भश्चु ये तीनों नाम एक ही कवि हैं तथा ये ही ‘कादम्बरी’ के टीकाकार भानुचन्द्र के अनुसार कवि बाणभट्ट के गुरु थे।’
बाण तथा अन्य कवि
यहाँ उन कवियों की चर्चा अपेक्षित है, जिनका नामोल्लेख बाण ने अपने हर्षचरित के प्रारम्भिक श्लोकों में की है। सर्वप्रथम भगवान् शम्भु तथा उमा की वन्दना कर बाण ने सर्वविद् व्यास को नमस्कार किया है जिनकी वाणी ने ‘भारत’ नामक ग्रन्थ को पवित्र किया, १. द्रष्टव्य : हर्षचरित पृष्ठ ३६ २. द्रष्टव्यः “नमामि भर्वोश्चरणाम्बुजद्वयं सशेखरैौखरिभिः कृतार्चनम्। समस्तसामन्तकिरीटवेदिकाविटंक पीठोल्लुलितारुणांगलि।।” और भी- पाश्चात्त्य संस्कृत समीक्षक डॉ. पिटर्सन ने ‘कादम्बरी’ के पूर्वार्द्ध के प्रारम्भिक पद्यों की निर्मिति के सम्बन्ध में सन्देह प्रकट किया है और उनका कथन है कि इन पद्यों के रचयिता बाण नहीं हैं।" पर आलंकारिक क्षेमेन्द्रने पूर्वार्द्ध के चार श्लोकों को अपनी ‘औचित्यविचारचर्चा’ में उद्धृत किया है। अतः सन्देह का कोई औचित्य नहीं हैं। ३. द्रष्टव्यः आचार्य पं. बलदेव उपाध्यायकृत- ‘संस्कृत सुकवि समीक्षा’ पृष्ठ २७६ गद्य-काव्य जिस प्रकार सरस्वती नदी ने भारतवर्ष को पावन बनाया। इसके अनन्तर ‘वासवदत्ता’ नामक ग्रन्थ की संस्तुति है जिसने कवियों के दर्प को उसी प्रकार समाप्त कर दिया, जिस प्रकार कर्ण के पास पहुँची हुई इन्द्र द्वारा प्रदत्त शक्ति ने पाण्डुपुत्रों के अभिमान को चूर्ण किया।’ इस ‘वासवदत्ता’ के विषय में संस्कृत साहित्य के समीक्षकों में बड़ा विवाद है। ऊपर संकेत किया जा चुका है। प्रस्तुत ग्रन्थ सुबन्धु-कृत कथा नहीं, प्रत्युत आख्यायिका ग्रन्थ है, जिसका निर्देश पतञ्जलि के ‘महाभाष्य’ तथा ‘वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी’ प्रभृति व्याकरणशास्त्रीय ग्रन्थों में उपलब्ध है, जो आज अनुपलब्ध है। पर अनेक समीक्षक इसे सुबन्धुकृत वासवदत्ता ही मानते हैं। बाण ने उल्लेख किया है कि भट्टारहरिचन्द्र द्वारा निर्मित गद्य-बन्ध राजा के सदृश है। इसमें पदों की रचना उज्ज्वल तथा मनोहारिणी एवं वर्गों की संघटना अलंकार-शास्त्र अनुसार है। महेश्वर-विरचित ‘विश्वप्रकाश-कोश’ के अनुसार हरिश्चन्द्र, साहसांकनृपति के राजवैद्य थे। इन्होंने चरक पर एक प्रसिद्ध ‘खरणाद’ संहिता नामक टीका की रचना की थी, लेकिन टीकाकार हरिश्चन्द्र तथा बाणनिर्दिष्ट भट्टारहरिचन्द्र अभिन्न थे, यह कहना बड़ा कठिन है। राजशेखर ने एक साहित्यकार हरिचन्द्र का उल्लेख किया है। कतिपय समीक्षक बाण के भट्टारहरिचन्द्र की पहचान उन्हीं से करना उचित समझते हैं। सातवाहन ने एक कोश की रचना की थी जिसमें सुभाषितों का संग्रह था, ऐसा बाण ने उल्लेख किया है। अलंकार शास्त्रीय ग्रन्थों में प्राकृत-भाषा में निबद्ध पद्यात्मक गीतों के संग्रह को कोश की संज्ञा दी गई है। अतः सातवाहनविरचित यह सुभाषितकोश हालकृत गाथासप्तशती का ही वास्तविक अभिधान है; क्योंकि हाल सातवाहन वंशीय सम्राट थे। हेमचन्द्र ने हाल को सातवाहन का पर्याय माना है। पाश्चात्त्य समीक्षक बेवर की मान्यता है कि सातवाहन-कृत यह कोश अनेक कवियों द्वारा विरचित गीतों का भण्डार है। सातवाहन ने संग्रह मात्र किया; लेकिन बाण सदृश महान् कवि द्वारा संकलन-कर्ता की संस्तुति समीचीन नहीं प्रतीत होती। इसी से डॉ. पिटसन का कथन है कि बेवर की मान्यता भ्रामक है। इसका आधार गाथासप्तशती की एक गाथा है। इसके विपरीत ‘सप्तशती’ में ऐसे १. द्रष्टव्य : “कवीनामगलदो नूनं वासवदत्तया। न शक्त्येव पाण्डुपुत्राणां गतया कर्णगोचनम्।।” हर्षचरित प्रारम्भिक श्लोक २. द्रष्टवय : वही श्लोक १२ ३. द्रष्टव्य : वाग्भट्ट-विरचित अष्टांगसंग्रह के व्याख्याता इन्दु के अनुसार भट्टारहरिचन्द्र की चरक की टीका का नाम ‘खरणाद’ संहिता-कल्पस्थान-अध्याय ६ द्रष्टव्यः “श्रूयते चोज्जयिन्यां काव्यकारपरीक्षा। इह कालिदासमेण्ठावत्रामरसूरभारवयः । हरिश्चन्द्रचन्द्रगुप्तौ परीक्षिताविह विशालायाम् ।।” ५. द्रष्टव्य : साहित्यदर्पण ६, पृष्ठ ३२६-३०, काव्यादर्श १.१३ ३० गद्य-खण्ड आन्तःसाक्ष्य हैं जिनसे सिद्ध होता है कि कोश के रचयिता सातवाहन ही हैं, अन्य नहीं। यहाँ उल्लेखनीय है कि डॉ. भण्डारकर दोनों ग्रन्थ-हालकृत गाथासप्तशती तथा सातवाहनविरचित कोश को एक नहीं मानते हैं। इसके विपरीत डॉ. वा.वि. मिराशी ने निश्चित प्रमाणों से सिद्ध करने का प्रयास किया है कि दोनों ग्रन्थ अभिन्न हैं, क्योंकि ‘गाथासप्तशती’ की अन्तिम गाथा की टीका में उसके टीकाकार पीताम्बर ने संस्कृत-छायानुवाद में मूल-ग्रन्थ को कोश से अभिहित किया है। ‘गाथा-सप्तशती’ के अन्य दो टीकाकार-बलदेव तथा गंगाधर ने भी हालकृत ‘सुभाषित-संग्रह’ को गाथाकोश कहा है।’ प्राकृत कुवलयमालागाथा के कर्त्ता उद्योतन (७७८ ई.) ने हाल के ग्रन्थ को कोश कहा है। हरिचन्द्र के समान सातवाहन का समय भी अनिर्णीत है। सोमदेव ने अपने ‘कथासरित्सागर’ में उल्लेख किया है कि सातवाहन प्रतिष्ठान के राजा थे तथा प्राकृत भाषा में निबद्ध ‘बृहत्कथा’ के रचयिता गुणाढ्य उनके मन्त्री थे। “हर्षचरित” में प्रवरसेन ‘सेतुबन्ध’ के निर्माता के रूप में उल्लिखित हैं। ‘सेतुबन्ध’ प्राकृत-काव्य है। यह ‘रावणवहो’ नाम से भी ज्ञात है। इस काव्य के माध्यम से प्रवरसेन की कीर्ति सागर के दूसरे छोर तक फैल गई थी। डॉ. मिराशी मानते हैं कि ‘सेतुबन्ध’ के रचयिता महाकवि कालिदास हैं, जो कुछ समय के लिए वाकाटक नरेश प्रवरसेन के दरबार में दूत बनकर गए थे। यह प्रवरसेन रुद्रसेनद्वितीय के पुत्र थे, जिनसे चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह किया था। ‘सेतुबन्ध’ के एक टीकाकार ने उल्लेख किया है कि यह काव्य विक्रमादित्य की आज्ञा से प्रवरसेन के लिए कालिदास ने लिखा था। इसी से कतिपय विद्वानों की मान्यता है कि प्रवरसेन प्रस्तुत काव्य के रचयिता नहीं प्रत्युत आश्रयदाता थे, जो समीचीन प्रतीत नहीं होता; क्योंकि प्रस्तुत संदर्भ में बाण ने कवियों की संस्तुति की है तथा प्रवरसेन का सम्बन्ध काव्यात्मक विषय से भी नहीं है। अतः यह अनुमान संगत है कि प्रवरसेन ‘सेतुबन्ध’ के निर्माता थे, जिससे उनकी कीर्ति समुद्र के पार पहुँच गई थी। डॉ. पिटर्सन तथा डॉ. हाल की मान्यता है कि प्रवरसेन कश्मीरनरेश थे जो महाकवि कालिदास के आश्रयदाता तथा मित्र दोनों थे। कल्हण की ‘राजतरङ्गिणी’ के अनुसार मातृगुप्त के बाद प्रवरसेन कश्मीर में गद्दी पर बैठे थे। इस सम्बन्ध में एतावन्मात्र कथन पर्याप्त है कि उपर्युक्त मान्यता भ्रामक है। प्रवरसेन को ‘सेतुबन्ध’ का प्रणेता स्वीकार किया जा सकता है; क्योंकि प्राचीन भारत में ऐसी परम्परा विद्यमान थी कि राजा भी काव्य स्रष्टा होते थे। यहाँ तक कि प्रस्तुत ग्रन्थ के एक टीकाकार राजा ही हैं। १. द्रष्टव्य : डॉ. वा.वि. मिराशी-“दि ओरिजिनल नेम आफ दि गाथासप्तशती” नागपुर ओरियंटल कान्फ्रेन्स जरनल १६४६ पृष्ठ ३७०-७४ द्रष्टव्य : कथासरित्सागर, तरङ्ग ६ ३. द्रष्टव्य : डॉ. पिटर्सन-‘कादम्बरी’ की भूमिका’ पृष्ठ ७८, ७६ तथा डॉ. हाल-‘वासवदत्ता का प्राक्कथन’ पृष्ठ १४ गद्य-काव्य ३१ प्रो. कीथ ने नाटककार भास के सम्बन्ध में बाण के उल्लेख को अत्यन्त प्रामाणिक माना है। हर्षचरित के अनुसार भास के नाटकों का प्रारम्भ सूत्रधार के द्वारा होता है जिनमें बहुसंख्यकपात्र हैं तथा कथावस्तु में ‘पताका’ नामक अंग पाए जाते हैं।’ प्रो. कीथ का कथन है कि बाण ने जो विशेषताएँ बतलाई हैं, वे दक्षिण से उपलब्ध भास के नाटकों में मिलती हैं। अतएव उन्हें भास की प्रामाणिक रचना मानना चाहिए। _भास के अनन्तर बाण ने कालिदास को स्मरण किया है तथा उनकी सूक्तियों की रसस्निग्धता की प्रशंसा की है। कालिदास के सम्बन्ध में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह सर्वविदित है कि ये सुरभारती के विलास तथा ‘भारत के कविकुलगुरु’ हैं। तत्पश्चात् ‘बृहत्कथा’ का उल्लेख है। ऐसी मान्यता है कि यह ग्रन्थ अपनी मूलावस्था में पैशाची भाषा में लिपिबद्ध था, लेकिन आज उपलब्ध नहीं है। सोमदेवकृत ‘कथासरित्सागर’ तथा क्षेमेन्द्रविरचित ‘बृहत्कथामंजरी’ आज दो ग्रन्थ प्राप्त हैं, जिनके प्रणेताओं ने यह स्वीकार किया है कि उनकी कृतियाँ पैशाची में निबद्ध गुणाढ्यनिर्मित “बृहत्कथा” का संक्षिप्तरूप है। ‘कथासरित्सागर’ के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि ‘बृहत्कथा’ मूलतः पैशाची भाषा में क्यों लिखी गई। ‘बृहत्कथा’ बाण के समय में थी तथा विस्मयजनक थी। ‘कादम्बरी’ में भी बाण ने लिखा है कि “कर्णीसुतकथेव सन्निहितविपुलाचला शशोपगता च …" अर्थात् कर्णीसुत की कथा में विपुल, अचल और शश इन पात्रों का सम्बन्ध था। कर्णीसुत मूलदेव का नाम था जिसकी कथा बृहत्कथा में आती है और वहीं विपुल तथा शश इन पात्रों का नाम भी आता है। केशवकृत ‘कल्पद्रुमकोश’ के अनुसार कर्णीसुत या मूलदेव का भाई शश था तथा विपुल और अचल मूलदेव के भृत्य थे। आढ्यराज अन्तिम कवि हैं, जिनका उल्लेख बाणभट्ट ने अपनी ‘हर्षचरित’ की भूमिका में किया है। इन्होंने उत्साहों की संरचना की थी। बाण ने लिखा है- इनकी उत्साहों की स्मृति मेरी जिह्वा को भीतर खींच देती है और मेरी काव्य-रचना की प्रवृत्ति सर्वथा अवरुद्ध हो जाती है। आढ्यराज नामक कवि और उनके उत्साह का निश्चित पता नहीं है। अतः समीक्षकों ने विविध अनुमान किया है। भोजकृत अलंकार शास्त्रीय ग्रन्थ ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ के टीकाकर रत्नेश्वर के अनुसार आढ्यराज का दूसरा नाम शालिवाहन था, जिन्होंने प्राकृत भाषा के अध्ययन को प्रोत्साहित किया था । पर इसे स्वीकार करने में यही आपत्ति है कि जब शालिवाहन और सातवाहन दोनों अभिन्न हैं, तब एक बार बाण ने उनकी संस्तुति कर दी है। तदनन्तर दूसरी बार का कोई औचित्य नहीं प्रतीत १. द्रष्टव्य : हर्षचरित का प्रारम्भिक श्लोक १५वाँ २. द्रष्टव्य : ए.बी. कीथ : ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर १६४१ भूमिका पृष्ठ, १४ ३. द्रष्टव्य : कथासरित्सागर के प्रारम्भिक आठ तरङ्ग। ४. द्रष्टव्यः- केऽभूवन्नाढ्यराजस्य काले प्राकृतभाषिणः” ३२ गद्य-खण्ड होता। डॉ. पिटर्सन’ मानते हैं कि आढ्यराज किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है। वे आढ्यराज को आद्यराज स्वीकार करते हैं और ‘उत्साह’ को वीरतापूर्ण कार्य। कुछ हस्तलिखित प्रतियों में आढ्यराज मिलता है, लेकिन यह आढ्यराज की व्याख्या कठिनाई से प्रतीत होती है। डॉ. पिशेल तथा प्रो. कीथ स्वीकार करते हैं कि हर्षवर्धन ही आढ्यराज थे, पर यह स्पष्ट नहीं लगता कि हर्ष को आढ्यराज क्यों कहा जाएगा। कतिपय समीक्षक इस श्लोक के व्यंग्यार्थ को स्वीकार करते हैं। किम्वदन्ती है कि आढ्यराज सातवाहन के दरबार में गणाढय सात लाख श्लोकों में लिखी गई अपनी ‘बहत्कथा’ को लेकर उपस्थित हुए। उन्हें राजकीय विशेष प्रोत्साहन न मिला। गुणाढ्य ने ग्रन्थ के छह लाख श्लोकों को नष्ट कर दिया और अन्त में जब एक लाख श्लोक शेष रह गए तब सातवाहन ने उस ग्रन्थ की रक्षा की। यह अनुश्रुति अतिशयोक्तिपूर्ण तथा प्राचीन परम्परागत प्रतीत होती है। सम्भवतः बाण के समय प्रचलित होगी और बाण की यह उक्ति तत्कालीन कवियों को राजकीय प्रोत्साहन के न मिलने पर लिखी हो। बाणभट्ट सातवाहन ऐसे प्रसिद्ध प्राचीन राजा के प्रति व्यंग्यार्थ आक्षेप में क्यों संलग्न होंगे तथा अग्रिम श्लोक के साथ इसकी प्रासङ्गिता भी नहीं बैठती है। संस्कृत वाङ्मय में पूर्ववर्ती कवियों तथा उनके निर्मित ग्रन्थों के प्रति नमस्कार, समर्पण तथा कृतज्ञताज्ञापन की पद्धति सर्वप्रथम बाण में दृष्टिगत होती है या सुबन्धु की ‘वासवदत्ता’ में मिलती है। धनपाल की ‘तिलकमंजरी’ में भी इसका अनुसरण हुआ है। प्राकृत और अपभ्रंश के प्रायः सभी कवियों ने इसका अनुगमन किया है। जैन साहित्य के महापुरुष की उत्थानिका में पुष्पदन्त ने लगभग बाईस पूर्ववर्ती कवियों का नामोल्लेख किया है।
बाण की कृतियाँ
‘हर्षचरित’ और ‘कादम्बरी’ बाणभट्ट की सर्वविदित प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। इनके अतिरिक्त अनुश्रुति है कि बाण ने अपने कुद्ध श्वसुर मयूर के शाप से मुक्त होने के लिए भगवती दुर्गा की स्तुति में ‘चण्डीशतक’ नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया था। यह सम्पूर्ण शतक स्रग्धरा वृत्त में निबद्ध है। चण्डीशतक आज अनुपलब्ध है, लेकिन इसके श्लोक ‘सरस्वती-कण्ठाभरण’ तथा आचार्य मम्मटकृत ‘काव्यप्रकाश’ में मिलते हैं। बाण ने भीषण चण्डी की आराधना में इसकी रचना की थी। यह आश्चर्य का विषय नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने १. द्रष्टव्य-डॉ. पिटर्सन-कादम्बरी की भूमिका। ताया कि २. द्रष्टव्यः-जरनल रायल एसियाटिक सोसाइटी, १६०३ पृष्ठ ८३। ३. नाथूराम प्रेमीः जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ ३२५ गद्य-काव्य ‘हर्षचरित’ और ‘कादम्बरी'२ में देवी चण्डिका तथा उसके मन्दिर का आकर्षक वर्णन प्रस्तुत किया है। अर्जुनदेव ने तो अपनी ‘अमरुशतक’ की टीका में बाण को ‘चण्डीशतक’ के रचयिता के रूप में अङ्कित किया है। अतः बाण को ‘चण्डीशतक’ का प्रणेता स्वीकार करना युक्तिसंगत है। ४. पार्वती-परिणय-पांच अंकों में निबद्ध ‘पार्वतीपरिणय’ नाट्य-ग्रन्थ के रचयिता भी बाण माने जाते हैं। कालिदास के ‘ऋतुसंहार’ के समान कतिपय समीक्षकों की धारणा है कि ‘पार्वती-परिणय’ बाण की रचना नहीं है। पण्डित आर. वी. कृष्णमाचारी ने अपने वाणी-विलास संस्करण के ‘पार्वतीपरिणय’ की भूमिका में उल्लेख किया है कि प्रस्तुत ग्रन्थ कादम्बरी के प्रणेता की कृति नहीं है। ईसा की १५ शताब्दी के प्रथम चरण में किसी वामनभट्टबाण ने इसकी रचना की थी जो ‘श्रृगारभूषणभाण’ के भी रचयिता हैं। लेकिन पण्डित आचारी के तर्क बुद्धिसंगत नहीं प्रतीत होते। ‘पार्वतीपरिणय’ की प्रस्तावना में बाण को वत्स वंश में उत्पन्न बतलाया गया है। ‘कादम्बरी’ के प्रणेता बाण वत्सगोत्रोत्पन्न हैं और वामनभट्टबाण भी उसी वंश की संतति हैं।’ वामनभट्टबाण ने बाणभट्ट से अपने को भिन्न बताने के लिए वामनबाण, वामनभट्टबाण, अभिनवबाण, अथवा मात्र भट्टबाण इत्यादि भिन्न-भिन्न नामों से अभिहित किया है। ‘कादम्बरी’ और ‘हर्षचरित’ के रचयिता अपने को मात्र बाण उल्लेख करते हैं। और यही ‘पार्वतीपरिणय’ में उपलब्ध है। इससे स्पष्ट अनुमान होता है कि ‘पार्वती-परिणय’, बाण की संरचना है, वामनभट्टबाण की नहीं। इसके अतिरिक्त ‘पार्वती-परिणय’ तथा ‘हर्षचरित’ में उल्लेखनीय समता दृष्टिगत होती है। दोनों कृतियाँ नए कवि की लेखनी से प्रसूत हैं। प्रस्तुत नाटक पर कालिदास के ‘कुमारसम्भव’ की छाया पड़ी जान पड़ती है, क्योंकि दोनों का प्रतिपाद्य-शिवपार्वती-विवाह है। दोनों की भावाभिव्यक्ति में अत्यन्त साम्य से प्रेरित होकर भी अधिकांश विद्वान् मानने के लिए तैयार नहीं कि ‘पार्वती-परिणय’ बाण की कृति है। लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। बाण सदृश मौलिक प्रतिभा सम्पन्न कवि अन्य कवियों की रचनाओं से भावों तथा विचारों का अपहरण ३. १. हर्षचरित (डॉ. पी.बी. काणे) पृष्ठ ५७ २. कादम्बरी (पिटर्सन) पृष्ठ २२५-२२८ ।। “उपनिबद्धे च भट्टबाणे नैवंविध एवं संग्रामप्रस्तावे देव्यास्तद्भक्तिभिः भगवता भर्गेण सह प्रतिपादनाय । बहुधा नर्म। यथा “दृष्टावासक्तदृष्टिः प्रथममथ तथा संमुखीनाभिमुख्ये, स्मेरा हासप्रगल्भे प्रियवसि कृतश्रोत्रपेयाधिकोक्तिः। तद्युक्ता नर्मकर्मण्यवतु पशुपतेः पूर्ववत्पार्वती वः, कुर्वाणा सर्वभीषद्विनिहित चरणालक्तकेव क्षतारिः।” चण्डीशतक श्लोक ३७ अमरुकशतक पृष्ठ ३ ४. “अस्ति कविसार्वभौम वत्सान्वयजलधिकौस्तुभो बाणः"। नृत्यति यद्सनायां वेधोमुखरंगलासिका वाणी।।" पार्वतीपरिणय १.४ “जागर्ति वामनो बाणो वत्सवंशशिखामणिः।” -शब्दरत्नाकर निघण्टु-‘श्रीमान् वामनभट्टबाण कविः साहित्यचूडामणिः।’ श्रृङ्गारभूषणभाण गद्य-खण्ड नहीं कर सकता। ‘कुमारसम्भव’ में नारद का इतिवृत्त नगण्य है जब कि ‘पार्वती-परिणय’ के प्रथम अंक का समस्त कथानक नारद से सम्बद्ध है। दोनों कृतियों की तुलना में ‘पार्वती-परिणय’ की वरीयता स्पष्ट है। बाण कालिदास पर सर्वथा आश्रित नहीं हैं। इन्होंने ‘कुमारसंभव’ में वर्णित शिव-पार्वती-विवाह में परिवर्तन किया है। नाटक में वसन्तिका और रम्भा तथा पार्वती की दो सखियों जया और विजया का सम्वादात्मक उपाख्यान अभिनय की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि ‘कादम्बरी’ की रचना से पूर्व बाण, कालिदास के द्वारा प्रस्तुत ‘कुमारसंभव’ के कथानक को आधार बनाकर नाट्य-कृति का प्रणयन करना चाहते थे। बाण के द्वारा संस्कृत नाट्यकारों के मूर्धन्य कालिदास की संस्तुति की भी सार्थकता सिद्ध होती है। आंग्ल भाषा के सर्वश्रेष्ठ नाटकार शेक्सपियर भी नार्थ प्लुटार्क तथा स्काटलैण्ड के क्लानिक्स के ऋणी हैं, क्योंकि वे अधिकांश अपने नाटकों की रचना में उनसे प्रभावित हैं। _ ‘पार्वती-परिणय’ एक सफल नाट्य-कृति नहीं है। यही प्रधान कारण है कि बाण नाटक-प्रणयन से विमुख होकर, उन्होंने अपनी काव्यगत-प्रतिभा का प्रदर्शन गद्य के क्षेत्र में किया। ‘पार्वती-परिणय’ ने विद्वानों को आकृष्ट नहीं किया। परिणामस्वरूप आलंकारिकों ने इसके उद्धरणों को अपनी कृतियों में स्थान नहीं दिया। गद्य-काव्यकार की प्रतिभा से नाटककार की प्रतिभा सर्वथा भिन्न होती है। बाण ने अनुभव किया तथा उस दिशा में प्रयास करना छोड़ दिया। ‘हर्षचरित’ तथा ‘कादम्बरी’ में बाण ने अपनी काव्यगत प्रतिभा का प्रदर्शन किया है। ‘पार्वती-परिणय’ में उसका सर्वथा अभाव है। अतः समीक्षक यह स्वीकार करने के पक्ष में नहीं है कि ‘पार्वती-परिणय’ कादम्बरीकार की रचना है। यद्यपि कवि जन्मजात होता है, बनता या बनाया नहीं जाता है, तथापि अपनी स्वभावसिद्ध काव्य-प्रतिभा को विकसित करने के लिए समय की अपेक्षा होती है। प्रारम्भिक रचना की प्रतिभा प्रौढ़ावस्था की कृतियों में नितान्त विकसित तथा परिपक्व हो जाती है। इस परिप्रेक्ष्य में समीक्षा करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘हर्षचरित’ तथा ‘कादम्बरी’ के स्तर तक ‘पार्वती-परिणय’ नहीं पहुँच सकता, तथापि बाण के कृतित्व को स्वीकार करने में कोई अवरोधक तत्त्व प्रतीत नहीं होता। इन उपर्युक्त कृतियों के अतिरिक्त ‘मुकुटताडितक’ भी बाण की एक रचना है ऐसा प्रमाण मिलता है। त्रिविक्रमभट्ट-विरचित ‘नलचम्पू’ के टीकाकार गुणविजयगणि ने इस नाटक को बाण-की रचना बतलाया तथा उसमें से एक श्लोक भी उद्धृत किया है। परन्तु इसके अतिरिक्त इस-‘मुकुटताडिक’ नाटक ग्रन्थ की आज तक न उपलब्धि हुई है न कहीं १. ‘यदाह मुकुटताडितकनाटके बाणः। आशाः प्रोणितदिग्गजा इव गुहा, प्रध्वंससिंहा इव द्रोण्यः कृन्तमहाद्रुमा इव भुवः प्रोत्खाशैला इव। विभ्राणाः क्षयकालरिक्तसकलत्रैलोक्यकष्टां दशां, जाताः क्षीणमहारथाः कुरुपतेर्देवस्य शून्याः सभाः।।" गद्य-काव्य ३५ इसका उल्लेख मिलता है। बाण के नाम से दूसरा नाटक ग्रन्थ ‘सर्वचरित’ का उल्लेख किया जाता है। क्षेमेन्द्र के अनुसार बाण ने कादम्बरी-कथा श्लोकों में भी पृथक् रूप से लिखी थी। उन्होंने अपनी ‘औचित्यविचारचर्चा’ में उससे एक पद्य भी उद्धृत किया है, जिसमें प्रियविमुख कादम्बरी की विरहावस्था का वर्णन है। पर इन उपर्युक्त तीनों कृतियों ‘मुकुटताडितक’, ‘सर्वचरित’ तथा ‘छन्दोबद्ध कादम्बरी-कथा’ के विषय में कुछ विशेष ज्ञात नहीं है तथा आज तक इनका पता भी नहीं चला है। ऐसी चर्चा है कि ‘रत्नावली’ नाटिका की रचना बाण ने की थी तथा प्रचुर धन प्राप्त कर बाण ने अपने आश्रयदाता श्रीहर्ष के नाम से इसको प्रचारित करा दिया। काव्य के तृतीय प्रयोजन-फल-धनप्राप्ति के उदाहरण के रूप में ‘काव्यप्रकाश’ के निर्माता आचार्य मम्मट ने उल्लेख किया है कि जैसे श्रीहर्षादि से बाण ने धन की प्राप्ति की ‘श्रीहर्षादर्बाणादीनामिव धनम्। इन शब्दों के व्याख्या-प्रसंङ् में काव्यप्रकाश के किसी एक टीकाकार ने ऐसा उल्लेख कर दिया है कि बाण ने द्रव्य हेतु अपनी नाटिका को श्रीहर्ष के हाथों बेच दिया था। डॉ. बुल्हर तथा डॉ हाल उपर्युक्त विचार से पूर्ण सहमत हैं। परन्तु यह विचार भ्रामक प्रतीत होता है। आचार्य मम्मट के उल्लेख का अभिप्राय यह है कि बाण एक महान कवि थे। अतः श्रीहर्ष ने उन्हें आश्रयप्रदान किया तथा प्रचुर-धन-सम्पत्ति दी। यदि यही मान लिया जाय कि बाण ने ‘रत्नावली’ धन के लोभ से श्रीहर्ष के हाथ बेच दी, तो ‘रत्नावली’ ही क्यों अपनी सर्वोस्कृष्ट ‘कादम्बरी’ का विक्रय कर बाण अत्यन्त धन प्राप्त कर सकते थे। ‘रत्नावली’ के अतिरिक्त श्रीहर्ष की ‘प्रियदर्शिका’ तथा ‘नागानन्द’ दो अन्य भी नाट्य-कृतियाँ हैं। इन तीनों में अधिक साम्य है जिससे सिद्ध होता है कि तीनों एक ही कवि की रचनाएँ हैं। आज तक किसी ने बाण को ‘प्रियदर्शिका’ तथा ‘नागानन्द’ का निर्माता नहीं कहा। दामोदरगुप्त के ‘कुट्टिनीमत’ (८०० ए.डी.) में तथा भोज के ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ में ‘रत्नावली’ के श्लोक उद्धृत हैं। ‘ध्वन्यालोक’ में आनन्दवर्धन ने ‘रत्नावली’ तथा ‘नागानन्द’ का नामोल्लेख किया है। ‘दशरूपक’ में ‘रत्नावली’ के बीसों पद्य तथा ‘प्रियदर्शिका’ और ‘नागानन्द’ का भी नामोल्लेख है। पर कहीं १. द्रष्टव्यः “यथा वा भट्टबाणस्य।” हारो जलार्द्रवसनं नलिनीदलानि प्रालेयशीकरमुचस्तुहिनांशुभासः। यस्येन्धनानि सरसानि च चन्दनानि निर्वाणमेष्यति कथं स मनोभवाग्निः।। अत्र विप्रलम्भभरभग्नधैर्यायाः कादम्बर्याः विरहव्यथावर्णना"-औचित्यविचारचर्चा द्रष्टव्यः डॉ. हाल द्वारा सम्पादित ‘वासवदत्ता’ का प्राक्कथन पृष्ठ, १५ ३. द्रष्टव्यः “हेम्नो भारशतानि वा मदमुचां वृन्दानि वा दन्तिनां श्रीहर्षेण समर्पितानि कवये बाणाय कुत्राद्य तत्। या बाणेन तु तस्य सूक्तिनिकरैरुटंकिताः कीर्तयस्ताः कल्पप्रलयेऽपि यान्ति न मनाङ् मन्ये । परिम्लानताम्।।” काव्यप्रकाश की टीका-सारसमुच्चय-तथा सुभाषितावलि में भी उघृत (पिटर्सन) न. १८० और भी-श्रीहर्षो विततार गद्यकवये बाणाय वाणीफलम् रामचरित “यदस्य स्वयमेव गृहीत स्वभावः पृथिवीपतिः प्रसादवानभूत्। स्वल्पैरेव चाहोभिः परमप्रीतेन प्रसाद जन्मनो मानस्य प्रेम्णो विनम्भस्य द्रविणस्य नर्मणः प्रभावस्य च परां कोटिमनीयत नरेन्द्रेण।" हर्षचरित पृष्ठ ३७ डॉ. पी. वी. काणेगद्य-खण्ड भी कोई ऐसा संकेत नहीं है कि बाण ‘रत्नावली’ के रचयिता हैं श्रीहर्ष नहीं। पाश्चात्त्य समीक्षकों को राजा-कवि का दृष्टान्त आश्चर्यपूर्ण प्रतीत होता है, पर भारत में ऐसी गौरवमयी परम्परा विद्यमान थी। भर्तृहरि, शूद्रक, श्रीहर्ष, भोजराज, प्रभृति उसके उदाहरण हैं।