संस्कृत वाङ्मय के अलंकृत शैली में निबद्ध गद्यात्मक कृति ‘वासवदत्ता’ के रचयिता सुबन्धु वक्रोक्ति-मार्ग के लब्धप्रतिष्ठ कवि हैं। कविराज ने अपने ‘राघवपाण्डवीय’ काव्य में उल्लेख किया है कि सुबन्धु, बाणभट्ट एवं कविराज (मैं स्वयं) ये तीन ही वक्रोक्तिमार्ग में ३. दालन १. द्रष्टव्यः “धवलप्रभवा रागं सा वितनोति मनोवती।" अवन्तिसुन्दरीकथा २. द्रष्टव्यः “पुण्या पुनीता गङ्गेव सा तरङ्गवती कथा।” -तिलकमञ्जरी द्रष्टव्यः “तौ शूद्रककथाकारौ वन्द्यौ रामिलसौमिलौ। काव्यं ययोर्द्वयोरासीदर्धनारीश्वरोपमम् ।।”- जल्हण. ४. द्रष्टव्यः पदबन्धोज्ज्वलो हारी कृतवर्णक्रमस्थितिः। __भट्टारहरिचन्द्रस्य गद्यबन्धो नृपायते।।" हर्षचरित-प्रथम उच्छ्वास श्लोक १२ ५. द्रष्टव्यः सुबन्धुर्बाणभट्टश्च कविराज इति त्रयः। वक्रोक्तिमार्गनिपुणाः चतुर्थो विद्यते न वा।। प्रथम सर्ग ४श्वाँ श्लोक A गद्य-खण्ड निपुण हैं चौथा अन्य कोई नहीं।“५ संस्कृत साहित्य के अन्य कवियों की भाँति सुबन्धु का जीवनवृत्त भी अज्ञात है। कुछ विद्वान् इन्हें कश्मीरदेशीय मानते हैं तो कतिपय मध्यदेशीय, लेकिन इनकी एकमात्र रचना ‘वासवदत्ता’ के अन्तः साक्ष्य के आधार से ऐसा प्रतीत होता है कि सुबन्धु दाक्षिणात्य थे। ‘वासवदत्ता’ के विन्ध्य-वर्णन-प्रसङ्ग में उल्लेख मिलता है कि मलयाचल से आता हुआ पवन कामकेलि में दक्ष, कर्णाटक देश की रमणियों के स्तनकलशों पर लगे कुंकुमचूर्णों की सुगन्ध को लेकर बह रहा था, तथा केरल देश की युवतियों के कपोल-फलक पर पत्रावली-रचना करने में चतुर था। मालव देश की रमणियों के नितम्बबिम्ब का संवहन करने में चतुर था। सुरतश्रम के कारण क्लान्त आन्ध्रदेश की कामिनियों के निबिड़ वा पुष्ट स्तनों की निदाधकालीन पसीने की बूंदों के सम्पर्क से शीतल था। इत्यादि। दक्षिण भारत का इतना व्यापक परिचय उपर्युक्त कथन हेतु विचारणीय है। स्थिति-कालः- सुबन्धु के स्थिति-काल के विषय में भी समीक्षकों में मतैक्य नहीं है। विशेषकर यह निश्चित करने में कि वे बाणभट्ट के पूर्ववर्ती हैं या परवर्ती। इसका प्रधान कारण है कि बाण ने अपने ‘हर्षचरित’ के प्रारम्भ में उल्लेख किया है कि ‘वासवदत्ता’ ने कवियों के दर्प को चूर कर दिया-‘कवीनामगलदर्पो नूनं वासवदत्तया’। अतः सुबन्धु, बाणभट्ट के पूर्ववर्ती हैं। यह पूर्णतः स्वीकार करने योग्य नहीं प्रतीत होता। वस्तुतः बाण ने ‘वासवदत्ता’ नामक आख्यायिका का उल्लेख किया है जो सुबन्धु विरचित कथा-ग्रन्थ ‘वासवदत्ता’ से सर्वथा भिन्न है। गद्य-काव्यों में आख्यायिका और कथा दोनों पृथक्-पृथक् श्रेणी की विधाएँ हैं। “कथमाख्यायिकाकाराः न ते वन्द्याः कवीश्वराः” इस हर्षचरित के अव्यवहितपूर्व पद्य के उत्तरार्द्ध के द्वारा पूर्वसंदर्भ की पर्यालोचना से प्रतीत होता है कि हर्ष चरित में ‘वासवदत्तया’ इस पद से बाणभट्ट का उद्देश्य किसी ‘वासवदत्ता’ नामक आख्यायिका ग्रन्थ से था; क्योकि परमवैयाकरण भगवान् पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में उसका उल्लेख किया है, जिसका प्रणयन प्रद्योतसुता उदयनपत्नी वासवदत्ता को आधार मानकर किया गया होगा तथा जो आज अनुपलब्ध है। उस ‘वासवदत्ता’ की कथा, ‘बृहत्कथा’, संस्कृत साहित्य के अन्य दृश्यकाव्यों एवं श्रव्यकाव्यों में मिलती है। इस संदर्भ में दूसरा विचारणीय तथ्य यह है कि ‘हर्षचरित’ में भट्टारहरिचन्द्र, सातवाहन, प्रवरसेन, भास एवं कालिदास की तरह सुबन्धु के नामोल्लेख के अभाव में ‘वासवदत्ता’ पदमात्र के प्रयोग से भी यह सिद्ध हो जाता है कि बाणभट्ट, सुबन्धु के पूर्ववर्ती हैं। बाणभट्ट सदृश रसभावसिद्ध तथा नितान्त वाग्वैदग्ध्यनिपुण कोई महामति कवि अत्यन्त कष्टकर कल्पनारचना में प्रवीण अविशालबुद्धि सुबन्धु को अपने समकक्ष कवि मानकर उसकी परिशंसना करेगा? ऐसी श्रद्धा नहीं होती। बाण की ‘कि बहुना’, ‘देवः प्रमाणम्’, ‘अचिन्तयच्च’ और १. द्रष्टव्य-दृश्यकाव्य-स्वप्नवासवदत्त, तापसवत्सराज, उदयनचरित, रत्नावली, प्रियदर्शिका इत्यादि। श्रव्यकाव्य-शक्तिभद्रकृत-उन्मादवासवदत्ता। गद्य-काव्य ‘आसीच्चास्य मनसि’ पदसन्ततियों का सुबन्धुकृत ‘वासवदत्ता’ में ज्यों का त्यों उल्लेख मिलता है। सुबन्धु की ‘वासवदत्ता’ के “वज्रणेन्द्रायुधेन मनोजवनाम्ना तुरगेण सह नगरान्निर्जगाम” वाक्य में इन्द्रायुध शब्द का प्रयोग ‘कादम्बरी’ के चन्द्रापीड के इसी नाम के घोड़े की ओर संकेत है। कादम्बरी की महाश्वेता और कादम्बरी अपने प्रेमियों के मरणोपरान्त अपना प्राण-परित्याग करने का संकल्प लेती हैं, परन्तु आकाश-वाणी को सुनकर अपने दुस्साहस से विरत हो जाती हैं। ‘वासवदत्ता’ में भी प्रेमिका के खो जाने पर कन्दर्पकेतु नायक की भी ऐसी ही स्थिति होती है। “रोमन्थमन्थर …………।” यह वाक्य सन्ध्यावर्णन-प्रसङ्ग में ‘वासवदत्ता’ में तथा ‘हर्षचरित’ के द्वितीय उच्छ्वास के अन्त में समान रूप से उपलब्ध होता है। सुबन्धु और बाणभट्ट की कृतियों के अनेक स्थलों के सम्वाद शब्दतः और अर्थतः मिलते हैं। जैसे ‘वासवदत्ता’ का ‘गुरुदारग्रहणम्………।" ‘हर्षचरित’ के तृतीय उच्छ्वास के प्रारम्भ में “द्विजानां राजा गुरुदारग्रहणमकार्षीत्।” उपलब्ध है। इस स्वल्प उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में यह सारगर्भित प्रश्न उठता है कि सुबन्धु तथा बाणभट्ट में एक के लिए दूसरा अवश्य उपजीव्य बना होगा। बाणभट्ट का ही अनुकरण सुबन्धु ने किया होगा। यही समीचीन प्रतीत होता है। बाण ने सुबन्धु से चोरी नहीं की होगी, क्योंकि बाणभट्ट काव्यार्थ चोरों की निन्दा बड़े कटु शब्दों में करते है। “सन्ति श्वान इवासंख्या जातिभाजो गृहे गृहे। अनाख्यातः सतां मध्ये कविश्चौरो विभाव्यते।।” बाणभट्ट शब्दतः और अर्थतः दोनों रूपों में अपने से चौर-कर्म करते हुए की निर्भीकरूप से उद्घोषणा कर ऐसे उत्कृष्टकोटि के गद्य-काव्यों की संरचना कैसे कर सकते हैं ? ऐसा इन दोनों कवियों के तारतम्य को विज्ञ सहृदय समीक्षक ही निर्णय कर सकते हैं। अतः सुबन्धु, बाणभट्ट के परवर्ती हैं। यह युक्तियुक्त प्रतीत होता है। पर इसके विपरीत म.म.पी.वी. काणे प्रभृति विद्वानों ने बाण को सुबन्धु का पश्चाद्वर्ती मानने के लिए निम्नलिखित तर्क उपस्थित किए हैं : इन समीक्षकों के कथन का स्वारस्य यह है कि बाण द्वारा उल्लिखित ‘वासवदत्ता’ सुबन्धुकृत है, क्योंकि आचार्य वामन (८०० ई.) ने अपनी ‘काव्यालंकारसूत्रवृत्ति’ में सुबन्धु की ‘वासवदत्ता’ और बाण की ‘कादम्बरी’ दोनों से उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। आलंकरिक तथा कवि राजशेखर के पूर्वज कविराज (१२०० ई.) के ‘राघवपाण्डवीय’ में सुबन्धु, बाण तथा उनका ऐतिहासिक तथा कालक्रमानुसार उल्लेख है। प्राकृतकवि लामो १. द्रष्टव्यः हर्षचरित पृष्ठ ३६-३७ म.म.पी.वी. काणे द्वारा सम्पादित संस्करण २. द्रष्टव्यः हर्षचरित प्रारम्भ के श्लोक संख्या ५ तथा ६ १० गद्य-खण्ड वाक्पतिराज ने अपने काव्य ‘गौडवहो’ (७३६ ई.) की गाथा संख्या ८०० में भास आदि कवियों के साथ सुबन्धु का उल्लेख किया है, परन्तु बाणभट्ट का नहीं जिससे प्रतीत होता है कि उस समय तक सुबन्धु पर्याप्त प्रसिद्ध हो चुके थे और बाण की उतनी ख्याति नहीं हुई थी। कतिपय संस्कृत साहित्य के आलोचकों ने ‘वासवदत्ता’ के आन्तःसाक्ष्यों के आधार पर सुबन्धु का साहित्यिकरचनावदान-काल ईसा का षष्ठ शतक निर्धारित किया है। ग्रन्थारम्भ में सुबन्धु ने कीर्तिशेष विक्रमादित्य का स्मरण किया है। प्राचीन भारतीय इतिहास में विक्रमादित्य उपाधिधारी कई नरेश हो चुके हैं, पर इतिहासविदों की मान्यता है कि यह विक्रमादित्य यशोवर्मा ही था, जिसने बालादित्य के साहाय्य से हूणों के पराक्रमी नरेश मिहिरकुल को परास्त कर उन्हें भारत से बाहर निकाल दिया था तथा इसी उपलक्ष्य में विक्रमादित्य की उपाधि से अपने को विभषित किया था। यह घटना ईसा के षष्ठ शतक के मध्य की है। नारीसौन्दर्यवर्णन-प्रसङ्ग में ‘वासवदत्ता’ में ‘न्यायविद्यामिव उद्योतकरस्वरूपाम्’ कवि ने इस उपमान का आनयन किया है। इसके द्वारा नैयायिकशिरोमणि उद्योतकर का निर्देश किया गया है जिन्होंने वात्स्यायनमुनिप्रणीत ‘न्यायसूत्रभाष्य’ के दिङ्नाग प्रभृति बौद्धाचार्यों के द्वारा खण्डन किए जाने पर ‘न्यायवार्तिक’ की रचना की थी। उद्योतकर का समय ईसा की षष्ठ शती है। कन्दर्पकेतु के द्वारा साक्षत्कार किए जाने पर नायक अपनी नायिका वासवदत्ता को ‘बौद्धसंगतिमिव अलंकारभूषिताम्’ मानता है। टीकाकार शिवराम ने ‘अलंकारो नाम धर्मकीर्तिकृतो ग्रन्थविशेषः’ ऐसी व्याख्या की है। डॉ. कीथ भी इसमें श्लेष द्वारा बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति के ‘बौद्धसंगत्यलंकार’ नामक ग्रन्थ की ओर संकेत मानते हैं। धर्मकीर्ति का भी आविर्भाव-काल ईसा की षष्ठ शताब्दी है जिन्होंने दिङ्नागाचार्यप्रणीत ‘प्रमाणसमुच्चय’ की व्याख्या के लिए ‘प्रमाणवार्तिक’ प्रभृति ग्रन्थों की रचना की थी। मीमांसादर्शन के प्रति सुबन्धु का अन्य दर्शनों की अपेक्षा विशेष पक्षपात देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि ‘वासवदत्ता’ नामक ग्रन्थ की संरचना मीमांसकमत के सुप्रतिष्ठित हो जाने के उपरान्त की गई थी। ईसा के षष्ठ शतक के मध्य में कुमारिलभट्ट ने मीमांसकमत को पुनर्जीवित किया १. द्रष्टव्य : “भासम्भि जलणभित्ते कन्तीदेवे अजन्स रहुआरे। सोबन्धवे अबधम्भि हारियन्दे अ आणन्दो।।" द्रष्टव्य : सा रसावत्ता विहता नवका विलसन्ति चरति नो कडकः। है सरसीव कीर्तिशेषं गतवति भुवि विक्रमादित्ये।।" ३. द्रष्टव्य : “आचार्य बलदेव उपाध्याय-संस्कृत साहित्य का इतिहास पृष्ठ ३८६ ४. द्रष्टव्य : यदक्षपादः प्रवरो मुनीनां क्षमाय शास्त्रं जगतो जगाद। कुतार्किकाज्ञाननिवृत्तिहेतु विधीयते तस्य मया निबन्धः।।" -न्यायवार्तिक ५. द्रष्टव्य : A.B. Keith-Classical Sanskrit Literature पृष्ठ ७७ । गद्य-काव्य ११ था तथा उस समय तक यह मत प्रतिष्ठा को प्राप्त कर चुका था। इन्ही आधारों पर समीक्षक सुबन्धु का स्थिति-काल ईसा की षष्ठ शती निर्धारित करते हैं। _संस्कृत वाङ्मय के अर्वाचीन कवियों के अधिकांश प्रबन्ध-काव्यों के अन्त में अपने उत्कर्ष तथा दूसरे की निन्दा का कुतूहल दृष्टिगत होता है।’ कलकत्ता से मुद्रित, ग्रन्थान्ध्ररक्षरमुद्रित एवं तालपत्रों में लिखित ‘वासवदत्ता’ की कतिपय प्रतियों में योजनाबद्धरूप से “कवीनामगलद्दर्पः नूनं वासवदत्तया।” यह पद्य उपलब्ध होता है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ‘हर्षचरित’ में प्राचीन कवियों के संस्तुति-वर्णन-प्रसङ्ग में यह पद्य कैसे स्थान पा गया है? अथवा यदि यह बाणकृत ही है, तो लेखकपरम्परा से कैसे ‘वासवदत्ता’ के अन्त में स्थान पा गया है ? इस सम्बन्ध में कुछ भी निर्णयात्मक इदमित्थं उत्तर प्रस्तत करना बड़ा कठिन है, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि सबन्धु ने अपनी ‘वासवदत्ता’ की उस समय रचना की जिस समय कविगण प्रचुर मात्रा में सभङ्ग, अभङ्ग, क्लिष्ट एवं अर्थविधुर श्लेषों के माध्यम से काव्य में कौतूहल उत्पन्न कर अपने को धन्य समझते थे। ऐसे ही समय में त्रिविक्रमभट्ट ने सर्वप्रकार से ‘वासवदत्ता’ के प्रत्यक्षर श्लेषमयप्रपंचविन्यास का अनुकरण कर अपने ‘नलचम्पू’ नामक प्रबन्धकाव्य का निर्माण किया था। दोनों कृतियों में मनोभावनाओं की अभिव्यक्ति, श्लेष की परियोजना, पद-विन्यास एवं कथा-संक्षेपण में अत्यधिक साम्य दृष्टिगत होता है। ऐसा सुना जाता है कि जिस प्रकार सुबन्धु ने ‘वासवदत्ता’ की रचना की थी, उसी प्रकार त्रिविक्रमभट्ट ने सरस्वती की कृपा से ‘नलचम्पू’ की, ऐसी किंवदन्ती है। त्रिविक्रमभट्ट, बाणभट्ट से अर्वाचीन हैं; क्योंकि उन्होंने बाण और उनकी ‘कादम्बरी’ दोनों का स्मरण किया है। इस प्रकार के विमर्श से यह निष्कर्ष निकलता है कि सुबन्धु की अवस्थिति की सम्भावना वैसे ही उपर्युक्त समय में होनी चाहिए तथा यही समीचीन प्रतीत होता है। कविराज के पद्य से सुबन्धु, बाण की तुलना में प्राचीन (पूर्ववर्ती) नहीं प्रतीत होते; क्योंकि उसमें प्रथमतः सुबन्धु का तत्पश्चात् बाण का नामोल्लेख है। श्लेषादि की क्लिष्ट योजना में बाण की अपेक्षा सुबन्धु की प्रवृति अधिकतर है। श्लेषों के माध्यम से दो कथाओं के निर्वहण में प्रवृत्त कविराज का श्लेषमयजीवित सुबन्धु में अपेक्षाकृत पक्षपात स्वाभाविक तथा उचित ही है। यहाँ पूर्वांपर निर्देश ऐच्छिक है। इससे १. द्रष्टव्य : हरविजयमहाकवेः प्रतिज्ञां श्रृणुत कृतप्रणयो मम प्रबन्धे। अपि शिशुरकविः प्रभावाद् भवति कविश्च महाकविः क्रमेण।। -रत्नाकर तद्विस्तार्य च पुस्तकं परिचितं कीणैर्वचो देवताभूषामेचकमौक्तिकैरिव हठाक्षिप्तेक्षणैरक्षरैः। – व्यावहारेण हृदयान्तरालविहरविद्यावधू नूपुरध्वानभ्रान्तिकृता ततस्तदपठत्स्वं काव्यमव्याकुलः। मङ्खक ग्रन्थग्रन्थिरिह क्वचित् क्वचिदपि न्यासि प्रयत्नान्मया, प्राज्ञमन्यमना हठेन पठिती मास्मिन् खलः खेलतु। -नैषधकर्ताश्रीहर्षः १२ गद्य-खण्ड किसी भी अर्थ की खींचतान की सिद्धि करना युक्तिसंगत नहीं है। ‘सुभाषितहारावली’,’ ‘सूक्तिमुक्तावली’, ‘शार्ङ्गधरपद्धति’,२ ‘श्रीकण्ठचरित’ और वामनबाणभट्टविरचित ‘वीरनारायणचरित" में पूर्वापर कालनिर्देश का अनादर कर श्लोकों की रचना की गई है।
कथानक
सुबन्धु की एकमात्र रचना ‘वासवदत्ता’ उपलब्ध है जिसमें चिन्तामणि राजा का पुत्र कन्दर्पकेतु की कुसुमपुर के राजा शृङ्गारशेखर की राजकुमारी वासवदत्ता के साथ प्रणय-कथा निबद्ध है। राजकुमार प्रातःकालीन स्वप्न में एक रूपवती युवती को देखता है और कामासक्त होकर अपने मित्र मकरन्द के साथ उसके अन्वेषण में अपनी राजधानी से निकल पड़ता है। रात्रि में विन्ध्य-पर्वत की उपत्यका में एक वृक्ष के नीचे अपना पड़ाव डालता है और अर्ध-रात्रि के समय आपस में वार्तालाप करते हुए शुक-दम्पती से अवगत होता है कि कुसुमपुर के राजा की एकलौती परिणययोग्या पुत्री वासवदत्ता पिता के द्वारा आयोजित स्वयंवर में सभी वरों को अस्वीकार कर चुकी है। स्वप्न में वह कन्दर्पकेतु नामक युवक को देखती है और उसी के साथ प्रणय-सम्बन्ध करना चाहती है। युवक की खोज में वासवदत्ता ने सन्देश-वाहक काक को भेजा, जो संयोगवशात् कन्दर्पकेतु से उसी स्थान पर मिलता है। कुसुमपुर के उद्यान-आरामगृह में दोनों प्रेमियों का मिलन होता है, पर यह जानने पर कि राजा शृङ्गारशेखर ने अपनी पुत्री को विद्याधरों के राजा को देने का संकल्प कर लिया है, दोनों प्रेमी-प्रेमिका जादू के घोड़े पर आरूढ़ हो भाग निकलते हैं और विन्ध्याटवी के उसी वृक्ष के नीचे आकर प्रणय-सुख का अनुभव करने लगते हैं। एक दिन प्रातः वासवदत्ता, कन्दर्पकेतु को सोये हुए छोड़कर वन में कन्दमूल की खोज में निकलती है और एक प्रकुपित ऋषि के शाप से शिला में बदल जाती है। प्रिया के विरह में कन्दर्पकेतु आत्महत्या करने के लिए उद्यत हो जाता है और आकाश-वाणी से पुनः दोनों का मिलन १. द्रष्टव्य : “सुबन्धौ भक्तिर्नः क इव रघुकारे न रमते, धृतिर्दाक्षीपुत्रे हरति हरिश्चन्द्रोऽपि हृदयम्। विशुद्धोक्तिः शूरः प्रकृतिमधुरा भारविगिरस्तथाप्यन्तर्मोदं कमपि भवभूति वितुनते।।” २. द्रष्टव्यः “भासो रामित्नसौमिलौ वररुचिः श्रीसाहसाङ्कः कविर्माधः भारविकालिदासतरत्नाः स्कन्धः। सुबन्धुश्च यः। दण्डी बाणदिवाकरौ गणपतिः कान्तश्च रत्नाकरः सिद्धाः यस्य सरस्वती भगवती के तस्य सर्वेऽपि ते।" द्रष्टव्यः “मेण्ठे स्वर्द्विरदाधिरोहिणि वर्शयाते खुबन्धौ विधेःशान्ते हत च भारवौ विघटिते बाणे विषादस्पृशः। वाग्देव्या विरमन्तुमन्तुविधुरा द्राक्दृष्टयश्चेष्टते शिष्टः कश्चन न प्रसादयति तां यद् वाणिसद् वाणिनी।।" ४. द्रष्टव्यः “प्रतिकविभेदनबाणः कवितातरुगहनविहरणमयूरः। सहृदयलोकसुबन्धुर्जयति श्रीभट्टबाणकविराजः।।” गद्य-काव्य १३ होगा ऐसा सुनकर अपने दुःसाहस से विरत हो जाता है। अन्त में शिला का आलिङ्गन करने पर कन्दर्पकेतु का वासवदत्ता से स्थायी मिलन हो जाता है और मकरन्द के साथ अपनी राजधानी में आकर दोनों सुखपूर्वक रहने लगते हैं।
उपजीव्य
इसी उपर्युक्त कन्दर्पकेतु और वासवदत्ता के प्रणयपूर्ण लघु कथानक को आधार बनाकर सुबन्धु ने अपनी पाण्डित्यपूर्ण प्रतिभा और वर्णन-चातुर्य से एक गद्यात्मक प्रबन्ध-काव्य का रूप प्रदान कर दिया, जो सर्वथा प्रशंसनीय है। सुबन्धु, गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ से परिचित थे और उसको उपजीव्य बनाकर उसकी शैली के अनुकरण पर अपनी कृति का प्रणयन किया था। इसके ज्वलन्त प्रमाण विद्यमान हैं। कुसुमपुर के वर्णन में शुक अपने मुख से कहता है कि आज मैंने अपूर्व बृहत्कथा सुनी है-“अपूर्वाद्य बृहत्कथा मया श्रृता ….।” सुनाही नहीं “प्रत्यक्षीकृता च”। उसी संदर्भ में “प्रशस्तसुधाधवलैः बृहत्कथा लम्बैरिव शालभंजिकोपशोभितैः वृत्तैरिव।” यह भी उल्लेख ‘बृहत्कथा’ के सम्बन्ध में श्लेष द्वारा उपलब्ध होता है। वासवदत्ता के स्वयंवर के अवसर पर राजाओं तथा राजकुमारों का वर्णन करते हुए सुबन्धु ने उल्लेख किया है कि कई राजकुमार गुणाढ्य कवि के सदृश शौर्यादि गुणों से युक्त थे। प्रणय-कथानक के बीच-बीच में विस्तृत वर्णनों तथा अवान्तरीय घटनाओं के संयोग से कवि ने इस छोटी सी प्रेम-कथा को एक प्रबन्ध-काव्य का रूप प्रदान कर दिया है। ‘वासवदत्ता’ का कथावृत्तान्त प्रसिद्ध वासवदत्ता-उदयन की कथा से सर्वथा भिन्न है। यह कथा संस्कृत-वाङ्मय में कहीं उपलब्ध नहीं है। स्वप्न-दर्शन द्वारा प्रेमी और प्रेमिका के भीतर रागात्मक प्रणय का जागरण, शुक-पक्षी के माध्यम से कथा का वाचन, शापद्वारा प्रेमिका का शिला में परिवर्तित हो जाना, जादू के अश्व पर आरूढ़ होकर प्रेमासक्त युग्म का अपने निवास स्थान से भागकर अभीष्ट स्थान पर पहुँच जाना, आत्म-हत्या के लिए समुद्यत प्रेमी नायक का आकाश-वाणी से आश्वस्त होना इत्यादि ऐसे इतिवृत्तों को मूल कथानक की प्रमुख घटनाओं का आधार बनाना यह सिद्ध करता है कि सुबन्धु, ‘वासवदत्ता’ की संरचना में लोकप्रचलित परम्परागत रूढ़ियों से अवश्य प्रभावित हुए हैं। स्वप्नदर्शन द्वारा पौराणिक प्रसिद्ध उषा-अनिरुद्ध की प्रणय-कथा में प्रेम का उद्बोधन हुआ। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सुबन्धु ने गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ लोक प्रचलित रूढ़ियों और पौराणिक आख्यानों को उपजीव्य बनाया तथा उनसे प्रेरणा ग्रहण कर अपनी नैसर्गिक कविगत परिकल्पना के बल से इस प्रणयप्रधान कथा-ग्रन्थ का सृजन किया है। समीक्षा-परम आलंकारिक आनन्दवर्धनाचार्य ने अपने ‘ध्वन्यालोक’ में उल्लेख किया है कि प्रायः कविगण रसाभिव्यक्ति को ध्यान न करके अलंकार-निबन्धन में निमग्न रहते १४ गद्य-खण्ड हैं-‘दृश्यन्ते च कवयोऽलंकारनिबन्धनैकरसाः अनपेक्षितरसाः प्रबन्धेषु’। वस्तुतः यह संकेत सुबन्धु सदृश कवियों की ओर ही है। कवि सुबन्धु रसवस्तु की अवहेलना कर अलंकारों की परियोजना द्वारा वर्णन में अत्यन्त कौतूहल उत्पन्न करने में दक्ष हैं। सुबन्धु प्रत्येक वस्तुवर्णन में श्लेष से उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अतिशयोक्ति, विरोधाभास प्रभृति अलंकारों का निर्वाह करते हैं। सुनने में दुःसह श्लिष्ट पदों का प्रयोग कर तथा वर्णन-वैचित्र्यगत-पाण्डित्य प्रदर्शन करने में कृतार्थता का अनुभव करते हैं और अपने को ‘प्रत्यक्षर श्लेषमय प्रपंच विन्यासवैदग्ध्यपूर्ण तथा ‘सरस्वतीदत्तवरप्रसादशाली’ मानकर काव्यानन्द से आह्लादित करते हैं। सुबन्धु ने सभङ्ग और अभङ्ग उभयविध श्लेषों के विन्यास से अपने काव्य को ‘विचित्र-मार्ग’ का उत्कृष्ट निदर्शन बना दिया है जैसा कि आचार्य कुन्तक ने अपने ‘वक्रोक्तिजीवित’ में निर्देश किया है। अपने युगीन कवियों के सदृश सुबन्धु की मान्यता थी कि सत्काव्य वही है, जिसमें श्लेष तथा वक्रोक्ति की पाण्डित्यसमन्वित परियोजना विशेष रूप से की गई हो : “सत्कविकाव्यबन्ध इवानबद्ध-विनिपातः ततो दीर्घोच्छ्वासरचनाकुलम्। सुश्लेषवक्रघटनापटुसत्काव्यविरचमिव सत्कविकाव्यरचनामिव अलंकारप्रसाधितम्।” श्लेषविन्यास में दीक्षित सुबन्धु श्लेष-प्रयोग के अवसर पर अपने लोभ का सम्वरण नहीं कर सकते अतः स्थान-स्थान पर जहाँ-तहाँ श्लिष्ट उपमाओं की योजना में धर्मैक्यसम्पादक अनेक पदों के प्रयोग में उनके परित्याग के पातक से भयभीत की नाँई एक ही उपमानवस्तु के दशाभेद, पदभेद एवं और भी कुछ अधिक विशेषणयोजना के भेद की परिकल्पना कर एक ही स्थल पर अनेक उपमाओं का निरूपण कर अपने को कृतकार्य अनुभव करते हैं। सुबन्धु ने विविध अलंकारों-उपमा, उत्प्रेक्षा, विरोध प्रभृति से काव्य को विभूषित करने का प्रयास किया है, पर सर्वत्र उनका प्रधान अभिप्राय श्लेष-चमत्कार उत्यन्न करने के माध्यम से अपना पाण्डित्य-प्रदर्शन ही परिलक्षित होता है। गद्य कवियों की भाँति इन्होंने भी विद्यास्थानों को उपमान के रूप में उपन्यस्त किया है: ‘व्याकरणमिव’, ‘न्यायविद्यमिव’, ‘उपनिषदमिव’, ‘नक्षत्रविद्यामिव’, ‘सत्कविकाव्य प्रबन्ध इव’, ‘छन्दोविचितिरिव’, ‘हरिवंशैरिव’, ‘भारतेनेव’, ‘रामायणेनेव’, ‘वेदस्येव’। १. द्रष्टव्यः चिन्तामणिवर्णन अवसर पर “नृसिंह इव’, ‘कृष्ण इव’, ‘नारायण इव’, ‘कंसरातिरिव’, ‘सागरशायी इव’, ‘न चक्रीव’, ‘राम इव’। कन्दर्पकेतुवर्णन के अवसर पर-‘मन्दर इव’, ।। ‘क्षीरोदमथनोद्यतमन्दर इव’। दुर्जननिन्दावसर पर-‘मातङ्ग इव’, ‘दुष्टशूर्पश्रुतिरिव’। विन्ध्यवर्णन प्रसंग में-‘पशुपतिरिव’, ‘विरूपाक्ष इव’। गद्य-काव्य छन्दःशास्त्र और मीमांसा का प्रयोग उपमान के रूप में सुबन्धु बार-बार करते हैं। अतः इन दोनों शास्त्रों के प्रति सुबन्धु का पक्षपात विशेष दृष्टिगत होता है। “बौद्धसिद्धान्त इव क्षपितश्रुतिवचनदर्शनोऽभवत्” इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि सुबन्धु का वेदविरुद्ध बौद्धसिद्धान्तों के प्रति विद्वेष था। रामायण, भारत तथा हरिवंश के अनेक पात्रों तथा प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध घटनाओं का निर्देश पर्याप्त प्रमाण है कि कवि का वेद, उपनिषद्, समस्त दर्शनशास्त्र, रामायण, महाभारत प्रभृति से विद्वत्तापूर्ण परिचय था। सुबन्धु बहुश्रुत थे। उनके उपमानों का रसास्वादन तो तत्-तत् शास्त्र के विद्वान् ही कर सकते हैं। जैसे ‘रक्तपादां व्याकरणमिव’, ‘न्यायविद्यामिव उद्योतकरस्वरूपामिव’, ‘उपनिषदामिवानन्दमेकमुद्योतयन्तीम्’ इत्यादि इत्यादि, पर कतिपय स्थलों पर सुबन्धु ने प्रसन्नश्लेष का प्रयोग किया है जो बड़ा रोचक तथा सहृदयहृदयग्राह्य होता है। जैसे-“नन्दगोप इव यशोदयान्वितः, जरासन्ध इव टितसन्धिविग्रहः, भार्गव इव सदा न भोगः, दशरथ इव सुमित्रोपेतः, दिलीप इव सुदक्षिणयान्वितो रक्षितश्च।" ‘वासवदत्ता’ का दूसरा काव्यगत वैशिष्ट्य उसका वर्णन-वैचित्र्य है। रसाभिव्यक्ति की सर्वथा उपेक्षा कर सुबन्धु ने कतिपय वर्णनों को बड़ा विस्तृत बना दिया है जैसे कन्दर्पकेतु द्वारा स्वप्नदृष्ट वासवदत्ता का वर्णन और वासवदत्ता द्वारा स्वप्नदृष्ट कन्दर्पकेतु का वर्णन इत्यादि। इन दोनों वर्णनों में नायक-नायिका के रूपसौन्दर्य, प्रेम, सम्वेदना, वियोग एवं संयोग का बड़ा ही सूक्ष्म शास्त्रीय चित्रण है। कन्दर्पकेतु के द्वारा वासवदत्ता के लावण्य का वर्णन अलंकृत शैली में किया गया है जिसमें कवि ने अपने कामशास्त्र के सम्पूर्ण ज्ञान का परिचय दिया है और उन्होंने सुन्दरी युवती के एक भी शारीरिक सौन्दर्य-वर्णन को छोड़ा नहीं है। सुबन्धु ने मल्लनाग के ‘कामसूत्र’ का भी उल्लेख किया है।’ वर्णनों में उनका वाग्वैदग्ध्य सर्वत्र परिलक्षित होता है। वासवदत्ता “छन्दोविचितिरिव मालिनीसनाथा’, ‘छन्दोविचितिमिव भ्राजमानतनुमध्याम्’, विन्ध्याटवी ‘श्रीपर्वत इव सन्निहितमल्लिकार्जुनः’, ‘शिशुरिव कृतधरित्रीधृभिः" रूप में वर्णित है। ‘वासवदत्ता’ में यद्यपि सम्वाद-प्रसङ्ग अत्यन्त स्वल्प हैं, तथापि जो हैं वे सरल, सरस तथा स्वाभाविक हैं। विन्ध्याटवी के वर्णन में शुक-दम्पती का सम्वाद-‘भद्रे मुञ्च कोपम्। अपूर्वाद्य बृहत्कथा मया श्रुता, प्रत्यक्षीकृता तेनायं कालातिनिपातः’ । ‘वासवदत्ता’ की पुष्पिका में सज्जनों और दुर्जनों का चित्रण करते हुए उल्लेख किया है कि “असतां हृदि प्रविष्टो दोषलवः करालायते। सतां तु हृदि न प्रविशति एव। यदि कथमपि प्रविशति तदा पारद इव क्षणमणि न तिष्ठति”। इसी प्रकार श्लोकों की रचना में सुबन्धु की पदावली प्राञ्जल सरस तथा सुबोधगम्य है। उदाहरणार्थ-वासवदत्ता के प्रारम्भिक पद्य जैसे: १. द्रष्टव्य Winternitz’s History of Indian Literature Vol. III Page ३६७१६ गद्य-खण्ड अविदितगुणापि सत्कविभणितिः कर्णेषु वमति मधुधाराम्। अनधिगतपरिमलापि हि हरति दृशं मालती माला।।" इस प्रकार सुबन्धु ने अपनी ‘वासवदत्ता’ की संरचना में कहीं अत्युद्धतार्थसंदर्भा आरभटीवृत्ति का तो कहीं मृद्वर्थेऽप्यनतिप्रौढ़बन्धा मध्यमकैशिकीवृत्ति का प्रयोग किया है। फिर भी प्रायेण ‘वासवदत्ता’ में ओजःकान्तिगुणोपेता गौडीया रीति का प्राधान्य है। अतः सुबन्धु की शैली आलंकारिक विद्यानाथ के शब्दों में “सः नारिकेत्नपाकः स्यादन्तगूढरसोदयः" के समीप है। प्रकृति-चित्रणः-सुबन्धु ने गद्यप्रबन्ध-काव्य में स्थान-स्थान पर प्रसंगानुसार सूर्यास्त, सूर्योदय, सन्ध्या, रात्रि, वसन्त, शरत् इत्यादि प्रकृति के नानारूपों तथा दृश्यों का बड़ा सूक्ष्म तथा सुन्दर वर्णन प्रस्तुत किया है जिसमें शरत्-ऋतु “पटुतरप्रभप्रभाते उद्घान्तशुककुलसकल कलसंकुलकलमकेदारे”, प्रातःकालीन दृश्य तथा वासवदत्ता द्वारा कन्दर्पकेतु के पास प्रणय-पत्र-प्रेषण के अवसर पर पृथ्वी पर उतर आई धूलधूसरित अपने घोंसलों में अहमहमिकया भाव से प्रवेश करने की चेष्टा वाले पक्षियों के द्वारा शब्दायमान वृक्षों के शाखाओं से युक्त “रजोविलुठितोत्थितकुलापार्थिवपरस्परकलहविकलकलविहंगकुल कलकलवाचालशिखरिषु, वसतिसाकांक्षेषु ध्वांक्षेषु, अनवरतदयमानकालागुरुधूपपरिमलोद्गारेणु वासागारेषु।” का सन्ध्या-वर्णन सर्वथा उल्लेखनीय, यथार्थ एवं मनोहारी है। सामाजिक तथा सांस्कृतिक चित्रण-‘वासवदत्ता’ में युगीन परिस्थितियों का संकेत मिलता है। जैसे शुक-सारिका के वार्तालाप में, चिन्तामणि नामक राजा के शासनकाल के वर्णन-प्रसंग में। उस राजा के राजत्वकाल में प्रजा धनद (कुबेर) तथा वरुण के सदृश दानी तथा उदार थी। उस राजा के राज्य में निवासी गन्धर्यों के समान प्रियभाषी, कामदेव के सदृश प्रियदर्शी भरत और लक्ष्मण के समान प्रजापालक थे। प्रजा पारस्परिक कलहरहित. ज्ञानी. यज्ञानुष्ठान में तत्पर, काव्यमर्मज्ञ एवं वाणी की अधीश्वर थी। उक्त वर्णनों के अतिरिक्त लोकाचार के विस्तृत वर्णन से तत्कालीन आचार-व्यवहार और संस्कृति का पता चल जाता है। उस युग में वेश्या-वृत्ति प्रचलित थी, पर वेश्याओं का समाज में सम्मानजनक स्थान नहीं था। वेश्याएँ, समाज का शोषण करने वाली, विलास तथा काम-वासना की तृप्ति की साधनमात्र थीं-“भ्रमरेणेव कुसुमेषु लालितेन; जलौकसेव रक्ताकृष्टिनिपुणेन यायजुकेनेव सुरतार्थिना…।” इसके अतिरिक्त वासवदत्ता के स्वयंवर में उपस्थित राजाओं तथा राजकुमारों के वर्णन में भी युगीन प्रदेशों की संस्कृति और वेशभूषा का वर्णन पर्याप्त मिलता है। सुबन्धु की गद्यशैली तथा वर्णन-वैचित्र्य के निरीक्षण से यह स्पष्ट हो जाता है कि सुबन्धु काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने वाले एक गद्यकार शिल्पी हैं जिसने अपनी कृति ‘वासवदत्ता’ को एक विशाल प्रासाद का रूप प्रदान कर तथा उसके प्रत्येक कक्ष को ना है। गद्य-काव्य १७ अलंकारों से विभूषित कर अपने पाण्डित्य प्रदर्शन द्वारा पाठकों को आकृष्ट कर आश्चर्यचकित करने का प्रयास किया है। सुबन्धु अपनी सामयिक साहित्यिक-जगत् की परिस्थितियों से प्रभावित होकर प्रतिज्ञा कर चुके थे कि मैं एक ऐसे प्रबन्ध-काव्य का प्रणयन करूँगा जिसका प्रत्येक अक्षर श्लेषमय होगा। अतः उनका काव्य ‘विचित्र-मार्ग’ शैली का अनुकरणीय निदर्शन बन चुका था। संस्कृत गद्यसाहित्य में सुबन्धु, बाणभट्ट तथा दण्डी तीन विशेष रूप से उल्लेखनीय कवि हैं, जिनकी शैलियों का अवान्तरीय कवियों ने आदर्श मानकर अनुकरण किया है। सुबन्धु की अलंकृत शैली तथा समास-बहुला भाषा से जहाँ उनकी रचना में काव्य-सौष्ठव के अभाव में प्रसाद और माधुर्य का हनन हो गया है और शाब्दी-क्रीड़ा का आडम्बर, कृत्रिमता और क्लिष्टता का प्राधान्यमात्र अवशेष रह गया है, वहीं बाण और दण्डी ने अपनी कृतियों में काव्य-सौन्दर्य और रसाभिव्यक्ति को विस्मृत नहीं किया है। दण्डी के वर्णनों में-विकट शब्दबन्धों और अनुप्रासादि अलंकारों का प्रचुर प्रयोग है, फिर भी उनकी रचनाओं में काव्य-सौन्दर्य विद्यमान है। बाणभट्ट तो गद्यसाहित्य के कवि-सम्राट् हैं। उनकी रचनाओं में कवित्व, विशाल शब्दभण्डार, अलंकारों की मनोहारी योजना, उदात्त कल्पना, लालित्य एवं सहृदयहृदयावर्जक रसिकता अर्थात् सत्काव्य के समस्त गुण वर्तमान हैं। वस्तुतः बाण का गद्य संगीतात्मक स्निग्ध रसमयी पाञ्चाली शैली का निदर्शन है। सुबन्धु अपने ग्रन्थ में आद्योपान्त शाब्दी-क्रीडा में व्यस्त रहते हैं। दण्डी की रचनाओं में जीवन के याथार्थ्य का प्रत्यक्षीकरण तथा विषयान्तरों के रुचिकर संयोजन का सर्वथा अभाव परिलक्षित होता है। पात्रों के सम्वादात्मक कथोपकथन में प्रसादगुणयुक्त वाक्यों का लावण्य सुबन्धु तथा बाण दोनों में समानरूप से दृष्टिगत होता है।